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________________ SOTRI5DISTRISIOS विधानुशासन 98505051DISTRISOISI श्री भट्टारक राजकीर्तिजी विरचित ।। श्री पार्श्वनाथ आराधना विधान।। श्री पार्थनाथमानम्य वांछितार्थ प्रदायक, गुरूपदेशतस्तस्य वक्ष्याम्याराधनाक्रम ॥१॥ अर्थ:- इच्छित वस्तुओं को प्रदान करने वाले श्री पार्श्वनाथ भगवान को वंदन करके गुरू उपदेश से उनकी आराधना का क्रम कहूँगा। साधक लक्षणमादौ पूजा जाप्य विधिस्ततः। प्यान मनुक्रमा देवमाधिकार स्वयं भवेत् ॥२॥ अर्थ :- आराधना विधान के अंदर तीन अधिकार हैं प्रथम अधिकार में साधम्के जमण का कान द्वितीय अधिकार में पूजन एवं जाप विधि तृतीय अधिकार में ध्यान का वर्णन किया जायेगा ।। कुलीनः सुमतो धीरो विदूरी कृत मानसः। सम्टार द्रष्टिः कृपा भाज स्वराधक इतीष्यते ॥३॥ अर्थ :- उच्च कुल में उत्पन्न, यशस्वी, धीरमना, विकारों से मुक्त सम्यग्दृष्टि, कृपा करने याला आराधक (साधक) कहा जाता है। शूरः संसार भीरू स्वगतः तंट्रो जितेन्द्रियः गंभीझेदार संपन्नार्या आराधक इति स्मृतः ॥४॥ अर्थ :-शूरवीर, संसार से भीरू, निंद्रा विजयी, जितेन्द्रिय, गंभीर और उदार से युक्त आराधक होता स्वल्प भुक स्वल्प कोपश्च स्वल्प निद्रो महोद्यमी, निर्भयो निर्मदो रक्ष प्रभु मारूद्ध महति । अर्थ:- अल्प भोजन करने वाला, अल्पक्रोधी, अल्पनिद्राधारी, उद्योगी, आर्जवी, निराकारी चतुर पुरुष आराधक (साधक) हो सकता है। ॥ इति साधक लक्षणाधिकार प्रथमः॥ अर्थः- इसप्रकार साधक लक्षण नामक प्रथम अधिकार पूर्ण हुआ। QFP/ 9558523 ಕಾಡದಢಣಾಡಿಸs
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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