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________________ CTERISTISTOISO1505 विधानुशासन 315251955I5DISCIE क्षीर धारोज्वल स्वांतं कर्म मालिन्य वर्जितं स्व महंद्रीज मध्यस्थं धर्मादापी विलोकोत् (६८) अर्थः-धर्म अर्थकाम आदि में अपने हृद्धयको क्षीर समुद्र की धारावो के समान कर्मो की मलीनता को गडिट और अपने आपको अर्हत (है ) के बीच में बैठा हुआ देखें । पूर्वाह्न वश्य कर्माणि मध्याहे प्रीति नाशनं उच्चाटनमपरान्हे संध्यायां मारणं स्मृतं शांति का रालौ च प्रभाते पौष्टिकं तथा वश्यादन्यानि कार्याणि सत्य हस्ते नियोजयेत् (७०) अर्थः - वश्य कर्मो के दुपहर के पहिले विद्वेषण कर्म को दुपहर को और उच्चाटन कर्म को दुपहर पीछे और मारण कर्म संध्या के समय करे । अर्थ:- शांति कर्म को आधी रात में और पौष्टिक कर्म को प्रातः काल में करे । वशीकरण और आकर्षण के अतिरिक्त अन्य कार्यो को दाहिने हाथ से करे। वश्य विद्वेषणोचाट स्थंभनाकष्टि शांतिके सोमाय मरूत्पूर्वे दक्षिण पश्चिमादिशः (७१) एवं मंडल दिकाल बीज वर्ण विशारदः एकाग मानसः कार्य साधये द्वांछितं बुधः (७२) वश्य कर्म को उपर दिशा में विद्वेषण को पूर्व दक्षिण के बीच में अग्नि कोण में उघाटन को पश्चिमोत्तर वायव्य कोण में स्तंभन को पूर्व दिशा में आकर्षण को दक्षिण दिशा में और शांति कर्म को पश्चिम दिशा में करे । पंडित पुरुष इस प्रकार मंडल दिशा काल और बीजाक्षरों को जान कर एकाग्रचित्त होकर कार्य को सिद्ध करे ।
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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