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________________ 9595952 विधानुशासनम आचाम्लादि तपः कृत्वा पूजयित्वा जिनावलिं अष्ट साहस्रिको जाप्य: कार्यस्तत्सिद्धि हेतवे ॥ ७६ ॥ आचाम्ल तप अर्थात मांड सहित चावल के भात को और सब रसों का त्याग करके खाने से यंत्र को सामने रखकर पूर्वोक्त ह्रींकार में विराजमान चौबीस भगवान की पूजन करके, इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए इस स्तोत्र गर्भित मंत्र का ८००० जाप करना चाहिये। (इस कलिकाल में चौगुण ३२००० जाप करें। ॐ ह्रां ह्रीं हुं हुं हैं हैं ह्रौं ह्रः असि आउसा सम्यक्तदर्शन ज्ञानचारित्रेभ्यों ह्रीं नमः यह मंत्र है । शतमष्टोत्तरं प्रातर्ये पठति दिने दिने तेषां न व्याधयो देहे प्रभवंति च संपदः 15955 ॥ ७७ ॥ जो भव्य जीव शुद्ध योग से प्रतिदिन प्रातः काल उठकर एक सो आठबार की एक माला फेरते हैं। और स्तोत्र का पाठ पढ़ते हैं। उनके शरीर में रोग प्रगट नहीं होते बल्कि संपदायें उनके घर में प्रगट होती है। अष्ट मासाऽवधिं यावत प्रातः प्रा तस्तु यः पठेत् स्तोत्रमेतेन महातेज स्त्वार्ह टिंबं स पश्यति ।। ७८ ।। मन वचन काय को शुद्ध करके स्थिर होकर हररोज आठ महिने की अवधि में प्रभात काल में प्रभात ही पहिले कही हुई विधि से यह मंत्र पढ़े। यह स्तोत्र महातेज है सो यह अर्हत भगवान के बिंब का दर्शन अपने ललाट पर कर लेगा । द्दष्टे सत्याहते बिंबे भवे सप्तके धुवं पदं प्राप्नोति विश्रस्तं परमानंद संपदां ॥ ७९ ॥ अर्हत भगवान के बिंग के दर्शन होने से सातवें भव (जन्म) में निश्चय से परम अतीन्द्रिय स्वाधीन आनन्द का स्थान मोक्ष पद को पाता है। विश्व बंधोभवे ध्याता कल्याणाऽन्नापि सोक्ष्णते स्वास्थाने परं सोऽपि भुवस्त्वापि निवर्तते ॥ ८० ॥ इदं स्तोत्रं महास्तोत्रं स्तवानां मुत्तमं परं पठनात्स्मरणा ज्जापात लभते पदमव्ययं 1168 11 こらこらこらこらこらこらでらでらでらでらですぐり
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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