SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ eSPAPSPSPA विधानुशासन ततोपदेशित सम्यनि निमितोपकारिणः त्रिसंध्या पूजनं कुर्यात् देवस्येव गुरोरपि (३७) अर्थ:- फिर प्रातः दोपहर और सांयकाल के समय भगवान पार्श्वनाथजी का बिना किसी कारण उपदेश देकर उपकार करने वाले गुरू का भी पूजन करे एवं चक्रविधिः प्रोक्तो मंत्रगर्भो गुरोडदितं अथ जाप्यविधिं वक्ष्ये वांछितार्थ प्रकाशकं 3959695 (३८) अर्थ:- इस प्रकार गुरु की कही हुई मंत्र गर्म वाली चक्र की विधि कही गई है अब इच्छा किये हुए अर्थ को देने वाली जाप की विधि कहूँगा । दंश शार्दूल सिंहादि बिडालादि विभीषणे निः प्रकंपो भवेन्मंत्री जाप्य ध्यानादि कर्मणि (३९) अर्थ:- मंत्री जाप तथा धान आदि कर्म में डास व्याघ्र सिंह और बिलाव आदि के भय से कभी भी कंपायमान नहीं होवे सद्यो विकसितैः पुष्पैः संवृतैरण्यतैः शुभैः ज्ञान मुद्रा वृतं ज्ञाप्य सर्वत्र कर्मणि (४०) हुवा अर्थ:- सभी कार्यों में तुरंत के खिले हुए तथा ढक कर लाये हुवे फूलों से ज्ञान मुद्रा से घिरा जाप करे । गृहीयात्पूरकेणापि कुंभकेन जपेततः । रेचकेन विमुंचेत पुष्प जाप्य विद्यौ सदा (४९) अर्थ :- फूलों से जाप की विधि सदा ही पूरक प्राणायाम से फूल लेवे, कुंभक से जपे और रेचक से फूल को रख देवे नाद बिंदु कला क्रांतं बीजाक्षर विदर्मितं आश्रत्य घटनांतस्थं जपेन्मंत्र मति स्फुटं (४२) अर्थ:- बिन्दु और स्वरों से युक्त बीजाक्षरों में मंत्र के एक अक्षर को अपने नाम के एक-एक अक्षर के साथ गूंथ कर मंत्र को इस प्रकार जपे कि इसका उच्चारण मुख में ही रहे और कानों में सुनाई नहीं देवे । 050505050/50/505 P525252 516
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy