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________________ CSTRISADISIOTICISIOE विद्यानुशासन 19055105215105CISI के वर्ण हों तो उसको सिद्ध कहते हैं। यदि मंत्र के वर्ण उससे अगले कोष्ठक में हो तो उसको सिद्धसाध्य कहा जाता है। यदि मंत्र के वर्ण उससे तीसरे कोष्ठक में हों तो उसको सिद्ध-सुसिद्ध कहा जाता है। अथवा यदि मंत्र के वर्ण उससे चौथे कोष्ठक में हों तो सिद्ध शत्रु कहलाता है। यदि मंत्र के अक्षर नाम वाले चारों कोठों में न हों तो नाम वाले कोठे से आरम्भ करके उन चारों कोठों को क्रम से साध्य सिद्ध, साध्य-साध्य, साध्य-सुसिद्ध, और साध्य शत्रु समझना चाहिये। इसीप्रकार उससे आगे के कोठों को सुसिद्ध-सिद्ध, सुसिद्ध-साध्य, सुसिद्ध-सुसिद्ध, सुसिद्ध-शत्रु, शत्रुसिद्ध, शत्रु-साध्य, शत्रु-सुसिद्ध-औरशत्रु-शत्रुजानकर सोलह भेद बनालेने चाहिये।सिद्ध-सिद्ध विधि में लिखे हुए जप आदि से सिद्ध होता है। सिद्ध-साध्य, द्विगुणित क्रिया से सिद्ध होता है। सिद्ध सुसिद्ध आधी क्रिया से सिद्ध होता है। और सिद्ध-शत्रु बन्धुओं का नाश करता है। साध्यसिद्ध दुगुनी विधि से सिद्ध होता है। साध्य-साध्य का अनुष्ठान का व्यर्थ जाता है। साध्य-सुसिद्ध दुगुनी विधि से सिद्ध होता है। और साध्य-शत्रु अपने गोत्र वालों को नष्ट करता है । सुसिद्ध-सिद्ध आधेजपसे सिद्ध होता है।सुसिद्ध-साध्य दुगुने जप से सिद्ध होता है। सुसिद्ध-सुसिद्ध आरम्भ करते ही सिद्ध होता है। और सिद्ध शत्रु कुटुम्ब को नष्ट करता है।शत्रु-सिद्ध पुत्र को मारता है।शत्रु-साध्य कन्या को मारता है। शत्रु-सुसिद्ध पत्नी को मारता है और शत्रु-शत्रु साध मंत्री को ही मार डालता है। नाम और मंत्र के स्वर-व्यंजनों को पृथक्-पृथक् लिख कर प्रत्येक अक्षर का हिसाब तब तक लगाना चाहिये जब तक मंत्र समाप्त न हो।यदि नाम समाप्त हो जाये तो फिर नाम को ही लिख लेना चाहिये। इसप्रकार विचार करने पर सिद्ध और सुसिद्धों की अधिकता और साध्य तथा शत्रुओं की न्यूनता में मंत्र को शुभ समझना चाहिये। उक्त मंत्र निम्न है अएक के ३दो थ |और ल तेरह ६ नौ.. G4 1 । | ऋ १ चारा १० आठ | ३ग ऋछ . १२ सात " ब ११तीन ग
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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