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ता हेम प्रतिमां तत्र पीत वस्त्र युगां न्यसेत् अर्चिते गंध पुष्पादौ स्तां बूलेनाऽन्विते वली
तद्रह प्रीतये पश्चात् अवशिष्टां दशांवधिः तत मंत्रैणक विशंत्याज्जुहुया जातवेदसि
॥७॥
अभ्युदयेत सलिलं तत्र प्यात्वा तद्देवतां शुचिः नीरांजयित्वा मध्यान्हे सोदकुंभं बलिं होत्
|॥८
॥
पशुदंताऽहि निर्मोक वहाँधिनरव सर्षपान् केशान् सश्चशान् संचूण्यं धूपं दद्यात्त नौशिशो
॥९॥
पंच पल्लव नीरेण स्नपनं ब्रह्मणोऽर्चनां अंबिकायाश्च पूजादिकार्या पूर्वोदित क्रमात्
१०॥
आचार्य पूजयेत्पश्चात् वस्त्राऽलंकरणादिभिः बलिना महताऽनेन बालं मंचति नंदिनि
॥११॥ ॐनमो नंदिनि एहि एहि बलिं गन्ह गन्ह मुंच मुंच बालकं स्वाहा।
इति प्रथमो वत्सरं प्रथम वर्ष में नंदिनि नाम की देवी बालक को पकड़ती है उसको पकड़ते ही बालक के सामने को मुँह किये ही गिर पड़ता है। उसके नेत्र ठहर जाते हैं वह रात दिन रोता है और सब अंगों को बड़े जोर से हिला कर मूर्छित हो जाता है। वह कुछ भी भोजन नहीं करता है और वह कुछ भी वस्तु नहीं लेता है। उस विकार की चिकित्सा औषधि आदि से कही जाती है। पुड़ी, उड़द के पूर्व, घृत दहीमंडया (ज्वार) राज, माष (राई उड़द या चौला) ब्रीही, धान चावल की खील, भुने हुवे तिलों का चूर्ण इन सब वस्तुओं को कांसी के बड़े भारी बर्तन में रखकर, प्रतिवर्ष आधे पल अर्थात दो तोले की सोने की यक्षिणी की प्रतिमा बनावायें। इस सोने की प्रतिमा को धूप फूल माला आदि से पूजकर पान का बीड़ा देकर दो पीले कपड़ों से लेपटकर बलि के ऊपर रख दें। इसके पश्चात उस ग्रह को प्रसन्न करने के लिये शेष बची हुई अवस्था (दिशा) में अग्नि में मंत्र पढ़कर इक्कीस बार आहुति दें। साथ ही पवित्र होकर तथा देवी का ध्यान करके वहां एक जल के बर्तन से या झारी से की बूंद बूंद डालता जावे तथा दोपहर में बालक का आरती मंत्र सहित उतारकर उस दल के घड़े सहित बलि दें। पशु के दांत, सर्प, कांचली मोर के पंख ,पाँव के नाखून, सरसों, बाल को बराबर