SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 631
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विद्यानुशासन 959595959 चिन्हान्य मूनि यस्मिन स्फुटं प्रदृष्टानि भोगिना, दष्टेन समवर्ति सद्यनिवर्तिन मेवाशंक स्वमवगच्छेत ॥ ११८ ॥ PSP595959 इस प्रकार के चिन्ह वाले भोगिनी (स) से इसे हुए को शीघ्र ही अपने सदमनि (घर) में रहता हुआ निशंक रुप से जाने । प्रतिमां स्वस्यादर्श सलिले वाना वलोकेत्, घाणास्याग्रं भ्रुवमथ दष्टोयः सः क्षणात् म्रियते ॥ ११९ ॥ जो इंसा हुआ पुरुष दर्पण या जल में अपने सिर या भौं के भाग के प्रतिबिम्ब को नहीं देखे वह शीघ्र ही मर जाता है। नवाग्रभागेननवांतराले निपीडनं वेत्ति नयोऽहि दष्टः, यो हस्त रुद्धं शुति युग्म संधोन तं निनादं शृणु यान्महांतं ॥ १२० ॥ जो सर्प से डसा हुआ पुरुष नाखूनो से, अपने नाखूनों को दबाये जाने पर उसके स्पर्श को नहीं जानता अथवा जो अपने कानों पर हाथ रखे जाने से उसके भारी शब्द को नहीं सुनता है। ज्वलन दीपक चंद्र दिवाकरान् यदिन पश्यति भोगि विषार्द्धितः, स्व कर मूर्द्धन संचय लुठनः सच यमालय माविशति ध्रुवं ॥ १२१ ॥ यदि कोई भोगि (सर्प) के विष से पीड़ित (इसा हुआ) आदमी, अग्नि, दीपक, चंद्र, सूर्य को नहीं देखे और अपने हाथों से सर के बालों के लौटने को नहीं जाने तो वह निश्चय से यमराज के घर में प्रवेश करता है। धावति चे निहितं सलिले स्क् धावति द्रष्ट शरीर मरालः, सत्य चले चल एव चलः स्यात् त्याग परिग्रहः मुत्तम मेतत् ॥ १२२ ॥ जिस पुरुष का रक्त जल में रखे जाने से खूब दौड़े, जो हंस के शरीर को देखकर दौड़े, जो किसी के सत्य से चलायमान होने पर व्याकुलता से चंचल हो उठे वह उत्तम परिग्रह त्याग करनेवाला है। जिव्हाया नाशाया नेत्र रुचोश्च भ्रवो क्रमशः, अप्रेक्षायां जीवत्येक पंच सप्त नव दिवसात् ॥ १२३ ॥ यदि कोई सर्प से इसा हुआ पुरुष अपनी जीभ को नहीं देखे तो वह एक दिन जीता है, जो अपनी 959‍59595959595 ६२५ 5959595955PS
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy