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SSIPI5015121501505 विद्यानुशासन ISO150151015015015 सर्प की डाढ़ से जख्मी उस डसे हुए की तब तब विष निकालने के लिये स्नान करता हुआ ध्यान करे जब तक विष पूर्ण रूप से नष्ट न हो जाय।
वांछेदवावं यस्य निर्विषीकर्तुं मंजसा, तद्वाराशि माध्यायेन्मानंवा तत्सुधा दे
॥१०२॥ जिस पुरुष को शीघ्र ही विष रहित करना चाहा जाय उसको ही उस अमृत रूप तालाब में डूबा हुया ध्यान करे।
शशधरकर निकर समाधाराः सर्वांग रोम कूपेषु,
प्रति विषं प्रविशंत्यो ध्यानाद गगनाकलं विन्ये: ॥१०॥ तब चन्द्रमा की किरणों के समान वह अमृत की धारायें उसके राब रोम रोम के स्थानों में प्रवेश करती हुयी विष को नष्ट कर देती है।
वाम भागे चित्य नीरं कत्वा वा वायु निरोधनं
मातंई क्षेत्र मीक्षिण कुर्यात् क्ष्वेड विनाशनं. ॥१०४ ॥ अथवा श्वास को रोककर बायें भाग में जल का ध्यान करके सूर्य के स्थान को देखे तो विष नष्ट हो जाता है।
स्वांड खंडोच्छित टाक्ष पिंत्या भिन्नति भेधः परकीय कंदः,
स्वर्णान वितो न भयादि दूरः कदां दि ह्यानिर्विष मातनोति ॥ १०५॥ सोने के अंडे के टुकड़े से उठा हुआ तेज दूसरे के विष की कन्द(मूल) को छेद डालता है उसी सोने से युक्त होकर मनुष्य सर्वभय से छूट जाता है और उसी से विष जड़ से नष्ट हो जाता है।
आत्म प्रमाण विधुते वासे दष्टस्य मुर्छना सहसा, सं मुक्त च विनाशो विषस्य सर्वस्य संभवति
॥१०६॥ उस सोने के अंडे को अपने बराबर वडा उस सर्प से काटे हुए पुरूष के श्वास में ध्यान करे ऐसा करने से वह यकायक मूर्छा से जग जाता है और उसका संपूर्ण विष नष्ट हो जाता है।
अमृतं श्रवता वारूण बीजैना वष्टितस्य दष्टस्य, विन्यस्येत्पट मृज्वा उच्छन्नाया स्तनोपरि
॥१०७॥