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________________ PSPPSSPP विधानुशासन 696959‍69595 आदांवंते शत्रुर्यदि भवति तदा परि त्यजेन्मंत्र ॥ २४ ॥ स्थान त्रितये शत्रु मृत्युः स्यात् कार्य हानिर्वा यदि आरंभ में और अंत में शत्रु हो तो मंत्र को छोड़ दे यदि अंत और मध्य और आदि में अर्थात् तीनों स्थानों में शत्रु वर्ण होतो या तो मृत्यु या कार्य हानि होती है। शत्रुर्भवति यदादी मध्ये सिद्धं तदंतगं साध्यं कष्टेन भवति महता स्वल्पफलं चेति कथनीटां ॥ २५ ॥ यदि मंत्र के आदि में शत्रु वर्ण मध्य में सिद्ध वर्ण और अंत में साध्य हो तो वह मंत्र अत्यंत कष्ट सिद्ध होता है और फल बहुत थोड़ा होता है । अंते यदि भवति रिपुः प्रथमे मध्ये च सिद्धि युग पतनं कार्य यदादि जातं तन्नश्यति सर्वमेवांते ॥ २६ ॥ यदि आदि और मध्य में सिद्ध वर्ण और अंत में शत्रु हो तो बनता बनता काम बिगड़ जाता है। सिद्ध सुसिद्धम थवा रिपुणांतरितं निरीक्ष्यते यत्र दुःखापाद्य प्रबलं भवतीति विसर्जयेत् कार्यं ॥ २७ ॥ और अतएव बुद्धिमान सिद्ध औक सुसिद्ध के बीच में शत्रु वर्ण भी देखे तो उस मंत्र को अनेक दुख हानियों वाला समझकर छोड़ देवे । वेरि निपातेन बिना ययायाः संभवंति सर्वत्र तत्रै हिक फल सिद्धिः स्याद चिरेणेति वक्तव्यं ॥ २८ ॥ यदि सभी पद शत्रु पदों से पूर्णतः रहित हो तो तुरंत ही सब सांसारिक फलों की सिद्धि हो जाती है। ५. अथकह चक्र - (मंत्र । सा. सा. वि. ) पाँच रेखायें खड़ी तथा पाँच पड़ी बनाकर सोलह कोष्ठक का यंत्र बनाया जावे। उसमें ' अ ' से लेकर तीन, ग्यारह, 'ह' तक के वर्णों ल, क्ष, और ज्ञ सहित निम्नलिखित कोठों के क्रम से रखें। एक, नौ, दो, चार, बारह, दस, छः, आठ, सोलह, चौदह, पाँच, सात, पन्द्रह और तेरह। इसमें जिस चौकड़ी में नाम का प्रथम अक्षर हो वह चारों कोष्ठक सिद्ध, उससे अगले चार साध्य, उससे अगले चार सुसिद्ध और उससे भी अगले चार सुसिद्ध कहलाते हैं। यदि उस कोष्ठक में अपने नाम का तथा मंत्र का दोनों 959519595959594_४८ P595959595959
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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