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________________ C52525252525 fangmera 9505 ह्रीँ देवदत्त पलव ह्रीं दे ह्रीं व ह्रीं द ह्रीं त ह्रीं ग्रन्थनं देहीं नहीं द हीं नहीं रोत देवदत्त ह्रीं देवदत्त दीपनं ह्रीं ह्रीं ह्रीं व ह्रीं दे विदर्भनं ह्रीं देवदत्त ह्रीं संपुट ग्रंथितानां प्रभेदेन मंत्राण वक्ष्यतेऽधुना ग्रंथितं संपुटं ग्रस्तं समस्तं च विदर्भितं तथा चाक्रांत माद्यंत गर्भितं सर्वतोमुखं तथा युक्ति विदम्बं च विदर्भ ग्रंथितं तथा इत्येकादशधामंत्राः प्रयुक्ताः कार्यसिद्धि दाः साध्य नामार्ण में कैकं मंत्रानकं प्रयोजयेत् ग्रंथितं तत्समाख्यातं वश्या कृष्टिं फल प्रदं 21559 शांति पुष्टिं करं ज्ञेयं त्रैलोक्यैश्वर्यदायकं अर्द्धमद्धं तथायंते मंत्रं कुर्याद्विचक्षणः ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥ ॥ १३ ॥ अब सब मंत्रों को गूंथने के विशेष भेद कहे जाते हैं। ग्रंथित संपुट ग्रस्त समस्त विदभित आक्रांत आत गर्भित सर्वतोमुख विदर्भ- विदर्भ ग्रंथित इस प्रकार यह ग्यारह प्रकार के मंत्र कार्य की सिद्धि देने वाले प्रयोग करने चाहिये। साध्य के नाम के एक एक अक्षर के साथ एक एक बार मंत्र का प्रयोग करने को ग्रंथित कहते हैं । यह चश्य और आकर्षण में फल दायक होता है। मंत्र मादौ वदेत्सर्व साध्य संज्ञामनंतरं विपरीत पुनश्चांत मंत्रं तत्संपुटं मतं 1188 || जिसमें आदि में मंत्र फिर साध्य का नाम और अंत में फिर मंत्र बोला जाये उसे संपुट कहते हैं। ॥ १५ ॥ यह शांति और पुष्टि करने वाला तथा तीन लोक के ऐश्वर्य को देने वाला है जिनके आदि और अंत में आधा मंत्र और बीच में साध्य का नाम हो मध्ये चारय्या भवेत्साध्यांग्रस्त मित्य भिधीयते अभिचारेषु सर्वेषु योजयेन्मारणेषुच उसे ग्रस्त कहते है इसका मारण आदि सभी व्यभिचारों में प्रयोग करे। ES2505PSPJESME· 15052525252525. ॥ १६ ॥
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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