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विधानुशासन
क्षिप्त्वा वदरी पत्रं मृत्स्नायां चक्रीहस्तलग्रायां, तत्प्रति कृति रथ कायत्ति द्वदनं पूरयेन्माबै:
तद् ह्रदये निक्षिप्तं मंत्रं प्रविलिख्य भूर्जे पत्र गतं, आलक्तक कृक जिव्हा विद्ध्वा मदनस्य कंटकतः
अंधे अंधिनि च पदं मोहे मोहिनि तथा भुकं, शीघ्रं अंधय मोहय युगलं मंत्र प्रणवादि होमांत:
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॥ १३० ॥
॥ १३१ ॥
॥ १३२ ॥
मंत्रोद्धार :- ॐ अंधे अधिनि मोहे मोहिनि अमुकं शीघ्रं अंधय अंधयमोहय मोहय स्वाहा ॥
कुम्हार के हाथ की लगी हुई मिट्टी में बेर के पत्तों को फेंक कर (पीसकर इसकी मूर्ति बनाए उसके मुँह में माय से भर दे। उसके हृदय में भोजपत्र पर मंत्र लिखकर तथा इसे उस शत्रु की प्रतिकृति (प्रतिमा) के हृदय में रखकर तथा इसके कृक (गले) में अलक्तक (महावर) की जीभ के ऊपर मदन (मेनफल) के कंटक (कांटे) से लिखे आदि में प्रणव (उ) और अंत में होम (स्वाहा ) लगाकर अंधे अंधिनि मोहे मोहिनि अमुकं शीघ्रं अंधय अंधय मोहय मोहय सहित मंत्र बनता है ।
सर्व शास्त्र विदो वक्त्रं वटनात्यं न्यस्य का कथा, शराव संपुटं क्षिप्त्वा करोति यदि पूजनं
॥ १३३ ॥
यदि दो शराव ( सराइ ) के संपुट में रखकर इसका पूजन किया जाए तो यह सब शास्त्रों के विद्वानों के मुँह को स्तंभन करता है (बंद करता है) औरों की तो क्या बात है।
कृत्वा कुलाल कृतमृतिकयारि रूपं मंत्र
च तद् हृदि गतं वदनं, तमाप्यं जिव्हामलक्तक
धृतां स्मर कंटकात कुर्य्यात् शराव पुट संस्थित मास्टा रोधिः ॥ १३४ ॥ कुलाल (कुम्हार) के हाथ की मिट्टी से शत्रु का रूप (मूर्ति) बनाकर उसके ह्रदय में मंत्र लिखे तथा उसके मुँह और अलक्तक (महावर लाख) की बनी हुई जिव्हा को स्मरकंटक (मेनफल) के कांटे से छेदे यदि उसके दो शरावों के संपुट में रखे तो प्रतिवादी का मुंह बंद होगा।
त्रकारं चिंतयेद्वको विवादे प्रतिवा दिन:, क्रों वा रेफं ज्वलंतं वा त्रां कारमथवो ज्वलं
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॥ १३५ ॥