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________________ CASIRIDICIDEDISTRICIPE विद्यानुशासन 915RISIOISTRICISTORY पवित्रे निर्जने रम्टो पर्वता राम वेश्मनि, प्रासादे वासरे सिंधु वाल्मीकोण तटेपिवा ॥२॥ अर्थः- पवित्र, जनशून्य और सुन्दर, पर्वत. बाग, घर, महल, तालाब के किनारे या वापी (कुचे )या (सर्प की बांबी) के किनारे। स्नातो धौत क्षतश्च तकसाः पुजांगसन्निधिः। आराधो प्रभु मतया त्रिकालं स्थिर मानसः ॥३॥ अर्थः- स्नान कर धुले हुये वस्त्र पहनकर श्वेत अक्षत आदि पूजा के अंगों को पास रखकर भगवान की भक्तिपूर्वक स्थिर चित्त से तीनों समय आराधना करे। ॥४ ॥ नित्यं प्रभोः प्रकुर्वतिं स्नपजं च विलेपना। अथवा पूजन स्तोत्रं मंत्र जाप्यं समाहितः अर्थ:- इस विधि में नित्य ही भगवान का अभिषेक करते हैं उनके लेप करते हैं अधया एकाग्र चित्त होकर पूजन स्तोत्र यंत्र के मंत्र का जाप करते हैं। श्री मत्पार्थ स्तुतेः पाश्चात जिनेन्द्र स्नपनादि तः। तत्परोन्यस्त चक्रस्य कुर्वतुं स्नपनादिकम् ॥५॥ अर्थ:- श्री पार्श्वनाथ भगवान की स्तुति के पश्चात भगवान के अभिषेक आदि के लिए उनके सामने चक्र (यंत्र) रखकर स्नान आदि करना चाहिये। अग्निमंडल मध्यस्योरेफै ज्याला शताकुलैः। सर्वांग देशगै ध्यात्वात्मानं दग्ध वपुलं अर्थ:- अग्निमंडल के बीच में बैठा हुआ उसके रेफ की सेंकडों लपटों को अपने अंग के सबानोड़ो में गई हुयी ध्यान करके उनसे अपने शरीर के मल को जला हुआ ध्यान करें। स्वशीर्षे मेरू अंगे च स्नाप्यमानं सुरासरैः। श्रीमत्पाजिनं ध्यायेत् तज्जलै स्व पवित्रित ॥७॥ अर्थः- इसके पश्चात अपने सिर को सुमेरू पर्वत की चोटी (पाइशिला) की कल्पना करके उस पर देवता और असुरों से स्नान कराये जाते हुए भगवान श्री पार्श्वनाथजी का ध्यान करे और फिर उनके स्नान के बहकर आये हुए जल से अपने को पवित्र किया हुआ ध्यान करें। OTHIDISTRIBIDISTRIDDISTRIS २४४P503525PISCISIOSDIDI
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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