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________________ 151 विधानुशासन 9595999 श्री जैन धर्मानुरक्तया विद्या त्वया प्रदेयेति च भाषणीयं मिथ्याद्दशे दास्यसि लाभ तश्वेत् प्राप्नोति गौ ब्राह्मण यात पापं ॥ ६ ॥ PPSPO अर्थ:- फिर से उससे कहे तुम यह विद्या जैन धर्म में अनुरक्त पुरुष को ही देना। यदि मिथ्यादृष्टि को दोगे तो तुमको गाय ब्राह्मण की हत्या का पाप तथा सर्व वस्तु का अलाभ मिलेगा। (श्री जैन धर्मानुरक्तया विद्यात्यया प्रदेये। ऐसा कहें। इति साधन विधिरेषा ज्वालिन्याः कथित एष संक्षेपात् । साधन विधि मिमम परं स विस्तरं संप्रवक्ष्यामि अर्थ :- यह ज्वालामालिनी देवी की साधन विधि संक्षेप से कही गई है अब इस दूसरी विधि को विस्तार से कहेगें। ईशान दिगभि मुख जल निपात युत शून्य जिन गृहोद्दिशे स्वस्थपित अपतित गोमय गोमूत्र विहित संमार्जितै रम्य' चूर्णेन पंच वर्णेन शून्य जिनमंदिर के एक स्थान में ईशान कोण की तरफ द्वारा बनाकर, पहले जल छिड़क कर फिर उसे पृथ्वी पर न गिरे हुये गोबर और गोमूत्र से लीप पोत कर शुद्ध करे फिर वहां पर पंचवर्ण के चूर्ण से. - सप्त हस्तायुतं चतुः कोणं रेखा त्रयेण विधिनासत्याव्यं मंडलं विलिखेत् । अर्थ : सात हाथ लम्बे चौडे, चौकोर इस सत्यनाम वाले मंडल को तीन रेखाओं से विधि पूर्वकबनावे | तस्य वहि वारि निधिं भ्रांता वर्तो मिंजल धरा कीर्ण पश्चिम दिशि जल मध्ये रूपं वणस्य लिखितव्यं अर्थ :- उसके बाहर पश्चिम दिशा में समुद्र बनावे जिसमें नदियों का जल आ रहा हो लहरे उठ रही हो और जलचर भरे हुवे हो। फिर समुद्र में वरुण का रूप बनावें । मलयज कुसुमाक्षत चर्चितान् सितान् बीजपुर पिहित मुखान पूर्ण घटान् सहिरण्यान् अर्थ : :- उस मंडल के चारों कोणों में चंदन पुष्प और अक्षत से पूजे हुए बिजौरे से मुख ढ़के हुए पानी से भरे हुये सुवर्ण सहित घड़े रखे चार सफेद पुष्पमाला पहने हुवे घड़े रखे । つけてりですわ 2525-P5252525252525
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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