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________________ OSP595959595 विद्यानुशासन 959595950525 खर कीट के विष से उत्पन्न हुए विकार को तथा वल्सनाभ के विकार को भी त्रिफल (हरड़े बहेड़ा आमला) औषधि है तथा षडबिंदु विष से उत्पन्न विकार की भी औषधि यही कही गयी है। विषे चराचरेवाश्वगंधा नीली त्रिशूली ना, मेघनादश्व पातल्या प्रत्येकमभिभाषिता ॥ २४४ ॥ स्थावर औ जंगम विष में असगंध नीली त्रिशूलिनी ( सोंठ गिलोय जवासा) यह त्रिकटक है और मेघनाद (चोलाई) के पत्ते प्रत्येक पृथक पृथक रक्षा करने वाली कही गई है। मूलेत्यक पुष्प पत्राणि शुक पुष्पस्य भक्षयेत, चराचर विषं विष्टा स गोमूत्राणि वा पिबेत ॥ २४५ ॥ शुक पुष्प (सिरस) की छाल पुष्प (फूल) पत्ते मूल (जड़) को खाये अथवा गोबर के रस को गौमूत्र के साथ स्थावर और जंगम विष में खावे । गरले चराचरे वा शुद्धं खर्जूर साधितं, दुग्ध नाली फल मध्ये रंड़ लोद्रं मेघ स्वनं च पिबेत् ॥ २४६ ॥ स्थावर और जंगम विष में खिजू दूध नाली फल में सिद्ध किये हुए एरंड पठानी लोध औ मेघनाद (चोलाई) को पीवे । नाली फल (मेनसिल) को कहते हैं। तदत्रापि यदन्यत्र गारुड़े: कथितं बुधैः, बाहुल्येन यदचोक्तं तदन्यन्न च विद्यते ॥ २४७ ॥ पंडितों ने गारुड़ी शास्त्र में जिन विषयों का वर्णन किया है उन सबका यहाँ भी वर्णन है और जिस विषय का यहाँ विस्तार से वर्णन किया गया है उसका और कहीं वर्णन नहीं है। इत्थं चराचर विष प्रभवान्विकारानु दिश्य यः प्रतिविधिं कथितो मोहं, तं सं विदन गुरु वायु जन प्रभवात् प्रशादान्मंत्री यशः स्थिर तरं भुवने लभेत् ।। २४८ ॥ इस प्रकार जो मैनें स्थावर और जंगम विष से उत्पन्न होने वाले विकारों के प्रतिकारों का वर्णन किया है उसको गुरुजन और बड़ी आयु वालों के प्रभाव और उनकी कृपा से जानता हुआ मंत्री लोक में अधिक स्थिर यश को प्राप्त करता है। इति मंड़ल्यादि चिकित्सितं विधानं नाम द्वादश समुदेशः 959595959P6995 ७३२ 5959596969593
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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