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PSPSPSP595 विद्यानुशासन 2595 おちころころ
दृप्ता जमूत्र संपिष्ट विशाला मूल कल्कितं उद्वर्तनं रतौ लिंग नृणं मुक्तं भवेत्सदा
सप्ताहमज मूत्रस्या संपिष्टा बाजरी शिफा प्रयुलोद्वर्तनं कुर्यान्महनो थंभनं नृणं
क्षीराद्यंड शिफा राजि कुष्टांग्रा वृहती फलैः लिप्त पादतलस्य स्यात् क्षणलिंग समुत्थिति
जल पिष्टैर्हय गंधो त्रिफला करवीर मूल निर्यासः मागधिकां संयुलै लिप्तिं लिंग दृढं भवति
टकल पिय लिकानां हलिनी भिः क्रम विवृद्ध पिष्टाभिः लिप्तं धोतं पुंसो रतौ वरांगं चिरं नपतेत
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॥ ८१ ॥
पारद सितेषु पुर्खा मूलाभ्यां नल मालफलगाभ्यां ਹੀ भवति नृणां लिप्तं स्तंभनं दीर्घ
॥ ८२ ॥
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॥ ८४ ॥
सितेषु पुंवि का मूल केवलं वदने घृतं तुषांबु पिष्ट लिप्तं च वीर्य संस्तंभयेद् ऋतौ
॥ ८५ ॥
सफेद सरफौका की जड़ को केवल मुँह में रखने और तुम (वहेड़ा) के जल में पीसकर लिंग पर लेप करने से रतिकाल में वीर्य का स्तंभन होता है।
सित सर पुंखी मूलं हत्वा सित कोकिलाक्ष बीजं च वन वसला रस पिष्टं वीर्य स्तंभ मुखे संस्थं
॥ ८६ ॥
सफेद रस फोंके की जड़ और सफेद कोकिलाक्ष (ताल मखाना) के बीजों को वनवसला (उपोद
की पोई) के रस में पीसकर मुख में रखने से वीर्य का स्थंभन होता है ।
॥ ८७ ॥
पारद (पारा) सफेद सरफोंके की जड़ और नक्त माल (करंज) के फल के लेप से पुरुषों के वीर्य का बड़ा भारी स्तंभन होता है।
नील्या: सौर्येन पत्रेण चक्रगेन निरुध्यते रेतः स्वतेन मूत्रेण नाभि लेपेन पाचिरं
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॥ ८८ ॥