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________________ 95959595905915 विधानुशासन 95959595525 विध्याटव्यांमध्ये पतितः किं स्वपिषि पथिक निश्चिंतः, सर्जाऽर्जुनादि पश्यन भंजन करि राज एति विन्यस्य ॥ १२४ ॥ हे मुसाफिर तू विंध्याचल के वन में निश्चिंत होकर पड़ा हुआ क्यों सो रहा है यहाँ एक बड़ा भारी हाथी शाल, अरजुन आदि वृक्षों को देखता हुआ तथा तोड़कर फेकता हुआ आ रहा है। I वाम हस्ते सरसुंसः मंत्र निद्विद मे तेन, परिमृशति तदृष्ट हस्ता व्यानं समारव्य च ॥ १२५ ॥ को फिर अपने बायें हाथ में सरसुंसः मंत्र को पढ़ता हुआ स्थापित करके उससे इसे हुए पुरुष उपरोक्त कहकर स्पर्श को इसे काख्यान कहते हैं ॥ सरसुंसः चिंतयितव्यं वाम हस्ते करतल सितं च रूपेण, कूटेन भूषित दलंकर कर्णिक मग्रि सहा मध्य स्थं ॥ १२६ ॥ बायें हाथ से अग्रि मंडल के बीच में क्षकार रखकर उसके चारों तरफ अत्यंत श्वेत सरसुंसः बीजों का ध्यान करे। छिन्नं यदि नयन युगं गुरु विष दोषेण भवति, दष्टस्य दर्शयति ततस्तूंर्ण प्रसिद्ध मे तत्पुरा चक्रं ॥ १२७ ॥ यदि बड़े भारी विष के दोष से उस सर्प के काटे हुए पुरुष के दोनों नेत्र खराब हो गये हो तो उसे शीघ्र ही पहले से लिखा हुआ यह चक्र दिखलाये । सप्तम वरिव्यस्य द्वितीय कला प्रथम वर्ण संयुक्तं, षष्ट स्वर विनि विष्टं दशम स्वर योजितं गगन बीजं ॥ १२८ ॥ सातवें वर्ग का दूसरा अक्षर रकार प्रथम स्वर (वर्ण) अकार और छठा स्वर ऊकार और दसवाँ स्वर लृकार सहित आकाश बीज हं अर्थात् र अ अ अह्न या हु, कर हृदय चरण युगलै दत्वैत चिंतितोदहन मध्ये, निपातर्ति चिरदष्टः खलु व सुधायां जीव रहित इव ॥ १२९ ॥ फिर हौं को क्रमशः दोनों हाथ, ह्रदय और दोनों पैरों में लगाकर पृथ्वी में जीव रहित के समान पड़े हुवे दष्ट पुरुष को अनि मंडल के बीच में पड़ा हुआ ध्यान करे। 95६५२P5PPSP5959595
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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