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________________ ee595959 विधानुशासन 959595959595 वचना निस वाग्भवेन अभ्यर्चय निति विधित् क्रमतो जिनेन्द्र प्राप्रोति भव्य तिलको भुवि भुक्ति मुक्ति पूर्व आदि चारों दिशाओं में वाग्भव (ऐं) श्रीं माया (ह्रीं) और स्मर (क्लीं) लिखकर दूसरी वायु इत्यादि कोणों में क्रों झों ब्लें और रयर बीज यूं इन चारों बीजों को लिखे फिर इस अष्ट दल कमल की कर्णिका में अहं लिखे । उसके बाहर पृथ्वी मंडल बनावे 1 जिन पति (हैं) और कमला (श्रीं) बीजों को अत्यंत श्वेत लिखकर शेष बीजों को जपा कुसुम गुडहल के फूल के समान लाल लिखे। इनको ह्रीं और सब कर्मों से रोकने में अंकुश के समान क्रों से निरोध करे। श्रीं लक्ष्मी को करता है। ऐं शास्त्र की बुद्धि देता है और क्लीं वशीकरण करता है शेष बीज आकर्षण और वशीकरण करते हैं। तथा ऐं उत्तम बोलने की शक्ति देता है। भव्य पुरुष इस उत्तम चक्र को प्रतिदिन विधि पूर्वक पूजता हुआ मोक्ष के आनन्द को भोग लेता है ! ॐ नमो ऽहं ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं क्रों झौं ब्लें यूं असि आउसा है नमः पूजा मंत्र ॐ नमो Health कौ ॐ नमोह 969595959 २४० Pa SP59595
SR No.090535
Book TitleVidyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMatisagar
PublisherDigambar Jain Divyadhwani Prakashan
Publication Year
Total Pages1108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size24 MB
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