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विद्यानुशासन
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उन नवग्रहों की शांति की विधि की क्रिया को अज्ञान से महा दुःख से पीड़ित प्राणी सदा प्रतिकूल रूप से करते हैं।
नवग्रहों का विशेष वर्णन
रविचंद्र कुजः सौभ्यो गुरुः शुक्रः शनैश्वर, राहु श्चेति ग्रहाः केतु नव भिन्नोतराहुतः
सूर्य चंद्र मंगल बुध बृहस्पति शुक्र शनि राहु और केतु ये नो ग्रह होते हैं ।
स्व स्थानानि शिरो मुख ह्रदय करि पार्श्व, पृष्ट जंधान्हि अष्टौ रव्यादीनाम राव्हंता नां ग्रहाणां स्युः
॥ १९ ॥
उन राहु तक के ग्रहो के अपने अपने स्थान क्रमशः सिर मुख हृदय कमर पार्श्व (कोख) पीठ जंघा और पैर के ग्रह यह आठ कहे गये है ।
विकृति महतिर्वायोः पित्तस्य कफस्य च, रोगाचा ग्रंथ कुष्टादीन महोपद्रदं संयुतान्
॥ २० ॥
यह ग्रह अपने अपने स्थानो में क्रमशः वात पित्त कफ के महान विकार गाठ कोढ़ आदि के महान उपद्रव सहित रोग ।
पीठाश्चग्निशिल शस्त्र विष शून्यादि संभवाः, स्व स्थानेषु ग्रहा कुर्युश्रूद्धयेषु क्रमेणतु
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॥ २१ ॥
अनि की शिला शस्त्र और विष के देने से हुए पीठ आदि में रोगो को यह ग्रह सिर आदि के क्रम से अपने अपने स्थानो में कहते हैं ।
निज नागानां विधिना रचिता नां स्वातं मंत्र मणि र्फणिभिः निज वारे निज हरिति च मंत्री वरेणे ज्यया कृतया
॥ २२ ॥
मंत्री के द्वारा विधिपूर्वक बनाए हुए फणों को मणियों सहित नागों को अपने अपने बार तथा अपनी अपनी दिशा में पूजन किये जाने से ।
नव ग्रहास्ते
तृप्पंति ग्रहार्त्ताश्चानु गृह्णते, समयंति च रोगां स्तान स्वस्थान स्वात्मनाकृतान
।। २४ ।।
वह नवग्रह तृप्त हो जाते है और ग्रहो से पीड़ित पुरुष पर कृपा होती है तथा उनके अन्दर हुए रोग शांत होकर वह स्वस्थ हो जाता है।
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1595९५६ P/59/59695969593