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________________ SSCISSISDIST95015 विधानुशासन 950150155ASIDAOISI बमाणमंबिकां चाऽपि कुर्यात पूर्व वदाऽचिती, मांत्रिकं पूजयेत् पश्यावस्त्राल करणादिभिः ॥९॥ ॐ नमो यक्षिणी एहि-एहि बलिं गह-गृह मुंच-मुंच बालकं स्वाहा। ॥ इति त्रयोदशो वत्सरः ॥ तेरहवें वर्ष में बालक को यक्षिणी के द्वारा पकड़े जाने पर बालक को बुखार आ जाता है। वायु से दर्द भी इतने जोर का होता है कि बालक दोनों तरफ तेजी से लोटने लगता है। इस बड़े भारी विकार का प्रतिकार कहा जाता है- बालक के सारे शरीर पर बहुत से घृत का लेप कर दो। बीही धान का अन्न, खीर, पत, लोभिये और लड्डू, नमकीन पानी में भिगोई हुयी तिलों की खल इन सब वस्तुओं की बलि को एक तांबे के बनाये हुए बर्तन में रखकर एक चार लोले की सोने की बनायी हुयी यक्षिणी की प्रतिमा को दो वस्त्रों से लपेटकर, जिसकी भक्ति से चंदन, धूप, फूलमाला आदि से पूजा कर दही. भोजन, धान की खील और घृत से अग्नि में इस मंत्र से भक्तिपूर्वक घर की पूरब की दिशा में दोपहर में चौराहे पर बलि देवे। भेड़ें के दांत, सर्प, कांचली. सरसों, ब्रीहि धान, घोंटली, मोर के पंख से बालक को धूप देकर उसको पाँचों पत्तों के जल से स्नान करावे । ब्रह्मा और अंयिका का पहले के समान पूजन करे, वस्त्र और अलंकारों से आचार्य का पूजन करे। चतुरंशेऽब्दै गृहणाति सौंदरी नाम बालकं, गृहीतश्च तथा बालः सहसा निपदभुविते ॥१॥ ज्यरितश्च दिवारानं निद्रामयोपगच्छति, विकारस्यास्य महत: प्रतिकारो विधियते ॥२॥ लड्डूकान पायसं सपिपिण्याकं चौद लावणं, अपूप माष सूपेक्ष रसान् पिष्टं च पाचित निधारीतानि वस्तूनि ताम्र पात्रेति विस्तृते. पल प्रमाणेन निर्मितां सौवणी प्रतिमामाप ||४|| चित्र वस्त्र द्वयो पेतां गंधावेश समर्चिता, बले रूपरि विन्यस्य पश्चात् शुद्धे महीतले SSCIRCISCISCISCIRC5५३८PSCISIODEOSRASRASCIEN
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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