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DISTOISIONERISTS15015 विधानुशासन 20505581521595 हे पक्षिराज ! इस पृथ्वी पर जिससे हम द्वेष करें वह बहुत जल्दी तुम्हारे हाथ में रहने वाले कुठार के द्वारा छिन्न भिन्न शरीर होकर, कालपाश द्वारा बांधा हुआ, अत्यंत कलुषित यमराज के नगर में पहुंच जाए । हे भगवान! यह बात नहीं है कि तुम पदी हो और पक्षी की क्या स्तुति की जाए क्योंकि तुमने पक्षी का शरीर क्रीड़ा से धारण किया है । तुम उन अन्य पक्षियों की तरह नहीं हो जो कर्माधीन होकर पक्षियों का जन्म धारण करते हैं तुम तो भक्तों पर कृपा करने के लिए अनेक वेशों को धारण करने वाले हो। हम तुम्हारे चरण कमल का ध्यान सदा करते रहते हैं। इसलिए बुरे काम करने से भी पापों से लिप्त नहीं होते अर्थात् मारण क्रिया से उत्पन्न होने वाले पाप के लिए तुम्हारा ध्यान एक प्रकार का प्रायश्चित है । मंत्र महोदधि के ग्रंथ में काल रात्रि के प्रयोग में लिखा है कि ब्राह्मण के सिवाय बाकी शत्रुओं पर मारण क्रिया जरुर करनी चाहिए और मारण क्रिया के प्रायश्चित के लिये मूल मल्ल के १४ जा कर लेने चाहिए।
भीम श्री शालुवेश प्रणत भय हर प्राण जिहुर्मदानां या चे पंचास्य गर्व प्रशमन विहितं स्वेच्छ या वद्ध मूर्ते त्वामेवाशु त्वदंध्याष्टक नष विलुठद् ग्रीव जंयोदर स्थ
प्राणोत्क्राम प्रमादात्प्रकटित हृदय स्टायु रल्पाये तेरम ॥५॥ भीमति श्रीशालुयेश लक्ष्मीसरस्वतीयात्रीवर्गसंपदविभूति शोभा सुउपकरण विशेष च नाना विद्या सुच श्री रित्यत्र शोभा एवं च हे सौम्टा विग्रह है शालुवेश इत्यर्थः तत्र साधूनां सौम्य विग्रह असाधूनां कूर विग्रह इति विवेकः प्रणत भय हरप्रणता नामात्मनि प्रहवी भीतानां भीति हारिन प्राण जिदुर्मदानां दुष्ट सत्वानां प्राण जित प्राण हत पंचास्य गर्व प्रशमनः पंचास्ट सिंहो भगेन्द्रः पंचायोऽर्यक्षः केशरी हरिरित्यरःसिंहो नसिंह: नामैदेशे नाम ग्रहणेन तस्यैवात्रौ वित्यात तद्गर्वध्वंसक स्वेच्छया वद्ध मूर्त स्वेच्छाधृत कलेवर अत्रस्व कर्म सूत्रानुसार तोऽन्य पक्षि वन्नाटा पक्षि जन्मवानि त्युक्तं ईद्दक शालुवेश विहितं विशेषेणात्म हितं त्वामेव आशु शीयं या चे प्रार्थये इति संबंधः एव कारोवधारणे तेन निश्चित्य या चे इत्यर्थः वाचनीय मात्महित मेवाह तदं घटाष्टकेति तव पादाष्ट कस्य नरवै विलुठविलुंठनम वाप्नु वद्यद्ग्रीवा जंबोदरं मूदियादांत मगं तत्र स्थिताना प्राणानाय दुत् कमःउत्क्रमणां वहि निर्गमनं तस्य प्रमादात् प्रवेगात्प्रकटितं विकशितं विदीर्ण हृदयं यस्य इंद्दशास्यारिष्ट दस्यायुर रक्षि प्रमल्पायतां क्षिणोतु इत्यर्थः मूले अल्पायते इति ल आर्षः जवोथ शीग्रं त्वरितं लक्षिप्र मरं दुत मित्यमरः ग्रीवा शब्दस्यात्र हस्वत्वमाष यतु चंयेत्यत्रजिह्वेति पठटते तद सतजिहादीनां ग्रीवाश्रितत्वेन तयैव तत लाभसिद्धे रिति ॥५॥ SRISISISTRI5015251015 ८०६PISODR5E5IRISTISTES