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SSCISCISSI50155 विधानुशासन VD015015015101505 उन्मत्तक (धतूरा) और कांजि और आक के पत्ते छाल जड़ फूल और फल का तथा शतपद (कनछला) के चूर्ण को तेल में मिलाकर मोहित करने वाली धूप बनती है।
सहपोशांश मरम्महिषात जनजका पंचागैः,
रचित स्सपुरै धूपो रंजनोजन मोहनं अनोत् ॥३८॥ सोलहवें भाग गरद (विष) महिषाक्ष गुगल (पुर-गूगल) और धतूरे के पंचाग से बनाई हुई धूप और अंजन मोहम करता है।
हुंडुभ वसादया वक रक्तांवर वर्ति रुज्वत्व द्वीपः, निशि निज तेजस्याष्टांजन तां सुचिरं विमोहयति
॥३९॥
धर्मिणी पुच्छ मा लूनं नृत्य ता कृत संग्रह, हेम पंचांग संयुक्तं धूपितं नतोन्नरान्
॥४०॥
लून मंडूक पुच्छ नग्ने रास्पंदना नरैः कत नत्यैराप्तं, प्रदीपवत्या निहितं नर्तयति दीप्ति कांजने तां
॥४१॥
प्रारंभ सुरत रासभ वाल कृतो नग्न मेहनोत्थानं,
कुरुते जसना मध्ये भुजे समोरोपित; कटकः ॥४२॥ मैथुन करते हुए गधे के बालों को गूंथकर उसके कहे को पुरुषों के बीच में पहनने से सबके लिंग खड़े हो जाते हैं।
क्रियमाण सुरत गर्द्धभ वाल ग्रंथितैः श्रृगाल मल वदरैः,
रचितः स्त्री वस्त्र हर:कटकः प्रति सारणेन करे ॥४३॥ मैथुन करते हुए गधे के बाल और गीदड़ की भिष्टा को बेर के बने हुए कड़े को प्रतिसारण (अंगुली) से दांतो पर मलने से स्त्री नंगी हो जाती है।
जलौक चूर्ण गर्भण लाक्षा रक्तेन वाससा,
कता प्रज्वालिता कुर्यात् गत वस्त्रा स्त्रियो दशा ॥४४॥ जलौक (जोंक) के चूर्ण लाख और खून सहित चर्बी को जलाने से दस स्त्रियाँ भी नंगी हो जाती
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