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9595959595 विद्यानुशासन 2159595959595
चिक्रण के ईष्सितरूपा पिशाचिकां सांद्र चितामषि मथिते नृपाले मातृ ग्रहे कानन कार्यास कृत वृर्त्या
॥ ३१ ॥
॥ ३२ ॥
धाय कृष्णाषृभ्यामंजनं मेष्तन्मट्टा धृतोऽद्भूतं तेन त्रिमूलं मंजनंऽमपि कुर्यादिक भीत्यऽर्थ चिक्कणिक (चिकती सुपारी) इप्सित रुपा (बहूरुपा = शरर विट) किरकाय की विष्टा, पिशाचि का ( कोच का रस ) से गीली (आंद्र) चिता मषि (चिता की स्याही अर्थात् कोयले को आदमी के कपाल में मथकर, (मात्र ग्रहे), सात मालाओं के घर में (कानन) बन जंगल के कपास की बत्ती बनाकर कृष्ण पक्ष की अष्टमी को या चतर्दुशी को अंजन (काजल) धारण करके महावृत (आदमी) की वसा (चरबी) से काजल बनाकर आंखों में अंजन लगाए तथा मस्तक पर उससे त्रिशूल बनाए जिससे प्रतिपक्ष भयभीत हो जाता है।
ॐ नमो भगवति हिडिंव वासिनी अल्लल्ल मांस प्रियेन हयल मंडल पंईट्ठण नुहरणं मंतेप हरण हो आयास मंड़ि पायाल मंड़ि सिद्ध मंड़ि योगिणि मंडिसव्व मूह मंड़ि काजल पड़उ स्वाहा ॥
कज्जल पालन मंत्र: ईशान्याभिमुख कर्तव्यं । यह काजल उपाड़ने का मंत्र ईशान दिशा को तरफ मुंह करके कार्य करे।
अंगारः शाल्मली भूतः वर मूत्रेण भावितः न्यस्तग्नौ यत्र स पचेदोऽदनं नचिरादऽपि
॥ ३३ ॥
जिस अग्रि में गधे के मूत्र से भावना दिये हुए शाल्मली (सैभल) के अंगारे रखे जाते हैं। उस पर ओदनं (भात) उसी समय पक जाता है ।
मूल मौषधकं भेक वसा तिक्तं हुताशने,
यत्र निक्षियते सोऽन्नं पक्तुं शक्तो न जातु चित्
॥ ३४ ॥
जिस अनि में औषधक मूल (सोंठ) भेक वसा (मेंड़क की ) चर्बी और तिक्त (पितपापड़ा) डाला जाता है उस पर कभी भी अन्न नहीं पकता है ।
रंभाकदेन पिष्टेन मिश्रितं गंधकेन वा । नवनीते द्रवेनैव सुदीर्यमपि पाचितं
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रंभा (केला) के कंद को पीसकर उसमें गंधक मिलाकर और मक्खन से गीला करके रखने से बहुत आंच देने पर भी अन्न नहीं पकता है ।
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