Book Title: Ganitanuyoga
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
Publisher: Agam Anuyog Prakashan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ To als अनुयोग प्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल' 9 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * गणितानुयोग * U-5063 DV:RRGOV CCCCCES))))))) 11.2 靈II型”以 Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणि ता नु योग [ जैन आगमगत भूगोल-खगोल एवं अन्तरिक्ष सम्बन्धी सामग्री का विषयक्रम से प्रामाणिक संकलन ] सम्पादक: अनुयोग प्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालाल 'कमल' सह-सम्पादक: श्रीदनसुख भाई मानवणिया प्रकाशक: आगम अनुयोग ट्रस्ट अहमदाबाद-१३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वाधिकार प्रकाशकाधीन संयोजक: मुनि श्री विनयकुमार 'वागीश' सम्पादन सौजन्य : डा. महासती मुक्तिप्रभा जी एम. ए., पी-एच. डी. डा. महासती दिव्यप्रभा जी एम. ए., पी-एच. डी. संशोधित परिवधित द्वितीय संस्करण वीर निर्वाण संवत् २५१२ विक्रमाब्द २०४३ ईस्वी सन् १९८६ प्रबन्ध सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशक : प्रधान-बलदेव भाई पटेल आगम अनुयोग ट्रस्ट १५, स्थानकवासी जैन सोसायटी नारायणपुरा क्रासिंग के पास अहमदाबाद-१३ मुद्रक : श्रीचन्द सुराना के निदेशन में विकास प्रिन्टर्स, आगरा-२ । मूल्य : दो सौ रुपया मात्र २००/ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GANITĀNUYOGA [An Authoritative classified Selection of Geographical & Astronomical datas from Jain Angas & Upangas) Editor Agam Ratnakar, Anuyog Pravartak Muni Sri Kanhiya Lal 'Kamal' Assistant Editor Dalsukhbhai Malvaniya Publishers Agam Anuyoga Trust AHMEDABAD-13 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ All Rights Reserved with the Publishers Colligator Muni Sri Vinaya Kumar "Vagish' Editing Courtesy : Dr. Mahasati Muktiprabha ji M. A., Ph. D. Dr. Mahasati Divyaprabhaji M. A., Ph. D. Revised and enlarged Second Edition Veerabada 2512, Vikramabada 2043, C. 1986 A.D. Managing Editor : Srichand Surana 'Saras Publishers : Baldev Bhai Patel, Chief, Agam Anuyoga Trust 15, Sthanakvasi Jain Society Near Narayanapura Crossing Ahmedabad 13 Printers : Vikas Press, Agra 2 Under the Guidance of Srichand Surana 'Saras' Price: Rs. Two H Rs. Two Hundred only. 200)-only 1 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ My: A:-( AANA:--((( (((M समटपणं णियनामेणं जेणं, महप्पणा पुज्जसामि-दासेणं । सक्खं जयइ पयडिओ, दसणरयणं अणेगन्तो ॥१॥ असर जिण-सुय - णिम्मलसोओ, सुरक्खिओ जेण सरिपवरेणं । लिहिऊणं सुत्ताणि य, अणेगवार अणेगाणि ॥२॥ तस्स महेसिवरस्स हि, सिस्स-पसिस्सक्कमेणःणग्गहिओ। गणितानुओगसत्थं , अप्पेइ सभत्ति मुणी 'कमलों ॥३॥ अनेकान्त दर्शन मणि-मण्डित विजित अक्ष-प्रतिपक्ष सकल । स्वामिदास अभिधा थी सार्थक गुरुवर को प्रणमन प्रतिपल । जिन प्रवचन श्रुत स्रोतस्विनी की अक्षर देह सुरम्य अमन्द । सुन्दर लिपि में लिख अनेकशः लगा दिये सुदृढ़ तटबन्ध । 希縣縣縣縣森霖辦縣縣森霖孫孫孫孫孫孫孫孫孫示器 उन महर्षि वर के शिष्यानुक्रम में मेरा है लघु स्थान । यह गणितानुयोग समर्पित करता भक्तियुत प्रणिधान । -मुनि 'कमल' ORMATION Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग का दितीय संस्करण और उसका संकलनः- [विशेष ज्ञातव्य] जैनागमों में भूगोल-खगोल एवं अन्तरिक्ष सम्बन्धी जितने पाठ हैं उन सबका इसमें संकलन का प्रयत्न किया गया है। प्रथम संस्करण के क्रम में और इस द्वितीय संस्करण के क्रम में सामान्य-सा अन्तर किया गया है। प्रथम संस्करण में सर्व प्रथम अलोक का वर्णन, बाद में लोक का वर्णन और अन्त में परिशिष्ट थे। द्वितीय संस्करण में सर्वप्रथम लोक का वर्णन, बाद में अलोक का वर्णन और अन्त में लोकालोक के कतिपय सूत्र तथा कुछ परिशिष्ट हैं। सभी परिशिष्ट श्री विनयमुनिजी ने व्यवस्थित किये हैं। शब्द-कोश श्रीयुत श्रीचन्दजी सुराना ने सम्पन्न किया है। प्रथम सस्करण में समस्त आगम पाठों का अनुवाद डा० श्री मोहनलाल मेहता ने किया था। द्वितीय संस्करण में भी प्रायः डा० मेहता का ही अनुवाद रखा गया है किन्तु वर्गीकरण के अनुसार कहीं-कहीं परिवर्तन-परिवर्धन-संशोधन भी किया गया है। सम्पादन पच्दति १. भूगोल-खगोल अन्तरिक्ष सम्बन्धी आगम पाठ जो भाव एवं भाषा में साम्य रखते हैं, उनमें से एक आगम पाठ मूल संकलन में लिया गया है । शेष आगम पाठों के स्थल निर्देश टिप्पण में अंकित किये गये हैं। २. जैनागमों में भूगोल-खगोल एवं अन्तरिक्ष सम्बन्धी कुछ पाठ ऐसे हैं जिनमें एक सूत्र अल्प संख्या सूचक होता है और दूसरा सूत्र बह संख्या सूचक होता है तो उनमें से बहु संख्या सूचक एक सूत्र मूल संकलन में लिया है। शेष अल्प संख्या सूचक सभी सूत्रों के स्थल निर्देश टिप्पण में दिये हैं । उदाहरण के लिए देखिए पृष्ठ १३, सूत्र २६ के टिप्पण। पृष्ठ १४ पर सूत्र ३० बहु संख्या सूचक सूत्र से भिन्न प्रकार का है। अतः मूल संकलन में लिया गया है। ३. संकलित आगम पाठों पर जहाँ १,२ आदि अंक दिए हैं वे सब टिप्पण के अंक हैं। । जितने अंश पर अंक हैं उतने ही अंश से साम्य वाले आगम पाठों के स्थल निर्देश टिप्पण में दिये गये हैं। ४. प्रस्तुत संकलन में विषय वर्गीकरण की पद्धति प्रथम संस्करण से भिन्न प्रकार की है। इसमें प्राकृतिक स्थिति का क्रम लिया है। सर्व प्रथम अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक, अधोलोक में नरक, भवन आदि मध्यलोक में द्वीप, क्षेत्र, पर्वत, कूट, प्रपात, द्रह, नदियां, समुद्र आदि । ऊपर ज्योतिष चक्र के चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि। ऊवलोक में कल्प, अनुत्तर विमान, ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी आदि। ५. प्रथम संस्करण में आगमपाठों का मूल ऊपर और नीचे हिन्दी अनुवाद था। द्वितीय संस्करण में प्रत्येक पृष्ठ पर दो कालम हैं। एक में मूलपाठ और दूसरे कालम में हिन्दी अनुवाद है। मूल पाठ के सामने हिन्दी अनुवाद है इसलिए मूलपाठ के भाव को समझने में पाठक को सुविधा रहेगी। ६. मूल हिन्दी अनुवाद शब्दानुलक्षी है अतः गणित सम्बन्धी प्रक्रिया इसमें नहीं दी गई है। जो जिज्ञासू गणित की प्रक्रियायें जानना चाहें वे सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति टीका तथा क्षेत्र समास, लोकप्रकाश आदि ग्रन्थ देखें। ७. जैनागमों से सम्बन्धित विषयों पर शोध निबन्ध लिखने वाले अभीष्ट विषय की जानकारी शीघ्र प्राप्त कर सकें- इसके लिए मूल पाठ पर प्राकृत के शीर्षक और हिन्दी अनुवाद पर हिन्दी में शीर्षक दिये गए हैं। Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय द्वितीय संस्करण की पृष्ठभूमि : जिज्ञासु जगत् की जिज्ञासाओं का वैविध्य स्वयंसिद्ध है । इस जगत् में कुछ ऐसे भी जिज्ञासु हैं जिनका सर्वाधिक प्रिय विषय गणित रहा है । ऐसे जिज्ञासुओं की जिज्ञासाएँ ही गणितानुयोग के इस द्वितीय संस्करण के प्रकाशन की पृष्ठभूमि रही हैं । आगम अनुयोग प्रकाशन परिषद साण्डेराव की ओर से गणितानुयोग का प्रथम संस्करण जिस समय प्रकाशित हुआ था, उस समय द्वितीय संस्करण की न कल्पना थी और न सम्भावना ही थी। अपितु यह आशंका थी कि गणितानुयोग की इतनी प्रतियों का कहाँ कैसे उपयोग होगा ? क्योंकि गणित सर्वसाधारण की रुचि का विषय कभी नहीं रहा । सर्वप्रथम गणितानुयोग की प्रतियां अधिम ग्राहकों को भेजी गईं । उनमें से कुछ सज्जनों ने अपनी प्रतियाँ पुस्तकालयों में दे दीं और कुछ ने सन्तों को समर्पित कर दीं। कुछ सुद्धा युवकों ने अपनी-अपनी ओर से विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में गणितानुयोग की प्रतियाँ भेंट स्वरूप भेजीं । श्रमण संघीय महासतीजी श्री मुक्तिप्रभाजी की अन्तेवासिनी श्रमणियों का प्रतिलिपिलेखन आदि कार्यों में अत्यधिक योगदान भी प्रशंसनीय रहा । गणित सम्बन्धी प्राचीन चित्रों की प्रतिकृति प्राप्त कराने में आचार्य श्री विजययशोदेव सूरि जी म० का सहकार प्राप्त हुआ, हम उनके प्रति हृदय से आभारी हैं । प्रस्तुत संस्करण के संकलन, सम्पादन तथा प्रकाशन आदि के ज्ञान में जिन-जिन मुनिवरों, महासतियों, विद्वानों एवं श्रीमानों का उदार योगदान रहा, यह ट्रस्ट उन सब महान् आत्माओं का एवं सहयोगियों का सदैव आभारी रहेगा। उन पुस्तकालयों से कतिपय भूगोल-गोल के प्राध्यापकों ने योग का अवलोकन किया और उनकी प्रेरणा से गणित सम्बन्धित शोध निबन्ध लेखकों ने अपने-अपने निबन्धों में उसका उपयोग किया । हम प्रथम संस्करण के सम्पादन सहयोगी स्व० पं० हीरा लाल जी शास्त्री ब्यावर, पं० श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल तथा डा. मोहनलाल जी मेहता के प्रति भी आभार-स्मरण करते हैं । सम्पादन सहयोग : श्रीयुत श्रीचन्द सुराणाजी व्यवसायी भी हैं और विद्वान् भी जिन-जिन जिज्ञासुओं ने गणितानुयोग की उपयोगिता समझी है । शब्दकोश आदि परिशिष्टों के सम्पादन का योगदान आपका उन सबने पुस्तकें मंगाई, पड़ीं और सुरक्षित रखीं। श्लाध्य है । ग्रन्थ का गौरव शुद्ध सुन्दर मुद्रण से आपने ही बढ़ाया है। इसके लिए ट्रस्ट आपका चिरकृतज्ञ रहेगा । कर्मठ कार्यकर्ता : प्रथम संस्करण के प्रचार-प्रसार में पूज्य अभयसागरजी महाराज का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस प्रकार प्रथम संस्करण की प्रतियां शनैः शनैः दुर्लभ होती गईं। आत्मिक योगदान : प्रथम और द्वितीय संस्करण के संशोधन, सम्पादन आदि सभी कार्य श्री विनयमुनिजी वगीश' के आत्मिक योगदान से ही मुनि श्री सम्पन्न कर सके हैं । मुनि श्री का अनन्य सेवाभाव तथा प्रत्येक कार्य विवेकपूर्वक सम्पन्न करने की लगन सदा अनुकरणीय एवं प्रशंसनीय है । प्रमुख प्रेरक : जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वान् श्री दलसुखभाई माया ने द्वितीय संस्करण के लिए हमें प्रेरणा दी और समय-समय पर मार्गदर्शन करते रहे जिससे यह ट्रस्ट इस ग्रन्थराज को जिज्ञासु के सामने इस रूप में प्रस्तुत कर सका है। हम श्री दलजगत् सुखभाई के प्रति हार्दिक कतज्ञ हैं । श्री हिम्मतभाई तन से वृद्ध और मन से युवा हैं। आपकी श्रुत सेवा एवं व्यवस्था कौल अनुकरणीय है। शासनदेव उन्हें आरोग्य प्रदान करें । विनीत बलदेव भाई डोसाभाई पटेल अध्यक्ष आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद 1 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में अनुयोग के दो रूप मिलते हैं नन्दी-सूत्रनिर्दिष्ट श्रुतज्ञान के विवरण में अंग(१) अनुयोग-व्याख्या प्रविष्ट, अंग-बाह्य, कालिक और उत्कालिक आदि सभी (२) अनुयोग-वर्गीकरण आगमों की व्याख्या करने के लिए इन चार अनुयोग(१) अनुयोग व्याख्या-आगमों के विशिष्ट सूत्रों द्वारों का ही प्रयोग करने की सूचना दी गई है और इसी की व्याख्या करने की एक पद्धति है। आधार पर अंगबाह्य, उत्कालिक, आवश्यक की विस्तृत जिस प्रकार नगर की चारों दिशाओं में चार द्वार व्याख्या अनुयोगद्वार-सूत्र में इन चार अनुयोगद्वारों हों तो उसमें प्रवेश करना सबके लिए सरल होता है, द्वारा ही की गई है। इसी प्रकार १. उपक्रम, २. निक्षेप, ३. अनुगम और (२) अनुयोग-वर्गीकरण ४. नय - इन चार अनुयोगद्वारों से आगम रूप नगर में चार अनुयोगों के नाम - प्रवेश करना सबके लिए सरल होता है। अर्थात् इन १. चरणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग, ३. गणिताचार अनयोगद्वारों का आधार लेकर जो आगम की नयोग, ४. द्रव्यानयोग। व्याख्या करते हैं, उन सबके लिए आगम ज्ञान प्राप्त उपलब्ध अंग-उपांग आदि आगमों में इन चार अनुकरना अति सरल हो जाता है। योगों के नाम क्रमशः कहीं नहीं मिलते हैं। जैनागमों की यह अनुयोग-व्याख्या पद्धति अति १. द्रव्यानयोग का नाम-स्थानांग के दशम स्थान चिरंतन काल से उपयोगी रही है। जैनागमों की उप- में मिलता है। और प्रज्ञापना, भगवती आदि आगमों लब्ध टीकाओं के टीकाकारों ने भी इसी अनुयोग व्याख्या के आधार पर इसका नामकरण हुआ है। पद्धति का अपनी टीकाओं में प्रयोग किया है। २. चरणानुयोग का नामकरण-आचारांग, दशवै कालिक, उत्तराध्ययन आदि आगमों के आधार पर १ अनुयोगद्वाराणि वाच्यानि, हुआ है। तथाहि-प्रस्तुताध्ययनस्य महापुरस्येव चत्वारि अनुयोगद्वाराणि भवन्ति तस्य द्वाराणीव द्वाराणि प्रवेशमुखानि, १. उपक्रमो, २. निक्षेपो, ३. अनुगमो, ४. नयश्च । अस्य अध्ययनपुरस्यार्थाधिगमोपाया इत्यर्थः तत्र अनुयोजनमनुयोगः-सूत्रस्यर्थेन सह सम्बन्धनम् । पुर-दृष्टान्तश्चात्र अथवा-अनुरूपोऽनुकूलो वा योगो-व्यापारः सूत्रस्यार्थ यथाहि-अकृतद्वारकं पुरमपुरमेव प्रतिपादनरूपोऽनुयोगः । कृतेकद्वारमपि दुरधिगम कार्यातिपत्तये च स्यात् आहच चतुर्मूलद्वारं तु प्रतिद्वारानुगतं सुखाधिगमे कार्यानतिपत्तये अणु जोजणमणुओगो, सुअस्स णियएण जमभिहेएण । __ जम्बू. वृत्ति बावारो वा जोगो, जो अणुरूवोऽणुकुलो वा ॥ २ (क) करणानुयोग का नाम-द्रव्यानुयोग के दस भेदों में यद्वा अर्यापेक्षया अणोः-लघो पश्चाज्जात तया वाऽनु एक भेद के रूप में मिलता है। देखिए-स्थानांग, शब्द वाच्यस्य योऽभिधेयो योगो-व्यापारस्तत् सम्बन्धो स्थान १०, सूत्र ७२६. वाऽणुयोगोऽनुयोगो वेति । (ख) दिगम्बर ग्रन्थों में करणानुयोग गणितानुयोग का आह च पर्यायवाची माना गया है। अहवा जमत्थओ, थोवपच्छमावेहिं सुअमणु तस्स । (ग) स्थानांग, स्था. १० सूत्र ७२६ में द्रव्यानुयोग दस अभिधेये वादारो, जोगो तेण व सम्बन्धो॥ प्रकार का कहा गया है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. धर्मकथानुयोग का नामकरण-ज्ञाताधर्मकथा अनुयोग वर्गीकरण का उद्देश्य आदि आगमों के आधार पर हुआ है। विगत दो-चार दशकों में प्राच्यविद्या प्रेमियों ने ४. गणितानुयोग का नामकरण-चन्द्र-सूर्य-प्रज्ञप्ति प्राकृत भाषा का महत्व समझा है और कतिपय विश्वआदि को गणित के आधार पर हुआ है। विद्यालयों में प्राकृत अध्ययन केन्द्र स्थापित भी हए हैं, ___ आगमोत्तर कालीन ग्रन्थों में तथा जैनागमों की उप- प्राकृत टेक्स्ट सोसायटियों से महत्वपूर्ण प्राचीन-ग्रन्थ लब्ध टीका, नियुक्ति तथा भाष्य आदि में चारों अनुयोगों आधुनिक शैली से सम्पादित होकर प्रकाशित हुए हैं। के नाम और अनुयोगों के अनुसार आगमों का विभाजन कुछ प्रकाशन संस्थान शोधपूर्ण एवं समीक्षात्मक जैनामिलता है। गमों के प्रकाशन कर रहे हैं। किन्तु शोध निबन्धों के अनुयोग वर्गीकरण के ऐतिहासिक तथ्यों का अन्वेषण आधुनिक लेखक विषय प्रतिपादन के लिए सन्दर्भ ग्रन्थों __ भगवान महावीर से लेकर श्री आर्य वज्र पर्यन्त के रूप में यदि समस्त जैनागमों को देखना चाहें, तो जैनागमों में वर्णित विविध विषय इन चार अनुयोगों में उन्हें आगमों के ये संस्करण देखकर निराशा ही होती विभक्त नहीं हुए थे। क्योंकि प्रत्येक पद में चारों अनु- है, क्योंकि आधुनिक शैली से सम्पादित सभी आगमों का योगों का तथा सातों नयों का चिन्तन किया जाता था मुद्रण अद्यावधि कहीं से नहीं हुआ है। इसलिए विभाजन की कोई उपादेयता ही नहीं थी, बालगों की व्यवस्था भी सर्वत्र प्रमोनीन किन्तु ह्रास-काल के प्रभाव से जब महान मेधावियों को न होने से शोध-निबन्ध लेखकों को यथेष्ट लाभ नहीं भी एक पद में चारों अनुयोगों तथा सातों नयों का मिल पाता। यदि साहसी शोध निबन्ध लेखक किसी चिन्तन कठिन प्रतीत होने लगा तो श्री आर्यरक्षित ने प्रकार सभी जैनागमों का संग्रह कर भी लें तो उनमें से आगमों में प्रतिपादित समस्त विषयों (पदों) को चार अभीष्ट विषय का परिपूर्ण शोध कर सकना उनके लिए अनुयोगों में विभक्त कर दिया था। कितना कठिन होता है इसका अनुभव तो शोध निबन्ध इस अनुयोग विभाजन की क्या रूपरेखा थी? लेखकों को ही हो सकता है। एक विषय के पाठों को विषय संकलन किस क्रम से किया गया था? एकत्रित करने में कितने समय व श्रम की अपेक्षा होती इस अनुयोग विभाजन को परंपरा कब विनष्ट हुई? है, यह भी एक असाधारण तथ्य है। इत्यादि ऐतिहासिक तथ्यों के अन्वेषण का उपक्रम जैनागम सम्बन्धित शोध-निबन्ध के लेखक को प्रौढ अब तक किसी ने किया या नहीं? यह जानने में नहीं आगम-अभ्यासी निर्देशक का मिलना भी उतना ही कठिन आया है। है जितना आधुनिक शैली से सम्पादित समस्त आगमों __ नन्दी-सूत्र की स्थविरावली में अनेक अनुयोगधर का मिलना। इन सब समस्याओं में उलझकर अनेक आचार्यों का उल्लेख है। ये आचार्य चार अनुयोग-द्वार शोध-निबन्ध लेखक विषय परिवर्तन का संकल्प कर लेते वालो अनुयोग-व्याख्या पद्धति के धारक थे या द्रव्यानु- हैं। या विषय का यथेष्ट प्रतिपादन नहीं कर पाते हैं, योग आदि चार अनुयोगों के वर्गीकरण के धारक थे? इसलिए शोध कार्य अधूरा रह जाता है। इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक तथ्यों का अन्वेषण होना इत्यादि अनेक अनपेक्षणीय तथ्यों से प्रेरित होकर आवश्यक है। मैंने जैनागमों के समस्त विषयों का वर्गीकरण करके उसे चार अनुयोगों में विभक्त करने का संकल्प किया है। १ अनुयोगः प्रारभ्यते-स च चतुर्दा यद्यपि अनुयोग वर्गीकरण का कार्य समूह-साध्य एवं श्रम१. धर्मकथानुयोगः उत्तराध्ययनादिकः साध्य है, साथ ही अद्यावधि उपलब्ध समस्त आगमों के २. गणितानुयोगः सूर्यप्रज्ञप्त्यादिकः प्रकाशन तथा अनेक सन्दर्भ ग्रन्थों का संग्रह भी अपेक्षित ३. द्रव्यानुयोगः पूर्वाणि सम्मत्यादिकश्च है। फिर भी उपलब्ध साधनों एव उदार सहयोगियों के ४. चरण-करणानुयोगश्च आचारांगादिक: सहयोग से जितना कर सका है या कर रहा हूँ उसे -जम्बूद्वीप. वृत्ति. पत्र १, २, क्रमशः प्रस्तुत करते रहने का संकल्प है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ है ? अनुयोग वर्गीकरण के लाभ गणितानुयोग को सामान्य रूपरेखा ___ इन अनुयोग-विभागों के स्वाध्याय का सुफल यह लोकाकाश-अनन्त पदार्थ सद्भावी-आकाश । होगा कि जिस आकाश में लोक है, वह लोकाकाश है। लोक प्राचीन चिन्तन का किस प्रकार क्रमिक विकास का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है कि-"जो देखा जाता है वह लोक है।" लोक में जो इन्द्रियप्रत्यक्ष पदार्थ हैं, उनके कौन सा पाठ आगम संकलन काल के पश्चात परि- दृष्टा छद्मस्थ/असर्वज्ञ हैं और जो लोक में अतीन्द्रिय वधित या प्रक्षिप्त किया गया है ? पदार्थ हैं, उनके दृष्टा सर्वज्ञ हैं। इस प्रकार लोक दृश्य आगमों के लिपिबद्ध होने के पश्चात कौन सा है अतः सर्वज्ञ और असर्वज्ञ द्वारा देखा जाता है। लोक के आगम विच्छिन्न हुआ और कौन सा नया अंग आगम अनेक पर्यायवाची शब्द हैं-विश्व, संसार आदि । स्थानापन्न हुआ है ? लोक की व्याख्या अनेक प्रकार से की गई है। किस आगम पाठ की कहाँ पूर्ति हुई है ? (१) प्राचीन व्याख्या पद्धति "अनयोग पद्धति" के कोन सा आगम पाठ परमत का मान्यता का है आर नाम से प्रसिद्ध है। इस व्याख्या पति को समझने के कौन सा स्वमत की मान्यता का है ? लिए पूरे अनुयोगद्वार की रचना की गई है। लोक को कौन सा परमत का पाठ भ्रान्ति से स्वमत का मान व्याख्या भी इस अनुयोग पद्धति से की गई है। लिया गया है ? इत्यादि जटिल प्रश्नों की कुछ समाधानकारी (क) १. नामलोक, २. स्थापनालोक ३. द्रव्यलोक । उपलब्धियाँ शोध-निबन्ध लेखकों के लिए यदि उपयोगी (ख) १. द्रव्यलोक, २. क्षेत्रलोक, ३. काललोक । हुईं तो यह श्रम सफल होगा। ४. भावलोक। अनुयोग वर्गीकरण का प्रारम्भ और प्रगति (ग) १. अधोलोक, २. तिर्यक्लोक, ३. ऊर्ध्व गणितानुयोग वर्गीकरण का कार्य स्वर्गीय गुरुदेव के लोक । सान्निध्य में प्रारम्भ किया था। उनके सान्निध्य में ही परिपूर्ण हो गया था और प्रकाशन भी। (घ) १. ज्ञानलोक, २. दर्शनलोक, ३. चारित्र धर्मकथानुयोग का सम्पादन-प्रकाशन बाद में हुआ लोक। (१) नाम लोक। चरणानुयोग का सम्पादन कार्य पूर्ण हो गया है और (२) स्थापना लोक-लोक का आकार अर्थात्प्रकाशन प्रारम्भ हो रहा है। लोक का संस्थान। द्रव्यानुयोग का सम्पादन हो रहा है, प्रकाशन भी अलोकाकाश के मध्य में लोकाकाश है। परन्तु सान्त शीघ्र होने की सम्भावना है। __अस्वस्थ्य शरीर और यथेष्ट अनुकूलताओं के अभाव ससीम है। इसका आकार त्रिसराव सम्पुटाकार है। एक में भी गणितानुयोग का यह द्वितीय संस्करण सम्पन्न सराव (शिकोरा) उल्टा, उस पर एक सराव सुल्टा (सीधा) किया गया है। आशा है, स्वाध्यायशील सज्जन इसके और एक उल्टा रखने से जो आकार बनता है उसे स्वाध्याय से अवश्य लाभ लेंगे। "त्रिसराव" सम्पुटाकार कहते हैं। शास्त्रीय भाषा में संकलन एवं सम्पादन में स्वाध्यायशील महान यह "सुप्रतिष्ठक" आकार कहा जाता है। यह लोक नीचे से विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से पुनः आत्माओं को जहाँ कहों संशोधन आवश्यक प्रतीत हो विस्तृत है। तो अवश्य सूचित करें। उन सब महान् आत्माओं का मैं सदैव विनम्र भाव लोक-पुरुष और विराट् पुरुष से आभार मानकर संशोधन करने के लिए प्रयत्नशील आगमोत्तरकालीन जैन ग्रन्थों में समस्त लोक रहूँगा। (अधोलोक, मध्यलोक, ऊवलोक) को लोक-पुरुष के रूप Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) में चित्रित किया है। किन्तु जैनागमों में कहीं भी लोक- मूर्धनि सत्यलोकस्तु, ब्रह्मलोकः सनातनः ॥ पुरुष का वर्णन नहीं है। तत्कट्यां चातलक्लृप्तमुभ्यां वितलं विभोः । - अतः विचारणीय प्रश्न यह है कि जैनागमों में जो जानुभ्यां सुतलं शुद्ध, जंघाभ्यां लु तलातलम् ।। "प्रैवेयक' देवों के नाम गिनाए गये हैं, उनके नामकरण पातालं पादतलत, इति लोकमयः पुमान् । का हेतु क्या है ? उनके विमान लोक-पुरुष की ग्रीवा के –भागवत् पुराण २/५/३८-४० स्थान पर हैं, इसलिए वे "ग्रेवेयक" देव कहे गये हैं। (गीता प्रेस) प्रथम भाग पृ० १६६ । यदि यह व्युत्पत्तिपरक अर्थ संगत है तो आगमों में भी द्रव्य-लोक किसी समय लोक-पुरुष की कल्पना का अस्तित्व रहा लोक में छः द्रव्य है, अतः यह द्रव्य-लोक है। होगा। जब कुटिल काल के कुचक्र से आगमों के अनेक छ: द्रव्यों के नाम :अंश विच्छिन्न हुए हैं तो सम्भव है उस समय लोक-पुरुष १. धर्मास्तिकाय - गति सहायक द्रव्य, की कल्पना का अंश भी विच्छिन्न हो गया होगा। २. अधर्मास्तिकाय-स्थिति सहायक द्रव्य, ___ लोक-पुरुष की कल्पना के समान विराट् पुरुष की ३. आकाशास्तिकाय-आश्रयदाता द्रव्य, कल्पना वैदिक ग्रन्थों में भी मिलती है ४. काल द्रव्य-स्थिति नियन्ता द्रव्य, विराट-पुरुष ५. जीवास्तिकाय-चेतनाशील द्रव्य, भूर्लोकः कल्पितः पद्भ्यां, भूवर्लोकाऽस्य नाभितः । ६. पुद्गलास्तिकाय-मूर्त जड़ द्रव्य, हृदा स्वर्लोक उस्सा, महर्लोको महात्मनः ।। (क) इन छ: द्रव्यों में-एक जीव है, शेष पांच ग्रीवायां जनलोकश्च, तमोलोकः स्तनद वयात। अजीव हैं । (ख) इन छ: द्रव्यों में-एक मूर्त है, शेष पांच १. लोकाकाश के आकार को समझाने के लिए श्वेताम्बर अमूर्त हैं। और दिगम्बर आगमों में विविध उपमायें दी गई हैं (ग) इन छः द्रव्यों में एक काल द्रव्य है, शेष श्वेताम्बर आगम - पांच अस्तिकाय हैं। । दिगम्बर आगम (घ) इन छ: द्रव्यों में चार अस्तिकाय-लोक, अधोलोक का आकार | अधोलोक का आकार अलोक के विभाजक हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, उल्टे सराव का] १. वेत्रासन का आकार जीवास्तिकाय, और पुद्गलास्तिकाय । आकार (त्रिलोक प्रज्ञप्ति) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय-एक-एक द्रव्य (भ. श. ७, उ.१) मध्यलोक का आकार हैं। आकाशास्तिकाय यह भी एक द्रव्य है किन्तु लोक १. झल्लरो का आकार अलोक दोनों में व्याप्त है। जीवास्तिकाय और पुद्गला२. पल्यंक का आकार २. आधे उध्वं मृदंग का स्तिकाय अनन्त द्रव्य है। (भ. श. ७, उ. १) आकार (ङ) इन छ: द्रव्यों में से एक काल द्रव्य के प्रदेश नहीं (जबुद्वापप्रज्ञाप्त संग्रह) हैं। क्योंकि अतीत के समय नष्ट हो जाते हैं और ऊवलोक का आकार भविष्य के समय अनत्पन्न हैं, इसलिए इनका कोई ३. तपाकार का आकार | १. ऊर्ध्व मृदंग का आकार अस्तित्व नहीं है, केवल वर्तमान का एक समय ऐसा (भ. श. ११, उ. १०) । (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) कतिपय जैन ग्रन्थों में लोक का आकार पुरुष संस्थान के १ पुद्गलास्तिकाय । समान भी बतलाया है-दोनों हाथ कमर पर रखकर तथा २ मुक्त आत्मा को मध्यलोक से, लोक के अग्रभाग तक पहदोनों पैरों को फैलाकर कोई पुरुष खड़ा हो, वैसा ही यह चने में एक समय लगता है। मुक्त आत्मा जब मध्य लोक लोक है। (लोक प्रकाश १२-३) से एक रज्जु जितनी ऊंचाई तक पहुंचता है, तब तक उसे वैदिक ग्रन्थों में विश्व का आकार विराट् पुरुष के रूप में जितना समय लगता है उतना समय, उस एक समय का लिखा है। विभाज्य अंश मान लिया जाए तो क्या आपत्ति है ? Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) काल द्रव्य है, जो अविभाज्य है, अतः इसके प्रदेश नहीं हैं और प्रदेशों के न होने से ही यह काल द्रव्य अस्तिकाय नहीं है । शेष पांच द्रव्यों के प्रदेश हैं अतः वे अस्तिकाय हैं। इन्हों पंचास्तिकायों से यह लोक, द्रव्यलोक कहा जाता है। क्षेत्र-लोक : लोक का विस्तार इस अनन्त आकाश में प्रतिदिन होने वाले चन्द्र-सूर्य के उदायस्त को तथा झिलमिलाते अनगिनत तारों को देखकर जब कभी मानव ने चिन्तन किया तो उसके मन में विश्व के विस्तार की परिकल्पना जागृत हुई और वह सोचने लगा कि नीचे-ऊपर और दायें-बायें यह लोक (विश्व) कितनी दूरी तक फैला हुआ है ? यह असीमअनन्त है या ससीम सान्त है ? (१) यह लोक नीचे-ऊपर और दायें-बायें असंख्य कोटा कोटी योजन पर्यन्त फैला हुआ है यह असत्कल्पना से लोक के विस्तार का अंकन है। (२) जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित मेरु पर्वत की चूलिका को छह देव घेर कर खड़े रहें और नीचे जम्बूद्वीप की परिधि पर चार दिग्कुमारियाँ चारों दिशाओं में बाहर ( लवण समुद्र) की ओर मुंह करके खड़ी रहें । वे चारों एक साथ चारों बलिपिण्डों को बाहर की ओर फेंके । पृथ्वी पर गिरने से पूर्व उन बलिपिण्डों को वे देव एक साथ ग्रहण कर सकें, ऐसी दिव्यगति वाले वे देव, लोक का अन्त पाने के लिए पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊपर और नीचे की ओर एक साथ चलें। जिस समय वे देव मेरु की चूलिका से चलें, उस समय एक हजार वर्ष की आयु वाला व्यक्ति व उसकी सात पीढ़ियाँ भी समाप्त हो जाएँ और उसके नाम गोत्र भी (१) प्रथम समाधान, द्वितीय और तृतीय समाधान जैनागमों में तथा ग्रन्थों में उक्त जिज्ञासाओं के तीन की अपेक्षा प्राचीन तथा तर्कसंगत प्रतीत होता है। समाधान मिलते हैं। :― आधुनिक विज्ञान भी विश्व का विस्तार असंख्य योजन का ही मानता है । यथा एक घण्टे में प्रकाश की गति ६७८७४४० मील है । इस अनन्त आकाश में अनेक ग्रह ऐसे हैं जिनका प्रकाश पृथ्वी पर अनेक वर्षों में पहुँचता है अतः लोक का विस्तार असंख्य कोटा कोटी योजन मानना ही ठीक है । १ काय अर्थात् - शरीर के देश-प्रदेशों के समान काल द्रव्य के देश-प्रवेश नहीं है। इसलिए काम प्रभ्य होते हुए भी अस्तिकाय नहीं है। भगवती, श. ११. उ. १० । २ नष्ट हो जाए फिर भो वे देव-लोक के अन्त को न पा सकें। किन्तु इस समय तक देवताओं ने जितना क्षेत्र पार किया है वह अधिक है और शेष क्षेत्र अप है। (३) चौदह रज्जु प्रमाण लोक तथा एक रज्जु का औपमिक माथ तीन क्रोड, इक्यासी लाख सत्ताइस हजार नौ सौ सत्तर मण वजन का "एक भार" होता है। ऐसे हजार भार अर्थात् - ३८ अरब, १२ क्रोड, ७६ लाख, ७० हजार मण वजन का एक लोहे का गोला छः मास, छः दिन, छः प्रहर और छः घडो में जितनी दूरी तय करे उतनी लम्बी दूरी एक रज्जु होता है। ऐसे चौदह रज्जु प्रमाण यह लोक नीचे से ऊपर पर्यन्त है। उक्त तीन समाधानों की क्रमशः समीक्षा : (२) प्रस्तुत असत्कल्पना के सम्बन्ध में निम्नलिखित मुद्दे विचारणीय हैं— देवों को केवल आधे रज्जु की दूरी ही तय करनी है । (क) पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में जाने वाले अतः समान वेग वाले देवों ने समान समय में, समान दूरी तय कर ली - यह कैसे संगत हो सकता है ? टीकाकार आचार्य ने भी इस सम्बन्ध में अपना यदि समचतुर मान लिया जाये तो समान वेग वाले अभिमत प्रस्तुत करते हुए कहा है कि लोक का आकार देव समान समय में समान दूरी तय कर सकते हैं, अन्यथा आगमोक्त उदाहरण की संगति सम्भव नहीं है । (ख) देवों द्वारा नहीं पार किया हुआ क्षेत्र, पार किये हुए क्षेत्र के असंख्यातवें भाग जितना है। अर्थात् देवों द्वारा नहीं पार किये हुए क्षेत्र से पार किया हुआ क्षेत्र असंख्यात गुणा अधिक है। इस आगम निर्णय की संगति किस प्रकार की जाए ? Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) बलि-पिण्ड लेने के लिए जिस देव को मेरु की पार कर सकता है। जबकि उक्त असत्कल्पना में तीव्रतम चलिका से जम्बूद्वीप के विजय द्वार तक आना होता है, गति वाले देव भी आठ हजार वर्ष में लोकान्त तक नहीं उसे लगभग १,१२,२०० योजनों की दूरी तय करनी पड़ती पहँच सके । इसका फलितार्थ यह हुआ कि लोहे के गोले है। इतनी दूरी कम से कम एक चुटकी बजे जितनी देर की गति से देवताओं की गति मन्द है जबकि देवताओं में तय कर लेता होगा, जबकि कुछ ऐसे दिव्य गति वाले की गति से लोहे के गोले की गति मन्द होनी चाहिए। देव हैं जो एक चुटकी बजे जितनी देर में पूरे जम्बूद्वीप "शकेन्द्र की गति से वज्र की गति मन्द रही है।" यह की परिक्रमा कर लेते हैं। अर्थात् बलि-पिण्ड पकड़ने तथ्य व्याख्याप्रज्ञप्ति में वर्णित है। वाले देव से एक चुटकी में तिगुनी दूरी तय कर लेते हैं। (ख) एक रज्ज का यह औपमिक परिमाण "जैनतत्वकुछ देव ऐसी दिव्य गति वाले भी हैं जो तीन चुटकी प्रकाश" (स्व० पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी म. लिखित) बजे उतनी देर में इक्कीस परिक्रमा कर लेते हैं। अब में दिया गया है। किन्तु किस ग्रन्थ से उद्धृत किया गया, विचारणीय विषय यह है कि उक्त कल्पना में लोक का यह अज्ञात है। यदि किसी प्राचीन ग्रन्थ में यह है तो अन्त पाने के लिए ऐसी दिव्य गति वाले देवों की गति अवश्य विचारणीय है। का उदाहरण क्यों नहीं दिया गया? (ग) आधुनिक वैज्ञानिकों की यह मान्यता है कि (घ) उक्त कल्पना में लोक का अन्त पाने के लिए लोहे का गोला एक मण वजन का हो चाहे हजार मण जाने वाले देव लगभग आठ हजार वर्ष में भी लोक का वजन का हो, परन्तु किसी निर्धारित ऊँचाई से गिराने पर अन्त नहीं पा सकते, जबकि तीर्थंकर भगवान के जन्मा- सदा समान गति से गिरता है । एक घण्टे में लोहे की गति भिषेक आदि महोत्सवों में अच्युतेन्द्र आदि आते हैं तो वे ऊपर से नीचे की ओर केवल ७८ हजार ५५२ माइल की एक मुहूर्त (लगभग ४८ मिनट) में पोने चार रज्जु की होती है । पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में ही यह गति आधुनिक दूरी तय कर लेते हैं। यदि (असत्कल्पना से) अच्युतेन्द्र वैज्ञानिकों ने मानी है । यदि विज्ञानसम्मत लोहे के गोले लोक का अन्त पाने के लिए तीव्रतम गति से चलें तो की गति का आधार लेकर एक रज्जु का परिमाण लगभग चार मूहूर्त में लोक के अन्त तक पहुँच सकते हैं। निकालें तो इस प्रकार आयेगाअतः आठ हजार वर्ष तक लोक का अन्त न पा सकना यथा-छ: मास, छः दिन, छः प्रहर और छः घड़ी विचारणीय अवश्य है। के ४४८४ घण्टे और २४ मिनट होते हैं। इतने समय में (ङ) चमरेन्द्र भगवान महावीर की शरण लेकर लोहे का गोला ३५ करोड २२ लाख ५८ हजार और ५८६ शक्रेन्द्र को अपमानित करने के लिए सौधर्म देवलोक तक माइल की दूरी पार कर लेगा-ये एक रज्जु के माइल गया। और वज्र की मार से बचने के लिए वह वहाँ से हुए। इस प्रकार चौदह रज्जु के ४ अरब, ६३ करोड़, लौट कर भगवान महावीर के समीप पहुँचा । शकेन्द्र भी १७ लाख और २४३ माइल हुए। लोहे के गोले की गति वज्र को पकड़ने के लिए तीव्रगति से चला। प्रस्तुत से लोक का विस्तार इतना ही होता है, किन्तु यह लोक प्रसंग में चमरेन्द्र लगभग डेढ़ रज्जु गया और आया, का विस्तार सर्वथा असंगत है। शक्रेन्द्र केवल डेढ़ रज्जु आया। चमरेन्द्र को आने जाने (घ) तोल में 'मण' संज्ञा किस युग में निर्धारित की में अधिक से अधिक एक मुहूर्त लगा होगा। जबकि उक्त गई है? इसका ऐतिहासिक दृष्टि से निर्णय होना आवअसत्कल्पन में देव लोकान्त तक आठ हजार वर्ष में भी । श्यक है। क्योंकि राजाओं के शासन काल में तोल में नहीं पहुँच पाते । अतः यह अवधि विचारणीय है। 'मण' प्रचलित था। (३) एक रज्जु के औपमिक परिमाण के सम्बन्ध में (ङ) आगम काल में 'मण' तोल प्रचलित नहीं था, निम्नलिखित तथ्य विचारणीय हैं अतः यह मध्यकालीन तोल का नाम है। फिर भी इस (क) एक रज्जु का जो औपमिक परिमाण बताया है सम्बन्ध में शोध कार्य होना आवश्यक है। उस हिसाब से उक्त भार वाला लोहे का गोला सात काल-लोक वर्ष, तीन मास और आठ दिन में चौदह रज्जु की दूरी यह लोक (विश्व) सान्त है या अनन्त ? यह एक Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न है। इसका समाधान वैदिक-परम्परा ने इस प्रकार मिक' । ये पांचों भाव जीव के स्वरूप हैं। इन पांचों में किया है-"विश्व का आदि भी है, और अन्त भी है, एक औदयिक भाव वैभाविक है- शेष चार स्वाभाविक अर्थात् सृष्टि का सृजन और संहार दोनों होते हैं।" हैं। औपशमिक आदि तीन भाव उत्तरोत्तर आत्मशुद्धि जैन-दर्शन ने इसका समाधान अनेकान्त-दृष्टि से इस के हैं।10 प्रकार किया है मुक्त जीवों में दो भाव हैं-१. क्षायिक और २ पारि__ "यह लोक द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से सान्त है, णामिक। काल और भाव' की अपेक्षा से अनन्त है। संसारी जीवों में से किसी के तीन भाव, किसी के भाव लोक चार भाव और किसी के पांच भाव हैं। दो या एक भाव भाव पांच प्रकार के हैं-१. औपशमिक', २. क्षायो- किसी संसारी जीव में नहीं होते । यह लोक अनन्त जीवों पशमिक, ३. क्षायिका, ४. औदयिक, ५. पारिणा- से व्याप्त है। और वे अनन्त जीव इन पांच भावों से युक्त हैं । इसलिए यह भावलोक भी है। जहाँ तक यह लोक है वहाँ तक ही धर्मास्तिकाय और उदार योगदान अधर्मास्तिकाय है । जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय भी लोकान्त तक ही है। अतः यह लोक द्रव्यापेक्षया सान्त है। गणितानुयोग के प्रस्तुत परिवधित/संशोधित द्वितीय संस्करण के सम्पादन काल में सभी सेवा कार्य करते हए २ यह लोक क्षेत्र से असंख्य कोटा-कोटी योजन पर्यन्त है, संशोधन आदि अनेक महत्वपूर्ण कार्य श्री विनयमुनि जी आगे अलोक है । अतः यह लोक क्षेत्रापेक्षया भी सान्त है। काल दो प्रकार का है :-नश्चयिक काल और व्याव ___ "वागीश" ने विवेक पूर्ण सम्पन्न किये हैं। हारिक काल । नैश्चयिक काल अनन्त है। अतः इसकी सम्पादन सम्बन्धी अनेक विषम समस्याओं के समाअपेक्षा यह लोक भी अनन्त हैं। और यह काल लोक- धान के समय न्याय-साहित्य व्याकरणाचार्य श्री महेन्द्र व्यापी है। अतः यह धर्मास्तिकाय के समान लोक-अलोक ऋषि जी ने विचार विमर्श का योगदान किया है। का विभाजक भी है। समय, आवलिका-यावत-कालचक्र शुद्ध सुन्दर लेखन आदि श्रमसाध्य कार्यों का उदार पर्यन्त व्यावहारिक काल है। चन्द्र, सूर्य आदि ग्रहों के योगदान श्रमणी प्रवरा श्री मुक्तिप्रभा जी एवं श्री दिव्यगमन और उदयास्त के निमित्त से मानव ही व्यावहारिक प्रभा जी का तथा उनकी शिष्याओं का रहा है। काल के विभाग स्थिर करता है। इसलिए मनुष्य-क्षेत्र को इन सब चारित्र आत्माओं के उदार योगदान से ही समय क्षेत्र कहते हैं । यह मनुष्य-क्षेत्र अढाई द्वीप पर्यन्त है। यह संस्करण सम्पन्न हुआ अतएव इनके प्रति मैं कृतज्ञता जीव-द्रव्य, काल की अपेक्षा से अनन्त हैं, अतः जीव समुदाय के औपशमकादि भाव भी काल की अपेक्षा से अनन्त -मनि कन्हैयालाल 'कमल' हैं । और इन औपशमिकादि भावों की अपेक्षा यह लोक अनन्त है। कषाय, ३. तीन लिंग-भेद, ४. एक मिथ्यादर्शन, ५. एक ५ औपशमिक भाव दो प्रकार का है :-१. सम्यकत्व, अज्ञान, ६. असंयम, ७. एक असिद्ध भाव, ८. छः २. चारित्र । लेश्यायें। क्षायिक भाव नव प्रकार का है :-१. ज्ञान, २. दर्शन, ३. दान, ४. लाभ, ५. भोग, ६. उपभोग, ७. वीर्य, पारिणमिक भाव अनेक प्रकार के हैं :-जीवत्व, भव्यत्व ८. सम्यक्त्व, ६. चारित्र। और अभब्यत्व ये तीन तथा अन्य भी पारिणामिक भाव हैं। ७ क्षायोपशमिक भाव अठारह प्रकार का है : १० स्थानांग-स्था. ३, उ. २, सूत्र १५३ में ज्ञान, दर्शन, १. चार ज्ञान, २. तीन अज्ञान, ३. तीन दर्शन, ४. पांच चारित्र को ही भाव-लोक कहा है। केवलज्ञान, केवलदर्शन दानादि लब्धियाँ, ५. सम्यक्त्व, ६. चारित्र-सर्वविरति, और यथाख्यातचारित्र क्षायिक भाव हैं । शेष चार चारित्र और ७. संयमासंयम-देशविरति ।। क्षायोपशमिक भाव एवं औपशमिक भाव हैं। आत्मशुद्धि + औदयिक भाव इक्कीस हैं :-१, चार गतियां, २. चार की अपेक्षा से औपशमिकादि तीन भाव लोक हैं। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद सहयोगियों को नामावली सेठ श्री चुन्नीलाल नरभेराम मेमोरियल ट्रस्ट, बम्बई श्री विजयराजजी बालाबक्षजी बोहरा साबरमती हस्ते श्री मनुभाई बेकरीवाला अहमदाबाद गांधी परिवार हैदराबाद श्री अजयराज जी मेहता ऐलिसब्रिज, अहमदाबाद श्री बलदेवभाई डोसाभाई पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट, श्री माणेकलाल सी. गाँधी अहमदाबाद अहमदाबाद । हस्ते बलदेवभाई डोसाभाई पटेल श्री जसवन्तलाल शान्तिलाल शाह बम्बई श्री आत्माराम माणेकलाल पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट, श्री स्वस्तिक कार्पोरेशन अहमदाबाद अहमदाबाद । हस्ते बलवन्तलाल शान्तिलाल हस्ते, श्री हंसमुखलाल कस्तूरचन्द श्री पार्श्वनाथ चेरिटेबल ट्रस्ट, अहमदाबाद श्री विजय कन्सट्रकशन कम्पनी अहमदाबाद हस्ते नवनीतभाई चुन्नीलाल पटेल हस्ते रजनीकांत कस्तूरचन्द श्री रमणलाल माणेकलाल शाह अहमदाबाद श्री वाडीलाल छोटालाल डेलीवाला बम्बई हस्ते सुभद्रा बहिन हस्ते, चन्द्रकांत बी० शाह श्री हिम्मतलाल शामलभाई शाह, अहमदाबाद श्री करसनभाई लधभाई निसर दादर बम्बई श्री पंजाब जैन भ्रात सभा; खार, बम्बई श्रीमती चन्द्रादेवी गंभीरमल जी बंब टोंक, राजस्थान श्री रतनकुमार जी जैन बम्बई श्रीमती लीलावती बेन जयंतीलाल चेरीटेबल ट्रस्ट, बम्बई "नित्यानंद स्टील रोलर मिल" श्री सेठ चेरिटी ट्रस्ट बम्बई श्री तेजराजजी रूपराजजी बंब ; इचलकरंजी महाराष्ट्र श्री हरिश सी. जैन बम्बई हस्ते, माणकचंद रूपचंद बंब भादवावाले श्री भंवरलाल जी मोहनलाल जी भंडारी, अहमदाबाद श्रीमती सुगनीबाई मोतीलाल जी बंब; हैदराबाद श्री नगीनभाई दोसी अहमदाबाद हस्ते श्री भीवराज बंब पीहवाला श्री कंवरलाल जी धर्मचन्द जी बेताला गौहाटी, आसाम श्री भंवरीलालजी जुगराजजी फुलफगर, घोड़नदी (महा.) श्री "प्रेमग्रप" अहमदाबाद "प्रेमराज गणपतराज बोहरा" श्री दिनेश भाई चन्द्रकान्त बैंकर सिकन्द्राबाद हस्ते पूरणचंद जी बोहरा श्री प्रेमचन्दजी पोमाजी साकरिया सांडेराव श्री कालूपुर मरकेन्टाईल कोपरेटिव बैंक लि. अहमदाबाद श्रीमती हंजाबाई प्रेमचन्द जी साकरिया सांडेराव श्री मोहनलाल जी मुकनचन्दजी बालिया अहमदाबाद श्रीमती पारसदेवी मोहनलाल जी पारख हैदराबाद श्री माणेकलाल रतनशी बगड़िया बम्बई श्री जादवजी लालजी वेलजी बम्बई श्री राजमल रिखबचंद मेहता चेरिटेबल ट्रस्ट बम्बई श्री गणसी देवराज जालना (महा.) हस्ते, सुशीला बहिन रमणीकलाल मेहता, पालनपुर श्री नवरत्नमलजी कोटेचा (बस्सी वाले) हैदराबाद श्री हरिलाल जेचंद दोसी ; विश्व वात्सल्य ट्रस्ट बम्बई श्री वृद्धिचन्दजी मेघराज जी साकरिया सांडेराव श्री जगजीवनदास रतनशी बगड़िया ; दामनगर गुजरात श्री जुहारमलजी लुम्बाजी साकरिया सांडेराव श्रीमती केलीबहिन चौधरी ट्रस्ट तिरुपति (तामिलनाडु) श्री ताराचन्द जी भगवानजी साकरिया सांडेराव हस्ते, शान्तिलाल धर्मीचन्द चौधरी श्री कस्तूरचन्दजी प्रतापजी साकरिया सांडेराव Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गेहरीलालजी कोठारी. कोठारी ज्वेलर्स बम्बई डा० धीरजलाल एच० गोसलिया नवरंगपुरा अहमदाबाद श्री मूलचन्दजी जवाहरलालजी बरड़िया मणिनगर श्री सज्जनसिंहजी भंवरलालजी कांकरिया पिपाड़ सिटी अहमदाबाद (वर्तमान अहमदाबाद) श्री धीगडमलजी मुलतानमलजी कानुंगा अहमदाबाद श्री कांतिलाल प्रेमचंद मुंगफली वाला अहमदाबाद श्री हिम्मतमल निहालचन्द दोसी बम्बई प्लाजा इण्डस्ट्रीज अहमदाबाद श्री आर० चौधरी बम्बई हस्ते, धनकुमार भोगीलाल पारीख श्री चंपालाल जी पारसमल जी चोरडिया मदनगंज स्व० मणीलाल नेमचन्द अजमेरा तथा स्व० कस्तुरी श्री जबरसिंह जी सुमेरसिंह जी बरडिया, रूपनगढ़ बहिन मणीलाल की स्मृति में । हस्ते चम्पकभाई श्री कांतिलालजी रतनचन्दजी बांठिया पनवेल महाराष्ट्र मणीलाल अजमेरा बम्बई मै० कन्हैयालाल माणकचन्द एण्ड सन्स बड़गाँव पुना श्री नगीनदास शिवलाल अहमदाबाद श्रीमती बिदाम बहिन घीसालालजी कोठारी हैदराबाद श्रीमती कांताबेन भंवरलालजी के वर्षीतप के उपलक्ष में हस्ते सखीदास महासुखभाई अहमदाबाद हस्ते, मिलापचन्द घीसालाल श्रीमती समरतबन चतुर्भज बम्बई श्री रणजीतसिंह ओमप्रकाश जैन काला वाली मंडी हस्ते, कांतिभाई बेकरीवाला (हरियाणा) श्री छगनलाल शामजी भाई विगणी राजकोट बम्बई श्री माणेकचन्दजी धर्मीचन्दजी प्रेमचन्दजी लुणावत श्री रसीकलाल हीरालाल झवेरी बम्बई हरमाड़ा (अजमेर) श्रीमती तरूलता बेन रमेशचन्द दफ्तरी बाल्केश्वर बम्बई श्री कांतिलाल जीवणलाल अहमदाबाद श्री ताराचन्द चतुर भाई वोरा वाल्केश्वर बम्बई श्री शान्तिलाल टी० अजमेरा, अहमदाबाद हस्ते, नंदलाल वोरा श्री चन्दुलाल शिवलाल संघवी अहमदाबाद श्री चंपकलाल एम० लाखाणी बम्बई हस्ते जयन्तीलाल संघवी श्री हीरजी सोजपाल कच्छकपाया वाला बम्बई श्रीमती पार्वती बहिन शिवलाल तलक्सीभाई अजमेरा श्री अमृतलाल सोभागचन्द की स्मृति में ट्रस्ट अहमदाबाद । हस्ते नवनीतलाल मणीलाल हस्ते, गुणवंतलाल राजेन्द्रकुमार बम्बई अजमेरा श्री दलिचन्दभाई अमृतलाल देसाई अहमदाबाद श्री शांतिलाल अमृतलाल बोरा अहमदाबाद श्री एच० के० गांधी मेमोरियल ट्रस्ट घाटकोपर वम्बई श्री कांतिलाल मनसुखलाल शाह पालियाद वाला हस्ते, वजुभाई गांधी श्री भाईलाल जादवजी सेठ कोल्हापुर, महाराष्ट्र अहमदाबाद श्री जुहारमल दीपचन्द नाहटा सर्राफ केकडी (राज.) श्री वाडिलाल मोहनलाल शाह सायन बम्बई श्री गिरधरलाल पुरुषोत्तमदास ऐलिसब्रिज अहमदाबाद हस्ते, धनराज लालचंद नाहटा श्री जयन्तीलाल भोगीलाल भावसार सरसपुर श्री नाहरमल जी बागरेचा राबडियाद अहमदाबाद हस्ते नौरतमल बागरेचा श्री शोवजी माणेक भेदा तथा उमरबाई शीवजी भेदा श्री भोगीलाल एण्ड कम्पनी अहमदाबाद-२ की स्मृति में कच्छ बरेजा हस्ते दोनुभाई भोगीलाल भावसार अ. सौ. रतनजी केशवजी छेड़ा की स्मृति में श्री चिमनलाल डोसाभाई पटेल अहमदाबाद हस्ते उमर बाई शिवजी भेदा कच्छ कुंदरोडी श्री अहमदाबाद स्टील स्टोर अहमदाबाद श्री पी. के. गांधी बम्बई हस्ते जयन्तीलाल मनसुखलाल लोखण्डवाला श्री सुखलालजी कोठारी खार बम्बई श्री जादवजी मोहनलाल शाह अहमदाबाद श्री नागरदास मोहनलाल, खार, बम्बई Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आनन्दीलालजी कटारिया वड़ाला बम्बई श्री हरखराजजी दौलतराजजी धारीवाल हैदराबाद श्री वसन्तलाल के. दोसी विलेपारला बम्बई श्री लादूसिंह जी गांग एडवोकेट शाहपुरा (राजस्थान) दी प्रीसीसन टेक्सटाइल इन्जीनियरिंग एण्ड काम्पोन्नटस श्री एस० एन० भीकमचन्द जी सुखाणी लाल बाजार बम्बई सिकन्द्राबाद श्री मेहता इन्द्रजी पुरुषोत्तमदास दादर बम्बई श्री ताराचन्द गुलाबचन्द बम्बई स्व० भाई अमृतलाल की स्मृति में श्री गिरधर लाल मंछाचन्द झवेरी धानेरावाला बम्बई श्री पारसमल जी कावडिया सादड़ी मारवाड़ (आर श्री पुखराजजी कावडिया सादड़ी मारवाड़ (बम्बई) काट) श्रो हिम्मतमल जी प्रेमचन्द जी साकरिया सांडेराव श्रीमति भूरीबाई भंवरलाल जी कोठारी सेमा (मेवाड़) श्री कोरसीभाई हीरजीभाई चेरिटेबल ट्रस्ट बम्बई हस्ते सागरमल मदनलाल रमेशचन्द्र, बम्बई श्री जयसुखभाई रामजीभाई कांदावाडी बम्बई श्री प्रेमराज जी चोरडिया मदनगंज (अजमेर) श्री चिमनलाल गिरधरलाल कांदावाडी बम्बई श्री शान्तिलाल जी संचेती मदनगंज, (अजमेर) श्री मेघजी भाई थोभण हस्ते मणीलाल वीरचन्द कांदा श्री चुन्नीलाज जी बागरेचा बालाघाट वाडी बम्बई श्री प्रितमलाल मोहनलाल दफ्तरी कांदावाडी बम्बई श्री रसीकलाल हीरालाल झवेरी, बम्बई मैसर्स सिलमोहन एण्ड कम्पनी बम्बई (टाइपराइटर हेतु) श्री सूरजमल कनकमल ; मदनगंज हस्ते रमणीकलाल धानेरा श्री माँगीलाल जी सोलंकी, सादड़ी वाले पूना श्री नरोतमदास मोहनलाल बम्बई श्री प्रवीण भाई के. मेहता बम्बई श्री रत्तीलाल विट्ठलदास गोसलिया माधवनगर, (महा०) श्री सज्जनराज जी कटारिया सिकन्द्राबाद श्री वाडीलाल जेठालाल शाह वाल्केश्वर बम्बई श्री बाबूलाल जी कांकरिया, हैदराबाद श्री जैन संस्कृति कला केन्द्र मरीन लाइन बम्बई आचार्य यशोदेव सुरीश्वरदेव महाराज की प्रेरणा से, श्री भरत भाई जे. शाह अहमदाबाद श्री मेवजी खिमजी तथा श्रीमति लक्ष्मी बेन मेघ जी श्री सोहनराज जी चौथमल जी संचेती (सोजत वाले) खिमजी बम्बई सुरगाणा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम अनुयोग ट्रस्ट : आगम ज्ञान प्रचार का महान् उपक्रम आगम अनुयोग ट्रस्ट, (पंजीकृत) अहमदाबाद - जैन आगमों को अनुयोग शैली में वर्गीकृत करके शुद्ध मूल पाठ एवं अनुवाद के साथ प्रकाशित करने की योजना को मूर्त रूप दे रहा है । कम से कम 500 रुपया देकर इच्छुक व्यक्ति अग्रिम ग्राहक सदस्य बना सकता है । D मान्य सदस्यों को सभी आगम ग्रन्थ निःशुल्क दिये जाते हैं । योजनानुसार ये ग्रन्थ मूल पाठ के साथ हिन्दी, गुजराती तथा अँग्रेजीतीन भाषाओं में अलग-अलग अनुवाद के साथ प्रकाशित जायेंगे । अग्रिम सदस्य किसी भी एक भाषा का एक सेट अपनी रुचि के अनुसार सुरक्षित करवा सकते हैं । और जैसे-जैसे प्रकाशित होंगे, उन्हें प्राप्त होते रहेंगे । सम्पर्क के लिये श्री हिम्मतलाल एस. शाह मन्त्री - आगम अनुयोग ट्रस्ट अमर निवास, सोहराबजी कम्पाउन्ड, वाड्ज, अहमदाबाद - 13 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्रेणी श्री बलदेवभाई डोसाभाई पटेल, अहमदाबाद आप मूलतः साणंद (गुजरात) के निवासी हैं। बहत वर्षों से अहमदाबाद में ही ब्यापार व्यवसाय कर रहे हैं। व्यापारी समाज में आपकी महत्वपूर्ण प्रतिष्ठा है। आपके कॉटन का बहत बड़ा व्यापार है, आप गुजरात व्यापारी महामण्डल के प्रमुख भी रहे हुए हैं । आप अखिल भारतीय शास्त्रोद्धार समिति के प्रमुख हैं एवं अनेक सामाजिक संस्थाओं के सक्रिय कार्यकर्ता हैं। लोककल्याण के कार्यों में सदा तत्पर रहते हैं। अनेक वर्षों से आप ब्रह्मचर्य व्रत एवं रात्रि में चौविहार आदि का पालन करते हैं। प्रतिदिन सामायिक, प्रति-क्रमण तथा धार्मिक ग्रन्थों का स्वाध्याय ही आपकी दिनचर्या का प्रमुख अंग है। आप दृढ़ धर्मी, उदार हृदयी श्रावक हैं अत: स्थानीय समाज के अग्रणी माने जाते हैं। कालूपुर बैंक के आप चेयरमेन हैं। अनुयोग प्रवर्तक पूज्य गुरुदेव श्री कन्हैयालालजी म० 'कमल' के सम्पर्क में आप सन् 1976 में आये। उनके अनुयोग लेखन कार्य से प्रभावित होकर आपने आगम अनुयोग ट्रस्ट की स्थापना की, इस समय ट्रस्ट के प्रमुख भी आप ही हैं। आपकी धर्मपत्नि श्रीमती रुक्मणी बहिन भी धार्मिक भावना वाली हैं, आपके सुपुत्र बच्चूभाई, बकुलभाई में धर्म के सुसंस्कार दृढ़ श्री हिम्मतलाल शामलभाई शाह, अहमदाबाद आप बहुत ही उत्साही कार्यकर्ता हैं। शामलभाई अमरशी के आप सुपुत्र हैं। आपके घर पर एक विशाल पूस्तकालय है, उसमें अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह है। शोध निबन्ध लेखकों के लिए यह संग्रह अत्यन्त उपादेय है। आप साधु-साध्वियों को ज्ञान वृद्धि के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं। आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप ट्रस्टी हैं। प्रकाशनों की प्रगति में आपका महत्वपूर्ण सक्रिय योगदान रहता है। वृद्धावस्था में भी आपका पुरुषार्थ, धर्म एवं स्वाध्याय की रुचि अनुकरणीय है। अनुयोग प्रकाशन के प्रति आप विशेष प्रयत्नशील है । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्रेणी श्री रमणलाल माणेकलाल शाह, अहमदाबाद आप नवरंगपुरा अहमदाबाद के निवासी हैं। आपके मातुश्री लहरी बहन तथा धर्मपत्नी सुभद्रा बहन बहुत ही धार्मिक भावना वाली श्राविका हैं। आपने स्था० जैन उपाश्रयों में बहुत बड़ा योगदान दिया है। पूज्य गुरुदेव के दीक्षा अद्ध शताब्दी के अवसर पर श्री वर्धमान महावीर बाल निकेतन के उद्घाटन पर भी आपने बहुत बड़ा योगदान दिया है। आप आगम अनुयोग ट्रस्ट के ट्रस्टी हैं। अनेक बार व्यापार के कारण विदेश जाना होता है परन्तु वहाँ भी धर्म के प्रति वही दढ़ श्रद्धा रहती है। मानव राहत कार्यों में अपनी सम्पत्ति का सदुपयोग विशेष रूप से करते रहते हैं। श्री बलवन्तलाल शान्तीलाल शाहः अहमदाबाद 182706214 VIRNA आप अहमदाबाद में रूई (कॉटन) के प्रतिष्ठित व्यापारी हैं। आपकी आत्माराम माणेकलाल नाम की बहुत बड़ी फर्म है । बहुत ही धार्मिक, उदार, गुप्तदानी श्रावक हैं। दरियापुरी स्थानकवासी जैन संघ छीपापोल एवं अनेक संस्थाओं के आप सक्रिय कार्यकर्ता हैं । आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप ट्रस्टी हैं। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्रेणी स्व. तेजराजजी घेवरचंदजी बंब, इवलकरंजी आप मूलतः भादवा मारवाड़ निवासी थे। आप आठ भाई थे; श्री मूलचन्द जी, श्री तेजराज जी, श्री मदनलाल जी, श्री माणकचन्द जी, श्री सोहनलाल जी, श्री मोतीलाल जी, हिराचन्द जी एवं श्री श्रीचन्द जी। श्री तेजराज जी सा० का तीन वर्ष पूर्व निधन हो गया। आप बहुत ही धर्मनिष्ठ उदार हृदयी श्रावक थे। आप पूज्य गुरुदेव श्री फतेहचन्द जी म० के सुशिष्य अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालाल जी म० "कमल" के अनन्य भक्त थे। आपके सुपूत्र रूपचन्द जी भी धामिक भावना वाले उदार हृदय युवक हैं। आपका वर्तमान में व्यवसायिक क्षेत्र इचलकरंजी है। आप आगम अनुयाग ट्रस्ट के ट्रस्टी थे। स्व0 जगजीवन दास रतन सी बगड़िया दामनगर आप दामनगर के प्रतिष्ठित सूश्रावक थे। आगमों के बहुत बड़े अभ्यासी थे। अनेक शास्त्रों का प्रकाशन भी आपने करवाया था। बहुत ही नम्र स्वभाव के थे। साध्वीयों के प्रति आपकी असीम श्रद्धा थी। बोटाद संप्रदाय के श्री अमीचन्द जी म० की प्रेरणा से अ.पके सुपूत्र भोगी भाई के चतुर्थ व्रत के प्रत्याख्यान के उपलक्ष्य में आगम अनुयोग ट्रस्ट को बहुत बड़ा योगदान दिया है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमश्रेणी श्री नवनीत भाई चुन्नीलाल पटेल, अहमदाबाद आपने अनेक स्थानकों के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। तपस्वियों का सम्मान करने में आपको विशेष रुचि रही है। पार्श्वनाथ कॉर्पोरेशन के आप मैंनेजिंग डाइरेक्टर हैं। बरवाला संप्रदाय के आचार्य श्री चम्पक मुनिजी म० के अनन्य भक्त हैं। हरसिद्ध कोपरेटिव बैंक के आप चेयरमेन हैं। अपनी जन्मभूमि सुणाव में होस्पिटल के लिए पाँच लाख का महत्वपूर्ण दान दिया है। नवरंगपुरा, नारायणपुरा, नवावाडज आदि अनेक संघों के एवं संस्थाओं के आप ट्रस्टी एवं प्रमुख हैं। आपके पिता श्री चुन्नीलाल भाई, माता सूरजबेन भी बहुत ही धर्मपरायण हैं। साधु साध्वी जी की वैयावच्च हेतु अग्रणी रहते हैं । आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप ट्रस्टी हैं। PP स्व० श्री राजमल रिखबचंद मेहता एवं स्व० श्रीमती मणीबेन राजमल मेहता पालनपुर पूज्य मातुश्री तथा पिताश्री; आपका हमारे ऊपर बहुत उपकार है। क्योंकि संस्कार सिंचन करने वाले एवं जीवन में धर्म रूप पाया डालने वाले माता पिता ही होते हैं। हम आपके बहुत-२ ऋणी हैं। विनीत- रमणिकलाल राजमल सौ० सुशीला बहन रमणिकलाल [श्रीमती सुशीला बहन मेहता - पालनपुर स्थानकवासी समाज की अग्रणी महिला है। वर्तमान में बालकेश्वर संघ की प्रमुख हैं। बहुत ही उदार दानवीर महिला हैं। उपाश्रय आदि के लिए आपका विशेष योगदान रहता है ।] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्रेणी स्व. श्री हरिभाई जयचन्द दोशी विश्व वात्सल्य ट्रस्ट बम्बई आप बड़े ही सादगीप्रिय तत्वज्ञानी श्रावक थे। धर्म के प्रति गहरी श्रद्धा रखते थे। साधु-साध्वियों के प्रति भक्ति एवं दान की भावना विशेष थी। आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप भी प्रथम श्रेणी के सहयोगी धर्मशीला उदयकंवर बाई मोहनलाल जी बालीया आप मुकनचन्द जी बालिया के सुपुत्र श्री मोहनलाल जी की धर्मपत्नी हैं । बहुत ही उदार, धर्मशीला श्राविका हैं। बालीया जी साहब मूलतः पाली मारवाड़ के प्रतिष्ठित कूल के हैं। अनेक संस्थाओं के प्राण हैं। वर्धमान महावीर केन्द्र आबू पर्वत पर प्रथम बार आपने बड़े पैमाने पर आयंबिल ओली का भव्य आयोजन करवाया। पाली में निर्मित आचार्य रघुनाथ स्मति भवन का उद्घाटन आपके द्वारा हुआ। आगम अनुयोग ट्रस्ट के विशेष सहयोगी हैं । पूज्य प्रवर्तक स्व० मरुधर केशरी जी महाराज एवं अनुयोग प्रवर्तक श्री जी के प्रति विशेष श्रद्धा रखते हैं। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम श्रेणी स्व० श्री मेघराज जी बम्ब, हैदराबाद आप मूलतः पीही मारवाड़ निवासी हैं। हैदराबाद में रह कर आपने बहुत बड़ा व्यापार किया। अनेक सुकृत कार्यों में उदार मन से जीवन पर्यन्त सहयोग करते रहे । शमशेरगंज में धर्म आराधना हेतु एक भवन का निर्माण भी कराया। आपका स्वास्थ्य कुछ वर्षों से अच्छा नहीं था, कुछ वर्ष पूर्व आपका स्वर्गवास हो गया। आप पूज्य गुरुदेव श्री महाराज के अनन्य भक्त थे, आप अन्तिम समय तक गुरुदेव के चातुर्मास की प्रबल भावना करते रहे । वह भी सफल हुई और गुरुदेव का चातुमसि वि० सं० २०२८ का हुआ। आपके भाई चांदमल जी भीमराज जी शिवराज जी भी बहुत ही धामिक उदार व गुरुभक्त हैं। आप आगम अनुयोग ट्रस्ट के प्रथम श्रेणी के सहयोगी बने । श्री माणिकलाल एम० बगड़िया आप मूलतः दामनगर (सौराष्ट्र) निवासी है। वहाँ का बगड़िया परिवार धर्म के प्रति उत्साह शील तथा ज्ञान के प्रति विशेष रुचि रखता है । आप बहुत ही उदारमना, सुश्रावक है। आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप प्रथम श्रेणी के सक्रिय सदस्य है। बोटाद सम्प्रदाय के पूज्य श्री अमीचन्द जी म० के भक्त धर्म-अनुरागी श्रावक हैं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रेणी श्री अजयराज जी मेहता अहमदाबाद, आप मुख्यतः बड़लू (भोपालगढ़) के निवासी हैं। आपकी धर्मपत्नी सरोजबेन भी बहुत धार्मिक भावना वाली हैं। आपका अहमदाबाद में फाइनेन्स का व्यवसाय है । आप बहुत ही नम्र, सरल एवं उदार व्यक्ति हैं। आगम अनुयोग ट्रस्ट के ट्रस्टी हैं। श्री विजयराज जी, बोहरा; अहमदाबाद आप राणीवाल मारवाड़ के निवासी हैं। श्री बालाबक्स जी के आप सुपुत्र हैं। अहमदाबाद में आपका न्यू क्लोथ मार्केट में फाइनेन्स का बहुत बड़ा व्यापार है। अनुयोग के कार्य हेतु पूज्य गुरुदेव अहमदाबाद पधारे जब से विशेष रुचि है । आप पूज्य मरुधर केसरी जी म० के अनन्य भक्त हैं । अनुयोग ट्रस्ट के ट्रस्टी हैं। श्री वर्धमान महावीर बाल निकेतन आबू पर्वत के भी आप ट्रस्टी हैं। वर्तमान में साबरमती स्था० जैन संघ के अध्यक्ष हैं। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रेणी श्रीमती केलीबाई देवराज जी चौधरी जैतारण, (मारवाड़) आप बहुत ही धार्मिक दानवीर महिला हैं। आपके सुपुत्र श्री शान्तिलाल जी एवं श्री धर्मीचन्द जी चौधरी कर्मठ कार्यकर्ता हैं। आपका व्यवसाय तिरुपति बालाजी में है। आपने अनेक बार बहुत लम्बे-लम्बे मुनि दर्शनार्थ संघ निकाले हैं स्थान-स्थान पर दान देकर सम्पत्ति का सदुपयोग कर रहे हैं । आपने आगम अनुयोग ट्रस्ट को भी सहयोग प्रदान किया है। श्रीमती चन्द्रादेवी बंब, टोंक (राज०) आपका जन्म आसोज बदी १२ सन् १९३३ दिल्ली में हुआ। सन् १९४५ में (राज०) के प्रतिष्ठित परिवार के श्री धन्नालालजी बंब के सुपुत्र श्री गंभीरमल जी के साथ पाणिग्रहण हआ। आपके दो सुपुत्र श्री अजीतकुमार एवं श्री अशोक कुमार हैं। आप अनुयोग प्रवर्तक पं० रत्न मुनि श्री कन्हैयालाल जी म. 'कमल' एव महासती श्री पानकंवर जी, तथा रत्नकंवर जी से विशेष प्रभावित हुई हैं। श्री विनय मुनि जी 'वागीश' के जीवन निर्माण में एवं धर्म की और अग्रसर करने में आप प्रमुख रही हैं। आप स्वयं के दीक्षा लेने के उग्रभाव थे परन्तु स्वास्थ्य अनुकूल न होने के कारण न ले सके । आपका स्वभाव बहत ही विनम्र है। आपने अनुयोग ट्रस्ट में विशेष योगदान दिया है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रेणी श्रीमान प्रेमचन्दजी पोमाजी साकरिया (सांडेराव) आप सांडेराव के प्रमुख श्रावक श्री पोमाजी दलीचन्दजी के सुपुत्र थे। श्री पोमाजी तपस्वी गुरुदेव श्री वख्तावरमल जी म० के अनन्य भक्त थे । आपका भी जीवन बहुत धर्ममय सादगी पूर्ण था। आप सरल हृदय के श्रद्धाशील श्रावक थे। आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप सक्रिय सहयोगी थे। श्रीमान ताराचन्दजी भगवानजी (सांडेराव) आप धार्मिक आराधना उपासना में विशेष प्रबल भावना रखते हैं। आपका व्यवसाय क्षेत्र बम्बई है: आप शरीर से अस्वस्थ होते हुए भी सदा प्रसन्न चित्त रहते हैं। सहिष्णुता सज्जनता आपके स्वभाव के सहज गुण है। आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप सक्रिय सहयोगी हैं। * Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रेणो धर्मशीला श्रीमती हंजाबाई प्रेमचन्द जी साकरिया आपका जीवन बहुत ही धर्ममय त्याग मय है। आपके सपुत्र श्री साकलचन्दजी डा० घीसूलाल जी आदि सभी परिवार की पूज्य गुरुदेव के प्रति गहरी श्रद्धा एवं भक्ति है। साकरिया ब्रादर्स नाम से बम्बई (सायन) में आपके परिवार का मेडिकल व्यवसाय है। आगम अनुयोग ट्रस्ट को आपका सक्रिय सहयोग मिला है। श्रीमती गैहरीलालजी कोठारी [ बम्बई] श्रीमान गहरी लाल जी कोठारी मेवाड मंघ शिरोमणि प्रवर्तक श्री अम्बालालजी म० के प्रति विशेष भक्तिभाव रखने वाले धर्मप्रेमी उदार हृदय सज्जन है। आप समाज के सभी कार्यों में तन-मन-धन से आगे रहकर सेवा करते हैं। बड़े ही हँसमुख, सरल स्वभावी और दानी सज्जन है। आपकी धर्मपत्नी सुश्राविका भी आपकी भांति दान-शील-तप-आदि धर्माचरण में विशेष रुचि रखती है। आगम अनुयोग टस्ट के प्रकाशन कार्य में आपका सहयोग प्राप्त हुआ है। आप मूलतः सेमा (मेवाड) निवासी है। वर्तमान में कोठारी ज्वेलर्स, नाम से सायन (बम्बई) में आपका व्यवसाय है। श्रीमती पारस देवी मोहन लाल जी पारख, हैदराबाद श्रीमान मोहनलाल जी मूलतः लाम्बिया (मारवाड़) निवासी है। आप बहुत ही उदार हृदय के धर्म प्रेमी सज्जन है। सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में सदा सहयोग प्रदान करते रहते हैं। हैदराबाद में आपका फाइनेन्स का व्यवसाय ही श्रीमती पारसदेवी पीही निवासी श्रीमान घोसलाल जी कोठारी की बहन है। साधु सन्तों के प्रति विशेष भक्तिभाव है। आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप सक्रिय सहयोगी है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रेणी श्री रणजीतसिंह जी जैन आप प्रसिद्ध श्रावक श्री लक्खूराम जी जैन मन्डी कालावाली (जि. सिरसा-हरियाणा) के सुपुत्र हैं। स्वामी श्री छगन लाल जी महाराज के आप परम भक्त हैं। तपस्वी श्री रोशन मुनि जी म० के प्रति भी आपकी विशेष भक्ति है। सामाजिक धार्मिक कार्यों में आप उदारतापूर्वक सहयोग देते हैं। आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप सक्रिय सदस्य हैं। श्रीमान जुहारमलजी लम्बाजी साकरिया (सांडेराव) आपका परिवार बहत ही धर्मनिष्ठ तथा उदार मना है। आपकी भाँति आपकी धर्मपत्नी सौ० पानीबाई भी बहुत ही धर्मशीला, सेवापराणय सुधाविका है। आपके सुपुत्र श्री चम्पालाल जी, फुटरमल जी, हस्तीमल जी, और सागरमल जी और रमेशचन्द जी सभी भाई धर्मप्रेमी व गुरुदेव श्री के परम भक्त हैं। आगम अनुयोग ट्रस्ट ; श्री वर्द्धमान महावीर केन्द्र आबू पर्वत आदि संस्थाओं में आपका सक्रिय सहयोग मिलता रहता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रेणी श्रीमान कँवरलालजी बेताला (गोहाटी) STONE आप मूलतः डेह (नागौर) निवासी हैं। आपके पिताश्री सेठ श्री पूनमचन्द जी एवं माता श्रीमती राजबाई बहत ही धार्मिक विचारों के उदार हृदय थे । आप भी सन्तसेवा, समाज सेवा, शिक्षा, चिकित्सा, धर्मस्थाननिर्माण एवं साहित्य प्रकाशन आदि विभिन्न क्षेत्रों में उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान करते रहते हैं। स्व० युवाचार्य श्री के आप अनन्य भक्त हैं। ज्ञानचन्द धर्मचन्द बेताला, के नाम से गौहाटी में आपका मोटर फाइनेन्स व्यवसाय है। आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप सक्रिय सहयोगी हैं। श्री वर्धमान महावीर बाल निकेतन आबू पर्वत के ट्रस्टी हैं। श्री हरीश सी. जैन (बम्बई) आपका जन्म पंजाब में हुआ, तथा बम्बई आकर आपने विज्ञापन व्यवसाय प्रारम्भ किया। कठिन परिश्रम तथा गहरी सूझबूझ, मदु व्यवहार के कारण आप प्रगति के शिखर पर चढ़ते गये। आज आपका संस्थान जैसन्स (इन्डिया लि०) सम्पूर्ण विश्व के विज्ञापन व्यवसाय में प्रमुख स्थान रखता है। आप सामाजिक सेवा कार्यों में विशेष रुचि रखते हैं। साधु सन्तों के प्रति आपकी गहरी श्रद्धा भावना है। पंजाब जैन भ्रात सभा खार के आप अध्यक्ष हैं। तथा अनेक संस्थाओं से सम्बद्ध है। आगम अनुयोग ट्रस्ट के आप सक्रिय सहयोगी है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रेणी सहयोगी स्व० शा० कस्तूरचन्दजी प्रतापजी श्री वृद्धिचन्द जी मेघराज जी साकरिया (सांडेराव ) आप बांकलोबास के प्रतापजी कपूर जी के सुपुत्र थे ! स्व० तपस्वी स्वामी श्री वक्तावरमल जी म० के अनन्य भक्तों में से एक थे। आपके सुपुत्र शांतिलाल जी कांतिलाल जी, मदनलाल जी, विमलचन्द जी सुरेशकुमार जी, जगदीश जी भी धर्म में दृढ़ श्रद्धाभाव रखते हैं। सन् ८५ में गुरुदेव के चातुमसि में आपके घर में घर पांच मास खमण हुए। (सांडेराव) श्री स्थानकवासी जैन श्रावक संघ सांडेराव एवं वर्धमान महावीर केन्द्र आबू पर्वत के आप प्रमुख कार्यकर्ता हैं। श्री मूलचन्द जी, शेषमलजी, उमेदमलजी एवं आप चार भाइयों में सबसे बड़े हैं। पूज्य गुरुदेव के अनन्य भक्त हैं । श्रीमान धनराजजी नाहटा, (केकड़ी) (राज०) आप श्री दीपचन्द जी नाहटा के सुपुत्र हैं। चित्रकला, कविता, नाटक कला, व्यायाम आदि में आपकी विशेष रुचि है। साथ ही धाविक ज्ञान, तत्वचर्चा तथा वाद-विवाद में भी कुशल हैं। स्थानकवासी जैन संघ केकड़ी के मन्त्री हैं। पूज्य स्वामीदास जी म० की परम्परा के प्रति अत्यन्त निष्ठा रखते हुए गुरुदेव मुनि श्री कन्हैयालाल जी म० 'कमल' के अनन्य भक्त हैं। श्रमण संघ के प्रति आपकी गहरी निष्ठा है। आगम अनुयोग ट्रस्ट के सहयोगी हैं। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय श्रेणी सहयोगी श्रीमान धींगड़मल जी कानुगा (गढ़ सिवाना) अहमदाबाद श्रीमान सज्जनराज जी कांकरिया (पीपाड़ सिटी) __स्व० श्रीमान अमरचंद जी लुणावत (हरमाड़ा) अजमेर (राज.) आप दानवीर धर्म निष्ठ सुश्रावक है। आपको धर्म पत्नी पानीबाई भी धर्मशीला श्राविका है। धार्मिक कार्यों में लक्ष्मी का सदुपयोग करते रहते आप बहुत ही उत्साही युवक हैं। आपका अहमदाबाद में फाइनेन्स का व्यवसाय है। आप पूज्य गुरुदेव श्री फतेहचन्द जी महाराज के अनन्य भक्त थे। श्री माणकचन्द जी, श्री धर्मीचन्द जी, श्री प्रेमचन्द जी लुणावत आपके सुपुत्र हैं। हैं Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना १. गणितानुयोग-एक परिचय ___मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' द्वारा संकलित यह संकलन इस ग्रन्थ का नाम गणितानुयोग युक्त लोक प्रज्ञप्ति सार्थक है। साथ ग्रन्थ है जिसमें श्वेताम्बर मान्य जैन आगमों में वर्णित भूगोल एवं ही मूल सूत्र का उसी पृष्ठ पर अद्ध भाग में और हिन्दी अनुवाद खगोल सम्बन्धी ऐसे समग्र सूत्रों का संकलन किया गया है का उसी पृष्ठ पर शेष अद्ध भाग में आमने-सामने दिये जाने से इस जिनमें गणित का स्वाभाविक रूप से उपयोग हुआ है । इस ग्रन्थ नवीन संस्करण का महत्व अपने आप में अत्यधिक बढ़ गया है, में उक्त संकलन का वर्गीकरण लोक संरचना के माध्यम से किया जो न केवल देशी वरन् विदेशी छात्रों के लिए अत्यन्त लाभकारी गया है जिसमें खगोल, ज्योतिष एवं भूगोल विषयक सामग्री वर्गी- सिद्ध होगा। कृत हो जाती है । लोक संरचना में विभिन्न प्रकार के लोकों का अब हम इस विशिष्ट रूप से संकलित सामग्री के गणितीय अलग-अलग विवरण चुना गया है जिसमें लोक (सामान्य), द्रव्य रूप को निखारने का निम्नलिखित रूप से प्रयास करेंगे । विवरण लोक, क्षेत्रलोक, अधोलोक, तिर्यक्लोक, (मध्य लोक), ऊर्ध्व लोक सूत्र की संख्यानुसार होगा। काल लोक, अलोक एवं लोकालोक विषय लिये गये हैं । गणितानुयोग का शब्दार्थ गणित सम्बन्धी पृच्छा अथवा गणित लोक सम्बन्धी गणितीय विवरण सम्बन्धी सूत्रों का विस्तार से अर्थ प्रतिपादन होता है । साहित्य सत्र १.१०२: का द्रव्यात्मक एवं भावात्मक स्वरूप होता है। __अनन्त शब्द दार्शनिक ही नहीं वरन् अनन्त चतुष्टय का वैदिक साहित्य के एक अंग उपनिषत् में जो उपदेश गौतम प्रतीक है। अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त का नाम लेकर सुनाया गया है। वह वर्द्धमान महावीर के प्रधान सुख के लिए इसका उपयोग सिद्ध भगवानों के लिए हुआ है । यहां शिष्य इन्द्रभूति गौतम का स्मरण दिलाता है जिन्हें श्वे. जैनागमों अनन्त ज्ञान की अविभागी प्रतिच्छेद राशि समस्त राशियों का में गौतम नाम से ही सम्बोधित करके सुनाये गये हैं। संकलन रूप होती है । यह पद अनन्त काल तक अचल होने के इसी शैली में अर्द्धमागधी के सूत्रों को उद्धृत कर एवं उसके कारण अनन्त समयों से युक्त भविष्य काल राशि के समयों ठीक सम्मुख हिन्दी अनुवाद देते हुए यह संकलन शोध छात्रों __ की संख्या का भी सूचक है । विशेष विवरण हेतु देखिये जै. सि. के लिए अत्यन्त उपयोगी बन पड़ा है। को. भाग १, पृ० ५४; इत्यादि; जै० ल०, भाग १, पृ० ४५. इत्यादि । देखिये रा० अ० को० भी। उपलब्ध अर्धमागधी जैनागम ११ श्रु तांगों, १२ उपांगों, १० प्रकोजकों, २ चलिका सूत्रों में निहित है । आगमों का टीका सूत्र २८, पृ० ११ साहित्य भी उपलब्ध है, किन्तु इस संकलन में केवल अंगोपागों के लोक प्रमाण पूर्व, दक्षिण, पश्चिम एवं उत्तर में असंख्य मूल सूत्रों का संकलन इस प्रकार किया गया है कि गणित विषयक कोटाकोटि योजन बतलाया गया है । यहाँ तीनों पारिभाषिक शब्द प्राचीनतम सामग्री का लोक विषयक निरूपण हो सके। इस प्रकार आये हैं । १ हन्त तेऽदम् प्रवक्ष्यामि, गुह्य ब्रह्म सनातनम् । यथा च मरणं प्राप्य, आत्मा भवति गौतम !॥ योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः । स्थाणुमन्येऽनु संयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतं । कठो. २,२,६-७ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना "असंख्य" संख्यामान से अवतरित होता है। सूत्र ३१, पृ० १५ "कोटाकोटि" दाशमिक पद्धति से अवतरित है। यहाँ खगोल विज्ञान विषयक पृच्छा है। काल के अनादि और "योजन" खगोल विषयक माप योजना से सम्बन्धित है। अनन्त से सम्बन्ध रखने वाली लोक संरचना से अभिप्रेत है। इन शब्दों के लिए जै. सि० को०, जै० ल० एवं रा० अ० यहाँ ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित, नित्य को० देखिये। शब्दों के अभिप्राय खगोल विज्ञान सम्बन्धी भिन्न-भिन्न हैं । यहाँ काल के दो बड़े युग अवसर्पिणी काल एवं उत्सर्पिणी काल शब्द सूत्र २४, पृ० ११ युग विज्ञान से सम्बन्धित हैं। भारत में युग विज्ञान द्वारा ग्रहादि ____ इस सूत्र में “वाससहस्साउए' अर्थात् १००० वर्ष की आयु भ्रमण का ज्योतिष में उपयोग आर्यभट्ट (लगभग ई० पाँचवीं वाला शब्द महत्वपूर्ण है, जो गणित विधि में दाशमिक संकेतना शती) ने किया। इसके पूर्व भी न केवल वैदिक ग्रन्थों में अपितु के रूप में विशेष प्रयुक्त हुआ है। जैन ग्रन्थों में भी युग विभिन्न प्रकार से संरचित किये गये। इस सूत्र २५, पृ० १२ पर विशेष शोध फ्रांस के रोजर विलर्ड ने कम्प्यूटर द्वारा लोक का आयाम-मध्य रत्नप्रभा पृथ्वी के अवकाशान्तर का की है। असंख्यातयां भाग उल्लंघन करने पर पाया जाता है। सूत्र ३२, पृ० १६ यहाँ आयाम-मध्य शब्द ज्यामितीय है और सान्त आयाम लोक सान्त है या अनन्त है का समाधान द्रव्य, क्षेत्र, काल, (लम्बाई) के मध्यभाग की कल्पना कर दो समान भागों में बाँटने भाव प्रमाणादि के सापेक्ष उत्तर देकर किया गया है। विभिन्न का निर्देश है । अवकाशान्तर भी ज्यामिति से दूरी के अन्तर को प्रमाण प्रस्तुत करते हुए निर्देश है कि द्रव्य की अपेक्षा लोक निर्देशित करता है। इसी प्रकार असंख्यातवें भाग की कल्पना भी सान्त, क्षेत्र की अपेक्षा लोक सान्त, काल की अपेक्षा यह लोक अद्वितीय है जो गणित में सीमा निकालने में प्रयुक्त होती है। अनन्त और भाव की अपेक्षा से लोक अनन्त है। इस प्रकार यहाँ देखिये जै ० सि० को० भाग १, पृ०२१४ इत्यादि । गणितीय सापेक्षता द्वारा समाधान निहित है। सूत्र २६, पृ. १२ द्रव्य लोक सम्बन्धी गणितीय विवरण ___ लोक का "सम भाग" और "संक्षिप्त भाग" लोकस्वरूप को सत्र ४१, पृ०१८ संकल्पनाएँ हैं । इसमें ज्यामिति अभिप्रेत हैं। लोक में दो प्रकार के अस्तित्व रूप वस्तुएँ अथवा पदार्थ सूत्र २७, पृ. १२ उल्लिखित हैं जो खगोल विज्ञान एवं खगोल संरचना विषयक हैं। लोक का "वक्रभाग” भी विग्रह कांडक अर्थात् ज्यामितीय अगले दो सूत्रों में भी इसी प्रकार खगोलः विषयक विज्ञान एवं सकल्पना है । श्वेताम्बर-परम्परा की मूल मान्यता के आधार पर सरचना बतलाई गई है। इसके विचार हेतु देखिये वि० प्र०, पृ० ३०२ आदि । इनका सूत्र ५०, पृ० २० तात्पर्य शोध का विषय है। लोक विषयक द्रव्यों को और उनकी संख्या को रतलाकर सूत्र २८, पृ० १३ खगोल संरचना रूप कहा है। नीचे से विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से ऊर्ध्व मृदंग सूत्र ५१, पृ० २० के ज्यामितीय आकार का लोक निदिष्ट है। दश दिशाओं के भेद और स्वरूप ज्यामिति गणित में प्रयुक्त सूत्र २६, पृ० १३ होते हैं । आगे के सूत्र में इनके नाम भी दिये गये हैं। आठ प्रकार की लोकस्थिति खगोल विज्ञान से सम्बन्ध सूत्र ५३, पृ० २१ रखती है। इसमें इन्द्रा एक दिशा अनेक प्रदेश बाली सीधी रेखा का सूत्र ३०, पृ० १४ विवरण है। लोक की अपेक्षा वह असंख्य प्रदेश वाले और अलोक की दस प्रकार की लोकस्थिति जीव और पुद्गल की गमनशीलता अपेक्षा अनन्त प्रदेश वाले हैं। सीधी रेखा में प्रदेश स्थापित कर सम्बन्धी पर्यायों से सम्बन्ध रखती है। उनकी सीमाएँ निर्धारित (अथवा परमाणु-रूप प्रदेश स्थापित कर) गणितीय माप संरचित करती है। अतः यह गति एवं स्थिति विज्ञान से सम्बन्धित है। होता है । आदि में दो प्रदेश होने से इसकी दिशा निर्दिष्ट हो जाती Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना आकृति असम प्रदेशों की जघन्य संख्या समप्रदेशों की जघन्य संख्या वृत्त rin w गोल त्रिभुज त्रिभुजीय स्तूप x वर्ग x है। आगे भी उत्तरोत्तर वृद्धि दो, दो प्रदेशों के आधार से देकर उसकी दिशा को संरक्षित किया गया प्रतीत होता है । यहाँ स्पष्ट नहीं है कि लोक की अपेक्षा वह मुरज के संस्थान वाली है और अलोक की अपेक्षा उर्वशकट के संस्थान वाली क्यों कही गई है ? इन्द्रा दिशा एवं आग्नेयी विदिशा रुचक प्रदेशों से निकलती हैं । किन्तु आग्नेयी विदिशा की आदि में इन्द्रा की भांति दो प्रदेश न होकर एक प्रदेश दिया गया है। ऐसा क्यों ? रुचक का सम्भवतः अर्थ है जहाँ सभी अक्ष या ऐसा बिंदु जहाँ सभी दिशाओं के बिन्दु सामान्यतः मूल रूप लेते हैं। विमला भी रुचक प्रदेशों से निकलती है किन्तु उसके आदि में चार रुचक प्रदेश हैं । इनका सम्बन्ध मध्य की अष्ट प्रदेश युक्त रचना से होना चाहिये । उक्त सम्बन्ध में स्पष्ट है कि पंचास्तिकाय लेने पर अष्ट प्रदेश युक्त ज्यामितीय संरचना बन जाती है, जिससे संस्थान में निम्नलिखित चित्रानुसार दिशाएँ बंधती होंगी : is घन रेखा in w n त्रिपार्व चतुनीक वर्ग त्रिभुज सरल रेखा बिन्दु(अष्टप्रदेशी) उपरोक्त सम्बन्धी विशद विवरण हेतु देखिये जे० एफ० कोल कृत "दास फिजिकेलिश उण्ट बायलाजिश वेल्ट बिल्ड डेर इंडिशेन जैन-सेक्टे" प्रकाशक वर्ल्ड जैन मिशन, अलीगंज (एटा), १६५६, पृ० २४-२७ । आयात समान्तर फलक सूत्र ५४, पृ० २३ खगोल विषयक सामग्री में रूपी एवं अरूपी अजीव हैं । उनके देश एवं प्रदेश उल्लिखित हैं । विज्ञान विषयक शब्द स्कंध, स्कंधदेश, स्कंधप्रदेश एवं परमाणु पुद्गल हैं। प्रदेश, देश की परिभाषा के लिए जै० ल० पृ० ७६१ देखिये । सूत्र ५५, पृ० २३ तीन भंग संचय गणित का रूप है। इसी प्रकार भंग की सामग्री सूत्र ५७ तक उल्लिखित है । इसमें सूत्र ५७ में मध्यम भंग, प्रथम भंग, शेष भंग दृष्टव्य हैं। अद्धासमय शब्द भी विचारणीय है । देखिये जै० ल० पृ० ३४ । सूत्र ५६, पृ० २७ यहाँ अल्पबहुत्व (Comparability) गणितीय विधि का उदाहरण है जो लोक के एक आकाश प्रदेश में जीवों और जीव प्रदेशों से सम्बन्धित है। यहाँ गणितीय शब्द जघन्य पद, अल्प, असंख्य गुण, उत्कृष्ट पद, और विशेष अधिक है। सूत्र ६०, पृ० २८ इसमें गणितीय शब्द ऊर्ध्व, पश्चिमी, उत्तरी, अधः, चरम अन्त, प्रदेश, देश और भंग हैं। सूत्र ६१, पृ० २६ यहाँ गणितीय शब्द संख्यातवें भाग, असंख्यातवें भाग, सम्पूर्ण लोक, संख्येय भागों, असंख्येय भागों हैं। इसी प्रकार के शब्द आगे की गाथाओं में दृष्टव्य हैं। देशन्यून शब्द भी महत्वपूर्ण है । यहाँ आनुपूर्वी, अनानुपूर्वी एवं अवक्तव्य शब्द भी विज्ञान गणित से सम्बन्धित हैं। सूत्र ६३, पृ० ३१ इसमें महत्वपूर्ण वैज्ञानिक शब्द स्पर्शना है जो गणित से सम्बन्धित है। सभी दिशाएं लोक की अपेक्षा असंख्य प्रदेश वाली तथा अलोक की अपेक्षा अनन्त प्रदेश वाली हैं। साथ ही लोक की अपेक्षा सादिसान्त तथा अलोक की अपेक्षा सादि-अनन्त हैं। उपर्युक्त चित्रों के सिवाय अन्य संस्थान भी बनते हैं, जैसे, मुरज, ऊर्ध्वशकट, मोतियों की माला, आदि । तदनुसार रुचक प्रदेश बनते होंगे। इस प्रकार रुचक का अभिप्राय संस्थानानुसार सम्मिलित अथवा इष्ट हो सकता है। __कापड़िया ने भगवतीसूत्र (७२६, ७२७) में प्रस्तुत प्रदेशों से रैखिकीय आकृतियों के बनाने की समस्या प्रस्तुत की है । (कापड़िया, गणिततिलक, १९३७) : Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ गणितानुयोग : प्रस्तावना क्षेत्रलोक सम्बन्धी गणितीय विवरण सूत्र ११६ पृ. ५२ त्रसू ६६, पृ० ३४ यहाँ अस्सी उत्तर शत सहस्र, तथा असंख्य योजन शत सहस्र तीन प्रकार के लोक क्रमशः अधोलोक, तिर्यक लोक, ऊर्ध्व का उपयोग दाशमिक संकेतना में हुआ है। इसी प्रकार बत्तीस लोक ज्यामितीय शब्द हैं जो पूर्वानुपूर्वी एवं पश्चानपूर्वी से कथित उत्तर योजन शत सहस्र तथा बावन उत्तर योजन शत सहस्र हैं। अन्य गणितीय शब्द गच्छ, अन्योन्याभ्यास, न्युन रहित हैं। दाशमिक सकेतना में हैं । इत्यादि । अनानुपूर्वी, एकोत्तरिक शब्द भी गणितीय अभिप्राय युक्त हैं। सूत्र ११७, पृ. ५४ अधोलोक सम्बन्धी गणितीय विवरण बहुमध्य देशभाग ज्यामितीय शब्द है। सूत्र ७८, पृ० ३७ सूत्र १२०, पृ. ५५ ___इस सूत्र में दाशमिक संकेतना में पृथ्वियों की मोटाई बतलाई यहाँ आगमिक विशेष अर्थ सूचक शब्द अचरम, बचरम अन्त गयी है। यहाँ योजन का भी उल्लेख है । बाहल्य शब्द गणितीय प्रदेश हैं। सूत्र ७६, पृ० ३८ सूत्र १२१, पृ० ५६ यहाँ ज्यामितीय शब्द आयाम, विष्कम्भ तथा परिधि हैं। एक यहाँ अल्पबहुत्व गणित का उपयोग है जो अबरमादि. पदों विशेष शब्द असंख्य सहस्र योजन है। सहस्र के साथ असंख्य का से सम्बन्धित है । प्रयोग अलग हटकर है । असंख्य योजन सहस्र लिखा गया है। सूत्र १२३, पृ. ५७ सूत्र ८२, पृ. ३८ यहाँ द्रव्य और काल को अपेक्षा से निरूपण है, तथा यहाँ यहाँ गणितीय शब्द विस्तार, बाहल्य, तुल्य, विशेष अधिक, नवीन शब्द पर्यव है। अनन्तात्मक गणितीय प्रतिबोध से इसे संख्येयगुण, संख्येयगुणहीन है । विभिन्न गुण विषय की पर्यायों से संबंधित किया है। गुरु लघु सूत्र ८३, पृ. ३६ तथा अगुरुलघु पर्यायों का अनन्तत्व बतलाया गया है। गणितीय शब्द संस्थान, झल्लरि हैं । सूत्र १२५, पृ. ५८ सूत्र ८४, पृ. ३६ यहाँ वैज्ञानिक शब्द गुरुलघु एवं अगुरुलघु हैं। इनका उप___ यहाँ लिय (स्यात् या कथंचित्) शब्द दार्शनिक हैं । योग अवकाश अंतर में हुआ है जो महत्वपूर्ण है। सूत्र ८६, पृ. ४० सूत्र १२७, पृ० ६० यहाँ घनोदधि, घनवात, तनुवात खगोल सरचना से संबन्धित यहाँ समुद्घात शब्द कर्मविज्ञान रूप है। सूत्र १३७ से १४६, पृ. ६५, ६६ सूत्र ८६, पृ. ४१ इनमें दाशमिक संकेतना का प्रयोग करते हुए संख्याएँ निदइस सूत्र में अनेक शब्द गणितीय है। क्षेत्र-छेद, परिमण्डल, शित हैं। वृत्त, त्रयस्र, चतुरस्र, आयत, अन्योन्य, बद्ध, अवगाढ़, प्रतिबद्ध अथित छिद्यमान शब्द प्रयुक्त हुए हैं। सूत्र १४७, पृ. ६६ यहाँ भी दाशमिक संकेतना प्रयोग है ही, साथ ही टिप्पणी में सूत्र ८८, पृ. ४२ आवलिका शब्द का उपयोग हुआ है। आवलिकाप्रविष्ट और ___अबाधा अन्तर शब्द गणितीय है। आवलिकाबाह्य शब्द विचारणीय हैं। सूत्र १०६, पृ. ४८ सूत्र १४६, पृ. ७० ___ यहाँ कोस शब्द का उपयोग हुआ है जो गणितीय है । __यहाँ संख्येय, असंख्येय, विस्तार, आयाम, विष्कम्भ, तथा सूत्र १०६, पृ. ४६ दाशमिक संकेतना का उपयोग है। नवीन शब्द धनुष, अंगुल हैं । वलय, वलयाकार, संपरिधि गणितीय शब्द हैं। ऐसा ही उपयोग सूत्र १५१, पृ. ७१ पर हुआ है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सूत्र १५१, पृ. ७१ इसका टिप्पण १ और २ दृष्टव्य हैं जिनमें देवगति प्रमाण -लेकर आयाम - विष्कम्भ का तुलनात्मक विवेचन है । देखिए, जी. आर. जैन, कास्मालाजी, ओल्ड एण्ड निउ, इंदौर, पू. ११७, १९४२, कोलब्रुक एवं मुनि महेन्द्र कुमार द्वितीय की व्याख्याहेतु देखिए, वि० प्र० पृ० ११३ आदि । 2 इस सूत्र में वृत्त का आयाम-विष्कम्भ, जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में एक लाख योजन दिया गया है। इसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन फोस, एक सौ अट्ठा ईस धनुष, तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक बतलाई गई है । किन्तु तिलोय पत्ति भाग १, महाधिकार ४ गाया ५०-३५ में जंबूद्वीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस एक सी अट्ठाईस धनुष 3 और हाथ के -स्थान में शून्य, एक वितस्ति, पाद के स्थान में शून्य, एक अंगुल, पांच जौ, एक यूक, एक लीख, कर्मभूमि के छह बाल, जघन्य भोगभूमि के बालों के स्थान में शून्य, मध्यम भोगभूमि के सात बालाग्र उत्तम भोगभूमि के पाँच बालाग्र, एक रेणु तीन चसरेणु जुटरे के स्थान में शून्य दो सचान, तीन अवसन्नासन्न और तेईस हजार दो सौ तेरह अंश तथा एक लाख पाँच हजार चार सौ नौ भागहार वाला प्रमाण अनन्तानन्त परमाणु निर्देशित करता है। इस गणना को का मान V१० लेकर डा० आर० सी० गुप्ता ने IJHS में शोध लेख " Gupta, R. C. Circumference of the Jambudvipa in Jaina Cosmography", IJHS, vol, 10, No 1, 1975, pp. 38 = 46" में विस्तार से यह वासना सिद्ध की है । इस प्रकार गणितानुयोग के उक्त सूत्र में अंगुल तक समानता इष्टिगत है । अतएव स्पष्ट है कि यहाँ दोनों में का मान १० लेकर उक्त गणना की गयी है । सूत्र १५२, पृ० ७१ नरकावासों के आवलिकाप्रविष्ट संस्थान ज्यामितीय हैं : वृत (गोल), त्रिकोण, चतुष्कोण आवलिकावा संस्थान भी ज्यामितीय हैं तथा २२ प्रकार की आकृतियों रूप हैं - अथकोष्ठ, पिष्टपचनक, कंडू, लोही, कटाह, थाली, पिडक, कृमिपट, किटक, उडव, मुरज, सुदंग, नन्दि मृदंग, आलिंग, सुपोषा दर्द, पण पट, मेरी सल्लरीतं नालि ये ज्यामितीय • आकृतियाँ आगमज्ञों को ज्ञात थीं और उनका उपयोग इस रूप में हुआ । इनके अर्थ पाइअ समहण्णव अथवा अन्य कोश ग्रन्थों से दृष्टव्य हैं । ! 1 गणितानुयोग : प्रस्तावना सूत्र १५३, पृ. ७२, ७३ दुर्गंध की तीव्रता उपमा रूप में दी गई है। इसी प्रकार स्पर्श की तीव्रता उपमा रूप में दी गई है। सूत्र १६३, पृ. ८१ सूत्र १५६, पृ. ७४-७६ वैज्ञानिक शब्द--पर्याप्त, अपर्याप्त, योजन, वृत्त, चतुष्कोण, कमलकणिका, शतघ्नी, मुशल, मुसंडी, लोक का असंख्यातवां भाग, समुद्घात, वीणातल, ताल त्रुटित । १३ यहाँ असंख्य द्वीप समुद्र का उल्लेख है । 7 सूत्र १६६, पृ. ८४ यहाँ जम्बूद्वीप, मेरुपर्वत का उल्लेख है अस्सी उत्तर योजन शतसहस्र योजनसहय अत्तर योजनशतसहस्र चवालीस भवन वास शतसहस्र गणितीय शब्दों का उपयोग है। इसी प्रकार १७०, १७१, १७३, १७५ इत्यादि सूत्रों में उपयोग हुआ है । लोक का असंख्यातवां भाग भी विचारणीय है । सूत्र १८० सूत्र १८३, J. 50-55 इन सूत्रों में दाशमिक संकेतना वाली संख्याओं का कथन है । सूत्र १६२, पृ. ६१ इस सूत्र में दाशमिक संकेतना के साथ गुणनरूप राशियाँ निरूपित हैं। जैसे चौंसठ हजार के चौगुणे, इत्यादि । सूत्र १६५, पृ० ६४-६५ यहाँ संख्याएँ दाशमिक संकेतना में हैं। यथा, छह सौ पचपन करोड़ पैंतीस शतसहस्र । यहाँ उपकारिकालयन का आयाम - विष्कम्भ सोलह हजार योजन है तथा उसकी परिधि पचास हजार पाँच सौ संतानवे योजन में कुछ कम दी गयी है। यहाँ भी अनुमानतः मान दिया गया है जो को ३१६२२७ अथवा १० को लेकर निकाला गया है । इस प्रकार : १६०००X३.१६२२७ = ५०·५ε६३२ × १००० अथवा ५०५६६-३२ होता है जो ५०५६७ से कुछ न्यून है । ज्यामितीय आकृतियों में श्रेष्ठ बख और महामुकुंद संस्थान है। सूत्र १६६, पृ० ३६-६८ यहाँ भी अनेक संख्याएँ दाशमिक संकेतना में दी गई हैं । यहाँ जिस आकृति का विष्कम्भ मूल में एक हजार बाईस योजन दिया गया है, उसी की मूल में परिधि तीन हजार दो सौ बत्तीस Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ गणितानुयोग प्रस्तावना योजन से कुछ न्यून बतलाई गई है । यह अनुमानत: है । कारण, का मान V १० लेने पर १०२२ X ३·१६२२७३२३१८३६६४ आता है । अतः यह मान ३२३२ से कुछ न्यून है । इसी प्रकार राजधानी एक लाख योजन लम्बी चौड़ी है । उसकी परिधि भी तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस, एकसौ अट्ठावीस धनुष, तेरह अंगुल तथा आधे अंगुल से कुछ अधिक कही गई है, जो सूत्र १५१ के अनुसार ही है । यहाँ भी = १० अनुमानतः ३१६२२७ लेने पर उक्त मान स्पष्ट हो जाते हैं । इसी प्रकार जिस राजधानी का आयाम विष्कम्भ चौरासी हजार योजन का है, उसकी परिधि दो लाख पैंसठ हजार छः सौ बत्तीस योजन से कुछ अधिक बतलाई गई है। यहाँ भी r=V१०=३·१६२२७ लेने पर ८४०००X३ १६२२७ =२६५६३०·६८ यहाँ ज्ञात नहीं है कि उपर्युक्त मान कैसे प्राप्त किया गया। वहाँ बत्तीस के स्थान में तीस होना चाहिए था । सूत्र १६७, पृ० ६६ यहाँ गणितीय शब्द सागरोपम ध्यान देने योग्य है । उपमा प्रमाण की यह काल - समयों की राशि है जो यहाँ स्थिति निर्दाशत कर रही है। देखिये वि० प्र० पृ० २५२, श्वेताम्बर परम्परा तथा दिगम्बर परम्परा में इसके मान दिये गये हैं । इसका संबंध पल्योपम काल राशि से है । सूत्र २२६, पृ० ११२ इसमें भी लोक के असंख्यातवें भाग का कथन है । सूत्र २३१, पृ० ११३ उपरोक्त सूत्र की भाँति यहाँ भी लोक के असंख्यातवें भाग का कथन है । इसी प्रकार सूत्र २३४, २३५, २३८, २३६, २४१ - २४५ में इसी प्रकार के कथन हैं । तियंक लोक (मध्य लोक) सम्बन्धी गणितीय विवरण सूत्र २, पृ० १२१ तिर्यक् लोक का क्षेत्रलोक असंख्येय प्रकार का कहा गया है । यहाँ अभिप्राय जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक के क्षेत्रलोक का उदाहरण दिया गया है। सूत्र ३, पृ० ११२ यहाँ ज्यामितीय रूप से तिर्यक् लोक के क्षेत्रलोक का संस्थान झालर कहा गया है । सूत्र ४, पृ० १२२ तिर्यक् लोक का मध्यभाग आठ प्रदेशों का रुचक प्रदेश कहा गया है। ज्यामितीय रूप से दस दिशाएँ इसी से निकलती हैं । सूत्र ५, पृ० १२२-१२३ तिर्यक् लोक में असंख्य द्वीप समुद्र, वृत्त संस्थान वाले जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक बतलाये गये हैं । अग-अ वृत्त संस्थान पिछले - पिछले वृत्त संस्थानों से द्विगुणित विस्तार वाले हैं। यहाँ गुणश्रेणी बनती है जहाँ गुणकार २ होता है । जम्बूद्वीप का विस्तार इसका मुख या प्रथम पद आदि बनता है । यह गुणश्र ेणी असंख्य पद वाली या गच्छ वाली होती है । जम्बूद्वीप के आयाम - विष्कम्भ को एक लाख योजन लेकर उसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दौ सो सत्तावीस योजन, तीन कोस, अट्ठाबीस धनुष, तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक बतलाई गई है। यहां भी ग का मान १० अथवा अनुमानरूपेण ३.१६२२७ का उपयोग किया गया है। इस प्रकार गणना १००००० X ३ १६२२७ को लेकर विभिन्न दूरी इकाइयों को यहाँ प्राप्त किया गया है । पूर्वोल्लिखित डॉ० आर० सी० गुप्ता का लेख देखिये । यहाँ ज्यामिति रूप से जम्बूद्वीप की स्थिति द्वीप-समुद्रों के भीतर सबसे क्षुद्र रूप में, विभिन्न प्रकार की उपमा लिए वृत्त संस्थान रूप में है । सूत्र ६, पृ० १२४ जम्बूद्वीप की स्थिति द्वीप समुद्रों के सर्वअभ्यंतर बताई गई हैं। पुनः उसे सबसे छोटा तथा पूर्वोक्त आयाम - विष्कम्भ एवं परिधि वाला बतलाया गया है। सूत्र ७, पृ० १२५ जम्बूद्वीप की गहराई एक हजार योजन तथा ऊंचाई कुछ अधिक निन्यानवे हजार योजन है, इस प्रकार कुल परिमाण कुछ अधिक एक लाख योजन बतलाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है। मानो गहराई का सम्बन्ध भूगोल से हो और ऊंचाई का सम्बन्ध ज्योतिष या खगोल से स्थापित किया गया हो । यदि भूगोल सम्बन्धी नाप के लिये १ योजन को ४ कोस लिया जाये और १ कोस को २ मील लिया जाये तो गहराई ८००० मील प्राप्त होती है जो आज की पृथ्वी का आनुमानिक रूप से व्यास प्रतीत होता है। तिलोय पण्णत्ति, भाग १, महा० ४, सू० १७८१ पृ० ३७५ पर मन्दर महापर्वत को एक हजार योजन गहरा, निन्यानवे हजार योजन ऊँचा बतलाया गया है। ज्योतिष एवं खगोल से मेरु पर्वत का सम्बन्ध ग्रहगमनादि से है ही । किन्तु ज्योतिष एवं खमोल Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सिद्धायतन की लम्बाई १२३ योजन, चौड़ाई ६१ योजन गणितानुयोग : प्रस्तावना १५ सम्बन्धी इतना प्रमाण देकर अभी भी प्राचीन विधि को रहस्यमय सूत्र १६४, पृ० १६६ रखा गया है। पुनः ति० प०, वही, सूत्र ६, पृ० १४३ पर त्रसनाली के बहुमध्य भाग में चित्रा पृथ्वी के उपरिम भाग में ४५००००० योजन विस्तार वाला अतिगोल मनुष्यलोक है जिसका और ऊंचाई योजन दी गयी है । यह घनायत के आकार का है। बाहल्य १००००० योजन और परिधि १४२३०२४६ योजन सूत्र १७१, पृ० १६६ बतलाई गयी है । इन सभी मापों का उपयोग होता रहा होगा। इस सूत्र में यावत् शब्द का उपयोग तथा दाशमिक सकेतना सूत्र ८, पृ० १२५ में एक सौ आठ का अनेक बार उपयोग हुआ है। कथन, 'कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत यह जम्बू सूत्र १६५, पृ० १७३ द्वीप है" जो स्याद्वाद प्रणाली पर आधारित है । अन्य शब्दों में ___ इस में एक हजार आठ, एक सौ आठ, वैक्रिय समुद्घात यह सापेक्ष कथन है । पर्यायहष्टि से अशाश्वत और द्रव्यदृष्टि से यावत्, का गणितीय उपयोग हुआ है। शाश्वत है। सूत्र ८६, पृ० १५१ सूत्र २३०, पृ० १६१ यहाँ १०८ अथवा एकसौ आठवीं संख्या वाले अनेक चिन्हों इस सूत्र में पर्याप्त एवं अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान मनुष्य का विवरण है । कुल १०८० ध्वजाओं का प्रमाण बतलाया गया । क्षेत्र में पैतालीस लाख योजन अढाई द्वीप में, पंद्रह कर्मभूमियों है । दाशमिक संकेतना में वर्णित है । में, तीस अकर्मभूमियों में और छप्पन अंतीपों में बतलाये गये सूत्र १०, पृ० १५१ यहाँ यावत् शब्द का उपयोग है। यह गणित में प्रयुक्त इस प्रकार लोक के असंख्यातवें भाग का उल्लेख है। होता है। सम्पूर्ण लोक में समुद्घात का भी उल्लेख है। सूत्र ६१, पृ०१५२ सूत्र २४५, पृ० १६५ यहाँ गणितीय शब्द बहुमध्यदेश भाग है। जम्बूद्वीप के एक सौ नव्वे भाग करने पर भरत क्षेत्र का सूत्र ६२, पृ०१५२ विष्कम्भ ५२६ योजन होता है। विष्कम्भ १००००० योजन यहाँ चार हजार में दाशमिक संकेतना का उपयोग है। सूत्र ६४-६६ पृ० १५२ में १६० का भाग देने पर यह प्राप्त हो जाता है। इन सभी में दाशमिक संकेतना का उपयोग हआ है, जहाँ सूत्र २४६, पृ० १६६ आठ हजार, दस हजार, बारह हजार का उपयोग हुआ है। इस सूत्र में पल्योपम स्थिति का उल्लेख है । काल की समय सूत्र १०५, प०१५३ राशि उपमा मान में पल्योपम के नाम से प्रसिद्ध है । इसका आयाम विष्कम्भ १२००० योजन लिया गया है। परिक्षेप प्रमाण ज्ञात करने हेतु देखिये ति० प० ग०, पृ०, २१-२२ जै० कुछ अधिक ३७९४८ योजन है । स्पष्ट है १२०००x१० अथवा ल०, पृ० ६६६, वि० प्र० पृ० १२१ आदि, जै० सि० को०, भाग १२०००४३.१६२२७ अथवा ३७६४७२४ से कुछ अधिक ३, पृ० ५०, भाग २, पृ० २१८ । गो० सा० जी० भाग १, बतलाया न्या है। पृ०२३० । सूत्र २५३, २५४, पृ० १६७ सूत्र १०६, पृ० १५३ प्राकार कोट का आयाम सहित मूल, मध्य, एवं ऊपरी भाग ___ जीवा की लम्बाई ६७४८ १२ योजन तथा धनुपीठिका का वर्णन किया गया है। यह ज्यामिति रूप में है जो गोपुच्छाकार है । यहाँ योजन, कोस इकाइयों का उपयोग हुआ है। इसी प्रकार आगे के १०७ से लेकर १०८ ११०, १११ सूत्र तक इन ९७६६० योजन से किंचित् विशेष अधिक परिधि वाली कही इकाइयों का उपयोग हुआ है । पुनः इसी प्रकार आगे सूत्र १२१, ___ गयी है । देखिये ति० प०, भाग १, पृ० १६३ । यदि सूत्र २५२, १२६, १२७ आदि गाथाओं में इनका उपयोग हुआ है। इनके द्वारा विभिन्न आकार वाली वस्तुओं के आयामादि के प्रमाण दिये पृ० १६७ के अनुसार चौड़ाई २३८ : योजन लेने पर, गये हैं। १४ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ गतिणानुयोग : प्रस्तावना अथवा बाण का मान यह ले लेने पर धनुष का प्रमाण निम्नलिखित सूत्र से निकालते है बाण से युक्त व्यास के वर्ग में से व्यास के वर्ग को घटाकर शेष को दुगुणा करने से जो प्राप्त होता है वह धनुष का वर्ग होता है और उसका वर्गमूल धनुष का प्रमाण होता है । यथा ३ बाण = २३८ : योजन, व्यास = १००००० योजन १६ अतः धनुष= 2 -√ (१०००००+२३८)' - (१०००००)t (800000 =२७६६, • योजन १६ नोट- प्रकृत गणितायुयोग में इसका मान इससे किंचित विशेष अधिक कहा गया है। ३ बाण २३८३८ (५२६८-५० ) - २ योजन होता है। - = १६ इसी प्रकार जीवा निकालने का सूत्र है बाण से रहित अर्द्धविस्तार का वर्ग करके उसे विस्तार के अर्द्धभाग के वर्ग में से घटा देने पर अवशिष्ट राशि को चार से गुणा करके प्राप्त राशि का वर्गमूल निकालने पर जीवा का प्रमाण प्राप्त होता है यथा विष्कंभ १००००० योजन, बाण ३ ४५२५ २३८-= योजन १६ १६ . जीवा * ४५२५ १६ = २७४८!- योजन दक्षिणार्ध (दक्षिण विजया) की जीवा १६ यथा : प्राप्त होती है । इसी प्रकार यदि जीवा दी गई हो तो बाण प्राप्त करने हेतु जीवा के वर्ग के चतुर्थ भाग को अर्द्ध विस्तार के वर्ग में से घटा कर शेष का वर्गमूल निकालने पर जो प्राप्त हो उसे विस्तार के अर्द्धभाग में से कम कर देने पर शेष बाण का प्रमाण प्राप्त होता है । जीवा = ६७४८१२ योजन=१८५२२४ १६ १६ विस्तार १००००० योजन ... बाण = १००००० २ - √(००:-")* - {{{८११२४)**}} X बतलाया गया है । १००००० =√*{{'""""")' -("+""-')} सूत्र २६१. ० १६६ यहाँ प्रमाण १४५२ ३ = २३८ - योजन १६ देखिए ति० प० भाग १, महा० ४ गाथा १८०-१८२. सूव २५६, पृ० १६८ योजन यहाँ प्रमाण १८६२६६+ २+योजन अर्थात् १०१२ योजन है । ति० प० भाग १/४ गाथा १६४ में यह प्रमाण १८६ ૦૨૨# दिया गया है। सूत्र २६०, पृ० १६६ यहाँ प्रमाण १४४७१४७१ योजन से कुछ कम बतलाया गया। १६ है । ति० ० प० भाग १ / ४, गाथा १६१ में यह प्रमाण १४४७१ १६. १४५२८६ योजन बतलाया गया है । ૨૪૫૨૬}} सूत्र २६६, पृ० २०० ३३ ३८ ति० प० भाग १ / ४, गाथा १९२ में भी यही प्रमाण बतलाया गया है । यहाँ प्रमाण ३३६८४ योजन दिया गया है । ति० प० भाग १ / ४ गाथा १७७५ में भी यही मान दिया गया है । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना १ २४१६ लिखने की और १६ सूत्र २६७, पृ० २००-- सूत्र ३०२, पृ० २११-यहाँ प्रमाण ३३७६७७० योजन दिया गया है। यहाँ हरिवर्ष क्षेत्र की पूर्व पश्चिम में भुजा १३ ति०प० भाग १/४ में इसका प्रमाण नहीं दिया गया है। योजन लम्बी दी गई है। यही मान ति०प० भाग १/४, पृ०॥ सूत्र २६६, पृ० २००--- ३७०, गाथा १७४३ में १३३६११३ रूप में दिया गया है। यहाँ यहाँ प्रमाण १५८११३१६ योजन से कुछ अधिक बतलाया गया है। लिखने की शैली में १३३६१+ ति० प० भाग १/४ में यह मान १५८११३, कोस - दिया - अर्थ निकलता है। यह शोध का विषय है। गया है। २४१६ सूत्र २६३, पृ० २०६ यदि १६ भाग के एक भाग का भाग लिया जाये तो.. होता है यहाँ प्रमाण २१०५४ योजन दिया गया है । सूत्र २६४, पृ० २०६ जिसे 5 में जोड़ने पर १३ प्राप्त हो जाता है । यहाँ प्रमाण ६७५५२ योजन दिया गया है। सूत्र ३०३, पृ० २११- - ति० प० भाग १/४ में यह मान वही ६७५५ ३ योजन दिया ___ हरिवर्ष क्षेत्र की जीवा का मान ७३६०१६ योजन दिया गया है जो ति० प० भाग १/४, गाथा १७४० में गया है। सूत्र २६५, २६६, पृ० २१० ७३९०११० योजन दिया गया है। यहाँ हेमवत क्षेत्र की जीवा एवं धनुपृष्ठ के माप क्रमशः सूत्र ३०४, पृ० २११३७६७४१६ एवं ३८७४०१० योजन हैं जो ति० प० भाग १/४ हरिवर्ष क्षेत्र की धनुपीठिका का मान ८४०१६, योजन गाथा १६६६ एवं १७०० से मिलते हैं। इनके निकालने की विधि पूर्वोक्त ही है। दिया गया है, जो ति० प० भाग १/४, गाथा १७४८ में इसी रूप में दिया गया है। सूत्र २६८, पृ० २१०इस सूत्र में पल्योपम शब्द का उल्लेख है जो स्थिति दर्शाता सूत्र ३०६, पृ० २१३-- है। इसी प्रकार सूत्र ३००, ३०६, ३१३ आदि में इस पारिभा यहाँ देवकुरु का विष्कम्भ ११८४२ योजन बतलाया गया षिक शब्द का प्रयोग हुआ है। यह काल-समय राशि का द्योतक है जो दाशमिक संकेतना में है। यह मान ति० प० भाग १/४, सूत्र ३०१, पृ० २११ गाथा २१४२ में दया गया है। यह शोध का यहाँ निषध पर्वत के दक्षिण में हरिवर्ष क्षेत्र की चौड़ाई विषय है। ८४२११ योजन बतलाई गई है । यह हल करने पर सूत्र ३१०, पृ० २१३योजन होता है जो ति०प० भाग १/४ गाथा १७३६ में दिया. देवकुरु की जीवा उत्तर में ५३००० योजन दी गई है । यही गया है। मान ति० ५० भाग १/४, गाथा २१४० में दिया गया है। ४ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ गणितानुयोग प्रस्तावना सूत्र ३११, १०२१३ उसका धनुपृष्ठ ६०४१८१८ योजन दिया गया है जो उपरोक्त सूत्र द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। यह दाशमिक संकेतना में है । सूत्र ३१६, ३१७, ३१८, पृ० २१५ यहाँ के प्रमाण उपरोक्त गाथाओं सूत्र ३०६, ३१०, ३११ जैसे ही हैं । सूत्र ३१६, पृ० २१५-२१६ यहाँ धनुष शब्द का उपयोग उत्तरकुरु के मनुष्यों की ऊँचाई में हुआ है । यहाँ पत्योपम के संख्यातवें भाग से कुछ कम तीन पत्योपम का आयु में उपयोग हुआ है। सूत्र ३३२, पृ० २२३ २ यहाँ दाशमिक संकेतना में १६५६२ योजन का कथन है । १९ सूत्र ३३६, पृ० २२६ क्षुद्र हिमवान पर्वत १०० योजन ऊँचा, २५ योजन गहरा १०५२१२ योजन चौड़ा, पार्श्व भुजा ५३५०+22+ १. २x१६ १६ १६ अथवा ५३५० योजन है। इसकी उत्तर जीवा २४९३२ ३८ योजन से कुछ कम कही गयी है। यही मान ति० प० भाग १/४ गाथा १६२४, १६२७ में दिये गये हैं किन्तु गाथा १६२६ में उत्तर जीवा २४६३२ दी गयी है । १६ नोट- ५३५०५३५० में १५ १६ यदि १५ में १६ भागों के भाग का आधा १६ १ २ जोड़ने के लिए कहा गया है, किन्तु १ ३८ उसी का धनुपृष्ठ जोड़ा जाये तभी ३१ प्राप्त होता है जो ति० प० की गाथा से मिलते हैं अन्यथा ३८ नहीं । ६ दक्षिण में है जो २५२३० योजन है जो १६ ० प० भाग १ / ४ गाथा १६२६ में इसी रूप में दिया गया है। ति० सूत्र ३३८, पृ० २२७.२२८ महाहिमवान की ऊँचाई २०० योजन विस्तार ४२१०. १६ अथवा 00005 १६ गाथा १७१७ में दिया गया है। योजन दिया गया है जो ति० प० भाग १/४ इसी प्रकार बाहु ९२७६ + ह १६ भाग १/४ गाथा १७२१ में इसका मान ९२७६ = ६२७६ दी गई है । ति० ० पूर्वोक लेना उचित होगा अर्थात् ९२७६+ ३७ ३८ इस प्रकार यह पुनः शोध का विषय है । यदि यहाँ करते हैं तो ६१६ दिया गया है। ३८ होगा । ह १६ + के स्थान में १६ भागों के भाग १ ३८ योजन होता है इस प्रकार ३/१९ +१ / २६ १६ / ३८ हो जाता है । से कुछ अधिक योजन इसकी लम्बाई (बीचा) २३६३११६ दी गयी है । ति० प० भाग १ / ४, गाथा १७१९ इसका मान ५३६.३१. योजन दिया गया है । यह भी शोध का विषय है । इसका धनुपृष्ठ ५७२६३ योजन दिया गया है जो ति० १० १६ प० भाग १/४ गाथा १७२० से मिलता है । सूत्र ३४०, पृ० २२६ निषेध पर्वत ४०० योजन ऊँचा और ४०० योजन गहरा दिया गया है। इसकी चौड़ाई १६८४२ १६ १/४ गाथा १७५० में इसी के समान दी गई है । योजन है जो ति एक भाग प० Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना १६ इसकी बाहु २०१६५३+ योजन दी गई है जो ३६ ३ भाग किया जाय तो 1 योजन होता है जिसे है में जोड़ने सूत्र ३४६, पृ० २३४-- मन्दर की चूलिका के सम्बन्ध में ऊँचाई ४० योजन, मूल में १२ योजन, ऊपर ४ योजन है। ये मोन ति० प० भाग १/४, ति० प० भाग १/४ गाथा १७५५ में २०१ में २०१६५ दी गई है। गाथा १७५५ से मिलते हैं। परिधि ज्ञात करने हेतु शोध का विषय बनता है । मूल में मान ३७ योजन से अधिक, ऊपर बारह यह भी शोध का विषय है। योजन से कुछ अधिक बताया गया है। मन्दर पर्वत सम्बन्धी यदि यहाँ १६ भागों में से एक का विस्तृत शोध लेख हेतु देखिए ति० प० ग०, पृ० ६३-६४. तथा, लिश्क एवं शर्मा, “नोशन ऑफ आब्लिक्विटी ऑफ एकलिप्टिक इम्प्लायड इन दा कान्सेप्ट ऑफ माउंट मेरु इन पर 2 हो जाता है। यहाँ भाग का भाग अर्थ लिया जाना जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति", जैन जर्नल, कलकत्ता, १६७५, पृ० ७६-६२ । चाहिए जैसा सूर्यप्रज्ञप्ति में कई स्थानों में लिया गया है जो सूत्र ३५३-३७०, पृ० २३६-२३७टीकाकारों ने एक ही हर बना रहने के लिए भिन्न को भिन्न एवं इन गाथाओं में दाशमिक संकेतना में संख्याएँ दृष्टव्य हैं। भिन्न के अर्द्ध भागहार में तोड़कर लिखा है। यहाँ अर्द्ध भाग सूत्र ३७१, पृ० २३७ - पारिभाषिक शब्द बड़े महत्व का है और नवीन शैली में भिन्न लिखे जाने का इतिहास बतलाता है। जम्बूद्वीप में मेरु पर्वत से अव्यवहित अन्तर ११२१ योजन दूरी पर ज्योतिष चक्र प्रारम्भ होता है। इसकी जीवा ६४१५६ २. योजन है जो ति० प० भाग १/४ सूत्र ३७५, पृ० २३६-- गाथा १७५२ से मिलती है। नन्दनवन ५०० योजन विस्तार वाला है। ति० प० भाग १/४, गाथा १९८६ में यही मान है। इसका धनुपृष्ठ १२४३४६ - योजन है जो ति० प० भाग ।। बाहर गिरिविष्कम्भ ६६५४.योजन है । ति० प० भाग १/४ गाथा १७५३ से मिलता है। १/४, गाथा १६६० में भी यही मान है। सूत्र ३४८, पृ०२३३ बाहर की परिधि ३१४७६ योजन से किंचित् अधिक है। मन्दर पर्वत ६६००० योजन ऊँचा है एवं १००० योजन ति०प० भाग १/४, गाथा १९६१ में भी यही मान है। गहरा है । मन्दर पर्वत की मूल में चौड़ाई १००६०१४योजन है। इसी प्रकार अन्तर का गिरिविष्कम्भ ८६५४० योजन तथा है । यही मान ति० प० भाग १/४ गाथा १७८१, १७८२ में दिये गये हैं । ये सभी दाशमिक संकेतना में हैं। गिरि परिधि २८३१६ । योजन, ति० ५० भाग १/४ गाथा भूतल पर इसकी चौड़ाई १०००० योजन और ऊपर के तल पर (शिखर पर) इसकी चौड़ाई १००० योजन है। यही मान १६६२-१९६३ के मान से मिलती है। ति० प० भाग १/४ गाथा १७८३ में दिये गये हैं। यहाँ परिधि के किस मान से निकाली गई है खोजना ये सभी दाशमिक संकेतना में हैं। सरल है। मुल में इसकी परिधि ३१६१०३ योजन तथा भतल पर सूत्र २७३, पृ० २३६-२४० आभ्यंतर गिरिविष्कम्भ एवं गिरि परिधि के मान भी ३१६२३ योजन तथा ऊपर के तल पर ३१६२ से कुछ अधिक ति० प० भाग १/४ गाथा १९८५, १९८६ से क्रमशः मिलते हैं। योजन दी गई है । ये सभी मान आनुमानिक हैं तथा 7 के विभिन्न ५०० योजन का माप भी ति०प० भाग १/४ गाथा १९८१ मानों के लिए शोध के विषय हैं। से मिलता है। . १० Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० गणितानुयोग प्रस्तावना यहाँ सभी मान दाशमिक संकेतना में दिये गये हैं । सूत्र ३६०, पृ० २४५ - इस सूत्र में दाशमिक संकेतना के अतिरिक्त भिन्नों का भी निपण संकेत दिया गया है। यथा "बावडिं जोगाई अडवणं च उद्धं उच्चतेणं, इक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयाम विक्खंभेणं" भिन्नरूप ६२ तथा ३१1⁄2 का निरूपण करता है । सूत्र ३२, पृ० २४६ इस सूत्र में यमक की चौड़ाई १२००० योजन और परिधि ३७९४८ योजन से किंचित अधिक बतलाई गई है । सुत्रानुसार, परिधि निकालने हेतु १२००० X V१० = १२०००X३.१६२२७ . परिधि = ३७६४७ २४ योजन होती है । अतः ग्रन्थकार ने इसे ३७६४= योजन से कुछ अधिक बतलाया है । यह मान दाशमिक संकेतना में है, तथा प्रासादों की ऊँचाई ""एक्कली जोगाई कोस च उद्ध उच्च" अर्थात् २१३ -योजन तथा आयाम विष्कम्भ "साइरेगाई अद्ध सोलस जोयणाइं" अर्थात् १५ योजन बतलाई गई है । इसी प्रकार अन्य माप भी भिन्न निरूपित करने की इसी शैली के साथ बतलाये गये हैं । सूत्र ३६३, पृ० २५०--- जो पर्वत १०० योजन चौड़ा है। उसकी परिधि ३१६ योजन से अधिक बतलाई गई है। यहाँ १००X३ १६२२७ द्वारा ही यह मान = V१० या ३ १६२२७ लेकर निकाला गया है। इसी प्रकार अन्य प्रमाण दृष्टव्य हैं । सूत्र ३६७, पृ० २५२ यहाँ वैताढ्य पर्वत की बाहु ४८८ ३३ है । इसे ४८८ ३८ १६ १६ तथा अद्धभाग दी गयी • रूप में ति० प० १/४ गाथा १८६, १६० में ३३ १६ १ प्राप्त किया गया है। यहाँ ४८८ + + =४५८. १६ ३८ होता है । यहाँ १ योजन के १६ भाग और उन १६ भाग में से एक भाग का भी आधा भाग आशय प्रतीत होता है, इस प्रकार एक योजन के उन्नोसिया भाग का आधा भाग यहाँ अभिप्रेत प्रतीत होता है। इसी प्रकार उसका आयाम १०७२० है, जो ति० प० भाग जीवा १०७२०२१ योजन की गयी है। सूत्र ४००, पृ० २५३ १०७४३६१ • दिया गया है जो इसी प्रमाण में ति० प० भाग १/४ गाथा १८६ में दिया गया है। इस प्रकार यह सूत्र शोध का विषय प्रस्तुत करता है । यहाँ पल्योपम स्थिति का उल्लेख है १२ १६ १ / ४, गाथा १८५ में विजयार्द्ध की उसका धनुष्ठ सूत्र ४०३, पृ० २५५ योजन दिया गया सूत्र ४०२, पृ० २५५--- यहाँ वृत्त वैताढ्य पर्वत, शब्दापाती नाम का १००० योजन आयाम विष्कम्भ वाला है जिसकी परिधि ३१६२ योजन से कुछ अधिक की परिधि वाला बतलाया गया है। स्पष्ट है कि १०००X३·१६२२७= ३१६२·२७ परिधि का मान १० को अनुमानतः ३·१६२२७ लेकर व्यवहृत करने से उक्त मान आता है। शेष संख्याएँ दाशमिक संकेतना में हैं । यहाँ पल्योपम स्थिति का उल्लेख है । सूत्र ४१७, पृ० २६४ सूत्र ४०८, पृ० २५६ यहाँ मूल में चौड़ाई = योजन है, परिधि ८ ३·१६२२७ २५-२६८१६ योजन होगी जो यहाँ २५ योजन से कुछ अधिक बतलाई गई है। इसी प्रकार अन्य प्रमाण दृष्टव्य हैं । सूत्र ४१३, पृ० २६३ यहाँ अश्व स्कन्ध के सदृश अर्धचन्द्र के संस्थान का उल्लेख है जो ज्यामितीय है । "बहुसमतुल्ला - जाव - परिणाहेणं" गणितीय उल्लेख है । इसी प्रकार अगला सूत्र ४१४ पृ० २६३ दृष्टव्य है। यहाँ संस्थाएँ दाशमिक संकेतना में दी गई हैं। सूत्र ४२६, पृ० २६७ यहाँ गंधमादन वक्षस्कार पर्वत का आयाम ३०२०६ १६ योजन दिया गया है, अन्त में इसका माप चौड़ाई में अंगुल के असंख्यातवाँ भाग बतलाया गया है। माप दाशमिक संकेतना में Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना २१ हैं । अंगुल के असंख्यातवाँ भाग प्रमाण ज्यामितीय है, साथ ही सूत्र ५०१, पृ० २६८उपमा मान के आधार पर दिया प्रतीत होता है (?) यहाँ कोस यहाँ कुण्ड का आयाम विष्कम्भ ४८० योजन है। परिधि शब्द का भी उल्लेख है। १५०० योजन से कुछ कम बतलायी है। सूत्र ४३३, पृ० २७१ ___ यहाँ परिधि-४८०४ ३.१६२२७- १५१७८८६६० होनी यहाँ सिद्धायतनकूट मूल में ५०० योजन चौड़ा है और चाहिए। उसकी परिधि मूल में १५८१ योजन से कुछ अधिक बतलाई गई अतः यहाँ शोध का विषय है। है। यहाँ ५००४३.१६२२७=१५८१.१३५ योजन प्राप्त होती सूत्र ५०३, पृ० २६६-. है। अर्थात् यहाँ भी अनुमानतः 7 का मान V१० अथवा यहाँ आयाम विष्कम्भ ८ योजन है। इसकी परिधि २५ ३.१६२२७ दिया गया है । अन्य प्रमाण भी दृष्टव्य हैं। योजन से कुछ अधिक दी गयी है। इससे T का V१० का मान • सूत्र ४६४, पृ० २८३ लेने पर २५२६८१६ योजन परिधि प्राप्त होती है। जो २५ से यहाँ सिद्धायतन कूट मूल में ६ योजन और १ कोस चौड़ा 3 कुछ अधिक है। ___ इसी प्रकार सूत्र ५०८, ५१०, ५१३, ५१४ दृष्टव्य हैं । इन - है । अर्थात् ६-योजन अथवा ६.२५ योजन है, जिसकी परिधि = सभी में ग का मान /१० लेकर परिधि को अनुमान रूप से उल्लिखित किया गया है। ६.२५ X ३.१६२२७=१६.७६४१८७५ है। सूत्र ५२१, पृ० ३०४इस प्रमाण को २२ योजन से कुछ कम की परिधि वाला इस सूत्र में पल्योपम स्थिति का उल्लेख है। । कहा गया है । इसी प्रकार अन्य दत्त प्रमाण दृष्टव्य हैं। सूत्र ५२२, पृ० ३०४सूत्र ४६६, पृ० २८४-२८५ -- यहाँ पल्योपम स्थिति का उल्लेख है । इसी प्रकार सूत्र ५२३ यहाँ अतिसम शब्द ज्यामितीय है। भूभाग का मध्य भी में भी उल्लेख है। : ज्यामितीय है। कोस, और धनुष शब्द भी गणितीय हैं। सूत्र ५२५, पृ० ३०५-- सूत्र ४६७, पृ० २८५ यहाँ संख्याएँ दाशमिक संकेतना में हैं । योजन, कोस, धनुष, यहाँ दाशमिक संकेतना में संख्याएँ उल्लिखित हैं। गणितीय शब्दों का उपयोग हैं। गवाक्षकटक (नालियों के समूह) सूत्र ४७१, पृ० २८६ दृष्टव्य है । अतिसम तथा स्तूपिका विचारणीय है। यहाँ पल्योपम स्थिति का उल्लेख है। असंख्य द्वीप समद्रों सूत्र ५२६, पृ० ३०५का भी उल्लेख है। इस प्रकार इस सूत्र में भी संख्याएँ दाशमिक संकेतना में द्रष्टव्य हैं। : सूत्र ४८७, ४८८, पृ० २६३-- पल्योपम स्थिति का भी उल्लेख है । सूत्र ५२६ एवं ५३१ में यहाँ संख्याएँ दाशमिक संकेतना में हैं। भी यह दृष्टव्य है। - सूत्र ४६७, पृ० २६६--- सूत्र ५३५, ५३७ पृ० ३०६, ३१०यहाँ अनेक प्रकार के चित्रों का उल्लेख है। प्रतिरूप शब्द यहाँ दाशमिक संकेतना में संख्या निरूपण है। : ज्यामितीय है। सूत्र ५४३ पृ० ३११.। सूत्र ४६८, ४६६ पृ० २६६, २६७ यहाँ परिधि के सम्बन्ध में, "तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवेणं" यहाँ संख्याएँ दाशमिक संकेतना में उल्लिखित हैं। कहा गया है जिससे ज्ञात होता है कि परिधि का मान अनुमान : सूत्र ५००, पृ० २६७ रूप से यहाँ तीन से कुछ अधिक लिया गया है। कुंड की लम्बाई चौड़ाई २४० योजन है । परिधि ७५६ योजन यहाँ योजन, कोस, धनुष का उपयोग है। । दी गयी है। यहाँ परिधि = २४०४३.१६२२७-७५८.९४४८० । लाख के लिए "सय सहस्स" ही उपयोग में लाया गया है। । होती है । इस मान को अनुमानतः ७५६ ले लिया गया है। अर्थात् संख्याएँ दाशमिक संकेतना में ही हैं । 'कोडी' शब्द का भी उपयोग V१० को रूप लिया है। हुआ है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ गणितानुयोग : प्रस्तावना 'सहस्स' शब्द का उपयोग सूत्र ५५६, ५५७, ५५८, ५५६ इकाइयाँ, लीक्षा, यव, यवमध्य, अंगुल, वितस्ति, रत्नि, कुक्षि, में भी हुआ है। धनुष, गाउ, सौ योजन, पर तत्सम्बन्धी वृद्धि कही गयी है जो सूत्र ५७१ पृ० ३१६ विचारणीय है। इसमें यावत्' शब्द का भी उपयोग किया गया है। प्रश्न है कि ६५ इकाइयाँ जाकर ही वृद्धि का वर्णन क्यों इस में १६०५ - को “सोलस पंचुत्तरे जोअण सए पंच य किया गया है। सूत्र ६३६, पृ० ३४१-३४२एगणवीसइभाए जोअणस्स" रूप में उल्लिखित किया गया है। यहाँ शिखा वृद्धि के विषय में बतलाया गया है कि लवण यहाँ एक हजार छः सौ पाँच न कहकर सोलह सौ आदि कहा है। समुद्र के दोनों ओर पंचानवे पंचानवे प्रदेश जाने पर सोलह प्रदेशों इसी प्रकार सूत्र ५८० दृष्टव्य है । किन्तु सूत्र ५८८ पृ० ३२२ में की शिखा वृद्धि होती है। ७४२१ -योजन को 'सत्त जोयण सहस्साई चत्तारि अ एक- सूत्र ६४०, पृ० ३४२ यहाँ भी पंचानवे हजार योजन का उल्लेख है । दाशमिक वोसे जोअण सए एक च एगण वीसहभागं जोअणस्स रूप में संकेतना में संख्याएँ दी गयी हैं। इसी प्रकार सूत्र ६४१, ६४२, उल्लिखित किया गया है। इस प्रकार दो विधियाँ महत्वपूर्ण हैं। ६४४, ६४६, ६५१ में है। एक-एक प्रदेश की श्रेणी से बढ़ते बढ़ते मध्य में योजन शत सहस्र विष्कम्भ कहा गया है। इसी सूत्र ५६६, पृ० ३२५--- प्रकार मुख का मूल दस हजार योजन चौड़ा बतलाया गया है। चौदह हजार को "चोद्दस सलिला सहस्सेहि" बतलाया है। यहाँ भी पल्योपम स्थिति का उल्लेख है। सूत्र ६४३ में अर्द्ध । इसी प्रकार की दाशमिक संकेतना हेतु सूत्र ५६७, ५६८, ६००, पल्योपम का उल्लेख है। ६०३, ६०४ दृष्टव्य हैं। सूत्र ६४६ पृ० ३४४ -- सूत्र ६०६ पृ०३३१-~ यहाँ 'मुहूर्त' का उपयोग हुआ है । तीस मुहूर्त एक अहोरात्रि अनेक प्रकार के वृक्षों का वर्णन सूत्र ६१८ पृ० ३२६ तक रूप है। दिया गया है। सूत्र ६६८, पृ० ३५१सूत्र ६२५ पृ० ३३८ -- यहाँ संख्याएँ दाशमिक संकेतना में हैं। इसी प्रकार सूत्र यहाँ चतुर्थद्वीप का आयाम विष्कम्भ ६०० योजन और उसकी ६७०, ६७१, ६७२, ६७३, ६७४ में दामिक सकतना का परिधि १८६० योजन बतलाई गई है। का मान V१० या उपयोग है। ३.१६२२७ लेने पर परिधि६००-३.१६२२७अथवा.१८६७.३६२ सूत्र ६७५, पृ० ३५२प्राप्त होती है । इसी प्रकार अन्य की परिधि दृष्टव्य है। यहाँ लवण समुद्र की चौड़ाई २ लाख योजन होने से वृत्त का विषम्भ ५ लाख योजन होता है। परिधि भी V१०सूत्र ६२०, पृ० ३४०. ३.१६२२७ लेने पर १५८११३५ योजन प्राप्त होती है। किन्तु यहाँ दाशमिक संकेतना दृष्टव्य है। इसी प्रकार सूत्र ६३२, सूत्र ६३० से अलग यहाँ कथन है कि परिधि १५८११३६ योजन ६३४, ६३५, दृष्टव्य हैं। लवण समुद्र की चौड़ाई २००००० से कुछ कम है । शेष संख्याएँ भी दाशमिक संकेतना में हैं । पल्योपम योजन होने से वत्त का सम्पूर्ण विष्कम्भ ५००००० योजन स्थिति का कथन है। सत्र ६८६. ६८८, ६८६, ६६१, ६६२, हो जाता है अतएव परिधि १० मान 7 का लेकर ६६४, ६६५ में दामिक संकेतना में संख्याएं हैं तथा सूत्र ६८७ १५८११३५ प्राप्त होगी। किन्तु यहाँ १५८११३६ योजन से कुछ में पल्योपम स्थिति का उल्लेख है। अधिक कही गई है। सूत्र ७०१, पृ० ३६१सूत्र ६३८, पृ० ३४१-.. ___ यहाँ धातकीखंडद्वीप की चौड़ाई ४००००० योजन होने यहाँ विचारणीय तथ्य है, “पंचानवे पंचानवे प्रदेश जाने पर से परिधि का मान V१०=३.१६२२७ लेने पर कुल व्यास एक एक प्रदेश की गहराई वृद्धि कही गई है।" इसी प्रकार, १३००००० में गुणा करने पर ४१११९५१ योजन प्राप्त होते हैं । "पंचानवे पंचानवे बालाग्र जाने पर एक एक बालाग्र गहराई की किन्तु ग्रन्थ में ४१११६६१ योजन से कुछ कम को परिधि वृद्धि कही गई है। इस प्रकार अन्य अनेक इसी से सम्बन्धित बतलाई गई है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७३४, पृ० ३६६ यहाँ सख्या दाशमिक संकेतना में है। सहस्स का उपयोग हुआ है। इसी प्रकार सूत्र सूत्र ७३६, पृ० ३७० कालोद समुद्र का विष्कम्भ ८००००० योजना चक्रवाल रूप में है । अतः एवं सूची व्यास २६००००० योजन होता है। यदि V १० को का मान ३१६२२७ रूप लिया जाये तो परिधि -६१,७०,५८३ योजन प्राप्त होती है। किंतु ग्रन्थ में ε१,७०, ६७५ योजन से कुछ अधिक बताई गई है। यह शोध का विषय है । लाख की जगह सय ७३५ में भी है ? सूत्र ७४५, पृ० ३७२- पुष्करवरद्वीप की चक्राकार चौड़ाई १६००००० योजन दी गई है । अतएव बनने वाला कुल व्यास ६१००००० योजन प्राप्त होगा । अतएव इसकी परिधि का माप = १०३.१६२२७ लेने पर परिधि - ६१००००० X ३ १६२२७ १६२८६८४७ योजन होती है। किन्तु ग्रन्थ में इसका मान १६२८६८६४ बतालायी गयी है । यह शोध का विषय है कि यह मान किस भांति निकाला गया । सूत्र ७४८ पृ० ३७३ यहाँ ४८२२४६६ को दाशमिक संकेतना में उल्लिखित किया हैं । सूत्र ७५१ पृ० ३७४ यहाँ पत्योपम स्थिति का उल्लेख है । सूत्र ७५२ पृ० ३७४– यहां मानुषोसर पर्वत के विभिन्न मान दाशमिक संकेतना में दिये ये हैं । ति० प०, भाग १ / ४, गाथा २७६० में इसकी आभ्यन्तर सूची ४५००००० योजन दी गई है। तदनुसार उसकी परिधि १४२३०२४६ योजन दी गई है जो इस ग्रन्थ में भी इतने प्रमाण गई है । किन्तु ४५००००० X ३१६२२७ १४२३०३१५ योजन प्राप्त होती है । तदनुसार यह शोध का विषय है । इसी प्रकार बाह्य सूची ति० प० भाग १/४, गाथा २७५७ में ४५०२०४४ योजन है तथा परिधि १४२३६७१३ किन्तु इस ग्रन्थ में १४२३६७१४ योजन दी गई है। इस प्रकार यहाँ शोध का विषय प्रस्तुत है । शेष माप की तुलना भी दृष्टव्य है । सूत्र ७६८, पृ० ३७५-३७६ इस गाथा में भी दाशमिक संकेतना में पुष्करवरद्वीपार्ध का विष्कम्भ एवं परिधि दी गई है। सूत्र ७६१, पृ० ३८८ गणितानुयोग प्रस्तावना २३ यहाँ परिधि दाशमिक संकेतना में उल्लिखित है । सूत्र ७६६ पृ० ३६० यहाँ पुष्करोद समुद्र का विष्कम्भ संख्यात सहस्र योजनों में किन्तु परिधि को संख्यात शत सहस्र योजनों में व्यक्त किया गया गया है । यहाँ संख्यात शब्द का उपयोग महत्वपूर्ण और बीजीय रूप की ओर प्रवृत्ति का द्योतक है । ऐसे शब्दों का उपयोग सूत्र ८०१, पृ० ३६०, तथा सूत्र ८०५ पृ० ३६१ में भी हुआ है। किंतु सूत्र ८०५ में चौड़ाई तथा परिधि दोनों को ही संख्यात शतसहस्र बतलाया गया है। इसी प्रकार सूत्र ८०८, पृ० ३६२, सूत्र ८१७, पृ० ३९६ सूत्र ८३०, पृ० ३६७, सूत्र ८३४, पृ० ३६८; सूत्र ८३६, पृ० ३६६ पर है । सूत्र ८३-८४१, पृ० ४००-४०३ यहाँ भी नंदीश्वर द्वीप की चौड़ाई और परिधि संख्येय लाख योजन बतलाई गई है। शेष संख्याएँ दाशमिक संकेतना में हैं । सूत्र ८४८, ४०७पृ० यहाँ १०००० योजन चौड़ाई तदनुसार परिधि १००००X ३-१६२२७ लेने पर ३१६२२७ योजन प्राप्त होती है । इस में यह ३१६२३ योजन ली है । ग्रन्थ इसी प्रकार संख्या शत सहस्र योजन की परिधि सूत्र ८६०, पृ० ४११, तथा सूत्र ८७४ पृ० ४१३ में भी बतलाई गई है । सूत्र ६२८, पृ० ४२६ रत्नप्रभा पृथ्वी के अति सम भूमिभाग से ७६० योजन की ऊँचाई पर ऊपर की ओर ११० योजन के विस्तृत क्षेत्र में असंख्य ज्योतिषी स्थान तथा तिरछे ज्योतिषी देवों के असंख्य शत सहस्र विमान आवास हैं । ति० प० भाग १ / ७ गाथा १०८ में, योजन उपर जाकर आकाशतल में ११० ताराओं के नगर हैं" ऐसा कथन है । "चित्रा पृथ्वी से ७१० योजन मात्र बाहल्य में इस सम्बन्ध में निम्नलिखित लेख दृष्टव्य है— एस० डी० शर्मा एवं एस० एस० त्रिश्क, "लेटिट्यूड ऑफ दीमून एज डिटरमिन्ड इन जैन एस्ट्रानामी, श्रमण, भा० २७, क्र०२, १६७५, पृ०२८-३५ । इस लेख में सूर्य की ऊँचाई ८०० योजन तथा चंद्र की ऊँचाई ८८० योजन पर विस्तृत विवेचन कर उस रहस्य का संकेत दिया है जो संभवतः इस गणना का अभिप्रेत था । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ गणितानुयोग : प्रस्तावना सूत्र ६३१, पृ० ४३३ सूत्र ६४३, पृ० ४४१-- ___जम्बूद्वीप में ताराओं की संख्या [१३३६५०] (१०)14 दी मन्दर पर्वत से ११२१ योजन के अन्तर पर ज्योतिष्क गति गई है। यही संख्या ति० प० भाग १/७ गाथा ४६४ में उल्लिखित बतलायी गई है। यह महत्वपूर्ण तथ्य है। यहां से ज्योतिषियों है । यह दाशमिक संकेतना में है। का गमन प्रारम्भ होता है। सूत्र ६३२, पृ० ४३४ यह शोध का विषय है। लवण समुद्र में (२६७६००) (१०)" ताराओं की संख्या सूत्र ६४४, पृ० ४४२दी गयी है जो ति० प० भाग १/७ गाथा ५६६ में इसी रूप में लोकान्त से ११११ योजन के अन्तर पर ज्योतिष्क कहे गये दी गई है। यहाँ भी दाशमिक संकेतना है। ग्रह ३५२ दोनों में हैं। यह भी शोध का विषय है। समान हैं। नक्षत्र ११२ हैं जो दोनों में समान हैं। (अनुवाद सूत्र ६४५, पृ० ४४२-- पुनः देखें) ज्योतिषियों का भूभाग से ऊंचाई का प्रमाण निम्नलिखित सूत्र ६३३-६३६ पृ० ४३५-४३८-- रूप में दिया गया है जो महत्वपूर्ण है। इस ऊँचाई का अर्थ रहस्यद्वीप समुद्र ताराओं की संख्या मय है क्योंकि योजन भिन्न योजनाओं के अनुसार विभिन्न प्रकार धातकोखण्डद्वीप (८०३७००) (१०)14 के अंगुलों पर आधारित, भूगोल, ज्योतिष तथा खगोल प्रमाणों कालोद समुद्र (२८१२६५०) (१०)14 के लिए योजनाबद्ध रूप में बांधे गये होंगे । अतएव यह गहन शोध पुष्करवरद्वीप (९६४४४००) (१०)" का विषय है। फिर भी इस पर शर्मा, त्रिश्क और जैन ने शोध पुष्करार्ध द्वीप (आभ्यन्तर) (४८२२२००) (१०)" लेखादि लिखे हैं जो रहस्य के एक अंश को प्रकाशित करते हैं । उपरोक्त प्रमाण ति० प० भाग १/७ गाथा ६००, ६०१, ज्योतिषी का नाम रत्नप्रभा पृथ्वी के अतिसम भूभाग से ६०२ में (पुष्करबरद्वीप छोड़ कर) इसी रूप में वर्णित हैं। ऊँचाई सूत्र ६३७, पृ० ४३८ तारा (नीचे का) ७६० योजन __ पुष्करोद समुद्र में संख्येय चंद्र, संख्येय सूर्य, संख्येय ग्रह, ८८० योजन संख्येय नक्षत्र, संख्येय कोटाकोटि तारागण रूप में संख्याएँ वणित ८०० योजन हैं । दाशमिक संकेतना का उपयोग तारागण की संख्या के साथ तारा (ऊपर का) ६०० योजन किया गया है । यह ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है । ति० प०, भाग १/७, के अनुसार ज्योतिषी निम्नलिखित सूत्र ६३८, पृ० ४३६ रूप में दिये गये हैं। ___ मनुष्य क्षेत्र में १३२ चन्द्र, १३२ सूर्य, ११६१६ महाग्रह, ज्योतिषी का नाम चित्रा पृथ्वी से ऊपर माप गाथा ३६९६ नक्षत्र, (८८४०७००) (१०)14 तारागण बतलाये गये चन्द्र ८८० योजन हैं । ति० प० भाग १/७, गाथा ६०६, ६०७ एवं ६०८ में ये ही ८०० योजन संख्याएँ दी गयी हैं । ये सभी दाशमिक संकेतना में दी गयी हैं। ८८८ योजन सूत्र ६४०, पृ० ४४० (बारह योजन मात्र बाहल्य) यहाँ रुचक द्वीप में असंख्य चन्द्र बतलाये गये हैं। असंख्य ८८८ योजन कोटाकोटि तारागण बतलाये गये हैं। यहाँ भी दाशमिक संकेतना ८६१ योजन में साथ-साथ असंख्य का उपयोग इतिहास की दृष्टि से महत्व ८६४ योजन पूर्ण है। मंगल ८६७ योजन सूत्र ६४२, पृ० ४४१ - १०० योजन ___ ज्योतिष्कों का अल्पबहुत्व (Comparability) इतिहास की अवशिष्ट ग्रह (बुध और शनि के अन्तराल १०१ दृष्टि से महत्वपूर्ण है । यहाँ तुल्य, अल्प, संख्येय गणितीय शब्द ८८८ से १०० योजन के बीच में) हैं । यथा चन्द्र और सूर्य तुल्य हैं। सबसे अल्प नक्षत्र हैं । ग्रह नक्षत्र ८८४ योजन संख्येय गुण हैं और तारा संख्येयगुण हैं । ये क्रमानुसार अल्पबहुत्व ७६० योजन की शैली है। (११० योजन मात्र बाहल्य में) सूर्य शनि १०४ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना २५ इस प्रकार पूर्वोक्त प्रमाण ऐतिहासिक दृष्टि से रहस्य उद्घाटन होने पर अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकते हैं। साथ ही आधुनिक रूप में उन्हें स्थिति के सम्बन्ध में तथा गतिशीलता के सम्बन्ध में स्वरूप सहित स्पष्ट किया जा सकता है। सूत्र १४६, पृ० ४४५-४४६-- ज्योतिषियों का आयाम-विष्कम्भ, परिधि एवं बाहल्य नाम आयाम विष्कम्भ परिधि बाहल्य ५६ योजन २५४३ योजन २८ योजन ४८ योजन ६४ ३ योजन २४ योजन ग्रह योजन नक्षत्र १ कोस तारा कोस तिलोयपत्रि भाग १/७ में उपलब्ध मान इस प्रकार हैंनाम आकार उपरितल का विस्तार 1X३ योजन १४३ कोस X३ कोस १ कोस } कोस ५०० धनुष बाहल्य गाथाएँ चन्द्र अर्द्धगोलक १६ योजन परिधि दो योजन से कुछ अधिक दो योजन से अधिक योजन ३७, ३६, ४० अर्द्धगोलक ४८ योजन २४ योजन १०० नक्षत्र १०६ अर्द्धगोलक 1 कोस ११ कोस से अधिक कोस ८४, ८५ अर्द्धगोलक १ कोस ३ कोस से अधिक कोस ६०,६१,६२. गुरु अद्धंगोलक कोस का बहुभाग ६४, ६५ मंगल अर्द्धगोलक 1 कोस 1 कोस ६७,६८ शनि 1 कोस अवशिष्ट ग्रह अर्द्धगोलक १०२ अर्द्धगोलक १ कोस 1 कोस १०५, १०६. तारा अर्द्धगोलक उत्कृष्ट २००० धनुष जघन्य ५०० धनुष ११० मध्यम १५०० धनुष सूत्र ६४७, पृ० ४४७– शिक्षा-गति-लंघन (लांघना), वल्गन (कूदना), धावन" इस सूत्र में विभिन्न प्रकार की गतियों तथा बल का विवरण (दौड़ना), धोरण (गति चातुर्य), त्रिपदी (भूमि पर तीन पैर टिकाना), जविनी (वेगवती)। दाशमिक संकेतना में संख्याएँ १६०००, ८००० तथा २००० ___ गमन-गति- इच्छानुसार, प्रीतिकर, मन समान वेगवती, अमित । सूत्र ६४८, पृ० ४५३गति-कुटिल गति, ललित गति, आकाश गति, चक्रवाल यहाँ अल्पबहुत्व अनन्तगुणा रूप में दिया गया है। गति, चपलगति, गर्वित गति, पुलित (आकाश) गति, चंचल गति। सूत्र ६४६, पृ० ४५४बल–अमित । यहाँ दाशमिक संकेतना का उपयोग है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ गणितानुयोग : प्रस्तावना सूत्र ६५०, पृ० ४५६ सूत्र ६५७, पृ० ४५८-- चन्द्रमा एक मुहूर्त में मण्डल के १०६८०० भाग में से परिधि यहाँ मनुष्य क्षेत्र में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, तक्षत्र, तारे अनवस्थित के १८३० भाग गति करता है। तथा मनुष्य क्षेत्र के बाहर वे अवस्थित (गति-संचरण हीन) बताये सूर्य एक मुहूर्त में मण्डल के १०६८०० भागों में से परिधि में मण्डल के १०१३०० भागों में से परिधि गये हैं। यह शोध का विषय है तथा आधुनिक संदर्भ में उपयुक्त के १८३५ भाग गति करता है। ति०प० भाग १/७ में इन भागों को गयणखंड (गगनखंड) सूत्र ६५८, पृ० ४५८-४५६-- कहा गया है। द्वीप समुद्रों के ज्योतिष्कों की संख्या निकालने हेतु यहाँ सूत्र ६५१, पृ० ४५६-४५७ प्रारम्भिक विधि दी गई है । ति० प० भाग १/७ पृ०७६४ आदि गति अल्पबहुत्व में शीघ्र, अल्प का उपयोग हुआ है। में सपरिवार चन्द्रों को लाने का विधान दृष्टव्य है । वहाँ रज्जु के अर्द्धच्छेद एवं अन्य गणना का अवलम्बन लिया गया है। सूत्र ६५२, पृ० ४५७-- ऋद्धि अल्पबहुत्व में महा और अल्प का उपयोग हुआ है। सूत्र ६६०, पृ० ४५६सूत्र ६५३, पृ० ४५७ चन्द्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्रों के योग के सम्बन्ध में नियम यहाँ चन्द्र सूर्यादि के समूह अलग-अलग समूहों के बतलाये गये हैं। इस सम्बन्ध में चन्द्र सूर्य का ग्रह-नक्षत्रों से लिए पिटक शब्द का भी प्रयोग हुआ है। प्राकृत में इसे पिडय अथवा विलोमरूपेण पूर्व-पश्चिम से या दक्षिण-उत्तर से योगयुक्ति या पिडग कहा है। पिटक का शब्दार्थ सन्दूक, पिटारी आदि हो होती है । नक्षत्र मण्डल के कुल विभागों की संख्या १०६८०० है । सकता है। प्रत्येक पिटक में दो चन्द्र, दो सूर्य, १७६ ग्रह, ५६ सूत्र ६६१, पृ० ४६०नक्षत्र हैं। इस प्रकार के ६६ पिटक ग्रहों तथा नक्षत्रों के मनुष्य एक मुहूर्त में नक्षत्र सूर्य की अपेक्षा ५ भाग मण्डल अधिक, लोक में हैं। पिटक शब्द महत्वपूर्ण है। तथा चन्द्रमा से ६७ भाग अधिक गमन करते हैं। सूत्र ६५४, पृ० ४५७ - नक्षत्र–१८३५ भाग मण्डल के यहाँ पंक्तियाँ शब्द महत्वपूर्ण हैं । प्रत्येक पंक्ति में ६६ चन्द्र सूर्य-१८३० " " सूर्य हैं । ऐसी ४ पंक्तियाँ मनुष्य लोक में हैं। चन्द्र-१७६८ " प्रत्येक पंक्ति में ६६ ग्रह हैं। ग्रहों की १७६ पंक्तियाँ मनुष्य लोक में हैं। सूत्र ६६२, पृ० ४६०प्रत्येक पंक्ति में ६६ नक्षत्र हैं। नक्षत्रों की ५६ पंक्तियाँ हैं । सूर्यप्रज्ञप्ति का दसवाँ पाहुड़ का दूसरा अन्तर पाहुड़ देखिये। सूत्र ६५५, पृ० ४५८ - चन्द्र एवं नक्षत्र योग में यहाँ अभिजित नक्षत्र से चन्द्रमा का चन्द्र, सूर्य, ग्रहों के सभी मण्डल (बीथियाँ) अनवस्थित हैं योगकाल निकालने हेतु जात है कि अभिजित नक्षत्र गगनमण्डल के ६३० भागों में व्याप्त है। चन्द्र से नक्षत्र गति ६७ मण्डल 'वे मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं । यह “अनवस्थित" अत्यन्त महत्व भाग अधिक होने से इस सापेक्ष राशि द्वारा ६३० को भाजित पूर्ण है। ____ नक्षत्र और ताराओं के सभी मण्डल अवस्थित हैं और वे भी करने पर ६३० अथवा ६ मुहूर्त एवं मुहूर्त योग काल प्राप्त मेरु की प्रदक्षिणा करते हैं। हो जाता है। इसको विलोम रूपेण भी सिद्ध किया जा सकता सूत्र ६५६, पृ० ४५८यहाँ महत्वपूर्ण तथ्य है कि चन्द्र सूर्य केवल अपने-अपने इसी प्रकार श्रवण नक्षत्र का गगन मण्डल फैलाव २०१० मण्डलों-आभ्यन्तर, बाह्य तथा तिर्यक् क्षेत्र में मण्डल संक्रमण करते हैं, किन्तु मण्डलों से उर्ध्व और अधो क्षेत्र में संक्रमण नहीं भाग में है। अतएव चन्द्र से इस नक्षत्र का योगकाल -अथवा करते हैं। इनके इस प्रकार Orbital planes हैं। आधुनिक सन्दर्भ में तुलनीय हैं। ३० मुहूर्त पर्यन्त रहेगा। ६७ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार जिन नक्षत्रों का फैलाव १००५ गगन खंडों में है उनका चन्द्र से योग काल १००५ ६७ - १५ मुहर्त होगा। पुनः जिन नक्षत्रों का फैलाव ३०१५ मण्डल भाग है उनका चन्द्र से योग काल = ४५ मुहूर्त होगा । ३०१५ ६७ अगली गाथा में इसी प्रकार चन्द्र ग्रह योगकाल का संख्या रहित उल्लेख है। सूत्र ६४, पृ० ४६१ यहाँ सूर्य नक्षत्र योगकाल का विवरण है। अभिजित नक्षत्र का फैलाव ६३० गगन खंड होने से तथा सापेक्ष गति सूर्य को ५ गगनखण्ड कम होने से योगकाल ४ अहोरात्रि एवं गृहतं है। इसी प्रकार २००५ फैलाव वाले नक्षत्र सूर्य से योगकाल २०१ मुहूर्त अथवा अहोरात्र २१ मुहूर्त होता है। ५ जिन नक्षत्रों का फैलाव २०१० गगनखण्ड होगा उनका सूर्य से = ४०२ अथवा १३ अहोरात्र १२ मुहूर्त होता योगकाल २०१० ५ है । इसी प्रकार जिन नक्षत्रों का फैलाव ३०१५ मण्डल भाग होता है वे सूर्य से योग रात्र एवं ३ मुहूर्त काल तक करते हैं । अगले सूत्र में सूर्य ग्रह योग काल का संख्या रहित उल्लेख हैं । सूत्र ९६६, पृ० ४६१ एक अहोरात्र में ३० मूहर्त होते हैं। एक मुहूर्त में चन्द्र गमन १७६८ गगनखंड होता है ३० मुहूर्त में ५३०४० गगनखंड होंगे । कुल मण्डल गगनखंड १०६८०० है, जिनका अर्द्ध मंडल ५४६०० होता है । अतएव चन्द्र एक अहोरात्र में एक अर्द्ध मंडल में १८६० भाग कम चलता है । किन्तु ग्रन्थ में एक अर्धमंडल और अर्धमंडल के नौ सौ पन्द्रह भागों में ३१ भाग कम पर्यंत चन्द्र गति बतलाई गई है । यह किस आधार पर बतलाई गयी है - यह शोध का विषय है । ३०१५ ५ ६३० ५ = १२६ मुहूर्त अथवा = - ६०३ मुहूर्त अथवा २० अहो - गणितानुयोग प्रस्तावना २७ दृष्टव्य है कि अनुपात ५३०४० ५४६०० ३१ ६१५ अतएव अनुवाद का अर्थ उक्त होना चाहिए । इसी प्रकार सूर्य गमन ३० मुहूर्त में १५३०X३०= ५४६०० गगन मंडल खंड अथवा अर्धमंडल होता है । = १ इसी तरह नक्षत्र गमन ३० मुहूर्त में १८३५X३० = ५५०५० गगनखंड होता है। एक अहोरात्र में नक्षत्र १५० खण्ड अधिक एक अर्द्ध मंडल चलते हैं । अनुपात अपेक्षा होते हैं। ३१ अथवा २- अहोराज लगेंगे। ४४२ १+ अर्द्धमण्डल चलते हैं । २ ७३२ भिन्न की उपरोक्त प्रणाली ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । सूत्र ६६७, पृ० ४६२ (१) चन्द्रमा प्रत्येक मण्डल को कितने मुहूर्त में तय करता है ? ५५०५० ५४६०० यहाँ अनुपात रूप से गणना की गयी है । चन्द्रमा १७६८ मण्डल चलने पर १८३० x २ अहोरात्र लगाता है, वहीं उसे यदि १८३०x२ १५. १ मण्डल तय करना पड़े तो मुहूर्त अर्थात १७६८ ४४२: १८३०x२ १८३० (२) इसी प्रकार सूर्य प्रत्येक मण्डल को कितने मुहूर्त में तय करता है ? यहाँ भी अनुपात उसी प्रकार होगा । १८३० मण्डल सूर्य १८३०x२ अहोरात्र में तय करता है । यदि १ मण्डल अहोरात्र अथवा २ अहोरात्र तय करना पड़े तो उसे लगेंगे । (२) दूसरी तरह से १७६० भाग मण्डल के १ अन्तर्मुहूर्त में, . . १ अहोरात्र में १७६५ X ३० भाग चन्द्र चलता है । अतएव १०६८०० या १ मण्डल के भागों को तय करने में चन्द्र १०३८०० ३१ २. १७६८ X ३० ४४२ अहोरात्र लगाता है । इसी प्रकार सूर्य पर भी घटित करना चाहिए । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ गणितानुयोग : प्रस्तावना १२४ यहाँ ६४ = ( १२३४३ ) + १ होता है जो ग्रंथ में उल्लि यहाँ सूत्र ६६८, पृ० ४६२चन्द्र १ युग में कितने मंडल चलता है ? १४.३२ मण्डल होंगे । ग्रन्थ में इसे पंद्रहवें मण्डल का चौथा १ युग में समस्त मुहूर्त संख्या ५४६०० होती है। भाग तथा मण्डल के १२४ भागों में से १ भाग तथा पूर्ण चौदह चन्द्र १ मुहूर्त में १७६८ भाग गमन करता है। मण्डल बतलाया है । वास्तव में १२४ भाग का चौथाई भाग ३१ .:. १ युग में कुल चन्द्र द्वारा चले भाग होता है और १ भाग सहित यह १२४ में से कुल ३२ भाग होता ५४६००x१७६८ = ६७०६३२०० है । अस्तु । चूंकि १०६८०० भागों का एक मण्डल होता है __ पुन: चन्द्र मास में सूर्य कितने मण्डल गति करता है ? एक युग ..:.९७०६३२०० भागों के ९७०५२१० मण्डल होते हैं। में सूर्य के ६१५ मण्डल होते हैं । चन्द्र मास में २ पर्व होते हैं । १०६८०० इस प्रकार १२४ पर्यों में ६१५ सूर्य मण्डल होते हैं इसलिए २ ९७०६३२०० अर्थात् =८८४ मण्डल पर्वो में ११५४२ १८३०=१४.६४. मण्डल प्राप्त होते हैं । १०६८०० इसी प्रकार सूर्य १ युग में कितने मण्डल चलता है ? १ युग में समस्त महूर्त संख्या ५४६०० होती है । सूर्य १ मुहूर्त में १८३० भाग चलता है । खित है। .'. १ युग में सूर्य द्वारा चले गये कुल भाग = इसी प्रकार चन्द्र मास में नक्षत्र कितने मण्डल गति करता ५४६००x१८३० है ? यहाँ नक्षत्र के १ युग में १८३५ अद्ध मंडल होते हैं और चन्द्र पुनः १०६८०० भागों का एक मण्डल होता है मास में २ पर्व होते हैं। अतएव १२४ पर्यों में १८२५ नक्षत्रों के .:.५४६००x१८३० भागों का ५४९००४१८३० । १०६८०० ६१५ मण्डल । मण्डल होते हैं इसलिए २ पर्व में - इसी प्रकार नक्षत्र १ युग में कितने मण्डल चलता है ? यहाँ एक युग में समस्त मुहूर्त संख्या ५४६०० होती है। नक्षत्र १ मुहूर्त में १८३५ भाग चलता है। १४.६६ मण्डल प्राप्त होते हैं । यहाँ ६६ = ( १२४४३) ::. नक्षत्र ५४६०० मुहूर्तों में ५४६००x१८३५ भाग चलता है। +६ होते हैं । अतएव ग्रन्थ में उल्लिखित मान प्राप्त होता है। ::: १०६८०० भागों का १ मण्डल होता है सूत्र ९७०, पृ० ४६३_५४९००४१८३५ .:. ५४६०००x१८३५ भागों का १०९८०० आदित्यमास में चन्द्र कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है? यहाँ एक युग में ६० सौर मास होते हैं और ८८४ चन्द्र मण्डल अथवा १८३५ मण्डल या १८३५ अर्द्धमण्डल तय करता है। होते हैं । इसलिए १ सौर मास में =१४ मण्डल प्राप्त सूत्र ६६६ पृ० ४६२-४६३– होते हैं। चन्द्र मास में चन्द्र कितने मण्डल तक गति करता है ? यहाँ । इसके निकालने हेतु ज्ञात है कि एक पंचवर्षीय युग में १२४ पर्व आदित्यमास में सूर्य कितने मण्डल चलता है ? यहाँ एक युग होते हैं तथा ८८४ मंडल होते हैं । एक चन्द्र मास में दो पर्वणी में ६० सौर मास होते हैं और ६१५ चन्द्रमण्डल होते हैं । इसलिए होती हैं। इसलिए १ चन्द्र मास में 5८४२ मण्टल होंगे अशाता . .... ' मण्डल प्राप्त होता है। १२४ ६० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना २६ ऋतुमास में नक्षत्र कितने मण्डल चलता है ? १ युग में ६१ आदित्यमास में नक्षत्र कितने मण्डल चलता है ? यहाँ १ युग में ६० सौर मास और १८३५ नक्षत्र मण्डल होते हैं । इसलिए १ ऋतुमास और १८३५ नक्षत्र मण्डल होते हैं । इसलिए १ ऋतुमास सौर मास में १८३५ ४ १ = १५,३५. । यहाँ ग्रन्थ में १२० के में १८३५४१, १५,५६ मण्डल होते हैं । सूत्र ६७३ पृ० ४६४ २ १२० स्थान में १२४ लिखा है जो प्रामाणिक नहीं है । सूत्र ६७१ पृ० ४६३ अभिवद्धितमास में चन्द्र कितने मंडल चलता है ? १ अभिधित सवत्सर वाले युग में ५७ मास ७ अहोरात्र नक्षत्र मास में चन्द्र कितने मण्डल चलता है? यहाँ १ युग में ६७ नक्षत्र मास और ८८४ चन्द्र मण्डल होते हैं। इसलिए १ ११ १३ मुहूर्त होते हैं (सू० प्र०, भाग २, पृ० ४६०) । नक्षत्र मास में ८८४ = १३१३ मण्डल होंगे। ६७ त्रैराशिक हेतु इस संख्या में १५६ का गुणा करने पर सूत्र ६७१ पृ० ४६४ १५६ युग में ८६२८ परिपूर्ण अभिवद्धित मास होते हैं। यह नक्षत्र मास में सूर्य कितने मण्डल चलता है ? यहाँ पंचवर्षा- अनुमान से यहाँ लिया गया है । अब ८६२८ अभिवधित मास से त्मक १ युस में ६७ नक्षत्रमास तथा ६१५ सौर मण्डल होते हैं। १५६ युग में भावि चन्द्र मण्डल संख्या ८८४४१५६=१३७६०४ इसलिए १ नक्षत्र मास में ११५ = १३४४ मण्डल होते हैं। होती है । इसलिए १ अभिवधित मास में १३७६०४ = ८६२८ १५ १९८४ E -१५ ८३ नक्षत्रमास में नक्षत्र कितने मण्डल चलता है ? यहाँ १ युग में ६७ प्राप्त होती है जो ग्रन्थ में १५८ कही ८६२८१८६ नक्षत्र मास तथा १८३५नक्षत्र मंडल होते हैं। इसलिए १ नक्षत्र मास है। यह शोध का विषय है । इसे सू० प्र० भाग २, पृ० ७७६ में "पण्णरस मण्डलाइ तेसीति छलसीय सय भागे मण्डलस्स" उद्धृत में १६३५ ४१०-२०१५ अथवा १३.४४४ मण्डल होते हैं। पणास मण्डल इसे ग्रन्थ में ४६ १ के स्थान में ४७१ दिया गया है जो एक अभिवद्धित मास में सूर्य कितने मंडल चलता है ? १५६ युग में ८६२८ अभिवद्धित मास ६१५४ १५६ = १४२७४० सूर्य प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता है । १४२७४० मण्डल होते हैं । इसलिए १ अभिवद्धित मास में - सूत्र ६७२ पृ० ४६४ ८६२८ ऋतुमास में चन्द्र कितने मंडल चलता है। १ युग में ६१ ऋतु या कर्म मास होते हैं और ८८४ चन्द्र मण्डल होते हैं । इस १५८८२०=१५२९५ (ऊपर नीचे ३६ का अंश और हर को लिए १ ऋतुमास में मण्डल होते हैं। छेदने पर) ऋतुमास में सूर्य कितने मंडल चलता है ? १ युग में ६१ एक अभिवद्धित मास में नक्षत्र कितने मंडल चलता है ? ऋतुमास और ६१५ सूर्य मंडल होते हैं। इसलिए १ ऋतुमास में १५६ युग में ८६२८ अभिवद्धित मास तथा १८३५४१५६-=१५ मण्डल होते हैं। १४३१६० मण्डल नक्षत्र चलता है। ८६२८ ३० ६१ ६१ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० गणितानुयोग : प्रस्तावना २८२ ४७ .१४३१३० बढ़ती, सर्वाबाह्य मण्डल की ओर ली गई हैं। ये मान माध्यमान इसलिए १ अभिवद्धित मास में १६ ६२८ की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं । इसी प्रकार मुहूर्त गति घटती घटती सर्व अभ्यंतर मण्डल की ओर गति करता है। इस प्रकार १६१४ नक्षत्र मन्डल प्राप्त होते हैं। (सू० प्र०, भाग २, यहाँ त्वरण (acceleration), मुहूर्त-गति की हानि वृद्धि की कल्पना की गई है। पृ० ७७६)। सूत्र ६८८ पृ० ४७६ सूत्र ९७५, पृ० ४६५ सूर्य नक्षत्रों से योगों में चन्द्र योग १० प्रकार के बतलाये इस गाथा में विभिन्न कालों में चन्द्र उदय की दिशाएँ दी गईं गये हैं, जो १ युग में घटित होते हैं। इनमें छत्रातिछत्र योग हैं जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । कदाचित् कोईक देश में होता है, क्योंकि वह योग नियत एक रूप सूत्र ६७६, पृ० ४६६ ही रहता है। यहाँ चित्रा नक्षत्र में उक्त योग को अवलोकन यहाँ चन्द्र की वृद्धि हानि का कारण राह के द्वारा आवृत्त करने हेतु गणित भावना दी गयी है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस होना बतलाया गया है। प्रतिदिन पन्द्रहवां भाग को बासठिया योग का शोध होना चाहिए । सूत्र ६८६ पृ० ४७६, ४७८ भाग भी कहा है। अर्थात ६२ में से १५ भाग करने पर ४ . इस सूत्र में ६२ पूर्णिमाओं सम्बन्धी चन्द्र सूर्य के मण्डल भाग प्रतिदिन आच्छादित अथवा अनावरित होना माना जायेगा। प्रदर्शभाग का विचार किया गया है। पंचवर्षात्मक युग में ६२ पूर्णिमाएँ एवं ६२ अमावस्याएँ इस प्रकार कुल १२४ सूर्यचन्द्र सूत्र ६७७, पृ० ४६७ योग होते हैं। प्रथम पूर्णिमा को चन्द्र, ६२वीं पूर्णिमा को जिस शुक्लपक्ष में चन्द्र राहु द्वारा ४४२, मुहूर्त अनावृत्त होता प्रदेश में समाप्त करता है, उसके परवर्ती मण्डल के १२४ विभाग में से ३२वें विभाग को ग्रहण करते हैं जहाँ चन्द्र प्रथम पूर्णिमा का योग होता है। इसी प्रकार परवर्ती मण्डल का १२४ है और कृष्णपक्ष में ४४२ ६३ मुहूर्त आच्छादित होता है। विभाग कर पुनः ३२वें भाग में दूसरी पूर्णिमा का योग होता है । ६२ भाग अनावत्त/आच्छादन प्रतिदिन मानने पर . वास्तव में पूर्णिमायोग आधुनिक मान्यतानसार सर्यचन्द्र कल्पित भाग होते हैं। एक भाग अमावस्या की रात्रि में भी आमने-सामने पृथ्वी के विरुद्ध दिशाओं में रहते हैं। किन्तु जैन नित्य राहु से अनावृत्त होने से कुल ६३१ कल्पित चन्द्र भाग ज्योतिष में १८४ मण्डलों का गणित दूसरे प्रकार का है। १२४ होते हैं। यह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है । में से ३२ भाग प्रथम पूर्णिमा के होने से निकल जाने पर, पुनः ३२ भाग जाने पर, पाँच संवत्सरों वाले युग मध्य की दूसरी सूत्र ६८१, पृ० ४६६ पूर्णिमा का प्रदेश प्राप्त होता है जब उक्त मण्डल के १२४ भाग जम्बूद्वीप में १८० योजन अवगाहन से पाँच चन्द्र मण्डल में से अगले ३२ भाग लेते हैं। ये पांच संवत्सर क्रमशः चन्द्र, और लवण समुद्र में ३३० योजन अवगाहन से दस चन्द्र मण्डल चन्द्र, अभिवद्धित, चन्द्र एवं अभिवद्धित नाम वाले हैं। अब होते हैं । इस प्रकार कुल ५१० योजन का अवगाहन से १५ चन्द्र तीसरी पूर्णिमा के मण्डल प्रदेश को जानने के लिए दूसरी पूर्णिमा मण्डल कहे गये हैं जो इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। के परिसमापक स्थान के परवर्ती मण्डल को ग्रहण कर उसके सूत्र ६८२, ६८६, पृ० ४६६, ४७४ १२४ भाग करते हैं उसमें ६४ भाग निकल जाने पर ३२ और इन गाथाओं में प्रत्येक चन्द्र मण्डल का योजनों में अन्तर, आगे के भाग १२४ में से लेते हैं। सर्वाभ्यंतर एवं सर्वबाह्य चन्द्र मण्डलों का अन्तर, सर्व आभ्यन्तर यदि प्रश्न हो कि इस पंच संवत्सर वाले युग के प्रथम वर्ष के और बाह्य चन्द्र मण्डलों का आयाम-विष्कम्भ तथा परिधि दी गई अन्त की बारहवीं आषाढ़ी पूर्णिमा को चन्द्र किस प्रदेश में रहकर हैं। इनमें दाशमिक संकेतना, 7 का मान, महत्वपूर्ण हैं । पुनः समाप्त करता है । यहाँ ज्ञात है कि बारहवीं पूर्णिमा तीसरी पूर्णिमा सर्वाभ्यंतर और बाह्य चन्द्र मन्डलों में चन्द्र की १ मुहूर्त की गति से नवमी होती है। यहाँ ध्रुवांक ३२ होता है और हवीं पूर्णिमा व प्रमाण भी दिया गया है। स्पष्ट है कि योजन और मुहूर्त का के लिए तीसरी पूर्णिमा वाले मण्डल के स्थान से ३२४६२८८ यहाँ गणितीय सम्बन्ध जोड़ा गया है। मुहूर्त गति भी बढ़ती- भाग आगे जाकर होती है । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना ३१ चौबीसवीं पूर्णिमा ग्रहण करने हेतु, बारहवीं पूर्णिमा जहाँ सूत्र १००२, पृ० ४८६होती है उससे १२ और पूर्णिमाएँ होती हैं। बारहवीं पूर्णिमा का बिनमान की व्यवस्था इस सूत्र में १८ मुहूर्त से लेकर १२ ध्रुवांक २८८ होता है इसलिए २४वीं पूर्णिमा को २८८४१२ = मुहूर्त तक की गयी है। यह किसी विवक्षित स्थान की उत्तरी ३४५६ भाग आगे जाकर प्राप्त करते हैं। इस प्रकार २३वीं पूर्णिमा की समाप्ति स्थल से पर मण्डल को १२४ से विभक्त कर अक्षांश वाले प्रदेश में जो अफगानिस्तान के चित्राल के समीपवर्ती हो वहाँ होती रहती है, जहाँ से ये अवलोकन किये गये होंगे। उसमें का ३४५६ भाग ग्रहण कर २४वीं पूर्णिमा को चन्द्र समाप्त प्रश्न है कि क्या चित्रा पृथ्वी का जो वर्णन आया है, वह उक्त करता है। ___इसी प्रकार ६२वीं पूर्णिमा का मण्डल प्रदेश ज्ञात करने हेतु अवलोकनकर्ता का स्थल वही था? क्या बेविलन निवासी से सम ६२ को ३२ से गुणित पर १९८४ प्राप्त होता है। इसे १२४ अक्षांशों में रहने वाले भारतीयों ने उत्तर और दक्षिण गोलार्धा द्वारा विभक्त करने पर १६ प्राप्त होता है। यह मण्डल पूर्णांक में अपने ऐसे ही अवलोकन केन्द्र बनाये थे। इस सम्बन्ध में शर्मा एवं लिश्क का निम्नलिखित शोध लेख दृष्टव्य है : है जिसमें युग की अन्तिम पूर्णिमा समाप्त होती है । जम्बूद्वीप में जीवा रूपरेखा से पूर्णिमा परिणमनरूप मंडल को १२४ से विभक्त "लेंग्थ ऑफ डे इन जैन एस्ट्रानामी, सेंटारस, १९७८; भाग करते हैं। चार दिशाओं में ३१-३१ भाग होते हैं। २२, क्र० ३, पृ० १६५-१७६ । इनके अनुसार हो सकता है उक्त ___इनमें २७ भागों को लेकर अलग रख देते हैं । पश्चात् २८वें स्थल गान्धार रहा हो।" भाग के २० भाग करके उनमें से १८ भागों को पृथक करते हैं, जिससे यहां २ भाग शेष रहते हैं। ३१ में से २७ भाग निकल भूमध्यरेखावर्ती स्थलों पर १५-१५ मुहूर्त का दिन होता जाने पर ४ भाग रहते हैं। जिनमें ३ भाग ३१-२८=३ शेष है। कुल १८३ मण्डलों में प्रतिदिन चलते हुए रहते हैं और यहां २०-१५-२ शेष रहते हैं। अतः ३ शेष मुहूर्त अथवा भागों से चतुर्थ भाग २ कला पश्चात् स्थित अर्थात् २६वें चतुर्भाग मण्डल को बिना प्राप्त किये अर्थात् २६वें मण्डल के चतुर्थ भाग मुहूर्त वृद्धि होती है । इसी प्रकार दिन हानि का प्रकरण है। मण्डल में २ कला से अधिक प्रदेश में चन्द्र गमन नहीं करता हैअतः वहीं ६२वीं पूर्णिमा समाप्त होती है। यह माध्य रूप है। देखिए ति० प०, भाग २, माथा २७६, यह शोध का विषय है। इसे चित्र द्वारा तथा सूर्य चन्द्र की २२० । मण्डल गति द्वारा भी स्पष्ट किया जाना चाहिए। यहाँ ३२ को ध्र वांक माना गया है। इसे Pole-Number कहना चाहिए सूत्र १००३ पृ० ४६५-४६८जो Modulus के रूप में स्थिति की व्यवस्था करता है। शेष यहाँ सूर्य का गमन सर्वाभ्यन्तर मंडल से सर्वबाह्यान्तर मंडल पूर्णिमाएँ ३२ के गुणनखण्ड रूप मण्डलों में प्रकट होती हैं । १२४ तक तथा इसका विलोम रूप वर्णन किया है। स्पष्ट है कि ६ भाग क्यों लिए गये, क्यों ६२+६२= १२४ कुल ये घटनास्थल माह तक सूर्य १८३ मण्डलों में किसी एक दिशा में चलता अवहैं जो मण्डल में ही प्रकट होते हैं। लोकित होता है और उसके पश्चात् निश्चित उससे विलोम दिशा -सूत्र ६६०, पृ० ४७८ - में गमन करता दृष्टिगत होता है। इससे स्पष्ट है कि उत्तरी इसी प्रकार चन्द्र का अमावस्याओं में योग की गणना हेतु ध्रुव में ६ माह का दिन और ६ माह की रात्रि कही गई है। 'ध्र वांक' पुन: ३२ है और पर मण्डल के १२४ विभाग कर उनमें यहाँ उसे ही दूसरे रूप में प्रकाश को लेकर कथन है कि इस ३२-३२ भागों पर ६२वीं अमावस्या समाप्ति मण्डल के आगे प्रकार ६ माह तक प्रकाश सूर्य के दक्षिणायन से लेकर उत्तरायण प्रदेश प्राप्त करना होता है। ६२वीं अमावस्या का मण्डल प्रदेश होने तक बढ़ता रहता है । यह उत्तरार्ध में पाया जाता है। इसी प्राप्त करने हेतु ६२वी पूर्णिमा समाप्ति मण्डल के पर मण्डल के प्रकार विलोम रूपेण प्रक्रिया देखने में आती है। इस प्रकार १६ भागों को लेकर १२४ विभक्त मण्डल में से अलग रहते हैं। गणित द्वारा जैन सिद्धान्त के मर्म को आधुनिक अन्य घटनाओं अर्द्ध-अर्द्ध भागों में पूर्णिमा अमावस्या होना इसका कारण है। को समझाने में प्रयुक्त करना आवश्यक है। जो प्रतिरूप जैन इस प्रकार इस मण्डल प्रदेश से पहले १२४ या सोलह भागों से सिद्धान्त में निर्मित किये गये उनका आशय विषय को समझाना न्यून मण्डल प्रदेश में ६२वीं अमावस्या समाप्त होती है। यह भी था और उनके द्वारा हजार डेढ़हजार वर्षों तक समस्त ज्योतिष शोध का विषय है। की घटनाएँ स्पष्ट की जाती रहीं। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ गणितानुयोग : प्रस्तावना यहाँ बतलाया गया है कि किस प्रकार उक्त अवलोकन केन्द्र पर प्रतिदिन सूर्य के उल्लिखित गमन के कारण वर्ष के कौन से भाग में कितना दिन प्रतिदिन घटता बढ़ता था। यहां उत्कृष्ट एवं जघन्य दिनमान मुहूर्त १८ और १२ उक्त अवलोकन केन्द्र के लिए किये गये थे। पौरुषी इकाई में छाया को लम्बाई तत्सम्बन्धी क्रमिक समय में बीता हुआ दिन का भाग इसका प्रतीक मान लोप है। - इसका प्रतीक मान लो द है। सूत्र १०१०, पृ० ५०४ १०११, पृ० ५०५ - सूर्य के ताप क्षेत्र की संस्थिति हेतु विभिन्न प्रकार की ज्यामिति आकारों का वर्णन है। सूत्र १०१२, पृ० ५०६ १०१३, पृ० ५०७ ताप क्षेत्र संस्थिति की परिधि तथा ताप क्षेत्र एवं अन्धकार क्षेत्र के आयामादि का प्ररूपण इन गाथाओं में किया गया है। उपरोक्त से स्पष्ट है कि पौरुषी छाया समान्तर श्रेणी में है. इनके विस्तत वर्णन के लिए देखिये ति० प०, भाग २, अधिकार जहाँ चय है। तत्सम्बन्धी बीता हुआ दिन का भाग यदि ७, गाथा २६२-४२० जहाँ ताप एवं तम क्षेत्रों का विशद वर्णन सूत्र देकर दिया गया है। यह गहन शोध का विषय है। उलट दिया जाये तो ३, ५,........ भी समान्तर श्रेणी रूप हो उदाहरणार्थ : इष्ट परिधि राशि को तिगुणा करके दश का भाग जाती है जहाँ चय१ है, जहाँ उपान्तिम पद तक जाते हैं। इस देने पर जो लब्ध आवे उतना सूर्य के प्रथम पथ में स्थित रहने प्रकार की श्रेणी को हारमोनिक प्रोग्रेशन कहते हैं।। पर उस आतप क्षेत्र की परिधि का प्रमाण होता है। उपर्युक्त में निम्नलिखित सम्बन्ध हैइसे इस ग्रन्थ में परिधिविशेष कहा गया है। इस शोध से भूगोल सम्बन्धी अनेक रहस्य खुल सकते हैं। १८२(१+प) जबाकप तदनुसार इनका आशय समझकर आधुनिक सन्दर्भ में निर्वचन = जबकि प> ५६ देना अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध होगा। द और प के मान पूर्व में दिये गये हैं। सूत्र १०२०, पृ० ५१५-- यदि प से लेकर प+ के बीच समय 'स."बीतता हो तो ___ इसी प्रकार सर्वबाह्य पथ में स्थित सूर्य हेतु ताप क्षेत्र निकालने हेतु परिधि में दो का गुणा कर १० का भाग देते हैं। स- २(१+प) - २(१+१+१) दिन इस सूत्र में पौरुषी छाया निरूपण प्रमाण द्वारा किया गया है। सूर्य को ५६ पौरुषी छाया की निष्पत्ति करने वाला कहा :: गति जो पौरुषी छाया को बदलना बतलाती हो, गया है। इनमें बतलाया गया कि दिन का कितना भाग बीतने उसका मान 'ग' संकेत में ग प -स=(१+प)(३+२ प) पर कितनी पौरुषी छाया रहेगी? अथवा दिन का कितना भाग पुरुष प्रतिदिन होगी। शेष रहने पर कितनी पौरुषी छाया रहेगी? इस प्रकार ५६ इन सूत्रों से अनेक रहस्य ज्ञात किये जा सकते हैं । पौरुषी छाया के प्रकारों को गणित द्वारा दिनमान को निकालने वास्तव में पुरुष का अर्थ दोपहर को शंकु का छाया आयाम में प्रयुक्त किया जा सकता है । इसी सूत्र में २५ प्रकार का छाया प्रतीत होता है। पुरुष किसी भी मानव द्वारा अपनी ही अंगुली कही गयी है तथा उनमें से गोल छाया के भी प्रकार बतलाये है। से मानव की ऊँचाई प्ररूपित करता है। यह अर्थ बेबिलन गोलिका यह भी गहन शोध का विषय है। इस पर शर्मा एवं लिश्क मूल अपिन में भी लिया गया है। ये अवलोकन किस स्थान पर ने सूत्र रचना की है जो अग्र प्रकार है : लिये गये यह ज्ञात करना महत्वपूर्ण है। (१+4)३+२१ दिन होगा। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना ३३ महावीराचार्य के गणितसार संग्रह ग्रन्थ में छाया व्यवहार एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चूंकि पौरुषी पादांगुल पृ० २६६ से पृ० २८१ तक दिया गया है। उसमें कुछ नियम-सूत्र में प्रतिदिन बदलती रहती है, इसलिए उसके द्वारा दत्त अवनिम्नलिखित हैं : लोकनों द्वारा वर्ष की ऋतु या कोई भी भाग ज्ञात किया जा (१) विषुवभा (अर्थात् जब दिन-रात बराबर होते हैं उस सकता है । देखिये जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ९/१७-१६ । समय पड़ने वाली छाया) वास्तव में उन दिनों के मध्यान्ह गन्ह सूत्र १०२३-१०४६, पृ० ५१६-५५६(दोपहर) समय प्राप्त छाया के मापों के योग की आधी होती है, इस सूत्रों में सूर्य की विभिन्न प्रकार की गतियों का विवरण जबकि सूर्य मेष राशि या तुला राशि में प्रवेश करता है। मुहूर्त एवं मण्डलों के पदों में दिया गया है जो अत्यंत महत्वपूर्ण (२) किसी वस्तु (शंकु) की ऊँचाई के पदों में व्यक्त छाया है। इनमें योजन भी सम्मिलित हैं। ऐसी अनेक कठिनाइयां हैं के माप में एक जोड़ा जाता है, और इस प्रकार परिणामी योग जिनसे विभिन्न प्रकार के जो रहस्य उद्घाटित किये गये हैं उन्हें दुगुना किया जाता है। परिणामी राशि द्वारा पूर्ण दिनमान पुष्ट करना आवश्यक है। ५१० योजन जो प्रथम और अंतिम भाजित किया जाता है। यह समझना चाहिए कि सारसंग्रह सौर्य मण्डल के बीच का अंतर है, आधुनिक महत्तम डिक्लिसेशन नामक गणितशास्त्र के अनुसार, यह प्राप्त फल पूर्वाह्न और अपराह्न के शेष भागों (अथवा दोपहर के पहले दिन के बीते का द्विगुणित है अर्थात् ४७° है, वही सूर्य पथ की आब्लिक्विटी जो २३.५° है, से सम्बन्धित प्रतीत होती है। हुए भाग और दोपहर के पश्चात् दिन के शेष रहने वाले भाग) को उत्पन्न करता है। [यहाँ विषुवच्छाया नहीं होती।] उपरोक्त सूर्य गति जो मुहूर्त और योजन को विभिन्न मण्डलों (३) दिनमान के ज्ञात माप को, दिन के बीते हुए अथवा में सम्बन्धित करती है किसी भी समय की सूय की गतिशीलता बीतने वाले भाग का निरूपण करने वाले भिन्न के अंश द्वारा को निकालने में आनुमानिक रूप से सहायक सिद्ध हो सकती है। गुणित करने और हर द्वारा भाजित करने से, पूर्वाह्न के सम्बन्ध साथ ही उसके द्वारा आनुमानिक रूप से अवलेकन कर्ता की में बीती हुई घटिकाएँ और अपराह्न के सम्बन्ध में बीतने वाली स्थिति भी ज्ञात की जा सकती है। घटिकाएँ उत्पन्न होती हैं। सूत्र १०५० पृ० ५५७-- (४) किसी स्तम्भ की छाया के माप को स्तम्भ की ऊँचाई जिस प्रकार चन्द्र की ६२ पूर्णमासी सम्बन्धी उसके मंडल द्वारा भाजित करने पर पौरुषी छाया माप प्राप्त होता है। के तत्सम्बन्धी देश विभाग को पूर्व में ज्ञात किया उसी प्रकार (५) विषुवच्छाया वाले स्थान के लिये नियम : यहाँ सूर्य सम्बन्धी प्रश्न प्रस्तुत है । वहाँ ३२ ध्र वांक था किंतु __शंकु की ज्ञात छाया के माप में शंकु का माप जोड़ा जाता यहाँ ध्रुवांक ६४ है । पूर्व प्रकार १ युग के पांच संवत्सर चन्द्र, है। यह योग विषुवच्छाया के माप द्वारा हासित किया जाता है। चन्द्र, अभिवद्धित, चन्द्र एवं अभिवद्धित होते हैं। इनमें पहली परिणामी अंतर को दुगना कर दिया जाता है। जब शंकु का पूर्णिमा को सूर्य किस मण्डल प्रदेश में रहता है ? सूर्य के १८४ माप इस परिणामी राशि द्वारा भाजित किया जाता है, तब दशा- मण्डल हैं । सूर्य युग की अन्तिम ६२वीं पूर्णिमा परिसमाप्ति नुसार पूर्वाह्न में दिन में बीते हुए अथवा अपराह्न में दिन में । स्थान से पर के मण्डल के १२४ विभाग कर उनमें से १४ भागों बीतने वाले दिनांश का मान उत्पन्न होता है। को ग्रहण कर सूर्य प्रथम युग की प्रथम मास पूर्णबोधक पूर्णिमा (६) शंक का माप दिन के दिये गये भाग के माप को को योग करता है। कारण यह है कि ३० अहोरात्र समाप्ति पर दुगुनी राशि द्वारा भाजित किया जाता है। परिणामी भजनफल । वही सूर्य उसी मण्डल प्रदेश में गति करता रहता है, इससे में से शंकु का माप घटाया जाता है, और उसमें विषवच्छाया न्यूनाधिक कोई भी भाग में नहीं दिखता है। चन्द्र मास के अंत का माप जोड़ दिया जाता है । यह दिन के इष्ट समय पर छाया में पूर्णिमा समाप्त होती है । जो २६३२ अहोरात्र होता है । इस का माप उत्पन्न करता है। ___इसी प्रकार अन्य सूत्र भी दिये गये हैं जो ऊर्ध्वाधर दीवाल पर आरूढ़ छाया से सम्बन्धित हैं। लिए सूर्य तीसवें अहोरात्र में भाग में ६२वीं पूर्णिमा परि-- डा० ए० के० बाग के अनुसार पुरुष का अर्थ मानव की उसकी ही अंगुलियों द्वारा नापी गई ऊँचाई है और बौद्धायन शुल्व के समाप्ति स्थान से ६४ भाग गत होने पर प्रथम पूर्णिमा को अनुसार १२० अंगुल से एक पुरुष होता है। पाद और अंगुल का सम्बन्ध पूर्व में ज्ञात है। समाप्त करता है। वह ३० भागों में उसी प्रदेश को बिना प्राप्त ६२ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ गणितानुयोग प्रस्तावना किये समाप्त नहीं करता है। कारण यह है कि १ अहोरात्र का ३० ६२ भाग स्थित रहने से उस प्रकार के प्रदेश में प्रवर्तमान होकर कदापि संप्राप्त नहीं होता है इसलिए नियम से २६ अहोरात्र पूर्ण होने पर उक्त पूर्णिमा समाप्त करता है, आगे की दूसरी २X४ भाग गत होता है । १२४ पूर्णिमा पर वह को वह तीसरी पूर्णिमा से ९४X६८४६ भागों को १२४ भाग में से ग्रहण करता हुआ समाप्त करता है । यहाँ ६४ modulus है और उस चक्र को बतलाता है जो पुनः पुनः ९४ के गुणनफलों में प्रकट होता है। इसी प्रकार २७वीं पूर्णिमा के लिए ९४X २५ = २३५० भाग लेने के लिए कहा गया है जो वास्तव में ६४x२४ होना चाहिए। (देखिये सू० प्र०, भाग २, पृ० (२१९) । इस प्रकार ६२वीं पूर्णिमा स्थल ६४X६२=५८२८ भाग इस प्रकार विगत गणनानुसार ही ६२वीं अमावस्या को सूर्य पूर्णिमा स्थान से आगे वाले मण्डल के १२४ विभाग कर १२वीं पूर्णिमा उनमें से ४७ भाग पीछे रखकर शेष भागों में सूर्य योग करता है। यह भी पूर्व की भांति शोध का विषय है । ५८२८ पश्चात् होगा । अर्थात् यह या ४७ सम्पूर्ण मण्डल होने १२४ पर प्राप्त होगी । साथ ही तीन मंडल प्रदेश ज्ञात करने हेतु पूर्व मण्डल के १२४ के ४ भाग करने पर ३१ भाग पूर्व दिशा सम्बन्धी प्राप्त होते हैं। इनमें से २७ भाग अलग रखते हैं, पुनः शेष में से २८वें भाग के २० खण्ड कर उन २० खण्डों में से १८ खण्ड लेते हैं। भागों से अन्यत्र स्थापित चतुर्थ भाग के २०वें की दक्षिण में रहा हुआ बाह्यमण्डल के चतुर्भाग मंडल को भांग मंडल से पूर्व में स्थित होकर उसी मंडल प्रदेश में युग की ६२वीं पूर्णिमा समाप्त करता है। २ कलाओं से उस चतु उपर्युक्त की और भी गहरी जानकारी हेतु शोध करना आवश्यक है। और चन्द्र या सूर्य को क्रमश: पूर्णिमा या अमावस्या मण्डल प्रदेश निकालने पर मण्डल के ३२ तथा ६४ भाग लेते जाते हैं जो १२४ में से आगे आगे के मण्डल के लेते जाते हैं तभी जबकि ये भाग लेने पर एक मण्डल समाप्त हो जाये । सूत्र १०५१, पृ० ५५८-५५६ इस सूत्र में पूर्वोक्त सूत्र के अनुसार सूर्य के मण्डल प्रदेश को जात करना बतलाया है जबकि प्रथम, द्वितीयादि अमावस्याएं होती है। यहाँ भी प्रयांक १४ लिये गये है। ६२ के आगे ३२ ध्रुवांक लेने पर ९४ ध्रुवांक प्राप्त होता है। पुनः ३१ के आगे ३२ ध्रुवांक प्राप्त होता है जहाँ ६२ का अर्द्ध माग ३१ है । इस प्रकार ३१ को चारों ओर लेने पर १२४ भाग बनते हैं। इस प्रकार जो ६२ अमावस्या और ६२ पूर्णिमाओं के घटना स्थल हो सकते हैं वे १२४ बनते हैं। यही कारण है कि प्रत्येक मण्डल और उसके परवर्तियों को १२४ में विभाजित करते जाते हैं । एक तथ्य स्पष्ट है कि अवलोकन किया गया मान सिद्धान्त से मिलना चाहिए। जैन ज्योतिष सिद्धान्त को और भी गहराई से अध्ययन कर इन सभी गणनाओं को मंडल मुहूर्त योजन गति से सिद्ध करने हेतु शोध आवश्यक है । सूत्र १०५७ पृ० ५६२, ५६३ यहाँ चन्द्र सूर्य के मण्डलों के ज्यामिति संस्थान दिये गये हैं जो गणितीय दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। छत्राकार मंडल गोलीय त्रिकोणमिति की रचना करते हैं अतएव इस पर शोध आवश्यक है । सूत्र १०५८, १०५६, पृ० ५६३, ५३५ यहाँ भी ज्यामितीय दृष्टि से चन्द्र सूर्य मण्डल के समांश तथा पुनः किसी नय दृष्टि से संस्थिति कही गयी है जो महत्व - पूर्ण है । इसमें शोध आवश्यक है । सूत्र १०६१, पृ० ५६६-५६८ यहाँ चन्द्र सूर्य के अवभास क्षेत्र, उद्योत क्षेत्र, ताप क्षेत्र और प्रकाश क्षेत्रों के सम्बन्ध में जम्बूद्वीप को जो पाँच चक्रभागसंस्थानों में विभक्त किया है, उस पर शोध होना आवश्यक है । इस सम्बन्ध में पूर्वोक्त ति० प० भाग २ के सातवें अधिकार में ताप क्षेत्र, तम क्षेत्र का विषय भी दृष्टव्य है । सूत्र १०६२, पृ० ५६८-५६६ एक नक्षत्रमास २७ ८१६ ६७ होते हैं। मुहूर्त । २१ दिन ६७ का होता है । इसमें सिद्धान्ततः १ युग में चन्द्र के साथ नक्षत्र ६७ बार योग करते हैं और सूर्य के साथ पाँच बार योग करते हैं । अभिजित मुहूर्त तक चन्द्र से योग करता है । १ युग में चन्द्र, चन्द्र, २७ ६७ अभिर्वाधत, चन्द्र और अभिर्वाधत रूप चन्द्रपंचक संवत्सर में ६७ नक्षत्र मास होते हैं। ऐसे युग में १८३० अहोरात्र होते हैं । अर्थात् Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ × ५ वर्ष = १८३० अहोरात्र होते हैं । इसलिए ६७ का २१ भाग १८३० में देने पर नक्षत्रमास में २७ अहोरात्र होते हैं ६७ और १८३० अहोरात्र होते है, इसलिए १ सूर्यमास में सूत्र १०६३, पृ० ५६६- चन्द्र अर्द्धमास अर्थात् १ पक्ष में चन्द्र १४ म मण्डल में भ्रमण करता है । वह इस प्रकार है कि १ मण्डल के १२४ भाग होते "अथवा ८१६ मुहूर्त होते हैं । १ युग में सूर्यमास ६० होते हैं हैं । पाँच वर्ष वाले युग में १२४ पर्व होते हैं तथा ६२ मास होते हैं । १ युग में १७६८ मण्डल होते हैं । इस प्रकार १ पर्व में १७६८ १२४ ३० अहोरात्र होते हैं। अहोरात्र ३० मुहूर्त का है इसलिये १ सूर्यमास = १५ मुहूर्त । १ युग में पाँच संवत्सर और इसमें अभिजित नक्षत्र सूर्य के साथ ५ बार और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र भी ५ बार सूर्य के साथ योग करता है । इसी प्रकार १ युग में चन्द्रमास ६२ होते हैं जो एक मास १६३०=२६३२ अहोरात्र होता है क्योंकि १ युग में १८३० अहोरान होते हैं। १ महरा २० मुहूर्त का होता है ३२ ३० X ३० = ८८५- मुहूर्त का इसलिए १ चन्द्रमास २६. होता है। का मान १ युग में ६१ कर्ममास हैं । १ कर्ममास १५३० ६१ नक्षत्र अहोरात्र का होता है । १ अहोरात्र में ३० मुहूर्त होते हैं इसलिए १ कर्ममास में ३० X ३० ६०० मुहूर्त होते हैं । व्यवहार योग्य मास चार प्रकार के होते हैं :१ मास मैं १ वर्ष में एक युग में मास मुहूर्त दिन २७ ८१६ ६७ चन्द्र सूर्य कर्म ६७ ६२ ६० ६१ ३० ८८५६२ ६१५ ६०० ५१ ३२७६७ ३५४१२ ६२ अभि. ३८३'६२ १८३० ६० ३६६ ३६० =३० १ मास में अहोरात्र २७११ ६७ ३२ ३० ३० गणितानुयोग प्रस्तावना मण्डल अथवा १४ ३२ १२४ ३५ - या १४- मण्डल प्राप्त होते .१६ ६२ युग हैं । इस प्रकार जो १४ मण्डल है । सूर्य अर्धमास में १६ मण्डलों में गतिशील होता है तथा वह १६ वें मण्डल में गति कर रहा होता है उस समय अन्य दो अष्टक भागों में चन्द्र किसी असामान्य गति से स्वयं प्रवेश कर गति करता है । ये दो अष्टक भाग निम्न प्रकार हैं : (१) सर्वाभ्यंतर मण्डल से निष्क्रमण करता हुआ चन्द्र अमा こ वस्या के प्रथम अष्टक अर्थात्- - वें भाग में किसी असामान्य १२४ गति से स्वयं प्रवेश करके गति करता है । (२) सर्वबाह्य मण्डल से प्रवेश करता हुआ चन्द्र पूर्णिमा की मण्डल कहा है वह यथार्थतः १४ - , १६ ६२ ८ द्वितीय अष्टक अर्थात् १२४ वें भाग में किसी असामान्य गति से स्वयं प्रवेश करके गति करता है । एक अमावस्या से पूर्णिमा तक ४४२२ मुहूर्त होते हैं और ३० अमावस्या से अमावस्या तक८८५ मुहूर्त होते हैं । १ युग में ६२ ६२ अमावस्या और ६२ पूर्णिमा होने से १२४ विभाजन करते हैं । चन्द्रमास इस प्रकार ८८५ मुहूर्त का होता है और १ मुहूर्त का होता है और ६२ में १२४ पर्व इसी प्रकार होते हैं । जहाँ तक १६ मण्डल सूर्य के गमन का पाठ है वह अशुद्ध प्रतीत होता है क्योंकि १ युग में चन्द्र १७६८ मण्डल चलता है। और १ युग में सूर्य अमास १२० होते हैं तथा १ युग में सूर्य १८३० मण्डल १८३० हैं, इस प्रकार १ अर्द्धमास में अथवा १२० Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ गणितानुयोग : प्रस्तावना १२० १२० १८ मण्डल चलता है और अर्ध चन्द्रमास गति का १ चन्द्र अर्द्ध मास में न • मण्डल आते हैं, अर्थात् सूर्य १६वें मण्डल में २० होता है अथवा भाग पर रहता है। साथ ही यदि १७६८ में १२० का भाग (१४ ८X६७-१३४३१ दिया जाये तो १४ - मण्डल प्राप्त होते हैं जो यहाँ प्रयुक्त । ३१४६७ हुए प्रतीत नहीं होते हैं अतः १२० के स्थान में क्या लिया जाये लिया जाये = १+१३३७ = १+ १२४+३१६७ यह शोध का विषय बनता है। इसी प्रकार नक्षत्र के अर्धमास में चन्द्र १३.३ मण्डल चलता = १+४+ १++ । इतना अन्तर १ है। कारण कि १ युग में चन्द्र १७६८ मण्डल चलता है और अर्ध चन्द्रमास गति का प्रमाण और १ नक्षत्र अर्द्धमास गति से अधिक नक्षत्र के अर्द्धमास १ युग में १३४ होते हैं .:. १ अर्धमास में रूप में होता है । इस प्रकार चन्द्र, १ चन्द्र अर्द्ध मास में नक्षत्र चन्द्र १३२ मण्डल चलेगा। चन्द्र प्रथम अयन में जाते अर्द्धमास से संपूर्ण १ अर्द्ध मण्डल, तथा दूसरे अर्द्ध मण्डल से दक्षिण से ७ अर्घमण्डल जाकर दक्षिण से प्रविष्ट कर नैऋत्य कोण - भाग; तथा 14३१x६७ वां भाग अधिक संचरण करता है। में से निकलकर ईशान कोण में जाकर दूसरा, चौथा, छठवाँ, आठवाँ, दसवाँ, बारहवाँ और चौदहवाँ अर्द्धमण्डल स्पर्श करते नोट-यहाँ शोध का विषय इस प्रकार हो सकता है कि अलगचाल चलता है । इसी प्रकार वह उत्तराद्धं भाग से अर्थात् ईशान अलग तीन प्रकार से अन्तर निकालने हेतु अलग अलग चन्द्र कोण से प्रथम अयन में प्रवेश करता हुआ नैऋत्य कोण में जाता गमन संचरण चीर्ण रूप से प्रस्थापित किया जा सकता है । यहाँ, हुआ तीसरा, पाँचवाँ, सातवाँ, नवमा, ग्यारहवाँ और तेरहवाँ प्रतीत होता है कि अधिचक्र (epicycle) सिद्धान्त का प्रचलन मण्डल तथा पन्द्रहवें मण्डल का वा भाग स्पर्श करता हुआ यूनान एवं भारत में ये ही अन्तर रूपों-शुद्धतर एवं शुद्धतम रूपों को निकालने के प्रयास किये गये होंगे। इसी प्रकार सूर्य गमत चलता है। का अधिचक्र सिद्धान्त भी बाद में आविष्कृत हुआ होगा, ऐसा दूसरे चन्द्रायण में चन्द्र सर्वाभ्यंतर मण्डल के पश्चिम भाग प्रतीत होता है। से निष्क्रमण करता हुआ अर्द्धमण्डल के - भागों में जिनमें अन्य इस प्रकार प्रथम चन्द्रायण में जो दक्षिण भाग से अभ्यालरा भिमुख प्रवेश करता चन्द्र ७ अर्द्ध मण्डलों को और उत्तर भाग से संचरित मण्डल के भागों में चन्द्र गति करता है और अर्द्धमण्डल अभ्यन्तराभिमुख प्रवेश करता ६२ अर्द्ध मण्डल में संचरण करता: के १२ भागों में जिनमें स्वयं संचरित मण्डल के भागों में चन्द्र ६७ ६७ ६७ २७ गति करता है । वे दूसरे दो प्रकार के भाग हैं, जिनमें क्रमशः है। दूसरे चन्द्रायण का मण्डल क्षेत्र परिमाण भी १४ अर्द्ध ६७ चन्द्र सर्व अभ्यंतर मण्डल के और सर्व बाह्य मण्डल के उक्त भागों में स्वयं प्रवेश कर गति करता है। मण्डल होता है । यहाँ १८ वा भाग पन्द्रहवें मण्डल का शेष रह यहाँ दृष्टव्य है कि १२४ पर्यों में चन्द्रमा के १७६८ मण्डल जाता है। होते हैं इसलिए एक पर्व में १७६ होते पुनः यहाँ स्मरण रहे कि मण्डल उक्त अलग-अलग दिशाओं में बनते हैं जहाँ से चन्द्र प्रवेश करता है अथवा निकलता है । इस हैं किन्तु नक्षत्र के १३- मण्डल होते हैं। अर्थात् यहाँ अन्तर प्रकार प्रथम अयन में ईशान कोण से निकल कर मंडल जाता ६७ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना ३७ ६७ हुआ दूसरे अयन में - मण्डल चलता हुआ नैऋत्यकोण के १५वें है। चन्द्र पर संचरित भागों में गति करता है। उसी अद्ध ६७ मण्डल पर जाता है। यह अन्य चन्द्र मण्डलों में चलता है। मण्डल में स्व-पर-संचरित - भाग पर भी वह गति करता दूसरे नक्षत्र अर्द्ध मास में २६ भाग चन्द्र असामान्य गति से प्रवेश है। यहाँ पश्चिमी भाग को नैऋत्य श्री अमोलक ऋषि द्वारा कहा करके चलता है। १ युग में ६७ नक्षत्र मास होते हैं और १७६८ है। एकी मण्डल से रकी मण्डल तक ४१ अर्द्ध मण्डल पर चलपूर्व कर अर्द्ध मण्डल १३+१३+१४-६७ पूर्ण करता है। १ ईशान मण्डल के ६७४२= १३४ भाग होते हैं। इसके ६७ भाग में २ सूर्य व अन्य ६७ भाग में २ चन्द्र गमनशील हैं। उत्तर दक्षिण अर्थात् एक एक विभाग ३३% का होता है। किन्तु ४९ आग्रेय चलकर ईशान कोण में आता है । इनमें 'वायव्य वायव्य मृत्य कोण में सूर्य का क्षेत्र स्पर्श करता है जो पर-क्षेत्र है। साथ ही पश्चिम ईशान कोण में चन्द्र का स्पर्श करता है जो स्वक्षेत्र चंद्र मण्डल होते हैं । इसलिए १ नक्षत्रमास में १७६८ = है। कारण कि शेष मण्डल स्वतः का है। इस प्रकार १३ भाग ६७ २६. मण्डल चलता है। १ चन्द्र की अपेक्षा से १४वें मण्डल पर-क्षेत्र १५१- भाग स्वक्षेत्र है। जो १३ भाग स्व-पर का कहा पर चन्द्रायण होता है। शेष १२ मण्डल अनन्तर मण्डल के २६ उसमें ३२ भाग स्वक्षेत्र और ६१ भाग अग्निकोण में सूर्य ४१ भाग जाकर नक्षत्रमास पूर्ण हो जाता है। इस नक्षत्र मास की का पर-क्षेत्र है। इस वर्णन को शोध का विषय बनाया जा सकता आदि से चन्द्र बाह्यमण्डल में प्रवेश करता १३वें मण्डल से है क्योंकि पाठार्थ से यह निकालना विचार का विषय है। यहाँ मूल पाठ में क्षेत्र शब्द आया है। कारण यह है कि एकी मण्डल निकलकर १४वें मण्डल के २६वें भाग में नक्षत्र मास को पूर्ण से निकलकर बेकी मण्डल पर भाग चलता है तब बेकी करता है । यहाँ दूसरा चन्द्रायण नक्षत्र मास की अपेक्षा से पूर्ण होता है। मण्डल का अपने नववे आंक में कहा है। उससे अपने मण्डल पर यहाँ तक चन्द्र अर्द्ध मण्डल की अपेक्षा २ अर्द्ध मण्डल चलता है किन्तु यहाँ स्व व पर का कहने का कारण यह है कि संपूर्ण मण्डल १३ भाग का है । इसके ६७ भाग दो सूर्य के और +: अर्द्ध मण्डल + + - अर्द्ध मण्डल अधिक चल चुकता ६७ भाग दो चंद्र के यों प्रत्येक भाग ३३१- का हुआ। किन्तु है। यहां तृतीय चन्द्रायण गत चन्द्र पश्चिमी बाह्यनन्तर अर्द्ध मण्डल के स्वयंचरित १ भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता ४१. चलकर नैऋत्य कोण के मण्डल पर आता है जिसमें ४१ ८७ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ गणितानुयोग : प्रस्तावना ३४ १८ ६७ भाग अग्निकोण के क्षेत्र स्पर्श करता है वह स्वक्षेत्र ज्ञातव्य है। नक्षत्र मास की संख्या ६७ है। ३१ भाग सम्भवतः १२४ किन्तु पाठ में पर-क्षेत्र कहा और १३ भाग स्व व पर का कहा भागों को ४ दिशाओं में बाँट देने पर ३१ भाग प्रत्येक दिशा को प्राप्त हुए भाग हैं। इन्हें चूणिये भाग कहते हैं । जिसमे ३२ भाग अपना क्षेत्र स्पर्श करता है और ६ भाग १ युग के ६२ चन्द्र मास हैं । यहाँ मास इकाई है जो चन्द्र मास की है। वायव्य कोण में सूर्य का क्षेत्र स्पर्श यह होना चाहिए । देखिये सू० प्र०, टीका श्री अमोलक ऋषि) । यह शोध का विषय है। पुन: २८+-+ इतने अद्ध मण्डल चन्द्र १ मास ___चंद्र की तीसरी अयन में गया हुआ, पश्चिम भाग में प्रवेश में चलता है, इसलिए १४वें मण्डल पर १ अयन सम्पूर्ण हो जाता करता हुआ बाहर के १५वें मण्डल से १४वें मण्डल पश्चिम के है तथा २८ मण्डल पर दो चन्द्रायण सम्पूर्ण होते हैं। पुनः ३रे अद्ध मण्डल के ३९ भाग और .. १८. चूणि भाग चंद्र अपने अयन में पन्द्रहवें मण्डल से प्रवेश करते १४वें मण्डल पर ३४, १८ ६७१६७४ ३१ ला का चलने पर चन्द्रमास सम्पूर्ण होता है। एक चन्द्र - मण्डल पर व पर के मण्डल पर चलता है। अर्थात् मास में चन्द्रमा १ नक्षत्र व २ अर्द्ध मण्डल और ३रे अर्द्धमण्डल के ईशान कोण के स्वक्षेत्र चल कर १७ और ८०४८३ चूणि ३१ भाग चलता है। प्रश्न है कि यह कौन-से २ भाग अग्निकोण के सूर्य के पर क्षेत्र पर चलता है। इस प्रकार क्षेत्र में सम्पूर्ण करता है। यह नक्षत्र मास सम्पूर्ण होते वा चन्द्र बाहर से १४वां नैऋत्य कोण के अद्ध मण्डल पर १ चन्द्र मास सम्पूर्ण होता है । कारण यह है कि चन्द्र मास १ युग में ६२ हैं निकलते १४वें अर्द्धमण्डल के भाग आकर नक्षत्र सम्पूर्ण करता और चन्द्र अर्द्ध मण्डल १७६८ हैं। है, क्योंकि १ युग में नक्षत्र मास ६७ हैं इसलिए १ युग में १७६८ ::. १ मास में चन्द्र अर्द्ध मण्डल = १७५८=२८३२ अर्द्धमंडल। अर्द्धमण्डल चन्द्र होने से १ नक्षत्रमास में चन्द्र अर्द्धमण्डल की संख्या यदि ६७वें भाग करना हो तो ३२ में ६७ का गुणाकर पुनः है। इस प्रकार एक नक्षत्र मास में २६ ६७ ८७ १७६६ प्राप्त होता है। इसका ६२X६७४३१ ६२ ६२४६७ का भाग देते हैं, इससे या प्राप्त होता अर्द्ध मण्डल हैं उन्हें तथा २७वें अर्द्ध मण्डल में २५ भाग चन्द्र चलहै और शेष ३६ रहते हैं। इनके ३१ये भाग करने हेतु कर नक्षत्र मास पूर्ण करता है। इस प्रकार १ अयन के १४ अर्द्ध मण्डल निकलते ही दूसरी अयन के १२ अर्द्ध मण्डल+ भाग चलता है। किन्तु पहले मान ७५३६ होता है। १४वें अर्द्ध मण्डल पर २ भाग कहा है । कारण कि दूसरी अयन इस प्रकार १ चन्द्र मास में अर्द्ध मण्डल २८+ + का दूसरे अर्द्ध मण्डल से प्रारम्भ होता है, इसलिए १३वें अर्द्ध मण्डल में १ मिलाने पर १४ २६ में एक नक्षत्र मास सम्पूर्ण नोट-स्मरण रहे कि यहाँ इकाइयाँ ६२, ६७ एवं ३१ के क्रमश: भाग के भागों पर आधारित स्थापित की गई हैं । ६२ पर्व होता है। इसके पश्चात : संख्या है या १ युग में चन्द्र मास की संख्या है। १ युग में ४ १८ ६७४३१ होते हैं। , अर्द्ध मण्डल ६७४१ ख Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ चलकर चन्द्र मास पूर्ण होता है । पुनः । गणितानुयोग : प्रस्तावना ३६ पर जाते हुए पर क्षेत्र-पर चलकर चन्द्र मास पूर्ण करता है। ईशान कोण से निकलता चन्द्र ३४ ईशान कोण के चन्द्र का पर या १-अर्द्धमंडल पर-क्षेत्र से व स्वक्षेत्र में चन्द्र चलता है क्योंकि ईशान कोण में २४३ से निकलता हुआ चन्द्र १४वें अर्द्ध मण्डल पर ... भाग अग्नि क्षेत्र चलकर - अग्नि कोण में सूर्य का पर. ६७ १६३ क्षेत्र चलकर चन्द्र मास पूर्ण करता है । नैऋत्य कोण से निकलता कोण में सूर्य का क्षेत्र चलता है और - भाग स्वक्षत्र चन्द्र ३४ नैऋत्य कोण में चन्द्र का पर क्षेत्र वा १४+ चलकर १४वां अर्द्ध मण्डल पूर्ण करता है। इसके पश्चात् पन्द्रहवें । अर्द्ध मण्डल पर चलते १६३ स्वक्षेत्र और ३३४ वायव्य कोण वायव्य कोण से सूर्य का पर-क्षेत्र चलकर चन्द्र मास पूर्ण करता है। दूसरे समय २६ जाता हुआ चन्द्र १४वें मण्डल में स्वयमेव प्रवेश में सूर्य के क्षेत्र में चले, ईशान कोण में चन्द्र के क्षेत्र प्रति कर चाल चलकर नक्षत्र मास पूर्ण करता है। चलता है। पन्द्रहवें अर्द्ध मण्डल को इस प्रकार ईशान कोण में यह गमन की चन्द्र मास में वृद्धि अनवस्थित रूप से कही संपूर्ण करता है। गयी है। इसी प्रकार नैऋत्य कोण से निकलता हुआ चन्द्र १४वें अर्ध ___ यहाँ श्री अमोलक ऋषिजी ने एक दो स्थानों में गलत मण्डल पर २४. वायव्य कोण सूर्यक्षेत्र चलकर व १४ ईशान रूप से लिया है । इसे कोण में अपना क्षेत्र चलकर ईशान कोण में १४वां अर्द्ध मण्डल रूप में लेना चाहिए था। २०६७४३१ कोण का निरूपण ऐतिहासिक दृष्टि से शोध का विषय है पूर्ण करता है । इसके पश्चात् १५वें अर्द्धमण्डल पर चलते । तथा महत्वपूर्ण है । यहाँ ओ० न्युगेवाएर का ग्रन्थ, "The Exact Sciences in Antiquity". Providence 1957. दृष्टव्य है । ईशान कोण में स्वक्षेत्र चलकर और - भाग अग्निकोण में साथ ही बेबीलोनिया के उनके एस्ट्रानामिकल क्यूनिफार्म टेक्स्ट्स (Astronomical Qunieform Texts) भी दृष्टव्य हैं, जिन पर पर-क्षेत्र पर चलता है तथा- - भाग पर-क्षेत्र पर चलकर उनका अनेक वर्षों तक कार्य चला है। सूत्र १०६४, पृ० ५७३पन्द्रहवां अर्धमण्डल सम्पूर्ण करता है। चन्द्र स्व १४वें अर्द्ध मण्डल सर्वप्रथम चन्द्र से नक्षत्रों के योग काल को लेते हैं। यहाँ देश, काल दोनों की स्थिति माप लेकर चन्द्र से उसी नक्षत्र का में-भाग प्रवेश कर पर-क्षेत्र में चलता है। इस प्रकार योग अगले काल में अन्य देश में लेते हैं। जो चन्द्र मण्डल के जिस देश में जिस नक्षत्र से आज योग करता है तो २८ नक्षत्रों नैऋत्य कोण से निकल कर चन्द्र नैऋत्य कोण में भाग पर है योगकाल के ८१६++ २. मुहूर्त काल व्यतीत होने क्षेत्र में चलता है और ईशान कोण में निकलकर ईशान कोण में २४६७ पर वह चन्द्र मण्डल के अन्य देश (भाग) में अन्य सदृश नक्षत्र - भाग पर-क्षेत्र पर चलता है। इसके पश्च का से योग करता है। समस्त नक्षत्रों के साथ योग करने हेतु चन्द्र अलग-अलग विस्तार वाले नक्षत्रों से भिन्न-भिन्न कालों में आधा एवं ... चलते हए चन्द्र अपने १४वे अर्धमण्डल योग करता हुआ चक्रवाल को पूर्ण करता है। उपरोक्त कूल मुहूर्त काल की उत्पत्ति का कारण गणित द्वारा बतलाते हैं २४ ति Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० गणितानुयोग : प्रस्तावना ६२ २४. ६६ = २४ ( ८१६+४+६३६६७) युग की समाप्ति पर पुनः उसी नक्षत्र और चन्द्र का उसी मण्डल अभिजित नक्षत्र का अतिक्रमण + + मुहूर्त प्रदेश में योग होता है। में करता है। सूर्य नक्षत्र योग १५ मुहूर्त योग वाले ६ नक्षत्रों का अतिक्रमण १५४६-६० सूर्य विवक्षित दिवस में जिस नक्षत्र के साथ जिस मण्डल मूहूर्त में करता है। प्रदेश में योग प्राप्त करता है, स्वमण्डल में भ्रमण करता वही ४५ मूहूर्त योग वाले ६ नक्षत्रों का अतिक्रमण ४५४६= सूर्य ३६६ अहोरात्र अतिक्रमण कर पुनः उसी मण्डल प्रदेश में २७० मुहूर्त में करता है। उसी के समान नक्षत्र के साथ योग करता है। दृष्टव्य है कि ३० मुहूर्त योग वाले १५ नक्षों का अतिक्रमण ३०x१५ = उसी नक्षत्र से योग नहीं होता अन्य उसी के समान नक्षत्र से ही ४५० मुहूर्त में करता है। योग होता है। .:. चक्रवाल के समस्त नक्षत्रों का चन्द्र से योग काल = स्पष्टीकरण इस प्रकार है जहाँ तक चन्द्र का प्रश्न है, चन्द्र चक्रवाल मण्डल के ८१६+-+- मुहूर्त में करता है। परिभ्रमण क्रमण में, १ मास में २८ नक्षत्रों का उपभोग करता है। ६२६२x६७ उन नक्षत्रों को सूर्य २८(३६६) अहोरात्र में भोगता है। एक दूसरे चक्र में पुनः इतना समय लगता है, इसलिए ५६ नक्षत्रों सूर्य संवत्सर ३६६ अहोरात्र का होता है। पूर्वोक्त नियमानुसार का योग काल अन्य ३६६ अहोरात्र दूसरे २८ नक्षत्रों का उपभोग करता है । तत्पश्चात् फिर से वही पूर्व के २८ नक्षत्रों को उतनी ही अहोरात्र संख्या से धीरे-धीरे गमन करके योग करता है । पश्चात् ३६६ अहोरात्र को व्यतीत करके सूर्य उसी मण्डल प्रदेश में उसी प्रकार = १६३८+ +:२२ के दूसरे नक्षत्र के साथ योग करता है, उसी नक्षत्र के साथ नहीं। विवक्षित दिवस में जिस नक्षत्र के साथ रहा हुआ सूर्य जिस मण्डल प्रदेश में योग करता है, तत्पश्चात् धीरे-धीरे स्वकक्षा में १९६२ '६२४६७ भ्रमण करता वही सूर्य उसी नक्षत्र के साथ उसी मण्डल प्रदेश फिर से दूसरे सूर्य संवत्सर के अन्त में योग प्राप्त करता है। ६७' ६२x६७ द्वितीय चक्र में २(३६६)= ७३२ अहोरात्र का प्रमाण होता है । इसी प्रकार ५ वर्ष में ५४ ३६६-१८३० अहोरात्र होते हैं । यहाँ वक्ष्यमाण शब्द का प्रयोग किया गया है। उपरोक्त को वक्ष्यमाण 'नोट-उपरोक्त भिन्नों की गणना जहाँ ६२वाँ भाग और ६२ कहा गया है। वक्ष्यमाण शब्द का अर्थ व्याख्यान मान होता है। के एक भाग का ६७वाँ भाग लिया जाता है, वहाँ योग उपरोक्त परीक्षण दृष्टि से भी यह देखने में आया है कि उसी नक्षत्र से योग न होकर उसी के समान अन्य नक्षत्र से होता है। दूसरे प्रकार से सम्पन्न होगा। इन्हें क्रमशः ८१६ | और युग के अन्त में वही प्रमाण दुगुना होता है। अर्थात् २४१८३० =३६६० होता है । इत्यादि । यहाँ कहा गया है कि ३६६० रूप में संस्कृत टीका मु. घासीलाल जी ने अहोरात्र के बाद पुनः वही सूर्य मण्डल के उसी देश में उसी नक्षत्र से योग करता है। व्यक्त किया है। सूत्र १०६५, पृ० ५७४____ अब १ युग में २८ नक्षत्रों के चन्द्र योग काल को यहाँ युग के पाँच संवत्सरों की प्रथमा पूर्णमासी में चन्द्र किस ५४६०० मुहूर्त बतलाया है। स्पष्टीकरण इस प्रकार है-१ युग में १८३० अहोरात्र होते हैं । १ अहोरात्र में ३० मुहूर्त होते हैं। नक्षत्र से योग करता है ? धनिष्ठा नक्षत्र के साथ ३+ + अतएव १ युग में १८३०४ ३०=५४६०० मुहूर्त होते हैं । १ युग पश्चात् जैन गणना में उसी नक्षत्र और चन्द्र पुनः उसी मण्डल - मुहूर्त प्रमाण काल योग रहने पर चन्द्र प्रथम पूर्णिमा के भाग में इतने मुहूर्त पश्चात् मिलते हैं। यह चक्र पुनः चलता ६२४ ६७ है और २४ (५४६००)= १०९८०० मुहूर्त व्यतीत होने पर २ सम्पूर्ण करता है। = १६३८+४+६५+६७ =१६३८+६+६२५७ मुहूर्त लगते हैं। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहूर्त शेष रहने पर सूर्य 'इस समय सूर्य पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र के साथ योग करता है । ३२ इस-नक्षत्र के २८+६२+ -६२x६७ इस नक्षत्र के साथ योग करता है । इतना मुहूर्त शेष रहने पर प्रथम पूर्णिमा पूर्ण होती है । गणित स्पष्टीकरण – जिस नक्षत्र के साथ योग करके चन्द्रमा पूर्णिमा पूर्ण करता है उस नक्षत्र को निकालने के लिए ध्रुवराशि बनाते हैं। पांच संवत्सरों के चन्द्रमास ६२ होते हैं। पांच संवत्सरों में नक्षत्र ६७ बार चन्द्र के साथ योग करते हैं। पांच संवत्सरों की १८३० अहोरात्र होती हैं। उसे ६७ का भाग देने ५०८०२०×६७+(६६) = ३४०३८०० कुल भागापभाग प्राप्त होते हैं। इसे ही एक नक्षत्र मास की ध्रुवराशि कहते हैं । यह प्रथम ध्रुवराशि हुई। अब चन्द्रमास की ध्रुवराशि बनाते हैं। पांच संवत्सर के १८३० दिन होते हैं और इसमें चन्द्रमास ६२ होते हैं । ६२ का भाग देने पर = २६ दिन एवं १५+: मुहूर्त होते २४ मुह होते है। जैसे ६६ पर २७ दिन तथा &+: + ६२ ६२x६७ ६६ चूर्णिया भाग ६७या है, उसी प्रकार इस मान के चूर्णभाग कुल प्राप्त करने हेतु पहले मुहूर्त बनाते हैं जो २७३०+ (६) मुहूर्त घटा देने पर २६++ = ८१६ मुहूर्त होते हैं । इसके ६२या भाग बनाने हेतु उसमें ६२ का गुणा कर २४ जोड़ते हैं-१९६२ (२४) - ५०८०२० भाग प्राप्त होते हैं। इन्हें ६७या भाग बनाने हेतु उसमें ६७ का गुणा कर ६६ जोड़ते हैं— १८३० ६२ ३० ६२ हैं। इसके कुल चूर्णिभाग करने हेतु पहले कुल मुहूर्त बनाते हैं। और उसमें १४ मतं जोड़ते हैं- २१३०+१५८०५ मुहूर्त। पुनः इसके बासठिया भाग बनाने हेतु ६२ का गुणा कर उसमें ३० जोड़ते हैं - ८८५६२ + ३०=५४६०० भाग । पुन: इसके सढ़सठिया चूर्णिभाग बनाने हेतु ६७ का गुणा करने पर ५४६०० X ६७ = ३६७८३०० चूर्णिये भाग प्राप्त होते हैं। यह चन्द्रराशि हुई। इसे दूसरी प्रवराशि कहेंगे। गणितानुयोग : प्रस्तावना ४१ (३६७८३००X१ ) : ३४०३८०० इससे पूर्ण संख्या तथा ६७ और फिर ६२ से भाग देने पर मुहूर्तादि प्राप्त होते हैं - यह विधि ध्रुवराशि से विपरीत चलती है । इससे एक मास पूर्ण होने में १ नक्षत्र मास + ६६ प्रथम पूर्णिमा - अब ज्ञात करना है कि चन्द्र कौन से नक्षत्र के साथ कर प्रथम मास पूर्ण करे। यह जानने के लिए दूसरी ध्रुवराशि को १ से गुणित कर प्रथम ध्रुवराशि द्वारा भाजित करते हैं । यथा : ५ १ मुहूर्त + मुहूर्त +: मुहूर्त प्राप्त होते हैं युग के ६२x६७ ६२ प्रारम्भ से ही चन्द्रमा के साथ अभिजित नक्षत्र का योग होता है । २४ ६६ मुहूर्त ++ मुहूर्त तक रहता है । ६२ ६२x६७ श्रवण नक्षत्र ३० मुहूर्त तक रहता है । इसलिए मुहूर्त में से ३६+६२ + वह नक्षत्र इससे आगे ६६+ ५ + १ ६२x६७ ६६ ६२x६७ २ मुहतं शेष रहते हैं। ६२ ६२x६७ यही शेष प्रमाण चन्द्र धनिष्ठा नक्षत्र के साथ योग करता है । इसको ६५ धनिष्ठा के ३० 'मुहूर्त में से घटने पर 2+25+ ३+ • मुहूर्त ६२ ६२x६७ शेष रहते हैं । इतना काल धनिष्ठा नक्षत्र पूर्णिमा सम्पूर्ण होने पर शेष रहता है । इसी प्रकार सूर्य के साथ नक्षत्र के योग पूर्णिमा सम्पूर्ण होती है जिसे निकालने की विधि निम्न प्रकार है पांच संवत्सरों में चन्द्रमास ६२ हैं और सूर्य के साथ १-१ नक्षत्र पांच बार परिभ्रमण करते हैं। पांच संवत्सर की १८३० १८३० अहोरात्र हैं । इसलिए [ ३६६ दिनों में सूर्य सम्पूर्ण २८ ५ नक्षत्रों के साथ योग करता है। इसके मुहूर्त के बासठिये भाग करने हेतु ३६६ X ३० X ६२ = १०८० X ६२ = ६८०७६० ये मुहूर्त के बासठिये भाग आये । यह १ नक्षत्र वर्ष होता है । इस विधि हेतु यह प्रथम वराशि हुई। चन्द्रमास की प्रवराशि हेतु पांच संवत्सर के १८३० दिन होते हैं। इसको बारूट से भाग १८३० देने पर २६ दिन १५ + ६ मुहूर्त होते हैं । इसमें ६२ २९×३०+१५८८५ मुहूर्त हुए। इनके बासठिये भाग करने के लिए ६२ से गुणित कर ३० बासठिया भाग मिलाते हैं । अस्तु ८८x१२ + (३०) ५४९०० मुहूर्त के वासठिये भाग होते हैं । यह चन्द्र मास के भाग हुए। इसे दूसरी ध्रुव राशि कहते हैं । ३० ६२ = Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ गणितानुयोग : प्रस्तावना अब यह निकालना है कि सूर्य कौन से नक्षत्र के साथ योग द्वितीय पूर्णिमा-पुनः प्रश्न है कि पाँच संवत्सरों में दूसरी करता हुआ प्रथम चन्द्र मास समाप्त करता है । यह निकालने को पूर्णिमा होते चन्द्र कौन से नक्षत्र के साथ योग करेगा? दूसरी ध्रुवराशि को १ से गुणा कर प्रथम ध्र व राशि से भाजित उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के साथ योग करके दूसरी पूर्णिमा करते हैं । यह विधि बासठिये भाग निकालने की विलोम है । भाग .....१४. ६४ नास्ति शून्य है, तब मुहूर्त करने को ६२ से भाग देते हैं जिससे २७+ + मुहूर्त शेष रहे तब दूसरा मास सम्पूर्ण ८८५ मुहूर्त तथा भाग होते हैं । अब प्रथम युग बैठने के समय होता है । सूर्य के साथ पुष्य नक्षत्र १३८ मुहूर्त में पूर्ण होकर १३६वें मुहूर्त नोट---दृष्टव्य है कि सू०प्र० टीका श्री घासीलाल जी म०, भाग से २६४ मुहूर्त पर्यंत योग करके नक्षत्र की समाप्ति होती है। २ पृ० २४४ आदि पर भिन्न द्वारा ही उपरोक्त प्रथम पूर्णिमा इसलिए पुष्य नक्षत्र से गिनती करते हैं। प्रथम पूर्णमास सम्पूर्ण सम्बन्धी गणनाएँ धूलिकर्म द्वारा प्रस्तुत की गयी हैं। पाटी गणित और धूलि (रेत) पर गणित का उच्चरूप हल किया जाता था। किसी तख्ते अथवा भूमि पर रेत बिछाकर करता है। पुनः मघा नक्षत्र ८६७ मुहूर्त में सम्पूर्ण होता है । गणित किया जाता था। यह गणित अरब देशों तक भारत से पहुँचा था। इसलिए ८८५ मुहूर्त एवं 2 मुहूर्त में से ८६७ मुहूर्त घटाने पर यहाँ इस टीका में प्रस्तुत दूसरी पूर्णिमा सम्बन्धी प्रश्न को हल किया गया है :-- १८ मुहूर्त + मुहूर्त पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र के साथ योग करते पूर्व विधि से यहाँ भिन्न विधि ली गई है, जहाँ ध्रुव राशि हैं। यह पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र ४०२ महर्त का होता । इसमें से तो वही लेते हैं, किन्तु गणना दूसरी विधि से करते हैं : होते सूर्य ८८५ मुहूर्त एवं ३: भाग मुहूर्त तक नक्षत्र के साथ योग ३० ३० १८ मुहूर्त घटाने पर ३८३ - पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र के शेष यहाँ पर भी ध्रुव राशि ६६+ + ६२x६७मुहूर्त प्रमाण २ २४ ४७. ३ 8-1 रहते हैं । इस समय सूर्य प्रथम पूर्णमास सम्पूर्ण करता है। लेते हैं। सूर्य नक्षत्र ३८३२ मुहूर्त शेष रहे तब चन्द्र नक्षत्र कितना दूसरी पूर्णिमा की गणना हेतु इस ध्रुव राशि में २ का गुणा शेष रहता है ? इसके बासठिया भाग ३८३४६२+ (३२)= करने पर १३२+ + मुहूर्त प्राप्त होते हैं । इसमें २३७७८ होते हैं । अब अनुपात लेते हैं--पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र ३० मुहूर्त तक चन्द्र के साथ योग करता है । इससे इसे ३० से गुणित से पूर्व प्रतिपादित युक्ति से अभिजित नक्षत्र का शोधनक करने पर २३७७८४३० = ७१३३४० । पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र ४०२ मुहूर्त तक सूर्य के साथ योग करता है। इससे ५१३३४० 5+ मुहूर्त घटाते हैं तो १२२+-+ ६२ । ६२४६७ को ४०२ द्वारा भाजित करते हैं तब १७७४ १६. प्राप्त होते मुहूर्त प्राप्त होते हैं । अब ज्ञात है, कि अभिजित के पश्चात् चन्द्र के साथ श्रवण ३० मुहूर्त, धनिष्ठा ३० मुहूर्त, शतभिषा १५ मुहूर्त, हैं। इसके सढसठिया भाग करने को ६७ से गुणित करते हैं, पूर्वाभाद्रपद ३० मुहूर्त और उत्तराभाद्रपद ४५ मुहूर्त रहते हैं । जिससे १६२४६७ = १२८६४ होते हैं। इसे पुनः ४०२ का भाग देने पर ३२ भाग प्राप्त होते हैं । १७७४ के बासठिया भाग इनका योग १५० मुहूर्त होता है जिसमें से १२२+ +: के मुहूर्त बनाने पर २८ मुहूर्त तथा ३८ शेष रहते हैं। इससे १४६४ चन्द्र नक्षत्र सूर्य के साथ २८++३२ मुहूर्त शेष रहने घटाने पर २७+5+ मुहूर्त शेष रहने पर चन्द्र पर प्रथम पूणिमा सम्पन्न होती है। दूसरी पूर्णिमा को समाप्त करता है। ६२ '६२४६७ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना ४३ इसी प्रकार सूर्य इस दूसरी पूर्णिमा को किस नक्षत्र से योग गणितीय प्रक्रिया करता है। यह निकालने हेतु यहाँ भी ध्रुव राशि ६६+ + पूर्व क्रम की अपेक्षा से हेमन्त ऋतु की प्रथम आवृत्ति वास्तव में दूसरी होती है । युगसम्बन्धी दस अयनों के प्रवर्तन अवसर में प्रथम की दोनों ओर गणना होती है। अतः उसके ६२ ६२x६७ स्थान में दो ध्रुवांक रखते हैं। पूर्व कथित गाथानुसार क्रम से इसमें से १ घटाने पर २-१ = १ प्राप्त होता है । यहाँ पूर्वकथित मुहूर्त प्राप्त होते हैं। इस गुणितांक रूप गुणनफल में से पुष्य होती है। नक्षत्र का शोधनक को घटाया जाता है। नोट-उपर्युक्त ध्र वराशि को निम्न प्रकार से प्राप्त करते नोट-यह शोधनक किस प्रकार प्राप्त करते हैं ? पूर्व युग की समाप्ति - ६२ x ६७ है जिसे दो से गुणित करने पर १३२+१+ २. ६२-६७९ के अवसर पर पुष्य नक्षत्र का २३ भाग समाप्त होकर ६४ १ युग में सूर्य के १० अयन होते हैं । सूर्य के १० अयन से चंद्र नक्षत्र के ६७ पर्याय उपलब्ध होते हैं। अतः १ अयन से भाग शेष रहता है। इसके मुहूर्त बनाने हेतु ३० का गुणन ४३ ३३ करने से ४३.०= १६+++ मुहूर्त प्राप्त ६७-६७ पर्याय प्राप्त होंगे । यहाँ ६ पूर्णांक होने से उन्हें १०१० छोड़कर इतनी पर्याय में मुहूर्त निकालने हेतु त्रैराशिक करते होते हैं। हैं । यहाँ १० भागों से २७२१ भाग लब्ध होते हैं, अतः ७ भागों १. ०२ अतः इसे १३२+ - - -में से प्रताले ६२६२x६७ ६७ से कितना लब्ध होगा : + मुहूर्त प्राप्त होते हैं। इसमें से अतिक्रमित ३० ___२७२१४७: १० = ( १८+8. )+ (२१४ मुहूर्त पुष्य के, १५ मुहूर्त अश्लेषा के, ३० मुहूर्त मघा के तथा ३० मुहूर्त पूर्वाफाल्गुनी के निकाल देने पर शेष मुहूर्त उत्तराफाल्गुनी के ) दिवस प्राप्त होते हैं । साथ योग के रह जाते हैं जो ७+-+ मुहूर्त होते हैं । (वास्तव में संक्षेप में २०२१ ४७ : १०= १२८१’ ६७ इसी प्रकार अगली-अगली पूर्णिमाओं की गणना होती है। सूत्र १०६६, पृ० ५७५, ५७६ होते हैं।) यहाँ पूर्वोक्त विधि के अनुसार ध्रुव राशि द्वारा अमावस्याओं इनके मुहूर्त निकालने हेतु ३० का गुणा करने पर में चन्द्र और सूर्य के साथ नक्षत्रों के योगों का विवरण है। सूत्र १०६७, पृ० ५७६-५७७ o=५४०+२७== ५६७ मुहूर्त प्राप्त यहाँ हेमंत ऋतु संबंधी पाँच आवृत्ति में चन्द्र सूर्य का नक्षत्र होते हैं। योग प्रतिपादित हुआ है। जब हस्त नक्षत्र का ५+२+ '६२ '६२४६७७ मुहूर्त शेष रहता है तब चन्द्र वर्तमान होकर हेमन्त ऋतु की प्रथम आवृत्ति को प्रवर्तित करना है। इसी प्रकार २१४१.४३०-४४४ = ३६ ___ अतः ५६७+०३६ = ५७३३८ मुहूर्त होते हैं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ गणितानुयोग : प्रस्तावना अबभाग के मुहर्त बनाने हेतु ३६ में ६२ का गुणा कर ६७ ६७ का भाग होते हैं। कि अभिजित नक्षत्र समाहृत स्वरूपः वाला सबसे अधोवर्ती रहता है। उसका सड़सठिया भाग २१ होता है। अतः सब का योग=२०१+६०३+१००५+२१=१८३० । ३९४६२२४१८-३६+६२० मु० होते हैं । अतः सड़सठिया १८३० होते हैं : ३३१x६ = २०१,२०१ ४६=६०३, ६७४१५-१००५, अधोवर्ती=२१ इस प्रकार सड़सठ भागात्मक नक्षत्र पर्याय १८३० होता है, इस प्रकार ध्रुवराशि मुहूर्त प्राप्त होती है। इसे सूर्य आवृत्ति में चंद्र नक्षत्र योग जानने में प्रयुक्त जिसका करने पर ६१५ प्राप्त होता है । इसमें पिछले अयन करते हैं। ___ अब ध्र व राशि को १ से गुणित करने पर यह उसी रूप में पुष्य नक्षत्र का सडसठिया" भाग बीता है। और भाग रहती है । अब इस राशि में से १६ नक्षत्र (अभिजित नक्षत्र से ६७ लेकर उत्तराफाल्गुनी पर्यंत) के विस्तार के ५४६+ + २०. ४.४. ६४: शेष है । उसको भी जोड़ने पर-+- प्राप्त होता है । ६७ ६७, ६.७. ४४ ८७१ अब १२ को शोधित करने पर ६१५ ६७ ३६. मुहूर्त को शोधित करने पर (५७३+३६+ ६२५६७) - (५४+४+६३६७) =२४+१३+ मुहूर्त प्राप्त होते हैं । पर इस संख्या से हस्त नक्षत्र शुद्ध नहीं होता है। हस्त नक्षत्र ३० मुहूर्त का होता है । इसलिए ३०-- (२४+१३+२७.७)। =१३ प्राप्त होते हैं। अतः १३ से. आश्लेषादि उत्तराषाढ़ा पर्यन्त के नक्षत्र शोधित होते हैं । इससे स्पष्ट है कि अभिजित् नक्षत्र के प्रथम समय में माघ मास भाविनी प्रथम आवृत्ति प्रवतित होती है। इसी प्रकार ध्रुवराशि के द्वारा अन्य आवृत्तियों की गणना की जाती है। गणित ज्योतिष इतिहास के दृष्टिकोण से ध्रुवराशि का उपयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सूत्र १०६८, पृ० ५७८ इस सूत्र में वार्षिकी आवृत्तियों में चन्द्र और सूर्य के नक्षत्रों का योग काल वर्णित है। उदाहरणार्थ चन्द्र अभिजित के प्रथम समय में अभिजित नक्षत्र से योग करता है । सूर्य प्रथम आवृत्ति में पुष्य के १६+ ४३ . १२... मुहूर्त शेष रहने पर नक्षत्र से योग करता हैं । ३३ =५+५०- ६० ६२ '६२ मुहूत हस्त नक्षत्र के शेष रहने पर वर्तमान रहकर उत्तरायण गतिरूप पहली हेमन्त ऋतु की आवृत्ति को प्रवर्तित करता है। अगला प्रश्नोत्तर __ प्रथम आवृत्ति के प्रवर्तन काल में सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ रहता है। गणितीय प्रक्रिया यहाँ १० अयन से ५ सूर्य नक्षत्र पर्याय लभ्य होते हैं, प्रथम आवृत्ति बिषयक चन्द्र नक्षत्र योग : ___ यहाँ प्रथम आवृत्ति इष्ट होने से प्रथम आवृत्ति के स्थान में १ का अंक रखते हैं। गाथानुसार (सू० ज्ञ० प्र०, पृ० ५७५) रूपोन करने पर १-१-०, शून्य प्राप्त होता है। अतः आगे का क्रिया सभव नहा है। अतः यहा पाश्चात्य युग भाविना आवृत्ति में जो दशवी आवृत्ति की संख्या १० को रखकर उसमें अतः १ अयन से-=-पर्याय लब्ध होंगे। यह ज्ञात है Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ '६२ ५० ६२ गणितानुयोग : प्रस्तावना ४५ युग की प्रथम आवृत्ति होती है । यह पाँच संवत्सरों में प्रथम वर्षा ध्रुवराशि मुहूर्त ५७३+३६+ ६... से गुणित करने पर युगको प्रथम आ काल भाविनी श्रावण मास में होने वाली सूर्य की दक्षिणायन गति रूप चन्द्र अभिजित नक्षत्र के साथ संपन्न होती है । ५७३५+ + - मुहूर्त होते हैं । इनमें से अभिजितादि प्रथम आवृत्ति विषयक सूर्य नक्षत्र योग : ___पंच वर्षात्मक युग में १० अयन होते हैं। उनमें ५ अयन नक्षत्र के शोधनक को शोधित करना चाहिए। वह इस प्रकार वर्षा काल में होते हैं जो दक्षिणायन गतिरूप हैं । शेष पाँच अयन अभिजित नक्षत्र से लेकर उत्तराषाढ़ा पर्यन्त २८ नक्षत्रों का उत्तरायण रूप हेमंत काल में होते हैं। १ संवत्सर में २ अयन २४, ६० होते हैं पर सूर्य नक्षत्र पर्याय एक ही होता है। अतः ५ वर्षीय १ पर्याय का शोधनक ८१६+र युग में सूर्य नक्षत्र पर्याय ५ होते हैं । १० अयन में ५ पर्याय होते अब ७ पर्याय का शोधनक बनाने हेतु इसमें ७ का गुणा करते हैं अतः १ अयन में 2 अथवा ! पर्याय होता है। हैं। स्थूल रूप से केवल ८१६ लेने पर ८१६४७ = ५७३३ होता है। ५७३५-५७३३=२ मुहूर्त अथवा १२४ बासठिया यहाँ नक्षत्र पर्याय १८३० होते हैं जो सड़सठ रूप होते हैं। मुहूर्त भाग होते हैं । अतः १+१ = होता है । अब शतभिषक आदि ६ नक्षत्र अर्द्धक्षेत्र वाले होने से ६७ अथवा ६. ६२/ ६२ ६२x६७मुहूत होता है। ६२६२ ५७. इसी प्रकार ८१६ के पश्चात् शेष रहे में भी ७ का गुणा करने ३३ वाले होते हैं जो ४६=कुल २०१ होते हैं। इसी प्रकार उत्तराभाद्रपदादि ६ नक्षत्र द्वयर्द्ध क्षेत्र वाले होने से प्रत्येक पर १६६ भाग होते हैं जिन्हें १६५ में से शोधित करने पर का मान ६७+३३.१ अथवा २०१ होता है जो २०१४६ ४०२६० - + - मूहूर्त बचते हैं। इसका सड़सठिया =कुल १२०६ = ६०३ होते हैं। अब १५ नक्षत्र शेष रहते हैं चूणि भाग -x = ४०२ . मुहूर्त होता है। इसे शेष जो समक्षेत्र वाले ३० मुहूर्त प्रमाण के ६७ भाग रहते हैं अतः वे ६२ ६७ ६२४६७ ६७४१५=कुल १००५ होते हैं। अभिजित नक्षत्र समाहृत स्वरूप वाला सबसे अधोवर्ति होता है; उसका सढ़सठिया भाग २१ ६० में जोड़ने पर कुलकर ४६२ ६२x६७ ६२४६७ '६२४६७ ६२४ ६७ होता है। इन सभी का योग २०१+६०३+१००५+२१ = १८३० होता है। मुहूर्त होता है जिसमें से अब ८१६+ के बाद शेष रहे. इस प्रकार सढ़सठिया भाग कुल. १८३० भावात्मक परिपूर्ण नक्षत्र पर्याय होता है जिसका आधा ६१५ होता है। इनमें से ६६४७ अभिजित के २१ घटाने पर ६१५ - २१ =८९४ शेष रहते हैं । में ७ का गुणन करके शोधित करेंगे। इस प्रकार : ६२x६७ इनको ६७ से विभाजित करने पर लब्ध शेष ४६२ o आता है। ६२४६७ शेष होता है। उनमें से १३ द्वारा पुनर्वसु पर्यन्त के नक्षत्र शुद्ध २x६७ ८६४ होते हैं । शेष जो २३ रहता है उसके २३४३० = ६६० मुहूर्त अतः पूर्वोक्त ४६२ में से ४६२ प्राप्त राशि घटाने ६२४६७६२X६७ पर शून्य रहता है। अतः समग्र उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर तत्पश्चात् अभिजित नक्षत्र के प्रथम समय में होते हैं जो १०+ - मुहूर्त होते हैं। इससे ज्ञात ६२६२x६७" Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० - (१०+६+६३४.८) = १६+६+६३ २४६ ६२ उहत ६२४६७ मुहूर्त ४६ गणितानुयोग : प्रस्तावना । होता है कि पुष्य नक्षत्र का उक्त मुहूर्त समाप्त होने पर, अथवा कहा गया है। ध्र वराशि और अबधार्य राशि में जो भी भेद हो उसे समझना चाहिए । किन्तु यहाँ कोई भेद प्रतीत नहीं होता है। २० ६ २६२४६७/ ६२' ६२४ ६७ अब प्रश्नोत्तर हेतु प्रथम अमावस्या का अंक १ लेकर इससे मुहूर्त शेष रहने पर प्रथम श्रवण मास भाविनी आवृत्ति प्रवर्तित अवधार्य राशि को गुणित करते हैं। अब पुनर्वसु नक्षत्र का होती है। मुहूर्त शोधनक होने से उसे अवधार्य राशि में घटाने ___अगली आवृत्तियों के नक्षत्र योग ध्र वराशि का उपयोग करते हुए उपरोक्त विधि से प्राप्त कर लेते हैं । २१. १ ___ गणित ज्योतिष इतिहास की दृष्टि से ये गाथाएँ ध्र वराशि पर ४३+ -+ -- - मुहूर्त शेष रहते हैं । अतः पुष्य नक्षत्र के उपयोग सम्बन्धी होने से महत्वपूर्ण हैं । इनमें जो पारिभाषिक शब्द आये हैं वे भी भाषा इतिहास की दृष्टि से ज्योतिष सम्बन्धी के ३० मुहूर्त से शोधित होने पर १३ पणना-काल के सूचक हैं। सूत्र १०६७-६८, पृ० ६१०-६१६ शेष रहते हैं। अब अश्लेषा नक्षत्र द्विक्षेत्रात्मक होने से १५ मुहूर्त ___इस सूत्र में कुल, उपकुल और कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र के प्रमाण होता है जिसे उपरोक्त राशि से शोधित करने पर योग का बोध दिया गया है। मास समान नाम वाले नक्षत्रों की कुल संज्ञा होती है। ये १२ हैं। पर यहाँ १३ नक्षत्र होते हैं। १+-+- मुहूर्त शेष रहने पर श्राविष्ठी अमावस्या मास बोधक कुल संज्ञक नक्षत्र के समीपवर्ती होने से ११ नक्षत्र उपकुल संज्ञक कहे जाते हैं। वक्ष्यमाण अधोनिर्दिष्ट चार नक्षत्र वक्ष्यमाण अधोनिर्दिष्ट चार नक्षत्र समाप्त होती है। कुलोपकुल संज्ञक कहे गये हैं जो कुल संज्ञक एवं उपकुल संज्ञक दूसरी अमावस्या पर विचार करने हेतु युग की आदि से वह नक्षत्रों के मध्य में कहीं-कहीं रहते हैं : अभिजित्, शतभिषा, आर्द्रा १३वीं संख्या होने से अवधार्य राशि को इससे गुणित कर पुनः और अनुराधा । (देखिये सू० ज्ञ० प्र०, पृ० ७५१ आदि) विगत-प्रक्रिया द्वारा चन्द्र नक्षत्र योग निकालते हैं। तीसरी युग की आदि में प्रथम श्राविष्ठी अमावस्या कौन चन्द्र योग श्राविष्ठी हेतु युग की आदि से. २५वीं संख्या होने से अवधार्य से युक्त नक्षत्र वाली होकर समाप्त होती है, ऐसा प्रश्न हल करने राशि को २५ से गुणित कर पुनः वही गणना करते हैं । क्या यहाँ अवधार्य राशि और ध्र बराशि एक सी प्रतीत नहीं होती है ? यह हेतु अवधार्य राशि ६६+ + १ - का उपयोग करते हैं। ६२ ६२४६७ स्पष्ट नहीं हुआ है। अवधार्य राशि निकालने की प्रक्रिया इस प्रकार उपरोक्त विधि से १२ अमावस्याओं में चन्द्र योग १२४ पर्व संख्या से ५ सूर्य नक्षत्र का पर्याय लभ्य होता है, नक्षत्र विवेचन करते हैं। इसी सूत्र में इन्ही अमावस्याओं का कुलादि नक्षत्र योग योजना बतलाई गई है। अतः २ पर्व से २४५ राशि प्राप्त होती है। इस अंक सूत्र १०६६, पृ० ६१६-६२१ राशि का नक्षत्र करने हेतु अंश में १८३० का गुणा करते हैं तथा इस सूत्र में नक्षत्रों का पूर्वादि भागों से योग, क्षेत्र और काल हर या छेद राशि में ६७ का गुणा करते हैं। प्रमाण दिया गया है। यह योग चन्द्र और नक्षत्र के विस्तार तथा राशि प्राप्त होती है। उनकी सापेक्ष गति पर निर्भर है और दिन के प्रारम्भ एवं अन्त ६२४६७ ४१५४ सम्बन्धी है। इसकी गणना सरल है। यह अवलोकन, स्पष्ट है कि अब इसके मुहूर्त बनाने हेतु अंश में ३० का. गुणा करने पर यह विभिन्न स्थलों के लिए भिन्न-भिन्न होगा । १५०-३० २७४५०० २० = २४४५०० मुहूर्त अथवा ६६+ + सूत्र ११०६, पृ० ६२८-६३२ पूर्वाचार्यों ने आठ गाथाओं द्वारा पौरुषी का परिमाण प्रति- मुहूर्त रूप में प्राप्त हो जाती है जिसे अवधारित राशि पादित किया है । इनका भावार्थ इस प्रकार है ६२४६७ (देखिए सू० ज० प्र०, भाग १, पृ० ६४७) या इस प्रकार ^१८३०६१५० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युग में जिस पर्व का जिस तिथि में पौरुषी का परिमाण जानना चाहें तो पहले युग के आदि से आरम्भ करके जितने पर्व बीत चुके हों उनको लेकर १५ से गुणा करें। गुणा करके विवक्षित तिथि से पहले जितनी तिथियाँ व्यतीत हुई हों उन तिथियों को जोड़े। जोड़कर १८६ से उनका भाग करें तो इस प्रकार १ अयन में १८३ मण्डल परिमाण में चन्द्र निष्पादित तिथियों की संख्या १८६ होती है, उनका भाग करने पर जो भागफल आता है वह पौरुषी का प्रमाण होता है। उनमें जो लब्ध विषम हो, जैसे कि १, ३, ५, ७, ε, तो उसके समीपस्थ दक्षिणायन समझना चाहिए। यदि लब्ध सम हो, जैसे २, ४, ६, ८, १० आदि तो उसके पर्यन्त उत्तरायण समझना चाहिए । यदि १६६ द्वारा भाग देने पर पूरा भाग न जाये तो शेष बचने की विधि यह है-अयन बीतने इत्यादि जो पर्व भाग करने पर या भाग के असम्भवपन की दशा में शेष रूप अयन गत तिथि का समूह होता है । उसको ४ से गुणित करते हैं । गुणा करके पर्व पाद से युग में जितनी पर्व संख्या से ( प्रन्यास ४००० ) पर्व १२४ होते हैं, उनके पाद से अर्थात् चतुर्थांश से अर्थात् ३१ से भाग करने पर जो भागफल आता है उतने अंगुल और अंगुल के अंश पौरुषी का क्षय वृद्धि जानना चाहिए। दक्षिणायन में पाद ध्रुवराशि के ऊपर वृद्धि रूप से तथा उत्तरायण में पाद ध्रुवराशि के क्षयरूप जानना चाहिए । गुणकार और भागकार उत्पत्ति - यदि १६६ तिथि से २४ अंगुलों के पपा वृद्धि में प्राप्त हो तो १ तिथि में २४ १८६ अथवा क्षय या वृद्धि होती है । जो लब्ध फल है उतने अंगुल क्षय. वृद्धि होती है। दक्षिणायन में द्रीपाद के ऊपर अंगुलों में वृद्धि होती है तथा उत्तरायण में ४ पाद से अंगुलों की हानि या क्षय होता है। युग के प्रथम संवत्सर में श्रावणमास के कृष्ण पक्ष के प्रति•पदा में २ पाद प्रमाणवाली पौरुषी निश्चित होती है । उसको प्रतिपदा से आरम्भ कर प्रत्येक तिथि के क्रम से तावत् पर्यन्त हाते हैं या सौरमान के साहेतीस अहोरात्र प्रमाग से चन्द्र गणितानुयोग : प्रस्तावना मास की अपेक्षा से ३१ तिथि में ४ अंगुल की वृद्धि होती है । कारण कि १ तिथि में ४ ३१ भाग हानि वृद्धि होती है। युग के प्रथम संवत्सर में माघ के कृष्णपक्ष में सप्तमी से आरम्भ कर ४ पाद से प्रत्येक तिथि भाग घटती हुई उत्त ४७ ३१ रायण पर्यन्त दो पाद पोरुषी हो जाती है । पर्व तिथि में पौरुषी गणना यदि युग के प्रारम्भ से २५ वें पर्व की ५वीं तिथि में पौरुषी पाद गणना में निकालना हो तो सर्वप्रथम एक ओर ८४ रखते हैं और उसके नीचे ५वीं तिथि के विषय में प्रश्न होने से ५ रखते हैं। तथा ८४ को १५ से गुणा करते हैं । इस प्रकार ८४४१५ = १२६० होते हैं जिनमें उक्त ५ जोड़ने पर १२६५ होते हैं । प्राप्त होते हैं। यहाँ ६ लब्ध पूर्ण होते हैं छह अयन पूरा होकर सातवाँ अयन प्रवर्तता है। ध्रुव १४६ में ४ का गुणा करते हैं तब १४εX४==५६६ प्राप्त होता है। इसमें ३१ का भाग देने पर इसे १८६ का भाग देने पर १२६५, १४६ ६+ १८६ १८६ १६+ प्राप्त होते हैं । १६ अंगुल से १२ अंगुल का १ पाद होने के कारण १ पाद लब्ध होकर ७ अंगुल शेष रहता है । इस प्रकार ६ उत्तरायण निकल चुके होते हैं और ७वां दक्षिणायन प्रवर्तता है । अब इस १ पाद को २ पाद वाली ध्रुवराशि में प्रक्षिप्त करने पर ३ पाद होते हैं तथा ७ अंगुल होते हैं । अब भाग के यव बनाने के लिए १ अंगुल = ८ यव लेकर ७ को ३१ ८ से गुणित करते हैं तो ७८=५६ प्राप्त होते हैं । ५६. २५ अतः १+ यव होते हैं । इतनी प्रमाण की पौरुषी प्राप्त ३१ ३१ होती है। इसी प्रकार उत्तरायण की ध्रुवराशि ४ पाद लेकर सम्बन्धित प्रश्न हल करते हैं । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ गणितानुयोग : प्रस्तावना २. प्राचीन गणित का आधुनिक गणित में क्रमशः विकास प्राचीन गणित विश्व के कुछ सभ्यता के केन्द्रों पर अपने अठारहवीं सदी के अंत और उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में क्रांति अभिलेख सुरक्षित रहे होने के कारण प्रकाश में आया। इन केन्द्रों प्रारम्भ हुई। इस क्रांति से गणितीय क्षेत्र में जो गति आई उसने में विशेषकर बेबिलन, मिस्र और भारत सुप्रसिद्ध हैं ।* बीज, संख्या गणित को अनेक नये रूप दिये । इस प्रकार शुद्ध गणित को और और आकृति द्वारा गणित के रूप का विकास हजारों वर्ष तक भी विस्तृत होने का अवसर नित्य प्रति प्राप्त होता चला गया । चला किन्तु सर्वाधिक क्रान्ति बर्द्धमान महावीर के युग में तथा प्राचीनकाल में हुए प्रमुख गणितज्ञों को अंगुली पर, गिना जा विगत शताब्दी में दृष्टिगत हुई है, जिसे महात्मा गांधी युग कहा सकता है, किन्तु विगत दो, तीन एवं आधुनिक शताब्दी में उनकी जा सकता है। अहिंसा का आन्दोलन सर्वव्यापी होता है और संख्या में विशेष वृद्धि अवलोकित की जा सकती है। महान् तीर्थ का प्रवर्तन करता है। तीर्थकर महावीर की क्रान्ति आज से प्रायः तीन सौ वर्ष पूर्व के गणित को चिरप्रतिष्ठित आत्मिक थी और महात्मा गांधी की राजनैतिक । गणित कहा जाता है। वह आज भी अपनी शक्ति एवं केन्द्रीय प्राचीन काल में नदियों के किनारे विकसित हुई प्रायः ५००० स्थिति प्रतिष्ठित किये है। केलकुलस अर्थात् सूक्ष्मतम परिवर्तन वर्ष पूर्व में विकसित सभ्यताओं वाले उक्त देशों में ज्योतिष एवं का संकलन और विकलन, लिमिट अर्थात् सीमा, फंक्शन अर्थात् लौकिक गणनाओं हेतु रेखागणित, अंकगणित और बीजगणित के दो वस्तुओं आदि के सम्बन्धों का फलन, विश्लेषण, चलन और आदिम रूप को खोजा गया होगा। कृषि सम्बन्धी काल गणना अवकल कलन एवं समीकरण आज भी आधुनिक गणित पर छाये हेतु पंचांग को विकसित किया गया होगा और भवन सम्बन्धी हए हैं । ज्यामिति में फलन और संख्यात्मक संलग्नता की धारणा रचना के लिए यांत्रिकी को विकसित किया गया होगा । इनमें से स्थल विज्ञान और चलन ज्यामिति की उत्पत्ति हई । ये दोनों प्रयुक्त गणित का विकास हुआ होगा । ही आधुनिक गणित की सर्वाधिक क्रियाशील शाखाएँ हैं। गणित में मुख्यतः पाँच धाराएँ गतिशील रही है। प्राचीनतम आज भी आधुनिक गणित का आधार संख्या ज्यामिति और काल में संख्या और आकृति से काम चलता रहा । बाद में बीजगणित हैं किन्तु उनके रूप व्यापक हो चुके है । जब संख्याओं और आकृतियों में सम्बन्ध स्थापित किये जाने लगे। विज्ञान के सिद्धांतों में गणित को प्रविष्ट किया गया तो गणितीय इन सम्बन्धों के सहारे और पूर्णांक संख्याओं के सिवाय ऋणात्मक, मितालों को नया मोड लेना पडा । अब संख्याएँ अनन्त के क्षेत्र भिन्नात्मक और वर्गात्मक, वर्गमूलात्मक संख्याओं को रेखाकृतियों में प्रवेश कर अनन्तात्मक राशियों की रचना विज्ञान को समुन्नत द्वारा निरूपित किया गया । अखण्डता अथवा संलग्नता के प्रसंग कर चकी हैं । ज्यामिति पूर्व में रेखा तथा ठोस और आकाश के को गणितीय विधियों द्वारा निरूपित करने के प्रयास किये जाने बिन्दओं तक ही सीमित थी, किन्तु अब वह सभी संभाव्य काल्पलगे। निक आकाशों की वस्तु हो गई है। उच्च बीजगणित द्वारा अब इस प्रकार पूर्णांक संख्याओं से सम्बन्धित समस्याओं से रुचि कोई भी विषय अछूता नहीं रहा है। रखने वाले गणितज्ञ संख्यासिद्धान्त, आधुनिक बीजगणित, और प्रायिकता गणित की उत्पत्ति खेल-खेल में हुई थी। परन्तु गणितीय तर्क की ओर बढ़ गये । अपूर्णांक संख्याओं की समस्याओं आज इसके द्वारा उन होने वाली घटनाओं का ज्ञान हो जाता है में रुचि रखने वाले गणितज्ञ ज्यामिति, विश्लेषण-गणित और प्रयुक्त जिनकी प्रागक्ति पूर्ण रूप से नहीं की जा सकती है । घटनाओं को गणित को लेकर विज्ञान तथा यत्रादि कला की ओर लग गये। राशियों के और प्रायिकता को क्षेत्रफल या घनफल के रूप में उपर्युक्त चार प्रकार की धाराओं के सिवाय एक और महत्व- लेकर समस्याओं को प्रमाण सिद्धान्त का विषय बना लिया जाता पूर्ण धारा गतिशील हुई । ज्योतिष एवं यांत्रिकी से लेकर जीव- है जिसे मेजर थ्योरी कहते हैं । विगत तीस वर्षों में गणितज्ञों ने शास्त्र, मनोविज्ञान, समाजविज्ञान, आदि में ज्यों-ज्यों गहराई में ऐसी घटनाओं के सिद्धान्त पर खोज की है जो काल के प्रवाह में जाने की आवश्यकता प्रतीत हुई, त्यों-त्यों गणित का अवलंबन लगातार परिवर्तित होती हैं । घटनाओं के इस सिद्धान्त जो स्टाकिया जाने लगा। इस प्रकार प्रायः सत्रहवीं सदी के प्रारंभ से केस्टिक प्रक्रमों का सिद्धान्त कहते हैं । प्रायिकता का विषय आज कुछ वर्षों बाद गणित एवं विज्ञान अगम्य और अपार रूप से सूचना सिद्धांत, कतारों का सिद्धांत, विसरण सिद्धान्त और गणितीय विकसित होता चला गया । उद्योग और शोध कार्यों में प्रायः सांख्यिकी जैसे नवीन विस्तृत क्षेत्रों को आलिंगित करता है । * विशद वर्णन हेतु देखिये महावीराचार्य का गणितसार संग्रह, प्रस्तावना, शोलापुर, १९६३ ।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना ४६ जब कभी कोई नवीन गणितीय कल्पना उपयोगी पाई जाती अर्थशास्त्र जैसे कुछ सामाजिक विज्ञान हैं जिनका कार्य ऐसे है तो उसके आधार पर एक उपरिव्यूहन उदित हो जाता है। तथ्यों से चलता है जिन्हें बहुधा संख्याओं द्वारा निरूपित करते बाद में उक्त मौलिक कल्पना यदि स्खलित सिद्ध होने लगे तो हैं। समस्त जनसमूहों के गणितीय विश्लेषण की सूचना देते हुए उपरिव्यूहन को बिना मिटाये उस कल्पना को सुधारने का प्रयास इन संख्याओं को सम्बन्धित करने वाले तकनीक सामने आये हैं। किया जाता है। अनन्तात्मक राशियों के सम्बन्ध में बहुत कुछ शिक्षण पद्धतियों के विश्लेषण और पूजी निवेश का प्रोग्राम ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हुई । उनके अल्पबहुत्व के प्रकरण आधु- बनाने में जो कुछ समस्यायें आती हैं वे गणितीय रूप से हल की निक गणित में अभी भी उलझे हुए हैं। राशि सिद्धान्त और जाती हैं। समाजशास्त्र विषय की खोज के दो क्षेत्र हैं। एक तो अनन्तों के जन्मदाता उन्नीसवीं सदी के अन्त में जार्ज केन्टर यह कि समाज की प्रणालियाँ किस प्रकार कार्य करती हैं तथा माने जाते हैं, परन्तु राशि सिद्धान्त को पुनर्गठित करने वाले उनके विभिन्न अंगों के बीच क्या सम्बन्ध हैं। दूसरा क्षेत्र उनके ' विभिन्न विचारधाराओं वाले विश्वविख्यात गणितज्ञ रसेल, ब्रोवर, नियन्त्रण और नीति निर्धारण का है। इन दोनों क्षेत्रों में एक से । और हिल्बर्ट हैं । उनकी विचारधाराएँ क्रमशः तर्क, अन्तःप्रज्ञा प्रकार के गणितों का प्रयोग हुआ है। अर्थव्यवस्था गणित द्वारा : और औपचारिकता पर आधारित हैं । इस प्रकार गणितीय बुनि- एक ऐसी प्रणाली के रूप में देखी जा सकती है जो सूचना को : यादों पर तीव्र कार्य हुआ है। निर्णयों में रूपान्तरित कर देती है। भौतिकशास्त्र में गणित के समूह-सिद्धान्त या ग्रूप-थियोरी टेक्नालाजी में गणित का सर्वाधिक अग्रसर प्रयोग ऐसी मशीनों द्वारा मूलभूत कणों का निदर्शन होता है। । समूह-रूपान्तरणों द्वारा की डिजायन में होता है जो अपने आप को स्वयं नियंत्रित करती भौतिक जगत की वास्तविकताओं का पता लगाया जाता है कि वे सीडी विजिवित आ रजनों कौन से द्रव्य और गुण हैं जो घटनाओं के परिवर्तन में अक्षुण्ण, विधि के नियन्त्रण से सम्बन्धित होती हैं। अन्य विस्तृत सिद्धांतों Manावर, अपरिवर्ती बने रहते हैं । आइंस्टाइन ने सापेक्षता सिद्धान्त की भांति नियन्त्रण सिद्धान्त गणितीय वैज्ञानिक अथवा तकनीकी को मूर्तिक कल्पनाओं के सहारे अमूर्तिक कल्पना और व्यापकी विधियों के मिश्रण के बजाय मनोस्थिति का सिद्धान्त है। नियंकरण द्वारा अमरत्व प्रदान किया। इसी प्रकार जाँ का नायाँ ने त्रण समस्याएं जो टेक्नालाजी, अर्थशास्त्र, औषधि और राजनीति हिसाबर्ट आदि के स्पोक्ट्रल सिद्धान्त को व्यापक बनाकर असीम में आती हैं वे मल्टीस्टेज डिसीजन प्रोसेस कहलाती है। इन सभी क्षेत्र प्रदान किया। में गणित का उपयोग हुआ है । जीवविज्ञानवेत्ता श्री गणित का उपयोग करते हैं किन्तु जिन जटिल प्रणालियों का ये अध्ययन करते हैं वे गणितीय विवरण ___ गणक मशीनों (काम्प्यूटर्स) से उच्च गतिशील अंकगणना में प्रतिवेध लाती हैं। जीव रसायन में ऊष्मागतिविज्ञान के द्वारा गणित के प्रयोगों की आवश्यकता की पूर्ति हुई है। सबसे गणितीय समीकरण लगते हैं और सांख्यिकी के तकनीक से आनु बड़ी इलेक्ट्रानिक गणक मशीनों में स्मृति-क्षमता प्रायः एक अरब बंशी विज्ञान सम्बन्धी खोजें हुई हैं । गणक मशीनों में आज केन्द्र शब्दों या कई लाख व्यक्तिगत द्विचर अंक रहती है । ऐसी स्मृतिभूत धारणा "आटोमेटन" सिद्धान्त की है ताकि वह मस्तिष्क की भांति विचार कर सके । पाक मशीनें वहाँ अधिक उपयोगी द्रुतता एक माइक्रो सेकण्ड होती है। यह भविष्य में कई सिद्ध हुई हैं जहाँ उच्च गतिशील यानों या मशीनों में जटिल गुना बढ़ जायगी । अब माइक्रो इलेक्ट्रानिक परिपथ का उपयोग निर्वाय शीघ्रातिशीघ्र लेने पड़ते हैं। होने से हजार गुनी छोटी गणक मशीनें बनने लगी हैं। ३. वैदिक, जैन एवं बौद्ध संस्कृति में गणित का महत्व भारत में वैदिक संस्कृति के साथ साथ श्रमण संस्कृति संस्कृत एवं वैदिक संस्कृति के अध्ययन व अनुसन्धान के लिये स्वतन्त्र रूप से विकशित हुई कही जाती है। अनेक स्थलों पर मिथिला विद्यापीठ, प्राकृत एवं जैन तत्वज्ञान तथा अहिंसा विषयक बैदिक ग्रन्थ पुराणों में मिलता-जुलता कुछ जैन तीर्थंकरों का स्नातकोत्तर अध्ययन व अनुसंधान के लिए वैशाली विद्यापीठ, बिबरण मिलता है । वैदिक, जैन एवं बौद्ध संस्कृतियां भारत में तथा पालि एवं बौद्ध तत्वज्ञान के लिये नव नालन्दा महाविहार की प्रायः समान रूप से पनपती रहीं और उनके साहित्यादि पर शोध स्थापना की गई। शासन का यह दृष्टिकोण उदात्त एवं श्रेयस्कर. करने हेतु बिहार सरकार ने तीन शोध केन्द्र स्थापित किये। मान्य हुआ है। १ देखिये, डा. हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, भोपाल, १९६२, पृ० ११ आदि । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० गणितानुयोग : प्रस्तावना गणित विज्ञान का वैदिक संस्कृति में क्या महत्व माना जाता ing the result. The old seer scientist had his both रहा है, इस सम्बन्ध में डा० दत्त एवं डा० सिंह ने लिखा है, "कहा also, but different from these now availing. He had जाता है कि प्राचीन भारतवर्ष में किसी विज्ञान ने न तो स्वाधीन his science and technique, called Yajna, in whiah अस्तित्व ही प्राप्त किया और न उसका स्वतन्त्र रूप से विकास Mantra, Yantra and other factors must cooperate ही हमा। वैदिक कालीन भारत में जिन किती विज्ञान का जो कुछ with mathematical determinateness and precision. भी रूप मिलता है, उसकी उत्पत्ति और विकास किसी न किसी। For this purpose, he had developed the six auxiliaries वेदांग के अन्तर्गत है, और इसलिए वैदिक क्रियाओं के सहायतार्थ of the Vedas in each of which mathematical skill and माना जाता है। कभी-कभी यह भी कल्पना की जाती है कि adroitness, occult or otherwise, play the decisive वैदिक-कालीन हिन्दू लोग किसी विज्ञान की विशेष उन्नति को role. The Sutras. lay down the shortest and surest निरुत्साहित करते थे, यह समझकर कि वह उनकी चित्तवृत्ति को lines. The correct intonation of the Mantra, the अन्य मार्गों की ओर ले जाकर उनकी ब्रह्म-ज्ञान की खोज में correct configuration of the Yantra in the making of the vedi etc., e.g., quadrature of a circle), the बाधक सिद्ध होगी। वस्तुतः यह धारणा सर्वथा सत्य नहीं है। correct time or astral conjugation factor, the correct कदाचित् यह सत्य है कि प्रारम्भिक वैदिक काल में विज्ञानों का rhythms etc., all had to be perfected so as to विकास इसलिये हुआ कि वे धर्म में सहायक थे। परन्तु produce the desired result effectively and adequately. साधारणतया यह देखा गया है कि प्रत्येक काल और प्रत्येक देश Each of these required the calculus of mathematics." में लोगों का किसी ज्ञानविशेष में अनुराग सदैव कुछ विशेष एस. एन. सेन एवं ए. के. बाग ने, "The Shulbasutras कारणों से ही हुआ है । प्राचीन हिन्दुओं का अधिकतर समय धर्म of Baudhayana, Apastamba, Katyayana and Manava" कर्म में व्यतीत होता था। अतएव यह अस्वाभाविक नहीं है कि में ग्रन्थ की भूमिका में वैदिक संस्कृति में गणित के महत्व को अन्य विषयों का ज्ञान उसी के सहायतार्थ बढ़ा और उसी के दिखलाया है।"5 The Vedangas, then important group अन्तर्गत रखा गया। यह दिखाने के लिए पर्याप्त प्रमाण हैं कि of literature often referred to as the appendages of the Vedas, constitute an important source in the समय पाकर सभी विज्ञान अपने मूल उद्देश्य का अतिक्रमण कर गये और उनका स्वतन्त्र रूप से विकास हुआ। इसमें सन्देह नहीं history of science in ancient India. This is evident from है कि वैदिक काल के उत्तरार्ध में एक नवीन धारा बह such subjects as phonetics (shiksha), ritual (kalpa), निकली।" grammar (Vyakarana) etymology (nirukta), metrics (chhanda) and astronomy (Jyotisha). These branches छांदोग्य उपनिषद् में भी सनत्कुमार-नारद संवाद में नक्षत्र of study arose within the vedic schools themselves विद्या और राशि विद्या का उल्लेख आया है।' कौटिल्य के as a necessary condition for mastering the Vedas. अर्थशास्त्र में भी लिपि और संख्यान को महत्व दिया गया है। उन्होंने यहीं आगे लिखा है, "The Shudbasutras are of जगद्गुरु स्वामी भारती कृष्णतीर्थ जी ने, “Vedic special importance because these deal specifically Mathematics" में वैदिक संस्कृति में गणित महत्व भावना को with rules for the measurements and construction of निम्नलिखित शब्दों में प्रस्तुत किया है, The modern scientist the various sacrificial fires and altars, and conseq. has his own theory and art (technique) for produc- uently involve geometrical propositions and problems. १ देखिये, डा० बिभूतिभूषणदत्त एवं डा० अवधेश नारायण सिंह, हिन्द गणितशास्त्र का इतिहास, भाग १, लखनऊ, १६५६, १० २-३ । वेदांग ज्योतिष में उल्लेख है, "जिस प्रकार मयूरों की शिखाएँ एव नागों की मणियाँ हैं,, ठीक इसी प्रकार वेदांगशास्त्रों में, गणित का स्थान सबसे ऊँचा है।" (श्लोक ४ २ छांदोग्य उपनिषद, ७.१, २, ४ । ३ अर्थशास्त्र, आर० शाम शास्त्री द्वारा संपादित, १.५, २ । ४ ' Vedic Mathematics," Motilal Banarasidas, Delhi, 1982, p. 14. ५ Indian National Science Academy, New Delhi: 1983, Intro, p. 1. ६ वही, पृष्ठ १ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना ५१ relating to rectilinear figures, their combinations का संख्या, व्यास और परिधि; लोक, अन्तर्लोक, ज्योतिर्लोक and transformations, squaring the circle and circling स्वर्ग और नरक के रहने वाले सभी के श्रोणिबद्ध भवनों, सभा the square as well as arithmetical and algebraic भवनों एवं गुम्बदाकार मन्दिरों के प्रमाण तथा अन्य विविध sbiutions of problems arising out of such measure- प्रमाण गणित की सहायता से ही जाने जाते हैं। वहाँ पर प्राणियों ments and constructions." के संस्थान, उनकी आयु और आठ गुण इत्यादि, यात्रा आदि बौद्ध साहित्य में भी अंकगणित (गणना, संख्यान) को तथा संहिता आदि से सम्बन्धित विषय सभी गणित पर निर्भर महत्वपूर्ण एवं श्रेष्ठ कला के रूप में मान्यता प्राप्त है। इसके हैं। अधिक कहने से क्या प्रयोजन? सचराचर त्रैलोक्य में जो कुछ सिवाय तीन प्रकार के गणित का उल्लेख प्राचीन बौद्ध साहित्य भी बस्तु है उसका अस्तित्व गणित के बिना सम्भव नहीं हो सकता। में 'मिलता है जहाँ मुद्रा गणित, गणना नगणित, तथा संख्यान कृतार्थ, पूज्य और जगत के स्वामी तीर्थंकरों की शिष्यगणित को दीर्घनिकाय (१, पृ. ५१), विनय पिटक (४, पृ. ७), प्रशिष्यात्मक प्रसिद्ध गुरु परम्परा से आये हुए संख्यानरूपी समुद्र में दिव्यावदान एवं मिलिन्द पञ्हो' में वर्णित किया गया है। से-समुद्र से रत्न की भाँति, पाषाण से कांचन की। जन साहित्य की आधारशिला गणित ही है। स्थानांग सूत्र शुक्ति से मुक्ताफल की भाँति-कुछ सार निकालकर मैं गणित७४८ में व्यवहृत गणित का रूप निम्न प्रकार है : सार संग्रह ग्रन्थ को अपनी मति-शक्ति के अनुसार कहता हूँ, जो लघु होते हुए भी अनल्पार्थक है।" "परिकम बवहारो रज्जु रासी कलासवन्ने य। आवत्तावति वग्गो घनो त तह वग्गवग्गो विकप्पो य॥" इसी प्रकार अन्तगडदसाओ, कल्पसूत्र, समवायांग सूत्रादि गशित की प्रशंसा करते हुए जगविख्यात गणितज्ञ ग्रन्थों में लेखा, रूप और गणना का उल्लेख मिलता है। महावीराचार्य ने, गणितसार संग्रह के प्रारम्भ में, अध्याय १, जो कुछ हो, गणित को जैन साहित्य में विशेष स्थान मिलने श्लोक ९-१६ में निम्न प्रकार लिखा है : का कारण उनका अलौकिक गणित से गुंथा हुआ कर्म संबंधी "लौकिक, वैदिक, तथा सामयिक जो जो व्यापार हैं उन साहित्य है जिसमें गणित के बिना गति असंभव है । इन ग्रन्थों में सब में गणित का उपयोग होता है। कामशास्त्र अर्थशास्त्र मुख्यतः षट्खण्डागम, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासारादि गन्धर्वशास्त्र, नाट्यशास्त्र, पाकशास्त्र, आयुर्वेद, वास्तुविद्या, आदि ग्रन्थ तथा उनकी धवला, जीवतत्वप्रदीपिका एवं सम्यक्ज्ञान में; छद, अलंकार, काव्य, तर्क, व्याकरण इत्यादि में; तथा कलाओं चंद्रिका टीकाएँ हैं। कर्म का लेखा उतना सरल नहीं जितना के समस्त गुणों में गणित अत्यन्त उपयोगी है। सूर्य आदि ग्रहों ज्योतिष्कों का गति लेखा। ज्योतिष्कों के गति लेखे में सूर्य प्रज्ञप्ति की गति ज्ञात करने में, ग्रहण में, ग्रहों की युति में, प्रश्न में, चन्द्रमा प्रभृति ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में गणित का महत्व के परिलेख में, सर्वत्र गणित अंगीकृत है । द्वीपों, समुद्रों और पर्वतों दृष्टव्य है । ४. जैन संस्कृति में लौकिक एवं लोकोत्तर गणित का विभिन्न आम्नायों में विकास लौकिक गणित को दो रूपों में विभाजित किया जा सकता नहीं था कि लौकिक गणित जो उस काल तक (भगवान् वर्द्धमान है । एक तो वह जो शुद्ध सूत्रों को आविष्कृत करता चलता है, महावीर काल तक)इतनी विकसित हो चुकी थी कि उसका प्रयोग दूसरा वह जो शुद्ध सूत्रों का प्रयोग विभिन्न प्रकार की विद्याओं लोकोत्तर समस्त प्रकरणों में हो सके । तथ्य यह था कि कर्म या कलाओं करता है और उनसे प्राप्त परिणामों से प्रयोगात्मक सिद्धान्त के निरूपण हेतु जो लोक की संरचना गणितीय रूप में अवलोकन की तुलना करता है। इस संबंध में आचार्य अकलंक जैन तीर्थ में विकसित हुई थी वह अपने आप में एक गणितीय की तत्वार्थ सूत्र को टीका दृष्टव्य है। आधार था । जहाँ श्वेताम्बर आम्नाय में गणित ज्योतिष सिद्धान्त लोकोत्तर गणित को प्रयुक्त गणित के रूप में माना जा को निरूपित करने में विशेष टीकाएँ उपलब्ध होती हैं वहाँ सकता है । किन्तु जिस समय लोकोत्तर प्रकरणों को जैन साहित्य दिगम्बर आम्नाय में गणित कर्म सिद्धान्त को निरूपित करने में में गणित द्वारा निरूपित किया गया उस समय यह आवश्यक विशेष टीकाएँ उपलब्ध होती हैं। जहाँ श्वेताम्बर आम्नाय में १ विनयपिटक, ओल्डनबर्ग, सं०, भाग ४, पृ०७; मज्झिमनिकाय, भाग १, पृ० ८५; चुल्ल निद्देश पृ० १६६ । २ सं०ई० बी० कॉवेल तथा आर० ए० नील, कैम्ब्रिज, १८८६, पृ० ३, २६ और ८८. ३ अनु. राइस डेविड्स, ऑक्सफार्ड, १८६०, पृ० ११ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ गणितानुयोग : प्रस्तावना गणित-ज्योतिष संबंधी टीकाओं में ध्रव राशि के उपयोग द्वारा (१) षट् विशिका (संभवतः बीजगणित ग्रन्थ, या टीका विषय को सुलभ बनाया गया वहां दिगम्बर आम्नाय में गणित माधवचंद विद्य द्वारा) कर्म संबंधी टीकाओं में अनेक प्रकार की राशियों की संदृष्टियों (२) ज्योतिषा पटल (संभवतः ग्रह नक्षत्रादि गणित संबंधी) द्वारा विषय को सुलभ बनाया गया। यह तथ्य प्रमुखता को लेकर (३) क्षेत्रगणित बतलाया जा रहा है । वास्तव में माधवचंद त्रैविच की त्रिलोकसार (४) छत्तीस पूर्वा उत्तर प्रतिसह टीका में भी गणित-ज्योतिष को सुलभ बनाया गया है । इसी अनुपम जैन ने गणितसार संग्रह से सम्बन्धिन ३४ पाण्डुलि-. प्रकार उनकी अन्य टीका में गणित-कर्म को भी सुलभ बनाया पियों का विवरण दिया है। गणितसार संग्रह में विकसित गया है। गणित स्रोत के विषय में स्वयं महावीराचार्य का कथन पुनः दिगम्बर आम्नाय में जगत्प्रसिद्ध महावीराचार्य का लौकिक उल्लेखनीय है : मैं तीर्थ को उत्पन्न करने वाले कृतार्थ और गणित ग्रन्थ गणितसार संग्रह, ईसा की नवीं सदी की उन्नत जगदीश्वरों से पूजित (तीर्थंकरों) की शिष्य प्रशिष्यात्मक प्रसिद्ध गणित का परिचायक है जिसमें निम्नलिखित विषय प्रतिपादित गुरुपरम्परा से. आये हुए संख्या ज्ञान महासागर से उसका कुछ हैं : संज्ञा अधिकार (क्षेत्र परिभाषा, काल परिभाषा, धान्य परि- सार एकत्रित कर, उसी तरह, जैसे कि समुद्र से रत्न, पाषाणमय भाषा, सुवर्ण परिभाषा, रजत परिभाषा, लोह परिभाषा, परिकर्म चट्टान से स्वर्ण और शुक्त से मुक्ताफल प्राप्त करते हैं; अल्प होते नामावलि, शून्य तथा धनात्मक एवं ऋणात्मक राशि सम्बन्धी हुए भी अनल्प अर्थ को धारण करने वाले सार संग्रह नामक नियम, संख्या संज्ञा, स्थान नामावलि, गणक गुणनिरूपण); गणित ग्रन्थ को अपनी बुद्धि की शक्ति के अनुसार प्रकाशित 'परिकर्म व्यवहार (प्रत्युत्पन्न, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घन- करता हूँ। स्पष्ट है कि इसमें लोकोत्तर गणित का कुछ सार एकभूल, संकलित, व्युत्कलित); कलासवर्ण व्यवहार (भिन्न त्रित किया गया है। यह भी स्पष्ट है कि इसमें परिकर्म व्यवहार, प्रत्युत्पन्न, भिन्न भागहार, भिन्न संबंधी वर्ग, वर्गमूल, धन, घनमूल, कलासवर्ण व्यवहार, पैराशिक व्यवहार, क्षेत्र गणित व्यवहार, भिन्न संकलित, भिन्न व्युत्कलित, कलासवर्ण, षड्जाति, भागजाति, और छाया व्यवहार, लोकोत्तर विकसित गणित से सार रूप प्रभाग और भागाभाग जाति, भागानुबन्ध जाति, भागापवाह जाति, लिया गया होगा। भाग-मातृ जाति); प्रकीर्णक व्यवहार (भाग और शेष जाति, मूल इस प्रकार इस ग्रन्थ में जैन आचार्यों द्वारा प्रायः १००० वर्षों जाति, शेषमूल जाति, द्विरन शेषमूल जाति, अंशमूल जाति, भाग में विकसित किये गये लोकोत्तर गणित का कुछ स्वरूप प्राप्त है । नवीं संवर्ग जाति, ऊनाधिक अंशवर्ग जाति, मूल मिश्र जाति, भिन्न सदी में हुए दिगम्बर आम्नाय में वीरसेनाचार्य द्वारा किसी गणिता दृश्य जाति), त्रैराशिक व्यवहार (अनुक्रम पैराशिक, व्यस्त त्रैरा- ग्रन्थ "सिद्ध-भू-पद्धति" की टीका लिखी जाना प्रमाणिाल होता है। शिक, व्यस्त पंचराशिक, सप्त राशिक, नवराशिक, भाण्ड प्रति स्पष्ट होता है कि धवला टीकाकार ने लोकोत्तर गणित ग्रंथ भाण्ड, क्रय विक्रय); मिश्रक व्यवहार (संक्रमण और विषम सक्र- "सिद्ध-भू-पद्धति" को सुलभ बनाने हेतु टीका की रचना की मण, पंचराशिक विधि, वृद्धि विधान, प्रक्षेपक कुट्टीकार, वल्लिका होगी। यह ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है, न ही उसकी टीका । अंत. कुट्टोकार, विषम कुट्टीकार, सकल कुट्टीकार , सुवर्ण कुट्टीकार, साहित्य का बृहद इतिहास, भाग ५ में निम्नलिखित अन्य जैन विचित्र कुट्टीकार, श्रेढोबद्ध संकलित); क्षेत्रगणित व्यवहार (व्यव- आचार्यों द्वारा निर्मित गणित ग्रन्थों का परिचय दिया है : हारिक गणित, सूक्ष्म गणित, जन्य व्यवहार, पैशाचिक व्यवहार); विक्रम संवत् १३७२-१३८० में रचित मणित सार कौमुदी खात व्यवहार (सूक्ष्म गणित, चिति गणित, कचिका व्यवहार,); (प्राकृत) के रचियता ठाकुर फेरू हैं। इसमें भास्कराचार्य की और छाया व्यवहार। "लीलावती" एव महावीराचार्य के गणित सार संग्रह का उपयोग यह ग्रन्थ सम्पूर्ण गणित ग्रन्थ है जिसका प्रचार संभवतः हुआ है । तथापि नवीन लोकभाषा शब्दः एवं कुछ नवीय मूल्यवान दक्षिण भारत में रहा । महावीराचार्य द्वारा संभवतः निम्नलिखित प्रकरण भी हैं । इसमें वर्णित यंत्रों पर शोध होना आवश्यक है । चार कृतियां और रचित मानी जाती हैं । परन्तु यह विषय विक्रम संवत् १२६१ के लगभग पल्लीवाल अस्तपाल द्वारा विवादास्पद है। पाटीगणित की रचना की गयी। १. देखिये महावीराचार्य, द्वारा अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल हस्तिनापुर, १९८५, पृ० २. २. देखिये, वही, सारिणी पृ० ८ के समक्ष । ३. महावीराचार्य, गणितसार संग्रह, शोलापुर, १९६३, पृ० ३. ४. लेखक पं० अंबालाल प्रे० शाह, वाराणसी, १९६६, पृ० १६०-१६६. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना ५३ यल्लाचार्य द्वारा गणित संग्रह ग्रन्थ रचने का उल्लेख है। देशान्तर, कालान्तर, भुजान्तर, चरान्तर एवं उदयान्तर नेमिचंद्र द्वारा क्षेत्र गणित ग्रन्थ रचने का उल्लेख जिनरत्न सम्बन्धी सिद्धान्त है। कोश (पृ० ६८) में मिलता है। (४) पर्वो में विषुवानयन जो बाद में संक्रांति और क्रान्ति में लोकांगच्छीय मुनि तेजसिंह द्वारा "इष्टांक पंचविंशतिका" विकसित हुआ। २६ पद्य वाला रचित हुआ है। संवत्सर संबंधी प्रक्रिया जिसका विकास बाद में सौरमास, ___ गणित सूत्र ग्रन्थ रचना किन्हीं दिगम्बर आचार्य द्वारा हुई चंद्रमास, सावनमास एवं नक्षत्रमास रूपों में हुआ। गणित द्वारा नक्षत्र लग्न आनयन प्रक्रिया का विकसित रूप उपकेश गच्छीय सिद्ध सूरि ने श्रीधर कृत "गणित सार" त्रिंशांश, नवमांश, द्वादशांश एवं होरादि हैं। ग्रन्थ पर टीका रची है। (७) काल गणना प्रक्रिया का विकसित रूप अंश, कला, विकला विक्रम संवत् १३३० में श्रीपति कृत 'गणित तिलक' पर आदि क्षेत्रांश संबन्धी गणना एवं घटी पलादि संबंधी काल सिंह तिलक सूरि श्वेताम्बर आचार्य की गणित तिलक-वृत्ति उप- गणना है। लब्ध है। (८) ऋतु शेष प्रक्रिया जिसका विकसित रूप क्षयशेष, अधि___ लौकिक गणित ज्योतिष पर जैनाचार्यों के अनेक ग्रन्थों का मास, अधिशेष आदि हैं। उल्लेख है जो अभी तक हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित नहीं हो (९) सूर्य, चंद्र मण्डलों के व्यास, परिधि आदि का विकसित सके हैं । इस प्रकार उनके द्वारा हुआ विकसित गणित ज्योतिष गणित ग्रह गणित है। का इतिहास अंधकार में है । लोकोत्तर गणित-ज्योतिष का विकास (१०) छाया द्वारा समय निरूपण का विकसित रूप इष्ट काल, सूर्य प्रज्ञप्ति, चंद्र प्रज्ञप्ति, ज्योतिष करण्डक प्रभृति ग्रन्थों की भयात, भभोग, एवं सर्वभोग आदि हैं। टीकाओं आदि से ज्ञात होता है । उनमें ध्रुव राशि तथा पंच- (११) राहु और केतु की व्यवस्था का विकसित रूप सूर्य एवं वर्षीय युग पद्धति का उपयोग उत्तरकालीन युग पद्धति को विक- चंद्र ग्रहण सम्बन्धी सिद्धान्त । सित करने में कहाँ तक हुआ यह गहन शोध का विषय है। (१२) चन्द्र प्रज्ञप्ति में प्रतिपादित छाया पर से धुज्या, कुज्या तिलोय पण्णत्ति एवं त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों में भी गणित- के रूप का सिद्धान्त ज्योतिष में विकसित रूप आया है। ज्योतिष का लोकोत्तर गणित रूप में विकास इसी प्रकार हुआ ग्रह गणित के जिन बीज सूत्रों का उल्लेख इस ग्रन्थ में है दृष्टिगत होता है । गणना विकास के सम्बन्ध में नेमिचंद्र शास्त्री वे ग्रीक ज्योतिष से पूर्व के हैं। ने विभिन्न ग्रन्थों एवं लेखों में निम्नलिखित सार रूप तथ्य प्रस्तुत (१३) ग्रह बीथियों का विकसित रूप प्रचलित भचक्र माना जा किये हैं जिन पर शोध लेख आवश्यक हैं : सकता है। (१) प्रति दिन सूर्य के भ्रमण मार्ग निरूपण-सम्बन्धी सिद्धान्त। (१४) पंचवर्षात्मक युग में व्यतिपात आनयन प्रक्रिया जो ज्योतिष इसका विकसित रूप दैनिक अहोरात्र वृत्त की कल्पना है। करण्डक; पृ० २००-२०५ में उपलब्ध है । यहाँ भी (२) दिनमान के विकास की प्रणाली जो वेदांग ज्योतिष में नहीं ध्र व राशि का उपयोग है। मिलती है। (१५) षट्खंडागम की धवला टीका में १५ मुहूतों की नामावलि (३) अयन-सम्बन्धी प्रक्रिया का विकास, जिसका विकसित रूप पूर्वाचार्यों द्वारा कृत है। १. श्रीधराचार्य के संबन्ध में नेमिचंद्र शास्त्री (भारतीय ज्योतिष, दिल्ली, १९७०, पृ० १३२) ने उल्लेख किया है कि ये प्रारम्भ में शैव थे किन्तु बाद में जैनधर्मानुयायी हो गये थे। इनके ग्रन्थों में पाटी गणित, बीजगणित, गणित ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। ये लगभग ईसा की आठवीं सदी में हुए। इनके विशद कार्य के मूल्यांकन के लिए दत्त एवं सिंह का ग्रन्थ-हिंडू गणित का इतिहास पठनीय है। २. (१) भारतीय ज्योतिष, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९७० (२) केवलज्ञान प्रश्न चूडामणि, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, १९६६ (३) शोध लेख : भारतीय ज्योतिष का पोषक जैन ज्योतिष, वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ, सागर, वीर नि० सं० २४७६, पृ० ४६९-४८४ (४) शोध लेख : जैन ज्योतिष साहित्य, आचार्य भिक्षु स्मृति ग्रंथ, कलकत्ता, १९६१ पृ. २१०-२२१ (५) शोध लेख : ग्रीक पूर्व जैन ज्योतिष विचारधारा, ब्र० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, आरा, १९५४, पृ० ४६२-४६६. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग प्रस्तावना (१६) कुलोपकुल का विभाजन पूर्णमासी को होने वाले नक्षत्रों के आधार पर है । यह स्वतंत्र विषय है । (१७) जैनाचार्यों ने गणित ज्योतिष संबंधी विषय का प्रतिपादन करने के लिए पाटी गणित, बीजगणित, रेखागणित, त्रिकोणमिति, गोलीय रेखागणित, चानीय एवं वक्रीय त्रिकोणमिति प्रतिभा मतिगोप्रति गणित, पंचांग निर्माण गणित, जन्म पत्र निर्माण गणित ग्रहयुति, उद यास्त सम्बन्धी गणित एवं यंत्रादि साधन सम्बन्धी गणित का प्रतिपादन किया है । ५४ दा धवल टेक्ट्स, आई. जे. एच. एस., कलकत्ता, भाग ११, क्र. २, १९७६, पृ. ८५-१११ (ट) एल. सी जैन, डाइवर्जेण्ट सीक्वेन्सेज लोकेटिंग ट्रॉस्फा इनाइट, सेट्स इन त्रिलोकसार, आई. जे. एच. एस., कलकत्ता, भाग १२, क्र. १, १६७७, पृ. ५७-७५ (ठ) एल. सी. जैन, सिस्टम थ्योरी इन जैन स्कूल आफ मेथामेटिक्स, आई. जे. एच. एस., कलकत्ता, भाग १४, क्र. १, १६७६, पृ. ३१-६५ (ड) एल. सी. जैन, आर्यभट प्रथम एण्ड यतिवृषभ-ए स्टडी इन कल्प एण्ड मेरू, आई. जे. एच. एस. भाग १२, क्र. २, १६७७, पृ. १३५-१४६ उपरोक्त शोधलेखों में जैनाचार्यों द्वारा बिभिन्न आम्नायों में विकसित लोकोत्तर गणित के स्वरूप को दिखलाते हुए उसकी तुलना अन्यत्र विकसित गणित से की गयी है। लोकोत्तर गणित सम्बन्धी अनेक शोध लेख निकल चुके हैं। इनमें जैनाचार्यों द्वारा विकसित विभिन्न प्रकार के गणित सूत्रों आदि का विशेष विवरण है। ये लेख शोध हेतु दृष्टव्य हैं : कुछ मुख्य लेख निम्नलिखित हैं : प्रारम्भ में विभूतिभूषण दत्त ने अनेक श्वेताम्बर ग्रन्थों से लोकोत्तर गणित के विकास का मूल्यांकन करने का प्रयत्न किया था तथा हिन्दू गणित के इतिहास में उनके योगदान को अंकित किया था । यह प्रयास १६२९ के लगभग प्रारम्भ हुआ था । उन्होंने लिखा है, "जैनियों द्वारा गणितीय संस्कृति को बड़ा महत्व दिया जाता है । उनके धार्मिक साहित्य को साधारणतः चार समूहों में विभाजित किया गया है। इसे अनुयोग कहते हैं जिसका अर्थ है ' ( जैन धर्म के ) सिद्धान्त का प्रकाशन' । इनमें से (क) लक्ष्मीचन्द्र जैन आगमों में गणितीय सामग्री तथा उसका मूयांकन, तुलसी प्रज्ञा खण्ड ६, अंक 8, १६८० पृ० ३५-६६. (ख) लक्ष्मीचन्द्र जैन, तिलोय पम्पत्ति का गणित शोलापुर, एक गणितानुयोग है, अथवा गणित के सिद्धान्तका प्रकाशन' 1 । इसकी जैन धर्म में आवश्यकता होती है। जैन पंडित की प्रमुख, उपलब्धियों में से एक यह है कि उसे संख्यान (अर्थात् संख्याओं का विज्ञान अथवा अंकगणित' ) तथा ज्योतिष का ज्ञान हो । "1 इस शोधलेख में मुख्यतः निम्नलिखित ग्रन्थों की ओर संकेत था : (१८) चंद्र स्पष्टीकरण एवं मुख्यतः विशोत्तरी का कथन । जैन ज्योतिष- साहित्य के अब तक प्रायः पांच सौ ग्रन्थों का पता लग चुका है जिनका विवरण वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ में दिया गया है । (देखिये शोध लेख वही ) । इनमें प्राय: ५६ ग्रन्थ गणितः ज्योतिष सम्बन्धी हैं । इनके अतिरिक्त जैनेतर ग्रन्थों पर प्रायः २४ टीकाएं जैनाचार्यों ने की हैं। १६५८, पृ० १ १०५. (ग) लक्ष्मीचन्द्र जैन, लोकोत्तर गणित विज्ञान के शोध पथ भिक्षुस्मृति ग्रन्थ, कलकत्ता, १९६१, पृ० २२२-२३१. (प) लक्ष्मीचन्द्र जैन, आन या जैन स्कूल ऑफ मेथमेटिक्स, छोटेलाल स्मृति ग्रन्थ, कलकत्ता, १९६७, पृ० २६६-२९२. (च) एल. सी. जैन, सेट थ्योरी इन जैन स्कूल आफ मेथामेटिक्स, आई. जे. एच. एस. कलकत्ता, भाग 5 क्र. १, १६७३, पृ० १-२७ (छ) एल. सी जैन, काइनेमेटिक्स ऑफ दी सन एण्ड दी मून इन तिलोय पणसि, तुलसीप्रज्ञा, लाइन, फ० १९७५, पृ० ६०-६७ (ज) एल. सी. जैन, दी काइनेमेटिक मोशन आफ एस्ट्रल रीयल एण्ड काउण्टर वाडीज इन त्रिलोकसार, आई० जे. एच. एस., कलकत्ता, भाग ११, क्र. १,१६७५, पृ० ५८-७४ (झ) एल. सी. जैन, आन सरटेन मेथामेटिकल टाक्सि ऑफ १ बुले. केल. मेथ० सो०, २७.२, १६२६, पृ० ११५-१४५ (१) भगवती सूत्र अभयदेव सूरि टीका (१० १०५०), उत्तराध्ययन सूत्र, अनु० हरमाँ जैकोबी, आक्सफर्ड, १८६५; (२) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति शान्तिचन्द्र राणि टीका (६० १५९५) भूमिका (३) कल्पसूत्र, भद्रबाहु ( ल० ३५० ई० पू० ) अनु० ह० जैकोबी (४) अंतगडदसाओ एवं अनुत्तरोववाइयदसाओ, अनु० बर्नेट, १६०७. इस समय तक, कर्म सिद्धान्त वाले ग्रन्थ : कसाय पाहुड एवं षट्खण्डागम, जयधवला. तथा धबला टीकाओं सहित प्रकाशित नहीं Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्ताबना हो पाये थे । जब १९३५ में दत्त और सिंह ने "हिन्दू गणित का धिगमभाष्य, सूर्यप्रज्ञप्ति, अनुयोगद्वार सूत्र, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, इतिहास" अंग्रेजी में प्रकाशित करवाया, वे पूर्व खोजों में कोई त्रिलोकसार इत्यादि सम्मिलित हैं। इनमें अब धवला को जोड़ा अतिरिक्त सामग्री नहीं जोड़ पाये; तथापि इन लेखकों को प्रतीत हुआ कि जैन आम्नाय का गणित-क्षेत्र मुख्यतः स्थानांग सूत्र वीरसेनाचार्य ने धवला में निम्नलिखित गणितीय अथवा अग(श्लोक ७४७) में प्राप्त एक प्रलोक में उल्लिखित है, जिस पर णितीय ग्रन्थों से उद्धरण दिये हैं और कुछ उद्धरण ऐसे हैं जिन खोज की जानी चाहिये : ग्रन्थों के कर्ताओं के नाम अज्ञात हैं :'परिकम्मं ववहारो रज्जु रासी कलासवण्णे य । कषाय प्राभूत, काल सूत्र, तत्त्वार्थभाष्य, वर्गणा सूत्र, वेदना जावत्तावति वग्गो घणो त तह वग्गवग्गो विकप्पो त ॥' क्षेत्र विधान, सत्कर्म प्राभृत, सम्मति सूत्र, अप्पाबहुग सुत्त, यहाँ परिकर्म (मूलभूत गणित की प्रक्रियाएं), व्यवहार, रज्जु खुद्दाबंधसुत्त, जीवट्ठाण, तत्वार्थसूत्र, तिलोयपण्णत्ति, परि(विश्व-लोक माप की इकाई), राशि (सेट), कला सवर्ण (भिन्न यम्म, पिंडिया, वियाहपण्णत्ति, वेयणा सुत्त, संतकम्म पाहुड, सम्बन्धी कलन), यावत् तावत् (सरल समीकरणादि), वर्ग (वर्ग संतसुत खेतणिओगद्दार, गाहासुत्त (कसाय पाहुड), जीव समीकरणादि), घन (धनसमीकरणादि), वर्गवर्ग (द्विवर्ग समी समास, निर्यासु बंधसुत, दव्वाणि ओगद्दार, पंचत्थि पाहुड, करणादि), एवं विकल्प (धाराएँ, क्रम, संचय आदि) अनेक संताणि ओगद्दार, उच्चारण, काल विहाण, कालाणि ओगपारिभाषिक शब्दों से है जिनमें से कुछ गणितसारसंग्रह में आये द्दार, निक्षेपाचार्य प्ररूपित गाथा, प्रदेश बंध सूत्र, प्रदेश हैं । दत्त ने इसी प्रकार के अन्य पारिभाषिक गणितीय शब्द विरचित अर्थाधिकार, बंधसूत्र, महाकर्म प्रकृति प्राभृत, 'एकत्रित किये थे जो मुख्यतः श्वेताम्बर आम्नाय के ग्रन्थों में से महाबंध, काल निर्देश सूत्र, चूणिसूत्र, खण्डग्रन्थ, भावविधान, उपलब्ध किये गये। मूलतंत्र, योनि प्राभृत, सिद्धि विनिश्चय, बाहिर वग्गणा, जब सिंह ने धवला टीकाओं (भाग ३ और ४)1 का अध्य वेयणा सुत्त, पोत्थिय, कर्मप्रवाद, सूत्र विशेष, इत्यादि । यन किया तो उन्होंने प्रथम तो यह सिद्ध करने का प्रयास किया नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने त्रिलोकसार में वृहद्धारा परिकि किसी भी ग्रन्थ में जो गणितीय सामग्री पाई जाती है वह कर्म का उल्लेख किया है जो अब अप्राप्य है। इसी प्रकार तिलोय प्रायः ३०० से ४०० वर्ष पूर्व की संरचित होती होगी। उनकी पण्णत्ति में ग्रहों का गमन विवरण का उस समय कालवश नष्ट और आगे अभ्युक्ति है, “यद्यपि अनेक जैन गणितज्ञों के नाम होना बताया गया है। हो सकता है कि पंचवर्षीय युग पद्धति जैसी ही वह अनेक वर्षीय युग पद्धति में बांधा गया हो, जोआर्यभट ज्ञात हैं उनके ग्रन्थ विलुप्त हो गये हैं । सर्वाधिक पूर्व के भद्रबाहु काल से प्रकट होती देखी गयी है। हैं जिनका देहावसान २७८ई० पू० हुआ। कहा जाता है कि उन्होंने सूर्य प्रज्ञप्ति भाग (१) में मुनि घासीलाल ने पृ० ८६ में दो ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ रचे : (i) सूर्यप्रज्ञप्ति टोका (ii) भद्रबाहू कुछ गाथाओं के विलुप्त होने से अर्थ निकालने में कठिनाई का संहिता । इसका उल्लेख सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका में मलयगिरि अनुभव किया है। यहाँ क्या एपिसाइकिल का सिद्धान्त शोधन (लग० ११५०) द्वारा भट्टोत्पल (६६६ ई०) द्वारा हुआ है। अन्य हेतु १२४ तथा १४४ संख्याओं का किस तरह उपयोग हुआ है जैन ज्योतिषी का नाम सिद्धसेन है जिसका उल्लेख वराहमिहिर वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। (५०५ ई०) तथा भट्टोत्पल ने किया है । अनेक ग्रन्थों में गणितीय । ५. वैदिक संस्कृति में भूगोल, ज्योतिष एवं उल्लेख अर्धमागधी तथा प्राकृत में मिलते हैं । धवला में ऐसे अनेक उद्धरण पाये गये हैं। इन उद्धरणों पर उपयुक्त स्थान पर विचार खगोल आदि संबंधी गणित किया जायेगा, किन्तु यहाँ स्मरण रखना चाहिये कि जैन विद्वानों भारत में मुख्यतः दो संस्कृतियों की चर्चा आती है - वैदिक द्वारा लिखित ऐसे गणितीय ग्रन्थों का निस्सन्देह रूप से अस्तित्व संस्कृति और श्रमण संस्कृति । वैदिक संस्कृति का दर्पण वेद एवं था जो अब विलुप्त हो गये हैं । क्षेत्र समास तथा करण भावना उपनिषद हैं जिनमें हमें देखना है कि गणित का क्या स्वरूप था। नामक ग्रन्थ जैन विद्वानों द्वारा रचित हुए किन्तु अब वे अप्राप्य यह साहित्य कब रचा गया, इस पर मत पूर्वीय एवं पाश्चात्य हैं । जैन गणित सम्बन्धी हमारा ज्ञान जो कि अधूरा है, कुछ ऐसे विद्वानों में अलग-अलग हैं। प्राचीनतम उपलब्ध वेद, जो सिंह अगणितीय ग्रन्थों से प्राप्त हुआ है जिनमें उमास्वाति का तत्त्वा- के अनुसार ३००० ई० पू० अथवा संभवतः इससे अधिक प्राचीन १ मेथमेटिक्स ऑफ धवला, षड् iv, १६४२, पृ० -xxiv २. देखिये वही पृ० iii ३ श्री सूर्यप्रज्ञप्ति, प्रथम भाग, अहमदाबाद, १९८१ ४ हिन्दू गणितशास्त्र का इतिहास, भाग १, लखनऊ, १६५६, पृ० १ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ गणितानुयोग : प्रस्तावना है विशेषकर देवताओं के गुणगान, वंदना मात्र हैं, उच्च सभ्यता के द्योतक हैं। वेदों के बाद का ब्राह्मण साहित्य ( लगभग २०००१००० ई० पू० ?) अंशतः धार्मिक और अंशतः दार्शनिक है। इन्हीं ग्रन्थों में ही अंकगणित, क्षेत्रगणित और बीजगणित आदि तथा गणित ज्योतिष का प्रारम्भ मिलता है । इसके पश्चात् बौद्ध एवं जैन संस्कृतियों का साहित्य स्पष्ट रूप से अहिंसा क्रांति का रूप लेकर एवं नयी चेतना का स्वरूप लेकर प्रकाश में आया । इनमें जैन संस्कृति में गणित ने अत्यन्त सुन्दर एवं गहरी भूमिका अदा की तथा सृष्टि रचना, ज्योतिष एवं कर्म सिद्धान्त की जड़ों को सबल, पुष्ट एवं गहरा बनाने की श्रेयस्कर भूमिका निभाई। डा० ए० के० बाग ने अपने ग्रन्थ में गणित विकास के व्यवस्थित अध्ययन हेतु उसे प्राचीन भारत के वैदिक युग (लगभग १५०० ई० पू० से २०० ई० पू० ) तथा पश्च-वैदिक युग (लगभन २०० ई० पू० से ४०० ई० प० की अनुवर्ती अवस्थाओं में विभाजित किया है। उन्होंने वैदिक युग में गणितीय ज्ञान के उद्गम के सम्बन्ध में व्यक्त किया है- " About two thousand years before the Christian era, the Indus Valley was invaded by an Aryan race. Following this, an about 1500 B. C., a crude civilisation known as the Vedic civilisation began to emerge in India." वैदिक सभ्यता का विकास चार प्रक्रमों में हुआ ( १ ) संहिता (ऋक्, साम, यजुर् एवं अथवन्) (२) ब्राह्मण (आध्यात्मिक एवं धार्मिक ग्रन्थ) (३) आरण्यक (जो ब्राह्मण ग्रन्थों के आधिभौति कीय परिशिष्ट रूप में थे), और उपनिषद ( दार्शनिक ग्रन्थ) तथा (४) वेदांगों का अंतिम प्रक्रम । वैदिक युग ' के प्रथम तीन प्रक्रमों में जो साहित्य है उसमें गणितीय विचार संबंधी सूचना अत्यल्प है । इस प्रकार डा० बाग के अनुसार वेदांग साहित्य जो सम्पूर्ण सूत्र साहित्य के रूप में जाना जाता है। यहाँ सूत्र शब्द गम्भीरता से लिया गया है। यह वेदांग साहित्य ६ प्रकार का है : (१) शिक्षा (२) कल्प ( यज्ञादिनियम) (३) व्याकरण (४) निरुक्त (५) छंद (६) ज्योतिष । इस सूत्र साहित्य के आलोचनात्मक गणितीय ज्ञान से यह मानना पड़ सकता है कि इससे भी पूर्व युग में गणितीय ग्रन्थ रहे होंगे जो विलुप्त हो गये । सात शुल्बकार आपस्तम्ब, कात्यायन, मानव, मैत्रायन, वाराह एवं हिरण्यकेशी, विख्यात हैं, जिन्होंने वैदिक बलि वेदियों की रचना संबंधी विभिन्न प्रश्नों के हल दिये हैं । यह रेखागणित का स्वरूप था । सबसे पूर्व के बौद्धायन शुल्बकार ने पिथेगोरस के साध्य का प्रतिज्ञापन किया है । यहाँ २ का मान दशमलव के पाँच अंकों तक निकाला गया है । इनके पश्चात् जैन जाति का उदय ई० पू० ५००-३०० के लगभग होता है । वेदांग ज्योतिष के गणित के संबंध में तीन बार संशोधन (recensions) जो आर्च ज्योतिष, याजुष ज्योतिष और अथर्वज्योतिष कहलाए और उनका गणित वैदिक गणित के उद्गम रूप में माना जा सकता है । आधुनिक विद्वान साधारणत: वेदांग ज्योतिष को २०० ई० पू० का मानते हैं। वैदिक भारत में संख्याओं की गिनती इस पद्धति के आधार पर मानी जाती है। यजुर्वेद संहिता, तैतरीय संहिता, मंत्रायणी संहिता आदि में दश, शत, सहस्र, अयुत (१०४), नियुत (१०५) आदि संख्याएँ आई हैं। एकादश सप्तविंशति, आदि संयुक्त शब्दों द्वारा संख्याओं को प्ररूपित किया जाता रहा । * इन्हें शुल्ब सूत्र तथा बाद के ग्रन्थों में भी समझाया जाता रहा । आपस्तम्ब शुल्ब में ६७२ को अष्टविंशत्यूनम् सहस्र अर्थात् १००० - २८ रूप में व्यक्त किया गया । 1 1 तरीय संहिता (७.२.१२-१३ ) में विषम सम संख्याओं का विभाजन प्रकट हुआ। भिन्नों का उल्लेख अर्द्ध पाद, सड और कला के रूप में क्रमश: 2, 4, 3, 17, के रूप में वैदिक साहित्य में मिलता है । शुल्बों में भी है, 10, आदि भिन्नात्मक संख्याएं मिलती हैं ।" इस प्रकार शुल्बकारों को चार परिकर्म एवं भिन्न का प्रारंभिक रूप ज्ञात था । शत्पथ ब्राह्मण, तैत्तरीय ब्राह्मण, छांदोग्य उपनिषद, वेदांग ज्योतिष आदि में संख्याओं को दसाह पद्धति पर आधारित शब्दों के द्वारा व्यक्त किया है। । वैदिक हिन्दुओं की प्रमुख धार्मिक प्रथा बलि थी जिसके लिए उपयुक्त समय निकालने हेतु ज्योतिष विकसित होना माना जाता है । वैदिक वेदियाँ मुख्यतः आनीय, गार्हपत्य, दक्षिनाम्नि महावेदी, सौत्रमणि, प्राग्वंश, श्येनसित, वक्रपक्ष, व्यस्तपुच्छ, श्येन, कंक, खलज प्रोग आदि रूपों में विकसित की गई थीं। तदनुसार उनकी रचना आदि की पूर्ण व्यवस्था शुल्बकार किया करते थे । १ Mathematics in Ancient and Medieval India, चौखम्भा ओरियण्टकिया, वाराणसी, कोर्स- १६, पृ० ३ आदि । २ विशेष अध्ययन हेतु देखिए, Sen, S. N and Bag, A. K., “ The Shulbasutras" INSA, New Delhi, 1983, ३ देखिये, बाग, ए. के., वही, पृ० ७ ४ यजुर्वेद संहिता (१७२) संसरीय संहिता (४४० ११४) आदि आपस्तम्ब शुल्ब (२७) ५ दत्त एवं सिंह, हिन्दू गणितशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० १८५, मोतीलाल बनारसीदास, लाहोर, १६३५, (अंग्र ेजी) ६ दत्त, वि०, वा साइंस ऑफ शुल्ब, कलकत्ता वि० वि०, पृ० २१२, १९३२. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना ५७ = ३६४२४६३०+म इनके लिये यंत्र, माप की इकाइयां तथा ईंटों की आवश्यकता होती थी। इनमें शंकु, वंशदंड, रज्जु इत्यादि यंत्ररूप में तथा अंगुल, पद, अरत्नी, व्यायाम आदि इकाइयाँ होती थीं। विभिन्न या, ९७२ य = ६७२+म, वेदियों के आकार वर्ग, वृत्त, अर्द्ध वृत्त, समलम्ब चतुर्भुज, आयत, पक्षी, (वर्गाकार शरीरादि रूपों में) त्रिभुज, विषम कोण चतुर्भुज, या, य = +/ १+ म कछुवा आदि रूपों वाला होता था। छाया द्वारा कृत्तिका तारे की दिशा निकाली जाती थी। इस प्रकार शुल्बसूत्रों में पिथेगोरस इसी प्रकार अनिर्धारित समीकरण भी वेदियों की रचना में का साध्य, सम आकृतियों के गुण, वृत्तवर्गणा, समकोण त्रिभुज प्रयुक्त होते थे यथा क+ख = ग. जहाँ तीनों, अथवा दो की रचना और क्षेत्रफलों की गणना होती थीं। अज्ञात हैं। सूचि इकाइयाँ उनमें निम्न प्रकार थी : साथ ही अक+बख+सग+दघ=प । और क+ ख+ ग + घ=फ। १ अंगुल = २४ अणु = ३४ तिल ; यहाँ क, ख, ग और घ अज्ञात हैं । -१ क्षुद्रपद = १० अगुल; १ पद = १५ अंगुल, १ प्रक्रम =२ जहाँ तक वेदांग ज्योतिष का गणित है, उसकी प्रणाली और पद = ३० अंगुल ; जैन प्रणाली में विशेष भेद हैं जिन्हें पूर्व में बतलाया जा चुका १ अरत्नी = २ प्रदेश = २४ अंगुल ; १ पुरुष = १ व्याम = है । ऋग्वेद ज्योतिष के संग्रहकर्ता लगध नाम ऋषि माने जाते ५ अरत्नी = १२० अंगुल; हैं जिन्होंने किसी स्वतन्त्र ज्योतिषग्रन्थ के आधार पर यज्ञ की १ व्यायाम = ४ अरत्नी= ६६ अंगुल ; १ प्रथा =१३ सुविधा हेतु उसे संग्रहीत किया जो काबुल के आस पास रचित अंगुल ; १ बाहु = ३६ अंगुल, हुआ माना जाता है । इसमें ३६ कारिकाएँ हैं। यजुर्वेद ज्योतिष में १ जानु = ३० या ३२ अंगुल ; १ दूण =१०८ अंगुल; ४६ कारिकाएँ हैं और अथर्व ज्योतिष में १६२ श्लोक हैं । १ अक्ष = १०४ अंगुल ; नेमिचन्द्र शास्त्री लिखते हैं१ युग =८८ अंगुल ; १ शम्या = ३६ अंगुल ; १ अंगुल = "आलोचनात्मक दृष्टि से वेदांग ज्योतिष में प्रतिपादित इंच (अनुमानतः) ज्योतिष मान्यताओं को देखने से ज्ञात होगा कि वे इतनी अविकइनसे क्षेत्रफल और घनफल भी निकाले जाते थे। रचना के सित और आदि रूप में हैं जिससे उनकी समीक्षा करना दुष्कर "सिवाय रूपांतरण संबंधी नियम भी उन्हें ज्ञात थे। उन्होंने ज्या डा० जे० बर्गेस ने 'नोट्स आन हिंदू एस्ट्रानामी' नामक मितीय पारिभाषिक शब्दावली भी बनाई थी, यथा अक्ष = विकर्ण, पुस्तक में वेदांग ज्योतिष के अयन, नक्षत्र गणना, लग्नसाधन अंत=मिथच्छेदन बिंदु, भूमि = क्षेत्रफल, कर्ण = कोण, करणी = आदि विषयों की आलोचना करते हुए लिखा है कि 'ईस्वी सन् से रैखिक आकृति की भुजा या वर्गमूल, दिकरणी = वर्ग का कर्ण कुछ शताब्दीपूर्व प्रचलित उक्त विषयों के सिद्धान्त स्थूल हैं । तथा /२ इत्यादि । इनसे बीजगणित समीकरण बने। आकाश-निरीक्षण की प्रणाली का आविष्कार इस समय तक हुआ शुल्ब सूत्र युग के पश्चात् १६वीं सदी तक इन सूत्रों का प्रतीत नहीं होता है; लेकिन इस कथन के साथ इतना स्मरण कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता और वे निरुपयुक्त रहे । उनमें और रखना होगा कि वेदांग-ज्योतिष की रचना यज्ञ-यागादि के वर्ग समीकरणों का रूप कुछ इस प्रकार था : महावेदी के क्षेत्र समय-विधान के लिए ही हुई थी, ज्योतिष-तत्त्वों के प्रतिपादन के को म एकक बढ़ाने के लिए अज्ञात भुजा क्ष मानने पर य का लिए नहीं।" पुनः उन्होंने लिखा है-3 मान निम्नलिखित होता था। यहाँ आधार ३०, भजा २४, "ऋक् ज्योतिष के रचना काल तक ग्रह और राशियों का ऊँचाई ३६ एकक वाली महावेदी हेतु, जिसका आकार समद्वि स्पष्ट व्यवहार नहीं होता था। इस ग्रन्थ में नक्षत्रोदय रूप लग्न बाहु समलम्ब चतुर्भुज था। का उल्लेख अवश्य है, पर उसका फल आजकल के समान नहीं बताया गया है। यदि गणित ज्योतिष की दृष्टि से ऋक् ज्योतिष को परखा जाय तो निराश ही होना पड़ेगा, क्योंकि उसमें गणित ज्योतिष की कोई भी महत्वपूर्ण बात नहीं है ।। १. देखिये, बाग, ए. के., वही, पृ० ११४. २ भारतीय ज्योतिष, पृ० ७९-८० ३ वही, पृ० ८८। ३६ य x (२४ य+३० य) २ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ गणितानुयोग : प्रस्तावना ३२०२२८ ३२२३०३१ १५३१६३१११ चन्द्रमास ५३४३१५७८ सिर्फ यही कहा जा सकेगा कि यज्ञ-यागादि के समयज्ञान के लिए १३७०८ नक्षत्र, पर्व, अयन आदि का विधान बताया गया है।" चन्द्रोच्चभगण ४८८२२८५७५८९ इसी प्रकार यजुर्वेदज्योतिष प्रायः ऋक् ज्योतिष से मिलता जुलता है। विषय के प्रतिपादन में कोई विशेष भेद नहीं है। १०६०८५ २६८८६ चंद्रपातभगण २३२१६५. अथर्वज्योतिष को ज्योतिष का स्वतन्त्र ग्रन्थ कहा जा सकता है १६३१११ जिसमें फलित ज्योतिष प्रधान है। सौर मास ५१८४०००० ३४२०० कल्प, सूत्र, निरक्त और प्याकरण में ज्योतिष चर्चा मिलती है। बौद्धायन सूत्र में “मीनमेषयोर्मेषवृषभयोर्वसन्तः” अधिमास १५६१५७८.. १०५० लिखा है जिससे ज्ञात होता है इन सूत्र ग्रन्थों के समय में राशियों का प्रचार भारत में था। निरुक्त में दिनरात्रि, पक्ष, अयन का वर्णन है तथा युग पद्धति की मीमांसा मिलती है। याज्ञवल्क्य ३५२५० स्मृति में क्रान्तिवृत्त के १२ भागों के कथन से मेषादि १२ राशियों का प्रमाण सिद्ध होता है। इसी प्रकार महाभारत में ज्योतिष तिथि १०५७५०० शास्त्र की अनेक चर्चाएँ मिलती हैं। ई० १०० के लगभग जो स्वतन्त्र ज्योतिष ग्रन्थ लिखे गये 'उनकी चर्चा वराहमिहिर ने पंच सिद्धान्तिका में की है। ये ५ तिथिक्षय २५ १६५४७७ सिद्धान्त क्रमशः पितामह, वसिष्ठ, रोमक, पोलिश और सूर्य है। थीबो की पंच सिद्धान्तिका भूमिका के अनुसार पितामह सिद्धान्त थीबों के अनुसार उपरोक्त ई० ४०० के लगभग रचित हुए। सूर्य प्रज्ञप्ति के समान प्राचीन है। इसे ब्रह्मगुप्त और भास्कर ने पोलिश सिद्धान्त का ग्रह गणित भी अंकों द्वारा स्थूला रीति से आधार माना है । इससे वसिष्ठ सिद्धान्त संशोधित एवं परिवर्धित निकाल गया है। अलबरूनी के अनुसार यूनानी सिद्धान्तों के रूप में है जिसमें केवल १२ श्लोक हैं। वर्तमान लघु वसिष्ठ अनुसार इसकी रचना हुई। किन्तु कर्ब ने इसका खंडन किया सिद्धान्त ६४ श्लोक वाला है। इसका गणित परिमार्जित और है। सूर्य सिद्धान्त में युगादि से अहण लाकर मध्यम ग्रह सिद्ध विकसित है। किये गये हैं। आमे संस्कार देकर स्पष्टग्रह विधि प्रतिपादित की लाटदेव का रोमक सिद्धान्त ग्रीक-सिद्धान्तों के आधार पर है। ग्रहगमन परिधि के अनुसार सिद्ध किये गये हैं जिससे ग्रहों बनाया गया बतलाते हैं जिसमें यवनपुर के मध्याह्नकालीन सिद्ध की योजनात्मक और कलात्मक गतियाँ प्रमाणित हो जाती हैं। किये गये अहर्गण है। थीबो नहीं मानते कि मुलतः इसे धीषेण इस गन्थ में मध्यम, स्पष्ट, त्रिप्रश्न, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, परलेख, ने रचा। इसका गणित स्थूल है और वह सम्भवतः ई० १००- ग्रहयुति, नक्षत्रग्रहयुति, उदयअस्त, अंगोन्नति, पात. अधिकार तथा २०० का हो सकता है। फिर भी इससे युग पद्धति के निर्माण भूगोल अध्याय दिये गये हैं। की शुरुआत कही जा सकती है। सैद्धान्तिक विवरण इसमें पंच सिद्धान्तों के सिवाय नारद संहिता, गर्ग संहिता आदि निम्नलिखित रूप में है 1 आर्या में चन्द्र साधन विधि और ग्रन्थ भी हैं। पाराशर द्वारा भी फलित ज्योतिष का अशुद्ध है। वृहत्पाराशर होराशास्त्र प्रसिद्ध है। महा युगान्त ४३२०००० वर्षों का; युगान्त (२८५० वर्षों का) ६. बौद्ध संस्कृति में भूगोल, ज्योतिष एवं नक्षत्र भ्रम १५८२१८५६०० १०४३८०३ रविभ्रम ४३२०००० २८५० खगोलादि सम्बन्धी गणित सावन दिवस १५७७८६५६४० १०४०९५३ ज्ञात हुआ है कि वेदांग ज्योतिष के स्तर पर गणित-ज्योतिष चन्द्रभगण ५७७५१५७८ ३८१०० सम्बन्धी बौद्ध ग्रन्थ शार्दू रकरण-अवदान है। गणित-ज्योतिष का ऐसा विवरण चीनी बौद्ध ग्रन्थों में है जिनमें इस ग्रन्थ के दो १ देखिए-वही, पृ० १०० । २ विशेष विवरण हेतु देखिए, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, भारतीय ज्योतिष (अनु० शि० झारखण्डी) लखनऊ, १९७५ । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना It is clear that these numerals were never used for actual counting or for calculations. They are pure fantasies which, like Indian towers, were constructed in stages to dazzling heights." इस प्रकार बौद्ध ग्रन्थों में बड़ी संख्याओं का गणनादि में उपयोग नहीं हुआ। उपरोक्त अभ्युक्ति बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तर (प्रथम शताब्दी ई० पू०), से गणितज्ञ अर्जुन और राजकुमार गौतम (बोधिसत्व) के संवाद में अवतरित अनेक संकेतनास्थानों तक जाने वाली संख्याओं के सम्बन्ध में है। किन्तु वाएडेन के अनुसार वही शब्द दूसरी संख्याओं को भी दिखलाता है। कोटि गुणोत्तर संज्ञाओं के पश्चात् बिन्दु, अब्बुद, निरब्बुद, अहह, अबब, अतत, सोगंधिक, उप्पल, कुमुद, पुण्डरीक, पदुम, कथान, महाकथान, और असंख्येय बनती हैं किन्तु उनका दर्शनादि में कहीं कोई उपयोग न होने से वे शुद्ध कल्पनाएँ रूप, वाएर्डेन की दृष्टि अनुवाद भी सम्मिलित हैं। इसके पश्चात् के ग्रन्थ तिब्बती तान्त्रिक ग्रन्थ हैं जिनके नाम कालचक्र-तन्त्र (ल०१०वीं सदी) और उसकी टीका विमलप्रभा हैं | बौद्ध मतानुसार लोकवर्णन आ०- बसुबन्धु के अभिधर्मकोश में मिलता है। इसमें इकाइयाँ योजन और कल्प के विभाजन रूप हैं। क्षेत्रमाप इस ग्रन्थ में निम्न प्रकार हैं। ७ परमाणु = १ अणु; ७-अणु =१ लौहरज; ७ सौहरज = १ जलरज; ७ जलरज =१ शशरज; ७ शशरज =१ मेषरज; ४७ मेषरज =१ गोरज; ७ गोरज = १ छिद्ररज; छिद्ररज = १ लिक्षा; ७ लिक्षा= १ यव; ७ यव =१ अंगुलीपर्व; २४ अंगुलीपर्व= १ हस्त; ४४ हस्त =१ धनुष; ५००अनुष =१ कोश; ८.कोश =१. योजन कालमाप निम्न प्रकार है:2 १२० नक्षण = १ तत्क्षण; ६० तत्क्षण =१ लव; ३० लव=१ मुहूर्त; ६० मुहूर्त = १ अहोरात्रि; ३० अहोरात्रि = १ मास; १२ मास+ऊन रात्र=१ वर्ष या संवत्सर । इसके अनुसार लोक धातु अनन्त हैं (वही, पृ० ४१३)। यहाँ कल्प का भी विचार किया गया है। (१) संवतंकल्प (२) विवर्त कस्म (३) अन्तर कल्प । अस्सी अन्तःकल्पों का एक महाकल्प होता है। इनका विवरण थोड़ा जैन उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालादि से तुलनीय है। ___जहाँ तक संकेतना दाशमिक के प्रक्रमों का विवरण है इसके सम्बन्ध में बी० एल० वान्डर वाएडेन का मत उल्लेखनीय है, ""In this manner Buddha continues through 23 stages. According to an arithmetic book, koti is a hundred times one hundred thousand (sata sata sahassa), so that the largest number mentioned by Buddha is 107. 1046 = 1053. But in most arithmetios, these same words ayuta and niyuta have other values, viz. 104 and 105. But Buddha has not yet reached the end : This is only the first series, he says. Beyond this there are 8 other series. बौद्धों ने गणित ज्योतिष पर अधिक रुचि नहीं दिखलाई, जिसका कारण बोसादि ने निम्न प्रकार बतलाया है। "The Buddhists did not evince much interest in astronomy due probably to the degeneration in their time of astronomy into astrology, and to the difficulty of distinguishing between the two. We find in their literature the term nakshatra-pathaka (a reader of stars) which refers both to an astronomer and an astrologer. Buddha referred to astronomy and astrology as low forms of arts (tiracchanavijja) and advised Buddhist monks to refrain from the study of astronomy. This opinion, however, was modified later on and the bhikshus dwelling in the woods. were advised to learn the elements of astronomy." उपरोक्त विवरण केवल भारत में प्राप्य बौद्ध साहित्य पर आधारित है । बौद्ध संस्कृति में भारत में जो गणित के अंशदान हुए हों ऐसा भारत में उपलब्ध साहित्य में दृष्टिगत नहीं होता ।। भारत से बाहर अन्य देशों में बौद्ध संस्कृति में क्या विकास हुआ यह कठिन तो है किन्तु ज्ञात किया जा सकता है। इस संबन्ध में १ अभिधर्मकोश, लेखक आ. वसुबन्धु, अनु. आचार्य नरेन्द्रदेव, प्र. हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद; सन् १९५८ । २ वही, ३.८८-८६ ३ वही, ३,८६-१०१ । ४ Science Awakening, हालेण्ड, (अं. अनु.) १९४५, पृ० ५२ । ६ देखिए, Bose, D. M., Sen, S.N, and Subbarayappa, A Concise History of Science in India.. New Delhi, 1971.P.60, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० गणितानुयोग प्रस्तावना नीधम एवं लिंग का ग्रन्थ दृष्टव्य है । इसमें मुख्यतः चीन से सम्बन्धित विवरण प्राप्य है। शेष आसपास के देशों में जहाँ बौद्ध भिक्षु भारत से पहुँचे, संभव है वहाँ के देशवासियों ने बाद में उत्तरोत्तर विकास किया हो । ७. जैन संस्कृति में भूगोल, ज्योतिष एवं खगोलादि संबन्धी गणित जैन आगम का सिंहावलोकन : डा० हीरालाल जैन ने पारम्परिक एवं आगमिक ज्ञान का वर्द्धमान महावीर से पूर्व के अस्तित्व का अवलोकन श्रमणों की सांस्कृतिक परम्परा में किया है। परम्परा को भाषा या विचारों के शब्दों द्वारा द्रव्यश्रुत एवं भावश्रुत रूप में निरन्तर प्रचलित किया जा सकता है। अनुमानतः "कथित पूर्व" प्राचीन श्रमण परम्परा का साहित्य रहा होगा। इस परम्परा में तीर्थंकर ऋषभनाथ (वैदिक ऋषभ ?), नेमिनाथ (वैदिक अरिष्टनेमि), एवं पार्श्वनाथ विख्यात हैं। ईसा से कुछ हजार वर्ष पहले उदित बेदिलनीय मिश्र देशीय एवं चीनी सभ्यताओं में प्राप्त गणि तीय सूत्रों का प्रयोग जैन संस्कृति में विकसित कर्म सिद्धान्त एवं विश्य संरचना में तुलनीय हैं।" 3 . जैनागम के चौवह पूर्व आगम के बारहवें अंग के विभाजन रूप थे । जैनागम साहित्य बारह अंगों में रचित हुआ। इसमें से बारह अंग में पांच परिकर्म (चन्द्र प्राप्ति सूर्य प्रज्ञप्ति जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और व्याख्या प्रज्ञप्ति ) सूत्र, प्रथमानुयोग, चौदह पूर्वगत एवं पाँच चूलिकाएँ हैं। जैन वर्णमाला में ६४ अक्षर होते हैं जिनमें ३३ व्यंजन, २७ स्वर, और ४ सहायक होते है इनसे (२) १४ संचय अथवा १८४,४६ ७४, ४०,७१,७०, ५,५१,६१५ संयोगी अक्षर बनते हैं जो सम्पूर्ण श्रुत रचना करते हैं । जब इसे मध्यम पद के अक्षरों की संख्या १६,३४८, ३०७,८८८ से विभाजित किया जाता है तो जैन आगम के पदों की संख्या ११,२८३,५८,००५ प्राप्त होती है। शेष ८०१००१७५ त के उस भाग के अक्षरों की संख्या होती है जो अंगों में सम्मिलित नहीं हैं। उसे अंगबाह्य कहते हैं । इसे चौदह प्रकीर्णकों में विभाजित किया गया है । श्रुत इस प्रकार श्रुत या तो अक्षरात्मक अथवा अनक्षरात्मक होता है । अनक्षरात्मक श्रुत के असंख्यात विभाग होते हैं जो असंख्यात लोक (प्रदेश बिन्दु राशि) रूप होते हैं । 4 ३. ग० सा० सं०, भूमिका । ४. गो० सा० क० श्लोक ३१६, इत्यादि । २. बुले० ल० मेव० सो० (१९२९), उल्लिखित । ६. ग० सा० सं०, पृ० ६, ३५ ज्ञात है कि केवली भद्रबाहु (लग० ४वी सदी ई० पू०) तक आगम का ज्ञान श्रुत रूप में पारम्परिक रूप से दिया जाता रहा, सुनकर स्मृति में संरक्षित किया जाता रहा । उनके पश्चात् बारह वर्ष का लगातार दुर्भिक्ष पड़ने के पश्चात् जैन संस्कृति साहित्य को श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आम्नाय में पनपने का अवसर मिला । कतिपय गणितीय शब्द विभूतिभूषण दत्त ने जैन आम्नाय के कुछ गणितीय शब्दों को एकत्रित कर उन्हें समझाने का प्रयत्न किया था। उस समय तक जैन ग्रन्थों में गुथी हुई गणित की यथासंभव भावना तक पहुँच न हो सकी थी क्योंकि अनेक ग्रन्थ प्रकाश में नहीं आए थे। अब इन पारिभाषिक शब्दों को पुनः अवलोकितकर उनके उपयोग पर एक नयी दृष्टि संभव हो सकेगी । परिकर्म (प्रा० परिकम्म) : कहा जाता है कि कुन्दकुन्दाचार्य ( ई० ३री सदी : ?) ने प्राकृत भाषा में षट्खण्डागम के प्रथम तीन भागों पर परिकर्म नाम की बारह हजार श्लोकों में कुन्दकुन्दपुर में रचना की थी । वीरसेनाचार्य द्वारा भी परिकर्म ग्रन्थ के उल्लेख कई प्रसंगों में धवला टीका में आए हैं । परिकम्म का अर्थ विशेष प्रकार का गणित भी होता है, अथवा किसी प्रकार की गणना (संख्यान) भी होता है। (परि= चारों ओर, कम्म कर्म अथवा प्रक्रिया ) । महावीराचार्य ने परिकर्म व्यवहार शब्द का उपयोग एक गणित अध्याय के लिये किया है। उस समय परिकम्मा का अर्थ आठ प्रकार की गणितीय प्रक्रियाओं के लिए होता था - प्रत्युत्पन्न (गुणन), भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, सकलित, तथा स्कलित इस प्रकार हिन्दू गणित की मूलभूत प्रक्रियाएँ वर्ग एवं घन, परिकर्म में सम्मिलित हैं । चूमि में परिकर्म का अर्थ, गणित की वे मूलभूत क्रियाएँ हैं जो विज्ञान के शेष और वास्त ?. Needham, J., and Ling, W., Science and Civilization in China, vol. 3, Cambridge, 1953. २. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, भोपाल, १२६२, पृ० ५१. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना ६१ विक अध्यायों के अध्ययन हेतु विद्यार्थी को कुशल बना सकें। रासि, रिण रासिस्स आदि वर्णित है । ध्रुव राशि के गणितीय उसमें परिकर्म में सोलह प्रक्रियाओं का मूलभूत रूप में समावेश उपयोग सूर्य प्रज्ञप्ति प्रभृति ग्रन्थों में तथा धवला टीका में भी हुए किया गया है। ब्रह्मगुप्त ने इन्हें बीस प्रक्रियाओं में दिया है, जो हैं। हो सकता है, युग पद्धतिका सिद्धान्त ज्योतिष में विकास सभी उपयुक्त आठ मूलभूत प्रक्रियाओं के अन्तर्गत आ जाती ध्रुवराशि के आधार पर किया गया हो। षट्खंडागम में भी हैं । इस प्रकार परिकर्म का अर्थ का प्रयोग करणानुयोग एवं निम्नलिखित शब्दों से उक्त राशियाँ ध्वनित होती हैं। मिच्छाद्रव्यानुयोग में होता था। बारहवें अंग दृष्टिवाद के पाँच विभागों इट्ठी, अणंत, कोडि पुधत्तं, अभव सिद्धिया, सव्व लोगे, अन्तोमें से परिकर्म भी एक है। पंडित टोडरमल ने परिकर्माष्टक मुहत्तं, वग्गणा, फड्डयम्, समयपबद्ध, सागरोवमाणि आदि । इस गणित का पूर्ण विवरण गोम्मटसार जोवकाण्ड के पूर्व परिचय में प्रकार उदगम सामग्री में विश्वसंरचना तथा दर्शन विषयक राशियों दिया है। इनमें शून्य से संबन्धित परिकर्माष्टक की प्रक्रियाएँ का गहरा अध्ययन आवश्यक है। भी हैं। जैन आगम में अस्तित्व वाली राशियाँ हैं-जीव राशि, पुद्गल ___द्रव्य के गुण विशेष का जो परिणमन किया जाता है इसे राशि आदि । ऐसी राशियों के प्रमाण को रचना राशियों द्वारा भी परिकर्म कहा गया है । जिस ग्रन्थ में गणित विषयक करण समझाया गया है जो संख्या प्रमाण एवं उपमाप्रमाण रूप होता सूत्र उपलब्ध होते हैं उसे भी परिकर्म कहते हैं। चन्द्रग्रहण आदि है। संख्याप्रमाण संख्येय, असंख्येय और अनन्त रूप है। उपमा के नियत काल से पूर्व ही जान लेने को परिकर्म विषयक कालो- प्रमाण पल्य, सागर समय-राशियों रूप, तथा सूच्यंगुल, प्रतरांगुल पक्रम कहते हैं। इसी प्रकार परिकर्म क्षेत्रोपक्रम आदि को भी घनांगुल, जगणी , जगप्रतर और धन लोक प्रदेश-राशियों रूप परिभाषित किया जाता है। 'है। इन दो प्रकार की रचना-राशियों के बीच का सम्बन्ध यह राशि (प्रा० रासि) दिया गया है। (log: पल्य) = (loga अंगुल) गणित इतिहास में इस शब्द पर ध्यान नहीं दिया गया। राशि सिद्धान्त को आज का सेट थ्योरी कह सकते हैं जो विश्व सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय राशियों का जघन्य और उत्कृष्ट प्रमाणों का है जिस रूप में अखिल लोक की रचना गणित द्वारा भर में गणित का आधारभूत विषय है। राशि सिद्धान्त का प्रदर्शित की गयी है उदाहरणार्थमहत्व इसलिए और भी अधिक बढ़ा है कि उसका उप नाम जघन्य उत्कृष्ट योग आधुनिक विज्ञान एवं तकनीक, यांत्रिकी एवं कला आदि में द्रव्यप्रमाण एक पुद्गल परमाणु हुआ है। जार्ज कैण्टर (१८४५-१६१८ ई०) आधुनिक राशि समस्त द्रव्य राशि राशि सिद्धान्त के मौलिक जन्मदाता माने जाते हैं। क्षेत्रप्रमाण एक आकाश-प्रदेश अनंतानंत आकाश षट्खंडागम में राशि के पर्यायवाची शब्द समूह, ओघ, राशि प्रदेश राशि पुज. वृन्द, सम्पात, समुदाय, पिण्ड, अवशेष, अभिन्न, तथा कालप्रमाण सामान्य हैं । धवला में इस शब्द का अत्यधिक उपयोग हुआ है। एक काल-समय अनन्त काल-समय छांदोग्य उपनिषद में एक विज्ञान राशि विद्या भी है। राशि शब्द राशि राशि के उपयोग के बाद पैराशिक एवं पंचराशिक आदि रूप में गणित भावप्रमाण अपर्याप्त सूक्ष्म वनस्पति केवलज्ञान अविभागी आया। की ज्ञान पर्याय की अवि- प्रतिच्छेद राशि । अभिधान राजेन्द्र कोष में राशि का प्रयोग समूह, ओघ, पुज, भागी प्रतिच्छेद राशि । सामान्य वस्तुओं का संग्रह, वर्ग, शालि, धान्य राशि, जीवाजीव इसी प्रकार परावर्तन राशियां, रिक्त राशि, गुणस्थान राशि ,संख्यान राशि, आदि रूप में बतलाया गया है । तिलोय पण्णत्ति मार्गणास्थानों में जीव राशियाँ, चल, दोलनीय आदि ,परिमित, में भी, दोपडि राशियम, सलाय रासिदो, उपण्ण रासिम्, असं- अपरिमित आदि, गुणों के अविभागी प्रतिच्छेद रूप आदि प्रकार खेज्ज रासिदो, तेउक्काइय रासि, ध्रुव रासि, जोदिसिय जीव- की राशियाँ वर्णित हैं। उपरोक्त क्षेत्र और काल राशियों के १. जे० सि० को० भाग २, पृ० २२२-२२४ २. जै० ल०, भाग २, पृ० ६७४-६७५ ३. षट्०, १, २, १, १, पु० ३, पृ० ६ ४. ति० ५०, १.१३१, तथा १.१३२ ५. धवला, १२, २ और ३ । और भी देखिये, धवला (५/प्र. २८) अतीत काल समय राशि को मिथ्यादृष्टि जीव राशि द्वारा रिक्त किया बतलाते हैं। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग प्रस्तावना अंतर्गत अनेक राशियाँ गर्भित हैं। इसी प्रकार द्रव्य और भाव विषयक राशियाँ उपरोक्त के बीच स्थित हैं । ६२ राजू (प्रा० रज्जु) रज्जु का अर्थ " रस्सी" है जिसके द्वारा लोक-माप बनता है । ७ राजु की जगश्रेणी होती है । जगक्षणी प्रदेश - राशि भी होती है । इसका सम्बन्ध द्वीप समुद्रों में स्थित चन्द्र बिम्बों के समस्त परिवारों से है जो मध्य लोकान्त में फैले हुए हैं । कॅप्टर के अनुसार मित्रदेश के प्राचीन यंत्री हरपिदोनन्ती रज्जु द्वारा पिथेगोरस के साध्य (कर्ण) 2 = (भुजा) 2 + (लम्ब) 2 को प्रयोग में लाते थे जिसमें ५ : ४ : ३ का अनुपात रहता था ताकि समकोण बन सके । जैन तत्व प्रकाश में अमोलक ऋषि द्वारा राजू के उपमा मान का उल्लेख है जिसमें यह कल्पना है कि वह एक ऐसी दूरी है जिसे एक लोहे का गोला जो ३८,१२,७६,७०,००० मन का हो और ६ माह, ६ दिन, ६ प्रहर, और ६ घटी में तय करता हो । किन्तु गुरुत्वाकर्य का कौन सा नियम इसमें लगाया है यह स्पष्ट नहीं है । प्रोफेसर जी० आर० जैन ने रज्जु का मान आइंस्टाइन द्वारा दत्त न्यास से १४५ ( १० ) 21 मील निकाला था ।" यह दूरी इतनी है जिसे कोई देव ६ माह में २०५७१५२ योजन प्रतिक्षण चलते हुए तय करता है। (डेर जैनिस्मस - ले० वाम ग्लास नेप्पिन) । यह लगभग १३०८ (१०) 22 मील प्राप्त होती है । तिलोय पण्णत्ति में राजू का प्रमाण सिद्धान्ततः प्रदेश और समय राशियों के आधार पर सूत्र रूप दिया है (पल्योपम के अर्द्धच्छेद) (असंख्येय) ] जगश्रेणी = ७ राजू = [घनांगुल] यहाँ धन का अर्थ चांगुल में समाविष्ट प्रदेश (परमाणु) संख्या है। इसी प्रकार पल्योपम का अर्थ पल्योपम काल समय राशि है। विवाह पण्णत्त ( पृ० १८२, ३१२, पृ० २१, ४१६) में योजनों के पदों में लोक के आयाम दिये गये हैं । किन्तु संख्या पुनः असंख्येय के कारण उलझ जाती है। इस प्रकार जैन साहित्य १. गणितानुयोग ६ आदि ३. ति० प०, श्लो० ० ११३१ ५. षट्०, पृ० ५५, ६३१, ६५५, ७७३ इत्यादि । ७. वही श्लोक २, ११२, ६. धवला, पृ० ३, पु० ३६ इत्यादि । में रख्तु के उपयोग का अभिप्राय शुल्य ग्रंथों से बिलकुल भित्र हैं, रज्जु का मान जैन साहित्य में मूलभूत रूप से प्रदेश राशि - परक है । सर्व ज्योतिष जीव राशि का मान तिलोय पण्णत्ति (भाग-२ पृ० ७६४-७६७) में निकाला गया है। यह गणना द्वारा प्राप्त किया मान है जो (भाग २ लोक १० ११ ) में दिया गया है। इसमें ( जगश्रेणी ) 2 - [ ६५५३६ प्रतरांगुल ] सूत्र रूप में तिलोयपणती रज्जु के अर्द्धछेदों का उपयोग कर द्वीप समुद्रों के समस्त ज्योतिष देवराशि प्राप्त की गई है। इसके द्वारा भी रज्जु का मान समझा जा सकता है। कलासवर्ण (प्रा० कला सवण्ण ) महावीराचार्य के गणितसार संग्रह के अनुसार इसका अर्थ भिन्न (Fraction) होता है । उसमें भिन्नों से सम्बन्धित गुणन, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, भिन्नों की श्रेढिका क एवं प्रह्रासन, तथा छः प्रकार के भिन्न और उनका विस्तृत विवरण सम्मिलित है ।" भिन्नों पर विभिन्न प्रश्न भी हल किये गये हैं । षट्खण्डागम में अगुरुलघु गुण के लिए संख्येय, असंख्येय, और अनन्त भाग वृद्धि हानि का वर्णन मिलता है। तिलोब पण्णत्ती में भिन्नों का लेखन दृष्टिगत है। यहां अंश को हर के ऊपर लिखा जाता है । उसे अवहार रूप में निरूपित करते हैं । उदाहरणार्थ- एक वडे तीन या को लिखते हैं तथा "एक कला विहिता" कहा गया है। सूर्यप्रप्ति में चूर्णिया भाग का भी उपयोग किया गया है, भाग किया गया है। साथ ही कला शब्द का भी उपयोग है । कला का अर्थ भाग होता है और सवण्ण का अर्थ समान रंग वाला होता है। अर्थात् भाग का धवला टीकाओं में भिन्नों को राशि सैद्धान्तिक रूप से अभिप्रेत किया गया है। किसी राशि का अन्य राशि द्वारा विभाजन स्पष्ट करने में भाजित पण्डित विरलित एवं अपहृत विधियों का उपयोग किया गया है। अवधेश नारायण सिंह ने इन्हीं ग्रन्थों २. Cosmology : Old and New, p. 105. ४. ग० सा० सं०, पृ० ३६–८० ६. ति० प० श्लोक १, ११८. ८. गणितानुयोग पृ० २६३, २६४, अन्यत्र भी १०. वही, पु० ३, पृ० २७ - ४६ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कुछ ऐसे सूत्र भिन्नों के सम्बन्ध प्राप्त किये जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । इन्हें संभवतः किन्हीं पूर्व के जैन प्राकृत गणित ग्रन्थों से उद्धत किया गया होगा। इसी प्रकार सूर्यप्रज्ञप्ति प्रभूति ग्रन्थों की टीकाओं में प्राकृत में जो अनेक गणित सूत्र उल्लिखित किये गये हैं उन पर खोज, शोध होना आवश्यक है । यावत् तावत् (प्रा० जावं सार्थ) इस शब्द का उपयोग उन सीमाओं को निर्देशित करता है। जिन तक प्रमाणों को विस्तृत करना होता है । अथवा सरल समीकरण की रचना करनी होती है। इसका अर्थ "जहाँ तक " वहाँ तक " भी होता है । यह शब्द प्राकृत ग्रन्थों में बहुधा प्रयुक्त हुआ है। अभयदेव सूरि ने इसका उपयोग गुणन तथा ढि संकलन में निर्दिष्ट किया है। इसे 'व्यवहार' भी कह सकते हैं । इस सम्बन्ध में उनके द्वारा 11 प्राकृत संख्याओं का योग S निम्न nnx+x) 2x रूप में दिया है S= जहाँ x कोई विवक्षित (पच्छा, वाय या पावत् तावत्) राशि है। इस प्रकार विभूति वाञ्छा भूषण दत्त का अनुमान है कि यावत् तावत् शब्द कूट स्थिति (Rule of false position) से सम्बन्धित है जिसे प्रत्येक देश में रैखिक समीकरणों को साधने हेतु बीजगणित के विकास को प्राथमिक स्थिति में उपयोग में लाया गया होगा' बशाली हस्तलिपि में भी दोनों शब्दों का उपयोग कूट स्थिति नियम हेतु हुआ है । " यह भी सुझाव प्राप्त हुआ है कि इसका सम्बन्ध अनिर्धृत अथवा अपरिभाषित इकाइयों की राशि से भी है । तिलोय पण्णत्ति में "उक्कस्सं संखेज्जं जावं तावं पवेत्तआ" इस अभिप्राय से आया है कि संख्या को संख्यात से उत्कृष्ट संख्यात प्राप्त होने तक गणना कर प्राप्त किया जाये जो जघन्य परीत असंख्येय से केवल एक कम होता है । योजन (प्रा० जोग) यह शब्द एक रेखिकीय माप को प्ररूपित करता है । इस माप का राशि सैद्धान्तिक आधार है क्योंकि इसका सम्बन्ध अंगुल प्रदेश राशि तथा पल्य समय राशि से भी है। यह उतना ही रहस्यपूर्ण है जितना चीनी "लो”। इसका समीपस्थ सम्बन्ध प्रमाणांगुल से है जिससे भौगोलिक, ज्योतिष तथा खगोलीय १ बुले० केल० ० सो० (१९२९), पृ० १२२ २ दत्त (१९२९), वही, (२) [भाग xxi ], पृ० किया गया है । ४ विश्व प्रहेलिका पृ० ११४ १-६० । गणितानुयोग : प्रस्तावना ६३ दूरियों का माप किया जाता है । प्रमाणांगुल सूच्यंगुल से ५०० गुणा होता है। परमाणुओं से स्कन्ध बनता है और एक योजन का आधारीय सम्बन्ध सन्नासन्न, त्रुटिरेणु, त्रसरेणु, तथा रथरेणुस्कन्धों से होता है । क्रमशः इनका सम्बन्ध बाल, लीख, जूं, जव अंगुल पाद, वितस्ति, हाथ, दण्ड और कोस से होता है । इस प्रकार १ योजन में ४ कोस अथवा ७६८०० अंगुल होते हैं । प्रमाणांगुल के आधार पर योजन का मान ४५४५.४५ मील प्राप्त होता है, और सूच्यंगुल के आधार पर उसका मान 11 मील प्राप्त होता है । जी० आर० जैन ने योजन को ४००० मील मानकर लोक की त्रिज्या निकालने का प्रयास किया है श्वेताम्बर आम्नाय के अनुसार लम्बी दूरी वाला योजन ४ क्रोश वाले साधारण योजन से १००० गुणा किया जाता है । किन्तु दिगम्बर आम्नाय के अनुसार वह ४ क्रोश वाले साधारण योजन से ५०० गुणा किया जाता है। इस प्रकार योजन मापन योजना 'चल राशि' रूप में । प्रवृत्त होती है असंख्यात योजन का एक रन्दु होता है। = १ प्रमाण योजन – ५००' आत्मयोजन = १००० उत्सेधयोजन होते हैं। भौगोलिक योजना में ५१० योजन को ४७° के समान मानते हैं । चाप १ गोलीय पृथ्वी पर छायामाप द्वारा ६६.६ मील स्थापित करते हैं । तदनुसार ५१० योजन = ४७६६६ मील होने पर १ योजन ६४ मील स्थापित होता है । यदि योजन को १६००,००० हस्त आत्मप्रणाली से लिया जाये तो वह ४५४५ ४५ मोल होता है । जब इसे प्रमाण प्रणाली में बदलते हैं तो वह मील होता है । लिश्क ने मेरु के अन्तः मण्डल को मेरु से ४६८२० योजन लेकर उसे पृथ्वी के ६६ माने है । इसका मान अनुमानित चीनी ५०००० ली होता है। यहां भारतीय और चीनी योजना प्रणाली में समानता प्रतीत होती है। सूर्य की क्रांति का एक अयन से दूसरे अयन तक ४७° रूप में ५१० योजन स्वीकार करना उचित है । यह सूर्य की वीथियों सम्बन्धी अन्तः तम एवं = देखिये- लोक प्रकाश १,१६५, जहाँ व्युत्पन्न फल प्राप्त ति० प०, भाग १, ४.३०६, Cosmology : Old and New पृ० ११७ आदि । ३ ५ Lishk S. S., Sharma,S. D., Tirthankar, 1.7-12., 1975, pp. 83-92. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ गणितानुयोग प्रस्तावना ब्राह्यतम दूरियों का अन्तर है। पृथ्वीतल को गोलीय मानने पर १° चाप का माप ६६६ मील भी माना जाता है, जबकि पृथ्वी की त्रिज्या ज्ञात हो, इस प्रकार योजन का माप लगभग ६.४ मी स्थापित करते हैं । इस प्रयास से जैन ग्रन्थों में ज्योतिष्कों की वर्णित ऊँचाई का रहस्य खुलने लगता है । इस प्रकार चित्रा पृथ्वी से सूर्य की ८०० योजन ऊँचाई का माप ७७५ प्रतीत होता है जिसे सूर्य पथ ( eclipter) की किसी समतल अथवा अवलोकनकर्ता से कोणीय दूरी माना जा सकता है । इस प्रकार चन्द्र की ऊँचाई ८८० योजनों को इन इकाइयों में ७°.७ अधिक माना जाकर, सूर्य से चन्द्र की यह उत्तरी ध्रुवीय दूरी माना जा सकता हैं । अन्य ग्रहों के सम्बन्ध में अभी भी शोध करना वाञ्छनीय है। पल्य (प्रा० पल्ल) साहित्यिक रूप से पल्य का अर्थ खात या गड्ढा होता है जिसे अनाज भरने के उपयोग में आते हैं। उसके द्वारा राशि का काल माप प्ररूपित करते हैं । पल्य तीन प्रकार के होते हैं व्यवहार, उद्धार एवं अद्धा । इनके प्रमाण, गणना और गिनती विधि से निकाले जाते हैं। व्यवहार पल्य ४.१३ X ( १० ) 40 वर्ष । इसे अविभागी समयों में बदला जा सकता है । उद्धार पल्य = ४.१३ X (१०) ४४ X जघन्य युक्त असंख्यात X १०७ वर्ष । यहाँ जघन्य युक्त असंख्यात का मान गणना विधि से प्राप्त हो जाता है । अड्डा पर ४१३ (१०) (युतं असंख्यात) वर्ष | यहाँ अज्ञात मध्यम संख्यात की अनि तता छोड़कर इन सभी को समय राशि में बदला जा सकता है । जब उपरोक्त को (१०) 14 से गुणित किया जाता हैं तो संवादी सागर का मान प्राप्त हो जाता है । श्वेताम्बर तथा दिगम्बर आम्नायों में तत्संबन्धी अन्तर का अध्ययन विश्व प्रहेलिका में उपलब्ध हैं । यह उपमा मान की राशि है जिसे रचना राशि कह सकते हैं। इस प्रकार रचित राशि के द्वारा अस्तित्व में पाई जाने वाली राशि का प्रमाण दर्शाया जाता है । आयनिका (प्रा० आवलिका) इसका अर्थ पंक्ति या कतार ( trail ) होता है। यह एक क्रमबद्ध समयों की राशि होती है । जघन्य युक्त असंख्यात २४५८ '३७७३ समयों की एक आवलिका होती है । ४४४६ आलिकाओं का एक प्राण आदि भाप बनते हैं । इस प्रकार मुहूर्त, अहोरात्र आदि तक पहुँचते हैं । इस प्रकार जैन विज्ञान में समय माप का राशि सैद्धान्तिक आधार होता है. जो पुनः क्षेत्र - माप से सम्बन्धित हो जाता है। इससे एक समय कम करने पर उत्कृष्ट संख्यात बनता है जिसे मुनि महेन्द्रकुमार द्वारा शीषं प्रहेलिका भी कहा गया है ।" काल, समय और अद्धा, ये सब एकार्थवाची नाम हैं। एक परमाणु का दूसरे परमाणु के व्यतिक्रम करने में जितना काल लगता है, उसे समय कहा जाता है। चौदह राजु आकाश प्रदेशों के अतिक्रमण मात्रकाल से जो चौदह शत्रु अतिक्रमण करने में समर्थ परमाणु है, उसके एक परमाणु अतिक्रमण करने के काल का समय है । ऐसे असंख्यात समयों की एक आवलि होती है । तत्प्रायोग्य संख्यात आवलियों से उश्वास - निश्वास निष्पन्न होता है । " अपडेय (प्रा० अनुछेद) - इसका शाब्दिक अर्थ आधा भाग होता है । आधा भाग, आधा भाग से निर्मित संख्या को किसी संख्या की अर्द्ध च्छेद संख्या कहते हैं । ज्यामितिरूप से किसी रेखा में स्थित प्रदेश बिन्दुओं की भी अर्द्धच्छेद संख्या प्राप्त की जा सकती है, यथा रज्जु के अर्द्धच्छेद । घन लोक के भी अच्छेदादि राशि का विवरण मिलता है। इसी प्रकार के अन्य पारिभाषिक शब्द मच्छेद (trisection), उपकादिच्छेद ( quadri etc. section ) इत्यादि हैं । इस प्रकार इन सभी को लागएरिद्म टू दा बेस टू, थ्री, फोर ( logarithan to base two, three, four, etc., ) कह सकते हैं। यदि x = 2" हो तो n = logg*, अथात् 2* के अर्द्धच्छेद n कहे जाते हैं अथवा 2" को २ द्वारा " बार छेदा जा सकता है । जान नेपियर (१५५०-१६१७ A.D.) और जो जे० बर्जी (१५५२-१६३२ A. D.) द्वारा इस पद्धति को आविष्कृत माना जाता है । २ ति० प० श्लोक १.११६ - १.१२८ १ लिश्क और शर्मा (१९७५), (१९७९) ३ वि० प्र० पृ० २४५-२५२ । लो० प्र० १.१६५ आदि; ति० प०, ४.३११ आदि । ४ वि० प्र० पृ० ११७, श्वेताम्बर परम्परानुसार । ६ ति० प० भाग २, पृ० ७६४-७६७ । ५ ० ० ० ४ ०२१८ ७ वही ० पृ० ५६७ ६०० । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना | ६५ इसके समस्त नियमों के लिए धवला ग्रन्थ और त्रिलोक यतिवृषभ द्वारा १६ विकल्पों द्वारा द्वीप समुद्रों के विस्तार सार' दृष्टव्य हैं। एवं क्षेत्रफल का अल्पबहुत्व विवरण दिया है ।10 किसी राशि की अद्धच्छेद राशि की भी अर्द्धच्छेद राशि वीरसेनाचार्य ने अधस्तन और उपरिम विकल्प द्वारा किसी निकाली जाये तो उसे वर्गशलाका राशि कहते हैं।' भी राशि का विकल्प विधि द्वारा विश्लेषण किया है। अधस्तन विकल्प (प्रा० वियप्प) विकल्प तीन प्रकार का है : द्विरूपवर्ग धारा, द्विरूपधन धारा, ___ इसका अर्थ गणितीय कल्पना (mathematical abstrac- तथा द्विरूप घनाघन धारा। उपरिमविकल्प भी तीन प्रकार का तथा द्विरूप घ tion) कर सकते हैं। इसे और भी व्यापक अर्थ में संचयक्रम है-गृहीत, गृहीत-गृहीत और गृहीत गुणकार । जिनमें से प्रत्येक संचय गणित भी लेते हैं जिसे भंग भी कहते हैं। टीकाकार प्रकार का पूर्व वि प्रकार को पूर्व बिकल्प में विभाजित किया गया है। यह अत्यन्त शीलांक (ल० ८६२ ई०प०) ने संचय क्रमसंचय सम्बन्धी तीन रहस्यमय विवरण है ।11 नियम बतलाये हैं। संदृष्टि (प्रा० संदिट्ठि) __ इनमें से दो संस्कृत में हैं, और एक अर्द्धमागधी में है। प्रथम इस शब्द का अर्थ प्रतीक है। इसके लिये सहनानी शब्द का नियम द्वारा विशिष्ट संख्या की वस्तुओं के पक्षांतरण की कुल भी प्रयोग हुआ है। प्रतीकों के कुछ चिह्न तिलोयपण्णत्ति, धवला संख्या निकाली जाती है। इसे "भेद-संख्या-परिज्ञानाय" कहा में दिये हैं। किन्तु इनका सम्पूर्ण और अत्यन्त वृहद रूप गोम्मटहै। अथवा एक से प्रारम्भ कर, दी गई पद संख्या तक (प्राकृत) सार लब्धिसार क्षपणासार की टीकाओं में उपलब्ध है । इसे अर्थ संख्याओं को गुणित करने पर विकल्प गणित में परिणाम प्राप्त संदष्टि अधिकारों द्वारा पं० टोडरमल ने अपनी सम्यग्ज्ञान होता है। इसे Im अथवा 1, 2, 3....(m-2)(m-1)(m) चन्द्रिका टीका में स्पष्ट किया है। अकसंदृष्टि, अर्थसंदृष्टि कहते हैं। स्थानभंग और क्रमभंग रूप से भंग दो प्रकार और रूपसंदृष्टियाँ प्रचलित रही हैं । "अर्थ" से वस्तुओं के द्रव्य, के होते हैं। क्षेत्र, काल, भाव के प्रमाणादि का बोध होता है। प्रमाणों की m(m-1) संदृष्टि को ही अर्थ-संदृष्टि कहा गया है। इन सभी में इकाई संचय सूत्र क्रमश: "1 =m, "Cg == - 21.2 द्वारा अवयव जैसे समय, प्रदेश, अविभागी प्रतिच्छेद आदि महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । आचारांगनियुक्ति गाथा ५० में निम्नलिखित व्यक्त किये जा सकते हैं । शेष नियम प्रस्तारानयनोपाय हैं जिनसे उल्लेख आया है। समस्त भिन्न क्रम संचय प्राप्त हो जाते हैं । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती (ल० ११वीं सदी) ने भी संचय "गणियं णिमित्त जुत्ती संदिट्ठी अवितहं इमं णाणं । विधि का विस्तृत विवेचन दिया है-यथा - ___ इय एगतमुवगया गुण पच्चाइय इमे अत्या ॥५०॥ संखा तह पत्थारो परियट्टण णठ्ठ तह समुट्ठिम् । घातादि के नियम (Laws of Indices) एदे पंच पयारा पमाद समुक्कित्तणे णेय ॥३५॥ अनुयोगद्वार सूत्र में घातों का उपयोग बड़ी संख्याओं को प्रस्तार रत्नावली मुनि रत्नचन्द्र द्वारा सम्पादित की गयी निरूपित करने में किया गया है, जिन्हें स्थानमान पद्धति में भी है। यह विधि द्विपद प्रमेय के विकास में निर्णायक रही है। दर्शाया गया है। उदाहरणार्थ, कोटि कोटि में बीस स्थान मान १ धवला, भाग ३, पृ०२० आदि । २ त्रि० सा०, गाथा १०५-१०८ । ३ देखिए धवला, भाग ३, पृ० २१-२४, तथा पृ०५६। ४ देखिये भ० स०, ८.१, श्लो० ३१४. और भी स० ०. ५ विस्तृत वर्णन हेतु देखिये कापडिया, एच० आर०. गणित टीका, श्लो०२८, समयाध्ययन अनुयोगद्वार। तिलक, बड़ौदा, १९३७, पृ०XIII. ६ देखिये हेमचन्द्र सूरि (१०८६ ई०) द्वारा अनुयोगद्वार सूत्र, ७ दत्त (१९३५), मेथामेटिक्स ऑफ नेमिचन्द, दी जैन श्लोक ६७ की टीका । हिन्दू गणितज्ञों ने इसे नहीं एंटीक्वेरी, आरा, १, २, २५-४४ । देखिये गो० जी० का०, दिया है। गाथा ३५ आदि। ६ बाग, ए० के०, (१९६६), बायनामियल थ्योरम इन ८ प्रस्तार रत्नावली, बीकानेर, १९३४ । एंसिएंट इण्डिया। १० ति०प०, गाथा ५.२४२ आदि । ११ धवला, भाग ३, पृ० ४२-६३ । १२ अर्थ संदृष्टि अधिकार गोम्मटसार एवं लब्धिसार (क्षपणासार गभित) की बृहद टीकाओं में उपलब्ध है जो गांधी हरिभाई. देबकरण ग्रन्थमाला, कलकत्ता से १६१६ के लगभग प्रकाशित हुए। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ | गणितानुयोग : प्रस्तावना हैं, इसे २ के छठवें वर्ग और पाँचवे वर्ग के गुणन द्वारा प्राप्त प्रकरणों में क्रमादि का सूचक है। अनेक जैन ग्रन्थों में गणना के किया जाता है। अथवा उसे २ के द्वारा ६६ बार छेदा जा अनेक स्थानों का विवरण है। व्यवहार सूत्र में गणना स्थान पद सकता है। इसी संख्या को २४वें स्थान के ऊपर और ३२वें का उपयोग है । अंकलिपि और गणित लिपि शब्द समवायांग सूत्र स्थान के नीचे भी बतलाया गया है। में हैं। विभिन्न प्रकार की लिपि की सूची श्यामार्य (ल० १५१ उत्तराध्ययन सूत्र में किसी भी गणितीय राशि की घातों को ई० पू०) के प्रज्ञापना सूत्र में है । काष्ठकर्म में प्रयुक्त वर्णमाला के दर्शाने की विधि स्पष्ट है। किसी भी राशि की दूसरी घात को रूपों तथा पुस्तक कर्म में प्रयुक्त वर्णमाला के बीच भेद पाया गया वर्ग, तीसरी घात को घन, चौथी घात को वर्ग-वर्ग, छठवीं घात है। इस प्रकार भारतीय संख्या पद्धति के मूल उद्गम तथा विकास को सुनिश्चित करने हेतु केवल पेलियोग्राफिक साक्ष्य पर को धन वर्ग और बारहवीं घात को धन-वर्ग-वर्ग कहा है। निर्भर रहना उचित नहीं होगा। षट्खंडागम में, २ का तीसरा बगितसंगित (२५६)258 प्राप्त होता है। धवला में घातांक के सभी नियमों का उपयोग जैन साहित्य में पारिभाषिक शब्दावलि में चौथे स्थानमान है। कोटि कोटि-कोटि और कोटि-कोटि-कोटि-कोटि के बीच के ऊपर स्वाभाविक समूहन और पुनर्समूहन है। पदों में दसों, शतों, सहस्रों और कोटियों आदि का महत्व है। अंक स्थाने ही संख्या (२)(२) और (२)(२) के बीच में स्थित है। यही द्वारा ७६४ स्थानमानों में संख्या (८४,००,०००)18 निरूपित है [(१०)] और [(१०)]* के बीच स्थित है। गोम्मटसार जहाँ ८४,००,००० को पूर्वी अनुयोगद्वार सूत्र में बतलाया है। में इसे इसे शीर्ष प्रहेलिका भी कहा है ।' षटखंडागम में स्थानमान पद्धति द्वारा संख्याओं को निरूपित ७६,२२,८१,६२,५१,४२,६४,३३,७५,६३,५४,३६,५०,३३६ रूप में दर्शाया है। यह मनुष्यों के निवास का क्षेत्रफल बतलाती किया गया है। उदाहरणार्थ, चउवण्णम् (चौवन), अट्ठोत्तर सदम् (एक सौ आठ), कोडि (करोड़), इत्यादि । हेमचन्द्र (ल० १०८६ ई०प०) ने यमल शब्द का उपयोग तिलोयपण्णत्ति में अचलात्म अथवा (८४)31 - (१०)90 वर्षों किया। (i) आठ स्थानमानों के समूह से १ यमल पद बनता है को ८४/३१/६० रूप में दिया है।' जिससे परिभाषित संख्या २४वें स्थान से ऊपर और ३२वें स्थान धवला में अनेक प्रकार से संख्याओं के निरूपण का उल्लेख से नीचे बनती है। (ii) त्रियमल पद का अर्थ छठवां वर्ग और है। साथ ही उसमें शत, सहस्रकोटि शब्दों का प्रयोग है।10 एक चतुर्यमल पद का अर्थ आठवां वर्ग होता है। इससे ज्ञात होता प्राचीनग्रन्थ से ६१,६८,०८,४६,६६,८१,६४,१६,२०,००,००,००० है कि राशि छठवें वर्ग और आठवे वर्ग के बीच स्थित है । धवल धवलाकार ने निम्न रूप में प्रस्तुत किया हैग्रन्थों के समान्तर विवरण से इसे स्पष्ट किया जा सकता है। गयणट्ठ-णय कसाया चउसट्ठि नियंक वसुखरा दम्वा । साथ ही द्वितीयवर्ग का अर्थ क(२) = क होता है। इसी प्रकार चायाल वसुणमाचल पयट्ठ चन्दो रिदू कमसो ॥1 द्वितीय सूत्र का अर्थ क(3) = का होता है। जैनाचार्यों द्वारा आवश्यकतानुसार यह विधि विकसित हुई प्रतीत होती है, क्योंकि आवश्यकता आविष्कार की जननी है। स्थानमान पद्धति (Place-value Notation) आश्चर्य है जिस ऋषिमण्डल ने यह आविष्कार किया उन्होंने स्थान को प्राकृत में ठाण कहते हैं । इसका अत्यधिक उपयोग अपना नाम नहीं दिया। धवला में जो शैलियाँ दी गई हैं वे संस्कृत जैन साहित्य में हुआ है। यह आकाश में या श्रेणि में, आदि साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। १ अ० द्वा० सू०, गाथा १४२. ३ गो० सा० क० (अंग्रेजी), पृ० १०४ '५ सम० सूत्र, गाथा १८ ७ हेमचन्द्र द्वारा निरूपित गाथा ११६ ६ ति०५०, गाथा ४, ३०८ ११ धवला, भाग ३, पृ० २५५, १, २, ४५, ७१ २ उ० सू०, (३०; १०, ११). ४ दत्त (१९२६)। ६ प्र० सूत्र, गाथा ३७ ८ षट् ० १२.६, १.२.११ आदि १० धवला भाग ३, पृ०६८, १९, गाथा ५२, याथा ५३, पृ०१०० देखिये दत्त (१९३५) पृ० २७ आदि । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटाने के लिए स्थानमान संकेतना (Place-value Notation for Subtraction) यह एक ऐसा अनुरेखण है जिससे यह ज्ञात होता है कि इसी प्रकार स्थानमान संकेतना की ओर जैनाचार्य बढ़े होंगे। घटाने के लिए रिण शब्द अथवा रि संकेत का उपयोग होता था । हस्तलिपियों में इसे O] रूप में लिया है। इस प्रकार किसी राशि के असंख्यात में से १ घटाना हो तो इस रूप में 0-0लिखा जाता था, किन्तु बाद में इसे सरल व रूप में 'वं छपाया जाने लगा । हम छापे की अर्थसंदृष्टि से ही घटाने के लिए स्थानमान संकेतना समझायेंगे । यहाँ ल लक्ष है। जिसे ५ ४ ३ द्वारा गुणित किया गया है राशि ल X५X४X३ ल X५X४X३ - १ल ल × ५×××३ - ल X५ ल X५X४X३ –ल X५X४. ल X ५X४ X ३ ल X ३ ल X ५X ४ X ३ – ल X४X३ ल X ५ × ४ X ३ – ल X ५X३ X ३ - २ल X ४X३ संकेतना ल। ५५४३ १० ल५ | ४ | ३ ल।५।४।३ ७ गो० खा० जी०, भाग २, पृ० ६२८- ६४८ Method of Finite Difference. १० वि० प०, भाग १, २०६४ १ ल ल|५|४|३ ३ ५।४।३ १ १ ल।५।४।३ १ ल|५|४|३ २७ ल । ५ । ४ । ३ १७ ल ।४।३ ल×××३ – १२ उपर्युक्त से प्रकट है कि उपरोक्त व्यवहार तिलोयपण्णत्त में भी प्रयुक्त होने के कारण पर्याप्त प्राचीन होना चाहिए। 2 इसका प्रयोग गोम्मटसार की जीव तत्व प्रदीपिका तथा कर्णाट वृत्ति में अत्यधिक हुआ है। रिण के लिए अनेक चिह्न प्रचलित रहे हैं, यथा : + रि अथवा रिण । १ अ० [सं० गो० पृ० २०-२१ ३. देखिये हस्तलिपि, अ०सं०गो० जो मन्दिरों में गो०सा० जी० आदि के साथ उपलब्ध है जिसमें सम्यक्ज्ञान चन्द्रिका टीका, पं० टोडरमल कृत भी है । गणितानुयोग प्रस्तावना | ६७ हस्तलिपियों में चिह्न का प्रयोग विशेषाधिक मिलता है। ऐसा लगता है कि ब्राह्मी के चिह्न : जो इ के लिए है वह • में बदल गया, - र के लिए प्रयुक्त हुआ ) जो नीचे की ओर आया है वह ण के लिए हो सकता है। धन के लिए धण का उपयोग भी हुआ है। इसके साथ नहीं लगाते हैं। इसके लिए केवल अथवा ] का उपयोग करते रहे हैं। काकपद + चिह्न का उपयोग ऋण के लिए बाली हस्तलिपि में भी हुआ है।" fer (Series or Progressions) सूर्यप्रज्ञप्ति में पराशि की सहायता से विभिन्न ज्योतिष्कों की युति, संपात आदि का काल एवं अन्य ज्योतिषी गणनाएँ करने हेतु धणियों की रचना हुई प्रतीत होती है । चन्द्र प्रज्ञप्ति प्रभृति ग्रन्थों तथा तिलोपपन्नति में भी वराशि के उपयोग से णि रचना हुई हैं जिनमें समान्तर और गुणोत्तर श्रेणियाँ प्राप्त होती हैं । गोम्मटसार में ध्रुवभागहार द्वारा भी इसी प्रकार की गुणोत्तर श्रेणियाँ प्राप्त की गई हैं। चीन में प्रायः ७वीं सदी से इस प्रकार की राशि जिसे लिंग कहते थे, ज्योतिष गणित में उपयोग हुआ है। वहीं फिंग शब्द का भी उपयोग हुआ है जिसे तैरनेवाला अन्तर कहा गया है । 8 यही सम्भवतः बाद में परिमित: अन्तर - विधि रूप में न्यूटन आदि ने विकसित किया । उपर्युक्त के सिवाय तिलोयपण्णत्ति में निम्नलिखित प्रकार के सूत्र प्राप्त हुए हैं : मानलो श्रेणि योग यो, प्रचय प्र, आदि आ और गच्छ ग है और इष्ट संख्या इ हो तो 10 यो = [ग—इ)प्र+(इ—१)प्र+(आ. २)] इष्ट संख्या को प्रथम, द्वितीय या अन्य कोई श्रेणि माना जा सकता है । २ ४ ५ ६ समान्तर श्रेणि हेतु सूत्र 11 =[{('=')'+('=')}=+^] यो ति० प०, भाग २, पृ० ६०६ दत्त एवं सिंह (१९२५) भाग १, पृ० १४-१५ सू० प्र०, भाग २, पृ० ६६-७४ ति० प०, गाथा ७, १२२, २२२ नीम एवं लिंग (१९५९), पृ० ४८, ४९, १२३, १२४ ८ ११ वही, अगली गाथाएँ, २७० Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ | गणितानुयोग : प्रस्तावना यहाँ ५ का सम्बन्ध पांचवें नर्क से है। जब कभी धोणि की संख्या इ हो तो योग का सामान्य सूत्र यो- "[(ग+इ)प्र—(इ+१)प्र+२आ] अन्य सूत्र हैं यो= [(ग-१) प्र+आग नारकीबिलों सम्बन्धी दो सूत्र और हैं :1 यो_गप्र+ २गआ--गप्र (८) इसी प्रकार अन्यत्र स्थलों में उपरोक्त एवं शेष सूत्रों का प्रयोग है। विशद विवरण के लिए गोम्मटसारादि की कर्णाटवृत्ति एवं जीवतत्व प्रदीपिका टीकाएँ दृष्टव्य हैं। उपरोक्त शोध का विषय है जो श्वेताम्बर आम्नाय के करणानुयोग ग्रन्थों के गणित से तुलना रूप हो सकता है। धाराएं एवं अल्पबहुत्व (Sequences and Comparability) विभिन्न रचना-राशियों द्वारा अस्तित्वशील राशियों की स्थिति निश्चयन धाराएँ एवं अल्पबहुत्व करते हैं। व्यासों, क्षेत्रफलों आदि से उत्पन्न धाराओं का अल्पबहुत्व तिलोयपण्णत्ति में उपलब्ध यो (ग'-ग)प्र+गआ आ. २२' गुणोत्तर श्रेणि का योग निकालने हेतु गो- (वि) "-१ आ वि-१ जहाँ वि, विशेष है, जो गुणकार रूप प्रत्येक अगले पद को गुणित करता चलता है। अनि त समीकरणों का उपयोग कर्मग्रन्थ में कहीं-कहीं हुआ है। यहाँ आदि धन को ध... मध्यम धन को ध, तथा उत्तर धन को ध_ लिखेंगे। शेष संकेत उपरोक्त लेते हुए निम्न प्रकार के सूत्र प्राप्त होते हैं जो कर्मग्रन्थों से सम्बन्धित हैं । यहाँ ध=यो मान लेंगे। धा+धत = यो राशि सिद्धान्त में रचना-राशियों का बड़ा महत्व है क्योंकि उनके द्वारा अस्तित्वशील राशियों का मान बतलाने में सुविधा होती है। धाराओं की भी इसी प्रकार रचना की जाती है और उनमें उत्पन्न रचना-राशियों द्वारा अस्तित्वशील राशियों की स्थिति स्पष्ट करते हैं। त्रिलोकसार में वृहद्धारा परिकर्म से संकेत मात्र धाराओं का विवरण लिया गया है, किन्तु यह वृहद्धारा परिकर्म ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। सम्भवतः दक्षिण के शास्त्र भण्डारों में प्राप्त हो सके। ये धाराएँ सुक्रमबद्ध हैं और निम्न रूप में संक्षेप में वर्णनीय हैं-सभी केबलज्ञान राशि तक पहुँचाती हैं। किन्तु इनकी रचना भिन्न-भिन्न प्रकार द्वारा की जाती है । इस प्रकार त्रिलोकसार में १४ धाराओं का वर्णन है। इस सम्बन्ध में विशेष अध्ययन हेतु लक्ष्मीचन्द्र जैन का शोध लेख दृष्टव्य है। यहाँ मानलो गच्छ (ग), धारा (धा), केवल ज्ञान अविभाग प्रतिच्छेद राशि (के) तथा सदस्यता प्रतीक 6 हो तो निम्न रूप में धाराओं का विवरण हो जाता है । प्रतीक नाम सामान्य पद धा सर्वधारा [१+(ग-१)] धा समधारा [२+(ग-१)] विषमधारा [१+(ग-१)] धन Xग= यो [{(ग) प्र} xआ] x ग= यो ( आ१ )ग = यो पसंख्येय-प्र धा १ ति० प० भाग १, २०७४, २.८१ ३ गो० सा० जी०,४६, १२१-१२४ " , , ४६, १२३ ति०प० ग० श्लोक, ४.२५२५-५.२७७ ६ जैन, एल० सी० (१९७७) आई० जे० एच० एस०, १२.१ २ वही, ३-८०, देखिये सरस्वती (१९६१-६२) ४ त्रि० सा०, गा० १६४ ६ वही, ४६, १२२/६ ८ त्रि० सा०, गाथा १४-५२ तथा ५३ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीक धा 4 als धा 2 धा धा ET9 ETT10 धा. 11 1 धा 12 धा 13 नाम कृतिधारा अकृतिधारा घनधारा अघनधारा कृतिमातृकधारा अकृतिमातृकधारा धा 14 घन मातृक धारा अघन मातृक धारा द्विरूप वर्गधारा द्विरूप घनधारा सामान्य पद ग ( ग ग Eधा धा०) ग अ० सं० गो० पृ० ५ आदि १६ श्रुत स्कन्ध, अ० १, श्लो०- १५४ (ग गEधाधा०) (2)1/2 [(के)112+ग] (3)1/3 [(के) 10+] (२) ग (२) (२) ग – १ ३ (२) द्विरूप घनाघनधारा (२) यहाँ धा के महत्व को देखना है। इसमें सम्मिलित सभी : द्रव्य गुण पर्यायों का सभी काल के समयों और प्रदेशों उनकी स्थिति आदि तथा भावों की राशि का क्रमबद्ध संख्या में निरूपण है । संचय की स्थितियाँ भी इनमें सम्मिलित हैं । इस प्रकार यह धारा एक सुक्रमबद्ध राशि है जो परिमित तथा अनन्त प्रकारों की अखण्डताओं के अथवा पुद्गल परमाणुओं या भावों की संरचना राशियों में से होकर गुजरती है और प्रत्येक गॅप (gap) को भरती हुई निकलती है । इसमें अनन्त से बड़े अनन्त भी समाए हुए हैं। इसी धारा में धा2 से लेकर धा 14 तक की सभी धाराएँ समाई हैं । 'यहाँ अन्तिम पद केवलज्ञान अविभाग प्रतिच्छेद राशि है जो सबसे बड़ा, उत्कृष्ट अनन्तानन्त रूप है । जार्ज कैण्टर : तथा अन्य गणितज्ञों ने ऐसी सुक्रमबद्धी राशियों की रचना की है तथा सुक्रमबद्धी साध्य को सिद्ध करने का प्रयास किया है । इस साध्य का समतुल्य "वरण का स्वयं सिद्ध" है। सुक्रमबद्धी प्रमेय पर आधारित व्यापक अल्पबहुत्व का प्रमेय है, "कोई भी दो राशियों में से, दोनों समतुल्य होंगी अथवा उसमें से एक, दूसरे की उपराधि के समतुल्य ( equivalent ) होगी।" हारटग्ज ने ग - २ (३)*(२) गणितानुयोग : प्रस्तावना | ६९ ET14 13 सिद्ध किया था कि व्यापक अल्पबहुत्व प्रमेय स्थानीय रूप से सुमवद्धी प्रमेय के समतुल्य है। धाराएँ धा धा और धा अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि उनमें ऐसे पद स्पष्ट होते हैं जो दो की संख्यात्मक घातों पर उत्पन्न होते हैं । कैण्टर ने अनेक प्रकार के ऐसे पद अलिफ (alephs ) रूप में द्विरूपादि वगंधारा के आधार पर उत्पन्न किये थे। फिर भी उन्हें अलिफों की दिशाबद्ध इतनी धाराएं प्राप्त न हो सकी हैं और जैन धारा-गणित में इस विशेष क्षेत्र उपलब्ध है । सम्बन्ध में शोध हेतु अल्पबहुत्व तीन प्रकार का वर्णित है-सचित्त, अचित्त मिश्र । जो अल्पबहुत्व जीवों से सम्बन्धित है उसे सचित्त, जो शेष प्रकार के द्रव्यों से सम्बन्धित है उसे अचित्त प्रकार का कहते हैं । जब राशियाँ ज्ञान, दर्शन, योग, अनुभाग आदि से सम्बन्धित रहती हैं तो अल्पबहुत्व नोआगम प्रकार का होता है । इन सभी प्रकार के अल्पबहुत्वों को तीन मार्गों में व्यवहुत करते हैंस्वस्थान, परस्थान और सर्वपरस्थान । मिश्र प्रकार के अल्पबहुत्व का एक उदाहरण सोलह राशिगत अल्पबहुत्व है। अनन्तगुणा दर्शाने हेतु 'ख' दृष्टि का उपयोग होता है। यदि १६ जीवराशि है तो १६ख पुद्गल राशि हैं । १६ खरब काल की समय राशि है। और १६ख खरब समस्त आकाश प्रदेश राशि होती है । अल्पबहुत्व विधि का उपयोग वहाँ होता है जहाँ किसी राशि का स्थान निर्धारण अनेक राशियों के प्रतिवेश में तथा दूरी पर, परिमित अथवा पारपरिमित दशा में करना होता है । अतीतकाल समय राशि ( ४, ३, २, १) मानने पर उससे अनागत काल समय राशि (१, २, ३, ४, ) को, जहाँ ० वर्तमान काल हो, अनन्तगुणा माना गया है । माविकी ( Mensuration ) है, सूत्रता के अभिमत में "गणित में रेखागणित कमल और शेष अवर है ।" वास्तव में यदि बीजगणित तर्क पर आधारित होता है तो रेखागशित अन्तः प्रज्ञा पर । करणानुयोगविषयक ग्रन्थ लोक का रेखागणित पर आधारित तो हैं ही, साथ ही बीजगणितीय सम्बन्ध पर भी । तत्त्वार्थाधिगम भाष्य (उमास्वाति) 7 में निम्नलिखित मापिकी सूत्र उपलब्ध है : १ देखिये ज्लाट (१९५७) । इसमें प्राय: सभी सम्बन्धित संदर्भ मिल २ वही । १४ ३ ५ सकते हैं । धवला, भाग ३, पृ० ३०, ३१ तत्त्वा० १, ८, १०, पृ० ४२ ७ तत्त्वा० भा० (१९०३) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० | गणितानुयोग : प्रस्तावना ३५५ -=३+११३+११३व्यास) यदि व्यास में स्थित प्रदेश ३५५ क2 मान लो वृत्त की परिधि "प", व्यास "व्या", क्षेत्रफल "क्षे", मान r=V१० लिया गया है। धवला में शुद्ध रूप में चाप "चा", चाप-कर्ण "क", बाण "ब", एवं त्रिज्या "त्रि" हो तो -है', जो निम्नलिखित रूप में पढ़ा जाता है (i) प=/१० (व्या) (ii) क्षे= प० व्या क=V४ बा (व्या-बा) (iv) बा= (व्या-Vव्या-क') (v) चा=V६ बा+क राशि असंख्यात हो तो ग का मान २१३ निकल आता है । यही (vi) व्या = ( बा+r);बा सूत्र चीन में त्सु-चुंग शिह (Tsu Chung Ohih) (ल० ४७६ ई०) को ज्ञात था। पकों के बीच किमी वत्त की तिलोयपण्णत्ति में निम्नलिखित सूत्र प्राप्त हैं। वहाँ परिधि के भाग संवादी चापों के बीच के अन्तर सांद्रों के घनफल, लम्बत्रिपाश्वों के रूप में विभिन्न प्रकार के के आधे होते हैं। आधार लेकर प्राप्त किये गये हैं। वातवलयादि के भी घनफल (viii) बा=/चा-क: ६ निकाले गये हैं । ये राजू और योजन के पदों में प्राप्त हैं। ये सभी सूत्र जम्बू द्वीप समास में भी उपलब्ध हैं। (i) प==V व्याx१० ये ही सूत्र सूर्यप्रज्ञप्ति, करण भावना, उत्तराध्ययन सूत्र में व्या ५ व्या (ii) क्षेपxxव्या भी हैं जहाँ गोल के खण्ड समान ईषत् प्राग्भार का विवरण भी ४ =V१० त्रि' मिलता है। (iii) समवर्तुल रंभ (right oircular cylinder) महावीराचार्य द्वारा भी इन्हीं सूत्रों की पुनरावृत्ति हुई है का घनफल = आधार का क्षेत्रफल ऊँचाई। (बादर) चा=V५बा+क. (iv) (चतुर्थभाग चाप का चाप कर्ण) =(१) ४२ (सूक्ष्म) चा=V६बा+क. __(v) [(चतुर्थ भाग परिधि चापकर्ण)*x] सिकन्दरिया के हेरन (ल० २००) ने परिधि खण्ड को अर्धवृत्त से कम लेकर निम्नलिखित सूत्र निकाला : = [चतुर्थ भाग परिधि] = V४ बा+क+1 बा अथवा /व्या 2 Vश+क+{V४ बा+क' -कवा (i) क = [(इ)- (यादा)] चीनी छेन हुओ (Chen Huo) (ल० १०७५ ई०) ने इस सूत्र को निम्न रूप में रखा : चा = क + बा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति संग्रह में उसे निम्न रूप में दिया है : क=V४ बा (व्या-बा) (vii) चा =२ [(व्या+बा]-व्या ] जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति संग्रह में निम्न रूप में है च==V६ (बा)+क सूर्यप्राप्ति, आदि ग्रन्थों में 7 का बादर मान ३ तथा सूक्ष्म १ अ०३, श्लो० ११. २ ग. सा० सं०, ७.४३, ७३ ॥ ३ हीथ, भाग २, पृ० ३८१, (१९२१) ४ धवला, भा०४, १, ३, ३, पृ०४२ ५ कूलिज (१९४०), पृ० ६१; नीधम और लिंग (१९५६), ६ ति०प० न०, पु०२४-३६. मिकामी (१९१३). ७ ति०५०,४६,४६. * ति० ५०,४७० बिही, ४१८० जी०प्र०, २२३, ६६ आदि $ वही, ४.१८१, ज० द्वी०प्र०,२२४, ४.२६ ६१० Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : प्रस्तावना | ७१ है। इसी प्रकार VN -Vi_y=b-2 रूप में भी (viii) खण्ड की ऊंचाई प्राप्त करने हेतु २ पाद =१ वितस्ति २ वितस्ति = १ रत्नी २ रत्नी =१ कुक्षि २ कुक्षि =१ धनुष्य सन्निकटता की व्यवस्था हेतु /१० का मान निकालने हेतु २००० धनष्य : 'तिलोयपण्णत्ति का “खखपदस्सं सस्सपुढं" प्रकरण, डा० आर०सी० ४ गव्यूति = १ योजन गुप्ता ने V३)2+१ रूप लेकर प्राप्त किया है। यहाँ VN इसी प्रकार काल प्रमाण भी दो प्रकार का है : प्रदेशनिष्पन्न एवं विभाग निष्पन्न । प्रदेश निष्पन्न असंख्य प्रकार का है और =Vatx +-रूप में रखने की जैन प्रणाली रही १समय से लेकर असंख्यात समय तक है। विभाग निष्पन्न के अनेक प्रकार हैं :--(१) समय (२) आवलिका (३) मुहूर्त (४) अहोरात्र (५) पक्ष (६) मास (७) ऋतु (5) अयन (९) संवत्सर (१०) युग (११) पूर्वांग इत्यादि ।' उपर्युक्त को समय से निम्नइसे रख सकते हैं। इस प्रकार ग=V१०=V(३) +१= लिखित सम्बन्ध से जोड़ा है : असंख्य समय =१ आवलिका - रूप में जैन अन्यों में प्रचलित है। संख्यात आवलिका = १ निश्वास या १ उच्छवास १ उच्छ्वास+११ श्वेताम्बर चार प्रकार के प्रमाणों का वृहद वर्णन कापड़िया ने सिंह तिलक सूरि की गणित तिलक टीका में किया है, जो ७प्राण = १ स्तोक दिगम्बर ग्रन्थों के मानों से भिन्न हैं। स्थानांग सूत्र में ५ प्रकार ७ स्तोक =१ लव के अनन्तों का विवरण दिया है। भगवती सूत्रादि में त्रयस्रादि ७७ लव = १ मुहूर्त के आकार की अनेक ज्यामितीय आकृतियों का विवरण दिया है। ३७७३ उच्छ्वास = १ मुहूर्त " इसी प्रकार सूर्य प्रज्ञप्ति में भी विवरण मिलते हैं। चार प्रकार ३० मुहूर्त = १ अहोरात्र के प्रमाणों में द्रव्य प्रमाण को प्रदेश निष्पन्न और विभाग निष्पन्न १५ अहारोत्र = १ पक्ष · रूप में लिया गया है। प्रदेश निष्पन्न प्रमाण अनन्त प्रकार का है २ पक्ष =१ मास - और विभाग निष्पन्न मात्र ५ प्रकार का है :-मान, उन्मान, २ मास = १ ऋतु . अवमान, गणिमा, प्रतिमान । गणिमा १ से लेकर १ करोड़ तक =१ अयन की संख्या तक जाता है। मान क्रमशः धान्यमान और रस मान २ अयन = १ संवत्सर 'प्रकार का है । क्षेत्र प्रमाण दो प्रकार का है : प्रदेश निष्पन्न और ५ संवत्सर = १ युग विभाग निष्पन्न । प्रदेश निष्पन्न असंख्य प्रकार का है। विभाग ८४ लाख वर्ष =१ पूर्वाग: निष्पन्न अंगुल से लेकर योजन तक जाता है भावप्रमाण को अनेक प्रकार वाला बतलाया गया है। ६ अंगुल =१ पाद [अंगुल ३ प्रकार का है : आत्मांगल. षट्खण्डागम में उपराक्त तान प्रमाण : द्रव्य प्रमाण, क्षत्र प्रमाण प्रमाणांगुल और उत्सेधांगुल एवं काल प्रमाण को भाव प्रमाण कहा गया है।' निश्वास ८१ प्राण ३ ऋतु १ ति० ५०,४.१८२. २ गुप्ता, आर० सी०, (१९७५); ति० प० ग०, ६.५५-५६, ३ जैन, जे० एल०, (१९१८), पृ० १५४-१५५ पृ० ४६; दत्त (१९२६), पृ० १३२ -४ कापड़िया (१९३७)। ५ आर्हत दर्शन दीपिका, देखिये पृ०७८-८० ६ अनु० सू०; सू० १३३ ७ कापड़िया (१९३७), पृ० xvii-xx, भूमिका । अनु० सू०, सू०.१३७; आर्हत दर्शन दीपिका (पृ० ५८७-६ षट्खण्डागम, पु० ३, १-२-५, "तिण्हं पि अधिगमो ५८८)। भाव पमाणं ॥५॥" Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ | गणितानुयोग : प्रस्तावना ६. गणितानुयोग-आधुनिक सन्दर्भ में समर्पित किया है । तत्सम्बन्धी गणितीय प्रारूपों के अध्ययन और गणितानुयोग के विषय से उसकी तुलना करने हेतु हम संदर्भ प्रस्तुत प्रस्तावना के प्रथम शीर्षक में गणितानुयोग–एक ग्रन्थावलि में यथोचित सामग्री दे रहे हैं। परिचय दिया गया है जिसे आधुनिक सन्दर्भ में रखा जा सकता है। . साथ ही गणितानुयोग का एक और आधुनिक संदर्भ है। मुख्यतः विषय गणित, ज्योतिष एवं लोक संरचना संबंधी है जिसकी वह है विज्ञान इतिहास संबन्धी संरचना का। प्रथम अध्याय में तुलना आधुनिक विज्ञान से की जा सकती है। वास्तव में किन्हीं ज्ञान से का जा सकता है। वास्तव में किन्ही जो सूत्रों में पाईगये प्रकरण हैं उन्हें विज्ञान के इतिहास शोध की घटनाओं को सिद्धान्त रूप से समझाने या फलित रूप में विषयक रूप में प्रस्तुत करना आवश्यक है। यह विषय अपने परिणाम निकालने हेतु प्रतिरूप (मॉडल) या गणितीय प्रतिरूप आप में अत्यन्त गम्भीर है क्योंकि उद्गम सम्बन्धी समस्याएँ, (मेथामेटिकल मॉडल) स्थापित किये जाते हैं। परीक्षणों द्वारा विश्व विज्ञान इतिहास के संदर्भ में अनेक प्रकरणों में उलझी हुई ही प्रतिरूपों की सक्षमता शुद्धता आदि परीक्षित होती है। हैं । उदाहरणार्थ किस देश में किस काल में वहाँ की सभ्यता को स्पष्ट है कि गणित ज्योतिष का जैन सिद्धान्त जो गणितानु- किस प्रकार के गणित-विज्ञान की आवश्यकता हुई और उन्होंने योग में संग्रहीत है, जैन पंचांग के रूप को प्रस्तुत करता है। अपनी आवश्यकताओं और जटिल समस्याओं की प्रस्तुति को इसमें समय-समय पर शोधन कार्य होते रहे, क्योंकि औसतन, किस रूप में हल किया तथा विदेशों को अंततः उनका क्या लाभ माध्यमान पर आधारित यह पंचांग था जिसे समयानुसार ध्रुव मिला। राशि आदि राशियों के समीकरणों द्वारा पूरित किया जाता रहा तीर्थकर बर्द्धमान महावीर का युग क्रान्तिकारी युग था जब' होगा। यह आवश्यकता पर निर्भर करता है । अतएव अभी भी हिंसा को अहिंसा के सामने पैर टेकना पड़े थे । स्पष्ट है कि उस इस ओर अनेक जैन ज्योतिष ग्रन्थ जो उपलब्ध हैं तथा अनुपलब्ध बुद्धिवादी युग में वर्द्धमान महावीर के तीर्थ में लोक संरचना हैं उनके अनुवाद गणितीय टिप्पण सहित शोध हेतु तैयार करना के आधार पर कर्म सिद्धान्त के सूक्ष्मतम गणित द्वारा निर्मोह को आवश्यक है। यह स्पष्ट है कि आधुनिक ज्योतिष का मॉडल कापरनिकस के सिद्धान्त के आधार पर है। फिर भी आइंस्टाइन प्रस्तुत करना पड़ा होगा । अहिंसा के मृदु स्पर्श में यह शुद्ध हीरे जैसी कठोरता कैसे पनपी होगी, आश्चर्य लगता है। किन्तु का सापेक्षता सिद्धान्त उसमें सूक्ष्मतम तत्व दे सका है । न्यूटन से आत्मा को अनुभूति करना पड़ी होगी कि कर्मों का बँटवारा नहीं अब सापेक्षता सिद्धान्त अत्यधिक सूक्ष्म परिणामों को होता है । यह प्रत्यनुभूति जैन गणित की पराकाष्ठा पर दृष्टिगत निकालता है। होती है । आज का वैज्ञानिक युग अति बुद्धिवादी है। इसमें यही हाल जन लोक संरचना का है। एक प्रतिरूप प्रस्तुत गणितानुयोग जैसे ग्रन्थों पर आधारित कर्मग्रन्थों का परीक्षण किया गया है, जिसमें गणितीय वस्तुओं को भर दिया गया है, विधि से गणक-मशीनों द्वारा दिग्दर्शन कराना अब अपरिहार्य हो अर्थात् विभिन्न प्रकार की राशियों से लोक की संरचना को चित्रित किया गया है। जीवराशियों से लेकर अनेकानेक प्रकार गया है । इसके लिये तीन प्रकार की गणक मशीनें आवश्यक हैं। जो क्रमशः संस्कृत प्राकृत जैन ग्रन्थों के अनुवाद, उनमें निहित की राशियों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्रमाण देते हुए लोक की गणित ज्योतिष और निहित कर्म सिद्धान्त को वास्तविक रूप में विविधताओं पर विहंगम दृष्टि डाली गयी है। दिग्दर्शित कर सके। आशा है विश्वविद्यालयों में अथवा जैन प्रस्तुत प्रतिरूपों की गिनती आज के युग में दिनों दिन संस्थाओं में गणित पर आधारित जैन अध्ययन प्रारम्भ किये बढ़ती जा रही है। उनके निष्कर्षों का परीक्षण किया जाता जायेंगे, ताकि शोध की वास्तविक भावना को संबल प्राप्त हो रहा है । किन्तु अभी भी नीहारिकाओं का अखिल लोक से सके । शोध के विषय को चुनने हेतु गणितानुयोग जैसे सर्वेक्षण बाहर की ओर तीवातितीव्र वेग से निष्कासन प्रति क्षण होते ग्रन्थ उपयोगी सिद्ध होंगे। -लक्ष्मी चन्द्र जैन रहने का जो सप्तरंगी विश्लेषण हो सका है, उसका संतोषजनक प्रतिरूप (मॉडेल) प्राप्त नहीं हो सका है । यदि ब्रह्माण्ड प्रतिपल, Prof. L. C. Jain इस कारण विरलन को प्राप्त हो रहा है तो उसका घनत्व प्रायः _Hon. Director, DJICR, Hastinapur; सर्वत्र औसतन एक सा क्यों है ? क्या कोई शून्य में उत्पत्ति होती Addl. Hon. Director, A, Vidyasagara Research Institute-Jabalpur;रहती है ? ऐसे अनेक प्रकार से विश्व की संरचना विषयक INSA Research Associate, Physics Deptt, Rani सिद्धान्त प्रतिपादित हुए हैं । आइंस्टाइन, बोंडी, हायल, जीन्स, Durgavati University, Jabalpur; L.M.,Einstein Foundation international,Nagpur; चन्द्रशेखर प्रभृति विद्वानों ने आजीवन इस अध्ययन की ओर M.G.B.,D.C.,Ghuvara,L.MJ.R.S.:L.M.,A.B.V.R: Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना में प्रयुक्त संदर्भ ग्रंथ एवं शोध लेख सूची (१) गणित सार संग्रह, (सं० ग० सा० सं०) महावीराचार्य कृत, सं० अनु० एल० सी० जैन, शोलापुर, १९६३ (२) त्रिलोकसार, (सं० त्रि० सा०) नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, सं० र० च० मुख्तार, चे० प्र० पाटनी, श्री ___ महावीर जी, १९७६ (३) अभिधान राजेन्द्र कोष, (सं० अभि० रा० को०) रतलाम १९२३ (४) भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, एच० एल० जैन, भोपाल, १६४२ (५) सूर्य प्रज्ञप्ति सूत्र, सं० कन्हैयालाल, भाग १ (१९८१) भाग २ (१९८२), अहमदाबाद (६) चंद्र प्रज्ञप्ति सूत्र, सं० कन्हैयालाल, राजकोट, १९७३ (७) सूर्य प्रज्ञप्ति, सं० अमोलक ऋषि, सिकन्दराबाद, वीराब्द ल० २४४६ (८) चन्द्र प्रज्ञप्ति, सं० अमोलक ऋषि, सिकन्दराबाद, १९२० (९) सूर्य प्रज्ञप्ति, टी० मलयगिरि, बम्बई १९१६ (१०) षट्खंडागम, (सं० षट् खं०), पुष्पदंत भूतबलिकृतः वीरसन कृत धवला टीका सहित, भाग १-१६, अमरा वती, विदिशा (१९३६-१९५६) (११) गोम्मटसार जीव कांड, भाग १ (१९७८), भाग २ (१९७६), (सं० गो० सा० जी०) नई दिल्ली। (१२) गोम्मटसार कर्मकांड, भाग १ (१९८०), भाग २ (१९८१) (सं० गो० सा० क०), नई दिल्ली (१३) जैन साहित्य का इतिहास, ले०के० चं० सि० शास्त्री, वाराणसी, १९६४ (१४) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ४ (१९६८), भाग ५ (१९६६), वाराणसी (१५) तिलोयपण्णत्ति, यतिवृषभ कृत, भाग १ (१९४३), भाग २ (१९५१), (सं० ति०प०), शोलापुर (१६) कर्मग्रन्थ, भाग १-६, मिश्रीमल, जोधपुर, १९७४ (१८) कल्पसूत्र, (सं० क० सू०), भद्रबाहु कृत, लाइजिग, १८६७ (१६) तत्वार्थाधिगम सूत्र विद भाष्य ऑफ उमास्वाति (सं० त० सू०), सं० के० पी० मोदी, कलकत्ता, १९०३ (२०) महाबंध, भाग १-७, काशी, १९४७-१९५८ (२१) डो कास्मोग्राफी डर इंडेर, किरफेल, डब्लू०, बान, १९२० (२२) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति शांति चन्द्र टीका, मेहासन, १९१८ (२३) हिस्ट्रो आफ ग्रीक मेथामेटिक्स, भाग १, २; हीथ, टी०, आक्सफोर्ड, १६२१ (२४) दी डेवेलपमेंट आफ मेथामेटिक्स इन चाइना एण्डः जापान, मिकामी वाई, लाइजिग, (१९१३) (२५) लघुक्षेत्र समास प्रकरण, रत्नशेखर सूरि, बम्बई, १८८१ (२६) उत्तराध्ययन सूत्र (सं० उ० सू०), शरपेंटियर, उप सल १६२२ (२७) गणितानुयोग, सं० मुनि कन्हैयालाल, 'कमल', सांडेराव, १९७० (२८) कासमालाजी, ओल्ड एण्ड निउ, जी० आर० जैन, ___ग्वालियर, १९४२ (२६) हिस्ट्री आफ हिन्दू मेथामेटिक्स [हिन्दू गणितशास्त्र का इतिहास (हिन्दी अनुवाद) भाग १, लखनऊ, १६५६], दत्त, बी०बी०, एवं सिंह, ए०एन०, बम्बई, १९६२ [लाहौर (१९३५)] (३०) विश्व प्रहेलिका (सं० वि० प्र०), मुनि महेन्द्र कुमार ___ द्वितीय, बम्बई, १९६६ (३१) जम्बूद्वीप पण्णत्ती संगहो (सं० ज० प० सं०), सं० एच० एल० जैन, ए० एन० उपाध्ये, शोलापुर, १९५८ (३२) प्रस्तार रत्नावली, मुनि रतनचन्द्र, बीकानेर, १९३४ (३३) गणित तिलक, वृत्ति सिंहतिलक सूरि, सं० एच० आर० कापड़िया, बड़ौदा १९३७ (३४) सूत्रकृतांग (सं० सू० कृ०), पी० एल० वैद्य, पूना, १९२८ (१७) भगवती सूत्र, (सं० भ० सू०), अभयदेव सूरिकृत टीकासहित, आक्सफोर्ड, १८६५ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ | गणितानुयोग प्रस्तावना (३५) उत्तराध्ययन, ल्यूमेन एण्ड शूब्रिंग, अहमदाबाद १६३२ ० जैकोबी, आक्सफोर्ड, १८६५ ह० (३६) कसाह पाहुड, जयधवला टीका, भाग १- १३, आदि, मथुरा, १९४६ (३७) वृहद क्षेत्र समास, जिनभद्र सूरि, भावनगर, १६७७ (३८) जैन जेम डिक्शनरी, जैन, जे० एल०, आरा १६१८ (३६) साइंस एण्ड सिविलिजेशन इन चाइना, नीधम, जे०, एवं लिंग, डब्लू ०, भाग ३, केब्रिज, १९५६ (४०) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष (सं० २० सि० [को०) जिनेन्द्र वर्षों भाग १-४, नई दिल्ली (१९७०-१९७३) " ( ४१ ) तत्वार्थवार्तिक (सं० त० वा० ), अकलंक देव, भाग १-२, बनारस, १९४४ (४२) ए हिस्ट्री आफ नामेलिमेस कूलिज, जे०एस० आक्सफोर्ड, १९४० 1 (४३) जंन सणावली (सं० जे० ल०) बालचन्द्र शास्त्री, भाग १-३ (१९७२ - १६७९), दिल्ली (४४) दी शुल्ब सूत्र, एस० एन० सेन एवं ए० के० बाग, नई दिल्ली, १९८३ ((४५) अर्थ संदृष्टि अधिकार (सं० अ० सं०) गोम्मटसार atesis] कर्मकांड, एवं लम्बिसार पं० टोडरमल की सभ्य ज्ञान चन्द्रिका टीका सहित, कलकत्ता, १९१९ [हस्तलिपि दि० जैन पार्श्वनाथ बड़ा मंदिर, हनुमान ताल, जबलपुर ] ल० (४६) भगवती, शतक १ २०, कलकत्ता, वि० सं० २०११ (४७) ज्योतिष करण्डक (सं० ज्यो० क०), सटीक, रतलाम १६२८ (४८) अनुयोगद्वार सूत्र (सं० अनु०सू०), हेमचन्द्र कृत टीका, बम्बई, १९१५-१६ ( ( ४१ ) जम्बूद्वीप समास (सं० ज० द्वी० स० ), विजयसिंह कृत टीका, अहमदाबाद, १६२२ (१०) मेवामेटिक्स इन एरियेंट एण्ड मेडीबल इंडिया, ए० के 5० बाग, वाराणसी, १६७६ ? (५१) जामेट्री इन टि एण्ड मेडीकल इंडिया टी. ए. सरस्वती अम्मां, दिल्ली, १६७६. . (५२) कांट्रिब्युशन टू दी फाउण्डग आप दी थ्योरी ऑफ ट्रांस्फारनाइट नम्बर्स, जार्ज कैण्टर, लासाले इलिनास, १६५२. (५३) इंट्रोडक्शन टू दी फाउण्डेशंस ऑफ मेथामेटिक्स, आर. एल. वाइल्डर, न्यूयार्क, १९५२ (५४) डी सूर्यप्रज्ञप्ति, जे. एफ. कोल, फरसुख आइनेर टेक्सट गोगटे स्टुटगर्ट, १९२७. (५५) एकोन्साइल हिस्ट्री ऑफ साइंस इन इंडिया, डी. एम. बोस आदि, नई दिल्ली, १९७१ (५६) भारतीय ज्योतिष, नेमिचन्द्र शास्त्री, वाराणसी, १६७०. (५७) दत्त, बी. वी., दी जैन स्कूल ऑफ मेचामेटिक्स, बुले० केल० मेथ० सो० भा० xxi, अ०२, १६२६, पृ० ११५-१४५. " (५०) सिंह, ए. एन., मेवामेटिक्स ऑफ धबला, पखंडाराम, ०४. अमरावती, १९४२ ० (५) सरस्वती, टी० ए० वी मेमामेटिक्स इन द फर्स्ट फोर महाधिकाराज ऑफ यी त्रिलोक प्राप्ति, जस जी० जे० आर० आर०, अलाहाबाद, भाग १८, १६६१-६२ पृ० २७-५१ (१०) जैन, एल० सी० सेट थ्योरी इन जैन स्कूल ऑफ मेथामेटिक्स, आई० जे० एच० एस० भाग ८१-२, १९७३, पृ० १-२७ (६१) दत्त, बी० बी० दो बख्शाली मेवामेटिक्स, बुले० केल० मेथ०, सो०, भाग xxi, अंक १, १९२६, पृ० १-६० (६२) जैन, लक्ष्मी चन्द्र, तिलोयपण्णत्ति का गणित, (सं० ति०प०ग०), जम्बूदीव पण्णत्ति संगहो की प्रस्तावना, शोलापुर, १६५८, पृ० १-१०९ (६३) जैन, एल० सी०, डाइवजेंट सीक्वेन्सेज लोकेटिंग ट्रांस्फाइनाइट सेट्स इन त्रिलोकसार, आई० जे० एच० एस०, १२१, १६७७, पृ० ५७-७५ (६४) जैन, एल० सी०, आन सरतेन मेवामेटिकल टापिक्स ऑफ दी धवला टेक्सट्स ( दी जैन स्कूल ऑफ मेथामेटिक्स), आई० जे० एच० एस० ११.२, १९७६, पृ० ८५-१११ (६५) जैन, एस०सी०, आन दी जैन स्कूल ऑफ मेवामेटिक्स सी० एल० स्मृतिग्रन्थ, कलकत्ता, १९६७, पृ० २६५-२६२ (६६) जैन, एल० सी० मेयामेटिकल कांट्यूिशन ऑफ टोडरमल ऑफ जयपुर, दी जैन एंटीक्वेरी ३०.१. १९७७ पृ० १०-२२ (६७) बाग, ए० के०, बायनामियल थ्योरम इन एश्येिंद इण्डिया, आई० जे० एच०एस०, ११, १९६६, पृ० ६४-७४ CLIC Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (६८) बाग, ए० के०, सिम्बल फार जीरो इन मेथामेटिकल नोटेशन्स इन इंडिया, बोलेटीन दे ला अकादेमिया नेशनल दे साइंसियाज, रोम ४८, प्राइमर पार्टे, १६७०, पृ० २४७-५४. (६६) बेल, ई० टी०, महावीर से डायफेन्टाइन सिस्टम, बु० के० मे० सो०, २८, १९४६, पृ० १२१-२२. (७०) दत्त, बी० बी०, जामेट्री इन दो जैन कास्मोग्राफी, क्वेलेन उंट स्टूडिएन जुर गिशिख्ते डेर मेथामेटिक, अब्टाइलुक, बैंड १, १६३०, पृ० २४५-५४ (७१) दत्त, बी० बी०, मेथामेटिक ऑफ नेमिचन्द्र, जैन एंटीक्वेरी, भाग १, अंक २, १९३५, पृ० २५-४४ ( ७२ ) - गुप्ता, आर० सी०, सरकम्फियरेंस ऑफ दी जंबूद्वीप इन जैन कास्मोग्राफी, आई० जे०एच०एस०, १०१, १६७५, पृ० ३८-४६ (७३) जैन, एल० सी०, सिस्टम थ्योरी इन जंन स्कूल ऑफ मेयामेटिक्स, आई० जे० एम०एस० १४.१ १९७६ पृ० ३१-६५ (७४) जैन, एल० सी० दी का इनेमेटिक मोशन ऑफ एस्ट्रल रोयल एण्ड काउण्टर बाडीज इन त्रिलोकसार, आई० जे० एच० एस० २१, १६७५, पृ० ५८-७४ (७५) जैन, एल० सी०, आन सरटेन फिजीकल थ्योरीज इन जैन एस्ट्रानामी, दी जैन एंटीक्वेरी, २१-१/२, १९७६, पृ० ६-११ " (७१) जैन, एम० सी० आर्यभट एण्ड यतिवृषभ, ए, स्टडी इन कल्प एण्ड मेरु, आई० जे० एच०एस०, १२२, १६७७, पृ० १३५-१४६ (७७) जैन, एस० सी० आन प्रावेबिल स्पाइरो - एलिप्टिक मोशन ऑफ दी सन इम्प्लायड इन दो तिलोयपण्णत्ति, आई० जे० एच० एस० १३ १, १९७८ पृ० ४२-४६ (७८) जैन, एल० सी०, एक्जेक्ट साइंसेज फ्राम जंन सोर्सेज भाग १ (बेसिक मेवामेटिक्स) भाग २ ( ऐस्ट्रानामी एण्ड कास्मालाजी), जयपुर, दिल्ली, १६८२ / ११०२, पृ० १-४०/ पृ० १-७२ (७९) थिबो, जी०, आन दी सूर्य प्रज्ञप्ति, जर्नल ऑफ एशि० सो० ऑफ बंगाल, ४६ (१). १८८०, पृ० १०७१२८, १८१-२०६ (८०) थियो, जी०, कांट्रिब्यूशन टू बी एक्प्लेनेशन ऑफ ज्योतिष वेदांग, जर्नल ए० सो० बंगाल, ४६ (१), १८७७, पृ० ४११-४३७ गणितानुयोग प्रस्तावना | ७५ (८१) वलोदक, ए० आई०, एबाउट ट्रिटाइज ऑफ महावीर (रूसी भाषा), फिजिको मेवामेटिक्स, नउकी वा स्ट्रानख वस्तोका विपुस्क II (v), मास्को, १६६७, पृ० ८ १३० (२) सिंह, ए० एन०, हिस्ट्री ऑफ मेथामेटिक्स इन इंडिया फ्राम जैन सोर्सेज, जैन एंटीक्वेरी, भाग १५, अंक २, १९४६, पृ० ४६-५३, भाग १६, अंक २, १६५०, पृ० ५४-६६ (५३) लिश्क, एस० एस० शर्मा एस० डी०, दी एवोलुशन ऑफ मेजर्स इन जैन एस्ट्रानामी, तीर्थकर १७-१२, १६७५, पृ० २८-३५. 1 (६४) तिरक, एस० एस० शर्मा, एस० डी०, टिटयूट ऑफ मून एज [डिटरमिड इन जैन एस्ट्रानामी, श्रम, २७२, १६७५ पृ० २८-३५, (५) लिक, एस० एस० शर्मा एस० डी० नोशन ऑफ आलिक्विटी ऑफ एक्लिप्टिक इन जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति जैन जर्नल, १९७८, पृ० ७६-६२ , (०६) लिक, एस० एस० शर्मा एस० डी० रोल ऑफ प्रि-आर्यभट जैन स्कूल ऑफ एस्ट्रानामी इन दी डेवेलपमेंट ऑफ सिद्धान्त एस्ट्रानामी, आई० जे० एच० एस०, १२२, १६७७ पृ० १०६-११३ (८७) शर्मा एस० डी०, लिश्क, एस० एस० लेंग्थ ऑफ डे इन जैन एस्ट्रागामी, सेंटारस, २२३, १९७८, पृ० १६५-१७६ (८८) सिकदार, जे० सी०, एक्लिप्सेज ऑफ दी सन एण्ड बी मून एकाविंग टू जैन एस्ट्रानामां, आई०जे० एच० एस०, १२२, १६७७, पृ० १०६-११३ (८) सिकदार, जे० सी०, जैन एटामिक थ्योरी आई०जे० 1 एच० एस० ५.२, १६७०, पृ० १६६-२१८ (१०) सिकदार, जे० सी० दी जैन कान्सेप्ट ऑफ टाइम, रिसर्च जर्नल ऑफ फिलासफी, रांची, ३१, १६७२, पृ० ७५-८८ ( १ ) जवेरी जे० एस० फिलासफी लाडनू १९०५ (१२) शास्त्री, नेमिचन्द्र जैन ज्योतिष साहित्य, आचार्य: भिक्षु स्मृतिग्रन्थ, कलकत्ता, १६६१, पृ० २१०-२२१ (१३) शास्त्री, नेमिचन्द्र, ग्रीक- पूर्व जैन ज्योतिष विचारधारा, ब्र० चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, आरा, १९५४, ४६२-४६६ थ्योरी ऑफ एटम इन जैन Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ गणितानुयोग : प्रस्तावना (९४) शास्त्री नेमिचन्द्र, भारतीय-ज्योतिष का पोषक जैन- ज्योतिष, वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ, सागर; १९६२, ४७८-४८४ (९५) वलोदी , ए० आई० वोल्कोवोया, ओ० एफ०, "श्रीधर-पाटी का गणित", फिजिको मेतिमेतिश्की नऊकी, वा स्ट्रांख वस्तेका, विपुस्क I (iv), मास्को, १९६६, पृ० १६०-१८१, १८१-२४६ ।। (६६) गुप्ता, आर० सी०, महावीराचार्याज रूल फार सर्फेस एरिया ऑफ ए स्फेरिकल सेगमेंट; ए न्यू इण्टरप्रिटेशन, तुलसीप्रज्ञा-२, अप्रे० जू० १६७५, पृ० ६३-६६ (६७) शुक्ला, के० एस०, दि न्यू मेथामेटिक्स इन दी सेविथ सेंचुरी एज फाउण्ड इन भास्कर I-कामेन्ट्री आन आर्यभटीय, गणित, २२-१, ११५-१३०; २२१, ६१-७८; २३.१, ५७-७६; ४१-५० (६८) लिश्क, एस० एस०, पोस्ट वैदिक एण्ड प्रिसिद्धान्तिक एस्ट्रानामी, शोध प्रबन्ध, पटियाला विश्वविद्यालय ((EE) अग्रवाल, मु० बि०, गणित एवं ज्योतिष के विकास में जैनाचार्यों का योगदान, शोधप्रबन्ध, आगरा वि० वि०. १९७२, पृ० ३७७ (१००) ज्लाट, डब्लू एल०, दी रोल ऑफ एक्जियम ऑफ च्वाइस इन दो डेवेलपमेंट ऑफ दो एबसेट्रेक्ट थ्योरी ऑफ सेट्स, शोधप्रबन्ध, कोलम्बिया यूनिवर्सिटी, १९५७ (१०१) जैन, बी० एस०, आन दी गणित सार संग्रह आफ महावीराचार्य, आई० जे०एच० एस०,१२१ १९७७, पृ० १७-३२ (१०२) जैन, एल. सी०, आन दो कांट्रिब्यूशन्स, ट्रांसमिशन्स एण्ड इन्फ्लुएंसेज आफ दो जैन स्कूल आफ मेथामेटिकल साइंसेज, तुलसी प्रज्ञा, लाडनू३.४, १९७७, पृ० १२१-१३४ (१०३) जैन, अनुपम, एवं अग्रवाल, सुरेश, महावीराचार्य, हस्तिनापुर, १९८५ (१०४) जैन, अनुपम, सर्वे आफ दी वर्क डन. आन जैन मेथामेटिक्स, तुलसी प्रज्ञा, ११.१-३, १९८३, पृ० १५-२७ (१०५) दास एस० आर०, दो जैन केलेण्टर, दी. जैन एंटी क्वेरी, ३२, १६३७, पृ० ३१-३६ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण की भूमिका (क) जैन मान्यतानुसार लोक-वर्णन पं० हीरालाल शास्त्री अनन्त आकाशं के ठीक बीचों-बीच यह हमारा लोक भव- और तनुवात इन तीन वलयों से वेष्टित है । अर्थात् इनके आधार 'स्थित है, जो नोचे पल्यंक के सदृश, मध्य में वज्र के समान और पर अवस्थित है। प्रथम वलय अधिक सघन है, अतः इसे घनोदधि ऊपर खड़े मृदंग के तुल्य है । यह लोक नीचे विस्तीर्ण, मध्य में कहते हैं । दूसरा वलय तीसरे वलय की अपेक्षा सघन है, अतः उसे - संक्षिप्त और ऊर्ध्वमुख मृदंग के समान हैं । यह सब मिलकर लोक धनवात कहा गया है। तीसरा वलय उक्त दोनों की अपेक्षा का आकार पुरुष के आकार का सा हो जाता है। जैसे कोई पुरुष ___ अत्यन्त सूक्ष्य या पतला है, इसलिये इसे तनुवात कहते हैं । अपने दोनों पैरों को फैलाकर और दोनों हाथों को कटि पर रख २-अधोलोक • कर खड़ा हो, तो उसका जैसा आकार होगा, ठीक इसी प्रकार - लोक का आकार है । अथवा आधे मृदंग के ऊपर पूरे मृदंग को रखने कटि-स्थानीय झल्लरी के समान आकार वाले मध्यलोक के • पर जैसा आकार होता है, वैसा आकार लोक का समझना चाहिए। नीचे सात पृथिवियाँ हैं-घम्मा, वंशा, सेला, अंजना, अरिष्टा, • कटि के नीचे के भाग को अघो-लोक, ऊपर के भाग को ऊर्ध्व- मघा और माघवती । रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, लोक और कटि-स्थानीय भाग को मध्य-लोक कहते हैं । इस तीन धूमप्रभा, तमःप्रभा और महामतःप्रभा-इनके गोत्र कहे गये हैं। विभाग वाले लोक को लोकाकाश कहा जाता है, क्योंकि इसके इनमें से पहली रत्नप्रभा के तीन भाग हैं-खरभाग, पंकभाग 'भीतर ही जीव-पुद्गलादि सभी चेतन ओर अचेतन द्रव्य पाये जाते __और अब्बहुलभाग । इनमें खरभाग सोलह हजार योजन मोटा है। हैं । इस लोकाकाश के सर्व ओर पाये जाने वाले अनन्त आकाश पंकभाग चौरासी हजार योजन और अब्बहुलभाग अस्सी हजार - को अलोकाकाश कहते हैं, क्योंकि इस में केवल आकाश के अति- योजन मोटा है। इस प्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख • रिक्त अन्य कोई चेतन या अचेतन द्रव्य नहीं पाया जाता है। अस्सी हजार योजन है। इस तीन विभाग वाली रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे असंख्यात हजार योजन के अन्तराल के बाद दूसरी शर्करा १-सामान्य लोक-स्वरूप पृथ्वी है। यह एक लाख बत्तीस हजार योजन मोटी है। इसके लोकाकाश की ऊँचाई १४ राजु है । यह अधोलोक में सबसे नीचे पुनः असंख्यात हजार योजन नीचे जाकर तीसरी बालुका नीचे सात राजु विस्तृत है । पुनः क्रम से घटता हुआ कटि स्था- पृथ्वी हैं। इसकी मोटाई एक लाख अट्ठाईस हजार योजन है। -नीय मध्य-भाग में एक राजु विस्तृत है। इससे ऊपर क्रम से बढ़ता इस तीसरी पृथ्वी का तल भाग मध्यलोक से दो रज्जु प्रमाण नीचा हुआ दोनों हाथों में कोहिनी-स्थान.पर पांच राजु विस्तृत है । पुनः है। तीसरी पृथ्वी से असंख्यात हजार योजन नीचे जाकर चौथी - क्रम से घटता हुआ शिरःस्थानीय लोक के अग्र-भाग पर एक पंकप्रभा पृथ्वी है । इसकी मोटाई एक लाख चौबीस हजार योजन राजु विस्तृत है। यह समस्त लोक सर्व ओर धनोदधि, घनवात है। इस पृथ्वी का तल भाग मध्यलोक से तीन राजु नीचा है। १.. देखो प्रस्तुत ग्रन्थ का सूत्र २८ । तिलोयपण्णत्ती, अ०.१ गा० १३७-३८ । उन्भिय दलेक्कमुरवद्धसंचयसपिणहो हवे लोगो । (त्रिलोकसार गा. ६) २. चोद्दस रज्जूदयो लोगो (त्रिलोकसार गा० ६) जगसेढिसत्तभागो रज्जु । (त्रिलोकसार गा० ७) ...चउदसरज्जू लोओ बुद्धिकओ. होइ सत्तराजुघणो । कर्मग्रन्थ. ५-६७ ... सयंभुपरिमंताओ अवरंतो जाव रज्जूमाइओ। (प्रवचनसारो० १४३, ३१) राजु का प्रमाण जगच्छे णी के सातवें भाग बराबर है जो कि स्वयम्भूरमण द्वीप के पूर्व-भाग से लेकर पश्चिमभाग पर्यन्त के प्रमाण है । एक राजु में असंख्यात योजन होते हैं । १३...दि०. शास्त्रों में धनोदधिवात.का वर्ण गोमूत्र-सम, घनवात का मूंग-समान और तनुवात का अव्यक्त वर्ण कहा है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ गणितानुयोग : भूमिका इससे असंख्यात हजार योजन नीचे जाने पर पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी अन्तमुहूर्त में ही उनके शरीर का पूरा निर्माण हो जाता है और है। इसकी मोटाई एक लाख बीस हजार योजन है। इसका तल वे उत्पन्न होते ही ऊपर की और पैर तथा अधोमुख होकर नीचे भाग मध्यलोक से चार रज्जु नीचा है। पांचवीं पृथ्वी से असंख्यात नरक भूमि पर गिरते हैं। हजार योजन नीचे जाने पर छठी तमःप्रभा पृथ्वी है । इसकी सातवीं पृथ्वी के नीचे एक राजु-प्रमाण मोटे और सात मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन है। इसका तल भाग ___ राजु-विस्तृत क्षेत्र में केवल एकेन्द्रिय जीव ही रहते हैं। मध्यलोक से पाँच रज्जु नीचा है । छठी पृथ्वी से असंख्यात हजार ३-मध्यलोक योजन नीचे जाने पर सातवीं महामतःप्रभा पृथ्वी है । इसकी मोटाई एक लाख आठ हजार योजन है। इसका तल भाग मध्यलोक का आकार झल्लरी या चूड़ी के समान गोल है। मध्यलोक से छह राजु नीचा है। इसके सबसे मध्य भाग में एक लाख योजन विस्तृत जम्बूद्वीप है। - रत्नप्रभा पृथ्वी के एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण क्षेत्र इसे सर्व ओर से घेरे हुए दो लाख योजन विस्तृत लवण समुद्र है। में से ऊपर नीचे के एक-एक हजार योजन भाग को छोड़कर मध्य इसे सर्व ओर से घेरे हुए चार लाख योजन विस्तृत धातकीखण्ड वर्ती क्षेत्र में ऊपर भवनवासियों के सात करोड़ बहत्तर लाख द्वीप है। इसे सर्व ओर से घेरे हुए आठ लाख योजन विस्तृत भवन हैं, तथा नीचे नारकियों के तीस लाख नारकाबास हैं। कालोद समुद्र है। इसे सर्व ओर से घेरे हुए सोलह लाख योजन किन्तु त्रिलोकपज्ञति, तत्त्वार्थ-वात्तिक आदि दि० ग्रन्थों में इससे । विस्तृत पुष्कर द्वीप है । इस पुष्कर द्वीप के ठीक मध्य भाग में भिन्न उल्लेख पाया जाता है। मोल आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। इससे परवर्ती पुष्करार्ध दूसरी पृथ्वी के ऊपर नीचे एक-एक हजार योजन भूमि- द्वीप में तथा उससे आगे के असंख्यात द्वीप समुद्रों में वैक्रिय लब्धि भाग को छोड़कर मध्यवर्ती भाग में नारकों के २५ लाख नार- संपन्न या चारणमुनि के अतिरिक्त अन्य मनुष्यों का आवागमन कावास हैं । इसी प्रकार तीसरी से लगाकर सातवीं पृथ्वी तक नहीं हो सकता, ऐसी श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है। किन्तु उनकी मोटाई के ऊपर नीचे के एक-एक हजार योजन भाग को दिगम्बर-सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार ऋद्धि-सम्पन्न मनुष्य छोड़कर मध्यवर्ती भागों के क्रमशः १५ लाख, १० लाख, ३ लाख भी नहीं आ जा सकते हैं। पाँच कम १ लाख और ५ नारकावास है। ये नारकावाश पटल पुष्कर द्वीप को घेर कर उससे दूने विस्तार वाला पुष्करोद या पाथड़ों में विभक्त हैं । पहली आदि पृथ्वी में क्रमशः १३, ११, समुद्र है । पुनः उसे घेर उत्तरोत्तर दूने दूने विस्तार वाले वरुणवर है, ७, ५, ३ और १ पटल हैं। इस प्रकार सातों पृथिवियों के द्वीप-वरुणवर समुद्र, क्षीरवरद्वीप-क्षीरोदसागर, घृतवरद्वीप-घृतवर नारकावासों के ४६ पटल हैं । इन ४६ पटलों में विभक्त सातों पृथि- समुद्र, क्षोदवरद्वीप-क्षोदवर समुद्र, नन्दीश्वरद्वीप-नन्दीश्वरवर वियों के नारकावासों का प्रमाण ८४ लाख है, जिनमें असंख्यात समुद्र आदि नाम वाले असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। सबसे नारकी जीव सदाकाल अनेक प्रकार के क्षेत्रज परस्परोदीरित, अन्त में असंख्यात योजन विस्तृत स्वयम्भूरमण समुद्र है । शारीरिक, मानसिकों दुःखों को भोगा करते हैं। इन नरकों में इस असंख्यात द्वीप-समृद्रों वाले मध्य लोक के ठीक मध्य में कर कर्म करने वाले पापी मनुष्य और पशु-पक्षी तिर्यच उत्पन्न जो एक लाख योजन विस्तृत जम्बूद्वीप है उसके भी मध्य भाग में होते हैं । वे पहली पृथ्वी में कम से कम १० हजार वर्ष की आयु मूल में दस हजार योजन विस्तार वाला और एक लाख योजन से लेकर सातवीं पृथ्वी में ३३ सागरोपम काल तक नाना दुःखों ऊँचा मेरु पर्वत है। इसके उत्तर दिशा में अवस्थित उत्तरकुरु में को उठाया करते हैं। उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। उनका एक अनादि-निधन पार्थिव जम्बू-वृक्ष है, जिसके निमित्त से ही शरीर वैक्रियिक और औपपातिक होता है । जन्म लेने के पश्चात इस द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा है । इस द्वीप का विभाजन करने १. दि० परम्परा में शर्करा आदि पृथिवियों की मोटाई क्रमशः ८००००, ३२०००, २८०००, २४०००, २००००, १६००० और ____८००० योजन मानी गई है । तिलोयपण्णत्ति में 'पाठान्तर' देकर उपर्युक्त मोटाई का भी उल्लेख है। २. देखो प्रस्तुत ग्रन्थ का सूत्र १५६ । । ३. देखो प्रस्तुत ग्रन्थ का सूत्र १२७ । ४. दिगम्बर परम्परा के अनुसार रत्नप्रभा के तीन भागों में से प्रथम भाग के एक-एक हजार योजन क्षेत्र को छोड़कर मध्यवर्ती १४ हजार योजन के क्षेत्र में किन्नर आदि सात व्यन्तर के देवों के, तथा नागकुमार आदि नौ भवनकासी देवों के आवास हैं। तथा रत्नप्रभा के दूसरे भाग में असुरकुमार, भवनपति और राक्षस व्यन्तरपति के आवास हैं। रत्नप्रभा के तीसरे भाग में नारकों के आवास हैं। (देखो तिलोयपण्णत्ति अ०३ मा० ७ । तत्त्वार्थवार्तिक अ० ३, सू०१) Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाले पूर्व से लेकर पश्चिम तक लम्बे छह वर्षधर पर्वत है-हिमवान्, महाहिमवान् निषध, नील, रुमी और शिखरी इन वर्षधर पर्वतों से विभक्त होने के कारण जम्बूद्वीप के सात विभाग हो जाते हैं, इन्हें वर्ष या क्षेत्र कहते हैं । इनके नाम दक्षिण की ओर से इस प्रकार हैं- भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत वर्ष इनमें से विदेह क्षेत्र के मध्य भाग में मेरु पर्वत है । इसके दक्षिणी भाग में भरत आदि तीन क्षेत्र हैं और उत्तरी भाग में रम्यक आदि तीन क्षेत्र हैं । ४ – कर्मभूमियाँ और अकर्मभूमियाँ उपर्युक्त सात क्षेत्रों में से भरत, ऐरावत और विदेहक्षेत्र (देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़कर) को कर्मभूमि कहा जाता है, क्योंकि यहाँ के मनुष्य अति, मषि, कृषि आदि कर्मों के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं । यहाँ के मनुष्य-तिर्यंच अपने-अपने पुण्य-पापों के अनुसार नरक, तिर्यचादि चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं तथा वहाँ के ही मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं। उक्त कर्मभूमि के सिवाय शेष को अकर्मभूमि या भोगभूमि कहा जाता है, क्योंकि यहाँ असि-मषि आदि कर्मों के द्वारा जीवकोपार्जन नहीं करना पड़ता, किन्तु प्रकृति- अदत्त कल्पवृक्षों के द्वारा ही जीवन-निर्वाह होता है। भोगभूमि के जीवों की अकाल मृत्यु भी नहीं होती है, किन्तु वे सदा स्वस्थ रहते हुए पूर्ण आयुपर्यन्त दिव्य भोगों को भोगते रहते हैं। ५- अन्तरद्वीप प्रथम हिमवान पर्वत की चारों विदिशानों में तीन-तीन सौ योजन लवण समुद्र के भीतर जाकर चार अन्तर द्वीप हैं । इसी प्रकार लवण समुद्र के भीतर चार सो, पाँच सौ, छह सौ सात सौ आठ सौ और नौ सौ योजन आगे जाकर चारों विदिशाओं में चार-चार अन्तर-द्वीप और हैं। इस प्रकार चुल्ल हिमवान् के ( ७ X ४ = २८ ) सर्व अन्तर- द्वीप २८ होते हैं । इसी प्रकार छठे शिखरी पर्वत के लवण समुद्रगत २८ अन्तर- द्वीप हैं । : दोनों ओर के मिलाकर ५६ अन्तर द्वीप हो जाते हैं । 1 इनमें एकोरुक आदि अनेक आकृतियों वाले मनुष्य रहते हैं । वे कल्पवृक्षों के फल-फूलों को खाकर अपना जीवन निर्वाह करते हैं, • स्त्री-पुरुष के रूप में युगल उत्पन्न होते हैं और साथ ही मरते * हैं । इनके मरण के कुछ समय पूर्व युगल - सन्तान उत्पन्न होती है गणितानुयोग भूमिका ७६ ऊपर जिन छह वर्षधर पर्वतों के नाम कहे गये हैं, उनके ऊपर क्रमशः पद्म, महापद्म, तिगिन्छ, केशरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक नाम का एक-एक हद या सरोवर है । इन्हीं सरोवरों के मध्य में पद्मों (कमलों) का अवस्थान बतलाया गया है। (विशेष वर्णन के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ का तद्विषयक प्रसंग देखिए । हिमवान पर्वतस्य पद्मग्रह के पूर्व भाग से गंगा महानदी निकली है, जो पर्वत से नीचे गिरकर दक्षिण भरतक्षेत्र में बहकर पूर्वमुखी होकर पूर्व के लवण समुद्र में जाकर मिलती है । इसी पद्म-सरोवर के पश्चिम-भाग से सिन्धु महानदी निकलकर भारतवर्ष के दक्षिण भाग में कुछ दूर बहकर पश्चिमाभिमुखी होकर पश्चिम लवण समुद्र में जाकर मिलती है। इसी सरोवर के उत्तरी भाग से रोहतांगा नदी निकली है जो कि क्षेत्र में बहती है । अन्तिम शिखरी पर्वत के ऊपर स्थित पुण्डरीक सरोवर के पूर्वी भाग से रक्ता और पश्चिमी भाग से रक्तोदा नदी निकलकर ऐरावत क्षेत्र में बहती हुई क्रमशः पूर्व और पश्चिम समुद्र में जाकर मिलती है। इसी पुण्डरीक सरोवर के दक्षिणीभाग से सुवर्णकूला नदी निकली है, जो हैरण्यवत क्षेत्र में बहती है। शेष मध्यवर्ती वर्षधर पर्वतों के सरोवरों से दो-दो नदियाँ निकली हैं । वे अपने-अपने क्षेत्रों में बहती हुईं पूर्व एवं पश्चिम के समुद्र में जाकर मिलती हैं। इन प्रधान महानदियों में सहस्रों अन्य छोटी नदियां आकर मिलती हैं । विदेह क्षेत्र में मेरु पर्वत के ईमानादि पारों कोणों में कमणः गन्धमादन, माल्यवान, सौमनस और विद्युत्प्रभ नाम वाले चार पर्वत हैं । इनसे विभक्त होने के कारण मेरु के दक्षिणी भाग को देवकुरु और उत्तरी भाग को उत्तरकुरु कहते हैं । ये दोनों ही क्षेत्र भोगभूमि हैं। मेरु के पूर्ववर्ती भाग को पूर्व विदेह और पश्चिम दिशा वाले भाग को अपर या पश्चिम-विदेह कहते हैं। इन दोनों ही स्थानों में सीता-सीखोदा नदी के बहने से दो-दो खण्ड हो जाते हैं । इन चारों ही खण्डों में कर्मभूमि है । इन्हीं में 'सीमन्धर आदि तीर्थंकर सदा विहार करते और धर्मोपदेश देते हुए विराजते हैं और आज भी वहाँ के पुरुषार्थी मानव कर्मों का • क्षय करके मोक्ष जाते हैं । ६ -- ज्योतिष्क लोक जम्बूद्वीप के समतल भाग से ७६७ योजन की ऊँचाई से लेकर ६०० योजन की ऊँचाई तक ज्योतिष्क लोक है, जहाँ पर १. दिगम्बर परम्परा में अन्तरद्वीपों की संख्या ६६ बतलायी गयी है। विशेष के लिए देखो - तिलोयपण्णत्ति अ०४, मा० २४७८-२४६० | तत्त्वार्थवात्र्तिक अ० ३, सूत्र ३७ की टीका आदि । २.. देखो --तिलोमपण्णत्ति अ० ४, गा० २४८६ तथा २५१२ आदि । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० गणितानुयोग : भूमिका सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा, इन पांच जाति के ज्योतिषी १५ मंडलों में चन्द्रमास में १४+ITA मंडल ही चलता है,. देवों के विमान हैं । ये सभी विमान यतः ज्योतिर्मान या प्रकाश- अतः चन्द्रमास के अनुसार वर्ष में ३५५ या ३५६ ही दिन होते स्वभावी हैं, अतः इन्हें ज्योतिष्क-लोक कहते हैं। और उनमें है। रहने वाले ज्योतिष्क देवों के निवास के कारण उक्त क्षेत्र जैन मान्यतानुसार लवण-समुद्र में ४ सूर्य और '४ चन्द्र हैं।' ज्योतिष्क-लोक कहलाता है । तिरछे रूप में ज्योतिष्क धातकीखण्ड में १२ सूर्य १२ चन्द्र हैं। कालोद-समुद्र में ४२' लोक स्वयम्भूरमण समुद्र तक फैला हुआ है। इसमें ७६० योजन सूर्य और ४२ चन्द्र है। पुष्करार्ध-द्वीप में ७२ सूर्य और ७२ की ऊँचाई पर सर्वप्रथम ताराओं के विमान हैं। उनसे १० चन्द्र हैं । पुष्कराध के परवर्ती अर्ध भाग में भी ७२-७२ ही योजन की ऊँचाई पर सूर्य का विमान है। सूर्य से ८० योजन सूर्य-चन्द्र हैं । इससे आगे स्वयम्भूरमण-समुद्र पर्यन्त सूर्य और ऊपर चन्द्र का विमान है। चन्द्र से ४ योजन ऊपर नक्षत्र हैं। चन्द्र की संख्या उत्तरोत्तर दूनी-दूनी है। नक्षत्रों से ४ योजन ऊपर बुध का विमान है। बुध से ३ योजन एक चन्द्र के परिवार में एक सूर्य, अट्ठाईस नक्षत्र, अठ्यासी ऊपर शुक्र का विमान है । शुक्र से ३ योजन ऊपर गुरु का विमान ग्रह और ६६६७५ कोड़ाकोड़ी तारे होते हैं। जम्बूद्वीप में दो है । गुरु से ३ योजन ऊपर मंगल का विमान है । और मंगल से चन्द्र होने से नक्षत्रादि की संख्या दूनी जाननी चाहिए । इस ३ योजन ऊपर शनैश्चर का विमान है। इस प्रकार सर्व प्रकार सारे ज्योतिर्लोक में असंख्य सूर्य, चन्द्र हैं । इनसे अट्ठाईस ज्योतिष्क विमान-समुदाय एक सौ दस योजन के भीतर पाया गुणित नक्षत्र और अठयासी गुणित ग्रह हैं । तथा सूर्य से '६६६७५ जाता है। कोड़ाकोड़ी गुणित तारे हैं। ___ मध्य-लोकवर्ती तीसरे पुष्कर-द्वीप के मध्य में जो मानुषोत्तर मनुष्यलोकवर्ती ज्योतिष्क-विमान यद्यपि स्वयं गमन-स्वभावी पर्वत है, वहाँ तक का क्षेत्र मनुष्यलोक कहलाता है। इस हैं, तथापि आभियोग्य जाति के देव; सूर्य चन्द्रादि विमानों को मनुष्यलोक के भीतर सर्व ज्योतिष्क-विमान मेरु की प्रदक्षिणा गतिशील बनाये रखने में निमित्त-स्वरूप हैं। ये देव सिंह, गज, करते हुए निरन्तर घूमते रहते हैं। यहाँ पर सूर्य के उदय और बैल और अश्व का आकार धारण कर और क्रमश: पूर्वादि अस्त से ही दिन-रात्रि का व्यवहार होता है। मनुष्यलोक के चारों दिशाओं में संलग्न रहकर मर्यादि को गतिशील बनाये बाहरी भाग से लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र तक के असंख्यात योजन । रखते हैं। विस्तृत क्षेत्र में जो असंख्य ज्योतिष्क-विमान हैं, वे घूमते नहीं, किन्तु सदा अवस्थित रहते हैं। जम्बूद्वीप में मेरु के चारों ओर ७-ऊर्ध्व-लोक ११२१ योजन तक ज्योतिष्क-मण्डल नहीं है। लोकान्त में भी मेरु-पर्वत को तीनों लोक का विभाजक माना गया है। मेरु इतने ही योजन छोड़कर ज्योतिष्क-मण्डल अवस्थित है। इसके के अधस्तन भाग को अधोलोक और मेरु के ऊपर के भाग को मध्यवर्ती भाग में यथासंभव अन्तराल के साथ सर्वत्र वह फैला ऊध्वं-लोक कहते हैं। ऊर्ध्व लोक में श्वेताम्बरीय मान्यतानुसार हुआ है। स्वर्गों की संख्या बारह है और दिगम्बरीय मान्यतानुसार सोलह जैन मान्यता के अनुसार जम्बूद्वीप में २ सूर्य और २ चन्द्र है। इन स्वर्गों में कल्पवासी देव और देवियाँ रहती हैं। इनसे हैं । एक सूर्य मेरु पर्वत की पूरी प्रदक्षिणा दो दिन रात में करता ऊपर नौ अवेयक, उनके ऊपर दिगम्बरीय मान्यतानुसार नौ है। इसका परिभ्रमण-क्षेत्र जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन और अनुदिश और उनके ऊपर पांच अनुत्तर विमान हैं। इन विमानों लवण-समुद्र के भीतर ३३० योजन है। सूर्य के घूमने के में रहने वाले देव कल्पातीत कहलाते हैं, क्योंकि उनमें इन्द्र, मण्डल १८३ हैं। एक मण्डल से दूसरे मण्डल का अन्तर दो मार दो सामानिक आदि कल्पना नहीं है, वे उससे परे हैं। इन विमानों योजन का है । इस प्रकार प्रथम मण्डल से अन्तिम मण्डल तक म रहन वाले देव समान वभव वाले हैं और सभी अपने 3 परिभ्रमण करने में सूर्य को ३६६ दिन लगते हैं। सौर मास के इन्द्र-स्वरूप से अनुभव करते हैं, इसलिए वे (अहं+इन्द्रः)अनुसार एक वर्ष में इतने ही दिन होते हैं। चन्द्र के परिभ्रमण 'अहमिन्द्र' कहलाते हैं। के मण्डल केवल १५ हैं । चन्द्र को भी मेरु की एक प्रदक्षिणा स्वर्गों में जो कल्पवासी देव रहते हैं, उनमें इन्द्र, सामानिक, करने में दो दिन-रात से कुछ अधिक समय लगता है, क्योंकि त्रायस्त्रिश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, उसकी गति सूर्य से मन्द है। इसी कारण से चन्द्र के उदय में आभियोग्य और किल्विर्षिक नाम की दस जातियां हैं। जो सूर्य की अपेक्षा आगा-पीछापन दिखाई देता है । एक चन्द्र अपने सामानिक आदि अन्य देवों के स्वामी होते हैं, उन्हें इन्द्र कहते Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : भूमिका ८१ हैं। उनकी आज्ञा सभी देव शिरोधार्य करते हैं और उनका वैभव, 8-सिद्धलोक ऐश्वर्य अन्य सर्व देवों से बहुत बढ़ा-चढ़ा होता है । जो आज्ञा ऊर्ध्वलोक के सबसे अन्त में स्थित सर्वार्थसिद्ध विमान के और ऐश्वर्य को छोड़कर शेष सब बातों में इन्द्र के समान होते अग्रभाग से बारह योजन ऊपर ईषत्प्राग्भारा नाम की पृथ्वी है। हैं उन्हें सामानिक कहते हैं। मंत्री और पुरोहित का काम करने वह पैतालीस लाख योजन विस्तत गोल-आकार वाली है। यह वाले देव त्रायस्त्रिंश कहलाते हैं। उनकी संख्या तैतीस ही होती बीच में आठ योजन मोटी है फिर क्रम से घटती हुई सबसे है, इसलिए ये त्रायस्त्रिश कहे जाते हैं । इन्द्र की सभा या परिषद् अन्तिम प्रदेशों में मक्खी के पंख से भी पतली हो गई है। के सदस्यों को पारिषद कहते हैं । इन्द्र के अंग-रक्षक देव आत्मरक्ष दिगम्बर मतानुसार इषत्प्राग्भार पृथ्वी लोकान्त तक विस्तृत कहलाते हैं । सर्व देवों की रक्षा करने वाले देव लोकपाल कहलाते होने से एक राजू चौड़ी और सात राजु लम्बी है । इसके ठीक होने से हैं । सेना में काम करने वाले देवों को अनीक कहते हैं। साधा मध्य भाग में मनुष्य-क्षेत्र पैतालीस लाख योजन लम्बा-चौड़ा रण प्रजा-स्थानीय देवों को प्रकीर्णक कहते हैं। देवलोक में जो गोल-आकार वाला सिद्धक्षेत्र है। इसका आकार रूप्यमय छत्रादेव सब से हीन पुण्यवाले होते हैं, उन्हें किल्विषिक कहते हैं। कार है । इस सिद्धक्षेत्र या सिद्धलोक में कर्मों का क्षय करके प्रस्तुत ग्रन्थ में भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों का । संसार चक्र से छूटने वाले मुक्त जीव निवास करते हैं और भी वर्णन किया है, उनमें से भवनवासियों में भी उपर्युक्त अनन्त काल तक अपने आत्मिक अव्याबाध निरुपम सुख को दस भेद हैं । किन्तु व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में त्रायस्त्रिश भोगते रहते हैं। और लोकपाल को छोड़कर शेष आठ भेद होते हैं। व्यन्तर देवों १०-क्षेत्र-माप के आवास रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम-द्वितीय काण्ड में तथा मध्य जैन परम्परा में क्षेत्र-माप इस प्रकार बतलाया गया हैलोकवर्ती असंख्यात द्वीप और समुद्रों में पाये जाते हैं। परमाणु =पुद्गल का सबसे छोटा अविभागी पाँचवें ब्रह्म स्वर्ग के अन्त में सारस्वत आदि लौकान्तिक अंश देव रहते हैं । ये देवर्षि कहलाते हैं । वे स्वर्ग के देवों में सर्वाधिक अनन्तपरमाणु = १ उस्साहसहिया (उत्संज्ञसंज्ञिका) ज्ञानी होते हैं। वे तीर्थंकरों के अभिनिष्क्रमण कल्याणक के ८ उस्सण्हसण्हिया = १ सहसण्हिया (संज्ञासंज्ञिका) सिवाय अन्य किसी कल्याणक में नहीं आते हैं और वे सभी एक ८ सण्डसण्डिया = १ ऊर्ध्वरेणु भवावतारी होते हैं। ८ ऊर्ध्वरेणु = १ त्रसरेणु भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी इन सभी ८ प्रसरेणु = १ रथरेणु प्रकार के देवों का औपपातिक जन्म होता है। ये अपनी उपपाद ८ रथरेणु = १ देवकुरु के मनुष्य का बालाग्र. शय्या पर जन्म लेने के पश्चात एक अन्तर्मुहूर्त में ही पूर्ण युवा- ८ देवकुरु मनुष्य का बालान = १ हरिवर्ष वस्था को प्राप्त हो जाते हैं। ८ हरिवर्ष = १ हैमवत ८ हैमवत " = १ विदेहक्षेत्रज " ८-तमस्काय ८ विदेहक्षेत्रज " = १ भरतक्षेत्रज " जम्बूद्वीप से तिर्छ असंख्यात द्वीप-समुद्रों को लांघने पर -१ लिक्षा (लीख) अरुणवर-द्वीप की बाहरी वेदिका के अन्त से अरुणोद समुद्र में ८ लिक्षा = १ यूका (जू) बयालीस हजार योजन अवगाहन करके जल के ऊपरी भाग में एक ८ यूका = १ यवमध्य प्रदेश की श्रेणी वाला तमस्काय (अन्धकार-पिण्ड) आरम्भ होता ८ यवमध्य = १ उत्सेधांगुल है। पुनः वह १७२१ योजन ऊपर उठकर विस्तार को प्राप्त = १ पाद होता हुआ सौधर्मादि चार कल्पों को आवृत करके पांचवें ब्रह्म २ पाव = १ वितस्ति लोक में रिष्ट विमान को प्राप्त होकर समाप्त होता है । इस तम- २ वितस्ति = १ रत्नि स्काय का आकार नीचे मल्लकमूल और मुर्गे के पीजरे के समान २ रत्नि = १ कुक्षि (दि. परं० किष्कु), है। इसके लोकतमिस्र आदि १३ नाम हैं और इसकी आठ २ कुक्षि (किष्कु) = १ दण्ड (धनुष) कृष्णराजियाँ बतलायी गयी हैं । (विशेष के लिए प्रस्तुत ग्रन्थ का २ सहन धनुष = १ गव्यूति तद्विषयक प्रसंग देखिए।) ४ गव्यूति =१ योजन Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ गणितानुयोग : भूमिका १ पक्ष मुहूर्त उपर्युक्त माप-वर्णन उत्सेधांगुल से है। उत्सेधांगुल से दिगम्बर मान्यतानुसार उपर्युक्त कालमाप का वर्णन इस प्रमाणांगुल पाँच सौ गुणा होता है। एक उत्सेधांगुल लम्बी एक प्रकार हैप्रदेश की श्रेणी (पंक्ति) को सूच्यंगुल कहते हैं । सूच्यंगुल के वर्ग समय काल का सबसे छोटा अविको प्रतरांगुल कहते हैं और सूच्यंगुल के धन को घनांगुल कहते भागी अंश हैं । असंख्यात कोड़ाकोड़ी घनांगुल गुणित योजनों की पंक्ति को असंख्यात समय १ आवली श्रेणी या जगच्छणी कहते हैं। जगच्छणी के वर्ग को जगत्प्रतर संख्यात आवली १ प्राण (श्वासोच्छ्वास) कहते हैं और जगच्छेणी के धन को लोक या धन-लोक कहते हैं। ७ प्राण १ स्तोक इनमें से जगच्छणी के सातवें भाग-प्रमाण क्षेत्र को राज ७ स्तोक १ लव कहते हैं । लाकाकाश का घनफल ३४३ राजु प्रमाण है । ७७ लव १ मुहत ११-काल-माप ३० मुहूर्त १ अहोरात्र समय काल का सूक्ष्मतम अंश १५ अहोरात्र जघन्य युक्त असंख्यात समय = १ आवलिका २ पक्ष १ मास आवलिका=१ प्राण २ मास १ ऋतु प्राण १ स्तोक १ अयन स्तोक १ लव २ अयन १ वर्ष ३१ लव १ घड़ी ८४ लाख वर्ष १ पूर्वांग घड़ी १ मुहूर्त(=४८ मिनट) ८४ लाख पूर्वांग १ पूर्व १ अहोरात्र ८४ ,, पूर्व १ पर्वांग अहोरात्र ८४ , पर्वांग १ पर्व मास १ वर्ष , पर्व १ नयुतांग लाख वर्ष १ पूर्वांग , नयुतांग १ नयुत पूर्वांग " नयुत १ कुमुदांग १ त्रुटितांग , कुमुदांग १ कुमुद त्रुटितांग १ त्रुटित १ पद्मांग त्रुटित १ अडडांग , पद्मांग १ पद्म अडडांग १ अडड ८४ , पद्म - १ नलिनांग १ अववांग ८४ , नलिनांग = १ नलिन अवांग १ अवव इसी प्रकार आगे कमलांग-कमल, तुट्यांग-तुट्य, अटटांगअवव १हूहूकांग अटट, अममांग-अमम, हूहूअंग-हूहू, लतांग-लता, महालतांगहूहूकांग १ हूहूक महालता, शिरःप्रकम्पित, हस्तप्रहेलित और अचलात्म को १ उत्पलांग उत्तरोत्तर ८४ लाख गुणित जानना चाहिए। " , उत्पलांग १ उत्पल ये सभी संख्याएँ संख्यात गणना के ही भीतर हैं। इसी प्रकार आगे पद्मांग, पद्म, नलिनांग, नलिन, अर्थनिपुरांग, अर्थनिपुर, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नयुतांग, पल्योपम और सागरोपम आदि असंख्यात-गणना के नयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग और शीर्षप्रहेलिका भीतर हैं। उत्तरोत्तर चौरासी लाख गुणित जानना चाहिए। यह काल-मान इन सबसे ऊपर अन्त-विहीन जो राशि है, वह अनन्त श्वेताम्बर-आगमों के अनुसार है। कहलाती है। . १ मास १ पूर्व पूर्व अडड हूहूक Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : भूमिका ८३ | (ख) बौद्धमतानुसार लोक-वर्णन १-लोक-रचना आ० वसुबन्धु ने अपने अभिधर्म-कोश में लोक रचना इस समान है' । मेरु के पश्चिम भाग में मण्डल-भार अवरगोदानीय'प्रकार बतलाई है : द्वीप है । इसका विस्तार अढाई हजार योजन और परिधि साढ़े लोक के अधोभाग में सोलह लाख योजन ऊँचा, अपरिमित सात हजार योजन प्रमाण है। मेरु के उत्तर भाग में सम लवायु-मण्डल है । उसके ऊपर ११ लाख बीस हजार योजन चतुष्कोण उत्तरकुरुद्वीप है । इसकी एक-एक भुजा दो-दो हजार योजन की है। इनमें से पूर्व विदेह के समीप में देह-विदेह, उत्तरऊँचा जल-मण्डल है । उसमें ३ लाख बीस हजार योजन कंचनमय भूमण्डल है । जल-मण्डल और कंचन-मण्डल का विस्तार १२ कुरु के समीप में कुरु-कौरव, जम्बूद्वीप के समीप में चामर, अवरनान ३ हजार चार सौ पचास योजन तथा परिधि छत्तीस लाख चामर तथा गोदानीय द्वीप के समीप में शाटा और उत्तरमन्त्री नामक अन्तर्वीप अवस्थित हैं। इनमें से चमरद्वीप में राक्षसों का दस हजार तीन सौ पचास योजन प्रमाण है। और शेष द्वीप में मनुष्य का निवास है। ___कांचनमय भूमण्डल के मध्य में मेरु-पर्वत है। यह अस्सी ___मेरु-पर्वत के चार परिखण्ड (विभाग) हैं । प्रथम परिखण्ड हजार योजन नीचे जल में डूबा हुआ है तथा इतना ही ऊपर हा ऊपर शीता-जल से दस हजार योजन ऊपर तक माना गया है । इसके निकला हुआ है । इससे आगे अस्सी हजार योजन विस्तृत और विस्तृत आर आगे क्रमशः दस-दस हजार योजन ऊपर जाकर दूसरा,तीसरा और दो लाख चालीस हजार योजन प्रमाण परिधि से संयुक्त प्रथम चौथा परिखण्ड है । इनमें से पहला परिखण्ड सोलह हजार योजन सीता (समुद्र) है । जो मेरु को घेर कर अवस्थित है । इससे आगे दूसरा परिखण्ड आठ हजार योजन, तीसरा परिखण्ड चार हजार चालीस हजार योजन विस्तृत युगन्धर पर्वत वलयाकार से स्थित योजन और चौथा परिखण्ड दो हजार योजन मेरु से बाहर निकला है। इसके आगे भी इसी प्रकार से एक-एक सीता को अन्तरित हुआ है । पहले परिखण्ड में पूर्व की ओर करोट-पाणि-यक्ष रहते करके साधे-आधे विस्तार से संयुक्त क्रमशः युगन्धर, ईशाधर, हैं । दूसरे परिखण्ड में दक्षिण की ओर मालाधर रहते हैं । तीसरे खदीरक, सुदर्शन, अश्वकर्ण, विनतक, और निमिन्धर पर्वत हैं । परिखंड में पश्चिम की ओर सदामद रहते हैं और चौथे परिखंड सीताओं का विस्तार भी उत्तरोत्तर आधा-आधा होता गया है। में चातर्माहाराजिक देव रहते हैं। इसी प्रकार शेष सात पर्वतों उक्त पर्वखों में से मेरु चतुर्रत्नमय और शेष सात पर्वत स्वर्षमय पर भी उक्त देवों का निवास है10 । है। सबसे बाहर अवस्थित सीता (महासमुद्र) का विस्तार तीन जम्बूद्वीप में उत्तर की ओर बने कीटादि और उनके आगे लाख बाईस हजार योजन प्रमाण है । अन्त में लोहमय चक्रवाल हिमवान पर्वत अवस्थित है। हिमवान पर्वत से आगे उत्तर में पर्वत स्थित है। पांच सौ योजन विस्तृत अनवतप्त नाम का अगाध सरोवर है । निमिन्धर और चक्रवाल पर्वतों के मध्य में जो समुद्र स्थित इससे गंगा, सिन्धु, वक्ष और सीता नाम की चार नदियाँ निकली है उसमें जम्बूद्वीप, पूर्व विदेह, अवरगोदानीय और उत्तरकुरु, ये हैं। इस सरोवर के समीप जम्बू-वृक्ष है, जिससे इस द्वीप का नाम चार द्वीप हैं । इनमें जम्बूद्वीप मेरु के दक्षिण भाग में है, उसका जम्बू द्वीप पड़ा है । अनवतप्त-सरोवर के आगे गन्धमादक नाम भाकार शकट के समान है। उसकी तीन भुजाओं में से दो का पर्वत है। भुजाएँ दो-दो हजार योजन और एक भुजा तीन हजार पचास २-नरक लोक योजन की है। जम्बूद्वीप के नीचे बीस हजार योजन विस्तृत अवीचि नामा मेरु के पूर्व भाव में अद्ध-चन्द्राकार पूर्व विदेह नाम का द्वीप का नरक है । उसके ऊपर क्रमशः प्रतापन, तपन, महारोरख, है । इसकी भुजाओं का प्रमाण जम्बूद्वीप की तीनों भुजाओं के रौरव, संघात, कालसूत्र और संजीव नाम के सात नरक और १. अभिधर्मकोश, ३, ४५ । ३. , , ३, ४७-४८ । ५. , . ३, ५१-१२। .., , ३, ५४ ।। ६. , , ३, ५६ १७. अभिधर्मकोश ३, ६३-६४, २. अभिधर्मकोश ३, ४६ । ४. , , ३, ५० । ६. , , ३, ५३ । ८. , , ३, ५५ । ११., , ३, ५७, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ गणितानुयोग : भूमिका है1 । इन नरकों के चारों पार्श्वभागों में कुकूल, कुणप, क्षुर्मा- कामधातु के ऊपर सत्तरह स्थानों से संयुक्त रूपधातु हैं। वे र्गादिक, (असिपत्रवन, श्यामसबलस्वस्थान अयः शाल्मलीवन) और सत्तरह स्थान इस प्रकार हैं। प्रथम स्थान में ब्रह्मकायिक, ब्रह्माखारोदक वाली वैतरणी नदी ये चार उत्सद हैं । अर्बुद, निरर्बुद, पुरोहित, और महाब्रह्म लोक हैं। द्वितीय स्थान में परिताभ, अटट, उहहब, हुहूब, उत्पल, पद्म और महापद्म नाम वाले ये अप्रभाणाभ, और आभस्वर लोक हैं। तृतीय स्थान में परित्तशुभ, आठ शीत-नरक और हैं, जो जम्बूद्वीप के अधो-भाग में महानरकों अप्रमाणशुभ, और शुभकृत्स्न लोक हैं। चतुर्थ स्थान में अनभ्रक, के धरातल में अवस्थित है। पुण्यप्रसव, वृहद्फल, पंचशुद्धावासिक, अबृह, अतप सुदृश-सुदर्शन ३-ज्योतिर्लोक और अकनिष्ठ नाम वाले आठ लोक हैं। ये सभी देवलोक क्रमशः ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं। इनमें रहने वाले देव ऋद्धिमेरु-पर्वत के अर्द्ध-भाग अर्थात् भूमि से चालीस हजार योजन बल अथवा अन्य देव की सहायता से ही अपने से ऊपर के देवऊपर चन्द्र और सूर्य परिभ्रमण करते हैं । चन्द्र-मण्डल का प्रमाण लोक को देख सकते हैं। पचास योजन और सूर्य-मण्डल का प्रमाण इक्यावन योजन है । ___ जम्बूद्वीपस्थ मनुष्यों का शरीर साढ़े तीन या चार हाथ, पूर्व जिस समय जम्ब-द्वीप में मध्याह्न होता है उस समय उत्तरकुरु विटेवासियों का ७-८ हाथ. गोदानीय दीपवासियों का १४-१६ में अर्घ रात्रि, पूर्वविदेह में अस्तगमन और अवरगोदानीय में हाथ, और उत्तर-कुरुस्थ मनुष्यों का शरीर २८-३२ हाथ ऊँचा सूर्योदय होता है । भाद्र मास के शुक्ल-पक्ष की नवमी से रात्रि होता है। कामधातुवासी देवों में चातुर्महाराजिक देवों का की वृद्धि और फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की नवमी से उसके शरीर ! कोश, त्रायस्त्रिशों का ! कोश, यामों का कोश, तुषितों हानि का आरम्भ होता है । रात्रि की वृद्धि, दिन की हानि और का १ कोश, निर्माणरति देवों का १ कोश और परनिर्मितवशवर्ती रात्रि की हानि, दिन की वृद्धि होती है । सूर्य के दक्षिणायन में देवों का शरीर १ कोश ऊँचा है । आगे ब्रह्मपुरोहित, महाब्रह्म, रात्रि की वृद्धि और उत्तरायण में दिन की वृद्धि होती है। परिताभ, अप्रभाणाभ, आभस्वर, परित्तशुभ, अप्रमाणशुभ, और ४-स्वर्गलोक शुभकृस्त्न देवों का शरीर क्रमशः १, १, २, ४, ८, १६, ३२, मेरु के शिखर पर त्रयस्त्रिश (स्वर्ग) लोक है। इसका विस्तार और ६४ योजन प्रमाण ऊँचा है । अनभ्र देवों का शरीर १२५ अस्सी हजार योजन है। यहाँ पर त्रायस्त्रिश देव रहते हैं। इसके योजन ऊंचा है, आगे पुण्यप्रसव आदि देवों के शरीर उत्तरोत्तर चारों विदिशाओं में वज्रपाणि देवों का निवास है। त्रयस्त्रिश- दूनी ऊँचाई वाले हैं101 लोक के मध्य में सुदर्शन नाम का नगर है, जो सुवर्णमय है। ५-क्षेत्र-माप इसका एक-एक पार्श्व भाग ढाई हजार योजन विस्तृत है। उसके बौद्ध ग्रन्थों में योजन का प्रमाण इस प्रकार बतलाया मध्य-भाग में इन्द्र का अढाई सौ योजन विस्तृत वैजयन्त नामक गया है11 :प्रासाद है । नगर के बाहरी भाग में चारों ओर चैत्ररथ, पारुष्य, ७ परमाणु १ अणु मिश्र और नन्दन ये चार वन हैं । इनके चारों ओर बीस हजार अणु १ लौहरज योजन के अन्तर से देवों के क्रीड़ा-स्थल हैं। लौहरज १ जलरज त्रयस्त्रिश-लोक के ऊपर विमानों में याम, तुषित,निर्माणरति, जलरज १ शशरज और परनिर्मित-वशवर्ती देव रहते हैं। कामधातुगत देवों में से शशरज १ मेषरज चातुर्माहाराजिक और पर्या-श देव मनुष्य के समान काम सेवन मेषरज १ गोरज करते हैं । याम, तुषित, निर्माणरति, परनिर्मितवशवर्ती देव क्रमशः ७ गोरज - १ छिद्ररज आलिंगन, पाणिसंयोग, हसित, और अवलोकन से ही तृप्ति को ফিল _ १ लिक्षा (लीख) प्राप्त होते हैं। ७ लिक्षा १ यव GG G6 6 6 6 6 6 १. अ. को. ३, ५८, ३. अ. को. ३, ६०, ५. अ. को. ३, ६५, ७. अ. को. ३, ६८ । ९. अ. को. ३, ७१-७२, २. अ. को. ३, ५६, ४. अ. को. ३, ६१, ६. अ. को. ३, ६६-६७, ८. अभि. कोश. ३, ३६, ११. अ. को. ३, ८५-८७ । १०. अ. को. ३, ७५-७७, Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : भूमिका ८५ ७ यव = १ अंगुलीपर्व और परनिर्मितवशवर्ती । प्रेतों को जैनों ने देवयौनिक माना है। २४ अंगुलीपर्व १ हस्त अतएव इसे उक्त ६ देवलोकों में अन्तर्गत करने पर नरक, तिर्यक, १ धनुष मनुष्य और देव, ये चार लोक ही सिद्ध होते हैं, जो कि '५०० धनुष = १ कोश जैनाभिमत चारों गतियों का स्मरण कराते हैं। कोश = १ योजन बौद्धों ने प्रेत-योनि को एक पृथक गति मानकर पाँच गतियाँ ६-काल-माप स्वीकार की हैं। यथा :बौद्ध ग्रन्थों में काल का प्रमाण इस प्रकार बतलाया गया नरकादिस्वनामोक्ता गतयः पंच तेषु ताः (अभिधर्मकोश ३, ४) ऊपर बतलाये देवों में से चातुर्महाराजिक देव-इन्द्र का, १२० क्षण १ तत्क्षण तुषित-लौकान्तिक देवों का, त्रयस्त्रिश त्रायस्त्रिश देवों का, तथा ६० तत्क्षण १ लव शेष भेद व्यन्तर-देवों का स्पष्ट रूप से स्मरण कराते हैं । ३० लव १ मुहूर्त जैनों के समान बौद्धों ने भी देवों और नारकी जीवों को ६० मुहूर्त १ अहोरात्रि औपपातिक जन्म वाला माना है । यथा :३० अहोरात्र = १ मास नारका उपपादुकाः अन्तरा भव देवश्च । १२ मास १ संवत्सर कल्पों के अन्तरकल्प, संवर्तकल्प और महाकल्प आदि (अभिधर्मकोष, ३,४) अनेक भेद बतलाये गये हैं। बौद्धों ने भी जैनों के समान नारकी जीवों का उत्पन्न होने तुलना और समीक्षा के साथ ही ऊर्ध्वपाद और अधोमुख होकर नरक-भूमि में गिरना बौद्धों ने दस लोक माने हैं-नरकलोक, प्रेतलोक, तिर्यक्- माना है । यथा :लोक, मनुष्यलोक और ६ देवलोक । छह देवलोकों के नाम इस एते पतंति निरय उद्धपादा अवंसिरा । (सुत्तनिपात) • प्रकार हैं-चातुर्महाराजिक, त्रयस्त्रिश, याम, तुषित, निर्माणरति (ऊर्ध्वपादास्तु नारकाः) (अभिधर्मकोष ३, १५) (ग) वैदिक धर्मानुसार लोक-वर्णन १-मर्त्य लोक जिस प्रकार जैन ग्रन्थों से ऊपर भूगोल का वर्णन किया इस जम्बूद्वीप में मेरु-पर्वत के दक्षिण-भाग में हिमवान गया है लगभग उसी प्रकार से हिन्दू पुराणों में भी भूगोल का हेमकूट और निषध तथा उत्तर भाग में नील, श्वेत और श्रृंगी वर्णन पाया जाता है। विष्णु-पुराण के द्वितीयांश के द्वितीया- ये छः वर्ष-पर्वत हैं । इन से जम्बूद्वीप के सात भाग हो जाते हैं। 'ध्याय में बतलाया गया है कि इस पृथ्वी पर १ जम्बू, २ प्लक्ष, मेरु के दक्षिणवर्ती निषध और उत्तरवर्ती नील पर्वत, पूर्व-पश्चिम : ३ शाल्मल, ४ कुश, ५ क्रौंच, ६ शाक और ७ पुष्कर नाम वाले लवण-समुद्र तक १ लाख योजन लम्बे दो-दो हजार योजन ऊँचे सात द्वीप हैं । ये सभी चूड़ी के समान गोलाकार और क्रमशः और इतने ही चौड़े हैं। इनमें परवर्ती हेमकूट और श्वेत-पर्वत १ लवणोद, २ इक्षुरस, ३ मदिरारस, ४ घृतरस, ५ दधिरस, लवण-समुद्र तक पूर्व-पश्चिम में नव्वे (९०) हजार योजन लम्बे, ६ दूधरस, ७ मधुररस वाले सात समुद्रों से वेष्टित हैं। इन दो हजार योजन ऊंचे और इतने ही विस्तार वाले हैं। इनसे • सबके मध्य-भाग में जम्बूद्वीप है। इसका विस्तार एक लाख परवर्ती हिमवान और शृंगी-पर्वत पूर्व-पश्चिम में अस्सी (८०) योजन है। उसके मध्य भाग में.८४ हजार योजन ऊंचा स्वर्णमय हजार योजन लम्बे, दो हजार योजन ऊँचे और इतने ही विस्तार :. मेरु-पर्वत है। इसकी नींव पृथ्वी के भीतर १६ हजार योजन वाले हैं । इन पर्वतों के द्वारा जम्बू-द्वीप के सात भाग हो जाते है। मेरु का विस्तार मूल में १६ हजार योजन है और फिर हैं । जिनके नाम दक्षिण की ओर से क्रमशः इस प्रकार हैंक्रमशः बढ़कर शिखर पर ३२ हजार योजन हो गया है। .. १ भारतवर्ष, २ किम्पुरुष, ३ हरिवर्ष, ४ इलावत, ५ रम्यक. ..... अभिधर्म कोश.३,८८-८९ २. अभिधर्म कोश ३,६० १३. नरक-प्रेत-तिर्यञ्चो मानुषाः षड् दिवौकसः । (अभिधर्मकोष ३, १) १४. विशु-पुराण द्वितीयांश, द्वितीय अध्याय, श्लोक; ५-६ मार्कण्डेय-पुराण अ० ५४ श्लोक ५-७ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ गणितानुयोग : भूमिका ६ हिरण्मय ७ और उत्तरकुरु । इनमें इलावृत को छोड़कर शेष ६ उपर्युक्त सप्त क्षेत्रों में से केवल भारतवर्ष में ही कृत, त्रेता, का विस्तार उत्तर-दक्षिण में नौ-नौ हजार योजन है। इलावत-वर्ष द्वापर, और कलि नामक चार युगों से काल परिवर्तन होता है। मेरु के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन चारों ही दिशाओं में किम्पुरुषादिक शेष क्षेत्रों में काल परिवर्तन नहीं होता है। उन नौ-नौ हजार योजन विस्तृत है । इस प्रकार सर्व पर्वतों व वर्षों के आठ क्षत्रों में रहने वाली प्रजा को शोक, परिश्रम, उग और विस्तार को मिलाने पर जम्बू-द्वीप का विस्तार १ लाख योजन क्षुधा आदि की बाधा नहीं होती है। वहाँ के लोग सदा स्वस्थ प्रमाण हो जाता है। एवं आतंक और दुःख से विमुक्त रहते हैं। वे सदा जरा और मेरु पर्वत के दोनों ओर पूर्व-पश्चिम में इलावत-वर्ष की मृत्यु से निर्भय रहकर आनन्द का उपभोग करते हैं। इसलिए सीमा स्वरूप माल्यवान और गन्धमादन पर्वत हैं, जो नील और वहाँ पर भोगभूमि कही गयी है। वहाँ पर पुण्य-पाप, और ऊँचनिषध-पर्वत तक विस्तृत हैं । इनके कारण दोनों ओर दो विभाग नीच आदि का भी भेद नहीं है । उन क्षेत्रों में स्वर्ग-मुक्ति की और हैं, जिनके नाम भद्राश्व और केतुमाल है। इस प्रकार प्राप्ति के कारणभूत व्रत-तपश्चर्या आदि का भी अभाव है, उपयुक्त सात वर्षों को और मिला देने से जम्बू-द्वीप सम्बन्धी केवल भारतवर्ष के ही लोगों में व्रत-तपश्चरणादि के द्वारा स्वर्गसर्व वर्षों (क्षेत्रों) की संख्या नौ हो जाती है। मोक्षादिक की प्राप्ति संभव है । इसलिए यह सर्व क्षेत्रों में श्रेष्ठ मेरु के चारों ओर पूर्वादिक दिशाओं में क्रमशः मन्दर, माना गया है। यहाँ के लोग असि, मषि, आदि कर्मों के द्वारा गन्धमादन, विपुल और सुपार्श्व नाम वाले चार पर्वत हैं। इनके अपनी आजीविका का उपार्जन करते हैं। इसलिए यहाँ की भूमि ऊपर क्रमशः ११०० योजन ऊँचे कदम्ब, जम्बु, पीपल और को कर्मभूमि कहा गया है। वट-वृक्ष हैं। इनमें से जम्बू-वृक्ष के नाम से यह जम्बू-द्वीप जम्बूद्वीप को सर्व ओर से घेरकर लवण-समुद्र अवस्थित है। कहलाता है। यह १ लाख योजन विस्तृत है। लवण-समुद्र को घेरकर दो जम्बूद्वीपस्थ भारतवर्ष में महेन्द्र, मलय, सह्य, सूक्तिमान्, लाख योजन विस्तार वाला प्लक्षद्वीप है। इसके भीतर गोमेध, ऋक्ष, विन्ध्य, पारियात्र, ये कुल सात पर्वत हैं । इनमें से हिमवान चन्द्र, नारद, दुन्दुभि, सोमक और सुमना नामक ६ पर्वत हैं । से शत्तद्र और चन्द्रभागा आदि, पारियात्र से वेद और स्मृति इनसे विभाजित होकर शान्तद्वय, शिशिर, सुखोदय, आनन्द, शिव, आदि, विन्ध्य से नर्मदा और सुरसा आदि, ऋक्ष से तापी, पयोष्णी क्षेमक, और ध्र व नामक सात वर्ष अवस्थित हैं । इन वर्षों और और निर्विन्ध्यादि, सह्य से गोदावरी, भीमरथी और कृष्णवेणी पर्वतों के ऊपर देव और गन्धर्व रहते हैं, वे आधि-व्याधि से आदि, मलय से कृतमाला और ताम्रपर्णी आदि, महेन्द्र से त्रिसामा रहित और अतिशय पुण्यवान हैं । वहाँ युगों का परिवर्तन नहीं और आर्यकुल्या आदि, तथा सूक्तिमान् पर्वत से ऋशिकुल्या और है। केवल सदा काल त्रेतायुग जैसा समय रहता है। उनमें चातुकुमारी आदि नदियाँ निकली हैं। इन नदियों के किनारों पर वर्ण-व्यवस्था है और वे अहिंसा-सत्यादि पाँच धर्मों का पालन मध्यदेश को आदि लेकर कुरु और पांचाल, पूर्व देश को आदि करते हैं । इस द्वीप में १ प्लक्ष वृक्ष है, इस कारण यह द्वीप लेकर काम-रूप, दक्षिण को आदि लेकर पुण्ड्र, कलिंग और मगध, प्लक्ष नाम से प्रसिद्ध है । पश्चिम को आदि लेकर सौराष्ट्र, सूर, आभीर और अर्बुद, तथा प्लक्षद्वीप को चारों ओर से घेरकर इक्ष रसोद समुद्र-अवस्थित ' उत्तर देश को आदि लेकर मालव, कोसभ, सौवीर, सैन्धव, हूण, है, जो प्लक्षद्वीप के समान ही विस्तार वाला है । इसे चारों ओर शाल्व और पारसीकों को आदि लेकर भाद्र, आराम और से घेरकर चार लाख योजन विस्तार वाला शाल्मलद्वीप है। इसी अम्बष्ठ देशवासी रहते हैं। क्रम से आगे सुरोद समुद्र, कुशद्वीप, घृतोद समुद्र, क्रौंचद्वीप, " ॥ १६ १. विष्णु-पुराण द्वितीयांश द्वितीय अ० श्लोक १०-१५ २. विष्णु-पुराण ३. विष्णु-पुराण " " १७-१६ ४. विष्णु-पुराण " " १६ ५. विष्णु-पुराण, द्वितीयांश, द्वितीय अ०, श्लोक १६ मार्कण्डेय-पुराण अ० ५४ श्लोक ८-१४ मार्कण्डेय-पुराण अ० ५४ श्लोक १४-१६ मार्कण्डेय-पुराण अ० ५४ श्लोक ६ मार्कण्डेय-पुराण अ० ५४ श्लोक १४-१६ मार्क० पु० अ० ४५ श्लोक १४-१६, १०-१४ १५-१७ ७. वि० पु० द्वि० अ० तृ० अ० श्लोक १६:२२२ २८ ६. , , च० अ० , १-१८ ८. , , , तृतीय , , Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : भूमिका ८७ दधिरसोद समुद्र, शाकद्वीप और क्षीरसमुद्र अवस्थित हैं। ये सभी महाज्वाल, तप्तकुम्भ, लवण, विलोहित, रुधिर, वैतरणी, कृमीश, द्वीप अपने पूर्ववर्ती द्वीप की अपेक्षा दूने विस्तार वाले हैं और कृमि-भोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, अलाभक्ष, दारुण, पूयवह, वन्हिसमुद्रों का विस्तार अपने-अपने द्वीप के समान है। इन द्वीपों की ज्वाल अधःशिरा, सैदेस, कालसूत्र, तम, आवीचि, श्वभोजन, रचना प्लक्षद्वीप के समान है। अप्रतिष्ण और अग्रवि, इत्यादि नाम वाले अनेक महान भयानक क्षीरसमुद्र को घेरकर सातवां पुष्कर-द्वीप अवस्थित है। नरक हैं। इनमें पापी जीव मरकर जन्म लेते हैं । वे वहाँ से "इसके ठीक मध्य-भाग में गोलाकार वाला मानसोत्तर पर्वत है। निकल कर क्रमशः स्थावर कृमि, जलचर, मनुष्य और देव आदि इसके बाहरी भाग का नाम महावीर-वर्ष और भीतरी भाग का हात ह । जतन जाव स्वग में है उतने हा जीव नरका में भी नाम धातकी वर्ष है। इस द्वीप में रहने वाले लोग भी रोग-शोक, रहते हैं।' "एवं राग-द्वेष से रहित होते हैं । वहाँ न ऊँच नीच का भेद है, ३-ज्योतिर्लोक और न वर्णाश्रम व्यवस्था ही है। इस पुष्कर द्वीप में नदियाँ और पर्वत भी नहीं हैं। __ भूमि से १ लाख योजन दूरी पर सौर-मण्डल है। इससे १लाख इस द्वीप को सर्व ओर से घेरकर मधुरोदक समुद्र अवस्थित योजन ऊपर चन्द्रमण्डल, इससे १ लाख योजन ऊपर नक्षत्रहै। इससे आगे प्राणियों का निवास नहीं है । मधुरोदक समुद्र से मण्डल, इससे २ लाख योजन ऊपर बुध, इससे २ लाख योजन आगे उससे दूने विस्तार वाली स्वर्णमयी भूमि है । उसके आगे ऊपर शुक्र , इससे २ लाख योजन ऊपर मंगल, इससे २ लाख १० हजार योजन विस्तृत और इतना ही ऊँचा, लोकालोक पर्वत योजन ऊपर वृहस्पति, इससे २ लाख योजन ऊपर शनि, इससे है । उसको चारों ओर से वेष्टित करके तमस्तम स्थित है। इस १ लाख योजन ऊपर सप्तर्षिमण्डल तथा इससे १ लाख योजन अण्डकटाह के साथ टायुक्त द्वीप-समूहों वाला यह समस्त भूमण्डल ऊपर ध्रुवतारा स्थित है। ५० करोड़ योजन विस्तार वाला है और इसकी ऊँचाई .. ४-महर्लोक (स्वर्गलोक) हजार योजन है। ध्रव से १ करोड़ योजन ऊपर जाकर महर्लोक है, यहाँ कल्प इस भूमण्डल के नीचे दस-दस हजार योजन के ७ पाताल काल तक जीवित रहने वाले कल्पवासियों का निवास है। इससे हैं । जिनके नाम इस प्रकार हैं-अतल, वितल, नितल, गभस्ति २ करोड़ योजन ऊपर जनलोक है यहाँ नन्दनादि से सहित मत, महातल, सूतल, और पाताल । ये क्रमशः शुक्ल, कृष्ण, अरुण, ब्रह्माजी के प्रसिद्ध पुत्र रहते हैं। इससे ८ करोड़ योजन ऊपर पीत, शर्करा, शैल और काञ्चन स्वरूप हैं । यहाँ उत्तम भवनों तपलोक है । यहाँ वैराज देव निवास करते हैं । इससे १२ करोड़ से युक्त भूमियाँ हैं और यहाँ दानव, दैत्य, यक्ष, एवं नाग आदि योजन ऊपर सत्यलोक है, यहां कभी न मरने वाले अमर (अपु' निवास करते हैं। नमरिक) रहते हैं । इसे ब्रह्मलोक भी कहते हैं । भूमि (भूलोक) पातालों के नीचे विष्णु भगवान का शेष नामक तामस शरीर और सूर्य के मध्य में सिद्धजनों और मुनिजनों में सेवित स्थान स्थित है जो अनन्त कहलाता है। यह शरीर सहस्र-फणों से भुवर्लोक कहलाता है। सूर्य और ध्रव के मध्य चौदह लाख • संयुक्त होकर समस्त भूमण्डल को धारण करके पाताल-मूल में योजन प्रमाण क्षेत्र स्वर्लोक नाम से प्रसिद्ध है । अवस्थित है । कल्पान्त के समय इसके मुख से निकली हुई संकर्षात्मक, रुद्र विषाग्नि-शिखा तीनों लोकों का भक्षण करती भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक, ये तीनों लोक कृतक, तथा जनलोक, तपलोक और सत्यलोक, ये तीन लोक अकृतक है। २-नरक-लोक इन दोनों लोकों के बीच मे महर्लोक है । यह कल्पांत मे जन-शून्य पृथ्वी और जल के नीचे रौरव, सूकर, रोध, ताल, विशासन हो जाता है, किन्तु सर्वथा नष्ट नहीं होता।10 ४. १. विष्णु पुराण द्वितीय अंश चतुर्थ अध्याय, श्लोक २०-७२ ३. विष्णु पुराण द्वितीय अंश चतुर्थ अध्याय. श्लोक ६३-६६ पंचम " षष्ठम् ८. " " सप्तम " " षष्ठम् २ विष्णु पुराण द्वितीय अंश चतुर्थ अध्याय श्लोक ७३.८० पंचम " " २-४ १३ १५-१६-२०। १-६७. " " षष्ठम " ३४ २-६६. विष्णु पुराण द्वितीयांश षष्ठम् बध्याय श्लोक १२-१८ १९-२० " ६. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ गणितानुयोग : भूमिका तीसरा " छठा " ५-तुलना और समीक्षा यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि शिखरी एवं शृंगी ये दोनों विष्णु-पुराण के आधार पर जो लोक स्थिति या भूगोल का एकार्थक नाम हैं । पाँचवें रुक्मी पर्वत का वर्ण जैन मान्यतानुसार वर्णन किया है उसका हम जैनसम्मत लोक के वर्णन से मिलान श्वेत ही माना गया है जो वैदिक मान्यता के श्वेत-पर्वत का ही करते हैं तो अनेक तथ्य सामने आते हैं। जिनका दोनों मान्यताओं बोधक है। केवल महाहिमवान के स्थान पर हेमकट नाम के नाम निर्देश के साथ यहाँ उल्लेख किया जाता है नवीन है। द्वीप जैन और वैदिक दोनों ही मान्यताओं के अनुसार मेरु-पर्वत जैन मान्यता वैदिक मान्यता जम्बूद्वीप के मध्य भाग में स्थित है। अन्तर केवल ऊँचाई का १. द्वीप, समुद्र असंख्यात द्वीप, समुद्र ७ द्वीप का है । वैदिक मान्यता के अनुसार मेरु चौरासी हजार योजन २. प्रथम द्वीप जम्बूद्वीप प्रथम द्वीप जम्बदीप ऊंचा है। जबकि जैनमान्यता इसे १ लाख योजन ऊँचा मानती है। ३. कुशक पन्द्रहवां द्वीप कुश चौथा द्वीप ७-नदियाँ ४. क्रौंच सोलहवा द्वीप' क्रौंच पांचवा द्वीप वैदिक मान्यतानुसार ऊपर जो नदियों के नाम दिये गये हैं" ५. पुष्कर तीसरा द्वीप पुष्कर सातवाँ द्वीप वे प्रायः सब आधुनिक नदियों के नाम हैं। जैन मान्यतानुसार समुद्र जम्बू-द्वीप के सात क्षेत्रों में १४ प्रधान नदियाँ हैं। उनके नाम १. लवणोद प्रथम समुद्र लवणोद प्रथम समुद्र इस प्रकार हैं-गंगा, सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता,. २. वारुणी रस चौथा समुद्र मदिरा रस सीता-सीतोदा, नारी-नारीकान्ता, स्वर्णकूला-रूप्यकूला, रक्ता३. क्षीर सागर पाँचवा " दूधरस और रक्तोदा । भारतवर्ष आदि क्षेत्रों में क्रमशः उक्त दो नदियाँ ४. घृतवर छठा " मधुर रस सातवां " बहती हैं। उनमें से पहली नदी पूर्व के समुद्र और दूसरी नदी ५. इक्षुरस सातवां " इक्षुरस दूसरा " पश्चिम के समुद्र में जाकर मिलती है। इस प्रकार दोनों ही क्षेत्र मान्यताओं वाली नदियों के नामों में कोई समानता नहीं है। १. भारतवर्ष १. भारतवर्ष -नरक-स्थिति २. हैमवत २. किम्पुरुष जैन मान्यता के समान ही वैदिक मान्यता में भी अत्यन्त ३. हरिवर्ष ३. हरिवर्ष दुःख भोगने वाले नारकी-जीवों का अवस्थान इस धरातल के नीचे ४. विदेह ४. इलावृत माना गया है। दोनों के कुछ नामों में समानता है, और कुछ . ५. रम्यक ५. रम्यक नामों में विषमता है। ६. हैरण्यवत ६. हिरण्मय -ज्योतिर्लोक ७. ऐरावत ७. उत्तर-कुरु जैन मान्यतानुसार सम-भूमितल से सूर्य-चन्द्र आदि की यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैन मान्यतानुसार उत्तर-कुरु विदेह- ऊँचाई का जो उल्लेख है उससे वैदिक मान्यता में बहुत भारी क्षेत्र का एक भाग है। इलावत ऐरावत का ही रूपान्तर है। अन्तर है । जो दोनों के पूर्व वर्णनों से पाठक भली भांति जान हाँ, दूसरे हैमवत क्षेत्र के स्थान पर किम्पुरुष नाम अवश्य नया है। १०-स्वर्गलोक ६-पर्वत दोनों ही मान्यताओं के अनुसार स्वर्गलोक की स्थिति जैन परम्परा वैदिक परम्परा ज्योतिर्लोक के ऊपर मानी गई है । वैदिक मान्यता में स्वर्गलोक १. हिमवान १. हिमवान् का नाम महर्लोक दिया गया है तथा वहाँ के निवासियों को जैन २. महाहिमवान २. हेमकूट मान्यता के समान कल्पवासी कहा गया है। वैदिक मान्यता में ३. निषध ३. निषध स्वर्गलोक की स्थिति सूर्य और ध्रव के मध्य में चौदह लाख ४. नील ४. नील योजन प्रमाण क्षेत्र में है । जबकि जैन मान्यता से वह सुमेरु के ५. रुक्मी ५. श्वेत ऊपर से लेकर असंख्यात योजन ऊपरी क्षेत्र तक बतलाई गई: ६. शिखरी ६. शृंगी १-२. तिलोयपण्णत्ती अ...। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : भूमिका ८९ ११--कर्मभूमि और भोगभूमि भावार्थ- इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि जिस प्रकार जैनागमों में कर्मभूमि और भोगभूमि का वर्णन यहाँ पर स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त कराने वाली कर्मभूमि है। आया है उसी प्रकार हिन्दू-पुराणों में भी मिलता है, विष्ण-पूराण भारतभूमि के सिवाय अन्य सर्व क्षेत्र की भूमियाँ तो भोग-भमियाँ के द्वितीयांश के तीसरे अध्याय में कर्मभूमि का वर्णन इस प्रकार हैं। क्योंकि वहाँ पर रहने वाले जीव सदाकाल बिना किसी रोगकिया गया है शोक बाधा के भोगों का उपभोग करते रहते हैं। मार्कण्डेय पुराण के ५५वें अध्याय के श्लोक २०.२१ में भी उत्तरं यत्समुद्रस्यः हिमाद्र श्च दक्षिणम् । भोगभूमि और कर्मभूमि का वर्णन मिलता है। वर्ष तारतं नाम भारती यत्र संततिः ॥१॥ १२-उत्सपिणी अवसर्पिणी काल नवयोजनसाहस्रो विस्तारोऽस्य महामुने ! । कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्गञ्च गच्छताम् ॥२॥ जैनागमों में काल के परिवर्तन स्वरूप का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि जिस समय मनुष्य की आयु, सम्पत्ति, अतः सम्प्राप्यतेस्वर्गो मुक्तिमस्मात् प्रायन्ति वै । सुख-समृद्धि एवं भोगोपभोगों की वृद्धि हो उसे उत्सर्पिणी काल तिर्यक्त्वं नरकं चापि यान्त्यतः पुरुषा मुने ॥३॥ कहते हैं और जिस समय उक्त वस्तुओं की हानि या ह्रास हो तो इतः स्वर्गश्च मोक्षश्च, मध्यं चान्तश्च गम्यते । उसे अवसर्पिणीकाल कहते हैं। दोनों प्रकार के कालों का परित खल्वन्यत्र मानां, कर्मभूमौ विधीयते ॥४॥ वर्तन कर्मभूमि वाली पृथ्वियों में ही होता है-अन्यत्र भोग भूमि भावार्थ-समुद्र के उत्तर और हिमाद्रि के दक्षिण में भारत- वाली पृथ्वियों में नहीं । विष्णु पुराण में भी इसका उल्लेख इस वर्ष अवस्थित है। इसका विस्तार नौ हजार योजन विस्तृत है। प्रकार से मिलता हैयह स्वर्ग और मोक्ष जाने वाले पुरुषों की कर्मभूमि है। इसी अवपिणी न तेषां वै नचोत्सपिणी द्विज ! । स्थान से यतः मनुष्य स्वर्ग और मुक्ति प्राप्त करते हैं और यहीं नत्वेषाऽस्ति युगावस्था तेषु स्थानेषु सप्तसु ॥ से तिर्यंच और नरक-गति में भी जाते हैं-अतः कर्मभूमि अर्थात्-हे द्विज ! जम्बूदीपस्थ अन्य सात क्षेत्रों में है। इस भारतवर्ष के सिवाय अन्य क्षेत्र में कर्मभूमि नहीं है। भारतवर्ष के समान न काल की अवसर्पिणी अवस्था है और न अग्नि-पुराण के एक सौ अठारहवें अध्याय के द्वितीय श्लोक श्लोक उत्सर्पिणी अवस्था हो । में भी भारतवर्ष को कर्मभूमि कहा गया है । यथा १३-वर्षधर पर्वतों पर सरोवर कर्मभूमिरियं स्वर्गमपवर्गञ्च गच्छताम् । जैन मान्यता के समान मार्कण्डेय पुराण में भी वर्षधर पर्वतों विष्णु-पुराण के अन्त में कर्मभूमि का उपसंहार करते हुए के ऊपर सरोवरों का तथा उनमें कमलों का उल्लेख इस प्रकार लिखा है- कि भारतवर्ष में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैरहते हैं तथा वे क्रमशः पूजन-पाठ, आयुध-धारण, वाणिज्य-कर्म एतेषां पर्वतानां तु द्रोण्योऽतीव मनोहराः । और सेवादि कार्य करते हैं । यथा वनरमलपानीयः सरोभिरूपशोभिताः॥ ब्राह्मणाः क्षत्रियाः वैश्या मध्ये शूद्राश्च भागशः। (अ० ५५ श्लोकः १४--१५) इज्याऽऽयुध्वाणिज्याद्य वर्तयन्तो व्यवस्थिताः ॥॥ उक्त सरोवरों में कमलों का उल्लेख इस प्रकार हैइस अध्याय का उपसंहार करते हुए कहा गया है कि तदेतत् पार्थिवं पद्म चतुष्पत्रं मयोदितम् । भारतवर्ष के सिवाय अन्य सब क्षेत्रों में भोगभूमि है । यथा (अ० ५५ श्लोक २०) अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैन मान्यता के समान ही पुराण. यतो हि कर्मभूरेषा ह्यतोऽन्या भोगभूमयः ।। कार ने भी पद्म को पार्थिव माना है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० गणितामुयोग : भूमिका (घ) 'भारतवर्ष' का नामकरण जम्बूद्वीप के प्रथम वर्ष या क्षेत्र का नाम 'भारतवर्ष' है। अर्थात्-ऋषभ से भरत पैदा हुआ, जो उनके सौ पुत्रों में इसका यह नाम कैसे पड़ा, इस विषय में जैन मान्यता है कि आदि सर्व श्रेष्ठ था। उसका राज्याभिषेक करके ऋषभ महानुभाव तीर्थकर भ० ऋषभदेव के सौ पुत्रों में ज्येष्ठ आदि पुत्र भरत जो प्रवजित होकर पुलहाश्रम चले गये। जम्बूद्वीप का हिम नामक कि प्रथम चक्रवर्ती थे, उन्होंने इस क्षेत्र का सर्वप्रथम राज्य-सुख दक्षिण क्षेत्र पिता ने भरत को दिया। इसके कारण उस महात्मा भोगा, इस कारण इस क्षेत्र का नाम 'भारतवर्ष' प्रसिद्ध हुआ। के नाम से यह क्षेत्र 'भारतवर्ष' कहलाने लगा। श्रीमदुमास्वामि-रचित तत्त्वार्थ-सूत्र के महान् भाष्यकार श्रीमदकलंक देव ने तीसरे अध्याय के दशवें सूत्र की इसके अतिरिक्त जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति में 'भरतक्षेत्र' इस नाम के व्याख्या करते हुए लिखा है : दो कारण और भी प्रतिपादित किये गये हैं-प्रथम इस क्षेत्र के "भरतक्षत्रिययोगाद्वर्षों भरतः विजयाधस्य दक्षिणतो जलधे अधिष्ठायक देव का नाम भरत है । दूसरा यह नाम रुत्तरतः गंगा-सिन्ध्वोर्बहुमध्यदेशभागे विनीता नाम नगरी । शाश्वत है। तस्यामुत्पन्न: सर्व राजलक्षणसम्पन्नो भरतो नामाद्यश्चक्रधरः यहाँ यह भी स्मरणीय है कि प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी षट्खण्डाधिपति: अवसपिण्या राज्य विभागकाले तेनार्वी भुक्तत्वात्, काल के प्रथम चक्रवर्ती का नाम भरत ही होता है। इन सब तद्योगाद् 'भरत' इत्यात्यायते वर्षः ।" कारणों से यह क्षेत्र भरत नाम से प्रसिद्ध है। हिन्दुओं के प्रसिद्ध मार्कण्डेय-पुराण में भी व्यास महर्षि ने उक्त कथन का ही समर्थन करते हुए तिरेपनवें अध्याय में कुछ लोग दुष्यन्त-पुत्र भरत के नाम से इस क्षेत्र का नामकहा है करण हुआ कहते हैं। किन्तु इस भरत का व्यक्तित्व इतना ऋषभाद् भरतो जज्ञ वीरः पुत्रंशताद्वरः । असाधारण नहीं रहा है कि उसके नाम पर इस क्षेत्र की प्रसिद्धि सोऽभिषिच्यर्षभः पुत्रं, महाप्रावाज्यमास्थितः ॥४१॥ मानी जाय । इसके अतिरिक्त इससे पूर्व इस क्षेत्र का नाम क्या तपस्तेपे महाभागः पुलहाश्रमसंश्रयः । था, यह अब तक किसी भी इतिहास-बेत्ता ने प्रकट नहीं किया हिमाढे दक्षिणं वर्ष, भरताय पिता ददौ ॥४२॥ है। इसी कारण अब विचारशील इतिहासज्ञों ने इस अभिमत तस्मात्त भारतं वर्ष, तस्य नाम्ना महात्मनः ।।४३।। को अस्वीकार कर दिया है। (ङ) वैज्ञानिकों के मतानुसार आधुनिक विश्व १- भूमण्डल जिस पृथ्वी पर हम निवास करते हैं वह मिट्टी पत्थर का लता पाकर नाना प्रकार की धातु-उपधातुओं एवं तरल पदार्थों एक नारगी के समान चपटा गोला है । इसका व्यास लगभग आठ में परिवर्तित हो गया है जो हमें पत्थर, कोयला, लोहा, सोना, हजार मील (8288--२६-७) और परिधि लगभग पचीस चाँदी आदि, तथा जल और वायु मण्डल के रूप में दिखाई देता हजार मील (82888-४२) है। है। जल और वायु ही सूर्य के ताप से मेघ आदि का रूप धारण वैज्ञानिकों के मतानुसार आज से खरबों वर्ष पूर्व किसी कर लेते हैं । यह वायुमण्डल पृथ्वी के धरातल से उत्तरोत्तर समय यह ज्वालामयी अग्नि का गोला था। यह अग्नि धीरे- विरल होते हुए लगभग ४०० मील तक फैला हुआ अनुमान धीरे ठण्डी होती गई और अब यद्यपि पृथ्वी का धरातल सर्वत्र किया जाता है। पृथ्वी का धरातल भी सर्वत्र समान नहीं है। शीतल हो चुका है, तथापि अभी इसके गर्भ में अग्नि तीव्रता से पृथ्वीतल का उच्चतम भाग हिमालय का गौरीशंकर शिखर जल रही है, जिसके कारण पृथ्वी का धरातल भी कुछ उष्णता (माउण्ट एवरेस्ट) माना जाता है, जो समुद्र तल से उनतीस को लिए हुए है। नीचे की ओर खुदाई करने पर उत्तरोत्तर हजार फुट, अर्थात् लगभग साढ़े पांच मील ऊँचा है। समुद्र की अधिक उष्णता पाई जाती है। कभी-कभी यही भूगर्भ की ज्वाला अधिकतम गहराई ३५,४०० फुट अर्थात् लगभग छह मील तक कुपित होकर भूकम्प उत्पन्न कर देती है और कभी ज्वालामुखी नापी जा चुकी है । इस प्रकार पृथ्वी तल की ऊंचाई-नीचाई में के रूप में भी फूट निकलती है, जिससे पर्वत, भूमि, नदी, समुद्र साढ़े ग्यारह मील का अन्तर पाया जाता है। आदि के जल और स्थल भागों में परिवर्तन होता रहता है। पृथ्वी की ठंडी होकर जमी हुई परत सत्तर मील समझी इसी अग्ति के ताप से पृथ्वी का द्रव्य यथायोग्य दबाव और शीत• जाती है । इसकी द्रव्य-रचना के अध्ययन से अनुमान लगाया Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : भूमिकः ९१ गया है कि उसे जमे हुए अरबों खरबों वर्ष हो गये हैं । सजीव उत्तरी ध्रुव चौथा, पांचवां दक्षिणी ध्रुव । इनके अतिरिक्त अनेक तत्व के चिह्न केवल चौंतीस मील की ऊपरी परत में पाये जाते छोटे-मोटे द्वीप भी हैं । यह भी अनुमान किया जाता है कि सुदूर हैं । जिससे अनुमान लगाया गया है कि पृथ्वी पर जीव-तत्त्व पूर्व में सम्भवतः ये प्रमुख भूमि-भाग परस्पर जुड़े हुए थे । उत्तरी उत्पन्न हुए दो करोड़ वर्ष से अधिक समय नहीं हुआ है। इसमें दक्षिणी अमेरिका की पूर्वी समुद्र तरीय रेखा ऐसी दिखाई देती है भी मनुष्य के विकास के चिह्न केवल एक करोड़ वर्ष के भीतर कि वह यूरोप-अफ्रीका की पश्चिमी समुद्र-तटीय रेखा के साथ ही अनुमान किये जाते हैं। मिलकर ठीक बैठ सकती है । तथा हिन्द-महासागर के अनेक द्वीप पृथ्वी तल के ठंडे हो जाने के पश्चात् उस पर आधुनिक समूह की शृंखला एशिया खण्ड को आस्ट्रेलिया के साथ जोड़ती जीव-शास्त्र के अनुसार जीवन का विकास इस क्रम से हुआ-- हुई दिखाई देती है । वर्तमान में नहरें खोदकर अफीका का एशियासर्वप्रथम स्थिर जल के ऊपर जीव-कोश प्रकट हुए, जो यूरोप भूमि खण्ड से, तथा उत्तरी अमेरिका का दक्षिणी अमेरिका पाषाणादि जड़ पदार्थों से मुख्यतया तीन बातों में भिन्न थे । एक से भूमि-सम्बन्ध तोड़ दिया गया है । इन भूमि-खण्डों का आकार, तो वे आहार ग्रहण करते और बढ़ते थे। दूसरे वे इधर-उधर परिमाण और स्थिति परस्पर अत्यन्त विषम है। चल भी सकते थे । और तीसरे वे अपने ही तुल्य अन्य कोश भी भारतवर्ष एशिया-खण्ड का दक्षिणी-पूर्वी भाग है । यह त्रिकोउत्पन्न कर सकते थे । काल-क्रम से इनमें से कुछ कोश भूमि में ___णाकार है । दक्षिणी कोण लंका द्वीप को प्रायः स्पर्श करता है। जड़ जमाकर स्थावरकाय वनस्पति बन गये, और कुछ जल म वहां से भारतवर्ष की सीमा उत्तर की ओर पूर्व-पश्चिम दिशाओं ही विकसित होते-होते मत्स्य बन गये। क्रमश: धीरे-धीरे ऐसे में फैलती हई चली गई है और हिमालय पर्वत की श्रेणियों पर वनस्पति और मेंढक आदि प्राणी उत्पन्न हुए, जो जल में ही नहीं, पर जाकर समाप्त होती है। भारत का पूर्व-पश्चिम और उत्तरकिन्तु स्थल पर भी श्वासोच्छ्वास ग्रहण कर सकते थे। इन्हीं दक्षिणी विस्तार लगभग दो-दो हजार मील का है । इसकी उत्तरी स्थल प्राणियों में से उदर के बल रेंगकर चलने वाले केंचुआ सीमा पर हिमालय पर्वत है । मध्य में विन्ध्य और सतपुड़ा की सांप आदि प्राणी उत्पन्न हुए । इनका विकास दो दिशाओं में पर्वतमालाएँ हैं। तथा दक्षिण के पूर्वी और पश्चिमी समुद्र-तटों हुआ-एक पक्षी के रूप में और दूसरे स्तनधारी प्राणी के रूप पर पूर्वी-घाट और पश्चिमी-घाट नाम वाली पर्वत-श्रेणियाँ फैली. में । स्तनधारी प्राणी की यह विशेषता है कि वे अण्डे से उत्पन्न हुई हैं। न होकर गर्भ से उत्पन्न होते हैं और पक्षी अण्डे से उत्पन्न होते भारतवर्ष की प्रमुख नदियों में हिमालय के प्रायः मध्य भाग हैं । मगर से लेकर भेड़, बकरी, गाय, भैस, घोड़ा आदि सब से निकलकर पूर्व की ओर समुद्र में गिरनेवाली ब्रह्मपुत्र और गंगा इसी स्तनधारी जाति के प्राणी हैं । इन्हीं स्तनधारी प्राणियों की है। इनकी सहायक नदियों में जमुना, चम्बल, वेतवा और सोन एक वानर जाति उत्पन्न हुई। किसी समय कुछ वानरों ने अपने आदि हैं । हिमालय से निकलकर पश्चिम की ओर समुद्र में अगले दो पैर उठाकर पीछे के दो पैरों पर चलना-फिरना सीख गिरने वाली सिन्धु और उसकी सहायक नदियाँ झेलम, चिनाव, लिया । बस, यहीं से मनुष्य जाति का विकास प्रारम्भ हुआ रावी, व्यास और सतलज हैं । गंगा और सिन्धु की लम्बाई लगमाना जाता है । उक्त जीवकोश से लगाकर मनुष्य के विकास तक भग पन्द्रह सौ मील की है। देश के मध्य में विन्ध्य और सतपुड़ा प्रत्येक नयी धारा उत्पन्न होने में लाखों करोड़ों वर्ष का अन्तर के बीच पूर्व से पश्चिम की ओर समुद्र तक बहने वाली नर्मदा माना जाता है। नदी है । सतपुड़ा के दक्षिण में ताप्ती नदी है। दक्षिण भारत की इस विकास-क्रम में समय-समय पर तात्कालिक परिस्थितियों प्रमुख नदियां गोदावरी, कृष्णा, कावेरी पश्चिम से पूर्व की ओर के अनुसार नाना प्रकार की जीव-जातियाँ उत्पन्न हुई। उनमें से बहती हैं। भनेक जातियाँ समय के परिवर्तन, विप्लव और अपनी अयोग्यता देश के उत्तर में सिन्धु से गंगा के कछार तक प्रायः आर्य के कारण विनष्ट हो गई, जिनका पता हमें भूगर्भ में उनके निखा जाति के, तथा सतपुड़ा से सूदूर दक्षिण में द्रविड़ जाति के, एवं तकों द्वारा मिलता है। पहाड़ी प्रदेशों में गोंड, भील, कोल और किरात आदि आदिवासी पृथ्वी-तल पर भूमि से जल का विस्तार लगभग तिगुना है। जन-जातियों के लोग रहते हैं। (चल २६% जल ७१%)। जल के विभागानुसार पृथ्वी के पांच वर्तमान में उपलब्ध इस आठ हजार मील विस्तृत और प्रमुख खण्ड पाये जाते हैं-एशिया, यूरोप और अफ्रीका मिलकर । पच्चीस हजार मील परिधि वाले भू-मण्डल के चारों ओर अनन्त एक, उत्तरी-दक्षिणी अमेरिका मिलकर दूसरा, आस्ट्रेलिया तीसरा, आकाश है. जिसमें हमें दिन को सूर्य और रात्रि को चन्द्रमा एवं. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : भूमिका ताराओं के दर्शन होते हैं और उनसे प्रकाश मिलता है। इनमें पृथ्वी के सबसे अधिक समीप चन्द्रमा है, जो इस भूमण्डल से लगभग अढाई लाख मील दूर है। यह पृथ्वी के समान ही एक है जो पृथ्वी से बहुत छोटा है और उसी के चारों ओर घूमा करता है, जिससे हमारे यहां शुक्ल और कृष्ण पक्ष होते हैं । चन्द्रमा में स्वयं प्रकाश नहीं है, किन्तु वह सूर्य के प्रकाश से प्रका शित होता है, इसलिए अपने परिभ्रमण के अनुसार घटता-बढ़ता दिखाई देता है । अनुसन्धान से ज्ञान हुआ है कि चन्द्रमा बिल्कुल ठंडा हो गया है और पृथ्वी के गर्भ के समान अब उसमें अग्नि नहीं है । उसके आस-पास वायुमण्डल भी नहीं है और न उसके घरातल पर जन ही है। इन्हीं कारणों से वहां स्वासोच्छ्वास प्रधान प्राणी और वनस्पति उपलब्ध नहीं हैं। वहां पर्वत तथा कन्दराओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अनुमान किया जाता है कि चन्द्रमा पृथ्वी का ही एक भाग है, जिसे टूटकर अलग हुए पांच-छह करोड़ वर्ष हुए हैं। २ - चन्द्र का क्षेत्रफल आदि २ इन ग्रहों से पृथ्वी से लगभग साढ़े नौ करोड़ मील की दूरी पर सूर्य मण्डल है, जो पृथ्वी से लगभग पन्द्रह लाख गुना बड़ा है, अर्थात् पृथ्वी के समान लगभग पन्द्रह लाख भूमण्डल उसके गर्भ में समा सकते हैं । सूर्य का व्यास ८६०००० मील है। यह महाकाय सूर्य मण्डल अग्नि से प्रज्वलित है और उसकी ज्वाला लाखों मील तक उठती हैं । सूर्य की ज्वाला से करोड़ों मील विस्तृत सौर मण्डल भर में प्रकाश और उष्णता फैलती है। सूर्य के धरातल पर १०००० फारेनहीट गर्मी है । जेम्स जीन्स वैज्ञानिक का मत है कि इसी सूर्य की विप्रिता से पृथ्वी, बुध, बृहस्पति आदि ग्रह और उनके उपग्रह बने हैं, जो सब अभी तक उसके आकर्षण से निबद्ध होकर उसी के आस-पास घूम रहे हैं । हमारा भूमण्डल सूर्य की परिक्रमा ३६५ दिन में तथा प्रति चौथे वर्ष ३६६ दिन में पूरी करता है और इसी के आधार पर हमारा वर्ष-मान अवलम्बित है । इसी परिभ्रमण में पृथ्वी निरन्तर अपनी कीली पर ६० हजार मील प्रति घण्टे के हिसाब से घूमा करती है, जिसके कारण हमारे यहां दिन और रात्रि हुआ करते हैं । चन्द्र व्यास --- २१६० मील, या ३४५६ किलोमीटर, पृथ्वी का जो गोलार्धं सूर्य के सम्मुख पड़ता है, वहाँ दिन और पृथ्वी का चतुर्थभाग शेष गोलार्ध में रात्रि होती है। वैज्ञानिकों का यह भी मत है कि ये पृथ्वी आदि ग्रह और उपग्रह पुनः सूर्य की ओर आकृष्ट हो रहे हैं। आज के वैज्ञानिकों ने चन्द्र के विषय में जो तथ्य संकलित किये हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं: चन्द्र की परिधि - १०८६४ किलोमीटर, चन्द्र की पृथ्वी से दूरी २६११७१ किलोमीटर, - चन्द्र का तापमान - ११७ सेन्टीग्र ेड, जब सूर्य सिर के ऊपर हो, चन्द्र का रात में तापमान - १३७ सेटीग्र ेड चन्द्र सतह में गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी का छठा अंग पृथ्वी पर जिस वस्तु का वजन २७ किलो है, उसका चांद पर ४५ किलो है । चन्द्रविस्तार या विम्ब पृथ्वी का १०० वां अंश है, और उसका आयतन पृथ्वी के आयतन का वां भाग है। चन्द्रमा की गति ३६६६ किलोमीटर प्रति घण्टा है । चन्द्र को पृथ्वी की एक परिक्रमा करने २७ दिन ७ घण्टे और ४३ मिनट लगते हैं, क्योंकि वह लगभग इसी गति से अपनी धुरी पर घूमता है । शित होते हैं। इन ग्रहों में से किसी में भी हमारी पृथ्वी के समान जीवों को संभावना नहीं मानी जाती है, क्योंकि वहाँ की परि स्थितियां जीवन के साधनों से सर्वथा प्रतिकूल हैं । चन्द्रमा से परे क्रमशः शुक्र, बुध, मंगल, बृहस्पति और शनि आदि ग्रह हैं। ये सब पृथ्वी के समान हो भूमण्डल वाले हैं और सूर्य की परिक्रमा किया करते हैं, तथा सूर्य के ही प्रकाश से प्रका ऊपर जिस महाकाय सूर्य मण्डल का उल्लेख किया गया है। उसकी बराबरी का अन्य कोई भी ज्योतिमंण्डल आकाश में दिखाई नहीं देता । किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि उन अति लघु दिखाई देने वाले तारों में सूर्य के समान कोई एक भी नहीं है। वस्तुतः हमें जिन तारों का दर्शन होता है, उनमें सूर्य से छोटे एवं सूर्य की बराबरी वाले तारे तो बहुत थोड़े हैं । उनमें अधिकांश तो सूर्य से भी बहुत विशाल हैं, तथा उससे सैकड़ों, हजारों लाखों गुने बड़े हैं किन्तु उनके छोटे दिखाई देने का कारण यह है कि वे हम से सूर्य की अपेक्षा बहुत अधिक दूरी पर हैं । ज्येष्ठा नक्षत्र इतना विशाल है कि उसमें ७००,००,००, ००,००,००० पृथिवियाँ सभा जायें । ३ - प्रकाशवर्ष तारों की दूरी समझने के लिए हमारे संख्या वाचक शब्द काम नहीं देते । उनकी गणना के लिए वैज्ञानिकों की दूसरी ही विधि है । प्रकाश की गति प्रति सेकिण्ड एक लाख छयासी हजार Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणितानुयोग : भूमिका | ६३ (१८६०००) मील, तथा प्रति मिनिट एक करोड़ ग्यारह लाख १,५०,००,००० १६ ५६,००,००,००० साठ हजार (१११६००००) मील मापी गई है । इस प्रमाण से १८ २६,६०,००,००० २० १,००,००,००,००० - सूर्य का प्रकाश हमारी पृथ्वी तक आने में साढ़े आठ (1) (एक अरब) मिनिट लगते हैं। तारे हमसे इतनी दूर हैं कि उनका प्रकाश हमारे जेम्स जीन्स सदश वैज्ञानिक ज्योतिषी का मत है कि तारों की समाप वा म आ पाता है और जितन वषा म वह आता ह उतन संख्या हमारी पृथ्वी के समस्त समुद्र-तटों की रेत के कणों के बराही प्रकाश-वर्ष की दूरी पर वह तारा कहा जाता है। सेञ्चुरी बर हो तो आश्चर्य नहीं है । ये असंख्य तारे एक दूसरे से कितने नामक अति निकटवर्ती तारा हमसे साढ़े चार प्रकाश-वर्ष की दूरी दूर-दूर हैं, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सूर्य । पर है क्योंकि उसके प्रकाश को हमारे पास तक आने में साढ़े चार से अति निकटवर्ती तारा साढे चार प्रकाश-वर्ष अर्थात् अरबोंप्रकाश-वर्ष लगते हैं । इस प्रकार दस, बीस, पचास एवं सैकड़ों खरबों मील की दूरी पर है। ये सब तारे बड़े वेग से गतिशील प्रकाश-वर्षों की दूरी के ही नहीं, किन्तु ऐसे-ऐसे तारों का ज्ञान हैं और उनका प्रवाह दो भिन्न दिशाओं में पाया जाता है । हो चुका है जिनकी दूरी दस लाख प्रकाश वर्ष की मापी गई है तथा जो परिमाण में इस पृथ्वी से तो क्या, हमारे सूर्य से भी लाखों ५-नीहारिका गुने बड़े हैं । बिखरी वाष्प की शक्ल में जो अनेक तारों का समूह पाया ताराओं की संख्या का पार नहीं है। हमें अपनी दृष्टि से तो जाता है, उन्हें नीहारिका कहते हैं । बिना दूरबीन के हम अपनी अधिक से अधिक छठे प्रमाण तक के लगभग छह-सात हजार तारे आँखों से एकाध ही नीहारिका देख सकते हैं और वह भी देखने ही दिखाई देते हैं । किन्तु दूर-दर्शक यन्त्रों को जितनी शक्ति बढ़ती में तारों जैसी ही मालूम होती है। दूरबीन से देखने पर उनमें जाती है, उतने ही अधिकाधिक तारे दिखाई देते हैं। अभी तक कुछ गोल दिखाई देती हैं और कुछ की आकृति शंख के चक्कर -बीसवें प्रमाण तक के तारों को देखने योग्य यन्त्र बन चके हैं की भांति है । गोल नीहारिकाएँ हमारे स्थानीय विश्व या आकाश.जिनके द्वारा दो अरब से भी अधिक तारे देखे जा चके हैं। जिनकी गंगा के तारागुच्छ है । चक्करदार नीहारिकाएँ महान विश्व से • तालिका आगे दी जाती है। छोटी, किन्तु करोड़ों तारा गुच्छकों से मिलकर बने छोटे विश्व हैं । यद्यपि विशेष विवरण के साथ जाँच-पड़ताल की गई नीहा४-वैज्ञानिकों के अनुसार तारों की संख्या रिकाएँ सौ से भी कम हैं, किन्तु दूरबीन से बीस लाख के करीब आज के वैज्ञानिकों ने प्रकाश की हीनाधिकता के अनुसार चक्करदार नीहारिकाओं के अस्तित्व का पता चला है । आकाश• तारों को कई वर्गों में बाँटा है । पहिले, दूसरे और तीसरे वर्ग के गंगा भी इसी श्रेणी का एक द्वीप-विश्व है । हमारी पृथ्वी न तारे अधिक चमकीले हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत कम है । आठवें वृहस्पति की भाँति विशाल और न शुक्र की भाँति छोटा ग्रह है । वर्ग तक के तारों को आँखों से देखा और गिना जा सकता है, सूर्य भी मध्यम आकार का एक ग्रह है । किन्तु आकाश-गंगा : किन्तु इससे आगे के वर्गों के तारों को दूरबीन की सहायता से ही अपनी श्रेणी के द्वीप-विश्वों से बहुत बड़ी है । आकाश-गंगा भी - देखा और गिना गया है। एक मध्यम आकार की नीहारिका है, जिसकी मात्रा एक अरब सूर्यों से भी ज्यादा है। सूर्य हमारी पृथ्वी से तीन लाख तेरह वैज्ञानिकों के द्वारा २० वर्गों में विभक्त तारों की संख्या इस हजार गुना बड़ा है। प्रकार है:वर्ग संख्या वर्ग संख्या ६-आकाश गंगा १६४ ११७००० यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आकाश गंगा क्या वस्तु है ? रात ३२४००० को आकाश में एक सफेद बालुका पथ या गंगा जैसी सफेद चौड़ी २०० ११ ८७००० धारा दक्षिण-पश्चिम से उत्तर पूर्व की ओर लम्बे आकार में ५३० २२,७०,००० दिखाई देती है, इसे ही आकाश-गंगा कहते हैं । आकाश-गंगा स्वयं १६२० १३ ५७,००,००० तारों का एक समूह है । इसमें सूर्य जैसे दो खरब के करीब तारे -४८५० १४ १,३८,००,००० हैं । इसकी आकृति अण्डाकार जेबी घड़ी या दो जुड़े गोल तवों १४३०० १५ ३,२०,००,००० की भाँति बीच में मोटी और किनारों पर पतली है । इसका व्यास ७,१०,००,००० ३ लाख प्रकाश-वर्ष और मोटाई १० हजार प्रकाश-वर्ष है। x .m ur Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ | गणितानुयोग : भूमिका ७-ग्रह ज्योतिर्मण्डल में ग्रहों का भी महत्वपूर्ण स्थान है, उनका किंचित् परिचय निम्नलिखित कोष्ठक से ज्ञात हो सकेगा । औसत परिक्रमा का समय वर्षों में ग्रह का सूर्य से औसत दूरी मीलों में नाम १. बुध २. शुक्र ३. पृथ्वी ४. मंगल | ३,६०,००,००० ६,७२,००,००० ६,२६,००,००० व्यास मीलों में १४, १५,००,००० ५. बृहस्पति ४८,३२,००,००० ६. शनि [ ८८,५६,००,००० ७. अरुण ३०३० ०.२२ ७७०० ०.६२ ७६१८ १.०० ४२३० १.८८ ८६५०० ११.८६ ७३००० | २६.४६ ८. वरुण १,७८, २२,००,००० ३१६०० ८४.०२ २,७६,१६,००,००० ३४८०० १६४.७८ ९. कुबेर ३,७०,००,००,००० / ३६०५ २५०.०० | अज्ञात १ उपग्रहों की संख्या o १ २ ह ह सूर्य है, जो अपने ग्रहों को साथ लिए ऐरावत- पथ पर बराबर घूम रहा है। पूर्व ऐरावत पथ में लगभग ५०० करोड़ तारे विद्य मान हैं। इनमें से बहुतों को हम नहीं देख सकते हैं, क्योंकि वेद हमारे सामने से दिन में निकलते हैं, अतः सूर्य के प्रकाश में उनका प्रकाश हमें नहीं दिखाई देता है। तारों के अतिरिक्त ऐरावत य में धुन्ध, गैस और धूल भी अधिक मात्रा में है। रात्रि में अनेक तारागणों का प्रकाश एकत्रित होकर इस गैस और धूल को प्रका-शित कर देता है । इस प्रकार सारे विश्व या लोक का प्रमाण असंख्य हैं और आकाश का तो कहीं अन्त ही नहीं दिखाई देता है । तारागणों का आकाश में जिस प्रकार वितरण है, तथा आकाश गंगा में जो तारापुञ्ज दिखाई देता है, उस पर से अनुमान लगाया गया है कि तारामण्डल सहित समस्त लोक का आकार लेन्स के समान है, अर्थात ऊपर नीचे को उभरा हुआ और बीच में फैला हुआ गोल है, जिसकी परिधि पर आकाश गंगा दिखाई देती है और उभरे सूर्य तथा उसका ग्रह-कुटुम्ब मिलकर सौर्य मण्डल कहा हुए भाग के मध्य में सूर्य- मण्डल है । जाता है । ८ - लोक या ब्रह्माण्ड का आकार जिसको हम ब्रह्माण्ड कहते हैं, उसमें अनेक सौर्य मण्डल हैं । ऐसा अनुमान किया जाता कि ऐसे सौर्य मण्डलों की संख्या लग भग १० करोड़ है । हमारा सौर्य मण्डल 'ऐरावत पथ' (मिल्की वे ) नामक ब्रह्माण्ड में स्थित है। ऐरावत पथ के चन्द्र रूपी पथ के लगभग २/३ भाग पर एक पीला बिन्दु है । यही बिन्दु हमारा 1 प्रस्तुत प्रस्तावना के लेखन में जिन लेखकों की रचनाओं का उपयोग किया गया है, मैं उन सबका आभारी हूँ साथ ही पं० मुनि श्री कन्हैयालाल जी महाराज 'कमल' का विशेषतः आभार: मानता हूँ, जिन्होंने अपने इस महान श्रम-साध्य 'गणितानुयोग'-- संकलन की प्रस्तावना लिखने का अवसर प्रदान किया । 00 - - हीरालाल 'सिद्धान्तशास्त्री''न्यायतीर्थ'. Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका गणितानुयोग लोक प्रज्ञप्ति पृष्ठ : १-७३६ सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक मरिहन्त-सिह-स्तुति द्रव्यलोक ४०-६७ १८-३३ उत्थानिका २-३६ ३.१८ जीव-अजीवमय लोक चंपानगरी ३ लोक में द्विविध पदार्थ चंपा में कोणिक राजा ३ लोक में स्पर्शना 'चंपा में भगवान महावीर का आगमन संकल्प ३ लोक में शाश्वत और अनन्त ४७ २० प्रवृत्तिव्यावृत्त का कोणिक से निवेदन ४ पंचास्तिकायमय लोक कोणिककृत स्तव छह द्रव्यमय लोक भमवान का चम्पा में आगमन ५ दिशाओं के भेद और स्वरूप 'भगवान का परिवार और देवताओं का आगमन ५ दिशाओं में जीव, अजीव और उनके देश, प्रदेश चम्पानिवासियों द्वारा पर्युपासना ६ लोक में जीव अजीव और उनके देश-प्रदेश कोणिक का आगमन ६ लोक में एक आकाश प्रदेश में जीव-अजीव और भगवान द्वारा लोकादि के सम्बन्ध में उपदेश ७ देश-प्रदेश ५७ २५ लोकस्वरूप के ज्ञाता और उपदेशक ८ प्रदेशों का उदाहरण सहित अनाबाधत्व ५८ २६ लोक के भेद ६ लोक के एक आकाश-प्रदेश में जीवों और जीव-प्रदेशों नामलोक २१ १० का अल्प-बहुत्व ५६ २७ स्थापनालोक १० लोक के चरमान्तों में जीवाजीव और उनके देश-प्रदेश ६० २८ लोकप्रमाण नंगम और व्यवहारनय की अपेक्षा से लोक में लोक का आयाम-मध्य भाग २५ १२ क्षेत्रानुपूर्वी आदि द्रव्यों का अस्तित्व ६१ लोक का समभाग और संक्षिप्त-भाग १२ नंगम और व्यवहारनय की अपेक्षा से लोक में लोक का वक्रभाग १२ आनुपूर्वीद्रव्य आदि की स्पर्शना ६४ लोक का संस्थान १३ संग्रहनय की अपेक्षा से लोक में अनानुपूर्वी द्रव्यादि आठ प्रकार की लोकस्थिति और बस्ति का उदाहरण २६ १३ का अस्तित्व ६६ ३२ दस प्रकार की लोकस्थिति १४ संग्रहनय की अपेक्षा से आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की लोक के विषय में स्कन्धक-संवाद लोक स्पर्शना 'लोक का एकांत शाश्वतत्व और अशाश्वतत्व का क्षेत्रलोक ६८-६८ ३३-३४ निषेध क्षेत्रलोक के भेद और क्रम लोक के सम्बन्ध में अन्य॑तीथिकों की मान्यताएँ ३४ -लोक के विषय में अन्यतीथिकों के मतों का निषेध ३५ १७ अधोलोक ७०.२४५ ३४-११६ लोक में चार समान हैं १७ अधोलोक के भेद और क्रम लोक में उद्योत के कारण ३८ १८ अधोलोक का संस्थान ७२ ३५ -लोक में अन्धकार के कारण ३६ १८ अधोलोक का आयाम-मध्य ७३ ३५ ३२ १७ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) ___ १२४ ५७ d xxx १३६ १४७ सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक अधोलोक में अन्धकार करने वाले ३५ अधोलोक के एक आकाश प्रदेश में जीव, अजीव पृथ्वियों के नाम-गोत्र ३५ और उनके देश प्रदेश पृथ्वियों का आधार अवकाशान्तर आदि का गुरुत्वादिः प्ररूपण १२५ पृथ्वियों का प्रमाण नैरयिकों के स्थान १२६ ५६ पृथ्वियों के संस्थान रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक स्थान १२७ ५६ पृथ्वियाँ शाश्वत भी हैं और अशाश्वत भी हैं ८४ ३६ रत्नप्रभा मे छह महानरकावास १२८ ६० रत्नप्रभादि का धर्मास्तिकायादि से स्पर्श ८६ ४० शर्कराप्रभा के नैरपिक स्थान १२६ ६० पृथ्वियों का द्रव्य स्वरूप ८७ ४१ बालुकाप्रभा के नैरयिक स्थान १३० ६१ पृथ्वियों के अधःस्थित द्रव्यों का स्वरूप ८८ ४१ पंकप्रभा के नैरयिक स्थान १३१ ६२ पृथ्वियों का परस्पर अबाधा अन्तर ८६ ४२ पंकप्रभा में छह महानरकावास १३२ ६२ सप्तम नरक और अलोक का अबाधा अन्तर धूमप्रभा के नरयिक स्थान १३३ ६२ रत्नप्रभा नरक और ज्योतिषी देवों का अबाधा अन्तर ६१ तमःप्रभा के नैरयिक स्थान १३४ ६३ पृथ्वियों के नीचे गृहादि का अभाव तमस्तमा पृथ्वी के नैरयिक स्थान १३५ ६४ पृथ्वियों के नीचे देवादि-कृत स्थूल मेघादि हैं सप्त पृथ्वियों का बाहल्य १३७ ६५ पृथ्वियों के नीचे स्थूल अग्निकाय का अभाव ४३ सप्त पृथ्वी स्थित नरकावासों के स्थान ६५ पृथ्वियों के नीचे ज्योतिषी देवों का अभाव ___६५ ४३ नरकावासों की संयुक्त संख्या रत्नप्रभा पृथ्वी के काण्ड पृध्वियों में नरकावास शर्कराप्रभा आदि छह पृथ्वियों की एकरूपता ४४ नरकावासों का प्रमाण १४८ काण्डों का बाहुल्य नरकावासों के संस्थान १५२ ७१ काण्डों का द्रव्य स्वरूप ९ ४५ नरकावासों के वर्णादि १५३ ७२ काण्डों का संस्थान नरकावास वज्रमय और शाश्वत-अशाश्वत हैं. १५४ पृथ्वी-चरमांतों का और काण्ड-चरमांतों का अन्तर १०१ ४६ अधोलोक में दो शरीर वाले पृथ्वियों के नीचे घनोदधि आदि का सद्भाव और भवनवासी देवों के स्थान १५६ उनका प्रभाव असुरकुमारों के स्थान का प्ररूपण १५७ ७७घनोदधि वलय आदि का प्रमाण असुरकुमारों के स्थान १५८ ७७घनोदधि आदि के संस्थान १०८ ४६ असुरकुमारों के इन्द्र १५६ घनोदधि वलय आदि के संस्थान दाक्षिणात्य असुरकुमारों के स्थान ७८घनोदधि आदि का द्रव्य स्वरूप दाक्षिणात्य असुरेन्द्र चमर ७६. घनोदधि बलय आदि का द्रव्य स्वरूप असुरकुमारों की नीचे जाने की शक्ति का प्ररूपण १६२ ८०. पृथ्वियों के पूर्वादि चरमांत असुरकुमारों की तिर्यक्लोक में जाने की शक्ति का पृथ्वियों के चरमान्तों का और घनोदधि आदि के प्ररूपण १६३ ८१ चरमान्तों का अन्तर ११६ ५२ असुरकुमारों की ऊर्वलोक में जाने की शक्ति का पृथ्वियों के चरमान्तों में जीव, अजीव और उनके देश-प्रदेश ११६ ५५ १६४ ८१. पृथ्वियों के चरमादि १२० उत्तरदिशा के असुरकुमारों के स्थान १६५ ८२ पृथ्वियों के अचरमादि पदों का अल्प-बहुत्व १२१ ५६ उत्तरदिशा का असुरेन्द्र बलि १६६ ८३.. रत्नप्रभादि से लोकांत का अन्तर १२२ ५६ नागकुमारों के स्थान १६७ ८३ द्रव्य, काल और भाव से अधोलोक-क्षेत्रलोक का नागकुमारेन्द्र १६८ ८३ आधेय प्ररूपण १२३ ५७ दाक्षिणात्य नागकुमारों के स्थान १६६. ४४ १०५ 2U x प्ररूपण Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ १७७ * i ( 6 ) सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक दाक्षिणात्य नागकुमारेन्द्र धरण . १७०८४ बलि की तीन प्रकार की परिषदाओं में देव-देवियों उत्तर दिशा के नागकुमारों के स्थान १७१ की संख्या २१० १०२ उत्तर दिशा के नागकुमारेन्द्र भूतानन्द १७२ शेष भवनपतियों की परिषदायें २११ १०३ सुपर्णकुमारों के स्थान १७३८५ भवनपतियों की सेनाएँ और सेनापति २१३ १०४ सुपर्णकुमार देवों के इन्द्र १७४ भवनवासी पदाति सेनापतियों के सात कच्छों में दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के स्थान १७५ ...८६ देवों की संख्या २१७ १०५ दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदेव ८६ भवनवासी इन्द्रों और उनके लोकपालों के उत्पाद उत्तर दिशा के सुपर्णकुमारों के स्थान पर्वत २१८ १०६ उत्तर दिशा के सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदाली १७८ दो भवनवासी देवों की विषमता का हेतु २१६ विद्युत्कुमारादि सातों के स्थानादि का निरूपण १७६ वायुकुमारों के चार प्रकार २२० १०८ भवनवासी देवों के भवनों की संख्या और उनका छप्पन दिशाकुमारियाँ-अधोलोक में रहने वाली प्रमाण १८० आठ दिशाकुमारियाँ २२१ १०८ दक्षिण दिशा और उत्तरदिशा के भवनों की संख्या १८३ ऊर्ध्वलोक में रहने वाली आठ दिशाकुमारियाँ २२२ १०६ रत्नमय भवनावास शाश्वत और अशाश्वत १८४ ८८ पूर्व दिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली आठ भवनवासियों के इन्द्र ८६ दिशाकुमारियाँ २२३ १०६ भवनपति इन्द्रों की अग्रमहिषियाँ १० दक्षिण दिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली भवनवासी देवों के वर्ण १६० ६१ आठ दिशाकुमारियाँ । २२४ ११० भवनवासी देवों के परिधानों (वस्त्रों) का वर्ण १६१ ६१ पश्चिम दिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली भवनपतियों के सामानिक देवों की और आत्म आठ दिशाकुमारियाँ २२५ ११० रक्षक देवों की संख्या १९२ ६१ उत्तर दिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली आठ भवनवासी इन्द्रों के लोकपाल १६३ दिशाकुमारियाँ २२६-१११ भवनपति इन्द्रों के लोकपालों की अग्रमहिषियाँ १६४ ६३ चार विदिशाओं के रुचक पर्वतों पर रहने वाली चमरेंद्र की सुधर्मा सभा १६५ चार दिशाकुमारियाँ २२७ १११ चमरेन्द्र का चमरचंचावास मध्यरुचक पर्वत पर रहने वाली चार दिशाबलि की सुधर्मा सभा तथा बलिचंचा राजधानी १६७ कुमारियाँ २२८ ११२ पाँच सभा पृथ्विकायिक जीवों के स्थान २२६ ११२ सभा की स्तम्भ संख्या १६६ १०० अप्कायिक जीवों के स्थान २३१ ११३ सुधर्मा सभा की ऊंचाई बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान २३४ ११४ उपपात-विरह वायुकायिकों के स्थान २३५ ११५ चमरचंचा के प्रत्येक द्वार के बाहर भीम (नगर) २०२ १०० वनस्पतिकायिकों के स्थान २३८ ११६ उपकारिकालयन २०३ १०० द्वीन्द्रिय जीवों के स्थान २४१ ११७. भवनवासी देवों के चैत्य वृक्ष २०४ १०० त्रीन्द्रिय जीवों के स्थान २४२ ११७. भवनपतियों की परिषदाएँ-चमर की परिषदाएँ २०५ १०० चतुरिन्द्रिय जीवों के स्थान २४३ ११८ तीन प्रकार की चमर परिषदाओं में देवों की... पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान २४४ ११८ संख्या २०६ १०१ पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च यौनिकों के स्थान २४५ ११६ तीन प्रकार की चमर परिषदाओं में देवियों की तिर्यकलोक संख्या २०७ १०१ (मध्य लोक) चमर की तीन परिषदाओं के प्रयोजन २०८ १०१ भगवान महावीर का मिथिला में समवसरण १ १२१ बलि की परिषदाएँ २०६ १०२ तिर्यक्लोक क्षेत्रलोक के भेद २ १४४ ६४ १६८ २०० २०१ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यक्लोक लोकका संस्थान तिर्यक्लोक - क्षेत्रलोक के आयाम का मध्य भाग द्वीप और समुद्रों के स्थान महत्ता संस्थान और प्रकट आकार ५ जम्बूद्वीप का वर्षम जम्बूद्वीप का स्थान एवं प्रमाणादि जम्बूद्वीप शाश्वत और अशाश्वत ६-६२६ जम्बूद्वीप का पृथ्वी आदि परिणामित्व जम्बूद्वीप में सब जीवों का एकेन्द्रिय रूप से पूर्व में उत्पन्न होना जम्बूद्वीप की जगती का प्रमाण जम्बुद्वीप की जगती के गवाक्ष का प्रमाण जम्बूद्वीप की जगती पर पद्मवर वेदिका का प्रमाण पद्मवेदिका का विस्तृत वर्ण पद्मवेदिका के नाम का हेतु पद्मवरवेदिका शाश्वत और अशाश्वत वनखण्ड का प्रमाण वनखण्ड का वर्णन वनखण्ड का समतल भूमि भाग कृष्ण तृण -- मणियों का इष्टतर कृष्णवर्ण नील तृण - मणियों का इष्टतर नीलवर्ण रक्त तृण - मणियों का इष्टतर रक्तवर्ण पीत तृण - मणियों का इष्टतर पीतवर्ण शुक्ल तृण -- मणियों का इष्टतर शुक्लवर्ण तृण - मणियों का इष्टतर गन्ध तृण -‍ - मणियों का इष्टतर स्पर्श तृणमणियों का इष्टतर शब्द वनखण्ड में मनोहर बावड़िया आदि त्रिसोपान प्रतिरूपकों का वर्णन त्रिसोपान प्रतिरूपकों के आगे तोरण तोरणों के ऊपर आठ-आठ मंगल तोरणों के ऊपर चामरयुक्त ध्वजाएँ तोरणों के ऊपर छत्रादि पदार्थ बावड़ियों के समीप उत्पात पर्वतादि उत्पात पर्वतों पर हंसासन आदि वनखण्ड के अनेक भागों में आलिगृहादि आलिगृहादि में हंसासन आदि वनखण्ड के अनेक भागों में जाइ मण्डप, आदि सूत्रांक पृष्ठांक ३ ६ ८ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ २० २१ २२ २४ २५ २६ २७ २८ २६ ३० ३१ ३२ ३५ ३६ ३७ ३८ ३६ ४० (१५) ४१ ४२ ४३ ४४. ४५. १२२ १२२ १२४-३३६ १२४ १२५ १२६ १२६ १२६ १२६ १२६ १२७ १२८ १२८ १२६ १२६ १३१ १३१ १३२ १३२ १३३ १३३ १३४ १३४ १३५ १३७ १३७ १३८ १३८ १३८ १३८ -१३६ १३६ १३६ १३६ १३६. वाद-मण्डपादि में विविध आकार के पृथ्वीशिलापट्ट४६ वनखण्ड में वाणव्यन्तरों का विचरण पद्मवेदिका के अन्तर्भाग में एक बनण् मनराण्ड में वागव्यन्तरों का विहरण विजयद्वार की नैषिधिकियों में प्रकण्ठक विजयद्वार की नैषिधिकियों के तोरण विजयद्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजायें विजयद्वार के आगे नव भोम विजयद्वार के ऊपर का आकार विजयद्वार के नाम का हेतु विजयद्वार की शाश्वतता विजया राजधानी का स्थान और प्रमाण विजया राजधानी के प्राकार का प्रमाण कंगूरों का वर्ण और प्रमाण विजया राजधानी की प्रत्येक बाह्रा में एक सौ सूत्रांक पृष्ठांक १४० १४० १४० १४० १४१ १४१ १४१ जम्बूद्वीप के चार द्वार विजयद्वार का प्रमाण विजयद्वार का वर्णन विजयद्वार की नैषिधिकियों में चन्दनकलशों की पंक्तियाँ ५३ विजयद्वार की नैविधिकियों में नागदन्तकों को पंक्तियाँ ५४ विजयद्वार की नैषिधिकियों में सालभंजिकाओं को पंक्ति ५८ विजयद्वार की नैषिधिकियों में जालकटक ५६ विजयद्वार की नैषिधिकियों में घण्टों की पंक्तियाँ ६० विजयदार की नैषिधिकियों में वनमालाओं की पंक्तियाँ चार वनखण्ड प्रासादवंतसकों का प्रमाण उपकारिकालयन का प्रमाण ४७ ४८ ४६ ५० ५१ ५२ मूलप्रासादवतंसक का प्रमाण प्रासादवतंसकों का प्रमाण विजयदेव की सुधर्मा सभा का वर्णन ६१ ६२ ७१ 58 ६० ६६ पच्चीस द्वार १०८ प्रकंठकों का प्रमाण ११० प्रासादवतंसकों का प्रमाण १११ विजया राजधानी के द्वारों के आगे सतरह भौम ११३ विजया राजधानी के चार दिशा में १०३ १०४ १०५ १०६ १०७ १४३ १४३ १४४ १४५ १४५ १४६ १४६ १४८ १५१ १५१ १५२ १५३ १५३ १५३ १५३ १५४ १५४ १५४ १५४ १५५ ११५ १५५. ११६ १५६. १२१ १५६ १२६ १५७ १२६ १५८ १३५ १५६ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखमंडपों का प्रमाण प्रेक्षावर मंडपों का प्रमाण चैत्यस्तूपों का प्रमाण चार दिनप्रतिमायें वृक्षों का प्रमाण महिन्द्र ध्वजाओं का प्रमाण नन्दा पुष्करणियों का प्रमाण गोमानसिकाओं की संख्या माणवक चैत्य स्तम्भ गोल डिब्बों में जिन अस्थियाँ देव शय्या का वर्णन क्षुद्र (लघु) महिन्द्रध्वज का प्रमाण विजयदेव का चोपाल नामक शस्त्रागार सिद्धायतन का प्रमाण एक महान देवच्छन्दक एक सौ आठ जिन प्रतिमाओं का वर्णन एक महान उपपात सभा ह्रद का प्रमाण एक महा अभिषेक सभा विजयदेव का अभिषेक पात्र एक महान अलंकार सभा विजयदेव का अलंकार पात्र एक महान व्यवसाय सभा विजयदेव का एक महान पुस्तक रत्न एक महाबलिपीठ और उसका प्रमाण विजयदेव का इन्द्राभिषेक विजयदेव का पुस्तकरत्न वांचन विजयदेवकृत जिन प्रतिमा पूजन मनुष्यों की उत्पत्ति के स्थान जम्बूद्वीप के सात क्षेत्र जम्बूद्वीप के दस क्षेत्र जम्बूद्वीप का आयाम - विष्कम्भ और परिधि की "अपेक्षा से क्षेत्रों का तुल्यत्व सूत्रांक पृष्ठांक १३७ १६०. १६० १६१ १६१ १६१ १६२ १६३ १३८ १४२ १४४ १४६ १४६ १५१ सुधर्मा सभा में विजयदेव का सपरिकर बैठना विजयदेव के सामानिक देवों की स्थिति जम्बूद्वीप का वैजयन्त द्वार जम्बूद्वीप का जयन्त द्वार जम्बूद्वीप का अपराजित द्वार जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर २२६ सप्त वर्ष (क्षेत्र) वर्णन (ee) १५४ १६४ १५६ १६४ १५८ १६४ १६१ १६५ १६२ १६६ १६३ १६६ १६४ १६६ १६६ १६७ १६७ १६७ १७३ १६६ १७७ १६६ १७८ १७० १८१ १७० १८२ १७० १८३ १७० १८४ १७१ १८५ १७१ १७१ १९४ १७३ २०२ १८२ १८७ २०५ १८२ २१६ १८८ २२३ १८६ २२५ १८६ २२७ १६० २२८ १६० १६० २३० १६१ २३१ १.६१ २३४ १६२ २३५ די पन्द्रह कर्मभूमियाँ तीस अकर्मभूमियाँ छप्पन अन्तद्वीप: जम्बूद्वीप में तीन कर्मभूमियाँ जम्बूद्वीप में भरतवर्ष की अवस्थिति और प्रमाण २४५ जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में दस राजधानियाँ २४६ भरतवर्ष के नाम का हेतु २४७ भरतवर्ष का शाश्वतपन मी २५० तापर्वत से भरतवर्ष के दो विभाग २५१ दक्षिणार्थ - भरतवर्ष की अवस्थिति और उसका सूत्रांक पृष्ठांक २३८ १६२ १.६३ १.६३ प्रमाण दक्षिणाधं - भरत के अनुपृष्ठ का आयाम दक्षिणार्ध - भरतवर्ष का आकारभाव २५२ २५५ २५६ दक्षिणार्ध - भरतवर्ष के मनुष्यों का आकार भाव २५७ उत्तरार्द्ध — भरतवर्ष की अवस्थिति और उसका २४० २४४ प्रमाण २५८ उत्तरार्ध - भरतवर्ष का आकार भाव २६२ उत्तरार्ध भरतवर्ष के मनुष्यों का आकार भाव २६३ ऐरवस वर्ष की अवस्थिति और प्रमाण २६४ २६५ २६६ २७१ २७२ २७३ २७४ मंगलावर्तविजय की अवस्थिति और प्र १९२ पुष्कलावर्तविजय की अवस्थिति तथा प्रमाण भरत और ऐरवत की जीवा का प्रमाण महाविदेहवर्ष का स्थान और प्रमाण महाविदेह का आकार भाव महाविदेह के मनुष्यों का आकार भाव महाविदेह वर्ष के नाम का हेतु महाविदेह की शाश्वतता जम्बूद्वीप में चौंतीस चक्रवर्ती विजय और राज'धानियाँ २७५ २७७ जम्बूद्वीप में बत्तीस चक्रवर्ती विजय राजधानियाँकच्छविजय की अवस्थिति एवं प्रमाण दक्षिणार्ध कच्छविजय की अवस्थिति और प्रमाण २७८ दक्षिणार्ध कच्छविजय का आकारों भोव २८० उत्तरार्ध कच्छविजय की अवस्थिति और प्रमाण २८१ कच्छविजय के नाम का हेतु 5 २८२ विजय के स्थिति २८३ महाकच्छविजय के स्थान अवस्थिति और प्रमाण २६४ कच्छंगावती विजय की अवस्थिति और प्रमाण २८५ आवर्तविजय की अवस्थिति और प्रमा २६६ २८८ १६५ १६६ १९६ १६६ १६७ १६७ १६७ १६८ १६८ १६८ १६६ १६६ १६६ २०० २०० २०० २०१ २०१ २०१ २०१ २०२. २०३. २०३. २०३ २०३ २०४ २०४. २०५. २०५. २०५. २०५. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्कलावती विजय की अवस्थिति और प्रमाण " , त्यादिविजय वक्षस्कार पर्यंत महानदियाँ और कुछ राजधानियों पद्मविजय वक्षस्कार पर्वत, महानदियाँ और राजधानियाँ प्रादिविजय, वक्षस्कारपर्यंत महानदियां और राजधानियाँ हेमवतवर्ष के अवस्थिति और प्रमाण हैमवतवर्ष का आकार भाव , हैमन्तवर्ष के नाम का हेतु हैरण्यवतवर्ष के अवस्थिति और प्रमाण हैरण्यवतवर्ष के नाम का हेतु हरिवर्ष का अवस्थिति और प्रमाण हरिवर्ष का आकार भाव हरिवर्ष के नाम का हेतु रम्यकवर्ष के अवस्थिति और प्रमाण रम्यकवर्ष के नाम का हेतु देवकुरु का स्थान - प्रमाणादि देवकुरु का आकारभाव (स्वरूप) देवकुर के नाम का हेतु देवकु में कूटशाल्मलीपीठ के स्थानादि उत्तरकुरु की अवस्थिति और प्रमाणादि उत्तरकुरु का आकारभाव (स्वरूप) उत्तरकुरा में जम्बूपीठ की अवस्थिति और प्रमाण जम्बूद्वीप के सुदर्शन वृक्ष की अवस्थिति और प्रमाण जम्बू - सुदर्शन वृक्ष के बारह नाम जम्बू सुदर्शन वृक्ष के नाम का हेतु जम्मू-सुदर्शन वृक्ष के चारों विदिशाओं में सूत्रांक पृष्ठांक २८६ २६० २६१ २६२ २६३ २६७ २६८ २६६ ३०० ३०१ ३०५ ३०६ ३०७ ३०८ ३०६ ३१२ ३१३ ३१४ ३१६ ३१६ ३२३ ३२४ ३२५ ३२७ ३२८ ( १०० ) चार-वार गंदा पुष्करिणयाँ ३२६ जम्बू - सुदर्शन वृक्ष के चारों दिशा-विदिशाओं के मध्यभाग में आठ कूट अनाधृता राजधानी की अवस्थिति और प्रमाण ३३० दक्षिणी शीतासुखवन की अवस्थिति और प्रमाण ३३१ उत्तरी शीताखवन की अवस्थिति और प्रमाण ३३२ जम्बूद्वीप में सभी पर्वतों की संख्या वर्षधर पर्वत छह हैं ३३३ ३३४ २०६ क्षुद्रहिमवान् वर्षधर पर्वत की अवस्थिति और २०६ २०७ २०८ २०६ २१० २१० २१० २११ २११ २१२ २१२ २१२ २१३ २१३ २१४ २१४ २१४ २१५ २१५ २१६ २१७ २२० २२० २२१ प्रमाण क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु महाहिमवान् वर्षधर पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण ३३८ ३३६ महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु निषध वर्षधर पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण ३४० निषेध वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु ३४१ नीलवन्त वर्षधर पर्वत की अवस्थिति और रुक्मी वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु शिखरी वर्षधर पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण ३४२ नीलवन्त वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु ३४३ रुक्मी वर्षधर पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण ३४४ ३४५ प्रमाण शिखरी वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु मंदर पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण मंदरचूलिका का प्रमाण मेरु पर्वत के तीन काण्ड मंदर पर्वत के नाम का हेतु मंदर पर्वत के सोलह नाम मंदर पर्वत के मध्यभाग आदि से अबाधा अन्तर मंदर पर्वत से पर्वत द्वीप आदि के अन्तर मंदर पर्वत पर चार वन भद्रशाल वन का प्रमाण भद्रशाल वन के सिद्धायतन का प्रमाण नन्दनवन का प्रमाण सौमनस वन का प्रमाण पंडक वन का प्रमाण भद्रशाल वन में सोलह पुष्करिणियाँ चार अभिषेक शिलायें सूत्रांक पृष्ठांक २२१ पाण्डुशिला का प्रमाण २२३ पांडुकम्बलशिला का प्रमाण ३३६ ३३७ रक्तशिला का प्रमाण २२३ २२३ रक्तकंबल शिला का प्रमाण नन्दनवन के चरमान्तों के अन्तर पर्वत २२४ जम्बूद्वीप में चित्र-विचित्रकूट एक चित्रकूट पर्वत २२५ ३४६ ३४७ ३४८ ३४६ ३५० ३५१ ३५२ ३५३ ३५५ ३७२ ३७३ ३७४ ३७५ ३७६ ३७७ ३७६ ३८० ३८१ ३८२ ३८३ ३८४ ३८५ ३८५ ३८५ २२६ २२७ २२७ २२६ २२६ २३० २३० २३१ २३१ २३१ २३२ २३२ २३३ २३४ २३४ २३६ २३६ २३६ २३६ २३७ २३८ २३८ २३६ २३६ २४० २४१ २४१ २४२ २४२ २४३ २४३ २४४ २४४ २४४ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) ३९२ २६५ ३६३ ३६५ ૨૬૭ ४०० ४२३ WW.0 सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक 1'एक विचित्रकूट पर्वत ३८९ २४४ पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु ४२० २६५ - दो यमक पर्वत २४४ नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत के स्थान और .. यमक पर्वत संज्ञा का हेतु ३६१ २४५ प्रमाण ४२१ ___ २६५ यमक देवों की राजधानियाँ २४६ नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु ४२२ . जम्बूद्वीप में दो सौ कंचनगपर्वत २५० एकशेल वक्षस्कार पर्वत के स्थान और प्रमाण ४२३ । कंचनगपर्वतों की अवस्थिति और प्रमाण . २५० एकशैल वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु कांचनक पर्वतों के नाम के हेतु ३६४ २५१ सौमनस वक्षस्कार पर्वत का स्थान और · चौंतीस दीर्घवैताढ्य पर्वत २५१ प्रमाण ४२५ दीर्घवैताढ्य पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण ३६७ २५२ सौमनस वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु ४२६ दीर्घवैताढ्य पर्वत के शिखरतल की अवस्थिति विद्य त्प्रभ वक्षस्कार पर्वत का स्थान और और प्रमाण ३९८ २५३ प्रमाण ४२७ २६७ दीर्घवैताढ्य पर्वत के शिखरतल का आकारभाव ३६६ २५३ विद्य त्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु ४२८ २६७ " दीर्घवैताढ्य नाम का हेतु २५३ गंधमादन वक्षस्कार पर्वत का स्थान और - कच्छविजय का दीर्घ वैताढ्य पर्वत ४०१ २५४ प्रमाण २६७ -चार वृत्त वैताढ्य पर्वत गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु २६८ शब्दापाती वृत्त वैताढ्यपर्वत की अवस्थिति जम्बूद्वीप में सर्वकूट संख्या २६६ __ और प्रमाण ४०२ २५५ वर्षधर पर्वतों के छप्पन कूट वर्ष शब्दापाती वृत्त वैताढ्यपर्वत के नाम का हेतु ४०३ २५५ क्षुद्रहिमवन्त वर्षधर पर्वत के इग्यारह कूट ४३२ २७१ विकटापाती वृत्त वैतादपर्वत की अवस्थिति सिद्धायतन कूट की अवस्थिति और प्रमाण ४३३ और प्रमाण ४०४ २५६ क्षुद्राहमवान कूट की अवस्थिति और प्रमाण ४३४ २७२ गंधापाती वृत्त वैताढ्यपर्वत की अवस्थिति क्षुद्र हिमवान कूट के नाम का हेतु ४३५ २७३ और प्रमाण ४०५ २५६ दो कूट अधिक सम एवं तुल्य हैं ४३६ २७३ : नाम का हेतु ४०५ २५६ क्षुद्र हिमवन्ता राजधानी ४३७ २७३ : मालवन्तपर्याय वृत्त वैताढ्य पर्वत की भरतकूट आदि कूटों के कथन का निर्देश ४३८ २७३ . अवस्थिति और प्रमाण ४०६ २५७ महाहिमवान् वर्षधर पर्वत पर आठ कूट २७४ नाम का हेतु २५७ दो कूट अधिक सम एवं तुल्य हैं ४४० २७४ । जम्बूद्वीप में ऋषभकूट पर्वत २५८ निषध वर्षधर पर्वत पर नौ कूट ४४१ २७४ + ऋषभकूट पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण २५६ दो कूट अधिक सम एवं तुल्य हैं - उत्तरार्ध कच्छविजय में ऋषभकूटपर्वत की नीलवंत वर्षधर पर्वत पर नौ कूट अवस्थिति और प्रमाण ४०६ दो कूट अधिक सम एवं तुल्य हैं ४४४ २७५ जम्बूद्वीप में वक्षस्कार पर्वत रुक्मी वर्षधर पर्वत पर आठ कूट २७५ बीस वक्षस्कार पर्वत २६१ दो कूट अधिक सम एवं तुल्य हैं २७५ - चार गजदन्ताकार वक्षस्कार पर्वत २६३ शिखरी वर्षधर पर्वत पर इग्यारह कूट ४४७ २७६ : माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत का स्थान २६३ दो कूट अधिक सम एवं तुल्य है ४४८ - माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु ४१६ २६४ वक्षस्कार कूट छिनवे· चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के स्थान और प्रमाण ४१७ २६४ सोलह सरल वक्षस्कार पर्वतों पर चौंसठ कूट* चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु ४१८ २६५ चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत पर चार कूट .. ४४६, २७६ " पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत के स्थान और............... पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत पर चार कूट ४५० २७७ प्रमाण ४१६ २६५ नलिनकट वक्षस्कार पर्वत पर चार कूट ४५२ २७७ २७१ ० ० ० ४०८ ४४२ २७४ २७५ ४४५ ४४६ 40. २७६ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) ४६७ ४६७ २७६ ४५८ ४९९ ० ० ००९ २६८ सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक एकशैल वक्षस्कार पर्वत पर चार कूट भरत और ऐरवत के दीर्घवताढ्य पर्वतों की गजदन्ताकार चार वक्षस्कार पर्वतों पर बत्तीस गुफाओं की समानता ४६३ २६४ चौदह प्रपातकुण्डगजदन्ताकार गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत गंगा प्रपात कुण्ड का प्रमाण ४६५ २६४ पर सात कूट ४५४ २७८ गंगा प्रपातकुण्ड त्रिसोपान प्रतिरूपक. २६५. सिद्धायतन कूट की अवस्थिति और प्रमाण ४५५ २७८ त्रिसोपान प्रतिरूपकों के तोरण ४६७ २६५ गजदन्ताकार माल्पकार वक्षस्कार पर्वत पर सिन्धु प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि २९६ नौ कूट ४५६ रक्ताप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि २९६ सिद्धायतन कूट की अवस्थिति और प्रमाण ४५७ २७६ रक्तवतीप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि ४६७ २६६. सागर कूट की अवस्थिति और प्रमाण २८० रोहिता प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि ४६८ २६६ हरिस्सह कूट की अवस्थिति और प्रमाण ४५६ २८० रोहितांश प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि २६७. हरिस्सह कूट के नाम का हेतु २८० सुवर्णकूला प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि २६७. सौमनस वक्षस्कार पर्वत पर सात कूट ४६१ २८१ रुप्यकूला प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि ४९९ २९७ विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत पर नौ कूट ४६२ २८१ हरिकांत प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि २६७. चौंतीस दीर्घ वैताढ्य पर्वतों पर तीन सौ छह हरिसलिला प्रपातकुण्ड के प्रमाणादिः २६७. कूट नरकान्ता प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि २६७ भरतक्षेत्र में दीर्घ वैताढ्य पर्वत पर नौ कूट ४६३ २८२ नारीकान्ता प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि ५.०० २६७. सिद्धायतन कूट की अवस्थिति और प्रमाण ४६४ सीता प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि २६७. सिद्धायतन का प्रमाण ४६५ २८३ सीतोदाप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि ५०१ दक्षिणार्ध भरतकूट की अवस्थिति और प्रमाण ४६६ २८४ जम्बूद्वीप के भरतादि क्षेत्रों में गंगाप्रपाता दि. दक्षिणार्ध भरतकूट के नाम का हेतु ४६७ २८५ प्रपातद्रह ५०२. २६८ दक्षिणार्ध भरता राजधानी की अवस्थिति और प्रपातकुण्डों में द्वीप तथा देवियों के भवन, ५०२ २६६. प्रमाण ४६८ २८५ गंगाद्वीप की अवस्थिति और प्रमाण २६६. शेष सब कूटों का संक्षिप्त वर्णन २८५ गंगा देवी के भवन के प्रमाणादि ५०४ २६६. राजधानियाँ २८६ गंगाद्वीप के नाम का हेतु ५०५. २६६. ऐरवत क्षेत्र में दीर्घ वैताढ्य पर्व पर नौ कूट ४७० २८६ सिन्धुद्वीप के प्रमाणादि ३०.. महाविदेह क्षेत्र के बत्तीस विजयों में बत्तीस रक्ताद्वीप के और रक्तबतीद्वीप के. प्रमाणादि. ५०७ वैताढ्य पर्वत पर दो सौ अठ्यासी कूट ४७० २८६ रोहिताद्वीप के प्रमाणादि ५०८प्रत्येक विजय में प्रत्येक दीर्घ वैताढ्य पर्वत रोहिता देवी के भवन के प्रमाणादि पर नौ-नौ कूट २८६ रोहितांस के प्रमाणादि नन्दनवन में नौ कूट ४८० २८७ सुवर्णकूलाद्वीप और रुष्यकूलाद्वीप के प्रमाणादि ५११ ३०१ भद्रशालवन में आठ दिशा हस्तिकूट २८६ हरिद्वीप के प्रमाणादि ५१२ ३०१ चार रुचक पर्वतों पर बत्तीस कूट २६१ हरिकान्ता द्वीप के प्रमाणादि ५१३ । ३०१ गुफा वर्णन नरकान्ताद्वीप और नारीकन्ताद्वीप के दीर्घवताढ्य की गुफा और गुफास्वामी प्रमाणादि ५१३ ३०१ देवों की संख्या . . २६३ शीताद्वीप के प्रमाणादि ५१३ ३०१ दोनों गुफाओं के स्थान और प्रमाण शीतोदद्वीप के प्रमाणादि ५१४. ३०१ शीता-शीतोदा महानदियों की उत्तर-दक्षिण गंगाकुण्ड के स्थान-प्रमाणादि ५१५' ३०२ दिशा स्थित पर्वत, गुफा और देव ४८६ ३६४ सिन्धुकुण्ड के स्थान-प्रमाणादि ५१६. ३०२: ४६६ ه ३०० mr m ४७१ m л л ४८८ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रक्ताकुण्ड के स्थान प्रमाणांदि रक्तावती कुण्ड के स्थान प्रमाणादि ग्राहायती कुण्ड के स्थान यमाचादि -प्रहावती कुण्ड के स्थान प्रमाणादि "पंकावतीकुण्ड के स्थान - प्रमाणादि तप्तजलाकुण्ड के स्थान प्रमाणादि मत्तजलाकुण्ड के स्थान प्रमाणादि 'उन्मत्तजलाकुण्ड के स्थान प्रमाणादि शीतोदा के स्थान प्रमाणादि शीतयताकुण्ड के स्थान प्रमाणादि तोवाहिनी कुण्ड के स्थान प्रमाणादि उर्मिमालिनीकुण्ड के स्थान प्रमाणादि - फेनमालिनीकुण्ड के स्थान प्रमाणादि गंभीरमालिनीकुण्ड के स्थान प्रमाणादि जम्बूद्वीप में सोलह महाग्रह जम्बूद्वीप में छह महाद्रह और द्रहदेवियाँ जम्बूद्वीप के मंदर पर्वत से दक्षिण और उत्तर में तीन महाद्रह और हृदेवियाँ दो-दोहों का समप्रमाण और देवियाँ • पद्मद्रह की स्थिति और प्रमाण - पद्मग्रह में पद्मवर्णक पद्म-परिवार पद्मद्रह के नाम का हेतु - महापद्मद्रह की अवस्थिति और प्रमाण महापद्मद्रह के नाम का हेतु तिगिछिद्रह की अवस्थिति और प्रमाण - तिगिछिद्रह के नाम का हेतु केसरीद्रह की अवस्थिति और प्रमाण महापुण्डरीकद्रह की अवस्थित और प्रमाण - देवकुरा और उत्तरकुरा में दस महाद्रह देवकुरु में निषधादि पाँच द्रहों के स्थानप्रमाणादि . "उत्तरकुरु में नीलवन्तादि पाँच द्रहों के स्थान प्रमाणादि ॐ सूत्रांक ५१६ ५१६ ५१७ ५१८ ५१६ ५१६ ५१६ ५१६ ५१६ ५१६ ५१६ ५१६ ५१६ ५१६ ५२० ५२१ ५३० ५३१ ५३२ -५३४ ५३८ ५४० -५४१ -उत्तरकुरा में नीलवन्तद्रह का स्थान प्रमाणादि ५४२ - नीलवन्तद्रह का पद्म-परिवार -५४३ - नीलवन्तद्रह के नाम का हेतु ५४४ उत्तरह के स्थान प्रमाणादि ५४५ द्वीप में नम्बे हानदियां ५४७ ( १०३ ) पृष्ठांक ३०२ ३०२ ३०२ ३०३ ३०३ ३०३ ३०३ ३०३ ३०३ ३०३ ३०३ ३०३ ३०३ सिन्धु महानदी के प्रपात आदि का प्रमाण ५६३ रक्ता और रक्तवती नदी के प्रपातादि का प्रमाण ५६७ रोहिता महानदी के प्रपातादि का प्रमाण ५७१ ५७३ ५७६ ५७७ ५२२ ३०४ ५७६ ५२३ २०४ रोहितांशा महानदी के प्रपातादि का प्रमाण सुवर्णकूला महानदी के प्रपातादि का प्रमाण रूप्यकूला महानदी के प्रपातादि का प्रमाण हरिसलिला महानदी के प्रपातादि का प्रमाण हरिकन्ता महानदी के प्रपातादि का प्रमाण नरकान्ता महानदी के प्रपातादि का प्रमाण नारीकान्ता महानदी के प्रपातादि का प्रमाण शीता महानदी के प्रपातादि का प्रमाण शीतोदा महानदी के प्रपातादि का प्रमाण ५८० ५८४ ५२४ ३०५ ५२५ ३०५ ५२६ ३०६ ५८५ ५८७ ५२७ ३०७ ५८८ ५२८ ३०८ ५२६ ५६२ लवणसमुद्र में मिलने वाली महानदियों की संख्या ५६१ २०८ चौदह महानदियों का लवणसमुद्र में मिलना गंगा और सिन्धु नदी में दस नदियों का मिलना ३०८ ३०६ ३०६ ३०६ ३१० ३०३ ३०३ ३०४ ३१० ३१० ३११ ३११ ३१३ २१४ ३१४ जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण-उत्तर में बारह महानदियाँ वर्षधर पर्वतों से प्रवाहित होने वाली नोदह महानदियाँ ५५० चौदह महानदियों का परिवार ५५० भरत और ऐरवत क्षेत्र में चार महानदियां ५५६ हेमवत और हैरण्यवत वर्ष में चार महानदियां ५५७ ५५८ ५५६ ५६० ५६१ हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में चार महानदियाँ महाविदेह वर्ष में दो महानदियाँ महाविदेह में बारह अन्तर नदियाँ गंगा महानदी के प्रपातादि का प्रमाण सूचांक पृष्ठांक रक्ता और रक्तवती नदी में दस नदियों का मिलना ૪૬ ५६३ ५६४ ५६५ ५६६ ५६६ गंगा महानदी का सवणसमुद्र में मिलना सिन्धु महानदी का लवणसमुद्र में मिलना रक्ता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना रक्तवती महानदी का लवणसमुद्र में मिलना रोहिता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना रोहितांथा महानदी का लवणसमुद्र में मिलना २६८ सुवर्णकूला महानदी का लवणसमुद्र में मिलना ५६६ ५६७ ५६८ रूप्यकूला नहानदी का लवणसमुद्र में मिलना ५६८ हरिसलिला महानदी का लवणसमुद्र में मिखना ५६६ हरिकान्ता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना ६०० ३१४ ३१५ ३१५ ३१५ ३१६ २१६ ३१६ ३१७ ३१७ ३१८ ३१६ ३१ε ३१६ ३२० ३२० ३२१ ३२१ ३२२ ३२२ ३२२ ३२२ ३२३ ३२३ ३२४ ३२४ ३२४ ३२५ ३२५ ३२५ ३२५ ३२५ ३२६ ३२६ ३२६ ३२६ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) ३४८. ३२७ ६०५ ३४६. ६०८ ६२२ गोन सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक नरकान्ता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना ६.१ ३२६ दकभास आवासपर्वत के नाम का हेतु ६५६ : ३४७.. नारीकान्ता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना ६०२ ३२७ शिविका राजधानी ६५७ ३४८ शीतामहानदी का लवणसमुद्र में मिलना ३२७ शंख आवासपर्वत की अवस्थिति और प्रमाण ६५८ शीतोदा महानदी का लवणसमुद्र में मिलना ६०४ शंखा राजधानी ३४८: जम्बूद्वीप में एक सौ दो तीर्थ ३२८ दकसीम आवासपर्वत की अवस्थिति और अन्तरद्वीपों की प्ररूपणा६०५ ३२९ प्रमाण ३४८. एकोरुकद्वीप के स्थान-प्रमाणादि ३२६ दकसीम आवासपर्वत के नाम का हेतु पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का प्रमाण ३२६ मनःशिला राजधानी ६६२ ३४६'. एकोरुकद्वीप में वनमाला ३३० चार अनुवेलंधर नागराजों का वर्णन ३४६. एकोषकद्वीप में दस प्रकार के वृक्षों के समूह ६०६ ३३१ जम्बूद्वीप के चरमान्त से गोस्तूपादि पर्वतों के हयकर्णादिक द्वीप चतुष्क ३३७ चरमान्तों का अन्तर ३५०. आदर्शमुखादिक द्वीप चतुष्क ६२२ ३०८ मंदरपर्वत और गोस्तूपादि चरमान्तों का अश्वमुखादिक द्वीप चतुष्क ३३८ अन्तर ६६८ ३५१ अश्वकर्णादिक द्वीप चतुष्क ३३८ मंदरपर्वत के मध्यभाग से गोस्तूपादि पर्वतों के उल्कामुखादिक द्वीप चतुष्क ३३८ चरमान्तों का अन्तर ३५१ घणदंतादिक द्वीप चतुष्क ६२२ ३३८ गोस्तूपादि पर्वतों के चरमान्तों से वलयाऔत्तरेय एकोरुकादि द्वीपों के स्थान-प्रमाणादि ६२६ ३३६ मुखादि महापाताल कलशों के चरमान्तों लवणसमुद्र वर्णन ६२७-६६६ ३३६-३६० का अन्तर ६७२. लवणसमुद्र का संस्थान, विष्कम्भ और परिधि गोस्तूपादि पर्वतों के चरमान्तरों से वलयाका प्रमाण ६२७ ३३६ मुखादि महापाताल कलशों के मध्य भागों लवणसमुद्र की पद्मवरवेदिका का तथा बनखण्ड ___का अन्तर ६७३ ३५२ का प्रमाण ३४० गोस्तूप के चरमान्त से वलयामुख महापाताल६३४ काश के मध्यभाग का अन्तर ३४१ ६७४. लवणसमुद्र की उदकमाला का प्रमाण ३५२. लवणसमुद्र के उद्रे धादि का प्रमाण ३४१ लवणसमुद्र के जल से जम्बूद्वीप के जलमग्न न लवणसमुद्र में गहराई की वृद्धि ६३८ ३४१ होने के कारण ६७५ ३५२ लवणसमुद्र की उत्सेध परिवृद्धि ६३६ ३४१ लवणसमुद्र में दिव्यों का स्वरूप ६७६ ३५४ लवणसमुद्र की वृद्धि और हानि के कारण ३४२ जम्बूद्वीप के प्रदेशों का लवणसमुद्र से स्पर्श ६७७ तीस मुहूर्त में लवणसमुद्र बढ़ता है और लवणसमुद्र के प्रदेशों का जम्बूद्वीप से स्पर्श ६७८ घटता है ६४६ ३४४ जम्बूद्वीप के जीवों की लवणसमुद्र में उत्पत्ति ३७६ लवणशिखा का चक्रवाल विष्कम्भ लवणसमुद्र के जीवों की जम्बूद्वीप में उत्पलि. ६८०. ३४५ ६४८ ३५५. लवणसमुद्र के चार द्वार लवणसमुद्र के वेलन्धर नागराजों की संख्या ३५५ चार वेलधर नागराजों का वर्णन लवणसमुद्र के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर ६८६ गोस्तूप आवासपर्वत की अवस्थिति और लवणसमुद्र के नाम का हेतु प्रमाण . ६५१ ३४६ लवणसभा लवणसमुद्र के पूर्व-पश्चिम चरमान्तों का गोस्तूप आवासपर्वत के नाम का हेतु अन्तर ६८८ ३५७. गोस्तूपा राजधानी लवणसमुद्र के गोतीर्थ का और गोतीर्थ-विरहित दकभास आवासपर्वत की अवस्थिति और । क्षेत्र का प्रमाण ६८६, ३५७. प्रमाण ६५५ ३४७ गौतम द्वीप का वर्णन ३५५: ६८१ ३४७ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतमद्वीप के नाम का हेतु सुस्थिता राजधानी ६६३ मन्दर और गौतमद्वीप के चरमान्तों का अन्तर ६६४ ६६६ लवणादि समुद्रों के जल का स्वरूप लवणादि समुद्रों में मत्स्यादि का अस्तित्व और बाह्य समुद्रों में अभाव लवगादि समुद्रों में वृष्टि और बाह्य समुद्रों में अनावृष्टि देवों में लवण समुद्र की परिक्रमा करने के समर्थ्य का प्ररूपण धातकीखण्डद्वीप धातकीखण्डद्वीप का संस्थान धातकीखण्डद्वीप की चौड़ाई और परिधि धातकीखण्डद्वीप की पद्मवरवेदिका धातकीखण्डद्वीप में वर्ष घातकीखण्डद्वीप में कर्मभूमियाँ धातकीखण्डद्वीप में अकर्म भूमियाँ धातकीखण्डद्वीप में धातकी वृक्ष का प्रमाण धातकीखण्डद्वीप में वर्षघर पर्वत धातकीखण्डद्वीप के वक्षस्कार पर्वत धातकीखण्डद्वीप में मन्दर पर्वत धातकीखण्डद्वीप के मन्दर पर्वत पर वन धातकीखण्डद्वीप के मन्दर पर्वत पर अभिषेक बिलायें धातकीखण्डद्वीप में इषुकार पर्वत धातकीखण्डद्वीप में चक्रवर्ती विजय और राजधानियाँ धातकीखण्डद्वीप में चक्रवर्ती विजय पूर्व महाविदेह में चक्रवर्ती विजय पश्चिम महाविदेह में चक्रवर्ती विजय घातकीखण्डद्वीप में चक्रवर्ती विजयों की राजधानियाँ पूर्व महाविदेह में पति-विजयों की राजधानियाँ पश्चिम महाविदेह में पवर्ती विजयों की राजधानियाँ घातकीयण्डद्वीप में चौदह महानदियाँ धातकीखण्डद्वीप में अन्तर नदियाँ धातकीखण्डद्वीप में दो सौ चार तीर्थ सूत्रांक पृष्ठांक ६६२ ३५८ ३५८ ३५८ ३५६ ६६७ ६६८ ६६६ ३६० ७०० ७३७ ३६१-३६६ ७०६ ७०७ ७०८ ७११ ७१७ ७०० ७०१ ७०२ ३६१ ७०३ ३६१ ७०४ ३६१ ७१८ ७१६ ( १०५ ) ७०५ ३६२ ३६२ ३६२ ३६३ ७२० ७२० ७२१ ७२२ ७२२ ३५६ ७२३ ३६० ७२४ ७२५ ७२६ ७२७ ३६१ ३६१ ३६४ ३६४ ३६४ ३६४ ३६५. ३६५ ३६५ ३६५ धातकीखण्डद्वीप में द्रव्यों का स्वरूप लवणसमुद्र और धातकीटद्वीप में प्रदेशों का स्पर्श धातकीखण्ड और कालोदसमुद्र के प्रदेशों का स्पर्श लवणसमुद्र और धातकीखण्डद्वीप के जीवों की उत्पत्ति का प्ररूपण traitasद्वीप और कालोदसमुद्र के जीवों की उत्पत्ति का प्ररूपण धातकीखण्डद्वीप के चार द्वार धातकीखण्डद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर जम्बूद्वीप की वेदिका के अन्त से धातकीखण्ड द्वीप के अन्त का अन्तर धातकीखण्डद्वीप के नाम का हेतु देवों में धातकीखण्डद्वीप की परिक्रमा करने में सामर्थ्य का निरूपण कालोदसमुद्र वर्णन कालोदसमुद्र के संस्थान कालोदसमुद्र की आयाम - विष्कम्भ परिधि कालोदसमुद्र की पद्मवरवेदिका कालोदसमुद्र के चार द्वार कालोदसमुद्र के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कालोदसमुद्र और पुष्करवरद्वीपार्ध के प्रदेशों परस्पर स्पर्श पुष्करवरद्वीप पुष्करवरद्वीप का संस्थान ३६६ पुष्करवरद्वीप का विष्कम्भ और परिधि ३६६ ३६७ ३६७ ३६७ कालोद और पुष्करवरद्वीपार्ध के जीवों की एक-दूसरे में उत्पत्ति कालोद समुद्र के नाम का हेतु पुष्करवरद्वीप की वेदिका और नष्ट सूत्रोंक पृष्ठांक ७२८ ३६७ ३६६ पुष्करवरद्वीप के चार द्वार चारों द्वारों का अन्तर कालोद समुद्र और पुष्करवरद्वीप के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श पुष्करवरद्वीप के नाम का हेतु मानुषोत्तर पर्वत का प्रमाण ७२६ ७३० ७३१ ७३२ ७३३ ७३४ ७३५ ७३६ ७३८ ७३६ ७३६ ७४० ७४१ ७४२ ३६८ ७३७ ३६६ ७३७-७४३३७०-३७१ ३६८ ७४६ ७५१ ७५२ ३६८ ३६८ ३६८. ३६ε ३६९ ३६६. ३७० ३७० ३७० ३७० ३७१ ७४२ ३७१ ७४३ ३७१ ७४४-७८६३७२-३८७ ७४४ ७४५ ७४६ ७४७ ७४८ ३७१ ३७२ ३७२ ३७३ ३७३ ३७३ ३७३ ३७३ ३७४ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ الله ० 99999 Pururur 900 ० ० AY MY 9 ७७२ M is ० सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक मानुषोत्तर पर्वत के चार कूट ७५३ ३७४ समयक्षेत्र में क्षेत्र पर्वतादि का प्ररूपण ३८८ मानुषोत्तर पर्वत के नाम का हेतु ७५४ समयक्षेत्र में भरतादि का प्ररूपण ७६४ ३८६ पुष्करवरद्वीप के दो विभाग ७५५ ३७५ समयक्षेत्र के कुराओं में वृक्ष और देवों का आभ्यन्तर पुष्कराधं का संस्थान ७५६ ३७५ निरूपण ३८६ पुष्करवरद्वीपार्ध में कर्मभूमियाँ ३७६ मनुष्यक्षेत्र में दो समुद्र ७९६ ३८६ पुष्करवरद्वीपार्ध में अकर्मभूमियाँ ७५८ ३७६ मनुष्यक्षेत्र के नाम का हेतु ७६७ ३८६ पुष्करवरद्वीपार्ध में वर्षधर पर्वत ७५६ ३७६ पुष्करोद समुद्र वर्णन ७९८.८०३ ३६०-३६१ पुष्करवरद्वीपाध में वक्षस्कार पर्वत ७६१ ३७७ पुष्करोदसमुद्र का संस्थान ७६८ ३६० पुष्करवरद्वीपार्ध में मन्दर पर्वत | ७६२ ३७७ पुष्करोदसमुद्र का विष्कम्भ और परिधि पुष्करवरद्वीपार्ध में इषुकार पर्वत ७६५ ३७७ पुष्करोदसमुद्र के चार द्वार ८०० ३६० पुष्करवरद्वीपार्ध में चक्रवर्ति विजय और चारों द्वारों का अन्तर ८०१ ३६० उनकी राजधानियाँ ३७७ पुष्करोद समुद्र के नाम का हेतु ८०२ ३६० पुष्करवरद्वीपार्ध में दो सौ चार तीर्थ ३७७ पुष्करोदसमुद्र की नित्यता ३६१ पुष्करवरद्वीपार्ध में तुल्य महाद्रुम ७६८ ३७८ वरुणवर द्वीप वर्णन ८०४-८०७ ३६१-३६१ आभ्यन्तर पुष्करार्ध के नाम का हेतु ३७८ वरुणवरद्वीप का संस्थान ८०४ ३६१ अढाई द्वीप में तुल्य वर्ष ३७८ वरुणवर द्वीप का विष्कम्भ एवं परिधि अढाई द्वीप में तुल्य क्षेत्र ७७१ ३७६ वरुणवर द्वीप के नाम का हेतु ८०६ ३६१ अढाई द्वीप में तुल्य कुरा वरुणवर द्वीप की नित्यता ८०७ ३६२ अढाई द्वीप में तुल्य वर्षधर पर्वत ७७३ वरुणोद समुद्र वर्णन ८०८-८१०३९२-३६३ अढाई द्वीप में तुल्य वृत्तवताढ्य पर्वत ७७४ ३८१ वरुणोद समुद्र का संस्थान ८०८ ३६२ धातकीखण्डद्वीप (के पूर्वार्ध-पश्चिमाध) में ७७५ वरुणोद समुद्र के नाम का हेतु ८०६ ३६२ अढाई द्वीप में तुल्य वक्षस्कार पर्वत वरुणोद समुद्र की नित्यता ८१० ३६३ धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में क्षीरवर द्वीप वर्णन ८११-८१३ ३६४-३६४ अढाई द्वीप में तुल्य दीर्घ वैताढ्य पर्वत क्षीरवर द्वीप का संस्थान ८११ ३६४ अढाई द्वीप में तुल्य गुफाएँ ७७६ ३८३ क्षीरवर द्वीप के नाम का हेतु ८१२ ३६४ अढाई द्वीप में तुल्य कूट ७८० ३८३ क्षीरवर द्वीप की नित्यता इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध और क्षीरोद समुद्र ८१४-८१६ ३६४-६५ पश्चिमाधं में क्षीरोद समुद्र का वर्णन अढाई द्वीप में तुल्य महाद्रह ८१४ ३६४ धातकी खण्डद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में ७८५ ३८६ क्षीरोद समुद्र के नाम का हेतु ८१५ ३६५ अढाई द्वीप में तुल्य महानदियाँ ७८६ . ३८६ क्षीरोद समुद्र की नित्यता ___८१६ ३६५ धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में और घृतवर द्वीप ८१७-८१६ ३६६-३६६ ७८७ पश्चिमाध में ३८७ ८१७ घृतवर द्वीप का संस्थान ३६६ घृतवर द्वीप के नाम हेतु ८१८ वेदिका के मूल की चौड़ाई ३६६ ७८८ ३८७ सब द्वीप-समुद्रों की वेदिका का प्रमाण ७८६ ३८७ घृतवर द्वीप का नित्यत्व समय क्षेत्र ७६०-७९७ ३८८-३८९ घृतोद समुद्र ८३०-८३२ ३६७-३६८ समयक्षेत्र के स्वरूप का निर्देश ७६० ३८८ घृतोद समुद्र का संस्थान ८३० ३६७ समयक्षेत्र के आयामादि का प्रमाण ७६१ ३८८ घृतोद समुद्र के नाम का हेतु ८३१ ३६७ समयक्षेत्र में कुलपर्वत ३८८ घृतोद समुद्र की नित्यता ८३२ ३९८ ७७५ ३८२ ३८२ ३८४ W० ७६२ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोवर द्वीप क्षोदवर द्वीप का संस्थान क्षोदवर द्वीप के नाम का हेतु क्षोदवर द्वीप की नित्यता क्षोतोद समुद्र क्षोतोद समुद्र का संस्थान क्षोतोद समुद्र के नाम का हेतु खोदोद समुद्र की नित्यता नंदीश्वर द्वीप नन्दीश्वर द्वीप का संस्थान नन्दीश्वर द्वीप के नाम का हेतु नन्दीश्वर द्वीप में चार अंजनक पर्वत पूर्वी अंजनक पर्वत पुष्करणियों में दधिमुख पर्वत दक्षिणी अंजनक पर्वत पश्चिमी अंजनक पर्वत उत्तरी अंजनक पर्वत नन्दीश्वर द्वीप की नित्यता नन्दीश्वर में चार रतिकर पर्वत उत्तर पूर्व दिशा में चार रतिकर पर्वत दक्षिण-पूर्व दिशा में रविकर पर्वत दक्षिण-पश्चिम दिशा में रतिकर पर्वत उत्तर-पश्चिम दिशा में रतिकर पर्वत नन्दीश्वरोद समुद्र नन्दीश्वरोद समुद्र का संस्थान नन्दीश्वरोद समुद्र की नित्यता नन्दीश्वर द्वीप में सात द्वीप सूत्रांक पृष्ठांक ८३३-८३५ ३६८-३६८ ३६८ ३६८ ३६८ ८३६-८३८ ३६६-४०० ३६६ ३६६ ४०० ८३३ ८३४ ८३५ ८३६ ८३७ ८३८ ८३६-८५२४००-४०८ ८३६ ४०० ८४० ४०० नन्दीश्वर द्वीप में सात समुद्र अपनादि द्वीप समुद्र अरुणादि द्वीप समुद्र का संक्षिप्त प्ररूपण अगद्वीप की चोड़ाई और परिधि अरुणद्वीप का संस्थान अरुणवर द्वीप की चौड़ाई एवं परिधि अरुणवर द्वीप के नाम का हेतु अरुणवर द्वीप की नित्यता कुलवराय द्वीप समुद्र कुण्डलादि द्वीप समुद्रों का संक्षिप्त प्ररूपण रुचकादि द्वीप समुद्रों का संक्षिप्त प्ररूपण -- रुचकवर द्वीप का संस्थान ८४१ ८४२ ८४३ ८४४ ( १०७ ) + ८७३ ८४५ ८४६ ८४७ ८४८ ८४६ ८५० ८५१ ८५२ ८५३-८५६ ४०६-४०६ ८५३ ४०६ ८५४ ४०६ ८५५ ४०६ ८५६ ४०६ ८५७-८६६ ४१०-४१२ ८५७ ४१० ८५८ ४१० ८६० ४११ ८६१ ४११ ८६२ ४१२ ८६३ ४१२ ८६७-६०५ ४१३-४१६ ८६७ ४१३ ४०० ४०३ ४०३ ४०४ ४०४ ४०४ ४०६ ४०७ ४०७ ४०७ ४०८ ४०८ ४१३ रुचकवर द्वीप की चौड़ाई और परिधि देवों में रुचकवर द्वीप की परिक्रमा करने के सामर्थ्य का निरूपण हारादि द्वीप समुद्रों का संक्षिप्त प्ररूपण देवादि द्वीप समुद्रों की संक्षिप्त प्ररूपण सर्व द्वीप समुद्रों की संक्षिप्त विचारणा स्वयम्भूरमण समुद्र का संस्थान स्वयम्भूरमण समुद्र के नाम का हेतु द्वीप समुद्रों की संख्या ये द्वीप समुद्र एक एक हैं प्रत्येकरस और उदकरस समुद्रों की संख्या द्वीप समुद्रों का प्रमाण द्वीप समुद्रों का परिणमन प्ररूपण द्वीप और समुद्रों का स्पर्श पृथ्वी- कम्पन का प्ररूपण वाणव्यंतर देव वाणव्यन्तर देवों के स्थान 'पिशाच' वाणव्यन्तर देवों के स्थान पिशाच देवेन्द्र सूषांक पृष्ठांक ८७४ ४१३ ४१४ ४१४ ८८५ ४१५. ८६२ ४१५ ८६३ ४१६ ८६४ ४१६ ८६५ ४१६ ८६७ ४१६ ८६८ ४१७ ६०० ४१७ ६०२ ४१७ ६०३ ४१७ ६०५ ४१६ ६०६-६२४४२०-४२७ ६०६ २०७ ६०८ ६०६ ६१० अणपन्निकादि वाणव्यन्तर देवों के नाम और उनके सोलह इन्द्रों के नाम वाणव्यन्तरों के इन्द्रों की अग्रमहिषियाँ वाणव्यन्तरों के नगरों की संख्या और स्वरूप असंख्य वाणव्यन्तरावास और उनका विस्तार सुधर्मा सभा की ऊँचाई अंजण काण्ड से भौमेय विहारों का अन्तर वाणव्यन्तरों की परिषदों के देवदेवियों की संख्या जृम्भक देवों का स्वरूप, भेद और स्थान ८७५ ८८१ दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान दाक्षिणात्य पिशाचेन्द्र 'काल' का वर्णन उत्तरीय पिशाच देवों के स्थान और उनके इन्द्र महाकाल का वर्णन वाणव्यन्तरों के स्थान जानने का निर्देश और उनके इन्द्र १२ वाणव्यन्तर इन्द्रों के नामों की संग्रह गाथाएँ ε१३ वाणव्यन्तर देवों के चैत्यवृक्ष ६१४ ६१५ अणपनिक वाणव्यन्तर देवों के स्थान अणपनिक देवेन्द्र १६ २११ ६१७ ६१८ ६१६ २० २१ २२ ६२३ ६२४ ४२० ४२१ ४२१ ४२२ ४२२ ४२२ ४२३. ४२३ ४२३ ४२४ ४२४ ४२४' ४२५. ४२६ ४२६. ४२६. ४२६. ४२६ ४२७ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्योतिष्क निरूपण ज्योतिष्कों का गणित सर्वज्ञ कथित है। ज्योतिषकों की विशेष गति से मनुष्यों को दुख होता है पाँच प्रकार के ज्योतिषिक ज्योतिषी देवों के स्थान चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र और तारा विमानों के संस्थान मनुष्य क्षेत्र में चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र और ताओं का परिमाण सूत्रांक पृष्ठांक २५-११२८ ४२८-६५४ ६२५ ४२८ जम्बूद्वीप में ज्योतिष्क देव लवण समुद्र में ज्योतिष्क देव धातकीखण्डद्वीप में ज्योतिष्क देव कालोद समुद्र में ज्योतिष्क देब पुष्करवरद्वीप में ज्योतिष्क देव आभ्यन्तर पुष्करार्ध में ज्योतिष्क देव पुष्करोद समुद्र में ज्योतिष्क देव मनुष्य क्षेत्र में पोतिष्क देव सुख २६ ६२७ ६२८ ६२६ ६३० ३१ ६३२ ६३३ ६३४ ६३५ ६३६ ६३७ ६३८ ६३६ ६४० वरवरादि द्वीप-समूहों में ज्योतिष्क देव रुचकादि द्वीप समुद्रों में ज्योतिष्कदेव देवादि द्वीप समुद्रों में ज्योतिष्क देव ज्योतिष्कों का अल्प- बहुत्व मन्दर पर्वत से ज्योतिष्कों का अन्तर लोकान्त से ज्योतिष्कों का अन्तर चन्द्र-सूर्य आदि की भूभाग से ऊँचाई चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र ओर तारा-विमानों का आयाम निष्कम्भ परिधि और मोटाई चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र और तारा विमानवाहक देवों की संख्या ६४७ चन्द्र-सूर्य ग्रह नक्षत्र तथा तारारूप आदि देवों के काम भोग ६४८ चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र ताराबों की अयमहिषियों और उनके दिव्य-काम-भोग ज्योतिष्कदेवों की गति का प्रमाण चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र और ताराकों की गति का ६४१ ६४२ ४३ ६४४ ६४५ ९४६ ૨૪૨ ६५० (१०) प्ररूपण ६५१ ज्योतिष्कों की अल्प या महऋद्धि का प्ररूपण ६५२ ६५३ ज्योतिष्कों के पिटक ज्योतिष्कों की पंक्तियाँ ६५४ ज्योतिष्कों के मण्डल ज्योतिष्कों का मण्डल संक्रमण अनवस्थित और अवस्थित ज्योतिष्क ४२८ द्वीप समूहों के ज्योतिष्कों की संख्या जानने की ४२६ विधि ४२६ ४३१ ४३२ ४३३ ४३४ ४३५ ४३५ ४३६ ४३७ ४३८ ४३६ ४४० ४४० ४४० ४४१ ४४१ ४४२ ४४२ ४४५ ४४७ ४५३ चन्द्र-सूर्य ग्रह और नक्षत्रों की गति युक्तता चन्द्र-सूर्य ग्रह और गदात्रों का योग चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की विशेष गति का काल ४५४ ४५६ प्ररूपण चन्द्र का नक्षत्रों से योग युक्त होने पर उनकी गति का काल प्ररूपण सूर्य का नक्षत्रों से योग युक्त होने पर उनकी गति का काल प्ररूपण सूर्य का ग्रह से योग युक्त होने पर उसकी गति का काल प्ररूपण प्रत्येक अहोरात्र में चन्द्र सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति प्रत्येक मण्डल में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्र कितने अहोरात्र गति करता है प्रत्येक युग में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति चन्द्रमास में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति संख्या आदित्यमास में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति संख्या नक्षत्रमास में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति ऋतुमास में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति संख्या अभिवर्धित मास में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति संख्या सूत्रांक ६५५ ६५६ ६५७ ६५८ ६५६ ६६० ६६१ ६३ ૨૬૪ ६६५ ६६६ ६६७ ६६८ ६६६ ६७० ६७१ ६७२ चन्द्रवर्णन शशि शब्द का विशिष्टार्थ जम्बूद्वीप में चन्द्रमाओं का उदयास्त प्ररूपण लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोद समुद्र, पुष्करार्ध में चन्द्रमाओं के उदयास्त का प्ररूपण चन्द्र की हानि - वृद्धि ४५६ ४५७ ४५७ चन्द्र की वृद्धि हानि ४५७ चन्द्रिका और अन्धकार आधिक्य के कारण पृष्ठांक ४५८ ४५८ ४५८ ६७५ ६७६ ६७७ ६७८ ४५८ ४५६ ૪૫૨ ४६० ४६१ ४६१ ४६१ ४६१ ४६२ ४६२ ४६३ ४६३ ४६३ ६७३ ४६४ ६७४-६६४ ४६४-४८१ ६७४ ४६५ ४६५ ६७५ ४६४ ४६५ ४६६ ४६७ ४६७ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 IS S ५०२ IS ५०३ ८३४७० ५०४ ५०५ ५०६ आ is 950 ०. is w ४७६ ( १०६ ) सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक - चन्द्रमण्डलों की संख्या जम्बूद्वीप में सूर्य वर्तमान क्षेत्र को उद्योतित चन्द्रमण्डल का प्रमाण करते हैं पन्द्रह चन्द्रमण्डलों का अवगाहन क्षेत्र ४६६ जम्बूद्वीप में सूर्य वर्तमान क्षेत्र को प्रकाशित * प्रत्येक चन्द्रमण्डल का अन्तर करते हैं .. सर्व आभ्यंतर और सर्व बाह्य चन्द्रमण्डलों का जम्बूद्वीप में सूर्यों का ताप क्षेत्र प्रमाण अन्तर सूर्य के ताप-क्षेत्र की संस्थिति मन्दर पर्वत से सर्व आभ्यन्तर और सर्व बाह्य तापक्षेत्र संस्थिति की दो बाहाये चन्द्रमण्डलों का व्यवधान रहित अन्तर ९८४ तापक्षेत्र संस्थिति की परिधि . सर्व आभ्यन्तर और बाह्य चन्द्रमण्डलों का तापक्षेत्र और अन्धकार क्षेत्र के आयामादि का १३ ५०७ आयाम-विष्कम्भ तथा परिधि ९८५ ४७१ प्ररूपण - सर्व आभ्यन्तर और बाह्य चन्द्रमण्डलों में चन्द्र जम्बूद्वीप में सूर्यों की क्षेत्रों में क्रिया प्ररूपण १४ ५०८ ___ की एक मुहूर्त की गति का प्रमाण १८६ जम्बूद्वीप में सूर्य दूर और समीप किस प्रकार • प्रत्येक मुहूर्त में मण्डल के भागों में चन्द्र की दिखाई देते हैं गति का प्ररूपण पौरुषी-छाया उत्पत्ति • योगों का चन्द्र के साथ योग प्ररूपण ४७६ पौरुषी-छाया का निष्पादन चन्द्र का पूर्णिमाओं में योग पौरुषी-छाया का निवर्तन चन्द्र का अमावस्याओं में योग ४७८ पौरुषी-छाया का प्रमाण - जम्बूद्वीप के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप ९६१ ४७९ सूर्य मण्डलों की संख्या ५१७ । चन्द्रद्वीपों के नाम का हेतु ६६२ ४७६ जम्बूद्वीप में सूर्यमण्डलों की संख्या २२ ५१८ - चन्द्रा राजधानियों का प्ररूपण ९९३ ४८० लवण समुद्र में सूर्य-मण्डलों की संख्या - सूर्य-चन्द्र और नक्षत्रों से अविरहित-विरहित निषध और नीलवंत पर्वत पर सूर्यमण्डलों तथा सामान्य चन्द्रमंडलों की संख्या ९६४ ४८० की संख्या का प्ररूपण ५१८ • सूर्य वर्णन सूर्यों की एक दूसरे से अन्तर गति ६६५-५१ ४८१-५५८ ५१८ सूर्यों के संचरण क्षेत्र सूर्य शब्द का विशिष्टार्थ ९६५ ४८२ सर्व आभ्यन्तर और बाह्य सूर्यमण्डलों का - सूर्य के स्वरूप अन्वयार्थ-प्रभा-छाया और व्यवधान रहित अन्तर २७ ५२३ ___ लेश्याओं का शुभत्व सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ और बाहल्य २८ ५२३ - सूर्य के उदयास्त को लेकर अन्तर, प्रकाश, सूर्य के सर्वमण्डलों का बाहल्य, आयाम-विष्कम्भ क्षेत्रादि का प्ररूपण ९९७ और परिधि २६ ५२३ - लवण समुद्र में सूर्योदयादि का प्ररूपण ६६८ सर्व सूर्य मण्डलों का बाहल्य, अन्तर और मार्ग · धातकीखण्ड में सूर्योदयादि की प्ररूपणा ___६६६ प्रमाण ३० ५२७ - कालोद समुद्र में सूर्योदय आदि का प्ररूपण १००० सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ, परिधि और . आभ्यन्तर पुष्करार्ध में सूर्योदयादि का प्ररूपण १ . सूर्य की उदय व्यवस्था ३१ २ बाहल्य ५२८ ४८७ - सूर्य के ओज (प्रकाश) की संस्थिति (एक सूर्यमण्डलों का आयाम-विष्कम्भ-परिधि और रूप में रहने की सीमा) ३ ४६३ मण्डलों के विष्कम्भ की हानि-वृद्धि सूर्य के प्रकाशित पर्वत ४ ४६८ प्रत्येक सूर्यमण्डल का अन्तर - सूर्य के तेज को अवरुद्ध करने वाले पर्वत ४६६ मन्दर पर्वत से सूर्यमण्डलों का अन्तर और ६. जम्बूद्वीप में सूर्यों की गति क्षेत्र का प्ररूपण मण्डलों में गति की हानि-वृद्धि ३४ ५३० ० xxxxxxxx or or www जी GR W० ० ० ५२१ ४८२ л ллллл G ० ३२ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ mmmx ५४० ५४८ ( ११. ) सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक: सर्व सूर्यमण्डलों के मार्ग में सूर्य के गमनागमन चन्द्र-सूर्यों का अवभासक्षेत्र, उद्योतक्षेत्र, तापक्षेत्र के रात दिनों का प्रमाण और प्रकाश क्षेत्र सूर्यमण्डलों में सूर्य की एक बार अथवा दो बार एक युग में सूर्य और चन्द्र की गति संख्या ६२ गति ३६ ५३१ चन्द्र-सूर्य अर्द्धमास में चन्द्र-सूर्य की मण्डल गति ६३ ५६६ सूर्य का एक मण्डल से दूसरे मण्डल की ओर । प्रथम चन्द्रायण ५६६ संक्रमण ५३२ द्वितीय चन्द्रायण प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य की एक मण्डल से दूसरे तृतीय चन्द्रायण ५७१ मण्डल में संक्रमण क्षेत्र की गति ५३३ चन्द्र और सूर्य से नक्षत्रों का योगकाल ६४ ५७३ सूर्य की द्वीप-समुद्र के अवगाहनान्तर गति पूर्णिमाओं में चन्द्र और सूर्य का नक्षत्रों से योग ६५ ५७४: सूर्यों की तिरछी गति ५३६ अमावस्याओं में चन्द्र और सूर्य के साथ सूर्य की मुहूर्त-गति का प्रमाण नक्षत्रों का योग . ६६. ५७५. प्रत्येक मुहूर्त में सूर्य की मुहूर्त गति के प्रमाण हेमंति आवृत्तियों में चन्द्र-सूर्य के नक्षत्रों का। का प्ररूपण ५४७ योगकाल प्रत्येक मुहूर्त में मण्डल के भागों में गति के वार्षिकी आवृत्तियों में चन्द्र-सूर्य के नक्षत्रों का प्रमाण का प्ररूपण योगकाल ६८५७८आदित्य संवत्सर में अहोरात्र का प्रमाण ५४८ लवणसमुद्र के अन्दर के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का उपसंहार सूत्र प्ररूपण सूर्य के गमनागमन से विषम अहोरात्र का लवणसमुद्र के बाहर के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण ५५२ प्ररूपण ५७६सूर्य की दक्षिणार्द्ध मण्डल-संस्थिति ५५२ धातकीखण्डद्वीप के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण ७१. सूर्य की उत्तरार्ध मण्डल-संस्थिति कालोदगसमुद्र के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण उत्तर दिशा के प्रथम, द्वितीय और तृतीय सूर्य पुष्करद्वीपगत और शेष सब द्वीप-समुद्रगत ___ मण्डल के आयाम-विष्कम्भ का प्ररूपण ४८ । चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण ७३. उत्तरायण और दक्षिणायन में सूर्य को गति देवद्वीपगत चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र-द्वीपों का ___ की हानि-वृद्धि का प्ररूपण प्ररूपण सूर्य का पूर्णिमाओं में योग ५५७ देवोद समुद्रगत चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र-द्वीपों का सूर्य का अमावस्याओं में योग ५५८ प्ररूपण स्वयम्भूरमण द्वीपगत चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र-सूर्य चन्द्र-सूर्य वर्णन ५२-७७ ५५६-५८४ द्वीपों का प्ररूपण ७६. ५८३. ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र और सूर्य स्वयम्भूरण समुद्रगत चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र-सूर्यप्रत्येक चन्द्र-सूर्य के परिवार का प्ररूपण द्वीपों का प्ररूपणः चन्द्र-सूय की परिभाषाएँ ग्रह वर्णन ७८-८७५८४-५८८ दक्षिणार्ध-उत्तरार्ध मनुष्य क्षेत्र में ज्योतिष्केन्द्र अट्ठयासी महाग्रह चन्द्र-सूर्य आठ महाग्रहों के नामों का प्ररूपण:: चन्द्र और सूर्यों का अनुभाव (स्वरूप) छह तारक ग्रहों का प्ररूपण ५८५. चन्द्र-सूर्य के मण्डलों का आकार ५६२ शुक्र महाग्रह की वीथियों का प्ररूपण" ५८५ चन्द्र सूर्य मण्डलों के समांश का प्ररूपण ५६३ शुक्र के उदयास्त का प्ररूपण । ८२ ५८६ - चन्द्र-सूर्य की संस्थिति ५६ ५६३ राहु के दो प्रकार ५८६ज्योत्स्ना (आतप-अन्धकार) आदि के लक्षण ६० ५६५ राहु के नौ नाम ५८६ ५५६ ५५६ ५८५ Xxurur Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० m १२० ६३७ १२२ ६४० ६४१ १२३ १२५ सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक * राहु विमान के पांच वर्ण ८५ ५८७ सर्वाभ्यन्तर और सर्वबाह्य नक्षत्र मण्डलों की । राहु कम प्ररूपण ५८७ लम्बाई-चौड़ाई और परिधि ११२ ६३३ चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण का प्ररूपण ५८८ सर्वाभ्यन्तर और सर्वबाह्य मण्डलों के प्रत्येक नक्षत्र वर्णन ८८-१२६ ५६०-६५४ मुहूर्त में नक्षत्र की गति का प्ररूपण ११३ -नक्षत्रों के नाम चन्द्रमण्डलों से मिले हुए नक्षत्र मण्डल ११४ ५६० प्रत्येक मुहूर्त में नक्षत्र द्वारा मण्डल के भागों : नक्षत्रों का आवलिकानिपात और योग में गमन जम्बूद्वीप में व्यवहार योग्य नक्षत्र ६. ५६१ ११५ नक्षत्रों के मण्डलों का सीमा विष्कम्भ -नक्षत्रों के गोत्र ६१ ५६१ नक्षत्रों का सीमा-विष्कम्भ समांश नक्षत्रों के देवता ५६३ ११७ चन्द्रमण्डल में कृत्तिका नक्षत्र की गति नक्षत्रों के संस्थान ५९६ ६३६ नक्षत्रों के ताराओं की संख्या चन्द्रमण्डल में अनुराधा नक्षत्र की गति नक्षत्रों के दिशा द्वार चन्द्र के पृष्ठ भाग पर गति करने वाले नौ नक्षत्र हैं • नक्षत्रों के कुल, उपकुल और कुलोपकुल ६३६ बारह पूर्णिमाओं में कुलादि नक्षत्रों की योग नक्षत्रों के स्वरूप का प्ररूपण १२१ संख्या नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योगकाल बारह अमावस्याओं में कुलादि नक्षत्रों की योग नक्षत्रों का सूर्य के साथ योगकाल संख्या नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग का प्रारम्भ काल १२४ ६४३ • नक्षत्रों का पूर्वादिभागों से योग क्षेत्र और काल नक्षत्रों के भोजन और कार्य-सिद्धि प्रमाण ज्ञान वृद्धि करने वाले दस नक्षत्र ६५३ नक्षत्रों का आभ्यन्तरादि संचरण ११०० ६२१ ताराओं का अणुत्व-तुल्यत्व ६५३ • नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग ताराओं के अबाधा अन्तर का प्ररूपण ६५४ चन्द्र के मार्ग में योग करने वाले नक्षत्रों की ऊर्ध्व लोक वर्णन-१-७८६५५-६६० संख्या ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक का पन्द्रह प्रकार से प्ररूपण १ ६५५ • बारह पूर्णिमाओं में चन्द्र के साथ योग करने ऊर्वलोक क्षेत्रलोक के संस्थान का प्ररूपण ६५५ वाले नक्षत्रों की संख्या ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक में जीव तथा अजीव के बारह अमावस्याओं में नक्षत्रों के योग की देशों और प्रदेशों का प्ररूपण संख्या ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक के एक आकाश प्रदेश बारह पूर्णिमाओं और अमावस्याओं में चन्द्र के में जीव तथा अजीव के देश और प्रदेशों साथ नक्षत्रों का योग का प्ररूपण ऊर्ध्व लोक के आयाम-मध्य का प्ररूपण वर्षा, हेमन्त और ग्रीष्म के दिन-रात पूर्ण करने वैमानिक देवों के स्थान वाले नक्षत्रों की संख्या ६२८ सौधर्मकल्प के देवों के स्थान नक्षत्र मण्डलों की संख्या सौधर्मेन्द्र वर्णक आभ्यन्तर और बाह्य नक्षत्र मण्डलों का अन्तर १०८ -नक्षत्र मण्डलों का अन्तर ईशानकल्प देवों के स्थान ईशानेन्द्र वर्णक नक्षत्र मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई, परिधि और सनत्कुमार देवों के स्थान मोटाई ६३३ सनत्कुमारेन्द्र वर्णक मन्दर पर्वत से सर्वाभ्यन्तर और नक्षत्र मण्डल माहेन्द्र देवों के स्थान का अन्तर १११ ६३३ माहेन्द्र वर्णक ६६२ ६१६ १२७ १२८ १०१ ६२२ ६२४ ६५६ ६५७ Mmmm More Know on GK Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) १८ ६७६ ६७६ २१ ن ६६६ ن ६८३ ६८४ सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक ब्रह्मलोक देवों के स्थान तमस्काय के नाम ५२. ६७८ब्रह्म देवेन्द्र वर्णक तमस्काय के परिणामित्व का प्ररूपण ५३ ६७६. लान्तक देवों के स्थान ६६३ तमस्काय में सभी प्राणादि की पूर्वोत्पत्ति' का लान्तक देवेन्द्र वर्णक प्ररूपण महाशुक्र देवों के स्थान ६६४ विमानों के प्रकार महाशुक्र देवेन्द्र वर्णक ६६४ विमान पृथ्वियों के प्रतिष्ठान सहस्रार देवों के स्थान ६६५ वैमानिक विमानों के संस्थान ६८० सहस्रार देवेन्द्र वर्णक २२ ६६५ विमान पृथ्वियों का बाहल्य ६८१ आनत-प्राणत देवों के स्थान ६६५ वैमानिक विमानों की महत्ता ६८१ प्राणत देवेन्द्र वर्णक वैमानिक विमानों के उपादान ६८२ आरण-अच्युत देवों के स्थान वैमानिक विमानों के वर्ण ६८२ अच्युत देवेन्द्र वर्णक ६६७ वैमानिक विमानों के गंध ६८३ ग्रंवेयक देवों के स्थान २७ वैमानिक विमानों के स्पर्श ६८३.. अनुत्तरोपपातिक देवों के स्थान ६६६ वैमानिक विमानों का आयाम-विष्कम्भ और लोकान्तिक देव विमानों का प्ररूपण ६७० परिधि कृष्णराजियों की संख्या और स्थानों का प्ररूपण ३० ६७१ वैमानिक विमानों की प्रभा कृष्णराजियों के आयाम-विष्कम्भ का प्ररूपण ३१ ६७२ वैमानिकों के विमानों की ऊँचाई कृष्णराजियों में "गृह" आदि के अभाव का वैमानिक विमानों के प्राकारों की ऊंचाई. ६८४ प्ररूपण ६७३ वैमानिकों के विमानों में प्रस्तट कृष्णराजियों में देवकृत मेघ आदि का अस्तित्व ३४ ६७३ विमान कुछ ऊँचे हैं और कुछ नीचे हैं. ६६ ६८५. कृष्णराजियों में अप्कायिकों के अभाव का प्ररूपण ३५ ६७३ प्रथम प्रस्तट में विमान ६८६ कृष्णराजियों में चन्द्र आदि के अभाव का प्ररूपण ३६ विमान की बाहा में भौम भवन ६८६ कृष्णराजियों के वर्ण का प्ररूपण विमानावास संख्या ७२ कृष्णराजियों के नाम पारियानिक विमान कृष्णराजियों के परिणामत्व का प्ररूपण पारियानिक विमानों का आयाम-विष्कम्भ कृष्णराजियों में सभी प्राणियों की पूर्वोत्पत्ति शक्र के लोकपालों के विमान ६८७. का प्ररूपण शक्रादि इन्द्रों के और सोमादि लोकपालों के तमस्काय के स्वरूप का प्ररूपण ६७५ उत्पात पर्वत ६८६. तमस्काय की उत्पत्ति और समाप्ति का प्ररूपण ६७५ सिद्धस्थान परिज्ञा ७७ ६८६ तमस्काय के संस्थान का प्ररूपण सिद्धस्थान तगस्काय की चौड़ाई और परिधि का प्ररूपण ४४ ६७६ काल लोक वर्णन-१-६२ ६९१-७३६ तमस्काय की महानता का प्ररूपण ६७६ काल समवतार ६६१ तमस्काय में घर ग्राम आदि के अभाव का प्ररूपण ४६ ६७७ काल के भेदों का प्ररूपण ६६१. चार प्रकार के देवों द्वारा तमस्काय की रचना ४७ ६७७ काल के चार भेदों का प्ररूपण ६६२ तमस्काय में देवकृत मेघ आदि का प्ररूपण ६७७ प्रमाण काल का प्ररूपण ६६२ तमस्काय में दृश्य पृथ्वीकाय और तेजस्काय के जघन्य और उत्कृष्ट पौरुषी अभाव की प्ररूपण ६७८ दिन और रात्रि की समान पौरुषी तमस्काय में चन्द्र सुर्यादि के अभाव का प्ररूपण ५० ६७८ यथायुनिवत्तिकाल का प्रख्पण. तमस्काय के वर्ण की प्ररूपणा मरणकाल प्ररूपणा ६६५. ६७४ ६७४ ६७५ ६७५ ६७६ ७८ ४६ ६६४ ६६४ ६७८ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) mmmmmmmmm WWWWWW aur ७१६ सूत्रांक अद्धाकाल का प्ररूपण काल के भेद प्रभेद उदाहरण सहित समय के स्वरूप का प्ररूपण अवस पिणी और उत्सर्पिणी के भेदों का प्ररूपण पल्योपम-सागरोपम का प्रयोजन गणित काल का प्ररूपण औपमिक काल का प्ररूपण औपमिक काल के भेद-प्रभेद उद्धार पल्योपम के भेद सोदाहरण व्यावहारिक उद्धार पल्योपम के स्वरूप का निरूपण सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का उदाहरण सहित स्वरूप प्ररूपण अद्धा पल्योपम के भेद व्यावहारिक अद्धा पल्योपम का उदाहरणपूर्वक स्वरूप प्ररूपण सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का उदाहरणपूर्वक स्वरूप प्ररूपण २. आवलिका आदि काल भेदों के समयों की ___ संख्या का प्ररूपण-एकत्व विवक्षा बहुत्व विवक्षा श्वासोच्छ्वासादि काल भेदों की आविलका __ संख्या प्ररूपणा-एकत्व विवक्षा बहुत्व विवक्षा स्तोकादि काल भेदों में श्वासोच्छ्वासों की संख्या का प्ररूपण सागरोपमादि में पल्योपमों की संख्या का प्ररूपण--एकत्व विवक्षा बहुत्व विवक्षा अवसर्पिणी आदि में सागरोपमों की संख्या का प्ररूपण २८ पुद्गल परावर्तन में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की संख्या का प्ररूपण अतीत काल के पुद्गल परिवर्तनों का अनन्तत्व अतीतकाल से अनागत काल का समयाधिकत्व ३१ अतीत काल से सर्वकाल का कुछ अधिक दुगुनापन बनागत काल से सर्वकाल का कुछ कम ३३ पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक ६६५ पुद्गल परावर्त के भेदों का प्ररूपण ३४ ७१२ ६६५ परमाणु पुद्गलों के अनन्तानन्त पुद्गल परावर्ती ६६६ का प्ररूपण ७१२ ६६८ पुद्गल परावर्त के सात भेदों का प्ररूपण संवत्सरों की संख्या और उनके लक्षण ३७७१३ नक्षत्र संवत्सर के लक्षण ३८ ७१३ चन्द्र संवत्सर के लक्षण ३८ ७१३ ७०४ ऋतु (कर्म) संवत्सर के लक्षण ३८ ७१३ ७०४ आदित्य संवत्सर के लक्षण ३८ ७१३ अभिवधित संवत्सर के लक्षण ३८ ७१३ ७०४ पाँच संवत्सरों का प्रारम्भ और पर्यवसान काल तथा उनके समत्व का प्ररूपण ३६ ७१४ ७०५ पाँच संवत्सरों का प्रारम्भ काल, पर्यवसान काल और चन्द्र सूर्य के साथ नक्षत्रों का योग काल ७०६ प्रथम चन्द्र संवत्सर द्वितीय चन्द्र संवत्सर ७०६ तृतीय अभिवर्धित संवत्सर चतुर्थ चन्द्र संवत्सर ७१७ ७०७ प्रथम अभिवधित संवत्सर ७१८ ७०८ पांच संवत्सरों और मासों के अहोरात्र तथा मुहूतों के प्रमाण ___७१८ प्रथम नक्षत्र संवत्सर ७०६ द्वितीय चन्द्र संवत्सर तृतीय ऋतु संवत्सर ४१ ७१६ चतुर्थ आदित्य संवत्सर ७२० पंचम अभिवधित संवत्सर ७२० नक्षत्र संवत्सर के भेद और उसका काल प्रमाण ४२ ७२१ युग संवत्सर के भेद और उसका काल प्रमाण ७२१ ७१० प्रमाण संवत्सर के भेद लक्षण संवत्सर के भेद ७२२ शनैश्चर संवत्सर के भेद ७२२ ७११ एक संवत्सर के मास ७२२ ७११ एक युग के अहोरात्र और मुहूर्त का प्रमाण एक युग में पूर्णिमा और अमावस्याएँ ७२४ नक्षत्र मासों के अहोरात्र यामों का प्ररूपण ७१२ मास के मुहूर्तों की हानि-वृद्धि ४१ ७१८ ७१६ ७२२ 99999999, दुगुनापन ७२५ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) सर्व ७२७ rrmxx ५८ ७३० सूत्रांक पृष्ठांक सूत्रांक पृष्ठांक मुहूतों के नाम ५३ ७२५ परिशिष्ट ७४७-८४४ दिवस और रात्रियों के नाम ५४ ७२६ । परिशिष्ट १: १.११ ७४७-७५४ अवम रात्रियों की और अतिरिक्त रात्रियों की एक ७४७ संख्या और उनके हेतु ५५ ७२७ ७४७ कति ७४७ तिथियों के नाम ५६ लौकिक गणित के प्रकार ७४८ करण के भेद और उनके चर-थिर की प्ररूपणा ५७ लोकान्त और अलोकान्त का स्पर्श ७४८ ऋतुओं के नाम और काल प्रमाण अधोलोक आदि से धर्मास्तिकाय आदि का स्पर्श ६ जम्बूद्वीप की चारों दिशाओं में वर्षा आदि अधोलोक आदि से धर्मास्तिकाय आदि का अवकी प्ररूपणा ५६ ७३१ गाहन अढाई द्वीप में काल का प्रभाव द्रव्य की अपेक्षा से लोकालोक की श्रेणियों का लोक में रात्रि-दिन संख्येय, असंख्येय और अनन्तत्व . ८ ७५० मनुष्य लोक की मर्यादा ७३५ प्रदेश की अपेक्षा से लोकालोक की श्रेणियों का अलोक प्रज्ञप्ति-१-६७३७-७३६ ___संख्येय, असंख्येय और अनन्तत्व ८ ७५१ लोकालोक की श्रेणियाँ : सादि सपर्यवसितत्व अलोक का एकत्व ७३७ आदि ६ ७५२ द्रव्य से अलोक का स्वरूप द्रव्य की अपेक्षा से और प्रदेशों की अपेक्षा से काल से अलोक का नित्यत्व ३७३७ लोकालोक श्रेणियों का कृतयुग्मादित्व भाव से अलोक का अरूपत्व १० ७३७ ७५३ ४ अलोक के संस्थान का निरूपण ७३७ श्रणियों के सात भेद . .. .. ११ ७५४ अलोकाकाश का स्वरूप ६७३७ परिशिष्ट २: माप निरूपण . ..१-६७५४-७६० अलोक के एक आकाश प्रदेश में जीवादि नहीं है ७ क्षेत्र प्रमाण निरूपण १- ५ ७५४ ७३८ उत्सेधांगुल के प्रकार ७५४ अलोक की महानता ८७३८ अलोक का स्पर्श ७३६ प्रमाणांगुल ७५६ प्रमाणांगुल के तीन प्रकार ६ ७६० लोकालोक प्रज्ञप्ति-१-१०७४१-७४६ परिशिष्ट ३ : महत्त्वपूर्ण तालिकाएँ ७६०-७६८ जीव और पुद्गलों का लोक से बाहर गमन जम्बूद्वीपवर्ती क्षेत्र और पर्वतों के आयाम१७४१ विष्कंभ ७६० अलोक में देव का हाथ आदि फैलाने के जम्बूद्वीपवर्ती क्षेत्र और पर्वतों के खण्ड असामर्थ्य का निरूपण अढाई द्वीपवर्ती शाश्वत पर्वत तालिका ७६१ आकाशास्तिकाय के भेद अढाई द्वीपवर्ती कूट तालिका ७६१ लोकाकाश का स्वरूप ७४२ अढाई द्वीप में कूट (शिखर) एवं पर्वत ७६२ लोक के चरमाचरम विभाग ५ ७४२ चौदह प्रपात कुण्डों के प्रमाणादि र अलोक के चरमाचरम विभाग ७४३ पूर्वविदेह और अपरविदेह में छिहत्तर कुण्ड लोक के चरमाचरम पदों का अल्प-बहुत्व तथा उनका प्रमाण अलोक के चरमाचरम पदों का अल्पबहुत्व सोलह महाद्रह की तालिका लोकालोक के चरमाचरम पदों का अल्पबहुत्व ७४४ देवकुरु में निषधाद्रि पाँच द्रह तथा द्रहदेवों के -लोक, अलोक और अवकाशान्तर आदि में भवन और भवन द्वारों का प्रमाण पूर्वापर कौन ? १० ७४५ उत्तरकुरु में नीलवन्तादि पाँच द्रह तथा द्रह(रोहा अणगार के प्रश्न और समाधान) देवों के भवन एवं भवनद्वारों का प्रमाण or muxur, . अशक्य ७६० ७४१ ७४१ ७६२ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक ७८३ л ७८३ ७८३ л ७८३ л الله ७८३ л ७८३ ७८३ ७८३ ७८३ ७८४ ७८४ ७८६ ७८६ ७८८ ७८८ ७८६ ७६०-७६२ ७६१ ७६१ पणन "छह वर्षधर पर्वतों के द्रहों से निकलने वाली चौदह नदियाँ * चौदह नदियों में सम्मिलित होने वाली नदियों की संख्या -चौदह नदियों की जिबिका का प्रमाण -चौदह महानदियों के द्वीपों का प्रमाण मनुष्य क्षेत्र के द्वीप समुद्रों का प्रमाण 'छह पद्मवलय तथा देव-देवियों के कमल • पद्मवलयों के पद्मों का प्रमाण बत्तीस विजय और अन्तर्वर्ती नदियाँ *परिशिष्ट ४ : संकलन में प्रयुक्त आगमों के स्थल निर्देश लोक लोकवर्णन -द्रव्यलोक -क्षेत्रलोक -अधोलोक पृथ्वी वर्णन नरक वर्णन भवनवासी देव वर्णन पृथ्वीकायिक जीव वर्णन मध्यलोक जम्बूद्वीप वर्णन विजयद्वार वर्णन क्षेत्र वर्णन पर्वत वर्णन कूट वर्णन - गुफा, प्रपात, कुण्ड, द्वीप, द्रह वर्णन महानदी वर्णन अन्तरद्वीप वर्णन लवणसमुद्र वर्णन धातकीखण्डद्वीप वर्णन कालोद समुद्र वर्णन पुष्करवर द्वीप वर्णन अढाई द्वीप वर्णन समय क्षेत्र वर्णन पुष्करीद समुद्र वर्णन वरुणवर द्वीप वर्णन . • वरुणोद समुद्र वर्णन पृष्ठांक क्षीरवर द्वीप वर्णन ७६५ क्षीरोद समुद्र वर्णन घृतवरद्वीप वर्णन ७६६ घृतोद समुद्र वर्णन ७६६ क्षोदवर द्वीप वर्णन ७६७ क्षोतोद समुद्र वर्णन ७६७ नन्दीश्वर द्वीप वर्णन ७६७ नन्दीश्वरोद समुद्र वर्णन ७६८ अरुणादि द्वीप-समुद्र वर्णन ७६८ कुण्डलवरादि द्वीप-समुद्र वर्णन बाणव्यन्तर देव वर्णन ७६९-७६४ ज्योतिष्क निरूपण ७६६ चन्द्र वर्णन ७६६ सूर्य वर्णन चन्द्र-सूर्य वर्णन ७६९-७० ग्रह वर्णन ७७० नक्षत्र वर्णन ७७०-७७३ ऊर्ध्व लोक ७७० वैमानिक ज्योतिष्क देव वर्णन ७७१ कृष्णराजिया वर्णन ७७१ तमस्काय वर्णन विमान वर्णन ७७३-७६० सिद्धस्थान वर्णन ७७३ काल लोक ७७४ पौरुषी प्रमाण वर्णन ৩৩৮ यथायुनिर्वृत्ति काल वर्णन ७७६ मरण काल प्ररूपण ७७७ समय स्वरूप वर्णन संवत्सर वर्णन ७७८ मुहुर्त वर्णन दिवस रात्रि वर्णन ७७६ करण वर्णन ऋतु वर्णन ७८१ काल प्रभाव वर्णन अलोक प्रज्ञप्ति ७८१ लोकालोक प्रज्ञप्ति ७८२ परिशिष्ट ५ : ग्रन्थगत अकारादि विशिष्ट शब्द सूची ७८२ परिशिष्ट ६ : संकलन में प्रयुक्त सहायक ग्रन्थ सूची ७८२ ७६१ ७७३ ७६१ ७६२ ७६२-७६४ ७६२ ७६२ ७६२ ७६२ ওওও ७६३ ७६३ ওও ७६३ ७६३ ७६३ ७६४ ७६४ ७६४ ७८२ ७९५-८४४ ८४५ Page #145 --------------------------------------------------------------------------  Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक - प्रज्ञप्ति क्षेत्र लोक अ धो लो क वर्ण न । सूत्र १ से २४५, पृष्ठ १ से १२० तक ] द्रव्यलोक का समग्रवर्णन द्रव्यानुयोग में तथा भाव लोक का सम्पूर्ण वर्णन चरणानुयोग में संकलित है। प्रस्तुत में क्षेत्र लोक एवं काल लोक का वर्णन है। Page #147 --------------------------------------------------------------------------  Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम् है लोय-पण्णत्ति लोक-प्रज्ञप्ति अरिहंत-सिद्धथुई अरिहंत-सिद्ध-स्तुति १. णमोऽथु णं अरिहंताणं -भगवंताणं आइगराणं .तित्थयराणं . सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुण्डरीआणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं अभयदयाणं १: नमस्कार हो अरिहंतों (कर्म-शत्रुओं के हंताओं) को, भगवन्तों (समग्र ऐश्वर्ययुक्तों) को, आदिकरों (श्रुतधर्म की आदि करनेवालों) को, तीर्थंकरों (चतुर्विध संघ की स्थापना करनेवालों) को, स्वयंसंबुद्धों (गुरु-उपदेश के बिना स्वतः बोध प्राप्त करने वालों) को, पुरुषों में उत्तमों (अतिशययुक्त प्रधान पुरुषों) को, पुरुषों में सिंहों (सिंह समान शौर्यवालों) को, पुरुषों में वरपुण्डरीकों (श्रेष्ठ श्वेत कमल समान सर्व अशुभ मलिनता रहितों) को, पुरुषों में वर-गंधहस्तियों (श्रेष्ठ गंधहस्ती समान पुरुषों) को, लोक में उत्तमों (प्रधानों) को, लोक के नाथों को, लोक का हित करने वालों को, लोक के प्रदीपकों (सर्व वस्तु प्रकाशकों) को, ' लोक के प्रद्योतकरों (उद्योतकरों) को, अभयदान देनेवालों (प्राणिमात्र को भय न देने की प्रतिज्ञा वालों) को, चक्षु (श्रुतज्ञान) देनेवालों को, मार्ग देनेवालों (सम्यग्ज्ञानादि मोक्षपथदर्शकों) को, शरण (निरुपद्रवस्थान अथवा निर्वाण) देनेवालों को, 7. चक्खुबयाणं मग्गबयाणं सरणदयाणं Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक-प्रज्ञप्ति जीवदयाणं बोहा धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्म नायगाणं धम्मसार होणं 'धम्मद रचाउरतचक्क वट्टीर्ण, दीवो ताणं सरणं गई अपsिहयवर नाणवं सणधराणं विमदृछउमाणं, विगाणं जावयाणं, तिष्णाणं तारयाणं बुद्धार्ण बोहयाणं, मुत्ताणं मोगा सम्वन्नूणं, सव्ववरिसीणं, विमलमच अनंतम क्लयम व्यायाम गरावितिविडिय लोक नामधेय ठाणं संपाविकामानं ठाणं संपता । www. सूत्र १ जीव (भाव प्राण अर्थात् अमरणधर्मस्य देनेवालों को, बोधि (बोधि-बीज सम्यय) देनेवालों को, धर्म देनेवालों (अगारधर्म और अनगारधर्म का स्वरूप बताने वालों) को, धर्म-देशकों को, धर्म-नायकों को, धर्म के सारथियों को, धर्म के श्रेष्ठ चातुरंत चक्रवतियों (तीन ओर समुद्र तथा एक ओर हिमालय पृथ्वी के इन चार अंत तक जिनका स्वामित्व हैं, ऐसे बैंतियों के समान जो है उन को, दीप के समान ( समस्त वस्तुओं के जो प्रकाशक हैं) अथवा द्वीप के समान (संसार समुद्र में रहे हुए प्राणी नाना दुःख रूप, कल्लोंलों के आघात से जो त्रस्त हैं उनके लिए आश्रय स्थान) हैं, अनर्थों से बचाने में जो त्राण रक्षा रूप है, अर्थ-सम्पादन के लिए जो शरण-आश्रय स्थान है, दुस्थितजनों की सुस्थिति के लिए जो गति आश्रय स्थान है, संसारगर्त में गिरते हुए प्राणिव के लिए जो प्रतिष्ठाआधारभूत है ( उनको ),.. अप्रतिहत नष्ट न होने वाले श्रेष्ठ (केवल) ज्ञान तथा (केवल दर्शन के धारकों को, को, जिनका छद्म (माया-क्याय) निवृत हो गया है उनको. जिनों (रागादि जीतने वालों) को, ज्ञायकों (रागादि के स्वरूप, कारण, तथा फल जानने वालों) मुक्त (बाह्याभ्यन्तरन्थियों से अथवा कर्मबंध से मुक्त को, मोचकों (जो मुक्तात्माओं के उपदेशानुसार चलते हैं उनके वे (मुक्तात्मा) मोचक हैं उन ) को, सर्वज्ञों को, सर्वदशयों को शिव (सर्व-पव-रहित) अचल, अरुज (रोम-रहित) अनन्त, अक्षय, अग्याबाध (पीड़ारहित ) अपुनरावर्तक (पुन - ओब० सु० - १२ । र्जन्म रहित ) ऐमे सिद्धिगति नामक स्थान प्राप्त करने की कामना वालों को तथा ऐसे सिद्धिगति नामक स्थान प्राप्त (सिद्धों) को तिरने वालों (संसार-सागर तिरने वालों को, तारकों (संसार-सागर तिरने का उपदेश देने वालों) को, बुद्धों को, बोधकों (बोध देनेवालों) को, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २-४ लोक गणितानुयोग ३ "उत्थाणिया उत्थानिका चंपानयरी चम्पानगरी २: तेणं कालेणं तेणं समए चंपा णाम णयरी होत्था.... २ : उस काल और उस समय में 'चम्पा' नाम की नगरी थी.. तीसे गं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरथिमे दिसीभाए उस चम्पा नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा के भाग मेंएत्थ गं पुण्णभद्दे णामं चेइए होत्था.. . यहाँ 'पूर्णभद्र" नाम का चैत्य (व्यंतरायतन) था"" से गं पुण्णभद्दे चेदए एक्केणं महया वणसंडेणं सव्वओ समंता वह पूर्णभद्र चैत्य एक बहुत बड़े वनखण्ड से, (दिशा विदिशा संपरिक्खित्ते " में) चारों ओर से घिरा हुआ था. तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एक्के उस वनखण्ड के ठीक मध्य भाग में यहाँ एक विशाल असोगवरपायवे पण्णत्ते .. अशोक वृक्ष कहा गया है." तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा ईसि खंधसमल्लीणे एत्थ णं उस अशोक वृक्ष के नीचे उसके तने के कुछ समीप-यहाँ महं एक्के पुढविसिलापट्टए पण्णते... - पृथ्वी का एक बड़ा शिलापट्टक कहा गया है" -ओव० सु० १-५। चंपाए कुणियो राया चम्पा में कोणिक राजा ३ : तत्थ णं चंपाए णयरीए कूणिए णामं राया परिवसइ... ३ : उस चम्पा नगरी में 'कौणिक' नाम का राजा रहता था." तस्स ण कोणियस्स रणो धारिणी णामं देवी होत्था .. उस कोणिक राजा के धारिणी नामक रानी थी.... तस्स णं कोणियस्त रणो एक्के पुरिसे विउलकयवित्तिए उस कोणिक राजा का एक पुरुष भगवान की प्रवृत्ति जानने भगवओ पवित्तिवाउए भगवओ तद्देवसियं पवित्ति णिवेदेइ। के लिए नियुक्त था, उसे बहुत आजीविका दी जाती थी । वह .... . भगवान की दैनिक प्रवृत्ति उस (कौणिक) को निवेदन करता था। तस्स णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा दिण्ण-भइ-भत्त-वेयणा , उस पुरुष के अन्य अनेक पुरुष (भृत्य) थे, उन्हें वह भोजन तथा भगवओ पवित्तिवाउया भगवओ तद्दवसियं पवित्ति णिवेदेति। वेतन देता. था, जो भगवान की प्रवृत्ति जानने के लिए नियुक्त किये गये थे और वे उसे भगवान की दैनिक प्रवृत्ति निवेदन करते थे। तेणं कालेणं तेणं समएणं कोगिए राया भंसारपुते उस काल और उस समय में भंभसारपुत्र राजा कोणिक बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए अणेग-गणनायग-दंडनायग- बाहरी सभाभवन में अनेक गणनायक, दण्डनायक, युवराज, राईसर-तलवर माडंबिय-कोडुम्बिय-मंति-महामंति-गणग-दोवा- तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, मन्त्री, महामन्त्री, गणक, दौवारिक, रिय-अमच्च-चेड-पीढमद्द-नगर-निगम-सेट्ठि-सेणावइ-सत्यवाह- अमात्य, चेट (दास), पीठमर्दक (सिंहासन सेवक), नागरिक, दूय-संधिवालसद्धि संपरिवुडे विहरइ। . कर्मचारी, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, दूत और सन्धिपालों से -ओव० सु० ६-६ । घिरा हुआ था। चंपाए भगवओ महावीरस्सागमणसंकप्पो चम्पा में भगवान महावीर का आगमन-संकल्प ४ : तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे (जाव) ४ : उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर (यावत्) पृथ्वाणुपुव्वि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं क्रमशः विचरते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम को गमन करते हुए विहरमाणे चंपाए णयरीए उवणगरग्गामं बहिया उवागए चंपं और सुखपूर्वक विहार करते हुए चम्पा नगरी के बाहर उपनगर नर पुण्णभद्दचे इयं समोसरिउकामे । में पधारे तथा वहाँ से चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में आना -ओव० सु०६-१०। चाहते हैं। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ लोक-प्रज्ञप्ति लोक सूत्र ५-६ पवित्तिवाउएण कुणियनिवेयणं प्रवृत्तिव्यापृत्त का कोणिक से निवेदन ५ : तए णं से पवित्तिवाउए इमोसे कहाए लट्ठ समाणे (जाव) ५ : तब प्रवृत्ति-निवेदक उस पुरुष से, यह बात जानकर (यावत्) सयाओ गिहाओ पडिणिक्खिमित्ता चपाए णयरीए मजसंमज्झेणं अपने घर से बाहर निकलकर, चम्पानगरी के मध्य में होता हुआ जेणेव कोणियस्स रणो गिहे जेणेव बाहिरिया उबढाणसाला जहाँ कोणिक राजा का निवास स्थान था, जहाँ बाहरी सभाभवन जेणेव कुणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवाग- था और जहाँ भंभसारपुत्र कोणिक राजा था, वहाँ आया और च्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु आकर करतलों से सिर की प्रदक्षिणा की तथा मस्तक पर अंजली जएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धावित्ता एवं वयासी लगाकर जय-विजय से बधाया और बधाकर इस प्रकार बोला"जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं कखंति, "हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शन चाहते हैं, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पीहंति, हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शनों की इच्छा करते हैं, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं पत्थंति, हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शनों के लिए प्रार्थना करते हैं, जस्स णं देवाणुप्पिया दंसणं अभिलसंति, हे देवानुप्रिय ! आप जिनके दर्शनों की अभिलाषा करते हैं, जस्स णं देवाणुप्पिया नाम-गोयस्स वि सवणयाए हट्ठ-तुट्ठ. हे देवानुप्रिय ! जिनके नाम और गोत्र को सुनने मात्र से जाव हियया भवंति, से णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणु- हर्षित, सन्तुष्ट यावत् हृदय विकसित हो जाते हैं-वे ही श्रमण पुवि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे चंपाए णयरीए भगवान महावीर क्रमशः विचरते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम को उवणगरग्गामं उवागए, चंपं गरि पुण्णमद्द चेइयं गमन करते हुए चम्पा नगरी के उपनगर में पधारे हैं, और वे समोसरिउकामे।" पूर्णभद्र चैत्य में आना चाहते हैं।" तं एवं गं देवाणुप्पियाणं पियट्ठयाए पियं णिवेदेमि, पियं ते देवानुप्रिय का प्रीतिकर विषय होने से यह प्रिय समाचार भवउ । निवेदन कर रहा हूँ। वह आपके लिए प्रिय बने । -ओव० सु० ११। कुणियकओ थओ . कोणिक-कृत स्तव ६ : तए णं से कूणिए राया भभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवाउयस्स- ६ : तब भंभसारपुत्र कोणिक राजा ने उस प्रवृत्ति-निवेदक से अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म (जाव) करयलपरिग्गहियं यह समाचार सुनकर हृदय में धारण कर (यावत्) हाथ जोड़कर सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी सिर के चारों ओर घुमाये, अंजलि को सिर पर लगाई और इस प्रकार बोला"णमोऽत्यु णं अरिहंताणं भगवंताणं (जाव) सिद्धिगइनामधेयं "नमस्कार हो अरिहंत भगवंतों को (यावत्) सिद्धिगति ठाणं संपत्ताणं। __ नामक स्थान को प्राप्त सिद्ध भगवंतों को। णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स (जाव) सिद्धिगइ- नमस्कार हो श्रमण भगवान महावीर को (यावत्) सिद्धिगति नामधेयं ठाणं संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मो- नामक स्थान को पाने के इच्छुक मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक वदेसगस्स, वदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए पासउ मे भगवं को । यहाँ पर स्थित (मैं) वहाँ पर स्थित भगवान की वन्दना तत्थगए इहगयं" ति कटु वंदइ णमंसद वंदित्ता नमंसित्ता करता हूँ। वहाँ पर स्थित भगवान यहां पर स्थित मुझे देखें।" सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे णिसीयइ णिसीइत्ता तस्स इस प्रकार (वह कोणिक राजा) वंदना-नमस्कार करता है, वंदना पवित्तिवाउयस्त अछुत्तरसयसहस्सं पोइदाणं दलयइ, नमस्कार करके पूर्व की ओर मुख रखकर सिंहासन पर बैठता है दलइत्ता सक्कारेइ सम्माणेइ सक्कारिता सम्माणिता एवं और बैठकर उस प्रवृत्ति-निवेदक को एक लाख आठ हजार (रजत वयासी मुद्रा) का प्रीतिदान दिया, देकर सत्कार, सम्मान किया । सत्कार सम्मान करके पुनः इस प्रकार बोला Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७-८ लोक गणितानुयोग ५ "जया णं देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे इहमागच्छेज्जा "हे देवानुप्रिय ! जब श्रमण भगवान महावीर यहाँ आवेइह समोसरिज्जा, इहेव चंपाए गयरीए बहिया पुण्णभद्दे यहाँ ठहरें, इस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में संयमियों चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ताणं अरहा जिणे केवली के योग्य आवासस्थान को ग्रहण करके श्रमणवृन्द से परिवृत समणगणपरिवुडे, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेज्जा अर्हन्त जिन केवली संयम और तप से आत्मा को भावित करते तया णं तुम मम एयम8 निवेदिज्जासि" ति कटु हुए रहें, तब तुम यह सूचना मुझे देना।" इस प्रकार कहकर उस विसज्जिए। (प्रवृत्ति-निवेदक) को विसर्जित किया। -ओव सु० १२ । भगवो चंपाए आगमणं भगवान का चम्पा में आगमन '७ : तए णं समणे भगवं महावीरे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए ७ : तब श्रमण भगवान महावीर प्रकाशयुक्त रात्रि में (यावत्) (जाव) उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते हजार किरण वाले, दिनकर के तेज से जाज्वल्यमान सूर्य के उदय जेणेव चंपा णयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, जेणेव वणसंडे, होने पर जहाँ चम्पा नगरी थी-जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, जहाँ वनजेणेव असोगवरपायवे, जेणेव पुढविसिलापट्टए तेणेव उवा- खण्ड था, जहाँ अशोक वृक्ष था और जहाँ पृथ्वी शिलापट था गच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ताणं वहाँ पधारे, पधार कर संयम-मार्ग के अनुकूल आवास को ग्रहण असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टगंसि पुरत्याभिमुहे करके, अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी शिलापट पर पूर्वाभिमुख होकर पलियकनिसन्ने अरहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे तवसा पल्यंकासन से बैठे और वे श्रमणवृन्द से परिवृत अर्हन्त जिन अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । केवली संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए रहे । -ओव० सु० १३ । भगवओ परिवारो देवागमणं य भगवान का परिवार और देवताओं का आगमन : तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स ८ : उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो (जाव) णिरवकखा साहू अन्तेवासी बहुत से श्रमण भगवन्त (यावत्) आकांक्षा-रहित साधक णिहुया चरति धम्म। निश्चल चित्त से धर्म का आचरण करते हैं । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के असुरकुमारा देवा अंतियं पाउभवित्था (जाव) पज्जुवासंति। समीप अनेक असुरकुमार देव आये (यावत्) पर्युपासना करने लगे। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान महावीर के असुरिंदज्जिया भवणवासी देवा अंतियं पाउब्भवित्था (जाव) समीप असुरेन्द्र को छोड़कर अनेक भवनवासी देव प्रकट हुए पज्जुवासंति। (यावत्) पर्युपासना करने लगे। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के समीप वाणमंतरा देवा अंतियं पाउभवित्था (जाव) पज्जुवासंति। अनेक वाणव्यंतर देव प्रकट हुए (यावत्) वे पर्युपासना करने लगे। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के जोइसिया देवा अंतियं पाउन्भवित्था (जाव) पज्जुवासंति। समीप अनेक ज्योतिष्क देव प्रकट हुए (यावत्) वे पर्युपासना करने लगे। तेणं कालेणं तेणं समएणं समगस्स भगवओ महावीरस्स बहवे उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के समीप वेमाणिया देवा अंतियं पाउभवित्था (जाव) पज्जुवासंति। अनेक वैमानिक देव प्रकट हुए (यावत्) वे पर्युपासना करने लगे। --ओव० सु० १४-२६ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ लोक-प्रज्ञप्ति लोक सूत्र ६-१० M चंपानयरीजहिं पज्जुवासणा चम्पानिवासियों द्वारा पर्युपासना ६: तए णं चंपाए णयरीए (जाव) बहुजणो अण्णमण्णस्स एव- ६: उस समय चम्पा नगरी में (यावत्) अनेक मनुष्य एक दूसरे माइक्खइ एवं भासइ, एवं पण्णवेड, एवं परुवेइ । से इस प्रकार कहने लगे-इस प्रकार भाषण करने लगे-इस प्रकार ज्ञापन करने लगे-इस प्रकार प्ररूपण करने लगे"एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थ- हे देवानुप्रिय ! श्रमण भगगान महावीर आदिकर तीर्थकर यरे सयंसंबुद्धे पुरिसुत्तमे जाव सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपा- स्वयं-संबुद्ध, पुरुषों में उत्तम यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को विउकामे पुव्वाणुपुव्वि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे, इह- प्राप्त करने के इच्छुक क्रमशः चलते हुए एक गाँव से दूसरे गांव मागए, इह संपत्ते, इह समोसढे; इहेव चंपाए णयरीए बाहिं गमन करते हुए यहाँ आये हैं, यहाँ ठहरे हैं और यहाँ निवास किया पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा है, इस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में श्रमणोचित स्थान अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विराजमान हैं। तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहताणं हे देवानुप्रियो ! तथारूप अरिहंतों के नाम-गोत्र श्रवण का णाम-गोयस्स वि सवणयाए किमंग पुण अभिगमण वंदण- भी महाफल है तो उनके सम्मुख जाना-वंदन करना-नमस्कार णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए। करना, प्रश्न पूछना और पर्युपासना के फल का तो कहना ही क्या है ? एगस्त वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए किमंग आर्यपुरुष के एक धार्मिक सुवचन श्रवण का भी महाफल है, पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए । तो विपुल अर्थ ग्रहण के फल का तो कहना ही क्या है ! तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो इसलिए हे देवानुप्रिय ! चलो हम सब श्रमण भगवान महा(जाव) पज्जुवासामो एवं णं इहभवे पेच्चभवे य हियाए वीर को वंदन करें (यावत्) पर्युपासना करें। यह (हमारे द्वारा सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सई" त्ति की गई भगवद् वंदना आदि) इस भव में और पर-भव में हित के कट्ट बहवे उग्गा उग्गपुत्ता भोगा भोगपुत्ता (जाव) चंपाए लिए, सुख के लिए, क्षान्ति के लिए, कल्याण के लिए, भव णयरीए मज्झमझेणं णिग्गच्छंति णिग्गच्छित्ता जेणेव परम्परा में सुख-लाभ के लिए होगी। इसलिए बहुत से उग्र, पुण्णभद्दे चंइए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता समणं भगवं उग्रपुत्र, भोग, भोगपुत्र (याबत्) चम्पानगरी के मध्य से होकर महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति करित्ता वंदंति निकले, निकलकर जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था वहाँ आये । वहाँ आकर णमसंति वदित्ता णमंसित्ता पच्चासणे णाइदूरे सुस्सूसमाणा श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति। और करके वंदना नमस्कार किया, वंदना नमस्कार करके न अधिक समीप और न अधिक दूर सेवा करते हुए नमस्कार मुद्रा से -ओव० सु० २७ । भगवान की ओर मुंह करके विनयपूर्वक हाथ जोड़कर पर्युपासना करने लगे। कूणियस्सागमणं कोणिक का आगमन १० : तए णं से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लट्ठ समाणे हद्व-तुट्ठ १० : तब वह प्रवृत्तिव्याप्त इस बात को जानकर, बहुत खुश जाव हियए हाए जाव 'अप्प-महग्घाभरणालंकियसरीरे हुआ यावत् विकसित हृदय हुआ। उसने स्नान किया यावत् अल्प सयाओ गिहाओ पिडणिक्खमइ पडिणिक्वमित्ता चंपाणरि भार वाले किन्तु मूल्यवान आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, मझमज्ञण जेणेव कोणियरस रणो गिहे जेणेव बाहिरिया फिर वह अपने घर से बाहर निकला। निकलकर चम्पानगरी के उवट्ठाणसाला जेणेव कूणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव मध्य बाजार से होता हुआ जहाँ कोणिक राजा की बाहरी राजउवागच्छइ, (जाव) एवं वयासी सभा थी, जहाँ भंभसारपुत्र कोणिक राजा थे वहाँ गया (यावत्) इस प्रकार बोला Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०-११ लोक गणितानुयोग ७ "जस्स गं देवाणुप्पिया! दसणं कंखंति (जाव) से णं समणे हे देवानुप्रिय ! जिनके दर्शन की आप इच्छा करते हो भगवं महावीरे पुव्वाणुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे (यावत्) वे श्रमण भगवान महावीर क्रमशः विचरते हुए मार्ग में चंपाए णयरीए उवणगरग्गामं उवागए।" आने वाले गांवों को पावन करते हुए चम्पानगरी के उपनगर ग्राम में पधारे हैं।" तए णं से कणिए राया (जाव) सीहासणवरगए पुरस्थाभि- तब कोणिक राजा (यावत्) सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर मुहे णिसीयइ णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउयस्स अबतेरस्स बैठकर, उस प्रवृत्तिव्यामृत को साढ़े बारह लाख (चांदी की सयसहस्साई पोइदाणं दलयइ, दलइत्ता सक्कारेइ सम्माणेइ मुद्राओं का) प्रीतिदान दिया; देकर सत्कार सम्मान किया, सक्कारिता सम्माण्णित्ता पडिविसज्जेइ। सत्कार-सम्मान करके उसे विसर्जित किया। तए णं से कुणिए राया भंभसारपुत्ते बलवाउयं आमतेइ तब भं भसार के पुत्र कोणिक राजा ने सेनापति को बुलवाया आमंतित्ता एवं वयासी ___ और बुलवाकर इस प्रकार कहा"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडि- "हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को सजाकर कप्पेहि (जाव) णिज्जाहिस्सामि समणं भगवं महावीरं तैयार करो (यावत्) मैं श्रमण भगवान महावीर की अभिवन्दना अभिवंदिउं।" के लिए जाऊँगा।" तए णं से बलवाउए (जाव) एवं वयासो तब वह सेनापति (यावत्) इस प्रकार बोला-... "कप्पिए णं देवाणुप्पियाणं आभिसेक्के हत्थिरयणे (जाव) "देवानुप्रियों का आभिषेक्य हस्तिरत्नतैयार है (तावत्) हे तं णिज्जंतु णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं देवानुप्रिय ! अब श्रमण भगवान महावीर की अभिवन्दना के लिए अभिवंदिउं।" प्रस्थान करें।" तए णं से कूणिए राया (जाव) जेणेव समणे भगवं महावीरे तब वह कोणिक राजा (यावत्) जहाँ श्रमण भगवान महावीर तेणेव उवागच्छइ (जाव) पज्जुवासह। थे, वहाँ आये (यावत्) पर्युपासना की। .. . तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ (जाव) जेणेव समणे तब भंभसार पुत्र कोणिक राजा की सुभद्रा प्रमुख देवियाँ भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति (जाव) पज्जुवासंति । (यावत्) जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे (यावत्) वहाँ आई और -ओव० सु० २८-३३ पर्युपासना करने लगीं। भगवया लोगाइउवएसो भगवान द्वारा लोकादि के सम्बन्ध में उपदेश“११ : तए णं समगे भगवं महावीरे कूगियस्स रणो भंभसार- ११ : तब श्रमण भगवान महावीर भंभसारपुत्र कोणिक को, पुत्तस्स सुभद्दापमुहाणं देवीणं तीसे य महइमहालियाए परिसाए सुभद्रा आदि देवियों को और उस अति विशाल परिषदा को (जाव) अद्धमागहाए भासाए भासइ। (यावत्) अर्ध-मागधी भाषा में उपदेश देने लगे।' १. भगवान महावीर ने कोणिक के शासन काल में चम्पानगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य के वन में अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वी शिलापट पर स्थित होकर बहुत बड़ी परिषद के समक्ष अर्धमागधी भाषा में देशना दी थी । उस देशना में भगवान ने सर्वप्रथम लोक और अलोक के अस्तित्व का प्रतिपादन किया था। औपपातिक सूत्र में उक्त देशना का अति विस्तृत वर्णन है । वह कथानुयोग में दिया गया है और यहाँ उक्त देशना का संक्षिप्त वर्णन दिया गया है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि मूल पाठों की दृष्टि से जैनागमों की दो वाचनाएँ प्रसिद्ध हैं१. विस्तृत वाचना, और २. संक्षिप्त वाचना। वाचनाचार्यों ने यत्र-तत्र 'जाव' आदि अनेक संकेत देकर विस्तृत वाचना के मूल पाठों को संक्षिप्त करके संक्षिप्त वाचना का संकलन किया था उसी संकलन पद्धति का अनुसरण करके प्रस्तुत उत्थानिका में और आगे भी इस संस्करण में दो प्रकार के 'जाव' के संकेत दिये गये हैं । कुछ कोष्ठकों के अन्तर्गत हैं और कुछ कोष्ठकों के बिना हैं । कोष्ठकों के अन्तर्गत जितने 'जाव' के संकेत हैं, वे सब प्रस्तुत संस्करण के लिए दिये गये हैं और बिना कोष्ठकों के जितने 'जाव' के संकेत हैं, वे सब प्राचीन संक्षिप्त वाचना के हैं । इस सूचना को ध्यान में रखकर ही प्रस्तुत संस्करण का स्वाध्याय करना चाहिए । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ लोक-प्रज्ञप्ति - लोक सूत्र ११-१४ . अरिहा धम्म परिकहेइ । तेसि सव्वेसि आरियमणारियाणं अरिहंत जो धर्म का कथन करते हैं वह उन सभी आर्यों तथा (जाव) अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ, तं जहा अनार्यों को (यावत्) अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाता है । .अत्थि लोए अत्थि अलोए। यथा-लोक है और अलोक है । -ओव० सु० ३४ लोगसरुवस्स णायारो उवदेसगा य लोक-स्वरूप के ज्ञाता और उपदेशक१२ : आयतचक्खू लोगविपस्सी-लोगस्स अहोभागं जाणइ, उड्ढे १२ : विशालदृष्टि लोकदर्शी लोक के अधोभाग को जानते हैं, - भाग जाणइ, तिरियं भागं जाणइ। .. ऊर्ध्वभाग को जानते ह और तिर्यक् भाग को जानते हैं । -आया० सु० १,.अ० २, उ० ५, सु०६१ १३ : दोहि ठाणेहिं आया अहोलोगं जाणइ, पासइ, तं जहा- १३ : दो स्थानों से आत्मा अधोलोक को जानता है, देखता है, यथा १. समोहएणं चैव अप्पाणेणं आया अहोलोगं जाणइ, पासइ । १. आत्मा स्वयं के किये हुए समुद्घात से अधोलोक को जानता है और देखता है। २. असमोहएणं चैव अप्पाणेणं आया अहोलोगं जाणइ, २. आत्मा स्वयं समुद्घात किये बिना भी अधोलोक को पासइ। ... जानता है और देखता है। आहोही समोहयासमोहएणं व अप्पाणेणं आया अहोलोगं आत्मा अधोवर्ती समुद्घात से या नियत क्षेत्र की अवधि तक जाणइ, पासइ। की हुई समुद्घात से अथवा समुद्घात किये बिना भी अधोलोक को जानता है, देखता है । एवं तिरियलोग, उड्ढलोग, केवलकप्पं लोग। इसी प्रकार तिर्यक्लोक को ऊर्ध्वलोक को या सम्पूर्ण -ठाणं २, उ० २, सु० ८० लोक को (जानता है और देखता है)... १४ : दोहि ठाहिं आया अहोलोग जाणइ, पासइ, तं जहा- १४ : दो स्थानों से आत्मा अधोलोक को जानता है, देखता है, यथा१. विउविएणं चैव अप्पाणणं आया अहोलोग जाणइ १. आत्मा स्वयं के किये हुए वैक्रिय से अधोलोक को जानता पासइ। है, देखता है। २. अविउम्बिएणं चैव अप्पाणेणं आया अहोलोग जाणइ, २. आत्मा स्वयं वैक्रिय किये बिना भी अधोलोक को जानता - है, देखता है। आहोही विउव्वियाविउव्विएणं चेव अप्पाणेणं आयो अहोलोगं आत्मा अधोवर्ती वैक्रिय से या नियतक्षेत्र की अवधि तक की जाणइ, पास।. .. हुई वैक्रिय से अथवा वैक्रिय किये बिना भी अधोलोक को जानता . : . है, देखता है।... . एवं तिरियलोग, उड्ढलोगं, केवलकप्पं लोग। इसी प्रकार तिर्यक्लोक को ऊध्र्वलोक को या सम्पूर्ण ... ..-ठाण २, उ० २, सु० ८० लोक को (जानता है, देखता है।).... । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्न। IB pole 0 वधिदवरण्याचंधाम बुगलदे olete विरोधनविपनाकरविचारणदेवराय श्रावमादिवा लियाटिप्प गाद विमा- यमि Oरिदवनासन देवमादवा सुत्रविश्वामि०रिमामंडव बा ० रिश आमाण BOG दिक्षण प्रबरच Nat LO मोधमाशाम श्वर२५ तर५ ot वयादवलोक ३ साधवान PRBELADMe बारिवानाधार TIRRIERNO SRETARILal RG STINDIPIKA तिमधलाउMIA लोक पुरुष (प्राचीन चित्र की अनुकृति) आठ कृष्ण राजियाँ (प्राचीन चित्र) वर्णन देखें पृष्ठ ७३२ सूत्र ३१-४० Page #157 --------------------------------------------------------------------------  Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५-२० लोक गणितानुयोग १५ : गाहा–लोयं विजाणं तिह केवलेणं, पुण्णेण णाणेण समाहिजुत्ता । धम्म सम्मत्तं च कहति जेउ, तारंति अप्पाण परं च तिण्णा ॥ -सूय० सु० २, अ०६, उ०२, गा० ५० । १५ : गाथार्थ-जो समाधियुक्त (पुरुष) पूर्ण केवलज्ञान द्वारा लोक को जानते हैं और सम्यक्त्व धर्म का कथन करते हैं वे उत्तीर्ण पुरुष स्व-पर के तारक हैं। १६ : गाहा-लोयं अयाणित्तिह केवलेणं, कहंति जे धम्ममजाणमाणा। णासंति अप्पाण परं च णट्टा, संसारघोरम्मि अणोरपारे । -सूय० सु० २, अ० ६, उ० २, गा० ४६ । १६ : गाथार्थ-जो अज्ञानी केवलज्ञान द्वारा लोक को जाने बिना धर्म का कथन करते हैं, वे अपना और दूसरे का भी नाश करते हैं तथा अपार घोर संसार में परिभ्रमण करते हैं। १७:गाहानत्थि लोए अलोए वा, नेवं सन्नं निवेसए। १७ : गाथार्थ-लोक और अलोक नहीं है-ऐसी संज्ञा (धारणा) अत्यि लोए अलोए वा, एवं सन्नं निवेसए॥ नहीं रखना चाहिए। लोक और अलोक है-ऐसी संज्ञा रखना चाहिए। -सूय० सु० २, अ०५, गा० १२. लोग-भेया १८ : एगे लोए। -ठाणं० अ० १, सु० ५। सम० स० १, सु०७। लोक के भेद १८ : लोक एक है। १९ : तिविहे लोए पण्णत्ते, तं जहा १. णामलोगे, २. ठवणालोगे, ३. दब्वलोगे। -ठाणं० अ० ३, उ०२, सु० १५३ । १६ : लोक तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा (१) नामलोक, (२) स्थापनालोक, (३) द्रव्यलोक। २०: प०-कइविहे णं भंते ! लोए पन्नत्ते ? उ०-गोयमा ! चउम्विहे लोए पन्नत्तं, तं जहा १. दव्वलोए, २. खेत्तलोए, ३. काललोए, ४. भावलोए। -भग० स० ११, उ० १०, सु० २ । २० : प्रश्न-भगवन् ! लोक कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर-गौतम ! लोक चार प्रकार का कहा गया है, यथा(१) द्रव्यलोक, (२) क्षेत्रलोक, (३) काललोक, (४) भावलोक । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० लोक-प्रज्ञप्ति लोक सूत्र २१-२२ णामलोगे नामलोक २१ : प०-[से कि तं णामलोगे?] २१ : प्रश्न-नामलोक (का स्वरूप) क्या है ? उ०-णामलोगे] जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा उतर-नामलोक (का स्वरूप इस प्रकार है-जिस जीव तदुभयस्स वा तदुभयाण वा लोगत्ति नाम कोरए का या अजीव का, जिन जीवों का या अजीवों का तथा दोनों से तं णामलोगे।] (जीव-अजीव) का या दोनों (जीवों-अजीवों) का "लोक" यह नाम किया जाता है - यह नामलोक (का स्वरूप) है। -अणु० सु० १० ठवणालोगे २२ : [प०-से किं तं ठवणालोगे ?] उ०-ठवणालोगे जण्णं १. कटकम्मे वा, २. चित्तकम्मे वा, ३. पोत्थकम्मे वा, ४. लेप्पकम्मे वा, ५. गंथिमे वा, ६. वेढिमे वा, ७. पूरिमे वा, ८. संघाइमे वा, स्थापनालोक २२ : प्रश्न-स्थापनालोक (का स्वरूप) क्या है ? उत्तर-स्थापनालोक (का स्वरूप इस प्रकार) है१. काष्टकर्म-काष्ट पर कोर कर बनाई हुई आकृति । २. चित्रकर्म-कागज आदि पर बनाया हुआ चित्र । ३. पुस्तकर्म-वस्त्र पर बनाई हुई आकृति। ४. लेप्यकर्म-कुछ पदार्थों के लेप से निर्मित आकृति । ५. ग्रंथिम-सूत आदि को गूंथकर बनाई गई आकृति । ६. वेढिम-वेष्टन (लपेट कर) बनाई गई आकृति । ७. पूरिम-सांचे में पूर (ढाल) कर बनाई गई आकृति । ८. संघातिम-कुछ पदार्थों के खण्डों को जोड़कर बनाई गई आकृति । ६. अक्ष-द्वीन्द्रिय जाति के एक प्रकार के प्राणियों की अस्थियों से बनाई गई आकृति । १०. वराटक-कौडियों से बनाई गई आकृति । (१) १०. एक आकृति। (२) १०. अनेक आकृतियाँ । (३) १०. सद्भाव (वास्तविक) स्थापना । (४) १०. असद्भाव (कल्पित) स्थापना। (इन दस में) 'लोक' की स्थापना स्थापित की जाती है। यह स्थापनालोक है। ६. अक्खे वा, १०. वराडए वा.... (१) १०, एगो वा, (२) १०. अणेगा वा, (३) १०. सब्भावठवणाए वा, (४) १०. असंब्भावठवणाए वा। [लोगत्ति ठवणा ठविज्जति । सेत्तं ठवणालोगे।] - अणु० सु० ११ १. ऊपर कोष्ठकों में मूल पाठ का जितना अंश है वह संकलित है और शेष मूलपाठ महावीर वि० से प्रकाशित अनुयोग द्वार सूत्रांक १०, ११ के अनुसार है। स्व० पूज्य अमोलखऋषिजी महाराज अनुवादित अनुयोगद्वार की प्रति में स्थापना के चालीस भेद हैं, वे इस प्रकार हैंप्रथम दस भेद-काष्टकर्मादि दस पर अंकित की गई एक-एक आकृति । द्वितीय दस भेद-काष्टकर्मादि दस पर अंकित की गई अनेक आकृतियाँ । तृतीय दस भेद-काष्टकर्मादि दस पर अंकित सद्भाव स्थापना। चतुर्थ दस भेद-काष्टकर्मादि दस पर अंकित असद्भाव स्थापना । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३-२४ लोक गणितानुयोग ११ लोग-पमाणं २३ : प० के महालए णं भंते ! लोए पन्नत्ते ? उ० गोयमा ! महतिमहालए लोए पन्नत्ते, पुरथिमेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडोओ, दाहिणणं असंखेज्जाओ (जोयणकोडाकोडीओ,) एवं पच्चत्थिमेण वि, एवं उत्तरेण वि, एवं उडुढं पि। लोक-प्रमाण २३ : प्र० भगवन् ! यह लोक कितना महान् कहा गया है ? उ० गौतम ! यह लोक अति महान् कहा गया है, पूर्व में असंख्य कोटाकोटी योजन का है, दक्षिण में असंख्य (कोटाकोटी योजन का है), इसी प्रकार पश्चिम, उत्तर और ऊपर भी (असंख्य कोटाकोटी योजन का) है। नीचे असंख्य कोटाकोटी योजन का लंबा चौड़ा है। अहे असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खं भेणं ।' -भग० स० १२, उ० ७, सु० २। २४ : प० लोए णं भंते ! के महालए पण्णत्ते ? । २४ : प्र० हे भगवन् ! यह लोक कितना महान कहा गया है ? उ० गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं उ० हे गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सब द्वीप-समुद्रों के जाव परिक्खेवेणं । यावत् परिधिवाला है। तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिड्ढीया जाव महे- उस काल उस समय में छ महधिक यावत् महासुख-सम्पन्न सक्खा जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए मंदरचूलियं सव्वओ समंता देव जम्बूद्वीप के (मध्य में रहे हुए) मेरु पर्वत पर मेरु की चूलिका सपरिक्खित्ताणं चिट्ठज्जा। (शिखर) को चारों ओर से घेरकर खड़े रहें। अहे णं चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ चत्तारि बलिपिंडे नीचे चार बड़ी दिशाकुमारियाँ चार बलिपिण्डों को ग्रहण गहाय जंबुद्दीवस्स दीवस्स चउसु वि विसासु बहियाभिमुहीओ कर जम्बूद्वीप नामक द्वीप के चारों दिशाओं में बाह्याभिमुख खड़ी ठिच्चा ते चत्तारि बलिपिडे जमगसमगं बहियाभिमुहे होकर चारों बलिपिण्डों को एकसाथ बाहर फेंके । पक्खिवेज्जा। पभू णं गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते चत्तारि बलिपिडे हे गौतम ! उन देवों में से प्रत्येक देव उन चारों बलिपिण्डों धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरितए। को पृथ्वी पर गिरने से पूर्व ही ग्रहण करने में समर्थ है। तेणं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए जाव देवगतीए एगे हे गौतम ! ऐसी उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगतिवाले उन देवे पुरत्थाभिमुहे पयाए, एवं दाहिणाभिमुहे, एवं देवों में से एक देव पूर्वाभिमुख प्रयाण करे। इसीप्रकार एक पच्चत्थाभिमुहे, एवं उत्तराभिमुहे, एवं उडढाभिमहे देव दक्षिणाभिमुख, एक देव पश्चिमाभिमुख, एक देव एगे देवे अहोभिमुहे पयाए। उत्तराभिमुख, एक देव ऊर्ध्वाभिमुख और एक देव अधो मुख प्रयाण करे। तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससहस्साउए दारए पयाए। उस काल उस समय में एक हजार वर्ष की आयुवाला एक तए णं तस्स दारगस्स अम्मा-पियरो-पहीणा भवंति नो चेव बालक जन्मा। काल क्रम से उस बालक के माता पिता का णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । देहावसान हुआ । तब भी वे देव लोक का अन्त न पा सके। 2 . १. ५० के महालए गं भंते ! लोए पन्नत्ते ? उ० गोयमा ! महतिमहालए (लोए पन्नत्ते) जहा बारसमसए। तहेव जाव असंखेज्जाओ जोयण कोडाकोडोओ परिक्वेणं । -भग० स० १६, उ०८, सु० १ । ऊपर अंकित भग० स० १२, उ० ७, सु० २ के अन्त में “आयाम-विक्खंभेणं" पाठ है और इस टिप्पण में अंकित भग० स० १६, उ० ८, सु० १ के अन्त में "परिक्खेवेणं" पाठ है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ लोक-प्रज्ञप्ति लोक सूत्र २४-२७ तए णं तस्स दारगस्स आउए पहीणे भवति, णो चेव णं जाव संपाउणंति । तए णं तस्स दारगस्स अट्टि मिजा पहीणा भवंति, णो चेव णं ते देवा लोगंत संपाउणंति । तए णं तस्स दारगस्स आसत्तमे वि कुलवंसे पहीणे भवति, जो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । तए णं तस्स दारगस्स नाम-गोत्ते वि पहोणे भवति, नो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति । प० तेसि णं भंते ! देवाणं कि गए बहए, अगए बहए? उस बालक की आयु क्षीण हुई-फिर भी यावत् वे देव लोक का अन्त न पा सके । उस बालक की अस्थि, मज्जा विनष्ट हो गई-फिर भी वे देव लोक का अन्त न पा सके । उस बालक की सात पीढ़ियों के बाद उसका कुल-वंश नष्ट हो गया-फिर भी वे देव लोक का अन्त न पा सके । उस बालक के नाम-गोत्र भी लुप्त हो गये-फिर भी वे देव लोक का अन्त न पा सके । प्र० हे भगवन् ! उन देवों का उल्लंधित क्षेत्र अधिक है या अनुल्लंधित क्षेत्र अधिक है ? उ० हे गौतम ! उल्लंधित क्षेत्र अधिक है, अनुल्लंधित क्षेत्र कम । अनुल्लंधित क्षेत्र उल्लंधित क्षेत्र का असंख्यातवाँ भाग है और उल्लंधित क्षेत्र अनुल्लंधित क्षेत्र से असंख्यातगुण है। हे गौतम ! लोक इतना महान् कहा गया है। उ० गोयमा ! गए बहुए, नो अगए बहुए, गयाओ से अगए असंखेज्जाइमागे, अगयाओ से गए असंखेज्जगुणे। लोए णं गोयमा ! एमहालए पन्नत्ते । -भग० स० ११, उ० १०, सु० २६ । लोगस्स आयाम-मज्झभागो लोक का आयाम-मध्य भाग २५: प० कहि णं भंते ! लोगस्स आयाम-मज्झे पन्नत्ते ? २५ : प्र. हे भगवन् ! लोक का आयाम-मध्य (लम्बाई के बीच का भाग) कहाँ कहागया है ? उ. गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए ओवासंतरस्स उ. हे गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अवकाशान्तर का असंखेज्जति भाग ओगाहित्ता-एत्थ णं लोगस्स आयाम- असंख्यातवाँ भाग उल्लंघन करने पर-लोक का आयाम-मध्य मज्झे पण्णत्ते। कहा गया है। -भग० स० १३, उ० ४, सु०१२। लोगस्स समभागो, संखित्तभागोय २६ : प० [१] कहि णं भंते ! लोए बहुसमे ? [२] कहि णं भंते ! लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते? उ० [१] गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिम- हेटिलेसु खुड्डग-पयरेसु एत्थ णं लोए बहुसमे। [२] एत्य णं लोए सव्वविग्गहिए पण्णत्ते । - भग० स०१३, उ०४, सु०६७ । लोक का समभाग और संक्षिप्त भाग २६ : प्र० [१] भगवन् ! लोक का अधिक समभाग और [२] लोक का सर्वसंक्षिप्तभाग कहाँ कहागया है ? उ० [१] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर से नीचे वाले क्षुद्र (लधु) प्रतरों में लोक का अधिक समभाग है और [२] यहीं पर लोक का सर्व संक्षिप्तभाग कहागया है। लोगस्स वक्कभागो २७ : १० कहि गं भंते ! विग्गहविग्गहिए लोए पन्नत्ते ? उ० गोयमा ! विग्गहकंडए-एत्थ णं विग्गह-विग्गहिएलोए पन्नते। --भग० स० १३, उ०४, सु०६८ । लोक का वक्रभाग २७ : प्र० हे भगवन् ! लोक का वक्रभाग कहाँ कहागया है ? उ० हे गौतम ! जहाँ विग्रह-कंडक है-वहीं पर लोक का वक्रभाग कहागया है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध शिला BAपच अनुत्तर FLOOOOM RNO000 गवेयक आरण अच्युत प्राणत जानत सहस्त्रार ऊध्र्वलोक का श' तिर्यग लोक अ लो का साश 牙费聯盟费塔罗赞赞赞罗紫紫警器警響號;帶著线器带带带发带缎带等等紧紧望等等功 जापा सरआमा पंकामा अ लो का उला अधोलो शर्करा प्रभा बालुका प्रभा पंक प्रभा धूम प्रभा तमःप्रभा महातम प्रभा RTE लोक पुरुष Page #163 --------------------------------------------------------------------------  Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २८.२६ लोक गणितानुयोग १३ लोग-संठाणं लोक का संस्थान २८: प०कि संठिते णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? २८ : प्र. हे भगवन् ! इस लोक का संस्थान (आकार) कैसा कहागया है? उ० गोयमा ! सुपतिढगसंठिते लोए पण्णत्ते। हेट्ठा उ० हे गौतम ! इस लोक का संस्थान सुप्रतिष्टक (सिकोरा) वित्थिण्णे, मज्झे संखिते, उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठिते। के जैसा कहागया है-नीचे से विस्तीर्ण, मध्यमें संक्षिप्त और . ऊपर से ऊर्ध्व मृदंग जैसे आकार का है। तंसि च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा वित्थिणंसि, मज्झे उक्त शाश्वत लोक में जो नीचे से विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त संखिसि, उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठितंसि उप्पण्णनाण- और ऊपर से सर्व मदंग जैसे आकार का है_मो नारा दसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणति, पासति, ज्ञान-दर्शन के धारक अर्हत् जिन केवली जीव को भी जानते देखते अजीवे वि जाणति पासति । तओ पच्छा सिज्मति हैं और अजीव को भी जानते देखते हैं। वे बाद में सिद्ध होते हैं जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेति ।' यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। -भग० स० ७, उ०२, सु०५। अट्ठविहा लोगट्ठिई वत्थिउदाहरणं य आठ प्रकार की लोक स्थिति और बस्ति का उदाहरण २९ : भंते त्ति भगवं गोतमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं २६ : भंते ! भगवन् गौतम श्रमण भगवान महावीर को यावत् वयासी। इस प्रकार बोलेप० कतिविहा णं भंते ! लोयट्टिती पण्णता? प्र० भगवन् ! लोकस्थिति कितने प्रकार की कही गई है ? उ० गोयमा ! अट्टविहा लोयट्टिती पण्णत्ता, तं जहा उ० गौतम ! लोकस्थिति आठ प्रकार की कहीगई है, यथा(१) आगासपइट्ठिए वाए, १. आकाश-प्रतिष्ठित वायु, (२) वातपइट्ठिए उदही, २. वायु-प्रतिष्ठित उदधि, (३) उदहिपतिट्टिता पुढवी, ३ उदधि-प्रतिष्ठित पृथ्वी, (४) पुढविपतिट्टिता तस-यावरा पाणा, ४. पृथ्वी-प्रतिष्ठित त्रस-स्थावर प्राणी, (५) अजीवा जीवपतिहिता, ५. जीव-प्रतिष्ठित अजीव, (अजीव जीव-प्रतिष्ठित) (६) जीवा कम्मपतिट्टिता,' ६. कर्म-प्रतिष्ठित जीव, (जीव कर्म-प्रतिष्ठित) (७) अजीवा जीवसंगहिता, ७. जीव-संग्रहित अजीव (अजीव जीव-संग्रहित) (८) जोवा कम्मसंगहिता। ८. कर्म-संग्रहित जीव, (जीव कर्म-संग्रहित) प० से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ-अट्टविहा (लोगट्टिई प्र० भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है कि आठ पण्णत्ता, तं जहा—१. आगासपइट्ठिए वाए) जाव प्रकार की (लोकस्थिति कही गई है) आकाश-प्रतिष्ठित वायु जीवा कम्मसंगहिता? यावत् जीव कर्म-संग्रहित हैं ? १. क-महा० वि० द्वारा प्रकाशित प्रति में इस सूत्र के पाठ में जहाँ-जहाँ जाव है उनकी पूर्ति उसी प्रति के श० ५, उ० ६, सू० १४ [२] के अनुसार यहाँ की गई है। ख-तुलना-भग० श० ११, उ० १०, सू० १० । ग-तुलना-भग० श०१३, उ०४, सू०६६ । ठाणं ३ उ०२ सु० १६३ । ३. ठाणं ४ उ०२ सु० २८६ । ४. ठाणं ६ सु० ४६८ । ५. ठाणं ८ सु०६०० । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ लोक- प्रज्ञप्ति , उ० गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे - वत्थिमाडोदेति त्यिमाडोविता उपि सितंबंधतिबंधिता मणं मज्झे गठि बंधति, मज्झे गंठ बंधित्ता उवरिल्लं गंठि मुयति, मुद्दत्ता उवरिल्लं देसं वामेति, उवरिल्लं देसं वामेत्ता, वरिल्लं दे आउयास्स पूरेति, पूरिता उप्पि सितं बंधति, बंधिता मझिल्लं गठि मुयति । प० से नूगं गोयमा ! से आउयाए तस्स वाउयायस्स उप्पि उवरितले चिट्ठति ? उ० हंता चिट्ठति से पट्टे में जाव जीवा कम्मसंगहिता । से जहा वा केइ पुरिसे वत्यिमा डोवेति, आडोवित्ता डीए बंधति, बंधित्ता, अत्याहमतारमपोरुसियंसि उदगंसि ओगावा । प० से नूणं गोयमा ! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतसे चित? उ० हंता, चिति एवं वा अदुवा लोपती पता जाव जीवा कम्मसंहिता -भग० स० १, उ० ६, सु० २५-१, २, ३ । बसविहा लोग ३० : दसविहा लोगट्टिई पण्णत्ता, तं जहा (१) जण्णं जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तत्थेव तत्थेव भुज्जो शोपचायंति एवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । (२) जण्णं जीवाणं सया समियं पावे कम्मे कज्जइ एवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । लोक (३) जन्म जीवाणं सपा समियं मोहणिजे पावे मे कज्जइ - एवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । (४) ण एवं भूयं वा भव्वं वा, भविस्सइ वा जं जीवा अजीवा भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संतिएवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । (५) ण एवं भूयं वा, भव्वं वा भविस्सई वा जं तसापाणा वोच्छिज्जिस्संति थावरापाणा भविस्संति, थावरापाणा बोच्छिज्जिस्संति तसापाणा भविस्संति — एवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । - सूत्र २६-३० www. उ० गौतम ! जैसे कोई पुरुष बस्ति (मशक) को (वायु से) कुलाता है, वस्ति को फुलाकर ऊपर से ( वस्ति के मुंह को ह बाँध देता है, बाँधकर मध्य में गाँठ बाँध देता है । मध्य में गाँठ बाँधकर ऊपर की गाँठ खोल देता है, खोलकर ऊपर के भाग को मोड़ता है, ऊपर के भाग को मोड़कर ऊपर के भाग में पानी भरता है, भरकर ऊपर ( बस्ति के मुंह को ) दृढ़ बाँधता है, बाँधकर बीच की गांठ खोल देता है । प्र ० गौतम ! क्या यह निश्चित है कि वह पानी उस वायु के ऊपर (अर्थात् ) ऊपर के तल पर ही रहता है ? उ० हाँ (भगवन् ! ) रहता है। इसलिए यावत् जीव कर्म संग्रहित हैं । अथवा – जैसे कोई पुरुष बस्ति ( मशक ) को (वायु से ) फुलाता है, फुलाकर कमर के बाँधता है, बाँधकर अथाह दुस्तर पुरुष प्रमाण से अधिक गहरे पानी में प्रवेश करता है । प्रo गौतम ! क्या यह निश्चित है कि वह पुरुष उस पानी के ऊपर के तलपर (ही) रहता है ? उ० हाँ (भगवन् !) रहता है। इस प्रकार की आठ प्रकार की लोकस्थिति कही गई है यावत् जीव कर्म-संग्रहित है। दस प्रकार की लोकस्थिति ३० : दस प्रकार की लोकस्थिति कहीगई है, यथा (१) जीव मर-मरकर वहीं-वहीं ( लोक के एक देश में, गति में, जाति में, योनि में) बार-बार उत्पन्न होते रहते हैं - यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। (२) जीव (संसारी जीव सदा निरन्तर पाप कर्म बाँ रहते हैं - यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है । (३) जीव (संसारी जीव) सदा निरन्तर मोहनीय पापकर्म बाँधते रहते हैं - यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है । (४) "जीव का अजीव होना या अजीव का जीव होना"न ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा - यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है । (५) स प्राणियों का विच्छेद और स्थावर प्राणियों का का होना - या स्थावर प्राणियों का विच्छेद और त्रस प्राणियों होना " न ऐसा हुआ है. न हो रहा है और न कभी होगायह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। - Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३०-३२ लोक गणितानुयोग १५ (६) ण एवं भूयं वा, भव्वं वा, भविस्सइ वा जं लोगे (६) "लोक का अलोक होना या अलोक का लोक होना" अलोगे भविस्सइ, अलोगे वा लोगे भविस्सइ-एवं न ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा-यह भी एक पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता। प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। (७) ण एवं भूयं वा, भग्वं वा, भविस्सइ वा जं लोगे (७) "लोक का अलोक में प्रवेश करना या अलोक का लोक अलोगे पविस्सइ, अलोगे वा लोगे पविस्सइ-एवं में प्रवेश करना"-न ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न कभी पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता। होगा—यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। (८) जाव ताव लोगे ताव ताव जीवा। जाव ताव जीवा (८) जहाँ-जहाँ लोक है वहाँ-वहाँ जीव है या जहाँ-जहाँ जीव ताव ताव लोगे-एवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । है वहाँ-वहाँ लोक है-यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। (8) जाव ताव जीवाण य पोग्गलाण य गइपरियाए ताव (8) जहाँ-जहाँ जीव और पुद्गलों की गति पर्याय है वहाँ ताव लोए, जाव ताव लोए ताव ताव जीवाण य वहाँ लोक है तथा जहाँ-जहाँ लोक है वहाँ वहाँ जीव और पुद्गलों पोग्गलाण य गइपरियाए-एवं पेगा लोगट्रिई की गतिपर्याय है-यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही पण्णत्ता। गई है। (१०) सम्वेसु वि णं लोगतेसु अबद्धपासपुट्ठा पोग्गला लुक्ख- (१०) सब लोकान्तों में पुद्गल परस्पर बद्ध नहीं रहते हैं ताए कज्जति जे णं जीवा य पोग्गला य नो संचायंति और न किसी ओर से परस्पर स्पृष्ट रहते हैं क्योंकि वहाँ वे रूखे बहिया लोगंतागमणाए–एवं पेगा लोगट्टिई पण्णता। हो जाते हैं अतएव जीव और पुद्गल लोकान्त के बाहर नहीं -ठाणं १० सु० ७०४ । जा सकते हैं—यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। लोगविसये जमालिस्स भगवंत-कय-समाहाणं लोक के विषय में भगवान द्वारा जमालि का समाधान ३१: प०....सासए लोए जमाली ? असासए लोए जमाली ?.... ३१: प्र० ....जमाली ! लोक शास्वत है ? या अशास्वत है ?.... -भग० स० ६, उ० ३३, सु० ६६ । उ०... सासए लोए जमाली! जंणं कयावि णासि ण, उ० ....जमाली ! लोक शास्वत है क्योंकि लोक कभी नहीं कयावि ण भवति कयावि ण भविस्सइ, भुवि था, नहीं है या नहीं रहेगा-इस प्रकार नहीं है किन्तु लोक था, है च भवइ य, भविस्सइ य, धुवे, णितिए, सासए, अक्खए, और रहेगा । लोक ध्र व, नियत, शास्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित अव्वए, अवट्ठिए णिच्वे चेव । व नित्य है। असासए लोए जमाली ! जओ ओसप्पिणी भवित्ता, जमाली ! लोक अशास्वत भी है क्योंकि अवसर्पिणी काल उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी होकर उत्सर्पिणी काल होता है। तथा उत्सर्पिणी काल होकर भवइ....' अवसर्पिणी काल होता है ।.... -भग० स० ६, उ० ३३ सु० १०१ । लोगविसये खंधग-संवादो लोक के विषय में स्कन्धक-संवाद ३२ : खंदया ! ति समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं ३२ : स्कन्दक ! श्रमण भगवान महावीर कात्यायन-गोत्री एवं वयासी-से नूणं तुम खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगल- स्कन्दक को इस प्रकार बोले- 'सावत्थी नगरी में पिंगल निर्ग्रन्थ एणं णियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेव पुच्छिए :- जो वैशाली का श्रावक था; उसने स्कन्दक !'तुझे आक्षेप (अवज्ञा) पूर्वक यह पूछा १. इस मूलपाठ का पूर्वापर अंश कथानुयोग जमालि-प्रकरण में देखें। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ लोक- प्रज्ञप्ति मामा किससे लोए, अनंते लोए ? एवं तं चैव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव हब्वमागए । पं० से नृणं संदया ! अपम राम ? उ० हंता अत्थि । जेविय ते खंदया ! अयमेधारूवे अज्झत्थिए चितिए पत्विए ममोगर कप्पे सपा प० किलोए अलोए ? उ० तस्स वि यण अयमट्ठ े -- एवं खलु मए खंदया ! चउविहे लोए पण्णत्ते, तं जहा – (१) दवओ, (२) खेतओ, (३) कालओ, (४) भावओ ' लोक (१) दव्वओ णं एगे लोए सअंते, (२) ओ लोए अजाओ, जोपणको डाकोडीओ, आयाम - विक्खंभेण, असंखेज्जाओ जोयण कोडाकोडीओ परिक्खेवेणं पण्णत्ते, अत्थि पुण सेअंते । (३) कालओ णं लाए न कयावि न आसि, न कयावि न भवति, न कयावि न भविस्सइ । भुवि च भवति य, भविसय, धुवे for सासए अक्खए अन्वए अब ट्ठिए णिच्चे । नत्थि पुण से अंते । १. (४) भावओ णं लोए अनंता वण्णपज्जवा, गंधपज्जवा, रसपज्जवा, फासपज्जवा, अनंता संठाणपज्जवा अणंता गरुय-लहुयपज्जवा, अनंता अगरुय-लहुयपज्जवा नत्थि पुण से अते । लोगस्स एगंत सासयत्तासासयत्तणिसेहो ३३ गाहाओ अणादीयं परिज्ञाय, अणवदग्गेति वा पुणो । सासयमसासए यावि इइ दिट्टिन धारए । एएहि बोहि ठाणेहि यवहारो न विद । एएहि दोहि ठाणेहि, अणायारं तु जाणए ॥ सेत्तं खंदगा ! दव्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सते, काल लोए अनंत भावओलए अते । -भग० स० २, उ० १ ० २३, २४-१ । 3 सूय० सु० २, अ० ५, गा० २-३ | भग० स० ११, उ० १०, सु० २ । २२-३३ wwwww मागध ! क्या यह लोक सान्त है या अनन्त ? इस प्रकार समस्त प्रश्न यावत् इसलिए उसी क्षण शीघ्र चलकर तू मेरे पास आया है ? प्रo हे स्कन्दक ! क्या मेरा यह कथन यथार्थ है ? उ० हाँ यथार्थ है । स्कन्दक ! जो यह तेरा आत्मिक चिन्तित - प्रार्थित मनोगत संकल्प हुआ है । प्र० क्या यह लोक सान्त है या अनन्त है ? उ० उसका समाधान यह है— स्कन्दक ! मैंने लोक चार प्रकार का कहा है, यथा - (१) द्रव्य से, (२) क्षेत्र से, (३) काल से, (४) भाव से । यह लोक एक है और सान्त है । (१) द्रव्य से (२) क्षेत्र से यह लोक असंख्य कोटाकोटी योजन का लम्बा चौड़ा है, असंख्य कोटाकोटी योजन की उसकी परिधि कही है और है । (३) काल से यह लोक कभी नहीं था - ऐसा नहीं है । कभी नहीं है - ऐसा नहीं है। कभी नहीं रहेगा - ऐसा भी नहीं है। यह लोक था, है और रहेगा। यह ध्रुव है, नियत है, शास्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है, नित्य है और इसका अन्त नहीं है । ( अर्थात् यह लोक काल से अनन्त है ।) (४) भाव से - लोक में अनन्त वर्ण- पर्यव हैं, गंध- पर्यव हैं, रस पर्यव हैं, स्पर्श-पर्यव हैं, अनंत संस्थान पर्यव हैं । अनन्त गुरुलघु पर्यव हैं, अनन्त अगुरु-लघु पर्यव हैं। और इसका अन्त हैं । (अर्थात् यह लोक भाव से अनन्त हैं ।) स्कन्दक ! द्रव्य से यह लोक सान्त है, क्षेत्र से यह लोक सान्त है, काल से यह लोक अनन्त है, भाव से यह लोक अनन्त है । लोक का एकांत शाश्वतत्व और अशाश्वत का निषेध २३ गावार्थ 'लोक को अनादि और अनन्त जानकर' - 'वह एकान्त शाश्वत है या एकान्त अशाश्वत है-ऐसी दृष्टि धारण न करे 1 इन दोनों एकान्त स्थानों से व्यवहार नहीं होता । इन दोनों स्थानों को स्वीकार करने को अनाचार जानना चाहिए । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३४-३७ लोक गणितानुयोग १७ लोयविसए अन्नतित्थियाणं पवादा लोक के सम्बन्ध में अन्यतीर्थिकों की मान्यतायें३४: ... अदुवा वायाओ विउंजंति, तं जहा-. ३४ : अथवा-(वे अन्यतीथिक) अनेक प्रकार के वचन कहते हैंअत्थि लोए. पत्थि लोए, यथा-लोक एकान्ततः है, लोक एकान्ततः नहीं है, धुवे लोए, अधुवे लोए, लोक ध्रुव ही है, लोक अध्रुव ही है, साइए लोए, अणाइए लोए, लोक सादि ही है, लोक अनादि ही है, सपज्जवसिए लोए, अपज्जवसिए लोए ...। लोक सान्त ही है, लोक अनन्त ही है । -आया० सु० १, अ० ८ उ० १, सु० २०० । लोगविसये अण्णउत्थिय-मय पडिसेहो लोक के विषय में अन्यतीथिकों के मतों का निषेध३५: गाहाओ ३५ : गाथार्थइणमन्नं तु अन्नाणं, इहमेगेसिमाहियं । देव उत्ते अयं लोए, 'बंभउत्ते' त्ति आवरे।। एक अज्ञान यह भी है—कोई कहते हैं—यह लोक किसी देवता ने बनाया है, दूसरे कहते हैं-यह लोक ब्रह्मा ने बनाया है। ईसरेण कडे लोए, 'पहाणाई' तहावरे। कुछ ईश्वर-कर्तृत्ववादी कहते हैं-जीव और अजीव से तथा जीवाऽजीव - समाउत्ते, सुह-दुक्ख समभिए । सुख और दुख से युक्त यह लोक ईश्वर ने बनाया है। तथा दूसरे (सांख्यवादी)कहते हैं-यह लोक प्रधान (प्रकृति) आदि कृत है। सयंभुणा कडे लोए, इति वृत्तं महेसिणा। किसी महर्षि ने कहा है-यह लोक स्वयंभू (विष्णु) ने बनाया मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए॥ है। मार (यम) ने माया की रचना की है अतः यह लोक अनित्य है। माहणा समणा एगे, आह अंडकडे जगे। कोई श्रमण ब्राह्मण कहते हैं-यह जगत् अण्डे से बना है। असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुसं वए । तथा ब्रह्मा ने तत्व की रचना की है-इस प्रकार ये लोग अज्ञानवश मिथ्या भाषण करते हैं। सहि परियाएहि, लोयं बूया कडे त्ति य। उक्तवादी अपने-अपने अभिप्राय (तर्क) से लोक को कृततत्तं ते ण विजाणंति, ण विणासी कयाइ वि ।। बना हुआ कहते हैं; वे तत्व (वस्तु-स्वरूप) को नहीं जानते हैं । -सूय० सु० १, अ० १, उ० ३, गा० ५-६ । वस्तुतः यह जगत् कभी विनष्ट नहीं होता। लोगे-चत्तारि समाणाणि३६ : चत्तारि लोगे समा सपक्खि सपडिविसि पण्णता, तं जहा लोक में चार समान हैं३६ : लोक में (एक लाख योजन परिमाणवाले) चार स्थान समान सपक्ष एवं सप्रतिदिक् (चारों ओर प्रत्येक दिशा में) कहे गये हैं, यथा (१) अप्रतिष्ठान नामक नरक, (२) जम्बूद्वीप नामक द्वीप, (३) पालक यानविमान, (४) सर्वार्थसिद्ध महाविमान । (१) अपइट्ठाणे नरए, (२) जंबुद्दीवे दीवे, (३) पालए जाणविमाणे', (४) सव्वट्ठसिद्ध महाविमाणे । -ठाणं ४, उ० ३, सु० ३२८ । ३७ : चत्तारि लोगे समा सक्खि सपडिदिसि पण्णत्ता, तं जहा(१) सोमंतए नरए, ३७ : लोक में (पैतालीस लाख योजन परिमाण वाले) चार स्थान समान सपक्ष एवं सप्रतिदिक् कहे गये हैं, यथा (१) सीमान्त नामक नरक, १. ठाणं० ३, उ० १, सु० १४८ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ लोक-प्रज्ञप्ति द्रव्यलोक सूत्र ३७-४१ (२) समयक्खेत्ते, (३) उडविमाणे, (४) ईसिपब्भारा पुढवी। -ठाणं ४, उ०३, सु० ३२८ । (२) समय क्षेत्र, (३) उडुविमान, (४) ईषत्प्राग्भारा पृथिवी। लोगुज्जोय-निमित्ताणि-- ३८ : चहि ठाणेहि लोउज्जोए सिया, तं जहा-- (१) अरिहंतेहिं जायमाहि, (२) अरिहंतेहि पव्वयमाणेहि, (३) अरिहंताणं णाणुप्पायमहिमासु,' (४) अरिहंताणं परिणिव्वाणमहिमासु । --ठाणं ४, उ० ३, सु० ३२४ ! लोक में उद्योत के कारण३८ : चार कारणों से लोक में उद्योत होता है, यथा (१) अर्हन्तों का जन्म होने पर, (२) अर्हन्तों की प्रव्रज्या होने पर, (३) अर्हन्तों के केवलज्ञान उत्पन्न होने के महोत्सवों में, (४) अर्हन्तों के निर्वाण महोत्सवों में । लोगंधयार-निमित्ताणि-- ३६ : चहि ठाणेहि लोगंधयारे सिया, तं जहा (१) अरिहंतेहिं वोच्छिज्जमार्गाह, (२) अरिहंत-पण्णत्ते धम्मे वोच्छिज्जमाणे, (३) पुव्वगए वोच्छिज्जमाणे,' (४) जायतेए वोच्छिज्जमाणे । -ठाणं ४, उ०३, सु० ३२४ । लोक में अंधकार के कारण३६ : चार कारणों से लोक में अन्धकार होता है, यथा (१) अर्हन्तों का व्युच्छेद होने पर, (२) अर्हत्प्रणीत-धर्म का व्युच्छेद होने पर, (३) पूर्वगत-ज्ञान का व्युच्छेद होने पर, (४) अग्नि का व्युच्छेद होने पर । द्रव्यलोक दवलोगो जीवाजीवमयोलोगो४०: प० के अयं लोए? उ० (१) जीवच्चेव, (२) अजीवच्चेव ।' -ठाणं २, उ०४, सु० १०३ । जीव-अजीवमय लोक-. ४०. प्र. यह लोक कैसा है ? उ० जीवमय है और अजीवमय है। लोगे दुविहा पयत्था४१ : जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुप्पडोआरं. तं जहा जीवच्चेव, अजीवच्येव । तसे चेव, थावरे चैव । सजोणियच्येव, अजोणियच्वेव, साउयच्चेव, अणाउयच्व्व। सइंदियच्चेव, अणिदियच्चेव । सवेयगा चेव, अवेयगा चेव। सरूवि चेव, अरूवि चेव । सपागला चेव, अपोग्गला चेव । संसारसमावन्नगा चव, असंसारसमावन्नगा चेव । सासया चेव, असासया चेव । -ठाणं २, उ० १, सु० ५७ । लोक में द्विविध पदार्थ४१ : लोक में जो कुछ हैं वे सब दो प्रकार के हैं, यथा जीव, अजीव, त्रस, स्थावर, सयोनिक, अयोनिक, सायुष्क, अनायुष्क, सेन्द्रिय, अनेन्द्रिय, सवेदक, अवेदक, रूपि, अरूपि, सपुद्गल, अपुद्गल, संसार-समापन्नक, असंसार-समापन्नक, शाश्वत, अशाश्वत । ठाणं०३, उ०१, सु०१४८ । २. ठाणं०३, उ०१, सु० १३४ । ३. ठाणं० ३, उ०१, सु० १३४ । ४. तुलना-जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। --उत्त० अ०३६, गा०२। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४२-४६ द्रव्यलोक गणितानुयोग १६ ४२ : आगासे चेव, नोआगासे चेव । धम्मे चैव, अधम्मे चैव । -ठाणं २, उ०१, सु०५८ । ४२ : आकाश, नो आकाश । धर्म, अधर्म । ४३ : बंधे चेव, मोक्खे चेव । पुन्ने चेव, पावे चेव। आसवे चेव, संवरे चेव । वेयणा चेव, णिज्जरा चैव । -ठाणं २, उ० १, सु० ५६ । ४३ : बंध, मोक्ष । पुन्य, पाप । आश्रव, संवर । वेदना, निर्जरा । लोगे फुसणा४४ : प० (१) लोगे णं भंते ! किणा फुडे ? (२) कहिं वा काएहि फुडे ? (जाव) (३-८) अद्धासमए णं फुडे ? उ० (१-८) जहा आगासथिग्गले ।' -पण्ण० ५० १५, उ० १, सु० १००४ । लोक में स्पर्शना ४४ : प्र० [१] हे भगवन् ! लोक किससे स्पृष्ट है ? [२] कितनी कायों से स्पृष्ट है ? (यावत्) [३-८] अद्धासमय से स्पृष्ट है ? उ० [१] आकास थिग्गल जैसा वर्णन यहाँ कहना चाहिए। ४५: चउहि अस्थिकाएहि लोए फुडे पण्णत्ते, तं जहा (१) धम्मत्यिकाएणं, (२) अधम्मत्थिकाएणं, (३) जीवत्थिकाएणं, (४) पुग्गलत्थिकारणं । -ठाणं ४, उ०३, सु० ३३३ । ४५ : चार अस्तिकायों से यह लोक स्पृष्ट कहा गया है, यथा (१) धर्मास्तिकाय से, (२) अधर्मास्तिकाय से, (३) जीवास्तिकाय से, (४) पुद्गलास्तिकाय से। ४६ : चाहिं बादरकाएहि उववज्जमाणेहि लोगे फुडे पण्णत्ते, ४६ : उत्पद्यमान चार बादरकायों से यह लोक स्पृष्ट कहा गया है, तं जहा यथा(१) पुढविकाइएहि, (१) पृथ्वीकायिकों से, (२) आउकाइएहि, (२) अप्कायिकों से, (३) वाउकाइएहि, (३) वायुकायिकों से (४) वणस्सइकाइएहिं। (४) वनस्पतिकायिकों से । -ठाणं ४० उ० ३, सु० ३३३ । १. पण्ण० पद १५, उ० १, सु० १००२ यहां पूरा उद्धृत किया है। प० [१] आगासथिग्गले णं भंते ! किणा फुडे ? [२] कइहिं वा काएहिं फुडे ? [३] किं धम्मत्थिकाएणं फुडे ? [४] कि धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे ? [५] धम्मत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे ? [६] एवं अधम्मत्थिकाएणं, आगासत्थिकाएणं फुडे ? [७] एएणं भेदेणं जाव किं पुढविकाइएणं फुडे जाव तसकाएणं फुडे ? [८] अद्धासमएणं फुडे ? उ० [१] गोयमा ! धम्मत्थिकाएणं फुडे, [२] णो धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे, [३] धम्मत्थिकायस्स पदेसेहिं फूडे, [४]एवं अधम्मत्थिकाएणं वि णो आगासत्थिकाएणं फुडे, आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे, आगासस्थिकायस्स पदेसेहिं फूडे जाव [५] वणप्फइकाएणं फुडे, [६] तसकाएणं सिय फुडे, सिय णो फुडे, [७] अद्धासमएणं देसे फुडे, देसे नो फुडे । इस सूत्र में प्रश्न आठ हैं किन्तु उत्तर सात प्रश्नों का ही है क्योंकि द्वितीय प्रश्न का उत्तर नहीं दिया गया है। प्रश्न को संक्षिप्त वाचना के अनुसार उत्तर की संक्षिप्त वाचना का क्रम होता तो अधिक अच्छा होता। W Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० लोक-प्रज्ञप्ति द्रग्यलोक सूत्र ४७-५१ लोगे सासया-अणंता य४७ : ५० के सासया लोगे? उ० जीवच्चेव, अजीवच्चेव । -ठाणं २, उ०४, सु० १०३ । लोक में शाश्वत और अनन्त४७ : प्र. लोक में शाश्वत कितने हैं ? उ० जीव हैं और अजीव हैं। ४८ : प० के अणंता लोए ? ४८ : प्र० लोक में अनन्त कितने हैं ? उ० जीवच्चेब, अजीवच्चेव । उ० जीव हैं और अजीव हैं। -ठाणं २, उ० ४, सु० १०३।। पंचत्थिकायमयो लोगो पंचास्तिकायमय लोक४६ : प० किमियं भंते ! लोए ति पवुच्चइ ? ४६ : प्र० भगवन् ! लोक कसा कहा गया है ? उ० गोयमा ! पंचत्थिकाया-एस णं एवतिए लोए त्ति उ० गौतम ! पंचास्तिकायमय है; यह लोक इतना ही कहा पवच्चह, तं जहा-धम्मऽस्थिकाए, अधम्मऽस्थिकाए, जाता है, यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, यावत् पुद्गलाजाव पोग्गलत्थिकाए। स्तिकाय । -भग० स० १३, उ०४, सु० २३ । छ दव्वमयो लोगो५०: गाहाओ धम्मो, अहम्मो, आगास, कालो, पुग्गल, जंतवो। एसलोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरवंसिहि ॥ छह द्रव्यमय लोक५० : गाथार्थ १. धर्म, २. अधर्म, ३. आकाश, ४. काल, ५. पुद्गल और ६. प्राणी । श्रेष्ठ (वर) दर्शी जिनदेवों ने यह लोक कहा है। धम्मो अहम्मो आगासं, दग्वं इक्किक्कमाहियं । अणंताणि य दवाणि, कालो पुग्गल जंतवो॥ -उत्त० अ०२८, गा० ७-८ । धर्म, अधर्म और आकाश-ये द्रव्य एकेक कहे गये हैं। काल, पुद्गल और प्राणी-ये द्रव्य अनन्त हैं। दिसाणं भेया; सरूवं च५१: प० कति णं भंते ! दिसाओ पण्णत्ताओ? - उ० गोयमा ! दस दिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा (१) पुरस्थिमा, (२) पुरथिम-दाहिणा, (३) दाहिणा, (४) दाहिण-पच्चत्थिमा, (५) पच्चत्थिमा, (६) पच्चत्थिमुत्तरा, (७) उत्तरा, (८) उत्तर-पुरत्थिमा, (६) उड्ढा , (१०) अहा। प० एयासि णं भंते ! दसण्हं दिसाणं कति णामधेन्जा पण्णता? दिशाओं के भेद और स्वरूप५१: प्र० भगवन् ! दिशाएँ कितनी कही गई हैं ? उ० गौतम ! दस दिशाएँ कही गई हैं, यथा(१) पूर्व, (२) पूर्व-दक्षिण, (३) दक्षिण, (४) दक्षिण-पश्चिम, (५) पश्चिम, (६) पश्चिम-उत्तर, (७) उत्तर, (5) उत्तर-पूर्व, (8) अवं, (१०) अधो। प्र० भगवन् ! इन दस दिशाओं के कितने नाम कहे गये हैं ? Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५१-५३ उ० गोयमा ! दस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहागाहा ५२ प० किमियं भंते! पाईगा ति पच्यति ? उ० गोयमा ! जीवा चेव, अजीवा चेव । प० किमियं भंते! पडीमा ति पशुच्चत्ति ? उ० गोयमा ! जीवा चेव, अजीवा चेव । एवं दाहिणा, एवं उदीणा, एवं उड्ढा, एवं अहा वि । इंदगेयी जम्मा य नेरतो वारुणी य वायव्वा । सोमा ईसाणी या विमला य तमा य बोधव्वा ॥ -भग० स० १०, उ० १, सु० ६-७ । ५३ : प० इंदा णं भंते ! दिसा १. किमादिया, २. कि पवहा, ३. कतिपदेसादिया, १. -भग० स० १०, उ० १, सु० ३-४-५ । ४. कतिपदेसुत्तरा, ५. कतिपदेसिया, ६. कपसिया ७. किं संठिया पन्नत्ता ? उ० गोयमा ! इंदाणं दिसा १. वयगावोवा, द्रव्यलोक २. रुगप्प वहा, ३. दुपदे सादीया, ४. दुपदेसुत्तरा ५. लोगं एसिया, अलोगं पच्च अनंतपदेसिया, ६. सोगं पच्च साईया सपज्जयसिया अलोगं पडुच्च सादीया अपज्जवसिया, ७. लोगं पच्य मुखसंठिया, अलोगं पडुच्च समबुद्धिसंठिया पण्णत्ता । गणितानुयोग २१ उ० गौतम ! दस नाम कहे गये हैं, यथागाथार्थ - (१) इन्द्रा, (२) आब्दी, (३) याम्या (४) नैऋति, (५) वारुणी, (६) वायव्य, (७) सोमा, (८) ईशानी, (६) विमला, और (१०) तमा.... । ५२ : प्र० भगवन् ! इस पूर्व दिशा में क्या है ? उ० गौतम ! जीव और अजीव हैं। प्र० भगवन् ! इस पश्चिम दिशा में क्या है ? उ० गौतम ! जीव और अजीव है । इसीप्रकार दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व और अधोदिशा में भी हैं। ५३ : प्र० भगवन् ! १. इन्द्रा दिशा के आदि में क्या है ? २. यह कहाँ से निकली है ? ३. उसके आदि में कितने प्रदेश हैं ? ४. उत्तरोत्तर कितने प्रदेशों की वृद्धि होती हैं ? ५. उसके कितने प्रदेश है ? ६. उसका अन्त कहाँ होता है ? ७. उसका संस्थान कैसा कहा गया है ? । उ० गौतम ! १. इन्द्रा दिशा के आदि में रुचक प्रदेश है, २. वह रुचक प्रदेशों से निकली है, ३. उसके आदि में दो प्रदेश हैं, ४. आगे दो-दो प्रदेशों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है, ५. लोक की अपेक्षा यह असंख्यप्रदेशवाली है और अलोक की अपेक्षा अनन्तप्रदेशवाली है, ६. लोक की अपेक्षा सादि-सान्त है और अलोक की अपेक्षा सादि-अनन्त है, ७. लोक की अपेक्षा मुरज के (एक प्रकार का वाद्य) संस्थान वाली है और अलोक की अपेक्षा ऊर्ध्व शकट के संस्थान वाली कही गई है । प्रस्तुत द्रव्यलोक में दिशाओं के भेद और स्वरूप का संकलन इसलिए किया गया है कि दिशाओं का सम्बन्ध संपूर्णलोक और अलोक के साथ हैं। देखिए प्रस्तुत संकलन में अंकित भग० श० १३, ०४, सू० १६-२२ पर्यंत के मूल पाठ और उनके अनुवाद | यद्यपि उक्त आगमपाठों से अलोक में भी दिशाओं का अस्तित्व सिद्ध है, किन्तु अलोक न्याकाश है, उसमें आकाश के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अतएव लोक-विषयक इस संकलन में ही दिशाओं का तथा उनमें जीवादि द्रव्य और उनके देश प्रदेशादि का कथन संकलित किया गया है । wwww Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ लोक-प्रज्ञप्ति द्रव्यलोक प० अग्गेयो णं भंते ! दिसा १. किमादीया, २. किं पवहा, ३. कतिपएसादीया, ४. कतिपएस-वित्थिण्णा, ५. कतिपदेसिया, ६. किं पज्जवसिया, ७. कि संठिया पन्नत्ता? उ० गोयमा ! अग्गेयी णं दिसा १. रुयगादीया, २. रुयगप्पवहा, ३. एगपएसादीया, ४. एगपएस-वित्थिण्णा, अणुत्तरा, प्र० भगवन् ! १. आग्नेयी दिशा में क्या है ? . २. वह कहाँ से निकली है ? ३. उसके आदि में कितने प्रदेश हैं ? ४. उत्तरोत्तर कितने प्रदेशों की वृद्धि होती है ? ५. उसके कितने प्रदेश हैं ? ६. उसका अन्त कहाँ होता है ? ७. और उसका संस्थान कैसा कहा गया है ? उ० गौतम ! आग्नेयी दिशा के १. आदि में रुचक प्रदेशं है, २. वह रुचक्र प्रदेशों से निकली है, ३. उसके आदि में एक प्रदेश है, ४. वह (अन्त तक) एक प्रदेश के विस्तार वाली है (अतएव) उत्तरोत्तर वृद्धि रहित हैं, ५. लोक की अपेक्षा वह असंख्यप्रदेशवाली है और अलोक की अपेक्षा अनन्त प्रदेशवाली है, ६. लोक की अपेक्षा वह सादि-सान्त है और अलोक की अपेक्षा सादि-अनन्त है, ७. और उसका संस्थान टूटी हुई मोतियों की माला जैसा कहा गया है। याम्या दिशा इन्द्रा जैसी है और नैऋति आग्नेयी जैसी है। इस प्रकार जैसी इन्द्रा दिशा है वैसी ही चारों दिशाएँ हैं। जैसी आग्नेयी विदिशा है वैसी ही चारों विदिशाएँ हैं। ५. लोगं पडुच्च असंखेज्जपएसिया, अलोगं पडुच्च अणंतपएसिया, ६. लोगं पडुच्च सादीया सपज्जवसिया, अलोगं पडुच्च ___सादीया अपज्जवसिया, ७. छिन्नमुत्तावलीसंठिया पन्नत्ता। जमा जहा इंदा। नेरती जहा अग्गेयो। एवं जहा इंदा तहा दिसाओ चत्तारि वि। जहा अग्गेयी तहा चत्तारि वि विदिसाओ। प० विमला गं भंते ! दिसा किमादिया (जाव) कि संठिया पन्नत्ता? उ० गोयमा ! १. विमला गं दिसा रुयगादीया, २. रुय गप्पवहा, ३. चउप्पएसादीया, ४. दुपदेस-वित्थिण्णा, अणुत्तरा, प्र० भगवन् ! १-६, विमला दिशा के आदि में क्या है ? (यावत्) ७. उसका संस्थान कैसा कहा गया है ? उ० गौतम ! १. विमला दिशा के आदि में रुचक प्रदेश है, २. वह रुचक प्रदेशों से निकली है, ३. उसके आदि में चार रुचक प्रदेश हैं, ४. वह अन्त तक दो प्रदेशों के विस्तारवाली है अतएव उत्तरोत्तर वृद्धि रहित है, ५-६. लोक की अपेक्षा वह असंख्यप्रदेशवाली है शेष आग्नेयी विदिशा जैसी है; विशेष उसका संस्थान रुचक प्रदेश जैसा कहा गया है। इसी प्रकार तमा दिशा भी है। ५-६. लोगं पडुच्च असंखेज्जपएसिया सेसं जहा अग्गेयोए। नवरं रुयगसंठिया पन्नत्ता। एवं तमा वि। -भग० स० १३, उ० ४, सु० १६-२२ । १. महा० वि० की प्रति में मूल पाठ इस प्रकार है-“विमला गं भंते ! दिसा किमादिया० पुच्छा"। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४-५५ द्रव्यलोक गणितानुयोग २३ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm दिसासु जीवाजीवा तद्देस-पएसा य दिशाओं में जीव, अजीव और उनके देश, प्रदेश५४ : प० इंदा णं भंते ! दिसा कि जीवा जीवदेसा, जीवपदेसा, ५४ : प्र० भगवन् ! (क्या) इन्द्रा दिशा में जीव, जीव-देश, जीवअजीवा अजीवदेसा, अजीवपदेसा? प्रदेश, अजीव, अजीव-देश और अजीब-प्रदेश हैं ? उ० गोयमा ! जीवा वितं चेव जाव अजीवपएसा वि। उ० गौतम ! इन्द्रा दिशा में जीव हैं यावत् अजीव-प्रदेश भी है। जे जीवा ते नियम एगिदिया बेइंदिया जाव पंचिदिया, इन्द्रा दिशा में जितने जीव हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीव हैं, अणिदिया। द्वीन्द्रिय जीव हैं यावत् पंचेन्द्रिय जीव हैं और अनिन्द्रिय है। जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा जाव अणिदिय- वहाँ जितने जीव देश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश देसा । हैं यावत् अनिन्द्रिय जीवों के देश है। जे जीवपएसा ते नियम एगिदियपदेसा जाव अणि- वहाँ जितने जीव प्रदेश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के दियपदेसा। प्रदेश हैं यावत् अनिन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं। जे अजोवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा वहाँ जितने अजीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१ रूवी अजीवा य, १. रूपी अजीव, और २. अरूवी अजीवा य । २. अरूपी अजीव । जे रूबी अजीवा ते चउबिहा पण्णत्ता; सं जहा वहाँ जितने रूपी अजीव हैं वे चार प्रकार के कहें गये हैं, यथा१. खंधा, २. खंधदेसा, १. स्कं ध, २. स्कंध-देश, ३. खंधपएसा, ४. परमाणुपोग्गला । ३. स्कंध-प्रदेश, ४. परमाणु-पुद्गल । जे अरूबी अजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा- वहाँ जितने अरूपी अजीब हैं वे सात प्रकार के कहे गये हैं, नो धम्मत्थिकाए। यथा-धर्मास्तिकाय नहीं है। १ धम्मत्थिकायस्स देसे, १. धर्मास्तिकाय का देश है, २. धम्मस्थिकायस्स पदेसा, नो अधम्मत्थिकाए, २. धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं । अधर्मास्तिकाय नहीं है, ३. अधम्मत्थिकायस्स देसे, ३. अधर्मास्तिकाय का देश है, ४. अधम्मत्थिकायस्स पदेसा, नो आगासस्थिकाए, ४. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं । आकाशास्तिकाय नहीं है, ५. आगासत्थिकायस्स देसे, ५. आकाशास्तिकाय का देश है, ६. आगासस्थिकायस्स पदेसा, ६. आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं, ७. अद्धासमए। ७. अद्धासमय । -भग० स०१०, उ० १, सु० ८। ५५: प० अग्गेयो णं भंते ! दिसा कि जीवा (जाव) अजीव- ५५ : प्र० हे भगवन् ! क्या आग्नेयी दिशा में जीव हैं यावत् पएसा? अजीव प्रदेश हैं ? उ० गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, उ० हे गौतम ! वहाँ जीव नहीं है किन्तु जीवदेश है, जीव अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि। प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीवदेश हैं और अजीवप्रदेश हैं। जे जीवदेसा ते नियमं एगिदियदेसा। वहाँ जितने जीव देश हैं वे नियमतः एकेन्द्रियजीवों के अहवा-१. एगिदियदेसा य, बेइदियस्स देसे । अहवा-२. एगिदियदेसा य, बेइंदियस्स देसा। अथवा : एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं और द्वीन्द्रियजीव का देश है। अथवा : एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं और द्वीन्द्रियजीव के देश हैं। अथवा : एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं और द्वीन्द्रियजीवों के देश है। अहवा-३. एगिदियदेसा य, बेइंदियाण य देसा । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ लोक-प्राप्ति अहवा एगिदियोसा मस्त देसे एवं चैव तियभंगो भाणियव्वो । एवं जाय अणिदियाण तियभंगो ।। जे जीवपदेसा ते नियमा एगिदियपदेसा । अहवा— एगिदियपदेसा म बेवियरस पदेसा । अहवा एविदिषयदेसाय बेदियाण व पदेसा । एवं आविल्ल विरहिओ जाव अणिदियागं । जे अजीवा ते दुबिहा पण्णत्ता, तं जहा १. रूवि अजीवा य २. अरूवि अजीवा य । जे रूविअजीवा ते चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा संधा जाब परमाणुयोगाला । जे अविअजीवा ते सत्तविधा पण्णत्ता, नो धम्मचिकाए १. धम्मत्थिकायस्स देसे, २. धम्मत्थिकायस्स पदेसा । तं जहा उ० जहा इंदा तहेब निरवसेसं । द्रव्यलोक एवं ३-४ अधमत्थिकायस्स वि । एवं ५-६ आगासत्थिकायस्स वि, जाव आगासत्थिकायस्स पदेसा, ७ अद्धासमए । प० जम्मा णं भते ! दिसा कि जीवा जाव अजीवपएसा ? नेरई जहा अग्गेयी, वारुणी जहा इंदा, वायव्वा जहा अग्गेयी, सोमा जहा इंदा, ईसाणी जहा अगयी। विमलाए जीवा जहा अग्गेयो, अजीवा जहा इंदाए । एवं तमाए वि, नवरं अरूवी छव्विहा । अद्धासमयो न भण्णति । अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं और वेन्द्रिय जीव का देश है । इस प्रकार श्रीन्द्रिय के तीन भंग कहने चाहिए। यावत् अनिन्द्रिय जीवों के भी तीन भंग करने चाहिए । सूत्र ५५ वहाँ जितने जोव प्रदेश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश है । अथवा एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं और हीन्द्रिय जीव के प्रदेश हैं । अथवा एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं और द्वीन्द्रिय जीवों के प्रदेश है। इस प्रकार प्रथम भंग छोड़कर यावत् अनिन्द्रिय पर्यन्त भंग कहने चाहिए। वहाँ जितने अजीव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. रूप २. और अरूपी अजीव । वहाँ जितने रूपी अजीव हैं, वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा - स्कंध यावत् परमाणुपुद्गल । वहाँ जितने अरूपी अजीव हैं, वे सात प्रकार के कहे गये हैं, यथा --- धर्मास्तिकाय नहीं है । १. धमास्तिकाय का देश है, २. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं, इसी प्रकार ३-४. धर्मास्तिकाय के, ५-६ आकाशास्तिकाय के बावत् आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं, ७. अद्धासमय । प्रo हे भगवन् ! याम्या दिशा में क्या जीव है यावत् अजीव प्रदेश है? उ० इन्द्रा दिशा के समान सम्पूर्ण कथन करना चाहिए। नैर्ऋति दिशा का वर्णन आग्नेयी दिशा के समान है । वारूणी दिशा का वर्णन इन्द्रा दिशा के समान है । वायव्य दिशा का वर्णन आग्नेयी दिशा के समान है। सोमा दिशा का वर्णन इन्द्रा दिशा के समान है। ईशानी दिशा का वर्णन आग्नेयी दिशा के समान है। विमला दिशा के जीवों का वर्णन आग्नेयी दिशा के समान है । वहाँ के अजीवों का वर्णन इन्द्रा दिशा के समान है । इसी प्रकार तमादिशा का वर्णन भी है। विशेषता यह है - वहाँ अरूपी अजीव छह प्रकार के हैं क्योंकि वहाँ -- भग० स० १०, उ० १ सू० ६ १७ । अद्धासमय नहीं कहा है । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६-५७ द्रव्यलोक गणितानुयोग २५ लोए जीवाजीवा तद्देसपदेसा य लोक में जीव अजीव और उनके देश-प्रदेश५६ : प० लोए णं भंते ! किं जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा, ५६ : प्र० भगवन् ! क्या लोक में जीव हैं, जीवों के देश हैं, जीवों अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपएसा? के प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीवों के देश हैं और अजीवों के प्रदेश हैं ? उ० गोयमा ! जीवा वि, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, उ. गौतम ! वहां जीव हैं, जीव-देश हैं, जीव-प्रदेश हैं, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि। अजीव हैं, अजीवदेश हैं और अजीव-प्रदेश हैं। जे जीवा ते नियमा एगिदिया, बेइंदिया; तेइंदिया, चरि- वहाँ जो जीव हैं वे निश्चितरूप से एकेन्द्रिय हैं, बेइन्द्रिय हैं, दिया, पंचेंदिया, अणिदिया। तेइन्द्रिय हैं, चउरिन्द्रिय हैं, पंचेन्द्रिय हैं और अनिन्द्रिय हैं। जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव अणिदियदेसा। वहाँ जो जीवों के देश हैं वे निश्चितरूप से एकेन्द्रियों के देश हैं यावत् अनिन्द्रियों के देश हैं। जे जीवपदेसा ते नियमाएगिदियपदेसा जाव अणिदियपदेसा। वहाँ जो जीवों के प्रदेश हैं वे निश्चितरूप से एकेन्द्रियों के प्रदेश हैं यावत् अनिन्द्रियों के प्रदेश हैं। जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-रूवी य, अरूवी य। वहाँ जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के कहेगये हैं, यथा-रूपी और अरूपा। जे रूबी ते चउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा वहाँ पर जो रूपी अजीव हैं वे चार प्रकार के कहेगये हैं, यथा१. खंधा, १. स्कन्ध, २. खंधदेसा, २. स्कन्धदेश, ३. खंधपदेसा, ३. स्कन्धप्रदेश, ४. परमाणुपोग्गला। ४. परमाणुपुद्गल । जे अरूबी अजीवा ते सत्तविहा पन्नत्ता, तं जहा वहाँ पर जो अरूपी अजीव हैं वे सात प्रकार के कहेगये हैं,यथा१. धम्मत्थिकाए, नो धम्मत्थिकायस्स देसे, १. धर्मास्तिकाय है, धर्मास्तिकाय का देश नहीं है, २. धम्मत्थिकायस्स पदेसा, २. धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं, ३. अधम्मत्थिकाए, नो अधम्मत्थिकायस्स देसे, ३. अधर्मास्तिकाय है, अधर्मास्तिकाय का देश नहीं है, ४. अधम्मत्थिकायस्स पदेसा, नो आगासत्थिकाए, ४. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं, आकाशास्तिकाय नहीं है। ५. आगासत्थिकायस्स देसे, ५. आकाशास्तिकाय का देश है, ६. आगासस्थिकायस्स पदेसा, ६. आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं, ७. अद्धासमए । ७. अद्धासमय है। -भग० स० ११, उ० १०, सु० १५ । लोगागासपएसे जीवाजीवा तद्देसपदेसा य लोक के एक आकाशप्रदेश में जीव, अजीव और उनके देश-प्रदेश५७: १० लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कि जीवा, ५७ : प्र० भगवन् ! क्या लोक के एक 'आकाश-प्रदेश में जीव हैं जीवदेसा, जीवपदेसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीव- जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीव के देश हैं पदेसा? और अजीव के प्रदेश हैं ? १. लोए णं भंते ! कि जीवा० ? जहा बितियसए अत्थिउद्देसए लोयागासे (भग० स० २, उ० १०, सु० ११) नवरं अरूबी सत्तविहा-जाव अधम्मत्थिकायस्स पदेसा, नो आगासत्यिकाए, आगासत्थिकायस्स देसे, आगासत्थिकायस्स पएसा, अद्धासमए । सेसं तं चेव। -भग० स० ११, उ० १०, सु० १५ । मूल पाठ इतना ही है । भग० स० २, उ०१०, सु० ११ के अनुसार जाव की पूर्ति की गई है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ लोक-प्रज्ञप्ति द्रव्यलोक सूत्र ५७-५८ उ० गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, उ० गौतम ! वहाँ जीव नहीं है, जीवों के देश हैं, जीवों के अजोवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि । प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीवों के देश हैं और अजीवों के प्रदेश भी हैं। जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा, वहाँ जो (१) जीवों के देश हैं वे निश्चितरूप से एकेन्द्रियों के देश हैं। अहवा-एगिदियदेसा य, बेइंदियस्स देसे, अथवा--वहाँ (२) एकेन्द्रियों के देश हैं, और बेइन्द्रिय का एक देश है। अहवा-एगिदियदेसा य, बेइंदियाण य देसा, अथवा-वहाँ (३) एकेन्द्रियों के देश हैं, और बेइन्द्रियों के देश हैं। एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव अणिदिएसु जाव- इस प्रकार मध्यमभंगरहित (शेषभंग) यावत् अनि न्द्रियों के हैं अहवा-एगिदियदेसा य, अणिदियाणदेसा। यावत् अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं और अनिन्द्रियों के देश हैं। जे जीवपदेसा ते नियम एगिदियपदेसा, वहाँ जो जीवों के प्रदेश हैं वे निश्चितरूप से एकेन्द्रियों के प्रदेश हैं। अहवा-एगिदियपएसा य, बेइंदियस्स पएसा, अथवा-वहाँ एकेन्द्रियों के प्रदेश हैं और बेइन्द्रिय के प्रदेश हैं। अहवा-एगिदियपएसा य, बेइंदियाण य पएसा, अथवा-वहां एकेन्द्रियों के प्रदेश हैं और बेइन्द्रियों के प्रदेश हैं। एवं आदिल्लविरहिओ जाव पंचिदिएसु अणिदिए इस प्रकार प्रथम भंग रहित यावत् (शेष दो दो भंग) तियभंगो। पंचेन्द्रिय तक के हैं । वहाँ अनिन्द्रिय के तीनों भंग हैं। जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–रूवी अजीवा वहाँ जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-रूपी य, अरूवी अजीवा य । रुवी तहेव। अजीव और अरूपी अजीव । रूपी अजीव पहले के समान हैं। जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा- वहाँ अरूपी अजीव पाँच प्रकार के कहे गये हैं, यथानो धम्मत्यिकाए धर्मास्तिकाय नहीं है। १. धम्मत्थिकायस्स देसे, १. धर्मास्तिकाय का देश है, २. धम्मत्थिकायस्स पदेसे, २. धर्मास्तिकाय का प्रदेश है, ३-४. एवं अधम्मत्थिकायस्स वि , ३-४. इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का देश है, अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है, ५. अद्धासमए। ५. अद्धासमय है। -भग० स० ११, उ१०, सु० २० । पएसाणं सोदाहरणं अणाबाहत्तं प्रदेशों का उदाहरण सहित अनाबाधत्व५८ : प० लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जे एगिदिय- ५८ : प्र० हे भगवन् ! लोक के एक आकाश प्रदेश में, जो एके पएसा जाव पंचिदियपदेसा अणिदियपएसा अन्नमन्न- न्द्रिय के प्रदेश यावत् पंचेन्द्रिय के प्रदेश तथा अनेन्द्रिय जीवों के बद्धा जाव अन्नमनघडताए चिट्ठति, अत्थि णं भंते ! प्रदेश जो अन्योऽन्यसम्बद्ध यावत् एक दूसरे से सम्बद्ध है, भगवन् ! अन्नमन्नस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति, क्या वे एक दूसरे को किसी प्रकार की बाधा या विशेष बाधा छविच्छेदं वा करेंति ? उत्पन्न करते हैं या किसी का छविच्छेद करते हैं ? उ० णो इण? सम?। उ० नहीं, ऐसा नहीं है। १. लोगस्स जहा अहे लोगखेत्तलोगस्स एगम्मि आगासपदेसे । -भग० स० ११, उ० १०, सु०२० । मूल पाठ इतना ही है भग० स० ११, उ० १०, सु०१७ के अनुसार ऊपर का पाठ पूर्ण किया है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५८-५९ द्रव्यलोक गणितानुयोग २७ M प० से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ–लोगस्स णं एगम्मि प्र० भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि लोक के एक आकाश आगासपएसे जे एगिदियपदेसा जाव चिट्ठति नथि प्रदेश में जो एकेन्द्रिय प्रदेश हैं यावत् वे एक दूसरे को कुछ बाधा णं ते अन्नमन्नस्स किंचि आबाहं वा जाव करेंति? यावत् उत्पन्न नहीं करते हैं ? उ० गोयमा ! से जहा नामए नट्टिया सिया सिंगारागार उ० गौतम ! जिसप्रकार कोई शृंगारयुक्त चारुवेषवाली चारवेसा जाव कलिया रंगट्ठाणंसि जणसयाउलंसि यावत् मधुरकण्ठवाली नर्तकी सैकड़ों लाखों व्यक्तियों से परिपूर्ण जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसतिविधस्स नट्टस्स अन्नयरं रंगस्थली में बत्तीसप्रकार के नृत्यों में से किसी एक नृत्य को नट्टविहिं उवदंसेज्जा। दिखलाती है। प० से नणं गोयमा ! ते पेच्छगा तं नट्टियं अणिमिसाए प्र. हे गौतम ! वे दर्शकगण उस नर्तकी को अनिमेष दृष्टि दिट्ठीए सव्वओ समंता समभिलोएंति ? से चारों ओर से देखते हैं ? उ० हंता, समभिलोएंति । उ० हाँ, देखते हैं। प० ताओ णं गोयमा! दिट्ठीओ तंसि नट्टियंसि सव्वओ प्र. गौतम ! उन दर्शकों की दृष्टियाँ उस नर्तकी पर चारों समंता सन्निवडियाओ? ओर से गिरती हैं ? उ० हंता, सन्निवडियाओ। उ० हाँ ! गिरती है। प० अत्थिणं गोयमा ! ताओ विट्ठिीओ तोसे नट्टियाए प्र. हे गौतम ! उन दर्शकों की दृष्टियों से उस नर्तकी को किचि आबाहं वा, वाबाहं वा उप्पाएंति, छविच्छेदं बाधा या विशेषबाधा उत्पन्न होती है ? या उसके किसी अवयव वा करेति? का छेद होता है ? उ० णो इणठे समठे। उ० नहीं होता है। प० सा वा नट्टिया तासि दिट्ठीणं किंचि आबाहं वा प्र० अथवा वह नर्तकी उन दर्शकों की दृष्टियों की कोई बाधा बाबाहं वा उत्पाएति, छविच्छेदं वा करेइ ! या विशेषबाधा पहुँचाती है? या किसीप्रकार का छविच्छेद करती है ? उ० णो इणठे समठे। उ० नहीं करती है। प० ताओ वा विट्ठीओ अन्नमन्नाए दिट्ठीए किचि आवाहं प्र. उन दर्शकों की दृष्टियाँ परस्पर किसी की दष्टि को कुछ वा वाबाहं वा उप्पाएंति, छविच्छेदं वा करेंति ? बाधा या विशेषबाधा उत्पन्न करती है ? अथवा छविच्छेद करती है? उ० णो इणठे समठे। उ० नहीं करती है। से तेणटटेणं गोयमा ! एवं बुच्चति तं चेव जाव. गौतम ! इसलिए इस प्रकार कहा जाता है यावत् (पूर्ववत्) छविच्छेदं वा न करेंति । (जीवों के आत्म-प्रदेश परस्पर स्पष्ट होतेहुए भी किसी प्रकार की बाधा या विशेषबाधा उत्पन्न नहीं करते हैं) और न किसी -भग० स०११, उ० १०, सु०२८-१, २ । प्रकार का छविच्छेद ही करते हैं। लोगागासपएसे जीवतप्पदेसाणं अप्पाबहुयं लोक के एक आकाश-प्रदेश में जीवों और जीव-प्रदेशों का अल्प-बहुत्व-- ५९: प० लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जहन्नपदे ५६ : प्र०हे भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश में जघन्य जीवपदेसाणं, उक्कोसपदे जीवपदेसाणं सश्वजीवाण य पदस्थित जीव-प्रदेश, उत्कृष्ट पदस्थित जीव-प्रदेश तथा सर्व जीव कतरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा? इनमें कौन सबसे (अल्प है) यावत् कौन विशेषाधिक है ? उ० गोयमा ! सम्वत्थोवा लोगस्स एगम्मि आगासपदेसे उ० हे गौतम ! लोक के एक आकाशप्रदेश में जघन्य जहन्नपदे जीवपदेसा, सव्वजीवा असंखेज्जगुणा, उक्को- पदस्थित जीव-प्रदेश सबसे अल्प हैं। सर्वजीव उनसे असंख्य गुण सपदे जोवपदेसा विसेसाहिया। हैं। तथा उत्कृष्ट पद स्थित जीव-प्रदेश उनसे विशेषाधिक है। -भग० स० ११, उ० १०, सु० २६ । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ लोक-प्रज्ञप्ति सोयचरिमंते जीवाजीवा तस पएसा य मते ! पुरथिमिले चरिमं कि जीवा, जीवदेसा, जोवपदेसा, अजीवा अभीवसा, अजीव पदेसा ? ६० प० लोगस्स द्रव्यलोक उ० गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि । जे जीवदेसा ते नियमं एगिदियदेसा । अहवा एडिवियबेसाप बेदियस्स व येसे एवं जहा दसमसए अग्गेयीदिसा ( भग० स० १० उ० १. सु० ६) तहेव । नवरं: देसे अभिवियाविरहियो । जे अरूवी अजीवा ते छब्विहा - अद्धासमयो नत्थि । सेसं तं चैव सव्वं । प० लोगस्स अजीवपदेसा वि ? उ० एवं चैव । एवं पच्चत्थिमिले वि, उत्तरिल्ले वि। ते वाहिले परिमंते कि जीवा जाव ! प० लोगस्स णं भंते ! उवरिल्ले चरिमंते कि जीवा जाव अजीवपदेसा वि ? उ० गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि जाव अजीवपएसा वि । जे जीवसा ते नियम एगिदिपसा य, अणिदिवेसाव अहवा एमिदिमदेसाय अगिरिदेसाय बेयरस य देसे । अहवा एगिदियदेसा य, अभिवियदेसा व बेदिया देसा । एवं मझिल्लविरहिओ जाव पंचेंदियाणं । जेएस से नियमं एगिदियग्यरेखा य अभिवियप्पदेसा य । अहवा― एगिरियप्पदेशाप, अमरियप्यदेसा व मेदियस य पदेसा । सूत्र ६० लोक के चरमान्तों में जीवाजीव और उनके देश-प्रदेश६० प्र० हे भगवन् ! लोक के पूर्वी चरमान्त में क्या जीव, जीवदेश, जीवप्रदेश, अजीब अजीवदेश और अजीवप्रदेश है ? " उ० हे गौतम ! (लोक के पूर्वी चरमान्त में) जीव नहीं हैं, किन्तु जीवदेश, जीवप्रदेश, अजीव, अजीवदेश तथा अजीबप्रदेश हैं। है वहां जितने जीव देश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं। अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और द्वीन्द्रिय जीव का देश इस सम्बन्ध में ( भगवतीसूत्र के ) दशम शतक में कथित आग्नेयीदिशा के वर्णन के समान यहां समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि अनिन्द्रिय के देशों का कथन प्रथम भंग छोड़कर करना चाहिए । ( लोक के पूर्वी चरमान्त में) जो अरूपी अजीव हैं वे छह प्रकार के हैं, क्योंकि वहाँ अद्धासमय नहीं है । शेष सब पूर्ववत् ( आग्नेयी दिशा के समान) कहना चाहिए । प्रo हे भगवन् ! लोक के दक्षिण चरमान्त में क्या जीव हैं यावत् अजीवप्रदेश हैं। उo पहले के समान है । इसीप्रकार लोक के पश्चिमी चरमान्त और उत्तरी चरमान्त का कथन है । प्रo हे भगवन् ! लोक के ऊपर के चरमान्त में जीव हैं यावत् जीयप्रदेश है? उ० हे गौतम! जीव नहीं है, जीवदेश हैं यावत् अजीबप्रदेश हैं । वहाँ जितने जीवदेश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं तथा अनिन्द्रिय जीवों के देश हैं। अथवा एकेन्द्रियजीवों के देश हैं, अनिन्द्रियजीवों के देश हैं तथा ( मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा से ) द्वीन्द्रिय जीव देश है अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, अनिन्द्रिय जीवों के देश हैं तथा दीन्द्रिय जीवों के देश है। इस प्रकार मध्यमभंग को छोड़कर पंचेन्द्रियपर्यन्त भंगों का कथन करना चाहिए । यहां जितने जीवप्रदेश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं और अनिन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं । अथवा : एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, अनिन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं तथा द्वीन्द्रिय जीव के प्रदेश हैं । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६०-६१ द्रव्यलोक गणितानुयोग २६ अहवा-एगिदियपदेसा य, अणिदियपदेसा य, बेइंदियाण य पदेसा। एवं आदिल्लविरहिओ जाव पंचेंदियाणं । अजीवा जहा दसमसए तमाए (भग० १०, उ० १, सु० १७) तहेव निरवसेसं । प. लोगस्सगं भंते ! हेटिल्ले चरिमंते कि जीवा जाव अजीवप्पएसा? उ० गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि, जाव अजीवप्पएसा वि। जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा। अहवा-एगिदियदेसा य, बेइंदियस्स य से। अथवा : एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, अनिन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं तथा द्वीन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं । इसप्रकार प्रथम भंग छोड़कर यावत् पंचेन्द्रिय पर्यन्त भंगों का कथन करना चाहिए। अजीवों का कथन (भगवती के) दशम शतक में कथित तमा-दिशा के समान करना चाहिए। प्र० हे भगवन् ! क्या लोक के अधःचरमान्त में जीव हैं यावत् अजीव-प्रदेश हैं ? उ० हे गौतम ! वहाँ जीव नहीं है, किन्तु जीव-देश हैं यावत् अजीव-प्रदेश हैं। वहाँ जितने जीव देश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं। अथवा : एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, तथा द्वीन्द्रिय जीव का देश हैं। अथवा : एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं तथा द्वीन्द्रिय जीवों के देश हैं। इस प्रकार मध्यमभंग को छोड़कर यावत् अनिन्द्रिय पर्यन्त (शेष समस्त भंगों का) कथन करना चाहिए। प्रथम भंग को छोड़कर सबके प्रदेश पूर्वी चरमान्त के समान कथन करना चाहिए। अजीवों का ऊर्ध्वचरमान्त के समान कथन करना चाहिए। अहवा-एगिदियदेसा य, बेइंदियाण य देसा। एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव अणिदियाणं । पदेसा आदिल्लविरहिया सव्वेसि जहा पुरथिमिल्ले चरिमंते तहेव। अजीवा जहा उरिल्ले चरिमंते तहेव । -भग० स० १६, उ०८, सु० २-६। णेगम-ववहारणयावेक्खा लोगे खेत्ताणपुव्वी दव्वादोणं नैगम और व्यवहारनय की अपेक्षा से लोक में क्षेत्रानअत्थित्तं पूर्वी आदि द्रव्यों का अस्तित्व६१:५०[१] (१) गम-ववहाराणं खेत्ताणपुवीदव्वाइं लोगस्स ६१ : प्र०१. (१) नैगम और व्यवहारनय की अपेक्षा से क्षेत्रानकतिभागे होज्जा? पूर्वी द्रव्य लोक के किस भाग में हैं ? (२) कि संखेज्जइभागे वा होज्जा? (२) क्या संख्यातवें भाग में हैं ? (३) असंखेज्जइभागे वा होज्जा? (३) असंख्यातवें भाग में हैं ? (४) संखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा ? (४) संख्येयभागों में हैं ? (५) असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा? (५) असंख्येयभागों में हैं ? (६) सव्वलोए वा होज्जा? (६) या संपूर्ण लोक में हैं ? उ० (१) एगबव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागे वा होज्जा, उ० (१) एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग में हैं, (२) असंखेज्जइमागे वा होज्जा, (२) असंख्यातवें भाग में हैं, (३) संखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा, (३) संख्येयभागों में हैं, (४) असंखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा, (४) असंख्येयभागों में हैं, (५) देसूणे वा लोए होज्जा, (५) या देश न्यून (कुछ न्यून) लोक में है, (६) नाणादब्वाइं पडुच्च णियमा सव्वलोए होज्जा। (६) नानाद्रव्यों की अपेक्षा निश्चितरूप से सम्पूर्ण लोक में हैं। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० लोक-प्रज्ञप्ति द्रव्यलोक सूत्र ६१-६२ प०[२(१-६) अणाणुपुव्वीदव्वाणं पुच्छा उ० (१) एगदव्वं पडुच्च नो संखेज्जइ भागे होज्जा', (२) असंखेज्जइभागे होज्जा, (३) नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा, (४) नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा, (५) नो सव्वलोए होज्जा, (६) नाणादग्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा। प्र० [२] (१-६) अनानुपूर्वी द्रव्यों के प्रश्न करें उ० (१) एक द्रव्य की अपेक्षा (लोक के) संख्यात भागमें नहीं हैं। (२) असंख्यातवें भाग में हैं। (३) संख्येयभागों में नहीं हैं। (४) असंख्यभागों में नहीं हैं। (५) या सम्पूर्ण लोक में (भी) नहीं हैं। (६) नाना द्रव्यों की अपेक्षा निश्चित रूप से सम्पूर्ण लोक में हैं। [३] इसीप्रकार अवक्तव्य द्रव्य भी कहलवाने चाहिए। ३] एवं अवत्तव्वगदव्वाणि विभाणियव्वाणि। -अणु० सु० १५२ [१-२-३] । गम-ववहारनयावेक्खा लोगे आणपुवी दवाईणं नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा से लोक में आनअत्थित्तं पूर्वी द्रव्यादि का अस्तित्व६२ :प०१] (१) णेगम-ववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं लोगस्स ६२: प्र० १. (१) नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा से आनुपूर्वी कतिभागे होज्जा? द्रव्य लोक के कितने भाग में हैं ? (२) कि संखेज्जई भागे होज्जा? (२) क्या लोक के संख्यातवें भाग में हैं ? (३) असंखेज्जई भागे होज्जा? (३) असंख्यातवें भाग में हैं ? (४) संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? (४) संख्येयभागों में हैं ? (५) असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? (५) असंख्येयभागों में हैं ? (६) सव्वलोए होज्जा? (६) सम्पूर्ण लोक में हैं ? उ० (१) एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइ भागे वा होज्जा। उ० (१) एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग में हैं। (२) असंखेज्जइभागे वा होज्जा। (२) असंख्यातवें भाग में हैं। (३) संखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा। (३) संख्येयभागों में हैं। (४) असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा । (४) असंख्येयभागों में हैं। . (५) सव्वलोए वा होज्जा। (५) और सम्पूर्ण लोक में भी हैं। (६) नाणादब्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा। (६) नाना द्रव्यों की अपेक्षा निश्चितरूप से सम्पूर्ण लोक में हैं। प०[२] (१) णेगम-ववहाराणं अणाणपुथ्वीदव्वाई कि प्र०२. (१) नैगम और व्यवहारनयकी अपेक्षा से अनानलोगस्स संखेज्जइभागे होज्जा? पूर्वीद्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग में हैं ? (२) असंखेज्जइभागे होज्जा? (२) असंख्यातवें भाग में हैं? (३) संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? (३) संख्येयभागों में हैं ? (४) असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? (४) असंख्येयभागों में हैं ? (५) सव्वलोए वा होज्जा? (५) या सर्व लोक में हैं ? उ० (१) एगदव्वं पडुच्च [लोगस्स] नो संखेज्जइभागे उ० (१) एक द्रव्य की अपेक्षा (लोक के) संख्यातवें भाग में होज्जा नहीं हैं। (२) असंखेज्जइभागे होज्जा। (२) असंख्यातवें भाग में हैं। १. अनानुपूर्वी द्रव्य सम्बन्धी इस प्रथम प्रश्न के उत्तर में 'लोगस्स' इतना अंश नहीं है जब कि ऊपर आनुपूर्वी द्रव्य सम्बन्धी प्रथम प्रश्न के उत्तर में 'लोगस्स' इतना अंश है। सम्भव है अतीत में लिपिक की यह भूल हुई है। अतः मलपाठ की शुद्धि के लिए भगीरथ प्रयत्न आवश्यक है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२-६४ (३) नो संखेज्जेसु भागेस होज्जा । (४) नो असंखेज्जेसु भागेस होज्जा । (५) नो सव्वलोए होज्जा । [३] एवं अवत्तव्वगदव्वाणि वि । नाणादाच्च नियमा सब्बलोए होज्जा । -अणु० सु० १०८ । www द्रव्यलोक (२) असंखेज्जहभागे वा होज्जा ? (३) संखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा ? (४) असं या भागेस होगा ? (५) सम्बलोए होगा ? ६३ : प० (१) णेगम-ववहाराणं आणुपुथ्वीदव्बाई लोगस्स किं ६३ : प्र० (१) नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा से आनुपूर्वी संखेइभागे होला ? द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग में हैं ? उ० (१) एवं पहुच लोगस्स संभागे वा होज्जा । (२) असंखेन्जमा वा होना । (३) संखेज्जेसु वा भागेसु होज्जा । (४) असं खेज्जेसु वा भागेसु होज्जा । (५) देसु वा सोए होन्डा । नागादन्चाई पड़च्च नियमा सव्वलोए होगा। एवं अणाणपुव्वि-अवत्तव्वयदव्वाणि भाणियव्वाणि जहा णेगम ववहाराणं वेत्ताणपुथ्वीए । - अणु० सु० १९३ । एवं फुसणा - अणु० सु० १९४ । गम-ववहारणयावेक्खा लोगे आणुपुब्बीवव्याई णं फुसणा ६४: प० [१] (१) गम-वदहाराणं आमृम्बीदम्बाई लोगस्स कि संखेज्जइभागं फुसंति ? (२) असंखेज्जद्भागं फुति ? (३) संखेज्जे भागे फुसंति ? (४) असंखेने भागे कुति ? (५) सम्बलो पुति ? उ० ( १ ) एगदव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागं वा पुति । (२) असंखेज्जइभागं वा फुति । (३) संखेने या मागे पुति । (२) संख्येपभागों में नहीं है। (४) असंख्येयभागों में नहीं हैं। (५) और सम्पूर्ण लोक में (भी) नहीं हैं। नाना द्रव्यों की अपेक्षा निश्चितरूप से सम्पूर्ण लोक में हैं । (३) इसी प्रकार अवक्तव्य द्रव्य भी हैं..... (२) असंख्यातवें भाग में हैं ? (३) संख्येवभागों में है ? गणितानुयोग ३१ (४) असस्येयभागों में है ? (५) या सम्पूर्ण लोक में हैं ? उ० ( १ ) एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग में हैं । (२) असंख्यातवें भाग में हैं । (३) संख्येयभागों में हैं । ( ४ ) असंख्येयभागों में हैं । (५) देश ऊन ( कुछ कम ) लोक में भी हैं । नाना द्रव्यों की अपेक्षा निश्चित रूप से सम्पूर्ण लोक में हैं । जिस प्रकार नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा क्षेत्रानुपूर्वी का कथन है इसीप्रकार अनानुपूर्वीद्रव्य और अव क्तव्यद्रव्य कहलवाने चाहिए । इसी प्रकार स्पर्शना भी है...... नैगम और व्यवहारनयकी अपेक्षा से लोक में आनुपूर्वी द्रव्य आदि की स्पर्शना - ६४ प्र०] १. (१) नैगम और व्यवहारनयकी अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? (२) असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? (३) संख्येनामों का स्पर्श करते हैं ? (४) असंख्येयों का स्वयं करते हैं ? (५) या सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं ? उ० ( १ ) एक द्रव्य की अपेक्षा लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं। (२) असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं। (३) संख्येयभागों का स्पर्श करते हैं। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ लोक-प्रज्ञप्ति द्रव्यलोक सूत्र ६४-६६ (४) असंखेज्जे वा भागे फुसति । (४) असंख्येय भागों का स्पर्श करते हैं। (५) सव्वलोगं वा फुसंति। (५) या सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सम्वलोगं फुसंति । नाना द्रव्यों की अपेक्षा निश्चित रूप से सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। प० [२] (१-५) गम-ववहाराणं अणाणुपुव्विदव्वाइं प्र०२. (१-५) नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा से लोगस्स कि संखेज्जइभागं फुसंति ? (जाव) सव्व- अनानुपूर्वी द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श लोयं फुसंति ? करते हैं ? (यावत्) सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं ? उ० (१) एगं बच्वं पडुच्च नो संखेज्जइभागं फुसंति । उ० (१) एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करते हैं। (२) असंखेज्जइमागं फुसंति । (२) असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं । (३) नो संखेज्जे भागे फुसंति । (३) संख्येयभागों का स्पर्श नहीं करते हैं। (४) नो असंखेज्जे भागे फुसंति । (४) असंख्येयभागों का स्पर्श नहीं करते हैं । (५) नो सव्वलोगं फुसंति । (५) सम्पूर्ण लोक का स्पर्श नहीं करते हैं। नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोगं फुसंति । नाना द्रव्यों की अपेक्षा निश्चित रूप से सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। [३] एवं अवत्तव्वगदव्वाणि वि भाणियव्वाणि ।। (३) इसी प्रकार अवक्तव्य द्रव्य भी कहने चाहिए। -अणु० सु० १०६-(१, २, ३) ६५ : प० [१] (१) णेगम-ववहाराणं आणुपुव्वोदव्वाई लोगस्स ६५ : १. प्र० (१) नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा से आनुपूर्वी किं संखेज्जइभागं फुसंति? द्रव्य क्या लोक के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं? (२) असंखेज्जइभागं फुसंति ? (२) असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? (३) संखेज्जे भागे फुसंति ? (३) संख्येयभागों का स्पर्श करते हैं ? (४) असंखेज्जे भागे फुसंति ? (४) असंख्येयभागों का स्पर्श करते हैं ? (५) सव्वलोग फुसंति ? (५) या सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं ? उ० (१) एगं दव्वं पडुच्च संखेज्जइभागं वा फुसंति । उ० (१) एक द्रव्य की अपेक्षा संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं। (२) असंखेज्जइभागं वा फुसंति । (२) असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं । (३) संखेज्जे वा भागे फुसंति । (३) संख्येयभागों का स्पर्श करते हैं। (४) असंखेज्जे वा भागे फुसंति । (४) असंख्येयभागों का स्पर्श करते हैं। (५) देसूणं वा लोगं फुसंति । (५) या देशऊन लोक का स्पर्श करते हैं। नाणादब्वाइं पडुच्च नियमा फुसंति , नाना द्रव्यों की अपेक्षा निश्चितरूप से सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। (२-३) अणाणपुव्वीदव्वाइं अवत्तव्वयदव्वाणि य जहा (२-३) अनानुपूर्वीद्रव्य और अवक्तव्यद्रव्य क्षेत्रानपूर्वी खेत्तं । नवरं-फुसणा भाणियव्वा । द्रव्यों के समान हैं । विशेष—यहाँ स्पर्शना कहनी चाहिए। —अणु० सु० १५३ (१-२)। संगहनयावेक्खा लोए आणुपुत्वीदव्वाईणं अत्थित्तं- संग्रह नयकी अपेक्षा से लोक में अनानपूर्वी द्रव्यादि का अस्तित्व६६ : प० संगहस्स आणुपुव्वोदव्वाइं लोगस्स कतिभागे होज्जा? ६६ : प्र० संग्रहनयकी अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य लोक के कितने भाग में हैं ? (१) कि संखेज्जइभागे होज्जा? (१) क्या संख्यातवें भाग में हैं ? Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६-६८ क्षेत्रलोक गणितानुयोग ३३ (२) असंखेज्जइभागे होज्जा? (३) संखेज्जेसु भागेसु होज्जा ? (४) असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा? (५) सव्वलोए होज्जा? उ० (१) नो संखेज्जइभागे होज्जा। (२) नो असंखेज्जइभागे होज्जा । (३) नो संखेज्जेसु भागेसु होज्जा। (४) नो असंखेज्जेसु भागेसु होज्जा। (५) नियमा सव्वलोए होज्जा । एवं दोण्णि वि। -अणु० सु० १२५ । (२) असंख्यातवें भाग में हैं ? (३) संख्येयभागों में हैं ? (४) असंख्येयभागों में हैं? (५) या सम्पूर्ण लोक में हैं ? उ० (१) संख्यातवें भाग में नहीं हैं। (२) असंख्यातवें भाग में नहीं हैं। (३) संख्येयभागों में नहीं हैं। (४) असंख्येयभागों में नहीं हैं। (५) निश्चित रूप से सम्पूर्ण लोक में हैं । इसी प्रकार दोनों (अनानुपूर्वी द्रव्य और अवक्तव्य द्रव्य) भी हैं.... संगहणयावेक्खा आणपुचीदव्वादोणं लोगे फसणा- संग्रहनयकी अपेक्षा से आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की लोक स्पर्शना६७ : प० (१) संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाइं लोगस्स कि संखेज्जइ ६७ : प्र० (१) संग्रह नयकी अपेक्षा से आनुपूर्वी द्रव्य क्या लोक भागं फुसंति ? के संख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? (२) असंखज्जइ भागं फुसंति ? (२) असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं ? (३) संखेज्जे भागे फुसंति? (३) संख्येयभागों का स्पर्श करते हैं ? (४) असंखेज्जे भागे फुसंति ? (४) असंख्येयभागों का स्पर्श करते हैं ? (५) सव्वलोगं फुसंति ? (५) या सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं ? उ० (१) नो संखेज्जइ भागं फुसति । उ० (१) संख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करते हैं। (२) नो असंखेज्जइ भागं फुसंति । (२) असंख्यातवें भाग का स्पर्श नहीं करते हैं। (३) नो संखेज्जे भागे फुसति । (३) संख्येयभागों का स्पर्श नहीं करते हैं। (४) नो असंखेज्जे भागे फुसंति । (४) असंख्येयभागों का स्पर्श नहीं करते हैं। (५) नियमा सव्वलोग फुसंति । (५) (किन्तु वे) निश्चित रूप से सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। एवं दोन्नि वि। इस प्रकार दोनों (अनानुपूर्वीद्रव्य और अवक्तव्यद्रव्य) भी हैं। -अणु० सु० १२६ । खेत्तलोगो क्षेत्रलोक खेत्तलोगस्स भेया-कमो य६८ : प० खेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ? उ० गोयमा ! तिविहे पन्नते, तं जहा (१) अहेलोय खेत्तलोए, (२) तिरियलोय खेत्तलोए, (३) उड्ढलोय खेत्तलोए।' -भग० स० ११, उ० १०, सु० ३ । क्षेत्रलोक के भेद और क्रम६८ : प्र. भगवन् ! क्षेत्रलोक कितने प्रकार का कहागया है ? उ. गौतम ! तीन प्रकार का कहागया है, यथा(१) अधोलोक-क्षेत्रलोक । (२) तिर्यक्लोक-क्षेत्रलोक । (३) उर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक । १. तुलना-तिविहे लोगे पण्णत्ते, तं जहा-१. उद्धलोगे, २. अहोलोगे, ३. तिरियलोगे। -ठाणं ३, उ० २, सु० १५३ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ M लोक- प्रज्ञप्ति ६६ प से कि तं पुण्यापुण्यो ? उ० बागी (१) महोलोए (२) तिरिए (३) उड्ढलोए । से तं पुव्वाणुपुथ्वी । । प से हितं पच्छा पुथ्वी ? उ० पाणी (१) लोए (२) तिरियलोए (३) अहोलोए से तं पच्छायो । प से कि गावी ? उ० अणावी एए चैव एवादियाए एगुलरियाए तिगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नभासो दुरूवूणो । - सेतं अणावी । अहोलोगो अहेलोयस्स नेया: कमो य ७० : प० अहेलोय खेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पनते ? अधोलोक - अणु० सु० १६१, १६२, १६३ । उ० गोमा ! तब पत्ते तं जहा रयणप्पा पुढवि अहे लोयखेत्तलोए जाव अहे सत्तमपुढवि अलोएलोए। - भग० स० ११, उ० १०, सु० ४ । ७१ असोपतापुथ्वी तिविहा पण्णत्ता तं जहा (१) पुब्वाणुपुथ्वी, (२) पच्छाणुपुत्री, (३) अणाणुपुव्वो । प से का? www उ० पुग्वाणुपुब्बी - (१) रयणप्पभा, (२) सक्करपभा, (३) वालुयप्पभा, (४) पंकप्पभा, (५) धूमप्पभा, (६) तमप्पभा, (७) तमतमप्पभा । से तं पुव्वाणुपुग्वी । ६६ : प्र० पूर्वानुपूर्वी किस प्रकार है ? उ० पूर्वानुपूर्वी इस प्रकार है | (१) (२) तिर्यकुलोक। (३) उय पूर्वानुपूर्वी है। प्र० पश्चानुपूर्वी किसप्रकार है ? उo पश्चानुपूर्वी इस प्रकार है(१) उर्ध्वलोक । (२) तिर्यकुलोक (३) अधोलोक यह पश्चानुपूर्वी है। सूत्र ६६-७१ प्रo अनानुपूर्वी किस प्रकार है ? 1 उ० अनानुपूर्वी इस प्रकार है - जिसका प्रथम क्रम एकादि हो अर्थात् आदि में एक हो। जिसका द्वितीय तृतीय और चतुर्थ क्रम एकोत्तरिक हो । अर्थात् एक उत्तरिक- एक के बाद आने वाले दो और तीन हों । इन तीन गच्छों (समूहों की श्र ेणियों में अन्योन्य एक दूसरे का अभ्यास (गुणन) हो तथा द्विरूप (पूर्वानुपूर्वी और पहचानुपूर्वी) न्यूनरहित हो ।' यह अनानुपूर्वी है । अधोलोक अधालोक के भेद और क्रम ७० प्र० भगवन् ! अधोलोक क्षेत्रलोक कितने प्रकार का कहा गया है ? उ० गौतम ! सात प्रकार का कहा गया है यथा;रत्नप्रभा पृथ्वी अधोलोक क्षेत्रलोक यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी अधोलोक क्षेत्रलोक है..... ७१ : अधोलोक क्षेत्रानुपूर्वी तीन प्रकार की कही गई है, यथा(१) पूर्वानुपूर्वी, (२) पश्चानुपूर्वी, (३) अनानुपूर्वी । प्र० पूर्वानुपूर्वी ( का स्वरूप) क्या है ? उo पूर्वानुपूर्वी ( का स्वरूप इस प्रकार ) है - ( १ ) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) बालुका प्रभा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रभा, (६) तमः प्रभा, (७) तमस्तम प्रभा । यह पूर्वानुपूर्वी है । १. अनानुपूर्वी की चार श्रेणियाँ इस प्रकार हैं-- १.३.२. । यह एकादि श्रेणी है अर्थात् इसके आदि में एक है । २.१.३. । ३.१.२. । २.३.१. । ये तीन एकोत्तरिक श्रेणियाँ हैं—इन तीनों का परस्पर गुणन पुर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी से रहित हो - यह अनानुपूर्वी है । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७१-७५ अधोलोक गणितानुयोग ३५ प० से कि तं पच्छाणुपुटवी ? उ० पच्छाणुपुब्धी-(७) तमतमा जाव १. रयणप्पभा। से तं पच्छाणुपुवी। प० से कि तं अणाणपुव्वो? उ० अणाणुपुवी--- एयाए चेव एगादियाए एगत्तरियाए सत्तगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णमासो दुरूवूणो। से तं अणाणपुवी। -- अणु० सु० १६४-१६७ । प्र० पश्चानुपूर्वी (का स्वरूप) क्या है ? उ० पश्चानुपूर्वी (का स्वरूप इस प्रकार) है७ तमस्तमा यावत् १ रत्नप्रभा । यह पश्चानुपूर्वी है। प्र० अनानुपूर्वी (का स्वरूप) क्या है ? उ. अनानुपूर्वी (का स्वरूप इस प्रकार) है-इनके (कुछ क्रम) एकादि हों -अर्थात् जिनके आदि में एक हों। और अन्य क्रम एकोत्तरिक हों-अर्थात् दो से लेकर सात पर्यंत हों। इन सात समूहों की श्रेणियों में अन्योन्य (परसर) एक दूसरे का अभ्यास (गुणन) हों तथा द्विरूप (पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी) न्यून (रहित) हों। यह अनानुपूर्वी है। अधोलोक का संस्थान७२: प्र० भगवन् ! अधोलोक क्षेत्रलोक किसप्रकार स्थित कहा गया है? उ० गौतम ! तप्रा-(उलटी नौका) के आकार से स्थित कहा गया है.... अहोलोगसंठाणं७२ : प० अहे लोगखेत्तलोए णं भंते ! कि संठिते पण्णते ? उ० गोयमा ! तप्पागारसंठिए पन्नत्ते । -भग० स० ११, उ० १०, सु०७। अहोलोगस्स आयाममज्झे अधोलोक का आयाम-मध्य७३ : प० कहिणं भंते ! अहे लोगस्स आयाममज्झे पण्णते? ७३ : प्र० भगवन् ! अधोलोक का आयाम-मध्य कहाँ कहा गया है ? उ० गोयमा ! च उत्थीए पंकप्पभाए उवासंतरस्स सातिरेग उ० गौतम ! चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के अवकाशांतर का आधे अद्धं ओगाहित्ता-एत्थ णं अहे लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते। से कुछ अधिक भाग अवगाहन करने पर अधोलोक का आयाम-मध्य -भग० स० १३, उ० ४, सु० १३। कहा गया है....। अहोलोए अंधयार करा७४ : अहोलोगे णं चत्तारि अंधयारं करेंति, तं जहा (१) णरगा, (२) पर इया, (३) पावाई कम्माइ', (४) असुभा पोग्गला। -ठाणं० ४, उ० ३, सु० ३३६ । अधोलोक में अन्धकार करने वाले७४ : अधोलोक में चार अन्धकार करते हैं, यथा (१) नरक, (२) नैरयिक, (३) पापकर्म, (४) अशुभपुद्गल ।.... पुढवीणं णामगोत्ताई पृथ्वियों के नाम-गोत्र७५ : एयासि णं सत्तण्हं पुढवीणं सत्त नामधेज्जा पण्णता, तं जहा- ७५ : इन सात पृथ्वियों के सात नाम कहे गये हैं, यथा(१) धम्मा , (२) वंसा, (१) धर्मा, (२) वंसा, (३) सेला, (४) अंजणा, (३) शैला, (४) अंजना, (५) रिट्ठा, (६) मघा, (५) रिष्ठा, (६) मघा, (७) माघबई। (७) माघवती। १. ठाणं ३, उ० १, सु० १३४ । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र ७५-७६ एयासि णं सत्तण्हं पुढवी णं सत्तगोत्ता पण्णत्ता, तं जहा(१) रयणप्पभा, (२) सक्करप्पमा, (३) वालुअप्पमा, (४) पंकप्पमा, (५) धूमप्पभा, (६) तमा, (७) तमतमाप्पभा, (तमतमा)। -ठाणं०७, सु० ५४६ । इन सात पृथ्वियों के सात गोत्र कहे गये हैं, यथा(१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) बालुकाप्रभा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रभा, (६) तमा, (७) तमस्तमप्रभा (तमतमा).... पुढवीणं पइट्ठा७६ : अहेलोए णं सत्तपुढवीओ पण्णत्ताओ। सत्त घणोदहीओ पण्णत्तओ। सत्त घणवाता पण्णत्ता। सत्त तणुवाता पण्णत्ता। सत्त उवासंतरा पण्णत्ता। एएसु णं सत्तसु उवासंतरेसु सत्त तणुवाया पइट्ठिया । एएसु णं सत्तसु तणुवाएसु सत्तघणवाया पइट्ठिया। एएसु णं सत्तसु घणवाएसु सत्तधणोदही पइट्ठिया। पृथ्वियों का आधार७६ : अधोलोक में सात पृथ्वियाँ कहीगई हैं। सात घनोदधियाँ कही गई हैं, सात घनवात कहे गये हैं, सात तनुवात कहे गये हैं, सात अवकाशांतर कहे गये हैं। इन सात अवकाशांतरों में सात तनुवात प्रतिष्ठित हैं, इन सात तनुवातों पर सात घनवात प्रतिष्ठित हैं, इन सात घनवातों पर सात घनोदधियाँ प्रतिष्ठित हैं, १. तुलना-(क) प० (१-२) पढमा णं भंते ! पुढवी किं नामा ? (२) किं गोत्ता पण्णता ? उ० (१) गोयमा ! णामेणं घम्मा, (२) गोत्तेणं रयणप्पभा। १० (१) दोच्चा णं भंते ! पुढवी कि नामा? (२) किं गोत्ता पण्णत्ता? उ० (१) गोयमा ! णामेणं वंसा, (२) गोत्तेणं सक्करप्पभा । एवं एएणं अभिलावेणं सव्वासि पुच्छा। णामाणि इमाणि-सेला तईया, अंजणा चउत्थी, रिट्ठा पंचमी, मघा छट्ठी, माधवई सत्तमा जाव तमतमा गोत्तणं पण्णत्ता। -जीवा० पडि० ३, उ०२, सु०६७ । (ख) ""रायगिहे जाव एवं वयासी"प० कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? उ० गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा–पढमा, दोच्चा जाव सत्तमा। ५० (१) पढमा णं भंते ! पुढवी किं नामा? (२) किं गोत्ता पण्णत्ता? उ० (१) गोयमा ! घम्मा णामेणं, (२) रयणप्पभा गोत्तेणं । एवं जहा जीवाभिगमे पढमे नेरइयउद्देसो निरवसेसो भाणियब्वो जाव अप्पाबहगंति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति बेमि।" -भग० स०१२, उ०३, सु०१-२-३ । (ग) केचित्पुस्तकेषु संग्रहणिगाथेगाहाओ-धम्मा, वंसा, सेला, अंजण, रिट्ठा, मघा, य माधवती। सत्तण्डं पुढवीणं, एए नामा उ णायव्वा ॥ रयणा, सक्कर, वालुय, पंका, धूमा, तमा य तमतमा य । सत्तण्हं पुढवीणं, एए गोत्ता मुणेयव्वा ॥ -जीवा० पडि० ३, उ०१, सु० ६७ टीका । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरती ओट का कारण और पाताल कलश NEVO ANITTEEYARमरन EVICHI SSES J IMAINAL - एक लाख योजना RIPANANDH BiheARCH RINAME Tiinst पाताल कलश सम्बन्धी विशेष वर्णन के लिए देखें सूत्र ६४० से ६४५ तक पृष्ठ ३४२-३४३ S : रत्नप्रभा भाग जलवायु भागवायु तल विस्तार 1/१० हजार यो. बनातिकत्र आकार में सातजारकी का चित्र ----समभूतला पृथ्वी रत्नप्रभा नायक प्रतर-५ १८००००यो. --लोकमध्य 'शर्कराप्रभा ना. १३३०००टी. प्रत्तर-१९ ५लाखन. प्रतर-१ बानुकाप्रमा १२८००० यो. toलासन. -पंप्रभा मा. १२००००यो. अधोलोक मध्य धमप्रभाना. 116000ो . हास्वन. प्रतय-५ तमः प्रभात १६00ो . प्रतर-३ समसमप्रमा 00000ो . प्रतर-17 विशेष वर्णन देखें-सूत्र ७७, ७८ पृष्ठ ३७ तथा उससे आगे के सूत्र । Page #189 --------------------------------------------------------------------------  Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७६.७८ एएमु णं सत्तसु धनोदही पिडलगपणठाण संठियाओ सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- पढमा जाव सत्तमा - ठाणं ० ० ७ सु० ५४६ । ७७ : तिपट्टिया णरगा पण्णत्ता, तं जहा (१) पुढविपट्टिया (३) आयपट्टिया । गम-संहाराणं पुढविपट्टिया । उस आगासपट्टिया सिन्हं सहनवाणं आवपट्टिया (२) बागासपट्टिया - ठाणं० अधोलोक ०३, उ० ३, सु० १८६ । पुढवीण पमाण ७८ ० इमाणं भंते रमणभावी केवतिया बाहल्लेणं पण्णत्ता ? उ० गोपमा ! इमाणं रणध्यभापुढची अति उत्तरं जोयणसय सहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता । एवं एएणं अभिलावेणं इमा गाहा अणुगंतव्यागाहा-आसोत बत्तीसं-, अट्ठावीस तहेव वीस च । अट्ठारस सोलसगं-, अट्ठत्तरमेव हिमिया ॥ - जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ६८ । गणितानुयोग ३७ इन सात घनोदधियों पर फूलों की चंगेरियों के समान विस्तृत संस्थान से संस्थित सात पूचियां कही गई हैं, यथा-पहली यावत सातवीं..... ७७: नरक त्रिप्रतिष्ठित-तीन पदार्थों पर आश्रित कहा है, यथा--- (२) आकाश प्रतिष्ठित, (१) पृथ्वी - प्रतिष्ठित, (३) आत्म-प्रतिष्ठित । (१) नंगम-संग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षा पृथ्वी पर आश्रित है। (२) ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा आकाश पर आश्रित हैं । (३) और तीन शब्द नयों (शब्द, समभिरूढ़ एवंभूत) की अपेक्षा आत्म-प्रतिष्ठित अर्थात् स्वाश्रित हैं ।.... पृथ्वियों का प्रमाण ७८ : प्र० भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कितनी मोटी कही गई है ? उ० गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी कही गई है । इस प्रकार ऐसे प्रश्नोत्तरों से इस गाथा की व्याख्या करनी चाहिए । गाथार्थ - (१) रत्नप्रभा १,८००० योजन मोटी है, (२) शर्कराप्रभा १,३२,००० योजन मोटी है, (३) बालुकाप्रभा १,२६,००० योजन मोटी है, (४) पंकप्रभा १,२०,००० योजन मोटी है, (५) धूमप्रभा १,१८,००० योजन मोटी है, (६) तमप्रभा १,१६,००० योजन मोटी है, (७) तमस्तमप्रभा १,०८,००० योजन मोटी है । १. इस सूत्र के टीकाकार श्री अभयदेवसूरी के सामने स्थानांग की जितनी प्रतियाँ थी उनमें सात पृथ्वियों के संस्थान तीन प्रकार के पाठों में मिले हैं- ऐसा वे स्वयं लिखते हैं .... "छत्तातिछत्तसंठाण संठिया"- . टीका... तथा छत्रमतिक्रम्य छत्रं छत्रातिच्छत्रं तस्य संस्थानं - आकारोऽधस्तनं छत्रं मह दुपरितनं चिति न संस्थिताः छत्रातिच्छत्रसंस्थानसंस्थिताः। इदमुक्त' भवति सप्तमी सप्तरविस्तृत यादयकेकर होना इति । क्वचित्पाठ: पिलग लिग असंठिया "तत्र पल-पल पुष्पभाजनं तद्वत्ससंस्थानसंस्थिता इति पटलक-पृयुलसंस्थानसंस्थिताः । "पृथुल - पृथुल संस्थान संस्थिता" इति क्वचित्पाठः स च व्यक्त एव । - ठाणं० सु० १४६ टीका । २. इन दोनों सूत्रों में सात पृथ्वियों के आधार भिन्न-भिन्न प्रकार से कहे गये हैं—दोनों सूप स्थानांग के हैं किन्तु प्रतिपादन शैली की कितनी भिन्नता है। प्रथम सूत्र में घनोदधी, घनवात, तनुवात आदि आधार कहे गये हैं और द्वितीय सूत्र में इनके नाम भी नहीं है । नय सापेक्ष कथन होने से अभिन्नता है - ऐसा समझना चाहिए । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र ७६-८२ ७६:५० इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी केवतियं आयाम- ७६ :प्र. हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कितनी लम्बी-चौड़ी विक्खं भेणं ? केवतियं परिक्खेवेणं पण्णता? है ? और उसकी परिधि कितनी कही गई है? उ० गोयमा ! असखेज्जाइं जोयणसहस्साई आयाम- उ. हे गौतम ! असंख्य हजार योजन की लम्बी-चौड़ी है विक्खंभेणं, असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं और असंख्य योजन की परिधि कही गई है। पण्णत्ता। . एवं जाव अहेसत्तमा। इसीप्रकार यावत् नीचे सप्तम पथ्वी पर्यन्त है। -जीवा० पडि० ३, उ०१, सु० ७६ । ८०: प० इमाणं भंते ! रयणप्पा पुढवी अंते य, मज्झे य, ८०: प्र. हे भगवन् ! क्या यह रत्नप्रभा पृथ्वी अन्त में, मध्य सव्वत्थ समा बाहल्लेणं पण्णत्ता? में, और सर्वत्र समान बाहल्य (मोटाई) वाली कही गई है ? उ० हंता, गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी अंते य, उ० हाँ गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी अन्त में, मध्य में और मज्झे य, सव्वत्थ समा बाहल्लेणं पण्णत्ता। सर्वत्र समान बाहल्यवाली कही गई है। एवं जाव अहेसत्तमा। इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तम पथ्वी पर्यन्त है। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु०७६ । ८१: प० इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी दोच्चं पुढवि पणिहाय ८१ :प्र. हे भगवन् ! क्या यह रत्नप्रभा पृथ्वी द्वितीय (शर्करा सब्वमहं तिया बाहल्लेणं ? सव्वखुडिडया सव्वंतेसु ? प्रभा) पृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में सबसे बड़ी है ? तथा चारों दिशाओं में सबसे छोटी है ? उ० हंता गोयमा ! इमा णं रयणप्पभापुढवी दोच्चं पुढवि उ. हाँ गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी द्वितीय पृथ्वी की अपेक्षा पणिहाय सव्वमहंतिया बाहल्लेणं, सव्वखुड्डिया मोटाई में सबसे बड़ी है और चारों दिशाओं में सबसे छोटी है। सव्वतेसु। प० दोच्चा णं भंते ! पुढवी तच्चं पुढवि पणिहाय सब- प्र० हे भगवन् ! क्या द्वितीय पृथ्वी तृतीय पृथ्वी की अपेक्षा महंतिया बाहल्लेणं? सव्वखुड्डिया सव्वतेसु? मोटाई में सबसे बड़ी है तथा चारों दिशाओं में सबसे छोटी है ? उ० हंता गोयमा ! दोच्चाणं पुढवी तच्चं पुढवि पणिहाय उ० हाँ गौतम ! द्वितीय पृथ्वी तृतीय पृथ्वी की अपेक्षा सव्वमहंतिया बाहल्लेणं, सव्वखुड्डिया सव्वतेसु। मोटाई में सबसे बड़ी है तथा चारों दिशाओं में सबसे छोटी है। एवं एएणं अभिलावेणं जाव छद्विता पुढवी अहेसत्तमं इसीप्रकार प्रश्नोत्तरों में यावत् छठी पृथ्वी नीचे पुढवि पणिहाय सव्वमहंतिया बाहल्लेणं, सव्वखुड्डिया सप्तम पृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में सबसे बड़ी है और सव्वंतेसु। चारों दिशाओं में सबसे छोटी है। --जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० ६२ । ८२:५० [१] इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी दोच्चं पुढवि ८२: प्र० [१] हे भगवन् । यह रत्नप्रभापृथ्वी द्वितीय (शर्करा पणिहाय बाहल्लेणं कि तुल्ला? विसेसाहिया ? प्रभा) पृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में क्या तुल्य है ? विशेषाधिक संखेज्जगुणा? है ? या संख्यातगुण है ? [२] वित्थरेणं कि तुल्ला? विसेसहीणा ? संखेज्जगुण- [२] विस्तार से क्या तुल्य है ? विशेष-हीन है ? या संख्यात गुणहीन है ? होणा? १. भग० स १३, उ० ४, सु० १० । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८२-८४ अधोलोक गणितानुयोग ३६ उ० [१] गोयमा ! इमा णं रयणप्पभापुढवी दोच्चं पुढवि उ. [१] हे गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी द्वितीय पृथ्वी की पणिहाय बाहल्लेणं नो तुल्ला, विसेसाहिया, नो अपेक्षा मोटाई में तुल्य नहीं है विशेषाधिक है, संख्येयगुण नहीं है। संखेज्जगुणा। [२] वित्थरेणं नो तुल्ला, विसेसहीणा, नो संखेज्जगुण- [२] विस्तार से भी तुल्य नहीं है, विशेषहीन है, संख्येयगुणहोणा। हीन नहीं है। प० [१] दोच्चाणं भंते ! पुढवी तच्चं पुढवि पणिहाय प्र० [१हे भगवन् ! द्वितीय पृथ्वी तृतीय पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्लेणं किं तुल्ला ? विसेसाहिया ? संखेज्ज- मोटाई में क्या तुल्य है ? विशेषाधिक है ? या संख्यातगुण है ? गुणा? [२] वित्थरेणं कि तुल्ला? विसेसहीणा ? संखेज्जगुण- [२] विस्तार से क्या तुल्य है ? विशेषहीन है ? या संख्येयहोणा? गुण-हीन है ? उ० [१] [२] गोयमा! एवं चेव । एवं तच्चा , उ० [१] [२) हे गौतम ! इसीप्रकार है। इसीप्रकार चउत्थी, पंचमी, छट्ठी। तीसरी, चौथी, पाँचवीं और छठी पृथ्वी है। प० [१] छट्ठी णं भंते? पुढवी सत्तमं पुढवि पणिहाय प्र[हे भगवन् ! छठी पृथ्वी सातवीं पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्लेणं कि तुल्ला ? विसेसाहिया ? संखेज्ज- मोटाई में क्या तुल्य है ? विशेषाधिक है ? संख्येयगुण है ? गुणा। [२] वित्थरेणं किं तुला? विसेसहीणा ? संखेज्जगुण [२] विस्तार से क्या तुल्य है ? विशेषहीन है ? या संख्येयहोणा? गुण-हीन है ? उ० [१] गोयमा ! इमा णं छट्ठी पुढवी सत्तमं पुढवि० [ हे गौतम ! यह छठी पृथ्वी सातवीं पृथ्वी की पणिहाय बाहल्लेणं नो तुल्ला, विसेसाहिया नो, अपेक्षा मोटाई में तुल्य नहीं है, विशेषाधिक है, संख्येयगुण नहीं है। संखेज्जगुणा। [२] वित्थरेणं नो तुल्ला, विसेसहीणा, नो संखेज्जगुण- [२] विस्तार से भी तुल्य नहीं है, विशेषहीन है, संख्येयगुण होणा। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ८०। हीन नहीं है। पुढवीणं संठाणं--- पृथ्वियों के संस्थान८३ : प० इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी कि संठिया पण्णत्ता? ८३ : प्र. हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी किस संस्थानवाली कही गई है? उ० गोयमा ! झल्लरिसंठिया पण्णत्ता। उ. हे गौतम ! झालर के संस्थानवाली कही गई है। प० सक्करप्पभा णं भंते ! पुढवी कि संठिया पण्णता? प्र. हे भगवन् ! (यह) शर्कराप्रभापृथ्वी किस संस्थानवाली कही गई है? उ० गोयमा ! झल्लरिसंठिया पण्णत्ता। उ. हे गौतम ! झालर के संस्थानवाली कही गई है। जहा सक्करप्पभाए वत्तव्वया एवं जाव असत्त- जिस प्रकार शर्कराप्रभा का (संस्थान) है इसी प्रकार माए वि। यावत् नीचे सातवीं का भी है। ---जीवा० पडि०३, उ०१, सु०७४ । पुढवीणं सासयासासयत्तं . पथ्वियाँ शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है८४ : प० इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी किं सासया असासया? ८४:प्र. हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी (क्या) शाश्वत है ? या अशाश्वत है ? उ० गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया । उ० हे गौतम ! कथंचित् शाश्वत है; कथंचित् अशाश्वत है। प० से केण? णं भंते ! एवं वुच्चइ–'सिय सासया, सिय प्र. हे भगवन् ! "कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् असासया ? अशाश्वत हैं" ऐसा क्यों कहा जाता है ? Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र ८४-८६ उ० गोयमा ! दध्वट्ठयाए सासया । वष्ण-पज्जवेहि, गंध पज्जवेहि, रस-पज्जवेहि, फास पज्जवेहि असासया। से तेण?णं गोयमा ! एवं वृच्चइ-सिय सासया, सिय असासया। एवं जाव अहेसत्तमा। -जीवा० पडि० ३, उ०१, सु० ७८ । उ. हे गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से (रत्नप्रभा) शाश्वत है। वर्ण-पर्याय, गन्ध-पर्याय, रस-पर्याय और स्पर्श-पर्यायों की अपेक्षा से अशाश्वत है। हे गौतम ! इसलिए कहा जाता है कि (रत्नप्रभापृथ्वी) कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है । इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। होइ? ८५: प० इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी कालतो केवच्चिरं । ८५ :प्र. हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी काल की अपेक्षा से कितने समय पर्यन्त रहने वाली है ? उ० गोयमा ! न कयाइ ण आसि, ण कयाइ णत्थि, ण उ० हे गौतम ! यह (रत्नप्रभापृथ्वी) कभी नहीं थी कयाइ ण भविस्सइ । भुवि च, भवइ य, भविस्सति ऐसा नहीं है। कभी नहीं है-ऐसा भी नहीं है। कभी नहीं य। धुवा, णियया सासया अक्खया अव्वया अवट्ठिया होगी-ऐसा भी नहीं है । यह थी, है और रहेगी। यह ध्रव है, णिच्चा। नियत है, शास्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। एवं जाव अहेसत्तमा। इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तमपृथ्वी पर्यन्त है। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७८ । फुसति ? रयणप्पभाईणं धम्मत्थिकायाइणा फुसणा रत्नप्रभादि का धर्मास्तिकायादि से स्पर्श८६:५० इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी धम्मत्थिकायस्स किं ८६ :प्र. हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या धर्मास्तिकाय के संखेज्जइभागं फुसति? असंखेज्जइभागं फुसति ? संख्येयभाग को स्पर्श करती है ? असंख्येयभाग को स्पर्श करती संखेज्जे भागे फुसति ? असंखेज्जे भागे फुसति ? सव्वं है ? संख्येयभागों को स्पर्श करती है ? असंख्येयभागों को स्पर्श करती है ? सम्पूर्ण (धर्मास्तिकाय का) स्पर्श करती है ? उ० गोयमा ! णो संखेज्जइभागं फुसति, असंखेज्जइमागं उ. हे गौतम ! यह (रत्नप्रभापृथ्वी धर्मास्तिकाय के) फुसति, णो संखेज्जे भागे फुसति, णो असंखेज्जे भागे संख्येयभाग को स्पर्श नहीं करती है किन्तु असंख्येयभाग को फुसति, नो सव्वं फुसति । स्पर्श करती है । संख्येयभागों को असंख्येयभागों को और सम्पूर्ण (धर्मास्तिकाय) का स्पर्श नहीं करती है। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही धम्म- प्र. हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी की घनोदधि धर्मास्तित्थिकायस्स कि संखेज्जइ भागं फुसति ? जाव सव्वं काय के संख्येयभाग को स्पर्श करती है ? यावत् सम्पूर्ण (धर्मा स्तिकाय) को स्पर्श करती है ? उ० जहा रयणप्पभा तहा घणोदहि-घणवात-तणवाया उ० जिसप्रकार रत्नप्रभा के सम्बन्ध में कहा है उसी वि। प्रकार घनोदधि, घनवात और तनुवात के सम्बन्ध में भी (कहना चाहिए)। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए ओवासंतरे धम्म- प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अवकाशान्तर क्या थिकायस्स कि संखेज्जइभागं फुसइ? किं असंखेज्जइ धर्मास्तिकाय के संख्येयभाग को स्पर्श करता है ? असंख्येयभाग भागं फुसइ? जाव सत्वं फुसइ? को स्पर्श करता है। यावत् सम्पूर्ण (धर्मास्तिकाय) का स्पर्श करता है ? उ० गोयमा? संखेज्जइभाग फुसइ, णो असंखेज्जइभागं उ. हे गौतम ! संख्येयभाग का स्पर्श करता है किन्तु फुसइ, नो सखेज्जे भागे फुसइ, नो असंखेज्जे भागे असंख्येयभाग को, संख्येयभागों को असंख्येयभागों को और सम्पूर्ण फुसइ, नो सव्वं फुसइ। (धर्मास्तिकाय) का स्पर्श नहीं करता है। फुसति ? Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८६-८८ अधोलोक गणितानुयोग ४१ ओवासंतराइं सव्वाइं जहा रयणप्पभाए। जहा रयणप्पभाए पुढवीए वत्तव्वया भणिया एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं अधम्मत्थिकाए। सभी पथ्वियों के अवकाशान्तर रत्नप्रभा के अवकाशान्तर के समान हैं। जिसप्रकार रत्नप्रभा पृथ्वी का (स्पर्श-सम्बन्धी) कथन, है इसी प्रकार यावत् सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। इसीप्रकार अधर्मास्तिकाय का (स्पर्शसम्बन्धी) कथन है। इसीप्रकार लोकाकाश का (स्पर्शसम्बन्धी) कथन भी है। एवं लोयागासेऽवि। -भग० स० २, उ० १०, सु० १७-२०/२२ । पुढवी ण दव्वसरूवं पृथ्वियों का द्रव्य स्वरूप८७ : प. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए असी उत्तर ८७ : प्र. हे भगवन् ! क्या (बुद्धिकृत) क्षेत्र-छेद से छिद्यमान जोयणसयसहस्स बाहल्लाए खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणीए एक लाख अस्सी हजार योजन बाहल्यवाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी अत्थि दवाई वण्णतो काल-नील-लोहित-हालिद्द- में वर्ण से कृष्ण, नील, लोहित, पीत और शुक्लवर्ण वाले; गन्ध सुक्किल्लाई, गंधतो सुरभिगंधाई दुरभिगंधाई, रसतो से-सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध वाले; रस से-तिक्त, कटु, कषाय, तित्त-कडुय-कसाय-अंबिल-महुराई, फासतो कक्खड- अम्ल और मधुररस वाले; स्पर्श से-कर्कर, मृदु, गुरु, लघु, मउय-गरुय-लहु-सीत-उसिण-णिद्ध-लुक्खाई, संठाणतो शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले; संठाण से–परिमण्डल, परिमंडल - वट्ट-तंस - चउरंस-आयय - संठाणपरिणयाइं वृत्त, यस्र चतुरस्र और आयतसंस्थान वाले अन्योऽन्य-बद्ध, अण्णमण्णबद्धाई अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णओगाढाई अन्योऽन्य-स्पृष्ट, अन्योऽन्य-अवगाढ़ (स्निग्धता के कारण) अन्योऽन्य अण्णमण्णसिणेहपडिबधाई अण्णमण्णघडताए चिट्ठति? प्रतिबद्ध और अन्योऽन्य-अथित द्रव्य हैं ? उ० हंता ! अस्थि । उ हाँ ! हैं। प० सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए बत्तीसुत्तर जोयण- प्र. हे भगवन् ! क्या (बुद्धिकृत) क्षेत्र-छेद से छिद्यमान एक सतसहस्स बाहल्लाए खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणीए अत्थि लाख बत्तीस हजार योजन बाहल्यवाली शर्कराप्रभा पृथ्वी में दव्वाइं वण्णतो जाव अण्णमण्णघडताए चिट्ठति ? वर्ण वाले यावत् अन्योऽन्यग्रथित द्रव्य हैं ? उ० हंता ! अत्थि । उ० हाँ ! हैं। जहा सक्करप्पभाए एवं जाव अहेसत्तमाए। जिसप्रकार शर्कराप्रभा है इसीप्रकार यावत् नीचे - जीवा० पडि० ३: उ० १, सु० ७३ । सप्तम पथ्वी पर्यन्त है। पुढवि अहोभागट्ठियदव्वसरूवं पृथ्वियों के अधःस्थित द्रव्यों का स्वरूप८८: प० बत्थि ण भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे- ८८ : प्र. भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे जो द्रव्य हैं वे वर्ण दव्वाइं वण्णओ काल-नील-लोहिय-हालिद्द-सुक्किलाई, से-कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल हैं ? गन्ध से-सुगन्धित गंधओ सुब्भिगंध-दुन्मिगंधाइं, रसओ तित्त कडु-कसाय- और दुर्गन्धित हैं ? रस से- तीखा, कडुवा, कषैला, आम्ल और अंबिल-महुराई, फासओ कक्खड-मउय-गरुय-लहय- मधुर हैं ? और स्पर्श से-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, सीय-उसुण-निद्ध-लुक्खाइं अन्नमन्नबद्धाइं अन्नमनपुट्राई स्निग्ध तथा रुक्ष हैं ? अन्योऽन्यबद्ध हैं? अन्योऽन्यस्पृष्ट हैं जाव अन्नमन्नघडताए चिट्ठति ? यावत् अन्योऽन्य मिले हुए हैं ? उ० हता! अस्थि । उ० गौतम ! हाँ हैं। एवं जाव अहेसत्तमाए। इसीप्रकार यावत् सातवीं के नीचे तक हैं। -भग० स० १८, उ० १० सु०६-१० । M Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र ८६-६३ पुढवीणं परोप्परं अबाहा अंतरं पृथ्वियों का परस्पर अबाधा अन्तर८९ : प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सक्करप्पभाए ८९ :प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी य पुढवीए केवतियं अबहाए अंतरे पन्नत्ते ? का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? उ. गोयमा! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं अबाहाए उ. हे गौतम ! असंख्य हजार योजन का अबाधा अन्तर अंतरे पन्नत्ते। ___ कहा गया है। प० सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवोए वालुयप्पभाए य प्र० हे भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी और बालुकाप्रभापृथ्वी पुढवीए केवतियं अवाहाए अंतरे पन्नत्ते? का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? उ. गोयमा! एवं चेव। उ० हे गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) है। एवं जाव तमाए अहेसत्तमाए य । इसी प्रकार यावत् सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। -भग० स० १४; उ०८, सु० १-३ । सत्तमनरयपुढवीए अलोगस्स य अबाहा अंतरं- सप्तम नरक और अलोक का अबाधा अन्तर९० : प० अहेसत्तमाए णं मंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतियं १०:प्र० हे भगवन् ! नीचे सप्तम पृथ्वी और अलोक का अबाधा अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ? अन्तर कितना कहा गया है ? उ. गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अबाहाए उ. हे गौतम ! असंख्य हजार योजन का अबाधा अन्तर अंतरे पन्नत्ते? कहा गया है। -भग० स० १४, उ०८, सु०४। रयणप्पभा नरयस्स जोइसस्स अबाहा य अंतरं रत्नप्रभा नरक और ज्योतिषी देवों का अबाधा अन्तर६१: प० इमीसे गं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जोतिसस्स य ११:प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के और ज्योतिषी केवतियं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते? देवों के कितना अबाधा अन्तर कहा गया है ? उ० गोयमा! सत्तनउए जोयणसए अबाहाए अंतरेउ. हे गौतम ! सातसौनिव्वे योजन का अबाधा अन्तर पन्नत्ते। कहा गया है। -भग० स० १४, उ०८, सु०५। पुढवीणं अहे गेहाईणं अभावो पृथ्वियों के नीचे गृहादि का अभाव९२: प० अत्थि णं मंते ! इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए अहे गेहा ६२:प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या गृह ति वा गेहावणा ति वा? (घर) या गृहापण (घर के साथ दुकाने) हैं ? उ० गोयमा ! नो इण8 सम8। उ० हे गौतम ! ऐसा नहीं है। प० अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे प. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या ग्राम गामा ति वा जाव सन्निवेसा ति वा? यावत् सन्निवेश हैं ? उ० नो इण8 सम?। उ. हे गौतम ! ऐसा नहीं है । . -भग० स० ६, उ०८, सु०२, ३ । पुढवीणं अहे उराला बलाहयाईणं देवाई कडत्तं- पृथ्वियों के नीचे देवादि-कृत स्थूल मेघादि हैं६३ : प. अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे ६३ : प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या स्थूल उराला बलाहया संसेयंति, संमुच्छंति वासं वासंति? (विशाल) बादल बनते हैं, बिखरते हैं, या वर्षा बरसाते हैं ? उ० हंता ! अस्थि । उ० हाँ गौतम ! (बादल बनते हैं यावत् वर्षा बरसाते) तिण्णि वि परिति-१. देवो वि पकरेति, २. असुरो वि है। यह कार्य देव, असुर और और नाग–ये तीनों करते हैं ? पकरेति, ३. नागो वि पकरेति । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६३-६६ अधोलोक गणितानुयोग ४३ प० अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे बादरे थणियसद्दे ? उ० हंता ! अस्थि । तिण्णि वि पकरेति । प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या मेघ गर्जना होती है ? उ० हाँ ! होती है । (यह मेघ-गर्जना देव, असुर और नाग) ये तीनों करते हैं। --भग० स० ६, उ० ८, सु० ४-७ । पुढवोण अहे बादरअगणिकायस्स अभावो पृथ्वियों के नीचे स्थूल अग्निकाय का अभाव९४ : प० अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे १४:प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या स्थूल बादरे अगणिकाए? अग्निकाय है? उ० गोयमा ! नो इण? सम?। उ. हे गौतम ! ऐसा नहीं है। नऽनत्य विग्गहगति समावन्नएणं । यह निषेध विग्रहगति प्राप्त जीवों को छोड़कर शेष जीवों -भग० स०६, उ०८, सु०८। के लिए है। पुढवीणं अहे जोईसीदेवाणं अभावो पृथ्वियों के नीचे ज्योतिषी देवों का अभाव६५ : प० अत्थि णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे ९५:प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे चन्द्र यावत् चंदिम जाव तारारूवा? तारा आदि (ज्योतिषी) देव है ?) उ० गोयमा ! नो इण? सम?। उ० हे गौतम ! ऐसा नहीं है । प० अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे चन्द्र प्रकाश चंदामा ति वा सूरियामा ति वा? या सूर्य प्रकाश है ? उ० गोयमा ! णो इण? सम? । उ. हे गौतम ! ऐसा नहीं है। एवं दोच्चाए वि भाणियव्व। . इसी प्रकार द्वितीय पृथ्वी में भी कहना चाहिए। एव तच्चाए वि भणियव्वं-नवरंः-देवो वि पकरेति. इसी प्रकार तृतीय पृथ्वी में भी कहना चाहिए। असुरो वि पकरेति, णो णागो पकरेति । विशेष-(मेघ-गर्जना एवं बादल-वर्षा) देव करते हैं असुर करते है किन्तु नाग नहीं करते हैं। चउत्थीए वि एवं-नवरं :-देवो एक्को पकरेति, इसी प्रकार चौथी पथ्वी में है-विशेष-(मेघ-गर्जना नो असुरो पकरेति, नो नागो पकरेति । एवं बादल-वर्षा) एक देव करते हैं किन्तु असुर और नाग नहीं करते हैं। एवं हेल्टिलासु सव्वासु देवो एक्को पकरेति । इसी प्रकार नीचे की सब पृथ्विोंयों में (मेघ-गर्जना -भग० स० ६, उ० ८, सु०६-१४। एवं बादल-वर्षा) एक देव करते हैं। रयणप्पभापुढवोए कंडया रत्नप्रभा पृथ्वी के काण्ड६६ : प० इमा ण भंते ! रयणप्पभा पुढवी कतिविधा पण्णत्ता? ९६ :प्र. हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी कितने प्रकार की कही गई है ? उ० गोयमा ! तिविहा पण्णता, तं जहा उ. हे गौतम ! तीन प्रकार की कही गई है, यथा(१) खरकंडे, (२) पंकबहुलकंडे, (३) आवबहुलकंडे। १खरकाण्ड, २ पंकबहुल काण्ड, ३ जलबहुल काण्ड । प० इमोसे णं भंते ! रयणप्पभा पुढवीए खरकंडे कतिविधे प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का खरकाण्ड कितने पण्णते? प्रकार का कहा गया है ? उ० गोयमा ! सोलसविधे पण्णत्ते, तं जहा उ० हे गौतम ! सोलह प्रकार का कहा गया है, यथा(१) रयणकंडे, (२) वइरे, (१) रत्न काण्ड; (२) बज्र काण्ड, anwww Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र ६६-६८ (३) वेरुलिए, (४) लोहितक्खे, (५) मसारगल्ले, (६) हंसगन्भे, (७) पुलए, (८) सोयंधिए, (8) जोतिरसे, (१०) अंजणे, (११) अंजणपुलए, (१२) रयते, (१३) जातरूवे, (१४) अंके, (१५) फलिहे, (१६) रिढ कंडे । प० इमीसे णं मंते ? रयणप्पभा पुढवीए रयणकंडे कति विधे पण्णते? उ. गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते । एवं जाव रिट्रे। (३) वेडूर्यकाण्ड (४) लोहिताक्षकाण्ड, (५) मसारगल्लकाण्ड, (६) हंसगर्भकाण्ड, (७) पुलककाण्ड, (८) सौगंधिककाण्ड (8) ज्योतिरसकाण्ड, (१०) अंजनकाण्ड, (११) अंजनपुलककाण्ड, (१२) रजतकाण्ड, (१३) जातरूपकाण्ड, (१४) अंककाण्ड, (१५) स्फटिककाण्ड, (१६) रिष्टकाण्ड । प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का रत्न काण्ड कितने प्रकार का कहा गया है ? उ० हे गौतम ! एक प्रकार का कहा गया है । इसी प्रकार यावत् रिष्ट (काण्ड पर्यन्त सभी काण्ड एक प्रकार के हैं।) प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का पंकबहुल काण्ड कितने प्रकार का कहा गया है ? उ० हे गौतम ! एक प्रकार का कहा गया है। प्र० इसीप्रकार जल बहुल काण्ड कितने प्रकार का कहा गया है? उ० हे गौतम ! एक प्रकार का कहा गया है। प० इमोसे णं भते ! रयणप्पभापुढवीए पंकबहलेकंडे कतिविधे पण्णत्ते? उ० गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते । प० एवं आवबहुलकंडे कतिविधे पण्णत्ते ? उ० गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते । -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ६६ । सक्करप्पभाईणं छण्हं पुढवीणं एगागारत्तं . शर्कराप्रभा आदि छह पथ्वियों की एकरूपता६७: प० सक्करप्पभा णं भंते ! पुढवी कतिविधा पण्णता? ६७:प्र० हे भगवन् ! शर्करा प्रभा पृथ्वी कितने प्रकार की कही गई है ? उ० गोयमा! एगागारा पण्णत्ता । एवं जाव अहेसत्तमा। उ. हे गौतम ! एक प्रकार की कही गई है। इसीप्रकार यावत् नीचे सप्तमपथ्वीपर्यन्त (सभी पवियाँ एक आकार --जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ६६ । वाली) कही गई है। कंडयाणं बाहल्लंSE: प० इमीसे णं भंते? रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे केवतियं बाहल्लेणं पण्णते? उ० गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते। प. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे केव- तियं बाहल्लेणं पन्नत्ते? उ० गोयमा ! एक्कं जोयणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते । काण्डों का बाहुल्य१८:प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का खरकाण्ड कितने विस्तार वाला कहा गया है ? उ० हे गौतम ! सोलह हजार योजन विस्तारवाला कहा गया है। प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का रत्नकाण्ड कितने विस्तार वाला कहा गया है ? उ.हे गौतम ! एक हजार योजन विस्तार वाला कहा गया है। इस प्रकार रिष्टकाण्ड पर्यन्त (सभी काण्ड एक हजार योजन विस्तार वाले हैं।) एवं जाव रिटे।' १. ठाणं १०, सु०, ७७८ । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६८-६६ अधोलोक गणितानुयोग ४५ प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पंकबहुलकंडे प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का पंकबहुलकाण्ड केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्त? कितने विस्तार वाला कहा गया है? उ० गोयमा ! चतुरसीतिजोयणसहस्साई बाहल्लेणं उ० हे गौतम ! चौरासी हजार योजन विस्तार वाला कहा पन्नत्ते। गया है। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए आवबहुलकंडे प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अप्-जल-बहुल केवतियं बाहल्लेणं पन्नते? काण्ड कितने विस्तार वाला कहा गया है ? उ० गोयमा ! असोति जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते।' उ. हे गौतम ! अस्सी हजार योजन विस्तार वाला कहा -जीवा० पडि०३, उ०१, सु०७२। गया है। कंडाणं दव्वसरूवं काण्डों का द्रव्य स्वरूपRE:५० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडस्स ६९ :प्र. हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी के सोलह हजार सोलस जोयणसहस्स-बाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जा योजन विस्तृत क्षेत्र छेद से छिद्यमान (कल्पना-कृत विभागवाले) . माणस्स अस्थि दव्वाई। खरकाण्ड में जो द्रव्य हैं वे; वण्णओ काल-नील-लोहित-हालिद्द-सुकिल्लाई; वर्णसे कृष्ण, नील, रक्त, पीत और शुक्ल; गंधतो सुरभिगंधाई दुरभिगंधाई, गन्धसे सुगन्ध और दुर्गन्ध युक्त; रसतो तित्त-कडुय-कसाय-अंबिल-महुराई। रससे तिक्त, कटुक, कषाय अम्ल और मधुर; फासतो कक्खड-मउय-गरुय-लहु-सीत-उसिण-णिद्ध- स्पर्शसे कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष; .: लुक्खाई। संठाणतो परिमंडल-वट्ट-तंस-चउरंस आयय-संठाण संस्थानसे परिमंडल, वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण और आयत ।" परिणयाई अन्नमन्नबधाई, अण्णमण्णपुट्ठाई, अण्णमण्ण संस्थान परिणत, अन्योऽन्यबद्ध, अन्योऽन्यस्पष्ट, अन्योऽन्यअवगाढ़ ओगाढाई, अण्णमण्ण सिणेहपडिबद्धाई अण्णमण्णघडताए स्निग्धता से अन्योऽन्यप्रतिबद्ध और अन्योऽन्य ग्रथित होकर .. चिट्ठति ? रहते हैं ? उ० हंता, अत्थि । उ० हाँ है। प० इमीसे णं भते ! रयणप्पभाएपुढवीए रयणनामगस्स प्र० हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्ज- योजन विस्तृत क्षेत्र-छेद से छिद्यमान (कल्पनाकृत विभाग वाले) माणस्स अस्थि दव्वाई वण्णओ जाव अण्णमण्णघडत्ताए रत्नकाण्ड में जो द्रव्य हैं वे वर्णन यावत् अन्योन्यग्रथित होकर चिट्ठति ? रहते हैं ? उ० हंता ! अत्थि । एवं जाव रिझुस्स । उ० हाँ हैं । इसप्रकार रिष्टकाण्ड पर्यन्त (सभी काण्डों में जो द्रव्य हैं वे वर्ण से यावत् अन्योन्यग्रथित होकर रहते हैं।) प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए पंकबहुलस्स प्र. हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के चौरासी कडस्स चउरासीतिजोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छे- हजार योजन विस्तृत क्षेत्र छेद से छिद्यमान (कल्पनाकृत विभाग एणं छिज्जमाणस्स अस्थि दव्वाइं वण्णओ जाव अण्ण- वाले) पंक बहुल काण्ड में जो द्रव्य हैं वे वर्ण से यावत् अन्योऽन्य मण्णघडताए चिट्ठति ? ग्रथित होकर रहते हैं ? उ० हंता ! अत्थि। उ० हाँ है। एवं आवबहुलस्स वि असीतिजोयणसहस्सबाहल्लस्स इसप्रकार अपबहुलकाण्ड में जो अस्सी हजार योजन -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु०७३। विस्तृत है (उसमें भी द्रव्य हैं।) १. सम० ८, सु० ५। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १००-१०१ कंडयाणं संठाणं काण्डों का संस्थान१००:५० इसीसे गं भंते ? रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे किं १००:प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के खरकाण्ड का संठिते पण्णते ? क्या संस्थान कहा गया है ? उ० गोयमा ! झल्लरिसंठिते पण्णत्ते। उ० हे गौतम ! झालर जैसा संस्थान कहा गया है। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे कि प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के रत्नकाण्ड का क्या संठिते पण्णते? संस्थान कहा गया है ? उ० गोयमा ! झल्लरिसंठिते पण्णते। उ० हे गौतम ! झालर जैसा संस्थान कहा गया है। एवं जाव रिट्ठ। इसी प्रकार रिष्टकाण्ड पर्यन्त (सभी काण्डों का झालर जैसा संस्थान कहा गया है।) एवं पंकबहुले वि, एवं आवबहुले वि। इसी प्रकार पंकबहुलकाण्ड और अप् बहुलकाण्ड का -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु०७४। भी (झालर जैसा संस्थान कहा गया है।) पुढवीचरिमंताणं कंडचरिमंताणं य अंतरं पृथ्वी-चरमांतों का और काण्डचरमांतों का अन्तर१०१:५० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ १०१:प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरिमंताओ खरस्स कंडस्स हेदिल्ले चरिमंते-एस गं चरमान्त से खर काण्ड के नीचे के चरमान्त का अबाधा (व्यवकेवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते? धान रहित) अन्तर कितना कहा गया है ? उ० गोयमा ! सोलसजोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे उ० हे गौतम ! सोलह हजार योजन का अबाधा अन्तर पण्णत्ते। कहा गया है। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उरिल्लाओ प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त चरिमंताओ रयणस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते-एस णं से रत्नकाण्ड के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णते ? कहा गया है ? उ० गोयमा ! एक्कं जोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। उ० हे गौतम ! एक हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है। प० इमीसे णं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ प्र.हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त चरिमंतातो बइरस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते-एस से वज्रकाण्ड के ऊपर के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना णं केवतियं अबाधाए अतरे पण्णत्ते? । कहा गया है? उ० गोयमा ! एक्कं जोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते।' उ. हे गौतम ! एक हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ प्र० हे पावन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त चरिमंताओ वइरस्स कंडस्स हेटिल्ले चरिमंते-एस णं से वज्रकाण्ड के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते? कहा गया है ? उ० गोयमा ! दो जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। उ० हे गौतम ! दो हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है। एवं जाव रिटुस्स। इसप्रकार यावत् रिष्टकाण्ड पर्यन्त कहना चाहिए। (क) इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ पुलगस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरमंते-एस णं सत्त जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । -सम० सु० १२० । (ख) इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए वइरकंडस्स उवरिल्लाओ चरिमंताओ लोहियक्खकंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं तिन्नि जोयणसहस्साइं अबाधाए अंतरे पण्णत्त । -सम० सु० ११६ । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०१-१०४ अधोलोक गणितानुयोग ४७ उरिल्ले चरिमंते पन्नरसजोयणसहस्सहाई, (रत्न प्रभा पृथ्वी के) ऊपर के चरमान्त से (रिष्ट काण्ड के हेट्ठिल्ले चरिमंते सोलसजोयणसहस्साई । ऊपर के चरमान्त का) पन्द्रह हजार योजन (का अबाधा अन्तर है और) नीचे के चरमान्त का सोलह हजार योजन का अबाधा अन्तर है। प० इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त चरिमंताओ पंकबहुलस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते- से पंकबहुलकाण्ड के ऊपर के चरमान्त का अबाधा अन्तर एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णते? कितना कहा गया है ? उ० गोयमा ! सोलसजोयणसहस्साइं अबाधाए अंतरे उ० हे गौतम ! सोलह हजार योजन का अबाधा अन्तर पण्णत्ते। कहा गया है। हेट्ठिल्ले चरिमंते एक्कं जोयणसहस्सं । (पंकबहुलकाण्ड के) नीचे के चरमान्त का (अबाधा अन्तर) एक हजार योजन का (कहा गया है)। आवबहुलस्स उवरिल्ले चरिमंते एक्कं जोयणसहस्सं, अपबहुलकाण्ड के ऊपर के चरमान्त का (अबाधा अन्तर) हेडिल्ले चरिमंते असीउत्तरजोयणसयसहस्सं । एक हजार योजन का है और नीचे के चरमान्त का (अबाधा -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७६ । अन्तर) एक लाख अस्सी हजार योजन का (कहा गया है)। १०२: पंकबहुलस्स णं कंडस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ हेट्ठिल्ले १०२ : पंकबहुलकाण्ड के ऊपर के चरमान्त से नीचे के चर चरमंते-एस णं चोरासीइ जोयणसयसहस्साई अबाहाए मान्त का अबाधा अन्तर चौरासी लाख योजन का कहा गया है। अंतरे पण्णत्ते। -सम० ८४, सु०६। पुढवीणं अहे घणोदहि आईणं सब्भावो पमाणं य- पथ्वियों के नीचे घनोदधि आदिका सद्भाव और उनका प्रमाण१०३:५० अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे १०३ : प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे घनोदधि, घणोदधीति वा, घणवातेति वा, तणुवातेति वा, ओसा- घनवात, तनुवात और अवकाशान्तर (रिक्त मध्य भाग) है ? संतरेति वा? उ० हंता ! अस्थि । उ० हाँ है। एवं जाव अहेसत्तमाए। इस प्रकार यावत् सप्तम पृथ्वी के नीचे तक है।.... -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७१ । १०४:५० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही १०४:प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधि का केवतियं बाहल्लेणं पन्नत्ते? बाहल्य (मोटाई) कितना कहा गया है ? उ० गोयमा ! वीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। उ० हे गौतम ! बीस हजार योजन का बाहल्य (मोटाई) कहा गया है। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए केव- प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनवात का बाहल्य तियं बाहल्लेणं पन्नत्ते? (मोटाई) कितना कहा गया है ? उ. गोयमा ! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं उ० हे गौतम ! असंख्य हजार योजन का बाहल्य कहा पन्नते। गया है। एवं तणुवातेऽवि, ओवासंतरेऽवि । ___ इसीप्रकार तनुवात का और अवकाशान्तर का (बाहल्य भी कहा गया) है। प० सक्करप्पमाए णं भंते ! पुढवीए घणोदहि केवतियं प्र० हे भगवन् ? शर्कराप्रभा पृथ्वी के घनोदधि का बाहल्य बाहल्लेणं पन्नत्ते? कितना कहा गया है? उ० गोयमा ! वीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते। उ० हे गौतम ! बीस हजार योजन का बाहल्य कहा गया है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १०४-१०६ प० सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणवाए केवतियं प्र० हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी के घनवात का बाहुल्य बाहल्लेणं पन्नत्ते ! कितना कहा गया है ? उ० गोयमा! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं उ० हे गौतम ! असंख्य हजार योजन का बाहल्य कहा पन्नत्ते। गया है। एवं तणुवातेऽवि, ओवासंतरेऽवि । जहा सक्कर- इसीप्रकार तनुवात का और अवकाशान्तर का प्पभाए पुढवीए वत्तव्वया-एवं जाव अहेसत्तमा। (बाहल्य भी कहा गया है।) जिसप्रकार शर्कराप्रभा पृथ्वी के सम्बन्ध में कहा गया है-इसीप्रकार यावत् -जीवा० पडि० ३, उ०१, सु०७२। नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यंत कहना चाहिए।" घणोदहिवलयाईणं पमाणं घनोदधि वलय आदिका प्रमाण१०५:५० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए १०५ : प्र० हे भगवन् ! इस १. रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधि केवतियं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? वलय का कितना बाहल्य कहा गया है ? उ० गोयमा ! छजोयणाणि बाहल्लेणं पण्णत्ते । उ० हे गौतम ! छ योजन का बाहल्य कहा गया है । प० सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदधिवलए प्र. हे भगवन् ! २. शर्कराप्रभा पृथ्वी के घनोदधि वलय का केयति यं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? कितना बाहल्य कहा गया है ? उ० गोयमा ! सतिभागाइं छजोयणाई बाहल्लेणं उ० हे गौतम ! छ योजन और एक योजन के तीन भाग पण्णत्ते। जितना बाहल्य कहा गया है। प० वालुयप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदधिवलए केवतियं प्र० हे भगवन् ! ३. वालुकाप्रभा पृथ्वी के घनोदधि वलय __ बाहल्लेणं पण्णते? का कितना बाहल्य कहा गया है ? उ० गोयमा ! तिभागूणाई सत्तजोयणाई बाहल्लेणं उ० हे गौतम ! तीन भाग कम सात योजन का बाहल्य पण्णते। कहागया है। एवं एएणं अभिलावेण पंकप्पभाए सत्तजोयणाई इसीप्रकार के प्रश्नोत्तरों से ४. पंक प्रभा (पृथ्वी के बाहल्लेणं पण्णत्ते। घनोदधि वलय का) बाहल्य सात योजन का कहा गया है। धूमप्पभाए सतिभागाइं सत्तजोयणाई बाहल्लेणं ५. धूमप्रभा (पृथ्वी के घनोदधि वलय का) बाहल्य पण्णत्ते। एक योजन के तीन भाग सहित सात योजन का कहा गया है। तमप्पभाए तिभागूणाई अटू जोयणाई बाहल्लेणं ६. तमः प्रभा (पृथ्वी के घनोदधि वलय) का बाहल्य पण्णत्ते। तीन भाग कम आठ योजन का कहा गया है। तमतमप्पभाए अट्ट जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। ७. तमस्तम प्रभा (पृथ्वी के घनोदधि वलय) का -जीवा० पडि०३, उ० १, सु० ७६ । बाहल्य आठ योजन का कहा गया है।.... १०६:५० इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए घणवायवलए केवितियं १०६ :प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनवातवलय बाहल्लेणं पण्णत्ते? का कितना बाहल्य कहा गया है ? उ० गोयमा ! अद्धपंचमाई जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। उ० हे गौतम ! साढ़े चार योजन का बाहल्य कहा गया है। प० सक्करप्पभाए पुढवीए घणवायवलए केवतियं प्र. हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी के घनवातवलय का बाहल्लेणं पण्णते? कितना बाहल्य कहा गया है? उ० गोयमा ! कोसूणाई पंचजोयणाई बाहल्लेणं उ० हे गौतम ! एक कोश कम पाँच योजन का बाहल्य कहा पण्णत्ताइ। गया है। १. सम० २०, सु० ३ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६-१०६ एवं एएवं अभिलावेगं वालुयप्पभाए पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ताई । रुपभाए सबकोसाई पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ताई । अधोलोक धूमप्पभाए अद्धछट्टाई जोयणाइं बाहल्लेणं पण्णताइं । तमप्पभाए कोनूणाई छजोषणाइ बाहल्लेणं पण्णत्ताई । असत्तमाए छजोयणाइं बाहल्लेणं पण्णत्ताइं । १०७ : प० इमीसे णं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवाय वलए केवतियं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? उ० दोयमा एक्होले बाहल्लेगं पण्णत्ते । एवं एएणं अभिलावेणं सक्कर प्पभाए पुढवीए सतिभागे छक्कोसे बाहल्लेण पण्णत्ते । वालुभाए पुढवीए विभागणे सत्तकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते । पंकप्पभाए पुढवीए सतिभागे सत्तकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते । - जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७६ । योजन का कहा गया है। धूमप्पमा पुढवीए सतिभागे सत्तकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते । तमप्पभाए पुढवीए तिभागणे अटुकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते । असत्तमाए पुढवीए अट्ठकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते । -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७६ । घणोदहीआईणं संठाणाई : बि १०८ एवं......घणोदधि विघणवाए वि तणुवाए ओवासंतरे वि सव्वे झल्लरिसंठिते पण्णत्ते । —जीवा० पडि० ३, उ० १, सु०७४ । — गणितानुयोग ४६ इसीप्रकार प्रश्नोत्तरों में वालुकाप्रभा के ( घनवात वजय का) बाहय पांच योजन का कहा गया है। उ० गोयमा ! वट्ट े वलयागारसंठाणसंठिते पण्णत्ते । जेणं इमं रयणप्पभं पुढव सव्वतो संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति । पंकप्रभा के (घनवातवलय का ) वाहत्य पाँच योजन और एक कोश का कहा गया है। धूमप्रभा के (घनवातवलय का वाहत्य साढ़े पांच योजन का कहा गया है। तमस्प्रभा के (पनवातवलय का ) बाल्य एक कोश कम छह योजन का कहा गया है । तमस्तमप्रभा के ( मनवातवलय का) वाहत्य यह १०७ प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तनुवातबलय : का बाल्य कितना कहा गया है ? उ० हे गौतम ! छः कोश का बाहल्य कहा गया है। इसीप्रकार प्रश्नोत्तरों में शर्कराप्रभा पथ्वी के तनुवात वलय का बाहल्य छह कोश और कोश के तीन भाग जितना कहा गया है। वालुकाप्रभा पृथ्वी के ( तनुवातवलय का ) बाहम, तीन भाग कम सात कोश का कहा गया है। पंकप्रभा पृथ्वी के ( तनुवातवलय का ) बाहल्या सातकोश का कहा गया है। धूमप्रभा पृथ्वी के ( तनुवातवलय का ) बाहल्य सात कोश और कोश के तीन भाग का कहा गया है । तमरप्रभा पृथ्वी के (तनुवातवलय का ) बाहुल्य तीन भाग कम आठ कोश का कहा गया है । नीचे सातवीं पृथ्वी के (तनुवातका बाहत्य आठ कोश का कहा गया है। मनोदधि आदि के संस्थान १०० इसी प्रकार घनोदधि, घनवात, तनुवात और अवका शान्तर - इन सबका झालर जैसा संस्थान कहा गया है। घणोदहिबलवाईणं संठाणं घनोदपि वलय आदि के संस्थान १०६ : प० इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए १०६ : प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का घनोदधिवलय कि संठिते पण्णत्ते ? किस (संस्थान) से संस्थित कहा गया है ? उ० हे गौतम! वृत्त वलयाकार संस्थान से संस्थित कहा गया है । जो इस रत्नप्रभा पृथ्वी को चारों ओर से घेरकर स्थित है। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० M लोक-प्रतप्ति एवं जाव असत्तमा पुढवीए घणोदधिवलए । णवरं- अप्पणऽप्पणं पुढ चिट्ठति । अधोलोक संपरिवाणं -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७६ । ११० : प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवातवलए कि संठिते पण्णत्ते ? उ० गोयमा ! वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते पण्णत्ते । जे इमसेनं रयणप्पभाए पुहबीए घणोदधिवलयं सय्यओ समता संपरिचि एवं जाव असत्तमाए घणवातवलए । - जीवा० पडि०, ३ उ० १, सु० ७६ । १११ : प० इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवातवलए कि संठिते पण्णत्ते ? उ० गोयमा ! बट्टे वलयागारसं ठाणसंठिए पण्णत्ते । जे गं इमीसे णं रपयप्यमाए पुढबीए धणवातवलयं सय्यम समता संपरिक्खिताणं विदुर । एवं जाव असत्तमाए तणुवातवलए । - जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७६ । घणोदहि आईणं दव्वसरूवं ११२ : प० इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिस्स यी जोपणसहस्थ बाहल्लम्स सच्छेएवं छिम्म मास अथ दवाई वणतो जाव अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठति ? उ० हंता ! अत्थि । एवं घणवातस्स असंखेज्जजोयणसहस्स बाहल्सस्स एवं तवातस्स, ओवासंतरस्स वि तं चैव । प० सरमाए भंते पृढवीए पणोवहिस्सा बी जोसहवास घणवातस्स असंखेन्ज जोयणसहस्सबाहल्लस्स, तणुवातस्स असंखे जोयणसहस्वबाहल्लास, ओवासतरस्थ असंग्यजोहरचाल्यस्त विखेत्तच्एवं डिजमापस्स अत्थि दव्वाइं वण्णतो जाव अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठ ं ति ? उ० हंता ! अत्थि । जहा सक्करम्पभाए एवं जाव असत्तमाए । - जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७३ । इसीप्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी का घनोदधि वलय है । विशेष – अपनी-अपनी पृथ्वी को घेरकर स्थित है । ११० प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का घनवात किस (संस्थान) से संस्थित कहा गया है ? सूत्र १०- ११२ उ० हे गौतम ! वृत्त वलयाकार संस्थान से संस्थित कहा गया है, जो इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधिवलय को चारों ओर से घेरकर स्थित है। इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तम घनवातवलय है । १११ : प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी का तनुवातवलय किस (संस्थान) से संस्थित कहा गया है ? उ० हे गौतम! वृत्त वलयाकार संस्थान से संस्थित कहा गया है - जो इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनवातवलय को चारों ओर से घेरकर स्थित है । इसीप्रकार या नीचे सप्तम तनुवात वलय है। " घनोदधि आदि का द्रव्य स्वरूप ११२ : प्रo हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ( बुद्धिकृत ) क्षेत्र-क्षेत्र से छिद्यमान बीस हजार योजन बाहुल्यवाले चनोदधि में वर्ण यावत् परस्पर ग्रथित द्रव्य हैं ? --- उ० ही हैं। इसीप्रकार असंख्य हजार योजन बाहल्यवाले घनवात, तनुवात और अवकाशान्तर ( में भी वर्ण यावत् परस्पर ग्रथित द्रव्य) हैं। उ० ही है। प्रo हे भगवन् ! क्या शर्कराप्रभा पृथ्वी के ( बुद्धिकृत) क्षेत्र - छेद से छिद्यमान वीस हजार योजन बाहल्दयाले घनोदधि में, असंख्य हजार योजन बाहुल्यवाले घनवात में तनुबात में और अवकाशान्तर में वर्ण यावत् परस्पर ग्रथित द्रव्य हैं ? जिसप्रकार शर्कराप्रभा (के सम्बन्ध में कहा) है। इसीप्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यंत है ।'''' Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११३-११५ अधोलोक गणितानुयोग ५१ घणोदहिवलयाईणं दव्वसरूवं घनोदधि वलय आदिका द्रव्य स्वरूप११३:५० इमीसे गं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए धणोदधि- ११३ : प्र. हे भगवन् ! क्या रत्नप्रभा पृथ्वी के (बुद्धिकृत) क्षेत्र वलयस्स छ जोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्ज- छेद से छिद्यमान छह योजन बाहल्यवाले घनोदधिवलय में वर्ण माणस्स अस्थि बव्वाइं वण्णमओ जाव अन्नमनघडत्ताए यावत् परस्पर ग्रथित द्रव्य हैं ? चिट्ठति ? उ० हंता ! अत्यि। उ० हाँ ! हैं। प० सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदधिवलयस्स प्र. हे भगवन् ! क्या शर्कराप्रभा पृथ्वी के (बुद्धिकृत) क्षेत्र सतिभाग छजोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छएणं छिज्ज- छेद से छिद्यमान छह योजन और योजन के तीन भाग बाहल्य माणस्स अत्थि दवाइं वण्णओ जाव अन्नमनघडताए वाले घनोदधि वलय में वर्ण यावत् परस्पर ग्रथित द्रव्य हैं ? चिट्ठति ? उ० हंता ! अत्यि। उ० हाँ ! हैं। एवं जाव अहेसत्तमाए। इसी प्रकार यावत् नीचे सातवीं पृथ्वी पर्यंत है। जं जस्स बाहल्लं । विशेष—जिस पृथ्वी के (घनोदधिवलय का) जितना -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७६ । बाहल्य है । (उतना कहना चाहिए)। ११४ : प० इमीसे गं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवातवलयस्स ११४ :प्र. हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभा पृथ्वी के (बुद्धिकृत) अद्वपंचमजोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स क्षेत्र-छेद से छिद्यमान साढ़े चार योजन बाहल्यवाले धनवात, अस्थि दम्बाई वण्णओ जाव अन्नमनघडताए वलय में वर्ण यावत परस्पर ग्रथित द्रव्य हैं? चिट्ठति ? उ० हंता ! अत्थि। उ० हाँ ! हैं। एवं जाव अहेसत्तमाए। इसी प्रकार यावत् नीचे सातवीं पथ्वी पर्यंत है। जं जस्स बाहल्लं । विशेष-जिस (पृथ्वी के घनवातवलय) का जितना बाहल्य है (उतना कहना चाहिए)। एवं तणुवायवलयस्स वि जाव अहेसत्तमाए। इसी प्रकार तनुवातवलय के सम्बन्ध में भी यावत् नीचे सातवीं पृथ्वी पर्यंत है। ज जस्स बाहल्लं। विशेष-जिस (पृथ्वी के तनुवातवलय) का जितना -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७६ । बाहल्य है (उतना कहना चाहिए)। पुढवीणं पुरथिमिल्लाइ चरिमंता __ पृथ्वियों के पूर्वादि चरमांत११५:५० इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले ११५ : प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वी चरमान्त चरिमंते कइविहे पण्णते? कितने प्रकार का कहा गया है। उ० गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा उ० गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है, यथा(१) घणोदधिवलए, (१) घनोदधिवलय। (२) घणवायवलए, (२) घनवातवलय। (३) तणुवायवलए। (३) तनुवातवलय । प० इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए दाहिणिल्ले प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के दक्षिणी-चरमान्त कितने चरिमंते कइविहे पण्णत्ते? ' प्रकार का कहा गया है ? Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र ११५-११६ - उ० गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा उ० गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है, यथा(१) घणोदधिवलए, (१) घनोदधिवलय। (२) घणवायवलए, (२) घनवातवलय। (३) तणुवायवलए । (३) तनुवातवलय । एवं जाव उत्तरिल्ले। इस प्रकार यावत् उत्तरी (चरमान्त) हैं। एवं सव्वासि जाव अहेसत्तमाए उत्तरिल्ले। इस प्रकार सभी (पवियों) के हैं यावत् नीचे सातवीं -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७५। (पृथ्वी) के उत्तरी चरमान्त है। अंतरं पृढवी चरिमंताणं घणोदहिआईणं चरिमंताणं य पृथ्वियों के चरमान्तों का और घनोदधि आदि के चरमान्तों का अंतर११६ : ५० इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ ११६ : प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त चरिमंताओ घणोदहिस्स उवरिल्ले चरिमंते-एसणं से घनोदधि के ऊपर के चरमान्त का अबाधा अंतर कितना कहा केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गया है ? उ० गोयमा ! असिउत्तरजोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे उ० गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन अबाधा अंतर पण्णत्ते। कहा गया है। प. इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से चरिमंताओ घणोदहिस्स हेटिल्ले चरिमंते-एसणं घनोदधि के नीचे के चरमान्त का अबाधा अंतर कितना कहा . . केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते? गया है? उ० गोयमा ! दो जोयण सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। उ० गौतम ! दो हजार योजन अबाधा अंतर कहा गया है। प० इमोसे मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से चरिमंताओ घणवातस्स उवरिल्ले चरिमंते-एसणं घनवात के नीचे के चरमान्त का अबाधा अंतर कितना कहा केवइए अबाहाए अंतरे पण्णते? गया है? उ० गोयमा ! दो जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । उ० गौतम ! दो हजार योजन अबाधा अन्तर कहा गया है। प० इमोसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से चरिमंताओ घणवातस्स हेटिल्ले चरिमंते-एसणं घनवात के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा केवइए अबाहाए अंतरे पण्णते? गया है? उ. गोयमा ! असंखिज्जाई जोयणसयसहस्साइं अबाहाए उ० गौतम ! असंख्य लाख योजन का अबाधा अन्तर कहा ___ अंतरे पण्णत्ते। गया है। प० इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उबरिल्लाओ प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से चरिमंताओ तणुवातस्स उरिल्ले चरिमंते-एसणं तनुवात के ऊपर के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते? गया है ? उ० गत्यमा ! असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई अबाहाए उ० गौतम ! असंख्य लाख योजन का अबाधा अन्तर कहा अंतरे पण्णत्ते। गया है। हेट्रिले (चरिमंते) वि असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई नीचे के चरमान्त का भी असंख्य लाख योजन का अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। अबाधा अन्तर कहा गया है। एवं ओवासंतरे वि। इसीप्रकार अवकाशान्तर का (अन्तर) भी है। प० दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ प्र. भगवन् ! द्वितीया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के घणोदहिस्स उवरिल्ले चरिमंते-एसणं केवइयं अबा- चरमान्त से घनोदधि के ऊपर के चरमान्त का अबाधा अन्तर हाए अंतरे पण्णत्ते? कितना कहा गया है ? Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११६ अधोलोक गणितानुयोग ५३ उ० गोयमा ! बत्तीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे पण्णते।' प० दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ घणोदहिस्स हेट्ठिले चरिमंते-एसणं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णते? उ० गोयमा ! बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। प० दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ घणवातस्स उवरिल्ले चरिमंते-एसणं केवइयं अबा हाए अंतरे पण्णते? उ० गोयमा ! बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। प० दोच्चाए गं मंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ घणवातस्स हेट्टिले चरिमंते-एसणं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते? उ० गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। प० दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ तणुवातस्स उवरिल्ले चरिमंते-एसणं केवइए अबा हाए अंतरे पण्णत्त ? उ० गोयमा | असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णते। प० दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ तणुवातस्स हेट्रिले चरिमंते-एसणं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्त ? उ० गौतम ! एक लाख बत्तीस हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है। प्र० भगवन् ! द्वितीया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनोदधि के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? उ० गौतम ! एक लाख बावन हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है। प्र० भगवन् ! द्वितीया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनवात के ऊपर के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है? उ० गौतम ! एक लाख बावन हजार योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है। प्र० भगवन् ! द्विताया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनवात के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है? उ० गौतम ! असंख्य लाख योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है ? प्र. भगवन् ! द्वितीया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से तनुवात के ऊपर के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? उ० गौतम ! असंख्य लाख योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है। प्र० भगवन् ! द्वितीया (शर्कराप्रभा) पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से तनुवात के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है? टिप्पणी १. आगमोदय समिति से प्रकाशित जीवाभिगम सूत्र की प्रति के पत्रांक ६६ और १०० में प्रतिपत्ति ३, उद्देशक १ का सूत्र ७६ है। (१) इसमें नरकों के चरमान्तों का अन्तर, (२) रत्नप्रभा के चरमान्तों से काण्डों का अन्तर, (३) नरकों के चरमान्तों से घनोदधि, धनवात, तनुवात और अवकाशान्तरों का अन्तर प्रतिपादित हैं। इस सूत्र का मूलपाठ संक्षिप्त वाचना का है किन्तु अव्यवस्थित है, इसलिए यहाँ टीका के अनुसार मूलपाठ व्यवस्थित किया गया है। यहाँ शर्कराप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनोदधि को ऊपर के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना है ? यह मुद्रित आ० स० की प्रति के मूलपाठ से स्पष्ट नहीं होता है । देखिये मुद्रित प्रति का मूलपाठ-"सक्करप्प० पु. उवरि...." अतः इस अंश की मल पाठ की टीका के अनुसार यहाँ मूलपाठ व्यवस्थित किया गया-देखिये टीका का अंश: नोनीत रुपरितने चरमान्ते पृष्ठे एतदेव निर्वचनं द्वात्रिशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् । २. घनवात और तनुवात से सम्बन्धित मूलपाठ भी यहाँ व्यवस्थित किया है । देखिये मुद्रित प्रति का मूलपाठ "घणवातस्स असंखज्जाइं जोयणसहस्साइं पण्णत्ताई, एवं जाव उवासंतरस्स वि जावऽधे सत्तमाए।" इस पाठ में घनवात के नीचे के चरमान्त का अन्तर ही निर्दिष्ट है। धनवात के ऊपर के चरमान्त का और तनुवात के ऊपर नीचे के चरमान्त का अन्तर 'जाव' संकेत से ग्रहण करने की सूचना है, किन्तु किस पृथ्वी के चरमान्तों के अनुसार ग्रहण करना यह सूचना नहीं है अतः टीका के आधार से मूलपाठ व्यवस्थित किया गया है-देखिये मुद्रित प्रति की टीका का अंश"घनवातस्याधस्तनचरमान्तपृच्छायां तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तकचरमान्तपच्छासु च यथा रत्नप्रभायां तथा वक्तव्यम्, असंख्येयानि योजनशतसहस्राण्यबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति भावः । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ लोक-प्रज्ञप्ति उ० गोपमा ! असंखेज्जाई जोवणसयसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्त । अधोलोक एवं जाव असत्तमाए । वरं :- जोसे ज बाहल्लं तेण घणोदधी संबंधेतव्वो बुद्धीए । सक्करण्यभाए अणुसारेण घणोदहिसहिताणं इमं पमाणं । mm तच्चाए णं भंते! (वालुयप्पभाए) पुढबीए अडवालीसुत्तरं जोयणस्यसहस्सं, पंकप्पभाए पुढवीए चत्तालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं धूमप्पभाए पुडवीए अतीसुत्तरं जोयण सबसहस्स 1 तमाए पुढवीए छत्तीसुत्तरं जोयणसय सहस्सं आहे सत्तमाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तरं जोयणसयसहस्स, ' एवं उवासंतरस्स वि जाव अहेसत्तमाए, ' प० आहे सताए पं चते । पुढवीए उवरिल्लाओं परि मंताओ उवासंतरस्स हेट्ठिले चरिमंते केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्त ? उ० गोपमा ! असंखेन्जाई जोयणसपसहस्साई अवाहाए अंतरे पगले ? - जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७६ । ११७ बोच्चाएपुढबीए बहुमजावेसभागाओ दोच्यस्स घणो बहिस्सा ले चरिमंते – एसगं छससीइजोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्त । - - सम० ८६, सु० ३ । १. २. ११८ हट्टी पुदवीए बहुमज्शदेस भागाज छस्स घणोदहिस्स हेट्ठिले चरिमंते - एसणं एगूणासीतिजोयणसहस्साइं अबाहा अंतरे पण्णत्त । -सम० ७६, सु० ३ । सूत्र ११६-११८ उ० गौतम ! असंख्य लाख योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है । इस प्रकार यावत् नीचे सातवीं (पृथ्वी पर्यन्त ) है । विशेष - जिस (पृथ्वी) का जो बाहल्य- मोटाई है उसको घनोदधि के साथ बुद्धि से जोड़ना चाहिए । शर्कराप्रभा के अनुसार धनोदधि सहित यह प्रमाण है भगवन् ! तृतीया (वालुकाप्रभा) पृथ्वी में एक लाख अन्तालीस हजार योजन (का अवाधा अन्तर है।) पंकप्रभा पृथ्वी में एकलाख चालीस हजार योजन (का अबाधा अन्तर है ।) धूमप्रभा पृथ्वी में एक लाख अडतीस हजार योजन ( का अवाधा अन्तर है। तमा पृथ्वी में एक लाख छत्तीस हजार योजन (का अबाधा अन्तर है ।) नीचे सातवीं पृथ्वी में एक लाख अट्ठाईस हजार योजन ( का अबाधा अन्तर है ।) [यह अन्तर प्रत्येक पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से मनोदधि के नीचे के चरमान्त का है।] इसीप्रकार अवकाशान्तर भी यावत् नीचे सातवीं (पृथ्वी) पर्यन्त है। प्र० भगवन् ! नीचे सातवीं पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से अवकाशान्तर के नीचे के चरमान्त का अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? उ० गौतम ! असंख्य लाख योजन का अबाधा अन्तर कहा गया है । ११७ द्वितीया पृथ्वी के ठीक मध्य सभाग से द्वितीय धनोदधि के नीचे का चरमान्त का अबाधा अन्तर छियासी हजार योजन का कहा गया है । आ० स० प्र० प्रति में इसके आगे "जाव अधे सत्तमाए" ऐसा पाठ है । आ० स० प्र० जीवाभिगम में यह पंक्ति पत्र १०० के पूर्व भाग की नीचे से पाँचवीं पंक्ति में हैं किन्तु यहाँ प्रथम पंक्ति के अन्त में आधे सत्तमाए पु० अट्ठावीस जोपणसमसहस्व" देना उचित समझा है। ३. आ० स० प्र० जीवाभिगम की प्रति में "एस णं भंते! पुढवीए" ऐसा पाठ है जो शुद्ध प्रतीत नहीं होती है। ११८ छड्डी पृथ्वी के ठीक मध्य सभाग से छठे धनोदधि के चरमान्त का अबाधा अन्तर गुणासी हजार योजन कहा गया है। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११६-१२० अधोलोक गणितानुयोग ५५ पुढविचरिमंतेसु जीवा-ऽजीवं तद्देसपएसा य- पथ्वियों के चरमान्तों में जीव, अजीव और उनके देश प्रदेश११६:५० इमीसे णं भंते ! रयणण्पमाए पुढवीए पुरथिमिल्ले ११६ :प्र. भगवन् ! क्या रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वी चरमान्त में चरिमंते कि जीवा जाव अजीवपदेसा? जीव हैं यावत् अजीव के प्रदेश है ? । उ० गोयमा ! नो जीवा एवं जहेव लोगस्स तहेव उ० गौतम ! जीव नहीं हैं—जिसप्रकार लोक के चरमान्त चत्तारि वि चरिमंता जाव उत्तरिल्ले। हैं उसीप्रकार (रत्नप्रभा के) चारों चरमान्त हैं यावत् उत्तर का चरमान्त है। उवरिल्ले जहा बसमसए विमला दिसा तहेव ऊपर का (चरमान्त) सम्पूर्ण दशम शतक में (कथित) निरवसेसं। विमला दिशा जैसा है। हेट्रिल्ले चरिमंते जहेव लोगस्स हेदिल्ले चरिमंते नीचे का चरमान्त लोक के नीचे के चरमान्त जैसा तहेव; नवरं :-देसे पंचेंविएसु तियभंगो, सेसं है। विशेष-पंचेन्द्रियों में देस (सम्बन्धी) तीन भांगे हैं । तं चेव। शेष उसी प्रकार है। एवं जहा रयणप्पभाए चत्तारि चरिमंता भणिया जिस प्रकार रत्नप्रभा के चार चरमान्त कहे हैं। एवं सक्करप्पभाए वि। उसीप्रकार शर्कराप्रभा के भी हैं। उवरिम-हेट्ठिल्ला जहा रयणप्पभाए हेट्ठिल्ले। ऊपर और नीचे के (चरमान्त) रत्नप्रभा के नीचे के (चरमान्त) जैसे हैं। एवं जाव अहेसत्तमाए। उसी प्रकार यावत् नीचे सातवीं के (चरमान्त) हैं। -भग० स०१६, उ०८, सु० ७-६ । पुढवीसु चरिमाइं पृथ्वियों के चरमादि१२०:५० इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी कि १२० :प्र० हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या (१) चरिमा (१) चरम (एक वचन-पर्यन्तवर्ती) है ? (२) अचरिमा (२) अचरम (एक वचन-मध्यवर्ती) है ? (३) चरिमाई (३) चरम (बहुवचन-पर्यन्तवर्ती) है ? (४) अचरिमाइं (४) अचरम (बहुवचन-मध्यवर्ती) है ? (५) चरिमंतपदेसा (५) चरमान्तप्रदेश (बहुवचन-पर्यन्तवर्ती) हैं ? (६) अचरिमंतपदेसा? (६) अचरमान्त प्रदेश (बहुवचन मध्यवर्ती) हैं ? उ० गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी उ. हे गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी नो चरिमा (१) चरम (एकवचन-पर्यन्तवर्ती) नहीं हैं । नो अचरिमा, (२) अचरम (एकवचन-मध्यवर्ती) नहीं हैं। नो चरिमाइं, (३) चरम (बहुवचन-पर्यन्तवर्ती) नहीं हैं। नो अचरिमाइं, (४) अचरम (बहुवचन-मध्यवर्ती) नहीं हैं। नो चरिमंतपदेसा, (५) चरमान्तप्रदेश (बहुवचन-पर्यन्तवर्ती) नहीं हैं। नो अचरिमंतपदेसा। (६) अचरमान्त प्रदेश (बहुवचन-मध्यवर्ती) नहीं हैं। णियमा-अचरिमं च, चरिमाणि य, किन्तु निश्चितरूप से अचरम है। (क्योंकि पर्यन्तवर्ती चरमखण्डों की अपेक्षा से रत्नप्रभा का एक बहुत बड़ा खण्ड अचरम (मध्य में) है।) चरम (बहुवचन-मध्यवर्ती) हैं-(क्यों कि रत्नप्रभा के पर्यन्तवर्ती खण्ड जो लोकान्तरूप हैं वे अनेक हैं।) चरिमंतपदेसा य, चरमान्तप्रदेश हैं-(लोकान्तरूप प्रदेश-चरमान्तप्रदेश हैं)। अचरिमंतपदेसा य । अचरमान्त प्रदेश हैं-(चरमान्त प्रदेशों के मध्यवर्ती सभी प्रदेश अचरमान्त प्रदेश हैं।) एवं जाव अहेसत्तमा पुढवी। इस प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त हैं। -पण्ण पद० १०, सु० ७७५-७७६ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सो-प्रप्ति पुढवी अचरमाईण अप्पाबहूर्य १२१ : प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए अचरिमस्स य परिमाण य, चरिमंतपसाण व अचरिमंतपरसाण यदव्वट्टयाए पसट्टयाए दब्बट्ट-पएसट्टयाए कतरे कतरोहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? उ० गोयमा ! सव्वत्योवे इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए दव्वट्टयाए एगे अचरिमे, चरिमाई असंखेज्जगुणाई, अपरिमं च परिमाणि य दो वि विसेसाहियाई । पदेष्टुपाए सम्बत्योया इमीसे रयणपत्राए पुढयोए चरिमंतपदेखा अचरिमंतपसा असंज्जगुणा चरिमंतपसा य अचरिमतपसा व दो वि विसेसाहिया " अधोलोक - 1 दव्यपदेसट्टयाए सय्यत्योवे इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए दबाए एगे अरिमे, परिमाई असंल असंखेज्जगुणाई अचरिमं च परिमाण व दो वि विसेसा हियाई, परिमंतपएसा असंसेज्जगुणा, अचरिमंत परसा असंखेज्जगुणा, चरिमंतपएसा य अचरिमंत एसा य दो वि विसेसाहिया । एवं नाव आहेसत्तमा । - पण्ण० पद० १०; सु० ७७७-७७८ । रयणप्पभाईतो लोयंतंतरं १२२ : प० इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ केवतियं अबाधाए लोयंते पण्णत्त े ? उ० गोषमा ? बालसह जोयहि अबाधाए लोयंते पण्णत्त । एवं बाहिणिल्लातो पच्चत्थिमिला तो उत्तरस्नातो...... प० सक्करप्पभाए पुढवीए पुरत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ केवतियं अबाधाए लोयंते पण्णत्त ? उ० गोयमा ! तिभागृह तेरसह जोयर्णोह अबाधाए लोयंते पण्णत्त । एवं चउद्दिसि पि । पापण्या पुढवीए पुरथिमिल्लाओ परिमंताओ केवतियं अबाधाए लोयंते पण्णत्त ? उ० गोपमा लोयंते पण्णत्त । A एवं चउद्दिस पि । wwwwwww सतिमागेहि वेरसहि जोहि अबाधाए सूत्र १२१-१२२ पृथ्वियों के अचरमादि पदों का अल्प-बहुत्व : १२१ प्र० हे भगवन्! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के (एकवचन) अचरम (बहुवचन) चरम (बहुवचन) चरमान्त प्रदेश (बहुवचन) और अचरमान्त प्रदेश — ये द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेश की अपेक्षा से तथा द्रव्य- प्रदेश (संयुक्त) की अपेक्षा से, कौन किन से अल्प है, बहुत (अनेक) है, तुल्य है या विशेषाधिक है ? उ० हे गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से सबसे अल्प इस रत्नप्रभा पृथ्वी का एक अचरम है, इससे चरम असंख्य गुण हैं, इनसे अचरम और चरम (संयुक्त) विशेषाधिक है। प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे अल्प इस रत्नप्रभा पृथ्वी के चरमान्त प्रदेश हैं, इनसे अचरमान्त प्रदेश असंख्यगुण हैं, इनसे चरमान्त प्रदेश तथा अचरमान्त प्रदेश (संयुक्त) विशेषाधिक हैं । । द्रव्य - प्रदेश (संयुक्त) की अपेक्षा से सबसे अल्प इस रत्नप्रभा पृथ्वी का (द्रव्य की अपेक्षा से) एक अचरम है, इनसे चरम असंख्यगुण है, इनसे अचरम तथा चरम (संयुक्त) विशेषाधिक है। (प्रदेशों की अपेक्षा से) इनसे चरमान्त प्रदेश असंख्यगुण हैं, इनसे अचरमान्तप्रदेश असंख्यगुण हैं, इनसे चरमान्त तथा अचरमान्त प्रदेश (संयुक्त) विशेषाधिक है। इसी प्रकार यावत् सप्तम पृथ्वी पर्यन्त हैं । रत्नप्रभादि से लोकांत का अन्तर १२२ प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के पूर्वी चरमान्त से बाधारहित लोकांत कितनी दूर कहा गया है ? उ० गौतम ! बारह योजन (दूर) बाधारहित लोकांत कहा गया है । इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर के चरमान्तों से भी है। प्र० शर्कराप्रभा पृथ्वी के पूर्वी चरमान्त से बाधारहित लोकांत कितनी दूर कहा गया है ? उ० विभागन्यून तेरह पोजन (दूर) बाधारहित लोकांत कहा गया हैं । इसी प्रकार चारों दिशाओं से भी है। प्र० बालुकाप्रभा पृथ्वी के पूर्वी परमान्त से बाधारहित लोकांत कितना दूर कहा गया है ? उ० गौतम ! तीन भाग सहित तेरह योजन (दूर) बाधा - रहित लोकांत कहा गया है। इसीप्रकार चारों दिशाओं से भी है । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२२-१२४ अधोलोक गणितानुयोग ५७ wwwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm एवं सव्वासि चउसु वि दिसासु पुच्छितव्वं । इसीप्रकार सभी पृथ्वियों की चारों दिशाओं के सम्बन्ध में प्रश्न करने चाहिए। पंकप्पभाए पुढवोए चोद्दसहि जोयणेहिं अबाधाए पंकप्रभा पृथ्वी से चौदह योजन (दूर) बाधारहित लोयते पण्णत्ते। लोकांत कहा गया है। पंचमाए–तिभागणेहि पन्नरसहिं जोयहिं अबा- पाँचवी (पृथ्वी) से तीन भाग न्यून पन्द्रह योजन (दूर) धाए लोयंते पण्णत्ते। बाधारहित लोकांत कहा गया है। छट्ठीए-सतिभागेहि पन्नरसहि जोयर्णाहं अबाधाए छठी (पृथ्वी) से तीन भाग सहित पन्द्रह योजन (दूर) लोयते पण्णत्ते। बाधारहित लोकांत कहा गया है। सत्तमीए-सोलसहि जोयह अबाधाए लोयंते सातवीं (पृथ्वी) से सोलह योजन (दूर) बाधारहित पण्णत्ते। लोकांत कहा गया है। एवं जाव उत्तरिल्लातो। इसी प्रकार यावत् उत्तर के (चरमान्त) से भी है। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ७५ । अधोलोगखेत्तलोए वव्व-काल-भावओ आधेयपरूवणं- द्रव्य-काल और भाव से अधोलोक-क्षेत्रलोक का आधेय प्ररूपण-- १२३ : (१) दव्वओणं अहेलोगखेत्तलोए अणंता जीवदव्वा, अणंता १२३ : (१) द्रव्य से अधोलोक-क्षेत्रलोक में अनन्त जीव द्रव्य हैं अजीवदठवा, अणंता जीवाजीवदव्वा । अनन्त अजीव द्रव्य हैं और अनन्त जीवाजीव द्रव्य हैं। (२) कालओ णं अहेलोगखेत्तलोए न कयावि न आसी, (२) काल से अधोलोक क्षेत्रलोक कभी नहीं था-ऐसा नहीं न कयावि न भवइ, न कयावि न भविस्सइ य, धुवे, हैं, कभी नहीं है-ऐसा नहीं है और कभी नहीं होगा-ऐसा भी णियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे। नहीं है, था, है और रहेगा, (वह) ध्रुव है, नियत है, शास्वत है, अक्षय है, अव्यय हैं, अवस्थित है और नित्य है। (३) भावओ णं अहेलोगखेत्तलोए अणंता वण्णपज्जवा, (३) भाव से अधोलोक-क्षेत्रलोक में अनन्त वर्णपर्यव हैं, गन्ध गंधपज्जवा, रसपज्जवा, फासपज्जवा, अणता पर्यव हैं, रसपर्यव हैं और स्पर्शपर्यव हैं। अनन्त संस्थानपर्यव हैं, संठाणपज्जवा, अणंता गरुयलहुयपज्जवा, अणंता अनन्त गुरु लघुपर्यव हैं तथा अनन्त अगुरु-लघुपर्यव हैं ।.... अगरुयलहुयपज्जवा। -भग० स० ११, उ० १०, सु० २२, २४, २५ । अहेलोगस्स एगागासपएसे जीवाजीवा तद्देसपए- अधोलोक के एक आकाशप्रदेश में जीव, अजीव और सा य उनके देश-प्रदेश१२४:५० बाहेलोगखेत्तलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे १२४ :प्र० भगवन् ! अधोलोक-क्षेत्रलोक के एक आकाशप्रदेश कि जीवा, जीवदेसा, जीवपदेसा, अजीवा, अजीव- में जीव हैं, जीवों के देश हैं, जीवों के प्रदेश हैं, अजीव हैं; अजीवों देसा, अजीवपएसा? के देश हैं, अजीवों के प्रदेश हैं ? उ० गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, उ० गौतम ! (वहाँ) जीव नहीं हैं (किन्तु) जीवों के देश हैं, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि। जीवों के प्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीवों के देश हैं और अजीवों के प्रदेश भी हैं। जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा, वहाँ (१) जो जीवों के देश हैं वे निश्चितरूप से एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं। १. महावीरविद्यालय से प्रकाशित वियाहपण्णत्ति में काल और भाव सम्बन्धी सूत्र २४, २५ में जो जाव हैं उनकी पूर्तियाँ श० २, उ० १, सू० २४ [१] के अनुसार की है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १२४-१२५ अहवा-एगिदियदेसा य, बेइंदियस्स देसे, अहवा-एगिदियदेसा य, बेइंदियाण य देसा, एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव अणि दिएसु जाव । अहवा-एगिदियदेसा य, अणिदियाणदेसा । जे जीवपदेसा ते नियम एगिदियपएसा, अथवा--(२) एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं और बेइन्द्रिय का एक देश हैं। अथवा-(३) एकेन्द्रियों के देश हैं और बेइन्द्रियों के देश हैं। इसप्रकार मध्यमभंगरहित (शेषभंग) यावत् अनिन्द्रियों के हैं यावत् अथवा—एकेन्द्रियों के देश हैं और अनिन्द्रियों के देश हैं। वहाँ जो जीवों के प्रदेश हैं वे निश्चितरूप से एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं। अथवा- एकेन्द्रियों के प्रदेश हैं और एक बेइन्द्रिय के प्रदेश है। अथवा-एकेन्द्रियों के प्रदेश हैं और बेइन्द्रियों के प्रदेश हैं। इसी प्रकार प्रथमभंग रहित (शेषभंग) यावत् पंचेन्द्रियों . अहवा-एगिदियपएसा य, बेइंदियस्स पएसा, अहवा-एगिदियपएसा य, बेइंदियाण य पएसा, एवं आदिल्लविरहिओ जाव पंचिदिए। अणिदिएसु तियभंगो। अनिन्द्रियों के तीनों भंग कहने चाहिये। जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, ते जहा-हवीअजीवा वहाँ जो अजीव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा--रूपी य, अरूबीअजीवा य। अजीव और अरूपी अजीव । रूबी तहेव। .. ___ रूपी अजीवों के कथन के समान है। जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा वहाँ जो अरूपी अजीव हैं वे पाँच प्रकार के कहे गये हैं, यथानो धम्मत्थिकाए । (१) धम्मत्यिकायस्स देसे, (२) धम्म- धर्मास्तिकाय नहीं है । (१) धर्मास्तिकाय का देश । (२) धर्माथिकायस्सपदेसे, एवं ३-४ अधम्मत्थिकायस्स वि, स्तिकाय का प्रदेश। (३) अधर्मास्तिकाय का देश । (४) अधर्मा(५) अद्धासमए। स्तिकाय का प्रदेश । (५) अद्धासमय ।.... -भग० स० ११, उ० १०, सु० १७ । ओवासंतराईणं गरुयत्ताईपरूवणं१२५ : प० (१) सत्तमे णं भंते ! ओवासंतरे किं गरुए ? (२) लहुए ? (३) गरुयलहुए ? (४) अगरुयलहुए ? उ० (१) गोयमा ! नो गरुए। (२) नो लहुए। (३) नो गरुयलहुए । (४) अगरुयलहुए। प० (१) सत्तमे णं भंते ! तणुवाते किं गरुए ? (२) लहुए? .... (३) गरुयलहुए ? (४) अगरुयलहुए? उ० (१) गोयमा ! नो गरुए। (२) नो लहुए। (३) गरुयलहुए । (४) नो अगस्यलहुए। एवं सत्तमे घणवाए, सत्तमे घणोदही, सत्तमा पुढवी। अवकाशान्तर आदि का गुरुत्वादि प्ररूपण१२५ : प्र० (१) भगवन् ! सप्तम अवकाशान्तर क्या गुरु है ? (२) लघु है ? (३) गुरु-लघु है ? (४) या अगुरु-लघु है ? उ० (१) गौतम ! (सप्तम अवकाशान्तर) गुरु नहीं हैं ? (२) लघु नहीं है। (३) गुरुलघु नहीं है । (४) अगुरुलघु है। प्र० (१) भगवन् ! सप्तम तनुवात क्या गुरु है ? (२) लघु है ? (३) गुरु लघु है ? (४) या अगुरु लघु है ? उ० (१) गौतम ! (सप्तम तनुवात) गुरु नहीं है। (२) लघु नहीं है। (३) गुरु लघु है । (४) अगुरु लघु नहीं हैं। इसप्रकार सप्तम घनवात, सप्तम घनोदधी और सप्तमा पृथ्वी है। सभी अवकाशान्तर सप्तम अवकाशान्तर जैसे हैं। जिस प्रकार तनुवात गुरु-लघु है इसी प्रकार अवकाश घनवात घनोदधि, पृथ्वी, द्वीप, सागर और वर्ष (क्षेत्र) हैं।... ओवासंतराइं सव्वाइं जहा सत्तमे ओवासतरे। सेमा जहा तणुवाए। एवं ओवास-वाय-घणउदही- पुढवी-दीवा य सागरा वासा। -भग० स० १, उ० ६, सु० ४- ५ [१-४] । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२६-१२७ अधोलोक गणितानुयोग ५६ नेरइयठाणाई नैरयिकों के स्थान१२६ : प० [१] कहि णं भंते ! नेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं १२६ : प्र० [१] हे भगवन् ! पर्याप्त तथा अपर्याप्त नैरयिकों के ठाणा पण्णता? स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं भंते ! नेरइया परिवसंति ? [२] हे भगवन् ! वे नैरयिक कहाँ रहते हैं ? उ० [१] गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु पुढवीसु, तं जहा- उ० [१] हे गौतम ! सात पृथ्वियों में इन नैरयिकों के अपने (१) रयणप्पभाए। (२) सक्करप्पभाए। अपने स्थान हैं, यथा-(१) रत्नप्रभा, (२) शर्कराप्रभा, (३) (३) वालुयप्पभाए। (४) पंकप्पभाए। वालुकाप्रभा, (४) पंकप्रभा, (५) धूमप्रभा, (६) तमःप्रभा, (७) (५) धूमप्पभाए। (६) तमप्पभाए। तमस्तमःप्रभा (७) तमतमप्पभाए। एत्थ णं णेर इयाणं चउरासोति णिरयावाससयसहस्सा इन पृथ्वियों में नैरयिकों के चौरासी लाख नरकावास हैंभवंतीतिमक्खायं ।' ऐसा कहा गया है। तेणं गरगा अंतो बट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पसंठा- वे नरकावास अन्दर से वृत्त (गोल) हैं, बाहिर से चतुष्कोण : संठिया, णिच्चंधयारतमसा, ववगयगह-चंद-सूर- हैं, नीचे से तीक्ष्ण खुरपे जैसी आकृति वाले हैं । प्रकाश के अभाव णक्ख-त्तजोइसपहा, से सदा अन्धकार वाले हैं क्योंकि ग्रह-चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र-इन ज्योतिषी । देवों के (संचार) पथ वहाँ नहीं है। मेद-वसा-पूय-रुहिर-मंस चिक्खल्ललित्ताणुलेवणतला, उन (नरकावासों) के तल मेद-वसा-पूय-पटल-रुधिर-मांस के असुई, वीसा, परमदुब्भिगंधा, कीचड़ से लिप्त हैं, अशुचिविष्ठा जैसी अत्यन्त दुर्गन्ध वाले हैं। काऊअगणिवण्णाभा, कक्खडफासा, दुरहियासा, कापोता जैसे वर्ण वाले हैं, कर्कश स्पर्श वाले हैं, असह्य हैं। असुभा गरगा, असुभा गरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं अतएव ये नरकावास अशुभ हैं। इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ णेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। है-इन नरकावासों में पर्याप्त तथा अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान । कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नरयिक उत्पन्न होते हैं। ' समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। सद्राणेणं लोयस्स असंखेज्जइमागे, एत्थ णं बहवे लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने-अपने रइया परिवसंति । स्थान हैं। इनमें अनेक नैरयिक रहते हैं। काला कालोभासा गंभीरलोम-हरिसा भीमा उत्ता- ये नैरयिक कृष्ण वर्णवाले हैं, कृष्ण कान्तिवाले हैं, जिनके सणगा परमकण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो !' देखने से अत्यधिक रोमांच हों-ऐसे भयंकर हैं त्रास उत्पन्न करने वाले हैं, हे आयुष्मन् ! श्रमण ! ये नैरयिक वर्ण से अत्यन्त कृष्ण वर्ण वाले हैं। तेजतत्थ णिच्चं भीता, णिच्चं तत्था, णिच्चं उन नरकावासों में ये नैरयिक नित्य भयभीत रहते हैं, नित्य तसिया, णिच्चं उब्विग्गा, णिच्चं परममसुहं संबद्ध त्रस्त रहते हैं, (परमाधार्मिकों द्वारा या परस्पर) नित्य त्रस्त रहते णरगमयं पच्चणुभवमाणा विहरंति।। हैं, नित्य उद्विग्न रहते हैं और नित्य (निरन्तर) अशुभ-सम्बद नरक __ -- पण्ण० पद० २, सु० १६७। भय का अनुभव करते रहते हैं। . रयणप्पभापुढविनेरइयठाणाइं रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक स्थान१२७ : प० [१] कहि णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइयाणं पज्ज- १२७ : प्र० [१] हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और त्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? (क) सम० ८४, सु०१। (ख) भग० स०६, उ०६, सु० १-१-२]। (ग) भग० स०१, उ०६, सु०१। २. जीवा०प० ३, उ०१, सु० ८७। ३. जीवा०प० ३, उ०१, सु० ८६ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १२७-१२६ [२] कहि णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइया परिवसंति? [२] हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते हैं ? उ०[१] गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए असी- उ० [१] हे गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन की उत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं मोटाई वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार अन्दर जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेद्रा वेगं जोयण- प्रवेश करने पर और नीचे एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख सहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अगृहत्तरे जोयणसयसहस्से अठत्तर हजार योजनप्रमाण मध्यभाग में रत्नप्रभा पृथ्वी के एत्थ णं रयणप्पभापुढविणेरइयाणं तीसं णिरया- नैरयिकों के तीसलाख नरकावास हैं - ऐसा कहा गया है। वाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं ।' ते णं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, (जाव) ये नरकावास अन्दर से वृत्त (गोल) हैं, बाहर से चतुष्कोण असुभा णरगेसु वेयणाओ। हैं (यावत्) इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ है। एत्थ णं रयणप्पभापुढविणेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्ज- इन नरकावासों में रत्नप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त ताणं ठाणा पण्णत्ता। नरयिकों के स्थान कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइमागे, लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे-एत्य णं बहवे लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान हैं। रयणप्पभापुढविणेरइया परिवसंति। इनमें रत्नप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं । काला (जाव) गरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति। (ये नैरयिक) कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत्) नरकभयका अनु भव करते हैं। -षण्ण० पद० २, सु० १६८ । रयणप्पभाए छ महानिरया रत्नप्रभा में छ महानरकावास१२८: जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणमिमीसे रयण- १२८ : जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशा की प्पभाए पुढवीए छ अवक्कंतमहानिरया पण्णत्ता, तं जहा- ओर रत्नप्रभा पृथ्वी में छह अपक्रान्त (अत्यन्त निकृष्ट) महा नरकावास कहे गये हैं, यथा(१) लोले, (२) लोलुए, (१) लोल । (२) लोलुक । (३) उदड्ढे, (४) निदड्ढे, (३) उद्दग्ध । (४) निर्दग्ध । (५) जरए, (६) पज्जरए। (५) जरक। (६) और प्रजरक। -ठाणं०६, सु० ५१५॥ सक्करप्पभा नेरइयठाणाई१२९ : प० [१] कहि णं भंते ! सक्करप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? [२] कहि णं भंते ! सक्करप्पभापुढविनेरइया परिवसंति? शर्कराप्रभा के नैरयिक स्थान१२६ :प्र० [१] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते हैं ? १. (क) सम० ३०, सु०८। (ख) भग० स० १३, उ० १, सु०४। (ग) भग० स० २, उ० ५, सु० २। २. जीवा०प० ३, उ० १, सु० ८१ । (घ) भग० स० ६, उ० ६, सु० १ [१-२] । (ङ) भग० स० २५, उ० ३, सु० ११४ । (च) सम० सु० १४६, १५० । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२६-१३० अधोलोक गणितानुयोग ६१ उ० [१] गोयमा ! सक्करप्पभाए पुढवीए बत्तीसुत्तर उ० [१] हे गौतम ! एक लाख बतीस हजार योजन की जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयण- मोटाई वाली शर्कराप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार अन्दर सहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं प्रवेश करने पर और नीचे एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख वज्जित्ता मज्झे तीसुत्तरे जोयणसयसहस्से-एत्थ तीस हजार योजन प्रमाण मध्यभाग में शर्कराप्रभा पृथ्वी के णं सक्करप्पभा पुढविणेरइयाणं पणवीसं नैरयिकों के पच्चीस लाख नरकावास हैं-ऐसा कहा गया है। णिरयावाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं । ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा (जाव) ये नरकावास अन्दर से वृत्ताकार है, बाहर से चतुष्कोण हैं असुभा गरगेसु वेयणाओ। (यावत्) इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ हैं। एत्थ णं सक्करप्पभा पुढविणेरइयाणं पज्ज- इन नरकावासों में शर्कराप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त त्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइमागे-तत्थ गं बहवे लोक के असंख्यातवें भाग में इन नरयिकों के अपने स्थान हैं सक्करप्पमा पुढविणेरइया परिवसंति । इनमें शर्कराप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं । काला(जाव) णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति । ये नैरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत) नरक भयका अनुभव -पण्ण० पद० २, सु० १६६। करते रहते हैं । वालुयप्पभा नेरइयठाणाई वालुकाप्रभा के नैरयिक स्थान१३०प० [१] कहि णं भंते ! वालुयप्पभा पुढविनेरइयाणं १३० प्र० [१] हे भगवन् ! वालुकाप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं भंते ! वालुयप्पभा पुढविनेरइया परि- [२] हे भगवन् ! वालुकाप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते वसंति ? उ० [१] गोयमा ! वालुयप्पभाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तर- उ०[१] हे गौतम ! एक लाख अट्ठाईस हजार योजन की जोयणसयसहस्स बाहल्लाए उरि एगं जोयण- मोटाई वाली वालुकाप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन सहस्सं ओगाहेत्ता हेढा वेगं जोयणसहस्सं अन्दर प्रवेश करने पर और नीचे एक हजार योजन छोड़ने पर एक वज्जेत्ता मज्झे छन्वीसुत्तरे जोयणसयसहस्से- लाख छब्बीस हजार योजनप्रमाण मध्यभाग में वालुकाप्रभा पृथ्वी एत्थ णं वालयप्पभा पुढविनेरइयाणं पण्णरस के नैरयिकों के पन्द्रह लाख नरकावास है-ऐसा कहा गया है। निरयावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं ।' ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा (जाव) ये नरकावास अन्दर से वृत्ताकार हैं बाहर से चतुष्कोण हैं। असभा णरयेस वेयणाओ-एत्थ णं वालुयप्पभा (यावत्) इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ है-इन नरकावासों पढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा में वालुकाप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त पथा अपर्याप्त नरयिकों के स्थान पण्णत्ता। कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं । सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जहभागे-तत्य णं लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान बहवे वालुयप्पभा पुढविनेरइया परिवसंति। हैं। इनमें वालुकाप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं। काला (जाव) णरगमयं पच्चणुभवमाणा ये नैरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत) नरक भयका अनुभव विहरंति। -पण्ण० पद० २, सु० १७०। करते रहते हैं। (ख) भग० स० १३, उ० १, सु० १० । (क) सम० २५, सु०४।। २. जीवा०प०३, उ०१, सु०८१। , भग० स०१३, उ०१, सु० १२ । ४. जीवा० प० ३, उ०१, सु० ८१ । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १३१-१३३ पंकप्पभानेरइयाणं ठाणाई पंकप्रभा के नैरयिक स्थान१३१ : प० [१] कहि णं भते ! पंकप्पमा पुढविनेरइयाणं १३१ : प्र० [१] हे भगवन् ! पंकप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ! [२] कहि णं भंते ! पंकप्पभा पुढविनेरइया परि- [२] हे भगवन् ! पंकप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ पर रहते वसंति ? उ० [१] गोयमा! पंकप्पभाए पुढवीए वीसुत्तरजोयण- उ० [१] हे गौतम ! एक लाख बीस हजार योजन की मोटाई सयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं वाली पंकप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अन्दर से प्रवेश ओगाहित्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता, करने पर नीचे एक हजार योजन छोड़कर एक लाख अठारह मज्झे अटारसुत्तरे जोयणसयसहस्से-एत्थ णं हजार योजन प्रमाण मध्यभाग में पंकप्रभा पृथ्वी के नैरथिकों के पंकप्पभा पुढविणेरइया णं दस णिरयावास- दस लाख नरकावास हैं-ऐसा कहा गया है। सयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं ।' ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा (जाव) ये नरकावास अन्दर से वृत्ताकार हैं, बाहर से चतुष्कोण हैं, असभा णरगेस वेयणाओ-एत्थ णं पंकप्पमा (यावत्) इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ है-इन नरकावासों पूढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा में पंकप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त नरयिकों के स्थान कहे पण्णत्ता। गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइमागे, लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे-तत्य णं लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान है, बहवे पंकप्पमा पुढविनेरइया परिवसंति। इनमें पंकप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं। काला (जाव) णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरति । ये नैरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत) नरकभयका अनुभव –पण्ण० पद० २, सु० १७१। करते रहते हैं। पंकप्पभाए छ महानिरया पंकप्रभा में छ महानरकावास१३२: चउत्थीए णं पंकप्पभाए पुढवीए छ अवक्कता महानिरया १३२ : चौथी पंकप्रभा पृथ्वी में छह अपक्रान्त महानरकावास कहे पण्णता, तं जहा गये हैं, यथा(१) आरे, (२) वारे, (१) आर। (२) वार। (३) मारे, (४) रोरे, (३) मार। (४) रोर। (५) रोरुए, (६) खाडखडे । (५) रौरव । (६) खाडखड । -ठाणं० ६, सु० ५१५। धूमप्पभानेरइयाणं ठाणाई१३३ : प० [१] कहि णं भंते ! धूमप्पमापुढविनेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? [२] कहि णं भंते ! धूमप्पभापुढविनेरइया परि- वसंति ? धूमप्रभा के नैरयिक स्थान१३३ : प्र० [१] हे भगवन् ! धूमप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] हे भगवन् ! धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते हैं ? (ख) भग० स० १३, उ० १, सु० १३ । १. (क) ठाणं १०, सु० ७५७ । (ग) सम० १०, सु० ११ । २. जीवा०प० ३, उ० १, सु० ८१ । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३३-१३४ अधोलोक गणितानुयोग ६३ उ० [१] गोयमा ! धूमप्पभाए पुढवीए अट्ठारसुत्तर- उ० [१] हे गौतम ! एक लाख अठारह हजार योजन की जोयणसयसहस्सबाहल्लाए' उरि एगं जोयण- मोटाई वाली धूमप्रभा के ऊपर से एक हजार योजन अन्दर प्रवेश सहस्सं ओगाहित्ता, हिट्ठा वेगं जोयणसहस्सं करने पर और नीचे एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख सोलह वज्जेत्ता मझे सोलसुत्तरे जोयणसयसहस्से- हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में धूमप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों के एत्य गं धूमप्पभापुढविनेरइयाणं तिन्नि तीन लाख नरकावास हैं-ऐसा कहा गया है। निरयावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं ।। ते णं जरगा अंतो वट्टा बाहि चउरंसा (जाव) ये नरकावास अन्दर से वृत्ताकार (गोलाकार) हैं, बाहर से असुभानरगेसु वेयणाओ-एत्थ णं धूमप्पमा चोकोर हैं (यावत्) इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ है। इन पुढ विनेरयाइंपज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। नरकावासों में धमप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइमागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नरयिक उत्पन्न होते हैं । समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे-तत्थ णं लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान हैं, बहवे धूमप्पमा पुढविनेरइया परिवसंति। इनमें धूमप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं । काला (जाव) णरगमयं पच्चणुभवमाणा ये नैरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत्) नरक भयका अनुभव विहरति । करते रहते हैं। -पण्ण पद० २, सु० १७२ । तमप्पभानेरइयाणं ठाणाइं-- तमःप्रभा के नैरयिक स्थान१३४:५० [१] कहि णं भंते ! तमप्पभापुढविनेरइयाणं १३४ : प्र० [१] हे भगवन् ! तमःप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं भंते ! तमप्पभापुढविनेरइया परि- [२] हे भगवन् ! तमःप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ रहते हैं ? वसंति ? उ० [१] गोयमा ! तमप्पभाएपुढवीए सोलसुत्तर उ० [१] हे गौतम ! एक लाख सोलह हजार योजन की जोयणसयसहस्स बाहल्लाए उरि एगं जोयण- मोटाई वाली तमःप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अन्दर सहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं प्रवेश करने पर और नीचे एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख वज्जेत्ता, मज्झे चोद्दसुत्तरे जोयणसयसहस्से- चौदह हजार योजनप्रमाण मध्यभाग में तमःप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों एत्य णं तमप्पमा पुढविनेरइयाणं एगे पंचूणे के पाँच कम एक लाख नरकावास हैं-ऐसा कहा गया है। परगावाससयसहस्से भवंतीतिमक्खायं ।' ते णं णरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा (जाव) ये नरकावास अन्दर से गोलाकार हैं, बाहर से चोकोर हैं असमा नरगेसु वेयणाओ-एत्थ णं तमप्पमा (यावत्) इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ है। इन नरकावासों पढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा में तमःप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान पण्णत्ता। कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइमागे, लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। २. सम० १८, सु०७। (क) ठाणं ३, उ० १, मु. १४७ । जीवा०प०३, उ०१, सु० ८१ । जीवा०प० ३, उ० १, सु० ८१ । (ख) भग० स० १३, उ० १, सु० १४ । ४. भग० स० १३, उ०१, सु०१५। ५. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १३४-१३६ सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे-तत्य गं बहवे तमप्पमा पुढविनेरइया परिवसंति । काला (जाव) नरगमयं पच्चणुभवमाणा विहरंति। -पण्ण० पद० २, सु० १७३ । लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान है, इनमें तमःप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं। ये नैरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं (यावत्) नरक भयका अनुभव करते रहते हैं। तमतमापुढविनेरइयाणं ठाणाई तमस्तमा पृथ्वी के नैरयिक स्थान१३५ : प० [१] कहि णं भंते ! तमतमापुढविनेरइयाणं पज्जत्ता- १३५ : प्र० [१] हे भगवन् ! तमस्तमःप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त ऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? और अपर्याप्त नरयिकों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं मंते ? तमतमापुढ विनेरइया परि- [२] हे भगवन् ! तमस्तमःप्रभा पृथ्वी के नैरयिक कहाँ वसंति? रहते हैं? उ० [१] गोयमा ! तमतमाए पुढवीए अट्ठोत्तरजोयण- उ० [१] हे गौतम ! एक लाख आठ हजार योजन की सयसहस्सबाहल्लाए उरि अद्धतेवण्णं जोयण- मोटाई वाली तमस्तमःप्रभा पृथ्वी के ऊपर से साढ़े बावन हजार सहस्साइं ओगाहित्ता, हेट्ठा वि अद्धतेवण्णं योजन अन्दर प्रवेश करने पर और नीचे साढ़े बावन हजार योजन वज्जेत्ता, मज्झे तिसु जोयणसहस्सेसु- एत्य णं छोड़ने पर तीन हजार योजन प्रमाण मध्यभाग में तमस्तमःप्रभा तमतमापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं' पंच- पृथ्वी के नरयिकों के पाँच दिशाओं में अति विशाल पाँच नरकादिसि पंच अणुत्तरा महइमहालया महाणिरया वास कहे गये हैं, यथा-(१) काल, (२) महाकाल, (३) रौर व, पण्णत्ता, तं जहा-(१) काले, (२) महाकाले, (४) महारौरव, (५) और अप्रतिष्ठान । (३) रोरुए, (४) महारोरुए, (५) अप्पइट्ठाणे।' ते णं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा (जाव) ये नरकावास अन्दर से वृत्ताकार हैं, बाहर से चतुष्कोण हैं, असुभा नरगेसु वेयणाओ-एत्थ णं तमतमा- यावत् इन नरकावासों में वेदना भी अशुभ है। इन नरकावासों पढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा में तमस्तमःप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त तथा अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान पण्णत्ता। कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोयस्स असंखेज्जहभागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक उत्पन्न होते हैं। समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, लोक के असंख्यातवें भाग में ये नैरयिक समुद्घात करते हैं। सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइमागे-तत्थ णं लोक के असंख्यातवें भाग में इन नैरयिकों के अपने स्थान हैं, बहवे तमतमापुढविनेरइया परिवसंति । इनमें तमस्तमःप्रभा पृथ्वी के अनेक नैरयिक रहते हैं। काला (जाव) णरगभयं पच्चणभवमाणा ये नरयिक कृष्ण वर्ण वाले हैं यावत नरक भयका अनभव विहरति । करते रहते हैं। -पण्ण पद० २, सु० १७४ । १. २. ३. सम० सु०१४६, १५० । (क) भग० स० १३, उ० १, सु० १६ । (ख) ठाणं० ५, उ० ३, सु० ४५१ । जीवा०प० ३, उ० १, सु० ८१ । "पर्याप्त तथा अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ है ?" यह प्रथम प्रश्न है और "वे कहाँ रहते हैं ?" यह द्वितीय प्रश्न है। इन दोनों प्रश्नों के उत्तर भी यहाँ क्रमशः दो ही दिये हैं। महावीर विद्यालय से प्रकाशित प्रज्ञापना स्थान पद सूत्रांक १६७, १६८ और १६६ में यही क्रम रहा। किन्तु सूत्रांक १७० से १७४ पर्यन्त सभी सूत्रों में केवल प्रथम प्रश्न है, द्वितीय प्रश्न नहीं है। जबकि पूर्ववत् उत्तर दोनों ही हैं। इन सत्रों में संक्षिप्त वाचनासूचक जाव, जहा, एवं आदि संकेत वाक्य भी नहीं है। पाठकों की सुविधा के लिए यहाँ सूत्रांक १७० से १७४ पर्यन्त सभी में दो प्रश्न और उनके दो उत्तर क्रमशः दिये गये हैं। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३६-१४१ अधोलोक गणितानुयोग ६५ अप्पइट्ठाणणरयस्स आयाम-विक्खंभा अप्रतिष्ठान नरकावास का आयाम-विष्कंभ१३६ : अप्पइट्ठाणे नरए एग जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं १३६ : अप्रतिष्ठान नरकावास एक लाख योजन का लम्बा चौड़ा पण्णत्ते। कहा गया है। -सम० १, सु० २० । सत्तपुढवीणं बाहल्लं सप्त पृथ्वियों का बाहल्य१३७ : गाहा १३७ : गाथार्थ :(१) आसीतं १. रत्नप्रभा पृथ्वी का बाहल्य-१,८०,००० योजन हैं। (२) बत्तीसं २. शर्कराप्रभा पृथ्वी का बाहल्य-१,३२,००० योजन हैं। (३) अट्ठावीसं च होइ ३. वालुकाप्रभा पृथ्वी का बाहल्य-१,२८,००० योजन हैं। (४) वीसं च । ४. पंकप्रभा पृथ्वी का बाहल्य-१,२०,००० योजन हैं। (५) अट्ठारस ५. धूमप्रभा पृथ्वी का बाहल्य-१,१८,००० योजन हैं। (६) सोलसगं ६. तमःप्रभा पृथ्वी का बाहल्य-१,१६,००० योजन हैं। (७) अठ्ठत्तरमेव हिट्ठिमया ॥१॥ ७. नीचे की तमस्तमप्रभा पृथ्वी का बाहल्य-१,०८,००० -पण्ण० पद० २, सु० १७४ । योजन हैं। सत्तपुढविनिरयावासाणं ठाणं सप्त पृथ्वी स्थित नरकावासों के स्थान१३८: गाहाओ १३८ : गाथार्थ :(१) अडहुत्तरं च । १. रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावास १,७८,००० योजन में हैं। . (२) तीसं २. शर्कराप्रभा पृथ्वी के नरकावास १,३०,००० योजन में हैं । (३) छन्वीसं चेव सतसहस्सं तु। ३. वालुकाप्रभा पृथ्वी के नरकावास १,२६,००० योजन में हैं। (४) अट्ठारस ४. पंकप्रभा पृथ्वी के नरकावास १,१८,००० योजन में हैं। (५) सोलसगं ५. धूमप्रभा पृथ्वी के नरकावास १,१६,००० योजन में हैं। (६) चोद्दसमहियं तु छट्ठीए ॥२॥ ६. तमःप्रभा पृथ्वी के नरकावास १,१४,००० योजन में हैं। (७) अतिवण्णसहस्सा उवरिमाहे वज्जिऊणतो मणियं । ७. साढ़े बावन हजार योजन ऊपर और नीचे छोड़कर मध्य मझे उ तिसु सहस्सेसु होंति नरगा तमतमाए ॥३॥ में तमस्तमःप्रभापृथ्वी के नरकावास-३,००० योजन में है -पण्ण० पद० २, सु० १७४ । कहा है। निरयावासाणं संजुत्तसंखा नरकावासों की संयुक्त संख्या१३६ : पढम-पंचम-छट्ठी-सत्तमीसु चउसु पुढवीसु चोत्तीसं निरया- १३६ : प्रथम, पंचम, षष्ठ और सप्तम, इन चार पृथ्वियों में वाससयसहस्सा पण्णत्ता। (सब को मिलाकर) चौतीस लाख नरकावास कहे गये हैं । - सम० ३४, सु०६।। १४०: बितिय-चउत्थीसु दोसु पुढवीसु पणतीसं निरयावाससय- १४० : द्वितीय तथा चतुर्थ, इन दोनों पृश्वियों में पैंतीस लाख सहस्सा पण्णत्ता। नरकावास कहे गये हैं। -सम० ३५, सु०६। १४१: दोच्च-चउत्थ-पंचम छट्ठ-सत्तमासु णं पंचसु पुढवीसु एगूणा- १४१ : द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और सप्तम, इन पाँचों पृथ्वियों चत्तालीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । में उनतालीस लाख नरकावास कहे गये हैं। -सम०३६, सु०३। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १४२-१४७ wwwwwwwwwww १४२ : चउसु पढवीसु एक्कचत्तालीसं निरयावाससयसहस्सा १४२ : चार पृथ्वियों में इकतालीस लाख नरकावास कहे गये हैं, पण्णत्ता, तं जहा–रयणप्पभाए, पंकप्पभाए, तमाए, यथा-- रत्नप्रभा, पंकप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमःप्रभा । तमतमाए। -सम० ४१, सु०२। १४३: पढम-चउत्थ-पंचमासु पुढवीस तेयालीसं निरयावाससय- १४३ : प्रथम, चतुर्थ तथा पंचम पृथ्वियों में तियालीस लाख सहस्सा पण्णत्ता। नरकावास कहे गये हैं। -सम० ४३, सु०२। १४४: पढम-बिइयासु दोसु पुढवीसु पणवन्न निरयावाससय- १४४ : प्रथम तथा द्वितीय, दोनों पृथ्वियों में पचपन लाख नरकासहस्सा पण्णत्ता। वास कहे गये हैं। -सम० ५५, सु०५। १४५ : पढम-दोच्च-पंचमासु तिसु पुढवीस अट्रावन निरयावास- १४५ : प्रथम, द्वितीय और पंचम, इन तीनों पृथ्वियों में अठावन सयसहस्सा पण्णत्ता। लाख नरकावास कहे गये हैं। -सम०५८, सु०१। '१४६ : चउत्थवज्जासु छसु पुढवीसु चोवतरि निरयावाससय- १४६ : चतुर्थ को छोड़कर शेष छह पृथ्वियों में चौहत्तर लाख सहस्सा पण्णत्ता। नरकावास कहे गये हैं। -सम०७४, सु० ४। . पुढवीसु निरयावासा-- पृथ्वियों में नरकावास१४७:५० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवइया निरया- १४७ :प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने लाख नरकावाससयसहस्सा पण्णता? वास कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! तीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता। उ. गौतम ! तीसलाख नरकावास कहे गये हैं। एवं एएणं अभिलावेणं सवासि पुच्छा, इमा इस प्रकार ऐसे प्रश्नोत्तरों से इस गाथा की व्याख्या गाहा अणुगंतव्वा करनी चाहिए। (१) तीसा य रत्नप्रभा में तीस लाख नरकावास हैं। (२) पण्णवीसा शर्कराप्रभा में पच्चीसलाख नरकावास हैं, (३) पण्णरस वालुकाप्रभा में पन्द्रहलाख नरकावास हैं, (४) दसेव पंकप्रभा में दसलाख नरकावास हैं, (५) तिण्णि य हवंति। धूमप्रभा में तीनलाख नरकावास हैं, (६) पंचूणसयसहस्सं तमःप्रभा में पाँच कम एकलाख नरकावास हैं, (७) पंचेव अणुत्तरा णरगा।' तमस्तमःप्रभा में पाँच बहुत बड़े नरकावास है, १. (क) सम० सु० १५०। (ग) पण्ण० पद २, सु० १७४ । (ख) भग० स० १, उ० ५, सु० १, २ । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १४७ अधोलोक गणितानुयोग जाव अहे सत्तमाए पंच अणुत्तरा महति-महालया महाणरगा पण्णत्ता, तं जहा१, काले, २. महाकाले, ३. रोरुए, ४. महारोरुए, ५. अपइट्ठाणे। -- जीवा० पडि० ३, उ० १, सु०७० । यावत् नीचे सातवीं पृथ्वी में पाँच सबसे बड़े अति विस्तृत महानरकावास कहे गये हैं, यथा (१) काल, (२) महाकाल, (३) रोरुक, (४) महारोरुक, (५) अप्रतिष्ठान । पाँच नरकावासों का दिशा विभाग१. क-गाहा–पुव्वेण होइ कालो, अवरेणं, अपइट्ठ, महकालो। रोरू दाहिणपासे, उत्तरपासे महारोरू। ख–रत्नप्रभा से लेकर तमःप्रभा पर्यंत छह पृथ्वियों में से प्रत्येक पृथ्वी में दो प्रकार के नरकावास हैं । (१) आवलिका प्रविष्ट और (२) आवलिकाबाह्य (प्रकीर्णक विखरे हुए)। (१) रत्नप्रभापृथ्वी में १३ प्रस्तट (भवन की भूमिका तुल्य) हैं। प्रथम प्रस्तट की पूर्वादि चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ४६, ४६ आवलिका-प्रविष्ट नरकावास हैं और चार विदिशाओं में से प्रत्येक विदिशा में ४८, ४८ आवलिका प्रस्तट हैं। मध्य में सीमंतक नाम का नरकेन्द्रक (प्रमुख) नरकावास है। इस प्रकार प्रथम प्रस्तट में आवलिकाप्रविष्ट नरकावास ३८९ हैं। शेष बारह प्रस्तटों में से प्रत्येक प्रस्तट की दिशा तथा विदिशाओं में एक-एक नरकावास कम होने पर प्रत्येक प्रस्तट में आठ-आठ नरकावास कम हो जाते हैं। प्रथम प्रस्तट में ३८९ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। द्वितीय प्रस्तट में ३८१ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। तृतीय प्रस्तट में ३७३ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। चतुर्थ प्रस्तट में ३६५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। पंचम प्रस्तट में ३५७ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । षष्ठ प्रस्तट में ३४६ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। सप्तम प्रस्तट में ३४१ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास है। अष्ठम प्रस्तट में ३३३ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। नवम प्रस्तट में ३२५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। दशम प्रस्तट में ३१७ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। एकादश प्रस्तट में ३०६ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं। द्वादश प्रस्तट में ३०१ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं। त्रयोदश प्रस्तट में २६३ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं । इन तेरह प्रस्तटों में आवलिकाप्रविष्ट नरकावास ४४३३ हैं। और आवलिकाबाह्य (प्रकीर्णक) नरकावास उनतीस लाख पिचानवे हजार पाँच सौ ससठ (२६,६५,५,६७) हैं। आवलिकाप्रविष्ट और आवलिकाबाह्य नरकावासों की संयुक्त संख्या तीस लाख (३००००००) हैं। माहा-सत्तट्ठी पंचसया, पणनउइसहस्स लक्खगुणतीसं । रयणाए सेढीगया, चोयालसया उ तित्तीसं ॥ (२) शर्कराप्रभा में ११ प्रस्तट हैं प्रथम प्रस्तट की पूर्वादि चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ३६,३६ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं और प्रत्येक विदिशा में ३५, ३५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। मध्य में एक नरकेन्द्रक प्रमुख नरकावास है। इस प्रकार प्रथम प्रस्तट में आवलिकाप्रविष्ट २८५ नरकावास है। (क्रमशः) Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १४७-टिप्पण www शेष दस प्रस्तटों में से प्रत्येक प्रस्तट की पूर्वादि चारों दिशा तथा विदिशाओं में से एक-एक नरकावास कम होने पर प्रत्येक प्रस्तट में ८, ८ नरकावास कम हो जाते हैं। प्रथम प्रस्तट में २८५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। द्वितीय प्रस्तट में २७७ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। तृतीय प्रस्तट में २६६ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। चतुर्थ प्रस्तट में २६१ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । पंचम प्रस्तट में २५३ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। षष्ठ प्रस्तट में २४५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। सप्तम प्रस्तट में २३७ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। अष्टम प्रस्तट में २२६ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। नवम प्रस्तट में २२१ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। दशम प्रस्तट में २१३ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं । एकादश प्रस्तट में २०५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । इस प्रकार ११ प्रस्तटों में आवलिकाप्रविष्ट नरकावास २६६५ हैं और आवलिकाबाह्य (प्रकीर्णक) नरकावास चौबीस लाख सत्तानवें हजार तीन सौ पाँच (२४,९७,३०५) हैं। आवलिकाप्रविष्ट और आवलिका बाह्य नरकावासों की संयुक्त संख्या पच्चीस लाख (२५०००००) है। गाहा–सत्ताणउइ सहस्सा, चउवीसं लक्ख तिसय पंचऽहिया । बीयाए सेढिगया, छव्वीससया उ पणनउया ।। (३) वालुकाप्रभा में प्रस्तट है प्रथम प्रस्तट की पूर्वादि चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में २५, २५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं और प्रत्येक विदिशा में २४, २४ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं। मध्य में एक नरकेन्द्रक-प्रमुख नरकावास है। इस प्रकार प्रथम प्रस्तट में आवलिका प्रविष्ट नरकावास १६७ हैं। शेष आठ प्रस्तटों की प्रत्येक दिशा-विदिशा में एक-एक नरकावास कम होने पर प्रत्येक प्रस्तट में आठ-आठ नरकावास कम हो जाते हैं। प्रथम प्रस्तट में १९७ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । द्वितीय प्रस्तट में १८६ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । तृतीय प्रस्तट में १८२ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। चतुर्थ प्रस्तट में १७३ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । पंचम प्रस्तट में १६५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। षष्ठ प्रस्तट में १५७ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । सप्तम प्रस्तट में १४६ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। अष्टम प्रस्तट में १४१ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । नवम प्रस्तट में १३३ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। इस प्रकार प्रस्तटों में आवलिकाप्रविष्ट नरकावास १४८५ हैं। और आवलिका बाह्य नरकावास चौदह लाख अठानवे हजार पाँच सौ पन्द्रह (१४,६८,५१५) हैं। आवलिकाप्रविष्ट और आवलिकाबाह्य नरकावासों की संयुक्त संख्या पन्द्रह लाख (१५०००००) हैं। गाहा-पंचसया पन्नारा, अडनवइ सहस्स लक्ख चोइस य । तइयाए सेढिगया, . पणसीया चोइससया उ ।। (४) पंकप्रभा में सात प्रस्तट हैं प्रथम प्रस्तट की पूर्वादि चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में १६, १६ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं। और प्रत्येक विदिशा में १५, १५ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं । मध्य में एक-नरकेन्द्र प्रमुख नरकावास है। (क्रमशः) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १४७-टिप्पण अधोलोक गणितानुयोग ६६ इस प्रकार प्रथम प्रस्तट में आवलिकाप्रविष्ट नरकावास १२५ है। शेष ६ प्रस्तटों में से प्रत्येक प्रस्तट की प्रत्येक दिशा-विदिशाओं में एक-एक नरकावास कम होने पर प्रत्येक प्रस्तट में आठआठ नरकावास कम हो जाते हैं। प्रथम प्रस्तट में १२५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। द्वितीय प्रस्तट में ११७ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। तृतीय प्रस्तट में १०६ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। चतुथं प्रस्तट में १०१ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। पंचम प्रस्तट में ६३ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। षष्ठ प्रस्तट मे ८५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । सप्तम प्रस्तट में ७७ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । इस प्रकार सात प्रस्तटों में आवलिकाप्रविष्ट नरकावास ७०७ हैं और आवलिकाबाह्य नरकावास नव लाख निन्यानवे हजार दो सौ तिरानवे (S,६६,२६३) हैं। आवलिका प्रविष्ट और आवलिका बाह्य नरकावासों की संयुक्त संख्या दस लाख (१००००००) है। गाहा–तेणउया दोण्णिसया, नवनउइसहस्स नव य लक्खा य । पंकाए सेढिगया, सत्तसया हुंति सत्तहिया ।। (५) धूमप्रभा में पाँच प्रस्तट हैं प्रथम प्रस्तट की पूर्वादि चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में , आवलिकाप्रविष्ट नरकावास है और प्रत्येक विदिशा में ८, ८ आवलिका प्रविष्ट नरकावास है। मध्य में एक नरकेन्द्र (प्रमुख) नरकावास है । इस प्रकार प्रथम प्रस्तट में ६६ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं । शेष चार प्रस्तटों में से प्रत्येक प्रस्तट की प्रत्येक दिशा-विदिशा में एक-एक नरकावास कम होने पर प्रत्येक प्रस्तट में ८,८ नरकावास कम हो जाते हैं। प्रथम प्रस्तट में ६६ आवलिका प्रविष्ट नरकावास है। द्वितीय प्रस्तट में ६१ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं। तृतीय प्रस्तट में ५३ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं। चतुर्थ प्रस्तट में ४५ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं। पंचम प्रस्तट में ३७ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं। इस प्रकार पाँच प्रस्तटों में आवलिकाप्रविष्ट नरकावास २६५ हैं और आवलिकाबाह्य (प्रकीर्णक) नरकावास २,६९,७३५ हैं। आवलिकाप्रविष्ट और आवलिकाबाह्य नरकावासों की संयुक्त संख्या ३००००० तीन लाख है। गाहा-सत्तसया पणतीसा, नवनवइ सहस्स दो य लक्खा य । धूमाए सेढिगया, पणसट्ठा दो सया होति ॥ तमःप्रभा में तीन प्रस्तट हैंप्रथम प्रस्तट की पूर्वादि चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ४, ४ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं और प्रत्येक विदिशा में ३, ३ आवलिका प्रविष्ट नरकावास हैं। मध्य में एक नरकेन्द्रक (प्रमुख) नरकावास हैं। इस प्रकार प्रथम प्रस्तट में २६ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष दो प्रस्तटों में से प्रत्येक प्रस्तट की प्रत्येक दिशा-विदिशा में एक-एक नरकावास कम होने पर प्रत्येक प्रस्तट में ८, ८ नरकावास कम हो जाते हैं। प्रथम प्रस्तट में २६ आवलिकाप्रविष्ट नरकाबास हैं। द्वितीय प्रस्तट में २१ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । तृतीय प्रस्तट में १३ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। इस प्रकार तीन प्रस्तटों में ६३ नरकावास आवलिकाप्रविष्ट हैं और ६६, ६३२ नरकावास आवलिका बाह्य हैं। आवलिका प्रविष्ट और आवलिका बाह्य नरकावासों की संयुक्त संख्या ६६,६६५ हैं । गाहा–नवनउई य सहस्सा, नव चेव सया हवंति बत्तीसा। पुढवीए छट्टीए, पइण्णगाणेस संखेवो ॥ * यह टिप्पण आगमोदय समिति प्रकाशित जीवाभिगमप्रतिपत्ति ३, उद्देशक १, सूत्र ७० की संस्कृत टीका के आधार से लिखा गया है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १४८-१४६ णरगाणं-पमाणं१४८:५० इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा केवतियं बाहल्लेणं पण्णता? उ० गोयमा ! तिण्णि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ता, तं जहा-हेढा घणा सहस्सं, मज्झे झुसिरा सहस्सं, उप्पि संकुइया सहस्सं। एवं जाव अहेसत्तमाए। -जीवा० पडि० ३, उ०१, सु० ८२ । नरकावासों का प्रमाण१४८ : प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों की मोटाई कितनी कही गई हैं ? उ० हे गौतम ! तीन हजार योजन की मोटाई कही गई है। यथा-नीचे एक हजार योजन धन हैं, मध्य में एक हजार योजन पोले हैं और ऊपर एक हजार योजन संकुचित है। इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। १४६:५० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए गरगा केवतियं १४६ : प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों का आयाम-विक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ता? आयाम-विष्कम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) कितना कहा गया है ? और उनकी परिधि कितनी कही गई है ? उ० गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा उ. हे गौतम ! (इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावास) दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. संखेज्जवित्थडा य, २. असंखेज्जवित्थडा य। (१) संख्येय विस्तार वाले, और (२) असंख्येय विस्तार वाले, तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडा ते णं संखेज्जाइं इनमें जो संख्येय विस्तार वाले हैं उनका आयाम-विष्कम्भ जोयणसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, संखेज्जाइं जोयण- संख्येय सहस्रयोजन का है और परिधि भी संख्येय' सहस्रयोजन सहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ता। की है। तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाई जो असंख्येय विस्तार वाले हैं उनका आयाम-विष्कम्भ असंख्येय जोयणसहस्साइं आयाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जाइ सहस्र योजन का है और परिधि भी असंख्येय सहस्र योजन की जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ता। कही गई है। एवं जाव तमाए। इसी प्रकार यावत् (छठी) तमा (पृथ्वी) पर्यन्त है। प० अहे सत्तमाए णं भंते! पुढवीए णरगा केवतियं आयाम प्र. हे भगवन् ! नीचे सप्तम पृथ्वी के नारकावासों का विक्खंभेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ता ? आयाम-विष्कम्भ कितना कहा गया है और उनकी परिधि कितनी कही गई है ? उ० गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा उ. हे गौतम ! (नीचे सप्तम पृथ्वी के नारकावास) दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. संखेज्जवित्थडे' य, २. असंखेज्जवित्थडा य । (१) संख्येय विस्तारवाले और (२) असंख्येय विस्तारवाले । तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडे से णं एक्कं जोयणसय इनमें जो संख्येय विस्तार वाले हैं उनका आयाम-विष्कम्भ सहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिन्नि जोयणसयसहस्साई एक लाख योजन का है और तीन लाख सोलह हजार दो सौ सोलससहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि सत्ताईस योजन, तीन कोस एकसौ अठाईस धनुष कुछ अधिक साढ़े कोसे य अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगुलाई अद्ध- तेरह अंगूल की परिधि वाले कहे गये हैं। गुलयं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाई जो असंख्येय विस्तार वाले हैं। उनका आयाम-विष्कम्भ जोयण-सयसहस्साइं आयाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जाई असंख्य लाख योजन का है और परिधि भी असंख्य लाख योजन जोयण सयसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ता । की कही गई है। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ८२। १-२. भग० स० १३, उ० १, सु० ५-११ तथा १७ । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५०-१५२ अधोलोक गणितानुयोग ७१ १५० : सीमंतए णं नरए पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयाम- १५० : (प्रथम नरक के प्रथम प्रस्तट में) सीमंतक नामका नारकाविक्खंभेणं पण्णत्ता। वास पैंतालीस लाख योजन के आयाम-विष्कम्भ वाला कहा -सम० ४५, सु० २। गया है। १५१:५० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरका केमहा- १५१ : प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकावास कितने लिया पण्णता? विशाल कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दोवे सव्व-दीव-समुद्दाणं उ० हे गौतम ! यह जम्बूद्वीप सब द्वीप-समुद्रों के मध्य में हैं, सव्वन्भंतराए सव्व-खुड्डाए वट्ट तेल्लापूय-संठाण- सबसे छोटा है, तेल में तले हुए पुये के समान वृत्त (गोल) संस्थान संठिए, वट्ट रहचक्कवाल-संठाणसंठिए, वट्ठ पुक्खर- से संस्थित है, रथ के पहिये के समान वृत्त संस्थान से संस्थित है, कणिया-संठाणसंठिए, वट्ट पडिपुण्णचंद-संठाण- पुष्करकणिका (कमल का मध्यभाग) के समान वृत्त संस्थान संठिए, एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं तिण्णि से सं स्थित है, प्रतिपूर्ण चन्द्र के समान वृत्त संस्थान से संस्थित है, जोयणसयसहस्साइं सोलससहस्साई दोण्णि य सत्ता- इसका आयाम-विष्कम्भ एकलाख योजन का है तथा तीनलाख वीसे जोयणसए तिणि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोश एक सौ अट्ठाईस तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए परि- धनुष तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुल अधिक परिधि वाला क्खेवेणं पण्णत्ते। कहा गया है। देवे णं महिड्ढोए जाव महाणुभागे जाव इणामेव एक महधिक यावत् महानुभाग देव यावत् अभी आया अभी इणामेवत्ति कटु इमं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं आया यों (कहता हुआ) तीन चुटकियों में इस पूर्वोक्त सम्पूर्ण जम्बू अच्छरानिवाएहि तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हव्व- द्वीप नामक द्वीप की इक्कीसवार परिक्रमा करके शीघ्र आ जावे । मागच्छेज्जा से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरिताए चवलाए चंडाए प्र० (दौड़ लगाने में ऐसी शीघ्र गति वाला) वह देव उत्कृष्ट सिग्घाए उद्ध्याए जयणाए [छेगाए] दिव्वाए दिव्व- त्वरित चपल चण्ड शीघ्र उद्दत वेगयुक्त, दक्ष दिव्य देवगति से गतीए वीतिवयमाणे बीतिवयमाणे जहण्णेणं एगाहं चलता-चलता जघन्य एक दिन, दो दिन, तीन दिन में उत्कृष्ट छ.. वा, दयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं छम्मासेणं वीति- मास में (क्या उन नारकावासों को) पार कर सकता है? वएज्जा? उ० अत्थेगतिए वीइवएज्जा, अत्थेगतिए नो वीतिवएज्जा। उ० कुछ नरकावासों को पार कर सकता है और कुछ नारकावासों को नहीं पार कर सकता है। एमहालता णं गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए है गौतम ! इस रत्नप्रभा पथ्वी के नरकावास इतने विशाल पुढवीए गरगा पण्णत्ता। कहे हैं। एवं जाव अहेसत्तमाए। इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। -जीवा० पडि० ३, उ०१, सु०८४ । णरगाणं संठाणं नरकावासों के संस्थान१५२:५० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरका कि- १५२ : प्र० हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावास किस संठिया पण्णत्ता? संस्थान के कहे गये हैं ? प्रथम नरक के प्रथम प्रस्तट में सीमंतक नरकावास पैंतालीस लाख योजन का लम्बा चौड़ा है, इसलिए दिव्य देव गति द्वारा पार किया जा सकता है किन्तु असंख्य योजन लम्बे-चौड़े नरकावास दिव्य देवगति द्वारा भी छ मास की अवधि में पार नहीं किये जा सकते हैं। सप्तम नरक के पाँच नरकावासों में मध्य (तृतीय) नरकावास केवल एकलाख योजन के आयाम-विष्कम्भ वाला है। इस लिए दिव्य देवगति द्वारा अल्पावधि में पार किया जा सकता है किन्तु शेष चार नरकावास असंख्य योजन लम्बे-चौड़े हैं अतः वे छ मास की अवधि में पार नहीं किया जा सकते हैं। २. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १५२-१५३ उ० गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा (१) आवलिय-पविट्ठा य। (२) आवलिय-बाहिरा य । तत्थणं जे ते आवलिय-पविट्ठा ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-वट्टा, तंसा, चउरंसा। तत्थ णं जे ते आवलिय-बाहिरा ते णाणासंठाण- संठिया पण्णत्ता, तं जहा१. अयकोट-संठिया, २. पिटुपयणग-संठिया, ३. कंडू-संठिया, ४. लोही-संठिया, ५. कडाह-संठिया, ६. थाली-संठिया, ७. पिहडग-संठिया, ८. किमियड-संठिया, ९. किन्नपुडग-संठिया, १०. उडव-संठिया, ११. मुरव-संठिया, १२. मुयंग-संठिया, १३. नंदिमुयंग-संठिया, १४. आलिंगक-संठिया, १५. सुघोस-संठिया, १६. बदरय-संठिया, १७. पणव-संठिया, १८. पडह-संठिया, १६. भेरी-संठिया, २०. झल्लरी-संठिया, २१. कुतुंबक-संठिया २२. नालि संठिया। एवं जाव तमाए। प० अहे सत्तमाए णं भंते ! पुढवीए णरका किसंठिया पण्णत्ता? उ० गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता. तं जहा(१) वट्ट य, (२) तंसा य । -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ८२ । उ. हे गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा(१) आवलिकाप्रविष्ट । (२) आवलिकाबाह्य । इनमें जो आवलिका प्रविष्ट हैं वे तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-१. वृत्त (गोल), २. त्रिकोण, और ३. चतुष्कोण । तथा जो आवलिका बाह्य हैं वे नाना (अनेक) संस्थानों में स्थित कहे हैं, यथा १. अयकोष्ठ-संस्थान, २. पिष्टपचनक-संस्थान, ३. कंडू-संस्थान, ४. लोही-संस्थान, ५. कटाह-संस्थान, ६. थाली-संस्थान, ७. पिहडक-संस्थान, ८. कृमिपट-संस्थान, ६. किन्नपुटक-संस्थान, १०. उडव-संस्थान, ११. मुरज-संस्थान, १२. मृदंग-संस्थान, १३. नंदिमृदंग-संस्थान, १४. आलिंगक-संस्थान, १५. सुघोषा संस्थान, १६. दर्दरक-स्थान, १७. पणव-संस्थान, १८. पटह-संस्थान, १६. भेरी-संस्थान, २०. झल्लरी-संस्थान, २१. कुतुंबक-संस्थान, २२. नालि संस्थान । इसी प्रकार यावत् तमःप्रभा (छठी पृथ्वी) पर्यन्त है। प्र० हे भगवन् ! नीचे सप्तम पृथ्वी में नरकावास किस (संस्थान) के कहे गये हैं ? उ० हे गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा(१) वृत्त और (२) त्रिकोण । ११.०९ गरगाणं वण्णाइं नरकावासों के वर्णादि१५३ : प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरया केरिसया १५३ :प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रमा पृथ्वी के नरकावास कैसे वण्णेणं पण्णता? वर्ण के कहे गये हैं ? उ. गोयमा ! काला कालावभासा गंभीरलोमहरिसा उ. हे गौतम ! काले, कालावभास (काली कान्ति) वाले भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णणं पण्णत्ता। गम्भीर रोम हर्षवाले (देखने पर अत्यधिक रोमांच करनेवाले) भयानक, त्रास उत्पन्न करनेवाले, परमकृष्ण वर्णवाले कहे गये हैं। एवं जाव अधे सत्तमाए। इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। प० इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए णरगा केरिसया प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावास कैसी ___ गंधणं पण्णता? गन्ध वाले कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! से जहा नामए अहिमडेति वा गोमडेति उ० हे गौतम ! जैसे सर्प का मृतकलेवर, गौ का मृतकलेवर, वा सुणग-मडेति वा मज्जार-मडेति वा मणुस्स-मडेति श्वान (कुत्ते) का मृतकलेवर, मार्जार (बिल्ली) का मृतकलेवर. वा महिस मडेति वा मुसग-मडेति वा आस-मडेति मनुष्य का मृतकलेवर, महिष (भैंस) का मृतकलेवर, हाथी का वा हस्थि-मडेति वा सीह-मडेति वा वग्ध-मडेति वा मृतकलेवर; सिंह का मृतकलेवर, व्याघ्र का मृतकलेवर, बक विग-मडेति वा दीविय-मडेति वा; (भेड़िया) का मृतकलेवर, या द्वीपिक (चीता) का मृतकलेवर; anana Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५३-१५४ अधोलोक गणितानुयोग ७३ मय-कुहिय - चिरविण? - कुणिम-वावण्ण - दुन्मिगंधे जो बहुत दिनों से पड़ा हो, सड़कर दुर्गन्ध दे रहा हो, बहुत दिनों से असुइविलीणविगत-बीभच्छ-दरिसणिज्जे किमिजाला- क्षत विक्षत होने के कारण मांस के टुकड़ों से दुर्गन्ध आरही हो, उलसंसते भवेयारूबे सिया ? अशुचिमय होने से देखने में बीभत्स तथा कृमि समूह से व्याप्त हो क्या इनके समान (रत्नप्रभा पृथ्वी के नरकावासों की) दुर्गन्ध है ? णो इण8 सम?। नहीं ऐसा नहीं है। गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकावास इन (पूर्वोक्त एतो अणिटुतरका चेव जाव अमणामतरा चेव गंधेणं कलेवरों की दुर्गन्ध) से भी अनिष्टतर यावत् अमनोज्ञतर गन्ध पण्णत्ता। वाले कहे गये हैं। एवं जाव अधे सत्तमाए पुढवीए। इस प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। प० इमीसे णं भंते ! रयगप्पभाए पुढवीए गरगा केरि- प्र. हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकावास किस ___सया फासेणं पण्णत्ता? प्रकार के स्पर्शवाले कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! से जहानामए असि-पत्तेइ वा, खुर-पत्तेइ उ. हे गौतम ! जिस प्रकार असिपत्र, क्षुरपत्र, कदम्बचीरिका वा, कलंबचीरिया-पत्तेइ वा, सत्तग्गेइ बा, कुंतग्गेइ वा, पत्र, शक्ति का अग्रभाग, (नौक) कॅन (भाले) का अग्रभाग, तोमर तोमरग्गेति वा,नारायग्गेति वा,सूलग्गेति वा,लउलग्गेति का अग्रभाग, नाराच (वज) का अग्रभाग, शूल का अग्रभाग, लकुल वा, भिडिमालग्गेति वा, सूचिकलावेति वा, कवियच्छृति का अग्रभाग, भिडिमाल का अग्रभाग, सूची-कलाप, (सूइयों का वा, विच्छ्यकंटएति वा, इंगालेति वा, जालेति वा, समूह) कपिकच्छु, बिच्छु का डंक, अग्नि, ज्वाला, मुर्मुर, अचि मुम्मु रेति वा, अच्चिति वा, अलाएति वा, सुद्धागणीइ (लपट) अलात या शुद्धाग्नि-क्या (इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारवा, भवे एतारूवे सिया? कावासों का) स्पर्श ऐसा है ? णो इण? समट्ठ। नहीं-ऐसा नहीं है। गोयमा ! इमीसे णं रयणभाए पुढवीए णरगा एत्तो हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकावासों का स्पर्श अणितरा चेव जाव अमणामतरका चेव फासेणं इनसे (पूर्वोक्त असिपत्र आदि के स्पर्श से) भी अनिष्टतर यावत् पण्णत्ता। अमनामतर स्पर्श वाले कहे गये हैं। एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए। इसी प्रकार यावत् नीचे सप्तम पृथ्वी पर्यन्त है। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ८३ । णरगाणं वइरामयत्तं सासयासासयत्तं य नरकावास वज्रमय और शाश्वत-अशाश्वत हैं१५४ : प० इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किमया १५४ :प्र० भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में नारकावास किन पण्णता? (पुद्गलों) के बने हुए कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! सव्ववइरामया पण्णत्ता। तत्थ णं नर- उ० गौतम ! सब वज्रमय कहे गये हैं। उन नारकावासों में गौतम ! सब व एस बहवे जीवा य पोग्गला य अवक्कमंति, विउक्क- अनेक जीव उत्पब टोते हैं और अनेक जीव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। तथा पुद्गल आते हैं मंति, चयंति, उबवज्जति । और जाते हैं। सासता णं ते णरगा दव्वट्ठयाए। अतएव वे नारकावास द्रव्यों की अपेक्षा शाश्वत है। वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहि रसपज्जवेहि फासपज्जवेहि वर्ण-पर्यवों गन्ध-पर्यवों रस-पर्यवों और स्पर्श-पर्यवों की असासया। अपेक्षा अशाश्वत हैं। एव जाव अहे सत्तमाए। इस प्रकार यावत् नीचे सातवीं पृथ्वी पर्यन्त है। -जीवा० पडि० ३, उ०१, सु० ८५। नरकावास वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्ण-पर्यवों की अपेक्षा से अशाश्वत हैं-इस कथन में रस-पर्यवो का निर्देश है-अतः इसका अभिप्राय यह हआ कि नर कावासों के पुद्गलों में रस-पर्यव हैं किन्तु इन नारकावासों के इस वर्णन में 'णरगाणं वण्णाई" इस शीर्षक के नीचे जीवा० प्र० ३, उ०१, सु० ८३ दिया है-इस सूत्र में नरकावासों के वर्ण, गन्ध और स्पर्श सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं। इनमें नरकावासों के वर्ण, गन्ध और स्पर्श को अनेक उपमाएँ देकर अनिष्टतर कहा है किन्त रस का निर्देश नहीं है। टोकाकार भी रस लेने के सम्बन्ध में किसी प्रकार का कोई हेतु नहीं देते हैं। फिर भी आगमज्ञ मुनि जनों की धारणा से समाधान हो सकेगा तो यथास्थान अंकित किया जायगा। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १५५-१५६ अहोलोए बिसरीरा१५५ : अहोलोगे णं चत्तारि बिसरीरा' पण्णता, तं जहा (१) पुढविकाइया। (२) आउकाइया। (३) वणस्सइकाइया । (४) उराला तसापाणा। -ठाणं०४, उ०३, सु० ३२६ । अधोलोक में दो शरीर वाले१५६ : अधोलोक में दो शरीरवाले चार कहे गये हैं, यथा (१) पृथ्वीकायिक । (२) अप्कायिक । (३) वनस्पतिकायिक । (४) औदारिक (शरीर वाले) त्रसप्राणी। भवणवासिदेवठाणाई भवनवासी देवों के स्थान१५६ : प० [१] कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं पज्जत्ता- १५६ : प्र. [१] हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त भवनवासी ऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं। [२] कहि णं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति? [२] हे भगवन् भवनवासी देव कहाँ रहते हैं ? उ०[१] गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी- उ० [१] हे गौतम ! एकलाख अस्सीहजार योजन की मोटाई उत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अन्दर जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेवा वेगं जोयणसहस्सं प्रवेश करने पर और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर एक वज्जेत्ता, मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से- लाख अठहत्तर हजार के मध्य भाग में भवनवासी देवों के सात एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ क्रोड बहत्तर लाख भवनावास हैं-ऐसा कहा गया है। बावत्तरि च भवणावाससयसहस्सा भवंतीति - मक्खायं। ते गं भवणा बाहिं बट्टा, अंतो समचउरंसा, अहे। ये भवन बाहर से वृत्ताकार हैं। अन्दर से चतुष्कोण हैं और पुक्खरकण्णिया संठाणसंठिया उक्किणंतर-वि उल- नीचे से कमल की कणिका (कमल का बीजकोष) के संस्थान से गंभीर-खातपरिहा' स्थित हैं । विशाल तथा गहरी खुदी हुई खायी तथा परिखा से युक्त हैं। पागार-ट्टालय-कवाड-तोरण-पडिदुवार देसभागा जंत- (भवन के) प्राकारों के कुछ भागों पर अट्टालक कपाट तोरण सयग्घि-मुसल-मुसंढिपरियरिया अउज्झा सदा जता और छोटी-छोटी खिड़कियाँ हैं, (ये प्राकार) यन्त्र शतघ्नी, मुशल सदा गुत्ता। और मुसंढीसे युक्त हैं, (अतएव ये भवन) अयोध्य हैं, सदा जयकारी हैं अर्थात् अजेय हैं, सदा सुरक्षित हैं। अख्याल-कोट्रग-रइया अडयाल-कयवणमाला।' ___ भवनों में प्रशस्त कोष्ठक हैं और वे प्रशस्त वनमालाओं से सुशोभित हैं। १. प्रथम वर्तमान भवका शरीर और द्वितीय मनुष्य शरीर प्राप्त कर मुक्त होने वाले जीव । -स्थानांग अ०४, उ०३, सू० ३२६ की टीका। २. क-यहाँ औदारिक शरीरवाले त्रस केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय ही ग्रहण किये हैं। -स्थानांग० अ०४, उ० ३, सू० ३२६ की टीका। ख-अधोलोक में मनुष्य शरीर संहरण की अपेक्षा से कहा गया है। ३. खाइ और परिखा भिन्न है-इनका अन्तर दिखाने वाली एक पालिका इन दोनों के मध्य में हैं। -टीकानुवाद "अडयालकोटगरइया- अडयालकयवणमाला" इन दो वाक्यों में 'अडयाल' शब्द का अर्थ आचार्य श्री मलयगिरि ने 'अष्टचत्वारिंशत्' संस्कृत पर्याय दिया है। उसका अर्थ 'अडतालीस' होता है किन्तु उन्होंने अन्य आचार्यों के मतका उल्लेख करते हुए कहा है-'अडयाल' देश्य शब्द है और उसका अर्थ प्रशंसा परक है। इसलिए प्रस्तुत अनुवाद में पूर्वाचार्य सम्मत अर्थ ही दिया है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधोलोक गणितानुयोग ७५ खेमा सिवा किंकरामरदंडोवरक्खिया लाउल्लोइय- महिया । (ये भवन) क्षेम (उपद्रवरहित) हैं, शिव (मंगलरूप) हैं । किंकर (द्वारपाल) देवों के दण्ड से सुरक्षित हैं। लीपन तथा कलई की सफेदी से सुशोभित हैं। (द्वारों के दोनों ओर) गोशीर्ष तथा रक्तचन्दन के गाढे लेपसे लिप्त पाँचों अंगुलियों के छापे दिये हुए हैं। चन्दन-कलश रखे गोसीस सरस-रत्तचंदणदद्दरदिण्ण पंचंगुलितला। उवचिय-चंदणकलसा। चंदण घड-सुकय-तोरण-पडिदुवारदेसभागा। तोरण तथा लघु द्वारों का एक भाग चन्दन-घटों से सुशो भित हैं। आसत्तोसत्त - विउलवट्टवग्घारिय - मल्लदाम-कलावा विस्तृत वृत्ताकार चन्दोवे के भूमितल पर्यन्त लम्बी लटकती पंचवण्ण-सरस-सुरहि-मुक्क पुष्फपुंजोवयार कलिया। हुई पुष्पमालाएँ हैं, पाँच वर्गों के सुन्दर सुगन्धित पुष्पपुँजों की शोभा से युक्त हैं। कालागरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क - धूव मघमघेतगंधुद्धया- श्रेष्ठ कालागुरु कुंदुरुक्क और तुरुष्क धूप के मनोहर उत्कट भिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूया। गन्ध से महकते हुए हैं। श्रेष्ठ सुगन्ध से सुगन्धित हैं। सुगन्धित द्रव्यों की गुटिका जैसे हैं। अच्छरगण-संघ-संविगिण्णा दिव्व तुडित-सद्द संपणदिता (ये भवन) अप्सराओं के समूह से व्याप्त हैं, दिव्य वाद्यों को . सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया ध्वनियों से गुंजित हैं। सब रत्नमय हैं, अति स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल णिम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पहा सस्सिरिया घिसे हुए हैं। साफ किये हुए हैं, निर्मल निष्पंक निरावरण कान्ति समरिया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा वाले हैं । प्रभा वाले हैं, किरणों वाले हैं, उद्योत वाले हैं, मन प्रसन्न पडिरूवा-एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं पज्जत्ता- वाले हैं, दर्शनीय हैं, अत्यन्त सुन्दर हैं और समान सौन्दर्य वाले ऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। हैं। इनमें पर्याप्त तथा अपर्याप्त भवनवासी देवों के स्थान कहे गये हैं। [२] उववाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, [२] लोक के असंख्यातवें भाग में (ये भवनवासी देव) उत्पन्न होते हैं। समुग्धाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, ___लोक के असंख्यातवें भाग में (ये भवनवासी देव) समुद्घात करते हैं। सटाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे-तत्थ णं बहवे लोक के असंख्यातवें भाग में इन (भवनवासी देवों) के अपने भवणवासी देवा परिवसंति, तं जहा- स्थान हैं । इनमें अनेक भवनवासी देव रहते हैं-यथा गाहा गाथार्थअसुरा, नाग, सुवण्णा, विज्जू, अग्गी य दीव उदही य।। १. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुपर्णकुमार, ४. विद्युदिसि, पवण, थणियनामा, दसहा एए भवणवासी ॥ त्कुमार, ५. अग्निकुमार, ६. द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, ८. दिक्कुमार, ६. पवनकुमार और १०. स्तनितकुमार । ये दस भवनवासी देव हैं। १. चूडामणिमउडरयण, १. असुरकुमार के मुकुट में - चूडामणि रत्न का चिह्न है । २. मूसण-णागफड, २. नागकुमार के मुकुट में-नाग के फण का चिह्न है । ३. गरुल, ३. सुपर्णकुमार के मुकुट में-गरुड का चिह्न है। ४. वइर, ४. विद्युत्कुमार के मुकुट में-वज्र का चिह्न है। ५. पुण्णकलसविउप्फेस, ५. अग्निकुमार के मुकुट में-पूर्ण कलश का चिह्न है। १. (ख) भग० स० १३, उ०२, सु०२। (क) ठाणं० १०, सु० ७३६ । (ग) उत्त० अ० ३६, गा० २०६ ।। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १५६ मालधारा। ६. सीह, ६. द्वीपकुमार के मुकुट में-सिंह का चिह्न है। ७. हयवर, ७. उदधिकुमार के मुकुट में-श्रेष्ठ अश्व का चिह्न है। ८. गयअंक ८. दिक्कुमार के मुकुट में-श्रेष्ठ गज का चिह्न है। ६. मगर, ६. पवनकुमार के मुकुट में—मगर का चिह्न है। १०. बद्धमाण-निज्जुत्त-चिचिघगता। १०. स्तनितकुमार के मुकुट में-वर्धमान (शराव संपुट) का चिह्न है। सुरुवा महिडढीया मइज्जुईया महायसा महब्बला महा- (ये भवनवासी देव) सुरूप हैं । महाऋद्धि वाले हैं । महाद्युति णुभागा महासोक्खा। वाले हैं, महायश वाले हैं, महाबल वाले हैं, महानुभाव (आदरणीय) हैं, महासुखी हैं। हारविराइयवच्छा कडग-तुडिय-थंभियभुया अंगद कुंडल- (इन देवों के वक्षस्थल) हार से सुशोभित हैं, भुजाएं कडे और मट्रगंडतल कण्ण-पीढधारी,विचित्त-हत्यामरणा विचित्त- त्रुटित (भुजबन्ध) से स्तम्भित (सहित) हैं, कानों में अंगद कुंडल माला-मउलीमउडा। और कपोल से स्पृष्ट कर्णपीठ धारण किये हुए हैं, हाथों में विचित्र प्रकार के आभरण हैं, मस्तक पर विचित्र मालाओं से सुसज्जित मुकुट हैं। कल्लाणग-पवर-वत्थ परिहिया, कल्लाणग-पवर-मल्लाणु ये देव कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र तथा मालाएँ धारण किये लेवणधरा भासुर बोंदी पलंबवणमालधरा । हुए हैं, (वदन पर) विलेपन लगाये हुए हैं, दिव्य दैदिप्यमान देह पर लम्बी लटकती हुई वन पुष्प मालाएँ धारण किये हुए हैं। दिवेणं वण्णेणं, दिवेणं गंधेणं, दिव्वेणं फासेणं, ये देव दिव्यवर्ण, दिव्यगन्ध, दिव्यस्पर्श, दिव्यसंघयण तथा दिव्यदिन्वेणं संघयणेणं, दिव्वेणं, संठाणेणं, दिवाए संस्थान, दिव्यऋद्धि, दिव्या ति, दिव्यप्रभा, दिव्यछाया (सामूहिक इड्ढीए, दिवाए जुतीए, दिवाए पभाए, दिव्वाए शोभा), दिव्यअर्ची (रलकान्ति) और दिव्यतेज से दस दिशाओं छायाए, दिव्वाए अच्चीए, दिवेणं तेएणं, दिव्वाए को उद्योतित तथा प्रकाशित करते हैं। लेसाए, दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं, साणं ये देव अपने अपने लाखों भवनावासों के, अपने अपने हजारों साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं तायत्तीसगाणं, सामानिक देवों के, अपने अपने त्रायस्त्रिश देवों के, अपने अपने साणं साणं, लोगपालाणं, साणं साणं अग्गमहिसोणं, लोकपालों के, अपनी अपनी अग्रमहिषियों के, अपनी अपनी परिसाणं साणं परिसाणं, साणं साणं अणियाणं, साणं षदों के, अपनी अपनी सेनाओं के, अपने अपने सेनापतियों के, साणं अणियाहिवईणं, साणं साणं आयरक्खदेव- अपने-अपने हजारों आत्मरक्षक देवों के और अनेक भवनवासी क्षेत्रों साहस्सीणं अन्नोसि च बहूणं भवणवासीणं देवाण य, के और देवियों के अधिपति हैं, अग्रेसर हैं, स्वामी हैं भर्ता हैं, देवीण य, आहेबच्चं पोरेवच्चं सामित्तं मट्टित्तं महयर- महत्तर हैं और सेनापतियों द्वारा आज्ञा पालन करवाते हैं तथा गत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा पालेमाणा, ऐश्वर्य धारण किये हुए रहते हैं। महताऽहतनट्ट-गीत-वाइत तंती-तल-ताल तुडिय घणमु- ये देव स्वयं आख्यानकों के नृत्य (कत्थक नृत्य) नित्य देखते यंगपड़प्पवाइयरवेणं दिव्वाई भोग-भोगाई भुंजमाणा हैं, गीत सुनते हैं, बजती हुई वीणा तल (करतल) ताल अटित विहरंति। (वेणु-बंसरी) की तथा वाद्य बजाने में कुशल व्यक्तियों द्वारा बजाये गये मृदंग की मेघ सम महान गम्भीर ध्वनियाँ सुनते हुए और दिव्य भोग भोगते हुए रहते हैं । -पण्ण० पद० २, सु० १७७ । १. १०.."देवाणं सरीरगा किसंघयणी पण्णता? उ. गौयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी पण्णत्ता । नेवट्टि, नेव छिरा, नवि हारु, णेव संघयणमस्थि । जे पोग्गला इट्ठा कता जाव ते तेसि संघातत्ताए परिणमंति। -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० २१४ । २. क-जीवा०प०३, उ० १, सु० ११६ । ख-भग० स० २, उ० ७, सु० २। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५७-१५८ अधोलोक गणितानुयोग ७७ असुरकुमारठाण-परूवणं असुरकुमारों के स्थान का प्ररूपण१५७ : भंते ! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, १५७ : भगवन् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को भंते ! (ऐसा नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं बयासी कहकर) वन्दना नमस्कार किया और वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहाप० अत्यि णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे प्र. "भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे असुरकुमार देव __असुरकुमारा देवा परिवसति ? रहते हैं ?" उ० गोयमा ! नो इण? सम? । उ. गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं-अर्थात् इस प्रकार नहीं हैं। एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए। इस प्रकार यावत् नीचे सातवीं पृथ्वी (पर्यन्त) है। सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव.... सौधर्मकल्प के नीचे यावत्.... प० अस्थि णं भंते ! ईसिपन्भाराए पुढवीए अहे असुर- प्र. भगवन् ! ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे असुरकुमार देव कुमारा देवा परिवसंति ? रहते हैं ? उ० गोयमा ! नो इण? सम? । उ० गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प० से कहिं ? णं भंते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति ? प्र. भगवन् ! वे असुरकुमार देव फिर कहाँ रहते हैं। उ. गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी- उ. गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस उत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए–एवं असुर- रत्नप्रभा पृथ्वी में-असुरकुमार देव सम्बन्धी वक्तव्यता कमारदेववत्तव्वया जाव दिव्वाइ भोगभोगाइं यावत् दिव्य भोगोपभोग भोगते हुए रहते हैं। भंजमाणा विहरंति। -भग० स० ३, उ० २, सु० ३ (१-२) ४ । असुरकुमारठाणाई असुरकुमारों के स्थान१५८:५० [१] कहि णं भंते ! असुकुमाराणं देवाणं पज्जत्ता- १५८ : प्र० [१] हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त असुरकुमार पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं भंते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति? [२] हे भगवन् ! असुरकुमार देव कहाँ रहते हैं। उ० [१] गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर उ० [१] गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग जोयण- वाली रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन सहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं करने पर और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख वज्जेत्ता, मज्झे अट्टहत्तरे जोयणसयसहस्से- अठहत्तर योजन प्रमाण मध्य भाग में असुरकुमार देवों के चौंसठ एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोवट्टि भवणा- लाख भवनावास हैं ऐसा कहा गया है। वाससयसहस्सा हवंतीतिमक्खायं ।' ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरसा (जाव) पासा- ये भवन बाहर से वृत्ताकार हैं, अन्दर से चतुष्कोण हैं, यावत् या दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा-एत्थ णं असुर- प्रसन्नता जनक हैं, दर्शनीय हैं, सुन्दर हैं, समान सौन्दर्य वाले हैं, कमाराणं देवाण पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। इन भवनों में पर्याप्त तथा अपर्याप्त असुरकुमार देवों के स्थान कहे गये हैं। १. क-सम० ६४, सु०२। ख-भग० स० १३, उ० २, सु० ३ । ग-भग० स० १६, उ०७, सु०१। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ लोक- प्रज्ञप्ति [२] उपवाए लोया समुन्याएवं लोपस जाने सद्गुणं लोयास असं ग्भागे बह असुरकुमारा देवा परिवसंति । काला लोहिप-विया धबलपुष्पदंता अलिपकेसा वामेयकुंडलधरा अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता सोफियालाई असकिलिाई सहमाई यत्वाई पवरपरिहिया, वयं च पढमं समइक्कता बिइयं च असं पत्ता, भद्दे जोवणे वट्टमाणा, मंगतुति-पवरभूज णिम्मलमणि-रणमंडितमुया दसमुहा मंडियाहत्या पूडामणिविचिया गुरुवा (जाव) दिव्या भोग भोगाई जमाना विहति । - पण्ण० पद०२, सु० १७८ (१) । अधोलोक - काला महागीतसरिसा मील गुलिय-गयल अवस कुसुमप्यगासा वियसिय सयवत्त निम्मल इसीसित रत- तंबणयणा गरुला उज्जु - तुंगणासा ओय बिसिलवाल विफल सतिभाहरोहा पंडुरसति सगल-विमल निम्मलदहिय-गोबर र मुणालिया-धवल दंतसेढी हुयवहणिर्द्धतधोयत सतवणिज्जरसतल शालु जीहा कणि-रूप-रमणि द्धि-केसा वामेयकुंडलधरा (जाव ) दिव्वाइं भोगभोगाई मुंजमाणा विहरति । - · - - असुरकुमाराणां इंदा असुरकुमारों के इंद्र१५६ : अमर बलियो यस्य दुवे असुरकुमारिदा असुरकुमार १५६ यहीं पर चमरेन्द्र और बलीन्द्र ये दो असुरकुमारेन्द्र रायाणो परिवर्तति । असुरकुमार राजा रहते हैं । : (इन दोनों इन्द्रों के शरीरों का वर्ण) कृष्ण अतिनील नीलगुटिका, वनमहिष श्रृंग तथा अलसी के पुष्पों जैसा श्याम है, इनके नेत्र विकसित कमल सदृश श्वेत तथा स्वल्परक्त ताम्रवर्ण के हैं, इनकी नासिका जैसी लम्बी सीधी एवं उन्नत है, इनके अधरोष्ठ पिसी हुई नाशिता तथा विवफल जैसे हैं, इनकी दन्तपंक्ति निष्कलंक श्वेत चन्द्र खण्ड, निर्मल घन-दही, शंख-गोक्षीर कुंद (मोगरा) पुण, उदक कम तथा मृगालिका (कमल) जैसी श्वेत है, इनके हाथ-पैर के तलवे तालु और जीभ अग्नि में तपाये हुए शुद्ध स्वर्ण जैसे रक्त है, केश अंजन मेघ और रुचक रत्न जैसे रमणीय एवं स्निग्ध हैं, बायें (कान पर एक कुण्डल है यावत् शिम्म भोग भोगते हुए रहते हैं। - - पण्ण० पद० २, सु०१७८ (२) । दाहिणिल्ल-असुरकुमारठाणाई - १६० प० [१] कहिणं ते! दाहिणिला असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? [२] कहि णं भंते! दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा परिवर्तति ? उ० [१] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर सूत्र १५८ १६० [२] लोक के अस्थातवें भाग में वे ( अमरकुमार ) उत्पन्न होते हैं । सोड के असंख्य भाग में ये (असुरकुमार ) समुदयात करते हैं । लोक के संस्थातवें भाग में इन (अमुरकुमार देवों) के अपने स्थान हैं। वहाँ अनेक असुरकुमार देव रहते हैं । ये (असुरकुमार देव) श्याम वर्ग वाले है, इनके ओष्ठ विफल जैसे रक्त हैं, दन्त श्वेत पुष्प जैसे हैं, केश श्यामवर्ग के हैं, बायें कान पर एक कुण्डल है, शरीर पर चन्दन का विलेपन है । दे (कुमार देव) निमित्र पुण्य जैसे अल्परक्त वर्ण के चमकते हुए सुखद सूक्ष्म श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए हैं । इन (असुरकुमार देवों की प्रथमवय (कुमारावस्था) बीत गई है और युवा वस्था पूर्ण प्राप्त नहीं हुई है किन्तु सुखद युवावस्था प्रारम्भ हुई है। ये देव निर्मल मणिरत्नों से मंडित तलभंग तथा पुटित (भुज बन्ध) श्रेष्ठ भूषण भुजा पर धारण किये हुए है, इनकी अंगुलियों दसमुद्रिकाओं से सुशोभित हैं । इनके (मुकुट) विचित्र चूडामणि के चिह्न युक्त हैं सुरूप हैं यावत् दिव्य भोग भोगते हुए रहते हैं । - दाक्षिणात्य असुरकुमारों के स्थान १६० प्र० [१] हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के पर्याप्त और अप र्याप्त असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं? [२] हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के असुरकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उ० [१] हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के ( मध्यस्थित ) मेरु पर्वत की दक्षिण दिशा में एक लाख अस्सी हजार योजन की Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६०-१६१ अधोलोक गणितानुयोग ७६ जोयणसयसहस्स-बाहल्लाए उरि एग जोयण- मोटाई वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन सहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं अवगाहन करने पर और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर बज्जित्ता, मज्झे अदृहत्तरे जोयणसयसहस्से- एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाण मध्यभाग में दक्षिण एत्य णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं दिशा के असुरकुमार देवों के चौंतीस लाख भवनावास हैं । ऐसा चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा भवंतीति कहा गया है। मक्खायं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा सोच्चेव ये भवन बाहर से वृत्ताकार, अन्दर से चतुष्कोण हैं (यहाँ) वही वण्णओ (जाव) पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा वर्णक है यावत प्रसन्नता जनक दर्शनीय अभिरूप एवं प्रतिरूप हैं। पडिरूवा - एत्य णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं इनमें दक्षिण दिशा के पर्याप्त तथा अपर्याप्त असुरकुमार देवों के पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। स्थान कहे गये हैं। [२] तिस वि लोयस्स असखेज्जइभागे-तत्थ णं [२] लोक के असंख्यातवें भाग में (असुरकूमार देवों बहवे दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा य देवीओ य की उत्पत्ति समुद्घात तथा उनके स्वस्थान) तीनों हैं। परिवसंति । इनमें दक्षिण दिशा के अनेक असुरकुमार देव-देवियाँ रहते हैं । काला लोहियक्खबिबोटा तहेव जाव दिव्वाइं ये श्यामवर्ण वाले हैं, इनके ओष्ठ बिम्बफल जैसे रक्त हैं। भोगभोगाई भुंजमाणा विहरति । यावत् दिव्य भोग भोगते हुए रहते हैं । -पण्ण पद० २, सु० १७६ (१)। दाहिणिल्लअसुरिंदो चमरो-- १७१: चमरे अत्थ असुरकुमारिदे असुरकुमारराया परिवसइ। दाक्षिणात्य असुरेन्द्र चमर१६१ : यहीं पर असुरकुमारेन्द्र असुरकुमारों के राजा चमरेन्द्र रहते हैं। चमरेन्द्र के शरीर का वर्ण कृष्ण अतिनील नीलगुटिका, जंगली भैस के सींग तथा अलसी के पुष्पों जैसा श्याम है। नेत्र विकसित कमल सदृश प्रवेत तथा स्वल्परक्त ताम्रवर्ण काले महानीलसरिसे णीलगुलिय-गवल-अयसिकुसुमप्पगासे, वियसियसयवत्त-णिम्मल-इसीसित-रत्त-तंबणयणे, गहलायय उज्जुतुंगणासे, ओयवियसिलप्पवाल-बिबफल-सन्निभाहरो?, पंडरससिसगल-विमल-निम्मल - दहिघण-संख-गोखीर-कुंददगरय-मुणालिया-धवल दंतसेढो, हुयवहणिद्धतघोयतत्ततवणिज्ज-रत्तताल-तालु जीहे, अंजण-घण-कसिणरुयगरमणिज्जणिद्धकेसे, वामेयकुंडलधरे, अद्दचंदणाणुलित्तगत्ते, इसीसिलिधपुप्फपगासाइं असंकिलिट्टाई सुहुमाई वत्थाई पवरपरिहिए, वयं च पढम समइक्कते, बिइयं तु असंपत्ते, भद्दे जोवणे वट्टमाणे, तलभंगयतडिय-पवरभसण-निम्मलमणि-रयणमंडियभुजे, नासिका गरुड जैसी लम्बी सीधी एवं उन्नत है। अधरोष्ठ घिसी हुई प्रवाल-शिला तथा बिम्बफल जैसे हैं । दन्तपक्ति अकलंक श्वेतचन्द्र खण्ड, स्वच्छ घट्ट (गाढा) दही, शंख, गोक्षीर, कुंद-पुष्प, उदक-कण तथा मृणालिका जैसी श्वेत है। हाथ-पैर के तलवे, तालु और जीभ अग्नि में तपाये हुए शुद्ध स्वर्ण सदृश हैं। केश अंजन, मेघ और रुचक रत्न जैसे रमणीय एवं स्निग्ध हैं। बायें कान पर एक कुण्डल है । शरीर चन्दनके लेप से लिप्त है। शिलिंध्र पुष्प जैसे थोड़े लाल वर्ण के सूखद सक्षम श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए हैं। प्रथमवय (कुमारावस्था) बीत गयी है और युवावस्था पूर्ण प्राप्त नहीं हुई है किन्तु कल्याणकर युवावस्था प्रारम्भ हुई है। भुजाय निर्मल मणिरत्न मण्डित तलभंग तथा टित (भजबन्ध) श्रेष्ठ भूषण से विभूषित है। १. सम० ३४, सु० ५। २. जीवा० पडि० ३, उ०१, सु०११७ । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० लोक-प्रज्ञप्ति अधालोक सूत्र १६१-१६२ दसमुद्दामंडितग्गहत्थे, अंगुलियाँ दस मुद्रिकाओं से मण्डित हैं । चूडामणिचिचिधगए, (मुकुट) विचित्र चूडामणि के चिह्न से युक्त है। सुरुवे महिड्ढीए महज्जुइए महायसे महाबले महाणु मागे यह चमरेन्द्र सुरूप है महाऋद्धि वाला है, महाद्युति वाला महासोक्खे, है, महाबल वाला है, महायश वाला है, महानुभाव है, महासुखी है। हारविराइयवच्छे, चमरेन्द्र का वक्षस्थल हार से सुशोभित है । कडय-तुडिय-थंभियभुजे, भुजायें कडे और भुजबन्ध से सुदृढ़ हैं , अंगद-कुंडल-मट्ट गंडतल- कपीढधारी कानों में अंगद, कुण्डल और कर्णपीठ धारण किये हुए है। विचित्तहत्याभरणे, विचित्तमालामउली, हाथों में विचित्र आभरण है, विचित्र मालाओं से सुसज्जित मुकुट मस्तक पर है। कल्लाणगपवरवत्थपरिहिए, कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणे, ___ कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र तथा मालाएँ धारण किये हुए है। भासुरबोंदी, पलंबवणमालधरे, बदन पर विलेपन लगाये हुए है, दिव्य दैदिप्यमान देह पर लम्बी लटकती हुई वन पुष्पों की मालायें धारण किये हुए है। दिवेणं वण्णेणं जाव दिव्वाए लेसाए दसदिसाओ दिव्य वर्ण यावत दिव्यलेश्यासे दस दिशाओं को उद्योतित उज्जोवेमाणे पभासेमाणे । तथा प्रकाशित करता है। से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं,' चउसट्ठीए यह चमरेन्द्र चौतीस लाख भवनावासों का, चोसठ हजार सामाणियसाहस्सीणं', तावत्तोसाए तावत्तीसाणं, चउण्हं सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिश देवों का, चार लोकपालों का लोगपालाणं, पचण्हं अग्गमहिसीणं,' सपरिवाराण, तिण्हं सपरिवार पाँच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिबईणं, का, सात सेनापतियों का, चोसठ हजार के चोगुणे अर्थात् दो लाख चउण्हं य चउसट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सोणं, अण्णेसि च छप्पन हजार आत्मरक्षक देवों का और दक्षिण दिशा के अन्य अनेक बहणं दाहिणिल्लाणं देवाण य देवोण य आहेबच्चं पोरे- देव-देवियों का अधिपति हैं अग्रसेर है यावत् दिव्य भोगों को वच्चं जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ। भोगता हुआ रहता है। –पण्ण पद० २, सु० १७६ (२) । असुरकुमाराणं अहोगइविसयपरूवणा-- असुरकुमारों की नीचे जानेकी शक्ति का प्ररूपण१६२ : प० अस्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं अहेगतिविसए १६२ : प्र० हे भगवन् ! क्या असुरकुमार देवों की नीचे जाने की पण्णत्ते? शक्ति कही गई है? उ० हंता अत्थि । उ० हाँ (कही गयी) है। म० वि० पण्ण० प० २, सु० १७६ [२] में "चमरे ऽत्य असुरकुमारिदे असुरकुमारराया परिवसति काले महानीलसरिसे जाव (सु० १७७ [२] पभासेमाणे।" ऐसी संक्षिप्त वाचनाकार की सूचना है, किन्तु सूत्र १७७ में [१] या [२] विभाग नहीं है और उसमें 'काले "से हारविराइयवच्छे" तक का पाठ भी नहीं है। उक्तप्रति के सूत्र १७८ [२] में 'काला' से 'पभासेमाणा" पर्यन्त पाठ मिलता है, किन्तु उसमें 'चमर' और 'बलि' का एक साथ वर्णन है। इसलिए सभी वाक्य बहुवचनांत है, बहुवचनांत वाक्यों से एकवचनांत वाक्यों की कल्पना कर लेना कुछ कठिन भी हैं, तथा इस सूत्र की अनुवृत्ति सूत्र १८० [२], १८२ [२], १८३ [२] आदि में लेने की सूचना संक्षिप्त वाचनाकार ने दी है अतः यहाँ एकवचनांत वाक्यों वाला विस्तृत पाठ दिया है। सम० ३४, सु० ५। ६. ठाणं० ३, उ० २, सु० १५४ । सम०६४, सु० ३. ७. क-ठाणं० ५, उ० १, सु० ४०४ में नृत्यानीक और गंधर्वानीक नहीं गिने हैं। ४. ठाणं० ४, उ० १, सु० २५६ । ख-ठाणं ७, सु०५८२ । ५. ठाणं० ५, उ०१,०४०३ । ८. जीवा० पडि०३, उ०२, १० ११७ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६२-१६४ अधोलोक पति गतिविस पण ? उ० गोयमा ! जाव आहेसत्तमाए पुढवीए, तच्चं पुण पुढव गता य, गमिस्संति य । भंते! अमुरकुमाराणं देवाणं आहे प० किपत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा तच्चं पुढवि गता य, गमिस्संति य ? उ० गोवमा ! पुख्ववेरियस वा वेदण उदीरणवाए, पुखसंगतियस्स वा वेदण-उवसामणयाए। एवं खलु असुरकुमारा देवा तच्चं पुढव गता य, गमिस्संति य । -भग० स० ३, उ० २, सु० ५-७ । असुरकुमाराणं तिरियगविसयपस्यणा १६३ : प० अत्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं गतिविसए पण्णत्ते ? उ० हंता, अस्थि । प० केवति यं च णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं गतिविस पण्णत्ते ? उ० गोयमा ! जाव असंखेज्जा दीव-समुद्दा, नंदिस्सरवर पुणदीवं गता य, गमिस्संति य । प० किपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा नंदीसरवर दीवं गता य, गमिस्संति य ? उ० गोयमा ! जे इमे अरिहंता भगवंता एतेसि णं जम्मण महेसु वा निक्खमण महेसु वा णाणुत्पत्ति-महिमासु वा, परिनिव्वाण - महिमासु वा एवं खलु असुरकुमारा देवा नंदीसरवरं दीवं गता य, गमिस्संति य । -भग० स० ३, उ० २, सु० ८-१० । असुरकुमाराणं उड्ढगइविसयपरूवणा १६४: प० अस्थि भंते! असुरकुमाराणं देवानं उड़ गति सिए पगले ? उ० हंता, अत्थि । प० कंवति यं च णं भंते! असुरकुमाराणं देवानं उ गति सिए पम्पले ? उ० गोयमा ! जाव अच्चुतो कप्पो । सोहम्मं पुण कप्पं गता य, गमिस्संति य । प० पिलियं गं घं असुरकुमारा देवा सोहम् कप्पं ! गमिस्संति य ? गता य, गणितानुयोग ८१ प्रo हे भगवन् ! असुरकुमारों की नीचे जाने की शक्ति कितनी कही गई है। उ० हे गौतम! नीचे सातवी पृथ्वी पर्यन्त जाने की शक्ति है और तीसरी पृथ्वी पर्यन्त तो गये हैं और जायेंगे भी। प्रo हे भगवन्! असुरकुमार देव तीसरी पृथ्वी पर्यन्त क्यों गये और क्यों जायेंगे । उ० हे गौतम ! पूर्व जन्म के वैरी से बदला लेने के लिए और पूर्व जन्म के साथी की वेदना उपशान्त करने के लिए असुरकुमार देव तीसरी पृथ्वी तक गये हैं और जायेंगे भी । असुरकुमारों की तिर्यक्लोक में जाने की शक्ति का प्ररूपण - १६३० हे भगवन्! क्या अनुरकुमारों की तिलोक में जाने की शक्ति कही गई है ? उ० हाँ कही गयी है ! प्रo हे भगवन् ! असुरकुमारों की तिर्यक् लोक में जाने की शक्ति कितनी कही गई है ? उ० हे गौतम! यावत् असंख्य समुद्रपर्यन्त जाने की शक्ति है और नंदीश्वरद्वीप पर्यन्त गये हैं और पुनः जोयेंगे भी। प्रo हे भगवन् ! असुरकुमार देव नंदीश्वर द्वीप क्यों गये और क्यों जायेंगे ? उ० हे गौतम ! जो ये अर्हन्त भगवन्त हैं (अतीत में हुए हैं और भविष्य में होंगे) इनके जन्म महोत्सवों में निष्क्रमण - महोत्सवों में (केवल) ज्ञानोत्पत्ति - महोत्सवों में और निर्वाण - महोत्सवों में असुरकुमार देव नंदीश्वर द्वीप गये है और जायेंगे भी। असुरकुमारों की उर्ध्वलोक में जाने की शक्ति का प्ररूपण १६४ : प्र० हे भगवन् ! क्या असुरकुमार देवों की उर्ध्वलोक में जाने की शक्ति कही गई है ? उ० हाँ ( कही गई ) है । प्रo हे भगवन्! असुरकुमार देवों की उर्ध्वलोक में जाने की शक्ति कितनी कही गई है ? उ० हे गौतम! अच्युतकल्प पर्यन्त जाने का सामर्थ्य है और सौधर्मकल्प पर्यन्त तो गये हैं और जायेंगे भी। प्रo हे भगवन् ! असुरकुमार देव सौधर्मकल्प पर्यन्त क्यों गये और क्यों जायेंगे ? Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ लोक- प्रज्ञप्ति उ० गोयमा ! तेसि णं देवाणं भवपच्चइयवेराणुबंधे । ते गं देवा विमाया परियारेमाणा या आपले देने आयरक्खे वित्ताति । अहालहुस्सगाई रयणाई गहाय आयाए एवं अति प० अस्थि णं भंते! तेस देवाणं अहालहस्सगाई रयणाई ? उ० हंता, अत्थि । प० से मि परेति ? उ० तओ से पच्छा कार्य पव्वहंति । प० पभू णं भंते! ते असुरकुमारा देवा तत्थ गया चेव समाणा ताहि अच्छराहिं सद्धि दिव्वाई भोग भोगाहि जमाना विहरिए ? अधोलोक उ० णो ण् समते पं तओ पडिनियति तओ डिनियत्तित्ता इमागच्छंति, इहमागच्छित्ता जति णं ताओ अच्छराओ आढायंति परियाणंति - पभू णं ते असुरकुमारा देवा साहि अराहि संदिदियाई भोगभोगाई भजमाना विहरिलए, यह णं ताम्रो अच्छराओ नो आढायंति, नो परियाणंति णो णं पभू ते असुरकुमारा देवा ताहि अन्राहि संद्धि दिग्बाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरितए । एवं खलु दोषमा! असुरकुमारा देवा सोहम्मं रूपं गता य, गमिस्संति य । १. - - मग० स० ३, उ०२, सु० ११-१३ । उत्तरिल्लअसुरकुमारठाणाई १६५ : प० [१] कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? [२] कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला असुरकुमारा देवा परिवर्तति ? उ० [१] गोयमा ! जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोपणसहसबाहल्लाए उबर एवं सहस्सं ओगाहेता, हे वेगं जोयणसह जे मझे अत्तरे जगतसहस्से एव णं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं तीसं भवणावास सतसहस्सा भवतीति मक्खातं । ते णं भवणा बाहि वट्टा अंतो चउरंसा सेसं जहा दाहिणिल्लाणं जाव विहरति ।' " - पण्ण० पद० २, सु० १८० - १ । जीवा० प० ३, उ० २, सु० ११६ । www सूत्र १६४-१६५ ! उ० हे गौतम | उन असुरकुमारों का सौधर्मकल्पवासी) देवों से पूर्व जन्म का वैरानुबन्ध हो तो (द लेने के लिए) वैकिय करके भोग भोगते हैं, उनके आत्मरक्षक देवों को त्रास देते हैं तथा छोटे-छोटे रत्नों को लेकर एकान्त में चले जाते हैं । प्रo हे भगवन् ! क्या उन ( वैमानिक) देवों के पास छोटे-छोटे रत्न होते हैं ? उ० हाँ होते हैं। प्रo हे भगवन् ! (वैमानिक देवों के छोटे छोटे रत्न लेकर असुरकुमार जब एकान्त में चले जाते हैं तब ) वे वैमानिक देव उनका क्या करते हैं ? उ० वैमानिक देव उसके बाद (उनके) शरीर को पीडा देते हैं । प्रo हे भगवन्! ये अशुरकुमार देव सौधर्मकल्प में ही उन अप्सराओं के साथ क्या दिव्य भोग भोगने में समर्थ हैं ? उ० ऐसा नहीं है वे वहाँ से (अप्सराओं का अपहरण करके) लौटते हैं और लौटकर यहाँ आते हैं । यहाँ आने के बाद यदि अप्सरायें उन्हें स्वीकार कर लेती हैं या आदर देती हैं तो वे अरकुमार देव उन अप्सराओं के साथ भोग भोग सकते हैं। यदि वे अप्सरायें उन्हें आवर नहीं देती है या स्वीकार नहीं करती हैं तो वे असुरकुमार देव उनके साथ दिव्य भोग नहीं भोग सकते हैं । हे गौतम! इस प्रकार असुरकुमार देव सौधर्मकल्प में गये हैं और जायेंगे भी। उत्तरदिशा के असुरकुमारों के स्थान १६५: प्र० [१] हे भगवन् ! उतरदिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं । [२] हे गवन् ! उत्तरदिशा के असुरकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उ० [१] हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत से उत्तर में एक लाख अस्सीहजार योजन मोटाई वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन (अन्दर जाने पर ) करने पर और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर एक साथ अठत्तर हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में उत्तर दिशावासी असुरकुमारों के तीसलाख भवनावास हैं ऐसा कहा गया है। ये भवन बाहर से वृत्ताकार हैं और अन्दर से चतुष्कोण हैं । शेष दक्षिण दिशावासी असुरकुमारों के समान हैं यावत् (दिव्य भोग भोगते हुए) रहते हैं । www Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६६-१६८ अधोलोक गणितानुयोग ८३ उत्तरिल्ल-असुरिंदो बली - उत्तरदिशा का असुरेन्द्र बली१६६ : बली यऽत्थ वइरोणिदे वइरोयणराया परिवसति । काले १६६ : यहाँ पर वैरोचन राजा वैरोचनेन्द्र बली रहता है । बली महानीलसरिसे जाव दिव्वाए लेसाए दसदिसाओ उज्जो- (वैरोचनेन्द्र) के शरीर का वर्ण अतिनील यावत् दिव्यलेश्या से वेमाणे पभासेमाणे। दस दिशाओं को उद्योतित तथा प्रकाशित करता है। से णं तत्थ तीसाए भवणावाससय-सहस्साणं, सट्ठीणं वह वहाँ तीसलाख भवनावासों का, साठहजार सामानिक देवों सामाणियसाहस्सोण,' तावत्तीसाए तावत्तीसगाणं, का, तेंतीस त्रायस्त्रिशकों का, चार लोकपालों का, पाँच सपरिवार चउण्ह लोगपालाणं, पंचण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात सेनाओं का, सात सेनातिण्ह परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाधिव- पतियों का, साठहजार के चोगुणे (दो लाख चालीसहजार) आत्मतीण, चउण्हं य सट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं,' अण्णसिं रक्षक देवों और अन्य अनेक उत्तर दिशावासी असुरकुमार देव-देवियों च बहणं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य का आधिपत्य या प्रमुखता करता हुआ रहता है। आहेवच्चं पोरेवच्चं कुब्वमाणे विहरति ।' —पण्ण पद० २, सु० १८०-२। णागकुमारठाणाई-- नागकुमारों के स्थान१६७:५० [१] कहि णं भंते ! णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ता. १६७ : प्र० [१] हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त नागकुमार ऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? | देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं भंते ! णागकुमारा देवा परिवसंति ? [२] हे भगवन् ! नागकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उ० [१] गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी- उ० [१] हे गौतम ! एक लाख अस्सीहजार योजन बाहल्य उत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग (मोटाई) वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन जोयणसहस्सं ओगाहित्ता, हेट्ठा वेगं जोयण- अन्दर जाने पर और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर एक सहस्सं वज्जिऊण, मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसय- लाख अठत्तर हजार योजन प्रमाण मध्यभाग में पर्याप्त तथा सहस्सं-एत्थ णं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ता- अपर्याप्त नागकुमार देवों के चालीस लखा भवनावास हैं-ऐसा । ऽपज्जताणं चुलसीइ भवणावाससयसहस्सा कहा गया है। हवंतीतिमक्खातं ।' ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरसा जाव पडिरूवा। वे भवन बाहर से वृत्ताकार (गोल) हैं, अन्दर से चोकोर है तत्थ णं णागकुमाराणं देवाणं पज्जात्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा यावत प्रतिरूप हैं। उनमें पर्याप्त तथा अपर्याप्त नागकुमार देवों पण्णत्ता। के स्थान कहे गये हैं। [२] तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ ण लोक के असंख्यातवें भाग में (नागकुमारों की उत्पत्ति, समुद् बहवे णागकुमारा देवा परिवसं ति। महिड्ढीया घात और उनके अपने स्थान) ये तीनों हैं-उनमें अनेक नागकुमार महाजुतीया-सेसं जहा ओहियाणं जाव देव रहते हैं । वे महाऋद्धि वाले हैं, महाद्युतिवाले हैं शेष सामान्य विहरंति। वर्णन के समान है यावत् (दिव्य भोग भोगते हुए) रहते हैं। —पण्ण० पद० २, उ० १, सु० १८१-१ । णागकुमारिदा नागकुमारेन्द्र१६८ : धरण भूयाणंदा एत्थ दुवे णागकुमारिदा णागकुमार- १६८ : यहाँ पर नागकुमारों के राजा, नागकुमारेन्द्र धरण रायाणो परिवसंति महिड्डिया सेसं जहा ओहियाणं और भूतानन्द ये दो रहते हैं। वे महधिक हैं शेष सारा जाव विहरंति। वर्णन सामान्य वर्णन के समान है यावत (दिव्य भोग भोगते -पण्ण० पद० २, उ० १, सु० १८१-२ । हुए) रहते हैं। १. सम०६०, सु०४। २. ठाणं०७, सु०५८२। ३. भग० स०३, उ०६, सु० १४ । ४. जीवा०प० ३, उ० १, सु० ११६ । ५. सम० ८४, सु० ११ । ६. जीवा०प०३, उ०२, सु० १२० । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १६६-१७१ राण १६६ : प्र [२] कपिज्जत्ताणं ठाणा प दाहिणिल्ल-णागकुमारठाणाई दाक्षिणात्य नागकुमारों के स्थान१६६ : प० [१] कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं णागकुमाराणं १६६ : प्र० [१] हे भगवन् ! दक्षिण दिशा में रहने वाले पर्याप्त देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? और अपर्याप्त नागकुमार देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला णागकुमारा देवा [२] हे भगवन् ! दक्षिण दिशा में रहने वाले नागकुमार देव परिवसंति? ___ कहाँ रहते हैं ? उ० [१] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उ० [१] हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत से दाहिणणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असो. दक्षिण में एक लाख अस्तीहजार योजन मोटाई वाली इस रत्नउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए, उरि एग प्रभा पथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन करने पर और जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं नीचे एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख अठत्तर हजार योजन वज्जेत्ता, मझे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से- प्रमाण मध्य भाग में दक्षिण दिशावासी नागकुमार देवों के चुम्माएत्थ णं दाहिणिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं लीस लाख भवनावास हैं-ऐसा कहा गया है। चोयालीसं भवणावाससयसहस्सा भवंतोति मक्खातं। ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा जाव पांड- वै भवन बाहर से वृत्ताकार हैं अन्दर से चतुष्कोण हैं यावत् रूवा-एत्थ णं दाहिणिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं प्रतिरूप हैं । यहाँ दक्षिण दिशाबासी पर्याप्त तथा अपर्याप्त नागपज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। कुमार देवों के स्थान कहे गये हैं। [२] तिसू वि लोगस्स असंखेज्जइभागे। एत्थ णं [२] लोक के असंख्यातवें भाग में (नागकुमारों की बहवे दाहिणिल्ला नागकुमारा देवा परिवसंति। उत्पत्ति, समुद्घात तथा उनके अपने स्थान) ये तीनों हैं। महिड्ढीया जाव विहरंति। यहाँ दक्षिण दिशावासी नागकुमार देव रहते हैं। ये महधिक हैं, -पण्ण० पद० २, सु० १८२ [१] । यावत् (दिव्य भोग भोगते हुए) रहते हैं । दाहिणिल्लणागकुमारिदो धरणो दाक्षिणात्य नागकुमारेन्द्र धरण१७० : धरणे यऽत्थ णागकुमारिदे णागकुमारराया परिवसंति १७० : यहाँ नागकुमार राजा नागकुमारेन्द्र धरण रहते हैं। वे महिडढीए जाव बिग्वाए लेसाए दसदिसाओ उज्जोवेमाणे महधिक हैं यावत् दिव्यलेश्या से दसों दिशाओं को उद्योतित एवं पमासेमाणे। प्रकाशित करते हुए रहते हैं। से णं तत्थ चोयालीसाए भवणावाससय सहस्साणं वह चुम्मालीस लाख भवनावासों का, छह हजार सामानिक छण्डं सामाणियसाहस्सोणं,' तावत्तीसाए ताव- देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिश देवों का, चार लोकपालों का, सपरिवार तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं,' पंचण्हं अग्गमहिसीणं पांच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात सेनाओं का, सात सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं सेनापतियों का, चौबीसहजार आत्मरक्षक देवों का और अन्य अनेक अणियाधिवतीणं, चउव्वीसाए आयरक्खदेवसाहस्सोणं दक्षिण दिशावासी नागकुमार देव-देवियों का आधिपत्य एवं पुरोअण्णेसि च बहणं दाहिणील्लाणं नागकुमाराणं देवाण य वर्तित्व करते हुए रहता है। देवीण य आहेबच्चं पोरेवच्चं कुब्वमाणे विहरति । -पण्ण पद० २, सु० १८२-२ । उत्तरिल्ल-णागकुमारठाणाइं उत्तरदिशा के नागकुमारों के स्थान१७१:५० [१] कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं १७१:प्र० [१] हे भगवन् ! उत्तरदिशावासी पर्याप्त और देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? अपर्याप्त नागकुमार देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? सम० ४४, सु० ३। २. ठाणं०६, सु०५०६ । ३. ठाणं ४, उ० १, सु० ५६ । ४. ठाणं० ६, सु० ५०८ में धरण की छह अग्रमहिषियाँ कही गई हैं। ५. ठाणं० ७, सु० ५८२ । ६. जीवा०प०३, उ०२, सु०१२० । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १७१-१७३ अधोलोक गणितानुयोग ८५ [२] कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला गागकुमारा देवा [२] हे भगवन् ! उत्तर दिशावासी नागकुमार देव कहाँ परिवसंति? रहते हैं ? उ० [१] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पब्वयस्स उ० [१] हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत से उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असोउत्तर उत्तर में एक लाख अस्सीहजार योजन मोटाई वाली इस रत्नप्रभा जोयणसतसहस्स बाहल्लाए उरि एगं जोयण- पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन करने पर और नीचे सहस्सं ओगाहेत्ता, हेढा वेगं जोयणसहस्सं से एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख अठत्तर हजार योजन वज्जेत्ता, मझे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से- प्रमाण मध्य भाग में उत्तर दिशावासी नागकुमार देवों के चालीस एत्थ णं उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं लाख भवनावास है-ऐसा कहा गया है। चत्तालीसं भवणावाससतसहस्सा भवंतिती मक्खातं । ते णं भवणा बाहि वट्टा-सेसं जहा दाहिणिल्लाणं ये भवन बाहर से वृत्ताकार हैं अन्दर से चौकोर हैं-शेष जाव विहरति । वर्णन दक्षिण दिशावासी (नागकुमारों) के समान हैं यावत् –पण्ण पद० २, सु० १८३-१। रहते हैं। उत्तरिल्लणागकुमारिदो भूयाणंदो उत्तर दिशा के नागकुमारेन्द्र भूतानन्द१७२ : भूयाणंदे यऽत्य णागकुमारिदे णागकुमारराया परिवसति १७२ : यहाँ नागकुमारों के राजा नागकुमारेन्द्र भूतानन्द रहते हैं महिड्ढोए जाव दिव्वाए लेसाए दसदिसाओ उज्जोवेमाणे वे महधिक हैं यावत् दिव्यलेश्या से दसों दिशाओं को उद्योतित पभासेमाणे। एवं प्रकाशित करते हुए रहते हैं । ते णं तत्थ चत्तालीसं भवणावाससयसहस्साणं' आहेवच्चं वहाँ चालीस लाख भवनावासों का आधिपत्य एवं पुरोगामित्व जाव विहरइ।' करते हुए यावत् रहते हैं। -पण्ण० पद० २, सु० १८३ [२] । करने पर आप्रभा पृथ्वी के अपलोहजार योजन बाद सुवण्णकुमारठाणाइं सुपर्णकुमारों के स्थान१७३ :प० [१] कहि णं मंते ! सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्ता- १७३: प्र० [१] हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार पज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] कहि णं भंते ! सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति? [२] हे भगवन् ! सुपर्णकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उ० [१] गोयमा! हमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी उत्तर उ० [१] हे गौतम ! एक लाख अस्सीहजार योजन बाहल्य जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयण- (मोटाई) वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन सहस्सं ओगाहिता, हेवा वेगं जोयणसहस्सं अवगाहन करने पर और नीचे से एक हजार योजन छोडने पर वज्जिऊण, मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से- एक लाख अठत्तर हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में सूवर्णकुमार एत्थ णं सुवण्णकुमाराणं देवाणं बावरिं भवणा- देवों के बहत्तर लाख भवनावास हैं-ऐसा कहा गया है। वाससतसहस्सा भवंतीतिमक्खातं । ते णं भवणा बाहि वट्टा जाव पडिरूवा-तत्थ णं ये भवन बाहर से वृत्ताकार हैं यावत प्रतिरूप हैं। इनमें सवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पर्याप्त तथा अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहे गये हैं। पण्णत्ता। २] तिस वि लोगस्स असंखेज्जइभागे । तत्थ णं [२] लोक के असंख्यात वें भाग में (इनकी उत्पत्ति सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति, महिडीया समुद्घात और उनके स्वस्थान) ये तीनों हैं। वहाँ सुपर्णसेसं जहा ओहियाणं जाव विहरंति। कुमार देव रहते हैं। वे महधिक हैं शेष सामान्य वर्णन -पण्ण० पद० २, सु० १८४ [१] । जैसा है यावत् (क्रीड़ारत) रहते हैं। १. सम०४०, सू०४। २. जीवा०प०३, उ०२, सु. १२० । ३. सु०७२, सू०१। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ लोक- प्रज्ञप्ति wwwwww अधोलोक सुवण्णकुमारिदा १७४ : वेणुदेव वेणुदाली यत्थ दुवे सुवण्णकुमारिदा सुवण्णकुमाररायाणी' परिवसति महिडीया जाय विहरति । - पण्ण० पद० २, सु० १८४ [२] । दाहिणिल्ल सुवण्णकुमारठाणाई १७५० [१] [हि ] से दाहपिल्लाणं सुवणकुमारा पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? १. [२] कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति ? उ० [१] गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणं इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए असीउत्तर जोयणसय सहस्स बाहल्लाए उबर एवं जोयणसहस्सं ओगाहिता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं किण महत्तरे यणसह एत्य णं दाहिणिल्लाणं सुवणकुमाराणं अतो भवणावास सतसहस्सा भवतीति मक्खातं । ते णं भवणा बाहि वट्टा जाव पडिरूवा - एत्थ णं दाहिणा सुकुमाराणं पञ्जत्ता पजलाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । [२] तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे । एत्थ णं बहुवे सुवणकुमाराणं देवा परिवर्तति । - पण० पद०२, सु० १८५ [१] । दाहिणिलवणकुमारिदो वेणुदेवो१७६ : वेणुदेवे यत्थ सुर्वाण्णदे सुवण्णकुमारराया परि वसई सेस जहा नागकुमाराणं । - पण्ण० पद० २, सु० १८५ [२ [ । उत्तरिल्लवण्णकुमारठाणाई १७७ : ० [१] कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? [२] कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति ? ठाणं० ० २, उ० ३, सु० ६४ । सूत्र १७४-१७७ सुपर्णकुमार देवों के इन्द्र १७४ : सुपर्णकुमारों के राजा सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदेव और वेणदाली ये दो वहाँ रहते हैं। वे महर्षिक हैं यावत् वे ( क्रीड़ारत) रहते हैं । दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के स्थान १७५ प्र० [१] हे भगवन् ! दक्षिण दिशावासी पर्याप्त अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] हे भगवन् ! दक्षिण दिशावासी सुपर्णकुमार देव कहाँ रहते हैं ? उ० [२] हे गौतम! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण में एक लाख अस्सीहजार योजन बाहल्य वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन करने पर और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख अठत्तर हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में दक्षिण दिशाबासी सुपर्णकुमारों के अडतीस साथ भवना वास है ऐसा कहा गया है। बाहर से वृत्ताकार हैं यावत् प्रतिरूप हैं । यहाँ दक्षिण दिशावासी पर्याप्त तथा अपर्याप्त सुपर्णकुमारों के स्थान कहे गये हैं । [२] लोक के असंख्यातवें भाग में ( इनकी उत्पत्ति समुद्घात तथा इनके अपने स्थान) ये तीनों हैं । यहाँ पर अनेक सुपर्णकुमार देव रहते हैं । दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदेव १७६ : यहाँ पर सुपर्णकुमारों के राजा सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदेव रहते हैं । शेष सारा वर्णन नागकुमारों के समान हैं । उत्तर दिशा के सुपर्णकुमारों के स्थान - १७७ प्र० [१] भगवन् ! उत्तर दिशावासी पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? [२] भगवन् ! उत्तर दिशायासी सुपर्णकुमार देव कहाँ रहते हैं ? Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १७७-१८० अधोलोक गणितानुयोग ८७ उ० [१] गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी- उ० [१] गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस उत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग रलप्रभा पृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन अवगाहन करने पर जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता, हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं और नीचे से एक हजार योजन छोड़ने पर एक लाख अठहत्तर बज्जिऊण, मझे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से- हजार योजन प्रमाण मध्य भाग में उत्तर दिशावासी सुपर्णकुमार एत्थ णं उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं चोत्तीसं देवों के चोतीसलाख भवनावास हैं-ऐसा कहा गया है। भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खायं । ते णं भवणा बाहि बड़ा अंतो चउरंसा जाव पडि- ये भवन बाहर से वृत्ताकार हैं, अन्दर से चतुष्कोण हैं, यावत रूवा-एत्थ णं उत्तरिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पज्जत्ता- प्रतिरूप हैं। यहाँ उत्तरदिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। कुमारों के स्थान कहे गये हैं। [२] तिसु बि लोगस्स असंखेज्जइमागे—एत्थ णं बहवे [२] लोक के असंख्यातवें भाग में (इनकी उत्पत्ति, समुद्घात उत्तरिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसति । तथा उनके अपने अपने स्थान) ये तीनों हैं । यहाँ पर उत्तर दिशामहिड्ढीया जाव विहरंति। वासी सुपर्णकुमार देव रहते हैं । वे महद्धिक हैं यावत् वे रहते हैं। -पण्ण० पद० २, सु० १८६ [१] । उत्तरिल्लसुवण्णकुमारिदो वेणुदाली-- उत्तर दिशा के सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदाली-- १७८ : वेणुदाली यऽत्थ सुवण्णकुमारिदे सुवण्णकुमारराया १७८ : सुपर्णकुमार राजा सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदाली यहाँ परिवसइ । महिड्ढीए सेसं जहा णागकुमाराणं। रहते हैं । वे महद्धिक हैं-शेष (सम्पूर्ण वर्णन) नागकमारों - पण्ण० पद० २, सु० १८६ [२]। जैसा है। विज्जुकुमाराईणं सत्तण्हं ठाणमाईण निरूवणं- विद्य त्कमारादि सातों के स्थानादिका निरूपण१७९ : एवं जहा सुवण्णकुमाराणं वत्तव्वया भणिया तहा १७६ : जिस प्रकार सुपर्णकुमारों का वर्णन कहा गया है . सेसाण वि चोद्दसण्हं इंदाणं भाणियव्वा उसी प्रकार शेष चौदह इन्द्रों का वर्णन भी कहना चाहिए। नवरं भवण-णाणत्तं, विशेष-भवनों की संख्या भिन्न भिन्न है। इंद-णाणत्तं, इन्द्रों के नाम भिन्न भिन्न हैं। वण्ण-णाणत्तं, (भवनवासी देवों के) वर्ण भिन्न भिन्न हैं। परिहाण-णाणत्तं च। (भवनवासी देवों के) परिधानों का वर्ण भिन्न भिन्न हैं। -पण्ण० पद० २, सु० १८७ । भवणवासिदेवाण भवणसंखा पमाण य भवनवासी देवों के भवनों की संख्या और उनका प्रमाण१८०प० केवतिया गं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सा १८०प्र० भगवन् ! असुकुमारों के कितने लाख आवास कडे पन्नत्ता? गये हैं ? उ० गोयमा! चोसढि असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता। उ. गौतम ! असुरकुमारों के चौसठलाख आवास कहे गये हैं। प० ते णं भंते ! कि संखेज्जवित्थडा, असंखेज्जवित्थडा ? प्र० भगवन् ! क्या वे संख्येय विस्तार वाले हैं या असंख्येय विस्तार वाले हैं? उ० गोयमा ! संखेज्जवित्थडा वि, असंखेज्जवित्थडा वि। उ. गौतम ! संख्येय विस्तार वाले हैं और असंख्येय विस्तार --भग० स० १३, उ० २, सु० ३-४। वाले भी हैं। १. यहाँ "इमाहि गाहाहि अणुगंतव्वं" ऐसा सूचना पाठ है और नीचे सात गाथायें हैं-इनमें से भवनसंख्यासुचक प्रारम्भ की चार गाथायें -'भवणवासिदेवाणं भवणसंखा पमाणं य" इस शीर्षक के नीचे दिये गये मूलपाठ के पश्चात् दी गई है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १८१-१८४ १८१:५० केवतिया णं भंते ! नागकुमारावाससयसहस्सा १८१: प्र० भगवन् ! नागकुमारों के कितने लाख आवास कहे पन्नत्ता? गये हैं? उ० (गोयमा! चुलसीइनागकुमारावाससयसहस्सा उ० (गौतम ! नागकुमारों के चौरासीलाख आवास पण्णत्ता ।) एवं जाव णियकुमारा। कहे गये हैं।) इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक हैं। नवरं-जत्थ जत्तिया भवणा। विशेष--जहाँ जितने भवन हैं (उतने कहें)। -भग० स० १३, उ०२, सु०६ । १८२: गाथार्थ १. असुरकुमारों के चौसठलाख भवन हैं। २. नागकुमारों के चौरासीलाख भवन हैं । ३. सुपर्णकुमारों के बहत्तरलाख भवन हैं। ४. वायुकुमारों के छिन्नवेलाख भवन हैं। ५. द्वीपकुमार, ६. दिशाकुमार, ७. उदधिकुमार, ८. विद्युकुमार, ६. स्तनितकुमार और १०. अग्निकुमार इन ६ युगलों (दक्षिण उत्तर) के (प्रत्येक युगल के) छिहत्तरलाख भवन हैं । १८२: गाहाओ १ चोटुिं असुराणं,' २ चुलसीति चेव होंति नागाणं ।' ३ बावरि सुवण्णे, ४ वाउकुमाराण छण्ण उ य॥ ५ दीव, ६ दिसा, ७ उदहोणं, ८ विज्जुकुमारिद, ६ थणिय, १० मग्गीणं । छह पि जुवलयाणं, छावत्तरिमो सयसहस्सा।" -पण्ण० पद० २, सु० १८७ । दाहिणिल्ल उत्तरिल्ल-भवणसंखा - १८३ : गाहाओ १ चोत्तीसा, २ चोयाला, ३ अट्टतीसं च सयसइस्साई। ४ पण्णा , ५ चत्तालीसा, ६-१० दाहिणओ होंति भवणाई॥ दक्षिण दिशा और उत्तरदिशा के भवनों की संख्या१८३ : गाथार्थ १. असुरेन्द्र चमर के भवन चौतीसलाख हैं। २. नागकुमारेन्द्र धरण के भवन चुम्मालीसलाख हैं। ३. सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदेव के भवन अडतीसलाख हैं। ४. विद्युत्कुमारेन्द्र हरि (कांत) के भवन पचासलाख हैं। शेष छह इन्द्रों के (प्रत्येक के) भवन चालीस चालीसलाख १तीसा, २ चत्तालीसा, ३ चोत्तीसं चेव सयसहस्साई। ४ छायाला, ५ छत्तीसा, ६-१० उत्तरओ होंति भवणाई। -पण्ण० पद० २, सु. १८७। १. असुरेन्द्र बली के भवन तीसलाख हैं। २. नागकुमारेन्द्र भूतानन्द के भवन चालीसलाख हैं। ३. सुपर्णकुमारेन्द्र वेणुदाली के भवन चौतीसलाख हैं। ४. विद्युत्कुमारेन्द्र हरिस्सह के भवन छियालीसलाख हैं। शेष छह इन्द्रों के (प्रत्येक के) भवन छत्तीस, छत्तीसलाख हैं।" भवणावासाणं रयणामयत्तं सासयासासयत्तं य रत्नमय भवनावास शाश्वत और अशाश्वत१८४:५० केवतिया णं भंते ! असुर कुमार मवणावाससयसहस्सा १८४ : प्र० भगवन् ! असुरकुमारों के कितने लाख भवनावास पन्नत्ता? कहे गये हैं ? सम० ६४, सु०२।। २. क--- सम० ८४, सु०११। ख-भग० स० १३, उ० २, सु०६ । ३. सम०७२, सु०१। ४. सम०६६, सु० २। ५. क-सम०७६, सु०१-२ । ख--भग० स० १, उ०५, सु०३। सम० ३४, सु०५। ७. सम०४४, सू०३ । ८. सम०४०, सु०४। ६. सम० ४६, सु० ३। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १८४-१८५ अधोलोक गणितानुयोग ८६ उ. गोयमा ! चोटुिं असुरकुमार-भवणावाससयसहस्सा उ० गौतम ! असुरकुमारों के चौसठलाख भवनावास कहे पन्नत्ता। गये हैं। प० ते णं भंते ! किमया पन्नत्ता? प्र० भगवन् ! वे किसके बने हुए हैं ? उ. गोयमा ! सव्वरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडि- उ० गौतम ! वे सम्पूर्ण रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्षण-चिकने रूवा । तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमंति, हैं, यावत् मनोहर हैं। उनमें अनेक जीव उत्पन्न होते हैं और मरते विउक्कमंति, चयंति, उववज्जति, सासया गं ते भवणा हैं । अनेक पुद्गल आते हैं और जाते हैं। अतः वे भवन द्रव्यों की दवट्टयाए, वण्णपज्जवेहि जाव फासपज्जवेहि अपेक्षा से शाश्वत हैं। वर्ण पर्यवों (की अपेक्षा) से यावत स्पर्श असासया । पर्यवों (की अपेक्षा) से अशाश्वत हैं । एवं जाव थणियकुमारावासा । इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारावास हैं । -भग० स० १६, उ०७, सु० १, २, ३ । भवणवासीणं इंदा१८५ : १. दो असुरकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा (१) चमरे चेव, (२) बलि चेव । २. दो नागकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा (१) धरणे चेव, (२) भूयाणंदे चेव । ३. दो सुवण्णकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा (१) वेणुदेवे चेव, (२) वेणुदाली चेव । ४. दो विज्जुकुमारिदा पण्णत्ता, तं जहा (१) हरिच्चेव, (२) हरिस्सहे चेव । ५. दो अग्गिकुमारिंदा पण्णता, तं जहा (१) अग्गिसिहे चेव, (२) अग्गिमाणवे चेव । ६. दो दीवकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा (१) पुण्णे चेव, (२) विसिट्ठ चेव । ७. दो उदहिकुमारिदा पण्णत्ता, तं जहा (१) जलकते चेव, (२) जलप्पमे चेव । ८. दो दिसाकुमारिदा पण्णता, तं जहा (१) अमियगई चेव, (२) अमियवाहणे चेव । ६. दो वायुकुमारिंदा पण्णत्ता, तं जहा (१) वेलंबे चेव, (२) पभंजणे चेव, १०. दो थणियकुमारिदा पण्णत्ता, तं जहा(१) घोसे चेव,' (२) महाघोसे चेव । -ठाणं० २, उ०३, सु०६४ । भवनवासियों के इन्द्र१८५:१. असुरकुमारों के दो इन्द्र कहे गये हैं, यथा (१) चमर और (२) बलि । २. नागकुमारों के दो इन्द्र कहे गये हैं, यथा (१) धरण और (२) भूतानन्द । ३. सुवर्णकुमारों के दो इन्द्र कहे गये हैं, यथा-- (१) वेणुदेव और (२) वेणुदाली । ४. विद्युत्कुमारों के दो इन्द्र कहे गये हैं, यथा (१) हरी और (२) हरिस्सह । ५. अग्निकुमारों के दो इन्द्र कहे गये हैं, यथा (१) अग्निशिख और (२) अग्निमाणव । ६. द्वीपकुमारों के दो इन्द्र कहे गये हैं, यथा (१) पूर्ण और (२) वासिष्ठ ।। ७. उदधिकुमारों के दो इन्द्र कहे गये हैं, यथा (१) जलकांत और (२) जलप्रभ। ८. दिशाकुमारों के दो इन्द्र कहे गये हैं, यथा (१) अमितगति और (२) अमितवाहन । ६. वायुकुमारों के दो इन्द्र कहे गये हैं, यथा (१) वेलंब और (२) प्रभंजन । १०. स्तनितकुमारों के दो इन्द्र कहे गये हैं, यथा (१) घोष और (२) महाघोष । १. सम० ३२, सु० २ । २. दाहिणिल्ला इंदा : गाहा १. चमर, २. धरणे, ३. तह वेणुदेव, ४. हरिकंत, ५. अग्गिसीहे य । ६. पुणे, ७. जलकते य, ८. अमिय, ६. विलंबे य, १०. घोसे य ।। उत्तरिल्ला इंदा : गाहा १. बलि, २. भूयाणंदे, ३. वेणुदालि, ४. हरिस्सहे, ५. अग्गिमाणव, ६. वसि? । ७. जलप्पभे, ८. अमियवाहण, ६. पभंजणे य, १०. महाघोसे ।। -पण्ण० पद० २, सु० १८७ । wwwwwwwwwwwwwwimmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १८६-१८६ भवणवइइंदाणं अग्गमहिसीओ भवनपति इन्द्रों की अग्रमहिषियाँ१८६ : १. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररणो पंच अग्ग- १८६ : १. असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर की पांच अग्रमहिषियाँ महिसीओ पण्णताओ, तं जहा कही गई हैं, यथा(१) काली, (२) राई, (३) रयणी, (१) काली, (२) राजि, (३) रत्नी, (४) विज्जू, (५) मेहा । (४) विद्युत, (५) मेघा । २. बलिम्स णं वइरोणिदस्स वइरोयणरण्णो पंच अग्ग- २. वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बली की पाँच अग्रमहिषियाँ कही महिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा गई हैं, यथा(१) सुभा, (२) निसुभा, (३) रंभा, (१) शुभा, (२) निःशुभा, (३) रंभा, (४) निरंभा, (५) मयणा । (४) निरंभा, (५) मदना। -ठाणं० ५, उ० १, सु० ४०३ । १८७ : १. धरणस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो छ १८७ : १. नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण को छह अग्रअग्गमहिसोओ पण्णत्ताओ, तं जहा महिषियाँ कही गई हैं, यथा१-६ आला जाव घणविज्जुया । (१-६) आला यावत् घनविद्युता । २. भूयाणंदस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो छ २. नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र भूतानन्द की छह अग्रअग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा महिषियाँ कही गई हैं, यथा१-६ रूवा जाव रूवप्पभा। (१-६) रूपा यावत् रूपप्रभा । जहा धरणस्स तहा सव्वेसि २-१० दाहिणिल्लाणं दक्षिण दिशा के घोष पर्यन्त सभी (शेष आठ इन्द्रों) जाव घोसस्स। ___ की अग्रमहिषियों के नाम धरण जैसे हैं। जहा भूयाणंदस्स तहा सव्वेसि २-१० उत्तरि- उत्तर दिशा के महाघोष पर्यन्त सभी (शेष आठ इन्द्रों) ल्लाणं जाव महाघोसस्स। की अग्रमहिषियों के नाम भूतानन्द जैसे हैं। -ठाणं० ६, सु० ५०८ । १८:छ दिसिकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा (१) रूया, (२) ख्यंसा, (३) सुरूवा, (४) रूपवई, (५) रूपकता, (६) रूपप्पमा। छ विज्जुकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा १८८ : दिशाकुमारियों में महत्तरिका-प्रधान छह कही गई हैं, यथा (१) रूपा, (२) रूपांशा, (३) सुरूपा, (४) रूपवती, (५) रूपकांता, (६) रूपप्रभा। विद्युत्कुमारियों में महत्तरिका-प्रधान छह कही गई हैं, यथा (१) आला, (२) शक्रा, (३) शतेरा, (४) सौदामिनी, (५) इन्द्रा, (६) घनविद्युता। (१) आला, (२) सक्का, (३) सतेरा, (४) सोयामणी, (५) इंदा, (६) घनविज्जुया।' -ठाणं०६, सू० ५०७ । १८९ : चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- १८६ : दिशाकुमारियों में महत्तरिका-प्रधान चार कही गई हैं, यथा(१) ख्या, (२) ख्यंसा, (३) सुरूवा, (४) रूपबई। (१) रूपा, (२) रूपांशा, (३) सुरूपा, (४) रूपवती। (१) रूपा. (२) १. इन सत्रों में छह छह महत्तरिकाओं के जो नाम हैं वे ऊपर ५०८ सूत्र में दिये गये नामों के समान हैं। इसलिए 'अग्रमहिषी' और 'महत्तरिका' ये दोनों शब्द पर्यायवाची प्रतीत होते हैं। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १८६-१९२ चत्तारि तं जहा(t) fr (४) सोयामणी । १२० ग्राहाओ : : W विज्जुकुमारि महत्तरियाओ (२) का भवणवासीणं वण्णाई १६१ : गाहाओ काला असुरकुमारा, जागा उबही य पंडुरा दो वि । वरकणगणिहसगोरा, होंति सुवण्णा दिसा थणिया ॥ उत्तत्तकणगवण्णा, विज्जू अग्गी य होंति दीवा य । सामा पियंगुवण्णा, बाजकुमारा मुपेया ॥ - पण्ण० पद० २, सु० १८७ । भवणवासीणं परिहाणवण्णाई -: २. ४. १६२ : गाहाओ : असुरेसु होंति रत्ता, सिलिंघ पुप्फपभा य नागदही । आसासगवसणधरा, होंति सुवण्णा दिसा थणिया ॥ णीला रागवसणा, विज्जू अग्गी य होंति दीवा य । संशाणुरागवसणा बाउकुमारा मुणेया ॥ - पण्ण० पद० २, सु० १८७ । (a) erger, - ठाणं ४, उ० १, सु० २५६ १. सी, २. सो सामाणिया अधोलोक भवणवणं सामाणियदेव आयरक्खदेवसंता - पतामो उ ३-१० अरवज्जा"। एए, चउग्गुणा आयरक्खा उ ॥ - पण्ण० पद० २, सु० १८७ । भवनवासी देवों के वर्ग गणितानुयोग विद्युत्कुमारियों में महत्तरिका - प्रधान चार कही गई हैं, यथा (१) चित्रा, (२) चित्र कनका, (३) शतेरा, (४) सौदामिनी । ६१ १९० गाथार्य असुरकुमारों का वर्ण काला है, नागकुमार और उदधिकुमारों का वर्ण पंडुर (श्वेत-पीत मिश्रित) है, सुवर्णकुमार, दिशाकुमार और स्तनितकुमारों का वर्ग कसोटी पर की हुई श्रेष्ठ स्वर्णरेखा के समान गौर वर्ण है । विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और द्वीपकुमारों का वर्ण तपे हुए स्वर्ण वर्ण जैसा है, वायुकुमारों का वर्णं प्रियंगु जैसा श्याम जानना चाहिए । भवनवासी देवों के परिधानों (वस्त्रों) का वर्ण१६१ : गाथार्थ— असुरकुमारों के वस्त्रों का वर्ण रक्त है, नागकुमार और उदधिकुमारों के वस्त्रों का वर्ण सिलि (वृक्ष) के पुष्पों की प्रभा जैसा है, सुवर्णकुमार, दिशाकुमार और स्तनितकुमारों के वस्त्रों का वर्ण आसासग ( वृक्ष के वर्ण) जैसा है, विद्युतकुमार, अग्निकुमार और द्वीपकुमारों के वस्त्रों का वर्ण नीला है, वायुकुमारों के वस्त्रों का वर्ण संध्या समय जैसा जानना चाहिए । - भवनपतियों के सामानिक देवों की और आत्मरक्षक देवों की संख्या १९२ : गाथार्थ चमरेन्द्र के चौसठ हजार सामानिक देव हैं और चौसठ हजार के चौगुणे (दो लाख छप्पन हजार) आत्मरक्षक देव हैं । वैरोचनेन्द्र बलि के साठ हजार सामानिक देव हैं और साठहजार के चौगुणे (दो लाख चालीस हजार ) आत्मरक्षक देव हैं। १. इस सूत्र में चित्रा और चित्रकनका- ये दो नाम ऊपर ५०८ सूत्र में दी गई संक्षिप्त वाचना की सूचना से भिन्न है । सूचना महत्तरिकाओं के चार सूत्र केवल तुलनात्मक अध्ययन के लिए यहाँ दिये हैं। सम० ६४, सु० ३ । ३. सम० ६०, सु० ४ ०६, ०५० असुरेन्द्रों को छोड़कर शेष आठ इन्द्रों (प्रत्येक ) के छह-छह हजार सामानिक देव हैं और प्रत्येक के आत्मरक्षक देव छह हजार के चौगुणे ( चौबीस हजार ) हैं । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ लोक-प्रज्ञप्ति लोगपाला पण्णसा तं जहा १. सोमे, २. जमे, ३. वरुणे, ४. वेसमणे । २. एवं बलिस्स वि १. सोमे, २ जमे, ३. वेसमणे, ४. वरुणे । ३. एवं धरणस्स वि भवणवासिइंदाणं लोगपाला भवनवासि इन्द्रों के लोकपाल : णं १६३१. चमरस्त अनुरिवस्स अमुरकुमाररक्षो चत्तारि १९३१. असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के चार लोकपाल क : गये हैं, यथा १. कालपा ४. संखपाले । ४. एवं भूयाणंदस्स वि १. कालपाले, ४. सेलपाले । ५. एवं वेणुदेवस्स वि २. कोलपाले, ३. सेलपाले २. कोलपाले, ३. पाले १. चिते, २. विचित्ते, ३ चित्तपक्खे, ४ विचित्तपक् ६. एवं वेणुदारिस वि १. चित्ते, २. विचित्ते, ३. विचित्तपक्खे, ४. चित्तपक्खे | ७. एवं हरिकंतस्स वि १. पभे, २. सुपभे, ३. पभकंते, ४. सुपमकंते । ८. एवं हरिसहस्स वि १. पभे, २. सुपभे, ३. सुपभकते, ४. पद्मकंते । २. एवं अग्मिसिस्स वि अधोलोक २.२.४. १. ते १०. एवं अग्गिमाणवस्स वि — १. तेउ, २. तेउसिहे, ३. तेउप्पभे, ४. तेउकते । ११. एवं पन्नस्स वि १. रुए, २. रूयंसे, ३ रूयकंते, ४. ख्यप्पभे । १२. एवं बसिस्स बि www सूत्र १६३ १. सोम, २. यम, ३. वरुण, ४. वैश्रमण । २. इसी प्रकार बली के भी ( चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. सोम, २. यम, ३. वैश्रमण, ४. वरुण । ३. इसी प्रकार घरण के भी ( चार लोकपाल कहे गये हैं, यथा १. कालपाल, २. कोलपाल, ३. शैलपाल, ४. शंखपाल । ४. इसी प्रकार भूतानन्द के भी ( चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. कालपाल, २. कोलपाल, ३. शंखपाल, ४. शैलपाल । ५. इसी प्रकार वेणुदेव के भी ( चार लोकपाल कहे गये हैं, यथा १. चित्र, २. विचित्र, ३. चित्रपक्ष ४. विचित्रपक्ष । ६. इसी प्रकार वेणुदाली के भी ( चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. चित्र २. विचित्र विचित्र ४. चित्रपक्ष । 7 - , ७. इसी प्रकार हरिकांत के भी ( चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. प्रभ, २. सुप्रभ, ३. प्रभकांत, ४. सुप्रभकांत । ८. इसी प्रकार हरिस्सह के भी ( चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. प्रभ, २. सुप्रभ, ३. सुप्रभकांत, ४ प्रभकांत । 8. इसी प्रकार अग्निशिख के भी ( चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. तेजस्, २ . तेजः शिख, ३. तेजस्कांत, ४. तेजस्प्रभ । १०. इसी प्रकार अग्निमाणव के भी ( चार लोकपाल कहे गये हैं, यथा १.२. २. तेवस्थ, ४. तेजस्त ११. इसी प्रकार पूर्ण के भी ( चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. रूप, २. रूपांश, ३. रूपकांत, ४. रूपप्रभ । १२. इसी प्रकार वशिष्ठ के भी ( चार लोकपाल कहे गये हैं, यथा Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १९३-१६४ अधोलोक गणितानुयोग, ६३ wwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm १.कए, २. रूयंसे, ३. रूयप्पभे, ४. रूयकते। १३. एवं जलकंतस्स वि १. जले, २. जलरए, ३. जलकते, ४. जलप्पभे। १४. एवं जलप्पहस्स वि १. जले, २. जलरए, ३. जलप्पभे, ४. जलकते।। १५. एवं अमितगतिस्स वि १. तुरियगई, २. खिप्पगई, ३. सोहगई, ४. सीह- विक्कमगई। १६. एवं अमितवाहणस्स वि १. रूप, २. रूपांश, ३. रूपप्रभ, ४. रूपकांत । १३. इसी प्रकार जलकांत के भी (चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. जल, २. जलरत, ३. जलकांत, ४. जलप्रभ । १४. इसी प्रकार जलप्रभ के भी (चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. जल, २. जलरत, ३. जलप्रभ, ४. जलकांत । १५. इसी प्रकार अमितगति के भी (चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. त्वरितगति, २. क्षिप्रगति, ३. सिंहगति ४. सिंहविक्रमगति । १६. इसी प्रकार अमितवाहन के भी (चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. त्वरितगति, २. क्षिप्रगति, ३. सिंहविक्रमगति, ४. सिंहगति । १७. इसी प्रकार वेलंब के भी (चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. काल, २. महाकाल, ३. अंजन, ४. रिष्ठ । १८. इसीप्रकार प्रभंजन के भी (चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा १. काल, २. महाकाल, ३. रिष्ठ, ४. अंजन । १६. इसी प्रकार घोष के भी (चार लोकपाल कहे गये हैं, यथा १. आवर्त, २. व्यावर्त, ३. नंदितावर्त, ४. महानंदितावर्त । १. तुरियगई, २. खिप्पगई, ३. सोहविक्कमगई, ४. सोहगई। १७. एवं बेलंबस्स वि १. काले, २. महाकाले, ३. अंजणे, ४. रिट्रे। १८. एवं पभंजणस्स वि १. काले, २. महाकाले, ३. रिट्ठ, ४. अंजणे । ' १९. एवं घोसस्स वि १. आवत्ते, २. वियावत्ते, ३. णंदियावत्ते, ४. महा जंदियावत्ते । २०. एवं महाघोसस्स वि-- २०. इसी प्रकार महाघोष के भी (चार लोकपाल कहे गये) हैं, यथा१. आवर्त, २. व्यावर्त, ३. महानंदितावर्त, ४. नंदितावर्त । १. आवत्ते, २. वियावत्ते, ३. महाणंदियावत्ते ४. णंदियावत्ते। -ठाणं० ४, उ०१, सु० २५६ । भवणवइइंद-लोगपालाणं अग्गमहिसोओ भवनपति इन्द्रों के लोकपालों की अग्रमहिषियाँ१९४: १. चमरस्स णं असुरिदस्स असुरकुमाररण्णो १ सोमस्स १९४ : १. असुरकुमारराज असुरकुमारेन्द्र चमर के सोम महारण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, (लोकपाल) महाराज की चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, यथातं जहा१. कणगा, २. कणगलया, ३. चित्तगुत्ता, ४. वसुं- १. कनका, २. कनकलता, ३. चित्रगुप्ता, ४. वसुंधरा । धरा। एवं २ जमस्स, ३ वरुणस्स, ४ वेसमणस्स । इसी प्रकार यम, वरुण और वैश्रमण (लोकपालों की अग्रमहिषियों के नाम) हैं। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १९४-१६५ २. बलिस्स णं वइरोणिदस्स वइरोयणरन्नो १ सोमस्स २. वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के सोम (लोकपाल) महाराज महारण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, की चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, यथातं जहा १. मितगा, २. सुभद्दा, ३. विज्जुत्ता, ४. असणी। १. मितगा, २. सुभद्रा, ३. विद्युत, ४. अशनी । एवं २ जमस्स, ३ वेसमणस्स, ४ वरुणस्स। इसी प्रकार यम, वरुण और वैश्रमण (लोकपाल की अग्रमहिषियों के नाम) हैं। ३. धरणस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो काल- ३. नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के कालवाल (लोकपाल) वालस्स महारण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, महाराज की चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, यथातं जहा १. असोगा, २. विमला, ३. सुप्पमा, ४. सुदंसणा। १. असोका, २. विमला, ३. सुप्रभा, ४. सुदर्शना । एवं जाव संखवालस्स। इसीप्रकार संखवाल पर्यंत (लोकपालों की अग्रमहिषियों के नाम) हैं। ४. भूताणंदस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो ४. नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र भूतानन्द के कालवाल कालवालस्स महारण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्ण- (लोकपाल) महाराज की चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, यथात्ताओ, तं जहा१. सुणंदा, २. सुभद्दा, ३. सुजाया, ४. सुमणा। १. सुनन्दा, २. सुभद्रा, ३. सुजाया, ४. सुमना । एवं जाव सेलवालस्स। इसी प्रकार सेलवाल पर्यंत (लोकपालों की अग्रमहिषियों के नाम) हैं। जहा धरणस्स एवं सव्वेसि दाहिणिदलोगपालाणं घोष पर्यंत सभी दक्षिणेन्द्रों के लोकपालों की अग्रमजाव घोसस्स। हिषियों के नाम धरण (के लोकपालों की अग्रमहिषियों के नाम) जैसे हैं। जहा भूताणंदस्स एवं सन्वेसि उतरिंदलोगपालाणं महाघोष पर्यंत सभी उत्तरेन्द्रों के लोकपालों की अग्रमजाव महाघोसस्स लोगपालाणं । हिषियों के नाम भूतानन्द (के लोकपालों की अग्रमहिषियों) -ठाणं० ४, उ० १, सु० २७३। के समान हैं। १६५ चमरस्स सुहम्मा सभा चमरेंद्र की सुधर्मा सभाप० कहि णं भंते ! चमरस्स असुररण्णो सभा सुहम्मा १६५ :प्र. हे भगवन् ? असुरराजचमर की सुधर्मा सभा कहाँ पण्णत्ता? पर कही गई है? उ० गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं उ० हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे वीईवइत्ता, अरुणवरस्स में तिरछे असंख्यद्वीप समुद्र पार करने पर अरुणवर द्वीप की दीवस्स बाहिरिल्लातो वेइयंताओ अरुणोदयं समुई बाहिर की वेदिका से अरुणोदय समुद्र में बियालीस हजार योजन बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थ णं जाने पर असुरराज चमर का तिगिच्छ कूट नामक उत्पात पर्वत चरमस्स असुररण्णो तिगिछि कूडे नामं उप्पायपव्यत्ते कहा गया है। पण्णत्ते। सत्तरसएक्कवीसे जोयणसते उड्ढं उच्चत्तेणं, इस उत्पात पर्वत की ऊंचाई सतरहसो इक्कीस योजन है चत्तारितोसे जोयणसते कोसं च उब्वेहेणं । और उद्वेध (भू-गर्भ की गहराई) चार सौ तीस योजन और एक कोश है। १. सम० १७, सु०७। २. सम० सूत्र १०३/२ । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६५ अधोलोक गणितानयोग ६५ गोत्थुभस्स आवासपव्वयस्स पमाणेण नेयव्वं, इस उत्पात पर्वत का प्रमाण गोस्तुभ आवास पर्वत के नवरंः-उवरिल्ले पमाण मज्झे भाणियव्वं जाव समान जानना चाहिए। विशेष (अन्तर) यह है कि मूले वित्थडे, मज्झे संखित्ते, उप्पि विसाले, वरवइर (गस्तुिभ आवास पर्वत के) ऊपर के प्रमाण के समान उत्पात पर्वत के) मध्य भाग का प्रमाण जानना चाहिए। विग्गहिए महामउदसंठाणसंठिए सव्वरयणामए यावत् यह मूल में विस्तृत है, मध्य में संक्षिप्त है और ऊपर अच्छे जाव पडिरूवे। से विशाल है। इस (पर्वत) की आकृति श्रेष्ठ वज्र जैसी है, महा मुकुंद (वाद्य) के संस्थान से स्थित है। सारा पर्वत रत्नमय है स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। से णं एगाए पउमवरवेइयाएं एगेणं वणसंडेणं य सम्वओ यहाँ (उत्पात पर्वत) चारों ओर एक पद्मवर वेदिका और समंता संपरिक्खित्ते । एक वनखण्ड से घिरा हुआ है। पउमवरवेईयाए वणसंडस्स य वण्णओ। यहाँ पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड का वर्णन कहना चाहिए। तस्स णं तिगिछिकूडस्स उप्पायपव्वयस्स उप्पि उस तिगिच्छ कूट उत्पात पर्वत के ऊपर का भू-भाग अत्यधिक बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । वण्णओ। तस्स णं सम एवं रमणीय कहा गया है। यहाँ भूभाग का वर्णन कहना बहसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस चाहिए। उस सम एवं रमणीय भूभाग के ठीक मध्य भाग में एक भागे-एत्थ णं महं एगे पासायडिसए पण्णत्ते । अड्ढा- विशाल प्रासादावतसक (सुन्दर महल) कहा गया है । इस (प्रासादाइज्जाइं जोयण-सयाई उडढं उच्चत्तेणं, पणवीसं जोयण- वतंसक) की ऊँचाई दो सौ पचास योजन है और विष्कम्भ एक सौ सयं विक्खंभेणं । पचीस योजन का है। पासाय-वण्णओ। उल्लोयभूमिवण्णओ। अटु जोयणाई यहाँ प्रासादावतंसक एवं उसके ऊपरी भाग का वर्णन मणिपेढिया। कहना चाहिए । आठ योजन की मणिपीठिका है। चमरस्स सोहासणं सपरिवारं भाणियव्वं । यहाँ चमरेन्द्र के सिंहासन का सपरिवार वर्णन कहना चाहिए। तस्स णं तिगिछिकूडस्स दाहिणेणं छक्कोडिसए पणपन्नं उस तिगिच्छ कूट (उत्पात पर्वत) के दक्षिण में अरुणोदय च कोडीओ पणतीसं च सतसहस्साइं पण्णासं च जोयण समुद्र में छह सौ पचपन करोड़ पैंतीस लाख पचास हजार योजन असता मम तिरिय वीरवता अडेय जाने पर नीचे रत्न प्रभा पृथ्वी का चालीस हजार योजन भाग रयणप्पमाए पुढवीए चत्तालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता अवगाहन करने पर असुरराज असुरेन्द्र चमर की चमर चंचा एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो चमरचचा नामक राजधानी कही गई है। नामं रायहाणी पण्णता। एग जोयणसतसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं जंबुद्दीवपमाणा। इसका आयाम-विष्कम्भ एक लाख योजन है जो जम्बूद्वीप ओवारियलेणं सोलसजोयणसहस्साई आयामविक्खं भेणं, के बराबर है। उपकारिकालयन का आयाम-विष्कम्भ सोलह पन्नासं जोयणसहस्साइं पंच य सत्ताणउए जोयण किंचि- हजार योजन है और उसकी परिधि पचास हजार पाँच सो विसेसूणे परिक्खेवेणं । सित्तानवे योजन में कुछ कम है। मस्वप्पमाणं वेमाणियप्पमाणस्स अद्धं नेयव्वं । यहाँ सारा प्रमाण वैमानिकों के प्रमाण से आधा जानना सभा सुहम्मा उत्तर-पुरस्थिमेणं, जिणघरं, ततो चाहिए । सुधर्मा सभा, उत्तर-पूर्व में जिनघर, उपपात सभा, उववायसभा हरओ अभिसेय अलंकारो जहा ह्रद, अभिषेक और अलंकार यह सारा वर्णन विजय देव विजयस्स । गाहा के वर्णन के समान है। गाथार्थउववाओ संकप्पो अभिसेय विभूसणा प ववसाओ। उपपात, संकल्प, अभिषेक, विभूषणा, व्यवसाय, अर्च निका, अच्चाणिय सुहगमो वि य चमरपरिवार इड्ढत्त ॥ शुभागमन चमर का परिवार और उसकी ऋद्धि सम्पन्नता। (इस गाथा में कहे गये विषयों का विस्तृत वर्णन विजयदेव -भग० स० २, उ०८, सू०१। के समान है।) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १९६ w चरिंदस्स चमरचंचावासो चमरेन्द्र का चमरचंचावास१९६ : प० कहि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकमाररण्णो १९६ : प्र. भगवन् ! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर का चमर चमरचंचे नाम आवासे पन्नत्ते ? । चंच नामक आवास कहाँ पर कहा गया है ? उ० गोयमा ! जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं उ० गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से मेरु पर्वत के दक्षिण में तिरियमसंखेज्जे बीवसमुद्दे'बीइवइत्ता अरुणवरस्स दीवस्स तिरछे असंख्य द्वीप समुद्र लाँघने के बाद अरुणवरद्वीप की बाहर की बाहिरिल्लाओ बेइयंताओ अरुणोदयं समुई बायालीसं वेदिका के अन्तिम भाग से अरुणवर समुद्र में बियालीस हजार जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्य ण चमरस्स असुरिदस्स योजन जाने के बाद असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर का तिगिछि असुरकुमाररण्णो तिगिछिकूडे नाम उप्पायपव्वए कूट नामक उत्पात पर्वत कहा गया है। पण्णत्ते । सत्तरसएक्कवीसे जोयणसए उड्ढ उच्चत्तेणं । (वह) सत्रह सौ इकवीस योजन ऊपर की ओर उन्नत है, चत्तारितोसे जोयणसए कोसं च उब्वेहेण । चार सो तीस योजन और एक कोश भूमि में गहरा है, मूले बसबावीसे जोयणसए विक्खभेण, उसका विष्कम्भ मूल में एक हजार बाईस योजन का है। मझे चत्तारि चउबीसे जोयणसए विक्खभेण, मध्य में चार सौ चौबीस योजन का विष्कम्भ है। उरि सत्ततेवीसे जोयणसए विक्खभेण, ऊपर सातसौ तेवीस योजन का विष्कम्भ है । मूले तिण्णि जोयणसहस्साई दोण्णि य बत्तीसुत्तरे जोयणसए उसकी परिधि मूल में तीन हजार दो सौ बत्तीस योजन से किचि विसेसूर्ण परिक्खेवेणं । कुछ कम है। मझे एग जोयणसहस्स तिण्णि य इगुयाले जोयणसए मध्य में एक हजार तीन सौ इकतालीस योजन से कुछ किचि विसेसूण परिक्खेवेणं । कम है। उरि दोण्णि य जोयणसहस्साई दोण्णि य छलसीए जोयण- ऊपर दो हजार दो सौ छियालीस योजन से कुछ अधिक है। सए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । मूले वित्थडे, मज्झे संखित्ते, उप्पि विसाले, वरवइर मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से विशाल विग्गहिए महामउंदसठाणसठिए सव्वरयणामए अच्छे जाव है। श्रेष्ठ वन जैसी आकृति है, महा मुकंद के संस्थान से स्थित पडिरूवे। है, सब रत्नमय है स्वच्छ है यावत् मनोहर है । से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं य वणसंडेणं सव्वओ वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से समंता संपरिक्खित्ते। घिरा हुआ है। क-यहाँ संक्षिप्त वाचनाकार की सूचना है : एवं जहा वितिय सए सभा उद्देस वत्तव्वया (स० २ उ०८, सु० १) सच्चेव अपरिसेसा नेयव्वा, नवरं इमं नाणतं जाव तिगिच्छ कूडयस्स उप्पायपव्वयस्स, चमरचंचाए रायहाणीए चमरचंचस्स आवासपब्वयस्स अन्नेसि च बहणं सेसं तं चेव जाव तेरस अगुलाई अद्धंगुल च किचि विसेसाहिया परिक्खेवेणं । इस सूचना के अनुसार (स० २, उ० ८, सु० १) से “बोइवइत्ता".""से....... कोसं च उव्वेहेण..." तक का पाठ यहाँ दिया है। ख-ऊपर अंकित संक्षिप्त वाचना की सूचना में-"नवरं इमं नाणत्तं" के आगे जो जाव दिया है-इसका अभिप्राय अन्वेषणीय है। यहाँ (म० वि० विया० स० २, उ० ८, सू० १ में) सक्षिप्त वाचनाकार की सूचना है : ...गोत्थुभस्स आवासपव्वयस्स पमाणेणं नेयव्वं नवरं उवरिल्ल पमाणं मज्झे भाणियव्वं जाव मूले वित्थडे..." इस सूचना के अनुसार वियाहपण्णत्ति प्रथम भाग पृ० १११ के टिप्पण से यहाँ पाठ दिया है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६६ अधोलोक गणितानुयोग ९७ पउमवरवेइयाए, वणसंडस्स य वण्णओ। यहाँ पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन कहना चाहिए। तस्स णं तिगिछिकूडस्स उप्पायपव्वयस्स उप्पि बहुसमर- उस तिगिच्छ कूट उत्पात पर्वत से ऊपर का भू भाग अधिक मणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । वण्णओ। सम एवं रमणीय कहा गया है। (भू भाग का) वर्णन कहना चाहिए। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस- उस अधिक सम एवं रमणीय भू भाग के मध्य में एक महान भागे-एत्थण महं एगे पासायडिसए पण्णत्ते । अड्ढा- प्रासादावतंसक (भव्य प्रासाद) कहा गया है। वह प्रासाद ढाई सौ इज्जाइ जोयणसयाइ उड्ढे उच्चत्तेण, पणवीस जोयणसयं योजन ऊपर की ओर उन्नत है और उसका विष्कम्भ एक सौ विक्खंभेणं। पच्चीस योजन का है। पासायवण्णओ। उल्लोयमिवण्णओ। प्रासाद का वर्णक, छत का वर्णक, आठ योजन की अट जोयणाइं मणिपेढिया, चमरस्स सीहासणं मणिपीठिका और चमर का सपरिवार सिंहासन (का सपरिवार भाणियव्वं । वर्णक) यहाँ कहना चाहिए। तस्स णं तिगिछिकडस्स दाहिणणं छक्कोडिसए पणपन्नं उस तिगिच्छ कूट (पर्वत) के दक्षिण में छह सो पचपन करोड़ च कोडीओ, पणतीसं च सयसहस्साइं, पण्णासं च जोयण- पैतीस लाख पचास हजार योजन अरुणोदक समुद्र में तिरछे जाने सहस्साई अरुणोदए समुद्दे तिरियं वीइवइत्ता, अहे य पर और (वहाँ से) नीचे रल प्रभा पृथ्वी के भीतर चालीस हजार रयणप्पभाए पुढवीए चत्तालीसं जोयणसहस्साइं ओगा. योजन जाने पर असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर की चमर चंचा हिता-एत्थ णं चमरस्स असुरिदस्स असुररनो चमरचंचा नाम को राजधानी कही गई है। नामं रायहाणी पण्णत्ता। एग जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खभेणं', तिण्णि जोयण- (वह राजधानी) एक लाख योजन की लम्बी चौड़ी हैं और सयसहस्साई सोलससहस्साई दोष्णि य सत्तावीसे जोयण- उसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन सए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई तीन कोश अठावीस धनुष तेरह अंगुल तथा आधे अंगुल से कुछ अद्धंगुलं च किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। अधिक कही गई है। पागारो दिवढं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं, मूले पण्णासं (उस राजधानी का) प्राकार डेढ सौ योजन ऊपर की ओर जोयणाई विक्ख भेणं, उरि अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं उन्नत है, (प्राकार के) मूल का विष्कम्भ पचास योजन है, (प्राकार कविसीसगा अद्धजोयणायाम, कोसं विक्खंभेणं देसूर्ण के) ऊपर का विष्कम्भ साड़े बारह योजन है, (प्राकार के) कपि अडजोयणं उड्ढ उच्चत्तेणं, एगमेगाए बाहाए पंच पच शीर्षक-कंगूरे आधा योजन लम्बे हैं, एक कोश चौड़े हैं और आधा दारसया, अड्ढाइज्जाई जोयणसयाइ उड्ढ उच्चत्तेणं, योजन से कुछ कम ऊपर की ओर उन्नत हैं । (प्राकार की) प्रत्येक अद्धं विक्खंभेण । बाहु में पांच पांच सौ द्वार हैं, (प्रत्येक) द्वार ढाई सौ योजन ऊपर की ओर उन्नत है (ढाई सौ के आधा अर्थात्) सवा सौ योजन का चौड़ा है। यहाँ म० वि० वियाहपण्णत्ति स० २, उ० ८, सु० १ में 'जंबुद्दीवपमाणा' । यह संक्षिप्त वाचना का पाठ है। यह पाठ सगत होते हुए भी भ्रांति मूलक है क्योंकि श० १३, उ०६, सू०५ में सेसं तं चैव जाव तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिया परिक्खेवेणं । ऐसा पाठ है । अतः श० २, उ० ८, सु० १ में-"जंबुद्दीवपमाणा" के स्थान में श० १३, उ० ६, सू० ५ में सूचित पाठ ही होना चाहिए। २. म० वि० वियाहंपण्णत्ति, श० २, उ०८, सू०६, पृष्ठ ११२ के टिप्पण ४ से चमरचंचा राजधानी के प्राकार आदि का परिमाण यहाँ दिया है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र १९६ तिसेणं चमरचंचाए रायहाणीए दाहिणपच्चत्थिमेणं उस चमर चंचा राजधानी के दक्षिण पश्चिम में छह सौ छक्कोडीसए पणपन्नच कोडीओ पणतीसं च सयसहस्साइं पचपन क्रोड पेंतीसलाख पचासहजार योजन अरुणोदक समुद्र में पन्नासं च जोयणसहस्साइं अरुणोदगसमुदं तिरियं वोई. तिरछे जाने पर असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर का चमरचंच बहत्ता एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो नाम का आवास कहा गया है। चमर चंचे नामं आवासे पण्णत्ते । चउरासीइं जोयणसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, वो जोयण- (उसका) आयाम-विष्कम्भ चौरासीहजार योजन का है (और सयसहस्सा पट्टि च सहस्साई छच्च बत्तीसे उसकी) परिधि दो लाख पैंसठ हजार छह सौ बत्तीस योजन से जोयणसए किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । से गं एगेणं कुछ अधिक है। वह एक प्राकार द्वारा चारों ओर से घिरा पागारेणं सम्वओ समंता संपरिक्खित्ते, से णं हुआ है। प्राकार डेडसौ योजन ऊपर की ओर उन्नत है, पागारे दिवढं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं', मूले पण्णासं (प्राकार के) मूल का विष्फंभ पचास योजन है और ऊपर का जोयणाई विक्खंभेणं, उरि अद्धतेरस जोयणाई विक्खंभेणं विष्कभ साड़े बारह योजन है। (प्राकार के) कंगूरे आधा योजन कविसीसगा अद्धजोयणआयाम, कोसं विक्खंभेणं, अद्ध- लम्बे हैं, एक कोस चौड़े हैं और आधा योजन ऊपर की ओर उन्नत जोयणं उढं उच्चत्तेणं, एगमेगाए बाहाए पंच-पंच दार- है। उसकी प्रत्येक बाहु में पांच-पाँचसौ द्वार हैं। प्रत्येक द्वार सया, अड्ढाइज्जाई जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अद्धं ढाईसौ योजन ऊपर की ओर उन्नत है और (ढाईसौ योजन के) विक्खंभेणं । आधे अर्थात् सवासौ योजन उनका विष्कंभ है। प० चमरे णं भंते ! असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचे प्र० हे भगवन् ! असुरकुमारों का राजा असुरेन्द्र क्या चमर आवासे वसहि उवेइ? चंच आवास में (स्थायी) निवास करता है ? उ० गोयमा ! नो इण? सम?। उ० गौतम ! ऐसा नहीं है। प० से के णं खाइ अट्ठ णं भंते ! एव वुच्चइ - 'चमर प्र. हे भगवन् ! किस अभिप्राय से यह कहा जाता है किचंचे आवासे, चमरचंचे आवासे? "यह चमर चंच आवास हैं, यह चमर चंच आवास है ? उ० गोयमा ! से जहा नामए-इहं मणुस्सलोगंसि उ. हे गौतम ! जिस प्रकार इस मनुष्य लोक में उपकारिक उवगारियालेणाइवा, उज्जाणियलेणाइ वा, निज्जा- (प्रासाद की पीठिका रूप) लयनादि, उद्यानिक (बगीचे में बने हुए) णियलेणाइ वा, धारवारियलेणाइ वा, तत्थ णं बहवे लयनादि, निर्याणिक (नगर द्वार के बाहर बने हुए) लयनादि तथा मणस्सा य, मणुस्सीओ य, आसयंति सयंति जहा धारकरिक (पानी की धाराएँ छोड़ने वाले) लयनादि (गृहादि) होते रायपसेणइज्जे जाव कल्लाणफलवित्तिविसेसं हैं-वहाँ अनेक मनुष्य और मानुषियाँ बैठते हैं, सोते हैं रायपसेणी पच्चणुभवमाणा विहरति । अन्नत्य पुण वसहि में आये वर्णन के समान यावत् विशेष पुण्य के फल का अनुभव उति। करते हुए रहते हैं और वे अन्यत्र (स्थायी) निवास करते हैं । एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमार- इसी प्रकार हे गौतम ! असुरकुमारों के राजा असुरेन्द्र चमर रण्णो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तियं, का चमर चंच आवास केवल (उसकी) क्रीडारति के लिए है और अन्नत्थ पुण वसहि उवेइ। वह अन्यत्र (स्थायी) निवास करता है। से तेण? गं गोयमा ! एवं वुच्चह चमरचंचे आवासे'। इसीलिए हे गौतम ! यह चमर चंच आवास कहा जाता है । - भग० स० १३, उ० ६, सु० ५, ६। यहाँ संक्षिप्त वाचना की सूचना इस प्रकार हैं :-"एवं चमरचंचा रायहाणी वत्तव्वया माणियव्वा सभा विहूणा जाव चत्तारि पासायपतीओं" इस सूचना के अनुसार यहाँ चमरचंचा आवास के प्राकार आदि का परिमाण भग० पृ० ११२ के टिप्पण से दिया है। म० वि० वियाहपण्णत्ति भाग २ श० १३, उ० ६, सू० ५, पृ०६४० पर संक्षिप्त वाचना की सूचना इस प्रकार है :'नवरं इमं नाणत्तं जाव तिगिच्छिकूडस्स उप्पायपव्वयस्स, चमर चंचाए रायहाणीए चमरचंचस्स आवासपब्वयस्स अन्ने सि च बहूणं-इस सूचना के अनुसार पण्ण० प० २, सु० १७८ [२] से यहाँ यह पाठ संकलित किया है। से णं तत्थ तिगिच्छिकूडस्स उप्पायपव्वयस्स, चमरचचाए रायहाणीए, चमरचंचस्स आवासपव्वयस्स, अन्न सिं च बहूण दाहिणिल्लाण देवाण देवीणं य आहेवच्च पोरेवच्चं जाव विहरइ । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १९७-१९८ अधोलोक गणितानुयोग बलिस्स सुहम्मा सभा : बलिचंचा रायहाणी बलि की सुधर्मा सभा तथा बलि चंचा राजधानी १९७:५० कहि णं मंते ! बलिस्स बइरोणिदस्स वइरोयण- १६७ :प्र. हे भगवन् ! वैरोचनराज वरोचनेन्द्र बली की सुधर्मा रनो समा सुहम्मा पन्नत्ता? सभा कहाँ पर कही गई है ? उ० गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं उ० हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत से उत्तर तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे वीइवइत्ता, अरुणवरस्स में तिरछे असख्यद्वीप समुद्र लाँघने पर अरुणवर द्वीप की बाहिर दीवस्स बाहिरिल्लातो वेइयंतातो अरुणोदयं समुई की वेदिका से अरुणोदय समुद्र में बयालीस हजार योजन अवगाहन बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थ णं करने पर वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि का रुचकेन्द्र नामक उत्पात बलिस्स वइरोणिदस्स बइरोयणरन्नो रुगिदे नाम पर्वत कहा गया है। वह सतरहसौ इक्कीस योजन ऊंचा है, शेष उप्पायपव्वए पन्नत्ते', सत्तरसएक्कवीसे जोयणसए प्रमाण तिगिच्छ कूट उत्पात पर्वत के समान है। प्रासादाउड्ढं उच्चत्तेणं', एवं पमाणं तिगिछकूडस्स, वतंसक का प्रमाण भी वही है । बलि का सिंहासन और पासायवडेंसगस्स त चेव पमाणं, सीहासणं उसके परिवार के सिंहासनों का वर्णन तथा रुचकेन्द्र नाम सपरिवारं बलिस्स परियारेणं । अट्टो तहेव। का अर्थ भी उसी प्रकार है। नवरं-रुगिदप्पभाई कुमुयाइ। विशेष यह है कि रुचकेन्द्र रत्न की प्रभावाले उत्प लादि है। सेसं तं चेव जाव बलिचंचाए रायहाणीए शेष सभी उसी प्रकार है यावत् बलिचंचा राजधानी अन्न सि च जाव निच्चे। और अन्यों का (आधिपत्य करता हुआ) यावत् नित्य है। रुयगिदस्स णं उप्पाय पव्वयस्स उत्तरेणं छक्को- रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत के उत्तर में उसी प्रकार यावत् डिसए तहेव जाव चत्तालीसं जोयणसहस्साइं (पचपन करोड़; छहसौ पैंतीसलाख पचासहजार योजन ओगाहित्ता-एत्थ णं बलिस्स वइरोणिदस्स अरुणोदय समुद्र में तिरछा जाने पर नीचे रत्नप्रभा का) वइरोयणरन्नो बलिचंचा नामं रायहाणी चालीसहजार योजन भाग अवगाहन करने पर वैरोचनराज पन्नत्ता। एगं जोयणसयसहस्सं पमाणं तहेव, वैरोचनेन्द्र बलिकी बलिचंचा नाम की राजधानी कही गई जाव बलिपेढस्स उववातो जाव आयरक्खा सव्वं है। इसका आयाम विष्कम्भ एक लाख योजन का है। शेष तहेव निरवसेसं । प्रमाण यावत् बलि पीठ तक कहना चाहिए । उपपात यावत् आत्मरक्षक आदि का सम्पूर्ण वर्णन पहले के समान है। नवर–सातिरेगं सागरोवमं ठितो पन्नत्ता। विशेष-कुछ अधिक एक सागरोपम की स्थिति कही सेसं तं चेव जाव बली बहरोयणिदे, बली गई है। शेष उसी प्रकार है, यावत् बलि वैरोचनेन्द्र ! बलि वइरोंयणिदे। वैरोचनेन्द्र ! सेवं भंते, सेवं भंते जाव विहरति । हे भगवन् ! हे भगवन् ! इसी प्रकार है। इसी प्रकार -भग० स० १६, उ० ६, सु० १। यावत् विचरण करते हैं । पंच सभाओ पाँच सभा१९८ : चमरचंचाए रायहाणीए पंच सभाओ पण्णत्ताओ तं जहा- १९८ : चमर चंचा राजधानी में पाँच सभायें कही गई हैं, यथा१. सुहम्मा सभा, २ उववाय सभा, १. सुधर्मा सभा। २. उपपात सभा। ३. अभिसेय सभा, ४. अलंकारिय सभा, ३. अभिषेक सभा। ४. अलंकारिक सभा । ५. बवसाय सभा। ५. व्यवसाय सभा । एगमेगे णं इंबट्ठाणे गं पंच सभाओ पण्णत्ताओ, प्रत्येक इन्द्र के स्थान में पांच सभायें कही गई हैं, यथातं जहा-सुहम्मा सभा जाव ववसायसभा । सुधर्मा सभा यावत् व्यवसाय सभा । -ठाणं० ५, उ० ३, सु० ४७२ । १. ठाणं० १०, सु० ७२८ । २. सम० १७, सु०८। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० लोक- प्रज्ञप्ति अधोलोक सभाए संभखा सभा की स्तम्भ संख्या १६६ : चमरस्स णं असुरिदस्स असुररन्नो सभा सुधम्मा एकावन्न १६६ : असुरराज असुरेन्द्र चमर की सुधर्मा सभा इक्कावनसी स्तम्भों से युक्त कही गई है। खंभसयसंनिविट्ठा पण्णत्ता ! एवं चैव बलिस्स वि इसी प्रकार बली की ( सुधर्मा सभा के भी स्तम्भ हैं ।) - सम० ५१, सु० २-३ । सुहम्मा सभाए उच्चत्तं २०० : चमरस्स णं असुरिदस्स असुररण्णो सभा सुहम्मा छत्तीसं जोयणाई उड्ढ उच्चतेणं होत्था । - सम० ३६, सु० २ । चमरथंचाए एक्कमेक्कबाराए भोमा २०२ : चमरस्स णं असुरिदस्स असुररण्णो चमर चंचाए राय हामी एक्कमेस्कावाराए तेती तेतीस भोमा पष्णता । - सम० ३३, सु० २ । उबवाय. विरहो- उपपात विरह २०१ : चमरचंचा णं रायहाणी उक्कोसेणं छम्मासा विरहिए २०१ : चमर चंचा राजधानी में उपपात ( इन्द्र की उत्पत्ति) का उपवाए । विरह उत्कृष्ट छः मास का है । - ठाणं ६, सु० ५३५ । सूत्र १६६- २०५ - सम० १६, सु० ६ । एएस इसविहाणं भवगवासीगं देवागं इस रक्ता पण्णत्ता तं जहा- गाहा :आसत्य, सतिबण्ये, सामल, उंबर, सिरोस, दहि वंजुल, पलास, वप्पे तए य, कणियार रुक्खे ॥ - ठाण० १०, सु० ७३६ । भवण्यइण परिसाओ चमरस्स परिसाओ सुधर्मा सभा की ऊँचाई— : २०० असुरराज असुरेन्द्र चमर की सुधर्मा सभा छत्तीस योजन की ऊंची थी । उवायारियलेणं उपकारिकालयन २०३ : चमरवली णं उवयारियालेणे सोलसजोयणसहस्साइं २०३ : चमर और बली के उपकारिका लयनों का आयाम - विष्कंभ आयाम विक्खंभेणं पण्णत्ते । सोलह हजार योजन का कहा गया है । चमर चंचा के प्रत्येक द्वार के बाहर भौम (नगर) - २०२ : असुरराज असुरेन्द्र चमर की चमर चंचा राजधानी के प्रत्येक द्वार के बाहर तेतीस तेतीस भौमनगर कहे गये हैं । भवणवासिदेवाणं चेयरखा भवनवासी देवों के चैत्य वृक्ष २०४ : दसविहा भवणवासी देवा पण्णत्ता, तं जहा असुरकुमारा २०४ : भवनवासी देव दस प्रकार के कहे गये हैं, यथा-असुर जाय पणियकुमारा । कुमार यावत् स्तनितकुमार । इन दस प्रकार के भवनवासी देवों के दस प्रकार के चैत्य वृक्ष कहे गये हैं, यथा-गाथार्थ : १ अश्वत्थ २ शक्तिपर्ण ३ शाल्मली ४ उंबर ५ शिरीष ६ दधिवर्ण । ७ वंजुल ८ पलाश वप्र १० कर्णिकार ॥ भवनपतियों की परिषदाएँचमर की परिषदाएँ २०५ : प० चमरस्स णं भंते ! असुरिदस्स असुररनो कति २०५ : प्र० हे भगवन् ! असुरराज असुरेन्द्र चमर की कितनी परिसातो पण्णत्ताओ ? परिषदाएँ कही गई है ? mmm Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २०५.२०८ अधोलोक गणितानुयोग १०१ उ० गोयमा ! तओ परिसातो पण्णत्ताओ, तं जहा१. समिता, २. चंडा, ३. जाता। १. अमितरिता-समिता, २. मज्झिमिया-चंडा, ३. बाहिरिया च-जाया। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ११८ । उ. हे गौतम ! तीन परिषदाएँ कही गई हैं, यथा१. समिता, २. चंडा, ३. जाता। १. आभ्यन्तर परिषद-समिता, २. माध्यमिका परिषद-चंडा, ३. बाह्य परिषद-जाता । तिविहासु चमरपरिसासु देवाण संखा तीन प्रकार की चमर परिषदाओं में देवों की संख्या२०६ : ५० [१] चमरस्स गं भंते ! असुरिदस्स असुररन्नो २०६ : प्र० [१] हे भगवन् ! असुरराज असुरेन्द्र चमर की अभितरपरिसाए कति देवसाहस्सीओ आभ्यन्तर परिषद के कितने हजार देव कहे गये हैं ? पण्णत्ताओ? [२] मज्झिमपरिसाए कति देवसाहस्सोओ [२] मध्यम परिषद के कितने हजार देव कहे गये हैं ?.. पण्णत्ताओ? [३] बाहिरियाएपरिसाए कति देवसाहस्सीओ [३] बाह्य परिषद के कितने हजार देव कहे गये हैं ? पण्णत्ताओ? उ० गोयमा ! [१] चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो उ० [१] हे गौतम ! असुरराज असुरेन्द्र चमर की आभ्यन्तर अग्भितरपरिसाए चउवीसं देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। परिषद के चौबीस हजार देव कहे गये हैं। [२] मज्झिमिताएपरिसाए अट्ठावीसं देवसाहस्सीओ [२] मध्यम परिषद के अठाबीस हजार देव कहे गये हैं । पण्णत्ताओ। [३] बाहिरियाए परिसाए बत्तीसं देवसाहस्सीओ [३] बाह्य परिषद के बत्तीस हजार देव कहे गये हैं। पण्णत्ताओ। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० तिविहासु चमरपरिसासु देवीण संखा- तीन प्रकार की चमर परिषदाओं के देवियों की संख्या२०७:५० [१] चमरस्स गं भंते ! असुरिदस्स मा २०७:प्र० [१] हे भगवन् ! असुरराज असुरेन्द्र चमर की ___ अभितरपरिसाए कति देविसया पण्णत्ता? आभ्यन्तर परिषद में कितनी देवियाँ कही गई हैं ? [२] मज्झिमियाए परिसाए कति देविसया पण्णता? [२] माध्यमिका परिषद में कितनी देवियाँ कही गई हैं ? [३] बाहिरियाए परिसाए कति देविसया पण्णता? [३] बाह्य परिषद में कितनी देवियाँ कही गई है ? उ० [१] गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररनो उ० [१] हे गौतम ! असुरराज असुरेन्द्र चमर की आभ्यन्तर अमितरियाए परिसाए अबुट्ठा देविसता परिषद में साढ़े तीनसौ देवियाँ कही गई है। पण्णत्ता। [२] मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि देविसया पण्णत्ता। [२] माध्यमिका परिषद में तीनसौ देवियाँ कही गई है । [३] बाहिरियाए परिसाए अड्ढाइज्जा देविसता [३] बाह्य परिषद में ढाईसौ देवियाँ कही गई है। पण्णत्ता। -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ११८ । चमरस्स तिण्हं परिसाणं हेऊ चमर की तीन परिषदाओं के प्रयोजन२०८ : प० से केण? णं भंते ! एवं वुच्चति ? चमरस्स असुरिं- २०८ : प्र. हे भगवन् ! असुरराज असुरेन्द्र चमर की तीन परिषद दस्स असुररन्नो तो परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- क्यों कही गई है, यथा १. ठाणं. ३, उ०२, सु० १५४ । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र २०८-२१० wimmaaaaaaaaa.. १ समिया, २. चंडा, ३. जाया। १. समिता, २. चंडा, ३. जाता। १. अम्भितरिया-समिया, १. आभ्यन्तर परिषद-समिता, २. मज्झिमिया-चंडा, २. मध्यम परिषद-चंडा, ३. बाहिरिया-जाया। ३. बाह्य परिषद-जाया। उ० गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अभि- उ. हे गौतम ! असुरराज असुरेन्द्र चमर की आभ्यन्तर तरपरिसाए देवा वाहिता हव्वमागच्छंति, णो अव्वा- परिषद के देव बुलाने पर शीघ्र आते हैं और बिना बुलाये नहीं हिता। मज्झिम-परिसाए देवा वाहिता हव्वमागच्छंति, आते हैं। मध्यम परिषद के देव बुलाने पर शीघ्र आते हैं और अवाहिता वि । बाहिर-परिसाए देवा अव्वाहिता नहीं बुलाने पर भी आ जाते हैं। बाह्य परिषद के देव बिना हव्वमागच्छंति। बुलाये ही शीघ्र आ जाते हैं। अदुत्तरं च णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया अथवा-हे गौतम ! असुरराज असुरेन्द्र चमर किसी प्रकार अन्नयरेसु उच्चावएसु कज्जकोडंबेसु समुप्पन्नेसु अम्भि- का सामान्य या विशेष कौटुम्बिक कार्य होने पर आभ्यन्तर परिषद तरियाए परिसाए सद्धि संमइ-संपुच्छणाबहुले विहरइ। के देवों से सम्मति लेता है और उन्हें पूछता रहता है। मध्यम मज्झिमपरिसाए सद्धि पयं एवं पवंचेमाणे २ विह- परिषद के देवों को गुण-दोष का विस्तारपूर्वक कथन करता हुआ रति । बाहिरियाए परिसाए सद्धि पयंडेमाणे २ रहता है। बाह्य परिषद के देवों को विध्या देश एवं निषेधादेश विहरति । से तेण? गं गोयमा ! एवं वुच्चइ- करता हुआ रहता है। इसलिए हे गौतम ! असुर कुमारों से चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तओ राजा असुरेन्द्र चमर की तीन परिषदायें कही गई हैं, यथापरिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. समिया, २. चंडा, ३. जाता। १. समिता, २. चंडा, ३. जया। १. अभितरिया-समिया, १. आभ्यन्तर परिषद-समिता। २. मज्झिमिया-चंडा, २. मध्यम परिषद-चडा। ३. बाहिरिया-जाता। ३. बाह्य परिषद-जाया । -जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ११८ । । बलिस्स परिसाओ बलि की परिषदायें२०६ : १० बलिस्स णं भंते ! बहरोयणिवस्स वइरोयणरन्नो कति २०६:प्र. हे भगवन् ! वैरोचन राजा वैरोचनेन्द्र बली की कितनी परिसाओ पण्णत्ताओ? __ परिषदायें कही गई है ? उ० गोयमा ! तिणि परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- उ० हे गौतम ! तीन परिषदायें कही गई हैं, यथा१. समिया, २. चंडा, ३. जाया। १. समिता, २. चंडा, ३. जाया। १. अभितरिया-समिया, १. आभ्यन्तर परिषद-समिता । २. मज्झिमिया-चंडा, २. माध्यमिका परिषद-चंडा। ३. बाहिरिया-जाया। ३. बाह्य परिषद-जाया। -जीवा० पडि० ३, उ०१, सु० ११६ । तिविहासु बलिपरिसासु देव-देवीणं संखा- बली की तीन प्रकार की परिषदाओं में देव-देवियों की संख्या २१०:५० [१] बलिस्स गं वइरोणिदस्स बहरोयणरनो अभि- २१०: प्र० [१] वैणेचन राजा वैरोचनेन्द्र बली की आभ्यन्तर तरियाए परिसाए कति देवसहस्सा पण्णत्ता? परिषद के कितने हजार देव कहे गये हैं ? [२] मज्झिमियाएपरिसाए कति देवसहस्सा पण्णता? [२] माध्यमिका परिषद के कितने हजार देव कहे गये हैं ? [३] बाहिरियाए परिसाए कति देवसहस्सा पण्णता? [३] बाह्य परिषद के कितने हजार देव कहे गये हैं ? [४] अभितरियाए परिसाए कति देविसया पण्णता? [४] आभ्यन्तर परिषद की कितनी सौ देवियाँ कही गई हैं ? [५] मज्झिमियाए परिसाए कति देविसया पण्णता? [५] माध्यमिका परिषद की कितनी सौ देवियां कही गई हैं ? [६] बाहिरियाए परिसाए कति देविसया पण्णता? [६] बाह्य परिषद की कितनी सौ देवियाँ कही गई हैं ? anaw Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१०-२१२ अधोलोक गणितानुयोग १०३ उ० [१] गोयमा ! बलिस्स णं वइरोणिवस्स वइरोयण उ० [१] हे गौतम ! वैरोचनराजा वैरोचनेन्द्र बली की रनो अभितरियाए परिसाए वीसं देवसहस्सा आभ्यन्तर परिषद के बीस हजार देव कहे गये हैं। पण्णत्ता। [२] मज्मिमियाए परिसाए चउवीसं देवसहस्सा [२] माध्यमिका परिषद के चौबीस हजार देव कहे गये हैं । पण्णत्ता। [३] बाहिरियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसहस्सा [३] बाह्य परिषद के अठावीस हजार देव कहे गये हैं। पण्णत्ता। [४] अमितरियाए परिसाए अवपंचमा देविसता [४] आभ्यन्तर परिषद की साढ़े चारसौ देवियाँ कही गई हैं। पण्णत्ता। [५] मज्झिमियाए परिसाए चत्तारि देविसया [५] माध्यमिका परिषद की चारसौ देवियाँ कही गई हैं। पण्णत्ता। [६] बाहिरियाए परिसाए अबढ़ा देविसया पण्णत्ता। [६] बाह्य परिषद की साढ़े तीनसौ देवियां कही गई हैं। सेसं जहा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमार शेष वर्णन असुरराज असुरेन्द्र चमर के जैसा है। रणो। - जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० ११६ । सेसाणं भवणवईणं परिसाओ शेष भवनपतियों की परिषदायें२११:... परिसाओ जहा धरण-भूयाणंदाणं (सेसाणं भव- २११ : ""शेष भवनपतियों की परिषदायें धरण और भता णवईणं) बाहिणिल्लाणं जहा धरणस्स, उत्तरिल्लाणं नन्द जैसी है। अर्थात् दक्षिण के भवनपतियों की धरण जहा भयाणंदस्स, परिमाणं पि।। जैसी हैं और उत्तर के भवनपतियों की भूतानन्द जैसी हैं। " -जीवा• पडि० ३, उ० १, सु० १२० ।-(परिषदाओं का) परिमाण भी (उसी प्रकार है)। भवणवइ इंदोणं सामाणिय-तायत्तीसय-लोक भवनपति इन्द्रों के सामानिक त्रायस्त्रिशक और देवाणं अग्गमहिसोणं च परिसाओ लोकपाल देवों की तथा उनकी अग्र-महिषियों की परिषदायें२१२ : चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररनो . २१२ : असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के सामानिक देवों की देवाणं तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहाँ-जहा तीन परिषद कही गई है, यथाचमरस्स । एवं तायत्तीसगाण वि। चमर के समान है। त्रायस्त्रिशकों की परिषद भी इसी प्रकार है। चमरस्स लोगपालाणं तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, चमर के लोकपालों की तीन परिषद कही गई है, यथातं जहा–१. तुंबा, २. तुडिया, ३. पव्वा । १ तुंबा, २. तुडिया, ३. पर्वा । एवं अग्गमहिसीण वि। इसी प्रकार अग्रमहिषियों की परिषद भी हैं। बलिस्स वि एवं चेव जाव अग्गमहिसोणं । बली के सामानिक देवों की यावत् अग्रमहिषियों की परिषद भी इसी प्रकार है। धरणस्स य सामाणिय-तायत्तीसगाणं धरण के सामानिक देवों को और त्रायस्त्रिशकों की परिषद तीन है। १. समिया, २. चंडा, ३. जाया। १. समिता, २. चंडा, ३. जाया। लोगपालाणं, अग्गमहिसोणं लोकपाल की अग्रमहिषियों की परिषद तीन हैं१. ईसा, २. तुडिया, ३. दढरहा। १. ईसा, २. त्रुटिता, ३. दृढरथा। जहा धरणस्स तहा सेसाणं भवणवासीण । शेष भवनवासियों की परिषदायें धरण के समान हैं। -ठाणं० ३, उ० २, सु. १५४ । अग्रमहिषियों का ३. हरयामान हैं । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१०४ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र २१३-२१५ भवणवईणं अणिया, अणियाहिवईणो य भवनपतियों की सेनाएँ और सेनापति२१३ : चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो सत्त अणिया, २१३ : असुरराज असुरेन्द्र चमर की सात सेनाएँ और सात सेनासत्तअणियाहंबई पण्णत्ता, तं जहा " पति कहे गये हैं यथा१. पायत्ताणीए, २. पोढाणीए, १. पदाति सेना २. पीढ (अश्व) सेना, ३. कुंजराणीए, ४. महिसाणीए, ३. कुंजर-सेना ४. महिष-सेना ५. रहाणीए, ६. गट्टाणीए, ५. रथ-सेना६ . नर्तक-सेना ७. गंधव्वाणोए। ७ गन्धर्व-सेना। १. दुमे-पायत्ताणियाहिवई, १. द्रुम-पदाति सेना का सेनापति । २. सोदामी-आसराया पीढाणियाहिबई, २. सौदामी-अश्वराज अश्वसेना का सेनापति । ३. कुंथ-हत्थिराया कुंजराणियाहिवई, ३. कुंथु-हस्तिराज कुंजर सेना म सेनानि । ४. लोहियक्खे-महिसानियाहिबई, ४. लोहिताक्ष-महिष सेना का सेनापति । ५. किण्णरे-रहाणियाहिवई, ५. किनार-रथसेना का सेनापति । ६. रिटु-नहाणियाहिवई, ६. रिष्ट-नर्तक सेना का सेनापति । ७. गीअरई-गंधवाणियाहिवई । ५. गीतरति-गन्धर्व सेना का सेनापति । -ठाणं० ७, सु० ५८२ । २१४ : बलिस्स णं वइरोयगिदस्स वइरोक्णरनो सत्त अणिया, २१४ : वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि की सात सेनाएं और सात सत्त अणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहा र सेनापति कहे गये हैं, यथा१-७ पायत्ताणीए जाव गंधव्वाणीए । पदाति सेना यावत् गन्धर्व सेना। १. महद्दुमे-पायत्ताणियाहिवई, १. महाद्रुम-पदाति सेना का सेनापति । २. महासोदामो-आसराया पीढाणियाहिवई, २. महासौदामी-अश्वराज अश्वसेना का सेनापति । ३. मालंकारो-हत्थीराया कंजराणियाहिबई. २. मालंकार हस्तिराज-कुंजर सेना का सेनापति । ४. महालोहिअक्खो-महिसाणियाहिवई, ४. महालोहिताक्ष-महिषसेना का सेनापति । ५. किंपुरिसे-रहाणियाहिवई', ५ किंपुरुष-रथसेना का सेनापति । ६. महारि? - नट्टाणियाहिवई, ६. महारिष्टनर्तकसेना का सेनापति । ७. गोअजसे-गंधवाणियाहिबई । ७. गीतयश-ग्रन्धर्वसेना का सेनापति । -ठाणं०७, सु० ५८२ । २१५: धरणस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररन्नो सत्त अणिया, २१५ : नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण की सात सेनाएं और सत्तअणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहा सात सेनापति कहे गये हैं यथा१-७ पायत्ताणीए जाव गंधवाणीए । १-७. पदाति सेना यावत् गन्धर्व सेना। १. रुद्दसेणे-पायत्ताणियाहिवई, १. रुद्रसेन–पदाति सेना का सेनापति । ' १. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो पंच संगामिया अणिया, पंच संगामियाणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहा - १. पायत्ताणीए, २. पीढाणीए, ३. कुंजराणीए, ४. महिसाणीए, ५. रहाणीए। (१) दुमे-पायत्ताणिया हिवई, (२) सोदामी–आसराया पीढाणियाहिवई, (३) कुंथु-हत्थिरायाकुंजराणियाहिवई, (४) लोहियक्खे-महिसाणियाहिबई, (५) किण्णरे-रहाणियाहिवई । -ठाणं० ५, उ० १, सु० ४०४ । इस सूत्र में चमर आदि सभी भवनवासियों की पाँच संग्राम-सेनायें और पाँच सेनापतियों के नाम है । ऊपर सूत्र ५८२ में सात सेनायें और सात सेनापतियों के नाम हैं-इनमें नर्तकों की और गन्धवों की.सेनायें अधिक हैं। २. ठाणं ५. उ० १, सु० ४०४ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१६-२१७ अधोलोक गणितानुयोग १०५ २. जसोधरे-आसराया पोढाणियाहिवई, २. यशोधर अश्वराज-अश्वसेना का सेनापति । ३. सुदंसणे-हत्थिराया कुन्जराणियाहिबई, ३. सुदर्शन हस्तिराज-कुञ्जरसेना का सेनापति । ४. नीलकंठे-महिसाणियाहिवई, ४. नीलकंठ-महिषसेना का सेनापति । ५. जाणंदे-रहाणियाहिवई, ५. आनन्द-रथसेना का सेनापति । ६. नंदणे-नट्टाणियाहिवई, ६. नन्दन-नर्तकसेना का सेनापति । ७. तेतली-गंधवाणियाहिबई। -ठाणं० ७, सु० ५८२ ७. तेतली-गन्धर्वसेना का सेनापति । २१६. भूयाणंदस्त नागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो सत्त अणिया, २१६. नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र भूतानन्द के सात सेनायें और सत्त अणियाहिवई पण्णत्ता, तं जहा सात सेनापति कहे गये हैं यथा१-७. पायत्ताणिए-जाव-गंधवाणिए । पदातिसेना-यावत्-गंधर्व सेना । १. दक्खे-पायत्ताणियाहिवई, १. दक्ष-पदातिसेना का सेनापति । २. सुग्गीवे-आसराया पोढाणियाहिवई, २. सुग्रीव अश्वराज-अश्वसेना का सेनापति । ३. सुविक्कमे–हत्थिराया कुन्जराणियाहिवई, ३. सुविक्रम हस्तिराज-कुञ्जरसेना का सेनापति । ४. सेयकठे-महिसाणियाहिवई, ४. श्वेतकंठ-महिषसेना का सेनापति । ५. नंदुत्तरे-रहाणियाहिवई, ५. नन्दुत्तर-रथसेना का सेनापति । ६. रतो-नट्टाणियाहिवई, ६. रती-नर्तकसेना का सेनापति । ७. माणसे-गंधवाणियाहिवई । ७. मानस-गंधर्वसेना का सेनापति । -एवं-जाव-घोस-महाघोसाणं नेयवं ।' - "इसीप्रकार-यावत्-'घोष महाघोष' की 'सेनायें और सेनापतियों के सम्बन्ध में जानना चाहिये।" "जहा धरणस्स तहा सन्वेसि दाहिणिल्लाणं-जाव-घोसस्स" । -"दक्षिण के घोष पर्यन्त सभी 'इन्द्रों की सेनायें और सेनापतियों के नाम आदि' धरण के समान हैं।" "जहा भयाणवस्स तहा सव्येसि उत्तरिल्लाणं-जाव-महा- -"उत्तर के महाघोष पर्यन्त सभी 'इन्द्रों की सेनायें और घोसस्स"। -ठाणं० ७, सु० ५८२ सेनापतियों के नाम आदि' भूतानन्द के समान हैं।" भवणणायत्ताणियाहिवईणं सत्तसु कच्छासु देवसंखा- भवनवासि पदाति सेनापतियों के सात कच्छों में देवों की सख्या२१७. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो दुमस्स पायत्ताणि- २१७. असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के पदातिसेनापति द्रम याहिवइस्स सत्त कच्छाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पढमा कच्छा के सात कच्छ कहे गये हैं, यथा-प्रथम कच्छ -यावत्-सप्तम -जाव-सत्तमा कच्छा। कच्छ। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो दुमस्स पायत्ताया- असुरकुमार राज असुरेन्द्र चमर के द्रम पदातिसेनापति के हिवइस्स पढमस्स कच्छाए चउसट्ठिदेवसहस्सा पण्णत्ता, प्रथम कच्छ में चौसठ हजार देव कहे गये हैं। जावइया पढमा कच्छा, तम्बिगुणा दोच्चा कच्छा, तब्बिगुणा प्रथम कच्छ में जितने 'देव' हैं उनसे दुगुने दूसरे कच्छ में तच्छा कच्छा एवं-जाव-जावइया छट्ठा कच्छा तब्बिगुणा हैं । उनसे दुगुने तीसरे कच्छ में हैं इस प्रकार-यावत्-छठे सत्तमा कच्छा। कच्छ में जितने देव हैं उनसे दुगुने सातवें कच्छ में हैं । -एवं बलिस्स वि ! नवरं-महद्दुमे सट्ठिदेवसाहस्सीओ, --"इस प्रकार बलि के भी हैं । विशेष :-महद् म पदातिसेसं तं चेव । सेनापति के प्रथम कच्छ में साठ हजार देव हैं। शेष उसी प्रकार हैं।" १ ठाणं ५, उ०१, सू० ४०४ । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र २१८ धरणस्स एवं चैव । नवरं :-अट्ठावीसं देवसहस्सा, सेसं तं - इसी प्रकार धरण के भी हैं। विशेष :-अठावीस नेव। हजार देव हैं । शेष उसी प्रकार है ।" जहा धरणस्स एवं-जाव-महाघोसस्स । नवरं :-पायत्ताणि- -"जिस प्रकार धरण के 'पदातिसेनापति के प्रथम कच्छ याहिबई अण्णे ते पुव्वभणियाओ पण्णताओ। में देवों की संख्या' है इसी प्रकार-यावत्-महाघोष की है। विशेष:-अन्य पदातिसेनापति पूर्व कथित के समान ही कहे -ठाणं ७, सु०५८३ गये हैं। भवणवइंदाणं लोगवालाणं य उप्पायपव्वया भवनवासी इन्द्रों और उनके लोकपालों के उत्पात पर्वत२१८. चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तिगिच्छकूडे उप्पा- २१८. असुरकुमार असुरेन्द्र चमर का तिगिच्छकूट उत्पात पर्वत यपब्बए मूले दसबावीसे जोयणसए विक्खंभेणं पण्णत्ते,' है। 'उस पर्वत के' मूल का विष्कंभ 'दस सौ बाईस' योजन का कहा गया है। चमरस्स णं असुरिंदस्त असुरकुमाररण्णो १. सोमस्स महा- असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के (१) सोम 'लोकपाल' महाराज रण्णो सोमप्पभे उप्पायपव्वए दस जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, का सोमप्रभ उत्पात पर्वत दस सौ 'एक हजार' योजन ऊपर की दस गाउयसयाई उव्वेहेणं, मूले दस जोयणसयाई विक्वंभेणं ओर उन्नत है, उसका उद्वेध भूमि में नीचे की ओर दस सौपणते। 'एक हजार' गाउ 'कोश' का है, 'उसका' मूल में विष्कंभ दस सौं 'एक हजार' योजन का कहा गया है। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो २. जमस्स महा- असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के (२) यम 'लोकपाल' महाराज रणो जमप्पभे उप्पायपवए दस जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं, का यमप्रभ उत्पात पर्वत दस सौ 'एक हजार' योजन ऊपर की दस गाउयसयाई उव्वेहेण, मुले दस जोयणसयाई विवखंभेणं ओर उन्नत है, उसका उद्वेध दस सौ 'एक हजार' गाऊ-'कोश' पण्णत्ते । का है । और उसका मूल में विष्कंभ दस सौ-एक हजार योजन का कहा गया है। एवं ३ वरुणस्स वि० एवं ४ वेसमणस्स वि० । इसी प्रकार (३) वरुण लोकपाल और (४) वैश्रमण लोकपाल के उत्पात पर्वत हैं। महावीर विद्यालय से प्रकाशित - वियाहपण्णत्तिसुत्तं प्रथम भाग पृष्ठ ११०-१११ में श० २, उ०८ सू०१ के मूलपाठ से तथा टिप्पण न० ७ से असुरराज चमर के तिगिच्छकूट उत्पात पर्वत का प्रमाण यहाँ तीन अशों में उद्धृत किया गया। प्रथम अंश मूलपाठ से :___ जंबुट्टीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे वीईवइत्ता अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लातो वेइयंतातो अरुणोदयं समुदं बावालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थणं चमरस्स असुररण्णो तिगिछिकूड़े नाम उपायपव्वते, पण्णत्ते, सत्तरसएककवीसे जोयणसते उड्ढं उच्चत्तेण, चत्तारितीसे जोयणसते कोसं च उब्वेहेणं, गोत्थूभस्स आवासपब्वयस्स पमाणेणं नेयवं, नवरंः-उवरिल्लं पमाणं मज्झे भाणियब्व, जाव... द्वितीय अंश टिप्पण नं०७ से :मूले दसबावीस जोयणसते विक्वंभेण, मझे चत्तारि चउबीसे जोयणसते विक्र्वभेणं, उरि सत्ततेवीसे जोयणसते विक्ख भेणं, मूले तिण्णिजोयणसहस्साई दोण्णि य य बत्तीसुत्तरे जोयणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेगं, मज्झे एग जोयणसहस्सं तिण्णि य इगुयाले जोयणसए किचिदिसेसूर्ण परिक्खे वेणं, उरि दोष्णि य जोयणसहस्साई दोणि य छलसीए जोयणसए किचिबिसेसाहिए परिवेणं........ तृतीय अंश मूलपाठ से :मूले वित्थडे, मज्झे संखित्ते, उप्पिं विसाले वरवइरविग्गहिए महामउंदसंठाण संहिए सव्वग्यणामए अच्छे जाव पडिरूबे........ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१८-२२६ 'बलिस्स णं वइरोयदिस्स वइरोयणरण्णो रूअगंदे उपायदबाव जोयणसए विश्णं ।" बलिस णं बदरोयणिवस सोमस्स एवं चैव । जहा चमरस्स लोगपालाणं तं चैव बलिस्स वि । अधोलोक धरणस्त गं नागकुमारिदस्स नायकुमार गो धरणायमे उपायपव्वए दसजोयणसयाई उद्धं उच्चतेणं, दसगाउयसयाई उच्येणं मूले दराजोगाई विश्वंभे प धरणस्स णं नागकुमारिदस्स नागकुमाररणो कालवालस्स महारण्णो महाकालप्पभे उप्पायपव्वए जोयणसयाई उद्धं उच्च एवं जाय-संवार एवं भूवादस्व वि एवं लोगपालाण वि । से जहा धरमस्स एवं जाव-वणिकुमाराणं सोपालाव भाणियत्वं । सव्वेंस उपायपव्वया भाणियव्वा सरिसणामा । दोहं भवणवासीणं विसमयाए हेऊ२११. १० दो ! असुरकुमारा एवंस असुरकुमारावासंसि असुरकुमार देवत्ताए उवबन्ना । तत्थ णं एगे असुरकुमारे देवेपासादीने अभिवे परूिये, एगे असुर कुमारे देवे से मोपासादोए नो दरिनो अभि रूवे नो पडिवे । से कहमेयं भंते ! एवं ? उ० गोयमा ! असुरकुमारा देवा दुबिहा पन्नत्ता तं जहा१. वेउब्वियसरीरा य २. अवे उब्वियसरीरा य । तत्थ णं जे से वेउव्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं पासादीए जाव पडिरूवे । गणानुयोग वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलिका रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत है । 'उस पर्वत के ' मूल का विष्कंभ दस सौ बाईस 'एक हजार बाईस' योजन कहा गया है । १०७ वैरोचनेन्द्र बलि के सोम लोकपाल का 'उत्पात पर्वत' भी इसीप्रकार है अर्थात् चमर के 'लोकपालों के उत्पात पर्वत' जैसे है, वैसे ही बलि के 'लोकपालों के उत्पात पर्वत' हैं । - ठाणं १०, सु० ७२८ वाले उत्पात पर्वत कहने चाहिए । नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण का धरणभ उत्पात पर्वत दस सौ- 'एक हजार' योजन ऊपर की ओर उन्नत है । 'उसका'' उद्वेध 'भूमि में नीचे की ओर' दस सौं- 'एक हजार' गाउ'कोश' का है । 'उसके' मूल का विष्कंभ दस सौ - 'एक हजार' योजन का कहा गया है। नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के कालवाल 'लोकपाल'' महाराज का महाकालप्रभ उत्पात पर्वत सौ योजन ऊपरी ओर उन्नत है । इसी प्रकार - यावत् - संखवाल के 'उत्पात पर्वत' हैं । इसी प्रकार 'धरण के समान' भूतानन्द के 'उत्पात पर्वत' हैं । इसी प्रकार 'धरण के लोकपालों के समान भूतानन्द के लोकपालों के 'उत्पात पर्वत' हैं । धरण के 'तथा उसके लोकपालों के उत्पात पर्वत" जैसे हैं। वैसे ही - यावत् - स्तनितकुमारों के और 'उनके' लोकपालों के हैं । सभी 'इन्द्रों के और लोकपालों' के नाम के सदृश 'नाम दो भवनवासी देवों की विषमता का हेतु २१६. प्र० भगवन्! एक असूरकुमारावास में दो अनुकुमार देव उत्पन्न होते है, उनमें एक असुरकुमार देव प्रसन्न, दर्शनीय, सुन्दर एवं मनोहर होता है और एक असुरकुमार देव न प्रसन्न, न दर्शनीय, न सुन्दर और न मनोहर होता है। भगवन् ! ऐसा क्यों होता है ? उ०- गौतम ! असुरकुमार देव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा - १. विकुर्वित ( वैक्रियकृत) शरीर वाले और २. अविकुर्वित शरीरवाले । उनमें जो विकुर्वित शरीर वाला असुरकुमार देव है वह प्रसन्न - यावत् - मनोहर होता है । तत्थ णं जे से अवेउध्वियसरीरे असुरकुमारे देवे से णं नो पासादीए - जाव-नो पडिरूवे । १ वैरोचनेन्द्र बलिके रुचकेन्द्र उत्पात पर्वत का प्रमाण असुरेन्द्र चमर के तिगिच्छकूट उत्पात पर्वत के समान है । उनमें जो अविकुवित शरीर वाला असुरकुमार देव है, वह न प्रसन्न - यावत्-न मनोहर होता है । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र २१६-२२१ प० से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ तत्थ णं जे से वेउम्विय- प्र०-भगवन् ! किस अभिप्राय से इस प्रकार कहा जाता हैसरीरे तं चैव-जाव-नो पडिस्वे ? उनमें जो विकुर्वित शरीर वाला है, उसी प्रकार-यावत् मनोहर नहीं होता है ? उ० गोयमा ! से जहानामए इहं मणुयलोगंसि दुवे पुरिसा उ०-गौतम ! जिस प्रकार इस मनुष्य लोक में दो पुरुष होते भवंति–एगे पुरिसे अलंकियविभूसिए, एगे पुरिसे अण- हैं। उनमें एक अलंकृत विभूषित होता है और एक अलंकृत लंकियविभूसिए, विभूषित नहीं होता है। एएसिणं गोयमा ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे पासा- गौतम ! इन दो पुरुषों में कौन पुरुष प्रसन्न-यावत्दीए-जाव-पडिरूवे ? कयरे पुरिसे नो पासादीए-जाव-नो मनोहर होता है ? पडिरूवे ? जे वा से पुरिसे अलंकियविभूसिए ? जो पुरुष अलंकृत विभूषित होता है वह ? जे वा से पुरिसे अणलंकियऽविभूसिए ? जो पुरुष अलंकृत विभूषित नहीं होता है वह ? भगवं! तत्थ णं जे से पुरिसे अलंकिय-विभूसिए से भगवन् ! उनमें जो पुरुष अलंकृत विभूषित होता है वह णं पुरिसे पासादीए-जाव-पडिरूवे । प्रसन्न-यावत् –मनोहर होता है । तत्थ णं जे से पुरिसे अणलंकियऽविभूसिए से णं पुरिसे उनमें जो पुरुष अलंकृत विभूषित नहीं होता है वह प्रसन्ननो पासादीए-जाव-नो पडिरूवे । यावत्-मनोहर नहीं होता है। प० दो भते ! नागकुमारा देवा एगंसि नागकुमारावासंसि प्र०-भगवन् ! एक नागकुमारावास में दो नागकुमार देव ___ नागकुमारदेवताए उववन्ना-जाव-से कहमेयं भंते ! एवं? उत्पन्न होते हैं यावत्-भगवन् ! किस कारण से इस प्रकार कहा जाता है ? उ० एवं चेव । एवं-जाव-धणियकुमारा। उ.-इसी प्रकार 'पहले के समान' है। इसी प्रकार-यावत् -भग० स०१८ उ० ५, सु० १-२ स्तनितकुमार पर्यंत जानना चाहिये । वाउकुमारा चउविहा वायुकुमारों के चार प्रकार२२०. चउव्विहा वाउकुमारा पण्णत्ता, तं जहा-. २२. वायुकुमार चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. काले, २. महाकाले, १. काल, २. महाकाल, ३. वेलवे, ४. पभंजणे। ३. वेलंब, ४. प्रभंजन। -ठाणं ४ उ० १, सु० २५६ छप्पण्णाओ दिसाकुमारीओ छप्पन दिशाकुमारियाँअहोलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ- अधोलोक में रहने वाली आठ दिशाकुमारियाँ२२१. अहोलोगवत्थब्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ सहि २२१. अधोलोक में रहने वाली आठ महादिशाकुमारियाँ ‘गजदंत सएहि कूडेहि, सरहिं भवणेह, सएहि सएहि पासायवडेंसएहि, गिरि के' अपने-अपने कूटों पर अपने-अपने भवनों में एवं पत्तेयं पत्तेयं चउहि सामाणियसाहस्सीहिं, चहि महत्तरियाहिं अपने-अपने प्रासादावतंसकों 'क्रीड़ावासो' में प्रत्येक दिशाकुमारी सपरिवाराहि, सहि अणिएहि, सतहि अणियाहिवई हिं, चार-चार हजार सामानिक देवों से चार-चार सपरिवार महत्तरिसोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सोहि अणेहि य बहूहिं भवणवह- काओं 'प्रतिहारिकाओं' से, सात-सात अनिका 'सेनाओं' से, सातवाणमंतरेहि देवेहिं देवीहि य सद्धि संपरिवुडामो महयाहय- सात अनिकाधिपतियों 'सेनानायकों' से, सोलह-सोलह हजार आत्म नक्षक देवों से और अन्य अनेक भवनपति, वाणव्यंतर देव-देवियों से घिरी हुई महान् नृत्य-गीत-वाद्य करती हुई-यावत् –भोगोप १ इस सूत्र में वायुकुमार चार प्रकार के कहे गये हैं किन्तु “वेलंब" दक्षिण दिशा के इन्द्र का नाम है और "प्रभंजन" उत्तर दिशा के इन्द्र का नाम है। शेष दो नाम "काल" और "महाकाल" वेलंब और प्रभंजन के लोकपालों के नाम है । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २२१-२२३ अधोलोक गणितानुयोग १०६ णमृगीयवाइय-जाव-भोगभोगाइं भुजमाणीओ विहरंति, भोग भोगती हुई रहती हैं, यथा-गाथायें-आठ दिशाकुमारियों के तं जहा-- गाहा नाम१. भोगंकरा, २. भोगवई, १. भोगंकरा, २. भोगवती, ३. सुभोगा, ४. भोगमालिणी। ३. सुभोगा, ४. भोगमालिनी, ५. तोयधारा ६. विचित्ता य, ५. तोयधारा, ६. विचित्रा, और ७. पुप्फमाला, ८. अणिदिया॥ ७. पुष्पमाला, ८. अनिन्दिता। -जंबु० वक्ख० ५, सु० ११२ उडढलोगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारीओ- ऊर्ध्वलोक में रहने वाली आठ दिशाकुमारियाँ-२२२. उड्ढलोगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारिमहत्तरियाओ सएहिं २२२. ऊर्ध्वलोक में रहने वाली आठ महादिशाकमारियां 'समभमि सएहि कूडेहिं–एवं तं चैव पुथ्ववणिय-जाव-विहरंति, से पांच सौ योजन ऊँचे नन्दनवन में पांच-पांच सौ योजन ऊँचे' तं जहा-गाहा अपने-अपने आठ कूटों पर 'यहाँ वही पूर्व वणित कहें'-यावत् रहती हैं । यथा-गाथार्थ- आठ दिशाकुमारियों के नाम१. मेहंकरा, २. मेहबई, १. मेघंकरा, २ मेघवती, ३. सुमेहा, ४. मेहमालिणी। ३. सुमेघा, ४. मेघमालिनी, ५. सुवच्छा , ६. वच्छमित्ता य, ५. सुवत्सा , ६, वत्समित्रा, ७. वारिसेणा, ८. बलाहगा ॥ ७. वारिसेणा, ८. बलाहका। -जंबु० वक्ख० ५, सु० ११३ परत्थिमरुयगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारीओ- पूर्व दिशा के रूचकपर्वत पर रहने वाली आठ दिशा __ कुमारियाँ२२३. पूरस्थिमरुयगवत्थव्वाओ अट्ठदिसाकुमारिमहत्तरियाओ २२३. पूर्व दिशावर्ती रुचकपर्वत पर रहने वाली आर १ अधोलोक और उर्ध्वलोक की दिशाकुमारियों के नामों में भिन्नता :५. सुवच्छा, ६, वच्छमित्ता य, ७. वारिमेणा, ८. बलाहगा। -ठाणं ८, सु० ६४३ .२ ५. तोयधारा, ६. विचित्ता य, ७, पुष्फमाला, ८. अणिदिया। -ठाणं ८, सु० ६४३ आठ दिशा कुमारियाँ अधोलोक में कहाँ रहती है ? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है :गाथा-१. सोमणस, २. गंधमायण, ३, विज्जुप्पभ, ४, मालवंतवासीओ। अट्टदिसिदेवयाओ, वत्थब्बाओ अहेलोए । -ठाणं अ०८ सु० ६४३ की टीका :'अधोलोकवास्तव्या:-चतर्णा गज दन्तानामधः समभूतलान्नवशतयोजनरूपा तियंग्लोकव्यवस्था विमुच्य प्रतिगजदन्तं विभिनेर तत्र भवनेषु वसनशीला..... -जंबु० वक्ख०५ सू० ११२वी टीका आठ दिशाकूमारियाँ ऊर्ध्व लोक में कहाँ रहती हैं ? इसका समाधान इस प्रकार किया गया है :........"ऊर्ध्वलोकवासित्वं चासां समभूतलात् पंचशतयोजनोच्चनन्दनवनगतपंचशतिकाष्टकटवासित्वेन ज्ञयं ।। -जंबु० वक्ख, सू० ११३ की टीका सभी दिशाकुमारियाँ भवनपति जाति की देवियाँ हैं-यह इस प्रकार सिद्ध किया गया है :....."दिक्कुमारीणां......"स्थानागे पल्योपमस्थितेर्भणनात्... " भवनपति जातीयत्वं सिद्ध......... ....... दिक्कुमार्या-दिक्कुमारभवनपतिजातीया महत्तरिकाः........ -ठाणं ८, सु० ६४३ की टीका दिशाकुमारियाँ की संख्या ५६ है। -जंबु० वक्ख० १, सु० ११२, ११३, ११४ मुल पाठों का संकलन जंबूद्वीप पण्णत्ति से किया है उक्त सूत्रों के पूर्वापर अंश धर्मकथानुयोग के जिन जन्माभिषेक स्कंध१. पृष्ठ १०-१४ सूत्र २६ से ३४ पर आ गये हैं। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० २२४. लोक-प्रज्ञप्ति सहं हं हं एवं तं चैव पुत्रवयिंजाब-विहरति दिशाकुमारियाँ अपने-अपने तं जहा - गाहाकहें रहती है के नाम १. दुसरा य ३. आणंदा, ५. विजया य ७. जयंती, दाहिणव्यवस्थाओं अट्ठ दिसाकुमारीओ ***** १. समाहारा, ३. सुप्पबुद्धा ५. लच्छि मई, ७. वित्तता, दाहित्व अ दिसाकुमारी महतरिवाज सएहिं सएहिं कूडेहिं एवं तं चेव पुव्ववण्णियं जाव विहरति, तं जहा — गाहा अधोलोक २. नंदा, ४. दिवद्धणा, ६. वेजयंती, ८. अपराजिया । - जंबु० वक्ख० ५, सु० ११४ २. सुप्पइण्णा, ४. जोहरा । ६. सेवई, १. इलादेवी, ३. पुहवी, , ८. वसुन्धरा ।। - जंबु० वक्ख० ५, सु० ११४ पच्चरिथम व्यगवत्यचाओ अड दिसाकुमारीओ २२५. पच्चत्थिमख्यगवत्थय्वाओ अदिसाकुमारिमहरियाओ सएहिं सएहिं कूडेहिं एवं तं चैव पुव्ववण्णियं जाव विहरति, तं जहा-गाहा - २. सुरादेवी, ४. पउमावई । - १. नन्दुत्तरा, ३. आनन्दा, ५. विजया, ७. जयन्ती २ मंदर दाहिणं रेपए अउडा पण्णता, तं जहा १. समाहारा, ३. सुप्रबुद्धा, ५. लक्ष्मीमति, ७. चित्रगुप्ता कूटों पर यहां वहीं पूर्व वर्णित पाठ या गावाआठ दिशाकुमारियों सूत्र २२३-२२५. दक्षिण दिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली आठ दिशाकुमारियाँ - मंदर मेरे अबूदाण्णता तं जहा गाहा १ र २ बज्जि ३. कंण, ४. ४. दिसोचिए प ७. अंजग, ८. अंजणपुलए, रूयगस्स पुरिच्छ्मे कूडा || २२४. दक्षिण दिशावर्ती रुक पर्वत पर रहने वाली आठ महा दिशाकुमारियाँ अपने-अपने कूटों पर 'यहाँ वही पूर्व वर्णित कथन है' - यावत् रहती है । यथा-गाथार्थ आठ दिशाकुमारियों के नाम २. नन्दा, ४. नन्दिवर्धना, अदिमाकुमारमरिया महियाओ, जाय पतिओवमइया परिवति तं जहा गाहाणंदुत्तरा जाव, अपराजिया । - ठाणं सु० ६४३ ६. वेजयन्ती, ८. अपराजिता । पश्चिमदिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली आठ दिशाकुमारियाँ - १.२.२४ व ५ स ६ दिवावरे, " ७. वेसणे, ८. वेरुलिए, रूयगस्स दाहिजे कूडा || तत्थ णं अट्ठ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिदियाओ जाव - पलिओवमट्टिइयाओ परिवसंति, तं जहा, गाहा— समाहारा, जाव, वसुन्धरा । - ठाणं = सु० ६४३ २२५. पश्चिम दिशावर्ती रुचक पर्वत पर रहने वाली आठ महादिशाकुमारियाँ अपने-अपने कूटों पर 'यहाँ वही पूर्व वणितक है'याद रहती हैं। यथा याचाचं- आठ दिनाकुमारियों के नाम१. इलादेवी, २. सुरादेवी, ४. पद्मावती ३. पृथ्वी, २. प्रतिज्ञा ४. यशोधरा, ६. शेषवती, ८. वसुन्धरा । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २२५-२२७ ५. एगजासा, ७. भद्दा, ६. मिया, ८. सीसा य अट्टमा' । - जंबु० वक्ख० ५, सु० ११४ उत्तरस्वयवत्वग्याओ अठ दिसाकुमारीजो - २२६. उत्तरिल्लरूयगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारि महत्तरियाओ सएहिं सएहिं कूडेहिं एवं तं चैव पुयि जाय-विहति तं जहा- गाहा १. अलंबुसा, ३. पुण्डरीया य ५. हासा, ७. सिरि, अधोलोक २. मिस्सकेसी, ४. वारुणी । ६. सवप्पभा चैव, हिरि चेव उत्तरओ' ।। - जंबु० वक्ख० ५, सु० ११४ विदिसल्यगवत्यवाओ बतारि दिसाकुमारियो १. चित्ता य ३. सतेरा य, ८. २२७. विदित्यवाओ चलारि दिसाकुमारिमहरिया एहिं एहि कूडे हिं, एवं तं चैव पुन्ववण्णियं जाव विहरति तं जहा - गाहा २. चिकणगर, ४. सोदामिणी । - जंबु० वक्ख० ५, सु० ११४ ५. एकनाशा, ७. भद्रा, १. सा ३. पुण्डरीका, ५. हासा, ७. श्री गणितानुयोग उत्तर दिशा के रुचक पर्वत पर रहने वाली आठ दिशाकुमारियाँ - ६. नका. ८. सीता । २२६. उत्तर दिशावर्ती रुचक पर्वत पर रहने वाली आठ महादिशाकुमारियाँ अपने-अपने कूटों पर 'यहाँ वही पूर्ववत है' - यावत् - रहती हैं। यथा-गाथार्थ - आठदिशा कुमारियों के नाम १. चित्रा, ३. सतेरा, २. मिशी, ४. वारुणी, ६. सर्वप्रभा ८. ह्री । चार विदिशाओं के रुचक पर्वतों पर रहने वाली चार दिशाकुमारियां- १११ २२७. चार विदिशाओं में रुचक पर्वतों पर रहने वाली चार महादिशाकुमारियाँ अपने-अपने कूटों पर यहाँ वही पूर्व वणितक है' यावत् - रहती है । यथा - आधी गाथा का अर्थ 'चार दिशाकुमारियों के नाम तं ओ जा १. चित्ता, २. चित्तकणगा, ३. सएरा, ४. सोयामणी । (ख) कुमारमरियाताओं तं जहा १. आला, २. सक्का, ३. सतेरा, ४. सोयामणी, ५. इंदा, ६ घणविज्जुया । ये विद्यत्कुमार की अग्रमहिषियाँ हैं—यह ऊपर कहे गये सूत्रों से स्पष्ट हो जाता है । २. चित्रकनका ४. सोदामिनी । १ जंबूमंदर पच्चत्थिमेगं रूपगवरे पव्वए अटुकडा पण्णत्ता, तं जहा - गाहा—१. सोत्थिते य २. अमोहेय, ३. हिमवं, ४. मंदरे तहा, ५. ख्यगे, ६. ख्यगुत्तमे ७. चंदे, अट्ठमे य सुदंसणे ।। तत्व में अट्ट दिसाकुमारिमत्तरियाओं महियाओ जाव पनिओवमद्विश्याओं परिवति तं जहागाहा - इलादेवी जाव भद्दा य अट्टमा । - ठाणं ८, सु० ६४३ २ जंबूमंदर उत्तररुअगवरे पव्वए अट्टकूडा पण्णत्ता, तं जहा गाहा– १. रयणे, २. रयणच्चए या, ३. सव्वरयण, ४. रयणसंचए चेव, ५. विजये, य, ६, विजयंते, ७. जयंते, = अपराजिते ॥ तत्थणं अदिसाकुमारिमहत्तरियाओ महिढियाओ जाव पलिओवमट्टिइयाओ परिवसंति, तं गाहामा जान हिरि देव उत्तरे। जहाँ - ठाणं = सु० ६४३ ३ (क) तारिविकुमारमरियाओ - ठाणं ४, उ० १, सु० २५६ - ठाणं ६, सू० ५०७ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र २२८-२२६ मज्झिमरुयगवत्थव्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीओ- मध्यरुचक पर्वत पर रहने वाली चार दिशाकुमारियां--- २२८. मज्झिमख्यगवत्थवाओ चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ २२८. मध्यरुचक पर्वत पर रहने वाली चार महादिशाकुमारियाँ सएहिं सएहिं कूडे हिं, एवं तं चैव पुव्ववणियं-जाव-विहरंति, अपने-अपने कूटों पर 'यहाँ पूर्व वणितक है'-यावत्-रहती है। यथा-आधी गाथा का अर्थ१. रूया, २. रूयासिया च्चेव, १. रूपा, २. रूपांशिका, ३. सुख्या , ४. रूयगावई'। ३. सुरूपा, ४. रूपकावती। -जंबु० वक्ख० ५, सु० ११४ पुढविकाइयाणं ठाणाइं पृथ्विकायिक जीवों के स्थान२२६. प० कहि णं भंते ! बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगागं ठाणा २२६. भगवन् ! पर्याप्त बादर पृथ्विकायिकों के स्थान कहाँ कहे पण्णत्ता? गये हैं ? उ० गोयमा! सट्टाणेणं अट्ठसु पुढविसु तं जहा–१. रयणप्प- उ०-गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से आठ पृथ्वियों में भाए, २. सक्करप्पभाए, ३. वालुयप्पभाए, ४. पंकप्प- हैं-यथा १. रत्नप्रभा में, २. शर्कराप्रभा में, ३. वालुकाप्रभा में, भाए, ५. धूमप्पभाए, ६. तमप्पभाए, ७. तमतमप्पभाए, ४. पंक-प्रभा में, ५ धूमप्रभा में, ६. तम-प्रभा में, ७. तमस्तमप्रभा ८. इसीपब्भाराए। में, ८. ईषत्प्रागभारा पृथ्वी में। (१) अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु णिरएसु (१) अधोलोक में-पातालों में, (भवनवासियों के) भवनों में, निरयावलियासु निरयपत्थडेसु । भवनप्रस्तटों में, नरकों में, नरक-पंक्तियों में और नरक-प्रस्तटों में हैं। (२) उड्ढलोए कप्पेसु बिमाणेसु विमाणावलियासु (२) ऊर्ध्वलोक में-कल्पों में, विमानों में, विमान-पंक्तियों विमाणपत्थडेसु । में और विमान-प्रस्तटों में हैं। (३) तिरियलोए टकेसु कडेसु सेलेसु सिहरीसु पन्भारेसु (३) तिर्यक्लोक में-टंकों में, कूटों में, शैलों में, शिखरों विजएस वक्खारेसु वासेसु वासहरपव्वएस वेलासु में, प्राग्भारों में (गिरि-गुफाओं में), (महाविदेह के) विजयों में, वेइयासु वारेसु तोरणेसु दीवेसु समुद्दे सु-एत्थ णं वक्षस्कारों में (सीमा सूचक पर्वतों में), वर्षों में, (क्षेत्रों में) वर्षबादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। धर पर्वतों में, बेलाओं में (समुद्र के किनारों में-जहाँ समुद्र के पानी का ज्वार आता है), वेदिकाओं में, छारों में, तोरणों में, द्वीपों में और समुद्र-तलों में पर्याप्त बादर पृथ्विकायिकों के स्थान कहे गये हैं। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । उपपात की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवे भाग में उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । समुद्घात की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में समृद्-- घात करते हैं। सटाणेण लोयस्स असंखेज्जइभागे।' स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में इनके. स्थान हैं। १ (क) चत्तारि दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. ख्या, २. रूयंसा, ३. सुरूवा, ४. रूपावई। -ठाणं ४, उ०१, सु० २५६. (ख) छ दिसाकुमारिमहत्तरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. रुया, २. स्वंसा, ३. सुरूवा, ४. रूपवई, ५. रूपकता, ६. रूवप्पभा । --ठाणं ६. सु० ५०८. ये दिशाकुमारियाँ दिशाकुमार की अग्रमहिषियाँ हैं । यह ठाणं, अ० ६ सू० ५०८ से स्पष्ट हो जाता है। शेष दिशाकुमारियाँ किनकी अग्रमहिषियाँ है ? इसका समाधान अन्वेषणीय है। २ सुहमा सव्वलो गंमि, लोगदेसे य बायरा, -उत्त० अ० ३६, गाथा ७८ । । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३०-२३१ अधोलोक - गणितानुयोग ११३ २३०. ५० कहि णं भंते ! बादरपुढविकाइयाणं अपज्जतगाणं ठाणा २३०. प्र० भगवन् ! अपर्याप्त बादर पृथ्विकायिकों के स्थान पण्णता? कहाँ कहे गये हैं। उ० गोयमा ! जत्थेव बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा उ० गौतम ! जहाँ पर्याप्त बादर पृथ्विकायिकों के स्थान हैं तत्थेव बादरपुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णता। वहीं पर अपर्याप्त बादर पृथ्विकायिकों के स्थान कहे गये हैं। तं जहा- उववाएणं सव्वलोए । यथा-उपपात की अपेक्षा-सम्पूर्ण लोक में उत्पन्न होते हैं । समुग्धाएणं सम्वलोए। समुद्घात की अपेक्षा–सम्पूर्ण लोक में समुद्घात करते हैं । सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । स्वस्थान की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में इनके स्थान हैं। प० कहि णं भंते ! सुहमपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्ज- प्र. भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्विकायिकों के तगाण य ठाणा पण्णत्ता? स्थान कहाँ कहे गये हैं। उ० गोयमा ! सुहमपुढविकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्ज- उ०-हे आयुष्मान् श्रमण गौतम ! सूक्ष्म पृथ्विकायिक जो तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोय- पर्याप्त और अपर्याप्त हैं, वे सब एक प्रकार के हैं, वे किसी प्रकार परियावयण्णगा पण्णत्ता समणाउसो। की विशेषता वाले नहीं हैं, वे नाना प्रकार के नहीं हैं और वे -पण्ण, पद० २, सु० १४८-१५० सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। आउक्काइयाणं ठाणाइं-- अप्कायिक जीवों के स्थान२३१. प० कहिणं भंते ! बादरआउक्काइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा २३१. प्र. भगवन् ! पर्याप्त बादर अप्कायिकों के स्थान कहाँ पण्णता? कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! सटाणेणं सत्तसु घणोदधीसु सत्तसु घणोदधिव- उ. गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से सात घनोदधियों में लएसु और सात घनोदधिवलयों में हैं । (१) अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडे सु। (१) अधोलोक में-पातालों में, भवनों में और भवन-प्रस्तटों (२) उड्ढलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु (२) ऊर्ध्वलोक में-कल्पों में, विमानों में, विमान-पंक्तियों विमाणपत्थडेसु । . - में और विमान-प्रस्तटों में हैं। (३) तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु (३) तिर्यक्लोक में अगडों में (कूपों में), तालाबों में, पुक्खरिणीसु दीहियासु गुन्जालियासु सरेसु सरपंति- नदियों में, द्रहों में, वापिकाओं में, पुष्करणियों में, दीपिकाओं में, यासु सरसरपंतियासु विलेसु, विलतियासु उज्झ- गुजालिकाओं में, सरों में, सरपंक्तियों में, सरसर-पंक्तियों में, रेसु निझरेसु चिल्ललेस पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु बिलों में, बिल-पंक्तियों में, उज्झरों में, (पहाड़ी झरणों में), समुद्देसु सम्वेसु चेव जलासएस जलट्ठाणेसु-एत्थ निज्झरों में (जमीन में से निकालने वाले झरणों में), चिल्ललों में गं बादरआउक्काइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। (छोटे जलाशयों में), पल्वलों में (बहुत छोटे जलाशयों में), तालाब के किनारे के समीप वाली भूमि में, द्वीपों में, समुद्रों में और जलाशयों में एवं जलस्थानों में पर्याप्त बादर अप्कायिकों के स्थान कहे गये हैं। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइ भागे । उपपात की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में इनके स्थान हैं। समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइ भागें । समुद्घात की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में इनके स्थान हैं। सट्ठाणणं लोयस्स असंखेज्जइ भागे। स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में इनके स्थान हैं। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ लोक- प्रज्ञप्ति २३२. ५० कहि णं भंते ! बादरआउवकाइयाणं अपज्जत्ताणं ठाणा २३२. प्र० भगवन् ! अपर्याप्त बादर अपकायिकों के स्थान कहाँ पण्णत्ता ? कहे गये हैं ? १ अधोलोक उ० गोयमा ! जत्थेव बादरआउक्काइयाणं पज्जतगाणं ठाणा तत्थेव बादरआउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं सव्वलोए । समुग्धाएणं सव्वलोए । ट्राचं लोयस्स असं भागे।" २३३. प० कहि णं भंते! सुहुमआउक्काइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं २३३. प्र० भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिकों के ठाणा पण्णत्ता ? स्थान वहाँ कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! सुहुमआउक्काइया जे पज्जतगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोय परियावण्णगा पन्नत्ता समणाउसो ! उ० हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! जो सूक्ष्म अष्कायिक पर्याप्त और अपर्याप्त हैं वे सब एक प्रकार के हैं, किसी प्रकार की विशेषता वाले नहीं है, नाना प्रकार के नहीं है तथा सम्पूर्ण लोक - पण्ण०, पद २, सु० १५१-१५३ में व्याप्त हैं । - निव्यापारणं पम्चरस कम्मभूमीस बाचार्य पश्च पंच महाविदेहे एत्थ णं बादरते उक्काइयाणं पज्जत गाणं ठाणा पण्णता । उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । सूत्र २३१-२३४ बादरते उकाइयाणं ठाणा बादर तेजस्कायिक जीवों के स्थान २३४. प० कहि णं भंते! बादरतेउकाइयाणं पज्जतगाणं ठाणा २३४. प्र० भगवन् ! पर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान पण्णत्ता ? कहाँ है ? उ० गोयमा ! सट्टाणेणं अंतोमणुस्सखेत्ते अड्ढाइज्जेसु दीव समुन्याएवं लोधरस अभागे । सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । प० कहि णं भंते ! बादरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? उ० गोयमा ! जत्थेव बादरतेजकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता । उबचाए लोस्स दोडका तिरियलोप प समुग्धा सम्बलोए। सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । उ० गौतम ! जहाँ पर्याप्त बादर अप्कायिकों के स्थान हैं। वहाँ पर अपर्याप्त बादर अप्कायिकों के स्थान कहे गये हैं । उत्त० अ० ३६, गाथा ८६ । उपपात की अपेक्षा - सम्पूर्ण लोक में उत्पन्न होते हैं । समुद्घात की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक में सात करते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा -लोक के असंख्यातवें भाग में इनके स्थान हैं। उ० गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से मनुष्य क्षेत्र में हैं अर्थात् अढाई द्वीप समुद्रों में हैं । पन्द्रह कर्मभूमियों में निराबाध हैं। पाँच महाविदेहों में कही है और कहीं नहीं हैं। इनमें पर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान हैं । उपपात की उपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में उत्पन्न होते हैं। समुद्घात की अपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में समुद्घात करते हैं । स्वस्थान की अपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । प्र० भगवन् ! अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान कहाँ है ? उ० गौतम ! जहाँ पर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान हैं । वहीं पर अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकों के स्थान हैं । उपपात की अपेक्षा -लोक के दोनों ऊर्ध्व कपाटों में तथा तिर्यक्लोक के तट में (अन्तिम भाग में) उत्पन्न होते हैं। समुद्घात की अपेक्षा - सम्पूर्ण लोक में समुद्वात करते हैं । स्वस्थान की अपेक्षा -लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३४-२३७ अधोलोक गणितानुयोग ११५ ५० कहि णं भंते ! सुहुमतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्त- प्र०-भगवन् ! पर्याप्त अपर्याप्त सूक्ष्म तेजस्कायिकों के ___ गाण य ठाणा पण्णता? स्थान कहाँ है ? उ० गोयमा ! सुहुमतेउकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगाउ० आयुष्मान् श्रमण गौतम ! सूक्ष्म तेजस्कायिक जो पर्याप्त ते सव्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरिया- और अपर्याप्त है वे सब एक प्रकार के हैं (समान है), वे किसी वणगा पण्णत्ता समणाउसो ! प्रकार की विशेषता वाले नहीं हैं, वे नाना प्रकार के नहीं है और -पण्ण०, पद० २, सु० १५४-१५६ वे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। वाउकाइयाणं ठाणाई वायुकायिकों के स्थान-- २३५. ५० कहि णं भंते ! बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा २३५. प्र० भगवन् ! पर्याप्त बादर वायुकायिकों के स्थान कहाँ पणत्ता ? कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणवाएसु सत्तसु घणवायवलएसु उ० गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से ये सात घनवातों में, सत्तसु तणुवाएसु सत्तसु तणुवायवलएसु । सात धनवातवलयों में, सात तनुवातों में और सात तनुवातवलयों में है। (१) अहोलोए पायालेसु मवणेसु भवणपत्थडेसु भवण- (१) अधोलोक में-पातालों में, भवनों में, भवनप्रस्तटों में, छिद्दसु भवणणिक्खुडेसु निरएसु निरयावलियासु भवन-छिद्रों में, भवन-निष्कुटों में (भवन के भूमिखण्डों में), नरकों णिरयपत्थडेसु णिरयछिद्दसु णिरयणिक्खुडेसु। में, नरक-पंक्तियों में, नरक-प्रस्तटों में, नरक-छिद्रों में और नरक निष्कुटों में हैं। (२) उडढलोए कप्पेसु बिमाणेसु विमाणावलियासु (२) ऊर्ध्वलोक में-कल्पों में, विमानों में, विमान-पंक्तियों विमाणपत्थडेसु विमाणछिद्दसु विमाणणिक्खुडेसु। में, विमान-पस्तटों में, विमान-छिद्रों में और विमान-निष्कुटी (३) तिरियलोए पाईण-पडीण-वाहिण-उदीण सव्वेसु चेव (३) तिर्यक्लोक में-पूर्व-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर के लोका लोगागासछिह स लोगनिक्खुडेसु य । एत्थ णं बायर- काश के सभी छिद्रों में और लोकाकाश के सभी निष्कूटों में वाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। पर्याप्त बादर वायुकायिकों के स्थान कहे गये हैं। उववाएणं लोयस्स असंखज्जेसु भागेसु । उपपात की अपेक्षा-लोक के असंख्य भागों में उत्पन्न होते है। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु । समुद्घात की अपेक्षा-लोक के असंख्य भागों में समुद्घात करते है। सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जेनु भागेसु । स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्य भागों में इनके स्थान हैं। २३६.५० कहि णं भंते ! अपज्जत्तबादरवाउकाइयाणं ठाणा २३६. प्र० भगवन् ! अपर्याप्त बादर वायुकायिकों के स्थान कहाँ पण्णत्ता? कहे गये हैं। उ० गोयमा ! जत्थेव बादरवाउकाइयाणं पज्जत्सगाणं ठाणा उ० गौतम ! जहाँ पर्याप्त बादर वायुकायिकों के स्थान है तत्थेव बादरवाउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। वहीं पर अपर्याप्त बादर वायुकायिकों के स्थान कहे गये है। उववाएणं सवलोए। उपपात की अपेक्षा-सम्पूर्ण लोक में उत्पन्न होते हैं। समुग्धाएणं सव्वलोए , समुद्घात की अपेक्षा-सम्पूर्ण लोक में समुद्घात करते हैं। सट्टाणेणं लोयस्स असंखज्जेसु भागेसु । स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्य भागों में इनके स्थान हैं। २३७. प० कहि णं भंते ! सुहमवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्त- २३७. प्र० भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सक्षम वायकायिक गाणं ठाणा पन्नत्ता? जीवों के स्थान कहाँ कहे गये है ? Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ लोक-प्रज्ञप्ति अधोलोक सूत्र २३७-२४० उ० गोयमा ! सुहुमवाउकाइया जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे उ० हे आयुष्मान् श्रमण गौतम ! सूक्ष्म वायुकायिक जो एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावष्णगा पर्याप्त और अपर्याप्त है वे सब एक समान हैं, वे किसी प्रकार पण्णत्ता समणाउसो।' की विशेषता वाले नहीं है, वे नानाप्रकार के नहीं है और वे -पण्ण० पद २, सु० १५७-१५६ सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है । वणस्सइकाइयाणं ठाणाई वनस्पतिकायिकों के स्थान२३८. प० कहि णं भंते ! बादरवणस्सकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा २३८. प्र० भगवन् ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिकों के स्थान कहाँ पन्नत्ता ? कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! सट्ठाणेणं सत्तनु घणोदहीसु सत्तसु घणोदही- उ० गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से सात घनोदधियों में वलएसु। और सात घनोदधिवलयों में है। (१) अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु । (१) अधोलोक में-पातालों में, भवनों में, और भवन प्रस्तटों में हैं। (२) उड्ढलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणवलियासु विमाण- (२) ऊर्बलोक में-कल्पों में, विमानों में, विमान-पंक्तियों पत्थडेसु । में और विमानप्रस्तटों में हैं। (३) तिरियलोए अगडेसु तडागेसु नदीसु दहेसु वावीसु (३) तिर्यक्लोक में-कूषों में, तालाबों में, नदियों में, पुक्खरिणीसु वोहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंति- द्रहों में, वापिकाओं में, पुष्करिणीयों में, दीर्घिकाओं में, गुजायासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु लिकाओं में, सरों में, सर-पंक्तियों में, सरसर-पंक्तियों में, निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु बप्पिणेसु दीवेसु बिलों में, बिलपंक्तियों में, पहाड़ी झरणों में, भूमि से निकलने समुद्दसु सम्वेसु चैव जलासएसु जलढाणेसु-- एत्थ वाले झरणों में, चिल्ललों में, पल्वलों में, तालाब के किनारे वाली णं बादरवणस्स इकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नता। भूमियों में, द्वीपों में, समुद्रों में, सभी जलाशयों में और सभी जलस्थानों में पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिकों के स्थान कहे गये हैं। उववाएणं सव्वलोए। उपपात की अपेक्षा-सम्पूर्ण लोक में उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं सव्वलोए। समुद्वात की अपेक्षा- सम्पूर्ण लोक में समुद्घात करते हैं। सट्ठाणेण लोयस्स असंखेज्जइभागे । स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। २३६. प० कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं २३६. प्र०-भगवन् ! अपर्याप्त बादर बनस्पतिकायिकों के स्थान ठागा पण्णता? कहाँ कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! जत्थेव बादरवणस्सइकायाणं पज्जतगाणं ठाणा उ०-गौतम ! जहाँ पर्याप्त बादर बनस्पतिकायिकों के स्थान तत्थेव बादरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा हैं वहीं पर अपर्याप्त बादर बनस्पतिकायिकों के स्थान को पण्णत्ता। गये हैं। उववाएणं सवलोए। उपपात की अपेक्षा-सम्पूर्ण लोक में उत्पन्न होते हैं । समुग्घाएणं सव्वलोए। समुद्घात की अपेक्षा- सम्पूर्ण लोक में समुद्घात करते हैं । सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। २४०. प० कहि णं भंते ! सुहमवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं २४०. प्र०-भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सक्षम बनस्पति___अपज्जत्तगाणं य ठाणा पण्णता? कायका स्थान वहाँ है ? उ० गोयमा ! महमवणस्स इकाइया जे य पज्जत्तगा जे य ज -हे आयुष्मान् श्रमण गौतम! सूक्ष्म बनस्पतिकायिक अपज्जत्तगा ते सत्वे एगविहा अविसेसा अणाणत्ता सव्व- जो पर्याप्त और अपर्याप्त है वे सब एक समान हैं, वे किसी लोय परियावाणगा पण्णत्ता समणाउसो।' प्रकार की विशेषता वाले नहीं है, वे नाना प्रकार के नहीं है और --ण० पद २. सु० १६०-१६२ वे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। १ २ उत्त० अ० ३६, गाथा १२० । उत्त० अ० ३६, गाथा १०० । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४१-२४२ अधोलोक बेवियाण ठाणाई २४१. ५० कहि णं भंते! बेइंदियाणं पज्जत्तगाऽपज्जतगाणं ठाणा पन्नत्ता ? उ० गोयमा । (१) उड्लोए तदेक्कदेसभा (२) अहोलोए तदेक्स देसमा । (३) तिरिचतोए अग तलाए नबी हेसु वामीसु क्खरिणी दोहियासु गुरौंजालियासु सरेसु सरपंति यासु सरसरपंतियासु बिलेस बिलपंतियासु उज्झ रेसु निझरे चिल्लले पालनेसु बपिणेस दोबे समुद्देसु सम्बे व जलासएस जलट्ठाणेसु एत्थ णं बेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे । समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । सट्टाणेणं लोपस्स असंखेज्जइभागे ।" पण्ण०, पद० २, सु० १६३ तेइंदियाणं ठाणाइं २४२. प० कहि णं भंते! तेइंद्रियाणं पज्जताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? उ० गोयमा ! ( १ ) उड्ढलोए तदेक्कदेसभाए । (२) अहोलोए सदेवक (३) तिरियलए अगला नदी रहेको खरिणी दीहिषासु जातिसरे सरति यासु सरसरपंतिया बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वष्पिणेसु दीवेसु समुई सुसज्जे व अलासएस जलद्वा एत्थ णं तेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । समुग्धा एवं लोयस्त अभा सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे ।" - पण्ण०, पद २, सु० १६८ दीन्द्रिय जीवों के स्थान २४१. प्र० -भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त द्वीन्द्रियों के स्थान कहाँ कहे गये हैं? गणितानुयोग ११७ उ० -गौतम ! (१) वे ऊर्ध्व लोक के एक भाग में हैं । (२) अधोलोक के एक भाग में हैं। (३) निर्मलोक में कूपों में, तालाबों में, नदियों में हों में, वापिकाओं में, पुष्करिणीयों में, दीर्घिकाओं में, गुरौंजालिकाओं में, सरों में, सरपंक्तियों में, सरसरपंक्तियों में, बिलों में, बिलपंक्तियों में पहाड़ी शरणों में भूमि से निकलने वाले सरणों में, चिल्लों में पावलों में तालाब के किनारे की भूमियों में द्वीपों में, समुद्रों में और सभी जलाशयों में तथा सभी जलस्थानकों में पर्याप्त और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गये हैं । , 1 उपपात की अपेक्षा -लोक के असंख्यातवें भाग में उत्पन्न होते हैं । समुद्घात की अपेक्षा -लोक के असंख्यातवें भाग में समुद्घात करते हैं । स्वस्थान की अपेक्षा -लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । त्रीन्द्रिय जीवों के स्थान २४२. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त त्रीन्द्रियों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! (१) ऊर्ध्वलोक के एक भाग में हैं । (२) अधोलोक के एक भाग में हैं। - 1 (३) सिक्लोक में यूपों में तालाबों में नदियों में हों में यापिकाओं में पुष्करिणीयों में दीषिकाओं में गुंजालिकाओं में, सरों में, सरपंक्तियों में, सरसरपंक्तियों में, बिलों में, बिल-पंक्तियों में, पहाड़ी झरणों में, भूमि में से निकलने वाले झरणों में, विश्वासों में पत्थलों में तालाब के किनारे की भूमियों में द्वीपों में, समुद्रों में और सभी जलाशयों में, तथा सभी जलस्थानों में पर्याप्त और अपर्याप्त त्रीन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गये हैं । उपपात की अपेक्षा -- लोक के असंख्यातवें भाग में उत्पन्न होते हैं । समुद्घात की अपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में समुद्घात करते हैं । स्वस्थान की अपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । १ लोगदे से य ते सबे, न सव्वत्थ वियाहिया ॥ - उत्त० अ० ३६, गाथा १३० । २ उत० अ० ३६, गाथा १३६ । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ लोक- प्रज्ञप्ति चरबियाणं ठाणाई २४३. ५० कहि णं भंते! चउरदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? १ २ अधोलोक उ० गोयमा ! (१) उड्ढलोए तदेक्कदेसभाए । (२) अहोलोए तटेक्कदेसभाए । (३) तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु बावीसु पुक्खरिणीसु दोहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंति यासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपतियासु उज्झरेसु निजारे दिल्लले पहलले वपिनेसु दीधे समुद्देसु सम्ये व जलाए जाने एवं । एत्थ णं चरिदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता । उपवाए लोस्स अभागे । समुग्धाएवं लोयस्स असं सट्टागंणं लोयल्स असंभा - पण्ण० पद २, सु. १६५ पंचिदियाणं ठाणा२४४. ५० कहि णं भंते! पंचिदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? ३० दोषमा (१) उठलो तकसमाए । (२) अहोलोए तदेक्कदेसभाए । (३) तिरियलोए अगडे सताए नही रहे बाबी श्री दहिया 'जालियासु सरेसु सरपंति या सरसरपंतिया बिलेसु बिलपतियासु उज्झरेसु निरे चिल्लले पहलले वग्यि दोबे समृद्द सम्ये चैव जलाए जाने एत्व – पंचेदियाणं पज्जताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । उपाए लोस्स अ नुम्याएवं लोपस्य असं भागे। सहाणे लोस्स असंखेज्जइभागे । - पण्ण०, पद २, सु० १६६ उत्त० अ० ३६, गाथा १४६ । उत्त० अ० ३६, गाथा १५८, १७३, १०२, १८६ | सूत्र २४३-२४४ चतुरिन्द्रिय जीवों के स्थान २४३. प्र० ] भगवन् । पर्याप्त और अपर्याप्त चतुरिन्द्रियों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उ० --- गौतम ! ( १ ) ऊर्ध्वलोक के एक भाग में हैं । (२) अधोलोक के एक भाग में है। (३) तिर्यक्लोक में कूपों में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों में, वापिकाओं में, पुष्करिणियों में, दीर्घिकाओं में, गुरौंजालिकाओं में, सरों में, सरपंक्तियों में, सरसर- पंक्तियों में, बिलों में, बिलपंक्तियों में, पहाड़ी शरणों में भूमि से निकलने वाले मरणों में, चिल्लों में पल्लों में तालाब के किनारे वाली भूमियों में, द्वीपों में, समुद्रों में और सभी जलाशयों में तथा सभी जलस्थानों में पर्याप्त और अपर्याप्तद्वियों के स्थान कहे गये हैं। उपपात की अपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में उत्पन्न होते हैं । समुद्घात की अपेक्षा —- लोक के असंख्यातवें भाग में समुद्घा करते हैं । स्वस्थान की अपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान २४४. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त पंचेन्द्रियों के स्थान कहाँ कहे गये हैं। उ०- गौतम ! (१) ऊर्ध्वलोक के एक भाग में हैं । (२) अधोलोक के एक भाग में हैं । (२) तिलोक में सूपों में तालाबों में नदियों में हों " में वादिकाओं में पुष्करणियों में दीधिकाओं में, 'जालिकाम में, सरों में सरपंक्तियों में, सरसर- पंक्तियों में, बिलों में, बिलपंक्तियों में पहाड़ी झरणों में भूमि में से निकलने वाले झरणों में विलों में पत्लों में, तालाबों के किनारे की भूमियों में, द्वीपों में, समुद्रों में और सभी प्रकार के जलाशयों में तथा सभी जलस्थानों में पर्याप्त और अपर्याप्त पंचेन्द्रियों के स्थान कहे. गये हैं । उपपात की अपेक्षा -लोक के असंख्यातवें भाग में उत्पन्न होते हैं। समुद्घात की अपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में समुद्घात करते हैं । स्वस्थान की अपेक्षा - लोक के असंख्यातवें भाग में उनके स्थान हैं । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४५ अधोलोक गणितानुयोग ११६ चिदियतिरिक्खजोणियाणं ठाणा- पंचेन्द्रिय तिर्थञ्च योनिकों के स्थान२४५. प० कहि णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्ताऽ- २४५. प्र०--भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त पंचेन्द्रियतिर्यंचपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? योनिकों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! (१) उड्ढलोए तदेक्कदेसभाए। उ०-गौतम ! (१) ऊर्ध्वलोक के एक भाग में हैं। (२) अहोलोए तदेक्कदेसभाए। (२) अधोलोंक के एक भाग में हैं । (३) तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु (३) तियं क्लोक में-कूपों में, तालाबों में, नदियों में, द्रहों पुक्खरिणीसु दीहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंति- में, वापिकाओं में, पुष्करिणियों मे, दीपिकाओं में, गुजालिकाओं यासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु में, सरों में, सरपंक्तियों, सरसरपंक्तियों में, बिलों में, बिलनिज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु पंक्तियों में, पहाड़ी झरणों में, भूमि में से निकलने वाले झरणों समुद्देसु सव्वेसु चैव जलासएसु जलट्ठाणे-एत्थ णं में, चिल्वलों में, पल्वलों में, तालाबों के किनारे वाली भुमियों में, पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा द्वीपों में, समुद्रों में और सभी प्रकार के जलाशयों में, तथा सभी पण्णत्ता। जलस्थानों में पर्याप्त तथा अपर्याप्त तिर्य च-पंचेन्द्रियों के स्थान कहे गये हैं। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । उपपात की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवे भाग में उत्पन्न होते हैं। समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । समुद्घात की अपेक्षा-लोक के असंख्पातवे भाग में समुद्घात करते हैं। सट्ठागेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे।' स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में इनके -पण्ण०, पद २, सु०१७५ स्थान हैं। ॥ अधोलोक वर्णन सम्पूर्ण । १ उत्त० अ० ३६, गाथा १८९ । Page #273 --------------------------------------------------------------------------  Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ထိုင်းစာတို့ကာ २ तिर्यक् ( मध्य ) लोक वर्णन [ सूत्र १ से ११२८, पृष्ठ १२१ से ६५४ तक ] 00000000 Page #275 --------------------------------------------------------------------------  Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोय-पण्णत्ति तिरियलोगो (मज्झलोगो) लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक (मध्य लोक) भगवओ महावीरस्स मिहिलाए समोसरणं- भगवान महावीर का मिथिला में समवसरण१. तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला णामं गयरी होत्या, १. उस काल और उस समय में मिथिला नामक नगरी थी, वह रिद्धस्थिमियसमिद्धा । वण्णओ। ऋद्धि से तथा शान्ति से समृद्ध थी । यहाँ नगरी का वर्गक कहना चाहिए। तोसे गं मिहिलाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए उस मिथिला नगरी के बाहर उत्तर-पूर्व दिग्विभाग में माणिएत्थ णं माणिभद्दे चेइए होत्था । वण्णओ। भद्र चैत्य था । यहाँ चैत्य का वर्णक कहना चाहिए। जियसत्तुराया, धारिणीदेवी"वण्णओ। वहाँ जितशत्रु राजा था, (उनकी) धारिणीदेवी (रानी) थी। यहाँ राजा और रानी का वर्णक कहना चाहिए। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, उस काल और उस समय में (भगवान महावीर) स्वामी धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया। पधारे, (उनकी देशना सुनने के लिए नगरी से) परिषदा निकली। (भगवान महावीर ने) धर्म कहा । (देशना पूर्ण होने पर) परिषदा वापस चली गई। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर के अंतेवासी इंदभई णामं अणगारे गोयम गोत्तेण सत्तुस्सेहे सम- ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार (जिनका) समचतुरस्र चउरंससंठाणे-जाव-तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ वंदइ संस्थान था-यावत्-वे (श्रमण भगवान महावीर को) तीन बार णमंसइ बंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी आदक्षिणा प्रदक्षिणा करके वन्दन नमस्कार करते हैं और बन्दन -जंबु० वक्ख० १, सु० १-२ नमस्कार करके वे इस प्रकार बोलेतिरियलोय-खेत्तलोयरस भेया तिर्यक्लोक क्षेत्रलोक के भेद२.५० तिरियलोय-खेत्तलोए णं भंते ! कतिविधे पण्णते ? २. प्र०-हे भगवन् ! तिर्यक्लोक का क्षेत्रलोक कितने प्रकार का कहा गया है ? उ० गोयमा ! असंखेज्जतिविधे पण्णत्ते, तं जहा-जंबुद्दीव- उ०-हे गोतम ! असंख्येय प्रकार का कहा गया है, यथातिरियलोय खेत्तलोए-जाव-सयंभुरमणसमुद्द तिरियलोय- जम्बूद्वीप तियक्लोक का क्षेत्रलोक-यावत्-स्वयम्भरमणसमुद्र खेत्तलोए। -भग० स० ११, उ० १० सु० ५ तिर्यक्लोक का क्षेत्रलोक । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र ३-५ तिरियलोय-खेत्तलोयस्स संठाणं तिर्यकलोक-क्षेत्रलोक का संस्थान३. प० तिरियलोगखेत्तलोए णं भंते ! किंसंठिए पन्नत्ते ? ३. प्र०-हे भगवान् ! तिर्यक्लोक का क्षेत्रलोक किस संस्थान (आकार) का कहा गया है ? उ० गोयमा ! झल्लरिसंठिए पन्नत्ते । उ०-हे गौतम ! झालर के संस्थान का कहा गया है। -भग० सं० ११, उ० १०, सु० ८ तिरियलोय-खेत्तलोयरस आयाम-मज्झं तिर्यक्लोक-क्षेत्रलोक के आयाम का मध्यभाग४. प० कहि णं भंते ! तिरियलोगस्स आयाम-मज्झे पन्नते? ४. प्र०-हे भगवन् ! तिर्यक्लोक के आयाम का मध्यभाग कहाँ कहा गया है ? उ० गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयरस बहुमज्झदेस- उ. हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरु पर्वत के मध्य भाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिम-हेट्ठिल्लेसु भाग में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपरी भाग के नीचे के क्षुद्र प्रतरों खुडगपयरेसु-एत्थ णं तिरियलोगमज्झे अट्टपएसिए रुपए में तिर्यक्लोक का मध्य भाग रूप आठ प्रदेशों का रुचक प्रदेश पन्नत्ते, जओ णं इमाओ दस दिसाओ पवहंति, तं जहा- कहा गया है जहाँ से ये दस दिशायें निकलती हैं, यथा-पूर्व, पुरत्थिमा, पुरथिमदाहिणा एवं-जहा दसमसते-जाव- पूर्व-दक्षिण-यावत्- इसी प्रकार दशम शतक के अनुसार सभी नामधेज्ज ति। दिशाओं के नाम कहने चाहिए। -भग० स० १३, उ० ३, सु० १५ दीव-समहाणं ठाणं संखा महत्तं संठाणं आगारभाव- द्वीप और समुद्रों के स्थान, महत्ता, संस्थान और प्रकट पडोयारं च आकार५. (१) ५० कहि णं भंते ! दीव-समुद्दा ? ५. (१) प्र०-भगवन् ! द्वीप और समुद्र कहाँ हैं ? (२) प० केवइया णं भंते ! दोव-समुद्दा? (२) प्र०-भगवन् ! द्वीप और समुद्र कितने हैं ? (३) प० के महालया गं भंते ! दीव समुद्दा ? (३) प्र०-भगवन् ! द्वीप और समुद्र कितने बड़े हैं ? (४) प० कि संठिया णं भंते ! दीव-समुद्दा ? (४) प्र०-भगवन् ! द्वीप और समुद्रों के संस्थान कैसे हैं ? (५) प० किमाकारभावपडोयारा ण भंते ! दीव-समुद्दा (५) प्र-भगवन् ! द्वीप और समुद्रों के प्रकट आकार का पण्णता? स्वरूप कैसा कहा गया है ? (१) उ० गोयमा ! अस्सि तिरियलोए जंबुद्दीवाइया दीवा, (१) उ०-गौतम ! जम्बूद्वीपआदि द्वीप और लवणसमुद्र लवणाइया समुद्दा। आदि समुद्र तिर्यक्लोक में है। (२) उ० असंखेज्जा दीव-समुद्दा सयंभुरमणपज्जवसाणा । (२) उ०-(जम्बूद्वीप से लेकर) स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्य द्वीप समुद्र हैं । (३) उ० दुगुणादुगुणे पडुप्पायमाणा पडुप्पायमाणा, पवित्थ- (३) उ०-हे आयुष्मन् श्रमण ! (जम्बूद्वीप से दुगुना लवण रमाणा पवित्थरमाणा, ओभासमाणवीचीया बहु समुद्र और लवणसमुद्र से दुगुना धातकीखण्ड-इस प्रकार उप्पल-पउम-कुमुद-गलिण-सुभग-सोगंधिय-पोंडरीय- स्वयम्भूरमण सपुद्रपर्यन्त) गुणन करते-करते दुगुने विस्तार वाले महापोंडरीय-सतपत्त-सहस्सपत्तपप्फुल्लकेसरोवचिता तथा प्रकाशमान लहरों वाले द्वीप और समुद्र अनेक उत्पल-पद्मपत्तयं-पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं कुमुद-नलिन-सुभग-सौगंधिक-पौंडरीक-महापौंडरीक-शतपत्र-सहस्रवणसंडपरिक्खित्ता पणत्ता समणाउसो। पत्र प्रफुल्लित केशर से सुशोभित हैं । प्रत्येक द्वीप पद्मबर वेदिका से और प्रत्येक पद्मवरवेदिका बनखण्ड से घिरी हुई कही गई है। (४) उ० संठाणतो एकविहविधाणां, वित्थारतो अणेगविध- (४) उ०-सभी द्वीप-समुद्र संस्थान से एक (वृत्त-गोल) विधाणा। प्रकार के हैं और विस्तार से अनेक प्रकार के हैं। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यक् लोक गणितानुयोग १२३ (५) उ० तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे णामं दीवे दीवसमुद्दाणं (५) उ०—यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप उन द्वीप-समुद्रों के अभितरिए सव्वखुड्डाए। अन्दर है, सबसे छोटा है. वट्ट तेल्लापूयसंठाणसंठिए, तेल के पूये जैसे वृत्त (गोल) संस्थान से स्थित है। वट्ट रहचक्कवालसंठाणसंठिए, रथ के पहिये जैसे वृत्त संस्थान से स्थित है। वट्ट पुक्खर कण्णियासंठाणसंठिए, पुष्करकणिका जैसे वृत्त संस्थान से स्थित है। वट्ट पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए, पूर्णचन्द्र जैसे वृत्त संस्थान से स्थित है। एक्कं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि इसका आयाम-विष्कम्भ एक लाख योजन का है। तीन जोयणसयसहस्साई, सोलस य सहस्साई “दोण्णि लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताबीस योजन, तीन कोश, अठावीस य सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि य कोसे, अट्ठावीसं धनुष, तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक की इसकी च धणुसयं, तेरस अंगुलाई, अद्धंगुलकं च किंचि परिधि कही गई है। विसेसाहियं परिवखेवेणं पण्णत्ते ।। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२३-१२४ १ आगमोदय समिति से प्रकाशित जीवाभिगम (मलयगिरि-टीक सहित) के सूत्र १२३ के मूलपाठ में द्वीप-समुद्र सम्बन्धी पाँच प्रश्न जिस क्रम से है, उसी क्रम से उनके उत्तर नहीं है । टीकाकार पाँच प्रश्नों और उत्तरों का क्रमशः विषय निर्देश इस प्रकार करते हैं(१) प्र०–'कहि णं भंते ! दीव-समुद्दा ?' इत्यादि 'क्क' कस्मिन् णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त ! परम कल्याणयोगिन् ! द्वीप समुद्राः प्रज्ञप्ताः ? अनेन द्वीपसमुद्राणामवस्थानं पृष्टम् । (२) प्र०--'केवइया णं भंते ! दीव-समुद्दा ?' इति "कियन्तः' कियत्संख्याका णमिति वाक्यालंकारे भदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः ? अनेन द्वीपसमुद्राणां संख्यानं पृष्टम् ।। (३) प्र०-'के महालिया णं भंते ! दीवसमुद्दा ?' इति किं महानालय-आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो येषां ते महालयाः किं प्रमाण महालया णमिति प्राग्वद् द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः ? किं प्रमाणं द्वीपसमुद्राणा महत....भिति भावः, एतेन द्वीप समुद्रा णामायामादि परिमाणं पृष्टम् ।। (४) प्र०-"किं संठिया णं भंते ! दीव-समुद्दा ?' इति किं संस्थित संस्थानं येषां कि संस्थिता, णमिति पूर्ववद्, भदन्त ! द्वीप-समुद्रा प्रज्ञप्ताः ? अनेन संस्थानं पप्रच्छ ।। (५) प्र०-'किमागारभावपडोयारा णं भंते ! दीव-समुद्दा पण्णत्ता?' इति आकारभावः स्वरूपविशेषः, कस्य आकारभावस्य प्रत्यवतारो येषां ते किमाकार भावप्रत्यवतारा:................णमिति पूर्ववद्, द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः ? किं स्वरूपं द्वीप समद्राणामिति भावः, अनेन स्वरूप विशेष विषयः प्रश्नः कृतः । उत्तरों का विषयनिर्देश :-- (१) उ०-इह 'अस्सिं तिरियलोए' इत्यनेन स्थानमुक्तम् ! (२) उ०-'असंखेज्जा' इत्यनेन संख्यानम् । (३) उ.--'दुगुणादुगुण' मित्यादिना महत्त्वम् । (४) उ०-'संठाणतो' इत्यादिना संस्थानम् । पाँचवें उत्तर के सम्बन्ध में टीकाकार की सूचना : सम्प्रत्याकार भाव प्रत्यवतारं विवक्षुरिदमाह(५) उ०—'तत्थाणं अयं जंबुट्टीवे णामं दीवे " परिक्खेवेणं पण्णत्ते ।' चार प्रश्नों के उत्तर सूत्र १२३ में है और पाँचने प्रश्न का उत्तर सूत्र १२४ में है। आगमोदयसमिति से प्रकाशित जीवाभिगम सूत्र १२३ का मूलपाठ :(१) प्र०--कहि गं भते ! दीवसमुहा? (२) प्र०-केवइया णं भंते दीवस मुद्दा? (३) प्र०-के महालया णं भंते ! दीवसमुहा? (शेष पृ० १२४ पर) Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक जंबुद्दीवरस ठाण-पमाणाइ जम्बूद्वीप का स्थान एवं प्रमाणादि६. ५० (१) कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ? ६. प्र०-(१) भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप कहाँ है ? (२) के महालए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ? (२) भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप कितना विशाल है ? (३) कि संठिए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ? (३) भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का संस्थान कैसा है ? (४) किमायारभाव पडोयारे णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे (४) भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का आकार भाव-स्वरूप पण्णते? कैसा कहा गया है ? उ० (१) गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्व दीव-समुद्दाणं उ०—(१) गौतम ! यह जम्बूद्वीप सर्वद्वीप-समुद्रों के सर्वासब्वब्भंतराए। भ्यन्तर बीच में है। (२) सव्वखुड्डाए। (२) सबसे छोटा है। (३) वट्ट तेल्लापूयसंठाणसंठिए । (३) तेल में तले हुए पुए के आकार का गोल है। वट्ट रहचक्कवालसंठाणसंठिए । रथ के पहिये के संस्थान के समान गोल है। वट्ट पुक्खरकण्णिया संहाणसंठिए। कमल की कणिका के आकार की तरह गोल है। वट्ट पडिपुण्ण चंद संठाणसंठिए। परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार की तरह गोल है । (४) एगं जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं ।' (४) एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। तिण्णि जोयणसयसहस्साइं सोलससहस्साई दोणि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, य सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं एक सौ अट्ठाईस धनुष, कुछ अधिक साढ़े तेरह अंगुल की परिधि च धणुसयं तेरसअंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसे- कही गयी है। साहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ।। -जंबु० वक्ख० १, सु० ३ ७. ५० (१) जंबुद्दीवे णं भंते दीवे केवइयं आयाम-विक्खंभेणं? ७. प्र०-(१) जम्बूद्वीप नामक द्वीप का आयाम-विष्कम्भ कितना है ? (२) केवइयं परिक्खेवेणं ? (२) परिक्षेप कितना है ? (३) केवइयं उब्वेहेणं? (३) उवध कितना है? (४) केवइयं उद्धं उच्चत्तणं ? (४) ऊँचाई कितनी है ? (५) केवइयं सम्वग्गेणं पण्णत्ते ? (५) सर्वपरिमाण कितना कहा गया है ? -- (शेष पृष्ठ १२३ का) (४) प्र०-कि संठिया गं भंते ! दीवसमुदा? (५) प्र०–किमाकारभावपडोयारा गं भंते ! दीवसमुद्दा णं पण्णत्ता ? (४) उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवाइया दीवा, लवणाइया समुद्दा संठाणतो एकविह...... विधाणा, वित्थारतो अणेगविध विधाणा। (३) उ०-दुगुणादुगुणे पडुप्पायमाणा २ पवित्थरमाणा २ ओभासमाणवीचीया, बहु उप्पल-पउम-कुमुद-णलिण-सुभग सोगंधिय पोंडरीय-महापोंडरीय-सतपत्त-सहस्सपत्त-पप्फुल्लकेसरोवचिता पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खत्ता पत्तेयं पत्तेयं वण संडपरिक्खित्ता। (१) उ०-अस्सिं तिरियलोए । (२) उ०-असंखेज्जा दीव-समुद्दा संयभुरमणपज्जबसाणा पणभत्ता समणाउसो । (५) उ०-तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे णाम दीवे दीव-समुद्दाणं अभिंतरिए सबखुड्डाए, वट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिए, वट्ट रहचक्क वालसंठाणसंठिए, वट्टे, पुक्खरकण्णिया संठाणसंठिए, बट्टै पडिपुन्नचदसंठाणसंठिए, एक्कं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोय णसए तिप्णियकोसे अट्ठावीसं व धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्ध गुलकं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ।। १ (क) सम० स० १, सु० १६। (ख) सम० सु० १२४ । २ (क) ठाणं० अ०१, सु० ५२ । (ख) भग० स० ६, उ०१, सु०, २.३। (ग) जीवा०प० ३, उ० १ ० १२४ । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARATHI HAmonthbesimmage A REE 6690 SDA SAMACHAR wwwww सर7227 RAMER ANSARAI MARA KASKARATES SANSARVA जम्बूद्वीप का चित्र : वर्णन देखें पृष्ठ १२४ पर Page #281 --------------------------------------------------------------------------  Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७-६ तिर्यक् लोक गणितानुयोग १२५ उ० (१) गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे एगं जोयणसयसहस्सं उ०-(१) गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का आयामआयाम-विक्खंभेणं । विष्कम्भ एक लाख योजन है । (२) तिण्णि जोयणसयसहस्साई सोलसयसहस्साई दोणि (२) परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्ताइस योजन, अ सत्तावीसे जोअणसए तिण्णि अ कोसे अट्ठावीसं तीन कोस एक सौ अट्ठाईस धनुष एवं कुछ अधिक साढ़े तेरह च धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि अंगुल की कही गई है। विसेसाहिलं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ।। (३) एगं जोयणसहस्सं उब्वेहेणं । (३) गहराई एक हजार योजन है । (४) णवणउति जोअणसहस्साई साइरेगाई उद्धं उच्च- (४) ऊँचाई कुछ अधिक निन्यानवें हजार योजन है। तेणं। (५) साइरेगं जोअणसयसहस्सं सव्वग्गेणं पण्णत्ते । (५) सर्वपरिमाण कुछ अधिक एक लाख योजन का कहा। -जंबु० व० १, सु० १७४ गया है । जंबुद्दीवस्स सासया- सासयत्तं जम्बूद्वीप शाश्वत और अशाश्वत ८.५० (१) जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे कि सासए असासए ? ८. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप क्या शास्वत है या अशाश्वत है ? उ० गोयमा ! सिय सासए, सिय असासए । उ०-गौतम ! कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है। प० (२) से केण? णं भंते ! एवं बुच्चइ-सिय सासए प्र०-भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है किसिय असासए? 'कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत है ?' . उ० गोयमा ! दवट्ठयाए सासए, वण्ण-पज्जवेहि, गंध-पज्ज- उ०-गौतम ! द्रव्यों की अपेक्षा से (जम्बूद्वीप) शाश्वत है वेहि, रस-पज्जवेहि, फास-पज्जवेहिं असासए । से तेण? और वर्णपर्यायों से, गंधपर्यायों से, रसपर्यायों से तथा स्पर्शपर्यायों णं गोयमा ! एवं बुच्चइ- 'सिय सासए, सिय असासए। से अशाश्वत है। गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है -जंबु० व० ७, सु० १७५ 'कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत है ।........ १. ५० (१) जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे कालओ केवचिरं होइ ? ६. प्र०-भगवन् ! काल की अपेक्षा से जम्बूद्वीप कब तक रहता है? उ० गोयमा? ण कयावि णासि, ण कयावि णत्थि, ण कयावि उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप कभी नहीं था- ऐसा ण भविस्सइ, भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे, नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और कभी नहीं होगा, ऐसा णिइए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे जंबुद्दीवे भी नहीं है । वह था, है और रहेगा । वह ध्र व, नियत, शाश्वत, दीवे पण्णते । ___ अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य कहा गया है । -जंबु० व० ७, सु० १७५ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति-वक्षस्कार एक के सूत्र ३ में जम्बूद्वीप से सम्बन्धित चार प्रश्नोत्तर है और सूत्र १७४ में पांच प्रश्नोत्तर है, सूत्र तीन के चौथे प्रश्न में तथा सूत्र १७४ के प्रथम-द्वितीय प्रश्न में भाव-साम्य होते हुए भी शब्द साम्य नहीं है, किन्तु इनके उत्तर में शब्द साम्य एवं भाव साम्य पूर्ण रूप से है। एक ही आगम में इस प्रकार के प्रश्न भेदों का अस्तित्व विचारणीय है। २ ऊपर सूत्र के प्रथम विभाग में जम्बू द्वीप को द्रव्य की अपेक्षा शास्वत तथा पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत कहा गया है और द्वितीय विभाग में काल की अपेक्षा से सर्वथा शास्वत कहा गया है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र १०-१४ जंबुद्दीवस्स पुढविआइपरिणामित्तं जम्बूद्वीप का पृथ्वी आदि परिणामित्व-- १०. ५० (१) जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे किं पुढवि-परिणामे, आउ- १०. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप क्या पृथ्वी का परिणामे, जीव-परिणामे, पोग्गल-परिणामे? परिणमन है, जल का परिणमन है, जीवका परिणमन है, या पुद्गल का परिणमन है ? उ० गोयमा ! पुढविपरिणामे वि, आउपरिणामे वि, जीव- उ०-गौतम ! (जम्बूद्वीप) पृथ्वी का परिणमन भी है, परिणामे वि, पोग्गलपरिणामे वि। जीव का परिणमन भी है और पुद्गल का परिणमन भी है.... -जंबु० व० ७, सु० १७६(१) जंबूहीवे सव्वजीवाणं एगिदियत्तणं अणंतसो उववन्न- जम्बूद्वीप में सब जीवों का एकेन्द्रिय रूप से पूर्व में उत्पन्न पुव्वत्तं होना११.५० (१) जंबहीवे णं भंते ! दीये सवपाणा, सव्वजीवा, ११. प्र० भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सब प्राणी, सब सव्वभूआ, सव्वसत्ता, पुढविकाइअत्ताए, आउकाइ- जीव, सब भूत और सबसत्व पृथ्वीकाय रूप में, अप्काय रूप में, अत्ताए. तेउकाइअत्ताए, वाउकाइअत्ताए, वणस्सइ- तेजस्काय रूप में, वायुकाय रूप में और वनस्पतिकाय रूप में काइअत्ताए उववन्नपुव्वा ? पूर्व में उत्पन्न हुए हैं ? उ० हंता गोयमा ! असई, अदुवा अणंतखुत्तो। उहाँ गौतम ! अनेक बार अथवा अनन्तवार पूर्व में --जंबू० व० ७, सु० १७६(२) उत्पन्न में हुये हैं ।..... जंबुद्दीवजगतीपमाणं जम्बूद्वीप की जगती का प्रमाण१२. से णं एगाए वइरामईए जगईए सवओ समंता संपरिक्खित्ते, १२. वह (जम्बूद्वीप) एक वज्रमय जगती से सब ओर से घिरा है। सा णं जगई अट्ठ जोयणाई उड्ढं उच्चत्तणं,' वह जगती आठ योजन ऊपर की ओर उन्नत है, मूले बारस जोअणाई विक्खंभेणं, मूल में बारह योजन विष्कम्भ वाली है, मज्झे अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, मध्य में आठ योजन विष्कम्भ वाली है, उरि चत्तारि जोअणाई विक्खंभेणं, ऊपर चार योजन विष्कम्भ वाली है, मुले वित्थिन्ना, मझे संखित्ता, उरि तणुया, गोपुच्छ- मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतली है. संठाण-संठिया सव्य वइरामई अच्छा-जाव-पडिरूवा। गाय के पूंछ के आकार के संस्थान वाली सर्व वज्रमयी स्वच्छ -जम्बु० व० १, सु०७ -यावत् —मनोहर है। जंबुद्दीवजगतीगवक्खपमाणं जम्बूद्वीप की जगती के गवाक्ष का प्रमाण१३. साणं जगई एगेणं महंत गवक्खकडएणं सवओ समंता १३. वह जगती एक विशाल जालकटक (जालियों के समह) से संपरिक्खित्ता, सब ओर से घिरी है। से णं गवक्खकडए अद्धजोअणं उड्ढं उच्चत्तेणं, पंच धणुसयाई बह जालकटक आधा योजन ऊपर की ओर उन्नत है। पांच विक्खभेणं सव्वरयणामए अच्छे-जाव-पडिरूवे । सौ धनुष चौड़ा है, सर्वरत्नय स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। -जम्बु० २०१, सु०४ जंबुददीवजगतीपउमवरवेइयापमाणं जम्बूद्वीप को जगती पर पद्मवरवेदिका का प्रमाण१४. तीसे णं जगईए उपि बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं महई एगा १४. उस जगती के ऊपर मध्य भाग में एक विशाल पदमवर. पउमवरवेइया पण्णत्ता, वेदिका कही गई है। अद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, पंच धणुसयाई विक्खंभेणं, जगई वह (पद्मवरवेदिका) आधा योजन ऊपर की ओर उन्नत है. समिया परिक्वेण, सम्व रयणामई अच्छा-जाव-पडिरूवा। पांच सौ धनुष विष्कम्भ वाली है। जगती के समान परिधि है। -जम्बु० व०१, सु०३ सर्वात्मना रत्नमय स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। १ ठाणं ८, सु०६४२ । सम० ८, सु०। २ सम० १२, सु०७। ३ ठाणं, सू०६४२ । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५.१८ तिर्यक् लोक गणितानुयोग १२७ पउमवरवेइयाए वित्थरओ वण्णणं पद्मवरवेदिका का विस्तृत वर्णन१५. तीसे णं पउमवरवेइपाए अय मेयारूवे वण्णावासे पण्णते, तं १५. उस पद्मवरवेदिका का विस्तृत वर्णन इस प्रकार कहा गया जहा-वरामया नेमा, रिट्ठामया पइट्ठाणा, वेरुलियामया, है-यथा-उसके नेम मूल वज्रमय है। प्रतिष्ठान (मूल पाये) खंभा, सुवण्णरुप्पमया फलगा; वइरामया संधी, लोहितक्खमईओ रिष्ट रत्नमय हैं । स्तम्भ वैडूर्यमय हैं। फलक स्वर्ण-रजतमय हैं । सूईओ, णागामणिमया कलेवरा णाणामणिमया कलेवर- संधियाँ वज्रमय हैं। सूचियाँ लोहिताक्ष (रत्न) मय हैं। कलेवर संघाडा, णाणामणिमया रूवा, णाणामणिमया रूवसंघाडा, (मनुष्य शरीर) एवं कलेवरयुग्म (दो मनुष्य शरीर) नाना अंकामया पक्खा, पक्खबाहाओ, जोइरसामया वंसा, वंसक- मणिमय हैं। पक्ष एवं पक्षबाहु अंकरत्नमय हैं । वांस (पृष्ठवंश) वेल्लुपा य, रययामईओ पट्टियाओ, जातरूवमयीओ ओहाड- और बंशकवेल्लुक ज्योतिरस नामक रत्नमय हैं। पट्टिकायें (पृष्ठ णीओ, वइराम पीओ उवरि पुछणीओ सम्वसेए रययामते वंशों के ऊपर की कम्बायें) रजतमय हैं। अवघाटनी (ढकनी) साणं छादणे। जातरूप स्वर्ण की हैं। पोंछनी (पोंछने का उपकरण) बमय है । पद्मवरवेदिका के ऊपर का आच्छादन श्वेत रजतमय है । १६. साणं पउमवरवेइया एगमे गेणं हेम-जालेणं, एगोगेणं गवक्ख- १६. वह पद्मवरवेदिका एक-एक हेमजाल से, एक-एक गवाक्ष जालेगं, एगमेगणं खिखणी-जालेणं, एगमेगेणं घंटा-जालेणं, जाल से, एक-एक किंकिनी (छोटी घंटी) जाल से, एक-एक घंटा एगमेगणं मुत्ता-जालेणं, एगमेगेणं मणिजालेणं, एगमेगेणं जाल से, एक-एक मुक्ताजाल से, एक-एक मणि-जाल से, एक-एक कणग-जालेणं, एगमेगेणं रयण-जालेणं, एगमेगेणं पउमवर- कनकजाल से, एक-एक रत्नजाल से, एक-एक सर्वरत्नमय जालेग, सव्वरयणामएणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता। पद्मवरजाल से सब ओर से अर्थात् चारों ओर से घिरी हुई है। १७. ते णं जाला तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया, णाणा- १७. वे जाल तपनीय (स्वर्णमय) लंबूसक (झूमके) वाले हैं । स्वर्ण मणिरयण विविहहारद्धहारउवसोभितसमुदया ईसि अण्णमण्ण- के पतरे से मंडित हैं। उनके समूह नाना प्रकार के मणिरत्नों से मसंपत्ता पुवावरदाहिण उत्तरागतेहिं वाहि मंदागं मंदागं और विविध प्रकार के हार तथा अर्धहारों से सुशोभित है । एज्जमाणा एज्जमाणा कंपिज्जमाणा कंपिज्जमाणा लंबमाणा वे (लंबूसक) एक-दूसरे से कुछ दूरी पर हैं । पूर्व-पश्चिम-दक्षिण लंबमाणा पझंझमाणा पझंझमाणा सद्दायमाणा सद्दायमाणा और उत्तरदिशा से आये हुए वायु से मन्द-मन्द डोलते हुए, तेणं ओरालेणं मणुण्णेणं कण्णमगणेव्वुत्तिकरेणं सद्दणं सव्वओ कम्पित होते हुए, लटकते हुए, आवाज करते हुए एवं गंजते हुए समंता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा उवसोभे- हैं । उस उदार मनोज्ञ कर्ण एवं मन को आनन्द देने वाले शब्द माणा चिट्ठन्ति । से सब दिशाओं को पूरित करते हुए तथा श्री से अतीव शोभित होते हुए स्थित हैं। १८. तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ से तहि तहिं बहवे १८. उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अनेक अश्वयुगल हय-संघाडा, गय-संघाडा, नर-संघाडा, किण्णर-संघाडा, गजयुगल, नरयुगल, किंनरयुगल, किंपुरुषयुगल, महोरगयूगल, किरिस-संघाडा, महोरग-संघाडा, गंधव-संघाडा, वसह- गंधर्वयुगल, वृषभयुगल बने हैं, जो सवंरत्नमय स्वच्छ हैं-यावत् संघाडा सवरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। -प्रतिरूप हैं। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि हयपंतीओ उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अनेक अश्वपंक्तियाँ तहेव-जाव-पडिरूवाओ। -यावत्-प्रतिरूप हैं। तीसे गं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि हयवीहीओ उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अनेक अश्व वीथियाँ तहेव-जाव-पडिरूवाओ। हैं-यावत् -प्रतिरूप हैं। तीसे गं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि हयमिहुणाई उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अनेक अश्वमिथन तहेव-जाव-पडिरूवाई। हैं-यावत्-प्रतिरूप हैं। तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अनेक पदमलतायें, पउमलयाओ. णागलयाओ. असोगलयाओ, चंपगलयाओ, नागलतायें, अगोकलतायें चंपकलतायें, चत (आम्र) लतायें, वणलयाओ, वासंतीलयाओ, अतिमुतगलयाओ, कुण्डलयाओ, श्यामलतायें हैं जो नित्य कुमुमित रहती हैं, नित्य मकुलित सामलयाओ, गिच्चं कुसुमियाओ, णिच्चं मउलियाओ, गिच्च (कलिकायुक्त) रहती है, नित्य लवयित (पल्लवित) रहती है, Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र १८-२० लवइयाओ, णिच्चं थवइयाओ, णिच्चं गुम्मियाओ, णिच्चं नित्य स्तवकित (गुच्छेयुक्त) रहती है। नित्य गुल्मित (गुल्मयुक्त) जमलियाओ, णिच्चं जुअलियाओ, णिच्चं विणमिणओ, रहती हैं, नित्य यमलित रहती है, नित्य युगलित रहती हैं, नित्य णिच्चं पणमियाओ णिच्चं सुविभत्त पिंडमंजरि वसिगधरीओ विनमित रहती हैं, नित्य प्रणमित रहती है, नित्य सुविभक्त सम्वरयणामईओ अच्छाओ-जाव-पडिरूवाओ।' पिण्डमंजरी रूप अवतंसक धारण करने वाली हैं, सर्वरत्नमय है [तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे (उस पद्मवरवेदिका के अनेक स्थानों पर अक्षत स्वस्तिक अक्खयसोत्थिया पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा-जाव- कहे गये हैं। सब रत्नमय है, स्वच्छ हैं-यावत्-प्रतिरूप हैं ।....). पडिरूवा।] -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२५ पउमवरवेइयाणामस्स हेउ पद्मवरवेदिका के नाम का हेतु१६. ५० से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ--'पउमवरवेइया, पउम- १६. प्र० भगवन् ! पद्मवरवेदिका, पद्मवरवेदिका क्यों कही वरवेइया ? जाती है? उ० गोयमा ! पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि उ०—गौतम ! पद्मवरवेदिका की अनेक वेदिकाओं पर वेदियासु वेदियाबाहासु वेदियासीसफलएसु वेदियापुडंत- वेदिका-पाश्वों पर, वेदिका शीशफलकों पर, दो वेदिकाओं रेसु खंभेसु खंभबाहासु खंभसीसेसु खंभपुडंतरेसु सूईसु के मध्य भागों पर, स्तम्भों पर, स्तम्भ पावों पर, स्तम्भ-- सूईमुहेसु सूईफलएसु सूईपुडतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु मस्तकों पर, दो स्तम्भों के मध्य भागों पर, सूचियों पर, पक्ख पुडतरेसु बहूई उप्पलाइं-जाव-सतसहस्सपत्ताई सूचिमुखों पर, सूचीफलकों पर, दो सूचियों के मध्य भागों पर, सव्वरयणामयाइं अच्छाई-जाव-पडिरूवाई। (वेदिका के) पक्षों (भागों) पर (वेदिका के) पक्षवाहों (विभागों) पर, विभागों के मध्य भागों पर अनेक उत्पन्न-यावत्-शत सहस्र पत्र सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं-यावत्-प्रतिरूप है।' महया महया वासिक्कछत्तसमाणाइं पण्णत्ताइ समणा- आयुष्मान् श्रमणो ! यह वर्षाकाल में बनाई हुई बड़ी-बड़ी उसो ! छतरियों के समान हैं। से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-पउमवरवेइया, गौतम ! इस कारण से पद्मवरवेदिका, पद्मवरवेदिका कही पउमवरवेइया। जाती हैं। पउमवरवेइयाए सासया-ऽसासयत्तं पद्मवरवेदिका शाश्वत और अशाश्वत२०. ५० पउमवरवेइया णं भंते ! कि सासया असासया ? २०. प्र०-भगवन् ! पदमवरवेदिका शाश्वत हैं या अशाश्वत ?' उ० गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया । उ०-गौतम ! कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत है ? प० से केपट्ठणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय सासया सिय प्र०-भगवन् ! किस हेतु से कहा जाता है कि (पद्मवरअसासया।' वेदिका) कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है ? उ० गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया, वण्ण-पज्जवेहिं गंध-पज्ज- उ० --गौतम ! द्रव्यों की अपेक्षा से (पद्मवरवेदिका) शाश्वत वेहि रस-पज्जवेहि फास-पज्जवेहि असासया । है। वर्ण-पर्यायों से, गंध-पर्यायों से, रस-पर्यायों से और स्पर्श पर्यायों से अशाश्वत है। से तेणटुंणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–'सिय सासया, सिय गौतम ! इस कारण से (पद्मवरवेदिका) कथंचित् शाश्वत है असासया।" और कथंचित् अशाश्वत है-ऐसा कहा जाता है ।.... प० पउमवरवेइया णं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ? प्र०-भगवन् ! पद्मवरवेदिका काल की अपेक्षा से कब तक है ? १ " णिचं कुसुमिय-मउलिय-लवइया-पवइय-गुलइय-गुच्छिय-जमलिय-जुअलिय-विण मिअ-पणमिअ-सुविभत्त पिंडमंजरिवडिस गधरीओ" यहाँ समासान्त पाठ भी है। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २०-२३ लिसो उ० गोधमा ! ण कयावि णासि, ण कयावि णत्थि, ण कयावि न भविस्सह । भुवि च भवति य, भविस्सति य, धुवा नियया सासया अक्खया अव्वा अवट्टिया णिच्चा पउमवरवेदिया । -जीवा० प० ३, उ०१, सु० १२५ वणसंडपमाणं२१. ती जगती उहि परबेहयाए - एत्य णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते। देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं जयतीसमए परिषये।" -जीवा० प० ३, उ०१, सु० १२६ वणसंडवण्णओ२२. किन्होमा जानीले मोलोमासे, हरिए हरिओ मासे सीए, सीओोमासे, जि, ोिभासे लिये, तियोमासे णिद्धे, गिद्धोभासे, । किन्हे छाए, नीले, मीलन्छाए हरिए, हरियच्छाए सीए, सीयच्छाए, णिद्वे, गिद्धच्छाए, तिब्वे, तिव्बच्छाए, refseछाए, रम्मे, महामेहणिकुरंबभूए । २३. तेणं पायवा मूलमंतो, कंदमंतो, बंधमंतो, तयामंतो, सालमंतो, बालमंगो, पत्तमंलो, पुष्कमंतो, फलमंतो बीयमंतो अणुपुष्यिसुजातरुल भावपरिणया, एगसंधी, अगसाहत्य साहबिडिमा, अमेयनरवामप्पसारिया पण विउल-बट्ट धा, अपा, अविरतपत्ता, अवाईपपत्ता अगला गिजर पंडुरपत्ता, गव-हरिअ-भिसंतपत्तमारंधयार गिद्धूयजरढ भोरनि उवविणिग्गय – नवतरुणपत्तपल्लव कोमल चलकिसलय मुकुमापाल सोभियबरकुरण सिहरा । 1 गणितानुयोग १२६ - उ० गौतम ! पद्मवरवेदिका कभी नहीं थी – ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है और कभी नहीं रहेगी, ऐसा भी नहीं है । वह सदा थी, है, और रहेगी। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है । वनखण्ड का प्रमाण २१. उसी के ऊपर पदमवरवेदिका के वाह्य प्रदेश में विशाल वनखण्ड कहा गया है। इसका चक्रवाल विष्कम्भ कुछ कम दो योजन का है और उसकी परिधि जगती के सदृश है । १ जंबु-वक्ख ०१, सु० ५ । सूत्र के अन्त में "वणसंडवग्णओ णेयव्वो" संक्षिप्त वाचना की यह सूचना है । वनखण्ड का वर्णन - २२. वह वन कृष्ण है और कृष्ण रूप से अवभासित होता है, यावत् (नीला है, नील रूप से प्रतिभासित होता है, हरा है एवं हरित रूप से इसका प्रतिभास होता है, शीतल है और शीतल स्पर्श रूप से प्रतिभासित होता है, स्निग्ध है और स्नावभास रूप है, तीव्र है और तीव्र रूप से अवभासित-प्रतीत होता है । (वृक्षों की छाया कृष्ण होने से वह बनकृष्ण है, (वृक्षों की) छाया नीली होने से वह वन नीला है, (वृक्षों की ) छाया ही होने से वह वन हरा है, ( वृक्षों की) छाया शीतल होने से वह वन शीतल है, (वृक्षों की) छाया स्निग्ध (गहरी ) होने से वह वन स्निग्ध (गहरा ) है, (वृक्षों की) छाया तीव्र होने से वह वन तीव्र है । विविध वृक्षों की शाखा प्रशाखायें परस्पर में प्रविष्ट होने से सघन छायावाला है, रमणीय है, और जलभार से अवनत हुए. महामेघों के समूह जैसा प्रतीत होता है । २३. इस वनखण्ड के वृक्ष मूल (जड़) वाले हैं, प्रशस्त कन्दवाले हैं, स्कन्धवाले हैं, त्वचा छाल वाले है, युक्त है, प्रवालयुक्त है, पत्र, पुष्प, फल और बीज युक्त है, एवं समस्त दिशा-विदिशाओं में अपनी शाखा प्रशाखाओं द्वारा इस ढंग से फैले हुए हैं कि वर्तुलाकार (गोल) प्रतीत होते हैं। ये सब एक है और अनेक शाखा प्रशाखाओं से जिनके मध्य भाग का विस्तार अधिक है, अनेक पुरुषों के द्वारा मिलकर फैलाये गये अपने व्याम (दोनों बाहू) द्वारा जिसे ग्रहण नहीं कर सकते हैं, ऐसा निविद विस्तीर्ण इनका गोल स्कन्ध है, इनके पत्र छिद्र रहित हैं, अविरल पत्रवाले हैं, इनके पत्रों में अन्तराल नहीं हैं, वायु से अनुपहत पत्रवासे हैं, जो पत्र जीगं-पुराने और सफेद हो जाते हैं उनको वायु द्वारा उड़ाकर अन्यत्र फेंक दिया जाता है, नवीन हरे-हरे पत्र समूह से दैदीप्यमान, घनान्धकार से आच्छादित एवं दर्शनीय है, तथा सुन्दर अंकुरों के अग्रभाग से निरन्तर निकलते हुए नये ताजा पत्तों से और कोमल मनोज्ञ उज्ज्वल कम्पमान किसलयों से एवं सुकुमाल वालों से गोवमान बने रहते हैं । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र २३ -णिच्चं कुसुमिया, णिच्चं मउलिया, णिच्चं लवइया, णिच्चं -ये वृक्ष सदा कुसुम (पुष्प) युक्त रहते हैं, ये वृक्ष सदा मुकुल थवइया, णिच्चं गुलइया, णिच्चं गुच्छिया, णिच्चं जमलिया, (अधखिली कलियों से) युक्त हैं, ये वृक्ष सदा पल्लव (पत्र) युक्त णिच्चं जुअलिया, णिच्चं विणमिआ, णिच्चं पणमिया । हैं, ये वृक्ष सदा स्तबक (फूलों के गुच्छों से) युक्त हैं, ये वृक्ष सदा गुल्म (ऐसे पौधे जिनकी शाखाओं से) युक्त है, ये वृक्ष सदा गुच्छों, (फूलों के समूह से) युक्त है, ये वृक्ष सदा यमलों (जुड़वाँ वृक्षों) से युक्त हैं, ये वृक्ष सदा युगल (दो समान वृक्षों) से युक्त है, ये वृक्ष सदा फलों के भार से झुके हुए रहते हैं ये वृक्ष सदा फलों के भार से अत्यधिक झुके हुए रहते हैं। -णिच्चं कुसुमिय-मउलिअ-लवइअ-थवइअ-गुलइअ-गोच्छिअ- ये वृक्ष सदा कुमुमित-मुकुलित-पल्लवित-स्तबकित- गुल्मितजमलिअ-जुअलिअ-विणमिअ-पणमिअ-सुविभत्तपडिमंजरिव- गुच्छित-यमलित-युगलित विनमित एवं प्रणमित रहते हैं, जिससे डिसयवरा, सुअ-वरहिण-मयणसलाग-कोइल-कोरग-भिंगारग- ये वृक्ष सुविभक्त प्रतिमंजरी रूप अवतसक (आभूषणों) को धारण कोंडलक-जीवंजीवग-गंदीमुह-कविल-पिंगलक्खग-कारंडव- किये रहते हैं, इन वृक्षों पर शुक-मयूर-मदनशालाका-मैना-कोयलचक्कवाय-कलहंस-सारस-अणेगसउणगणविरइअ-सब्दुन्नइआ कुरवक-भिंगारक-कुण्डलक-चकोर-नन्दीमुख-कपिल-कपिजनमहरसरणाइआ, सुरम्मा, सपिडिअ दरिअ भमर-महुअरिपहकर कारण्डक चक्रवाक-कलहंस-सारस आदि अनेक पक्षियों के समूह परिलित-मत्तछप्पय-कुसुमासवलोल-महुरगुमगुमेंत-गुजतदेस- बैठे-बैठे दूर तक सुने जा सकें ऐसे उन्नत मधुरस्वरोपेत ध्वनि से भागा, अभितर पुप्फफला, बाहिरपत्तछन्ना, चहचहाते रहते हैं, इन वृक्षों पर मधु का संचय करने वाले उन्मत्त हुए पिंडीभूत भ्रमरों और भ्रमरियों का समूह बैठा रहता है और मधुपान में लीन होने से मदोन्मत्त पुष्पपराग का पान करने में लंपट षट्पद-भ्रमरों की मधुर गुनगुनाहट से जिनके देशभाग गूंजते रहते हैं, जिनके पुष्प और फल उन्हीं के भीतर छिपे रहते है, और वाहर में पत्रों से आच्छादित रहते हैं। -पुप्फेहि फलेहि य उच्छन्न-पलिच्छन्ना, जीरोअया अकंटया, ये वृक्ष सदैव उत्पन्न होने वाले पुष्पों और फलों से परिव्याप्त साउफला, णाणाविहगुच्छ-गुम्म-मडंवगसोहिया, विचित्तसुह- रहते हैं, ये वृक्ष निरोग-रोगरहित, अकंटक-काँटोंरहित हैं, इनके केउभूया, वावी-पुक्खरिणी-दीहिया-सुनिवेसियरम्मजालधरगा, फल सुस्वाद-मिष्ट स्वाद वाले हैं, अनेक प्रकार के गुच्छों, गुल्मों पिडिमनीहारिम-सुगंधि-सुहसुरभि मणहरं महया च गंधद्धणि और लता आदि के मंडपों से सुशोभित है, इनके ऊपर अनेक मुअंता, सुहसेउकेउबहुला,') अणेग सगड-रह-जाण-जुग्ग- प्रकार की चित्र-विचित्र, सुन्दर ध्वजायें फहराती है, अच्छी तरह सिबिह-संदमाणिआ, पविमोअणा-जाव-पडिरूवा। से जिन्हें सींचने के लिये वाटिकाओं में, पुष्करिणियों में, दीपिकाओं -जीवा०प०३, उ०१, सु० १२६ में सुन्दर जालगृह बने हुए हैं। ये वृक्ष निरन्तर अन्य गंधों से भी विशिष्ट और मनोहर सुगंध को निरन्तर पिंडरूप से छोड़ते रहते है कि जिससे घ्राणेन्द्रिय तृप्त हो जाती है, इनके अलावा क्यारियाँ शुभ हैं और इनके ऊपर जो ध्वजायें लगी है वे भी अनेक रूप वाली है और जिनके नीचे अनेक शकट-गाडे रथ-यान युग्म-शिविका (पालखी) स्यन्दमानिका आदि वाहन ठहरते रहते हैं, स्वच्छ निर्मल -यावत्-प्रतिरूप है। १ जीवाभिगम का पाठ इस प्रकार है.---"किण्हे किण्होभास जाव-अणेगसगड-रह-जाण-जुग्गपरिमोयणे पासातीए सण्हे लण्हे घट्टे मछे नीरए निप्पंके निम्मले निक्कडच्छाए सप्प समिरीए स उज्जोए पासादीए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे । -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ यहाँ “जाव" से सूचित पाठ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्ष० १, सूत्र ५ की टीका से उद्धत किया है। टीकाकार ने यह वनखण्ड वर्णन औपपातिक सूत्र से लिया है। टीकाकार का कथन इस प्रकार है-"वनखण्ड वर्णकः सर्वोप्यत्र प्रथमोपाङ्गतो नेतव्यः । ऊपर जाव से आगे का पाठ जीवाभिगम का नहीं दिया है क्योंकि जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के पाठ से ही अभिप्राय की पूर्ति होती है । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४-२५ तिर्यक् लोक गणितानुयोग १३१ वणसंडस्स समतलो भूमिभागो वनखंड का समतल भूमि भाग२४. तस्स णं वणसंडस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते २४. इस वनखण्ड का अन्तर्वर्ती भूमिभाग मुरज नामक वाद्य पर से जहा नामए-आलिंगपुक्खरेइ वा, मुइगपुक्खरेइ वा, मंढे हुए चर्म जैसा समतल है, अथवा मृदंग नामक वाद्य पर मंढे सरतलेइ वा, करतलेइ वा, आयंसमंडलेइ वा, चंदमंडलेइ वा, हुए चर्म जैसा समतल है, अथवा सरोवर के ऊपर के तलभाग सूरमंडलेइ वा, उरभचम्मेइ वा, उसभचम्मेइ वा, वराह- जैसा सम है, अथवा करतल (हथेली) के समान है अथवा दर्पण चम्मेइ वा, सोहचम्मेइ वा, वग्घचम्मेह वा, विगचम्मेइ वा, के समान है, अथवा चंद्रमंडल के समान है, अथवा सूर्यमंडल के दीवितचम्मेइ वा, अणेग संकुकीलए सहस्सवितते । समान है, अथवा अनेक तीक्ष्ण नुकीली हजारों कीलों को लगाकर आवड-पच्चावड-सेढी-पसेढी-सोत्थिय-सोवत्थिय-पूसमाण-वड- फैलाये गये उरभ्र (घंटा) चर्म के समान है, अथवा वृषभचर्म के माण-मच्छंडक-मकरंडक-जार मार फुल्लावलि-पउमपत्तसागर समान है, अथवा बराह (सुअर) के चमड़े के समान है, अथवा तरंग, वासंतिलय-पउमलय-भत्तिचिहि सच्छाएहि समिरी- सिंह के चर्म के समान है, अथवा व्याघ्र चर्म के समान है, अथवा एहि सउज्जोएहि जाणाविह पंचवणेहि तणेहि य मणिहि य वृक (भेड़िया) के चर्म के समान है, अथवा दीपडा (चीता) के उवसोहिए। तं जहा-किण्हेहि-जाव-सुक्किलेहि। चर्म समान है, तथा आवर्त-प्रत्यावर्त, श्रेणी-प्रश्रेणी, स्वस्तिक -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२६ सौवस्तिक, पुष्प, वर्धमानक (सकोरा), मत्स्याडक, मकरांडक, जार-मार आदि रचनाओं से युक्त एवं पुष्पावलि पद्मपत्र, सागर तरंग, बासंतीलता आदि के पृथक्-पृथक् चित्रों से शोभित सुन्दर कांति से कांतिमान किरणजाल सहित, उद्योत से युक्त, पंचवर्ण वाले तृणों और नाना प्रकार की मणियों से उपशोभित है, यथा कृष्णवर्ण-यावत्-शुक्लवर्ण है। किण्हतण-मणीण इट्टयरे किण्हवण्णे कृष्णतृण-मणियों का इष्टतर कृष्णवर्ण२५. ५० तत्थ णं जे ते किण्हा तणायमणी य, तेसि गं भंते ! २५. प्र० हे भगवन् ! उनमें जो कृष्णवर्णवाले तृण और मणियाँ अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहा नामए- है, उनका वर्णविन्यास क्या इस प्रकार का कहा गया है ? यथाजीमतेति वा, अंजणेति वा, खंजणेति वा, कज्जलेति वा, मेघों की कृष्ण घटाओं के समान, अथवा अंजन के समान अथवा मसीह वा, मसीगुलियाइ वा, गवलेइ वा, गवलगुलियाइ खंजन के समान अथवा काजल के समान अथवा मसि (स्याही) वा, भमरेति वा, भमरावलियाति वा, भमर पत्तगय- के समान अथवा मसिगुटिका के समान अथवा गवल (भैसे का सारेति वा, जंबुफलेति वा, अद्दारिद्रुति वा, परिपुट्टएति सींग) के समान, अथवा गवल गुटिका (भैस के सींग का अंतर्वर्ती वा, गएति वा, गयकलमेति वा, कण्हसप्पेइ वा, कण्ह- भाग) के समान अथवा भ्रमर के समान अथवा भ्रमर पंक्ति केसरेइ वा, आगासथिग्गलेति वा, कण्हासोएति वा, (समूह) के समान अथवा भ्रमर के पंखों के अन्दर के भाग के कण्हकणवीरेइ वा, कण्ह बंधुजीवएति वा-भवे एयारवे समान अथवा जम्बूफल (जामुन) के समान अथवा कोमल काक सिया? पक्षी के समान अथवा कोयल के समान अथवा गज (हाथी) के समान अथवा गज-कलभ (हाथी का बच्चा) के समान अथवा कृष्ण सर्प के समान अथवा कृष्ण केशर (वकुलवृक्ष) के समान अथवा आकाश थिग्गल (मेघरहित-शरदऋतु का आकाश खंड) के समान अथवा कृष्ण अशोक वृक्ष के समान अथवा कृष्ण कनेर के समान अथवा काले बन्धुजीवक के समान- तो क्या पूर्वोक्त जीमूत आदि के जैसा होता है ? उ० गोयमा ! णो तिण? सम?, तेसि णं कण्हाणं तणाणं उ०-हे गौतम ! उनका कृष्णत्व बतलाने के लिये यह अर्थ मणीण य इत्तो इद्वत्तराए चेव, कंततराए चेव, पिययराए समर्थ नहीं है किन्तु ये तृण और मणि उनसे भी अधिक कृष्ण चेव, मणण्णतराए चेव, मणामतराए चेव, वण्णेणं वर्ण वाले है तथा ये देखने में इष्टतर ही हैं, कंततर (अत्यन्त पण्णत्ते । कमनीय) ही है, मनोज्ञतर ही है और मणामतर (मनोज्ञ से भी -जीवा०प० ३, ७० १, सु० १२६ अधिक मनोहर) ही है, Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र २६-२७ नीलतण-मणीणं इट्रयरे नीलवणे नील तृण-मणियों का इष्टतर नीलवर्ण२६. ५० तत्थ णं जे ते णीलगा तणा य मणी य तेसि णं भते ! २६. प्र० हे भगवन् ! उनमें जो नीलवर्ण वाले तृण और मणि हैं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते-से जहा नामए-भिगेइ उनका वर्णविन्यास क्या इस प्रकार का बतलाया है ? जैसे कि भृग वा, भिंगपत्तेति वा, चासेति वा, चासपिच्छेति वा, के समान अथवा भृगपक्ष के समान चाषपक्षी के समान अथवा सुएति वा, सुर्यापच्छेति वा, गोलोति वा, णीलीभेए ति अथवा चाषपक्षी के पंख के समान अथवा शुक (तोता) पक्षी के वा, णीली गुलियाति वा, सामाएति वा,उच्चतएति वा, समान अथवा शुक के पंख के समान अथवा नीली के समान अथवा वणराईइ वा, हलहर-वसणेइ वा, मोरग्गीवाति वा, पारे- नीली भेद के समान अथवा नीली गुटिका के समान अथवा वयगीवाति वा, अयसि-कुसुमेति वा, अंजगकेसिगा कुसु- श्यामक धान्य के समान अथवा उच्चंतग-दन्तराग के समान मेति वा, णोलुप्पलेति वा, णीलासोएति वा, णीलकणवीरे अथवा वनराजि के समान अथवा हलधर बलभद्र के बस्त्रों के ति वा, गोलबंधुजोवए ति वा, भवेएया रूवे सिया ? समान अथवा मयूरग्रीवा के समान अथवा कपोत (कबूतर) की ग्रीवा के समान अथवा अलसी के पूष्प के समान अथवा अंजन केशिका के कुसुम के समान अथवा नील कमल के समान अथवा नील अशोक वृक्ष के समान अथवा नीले कनेर के समान अथवा नीले बन्धुजीवक के समान-तो क्या उनका रूप ऐसा होता है ? उ० गोयमा ! नो तिण? सम8, तेसि णं णीलगाणं तणाणं उ०-हे गौतम ! ऐसा अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् उक्त मणीण य एत्तो इटुतराए चैव-जाव-मणामतराए चैव पदार्थों से भी वे तृण और मणि अधिक नीले है, उन नीले तृणों वण्णणं पण्णत्ते। और मणियों का नीलवर्ण इनसे भी अधिक इष्टतर है-यावत्-जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ मणामतर वर्णवाला कहा है। लोहिततण-मणीणं इट्ठयरे लोहियवण्णे रक्त तृण-मणियों का इष्टतर रक्तवर्ण२७. प० तत्थ णं जे ते लोहितगा तणा य मणी य, तेसि णं भते ! २७. प्र०-हे भगवन् ! वहाँ जो लोहित-लाल वर्णवाले तृण और अयमेयारूवे वण्णावासे एण्णत्ते, से जहा णामए-ससक- मणि बतलाये हैं, उनका वर्णविन्यास क्या इस प्रकार का कहा रुहिरे ति वा, उरभ-रुहिरे ति वा, णर-रुहिरे ति बा, गया है ? यथा-साशक-(खरगोश) के रक्त के समान अथवा वराह-रुहिरे ति वा, महिस-रुहिरे ति वा, बालिंद गोवए उरभ्र (भेड) के खून के समान अथवा मनुष्य के रक्त के समान ति वा, बालदिवाकरे ति वा, संझम्भ-रागेति वा, गुजद्ध- अथवा सूअर के रुधिर के समान, अथवा महिष (भैसा) के रक्त रागे ति वा, जातिहिंगुलुएति वा, सिलप्पवाले ति वा, समान, अथवा इन्द्रगोप कीट के समान अथवा प्रातःकालीन पवालंकुरे ति वा, लोहितक्ख मणीति वा, लक्खारसए बालदिवाकर (सूर्य) के समान अथवा संध्याकालीन आकाश के ति वा, किमिरागेइ वा, रत्तकंबलेइ वा, चीणपिट्ठरासीइ रंग के समान अथवा गुजा के आधे भाग के वर्ण समान अथवा वा, जासुयण-कुसुमेइ वा, किंसुअ-कुसुमेइ वा, पालियाइ- हिंगलुक के समान, अथवा शिलाप्रबाल (मूंगा) के समान अथवा कुसुमेइ वा, रत्तुप्पलेति रत्तासोगेति वा, रत्तकणयारेति प्रवाल (कोंपल) के अंकुर के समान अथवा लोहिताक्षमणि के वा, रत्तबंधुजीवेइ वा भवे एयारूवे सिया ? समान अथवा लाक्षा (लाख) रस के समान अथवा कृमिराग के समान अथवा रक्त कंबल के समान, अथवा चीनपिष्टराशि चीना नामक धान्य विशेष की पीठी-आटा के समान, अथवा जपा-पुष्प के समान, अथवा पलाश-पुष्प के समान, अथवा पारिजात-पुष्प के समान, अथवा रक्तोत्पल (लालकमल) के समान, अथवा रक्ताशोक के समान अथवा रक्त कनेर के समान अथवा रक्त बन्धुजीवक के समान-तो क्या उनका ऐसा ही रूप होता है ? उ० गोयमा ! नो तिण? सम?, तेसि गं लोहियगाणं उ०-हे गौतम ! उनका वर्णन कहने में यह अर्थ समर्थ तणाण य, मणीण य एत्तो इट्टतराए चैव-जाव-मणाम- नहीं है, क्योंकि उन लोहित रक्त वर्ण वाले तृणों और मणियों तराए चेव वणेणं पण्णत्ते । का इनसे भी अधिक इष्टतर-यावत्-मणामतर वर्ण बतलाया --जीवा०प०३, उ०१, सु०१२६ गया है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २८-२६ तिर्थ लोक हालिद्दतण मणी इयरे हालिवणे 1 · २८. ५० तत्थ णं जे ते हालिगा तथा य मणी य तेसि णं भंते ! अयमेयारूवे वण्णा वासे पण्णत्ते से जहा णामए- चंपए वा, चंपगच्छल्लीइ वा चंपयभेएड वा, [ चंपगच्छेएइ वा ] हालिद्दाइ वा हालिद्दर्भेएड वा हालिद्दगुलियाइ वा, हरियालेइ वा, हरियालभेएइ वा, हरियालगुलियाइ वा, चिउरेति वा चिउरंगरागेति वा वरकणए ति वा, बरकणग-निधसेति वा, सुबनसिपिए ति या, वरपुरिसबसति वा सहलाई सुमेति वा चंपक कुमुमेह वा, कुहंडिया-कुसुमेइ वा, कोरंटक- कुसुमेइ वा, तडउडाकुसुमेइ वा घोसाडिया - कुसुमेइ वा सुवन्नजूहिया - कुसुमेइ वा सुहिरणिया कुसुमे वा, बीजय-कुसुमेद वा पोया सोएसिया, पीय-कणवीरे तिवा पी-बंधुजीए ति वा भवे एयारूवे सिया ? उ० गोषमा ! नो इष्टु सम ते णं हालिा तथा व मणी य एत्तोsट्टतराए चेव जाव-मणामतराए चैव वण्णेज पण्णत्ते । - जीवा० प० ३, उ० १, सु० १२६ सुविकल्लतण मणीनं इयरे सुविकल्ले वण्णे२६. प० तत्थ णं जे ते सुक्किलगा तथा य मणी य तेसि णं भंते । अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहा णामए- अंके ति वा, संखेति वा, चंदेति वा कुन्दे ति वा, कुसुमेति वा, दगरए ति वा, दहिघणेइ वा, खीरेइ वा, खीरपूरेइ वा, हंसावलीति वा, कोंचावलीति वा, हारावलीति वा, बलायावतीति वा, चंदावलीति वा, सारइअबला हइएति बा, तोवरूप वा सालिपरासीति वा गणितानुयोग 1 पीत तृणमणियों का इष्टतर पीतवर्ण २८. प्र० - हे भगवन् ! वहाँ जो हारिद्र वर्ण के तृण और मणि हैं क्या उनका वर्णविन्यास इस प्रकार का कहा गया है ? जैसे- सुवर्ण चम्पक के समान अथवा सुवर्ण चम्पक वृक्ष की छाल के समान अथवा चम्पक खण्ड के समान, अथवा (सुवर्ण चम्पक वृक्ष के समान) अथवा हरिद्रा (हल्दी) के समान, अथवा हरिद्राभेद (खण्ड-टुकड़ा) के समान, अथवा हरिद्रा की गुलिका ( अन्दर का भाग या गोली) के समान अथवा हरताल (खनिज) के समान अथवा हरतालभेद (खण्ड) के समान अथवा हरताल की गोली के समान अथवा चिकुर (गंध द्रव्य विशेष) के समान अथवा चिकुर के रंग से रंगे हुए वस्त्र के समान, अथवा श्रेष्ठ स्वर्ण (सोना) धातु के समान, अथवा कसौटी पर खींची गई श्रेष्ठ स्वर्णरेखा के समान अथवा सुवर्णशिल्पिक के समान अववा वर पुरुष (कृष्ण वासुदेव) के वस्त्र के समान अथवा शल्यकी पुष्प के समान अथवा चम्पक कुसुम के समान अथवा कुष्मांड पुष्प के समान अथवा कोरंटक पुष्प के समान, अथवा तड़बड़ा के पुष्प के समान, अथवा घोषातिकी (चिरायता) के फूल के समान, अथवा सुवर्ण जुही के पुष्प के समान, अथवा सुहिद पियका के पुष्प के समान, बीजक (बीजा नामक वृक्ष ) पुष्प के समान, अथवा पीलाशोक वृक्ष के समान अथवा पीतवनेर के समान, अथवा पीत बन्धुजीवक के समान - तो क्या उनका ऐसा रूप (वर्ण) होता है ? १३३ उ०- हे गौतम! इनका वर्णन करने में यह अर्थ समर्थ नहीं है, वे हारिद्र वर्ण के तृण और मणि इनसे भी इष्टतर- यावत् - मणामतर वर्ण वाले कहे गये हैं । शुक्ल तृण मणियों का इष्टतर शुक्ल वर्ण - २६. प्र० हे भगवन् ! इन तृणों और मणियों के बीच जो शुक्लवर्ण के तृण और मणि है, इनका वर्ण विन्यास क्या इस प्रकार का कहा गया है ? यथा अंकरत्न के समान है, अथवा शंख के समान है, अथवा चन्द्रमा के समान है, अथवा कुन्दपुष्प के समान है, अथवा कुसुम के समान है, अथवा उदकरज (बूंद) के समान है, अथवा दधिधन ( जमा हुआ दही) के समान है, अथवा क्षीर (दूध) के समान है, अथवा क्षीर पूर ( दूध का फेन) के समान है, अथवा हंस पंक्ति के समान हैं, अथवा क्रौंच पक्षियों की पंक्ति के समान है, अथवा (मुक्ता ) हार की पंक्ति के समान है, अथवा बलावली (रजत निर्मित कंकण) के समान है, अथवा चन्द्रावली के समान है, अथवा शरदऋतु की मेघ पंक्ति के समान है, अथवा अग्नि से तपाकर राख आदि से माँजे गये रजत पट् के समान है, अथवा चावल की चूर्णराशि के समान है । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र २६-३१ -कुन्द-पुप्फरासोति वा, कुमुयरासीति वा, सुक्कछिवाडीति –अथवा कुन्द-पुष्प की राशि के समान है, अथवा कुसुमराशि वा, पेहमिजाति वा, बिसेति वा, मिणालिया ति वा, के समान है, अथवा सूखी हुई सेम की फली के समान है, अथवा गयदंतेति वा, लवंगदलेति वा, पोंडरोयवलेति वा, सिंदु- मयूर पिच्छी के मध्यभाग के समान है, अथवा मृणाल (कमलनाल) वारमल्लदामेइ वा, सेतासोए ति वा, सेय-कणवीरेति के समान है, अथवा कमलनाल के तंतुओं के समान है, अथवा वा, सेयबंधुजीएइ वा, भवे एयासवे सिया ? गजरत्न के समान है, लोंग के वृक्ष के पत्ते के समान है अथवा श्वेत कमल की पंखुरी के समान है, अथवा सिन्दुवार पुष्पों की माला के समान है, अथवा श्वेत अशोकवृक्ष के समान है, अथवा श्वेत कनेर के समान है, अथवा श्वेतबन्धुजीवक के समान है-तो क्या ऐसा श्वेत रूप उन तृणों और मणियों का होता है ? उ० गोयमा ! नो इण? सम? । तेसि णं सुक्किल्लाणं तणाणं उ०-हे गौतम ! यह कथन इनका रूप वर्णन करने में मणीण य एत्तो इद्वत्तराए चेव-जाव-मणामतराए चेव समर्थ नहीं है, वे शुक्ल तृण और मणि इनसे भी इष्टतर-यावत् वणेणं पण्णत्ते। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ मणामतर वर्ण वाले कहे गये हैं। तण-मणीणं इठ्ठयरे गंधे तृण-मणियों का इष्टतर गंध ३०. ५० तत्थ णं जे ते तणाय मणीय तेसि णं भंते ! केरिसए ३०. प्र. हे भगवन् ! वहाँ जो तृण और मणि हैं उनका कैसा गंधे पण्णत्ते ? से जहा णामए-कोट्ठ-पुडाण वा, पत्त- गंध कहा गया है ? वह इन नाम वाले पदार्थों की गंध जैसा हैपुडाण वा, चोय-पुडाण वा, तगर-पुडाण वा, एला-पुडाण कोष्टगंध द्रव्यों के पुटों (पुड़ियाँ) जैसा है, अथवा गंध पत्रपुटों वा, किरिमेरि-पुडाण वा, चंदण-पुडाण वा, कुंकुम-पुडाण जैसा है, अथवा तगर पत्रपुटों जैसा है, अथवा एला (इलायची) वा, उसीर-पुडाण वा, चंपग-पुडाण वा, मरुयग-पुडाण पुटों जैसा है, अथवा अमलतास के पुटों जैसा है, अथवा चन्दन वा, दमणग-पुडाण वा, जाति-पुडाण वा, जूहिया-पुडाण पुटों जैसा है, अथवा कुकुम पुटों जैसा है, अथवा इसीर (खश) वा, मल्लिय-पुडाण वा, णोमालिय-पुडाण वा, वासंतिय- पुटों जैसा है, अथवा चंपक पुटों जैसा है, अथवा मरुवा पुटों जैसा पुडाण वा, केअइ-पुडाण वा, कप्पूर-पुडाण वा, अणु- है, अथवा जूही पुटों जैसा है, अथवा मल्लिका (मोगरा) पुटों वायंसि उभिज्जमाणाण वा, णिन्भिज्जमाणाण वा, जैसा है, अथवा नवमल्लिका पुटों जैसा है, अथवा गंधवासन्ती कोट्ठज्जमाणाण वा, रुविज्जमाणाण वा, उक्किरिज्ज- लता के पुष्प पुटों के समान है, अथवा केतकी (केवडा) पुटों जैसा माणाण वा, विकिरिज्जमाणाण वा, परिभुज्जमाणाण है, अथवा कपूर पुटों जैसा है, और इन सब पुटों की गंध अनुकूल वा, भंडाओ भंड साहरिज्जमाणाणं ओराला मणुण्णा, वायु के चलने से चारों ओर फैल रही हो, ये सब पुट तोड़े जा घाण-मणणिव्वुतिकरा सवओ समंता गंधा अभिणिस्स- रहे हों, कूटे जा रहे हों, टुकड़े किये जा रहे हों, इधर-उधर वंति-भवे एयारूवे सिया ? उड़ाये जा रहे हों, बिखेरे जा रहे हों, उपभोक्ताओं द्वारा उपभोग किये जा रहे हों, एक बर्तन से दूसरे बर्तन में उडेले जा रहे हों, तब इनकी गंध बहुत अधिक व्यापक रूप में फैलती है, और मनोनुकूल होती है, घ्राण और मन को शांतिदायक होती है, और इस प्रकार से वह गंध चारों दिशाओं में सब ओर अच्छी भरह फैल जाती है- तो क्या उनकी गंध इस प्रकार की होती है ? उ० गोयमा ! णो इण8 सम? । तेसि गं तणाण य मणीण उ०-हे गौतम ! यह अर्थ उस गंध का वर्णन करने में समर्थ य एत्तो उ इट्टतराए चेव-जाव-मणामतराए चेव गंधे नहीं है क्योंकि इन तृणों और मणियों की गंध इनसे भी इष्टतर पण्णते। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ -यावत्-मणामतर कही गई है। तण-मणीण इयरे फासे तृण-मणियों का इष्टतर स्पर्श३१. ५० तत्थ पं जे ते तणा य मणी य तेसि णं भंते ! केरिसए ३१. प्र०-हे भगवन् ! वहाँ जो तृण और मणि हैं, उनका स्पर्श फासे पण्णते? से जहा णामए-आईणे ति वा, रूए कैसा कहा गया है ? क्या उनका स्पर्श इस प्रकार का कहा है Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३१-३२ तिर्यक् लोक गणितानुयोग १३५ ति वा, बूरे ति वा, गवणीतेति वा, हंसगम्भतूलीति वा, आजिनक (चर्ममय वस्त्र) के जैसा होता है, अथवा रुई के जैसा सिरीसकुसुमणिचतेति वा, बालकुमुदपत्तरासीतिवा,- होता है, अथवा बूर नामक वनस्पति जैसा होता है, अथवा भवे एयारूवे सिया ? नवनीत जैसा होता है, अथवा हंसगर्भतुलिका जैसा होता है, अथवा शिरीष पुष्पसमूह जैसा होता है, अथवा वालकुमुद पत्र के राशि (समूह) जैसा होता है तो क्या उन तृणों और मणियों का स्पर्श इस प्रकार का होता है ? । उ० गोयमा ! णो इण8 सम? । तेसि णं तणाण य मणीण उ०-हे गौतम ! यह अर्थ उनके स्पर्श का वर्णन करने में य एतो इत्तराए चेव-जाव-मणामतराए चेव फासे समर्थ नहीं है, उन तृणों और मणियों का स्पर्श तो इनसे भी पण्णते। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ इष्टतर-यावत्-मणामतर कहा है। तण-मणोणं इठ्ठयरे सद्दे तृण-मणियों का इष्टतर शब्द३२. ५० तत्थ णं जे ते तणा य मणी य तेसि णं भंते ! पुब्वावर- ३२. हे भगवन् ! वहाँ जो तृण और मणि है, वे जब पूर्व-पश्चिम दाहिण उत्तरागतेहि वाएहि मंदायं मंदायं एइयाणं, दक्षिण और उत्तर दिशाओं से बहने वाली वायु से मंद-मंद रूप वेइयाणं, कंपियाणं, खोभियाणं, चालियाणं, फंदियाणं, से कंपित किये जाते हैं, विशेष रूप में कंपित किये जाते हैं, घट्टियाणं, उदीरियाणं केरिसए सद्दे पण्णते ? बारंबार कंपित किये जाते हैं, क्षुभित किये जाते हैं, चलाये जाते हैं, स्पंदित किये जाते हैं, परस्पर संघर्षित किये जाते हैं, उदीरित किये जाते हैं, तब इनकी कैसी शब्द ध्वनि कही गई है ? से जहा णामए-सिवियाए वा, संदमाणियाए वा, रहव- क्या वह इन नाम वाले पदार्थों से होने वाली शब्द ध्वनि जैसी रस्स वा सछत्तस्स सज्झयस्स सघंटयस्स सतोरणवरस्स, होती है । यथा-शिविका (पालखी) से होने वाली ध्वनि जैसी सणंदिघोसस्स सखिखिणिहेमजालपेरंतपरिखित्तस्स हेमव- अथवा स्पन्दमानिका (एक प्रकार की पालखी विशेष) से होने यचित्त-विचित्त-तिणिस कणग-निउजुस-दारुयागस्स सुप्पि- वाली ध्वनि जैसी अथवा जो छत्र से युक्त हो, ध्वजा से युक्त हो, णिद्धारकमंडलधुरागस्स कालायस-सुकय-णेमिजंतकम्मस्स- दोनों बाजुओं में लटकते हुए घंटों से युक्त हो, उत्तम तोरण से युक्त हो, नन्दिघोष आदि तुणों (मह से बजाये जाने वाले वाद्य विशेष) के निनाद से युक्त हो, क्षुद्र घटिकाओं से युक्त सुवर्ण निर्मित मालाओं द्वारा जो सब ओर से व्याप्त हो, चित्रविचित्र मनोहारी चित्रों से युक्त एक सुवर्ण खचित ऐसे हिमवान् पर्वत के तिनिशकाष्ठ से जो निर्मित हो, जिसके पट्टियों में आंटे बहुत ही अच्छी तरह से लगे हो, और जिसकी धुरा मजबूत हो, जिसके चक्र (पट्टीये) जमीन की रगड़ से घिस न जायें और चक्र के पटिया अलग-अलग न हो जाये, इस अभिप्राय से पट्टियों पर लोहे की दाँत चढाई गई है।--आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलणर-छय-सारहि-सुसं- -गुणसम्पन्न, जातिमन्त श्रेष्ठ घोड़े जिसमें जुते हुए हैं, अश्व परिगहितस्स सरस्सय-बत्तीस-तोरण-परिमंडितस्स सकं- संचालन में कुशल और दक्ष सारथि से जो युक्त हो, जिनमें सौ-सौ कडडिसगस्स, सचावसरपहरणावरण-हरियस्स जोह बाण हो ऐसे बत्तीस तूणीरों (भाथों) से युक्त हो, जिसका शिखर जुद्धस्स रायंगणंसि बा, अंतेउरंसि वा, रम्मंसि वा, भाग कवच (बस्तर) से आच्छादित हो, धनुषसहित बाणों और मणिकोट्टिमतलंसि अभिक्खणं अभिक्खणं अभिघट्टिज्ज• कुन्त-भाले आदि प्रहरणों एवं कवच आदि आयुधों से जो परिमाणस्स वा, णियट्टिज्जमाणस्स वा, जे उराला मणुण्णा पूर्ण हो, योद्धाओं के युद्ध के निमित्त जो सजाया गया हो और जो कण्ण-मणणिन्तुतिकरा सवओ समंता सद्दा अभिणिस्स• राजप्रांगण एवं अन्तःपुर की मणियों से खचित भूमि में बारंवार वंति-भवे एयारवे सिया ? वेग से आता-जाता हो ऐसे श्रेष्ठ रथ से उस समय जो उदार, मनोज्ञ तथा कर्ण एवं मन को तृप्तिकारक सब ओर से उस समय निकलने वाली ध्वनि जैसी है तो क्या ऐसी ध्वनि उन तृणों और मणियों से निकलती है ? Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र ३२-३४ उ० गोयमा ! नो इण? सम? । उ०-हे गौतम ! उस ध्वनि का वर्णन करने में यह अर्थ समर्थ नहीं है। ३३. ५० से जहा णामए-वेयालियाए वीणाए उत्तरमंदा मुच्छि- ३३. प्र०-(अथवा हे भगवन् ! क्या उनकी ध्वनि इस प्रकार ताए अंके सुपतिट्ठियाए कुसलनर नारि संपग्गहिताए की होती है ? जिस प्रकार उतर-मंदा मूर्च्छना से युक्त, अंक चंदणसारकाण पडिघट्टिताए पदोसपच्चूस कालसमयसि (गोद) में अच्छी तरह से रखी गई, वीणावादन में कुशल नर मंदं मंदं एइयाए वेइयाए खोभियाए उदीरियाए ओराला अथवा नारी द्वारा संस्पशित-बजाई जा रही, श्रेष्ठ चन्दन के मणुण्णा कण्णमणणि व्युतिकरा सवओ समंता सद्दा अभि- कोण (वीणा बजाने का दंड-लकड़ी) से संघर्षित (ऐसी वेतालिकी णिस्सर्वति भवे एयारूवे सिया ? वीणा को जब) प्रातःकाल अथवा सायंकाल मंद-मंद स्वर से बजाया जाता है, उच्च स्वर में बजाया जाता है, संक्षुभित किया जाता है, उदिरित-प्रेरित किया जाता है, तब उससे जो उदार, मनोज्ञ, कर्ण और मन को मोहित करने वाला घोष सब ओर से निकलता है तो क्या ऐसी शब्द ध्वनि उन तृणों और मणियों से निकलती है ? उ० गोयमा ! णो तिण? सम?। उ०-हे गौतम ! यह अर्थ भी उसका वर्णन करने में समर्थ नहीं है। ३४. ५० से जहा गामए-किण्णराण वा, किंपुरिसाण वा, महो- ३४. प्र०-(अथवा हे भगवन ! उनका शब्दघोष क्या इनके जैसा रगाण वा, गंधव्वाण वा, भद्दसालवणगयाण वा, नंदण- है ?) यथा-जिस प्रकार किन्नर, किंपुरुष, महोरम और गंधर्व वणगयाण वा, सोमणसवणगयाण वा, पंडगवणगयाण वा, भद्रसालवन में अथवा नन्दनवन में अथवा सोमनसवन में अथवा हिमवंत-मलय-मंदर-गिरिगुह समण्णागयाण वा, एगतो. पण्डक वन में अथवा हिमवन पर्वत की मलय पर्वत की, गुफाओं सहिताणं संमुहागयाणं, समुविट्ठाणं; संनिविट्ठाणं, पमुदिय- में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक-दूसरे के समक्ष पक्कोलियाणं, गीयरतिगंधव-हरिसियमणाणं गेज्ज पज्जं बैठे हों, समुचित रूप से बैठे हों, सम संस्थान से बैठे हों, प्रमोदकत्थं गेयं पयविद्धं पायविद्धं उक्खितयं पवत्तय मंदायं भाव सहित होकर आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करने में मग्न हो रहे हों, रोचियावसाणं सत्तसर समण्णागय अटरससुसंपउत्तं छद्दोस- गीत में जिनकी रति हो, गंधर्व नाट्य आदि करने से जिनका मन विप्पमुक्कं एकारसगुणालंकारं अट्ठगुणोववेयं गुजंतवंस हर्षित हो रहा हो, (गद्य, पद्य, कत्थ-कथात्मक गेय, पदबिद्ध, कुहरोवगूढं रत्तं तिट्ठाण-करणसुद्धं मधुरं समं सुललियं पादबिद्ध, उत्क्षिप्त, प्रवर्तक, मंद, रोचित, अवसान वाले, सप्त सकुहर गुजंतवंसततीसुसंपउत्तं, तालसुसंपउत्तं तालसमं स्वरोपेत, शृङ्गार आदि) आठ रसों से युक्त, छह दोषों से [रयसुसंपउत्तं गहसुसंपउत्त] मणोहरं मउय-रिभिय-पय- विमुक्त, ग्यारह गुणों से अलंकृत, आठ गुणों से उपेत, गुंजायमान संचारं सुरभि सुति वरचारुरूवं दिव्वं नट्ट सज्जं गेयं बांसुरी की मधुर ध्वनि से युक्त, राग-रागिनी से अनुरक्त, पगीयाणं-भवे एयारूवे सिया ? त्रिस्थानकरण (वक्षस्थल, कंठ और मस्तिष्क) से शुद्ध, मधुर, समताल और स्वरवाले, सुललित, सस्वर, गूंजती हुई बांसुरी और तंत्री की ध्वनि से बद्ध, समताल के अनुरूप, हस्तताल से सुसंप्रयुक्त (रवमधुर गुज से संयुक्त, गह-तल्लीनता से व्याप्त) मनोहर, मृदु-निर्मित स्वरानुसार पद संचार करने वाले (पैरों में थिरकन पैदा करने वाले), सुरभि (श्रोताओं को आकर्षित करने वाले), सुष्टु प्रकार से अंग प्रत्यंगों को नत करने वाले, श्रेष्ठ सुन्दर रूप वाले, दिव्य नाट्य, षड्ज (स्वर विशेष से युक्त) गीत को गाने वालों के स्वरों जैसा होता है ? उ० हंता, गोचमा! एवं भूए सिया। हे गौतम ! हाँ, उनके शब्द स्वर इसी प्रकार के होते हैं । -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२६ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३५.३६ तिर्यक् लोक गणितानुयोग १३७ वणसंडे पडिरूवाओ वावीआईओ वनखण्ड में मनोहर बावड़ियां आदि३५. तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे खुड्डा ३५. उस वनखण्ड में जगह-जगह पर अनेक छोटी-छोटी वापिकायें, खुड्डियाओ, वावीओ, पुक्खरिणीओ, गुंजालियाओ, दोहि- पुष्करिणियां, गुजालिकायें (टेड़े-मेढे आकार-वक्र आकार वाली याओ, सराओ, सरपंतियाओ, सरसरपंतियाओ, बिलपंति- वापिकायें) दीपिकायें (झरने वाली वापिकायें) सरोवर, सरः याओ, अच्छाओ सहाओ रययामयकूलाओ समतीराओ पंक्तियाँ, सर-सर पंक्तियाँ, कूप पंक्तियाँ हैं। जो स्वच्छ, स्फटिक वयरामयपासाणाओ तवणिज्जमयतलाओ वेरुलिय-मणि- की तरह चिकने प्रदेश वाली है, रत्नमय तटों वाली है, समान फालिय-पडलपच्चोयडाओ णवणीयतलाओ सुवण्णसुज्झ-(ब्भ) तीर-किनारों वाली है, वज्ररत्नमय पाषाण-पत्थरों वाली है, रययमणिवालुयाओ सुहोयारा सु उत्तराओ गाणामणि-तित्थ- इनका तल भाग तपनीय सुवर्ण का बना हुआ है । तट के समीपसुबद्धाओ चारु (चउ) क्कोणाओ, समतीराओ आणुपुरव- वर्ती अत्युन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि और स्फटिकमणि से बने हुए हैं। सुजाय-वप्प-गंभीर-सीयजलाओ संछण्ण पत्त-भिस-मुणालाओ, नवनीत के समान इनके सुकोमल तल है। इनमें जो बालुका है, बहुउप्पल-कुमुय-णलिण-सुभग-सोगंधित-पोंडरीय-सयपत्त-सह- वह सुवर्ण शुद्ध रजत-चाँदी और मणियों से युक्त और उनके स्सपत्त-फुल्लकेसरोवइयाओ, छप्पय-परिभुज्जमाणकमलाओ, समान कांति वाली है। जो सुखपूर्वक प्रवेश करने और निर्गमनअच्छ विमल-सलिल पुण्णाओ, बाहर निकलने योग्य है, जिनके घाट नाना प्रकार की मणियों से बने हुए हैं, इनके (चारों) कोने सुन्दर-मनोज्ञ हैं । तट-सम हैं, इनका वप्र-जलस्थान क्रमश: नीचे गहरा होता गया है, और अगाध एवं शीतल है, जिनका जल पत्र भिस, मृणाल से आच्छादित है। इनमें प्रफुल्लित केशर परागयुक्त अनेक उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, पुण्डरिक, शतपत्र, सहस्रपत्र, जातीय कमल व्याप्त है। भ्रमर समूह जिनके कमलों और कुमुदों का रसास्वादन कर रहे हैं, जो स्वच्छ विमलजल से परिपूर्ण हैं, परिहत्थ भमंत-मच्छ-कच्छभ-अणेग-सउणमिहुणपरिचरित्ताओ, जिनमें बहुत बड़ी संख्या में मच्छ और कच्छप इधर से उधर पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेबिया परिक्खित्ताओ, पत्तेयं पत्तेयं वण- घूमते रहते हैं। तथा जो अनेक प्रकार के शकुनमियन पक्षियों के संडपरिक्खित्ताओ अप्पेगतियाओ आसवोदगाओ, अप्पेगतियाओ जोड़ों के गमनागमन से व्याप्त है। प्रत्येक जलाशय पद्मवरवारुणोदगाओ. अप्पेगतियाओ खोदोदगाओ, अप्पेगतियाओ वेदिका से व्याप्त है। प्रत्येक वनखण्ड से घिरा हुआ है। इनमें सोयाओ. अप्पेगतियाओ घओदगाओ, अप्पेगतियाओ से किन्हीं वापिकाओं आदि का जल आसव जैसा मधुर स्वाद अमयरससमरसोदगाओ, अप्पेगइयाओ पगतीए उदगरसेणं वाला है। कितने का जल इक्षुरस के सदृश मधुर स्वाद वाला है, पण्णत्ताओ पासाइयाओ-जाव-पडिरूवाओ। कितनेक का जल क्षीरसमुद्र के जल जैसा स्वाद वाला है, कितनेक -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२७ जलाशयों का जल घृत के जैसे स्वाद वाला है, कोई-कोई जलाशय ऐसे हैं जिनका जल अमृतरस के सदृश स्वाद वाला है, कितने ही जलाशय प्राकृतिक उदकरस से युक्त है। और ये सभी जलाशय प्रासादिक-यावत्-प्रतिरूप है। तिसोवाणपडिरूवाणं वष्णावासे त्रिसोपान प्रतिरूपकों का वर्णन35. तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे देसे तहि तहिं तासि णं ३६. उस वनखण्ड में जगह-जगह पर स्थित जो अनेक छोटी-छोटी खडियाणं बावीणं-जाव-बिलपंतीयाणं पत्तेयं पत्तेयं चउद्दिसि वापिकायें-यावत्-कूपपंक्तियाँ है वे प्रत्येक चारों दिशाओं में चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि गं तिसोवाण चार त्रिसोपान-प्रतिरूपक कही गयी है-विशिष्ट तीन-तीन पडिरूवाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते तं जहा, वइरामया सीढियों से युक्त है, उन त्रिसोपान प्रतिरूपकों का वर्णविन्यास इस नेमा, रिद्वामया पतिद्वाणा, वेरुलियामया खंभा, सुवण्ण- प्रकार का कहा गया है । यथा-इनका मूलभाग-नींव वज्ररत्नों रुप्पामया फलगा, से निर्मित है । मूलपाद रिष्टरत्नों से बने हुए हैं, एवं ये वैडूर्य रत्न से बने हैं । फलक पट्टियाँ, (तख्ता) स्वर्ण और चाँदी के बने हैं । इन फलकों की संधियाँ वज्ररत्न की है। जिनमें लोहिताक्ष Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र ३७-४० www वइरामया संधी, लोहितक्खमईओ सूईओ, णाणा मणिमया रत्न की सूचियाँ-कीलियाँ लगी हुई है। आजू-बाजू के अवलंबन अवलंबणा, अवलंबण बाहाओ। दंड (रेलिंग) और अवलंबनबाहा नाना प्रकार की मणियों की -जीबा० ५० ३, उ० १, सु० १५७ बनी हुई है। तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ तोरणा त्रिसोपान प्रतिरूपकों के आगे तोरण३७. तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो पत्तेयं पत्तेयं तोरणा ३७. उन प्रत्येक त्रिसोपान प्रतिरूपकों के आगे तोरण कहे गये पण्णता, तेणं तोरणा णाणा मणिमयखंभेसु उवणिविट्ठ सण्णि- है। ये तोरण अनेक प्रकार की मणियों से बने हुए खंभों पर पास विट्ठा, विविहमुत्तंत रोवइता, विविहतारारूवोवचिता, ईहा- में ही स्थित है और यथास्थान लगे हुए हैं। इनमें अनेक प्रकार मिय-उसम-तुरग-णर-मगर-विहग-वालग-किण्णर-रुरू-सरभ- की आकृतियों में गूंथे गये मुक्तामणि लगे हुए हैं। विविध प्रकार चमर-कुंजर-वणलय-पउमलय-भत्तिचित्ता खंभुग्गय-वइर- के तारारूपों से खचित है। इनमें ईहामृग, वृषभ, घोड़ा, मनुष्य, वेदिया परिगताभिरामा, विज्जाहर-जमल-जुयल-जंतजुत्ताविव, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरू, सरभ-अष्टापद, चमर, कुजरअच्चि सहस्समालणीया, भिसमाणा, भिब्भिसमाणा, चक्खु- हाथी, वनलता, पद्मलता के चित्र बने हुए हैं । स्तम्भों पर बनी ल्लोयणलेसा, सुहफासा, सस्सिरीयरूवा, पासाइया-जाव- हुई वज्रमयी वेदिकाओं के कारण ये तोरण बहुत ही सुन्दर लगते पडिरूवा। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२७ हैं । समश्रेणी में बने हुए विद्याधर युगलों के चित्र-यंत्रचालित जैसे प्रतीत होते हैं। सहस्ररश्मि सूर्य की प्रभा जैसे प्रभा समुदाय से युक्त है। चमकदार दीप्तमान, अत्यन्त दैदीप्यमान, दर्शनीय, नेत्राकर्षक, सुखकर, सुखद स्पर्श वाले, सधीकरूप वाले, प्रासादीय, आल्हादजनक-यावत्-प्रतिरूप है । तोरणाणं उप्पि अठ्ठट्ठमंगलगा तोरणों के ऊपर आठ-आठ मंगल३८. तेसि णं तोरणाणं उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता। ३८. उन तोरणों के ऊपर अनेक आठ-आठ मंगल द्रव्य कहे गये हैं। तं जहा उनके नाम यह हैं(१) सोत्थिय, (२) सिरिवच्छ, (३) णंदियावत्त, (१) स्वस्तिक, (२) श्रीवत्स, (३) नन्दिकावर्त, (४) वर्द्धमान, (४) वद्धमाण, (५) भद्दासण, (६) कलस, (७) मच्छ, (८) (५) भद्रासन, (६) कलश, (७) मत्स्य, और (८) दर्पण, ये सभी वप्पणा, सव्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप हैं । ___ --जीवा० प० ३, उ० १, सु० १२७ तोरणाणं उप्पि चामरज्झया तोरणों के ऊपर चामर युक्त ध्वजायें३६. तेसि णं तोरणाणं उप्पि बहवे किण्हचामरज्झया नीलचाम- ३६. उन तोरणों के ऊर्श्वभाग में कृष्णकांति वाले चामरों से रज्झया लोहियचामरज्झया हारिद्दचामरज्झया सुक्किल्ल- युक्त ध्वजायें हैं। नीलवर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजायें हैं । चामरज्झया अच्छा सहा रुप्पपट्टा बइरदंडा जलयामल- लोहित-लाख वर्णीय चामरों से युक्त ध्वजायें हैं। हारिद्र वर्ण वाले गंधीया सुरुवा पासाइया-जाव-पडिरूवा । चामरों से युक्त ध्वजायें हैं, श्वेत वर्ण के चामरों से युक्त ध्वजायें -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२७ हैं। ये ध्वजायें स्वच्छ स्निग्ध हैं। इनके किनारे सोने-चांदी के बने हैं । और दंड वजरत्न से बना हुआ है। इनका गंध विमल जलज-कमल के गंध जैसा है, सूरूप प्रासादीय-यावत्-प्रति तोरणाणं उप्पि छत्ताइपयत्थाई तोरणों के ऊपर : छत्रादि पदार्थ४०. तेसिं गं तोरणाणं उप्पि बहवे छत्ताइछत्ता, पडागाइपडागा, ४७. उन तोरणों के ऊपर अनेक छत्रातिछात्र (एक छत्र के ऊपर घंटाजुयला, चामरजुयला, उप्पलहत्थया-जाव-सय-सहस्सवत्त- दूसरा छत्र) पताकातिपताकायें, घंटायुगुल, चामरयुगल, उत्पल हत्थगा, सबरयणामया, अच्छा-जाव-पडिरूवा। हस्तक-कमलों के गुच्छे (गुलदस्ते)-यावत्-शत-सहस्र-पत्र -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२७ हस्तक है । जो सभी सर्व रत्नमय, स्वच्छ-यावत्-प्रतिज्य है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४१-४५ तिर्यक् लोक गणितानयोग १३६ वावीआईणं देसेसु उप्पायपव्वयाइं बावड़ियों के समीप उत्पात पर्वतादि४१. तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे देसे तहि तहिं तासि णं ४१. उस बनखण्ड के उन-उन प्रदेशों में, प्रदेशों के एक देश में खुड्डियाणं बावीणं-जाव-बिलपंतीयाणं बहवे उप्पाय-पव्वया, जो छोटी-छोटी वापिकायें-यावत्-कूपपंक्तियाँ हैं, उनके णियइ-पव्वया, जगति-पवया, दारु-पव्वयगा, दग-मंडलगा, प्रदेशों में, प्रदेशों के एक देश में अनेक उत्पात पर्वत, नियति दग-मंचका, दग-मालगा, दग-पासायगा, ऊसडा, खुल्ला, पर्वत, जगति पर्वत, दारु पर्वत, दकमंडप (स्फटिकमणि से बने हुए खड-हडगा, अंदोलगा, पक्खंदोलगा, सव्वरयणामया -जाव. मंडप) दकमंचक, दकमलिका (स्फटिकमणि से निर्मित छत का ऊपरी पडिरूवगा। भाग, तला, मंजिल), दकप्रासाद है। उनमें से कितने ही ऊँचे हैं, -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२७ कितने ही छोटे हैं कितने ही खडहडगा (चौड़ाई में कम और लम्बाई में अधिक विस्तार वाले) कितने ही अन्दोलक (हिंडोला) रूप है। कितने ही पक्ष्यन्दोलक झूला रूप है। तथा ये सभी सर्वात्मना रत्नमय, स्फटिक के समान स्वच्छ-यावत् प्रतिरूप है। उप्पायपव्वयाइसु हंसासणाई उत्पात पर्वतों पर हंसासन आदि४२. तेसु णं उप्पाय-पव्वतेसु-जाव-पक्खंदोलएसु बहवे हंसासणाई ४२. उन उत्पाद पर्वतों यावत्-पक्ष्यन्दोलकों में अनेक हंसासन कोंचासणाई गरुलासणाई उण्णयासणाई पणयासणाई दीहा- हैं। क्रोचासन है, गरुडासन है, उन्नतासन है, प्रणतासन है, सणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई उसभासणाई दीर्घासन है, सिंहासन है, पद्मासन है, दिक् सौवस्तिकासन है । सीहासणाई पउमासणाई दिसा सोवत्थियासणाई सव्वरयणा- ये सभी आसन सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-यावत्-प्रतिमयाइं अच्छाई-जाब-पडिरूवाई। रूप है। -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२७ वणसंडदेसेसु आलिघराई वनखण्ड के अनेक भागों में आलिगृहादि४३. तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे ४३. उस वनखण्ड के स्थान-स्थान पर और उनके भी एक-एक आलिघरा, मालिघरा, कयलिघरा, लयाघरा, अच्छणघरा, देश में बहुत से आलिगृह (आलिनामक वनस्पतियों से बने घर), पेच्छणघरा, मज्जण-धरगा, पसाहण-घरगा, गब्भ-घरगा, मालिगृह, कदलीगृह, लतागृह, अच्छणगृह, (विश्रामगृह), प्रेक्षणगृह, मोहण-घरगा, साल-घरगा, जाल-घरगा, कुसुम-घरगा, चित्त. मज्जनगृह-स्नानगृह, प्रसाधन-शृगारगृह, गर्भगृह, (तलघरघरगा, गंधव-धरगा, आयंस-घरगा, सव्वरयणामया अच्छा गुंभारिया), मोहनगृह-केलिगृह, शालागृह, जालगृह, (जाली-जाव-पडिरूवा । झरोखायुक्त घर) पुष्पगृह (पुष्पों के समूह से युक्त घर) चित्रगृह -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२७ (चित्रों की प्रधानता वाले घर-चित्रशाला), गंधर्वगृह (नाट्य, गीत, नृत्य किये जाने वाले घर), दर्पणमय गृह है, ये सभी गृह सर्वात्मा रत्नों से निर्मित स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। आलिघराईसु हंसासणाई आलिगहादि में हंसासन आदि४४. तेसु णं आलिघरएसु-जाव-आयंसघरएसु बहुइं हंसाप्तणाई ४४. उन आलिगृहों -यावत्-दर्पणगृहों में बहुत से हंसासन -जाव-दिसासोवत्थियासणाई सम्वरयणामयाई अच्छाई-जाव- यावत्-दिक् सौवस्तिकासन रखे हुए है, ये आसन पूर्ण रूप से पडिरूवाई। -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२७ रत्नमय स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है । वणसंडदेसेसु जाइमंडवगाई वनखण्ड के अनेक भागों में जाइ-मण्डप आदि४५. तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे देसे तहि तहिं बहवे ४५. उस वनखण्ड के स्थान-स्थान पर और उन स्थानों के भी जाइ-मंडवगा, जूहिया-मंडवगा, मल्लिया-मंडवगा, णवमल्लिया एक-एक देश में अनेक जातिमंडप (चमेली पुष्पों से भरे मंडप) मंडवगा, बासंती-मंडवगा, दधिवासुया-मंडवगा, सुरिल्लि- है, जूहिका (जूही के पुष्प) मंडप है, मल्लिका (मोगरा पुष्प) मंडप है, नव मल्लिका-मंडप है, वासन्ती लता मंडप है, दधिवासुक (वनस्पति विशेष) के मंडप है, सुरिल्लि (वनस्पति विशेष) मंडप Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक सूत्र ४५-४६ मंडवगा, तंबोली-मंडवगा, मुद्दिया-मंडवगा, णागलया-मंडवगा, है, ताम्बूली (पानों की बेल) मंडप है, मृद्वीका (अंगूर) मंडप है, अतिमुत्त-मंडवगा, अप्फोआ-मंडवगा, मालुया-मंडवगा, साम- नागलता मंडप है, अतिमुक्तलता मंडप है, अप्फोगा (वनस्पति लया-मंडवगा, णिच्चं कुसुमिया-जाव-सुविभत्त पडिमंजरि विशेष) मंडप है, मालुका (वृक्ष विशेष) मंडप हैं, श्यामलता मंडप वडिसगघरा सव्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। है, ये सभी मंडप सर्वदा पुष्पों से युक्त-यावत्-सुन्दर रचनायुक्त -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १२७ प्रतिमंजरी रूप शिरोभूषण से शोभायमान है, और सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। जाईमडवाईसु विविहसंठिया पुढवि-सिलापट्टगा- जाई-मण्डपादि में विविध आकार के पृथ्वीशिलापट्ट४६. तेसु णं जातीमंडवएसु-जाव- सामलयामंडवएसु बहवे पुढवि- ४६. उन जातिमंडपों में यावत् -श्यामलता मंडपों में अनेक सिलापट्टगा पण्णत्ता, तं जहा-हंसासण-संठिता, कोंचासण- पृथ्वी शिलापट्टक कहे गये हैं । यथा-हंसासन जैसे हैं, क्रोचासन, संठिता, गरुलासण-संठिता, उण्णयासण-संठिता, पणयासण- जैसे हैं, गरुडासन जैसे हैं, उन्नतासन जैसे हैं, प्रणतासन के समान संठिता, दोहासण संठिता, भद्दासण-संठिता, पक्खासण- है, दीर्घासन के समान है, भद्रासन के समान है, पक्ष्यासन के संठिता, मगरासण-संठिता, उसभासण-संठिता, सीहासण- समान है, मकरासन के समान है, वृषभासन के समान है, सिंहासन संठिता, पउमासण-संठिता, दिसासोत्थियासण-संठिता, पण्णत्ता के समान है, पद्मासन के समान है, दिक्सौवस्तिकासन के समान तत्थ बहवे वरसयणासण विसिट्ठसंठाणसंठिया पण्णता कहे गये हैं, हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ पर बहुत से पृथ्वी शिलापट्टक समणाउसो! विशिष्ट शयनासन संस्थान वाले कहे गये हैं। आइण्णग-रूय-बूर-णवणीत-तूलफासा मउया सव्वरयणामया उनका स्पर्श आजिलक (चर्ममय वस्त्र) रुई-बूर (आक की अच्छा-जाव-पडिरूवा। रुई) नवनीत-तूल (हंस के पंख) के स्पर्श जैसा मृदु (सुकोमल) -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२१ है, तथा सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-यावत्--प्रतिरूप है । वणसंडे वाणमंतराणं विहरणं वनखण्ड में वाणव्यन्तरों का विचरण४७. तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति, सयंति, ४७. उन आसनों पर अनेक वाणव्यन्तर देव और देवियाँ सुखपूर्वक चिट्ठन्ति, णिसीयंति, तुयट्टन्ति, रमंति, ललंति, कोलंति, बैठती है, सोती है, स्थित होती है, विश्रामार्थ बैठती है, लेटती मोहंति, पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं है, रमण करती है, मनोविनोद करती है, क्रीडा करती है, रतिकल्लाणाणं कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा क्रीडा करती है, इस प्रकार से पूर्व फल से किये गये शुभ-सद् विहरंति । -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२७ आचरण से अजित-शुभ पराक्रम से जनित, शुभरूप, कल्याण रूप, कृतकों के फलविपाक को भोगते हुए समय को व्यतीत करती हैं। पउमवरवेइयाए अंतो एगे महं वणसंडे पद्मवरवेदिका के अन्तर्भाग में एक वनखण्ड४८. तीसे णं जगतीए उप्पि अंतो पउमवरवेइयाए-एत्थ णं एगे ४८. उस जगती के ऊपर और पद्मवरवेदिका के अन्तर्भाग में महं वणसंडे पण्णते। एक विशाल वनखंड कहा गया है। देसूणाई दो जोयणाई विक्खंभेणं वेइयासमएणं परिक्खेवेणं, जो कुछ कम दो योजन का विस्तार वाला एवं परिक्षेपकिण्हे किण्होभासे वणसंड-वण्णओ (मणि) तणसद्दविहूणो पद्मवरवेदिका के परिक्षेप जैसा है। इसका रूप कृष्ण, कृष्ण यो । -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२७ प्रतिभास सदृश आदि वनखण्ड के वर्णन के समान समझना चाहिये, किन्तु मणियों और तृणों का शब्द नहीं होता है ऐसा जानना चाहिये। वणसंडे वाणमंतराणं विहरणं वनखण्ड में वाणव्यन्तरों का विहरण४६. तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति-जाव- ४६. उस वनखण्ड में बहुत से वाण-व्यन्तर देव और देवियाँ सुभाणं कंताणं कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेस पच्चणुम्भव- सुखपूर्वक बैठती है। यावत्-शुभ कल्याणरूप कृतकों के माणा विहरति। -जीवा०प०३, २०१, सु० १२७ फलविपाक का अनुवेदन करती हुई विचरण करती है, समय यापन करती है। १ जंबु व० १, सु०६। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंबुद्दीवस्स विजयदार वण्णओ जंबूद्वीप : विजयद्वार वर्णन जंबुद्दीवस्स चत्तारि दारा जम्बूद्वीप के चार द्वार५०. ५० जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स कति दारा पण्णता? ५०. प्र० हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के कितने द्वार कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा-(१) विजये, उ०-हे गौतम ! चार द्वार कहे गये हैं। यथा-(१) विजय, (२) वेजयंते, (३) जयंते, (४) अपराजिए।' (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, और (४) अपराजित । -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२८ विजयदारस्स पमाणं विजयद्वार का प्रमाण५१. ५० कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजये नाम दारे ५१. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का विजय नाम का पण्णत्ते ? द्वार कहाँ पर कहा गया है ? उ० गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स पुरथिमेणं उ०-हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मध्य में स्थित पणयालोसं जोयणसहस्साई अबाधाए', जंबुद्दीवे दीवे मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में व्यवधान रहित पैंतालीस हजार योजन पुरच्छिमपेरते लवणसमुद्दपुरच्छिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं जाने पर जम्बूद्वीप की पूर्व दिशा के अन्त में एवं लवण समुद्र के सीताए महाणदीए उप्पि-एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स पूर्वार्ध के पश्चिम भाग में सीता महानदी के ऊपर जम्बूद्वीप नाम विजये णामं दारे पण्णत्ते । वाले द्वीप का विजय नामक द्वार कहा है। अट्ट जोयणाई उडढं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई यह विजय द्वार ऊँचाई में आठ योजन ऊँचा है, और चार विवखंभेणं, तावतियं चेव पवेसेणं, सेए बरकणगथूभि- योजन का चौड़ा है, एवं उतना ही प्रवेश करने का स्थान है. यागे. ईहामिय-उसभ-तुरग-नर-मगर-विहग-वालग- श्रेष्ठ अंकरत्न से निर्मित होने के कारण इसका वर्ण शुक्ल है. किण्णर-रुरू-सरभ-चमर-कुजर-वणलय-पउमलय-भत्ति- और शिखर श्रेष्ठ स्वर्ण का बना हुआ है, इस पर ईहामृग, वृषभ, चित्ते, खंभुग्गय-वइरवेदिया परिगयाभिरामे विज्जाहर अश्व, मनुष्य, मकर, पक्षी, नाग, किन्नर, रुरू, अष्टापद, चमरी जमल जयलजंतजुते इव अच्चीसहस्समालिणीए, रूवग- गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र बने हुए हैं, स्तम्भों सहस्स कलिते. मिसिमाणे, भिम्भिसमाणे चक्खुल्लोयण- पर बनी हुई बज रत्नमयी वेदिकाओं से अत्यन्त शोभायमान हो लेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे।। रहा है। समश्रेणी में स्थित विद्याधर युगल यन्त्र चलित जैसे --जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२७ प्रतीत होते हैं । हजारों किरण समूहों से परिव्याप्त, हजारों रूपों से युक्त, दीप्यमान, दैदीप्यमान, नेत्राकर्षक, सुखद स्पर्श एवं सश्रीक रूप सम्पन्न है। विजयदारस्स वण्णओ विजयद्वार का वर्णन५२. दारस्स वण्णओ तस्सिमो होइ, तं जहा ५२. इस द्वार का वर्णन इस प्रकार है । यथा १ जंबु० व० १, सु०७ । २ सम०४५, सु०६। ३ ठाणं ८, सु० ६५७ । ४ ठाणं ४, उ०२, सु० ३०३/१, २ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ लोक-प्रज्ञप्ति वइरामया णिम्मा । रिट्ठामया पट्ठाणा | वेरुलियामया खंभा । जायस्वोचिय-पवर पंचमणि-रण- कोमितले । हंसगभगए एए। गोमेज दी। लोहितमओ दारविडाओ। जोतिरसामते उत्तरंगे । वेरुलियामया कवाडा । वइरामया संधी | लोहितमईओ सूईओ । जाणा मणिमया समुग्गगा । रामईओ अग्गलाओ अग्गलपासाया । वइरामई आवत्तणपेढिया । अंकुत्तर पासते । निरंतरितघणकवाडे । तिर्यह लोक विजयद्वार : भिती चेव भित्तीगुलिया छप्पण्णा । तिष्णि होंति गोमाणसी । तत्तिया णाणा मणिरयण वालरूवग लीलट्ठिय- सालिभंजिया । वइरामए कूडे । रामए उस्सेहे । सव तवणिज्जमए उल्लोए । गाणा मगर-जाल जर-मणि यंग-लोहितपसि भो । कामया पक्खा पक्खबहाओ । इसका नैम ( जमीन के ऊपर निकला प्रदेश — कुरसी) वज्रमय है । सूत्र ५२ प्रतिष्ठान ( देहली) रिष्ठरत्नमय है। इसके खम्भे वैडूर्य रत्न के बने हैं । इसका कुट्टिमतल - बद्धभूमितल स्वर्ण से उपचित श्रेष्ठ पंचवर्ण वाले मणिरत्नों से बना हुआ है । इसकी एलुक ( देहली की चौखट ) हंसगर्भ नामक रत्न विशेष से बनी है । गोमेद रत्न से इसकी इन्द्रकील बनी है । लोहिताक्ष रत्न से इसकी द्वारशाखायें बनी है। इसका उत्तरंग (द्वार के ऊपर तिरछा रखा हुआ काष्ठ). ज्योतिरस नामक रत्न से बना है । इसके किवाड़ वैडूर्य रत्न से निर्मित है । किवाडों की संधियाँ वज्ररत्न की है । विवादों में लगाई गई सुई कीनियाँ लोहिताक्ष रत्न की हैं। समुद्गक नाना मणियों से बने हुए हैं । वज्ररत्न से बनी हुई अगंलाये हैं और अर्गलाओं को रखने के स्थान भी वज्ररत्न के बने हुए हैं । आवर्तनपीठिका (इन्द्रकील का स्थान) भी वज्ररत्न का है। किवाडों का पार्श्वभाग ( पिछला हिस्सा) अंकरत्न का बना है । ये किवाड ऐसे जुड़े हुए है कि किचिन्माभी अन्तर (सांध नहीं है। भीतों (दीवालों में एक सौ स (५६३ १६८) मिति गुलिकायें खुटिया है । और उतनी ही (१६०) गोमानसी ( शैयाकारस्थान विशेष) है। और उतनी ही द्वार पर नाना प्रकार के मणियों और रत्नों से व्याप्त होके एवं क्रीडा करती हुई— लीलारत शालभंजिकाओं - पुतलियों के चित्र बने हुए हैं । वज्ररत्न से शिखर बना है । और उत्सेध - ऊँचाई रत्नमय है । चंदेवा चांदनी रूप ऊपरी भाग तपनीय स्वर्ण का बना है । इस द्वार के झरोखे मणिमय वंशों वाले लोहिताक्ष रत्नमय प्रतिवंशों वाले, रजतमय भूमि वाले और विविध प्रकार की मणि रत्नों वाले हैं। इसके पक्ष और पक्षवाह अंकरत्न से बने हैं । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५२-५४ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १४३ जातिरसामया वंसा, वसकवेल्लगा य । ज्योतिरसरत्न के ही इसके बांस हैं, और ज्योतिरस रत्न के ही बांसों पर छाये हुए कवेलू हैं । रयतामयी पट्टियाओ। बांसों को जोड़ने वाली पट्टियाँ चाँदी की हैं। जातरूवमयी ओहाडणी। अवघाटिनी (एक प्रकार की ओढनी) स्वर्णमयी है। वइरामयी उवरि पुच्छणी, ऊपर के भाग में बनी पुछणियाँ वज्रनिर्मित है। सबसेतरययमए च्छायणे । इसका छादन सम्पूर्ण रूप से श्वेत है और रत्नों का बना है, अंकमय-कणग-कूड-तवणिज्ज-थूभियाए। इसका कूट प्रधानशिखर अंकरत्न और कनकस्वर्ण का बना हुआ है । तथा स्तूपिकायें-छोटी-छोटी शिखरें तपनीय स्वर्ण की हैं। सेए संखतल-विमलणिम्मल-दधि-घण-गोखीर-फेण-रयय- विमल-निर्मल शंखतल, घनीभुत दही, गाय के दूध का फेन, जिगरप्पगासे तिलग रयणद्धचंदचित्ते । चाँदी के समूह के समान इसका श्वेत-धवल शुभ्र प्रकाश है, तिलक रत्नों से जिस पर अर्धचन्द्रों के चित्र बने हुए हैं। णाणा मणिमयदामालंकिए, अंतो य, बहिं च सण्हे तवणिज्ज- अनेक मणिमय मालाओं से जो अलंकृत हो रहा है, भीतर रूइल-वालुया-पत्थडे, सुहप्फासे सस्सिरीयरूवे पासाईए-जाव- और बाहर में जो श्लक्ष्ण (अत्यन्त सूक्ष्म) पुद्गलों के स्कन्धों से पडिरूवे। -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२६ निर्माणित है, दीप्तमान तपनीय स्वर्ण की वालुका जिसमें विछायी हुई है, जिसका स्पर्श सुखप्रद है, जिसका रूप सुहावना दर्शनीय यावत्-प्रतिरूप है। विजयदारस्स णिसीहियाए चंदणकलसपरिवाडीओ-- विजयद्वार की नैषिधिकियों में चन्दनकलशों की पंक्तियाँ'५३. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो ५३. विजय द्वार की दोनों तरफ आजू-बाजू में दो नैषिधिकियाँ दो चंदणकलसपरिवाडीओ, पण्णत्ताओ । बैठने के स्थान (चौकियाँ) हैं, जिन पर दो-दो चन्दन के कलशों की पंक्तियाँ कही गई हैं। तेणं चंदणकलसा, बरकमलपइट्ठाणा, सुरभिवरवारिपडि- ये चन्दनकलश श्रेष्ठ कमलों पर रखे हुए हैं, श्रेष्ठ-गुद्ध पुण्णा, चंदणकयचच्चागा, आबद्धकंठेगुणा. पउमुप्पल- सुगन्धित जल से भरे हुए हैं, चन्दन से जो चचित है अर्थात् थापे पिहाणा, सव्वरयणामया, अच्छा-जाव-पडिरूवा । लगे हैं, और जिनके कंठ में मौली बाँधी गयी है। जिनके मुख पद्मकमल के ढक्कनों से ढके हुए हैं, तथा सर्वात्मना रत्नों से जटित, स्फटिकमणि के समान स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। महया महया महिंदकुम्भसमाणा पण्णत्ता समगाउसो। हे आयुष्मान् श्रमणो ! ये चन्दनकलश विशाल बड़े बड़े -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२६ महेन्द्रकुम्भ के समान कहे गये हैं। विजयदारस्स णिसोहियाए नागदंतपरिवाडीओ- विजयद्वार की नैषिधिकियों में नागदन्तकों की पंक्तियाँ५४. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो दो ५४. विजयद्वार के उभय पार्यो की दोनों निषधिकाओं में दो-दो णागदंतपरिवाडीओ पण्णत्ताओ। नागदन्तकों की पंक्तियाँ कही गई है । तेणं णागदंतगा मुत्ताजालंतरूसिअ-हेमजाल-गवक्खजाल- ये सब नागदन्तक चारों ओर से मुक्ताजालों के अन्दर खिखिणीघंटाजालपरिविवत्ता, अब्भुग्गया, अभिणिसिट्ठा तिरियं लटकती हुई सुवर्णमय मालाओं, गवाक्ष आकृति वाले रत्नों की सुसंपगहिया, अहे पण्णगद्धरूवा, पण्णगद्धसंठाणसंठिया, सव- मालाओं से और छोटी-छोटी घण्टिकाओं से घिरे हुए है। आगे रयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। के भाग में कुछ ऊँचे उठे हुए हैं, और दीवाल में अच्छी तरह से ठुके हुए हैं, कुछ तिर छेपन को लिये स्थित है, अधोभाग में ये सर्प के अर्धभाग जैसे आकार वाले हैं, और अर्ध साकार रूप में स्थापित है, सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-निर्मल-यावत्-प्रतिरूप है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र ५४-५८ महया महया गयदंतसमाणा पण्णत्ता समणाउसो! हे आयुष्मन् श्रमणों! ये नागदन्तक विशाल गजदन्तों के समान कहे गये हैं। ५५. तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हसुत्तबद्धवग्धारिय मल्लदाम ५५. उन नागदन्तकों के ऊपर अनेक काले डोरे से बंधी हुई अनेक कलावा-जाव-सुकिल्ल सुत्तबद्ध वग्धारियमल्लदामकलावा। पुष्प मालायें लटक रही हैं यावत्-श्वेत सूत्र में बंधी हुई अनेक पुष्प मालायें लटक रही हैं। तेणं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया, णाणा इन मालाओं के अग्रभाग में स्वर्ण से बने हुए लंबूस (गेंद क मणिरयण-विविधहारहारउवसोभियसमुदया-जाव-सिरीए आकार का आभरण विशेष, झुमका) लटक रहे हैं, और ये सब अईव अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठन्ति । मालायें स्वर्ण के पत्रों से मंडित है, अनेक मणियों, रत्नों, हारों, और अर्धहारों से ये मालायें विशेष-विशेष रूप से सुशोभित है, -यावत्-अपनी श्री-कांति से विशिष्ट रूप में शोभायमान होती हुई स्थित है, ५६. तेसि णं नागदंतगाणं उरि अण्णाओ दो दो णागदंत परि- ५६. उन नागदन्तकों के ऊपर भी और दूसरी दो-दो नागदन्तकों वाडिओ पण्णत्ताओ। की पंक्तियाँ कही गई है। तेसि णं णागदंतगाणं मुत्ताजालंतरूसिया तहेव-जाव-पडिरूवा, उन नागदन्तकों का भी मुक्ताजालों के अन्तर इत्यादि पूर्ववत् प्रतिरूप पर्यन्त सब वर्णन समझ लेना चाहिये। महया महया गयदंतसमाणा पण्णत्ता समणाउसो। हे आयुष्मन् श्रमणो ! ये नागदन्तक भी विशाल गजदन्तों के समान कहे गये हैं। ५७. तेसु णं णागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णत्ता, ५७. उन नागदन्तकों पर बहुत से रत्नमय सीके लटके हुए हैं। तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वेरूलियामईओ धूव- उन रत्नमय सींकों में वैडूर्य रत्नों से बनी हुई अनेक धूपघडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-ताओ णं धूवघडीओ काला- घटिकाये (धूपदान) रखी हुई कही गई है। यथा-वे धूपगुरु-पवरकुन्दरुक्क-तुरुक्क धूव मघमघंतगंधुद्धयाभिरामाओ घटिकायें काला गुरु, श्रेष्ठ कुन्दरुष्क, तुरुष्क, लोबान की धूपसुगंधवरगंधगंधियाओ गंधवट्टिभूयाओ ओरालेणं मणुण्णेणं विशेष से निकल रही गंध को फैलाती हुई विशेष सुन्दर दिखती घाण-मणणिवुइकरेणं गंधेणं तप्पए से सव्वओ समंता आपूरे- है, सुगन्धित पदार्थों की उत्तम गंध से गंधायमान होने से गंध की माणीओ आपूरेमाणीओ अईव अईव सिरीए उवसोभेमाणा गुटिका जैसे प्रतीत होती है, उदार-श्रेष्ठ, मनोज्ञ गंध से नासिका उवसोभेमाणा चिट्ठन्ति । और मन को तृप्ति-शांति प्रदान करने वाली है, और अपनी गंध --जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२६ से सर्वदिशाओं में उन-उन प्रदेशों को पुनीत करती हुई अतिविशिष्ट श्री से-यावत्-शोभायमान होती हुई स्थित है। विजयदारस्स णिसीहियाए सालभंजियपरिवाडीओ- विजयद्वार की नैषिधिकियों में सालभंजिकाओं की पंक्तियाँ५८. विजयस्स णं दारस्स उभयओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो ५८. विजयद्वार के उभयपार्श्व में स्थित उन दोनों निषिधिकाओं में दो सालभंजिया परिवाडीओ पण्णत्ताओ। दो-दो काष्ठपुतलिकाओं की परिपाटी-क्रमबद्ध पंक्तियाँ कही गई है। ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ सुपयट्ठियाओ सुअलं- वहाँ वे पुतलिकायें क्रीड़ारत हुई जैसी स्थापित की हुई है, कियाओ, णाणागारवसणाओ. णाणा मल्ल-पिणद्धिओ, मुट्ठी- सुन्दर बषभूषा से अलंकृत की गई है, रंग-बिरंगे परिधानो से गेज्झमझाओ आमेलग-जमल जुयलवट्टि अब्भुण्णय-पोण- शृङ्गारित है, अनेक मालायें इन्हें पहनाई गई हैं, कटि प्रदेश रश्चिय-संठिय-पयोहराओ रत्तावंगाप्रो असियकेसीओ, मिदुविसय इतना पतला है कि मुट्ठी में आ सकता है, इनके पयोधर (स्तन) समश्रेणिक चूचुक युगल से युक्त, कठिन, वृत्ताकार, सामने की ओर उन्नत-तने हुए पुष्ट, रत्युत्पादक है, इनके नेत्र प्रान्त (नेत्रों के किनारे) लालिमायुक्त है, (भ्रमर जैसे) कृष्ण वर्ण, कोमल, विशद-मृणाल तन्तुओं के समान बारीक, प्रशस्त लक्षणों, गुणों से Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५५-६० तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १४५ पसत्थलक्खण, संवेल्लियग्गसिरयाओ ईसि असोगवर पादप- युक्त है, तथा जिनका आगे का भाग मुकुट से ढका हुआ है, ये समुट्ठियाओ, वामहत्थगहियग्ग सालाओ, ईसि अद्धच्छिकडवख- अशोक वृक्ष का कुछ सहारा लिये हुई-सी खड़ी हैं और बायें हाथ विद्धिएहि लूसेमाणीओ इव चक्खुल्लोयणलेसाहि अणमण्णं से इन्होंने अशोक वृक्ष की शाखा के अग्रभाग को ग्रहण कर रखा खिज्जमाणीओ इव। है, अपने तिरछे कटाक्षों से दर्शकों के मन को मानो चुरा रही हैं, परस्पर एक-दूसरे की ओर देखती हुई ऐसी प्रतीत होती हैं कि मानो एक-दूसरे के सौभाग्य को ईर्ष्या के कारण सहन न करने से खेद विपन्न-सी हो रही हैं। पढविपरिणामाओ सासयभावमुवगयाओ चंक्षाणणाओ चंद- ये शालभंजिकायें पार्थिव पुद्गलों से बनी हुई हैं, और विलासिणीओ नंदद्धसमनिडालाओ चंदाहियसोमदसणाओ विजयद्वार की तरह शाश्वत हैं, इनका मुख चन्द्रमा के जैसा है, उक्का इव उज्जोयमाणीओ विज्जुघणमरीचि-सूर-दिपंत चन्द्रमंडल की तरह चमकने वाली हैं, इनका ललाट अर्धचन्द्र तेय अहिययर संनिकासाओ, सिंगारागारचारुवेसाओ (अष्टमी के चन्द्रमा) के समान सुशोभित है, चन्द्रमा से भी अधिक पासाइयाओ-जाव-पडिरूवाओ। तेयसा अतीव अतीव सोभे- इनका सौम्यदर्शन है, चन्द्रमा से भी अधिक दर्शनीय है, उल्का माणीओ सोभेमाणीओ चिट्ठन्ति । के समान चमकीली है, मेघ-विद्य त की किरणों और दैदीप्यमान -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १२६ अनावृत सूर्य के तेज से भी अधिक इनका प्रकाश है, इनकी आकृति शृङ्गार प्रधान और वेषभूषा सुहावनी है, अतएव ये प्रासादीय, दर्शनीय-यावत्-प्रतिरूप है, इस तरह ये अपने तेज से अत्यन्त सुशोभित होती हुई (विजय-द्वार की उभय पार्श्ववर्ती नैषधिकी में) खड़ी हुई है। विजयदारस्स णिसीहियाए जालकडगा विजय-द्वार की नैषिधिकियों में जालकटक५६. विजयरस णं दारस्स उभयओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो ५६. विजयद्वार की दोनों बाजुओं की दोनों नैषधिकाओं में दो-दो दो जालकडगा पण्णत्ता। जालकटक (यवनिका-परदा) कहे गये हैं। ते णं जालकडगा सव्व रयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। वे जालकटक सर्वात्मनो रत्नमय स्वच्छ निर्मल-यावत् -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १२६ प्रतिरूप है । विजयवारस्स णिसीहियाए घंटापरिवाडीओ- . विजय-द्वार की नैषिधिकियों में घंटों की पंक्तियाँ६०. विजयरस णं दारस्स उभयओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो ६०. विजयद्वार की दोनों ओर की दोनों नैषिधिकाओं में दो-दो दो घंटापरिवाडीओ पण्णत्ताओ। घंटाओं की परिपाटी-पंक्ति कही गई है। तासि गं घंटाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा- इन घंटाओं का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है । यथाजंबणयमईओ घंटाओ, वइरामईओ लालाओ, णाणा मणि- ये सब घंटे जंबूनद स्वर्णमय हैं, वजरत्न की इनकी लालायें हैं, अनेक मया घंटा पासगा, तवणिज्जमईओ संकलाओ, रययामईओ मणियों से बने हुए घंटा पार्श्व हैं, जिन सांकलों में ये घंटे लटके रज्जूओ। हुए हैं वे स्वर्ग की बनी हुई हैं, और चाँदी की बनी हुई डोरियाँ हैं, अर्थात् घंटा बजाने के लिये लालाओं (लोलक-पंडलुम) में जो डोरियाँ बँधी हुई हैं वे चाँदी की बनी हुई हैं। ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ, मेहस्सराओ, हंसस्सराओ, इन घंटाओं का स्वरनाद ओघस्वर (जलप्रवाह का स्वर) कोंचस्सराओ, णदिस्सराओ, पंदिघोसाओ, सीहस्सराओ, जैसा है, मेघस्वर जैसा, हंसस्वर जैसा, क्रौंचस्वर जैसा, नन्दिस्वर सोहघोसाओ, मंजुस्सराओ, मंजुघोसाओ, सुस्सराओ सुस्सर जैसा, नन्दिघोष जैसा, सिंहगर्जना जैसा, सिंहघोष सा, मंजुस्वर णिग्योसाओ ते पदेसे ओरालेणं मणुष्णेणं कण्ण-मगणिवुइ- जैसा, मंजुघोष जैसा प्रतीत होता है, विशेष और क्या कहा जाये करेण सद्देणं-जाव-चिट्ठन्ति ।। कि वे सब घंटे अपने सुस्वरों और सुस्वर निर्घोषों से उदार मनोज्ञ, -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२६ कर्ण और मन को तृप्तिकर शब्दों से उस प्रदेश को व्याप्त करते हुए-यावत्-स्थित हैं। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र ६१-६५ विजयदाररस णिसीहियाए वणमालापरिवाडीओ- विजयद्वार की नैषिधिकियों में वनमालाओं की पंक्तियाँ६१. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो ६१. विजयद्वार के दोनों और दोनों नैषिधिकाओं में दो-दो दो वणमालापरिवाडीओ पण्णताओ। वनमालाओं की परिपाटियाँ कही गई हैं। ताओ णं वणमालाओ णाणा दुमलया-किसलय-पल्लवसमा- ये वनलतायें अनेक वृक्षों और लताओं के किसलय-पल्लवों उलाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलसोभंत सस्सिरीयाओ (कोमल पत्तों) से युक्त हैं, भ्रमरों द्वारा भुज्यमान कमलों से पासाईयाओ-जाव-पडिरूवाओ। सुशोभित हैं, सश्रीक-शोभातिशयवाली दर्शनीय-यावत्-प्रति रूप हैं। ते पएसे उरालेणं-जाव-मणुणेणं घाण-मण-निवड करेणं ये वनलतायें अपनी उदार-यावत् -मनोज्ञ घ्राण और मन गंधेणं तप्पएसे सवओ समंता आपूरेमाणीओ आपूरेमाणीओ को शांतिप्रद गंध से सर्व दिशाओं और विदिशाओं के प्रदेशों को अईव अईव सिरीए उवसोभेमाणा उबसोभेमाणा चिट्ठन्ति। भरती हुई अपनी शोभा से अत्यन्त शोभायमान होती हुई —जीवा० प० ३, उ० १, सु० १२६ स्थित है। विजयदारस्स णिसोहियाए पगंठगा-- विजयद्वार की नैषिधिकियों में प्रकण्ठक६२. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहिआए दो ६२. विजयद्वार के उभय पार्श्व में स्थित दोनों नैषिधिकाओं में दो पगंठगा पण्णत्ता। दो-दो प्रकण्ठक (पीठ विशेष) कहे गये हैं । तेणं पगंठगा चतारि जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, दो जोय- ये प्रकण्ठक चार योजन के लम्बे-चौड़े हैं, तथा इनकी मोटाई णाई बाहल्लेणं सव्व वइरामया अच्छा-जाव पडि रूवा। दो योजन की है, ये सर्वात्मना बज्ररत्नमय, स्वच्छ-यावत प्रतिरूप है। ६३. तेसि णं पगंठगाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा ६३. उन प्रकण्ठकों के ऊपर अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे पण्णत्ता। गये हैं। तेणं पासायव.सगा चत्तारि जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, दो ये प्रासादावतंसक ऊँचाई में चार योजन ऊँचे और दो योजन जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसिय पहसिया विव के लम्बे-चौड़े हैं, ये समस्त दिशाओं में फैले हुए और हँसते हुए विविहमणिरयणभत्तिचित्ता, वाउद्धय विजयवेजयंती पडाग- से प्रतीत होते हैं, विविध प्रकार की मणियों और रत्नों से बने छत्तातिछत्तकलिया, तुगा, गगणतलमभिलंघमाणसिहरा, हुए चित्रों से चित्रित हैं, जिन पर वायु के संयोग से लहलहाती हुई (गगणतलमणुलिहंतसिहरा) जालंतर-रयण-पंजरुम्मिलितब्व, विजय वैजयन्ती पताकायें जो छत्रातिछत्रों के समान शोभायमान मणि कणग-भूमियागा, वियसिय सयवत्त-पोंडरीय-तिलक-रयण- है, और बहुत ऊँची हैं, जिनके शिखर अपनी ऊँचाई से आकाश द्धचंद चित्ता, णाणामणिमयदामालंकिया, अंतो य बाहिं च का भी उल्लंघन करते हैं, इनकी जालियों में लगे रत्न ऐसे प्रतीत सण्हा, तवणिज्जरुइल वालुया पत्थडा, सुहफासा, सस्सिरीय- होते हैं कि मानो अभी-अभी पिंजड़ों से बाहर निकाले हैं, इनमें रूवा पासाईया-जाव-पडिरूवा। जो स्तुपिकायें बनी हैं, वे मणियों और स्वर्ण निर्मित हैं. इनके द्वार प्रदेश में विकसित शतपत्रों, पुण्डरीकों और तिलकरत्नों से बने हुए अर्धचन्द्रों के चित्र बने हुए हैं, अनेक मणिमय मालाओं से अलंकृत हैं, भीतर और बाहर से स्निग्ध (चिकने) हैं, इनके भीतर तपनीय स्वर्ण की बालुका बिछी हुई है, इनका स्पर्श सुखद है, रूप सुहावना है, दर्शनीय है-यावत् --प्रतिरूप है। ६४. तेसि णं पासायवडेंसगाणं उल्लोया पउमलया जाव सामलया ६४. इन प्रासादावतंसकों के ऊपरी भाग (अगासी) में पद्मलता भत्तिचित्ता । सम्व तवणिज्जमया अच्छा-जाव-पडिरूवा । -यावत् -श्यामलता के चित्र बने हुए हैं, वे सब सर्वात्मना तपनीय, स्वर्णमय, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप हैं। ६५. तेसि णं पासायब.सगाणं पत्तेयं पत्तेयं अंतो बहुसमरम- ६५. इन प्रासादावतंसकों में से प्रत्येक का भीतरी भुमि भाग णिज्जे भूमिभागे परणत्ते-से जहा णामए, आलिंग पुक्खरेइ अत्यन्त सम एवं रमणीय कहा गया है, जैसे कि वह इस प्रकार Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६-६६ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १४७ वा जाव णाणाविहपंचवण्णेहि तणेहि य मणीहि य उव- का है-आलिंगपुष्कर-मृदंग के मुख पर चढ़े हुए चमड़े के समान सोभिए। -यावत्-अनेक प्रकार के पंचरंगों तृणों और मणियों से उप शोभित है । मणीर्ण गंधो वण्णो फासो य नेयव्वो । -मणियों के गंध, वर्ण और स्पर्श का वर्णन पूर्व में किये गये वर्णन के अनुरूप जानना चाहिए।६६. तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए ६६. इन अत्यधिक सम और रमणीय भुमिभागों के मध्यातिमध्य पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियाओ पण्णताओ। देश भाग-प्रदेश में अलग-अलग मणिपीठिकायें कही गई हैं। ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, अट्ठ वे मणि पीठिकायें लम्बाई-चौड़ाई में एक योजन की और जोयणबाहल्लेणं, सम्वरयणामईओ जाव पडिरूवाओ। मोटाई में आठ योजन की हैं, जो सर्वात्मना रत्नमय स्वच्छ -यावत्-प्रतिरूप हैं। ६७. तासि ण मणिपेढियाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं सीहासणे पण्णत्ते। ६७. उन प्रत्येक मणिपीठिकाओं के ऊपर एक-एक सिंहासन कहा गया है। तेसि णं सोहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं इन सिंहासनों का वर्णन इस प्रकार कहा गया है, यथाजहा-तबणिज्जमया चक्कवाला, रययामया सीहा सोवणिया इनका चक्रवाला (पायों के रखने का) अधोवर्ती प्रदेश तपनीय पादा. णाणा मणिमयाई पादपीढगाई, जंबुणयमयाइं गत्ताई, स्वर्ग से बना हुआ है, सिंहों की आकृतियाँ चाँदी से बनी हुई हैं, वइरामया संधी, णाणा मणिमए वेच्चे । इनके पाये स्वर्ण के बने हुए हैं, अनेक प्रकार की मणियों से इनके पादपीठ बने हुए हैं, इनकी ईषायें (पाटियाँ) जाम्बूनद (स्वर्ण विशेष) की बनी हुई हैं, इनकी संधियाँ (सांधे, दरारें) वजरत्न से भरी गई हैं, और अनेक मणियों से इनका मध्यभाग बना हुआ है। तेणं सीहासणा ईहामियउसभ जाव पउमलयभत्तिचित्ता, ये सिंहासन ईहामृग, बैल-यावत्-पद्मलता के चित्रों से ससार सारोबइय-विविह मणिरयणपायपीढा, अच्छरग-मिउम- चित्रित है, इनके पादपीठ श्रेष्ठातिश्रेष्ठ अनेक प्रकार के विविध सरग-नवतयकुसंतलिच्च-सीहकेसर-पच्चुत्थयाभिरामा, उव- रत्नों के बने हुए हैं, इनमें से प्रत्येक पर बिछे हर मद्-सकोमल चिय-खोमदुगुल्लय-पडिच्छ्यणा, सुविरचियरयत्ताणा, रत्तंसुय- आच्छादनक (चादर) ओसीसा और नवीन त्वचा वाले (तत्काल संबया, सुरम्मा, आईणग-रूय-बूर-णवणीय-तूलमउयफासा, उत्पन्न हुए) दर्भ के तृणों से भरे हुए गहे बड़े ही मनमोहक हैं. मउया, पासाईया, जाव पडिरूवा। तथा आच्छादनकों के ऊपर भी अनेक बेलबूटों वाला दूसरा प्रतिच्छादनक (पलंगपोस) बिछा हुआ है, और उस पलंगपोस पर भी सुन्दर प्रकार से बना हुआ रजत्राण (वस्त्र विशेष, कवर) डाला गया है, ये सभी सिंहासन लालवस्त्र से ढके हुए हैं, अति रमणीय हैं, इनका स्पर्श चममय वस्त्र, कपास, बूर (सेमल की रुई) नवनीत, तूल (आक की रुई) के समान अतिकोमल है, ये सिंहासन अतिमद्, दर्शनीय-यावत्-प्रतिरूप है। ६८. तेसि णं सीहासणाणं उप्पि पत्तय पत्तेयं विजयदूसं पण्णत्ते । ६८. इन सिहासनी में से प्रत्येक सिंहासन पर अलग-अलग विजय दृष्य (वस्त्र विशेष) कहा गया है । तेणं विजयसा, सेया, संख-कुन्द-दगरय-अमय-महिय- ये विजय दूष्य शंख-कुन्दपुष्प, जलकण, अमृत, मथे जा रहे फेणपुञ्जसन्निकासा, सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। दूध के फेन पुज के समान श्वेत सर्वात्मना रत्नमय, म्फटिक के समान स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। ६६. तेसि णं विजयदुसाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया ६६. इन विजय दूष्यों के बहुमध्य देश में अलग-अलग वज्रमय अंकुसा पण्णत्ता। अंकुश कहे गये हैं। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र ६६-७५ तेसि णं वइरामएस अंकुसेसु पत्तेयं पत्तेयं कुम्भिक्का इन वज्रमय प्रत्येक अंकुश में कुम्भप्रमाण मुक्ताओं की मुत्तादामा पण्णत्ता। मालायें कही गई हैं। तेणं कुम्भिक्का मुत्तादामा अन्नेहिं चहि चहिं तदबुच्च- ये कुम्भप्रमाण मोतियों की मालायें भी और दूसरी चार-चार प्पमाणमेहि अद्धकुम्भिक्केहि मुत्तादामेहि सवओ समंता अर्धकुम्भ प्रमाण वाली और ऊँचाई में उनसे आधी मुक्तामालाओं संपरिक्खित्ता। से सब ओर परिवेष्ठित है। तेणं दामा तवणिज्जलंबूसगा, सुवण्ण पयरगमंडिया जावये मालायें तपनीय स्वर्ण से बने हुए लांबुसकों (झमकों) से चिट्ठन्ति । युक्त हैं, और स्वर्ण के पतरों से मंडित हैं-यावत्-स्थित हैं। ७०. तेसि णं पासायडिसगाणं उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता, ७०. इन प्रासादावतंसकों के ऊर्ध्वभाग में अनेक अष्टमंगल द्रव्य सोत्थिय तहेव जाव छत्ता। कहे हैं, वे स्वस्तिक से लेकर छत्रपर्यन्त जैसे पहले कहे गये हैं वैसे -जीवा०प० ३, उ०१, सु० १३० ही हैं। विजयदारस्स णिसीहियाए तोरणा विजयद्वार की नैषिधिकियों के तोरण७१. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि दुहओ णिसीहियाए दो ७१. विजयद्वार के दोनों ओर की उन दोनों नैषिधिकियों पर दो तोरणगा पण्णत्ता। दो-दो तोरण कहे गये हैं। तेणं तोरणा णाणा मणिमया तहेव जाव अट्ठमंगलगाय ये तोरण अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं, इनका छत्तातिछत्ता। वर्णन (पूर्व में किये गये तोरणों के वर्णन के) समान समझना चाहिए-यावत-वे आठ-आठ मंगल द्रव्य और छत्रातिछत्र युक्त हैं। तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो सालभंजियाओ पण्णताओ इन तोरणों के अग्रभाग में दो-दो काष्ठ पुतलिकायें कही गई जहेव णं हेट्ठा तहेव । हैं, इनका वर्णन जैसा पीछे किया गया है, वैसा ही जानना चाहिए। तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो दो णागदंतगा पण्णत्ता। इन तोरणों के आगे दो-दो नागदंतक खूटियाँ कही गई हैं। तेणं णागदंतगा मुत्ताजालंतरूसिया तहेव । इन नागदंतकों का वर्णन मुक्ताजालों के भीतर लटकती हुई (इत्यादि पीछे किये गये) वर्णन के अनुरूप जानना चाहिए। तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हे सुत्तवट्ट....वग्घारिय मल्ल- इन नागदंतकों पर कृष्ण सूत्र-डोरे से बँधी हुई अनेक दाम कलावा जाव चिट्ठन्ति । पुष्पमालाओं के समूह लटक रहे हैं-यावत -स्थित हैं । तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो हयसंघाडगा पण्णत्ता। इन तोरणों के अग्रभाग में दो-दो अश्वों के संघटक युगल सव्व रयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। कहे गये हैं, जो सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-यावत -प्रतिरूप हैं, एवं पंतीओ बीहीओ मिहुणगा। ___ इसी प्रकार से पंक्तियाँ, विथिकायें और मिथुनक भी जानने चाहिए। ७२. दो दो पउमलयाओ जाव पडिरूवाओ। ७२. दो-दो पद्मलतायें हैं-यावत -प्रतिरूप हैं। ७३. तेसि णं तोरणाणं पुरओ अक्खा असोवस्थिया सव्वरयणामया ७३. इन तोरणों के आगे स्वस्तिक के अक्ष-पासे हैं, जो सर्वात्मना अच्छा जाव पडिरूवा। रत्नमय, स्वच्छ-यावत – प्रतिरूप हैं । ७४. तेसि ण तोरणाणं पुरओ दो दो चं.णकलसा पण्णता। ७४. इन तोरणों के आगे दो-दो चन्दन कलश कहे गये हैं । तेणं चरणकलसा वरकमलपइट्टाणा तहेव सव्वरयणामया वे चन्दन कलश उत्तमकमलों पर प्रतिष्ठित है, शेष वर्गन अच्छा जाव पडिरूवा। समणाउसो ! पूर्व की तरह जानना तथा सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-यावत - प्रतिरूप है। ७५. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो भिगारगा पण्णत्ता वरकमल- ७५. इन तोरणों के आगे दो-दो भृगारक झारियाँ कही गयी हैं, पइट्ठाणा जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूबा महता ये भृगारक, श्रेष्ठ कमलों पर रखे हैं-यावत् -सम्पूर्ण रूप से Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र ७५.८० तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १४६ .mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm महता मत्तगयमुहागिइ समाणा पण्णत्ता समणाउसो। रत्नमय स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है, हे आयुष्मन् श्रमणो ! इनका प्रतिरूप-आकार विशाल मत्त गजराज की मुखाकृति के समान कहा गया है। ७६. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो आयंसगा पण्णत्ता। ७६. इन तोरणों के आगे दो दो आरीसा (दर्पण) कहे गये हैं। तेसि णं आयंसगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं इन आदर्शकों-दर्पणों का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है, जहा-तवणिज्जमया पगंठगा, वेरुलियमया छरुहा [थंभया] यथा-इनके प्रकंठक-पीठविशेष तपनीय स्वर्ग के बने हुए हैं. वइरामया वरंगा, णाणामणिमया वलक्खा, अकामया मंडला, वैडूर्य रत्नमय इनके स्तम्भ हैं, इनका पृष्ठभाग वज्रमय है, अणोग्घसिय निग्मलाए छायाए सवओ चेव समणुबद्धा चंद- शृङ्खलादिरूप इनके अवलम्बन अनेक मणियों से बने हुए हैं, मंडलपडिणिकासा, महया महया अद्धकायसमाणा पण्णत्ता इनका मंडल-प्रतिबिम्ब पड़ने का स्थान-करत्न का बना हुआ है, समणाउसो ! ये अनवर्षित-स्वाभाविक प्रतिच्छाया से युक्त एवं निर्मल हैं, चन्द्रमंडल के समान आकार वाले और बहुत बड़े हैं, हे आयुष्मान् श्रमणो ! ये देखने वाले के शरीर के अग्रभाग जितने प्रमाण ७७. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो वइरणाभा थाला पग्णत्ता, ७७. इन तोरणों के आगे वज्र के बने हुए दो-दो थाल कहे गये हैं। तेणं थाला अच्छतिच्छडिय सालितंदुल नहसंदुट्ठ बहुपडि- ये थाल तीन बार सूप आदि से फटक कर स्वच्छ शुद्ध किये पुण्णा, चेव चिट्ठन्ति । सव्व जंबूणयामया अच्छा-जाव- गये और ओखली में कूट कर जिनकी भूसी अलग कर दी गई पडिरूवा। महया महया रहचक्कसमाणा पण्णता समणा- है ऐसे शालि-तंदुलों-विशिष्ट जाति के चावलों से परिपूर्ण भरे हुए उसो! हैं । ये थाल सर्वात्मना स्वर्ण से बने हुए, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है, आयुष्मान् श्रमणो ! ये थाल विशाल रथ चक्र-रथ के पहिये के समान विशाल आकार वाले कहे गये हैं। ७८. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो पातीओ पण्णत्ताओ। ७८. इन तोरणों के आगे दो-दो पात्री कही गई है। ताओ णं पातीओ अच्छोदय पडिहत्थाओ, णाणाविह पंच- ये पात्रियाँ स्वच्छ जल से भरी हुई हैं, तथा नाना प्रकार के वण्णस्स फलहरितगस्स बहुपडिपुण्णाओ विव चिट्ठन्ति । सव- पंचवर्ण वाले हरे फलों से भरी हुई जैसी प्रतीत होती हैं, तथा रयणामईओ अच्छाओ-जाव–पडिरूवाओ, महया महया सर्वात्मना रत्नमय स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है, हे आयुष्मान गोलिजगच्चक्कसमाणाओ पण्णत्ताओ समगाउसो ! श्रमणो ! ये ऐसी प्रतीत होती है, मानो गाय को खिलाने के चक्राकार पात्र हैं। ७६. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो सुपइट्ठगा पण्णत्ता । ७६. इन तोरणों के आगे दो-दो सूप्रतिष्ठक-आधार विशेष बाजोट कहे गये हैं। तेणं सुपइट्ठगा णाणाविह पंचवण्ण-पसाहणगभंड विरचिया, उन सुप्रतिष्ठकों पर पंचवर्णों वाले एवं सर्व औषधियों से सवोसहिपडिपुण्णा सस्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। परिपूर्ण प्रसाधनभांड सजाकर रखे हैं और ये सुप्रतिष्ठक सर्वात्मना रत्नों से बने हुए स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप हैं। .८०. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो मणोगुलियाओ पण्णत्ताओ। ८०. इन तोरणों के आगे दो-दो मनोगुलिकायें-पीठिकायें कहीं गई हैं। तासु णं मणोगलियासु बहवे सुवण्ण-रुप्पामया फलगा इन मनोगुलिकाओं के ऊपर अनेक स्वर्ण और चाँदी के बने पण्णत्ता। हुए फलक-पटिये कहे गये हैं। तेसु णं सुवण्ण रुप्पामएसु फलएसु बहवे वइरामया णाग- इन स्वर्ण-रजतमय फलकों में अनेक वऊमय नागदंतकदंतगा मुत्ताजातरुसिगा, हेम-जाव-गयंदगसमाणा खूटियां लगी हुई हैं, ये खुटियाँ मुक्ताजालों के भीतर लटकती हुई पण्णता। हेममालाओं-यावत्-गजदन्तों के समान कही हैं । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र ८१-८६ ८१. तेसु णं वइरामएसु णागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया ८१. इन वज्रमय नागदन्तकों पर अनेक रत्नमय छींके लटक पण्णत्ता। तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वायकरगा पण्णत्ता । इन रत्नमय छींकों के ऊपर अनेक कोरे घट कहे गये हैं। तेणं वायकरगा किण्हसुत्तसिक्कगवत्थिया-जाव- ये वातकरक काले सूत से बने हुए छींकों पर अवस्थित हैसुक्किलसुत्तसिक्कगवत्थिया सव्वे वेरुलियामया अच्छा-जाव यावत्-श्वेत सूत्र से बने छीकों पर रखे हुए हैं, और ये सभी –पडिरूवा। - वैडूर्य रत्नमय है, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप हैं । ८२. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चित्ता रयणकरंडगा पण्णत्ता ८२. इन तोरणों के आगे रंगबिरंगे रत्नों से भरे हुए दो-दो -से जहा णामए रणो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चित्ते रयण- करंडक-पिटारा कहे गये हैं, जैसे कि चातुरन्त चक्रवर्ती-चारों करडे वेरुलियमणिफालिय पडलपच्चोयडेसाए पभाए ते दिशाओं में एक छत्र राज्य करने वाले चक्रवर्ती राजा का पदेसे सवओ समता ओभासइ उज्जोवेइ तावेइ, पभासेइ- आश्चर्यजनक रत्नकरंडक जो कि वैडूर्य मणि और स्फटिकमणि एवामेव ते चित्तरयणकरंडगा पण्णत्ता। वेरुलिय पडल से बने हुए ढक्कन वाला होता है, और अपनी प्रभा से उस प्रदेश पच्चोयडा साए पभाए ते पदेसे सव्वओ समंता ओभासेइ। को सब तरफ से प्रकाशित करता रहता है, उद्योतित करता है, -जाव-पभासे।। चमकाता रहता है, और कांतियुक्त करता रहता है, उसी तरह के ये चित्र-विचित्र रत्नों के करंडक कहे गये हैं, ये रत्नकरंडक भी बैडूर्य रत्न के बने हुए ढक्कन वाले हैं, अपनी प्रभा से उस प्रदेश को समस्त दिशाओं और विदिशाओं में सर्वात्मना प्रकाशित करते रहते हैं। ८३. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो हयकंठगा—जाव-दो दो ८३. इन तोरणों के आगे दो-दो अश्व कंठा प्रमाण वाले-यावत उसभकंठगा पण्णत्ता । सवरयणामया अच्छा-जाव- -दो-दो वृषभ कंठाप्रमाणवाले आभूषण विशेष कहे गये हैं । ये पडिरूवा। सभी सर्वात्मना रत्नमय, स्फटिकमणि के समान स्वच्छ-निर्मल -यावत्-प्रतिरूप हैं। तेसु णं हयकंठएसु-जाव-उसभकंठएसु दो दो पुष्फ- इन अश्व कंठाप्रमाण वाले-यावत्-वृषभ कंठाप्रमाण वाले चंगेरीओ पण्णत्ताओ। एवं मल्ल-चुण्ण-गंध-वत्थाभरण- आभूषण विशेषों में दो-दो पुष्प चंगेरिकायें कही गई हैं। इसी सिद्धत्थग-लोमहत्थग चंगेरीओ, सव्व रयणामईओ अच्छाओ प्रकार से माला गंध, चूर्ण, सुगंधित द्रव्य, वस्त्र, आभरण, सरसों, -जाव-पडिरूवाओ। मयूरपिच्छों को रखने की चंगेरिकायें (ढोकनिया) हैं, ये सभी रत्नमयी, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप हैं। ८४. तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो दो पुष्फपडलाई-जाव- ८४. इन तोरणों के सामने दो-दो पूष्पपटल (गुलदस्ता)-यावत लोमहत्थपडलाइं सव्वरयणामयाई-जाव–पडिरूवाई। --मयूरपिच्छियाँ कही गयी हैं, जो सर्वात्मना रत्नमय-यावत् प्रतिरूप हैं। ५. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो सीहासणाई पपणत्ताई । तेसि ८५. इन तोरणों के सामने दो-दो सिंहासन कहे गये हैं, इन ण सीहासणाणं अयमेयारूबे वण्णावासे पण्णत्ते, तहेव-जाव- सिंहासनों का वर्णन पीछे किये गये सिंहासनों के वर्णन के समान पासाईया-जाव-पडिरूवा । कहना चाहिए, ये दर्शनीय-यावत -प्रतिरूप हैं। ८६. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो रुप्पछदा छत्ता पण्णत्ता। ८६. इन तोरणों के आगे दो-दो रुप्य के आच्छादनभूत छत्र (छत्रा छत्री) कहे गये हैं। तेणं छत्ता वेरुलियभिसंतविमलदंडा, जंबूणयकण्णिया इन छत्रों का दण्ड विमल एवं चमकीले वैडूर्य रत्नों का बना वइरसंधी मुत्ताजालपरिगया, अट्ठ सहस्सबरकंचणसलागा, हुआ है । इनकी कणिका जाम्बूनद स्वर्ण की बनी हुई हैं, वञ्चरत्न की संधियाँ हैं। ये छत्र मुक्ताजालों से परिगत-सुशोभित हैं, और प्रत्येक छत्र में श्रेष्ठ स्वर्ण से निर्मित आठ हजार शलाकायें-ताणी लगी हुई हैं, अत्यन्त सुगन्धित मलय चन्दन और सर्व ऋतुओं में Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८६-६० तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १५१ दद्दर मलय सुगंधी, सव्वोउय सुरभिसीयलच्छाया, मंगलभत्ति- उत्पन्न होने वाले पुष्पों की सुरभि से परिपुर्ण जिनकी शीतल चित्ता, चंदागारोवमा वट्टा। छाया है, जिन पर अष्टमंगल द्रव्यों के चित्र बने हुए हैं, चन्द्रमा के आकार जैसा इनका गोल आकार है। ८७. तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चामराओ पण्णताओ। ८७. इन तोरणों के आगे दो-दो चामर कहे गए हैं। ताओ गं चामराओ (चंदप्पभवइ रवेरुलिय-गाणामणि-रयण- इन चामरों के (चन्द्रकान्त मणि, वज्ररत्न, वैडूर्यमणि आदि खचिय दंडाओ) णाणामणि-कणगरयणविमलमहरिहतवणिज्ज- अनेक प्रकार के मणिरत्नों से खचित दंड है) अथवा ये चामर ज्जलविचित्तदंडाओ, चिल्लिआओ संखककुन्दे-नगरयअमयम- अनेक प्रकार के मणियों, कनक, और रत्नों से जटिल एवं विमल दियफेणपुजसण्णिकासाओ सुहमरयय दीहवालाओ, सम्व. महामूल्यवान्, तपनीय स्वर्ण से निर्मित उज्ज्वल विचित्र दंड रयणाममाओ अच्छाओ-जाव -पडिरूबाओ। वाले हैं, तथा शंख, अंकरत्न, कुन्दपुष्प, जलकण, मथित अमृत के फेन पुज की दैदीप्यमान शुभ्रता वाले हैं, सूक्ष्म एवं रजत के समान धवल लम्बे वालों से युक्त हैं, सर्वात्मना रत्नमय स्वच्छ -यावत्-प्रतिरूप है। ८८. तेसि णं तोरणागं पुरओ दो दो तिल्लसमुग्गा, कोट्ठसमुग्गा, ८७. इन तोरणों के आगे दो-दो तैलसमुद्गक कोष्ठ समुद्गक, पत्तसमुग्गा, चोयसमुग्गा, तयरसमुग्गा, एलासमुग्गा, हरियाल- पत्र समुद्गक, चोय समुद्गक, तगर समुद्गक, इलायची समुद्गक, समुग्गा, हिंगुलयसमुग्गा; मणोसिलासमुग्गा, अंजणसमुग्गा; हरताल समुद्गक, हिंगुलुक समुद्गक, मैनसिल समुद्गक, अंजनसवरयणामया अच्छा-जाव–पडिरूवा।। समुद्गक रखे हैं, ये सभी समुद्गक-वस्तु को रखने के पात्र-जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३१ सर्वात्मना रत्नों से बने हुए, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । विजयदारे असीयं के उसहस्स विजयद्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजायें८६. विजये णं दारे अट्ठसयंचक्कझयाणं, अट्ठसयं मिगझयाणं, अट्ठ- ८६. उस विजपद्वार के ऊपर चक्र के चिह्न से युक्त एक सौ आठ सयं गरुलझयाणं, अट्ठसयं विगझयाणं, अट्ठसयं रुरुझयाणं, अg- ध्वजाएँ, एक सौ आठ मृग के चिन्ह से अंकित ध्वजार, एक सौ आठ सयं छत्त झयाणं, अट्टसयं पिच्छझयाण, अट्ठसयं सउणिझयाणं, गरुड के चिह्न से अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ वृक के चिह्न से अट्ठसयं सीहझयाणं, अट्ठसयं उसमझयाणं, अट्ठसयं सेवाणं अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ रुरु के चिह्न से अंकित ध्वजायें, चउविसाण वरनागकेऊणं एवामेव सपुरवावरेणं विजयदारे य एक सौ आठ छत्र के चिह्न से अंकित ध्वजाये, एक सौ आठ मयूर असीयं केउसहस्सं भवतित्तिमक्खायं । पिच्छ के चिह्न से अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ शकुनिपक्षी के -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३२ चिह्न से अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ सिंह के चिह्न से अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ वृषभ के चिह्न से अंकित ध्वजायें, एक सौ आठ श्रेष्ठ नाग के केतुभूत श्वेत चार दंतों के आकार वाले चिह्न से अंकित ध्वजायें फहरा रही है, इस प्रकार सब मिलाकर उस विजयद्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजाओं का परिमाण कहा गया है। विजयदारे नवभोमा विजयद्वार के आगे नव भौम६०. विजये णं दारे नवभोमा पण्णता,' तेसि गं भोमा गं अंतो ६०. विजयद्वार के आगे नौ भौम-विशिष्ट स्थान कहे गए हैं, उन बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता-जाव-- मणीणं फासो। स्थानों के अन्दर का भूमि भाग अत्यन्त समतल और रमणीय तेसि णं भोमाणं उप्पि उल्लोया पउमलया-जाव-सामलया कहा गया है, यावत्- मणियों के स्पर्श के तुल्य है, उन भत्तिचित्ता-जाव-सव्व तवणिज्जमया अच्छा-जाव- भौमों के ऊपर के उल्लोको-आगासी में पद्मलता यावत् श्यामपडिरूवा। लता के चित्राम चित्रित है-यावत्-ये सभी भौम तपनीय स्वर्णमय, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप हैं। १ सम० ६, सु०६। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र ६१-१०२ ६१. तेसि णं भोमाणं बहुभज्झदेसभाए जे से पंचमे मोमे, तस्स ६१. इन भौमों के मध्यातिमध्य प्रदेश में स्थित जो पाँचवाँ भौम णं भोमस्स बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं एगे महं सीहासणे है, उस भौम के भी बीचोंबीच एक विशाल सिंहासन कहा गया पण्णत्ते। सीहासण वण्णओ विजये दूसे-जाव-अंकुसे- है, सिंहासन का वर्णन विजय दूष्य का-यावत्-अंकुश का-यावत्जाव-दामा चिट्ठन्ति । मालाओं का वर्णन (पहले किये गये इन इन के वर्णन के समान यहाँ भी कर लेना चाहिये ।) ६२. तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरथिमेणं- ६२. इस सिंहासन के वायव्यकोण में उत्तर दिशा में और ईशान एत्थ णं विजयस्स देवस्स चउण्हं सामाणियसहस्साणं चत्तारि कोण में विजयदेव के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। भद्रासन कहे गये हैं। ६३. तस्स णं सोहासणस्स पुरच्छिमेणं-एत्थ णं विजयस्स देवस्स ६३. इस सिंहासन के पूर्व दिशा में विजयदेव की सपरिवार चार चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्तारि भद्दासणा पण्णत्ता। अग्रमहिषियों के चार भद्रासन कहे गये हैं। ६४. तस्स णं सीहासणस्स दाहिण-पुरत्थिमेणं-एत्थ णं विजयस्स ६४. इस सिंहासन के आग्नेय कोण में विजयदेव की आभ्यन्तर देवस्स अभितरियाए परिसाए अट्ठण्हं देवसाहस्सीणं, अट्ठण्हं परिषदा के आठ हजार देवों के आठ हजार भद्रासन कहे गये हैं। भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। ६५. तस्स णं सोहासणस्स दाहिगेणं-एत्थ णं विजयस्स देवस्स ६५. इस सिंहासन की दक्षिण दिशा में विजयदेव की मध्यमा मज्झिमियाए परिसाए दसहं देवसाहस्सीणं दस भद्दासण परिषदा के दस हजार देवों के दस हजार भद्रासन कहे गये हैं। साहस्सीओ पण्णत्ताओ। ६६. तस्स णं सोहासणस्स दाहिण-पच्चत्थिमेणं-एत्थ णं विजयस्स ६६. इस सिंहासन की दक्षिण-पश्चिम दिशा में विजयदेव की देवस्स बाहिरियाए परिसाए बारसण्हं देवसाहस्सीणं बारस बाह्य परिषदा के बारह हजार देवों के बारह हजार भद्रासन कहे भद्दासण साहस्सीओ पण्णत्ताओ। गये हैं। ६७. तस्स णं सीहासणस्स पच्चत्थिमेणं-एत्थ णं विजयस्स ६७. इस सिंहासन के पश्चिम दिग्भाग में विजयदेव के सात अनीका देवस्स सत्तण्हं अणियाहिवईणं सत्त भद्दासणा पण्णत्ता। धिपतियों-सेनापतियों के सात भद्रासन कहे गये हैं। १८. तस्स णं सोहासणस्स पुरथिमेणं दाहिणणं पच्चत्थिमेणं ६८. इस सिंहासन की पूर्व-दक्षिण-पश्चिम और उत्तर दिशा में उत्तरेणं-एत्थ णं विजस्स देवस्स सोलस आयरक्खदेवसाह- विजयदेव के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के सोलह हजार स्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- भद्रासन कहे गये हैं, वे इस प्रकार हैं--पूर्व दिशा में चार हजार, पुरस्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ, एवं चउसु वि-जाव- इसी प्रकार चारों दिशाओं में यावत् उत्तरदिशा में चार हजार उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ। भद्रासन कहे गये हैं। अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णत्ता । अवशेष भोमों में भी प्रत्येक भद्रासन कहे गये हैं। -जीवा०प०३, उ०१, सु० १३२ विजयदारस्स उवरिमागारा विजयद्वार के ऊपर का आकार६६. विजयस्स णं दारस्स उवरिमागारा सोलसविहेहि रयणेहि ६६. विजयद्वार के ऊपर का आकार सोलह प्रकार के रत्नों से उवसोभिया, तं जहा–रयणेहिं वइरेहि वेरुलिएहिं-जाव- सुशोभित है, यथा-वज्ररत्न वैडूर्य रत्न यावत् रिष्ट रत्न । रिट्ठहिं। १००. विजयस्स णं दारस्स उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णता, तं १००. विजयद्वार के ऊपर अनेक आठ-आठ मंगल द्रव्य कहे गये जहा–सिरिवच्छ-जाव- दप्पणा, सव्वरयणामया अच्छा हैं यथा-स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण, ये सभी मंगल द्रव्य -जाव—पडिरूवा। सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ, निर्मल यावत् प्रतिरूप है। १०१. विजयरस णं दारस्स उपि बहवे कण्हचामरझया-जाव- १०१. विजयद्वार के ऊपर अनेक कृष्ण चामरों की ध्वजाय हैं सबरयणामया अच्छा-जाव–पडिरूवा । यावत् जो सर्वात्मना रत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है । १०२. विजयस्स ण दारस्स उप्पि बहवे छत्तातिछत्ता तहेव। १०२. विजयद्वार के ऊपर अनेक छत्रातिछत्र हैं, जिनका वर्णन -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३३ पूर्व में किये छत्रातिछत्रों के वर्णन के अनुसार जानना चाहिये । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०३-१०६ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १५३ विजयदारस्स णामहेउ विजयद्वार के नाम का हेतु१०३. ५० से केणढणं भंते ! एवं बुच्चइ ? 'विजए णं वारे, विजए १०३. प्र. हे भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि णं दारे !' यह विजयद्वार है, यह विजयद्वार है ? उ० गोयमा ! विजए णं दारे विजए णाम देवे महिड्ढीए उ० हे गौतम ! विजयद्वार को विजयद्वार कहने का कारण -जाव-महाणुभावे पलिओवमठिईए परिवसइ। यह है कि वहाँ ऋद्धि सम्पन्न यावत् महातेजस्वी और पल्योपम की स्थिति वाला विजय नामक देव रहता है। से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं, चउण्हं अग्ग- वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार महिसोणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्ताह अणियाणं, अग्रमहिषियों, तीन परिषदाओं, सात अनीकों-सेनाओं, सात सत्तण्हं अणियाहिवईणं, सोलसहं आयरक्खदेवसाहस्सोणं, अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों तथा विजयद्वार विजयस्स णं दारस्स, विजयाए रायहाणीए, अण्णेसि च बहूणं की विजया नामक राजधानी तथा उस विजया नामक राजधानी विजयाए रायहाणीए वत्थश्वगाणं देवाणं देवीण य आहेबच्चं में निवास करने वाले और दूसरे बहुत से देव-देवियों का आधिपत्य -जाव-दिव्वाई भोगभोगाई भुञ्जमाणे विहरइ। करते हुए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विचरण करते हैं । से देणढणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"विजए दारे, विजए इस कारण गौतम ! विजयद्वार को विजयद्वार कहते हैं । दारे।" -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३४ विजयदारस्स सासयत्तं विजयद्वार की शाश्वतता१०४. 'अत्तरं च णं गोयमा ! विजयस्स णं वारस्स सासए णाम- १०४. अथवा हे गौतम ! विजयद्वार यह शाश्वत नाम कहा गया धज्जे पण्णत्ते-जण्ण कयाइ थि–जाव-णिच्चे विजए है, 'यह विजयद्वार कभी नहीं था' ऐसा नहीं है, यावत् नित्य है। _ --जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १३४ विजयारायहाणीए ठाणं पमाणं य विजया राजधानी का स्थान और प्रमाण१०५.५० कहिणं भंते ! विजयस्स देवस्स विजया णाभं रायहाणी १०५. प्र०-हे भगवन् ! विजयदेव की विजया नामक राजधानी पण्णत्ता? किस स्थान पर कही गई है ? अर्थात् कहाँ पर स्थित है ? उ० गोयमा! विजयस्स णं दारस्स पुरथिमेणं तिरियमसंखेज्जे उ०-हे गौतम ! विजयद्वार की पूर्व दिशा में तिर्यग् दीव-समुह वीइवत्ता, अण्णमि जंबुद्दीवे दीवे बारस- असंख्यात द्वीप समुद्रों का अतिक्रमण करने के बाद प्राप्त अन्य जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थ णं बिजयस्स देवस्स जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन जाने पर विजय देव की विजया विजया णाम रायहाणी पण्णत्ता-बारसजोयणसहस्साई नामक राजधानी कही गई है-यह विजया राजधानी लम्बाईआयाम-विवखंभेणं, सत्ततीसजोयणसहस्साई नव य अड- चौड़ाई में बारह हजार योजन की है, तथा इसका परिक्षेप कुछ याले जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। अधिक सैतीस हजार नौ सौ अड़तालीस योजन प्रमाण कहा -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १३५ गया है। विजयारायहाणीए पागारस्स पमाणं विजया राजधानी के प्राकार का प्रमाण१०६. सा गं एगेण पागारेणं सम्बओ समंता संपरिक्खित्ता। १०६. यह राजधानी एक प्राकार-कोट से चारों ओर घिरी दारे। से णं पागारे सत्ततीसं जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ढे यह प्राकार ऊँचाई में साढ़े सैतीस योजन ऊँचा है, मूल में उच्चत्तणं, मुले अद्धतेरसजोयणाई विक्खंभेण, मझेऽत्थ साढ़े बारह योजन का विस्तार वाला, मध्य में एक कोस सहित सबकोसाई छ जोयणाई विभेणं, उपि तिणि सद्धकोसाइं छह योजन का विस्तार वाला और ऊपर साढ़े तीन योजन का जोयणाई विक्खभेण, मूले विस्थिपणे, मज्झे संखित्त, उपि विस्तार वाला है। इस प्रकार मुल में विस्तृत; मध्य में संक्षिप्ततणए, बाहिं बटू, अंतो चउरसे, गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्व- संकुचित और ऊपरी भाग में पतला होता गया है. बाह्य भाग में कणगामए अच्छे-जाव–पडिरूवे । वृत्ताकार और भीतरी भाग में समचतुष्क-चौरस है, आकार में -जीवा०प०३, उ० १, सु० १३५ गोपुच्छ के संस्थान वाला है, और सर्वात्मना स्वर्ण का बना हुआ स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १०७-११२ कविसीसगाणं वण्णं पमाण य कंगूरों का वर्ण और प्रमाण१०७. से णं पागारे जाणाविह पंचवर्णोहि कविसीसएहि उवसोभिए, १०७. इस प्राकार पर अनेक प्रकार के पंचरंगी कंगूरे शोभायमान तं जहा-किण्हेहि-जाव-सुविकलेहि । हो रहे हैं, यथा-कृष्णवर्ण के यावत् श्वेत वर्ण के । तेणं कविसीसका अद्धकोसं आयामेणं पंचधणुसयाई ये कंगूरे आधे कोस के लम्बे और पांच सौ धनुष के चौड़े हैं विवखंभेणं, देसोणमद्धकोस उडढं उच्चत्तेणं, सव्वमणिमया और कुछ कम आधे कोस के ऊँचे हैं, ये सभी अगूरे सर्वात्मना अच्छा-जाव-पडिरूवा । मणियो से बने हुए, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३५ विजयारायहाणीए एगमेगाए बाहाए पणवीसं दारसयं- विजया राजधानी की प्रत्येक बाहा में एक सौ पच्चास द्वार१०८. विजयाए णं रायहाणीए एगमेगाए बाहाए पणुवीसं पणुवीसं १९८. विजया राजधानी की एक-एक बाहा में एक सौ पच्चीस दारसयं भवतीतिमक्खायं । एक सौ पच्चीस द्वार होते हैं, ऐसा कहा गया है। तेणं दारा बाढि जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ढं उच्चत्तेणं, ये प्रत्येक द्वार साढ़े बासठ योजन के ऊँचे, इकतीस योजन एक्कतीसं जोयणाई कोसं च विखंभेणं, तावतियं चैव पवेसेणं, और एक कोस के विस्तार वाले हैं, और उतना ही विस्तार वाला सेया वरकणगथूभियागा ईहामिय० तहेव जहा विजए दारे प्रवेश मार्ग है, श्वेतवर्ण वाले हैं, और श्रेष्ठ सोने से बनी हुई -जाव- तवणिज्ज वालुगपत्थडा, सुहफासा, सस्सिरीया, स्तूपिकाओं-शिखरों से मंडित हैं, तथा इहामग आदि के चित्रामों सरूवा, पासाईया-जाव–पडिरूवा । से चित्रित आदि जैसा वर्णन विजयद्वार का पूर्व में किया गया है उसी प्रकार इनका भी वर्णन करना चाहिये यावत् तपनीय स्वर्णमय बालुका बिछी हुई है, सुखद स्पर्श वाले, सश्रीक, रूप सम्पन्न, दर्शनीय यावत् पतिरूप है। १०६. तेसि णं दाराणं उभयपासिं दुहओ णिसीहियाए दो चंदण- १०६. इन द्वारों के दोनों ओर की दोनों नषेधिकाओं पर दो-दो कलसपरिव डोओ पण्णत्ताओ, तहेव भाणियब्वं-जाव- चन्दन कलशों की श्रेणियाँ कही गई हैं, इनका वर्णन भी पूर्व की वणमालाओ। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३५ तरह कहना चाहिये यावत् वनमालायें हैं। पगंठगाणं पमाणं प्रकंठकों का प्रमाण११०. तेसि णं दाराणं उभओ पासि दुहओ णिसीहिआए दो दो ११०. इन द्वारों के उभय पार्श्व की दोनों नैषिधिकाओं में दो-दो पगंटगा पण्णत्ता, तेणं पगंठगा एक्कतीस जोयणाई कोसं च प्रकण्ठक पीठ विशेष कहे गये हैं, वे प्रकंठक एक कोस अधिक आयाम-विक्खंभेणं, पण्णरसजोयणाई अड्ढाइज्जे कोसे इकतीस योजन के लम्बे-चौड़े हैं, ढाई कोस अधिक पन्द्रह योजन वाहल्लेणं पण्णत्ता । सव्ववइरामया अच्छा-जाव-पडिरूवा । के मोटे कहे गये हैं, तथा सर्वात्मना वजरत्नों से बने हुए, स्वच्छ -जीवा०प०३, उ०१, सु० १३५ यावत् प्रतिरूप है। पासायडिसगाण पमाणं प्रासादवतंसकों का प्रमाण१११. तेसि णं गठगाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं पासायडिसगा पण्णत्ता। १११. इन प्रत्येक प्रकठकों के ऊपर एक-ए: प्रासादवतसक कहे तेणं पासायडिसगा एक्कतीसं जोयणाई कोसं च उई उच्च- गये हैं, ये प्रत्येक प्रासादावतंसक ऊँचाई में एक कोस अधिक तेणं पण्णरसजोयणाई अढाइज्जे य कोसे आयाम-विक्वंभेणं इकतीस योजन ऊँचे, अढाई कोस अधिक पन्द्रह योजन के लम्बेसेसं तं चेव-जाव-समुग्गया। णवरं-बहुवयण भाणि- चौड़े हैं, शेष वर्गन समुद्गक पर्यन्त पूर्व की तरह समझ लेना यवं । चाहिये, लेकिन अन्तर इतना है कि विजयद्वार के वर्णन में एक वचन का प्रयोग है और यहाँ बहुवचन का प्रयोग करना चाहिये। ११२. विजयाए णं रायहाणीए एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कझयाणं ११२. विजया राजधानी के प्रत्येक द्वार के ऊपर एक सौ आठ -जाव-अट्ठसयं सेयाणं चउविसाणाणं णागवरकेऊणं, चक्र के चिह्न से अकित ध्वजायें हैं यावत् श्रेष्ठ नाग के केतुभूत श्वेत चार दन्तों की आकृति के चिह्न से अंकित एक सौ आठ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२-११५ ११२. विजया २१५. एवामेव सपुव्वावरेणं विजयाए रायहाणीए एगमेगे दारे ध्वजायें फहरा रही हैं, इस प्रकार सब मिलाकर उस विजया आसीयं आसीयं के सहस्सं भवतीतिमवखायं । राजधानी के प्रत्येक द्वार पर एक हजार अस्सी, एक हजार अस्सी. ध्वजायें कही गई हैं । - जीवा० प० ३, उ० १ सु० १३५ विजयारायहाणीए दाराण पुरओ सत्तरस भोमा राहाणीए एगमेगे दारे (तेसि पुरओ) सत्तरस भोमा पण्णत्ता । तिर्यक् लोक : विजयद्वार तेसि णं भोमाणं भूमिभागा उल्लोया य पउमलया - जावभत्तिचित्ता । ११४. सिदा तेसि णं भोमाणं बहुमज्झदेसभाए जे ते नवमनवमा भोमा । तेसि गं भीमागं बहमासभाए पत्ते पत्ते सीहासणा पण्णत्ता, सीहासण वण्णओ - जाव-दामा जहा हेट्ठा एत्थ णं अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णत्ता । उपरिमागारा सोलसविरह उब सोभिया, तं चेव — जाव - छत्ताइछत्ता । एवामेव वावरेण विजयाए रायहाणी पंच दारया भवतीतिमवखायं । - जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३५ विजयारायहाणीए चउचितारि वणसंडा राहाणीए पति पंचजोपणलाई अवाहा - एत्थ णं चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा – (१) असोग(२) सण (३) चंपवणे, (४) तय 1 (१) पुरत्थिमेणं असोगवणे, (२) दाहिणेणं सत्तवण्णवणे, (३) पश्चमे बंगवणे, (४) उत्तरेणं चूतवणे । गणितानुयोग १५५. साइरेगाई दुवाल सजोषसहस्साई आयामे पंच जोयणसयाइ विक्खंभेणं, पण्णत्ता । पत्तेयं पत्तेयं पागार परिविखत्ता किण्हा किण्होभासा, वणसंड वण्णओ भाणियन्त्रो। - जाव-बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति, संयंति, चिट्ठन्ति, णिसीदंति, तुयट्टन्ति, रमति ललंति, कोलंति, मोति, पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं कम्मा काणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरति । - जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३६ विजया राजधानी के द्वारों के आगे सतरह भौम ११२. विजया राजधानी के उन प्रत्येक द्वार पर (द्वार के आगे) सतरह सतरह भौम कहे गये हैं । इन भौमों के अन्दर की छत और अगासी में पद्मलता आदि. यावत् चित्राम चित्रित हैं । इन भौमो के बीचोंबीच के भाग में नोंवा भौम है । उन सब भौमों के बीचोंबीच अलग-अलग एक-एक सिंहासन कहा गया है। इन सब सिहासनों का दाम पर्यन्त का वर्णन जैसा पूर्व में विजयद्वार के वर्णन में किया है, वैसा ही वर्णन यहाँ कर लेना चाहिये, यहाँ अवशेष भौमों में से प्रत्येक में भद्रासन कहे गये हैं । ११४. इन द्वारों के ऊपर का भाग सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित है, और शेष वर्णन छत्रातिछत्र विजयद्वार के वर्णन जैसा ही समझ लेना चाहिये । इस प्रकार पूर्वापर आगे-पीछे के सब मिलाकर विजया. राजधानी के पाँच सौ द्वार होते हैं, ऐसा कहा गया है । विजया राजधानी के चार दिशा में चार वनखण्ड ११५. विजया राजधानी की चारों दिशाओं में पांच सौ योजन आगे जाने पर चार वनखंड कहे गये हैं, यथा - ( १ ) अशोकवन, (२) सप्तपर्णवन, (३) चंपकवन और (४) आम्रवन । इसमें से पूर्व दिशा में अशोकवन दक्षिण दिशा में सप्तपवन पश्चिम दिशा में चंपकवन और उत्तर दिशा में आम्रवन है । ये प्रत्येक वनखंड कुछ अधिक बारह हजार योजन के लम्बे और पाँच सौ योजन के चौड़े कहे गये हैं, प्रत्येक वनखंड प्राकारकोट से घिरा हुआ है और कृष्णवर्ण जैसा प्रतीत होता है, और छाया भी कृष्ण वर्ग की है, वनखंड का वर्णन ( पूर्व में किये गये वनखंड वर्णन जैसा) कर लेना चाहिये यावत्-बहुत से वाण -- व्यंतर देव और देवियाँ जहाँ सुखपूर्वक बैठती हैं, होती हैं, खड़ी होती हैं, बैठी रहती हैं, लेटती हैं, रमण करती हैं, यथारुचि, मनोनुकूल कार्य करती है, क्रीड़ा करती है, ऐन्द्रियिक विषय सेवन करती है, और इस प्रकार से पूर्व जन्म में किये हुए आचरित सुपरित्रांत शुभ कर्मों के, कल्याण रूप फलविशेषों का उपभोग करती हुई समय व्यतीत करती है । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ लोक-प्रज्ञप्ति पासायडसगाणं पमाणं - ११६. तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडगा पण्णत्ता । तेणं पासायवडेंसगा बावट्ट जोयणाई अजोय च उड़ उच्चलेणं एक्कतीस जोयणाई कोच आयाम-विषमे अमायभूसिया बजावतो बहुसमर मणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता । उल्लोया, पउमलया, भत्तिचित्ता भाणियव्वा । . तिर्यक् लोक विजयद्वार ११. सि पासाया उचि बहवे अ मंगलमा, झवा छत्तातिछत्ता । तत्य गं चलारि देवा महिड्डिया जाय-लिओयमद्वितीया परिवसंति । तं जहा – (१) असोए, (२) सत्तवण्णे, (३) चंपए, (४) भूते - ११७. सि णं पासायवडेंसगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं ११७. इन प्रासादावतंसकों में से प्रत्येक के मध्यातिमध्य भाग में सोहासणा पण्णत्ता, वण्णावासो सपरिवाए । एक-एक सिंहासन कहा गया है, भद्रासनों आदि परिवार सहित इनका वर्णन करना चाहिये । - जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३६ ११६. तत्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं, साणं साणं पासायवडेंसयाणं साणं साणं सामाणियाणं, साणं साणं अग्गमहिसीणं, साणं साणं परिमाणं, साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवच्च जाय-विहरति । १२०. विजयाए णं राहाणीए अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव- पंचवण्णेहि मणीहि उवसोभिए - तणसद्दविणे - जाव देवा य देवीओ य आसयंति- जाव विहरति । - जीवा० प० ३ उ० १, मु० १३६ ओवरियालेणरस पमाणं १२१. तरणं समरमणिज्जरस भूमिभागस्स बनाएएत्थ णं एगें महं ओवरियालेणे पण्णत्ते, बारसजोपणसयाई आयाम विक्खंभेणं, तिनि जोयणसहस्साई सत य पंचाणउए जोएचि विसेसाहिए परिवेश, अकोर्स माह स. व जंबूणयामएणं, अच्छे-जाव- पडिवे 1 www सूत्र ११६-१२१ प्रासादावतंसकों का प्रमाण ११६. इन वनखण्डों में से प्रत्येक वनखंड के मध्यातिमध्य भाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं, इन प्रासादावतंसकों की ऊंचाई वास योजन और अर्धकोस की है और लम्बाई-चौड़ाई एक कोस अधिक इकतीस योजन की है, ये भूमितल से ऊपर उठे हुए हैं, इत्यादि वर्णन पूर्व में आगत वर्णन के अनुरूप करना चाहिए -- यावत् अन्दर का भूमिभाग अत्यधिक समतल और रमणीय कहा गया है, ऊपर की छत पद्मलता आदि के चित्रों से चित्रित है आदि सभी वर्णन कहना चाहिए। ११८. इन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य, ध्वजा, छत्रातिछत्र हैं । वहाँ पर महा ऋद्धिसम्पन्न - यावत् — पल्योपम की स्थिति वाले चार देव निवास करते हैं, यथा - ( १ ) अशोक वन में अशोक नाम का देव, (२) सप्तपर्णवन में सप्तपर्ण नाम का देव, (३) चंपकवन में चंपक नाम का देव, और ( ४ ) आम्रवन में चूत नाम का देव रहता है । ११६. ये अशोक आदि देव अपने-अपने वनखंड का अपने-अपने प्रासादावतंसक का, अपने-अपने सामानिक देवों का अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का अपनी-अपनी परिषदाओं का और अपने-अपने आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए- यावत् - सुखपूर्वक रहते हैं । १२०. विजया राजधानी का अन्तवर्ती भूमिभाग बहुत ही सम एवं रमणीय कहा गया है- यावत्-पाँच वर्णों की मणियों से उपशोभित है तुम आदि के शब्द से रहित यावत् देव और देवियाँ विश्राम करती हैं - यावत् - सुखपूर्वक समय बिताती हैं । उपकारिकालयन का प्रमाण १२१. इस बहुत अधिक सम और रमणीय भू-प्रदेश के ठीक बीचों-बीच के भाग में एक बहुत बड़ा उपकारिकालयन (सचिवालय, कार्यालय आदि) कहा गया है, जो बारह सौ योजन का सम्बा बोड़ा है और परिक्षेप विशेषाधिक तीन हजार सात सौ पंचानवें योजन का है, इसकी मोटाई आधे कोस की है, और सर्वात्मना जाम्बूनद 'स्वर्ण से बना हुआ है, स्वच्छ - यावत्प्रतिरूप है । १२२. से णं एगाए पउमवरवेड्याए, एगेणं वणसंडेणं सवओ समंता १२२. यह उपकारिकालयन एक पद्मवर वेदिका और एक वनखंड से चारों ओर सर्वात्मना घिरा हुआ है । संपर Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२२-१२८ तिर्यक् लोक :विजयद्वार गणितानुयोग १५७ पउमवरवेइयाए वण्णओ, वणसंड-वण्णओ-जाव-देवाय यहाँ पद्मवरवेदिका और वनखंड का वर्णन कर लेना चाहिये देवीओ य आसयंति-जाव-विहरंति । -यावत्-देव-देवियाँ बैठती है-यावत् - विचरण करती हैं। १२३. से णं वणस हे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवाल-विक्खंभेणं, १२३. इस वनखंड का चक्रवाल-विष्कम्भ-घेरा कुछ कम दो योजन ओवरियालयणसमपरिवखेवेणं ।। का है, और उपकारिकालयन के बराबर परिक्षेप वाला है। तस्स णं ओवरियालयणस्स चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाण इस उपकारिकालयन के चारों ओर चार त्रिसोपान पंक्तियाँ पडिरूवगा पण्णत्ता । बण्णओ।। कही गयी हैं, यहाँ त्रिसोपान का वर्णन करना चाहिए। १२४. तेसि णं तिसोवाण पडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं तोरणा १२४. इन शोभनीय तीन सोपानों में से प्रत्येक के आगे तोरण पण्णता-जाव-छत्तातिछत्ता। कहे गये हैं-यावत्-छत्रातिछत्र है । १२५. तस्स णं ओवरियालयणस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिमागे १२५. इस उपकारिकालयन की ऊपरी छत का प्रदेश बहुत ही पण्णते,-जाव-मणीहि उवसोभिए। मणिवणओ, गंध-रस- सम और रमणीय कहा गया है-यावत्-मणियों से शोभायमान फासो। -जीवा०प०३, उ० १, सु० १३६ हो रहा है, यहाँ मणियों का वर्णन तथा गंध रस और स्पर्श का वर्णन कहना चाहिये। मूलपासायडिसस्स पमाणं मूलप्रासादवतंसक का प्रमाण१२६. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए- १२६. इस बहु सम रमणीय भूमिभाग के मध्यातिमध्य भाग में एत्थ णं एगे महं मूलपासायडिसए पण्णत्ते । एक विशाल मुख्य प्रासादावतंसक कहा गया है । से णं पासायडिसए बाढि जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ढे वह प्रासादावतंसक बासठ योजन और आधे योजन का ऊँचा उच्चत्तेणं, एकतीसं जोयणाई कोसं च आयाम-विक्खं भेणं, है, तथा एक कोस अधिक इकतीस योजन का लम्बाई-चौड़ाई अब्भुग्गयमूसियप्पहसिए, तहेव । वाला है, और ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी ऊँचाई से आकाशतल का स्पर्श करके उसका उपहास कर रहा है, इत्यादि वर्णन पूर्व में किये गये वर्णन के अनुरूप इसका भी समझना चाहिये । तस्स णं पासायडिसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे इस प्रासादावतंसक का अन्तवर्ती भूमिभाग अत्यन्तसम एवं पण्णते,-जाव- मणिफासे उल्लोए । रमणीय कहा गया है-यावत्-मणियों का स्पर्श और उल्लोक चांदनी का वर्णन पूर्व की तरह करना चाहिये । २२७. तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे- १२७. इस अत्यन्त सम एवं रमणीय भूमिभाग के अतिमध्यभाग में एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता। एक बहुत बड़ी मणिपीठिका कही गई है। सा च एग जोयणमायाम-विक्खंभेणं, अद्धजोयणं बाहल्लेणं यह मणिपीठिका एक योजन की लम्बी चौड़ी है, और आधे सव्वमणिमई अच्छा-जाव-पडिरूवा। योजन की मोटी है, तथा सर्वात्मना रत्नों से बनी हुई स्वच्छ - -यावत्-प्रतिरूप है। तीसे णं मणिपेढियाए उरि एगे महं सीहासणे पण्णते । इस मणिपीठिका के ऊपर एक बहुत बड़ा सिंहासन कहा गया एवं सीहासण-वण्णओ सपरिवारो। है, और भद्रासन आदि परिवारसहित इस सिंहासन का वर्णन करना चाहिए। १२८. तस्स णं पासायडिसगस्स उप्पि बहवे अट्टमंगलगा, झया, १२८. इस प्रासादावतंसक के ऊपर अनेक आठ-आठ मंगलद्रव्य, छत्तातिछत्ता। ध्वजायें और छत्रातिछत्र हैं। तेणं पासायवडेंसगा अण्णेहि चहिं तबद्धच्चत्तप्पमाण- यह प्रासादावतंसक अपनी ऊँचाई से आधी ऊंचाई वाले मेत्तेहिं पासायवडेंसएहि सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । अन्य चार प्रासादावतसकों द्वारा सर्वतः सभी दिशाओं में परि वेष्टित है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १२६-१३४ पासायडिसगाणं पमाणं प्रासादावतंसकों का प्रमाण१२६. ते णं पासायडिसगा एक्कतीसं जोयणाई कोसं च उड्ढे १२६. ये प्रासादावतंसक ऊँचाई में एक कोस अधिक इकतीस उच्चत्तेणं अद्धसोलस जोयणाई अद्धकोसं च आयामविक्खंभेणं योजन ऊँचे हैं, तथा साढ़े पन्द्रह योजन और आधे कोस के लम्बे-. अब्भुग्गतमूसियपहसियाविव विविहमणिन्यण - भत्तिचित्ता चौड़े हैं, अपनी ऊँचाई से ऐसे प्रतीत होते हैं कि आकाश का तहेव, तेसि णं पासायडिसयाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा स्पर्श करते हुए उसका उपहास ही कर रहे हैं, अनेक प्रकार के भूमिभागा उल्लोया। मणिरत्नों के चित्रामों से चित्रित है, इत्यादि वर्णन पूर्व में किये गये वर्णन के अनुरूप कहना चाहिये, इन प्रासादावतंसकों का अन्तर्वर्ती भूमिभाग अत्यधिक सम और रमणीय है, और चाँदनी अगासी है, इत्यादि वर्णन करना चाहिये। तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए इन बहु सम रमणीय भूमिभागों के बीचों-बीच पृथक्-पृथक् पत्तेयं पत्तेयं सीहासणं पण्णत्तं, वण्णओ। सिंहासन कहे गये हैं, उनका वर्णन करना चाहिये। तेसि परिवारभूता भद्दासणा पण्णत्ता, तेसि णं अट्ठट्ठमंगलगा इन सिंहासनों के परिवार-भूत अन्य भद्रासन कहे गये हैं, झया छतातिछत्ता। और उनके आठ-आठ मंगलद्रव्य ध्वजायें, छत्रातिछत्र है, (इत्यादि सबका वर्णन यहाँ पर करना चाहिये ।) १३०. ते णं पासायडिसका अर्णोहिं चउहिं चहिं तदद्धच्चत्तपमाण- १३०. ये प्रासादवतंसक भी अन्य चार-चार प्रासादावतंसकों से मेत्तेहिं पासायवडेंसएहि सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता । सर्व दिशाओं में घिरे हुए हैं, जिनकी ऊँचाई उन प्रासादावतंसको से आधी है। १३१. ते णं पासायव.सका अद्धसोलसजोयणाई अद्धकोसं च उड्ढं १३१. ये सभी प्रासादावतंसक साधिक अर्ध कोस साढ़े पन्द्रह उच्चत्तेणं देसूणाई अट्ट जोयणाई आयामविक्खभेणं अन्भुग्गय- योजन के ऊँचे हैं, कुछ कम आठ योजन के लम्बे-चौड़े हैं, तथा मूसियपहसियाविव विविहमणिरयणभत्तिचित्ता तहेव, तेसि अपनी ऊँचाई से आकाश का स्पर्श करते हुए ऐसे प्रतीत होते हैं, णं पासायवडेंसगाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा कि, उसका उपहास ही कर रहे हैं, विविध मणिरत्नों से बने उल्लोया, तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झ- चित्रों से चित्रित है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् करना चाहिये, इन देसभाए पत्तेयं पत्तेयं पउमासणा पण्णत्ता, तेसि णं पासायाणं प्रासादावतंसकों का भीतरी भाग बहुत ही सम और रमणीय है, अट्ठट्ठमगलगा झया छत्तातिछत्ता। और चाँदनी-अगासी है, उन बहु सम और रमणीय भूमिभागों के अति मध्य प्रदेश में पृथक्-पृथक् पद्मासन कहे गये हैं, उन प्रासादों के अग्र भाग में आठ-आठ मंगलद्रव्य; ध्वजायें छत्राति-- १३२. ते पासायवडेंसगा अण्णेहि चहिं तदुद्धच्चत्तपमाणमेत्तेहिं १३२. ये प्रासादावतंसक अपने से आधी ऊंचाई के प्रमाण वाले पासायब.सएहि सव्वतो समता संपरिक्खित्ता । अन्य चार प्रासादावतंसकों द्वारा सर्वतः चारों दिशाओं में घिरे १३३. ते णं पासायवडेंसका देसुणाई अट्ठ जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेण १३३. ये प्रासादावतंसक देशोन आठ योजन ऊँचे और देशोन चार देसूणाई चत्तारि जोयणाई आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गतमूसिय- योजन के लम्बे-चौड़े हैं, तथा अपनी ऊंचाई से आकाश मंडल का पहसियाविव विविहमणिरयणभत्तिचित्ता भूमिभागा उल्लोया स्पर्श करते हुए मानो उसका उपहास करते हुए से प्रतीत होते हैं भद्दासणाई उरि मंगलगा झया छत्तातिछत्ता । विविध मणि रत्नों से बने हुए अनेक प्रकार के चित्रों से चित्रित हैं, भूमिभाग, उल्लोकों, भद्रासनों के ऊपर अष्ट मंगलद्रव्य, ध्वजायें, छत्रातिछत्र इत्यादि वर्णन कर लेना चाहिये । १३४. ते णं पासाय वडेंसगा अण्णेहिं चउहि तदुद्धच्चत्तप्पमाणमेहि १३४. ये प्रासादावतंसक भी अपने से आधी ऊँचाई वाले और पासायडिसएहि मव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। दूसरे चार प्रासादावतंसकों द्वारा चारों दिशाओं में घिर हुए हैं। ते णं पासायवडेंसगा देसूणाई चत्तारि जोयणाई उड्ढं ये प्रासादावतंस क देशोन चार योजन के ऊंचे हैं, देशोन दो Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १३४-१३५ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १५६ उच्चत्तेण, देसूणाई दो जायणाई आयाम-विक्खंभेणं, अब्भुगय- योजन के लम्बे-चौड़े हैं, अपनी ऊँचाई से आकाश को स्पर्श करते मूसिय० भूमिभागा, उल्लोया, पउमासणाई, उरि मंगलगा, हैं, समतल भूमिभाग है, उल्लोक, पद्मासन, ऊपर मंगल द्रव्य, झया, छत्तातिछत्ता। ध्वजायें, छत्रातिछत्र इत्यादि वर्णन पहले किये गये वर्णन के जैसा -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३६ ही समझना चाहिये । विजयदेवस्स सुहम्मा सभा वण्णओ विजयदेव की सुधर्मा सभा का वर्णन-१३५. तस्स णं मूल पासायवडेंसगस्स उनर-पुरत्थिमे णं-एत्थ णं १३५. इस मुख्य प्रासादावतसक की उत्तर-पूर्व दिशा ईशानकोण विजयस्स देवस्स सभा सुहम्मा पण्णत्ता। अद्धतेरस जोयणाई में विजयदेव की सुधर्मा सभा कही गई है, यह सभा साढ़े-बारह आपामेणं छ सक्कोसाई जोयणाई विक्खंभेणं, णव जोयणाई योजन की लम्बी, कोसाधिक छह योजन (सवा छह योजन) की उड्ढं उच्चतेणं। चौड़ी और ऊंचाई में यह नौ योजन की ऊंची है। अणेगखंभसयसंनिविट्ठा, अब्भुग्गयसुकयवइरवेदिया, तोरण- (यह) अनेक सैकड़ों खम्भों से सन्निविष्ट है, अच्छी तरह से वररइयसाल भंजिया, सुसिलिट्ठ, विसिट्ठ-लट्ठ-संठिय-पसत्थ बनी हुई वेदिका से युक्त है, जिसके श्रेष्ठ तोरण (मुख्य द्वार) पर वेरुलिय-विमलखंभा, णाणामणि-कणग-रयण-खइय-उज्जल- (शोभानिमित्त) शाल भंजिकायें (काष्ठ से बनी पुत्तलिकायें) बनी बहु-सम-सुविभत्त-चित्तरमणिज्ज-कुट्टिमतला, ईहामिय-उसभ- हुई हैं, जिसके स्तम्भ अति सुघड़तापूर्वक लेप (पलस्तर) किये तुरग णर-मगर-विहग-वालग-किण्णर-रुरु-सरभ-चमर-कुजर- गये और विमल वैड्यं मणियों से खचित हैं, जिसका भूमिभाग वणलय-पउमलय-भत्तिचित्ता, थंभुग्गय वइरवेइया परिगया- (फर्श) अनेक प्रकार की मणियों, स्वर्ण और रत्नों से खचित है, भिरामा, विज्जाहर जमल-जुयलजंतजुताबिव, अच्चिसहस्स- अर्थात् जिसके फर्श में मणिरत्न आदि जड़े हुए हैं, जिससे बड़ा मालणीया, रुबगसहस्स कलिया भिसमाणी, भिभिसमाणी, ही उज्ज्वल समतल सुविभक्त और चित्ताकर्षक है, ईहामृग, वृषभ, चक्खुलोयणलेसा, सुहफासा, सस्सिरीयरूवा । अश्व, मनुष्य, मगर, पक्षो, सर्प, किन्नर, रुरु, सरभ, अष्टापद, चमरीगाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्रों से चित्रित है, स्तम्भों के ऊपर वज्र की बनी हुई वेदिकाओं से अत्यन्त सुहावनी प्रतीत हो रही है, और स्तम्भों पर समश्रेणी में बने हुए विद्याधर युगल यन्त्रचालित जैसे प्रतीत होते हैं, अपनी चमचमाहट से हजारों सूर्य किरणों की माला जैसी प्रतीत होती है, हजारों रूपों से यह युक्त है, दीप्यमान, दैदीप्यमान है, दर्शकों के नेत्रों को आकृष्ट करने वाली है, इसका स्पर्श सुखकारी है, इसका रूप बड़ा मनोहर है। कंचण-मणिरयण-थूभियागा, णाणाविह पंचवण्ण-घंटा- इसके शिखर स्वर्ण मणि और रत्नों के बने हुए है, अनेक पडाग-पडिमंडितग्गसिहरा, धवला, मिरीइकवचं विणिम्मुयंती प्रकार के घंटों और पंचवर्ण वाली पताकाओं से जिसके शिखरों लाउल्लोइयमहिया, गोसीस-सरसरत्तचंदण-बद्दरविन्नपंचगुलि- के अग्रभाग मंडित हैं, ये शिखर धवल-श्वेत वर्ण के हैं, जिससे तला, उचियचंदण कलसा, चंदणघडसुकय-तोरण-पडिदुवार- ऐसी प्रतीत होती है कि मानो किरणरूपी कवचों को छोड़ रही है, देसभ गा, आसत्तोसत्त-विउल-बट्ट-वग्धारिय-मल्लदामकलावा, अर्थात् चारों ओर से किरणें निकल रही हैं, इसका नीचे का सारा पंचवण्ण-सरस-सुरभिमुक्क-पुप्फपुजोवयारकलिया, कालागुरु- भाग गोमय से लिपा हुआ और भीतें श्वेत मिट्टी से पुती होने से पवर-कुन्बुरुक्क-तुरक्क-धूवमघमत-गंधुद्धयाभिरामा-सुगंधवर- पवित्रता की प्रतीति होती है, इसकी भित्तियों पर गो-शीषं और सरस रक्त चन्दन के लेप के हाथ लगे हुए हैं, मगल के निमित्त जिसमें चन्दन कलश रखे हैं, इसके प्रवेश द्वार पर सुघड़ता से बनाये गये चन्दन कलशों के तोरण स्थापित किये गये है, जिसकी छत से लटकाई गई विस्तृत और गोल-गोल मालाओं का समूह नीचे जमीन पर लटक रहा है, जो पाँच वर्ग के सरस सुगन्धित पुष्पों के पुज से सुशोभित है, श्रेष्ठ कालागुरु, कुन्द रुष्क, तुरुक, धूप की महकती हुई गंध के फैलने से जो सुहावनी हो रही है, उत्तम सुगंध से सराबोर हो रही है, जिससे गध की गुटिवा जैसी Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १३५-१३६ गंधिया, गंधवट्टिभूया, अच्छरगणसंघसंविकिन्ना-दिव्वतुडिय- प्रतीत होती है, जो भिन्न-भिन्न देवगणों से खचाखच भरी हुई है, मधुरसहसंपणाइया, सुरम्मा, सव्वरयणामयी अच्छा-जाव- दिव्य वादित्रों के मधुर शब्दघोषों से जो प्रतिध्वनित हो रही है, पडिरूवा। देखने वालों को रमणीय प्रतीत होती है, सर्वात्मना रत्नमयी -जीवा०प०, ३ उ० १, सु० १३७ स्वच्छ--यावत्-प्रतिरूप है। सोहम्माए सभाए तिदिसि तओदारा सुधर्मा सभा के तीन दिशाओं में तीन द्वार- १३६. तीसे णं सोहम्माए सभाए तिदिसि तओदारा पण्णत्ता। १३६. इस सुधर्मा सभा के तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं। तेणं दारा पत्तेयं पत्तेयं दो दो जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, ये प्रत्येक द्वार दो-दो योजन ऊँचे, चौड़ाई में एक-एक योजन एग जोयणं विक्खंभेण, तावइयं चेव पवेसेणं, सेया, वर-कणग के हैं, और उतना ही प्रवेश करने का क्षेत्र है, इन द्वारों के थूभियागा,-जाव-वणमाला, दारवण्णओ। उपरितन भाग श्वेत एवं श्रेष्ठ स्वर्ण के बने हुए हैं-यावत्-जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३७ वनमाला के चित्र बने हैं, इसी प्रकार शेष द्वारों का वर्णन करना चाहिये। मुहमंडवाणं पमाणं मुखमंडपों का प्रमाण१३७. तेसि णं दाराणं पुरओ मुहमंडवा पण्णत्ता, तेणं मुहमंडवा, १३७. इन द्वारों के आगे मुखमंडप कहे गये हैं, ये मुखमंडप साढ़े अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं, छ जोयणाई सक्कोसाइं विक्खं- बारह योजन की लम्बाई और एक कोस अधिक छह योजन की भेणं, साइरेगाई दो जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, मुहमंडवा चौड़ाई वाले हैं, और कुछ अधिक दो योजन के ऊँचे हैं, ये मुख अणेगखंभसय संनिविट्ठा, जाव-उल्लोया, भूमिभाग-वण्णओ। मंडप अनेक सैकड़ों खम्भों से युक्त हैं-यावत्-उल्लोक एवं भूमिभाग इत्यादि का वर्णन करना चाहिये। तेसि णं मुहमंडवाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं अट्ठ मंगला इन प्रत्येक मुख मंडपों के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य कहे गये पण्णत्ता, सोत्थिय-जाव-दप्पण० । हैं, यथा-स्वस्तिक-यावत्-दर्पण । -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३७ पेच्छाघरमंडवाणं पमाणं प्रेक्षाघर मंडपों का प्रमाण१३८. तेसि ण मुहमंडवाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं पेच्छा घरमंडवा १३८. इन प्रत्येक मुखमंडपों के आगे प्रेक्षागृह मंडप कहे गये हैं। पण्णत्ता। तेणं घेच्छाघरमंडवा अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं,-जाव- ये प्रेक्षागृह मंडप साढ़े बारह योजन के लम्बे-यावत्-ऊंचाई दो जोषणाई उड्ढे उच्चतेणं,-जाव-मणिफासो। में दो योजन के ऊँचे हैं यावत् -भूमिभाग का वर्णन मणियों के स्पर्श के वर्णन तक पूर्व के जैसा करना चाहिये। १३६. तेसि णं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामय अक्खाडगा १३६. प्रत्येक मुखमंडप के अतिमध्यभाग में वज्ररत्न से बने हुए पण्णत्ता। अखाड़े कहे गये हैं। तेसि णं बहरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं इन वज्ररत्नमय अखाड़ों के बीचों-बीच अलग-अलग मणिपत्तेयं मणिपीडिया पण्णत्ता । पीठिकायें कही गई हैं। ताओ णं मणिपीडियाओ जोयणमेगं आयाम-विक्खं भेणं, ये मणिपीठिकायें एक योजन की लम्बी चौड़ी और आधे योजन अद्धजोयणं बाहल्लेणं, सव्वमणिमईओ अच्छाओ-जाव-पडि- की मोटी है, सर्वात्मना रत्नमयी, स्वच्छ-यावत -प्रतिरूप है। रूवाओ। तासि णं मणिपीढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा इन प्रत्येक मणिपीठिकाओं पर अलग-अलग सिंहासन कहे पण्णत्ता। गये है। सीहासण,वण्ण प्रो-जाव-दामा परिवारो। इन सिंहासनों का वर्णन-यावत् -मालाओं का भद्रासन आदि परिवारसहित वर्णन पूर्व के जैसा करना चाहिये । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घूत्र १४०-१४६ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १६१ १४०. तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं उपि अट्ठमंगलगा, झया, छत्ता- १४०. इन प्रेक्षागृह मंडपों के ऊपर आठ-आठ मंगल द्रव्य है, इछत्ता। ध्वजायें हैं, छत्रातिछत्र है। १४१. तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ तिदिसि तओ मणिपेढियाओ, १४१. इन प्रेक्षागृह मंडपों के सामने तीन दिशाओं में तीन मणिपण्णत्ताओ। पीठिकायें कही गई है। ताओ णं मणिपेढियाओ दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, ये मणिपीठिकायें दो योजन की लम्बी-चौड़ी और एक योजन जोयणं बाहल्लेणं, सव्वमणिमईओ अच्छाओ-जाव- की मोटी है, सभी सर्वात्मना रत्नमयी स्वच्छ --यावत - पडिरूवाओ। -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १३७ प्रतिरूप है। चेइयथभाणं पमाणं चैत्यस्तूपों का प्रमाण१४२. तासि णं मणिपेढियाणं उपि पत्तेयं पत्तेयं चेइयथूभा पण्णत्ता, १४२. इन प्रत्येक मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग चैत्य तेणं चेइयथभा दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, साइरेगाइं स्तूप कहे गये हैं, ये चैत्य स्तूप दो योजन के लम्बे-चौड़े, और दो जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, सेया, संखककुन्ददगरयामय ऊँचाई में कुछ अधिक दो योजन के ऊँचे हैं, इनका वर्ण शंख, महियफेणपुञ्ज सप्णिकासा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- कुन्दपुष्प, जलकण, अमृत और मथित फेन पुज के समान श्वेत पडिरूवा। है, ये सभी सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ - यावत् -प्रतिरूप हैं। १४३. तेसि णं चेइयथूभाणं उप्पि अट्ठमंगलगा, बहुकिण्हचामर, १४३. इन चैत्य स्तूपों के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य, अत्यन्त झया, पण्णत्ता छत्ताइछत्ता। कृष्णवणीय चामर आदि ध्वजाये छत्रातिछत्र कहे गए हैं। तेसि ण चेइयथूभाण चउद्दिसि पत्तेयं पतयं चतारि मणि- इन प्रत्येक चैत्य स्तूपों की चारों दिशाओं की पृथक्-पृथक् पेढियाओ पणत्ताओ। चार मणिपीठिकायें वही गई है। ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयाम-विक्खंभेण, अद्ध- वे मणिपीठिकायें एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधे जोयण बाहल्लेणं, सब्बमणिमईओ। योजन की मोटी हैं, तथा सर्वात्मना मणिमयी है। -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३७ चत्तारि जिणपडिमाओ चार जिनप्रतिमायें १४४. तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चत्तारि जिण- १४४. इन प्रत्येक मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग चार जिन पडिमाओ जिणुस्सेहपमाणमेत्ताओ पलियंकणिसण्णाओ थूभाभि- प्रतिमायें हैं, जिनका उत्सेध जिनेश्वर के उत्सेध प्रमाण है, अर्थात् महीओ सन्निविट्ठाओ चिट्ठन्ति, तं जहा- (१) उसभा, (२) जिनका उत्सेध उत्कृष्ट पाँच सौ धनुष और जघन्य सात हाथ का बद्धमाणा, (३) चंदाणणा, (४) वारिसेणा । है, ये सब जिन प्रतिमाएँ पर्यकासन से बैठी हुई हैं, और इनका मुख स्तूप के अभिमुख है, प्रतिमाओं के नाम इस प्रकार है (१) वृषभ, (२) वर्धमान, (३) चन्द्रानन, (४) वारिसेण । १४५. तेसि णं चेइययभाणं पुरओ तिदिसि पतेयं पतेयं मणिपेकि- १४५. इन चैत्य स्तूपों के आगे तीन दिशाओं में अलग-अलग याओ पण्णत्ताओ। ताओ णं मणिपेढियाओ दो दो जोयणाई मणि-पीठिकायें कही गई है, वे मणिपीठिकाएँ दो-दो योजन की आयाम-विक्खंभेणं, जोयण बाहल्लेणं, सव्वमणिमईओ लम्बी-चौड़ी, एक योजन की मोटी, सर्वात्मना रत्नमयी, स्वच्छअच्छाओ-जाव-पडिरूवाओ। यावत्-प्रतिरूप है। -जीवा०प०३, उ०१, सु० १३७ चेइयरुक्खाणं पमाणं चैत्यवृक्षों का प्रमाण१४६. तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं चेइयरुवखा पण्णत्ता, १४६. इन प्रत्येक मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग चैत्य वृक्ष तेणं चेइयरक्खा अट्ठ जोयणाई उडढं उच्चत्तेणं, अद्धजोयणं कहे गये हैं, ये चैत्य वृक्ष आठ योजन ऊँचे हैं, उद्वेध की अपेक्षा उब्वेहेणं, दो जोयणाई खंधी, अद्धजोयणं विक्खंभेणं छ जोय- (गहराई में, नींव में) आधे योजन के हैं, इनके स्कन्ध दो योजन के विस्तृत हैं, और वह स्कन्ध आधा योजन मोटा है, छह योजन Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १४६-१४६ णाई विडिमा, बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणाई आयाम- की विडिमाएँ (वृक्ष के ठीक बीच में से निकलकर ऊपर की ओर विक्खंभेणं, साइरेगाई अट्ठ जोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ताई। फैलती हुई शाखाएँ) हैं, जिनकी बीच की लम्बाई-चौड़ाई आठ योजन की है, इसीलिए ये सभी चैत्य वृक्ष कुल मिलाकर कुछ अधिक आठ योजन के कहे गये हैं। तेसि णं चेइयरुक्खाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते. इन चैत्यवृक्षों का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है, तं जहा यथावइरामया मूला, रययसुपइट्टिया विडिमा, रिट्ठामय विपुल इनकी मूल-जड़ें वज्ररत्न की हैं, चाँदी की इनकी विडिमायें कंदवेरुलिय-रुइलखंधा, सुजातरूवपढमगविसालसाली, मूल शाखाएं हैं, रिष्ट रत्नमय इनके विपुल कन्द हैं, और वैडूर्य णाणामणि-रयग-विविहसाहप्पसाह-वेरुलियपत्त तवणिज्जपस- रत्न के स्कन्ध है, इनकी मूलभूत प्रथम विशाल शाखायें शुढ-श्रेष्ठ वेंटा, जंबूणय-रत्त-मउय-सुकुमाल-पवाल-पल्लव-सोभंतवर- स्वर्ण की है, इनकी अनेक प्रकार की और दूसरी शाखा-प्रशाखाएँ कुरग्गसिहरा, विचित्त मणि-रयण-सुरभिकुसुम-फलभर-णमिय- नाना प्रकार के मणियों और रत्नों की हैं, इनके पत्ते वैडूर्य रत्न साला, सच्छाया, सप्पभासमिरीया सउज्जोया, अमयरस- के हैं, और पत्तों के वृत्त-डठल तपे हुए स्वर्ण के हैं, जाम्बूनदसमरस-फला, अहियं णयण-मण-णिवुइकरा, पासाईया-जाव- स्वर्ण विशेष से बने लाल रंग के मृदु मनोज्ञ इनके प्रवाल और पडिरूवा। पल्लव है, जिनमें इनके श्रेष्ठ अग्रशिखर सुशोभित हो रहे हैं, विचित्र मणियों के मणि-रत्नों के सुगन्धित कुसुमों और फलों के भार से इनकी शाखायें झुकी हुई हैं, इनकी छाया बड़ी भव्य है, प्रभा सहित है, किरणों सहित है, उद्योतसहित है, अमृत के समान रस वाले इनके फल हैं, अधिक-से-अधिक नयनों और मन को शांतिदायक है, दर्शनीय है-यावत्-प्रतिरूप हैं। १४७. तेणं चेइयरुक्खा अन्नेहि बहूहिं तिलय-लवय-छत्तोबग-सिरीस- १४७. ये चैत्य वृक्ष और भी बहुत से तिलक, लवंग, छत्रोपग, सातवन्न-दहिवन्न-लोद्ध-धव-चंदण-नीव-कुडय-कयंव-पणस-ताल- शिरीप, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, नींव, कुटज, कदंब, तमाल-पियाल-पियंगु-पारावय-रायरुक्ख-नंदिरोहिं सव्वओ पनस, ताल तमाल, प्रियाल, प्रियंगु, पारावत, राजवृक्ष और संपरिक्खिता। नन्दी वृक्ष आदि वृक्षों से सर्वतः चारों ओर से घिरे हुए हैं । तेण तिलया-जाव नंदिरुक्खा, मूलवंतो-जाव-सुरम्मा। ये सब तिलक-यावत्- नन्दी वृक्ष पर्यन्त के सभी वृक्ष प्रशान्त मूल-जड़ वाले–यावत्-सुरम्य है। तेणं तिलया-जाव-नंदिरुक्खा, अन्नेहिं बहूहि पउमलयाहिं ये तिलक-यावत् - नन्दी वृक्षों पर्यन्त के सभी वृक्ष और -जाव-सामलयाहिं सवओ समता संपरिक्खित्ता, ताओ णं भी अनेकों पद्मलताओं-यावत् - श्याम लताओं से चारों ओर पउमलयाओ-जाव-सामलयाओ निच्च कुसुमियाओ-जाव- से घिरे हुए, ये पद्मलतायें-यावत्-श्यामलतायें पर्यन्त की पडिरूवाओ। सभी लतायें कुसुमित-यावत्-प्रतिरूप हैं। १४८. तेसि णं चेइयरुप खाणं उल्पि बहवे अट्टमंगलगा झया छत्ता- १४८. इन चैत्य वृक्षों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगलद्रव्य है, तिछत्ता। __ध्वजायें और छत्रातिछत्र हैं। तेति णं चेइयरुक्खाण पुरओ, तिविसि तओ मणिपेढियाओ इन चैत्य वृक्षों के आगे तीन दिशाओं में तीन मणिपीठिकायें पण्णत्ताओ। ताओ णं मणिपेढियाओ, जोयणं आयाम-विक्ख- कही गयी हैं, ये मणिपीठिकायें एक योजन की आयाम-विष्कम्भ भणं, अद्धजोयणं बाहल्लेणं सम्वमणिमईओ, अच्छाओ-जाव- वाली और आधे योजन की मोटी हैं, ये सभी मणिपीठिकायें पडिरूवाओ। -जीवा०प०३, उ०१, सु० १३७ सर्वात्मना मणियों से बनी हुई हैं, स्वच्छ-निर्मल-यावत् प्रतिरूप है। महिंदज्झयाणं पमाणं महिन्द्र ध्वजाओं का प्रमाण१४६. तासि णं मणिपेडियाणं उपि पत्तय पत्तेयं महिंदज्झया अद्ध- १४६. इन प्रत्येक मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग महिन्द्र ट्ठमाइं जोषणाई उडई उच्चतेणं, अद्धकोस उब्वेहेणं, अद्ध- ध्वजायें हैं, ये ध्वजायें साढ़े सात योजन की ऊंची है, आधे कोस Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १४६.१५३ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १६३ कोसं विक्खंभेणं, वइरामय-वट्ट-लट्ठ-संठिय-सुसिलिट्ठ-परिघट्ट- का इनका उद्वेध-गहराई है, आधे कोस का इनका विष्कम्भ है, मट्ठ-सुपइट्ठिया, विसिट्ठा, अणेगवरपंचवण्ण कुडभीसहस्स-परि- तथा वज्ररत्न की बनी हुई हैं, इनका संस्थान गोल हैं, मनोज्ञ मंडियाभिरामा, वाउद्धय विजय वेजयंतीपडागा, छत्तातिछत्त- हैं, ये सब अपनी चिकनाई से ऐसी प्रतीत होती है कि मानो कलिया, तुङ्गा, गगणतलमभिलंघमाणसिहरा, पासाईया अच्छी तरह घिसी गई हैं, प्रमाजित की गई हैं, सुप्रतिष्ठित हैं, -जाव-पडिरूवा । अन्य ध्वजाओं की अपेक्षा विशिष्ट हैं, तथा ये सभी ध्वजायें अन्य अनेक श्रेष्ठ पंचवर्णों की हजारों लघु पताकाओं से परिमडित होने से देखने में सुन्दर हैं, वायु वेग से जिन पर निरन्तर विजय वैजयन्ती पताकायें उड़ती रहती हैं, जो छत्रातिछत्रों से युक्त और बहुत ऊँची हैं, गगनतल का उल्लंघन करने वाले जिनके शिखर हैं, दर्शनीय-यावत्-प्रतिरूप हैं। १५०. तेसि णं महिंदज्नयाणं उप्पि अट्ठट्टमंगलगा झया छत्ताइछत्ता। १५०. इन महिन्द्र ध्वजाओं के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य, ध्वजायें -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३७ और छत्रातिछत्र हैं। गंदा पोक्खरणियाणं पमाणं-- नन्दापुष्करणियों का प्रमाण१५१. तेसि णं महिंदज्झयाणं पुरओ तिदिसि तओ गंदाओ पोक्ख. १५१. इन माहेन्द्र ध्वजाओं के आगे तीन दिशाओं में नन्दा नाम रिणोओ पण्णत्ताओ। ताओ णं पुक्खरिणीओ अद्धतेरसजोय- की तीन पुष्करिणियाँ कही गई हैं, ये पुष्करिणियाँ साढ़े बारह णाई आयामेणं, सक्कोसाई छ जोयणाई विक्खंभेणं, दस योजन की लम्बी, एक कोस अधिक छह योजन की चौड़ी और जोयणाई उब्वेहेणं, अच्छाओ-जाव-पडिरूवाओ। दस योजन की गहरी है, स्वच्छ–यावत्-प्रतिरूप हैं। पोक्खरिणी बण्णओ पूर्व के समान इन पुस्करिणियों का वर्णन कर लेना चाहिये। पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइया परिक्खित्ताओ, ये प्रत्येक पुष्करिणियाँ पद्मवरवेदिकाओं से परिवेष्ठित घिरी पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ, और ये प्रत्येक पद्मवरवेदिकायें भी वनखंडों से परिवेष्ठित है, वण्णओ-जाव-पडिरूवाओ। इन पद्मवरवेदिकाओं और वनखंडों का वर्णन पूर्व की तरह यहाँ भो-यावत् -प्रतिरूप पद तक करना चाहिये। १५२. तेसि णं पुक्खरिणीण पत्तेयं पत्तेयं तिदिसि तिसोवाण पडि- १५२. इन पुष्करिणियों की तीन दिशाओं में अलग-अलग रूवगा पण्णत्ता। त्रिसोपान पंक्तियाँ कही गई हैं। तेसि णं तिसोवाण पडिरूवगाणं वण्णओ, इन त्रिसोपान प्रतिरूपकों का यहाँ वर्णन करना चाहिये तथा तोरणा भाणियव्वा, जाव छत्ताइछत्ता। तोरणों का वर्णन करना चाहिये और यह वर्णन-यावत्-जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३७ छत्रातिछत्र पद तक करना चाहिये। मणोगुलिआणं संखा मनोगुलिकाओं को संख्या१५३. सभाए णं सुहम्माए छ मणोगुलिसाहस्सीओ पण्णताओ, १५३. सुधर्मा सभा में छह हजार मनोगुलिकाएं कही गई हैं, जो तं जहा इस प्रकार हैं-- पुरथिमेणं दो साहस्सोओ, पच्चत्थिमेगं दो साहस्सोओ, पूर्व दिशा में दो हजार, पश्चिम दिशा में दो हजार, दक्षिण दाहिणणं एगा साहस्सी, उत्तरेणं एगा साहस्सी। दिशा में एक हजार और उत्तर दिशा में एक हजार । तास णं मणोगलियासु बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा इन मनोगुलिकाओं में अनेक स्वर्ण और चाँदी के फलक-पटिये पण ता, तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलगेसु बहवे वइरामया कहे गये हैं, इन स्वर्ण और रजतमय फलकों में अनेक वचरल से णागदतगा पणत्ता। बने हुए नागदंतक (खूटियाँ) लगे हैं। तेसु णं वइरामएसु णागदंतएसु बहवे किण्हसुत्तवट्टवग्धारिय इन वचरत्नमय नागदंतकों पर अनेक कृष्णसूत्र से गुथी हुई मल्ल दाम कलावा-जाव-सुक्किल्ल बट्ट बग्घारिय मल्लदाम पुष्पमालाओं के समूह-यावत् - श्वेत सूत्र से गु'थी हुई पुष्पकलावा, तेणं दामा तवणिज्जलंबूसगा-जाव-चिट्ठन्ति । मालाओं के समूह लटके हुए हैं । ये मालायें तपे हुए स्वर्ण के -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १३७ लंबूसकों-गुच्छों झुमकों वाली हैं ।-यावत्-स्थित हैं । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १५४-१५८ गोमाणसिआणं सखा गोमानसिकाओं की संख्या१५४. सभाए णं सुहम्माए छ गोमाणसी साहस्सीओ पण्णत्ताओ, १५४. इस सुधर्मा सभा में छह हजार गोमानसिकायें-(शैयारूप. तं जहा-पुरथिमेणं दो साहस्सीओ, एवं पच्चत्थिमेण वि, स्थान विशेष-आराम कुर्सी) कही गई हैं, ये इस प्रकार रखी हुई दाहिणेणं सहस्सं, एवं उत्तरेण वि । हैं-पूर्व दिशा में दो हजार इसी प्रकार पश्चिम दिशा में भी इतनी ही दक्षिण दिशा में एक हजार इसी प्रकार उत्तर दिशा में इतनी ही जानना चाहिए। तासु णं गोमाणसीसु बहवे सुबण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता, इन गोमानसिकाओं में अनेक स्वर्ण और चाँदी के बने हुए -जाव-तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया फलक-पटिये कहे गए हैं-यावत् -उन वज्ररत्नमय नागदतकों पण्णत्ता। पर बहुत से चांदी के बने हुए छींके कहे गये है। तेसुणं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वेरुलियामइओ धूव- इन रजतमय छींकों में अनेक वैडूर्य रत्नों से बनी हुई धूपघडियाओ पण्णत्ताओ। घटिकायें कही गई हैं। ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरु-पवर-कुन्दुरुक्क तुरुक्क ये धूपघटिकाएँ-धूपदान श्रेष्ठ कालागुरु, कुन्दरुष्क, तुरुष्क-जाव-घाण-मण-णिस्वुइकरेणं गंधेण सवओ समंता आपूरे- यावत्-घ्राण और मन को प्रफुल्लित करने वाली सुगन्ध से माणीओ चिट्ठन्ति । सभी दिशाओं को व्याप्त करती हैं। १५५. सभाए णं सुहम्माए अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते १५५. सुधर्मा सभा का अन्तर्वर्ती भूमिभाग अत्यन्त सम और -जाव-मणीण फासो, उल्लोया, पउमलय-भत्तिचित्ता, -जाव- रमणीय कहा गया है-यावत् मणिस्पर्श पद तक पूर्व की तरह सव्व तवणिज्जमए अच्छे-जाव-पडिरूवे । भूमिभाग को वर्णन कर लेना चाहिये, उल्लोक-चाँदनी, पद्मलता -जीवा०प०३, उ०१, सु० १३७ आदि चित्रों से चित्रिप-यावत्-वे सब तपनीय स्वर्ण के बने हुए हैं, स्वच्छ - यावत -प्रतिरूप है, (इत्यादि वर्णन विजयद्वार के वर्णन जैसा यहाँ कर लेना चाहिये ।) माणवगे चेइयखंभे माणवक चैत्य स्तम्भ १५६. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए - १५६. इस बहुसम रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक बहुत एत्थ णं एगा महं मणिपीढिया पणत्ता । सा ण मणिपीढिया बड़ी मणिपीठिका कही गई है, यह मणिपीटिका दो योजन की दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, जोयण बाहल्लेणं, सव- लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी, सर्वात्मना रत्नमयी, स्वच्छ - मणिमया । अच्छा-जाव-पडिरूवा। यावत्-प्रतिरूप है। १५७. तीसे णं मणिपीडियाए उप्पि-एत्थ णं माणवए णाम चेइय- १५७. इस मणिपीठिका के ऊपर माणवक नाम का एक चैत्य खंभे पण्णत्ते । अट्ठमाइं जोयणाई उड्ढे उच्चत्तणं, अद्धकोस, स्तम्भ कहा गया है, जो साढ़े सात योजन ऊँचा, आधे कोस का उन्धेहेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, छ कोडीए छलसे, छ विगहिए उद्वध वाला (जमीन के अन्दर) आधे कोस का विस्तार वाला वइरामय वट्ट लट्ठ संठिए एवं जहा महिंदज्झयस्स वण्णओ, है, इसके छह कोने हैं, छह संधियाँ हैं, और छह विग्रह वाला है, पासाईए-जाव-पडिरूवे। यह वजरल का बना हुआ है, गोल और सुन्दर है, जैसा पहले -जीवा०प० ३, २० १. सु० १३८ माहेन्द्र ध्वज का वर्णन किया गया है वैसा ही इसका वर्णन करना चाहिये, यह दर्शनीय है-यावत्-प्रतिरूप है। गोलवट्ट सभुग्गएसु जिणसकहाओ गोल डिब्बों में जिन-अस्थियाँ१५८. तस्स णं माणवगस्स चेइ यखंभस्स उरि छक्कोसे ओगाहित्ता, १५८. इस माणवक चैत्य स्तम्भ के ऊपर छह कोस आगे जाने हेट्ठा वि छक्कोसे वज्जेत्ता, मज्झे अद्ध पंचमेसु जोयणेसु- पर और नीचे के भाग में भी छह कोस छोड़कर बीच में साढ़े एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता । चार योजन पर बहुत से स्वर्ग और चांदी के फलक-पटिए कहे गए है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५८-१६१ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १६५ तेसु णं सुवण्णरुप्पमएसु फलए बहवे वाइरामया णागदंता इन स्वर्ण-रजतमय फलकों में वरत्नों के बने हए अनेक पण्णत्ता। नागदंतक कहे गए हैं। तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कगा इन वजरत्नमय नागदंतकों पर चाँदी के बने हुए अनेक छींके पण्णत्ता। कहे गये हैं। तेसु णं रययामयसिक्कए बहवे बइरामया गोलवट्ट- इन रजतमय छींकों में वनरत्नों से बने हए अनेक गोल समुग्गका पण्णत्ता। आकृति वाले समुद्गक रखे हैं। तेसु णं व इरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहवे जिण-सकहाओ इन वजरत्नमय गोल वर्तुंलाकार समुद्गकों में अनेक जिनेन्द्रों संनिक्खित्ताओ चिट्ठन्ति । की अस्थियाँ रखी हुई है। जाओ णं विजयस्स देवस्स अण्णेसि च बहूणं वाणमंतराणं जो अस्थियाँ विजय देव तथा और दूसरे भी अनेक वाणदेवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ बंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओ व्यन्तर देवों और देवियों के द्वारा अर्चना करने योग्य है, वन्दना सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं करने योग्य है, क्योंकि ये कल्याणरूप, मंगलरूप, देव और चैत्य चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ। समान होने से पर्युपासनीय है। १५६. माणवकस्स ण चेइयखंभस्त उरि अट्ठमंगलगा, झया १५६. माणवक चैत्यस्तम्भ के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य, ध्वजायें छत्ताइछत्ता । और छत्रातिछत्र है। तस्स ण माणवकस्स चे इयखंभस्स पुरथिमेण-एत्थ ण इस माणवक चैत्य स्तम्भ की पूर्व दिशा में एक विशाल एगा महामणिपेढिया पण्णत्ता। सा णं मणिपेढिया दो जोय- मणिपीठिका कही गई है, यह मणिपीठिका दो योजन की लम्बीणाई आयाम-विक्ख भेणं, जोपणं बाहरूलेणं, सव्वणिमई चौड़ी और एक योजन मोटी है, सर्वात्मना रत्नों से बनी हुई अच्छा-जाव-पडिरूवा । स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। तीसे णं मणि पेटियाए उप्पि- एत्थ णं एगे महं सीहासणे इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल सिंहासन कहा गया । पण्णते। सीहासण-वण्णओ। है । यहाँ सिंहासन का वर्णन करना चाहिये । १६०. तस्स णं माणवास्स चेइयखभस्स पच्चत्थिमेण-एत्थ णं एगा १६०. इस माणवक चैत्य स्तम्भ की पश्चिम दिशा में एक विशाल महा मणिपेढिया पण्णता। सा णं मणिपेढिया जोयणं आयाम- मणिपीठिका कही गई है, वह मणिपीठिका एक योजन की विक्खंभेणं, अद्धजोयणं बाहल्लेणं, सव्व मणिमई अच्छा-जाव- लम्बी-चौड़ी, आधे योजन की मोटी, सर्वात्मना रत्नों से बनी हुई, पडिरूवा। -जीवा०प० ३, उ०१, सु० १३८ स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। देवसयणिज्जस वण्णओ देव शय्या का वर्णन २६१. तीसे णं मणिपेढियाए उप्पि-एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे १६१. इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशय्या कही पण्णते। तस्स णं देवप्तयणिज्जस्स अयमेयारूवे वण्णावासे गई है, इस देवशय्या का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है, पण्णत्ते, तं जहा यथाणाणा मणिमया पडिपादा, सोवणिया पादा, णाणा मणि- अनेक मणियों से बने प्रतिपाद (मूल पायों के नीचे रखे गये मया पायसीसा, जंबूणयमयाई गत्ताई, वइरामया संधी, पाये) हैं, और मूल पाद स्वर्ण के बने हुए हैं, पादों के शीर्ष भाग णाणा मणिमए चिच्चे, रइयामया तूली लोहियक्खमया बिब्बो- ऊपर के भाग अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं, इसकी ग्णा, तवणिज्जमयी, गंडोबहाणिया । पाटियाँ जाम्बूनद-स्वर्ण विशेष की बनी हुई हैं, इसकी संधियाँ वज्ररत्न की बनी हुई हैं, अनेक प्रकार की मणियों द्वारा जिस पर चिच्चा-नक्काशी की गई हैं, चाँदी के समान श्वेत वर्ण का जिस पर गहा बिछा हुआ है, लोहिताक्ष मणि के बने हुए तकिये रखे हैं, तपे हुए स्वर्ण के समान रंग वाले जिस पर गंडोपधानगालों के नीचे रखने योग्य तकिये रखे हैं। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक विजयद्वार सेणं देवसयणिज्जे उभओ बिब्बोयणे दुहओ उण्णए, मज्झे जयगंभीरे सालिंगण वट्टीए, गंगा पुलिण वालु उद्दाल सालि सए, ओतवितवखगुल पट्ट परिच्छायणे, सुविरचियरम ताणे, रत्तंसुयसंवुए, सुरम्मे, आईणग रूय-बूर-णवणीय तूलफासमउए, पासाईए - जाव - पडिवे । तस्स णं देवसयणिज्जस्स उत्तर-पुरत्थिमेणं - एत्थ णं एगा महई मणिपीढिया पण्णत्ता - साणं मणिपेढिया जोयणमेगं आयाम-विजोगं बाहर राज्यमणिमई अच्छा - जाव पडिवा | - जीवा० प०३, उ० १, सु० १३८ खुट्टा महियरस पमाणं १६२. तीसे में मणि पीढियाए उपि एत्थ णं एवं महं खहुए महिदज्झए पण्णत्ते, अट्टमाई जोयणाई उड्ढ उच्चतेणं अद्धकोसं उब्वेहेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं वेरुलियमय वट्ट लट्ठ मंठिए तहेव जाव अट्टमंगलगा, झया, छत्ताइछत्ता । विजयदेवरस चुप्पालयनामं पहरणकोसं १६३. तस्स णं खुडुमहदज्झयस्स पच्चत्थिमेणं - एत्थ णं विजयस्स देवस्स चुप्पालए नामं पहरणकोसे पण्णत्ते, तत्थ णं विजयस्स देवस्स फलिहरयण पामोक्खा बहवे पहरण रयणा संनिक्खित्ता चिट्ठन्ति । उज्जल सुणिसिय सुतिक्खधारा पासाईया जाव पडिरुवा । तीसे णं सभाए सुहम्माए उप्पि बहवे अट्टट्ठमंगलगा झया, -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३८ सिद्धायतणस्स पमाणं - छत्ताइछत्ता । णं णं १६४. सभा सुम्माए उत्तर-पुरत्विमे एस्थ एवं महं सिद्धायतणं पण्णत्ते, अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं, छजोयणाइ सोसाईनिब ओषणाई उ उच्चतं जाय गोमाणसिया वत्तब्वया । सूत्र १६१-१६४ इस देवशय्या के दोनों ओर (शिर और पैर की ओर ) रखे तकिए दोनों छोरों पर ऊंचे, मध्यभाग में नत ( पतले ) और गम्भीर है, तथा सालिनवर्तिका (सोते समय करवट के पास रखे जाने वाले तकिए ) के समान है, वह शय्या गंगा नदी की बालु के सदृश इतनी सुकोमल है कि बैठने पर कटि तक शरीर धस जाता है, जो क्षोम (रुई से बनी ) और रेशमी चादर से ढकी हुई है, पास में जिसके नीचे पैर पौंछने के लिये रजस्त्राण वस्त्र बिछा हुआ है, जो लाल वस्त्र से ढका हुआ है, जो देखने में रमणीय है, चर्मवस्त्र, रुई, वूर - सेमल की रुई, मक्खन आक की रुई के समान जिसका सुकोमल स्पर्श है, दर्शनीय - पावत्प्रतिक हैं। इस देव लया की उत्तर-पूर्व दिशा-ईशानकोण में एक बहुत बड़ी मणिपीठिका कही गई है, वह मणिपीठिका एक योजन की लम्बी-चौड़ी, आघे योजन की मोटी, सर्वात्मना रत्नमयी, स्वच्छ- - यावत्-प्रतिरूप हैं । क्षुद्र (लघु) महिन्द्रध्वज का प्रमाण १६२. इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल क्षुद्र माहेन्द्र ध्वज कहा गया है, जो साढ़े सात योजन ऊँचा, जमीन के भीतर आधे कोस प्रमाण वाला कहा गया है, और इसका विष्कम्भ आधे कोस का है, यह माहेन्द्र ध्वज वज्ररत्न का बना हुआ है, और इसका आकार गोल तथा चिकना है, आठ-आठ मंगलद्रव्य, ध्वजाये, छत्रातिछत्र आदि तक इस ध्वज का वर्णन भी पूर्व में किये गये माहेन्द्र ध्वज के वर्णन के समान यहाँ करना चाहिये । विजयदेव का चोपाल नामक शस्त्रागार १६३. इस क्षुद्र माहेन्द्र ध्वज की पश्चिम दिशा में विजयदेव का चतुष्पाल ( चौपाल) नामक शस्त्रागार कहा गया है, इस शस्त्रागार में विजयदेव के अनेक मुद्गर रत्न आदि प्रमुख शस्त्ररत्न रखे हुए हैं, ये शस्त्र बहुत ही उज्ज्वल, चमकीले, तेज और अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाले प्रासादीय दर्शनीय - यावत् प्रतिरूप हैं । इस सुधर्मा सभा के ऊपर अनेक आठ-आठ मंगल द्रव्य, ध्वजाएँ छत्रातिछत्र है । सिद्धायतन का प्रमाण १६४. सुधर्मा सभा के उत्तर-पूर्व दिग्भाग में एक विशाल सिद्धाय तन कहा गया है। यह सिद्धायतन साढ़े बारह योजन लम्बा एक कोस सहित छह योजन बीड़ा और नौ योजन ऊंचा है। इत्यादि जैसा सुधर्मा सभा का कथन किया है वह सबका सब कथन गोमानसिका ( शय्याकार स्थान विशेष ) की वक्तव्यता तक यहाँ कर लेना चाहिये । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६४-१६७ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १६७ . जा चेव सभाए सुहम्माए बत्तब्वया सा चेव निरवसेसा अर्थात् जिस प्रकार सुधर्मा सभा की पूर्व-दक्षिण और उत्तर भाणियव्वा । तहेव दारा, मुहमंडवा, पेच्छाघरमंडवा, झया, दिशा में द्वार हैं, द्वारों के आगे मुखमंडप है, मुख मंडपों के आगे थूभा, चेइयरुक्खा, महिंदज्झया, गंदाओ पुक्खरिणीओ, तो प्रेक्षागृह हैं, मंडप हैं, प्रेक्षागृह मंडपों के ऊपर ध्वजायें हैं, य सुहम्माए जहा पमाणं, मणगुलियाणं, गोमाणसीया, धूवय- प्रेक्षागृह मंडपों के आगे स्तूप हैं, स्तूपों के आगे चैत्यवृक्ष हैं, इन घडीओ, तहेब भूमिभागे, उल्लोए य-जाब-मणिफासे । चैत्यवृक्षों के आगे माहेन्द्र ध्वज है, इन माहेन्द्र ध्वजों के आगे नन्दा पुष्करिणियाँ हैं, और सुधर्मा सभा का जो प्रमाण है, मनोगुलिकायें हैं, गोमानसिकायें हैं, धूपघटिकायें हैं, इत्यादि वर्णन जैसा सुधर्मा सभा का पूर्व में किया गया है, उसी प्रकार का सब वर्णन तथा सुधर्मा सभा के वर्णन के अनुरूप ही भूमिभाग उल्लोकचाँदनी-यावत्-मणिस्पर्श तक इस सिद्धायतन का भी वर्णन करना चाहिये। १६५. तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं एगा १६५. इस सिद्धायतन के अति मध्यभाग में एक विशाल मणि महा मणिपेढिया पणत्ता, दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, पीठिका कही गई है, यह मणिपीठिका दो योजन की लम्बी-चौड़ी, जोयणं बाहल्लेणं, सव्व मणिमई अच्छा-जाव-पडिरूवा। एक योजन मोटी, और सर्वात्मना रत्नों से बनी हुई, स्वच्छ --जीवा० ५० ३, उ० २, मु० १३६ यावत्-प्रतिरूप है। एगे महं देवछंदय एक महान देवच्छन्दक १६६. तीसे णं मणिपेढियाए उप्पि–एत्थ णं एगे महं देवच्छंदए १६६. इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवच्छन्दक-जिनदेव पण्णत्ते, दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, साइरेगाइं दो जोय- का आसन विशेष कहा गया है, यह दो योजन का लम्बा-चौड़ा, णाई उडद उच्चत्तेण, सम्बरयणामए अच्छे-जाव-पडिरूके। कुछ अधिक दो योजन ऊँचा, सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-यावत -जीवा०प०३, उ०२. सु०१३६ प्रतिरूप है। अट्ठसयं जिणपडिमाणं वण्णावासं एक सौ आठ जिन प्रतिमाओं का वर्णन१६७. तत्थ णं देवच्छंदए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाण- १६७. इस देवच्छन्दक में जिनोत्सेध प्रमाण वाली अर्थात पाँच सौ मेत्ताणं संनिक्खित्तं चिट्ठइ । धनुष से लेकर सात हाथ तक ऊँची जिनप्रतिमायें स्थापित है। तासि णं जिणपडिमाणं अय नेयारूबे वण्णावासे पष्णते, उन जिन प्रतिमाओं का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है. तं जहा यथातवणिज्जमया हत्थतला, तपनीयस्वर्ण-रक्तवर्ण के स्वर्ण की जैसी इनकी हथेली है, अंकामयाई णक्खाई, अंकरत्न के जैसे इनके नख हैं, अंतोलोहियक्व परि सेयाई, जिनका शेष अन्दर का भाग लोहिताक्ष रत्न जैसा है, कणगमया पादा, इनके पैर स्वर्ण जैसे हैं, कणगामया गोप्फा, जिनकी एड़ियाँ कनक-स्वर्ग की बनी हैं, कणगामईओ जंघाओ, स्वर्ण मय इनकी जंघायें हैं, कणगामय जाणू, कनकमय जानु-घुटने, कणगामय ऊरू, कणगामयाओ गायलट्ठीओ. कनकमय ऊरु और गात्रयष्ठि-शरीर पिंजर है, तवणिज्जमईओ णाभीओ, तपे हुए स्वर्ण की इनकी नाभि है, १ 'तवणिज्जमया हत्थतला' मूल पाठ के इस वाक्य की टीका आचार्य मलयगिरि ने-'तपनीय मयानि हस्ततल-पादतलानि' की है। इससे प्रतीत होता है-टीकाकार के सामने मूल पाठ दूसरा है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १६७-१६६ रिट्ठामईओ रोमरोईओ, रिष्ट रत्न की इनकी रोमराजि है, तवणिज्जमया चुच्चुया,तवणिज्जमया सिरिवच्छा, तपनीय स्वर्ण के इनके चुचुक (स्तन के अग्रभाग) और श्रीवत्स है, कणगमयाओ बाहाओ, स्वर्णमय इनकी बाँहें हैं, कणगमईओ पासाओ, स्वर्णमय पार्श्वभाग (पसलियों का भाग) है, . कणगमईओ गीवाओ, स्वर्णमयी इनकी ग्रीवा है, रिट्ठामए मंसु, रिष्ट रत्न के वर्ण जैसी इनकी मश्रु दाढ़ी-मूंछे हैं, सिलप्पवालमया उट्ठा, इनके ओठ शिलाप्रवाल-मूंगा के हैं, फलिहामया दंता, इनके दाँत स्फटिकमणि के बने हुए हैं, तवणिज्जमईओ जीहाओ, इनकी जीभ तपनीय स्वर्ण की बनी हुई है, तवणिज्जमया तालुया, और इनका तालु भाग तपनीय स्वर्ण का बना हुआ है, कणगमईओ णासाओ, इनकी नासिका स्वर्ण की बनी हुई है, अंतो लोहितक्ख परिसेयाओ, नाक के भीतर की रेखा आदि भाग लोहिताक्ष रत्न का बना हुआ है, अंकामयाई अच्छीणि, इनकी आँखें अंकरत्न की बनी हुई है, पुलगमईओ दिट्ठीओ, इनकी दृष्टिका चितवन-पुलक-रत्न विशेष की बनी हुई है, रिट्ठामईओ तारगाओ, आँखों की तारिकायें कनीनिकायें, रिष्ट रत्न की बनी हुई हैं, रिट्ठामयाई अच्छिपत्ताई, आँखों की बरौनियाँ (अक्षिपत्र) रिष्ट रत्न की बनी हुई हैं, रिट्ठामईओ भमुहाओ, और भौहें भी रिष्ट रत्न की बनी हुई हैं, कणगामया कवोला, इनके कपोल-गाल स्वर्ण के बने हुए हैं, कणगामया सवणा, इनके कान स्वर्ण के बने हुए हैं, कणगामया णिडाला, इनके भाल ललाट स्वर्ण के बने हुए हैं, वट्टा वइरामईओ सीसघडीओ, इनके मस्तक वतु'लाकार वजरत्न के बने हुए हैं, तवणिज्जमईओ केसंतकेसभूमीओ, तपनीय स्वर्ण की इनकी केशभूमि (टाल चाँद), रिट्ठामया उवरिमुद्धजा, और रिष्ट रत्न के इनके सिर के बाल हैं। १६८. तासि णं जिणपडिमाणं पिट्टओ पत्तेयं पत्तयं छत्तधारपडिमाओ १६८. इन जिनप्रतिमाओं में से प्रत्येक जिनप्रतिमाओं के पीछे पण्णताओ, ताओ गं छत्तधारपडिमाओ हिम-रयय-कुन्देंदु. छत्र धारण करने वाली प्रतिमायें कही गई हैं, ये छत्रधारिणी सप्पकासाई, सकोरेंटमल्लदामधवलाई आतपत्ताई सलील प्रतिमायें हाव-भाव-विलासपूर्वक हिम, रजत, कुन्दपुष्प, और ओहारमाणीओ चिट्ठन्ति । चन्द्रमा की प्रभा के समान श्वेत प्रभा वाले और कोरंट पुष्पों की माला से युक्त आतपत्रों को उत्साहपूर्वक उन प्रतिमाओं के ऊपर ताने हुए खड़ी है। १६६. तासि णं जिणपडिमाणं उभओ पासि पत्तेयं पत्तेयं चामर- १६६. इन जिन प्रतिमाओं में से प्रत्येक जिन प्रतिमा की दोनों धार पडिमाओ पन्नत्ताओ, ताओ णं चामरधारपडिमाओ बाजुओं में अलग-अलग चामरधारिणी प्रतिमायें कही गई हैं । ये चंदप्पह-वइर-वेरुलिय-णाणामणि-कणग-रयण-विमल-महरिह- चामरधारिणी प्रतिमायें इन प्रतिमाओं के ऊपर चन्द्रकान्त, वज्र, तवणिज्जुज्जल-विचित्तदंडाओ, चिल्लियाओ, संखंक-कुन्द- वैडूर्य आदि अनेक प्रकार की महामूल्यवान् मणियों, कनक दगरय-अमय-मथित-फेज-पुंज सण्णिकासाओ सुहुभरययदोह आदि रत्नों और तपनीय स्वर्ण से बनी हुई उज्ज्वल कांतियुक्त, बालाओ, धवलाओ चामरायो सलीलं ओहारमाणीओ चित्र विचित्र डांडियाँ हैं, जिनकी ऐसे दैदीप्यमान शंख, कुन्दपुष्प, चिट्ठन्ति । जलकण, अमृत और मथित फैन पुज के सदृशः चाँदी के बारीक तारों जैसे लम्बे-लम्बे बालों वाले श्वेत-धवल-चामरों की विलासपूर्वक ढोरती हुई खड़ी हैं। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १७०-१७७ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १६६ १७०. तासि णं जिणपडिमाणं पुरओ दो दो नागपडिमाओ, दो दो १७०. इन जिन प्रतिमाओं के सामने विनयावनत चरणों में झुकी जवखपडिमाओ, दो दो भूतपडिमाओ, दो दो कुण्डधारपडि- हुई और हाथ जोड़े हुए दो-दो नाग प्रतिमायें, दो-दो यक्ष प्रतिमायें, माओ, विणओणयाओ, पायवडियाओ, पंजलिउडाओ संण्णि- दो-दो भूतप्रतिमायें, और दो-दो कुण्डधारिणी-आज्ञाकारिणी विखत्ताओ चिट्ठन्ति । सव्वरयणामईओ अच्छाओ-जाव-पडि- प्रतिमायें खड़ी हुई हैं, ये सभी प्रतिमायें सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ रूवाओ। -यावत्-प्रतिरूप हैं। १७१. तासि जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं, अट्ठसयं चंदण- १७१. इन जिन प्रतिमाओं के समक्ष एक सौ आठ घंटा, एक सौ कलसाणं, एवं अट्ठसयं भिंगारगाणं, अट्ठसयं आयंसगाणं, अट्ठ- आठ चन्दन कलश, एक सौ आठ भृगारक-झारी, एक सौ आठ सयं थालाणं, अट्ठसय पातीणं, अट्ठसयं सुपइटगाणं, अट्ठसयं आदर्शक-दर्पण, एक सौ आठ पात्री, एक सौ आठ सुप्रतिष्ठान, मणगलियाणं, अट्टसयं वातकरगाणं, अट्ठसयं चित्ताणं, अट्ठसयं एक सौ आठ मनोगुलिका, एक सौ आठ वातकरक (कोरे घड़े), रयणकरंडगाणं, अट्ठसयं हयकंठगाणं-जाव-उसभकं ठगाणं, अटु- एक सौ आठ चित्र, एक सौ आठ रत्नकरंडक, एक सौ आठ सयं पृष्फचंगेरीण-जाव-लोमहत्थ-चंगेरीणं, अट्ठसयं पुष्फपडल- अश्वकंठा-यावत् -वृषभकठा, एक सौ आठ पु पचंगेरिकायें गाणं, अट्ठसयं तेल्लसमुग्गाणं-जाव-धूवकडुच्छयाणं संणिक्खित्तं --यावत्-मयूरपिच्छिकायें, एक सौ आठ पुष्पपडलक और एक चिट्टन्ति। सौ आठ तेल समुद्गक-यावत्-धूपकडुच्छक-धूपदान रखे हुए हैं। १७२. तस्स णं सिद्धायतणस्स उप्पि बहवे अट्ठमंगलगा, झया, १७२. इस सिद्धायतन के ऊपर अनेक आठ-आठ मंगलद्रव्य, छत्ताइछत्ता, उत्तिमागारा, सोलसविहेहिं रयणेहिं उबसोभिया, ध्वजायें और छत्रातिछत्र हैं, जो उत्तम आकार वाले और सोलह तं जहा–रयहि-जाव-रिट्ठ हिं।। प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं, यथा-वैडूर्य रत्नों से-यावत्-जीवा०प०३, उ०२, सु०१३६ रिष्टादि रत्तों से अर्थात् वैडूर्य आदि से लेकर रिष्ट रस्त पर्यन्त सोलह प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं । एगा महा उववायसभा एक महान उपपातसभा-- १७३. तस्स णं सिद्धाययणस्स णं उत्तर-पुरस्थि मेणं एत्थणं एगा १७३. इस सिद्धायतन के उत्तर पूर्व दिशा में -ईशान कोण में महा उबवायसभा पण्णत्ता, जहा सुहम्मा तहेव-जाब-गोमाण- एक विशाल उपपात सभा कही गई है, जैसा वर्णन सधर्मा सभा सीओ । उववायसभाए वि दारा, मुहमंडवा, सब्वे भूमिभागे का है, उसी प्रकार का गोमानसिकी तक समग्र वर्णन इसका भी तहेव मणिफासो । (सुहम्मा सभा वत्तवया भाणियव्वा-जाव- समझना चाहिये, अर्थात् उपपात सभा के तीन द्वार है. उनके भूमीए फासो)। आगे मुखमंडप है, इत्यादि सबका कथन यहाँ पर गोमानसिका के वर्णन तक करना चाहिये, उसके बाद उल्लोक का वर्णन और भूमिभाग का वर्णन मणिस्पर्श के वर्णन तक करना चाहिये, (सुधर्मा सभा की समग्र वक्तव्यता भूमिस्पर्श तक का यहाँ कथन करना चाहिए।) १७४. तस्स णं बहसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए- १७४. इस बहुसम रमणीय भूमिभाग के मध्यभाग में एक विशाल एत्थ णं एगा महा मणिपेढिया पण्णत्ता, साणं जोयणमेगं मणिपीठिका कही गई है, वह एक योजन को लम्बी-चौड़ी, आधे आयाम-विवखंभेणं, अद्धजोयणं बाहरूलेणं, सध्वमणिमई अच्छा योजन की मोटी, सर्वात्मना रत्नों की बनी हई, स्फटिकमणि के -जाव-पडिरूवा। समान स्वच्छ-यावत् – प्रतिरूप है। १७५. तीसे गं मणिपेढियाए उप्पि- एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे १७५. इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशय्या कही गई पष्णते, तस्स ण देवसयणिज्जस्स वण्णओ। है, इस देवशय्या का वर्णन पहले के समान करना चाहिये । १७६. उववाय सभाए णं उप्पि अट्ठमंगलगा, झया, छत्ताइछत्ता १७६. उपपात सभा के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य, ध्वजायें, -जाव-उत्तिमागारा। छवातिछत्र हैं, जो रत्नों के बने हुए-यावत् - उत्तम आकार -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १४० के हैं । हरयरस पमाणं ह्रद का प्रमाण१७७. तोसे णं उववाय सभाए उत्तर-पुरथिमेणं-एत्थ णं एगे महं १७७. इस उपपात सभा के उत्तर-पूर्व दिशा में-ईशान कोण में Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १७७-१८३ हरए पण्णत्ते, सेणं हरए अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं, छ एक विशाल ह्रद कहा गया है, वह ह्रद साढ़े बारह योजन का कोसाई जोयणाई विक्खभेणं, दस जोयणाई उध्येहेणं, अच्छे लम्बा, कोसाधिक छह योजन का चौड़ा, दस योजन गहरा, स्वच्छ -जाव-पडिरूवे । जहेव णंदाणं पुक्खरणीणं-जाव-तोरण- -यावत्-प्रतिरूप है । जैसा नन्दा पुष्करिणी का वर्णन पूर्व में वण्णओ। -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १४० किया गया है उसी प्रकार इस हद का वर्णन भी तोरणों के वर्णन तक कर लेना चाहिये। एगा महा अभिसेयसभा एक महा अभिषेक सभा१७८. तस्स गं हरयस्स उत्तर-पुरत्थिमेणं-एत्थ णं एगा महा १७८. उस ह्रद के ईशानकोण में एक विशाल अभिषेक सभा अभिसेयसभा पण्णता, जहा सभासुहम्मा तं चेव निरवसेसं कही गई है, जैसा सुधर्मासभा का वर्णन है, वह समग्र वर्णन -जाव- गोमाणसीओ, भूमिभाए, उल्लोए तहेव । गोमानसिका के वर्णन तक यहाँ भी करना चाहिये, उसके बाद यहाँ के भूमिभाग का व उल्लोक का वर्णन भी पूर्व के समान करना चाहिये। १७६. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए- १७६. इस अभिषेक सभा के बहुसम रमणीय भूमिभाग के बीचों एत्थ णं एगा महा मणिपेढिया पण्णत्ता, सा णं जोयणमेगं बीच एक विशाल मणिपीठिका कही गई है, यह मणीपिठिका एक आयाम-विक्खंभेणं, अद्धजोयण बाहल्लेणं, सव्वमणिमया अच्छा योजन की लम्बी-चौड़ी, आधे योजन की मोटी, सर्वात्मना रत्नों की -जाव-पडिरूवा। बनी हुई, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है । १८०. तीसे गं मणिपेज्यिाए उप्पि-एत्थ गं एगे महं सोहासणे १८०. इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल सिंहासन कहा गया पण्णत्ते, सीहासण-वण्णओ, अपरिवारो। है, इस सिंहासन का वर्णन भद्रासन आदि परिवार को छोड़कर -जीवा० प० ३, उ० २, सु० १४० करना चाहिये। विजयदेवरस अभिसेक्कं भंड विजयदेव का अभिषेक पात्र१८१. तत्थ णं विजयदेवस्स सुबह अभिसेक्के भंडे संणिक्खित्ते चिट्टइ। १८१. इस सिंहासन पर विजयदेव का एक बहुत सुन्दर अभिषेक पात्र रखा हुआ है। अभिसेयसभाए उप्पि अट्ठमंगलए-जाव-उत्तिमागारा अभिषेक सभा के ऊपर आठ-आठ मंगल द्रव्य है-यावतसोलसबिहेहिं रयणेहि उवसोभिया, तं जहा - रयणहि-जाव- उत्तम आकारवाले, सोलह प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं, रिट्ठहि। --जीवा०प० ३, उ० २, सु० १४० यथा-वज्रदन्तों-यावत्-रिष्टरत्नों से सुशोभित हैं। एगा महा अलंकारियसभा एक महान अलंकार सभा१८२. तीसे णं अभिसेयसभाए उत्तर-पुरत्थिमेणं-एत्थ णं एगा १८२. इस अभिषेक सभा के उत्तर पूर्व दिग्भाग-ईशानकोण में महा अलंकारियसभा वत्तव्वया भाणियब्वा-जाव-गोमाणसीओ, एक श्रेष्ठ विशाल अलंकारिक सभा है, उसके प्रमाण, द्वारत्रय मणिपेढियाओ, जहा अभिसेयसभाए उप्पि सीहासणं आदि का समग्र वर्णन-यावत्-- गोमानसिका, मणिपीठिका पद सपरिवार। तक पूर्व के समान करना चाहिये, तथा अभिषेक सभा में एक -जीवा०प० ३, उ०२, सु०१४० मणिपीठिका है, उस पर भद्रासन आदिरूप परिवार से रहित सिंहासन रखा है, इत्यादि जो वर्णन है, उसी प्रकार का वर्णन इस अलंकार सभा का करना चाहिये । विजयदेवस्स अलंकारियभंडे विजयदेव का अलंकार पात्र१८३. तत्थ णं विजयस्स देवस्स सुबहु अलंकारिए भंडे संनिक्खित्ते १८३. इस सिंहासन पर विजयदेव का एक बहुत अच्छा अलंकार चिट्ठन्ति । उत्तिमागारा. अलंकारियसभाए उप्पि अट्टमंगलगा, भांड रखा हुआ है, इस अलंकार सभा के ऊपर आकार प्रकार के झया-जाव-छत्ताइछत्ता। आठ-आठ मंगल द्रव्य, ध्वजायें-यावत-छत्राति छत्र है। -जीवा०प०३, उ०२, सु०१४० Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १८४-१८६ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १७१ एगा महा ववसायसभा एक महान व्यवसायसभा१८४. तोसे णं आलंकारिय सभाए उत्तर-पुरस्थिमेणं-एस्थ णं एगा १८४. इस अलंकार सभा के उत्तर-पूर्व ईशान-दिशा में एक विशाल महा ववसायसभा पण्णत्ता। व्यवसाय सभा कही गई है। अभिसेयसभा वत्तव्वया-जाव-अपरिवार । इस व्यवसाय सभा का वर्णन भी भद्रासन आदि रूप परिवार -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १४० से रहित सिंहासन तक अभिषेक सभा के वर्णन सदृश करना चाहिये। विजयदेवस्स एग महं पोत्थयरयणं विजयदेव का एक महान् पुस्तक रत्न१८५. तत्थ णं विजयस्स देवस्स एगे महं पोत्थयरयणे संनिक्खित्ते १८५. इस सिंहासन पर विजयदेव का एक श्रेष्ठ-उत्तम-विशाल चिट्टइ। तत्थ गं पोत्थयरयणस्त अयमेयारूवे वण्णावासे पुस्तक रत्न रखा हुआ है, इस पुस्तक रत्न का वर्णन इस प्रकार पण्णते, तं जहा-रिट्ठामईओ कंबियाओ। का कहा गया है, यथा-रिष्ट रत्न से बना हुआ जिसका आवरण पृष्ठ (पुट्ठा) है। रयतामताति पत्तकाई, चाँदी से जिसके पृष्ठ (पन्ने) बने हैं । रिट्ठामयाति अक्खराई, रिष्ट रत्न से बने जिसमें अक्षर हैं । तवणिज्जमए दोरे, डोरे (बाँधने की रस्सी) तपनीय स्वर्ण के बने हैं। णाणामणिमए गंठी, इन डोरों में अनेक मणियों की गांठें लगी हैं। वेरुलियमए लिप्पासणे, वैडूर्य रत्न के लिप्यासन-दावात हैं। तवणिज्जमयी संकला, लिप्यासन में जो सांकल लगी है वह तपनीय स्वर्ण की बनी रिटुमए छादने, मषी-पात्र-दावात का ढक्कन रिष्ट रत्न का बना हुआ है। रिट्टामया मसी, स्याही रिष्ट रत्न की बनी हुई है। वइरामयो लेहणी, वज्ररत्न की बनी लेखनी है। रययामयाइं पत्तकाई, इसके पत्र चाँदी के बने हैं। [अंकमयाई पत्ताई,] (अंकरत्न से इसके पत्र बने हैं।) रिडामयाइं अक्खराइं, धम्मिए सत्थे । अक्षर रिष्ट रत्न के बने हुए हैं, और यह पुस्तकरत्न धर्म शास्त्र है। १८६. ववसायसभाए णं उप्पि अदृट्ठमंगलगा, झया, छत्ताइछता, १८६. व्यवसाय सभा के ऊपर उत्तम आकार प्रकार के आठ-आठ उत्तिमागारेति । -जीवा०प०३, उ० २, मु० १४० मंगलद्रव्य ध्वजायें, और छत्रातिछत्र हैं । एग महं बलिपेढं तस्स य पमाणं एक महा बलिपीठ और उसका प्रमाण१८७. तीसे णं ववसायसभाए उत्तर-पुरथिमेणं-एत्थ णं एगे महं १८७. इस व्यवसाय सभा के ईशानकोण में एक विशाल बलिपीठ बलिपेढे पण्णत्ते, से ण दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं जोयणं कहा गया है, वह बलिपीठ दो योजन का लम्बा-चौड़ा, एक योजन बाहल्लेणं, सम्वरययामए अच्छे-जाव-पडिरूवे । मोटा, और सर्वात्मना चाँदी से बना हुआ स्वच्छ-यावत् प्रतिरूप है। १८८. एत्थ णं तस्स णं बलिपेढस्स उत्तर-पुरथिमेणं एगा महई १८८, इस बलिपीठ के उत्तर-पूर्व दिग्भाग में एक उत्तम विशाल गंदा पुक्खरिणी पण्णत्ता, जं चेव माणं हरयस्स तं चेव सव्वं । नन्दा पुष्करिणी कही गई है, जैसा पूर्व में पुष्करिणी की लम्बाई-जीवा० ५० ३, उ० २, सु० १४० चौड़ाई आदि का प्रमाण आदि कहा गया है, वैसा ही सब इस नन्दा पुष्करिणी का तथा ह्रदों का वर्णन समझना चाहिये। विजयदेवस्स उववायं विजयदेव का उपपात (जन्म)१८६. तेणं कालेणं तेणं समएणं विजए देवे विजयाए रायहाणीए, १८६. उस काल और उस समय में विजयदेव विजया राजधानी Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १८६-१६२ उववायसभाए देवसणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखे- की उपपात सभा में देवदूष्य से अन्तरित देवशय्या पर अंगुल के ज्जइभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उबवणे । असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहना वाले शरीर से विजयदेव के रूप में उत्पन्न हुआ। १६०. तए णं से विजए देवे अहुणोववष्णमेत्तए चैव समाणे पंच. १६०. इसके अनन्तर ही वह विजयदेव उत्पन्न होते ही पाँच विहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तं जहा- (१) प्रकार की पर्याप्तियों से पार्याप्तभाव को प्राप्त हुआ, वे पाँच आहारपज्जत्तीए, (२) सरीरपज्जत्तीए, (३) इंदियपज्जत्तीए, पर्याप्तियाँ इस प्रकार हैं-(१) आहारपर्याप्ति, (२) शरीर (४) आणापाणु पज्जत्तीए, (५) भासा-मण-पज्जत्तीए। पर्याप्ति, (३) इन्द्रियपर्याप्ति, (४) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति और (५) भाषा-मनः पर्याप्ति । १६१. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्ती १६१. तदनन्तर पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पर्याप्त भाव को भावं गयस्स इमे एयारूवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए प्राप्त उस विजयदेव के मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक संकप्पे समुप्पज्जित्था। चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआकि मे पुछ सेयं ? कि मे पच्छा सेयं ? मुझे पहले क्या श्रेय रूप है, और पश्चात् क्या हितकर है ? कि मे पुटिव करणिज्ज ? कि मे पच्छा करणिज्ज? पहले मुझे क्या करना चाहिये और पीछे क्या करना चाहिये ? कि मे पुब्वि वा पच्छा वा हियाए सुहाए खेमाए णिस्से- पहले अथवा पीछे, हित के लिये, सुख के लिये, क्षेम के लिये, साए अणुगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कटु एवं संपेहेइ। निःश्रेयस के लिये, और साथ में जाने योग्य कौन-सी वस्तु होगी? ऐसा उसने विचार किया। १६२. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणिय परिसोववण्णगा १६२. तत्पश्चात् उस विजयदेव के सामानिक परिषदा-स्थानीय देवा विजयस्स देवस्स इमं एयारूवे अज्झस्थिय, चितिय, देव अर्थात् सामानिक देव विजय देव के उत्पन्न हुए इस प्रकार के पत्थियं, मणोगयं संकप्पं, समुप्पण्णं जाणित्ता जेणामेव से इस आध्यात्मिक, चिन्तित, प्रार्थित और मनोगत संकल्प को विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति, तेणामेव उवागच्छित्ता जानकर जहाँ वह विजय देव था वहाँ पर आये, वहाँ आकर विजयं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसादत्तं मत्थए अंजलि कटु करयुगल को जोड़कर और मस्तक पर घुमाकर अंजलि पूर्वक उस जएणं विजएणं वद्धाति, जएणं विजएणं बद्धावेत्ता एवं विजय देव को जय-विजय शब्दों से बधाया और जय-विजय शब्दों वयासी से बधाकर इस प्रकार बोले_ "एवं खलु देवाणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धाय- 'हे देवानुप्रिय ! आप की विजया राजधानी में स्थित यणंसि अनुसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाण मेत्ताणं सिद्धायतन में जिनोत्सेध प्रमाण वाली एक सौ आठ जिन प्रतिसंनिक्खित्तं चिट्ठन्ति। माएँ विराजमान हैं, तथासभाए य सुहम्माए माणवए चेइ यखंभे वइरामएसु गोल- सुधर्मा सभा के माणवक चैत्यस्तम्भ में वचरत्नों से निर्मित वट्टसमुग्गएसु बहूओ जिण सकहाओ संन्निक्खित्ताओ चिट्ठन्ति । गोल वर्तुलाकार समुद्गकों में बहुत-सी जिनेन्द्र देवों की अस्थियाँ रखी हुई हैं। जाओ णं देवाणुप्पियाणं अन्नेसि च बहूण विजया राय- ये (जिन प्रतिमायें और अस्थियाँ) आप देवानुप्रिय को एवं हाणि वत्थव्वाणं देवाणं देवीण य अच्चणिज्जाओ वंद- विजया राजधानी में निवास करने वाले और दूसरे अनेक देवों णिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ और देवियों के लिये अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारणीय कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ-एयण्णं (सत्कार करने योग्य) सम्माननीय है, तथा कल्याण रूप, मंगलदेवाणुप्पियाणं पुटिव पि सेयं, एयण्णं देवाणुप्पियाणं पच्छा रूप, देवरूप और चैत्व रूप होने से पर्युपासना, सेवा करने योग्य वि सेयं, एवण्णं देवाणुप्पियाणं पुबि पि करणिज्जं, एयण्णं हैं, ये सब आप देवानुप्रिय के लिये पूर्व में भी श्रेय रूप हैं, और देवाणुप्पियाणं पच्छा वि करणिज्ज, एयण्णं देवाणुप्पियाणं ये सब पीछे भी आप देवानुप्रिय के लिये श्रेयस्कर है, अतएव आप पुब्वि वा पच्छा वा हियाए-जाव-आणुगामियत्ताए भविस्सइ देवानुप्रिय के लिये यह पहले भी करणीय हैं, और आप देवानुप्रिय त्ति" कटु महया महया जय जय सह पउंजंति । के लिये बाद में भी करणीय-करने योग्य हैं, क्योंकि यह आप देवानुप्रिय को पहले और बाद में हित के लिये-यावत्अनुगामीरूप से होगा, इस प्रकार कहकर उन्होंने जोर-जोर से जय-जय शब्दघोष किया। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सूत्र १६३-१६५ तिर्यक लोक विजयद्वार १६३. तए णं से विजए देवे तेसि सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवानं अंतिए एमट्ट सोन्चा णिसम्म हट्ठट्ठ- जाव - हियए देवणिज्जाओ अभुई, अब्भुट्टित्ता दिव्वं देवदूसजुयलं परिहेड परिहिला देवयज्जाओ पचोर, परयोरहिला उपवासभाओ पुरयमेषं वारेण निवाच्छ, निगडित जेणेव हर ए तेणेंव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हरयं अणुपदाहि करेमाणे करेमाणे पुरस्थिमेणं तोरणेणं अणुप्पविसइ अणुष्पविसिता पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरहइ, पच्चोरुहित्ता हरयं ओगाहेड, ओग हित्ता जलावगाहणं करेइ, करिता जलमज्जणं करेइ, करिता जलकिडु करेइ, करिता आयंते चोक्खे परमसूइभूए हरयाओ पच्चुत्तरह, पच्चुत्तरिता जेणामेव अभिसेयसभा तेणामेव उवागच्छ इ वागच्छता अभिसेयसमं पदाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरत्थि मिले वारे अविस अनुप्यविसित्ता जेणेव सए मिल्लेणं सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरवासिि -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १४१ विजयदेवरस इंदाभिसेयं १६४. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववरणगा देवा अभिजोगिए देव सहायेंति सद्दावित्ता एवं वयासी "खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! विजयस्स देवस्स महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं इंदाभिसेयं उबट्टवेह ।" * १६५. तए णं ते अभिओगिआ देवा सामाणिय परिसोववणेह एवं वृत्ता समाणा हट्ठतु - जाव-हियया करयलपरिग्गहियं सिरसा वत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं देवा तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुगंति, पडिणित्ता उत्तर-पुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमंति, अववकमित्ता वेउध्वियसमुग्धाएणं समोहणंति समोहणिता संखेनाई जोगाई दंड निसरंति तं जहा रयणाणं जाव-रिट्ठाणं । अहा बायरे पोग्गले परिसाति, परि साडिला महा मुहमे योग्यले परियाति परिवायित्ता दोप पि समुधाएवं समोहति समोहणिता (१) दुसहर सोणिया कलसा (२) अट्ठसहस्सं रुप्पामयाणं कलसाणं, (३) अट्ठसहस्सं मणिमत्राणं कलसाणं, गणितानुयोग १७३ १६३. तत्पश्चात् वह विजयदेव सामानिक परिषदोपगत देवों के इस हितावह अर्थ को सुनकर और मन में निश्चय कर हृष्ट-तुष्ट यावत्- हृदय प्रफुल्लित होता हुआ देवशय्या से उठा, उठकर दिव्य देवदूष्य युगल को पहना पहनकर देवशय्या से नीचे उतरा उतर कर उप सभा के पूर्व दिनावर्ती द्वार से बाहर निकला, निकलकर जहाँ हृद था, वहाँ गया, वहाँ जाकर हद की बारंबार प्रदक्षिणा करता हुआ पूर्व तोरण द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ, अनुप्रवेश करके पूर्वदिशा भाग में स्थित त्रिसोपान पंक्ति से नीचे उतरा, उतरकर हृद में प्रविष्ट हुआ, प्रविष्ट होकर जलावगाहनस्नान किया, स्नान करके शरीर का जलमर्दन किया, मर्दन करके जलक्रीडा की, जलक्रीड़ा करके आचमन द्वारा स्वच्छ, परमशुचिभूत होकर हद से बाहर निकला, बाहर निकल कर जहाँ अभिषेक सभा थी, वहाँ आया, वहाँ आकर अभिषेक सभा की पुनः पुनः प्रदक्षिणा करता हुआ पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ, प्रवेश करके जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया और आकर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ गया । बिजयदेव का इन्द्राभिषेक १६४ तदनन्तर उस विजयदेव के सामानिक परिषदोपन्न देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया, और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा "हे देवानुप्रियो ! तुम लोग अतिशीघ्र विजयदेव का इन्द्राभिषेक करने के लिये महान अर्थवाली, महा मूल्यवान, महापुरुषों के योग्य, विपुल ऐसी इन्द्राभिषेकयोग्य सामग्री उपस्थित करो । १९५. तत्पश्चात् सामानिक परिषदोपपन्न देवों के द्वारा आज्ञापित वे आभियोगिक देव उन सामानिक देवों के आदेश को सुनकर हृष्ट-तुष्ट - यावत् — उल्लसित होकर दोनों हाथों को जोड़ मस्तक पर आवर्त करके अंजलिपूर्वक "हे देव ! हमें आपकी आज्ञा प्रमाण है, कहकर विनयपूर्वक आज्ञा वचनों को सुनते हैं, सुनकर उत्तरपूर्वदि में गये वहां जाकर मंत्रिय समुद्धात द्वारा कुणा विकुर्वणा की, विकुर्वणा करके संख्यात योजन प्रमाण दंडाकार के रूप में आत्म-प्रदेशों को बाहर निकाला, यथा-रत्नों के यावत्रिष्टों के यथा बाहर असार पुद्गलों को अलग किया दूर हटाया दूर हटाकर यथा सूक्ष्म सारभूत पुद्गलों को ग्रहण किया, ग्रहण करके पुनः दूसरी बार दुवारा भी वैत्रिय समुद्घात किया, समुद्घात करके— 1 ( १ ) एक हजार आठ स्वर्ण के कलशों की, (२) एक हजार आठ चाँदी के कलशों की, (३) एक हजार आठ मणियों के कलशो की, Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १६५ (४) असहस्सं सुवण्ण-रुप्पामयाणं कलसाणं, (४) एक हजार आठ स्वर्ण और चांदी के कलशों की, (५) अट्ठसहस्सं सुवण्ण-मणिमयाणं कलसाणं, (५) एक हजार आठ स्वर्ण और मणियों के कलशों की, (६) अट्ठसहस्सं रुप्पामणिमयाणं कलसाणं, (६) एक हजार आठ चाँदी और मणियों के कलशों की, (७) अट्ठसहस्सं सुवण्ण-रुप्पामयाणं कलसाणं, (७) एक हजार आठ स्वर्ण और चांदी के मिश्रित कलशों की, (८) अट्ठसहस्सं भोमेज्जाणं कलसाणं, (८) एक हजार आठ मिट्टी के कलशों की, (6) अटुसहस्सं भिगारगाणं, (६) एक हजार आठ भृङ्गारकों-झारियों की, (१०) अट्ठसहस्सं आयंसगाणं, (१०) एक हजार आठ आदर्शकों-दर्पणों की, (११) अट्ठसहस्सं थालाणं, (११) एक हजार आठ थालों की, (१२) अट्ठसहस्सं पातीणं, (१२) एक हजार आठ पात्रियों की, (१३) अट्ठसहस्सं सुपइट्ठगाणं', (१३) एक हजार आठ सुप्रतिष्ठकों-बाजोटों की, (१४) अट्ठसहस्सं चित्ताणं, ' (१४) एक हजार आठ चित्रों की, (१५) अट्ठसहस्सं रयणकरंडगाणं, (१५) एक हजार आठ रत्न करंडकों की, (१६) अटुसहस्सं पुष्फचंगेरीणं-जाव-लोमहत्थ चंगेरीणं, (१६) एक हजार आठ पुष्पचंगेरिकाओं की-यावत्-लोमहस्त (मयूर पिच्छ) चंगेरिकाओं की, (१७) असहस्सं पुष्फपडलगाणं-जाव-लोमहत्थ पडलगाणं, (१७) एक हजार आठ पुष्पपटलों की-यावत्-लोमहस्तपट लकों की, (१८) अट्ठसयं सीहासणाणं, (१८) एक सौ आठ सिंहासनों की, (१६) अट्ठसयं छत्ताणं, (१६) एक सौ आठ छत्रों की, (२०) अट्ठसयं चामराणं, (२०) एक सौ आठ चामरों की, (२१) अट्ठसयं अवपडगाणं, (२१) एक सौ आठ अधपट्टकों की, (२२) अट्ठसयं वट्टकाणं, (२२) एक सौ आठ वर्तकों की, (२३) अट्ठसयं तवसिप्पाणं, (२३) एक सौ आठ तप सिप्रों की, (२४) अट्ठसयं खोरकाणं, (२४) एक सौ आठ क्षोरकों की-कटोरों की, (२५) अट्ठसयं पीणकाण, (२५) एक सौ आठ पीणकों की-समचतुरस्र पात्र विशेषों की, (२६) अट्ठसयं तेल्लसमुग्गकाणं, (२६) एक सौ आठ तैल समुद्गकों की, (२७) अट्ठसयं धुवकडुन्छुयाणं विउव्वंति। (२७) एक सौ आठ धूप कडुच्छकों की विकुर्वणा की। ते साभाविए विउविए य कलसे य-जाव-धूवकडुच्छुए य इन सबको स्वाभाविक रूप से विकुर्वित हुए कलशों कोगेण्हंति, गेण्हित्ता विजयाओ रायहाणीओ पडिनिक्खमंति, यावत्-धूपकडुच्छकों को लिया, लेकर विजया राजधानी में से पडिनिक्खमित्ता ताए उक्किट्ठाए-जाव-उद्धृत्ताए दिव्वाए देव- निकले, निकलकर वे अपनी इस उत्कृष्ट-यावत्-उद्धृत दिव्य गईए तिरियमसंखेज्जाणं दीव-समुद्दाणं मज्झं मझेणं वीयी- देवगति से तिर्यग् असंख्यातद्वीप समुद्रों के बीच में से होकर चलते वयमाणा वीयोवयमाणा जेणेव खीरोदे समुद्दे तेणेव उवा- हुए-चलते हुए जहाँ क्षीरोदधि समुद्र था वहाँ आये, वहाँ आकर गच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता खीरोदगं गिण्हंति, गिण्हित्ता क्षीरोदक को पात्र में भरा, क्षीर सागर के जल को लेकर जितने जाई तत्थ उप्पलाइं-जाव-सयसहस्सपत्ताई ताई गिण्हंति, भी वहाँ पर उत्पल-यावत्-शतपत्र, सहस्रपत्र, कमल थे उन __ आगमोदय समिति से प्रकाशित जीवाभिगम मलयगिरि आचार्यकृत टीका की प्रति पृ० २३८ सू० २४१ के मूल पाठ में-- 'सुपतिटकाणं' के बाद 'चित्ताण' है, किन्तु पृ० २४४ के पृष्ठ भाग पर टीका में 'सुप्रतिष्ठ' के बाद 'मनोगुलिका' और वातकरक' ये दो शब्द अधिक हैं । तथा इनके बाद 'चित्त' शब्द है। २ मूल पाठ में- 'चामरागं' के बाद "अवपडगाणं, वट्टकाणं तवसिप्पाणं, खोरकाणं, पीणकाणं' इतने शब्द हैं और इनके बाद 'तेल्लसमुल्लगकाणं' है, किन्तु टीका में—'चामर' के बाद केवल 'समुद्गक' और 'ध्वज' ये दो शब्द हैं, अतः स्पष्ट है कि आगमोदय समिति से प्रकाशित मुल पाठ में और टीकाकार के सामने जो पाठ था, उसमें पाठ भेद है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६५ गिव्हित्ता गंव पुखरोदे समूह तेथेच उपागच्छति उया गच्छताहति गिरिला जाई तत्थ उप्पलाई जाव-सहस्वपसाई लाई गति मि खेते, जेणेव भर हेरवयाई वासाई, जेणेव मागध-वरदाम भासाई तित्थाई तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तित्थोदगं गिति गति मिति । 1 तिर्यक् लोक : विजयद्वार " गण्हित्ता जेणेव गंगा-सिंधु-रत्ता-रत्तवई सलीला तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सरितोदगं गेव्हंति, गिव्हित्ता उभओ तडमट्टियं गेहति । - गेव्हित्ता जेणेव चुल्ल हिमवंत सिहरि वासघरपन्चया तेजेय उवागच्छति, उपागच्छत्ता सय्यात्वरे य, सव्य पुष्य, सत्र गंधे य, सव्व मल्ले य, सव्वोसहिसिद्धत्थए गिव्हंति, सव्वोस हिसिद्धत्थए गिव्हित्ता जेणेव पउमद्दह पुण्डरीयद्दहा तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता दहोदगं गेव्हंति, गेव्हित्ता जाई तत्थ उपलाई जाय सहस्यसाई ताईयेति । उवागच्छत्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव-सयस हस्तपत्ताई ताई हंति, हित्ता जेणेव हरिवासे रम्मावासे ति, जेणेव हकंत-किंत परतणारिकताओ सतिलाओ तेणें उबा गच्छति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गिव्हंति, गेव्हित्ता उभओ मट्टियं हति लाई हिसाव हेमवय-हरणाई यासाई, जेणेव रोहिय रोहिस सुवणकूल रायलाओं तेच उपागच्छति वागच्छता सलिलोदगं गण्हंति, गेव्हित्ता उभओ तडमट्टियं मेति हिला जेनेव सहावाति मालवंत-परियाली वेतड्ढ पब्वया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतूवरे य, सिद्धत्वए यहति हिला जेणेव महाहिमवंत - रुप्पिवासघरपव्वया उवागच्छंति, उगति सव्वपुष्फे तं चैव महा पउमद्दह महापुण्डरीयद्दहा तेणेव उवागच्छति । हित्ता जेणेव विडावइ-गंधावइ वट्ट वेयड् पव्वया तेणेव उवागच्छंति, उवार्गाच्छत्ता सव्वतूवरे य- जाव सध्वोस हि सिद्धस्थातिष्टिता जेणेव सिह गीलवंत बाहर पन्या तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, सव्वतूवरे य-जावसव्वीस हिसिद्धत्थए य गण्हति । गेष्टिता जेणेव तिगिष्य केसरिया व उद्यागच्छति, उवागच्छत्ता जाई तत्थ उप्पल इं-जाव-सय सहस्सपत्ताई ताई गणितानुयोग १७५ सबको लिया, उन्हें लेने के बाद जहाँ पुष्करौदधि था वहाँ आये वहाँ आकर पुष्करोवक ग्रहण किया, ग्रहण करके वहाँ जितने भी उत्पल - यावत् — शतदल - सहस्रदलकमल थे, उनको लिया, लेकर फिर वे जहाँ मनुष्य क्षेत्र था, उसमें भी जहाँ भरत और ऐरावत क्षेत्र थे, जहाँ मागध, वरदाम, प्रभास आदि तीर्थ थे, वहाँ आये, वहाँ आकर तीर्थोदक पात्रों में भरा, भरकर तीर्थों की मिट्टी ली । मिट्टी लेने के बाद जहाँ गंगा, सिंधु, रक्ता रक्तवती महानदियाँ थीं, वहाँ आये, वहाँ आकर सरितोदक पात्रों में भरा, सरितोदक लेकर नदियों के दोनों तटों की मिट्टी ली। मिट्टी लेकर फिर जहाँ क्षुद्र हिमवान और शिखरी नामक अधर पर्वत वहां आये, वहाँ आकर समस्त ऋतुओं की और रस विशेषों से युक्त वस्तुओं को समस्त पुष्पों को, समस्त गंधों को, समस्त मालाओं को, समस्त औषधियों और सिद्धार्थ को सरसों को लिया, समस्त औषधियों और सरसों को लेकर जहाँ पद्मद्रह, डरिक थे वहां आये, वहाँ आकर ब्रहोदक लिया और वहां जितने भी उत्पल - यावत् — शत सहस्रदल कमल थे, उनको लिया । उनको लेने के बाद जहां मयत व क्षेत्र थे, जहां रोहित-रोहितांस क्षेत्र युवकूला, रूप्यकूला, नदियाँ वहाँ आये, वहाँ आकर नदियों का जल भरा और दोनो तटों की मिट्टी मिट्टी लेने के बाद जहाँ शब्दापात, माल्यवंत, प्रयाग, वृत वैताढ्य पर्वत थे, वहाँ आये, वहाँ आकर सर्व रस विशेधों से युक्त वस्तुओं यावत् समस्त औषधियों और सरसों को लिया, लेने के बाद जहां महाहिमवन्त और रूप्य वर्णधर पर्वत थे ये वहाँ आकर समस्त पुष्पों आदि को लिया और उसी प्रकार से जहाँ महापद्म, महा पुण्डरीकद्रह से यहां आये। " वहाँ आकर जितने वहाँ उत्पल थे— यावत् -शत सहस्र कमल थे, उनको लिया, उनको लेकर जहाँ हरिवर्ष, रम्यक वर्ष थे, जहाँ हरकांता, हरिकांता, नरकांता, नारीकांता नदियां थीं वहाँ आये, वहाँ आकर नदियों का जल पात्रों में लिया, जल लेकर उन नदियों के दोनों तटों की मिट्टी ली। मिट्टी लेने के बाद जहाँ विकटापति, गंधापति, वृत्तवैताढ्य पर्वत थे, वहाँ आये, वहाँ आकर सर्वरस विशेषों से युक्त सर्व तुओं में उत्पन्न वस्तुओं यावत् समस्त अधिव सिद्धार्थकों को लिया, उसके बाद जहाँ निषेध, नील नामक वर्षवर पर्वत थे वहाँ आये. आकर सर्व ऋतुओं के उत्तम पुत्रों - यावत्समस्त औषधियों और सर्वयों को लिया । सर्पों को लेने के बाद जहाँ तिगिच्छद्रह, केशरीद्रह थे वहाँ आये, वहाँ आकर उन्होंने वहाँ जितने उत्पल - यावत् - शत Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यह लोक विजयद्वार : जेणेव सव्व चक्कवट्टि विजया, जेणेव सव्वमागह वरदामभासाई तित्थाई तहेव । गेव्हंति, गेव्हित्ता जेणेव पुष्व विदेहावर विदेह वासाई, जेणेव सहस्र पत्र कमल थे, उनको लिया, उनको लेकर जहाँ पूर्वविदेह सोयासीओयाओ महाणईओ जहा णईओ । और पश्चिमविदेह क्षेत्र थे, जहाँ सीता और सीतोदा महानदियाँ थीं । जेणेव सव्ववक्खारपव्वया सव्व तुवरे य, जेणेव सव्वंतरईओ सलोलोि 17 जेणेव मंदरे पथ्वए, जेणेव भद्दसालवणे तेणेव उवागच्छंति सव्व तुरेवासहिसिए विति व्हित्ता जेणेव णंदणवणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सव्व तुवरे बजार-सोस हसिए व सर व गोसीसचंद गिति गव्हा जेवसोमवतेमेव उपागच्छति उपागच्छता सव्व तुवरे य-जाव सव्वोस हिसिद्धत्थ य सरसं च गोसीस चंदणं दिव्वं च सुमणदामं गण्हंति, गण्हित्ता जेणेव पंडगवणे तेणेव उवागच्छति उबागडित सय बरे बजाय सय्यो सहिसिद्धत्थे य सरसं च गोसीस चंदणं दिव्वं च सुमणदामं दमल सुगंधिएव गंधेति । " 1 गेव्हित्ता एगओ मिलति मिलित्ता जंबुद्दीवस्स पुरत्थि - मिल्लेणं दारेणं णिगच्छंति, णिगच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव दिखाए देखाईए तिरियमसंखेागं दीव-समुदाचं मां मज्झंमझेणं वीईवयमाणा वीईवयमाणा जेणेव विजया रायहाणी तेणेव उवागच्छित्ता तेच उपागच्छति उपागता विजय रायहानि अनुष्य 1 ग्राहिणं करेमाणा करेमाना जेणेव अभिसेसमा जिए देवे व उपागच्छति उबागन्छिला करयल परिगहि तेणेव सरसावतं मत्थए अंजलि कट्टु नए विजयद्धति विजयदेवरस महत्महत्वं महरिहं विपुलं अभियं उट्ठति । तं १६६. तए णं तं विजयदेवं चत्तारि य सामाणिय साहस्सीओ चत्तारि अगमसिओ सपरिवाराओ तिमि परिमाओ मत्त अणिया, सत्त अणियाहिवई, सोलस (आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने य यहवे विजय रायहाणियाणमंत देवाय देवीओ व तेहि सामाविएहि उत्तरवेखिएहि य दरकमलपाहि सुरभियारिदिन चलाएहि आकंड सूत्र १६५ - १६६ www.war जहाँ सर्वं चक्रवर्तियों के विजेतव्य विजय थे, जहाँ पर सर्व मागध, वरदाम, प्रभास आदि तीर्थ थे वहाँ से जैसे पूर्व नदियों का जल, मिट्टी, कमल आदि लेने का वर्णन किया गया है, वैसा इन नदियों हदों, तीथों के जल लेने आदि का सर्व वर्णन यहाँ भी कर लेना चाहिए । जहाँ वक्षस्कार पर्वत थे, वहाँ आये और वहाँ आकर सर्व ऋतुओं के पुष्यादिकों को लिया, फिर जहां सर्व अन्तर्वर्ती नदियां थीं वहाँ आये। वहाँ से भी पूर्व की तरह जल, दोनों तटों की मिट्टी आदि ली, इत्यादि का वर्णन करना चाहिये । तत्पश्चात् जहाँ मन्दर पर्वत था और उसमें भी जहाँ भद्रशाल वन था, वहाँ आये और वहाँ से भी रस प्रधान सर्वऋतुओं के पुष्पों फलों - यावत्- सर्व औषधियों और सिद्धार्थकों को लिया, लेने के बाद जहाँ नन्दनवन था वहां आये और यहाँ आकर सब ऋतुओं के पुष्पों फलोंघावत् सर्व औषधियों और सिद्धार्थकों को लिया, तथा सरस गोशीर्ष चन्दन को लिया, चन्दन को लेकर जहाँ सौमनसवन था वहाँ आये, वहाँ आकर सर्व ऋतुओं के पुष्पों पलों आदि को यावत् सवं औषधियों और सिद्धा सरसों और सरस गोशीर्ष चन्दन एवं दिव्य सुमन मालाओं, मलयचन्दन की गंध से मिश्रित अत्यन्त सुगन्धित गन्धद्रव्यों को लिया । - - इन सबको लेकर वे सब एक स्थान पर एकत्रित हुए, एकत्रित होकर जम्बूद्वीप के पूर्वद्वार से निकले, निकलकर वे अपनी उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से तिर्यगू असंख्यात द्वीप समुद्रों के बीचोंबीच से चलते हुए जहाँ विजया राजधानी भी यहां आये, वहाँ आकर विजया राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए जहां अभिषेक सभा थी, उसमें भी जहाँ विजयदेव था, वहां आये, वहाँ आकर दोनों हाथों को जोड़कर और मस्तक पर आवर्त कर के अंजलिपूर्वक जय-विजय शब्दों के द्वारा बधावा, और फिर विजय देव के अभिषेक की वह महार्थक, महामूल्यवान, महान पुरुषों के योग्य और विपुल सामग्री सामने रखी। १६६. तदनन्तर (अभिषेक सामग्री उपस्थित करने के बाद ) चार हजार सामानिक देवों, अपने परिवार सहित चार अयमहिषियों, तीन परिषदाओं, सातों प्रकार की अनीक-सेनाओं, सातों अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा विजयाराजधानी के निवासी और दूसरे भी अनेक वागयंतर देव-देवियों ने उन स्वाभाविक और उत्तर विक्रिया करके आभियोकि देवों द्वारा उपस्थित श्रेष्ठ कमलों के ऊपर स्थापित सुगन्धित श्रेष्ठ जस से पूर्ण रूपेण भरे हुए, चन्दन के लेप से चित्रित (अर्थात् जिन पर Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १६६-१६७ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गुहपमुपलपिहाणे करयल सुकुमाल कोमल परिग्गहिएहि अट्ठ सहस्ताणं सोनियाणं कससाणं जाव अट्ठ सहस्साणं भोमेयाणं कलसाणं सध्योदहि सत्यमट्टियाहि सम्वतुवरेह यादवसहि सम्बिदीए सम्बसीए सम्बले सव्वसमुदएण सव्वायरेणं सव्वविभूतिए सव्वविभूसाए सव्व संभ्रमेणं सय्योरोहेणं सध्यास पुष्क-गंध-मल्लाकार बिसाए, सम्यदिव्यडियाए महया डीए महया जुतीए महाबले महया समुदए, महया यजमग समय-पव्यवाइयर ---मंझिलर खरमुह मुरव-मुयंग- दुन्दुहिहुडुक्कणिग्घोस संनिनादियर वेणं महया इंदाभिसेगंणं अभिसिति । , महया अप्पेगइया देवा णच्चोदगं णातिमट्टियं पविरलफुसियं दिव्वं सुरभि रखरेयिणासणं गंधोदवा वासंति । अमेगा देवा निपत्यं परमं मरणं पसंतर उवसंतरयं करेंति । १७. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स महया महया इंदाभिसेगंसि १९७ तत्पश्चात् जब इस प्रकार के अतिशय प्रभावक भव्य यमाणंसिसमारोहपूर्वक इस विजय देव का इन्द्राभिषेक हो रहा था तब अप्पेवा देया विजयं रायहाणि सम्मितर बाहिरियं आसिय सम्मन्जिवलितं सित्तमुहसम्मरत्वं तरायणवीहि करेंति । अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि मंचातिमंचकलियं करेंति, अयेगा देवा विजयं रामहाग पाणाबिहरागरजिय ऊसिय जयविजय - वेजयंती- पडागातिपडाग मंडियं करेंति । गणितानुयोग १७७ अप्पेगइया देवा विजय रायहानि लाउलोडयमहियं करेति, अयेगा देवा विजय राष्हाणि योसीस सरसर चंद हरदिष्ण पंति करेति । चन्दन के लेप के थापे लगे हुए हैं) जिनके कंठों में सूत - कलावा (पंचरंगा यूत) बँधा हुआ है, पद्मकमलों के ढक्कन से ढके हुए और सुकुमाल कोमल हस्ततलों (हवेलियों में धारण किये हुए) ऐसे एक हजार आठ सौर्वाधिक (स्वर्ण से बने हुए कलशयावत् एक हजार मिट्टी के कलशों से तथा सभी महानदियों, ग्रहों तीर्थं सरोवरों, अन्तत नदियों आदि के जल और इन-इनके अन्तर्वर्ती सटों की मिट्टी से एवं सभी ऋतुओं के पुष्पों फलों यावत्सर्व औषधियों और सिद्धार्थकों आदि रूप अभिषेक सामग्री से तथा अपनी समस्त ऋद्धि, समस्त यति-कांति, समस्त सेना, समस्त परिवार आदि के साथ अत्यधिक आदरपूर्वक एवं समस्त विभूति, विभूषा, औत्सुक्य, अन्तःपुर सहित तथा अनेक प्रकार के नाटकों-उत्सवों के साथ, समस्त पुष्पों, गंधों, मानाओं और अलंकारों आदि के द्वारा की गई विभूषा - सजावट के साथ, समस्त दिव्य वाद्यों के निनाद पूर्वक, महान् ऋद्धि, महान् द्य ुति, महान् बल, महान् अभ्युदय एवं निपुण पुरुषों द्वारा एक साथ बजाये जा रहे उत्तम वायों की ध्वनि तथा स प्रणव दोल-पट-नगाडा मेरी, शत्तरी, खरमुखी (वाद्य विशेष), मुरज, मृदंग, दुन्दुभि हुडुक्क - तबला आदि वाद्यों के समुदाय की निनाद ध्वनि पूर्वक बड़े ठाट-बाट से उस विजय देव का इन्द्राभिषेक किया । 1 कितने ही देव जिसमें न तो अधिक जल का उपयोग होता हैं, और न कीचड़ होता है, इस प्रकार से रिमझिम रिमझिम फुहारों के रूप में धूलि-मिट्टी को उपशमित करने के लिये दिव्य सुगंधित गंधोदक की वर्षा करते हैं । कितने ही देव उस विजय राजधानी को नितरत्र वाली, नष्टरज वाली, भ्रष्टरज वाली, प्रशांत रज वाली और उपशांत रज वाली करते हैं, बनाते हैं । कतिपय देव उस विजय राजधानी में भीतर-बाहर (सब तरफ) जल का छिड़काव कर साफ-सुथरा कर और लीप-योतकर गलियों, बाजारों रास्तों को भली भांति शुद्ध पवित्र बनाते हैं। कुछ एक देव विजया राजधानी को मंवातिमंच युक्त करते हैं । कितनेक देव विजया राजधानी को अनेक प्रकार के रंगों से रंगी हुई ( रंगबिरंगी ) जय-विजय सूचक और फहराती हुई विविध आकार-प्रकार वाली विजय वैजयन्ती पताकाओं से मंडित करते हैं । कितनेक देव विजया राजधानी को गोवर आदि से लीपते हैं । कितनेक देव विजया राजधानी को सरस गोशीर्ष, रक्त चन्दन एवं दद्दर चन्दन के लेप के थापों से मंडित करते हैं । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ लोक- प्रज्ञप्ति अश्या देवा विजय रायहाणि उपथियदणक चंद घडसुकय-तोरण- पडिदुवारदेसभागं करेंति । तियं लोक विजयद्वार अध्येमइया देवा विजयं रायहाणि आसतोत्त- विपुल-बट्टवग्घारिय-मल्लदामकलावं करेंति । अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि पंचवण्ण-सरस-सुरभिमुक्क पुरोवारकलियं करेति । अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणि कालागुरु-पवर कुन्दुरुक्क तुकांत मयमत-गंधाभिरामं सुगंधवरगंधियं वयं करेति । अप्पेश्या देवा हिरण्णवासंति अश्या देवा वणवा वासंति एवं रयणवासं वइरवासं पुप्फवासं मल्लवासं गंधवासं कृष्णवास स्पवास आहरणवास वासंति अगइया देवा हिरणविहि माईति । एवं सुवणविहिं रयणविहि व इरविहिं पुप्फविहि मल्ल विहि, विधिवत्यविहि आभरणविहि भाइति अमेगा देवा हु सहि उपति । अप्पेगइया देवा बिलंबियं णट्टविहि उवदंसेति । अप्पेगइया देवा दुय बिलंबियं णट्टविहि उवदंसेंति । एवं अंचियं णट्टविहि, रिभियं णट्टविहि, अंचियरिभियं विहि दिव्यं विहिं आरभट्टविहि भसोलं पट्टविहिं आरभड-भसोलं णट्टविहि, उप्पाय- णिवायपवृत्तं णट्टविहि, संकुचियासारखं विहिं रिपारियं निहित णट्टविहि, संभंत नाम दिव्यं विहि उयति । अप्पेगा देवा उावात तं जहा (१) ततं, (२) विततं, (३) घणं, (४) झुसिरं । अप्पेगइया देवा चउव्विहं गेयं गायंति, तं जहा - ( १ ) (२), (३) मंदा (४) रोहदावसा अप्पेगा देवा अभिनय अभियंति सं जहा(१) दितियं (२) पति (३) सामंतोणिवाहयं (४) लोगमज्झावसाणियं । 7 , 1 - अप्पेगा देवा पीति, अयेगा देवा बुक्कारेति, अश्या देवाडति अगा देवा सासेति अप्पेवा देवा पीति, बुक्कारेंति, तंडवेंति, लासेंति । सूत्र १६७ कितने ही देव विजया राजधानी के प्रत्येक घर के द्वार को चन्दन के कलशों और चन्दन के घटों से निर्मित तोरणों से मंडित करते हैं । कितने ही देव विजया राजधानी को लटकती हुई बड़ी-बड़ी गोलाकार पुष्पमालाओं से श्रृंगारित करते हैं । कितने ही देव विजया राजधानी को पंचरंगे सरस सुगंधित पुष्पों के जों (गुलदस्तों से सजाते हैं। कितने ही कुन्दुर, देव विजया राजधानी को काले अगर, श्रेष्ठ धूप का अग्नि में प्रवेश करने पर महकती हुई गंध के उड़ने से मनमोहक और श्रेष्ठ सुगंध की गंधयतिका (अगरबत्ती) जैसी बनाते हैं। * कितने ही देव चांदी की वर्षा बरसाते हैं। कितने हो देव स्वर्ण की वर्षा करते हैं। इसी प्रकार रत्नवर्षा, वज्ररत्नवर्षा, पुष्पवर्षा, माल्यवर्षा, गंधवर्षा, चूर्णवर्षा, वस्त्रवर्षा, और आभरण वर्षा बरसाते हैं । कितने हो देव चाँदी का दान देते थे । इसी प्रकार कितने ही देव स्वर्णदान, रत्नदान, वज्ररत्नदान, पुष्पदान मात्यदान, सुगन्धित पूर्णदान संप्रदान, वस्त्रदान, आभरण दान देते हैं । कितने ही देव द्रुत नाट्यविधि का प्रदर्शन करते हैं । किसने हो देव विविनविधि का प्रदर्शन करते हैं। कितने ही देव द्रुतविलम्बित नाट्यविधि का प्रदर्शन करते हैं । "इसी प्रकार कितने ही देव अंचित नाट्यविधि का, रिभित नाट्यविधि का अंचित-रिचित नाट्यविधि का दिव्य नाय विधि का आरभट नाट्यविधि का भसोल नाट्यविधि का, आरभट कसोल नाट्यविधि का उत्पातनिपात प्रयुक्त नाट्य विवि आरभट-सोल का, संकुचित-प्रसारित नाट्यविधि का गमनागमन रूप नाट्यविधि का भ्रान्त संभ्रान्त नामक दिव्य नाट्य विधि का प्रदर्शन करते हैं। " कितने ही देव चार प्रकार के वाद्यों को बजाते हैं, यथा(१) (२) वितत (३) पन, (४) विर 1 , कितने ही देव चार प्रकार के गीतों को गाते हैं, यथा (१) उत्क्षिप्त, (२) प्रवृत, (३) मंद, (४) रोचितावसान | कितने ही देव चार प्रकार के अभिनयों का अभिनय करते हैं, यथा- (१) (२) पाठांतिक, (३) सामंतोनि पातिक, (४) लोकमध्यावसान्तिक कितने ही देव अपने शरीर का खूल आकार बनाते हैं, कितने ही देव गर्जना करते हैं, कितने ही देव तांडव नृत्य करते हैं, कितने ही देव नृत्य करते हैं, और कितने ही देव अपने शरीर को मांसल बनाते हैं, गर्जना करते हैं, तांडवनृत्य करते हैं और नृत्य करते हैं । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र १६७ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १७६ अप्पेगइया देवा अप्फोडेंति, अप्पेगइया देवा वगंति, कितने ही देव ताल ठोकते हैं, कितने ही देव उछल-कूद करते अप्पेगइया देवा तिति, अप्पेगइया देवा छिति, अप्पेगइया हैं, कितने ही देव छलांग लगाते हैं, कितने ही देव छेदन-भेदन देवा अप्फोडेति, वगंति, तिति, छिति । करते हैं, कितने ही देव ताल ठोकते हैं, उछल-कूद करते हैं, छलांग मारते हैं, और छेदन-भेदन करते हैं। अप्पेगइया देवा हयहेसिधं करेंति, अप्पेगइया देवा हत्थि- कितने ही देव घोड़े जैसे हिनहिनाते हैं, कितने ही देव हाथी गुलगुलाइयं करेंति, अप्पेगइया देवा रहघणघणाइयं करेंति, जैसे गुडगुड़ाहट करते हैं. कितने ही देव रथ जैसी घनघनाहट करते अप्पेगइया देवा हयहेसियं, हत्थिगुलगुलाइयं रहघणघणाइयं हैं, कितने ही देव घोड़े जैसी हिनहिनाहट करते हैं, हाथी जैसी करेंति । गुडगुडाहट और रथ जैसी घनघनाहट करते हैं। अप्पेगइया देवा उच्छोलेंति, अप्पेगइया देवा पच्छोलेंति, कितने ही देव हर्षातिरेक से उछलते हैं, कितने ही देव आँखें अप्पेगइया देवा उक्किट्ठीओ करेंति, अप्पेगइया देवा उच्छो- मटकाते हैं, कितने ही एक-दूसरे को गोदी में उठा लेते हैं, और लेंति, पच्छोलेंति, उक्किट्ठीओ करेंति । कितने ही देव उछलते हैं, आँखें मटकाते हैं एवं एक-दूसरे को गोदी में उठा लेते हैं। अप्पेगइया देवा सीहणादं करेंति, अप्पेगइया देवा पाय- कितने ही देव सिंहनाद करते हैं, कितने ही देव जोर-जोर से दहरयं करेंति, अप्पेगइया देवा भूमिचवेडं दलयंति, अप्पेगइया जमीन पर पैर पटकते हैं, कितने ही देब जमीन पर हाथों को देवा सीहणादं, पायदद्दरयं करेंति, भूमिचवेडं दलयंति । पटकते हैं, और कितने ही देव सिंहनाद करते हैं, जमीन पर पैर पटकते हैं, एवं हाथों को पटकते हैं। अप्पेगइया देवा हवकारेंति, अप्पेग इया देवा बुक्कारेंति, कितनेक देव एक-दूसरे को पुकारते हैं, कितनेक देव बकरे अप्पेगइया देवा थक्कारेंति, अप्पेगइया देवा पुवकारेति, अप्पे- की तरह बुगबुगाहट करते हैं, कितनेक देव थकथकाहट करते हैं, गइया देवा नामाइं सावेति, अप्पेगइया देवा हक्कारेंति, कितनेक देव फुत्कराहट करते हैं, कितनेक देव आपस में एक-दूसरे वुक्कारेति, थक्कारेंति, पुक्कारेति, णामाइं सावेंति । के नामों को सुनाने लगते हैं, और कितनेक देव आपस में एक दूसरे को पुकारते हैं, बुगबुगाहट करते हैं, थकथकाहट करते हैं, फुत्कराहट करते हैं, और एक-दूसरे के नामों को सुनाते हैं। अप्पेगइया देवा उप्पतंति, अप्पेगइया देवा णिवयंति, कितनेक देव ऊपर को उछलते हैं, कितनेक देव जमीन पर अप्पेगइया देवा परिवयंति, अप्पेगइया देवा उप्पयंति, णिव- लोटपोट होते हैं, कितनेक देव वाँके-तिरछे होते हैं, और कितनेक यंति, परिवयंति। देव ऊपर उछलते हैं, लोटपोट होते हैं एवं वाँके-तिरछे नमते हैं । अप्पेगइया देवा जलेंति, अप्पेगइया देवा तवंति, अप्पेगइया कितनेक देव दैदीप्यमान ज्वालाओं को प्रगट करने का रूपक देवा पतवंति, अप्पेगइया देवा जलेंति, तवंति, पतवति । दिखाते हैं, कितने ही देव महान तपस्वी होने का रूपक दिखाते हैं, और कितने ही देव अत्यधिक ज्वालाओं को प्रगट करने का रूपक दिखाते हैं, कितने ही देव ज्वाला प्रकट करते हैं तपस्वी होने का तथा अत्यधिक ज्वाला प्रकट करने का रूपक दिखाते हैं । अप्पेग इया देवा गज्जेंति, अप्पेगइया देवा विज्जयायंति, कितनेक देव मेघ गर्जना जैसे दृश्य को उपस्थित करते हैं, अप्पेग इया देवा वासे ति, अप्पेग इया देवा गज्जेति, विज्जया- कितने ही देव मेघ विद्य त के चमकने का दृश्य दिखाते हैं, कितने गंति, वासें ति । ही देव मेघवर्षा का दृश्य दिखाते हैं, और कितने ही देव मेघ गर्जना, विद्युत के चमकने (कोंधने) एवं मेघवर्षा का दृश्य उपस्थित करते हैं। अप्पेगइया देवा देव-सन्निवायं करेंति, अप्पेगइया देवा कितने ही देव एक-दूसरे के गले मिलते हैं, कितने ही देव देववक लिगं करेंति, अप्पेग इया देवा देवकहकह करेंति, अप्पे- खेल-कूद आदि क्रीड़ा करते हैं, कितने ही देव कहकहे लगाते हैं, गइया देवा देवदुहदुहं करेंति, अप्पेगइया देवा देवसन्निवायं कितने ही देव दुह-दुहध्वनिघोष करते हैं, और कितनेक देव देवुक्कलियं, देवकहकहं, देवदुहदुहं करेंति । आपस में गले मिलते हैं, खेल-कूद आदि क्रीडा करते हैं, कहकहे लगाते हैं, एवं दुह-दुह घोष करते हैं। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० लोक-प्रज्ञप्ति wwwww तिर्यक लोक विजयद्वार अप्पेगइया देवा देवज्जोगं करेंति, अप्पेगइया देवा बिज्जुपारं करेति अगया देवा चेतुवर्णवं कति अप्पेोमइया देवा देवज्जो विज्जुयारं चेलुक्खेवं करेंति । अप्पेगइया देवा उप्पलहत्थगया - जाव-सहस्सपत्तहत्थगया । अप्पेगा देवा हत्या कलसहत्वगया-जाय धूव कडुच्छहत्थगया । हाय-हरिस विसयमाहिया विजयाए रायहाणीए सव्वओ समंता आधावेति परिधावति । तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणिय साहस्सीओ चारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ - जाव- सोलस आयरक्ख देवसाहस्सोओ अब विजय राहाणीवत्यच्या वाग मंतरा देवाय देवीओ य तेहि वरकमलपइट्ठाणेहि जाव अट्ठसएणं सोवण्णियाणं कलसाणं तं चैव जाव- अट्टसएणं भोमे कलसा सय्यद हिंसय्यमट्टियाहि सम्बतुवरेह सम्य हिजाब सोहि सिद्धत्यहि सविडीए-जाव-नियोस नाइयरवेणं महया महया इंदाभिसेएणं अभिसिचंति अभिसिचित्ता पत्तेयं पत्तेयं सिरसावत्तं मत्थए अंजल कट्टु एवं वयासी 'जय जय नंदा, जय जय भद्दा, जय जय नंद भद्द ते अजियं जिणेहि, जियं पालियाहि, अजिगं जिणेंहि सत्तुपक्ख, जिगं पालेहि मित्तपक्खं, जिय भज्झे वसाहि, तं देव ! निरु वसग्गं, इंदो इव देवाणं, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं, धरणो व नागागं, भरहो इव मनुवाणं वणि पलिओ माई बहूणि सागरोवमाई चउन्हं सामाणियसाहस्सी - जाव- आयरक्ख देव साहस्सीणं विजयस्स देवस्स विज पाए रायहानीए अति बहु विजयरावहाणि रथ वाणं वाणमंतराणं देवाणं देवीणं य आहेवच्चं जाव आणा - ईसर सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहराहि" त्ति कट्टु महया महया सद्दणं जय जय सद्द पउंजति," , सूत्र १९७ कितने ही देव दिव्य उद्योत करते हैं, कितने ही देव आकाश को विद्यतमय (आतिशवाजी फटाखों को फोड़ने की चमक जैसा) करते हैं, कितने ही देव वस्त्र के बने गुब्बारे उड़ाते हैं, और सिनेक देव दिव्य उद्योत करते हैं, आकाश को विद्यतमय करते हैं, और गुब्बारे उड़ाते हैं । कितने ही देवों ने हाथों में कमल ले रखे हैं - यावत्शतदल - सहस्रदल कमल ले रखे हैं । कितने ही देव हाथों में घंटा लिये हैं, कलश लिये हैं - यावत् धूप का कच्छ धूपदान लिये है। इस प्रकार से वे सबके सब देव हृष्ट-तुष्ट — यावत् - हर्षा - तिरेक से प्रफुल्लित हृदय वाले होकर विजया राजधानी के चारों ओर सभी दिशाओं में कभी इधर दौड़-भाग करते हैं, कभी उधर भागते हैं । "हे नन्द ! आपकी जय हो, जय हो, हे भद्र! आपकी जय हो, जय हो, हे नन्द-भद्र! आपकी जय-विजय हो, आप अजित पर विजय प्राप्त करें, विजितों का पालन करें, अजित शत्रुपक्ष को विजित - वश में करें और जित मित्र पक्ष का पालन-पोषण रक्षण करें, जिस अनुकूल मित्रगण को बसाओ हे देव देवों में इन्द्र की तरह, ताराओं में चन्द्र की तरह, असुरों में चमर की तरह, नागों में धरण की तरह, और मनुष्यों में भरत की तरह निरपसर्ग होकर विचरण करो एवं अनेक पोमों और सागरो पमों के समय तक चार हजार सामानिक देवों - यावत् - सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के और विजयदेव की विजया राजधानी एवं विजया राजधानी के निवासी और दूसरे बहुत से बाग व्यंतर जीवा० १०३ ३०२ ० १४१ देव-देवियों के आधिपत्य यावत्-ज्ञा-ऐश्वर्य सेनापतिको करते हुए और उनको पालते हुए सुखपूर्वक समय वापन करो, इस प्रकार के स्वस्ति वचनों को कहकर बड़े जोर से जय-जयकार करते हैं । तत्पश्चात् चार हजार सामानिक देव अपने-अपने परिवार सहित चार अग्रमहिषियाँ - यावत् - सोलह हजार आत्मरक्षक देव और दूसरे बहुत से विजय राजधानी के निवासी वाणव्यंतर देव और देवियाँ उन श्रेष्ठ कमलों पर रखे हुए - यावत् - एक सौ आठ स्वर्ण के कलशों के तथा पूर्व में बताये गये अनुसार — यावत् - एक सौ आठ मृत्तिका कलशों के समस्त पवित्र जल से महानदियों हों तीर्थसरोवरों के जस से, और उनके तटों की मिट्टी से सर्व ऋतुओं के समस्त पुष्पों से- यावत् - सर्व औषधियों और सिद्धार्थकों से, समस्त ऋद्धि — यावत् — वाद्यघोषों की नाद ध्वनिपूर्वक महान् इन्द्राभिषेक द्वारा उस विजय देव का अभिषेक करते हैं, और अभिषेक करने के बाद प्रत्येक ने नतमस्तक हो अंजलिपूर्वक इस प्रकार कहा - Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १९८-२०१ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १८१ १९८. तए णं से विजए देवे महया महया इंदाभिसेएणं अभिसित्ते १६८. इसके बाद वह विजय देव जब महान् महोत्सव के साथ समाणे सीहासणाओ अब्भुटुइ, अब्भुटुत्ता अभिसेयसभाओ इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त हो चुका तब सिंहासन से उठा और पुरथिमेणं दारेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिवखमित्ता जेणामेव उठकर अभिषेक सभा के पूर्वी द्वार से बाहर निकला, निकलकर अलकारियसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अलंकारिय- जहाँ अलंकार सभा थी वहाँ पर आया, वहाँ आकर अलंकार सभं अगुप्पयाहिणीकरेमाणे करेमाणे पुरथिमेणं दारेणं सभा की प्रदक्षिणा करते हुए पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रविष्ट अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सोहासणे तेणेव उवागच्छइ, हुआ, प्रविष्ट होने के बाद जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया, और उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे। वहाँ आकर पूर्वदिशा की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ उत्तम सिंहासन पर बैठ गया। १६६. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणिय-परिसोववण्णगा देवा १६६. तत्पश्चात् उस विजय देव के सामानिक परिषदोपपन्न देवों आभिओगिए देवे सद्दावेंति सद्दावित्ता एवं वयासी- ने आभियोगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! विजयस्स देवस्स आलं- "हे देवानुप्रियो ! तुम शीध्र ही विजय देव के आलंकारिक कारियं भंडं उवणेह।" भांड को उपस्थित करो। तेणेव ते आलंकारियं भंडं उवति । पूर्व वर्णन के समान वे आलंकारिक भांड को लेकर उपस्थित करते हैं। २००. तए णं से विजए देवे तप्पढमयाए पम्हल सूमालाए दिव्वाए २००. तदनन्तर उस विजय देव ने सर्वप्रथम पद्मपराग अथवा सुरभीए गंधकासाईए गायाइं लू हेइ, लू हित्ता सरसेणं गोसीस हंस के पंखों के समान सुकुमाल दिव्य सुगन्धित कापायिक गंध से चंदणेणं गायाइं अणुलिपइ, अणुलिपित्ता तयाऽणंतरं च णं युक्त वस्त्र खंड (तौलिया) से शरीर को पोंछा, पोंछकर सरस नासानीसासवायवझं चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं, हयलाला- गोशीर्ष चन्दन का शरीर पर लेप किया, अनुलेप करने के अनन्तरपेलवाइरेगं धवलं कणग-खइयंत कम्म आगासफलियसरिस- नाक की निश्वास वायु से उड़ जाये ऐसे नेत्राकर्षक सुन्दर वर्ण प्पभं अहतं दिव्वं देवदूसजुयलं णियंसेइ, णियंसित्ता हारं और स्पर्श से युक्त, घोड़े की लीद से भी अधिक सुकोमल और पिणि इ, पिणिवेत्ता एवं एकालि पिणिधति एकालि श्वेत-धवल-शुभ्र सुनहरी बेल-बूटे वाले, और आकाश-स्फटिकमणि पिणिधेत्ता; की प्रभा जैसी प्रभा वाले अनोखे, दिव्य, देवदूष्य युगल को पहना, देवदूष्य युगल को पहनकर फिर हार को पहना, हार को पहनने के बाद इसी प्रकार से एकावली (एक लड़ी) हार विशेष को पहना, एकावली को पहनकर फिरएवं एएणं अभिलावेणं मुत्तावलिं, कणगावलि, रयणावलिं, "उसने इसी प्रकार से अभिलाप-कथनानुसार मुक्तावली, कडगाई, तुडियाइं अंगयाइं केयूराई दसमुद्दियाशंतकं कडि- कनकावली, रत्नावली, करक, त्रुटित, अंगद, केयूर, दस सुत्तकं तेअत्यिसुत्तगं मुरवि कंठमुरवि पालंबंसि कुण्डलाई मुद्रिकाओं, कटिसूत्र, त्रयस्थिसूत्र, (तिमनिया), मुरवि, आभूषण चूडामणि चित्तरयणुक्कडं मउडं पिणि इ।" विशेष, कंठमुरवि, प्रलंब सूत्र-कंठ से पैर तक लटकने वाला आभूषण विशेष, कुण्डल, चूड़ामणि, नाना प्रकार के रत्नों से खचित उत्तम मुकुट आदि आभूषणों को यथास्थान पहना। पिणिधित्ता गंठिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेणं चउविहेणं आभूषणों को पहनकर ग्रन्थिम, वैष्टिम, पूरित और संघातिम मल्लेणं कप्परुक्खयं पिव अप्पाणं अलंकिय-विभूसियं करेइ, इस प्रकार चार तरह की मालाओं से अपने को कल्पवृक्ष जैसा करेत्ता बद्दर-मलय सुगंध गंधिएहि गंधेहिं गायाई सुक्किडइ, अलंकृत-विभूषित किया, विभूषित करके ददर मलय चन्दन की सुक्किडित्ता दिव्वं च सुमणदामं पिणिद्धाइ। गन्ध से सुगन्धित गन्ध द्रव्यों से शरीर को सुवासित किया, सुवासित करके दिव्य पुष्पमाला को पहना । २०१. तए णं से विजए देवे (१) केसालंकारेणं, (२) वत्थालंकारेणं, २०१. तदनन्तर वह विजयदेव जब-(१) केशालंकार, (२) Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र २०१-२०५. (३) मल्लालंकारेणं, (४) आभरणालंकारेणं चउविहेणं वस्त्रालंकार, (३) माल्यालंकार, और (४) आभरणालंकार रूप अलंकारेणं अलंकिए विभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहा- चार प्रकार के अलंकारों से पूर्णतया अलंकृत विभूषित हो चुका सगाओ अब्भुट्ठ'इ, अब्भट्ठित्ता अलंकारिय सभाओ पुरित्थि- तब सिंहासन से उठा, सिंहासन से उठकर पूर्व द्वार से होकर उस मिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव ववसाय आलंकारिक सभा से बाहर निकला, बाहर निकलकर जहाँ सभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ववसायसभं अणुप्प- व्यवसाय सभा थी वहाँ आया, वहाँ आकर व्यवसाय सभा की दाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरिथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, प्रदक्षिणा करते हुए पूर्व द्वार से उस व्यवसाय सभा में प्रविष्ट अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हुआ, प्रवेश करके जहाँ सिंहासन था, वहाँ आया, और वहाँ सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसणे । आकर पूर्व की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया। -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १४२ विजयदेवस्स पोत्थयरयण-वायणं विजयदेव का पुस्तकरत्न वांचन२०२. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स आभिओगियादेवा पोत्थय- २०२. तत्पश्चात् उस विजयदेव के आभियोगिक देव पुस्तकरत्न रयणं उवणेति। को लाकर समक्ष रखते हैं । तए णं से विजए देवे पोत्थयरयणं गेण्हइ, गेण्हित्ता, पोत्थय- तदनन्तर विजय देव ने उस पुस्तक रत्न को लिया, लेकर रयणं मुयइ, मुएत्ता पोत्थयरयणं विहाडेइ, विहाडेत्ता पोत्थय- वेष्टन से बाहर निकाला, बाहर निकालकर खोला, खोलकर रयणं वाएइ, वायत्ता धम्मियं ववसायं पगेण्हइ, पगेण्हित्ता पुस्तक रत्न को वाँचा, वाचन करने के बाद धार्मिक व्यवसायपोत्थयरयणं पडिणिक्खवेइ, पडिणिक्खवित्ता सीहासणाओ प्रवृत्ति कार्य करने की अभिलाषा की, अभिलाषा करके-निश्चय अन्भुटुइ, अब्भुद्वित्ता ववसायसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं करके पुस्त करत्न को रख दिया, रखकर सिंहासन से उठा, उठकर पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव गंदा पोक्खरिणी तेणेव पूर्वी द्वार से होकर व्यवसाय सभा से बाहर निकला, बाहर उवागच्छइ, उवागच्छित्ता णदं पुक्खरिणि अणुप्पयाहिणी करे- निकलकर जहाँ नन्दा पुष्करिणी थी वहाँ आया, वहाँ आकर नन्दा माणे पुरिथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पुष्करिणी की प्रदक्षिणा करते हुए पूर्वी द्वार से उसमें प्रविष्ट पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवगएणं पच्चोरुहइ, पच्चोरु- हुआ, प्रविष्ट होकर पूर्व दिशावर्ती त्रिसोपान-प्रतिरूपक से नीचे हित्ता हत्थं पायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता एगं महं सेयं उतरा, नीचे उतर कर पुष्करिणी के जल से हाथ-पैरों को धोया, रययामयं विमलसलिलपुण्ण मत्तगयमहामुहाकिइसमाणं हाथ-पैरों को धोकर मदोन्मत्त गजेन्द्र के महामुख-सूंड की आकृति भिगार पगिण्हइ, पगिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाइ पउमाई- के समान आकृति वाले और विमल जल से परिपूर्ण ऐसे एक श्रेष्ठ जाव-सयसहस्सपत्ताई ताई गिण्हइ, गिण्हित्ता गंदाओ पोक्ख- श्वेत चाँदी के बने हुए भृङ्गारक (जारी) को उठाया, भृङ्गारक रिणीओ पच्चुत्तरेइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सिद्धाययणे तेणेव को उठाने के बाद वहां जितने भी उत्पल, पद्म—यावत्-शतपहारेत्थ गमणाए। पत्र, सहस्रपत्र आदि कमल थे, उनको लिया, कमलों को लेकर नन्दा पुष्करिणी से बाहर निकला, बाहर निकलकर जहाँ सिद्धाय .तन था उस और गमन करने के लिए उद्यत हुआ। २०३. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणिय-साहस्सीओ २०३. तत्पश्चात् इस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव -जाव-अण्णे य बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य अप्पेगइया यावत्-और दूसरे भी अनेक वाण-व्यंतर देव और देवियाँ जिनमें उप्पल हत्थगया-जाव-सहस्सपत्त हत्थगया, विजयं देवं पिट्ठओ से कितनेक हाथों में कमल लिये हुए थे-यावत्-कितनेक पिट्टओ अणुगच्छंति । सहस्रपत्र कमल लिये थे, उस विजय देव के पीछे-पीछे चले । २०४. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स बहवे आभिओगिया देवा २०४. उस विजय देव के बहुत आभियोगिक देव और देवियाँ देविओ य कलस हत्थगया-जाव-धूवकडुच्छय हत्थगया विजयं हाथों में कलश लिये हुए-यावत्-धूप कडुच्छकों को लिये देव पिट्ठओ पिट्ठओ अणुगच्छति । विजय देव के पीछे-पीछे चले । -जीवा० ५० ३, उ० १ ० १४२ विजयदेवकयजिणपडिमाणं पूयणं विजयदेवकृत जिन प्रतिमा पूजन२०५. तए ण से विजए देवे चहिं सामाणिय साहस्सीहि-जाव- २०५. तत्पश्चात् वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २०५ तिर्यक् लोक :विजयद्वार गणितानुयोग । १८३ अण्णेहि य बहहिं वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धि संपरि- यावत्-और दूसरे बहुत से बाण-व्यंतर देवों और देवियों से बुडे सविड्ढीए-जाव-णिग्घोसणाइयरवेणं जेणेव सिद्धाययणे संपरिवृत होकर समस्त ऋद्धि-यावत्-वाद्यों के ध्वनिघोप के तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिद्धाययणं अणुप्पयाहिणी साथ जहाँ सिद्धायतन था, वहाँ आया, वहाँ आकर सिद्धायतन की करेमाणे करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुप- प्रदक्षिणा करते हुए पूर्व दिशावर्ती द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ, विसित्ता जेणेव देवच्छदए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता प्रवेश करके जहाँ देवच्छन्दक था वहाँ आया, देवच्छन्दक के आलोए जिणपडिमाणं पणाम करेइ, पास आकर दर्शन किये और फिर जिन प्रतिमाओं को प्रणाम किया। करित्ता लोमहत्थगं गेहइ, गेण्हित्ता जिणपडिमाओ लोम- प्रणाम करके मयूर पिच्छी ली, मयूरपिच्छी को लेकर उससे हत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता सुरभिणा गंधोदएणं हाणेइ, जिन प्रतिमाओं का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके सुवासित गंधोपहाणित्ता दिवाए सुरभिगंधकासाइए गायाई लू हेइ, लूहित्ता दक से न्हवन-अभिषेक किया, अभिषेक करके दिव्य एवं सुरभिगंध सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाणि अणुलिपइ, अणुलिपेत्ता से युक्त काषायिक वस्त्र खंड से इन प्रतिमाओं के शरीर को पोंछा, जिणपडिमाणं अहयाई सेयाई देवदूसजुयलाई णियंसेइ, णियं- पोंछकर सरस गोशीर्ष चन्दन का शरीर पर लेप किया, लेप करके सेत्ता अग्गेहि वरेहि य गंधेहि य मल्लेहि य अच्चे इ, अच्चित्ता अहत-अपरिमदित (कोरा) श्वेत देवदूष्य युगल पहनाया, देवदप्य पुप्फारहणं गंधारहणं मल्लारहणं वण्णारुहणं चुण्णारुहणं युगल को पहनाकर उत्कृष्ट, उत्तम गंध द्रव्यों और मालाओं से आभरणारुहणं करेइ, करेत्ता आसत्तोसत्त विउलवट्टवग्धारिय अर्चना की, अर्चना करके सामने पुष्पों को चढ़ाया, गंध द्रव्यों को मल्लदाम कलावं करेइ, करिता अच्छेहि सण्हेहिं रययामयेहिं चढ़ाया, मालाओं को चढ़ाया, वर्ण को चढ़ाया, चूर्ण को चढ़ाया, अच्छरसातंदुलेहि जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठमंगलए आलिहइ, और आभरणों को चढ़ाया, इन पुष्पादि को चढ़ाकर ऊपर से आलिहिता कयग्गाहग्गहिय-करयल पब्भट्ट विप्पमुक्केणं दसद्ध जमीन तक लटकती हुई लम्बी गोल गुथी हुई पुष्पमालाओं से वण्णेणं कुसुमेणं मुक्क पुष्फ पुजोवयारकलियं करेइ, विभूषित किया, विभूषित करके आकाश की तरह स्वच्छ, चिकने, रजत जैसी कांति वाले, अक्षत-अखंड तंडुलों-चावलों से जिन प्रतिमाओं के सामने अष्ट मंगल द्रव्यों का आलेखन किया । आलेखन करके केशपाश ग्रहण करने जैसे हाथों के आकार विशेष (खोबा) से ग्रहण किये जाने के कारण हथेलियों से नीचे गिरने से शेष रहे, पंचरंगे उन्मुक्त खिले हुए पुप्पों के पुजों द्वारा पूजा की; करिता चंदप्पभ बहर-वेरुलिय-विमल-दंडं-कंचन-मणि- -पूजा करके चन्द्रकान्त, वज्र और वैडूर्य रत्नमय विमल दंड रयण-भत्तिचित्तं कालागुरु-पवर-कुन्दुरुक्क-तुरुक्क-धूवगंधुत्त- वाले, स्वर्ण मणि और रत्नों से बने हुए चित्रामों से चित्रित श्रेष्ठ माणविद्धं धूमट्टि विणिम्मुयंतं वेरुलियामयं कडुच्छुयं पग- कालागुरु, कुन्दरुष्क, तुरुष्क, धूप की उत्तम गंध से युक्त, धमहित पयत्तेण धूवं दाऊण जिणवराणं अट्ठसय विसुद्ध गंथ वर्तिका को छोड़ रहे, ऐसे वज्ररत्न से बने हुए धूप-कडुच्छुक को जुहि महावितेहि अत्थजुत्तेहिं अपुणरुतेहिं संथुणइ, संथुणित्ता लेकर सावधानीपूर्वक उसमें धूप का प्रक्षेप करके विशुद्ध रचना से सत्तट्रपयाई ओसरइ, ओसरित्ता वार्म जाणु अंचे इ, अंचित्ता युक्त सार्थक, अपुनरुक्त ऐसे एक सौ आठ उत्तम छन्दों द्वारा स्तुति दाहिणं जाण धरणियलंसि णिवाडेइ, णिवाडित्ता तिक्खुत्तो की, स्तुति करके सात-आठ पैर आगे सरक गया, सरक कर बायाँ मुद्धाणं धरणियलंसि णमेइ, णमित्ता ईसि पच्चुण्णमइ, पच्चु- घुटना ऊपर उठाया, बायाँ घुटना ऊपर उठाकर दाहिना घटना ण्णमित्ता कडय-तृडिय थभियाओ भूयाओ पडिसाहरइ, पडि- जमीन पर टिकाया, टिकाकर तीन बार मस्तक को पृथ्वी दल साहरित्ता करयलपरिगहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट पर झुकाया, नमाया, मस्तक को नमाकर फिर कुछ ऊँचा उठा, एवं वयासी ऊंचा उठकर कटकों और त्रुटितों से स्तंभित भुजाओं को समेटा -एकत्रित किया, एकत्रित करके दोनों हाथों को जोड़ मस्तक पर आवर्त करके अंजलिपूर्वक उसने इस प्रकार कहा 'णमोऽत्थ अरिहंताणं भगवंताणं-जाव-सिद्धिगइ णामधेयं “अरिहन्त भगवन्तों-यावत-सिद्धगति नामक स्थान को Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ - लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र २०५ ठाणं संपत्ताणं" ति कटु वंदइ णमंसइ' वंदित्ता णमंसित्ता प्राप्त भगवन्तों को मेरा नमस्कार हो, ऐसा कहकर उसने वन्दन जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए रेणेव उवागच्छइ, और नमस्कार किया, वन्दना, नमस्कार करके जहाँ सिद्धायतन उवागच्छित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खइ, अब्भुक्खित्ता का मध्यातिमध्य भाग है, वहाँ आया, वहाँ आकर दिव्य उदकसरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलं आलिहइ, धारा-जलधारा से सिंचन किया, सिंचन करके सरस गोशीर्ष आलिहिता वच्चए दलयइ, दलइत्ता कयग्गाहग्गहिय करयल- चन्दन से हाथों को लिप्त करके मंडल का आलेखन किया, पभट्ट विमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं मुक्कपुष्फ-पुञ्जो- आलेखन करके अर्चना की, अर्चना करके केशपाश को झेलने जैसे वयारकलियं करेइ, करित्ता धूवं दलयइ । हाथों में से गिरे हुए पुष्पों को छोड़कर शेष पंचरंगे उन्मुक्त खिले हुए पुष्पों के पुज करके पूजा की, पूजा करके धूप जलाई। दलयित्ता जेणेव सिद्धाययणस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव धूप जलाकर जहाँ सिद्धायतन का दक्षिण द्वार था, वहाँ उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थयं गेण्हइ, गेण्हित्ता दार- आया, आकर मयूरपिच्छी को लिया, मयूरपिच्छी को लेकर चंडीयाओ य सालभंजियाओ य बालरूवए य लोमहत्थएणं द्वार चेटिकारूप-ड्योड़ीदार शाल भंजिकाओं-काष्ठ पुतलियों और पमज्जड, पमज्जित्ता बहुमज्झदेसभाए सरसेणं गोसीस चंदणेणं व्याल रूपों का मयूरपिच्छी से प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके पंचंगुलितलेणं अणुलिपइ, चच्चए बलयइ, दलइत्ता पुष्फारुहणं अतिमध्य देश भाग में सरस गोशीर्ष चन्दन से पांचों अंगुलियों के -जाव-आभरणाहणं करेइ, करित्ता आसत्तोसत्तविउल वट्ट थापे लगाये, थापे लगाकर अर्चना की, अर्चना करके पुष्पों को वग्धारिय-मल्ल-दाम-कलावं करेइ, कयग्गाहगहिय करयल- चढ़ाया-यावत्-आभरणों को चढ़ाया, पुष्पों आदि को चढ़ाकर पन्भट्ठविमुक्केणं दसवण्णणं कुसुमेणं मुक्क पुष्फ पुजोवयार ऊपर से नीचे लटकती हुई ऐसी लम्बी वर्तुलाकार मालाओं को कलियं करेइ, करेत्ता, धूवं बलयइ, दलइत्ता जेणेव मुहमंड- पहनाकर केशपाश को ग्रहण करने रूप हाथ के आकार में से गिरे वस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोम- हुए पुष्पों को छोड़कर शेष पंचरंगे उन्मुक्त खिले हुए पुष्पों के पुज हत्थेणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिवाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ, करके पूजा की, पूजा करके धूप जलाई, धूप जलाकर जहाँ मुख अब्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं मंडप का मध्य भाग था, वहाँ आया, वहाँ आकर मयूरपिच्छी आलिहइ, आलिहित्ता चच्चए दलयइ, दलइत्ता कयग्गाहग्ग- से प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके दिव्य जलधारा से सिंचन करके हिय-करयलपन्भट्ठ-विमुक्केणं दसवण्णेणं कुसुमेणं मुक्क सरस गोशीर्ष चन्दन से हाथों को लिप्त करके मंडल का आलेखन पुष्फ पुजोवयारकलियं करेड, करित्ता धूवं दलयइ । किया, आलेखन करके अर्चना की, अर्चना करके केशपाश ग्रहण करने रूप हाथों के आकार से गिरे हुए पंचरंगी पुष्पों को छोड़कर शेष खिले हुए पुष्प पुजों से पूजा की, पूजा करके धूप प्रक्षेप किया। दलइत्ता जेणेव मुहमंडवस्स पच्चथिमिल्ले दारे तेणेव धूप प्रक्षेपण करके जहाँ मुख मंडप का पश्चिमी द्वार था, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेहइ, गेण्हित्ता दार- वहाँ आया, वहाँ आकर मयूरपिच्छी को लिया, मयूरपिच्छी को चंडीओ य सालभंजियाओ य बालरूवए य लोमहत्थगेण लेकर द्वार चेटिका रूप शालभंजिकाओं और व्याल रूपों का पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अन्भुक्खेइ, अब्भु- मयूरपिच्छी से प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके दिव्य जलधारा से क्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं सिंचन किया, सिंचन करके सरस गोशीर्ष चन्दन से हाथों को आलिहइ, आलिहित्ता चच्चए दलयइ, दलयित्ता आसत्तोसत्त लिप्त कर मंडल-मांडना बनाया, मांडना बनाकर अर्चना की, विउल बट्ट बग्धारिय मल्लं दामकलावं करेइ, करित्ता अर्चना करके ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी गोल मालाओं कयग्गाहगहिय करयल पब्भट्ट विमुक्केणं दसद्धवणेणं कुसुमेणं को पहनाया, पहनाकर केशपाश झेलने रूप हाथों के आकार विशेष मुक्क पुष्फ पुञ्जोवयारकलियं करेइ, करित्ता धूवं दलयइ। से गिरे हुए पुष्पों को छोड़कर शेष पंचवर्णीय खिले हुए पुष्पों के पुज द्वारा पूजा की, पूजा करके धूपदान में धूप जलाई । विजय देव के इस वर्णन में जिनप्रतिमाओं का और उनकी पूजा का विस्तृत वर्णन है। यह वर्णन आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में प्रतिपादित अहिंसा विधान से सर्वथा विपरीत है क्योंकि जिन पूजा में धूप, दीप, पुष्प आदि का प्रयोग निरवद्य नहीं है और सावध आराधना से जन्म, जरा, मरण के दुःखों से मुक्तिरूप-निर्वाण असंभव है। बहुत संभव है, जैन परम्परा में भक्तिमार्ग की स्थापना एवं सुव्यवस्था के लिए चैत्यवासी आचार्यों ने ऐसे वर्णन किये हैं। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २०५-२०६ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १८५ दलइत्ता जेणेव मुहमंडवगस्स उत्तरिल्ला णं खंभपंती तेणेव धूप जलाकर जहां मुखमंडप की उत्तर दिशावर्ती स्तम्भ उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामूसति सालभजि- पंक्ति थी, वहाँ आया, वहाँ आकर मयूर पिच्छी से शालभंजिकाओं याओ दिव्वाए उदगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं पुप्फा- आदि का प्रमार्जन किया, दिव्य जलधारा का सिंचन किया, सरस रुहणं-जाव-आसत्तोसत्त-जाव-मुक्क-पुप्फ-पुञ्जोवयारकलियं गोशीर्ष चन्दन से मंडल बनाया, पुष्प चढ़ाये - यावत्-लम्बी करे। मालायें पहनाईं-यावत्-उन्मुक्त, खिले हुए पुष्प पुजों से पूजा की, पूजा करके धूप जलाई ; करित्ता धूवं दलयइ, दलइसा जेणेव मुहमंडवस्स पुरित्थि- धूप जलाकर जहाँ मुखमंडप का पूर्वी द्वार था वहाँ आया, मिल्ले दारे तं चेव सव्वं भाणियव्वं जाव दारस्स अच्चणिया, इत्यादि उसका सर्व वर्णन पहले किये गये वर्णन के अनुसारजेणेव दाहिणिल्ले दारे तं चेव। यावत्-द्वार की अर्चना की; पद तक करना चाहिये, तत्पश्चात् दक्षिण द्वार का भी इस प्रकार वर्णन करना चाहिये। २०६. जेणेव पेच्छाघरमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए, जेणेव वइरामए २०६. जहाँ प्रेक्षागृह मंडप का अतिमध्य देशभाग था, जहाँ अक्खाडए, जेणेव मणिपेढिया, जेणेव सीहासणे तेणेव उवा- वज्ररत्नों का बना अखाड़ा था, जहाँ मणिपीठिका थी, जहाँ गच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गिण्हइ, गिहित्ता अक्खा- सिंहासन था, वहाँ आया, वहाँ आकर मयूरपिच्छिका ली, मयूरडगं च सोहासणं च लोमहत्थगेण पमज्जइ, पमज्जित्ता दिवाए पिच्छिका लेकर अक्षवाटक अखाड़े-व्यायामशाला, और सिंहासन उदगधाराए अब्भुक्खेइ, अन्भुक्खिता पुष्फारुहणं-जाव-धूवं का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके दिव्य जलधारा से सिंचन दलया। किया, सिंचन करके पुष्प चढ़ाये -यावत्-धूप जलाई । जेणेव पेच्छाघर मंडव-पच्चस्थिमिल्ले दारे दारच्चणिया। जहाँ प्रेक्षागृह मंडप का पश्चिमी द्वार था वहाँ आया, इत्यादि द्वार-अर्चना का वर्णन पूर्व की तरह यहाँ भी करना चाहिये। उत्तरिल्ला खंभपंती तहेव, पुरिथिमिल्ले दारे तहेव, जेणेव इसी प्रकार से उत्तर दिग्वर्ती स्तम्भ पंक्ति का भी पूर्व दिशा दाहिणिल्ले दारे तहेव । के द्वार का भी वर्णन करना चाहिये, जहाँ दक्षिणी द्वार था, उसका भी इसी प्रकार समस्त वर्णन कर लेना चाहिये । २०७. जेणेव चेइयथभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं २०७. जहाँ चैत्य स्तम्भ था, वहाँ आया, वहाँ आकर मयूरपिच्छी गेहइ, गेप्हित्ता चेइयथूभं लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता को लिया, लेकर उस मयूरपिच्छी से चैत्य स्तम्भ का प्रमार्जन दिव्वाए उदगधाराए; सरसेणं गोसीसचंदणेण; पुप्फारुहणं, किया, प्रमार्जन करके दिव्य उदगधारा से सिंचन किया, सरस आसत्तोसत्त० जाव धूवं दलयइ । गोशीर्ष चन्दन से मांडना मांडा, पुष्प चढ़ाये, अच्छी बड़ी लटकती हुई मालाओं को पहनाया-यावत -धूप जलाई । २०८. जेणेव पच्चथिमिल्ला मणिपेढिया-जेणेव जिण-पडिमा २०८. जहाँ पश्चिम दिशावर्ती मणिपीठिका थी, जहाँ जिनप्रतिमा तेणेव उवागच्छइ, जिणपडिमाए आलोए पणामं करेइ, थी वहाँ आया, आकर जिनप्रतिमा के दर्शन कर प्रणाम किया, करिना लोमहत्थगं गेहइ, गेण्हित्ता तं चेव सवं ज जिण- प्रणाम करके मयूर पिच्छी को लिया, लेकर इत्यादि जिनप्रतिमा पडिमाणं जाव सिद्धि गइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं वंदइ णमंसइ । सम्बन्धी समग्र वर्णन-यावत्-सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त भगवन्तों को वन्दना नमस्कार किया, इस पद तक पूर्व की तरह कहना चाहिये। एवं उत्तरिहलाए वि; एवं पुरिथिमिल्लाए वि० एवं इसी प्रकार से उत्तर दिशा भाग का भी पूर्व दिग्भाग का दाहिणिल्लाए वि। भी और दक्षिण दिशा भाग का भी वर्गन करना चाहिये । २०६. जेणेव चेयरुक्खा दारविही य मणिपेढिया, जेणेव महिंदज्झए २०६. जहाँ चैत्यवृक्ष थे, द्वार थे, मणिपीठिका थी, तथा माहेन्द्र दार विही। ध्वज और द्वार थे. उस सम्बन्धी विधान आदि का वर्गन पूर्व के समान करना चाहिये। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र २०६.२१० जेणेव दाहिणिल्ला गंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, तत्पश्चात् जहाँ दक्षिण दिग्भाग की नन्दापुष्करिणी थी वहां लोमहत्थगं गेण्हइ, चेइयाओ य, तिसोवाणपडिरूवए य, तोरणे आया, आकर मयूरपिच्छी ली और उस मयूरपिच्छी से चैत्यों य, सालभंजियाओ य, बालरूवए य लोमहत्थएण पमज्जइ, का, त्रिसोपान, प्रतिरूपकों का, तोरणों का शालभंजिकाओं का पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए सिंचइ, सरसेणं गोसीस- और व्याल रूपों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके दिव्य उदकचंदणेणं अणुलिपइ, अणुलिपित्ता पुप्फारुहणं जाव धूवं दलयइ धारा से सींचा, सरस गोशीर्ष चन्दन से लेप किया, लेप करके दलयित्ता सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणं करेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला पुष्प चढ़ाये-यावत् -धूप जलाई, धूप जलाकर सिद्धायतन की णंदापुवखरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तहेव प्रदक्षिणा करते हुए जहाँ उत्तरदिशा की नन्दा पुष्करिणी भी वहाँ महिंदज्झया, चेइयरुक्खो, चेइयथूभे, पच्चित्थिमिल्ला, मणि- आया, वहाँ आकर उसी प्रकार से माहेन्द्र ध्वज, चैत्यवृक्ष, पेढिया, जिणपडिमा एवं उत्तरिल्ला पुरथिमिल्ला, दक्खि- चैत्यस्तम्भ, पश्चिम दिशा की मणिपीठिका, जिनप्रतिमा आदि णिल्ला। का वर्णन करना चाहिये, तथा उसी प्रकार से उत्तर पूर्व और दक्षिण दिशा सम्बन्धी द्वार, स्तम्भ, मुखमंडप, अर्चना आदि का वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। पेच्छाघरमंडवस्स वि तहेव, जहा दक्खिणिल्लस्स पच्चत्थि- प्रेक्षागृह मंडपों का भी उसीप्रकार वर्णन करना चाहिए मिल्ले दारे-जाव-दक्खिणिल्ला णं खंभपंती, मुहमंडस्स वि तिण्हं जैसा दक्षिण और पश्चिम दिशाओं के द्वारों का-यावत् -दक्षिण दाराणं अच्चणिया भणिऊणं दक्खिणिल्लाणं खंभपंती। दिशा की स्तम्भ पंक्ति, मुखमंडप का भी और तीनों द्वारों की अर्चना कहनी चाहिए, दक्षिण दिशा की स्तम्भ पंक्ति । उत्तरे दारे, पुरच्छिमे दारे, सेसं तेणेव कमेण-जाव-पुरत्थि- उत्तर द्वार, पूर्व द्वार का-यावत्-पूर्व दिशा की नंदा पुष्करिणी मिल्ला गंदा पुक्खरिणी जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेत्थ का शेष वर्णन पूर्व क्रमानुसार करना चाहिए। तत्पश्चात् जहाँ गमणाए। सुधर्मा सभा थी उसी ओर चलने को उद्यत हुआ। २१०. तए णं तस्स विजयस्स चत्तारि सामाणिय साहस्सीओ- २१०. तत्पश्चात् उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव [एयप्पभिई जाव सव्विड्ढीए जाव णाइयरवेणं जेणेव सभा [आदि-यावत्-सर्व ऋद्धि-यावत्-वाद्यध्वनिघोषों के साथ सुहम्मा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं णं सभं सुहम्मं जहाँ सुधर्मा सभा थी वहाँ आये; वहाँ आकर सुधर्मा सभा की अणुप्पयाहिणी करेमाणे करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुप- प्रदक्षिणा करते हुए पूर्वी द्वार से प्रवेश किया, प्रवेश करके जिनास्थियों बिसइ, अगुपविसित्ता आलोए जिणसकहाणं पणामं करेइ, के दर्शन कर प्रणाम किया, प्रणाम करके जहाँ मणिपीठिका थी जहाँ करित्ता जेणेव मणिपेढिया जेणेव माणवकचेइयखंभे, जेणेव माणवक चैत्य-स्तम्भ था, जहाँ वज्र रत्नमय गोल-गोल समुद्गक थे, वइरामया गोलवट्ट-समुग्गका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वहाँ आये, वहाँ आकर मयूरपिच्छी को लिया, मयूरपिच्छी को लेकर लोमहत्थयं गेण्हइ, गेप्हित्ता वइरामए गोलवट्टसमुग्गए लोम- गोल वर्तुलाकार समुद्गकों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके हत्थरण पमज्जइ, पमज्जित्ता वइरामए गोलवट्टसमुन्गए विहा- वज्ररत्नमय गोल-गोल समुद्गकों को खोला, खोलकर मयूरपिच्छिका डेइ, विहाडित्ता जिणसकहाओ लोमहत्थरणं पमज्जइ, से जिनास्थियों का प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके सुगन्धित पमज्जित्ता सुरभिणा गंधोदएणं तिसत्तखुत्तो जिणसकहाओ गन्धोदक से जिनास्थियों का इक्कीस बार प्रक्षालन किया, पक्खालेइ. पक्खालित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिपइ, प्रक्षालन करके सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया, लेप करके अणुलिपित्ता अग्मेहिं वरेहिं गंधेहि मल्ले हि य अच्चिणइ, सर्वोत्तम श्रेष्ठ गंध और मालाओं से अर्चना की, अर्चना करके अचिणि त्ता धूवं दलय इ. दलयित्ता वइरामा सु गोलबट्टसमु- धूप जलाई, धूप जलाकर वापस वज्ररत्नमय गोल समुद्गकों में गरसु पडिणिक्खवेइ, पडिणिक्खवित्ता माणवक चेइयखंभं उन्हें रखा, उन्हें वापस रखकर माणवक चैत्य स्तम्भ का मयूरलोमहत्थएणं पमज्ज इ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भु. पिच्छी से प्रमार्जन किया, प्रमार्जन करके दिव्य जल की धारा क्खेइ, अब्भुखित्ता सरसेणं गोसीस चंदणेणं चच्चए दलयइ, से सींचा, सींचकर सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया-थापे दलयित्ता पुष्फारहणं-जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाइ० धूबं लगाये, थापे लगाकर पुष चढ़ाये-यावत् - लटकती हुई लम्बी दलयइ, दलयित्ता जेण व सभाए सुहम्माए बहुमज्झदेसभार मालायें पहनाई, हाथों में लिये हुए विकसित पचरगे फूलों के तं चेव जेणेव सीहासणे तेणेव जहा दारच्चणिया। पुजों से पूजा की, धूप जलाई धूप जलाकर जहाँ सुधर्मा सभा का अन्तिम मध्यभाग था, जहाँ सिंहासन था, वहां आये, जैसे पूर्व में द्वार अर्चना की उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिये । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१०-२१४ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानयोग १८७ जेणेव देवसयणिज्जे तं चेव जेणेव खुड्डागे माहिंदज्झए जहाँ देवशय्या थी, जहाँ क्षुद्र, माहेन्द्रध्वज था, इत्यादि त चेव । वर्णन पूर्व के समान वहाँ समझना चाहिये। २११. जेणेव पहरणकोसे चोप्पाले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता २११. जहाँ प्रहरणकोश (आयुधशाला) था, चौपाल थी, वहाँ पत्तेयं पत्तेयं पहरणाई लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता आया, वहाँ आकर प्रत्येक प्रहरण (शस्त्र) को मयूरपिच्छी से सरसेणं गोसीसचंदणेणं तहेव सव्वं सेसपि दक्खिणदारं पोंछा, पोंछकर सरस गोशीर्ष चन्दन से चचित किया, इत्यादि आदिकाउं तहेव णेयध्वं जाव पुरिथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी शेष वर्णन कर लेना चाहिये, दक्षिण द्वार आदि द्वारों का-- सव्वाणं सभाणं जहा सुहम्माए सभाए तहा अच्चणिया उववाय यावत्-पूर्व दिशा को नन्दा पुष्करिणी तक सभी सभाओं का सभाए । णवरं-देवसयणिज्जस्स अच्चणिया सेसासु सीहासणाण सुधर्मा सभा जैसा तथा अर्चना आदि का वर्णन पूर्ववत् जानना अच्चणिया हरयस्स जहा णंदाए पुरिणीए अच्चणिया। चाहिये, उपपातसभा का भी ऐसा ही वर्णन करना चाहिये, विशेष वहाँ देवशय्या की अर्चना तथा शेष सभाओं में सिंहासनों की अर्चना तथा हृदों की अर्चना नन्दा पुष्करिणी की अचना के समान समझना चाहिये। ववसायसभाए पोत्थयरयणं लोमहत्थए णं दिव्वाए उदग- तत्पश्चात् व्यवसाय सभा में आकर मयूरपिच्छिका से पुस्तक धाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं अण लिंपइ, अग्गेहिं वरेहिं रल का प्रमार्जन किया, दिव्य जलधारा को सींचा, सींचकर गंधेहि य मल्लेहि य अच्चिण इ अच्चिणित्ता सीहासणं लोम- सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप किया, सर्वोत्तम श्रेष्ठ गधद्रव्यों और हत्थएणं पमज्जइ जाव धूवं दलयइ। मालाओं से अर्चना की, अर्चना करके मयूरपिच्छी से सिंहासन का प्रमार्जन किया-यावत्-धूप जलाई। सेसं तं चेव णंदाए जहा हरयस्स तहा नन्दा पुष्करिणी के वर्णन की तरह ह्रदों का शेष वर्णन पूर्व के समान समझ लेना चाहिये। २१२. जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभिओगे २१२. तत्पश्चात् जहाँ बलिपीठ थी, वहाँ आया, आकर आभिदेवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी योगिक देवों को बुलाया और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा___ "खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विजयाए रायहाणीए "हे देवानुप्रियो ! तुम लोग शीघ्र ही विजया राजधानी के सिंघाडगेसु य, तिएसु य, चउक्केसु य, चच्चरेसु य, चउमुहेसु शृंगाटकों, त्रिकों, चतुष्कों, चौकों, चतुर्मुखों, राजमार्गों और य, महापहपहेसु य, पासाएसु य, पागारेसु य, अट्टालएसु य, मार्गों, प्रासादों, प्राकारों, अट्टालिकाओं, चरिकाओं (दुर्ग और चरियास य, वारेसु य, गोपुरेसु य, तोरणेसु य, बावीसु य, नगर के बीच का मार्ग) द्वारों, गोपुरों, तोरणों, वापिकाओं. पुक्खरिणीस य,-जाव-बिलपंतियासु य, आरामेसु य, उज्जाणेसु पुष्करिणियों-यावत्-बिलपंक्तियों (कूप-कू'आ) आरामों, उद्यानों य, काणणेस य, वणेसु य, वणस डेसु य, वणराईसु य, अच्च- काननों, वनों, वनखंडों और वनराजियों में जाकर अर्चना करो, णियं करेह, करेत्ता ममेयमाणत्तिय खिप्पामेव पच्चप्पिणह। अर्चना करके आज्ञानुसार कार्य सम्पन्न होने की शीघ्र सूचना दो। २१३. तए णं ते आभिओगिया देवा विजएणं देवेणं एवं बुत्ता समाणा २१३. तत्पश्चात् विजयदेव के द्वारा इस प्रकार से कहे जाने पर -जाव-हरतद्रा विणएणं पडिसुति, पडिसुणित्ता विजयाए उन आभियोगिक देवों ने-यावत-हृष्ट-तुष्ट होकर विनयपर्वक रायडाणीए सिंघाडगेस य-जाव-अच्चणियं करेत्ता जेणेव विजए स्वीकार किया, स्वीकार करके विजया राजधानी के शृगाटकों देखनेणेव उवागच्छति. उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चपि- आदि में आये-यावत्-अर्चना करके जहाँ विजयदेव था. वहाँ णंति । आये और वहाँ आकर आज्ञानुसार कार्य सम्पन्न होने की सूचना देते हैं। २१४. तए णं से विजए देवे तेसि णं आभिओगियाणं देवाणं अंतिए २१४. तदनन्तर वह विजय देव इन आभियोगिक देवों की इस एयम सोच्चा णिसम्म हद्वतुटु चित्तमाणदिय-जाव-हयहियए बात को सुनकर और अवधारित कर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित जेणेव गंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता होता हुआ-यावत्-हर्षोल्लासपूर्वक जहाँ नन्दा पुष्करिणी थी पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं-जाव-हत्थ-पायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता वहाँ आया, वहाँ आकर पूर्व दिशावर्ती तोरण से-यावत्-हाथ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र २१४-२२२ आयते चोक्खे परमसुइभूए गंदा पुवखरिणीओ पच्चुत्तरइ, पैरों का प्रक्षालन किया, प्रक्षालन करके आचमन-कुल्ला आदि पच्चुत्तरित्ता जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेत्थ गमणाए। करने से अत्यन्त स्वच्छ-शुद्ध परम शुचिभूत होकर नन्दा पुष्करिणी से वापस बाहर आया, बाहर आकर जहाँ सुधर्मा सभा थी उसी ओर चलने को उद्यत हुआ। २१५. तए णं से विजए देवे चउहि सामाणिय साहस्सीहि-जाव- २१५. तदनन्तर वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सोहि सव्विड्ढीए-जाव-निग्घोस यावत्-सोलह हजार आत्मरक्षक देवों सहित अपनी समस्त नाइयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता ऋद्धि-यावत्-वाद्यों की घोष ध्वनिपूर्वक जहाँ सुधर्मा सभा सभं सुहम्मं पुरिथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता थी वहाँ आकर पूर्व दिग्वर्ती द्वार से सुधर्मा सभा में प्रविष्ट हुआ, जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासण प्रवेश करके जहाँ मणिपीठिका थी, वहाँ आया, वहाँ आकर पूर्व वरगए पुरच्छाभिमुहे सण्णिसणे । दिशा की ओर मुख करके उस श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठ गया । -जीवा०प०३, उ० २, सु० २४२ सुहम्माए सभाए विजयदेवस्स सपरिकरणिसीयणं- सुधर्मा सभा में विजयदेव का सपरिकर बैठना२१६. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामागिय-साहस्सीओ २१६. तत्पश्चात् उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तर-पुरथिमेणं पत्तेयं पत्तेयं पुव्वणत्थेसु पश्चिम-उत्तर, उत्तर-पूर्व दिशा-ईशानकोण में पहले से अलगभद्दासणेसु णिसीयंति। अलग रखे हुए प्रत्येक भद्रासन पर अनुक्रम से आकर बैठ गये । २१७. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पत्तेयं २१७, तत्पश्चात् उस विजय देव की चार अग्रमहिषियों पूर्व दिशा पत्तेयं पुब्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति । में पहले से रखे हुए एक-एक भद्रासन पर आकर बैठ गईं। २१८. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स दाहिणपुरस्थिमेणं अभितरि- २१८. तदनन्तर उस विजयदेव की आभ्यन्तरिक परिषदा के याए परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ यत्तेयं पत्तेयं पुव्वणत्थेसु आठ हजार देव दक्षिण-पूर्व दिशा-आग्नेय कोण में पहले से ही भद्दासणेसु णिसीयति । ___रखे हुए अलग-अलग एक-एक भद्रासन पर बैठ गये । २१६. एवं दक्खिणेणं मज्झिमियाए परिसाए दसदेवसाहस्सीओ २१६. इसी प्रकार से मध्यम परिषदा के दस हजार देव दक्षिण जाव णिसीयंति । दिशा में यावत् बैठ गये। २२०. एवं दाहिण-पच्चत्थिमेणं बाहिरियार परिसाए बारस देव- २२०. इसी प्रकार से दक्षिण-पश्चिम दिशा-नैऋत्य कोण में साहस्सीओ जाव णिसीयंति । बाह्य परिषदा के बारह हजार देव-यावत्-बैठ गये । २२१. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पच्चत्थिमेणं सत्त अणियाहिवत्ती २२१. इसके बाद उस विजयदेव के सात अनीकाधिपति पश्चिम पत्तेयं पत्तेयं पुवणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति । दिशा में पहले से रखे हुए एक-एक भद्रासन पर बैठ गये । २२२. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पुरथिमेणं दाहिणणं पच्चत्थि- २२२. तदनन्तर उस विजय देव के सोलह हजार आत्मरक्षक देव मेणं उत्तरेणं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं पूर्व दिशा में, दक्षिण दिशा में, पश्चिम दिशा में, और उत्तर पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति । तं जहा-पुरथिमेणं दिशा में पहले से रखे हुए एक-एक भद्रासन पर बैठ गये, यथाचत्तारि आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं पुटवणत्थेसु चार हजार आत्मरक्षक देव पहले से ही पूर्व दिशा में अलग-अलग भद्दासणेसु णिसीयंति । एवं जाव उत्तरेणं । रखे हुए प्रत्येक भद्रासन पर बैठे, इसी प्रकार से-यावत् - उत्तरदिशा में पूर्व से रखे हुए प्रत्येक भद्रासन पर बैठे। तेणं आयरक्खा सन्नद्ध-बद्ध-वम्मिय-कवया, उप्पीलिय- वे आत्मरक्षक देव अच्छी तरह कसकर शरीर पर बस्तर सरासण-पट्टिया, पिणद्ध-गवेज्ज-विमलवर-चिंधपट्टा, गहिया- बाँधे हुए थे, उनके हाथों में शरासनपट्टिका (धनुप खींचने के समय हाथ की रक्षा के लिये बाँधा जाता चमड़े का पट्टा) बँधी हुई थी, गले में सुभट चिह्नपट रूप विमल और श्रेष्ठ ग्रंवेयकहार रखा था, हाथों में प्रहार करने हेतु आयुध-शस्त्र लिये हुए थे, तीन स्थानकों (आदि, मध्य और अन्तरूप तीन स्थानों) में Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २२२-२२६ तिर्यक् लोक : वैजयंतद्वार गणितानुयोग १८६ उहपहरणा, तिणयाई तिसंधीणि, वइरामया कोडीणि, धणूइं नत, तीन सन्धियों वाले और वज्रमय कोटि (अग्रभाग) वाले ऐसे अहिगिज्झ परियाइय कंडकलावा णीलपाणिणो, पीयपाणिणो, विशिष्ट धनुष बाण और तूणीर लिये थे, कितनेक आत्मरक्षक देव रत्त-पाणिणो, चाव-पाणिणो, चारु-पाणिणो, चम्म-पाणिणो, हाथ में नीले-नीले बाण, कितनेक पीले-पीले और कितनेक रक्त खग्ग-पाणिणो, देउ-पाणिणो, पास-पाणिणो, वर्ण के वाण लिये हुए थे, कितनेक देव हाथों में धनुष लिये हा थे, कितनेक चारु-शस्त्र विशेष, कितनेक चर्म (चमड़े से बना कोड़ा), कितनेक खड्ग (तलवार), कितनेक दंड, कितनेक पाश (जाल) लिये हुए थे। णील-पीय-रत्त-चाव-चारु-चम्म-खग्ग-दंड-पासवरधरा, और कितने ही देव श्रेष्ठ नील, पीत और रक्त वर्ण के आयरक्खा रक्खोवगा गुत्ता, गुत्तपालिया, जुत्ता-जुत्तपालिया बाणों, धनुषों, चारुओं, चमों, तलवारों, दंडों और पाशों को लिये पत्तेयं पत्तेयं समयओ विणयओ किंकरभूताविव चिट्ठति । हुए थे, ये आत्मरक्षक देव रक्षा कार्य में निरत-तत्पर रहते हैं, -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १४३ गुप्त वेश में, गुप्तरूप से कार्य करते हैं, अपने योग्य सहकारियों से युक्त होते हैं, और इनकी कार्य परम्परा एक-दूसरे से जुड़ी हुई होती है, और ये प्रत्येक समय विनयपूर्वक किंकर के जैसे होकर बैठते हैं। विजयदेवस्स सामाणियाणं देवाणं य ठिई विजयदेव के सामानिक देवों की स्थिति२२३. प०-विजयस्स णं भंते ! देवस्त केवइयं कालं ठिई २२३. प्र०-हे भगवन् ! विजयदेव की स्थिति कितने काल की पण्णत्ता? कही गई है ? उ०—गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। उ०—हे गौतम ! विजय देव की स्थिति एक पल्योपम की कही गई है। २२४. ५०--विजयस्स णं भंते ! देवस्स सामाणियाण देवाणं केवइयं २२४. प्र०—हे भगवन् ! विजय देव के सामानिक देवों की स्थिति कालं ठिई पण्णता? कितने काल की कही गई है ? उ०-गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। उ०-हे गौतम ! एक पल्योपम की स्थिति कही गई है। एवं महिड्ढीए, एवं महज्जुईए, एवं महब्बले, एवं महायसे "इस प्रकार से विजयदेव की ऐसी महा ऋद्धि है, ऐसी एवं महासुक्खे, एवं महाणुभागे विजए देवे विजए देवे। महा छ ति है, ऐसा महाबल है, ऐसा महायश है, ऐसा महासुख -जीवा०प० ३, उ० २, सु० १४३ है, और ऐसा महान् प्रभाव है। जंबुद्दीवस्स वेजयंतं णाम दारं जम्बूद्वीप का वैजयन्त द्वार२२५. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स वेजयते णाम दारे पण्णत्ते? २२५. प्र०—हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का वैजयन्त नामक द्वार कहाँ पर कहा गया है ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे बोवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं उ०—हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर पर्वत पणयालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए जंबुद्दीवरीव- (सुमेरु पर्वत) की दक्षिण दिशा में पैतालीस हजार योजन आगे दाहिण-पेरते लवणसमुद्द दाहिणद्धस्स उत्तरेणं-एत्थ णं जाने पर जम्बूद्वीप की दक्षिणदिशा के अन्त में और लवणसमुद्र जंबुद्दीवस्स बीवस्स बेजयंते णामं दारे पण्णत्ते । के दक्षिणार्ध से उत्तर में जम्बूद्वीप का वैजयन्त नामक द्वार कहा गया है। अट्ठजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, सच्चेव सव्वा बत्तवया यह वैजयन्त द्वार आठ योजन ऊँचा है, इत्यादि विजय द्वार जाव णिच्चे। के जैसी इसकी सब वक्तव्यता है-यावत्-नित्य है । २२६. ५०-कहि णं भंते ! रायहाणी? २२६. प्र०-हे भगवन् ! वैजयन्त देव की राजधानी कहाँ पर है और क्या नाम है ? उ०-गोयमा ! दाहिणण-जाव-वेजयंते देवे, वेजयंते देवे। उ०-गौतम ! दाहिनी ओर राजधानी हैं, उसका नाम -जीवा०प० ३, उ० १, सु०१४४ वैजयन्ती है, और वहाँ का अधिपति वैजयन्त नामक देव है। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : जयंतद्वार सूत्र २२७-२२६ जंबुद्दीवस्स जयंतं णामं दारं जम्बूद्वीप का जयन्तद्वार२२७. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स जयंते णामं दारे २२७. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का जयन्त नामक द्वार कहाँ पण्णते ? पर कहा गया है ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स पच्चत्थि- उ०-हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत की पश्चिम मेण पणयालीसं जोयणसहस्साइं जंबुद्दीवपच्चत्थिम दिशा में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप के पेरते लवणसमुद्दपच्चत्थिमद्धस्स पुरथिमेणं सीओदाए पश्चिमान्त में और लवणसमुद्र की पूर्व दिशा में सीतोदा महामहाणदीए उप्पिएत्थ णं जंबुद्दीवस्स जयंते णामं दारे नदी के ऊपर जम्बूद्वीप का जयन्त नामक द्वार कहा गया हैं। पण्णते। तं चेव से पमाणं जयंते देवे पच्चत्थिमेणं से इसके प्रमाण आदि का वर्णन विजयद्वार के वर्णन के जैसा रायहाणी जाव महिड्ढीए। जानना चाहिये । यहाँ के अधिपति का नाम जयन्त है, पश्चिम में -जीवा० ए०३, उ० १, सु० १४४ राजधानी है-यावत्-महाऋद्धि वाला है। जंबुद्दीवस्स अपराइयं णामं दार जम्बूद्वीप का अपराजित द्वार२२८. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स अपराइए णामं दारे २२८. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का अपराजित नामक द्वार पण्णते? कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! मंदरस्स उत्तरेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई उ०—हे गौतम ! मन्दर पर्वत की उत्तर दिशा में पैतालीस अबाहाए जंबुद्दीवे दीवे उत्तरपेरते लवणसमुदस्स उत्तर- हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की उत्तर दिशा के अन्त द्धस्स दाहिणेणं-एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे अपराइए णाम में और लवणसमुद्र के उत्तरार्द्ध की दक्षिण दिशा में जम्बूद्वीप दारे पण्णत्ते। का अपराजित नामक द्वार कहा गया है। तं चेब पमाणं । रायहाणी उत्तरेणं जाव अपराइए देवे इसके प्रमाण आदि का वर्णन विजयद्वार के वर्णन जैसा चउण्ह वि अण्णं मि जंबुद्दीवे ।' जानना चाहिये, उत्तर में राजधानी है-यावत् -अपराजित नामक देव वहाँ का अधिपति है। [जम्बूद्वीप के इन चारों द्वारों के विषय में अन्य जो कुछ भी विशेष वक्तव्य है, वह यहाँ कहा जाता है।] -जीवा०प०३, उ०२, सु०१४४ जंबुद्दीवस्स दारस्स दारस्स य अंतरं जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर२२६. प०-जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य. २२६. प्र०-भगवन् ! जम्बुद्वीप के इन प्रत्येक द्वार से द्वार के एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णते ? बीच में कितनी दूरी का अन्तर कहा गया है? उ०-गोयमा ! अउणासीइं जोयणसहस्साई बावष्णं च उ०-हे गौतम ! प्रत्येक द्वार से द्वार के बीच उन्यासी हजार जोयणाई देसूर्ण च अद्धजोयणं दारस्स य वारस्स य और कुछ कम साढ़े बावन योजन का अबाधा–अन्तर जानना अबाहाए अंतरे पप्णत्ते । चाहिये। --जीवा० प०३, उ०२, सु०१४५ १ जंबु० व. १, सु०७, सु० ८। २ जंबु० व० १, सु०६। सूत्र ६ में एक गाथा अधिक है, गाहा-अउणासीइ सहस्सा, बावण्णं चेव जोअणा । ऊणं च अद्धजोअण, दारंतरं जंबुद्दीवस्स ।।. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त वासा (खेत्त) वण्णओ सप्त वर्ष (क्षेत्र) वर्णन मणुआणं उप्पइठाणं मनुष्यों की उत्पत्ति के स्थान२३०. ५०-कहि णं भंते ! मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा २३०. प्र०-भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान पण्णता? __ कहाँ हैं ? उ०-गोयमा ! अंतोमणुस्सखेत्ते पणतालीसाए जोयणसत- उ०-गौतम ! मनुष्यक्षेत्र में हैं, पैतालीस लाख योजन सहस्सेसु अड्ढाइज्जे दीवस मुद्देसु पाणरससु कम्म- (लम्बे-चौडे) अढाई द्वीप में हैं, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमीसु तोसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदीवेसु । भूमियों में और छप्पन अन्तर्वीपों में हैं। इनमें पर्याप्त और एत्थ णं मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान हैं। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। उपपात की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में उत्पन्न होते हैं। समुग्धाएणं सव्वलोए। समुद्घात की अपेक्षा–सम्पूर्ण लोक में समुद्घात करते हैं । सटाणेणं लोयस्त असंखेज्जइभागे । स्वस्थान की अपेक्षा-लोक के असंख्यातवें भाग में इनके –पण्ण, पद० २, सु० १७६ स्थान हैं । जंबुद्दीवे सत्तवासा जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र२३१.५०-जंबुद्दीवे गं भंते ! दीवे कतिवासा पण्णता? २३१. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में कितने वर्ष (क्षेत्र) कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! सत्तवासा पण्णत्ता, तं जहा-(१) भरहे, उ०-गौतम ! सात वर्ष कहे गये हैं, यथा-(१) भरत, (२) एरवए, (३) हेमवए, (४) हिरणवए, (५) हरि- (२) ऐरवत (३) हैमवत, (४) हैरण्यवत, (५) हरिवर्ष, (६) वासे, (६) रम्मगवासे, (७) महाविदेहे।' रम्यक्वर्ष, (७) और महाविदेह । -जंबु० वक्ख० ६, सु० १२५ २३२. जंबूमंदरस्स दाहिणणं तओ वासा पण्णत्ता, तं जहा- २३२. जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण में तीन वर्ष (क्षेत्र) कहे (१) भरहे, (२) हेमवए, (३) हरिवासे । गये हैं, यथा-(१) भरत, (२) हैमवत, (३) हरिवर्ष । २३३. जंबूमंदरस्स उत्तरेणं तओ वासा पण्णत्ता, तं जहा- २३३. जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर में तीन वर्ष (क्षेत्र) कहे गये (१) रम्मगवासे, (२) हिरण्णवए, (३) एरवए। हैं, यथा-(१) रम्यक् वर्ष, (२) हैरण्यवत, (३) ऐरवत । -ठाणं० ३, उ० ४, सु० १६७ १ (क) ठाणं ७, सु० ५५५ । (ख) सम० ७. सु० ३। (ग) ठाणं ६, सु० ५२२ । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सप्त वर्ष (क्षेत्र) वर्णन सूत्र २३४-२३६ जंबूद्दीवे दस खेत्ता जम्बूद्वीप में दस क्षेत्र-- २३४. जंबुद्दीवे दीवे दस खेत्ता, पण्णत्ता, तं जहा—(१) भरहे, (२) २३४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दस क्षेत्र कहे गये हैं, यथा एरवए, (३) हेमवए, (४) हिरण्णवए, (५) हरिवासे, (६) (१) भरत, (२) ऐरवत, (३) हैमवत, (४) हैरण्यवत, (५) हरिरम्मगवासे, (७) पुश्वविदेहे, (८) अवरविदेहे, (९) देवकुरा, वर्ष, (६) रम्यक् वर्ष, (७) पूर्व विदेह, (८) अपर विदेह, (६) देव(१०) उत्तरकुरा।' -ठाणं १०, सु० ७२३ कुरु, (१०) उत्तरकुरु। जंबुद्दीव-खेताणं आयाम-विक्खंभ-परिणाहेण तुल्लतं- जम्बूद्वीप का आयाम-विष्कम्भ और परिधि की अपेक्षा से क्षेत्रों का तुल्यत्व - २३५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तर-दाहिणणं दो वासा २३५. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर और दक्षिण में पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अन्नमन्नणाइवन्ति दो वर्ष (क्षेत्र) कहे गये हैं-वे अधिक समान एवं तुल्य हैं, आयाम-विक्खंभ-संठाण-परिणाहेणं, तं जहा-(१) भरहे विशेषता रहित हैं, नानापन से रहित हैं, आयाम-विष्कम्भ-संस्थान चेव, (२) एरवए चेव। तथा परिधि की अपेक्षा से एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा-(१) भरत और (२) ऐरवत । एवमेएणमभिलावेणं (१) हेमवए चेव, (२) हेरण्णवए चेव । इसी प्रकार ऐसे ही अभिलापक्रम से हैमवत और हैरण्य वत है। एवमेएणमभिलावेणं (१) हरिवासे चेव, (२) रम्मयवासे चेव। इसी प्रकार ऐसे ही अभिलापक्रम से हरिवर्ष और रम्यक् वर्ष हैं। २३६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिम-पच्चत्थिमेणं दो २३६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से पूर्व और पश्चिम में दो खेत्ता पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-आयाम-विक्खंभ-संठाण- क्षेत्र कहे गये हैं, वे अधिक समान एवं तुल्य हैं-यावत्-आयाम परिणाहेणं, तं जहा-(१) पुश्वविदेहे चेव, (२) अवरविदेहे विष्कम्भ-संस्थान तथा परिधि की अपेक्षा से एक-दूसरे का अति क्रमण नहीं करते हैं, यथा-(१) पूर्वविदेह और (२) अपरविदेह । २३७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणणं दो कुराओ २३७. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर और दक्षिण में पण्णत्ताओ, बहुसमतुल्लाओ-जाव-आयाम-विक्खंभ-संठाण-परि- दो कुरा कहे गये हैं-वे अधिक समान एवं तुल्य हैं-यावत्जाहेणं, तं जहा-(१) देवकुरा चेव, (२) उत्तरकुरा चैव। आयाम-विष्कम्भ-संस्थान तथा परिधि की अपेक्षा से एक-दूसरे -ठाणं० २, उ० ३, सु० ८६ का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा-(१) देवकुरु (२) और उत्तर कुरु ।.... जंबुद्दीवे पण्णरस कम्मभूमीओ पन्द्रह कर्मभूमियाँ२३८. ५०-कति णं भंते ! कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ? २३८. प्र०-हे भगवन् ! कर्मभूमियाँ कितनी कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! पण्णरसकम्मभूमीओ पणत्ताओ, तं जहा- उ०-हे गौतम ! कर्मभूमियाँ पन्द्रह कही गई हैं, यथा- . पंच भरहाई, पंच एरवयाई, पंच महाविदेहाई। पाँच भरत, पाँच ऐरवत, पाँच महाविदेह । -भग० स० २०, उ०८, सु० १ २३६. जंबुद्दीवे दीवे तओ कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- २३६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में तीन कर्मभूमियाँ कही गई हैं, (१) भरहे, (२) एरवए, (३) महाविदेहे । यथा-(१) भरत, (२) ऐरवत, (३) महाविदेह । एवं धायइ संडे दीवे पुरथिमद्ध, इसी प्रकार धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में हैं। एवं धाय इसंडे दीवे पच्चत्थिमद्ध, इसी प्रकार धातकीखण्ड द्वीप के पश्चिमार्ध में हैं । चेव। १ इस सूत्र में महाविदेह का नाम नहीं है किन्तु महाविदेह के चार विभाग (१. पूर्व विदेह, २. अपर-पश्चिम विदेह, ३. देव कुरु, ४. उत्तरकुरु के नाम गिनाकर दस की संख्या पूरी की गई है। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३१-२४३ एवं पुक्खरवरदीवड्ढ पुरत्थिमद्धे, एवं खरवरी २४२. - ठाणं ३, उ० ३, सु० १८३ जंबुद्दी वे तीस अकम्मभूमीओ२४०. ० कति भंते! अम्मभूमीओ पन्नताओ ? उ०- गोयमा ! तीस कम्मभूमी पणाओ तं जहा पंच हेमववाह, पंच हेरणवयाई, पंच रम्मगवासाई, पंच देवकुरुओ, पंच उत्तरकुरुओ । -भग० स० २, उ० ८, सु० २ २४१ छ अफम्मभूमीओ पन्यताओं तं जहाजंबुद्दीवे दीवे (१) हेमच (२) वा (३) हरिवासे, (४) रम्मगवासे, (५) देवकुरा, (६) उत्तरकुरा । एवं धादीने पुरविमर्द्ध छ अरुम्मभूमीमो पण्णत्ताओ, तं जहा - हेमवए - जाव उत्तरकुरा । एवं धादीने पण्यस्थिमणं छ अरुम्मभूमीम पण्णत्ताओ, तं जहा - हेमवए- जाव- उत्तरकुरा । एवं पुक्खरवरदीवड्ढ पुरस्थिमद्ध े णं छ अकम्मभूमीओ पणता तं जहा - हेमा-उत्तरकुरा । तिर्यक् लोक : अकर्मभूमियाँ एवं पुक्खरवरदीवड्ढ - पच्चत्थिमद्ध े णं छ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा हेमबए जाव उत्तरकुरा। - ठाणं ६, सु० ५२२ - देवकुद-उत्तरकुरु-बनाओ चत्तारि अकम्म भूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा – (१) हेमवए, (२) हेरण्णवए, (३) हरिवासे, (४) रम्मा -- - ठाणं ४, उ० १, सु० ३०२ २४३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तओ अकम्मभूमीओ लाओ जहा (१) हेमबए, (२) हरिवासे, (३) देवकुरा । " जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं तओ अकम्मभूमीत पाओ जहा (१) उत्तरकुरा, (२) रम्मग वासे (३) रणए । एवं धादीपुरस्थिम वि अम्मभूमीओ, एवं धायइसंडे दीवे पच्चत्थिमद्ध े वि अकम्मभूमीओ, गणितानुयोग इसी प्रकार पुष्करवर- द्वीपा के पूर्वार्ध में हैं । इसी प्रकार पुष्करवर द्वीपार्थ के पश्चिमार्ध में हैं । तीस अकर्मभूमियाँ ! २४० प्र० ] भगवत् । अरुभूमियां कितनी कही गई है ? उ०- हे गौतम! अकर्मभूमियाँ तीस कही गई हैं, यथापांच हैमवत, पांच हैरम्यवत, पांच हरिवर्ष पाँच रम्यवर्ष पाँच देवकुरु, पांच उत्तरकुरु । १९३ २४१. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में छह अकर्मभूमियाँ कही गई है, यथा- (१) हैमवत, (२) रण्यवत, (३) हरिवर्ष (४) रम्यवर्ष (५) देवकुरु, (६) उत्तरकुद | इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में छह अकर्मभूमियां कही गई है, यथा-हेमवतात् उत्तरद इसी प्रकार धातकीखण्डदीप के पश्चिमार्थ में छह अकर्मभूमियां कही गई है, यथा हैमवत यावत् उत्तरकुरु । यथा-हैमवतं - - - इसी प्रकार पुष्करवर द्वीपार्ध के पूर्वार्ध में छह अकर्मभूमियाँ कही गई हैं, यथा - हैमवत - यावत् उत्तरकुरु । इसी प्रकार पुष्करवर द्वीपार्ध के पश्चिमार्ध में छह अकर्मभूमियाँ कही गई है, यथा हैमवत यावत् उत्तरकुर २४२. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में देवकुफ और उत्तरकुरु को छोड़कर चार अकर्मभूमियाँ कही गई हैं, यथा - (१) हैमवत, (२) हैरण्य-वत, (३) हरिवर्ष, (४) रम्य २४३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण में तीन अकर्म भूमियां कही गई हैं, यथा- (१) (२) हरिवर्ष (३) 1 देवकुम जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर में तीन अकर्मभूमियां कही गई हैं, यथा ( १ ) उत्तरकुरु (२) रम्यवर्ष (३) रम्यवत इसी प्रकार धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वार्ध में भी (छह ) अकर्म भूमियाँ हैं । इसी प्रकार धातकीखण्ड द्वीप के पश्चिमार्ध में भी (छह ) अकर्मभूमियाँ हैं । १ स्थानांग ६, सूत्र ५२२ में जम्बूद्वीप में छह अकर्मभूमियाँ कही गई है किन्तु इस सूत्र में देवकुरु और उत्तरकुरु को छोड़कर केवल चार अकर्मभूमियां कहने का तात्पर्य क्या है ? यह अन्वेषणीय है। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : अकर्मभूमियाँ सूत्र २४३-२४४ एवं पुक्खरवरदीवड्ढ-पुरथिमद्ध वि अकम्मभूमीओ, इसी प्रकार पुष्करवर द्वीपार्ध के पूर्वार्ध में भी (छह) अकर्म भूमियां हैं। एवं पुक्खरवरदीवड्ढ-पच्चत्थिमद्धे वि अकम्मभूमीओ।' इसी प्रकार पुष्करवर द्वीपार्ध के पश्चिमार्ध में भी (छह) -ठाणं ३, उ०४, सु० १६७ अकर्मभूमियाँ हैं। छप्पण्ण अन्तरदीवा छप्पन अन्तरद्वीप२४४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, चुल्लहिमवंतस्स २४४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में, चुल्ल वासहरपव्वयस्स चउसु विदिसासु, तिन्नि २ जोयणसयाइं हिमवन्तवर्षधर पर्वत की चारों विदिशाओं में तीन-तीन सौ ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अन्तरदीवा पण्णत्ता, तं जहा- योजन आगे जाने पर चार अन्तरद्वीप कहे हैं, यथा-एकोषकद्वीप, एगूरूयदीवे, आभासियदीवे, वेसाणियदीवे, गंगोलियदीवे। आभाषिकद्वीप, वैषाणिकद्वीप और लांगुलिकद्वीप । __ तेसु णं दीवेसु चउन्विहा मणुस्सा परिवसंति, तंजहा- उन द्वीपों में चार प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं, यथाएगूख्या, आभासिया, वेसाणिया, गंगोलिया। एकोरुक, आभाषिक, वैषाणिक और लांगुलिक। तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्द चत्तारि २ इन द्वीपों में चारों विदिशाओं में लवणसमुद्र में चार-चार सौ जोयणसाइं ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, योजन आगे जाने पर वहाँ चार अन्तरद्वीप कहे हैं, यथा-हयकर्णतंजहा-हयकरणदीवे, गय कण्णदीवे, गोकण्णदीवे, संकुलि- द्वीप, गजकर्णद्वीप, गोकर्णद्वीप और शकुलिकर्णद्वीप । उन द्वीपों कण्णदीवे, तेसु णं दीवेसु चउरिवया मणुस्सा परिवसंति, में चार प्रकार के मनुष्य निवास करते हैं, यथा-हयकर्ण, तं जहा-हयकन्ना, गयकन्ना, गोकन्ना, संकुलिकन्ना। गजकर्ण, गोकर्ण और शष्कुलिकर्ण । तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्द पंच २ इन द्वीपों के चारों विदिशाओं में लवणसमुद्र में पाँच-पाँच जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरवीवा पण्णत्ता, सौ योजन आगे जाने पर वहाँ चार अन्तरद्वीप कहे हैं. यथातंजहा-आयंसमुहदीवे, मेंढमुहदीवे, अओमुहदीवे, गोमुहदीवे। आदर्शमुखद्वीप, मेंढमुखद्वीप अजामुखद्वीप और गोमुखद्वीप । तेसु णं दीवेसु चउब्विहा मणुस्सा भाणियब्वा । इन द्वीपों में चार प्रकार के मनुष्य कहने चाहिए। तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्दछ छ जोयण- इन द्वीपों में चारों विदिशाओं में लवणसमुद्र में छह-छह सौ सयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पण्णत्ता, तं जहा- योजन आगे जाने पर वहाँ चार अन्तरद्वीप हैं, यथा-अश्वमखदीप आसमुहदीवे, हत्थिमुहदीवे, सोहमुहदीवे, वग्धमुहदीवे । हस्तिमुखद्वीप, सिंहमुखद्वीप और व्याघ्रमुखद्वीप। तेसु गं दीवेसु मणुस्सा भाणियस्वा । इन द्वीपों में (इन्हीं नामों वाले चार प्रकार के) मनुष्य कहने चाहिए। तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्द सत्त-सत्त इन द्वीपों से चारों विदिशाओं में लवणसमुद्र में सात-सात जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अंतरदीवा पप्णत्ता, सौ योजन आगे जाने पर वहाँ चार अन्तरद्वीप हैं, यथा अश्व. तं जहा-आसकन्नदीवे, हथिकन्नदीवे, अकन्नदीवे, कन्नपाउरण- कर्णद्वीप, हस्तिकर्णद्वीप, अकर्णद्वीप और कर्णप्रावरणदीप । इन दीवे । तेसु णं दीवेसु मणुया भाणियव्वा । द्वीपों में (चार प्रकार के) मनुष्य कह लेने चाहिए। तेसि णं दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमुद्द अट्ठट्ट जोयण- इन द्वीपों से चारों विदिशाओं में लवणसमुद्र में आठ-आठ सौ सयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अन्तरदीवा पण्णत्ता, योजन अवगाहन करने पर वहाँ चार अन्तरद्वीप हैं, यथात जहा-उक्कामुहदीवे, मेहमुहदीवे, विज्जुमुहदीवे, विज्जुदंत- उल्कामुखद्वीप, मंघमुखद्वीप, विद्युन्मुखद्वीप और विद्युदन्तद्वीप । दीवे । तेसु णं दीवेसु मणुस्सा भाणियत्वा ।' इन द्वीपों में मनुष्यों का कथन कर लेना चाहिए । तेसि ण दीवाणं चउसु विदिसासु लवणसमु णव-णव इन द्वीपों से चारों विदिशाओं में नौ-नौ सौ योजन आगे जोयणसयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अन्तरवीवा पण्णत्ता, जाने पर वहाँ चार अन्तरद्वीप कहे हैं, यथा-घनदन्तद्वीप, लष्टदन्त १ जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण एवं उत्तर में छह अकर्मभूमियाँ हैं-इसी प्रकार धातकीखण्ड के पूर्वार्ध-पश्चिमाधं में तथा पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध-पश्चिमार्ध में मेरु पर्वत से दक्षिण-उत्तर में छह-छह अकर्मभूमियाँ हैं-इस प्रकार तीस अकर्मभूमियाँ हैं। २ ठा० ८, सूत्र ६३०, पृ० ४११ । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २४४-२४५ तिर्यक् लोकः कर्मभूमियाँ गणितानुयोग १६५ शुद्धदन्त । सुद्धदंता। तंजहा-घणदन्तदीवे, लट्ठदन्तदीवे, गूढदन्तदीवे, सुद्धदन्तदीवे। द्वीप गूढदन्तद्वीप और शुद्धदन्तद्वीप । इन द्वीपों में चार प्रकार के तेसु णं दीवेसु चउबिहा मणुस्सा परिवसंति, तंजहा-घण- मनुष्य निवास करते हैं, यथा-घनदन्त, लष्टदन्त, गूढदन्त और दन्ता, लट्ठदन्ता, गूढदन्ता, सुद्धदन्ता।' __जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वास- जम्बूद्वीप के मन्दरपर्वत से उत्तर में शिखरिवर्षधर पर्वत हरपव्वयस्स चउसु विदिसासु लवणसमुद्दतिन्नि-तिन्नि जोयण- की चारों विदिशाओं में, लवणसमुद्र में तीन-सौ योजन आगे जाने सयाई ओगाहेत्ता एत्थ णं चत्तारि अन्तरदीवा पण्णत्ता, पर वहाँ चार अन्तरद्वीप हैं, यथा-एकोरुकद्वीप (आदि पूर्ववत्) । तं जहा-एगूरुयदीवे, सेसं तहेव निरवसेसं भाणियव्व-जाव- शेष सब वक्तव्यता (उसी प्रकार) कह लेनी चाहिए-यावत् -ठा० ४, उ० २, सु० ३०४ मनुष्य रहते हैं। जबुद्दीवे तओ कम्मभूमोओ जम्बूद्वीप में तीन कर्मभूमियांजंबुद्दीवे भरहवासस्स अवटिठई पमाणं च जम्बूद्वीप में भरतवर्ष की अवस्थिति और प्रमाण२४५. ५०-कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भरहे णाम वासे पण्णते? २४५. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भरत नामक वर्ष (क्षेत्र) कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, उ०—गौतम ! चुल्ल हिमवन्त नामक वर्षधर पर्वत के दक्षिण दाहिणलवणसमुद्दस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स में, दक्षिणी लवणसमुद्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं, में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप में एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पण्णत्ते। भरतनामक वर्ष (क्षेत्र) कहा गया हैं। खाणुबहुले, कंटकबहुले, विसमबहुले, दुग्गबहुले, पव्वय- यह क्षेत्र स्थाणु, कंटक, विषमभूमि, दुर्गप्रदेश, पर्वत, बहुले, पवायबहुले, उज्झरबहुले, णिज्झरबहुले, खड्डा- प्रपात, उर्झर, गडहे, गुफा, नदी, द्रह, वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बहुले, दरिबहुले, णईबहुले, दहबहुले, रुक्खबहुले, गुच्छ- वल्लरी, अटवी, श्वापद, (हिंस्र जन्तु), स्तेन, (चोर) तस्कर, बहले, गुम्मबहुले, लयाबहुले, बल्लीबहुले, अडवीबहुले, डिम्ब (स्वराजा का उपद्रव) डमर (परराजा का उपद्रव), दुभिक्ष, सावयबहुले, तेणबहुले, तक्करबहुले, डिम्बबहुले, उमर- दुष्काल, पाखण्ड, कृपण, बनीपक (भिखारी), ईति, मारी, कुवृष्टि, बहुले, दुब्भिक्खबहुले, दुक्कालबहुले, पासंडबहुले, राजा, रोग, संक्लेश, संक्षोभ, इत्यादि की बहुलता वाला है। किवणबहुले, वणीमगबहुले, ईतिबहुले, मारिबहुले, कुबुट्ठिबहुले, अणावुट्ठिबहुले, रायबहुले, रोगबहुले, संकिलेसबहुले, अभिक्खणं-अभिक्खण संखोहबहुले । पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिणवित्थिन्ने, उत्तरओ यह वर्ष क्षत्र-पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा, पलिअंकसंठाणसंठिए, दाहिणओ धणुपिट्ठसंठिए तिधा उत्तर में पर्यक के आकार का, दक्षिण में धनुष की पीठ के आकार लवणसमुद्द पुट्ठ, गंगासिंधूहि महाणईहिं वेयड्ढेण य का तथा तीन तरफ लवण समुद्र से स्पृष्ट है। गंगा और सिंधु पव्वएण छब्भागपविभत्ते। नामक महानदियों तथा वैताढ्य नामक पर्वत से यह छह भागों में विभक्त है। जंबुद्दीवदीवणउयसयभागे पंचछवीसे जोयणसए छच्च जम्बूद्वीप नामक द्वीप के एक सौ नब्बे भाग करने पर एगूणवीससइभागे जोयणस्स विक्खभेण । -जम्बु० बक्ख० १, सु० १० ५२६ - योजन का (भरत क्षेत्र का) विष्कम्भ है। १ ठा० ६ सूत्र ६६८, पृ० ४४४ । २ (क) जीवा, प्रति० २, सूत्र १०६-११२, पृ० १४४-१५६ । (ख) विवा० भाग ३, श०६ उ० ३-३०, पृ० १२७ । (ग) , श० १० उ०७-३४, पृ० २०५ । । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : भरत क्षेत्र सूत्र २४६-२५० जंबुद्दीवस्स भरहे वासे दसरायहाणीओ जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में दस राजधानियाँ२४६. जंबुद्दीवे दीवे भरहेवासे दसरायहाणीओ पण्णत्ताओ, तंजहा- २४६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में दस राजधानियाँ गाहा-चंपा, महुरा, वाणारसी य, सावत्थि तह य साएयं, कही गई हैं । यथा-गाथार्थ-(१) चम्पा, (२) मथुरा, (३). हत्थिणं उर कंपिल्लं, मिहिला कोसं बि रायगिह। वाराणसी, (४) श्रावस्ति, (५) साकेत, (अयोध्या), (६) -ठाणं १०, सु० ७१८ हस्तिनापुर, (७) कांपिल्यपुर, (८) मिथिला, (६) कोशाम्बि, १०. राजगृह। भरहवासस्स णामहेउ भरतवर्ष के नाम का हेतु२४७.५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-भरहे वासे भरहे वासे? २४७. प्र०-भगवन् ! भरतवर्ष को भरतवर्ष क्यों कहते हैं ? उ०-गोयमा ! भरहे णं वासे वेअड्ढस्स पव्वयस्स दाहिणणं, उ०-गौतम ! भरतवर्ष में, वैताढ्य पर्वत से दक्षिण में चोद्दसुत्तरं जोअणसयं एगस्स य एगूणवीसइभाए जोयणस्स अबाहाए, लवणसमुद्दस्स उत्तरेणं चोद्दसुत्तरं व्यवधानरहित ११४. योजन दूरी पर, लवणसमुद्र से उत्तर में जोअणसयं एक्कारस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स अबाहाए, गंगाए महाणईए पच्चत्थिमेणं, सिंधुएमहाणईए पुरत्थिमेणं, दाहिणड्ढभरहमझिल्लति- व्यवधानरहित ११४११ योजन दूरी पर, गंगा महानदी के पश्चिम भागस्स बहुमज्झदेसमाए, एत्थ णं विणीआ णामं रायहाणी पण्णत्ता। में, सिन्धु महानदी से पूर्व में, दक्षिणार्ध भरत के मध्यविभाग के ठीक बीचोंबीच विनीता नामक राजधानी कही गई है। पाईण-पडीणमया उदीण-दाहिणवित्थिना दुवालस- वह पूर्व-पश्चिम में लम्बी, उत्तर-दक्षिण में चौड़ी, बारह जोयणायामा णवजोयणवित्थिन्ना धणवइमइणिम्माया योजन लम्बी, नौ योजन चौड़ी है । वह कुबेर की बुद्धि से निर्मित, चामीयरपायारा णाणामणिपंचवण्णकविसीसगपरि- स्वर्णमय और प्राकार वाली, नानामणियों के पंचरंगे कंगुरों से मंडिआभिरामा अलकापुरीसंकासा पमुइयपक्किलिआ मंडित होने से रमणीय, अलकापुरी के सदृश प्रमुदित एवं प्रक्रीडित पच्चक्खं देवलोगभूआ रिद्धिस्थिमिअसमिद्धा पमुइ- जैसी, प्रत्यक्ष देवलोक के समान, ऋद्धि, भवन और जनसमूह से जअणजाणवया-जाव-पडिरूवा। समृद्ध, नगरनिवासीजनों एवं आगतजनों को प्रमोद उत्पन्न करने वाली है-यावत्-प्रतिरूप है। २४८. तत्थ ण विणीआए रायहाणीए भरहे णामं राया चाउरंत- २४८. उस विनीता राजधानी में भरत नामक राजा चारों दिशाओं चक्कवट्टी समुप्पज्जित्था । पर विजय प्राप्त करने वाला चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ। -जंबु० वक्ख० ३, सु० ४१-४२ २४६. भरहे अ इत्थ देवे महिड्ढिए-जाव-पलिओवमदिइए परिवसइ। २४६. यहाँ भरत नामक देव रहता है जो महद्धिक-यावत् पल्योपम की स्थिति वाला है। से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-भरहे वासे भरहे वासे इस कारण गौतम ! इसका नाम भरतवर्ष है। -जंबु० वक्ख० ३, सु० ७१ भरहवासस्स सासयत्तं भरतवर्ष का शाश्वतपन - २५०. अदुत्तरं च णं गोयमा ! भरहस्स वासस्स सासए णामधिज्जे २५०. अथवा गौतम ! भरतवर्ष का यह नाम शाश्वत कहा गया पण्णत्ते, जं ण कयाइ ण आसि, 'ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ है, जो कभी नहीं था ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा नहीं है, ण भविस्सइ, भुवि च, भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे णिअए कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है-वह था, है और रहेगा। सासए अक्खए अवए अवट्ठिए णिच्चे भरहेवासे । भरतवर्ष यह नाम ध्र व है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय -जंबु० वक्ख० ३, सु० ७१ है, अवस्थित है और नित्य है। इति । १ इसके आगे सूत्र ७० पर्यन्त चक्रवर्ती वर्णन, धर्मकथानुयोग प्रथम स्कन्ध में है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सूत्र २५१-२५५ अपव्वण भरवासरस दुहा विभवणं २५१. भरहस्स णं वासस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं वेअड्ढे णामं पव्वए पण्णत्ते, जे णं भरहं वासं दुहा विभयमाणे चिट्ठइ । सं जहा दाहिर उत्तरमरहं च । २५२. प्र० कहि मते वासे पण्णते ? , दाहिणभरहवासरस अबट्टिई पमाणं च तिर्यक् लोक : भरत क्षेत्र - जम्बु० वक्ख० १, सु० १० उ०- गोवमा ! वेयस्तपस्तदाहिणे -२५४. हि 1 वाहिल समुद्दस्स उत्तरेणं, पुरत्थिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थि मलवणसमुद्दस्स पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे दाहिणभरहे णामं वासे पण्णत्ते पाईप पडीवायए, उीण दाहिणविचिन्ने अद्धचंद ठाए तिहा लवणसमुद्द पुट्टे, गंगा-सिहि महाण हि तिभागपविभत्तं, दोण्णि अट्ठतीसे जोअणसए तिष्णि अ एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं । दक्षिणार्ध भरतवर्ष की अवस्थिति और उसका प्रमाण जम्बूद्दीने दवे दाहिणहते भर मा २५२. प्र० - भगवन्! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दक्षिणार्ध-भरत नामक वर्ष कहाँ कहा गया है ? २५२ तस्स जीवा उत्तरेण पाईन पडीगावया हा लवणसमुद्द पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरत्थिमिल्ल लवणसमुद्द पुट्ठा, पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुद्द पुट्टा, नवजोयणसहस्साइं सत्त य अडयाले जोयणसए दुवालस य एगुणबीसहभाग जोपणस्त आपामेणं'। -२५४. तीसे णं धणुपुट्ठ े दाहिणेणं णव जोयणसहस्साई सत्तछावट्ठ लोणसए इस एगुणवीसभागे जोवनरस चिविसा हिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । - जम्बु० वक्ख० १, सु० ११ दाहिणभरहट्टे धणुपिस आयाम धमुट्ठि अट्ठाण उडतोयबाक नाई आयामेणं पण्णत्ते । - सम० ६८, सु० ४ गणितानुयोग वैताढ्यपर्वत से भरतवर्ष के दो विभाग २५१. भरतक्षत्र के मध्य भाग में वैताढ्य नामक पर्वत कहा गया है । जो भरतक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करता हुआ स्थित है । यथा— दक्षिणार्ध - भरत और उत्तरार्ध-भरत । २३८ योजन है । ३ १६ १६७ उ०- गौतम ! वैताढ्य पर्वत के दक्षिण में, दक्षिणी लवणसमुद्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दक्षिणार्ध भरत नामक वर्ष कहा गया है। यह पूर्व पश्चिम में लम्बा और उत्तरदक्षिण में चौड़ा है। उसका आकार अर्धचन्द्र के समान है। यह तीन ओर से सबणसमुद्र से स्पृष्ट है तथा गंगा और सिन्धु नामक महानदियों से तीन भागों में विभक्त हैं । इसकी चौड़ाई २५३. उसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बी तथा दोनों ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है । पूर्व की ओर पूर्वी लवणसमुद्र से स्पृष्ट है, और पश्चिम की ओर पश्चिमी लवणसमुद्र से स्पृष्ट है । उस जीवा की लम्बाई १७४८१२ योजन है । १६ - २५४. उसकी धनुर्पीठिका दक्षिण में९७६६, योजन गई है। दक्षिणार्ध भरत के अनुपृष्ठ का आयाम— २५५. दक्षिणार्थ भरत के धनुपृष्ठ का आयाम कुछ कम अद्याप सौ योजन का कहा गया है । योजन से किच-विशेष अधिक परिधि वाल कही १२ दारिस गंजीबा पाईण-पत्रीणापया लवणसमुद्रा नवजोपणसहस्सा आयामेष्णता । सम० मु० १२२ ऊपर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार एक, सूत्र ग्यारह में दक्षिणार्धभरत की जीवा की लम्बाई नौ हजार सात सौ अड़तालीस योजन एक योजन के उन्नीस भागों में से बारह भाग जितनी कही है, किन्तु समवायांग सूत्र १२२ में दक्षिणार्धं भरत की जीवा की लम्बाई केवल नौ हजार योजन की ही कही गई है। २ ऊपर जम्बूदीप विस्कार एक सूत्र ११ में दक्षिण भरतार्थ के धनुपृष्ठ की केवल परिधि कही है और यहाँ के धनुपृष्ठ का आयाम कहा गया है । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : भरत क्षेत्र सूत्र २५६-२५६ A दाहिणड्ढभरहवासस्स आयारभावो दक्षिणार्ध भरतवर्ष का आकारभाव२५६. दाहिणडढभरहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभाव- २५६. प्र०-भगवन् ! दक्षिणार्ध-भरतवर्ष का आकारभाव पडोयारे पण्णत्ते? (स्वरूप) कैसा कहा गया है ? उ०-गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । उ०-गौतम ! इसका भुमिभाग बहुत सम और रमणीय से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा-जाव-णाणाविह- कहा गया है, वह मुरज नामक वाद्य पर मँढे हुए चर्म जैसा पंचण्णेवहि मणीहि तहिं उवसोभिए । तं जहा. समतल है--यावत् - नाना प्रकार की पंचवर्णमणियों से तथा कित्तिमेहि चेव, अकित्तिमेहि चेव । तृणों से सुशोभित है । यथा-(ये मणियाँ और तृण) कृत्रिम और -जम्बु० बक्ख० १, सु० ११ अकृत्रिम (दो तरह के) हैं। दहिणडढभरहवासस्स मणुआणं आयारभावो- दक्षिणार्ध-भरतवर्ष के मनुष्यों का आकारभाव२५७. प्र०-दाहिणद्धभरहे णं भंते ! वासे मणुयाणं केरिसए २५७. भगवन् ! दक्षिणार्ध-भरतवर्ष के मनुष्यों का आकारभाव आयारभावपडोयारे पण्णते ? (स्वरूप) कैसा कहा गया है ? उ०-गोयमा ! ते णं मणुआ बहुसंघयणा, बहुसंठाणा, उ०-गौतम ! ये मनुष्य अनेक प्रकार के संहनन, अनेक बइउच्चत्तपज्जवा, बहुआउपज्जवा; बहूई वासाइं आउं प्रकार के संस्थान, अनेक प्रकार की ऊँचाई तथा अनेक प्रकार की पालैंति, पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी, अप्पेगइया आयु वाले हैं । वे बहुत वर्षों की आयु भोगते हैं। और भोगकर तिरियगामी, अप्पेगइया मणुयगामी, अप्पेगइया कोई-कोई नरक गति में जाते हैं, कोई-कोई तिर्यंचगति में जाते देवगामी, अप्पेगइया सिझंति बुझंति मुच्चंति हैं। कोई-कोई मनुष्यगति में जाते हैं और कोई-कोई देवगति में परिणिध्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । जाते हैं, कोई-कोई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिवृत्त होकर सब -जम्बु० बक्ख० १, सु० ११ दुःखों का अन्त करते हैं । उत्तरडढभरहवासस्स अवट्टिई-पमाणं च- उत्तरार्द्ध-भरतवर्ष की अवस्थिति और उसका प्रमाण :२५८. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्ढभरहे णामं वासे २५८. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्तराद्ध-भरत पण्णते ? नामक वर्ष (क्षेत्र) कहाँ कहा गया ? उ०-गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, उ०-गौतम ! चुल्लहिमवन्त नामक वर्षधर पर्वत के दक्षिण वेअड्ढस्स पव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुद्दस्स में, वैताढ्य पर्वत के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं, पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्तरार्द्ध एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्ढभरहे णामं वासे भरत नामक वर्ष कहा गया है । पण्णत्ते । पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिणवित्थिन्ने, पलिअंक- वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। संठाणसंठिए, दुहा लवणसमुद्दपुढे, पुरच्छिमिल्लाए इसका आकार पर्यक (पलंग) के समान है। यह दो ओर से कोडीए पुरच्छिमिल्ल लवणसमुई पुढे, पच्चत्थि- लवणसमुद्र से स्पृष्ट है। पूर्व की ओर पूर्वी लवणसमुद्र से स्पृष्ट मिल्लाए को डीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुह पुट्ठ, है और पश्चिम की ओर पश्चिमी लवणसमुद्र से स्पृष्ट है। गंगा गंगा-सिंधूहि महाणईहिं तिभागपविभत्ते, दोण्णि और सिन्धु नामक महानदियाँ इसे तीन भागों में विभक्त करती अद्वतीसे जोअणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभागे जोअणस्स विक्खंभेणं । है। इसकी चौड़ाई २३८२ योजन है। पण्णत्त । २५६. तस्स बाहा पुरच्छिम-पच्चच्छिमेणं अट्ठारस बाणउए २५६. पूर्व-पश्चिम में इसकी बाहु जोअणसए सत य एगूणवीसइभागे जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं । १८६२ + १ योजन लम्बी है। १६ २ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६०-२६४ २६०. तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया, दुहा लवणसमुद्द पुद्रा बजाय बोस जोगस हस्ताई चत्तारि अ एक्सरे ( एगुत्तरे) जोयणसए छच्च य एगूणवीसइभाए जोयणस्स fafa वसे आयामेणं पण्णत्ते' । २६१. सीध दाहिणं बोसजोअणसहस्साई पंच agratसे जोअणसए एक्कारस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खवेणं । तिक लोक ऐरावत क्षेत्र : उत्तरट्टमरहवासस्स आधारभावे १ - जंबु० वक्ख० १, सु० १६ २६२. प्र० - उत्तरढभरहस्स णं भंते ! वासस्स रिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? उ०- गोवमा ! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण से जहागामए आलिंगपुरे वा जाय-फिलिमेहिं वेब अकितिहि चै ००१०१६ उत्तरढमरयासरत मणु आणं आयारभावो२६३. प्र०— उत्तरड्ढभरहे णं भंते ! वासे मणुआणं केरिसए आधारभाव पडोयारे प उ०- गोमाते मा बहुसंपणा-जाव अगा सिति जापखाणमसं करेति । - जंबु० वक्ख० १, सु० १६ एरवयवासस्स अवट्टिई पमाण यते जं २६४० पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! सिहरिस्स उत्तरेणं, उत्तरलवण समुद्दस्स दक्षिणं पुरस्थलचणसमुदस्य पञ्चरियमेणं परव विमलवणसमुदसपुरस्थिमेणं एत्य होवे क्षेत्रे एरावए णामं वासे पण ते । सम० १४, सु० ६ 'खाणुबहुले, कंटकबहुले, एवं जच्चैव भरहस्स वत्तव्वया सच्चैव सव्वा णिरवसेसा यव्वा सओअवणा सणिक्ख मणा सपरिणिव्त्राणा । नवरं - एरावओ चक्कवट्टी, एरावओ देवो । से तेज गोधना ! एवं इस्वर एराए वाले एरावए वासे" । -जबु० वक्ख० ४, सु० १११ गणितानुयोग १६६ २६०. उसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बी है तथा दोनों ओर से लवगसमुद्र से स्पृष्ट है यह उसी प्रकार पावत् ६ १४४७१ योजन से कुछ कम लम्बी कही गई है । १६ २६१. उसका धनुषपृष्ठ दक्षिण में १४५२८ योजन की परिधि वाला है । १६ ११ उत्तरार्ध भरतवर्ष का आकारभाव २६२. प्र० - भगवन् ! उत्तरार्ध भरतवर्ष का आकारभाव (स्वरूप) कैसा कहा गया हैं ? उ०- गौतम ! इसका भूमिभाग अति सम एवं रमणीय कहा गया है। यह मुरज नामक बाद पर मेटे हुए चर्म जैसा समतल है - यावत् - कृत्रिम तथा अकृत्रिम (मणियों और तृणों से सुशोभित है। ऐरवत वर्ष की अवस्थिति और प्रमाण ! दीये एराबए नामं वासे २६४. प्र०-हे भगवन् जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में ऐरावत नाम का वर्ष कहाँ कहा गया है ? उत्तरार्ध - भरतवर्ष के मनुष्यों का आकारभाव २६३. प्र० - भगवन् ! उत्तरार्ध - भरतवर्ष (क्षेत्र) के मनुष्यों का आकारभाव (स्वरूप) कैसा कहा गया है ? उ०- गौतम ! यहाँ के मनुष्य अनेक प्रकार के संहनन वाले हैं- यावत् - कोई-कोई सिद्ध होते हैं- यावत् — सब दुःखों का अन्त करते हैं । उ०- गौतम ! शिखरी पर्वत के उत्तर में उत्तरी लवणसमुद्र के दक्षिण में पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में ऐरावत नाम का वर्ष कहा गया है। वह स्थाणु (ठूंठ) बहुल है, कंटक बहुल है, इस प्रकार जो कथन भरतवर्ष का है वही समग्र सम्पूर्ण इसका जान लेना चाहिए, यह पखण्ड की साधना सहित निकमसहित और निर्वाण सहित है। विशेष यहाँ ऐरावत पवर्ती और ऐरावत देव है। इसलिए हे गौतम! इसका नाम ऐरावतवर्ष है, ऐरावत वर्ष है । Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : ऐरावत क्षेत्र सूत्र २६५-२७१ भरहेरवयाणं जीवा-पमाणं भरत और ऐरवत की जीवा का प्रमाण२६५. भरहेर वयाओ णं जीवाओ चउद्दस चउद्दस जोयणसहस्साई २६५. भरत और ऐरवत (प्रत्येक) की जीवा का आयाम चौदह चत्तारि अ एगुत्तरे जोयणसए छच्च एगूणवीसे भागे जोयण- हजार चार सौ इकहत्तर एक योजन के उन्नीस भागों में से छः स्स आयामेणं पण्णता। -सम० १४, सु०६ भाग जितना कहा गया है। महाविदेहवासस्स अवट्टिई पमाणं च महाविदेहवर्ष का स्थान और प्रमाण२६६. प्र०- कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णामं वासे २६६. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में महाविदेह नामक पण्णते ? वर्ष (क्षेत्र) कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, उ०-गौतम ! नीलवन्त वर्षधर पर्वत से दक्षिण में, निषध णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवण- वर्षधर पर्वत से उत्तर में, पूर्व लवणसमुद्र से पश्चिम में तथा समुहस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुर- पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप में महाविदेह त्थिमेणं, एत्थ णं जबुद्दीवे दीवे महाविदेहे णाम वासे नामक वर्ष कहा गया है। पण्णत्ते। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिणवित्थिन्ने, पलिअंक यह पूर्व और पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा, पर्यक संठाणसंठिए दुहा लवणसमुद्द पुट्ठ', पुरथिमिल्लाए (पलंग) के आकार का एवं दो ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है, कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्द' पुट्ठ', पच्चथिमिल्लाए पूर्व की ओर पूर्वी लवणसमुद्र से है और पश्चिम की ओर पश्चिमी कोडीए पच्चस्थिमिल्लं लवणसमुद्द पुढे । तित्तीसं जोअणसहस्साई छच्च चुलसीए जोअणसए चत्तारि अ लवण समुद्र से स्पृष्ट है, यह ३३६८४ - योजन चौड़ा है। एगणवीस इभागे जोअणस्स विक्खभेणति'। २६७. तस्स बाहा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं तेत्तीस जोअणसहस्साई २६७. इसकी बाहा पूर्व-पश्चिम की ओरसत्त य सत्तस? -जोअणसए सत्त य एगूणवीसइभाए ५ ३३७६७ - योजन लम्बी है। जोअणस्स आयामेणंति । २६८. तस्स जीवा बहुमज्झदेसभाए पाईण-पडीणायया दुहा लवण- २६८. इसकी जीवा मध्य में पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बी है, एवं सबुद्द पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमल्लं लवणसमुद्द दोनों ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है, पूर्व की ओर पूर्वी लवणपुट्ठा पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्ल लवणसमुद्द समुद्र से स्पृष्ट है और पश्चिम की ओर पश्चिमी लवणसमुद्र से पुट्ठा । एगं जोयणसयसहस्सं आयामेणंति । स्पृष्ट है, यह एक लाख योजन लम्बी है । २६६. तस्स धण उभयो पासि उत्तर-दाहिणणं एग जोयणसयसहस्सं २६६. इसका धनुःपृष्ठ दोनों ओर उत्तर-दक्षिण में अट्ठावण्णं जोअणसहस्साई एगं च तेरसुत्तरं जोअणसयं सालेस य एगूणवीसइभागे जोअणस्स किचिविसेसाहिए परिक्खेवेति । १५८११३- योजन से कुछ अधिक की परिधि वाला है। २७०. महाविदेहे णं वासे चउबिहे चउप्पडोआरे पण्णत्ते, तंजहा- २७०. महाविदेह वर्ष चार प्रकार का है और चार भागों में १ पुव्वविदेहे, २ अवरविदेहे, ३ देवकुरा, ४ उतरकुरा । विभक्त कहा गया है, यथा-(१) पूर्व महाविदेह, (२) अपर -जंबु० वक्ख० ४, सु०८ महाविदेह, (३) देवकुरु, और (४) उत्तरकुरु । महाविदेहवासस्स आयारभावो महाविदेह का आकार-भाव२७१. प्र०-महाविदेहस्स णं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभाव- २७१. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष का आकारभाव (स्वरूप) पडोयारे पण्णते ? कैसा कहा गया है? १ सम० ३३, सु० ३ २ ठाणं, ४, उ० २, सु० ३०२ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २७१-२७५ तिर्यक् लोक : महाविदेह वर्ष गणितानुयोग २०१ उ.- गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते-जाव- उ०-गौतम ! इसकी भूमि बहुत सम और रमणीय कही कित्तिमेहि चैव अकित्तिमेहि चैव । गई है-यावत्-कृत्रिम और अकृत्रिम (मणियों तथा तृणों) से -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८५ (सुशोभित) है। महाविदेहवासस्स मणुआणं आयारभावो- महाविदेह के मनुष्यों का आकारभाव२७२. ५०-महाविदेहे णं भंते ! वासे मणुआणं केरिसए आयार- २७२. प्र०-महाविदेह वर्ष के मनुष्यों का आकारभाव (स्वरूप) भावपडोयारे पण्णत्ते ? कसा कहा गया है? उ०-गोयमा! तेसि णं मणुआणं छबिहे संघयणे, छविहे. उ०-गौतम ! वहाँ के मनुष्य छह प्रकार के संहनन और संठाणे, पंचधणुसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, जहणणं छह प्रकार के संस्थान वाले हैं. पाँच सौ धनुष की ऊँचाई वाले अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुथ्वकोडी आउअं पालेंति, हैं, वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट पूर्वकोटि की आयु भोगते हैं पालेत्ता अप्पेगइआ निरयगामी-जाव-अप्पेगइआ और भोगकर कोई-कोई नरक में जाते हैं -यावत-कोई-कोई सिझंति-जाव-अंतं करेंति । __सिद्ध होते हैं-यावत्-(सब प्रकार के दुःखों का) अन्त करते हैं । --जंबु० बक्ख० ४, सु० ७५ महाविदेहवासस्स णामहेऊ-. महाविदेह वर्ष के नाम का हेतु२७३. ५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-महाविदेहे वासे २७३. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष को महाविदेह वर्ष क्यों महाविदेहे वासे? कहते हैं ? उ०-गोयमा ! महाविदेहे णं वासे भरहेरवय-हेमवय-हेरण्ण- उ०-गौतम ! महाविदेह वर्ष भरत, ऐरवत, हैमवत, हैरण्य वय-हरिवास-रम्मगवासेहितो आयाम-विक्खंभ-संठाण- वत, हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष से लम्बाई, चौड़ाई संस्थान परिणाहेणं वित्थिन्नतराए चेव, विपुलतराए चेव, (आकार) और परिधि में अधिक विस्तीर्ण है, अधिक विपुल है, महंततराए चेव, सुप्पमाणतराए चेव। अधिक विशाल है और अधिक सुप्रमाण वाला है। महाविदेहा य इत्थ मणूसा परिवसति । महाविदेहे अ यहाँ महाविदेह अर्थात् बड़े ऊँचे शरीर वाले मनुष्य रहते हैं, इत्थ देवे महिड्ढिए-जाव-पलिओवमट्ठिइए परिवसइ। यहाँ महाविदेह नामक महधिक -यावत्-पल्योपम की स्थिति वाला देव रहता है। से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ–“महाविदेहेवासे, इस हेतु से, गौतम ! यह महाविदेह वर्ष, महाविदेह वर्ष महाविदेहे वासे।" -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८५ कहलाता है । महाविदेहस्स सासयत्तं महाविदेह की शाश्वतता२७४. अदुत्तरं च णं गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स सासए णाम- २७४. अथवा गौतम ! इसका यह नाम शाश्वत है, जो कभी नहीं धेज्जे पण्णत्ते, ज ण कयाइ णासि ण कयाइ णत्थि ण कयाइ था ऐसा नहीं है, कभी नहीं है-ऐसा नहीं है, कभी नहीं होगाण भविस्सइ भुवि च भवइ अ भविस्सइ धुवे णिअए सासए ऐसा नहीं है, था, है, और होगा, यह महाविदेह वर्ष ध्रव है, अवखए अश्वए अवट्ठिए णिच्चे महाविदेहे वासे। नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८५ नित्य है। बदीवे चोत्तीसं चक्कवटिट-विजया रायहाणीओ य- जम्बूद्वीप में चोतीस चक्रवर्ती विजय और राजधानियाँ२७५. ५०—(क) जंबुद्दीवे दीवे केवइया चक्कवट्टि-विजया ? २७५. प्र०—(क) (भगवन् !) जम्बूद्वीप नामक द्वीप में कितने चक्रवर्ती विजय है? (ख) केवइयाओ रायहाणीओ? (ख) और उनकी राजधानियां कितनी हैं ? उ०-(क) गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोत्तीसं चक्कवट्टि-विजया, उ०-(क) गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीपों में चोतीस चक्रवर्ती विजय है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महाविदेह वर्ष सूत्र २७५-२७८ (ख) चोत्तीसं रायहाणीओ', (ख) और उनकी राजधानियाँ भी चोतीस हैं । -जंबु० वक्ख० ६, सु० १२५ २७६. जंबुद्दीवे णं दीवे चउत्तीसं चक्कवट्टि विजया पण्णत्ता । तं २७६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में चोतीस चक्रवर्ती विजय कहे गये जहा-बत्तीसं महाविदेहे, दो भरहे एरवए। हैं, यथा-बत्तीस (चक्रवर्ती विजय) महाविदेह में हैं, और दो __ --सम० ३४, सु० २ (चक्रवर्ती विजय) भरत तथा ऐरवत में हैं । जंबुद्दीवस्स महाविदेहवासे बत्तीसं चवकवटि विजया जम्बूद्वीप महाविदेह में बत्तीस चक्रवर्ती विजय राजधानियाँ रायहाणीओ य कच्छविजयस्स ठाणं पमाणं च- कच्छविजय की अवस्थिति एवं प्रमाण२७७. ५०–कहि णं भंते ! जंबुद्दीबे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे २७७. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष णामं विजए पण्णते? में कच्छविजय कहाँ कहा गया है ? उ.-गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं, णीलवंतस्स उ०-हे गौतम ! सीता महानदी से उत्तर में, नीलवन्त वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपब्व- वर्षधर पर्वत से दक्षिण में, चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम यस्स पच्चत्थिमेणं, मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स में, एवं माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप परत्थिमेणं-एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे के महाविदेह वर्ष में कच्छ नामक विजय कहा गया है। कच्छे णाम विजए पण्णत्ते। 'उत्तर-दाहिणायए, पाईण पडीणवित्थिण्णे, पलिअंक यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा, पूर्व-पश्चिम में चौड़ा एवं पलंग संठाणसंठिए....गंगा-सिंधूहि महाणईहिं वेयड्ढेण य के आकार का है। गंगा-सिन्धु महानदियों से तथा वैताड्य पर्वत पवएणं छन्भागपविभत्ते । से यह छह भागों में विभक्त हैं । 'सोलस जोयणसहस्साई पंच य बाणउए जोयणसए इसकी लम्बाई सोलह हजार पाँच सौ बानवे योजन १६५९२ बोणि अ एगूणवीसइभागे जोयणस्स आयामेणं, और दो योजन के उन्नीस भाग जितनी है। 'दो जोयणसहस्साई दोणि अ तेरसुत्तरे जोयणसए इसकी चौड़ाई बावीस सौ तेरह २२१३ योजन से कुछ किंचि विसेसूणे विक्वंभेणं ति। कम है। 'कच्छस्स णं विजयस्स बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं कच्छविजय के ठीक मध्यभाग में वैताढ्यपर्वत कहा गया है, वेअडडे णामं पब्बए पणते। जेणं कच्छविजयं दुहा जो इसे दो भागों में विभक्त करता हआ स्थित है, यथा-(१) विभयमाणे विभयमाणे चिटुइ। तं जहा-दाहिणद्ध- दक्षिणार्धकच्छ और (२) उत्तरार्धकच्छ । कच्छं च उत्तरद्धकच्छं चेति । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६३ दाहिणद्ध कच्छविजयस्स अवट्ठिई पमाणं च दक्षिणार्ध कच्छविजय की अवस्थिति और प्रमाण२७८. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे दाहिणद्ध- २७८. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष में कच्छे णामं विजए पण्णत्ते ? दक्षिणार्ध कच्छ नामक विजय कहाँ कहा गया है ? उ.-गोयमा ! वेयड्ढस्स पब्वयस्स दाहिणणं, सीमाए उ०-गौतम ! वैताढ्य पर्वत से दक्षिण में सीता महानदी से महाणईए उत्तरेणं, चित्तकूडस्त वक्खाराम्बयस्त उतर में, चित्रकुट वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम में, एवं माल्यवन्त अढाईद्वीप में एक सौ सत्तर १७० चकवर्ती विजय है --इनकी गणना इस प्रकार हैअढाईद्वीप में ५ भरत, ५ ऐरवत और ५ महाविदेह है । प्रत्येक भरत और प्रत्येक ऐरवत में एक-एक विजय है तथा प्रत्येक महाविदेह में बत्तीस विजय हैं, इस प्रकार पाँच महाविदेह में एक सौ साठ विजय हैं, पाँच भरत एवं ऐरबत के दस विजय हैं - इस प्रकार १७० चक्रवर्ती विजय है। प्रत्येक विजय में । क राजधानी है और प्रत्येक राजधानी का वर्णन भरत क्षेत्र की राजधानी विनीता (अयोध्या) के समान है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंत्तरमालगीन on अमीमागी सामाला नदी नाग विति पEau २ देव जगदिक्षतावनीपमादिकानलिलावती Hamaनदा Pा विजयमध्मेश्वरतापपरितवनासे सवत विजयमवरगंगापछि तर कर क्षवतीमदी देशवतीनदी लिली सेलपर्वत क्त पनी भीलतपमत गंधमादाली मालवंती २.२ विजया भुवया दिन श-स वरवि जय २० री श-rial वीना जावती विजय विजय ३२ श्राव नाव जय पुषता बमा २५ य२९ लाव नीवि जय दिन य वैनात पर्वत वतात पत रिचाव उस विजया राजा ना24 निव शारा जश रस शानी धारा जधानी ३२ ला राज जम मना नी जय मा साल VASशाल सीतानदार FES मरुपयत . सीनोदानदी धाका साल भास पुराण जा सीएम श्या संचय सान राज सानी पष्टी बसी राज पनक राराज क्षमी जिता राज कं नारा जाल असा मारा जक्ष नी काना ज नीर सनी मी विवाद पर्वत पनि जय मंगला रम्पति जय प्रदान गवि सनबा बिज बन्धी विजय विज्ञान बा जय विराम निपटापन चिमटपवन महावनीपति काकालीप सिक्षमदीवानी नियापन समावर्षपति आशीदिप बन तरबाद कामही नदी मानवता समारापवत मायंजीव बद Anमना समानता दल Hry नसा THEIR मधापा नदी जम्बूद्वीप अन्तवर्ती ३२ विजय एवं उनकी राजधानियाँ : वर्णन पृष्ठ २०२ पर Page #361 --------------------------------------------------------------------------  Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २७८-२८२ तिर्यक् लोक : महाविदेह वर्ष गणितानुयोग २०३ पच्चत्थिमेणं, मालवंतस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे, दाहिणड्ढकच्छे में दक्षिणार्ध कच्छ नामक विजय कहा गया है। णाम विजए पण्णत्ते । उत्तर-दाहिणायए, पाईण-पडीणविच्छिन्ने, अट्ठ जोअण- यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा, पूर्व-पश्चिम में चौड़ा है, सहस्साई दोणि अ एगसुतरे जोअणसए एक्कं च एगूणवीसइभाग जोअणस्स आयामेणं, ८२७१, योजन लम्बा है । दो जोअणसहस्साई दोणि अ तेरसुत्तरे जोअणसए बावीस सौ तेरह योजन से कुछ कम चौड़ा है और पलंग के किचिविसेसूणे विक्खंभेणं, पलिअंकसंठाणसंठिए। आकार का है । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६३ दाहिणद्धकच्छविजयस्स आयारभावे दक्षिणार्ध कच्छविजय का आकार भाव२७६. प०-दाहिणद्धकच्छस्स णं भंते ! विजयस्स केरिसए आयार- २७६. प्र०-भगवन् ! दक्षिणार्धकच्छ विजय का आकारभाव भावपडोयारे पण्णते ? (स्वरूप) कैसा कहा गया हैं ? उ०-गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, तंजहा उ०--गौतम ! यह अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग वाला -जाव-कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहि चेव । कहा गया है-यावत्-कृत्रिम तथा अकृत्रिम (मणि-तृणों) से -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६३ (सुशोभित) है। दाहिणद्धकच्छविजयरस मणुआणं आयारभावे- दक्षिणार्ध कच्छविजय के मनुष्यों का आकार भाव२८०.५०-दाहिणद्धकच्छे णं भंते ! विजए मणुआणं केरिसए २८०. प्र०-भगवन् ! दक्षिणार्ध कच्छ विजय के मनुष्यों का आयारभावपडोयारे पण्णते ? आकारभाव (स्वरूप) कैसा कहा गया है ? उ०-गोयमा ! तेसि णं महुआणं छविहे संघयणे-जाव- उ०-गौतम ! यहाँ के मनुष्य छह प्रकार के संहनन वाले सव्वदुक्खाणमंतं करेंति । -यावत्-सर्व दुःखों का अन्त करने वाले हैं । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६३ उत्तरद्धकच्छविजयस्स अवट्टिई पमाणं च उत्तरार्ध कच्छविजय की अवस्थिति और प्रमाण२८१.५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे उत्तरद्ध- २८१. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष कच्छे णामं विजए पण्णत्ते ? में उत्तरार्धकच्छ नामक विजय कहाँ कहा गया है? उ०-गोयमा ! वेअडढस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, णीलवंतस्स उ०-गौतम ! वैताढ्य पर्वत से उत्तर में, नीलवन्त वर्षधर वासहरपवयरस दाहिणणं, मालवंतस्स ववखारपब्व- पर्वत से दक्षिण में, माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में एवं यस्स पुरथिमेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्च- चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम में जम्बूद्वीप नामक द्वीप के थिमेणं, एत्यं णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे महाविदेह वर्ष में उत्तरार्धकच्छ नामक विजय कहा गया हैउत्तरद्धकच्छे णाम विजय पण्णत्ते-जाव-सव्वदुक्खाणमंतं यावत्-(वहाँ के कोई-कोई मनुष्य) सब दुःखों का अन्त करते हैं । करति । तहेव अव्वं सव्वं । इस प्रकार सब कथन पूर्ववत् जान लेना चाहिए । (१) कच्छविजयस्स णामहेउ (१) कच्छविजय के नाम का हेतु२८२.५०-से केणटुणं भते ! एवं वुच्चइ-"कच्छे विजए- २८२. प्र०. भगवन् ! कच्छविजय को कच्छविजय क्यों कहते हैं ? कच्छे विजए" ? Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ लोक- प्रज्ञप्ति तियं लोक महाविदेह वर्ष : उ०- गोयमा ! कच्छे विजए वेयड्ढस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, सीआए महावईए उत्तरेणं, गंगाए महाणईए पस्चस्विमेणं, सिए महाणईए पुि दाहिकविपस बहुमतासभाए एवं गं खेमा णामं रायहाणी पण्णत्ता । विणीआ रायहाणी सरिता भाणियव्वा । सत्य णं खेमाए रायहाणीए कच्छे णामं राधा समु पण | महयाहिमवंत जाय-सवयं भरहोजवणं भाणि यत्र । निक्खमणवज्जं सेसं सव्वं भाणियव्वं जावभुजए मास्सए हे। कच्छणामधेज्जे अ कच्छे इत्थ देवे महद्धीए-जावपलिओमट्टिए परिवह से एएम गं गोपमा ! एवं बुच्चद्द" बिजए कच्छे विजए जागिये। - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६३ सध्येसु विजएसु कच्छवत्तब्वया जाव अट्ठो, सरिसणामगा । रायाणो ते मार्म बिजए पम्पसे (२) सुकच विजयस्स अबटिठई पमाणं च२०२. १० वेदी महाविदेहे वासे मुच्छे उ०- गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, गाहावईए महाणईए पच्चत्थिमेणं, चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ गं जंबूद्दवेदी महाविदेहे मासे सुकच्छे गाम विजए। उत्तरदाहिए जब ये विजए तहेव सुक विजए। वरं - खेमपुरा रायहाणी, सुकच्छे राया समुपज्जइ, तहेब सव्वं । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ (३) महारुद्र विजयरस अवई पमाणं च२८४. ५० - कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं वितए पण्णत्ते ? सूत्र २८२ २८४ उ०- गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, सीआए महानईए उत्तरेणं, पम्हकूडस्स वक्खारपव्व यस्स पच्चस्थिमेणं, गाहावईए महाणईए पुरस्थिमेणं उ०- गौतम ! कच्छ विजय वैताढ्य पर्वत से दक्षिण में, सीता महानदी से उत्तर में गंगा महानदी से पश्चिम में तथा सिन्धु महानदी से पूर्व में है । दक्षिणार्ध कच्छ बिजय के मध्य में क्षेमा नामक राजधानी कही गई है । इसका वर्णन विनीता राजधानी के समान समझ लेना चाहिए। कच्छविजय के अनुसार सब विजयों का कथन करना चाहिए - यावत् — विजयों के नाम का हेतु भी कहना चाहिए। राजाओं - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ के नाम विजयों के नामों के समान कहना चाहिए। (२) सुकच्छ विजय के अवस्थिति और प्रमाण२०३. प्र० भगवत् ! जम्बुद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष में सुकच्छ नामक विजय कहाँ कहा गया है ? क्षेमा राजधानी में कच्छ नामक राजा उत्पन्न होता है, वह महाहिमवन्त (पत के समान विमान है) - यावत्क्रमण (दीक्षा) को छोड़कर उसका सब वर्णन (भरत चक्रवर्ती के समान समझना चाहिए, तथा शेष सब वर्णन कहना चाहिए- यावत्वह मानवीय सुखों का उपभोग करता हुआ रहता है । यहाँ कच्छ में कच्छ नामक महद्धिक - यावत् - पल्योपम की स्थिति वाला देव रहता है । इस कारण गौतम ! कच्छ विजय को कच्छ विजय कहते हैं - यावत् - ( यह नाम ) नित्य है । उ०- गौतम ! सीता महानदी के उत्तर में नीलवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, ग्राहावती महानदी के पश्चिम में एवं चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में मुच्छ नामक विजय कहा गया है। यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा है, जैसा कच्छ विजय का वर्णन है, वैसा ही सुकच्छ विजय का है। विशेष यह है कि यहाँ की राजधानीमपुरा है, तथा यहाँ सुकच्छ नामक राजा उत्पन्न होता है, शेष सब उसी के ( कच्छ विजय ) के अनुसार है । (३) महाकच्छविजय के स्थान; अवस्थिति और प्रमाण२३. प्र० भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में महाकच्छ नामक विजय कहाँ कहा गया है ? उ०- गौतम ! नीलवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में ब्रह्मकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में एवं ग्राहावती महानदी के पूर्व में महाविदेह वर्ष में महाकच्छ नामक 1 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २८-५२८८ तिर्यक् लोक : महाविदेह वर्ष गणितानुयोग २०५ एत्थ णं महाविदेहे वासे महाकच्छे णामं विजए पण्णत्ते। विजय कहा गया है, शेष वर्णन कच्छ विजय के समान है-यावत सेसं जहा कच्छबिजयस्स-जाव-महाकच्छे अ इत्थ देवे -यहाँ महाकच्छ नामक महद्धिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति महिड्ढीए-जाव-पलिओवमट्ठिईए परिवसइ अट्ठो अ वाला देव रहता है, इसका वर्णन पूर्ववत् कर लेना चाहिए । भाणिअव्वो। -जंबु बक्ख० ४, सु० ६५ (४) कच्छगावईविजयरस अवटिठई पमाणं च- (४) कच्छगावतीविजय की अवस्थिति और प्रमाण२८५. ५०-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे कच्छगावती णाम २८४. प्र०-भगवन् महाविदेह वर्ष में कच्छगावती नामक विजय विजए पण्णते ? कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! णीलवंतस्स दाहिणेणं, सीआए महाणईए उ०-गौतम ! नीलवन्त (पर्वत) के दक्षिण में, सीता महा उत्तरेणं, दहावतीए महाणईए पच्चत्थिमेणं, पम्हकूडरस नदी के उत्तर में, द्रहावती महानदी के पश्चिम में एवं ब्रह्मकट पुरथिमेणं एत्थ णं महाविदेहे वासे कच्छगावती णाम (पर्वत) के पूर्व में महाविदेह वर्ष में कच्छगावती नामक विजय विजए पण्णत्ते। कहा गया है। उत्तर-दाहिणायए, पाईण-पडीणविच्छिण्णे, सेसं जहा यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा और पूर्व-पश्चिम में चौड़ा है। कच्छस्स विजयस्स-जाव-कच्छगावई अ इत्थ देवे शेष वर्णन कच्छ विजय के समान है-यावत्-यहाँ कच्छगावती महिड्ढीए-जाव-पलिओवमट्टिइए परिवसइ। नामक महद्धिक-यावत्-पल्योपम की स्थितिवाला देव रहता है । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ (५) आवत्तविजयस्स अवटिठई पमाणं च- (५) आवर्तविजय की अवस्थिति और प्रमाण२८६. ५०-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे आवत्ते णाम विजए २८६. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में आवर्त नामक विजय पण्णते? कहाँ कहा गया है ? उ.-गोयमा ! णीलवंतस्स गसहरपब्वयस्स दाहिणेण, उ०—गौतम ! नीलवन्त वर्षधर पर्वत से दक्षिण मे, सीता सीआए महाणईए उत्तरेणं, णलिणकूडस वक्खार- महानदी से उत्तर में, नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम में पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, वहावतीए महाणईए पुरथिमेणं तथा दहावती महानदी से पूर्व में, महाविदेह वर्ष में आवर्त नामक एस्थ णं महाविदेहे वासे आवत्ते णामं विजए पण्णत्ते। विजय कहा गया है। सेसं जहा कच्छस्स विजयस्स इति । शेष कथन कच्छविजय के समान है। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ (६) मंगलावत्तविजयस्स अवठिई पमाणं च-- (६) मंगलावर्तविजय की अवस्थिति और प्रमाण२८७. ५०–कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे मंगलावत्ते णाम विजए २८७. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में मंगलावर्त नामक विजय पण्णते? कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! णीलवंतस्स दक्खिणेणं, सीआए महाणईए उ०-गौतम ! नीलवन्त से दक्षिण में, सीता महानदी से उत्तरेणं, गलिणकूउस्स पुरथिमेण, पंकावईए पच्च- उत्तर में, नलिनकूट से पूर्व में और पंकावती से पश्चिम में मंगलात्थिमेणं, एत्थ णं मंगलावत्ते णाम विजए पण्णत्ते। वर्त नामक विजय कहा गया है, कच्छबिजय की भांति इसका जहा कच्छरस विजए तहा एसो भाणिअब्बो-जाव- भी वर्णन जान लेना चाहिए यावत्-यहाँ मंगलावर्त नामक मंगलावत्ते अ इत्थ देवे महिड्ढीए-जाव-पलिओवम- महद्धिक-यावत् –पल्योपम की स्थिति बाला देव रहता है । ढिईए परिवसइ। से एएण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ मंगलावते विजए, इस कारण गौतम ! इसका नाम मंगलावर्तविजय है। मंगलावत्ते विजए। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ (७) पुक्खलावतविजयस्स अवट्ठिई पमाणं च- (७) पुष्कलावर्तविजय को अवस्थिति और प्रमाण२८८. ५०-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे पुक्खलावत्ते णाम विजए २८८, प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में पुष्कलावर्त नामक विजय पण्णते ? कहाँ कहा गया है? Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ लोक-प्रज्ञप्ति उ०- गोपमा नीलवंतस्स दाहिणेणं, सीमाए महानईए उत्तरेणं पंकाए पुरत्यिमेवं, एक्सेलस्स क्वारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं पुक्खलावत्ते णामं विजय पण्णत्ते । तिर्यक लोक महाविदेह व : जहाँ छवि तहाण देवे महिड्दिए- जाव- पलिओवमट्टिइए परिवसइ । से एएम गं गोपमा ! एवं बुध-गुलाव विनए पुक्तावले बिनए जम्बु० बक्ख० ४, सु० ६५ (८) पुक्खलावई विजयस्स अवट्ठिई पमाणं च - २०२० भिते महाविदेहे वासेपुखलाई गाम चक्कवट्टिविजए पण्णत्ते ? प्र० - उ०- गोयमा ! गीततरस दक्षिणं, सीमाए महानईए उत्तरेणं, उत्तरिल्लास सीआयणरस पञ्चरियमे सीआमुहवणस्स एगसेलस्स वत्रखारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं महाविदेहे वासे पुक्खलावई णामं विजए पण्णत्ते । उत्तर- दाहिणायए, एवं जहा कच्छ विजयस्स-जावपुत्रलाई अस्य देवे महापलिओ afg परिवस | एए गं गोवमा ! एवं बुवइ-क्लावईविए जिए'। अट्ठ रायहाणीओ विजया भणिआ, रायहाणीओ इमाओ उ०- गोपमा । जिसहस्स वासहरपव्ययस्स उत्तरेणं, सोयाए महाणईए दाहिणेणं दाहिणिल्लस्स सीआमुहवणस्स परियमेगं तिउडरस बनणारपव्ययस्स पुरत्यिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे वच्छे णामं विजए पण्णत्ते । १ ठाणं० ८, सु० ६३७ ॥ सूत्र २८८-२६० उ०- गौतम ! नीलवन्त के दक्षिण में, सीता महानदी के उत्तर में पंकावती के पूर्व में तथा एक वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में पुष्कलावर्त नामक विजय कहा गया है। इसका वर्णन कच्छविजय के समान जानना चाहिए- यावत् यहां पुष्कल नामक मकयात्पत्योपम की स्थिति वाला देव रहता है । इस कारण गौतम ! पुष्कलावतंविजय कोपुष्कलावतं विजय कहते हैं। (८) पुष्कलावती विजय की अवस्थिति और प्रमाण २०१. प्र० भगवन् महाविदेह वर्ष में पुष्कलावती नामक - ! चक्रवर्ती विजय कहाँ कहा गया है ? 1 उ०- गौतम ! नीलवन्त के दक्षिण में सीता महानदी के उत्तर में उत्तरी सीतामुखवन के पश्चिम में तथा एकल वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में महाविदेह वर्ष में पुष्कलावती नामक विजय कहा गया है । यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा है, शेष वर्णन कच्छविजय के समान है यावत्-यहां पुण्डलावती नामक महद्धिक पावत्पत्योपम की स्थिति वाली देवी रहती है। इस कारण गौतम ! इसका नामक पुष्कलावती विजय कहा गया है । 1 गाहा खेमा खेमपुरा चैब रिहा रिपुरा तहा। खग्गी मंजूला अनि अ, ओसही पुण्डरिगिणी ॥ - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ वच्छाइविजया, वक्खारपव्वया, महाणईओ, राय हाणीओ प २६० प्र० - ६ ( १ ) कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे २६० प्र० - ६ ( १ ) भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वच्छे णामं विजए पण्णत्ते ? क्षेत्र में वत्स नामक विजय कहाँ कहा गया है ? आठ राजधानियाँ आठ विजय कहे गये हैं, उनकी राजधानियाँ ये हैं 1 गावा (१) मा (२) क्षेमपुरा, (३) रिष्टा, (४) रिष्टपुरा, (५) खड्गी, (६) मंजूषा, (७) औषधी, (८) पुण्डरी किणी । .... वत्सादिविजय, वक्षस्कार पर्वत, महानदियाँ और राजधानियाँ उ०- गौतम निषधर पर्यंत के उत्तर में, सीतामहानदी के दक्षिण में, दक्षिणी सीतामुखवन के पश्चिम में और त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में वत्स नामक विजय कहा गया है। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६०-२६१ तिर्यक् लोक : महाविदेह वर्ष गणितानुयोग २०७ सुसीमारायहाणी तं चैव पमाणं'। (इस विजय की राजधानी का नाम) सुसीमाराजधानी है, इसका प्रमाण पूर्वोक्त (अयोध्या के समान) है। १० (२) तिउडेवक्खारपब्वए, सुवच्छेविजए, कुण्डलारायहाणी। १०(२) आगे त्रिकूटवक्षस्कार पर्वत, सुवत्सविजय, कुण्डला राजधानी है। ११ (३) तत्तजलामहाणई, महावच्छेविजए, अपराजिताराय- ११(३) तप्तजलामहा नदी, महावत्सविजय, अपराजिता हाणी। राजधानी है। १२ (४) वेसमणकूडवक्खारपव्वए, बच्छावई विजए, पभंकरा- १२(४) वैश्रमणकूट, वक्षस्कार पर्वत, वत्साबतीविजय; रायहाणी। प्रभंकरा राजधानी है। १३ (५) मत्तजलामहाणई, रम्मेविजए, अंकावईरायहाणी। १३(५) मत्तजला महानदी, रम्यविजय अंकावती राजधानी हैं। १४ (६) अंजणेवक्खारपब्वए, रम्मगेविजए पम्हावईरायहाणी। १४(६) अंजनवक्षस्कार पर्वत, रम्यविजय, पद्मावती ___ राजधानी है। १५ (७) उम्मत्तजलामहाणई रमणिज्जेविजए सुभारायहाणी। १५(७) उन्मत्तजला महानदी, रमणीयविजय, सुभा राज धानी है। १६ (८) मायं जले (णे) वाखारपवर मंगलावई विजए रयण- १६(८) मातंजलवक्षस्कार पर्वत, मंगलावतीविजय, रत्नसंचया संचयारायहाणी। राजधानी है। एवं जहचेव सीयाए महाणईए उत्तरंपासं तह चेव जिस प्रकार सीता महानदी के उत्तर पार्श्व का वर्णन किया दक्विणिलं भाणियब्बं । दाहिणिल्लसीआमुहवणाइ ।५ है। उसी प्रकार दक्षिण पार्श्व का वर्णन कहना चाहिए। दक्षिणी -जंबु. वक्ख० ४ सु० ६६ शीतामुखवनादि का वर्णन भी कहना चाहिए"। पम्हाइविजया, वक्खारपब्वया, महाणईओ, राय- पद्मविजय, वक्षस्कार पर्वत, महानदियाँ और राजधानियाँ हाणोओ य२६१. १७ (१) एवं पम्हे विजए, अस्सपुरारायहाणी, अंकावई- २६१. १७(१) इसीप्रकार पद्मविजय, अश्वपुरा राजधानी, वक्वारपव्वए। अंकावती वक्षस्कार पर्वत है। १-"वच्छस्स विजयस्स णिसहे दाहिणेणं, सीआ उत्तरेणं, दाहिणिल्लसीयामुहवणे पुरथिमेणं तिउडे पच्चत्थिमेणं सुसीमारायहाणी। पमाणं तं चेवेति ।" -जंबु० बक्ख०४,सु०६६ इसी सत्र की टीका में यह कथन है कि सुसीमा राजधानी का प्रमाण जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार ३ सूत्र ४१ में वर्णित बिनीता (अयोध्या) के समान है। इसी प्रकार सभी विजयों की सभी राजधानियों का प्रमाण अयोध्या के समान समझना चाहिए। २ इमे वक्खार कूडा पण्णत्ता, तं जहा गाहा-तिउडे, बेसमणकू डे, अंजणे, मायंजणे । णईउ तत्तजला, मतजला, उम्मत्तजला ।। ३ इमे विजया पण्णत्ता, तं जहागाहा-वच्छे सुवच्छे महावच्छे, चउत्थे बच्छगावई । रम्मे रम्मए चेव, रमणिज्जे मंगलावई ।। ४ इमाओ रायहाणीओ पप्णत्ताओ, तं जहागाहा–सुसीमा कुडला चेव, अबराइअ पहंकरा । अंकावई पम्हावई, सुभा रयणसंचया ॥ ५ (क) इस मूल पाठ के आगे (जंबु० दक्ख ० ४, सु०६६) के मूलपाठ में सुसीमा राजधानी की अवस्थिति, (गद्य में) तथा वक्ष स्कार पर्वत, नदियाँ, विजय और राजधानियों के नामों की गाथाएँ हैं। निर्धारित संकलनपद्धति के अनुसार गद्यपाठ और गाथाय यहाँ दी गई हैं। (ख) ठाण-८, सु० ६३७ । धालयों के नाम कापाल सीमा नाशत नपश्चिति अनुमा ढपा बजार Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८. लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महाविदेह वर्ष सूत्र २६१-२६२ १८ (२) सुपम्हेविजए, सीहपुरारायहाणी, खीरोदामहाणई । १८(२) सुपद्मविजय, सिंहपुरा, राजधानी, क्षीरोदा महानदी है। १६ (३) महापम्हेविजए, महापुरारायहाणी, पम्हावईवक्खार- १६(३) महापद्मविजय, महापुरा राजधानी, पद्मावती पचए। वक्षस्कार पर्वत है। २० (४) पम्हगावईविजए, विजयपुरारायहाणी, सीअसोआ- २०(४) पद्मगावती विजय, विजयपुरा राजधानी, शीतश्रोता महाणई । महानदी है। २१ (५) संखेविजए, अपराइयारायहाणी, आसीविसे-वक्खार- २१(५) शंखविजय, अपराजिता राजधानी, आशिविषवक्षपव्वए। स्कार पर्वत है। २२ (६) कुमुदेविजए, अरजारायहाणी, अंतोवाहिणीमहाणई। २२(६) कुमुदविजय, अरजा राजधानी, अंतोवाहिनी महा नदी है। २३ (७) णलिणेविजए, असोगारायहाणी सुहावहे वक्खारपव्वए। २३(७) नलिनबिजय, अशोका राजधानी, सुखावह वक्षस्कार पर्वत है। २४ (८) णलिणावईविजए, वीयसोगारायहाणी।' ___ २४(८) नलिनावती विजय, वीतशोका राजधानी है। दाहिणिल्ले सीओआमुखवणसंडे, उत्तरिल्ले वि एमेव दक्षिणी शीतोदा मुखवन खण्ड (का जैसा वर्णन है) वैसा ही भाणियब्वे-जहा सीआए। उत्तरी (शीतोदामुख वन खण्ड का वर्णन) भी कहना चाहिए। जिस प्रकार शीतामुखवन खण्ड का (वर्णन है उसी प्रकार शीतोदामुखवनखण्ड का वर्णन है)। वप्पाइविजया, वक्खारपब्वया, महाणईओ, वप्रादिविजय, वक्षस्कारपर्वत, महानदियाँ और रायहाणीओ य राजधानियां२६२. २५ (१) वप्पेविजए, विजयारायहाणी, चंदेवक्खारपब्वए। २६२. (१) (इसी प्रकार) वप्रविजय, विजया राजधानी, चन्द्र वक्षस्कार पर्वत है। २६ (२) सुवप्पेविजए वेजयंतीरायहाणी, ओम्मिमालिणी णई। २६(२) सुवप्रविजय, वैजयन्ती राजधानी, ऊर्मीमालिनी नदी है। २७ (३) महाबप्पेविजए, जयंतीरायहाणी, सूरेवक्खारपव्वए। २७(३) महावप्रविजय, जयन्ती राजधानी सूर्यवक्षस्कार पर्वत है। १ (क) जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, णिसढवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सीतोदाए महाणईए दाहिणणं, सुहावइस्स वक्खारपब्बयस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं-एत्थणं सलीलावई णाम विजए पण्णत्तेतत्थ णं (सलीलावई विजए) वीयसोगणामं रायहाणी... -णायाधम्म० अ०८ (णलिणावती, विजय का दूसरा नाम सलिलावती विजय भी है।) (ख) तत्थ ताव सीओआए महाणईए दक्खिणिल्ले णं कूले इमे विजया पण्णत्ता, तं जहागाहा-पम्हे सुपम्हे महापम्हे, चउत्थे पम्हगावई। संखे कुमुए णलिणे अट्ठमे णलिणावई ।। (ग) ....इमाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ तं जहा-- गाहा–आसपुरा, सीहपुरा महापुरा, चेव हवइ विजयपुरा । अबराइया य अरया, असोगा तह वीतसोगा य । (घ) ....इमे वक्खारा पण्णता, तं जहा–१. अंके, २. पम्हे, ३. आसीविसे, ४. सुहावहे । एवं इत्थ परिवाडीए दो दो विजया कूटसरिसणामया भाणियव्वा । दिसा-विदिसाओ य भाणियब्वाओ। सीओआमुहवणं च भाणियव्वं । सीओआआए दाहिणिल्लं उत्तरिल्लं च। (ङ) इमाओ णईओ सीओआए महाणईए दाहिणिल्ले कूले खीरोओ, सीअसोया, अन्तरवाहिणींओ । (च) ठाणं० ८. सु० ६३७ । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्र २६२-२६४ तिर्यक् लोक : हैमवत वर्ष गणितानुयोग २०६ २८ (४) व पावईविजए, अपराइआरायहाणी, फेणमालिणी २८(४) वप्रावतीविजय, अपराजिता राजधानी, फेनमालिनी गई। नदी है। २६ (५) वग्गूविजए, चक्कपुरारायहाणी, णागे वक्खारपब्वए। २६(५) वल्गु विजय, चक्रपुरा राजधानी, नाग वक्षस्कार पर्वत है। ३० (६) सवग्गूविजए, खग्गपुरारायहाणी, गंभीरमालिणी ३०(६) सुवल्गु विजय, खड़गपुरा राजधानी, गंभीरमालिनी अंतरणई। नदी है। ३१ (७) गंधिलेविजए, अवज्झारायहाणी, देवे वक्खारपव्वए।। ३१(७) गंधिलविजय, अवध्या राजधानी, देववक्षस्कार पर्वत है। ३२ (८) गंधिलावई विजए,' अयोज्झारायहाणी । ३२(८) गंधिलावतीविजय, अयोध्याराजधानी है। एवं मन्दरस्स पव्वयस्स पच्चिथिमिल्लं पासं भाणि- इसी प्रकार मेरु पर्वत के पश्चिमी पार्श्व का (वर्णन) कहना यव्वं । -जंबु० वक्ख० ४, सु० १-२ चाहिए। हेमवयवासस्स अवटिई पमाणं च हेमवतवर्ष के अवस्थिति और प्रमाण२६३.प्र.-कहि णं भते ! जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे २६३. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में हेमवत नामक पण्णत्ते। __ वर्ष कहाँ कहा गया है। उ०-गोयमा ! महाहिमवंतस्स वासहरपब्वयस्स दक्षिणेणं उ०-गौतम ! महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत से दक्षिण में, चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, पुरथिम- चुल्ल हिमवन्त वर्षधर पर्वत से उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र से लवणसमुहस्स पच्चत्थिमणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पश्चिम में तथा पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में जम्बूद्वीप नामक पुरस्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे द्वीप में हैमवत नामक वर्ष कहा गया है। पण्णते। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिणवित्थिण्णे, पलिअंक- यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा तथा उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। संठाणसंठिए, दुहा लवणसमुदं पुढे । पुरथिमिल्लाए पलंग के आकार का है । तथा दो ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है । कोडोए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्द पुढे, पच्चत्थि- पूर्व की ओर पूा लवणसमुद्र से स्पृष्ट है और पश्चिम की ओर मिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुद्द पुढे, दोण्णि जोअणसहस्साई एगं च पंचुत्तरं जोअणसयं पश्चिमी लवणसमुद्र से स्पृष्ट है । यह २१०५.योजन चौड़ा है। पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्ख भेणं । २६४. तस्स बाहा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं छज्जोयणसहस्साई सत्त य २६४. उसकी बाहु पूर्व-पश्चिम मेंपणवण्णे जोअणसए तिणि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स ६७५५ ३ योजन लम्बी है। १६ आयामेणं । १ सीओआए उत्तरिल्ले पासे इमे विजया पण्णत्ता, तं जहा गाहा–वप्पे सुवप्पे महावप्पे, चउत्ये वप्पयावई। वग्गू अ सुवग्गू अ, गंधिले गंधिलाबई ।। २ (क) ..."इमाओ रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा गाहा-विजया वेजयंती, जयंती अपराजिया । चक्कपुरा खग्गपुरा हवइ अबज्झा अउज्झा य ।। ....इमे वक्वारा पण्णत्ता, तंजहागाहा- चंदपव्वए, सूरपव्वए, नाग पव्वए, देवपव्वए । इमाओ णईओ-सीओआए महाणईए उत्तरिल्ले कूलेउम्मिमालिणी, फेणमालिणी, गंभीरमालिनी । उत्तरिल्लविजयाणतराउत्ति । (ख) ठाणं. ८. सु. ६३७ । ३ (क) हेमवयहेरण्णबयाओ पं बाहाओ सत्तट्टि सत्तटुिं जोयणसयाइं पणपन्नाई तिणि य भागा जोयणस्स आयामेणं पण्णत्ता । -सम.६७, स.२ (ख) यहाँ हेमवत और हैरण्यवत की बा काहु आयाम ६७५५ योजन तथा तीन योजन के उन्नीस भाग जितना कहा है। किन्तु समवाय ६७, सूत्र २ में ६७५५ योजन तथा एक योजन के तीन भाग जितना कहा है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : हैरण्यवत वर्ष सूत्र २६५-२६९ २६५. तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया, दुहओ लवणसमुह २६५. उसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बी एवं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्द पुट्ठा, दोनों ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है। पूर्व की ओर पूर्वी लवणपच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्ल लवणसमुद्द पुट्ठा। समुद्र से स्पृष्ट है और पश्चिम की ओर पश्चिमी लवणसमुद्र से सत्तीसं जोअणसहस्साई छच्चचउसत्तरे जोअणसए सोलस य एगूणवीसइभागे जोअणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं', स्पृष्ट है । यह ३७६७४ - योजन से कुछ कम लम्बी है। २९६. तस्स धणु दाहिणणं अद्वतीसं जोअणसहस्साई सत्त य चत्ताले २६६. उसका धनुपृष्ठ दक्षिण मेंजोअणसए दस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ७६ ३८७४०१० योजन की परिधि वाला है। हेमवयस्स वासस्स आयारभावो हैमवतवर्ष का आकार भाव२६७.५०-हेमवयस्स गं भंते ! वासस्स केरिसए आयारभाव- २९७. प्र०-भगवन् ! हैमवतवर्ष का आकारभाव (स्वरूप) कैसा पडोयारे पण्णते? कहा गया है ? उ०-गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । उ०-गौतम ! उसका भूमिभाग अति सम एवं रमणीय कहा गया है। एवं तइअसमाणुभावो अब्बो त्ति । उसका वर्णन (भरत क्षेत्र के) तीसरे आरे के वर्णन जैसा - जंबु० वक्ख० ४, सु० ७६ जानना चाहिए। हेमवयवासस्स णामहेऊ हैमवतवर्ष के नाम का हेतु२६८. प०–से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ-हेमवए वासे हेमवए २६८. प्र०-भगवन् ! हैमवतवर्ष को हैमवत वर्ष क्यों कहते हैं ? वासे? उ०-गोयमा ! चुल्लहिमवंत-महाहिमवतेहिं वासहरपव्व- उ०-गौतम ! यह चुल्लहिमवन्त और महाहिमवन्त नामक एहि दुहओ समवगूढे । णिच्चं हेम दलई, णिच्चं हेमं वर्षधर पर्वतों से दोनों ओर से समवगूढ अर्थात् संश्लिष्ट है। यह दलइत्ता णिच्च हेम पगासइ, हेमवए य इत्थ देवे सदैव (आसनप्रदान आदि द्वारा) हेम-स्वर्ण देता है, नित्य स्वर्ण महिढीए-जाव-पलिओवमट्टिइए परिवसइ । देकर सदैव हेम जैसा प्रकाशित होता है और यहाँ हैमवत नामक महद्धिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाला देव निवास करता है। से तेणटुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"हेमवएवासे इस कारण गौतम ! हैमवतवर्ष, हैमवतवर्ष कहलाता है । हेमवएवासे ।" -जंबु० बक्ख. ४, सु० ७८ हेरण्णवयवासस्स अवट्ठिई पमाण च हैरण्यवतवर्ष के अवस्थिति और प्रमाण२६६. प०- कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हेरणवए णामं वासे २६८. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में हैरण्यवत नामक पण्णते? वर्ष कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! रुप्पिस्स उत्तरेणं सिहरिस्स दक्खिणेणं, उ०-गौतम ! रुक्मि पर्वत से उत्तर में, शिखरीपर्वत से पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवण दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में और पश्चिमी लवण १ हेमवय-हेरण्णवयाओ णं जीवाओ सत्ततीसं जोयणसहस्साई छच्च चउत्तरे जोयणसए सोलस य एगूणवीस इभाए जोयणस्स किंचिवेसेसूणाओ आयामेणं पणत्ता । -सम. ३७, सु. २ २ हेमवए-हेर ण्णवयाईण जीवाणं धणुपिठे अद्वतीसं जोयणसहस्साई सत्त य चत्ताले जोयणसए दस एगूणवीस इभागे जोयणस्स किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं पण्णत्ता। -सम. ३८, सु. २ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६९-३०३ तिर्यक् लोक : हरिवर्ष गणितानुयोग २११ समुदस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे हिरण्णवए समुद्र से पश्चिम में और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में, जम्बूद्वीप वासे पण्णत्ते। नामक द्वीप में हैरण्यवत वर्ष कहा गया है। एवं जह चेव हेमवयं तह चेव हेरण्णवयं पि भाणियन्वं। जैसा हैमवतवर्ष का कथन किया है वैसा ही हैरण्यवतवर्ष णवरं जीवा दाहिणेणं, उत्तरेणं धणं अवसिद्रुतं चेवत्ति।' भी कह लेना चाहिये । विशेष यह है कि इसकी जीवा दक्षिण में -जंबु• वक्ख० ४, सु० १११ और धनुपृष्ठ उत्तर में है । शेष कथन वही है। हेरण्णवयवासस्स णामहेऊ हैरण्यवतवर्ष के नाम का हेतु३००.५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-हेरण्णवएवासे ३००. प्र०-भगवन् ! हैरण्यवतवर्ष को हैरण्यवतवर्ष क्यों हेरण्णवएवासे ? कहते हैं ? उ०-गोयमा ! हेरण्णवए णं वासे रुप्पी-सिहरीहिं वासहर- उ०-गौतम ! हेरण्यवतवर्ष रुक्मि और शिखरी नामक पव्वएहि दुहओसमवगूढे, णिच्चं हिरण्णं दलइ, णिच्चं वर्षधर पर्वतों से दोनों ओर से समवगूढ है अर्थात् संश्लिष्ट है। हिरणं मुचइ, णिच्चं हिरणं पगासइ । यह नित्य हिरण्य को प्रदान करता है। नित्य हिरण्य को त्यागता है तथा नित्य हिरण्य जैसा प्रकाशित होता है । हेरण्णवए अ इत्थ देवे महिड्ढीए-जाव-पलिओवमट्टिईए यहाँ महद्धिक-यावत्-पल्योपम की स्थितिवाला हैरण्यवत परिवसइ। नामक देव निवास करता है। से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ–'हेरण्णवएवासे।" इस कारण गौतम ! इसका नाम हैरण्यवतवर्ष, हैरण्यवतवर्ष -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ कहा गया है। हरिवासस्स अवठिई पमाणं च हरिवर्ष का अवस्थिति और प्रमाणकहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे ३०१. भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में हरिवर्ष नामक वर्ष कहाँ पण्णत्ते ? कहा गया है ? उ.-गोयमा ! णिसहस्स वासहरपव्वयस्स दविखणेणं, महा- उ०-गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत से दक्षिण में, महाहिम हिमवंतवासहरपब्वयस्स उत्तरेणं, पुरथिमलवणसमुद्दस्स वन्त वर्षधर पर्वत से उत्तर में, पूर्वी लवणसमृद्र से पश्चिम में, पस्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुहस्स पुरथिमेणं एत्थ और पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप में णं जंबहीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते। हरिवर्ष नामक वर्ष कहा गया है। जाव-पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं यह-यावत्-पश्चिम की ओर से पश्चिमी लवणसमुद्र से स्पष्ट लवण समुद्द पुढे, अट्ठजोअणसहस्साई चत्तारि अ एगवीसे जोयण सए एगं च एगूणचीसहभागे जोअणस्स है। इसकी चौड़ाई ८४२११. योजन की है। विक्खंभेणं । १२.तरस बाहा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं तेरस जोअणसहस्साई, ३०२. उसकी बाह पूर्व-पश्चिम में तिष्णि अ एगस? जोअणसए, छच्च एगूणवीसइभाए जोअणस्स, अद्धभागं च आयामेणंति । __१३३६१ योजन लम्बी है। ३०३. तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया, दुहा लवण समुह ३०३. उसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बी और पटा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुदं पुट्ठा दोनों ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है। पूर्व की ओर पूर्वी लवणपच्चस्थिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमु पुट्ठा समुद्र से स्पृष्ट है और पश्चिम की ओर पश्चिम की ओर पश्चिमी १ (क) सम. ६७ सु. २। (ख) सम. ३७ सु. २। (ग) सम. ३८ सु. २ ।.... २ हरिवास-रम्मयाणं वासा अट्ठजोयणसहस्साई साइरेगाई वित्थरेणं पण्णत्ता । -सम. सु. १२१ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ लोक-प्रति तेवर जोअणसहस्साइं णव अ एगुत्तरे जोअणसए सत्तरस य एगुणवीसभाए जोनरस मार्ग च आयामेण " ३०४. तस्स धणु दाहिणेणं चउरासीइं जोअणसहस्साइं सोलस जोमणाहं चतारि एगुणवीसभाए जोगणस्स परिवे - जंबु० वक्ख० ४, सु० ८२ हरिवासरस आपारभावो - ३०५. ५० - हरिवासस्स णं भंते! वासस्स केरिसए आयारभाव - पडोवारे पण्णले ? ३० गोवमा ! बहुसमरमणि तिर्यक् लोक : रम्यक् वर्ष मणीहि तहि अ उवसोभिए । ३०७. प० भूमिभागं पण जाय एवं मणीनं तणाणं य वण्णो गंधो फासो सद्दो भाणिअव्वो । हरियाणं तस्य तत्थ देते तहि तहि बहवे बुड्डा खुड्डियाओ । एवं जो समाए अणुभावो सो चे अपरसो - जंबु० वक्ख० ४, सु० ८२ वतव्वोत्ति । हरिवासस्स णामहेऊ २०६.१० नंगे ! एवं बुव' हरिवासे हरिवासे?" उ०- गोयमा ! हरिवासे णं वासे मणुआ अरुणा अरुणोभासा सेआ णं संखदलसणिकासा हरिवासे अ इत्थ देवे महितीएजाययतिमट्टिए परिवह से तेज व गोमा ! एवं -- हरिवासे हरिवासे।" - जंबु० वक्ख० ४, सु० ८२ लवणसमुद्र से स्पृष्ट है । यह ७३६७१ १७ १ १६ २ ३०४. इसकी धनुःपीठिका दक्षिण में - ८४०१६ ४ योजन की परिधि में है । १६ सूत्र ३०३-३०७ योजन लम्बी है । हरिवर्ष का आकारभाव - ३०५. प्र० - भगवन् ! हरिवर्ष का आकारभाव (स्वरूप) कैसा कहा गया है ? उ०- गौतम ! इसका आकार अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग वाला कहा गया है - यावत् - मणियों तथा तृणों से सुशोभित है। मणियों और तृणों के वर्ण, गंध (रस) और स्पर्श तथा शब्द का वर्णन कर लेना चाहिये । हरिवर्ष में जगह-जगह- यत्र-तत्र अनेक छोटी-बड़ी वापिकाएं हैं। इस प्रकार धमाका (द्वितीय आरे) की भांति सम्पूर्ण वर्णन कहना चाहिये ! हरिवर्ष के नाम का हेतु १०६. प्र० भगवन ! हरिवर्ष को हरिवर्ष क्यों कहते है ? रम्मयवासस्स अवट्ठिई पमाणं च रम्यवर्ष के अवस्थिति और प्रमाण -कहि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे रम्मए णामं वासे पण्णत्ते ? ३०७. प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में रम्यवर्ष नामक वर्ष कहाँ कहा गया है ? उ०- गौतम ! हरिवर्ष में (कुछ) मनुष्य अरुण वर्णवाले एवं अरुण कान्ति वाले हैं। (कुछ) मनुष्य शंखखण्ड के समान श्वेत वर्ण वाले हैं । यहाँ हरिवर्ष नामक महद्धिक-यावत्पल्योपम की स्थितिवाला देव रहता है । इस कारण गौतम ! हरिवर्ष हरिवर्ष कहा जाता है । १ हरिवास- रम्यवासयाओं में जीवा रोपणसहस्साई नव य एगुत्तरे जोस सत्तर एबीबागे जोयणस्स अद्धभागं च आयामेणं पण्णत्ता । -सम० ७३, सु० २ हरिवासवासिया जीवाणं प्रजुपिट्टा बरासी जोगाई सोलस जोवाई बत्तारि म भागा जोपणस्स परिवे पण्णत्ता । - सम० ८४, सु० ८ यहाँ हरिवर्ष की जीवा के धनुपृष्ठ की परिधि चोरासी हजार सोलह योजन तथा चार योजन के उन्नीस भाग जितनी कही है किन्तु सम० ८४, सूत्र में हरिवर्ष रम्पत्व (दोनों में प्रत्येक की जीवा के धनुपृष्ठ की परिधि चोरासी हजार सोलह पोजन तथा एक योजन के चार भाग जितनी कही है। सम० ८४, सूत्र ८ का मूलपाठ ऊपर उद्धृत है; तुलना करें। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३०७-३११ तिर्यक् लोक : देवकुरु गणितानुयोग २१३ www.mmmmmmmmmmmmmmmam उ०-गोयमा ! णीलवंतस्स उत्तरेणं, रुप्पिस्स दक्खिणेणं, उ०-गौतम ! नीलवन्त (वर्षधर पर्वत) से उत्तर में, रुक्मि पुरथिमलवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमलवण- (पर्वत) से दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में और पश्चिमी समुद्दस्स पुरथिमेणं। लवणसमुद्र से पूर्व में (रम्यवर्ष) हैं। एवं जह चेव हरिवासं तह चेव रम्मयं वासं भाणिअव्वं । हरिवर्ष का जैसा कथन किया गया है वैसा ही रम्यकवर्ष णवरं दक्खिणेणं जीवा, उत्तरेणं धणु', अवसेसं तं चेव ।' का कहना चाहिये । विशेष यह है कि इसकी जीवा दक्षिण में है। -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ धनु पृष्ठ उत्तर में, शेष वक्तव्यता यही है। रम्मयवासस्स णामहेऊ रम्यक्वर्ष के नाम हेतु३०८. ५०–से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-रम्मएवासे रम्मए ३०८. प्र०-भगवन् ! रम्यक्वर्ष किस कारण से रम्यवर्ष वासे? कहलाता है ? उ.- गोयमा ! रम्मएवासे णं रम्मे रम्मए रमणिज्जे, उ.-गौतम ! रम्यक्वर्ष अत्यन्त रम्य एवं रमणीय है, तथा रम्मए अ इत्थ देवे महिड्ढीए-जाव-पलिओवमट्टिइए रम्यक् नामक महद्धिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाला देव परिवसइ। निवास करता है। से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ-"रम्मएवासे इस कारण गौतम ! यह रम्यक्वर्ष रम्यक् वर्ष कहलाता है। रम्मएवासे।" -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ देवकुराए अवठिई पमाणं च देवकुरु का स्थान-प्रमाणादि३०६.५०-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा ३०६. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में देवकुरु नामक कुरु पण्णत्ता ? कहाँ कहा गया है? उ०-गोयमा ! मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं, णिसहस्स वास- उ०-गौतम ! मेरु पर्वत से दक्षिण में, निषध वर्षधर पर्वत से हरपब्वयस्स उत्तरेणं, विज्जुप्पहस्स वक्खारपब्वयस्स उत्तर में, विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में, तथा सोमनस पुरथिमेणं, सोमणसवक्खारपवयस्स पच्चस्थिमेणं एत्थ वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम में महाविदेह वर्ष में देवकुरु नामक णं महाविदेहेवासे देवकुरा णाम कुरा पण्णत्ता। कुरु कहा गया है । पाईण-पडीणायया, उदीण-शाहिणवित्थिण्णा, अद्धचंद- यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है और संठाणसंठिया इक्कारस जोयणसहस्साई अट्ठ य बायाले अर्धचन्द्र संस्थान से स्थित है। इग्यारह हजार आठसौ बयालीस जोयणसए दोणि य एगूणवीसइभाए जोयणस्स विक्खं- योजन तथा दो योजन के उन्नीस विभाग जितना इसका विष्कम्भ भेणं ति। है। ३१०. तीसे णं जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया, दुहा ववखारपव्वयं ३१०. उसकी जीवा उत्तर की ओर पूर्व-पश्चिम में लम्बी है। पुट्ठा-तं जहा-पुरिथिमिल्लाए कोडीए पुरिथिमिल्लं दोनों ओर से वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है । यथा- पूर्वीय किनारे वक्खारपब्वयं पुट्ठा, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं से पूर्वी वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है तथा पश्चिमी किनारे से वक्खारपब्वयं पुट्ठा । तेवणं जोयणसहस्साई आयामेणं ति । पश्चिमी वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है। जीवा की लम्बाई वेपन हजार योजन है। ३११. तीसे गं धणु दाहिणेणं सढि जोयणसहस्साई चत्तारि अ ३११. उसका धनुपृष्ठ दक्षिण में सात हजार चारसौ अठारह अट्ठारसे जोयणसए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स योजन तथा बारह योजन के उन्नीस विभाग जितनी परिधि परिक्खेवेणं । -जंबु० वक्ख० ४, सु०६७ वाला है। १ (क) सम. सु. १२१ । (ख) सम.७३, सु. १। (ग) सम. ८४, सु. ८ । २ देवकुरु-उत्तरकुरुयाओ णं जीवाश्रो तेवन्नं तेवन्न जोयणसहस्साइं साइरेगाइं आयामेणं पण्णताओ। -सम० ५३, सु० ३ 'जहा उत्तरकुराए वत्तव्वया जाव' इस संक्षिप्त वाचना की सूचना के अनुसार सु०८७ से यहाँ पाठ की पूति की गई है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ लोक- प्रज्ञप्ति देवकुराए आयारभावो ३१२. ५० देवकुराए णं भंते ! कुराए केरिसए आयारभाव पोवारे पगले ? उ०- गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । तिर्यक लोक देवकु देवकुराए णामहेऊ ३१२. १० से के - भंते! एवं बुवद-देवकुरा, देवकुरा ? उ०- गोयमा ! देवकुराए देवकुरुणामं देवे महिड्ढीए - जावपलिओमट्टिए परिवसह । १ २ एवं पुत्रजन्ते समसमानता सच्चेव जाव ( १ ) पउमगंधा, (२) मिअगंधा, (३) अममा, (४) सहा (५) बेतली, (६) सविचारी । - जंबु० बक्ख० ४, सु० ६७ सेते गोयमा ! एवं वच्चइ – देवकुरा, देवकुरा । अनुत्तरं च षं गोधमा | देवकुराए सासए णाम पण्णत्ते । - जंबु० बक्ख० ४, सु० १०० देवकुराए कूडसामलीपेडल्स ठाणाई उ०- गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स दाहिण -पच्चत्थिमेणं मिसस्स बासह रयस्वयरस उत्तरेणं विश्नुप्यभस्स वक्ारपव्ययस्स पुररिथमेनं सोसोआए महापईए पच्चत्थिमेणं, देवकुरुपच्चत्थिमद्धस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं देवकुराए कुराए कूडसामलीपेढे णामं पेढे पण्णत्ते ।" एवं जच्चैव जंबूए सुदंसणाए वत्तब्वया सच्चेव सामलीए विभाणिव्वा णामविहूणा । ठाणं १० सु० ७६४ (क) कूडसामलीगं अट्ठ जोयणाई एवं चैव । (ख) सम० ८ सु० ५ सूत्र ३१२-३१५ देवकुरु का आकार भाव (स्वरूप) - ३१२. प्र० - भगवन् ! देवकुरा नामक कुरा का आकारभाव (स्वरूप) कैसा कहा गया है ? देवकुरु में कूटशाल्मलीपीठ के स्थानादि ३१४. ५० - कहि णं भंते! देवकुराए कुराए कूडसामलिपेढे णामं ३१४. प्र० - भगवन् ! देवकुरु नामक कुरु में कूटशाल्मलीपीठ पेढे पण ? नामक पीठ कहाँ कहा गया है ? उ०- गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत सम एवं रमणीय कहा गया है । इस प्रकार पूर्ववणित सुषमासुषमा की जो वक्तव्यता है वही यहाँ समझ लेना चाहिए। यावत् ( वहाँ छह प्रकार के मनुष्य हैं) । १ पद्मगंध २ मृगगंध, ३ अमम ४ सह ५ तेतली और ६ शनैश्चारी । देवकुरु के नाम का हेतु ! ३१२. प्र० ] भगवन् | देवकुरु को देवकुरु क्यों कहते हैं ? उ० – गौतम ! देवकुरु में देवकुरु नामक महधिक - यावत्पत्योपम की स्थिति वाला देव रहता है । इस कारण गौतम ! देवकुरु देवकुरु कहा जाता है । अथवा - गौतम ! देवकुरु यह नाम शास्वत कहा गया है। गरुलदेवे, रायहाणी दक्खिणेणं । अवसिद्ध तं चेव । - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०० ३१५. तत्थ णं दो महइमहालया, महद्दुमा बहुसमतुल्ला, अविसेसमणाणता अग्गमणं नावन्ति याम विश्वंभुच्चो संठाण - परिणाहेणं तं जहा - कूडसामली चेव सुदंसणा चेव । गहराई, आकृति और परिधि में एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं ३१५. वहाँ दो विशाल महावृक्ष हैं, जो परस्पर सर्वथा तुल्य, विशेषतारहित, विविधतारहित सम्बाई, पीड़ाई, ऊँचाई, करते हैं, यथा-शामली और जंबूदर्शना 7 उ०- गौतम ! मेरुपर्वत से दक्षिण पश्चिम में, निषध वर्षधर पर्वत से उत्तर में विद्याभ वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में शीतोदा महानदी से पश्चिम मे तथा देवकुरु के पश्चिमार्थ के मध्य में देवकुरु नामक कुरु में कूटशाल्मलीपीठ नामक पीठ कहा गया है । जम्मुदर्शन (बल) की भांति सामलीका भी नाम हो छोड़कर समस्त वर्णन कर लेना चाहिये । यहाँ गरुड़ नामक देव (रहता है) (इस देव की राजधानी दक्षिण में है । शेष वर्णन पूर्ववत् है । - ठाणं ८, सु०६३५ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र ३१५-३१८ तिर्यक् लोक : उत्तरकुरु गणितानुयोग २१५ तत्थ णं दो देवा महिड्ढिया-जाव-पलिओवमट्टिइया परि- वहाँ महाऋद्धि वाले–यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले वसंति तं जहा-गरुले चैव वेणुदेवे, अणाढिए चेव जंबुद्दीवा- दो देव रहते हैं, यथा-वेणुदेव गरुड़ और अनाडिय । ये दोनों हिवई । -ठाण २ उ० ३, सु० ८६ जम्बूद्वीप के अधिपति हैं। उत्तरकुरुस्स अवट्ठिई पमाणं च उत्तरकूरु की अवस्थिति और प्रमाणादि--- ३१६. ५०–कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे उत्तरकुरा णामं कुरा ३१६. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में उत्तर कुरु नामक कुरु पण्णत्ता ? कहाँ कहा गया है ? उ०—गोयमा मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, णीलवंतस्स वास- उ०-गौतम ! मन्दर पर्वत से उत्तर में, नीलवन्त वर्षधर हरपव्वयस्स दक्खिणणं, गंधमायणस्स वक्खारपव्वयस्स पर्वत से दक्षिण में, गंधमादन वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में और पुरस्थिमेणं, मालवन्तस्स वक्खार परवयस्स पच्चत्थिमेणं, माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम में उत्तर कुरु नामक कुरु एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता । कहा गया है। पाईण-पडीणायया, उनीण-दाहिणवित्थिन्ना, अद्धचंद- वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा, रामा संठाणसंठिया, इक्कारस जोअणसहस्साई अटु य बायाले जोअणसए दोणि अ एगृणवीसइभाए जोअणस्स अर्धचन्द्राकार है । वह ११ म वाला है। विखंभेणंति। ३१७. तीसे णं जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया, दुहा वखारपव्वयं ३१७. उसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम में लम्बी है और दोनों पुट्ठा, तं जहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं ववखार- ओर से वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है। यथा-पूर्वीय किनारे से पध्वयं पुढा, पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं वक्खार- पूर्वी वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है तथा पश्चिमी किनारे से पध्वयं पुट्ठा, तेवण्णं जोअणसहस्साई आयामेणंति ।' पश्चिमी वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है। उसकी लम्बाई वेपन हजार योजन है। ३१८. तीसे गं धणु दाहिणणं सढि जोअणसहस्साई चत्तारि अ ३१८. उसका धनुःपृष्ठ दक्षिण में अट्ठारसे जोअणसए दुवालस य एगूणवीसइभागे जोअणस्स परिक्खेवेणं । जंबु० वक्ख० ४, सू०८७ ६०४१८ योजन की परिधि वाला है। उत्तरकुराए आयारभावो उत्तरकुरु का आकारभाव (स्वरूप)३१६. ५०-उत्तरकुराए णं भंते ! कुराए केरिसए आयारभाव- ३१६. प्र०-भगवन् ! उत्तरकुरा का आकारभाव (स्वरूप) कैसा पडोयारे पण्णते? कहा गया है ? उ.-गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । उ०-गौतम ! उसका भूभाग अत्यधिक सम एवं रमणीय कहा गया है। से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा-जाव.एवं एक्को स्य- चर्ममढेहुए मृदंगवाद्य के चमतल जैसा है-यावत्दीववत्तव्वया-जाव-देवलोग-परिग्गहा णं ते मणुयगणा एकोरुकद्वीप के कथन जैसा है-यावत्-हे आयुष्मन् श्रमण ! पण्णत्ता समणाउसो! (उत्तरकुरा के) मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होने वाले कहे गये हैं। णवरि इमं णाणत्तं छ धणुसहस्त-मूसिता, दोछप्पन्ना यहाँ विशेषता यह है कि वे छह हजार धनुप ऊँचे होते हैं, पिटुकरंडसता, अट्ठमभत्तस्स आहारठे समुप्पज्जति उनके दोसौ छप्पन पांसलियां होती हैं अष्टभक्त (तीन दिन) के तिणि पलिओवमाई देसूणाई पलिओवमस्सासंखि- बाद उन्हें आहार की इच्छा होती है उनका जघन्य आयु कुछ ज्जइमागेण ऊणगाई जहन्नेणं, तिन्निपलिओबमाई कम अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग से कुछ कम तीन १ सम०५३, सु० । २ जीवा. प०३, उ०२, सु० १४७ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : उत्तरकुरु सूत्र ३१६-३२३ उक्कोसेणं । एकूणपण्णराइंदियाई अणुपालणा। पल्योपम का है और उत्कृष्ट तीन पल्योपम का है। वे उन पचास सेसं जहा एगुरुयाणं । अहोरात्रपर्यन्त अपने बालयुगल का पालन-पोषण करते हैं। शेष वर्णन एकोरुकद्वीप (निवासी मनुष्यों) जैसा है। ३२०. उत्तरकुराएणं कुराए छविहा मणुस्सा अणुसज्जंति । ३२०. उत्तरकुरा नामक कुरा में छह प्रकार के मनुष्य निवास करते तं जहा। (१) पम्हगंधा, (२) मियगंधा, (३) अम्ममा, हैं-यथा-१ पद्म (कमल) जैसी गंधवाले, २ मृग (कस्तुरीमृग) (४) सहा, (५) तेयालीसे, (६) सणिच्चारी।' जैसी गंधवाले, ३ ममत्वरहित, ४ सहनशील, ५ तेजस्तलीन -जीवा०प०३, उ० २, सु० १४७ (तेतली) ६ शनैश्चारी (शनःशनै चलने वाले) । उत्तरकुराए णामहेऊ उत्तरकुरु के नाम का हेतु३२१. ५०-से केणठ्ठणं भंते । एवं वुच्चइ-उत्तरकुरा उत्तरकुरा। ३२१. प्र०-भगवन् ! उत्तरकुरु-उत्तरकुरु क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! उत्तरकुराए उत्तरकुरु णाम देवे महिड्ढीए उ०-गौतम ! उत्तरकुरु में उत्तरकुरु नामक महधिक -जाव-पलिओवमट्ठिइए परिवसइ । से तेण?ण गोयमा! -यावत् - पल्योपम की स्थिति वाला देव रहता है। इस एवं बुच्चइ-"उत्तरकुरा, उत्तरकुरा ।" कारण गौतम ! उत्तरकुरु उत्तरकुरु कहा जाता है । अदुत्तरं च णं गोयमा ! उत्तरकुराए सासए णामधेज्जे अथवा-गौतम ! उत्तरकुरा यह नाम शास्वत कहा गया पण्णत्ते। -जंबु० बक्ख० ४, सु० ६१ है। ३२२. देवकुरु-उत्तरकुरुएसु णं मणुया एगूणपन्नाराइंदिएहि संपन्न- ३२२. देवकुरु उत्तरकुरु में मनुष्य उनपचास अहोरात्रि में युवाजोवण्णा भवंति। -सम ४६, सु० ६२ वस्था को प्राप्त होते हैं । उत्तरकुराए जंबुपेढस्स अवट्ठिई पमाणं च उत्तरकुरा में जम्बूपीठ की अवस्थिति और प्रमाण३२३. प०–कहि णं भंते ! उत्तरकुराए २ जंबूपेढे णामं पेढे ३२३. प्र०-हे भगवन् ! उत्तरकुरा में जम्बूपीठ नामक पीठ पण्णत्ते? कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं उ०-हे गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत से दक्षिण में, मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं मालवंतस्स वक्खारपव्व- मंदर पर्वत से उत्तर में, मालवंत वक्षस्कार पर्वत से पश्चिम में, यस्स पच्चत्थिमेणं, गंधमादणस्स वक्खारपब्वयस्स गंधमादन वक्षस्कार पर्वत से पूर्व में शीता महानदी के पूर्वी पुरथिमेणं, सीआए महाण ईए पुरथिमिल्ले कूले- किनारे पर उत्तरकुरा में जम्बूपीठ नामक पीठ कहा गया है। एत्थ णं उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते।' १ जंबू० वक्ख०४, सु० ८७ २ जम्बूपीठ से सम्बन्धित वर्णन आगमोदय समिति से प्रकाशित जीवाभिगम और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र में है-दोनों आगमों के वर्णनों में वाचना भेद से कहीं कहीं असमानता है। जीवाभिगम सूत्र १५१ के मूलपाठ तथा टीका में-"जम्बूपीठ मन्दरपर्वत से उत्तरपूर्व में है" ऐसा कहा है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-सूत्र ६० के मूलपाठ तथा टीका में-"जम्बूपीठ मन्दरपर्वत से उत्तर में है"-ऐसा कहा है 1 तुलनात्मक अध्ययन के लिए देखें-दोनों आगमों के मूलपाठ और टीकापाठ । मूलपाठ-१०-कहि णं भंते ! उत्तरकुराए २ जंबुसुदंसणाए जंबुपेढे नाम पेढे पण्णते ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं....... टोकापाठ-कहि णं भंते ! इत्यादि-क्व भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरकुरुषु-जम्ब्वाहि द्वितीयं नाम सुदर्शनेति तत उक्तं सुदर्शनाया इति, जम्ब्बाः सम्बन्धि पीठं जम्बूपीठं नामपीठं प्रज्ञप्तं ? भगवानाह-गौतम ! मन्दरस्य पर्वतस्य "उत्तरपूर्वेण" उत्तरपूर्वस्यां.... -जीवा० प्र० ३, सूत्र १५१. मूलपाठ--१०-कहि णं भंते ! उत्तरकुराए २ जम्बूपेढे णामं पेढे पण्णत्ते ? उ०-गोयमा ! णीलवंतवासहरपव्वयस्स दाहिणणं, मंदरस्स उत्तरेणं........ टीकापाठ-कहिणमित्यदि, क्व भदन्त ! उत्तरकुरुषु जम्बूपीठं नाम पीठं प्रज्ञप्तं ? निर्वचनसूत्रे गौतमे त्यामन्त्रणं गम्यं नीलवत्तो वर्षधर पर्वतस्य दक्षिणेन, मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेण..... -जंबु० वक्ष० ४, सूत्र ६० Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र ३२३.३२४ तिर्यक् लोक :जम्बू सुदर्शनवृक्ष गणितानुयोग २१७ पंच जोयणसयाई आयाम-विक्वं मेंणं, पण्णरस एक्का- वह पांचसो योजन का लम्बा-चौड़ा है, पन्द्रहसौ इक्यासी सोयाई जोयणसयाइं किंचि विसेसाहियाइं परिक्खेवेणं, योजन से कुछ अधिक की उसकी परिधि है, मध्य भाग में वह बहुमज्झदेसभाए बारस जोयणाई बाहल्लेणं तयाणंतरं बारह योजन का मोटा है। तदनन्तर थोड़े-थोड़े प्रदेश कम होतेच गं मायाए मायाएं पदेसपरिहाणीए सम्वेसु णं चरिम- होते सभी चरमान्तों में दो-दो गाउका मोटा कहा गया है। वह पेरंतेसु दो दो गाउयाइं बाहल्लेणं पण्णत्ते, सव्वजंबूणया- पूरा जम्बूनद स्वर्णमय है, स्वच्छ है-यावत्-प्रतिरूप है। मए अच्छे-जाव-पडिहवे। से गं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से समंता संपरिक्खित्ते, दुण्हं पि वण्णओ। घिरा हुआ है । दोनों के वर्गक भी यहाँ कहने चाहिए । तस्स णं जंबूपेढस्स चउद्दिसि एए चत्तारि तिसोवाण- उस जम्बूपीठ के चारों दिशाओं में चार जगह तीन-तीन पडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ-जाव-तोरणाई। सुन्दर पगथिए कहे गये हैं इनका वर्णक-यावत्-तोरण पर्यन्त है। तस्स णं जंबूपेढस्स बहुमज्झदेसभाए-एत्थ एगा उस जम्बूपीठ के मध्यभाग में एक मोटी मणिपीठिका कही महं मणिपेढिया पण्णत्ता, अट्ट जोयणाई आयाम-विक्खं- गई है। वह आठ योजन की लम्बी-चौड़ी है। चार योजन की भेणं, चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं मणिमई अच्छा-जाव- मोटी है । मणिमय है, स्वच्छ है-यावत् -प्रतिरूप है। पडिरूवा। -जंबु० बक्ख० ४, सु० ६० जंबूसुदंसणाए अवट्ठिई पमाणं च जम्बूद्वीप के सुदर्शन वृक्ष की अवस्थिति और प्रमाण१२४. तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं महं जंबू सुदंसणा ३२४. उस मणिपीठिका के ऊपर जम्बूद्वीप का (एक) महान पण्णता, अद्वजोयणाई उड्ढे उच्चत्तणं, अद्धजोयणं उब्वेहेणं । सुदर्शन वृक्ष कहा गया है, वह आठ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है और आधा योजन भूमि में गहरा है। तीसे णं खंधो दो जोयणाई उद्धं उच्चतेणं, अद्धजोयणं उसका स्कंध दो योजन ऊँचा है और आधा योजन मोटा है। बाहल्लेणं । तीसे णं साला छ जोयणाई उडढं उच्चत्तेणं, बहुमज्झदेस- उसकी शाखा छह योजन ऊंची है, मध्यभाग में आठ योजन भाए अजोयणाइ आयाम-विक्खभेणं, साइरेगाइं अट्ठजोयणाई लम्बी-चौड़ी है, कुछ अधिक आठ योजन उसका पूर्ण प्रमाण है। सम्बग्गेणं पण्णत्ता। तीसे गं अयमेयारवे वण्णावासे पण्णते, वइरामयामूला, उसका इस प्रकार वर्णन कहा गया है-वज्रमय इसके मूल त्ययसपद्रिय-विडिमा -जाव-अहियमणणिवुइकरा पासाइया हैं, इसकी रजतमय शाखायें सुप्रतिष्ठित हैं-यावत -मन की -जाव-पडिरूवा। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६० चिन्ताओं को निवृत्त करने वाली हैं --यावत्-प्रतिरूप हैं। जंबुए णं सुदंसणाए चउद्दिसिं चत्तारि साला पण्णता, तं जम्बू-सुदर्शन वृक्ष के चारों दिशाओं में चार शाखायें कहीं जहा-पुरस्थिमेणं, दविखण, पचत्थिमेण, उत्तरेणं । गई हैं, यथा-(१) पूर्व दिशा की शाखा, (२) दक्षिण दिशा की शाखा, (३) पश्चिमदिशा की शाखा, (४) उत्तरदिशा की शाखा। तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले साले एत्थ णं भवणे पण्णत्ते, उनमें से पूर्व दिशा की शाखा पर एक भवन कहा गया है, कोसं आयामेणं, एवमेव । वह एक कोश का लम्बा हैं, शेष इसी प्रकार है। जीवा० ५० ३, उ०२, सु० १५१ । बहरामयमला, रययसुपइट्ठियविडिमा एवं चेइयरुक्ख-वण्णओ जाव सबो रिट्ठामयविउलकंदा, वेरुलियरुइरखंधा, सुजाय-वरजायरूवपढमगविसालसाला, नानामणि-रयणविविह साहप्पसाहवेरुलियपत्ततत्रणिज्जपत्तविटा, जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवंकरधरा. विचित्तमणि-रयणसूरहिकुसुमा । फलभारन मियसाला, सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया स उज्जोया अहियं मणो णिव्व इकरा ........पासाश्या जाव पडिरूवा । -जीवा०प० ३, उ० २, सु० १५१ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : जम्बू सुदर्शनवृक्ष सूत्र ३२४ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm णवरं-इत्थ सयणिज्ज, सेसेसु पासायवडेंसया सीहासणा विशेष-यहाँ एक शय्या है, शेष शाखाओं पर प्रासादावतंसक य सपरिवारा इति। हैं, और सिंहासन सपरिवार हैं। तेसि णं सालाणं बहुमज्झदेसभाए। एत्थ णं एगे महं उन शाखाओं में मध्यभाग में एक महान् सिद्धायतन कहा सिद्धाययणे पण्णत्ते। कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, गया है, वह एक कोश लम्बा है, आधा कोश चौड़ा है, कुछ कम देसूणगं कोसं उद्धं उच्चत्तेणं । अणेगखम्भसयसण्णिविट्ठ-जाव- एक कोश ऊपर की ओर ऊंचा है, अनेक शतस्तम्भों से युक्त है दारा पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं-जाव-वणमालाओ। -यावत् -उसके द्वार पाँच सौ धनुष ऊंचे हैं -यावत्-उन पर वनमालायें हैं। १ जंबूए णं सुदंसणार चउद्दिसि चत्तारि साला पण्णत्ता, तं जहा-पुरथिमेणं, दक्खिणं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं । तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले साले-एत्थ णं एगे महं भवणे पण्णत्ते। एग कोसं आयामणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूर्ण कोसं उड्ढं उच्चत्तेणं । अणेगखंभसय० वण्णओ जाव भवणस्स दारं तं चैव पमाणं पंचधणुसयाई उडुढं उच्चत्तेणं, अड्ढाइज्जाई विखंभेणं-जाव-वणमालाओ। भूमिभागा, उल्लोया, मणिपेढिया पंचधणुसतिया, देवसयणिज्जं भाणियव्वं । तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले साले-पत्थ णं एगे महं पासायव.सए पण्णत्ते । कोसं च उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धकोसं आयाम-विक्ख भणं । अब्भुगयमूसिय० अंतो बहुसम० उल्लोता. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए सीहासणं सपरिवार भाणियव्वं । तत्थ णं जे से पच्चत्यिमिल्ले साले-एत्य णं पासायवडेंसए पण्णत्ते । तं चैव पमाणं, सोहासणं सपरिवारं भाणियव्वं । तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले साले-एत्थ णं एगे महं पासायवडेंसए........पण्णत्तं, तं चेव पमाणं, सीहासणं सपरिवारं भाणियवं । -जीवा० ५० ३, उ० २, सु० १५२ आ० स० से प्रकाशित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के पृष्ठ ३२०-पंक्ति १३ से पृष्ठ ३३१ के पूर्वभाग की पंक्ति १ से ५ पर्यन्त तथा आ० स० से प्रकाशित जीवाभिगम पृष्ठ २६५ के पूर्वभाग की पंक्ति ३ से १५ पर्यन्त के मूलपाठ की तुलना करने पर जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के पाठ की अपेक्षा जीवाभिगम का पाठ संगत प्रतीत होता है। आ० स० से प्रकाशित जम्बू० वृक्ष०४ सूत्र ६० की वृत्ति में वृत्ति कार ने........ भवन एवं प्रासादावतंसक के प्रमाण के सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थों के उद्धरण प्रस्तुत करते हुए जीवाभिगम में कथित प्रासाद एवं भवन के प्रमाण को सामान्य नियम से भिन्न माना हैप्र०-"ननु भवनानि विषमायाम-विष्कम्भानि पद्मद्रहादिमूलपद्मभवनादिषु तथा दर्शनात्, प्रासादास्तु समायाम-विष्कम्भाः दीर्घवंताढ्य कूटगतेषु वृत्तवैताढ्यगतेषु विजयादि राजधानीगतेषु अन्येष्वपि विमानादिगतेषु च प्रासादेषु समचतुरस्रत्वेन समायाम-विष्कम्भत्वस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात् तत्कथमत्र प्रासादानां भवनतुल्यप्रमाणता घटते ? । उ०-उच्यते-"ते पासाया कोसं समूसिआ, अद्धकोस-वित्थिण्णा" इत्यस्स पूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणोपज्ञ-क्षेत्रविचार गाथाद्धस्यवृत्तौ। "ते प्रासादाः कोशमेक देशोनमितिशेष. समुच्छ्रिता-उच्चाः, क्रोशार्ट अद्धकोशं विस्तीर्णाः, परिपूर्णमेकं क्रोशं दीर्घाः" इतिश्री मलयगिरिपादाः । तथा जम्बूद्वीपसमासप्रकरणे "प्राच्ये शाले भवनं, इतरेषु प्रासादाः, मध्ये सिद्धायतनं, सर्वाणि विजयार्द्धमानानी" ति श्रीउमास्वातिवाचकपादाः । तथा तपागच्छाधिराज पूज्यश्री सोमतिलकसूरि कृत-नव्यबृहत्क्षेत्रविचारसत्काया "पासाया सेसदिसासालासु वेअद्धगिरिगयन्व तओ" इत्यस्या गाथाया अवचूणौं-"शेषासु तिसृषु शाखासु प्रत्येकमेकैकभावेन तत्र त्रयः प्रासादाः—आस्थानोचितानि मन्दिराणि देशोनं कोशमुच्चाः, कोशार्द्ध विस्तीर्णाः, पूर्णक्रोशं दीर्घाः" इति । श्रीगुणरत्नसूरिपादाः यदाहु तदाशयेन प्रस्तुतोपाङ्गस्योत्तरत्र जम्बूपरिक्षेपक-वन-वापी-परिगत-प्रासाद-प्रमाण-सूत्रानुसारेण च इत्येवं निश्चिनुमो जम्बूप्रकरण-प्रासादा विषमायाम-विष्कम्भा इति । यत्त श्री जीवाभिगमसूत्रवृत्तो-क्रोशमेकमूर्ध्वमुच्चस्त्वेन अर्द्धक्रोशं विष्कम्भेनेत्युक्तं तद्गम्भीराशयं न विद्मः । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३२४ तिर्यक् लोक : जम्बू सुदर्शनवृक्ष गणितानुयोग २१६ मणिपेढिया पंचधणुसयाई आयाम-विक्खंभेणं, अद्धाइज्जाई मणिपीठिका पाँच सौ धनुष की लम्बी-चौड़ी है ढाई सौ धणुसयाई बाहल्लेणं। धनुष की मोटी है। तीसे णं मणिपेढियाए उपि देवच्छंदए पंचधणुसयाई उस मणिपीठिका के ऊपर देवछंदक पांच सौ धनुष लम्बाआयाम-विक्खंभेणं, साइरेगाई पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं। चौड़ा है, कुछ अधिक पाँच सौ धनुष ऊपर की ओर ऊँचा है, जिण-पडिमा वण्णओ जयव्वो त्ति । यहाँ जिन प्रतिमाओं का वर्णन जानना चाहिए। जंबू णं सुदंसणा मूले बारसहिं पउमवरवेइयाहिं सव्वओ.... जम्बू-सुदर्शन वृक्ष का मूल बारह पद्मवरवेदिकाओं से चारों समंता सपरिक्खित्ता । वेइयाणं वण्णओ। ओर से घिरा हुआ है, यहाँ वेदिकाओं का वर्णन कहना चाहिए । जंबू णं सुदंसणा अण्णेणं अट्ठसएणं जंबूणं तयचच्चत्तप्प- जम्बू-सुदर्शन वृक्ष अन्य एक सौ आठ जम्बू वृक्षों से चारों माणमेतेणं सव्वओ समंता संपरिविखत्ता। तासि णं वण्णओ। ओर से घिरा हुआ है, वे उससे प्रमाण में आधे ऊंचे हैं, यहाँ उनका वर्णन करना चाहिए। ताओ णं जंबू छहि पउमवरवेइयाहिं संपरिक्खित्ता'। वे जम्बूवृक्ष छह पद्मवरवेदिकाओं से घिरे हुए हैं। जंबूए णं सुदंसणाए उत्तरपुरस्थिमेणं उत्तरेणं उत्तरपच्च- जम्बू-सुदर्शन वृक्ष के उत्तर-पूर्व में (ईशानकोण में) उत्तर में त्थिमेणं, एत्थ णं अणाढियस्स देवस्स चउण्हं सामाणिअ और उत्तर-पश्चिम में (वायव्यकोण में) अनाधृत देव के चार साहस्सीणं... चत्तारि जंबूसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। हजार सामानिक देवों के चार हजार जम्बूवृक्ष कहे गये हैं। तीसे णं पुरथिमेणं चउण्हं अग्गमहिसोणं चत्तारि जंबूओ उसके पूर्व में चार अग्रमहिषियों के चार जम्बवृक्ष कहे पण्णत्ताओ। गये हैं। गाहाओ-दक्खिणपुरस्थिमे दक्खिणेण, तह अवरदक्खिणेणं च । गाथार्थ-दक्षिण-पूर्व में (आग्नेयकोण में) आठ हजार अटू दस बारसेव य, भवंति जंबू सहस्साई॥ जम्बूवृक्ष हैं, दक्षिण में दस हजार जम्बू वृक्ष हैं और दक्षिण-पश्चिम में (नैऋत्य कोण में) बारह हजार जम्बू वृक्ष है। अणिआहिवाणं पच्चत्थिमेण, सत्तेव होंति जंबूओ। जम्बू-सुदर्शनवृक्ष से पश्चिम में सात अनिकाधिपतियों सोलससाहस्सीओ, चउद्दिसि आयरक्खाणं॥ (सेनापतियों) के सात जम्बूवृक्ष हैं और उसके चारों दिशाओं में सोलह हजार (प्रत्येक दिशा में चार हजार) जम्बूवृक्ष आत्मरक्षक देवों के हैं । जंबूए णं सुदंसणा तिहिं जोयणसएहि वणसंडेहिं सवओ जम्बू-सुदर्शन वृक्ष सौ-सौ योजन के तीन बनखण्डों से चारों समंता संपरिविखत्ता। ओर से घिरा हुआ है। जंबूए णं पुरथिमेणं पण्णासं जोयणाई पढमं वणसंडं जम्बू-सुदर्शन वृक्ष से पूर्व में प्रथम वनखण्ड में पचास योजन ओगाहित्ता एत्थ णं एगे महं भवणे पण्णत्ते । कोसं आयामेणं जाने पर एक महान् भवन कहा गया है, वह एक कोश का लम्बा सो चेव वण्णओ, सयणिज्जं च । ऐवं सेसास वि दिसासु है, भवन और शयनीय का वर्णन पूर्व के समान है, इस प्रकार भवणा। -जंबु० बक्ख० ४, सु०६० शेष दिशाओं में भी भवन है। १ . जीवाभिगम के सूत्र १५२ में यह पंक्ति नहीं है । इसके स्थान पर निम्नांकित पाठ है ताओ णं जंबूओ चत्तारि जोयणाई उड्ढं उच्चत्तणं, कोसं चोव्वेधणं, जोयणं खंधो, कोसं विक्खंभेणं, तिण्णि जोयणाई विडिमा, बहुमज्झदेसभाए चत्तारि जोयणाई विक्खं भेणं, सातिरेगाइं चत्तारि जोयणाई सव्वग्गेणं, वइरामयामूला। सो चेव चेतिय रुक्खवण्णओ। २ जीवा०प०३, उ० २, सु० १५२ में ये गाथायें नहीं है। ३ तं जहा पढमण' दोच्चेण तच्चेण ....जीवा०प० ३, उ० २, सु०१५२ में इतना पाठ अधिक है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० लोक-प्रति जंबू - सुदंसणाए दुवालस णामाई जम्बू-सुदर्शनवृक्ष के बारह नाम ३२४. जंणं सुसाए बालस गामवेशा पत्ता तं जहा ३२५. जम्मू-सुदर्शन वृक्ष के बारह नाम कहे गये है, यथा गाहाओ गाथार्थ - १ सुदंसणा २ अमोहा य ३ सुप्पबुद्धा ४ जसोहरा । ५ विदेहजंबू ६ सोमणसा ७ नियआ ८ णिच्च मंडिया ॥ ६ सुभद्दा य १० विसाला य ११ सुजाया १२ सुमणाविआ । सुदंसणाए जंबूए. गामा दुवाल | - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६० तिर्यक् लोक जम्बू सुदर्शन वृक्ष ३२६. जंबूए णं अट्ठट्ठमंगलगा'... (१) सुदर्शन, (२) अमोघ (३) सुप्रबुद्ध, (४) यशोधर, ( ५ ) विदेहजम्बू, (६) सौ मनस, (७) नियत (5) नित्य मंडित, ( ६ ) सुभद्र, (१०) विशाल, (११) सुजात, (१२) सुमन । सुदर्शन जम्बू के ये बारह नाम हैं । ३२६. जम्बू - सुदर्शन वृक्ष पर आठ-आठ मंगल हैं । जंबू सुदंसगाए णामहेऊ जम्बु- सुदर्शन वृक्ष के नाम का हेतु ! ३२७.५० से एवं "जं सुदंसणा जंबू- २२० प्र० ] भगवन् जम्बू-सुदर्शन यह (नाम) क्यों कहा सुराणा ? जाता है ? उ०- गोयमा ! जंबूए णं सुदंसणाए अणाढिए णामं जंबुद्दीवाहिवई परिवस महिदीए। से णं तत्थ चन्हं सामाणिअसाहस्सोगं जाव- आयरक्खदेवसाहस्सी - जंबुद्दीवर दीवस्त जंतूए सुदंसणाए अगाडियाए राहाणीए अस च बहूणं देवाणं य देवीण य-जावबिरह । से तेण णं गोयमा ! एवं बुच्चइ - " जंबू- सुदंसणा, जंबू- सुदंसणा ।” अदुत्तरं च णं गोयमा ! जंबू- सुदंसणा जाव भुवि च भवइ य भविस्य धुवा णिअआ सासया अवखया अब्वया अवट्टिआ जिच्चा । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६० १ जीवा० प० ३ उ०२, सु० १५२ । " सूत्र ३२५-३२७ - उ०- हे गौतम! जम्बू-सुदर्शन वृक्ष पर जम्बूद्वीप का अधिपति अनाधृत नाम का महद्धिक देव रहता है । वह चार हजार सामानिक देवों का यावत् - ( सोलह हजार) आत्मरक्षक देवों का - जम्बूद्वीप नामक द्वीप के जम्बू सुदर्शनवृक्ष का, अनाधृता राजधानी का और अनेक देव-देवियों का यावत् - आधिपत्य करता हुआ रहता है । इसलिए हे गौतम! यह जम्बू-सुदर्शन वृक्ष जंबू-सुदर्शन वृक्ष कहा जाता है। अथवा हे गौतम! यह जम्बु- सुदर्शन वृक्ष-वाबत्तीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा, यह ध्रुव है, नित्य है, शास्त्रत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है एवं नित्य है । २ (क) १० सेकेणट्ठे में भते ! एवं बुम्बद "जम्बू सुदंसणा ? उ०- गोदमा ! जम्बू में सुदंसणाए जम्बूदीवाहिवई अगाडिए नामं देवे महिडीए जाब- पनिओनमदिईए परिव से पंतस्थ च सामाणिमसाहस्सोर्ण जाब आयख देवसाहस्सीणं । जम्बुद्दीवस्स णं दीवस्स जम्बूए सुदंसणाए अणाढियाए य रायहाणीए - जाव - विहरति । अदुत्तरं च णं गोयमा ! जम्बुद्दीवे दीवे तत्थ तत्थ देसे तहि तहि बहवे जम्बुरुक्खा जम्बूवणा जम्बूवणसंडा णिच्चं कुसुमिया - जाब सिरीए अतीव उपसो माग उपसोभैमाणा चिति । सेट्ठेनं गोयमा ! एवं वच्चइ - "जम्बू-सुदंसणा, जम्बू-सुदंसणा " । अदुत्तरं च गं गोवमा ! जम्बुद्दीवस्स सास पाम पण जन्म यानि गासि जाय-गिये। - (ख) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में निगमन सूत्र एक है और जीवाभिगम में दो हैं । - जीवा० प० ३, उ० २, सु० १५२ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३२८-३२६ तिर्यक् लोक : जम्बू सुदर्शनवृक्ष गणितानुयोग २२१ जंबू-सुदंसणस्स चउसु विदिसासु चत्तारि चत्तारि णंदा जम्बू-सुदर्शन वृक्ष के चारों विदिशाओं में चार-चार नंदा पुक्खरिणीओ पुष्करिणियाँ ३२८. जंबूए णं सुदंसणाए उत्तर-पुरस्थिमेणं पढमं वणसंडं पण्णासं ३२८. जम्बू सुदर्शन वृक्ष से उत्तर-पूर्व में (ईशानकोण में) प्रथम जोयणाई ओगाहित्ता-एत्थ णं चत्तारि पुक्खरिणीओ पण्ण- वनखंड में पचास योजन जाने पर चार पुष्करिणियाँ कही गई हैं, ताओ, तं जहा-(१) पउमा, (२) पउमप्पभा, (३) कुमुदा, यथा-(१) पद्मा, (२) पद्मप्रभा, (३) कुमुदा, (४) कुमुद (४) कुमुदप्पभा। प्रभा। ताओ णं कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्ख भेणं पंचधणु- वे एक कोश की लम्बी हैं आधेकोश चौड़ी हैं, पांच सौ सयाई उब्बेहेणं,' वण्णओ। धनुष गहरी हैं, यहाँ इनका वर्णन कहना चाहिए। तासि णं मज्झे पासायवडेंसगा पण्णत्ता । इनके मध्यभाग में प्रासादावतंसक कहे गये हैं। कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोस उद्धं वे (प्रासादा०) एक कोश के लम्बे हैं, आधे कोश के चौड़े हैं, उच्चत्तेणं, वण्णओ, सीहासणा० सपरिवारा० एव सेसासु कुछ कम एक कोश के ऊँचे हैं, यहाँ इनका वर्णक है, सिंहासन के विदिसासु । चारों ओर उसके जैसे अन्य सिंहासन भी अनेक है, इसी प्रकार शेष विदिशाओं में भी प्रासादावतंसक है । गाहाओ गाथार्थ१ पउमा २ पउमप्पभा चेव, ३ कुमुदा ४ कुमुदप्पहा। (१) पद्मा, (२) पद्मप्रभा, (३) कुमुदा, (४) कुमुदप्रभा। १ उप्पलगुम्मा २ णलिणा, ३ उप्पला, ४ उप्पलुज्जला॥ (१) उत्पलगुल्मा, (२) नलिना, (३) उत्पला, (४) उत्सलु ज्ज्वला। १भिगा २ भिगप्पणा चेव, ३ अंजणा ४ कज्जलप्पभा। (१) भृगा, (२) भृगप्रभा, (३) अंजना, (४) कज्जलप्रभा । १सिरिता २ सिरिमहिआ, ३ सिरिचंदा चेव सिरिनिलया ॥२ (१) श्रीकता, (२) श्रीमहिता, (३) श्रीचन्दा, (४) -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६० श्रीनिलया। जंबू-सुदंसणस्स चउण्हं दिसा-विदिसाणं मज्झभागे जम्बू-सुदर्शन वृक्ष के चार दिशा-विदिशाओं के मध्यभाग अट्ठ कूडा में आठ कूट३२६. जंबूए णं सुदंसणाए पुरिथिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं ३२६. जम्बू-सुदर्शन वृक्ष से पूर्वी भवन के उत्तर में और उत्तर उत्तर-पुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स दक्खिणेणं-एत्थ णं पूर्वी प्रासादावतंसक के दक्षिण में एक महान् कूट कहा गया है। एगे महं कूडे पण्णत्ते । अटू जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, दो जोयणाई उव्वेहेणं, मूले वह आठ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है, दो योजन भूमि में अट्ठ जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, बहुमज्झदेसभाए छ जोय- गहरा है, मूल में आठ योजन लम्बा-चौड़ा है, मध्य में छः योजन १....अच्छाओ सण्हाओ लण्हाओ घटाओ मट्ठाओ णिप्पंकाओ....गीरयाओ-जाव-पडिरूवाओ, वण्णओ भाणियचो-जाव तोरणत्ति, -जीवा०प० ३, उ०२. सु० १५२ में इतना पाठ अधिक है। २ एवं दक्खिण-पुरथिमेणवि पण्णास जोयणाई ओगाहित्ता चतारि गंदापुक्खरिणीओ पण्णताओ, तं जहा-(१) उप्पलगुम्मा, (२) नलिना, (३) उत्पला, (४) उप्पलुज्जला, तं चैव पमाणं, तहेव पासायवडेंसगो, तप्पमाणो । एवं दक्षिण-पच्चत्यिमेण वि पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता चत्तारि गंदापुक्खरिणीओ पण्णताओ, तं जहा-(१) भिगा, (२) भिगणिभा, (३) अंजणा, (४) कज्जलप्पभा, तं चैव पमाणं, तहेव पासायव.सगो तप्पमाणो। जम्बूए णं सुदंसणाए उत्तर-पच्चत्थिमे पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहिता-एत्य णं चतारि गंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ तं जहा-(१) सिरिकता, (२) सिरिमहिया, (३) सिरिचंदा चेव तहय, (४) सिरिणिलया, तं चैव पमाणं तहेव पासायवडेंसगो -तप्पमाणो। -जीवा०प०३, उ०२, सु० १५२ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति का पाठ अति संक्षिप्त है और यह पाठ विस्तृत है । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ लोक- प्रज्ञप्ति गाई आयाम विश्वमेण उबर चत्तारि जोयणाई आयाम लम्बा-चौड़ा है, ऊपर चार योजन लम्बा-चौड़ा है। विक्खंभेणं । गाहा पणवीसारस वारसेव, मुले अ माँ उरि सविसेसाई परिरओ कूडस्स इमस्स बोद्धव्यो ॥ - तिर्यक् लोक : जम्बू सुदर्शनवृक्ष मूले वित्थिणे, मज्झे संखित्ते, उवर तणुए, सव्वकणगामए अच्छे-जाव- पडिवे बेइया वणवणओ एवं सेसा वि 'कूडा इति । " - जंबु वक्ख० ४, सु० ६० सूत्र ३२६. गाथार्थ - इस कूट की मूल में कुछ अधिक पच्चीस योजन की परिधि है, मध्य में अट्ठारह योजन की परिधि है और ऊपर बारह योजन की परिधि जाननी चाहिए। १ (१) जम्बू णं सुदंसणाए पुरथिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तर-पुरत्थिमेणं पासायवडेंसगस्स दाहिणं एत्थ एगे महं कूडे पण्णत्ते । (४) जम्बू यह कूट मूल में विस्तृत है, मध्य में संक्षिप्त हैं, ऊपर पतला है, सम्पूर्ण स्वर्णमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है, यहां वेदिका और वनखण्ड का वर्णक है, इसी प्रकार शेष कूट है। भट्टजोगाई उद्ध उच्चतणं मूले वारसजोयणाई आयाम विक्वं भेणं, मज्झे अजोपणाई आयाम-विन उवरि चत्तारि जोयणाई आयाम - विक्खंभेणं । मूले सातिरेगा सत्तत्ती जोगाई परिक्लेवेगं मझे सातिरेगाई पणवीस जोगाई परिमलेवेण उवरि सातिरेगा वारस जोयणाई परिक्खवेणं । , मझे संखिते, उपि तणुए गोपुच्छ ठाणसंठिए स जम्पूणयामए अच्छे - जाव – परुिवे । से एमए पढमरयाए एमेणं वग सम्बओ समता संपरिविते दोओ। तस्स गं कूडस्स उवरि बहुसमरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते - जाव - आसयंति । तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमि भागगस्स बहुमज्झदेसभाए एवं सिद्धायतणं कोसप्पमाणं सव्वा सिद्धायतणवत्तन्वया । (२) जम्बू सुदंसणाए पुरथिमिल्सस्स भवणस्स दाहिनेणं दाहिणपुर स्विमित्रस पासावडेंसगस्स उस णं एगे महं कूडे पण्णत्ते, तं चैव पमाणं सिद्धायतणं च । " (३) जम्बुए णं सुदंसणाए दाहिणिल्लस्स भवणस्स पुरत्यिमेणं, दाहिणपुरत्थि मिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चतिथमेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्तं तं चेव पमाणं सिद्धायतणं च । 1 सुदंसणाए दाहिणित्वस् भवणस्स पच्चत्यिमेणं दाहिणभ्यभ्यरिथमिस्स पासायवडेंसगस्स पुरत्यिमेणं- एस्य णं एगे. महं कूडे पण्णत्ते, ते चेव पमाणं सिद्धायतणं च । (५) जम्बुए गए पन्चत्थिमिल्नस्स भवगरस दाहिणं वागिपच्चत्विमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरे एरवणंएगे महं णं पण माणं सिद्धापणं च । (६) जम्बु णं सुदंसणाए पच्चत्थिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स दाहिणेण एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते, तं चैव पमाणं सिद्धायतणं च । (७) जम्बूए णं सुदंसणाए उत्तरिल्लस्स भवणस्स पच्चत्थिमेणं उत्तरपच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते, तं चैव पमाणं सिद्धायतणं च । (८) जम्बू णं सुदंसणाए उत्तरिल्लस्स भवणस्स पुरत्थिमेणं उत्तरपुरत्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते, तं चैव पमाणं तहेव सिद्धायतणं । गाहा— सोत्थिय - सिरिवच्छ..... जम्बू णं सुदंसणा अण्णेहि बहूहिं तिलएहि लउएहि - जाव - एयरुक्खेहि हिंगुरुक्खे हि - जाव - सन्वओ समता संपरिक्खित्ता । जम्बूर णं सुदंसणाए उवरि बहवे अट्टमंगलगा पण्णत्ता, तंजहा किण्हा चामरज्झया जाव-छत्तात्तिछत्ता । -जीवा प०३, ०२, सु १५२ आ० स० से प्रकाशित जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के वक्ष० ४, सूत्र ६० में जम्बू-सुदर्शन वृक्ष से पूर्वी भवन के उत्तर में एवं उत्तर-पूर्वी प्रासादावतंसक के दक्षिण में स्थितकूट के मूल की परिधि पच्चीस योजन की कही है और मध्यभाग की परिधि अठारह योजन कही है, किन्तु जीवा० प्र० ३ उ०२ सुत्र १५२ में उक्त कूट के मूल की परिधि सेंतीस योजन से कुछ अधिक की कही है और मध्यभाग की परिधि पच्चीस योजन की कही है इस प्रकार दोनों उपांगों में कूट के मूल एवं मध्य भाग की परिधि के प्रमाण में अन्तर है । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सूत्र २५१-२५५ तिर्यक लोक जम्मू सुदर्शन वृक्ष उ०- गोयमा ! जम्बुद्दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं जं चेव पुव्ववणि जमिगा-पमाणं तं चेव णेयव्वं जाव उववाओ अभिसेसो अनिरवसेसोत्ति । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६० दाहिणित्ल- सीआमुहवणस्स अट्ठाई पमागं च३३१० भंते! जंबूद्दीने दोघे महाविदेहे वाले सीआए महानईए दाहिणितले सीमामुवणे णामं वर्ग पण्णत्ते ? - अणाढि राहाणीए अवट्ठिई पमाणं च - अनाधृता राजपानी की अवस्थिति और प्रमाण -३३०. ५० - कहि णं भंते ! अणाढिअस्स देवस्स अगाढिआ णामं ३३०. प्र - हे भगवन्! अनाधृत देव की अनाधृता नाम की रायहाणी पण्णत्ता ?" राजधानी कहां कही गई है ? उ० एवं ह व उत्तरित्वं सवाणं तह चैव दाहि पि... भाणियव्वं । णवरं - णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं, सीआए महागईए दाहिने पुरस्थिम लवणसमुहस्स पश्चरिथ मेणं, वच्छस्स विजयस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दोये महाविदेहे वासे सीआए महापईए माहिणिले सीयामहवणे णामं वणे पण्णत्ते । उत्तर- दाहिणायए - तहेव सव्वं । णवरं - णिसहवासहरपव्ययंतेणं एगमेगूणवीस इभागं जोयणस्स विक्खंभेणं । किन्हे भाव मया गंधागि मुतेजाब आसयति । गणितानुयोग उ०- हे गौतम! जम्बूद्वीप में मंदर पर्वत के उत्तर में पूर्व वर्णित जमिका राजधानी के प्रमाण के समान अनावृता राजधानी का प्रमाण जानना चाहिए- यावत्-अनाधृत देव का उपपात, अभिषेक आदि का सम्पूर्ण वर्णन यहाँ कहना चाहिए। दक्षिणी शीतामुखवन की अवस्थिति और प्रमाण २२३ ३३१. हे भगवन् जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष में जीता महानदी के दक्षिण में शीता मुखवन नामक वन कहाँ कहा गया है ? उ०- पूर्वोक्त उत्तर के शीतमुख वन के समान दक्षिण के शीताख वन का भी वर्णन कहना चाहिए। विशेष - निषध वर्षधर पर्वत से उत्तर में, शीता महानदी से दक्षिण में, पूर्व लवणसमुद्र से पश्चिम में और यत्मविजय से पूर्व में जम्बुद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष में दक्षिणी शीतामुख वन नामक वन कहा गया है। यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा है-सब उसी प्रकार है । विशेष – निषेध वर्षधर पर्वत के समीप इसकी चौड़ाई एक योजन के १६ भाग में से एक भाग जितनी है । यह कृष्ण-श्याम है कृष्णावभास- श्याम जैसा है- यावत् - यह अत्यधिक गन्ध छोड़ता है— यावत्-वहाँ देवता बैठते हैं । संदेह उमओ पास रोह परमवरवेइयाहि सपरिक्खिते । इति दुण्ह वि वण्णओ । - जं० ० ४ ० २६ चाहिए। उत्तरिल्ल सीआमुहवणस्स अवट्टिई पमाणं य३३२. ५० – कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे बासे सीआए महानईए उत्तरिल्ले सीआयने नाम वर्ग पम्पले ? यह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं और दो वनखंडों से घिरा हुआ है। यहां दोनों (पद्मवर वेदिकाओं) का वर्णन कहना उत्तरी शीताख वन की अवस्थिति और प्रमाण३३२. प्र० - हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में शीता महानदी के उत्तर में शीतामुख वन नामक वन कहाँ कहा गया है ? उ०- गोयमा ! नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, सीआए महाणईए उत्तरेणं पुरत्थिम- लवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, पुक्खलावइ चक्कवट्टिविजयस्स पुरत्थि मेणं एत्थ णं सोआमुहवणे णामं वणे पण्णत्ते । उत्तर-वाहिणायए पाईण-पडीमचित्विक्शे सोलस जोयणसहस्सा पंचबाणउए जोअणसए दोग्णि असोलह हजार पांच सौ बान उ०- हे गौतम! नीलवन्त वर्षधर पर्वत से दक्षिण में, शीता महानदी से उत्तर में पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में तथा पुष्कलावती चक्रवर्ती विजय से पूर्व में शीतामुख वन नाम का वन कहा गया है । -१ प० कहि णं भंते ! अणाढियस्स-जाव- समत्ता वत्तव्वया रायहाणीए महिड़ढीए । यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा और पूर्व पश्चिम में पोड़ा है, [१६५६२] योजन तथा दो योजन - जीवा प० ३, उ० २, सु० १५२ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ लोक-प्रज्ञप्ति एगूणवीस भाए जोयणस्स आयामेणं । सीआए महाईए अंतणं दो जोयणसहस्साइं नव य बावीसे जोयणसए विक्खंभेणं । तयणंतरं च णं मायाए मायाए परिहायमाणे परिहायमाणे शीलवंतवासहरपव्ययते एवं एगूणवीसइभागं जोअणस्स विक्खंभेणंति । सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं संपरिवित्तं । वण्णओ सीआमुहवणस्स जाव-देवा आसयंति । एवं उत्तरिल्लं.... पासं समत्तं । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ जंबुद्दीये सव्यपव्ययसंता ३३३. ५० - १ - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया वासहरा पव्वया पण्णत्ता ? २ - केवइया मंदरा पव्वया पण्णत्ता ? ३- केवइया चित्तकूडा ? ४ - केवइया विचित्तकूडा ? ५ - केवइया जमगपव्वया ? तिर्यक् लोक: जम्बूद्वीप में पर्वत ६ - केवइया कंचणगपव्वया ? ७ - केवइया वक्खारा ? सेवा दीया ? E - केवइया वट्टवेयड्ढा पण्णत्ता ? उ०- १ - गोयमा ! जंबुद्दीवेदीवे छवासहर पब्वया पण्णत्ता' । - के उन्नीसवें भाग जितना लम्बा है, तथा शीता महानदी के समीष दो हजार नो सौ बावीस [ २६२२] योजन जितना चौड़ा है, तदनन्तर क्रमशः कम होता होता नीलवन्तवर्षधर पर्वत के समीप एक योजन के उन्नीसवें भाग जितना चौड़ा रह गया रुपी सिहरी एए, वासहरगिरि मुणेयव्त्रा || वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड से घिरा हुआ है, यहाँ वनखण्ड का वर्णन कहना चाहिए, वन का यावत्देवताओं के बैठने तक का वर्णन यहाँ कह लेना चाहिए, इस प्रकार उत्तर का विभाग समाप्त हुआ । जम्बूद्वीप में सभी पर्वत की संख्या २ एक मंदर पर्वत (मेरु पर्वत) महाविदेह क्षेत्र में है । ३३३. प्र० -- (१) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में द्वीप में वर्षधर पर्वत कितने कहे गये हैं ? (२) मंदर पर्वत कितने कहे गये हैं ? (३) चित्रकूट कितने कहे गये हैं ? (४) कितने कहे गये हैं ? सूत्र ३३२-३३३ (५) यमक पर्वत कितने कहे गये हैं ? (६) काञ्चनक पर्वत कितने कहे गये हैं ? (७) वक्षस्कार पर्वत किसने कहे गये हैं ? (८) दीर्घ साप पर्वत किसने कहे गये हैं? (१) वृत तातिने कहे गये हैं ? २ - एगे मंदरे पव्वए । १ जम्बूदीपप्रज्ञप्ति के इस सूत्र में वर्षधर पर्वत छह कहे गये हैं किन्तु स्थानांग ७ सूत्र ५५५ में तथा समवायांग ७ सूत्र ४ में वर्षधर पर्वत सात कहे गये हैं, इन दो विभिन्न मान्यताओं का सापेक्ष स्पष्टीकरण आवश्यक है । उ०- (१) हे गौतम | जम्बूद्वीप में छ वर्षधर पर्वत कहे गये हैं। (२) एक मंदर पर्वत । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता ने मन्दरपर्वत को वर्षधर पर्वत क्यों नहीं माना ? और स्थानांग- समवायांग के संकलनकर्ता ने मन्दर पर्वत को वर्षधर पर्वत क्यों माना ? ये प्रश्न उपेक्षणीय नहीं है । तीनों आगमों के व्याख्याकार ऊपर लिखे प्रश्नों के सम्बन्ध में सर्वथा मौन हैं, तुलनात्मक अध्ययन के लिए स्थानांग समवायांग के सूत्र क्रमशः यहाँ दिये गये हैं । (क) जम्बुये दीये सत्त वासरा पता जहा (१) चुहियते (२) महाहिमवते (३) निसडे (४) नीलवंते, - स्थानांग ७, सु० ५५५ तं , (५) रुपी (६) सिहरी (७) मंदरे । , (ख) इहेब जम्बुद्वीवे दीने मत्त बाहरा पत्ता जहा (१) (२) महामते, (३) निसडे (४) नीलवंत, - सम० ७, सु० ४ (५), (६) सिहरी, (७) मंदरे (ग) पद वर्षधराल दादहिमवदादयः छह वर्षधर पर्वतों के नाम गाहाहिमवंत महामितया निस-नीता - बृह० ० क्षेत्र० भाग १ गाथा २४ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३३-३३५ ann ३ एगे। ४ एगे विचित्तकूडे । ५ दो जमगपब्वया । ६ दो कंचणगपव्वयसया । ७ वीसं वक्खारपव्वया । तियं लोक जम्बूद्वीप में पर्वत पोलीस दोहा। चारि बट्टवेयड्ढा पण्णत्ता । एवामेव सपुयावरे जंबुद्दीचे बीचे पुष्णि अतरा पव्वयसया भवतीतिमवखायंति । - जम्बु ० वक्ख० १, सु० १२५ ८ उ०- गोयमा ! जंबुद्दीवे छ वासहरपव्वया पण्णत्ता । तं जहा १ ते २ महाहिमवंते ३ सिढे ४ नील६ सिहरी" । - जंबु० वक्ख० ६, सु० १२५ ३३५. जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासहरपब्वया पण्णत्ता, तं जहाते २ महाहिमवते ३ पिस ४ गोलवंते ५६ सिहरी ७ मंदरें । - ठाणं ७, सु० ५५५ १ , छवासहरपव्यया वर्षधर पर्वत छ हैं कहै ३३४. १० - जंबुद्दीये गं भते । दोवे केवइया वासहरपया ३३४. प्र० हे भगवन्! जम्बूद्वीप में वर्षश्वर पर्यंत किसने की पण्णत्ता ? गये हैं ? उ०- हे गौतम! जम्बूद्वीप में छ वर्षधर पर्वत कहे गये हैं, - "हो यमकपर्वती तयोरनी।" (३) एक चित्रकूट । (४) एक विचित्रकूट । (५) दो यमक पर्वत । (६) दो सौ कांचनक पर्वत । (७) बीस वक्षस्कार पर्वत । (८) पोतीस दीर्घताय । (e) चार वृत्त वैताढ्य पर्वत कहे गये हैं । तं गणितानुयोग इस प्रकार जम्बूद्वीप में पूर्व-पश्चिम के सब मिलाकर दो सौ उनहत्तर (२६६) पर्वत होते हैं— ऐसा कहा है । यथा एकाच विचित्रकूटः एतौ च यमजासकाविव द्वौगिरी देवकुरुवतिमी।" (१) (२) महाहिमवंते (३) सिहे । जम्बुमंदरस्स उत्तरेण तओ वासहरपव्वया पण्णत्ता; तं जहा (१) गीत (२) रुपी (३) सिहरी 1 १ एक २ ३ "द्वकाञ्चनकपर्वतशते देवकुरूत्तरवतिहृददशकोभयकूलयोः प्रत्येकं दशदश काञ्चनकसद्भावात् " "देवकुरु में ५ द्रह हैं और उत्तरकुरु में ५ द्रह हैं इन दस द्रहों में के प्रत्येक द्रह से पूर्व में दस योजन जाने के बाद दस-दस काञ्चनक पर्वत हैं इसी प्रकार पश्चिम में भी दस योजन जाने के बाद दस-दस काञ्चनक पर्वत हैं- ये सब दो सौ काञ्चनक पर्वत जम्बूद्वीप में हैं । " तथा विशतिर्वक्षस्कार पर्वताः, तत्र गजदन्ताकारा गन्धमादनादयश्चत्वारः, तथा चतुःप्रकारमहाविदेहे प्रत्येकं चतुष्क चतुष्कसद्भावात् षोडश चित्रकूटादयः सरलाः, द्वयेऽपि मिलिता यथोक्त सङख्याकाः ।" २२५ (१) क्षुद्रहिमवान् (२) महाहिमवान् (३) निषध, (४) नीलवंत (2) रुममी (६) शिखरी बीस वक्षस्कार पर्वत महाविदेह में हैं। आठ पूर्व महाविदेह में आठ पश्चिममहाविदेह में और चार गजदन्ताकार पर्यंत, ये बीस वक्षस्कार पर्वत है। "चतुस्त्रिहीतायाः द्वात्रिंशद्विजपेषु भरत रायतयोश्च प्रत्येकमेकं कमाया।" ६ चत्वारो वृत्तवैताद्या: हैमवतादिषु चतुर्षु वर्षेषु एकैकभावात् । " - जंबू० वृत्ति० ७ जम्बुमंदररस दाहिने तभी बाहरव्या जा ३३५. जम्बूद्वीप द्वीप में सात वर्षधर पर्वत कहे गये हैं, यथा(१) क्षुद्र हिमवान् (२) महाहिमवान्, (३) निषध, (४) नीलवंत (५) रुक्मी, (६) शिखरी, (७) मंदर । - ठाणं ३, उ० ४, सु० १६६ सत्त वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं जहा (१) चुल्ल हिमवंत, (२) महाहिमवंते, (३) निसढे, (४) नीलवंते, (५) रुप्पी, (६) सिहरी, (७) मंदरे । - सम० ७, सु० ४ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : जम्बूद्वीप में पर्वत सूत्र ३३६ (१) चुल्लहिमवंत वासहरपव्वयस्स अवट्ठिई पमाणं च- (१) क्ष द्रहिमवान् वर्षधरपर्वत की अवस्थिति और प्रमाण ३३६. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंते णामं ३३६. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में क्षुद्रहिमवान् नाम का वासहरपब्वए' पण्णत्ते ? वर्षधरपर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! हेमवयस्स वासस्स दाहिणेणं, भरहस्स उ०-हे गौतम ! हैमवत क्षेत्र के दक्षिण में, भरत क्षेत्र के वासस्स उत्तरेणं, पुरथिम-लवणससुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र के पच्चत्थिम-लवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं । एत्थ णं जंबुद्दीवे पूर्व में जम्बूद्वीप द्वीप में क्षुद्रहिमवान् नाम का वर्षधर पर्वत कहा दीवे चुल्लहिमवंते णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते । गया है। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिणवित्थिण्णे । यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा है, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। दुहा लवणसमुद्दे पुढे दोनों ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है । पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्दपुढे । पूर्वी कोण से पूर्वी लवणसमुद्र स्पृष्ट है । पच्चत्थिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुद्द पश्चिमी कोण से पश्चिमी लवणसमुद्र स्पृष्ट है । एग जोयणसयं उद्धं उच्चत्तेणं, पणवीसं जोयणाई यह एक सौ योजन ऊँचा है, पच्चीस योजन भूमि में गहरा उब्वेहेणं । एग जोयणसहस्सं बावण्णं च जोयणाई दुवालस य एक हजार बावन योजन और बारह योजन के उन्नीसवें भाग एगणवीसइभागे जोअणस्स विक्खंभेणं ति। जितना चौड़ा है। तस्स बाहा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं पंच जोयणसहस्साइं उसको बाहु पूर्व तथा पश्चिम में पाँच हजार तीन सौ पचास तिण्णि अ पग्णासे जोयणसए पण्णरस य एगूणवीसइ योजन और पन्द्रह योजन के उन्नीसमें भाग एवं एक योजन के दो भाए जोयस्स अद्धभागं च आयामेणं । भाग जितनी लम्बी है। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडिणायया-जाव-पच्चत्थि- उसकी जीवा उत्तर में है-पूर्व तथा पश्चिम में लम्बी है मिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्ल लवणसमुद्दे पुट्ठा। -यावत्-पश्चिमी कोण से पश्चिमी लवणसमुद्र से पशित है, चउव्वीस जोयणसहस्साई णव य बत्तीसे जोयणसए चौबीस हजार नौ सौ बत्तीस योजन तथा एक योजन के दो भाग अद्धभागं च किंचि विसेसूणा आयामेणं पण्णत्ता' से कुछ कम लम्बी कही गई है। तोसे धणुप? दाहिणणं पणवीसं जोयणसहस्साई दोष्णि उसका धनुपृष्ठ दक्षिण में है, उसकी परिधि पच्चीस हजार अ तीसे जोयणसए चत्तारि अ एगूणवीसइभाए जोय. दो सौ तीस योजन तथा चार योजन के उन्नीसवें भाग जितनी णस्स परिक्खे वेणं पणत्ते। कही गई है। रुअगसंठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे साहे-जाव. यह रुचक (एक आभूषण विशेष) के आकार से स्थित है, पडिलवे। सारा पर्वत स्वर्ण मय है, स्वच्छ है लक्ष्ण=चिकना है-यावत्प्रतिरूप है। १ वर्षे-उभयपालस्थिते द्वे क्षेत्र धरतीति वर्षधरः क्षेत्रद्वयसीमाकारी गिरित्यर्थः । -जम्बू• वृत्ति २ सब्वे वि णं चुल्ल हिमवंत-सिहरि वासहर पब्वया एगमेगं जोयणसयं उड्ढे उच्चत्तेणं, एगमेयं गाउसयं उब्बेहेणं पण्णत्ता। –सम० १०० सु०६ ३ चुल्लहिमवंत-सिहरीणं वासहरपब्बयाणं जीवाओ चउब्बीसं चउब्बीसं जोयणसहस्साई गवय बत्तीसे जोयणसए अट्टतीसइभार्ग जोयणस्स किंचि विसेसाहिआओ आयामेणं पण्णता । -सम० २४, सु०२ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३६-३३८ तिर्यक् लोक : जम्बूद्वीप में पर्वत गणितानुयोग २२७ उभओ पासि दोहिं पउमवरवेइआहि दोहि य वण- यह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं से तथा दो वनखण्डों से संडेहि संपरिक्खित्ते । दुण्हवि पमाण' वण्णगो ति। घिरा हुआ है, यहाँ दोनों पद्मवरवेदिकाओं तथा दोनों वनखण्डों का प्रमाण और वर्गन कहना चाहिए। चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उरि बहुसमरम- क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर अतिसम रमणीय भूभाग णिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते । से जहाणामए आलिंगपुक्ख- कहा गया है, वह भूभाग चर्म से मंढे हुए मृदंग के तल जैसा सम रेइ वा-जाव-बहवे........वाणमंतरा देवा य देवीओ है-यावत्-वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव-देवियाँ बैठते हैं-यावत् य आसयंति-जाव-विहरति । -विचरते हैं.... -जंबु० वक्ख० ४, सु०७२ चुल्ल हिमवंत वासहरपव्वयस्स णामहेऊ क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु३३७. ५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"चुल्लहिमवंते ३३७. प्र०-हे भगवन् ! क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत, क्षुद्र हिम वासहरपव्वए, चुल्लहिमवंते वासहरपवए? वान् वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? उ.-गोयमा ! चुल्लहिमवंतेणं वासहरपब्वए महाहिमवंत- उ०-हे गौतम ! क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत महाहिमवान् वासहर पव्वयं पणिहाय आयामुच्चत्तवेह-विक्खंभ- वर्षधर पर्वत की अपेक्षा लम्बाई-ऊँचाई, भूमि में गहराई चौड़ाई परिवखेवं पडुच्च ईसि खुड्डतराए चेव, हस्सतराए और परिधि में कुछ कम है, लघु है, नीचा है। चेव, णीअतराए चेव। चल्लहिमवते अ इत्थ देवे महिड्ढीए-जाव-पलिओव- क्षुद्र हिमवान् नाम का पल्योपम की स्थिति वाला महद्धिक मट्टिइए....परिवसइ। देव-यावत्-वहाँ रहता है । से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"चुल्लहिमवते हे गौतम ! इस कारण से क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत क्षुद्र वासहरपब्वए, चुल्लहिमवंते वासहरपध्वए । हिमवान् वर्षधर पर्वत कहा जाता है। अदत्तरं च णं गोयमा ! चुल्लहिमवंतस्स सासए णाम- अथवा हे गौतम ! क्षुद्र हिमवान् यह नाम शास्वत कहा धज्जे पण्णत्ते । ज न कयाइ, णासि-जाव-णिच्चे। गया है, जो कभी नहीं था-ऐसा नहीं है-यावत् -नित्य है.... -जंबु० वक्ख० ४, सु० ७५ (२) महाहिमवंत वासहरपब्वयस्स अवट्टिई पमाणं च- (२) महाहिमवान वर्षधर पर्वत की अवस्थिति और प्रमाणकहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाहिमवते णामं वास- ३३८. प्र०—हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में महाहिमवान् नाम का हरपब्वए पण्णते? वर्षधर पर्वत कहाँ कहा गया है ? .. उ०-गोयमा ! हरिवासस्स दाहिणणं, हेमवयस्म वासस्स उ०- हे गौतम ! हरिवर्ष से दक्षिण में, हैमवत क्षेत्र से उत्तर उत्तरेणं, पुरथिम-लवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, पच्च- में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में स्थिम-लवणसमुहस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ ....जंबुद्दीवे जम्बूद्वीप द्वीप में महाहिमवान् नाम का वर्षधर पर्वत कहा दीवे महाहिमवंते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते। गया है। पाईण-पडिणायए, उदीण-दाहिणवित्थिण्णे। पलिअंक- यह पूर्व तथा पश्चिम में लम्बा है, उत्तर तथा दक्षिण में संठाणसंठिए विस्तृत है, पल्यंक के आकार से स्थित है। दुहा लवणसमुद्दे पुढे । दोनों ओर लवणसमुद्र से स्पशित है। १ जम्बट्टीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणणं दो वासहरपब्वया बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, तं जहा-(२) चल्लहिमवते चेव, (२) मिहरी चेव । एवं (१) महाहिमवंते चेत्र, (२) रुप्पि चैव। . एवं (१) निसढे चेव, (२) नीलवंते चैव । -ठाणं २, उ०३, सु० ८७ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : जम्बूद्वीप में पर्वत सूत्र ३३८ पूर्वी कोण से पूर्वी लवणसमुद्र स्पशित है । पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्द पुढे । पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसम पश्चिमी कोण से पश्चिमी लवणसमुद्र स्पशित है। दो जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, पण्णासं जोयणाई यह दो सौ योजन ऊँचा है, पचास योजन भूमि में गहरा है, उबहेणं',... चत्तारि जोयणसहस्साई दोणि अ चार हजार दो सौ दस योजन तथा दस योजन के उन्नीसवें भाग वसुत्तरे जोय गसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स जितना चौड़ा है। विखंभेणं । तस्स बाहा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं, णव जोयणसहस्साइं उसकी बाहु पूर्व तथा पश्चिम में नो हजार दो सौ छिहतर दोण्णि अ छावत्तरे जोयणसए णव य एगणविसइमाए योजन तथा नौ योजन के उन्नीसवें भाग एवं एक योजन के दो जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं । भाग जितनी लम्बी है। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया । उसकी जीवा उत्तर में है, पूर्व तथा पश्चिम में लम्बी है। दुहा लवणसमुद्दपुट्ठा। दोनों ओर लवणसमुद्र से स्पर्शित है । पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्दपुट्ठा।। पूर्वी कोण से पूर्वी लवणसमुद्र स्पर्शित है । पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्लं लवणसमुद्द पश्चिमी कोण से पश्चिमी लवणसमुद्र स्पशित है। पुट्ठा। तेवणं जोयणसहस्साई णव य एगतीसे जोयणसए छच्च ओपन हजार नो सौ इकतीस योजन तथा छ योजन के एगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचि विसेसाहिए उन्नीसवें भाग से कुछ अधिक लम्बी है। आयामेणं । तस्स धणु दाहिणेणं सत्तावण्णं जोयणसहस्साई दोणि उसका धनुपृष्ठ दक्षिण में है, उसकी परिधि सत्तावन हजार अ तेणउए जोयणसए दस य एगूणवीसहभागे जोयणस्स दो सौ तिरानवें योजन तथा दस योजन के उन्नीसवें भाग परिक्खेवेणं । जितनी है। रुअगसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे-जाव-पडिरूवे। वह रुचक (एक आभूषण विशेष) के आकार से स्थित है, सारा पर्वत रत्नमय है स्वच्छ है-यावत्-प्रतिरूप है। उभओ पासि दोहि पउमवरवेइयाहिं, दोहि अ वण- वह दोनों ओर दो पद्मवरवैदिकाओं तथा दो वनखण्डों से संहिं संपरिक्खित्ते। घिरा हुआ है। महाहिमवंतस्स णं वासहरपब्वयस्स उप्पि बहुसमर- महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के ऊपर अतिसम रमणीय भूभाग मणिज्जे भूमिभागे पण्णते, जाव-णाणाविह पंचवणेहिं कहा गया है-यावत्-नाना प्रकार की पाँच वर्ण की मणियों से मणोहि तिणेहि य उवसोभिए-जाव-आसयंति सयंति य। तृणों से सुशोभित है-यावत्-अनेक वाणव्यन्तर देव-देवियाँ -जंबु० वक्ख० ४, सु० ७६ -यावत्- वहां पर बैठते हैं; सोते हैं.... १ सम्वेविणं महाहिमवंत-रुप्पीवासहर पन्वया दो-दो जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता, दो-दो गाउयसयाई उव्वेहेणं पण्णत्ता। -सम० १०२, सु०२ २ महाहिमवंत-स्पीणं वासहर पव्वयाणं जीवाओ तेवण्ण तेवण्णं जोयणसहस्साई नव य एक्कतीसे जोयणसए छच्च एकणविसइ भाए जोयणस्स आयामेणं पण्णत्ताओ। -सम० ५३, सु०२ ३ महाहिमवन्त-रुप्पीणं वासहरपब्वयाणं जीवाणं धणु पट्टा सत्तावष्णं सत्तावणं जोयणसहस्साई दोण्णि अ तेणउए जोयणसए दस य एकूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ता। -सम० ५७, सु०५ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३३६-३४० तिर्यक् लोक : जंबूद्वीप में पर्वत महाहिमवंतवासहरपव्वयस्स णामहेक ३३६. ५० हिमवतं -से केणटुणं भंते! एवं वुच्चइ - "महाहिमवंते वासहरपवाए महाहिमवते बाहरपए ?" उ०- गोषणा | महाहिमवंतेगं वासहरपरबए वासहयस्वयं पणिहाय आयामुच्चतुयेविषभ परिक्खेवेणं महंततराए चेव, दीहतराए चेव । महाहिमवते इस्य देवे महिना-यमिट्टिए परिवसइ ।" - जंबु० वक्ख० ४, सु० ८१ (३) जिसहवासहर पण्ययस्स अट्ठाई पमाणं च३४०० ते जंबूचे दीवे सिहे गामं वासहर पव्वए पष्णते ? उ०- गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स वि हरिवारस उसरेण पुरत्थिम- लवणसमुद्रस पस्चरिथमेनं पच्च स्विम लवणसमुदसपुरस्थिमेणं एत्य णं जंबुद्दीये दीये जिस णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते । पाण-पडीणापए, उरीणाहित्यि हा लवणसमुद्द े । पुरत्थि मिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्द पुट्ठ े । मिलाएकोडीए पम्चरिमितं लवणसमुद्र पुट्ट चत्तारि जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउअसयाई उब्बेणं' सोलसनोपणसहस्साई अटु य बावाले जोपणसए दोणि अ एगुणबी सहभाए जोवनरस विक्खंभेणं । तस्स बाहा पुरत्थिम-पच्चत्थिमेणं वीसं जोअणसहस्साइं एवं च पणस जोअणसयं दुण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स अनुभागं च आयामेगं । महाहिमवान् वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु३३६० ! वर्षधर पर्वत क्यों कहा जाता है ? गणितानुयोग महाहिमवान् वधर पर्वत महाहिमवान् उ०- हे गौतम! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत क्षुद्र हिमवान् वधर पर्वत की अपेक्षा लम्बाई ऊँचाई भूमि में गहराई चौड़ाई परिधि में बड़ा है, लम्बा है । २२६ महाहिमवान् नाम का पल्योपम की स्थिति वाला महद्धिक देव - यावत्-वहाँ रहता है । (३) निषध वर्षधर पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण ! ३४० प्र०-हे भगवन् जम्बूद्वीप द्वीप में निषेध नाम का वर्ष धर पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०- हे गौतम! महाविदेह क्षेत्र से दक्षिण में हरिवर्ष क्षेत्र से उत्तर में पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में पश्चिमी समुद्र से पूर्व में जम्बूद्वीप द्वीप में निषध नाम का वरप गया है । यह पूर्व तथा पश्चिम में लम्बा है, उत्तर तथा दक्षिण में विस्तृत है। दोनों ओर से लवणसमुद्र से स्पर्शित हैं । पूर्वी कोण से पूर्वी लवणसमुद्रस्पति है। पश्चिमी कोण से पश्चिमी लवणसमुद्र स्पर्शित है । यह चार सौ योजन ऊँचा है, चार सौ गाउ भूमि में गहरा है, सोलह हजार आठ सौ वियालीस योजन तथा दो योजन के उन्नीसवें भाग जितना चौड़ा है। १ से एएमटणं गोदमा ! एवं वृथ्चइ "महाहिमवते बासहरपण्यए महाहिमवंते वासहरपल्यए । अदुत्तरं व गोमा ? महाहिमवतस्स सासए नामधेये कमाइ नासि नाव - जिये । उसकी बाहु पूर्व तथा पश्चिम में बीस हजार एक सौ पैसठ योजन तथा दो योजन के उन्नीसवें भाग एवं एक योजन के दो भाग जितनी लम्बी है । 1 ये वो सूत्र पाठ आ० स० की प्रति में नहीं है। २ (क) सव्वे विणं णिसढणीलवंता वासहरपब्वया चत्तारि जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउयसयाई उन्हेणं पण्णत्ता । - ठाणं ४, उ०२, सु० २६६ (ख) सवे विणं सिन्गीता वासहरयम्यया बतारिन्बतारि जोयणसता उ उम्बलेगं चत्तारि यसरि गाउपा उन्हे पण्णत्ता | - सम० १०६, सु० २ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : जंबूद्वीप में पर्वत सूत्र ३४०-३४२ तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया जाव-पच्चत्थि- उसकी जीवा उत्तर में है, पूर्व तथा पश्चिम में लम्बी-- मिल्ल लवणसमुद्दपुट्ठा, चउणवई जोअणसहस्साई एगं यावत्-पश्चिमी लवणसमुद्र से स्पर्शित है, चौरानवें हजार एक च छप्पण्णं जोअणसयं दुण्णि अ एगूणवीसइभाए सौ छप्पन योजन तथा दो योजन के उन्नीसवें भाग जितनी जोयणस्स आयामेणं' ति।। लम्बी है। तस्स घणु दाहिणणं एगं जोयणसयसहस्सं चउवीसं च उसका धनुपृष्ठ दक्षिण में है, उसकी परिधि एक लाख जोअणसहस्साई तिण्णि अ जोयणसए छायाले णव य चौबीस हजार तीन सौ छियालीस योजन तथा एक योजन के एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं ति। उन्नीसवें भाग जितनी है। रुअगसंठाणसंठिए सव्वतवणिज्जमए अच्छे-जाव- रुचक (एक आभूषण विशेष) के आकार से स्थित है. सारा पडिरूवे। पर्वत तपाये हुए स्वर्णमय है, स्वच्छ है-यावत्-प्रतिरूप है। उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइआहिं दोहि अवणसंडेहिं दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं से तथा दो वनखण्डों से सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । सारा घिरा हुआ है। णिसहस्स णं वासहरपव्ययस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे निषध वर्षधर पर्वत के ऊपर अतिसमरमणीय भूभाग कहा भूमिमागे पण्णत्ते, जाव-आसयंति, सयंति । गया है-यावत-वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव-देवियाँ बैठते हैं। -जम्बु० वक्ख० ४, सु० ८३ शयन करते हैं। णिसढवासहरपव्वयस्स णामहेऊ निषध वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु३४१. १०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"णिसढे वासहरपब्वए, ३४१. प्र०-हे भगवन् ! निषध वर्षधर पर्वत, निषध वर्षधर णिसढे वासहरपव्वए"? पर्वत क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! णिसहे णं पव्वए बहवे कूडा णि सहसंठाण- उ०-हे गौतम ! निषध पर्वत पर निषध-वृषभ आकार के संठिया, (उसभसंठाणसंठिया)। अनेक कूट है। णिसहे अ इत्थ देवे महिड्ढीए-जाव-पलिओवमट्ठिईए निषध नाम का पल्योपम की स्थिति वाला महद्धिक देवपरिवसइ। यावत्-वहाँ रहता है। से तेणट्रण गोयमा ! एवं बुच्चइ-"णि सढे वासहर- हे गौतम ! इस कारण से निषध वर्षधर पर्वत-निषध वर्षधर पव्वए, जिसढे वासहरपव्वए।' पर्वत कहा जाता है। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ (४) णीलवंतवासहरपव्वयस्स अवठिई पमाणं च- (४) नीलवन्त वर्षधर पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण३४२. ५०-कहिणं भते ! जबुद्दीवे दीवे णीलवंते णामं वासहर- ३४२. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में नीलवन्त नाम का पवए पण्णते ? वर्षधर पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! महाविदेहस्स वासस्स उत्तरेणं, रम्मगवासस्स उ०-हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र से उत्तर में, रम्यक् क्षेत्र दक्खिणेणं, पुरत्थिम-लवणसमुद्दस्स पच्चत्यिमेणं, से दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र पच्चत्थिम-लवणसमुद्दस्स पुरथिमेणं-एत्थ णं जंबुद्दीवे से पूर्व में-इस जम्बूद्वीप द्वीप में नीलवन्त नाम का वर्षधर पर्वत दोवे णीलवते णामं वासहरपव्वए पण्णत्ते । कहा गया है। १ णिसढ़-नीलवंतियाओ णं जीवाओ चउणवई चउणवई जोयणसहस्साई एक्कं छप्पण्णं जोअणसयं दोण्णि अ एकूणवीसइभागे जोयणस्स . आयामेणं पण्णत्ताओ। -सम० ६४, सु०१ २ "नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा समारोपितं भारमिति निषधो-वृषभः" -जम्बू० वृत्ति ३ अदुत्तरं च गं गोयमा ! णिमहस्म सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं न कयाइ णासि-जाव-णिच्चे। यह पाठ आ० स० को प्रति में नहीं है । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र ३४२-३४५ तिर्यक् लोक : जंबूद्वीप में पर्वत गणितानुयोग २३१ पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिण वित्थिण्णे । यह पूर्व तथा पश्चिम में लम्बा है, उत्तर तथा दक्षिण में विस्तृत हैं। णिसहवत्तव्वया णीलवंतस्ह भाणियब्वा,' णवरं जीवा निषध वर्षधर पर्वत के कथन के समान नीलवन्त वर्षधर दाहिणेणं, धणु उत्तरेणं । पर्वत का कथन करना चाहिए, विशेष यह है कि नीलवन्त वर्षधर , -जंबु० बक्ख० ४, सु० ११० पर्वत की जीवा दक्षिण में है और धनुपृष्ठ उत्तर में है । णीलवंतवासहरपव्वयस्स णामहेऊ नीलवन्त वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु३४३. ५०-से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ-"णोलवते वासहर- ३४३. प्र.-हे भगवन् ! नीलवन्त वर्षधर पर्वत क्यों कहा पवए, णीलवंते वासहरपव्वए ? जाता है ? उ०-गोयमा ! णीले णीलोभासे गोलवते अ इत्थ देवे महि- उ०-हे गौतम ! नीले वर्ण वाला, नीले प्रकाश वाला ड्ढीए-जाव-पलिओवमट्ठिईए परिवसइ । नीलवन्त नाम का पल्योपम स्थिति वाला महद्धिक देव-यावत् वहाँ रहता है। सव्व वेरुलिआमए णीलवंते-जाव-णिच्चे, ति । सारा पर्वत वैडूर्य रत्तमय है, नीलवन्त नाम-यावत् - -जम्बु० वक्ख०४, सु० ११० नित्य है । (५) रुप्पो वासहरपव्वयस्स अवट्टिई पमाणं च- (५) रुक्मी वर्षधर पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण३४४. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे रुप्पी णामं वासहरपव्वए ३४४. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में रुक्मी नाम का वर्षधर पण्णत्ते। पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-हे गौतम ! रम्यक् क्षेत्र से उत्तर में, हैरण्यवय क्षेत्र से दक्खिणेणं, पुरस्थिम-लवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में, पश्चिमी लवणसमुद्र से पच्चत्थिम लवणसमुदस्स पुरथिमेणं- एत्थ णं जंबुद्दीवे पूर्व में इस जम्बूद्वीप द्वीप में रुक्मी नाम का वर्षधर पर्वत कहा दोवे रुप्पी णाम वासहरपव्वए पण्णत्ते । गया है। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिणवित्थिणे । यह पूर्व तथा पश्चिम में लम्बा है, उत्तर तथा दक्षिण में विस्तृत है। एवं जा चेव महाहिमवंत-वत्तव्वया सा चेव रुप्पिस्स महाहिमवान् वर्षधर पर्वत का जो कथन है बही रक्मी वर्षवि। धर पर्वत का है। णवरं-दाहिणणं जीवा, उत्तरेणं धणु, अवसेसं तं विशेष यह है कि इसकी जीवा दक्षिण में है और धनपृष्ठ चेव। -जंबु० वक्ख० ४, सु० १५१ उत्तर में है, शेष सब उसी प्रकार है। रुप्पी वासहरपब्वयस्स णामहेऊ रुक्मी वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु३४५. ५०-से केज8 गं भंते ! एवं बुच्चइ-"रुप्पी वासहरपव्वए, ३४५. प्र०-हे भगवन् ! रुक्मी वर्षधर पर्वत रुक्मी वर्षधर पर्वत रुप्पी वासहरपन्वए ?" क्यों कहा जाता है ? १ (क) ठाणं ४, उ० २, सु० २६६ निषध पर्वत के टिप्पण के समान ये टिप्पण है। (ख) सम० १०६, सु०२ (ग) सम० ६४, सु० १। । १२ (क) सम० १०२, सु०२। महाहिमवंत पर्वत के टिप्पण के समान ये टिप्पण हैं । (ख) सम० ५३, सु०२। (ग) सम० ५७, सु०५। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ लोक-प्रज्ञप्ति उ०- गोयमा ! रुप्पी णाम वासहरपव्वए रुप्पी, रुप्पप्पभे, रुपमासे, सव्वरुप्पामए । ३ रुपी अ इत्थ देवे महिड्ढीए-जाव- पलिओवमट्ठिईए परिवसइ । से एएग णं गोषमा ! एवं बुवइ "रुप्पी' वासहर पव्वए, रूप्पी वासहरपवए । - जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ (६) सिहरी वासहरपव्वयस्स अवट्ठिई पमाणं च२४६. १० ते जंबूदरी सिहरी गामं बासहरपव्वए पण्णत्ते ? तिर्यक लोक द्वीप में पर्वत - सिहरी वासहरपथ्ययस्स णामहेऊ३४७. ५० से उ०- गोयमा ! हेरण्णवयस्स उत्तरेणं, एरावयस्स दाहिणेणं, पुरस्थिम लवणसमुदस्स पश्चत्थिमेणं पञ्चत्थिम-लवणसमुद्दस पुरत्थिमेणं । ; एवं जह चुल्लहिमगंतो तह चेव सिहरी वि, णवरं - जीवा दाहिणेणं, धणु उत्तरेणं, अवसिट्ठ तं चेव । - जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ भंते! एवं बुम्ब-"सिहरिवासहरपण्यए सिरिवा सहरपव्वए ? उ०- गोयमा सिरिम वासहरपच्चए महये कूडा सिहर संडासंठिया, सम्वरणामा । सिहरी अ इत्थ देवे महिड्ढीए - जाव-प -पलिओ मट्ठिईए परिवसइ । सेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - "सिहरिवासहरपव्वए, सिहरिवासहर पन्थए । - जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ उ०- हे गौतम ! रुक्मी नाम का वर्षधर पर्वत रुप्य रुप्यप्रभ प्रकाशित एवं सम्पूर्ण पर्वत रुप्यमय है । रुक्मी नाम का पल्योपम स्थिति वाला महद्धिक देव - यावत् - वहाँ रहता है। - हे गौतम ! इस कारण से रुक्मी वर्षधर पर्वत, रुक्मी वर्षधर पर्वत कहा जाता है । सूत्र ३४५-३४७. (६) शिखरी वर्षधर पर्वत का अवस्थिति और प्रमाण२४६. प्र०-हे भगवन्! जम्बूद्वीप द्वीप में शिबरी नाम का वर्ष पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०- हे गौतम ! हैरण्यवत क्षेत्र से उत्तर में ऐरवत क्षेत्र से दक्षिण में पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में पश्चिमी लवणसमुद्र से पूर्व में..... क्षुद्रहिमवान् वर्षधर पर्वत का जो कथन है वैसा ही शिखरी वर्षधर पर्वत का है, विशेष यह है कि इसकी जोवा दक्षिण में है। और धनुपृष्ठ उत्तर में है, शेष सब उसी प्रकार है । शिखरी वर्षधर पर्वत के नाम का हेतु २४७. ५० हे भगवन्! शिखरी वर्षधर पर्वत शिखरी वर पर्वत क्यों कहा जाता है ? उ०- हे गौतम! शिखरी वर्षधर पर्वत पर शिखरी नामक वृक्ष के आकार से स्थित अनेक कूट हैं, वे सब रत्नमय है । शिखरी नाम का पल्योपम की स्थिति वाला महद्धिक देवयावत्-वहाँ रहता है। १ अदुत्तरं च णं गोयमा ! रुप्पी वासह पव्वयस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ णासि - जाव - णिच्चे । यह पाठ आ० स० की प्रति में नहीं है। हे गौतम ! इस कारण से शिखरी वर्षधर पर्वत शिखरी वर्षधर पर्वत कहा जाता है । (क) सम० १०० सु० ६ । चुल्लहिमवान् पर्वत के टिप्पण के समान ये टिप्पण है। (ख) सम० २४ सु० २ । ....शिखरिणि पर्यो बहूनि कूटानि शिखरी वृक्षस्तत्संस्थान संस्थितानि सर्वरत्नमयानि सन्तीति तद्योगाखिरी ..... - जम्बू ० वृत्ति ४ अदुत्तरं च णं गोयमा ! सिहरि वासहरपव्वयस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते, जं ण कयाइ णासि – जाव - णिच्चे । यह पाठ आ० स० की प्रति में नहीं है । 0 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३४८ तिर्यक् लोक : मंबर पर्वत गणितानुयोग २३३ . . . एगे मंदरे पव्वए मंदर पर्वत एक हैमंदरपव्वयस्स अवट्रिई पमाणं च मंदर पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण३४८. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे मंदरे ३४८. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में णामं पब्बए पण्णत्ते ? मन्दर नाम का पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! उत्तरकुराए दक्खिणेणं, देवकुराए उत्तरेणं, उ०-हे गौतम ! उत्तरकुरु से दक्षिण में देवकुरु से उत्तर पुव्वविदेहस्स वासस्स पच्चत्थिमेणं, अवरविदेहस्स में पूर्व महाविदेह क्षेत्र से पश्चिम में, पश्चिम महाविदेह क्षेत्र से वासस्स पुरथिमेणं, जंबुद्दीवस्स बहुमज्झदेसभाए- पूर्व में जम्बूद्वीप के ठीक मध्यभाग में मन्दर नाम का पर्वत कहा एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरे णाम पव्वए पण्णत्ते। गया है । णवणउति जोयणसहस्साई उद्धं उच्चत्तेणं', एगं जोयण- यह निन्यानवे हजार योजन ऊंचा है, एक हजार योजन भूमि सहस्सं उव्वेहेणं ।। में गहरा है। मूले दसजोयणसहस्साई णवई च जोयणाई दस य मूल में इसकी चौड़ाई दस हजार और नव्वे योजन तथा एगारसभाए जोयणस्स विक्खंभेणं । दस योजन के इग्यारवें भाग जितनी है । धरणितले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं ।। भूतल पर इसकी चौड़ाई दस हजार योजन जितनी है । तयणंतरं च णं मायाए मायाए परिहायमाणे परिहाय- तदनन्तर थोड़ा-थोड़ा कम होते-होते ऊपर के तल की चौड़ाई माणे उवरितले एगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं । एक हजार योजन जितनी है । मूले एक्कतीसं जोयणसहस्साई णव य दसुत्तरे जोयण- मूल में इसकी परिधि इकतीस हजार नो सौ दस योजन और सए तिणि अ एगारसभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं । तीन योजन के इग्यारवें भाग जितनी है। धरणितले एक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे भूतल पर इसकी परिधि इगतीस हजार छ सौ तेवीस योजन जोयणसए परिक्खेवेणं ।। की है। उवरितले तिणि जोयणसहस्साई एगं च बावट्ठ ऊपर के तल की परिधि तीन हजार एक सौ बासठ योजन जोयणस किचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं। से कुछ अधिक की है। मले वित्थिणे, मज्झे संखित्ते, उरि तणुए गोपुच्छ- यह मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर पतला, गो-पुच्छ संठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे सण्हे-जाव-पडिहवे। के आकार का सारा पर्वत रत्नमय स्वच्छ, चिकना-यावत प्रतिरूप है। १ मंदरे णं पव्वए णवणउति जोयणसहस्साई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ते । --सम० ६६, सु०१ २ जम्बुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए दसजोयणसयाई उब्वेहेणं, पण्णत्ते । -ठाणं १०, सु०७१६ ३ मंदरे णं पव्वए मूले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते । --सम० १०, सु०३ ४ (क) धरणितले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं । -ठाणं १० सु०७१६ (ख) मंदरे णं पव्वए धरणितले दस जोयणसहस्साई विक्खभेणं पण्णत्ते । -सम० १२३ ५ (क) उवरि दसजोयणसयाई विक्खंभेणं । -ठाणं १०, सु०७१६ (ख) मंदरे णं पव्वए धरणितलाओ सिहरतले एक्कारसभागपरिहीणे उच्चत्तेणं पण्णत्ते । -सम० ११, सु०७ भावार्थ-मेरु पर्वत की ऊँचाई भूतल से शिखर पर्यन्त निन्यानवे हजार योजन की है इस ऊँचाई के इग्यारवें भाग हीन शिखर का विष्कम्भ है, अर्थात-भूतल पर मेरु पर्वत का विष्कम्भ दस हजार योजन का है और शिखर पर एक हजार योजन का है। ६ मंदरे णं पध्वए धरणितले एक्कतीसं जोयणतहस्साइं छच्च ते वीसे जोयणसए किंचिदेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते । -सम० ३१, सु०२ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक लोक : मंदर पर्वत सूत्र ३४८-३५० से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवओ यह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड से चारों ओर से समंता संपरिक्खित्ते, वण्णओ ति। घिरा हुआ है, यहाँ पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड का बर्णन कहना -जंबु० वक्ख० ४, सु० १०३ चाहिए ।.... मंदरचूलिआए पमाणं मंदरचूलिका का प्रमाण३४६. पंडगवणस्स बहुमज्झदेसभाए-एत्थ गं मंदरचूलिआ णामं ३४४. पंडक वन के मध्य में मंदरचूलिका नाम की चूलिका कहीं चूलिआ पण्णत्ता। चत्तालीसं जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं ।' यह चालीस योजन की ऊँची है। मूले बारसजोयणाई विक्खंभेणं, मज्झे अट्ठजोयणाई . मूल में बारह योजन चौड़ी है, मध्य में आठ योजन चौड़ी है, .... विक्खंभेणं', उप्पि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं ।। ऊपर चार योजन चौड़ी है। मूले साइरेगाइं सत्ततीसं जोयणाई परिक्खेवणं, मूल में इसकी परिधि सेंतीस योजन से कुछ अधिक की है। ...: मज्झे साइरेगाइं पणवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं, मध्य में इसकी परिधि पच्चीस योजन से कुछ अधिक की है। उपि साइरेगाइं बारसजोयणाई परिक्खेवेणं। ऊपर इसकी परिधि बारह योजन से कुछ अधिक की है। मूले वित्थिण्णा, मझे संखित्ता, उप्पि तणुआ, गोपुच्छ- मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर से पतली, गो-पुच्छ संठाणसंठिआ, सव्ववेरुलिआमई, अच्छा-जाव-पडिरूवा। के आकार की सारी चूलिका वैडूर्य रत्नमय, स्वच्छ-यावत् प्रतिरूप है। साणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से समंता संपरिक्खित्ता, इति । घिरी हुई है। .. उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे-जाव-सिद्धाययणं । चूलिका के ऊपर बहुतसम रमणीय भूभाग पर-यावत् .. सिद्धायतन है। . बहुमज्झदेसभाए कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, वह मध्यभाग में एक कोश लम्बा, आधा कोश चौड़ा कुछ देसूणगं कोसं उड्ढं उच्चत्तणं, अणेगखंभसयसन्निविट्ठा,-जाव- कम एक कोश ऊँचा है, सैकड़ों स्तम्भों से सन्निविष्ट-यावत्धूवकडुच्छुगा । -जंबु० वक्ख० ४, सु० १०६ धूपदानियों से युक्त है........ मंदरपव्वयस्स तओ कंडा मेरु पर्वत के तीन काण्ड३५०.५०-मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स कइ कंडा पण्णता? ३५०. प्र०-हे भगवन् ! मंदर पर्वत के कितने काण्ड कहे गये हैं ? : उ०--गोयमा! तओ कंडा पण्णत्ता, तं जहा-१ हिडिल्ले उ०-हे गौतम ! तीन काण्ड कहे गये हैं, यथा-(१) नीचे - कंडे, २ मझिल्ले कंडे, ३ उवरिल्ले कंडे । का काण्ड, (२) मध्य का काण्ड, (३) ऊपर का काण्ड । प०-मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स हिडिल्ले कंडे कतिविहे प्र.-हे भगवन् ! मंदर पर्वत के नीचे का काण्ड कितने पण्णते? प्रकार का कहा गया है? उ०-गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा–१ पुढबी, उ०-हे गौतम ! चार प्रकार का कहा गया है, यथा२ उवले, ३ वइरे, ४ सक्करा, (१) पृथ्वी, (२) पाषाण, (३) वज्र-अत्यन्त कठोर पाषाण, (४) शर्करा-रेत । १ मंदरचूलिया णं चत्तालीसं जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं पण्णत्ता।' २ मंदरस्स णं पव्वयस्स चूलिया मूले दुवालसजोयणाइ विक्खंभेणं पण्णत्ता। ३ मंदरचूलिया णं बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणाई विक्खंभेण पण्णत्ता। ४ मंदर चूलिया णं उरिं चत्तारि जोयणाई विखं भेणं पण्णत्ता । -सम० ४०, सु०२ -सम० १२, सु०६ -ठाणं० ८ सु० ६३६ -ठाणं उ०२ सु० २६६ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २ सूत्र ३५० www तिर्यक लोक मंदर पत : प० - मज्झिमिल्लेणं भंते ! कंडे कतिविहे पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! चउब्विहे पण्णत्ते तं जहा १ अंके, २ फलिहे, ३४ ए प० - उवरिल्ले णं भंते ! कंडे कतिविहे, पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते, सथ्य जंबूणयामए । प० - मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स हेट्ठिल्ले कंडे केवइअं बाले पण्यते ? उ०- गोमा ! एवं जोयणसहस्सं माहले पाते। प० - मज्झिमिल्ले णं भंते ! कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! तेवट्टि जोयणसहस्साई बाहरलेगं पणतं । प० - उवरिल्लेणं भंते ! कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? उ०- गोवमा छत्तीस जोपणसहस्सा बाहल्लेणं पणतं । एवामेव सपुथ्वावरेणं मंदरे पव्वए एवं जोयणसय सहस्सं सव्वग्गेणं पण्णत्ते ।' - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०८ मंदरस्य णं पयसा पढने कंडे एगस जोयणसहरसाई उड्ढं उच्चतेणं पण्णत्ते । -- सम० ६१, सु० २ - त्यस (मंदरस्स) णं पयरो बिलिए कंडे तीसंजोयणसहस्साई उद्धं उच्च लेणं होत्या । - सम० ३८, सु० ३ ww www तृतीय काण्ड का बाहुल्य ३६००० छत्तीस हजार योजन है । तीनों का संयुक्त बाहुल्य १०००,०० एक लाख योजन है । गणितानुयोग २३५ प्र० - हे भगवन् ! बीच का काण्ड कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०- हे गौतम! चार प्रकार का कहा गया है, यथा(१) अंक-रश्न, (२) स्फटिक, (३) स्वर्ण, (४) रजत-चांदी प्र० - हे भगवन् ! ऊपर का काण्ड कितने प्रकार का कहा गया है? उ०- हे गौतम! एक प्रकार का कहा गया है, सारा काण्ड जम्बूनद — स्वर्णमय है । प्र० - हे भगवन् ! मंदर पर्यंत नीचे का काण्ड कितना मोटा - ऊँचा कहा गया है ? उ०- हे गौतम! एक हजार योजन ऊँच कहा गया है । प्र० - हे भगवन् ! बीच का काण्ड कितना ऊँचा कहा गया है ? उ०- हे गौतम! ऊपर का काण्ड कितना ऊँचा कहा गया है । प्र० - हे भगवान्! ऊपर का काण्ड कितना ऊँचा कहा गया है ? उ०- हे गौतम ! छत्तीस हजार योजन ऊँचा कहा गया है । इस प्रकार पहले पीछे के सब मिलाकर पूरा मंदर पर्वत (सर्वाग्र) एक लाख योजन ऊँचा कहा गया है..... मंदर पर्वत का प्रथम काण्ड इकसठ हजार योजन ऊँचा कहां गया है.... मंदर पर्वतराज का द्वितीय काण्ड अडतीस हजार योजन ऊँचा कहा गया है ..... दस दसाई जोयणसहस्साई सव्यमेणं पण्णत्ते । आ० स० से प्रकाशित जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के वक्षस्कार ४ के सूत्र १०८ में मंदर पर्वत के तीन काण्ड कहे गये हैं । प्रथम काण्ड का बाहुल्य (मोटाई - ऊँचाई ) १००० एक हजार योजन है । द्वितीय काण्ड का बाहुल्य ६३००० त्रेसठ हजार योजन है । डा० १० ०७१२ समवायांग सम० ६१, सूत्र २ तथा सम० ३८, सूत्र ३ में मंदर पर्वत के दो काण्ड कहे गये हैं । प्रथम काण्ड की ऊँचाई ६१००० इकसठ हजार योजन है और द्वितीय काण्ड की ऊँचाई ३८००० अडतीस हजार योजन है । दोनों आगमों के अनुसार भूतल के बाहर दो काण्ड हैं किन्तु उनकी ऊँचाई की योजन संख्या भिन्न-भिन्न है, इस मतान्तर की चर्चा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के वृतिकार ने भी की है। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : मंदर पर्वत सूत्र ३५१-३५८ पम्बए ?" मंदरपब्वयस्स णामहेऊ मंदर पर्वत के नाम का हेतु३५१. १०-से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ-"मंदरे पव्वए मंदरे ३५१. प्र०-हे भगवन् ! मंदर पर्वत मंदर पर्वत क्यों कहा जाता है ? 30-गोयमा ! मंदरे पव्वए-मंदरे गामं देवे महिड्ढीए-जाव. उ०-हे गौतम ! मंदर पर्वत पर मंदर नाम का पल्योपम पलिओवमट्टिईए परिवसइ। स्थिति वाला महद्धिक देव-यावत्-रहता है । से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ--'मंदरे पव्वए, इस कारण से हे गौतम ! मंदर पर्वत मंदर पर्वत कहा मंदरे पव्वए।" जाता है। अदुत्तरं च णं गोयमा ! सासए णामधेज्जे पण्णत्ते । अथवा हे गौतम ! यह नाम शास्वत कहा गया है... -जंबु० वक्ख०४, सु० १०६ मंदरपव्वयस्स सोलसणामाइं मंदर पर्वत के सोलह नाम३५२. ५०-मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स कति णामधेज्जा पण्णत्ता? ३५२. प्र०-हे भगवन् ! मंदर पर्वत के कितने नाम कहे गये हैं ? छ०-गोयमा ! सोलस णामधेज्जा पण्णता, तं जहा- उ०-हे गौतम ! सोलह नाम कहे गये हैं, यथागाहाओ गाथार्थ१ मंदर २ मेरु ३ मणोरम ४ सुदंसण ५ सयंपभे य ६ गिरिराया। (१) मंदर, (२) मेरु, (३) मनोरम, (४) सुदर्शन, ७ रयणोच्चय ८ सिलोच्चय मज्झे लोगस्स १० णामी य (५) स्वयंप्रभ, (६) गिरिराज, (७) रत्नोच्चय, (७) शिलोच्चय, ११ मत्थे (च्छे) य १२ सूरियावत्तं १३ सूरियावरणेति या। (६) लोकमध्य, (१०) लोकनाभि, (११) अर्थ, (१२) सूर्यावर्त, १४ उत्तमे अ १५ दिसादी अ १६ वडेंसेति अ सोलसे।' (१३) सूर्यावरण, (१४) उत्तम, (१५) दिसादि, (१६) अवतंसक.... -जंबु० वक्ख० ४, सु० १०६ मंदरपव्वयमज्झदिसाइओ आबाहा अंतरं- मंदर पर्वत के मध्य भाग आदि से अबाधा अन्तर३५३. धरणितले मंदरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेसमाए रुयगनाभोओ ३५३. भूतल में मेरु पर्वत के मध्यभाग में रुचकनाभी से चारों पाउदिसि पंच पंच जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे मंदरपम्वए दिशाओं में मेरु पर्वत का अव्यवहित अन्तर पांच-पांच हजार पण्णत्ते। -सम. सु. ११८ योजन का कहा गया है। ३५४. मंदरस्स णं पव्वयस्स चउदिसि पि पणयालीसं पणयालीसं ३५४. मेरु पर्वत से (लवणसमुद्र का) अव्यवहित अंतर चारों जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णते। -सम. ४५, सु. ६ दिशाओं में पैंतालिस पैतालिस हजार योजन का कहा गया है । मंदरपव्वयाओ पदवयदीवाईणं अंतराइं मंदर पर्वत से पर्वत द्वीप आदि के अन्तर३५५. मंदरस्स गं पव्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स ३५५. मेरु पर्वत के पूर्वी चरमान्त से गोस्तूप आवास पर्वत के आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं अट्ठासीइंजोयण- पूर्वी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर अट्ठासी हजार योजन का सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। -सम. ८८, सु. ४ कहा गया है। ३५६. एवं चउसु वि दिसासु नेयव्वं । ३५६. शेष तीन दिशाओं का अन्तर भी इसी प्रकार जानना -सम. ८८, सु. ५ चाहिए। ३५७. मंदरस्स गं पव्ययस्स पुरच्छिमिल्लाओ घरमंताओ गोथुभस्स ३५७. मेरु पर्वत के पूर्वी चरमान्त से गोस्तूप आवास पर्वत के आवासपव्वयस्स पच्चथिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीइं पश्चिमी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर सत्तासी हजार योजन जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ।-सम.८७, सु०१ का कहा गया है। ३५८. मंबरसणं पव्वयस्स दक्खिणिल्लाओ चरमंताओ दगमासस्स ३५८. मेरु पर्वत के दक्षिणी चरमान्त से दग्भास आवास पर्वत के आवासपव्वयस्स उत्तरिल्ले चरमंते एस गं सत्तासीई जोयण- उत्तरी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर सत्तासी हजार योजन कहा सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। -सम. ८७, सु.२ गया है। सम० १६ सूत्र ३ में भी मंदर पर्वत के सोलह नाम हैं। ऊपर प्रथम गाथा के तृतीय पद में मंदर पर्वत का आठवां नाम 'सिलोच्चय' है और समवायांग में 'पियदंसण' है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३५६-३७२ तिर्यक् लोक : मंदर पर्वत गणितानुयोग २३७ ३५६. एवं मंदरस्स पच्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ संखस्स आवास- ३५६. इसी प्रकार मेरु पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से शंख पव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीई जोयणसह- आवास पर्वत के पूर्वी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर सत्तासी स्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। -सम. ८७, सु. ३ हजार योजन का कहा गया है । ३६०. एवं चेव मंदरस्स उत्तरिल्लाओ चरमंताओ वगसीमस्स ३६०, इसी प्रकार मेरु पर्वत के उत्तरी चरमांत से दगसीम आवासपव्वयस्स दाहिणिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीई जोयण- आवास-पर्वत के दक्षिणी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर सत्तासी सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। -सम. ८७, सु. ४ हजार योजन का कहा गया है। ३६१. मंदरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेसभागाओ गोथुभस्स आवास- ३६१. मेरु पर्वत के मध्य भाग से गोस्तूप आवास पर्वत के पव्वयस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमंते एस गं बाणउइं जोयण- पश्चिमी चरमान्त का अव्यवहित अंतर बानवे हजार योजन कहा सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। -सम. ६२, सु. ३ गया है । ३६२. एवं च उण्हं वि आवासपव्वयाणं। -सम. ६२, सु. ४ ३६२. इसी प्रकार चार आवास-पर्वतों का अन्तर भी है । ३६३. मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुमस्स ३६३. मेरु पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गोस्तूप आवास पर्वत के णं आवासपव्वयस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमंते एस गं सत्ताण- पश्चिमी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर सत्तानवें हजार योजन उइजोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । का कहा गया है। -सम. ६७, सु. १ ३६४. एवं चउदिसि पि । -सम. ६७, सु. २ ३६४. इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं का अन्तर भी है। ३६५. मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स ३६५. मंदर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त के गोस्तूप आवास पर्वत आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस गं अट्ठाणउइ के पूर्वी चरमान्त का अव्यवहित अन्तर अठानवें हजार योजन का जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते । -सम. ६८, सु. २ कहा गया है । ३६६. एवं चउदिसि पि। -सम. ६८, सु. ३ ३६६. इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं का अन्तर भी है। ३६७. मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ विजय- ३६७. मेरु पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से विजयद्वार के पश्चिमी दारस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमंते एस णं पणपन्न जोयणसहस्साई चरमान्त का अव्यवहित अन्तर पचपन हजार योजन का कहा अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। -सम. ५५, सु. २ गया है । ३६८. एवं चउद्दिसिपि वेजयंत-जयंत-अपराजियं ति । ३६८. इसी प्रकार चारों दिशाओं में वैजयन्त, जयन्त और -सम. ५५, सु. ३ अपराजित द्वार का अन्तर भी है। ३६९. मंदरस्स णं पब्धयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोयम- ३६६. मेरु पर्वत के पूर्वी चरमान्त से गौतम द्वीप के पूर्वी चरमान्त दोवस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तसटुिं जोयणसहस्साई का अव्यवहित अन्तर सड़सठ हजार योजन का कहा गया है । अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। -सम. ६७, सु. ३ ३७०. मंदरस्स पव्वयस्स पच्चच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोयम- ३७०. मेरु पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गौतम द्वीप के पश्चिमी होवस्स पच्चच्छिमिल्ले चरमते एस णं एगूणसरि जोयण- चरमान्त का अव्यवहित अन्तर उनहत्तर हजार योजन का कहा सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। -सम. ६६, सु. २ गया है। ३७१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स एक्कारसहि एक्कवीसेहि ३७१. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरु पर्वत से अव्यवहित अन्तर जोयणसएहि अबाहाए जोइसे चारं चरइ। इग्यारह सौ इक्कीस योजन दूरी पर ज्योतिष चक्र प्रारम्भ -सम. ११. सु. ३ होता है। मंदरपव्वए चत्तारि वणाई मंदर पर्वत पर चार वन३७२.५०-मंदरे णं भंते ! पव्वए कइ वणा पण्णता? ३७२. प्र०-भगवन् ! मेरु पर्वत पर कितने वन कहे गये हैं ? Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : मंदर पर्वत : भद्रशालवन सूत्र ३७२-३७४ -उ०-गोयमा ! चत्तारि वणा पण्णत्ता, तं जहा- उ०-गौतम ! चार वन कहे गये हैं, यथा*. १ भद्दसालवणे, २ गंदणवणे, ३ सोमणसवणे, (१) भद्रशाल बन, (२) नन्दन वन, (३) सोमनाथ वन, (४) ४ पंडगवणे।' -जंबु० वक्ख० ४, सु० १०३ और पंडक वन । भद्दसालवणस्स पमाणं भद्रशाल वन का प्रमाण३७३. ५०-कहि णं भंते ! मंदरे पव्वए भद्दसालवणे णामं वणे ३७३. प्र०-भगवन् ! मेरु पर्वत पर भद्रशालवन नामक वन पण्णते? कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! धरणिअले एत्थ णं मंदरे पवए भद्दसालवणे उ०-गौतम ! मेरु पर्वत के पृथ्वी तल पर भद्रशाल वन . णामं वणे पण्णत्ते। ____ कहा गया है। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिणवित्थिन्ने, सोमणस- यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है विज्जुप्पह-गंधमायाण-मालवंतेहि वक्खारपव्वएहिं तथा सौमनस, विद्युत्प्रभ, गंधमादन और माल्यवन्त नामक वक्षसीआ-सीओआहि अ महाणईहिं अट्ठभागपविभत्ते । स्कार पर्वतों और सीता तथा सीतोदा महानदियों के कारण यह आठ भागों में विभक्त हो गया है। मंदरस्स पब्वयस्स पुरथिम-पच्चत्थिमेणं बावीसं यह मेरु पर्वत से पूर्व-पश्चिम की ओर बावीस-बावीस बावीसं जोअणसहस्साई आयामेणं, उत्तर-दाहिणेणं हजार योजन लम्बा है और उत्तर-दक्षिण में ढाइ सौ ढाइ सौ अड्ढाइज्जाई अड्ढाइज्जाई जोअणसयाई विक्खंभेणंति। यौजन चौड़ा है। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ यह चारों ओर से एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से समंता संपरिक्खित्ते । दुण्हवि वण्णओ भाणिअन्वो। घिरा हुआ है। यहाँ इन दोनों का वर्णन कहना चाहिए। यह । किण्हे किण्होभासे-जाव-देवा आसयंति सयंति। (भद्रशाल-वन) कृष्ण व कृष्णावभास है-यावत्-यहाँ देव -जंबु० वक्ख०४, सु० १०३ (क्रीड़ा करते हैं एवं) बैठते सोते हैं। भद्दसालवणे सिद्धाययणस्स पमाणं भद्रशाल वन के सिद्धायतन का प्रमाण३७४. मदरस्स णं पव्वयस्स पुरथिमेणं भद्दसालवणं पण्णासं २७४. मेरु पर्वत से पूर्व की ओर भद्रशाल वन को पचास योजन जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते, अतिक्रमण करने पर एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है। यह पण्णासं जोअणाई आयामेणं, पणवीसं जायणाई विक्खंभेणं, पचास योजन लम्बा, पच्चीस योजन चौड़ा, छत्तीस योजन ऊँचा छत्तीसं जोयणाई उड्ढे उच्चतेणं, अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ और कई सौ स्तम्भों से सन्निविष्ट है। इसका वर्णन कहना वण्णओ। चाहिए। तस्स णं सिद्धाययणस्स तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता, ते णं इस सिद्धायतन के तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं । दारा अट्ट जोअणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोअणाई ये द्वार आठ योजन ऊँचे, चार योजन चौड़े एवं उतने ही प्रवेश विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेया वरकणगथूभिआगा वाले हैं । ये श्वेत वर्ण तथा श्रेष्ठ स्वर्ष की स्तूपिकाओं वाले हैं-जाव-वणमालाओ, भूमिभागो य भाणिअन्वो। ___यावत्-वनमालाएँ हैं । यहाँ की भूमि का भी वर्णन कर लेना चाहिए। तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिया इस (सिद्धायतन) के मध्यभाग में एक विशाल मणिपीठिका पण्णत्ता, अट्ठजोअणाई आयाम-विक्खंभेणं, चत्तारिजोअणाई कही गई है। यह आठ योजन लम्बी-चौड़ी, चार योजन मोटी, गाहल्लेणं. सश्वरयणामई, अच्छा-जाव-पडिरूवा। सर्वरत्नमय व स्वच्छ है यावत्-प्रतिरूप है। तोसे णं मणिपेढिआए उरि देवच्छंदए, अट्ठ जोयणाई इस मणिपीठिका पर एक देवच्छन्द है। यह आठ योजन आयाम-विक्खंभेणं, साइरेगाई अट्ठ जोयणाई उड्ढं उच्चतेणं, लम्बा-चौड़ा, सातिरेक आठ योजन ऊँचा-यावत्-जिनप्रतिमा -जाव-जिणपडिमाणवण्णओ। देवच्छंदगस्स-जाव-धूवकडुच्छ- से युक्त है । देवच्छंदक से लगाकर.धूपकड़च्छुक (धूपदानी) पर्यन्त आणं इति । (समस्त वर्णन पूर्ववत्) कर लेना चाहिए। १ ठाणं ४, उ० २, सु० ३०२ । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३७४-३७६ तिर्यक् लोक : मंदर पर्वत : नन्दनवन गणितानयोग २३९ मदरस्स णं पव्वयस्स दाहिणणं भद्दसालवणं पण्णासं जोय- मेरु पर्वत से दक्षिण की ओर भद्रशाल वन को पचास योजन णाई ओगाहित्ता एत्थ णं एग महं सिद्धाययणं पण्णत्ते। एवं अतिक्रमण करने पर एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है । इस चउदिसि पि मंदरस्स भहसालवणे चत्तारि सिद्धाययणा प्रकार मेरु को चारों दिशाओं में भद्रशाल वन में चार सिद्धायतन भाणिअव्वा। -जंबु० वक्ख० ४, सु० १०३ कहने चाहिए। णंदणवणस्स पमाणं नन्दनवन का प्रमाण३७५. ५०–कहि णं भंते ! मंदरे पव्वए गंदणवणे णामं वणे ३७५. प्र०-भगवन् ! मेरु पर्वत पर नन्दनवन नामक वन कहाँ पण्णते? कहा गया है? उ०-गोयमा ! भद्दसालवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमि- उ०-गौतम ! भद्रशाल वन के अतिसम और रमणीय भागाओ पंचजोयणसयाई उड्ढं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे भूमिभाग से पांच सौ योजन ऊँचा जाने पर मेरु पर्वत पर नन्दनपव्वए गंदणवणे णाम वणे पण्णत्ते । वन नामक वन कहा गया है। पंचजोयणसयाई चक्कवालविक्खंभेणं बट्ट वलयाकार यह पाँच सौ योजन चक्राकार विस्तारवाला, बल, संठाणसंठिए, जे णं मंदरं पव्वयं सव्वओ समंता वलयाकार, संस्थान वाला एवं मेरु पर्वत को सभी ओर से घेरे संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइत्ति । णव जोयणसहस्साई णव य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चे- बाहर का गिरिविष्कंभ (मेरु पर्वत की चौड़ाई)गारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविवखंभो। ६६५४ ६ योजन है। बाहर की गिरिपरिधि ३१४७६ योजन से किचित् अधिक है। एगत्तीसं जोयणसहस्साइं चत्तारि अ अउणासीए जोअणसए किचि विसेसाहिए बाहिं गिरिपरिरएणं । अट्ठजोअणसहस्साई णव य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चेगारसभाए अंतो गिरिविक्खंभो। अन्दर का गिरिविष्कंभ ८६५४, योजन है। अट्ठावीसं जोअणसहस्साई तिण्णि य सोलसुत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरि- अन्दर की गिरिपरिधि २८३१६, योजन है । परिरएणं । से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ यह (नन्दन वन) चारों ओर से एक पद्मवरवेदिका और एक समंता संपरिक्खित्ते वण्णओ-जाव-देवा आसयंति। वनखण्ड से घिरा हुआ है । यहाँ इनका वर्णन समझ लेना चाहिए -यावत्-यहाँ देव बैठते हैं। मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं महं एगे मेरु पर्वत के पूर्व में एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है. सिद्धाययणे पण्णत्ते । एवं चउद्दिसि चत्तारि सिद्धाययणा इसी प्रकार चारों दिशाओं में चार सिद्धायतन हैं । विदिशाओं में विदिसासु पुक्खरिणीओ, तं चेव पमाणं सिद्धाययणाणं पुष्करणियाँ हैं । सिद्धायतनों, पुष्करिणियों एवं शक्र-ईशान के पुक्खरिणीणं च । पासायडिसगा तह चेव सक्के- प्रासादावतंसकों का प्रमाण पूर्ववत् ही हैं। साणाणं, तेणं चेव पमाणेणं । -जंबु० वक्ख०४, सु०१०४ सोमणसवणस्स पमाणं सौमनस वन का प्रमाण३७६.५०–कहि णं भंते ! मंदरे पव्वए सोमणसवणे णामं वणे ३७६. प्र०-भगवन् ! मेरु पर्वत पर सौमनसवन नामक वन कहाँ पण्णत्ते ? कहा गया है ? उ०-गोयमा! णंदणवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उ०-गौतम ! नन्दनवन के अतिसम एवं रमणीय भूमिभाग अद्धतेवदि जोयणसहस्साइं उढं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे से बांसठ हजार पाँच सौ योजन ऊपर जाने पर मेरु पर्वत पर पव्वए सोमणसवणे णाम वणे पण्णत्ते । सौमनस वन नामक वन कहा गया है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० लोक-प्रशप्ति तिर्व लोक मंदर पर्यंत पंडवन पंचजोयणसयाई चक्कवालविवखंभेणं वट्ट े वलयागारसंठासंठिए के मंदर पम्यं सब समता संपरि वित्ताणं चिट्ठ | चत्तारि जोयणसहस्साइं दुण्णि य बावत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविक्वं भेणं । तेरस जोगसहस्साई पंच व एक्कारे जोणसए इस्कारसभाए जोरस वाहि गिरिपरिरएवं तिष्णि जोअणसहस्सा णि अ बाबत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोयणस्स अंतो गिरिविवखंभेणं । इस जोअणसहरसाई तिथि व अन्याय जोए तिण्णि अ इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिपरिरएणंति । से गं एमए पमवरवेइयाए एव वणसंडे स समता संपरिक्खित्ते । वण्णओ किण्हे किण्होभासे - जावदेवा आसयंति । एवं कूडवज्जा सच्चेव णंदणवणवत्तव्वया भणियव्वा । तं चेव ओगाहिऊण-जाव- पासायवडेंसगा सक्की सामाति - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०५ पंडगवणस्स पमाणं३७७, ५० - कहि णं भंते! मंदरपन्नए पंडगवणे णामं वणे पण्णत्ते ? उ०- गोवमा ! सोमणसवणस्स बहुसमरमणिकाओ भूमि ---- भगाओ छत्तीसं जो अणसहस्साई उड्ढं उप्पइत्ता एत्थ णं मंदरे पव्वए सिहरतेले पंडगवणे गामं वणे पण्णत्ते । चत्तारि चउणउए जोयणसए चक्कवालविक्ख भेणं, वट्ट वलयाकार संठाणसंठिए जेणं मंदरचूलिनं सच्चओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ । तिष्णि जोअण सहस्साइं एगं च बाब जोण सर्व किचिविसेसाहिलं परिवजे वेगं से णं एगाए पउमबरपाए एगंग व वणसं - जाव किण्हे, देवा आसयंति । 1 - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०६ ३७८. मंदरचूलियाए णं पुरात्थिमेणं पंडगवणं पण्णासं जोअणाई ओगाहित्ता एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते । यह पाँच सौ योजन चक्राकार चौड़ा, बर्तुल वलयाकार एवं मेरु पर्वत को चारों ओर से घेरे हुये है ? इसके बाहर का गिरि- विष्कंभ ४२७२ - योजन है । योजन है। ११ सूत्र ३७५-३७८ बाह्य गिरि-परिधि १३५११ अन्दर का गिरि - विष्कंभ ३२७२ योजन है । ११ ३ अन्दर की गिरि-परिधि १०३४६ योजन है । ११ (सौमनस वन ) सब ओर से एक परवेदिका और एक वनखण्ड से घिरा हुआ है । यहाँ उनका वर्णन समझ लेना चाहिए । यह कृष्ण और कृष्णावभास है- यावत्-यहाँ देव (क्रीड़ा करते है और बैठते हैं। इस प्रकार कूटों को छोड़कर शेष वर्णन नन्दनवन के समान कर लेना चाहिए। उतनी ही दूरी पर - यावत् - शक्र और ईशानेन्द्र के प्रासादावतंसक है । पंडक वन का प्रमाण ३७७. प्र० - भगवन् ! मेरु पर्वत पर पंडकवन नामक वन कहाँ कहा गया है ? उ०- गौतम ! सौमनस वन के अति सम एवं रमणीय भूमिभाग से छत्तीस हजार योजन ऊपर जाने पर मेरु पर्वत पर शिखरतल पर पंडक वन नामक वन कहा गया है । यह चार सौ चोरानवें योजन चक्राकार चोड़ा, वर्तुल, वलयाकार एवं मेहबूलिका को सभी ओर से घेरे हुए स्थित हैं। इसकी परिधि इकतीस सौ बासठ योजन से कुछ अधिक है । यह पद्मवश्वेदिका और एक वनखण्ड से ( सब ओर से घिरा है)कृष्ण हैं। देव यहाँ बैठते हैं। ३७८. मंदरचूलिका के पूर्व में पण्डगवन में पचास योजन प्रवेश करने पर एक महान् भवन कहा गया है । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३७८-३८० तिर्यक् लोक : भद्रशाल वन में पुष्करिणियां गणितानुयोग २४१ एवं जच्चेव सोमणसे पुव्ववणिओ गमो, भवणाणं, पुक्ख- इस प्रकार जो वर्णन सौमनसवन के प्रकरण में किया गया है रिणीणं पासायवडेंसगाणं य सो चेव णेयब्वो जाव सक्कीसाण वह सब यहाँ के भवनों, पुष्करिणियों एवं प्रासादावतंसकों के विषय वडेंसगा तेणं चेव परिमाणणं । में समझ लेना चाहिए-यावत्-शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र के अवतं- -जंबु० ववख० ४, सु० १०६ सक भी उसी परिमाण के हैं । भद्दसालवणे सोडस पुक्खरिणीओ भद्रशाल में सोलह पुष्करिणियाँ३७९. मंदरस्स णं पव्वयस्स उत्तर-पुरथिमेणं भद्दसालवणं पण्णासं ३७६. मेरु पर्वत से उत्तर-पूर्व की ओर भद्रशाल बन में पचास जोअणाई ओगाहिता एत्थ णं चत्तारि गंदपुक्खरिणीओ योजन जाने पर चार नन्दा पुष्करिणियाँ (वापिकायें) कही गई पण्णताओ तं जहा–१ पउमा, २ पउमप्पमा चेव, ३ कुमुदा है, यथा-(१) पद्मा, (२) पद्मप्रभा, (३) कुमुदा, (४) कुमुद ४ कुमुदप्पभा। प्रभा। ताओ णं पुक्खरिणीओ पण्णासं जोअणाई आयामेणं, पण- ये पुष्करिणियाँ पचास योजन लम्बी, पच्चीस योजन चौड़ी वोस जोअणाई विक्खंभेणं, बस जोयणाई उन्वेहेणं, वण्णओ। एवं दस योजन गहरी है। यहाँ इनका वर्णन है। पद्मवरवेदिकाएं बेइया-वणसंडाणं भाणिअब्बो। चउद्दिसि तोरणा-जाव-तासि और वनखण्ड का वर्णन यहाँ कहना चाहिए। इनकी चारों गं पुक्खरिणीणं बहुमज्मदेसभाए एत्थ णं महं एगे ईसाणस्स दिशाओं से (चार) तोरण हैं-यावत्-इन पुष्करिणियों के मध्य देवरणो पासायडिसए पण्णत्ते। ईशान-देवेन्द्र देवराज का एक विशाल उत्तम प्रासाद कहा गया है। पंच जोअणसयाइं उड्ढं उच्चत्तेणं, अकाइज्जाइं जोअण- यह पांच सौ योजन ऊँचा, अढ़ाई सौ योजन चौड़ा एवं उन्नत सयाई विक्खंभेणं, अब्भुग्गयमूसिय, एवं सपरिवारो पासाय- शिखर वाला है। यहाँ सपरिवार प्रासादावतंसक का वर्णन कर वडिसओ भाणिअव्वो। लेना चाहिए। मंदरस्स णं एवं दाहिणपुरस्थिमेणं पुक्खरिणीओ? इसी प्रकार मेरु से दक्षिण-पूर्व में (चार) पुष्करिणियां हैं१ उप्पलगुम्मा, २ णलिणा, ३ उप्पला, ४ उप्पलुज्जला । (१) उत्पलगुल्मा, (२) नलिना, (३) उत्पला और तं चैव पमाणेणं। (४) उत्पलोज्ज्वला । इनका प्रमाण भी वही (पूर्वोक्त) है। दाहिण-पच्चत्थिमेण वि पुक्खरिणीओ दक्षिण-पश्चिम में भी (चार) पुष्करिणियाँ हैं । पाहा गाथार्थ१भिगा, २ भिगनिमा चेव, ३ अंजणा, ४ अंजणप्पमा । (१) भृगा, (२) भृगनिभा, (३) अंजना और (४) अंजनप्रभा । पासायडिसओ, सक्कस्स सीहासणं सपरिवार । (इनके मध्य में) प्रासादावतंसक एवं शक्र का सपरिवार सिंहासन है। उत्तरपुरथिमेणं पुक्खरिणीओ उत्तर-पूर्व में (चार) पुष्करिणियां हैंगाहा गाथार्थ१ सिरिकता, २ सिरिचंदा, ३ सिरिमहिता चेव,४ सिरिणिलया। (१) श्रीकान्ता, (२) श्रीचन्दा, (३) श्रीमहिता और (४) पासायडिसओ, ईसाणस्स सीहासणं सपरिवारंति । श्रीनिलया। (इनके मध्य में) प्रासादावतंसक व ईशानेन्द्र का -जंबु० बक्ख० ४, सु० १०३ सपरिवार सिंहासन है। चत्तारि अभिसेअसिलाओ चार अभिषेक शिलाएँ३८०.५०-पंडकवणे णं भंते ! कइ अभिसेअसिलाओ पण्णत्ताओ? ३८०. प्र०-भगवन ! पंडकवन में अभिषेक-शिलायें कितनी ___ कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! चत्तारि अभिसेअसिलाओ पण्णत्ताओ, तं उ०-गौतम ! चार अभिषेक-शिलायें कही गई हैं, यथा जहा–१ पंडुसिला, २ पंडुकंबलसिला, ३ रत्तसिला, (१) पाण्डुशिला, (२) पाण्डुकंबलशिला, (३) रक्तशिला, ४ रत्तकंबलसिलेत्ति ।'-जंबु० वक्ख० ४, सु० १०७ (४) रक्तकंबलशिला । १ जंबुद्दीवे दीवे मंदरपब्बए पंडगवणे चत्तारि अभिसेगसिलाओ पण्णताओ तं जहा (१) पंडुकंबलसिला, (२) अइपंडुकंबलसिला, (३) रत्त कंबलसिला, (४) अइरत्तकंबलसिला। -ठाणं ४, सु० ३०२ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : अभिषेकशिला सूत्र ३८१-३८२ पंडुसिलाए पमाणं-- पाण्डुशिला का प्रमाण३८१.५०-कहि णं भंते ! पंडगवणे पंडुसिला णामं सिला पण्णता? ३८१. प्र०-भगवन् ! पंडकवन में पाण्डुशिला नामक शिला कहाँ कही गई हैं ? उ०-- गोयमा ! मंदरदूलिआए पुरथिमेणं पंडगयणपुरथिम- उ०-गौतम ! मंदरचूला से पूर्व में और पंडकवन के पूर्वान्त - पेरते एत्थ णं पंडगवणे पंडुशिला पाम सिला पण्णत्ता। में पंडकवन में पांडुशिला नामक शिला कही गई है। का उत्तर-दाहिणायपा, पाईग-पडीवित्थिन्ना, अद्धचंद- यह उत्तर-दक्षिण में लम्बी, पूर्व-पश्चिम में चौड़ी, अर्द्ध संठाण-संठिया । पंच जोअणतपाई आयामेणं, अड्ढा- चन्द्राकार, संस्थान वाली, पांच सौ योजन लम्बी, अढाई सौ इज्जाई जोअणसथाई विक्खभणं, चत्तारि जोअणाई योजन चौड़ी, चार योजन मोटी, सर्वकनकमयी, स्वच्छ-यावत बाहल्लेणं, सवकणगानई अच्छा-जाव-पडिरूवा। -प्रतिरूप है। वेइया-वणसंडेणं सब्दओ समंता संपरिक्खित्ता वण्णओ। यह वेदिका तथा वनखण्ड से सब ओर से घिरी हुई है । यहाँ इसका वर्णन कहना चाहिए। तीसे णं पंडुसिलाए चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडि- इस पांडुशिला की चारों दिशाओं में चार प्रतिरूप त्रिसोपान रूवगा पण्णत्ता-जाव-तोरणा वण्णओ। (पंक्तियाँ) कही गई हैं-यावत्-तोरण पर्यन्त सब वर्णन समझ लेना चाहिए। तीसे गं पंडुसिलाए उपि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे । इस पाण्डुशिला पर अतिसम और रमणीय भूभाग कहा पण्णत्ते-जाव-देवा आसयंति। ___ गया है - यावत् -वहाँ देव बैठते हैं। तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्त भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए इस सम और रमणीय भूभाग के बीच में उत्तर-दक्षिण की उत्तर-दाहिनेणं, एत्थ णं दुवे सीहासणा पण्णत्ता, पंच ओर दो सिंहासन कहे गये हैं। ये पांच सौ धनुष लम्बे-चौड़े और धणुसयाई आयाम विवखंभेणं, अड्ढाइ ज्जाई धणुसयाई अढाई सौ धनुष मोटे हैं। यहाँ सिंहासन का वर्णन कर लेना बाहल्लेणं। सीहासणवण्णओ भाणिअन्वो विजयदूस- चाहिये किन्तु विजयदूष्य का कथन नहीं करना चाहिये। वज्जोत्ति। तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले सोहासणे तत्थ णं बहूहिं इनमें से जो उत्तर की ओर का सिंहासन है वहाँ अनेक भवणवइ वाणमंतर-जोइसिय-देमाणिएहि देवेहि देवीहि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव-देवियां कच्छ अ कच्छाइया तित्थयरा अभिसिच्चंति। आदि (आठ विजयों) के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले सीहासणे तत्थ गं बहुहिं इनमें जो दक्षिण की ओर का सिंहासन है वहाँ अनेक भवनभवणवइ-जाव-वेमाणिएहि देवेहि देवीहि अ वच्छाईया पति-यावत्-वैमानिक देव-देवियाँ वत्स आदि (आठ विजयों) तित्थयरा अभिसिच्चति । के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। . -जंबु० बक्ख० ४, सु० १०७ पंडुकंबलसिलाए पमाणं पांडकम्बलशिला का प्रमाण३६२. प०-कहिणं ते ! पंउगवणे पंडुकंबलसिला णामं सिला ३८२. प्र०-भगवन् । पंडकवन में पाण्डुकम्बल नामक शिला पण्णता ? कहाँ कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! मंदरचलिआए दक्षिणेणं, पंडगवणदाहिण- उ०-गौतम ! मेरु पर्वत के दक्षिण में एवं पण्डक वन के पेरते, एत्थ णं पड़कंबलसिलाणामं सिला पण्णत्ता। दक्षिणी चरमान्त में पंडकवन में पाण्डुकंबल नामक शिला कही गई है। पाईण-पढीणायया, उतर-दाहिणवित्थिन्ना । एवं तं यह पूर्व-पश्चिम में लम्बी और उत्तर-दक्षिण में चौड़ी है। चेव पमाणं वतव्यया य भाणिअब्बा-जाव-तस्स (बहु- इसका सम्पूर्ण प्रमाण पूर्ववत् समझना चाहिए-यावत्-इसके समरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं समतल रमणीय भूमिभाग के बीचोंबीच एक विशाल सिंहासन महं एगे सीहासणे पण्णत्ते । तं चेव सीहामणप्पमाणे। कहा गया है। इस सिंहासन का प्रमाण वही (पूर्वोक्त) है। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३८२.३८५ तिर्यक् लोक : अभिषेकशिला w.w तत्व बहुभवणवद-जाव मानिएहि देहि देवीहि य भारा तिरवयरा अहिसिष्यति। - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०७ उ०- गोयमा ! मंदरभूलिआए पश्चत्विमे पंडवण पच्चत्थिमपेरते, एत्थ णं पंडगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता । उत्तरदाहिमाया पाईण-पत्रीणविधिना-याव पमागं सम्ब-तवणिज्जमई अच्छा-जाव-परिस्था उत्तर-वाहिने एश्य दुवे सोहाराणा परता रससिलाए पमाणं रक्तशिला का प्रमाण ३८३. प० कहि णं भंते ! पडगवणे रत्तसिला णामं सिला पण्णत्ता ? ३८३. प्र० - भगवन् ! पंडकवन में रक्तशिला नामक शिला कहाँ कही गई है ? सत्य जे से दाहिमले सीहास तस्य बह भगवद-जाव मागिएहि देहि देवीहि पम्हाहम तित्ययरा अहिसिच्चति । । तत्थ पंजे से उत्तरिल्ले सीहासणे तत्थ णं बहूह भावव-गाव-वेमाणिएहिं देयेहि देवीहियवत्पाद तिति । - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०७ उ०- गोवमा मंदरचूलिआए उत्तरेणं, पंडत्तरवरि ! मंते एत्थ णं पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला पण्णत्ता । पागडोगावया उीण दाहिणविश्विना सच्च तबगिजमई, अच्छा--शव-पडिवा बहुमज्शदेसभाए सीहासणं । सत्य हि भववइ-जाव मागिएहि देहि देवी रायगा तिथपरा अहमिति । - - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०७ नंदणवणस्स चरिमंताणमंतराई३८५. मंदणवणस्स णं उवरिल्लाओ चरमंताओ पंडयवणस्स हट्ठिल्ले चरम एस अट्टागड जोयणसहस्साई आवाहाए अंतरे णं पणते । - सम. ६९, सु. १ गणितानु २४३ यहाँ अनेक भवनपति — यावत् — वैमानिक देव-देवियाँ भरतन क्षेत्र के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं । उ०- गौतम ! मेरुपर्वत के पश्चिम में एवं पंडकवन के पश्चिमी चरमान्त में पंडकवन में रक्तशिला नामक शिला कही गई है। - रतकंबलसिलाप्यमाणं रक्त कंबलशिला का प्रमाण ३८४. ५०—–कहि णं भंते ! पंडगवणे रत्तकंबलसिला णामं सिला ३८४. प्र० - भगवन् ! पंडकवन में रक्तकंबल नामक शिला कहाँ पण्णत्ता ? कही गई है ? यह उत्तर-दक्षिण की ओर लम्बी और पूर्व-पश्चिम में चौड़ी है-पाव इसका प्रमाण भी वही है। यह सर्वात्मना तपनीय स्वर्णमयी और स्वच्छ है- यावत् प्रतिरूप है। इसके उत्तरदक्षिण में दो सिंहासन कहे गये है। इनमें से जो दक्षिण का सिंहासन है वहाँ अनेक भावनपतिपायत्-वैमानिक देव-देवियाँ पदमादि (आठ विजयों) के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं । इनमें जो उत्तर का सिंहासन है वहाँ अनेक भवनपतियावत्-वैमानिक देव-देवियाँ आदि (आठ विजयों) के तीर्थ करों का अभिषेक करते हैं । उ०- गौतम ! मेरुपर्वत के उत्तर में एवं पंडकवन के उत्तरीय चरमान्त में पंडकवन में रक्तकंबलशिला नामक शिला कही गई है । यह पूर्व - पश्चिम में लम्बी, उत्तर-दक्षिण में चौड़ी, सर्व-सुवर्णमय एवं स्वच्छ है यावत् मनोहर है। इसके मध्य भाग में सिहासन है। यहाँ अनेक भवनपति यावत् — वैमानिक देव देवियाँ ऐरावत (वर्ष) के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। नन्दनवन के चरमान्तों के अन्तर ३८५. नन्दनवन के ऊपर के चरमान्त से पाण्डुकवन के नीचे के परमांत का अव्यवहित अन्तर अठानवें हजार योजन का कहा गया है। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : दो यमक पर्वत सूत्र ३८६-३९० aaniwww ३८६. नंदणवणस्स णं पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ पच्चथिमिल्ले ३८६. नन्दनवन के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त का चरमंते एस णं नवनउइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे पण्णते। अव्यवहित अन्तर निन्यानवें सौ योजन का कहा गया है। -सम. ६६, सु. २ ३८७. एवं दक्खिणिल्लाओ चरमंताओ उत्तरिल्ले चरमंते एस णं ३८७. इसी प्रकार दक्षिणी चरमान्त से उत्तरी चरमान्त का णवणउइ जोयणसयाइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। अव्यवहित अन्तर निन्यानवें सौ योजन का कहा गया है। -सम. ६६, सु.३ ३८८. नंदणवणस्स णं हेछिल्लाओ चरमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स ३८८. नन्दनवन के नीचे के चरमान्त से सौगंधिक काण्ड के नीचे हेटिल्ले चरमंते एस णं पंचासीइजोयणसहस्साई अबाहाए के चरमान्त का अव्यवहित अन्तर पचासी हजार योजन का कहा अंतरे पण्णत। -सम. ८५, सु.४ गया है। जंबुद्दीवे चित्त-विचित्तकूडपव्वया जंबूद्वीप में चित्र-विचित्र कूट पर्वतएगे चित्तकूडे पव्वए एक चित्रकूट पर्वतएगे विचित्तकूडे पव्वए एक विचित्रकूट पर्वत३८६. ५०-कहि णं भंते ! देवकुराए चित्त-विचित्तकूडा णामं दुबे ३८६. प्र०-हे भगवन् ! देवकुरु में चित्रकूट और विचित्रकूट पवया पण्णत्ता? __ नाम के दो पर्वत कहाँ कहे गये हैं ? १०-गोयमा! णिसहस्स वासहरपवयस्स उत्तरिल्लाओ उ०-हे गौतम! निषध वर्षधर पर्वत के उत्तरी चरमान्त चरिमंताओ अट्ठ चोत्तोसे जोयणसए चत्तारि अ सत्तभाए से आठ सौ चोतीस योजन और चार योजन के सात भाग जितने जोयणस्स अबाहाए सीओआए महाणईए पुरथिम- अव्यवहित अन्तर पर शीतोदा महानदी के पूर्वी तथा पश्चिमी पच्चत्थिमेणं उभओ कूले-एत्थ णं चित्त-विचित्तकूडा दोनों किनारों पर चित्रकूट और विचित्रकूट नाम के दो पर्वत णाम दुवे पव्वया पण्णत्ता। कहे गये हैं। एवं जच्चेव, जमगपव्वयाणं सच्चेव। जो यमक पर्वतों का प्रमाण है वही प्रमाण इनका है। एएसि रायहाणीओ दक्खिणेणं ति ।। इन पर्वतों के अधिपति देवों की राजधानियाँ दक्षिण में हैं। -जंबु० वक्ख० ४, सु०६८ दो जमगपव्वया दो यमक पर्वत३९०.१०-कहि णं भंते ! उत्तरकुराए जम्मगा णामं दुवे पच्चया ३६०. प्र०-भगवन् ! उत्तरकुरु में यमक नामक दो पर्वत ___ कहाँ हैं ? उ०-गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणिल्लाओ उ०-गौतम ! नीलवन्त नामक वर्षधर पर्वत के दक्षिणी चरिमंताओ अट्ठ जोयणसए चोत्तीसे चत्तारि अ सत्तमाए जोयणस्स अबाहाए सीआए महाणईए उभओ चरमान्त से लेकर आठ सौ चोतीस ८३४-योजन के अला कुले-एत्थ णं जमगा णाम दुवे पव्वया पण्णत्ता। में, शीता महानदी के दोनों तटों पर यमक नामक दो पर्वत हैं। जोअणसहस्सं उडढं उच्चत्तणं, अड्ढाइज्जाइं जोयण- उनकी ऊंचाई एक हजार योजन की एवं गहराई अढाई सौ सयाई उव्वेहेणं । योजन की है। पण्णता ? १ एवं चित्त-विचित्तकूडा वि भाणियव्वा । -सम. ११३, सु. २ यह संक्षिप्त सूत्र है; विस्तृत पाठ के लिए यमक पर्वतों का टिप्पण नं. २ देखें । २ एतयोश्चित्र-विचित्रकूटयोः एतदधिपति-चित्रविचित्रदेवयो राजधान्यो दक्षिणेनेति । "यमको-यमलजाती भ्रातरी तयोर्यत्संस्थानं तेन संस्थिती परस्पर सहशसंस्थानावित्यर्थः, अथवा यमका नाम शकुनिविशेषास्तसंस्थानसंस्थितो-जम्बू. वृत्ति. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूब ३६०-३६१ तिर्यक् लोक : दो यमक पर्वत गणितानुयोग २४५ मूले एगं जोयणसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं,' मज्झे उनकी लम्बाई-चौड़ाई मूल में एक हजार योजन, मध्य में अद्भुटुमाणि जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं, उबरि साढ़े सात सौ योजन और ऊपर पांच सौ योजन की हैं । पंच जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं । मूले तिण्णि जोयणसहस्साई एगं च बावट्ठजोयणसयं उनकी परिधि में मूल में इकतीस सौ बासठ ३१६२ योजन किंचि विसेसाहिलं परिक्खेवेणं । से कुछ अधिक है। मझे दो जोयणसहस्साइं तिणि बावत्तरे जोयणसए मध्य में तेवीस सौ बासठ २३६२ योजन से कुछ अधिक । किंचि विसेसाहिलं परिक्खेवेणं। उरि एगं जोयणसहस्सं पंच य एकासीए जोयणसए ऊपर पन्द्रह सौ इकासी १५८१ योजन से कुछ अधिक है। किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । मूले वित्थिण्णा, मज्झे संखित्ता, उप्पि तणुआ, जमग ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं। संठाणसंठिया, सव्वकणगामया, अच्छा सहा । वे यमकों (एक साथ उत्पन्न दो भाइयों) की आकृति के समान हैं अर्थात् दोनों का आकार एक समान है। सर्व कनकमय, स्वच्छ एवं चिकने हैं। पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइया परिक्सित्ता, पसेयं पत्तेयं प्रत्येक एक-एक पद्मवरवेदिका से घिरा है और प्रत्येक एकवणसंडपरिक्खित्ता। एक वनखण्ड से घिरा है। ताओ गं पउमवरवेइयाओ, दो गाउआई उद्धं उच्च- वे पद्मवरवेदिकाएँ दो गव्यूति ऊँची एवं पांच सौ धनष तेणं. पंचधणसयाई विक्खंभेणं, वेइया-वणसंड वण्णओ चौड़ी हैं। पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड का वर्णन समन लेना भाणियव्वो। चाहिए। तेसि णं जमगपब्बयाणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिमागे उन यमक पर्वतों के ऊपर अत्यन्त सम और रमणीक भमि. पण्णत्ते-जाव-तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स भाग हैं-यावत्-उस सम और रमणीय भूमिभाग के बीचोंबीच बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं दुवे पासायवडेंसगा पण्णत्ता। दो प्रासादावतंसक है। ते णं पासायवडेंसगा, बावट्टि जोषणाई अद्धजोयणं च वे प्रासादावतंसक साढ़े बासठ ६२॥ योजन ऊँचे वा उद्धं उच्चत्तेणं, इक्कतीस जोयणाई कोसं च आयाम- इकतीस ३१। योजन लम्बे-चौड़े हैं। विक्खंभणं। पासायवण्णओ भाणियव्वो। यहाँ प्रासाद का वर्णन समझ लेना चाहिए। सीहासणा सपरिवारा-जाव-एत्थ णं जमगाणं देवाणं यहां सपरिवार सिंहासन है-यावत-वहाँ यमक देवों सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, सोलसभद्दासण- सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के सोलह हजार मतासन हैं। साहस्सीओ पण्णत्ताओ। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८८ जमगपव्वयाणं णामहेऊ यमक पर्वत संज्ञा का हेतु१५० सेकेणणं भंते ! एवं बुच्चइ-"जमगा पव्वया, ३६१. प्र०-भगवन् ! यमक पर्वत यमक पर्वत क्यों कहलाते हैं? जमगा पव्वया ?" उ०-गोयमा ! जमगपव्वएसु णं तत्थ तत्थ देसे तहि तहि उ०—गौतम! यमक पर्वतों पर स्थान-स्थान पर बढ़त-सी बहुवे खड़ा खड्डियासु बाबीसु-जाब-जमगवण्णामाई। छोटी-छोटी बापियों में-यावत्-बिलपंक्तियों में बहत-से उत्पल -यावत्-यमक के वर्ण की आभा वाले हैं। , सच्चे विगं जमगपव्वया दस दस जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता, दस दस गाउयसयाई उम्बेडेणं । मूले दस दस जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : यमक देवों की राजधानियाँ सूत्र ३६१-३९२ जमगा य इत्थ दुवे देवा महिड्ढीया, ते णं तत्थ चउण्हं . सामाणिअ साहस्सीणं,-जाव-भुजमाणा विहरति ।। वहाँ यमक नामक दो महद्धिक देव निवास करते हैं। वे चार हजार सामानिक देवों का आधिपत्य करते हुए-यावत्-भोग भोगते हुए रहते हैं। गोतम ! इस कारण यमक पर्वत, यमक पर्वत कहलाते हैं । से तेणढणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"जमगा पव्वया, जमगा पव्वया ।" अदुत्तरं च णं गोयमा! सासए णामधिज्जे-जाव-जमगा पव्वया, जमगा पध्वया ।-जंबु० वक्ख०४, सु०८८ इसके अतिरिक्त 'यमक पर्वत' यह (उनका) शाश्वत नाम है। जमिगाओ रायहाणीओ यमक देवों की राजधानियाँ३६२. प०-कहि णं भंते ! जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहागीओ ३६२. प्र०-भगवन् ! यमक देवों की यमिका राजधानियाँ कहाँ पण्णत्ताओ? उ.-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेण उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप में स्थित मन्दर पर्वत के उत्तर में, अण्णमि जंबुद्दीवे दोवे बारसजोयणसहस्साई ओगाहित्ता दूसरे जम्बूद्वीप द्वीप में बारह हजार (१२०००) योजन जाने पर -एत्थ णं जमगाणं देवाणं जमिगाओ रायहाणीओ वहाँ यमक देवों की यमिका राजधानियाँ हैं । पण्णत्ताओ। बारसजोयणसहस्साई आयाम- विखंभेणं, सत्ततीसं वे बारह हजार योजन लम्बी-चोड़ी हैं। उनकी परिधि सैंतीस जोयणसहस्साई णव य अडयाले जोयणसए किंचि हजार नौ सो अड़तालीस ३७६४८ योजन से किंचित् अधिक है। विसेसाहिए परिक्खवेणं। पत्तेयं पत्तेयं पायारपरिक्खित्ता, ते णं पागारा सत्ततीसं (दोनों में से-) प्रत्येक प्राकार से घिरी है । वे प्राकार साढ़े जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्च तेणं । सैंतीस ३७।। योजन ऊँचे हैं। . मूले अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं, मज्झेछ सोसाइं मूल में साढ़े बारह योजन विस्तार वाले, मध्य में सवा छह जोयणाई विक्खभेणं, उरि तिष्णि सअद्धकोसाइं योजन विस्तार वाले और ऊपर तीन योजन एवं आधा कोस जोयणाई विक्खभणं । विस्तार वाले हैं। मूले वित्थिण्णा, मज्झं सखित्ता, अपि तणुआ, बाहिं मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं। बाहर बट्टा, अंतो चउरंसा, सम्वरयणामया अच्छा। से वृत्ताकार एवं अन्दर से चौकोर है। सर्वात्मना रत्नमय और स्वच्छ हैं। ते गं पागारा णाणामणिपचवणेहि कविसीसएहि उव- वे प्राकार नाना प्रकार की पंचरंगी मणियों के कंगूरों से सोहिआ, तं जहा-किण्हेहि-जाव-सुविकल्लेहि। शोभित हैं। वह इस प्रकार-कृष्ण-यावत्-शुक्ल वर्ण के हैं। ते णं कविसीसगा अद्धकोसं आयामेणं-देसूणं अद्धकोसं वे कंगूरे अर्धकोस लम्बे, कुछ कम अर्ध कोस ऊँचे और पाँच उद्धं उच्चत्तेणं, पंचधणुसयाई बाहल्लेणं, सव्वमणिमया सौ धनुष मोटाई वाले हैं, सर्वमणिमय और स्वच्छ हैं। अच्छा । जमिगाणं रायहाणीणं एगमेगाए बाहाए पणवीसं पण- यमिका राजधानियों की एक-एक बाहु में पच्चीस सौ वीसं दारसयं पण्णत्तं । द्वार हैं। ते गंदारा बावट्टि जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्च- वे द्वार साढ़े बासठ ६२॥ योजन ऊँचे हैं। सवा इकतीस तेणं, इक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं, तावइयं ३१॥ योजन चौड़े हैं और उतने ही प्रवेश वाले हैं। श्वेतवर्ण तथा चेव पवेसेणं, सेआ वरकणगथूभिआगा, एवं रायपसेण- श्रेष्ठ स्वर्णमय स्तूपिकाओं वाले हैं। इस प्रकार राजप्रश्नीय में इज्ज विमाणवत्तवाए दारवण्णओ, जाव-अट्ठमंगलाई कथित विमान की बक्तव्यता के अनुसार दारों का वर्णन समक्ष लेना चाहिए-यावत्-आठ-आठ मंगलाष्य हैं। ति। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३९२ तिर्यक् लोक : यमक देवों को राजधानियाँ गणितानुयोग २४७ जमियाणं रायहाणीणं चउद्दिसि पंच पंच जोयणसए यमिका राजधानियों की चारों दिशाओं में पाँच-पाँच सौ अबाहाए चत्तारि वणसंडा पण्णता, तं जहा-१ असोग- योजन पर चार वनखण्ड हैं, यथा-(१) अशोकवन, (२) सप्तपर्णवणे, २ सत्तिवण्णवणे, ३ चंपगवणे, ४ चूअवणे। वन, (३) चंपकवन, (४) चूतवन । ते णं वणसंडा साइरेगाइं बारसजोयणसहस्साई ये वन किंचित् अधिक बारह हजार योजन लम्बे, पांच सौ आयामेणं, पंच जोथणसयाई विक्ख भेण । योजन चौड़े हैं। पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किण्हा वणसंडवण्णो, इनमें से प्रत्येक प्रकार से घिरा है। वे कृष्ण हैं, इत्यादि भूमीओ, पासायवडेंसगा य भाणियब्वा । बनखण्ड की वरव्यता समझ लेनी चाहिए। भूमियों तथा प्रासादा वतंसकों का भी काथन कर लेना चाहिए। जमिगाणं रायहाणीणं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे यमिका राजधानियों के अन्दर अत्यन्त सम एवं रमणीय पण्णत्ते, वण्णगो त्ति । भूमिभाग है, उसका वर्णन समझ लेना चाहिए। तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेस- उन अतिसमावं रमणीय भुभागों के बीचों बीच दो अवतारिभाए-एत्थ णं दुवे उवयारियालयणा पण्णत्ता। कालयन कहे हैं । बारस जोअणसयाई आयाम विक्खं भेणं, तिप्णि जोयण- ये बारह सौ योजन लम्बे-चौड़े हैं, सैतीस सौ पिचानवें ३७६५ सहस्साई सत्त य पंचाणउए जोयणसए परिक्खेवेण, योजन की परिधि बाले, आधा कोस की मोटाई वाले, सर्वात्मना अद्धकोसं च बाहल्लेणं, सव्वजंबूणयामया अच्छा। जम्बूनदगय और स्वच्छ हैं। पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइया परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं (उनमें से) प्रत्येक पद्मवरवेदिका से घिरा है। प्रत्येक के वणसंडवण्णओ भाणियब्बो, तिसोबाणपडिरूवगा, वनखण्ड का वर्णन कह लेना चाहिए, तीन सोपान प्रतिरूपक, तोरणचउद्दिसि, भूमिभागा य भाणियवत्ति। तोरण, चारों ओर भूमिभाग भी कह लेने चाहिए। तस्स णं बहुमज्झदेसभाए-एत्थ गं एगे पासायव.सए उनके ठीक मध्य भाग में एक प्रासादावतंसक कहा है। पण्णत्ते। बाट्टि जोयणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं, इक्क- वह ६२॥ योजन ऊंचा एवं ३१॥ योजन लम्बा-चौड़ा है। तीसं जोयणाई कोसं च आयाम-विखंभेणं, वण्णओ, उसके छत, भूविभाग तथा सपरिवार सिंहासन का वर्णन कह उल्लोआ, भूमिभागा, सीहासणा सपरिवारा। लेना चाहिए। एवं पासायपंतीओ-एत्थ पडमापंती-तेणं पासाय- इसी प्रकार (मूल प्रासादावतंसक के चारों ओर अन्य) वडेंसया-एक्कतीसं जोयणाई कोसं च उद्धं उच्चतेणं, प्रासादों को पंक्तियाँ हैं। उनमें प्रथम पंक्ति के प्रासादों की ऊंचाई साइरेगाइं अद्धसोलसजोयणाई आयाम-विक्खंभेणं । ३१॥ योजन की, लम्बाई-चौड़ाई किंचित् अधिक साढ़े पन्द्रह १५।। योजन की है। बिइअपासायपंती-ते णं पासायवडेंसया साइरेगाई दूसरी पंक्ति के प्रासादों की ऊँचाई कुछ अधिक साढ़े पन्द्रह अद्धसोलस जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, साइरेगाइ अद्ध- योजन की है तथा लम्बाई-चौड़ाई साढ़े सात योजन से कुछ टुमाईजोयणाई आयाम-विक्खंभेणं। अधिक है। तइअ पासायपंती-ते णं पासायव.सया साइरेगाइ तीसरी पंक्ति के प्रासादों की ऊँचाई कुछ अधिक साढ़े सात अट्ठमाई जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, साइरेगाइ अद्भुट्ठ- योजन की तथा लम्बाई-चौड़ाई कुछ अधिक साढ़े तीन योजन की जोयणाइ आयाम-विक्खंभेणं, वण्णओ सीहासणा है । इनका वर्णन समझ लेना चाहिए । वहाँ सपरिवार सपरिवारा। सिंहासन हैं। तेसि णं मूलपासायडिसयाणं उत्तर-पुरत्थिमे दिसि- उन मूल प्रासादावतंसकों के उत्तर-पूर्व दिक्कोण में यमक भाए-एत्थ णं जमगाणं देवागं सहाओ सुहम्माओ देवों की सुधर्मा सभाएं हैं । पण्णत्ताओ। अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं, छ सकोसाई जोयणाइ वे साड़े बारह योजन लम्बी, सवा छह योजन विस्तृत और Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : यमक देवों की राजधानियाँ सूत्र ३६२ विक्खंभेणं, णव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, अणेगखंभ- नौ योजन ऊँची हैं। वे अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर सन्निविष्टि हैं, सयसण्णिविट्ठा, सभा वण्णओ। इत्यादि सभा का वर्णन कर लेना चाहिए । तासि णं सभाणं सुहम्माणं तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता। सुधर्मा सभाओं की तीन दिशाओं में तीन द्वार हैं । तेणं दारा दो जोअणाई उद्धं उच्चत्तेणं, जोअणं विक्खं- वे द्वार दो योजन ऊँचे, एक योजन चौड़े और उतने ही प्रवेश भेणं तावइ चेव पवेसेणं, सेआ वण्णओ-जाव- वाले हैं। श्वेतवर्ण वाले हैं। वनमाला पर्यन्त उनका वर्णन वणमाला। समझ लेना चाहिए। तेसि गंदाराणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं तओ मुहमंडवा उन द्वारों के सामने अलग-अलग तीन मुखमंडप हैं। पण्णत्ता। तेणं मुहमंडवा अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं, छ वे मुखमंडप साढ़े बारह योजन लम्बे, सवा छह योजन चौड़े सकोसाइजोयणाई विखंभेणं, साइरेगाइ दो जोय- और कुछ अधिक दो योजन ऊँचे हैं यावत्-द्वार एवं भूमिभाग णाई उद्धं उच्चत्तेणं-जाव-दारा भूमिभागा यत्ति। समझ लेना चाहिए। पेच्छाघरमंडवाणं तं चेव पमाणं, भूमिभागो मणि- प्रेक्षागृह मंडपों का भी वही प्रमाण है। भूमिभाग तथा पेढियाओ ति। मणिपीठिकाओं का वर्णन कर लेना चाहिए। ताओ णं मणिपेडियाओ जोअणं आयाम-विक्खंभेणं, ये मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बी-चौड़ी, आधा योजन अद्धजोयणं बाहल्लेणं, सव्वमणिमईआ सीहासणा मोटी, सर्वमणिमय हैं । (उन पर) सिंहासनों का कथन कह लेना भाणियव्वा । चाहिए। तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ मणिपेढियाओ उन प्रेक्षागृहमंडपों के सामने मणिपीठिकाएं हैं। पण्णत्ताओ। ताओणं मणिपेढियाओ दो जोयणाई आयाम-विक्वं- वे मणिपीठिकाएँ दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी भेणं, जोअणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ। एवं सर्व मणिमयी हैं. तासि णं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं तओ थूभा। उनके ऊपर अलग-अलग तीन स्तूप हैं। तेणं थभा दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, दो जोयणाई वे स्तूप दो योजन ऊँचे और दो योजन लम्बे-चौड़े हैं । वे आयाम-विक्खंभेणं, सेआ संखतल-जाव-अट्ठमंगलया। शंखखण्ड के समान श्वेत हैं-यावत्-आठ-आठ मंगल-द्रव्य हैं। तेसि णं थूभाणं चउद्दिसि चत्तारि मणिपेढियाओ उन स्तूपों के चारों ओर मणिपीठिकाएं हैं। पण्णत्ताओ। ताओ णं मणिपेटियाओ जोअणं आयाम-विक्खंभेणं, वे एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है। अद्धजोयणं बाहल्लेणं, जिणपडिमाओ वत्तवाओ। (यहाँ) जिन प्रतिमाओं का कथन समझ लेना चाहिए। चेइयरुक्खाणं मणिपेढियाओ दो जोयणाई' आयाम- (वहाँ की) चैत्यवृक्षों की मणिपीठिकाएं दो योजन लम्बीविक्खंभेणं, जोअणं बाहल्लेणं चेइयरुक्खवण्णओ ति। चौड़ी, एक योजन मोटी हैं। चैत्यवृक्षों का भी कथन कर लेना चाहिए। चेइयरुक्खाणं पुरओ तओ मणिपेख्यिाओ पण्णताओ, चैत्यवृक्षों के सामने तीन मणिपीठिकाएँ हैं, वे मणिपीठिकाएँ ताओ णं मणिपेडियाओ जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी हैं । अद्धजोयणं बाहल्लेणं। तासि गं उप्पि पत्तेयं पत्तेयं महिंदज्झया पण्णता। उनके ऊपर अलग-अलग महेन्द्रध्वजाएँ हैं। तेणं अबढमाईजोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, अद्धकोसं वे साढ़े सात योजन ऊँची, आधा कोस गहरी, आधा कोस उठवेहेणं, अद्धकोसं बाहल्लेणं, वइरामयवट्टवण्ण भो, मोटी है। वज्रमय पट्ट वाली हैं, इत्यादि वर्गन कहना चाहिए । वेइआ. वणसंड, तिसोवाण तोरणा य भाणियब्वा। वेदिका, बनखण्ड, विसोपान और तोरण कह लेने चाहिए। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३६२ तिर्यक् लोक : दो यमक पर्वत तासि णं सभाणं सुहम्माणं छच्चमणोगुलियासाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पुरत्थिमेणं दो साहस्सीओ पण्ण ताओ, पच्चत्थिमेणं दो साहस्सीओ पण्णत्ताओ, दक्खि एमा साहस्सो पता उत्तरे एगा साहसी पण्णत्ता जाव दामा चिट्ठन्ति त्ति । , एवं गोमाणसिआओ, णवरं - धूवघडिआओ त्ति । तासि णं समाणं मुहम्माणं तो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण मणिपेडिया दो जोषणा आयाम-विषमेणं, जो बाहल्लेणं । तासि णं मणिपेढियाणं उप्पि माणवए चेइयखम्भे मज्झमाणे उवर छक्कोसे ओगाहित्ता, हेट्ठा छक्कोसे वज्जित्ता जिणसकहाओ पण्णत्ताओ त्ति । माणगरस पुम्बेषं सीहाराणा सपरिवारा, पच्चरिथमेनं सयणिज्ज वण्णओ । सय णिज्जाणं उत्तर-पुरत्थिमे दिसिभाए खुड्डगमहदया मणिवेदिओ विणा महियमाणा । तेस अयरेण चोरफाला पहरणकोसा तस्य णं बहवे फलिहरयणपामुक्खा जाव- चिट्ठन्ति । सुहम्माणं उपि अट्टट्ठमंगलगा । तासि णं उत्तर-पुरत्थिमेणं सिद्धाययणा, एस चेव जिणघराण वि गमो त्ति । णवरं इमं णाणत्तं एतेसि णं बहुमन्सदेसमाए पत्तेयं पलेयं मणिपेठियाओ दो जो बाई आयाम विक्स जो बाहल्लेणं । , तासि उप्पि पत्तेयं पत्तेय देवच्छं दया पण्णत्ता । दो जोयणाई आयाम विक्खंभेणं, साइरेगाई दो जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, सव्वरयणामया जिणपडिमा वष्णओ-जाव-धूवक डुच्छगा । एवं अवसेसाण वि सभाणं- जाव उववायसभाए सयणिज्जं हरओ अ । अभिसेसभाए बहु अभिसेक्के मंडे चिट्ठइ । अलंकारिनसभाए बहू अलंकार ि । ववसाय सभासु पुत्थयरयणा । नंदा क्खरिणीओ | लिपे से जोगाई आयाम विश्वंभे मोय बाले जाय-ति । गणितानुयोग २४६ उन सुधर्मा सभाओं में छह हजार मनोगुनिका पीठिका हैं। वे इस प्रकार पूर्व में दो हजार पश्चिम में दो हजार, दक्षिण में एक हजार और उत्तर में एक हजार - यावत्-वहाँ दाममातायें हैं । इसी प्रकार गोमानसिकाएं (शय्यारूप स्थान विशेष) भी है। विशेष यह है कि वहाँ पटिकाएं हैं। उन सुधर्मा सभाओं के अन्दर अति सम एवं रमणीय भूमि - भाग है । वहाँ की मणिपीठिका दो योजन लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी है । उन मणिपीठिकाओं पर माणवक चैत्यस्तंभ हैं, जो महेन्द्रध्वज के बराबर प्रमाण वाला है। ( उसके ऊपर छह कोस अवगाहन करने पर और नीचे छह कोस छोड़ कर जिन की अस्थियाँ हैं । माणवक (चैत्यस्तंभ ) के पूर्व में सपरिवार सिंहासन हैं। पश्चिम में शय्याओं का वर्णन करना चाहिए । शय्याओं के उत्तर-पूर्व कोण में छोटे महेन्द्रध्वज हैं । वे मणिपीठिका से रहित हैं और महेन्द्रध्वज के बराबर प्रमाण वाले हैं । उनके पश्चिम में चोफाल नामक शस्त्रागार है। उनमें परिघरत्न आदि - यावत् — शस्त्र रक्खे हैं । सुधर्मा सभाओं के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य हैं । — उनके उत्तर-पूर्व में सिद्धायतन हैं। जिनगृहों का भी यही गम है। विशेषता यह है कि इनके ठीक मध्यभाग में अलगअलग मणिपीटिकाएँ हैं, जो दो योजन लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी हैं। उनके ऊपर अलग-अलग देवच्छंदक हैं । वे दो योजन लम्बे-चौड़े कुछ अधिक दो योजन ऊंचे, सर्वरत्नमय हैं । यहाँ जिन प्रतिमाओं का वर्णन धूपदानी पर्यन्त कह लेना चाहिए। इसी प्रकार शेष सभाओं का यावत् - उपपातसभा का वर्णन समझना चाहिए । हृदों का भी वर्णन कर लेना चाहिए । अभिषेक सभा में बहुत से अभिषेक के योग्य भाण्ड रक्खे हैं । अलंकारिक सभा में अलंकार योग्य बहुत से भाण्ड हैं । व्यवसायमाओं में पुस्तकरल हैं। नन्दा पुष्करिणी हैं। लिपीठ हैं जो दो योजन लम्बे-चौड़े एवं एक पोजन मोठे हैं । यावत् — Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कांचनग पर्वत गाहाओ - उववाओ कप्पो अभिसेअविहसणा य ववसाओ । अण्वणिन सुधम्मगमो जहा व परिवारणा इढी ॥ जावइयंमि पमाणंमि हुति जमगाओ णीलवंताओ । तावइअमंतरं खलु जमगदहाणं दहाणं च ॥ - जंबु वक्ख० ४, सु०८८ जंबुद्दीवे दो कंचणगपव्ययसपा३६३. जंबुद्दीवे णं दीवे दो कंचणगपव्वयसया पण्णत्ता ।' - सम. १०२. सु. ३ कंचनगपव्ययाणं अवट्टिई पमाणं च फोलवंत रहस्य णं पुरात्थिम-पच्चत्विमे इस जोगाई अबाधाए - एत्थ णं दस दस कंचणगपव्वया पण्णत्ता । ते णं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं, पणवीसं पणयोस जोयणाई उहे । मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं, २ मझे पण्णत्तर जोयणाइं विक्खंभेणं, उबर पास जीवणाई विरमेणं तिमि सोजोए किचि विसेसाहिए परिव मज्झे दोणि सत्ततीसे जोयणसए किचि विसेसाहिए परिक्वेणं, उवरि एवं अड्डा जोपणस किचि विसेसाहिए परिक्खे वेणं, ४ गाथार्थ - (दोनों यमक देवों का ) उपपात, संकल्प, अभिषेक, विभूषणा, व्यवसाय ( सिद्धायतन आदि की ) अर्चा, सुधर्मा सभा में गमन तथा परिवार का स्थापना ( इन सब का वर्णन करना चाहिए ) ॥ १ ॥ जितने प्रमाण वाले नीलवन्त के यमक पर्वत कहे गए हैं, निश्चित रूप से उतना ही प्रमाण यमकद्रहों का एवं द्रहों का समझना चाहिए ॥२॥ जम्बूद्वीप में दो सो कंचनगपर्वत ३९३. जम्बूद्वीप द्वीप में दो सो कांचनगपर्वत कहे गये हैं । गहाओ - मूलंमि जोयणसयं, पण्णत्तरि जोयणाई मज्झमि । उवरितले कंचणगा, पण्णासं जोअणा हुंति ॥ मूलमि तिष्णि सोले, सत्ततीसाई दुण्णि मज्झमि । अट्ठावण्णं च सयं, उवरितले परिरओ होइ ॥ सूत्र ३२-३६३ कंचनगपर्वतों की अवस्थिति और प्रमाण नीलवंत द्रह से पूर्व और पश्चिम में दस योजन के बाद व्यवधान रहित दस-दस कांचनगपर्वत कहे गये हैं । ^ प्रत्येक कंचनगपर्वत सौ योजन ऊपर की ओर उन्नत है, पचीस-पचीस योजन भूमि में गहरे हैं । प्रत्येक पर्वत मूल में सो योजन चौड़े हैं । मध्य में पचहत्तर योजन चौड़े हैं । ऊपर पचास योजन चौड़े हैं । मूल में तीन सो सोलह योजन से कुछ अधिक इनकी परिधि है। १ प० जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया कंचणगपव्त्रया पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! जम्बुद्दीवे दो कंचणगपव्त्रयस्या भवतीति मक्खायंती | मध्य में दो सो सेंतीस योजन से कुछ अधिक इनकी परिधि है । अपर एक सो अट्ठावन योजन से कुछ अधिक इनकी परिधि है । "देवकुसात दशकोमलयो प्रत्येक दश दश कानसद्भावात् । - जम्बु० वक्ख ० ६, सु० १२५ २ सव्वे विणं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता, एगमेगं गाउयस्यं उब्वेहेणं पण्णत्ता मूले, विक्खंभेण पण्णत्ता । ३ सब्वे विणं कंचणगपव्वया सिहरतले पन्नासं पन्नासं जोयणाई विक्वं भेणं पण्णत्ता । ४ णीलव तद्दहस्स पुव्वावरे पासे दस दस जोयणाइ अबाहाए एत्थ णं वीसं कंचणगपथ्वया पण्णत्ता । एवं जोधणसयं उद्धं उच्चत्तेणं । जंबु० वक्ष० ६ सूत्र १२५ की वृत्ति एगमेगं जोयणसयं - सम. १००, सु. ८ सम. ५०, सु. ७ - जंबु० वक्ख० ४, सु० ८३ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३६३-३६५ तिर्यक्लोक : दीर्घवंताढ्य पर्वत गणितानुयोग २५१ मूले वित्थिण्णा, मज्झे संखित्ता, उप्पि तणुया, सम्वकंचण- मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर से पतले, सभी पर्वत मया अच्छा-जाव-पडिरूवा।" कंचनमय हैं स्वच्छ हैं—यावत्-प्रतिरूप है। पत्ते पत्तेअं पउमवरवेइया परिक्खित्ता। प्रत्येक कंचनकपर्वत पद्मवरवेदिका से घिरा हुआ है। पत्ते पत्तेअं वणसंडपरिक्खित्ता। प्रत्येक कंचनक पर्वत वनखण्ड से घिरा हुआ है। तेसि णं कंचणगपध्वयाणं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे उन कंचनक पर्वतों के ऊपर अतिसमरमणीय भूभाग कहा पण्णत्ते, तत्थ णं कंचणगा देवा आसयंति-जाव-भोगभोगाइं गया है । वहाँ वे कंचनक देव बैठते हैं-यावत् –भोग भोगते हुए भुजमाणा विहरति । विहार (क्रीडा) करते हैं । तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए उन पर्वतों के अतिसम रमणीय भूभाग के मध्य में प्रत्येक पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा, सड्ढ बाढि जोयणाई उड्ढे कांचनगदेव के प्रासाद हैं, वे प्रासाद साढ़े बासठ योजन ऊपर की उच्चत्तेणं, एक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं । ओर ऊँचे हैं, इकतीस योजन और एक कोश चौड़े हैं । मणिपेढिया दो जोयणिया, सीहासणा सपरिवारा। दो योजन (लम्बी-चौड़ी) मणिपीठिका है, (यहाँ पर) -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५० सिंहासन युक्त है। कंचणगपव्वयाणं णामहेऊ कांचनक पर्वतों के नाम के हेतु३६४. ५०–से केणढणं भंते ! एवं बुच्चइ-"कंचणगपव्वया, ३६४. प्र०-हे भगवन् ! कांचनक पर्वत किस कारण से कांचनक कंचणगपव्वया ? पर्वत कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! कंचणगेसु णं पव्वएसु तत्थ तत्थ बावीसु उ०-हे गौतम ! उन कांचनगपर्वतों पर जहाँ-तहाँ उप्पलाई पउमाई कंचणगवण्णाई कंचणगप्पभाई कंचण- वापिकाओं में उत्पल हैं, पद्म है, वे कांचनग पर्वत जैसे वर्ण गवण्णाभाई कंचणगदेवा महिड्ढिोया-जाव-विहरंति। वाले हैं, प्रभा वाले हैं आभावाले वहाँ कांचनक देव महद्धिक है -यावत् -विहार (क्रीडा) करते हैं । से तेणणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-"कंचणगपव्वया, हे गौतम ! इस कारण कांचनक पर्वत को कांचनक पर्वत कंचणगपव्वया।" कहा जाता है। उत्तरेणं कंचणगाणं देवाणं कंचणियाओ रायहाणीओ (मेरुपर्वत से) उत्तर में कांचनक देवों की काचनिका राजअण्ण मि जंबुद्दीवे दीवे, तहेव सव्वं भाणियव्वं । धानियां अन्य जम्बूद्वीप द्वीप में है। शेष सब उसी प्रकार कहना -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५० चाहिए। चोत्तीस दोहवेयड्ढपब्वया चौतीस दीर्घवैताढ्य पर्वत३६५. जंबुद्दीवे णं दीवे चोत्तीसं दोहवेयड्ढपव्वया पण्णत्ता । ३६५. जम्बुद्वीप द्वीप में चौतीस दीर्घ वैताढ्यपर्वत कहे गये हैं। ३९६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणणं दो दोह- ३६६. जम्बुद्वीप द्वीप में मंदरपर्वत के उत्तर-दक्षिण में दो दीर्घ वेयड्डपब्वया पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, तं जहा- वैताद्य पर्वत कहे गये हैं । वे दोनों क्षेत्रप्रमाण की दृष्टि से सर्वथा १ भारहे चेव दोहबेयड्डे, २ एरवए चेव दीहवेयड्ढे । सदृश है-यावत्-लम्बाई-चौड़ाई, ऊँचाई-गहराई आदि में समान -ठाणं २, उ. ३, सु. १८७ है। वह इस प्रकार है--(१) एक दीर्घवेताढ्य मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग के भारत में, (२) दूसरा दीर्घवेताट्य मन्दर पर्वत के उत्तर भाग ऐरवत क्षेत्र में । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५० १ सम्वेसि पुरथिम-पच्चत्थिमेणं कंचणगपब्वयसया दस दस एगप्पमाणा । २ (क) प०-जम्बुद्दीवे णं भंते, दोवे केवइया दी हवेयड्ढपव्वया पण्णता ? उ.-गोयमा ! चोत्तीसं दीहवेयड्ढपव्वया पण्णत्ता। (ख) ..."चतुस्त्रिशद्दीर्घवैताढ्या द्वात्रिंशद्विजयेषु भरतरावतयोश्च प्रत्येककमेकैक भावात् । -जम्बु० वक्ख० ६ सु० १२५ -जम्बू० वृत्ति। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : दीर्घ वैताढ्य पर्वत सूत्र ३९७ दोहवेयड्ढपव्वयस्स अवट्रिई पमाणं च दीर्घवेताढ्य पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण ३६७. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भरहेवासे दोहवेयड्ढे ३६७. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप के भरतवर्ष में दीर्घ वैताढ्य णामं पव्वए पण्णत्ते ? ___ नामक पर्वत कहाँ हैं ? उ०-गोयमा ! उत्तरड्ढ भरहवासस्स दाहिणेणं, दाहिणड्ढ- उ०-गौतम ! उत्तरार्ध भरत क्षेत्र के दक्षिण में, दक्षिणार्ध भरहवासस्स उत्तरेणं, पुरथिम-लवणसमुद्दस्स पच्चत्थि- भरत क्षेत्र के उत्तर में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में, पश्चिमी मेणं, पच्चत्थिम-लवणसमुदस्स पुरथिमेणं- एत्थ णं लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के भरतवर्ष का दीर्घ वैताढ्य जंबुद्दीवे दीवे भरहेवासे दोहवेयड्ढे णामं पध्वए नामक पर्वत कहा है। पण्णते। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिणवित्थिण्णे । ___ यह पर्वत पूर्व-पश्चिम में लम्बा एवं उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। दुहा लवणसमुद्दपुट्ठ। दो ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है । पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्दपुढे, पूर्व में पूर्वी लवणसमुद्र से स्पृष्ट है तथा पश्चिम में पश्चिमी पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चत्थिमिल्लं लवणसमुद्द लवणसमुद्र से स्पष्ट है । पणवीसं जोयणाई उडढ उच्चत्तेणं,' छ सकोसाइं इसकी ऊँचाई पच्चीस योजन, गहराई सवा छह योजन, एवं जोयणाई उब्वे हेण, पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं । चौड़ाई पचास योजन है। तस्स बाहा पुरत्थिम-पच्चत्थिमेणं चत्तारि अट्ठासीए जोयणसए सोलस य एगूणवीसइभागे जोअणस्स अद्ध इसकी बाहु पूर्व-पश्चिम में ४८८..+ - योजन लम्बी है। भागं च आयामेणं पण्णत्ता। तस्स जीवा उत्तरेणं पाईण-पडीणायया । इसकी जीवा उत्तर में पूर्व-पश्चिम की ओर लम्बी तथा दोनों दुहा लवणसमुद्दपुट्ठा ओर से लवणसमुद्र से स्पृष्ट है। पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुद्द पुट्ठा, पूर्व की ओर पूर्वी लवणसमुद्र से स्पृष्ट है पश्चिम की ओर पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्ल लवणसमुह पश्चिमी लवणसमुद्र से स्पृष्ट है। पुट्ठा। दस जोयणसहस्साई सत्तवीसे जोयणसए दुवालस य एगूणवीसइभागे जोयणस्स आयामेणं । इसकी लम्बाई १०७२०१२ योजन है। तीसे णं धणुपिट्ठ दाहिणणं दस जोयणसहस्साई सत्त इसका धनुःपृष्ठ दक्षिण मेंतेयाले जोयणसए पण्णरस य एगूणवीसइभागे जोयणस्स परिक्खेवेण । १०७४३१५ योजन की परिधि वाला है। रुअगसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे-जाव-पडिरूवे। दीर्घ वैताढ्य पर्वत रुचक (ग्रीवा के आभूषण) के आकार का है, सर्वात्मना रत्नमय है, स्वच्छ-यावत्-है। १ सव्वे वि णं दीहवेयड्ढपव्वया एगमेगं गाउयसयं उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता। –सम० १०० सु०६ २ सव्वे वि णं दीहवेयड्टपव्वया एणुवीसं पणुवीसं जोयणाणि उड्ढं उच्चत्तेणं, पणुवीसं पणुवीसं गाउयाणि उव्वेधेणं पण्णत्ता । -सम० २५, सु० ३ ३ सव्ये वि णं दीहवेयड्ढपव्वया मूले पण्णासं पण्णासं जोयणाणि विक्खंभेणं पण्णत्ता। -सम० ५०, सु०४ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३६७-४०० तिर्यक् लोक दीर्घवताढ्य पर्वत : उमओ पास दोहि परमवरवयाहि वोह व वणसंडेहि सव्वओ समता संपरिक्खित्ते । ताओ णं परवेश्याओं उप त्तेणं, पंचधणुसयाई विवखंभेणं, पव्वयस मियाओ आया मेणं वण्णओ भाणियव्वो । तेणं वणसंडा देसूणाई दो जोयणाडं विक्खंभेणं, पउमवरवेइया समगा....आया मेणं, किण्हा किण्होभासा -जाववण्णओ । - जंबु० वक्ख० १, सु० १३ दीपयसिहरतलस्स अबट्टिई पमाणं च ३८. तास भोगलेढी बहुसमरमज्जा भूमिभाव दीवेयड्ढस्स पथ्वयस्स उभओ पासि पंच पंच जोयणाई उड्ढ उप्पइत्ता - एत्थ णं दीहवेयड्ढस्स पथ्वयस्स सिहरतले पण्णत्ते पाईण-पडीणायए, उदीण दाहिणवित्थिण्णे, दस जोयणाइ विक्वं भेणं, पव्वयसमगे आयामेणं । । , उ०- गोयमा ! बहुसमरमणि भूमिमागे पत्ते से जहा नाम लिंगपुक्ख इ वा जाव णाणाविह पंचवण्णेहि मणीहि उबसोचिए जाय-बायीओ क्खरिणी-जान वाणमंत देवाय देवीओ व आसतिगाव जमाना विहरति । - जंबु० वक्ख० १, सु० १२ दीपड दपव्ययरस णामहेऊ ४०० प० सेकेणणं भंते ! एवं वुच्चइ "दीवेयड्ढे पव्वए, दीपाए ? उ०- गोयमा ! दीहवेयड्ढे णं पव्वए भर वासं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठइ, तं जहा -१ दाहिणड्ढभरहं च, २ उत्तरड्डभरहं च । दीवेढगिरिकुमारे अ देवे महिड्ढीए-जाव- पलिओधमट्टिए परिवस । से रोग गं गोवमा ! एवं पद दीहवे यह पचए. दोवेव पचए।" गणितानयोग २५३ इसके दोनों पाश्यं दो पद्मवर वेदिकाओं से तथा दोनों से चारों ओर से घिरे हैं । ये पद्मवेदिकाएँ अर्ध योजन ऊँची, पाँच सौ धनुष चौड़ी एवं पर्वत जितनी लम्बी हैं । इनका वर्णन कह लेना चाहिए । 1 वनखण्ड दो योजन से कुछ कम चौड़े पद्मवरवेदिका जितने लम्बे, कृष्णवर्ण एवं कृष्ण आभास वाले हैं - यावत् - इनका भी वर्णन समझ लेना चाहिए । - दीर्घवैताढ्य पर्वत के शिखरतल की अवस्थिति और प्रमाण ३२८. इन अभियोगकयों के अति सम और रमणीय भूमि भाग से दीर्घ वैताढ्य पर्वत के दोनों ओर पाँच-पाँच योजन ऊपर जाने पर दीर्घ वैताढ्य पर्वत का शिखर तल आता है । से णं इक्काए पउमवरवेइयाए, इक्केणं वणसंडेणं सव्वओ, समता संपरिक्खित्ते, पमाणं वण्णओ दोण्हं पि । - जंबु० वक्ख० १, सु० १२ दीवेय] हृदयसिहरतलस्स आधारभावो दीर्घता पर्वत के शिखर तल का आकारभाव ३६६. प० - दोहवेयड्ढस्स णं भंते ! पव्वयस्स सिहरतलस्स के रिसए १६६. प्र० - भगवन् ! दीर्घ वैताढ्य पर्वत के शिखर तल का आयारभाव पडोयारे पण्णत्ते ? स्वरूप कैसा है ? यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में फोड़ा है। इसकी चौड़ाई दस योजन की ओर लम्बाई पर्वती है। इसके चारों ओर एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड समान भाग वाला है । इन दोनों का प्रमाण और वर्णक समझ लेना चाहिए। उ०- गौतम ! इसका भाग अति सम एवं रमणीय है । वह आलिंगपुष्कर ( मृदंग पर मढ़े हुए चमड़े) के समान समतल - यावत् नानाविध पंचवर्ष मणियों से सुशोभित है- पात् वापिकाओं तथा पुष्करिणियों से युक्त है- बायाँ वाण व्यंतरदेव एवं देवियाँ बैठते - यावत्-भोग भोगते हुए विचरते हैं । - दीर्घ वेलाढ्य नाम का हेतु ! ४०० प्र० - भगवन् दीर्घ नाट्य पर्वत दीर्घ पर्वतस्यों कहा जाता है ? उ०- गौतम दीपं तापत भरतवर्ष को दो भागों में विभक्त करता है, यथा-दक्षिणार्ध भरत और उत्तरार्धं भरत । और यहाँ दी तानिरिकुमार नामक देव रहता है जो महद्धिक - यावत् - पल्योपम की स्थिति वाला है । इस कारण गौतम ! इसे दीर्घ वैताढ्य पर्वत करते हैं । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : दीर्घ वैताढय पर्वत सूत्र ४००-४०१ अदुत्तरं च णं गोयमा! दीहवेयड्स्स पब्वयस्स सासए इसके अतिरिक्त, गौतम ! दीर्घ वैताढ्य पर्वत का यह नाम णामधेज्जे पण्णत्ते, जं न कयाइ, न आसि-जाव-णिच्चे। शाश्वत है । अथवा यह न कभी नहीं था, न भी नहीं है, न कभी -जंबु० वक्ख० १, सु० १५ नहीं होगा। यह था, है और रहेगा। यह नाम ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अवस्थित है, नित्य है। कच्छविजए दोहवेयड ढपव्वए कच्छविजय का दीर्घ वैताढ्य पर्वत४०१.५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे कच्छे ४०१. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप महाविदेह वर्ष के कच्छविजय विजए दोहवेयड्ढे णामं पव्वए पण्णत्ते ? में दीर्घ वैताढ्य नामक पर्वत कहाँ है ? उ०-गोयमा ! दाहिण कच्छविजयस्स उत्तरेणं, उत्तरद्ध- उ०-गौतम ! दक्षिणार्ध कच्छविजय के उत्तर में, उत्तरार्ध कच्छविजयस्स दाहिणेणं, चित्तकूडस्स पव्वयस्स कच्छ (विजय) के दक्षिण में, चित्रकूट के पश्चिम में एवं माल्यवंत पच्चत्थिमेणं, मालवंतस्स वक्खारपब्वयस्स पुरथिमेणं, वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में कच्छविजयस्थित दीर्घ वैताढ्य नामक एत्थ णं कच्छे विजए दोहवेयड्ढे णाम पव्वए पण्णत्ते।' पर्वत है । पाईण-पडिणायए, उदीण-दाहिण-वित्थिण्ण । यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। दुहा वक्खारपव्वए पुट्ठ। दो ओर से वक्षस्कार पर्वत से स्पृष्ट है । पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं वक्खारपब्वयं, पूर्व की ओर से पूर्वी वक्षस्कार एवं पश्चिम की ओर से पच्चथिमिल्लाए कोडीए पच्चथिमिल्ल वक्खारपध्वयं । पश्चिमी वक्षस्कार से स्पृष्ट है। एवं दोहि वि पुढे, भरह-दीह-वेयड्ढसरिसए । यह भरतवर्ष के दीर्घ वैताढ्य के समान है । णवरं-दो बाहाओ, जीवा धणुपुटुं च ण कायव । अन्तर इतना है कि इसके दो भुजाएँ व जीवा है, किन्तु धनुपृष्ठ नहीं है। विजयविक्खं भसरिसे आयामेणं५ विक्खंभो उच्चत्तं, यह विजय के समान ही लम्बा, चौड़ा, ऊँचा और गहरा उव्वेहो तहेवं च विज्जाहरआभिओगसेढीओ तहेव। है। इस पर भी उसी प्रकार विद्याधरों एवं आभियोगिक देवों की श्रेणियां हैं। णवरं-पणपण्णं पणपण्णं विज्जाहर-णगरावासा पण्णात्ता। विशेषता यह है कि यहां विद्याधरों के पचपन-पचपन नगरा वास हैं। आभिओगसेढीए उत्तरिल्लाओ सेढीओ, सीआए आभियोगिक श्रेणियों में से शीता महानदी के उत्तर की ईसाणस्स, सेसाओ सक्कस्स ति*। श्रेणियों का स्वामी ईशानेन्द्र तथा शेष (शीता महानदी के दक्षिण) -जम्बु० वक्ख० ४ सु०६३। का (स्वामी) शक्रेन्द्र है। १ कच्छस्य विजयस्य बहुमध्यदेशभागे दीर्घवैताढ्यः पर्वतः प्रज्ञप्तः, यःकच्छं विजयं द्विधा विभजं विभस्तितिष्ठति, तद्यथा-दक्षिणार्ध कच्छ चोत्तरार्धकच्छं च । च शब्दौ उभयोस्तुल्यकक्षताद्योतनाथौँ । २ पूर्वया कोट्या, पोरस्त्यं वक्षस्कारं चित्रकूटं नामानं पाश्चत्यया कोट्या पाश्चत्यं वक्षस्कारं माल्यवन्तं, अतएव द्वाभ्यां कोटिभ्यां स्पृष्ट:.... ३ भरत-दीर्घवंताव्यसदृशकः रजतमयत्वात् रुचकसंस्थानसंस्थितत्वाच्च । ४ नवरं-द्र बाहे, जीवा धनुःपृष्ठं च नकर्तव्यमवक्रक्षेत्रवर्तित्वात् । ५ लम्बभागश्च न भरतवैताढ्यसदृश इत्याह-विजयस्य कच्छादेर्यो विष्कम्भः किंचिदूनत्रयोदशाधिकद्वाविंशतिशतयोजनरूपस्तेन सदृश इत्याह-विजयस्य यो विष्कम्भ भागः सोऽस्यायामविभाग इति.... ६ ...विष्कम्भः-पंचाशयोजनरूपः, उच्चत्वं-पंचविंशतियोजनरूपं । उद्वेधः पंचविंशतिक्रोशात्मकस्तथैव-भरतवैताड़यवदेवेत्यर्थः.... विद्याधर श्रेणिभ्यामूर्ध्व दशयोजनातिक्रमेदक्षिणोत्तरभेदेन द्वे भवतः अत्राधिकारात् सर्ववैताढ्याभियोग्यश्रेणिविशेषमाह-उत्तर दिस्था आभियोग्यश्रेणयः शीताया महानद्या ईशानस्य-द्वितीयकल्पेन्द्रस्य । शेषा:-शीतादक्षिणस्थाः शक्रस्य-आद्यकल्पेन्द्रस्य । -जम्बू० वृत्ति Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र ४०२-४०३ तिर्यक् लोक : वृत्त वैताढ्य पर्वत चत्तारि वट्टवेयड पावयासहायह बट्ट पेय पव्वयरस अबट्टिई पमाणं च ढ ४०२.० नंते ! हेमा वा साई मार्म बट्टवेयड - कहि णं वासे पव्त्रए पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! रोहिआए महाणईए पच्चत्थिमेणं, रोहिअंसाए महाणईए पुरत्थिमेणं हेमवयवासरस बहुमज्झ देसभाए - एत्थ णं सद्दावई णामं वट्टवेयड्ढपव्वए पण्णत्ते । एवं जोपणसहस्सं उ उच्चसंगं अहाइाई जोयणसयाइं उब्वेहेणं, एवं जोयणसहस्सं आयाम विक्खंभेणं', तिष्णि जोयणसहस्साइ एगं च बावट्ठ जोयणसयं किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, सव्वत्थस मे पल्लगसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए अच्छे - जाव-परुिवे । से णं गाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिविखत्ते, वेइया वणसंडवण्णओ भाणियव्वो । सहावस्स बट्टवेययस्वयस्त उपर बहसम णजे भूमिभागे पण्णत्ते । तस्स णं बहुसम-रमणिज्जस्स भूमि भागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं पासाय वडेंस पण्णत्ते । बावट्ठ जोयणाई अद्ध जोयणं च उड़ढं उच्चत्तेणं, इक्लोस जोगाई कोर्सच आयाम-विवसंमे जाव सीहासणं सपरिवारं । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ७७ सद्दावई वट्ट्वेयड ढपव्वयस्स नामहेऊ पव्वए, सद्दावईवट्टवेयड्डपब्वए ? उ०- गोयमा ! सद्दावई वट्टवेयड्ढपव्वए णं खुड्डा खुड्डियासु बावीसु जाव- बिलपंतियासु बहवे उप्पलाई पउमाई सहावया सहावणाई सहायई वणभाई गणितानुयोग २५५ सहाय इत्थ देवं महिहीए-जार लिओमडिए परिवसइ इत्ति । से णं तत्थ चउन्हं सामाणियसाहस्सीणं- जाव-मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं अण्णं मि जंबुद्दीवे दोवे रायहाणी पण्णत्ता । चारवृत्त वैताढ्यपर्वत शब्दापाती वृत्त बैतापर्यंत की अवस्थिति और प्रमाण४०२. प्र०-हे भगवन्! हैमवत वर्ष में शब्दापाती वृत्त बताय पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०- हे गौतम! शेहिता महानदी से पश्चिम में और रोहितांसा महानदी से पूर्व में हैमवत वर्ष के मध्य में शब्दापाती नामक वृत्त वैताद्य पर्वत कहा गया है । - यह एक हजार योजन ऊपर की ओर ऊँचा है, अढाइ सी योजन भूमि में गहरा है, एक हजार योजन लम्बा चौड़ा है, तीन हजार एक सौ बासठ योजन से कुछ अधिक की परिधि वाला है, सर्वत्र समान- - बराबर -- पल्यंक के आकार से स्थित है, सर्व रत्नभय है, स्वच्छ हैं- यावत् प्रतिरूप है । --- यह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहाँ वेदिका और वनखण्ड का वर्णन कहना चाहिए। शब्दापाती वृसर्वताय पर्वत के ऊपर असिम रमपीव भू-भाग कहा गया है, उस अतिसम रमणीय भू-भाग के मध्य में एक महान् प्रासादावतंसक कहा गया है । ४०३.० से भते एवं पुण्यई सहाब बट्टड्ड ४०३. प्र०-हे भगवन्!ब्दापासी वृत्तायशब्दा पाती वृत्तापर्यंत क्यों कहा जाता है ? उ०- हे गौतम! शब्दापाती वृत्त वैतायपर्वत पर छोटीबड़ी वापिकाओं में- यावत् - बिलपंक्तियों में अनेक उत्पल वं पद्म हैं, वे शब्दापाती के समान प्रभा वाले हैं । शब्दापाती के समान वर्ण वाले हैं, शब्दापाती के समान आभा वाले हैं । यहाँ शब्दापाती नामक महद्धिक देव - यावत् - पल्योपम की स्थिति वाला रहता हैं । वह साडे बासठ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है, इकतीस योजन और एक को लम्बा-चौड़ा है अनेक यावत् - वहाँ सिहासन हैं । शब्दापाती वृत्तवैतायपर्वत के नाम का हेतु वह वहाँ चार हजार सामानिक देवों का अधिपति है- यावत् उसकी राजधानी मेरु पर्वत से दक्षिण में स्थित अन्य जम्बूद्वीप द्वीप है। १ (क) सव्वादस दस जोयणसयाई उई उच्चतंगं पण्णत्ता दस दस गाउसवाई उत्त मूले दस दस जोयणसयाई विक्खं मेणं पण्णत्ता, सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया पण्णत्ता । - सम० ११३, सु० ४ । (ख) ठाणं १०, सु० ७२२ । Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : गंधापातीवृत्त वैताढ्य पर्वत सूत्र ४०३-४०५ से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ- “सद्दावई वट्ट- हे गौतम ! इस कारण से शब्दापाती वृत्त वैताढ्यपर्वत वेयड्ढपब्बए, सद्दावई वट्टवेयड्पव्वए। शब्दापाती वृत्त वैताढ्यपर्वत कहा जाता है । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ७७ वियडावई वटटवेयड ढपव्वयस्स अवट्टिई पमाणं च- विकटापाती वृत्त वैताढ्यपर्वत की अवस्थिति और प्रमाण४०४. ५०-कहि णं भंते ! हरिवासे बासे वियडावई णामं वट्ट- ४०४. प्र.-हे भगवन् ! हरिवर्ष वर्ष में विकटापाती वृत्त वैताढ्य वेयड्डपव्वए पण्णत्ते ? | पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०—गोयमा ! हरीए महाणईए पच्चत्थिमेणं, हरिकताए उ०-हे गौतम ! हरी महानदी से पश्चिम में और हरिकता महाणईए पुरथिमेणं, हरिवासस्स बहुमज्झदेसमाए- महानदी से पूर्व में हरिवर्ष के मध्य में विकटापाती नामक वृत्त एत्थ णं वियडावई णामं वट्टवेयड्पवए पण्णते। वैताढ्यपर्वत कहा गया है। एवं जो चेव सदावइस्स विक्खंभुच्चत्तुब्वेह, परिक्खेवं शब्दापाती (वृत्त वैताढ्य पर्वत) की चौड़ाई ऊँचाई गहराई संठाण वण्णवासो अ सो चेव विअडावइस्स वि भाणि- परिधि-संस्थान आदि का जो वर्णक है, वही विकटापाती वत्त यव्वो। वैताढ्य पर्वत का भी कहना चाहिए। णवरं-पउमाई-जाव-विअडावइवण्णाभाई, अरुणे विशेष-(विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत पर छोटी-बड़ी अ इत्थ देवे महिड्ढीए एवं-जाव-दाहिणणं रायहाणी वापिकाओं) में पद्म है यावत्-विकटापातीपर्वत के वर्णके णेयवा।। -जम्बु० वक्ख० ४, सु० ८२ समान है, यहाँ अरुण महधिक देव-यावत्-दक्षिण में उसकी राजधानी जाननी चाहिए। गंधावई वट्टवेयड ढपन्वयरस अवट्ठिई पमाणं च- गंधापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण४०५. ५०-कहि णं भंते ! रम्मए वासे गंधावई णामं वट्टवेयड्ढ- ४०५. प्र०-हे भगवन् ! रम्यक्वर्ष में गंधापाती वृत्त वैतादयपव्वए पण्णते? पर्वत कहा गया है ? उ०-गोयमा ! णरकताए महाणईए पच्चत्थिमेणं, णारी- उ०-हे गौतम ! नरकान्ता महानदी से पश्चिम में और कंताए महाणईए पुरस्थिमेणं, रम्मगवासस्स बहुमज्झ- नारी कान्ता महानदी से पूर्व में रम्यक् वर्ष के मध्य भाग में देसभाए- एत्थ णं गंधाबई णामं बट्टवेयड्ढपध्वए गंधापाती वृत्त वैताढ्य पर्वत कहा गया है। पण्णत्ते। एवं जो चेव विअडावइस्स विक्खंभच्चत्तु वह परिक्खेव विकटापाती की चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई परिधि, संस्थान -संठाण-वण्णावासो अ सो चेव गधावइस्स वि भाणि- आदि का जो वर्णक है, वही गंधापाती का भी कहना चाहिए। यवो। जम्बट्टीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणणं हेमवत-हेरणवतेसु वासेसु दो बट्टवेयड ढपव्वया पण्णत्ता बहसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्णमण्णं णाइवट्टति, आयाम-विक्खंभुच्चत्तोब्बेह-संठाण-परिणाहेणं, तं जहा-(१) सहावाई चेव, (२) वियडाबाई चेव।। तत्य णं दो देवा महिड ढया-जाव-पालिओवमट्टिईया परिवसंति, तं जहा-(१) साती चेव, (२) पभासे चेव । -ठाणं २, उ० ३, सु० ८७. २ विषडावई बट्टवेयड उपव्वयस्स णामहेउ ५०-से केण→णं ! एवं बुच्चइ-"वियडावईवट्टवेयड्ढपव्वए, वियडावई वट्टवेयड्ढपव्वए ? उ०-गोयमा ! वियडावई वट्टवेयड्ढपव्वएणं खुड डा खुड्डियासु जाव बिलपंतिआसु बहवे उप्पलाई पउमाई वियडावई वण्णाई वियडावईप्पभाई वियडावइप्पभासाई, अरुणे अ इत्थ देवे महिड्ढीए जाव पलिओवमदिइए परिवसइ । से ण तत्थ चउण्डं सामाणियसाहस्सीणं जाव मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं अण्णं मि जम्बुद्दीवे दीवे रायहाणी पण्णत्ता। से एएणटठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-"वियडावई बट्टवेयड्ढपब्वए वियडावइवट्टवेयड्ढपब्वए ।-जंबू. वक्ख.४, सू०५२।। नोट :-ऊपर अकित संक्षिप्त पाठ का यह विस्तृत पाठ है-जो एक प्राचीन प्रति से यहाँ उद्धृत किया है। (-संपादक), Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४०५-४०६ तिर्यक् लोक : मालवंत पर्वत अट्ठो अट्ठो बहवे उप्पलाई पउमाई गंधावई वण्णाई गंधावईप्पभाई गंधावईप्पभासाई, पउमे अ इत्थ देवे महिड्ढीए पलिओनए परिवत राहाणी उत्तरेण — जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ मालवंतपरियाय चट्टवेयड उपव्ययरस अचट्ठिई मालवन्तपर्याय वृत्तवैताद्य पर्वत की अवस्थिति और पमाणं च ति । " बहवे उप्पलाई पउमाई मालवंतवण्णाई मालवं तप्पभाई मालवंतपणासाई, पमासे अ इत्थ देवे महिड्ढीए - जाव-प व-पलिओवमट्टिइए परिवसइ रायहाणी उत्तरेणं - जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ ति नाम का हेतु अनेक उत्पल पद्म गंधापाती के समान वर्ण, आभा एवं प्रभा वाले हैं । वहाँ पद्म नामक महद्धिक देव - यावत् — पल्योपम की स्थिति वाला रहता है उसकी राजधानी उत्तर में हैं। प्रमाण ४०६. प० - कहि णं भंते ! हेरण्णवए वासे मालवंतपरिआए णामं ४०६. प्र० - हे भगवन् ! हैरण्यवत वर्ष में माल्यवन्तपर्याय नाम का वृत्तवैताढ्य पर्वत कहाँ कहा गया है ? एपले ? । उ०- गोयमा ! सुवण्णकूलाए पच्चत्थिमेणं, रुपकू लाए पुरत्थिमेणं - एत्थ णं.... हेरण्णवयस्स वासस्स बहुमज्झ देसमाए मालवंतपरिआए णामं बट्टबेयपव्यए पम्पले एवं जो चैब सहायइस विश्वंभुच्य सुदेह परिव संडा बनावासी असो व मालवंतपरिआए वि भाणियव्वो । २ गणितानुयोग २५७ - - उ०- हे गौतम! सुवर्णकूला (महानदी) से पश्चिम में, रूप्यकूला (महानदी) से पूर्व में, हैरण्यवत वर्ष के मध्य भाग में मात्यवन्त पर्याय नाम का वृतापर्यंत कहा गया है। वृत्तवैताड्यपर्वत १ यह विस्तृत पाठ एक प्राचीन प्रति से यहाँ उद्धृत किया गया है गंधाबाई वेपयस्स गाम शब्दापाती की चौड़ाई, ऊंचाई, गहराई, परिधि, संस्थान आदि का जो वर्ग है यही मात्यवंतपर्याय का भी कहना चाहिए। नाम का हेतु बहुत से उत्पल, पद्म माल्यवंतपर्वत के समान वर्ण आभा एवं प्रभा वाले हैं, वहाँ प्रभास नामक महधिक देव — यावत्पल्योपम स्थिति वाला रहता है, उसकी राजधानी उत्तर में है । प० सेकेणट्टणं भंते ! एवं वृच्चइ - "गंधावई वट्टवेयड् ढपव्वए, गंधावई वट्टवेअड्ढपव्त्रए " ? उ०- गोयमा ! गंधावई वट्टवेयड्ढपव्वएणं खुड्डा खुड्डियासु जाव - बिलपंतिआसु बहवे उप्पलाई पउमाई गंधावइ-वण्णाई गंधावइप्पभाई गंधावयासाई पउने अ इत्य देवे महिडीए-जाब पनिभोमईए परिवस से णं तत्य च सामाणियसाहस्सीणं जाव-मंदरस्स पयस्स उत्तरेण अयंमि] जम्बुद्दीवे दीवे रामाणी पणता । से एएणणं गोयमा ! एवं बुच्चइ " - गंधावई वट्टवेयड्ढपव्वए, गंधावई वट्टवेअड्ढपब्चए । - जंबु० बक्ख० ४, सु० १११ २ जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर दाहिणे णं हरिवास-रम्मएसु वासेसु दो वट्टवेयड्ढपव्वया पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला - जावपरिणाहेणं, तं जहा - (१) गंधावाई चेव, (२) मालवंतपरियाए चेव । तत्थ दो देवा महिडिया जाव पनिओमडिया परिवर्तति तं जहा (१) व (२) पउमे चैव । - - ठाणं २, उ०३, सु० ८७ ऊपर अंकित संक्षिप्त पाठ का उपलब्ध विस्तृत पाठ इस प्रकार है ३ (क) मालवंत परिआय वट्ट वेयड्ढपव्वयस्स णामहेउ - प० – से केणट्टणं भंते ! एवं बुच्चइ - " मालवंतपरिआए बट्टवेयड्ढपव्त्रए, मालवंतपरिआए वट्टवेयड्ढपव्वए" ? उ०- गोपमा ! मालवंतपरियाए वट्टवेयड्डपक्या बुद्धायासुजाव विलपतिया बहने उप्पलाई पउमाई मालवंतबाई मानवतप्पभाई.... मालवंतण्यासाई पभासे अस्य देवे महिडिवमट्टिए परिवस | णं Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : ऋषभकूट पर्वत सूत्र ४०७ जंबुद्दीवे उसभकूड-पव्वया जम्बूद्वीप में ऋषभकूट पर्वत४०७. ५०-जंबुद्दीवे णं भते ! दीवे केवइया उसभकूडा पण्णत्ता ? ४०७. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में ऋषभकूटपर्वत कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे चोत्तीसं उसभकुडापत्वया पण्णत्ता। उ०—हे गौतम ! जम्बूद्वीप में चौंतीस ऋषभकूट पर्वत कहे -जंबु० वक्ख०६, सु० १२५ गये हैं। (क्रमशः) से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं-जाव-मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं अणं मि जम्बुद्दीवे दीवे रायहाणी पण्णत्ता। से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"मालवंतपरिआए वट्टवेयड्ढपव्वए, मालवंतपरिआए वट्टवेयड्ढपव्वए"। -जम्बु० बक्ख० ४, सु० १११ [यह पाठ एक प्राचीन प्रति से उद्धृत किया है ।] (ख) वृत्त वैताढ यपर्वतस्थान एवं देव-नामों में क्रम भेद (१) जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार क्रम पर्वत नाम क्षेत्र नाम देव नाम वक्षस्कार सूत्रांक शब्दापाती पर्वत विकटापाती पर्वत गंधापाती पर्वत माल्यवंतपर्याय पर्वत हैमवतवर्ष हरिवर्ष रम्यक वर्ष हैरण्यवतवर्ष शब्दापाती देव अरुण देव पद्म देव प्रभास देव 9 90 or (२) स्थानांग सूत्र के अनुसार क्रम पर्वत नाम क्षेत्र नाम देव नाम स्थान शक | सूत्रांक शब्दापाती पर्वत विकटापाती पर्वत गंधापाती पर्वत माल्यवंत पर्याय पर्वत हैमवतवर्ष हैरण्यवतवर्ष हरिवर्ष रम्यक्वर्ष स्वाती देव प्रभास देव अरुण देव पद्म देव यह क्रमभेद स्थानांग और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में है। स्थानांग अंग आगम है और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति उपांग आगम है। उपांग की अपेक्षा अंग प्रधान होता है यह मान्यता सर्वमान्य है, फिर भी वृत्तिकार ने स्थानांग का निर्देशन नहीं किया जबकि उनके सामने स्थानांग निर्दिष्ट क्रम भी था । वाचनाभेद के कारण भी यह क्रमभेद नहीं है क्योंकि वाचनाभेद प्रायः एक ही आगम में एक ही पाठ के सम्बन्ध में होता है। इस क्रमभेद के सम्बन्ध में वृत्तिकार का मन्तव्य"शब्दापाती वृतवैत ढ्यपर्वत के अधिपति देव का नाम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में शब्दापाती है किन्तु स्थानांग में उसका नाम 'स्वाती' देव है---वृत्तिकार ने स्थानांग का निर्देश न करके 'क्षेत्रविचार' का निर्देश किया है। प्र०-नन् अस्य शब्दापतिवृतबैताड्ढयस्य क्षेत्रविचारादि ग्रन्थेषु अधिप: 'स्वाति' नामा उक्तः, तत्कथं न तै: सह विरोधः? उ० - उच्यते-नामान्तरं मतान्तरं वा । -जम्बू० वक्ष० ४, सूत्र ७७ की वृत्ति जम्बद्रीपप्रज्ञप्ति में हरिवर्ष में विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत कहा है और स्थानांग में हैरण्यवतवर्ष में कहा है। (क्रमशः) Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४०८ तिर्यक् लोक : ऋषभकूट पर्वत गणितानुयोग २५६ उसभकूडपव्वयस्स अवट्ठिई पमाणं च ऋषभकूट पर्वत की अवस्थिति और प्रमाण४०८. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरड्ढभरहे वासे उसभ- ४०८. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीपवर्ती उत्तरार्ध भरतक्षेत्र कूडे णामं पवए पण्णत्ते ? में ऋषभकूट पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! गंगाकुण्डस्स पच्चत्थिमेणं, सिंधुकुण्डस्स उ०—हे गौतम ! गंगाकुण्ड के पश्चिम में, सिन्धुकुण्ड के पुरथिमेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपब्बयस्स दाहिणिल्ले पूर्व में, लघु हिमवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिणी भाग पर जम्बूद्वीप नितंबे-एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे उत्तर भरहे वासे द्वीपवर्ती उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में ऋषभकूट नामक पर्वत कहा उसहकूड णामं पव्वए पण्णत्ते । गया है। अट्ट जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, दो जोयणाई उध्वेहेणं। वह आठ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है, दो योजन भूमि में गहरा है। मूले अट्ट जोयणाई विक्खंभेणं, मज्झे छ जोयणाई मूल में आठ योजन चौड़ा है, मध्य में छह योजन चौड़ा हैविक्खंभेणं उरि चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं। ऊपर चार योजन चौड़ा है। मूले साइरेगाइं पणवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं । मूल में पच्चीस योजन से कुछ अधिक की परिधि है । मज्झे साइरेगाइं अट्ठारस जोयणाई परिक्खेवेणं । मध्य में अठारह योजन से कुछ अधिक की परिधि है। उप्पि साइरेगाई दुवालस जोयणाई परिक्खैवेणं ।' ऊपर बारह योजन से कुछ अधिक की परिधि है। (क्रमशः) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत का अधिपति देव 'अरुण' कहा है और स्थानांग में 'प्रभास' कहा है । इस सम्बन्ध में भी वृत्तिकार ने 'स्थानांग' का निर्देश नहीं किया है-बृहत्क्षेत्रविचारादिषु हैरण्यवते विकटापाती हरिवर्ष गन्धापातीत्युक्त, तत्त्वं तु केबलिगम्यम् ... --जम्बू० वक्ष० ४, सूत्र ८२ की वृत्ति जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति में गंबापाती वृत्तवैताढयपर्वत रम्यकवर्ष में कहा है और स्थानांग में हरिवर्ष में कहा है। इसी प्रकार गन्धापाती वृत्तवैताढ्य पर्वत का अधिपति देव जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में 'पद्मदेव' कहा है और स्थानांग में 'अरुण' देव कहा है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में 'माल्यवंतपर्याय वृत्तवताढ्य पर्वत' हैरण्यवत वर्ष में कहा है और स्थानांग में रम्यक्वर्ष में कहा है। इसी प्रकार जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में माल्यवंत वृत्तवैताढ्यपर्वत के अधिपति देव का नाम 'प्रभास' कहा है और 'स्थानांग में पद्मदेव कहा है । इस क्रम भेद के सम्बन्ध में वृत्तिकार सर्वथा मौन है । जम्बुद्वीप के मानचित्रों में शब्दापाती आदि चारों पर्वतों के क्षेत्र इस प्रकार अंकित हैक्रम पर्वत नाम क्षेत्र नाम १. शब्दापाती पर्वत हैमवतवर्ष २. विकटापाती पर्वत हैरण्यवतवर्ष गंधापाती पर्वत ४. माल्यवंतपर्याय पर्वत रम्यावर्ष यह क्रम स्थानांग के अनुसार है१ पाठंतरं :-मूले बारस जोयणाई विक्खंभेणं, मज्झे अट्ठ जोयणाई विक्वंभेणं, उप्पि चत्तारि जोयणाई विखंभेणं । मुले साइरेगाई सत्ततीसं जोयणाई परिक्वेणं, मज्झे साइरेगाइं पणवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं, उप्पि साइरेगाइं बारस जोयणाई परिक्वेवेणं । इस पाठान्तर के सम्बन्ध में वृत्तिकार का अभिमतः"वाचनाभेदस्तद्गतपरिणामान्तरमाह-मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन, मध्येऽष्टयोजनानि विष्कम्भेन, उपरि चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन अत्रापि विष्कम्भायामतः साधिकत्रिगुणं मूल-मध्यान्तपरिधिमानं सूत्रोक्तं सुबोधं । अत्राह पर :-एकस्य वस्तुनो विष्कम्भादिपरिमाणे दुरूप्यासम्भवेन"प्रस्तुतग्रन्थस्य च सातिशयस्थविरप्रणीतत्वेन कथं नान्यतरनिर्णयः? (क्रमशः) ३. गंधा हरिवर्ष Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : ऋषभकूट पर्वत सूत्र ४०८ 30हा मूले वित्थिण्णे, मझे संखित्ते, उप्पि तणुए, गोपुच्छ वह मूल में विस्तृत मध्य में संक्षिप्त, ऊपर से पतला, गाय संठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अच्छे-जाव-पडिरूवे। की पूंछ की आकृति के समान स्थित है, सारा जम्बूनद स्वर्णमय है स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप (सुन्दर) है । से गं एगाए पउमवरवेइयाए तहेव-जाव-भवणं । यह एक पद्मवरवेदिका से वेष्टित है-यावत्-भवन पर्यन्त सम्पूर्ण वर्णन से युक्त है। कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसऊणं कोसं वेदिका की लम्बाई एक कोस, चौड़ाई आधा कोस तथा उड्ढं उच्चत्तेणं । ऊँचाई एक कोस से कुछ कम है । अट्ठो तहेव' ऋषभकूट पर्वत के नाम का हेतु पूर्ववत् हैउप्पलाणि पउमाणि-जाव-उसभे अ एत्थ देवे महिड्ढोए "वहाँ उत्पल हैं, पद्म हैं-यावत्-ऋषभ नाम का -जाव-मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं रायहाणी तहेव जहा महधिक देव वहाँ है-यावत्-मंदरपर्वत के दक्षिण में उसकी विजयस्स अविसे सियं ।'-जंबु० वक्ख० ४, सु० १७ राजधानी है । विजयदेव के समान इस देव का सम्पूर्ण वर्णन है। (क्रमशः) यदेकस्यापि ऋषभकूट पर्वतस्य मूलादावष्टादियोजनविस्तृतत्वादिपुनस्तत्रैवास्य द्वादशादियोजनविस्तृतत्वादीति, सत्यं-जिनभट्टार काणां सर्वेषां क्षायिकज्ञानवतामेकमेवं मतं मूलतः । पश्चात्तु कालान्तरेण विस्मृत्यादिनाऽयं वाचना भेदः । यदुक्तं श्रीमलयगिरिसूरिभिर्योतिष्ककर ण्डव वृत्तौ-- "इह स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्ती दुष्षमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत्, ततो दुभिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघमेलापकोऽभवत्, तद्यथा-एको वलभ्यामेको मथुरायां, तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परं वाचनाभेदो जातः । विस्मृतयोहि सूत्रार्थयो स्मृत्वा स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचना द" इत्यादि । ततोऽत्रापि दुष्करोऽन्यतरनिर्णयः द्वयोः पक्षयोरुपस्थितयोरनतिशायिज्ञानिभिरनभिनिविष्ट मतिभिः प्रवचनाशातनाभीरुभिः पुण्यपुरुषरिति न काचिदनुपपत्तिः । किञ्च -सैद्धान्तिकशिरोमणि पूज्यश्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण प्रणीत-क्षेत्रसमास सूत्रे उत्तरमतमेवदर्शितं, यथागाहा-सव्वेवि उसहकूडा, उव्विद्धा अट्ठ जोयणे हुंति । बारस अट्ठ य चउरो, मूले मज्मुवरि वित्थिण्णा ॥ -जम्बू० वक्ष० १, सूत्र १७ की वृत्ति १ प०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"उसहकूडपव्वए उसहकूडपब्वए? उ० - गोयमा ! उसहकूडपब्बए खुड्डासु खुड्डियासु वावीसु पुक्खरिणीसु-जाव-बिलपंतीसु बहूई उप्पलाई पउमाई-जाव सहस्सपत्ताई उसहकूडत्पभाई उसहकूडवण्णाभाई"। महज्जुईए-जाव - उसहकूडस्स उसहाए रायहाणीए अण्णेसि च बहूण देवाण य देवीण य अहेवच्चं-जाव-दिब्वाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरइ। से एएण?णं एवं वुच्चइ--"उसहकूडपब्बए, उसहकूडपब्वए" -जम्वु० वक्ख० १, सु० १७ की वृत्ति २ प्रत्येक चक्रवर्ती पट्खण्डविजय यात्रा में अपना नाम ऋषभकूटपर्वत पर अंकित करता है। जम्बूद्वीप में चौंतीस चक्रवर्ती विजय हैं अतः ऋषभकूटपर्वत भी चौतीस हैं । "एक भरतक्षेत्र में एक ऐरवतक्षेत्र में और बत्तीस महाविदेह के बत्तीस विजयों में इस प्रकार चौंतीस ऋषभकूट पर्वत हैं। यद्यपि ये चौंतीम पर्वत भिन्न क्षेत्रों में हैं फिर भी सबका नाम 'ऋषभकूट' ही है। भरत चक्रवर्ती ने ऋषभकूट पर्वत पर अपना नाम अंकित किया था, इसका वर्णन इस प्रकार है : "तरण से भरहे राया तुरए णिगिण्हइ णिगिण्हित्ता रहं परावत्तेइ परावत्तित्ता जेणेव उसहकूडे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता उसहकूड पव्वयं तिक्वुत्तो रहसिरेणं पुसइ फुसित्ता तुरए णिगिण्हइ णिगिण्हित्ता रहं ठवेइ ठवित्ता छत्तल दुवालसंसि अटुकण्णि अहिगरणसंठियं सोवणियं कागणिरयण परामुसइ परामुसित्ता....उसभकूडस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लसि णामगं आउडेइ : गाहाओ-ओसप्पिणी इमीसे, तइआए समाइ पच्छिमे भाए। अहमंसि चक्कवट्टी, 'भरहो' इअ नामधिज्जेणं ॥ अहमंसि पडमराया, अयं भरहाहिवो णरवरिंदो। णत्थि महं पडिसत्तू, जिअं मए भारहं वासं ॥ -जम्बु० वक्ख० ३, सु० ६३ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्त्र ४०६-४११ तिर्यक् लोक : वक्षस्कार पर्वत गणितानुयोग २६१ आरमाण उत्तरड ढकच्छविजए उसहकूडपटवयस्स अवट्ठिई उत्तरार्ध कच्छ विजय में ऋषभकूटपर्वत की अवस्थिति पमाणं च और प्रमाण४०६. प०-कहि णं भते ! उत्तरड्ढकच्छविजए उसहकूडे णाम ४०६. प्र०-हे भगवन् ! उत्तरार्धकच्छ विजय में ऋषभकुट नाम पव्वए पण्णते ? का पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! सिंधुकुण्डस्स पुरत्थिमेणं, गंगाकुण्डस्स पच्च- उ०-हे गौतम ! सिन्धुकुण्ड के पूर्व में, गंगाकुण्ड के पश्चिम थिमेणं, णीलवंतवासहरपव्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे में, नीलवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिणी भाग पर उत्तरार्ध कच्छ -एत्थ णं उत्तरद्धकच्छविजए उसहकूडे णामं पव्वए विजय में ऋषभकूट नामक पर्वत कहा गया है। पण्णते । अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, तं चेव पमाणं-जाव- ___ आठ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है प्रमाण पूर्ववत् हैरायहाणी, णवरं से उत्तरेण भाणियव्वं । यावत्-राजधानी पर्यन्त विशेष- वह उत्तर की ओर है-ऐसा -जंबु० वक्ख० ४, सु०६३ कहना चाहिए। जंबुद्दीवे वक्खारपव्वया जम्बूद्वीप में वक्षस्कार पर्वतवोसं वक्खारपत्वया बीस वक्षस्कार पर्वत ४१०. ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया वक्खारा' पण्णता ? ४१०. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में वक्षस्कार (पर्वत) कितने कहे गये हैं ? -उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे वीस वक्खारपब्वया पण्णता। उ०-हे गौतम ! जम्बूद्वीप में बीस वक्षस्कार पर्वत कहे -जंबु० वक्ख० ६, सु० १२५ गये हैं। ४११. जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं सीआए महाणईए ४११. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मदरपर्वत के पूर्व में सीता उभओ कूले दसवक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा महानदी के दोनों किनारों पर दस वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं, यथा १. मालवंते, २. चित्तकूडे, (१) माल्यवंत (२) चित्रकूट ३. पम्हकूडे, ४. नलिनकूडे, (३) पद्मकूट (४) नलिनकूट ५. एगसेले, ६. तिकूडे, (५) एकशैल (६) त्रिकूट ७. वेसमणकूडे, ८. अंजणे, (७) वैश्रमणकूट (८) अंजन ६. मायंजणे, १०. सोमणसे । (8) मातंजन (१०) सौमनस । जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं सीओआए जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मंदरपर्वत के पश्चिम में सीतोदा महाणईए उभओ कूले दस वक्खारपब्बया पण्णत्ता, तं जहा- महानदी के दोनों किनारों पर दस वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं, यथा१. विज्जुष्पभे, २. अंकावई, (१) विद्युत्प्रभ (२) अंकावती ३. पम्हावई, ४. आसीविसे, (३) पद्मावती (४) आशीविष ५. सुहावहे, ६. चंदपव्वए, (५) सुखावह (६) चन्द्रपर्वत ७. सूरपब्वए, ८. नागपव्वए, (७) सूर्य पर्वत (८) नागपर्वत १ "वक्खारपब्धया" इति । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : वक्षस्कार पर्वत सूत्र ४११-४१२ (8) ६. देवपब्वए, १०. गंधमायणे ।' (6) देवपर्वत (१०) गंधमादन। -ठाणं० अ० १०, सु० ७६८ ४१२. सव्वे वि णं वक्खारपब्वया सीया-सीओयाओ महाणईओ ४१२. सभी वक्षस्कार पर्वत सीता-सीतोदा महानदियों के तथा मंदरं वा पब्वयं तेणं पंच जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, पंच- मंदरपर्वत के समीप पाँच सौ योजन ऊँचे हैं, पाँच सौ गाउ भूमि गाउयसबाई उवहेणं । -ठाणं ५, उ० ३, सु० ४३४ में गहरे हैं। (क) जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरित्थिमेणं सीयाए महाणईए उत्तरे कूले चत्तारि वक्खारपब्वया पण्णत्ता तं जहा (१) चित्त कूडे, (२) पम्हकूडे, (३) नलिनकूडे, (४) एगसेले । जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं सीआए महाणईए दाहिणे कूले चत्तारि वक्खारपब्वया पणत्ता, तं जहा(१) तिकूडे, (२) वेसमणकूडे, (३) अंजणे, (४) मातंजणे । जम्बुद्दीवे दीके मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं सीओआए महाणईए दाहिणे कूले चत्तारि वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा(१) अंकावई, (२) पम्हावई, (३) आसीविसे, (४) सुहावहे । जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेण सीओआए महाणईए उत्तरे कूले चत्तारि वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा(१) चन्दपव्वए, (२) सूरपब्वए, (३) देवपव्वए, (४) नागपव्वए । जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स चउसु विदिसासु चत्तारि वक्खारपब्वया पण्णत्ता, तं जहा(१) सोमणसे, (२) विज्जुप्पभे, (३) गंधमायणे, (४) मालवंते । -ठाणं ४, उ०२. सु० ३०२ (ब) जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं पंच वक्खारपब्वया पणत्ता, तं जहा (१) मालवंते, (२) चित्तकूडे. (३) पम्हकूडे, (४) नलिनकू डे, (५) एगसेले । जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं सीआए महाणईए दाहिणेणं पंच वक्खारपव्वया पण्णता, तं जहा(१) तिकूडे, (२) वेसमणकूडे, (३) अंजणे, (४) मायंजणे, (५) सोमणसे । जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं सीओआए महाणईए दाहिणणं पंच वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा(१) विज्जुप्पभे, (२) अंकावई, (३) पम्हावई, (४) आसीविसे, (५) सुहावहे । जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं सीओआए महाणईए उत्तरेणं पंच वक्खारपब्वया पण्णत्ता, तं जहा (१) चन्दपव्वए, (२) सूरपव्वए, (३) नागपव्वए, (४) देवपव्वए, (५) गंधमायणे। -ठाणं ५, उ० २, सु० ४३४ (ग) जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं सीआए महाणईए उभओ कूले अट्ट वक्खारपब्वया पण्णत्ता, तं जहा (१) चित्तकूडे, (२) पम्हकू डे, (३) नलिनाडे, (४) एगसेले, (५.) तिकडे, (६) वेसमणकू डे, (७) अंजणे, (८) मायंजणे । जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेण सीओआए महाणईए उभओ कूले अट्ठ वक्खारपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-- (१) अंकाबई, (२) पम्हावई, (३) आसीविसे, (४) सुहावई, (५) चन्दपव्वए, (६) सूरपव्वए, (७) नागपव्वए, (८) देवपव्वए। -ठाणं ८, सु० ६३७ (घ) “तथा विश तिर्वक्षस्कारपर्वताः, तत्र गजदन्ताकारा गंधमादनादयश्चत्वारः, तथा चतुःप्रकारमहाविदेहे प्रत्येकं चतुष्क चतुष्क सद्भावात् षोडश चित्रकूटादयः सरलाः द्वयेऽपि मिलिता यथोक्तसंख्याकाः। -जम्बू० वृत्ति, वक्ष०६, सु० १२५ (ङ) स्थानांग ४, उ०२, सु० ३०२, स्थनांग ५, उ० २, सु० ४३४, स्थानांग १०, सू० ७६८-इन तीन सूत्रों में बीस वक्षस्कार पर्वतों के नाम हैं किन्तु स्थानांग ८, सू० ६३७ में १६ वक्षस्कार पर्वतों के नाम हैं किन्तु गजदन्ताकार-(१) गंधमादन, (२) सौमनस, (३) विद्युत्प्रभ और (४) माल्यवन्त–इन चारों के नाम नहीं है अतः सम्भव है वर्षधर पर्वतों की संख्या के सम्बन्ध में दो मान्यतायें प्रचलित रही हैं- एक पक्ष बीस और एक पक्ष सोलह वक्षस्कार पर्वत मानता होगा, जो इन चार गजदन्ताकार पर्वतों को वक्षस्कार पर्वत नहीं मानता होगा। २ सम० १०८ सूत्र १ और ऊपर अंकित सूत्र अक्षरशः सर्वथा समान हैं, किन्तु उसी १०८वें समवाय में ५वा सूत्र इस प्रकार है । "सोमणस-गन्धमादण-विज्जुष्पभ-मालवंता णं वक्खारपव्वया णं मंदरपब्बयं तेणं पंच-पंच जोयणसयाणं उड्ढे उच्चत्तेणं, पंच-पंच गाउयसयाइं उब्वेहेणं पण्णत्ता । -सम० १०८, सू०५ इस सूत्र की अपेक्षा ऊपर अंकित सूत्र अधिक व्यापक हैं । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४१३.४१५ तिर्यक् लोक : गजदंताकार वक्षस्कार पर्वत गणितानुयोग २६३ चत्तारि गजदंतगारा वक्खारपव्वया चार गजदन्ताकार वक्षस्कार पर्वत४१३. जंबु-मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं, देवकुराए कुराए पुटवावरे ४१३. जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण में देवकुरा नामक कुरा के पासे, एत्थ णं आसक्खंधगसरिसा अवद्धचंदसंठाणसंठिया दो पूर्व और पश्चिम पार्श्व में अश्वस्कन्ध के सदृश अर्धचन्द्र के वक्खारपच्वया' पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, तं संस्थान से स्थित दो वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं, वे अधिक समजहा तुल्य है- यावत्-परिधि की अपेक्षा से एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं. यथासोमणसे चैव, विज्जुप्पभे चैव । (१) सोमनस, (२) विद्युत्लभ । ४१४. जंबु-मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, उत्तरकुराए कुराए पुवावरे ४१४. जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से उत्तर में उत्तरकुरा नामक कुरा पासे, एत्थ णं आसक्खंधगसरिसा अद्धचंदसंठाणसंठिया दो के पूर्व और पश्चिम पार्श में अश्वस्कंध के सदृश अर्धचन्द्र के वक्खारपव्वया पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, तं संस्थान से स्थित दो वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं वे अधिक समजहा तुल्य हैं—यावत्-परिधि की अपेक्षा से एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथागंधमादणे चेब, मालवते चैव ।। (१) गंधमादन, (२) माल्यवन्त । ---ठाणं २, उ० ३, सु० ८७ मालवंतवक्खारपव्वयस्स ठाणप्पमाणं माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत का स्थान४१५. ५०-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे मालवंते णामं वक्खार- ४१५. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में माल्यवन्त नामक पव्वए पण्णते ? वक्षस्कार पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरथिमेणं, णील- उ०-गौतम ! मन्दर पर्वत से उत्तर-पूर्व में, नीलवन्त वर्ष वंतस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणेणं, उत्तरकुराए पुरत्थि- धर पर्वत से दक्षिण में, उत्तरकुरु से पूर्व में और वत्स नामक मेणं, वच्छस्स चकवट्टिविजयस्स पच्चत्थिनेगं, एत्थ णं चक्रवर्ती विजय से पश्चिम में, महाविदेह वर्ष में माल्यवन्त नामक महाविदेहे वासे मालवते णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते। वक्षस्कार पर्वत कहा गया है। उत्तर-दाहिणायए, पाईण-पडीणविच्छिन्ने, जं चेव गंध- वह उत्तर-दक्षिण में लम्बा, पूर्व-पश्चिम में विस्तीर्ण और मायणस्स पमाणं विक्खंभो अ, णवरमिमंणाणत्तं-सव्व- गंधमादन पर्वत के बराबर प्रमाण एवं विष्कंभ वाला है। विशेषता वेरूलिआमए, अवसिट्ठ तं चेव । यह है कि यह (माल्यवंत पर्वत) सर्वात्मना वैडूर्यमय है, शेष वर्णन -जंबु० वक्ख० ४, सु०६१ वही है । १ "अवद्धचंद"त्ति, अपकृष्ट मद्ध चन्द्रस्यापार्धचन्द्रस्तस्य यत्संस्थानम् आकारो गजदन्ताकृतिरित्यर्थः । तेन संस्थितावपाढे चन्द्रसंस्थान संस्थितो। "अद्धचन्दसंठाणसं ठिय" त्ति, अर्धचन्द्रसंस्थानसंस्थिताविति क्वचित पाठः । तत्र 'अर्ध' शब्देन विभागमात्र विवक्ष्यते । न तु समप्रविभागतेति । ताभ्यां अर्धचन्द्राकारा देवकुरवःकृताः । अतएव वक्षस्कारक्षेत्रकारिणो पर्वतो वक्षारपर्वताविति । सोमणस-गंधमादण-विज्जुप्पभ-मालवताणं वक्खारपब्बयाणं मंदरपब्वयंतेणं-पंच पंच जोयण-सयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ताई, पंच पंच गाउसयाई उबवेहेणं पण्णत्ताई। -सम.१०८ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : गजदंताकार वक्षस्कार पर्वत सूत्र ४१६-४१७ M मालवंतवक्खारपव्वयस्स णामहेऊ माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु४१६. प०-से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ-मालवंते वक्खार- ४१६ प्र०-भगवन् ! माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत को माल्यवन्त पव्वए मालवंते वक्वारपव्वए? वक्षस्कार पर्वत क्यों कहते हैं ? उ०-गोयमा ! मालवंते णं वक्खारपब्वए तत्थ तत्थ देसे उ०-गौतम ! माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत पर स्थान-स्थान तहि-तहिं बहवे सरिआगुम्मा गोमालियागुम्मा-जाव- पर अनेक सरिकागुल्म, नवमालिकागुल्म-यावत्-मगदन्तिका मगदन्तिआगुम्मा, तेणं गुम्मा दसद्धवण्णं कुसुमं कुसुमेति, गुल्म हैं । वे गुल्म पंचरंगी कुसुमों को उत्पन्न करते हैं, जो (कुसुम) जे ण तं मालवन्तस्स वक्खारपब्वयस्स बहुसमरमणिज्जं माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत के अत्यन्त समतल एवं रमणीय भूमिभाग भूमिभाग वायविधुअग्गसालामुक्कपुप्फपुजोवयारकलिअं को, वायु के संचार से, शाखाओं के अग्रभाग के हिलने से जो करेंति । मालवन्ते अ इत्थ देवे महिड्ढिीए-जाव- कुसुम झड़ते हैं, उन कुसुमों के द्वारा वे गुल्म सुशोभित करते हैं । पलिओवमट्टिइए परिवसइ । (इसके अतिरिक्त) यहाँ माल्यवन्त नामक महद्धिक-यावत् पल्योपम की स्थिति वाला देव निवास करता है । से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-मालवन्ते वक्खार- इस कारण गौतम ! यह माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत माल्यवन्त पव्वए, मालवन्ते वक्खारपब्वए । अदुत्तरं च णं वक्षस्कार पर्वत कहलाता है। इसके अतिरिक्त गौतम ! (यह नाम) गोयमा ! -जाव-णिच्चे। -यावत्-नित्य है । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६२ चित्तकूडवक्खारपब्वयस्स ठाणप्पमाणं चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के स्थान और प्रमाण४१७. ५०-कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे चित्तकूडे ४१७. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष में णामं वक्खारपब्बए पण्णत्ते ? चित्रकूट नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! सीआए महाणईए उत्तरेणं, णीलवंतस्स वास- उ०-गौतम ! सीता महानदी के उत्तर में, नीलवन्त वर्षधर हरपव्वयस्स दाहिणणं, कच्छविजयस्स पुरथिमेणं, पर्वत के दक्षिण में, कच्छ विजय के पूर्व में तथा सूकच्छ विजय सुकच्छविजयस्स पच्चत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे के पश्चिम में जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में चित्रकट महाविदेहे वासे चित्तकूडे णामं वक्खारपब्वए पण्णत्ते । नामक वक्षस्कार पर्वत कहा गया है । उत्तर-दाहिणायए, पाईण-पडीणवित्थिण्णे, सोलस- यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा, पूर्व-पश्चिम में चौड़ाजोअणसहस्साई पंच य बाणउए जोअणसए दुण्णि य एगणवीसइभाए जोअणस्स आयामेणं, पंच जोअणसयाई १६५६२ - योजन लम्बा और पांच सौ योजन चौड़ा है। नीलवन्त विक्खंभेणं, नीलवंतवासहरपव्वयं तेणं चत्तारिजोअणसयाई उडुढं उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउसयाइं उब्वेहेणं, वर्षधर पर्वत के पास इसकी ऊँचाई चार सौ यौजन तथा गहराई चार तयणतरं च मायाए-मायाए उस्सेहोव्वेहपरिवुड्ढीए सौ कोस की है। तदनन्तर अनुक्रम से ऊँचाई और गहराई बढ़ती परिवडढमाणे परिवड्ढमाणे सीआमहाणई अंतेणं पंच- बढ़ती सीता महानदी के पास पांच सौ योजन की ऊँचाई व पाँच जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तणं, पंचगाउअसयाई उन्वे- सौ कोस की गहराई हो जाती है। यह (वक्षस्कार पर्वत) अश्वहेणं, अस्सक्खंधसंठाणसंठिए, सव्वरयणामए, अच्छे स्कन्ध के आकार का, सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ चिकना-यावत् सण्हे-जाव-पडिरूवे, उभओ पासि दोहिं पउमवरवेइ- -प्रतिरूप है । यह दोनों ओर से दो पद्मवरवेदिकाओं और दो याहिं दोहि अ वणसंडेहिं संपरिक्खित्ते । वनखण्डों से घिरा हुआ है। बण्णओ दुण्ह वि। इन दोनों का यहाँ वर्णन समझ लेना चाहिए। चित्तकूडस्स णं वक्खारपब्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के ऊपर अति सम एवं रमणीय भूमिभागे पण्णत्ते, जाव-भुञ्जमाणा विहरंति। भूमिभाग कहा गया है-यावत्-वहाँ (देव-देवियाँ भोग) भोगते -जंबु० वक्ख०४, सु०६४ हुए रहते हैं। १ ठाणं ४, उ०२, सु० ३०२ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' सूत्र ४१८-४२२ तिर्यक् लोक : वक्षस्कार पर्वत गणितानुयोग २६५ चित्तकूडवक्खारपव्वयस्स णामहेऊ चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतू४१८. ५०-से केण8 गं भंते ! एवं वुच्चइ-चित्तकूडवक्खार- ४१८. प्र०-भगवन् ! चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत चित्रकूट वक्षपव्वए चित्तकूडवक्खारपवए? स्कार पर्वत क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! चित्तकूडे य इत्थ देवे महिड्ढिोए-जाव- उ.-गौतम ! यहाँ चित्रकूट नामक महधिक-यावत् पलिओवमदिइए परिवसइ। से तेण?णं गोयमा! पल्योपम की स्थिति बाला देव रहता है। इस कारण गौतम ! एवं वुच्चइ-चित्तकूडवक्खारपवए चित्तकूडवक्खार- चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत, चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है । पव्वए। रायहाणी उत्तरेणं । राजधानी उत्तर में है। -जंबु. वक्ख० ४, सु०६४ पम्हकूडवक्खारपब्वयस्स ठाणप्पमाणं पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत के स्थान और प्रमाण४१६. ५०-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे पम्हकूडे णामं वक्खार- ४१६. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में पद्मकूट (ब्रह्म) नामक पव्वए पण्णते? __ वक्षस्कार पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०—गोयमा ! णीलवंतस्स दविखणेणं, सीआए महाणईए उ०-गौतम ! नीलवन्त (वर्षधर पर्वत) के दक्षिण में, उत्तरेणं, महाकच्छस्स पुरथिमेणं, कच्छावईए पच्च- सीता महानदी के उत्तर में, महाकच्छ (विजय) के पूर्व में एवं स्थिमेणं, एत्थ णं महाविदेहे वासे पम्हकूडे णामं कच्छावती (विजय) के पश्चिम में, महाविदेह वर्ष में पद्म (ब्रह्म) वक्खारपव्वए पण्णत्ते । कूट नामक वक्षस्कार पर्वत कहा गया है । उत्तर-दाहिणायए, पाईण-पडीणविच्छिण्णे, सेसं जहा यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा और पूर्व-पश्चिम में चौड़ा । है शेष चित्तकूडस्स,-जाव-भोगभोगाइं भुजमाणा विहरंति। वर्णन चित्रकूट (वक्षस्कार पर्वत) के समान है-यावत्-वहाँ -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ (देवादि) भोग भोगते हुए रहते हैं। पम्हकूडवक्खारपव्वयस्स णामहेऊ पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु४२०.५०-से केण? णं भंते ! एवं बुच्चइ-पम्हकूडे वक्खार- ४२०. प्र०-भगवन् ! पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत, पद्मकूट वक्षपव्वए, पम्हकूडे वक्खारपब्वए ? स्कार पर्वत क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! पम्हकूडे य इत्थ देवे महिड्ढिोए-जाव-पलि- उ०-गौतम ! पद्मकूट नामक महधिक-यावत् -पल्योपम ओवमट्ठिइए परिवसइ। से तेण?णं गोयमा! एवं की स्थिति वाला देव रहता है, इस कारण गौतम ! पद्मकूट बुच्चह-पम्हकूडे वक्खारपब्वए पम्हकूडे वक्खार- वक्षस्कार पर्वत पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है । पवए। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ णलिणकूडवक्खारपब्वयस्स ठाणप्पमाणं- नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत के स्थान और प्रमाण४२१. ५०-कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे गलिणकूडे णामं ४२१. प्र०-भगवन् ! महाविदेह वर्ष में नलिनकूट नामक वक्षववखारपवए पण्णत्ते ? __स्कार पर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! णीलवंतस्स दाहिणेणं, सीआए महाणईए उ०-गौतम ! नीलवन्त (वर्षधर पर्वत) से दक्षिण में, सीता उत्तरेणं, मंगलावइस्स विजयस्स पच्चत्यिमेणं, आवत्तस्स महानदी से उत्तर में, मंगलावती विजय से पश्चिम में तथा विजयस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं महाविदेहे वासे णलिण- आवर्तविजय से पूर्व में महाविदेह वर्ष में नलिनकूट नामक कडे णामं वक्खारपव्वए पण्णते, उत्तर-दाहिणायए वक्षस्कार पर्वत कहा गया है। यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा और पाईण-पडीणविच्छिष्णे। पूर्व-पश्चिम में चौड़ा है । सेसं जहा चित्तकूडस्स-जाव-आसयंति । ___ शेष वर्णन चित्रकूट के समान है-यावत्-(यहाँ देव-देवियां) बैठते हैं। नलिनकूडवक्खारपव्वयस्स णामहेऊ नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु४२२. १०-से केण8 गं भंते ! एवं बुच्चइ-ललिणकूडे व बार- ४२२. प्र०-हे भगवन् ! नलिन कूट वक्षस्कार पर्वत, नलिनकूट पथ्वए नलिनकूडवक्खारपव्वए ? वक्षस्कार पर्वत क्यों कहा जाता है ? Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक: वक्षस्कार पर्वत उ० – गोयमा ! नलिणकूडे य इत्थ देवे महिड्ढिीए- जावपलिओनए परिवसद्द सेट्ट ेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ – नलिणकूडे वक्खारपटवए, नलिणकूडे वक्खारपव्वए । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ एक्सेलवणारपण्ययस्त ठाणप्यमाणं ४२३.५० - कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे एगसेले णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते ? उ०- गोपना पुश्खलावत्सचरकवट्टविजयस्स पुररथमेनं पोवलावती चक्रुविजयस्स परचरिचमेणं, मीत वंतस्स दक्खिणेणं, सीआए उत्तरेणं, एत्थ णं एगसेले णामं वक्खारपव्वए पण्णत्ते । चित्तकूडगमेणं अव्वो जाव देवा आसयति । उ०- गोवमा एगसेले व इथ देवे महिहिडीए-जाब-पति ओवमट्टिए परिवस । से तेणट्टणं गोयमा ! एवं बुच्चइ- - एगसेले वक्खारपब्वए, एगसेले वक्खारपब्वए । - - जंबु ० [० वक्ख० ४, सु० ६५ सूत्र ४२२-४२५ उ०- हे गौतम! यहाँ नलिनकूट नामक महधिक - यावत् - पत्योपम की स्थिति वाला देव रहता है । -गोयमा सिस्स बासहरपव्ययस्स उत्तरेणं, मंदरस पव्ययस्स दाहिण पुरविमेन मंगलावईविजयरस पत्र त्थिमेणं, देवकुराए पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्वारपव्वए पण्णत्ते । उत्तर- दाहिणायए, पाईण-पडोण-वित्थिन् । इस कारण हे गौतम! नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ यहाँ देव बैठते हैं । जहा मालवन्ते ववखारपव्वए तहा, नवरं सव्व रणाम अच्छे-जाये जिसहवासहरपय्वयं तेणं चत्तारि जोयणसयाई उड्ढं उच्चतेणं, चत्तारि गाउअसयाइ उत्रेहेणं, सेसं तहेव सव्वं । - जंबु० वक्ख० ४, सु०६७ एकशैल वक्षस्कार पर्वत के स्थान और प्रमाण ४२३. प्र० - भगवन् ! महाविदेह वर्ष में एकशेल नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ कहा जाता है ? 1 उ०- गोतम । पुष्कलावती-विजय से पूर्व में, पुष्कलावती चक्रवर्ती विजय से पश्चिम में नीलवंत से दक्षिण में तथा शीता से उत्तर में एकशैल नामक वक्षस्कार पर्वत कहा गया है । एगसेल वक्खारपव्वयस्स णामहेऊ एकशैल वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु ४२४. ५० - सेकेणटुणं भंते ! एवं बुच्चइ - एगसेले वक्खार ४२४. प्र० - भगवन् ! एकशैल वक्षस्कार पर्वत एकशैल वक्षस्कार पव्वए, पर्वत क्यों कहा जाता है ? एगसेले वक्खारपव्वए ? चित्रकूट के समान इसका वर्णन जानना चाहिए- यावत् सौमनस वक्षस्कार पर्वत का स्थान और प्रमाण सोमणसवखारपव्ययरस ठाणप्यमाणं४२५०चंते! जंबुद्दीये दीवे महाविदेवासे सोमण ४२५. प्र० भगवन् जम्बूद्वीप के महाविदेह वर्ष में सौमनस ! नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ कहा गया है ? णामं वखारपव्वए पण्णत्ते ? उ०- गौतम यहाँ एक्स नामक महधिक पाव पल्योपम की स्थिति वाला देव रहता है— इस कारण गौतम ! एकशैल वक्षस्कार पर्वत एकशैल वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है । उ०- गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत से उत्तर में, मन्दर पर्वत से दक्षिण-पूर्व में मंगलावती विजय से पश्चिम में और देवकुरु से पूर्व में, जम्बूद्वीप के महाविदेह वर्ष में सौमनस नामक वक्षस्कार पर्वत कहा गया है । वह उत्तर-दक्षिण में लम्बा और पूर्व पश्चिम में विस्तीर्ण है । इसकी वक्तव्यता माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत के समान है। विशेष यह है यह पर्वत सर्व रजतमय है, स्वच्छ है यावत्प्रतिरूप है। निषेध नामक वर्षधर पर्वत के अन्त से चार सौ योजन ऊँचा और चार सौ गव्यूति गहरा है। शेष सब कथन उसी प्रकार है। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४२६-४२८ तिर्यक् लोक: वक्षस्कार पर्वत पव्वए, उ०- गोयमा ! सोमणसे णं वक्खारपव्वए बहवे देवा य देवीओ य सोमा सुमणा, सोमणसे य इत्थ देवे महिहिडीएजाय पतिओमट्टिए परिवस । सोमणक्यारपव्ययरस णामहेऊ सौमनस वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु - ४२६. प० -से केण े णं भंते ! एवं वच्चइ - सोमणसवक्खार ४२६. प्र० - भगवन् ! सौमनस वक्षस्कार पर्वत सौमनस वक्षस्कार सोमणसवक्खारपव्वए ? पर्वत क्यों कहा जाता है ? से तेण ेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ- सोमणसे वक्खारपव्वए सोमण से वक्खारपव्वए । अनुत्तरं च षं गोयमा !-जाब-ि - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६७ विज्जुप्यभवक्सारपव्ययरस ठाणप्पमाण उ०- गोपमा सिस्स बाहरपव्ययरस उत्तरे, मंदर पवयस्स दाहिणः पचत्थिमेणं देवकुराए पस्चरियमेगं यहस्स विजयस्स पुरयमेगं एत्थ णं जंबुद्दीचे दीवे महाविदेहे वासे विक्रय बनणार पण । गरि सम्ब । उत्तर- दाहिणाए एवं जहा मालयन्ते सब अच्छे-जाय देवाय विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत का स्थान और प्रमाण ४२७. १० – कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे विज्जुप्प ४२७. प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष णामं वक्खारपव्वए पन्नत्ते ? में विद्युत्प्रभ नामक वक्षस्कार पर्वत कहां कहा गया है ? गणितानुयोग 3 २६७ से एएणदृणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - विज्जुप्प में वक्खारपव्वए विज्जुप्पने वक्खारपव्वए । अबुत्तरं च णं गोयमा ! - जाव- णिच्चे । - जंबु० वक्ख० ४, सु० १०१ उ०- सौमनस वक्षस्कार पर्वत पर बहुत से सौम्य और शुद्ध मन वाले देव देवियाँ हैं और यहां सोमनस नामक महधिकयावत्-- पल्योपम की स्थिति वाला देव निवास करता है । इस कारण गौतम ! सौमनस वक्षस्कार पर्वत सौमनस वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है । इसके अतिरिक्त गौतम ! ( यह नाम ) - यावत् — नित्य है । उ० – गोयमा ! णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं, मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपच्चत्थिमेणं, गंधिलावइस्स उ० वह उत्तर-दक्षिण में लम्बा है इत्यादि वर्णन माल्यवन्त के समान समझना चाहिए विशेष यह है कि यह पर्वत सर्वतपनीय— जंबु० वक्ख० ४, सु० १०१ स्वर्णमय है, स्वच्छ है - यावत् - वहाँ देवगण विचरण करते हैं । विज्जुप्पभवक्खा र पव्वयस्स णामहेऊ -गौतम ! निषध वर्षधर पर्वत से उत्तर में, मंदर पर्वत से दक्षिण-पश्चिम में, देवकुरु के पश्चिम और पद्मविजय के पूर्व में जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष में विशुभ नामक वक्षस्कार पर्वत कहा गया है । विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु४२८.५० - सेकेणट्टणं भंते ! एवं बुच्चइ - विज्जुप्पमे वक्खार ४२८. प्र० - भगवन् ! विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत को विद्युत्प्रभ पव्वए विज्जुप्पने वक्खारपध्वए ? वक्षस्कार पर्वत क्यों कहते हैं ? उ०- गोवमा विलुप्यमेवचारव्यए बिज्जुमिव सओ समंता ओभासे उज्जवे पास विजुत्य मे इत्थ देवे महिड्दिए-जाव - पलिओवमट्ठिइए परिवसइ । उ०- गौतम ! विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत बिजली की तरह सब दिशा विदिशाओं में अवभासित, उद्योतित और प्रभासित होता रहता हैं और यहाँ विद्युत्प्रभ नामक महधिक - यावत्पल्योपम की स्थिति वाला देव निवास करता है । इस कारण गौतम ! यह विद्यलभ वक्षस्कार पर्वत विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत कहलाता है। इसके अतिरिक्त गौतम ! यह नाम - यावत् नित्य है । गंधमायणवक्खारपव्वयस्स ठाणप्पमाणं गंधमादन वक्षस्कार पर्वत का स्थान और प्रमाण ४२६. ५० - कहि णं भंते ! महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं ४२६. प्र० - भगवन् ! महाविदेह वर्ष में गंधमादन नामक वक्षस्कार पर्वत कहाँ कहा गया है ? वक्खारपन्च पण्णत्ते ? उ०- गौतम ! नीलवन्त वर्षधर पर्वत से दक्षिण में, मरु पर्वत से उत्तर-पश्चिम में, गंधिलावतीविजय से पूर्व में एवं Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : वक्षस्कार पर्वत सूत्र ४२६-४३० विजयस्स पुरच्छिमेणं, उत्तरकुराए पश्चत्थिमेणं, एत्थ उत्तरकुरु से पश्चिम में महाविदेह वर्ष में गंधमादन नामक वक्षणं महाविदेहे वासे गंधमायणे णामं वक्खारपव्वए स्कार पर्वत कहा गया है। पण्णत्ते। उत्तर-दाहिणायए, पाईण-पडीणवित्थिन्ने, तीसं जोअण- यह उत्तर-दक्षिण में लम्बा, पूर्व-पश्चिम में चौड़ा एवं सहस्साई दुण्णि अ णउत्तरे जोअणसए छच्च य एगूणबीसइभागे जोअणस्स आयामेणं, णीलवंतवासहर- ३०२०६६ योजन लम्बा है। नीलवन्त वर्षधर पर्वत के पास पव्वयंतेणं चत्तारि जोअणसयाइं उड़डं उच्चत्तेणं, चत्तारि गाउअसयाई उम्बेहेणं, पंच जोअणसयाई चार सौ योजन ऊँचा, चार सौ कोस गहरा और पांच सौ योजन विक्खंभेणं, तयणंतरं च णं मायाए मायाए उस्सेहब्वेह- चौड़ा है । तदनन्तर क्रमशः ऊंचाई और गहराई में बढ़ता-बढ़ता परिवुड्ढोए परिवड्ढमाणे-परिवड्ढमाणे विक्खंभपरि- किन्तु विस्तार में कम होता-होता मेरु पर्वत के पास पांच सौ हाणीए परिहायमाणे-परिहायमाणे मंदरपब्वयंतेणं पंच योजन ऊँचा, पाँच सौ कोस गहरा एवं अंगुल के असंख्यातवें भाग जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, पंच गाउअसयाई उठवे. जितना चौड़ा कहा गया है । हेणं,' अंगुलस्स असंखेज्जइभाग विक्ख भेणं पण्णत्ते । गयदंतसंठाणसंठिए सव्वरयणामए अच्छे-जाव-पडिलवे। यह गजदन्त के आकार का है, सर्वात्मना रत्नमय एवं स्वच्छ उमओ पासिं दोहि पउमवरवेइयाहिं, दोहि य वण- है-यावत्-मनोहर है । यह दोनों ओर से दो पद्मवरवेदिकाओं संडेहि सम्वओ समंता संपरिक्खिते। और दो वनखण्डों से सब ओर से घिरा हुआ है। गंधमायणस्स णं वक्खारपब्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे गंधमादन वक्षस्कार पर्वत पर अत्यन्त सम और रमणीय भूमिमागे पण्णत्ते-जाव-आसयंति । भूमिभाग कहा गया है-यावत्-(वहाँ देवगण क्रीड़ा करते हैं) -जंबु० बक्ख० ४, सु० ८६ बैठते हैं । गंधमायणवक्खारपव्वयस्स णामहऊ गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के नाम का हेतु४३०.५०-से केणटुणं भंते ! एवं बुच्च-गंधमायणे वक्खार- ४३०. प्र०-भगवन् ! गंधमादन वक्षस्कार पर्वत को गंधमादन पव्वए गंधमायणे वक्खारपम्वए? . वक्षस्कार पर्वत क्यों कहते हैं ? उ.-गोयमा ! गंधमायणस्स णं वक्खारपब्वयस्स गंधे से उ०-गौतम ! गंधमादन वक्षस्कार पर्वत की गंध क्या कोष्ठ जहाणामए कोटपुडाण वा-जाव-पोसिज्जमाणाण वा, नामक सुगंधी द्रव्य के पुट समान-यावत -जो पीसे जा रहे उक्किरिज्जमाणाण वा, विकिरिज्जमाणाण वा, परि- हों, उत्कीर्ण किये जा रहे हों, बिखेरे जा रहे हों, उपभोग में लिये भुज्जमाणाण वा,-जाव-ओराला मणुष्णा-जाव-गधा जा रहे हों-यावत्-उनसे जो उदार मनोज्ञ-यावत्-गंध अभिणिस्सवंति भवे एयावे। निकलती है, वैसी है ? १ सव्वेवि णं वक्खारपव्वया सीआ सीओआओ महानईओ मंदर पव्वयंतेणं पंच-पंचजोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पंच-पंच गाउयउव्वेहेणं पण्णत्ता। -सम० १०७, सु० २ इन बीस वक्षस्कार पर्वतों में से चार वक्षस्कार पर्वत गजदन्त जैसी आकृति वाले हैं इनके नाम हैं-(१) माल्यवन्त, (२) सौमनस, (३) विद्युत्प्रभ, (४) गंधमादन । स्थानांग २, ८० ३, सू० ८७ के अनुसार चारों पर्वतों का प्रमाण समान है । सौमनस वक्षस्कार पर्वत और विद्युत्प्रभवक्षस्कार पर्वत देवकुरुक्षेत्र का विभाजन करते हैं। गंधमादन वक्षस्कार पर्वत और माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत उत्तरकुरुक्षेत्र का विभाजन करते हैं। शेष सोलह वक्षस्कार पर्वतों में से चार वक्षस्कार पर्वत (१) चित्रकूट, (२) पद्म (पक्ष्म) कूट, (३) नलिनकूट और (४) एकशैल पर्वत सीता महानदी के उत्तरी किनारे पर है इनके प्रमाणादि का संक्षिप्त वर्णन यहां कहा गया है। (१) त्रिकूट, (२) वैश्रमण, (३) अंजन और (४) मातंजन-ये चार वक्षस्कार पर्वत सीना महानदी के दक्षिणी किनारे पर हैं और ये सीता महानदी के उत्तरी किनारे पर स्थित चारों पर्वतों के समान प्रमाण वाले हैं। यथा-एवं जह चैव सीयाए महाणईए उत्तरं पासं तह चैव दक्खिणिल्ल भाणियव । -जंबु० वक्ख० ४, सु०६६ (क्रमशः) Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४३०-४३१ तिर्यक् लोक : कूट वर्णन गणितानुयोग २६६ णो इण? सम? । नहीं, ऐसी नहीं है। गंधमायणस्स णं इत्तो इट्ठतराए चेव-जाव-गंधे पण्णत्ते। गंधमादन पर्वत की गंध उनसे भी अधिक इष्ट है-इष्टतर -यावत्-मनोज्ञ गंध कही गई है। से एएण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ-गधमायणे इस कारण गौतम ! यह गंधमादन (अपनी गंध से मतवाला वक्खारपटवए गंधमायणे वक्खारपब्वए । बना देने वाल) वक्षस्कार पर्वत गंधमादन वक्षस्कार पर्वत कहलाता है। गंधमायणे अ इत्थ देवे महिड्ढोए-जाव-पलिओवमट्ठिइए यहाँ गंधमादन नामक महधिक-यावत्-पल्योपम की परिवसइ, अबुतरं च णं गोयमा ! सासए णामधिज्जे स्थिति वाला देव रहता है। इसके अतिरिक्त गौतम ! यह नाम इति। -जंबु• वक्ख० ४, सु० ८६ शाश्वत कहा गया है। जंबुद्दीवे सव्वकूड संखा जम्बूद्वीप में सर्वकूट संख्या४३१. ५०-१. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया वासहरकूडा ४३१. प्र०-(१) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में वर्षधर पर्वतों के पण्णता? कूट (शिखर) कितने कहे गये हैं ? २. केवइया वक्खारकूडा? (२) वक्षस्कार पर्वतों के कूट कितने कहे गये हैं ? ३. केवइया वेअद्धकडा? (३) (दीर्घ) वैताढ्यपर्वतों के कूट कितने कहे गये हैं ? ४. केवइया मंदरकूडा पण्णत्ता ? (४) मंदर (मेरु) पर्वत के कूट कितने कहे गये हैं ? उ०-१. गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे छप्पण्ण वासहरकूडा उ०-(१) हे गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप में वर्षधर पर्वतों के पण्णता। छप्पन कूट कहे गये हैं। २. छण्णउई वक्खारकूड़ा। (२) वक्षस्कार पर्वतों के छिनवे कूट है। ३. तिणि छलुत्तरा वेअद्धकूडसया । (३) (दीर्घ) वैताढ्यपर्वतों क तीन सौ छ कूट है । - (क्रमशः) इस आगमोक्त प्रमाण के अनुसार (१) त्रिकूटादि चारों पर्वतों की समान प्रमाणता स्वतः सिद्ध हैं। इसी प्रकार सीतोदा महानदी के दक्षिणी किनारे पर । (१) अंकावर्त, (२) पक्ष्मावती, (३) आशीविष, (४) सूखाबह है. तथा सीतोदा महानदी के उत्तरी किनारे पर (१) चन्द्रपर्वत, (२) सूर्यपर्वत, (३) नागपर्वत, (४) देव पर्वत हैं । ये आठों पर्वत सीतामहानदी के दक्षिणी तथा उत्तरी किनारे स्थित पूर्वोक्त आठों पर्वतों के समान प्रमाण वाले हैं। (१)........सीतोदाए दाहिणिल्लं उत्तरिल्लं च....... (२).......दाहिणिल्ले........उत्तरिल्ले वि एमेव भाणियब्वे जहा सीयाए........ -जब्बु० वक्ख० सु० १०२ आगमोक्त इन दो सूचनाओं के अनुसार सीतोदा महानदी के दक्षिणी और उत्तरी किनारों पर स्थित आठों पर्वतों का प्रमाण सीता महानदी के दक्षिणी तथा उत्तरी किनारों पर स्थित आठों पर्वतों के समान हैं। "षट्पञ्चाशद्वर्षधरकूटानि-तथाहि, क्षुद्रहिमवत्-शिखरिणोः प्रत्येकमेकादश, (११+११) महाहिमव दु क्मिणोः प्रत्येकमष्टी, (८+८) निषध-नीलवतो: प्रत्येक नव, २२ सर्वसङ ख्यया ५६ "वक्षस्कारकूटानि षण्णनवतिः, (६६) तद्यथासरल वक्षस्कारेषु षोडशसु, प्रत्येकं चतुष्टयभावात् ६४ (१६४४) गजदन्ताकृतिवक्षस्कारेषु गन्धमादन-सौमनसयोः सप्त, १४ (७+७) माल्यवद्विद्य त्प्रभयो नव, १८ इति उभय मिलने यथोवतसङ्खया", ६६ "त्रीणि षडुत्तराणि वैताढ्यकूटशतानितत्र भरतरावतयोविजयानां च वैताढ्येषु चतुस्त्रिशति प्रत्येक नवसम्भवादुक्तसङ्खख्यानयनम्"। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन सूत्र ४३१ rur ur | ४. नव मंदरकूडा पण्णत्ता'। (४) मंदर (मेरु) पर्वत के नौ कूट कहे गये हैं। ' एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चत्तारि सत्तट्ठा इस प्रकार जम्बूद्वीप द्वीप में पहले पीछे के सब मिलाकर कूडसया भवंतीतिमक्खायं ति ।' चार सौ सडसठ कूट होते हैं-ऐसा कहा है। -जंबु० वक्ख० ६, सु० १२५ १ मेरौ नव, तानि च नन्दनवनगतानि ग्राह्याणि, न भद्रशालवनगतानि दिग्रहस्तिकूटानि, तेषां भूमिप्रतिष्ठितत्वेन स्वतन्त्रकूटत्वादिति"। -जम्बू० वक्ष०६, सूत्र १२५ की बृत्ति २ जम्बूद्वीप में ६ वर्षधर पर्वतों के कूट २० वक्षस्कार पर्बतों के कूट ६६ ३४ दीर्घवैताढ्यपर्वतों के कूट ३०६ , १ मेरुपर्वत के कूट इकसठ (६१) पर्वतों के सर्व कूट संख्या- ४६७ जम्बूद्वीप स्थित पर्वतों के कूटों (शिखरों) की गणना इस प्रकार है६१ कूट वाले पर्वत कूट संख्या ४६७ (३) ३४ दीर्घवैताढ्यपर्वतों के तीन सौ छ कुट६ वर्षधर पर्वतों के कूट महाविदेह के प्रत्येक विजय में एक दीर्घ वैताढ्यपर्वत है। २० वक्षस्कार पर्वतों के कूट बत्तीस विजयों में बत्तीस दीर्घ वैताढ्यपर्वत हैं ३४ दीर्घ वैताड्यपर्वतों के कूट प्रत्येक दीर्घ वैताढ्यपर्वत के नो कूट हैं १ मेरु पर्वत के कूट बत्तीस दीर्घ वैताढ्यपर्वतों के कूट (३२४६) २८८. भरत क्षेत्र स्थित दीर्घ वैताढ्यपर्वत के कूट ऐरवत क्षेत्र स्थित दीर्घ वैताढ्यपर्वत के कूट कूट ४६७ २८८+ +8=३०६ (४) मेरु पर्वत के (नन्दनवन में) नवकूट (१) ६ वर्षधर पर्वतों के छप्पन कूट कूटरहित पर्वत(१) हिमवन्त पर्वत के कूट १ चित्रकूट (२) शिखरी पर्वत के कूट १ विचित्रकूट (३) महाहिमवंत पर्वत के कूट २ यमक पर्वत (४) रुक्मी पर्वत के कूट २०० कांचनक पर्वत (५) निषध पर्वत के कूट ___ ४ वृत्तवैताढ्य पर्वत' (६) नीलवन्त पर्वत के कूट २०८ orru मेरु के भद्रशालवन में दिग्रहस्तिकूट। १६ वृक्षकूट जम्बूकवन में कूट " , शाल्मलिवन में कूट ३४ ऋषभ पर्वत के कूट (२) २० वक्षस्कार पर्वतों के छिनवे कूट(१६) वक्षस्कार पर्वतों के कूट (प्रत्येक वक्षस्कार पर्वत पर चार-चार कूट) (४) गजदन्त पर्वतों के कूट (१) सौमनस पर्वत के कूट (२) गंधमादन पर्वत के कूट (३) विद्युत्प्रभ पर्वत के कूट (४) माल्यवन्त पर्वत के कूट १ वृत्त वैताढ्येषु च कूटाभावः । -जम्बु० वक्ष०६, सूत्र १२५ की वृत्ति ३२ सर्व कूट =६६ (क्रमश:). Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४३२-४३३ तिर्यक् लोक : कूट वर्णन गणितानुयोग २७१ छप्पणं वासहरकूडा वर्षधर पर्वतों के छप्पन कूट१. चुल्लहिमवंतवासहरपव्वए एक्कार सकूडा- १. क्षुद्रहिमवन्त वर्षधर पर्वत के इग्यारह कूट४३२.५०-चुल्लहिमवंते णं भंते ! वासहरपब्वए फइ कूडा ४३२. प्र०-हे भगवान ! क्षुद्र हिमवन्त वर्षधर पर्वत पर कितने पण्णत्ता? कूठ कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! इक्कारस कूडा पण्णत्ता, तं जहा- उ०-हे गौतम ! इग्यारह कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकूडें, २ चुल्लहिमवंतकूडे, ३ भरहकूडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) क्षुद्र हिमवान्कूट, (३) भरतकूट, ४ इलादेवी कूडे, ५ गंगादेवीकूडे, ६ सिरिदेवोकूडे, (४) इलादेवीकूट, (५) गंगादेवीकूट, (६) श्रीदेवीकूट, (७) ७ रोहिअंसकूडे, ८ सिंधुदेवीकूडे, ६ सूरादेवीकूडे, रोहितांसाकूट, (८) सिंधुदेवीकूट, (६) सुरादेवीकूट, (१०) १० हेमवयकूडे, ११ वेसमणकूडे । हैमवतकूट, (११) वैश्रमणकूट । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ७५ सिद्धाययणकूडस्स अवट्टिई पमाणं च सिद्धायतन कूट की अवस्थिति और प्रमाण४३३. प०–कहि णं भंते ! चुल्लहिमवंते वासहरपव्वए सिद्धाययण- ४३३. प्र०-हे भगवन् ! क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत का कूडे णामं कूडे पण्णते ? 'सिद्धायतन कूट नामक कूट कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! पुरच्छिम-लवणसमुदस्स पच्चत्थिमेणं, चुल्ल- उ०-हे गौतम ! पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में, क्षुद्र हिमवंतकूडस्स पुरस्थिमेणं-एत्थ णं सिद्धाययणकूडे हिमवान् कूट से पूर्व में सिद्धायतन कूट' नामक कूट कहा णामं कूडे पण्णत्ते। गया है। पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं । यह पांच सौ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है । मूले पंचजोयणसयाई विक्खंभेणं । मूल में पांच सौ योजन चौड़ा है। मज्झे तिणि अ पण्णत्तरे जोयणसए विक्खंभेणं । मध्य में तीन सौ पचहत्तर योजन चौड़ा है । उप्पि अड्वाइज्जे जोयणसए विक्खंभेणं । ऊपर अढाई सौ योजन चौड़ा है। (क्रमशः पृष्ठ २७० का) २ तेषां भूमिप्रतिष्ठतत्वेन स्वतन्त्रकूटत्वात् । - जम्बू० वक्ष० ६, सूत्र १२५ की वृत्ति ३ एषां गिर्यनाधारकत्वेन स्वतन्त्रगिरित्वान्न कूटेषुगणना । -जम्बू० वक्ष० ६, सूत्र १२५ की वृत्ति मेरु पर्वत के चार दिशाओं में स्थित चार रुचक पर्वतों के बत्तीस कूटों की गणना भी जम्बूद्वीप स्थित पर्वत कूटों की गणना में सम्मिलित नहीं है-(३२ पर्वतों के नाम इस प्रकार हैं-) "जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थिमे णं रुयगवरे पव्वए अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहागाहा-(१) रिट्ठ (२) तवणिज्ज (३) कंचण, (४) रयत (५) दिसासोत्थिए (६) पलंबे य । (७) अंजणे (5) अंजणपुलए, रुयगस्स पुरथिमे कूडा ॥" "जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेगं स्यगवरे पव्वए अट्ठ कूडा पण्णता, तं जहागाहा-(१) कणए (२) कंचणे, (३) पउमे, (४) णलिणे (५) ससि (६) दिवायरे चेव । (७) वेसमणे (८) वेरुलिए, रुयगस्स उ दाहिणे कूडा ।।" "जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमे णं रुयगवरे पव्वए अट्ठकूडा पण्णत्ता, तं जहागाहा-(१) सोत्थिते य (२) अमोहे य, (३) हिमवं (४) मंदरे तहा । (५) रुयगे (६) रुयगुत्तमे (७) चंदे, अट्ठमे य (८) सुदंसणे ।।" "जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रुयगवरे पब्बए अट्ठ कूडा पणत्ता, तं जहागाहा-(१) रयण (२) रयणुच्चए या (३) सब्बरयण (४) रयणसंचए चेव । (५) विजये य (६) वेजयंते, (७) जयंते, (८) अपराजिते ।।" -ठाणं ८, सु० ६४३ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक कूट वर्णन : मूले एवं जोपणसहस्सं पंच व एमसीए जोवनलए किषि विसेसाहिए परिवे मझे एवं जोपणसहस्सं एवं प छलसीमं जोपणस किचि विसे परिक्लेवेणं । उपि ससइहागउए जोपणसए किचि विसे परिक्खेवेणं । मुले व संखिते, उचितए गोवुन्छसंडासंठिए सम्बरणामए अच्छे-जाय-पडिये। , से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते । सिद्धायणस्स स्स में उचि बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण जायन्तरसणं बहुसमरमणिज्जरस भूमि भागस्स बहुमज्झदेसभाए - एत्थ णं महं एगे सिद्धाय यणे पण्णत्ते । उ०- गोयमा ! भरकूरस पुरत्ययेणं, सिद्धाय नकूडस्स पञ्चत्थिमेणं, एत्थ णं चुल्लहिमवंते वासहरपव्वए हिमतकडे णामं कुठे प एवं जो चैव सिद्धाययणकूडस्स उच्चत्तविवसंभ परिवेो बहुसमरम गन्नरस भूमिभागस्स मन्देशमाए-एल्य णं महं एमे पासा सूत्र ४३३-४३४ मूल में पन्द्रह सौ इक्यासी योजन से कुछ अधिक इसकी परिधि है । बाजोगाई अजोषणं च उई उच्चतेगं इक्डतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं । अभुग्गय मूसिअपहसिए विव विविहमणिरयण-भक्तिजिसे विजय-जयंती महाग छताछतलिए तुरंगे, गगणतलम भिलंघमाणसिहरे, जालंतरयणपंज सम्मिलिए मरियमभिजाए, विवसिय पुण्डरीच तिलय रयगड चंदचितं गाणामणिमयदामाल किए तोच सबर-तणिज्जवल वागावडे, सुहफा से सस्सिरीअरूबे पासाईए- जाव- पडिरूवे । , मध्य में इग्यारह सौ छियासी योजन से कुछ कम की परिधि है । ऊपर सात सौ इकरानवें योजन से कुछ कम की परिधि है ', पणास जोपणा आयामेणं, पणवीसं जोषणाई दिलमेगं छत्तीसंजोयना उद्धं उच्चले जाव विपडिमा वण्णओ भाणियव्वो । जंबु० बक्ख० ४, सु० ७५ चुल्ल हिमवंतकूडस्स अवट्टिई पमाणं च ४३४.५० ते हिमवंते वासहयम्वए स्लहिम ४३४.२० हे भगवन! क्षुद्र व -कहि णं ! चुल्लहिमवंते वर्षधर वंतकडे णामं कूडे पण्णत्ते ? कूट नामक कूट कहाँ कहा गया है ? यह मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से पतला है। गाय की पूंछ के आकर का है सर्व रत्नमय है स्वच्छ हैयावत – सुन्दर है । यह एक पद्मवश्वेदिका एवं एक बनखण्ड से सभी ओर से घिरा हुआ है। उस सिद्धायतन कूट पर अधिक सम रमणीय भुभाग कहा गया है यावत् उस अधिक सम रमणीय भूभाग के ठीक मध्य भाग में एक महान् सिद्धायतन कहा गया है । वह सिद्धायतन पचास योजन लम्बा है, पच्चीस योजन चौड़ा है, छत्तीस योजन ऊपर की ओर ऊँचा है- यावत्-यहाँ जिन प्रतिमा का वर्णन कहना चाहिए। क्षुद्र हिमवान कूट की अवस्थिति और प्रमाणपर्वत पर क्षुद्र हिमवान् उ०- हे गौतम! भरतकूट से पूर्व में सिद्धायतन कूट से पश्चिम में क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत पर क्षुद्र हिमवान् कूट नामक कूट कहा गया है । सिद्धायतन सूट की ऊंचाई चौड़ाई और परिधि आदि जो पहले कही गई है इसकी भी नही है यावत्-अधिक समरमणीय भूभाग के ठीक मध्य भाग में एक महान् प्रासादावतंसक कहा । गया है । यह साड़े बासठ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है और सवा इकतीस योजन चौड़ा है। वह प्रबल एवं शुभ्रप्रभापटल के कारण मानो हँस रहा है । विविध प्रकार के मणिन्नों से जिसकी मिलियों चित्रित है, बापू से उड़ती हुई विजय वैजयंती पताकाओं एवं छत्रातिछत्रों (छत्रों के ऊपर बने छात्रों से सुशोभित है, ऊँचा है, जिसका शिखर गगन तल को छूने वाला है, जिस पर जालियों बीच खुले हुए रामपिंजर के समान मणि-शनों की स्तुपिका है, यह विकसित शतपत्रपुण्डरीक तिलक एवं रत्नमय अर्धचन्द्रों से चित्रित है, नाना मणिमय मालाओं से अलंकृत है, उसके अन्दर और बाहर स्निग्ध हीरे एवं रक्तसुवर्ण की मनोहर बालुका के पटल हैं । के Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४३४-४३८ तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, जाव सीहासणं सपरिवारं । - जंबु ० वक्ख० ४, सु० ७५ तिर्यक लोक कूट वर्णन दो 'कूडा बहुसमतुल्ला४३६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंते वासहरपव्वए दो कूडा पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति, आयाम विक्खंभुच्चत्त-संठाण- परिणाहेणं, १ चुल्लहिमवंतकूडे चेव, वेसमणकूडे चैव । पं तं जहाहिमवंत व २ समगडे चे - २ ० २, मु० ६७ उ०- गोयमा ! चुल्ल हिमवंतकूडस्स दक्खिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्र कोईयत्ता अष्णं जंबुद्दीवं दी दीवं दक्खिणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता इत्थ णं चल्लहिमवंत गिरिकुमारस्स देवस्स स्सहिमवंता णामं रायहाणी पण्णत्ता । बारस जोयणसहस्साई आयाम विक्खंभेणं । एवं विजयरावाणी भाणिया चुल्लहिमयं तकूटरस णामहेऊ क्षुद्र हिमवान कूट के नाम का हेतु ४३५. ५० से भंते! एवं बुच्चह - "बुल्लहिमवंतकूडे ४२५. प्र० - हे भगवन्! क्षुद्र हिमवान् फूट क्षुद्र हिमवान् कूट – केण णं चुल्लहिमवंतकूडे ?” क्यों कहा जाता हैं ? । - उ०- गोपमा ! बलहादेवे महिडीए- जाव-परियस से एएणणं गोयमा ! एवं बुवद्द "बुल्ल हिमवतेकडे, चुल्लहिमवं तकूडे । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ७५ भरडाईणं बताया णिसो४३८. एवं अवसेसाण वि कूडाणं वत्तव्वया यव्वा । चुल्ल हिमवंता रायहाणी क्षुद्र हिमवन्ता राजधानी ४३७. ५० कहि गं भते ! चुल्लहिमयतगिरिकुमारस्य देवस्स ४३७. प्र०-हे भगवन् ! चुल्लहिमवंता णामं रायहाणी पण्णत्ता ? वह सुखद स्पर्श वाला, शोभायमान रूप वाला, प्रसन्नता प्रदान करने वाला है— यावत् — सुन्दर है । आयाम-विपरिक्लेव यासाय देवयाओ सीहासणपरिवारो अट्टो अ देवाण व देवी य राजहागीओ गेयस्याओ । नवरदेवा १ हिमवंत २ र ३ हेमलय, ४ देसमणकूडेसु, सेसेसु देवियाओ । गणितानुयोग इस प्रासादावतंसक के अन्दर अतिसमरमणीय भूभाग कहा गया है यावत् सपरिवार सिहासन है..... २७३ उ०- हे गौतम! क्षुद्र हिमवान् नाम का महधिक देवयावत् रहता है। इस कारण है गौतम ! क्षुद्र हिमवान् कूटक्षुद्र हिमवान कूट कहा जाता है । — दो कूट अधिक सम एवं तुल्य हैं ४३६. जम्बूद्वीप द्वीप में मंदरपर्वत के दक्षिण में क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत पर दो कूट कहे गये हैं, ये अधिक सम एवं तुल्य हैं इनमें एक-दूसरे से विशेषता एवं नानापन नहीं है, लम्बाई-चौड़ाई ऊँचाई, आकार एवं परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा – (१) बुद्ध हिमवानकूट (२) श्रकूट। - जंबु० वक्ख० ४, सु० ७५ समान कहना चाहिए । हिमा-गिरिकुमार देव की क्षुद्र हिमवन्ता नाम की राजधानी कहाँ कही गई है ? उ०- हे गौतम! शुत्र हिमवा कूट के दक्षिण में तिरछे अस्य द्वीप समुद्र सांपने पर अन्य जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिण में बारह हजार योजन पर्यन्त अवगाहन करने पर क्षुद्र हिमबन्त गिरि कुमार देव की "हिमवना" नाम की राजधानी कही गई है । यह बारह हजार योजन की लम्बी-चौड़ी है । शेष सारा वर्णन (विजय देव की ) विजया राजधानी के भरतकूट आदि कूटों के कथन का निर्देश४३८. इसी प्रकार शेष कूटों का कथन भी जानना चाहिए । कूटों की लम्बाई चौड़ाई, परिधि, प्रासार, देवता, सिहासन परिवार नाम हेतु देव देवियाँ तथा राजधानियाँ जानना चाहिए । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ७५ कूटों पर देवियाँ हैं । विशेष – इन चार कूटों पर देवता हैं- (१) क्षुद्रहिमवान कूट, (२) भरतकूट, (३) हैमवतकूट और (४) वंश्रमणकूट । शेष Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन सूत्र ४३६-४४२ २. महाहिमवंतवासहरपव्वए अट्ठकडा २. महाहिमवान् वर्षधर पर्वत पर आठ कूट४३६. प० – महाहिमवंते णं भंते ! वासहरपब्वए कइ कूडा ४३६. प्र०-हे भगवन् ! महाहिमवान् वर्षधर पर्वत पर कितने पण्णता? कूट कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! अट्ठकूडा पण्णत्ता, तं जहा उ०—हे गौतम ! आठ कूट कहे गये हैं यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ महाहिमवंतकूडे, ३ हेमवयकूडे, (१) सिद्धायतन कूट, (२) महाहिमवान् कूट, (३) हैमवत ४ रोहियकडे, ५ हिरिदेवीकूडे, ६ हरिकंतकूडे, कूट, (४) रोहितकूट, (५) ह्रीदेवीकूट, (६) हरिकताकूट, (७) ७ हरिवासकूडे, ८ वेरुलियकूडे ।' हरिवर्षकूट, (८) वैडूर्य कूट । एवं चुल्ल हिमवंत कूडाणं जा चेव वत्तवया सच्चेव क्षुद्र हिमवान् पर्वत के कूटों का जो कथन है वही इनका णयव्वा । -जम्बु० वक्ख० ४, सु० ८२ जानना चाहिए। दो कूडा बहुसमतुल्ला दो कूट अधिक सम एवं तुल्य है४४०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरपव्वयस्स दाहिणेणं महाहिमवंते वासहर- ४४०. जम्बूद्वीप द्वीप में मंदरपर्वत के दक्षिण में महाहिमवान् पम्वए दो झूडा पण्णता बहुसमतुल्ला अविसेसमणाणत्ता अण्ण- वर्षधर पर्वत पर दो कूट कहे गये हैं, ये अधिक सम एवं तुल्य हैं, मण्णं नाइवट्टन्ति, आयाम-विक्खंभुच्चत्त-संठाण-परिणाहेण, इनमें एक-दूसरे से विशेषता एवं नानापन नहीं है, लम्बाई चौड़ाई तं जहा–१ महाहिमवंतकूडे चेव, २ वेरुलियकूडे चेव। ऊँचाई, आकार एवं परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते –ठाणं २, उ० ३, सु० ८७ हैं, यथा-(१) महाहिमवान् कूट, (२) वैडूर्यकूट । ३. णिसहवासहरपब्वए नवकूडा ३. निषध वर्षधर पर्वत पर नो कूट४४१. ५० -णिसढे णं भंते ! वासहरपब्वए णं कति कूडा पण्णत्ता? ४४१. प्र०-हे भगवन् ! निषध वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! णव कुडा पण्णत्ता, तं जहा-- ___उ०-हे गौतम ! नौ कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ णिसढकूडे, ३ हरिवासकूडे, (१) सिद्धायतन कूट, (२) निषधकूट, (३) हरिवर्षकूट, (४) ४ पुष्वविदेहकूडे, ५ हरिकूडें, ६ धिईकूडे, ७ सीओआ- पूर्व विदेहकूट, (५) ह्रीकूट, (६) धृतिकूट, (७) शीतोदाकूट, कूडे, ८ अवरविदेहकूडे, ६ रुअगकूडे ।२ . (८) अपरविदेहकूट, (९) रुचककूट । एवं चुल्लहिमवंतकूडाण जा चेव वत्तव्वया सच्चेव क्षुद्र हिमवान् पर्वत के कूटों का जो कथन है, वही इनका णेयव्वा । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ जानना चाहिए । दो कूडा बहुसमतुल्ला दो कूट अधिक सम एवं तुल्य है४४२. एवं (जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं) णिसढे वास- इसी प्रकार (जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत के दक्षिण में) हरपत्रए दो कूडा पण्णत्ता बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहे गं, निषध वर्षधर पर्वत पर दो कट कहे गये हैं, ये अधिक सम एवं तं जहा–१ णिसढकूडे चेव, २ रुयगप्पभे चेव । तुल्य है -यावत्-परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते -ठाणं २, उ० ३, सु० ८७ हैं, यथा-(१) निषध कूट, (२) रुचक प्रभकूट । -ठाणं ८, सु० ६४३ १ जम्बूद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं महाहिमवते वासहरपव्वए अट्टकूडा पण्णत्ता, त जहागाहा-(१) सिद्व (२) महाहिमवंते, (३) हिमवंते (४) रोहिया (५) हरीकूडे । (६) हरिकन्ता, (७) हरिवासे, (८) बेरुलिए चेव कूडा उ । २ जम्बूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं णिसहे वासहरपव्वए णव कूडा पण्णता, तं जहा.गाहा–(१) सिद्ध (२) णिसहे (३) हरिवास, (४) विदेह (५) हरि (६) धिति अ (७) सीतोदा। (८) अवर विदेहे (९) रुयगे, णिसहे कडाण णामाणि ।। - ठाणं ६, सु. ६८६ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४४३-४४६ . तिर्यक् लोक : कूट वर्णन गणितानुयोग २७५ ४ णीलवंत वासहरपन्थए णव कूडा ४. नीलवंत वर्षधर पर्वत पर नौ कूट४४३. ५०–णीलवंते णं भंते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता? ४४३. प्र०-हे भगवन् ! नीलवंत वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! णव कडा पण्णत्ता, तं जहा उ०-हे गौतम ! नौ कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ णीलवंतकूडे, ३ पुवविदेहकूडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) नीलवंतकूट, (३) पूर्वविदेहकूट, ४ सीआकडे, ५ कित्तिकूडे, ६ णारिकताकूडे, ७ अवर- (४) सीताकुट, (५) कीतिकूट, (६) नारिकान्ताकुट, (७) अपरविदेहकूडे, ८ रम्मगकूडे, ह उवदसणकूडे ।' विदेहकूट, (८) रम्यक् कूट, (६) उपदर्शनकूट । सब्बे एए कूडा पंचसइया। ये सभी कूट पांच सो योजन ऊँचे हैं । रायहाणीओ उत्तरेणं । (इन कूट-देवों की) राजधानियाँ (मंदर पर्वत से) उत्तर -जंबु० वक्ख० ४, सु० ११० में है। दो क डा बहुसमतुल्ला ___ दो कूट अधिक सम एवं तुल्य हैं४४४. जंबुट्टीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उतरेणं णीलवते वासहर- ४४४. जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत के उत्तर में नीलवंत वर्षधर पव्वए दो कूडा पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, तं पर्वत पर दो कूट कहे गये हैं, ये अधिक सम एवं तुल्य हैं-यावत्जहा-१ णीलवतकूडे चेव, २ उवदंसणकूडे चेव। परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा-(१) -ठाणं २, उ० ३, सु० ८७ नीलवंत कूट, (२) उपदर्शनकूट । ५. रुप्पी वासहरपव्वए अट्ठक डा ५. रुक्मी वर्षधर पर्वत पर आठ कूट१४ प्पिमि णं भंते ! वासहरपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता? ४४५. प्र०-हे भगवन् ! रुक्मी वर्षधर पर्वत पर कितने कट कहे गये हैं ? उ० --गोयमा ! अट्ठकूडा पण्णत्ता, तं जहा उ०-हे गौतम ! आठ कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ रुप्पिकूडे, ३ रम्मकूडे, ४ नरकंत- (१) सिद्धायतनकूट, (२) रुक्मीकूट, (३) रम्यक्कूट (४) कडे, ५ बुद्धिकूडे, ६ महापुण्डरीअकूड, ७ रुप्पकूला- नरकान्ताकूट, (५) बुद्धिकुट, (६) महापुण्डरीककूट, (७) रुप्यकलाकूडे, ८ हेरण्णवयकूडे (मणिकञ्चणकूडे ।) कूट, (८) हैरण्यवत कूट (मणि-कंचनकूट)। सब्वे वि एए कूडा पंचसइया । ये सभी कूट पांच सौ योजन ऊंचे हैं । रायहाणीओ उत्तरेणं । (इन कूट-देवों की) राजधानियाँ (मंदर पर्वत से) उत्तर -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ में है। दो कडा बहुसमतुल्ला दो कूट अधिक सम एवं तुल्य है-- १४ जंबडीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेण) पिमि ४४६ इसी प्रकार (जम्बूद्वीप द्वीप में मंदरपर्वत के उत्तर में) रुक्मी वासहरपवए दो कडा पप्णत्ता-जाब-परिणाहणं, तं जहा- वर्षधर पर्वत पर दो कूट कहे गये हैं। ये अधिक सम एवं तुल्य हैं१ रुप्पिकडे चेब, २ मणिकंचणकूडे चेव । । यावत् परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा --ठाणं २, उ० ३, सु० ८७ (१) रुक्मीकूट, (२) मणि कंचनकूट । -ठाणं ६, सु० ६८६ १ जम्बट्टीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स, उत्तरे णं णीलवंते वासहरपब्वा णवकूडा पण्णत्ता, तं जहा - गाहा-(१) सिद्ध (२) णीले (३) पुव्वविदेहे. (४) सीया य (५) कित्ति (६) णारी अ। (७) अवरविदेहे (८) रम्मगकूडे (६) उवदंसणे चेव ।। २ जम्बट्टीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं रुप्पिमि वासहरपव्वए अट्ट कुडा पण्णत्ता तं जहागाहा-(१) सिद्ध य (२) रुप्पि (३) रम्मग, (४) नरकन्ता (५) बुद्धि (६) रुप्पकुडे य । (७) हिरण्णवए (८) मणिक चणे य रुप्पिम्मि कुडा उ ।। -ठाणं ८, सु० ६४३ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन सूत्र ४४७-४४६ WWWWWWWWWWWWWW ६. सिहरीवासहरपव्वए इक्कारसकूडा ६. शिखरीवर्षधर पर्वत पर इग्यारह कूट४४७. ५०-सिहरिम्मि णं भंते ! वासहरपब्वए कइ कूडा पण्णत्ता? ४४७. प्र०-हे भगवन् ! शिखरी वर्षधर पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! इक्कारसकूडा पण्णत्ता, तं जहा उ०-हे गौतम ! इग्यारह कूट कहे गये हैं । यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ सिहरीकूडे, ३ हेरण्णवयकूडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) शिखरीकूट, (३) हैरण्यवतकूट, ४ सुवण्णकूलाकूडे, ५ सुरादेवीकूडे, ६ रत्ताकूडे, (४) सुवर्णकूलाकूट, (५) सुरादेवीकूट, (६) रक्ताकूट, (७) लक्ष्मी७ लच्छोकूडे, ८ रत्तवईकूडे, ६ इलादेवीकूडे, कूट, (८) रक्तवतीकूट, (६) इलादेवीकूट, (१०) ऐरवतकूट, १० एरवयकूडे, ११ तिगिच्छकूडे । (११) तिगिच्छकूट । सब्वे वि एए कूडा पंचसइआ।' ये सभी कूट पांच सौ योजन ऊँचे हैं। रायहाणी उत्तरेणं । (इन कूट-देवों की) राजधानियाँ (मदरपर्वत से) उत्तर -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ में है। दो कूडा बहुसमतुल्ला-- दो कूट अधिक सम एवं तुल्य हैं४४८. एवं (जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं) सिहरिम्मि ४४८, इसी प्रकार (जम्बूद्वीप में मंदर पर्वत के उत्तर में) शिखरी वासहरपब्बए दो कडा पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहणं, वर्षधर पर्वत पर दो कूट कहे गये हैं, ये अधिक सम एवं तुल्य हैं तं जहा–१ सिहरीकूडे चेव, २ तिगिछिकूडे चेद। -यावत् –परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, -ठाणं २, उ० ३, सु० ८७ यथा-(१) शिखरीकूट, (२) तिगिच्छकूट । छण्णउइं वक्खारकूडा वक्षस्कार कूट छिनवेसोडससु सरल वक्खारपव्वएसु चउसट्ठी क डा- सोलह सरल वक्षस्कार पर्वतों पर चौसठ कूट चित्तक ड-वक्खारपव्वए चत्तारि कूडा-- चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत पर चार कूट४४६. ५०-चित्तकूडे णं भंते ! वक्खारपव्वए कतिकूडा पण्णता? ४४६. प्र०-हे भगवन् ! चित्रकूट वक्षस्कार पर्वतों पर कितने कूट कहे गये हैं ? उ०—गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा ___उ०-हे गौतम ! चार कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ चित्तकूडे, ३ कच्छकूडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) चित्रकूट, (३) कच्छकूट, (४) ४ सुकच्छकूडे, समा उत्तर-दाहिणणं परुप्परंति । सुकच्छकूट, चारों कूट उत्तर-दक्षिण में परस्पर सम है। १ (क) सव्वे वि णं वासहरकूडा पंच पंच जोयणसयाई उड्ढं उच्चतेग मूने पंच पंच जोपणसयाई विक्वं भेणं पण्णत्ता । -सम० १०८, सु०२ (ख) जम्बू-मंदर-दाहिणुत्तरे गं दुवालसकूडा जम्बू-मंदर-दाहिणे णं छ कू डा पण्णता, तं जहा(१) चुल्लहिमवंत कू डे, (२) वेसमणकूडे, (३) महाहिमवंतकूडे, (४) वेरुलिया डे, (५) णिसढकूडे, (६) रुयगकूडे । जम्बू-मंदर-उत्तरे णं कुछ डा पण्णत्ता तं जहा(१) णीलवंतकडे, (२) उवदंसणकूडे, (३) रुप्पिकू डे, (४) मणिकंचणकूडे, (५) सिहरीकडे, (६) तिगिच्छकुडे । -ठाणं ६, सु० ५२२ परस्परमेतानि चत्वार्यपि उत्तर-दक्षिणभावेन समानि-तुल्यानीत्यर्थः तथाहि-प्रथमं सिद्वायततकूटं द्वितीयस्य चित्रकूटस्य दक्षिणस्यां, चित्रकूटं च सिद्धायतन कूटस्योत्तरस्यां एवं प्राक्तनं प्राक्तनं अग्रेतनाद् अग्रेतनाद्दक्षिणस्या अग्रेतनमग्रेतन प्राक्तनात् प्राक्तनाद् उत्तरस्यां ज्ञेयं.... २ पर Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४४६-४५३ तिर्यक् लोक ः कूट वर्णन गणितानुयोग २७७ पढमं सीआए उत्तरेणं, चउत्थए नीलवंतस्स वासहर- प्रथम कूट शीता (महानदी) के उत्तर में है, चतुर्थकूट नीलबंत पव्वयस्स दाहिणेणं-एत्थ णं चित्तकूडे णामं देवे' वर्षधर पर्वत के दक्षिण में है, इस पर्वत पर चित्रकूट नाम का महिद्धीए-जाव-रायहाणी' सेत्ति । महधिक देव रहता है-यावत्-राजधानी मेरु से उत्तर में है। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६४ पम्हकूडवक्खारपव्वए चत्तारि कूडा पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत पर चार कूट'४५०. ५०-पाकडे णं भंते ! वक्खारपव्वए कति कूडा पण्णता? ४५०. प्र०-हे भगवन् ! पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उ०—गोयमा ! पम्हकडे चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा- उ०-हे गौतम ! पद्मकूट वक्षस्कार पर्वत पर चार कूट कहे १ सिद्धाययणकूडे, २ पम्हकूडे, ३ महाकच्छकूडे, गये हैं, यथा-(१) सिद्धायतनकूट, (२) पद्मकूट, (३) महा४ कच्छावइकूडे । कच्छकूट, (४) कच्छावति कूट । एवं-जाव- अट्ठो। इस प्रकार-यावत्-नाम के हेतु पर्यन्त जानना चाहिए। ४५१. ५०-से केण8 णं भते एवं वुच्चइ–'पम्हकूडे, पम्हकूडे ।' ४५१. प्र०-हे भगवन् ! यह पद्मकूट क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! पम्हकूडे इत्थ देवे महिद्धीए पलिओवमट्ठिईए उ०-हे गौतम ! यहाँ एक पल्योपम की स्थिति वाला पद्मपरिवसइ। कूट नाम का एक महधिक देव रहता है। से तेणटुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ–“पम्हकूडे, पम्ह- हे गौतम ! इस कारण से पद्मकूट पद्मकूट कहा जाता है । -जबु. वक्ख० ४, मु० ६५ णलिणक डवक्खारपव्वए चत्तारिक डा नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत पर चार कूट४५२. ५०–णलिणकूडे णं भंते ! वक्खारपब्वए कतिकूडा पण्णता? ४५२. प्र०—हे भगवन् ! नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं। उ०-गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा उ०-हे गौतम ! चार कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ णलिणकूडे, ३ आवत्तकूडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) नलिनकूट, (३) आवर्तकूट, (४) ४ मंगलावत्तकूडे । मंगलावर्तकूट । एए कूडा पंचसइया । __ ये कूट पाँच सो योजन ऊँचे है । रायहाणीओ उत्तरेणं । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ इनकी राजधानियाँ मेरु पर्वत से उत्तर में है । एगसेलवक्खारपव्वए चत्तारि कडा एकल वक्षस्कार पर्वत पर चार कूट४५३. ५०-एगसेले गं भंते ! वक्खारपव्वए कति कूडा पण्णता? ४५३. प्र०-हे भगवन् ! एकशैल वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! चत्तारि कूडा पण्णत्ता, तं जहा उ०-हे गौतम ! चार कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ एगसेलकूडे, ३ पुक्खलावत्तकूडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) एकशैलकूट, (३) पुष्कलावर्तकूट, ४ पुक्खलावईकूडे । (४) पुष्कलावती कूट । १ अत्र चित्रकूटनामा देवः परिवसति तद्योगाच्चित्रकूट इति नाम । २ अस्य राजधानी मेरोरुत्तरतः शीताया उत्तरदिग्भावि-वक्षस्काराधिपतित्त्वात् । एवमग्रेतनेष्वपि वक्षस्कारेषु यथासम्भवं वाच्यमिति । -जम्बू० वृत्ति ३ “यावत्करणात्"-समा उत्तर-दाहिणणं पहप्परंतीत्यादिग्राहा। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन सूत्र ४५३-४५५ कूडाणं तं चेव पंचसइयं परिमाणं....-जाव-एगसेले अ इन कूटों का परिमाण वही पांच सौ योजन है-यावत्देवे महिद्धीए। ‘एकशैल" महधिक देव यहाँ रहता है । सोलसहं वक्खारपव्वयाणं चित्तकूड वत्तव्वया-जाव- चित्रकूट के कथन के समान सोलह वक्षस्कार पर्वतों का कूडा चत्तारि चत्तारि । कथन भी है-यावत्-उन सब पर्वतों पर चार-चार कूट हैं । __-जंबु० वक्ख० ४, सु० ८६ चउसु गजदंतागारवक्खारपव्वएसु बत्तीसं क डा- गजदन्ताकार चार वक्षस्कार पर्वतों पर बत्तीस कूट गंधमायण (गजदंतागार) वक्खारपव्वए सत्तक डा- गजदन्ताकार गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत पर सात कूट४५४. ५०-गंधमायणे णं भंते ! वक्खारपब्वए कति कूडा पण्णत्ता? ४५४. प्र०-हे भगवन् ! गंधमादन वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! सत्त कूडा पण्णत्ता, तं जहा उ०-हे गौतम ! सात कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ गंधमायणेकडे, ३ गंधिलावईकूडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) गंधमादनकूट, (३) गंधिलावती४ उत्तरकुरुकूडे, ५ फलिहकूड, ६ लोहियक्खकूड, कूट, (४) उत्तर-कुरुकूट, (५) स्फटिककूट, (६) लोहिताक्षकूट, ७ आणंदकूट। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८६ (७) आनन्दकूट । सिद्धाययणक डस्स अवट्ठिई पमाणं च सिद्धायतनकूट की अवस्थिति और प्रमाण४५५. ५०-कहि गं भंते ! गंधमायणे वक्वारपव्वए सिद्धाययण- ४५५. प्र०-हे भगवन् ! गंधमादन वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन कूड णामं कूड पण्णते? कूट नाम का कूट कहाँ कहा गया है ? उ०-- गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-पच्चत्थिमेणं, गंध- उ०-हे गौतम ! मंदरपर्वत के उत्तर-पश्चिम में, गन्ध मायण कूडस्स दाहिण-पुरथिमेणं-एत्थ णं गधमायणे मादनकूट के दक्षिण-पूर्व में गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत पर वक्खारपव्वए सिद्धाययणकूड णामं कूड पण्णत्ते । सिद्धायतनकूट नाम का कूट कहा गया है । जं चेव चुल्लहिमवते सिद्धाययणकूडस्स पमाणं तं चेव क्षुद्र हिमवान् पर्वत के सिद्धायतनकूट का जो प्रमाण है वही एएसि सव्वेसि भाणियव्वं । इन सब कूटों का कहना चाहिए। एवं चेव विदिसाहि तिण्णि कूडा भाणियब्वा । इसी प्रकार तीनकूट विदिशाओं में कहने चाहिए। चउत्थे तत्तिअस्स उत्तर-पच्चत्थिमेणं, पंचमस्स दाहिणेणं, चतुर्थकूट तृतीयकूट के उत्तर-पश्चिम में है, पंचमकूट दक्षिण सेसा उ उत्तर-दाहिणणं । शेषकूट उत्तर-दक्षिण में है। १ षोडशवक्षस्कारपर्वतानां चित्रकूट-वक्तव्यता ज्ञया यावच्चत्वारि चत्वारि कूटानि व्यावणितानि भवन्तीति । -जम्बू० वृत्ति २ जम्बूद्दीवे दीवे गंधमायणे वक्खारपव्वए सत्तकूडा पण्णत्ता, तं जहा-गाहा-(१) सिद्ध य (२) गंधमायणे, बोद्धव्वे (३) गंधिलावतीकूडे । (४) उत्तरकुरु (५) फलिहे, (६) लोहितक्खे, (७) आणंदणे चेव ।। -ठाणं० ७, सु० ५६० ३ मेरुत उत्तर-पश्चिमायां सिद्धायतनकूट, तस्मादुत्तर-पश्चिमायां गन्धमादनकूट, तस्माच्च गन्धिलावतीकूटमुत्तर-पश्चिमायामिति । - जम्बू० वृत्ति ४ चतुर्थमुत्तर कुरुकूटं तृतीयस्य गन्धिलावतीकूटस्योत्तरपश्चिमायां, पञ्चमस्य स्फटिककूटस्य दक्षिणतः । प्र.-नन यथा तृतीयाद् गन्धिलावतीकूटाच्चतुर्थं उत्तरकुरुकूटमुत्तर-पश्चिमायां, चतुर्थाच्च तृतीयं दक्षिण-पूर्वस्या, तथा पञ्चमात स्फटिककूटात् कथं दक्षिण-पूर्वस्यां चतुर्थ कूटं न सङ्गच्छते? उ०-उच्यते पर्वतस्य वक्रत्वेन चतुर्थकूटत एव दक्षिण-पूर्वाप्रति बलनात् पञ्चमाच्चतुर्थं दक्षिणस्यामिति शेषाणि स्फटिक कूटादीनि श्रीणि उत्तर-दक्षिणश्रेणिव्यवस्थया स्थितानि । प्र०-कोऽर्थः? उ०-पञ्चमं चतुर्थस्योत्तरतः, षष्ठस्य दक्षिणतः, षष्ठं पञ्चमस्योत्तरतः, सप्तमस्य दक्षिणतः सप्तमं षष्ठस्योत्तरत इति परस्पर मुत्तर-दक्षिणभाव इति । -जम्बू• वृत्ति Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सूत्र ४५५-४५७ तिर्यक् लोक : कूट वर्णन गणितानुयोग २७६ फलिह-लोहिअक्खेसु भोगंकर-भोगवईओ देवयाओ' सेसेसु स्फटिककूट और लोहिताक्षकूट पर भोगंकरा और भोगवती सरिसणामया देवा । नाम को दो दिक्कुमारियाँ रहती हैं, शेष कूटों पर कूट सदृश नाम वाले देव रहते हैं। छ सु वि पासायवडेंसगा। इन छः कूटों पर प्रासादावतंसक है। रायहाणीओ विदिसासु । इन कट-देवों की राजधानियाँ मंदरपर्वत के उत्तर-पश्चिम मालवंत (गजदंतागार) वक्खारपव्वए णव कूडा- गजदन्ताकार माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत पर नौ कूट४५६. ५०-मालवते णं भंते ! वक्खारपव्वए कति कूडा पण्णत्ता? ४५६. प्र०-हे भगवन् ! माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत पर कितने कितने कूट कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! णवकूडा पण्णत्ता, तं जहा ____उ० -हे गौतम ! नौ कूट कहे गये हैं, यथा-- १ सिद्धाययणकूड. २ मालवंतकूड, ३ उत्तरकुरुकडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) माल्यवंतकूट, (३) उत्तरकुरुकूट, ४ कच्छकूड५, ५ सायर कूड , ६ रययकूड, ७ सीआ- (४) कच्छकूट, (५) सागरकूट, (६) रजतकूट, (७) शीताकूट, कुड, ८ पुण्णभकूड, ८ हरिस्सहकूड। (८) पूर्णभद्रक्ट, (६) हरिस्सहकूट । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६१ सिद्धाययणकूडाईणं अवट्ठिई पमाण च - सिद्धायतनकूट की अवस्थिति और प्रमाण४५७. ५०-कहि णं भंते ! मालवंते वक्खारपव्वए सिद्धाययण- ४५७. प्र०-हे भगवन् ! माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत पर सिद्धायतन कूड णाम कूडे पण्णते ? नामका कूट कहाँ कहा गया है ? उ.-गोयमा ! मंदरस्स पब्बयस्स उत्तर-पुरस्थिमे णं, माल- उ०-हे गौतम ! मंदर पर्वत के उत्तर-पूर्व में, माल्यवन्तकूट वंतस्स कूडस्स दाहिण-पच्चस्थिमे णं एत्थ णं सिद्धाय- के दक्षिण-पश्चिम में सिद्धायतनकूट नाम का कूट कहा गया है। यणकडे णामं कर पण्णत्ते । पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं । यह पाँच सौ योजन ऊँचा है। अवसिळं तं चेव-जाव-रायहाणी । शेष सब राजधानी पर्यन्त वही हैएवं (२) मालवंतस्स कूडस्स, (३) उत्तरकुरुकू इस्स, इसी प्रकार (२) माल्यवतकूट, (३) उत्तरकुरुकूट, (४) (४) कच्छकूडस्स एए चत्तारि दिसाहि पमाणेहि और कच्छकूट इन चारों का दिशा प्रमाण जानना चाहिए। णअब्वा । कूडसरिसणामया देवा । - जंबु० वक्ख० ४ सु० ६१ कूट सदृश नाम वाले देव इन कूटों पर रहते हैं.... १ स्फटिककूट-लोहिताक्षकूटयोः पञ्चम-षष्ठयो गङ्करा भोगवत्यौ द्वे देवते दिक्कुमार्यो वसतः । -जम्बू० वृत्ति २ “एषां च राजधान्योऽसङ ख्याततमे जम्बूद्वीपे विदिक्षु उत्तर-पश्चिमासु" । -जम्बू० वृत्ति ३ माल्यवत्कूटं - प्रस्तुतवक्षस्काराधिपवासकूट । ४ उत्तरकुरुकूटं-उत्तरकुरुदेवकूटं । ५ कच्छकूट-कच्छविजयाधिपकूटं । ६ शीताकूटं-शीतासरित्सुरीकूटं । ७ पूर्णभद्रनाम्नो व्यन्तरेशस्य कूट-पूर्णभद्रकूटम् । ८ (क) हरिस्सह नाम्न उत्तरश्रेणिपतिविद्य त्कुमारेन्द्रस्य कूट-हरिस्सहकूटं । -जम्व० वृत्ति (ख) जम्बुद्दीवे दीवे मालवंतवखारपब्बए णव कूड़ा पण्णता। तं जहा-गाहा-(१) सिद्ध य, (२) मालवंते, (३) उत्तरकुरु, (४) कच्छ, (५) सागरे, (६) रयते । (७) सीता य, (९) पुण्णणामे, (६) हरिस्सहकूडे य बोद्धब्वे ।। -ठाणं. ६, सु० ६८६ .. प्रथम सिद्धायतनकूट मेरोरुत्तर-पूर्वस्यां दिशि, ततस्तस्य दिशि द्वितीयं माल्यवस्कूट, ततस्तस्यामेव दिशि तृतीयमुत्तरकुरुकूट, ततोऽप्यस्यां दिशि कच्छकूट, एतानि चत्वार्यपि कूटानि विदिग्भावीनि, मानतो हिमवत्कूट प्रमाणानीति । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन सूत्र ४५८-४६० सागरकूडस्स अवट्ठिई पमाणं च- . सागरकूट की अवस्थिति और प्रमाण४५८. ५०-कहि णं भंते ! मालवंते वक्खारपव्वए सागरकूडे ४५८. प्र०-हे भगवन् ! माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत पर सागरकूट णामं कूडे पण्णत्ते? नाम का कूट कहां कहा गया है ? उ०-गोयमा ! कच्छकूडस्स उत्तर-पुरस्थिमे णं, रययकूडस्स उ.-हे गौतम ! कच्छकूट के उत्तर-पूर्व में, रजतकूट के दक्खिणेणं-एत्थ णं सागरकूड णामं कूडे पण्णत्ते। दक्षिण में सागरकूट नामका कूट कहा गया है। पंच जोयणसयाई उद्धं उच्चत्ते णं, अवसिट्ठतं चेव। यह पांच सौ योजन का ऊँचा है, शेष सब वही है । सुभोगादेवी; रायहाणी-उत्तर-पुरथिमे ण ।' विशेष-इस कूट पर 'सु भोगा' नाम की दिशाकुमारी रहती है, इसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में है। रययकूडे भोगमालिणी देवी, रायहाणी-उत्तर-पुरथिमे रजतकूट पर 'भोगमालिनी' नाम की दिशाकुमारी रहती है। णं । इसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में है। अवसिट्टा कूडा उत्तर-दाहिणे ण णेयव्वा, एक्केणं शेष कूट उत्तर-दक्षिण में जानने चाहिए। सभी कूटों का पमाणे णं । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ६१ प्रमाण हिमवतत्कूट के समान है.... हरिस्सहकूडस्स अवट्ठिई पमाणं च हरिस्सह कूट की अवस्थिति और प्रमाण४५६. ५०–कहि णं भंते ! मालवंते वक्खारपब्वए हरिस्सहकूड ४५६. प्र०—हे भगवन् ! माल्यवंत वक्षस्कार पर्वत पर हरिस्सह. णामं कूडे पण्णत्ते ? कुट नाम का कूट कहां कहा गया है। उ०—गोयमा ! पुण्णभद्दस्स उत्तरेणं, णोलवंतस्स दक्खिणेणं उ०-हे गौतम ! पूर्णभद्रकूट के उत्तर में नीलवंत वर्षधर -एत्थ णं हरिस्सहकूड णामं कूड पण्णत्ते । पर्वत के दक्षिण में 'हरिस्सहकूट' नाम का कूट कहा गया है । एग जोअणसहस्सं उद्धं उच्चत्ते णं; जमगपमाणेणं यह एक हजार योजन का ऊँचा हैं। इसका प्रमाण यमक णयव्वं । पर्वत के समान जानना चाहिए। मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जाई दीव- मंदर पर्वत के उत्तर में तिरछे असंख्यद्वीप-समुद्रों के बाद समुद्दाई वीईवइत्ता अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवे उत्तरेणं अन्य जम्बुद्वीप द्वीप में उत्तर दिशा में बारह हजार योजन जाने बारस जोअणसहस्साइं ओगाहित्ता-एत्थ णं 'हरि- पर 'हरिस्सह' देव की 'हरिस्सह' नाम की राजधानी कही सहस्स देवस्स' 'हरिस्सहा' णाम रायहाणी पण्णत्ता। गई है। चउरासीई जोअणसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं । यह चोरासी हजार योजन की लम्बी-चौड़ी है, बे जोयणसयसहस्साई पट्ठि च सहस्साई छच्च छत्तीसे दो लाख पैंसठ हजार छः सौ छत्तीस योजन की इसकी जोयणसए परिक्खेवेणं । परिधि है। सेसं जहा चमरचंचाए रायहाणीए तहा पमाणं भाणि- शेष चमरचंचा राजधानी का जैसा प्रमाण है वैसा कहना यव्वं । -जंबु० वक्ख० ४ सु०६२ चाहिए। हरिस्सहकूडस्स णामहेऊ हरिस्सह कूट के नाम का हेतु४६०.५०-से केणढणं भंते ! एवं बुच्चइ-"हरिस्सहकूड, ४६०. प्र०-हे भगवन् ! हरिस्सहकूट हरिस्सह कूट क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! हरिस्सहकूड बहवे उप्पलाई पउमाइं हरि- उ०-हे गौतम ! हरिस्सह कूट पर अनेक उत्पल पद्म स्सहकडसमवण्णाई-जाव-हरिस्सहे णामं देवे अ इत्थ हरिस्सहकूट के समान वर्ण वाले हैं-यावत -'हरिस्सह' नाम: महिद्धीए-जाव-परिवसइ। का महर्धिक देव -यावत्-रहता है। १ अत्र सुभोगा नाम्नी दिक्कुमारी देवी, अस्या राजधानी मेरोरुत्तरपूर्वस्यां । २ रजतकूटं षष्ठं पूर्वस्मादुत्तरस्यां, अत्र भोगमालिनी दिक्कुमारी सुरी, अस्या राजधानी उत्तर-पूर्वस्यां । ३ एकेन तुल्य-प्रमाणेन सर्वेषामपि, हिमवत्कूटप्रमाणत्वात् । हरिस्सहकूडे ?" Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६०-४६२ तिर्यक् लोक : कूटवर्णन गणितानुयोग २८१ से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"हरिस्सहकूड, हे गौतम ! इस कारण से 'हरिस्सह कूट' हरिस्सह कूट कहा हरिस्सहकूड।" जाता है। अदुत्तरं च णं गोयमा !-जाब-सासए णामधेज्जे । अथवा हे गौतम !-यावत्-'हरिस्सह" नाम शास्वत है। -जंबु० वक्ख० ४, सु०६२ सोमणस-वक्खारपव्वए सत्तकूडा सौमनस वक्षस्कार पर्वत पर सात कूट४६१. ५०-सोमणसे गं भते ! वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णत्ता? ४६१. प्र०-हे भगवन् ! सोमनस वक्षस्कार पर्वत पर कितने कुट कहे गये हैं ? उ०—गोयमा ! सत्तकूडा पण्णत्ता, तं जहा उ०-हे गौतम ! सात कूट कहे गये है, यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ सोमणसकूडे, ३ मंगलावतीकूडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) सौमनसकूट, (३) मंगलावतीकूट, ४ देवकुरुकूडे, ५ विमलकूडे, ६ कचणकूडे, ७ वसिट्ठ- (४) देवकुरुकूट, (५) विमलकूट, (६) कंचनकूट, (७) वसिष्ठकूट। एवं सब्वे पंचसइया कूडा, एएसि पुच्छा दिसि-विदि- ये सब कूट पाँच सौ योजन ऊँचे हैं, गंधमादन पर्वत के कटों साए भाणिअव्वा, जहा गंधमायणस्स ।' के समान इन कूटों के दिशा-विदिशा सम्बन्धी प्रश्नोत्तर कहने चाहिए। णवरि-विमल-कंचणकूडेसु देवयाओ सुवच्छा वच्छ- विशेष-विमलकूट और कंचनकूट पर 'सुवत्सा' और मित्ता य । 'वत्समित्रा' नाम की दिशाकुमारियाँ रहती हैं। अवसि? सु कूडेसु सरिसणामया देवा । शेष कूटों पर कूटसदृश नाम वाले देव रहते हैं। रायहाणीओ दक्खिणे णं ति । इनकी राजधानियाँ दक्षिण में हैं। -जंबु• वक्ख० ४, सु०६७ विज्जुप्पभ वक्खारपव्वए णव कूडा विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत पर नौ कूट४६२. ५०-विज्जुप्पभे णं भंते ! वक्खारपव्वए कइ कूडा पण्णता? ४६२. प्र०-हे भगवन् ! विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत पर कितने कूट कहे गये है ? उ०-गोयमा ! णव कूडा पण्णता, तं जहा ___ उ०-हे गौतम ! नौ कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकूडे, २ विज्जुप्पभकूडे, ३ देवकुरुकूडे, (१) सिद्धायतनकूट, (२) विद्युत्तभकूट, (३) देवकुरुकूट, ४ पम्हकूडे, ५ कणगकूडे, ६ सोवस्थिअकूडे, (५) कनककूट, (६) सौवस्तिककूट, (७) शीतोदाकूट, (८) शत७ सीओआकूडे, ८ सयज्जलकूडे, ६ हरिकूडे । ज्वलकूट, (६) हरिकूट । १ जम्बुद्दीवे दीवे सोमणसे वक्खारपब्वए सत्त कूडा पण्णत्ता, तं जहा-गाहा-(१) सिद्ध, (२) सोमणसे या, बोधव्वे, (३) मंगलावतीकुडे । (४) देवकुरु । (५) विमल, (६) कंचण, (७) वसिट्ठकूडे य बोधव्वे । -ठाणं० ७, सु० ५६० २ (क) दक्षिणपूर्वस्यां दिशिसिद्धायतनकूट, तस्य दक्षिण-पूर्वस्यां दिशि द्वितीयं सोमनसकूट, तस्यापि दक्षिण-पूर्वस्यां दिशि 'तृतीयं मंगला वती कूटं इमानि त्रीणि कूटानि विदिग्भाविनि । (ख) मंगलावतीकूटस्य दक्षिण-पूर्वस्यां पश्चमविमलकूटस्योत्तरस्यां चतुर्थ देवकुरुकूट,तस्य दक्षिणत: पञ्चमं विमलकूट, तस्यापि दक्षिणतः षष्ठं काञ्चनकूट, अस्यापि च दक्षिणतो निषधस्योत्तरेण सप्तम वशिष्ठकूटं । (ग) सर्वाणिरत्नमयानि परिमाणतो हिमवत्कूटतुल्यानि, प्रासादादिकं सर्व तद्वत् । ३ तेषां राजधान्यो मेरोदक्षिणत-इति । ४ जम्बुद्दीवे दीवे विज्जुप्पभे वक्खारपब्वए णवकूडा पण्णत्ता, तं जहा-गाहा-(१) सिद्धे य, (२) विज्जुणामे, (३) देवकुरा, (४) पम्ह, (५) कणग, (६) सोवत्थी । (७) सीओदा य (6) सयंजले, (६) हरिकूडे चव बोद्धव्वे ॥ -ठाणं०६, सु०६८६ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन सूत्र ४६२-४६३ एए हरिकूडवज्जा पंचसइआ णेयव्वा । हरिकूट को छोड़कर शेष सभी कट पाँच सौ योजन ऊंचे जान लेने चाहिए। इन कूटों के दिशा-विदिशा सम्बन्धी प्रश्नोत्तर जान लेने एएसि कूडाणं पुच्छा, दिसि-विदिसाओ णेयव्वाओ।' चाहिए। जहा मालवंतस्स हरिस्सह कूडें तह चेव हरिकूडे । माल्यवन्त पर्वत का जैसा हरिस्सह कूट है वैसा ही हरि रायहाणी-जह चेव दाहिणणं 'चमरचंचा' रायहाणी जैसी दक्षिण में चमरचंचा राजधानी है इन कुटों की तह णेयब्वा। राजधानियां भी दक्षिण में वैसी ही हैं। कणग-सोवत्थिअकृडेसु वारिसेण-बलाहयाओ दो देव- कनककूट और सौवस्तिककूट पर 'वारिसेणा' तथा 'बलायाओ। हका' ये दो दिशाकुमारियाँ हैं। अवसिट्ठसु कूडेसु कूडसरिसणामया देवा । शेष कूटों पर कूट सदृश नाम वाले देव रहते हैं। रायहाणीओ दाहिणणं । राजधानियां दक्षिण में हैं। -जंबु० वक्ख० ४, सु० १०१ चउत्तीस-दीहवेयडढपव्वएसु तिण्णि छल्लुत्तरा कूडसया- चोतीस दीर्घवैताढ्यपर्वतों पर तीन सौ छ: कूट भारहे वासे दोहवेयड्ढपव्वए णव कडा- भरतक्षेत्र में दीर्घ वैताढ्य पर्वत पर नौ कूट४६३. ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे दोहवेयड्ढपव्वए ४६३. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में भरतक्षेत्र में दीर्घकइ कूडा पण्णता? वैताढ्यपर्वत पर कितने कूट कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! णवकूडा पण्णत्ता, तं जहा उ०-हे गौतम ! नौ कूट कहे गये हैं, यथा१ सिद्धाययणकू डे, २ दाहिणड्ढभरहकूडे, ३ खंडप्प- (१) सिद्धायतनकूट, (२) दक्षिणार्धभरतकूट, (३) खण्डवायकूडे, ४ माणिभद्दकूड, ५ वेअड् ढकूड, ६ पुण्णभद्द- प्रपातकूट, (४) माणिभद्रकूट, (५) वैताढ्यकूट, (६) पूर्णभद्रकूट, कूड, ७ तिमिसगुहाकूड, ८ उत्तरद ढभरहकूड. (७) तमिस्रागुफाकूट, (८) उत्तरार्धभरतकूट, (९) वैश्रमणकूट । ६ वेसमणकूड। -जंबु० बक्ख० १, सु० १२ १ मेरोदक्षिण-पश्चिमायां दिशि मेरोरासन्नमाद्य सिद्धायतनकूट, तस्य दक्षिण-पश्चिमायां दिशि विद्युत्प्रभकूटं, ततोऽपि तस्यां दिशि तृतीयं देवकुरुकूटं तस्यापि तस्यामेव दिशि चतुर्थं पक्ष्मकूटं, एतानि चत्वारि कूटानि विदिग्भावीनि । चतुर्थस्य दक्षिण-पश्चिमायां षष्ठस्य कूटस्योत्तरतःपञ्चमं कनककूटं तस्य दक्षिणतः षष्ठं सौवस्तिक कूटं, तस्यापि दक्षिणतः सप्तम शीतोदाकूट, तस्यापि दक्षिणतोऽष्टमं शतज्वलकूटं । २ नवमस्य सविशेषत्वेन हरिस्सहातिदेशमाह, यथा-माल्यवद्वक्षकारस्य हरिस्सहकूटं तथैव हरिकूटं बोद्धव्यं सहस्रयोजनोच्चं, अर्द्ध तृतीयशतान्यवगाढं मूले, सहस्रयोजनानिपृथु, इत्यादि । नवरमष्टमतो दक्षिणतः इदं निषधासन्नमित्यर्थ , हरिस्सहकूटं उत्तरतो नीलवदासन्नं । ३ कनक-सौवस्तिक कूटयोर्वारिषेण-बलाहके दिक्कुमा- द्वे देवते । यद्यप्युत्तरकुरुवक्षस्कारयोर्यथायोगं सिद्ध-हरिस्सहकूटवर्जकूटाधिपराजधान्यो यथाक्रमं वायव्यामैशान्यां च प्रागभिहिता स्तथादेवकुरु वक्षस्कारयोर्यथायोगं सिद्ध-हरिकूटवर्जमूटाधिपराजधान्यो यथाक्रममाग्नेय्यां नैऋत्यां च वक्तुमुचितास्तथापि प्रस्तुत सूत्र सम्बन्धियावदादर्शषु पूज्यश्रीमलयगिरिकृतक्षेत्रविचारवृत्तौ च तथादर्शनाभावात् अस्माभिरपि राजधान्यो दक्षिणेनेत्यलेखि । -जम्बू• वृत्ति ५ जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्बयस्स दाहिणे णं भरहे दीह वेयड्ढे णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा-- गाहा-(१) सिद्ध (२) भरहे (३) खडग (४) माणी (५) वेयड्ड (६) पुण्ण (७) तिमिसगुहा । (७) भरहे (८) वेसमणे य, भरहे कूडाण णामाई ॥ -ठाणं० ६, सु० ६७६ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६४-४६५ तिर्यक् लोक : कूट वर्णन गणितानुयोग २८३ सिद्धाययणकूडस्स अवट्रिई पमाणं च सिद्धायतनकूट की अवस्थिति और प्रमाण४६४. ५०-कहि गं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दीहवेयड्ढ- ४६४. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में भरतक्षेत्र में दीर्घ पव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते ? वैताढ्यपर्वत पर सिद्धायतनकूट नाम का कूट कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! पुरथिम-लवणसमुद्दस्स पच्चत्थिमेणं, दाहिण- उ-हे गौतम ! पूर्वी लवणसमुद्र से पश्चिम में दक्षिणार्ध ड्ढभरहकूडस्स पुरथिमेणं-एत्थ णं जंबुद्दीवे दोवे भरत कूट से पूर्व में जम्बूद्वीप द्वीप के भरत क्षेत्र में दीर्घ वैताढ्य भारहे वासे दोहवेयड्ढपव्वए सिद्धाययणकूडे णामं कूडे पर्वत पर सिमायतनकूट नाम का कूट कहा गया है । पण्णत्ते। छ सक्कोसाई जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं । यह छः योजन और एक कोश ऊँचा है। मूले छ सक्कोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं । मूल में छ: योजन और एक कोश चौड़ा है। मज्झे देसूणाई पंच जोयणाई विक्खंभेणं । मध्य में पाँच योजन से कुछ कम चौड़ा है। उरि साइरेगाइं तिण्णि जोयणाई विक्खंभेणं । ऊपर तीन योजन से कुछ अधिक चौड़ा है। मूले देसूणाई बाबीसं जोयणाई परिक्खेवेणं । मूल में बाईस योजन से कुछ कम की परिधि वाला है। मज्झे देसूणाई पण्णरस जोयणाई परिक्खेवेणं । मध्य में पन्द्रह योजन से कुछ कम की परिधि वाला है। उरि साइरेगाई णव जोयणाई परिक्खेवेणं । ऊपर नौ योजन से कुछ अधिक की परिधि वाला है । मूले वित्थिण्णे, मज्झे संखित्ते, उपि तणुए, गोपुच्छ- मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त ऊपर पतला गो-पुच्छ के संठाणसंठिए, सव्वरयणामए अच्छे-जाव-पडिरूवे। आकार वाला सर्वरत्नमय स्वच्छ-यावत-प्रतिरूप है । से णं एगाए पउमवरवेइयाए, एगेण य वणसंडेणं सवओ यह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से घिरा हुआ है, समंता संपरिरिखत्ते, पमाणं वण्णओ दोण्हं पि। इन दोनों का प्रमाण और वर्णन जान लेना चाहिए। सिद्धाययणकूडस्स णं उप्पि बहुसमरणिज्जे भूमिभागे सिद्धायतनकूट के ऊपर अधिक सम एवं रमणीय भूभाग कहा पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा,-जाव- गया है, यह चर्म से मढे हुए मृदगतल के समान है-यावत्-- वाणमंतरा देवाय देविओ य-जाव-विहरति ।' वाणव्यन्तर देव और देवियाँ-यावत्-विचरण करते हैं। -जंबु० वक्ख० १, सु० ११ सिद्धाययणस्स पमाणं सिद्धायतन का प्रमाण४६५. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्मदेसभाए- ४६५. उस अधिक सम एवं रमणीय भू-भाग के मध्य में एक एत्थ णं महं एगे सिद्धाययणे पण्णत्ते । विशाल सिद्धायतन कहा गया है । कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूर्ण कोसं उड्ढं यह एक कोश लम्बा, आधा कोश चौड़ा, तथा एक कोश से उच्चत्तेणं। कुछ कम ऊँचा है। अणेगखंभसयसन्निविट्ठ, खंभुग्गय-सुकय-वइर-वेइआ, यह कई सौ स्तम्भों से युक्त हैं, स्तम्भों पर स्थित है, वज्रतोरण-वर-रइय-सालभंजिअ-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लट्ठ-संठिअ- रत्नों से निर्मित वेदिका तथा तोरण वाला है। श्रेष्ठ रचित पसत्थ-वेरुलिअ-विमलखंभे, णाणामणिरयणखचिअ-उज्जल- पुतलियों से युक्त, सम्बद्ध, विशिष्ट एवं मनोज्ञ आकार के प्रशस्त बहुसम-सुविभत्त-भूमिभागे, ईहामिअ-उसभ-तुरग-णर-मगर- वैडूर्यमणि के विमल स्तम्भों वाला है, उसका भूभाग विविध विहग-बालग-किन्नर-रुरू-सरभ-चमर-कुञ्जर-वणलय-जाव- प्रकार के मणि-रत्नों से खचित, उज्ज्वल और अतिसम सुविपउमलय-भत्तिचित्ते, कंचण-मणि-रयण-थूभियाए, णाणाविह- भक्त हैं। सिद्धायतन की दिवाले ईहामृग (भेडिया) वृषभ, नर, पंचवण्ण-पुप्फपुञ्जोवयारकलिए, वण्णओ। मगर, विहग, सर्प, किन्नर, रुरु, शरभ, चमर, कुजर, वनलता -यावत्-पद्मलता के चित्रों से सुशोभित है। उसकी स्तूपिका कंचन एवं मणि-रत्नों की है, नाना प्रकार के पंचवर्ण-पुष्पों के उपचार से युक्त है, यहाँ वर्णन कहना चाहिए। १ सूत्र सं० ४३३ (पृष्ठ २७१) में सिद्धायतनकूट का संक्षिप्त वर्णन इस सूत्र से कुछ भिन्न है, विशेष स्पष्टीकरण प्रस्तावना में देखें। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ लोक-प्रज्ञप्ति १ घंटा-पडाग-परिमंडिअन्गसिहरे धबले मरीइकवयं विजिम्मुअंते, लाउलोडअहिए जाय-या तिर्यक लोक कूट वर्णन तस्स णं सिद्धायतणस्स तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता । सेणं दारा पंचधसवाई उई उच्चगं । अढाइ सयाई दिभे। तावइयं वेव पवेसेणं, वण्णओ जाव- वणमाला । सेआवरकणगभियानं दार तस्स णं सिद्धाययणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पगले से जहागामएवरे वाजाय 1 तस्स सिद्धाय गं बहुसमरमणिरस भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए - एत्थ णं महं एगे देवच्छंदए पण्णत्ते । पंचधाई आयाम-वि साइरेगाई पंचधलाई उई उपच उ०- गोयमा याडस्स पुररियमेणं, सिद्धायपण फुस्स पत्त्वत्थिमेणं- एच णं ण्य दाहिण दृढ भरहरु णाम कसे सिद्धाययणकूडप्पमाणसरिसे जाव । तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए - एत्थ णं महं एगे पासायवडिसए पण्णत्ते । कोसं उड़ढं उच्चत्ते, अद्धकोसं विक्खंभेणं', अब्भुग्गय हिए- जायपासाईए-जाय पि सूत्र ४६५-४६६ सिद्धायतन का अग्र - शिखर घंटा-पताकाओं से परिमंडित है, तथा धवलप्रभा से युक्त, किरणों के समूह को विकीर्ण करता हुआ, लिपा, पुता - यावत्-ध्वजा से युक्त है । सिद्धायतन की तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं । ये द्वार पाँच सौ धनुष ऊँचे हैं । अढाई सौ धनुष चोड़े हैं । 1 इतने ही प्रवेश वाले श्वेत तथा श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तृपिका वाले हैं, यहाँ द्वारों का वर्णन कहना चाहिए - यावत – वनमाला पर्यन्त वर्णन समझ लेना चाहिए । उस सिद्धायतन के अन्दर का भू-भाग अधिक सम एवं रमणीय कहा गया है, वह भू-भाग चर्म से मंढे हुए मृदंगवाद्य के तल जैसा है । उस सिद्धायतन के अन्दर के अतिसम एवं रमणीय भू-भाग के मध्य में एक विशाल 'देवछंदक' कहा गया है । यह पांच सोधनुष लम्बा-चौड़ा है। पाँच सौ धनुष से कुछ अधिक ऊँचा है । सव्वरयणामए - एत्थ णं अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहयमाणमित्ताणं संनिक्खित्तं चिट्ठइ । एवं जाव- धूकडुच्छुगा । - जंबु० वक्ख० १, सु० १३ दाहिणड्डभरहकूडस्स अबदुई पमाणं च ४६६. प० – कहिणं भंते! दीहवेयड्ढपन्यए दाहिणड्ढ भरह कूडे ४६६. प्र० - हे भगवम् ! दीर्घवैताढ्यपर्वत पर दक्षिणार्थं भरतणार्म कुठे पण्णले ? कूट नामक कूट कहाँ कहा गया है ? सर्वरत्नमय है, यहाँ जिन भगवान् की ऊँचाई के बराबर ऊँची एक सौ आठ जिन प्रतिमायें हैं । इसी प्रकार - यावत्-धूपदानियाँ हैं । दक्षिणार्धं भरतकूट की अवस्थिति और प्रमाण उ०- हे गौतम! खण्डप्रपातकूट से पूर्व में सिद्धायतन कूट से पश्चिम में तय पर्वत पर दक्षिणार्थं भरतकूट नामक कूट कहा गया है। इसका प्रमाण सिद्धायतन कूट के सदृश है- यावत्इसके अतिसम एवं रमणीय भू-भाग के मध्य में एक विशाल प्रासादावतंसक कहा गया है। यह एक कोश ऊँचा है, आधा कोश चौड़ा है, चारों ओर से निकलकर फैलती हुई प्रभाओं से मानो वह हंसता हुआ है-पात् - दर्शकों के चित्त को प्रसन्न करने वाला - यावत् - मनोहर है । ''''अत्र यावत्करणात् वक्ष्यमाण-यमिकाराजधानी प्रकरण-गत सिद्धायतन वर्णकेऽतिदिष्टः सुधर्मा सभागमो वाच्यो - यावत् - सिद्धायतनोपरि ध्वजा उपवणिता भवन्ति । यद्यप्यत्र यावत्पदग्राह्य द्वारवर्णक प्रतिमावर्णक धूप कडुच्छादिकं सर्वमन्तर्भवति यथापि स्थानाशून्यतार्थं किञ्चित् सूत्रे दर्शयति, 'तस्स णं सिद्धायतणस्स' इत्यादि । - जम्बू० वृत्ति २ अप्प को मायामेनेति बोध्यम् । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६६-४६६ तिर्यक् लोक : कूट वर्णन गणितानुयोग २८५ . है। यह तस्स णं पासायडिसगस्स बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं महं उस प्रासादावतंसक के मध्य में एक विशाल मणिपीठिका एगा मणिपेढिया पण्णत्ता। कही गई है। पंचधणुसयाई आयाम-विक्खंभेणं, अड्ढाइज्जाइं धणुसयाइं जो पाँच सौ धनुष लम्बी-चौड़ी है एवं ढाई सौ धनुष मोटी बाहल्लेणं, सव्वमणिमई। हैं । यह सर्व मणिमय है। तीसे णं मणिपेढिआए उप्पि सिंहासणं पण्णत्तं, सपरिवारं इस मणिपीठिका के ऊपर एक सिंहासन कहा गया है, यहाँ भाणियव्वं'। -जंबु० वक्ख० १, सु० १४ सिंहासन परिवार कहना चाहिए । दाहिणड्ढभरहकूडस्स णामहेऊ दक्षिणार्ध भरतकूट के नाम का हेतु४६७. ५०-से केगढणं भंते ! एवं वुच्चइ-"दाहिणड्डभरहकूडे, ४६७. प्र०-हे भगवन् ! दक्षिणार्ध भरतकूट दक्षिणार्ध भरतकूट दाहिणड्ढभरहकूडे ?" क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! दाहिणडढभरहकूडे णं दाहिणड्ढभरहे णामं उ०—हे गौतम ! दक्षिणार्ध भरतकूट पर दक्षिणार्ध भरत देवे महिड्ढिीए-जाव-पलिओवमट्टिईए परिवसइ। नाम का महधिक—यावत्-पल्योपम की स्थिति वाला देव रहता है। से णं तत्थ चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं, चउण्हं अग्ग- वह वहाँ दक्षिणार्ध भरतकूट की दक्षिणार्ध भरता नाम की महिसीणं, सपरिवाराणं, तिहं परिसाणं, सत्तण्हं राजधानी में चार हजार सामानिक देवों का, चार सपरिवार अणियाणं, सत्तण्हं अणियाहिवईणं, सोलसण्हं आयरक्ख- अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात सेनाओं का, सात देवसाहस्सोणं, दाहिणड्ढभरहकूडस्स दाहिणड्ढभरहाए सेनापतियों का, सोलह हजार आत्मरक्षकदेवों का और अन्य अनेक रायहाणीए, अणेसि बहूणं देवाण य देवीण य-जाव- देव-देवियों का (आधिपत्य करता हुआ)-यावत्-विचरण विहरइ। -जंबु० बक्ख० १, सु० १४ करता है.... दाहिणडढभरहा रायहाणीए पमाणं च दक्षिणार्धभरता राजधानी की अवस्थिति और प्रमाण४६८. ५० - कहि णं भंते ! दाहिणड्ढभरहकूडस्स देवस्स दाहिण- ४६८. प्र०-हे भगवान् ! दक्षिणाघ भरतकूट देव की दक्षिणार्ध ड्ढभरहा णाम रायहाणी पण्णत्ता? भरता, नाम की राजधानी कहाँ कही गई है ? उ०-गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं तिरियम- उ०-हे गौतम ! मंदरपर्वत के दक्षिण में तिरछे असंख्य संखेज्जदीवसमुद्दे वीईवइत्ता अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवे द्वीप-समुद्र लांघकर और अन्य जम्बूद्वीप द्वीप में दक्षिण में बारह दक्खिणेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थ हजार योजन अवगाहन कहने पर दक्षिणार्ध भरतकूट देव की ण दाहिणड्ढभरहकडस्स देवस्स दाहिणभरहा णामं दक्षिणार्ध भरता नाम की राजधानी कहनी चाहिए। रायहाणी भाणियन्वा । जहा विजयस्स देवस्स। इस राजधानी का वर्णन विजयदेव की राजधानी के समान है। -जंबु० वक्ख० १, सु०१४ सेसाणं सव्वकूडाणं संखित्तवण्णणं शेष सब कूटों का संक्षिप्त वर्णन४६६. एवं सबकूडा णेयब्वा-जाव-बेसमणकूडे, परोप्परं पुरथिम- ४६६. इस प्रकार वैश्रमणकूट पर्यन्त सब कुट जानने चाहिए। ये पच्चत्थिमेणं । कूट परस्पर पूर्व-पश्चिम में है। इमेसि वण्णावासे-गाहा इन कूटों का वर्णन-गाथार्थ । मज्झे वेअड्डस्स उ, कणयामया तिण्णि होंति कूडा उ। वैताढ्य पर्वत के मध्य में तीन कूट कनकमय हैं, शेष सभी सेसा पव्वयकडा, सव्वे रयणामया होति । पर्वतकट रत्नमय हैं। १ दक्षिणार्द्ध भरतकूटाधिप-सामानिकादिदेवयोग्यभद्रासनसहितमिति । २ अत्र सूत्रेऽदृश्यमानमपि ‘से तेण?णमित्यादि सूत्रं स्वयं ज्ञयं' । ३ "पूर्व पूर्व पूर्वस्या उत्तरमुत्तरमपरस्याम्, पूर्वापरविभाग स्यापेक्षिकत्वात्.... Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन २ ३ ४ 1 १ माणिभद्दकूडे २ वेअड्ढकूडे, ३ पुण्णभद्दकूडे - एए तिण्णि कूडा कणगमया', सेसा छप्पि रयणमया ।] दोहं विसरिणामया देवा – १ कयमालए चेव, २ णट्टमालए चैव सेसाणं छ सरिणामया गाहा— जण्णा मया य कूडा, तन्नामा खलु हवंति ते देवा । पलिओवमट्टिइया, हवंति पत्तेयं पत्तेयं ॥ रापहाणीओ- जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं तिरिअं असंखेदीय समूह बीता अम्ममि जंबुद्वीने दोवे वारस जोगसहस्सा ओगाहिता एत्थ रापहाणीओ भाग याओ, विजयरावाणी सरिसपाओ । - जंबु० वक्ख० १, सु० १४ १ सिद्धे २ एरवए ३ खंडे ४ माणी ५ वेयड्ढ ७ तिमिसगुहा । एरवए ६ वेसमणे, एरवए कूडणामाई ॥ - ठाणं ६, सु० ६८९ महा विदेहवासे बत्तीसविजय दीवेय दडपण्यएस दुसय अट्ठासीइकूडा सूत्र ४६६-४७१ (१) मणिकूर (२) बताइयकूट और (३) पूर्णभ ये तीन कूट कनकमय है, शेष छः रत्नमय हैं । एरवए वासे दीवेयद्दे नवकूडा ऐरवत क्षेत्र में दीर्घ वैताद्यपर्वत पर नी कूट ४७०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं एरवए वासे दीह ४७० जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत के उत्तर में ऐरवत क्षेत्र में वेयड्ढे पव्व णव कूडा पण्णत्ता, तं जहा- गाहा दीपं वेतादय पर्वत पर नौ कूट कहे गये हैं, यथा-गावार्थ १ सिद्धे २ कच्छे ३ खंडग, ४ माणी ५ वेयड्ढ ६ पुण्ण ७ तिमिसगुहा । कच्छे वेसमणेय, कच्छे कूडाण णामाई ॥ दो कटों के देवों के नाम विसर मालदेव, (२) नृतमालदेव, शेष छः सदृश हैं, गाथार्थ जो कूटों के नाम हैं वे ही कूटाधिप देवों के नाम हैं । प्रत्येक देव की स्थिति एक-एक पल्योपम की है। राजधानियां - (असमान हैं, (१) कृत कूटों के देवों के नाम कूट जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत से दक्षिण में तिरछे असंख्यद्वीप समुद्रों को लांघने पर अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार वजन जाने पर इनकी राजधानियां कहनी चाहिए इन राजधानियों का वर्णन विजय देव की राजधानी के समान जानना चाहिए। (१) सिद्धायतनकूट, ( २ ) ऐरवतकूट, (३) खण्डप्रपातकूट, (४) माणिभद्रकूट, (५) वेताढ्यकूट, (६) पूर्णभद्रकूट, (७) तिमिस्रगुफा (4) रक्तकूट, (२) वैधमणकूट ऐवत क्षेत्र में ये कूटों के नाम हैं । ४७१. (१) जंबुद्दीवे दीवे कच्छे दीहवेयड्डपव्वए णवकूडा पण्णत्ता, ४७१. (१) जम्बूद्वीप द्वीप के कच्छविजय में दीर्घवताढ्यपर्वत पर तं जहा - गाहानौ कूट कहे गये हैं, यथा-गाथार्थ - महाविदेह क्षेत्र के बत्तीस विजयों में बत्तीस दीर्घवताय पर्वतों पर दो सौ अवासी कूट प्रत्येक विजय में प्रत्येक दीर्घवेताढ्यपर्वत पर नौ-नौ फूट (१) (२) विजय (३) पत कूट, (४) माणिभद्रकूट, (५) वैताढ्यकूट, (६) पूर्णभद्रकूट, (७) तिमिस्रगुफाकूट (८) कच्छ विजयकूट, (९) वैश्रमणकूट, कच्छविजय में ये कूटों के नाम हैं । १ष्ठरूपाणि पीणि कुटानि कनकमयानि भवन्ति... सर्वेवामपि तावानां भरतरायत महाविदेहविजयगतानां नव कूटेषु सर्वममानि वीणि त्रीणि कूटानि कनकमयानि ज्ञातव्यानि । महास्य कृतमालः स्वामी, खण्डप्रपातगृहाटस्य नृत्तमालः स्वामी..... जम्बू० वृति इस द्वितीय कूट का नाम 'दक्षिणार्ध ऐरावत कूट' समझना चाहिए । इस अष्टमकूट का नाम - 'उत्तरार्ध ऐरावत कूट' समझना चाहिए । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४७२.४८० तिर्यक् लोक : कूट वर्णन गणितानुयोग २८७ ४७२. (२) जंबुद्दीवे दीवे सुकच्छे दोहवेयडढपब्बए णवकूडा पण्णत्ता, ४७२. (२) जम्बूद्वीप द्वीप के सुकच्छविजय में दीर्घवैताढ्य पर्वत तं जहा-गाहा पर नौ कूट कहे गये हैं, यथा-गाथा१सिद्ध २ सुकच्छे ३ खंडग, ४ माणी ५ वेयड् ६ पुण्ण (१) सिद्धायतनकूट, (२) सुकच्छ विजयकूट, (३) खण्डप्रपात ____७ तिमिसगुहा। कूट, (४) माणिभद्रकूट, (५) वैताढ्यकूट, (६) पूर्णभद्रकूट,' (७) ८ सुकच्छे ६ वेसमणे य, सुकच्छे कूडाण णामाई। तिमिस्रगुफाकूट, (८) सुकच्छविजयकूट, (९) वैश्रमणकूट, सुकच्छ विजय में ये कूटों के नाम हैं। ४७३. (३-८) एवं-जाव-पोक्खलावइम्मि दीहवेयड्ढे । ४७३. (३-८) इसी प्रकार-यावत्-पुष्कलावती विजय में दीर्घ वैताढ्यपर्वत पर नौ कूट हैं । ४७४. (६) एवं वच्छे दीहवेयड्ढे । ४७४. (E) इसी प्रकार वत्सविजय में दीर्घवैताढ्यपर्वत पर नौ ४७५. (१०-१६) एवं-जाव-मंगलावइम्मि दीहवेयड्ढे । ४७५. (१०-१६) इसी प्रकार-यावत्-मंगलावर्तविजय में दीघंवैताढ्यपर्वत पर नौ-नौ कूट हैं। ४७६. (१७) जंबुद्दीवे दीवे पम्हे बीहवेयड्ढपब्वए णव कूडा पण्णत्ता, ४७६. (१७) जम्बूद्वीप द्वीप के पक्ष्मविजय में दीर्घवैताढ्यपर्वत तं जहा-गाहा पर नौ कूट कहे गये हैं, यथा-गाथार्थ१ सिद्धे २ पम्हे ३ खंडग, ४ माणी ५ वेयड्ढ ६ पुण्ण (१) सिद्धायतनकूट, (२) पक्ष्मविजय कूट, (३) खण्डप्रपातकूट, ७ तिमिसगुहा। (४) मणिभद्रकूट, (५) वैताढ्य कूट, (६) पूर्णभद्रकूट, (७) तिमिस्र ८ पम्हे ६ वेसमणे य, पम्हे कूडाण णामाई ॥ गुफाकूट, (८) पक्ष्मविजयकूट, (६) वैश्रमणकूट । पक्ष्मविजय में ये कूटों के नाम हैं। ४७७. (१८-२४) एवं-जाव-सलिलाव इम्मि दीहवेयड्ढे । ४७७. (१८-२४) इसी प्रकार-यावत -सलिलावती विजय में दीर्घ वैताढ्यपर्वत पर नौ-नौ कूट हैं। ४७८. (२५) एवं वप्पे दीहवेयड्ढे । ४७८. (२५) इसी प्रकार वप्रविजय में दीर्घवंताठ्यपर्वत पर नौ कूट हैं। ४७९. (२६.३२) एवं-जाव-गंधिलावइम्मि दोहवेयड्पवए णव ४७६, (२६-३२) इसी प्रकार-यावत्-गंधिलावतिविजय में कूडा पण्णत्ता, तं जहा—गाहा दीर्घवैताढ्यपर्वत पर नौ कूट कहे गये हैं, यथा-गाथार्थ१ सिद्ध २ गंधिल ३ खंडग, ४ माणी ५ वेयड्ढ ६ पुण्ण (१) सिद्धायतनकूट, (२) गंधिलावतिविजयकूट, (३) खण्ड ७ तिमिसगुहा। प्रपातकूट, (४) मणिभद्रकूट, (५) वैताढ्यकूट, (६) पूर्णभद्रकूट, ८ गंधिलावइ, ६ वेसमणे, कूडाण होंति णामाई ॥ (७) तिमिस्रगुफाकूट, (८) गंधिलावतिविजयकूट, (३) वैश्रमणकूट, ये कूटों के नाम हैं। एवं सब्बेसु दीहवेयड् ढपव्वएसु दो कूडा सरिसणामगा, इस प्रकार सभी दीर्घवैताढ्यपर्वतों पर दो कूटों (द्वितीय और सेसा तं चेव। -ठाणं ६, सु० ६८६ अष्टम के) नाम समान हैं शेष कूटों के नाम वे ही हैं । णंदणवणे णवकूडा नन्दनवन में नो कूट४८०.५०–णंदणवणे णं भते ! कइ कूडा पण्णता? ४८०. प्र०-हे भगवन् ! नन्दनवन में कितने कूट कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! णव कूडा पण्णत्ता', तं जहा उ०-हे गौतम ! नो कूट कहे गये हैं, यथा१ णंदणवणकूडे, २ मंदरकूडे, ३ णिसहकूडे, (१) नन्दनवन कूट, (२) मन्दर कूट, (३) निषधकूट, १ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार ६ सूत्र १२५–'णव मंदर कूडा' कहा है इसका अर्थ होता है-'मन्दर पर्वत के नौ कूट हैं'। इस सूत्र में 'णंदणवणे णव कूडा' कहा है, इसका अर्थ होता है-'नन्दनवन में, मन्दर पर्वत के नौ कूट हैं' दोनों पाठों का वह संयुक्त भावार्थ है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन सूत्र ४८०-४८२ ४ हिमवयकूडे, ५ रययकूडे, ६ रुअगकूडे, ७ सागर- (४) हिमवंतकूट, (५) रजतकूट, (६) रुचककूट, (७) सागरचित्तचित्तकूडे, ८ वइरकूडे, ६ बलकूडे । कूट, (८) वक्षकूट, (६) बलकूट । ४८१. ५०–कहि णं भंते ! णंदणवणे णंदणवणकूडे णामं कूडे ४८१. प्र०-हे भगवन् ! नन्दनवन में नन्दनवनकूट नाम का कूट पण्णत्ते ? कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! १-मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लसिद्धाय- उ०-हे गौतम ! मन्दर पर्वत के पूर्वी सिद्धायतन से उत्तर यणस्स उत्तरेणं, उत्तर-पुरथिमिल्लस्स पासायव.सबस्स में उत्तर पूर्वी प्रासादावतंसक के दक्षिण में नन्दनवन में नन्दनवन दक्खिणेणं-एत्थ णं णंदणवणे णदणवणकडे णामं कूट कहा गया है। कुडे पण्णत्ते। पंचसइआ कूडा पुव्ववण्णिया भाणियव्वा । पूर्ववणित (विदिक हस्तिकूट) के समान ये कट भी पाँच सौ योजन ऊँचे कहने चाहिए। देवी-मेहंकरा, रायहाणी-विदिसाए ति । यहाँ मेघंकरा देवी निवास करती है, इसकी राजधानी विदिशा (उत्तर-पूर्व) में है। एआहि चेव पुव्वाभिलावेणं णेयव्वा । पूर्वकथित राजधानियों के समान इस राजधानी का वर्णन भी जानना चाहिए। इमे कूडा इमाहिं दिसाहिं। ये कूट इन दिशाओं में है(२) एवं मंदरे कूडे (२) इसी प्रकार मन्दरकूट है४८२. पुरथिमिल्लस्स भवणस्स दाहिणेणं, दाहिण-पुरथिमिल्लस्स ४८२. यह पूर्वी भवन से दक्षिण में है, दक्षिण-पूर्वी प्रासादावतंसक पासायवडेअगस्स उत्तरेणं । से उत्तर में है। मेहवई देवी, रायहाणी-पुब्वेणं । इस कूट पर मेघवतीदेवी निवास करती है, इसकी राजधानी पूर्व में है। (३) एवं णिसहे कूडे (३) इसी प्रकार निषधकूट हैदक्खिणिल्लस्स भवणस्स पुरथिमेणं, दाहिण-पुरत्थि- यह दक्षिणी भवन से पूर्व में है। दक्षिणी-पूर्वी प्रासादावतंसक मिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं । से पश्चिम में है। सुमेहा देवी, रायहाणी-दक्खिणेणं । इस कूट पर सुमेघा देवी निवास करती है, इसकी राजधानी दक्षिण में है। (४) एवं हेमवए कूडे (४) इसी प्रकार हेमवतकूट हैदक्खिणिल्लस्स भवणस्स पच्चत्थिमेणं, दाहिण-पच्चत्थि- यह दक्षिणी भवन से पश्चिम में है, दक्षिण-पश्चिमी प्रासादामिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरथिमेणं । वतंसक से पूर्व में है। हेममालिनी देवी, रायहाणी-दक्खिणेणं । इस कूट पर हेममालिनी देवी निवास करती है, इसकी राजधानी दक्षिण में है। (५) एवं रययकूडे (५) इसी प्रकार रजतकूट हैपच्चथिमिल्लस्स भवणस्स दक्खिणेणं, दाहिण-पच्चत्थि- यह पश्चिमी भवन से दक्षिण में है, दक्षिण-पश्चिमी प्रासादामिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं । वतंसक से उत्तर में है। २ जम्बुद्दीवे दीवे मंदरपव्वए णंदणवणे णवकूडा पण्णत्ता; तं जहा-गाहा-(१) णंदणे, (२) मंदरे चेव, (३) णिसहे, (४) हेमवते, (५) रयय, (६) रुयएय । (७) सागरचित्ते, (८) वइरे, (६) बलकूडे चेव बोद्धव्वं । -ठाणं ६, सु० ६८९ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४८२-४८४ तिर्यक् लोक : कूट वर्णन गणितानुयोग २८६ सुवच्छादेवी, रायहाणी-पच्चत्थिमेणं । इस कूट पर सुवत्सा देवी निवास करती है, इसकी राजधानी पश्चिम में है। (६) एवं रुअगे कूडे (६) इसी प्रकार रुचककूट हैपच्चत्थिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं, उत्तर-पच्चत्थि- यह पश्चिमी भवन से उत्तर में है, उत्तर-पश्चिमी प्रासादामिल्लस्स पासायवडेंसगस्स दक्खिणेणं । वतंसक से दक्षिण में है। वच्छमित्तादेवी, रायहाणी-पच्चत्थिमेणं । इस कूट पर वत्स मित्रा देवी निवास करती है, इसकी राज धानी पश्चिम में है। (७) एवं सागरचित्तकूडे (७) इसी प्रकार सागरचित्तकूट हैउत्तरिल्लस्स भवणस्स पच्चत्थिमेणं, उत्तर-पच्चत्थि- यह उत्तरी भवन से पश्चिम में है, उत्तर-पश्चिमी प्रासादामिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पुरथिमेणं । वतंसक से पूर्व में है। वइरसेणादेवी, रायहाणी-उत्तरेणं । इस कूट पर वनसेना देवी निवास करती है, इसकी राज धानी उत्तर में है । (८) एवं वइरकूडे (८) इसी प्रकार वज्रकूट हैउत्तरिल्लस्स भवणस्स पुरथिमेणं, उत्तर-पुरथिमिल्लस्स यह उत्तरीभवन से पूर्व में है, उत्तर-पूर्वी प्रासादावतंसक से पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं । पश्चिम है। बलाया देवी', रायहाणी उत्तरेणं । ____ इस कूट पर बलाहका देवी निवास करती है, इसकी राज धानी उत्तर में है। ४८३.५०-(8) कहि णं भंते ! गंदणवणे बलकूडे णामं कूडे ४८३. प्र०-(९) हे भगवन् ! नन्दनवन में बलकट नाम का पण्णत्ते? कूट कहाँ कहा गया है ? उ.-गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-पुरथिमेणं-एत्थ उ०-हे गौतम ! मंदरपर्वत के उत्तर-पूर्व में नन्दनवन में णं णंदणवणे बलकूडे णाम कूडे पण्णत्ते । वज्रकूट नाम का कूट कहा गया है। एवं जं चेव हरिस्सह कूडस्स पमाण, रायहाणी अतं हरिस्सह कूट का जो प्रमाण है वही इस कूट का प्रमाण है, चेव बलकूडस्स वि। बलकूट की राजधानी का प्रमाण भी हरिस्सह कुट को राजधानी के समान है। णवरं-बलो देवो, रायहाणी उत्तर-पुरथिमे णं ति । विशेष—इस कूट पर बल नामक देव निवास करता है, -जंबु० वक्ख० ४, सु० १०४ इसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में है। भद्दसालवणे अढदिसा हथिकूडा भद्रशालवन में आठ दिशा हस्तिकूट४८४. प०-मंदरे णं भंते ! पव्वए भद्दसालवणे कइ दिसाहत्थिकूडा ४८४. प्र०-हे भगवन् ! मेरु पर्वत पर भद्रशाल वन में कितने पण्णत्ता ? दिशा हस्तिकूट कहे गये हैं ? १ "एतत्कूटवासिन्यश्च देव्योऽष्टौ दिक्कुमार्यः" । -जम्बू० वृत्ति २ एवं बलकूडा वि, गंदणकूडवज्जा । -सम० ११३, सु०६ ३ "राजधानी-चतुरशीतियोजनसहस्रप्रमाणा"। -जम्बू० वृत्ति ४ (क) प्रश्नसूत्र-दिक्षु ऐशान्यादिविदिक्प्रभृतिषु हस्त्याकाराणि, कूटानि दिग्रहस्तिकूटानि । (ख) कूट शब्दवाच्यानामप्येषां पर्वतत्वव्यवहारःऋषभकूटप्रकरण इव ज्ञेयः । -जम्बू० वृत्ति Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कूट वर्णन सूत्र ४८४.४८५ उ०-गोयमा ! अट्ठ दिसाहत्थिकूडा पण्णत्ता, तं जहा- उ०-हे गौतम ! आठ दिशाहस्तिकूट कहे गये हैं, यथा १ पउमुत्तरकूडे, २ णीलबंतकूडे, ३ सुहत्थीकूडे, (१) पद्मोत्तरकूट, (२) नीलवंतकूट, (३) सुहस्तिकूट, (४) ४ अंजणगिरीकूडे, ५ कुमुदकूडे, ६ पलासकूडे, ७ वडि- अंजनगिरिकूट, (५) कुमुदकूट, (६) पलाशकूट, (७) वडिशककूट, सयकूडे, ८ रोअणगिरीकूडे ।' (८) रोचनगिरिकूट । ४८५. ५०-(१) कहि णं भंते ! मंदरे पम्वए भद्दसालवणे पउमुत्तरे ४८५. प्र०-(१) हे भगवन् ! मंदरपर्वत पर भद्रशालवन में णाम दिसाहत्थिकूडे पण्णत्ते ? पद्मोत्तर नाम का दिशाहस्तिकूट कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-पुरथिमेणं, पुरत्थि- उ-हे गौतम ! मंदरपर्वत के उत्तर पूर्व में, पूर्वी शीता मिल्लाए सीआए उत्तरेणं-एत्थ णं पउमुत्तरे णामं नदी के उत्तर में 'पद्मोत्तर' नाम का दिशाहस्तिकूट कहा गया है, दिसाहत्थिकूडे पण्णत्ते। पंच जोयणसयाई उड्ढं उच्चत्तेणं, पंच गाउयसयाई वह पाँच सौ योजन ऊंचा है, पाँच सौ गाउ भूमि में है । उन्हे णं। विक्खंभ-परिक्खेवो भाणियव्वो चल्लहिमवंत- इसी प्रकार-विष्कम्भ एवं परिधि चुल्ल हिमवन्त पर्वत के सरिसो। सदृश कहना चाहिए। पासायाण य तं चेव, पउमुत्तरो देवो, रायहाणी- इन कूटों पर स्थित प्रासादों का प्रमाण क्षुद्र हिमवन्कटाधिउत्तर-पुरत्थिमेणं । पति देव के प्रासाद जितना ही है । वहाँ पद्मोत्तर देव है, उसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में है। (२) एवं णोलवंतदिसाहत्थिकूडे (२) इसी प्रकार नीलवन्त दिशाहस्तिकूट हैमंदरस्स दाहिण-पुरथिमेणं, पुरथिमिल्लाए सीआए यह मंदर पर्वत के दक्षिण-पूर्व में है, पूर्वी शीतानदी से दक्षिण दक्खिणेणं। एयस्स वि णीलवंतो देवो, रायहाणी-दाहिण-पुरस्थि- इस कूट का अधिपति नीलवन्त देव है, इसकी राजधानी मेणं। दक्षिण-पूर्व में है। (३) एवं सुहत्थि दिसाहत्थिकूडे (३) इसी प्रकार सुहस्ति दिशाहस्तिकूट हैमंदरस्स दाहिण-पुरथिमेणं, दक्खिणिल्लाए सीओआए यह मंदर पर्वत के दक्षिण-पूर्व में है, दक्षिणी शीतोदा नदी से पुरत्थिमेणं । पूर्व में है। एयस्स वि सुहत्थी देवो, रायहाणी-दाहिण-पुरस्थिमेणं। इस कूट का अधिपति सुहस्ति देव है, इसकी राजधानी दक्षिण-पूर्व में है। (४) एवं अंजणागिरिदिसाहत्थिकूडे ।। (४) इसी प्रकार अंजनगिरि दिशा हस्तिकूट हैमंदरस्स दाहिण-पच्चस्थिमेणं, दक्खिणिल्लाए सीओआए यह मंदर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में है, दक्षिणी शीतोदा नदी पच्चत्थिमेणं । से पश्चिम में है। १ (क) जम्बुद्दीवे दीवे मंदरे पव्वए भद्दसालवणे अट्ठ दिसाहत्थिकूडा पण्णता । तं जहागाहा-(१) पउमुत्तर, (२) णीलवंते, (३) सुहत्थि, (४) अंजणागिरी। (५) कुमुदे य, (६) पलासे य, (७) वडेंसे, (८) रोयणागिरी ।। -ठाणं. ८, सु० ६४२ स्थानाङ्गेऽष्टमस्थाने तु पूर्वादिषु दिक्षु हस्त्याकाराणि कूटानीति । (ख) अन्यत्र रोहणागिरि२ (क) उच्चत्वन्यायेन विष्कम्भः, मूले पञ्चयोजनशतानि, मध्ये त्रीणि योजनशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि, उपरि अ ततीयानि योजन शतानीत्येवंरूपो विष्कम्भः । (ख) परिक्षेपश्च भणितव्यः तथाहि-मूले पञ्चदशयोजन शतानि एकाशीत्यधिकानि, मध्ये एकादशयोजनशतानि पडशील्यधिकानि किञ्चिदूनानीति परिक्षेपः। ३ प्रासादानां च एतद्वतिदेवसत्कानां तदेव प्रमाणमिति गम्यं यत् क्षुद्रहिमवत्कूटपतिप्रासादस्पेति, अत्र बहवचननिर्देशो वक्ष्यमाणदिग्रहस्तिकूटवर्तिप्रासादेष्वपि समानप्रमाणसूचनार्थम् । -जम्बू० वृत्ति Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४८५-४८६ एयस्स वि अंजणागिरि देवो, रायहाणी – दाहिणपच्चत्थिमेणं । (५) एवं कुमुदे विदिसाहत्थिकूडे - मंदरस्स दाहिण-पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमिल्लाए सीओआए दविखणं । एयस्स वि कुमुदो देवो, रायहाणी - दाहिण पथ्यश्विमेणं । (६) एवं पलासे विदिसाहत्यिकुडे मंदरस्स उत्तर- पच्चत्थिमेणं, पच्चत्थिमिल्लाए सीओआए उत्तरेणं । एयस्स वि पलासी देवो, रामहाणी उत्तर पण्यतिथ मेणं । (७) एवं बसे विदिसाहत्यिकूडे - मंदरस्स उत्तर - पच्चत्थिमेणं, उत्तरिल्लाए सीआए पच्चत्थिमेणं । एयस्स वि स देवो पहाणी-उत्तर-यव्ययमे । तिर्यक् लोक कूट वर्णन - - गाहा १ रिट्ठ २ तवणिज्ज ३ कंचण, ४ रयय ५ विसासोत्थिय ६ पलंबे य । ७ अंजणे ८ अंजणपुलए, रुयगस्स पुरत्थिमे कूडा ॥ वेदमंदरस्स] [पम्ययस्स दाहिने गवरे (२) पव्वए अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहा — इस कूट का अधिपति अवतंसक देव है इसकी राजधानी उत्तर-पश्चिम में है । (८) इसी प्रकार रोचनगिरि विदिशाहस्तिकूट है । (८) एवं रोणागिरि विदिसाहत्यिकूडेमंदरस्स उत्तर-सुरत्यिमेगं उत्तरिल्लाए सीआए पुरत्यिमेगं । यह मंदर पर्वत के उत्तर-पूर्व में है, उत्तरी शीता नदी से पूर्व में है। एयस्स वि रोअणागिरी देवो, रायहाणी उत्तरपुरत्थि मेणं । जंबु० वक्ख० ४ ० १०३ चरम रुपगवरपण्यए बत्तीसकूटा इस कूट का अधिपति रोचनगिरि देव है इसकी राजधानी उतर-पूर्व में है। चार रुचक पर्वतों पर बत्तीस कूट ४८६ (१) जं दी मदरस्स पव्वयस्स पुरस्यिमेगं रुपगवरे ४०६ (१) जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व में रचक पर्यंत पव्वए अट्टकूडा पण्णत्ता, तं जहा पर आठ कूट कहे गये हैं, यथा गाथार्थ - गाहा १ कणए २ कंचणे ३ पउमे, ४ णलिणे ५ ससि ६ दिवायरे चैव । ७ वेसमणे ८ वेरुलिए, रुपगस्स उ दाहिणे कूडा ॥ (३) जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं रुपगवरे पव्वए अट्ठ कूडा पण्णत्ता, तं जहागाहा १ सोत्थिते य २ अमोहे य, ३ हिमवं ४ मंबरे तहा । ५ रुअगे, ६ रुयगुत्तमे ७ चंदे, अट्ठमे य ८ सुदंसणे ॥ गणितानुयोग इस कूट का अधिपति अंजनगिरि देव है, इसकी राजधानी दक्षिण-पश्चिम में है । (५) इसी प्रकार कुमुद विदिशा हस्टिकूट है यह मंदर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम में है, पश्चिमी शीतोदा नदी से दक्षिण में है । इस कूट का अधिपति कुमुद देव है, इसकी राजधानी दक्षिणपश्चिम में है । (६) इसी प्रकार पलास विदिशाहस्तिकूट है यह मंदर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में है, पश्चिमी शीतोदानदी से उत्तर में है । इस कूट का अधिपति पलास देव है, इसकी राजधानी उत्तरपश्चिम में है। (७) इसी प्रकार अवतंसक विदिशाहस्तिकूट है यह मंदर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में है, उत्तरी शीता नदी से पश्चिम में है । २६१ कूट (१) रिष्टकूट, (२) तपनीयकूट, (३) कांचनकूट, (४) रजत(५) दिशास्वस्तिक कूट. (६) प्रकूट (७) अंजनकूट ( ८ ) अंजनपुलककूट । (२) जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में रुचक पर्वत पर आठ कूट कहे गये हैं, यथा गाथार्थ - गाथार्थ - (१) कनकूट, (२), (३), (४) नलिन कूट, (५) शीट, (६) दिवाकरकूट, (७) वैधमणकूट, ( ८ ) वैडूर्यकूट । (३) जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के पश्चि में रुचक पर्वत पर आठ कूट कहे गये हैं, यथा - (१) स्वस्तिककूट, (२) अमोघकूट, (३) हिमवानुकूट, (४) मन्दरकूट, (५) रुचककूट, (६) रुचकोत्तमकूट, (७) चन्द्रकूट, (८) सुदर्शनकूट । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ लोक- प्रज्ञप्ति (४) जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरे णं रुयगवरे पव्वए अट्ठ कूडा पण्णत्ता त जहा गाहा - २ १ रयण २ रयणुच्चए य, ३ सव्वरयण ४ रयणसंचए चेव ।' ५ बिजये ६ जयते ७ जयंते ८ अपराजिते ॥ - ठाणं सु०६४३ 1 १. हिन्त पर २. महान्तिपर्यंत पर सिक् लोक कूट वर्णन १ इन कूटों पर निवास करने वाली आठ-आठ दिशाकुमारियों के चरित्र सूत्र २८ से ३१ तक पृष्ठ ११-१२ पर देखना चाहिए। २ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वक्षस्कार ६ सूत्र १२५ में "जम्बुद्वीप में चार सौ सहसठ (४६७) गिरिकूटों की गणना है" किन्तु इन चार रुचक पर्वतों के बत्तीस कूटों की गणना उनमें नहीं की गई है, अतः इसकी गणना कूट परिशिष्ट में की गई है । ३. निषेध पर्वत पर ४. दीर्घाय पर्वत पर अढाई द्वीप में दो हजार तीन सौ पैंतीस (२३३५ ) शास्वत कूटजम्बूद्वीप में इकसठ (६१ ) पर्वतों पर चार सौ सडसठ (४६७) शास्वत कूटभरत क्षेत्र में कूट ऐरवत क्षेत्र में - शास्वतकूट ११ ५. शिखरी पर्वत पर ८ ६. रुक्मी पर्वत पर ह ७. नीलवन्त पर्वत पर ह ८. दीर्घं वैताढ्य पर्वत पर ३७ महाविदेह क्षेत्र में - (क) पूर्व महाविदेह क्षेत्र में१६.दाय पर्वतों पर (प्रत्येक पर्वत पर मोमो कूट आठ वक्षस्कार पर्वतों पर ( प्रत्येक पर्वत पर चार चार कूट) (ग) दक्षिण महाविदेह क्षेत्र में२. दो गजदन्ता पर्वतों पर ( सोमनस पर्वत पर सात कूट ) (विद्युत्प्रभ पर्वत पर नौ कूट) (ङ) जम्बूद्वीप के मध्य में १ मेरु पर्वत पर ६१ पर्वतगणना : भरत क्षेत्र में पर्वत ऐरवत क्षेत्र में पर्वत महाविदेह क्षेत्र में पर्वत ८. 11 कूट शास्वतकूट १४४ शास्वतकूट ३२ कूट शास्वतकूट १६ (४) जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दरपर्वत के उत्तर में रचत पर आठ कूट कहे गये हैं, यथा गाथार्थ - (१) रत्नकूट, (२) रत्नोच्चयकूट, (३) सर्वरत्नकूट, (४) रत्नसंचयकूट (५) विजयकूट, (६) वैजयन्तकूट (७) जयन्तकूट, ( ८ ) अपराजितकूट । चार ४ चार ४ त्रेपन ५३ नाम भी इन सूत्रों में है । धर्मकथानुयोग प्रथम स्कन्ध, ऋषभ कूट शास्वतकूट ६ (ख) पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में१६. सोलह दीर्घ वैताढ्य पर्वतों पर (प्रत्येक पर्वत पर नौ नौ कूट) आठ वक्षस्कार पर्वतों पर ( प्रत्येक पर्वत पर चार चार कूट) ८. (घ) उत्तर महाविदेह क्षेत्र में२. दो गजदन्ता पर्वतों पर सूत्र ४८६ ( गंधमादन पर्वत पर सात कूट) ( माल्यवन्त पर्वत पर नौ कूट) कूटगणना : भरत क्षेत्र में ऐरवत क्षेत्र में महाविदेह क्षेत्र में ६१ धातकी खण्डद्वीप में एक सौ बाईस (१२२) पर्वतों पर नौ सौ चोतीस (३४) शास्वतकूट । पुष्करार्धद्वीप में एक सौ बाईस (१२२) पर्वतों पर नौ सौ चौतीस (९३४) शास्वतकूट । कूट शास्वतकूट ११ ८ 11 ह ३७ कूट शास्वतकूट १४४ शास्वतकूट ३२ < कूट शास्वतकूट १६ शास्वतकूट ३७ ३७ ३६३ ४६७ " " Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४३४-४३८ तिर्यक् लोक : गुफा वर्णन गणितानुयोग २६३ गुफा वर्णनदीहवेयड्ढ गुहाणं गुहाहिवदेवाणं च संखा दीर्घवैताढ्य की गुफा और गुफा स्वामी देवों की संख्या४८७. ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयाओ तिमिसगुहाओ? ४८७. प्र०-भगवन् ! जम्बुद्वीप नामक द्वीप में तमिस्र गुफायें कितनी हैं ? केवइयाओ खंडप्पवायगहाओ पण्णताओ? खण्डप्रपात गुफायें कितनी कही गई हैं ? केवइया कयमालया देवा? कृतमालक देव कितने हैं ? केवइया णट्टमालया देवा पण्णता? नृत्यमालक देव कितने कहे गये हैं ? -गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे, चोत्तीसं तिमिसगुहाओ। उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप में तमिस्र गुफायें चौतीस हैं । चोत्तीसं खंडप्पवायगुहाओ । खण्डप्रपात गुफायें चौतीस हैं । चोत्तीसं कयमालया देवा। कृतमालक देव चौतीस हैं। चोत्तीसं णट्टमालया देवा । नृत्यमालक देव भी चौतीस हैं। -जंबु० वक्ख० ६, सु० १२५ दुण्हं गुहाणं ठाणं पमाणं च दोनों गुफाओं के स्थान और प्रमाण'४८८. वेयड इस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिम-पच्चत्थिमेणं दो गुहाओ ४८८. वैताढ्य पर्वत के पूर्व और पश्चिम में दोगी पण्णत्ताओ। गई हैं। उत्तर-दाहिणाययाओ पाईण-पडीणवित्थिनाओ। ये उत्तर-दक्षिण में लम्बी और पूर्व-पश्चिम में चौड़ी हैं। वण्णास जोयणाई आयामेण, दुवालसजोयणाई विक्खं भणं, इनकी लम्बाई पचास योजन, चौड़ाई बारह योजन और अट्ठजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं ।' ऊँचाई आठ योजन है। वइरामयकवाडोहाडियाओ जमल-जुअलकवाडघण-दुप्प- ये वज्रमय कपाटों से ढकी हुई हैं। इनके जुगल-जोडी वाले वेसाओ। कपाट सघन और दुष्प्रवेश्य हैं। णिच्चंधयारतिमिस्साओ, ववगयगहचंद-सूर-णक्खत्त-जोइ- ये गुफायें सदैव अन्धकार से व्याप्त रहती हैं। इनमें यह सपहाओ,-जाव-पडिरूवाओ। चन्द्र, सूर्य एवं नक्षत्र रूप ज्योतिष्कों की प्रभा का अभाव हैयावत्-ये प्रतिरूप हैं। जम्बु. वक्ष०६, सु०१२५ में चौतीस दीर्घवैताढ्य पर्वत, उन पर्वतों की गुफायें और उन गुफाओं में निवास करने वाले देव की संख्या भी चौतीस कही गई है । उन सबका गणनाक्रम इस प्रकार है :महाविदेह क्षेत्र के बत्तीस विजयों में बत्तीस दीर्घवैताढ्य पर्वत हैं। भरत क्षेत्र में और ऐरवत क्षेत्र में एक एक दीर्घ वैताढ्य पर्वत हैं। इस प्रकार ३४ दीर्घवताढ्यपर्वत है, प्रत्येक पर्वत में दो गुफाये हैं, और प्रत्येक गुफा में निवास करने वाला एक एक देव है। इस प्रकार दीर्घवैताढ्य पर्वत ३४, गुफायें ६८ और उनमें निवास करने वाले देव भी ६८ हैं। इसी सत्र में जम्बुद्वीप में विद्यमान २६६ शास्वत पर्वतों की गणना दी गई है, उनमें से केवल चौतीस दीर्घ वैताढय पर्वतों की गयाओं का वर्णन ही आगमों में उपलब्ध है और अन्य किसी एक गुफा का भी वर्णन उपलब्ध नहीं है-यह एक विचारणीय प्रश्न है। अन्य अनेक पर्वतों में से कुछ पर्वतों की गुफायें इन गुफाओं से भी विशाल तो होगी ही अतः उनका वर्णन भी उपलब्ध होना चाहिए था. क्योंकि पर्वतों की विशालता के अनुरूप गुफाओं की विशालता भी सम्भव है। केवल दीर्घवता ढ्य पर्वतों की ही गुफायें हैं, अन्य पर्वतों की गुफायें हैं ही नहीं-ऐसा निषेध आगमों में कहीं नहीं है। २ सव्वाओ णं तिमिसगुहा खंडप्पवायगुहाओ पण्णासं पण्णासं जोयणाई आयामणं पण्णताओ। -सम० ५, सु०६ ३ तिमिसगुहाणं अट्ट जोयणाई उड्डं उच्चत्तेणं, खंडप्पवायगुहाणं अट्ट जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेगं । __--ठाणं ८, सु० ६३७ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : गुफा एवं प्रपातकुण्ड वर्णन सूत्र ४८५-४६५ तं जहा-१. तमिसगुहा चैव, खंडप्पवायगुहा चेव। यथा-तमिस्रगुफा और खण्डप्रपातगुफा । तत्थ णं दो देवा महिड्ढिया-जाव-पलिओवमट्ठिइया परि- इन गुफाओं में दो देव रहते हैं जो महद्धिक-यावत्वसंति, तं जहा–१. कयमालाए चेव, २. गट्टमालए चेब। पल्योपम की स्थिति वाले हैं यथा-१. कृतमाल और २. नृत्यमाला। -जंबुछ वक्ख० १, सु० १२ सीया-सीओयामहाणइउत्तर-दाहिणगया पव्वय-गुहा- शीता-शीतोदा महानदियों की उत्तर-दक्षिण दिशा स्थित देवा पर्वत, गुफा और देव४८६. जंबुमंदर-पुरथिमेणं सीयाए महाणईए उत्तरेणं अट्ठ दोह- ४८६. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व में और सीतामहानदी के वेयड्ढा, अट्ठ तिमिसगुहाओ, अट्ठ खंडप्पवायगुहाओ, अट्ठ उत्तर में आठ दीर्घवैताढ्य पर्वत हैं, आठ तमिस्रगुफायें हैं, आठ कयमालगा देवा, अट्ठ नट्टमालगा देवा । खण्डप्रपात गुफायें हैं, आठ कृतमालक देव हैं, और आठ नृत्यमालक देव हैं। ४६०. जंबुमंदर-पुरस्थिमेणं सोयाए महाणईए दाहिणेणं अट्ठ दोह- ४६०. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व में और सीता महानदी के वेयड्ढा, अट्ठ तिमिसगुहाओ, अट्ठ खंडप्पवायगुहाओ, अट्ठ दक्षिण में आठ दीर्घताढ्य पर्वत हैं, आठ तमिस्रगुफायें हैं, आठ कयमालगा देवा, अट्ठ नट्टमालगा देवा । खण्डप्रपात गुफायें है, आठ कृतमालक देव हैं और आठ नृत्यमालक देव हैं। ४६१. जंबुमंदर-पच्चत्थिमेणं सीओयाए महाणईए उत्तरेणं अट्ठ दोह- ४६१. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से पश्चिम में और सीतोदा महानदी वेयड्ढा-जाव-अट्ठ नट्टमालगा देवा। के उत्तर में आठ दीर्घवैताड्य पर्वत है-यावत् -आठ नृत्य मालक देव हैं। ४६२. जंबुमंदर-पच्चत्थिमेणं सीओयाए महाणईए दाहिणेणं अट्ठ ४६२. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से पश्चिम में और सीतोदा दोहवेयड्ढा-जाव-अट्ठ नट्टमालगा देवा। महानदी के दक्षिण में आठ दीर्घवैताढ्य पर्वत हैं -यावत्-आठ -ठाणं ८, सु० ६३६ नृत्यमालक देव हैं । भरहे एरवए य दोहवेयड्ढाणं दुण्हं गृहाणं समतुल्लत्तं- भरत और ऐरवत के दीर्घवैताढ्य पर्वतों की दोनों गुफाओं की समानता४६३. भारहए णं दोहवेयड्ढे दो गुहाओ बहुसमतुल्लाओ अविसेस ४६३. उस भरत-दीर्घ वैताढ्य में दो गुफायें कही गई हैं जो अति मणाणत्ताओ अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति आयाम-विक्खंभुच्चत्त- समतुल्य, अविशेष, विविधता रहित और एक-दूसरी की लम्बाई, संठाणपरिणाहेणं, तं जहा-तिमिसगुहा चैव, खंडप्पवायगुहा चौड़ाई, ऊँचाई, संस्थान और परिधि में अतिक्रम न करने वाली चेव। हैं यथा-तिमिस्र गुफा और खण्ड-प्रपातगुफा । तत्थ णं दो देवा महिड्ढिया-जाव-पलिओवमट्ठिइया परि- वहाँ महद्धिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले दो देव वसंति । तं जहा–कयमालए चैव नट्टमालए चेव। रहते हैं, यथा-कृतमालक और नृत्यमालक । -ठाणं २, उ० २, सु० ८७ ४६४. एरावयाए णं दीहवेयड्ढे दो गुहाओ बहुसमतुल्ला-जाव-कय- ४६४. ऐरवत-दीर्घवैताढ्य में दो गुफायें हैं जो अतिसमान हैं मालए चेव, नट्टमालए चैव। -ठाणं २, उ० ३, सु० ८७ वहां कृतमालक और नृत्यमालक देव रहते हैं । चोद्दसप्पवायकुण्डा' चौदह प्रपात कुण्ड(१) गंगप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ (१) गंगा प्रपातकुण्ड का प्रमाण४६५. गंगा महाणई जत्थ पवडइ, एत्थ णं महं एगे गंगप्पवाए कुण्डे ४६५. गंगा महानदी जहां मिलती (हिमवान आदि पर्वतों से णामं कुण्डे पण्णत्ते। गिरती) है, वहाँ गंगाप्रपात कुण्ड नामक एक विशाल कुण्ड कहा गया है। प्रपातकुण्ड और प्रपातद्रह-दोनों समानार्थक हैं । देखिए-स्थानांग २, उ० ३, सूत्र ८८ की टीका का अंश"पवायदह" त्ति प्रपतनं प्रपातस्तदुपलक्षितो ह्रदौ प्रपात ह्रदी, इह यत्र हिमवदादेर्नगात् गंगादिका महानदी प्रणालेनाधोनिपतति. स प्रपातह्रद इति, प्रपातकुण्डमित्यर्थः ।" Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -सूत्र ४६५-४६६ तिर्यक् लोक : प्रपातकुण्ड वर्णन गणितानुयोग २६५ सट्टि जोअणाई आयाम-विक्खंभेणं, यह साठ योजन लम्बा-चौड़ा है। णउअं जोअणसयं किंचिविसेसाहिलं परिक्खेवेणं, एक सौ योजन से किंचित अधिक की परिधि वाला है। दस जोअणाई उव्वेहेणं,' दस योजन गहरा है, अच्छे सण्हे रययामयकूले। स्वच्छ है, चिकना है, रजतमय किनारे वाला है। समतीरे वइरामयपासाणे वइरतले सुवण्ण-सुब्भरययामय- तीर समतल हैं, दीवालें वज्रमय हैं, तल भी वज्रमय है, वालुभाए वेरुलिअमणिफलिअपडलपच्चोअडे, उसमें सुवर्णमय, शुभ्रमय (रुप्यविशेषमय) एवं रजतमय वालुका हैं। उसके किनारे के ऊँचे प्रदेश वैडूर्यमणिमय एवं पटल स्फटिक रत्नमय है। सुहोआरे सुहोत्तारे णाणामणितित्थ सुबद्धे वट्ट, सुखपूर्वक उतरने चढ़ने योग्य हैं। उसका तीर्थ (घाट) नाना प्रकार की मणियों के सुबद्ध है । वह गोलाकार है । अणुपुव्व-सुजाय-वप्प-गंभीर-सीअलजले, अनुक्रम से नीचा और सुनिर्मित केदार में गहरा है और उसमें शीतल जल है । संछण्णपत्त-भिस-मणाले, बहुउप्पल-कुमुअ-णलिण-सुभग- वह (पद्मिनी के) पत्तों से, कन्दों से और मृणालों से सोगंधिअ-पोंडरीअ-महापोंडरिअ-सयपत्त-सहस्सपत्त-सयसहस्स- आच्छादित है। खिले हुए उत्पलों, कुमुदों, नलिनों, सूभगों, पप्फुल्ल-केसरोवचिए, छप्पय-महुयरपरिभुज्जमाणकमले । सौगन्धिकों, पुण्डरीकों, महापुण्डरीकों, सहस्रपत्तों एवं लक्षपत्र कमलों की केसर से सुशोभित है। भ्रमरों (षड्पद मधुपों) से परिभुज्यमान पद्म कमलवाला है । अच्छ-विमल-पत्थसलिले पुण्णे, पडिहत्थभमंतमच्छ-कच्छभ- स्वच्छ विमल एवं पथ्य जल से युक्त है एवं पूरा भरा हुआ अणेगसउणगण-मिहणपविअरियसदुन्नइअ-महुरसरणाइए, पासा- है। उसमें मच्छ और कच्छ बड़ी संख्या में घूमते रहते हैं। अनेक ईए-जाव-पडिरूवे । पक्षी-युगलों का वहाँ विहार होता रहता है। उनके मधुर स्वरों से वह गूंजता रहता है और चित्त को प्रसन्न करने वाला है यावत्-मनोहर है। से गं एगाए पउमवरवेइयाए, एगेण य वणसंडेणं सम्वओ यह (गंगाप्रपात कुण्ड) एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड समंता संपरिक्खित्ते। से सब ओर से घिरा हुआ है। वेइआ-वणसंडगाणं पउमाणं वण्णओ भाणियव्वो। पद्मवरवेदिका का, बनखण्ड का और पद्मों का वर्णन यहाँ -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ कहना चाहिए। गंगप्पवायकुण्डस्स तिसोवाणपडिरूवगा गंगाप्रपातकुण्ड त्रिसोपान प्रतिरूपक४६६. तस्स णं गगप्पवायकुण्डस्स तिदिसि तो तिसोवाणपडिरूवगा ४६६. इस गंगप्रपातकुण्ड की तीन दिशाओं में तीन तीन प्रतिरूप पण्णत्ता, (सुन्दर) सोपान पंक्तियाँ कही गई हैं । तं जहा-पुरथिमेणं, दाहिणणं, पच्चत्थिमेणं । यथा-पूर्व में, दक्षिण और पश्चिम में । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे इन मनोहर त्रिसोपानों का वर्णन इस प्रकार का कहा पण्णते, गया हैतं जहा-वइरामया णेम्मा, रिट्ठामया पइट्ठाणा, वेरुलि- यथा-इनके पाये वज्रमय हैं, प्रतिष्ठान अरिष्टमय हैं, स्तम्भ आमया खंभा, सुवण्ण-रुप्पमया फलगा, लोहिअक्खमईओ वैडूर्यमय है, फलक स्वर्ण-रुप्यमय हैं, सूचियाँ लोहिताक्षमय हैं, सूईओ, वइरामया संधी, णाणामणिमया आलंबणा, आलंबण- संधियाँ वज्रमय हैं, आलंबन (उतरते-चढ़ते समय सहारा लेने के बाहाओति । -जंबु. वक्ख० ४, सु०७४ साधन) तथा आलंबनवाहाएँ (आलंबन की आधारभूत भित्तियाँ) नाना मणिमय है। १ सम्वेवि णं सलिलकुण्डा दस जोयणाई उव्वेहेणं पण्णत्ता। -ठाणं० १०, सु० ७७६ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : प्रपातकुण्ड वर्णन सूत्र ४६७-४६८ तिसोवाण पडिरूवगाणं तोरणाइ त्रिसोपान प्रतिरूपकों के तोरण४६७. तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं तोरणा ४६७, इन मनोहर त्रिसोपानों के सामने पृथक्-पृथक् तोरण कहे पण्णत्ता। गये हैं। ते णं तोरणा जाणामणिमया, __ ये तोरण नानामणिमय हैं । णाणामणिमएसु खंभेसु उवणिविट्ठ-संनिविट्ठा, • नानामणिमय स्तम्भों से उपनिविष्ट और सन्निविष्ट हैं । विविहमुत्ततरोवइआ विविहतारा-रूवोवचिआ, विविध मुक्ताओं से उपचित हैं। विविध तारारूपों से सहित हैं। इहामिअ-उसह-तुरगणर-मगर-विहग-वालग-किण्णर-हरू- उन पर भेड़िया, वृषभ, तुरंग, नर, मगर, विहग, सर्प, सरम-चमर-कुञ्जर-वणलय-पउमलयभत्तिचित्ता, खंभुग्गय- किन्नर, रुरु (मृग विशेष) अष्टापद, चमर, कुञ्जर, वनलता, वइरवेइआ परिगयाभिरामा, पद्मलता आदि के चित्र अंकित हैं। वे स्तम्भ के ऊपर रही हुई वज्रमय वेदिका से सुशोभित हैं। विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्ताविव अच्चीसहस्स-मालणीआ, विद्याधरों की जुगल जोड़ी के चित्रों से युक्त हैं। सहस्रों किरणों की प्रभा वाले हैं। रूवगसहस्सकलिआ, भिसमाणा, भिब्भिसमाणा, चक्खुल्लो- सहस्र रूप से कलित हैं, चमकीले हैं, देदीप्यमान हैं। देखने अणलेसा, सुहभासा, सस्सिरीअरूवा, पर नेत्र उनमें स्थिर हो जाते हैं। सुखद स्पर्श वाले तथा सश्रीक रूप वाले हैं। घंटावलिचलिअ-महुर-मणहरसरा पासादीया-जाव-पडि- हिलती हुई घंटावली से मधुर एवं मनोहर स्वर को उत्पन्न रूवा। करने वाले हैं, प्रासादिक है-यावत्-प्रतिरूप हैं। तेसि णं तोरणाणं उरि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता, इन तोरणों पर अनेक अष्ट-अष्ट मंगल कहे गये हैं, तं जहा-सोथिए, सिरिवच्छे-जाव-पडिरूवा। यथा-स्वस्तिक, श्रीवत्स -यावत्-प्रतिरूप हैं । तेसि गं तोरणाणं उरि बहवे किण्हचामरज्या-जाव- इन तोरणों पर अनेक कृष्ण चामरध्वजाएँ-यावत्-शुक्ल सुक्किल्लचामरज्झया अच्छा सहा रुप्पपट्टा वइरामयदण्डा चामरध्वजाएँ हैं । (चामरध्वजाएँ) स्वच्छ, श्लक्ष्ण, रोप्यपट्टवाली, जलयामलगंधिया सुरम्मा पासादीया-जाव-पडिरूवा। वज्र के दंड बाली, कमल के समान सुगन्धित, सुरम्य एवं प्रासा दिक-यावत्-मनोहर हैं। तेसि गं तोरणाणं उप्पि बहवे छत्ताइच्छत्ता, पडागाइ- इन तोरणों पर अनेक छत्रों पर छत्र, पताकाओं पर पताकाएँ पडागा घंटाजुअला चामरजुआ उप्पलहत्थगा पउमहत्थगा घंटायुगल, चामरयुगल उत्पल, हस्तल (उत्पल-कमल हाथ में लिए -जाव-सयसहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- हुए के चित्र) पद्महस्तक-यावत्-लक्षपत्र-हस्तक हैं। ये पडिरूवा। -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ सब सर्वरत्नमय, स्वच्छ--यावत् -मनोहर हैं। (२) सिंधुप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ' (२) सिन्धुप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(३) रत्तप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ (३) रक्ताप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(४) रत्तवइप्पवायकुण्डस्स पमाणा (४) रक्तवतीप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(५) रोहिअप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ (५) रोहिताप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि४६८. रोहिआ णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे रोहि- ४६८. जहाँ रोहिता महानदी गिरती है वहाँ रोहिताप्रपातकुण्ड अप्पवायकुण्डे णाम कुण्डे पण्णत्ते । नामक एक विशालकुण्ड कहा गया है। १ जम्बू० वक्ष० ४ सूत्र ७४ में 'एवं सिंधूए वि णेयन्वं'-यह संक्षिप्त वाचना की सूचना है, इसके अनुसार सिन्धुप्रपातकुण्ड के आयाम आदि का वर्णन गंगाप्रपातकुण्ड के समान है। २.३ जम्बू० बक्ष० ४ सूक्ष १११ में 'एवं जह चेव गंगा-सिन्धुओ तह चेव रत्तारत्तवइओ णेयवाओ' यह संक्षिप्त वाचना की सूचना हैं,. - इसके अनुसार रक्ता प्रपातकुण्ड और रक्तवतीप्रपातकुण्ड के आयाम आदि का वर्णन भी गंगाप्रपातकूण्ड के समान है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६८-५०० तिर्यक् लोक :प्रपात कुण्ड वर्णन गणितानुयोग २६७ सवीसं जोयणसयं आयाम-विक्खंभेणं पण्णत्तं । यह एक सौ बीस योजन लम्बा-चौड़ा कहा गया है। तिण्णि असीए जोअणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं । तीन सौ अस्सी योजन से कुछ कम की परिधि वाला है । दस जोअणाई उव्वेहेणं, अच्छे-जाव-पडिहवे । दस योजन गहरा स्वच्छ-यावत्-मनोहर है। सो चेव कुण्ड वण्णओ। वइरतले वट्ट समतीरे-जाव- यहाँ वही कुण्डवर्णक कहना चाहिए। इसका तल वज्रमय तोरणा। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८० है। यह वर्तुलाकार व सम किनारों वाला है-यावत् तोरण हैं। (६) रोहिअंसप्पवायकुण्डस्स पमाणाई (६) रोहितांशप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि४६६. रोहिअंसा महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे रोहिअंसा- ४६६. जहाँ रोहितांशा महानदी गिरती है वहाँ एक विशाल प्पवाय-कुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते। रोहितांशाप्रपातकुण्ड नामक कुण्ड कहा गया है । सवीस जोयणसयं आयाम-विक्खंभेणं, यह एक सौ बीस योजन लम्बा-चौड़ा है। तिण्णिं असीए जोअणसए किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं । तीन सौ अस्सी योजन से कुछ कम की परिधि वाला है। दस जोअणाणं उब्वेहेणं, अच्छे-जाव-पडिरूवे । कुण्डवण्णओ दस योजन गहरा स्वच्छ-यावत्-मनोहर है। यहाँ कुण्ड -जाव--तोरणा। -जंबु० बक्ख० ४, सु०७४ का वर्णन समझ लेना चाहिए -यावत्-तोरण हैं। (७) सुवण्णकूलप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ' (७) सुवर्णकूला प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(८) रुप्पकूलप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ (८) रुप्यकूला प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(8) हरिकतप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ (६) हरिकांतप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि५००. हरिकता णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे हरिकत- ५००. हरिकान्ता महानदी जहाँ गिरती है वहा हरिकान्ताप्रपातप्पवायकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते । कुण्ड नामक एक विशाल कुण्ड कहा गया है। दोण्णि अ चत्ताले जोयणसए आयाम-विक्खंभेणं, यह दो सौ चालीस योजन लम्बा-चौड़ा है। सत्ताउण? जोअणसए परिक्खेवणं, अच्छे-जाव-पडिहवे। सात सौ उनसठ योजन की परिधि वाला है यह स्वच्छ है यावत्-मनोहर है। एवं कुण्डवत्तव्वया सव्वा नेयव्वा-जाव-तोरणा । ___ यह सम्पूर्ण कुण्डवक्तव्यता कहनी चाहिए-यावत - -जंबु० वक्ख० ४, सु०८० तोरण हैं। (१०) हरिसलिलप्पवायकुण्डस्स पमाणा (१०) हरिसलिला प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(११) नरकतप्पवायकुण्डस्स पमाणा (११) नरकान्ता प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(१२) नारीकंतप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ (१२) नारीकान्ता प्रपातकुण्ड के प्रमाणादि १ जम्बु० वक्ष० ४ सूत्र १११ में 'जहा रोहिअंसा'-यह संक्षिप्त वाचना की सूचना है, इसके अनुसार सूवर्णकूला प्रपातकुण्ड के आयामादिका वर्णन रोहितांसाप्रपातकुण्ड के आयामादि के वर्णन के समान है। २ जम्बु० वक्ष० ४ सूत्र १११ में 'जहा हरिकंता' तथा 'अवसिट्ठ तं चैव' ये दो संक्षिप्त वाचना की सूचनाएं हैं-इनके अनुसार रुप्यकुलाप्रपातकुण्ड के आयामादि का वर्णन हरिकान्ता प्रपातकुण्ड के आयामादि के वर्णन के समान है। ३ जम्बु. वक्ष० ४ सूत्र ८४ में 'एवं जा चव हरिकताए वत्तव्वया सा चैव हरीए वि णेयव्वा । जिभियाए, कुडस्स, दीवस्स, भवणस्स तं चैव पमाण । अट्ठो वि भाणियब्वो। यह संक्षिप्त सूचना हैं-इसके अनुसार हरिकान्ता प्रपातकुण्ड के आयामादि के समान हरिसलिलाप्रपातकुण्ड के आयामादि हैं । जम्बु० वक्ष० ४ सूत्र १११ में 'जहा रोहिआ'-यह संक्षिप्त वाचना की सूचना है, इसके अनुसार नरकान्ता प्रपातकुण्ड के आयामादि का वर्णन रोहिता प्रपात कुण्ड के आयामादि के वर्णन के समान है। जम्बु० वक्ष० ४ सूत्र १११ में 'जहा हरिसलिला'- यह संक्षिप्त वाचना की सूचना है, इसके अनुसार नारिकान्ताप्रपातकुण्ड के आयामादि का वर्णन हरिसलिलाप्रपातकुण्ड के आयामादि के वर्णन के समान है। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : प्रपातकुण्ड वर्णन सूत्र ५०१-५०२ (१३) सीअप्पवायकुण्डस्स पमाणाई' (१३) सीताप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(१४) सीओअप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ (१४) सीतोदाप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि५०१. सीओआ णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे सीओ- ५०१. शीतोदा महानदी जहाँ गिरती है वहाँ शीतोदा प्रपातकुण्ड अप्पवायकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते । नामक एक विशाल कुण्ड कहा गया है । चत्तारि असीए जोअणसए आयाम-विक्खं भेणं, यह चार सौ अस्सी योजन का लम्बा-चौड़ा है। पण्णरस-अट्ठारे जोअणसए किंचिबिसेसूणे परिक्खेवेणं, ___ पन्द्रह सौ योजन से कुछ कम की परिधि वाला है, स्वच्छअच्छे-जाव-पडिरूवे। यावत्-मनोहर है। एवं कुण्डवत्तव्वया अव्वा-जाव-तोरणा । इस प्रकार कुण्ड को वक्तव्यता जान लेना चाहिए-यावत् -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ तोरण है। जंबुद्दीवे भरहाईवासेसु गंगप्पवायाइ पवायदहा- जम्बूद्वीप के भरतादि क्षेत्रों में गंगाप्रपातादि प्रपातद्रह५०२. जंबुद्दीवे दीवे मंदरपब्वयस्स दाहिणणं भरहे वासे दो पवाय- ५०२. जम्बूद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के दक्षिण में भरत क्षेत्र में दो दहा, प्रपात द्रह हैं। बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं । जो अति समतुल्य-यावत्-परिधि तुल्य हैं । तं जहा-गंगप्पवायद्दहे चेव, सिंधुप्पवायदहे चेव । यथा-गंगाप्रपातद्रह और सिन्धु प्रपातद्रह । . एवं हिमवए वासे दो पवायद्दहा, इसी प्रकार हैमवत क्षेत्र में दो प्रपातद्रह हैं। बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं ।। जो अतिसम तुल्य-यावत्-परिधि तुल्य हैं। तं जहा-रोहियप्पवायद्दहे चेव, रोहियंसप्पवायद्दहे चेव । यथा-रोहितप्रपात द्रह और रोहितांशप्रपात द्रह । जंबुद्दीवे दीवे मंदरपब्वयस्स दाहिणेणं हरिवासे दो जम्बूद्वीपवर्ती मेरुपर्वत के दक्षिण में हरिवर्ष क्षेत्र में दो पवायद्दहा, प्रपातद्रह हैं। बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं । जो अति समतुल्य-यावत्-तुल्य परिधि हैं । तं जहा-हरिप्पवायद्दहे चेव, हरिकंतप्पवायदहे चेव । यथा-हरिप्रपात द्रह और हरिकान्त प्रपातद्रह । जंबुद्दीवे दीवे मंदरपव्वयस्स उत्तर-दाहिणणं महाविदेह- जम्बूद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के उत्तर-दक्षिण में महाविदेह क्षेत्र वासे दो पवायद्दहा। में दो प्रपातद्रह हैं। बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेगं, जो अतिसम तुल्य-यावत्-परिधि तुल्य है। तं जहा--सीअप्पवायदहे चेव, सीओअप्पवायदहे चेव। यथा-सीताप्रपातद्रह और शीतोदाप्रपातद्रह । जंबुद्दीवे दीवे मंदरपव्वयस्स उत्तरेणं रम्मए वासे दो। जम्बुद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के उत्तर में रम्यकवर्ष में दो प्रपातपवायदहा, बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, जो अतिसमतुल्य--यावत्-परिधि तुल्य हैं। तं जहा-नरकंतप्पवायदहे चेव, नारीकंतप्पवायदहे चेव । यथा--नरकान्त प्रपातद्रह और नारीकान्तप्रपात द्रह । एवं हेरण्णवए वासे दो पवायदहा, इसी प्रकार हैरण्यवत क्षेत्र में दो प्रपातद्रह हैं । बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, जो अतिसम तुल्य-यावत्-परिधि तुल्य है । तं जहा-सुवन्नकूलप्पवायद्दहे चेव, रुप्पकूलप्पवायद्दहे चेव । __यथा-सुवर्णकूल प्रपातद्रह और रुप्यकूल प्रपातद्रह । १ जम्बु० वक्ष० ४ सूत्र ८४ में सीतोद प्रपातकुण्ड के आयामादि का वर्णन तो है किन्तु सीता प्रपातकुण्ड के आयामादि के सम्बन्ध में संक्षिप्त वाचना का सूचना पाठ उपलब्ध नहीं है फिर भी स्थानाङ्ग २, उ० ३, सूक्ष ८८ में सीता और सीतोदा महानदी का प्रमाण समान कहा है। अतः दोनों महानदियों के प्रपातकुण्डों के आयामादि भी समान ही हैं-ऐसा समझना चाहिए । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५०२-५०५ तिर्यक् लोक : द्वीप वर्णन गणितानुयोग २६६ जंबुद्दीवे दीवे मंदरपव्वयस्स उत्तरेणं एरवए वासे दो जम्बूद्वीपवर्ती मेरु पर्वत के उत्तर में ऐरवत क्षेत्र में दो प्रपात पवायदहा, बहुसमतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, जो अतिसमतुल्य-यावत्-परिधितुल्य हैं। तं जहा-रत्तप्पबायद्दहे चेव, रत्तावईप्पवायदहे चेव। यथा-रजतप्रपाद्रह और रक्तावती प्रपात द्रह । -ठा० २, उ० ३, सु० ८८ पवायकुण्डेसु दीवा देवीभवणाईच प्रपातकुण्डों में द्वीप तथा देवियों के भवन(२) गंगादीवस्स अवटिइ पमाणं च (१) गंगाद्वीप की अवस्थिति और प्रमाण५०३. तस्स णं गंगप्पवायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे ५०३. उस गंगाप्रपातकुण्ड के मध्य में गंगाद्वीप नामक एक गंगादीवे णामं दीवे पण्णत्ते । विशाल द्वीप कहा गया है । अट्ठ जोअणाई आयाम-विक्खंभेणं, वह आठ योजन लम्बा-चौड़ा है। साइरेगाइं पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, पच्चीस योजन से कुछ अधिक की परिधि वाला है। दो कोसे ऊसिए जलंताओ, पानी की सतह से दो कोस ऊँचा है, सव्ववइरामए अच्छे सण्हे-जाव-पडिरूवे। सर्ववज्रमय, स्वच्छ, चिकना-यावत्-मनोहर है । से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सम्वओ वह 'द्वीप' एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड से सब समता संपरिक्खित्ते। ओर से घिरा हुआ है। वण्णओ भाणिअव्वो। यहाँ इन दोनों का वर्णन कहना चाहिए। गंगादीवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे गंगाद्वीप के ऊपर अत्यन्त सम एवं रमणीय भूमि भाग कहा पण्णत्ते । -जम्बु० वक्ख० ४, सु०७४ गया है। गंगादेवीभवणस्स पमाणाई गंगा देवी के भवन के प्रमाणादि५०४. तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगाए देवीए एगे ५०४. इस द्वीप के मध्य में गंगा देवी का एक विशाल भवन कहा भवणे पण्णत्ते। गया है। कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूणग कोसं उड्ढं यह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा, एक कोस ऊँचा है। उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ-जाव-बहुमज्झदेसभाए मणिपेढियाए सैकड़ों स्तम्भों से संनिविष्टि है-यावत्-इसके मध्य में मणिसयणिज्जे। -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ पीठिका के ऊपर एक शय्या है । गंगद्दीवस्स णामहेऊ गंगाद्वीप के नाम का हेतु५०५.५०-से केपट्टणं भंते ! एवं वुच्चइ-गंगादीवे गंगा दीवे ? ५०५. प्र०-भगवन् ! गंगाद्वीप नामक द्वीप को गंगाद्वीप क्यों कहते हैं ? उ०-गोयमा ! एत्थ णं गंगादेवी महिड्ढ्यिा -जाव-पलिओव- उ०-गौतम ! यहाँ गंगा नामक महधिक-यावत्मट्टिइया परिवसइ। पल्योपम की स्थिति वाली देवी रहती है। से एएणट्ठणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-गंगादीवे गंगादीवे। इस कारण गौतम ! यह गंगाद्वीप गंगाद्वीप कहा जाता है । अदुत्तरं च ण गोयमा ! गंगादीवे सासए णामधेज्जे अथवा गौतम ! यह गंगाद्वीप नाम शाश्वत कहा गया है। पण्णत्ते। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ७४ १ ठाणं ८ सु० ६२६ । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० लोक-प्रज्ञप्ति • तिर्यक् लोक : द्वीप वर्णन सूत्र ५०६-५१० पाला हा (२) सिंधुदीवस्स पमाणाइ (२) सिन्धुद्वीप के प्रमाणादि५०६. सिंधुदीवे अट्ठो सो चेव । ५०६. प्र०-'सिन्धुद्वीप' के 'प्रमाणादि' तथा नाम का हेतु गंगा-जंबु० वक्ख० ४, सु० ७४ द्वीप के समान है-यावत्- (सिन्धुदेवी का भवन भी गंगादेवी के भवन के समान है।) (३-४) रत्तादीवस्स रत्तवईदीवस्स च पमाणाइ- (३-४) रक्ताद्वीप के और रक्तवतीद्वीप के प्रमाणादि५०७. “एवं जह चेव गंगा-सिंधुओ, तह चेव रत्ता-रत्तवईओ ५०७. गंगाद्वीप और सिन्धुद्वीप के प्रमाण के समान रक्ताद्वीप और णेयवाओ।" रक्तवती द्वीप के प्रमाणादि हैं। -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ (रक्तादेवी और रक्तवती देवी के भवन भी गंगा-सिन्धुदेवी के समान हैं ।) (५) रोहीअदीवस्स पमाणाइ (५) रोहिताद्वीप के प्रमाणादितस्स णं रोहिअप्पवायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं ५०८. इस रोहिताप्रपातकुण्ड के मध्य में रोहिताद्वीप नामक एगे रोहिअदीवे णामं दीवे पण्णत्ते । एक विशाल द्वीप कहा गया है। सोलस जोअणाई आयाम-विक्खंभेणं, साइरेगाइं पण्णासं यह सोलह योजन लम्बा-चौड़ा, पचास योजन से कुछ अधिक जोअणाई परिक्खेवेणं, की परिधि वाला है। दो कोसे ऊसिए जलताओ, जल की सतह से दो कोस ऊँचा है। सव्ववइरामए अच्छे-जाव-पडिरूवे । सर्ववज्रमय एवं स्वच्छ है-यावत्-मनोहर है । से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ यह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से सब ओर से समंता संपरिक्खित्ते । -जंबु० वक्ख० ४, सु०८० घिरा हुआ है। रोहिआ देवीए भवणस्स पमाणाइ रोहितादेवी के भवन के प्रमाणादि५०६. रोहिअदीवस्स णं दीवस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे ५०६. रोहिताद्वीप के ऊपर का भूभाग अत्यन्त सम एवं रमणीय पण्णत्ते। कहा गया है। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए इस सम एवं रमणीय भूभाग के मध्य में एक विशाल भवन एत्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते । कहा गया है। कोसं आयामेणं, यह एक कोस लम्बा है। सेसं तं चेव, पमाणं च अट्ठो अ भाणिअब्बो। शेष वक्तव्यता वही (गंगाद्वीप आदि के समान) है। इसका -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८० प्रमाण और नाम का हेतु कहना चाहिए। (६) रोहिअंसदीवस्स पमाणाइ (६) रोहितांसद्वीप के प्रमाणादि५१०. तस्स गं रोहिअंसप्पवायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं ५१०. रोहितांसाप्रपात कुण्ड के मध्य में रोहितांसा नामक एक एगे रोहिअंसाणामं दीवे पण्णत्ते । विशाल द्वीप कहा गया है। सोलस जोअणाई आयाम-विक्ख भेणं, साइरेगाइं पण्णासं यह सोलह योजन लम्बा-चौड़ा, पचास योजन से कुछ अधिक जोअणाई परिक्खेवेणं, की परिधि वाला है। दो कोसे ऊसिए जलताओ, पानी की सतह से दो कोस ऊँचा है। सब्बरयणामए अच्छे सण्हे-जाव-पडिरूवे । पुरा रत्नमय, स्वच्छ, चिकना-यावत्-मनोहर हैं। सेसं तं चेव-जाब-भवणं अट्रो अ भाणिअव्वोत्ति । शेष वर्णन वही-पूर्ववत् है-यावत्-भवन और नाम का -जंबु० वक्ख० ४, सु० ७४ कारण कहलवाना चाहिए। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५११-५१४ तिर्यक् लोक द्वीप वर्णन (७) सुवण्णकुलाबीवरस रुपकूलादीवरस य (७८) सुवर्णकुलाद्वीप और रुप्यङ्गलाद्वीप के प्रमाणादि पमाणाइ ५११. "सुवण्णकूला”...." रुप्पकूला".... अवसिद्ध तं चेव भाणियव्वं । - जंबु० क्व० ४ ० १११ (E) हरिदीवरस पमाणाइ ५१२. "एवं जाने हरिकंसाए यत्सव्वा सा देव हरीए वि" - जंबु ० ० वक्ख० ४, सु० ८४ बत्तीसं जोअणाई आयाम विक्खंभेणं, एगुत्तरं जोअणसयं परिवर्त दो कोसे ऊसिए जलताओ, सन्दरपणामए अच्छे-जाय पडिलवे | 3 गणितानुयोग ३०१ ५१२. जो हरिकान्ता नदी का वर्णन है वही हरि (हरिसलिला) नदी का भी जानना चाहिए । (१०) हरिकंतवीवस्त पमाणाइ (१०) हरिकान्ताद्वीप के प्रमाणादि -५१३. तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं ५१३ उस हरिकान्ता प्रपातकुण्ड के मध्य में हरिकान्तद्वीप एवं हरिकंसदीये णामं दीवे। नामक एक विशाल द्वीप कहा गया है । से णं एगाए पउमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते । वण्णओ भाणिअव्वेत्ति पमाणं च सयणिज्जं च अट्ठो अ भाणिअव्वो । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ८० ५११. 'सुवर्णकूला' द्वीप और 'रुप्यकूला' द्वीप के प्रमाणादि रोहिताद्वय और रोहितांसाद्वीप के समान है। सुवर्णकुलादेवी के भवन और रुप्यकूलादेवी के भवन का प्रमाण भी रोहिता और रोहितांसादेवी के भवन के समान है । (2) हरिद्वीप के प्रमाणादि यह बत्तीस योजन लम्बा-चौड़ा, एक सौ एक योजन की परिधि वाला है । जल से दो कोस ऊँचा, सर्वरत्नमय एवं स्वच्छ है- यावत्मनोहर है । यह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से सभी ओर से घिरा हुआ है । यहाँ वर्णक कहना चाहिए, प्रमाण, शय्या तथा नाम का हेतु भी कहना चाहिए । (११-१२) परकतादीवरस णारिकतादीवरस य पमा- (११-१२) नरकान्ताद्वीप और नारीकान्ताद्वीप के प्रमाणादि णाइ - (१३) सीआदीयरस पमाणाइ (१४) सीओअदीवरस पमाणाइ (१३) शीताद्वीप के प्रमाणादि (१४) शीतोदद्वीप के प्रमाणादि ५१४. तस्स णं सोपवायकुण्डस्स बहुमन्सवेसभाए एरवणं महं ५१४. उस शीतोदाप्रापातकुण्ड के मध्य में सीतोद्वीप नामक एक एगे सीओ अदीवे णामं दीवे पण्णत्ते । विशाल द्वीप कहा गया है । १ इस संक्षिप्त वाचनापाठ की सूचनानुसार सुवर्णकुलाद्वीप तथा रुप्यकुलाद्वीप और देवियों के भवनों का प्रमाण रोहिताद्वीप, रोहितांसाद्वीप और रोहितादेवी के भवन एवं राहितांसादेवी के भवन के समान कहना चाहिए । २ इस संक्षिप्त वाचना पाठ की सूचना के अनुसार हरिकान्तद्वीप के प्रमाण के समान हरि ( सलिला) द्वीप का प्रमाण भी जानना चाहिए । इसी प्रकार हरिकान्ता देवी के भवन के समान हरिदेवी का भवन भी जानना चाहिए । ३ स्थानांग २, उ० ३, सूत्र ८८ में नरकान्ता और नारिकान्ता नदियों को समान कहा है । अतः उनमें नरकान्ताद्वीप और नारीकान्ता द्वीप भी समान है। इसी प्रकार नरकान्ता देवी का भवन तथा नारीकान्तादेवी का भवन समान है । ४ स्थानांग २, उ० ३, सूत्र ८८ में शीता और शीतोदानदी को समान कहा है । अतः शीतोदाद्वीप के प्रमाण के समान शीतद्वीप का प्रमाण है । इस सूत्र की टीका में भी इस प्रकार कहा है- "...शीताद्वीपस्चतुःषष्टि योजनायामविष्कम्भो द्वयुत्तरयोजनशतद्वयपरिक्षेपः जलान्तादहिकोशोभित सीतादेवीभयनेन विभूषितोपरितन भाग .... Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ लोक-प्रज्ञप्ति उस जोजना आयाम- विश्वं मेगं दोणि विसरे जोजनाए परिश्यवेगं । दो कोसे ऊसिए जलंताओ सध्ववइरामए अच्छे-जावपडिरुवे । ति लोक कुछ वर्णन सेसं तमेव वेश्या वणसं भूमिभाग भवनसम्मिट्टो भाणि। - जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ (१-१६) गंगाकुण्डस्स ठाणप्पमाणाइ ५१५.५० कहि ते कुण्डे पणते ? - उ०- गोयमा ! चित्तकूडस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, उसकूडस्स व्वयस्स पुरत्थिमेणं, णीलवंतस्स वास हरपव्वयस्स बाहिणिले णिलंबे एथ उत्तरहरू विजए गंगाकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते । जोगाई आयाम विक्खंभेणं, तहेव जहा सिंधु - जाव- वणसंडेणं य संपरिक्खित्ता । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६३ (१७-३२) सिंधुकुण्डस्स ठाणप्पमाणाइ५१६. ५० कहि भते जंबूद्दीये दीवे महाविदेहे वासे उत्तर कच्छे विजए सिंधुकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते ? (१-१६) गंगाकुण्ड के स्थान - प्रमाणादि उत्तरछे बिजए गंगाकुण्डे नाम ५१५. १० - भगवन् ! उत्तरार्ध विजय में गंगाकुण्ड नामक कुण्ड कहाँ कहा गया है ? सूत्र ५१४- ५१७ वह चौसठ योजन लम्बा-चौड़ा, दो सौ दो योजन की परिधि वाला है, उ० गोषमा ! सुकच्छविजयस्स पुरत्थिमेणं महाकपछस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स जल की सतह से दो कोस ऊँचा, सर्ववज्रमय और स्वच्छ है - यावत्-मनोहर है। शेष वेदिका, वनखण्ड, भूमिभाग, भवन, शय्या तथा नाम. हेतु का कथन भी उसी प्रकार कह लेना चाहिए। उ०- गौतम ! चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, ऋषभकूट पर्वत के पूर्व में तथा नीलवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिणी नितम्ब में उत्तरार्ध विजय में गंगाकुण्ड नामक कुण्ड कहा गया है । यह साठ योजन लम्बा-चौड़ा है, इत्यादि वर्णन सिन्धु कुण्ड के समान है - यावत् - वनखण्ड से घिरा है । ( १७-३२) सिन्धुकुण्ड के स्थान प्रमाणादि ५१५. प्र०- भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष के उत्तरार्धकच्छ विजय में सिन्धुकुण्ड नामक कुण्ड कहाँ कहा गया है ? उ०- गोयमा ! मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पुरत्थिमेणं, उसभकूडस्स पच्चत्थिमेणं, णीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स पहिले निसवे एव जंबुद्दीवे दोबे महाविदेहे वासे उत्तरढकच्छविजए सिधुकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते । स जोअणाणि आयाम विक्खंभेणं जाव-भवणं अट्ठो । महाणी या भरहसिधुकुण्डसरिसं सम्यं अव्वं जाव- । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ९३ (३३-४८) रत्ताकुण्डस्स ठानप्यमाणाइ' (४६-६४) रतबइकुण्डस ठाणप्यमाणाइ'(६५) गंगावइकुण्डस ठाणव्यमाणाई | ५१७. ० कहि ते! जंबुद्दी दीवे महाविदेहे वाले गाहा ५१७. प्र० भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह क्षेत्र में ग्राहावती कुण्ड नामक कुण्ड कहा गया है ? बडकुण्डे णामं कुण्डे पणसे ? उ०- गौतम ! माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में, ऋषभ - कूट के पश्चिम में तथा नीलवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिणी नितम्ब में जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह क्षेत्र के उत्तरार्ध विजय में सिन्धुकुण्ड कहा गया है । यह साठ योजन लम्बा-चौड़ा है- यावत् - भवन नाम का हेतु तथा राजधानी पर्यन्त वर्णन पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। भरत क्षेत्र के सिन्धुकुण्ड के समान सब वर्णन जानना चाहिए। (३३-४८) रक्ताकुण्ड के स्थान प्रमाणादि(४६-६४ ) रक्तावती कुण्ड के स्थान प्रमाणादि - (६५) ग्राहावती कुण्ड के स्थान प्रमाणादि उ०- गौतम ! सुकच्छ विजय के पूर्व में महाकच्छ विजय के पश्चिम में तथा नीलवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिणी नितम्ब में १-२ रक्ताकुण्ड और रक्तावती कुण्ड का प्रमाण गंगाकुण्ड के समान है । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५१७-५२० जव रोहिअंसाकुण्डे तहेव - जाव अट्ठो । तिर्यक् लोक महाग्रह वर्णन दाहिनेतिं एत्य में अंबुद्दीचे दोने महाविदेहे जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह वर्ष में ग्राहावतीकुण्ड नामक वासे वाहावकुण्डे णामं कुठे पण्णत्ते । कुण्ड कहा गया है । इसका स्वरूप रोहितांशा कुण्ड के समान - यावत्-नाम - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ हेतु पर्यन्त समझ लेना चाहिए । उ०- गोयमा आवत्तस्स विजयस्स पच्चत्थिमेणं, कच्छगावईए विजयस्स पुरत्थिमेणं, णीलवंतस्स दाहिणिल्ले नितंबे एत्थ णं महाविदेहे वासे दहावईकुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते । से जहा माहाकुण्ड जान-अडी गणितानुयोग (६६) दहावईकुण्डरस ठाणप्यमाणाई (६६) ब्रहावती कुण्ड के स्थान प्रमाणादि ५१८. ५० - कहि णं भंते! महाविदेहे वासे दहावई कुण्डे णामं ५१० प्र० - भगवन् ! महाविदेह वर्ष में द्रहावतीकुण्ड नामक कुण्डे पण्णत्ते ? कुण्ड कहाँ कहा गया है ? — - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ हेतु कहना चाहिए । (६८) तत्तजलाकुण्डस्स ठाणप्पमाणाइ(६९) मत्तजलाकुण्डस्स ठाणप्पमाणाइ(७०) उम्मत्तजला कुण्डस्स ठाणप्पमाणाइ(७१) खीरोदाण्डस ठाणप्यमाणाइ(७२) सीअसोजकुण्डस ठाणप्पमाणाइ(७३) अन्तोवाहिनी कुण्डस्स ठाणप्पमाणाइ(७४) उम्मिमालिणीकुण्डस्स ठाणप्पमाणाइ(७५) फेणमा लिणीकुण्डरस ठाणप्पमाणाइ(७६) गंभीरमालिणीकुण्डस्स ठाणप्यमाणाइ जंबुद्दीवे सोलस महद्दहा५२० प० - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइआ महद्दहा पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! सोलस महद्दहा पण्णत्ता । - जंबु० वदख० ६, सु० १२५ ३०३ उ०- गौतम ! आवर्तविजय के पश्चिम में कच्छगावती विजय के पूर्व में तथा नीलवन्त पर्वत के दक्षिणी नितम्ब में महाविदेह वर्ष में द्रहावतीकुण्ड नामक कुण्ड कहा गया है । शेष वर्णन ग्राहायती कुण्ड के समान है— यावत्-यहाँ नाम (६०) पंकावईण्डरस ठाणप्यमाणाई (६७) पंकावतीकुण्ड के स्थान प्रमाणादि ५१६. ५० – कहि णं भंते! महाविदेहे वासे पंकावई कुण्डे णामं ५१६. प्र० - भगवन् ! महाविदेह वर्ष में पंकावतीकुण्ड नामक कुण्ड कहाँ कहा गया है ? ? पुष्कल उ०- गोयमा ! मंगलावत्तस्स विजयस्स पुरत्थिमेणं, पुक्खलविजयस्स पच्चत्थिमेणं, णीलवंतस्स दाहिणणितंबे एत्थ णं महाविदेहे वासे पंकावई कुण्डे णामं कुण्डे पण्णत्ते तं चैव वाहावइकुण्डपमा जावो। उ०- गौतम ! मंगलावर्त्त विजय के पूर्व में, विजय के पश्चिम में तथा नीलवन्त के दक्षिणी नितम्ब में महाविदेह वर्ष में पंकावतीकुण्ड कहा गया है । । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ६५ इसका प्रमाण ग्राहावती कुण्ड के बराबर कहा गया हैनाम हेतु कहना चाहिए । (६८) तप्तजलाकुण्ड के स्थान प्रमाणादि(६६) मत्तजलाकुण्ड के स्थान प्रमाणादि(७०) उन्मत्तजलाकुण्ड के स्थान प्रमाणादि(७१) शीतोदकुण्ड के स्थान प्रमाणादि( ७२ ) शीतश्रोताकुण्ड के स्थान प्रमाणादि(७३) अंतोवाहिनीकुण्ड के स्थान प्रमाणादि(७४) उर्मिमालिनीकुण्ड के स्थान प्रमाणादि(७५) फैनमालिनीकुण्ड के स्थान प्रमाणादि(७६) गंभीरमालिनीकुण्ड के स्थान प्रमाणादि—जम्बूद्वीप में सोलह महाग्रह ५२०. भगवन् जम्बूद्वीप में कितने महाइह कहे गये हैं ? ! उ०- गौतम ! सोलह महाद्रह कहे गये हैं । १ तप्तजलाकुण्ड से लेकर अंतिम गम्भीरमालिनी कुण्ड पर्यन्त का प्रमाण पंकावतीकुण्ड के समान समझना चाहिए । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महाद्रह वर्णन सूत्र ५२१-५२३ जम्बुद्दीवे छ महदहा, दहदेविओ य जम्बूद्वीप में छह महाद्रह और द्रहदेवियाँ५२१. जंबुद्दीवे दीवे छ महद्दहा पण्णत्ता तं जहा ५२१. जम्बूद्वीप नामक द्वीप में छह महाद्रह कहे हैं । यथा१ पउमदहे, २ महापउमद्दहे, ३ तिगिच्छद्दहे, ४ केसरिद्दहे, (१) पद्मद्रह, (२) महापद्मद्रह, (३) तिगिछद्रह, ५ महापोंडरीयद्दहे, ६ पुण्डरीयद्दहे । (४) केसरिद्रह, (५) महापुण्डरीकद्रह, (६) पुण्डरीकद्रह । तत्थ णं छ देवयाओ महिड्ढियाओ-जाव-पलिओवमट्टिइयाओ उन (पद्म आदि द्रहों में अनुक्रम से) छह देवियाँ महधिकपरिवति तं जहा यावत्-पल्योपम की स्थिति वाली निवास करती है । यथा१ सिरि, २ हिरि, ३ धिति, ४ कित्ति, ५ बुद्धि, ६ लच्छी। (१) श्री, (२) ही, (३) धृति, (४) कीर्ति, (५) बुद्धि, -ठाणं ६, सु० ५२२ (६) लक्ष्मी । जंबमंदर-दाहिणुत्तरेणं तओ तओ महा दहा दहदेविओ जम्बूद्वीप के मंदर पर्वत से दक्षिण और उत्तर में तीन तीन य महाद्रह और द्रहदेवियाँ५२२. जंबुमंदरस्स दाहिणेणं तओ महादहा पण्णत्ता, तं जहा- ५२२. जम्बूद्वीप के मंदर पर्वत से दक्षिण में तीन महाद्रह कहे गये हैं, यथा-. १ पउमदहे, २ महापउमदहे, ३ तिगिछदहे। (१) पद्मद्रह, (२) महापद्मद्रह, (३) तिगिछद्रह । तत्थ णं तओ देवयाओ महिड्ढियाओ-जाव-पलिओवमट्ठि- वहाँ महाऋद्धि वाली-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाली इयाओ परिवसति, तं जहा तीन देवियाँ रहती हैं, यथा१सिरी, २ हिरी, ३ धितो। (१) श्री, (२) ह्री, (३) धृति । जंबुमंदरस्स उत्तरेणं तओ महा दहा पण्णत्ता, तं जहा- जम्बूद्वीप के मंदर पर्वत से उत्तर में तीन महाद्रह कहे गये हैं, यथा१ केसरीदहे, २ महापोंडरीयदहे, ३ पोंडरीयदहे। (१) केसरीद्रह, (२) महापोंडरीकद्रह, (३) पोंडरीकद्रह । तत्थ णं तओ देवयाओ महिड्ढियाओ-जाव-पलिओवमट्टि- वहाँ महाऋद्धिवाली-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाली इयाओ परिवति, तं जहा तीन देवियाँ रहती हैं, यथा१ कित्ती, २ बुद्धि, ३ लच्छो । (१) कीति, (२) बुद्धि, (३) लक्ष्मी । -ठाणं ३, उ० ४, सु० १६७ दोण्हं दोण्हं दहाणं समप्यमाणं दहदेवीओ य- दो दो द्रहों का समप्रमाण और द्रहदेवियाँ५२३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरपव्वयस्स उत्तर-दाहिणणं चुल्लहिमवंत- ५२३. जम्बूद्वीपवर्ती मेरुपर्वत के उत्तर और दक्षिण में लघुहिम सिहरीसु वासहरपब्बएसु दो महद्दहा बहुसमतुल्ला अविसेस- वान् और शिखरी पर्वतों में दो महान् द्रह हैं। जो अतिसमतल्य. मणाणत्ता अण्णमण्णं णाइवट्टन्ति, आयाम-विक्खंभ-उब्वेह- विशेषता व विविधता रहित लम्बाई-चौड़ाई, गहराई, संस्थान संठाण-परिणाहेणं तं जहा-पउमद्दहे चैव, पुण्डरीयद्दहे चेव। एवं परिधि में एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करने वाले हैं। यथा-पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह । तत्थ णं दो देवयाओ महिड्ढियाओ, महज्जुइयाओ महाणु- वहाँ महान् ऋद्धि वाली, महाद्युति वाली, महानुभाग वाली, भागाओ, महायसाओ महाबलाओ महासोक्खाओ पलिओव- महायश वाली, महाबल वाली, महासुख वाली और पल्योपम की मट्रिइयाओ परिवति, तं जहा–सिरि चेव, लच्छी चैव। स्थिति वाली दो देवियाँ रहती हैं, यथा-श्री देवी और लक्ष्मी देवी। एवं महाहिमवंत-रुप्पीसु वासहरपव्वएसु दो महद्दहा बहु- इसी तरह-महाहिमवान् और रुक्मि वर्षधर पर्वतों पर दो समतुल्ला-जाव-परिणाहेणं, तं जहा-महापउमद्दहे चेव, महा- महाद्रह हैं, जो अतिसमतुल्य हैं, तुल्य परिधियाँ वाले हैं-यावत पोंडरीयद्दहे चेव । --परिधितुल्य हैं, यथा-महापद्मद्रह और महापुण्डरिकद्रह । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५२३.५२५ तिर्यक् लोक : पद्मद्रह वर्णन गणितानुयोग ३०५ तत्थ णं दो देवयाओ महिड्ढियाओ-जाव-पलिओवमट्ठिइ- वहाँ दो देवियाँ महान् ऋद्धि वाली-यावत्-पल्योपम की याओ परिवसंति, तं जहा-हिरि चेव, बुद्धि चेव। स्थिति वाली रहती हैं, यथा-ही देवी और बुद्धि देवी। एवं निसढ-नीलवंतेसु वासहरपव्वएसु दो महद्दहा बहुसम- इसी तरह निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वतों पर दो महातुल्ला-जाव-परिणाहेणं, तं जहा-तिगिछिद्दहे चैव, केसरिद्दहे द्रह हैं, जो अति समतुल्य-यावत्-तुल्य परिधि वाले हैं। चव। यथा-तिगिच्छद्रह और केसरीद्रह । तत्थ णं दो देवयाओ महिड्ढियाओ-जाव-पलिओवमट्ठिइ- वहाँ दो देवियाँ महान् ऋद्धि वाली-यावत्-पल्योपम की याओ परिवति, तं जहा-धिति चेव, कित्ति चेव। स्थिति वाली रहती हैं। -ठाणं २, उ० ३, सु० ८८ (१) पउमद्दहस्स अवट्ठिई पमाणं च (१) पद्मद्रह की स्थिति और प्रमाण५२४. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए ५२४. इस अति सम एवं रमणीय भूमिभाग के मध्य में एक एत्थ णं इक्के महं पउमद्दहे णामं दहे पण्णत्ते । विशाल पद्मद्रह नामक द्रह कहा गया है। पाईण-पडीणायए, उदीण-दाहिण-वित्थिण्णे इक्कं जोअण- यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा, एक हजार सहस्सं आयामेणं,' पंच जोअणसयाई विक्खंभेणं, दस जोअणाई योजन लम्बा, पाँच सौ योजन चौड़ा तथा दस योजन गहरा है । उन्वेहेणं,' अच्छे सण्हे, रययामयकूले-जाव-पासाईए-जाव- स्वच्छ, चिकना, रजतमय किनारों वाला-यावत्-प्रासादिक पडिरूवेति । -यावत्-प्रतिरूप है। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवओ यह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड से सब ओर से समंता संपरिक्खित्ते। घिरा है। वेइआ-वणसंडवण्णओ भाणिअब्वोत्ति । यहाँ वेदिका और वनखण्ड का वर्णन कहना चाहिए। तस्स णं पउमद्दहस्स चउद्दिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा। इस (पद्मद्रह) के चारों दिशाओं में चार प्रतिरूप तीन पण्णत्ता। सोपान (पंक्तियाँ) कही गई है। वण्णावासो भाणिअन्वोत्ति । यहाँ इनका भी वर्णन कहना चाहिए। तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्ते पत्तेअं तोरणा इन प्रतिरूप तीन सोपानों के सामने पृथक्-पृथक् तोरण कहे पण्णता। ते णं तोरणा जाणामणिमया। गये हैं । ये तोरण नाना मणिमय हैं। -जंबु० वक्ख० ४, सु०७३ पउमद्दहस्स पउम-वण्णओ पद्मद्रह में पद्मवर्णक५२५. तस्स णं पउमद्दहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पउमे ५२५. इस पद्मद्रह के मध्य में एक विशाल पद्म कहा गया है। पण्णत्ते। जोअणं आयाम-विक्खंभेणं, अद्धजोअणं बाहल्लेणं, दस यह एक योजन लम्बा-चौड़ा, आधा योजन मोटा, दस योजन जोअणाइं उब्वेहेणं । गहरा है। दो कोसे ऊसिए जलताओ, साइरेगाइं दस जोअणाई सम्व- और जल की सतह से दो कोस ऊँचा है। सब मिलाकर ग्गेणं पण्णत्ता। इसका परिमाण कुछ अधिक दस योजन का कहा गया है । से णं एगाए जगईए सब्वओ समंता संपरिक्खित्ते । यह चारों ओर से एक जगती (कोट) से घिरा हुआ है। १ सम० ११३ सूत्र १० । २ सव्वेवि णं महादहा दस जोयणाई उव्वेहेणं पण्णत्ता। -ठाणं १०, सु० ७७६ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : पद्मद्रह वर्णन सूत्र ५२५-५२६ जंबुद्दीवजगइप्पमाणा। गवक्खकडए वि तह चेव पमाणे- इसका परिमाण जम्बूद्वीप की जगती के बराबर है। उसके णंति । गवाक्षकटक (जालियों के समूह) का भी परिमाण उसी प्रकार समझना चाहिए। तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णसे, तं जहा- इस पद्म का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है । यथावइरामया मूला, रिट्ठामए कंदे, वेरुलिआमए णाले वेरुलि- इसके मूल वज्रमय हैं । कन्द (मूल नाल के बीच की गांठ) आमया बाहिरपत्ता, जम्बूणयामया अमितरपत्ता, तवणिज्ज- अरिष्टरत्न की है। नाल वैडूर्यरत्नमय है । बाहर के पत्ते वैडूर्यमया केसरा, णाणामणिमया पोक्खरस्थिभाया, कणगामई मय है, अन्दर के पत्ते जम्बूनदस्वर्णमय है। केसर रक्तस्वर्णमय हैं । कण्णिगा। पुष्कर अस्थिभाग (कमल के बीज के विभाग) नाना-मणिमय है। कणिका कनकमयी है। सा णं अद्धजोअणं आयामविक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, यह कणिका आधा योजन लम्बी-चौड़ी, एक कोस मोटी तथा सव्वकणगामई अच्छा-जाव-पडिरूवा। स्वर्णमयी स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है । तीसे णं कण्णिआए उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे इस कणिका के ऊपर अति सम और रमणीय भू-भाग कहा पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा,-जाव-तस्स गं गया है जैसे आलिंगपुष्कर हो-यावत्-उस अतिसम एवं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसमाए एत्थ णं महं रमणीय भूभाग के मध्य में एक विशाल भवन कहा गया है। एगे भवणे पण्णत्ते। कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूणगं कोसं उड्ढं यह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा कुछ कम एक कोश उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ पासाईए-जाव-पडिरूवे। ऊँचा सैकड़ों स्तम्भों से सन्निविष्ट, प्रासादिक—यावत्-प्रति तस्स णं भवणस्स तिदिसि तओ दारा पण्णत्ता । ते णं इस भवन की तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं। ये दारा पंचधणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अड्ढाइज्जाइंधणुसयाई द्वार पांच सौ धनुष ऊँचे, अढ़ाई सौ धनुष विष्कंभ वाले एवं उतने विक्खंभेणं, तावतिअं चेव पवेसेणं । ही प्रवेश वाले हैं। सेआवरकणगभिआओ-जाव-वणमालाओ अव्वाओ। यहाँ श्वेत व श्रेष्ठ कनक-स्तूपिकायें हैं-यावत्-बनमालाओं तक का कथन समझ लेना चाहिए । तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते इस भवन के अन्दर का भू-भाग समतल एवं रमणीय कहा से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा,-जाव-तस्स गं बहुमज्झ- गया है जैसे आलिंगपुष्कर हो यावत्-उसके बीचों बीच एक देसभाए एत्थ णं महई एगा मणिपेढिआ पण्णत्ता। विशाल मणिपीठिका कही गई है। सा गं मणिपेढिआ पंचधणुसयाई आयाम विक्खंभेणं । यह मणिपीठिका पाँच सौ धनुष लम्बी-चौड़ी है, अड्ढाइज्जाइं धणुसयाई बाहल्लेणं । अढ़ाई सौ धनुष मोटी है, सव्वमणिमई अच्छा-जाव-पडिरूवा । सर्वमणिमयी और स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है । तीसे गं मणिपेढिआए उप्पि एत्थ णं महं एगै सणिज्जे इस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ी शय्या कही गई है। पण्णत्ते । सयणिज्जवण्णओ भाणिअब्बो। शय्या का वर्णन यहाँ कहना चाहिए। -जंबु० वक्ख० ४, सु०७३ पउमपरिवारो पद्म-परिवार५२६. से णं पउमे अण्णणं अट्ठसएणं पउमाणं तद्धदूच्चत्तप्पमाण- ५२६. वह (उपर्युक्त) पद्म अपने से आधी ऊँचाई वाले अन्य एक मित्ताणं सवओ समता संपरिक्खित्ते । सौ आठ पद्मों से सब ओर से घिरा है। ते णं पउमा अद्धजोयणं आयाम-विक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, ये पदम आधा योजन लम्बे-चौड़े, एक कोस मोटे, दस योजन दसजोयणाई उब्वेहेणं। गहरे है। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५२६-५२७ तिर्यक् लोक : पद्मग्रह ' कोसं ऊसिया जलंताओ, साइरेगाई दसजोयणाई उड्ढ उच्चतेणं । तेसि णं परमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते । तं जहावद्दरामया मूला जाव - कणगामई कण्णिआ । साणं कण्णिया कोसं आयामेणं, अद्धकोसं बाहल्लेणं, सव्वकणगामई अच्छा - जाव पडिरूवा इति । तीसे णं कण्णिआए उप्पि बहुसमरमणिज्जे- जाव-मणह उसोभए । तस्स णं पउमरस अवस्तेणं उत्तर-पुरस्थिमेणं एवं पं सिरोए देवीए चउन्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि परम साहसीओ पण्णत्ताओ । तस्स णं पउमस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं सिरीए देवीए चउन्हं महत्तरियाणं चत्तारि पउमा पण्णत्ता । तरस णं पठमस्स दाहिण-पुत्थिमेणं सिरीए अग्मितरिआए परिसाए अद्रुष्टं देवसाहस्सोणं अट्ठ पउमसाहस्सोओ पण्णत्ताओ। दाहिणं मज्झिमपरिसाए दसण्हं देवसाहस्सीणं दस पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । दाहिण -पच्चत्थिमेणं बाहिरिआए परिसाए बारसहं देवसाहस्तीर्ण बारसपउमसाहस्सोओ पाओ। पच्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणिआहिवईणं सत्त पउमा पण्णत्ता । तस्स णं पउमस्स चंउद्दिस सव्वओ समंता एत्थ णं सिरीए देवीए सोलसहं आयरक्खदेव साहस्सीणं सोलस पउमसाहसीओ पण्णत्ताओ | से णं तीहि पमपरिवसिओ समता सपरिव तं जहा अतिरकेण ममएणं बाहिरएणं । अमितरए पउमपरिवर्णये बसी पउमसयसाहसीओ पण्णत्ताओ । मज्झिमए पउमपरिक्खेवे चत्तालीस पउमसयसाहसीओ पण्णत्ताओ । बाहिरए पमपरिअडवाली पउमससाहसीओ पण्णत्ताओ । एवामेव सपूम्यावरे तिहि परमपरिक्लेवहि एगा पउमकोडी बीसं च पडमयसाहसीओ भवतीतिमन्यायें । - जंबु० वक्ख० ४, सु० ७३ वर्णन fa ३०७ एक कोस पानी से ऊपर (पानी के बाहर ) हैं । ( इस प्रकार सब मिलाकर) दस योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं । इन पद्मों का वर्णन इस प्रकार कहा गया है । यथा इनके मूल वज्रमय है- यावत् - कणिका कनकमय है । यह कणिका एक कोस लम्बी आधा कोस मोटी, सर्वजनकमयी और स्वच्छ है - यावत् - प्रतिरूप है । इस कर्णिका के ऊपर अति सम एवं रमणीय ( भूमिभाग ) है - यावत् - मणियों से सुशोभित है । इस पद्म से पश्चिमोत्तर में, उत्तर में तथा उत्तर-पूर्व में श्रीदेवी के चार हजार सामानिकों (देवों) के चार हजार पद्म कहे गये हैं । इस पद्म के पूर्व में श्रीदेवी की चार महत्तरिकाओं (मुख्य देवियों) के चार पद्म कहे गये हैं । इस पद्म के दक्षिण-पूर्व में श्रीदेवी की आभ्यंतर परिषद् के आठ हजार देवों के आठ पद्म कहे गये हैं। । दक्षिण में मध्य परिषद् के दस हजार देवों के दस हजार पद्म कहे गये हैं । दक्षिण-पश्चिम में बाह्य परिषद के बारह हजार देवों के बारह हजार पद्म कहे गये हैं । पश्चिम में सात अनीकाधिपतियों (देवों) के सात पद्म कहे गये हैं। इन पद्मों की चारों दिशाओं में सभी ओर श्रीदेवी के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के सोलह हजार पद्म कहे गये हैं । यह पद्म सब ओर से तीन पद्म-परिधियों से घिरा हुआ है, यथा आभ्यन्तरपरिधि, मध्यपरिधि और बाह्यपरिधि । आभ्यन्तर पद्म-परिधि में बत्तीस लाख पद्म कहे गये हैं । मध्यमपद्म परिधि में चालीस लाख पद्म कहे गये हैं । बाह्यपद्म परिधि में अड़तालीस लाख पद्म कहे गये हैं। इन तीनों पद्म-परिधियों में सब मिलाकर एक करोड़ बीस लाख पद्म है; ऐसा कहा गया है । पउमरहस्य णामहेऊ पद्मद्रह के नाम का हेतु - ५२७. १० – से केण णं मंते ! एवं बुच्चइ - पउमद्दहे पउमद्दहे ? ५२७. प्र० - भगवन् ! पद्मद्रह, पद्मद्रह क्यों कहलाता है ? Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : पद्मद्रह वर्णम सूत्र ५२७-५३० उ०-गोयमा ! पउमद्दणं तत्थ-तत्थ देसे तहि-तहिं बहवे. उ०-गौतम ! पद्मद्रह में उस-उस स्थान पर बहुत से पद्म उप्पलाइ-जाव-सयसहस्सपत्ताई पउमद्दहप्प भाई पउम- हैं-यावत्-शतपत्र सहस्रपत्र (जाति के कमल) हैं, वे पद्मद्रह द्दह वण्णाभाई। __ की प्रभा वाले तथा पद्मद्रह के वर्ग जैसे है। सिरी अ इत्थ देवी महिड्ढिया-जाव-पलिओवमट्टिईआ यहाँ महद्धिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाली श्री परिवसइ। नामक देवी निवास करती हैं। ऐएएण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ-पउमद्दहे, पउमद्दहे। इस कारण गौतम ! पद्मद्रह को पद्मद्रह कहते हैं। अदुत्तरं च णं गोअमा ! पउमद्दहस्स सासए णामधेज्जे इसके अतिरिक्त, गौतम ! पद्मद्रह यह नाम शाश्वत कहा पण्णत्ते जं गं कयावि णासि,-जाव-अवहिए णिच्चे गया है, जो कभी नहीं था ऐसा नहीं है-यावत्-पद्मद्रह अव पउमद्दहे पण्णत्ते इति । -जंबु० वक्ख० ४, सु०७३ स्थित एवं नित्य कहा गया है। महापउमद्दहस्स अवट्ठिई पमाणं च- (२) महापद्मद्रह की अवस्थिति और प्रमाण५२८. महाहिमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महापउमद्दहे ५२८. महाहिमवन्त पर्वत के ठीक मध्य भाग में महापद्मद्रह णामं दहे पण्णत्ते । नामक द्रह कहा गया है । दो जोअणसहस्साई आयामेणं,' एग जोअणसहस्सं विक्खं- जो दो हजार योजन लम्बा, एक हजार योजन चौड़ा, दस भेणं, दस जोअणाई उव्वेहेणं अच्छे-जाव-पडिरूवे रययामय- योजन गहरा स्वच्छ-यावत्-मनोहर है । एवं रजतमय किनारों कूले। वाला है। एवं आयाम-विखंविहूणा जा चेव पउमद्दहस्स वत्तव्वया इसी प्रकार लम्बाई-चौड़ाई को छोड़कर शेष बातों में पद्मसा चेव अव्वा । पउमप्पमाणं दो जोअणाई। द्रह के समान ही जानना चाहिए। इसके पद्म का प्रमाण दो -जंबु० बक्ख० ४, सु०८० योजन का है। महापउमद्दहस्स णामहेऊ महापद्मद्रह के नाम का हेतु५२६. प०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-महापउमद्दहे महा- ५२६. प्र०-भगवन् ! महापद्मद्रह-महापद्मद्रह क्यों कहा पउमद्दहे? गया है ? उ०-गोयमा ! महापउमदहणं तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं उ०-गौतम ! महापद्मद्रह में स्थान-स्थान पर अनेक उत्पल बहवे उप्पलाई-जाव-सयसहस्सपत्ताई महापउमद्दहप्प- हैं यावत् - शतपत्र सहस्रपत्र (जाति के कमल) हैं। वे महाभाई महापउमद्दहवण्णाभाई। पद्मद्रह के वर्ण जैसे हैं। हिरी अ इत्थ देवी महिडढोया-जाव-पलिओवमट्ठिइया यहाँ ही नामक देवी निवास करती है जो महद्धिक-यावत् परिवसइ। -पल्योपम की स्थिति वाली है। से एएण?ण गोयमा ! एवं वुच्चइ-महापउमहह, इस कारण गौतम ! महापद्मद्रह महापद्मद्रह कहा जाता है। महापउमद्दहे। अवुत्तरं च णं गोयमा ! महापउमद्दहस्स सासए णाम- इसके अतिरिक्त गौतम ! महापद्मद्रह यह नाम शाश्वत कहा धिज्जे पण्णत्ते। गया है। जंणं कयाइ णासी-जाव-णिच्चे महापउमद्दहे पण्णत्ते, जो कभी नहीं था, ऐसा नहीं है-यावत्-महापद्मद्रह इति । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८० नित्य कहा गया है । (३) तिगिछिद्दहस्स अवठिई पमाणं च- (३) तिगिछि द्रह की अवस्थिति और प्रमाण५३०. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्मदेसभाए ५३०. उस अति सम एवं रमणीय भूमिमाग के मध्य में तिगिछि एत्थ णं महं एगे तिगिछिद्दहे णामं दहे पण्णत्ते । द्रह नामक एक विशाल द्रह कहा गया है । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५३०-५३५ तिर्यक् लोक : पद्मद्रह वर्णन गणितानुयोग ३०६ पाईण-पडीणायए, उदीणदाहिणवित्थिण्णे, चत्तारि जोअण- यह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा, चार सहस्साई आयामेणं' दो जोअणसहस्साई विक्खंभेणं, दस हजार योजन लम्बा, दो हजार योजन चौड़ा, दस योजन गहरा जोयणाई उब्वेहेणं, अच्छे-जाव-पडिरूवे रययामयकूले। और स्वच्छ है-यावत्-मनोहर है। एवं रजतमय किनारों वाला है। तस्स णं तिगिछिद्दहस्स चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडि- उस तिगिंछद्रह के चारों दिशाओं में चार मनोहर तीन सोपान रूवगा पण्णत्ता। (पगथिये) कहे गये हैं। एवं-जाव-आयाम-विक्खंभविहूणा जा चेव महापउमद्दहस्स इसी प्रकार—यावत्-लम्बाई और चौड़ाई को छोड़कर वत्तब्वया-सा चेव तिगिछिद्दहस्स वि वत्तव्वया । तं चेव पउ- जो-महापद्मद्रह का कथन है वही तिगिछिद्रह का कथन है मप्पमाण। (धृति देवी के) पद्म-कमलों का प्रमाण भी वही (एक करोड़, बीस लाख) समझना चाहिए। तिगिछिद्दहस्स णामहेऊ तिगिछिद्रह के नाम का हेतु५३१. प०–से केणटुणं भते ! एवं बुच्चइ-तिगिछिदहे तिगि- ५३१.प्र०-भगवन् ! तिगिछिद्रह, तिगिछिद्रह क्यों कहा जाता है ? छिद्दहे ? -गोयमा ! तिगिछिद्दहणं तत्थ तत्थ देसे तहि बहवे उ०-गौतम ! तिगिछिद्रह में स्थान-स्थान पर अनेक उत्पल उप्पलाइ-जाव-सयसहस्सपत्ताई तिगिछिद्दहप्पभाई हैं-यावत्-सहस्रपत्र (जाति के कमल) हैं। वे तिगिछिद्रह की तिगिछिद्दहवण्णाभाई । प्रभा वाले एवं तिगिछिद्रह के वर्ग जैसे हैं । धिई अ इत्थ देवी महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठिइया यहाँ महद्धिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाली धति परिवसइ। नामक देवी रहती है। से तेणढणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-तिगिछिदहे इस कारण गौतम ! तिगिछिद्रह तिगिछिद्रह कहा जाता है। तिगिछिद्दहे। अदुत्तर च णं गोयमा ! तिगिछिद्दहस्स सासए णाम अथवा गोतम ! तिगिछिद्रह यह नाम शाश्वत कहा गया है। धिज्जे पण्णत्ते । जं णं कयाइ णासी-जाव-णिच्चे तिगिछिदहे पण्णत्ते जो कभी नहीं था-ऐसा नही हैं-तिगिछिद्रह नित्य कहा इति । -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८३ गया है । (४) केसरीदहस्स अवट्ठिई पमाणं च- (४) केसरीद्रह की अवस्थिति और प्रमाण५३२. .."एत्थ णं केसरीदहो..... -जंबु० वक्ख० ४, सु० ११० ५३२. यहाँ केशरीद्रह है। "५३३. तिगिच्छ-केसरिदहाणं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई- ५३३. तिगिच्छिद्रह और केशरीद्रह की लम्बाई चार-चार हजार आयामेणं पणत्ताई। -सम० ४०००, सु० २ योजन की कही गई है। (५) महापुण्डरीयदहस्स अवट्ठिई पमाणं च- (५) महापुण्डरीकद्रह की अवस्थिति और प्रमाण५३४. .."महापुण्डरीदहे.... -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ ५३४. महापुण्डरीकद्रह में५३५. महापउम-महापुण्डरीयदहाणं दो दो जोयणसहस्साई आयामेणं ५३५. महापद्मद्रह और महापुण्डरीकद्रह की लम्बाई दो-दो हजार पण्णत्ताई। -सम० २०००, सु०१ योजन की कही गई है। १ सम० ११७ । १, २, ३–ये संक्षिप्त वाचना के पाठ हैं । १ केसरी द्रह की अदस्थिति और प्रमाण तिगिछिद्र के समान है। २ महापुण्डरीकद्रह की अवस्थिति और प्रमाण महापदमद्रह के समान है। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० लोक-प्रज्ञप्ति तर्यक् लोक : महाद्रह वर्णन सूत्र ५३६-५४१ (६) पुण्डरीयद्दहस्स अवट्ठिई पमाणं च- (६) पुण्डरीकद्रह की अवस्थिति और प्रमाण५३६. .."पुण्डरीयदहे.... -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ ५३६. पुण्डरीकद्रह में५३७. पउमपुण्डरीयदहा य दस दस जोयणसयाई आयामेणं ५३७. पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह की लम्बाई एक-एक हजार पण्णत्ताई। -सम० १०००, सु० १० योजन की कही गई है। देवकुराए उत्तरकुराए य दस महद्दहा- देवकुरा और उत्तरकुरा में दस महाद्रह५३८. जंबु-मंदर-दाहिणणं देवकुराए कुराए पंच महदहा पण्णत्ता, ५३८. जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण के देवकुरा नामक कुरा में तं जहा–१ निसहदहे, २ देवकुरुदहे, ३ सूरदहे, ४ सुलसदहे, पाँच महाद्रह कहे गये हैं । यथा-(१) निषधद्रह, (२) देवकुरुद्रह, ५ विज्जुप्पभदहे। (३) सूर्यद्रह, (४) सुलसद्रह, (५) विद्युत्प्रभद्रह.... ५३६. जंबु-मंदर-उत्तरेणं उत्तरकुराए पंच महद्दहा पण्णत्ता, तं ५३६. जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर के उत्तरकुरा नामक कुरा जहा-१ नीलवंतदहे, २ उत्तरकुरुदहे, ३ चंददहे, ४ एरा- में पांच महाद्रह कहे गये हैं, यथा-(१) नीलवंतद्रह, उत्तरकुरावणदहे, ५ मालवंतदहे। ठाण० ५, उ० २, सु० ४३४ द्रह, (३) चन्द्रद्रह, (४) एरावणद्रह, (५) माल्यवंतद्रह । देवकराए णिसढाइ पंचदहाणं ठाणप्पमाणाइ- देवकुरु में निषधादि पाँच द्रहों के स्थान प्रमाणादि५४०. ५०-कहि णं भंते ! देवकुराए कुराए णिसढदहे णामं दहे ५४०. प्र०-भगवन् ! देवकुरु में निषधद्रह नामक द्रह कहाँ कहा पण्णते? गया है ? -गोयमा ! तेसि चित्त-विचित्तकूडाणं पम्वयाणं उत्त- उ०-गौतम ! उन चित्र-विचित्रकूट पर्वतों के उत्तरीय रिल्लाओ चरिमंताओ अट्ठ चोत्तीसे जोअणसए चत्तारि अ सत्तभाए जोयणस्स अबाहाए सीओआए महाणईए चरमान्त से ८३४- की बाधा रहित दूरी पर सीतोदा महानदी बहुमज्मदेसभाए एत्थ णं णिसहदहे णामं दहे पण्णत्ते। के बीचों बीच निषधद्रह नामक द्रह कहा गया है। एवं जच्चेव नीलवंत-उत्तरकुरु-चंद-एरावय-मालवंताणं जिस प्रकार नीलवन्त, उत्तरकुरु, चन्द्र, ऐरावत और माल्यसच्चेव णिसह-देवकुरु-सूर-सुलस-विज्जुप्पभाणं णेअब्वा। वन्त (नामक उत्तरकुरु के पांचों द्रहों) को वक्तव्यता को गई है रायहाणीओ दक्खिणेणंति ।। उसी प्रकार निषध, देवकुरु, सूर्य, सुलस तथा विद्युत्प्रभ ग्रह की -जंबु० वक्ख० ४, सु९६६ वक्तव्यता जान लेनी चाहिए (इनके अधिपति देवों की) राजधानियाँ दक्षिण में है। उत्तरकुराए णीलवंताइ पंचदहाणं ठाणप्पमाणाइ- उत्तरकुरु में नीलवंतादि पाँच द्रहों के स्थान प्रमाणादि५४१.५०-कहि गं भंते ! उत्तरकुराए णीलवंतदहे णामं दहे ५४१. प्र०-भगवन् ! उत्तरकुरु में नीलवन्तद्रह नामक द्रह कहाँ पण्णत्ते ? कहा गया है ? उ०-गोयमा ! जमगाणं दक्खिणिल्लाओ चरमंताओ अट्ठसए उ०-गौतम ! यमक पर्वतों के दक्षिणी चरमान्त से चोत्तीसे चत्तारि अ सत्तभाए जोअणस्स अबाहाए सोआए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं णीलवंत- ८३४ - योजन बाधारहित शीतामहानदी के ठीक मध्य भाग में दहे णाम दहे पण्णत्ते । नीलवन्तद्रह नामक द्रह कहा गया है। दाहिण-उत्तरायए, पाईण-पडोणवित्थिण्णे, वह दक्षिण-उत्तर में लम्बा एवं पूर्व-पश्चिम में चौड़ा है। १ पुण्डरीकद्रह की अवस्थिति और प्रमाण पद्मद्रह के समान है। २ षोडश महाह्रदाः षड् वर्षधराणां, शीता-शीतोदयोश्च प्रत्येक पंच, पंच । -जम्बू• वृत्ति, सु० १२५. Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४१-५४३ तिर्यक् लोक : महाद्रह वर्णन गणितानुयोग ३११ जहेव पउमद्दहे, तहेब वण्णओ अव्वो, णाणत्तं- पद्मद्रह के समान उसका वर्णन समझ लेना चाहिए। दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंहिं संपरिक्खित्ते, विशेषता यह है कि-यह दो पद्मवरवेदिकाओं और दो वनखण्डों से घिरा हुआ है। णीलवंते णामं णागकुमारे देवे, सेसं तं चेव णेअब्बं । यहाँ नीलवन्त नामक नागकुमार देव हैं, शेष वर्णन वही समझना चाहिए। गाहा गाथार्थपढमित्थ णीलवंतो, बितिओ उत्तरकुरु मुणेअव्वो। प्रथम नीलवन्त, दूसरा उत्तरकुरु, तीसरा चन्द्रद्रह, चौथा चंददहोत्थ तइओ, एरावय, मालवंतो अ॥' ऐरावत और पांचवां माल्यवन्तद्रह है। एवं वण्णओ अट्ठो पमाणं पलिओवमट्टिइआ देवा । नीलवन्त द्रह के समान उनके नाम का कारण, प्रमाण एवं -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८६ पल्योपम की स्थिति वाले देव, इत्यादि वर्णन समझ लेना चाहिए। उत्तरकुराए णीलवंतद्दहस्स ठाणप्पमाणाइ उत्तरकुरा में नीलवन्तद्रह का स्थान-प्रमाणादि'५४२. ५०-कहि णं भंते ! उत्तरकुराए कुराए नीलवंतद्दहे णामं ५४२. प्र०-भगवन् ! उत्तरकुरा नामक कुरा में नीलवन्तद्रह दहे पण्णत्ते ? नामक द्रह कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! जमगपव्वयाणं दाहिणणं अट्ठचोत्तीसे जोयण- उ०-गौतम ! यमक पर्वतों के दक्षिण में, आठ सौ चौंतीस सए चत्तारि सत्तभागा जोयणस्स अबाहाए सीताए योजन और चार योजन के सात भाग की दूरी पर व्यवधानरहित महाणईए बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं उत्तरकुराए सीता महानदी के ठीक मध्य भाग में उत्तरकुरा नामक कुरा में कुराए णीलवंतहहे णामं बहे पण्णत्ते। नीलवन्तद्रह नामक द्रह कहा गया है। उत्तरदक्खिणायए पाईण-पडीणवित्थिन्ने एगं जोयण- यह उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है और पूर्व-पश्चिम में विस्तृत सहस्सं आयामेणं, पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं, दस है। यह एक हजार योजन लम्बा, पाँच सौ योजन चौड़ा और जोयणाई उव्वेहेणं, अच्छे सण्हे रययामयकूले चउक्काणे दस योजन गहरा है । स्वच्छ है, चमकदार है, रजतमय किनारे समतीरे-जाव-पडिरूवे । __ वाला है, चतुष्कोण है, किनारे पर समतल है-यावत्-सुन्दर है। उभओ पासि दोहि पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहि दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं से एवं दो वनखण्डों से वह सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । (नीलवन्तद्रह) चारों ओर से घिरा हुआ है। दोण्हवि वण्णओ। दोनों (वेदिका और वनखण्डों) का वर्णन यहाँ कहना चाहिये। नीलवंतदहस्स णं दहस्स तत्थ तत्थ-जाव-बहवे तिसो- नीलवन्तद्रह नामक द्रह में स्थान-स्थान पर अनेक त्रिसोपानक वाणपडिरूवगा पण्णत्ता। (तीन तीन सुन्दर पगथिये) कहे गये हैं। वण्णओ भाणियब्वो-जाव-तोरणत्ति । तोरण पर्यन्त त्रिसोपानकों का वर्णन कहना चाहिए। -जीवा. प. ३, उ. २, सु. १४६ नीलवंतदहस्स पउम-परिवारो नीलवन्तद्रह का पद्म-परिवार'५४३. तस्स गं नीलवंतद्दहस्स णं दहस्स बहुमज्झदेसभाए-एत्थ ५४३. उस नीलवन्तद्रह नामक द्रह के ठीक मध्यभाग में एक गं एगे महं पउमे पण्णत्ते । महान् पद्म (कमल) कहा गया है। ___ जोयणं आयाम-विक्खंभेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, वह (कमल) एक योजन लम्बा-चौड़ा है, कुछ अधिक तीन अद्धजोयणं वाहल्लेणं, दस जोयणाई उन्वेहेणं । गुणी उसकी परिधि है, आधा योजन मोटा है, दस योजन (पानी में) गहरा है। १ ठाणं. ५, उ. २, सु. ४३४ । Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महाद्रह वर्णन सूत्र ५४३. दो कोसे ऊसिए जलंताओ, सातिरेगाइं दसद्धजोयणाइं पानी की सतह से दो कोस ऊँचा है। उसका सम्पूर्ण प्रमाण सव्वग्गेणं पण्णत्ते। कुछ अधिक दस योजन का कहा गया है। तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, उस पद्म का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है-- तं जहा-वइरामया मूला, रिट्ठामए कंदे, वेरुलियामए यथा--उस पद्म के मूल वज्रमय हैं, कंदरिष्टरत्नमय है, नाले, वेरुलियामया बाहिरपत्ता, जंबूणदमया अभितरपत्ता, नाल (डंडी) वैडूर्यरत्नमय है, बाहर के पत्ते वैडूर्यरत्नमय है, तवणिज्जमया केसए, कणगामई कण्णिया, णाणामणिमया अन्दर के पत्ते जम्बूनद स्वर्णमय है, तपाये हुए स्वर्ण जैसे केशर हैं, पुक्खरस्थिभृगा। कनकमय कणिका है, कमल के स्तिबुक (जलकण) नानामणि मय है। साणं कणिया अद्धजोयणं आयाम-विक्खंभेणं, तं तिगुणं वह कणिका आधा योजन लम्बी-चौड़ी है, तिगुणी से कुछ सविसेसं परिक्खेवेणं, कोसं बाहल्लेणं, सव्वप्पणा कणगामई अधिक उसकी परिधि है, एक कोस की उसकी मोटाई है, और अच्छा-जाव-पडिरूवा।। पूर्ण रूप से वह कनकमयी है, स्वच्छ है-यावत्-मनोहर है। तीसेणं कण्णियाए उरि बहुसमरमणिज्जे देसभाए पण्णत्ते उस कणिका के ऊपर का कुछ भाग अधिक सम एवं रमणीय -जाव-मणीहि तिर्णेहिं उवसोभिए । कहा गया है यावत्-मणियों से निर्मित है। तृण आदि से उपशोभित है। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उस अधिक सम एवं रमणीय भूभाग के ठीक मध्यभाग में –एत्थ णं एगे महं भवणे पण्णत्ते । एक महान् भवन कहा गया है । कोसं आयामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसूर्ण कोस उड्ढे वह एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा, कुछ कम एक कोस उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसनिविट्ठ-जाव-वण्णओ। ऊपर की ओर ऊँचा है उसमें सैकड़ों स्तम्भ लगे हुए हैं-यावत् (भवन) वर्णन कहना चाहिए । तस्स णं भवणस्स तिविसि तओदारा पण्णत्ता, तं जहा- उस भवन के तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं, यथा१ पुरथिमेणं, २ दाहिणेणं, ३ उत्तरेणं । (१) पूर्व दिशा में एक द्वार, (२) दक्षिण दिशा में एक द्वार, (३) और उत्तर दिशा में एक द्वार है । तेणं दारा पंचधणुसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अड्ढाइज्जाई वे द्वार ऊपर की ओर पाँच सौ धनुष ऊँचे हैं। ढाई सौ धणसयाई विक्खं भेणं, तावतियं चैव पवेसेणं, सेया बरकणग- धनुष चौड़े हैं। उनका प्रवेश मार्ग भी उतना ही चौड़ा है । श्वेत थुभियागा-जाव-वणमालाउत्ति। श्रेष्ठ कनक निर्मित स्तूपिकायें हैं-यावत्-वनमालायें हैं। तस्स णं भवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, उस भवन के अन्दर का भू-भाग अधिक सम एवं रमणीय से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा-जाव-मणीणं वण्णओ। कहा गया हैं। चर्म से मंढे हुए मृदंग वाद्य जैसा है-यावत् - मणियों का वर्णन कहना चाहिए। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उस भवन के अधिक सम एवं रमणीय भू-भाग के ठीक मध्य -एत्थ णं मणिपेढिया पण्णत्ता । भाग में एक मणिपीठिका कही गई । पंचधणुसयाई आयाम-विक्खं भेणं, अड्ढाइज्जाई धणुसयाई वह मणिपीठिका पाँच सौ धनुष की लम्बी-चौड़ी है, ढाई सौ बाहल्लेणं, सब्वमणिमई अच्छा-जाव-पडिरूवा। धनुष की मोटी है एवं सारी मणिमयी स्वच्छ-यावत् प्रतिरूप है। तीसे गं मणिपेढियाए उरि-एत्थ णं एगे महं देव- उसी मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशय्या कही गई सयणिज्जे पण्णत्ते । देवसयणिज्जस्स वण्णओ। है । देवशय्या का वर्णन कहना चाहिए। से णं पउमे अण्णेणं अट्ठसएणं तदद्धच्चत्तप्पमाणमेत्ताणं वह (पूर्वोक्त) पद्म उससे आधे जितनी ऊंचाई के प्रमाण, पउमाणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते । वाले अन्य एक सौ आठ पद्मों से चारों ओर से घिरा हुआ है। श्रेष्ठ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४३-५४४ लेणं पठमा सजवणं आयाम-विषमेतं तिगुणं सविसेसं परिवणं कोर्स बाहल्लेणं दसजोगाई उज्बेगं कोसं ऊसिया जलंताओ, साइरेगाई दसजोयणाइं सव्वग्गेणं पण्णत्ताई । 7 तेसि णं पउमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णसे तं जहा वइरामया मूला जाव णाणामणिमया पुक्खरत्थि - भुगा । ताओ णं कण्णियाओ को आयाम-विवखंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिवणं, अद्धको बाहल्लेणं सव्यकममामईओ अच्छाओ जाव- पडिरूवाओ । तिर लोड महाग्रह वर्णन तासि णं णिवा पि बहुसमरमणिया भूमिभागा - जाव मणीणं वण्णो गंधो फासो । तस्स णं पउमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तर-पुरत्थिमेणं हस कुमारदेवरस चउन्हं सामायिसाहस्सोगं यत्तारि पउमसाहसीओ पण्णलाओ । एवं सव्वो परिवारो नवरि पउमाणं भाणियव्वो । से उसे अतिहि पमवरपरिखवेहि सम्ब समता संपरिवत्तं तं जहा १ अमितरेणं २ मा बाहिरएवं अभितरणं पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । मज्झिमए पमपरिक्लेवे चत्तालीस पउमसयसाहसीओ पण्णत्ताओ । बाहिरएणं परमपविचे अडवाली परमसवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । एवमेव सावरे एगा पडमोडी वीसं च परमसय सहस्सा भवतीतिमक्खाया। - . -जीवा० प० ३, उ० २, सु० १४६ उ०- गोयमा ! नीलवंतद्दहे णं तत्थ तत्थ जाई उप्पलाई - जाव सतसहस्सपत्ताइं नीलवंतप्पभाई नीलवंतवण्णाई । जीवंतद्दकुमारेय नागकुमारे देवे महिड्ढीए-जावपलिओयमईए परिवसद्द । सो व मोजावनी गणितानुयोग ३१३ वे पद्म आधायोजन लम्बे-चौड़े हैं, लिगने से कुछ अधिक उनकी परिधि है वे एक कोन मोटे हैं, दस योजन महरे हैं, जस की सतह से एक कोश ऊंचे हैं। सब मिलाकर कुछ अधिक दस योजन के कहे गये हैं । उन पद्मों का वर्णन इस प्रकार कहा गया है— यथा- उनके मूल वज्रमय है- यावत् — कमल के स्तिबुक (जल) नाना मणिमय है। उनकी कणिकायें एक कोस लम्बी-चौड़ी है, तिगुणे से कुछ अधिक उनकी परिधि है, आधा कोस मोठे हैं सभी कनकमय है, स्वच्छ है - यावत्-मनोहर है। उन कणिकाओं के ऊपर का भू-भाग अधिक सम एवं रमणीय है - यावत - मणियों के वर्णगंध और स्पर्श कहने चाहिए। नीलवंतद्दहरस णामहेऊ नीलवन्तद्रह के नाम का हेतु ५४४. १० – से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चइ - नीलवंतद्दहे, नील- ५४४ प्र० - भगवन् ! नीलवन्तद्रह नीलवन्तद्रह क्यों कहा जाता है ? वंत हे ? उस पद्म के पश्चिमोत्तर में उत्तर में, और उत्तर-पूर्व में नीलवन्तद्रह कुमारदेव के चार हजार सामानिकदेवों के बार हजार पद्म कहे गये हैं । इस प्रकार सभी पद्मों का परिवार कहना चाहिए। विशेष-वह (पूर्वोक्त) पद्म श्रेष्ठ पद्मों की तीन परिधियों से चारों ओर से घिरा हुआ है । यथा(१) आभ्यन्तर, (२) मध्यम, (३) बाह्य । आभ्यन्तर पद्म परिधि बत्तीस लाख पद्मों की कही गई है । मध्यम पद्म परिधि चालीस लाख पद्मों की कही गई है । बाह्य पद्मपरिधि अड़तालीस लाख पदमों की कही गई। इस प्रकार पूर्वापर के सब मिलाकर एक करोड़ बीस लाख पद्म होते हैं- ऐसा कहा गया है। उ०- गौतम ! नीलवंतद्रह में जगह-जगह जितने उत्पल हैं। - यावत् - शतपत्र, सहस्रपत्र हैं वे सब नीलवन्त ( वर्षधर पर्वत ) जैसी प्रभा वाले हैं और नीलवंत जैसे वर्ण वाले हैं । नीलवन्तद्रह में नीलवन्त (नाग) कुमार देव महधिक- यावत्पत्योपम की स्थिति वाला रहता है । नीवंत है। ( ग्रह की शास्वतता का कथन पूर्व के समान है— यावत्- जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १४६ नीलवन्तद्रह नीलवन्तद्रह कहा जाता है । Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन सूत्र ५४५-५४६ उत्तरकुरुदहस्स ठाणप्पमाणाई उत्तरकुरुद्रह के स्थान प्रमाणादि५४५. ५०-कहि णं भंते ! उत्तराए कुराए उत्तरकुरुद्दहे पण्णत्ते ? ५४५. प्र०-भगवन् ! उत्तरकुरा में उत्तरकुरुद्रह कहाँ कहा गया है? उ.-गोयमा ! नीलवंतद्दहस्स दाहिणेणं अडचोत्तीसे जोयण- उ०—गौतम ! नीलवन्तद्रह के दक्षिण में, आठ सौ चौतीस सते। योजन दूरी पर (उत्तरकुरु द्रह) है । एवं सो चेव गमो णेतव्वो जो णीलवंतद्दहस्स सव्वेसिं इसका वर्णन (नीलवन्त द्रह जैसे) कहना चाहिए, देवता का सरिसको दहसरिसनामा य देवा । नाम द्रह के नाम के समान है। -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १५० ५४६. ५०-कहि णं भंते ! चंदद्दहे एरावणदहे मालवंतद्दहे ? ५४६. प्र०-भगवन् ! चन्द्रद्रह, एरावण दह, माल्यवन्तद्रह कहाँ कहे गये हैं ? उ०–एवं एक्केको णयब्वो। उ०-इस प्रकार एक-एक द्रह का वर्णन जानना चाहिए। -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १५० (अर्थात् उत्तरकुरुद्रह के समान ही अन्य द्रहों के वर्णन जानने चाहिए । जंबुद्दीवे णउति महाणईओ जम्बूद्वीप में नव्वे महानदियाँ५४७. ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयाओ महाणईओ वास- ५४७. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में कितनी महानदियाँ हरपवहाओ ? वर्षधर पर्वतों से प्रवाहित होने वाली कही गई है ? केवइयाओ महाणईओ कुण्डप्पवहाओ पण्णत्ताओ? कितनी महानदियाँ कुण्डों से प्रवाहित होने वाली कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोद्दस महाणईओ वासहर- उ०—हे गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप में चौदह महानदियाँ वर्षधर पवहाओ। पर्वतों से प्रवाहित होने वाली कही गई है। छावर महाणईओ कुण्डप्पवहाओ। छिहत्तर (७६) महान दियाँ कुण्डों से प्रवाहित होने वाली कही एवामेव सपुत्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे णउति महाणईओ इस प्रकार पहले पीछे की मिलाने पर जम्बुद्वीप द्वीप में भवंतीतिमक्खायं । -जंबु० वक्ख०, ६, सु० १२५ नवे महानदियाँ होती हैं ऐसा कहा गया है। जंबु-मंदर-दाहिणोत्तरेणं दुवालस-महाणईओ- जम्बूद्वीप के मंदर पर्वत से दक्षिण-उत्तर में बारह महा नदियाँ५४८. जंबु-मंदर-दाहिणेणं छ महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा- ५४८. जम्बूद्वीप के मंदर पर्वत से दक्षिण में छः महानदियाँ कही गई है यथा१. गंगा, २. सिंधू, ३. रोहिया, ४. रोहितंसा, ५. हरी, (१) गंगा, (२) सिन्धु, (३) रोहिता, (४) रोहितांशा, ६. हरिकता। (५) हरी, (६) हरिकान्ता । ५४६. जंबु-मंदर उत्तरेणं छ महाणईओ पष्णत्ताओ, तं जहा- ५४६. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में छः महानदियाँ कही गई है, यथा- . १. नरकंता, २. नारीकता, ३. सुवण्णकूला, ४. रुप्पकूला, (१) नरकान्ता, (२) नारीकान्ता, (३) सुवर्णकूला, ५. रत्ता, ६. रत्तवई । -ठाणं० ६, सु० ५२२ (४) रूप्यकूला, (५) रक्ता, (६) रक्तावती । १ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार ६ सूत्र १२५ में चौदह महानदियाँ वर्षधर पर्वतों से प्रवाहित होने वाली कही गई हैं, किन्तु इस सूत्र में छः, छः स्थान का कथन होने से सीता और सीतोदा को छोड़कर शेष बारह महानदियाँ ही कही गई हैं। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५५०-५५६ तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन गणितानुयोग ३१५ वासहरपवहाओ चोद्दस महाणईओ वर्षधर पर्वतों से प्रवाहित होने वाली चौदह महानदियाँ५५०. ५०-जंबु-मंदर-दाहिणणं चुल्लहिमवंताओ वासहरपब्धयाओ ५५०. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में क्षुद्रहिमवन्त वर्षधर पउमदहाओ महदहाओ तओ महाणईओ पवहंति, पर्वत के पद्मद्रह नामक महाद्रह से तीन महानदियाँ प्रवाहित तं जहा होती है,यथा१. गंगा, २. सिंधू, ३. रोहितंसा । (१) गंगा, (२) सिन्धु, (३) रोहितांशा । -ठाणं ३ उ० ४, सु० १३७ ५५१. जंबु-मंदर-दाहिणेणं महाहिमवंताओ वासहरपव्वयाओ महा- ५५१. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में महाहिमवन्त वर्षधर पउमदहाओ दो महाणईओ पवहंति, तं जहा पर्वत के महापद्म द्रह से दो महानदियाँ प्रवाहित होती हैं, यथा१. रोहियच्चेव, २. हरिकंतच्चेव । (१) रोहिता, (२) हरिकान्ता । ५५२. जंबू-मंदर-दाहिणणं निसढाओ वासहरपब्वयाओ तिगिछिद्द- ५५२. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में निषध वर्षधर पर्वत हाओ दो महाणईओ पवहति, तं जहा के तिगिच्छद्रह से दो महानदियां प्रवाहित होती है, यथा१. हरिच्चव, २ सीओअच्चव। (१) हरी, (२) सीतोदा। ५५३. जंबू-मंदर-उत्तरेणं नीलवंताओ वासहरपव्वयाओ केसरिद- ५५३. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में नीलवंत वर्षधर पर्वत हाओ दो महाणईओ पवहंति, तं जहा के केसरी द्रह से दो महानदियाँ प्रवाहित होती है यथा१. सीता चेव, २. नारिकता चेव । (१) सीता, (२) नारिकता। ५५४. जंबू-मंदर-उत्तरेणं रुप्पीओ वासहरपब्वयाओ महापोंडरीयद्द- ५५४. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में रुक्मीवर्षधर पर्वत के हाओ दो महाणईओ पवहंति, तं जहा महापौंडरीकद्रह से दो महानदियाँ प्रवाहित होती है यथा१. नरकंता चैव, २. रुप्पकूला चेव। (१) नरकन्ता, (२) रूप्यकूला। -ठाणं २, उ० ३, सु० ८८ ५५५. जंबू-मंदर-उत्तरेणं सिहरीओ वासहरपन्वयाओ पोंडरीयद- ५५५. जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में शिखरी वर्षधर हाओ महादहाओ तओ महाणईओ पवहंति, तं जहा- पर्वत के पौंडरीक महाद्रह से तीन महानदियाँ प्रवाहित होती है, यथा१. सुवन्नकूला, २. रत्ता, ३. रत्तवई । (१) सुवर्णकूला, (२) रक्ता, (३) रक्तवती । -ठाणं ३, उ० ४, सु० १९७ चउदसमहाणईणं णईपरिवारो चौदह महानदियों का परिवारभरहेरवएसु वासेसु चत्तारि महाणईओ भरत और ऐरवत क्षेत्र में चार महानदियाँ५५६. ५०-जंबुद्दीवे दीवे गं भंते ! भरहेरवएसु बासेसु कइ ५५१. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप के भरत और ऐरवत वर्ष महाणईओ पण्णत्ताओ? में कितनी महानदियाँ कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा- उ०-गौतम ! चार महान दियाँ कही गई हैं, यथा१. गंगा, २. सिंधू, ३. रत्ता, ४. रत्तबई। (१) गंगा, (२) सिन्धु, (३) रक्ता और (४) रक्तवती । तत्थ णं एगमेगा महाणई चउद्दसहि सलिलासहस्सेहिं इनमें से प्रत्येक महानदी चौदह हजार नदियों से युक्त होकर समग्गा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं समप्पेइ। पूर्व और पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है। एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे भरह-एरवएमु इस प्रकार सब मिलाकर जम्बूद्वीप के भरत और ऐरवत वर्ष वासेसु छप्पण्णं सलिलासहस्सा भवंतीतिमक्खायंति। में छप्पन हजार नदियाँ हैं, ऐसा कहा गया है। -जंबु वक्ख०६, सु० १२५ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन सूत्र ५५७--५५६ हेमवय-हेरण्णवएसु वासेसु चत्तारि महाणईओ- हेमवत और हैरण्यवत वर्ष में चार महानदियाँ५५७. ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे हेमवय हेरण्णवएसु वासेसु ५५७, प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में हैमवत और हैरण्यवत कति महाणईओ पण्णत्ताओ, ___ वर्ष में कितनी महानदियाँ कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा- उ०--गौतम ! चार महानदियाँ कही गई हैं, यथा ५. रोहिता, ६. रोहिअंसा, ७. सुवण्णकूला, ८. रुप्प- (५) रोहिता, (६) रोहितंसा, (७) स्वर्णकूला और (6) कूला। रूप्यकूला। तत्थ णं एगमेगा महाणई अट्ठावीसाए-अट्ठावीसाए इनमें से प्रत्येक महानदी अट्ठाईस-अट्ठाईस हजार नदियों से अट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि-समग्गा पुरथिम-पच्चत्थि- युक्त होकर पूर्व और पश्चिम लवणसमुद्र में मिलती है। मेणं लवणसमुदं समप्पेइ। एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे हेमवय-हेरण्ण- इस प्रकार सब मिलकर जम्बूद्वीप के हैमवत और हैरण्यवत वएसे वासेसु बारसुत्तरे सलिलासयसहस्से भवतीति- वर्ष में एक लाख बारह हजार नदियां हैं। ऐसा कहा गया है । मक्खायं इति । -जंबु० वक्ख० ६, सु० १२५ हरिवास-रम्मगवासेसु चत्तारि महाणईओ-- हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में चार महानदियाँ५५८. ५०-जबुद्दीवे गं भंते ! दीवे हरिवास-रम्मगवासेसु कति ५५८. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप के द्वीप के हरिवर्ष और रम्यक्महाणईओ पण्णत्ताओ? वर्ष में कितनी महानदियाँ कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! चत्तारि महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा- उ०-गौतम ! चार महानदियाँ कही हैं यथा ६. हरी, १०. हरिकता, ११. नरकंता, १२. नारि- ६. हरि, १०. हरिकान्ता, ११. नरकान्ता और कता। १२. नारीकान्ता। तत्थ णं एगमेगा महाणई छप्पण्णाए-छप्पण्णाए सलिला- इनमें से प्रत्येक महानदी छप्पन छप्पन हजार नदियों से युक्त सहस्सेहि समग्गा पुरथिम-पच्चत्थिमेणं लवणसमुदं होकर पूर्व और पश्चिम लवणसमुद्र में मिलती है । समप्पेइ, एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे हरिबास-रम्मग- इस प्रकार सब मिलकर जम्बूद्वीप के हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष वासेसु दो चउवीसा सलिलासयसहस्सा भवतीति- में दो लाख चौबीस हजार नदियाँ हैं ऐसा कहा गया है। मक्खायं । -जंबु० वक्ख० ६, सु० १२५ महाविदेहेवासे दो महाणईओ महाविदेह वर्ष में दो महानदियाँ५५९. ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे महाविदेहे वासे कइ महाण- ५५६. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप के महाविदेह वर्ष में कितनी ईओ पण्णत्ताओ? महानदियाँ कही गई हैं ? उ०—गोयमा ! दो महाणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा उ०—गौतम ! दो महानदियाँ कही गई है। यथा१३. सोआ य, १४. सीओआ य। शीता और शीतोदा। तत्थ णं एगमेगा महाणई पंचहि पंचहि सलिलासय- इनमें से प्रत्येक महानदी पाँच लाख बत्तीस हजार नदियों से सहस्सेहि बत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहि समग्गा युक्त होकर पूर्व और पश्चिम लवणसमुद्र में मिलती है। पुरथिम-पच्चत्थिमेणं लवणसमुददं समप्पेइ, १ शीता और शीतोदा महानदी के प्रवाह कुण्ड और द्वीप का तथा लवणसमुद्र में मिलते समय प्रवाह का प्रमाण समान है। यह स्थानांग २, उ० ३, सू० ८८ में स्पष्ट निर्देश है किन्तु जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति वक्ष० ४, सु० ११० में शीता महानदी के प्रवाह, कुण्ड और द्वीप का प्रमाण नहीं कहा है । वहाँ केवल शीता महानदी के लवण समुद्र में मिलने का वर्णन है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के वृत्तिकार ने भी वृत्ति में इस प्रकार कहा है"अत्रचावशिष्टपदसंग्रहे प्रबहमुखव्यासादिकं न चिन्तितं समुद्रप्रवेशावेकस्यैवालापकस्य दर्शनात । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५५६-५६२ तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन गणितानयोग ३१७ . एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे महाविदेहेवासे दस इस प्रकार सब मिलकर जम्बूद्वीप के महाविदेह वर्ष में दस सलिलासयसहस्सा चउस४ि च सलिलासहस्सा भवं- लाख चौसठ हजार नदियाँ हैं। ऐसा कहा गया है। तीतिमक्खायं । -जंबु० वक्ख० ६, सु० १२५ दुवालस अंतरणईओ महाविदेह में बारह अन्तर नदियां५६०. जंबू-मंदर-पुरथिमेणं सीताए महाणईए उभयकूले छ अंतरणईओ ५६०. जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पूर्व में शीता महानदी के दोनों पण्णत्ताओ, तं जहा किनारों पर छः अन्तर नदियाँ कही गई हैं, यथा१. गाहावती, २. दाहावती, ३. पंकवती, ४. तत्तजला, (१) गाथावती, (२) द्रहवती, (३) पंकवती, (४) तप्तजला, ५. मत्तजला, ६. उम्मत्तजला।' (५) मत्तजला, (६) उन्मत्तजला । जंबू-मंदर-पच्चत्थिमेणं सोतोदाए महाणईए उभयकूले छ जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से पश्चिम में शीतोदा महानदी के अंतरणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा दोनों किनारों पर छः अन्तरनदियाँ कही गई हैं, यथा१. खीरोदा, २. सीहसोता, ३. अंतोवाहिणी. ४. उम्मि- (१) क्षीरोदा, (२) शीतस्रोता, (३) अन्तोवाहिनी, (४) मालिणी, ५. फेणमालिणी, ६. गंभीरमालिणी।' उमिमालिनी, (५) फेनमालिनी, (६) गम्भीरमालिनी । -ठाणं ६, सु० ५२२ गंगामहाणईए पवायाईणं पमाणं गंगा महानदी के प्रपातादिका प्रमाण५६१. तस्स णं पउमद्दहस्स पुरिथिमिल्लेणं तोरणेणं गंगामहाणई ५६१. इस पद्मद्रह के पूर्व दिशा के तोरण (द्वार) से गंगा महानदी पढासमाणी पुरत्थाभिमुही पंचजोयणसयाई पब्बएणं गंता निकलकर पूर्व की ओर पाँच सौ योजन पर्वत पर होकर गई है । गंगावत्तणकूडे आवत्तासमाणी पचतेवीसे जोयणसए तिण्णि अ एगूणवीसइभाए जोअणस्स दाहिणाभिमुही पव्वएणं गंतो यहाँ गंगावर्तन कूट के नीचे से मुड़कर ५२३ २. योजन दक्षिण में महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोयणसइएणं पवाएणं पवउद। पर्वत पर होकर घट के मुख से निकलते हुए सौ योजन से कुछ अधिक चौड़े मुक्ताहार की आकृति वाले प्रपात से नीचे गिरती है। गगा महाणई जओ पवडइ इत्थणं महं एगा जिब्भिया गंगा महानदी जहाँ से गिरती है वहाँ एक विशाल जिलिका पण्णत्ता, सा णं जिब्भिया अद्धजोयणं आयामेणं छसकोसाइं (नालिका) कही गई है। यह नालिका आधा योजन लम्बी, सवा जोयणाई विक्खंभेणं, अद्धकोसं बाहल्लेणं मगरमुहविउट्ठ- छह योजन चौड़ी, आधा कोस मोटी, मगर के खुले हुए मुख के सठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा सण्हा-जाव पडिरूवा। आकार की सर्वात्मना वज्रमयी, स्वच्छ और चिकनी है यावत् -जंबु० वक्ख० ४, सु० ७४ मनोहर है । ५६२. गंगा णं महाणई पवहे छ सकोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं, ५३२. (उद्गम स्थान में) गंगा महानदी के प्रवाह का विष्कम्भ अद्धकोसं उब्वेहेणं, तयणंतरं च णं मायाए-मायाए परिवड्ढ- सवा छ: योजन और उद्बध (गहराई) आधाकोश का है, तदनन्तर १ जम्बूमंदरपुरस्थिमेणं सीताए महाणईए उत्तरेणं तओ अंतरणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा—(१) गाहावती, (२) दाहावती, (३) पंकवती। जम्बूमंदर पुरथिमेणं सीताए महाणईए दाहिणणं तओ अंतरणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा---(१) तत्तजला, (२) मत्तजला, (३) उम्मत्तजला। २ जम्बूमंदर पच्चस्थिमे णं सीतोदाए महाणईए दाहिणणं तओ अंतरणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-(१) खीरोदा, (२) सीहसोता, (३) अंतोवाहिणी । जम्बूमंदरपच्चस्थिमे णं सीतोदाए महाणईए उत्तरेणं तओ अंतरणईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-(१) उम्मिमालिणी, (२) फेणमालिणी, (३) गंभीरमालिणी। ... -ठाणं, ३, उ० ४, सु० १६७ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन सूत्र ५६२-५६६ माणी परिवड्ढमाणी, मुहमूले बाट्टि जोयणाई अद्धजोयणं अनुक्रम से बढ़ते-बढ़ते मुख के मूल (समुद्र प्रवेश करते समय च विवखंभेणं, सकोसं जोयणं उन्हेणं, उभओ पासि दोहिं प्रवाह) का विष्कम्भ साड़े बासठ योजन और उद्वेध सवा योजन पउमवरवेइयाहि दोहि अ वणसंहिं संपरिक्खित्ता। का है, इसके दोनों पार्श्व (किनारे) दो पद्मवर वेदिकाओं तथा दो वनखण्डों से घिरे हुए हैं। वेइया-वणसंडवण्णओ भाणिअव्वो। यहाँ पद्मवर वेदिकाओं का तथा वनखण्डों का वर्णन करना -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ चाहिए। सिंधुमहाणईए पवायाईणं पमाणं सिन्धु महानदी के प्रपात आदि के प्रमाण५६३. एवं सिंधुए वि अव्वं-जाव-तस्स णं पउमद्दहस्स पच्चत्थि- ५६३. इसी प्रकार (गंगा नदी के समान) सिन्धु नदी के (प्रपातादि मिल्लेणं तोरणेणं ।' के आयामादि) भी जानने चाहिए-यावत्-उस पद्मद्रह के पश्चिमी तोरण से""। सिंधुआवत्तणकूडे सिन्धु आवर्तनकूट दाहिणाभिमुही दक्षिणाभिमुख सिंधुप्पवायकुण्ड सिन्धु प्रपात कुण्ड सिंधुद्दीवो सिन्धुद्वीप अट्ठो सो चेव-जाब- -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ सिन्धुनदी नामकरण का कारण (सब गंगा नदी के समान है) ५६४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं भरहे वासे दो ५६४. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण में (दिशास्थित) महाणईओ बहुसमतुल्लाओ अविसेसमणाणत्ताओ अण्णमण्णं भरत क्षेत्र में दो महानदियां हैं जो (क्षेत्र प्रमाण की अपेक्षा से) नाइवट्टन्ति आयाम-विक्खंभ-उव्वेह-संठाण-परिणाहणं अधिक सम या तुल्य है, विशेषता रहित है, (काल अपेक्षा से) नानापन नहीं है, (वे दोनों नदियाँ) लम्बाई-चौड़ाई-गहराई संस्थान और परिधि की अपेक्षा से एक-दूसरे का अतिक्रम नहीं करती है, तं जहा यथा१. गंगाचेव, २. सिंधूचेव। -ठाणं २, उ० ३, सु० ८८ (१) गंगा, और (२) सिन्धु । ५६५. गगा-सिंधुओ णं महाणईओ पवाहे सातिरेगेणं चउवीसं कोसे ५६५. गंगा और सिन्धु इन दोनों महानदियों का प्रवाह कुछ वित्थारेणं पण्णत्ताओ। -सम० २४, सु०५ अधिक चौबीसकोश के विस्तार का कहा गया है। ५६६. गंगा-सिंधुओ णं महाणदीओ पणवीसं गाऊयाणि पुहुत्तेणं ५६६. गंगा और सिन्धु ये दोनों महादियां घड़े के मुख से निकलते दहओ घडमुह-पवित्तिएणं मुत्तावलिहार-संठिएणं पवातेण हुए जल के समान कल-कल शब्द करती हुई पच्चीस गाऊ विस्तृत पडंति । -सम० २५, सु०७ मुक्तावलीहार की आकृति जैसे प्रपात से गिरती है। १ एम एवं सिन्ध्वा अपि स्वरूपं नेतव्यं, यावत्तस्य पद्मद्रहस्य पाश्चात्येन तारेणेन सिन्धु महानदी निर्गता सती पश्चिमाभिमुखी पंचयोजन-- शतानि पर्वतेन गत्वा"...... २ सिन्ध्वावर्तनकूटे आवृता सती पंचयोजनशतानि त्रयोविंशत्यधिकानि त्रींश्चैकोनविंशतिभागान् ..... ३ दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महता घटमुखप्रवृत्तिकेव-यावत्-प्रपातेन प्रपतति, सिन्धु महानदी यतः प्रपतति अत्र महती जिबिकावाच्या, सिन्धु महानदी यत्र प्रपतति तत्र....... ४ सिन्धु प्रपातकुण्डं वाच्यं. ५ तन्मध्ये सिन्धुद्वीपो वाच्योऽर्थः स एव यथा गंगाद्वीपप्रमाणि गंगाद्वीप वर्णाभानि पद्मानि तथा सिन्धद्वीपप्रमाणि सिन्धद्वीपवर्णाभानि पद्मानि सिन्धुद्वीप उच्यते । इस प्रकार टीकाकार ने संक्षिप्त मूलपाठ का स्पष्टीकरण किया है। ६ (क) इस सूत्र में सिन्धुनदी सम्बन्धी मूलपाठ के अन्त में 'सेसं तं चेवत्ति' यह सूचना दी है, टीकाकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है-"शेष उक्तातिरिक्त प्रबह-मुखमानादि तदेव गंगामान समानमेव जयम।" Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६७-५७३ तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन गणितानुयोग ३१६ mmmmmmmmmmmmmmmmmmarmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm रत्तारत्तवइओ य पवायाईणं पमाणं रक्ता और रक्तवती नदी के प्रपातादि का प्रमाण ५६७. एवं जह चेव गंगा-सिंधूओ तह चेव रत्ता-रत्तवईओ अब्वाओ ५६७. जिस प्रकार गंगा और सिन्धु नदियों का वर्णन है उसी पुरथिमेणं रत्ता, पच्चत्थिमेणं रत्तवई । प्रकार रक्ता और रक्तवती नदियों का जानना चाहिए। रक्तानदी पूर्व की और रक्तावती नदी पश्चिम की और (प्रवाहित होती) है। अवसिट्ठ तं चेव भाणिअव्वत्ति । शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिए। -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ ५६८. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं एरवएवासे दो ५६८. जम्बुद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर (दिशा स्थित) महाणईओ बहुसमतुल्लाओ-जाव-परिणाहेणं, ऐरवत क्षेत्र में दो महानदियाँ अधिक सम या तुल्य हैं-यावत्-- परिधि की अपेक्षा से एक दूसरी का अतिक्रमण नहीं करती है, तं जहा यथारत्ता चेव, रत्तवई चेव। -ठाणं २, उ० ३, सु० ८८ (१) रक्ता, और (२) रक्तवती। ५६६. रत्ता-रत्तवईओ णं महानदीओ पणवीसं गाऊयाणि पुहुत्तेणं ५६६. रक्ता और रक्तवती-ये दोनों महान दियाँ घड़े के मुख से मगरमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहार-संठिएणं पवातेण पडंति । निकलते हुए जल के समान कल-कल शब्द करती हुई पच्चीस ___-सम० २५, सु० ८ गाउ विस्तृत मुक्तावलीहार की आकृति जैसे प्रपात से गिरती है। ५७०. रत्ता-रत्तवतीओ णं महाणदोओ पवाहे सातिरेगे णं चउवीसं ५७०. रक्ता और रक्तवती महानदी प्रवाह कुछ अधिक चौवीस कोसे वित्थारेणं पण्णत्ता। -सम० २४, सु०६ कोश विस्तार वाला कहा गया है । रोहिआमहाणईए पवायाईणं पमाणं रोहिता महानदी के प्रपातादि का प्रमाण५७१. तस्स णं महापउमद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ ५७१. उस महापद्मद्रह के दक्षिणी तोरण से रोहिता महानदी महाणई पवूढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगूणवीसइभाए-जोअणस्स दाहिणाभिमुही पवएणं गंता निकलकर १६०५ - योजन दक्षिण की ओर पर्वत पर जाकर महया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तालिहारसंठिएणं साइरेग दो जोअणसइएणं पवाएणं पवडइ । विशाल घट के मुख से निकलती हुई एवं मुक्तावली हार की आकृति वाले दो सौ योजन से कुछ अधिक (चौड़े) प्रपात से नीचे गिरती है। रोहिआ णं महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिग्भिया जहाँ रोहिता महानदी गिरती है वहाँ एक विशाल जिबिका पण्णत्ता, सा णं जिब्भिया जोअणं आयामेणं अद्धतेरसजोअणाई (नाली) कही गई है। यह नाली एक योजन लम्बी, साढ़े बारह विक्खंभेणं कोसं बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्ठसंठाणसंठिया योजन चौड़ी, एक कोस मोटी, खुले हुए मगर के मुख के आकार सव्ववइरामई अच्छा-जाव-पडिरूवा । की, सर्ववज्रमयी और स्वच्छ हैं-यावत्-मनोहर हैं। -जंबु० बक्ख० ४, सु० ८० ५७२. रोहिआणं जहा रोहिअंसा तहा पवाहे अ मुहे अ भाणियव्वा ५७२. रोहिता का प्रवाह और मुख आदि का प्रमाण रोहितांसा इति-जाव-सपरिक्खित्ता। --जंबु० वक्ख० ४, सु०८० नदी के जैसा कहना चाहिए यावत्-यह (पदमवरवेदिका और वनखण्ड से) संपरिक्षिप्त है। रोहिअंसामहाणईए पवायाईणं पमाणं रोहितांशा महानदी के प्रपातादि का प्रमाण ५७३. तस्स णं पउमदहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहिअंसामहाणई ५७३. उस पद्मद्रह के उत्तरी तोरण से रोहितांसा महानदी Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन सूत्र ५७३-५७८ पवूढा समाणी दोणि छाबत्तरे जोअणसए छच्च एगूणवीसइ भाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुह- निकल कर २७६ ६. योजन उत्तर की ओर पर्वत पर होती हुई पवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। विशाल घट के मुख से गिरते हुए एवं मुक्तावलीहार की आकृति के समान, सौ योजन से कुछ अधिक (चौड़े) प्रपात से नीचे गिरती है। रोहिअंसा महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिब्भिया रोहितांसा महानदी जहाँ गिरती है वहाँ एक विशाल जिबिका पण्णत्ता। (नालिका) कही गई है। सा णं जिभिआ जोअणं आयामेणं, अद्धतेरस जोअणाइं यह नालिका एक योजन लम्बी, साढ़े बारह योजन चौड़ी विक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, मगरमुहविउटसंठाणसंठिया सव- एक कोस मोटी, मगर के मुख के आकार की, सर्वात्मना वज्रमयी वइरामई अच्छा-जाव-पडिरूवा । हैं, स्वच्छ हैं-यावत् -मनोहर है । -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ ५७४. रोहिअंसाणं पवहे अद्धतेरसजोयणाई विक्खंभेणं, कोसं ५७४. (उद्गमस्थान में) रोहितांसा महानदी के प्रवाह का उव्वेहेणं । विष्कम्भ साढ़े बारह योजन का है और उद्वेध (गहराई) एक कोश की है। तयाणंतरं च णं मायाए मायाए परिवड्ढमाणी, परिवड्ढ- तदनन्तर क्रमशः बढ़ते-बढ़ते मुख के मूल (समुद्र में प्रवेश माणी, मुहमूले पणवीसं जोयणसयं विक्खंभेणं, अड्ढाइज्जाई करते समय प्रवाह) का विष्कम्भ एक सौ पच्चीस योजन का है। जोयणाई उत्वेहेणं । और उद्वेध अढाई योजन का है। उभओ पासि दोहिं पउमवरवेइयाहिं दोहि य वणसंडेहिं इसके दोनों पार्श्व (किनारे) दो पद्मवरवेदिकाओं से तथा संपरिक्खित्ता। -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ दो वनखण्डों से घिरे हुए है । ५७५. जंबढ़दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं हेमवए वासे दो ५७५. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा स्थित महाणईओ बहुसमतुल्लाओ-जाव-परिणाहणं, हेमवत क्षेत्र में दो महानदियाँ अधिक सम या तुल्य हैं-यावत् परिधि की अपेक्षा से एक दूसरी का अतिक्रमण नहीं करती है, तं जहा यथारोहिता चेव, रोहितंसा चेव ।-ठाणं २, उ० ३, सु० ८८ (१) रोहिता, और (२) रोहितांसा । सवण्णकूला महाणईए पवायाईण पमाणं- सुवर्णकूला महानदी के प्रपातादि का प्रमाण५७६. पुण्डरीए दहे सुवण्णकूला महाणई दाहिणेणं अव्वा, जहा ५७६. सुवर्णकूला महानदी पुण्डरीकद्रह के दक्षिणी तोरण से रोहिअंसा पुरत्थिमेणं गच्छइ । निकलती है-ऐसा जानना चाहिए और रोहितांसा महानदी के -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ जैसे पूर्वी लवणसमुद्र में मिलती है । रुप्पकूला महाणईए पयायाईणं पमाणं रूप्यकूला महानदी के प्रपातादि का प्रमाण५७७. (महापुण्डरीए दहे) रुप्पकूला (महाणई) उत्तरेणं अव्वा । ५७७. रूप्यकूला (महानदी) महापुण्डरीकद्रह के उत्तरी तोरण से जहा हरिकता पच्चस्थिमेणं गच्छइ । अवसेसं तं चेवत्ति। निकलती है-ऐसा जानना चाहिए और हरिकान्ता महानदी जैसे -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है । शेष वर्णन पूर्ववत् है। ५७८. जंबुदीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं हेरग्णवए वासे दो ५७८. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत से उत्तर (दिशा) स्थित महाणईओ बहुसमतुल्लाओ-जाव-परिणाहेणं, हैरण्यवत क्षेत्र में दो महान दियाँ अधिक सम या तुल्य हैं-यावत् परिधि की अपेक्षा से एक दूसरी का अतिक्रमण नहीं करती हैं। तं जहा यथासुवण्णकूला चेव, रुप्पकूला चेव । (१) सुवर्णकूला, और (२) रूप्यकूला। -ठाणं २, उ० ३, सु०८० Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५७६-५८३ तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन गणितानुयोग ३२१ हरिसलिलामहाणईए पवायाईणं पमाणं- हरिसलिला महानदी के प्रपातादि का प्रमाण५७६. तस्साणं तिगिछिद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तारेणेणं हरिसलिला ५७६. उस तिगिच्छद्रह के दक्षिणी तोरण से हरिसलिला महानदी महाणई पवढा समाणी, सत्त जोअणसहस्साइं चत्तारि अ एकवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स दाहिणा- निकलकर ७४२१२ योजन दक्षिण की ओर पर्वत पर बहकर भिमुही पव्वएणं गंता, महया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगचउ-जोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। विशाल घटमुख से गिरते हुए मुक्तावली हार की आकृति वाले कुछ अधिक चार सौ योजन (चौड़े) प्रपात से नीचे गिरती है । एवं जा चेव हरिकताए वत्तव्वया सा चेव हरीए वि इस प्रकार हरिकान्ता महानदी का जो वर्णन है वही हरिअव्वा । सलिला महानदी का भी जानना चाहिए । जिभिआए, कुण्डस्स, दीवस्स, भवणस्स तं चेव पमाणं । जिबिका, कुण्ड, द्वीप और भवन का प्रमाण पूर्ववत् (हरिअट्रोवि भाणिअव्वो। -जंबु० वक्ख० ४, सु०८४ कान्ता के समान) है। हरिसलिला के नाम का हेतु भी कहना चाहिए। हरिकतामहाणईए पवायाईणं पमाणं हरिकान्ता महानदी के प्रपातादि का प्रमाण५८०. तस्स णं महापउमद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता महाणई ५८०. उस महापद्मद्रह के उत्तरी तोरण से हरिकान्ता महानदी पवढा समाणी, सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगूणवीसइभाए जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गता, महया घडमुह- निकलकर १६०५ - योजन उत्तर की ओर पर्वत पर बहकर पवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग-दु-जोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। विशाल घटमुख से गिरते हुए मुक्तावली हार की आकृति वाले दो सौ योजन से कुछ अधिक (चौड़े) प्रपात से नीचे गिरती हैं। . हरिकता महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जिन्मिया हरिकान्ता महानदी जहाँ से गिरती है वहाँ एक विशाल पण्णत्ता। जिह्विका (नाली) कही गई हैं। दो जोअणाई आयामेणं, पणवीसं जोअणाई विक्खंभेणं, वह दो योजन लम्बी है, पच्चीस योजन चौड़ी है, आधा अद्धजोयणं बाहल्लेणं, मगरमुहविउटुसंठाणसंठिआ सव्वरयणा- योजन मोटी है और मगर के खुले मुख जैसी आकार वाली है। मई अच्छा-जाव-पडिरूवा। -जंबु• वक्ख० ४, सु०८० सर्वरत्नमयी है, स्वच्छ है-यावत्-मनोहर है। ५८१. हरिकताणं महाणई पवहे पणवीसं जोयणाई विक्खंभेणं अड- ५८१. (उद्गम स्थान में) हरिकान्ता महानदी के प्रवाह का जोयणं उम्वेहेण, तयणंतरं च मायाए मायाए परिवड्ढमाणी विष्कम्भ पच्चीस योजन का है और उद्वेध (गहराई) आधा योजन परिवड्ढमाणी मुहमूले अड्ढाइज्जाइं जोयणसयाई विक्खंभेषं है, तदनन्तर अनुक्रम से बढ़ते-बढ़ते मुख के मूल (समुद्र में प्रवेश पंचजोयणाई उम्वेहेणं, उमओ पासि दोहिं पउमवरवेइयाहिं करते समय प्रवाह) का विष्कम्भ अढाई सौ योजन चौड़ा है और दोहि य वणसंडेहि संपरिक्खित्ता। उदध पाँच योजन है, इसके दोनों पार्श्व (किनारे) दो वेदिकाओं -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८० से और दो वनखण्डों से घिरे हुए हैं । ५८२. तं चेव पवहे अ मुहमूले अ पमाणं, उब्वेहो अ जं हरिकताए ५८२. (उद्गम स्थान में) प्रवाह का प्रमाण और मुख के मूल -जाव-वणसंडपरिक्खित्ता। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ (समुद्र में प्रवेश करते समय प्रवाह) का प्रमाण तथा उद्वेध का प्रमाण हरिकान्ता के समान है-थावत्-वनखण्ड से संपरि क्षिप्त है। ५८३. जबडीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स बाहिणणं हरिवासे दो ५८३. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण (दिशा स्थित) महाणईओ-बहुसमतुल्लाओ-जाव-परिणाहेणं, हरिवर्ष में दो महानदियाँ अधिक सम या तुल्य है-यावत् परिधि की अपेक्षा से एक दूसरी का अतिक्रमण नहीं करती हैं, तं जहा यथा१. हरि (सलिला) २. चेव, हरिकता चेव । (१) हरि (सलिला) और (२) हरिकांता । -ठाणं २, उ० ३, सु० ८८ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन सूत्र ५८४-५८८ णरकतामहाणईए पवायाईणं पमाण-- नरकान्ता महानदी के प्रपातादि का प्रमाण५८४. महापुण्डरीए दहे णरकता महाणई दक्खिणेणं णेयव्वा' जहा ५५४. नरकान्ता महानदी महापुण्डरीकद्रह के दक्षिणी तोरण से रोहिआ। -जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ निकलती है-ऐसा जानना चाहिए। जिस प्रकार रोहिता महानदी णारिकतामहाणईए पवायाईणं पमाणं नारीकान्ता मदानदी के प्रपातादि का प्रमाण५८५. एवं णारिकतावि उत्तराभिमुही णेयव्वा । ५८५. इसी प्रकार नारीकान्ता महानदी भी उत्तराभिमुखी जानना चाहिए । पवहे अ मुहे अ जहा हरिकता सलिला' इति । प्रवाह और मुख का प्रमाण हरिकान्ता महानदी के (प्रवाह -जंबु० वक्ख० ४, सु० ११० और मुख) के प्रमाण जैसा है। ५८६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं रम्मएवासे दो ५८६. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर (दिशा स्थित) महाणईओ बहुसमतुल्लाओ-जाव-परिणाहणं, रम्यक्वर्ष में दो महानदियाँ अधिक सम या तुल्य हैं-यावत् परिधि की अपेक्षा से एक दूसरी का अतिक्रमण नहीं करती है। तं जहा यथा१. नरकंता चेव, २ नारिकता चेव। (१) नरकान्ता, और (२) नारिकान्ता । -ठाणं २, उ०३, सु०८८ सोआमहाणईए पवायाई पमाणं शीता महानदी के प्रपातादि का प्रमाण५८७. एत्थ में केसरिद्दहो, दाहिणणं सीआ महाणई पवूढा समाणी,५ ५८७. यहाँ केशरीद्रह के दक्षिणी तोरण से शीता महानदी -जंब० वक्ख० ४, सु० ११० निकलती है । सीओआमहाणईए पवायाईणं पमाणं शीतोदा महानदी के प्रपातादि का प्रमाण५८८. तस्स णं तिगिछिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओआमहाणई ५८८. उस तिगिछिद्रह के उत्तरी तोरण से शीतोदा महानदी पवूढा समाणी, सत्त जोयणसहस्साई चत्तारि अ एगवीसे जोअणसए एगं च एगूणवीसइभागं जोअणस्स उत्तराभिमुही निकलकर ७४२१ - योजन उत्तर की ओर पर्वत पर बहकर पव्वएणं गंता, महया घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेग चउ-जोअणसइएणं पवाएणं पवडइ । विशाल घटमुख से गिरती हुई मुक्तावलिहार की आकृति वाले कुछ अधिक चार सौ योजन के प्रपात से नीचे गिरती है। सीओआ ण महाणई जओ पवडइ एत्थ णं महं एगा जहाँ शीतोदा महानदी गिरती है वहाँ एक विशाल जिबिका जिब्भिया पण्णत्ता, चत्तारि जोअणाई आयामेणं, पण्णासं कही गई है। यह जिबिका चार योजन लम्बी, पचास योजन जोअणाई विक्खंभेणं जोअणं बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्ठ संठाण- चौड़ी, एक योजन मोटी और मगर के मुख के आकार की है। संठिआ सव्ववइरामइ अच्छा-जाव-पडिरूवा । सारी वज्रमय है, स्वच्छ है-यावत्-मनोहर है। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ १ महापुण्डरीकोऽत्र महापद्मद्रहतुल्यः अस्माच्चनिर्गता दक्षिणतोरणेन नरकान्ता महानदी नेतव्या। २ यथा रोहिता महाहिमवतो महापद्मद्रहतो दक्षिणेन प्रव्यूढा तथैषापि प्रस्तुतवर्षधराद्दक्षिणेन निर्गता -टीका। ३ एवं नारीकता, इत्यादि-एतमुक्तन्यायन नारीकान्ताऽपि उत्तराभिमुखी नेतव्या-कोऽर्थः ? यथा नीलवंत केशरिद्रहाद् दक्षिणाभि मुखी शीता निर्गता तथा नारीकान्ताऽपि उत्तराभिमुखी निर्गता। ४ प्रबहे च मुखे च यथा हरिकान्ता सलिला, तथाहि-प्रवहे २५ योजनानि विष्कम्भेन, अर्द्ध योजनमुटे धेनेति मुखे २५० योजनानि विष्कम्भेन, ५ योजनान्युद्वधेनेति । यच्चात्र हरिसलिला विहाय प्रबहमुखयोहरिकान्ता उक्तास्तत् हरिसलिला प्रकरणेऽपि हरिकान्तादेशस्योकत्वात् टीका। - ५ अत्र केसरिद्रहो नामद्रह अस्माच्च शीता महानदी प्रव्यूढा सती -टीका। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५८६-५६२ तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन गणितानुयोग ३२३ ww ५८६. .."सीओआ णं महाणई पवहे पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं, ५८६. (उद्गम स्थान से) शीतोदा महानदी का प्रवाह पचास जोयणं उन्हेणं, तयणंतरं च णं मायाए मायाए परिवड्ढ- योजन चौड़ा और एक योजन गहरा है, तदनन्तर अनुक्रम से माणी परिवड्ढमाणी, मुहमूले पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं, बढ़ता बढ़ता मुख के मूल में (समुद्र प्रवेश करते समय के) प्रवाह दस जोयणाई उब्वेहेणं। का प्रमाण पांच सौ योजन चौड़ा और दस योजन गहरा है । उभओ पासि दोहि पउमवरवेइयाहि दोहि अ वणसंडेहि इनके दोनों पार्श्व दो पद्मवरवेदिकाओं से और दो वनखण्डों संपरिक्खित्ता। -जंबु० वक्ख०४, सु० ८४ से घिरे हुए है। ५६०. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणणं महाविदेह- ५६०. जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर और दक्षिण में वासे दो महाणईओ बहुसमतुल्लाओ-जाव-परिणाहेणं, महाविदेह में दो महान दियाँ अधिक सम या तुल्य हैं--यावत् परिधि की अपेक्षा से एक दूसरी का अतिक्रमण नहीं करती है, तं जहा यथा-- सोआ चेव, सीओआ चेव । -ठाणं २, उ० ३, सु० ८४ (१) शीता, (२) शीतो । लवणसमुद्दे मिलियाणं महाणईणं संखा लवणसमुद्र में मिलने वाली महानदियों की संख्या५९१.५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं ५६१. प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से केवइया सलिलासयसहस्सा पुरथिम-पच्चत्थिमामि- से दक्षिण में पूर्व और पश्चिम दिशा में बहने वाली कितनी लाख मुहा लवणसमुदं समप्पेंति ? नदियां लवणसमुद्र में मिलती हैं ? उ०-गोयमा ! एगे छण्णउए सलिलासयसहस्से पुरथिम- उ०-गौतम ! पूर्व और पश्चिम दिशा में बहने वाली एक पच्चत्थिमाभिमुह लवणसमुदं समप्पेति ति। सौ छिनवें लाख नदियाँ लवणसमुद्र में मिलती है। प०-जंबुददीवे गं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के उत्तर केवइया सलिलासयसहस्सा पुरथिम-पच्चत्थिमाभि- में पूर्व और पश्चिम दिशा में बहने वाली कितनी लाख नदियाँ मुहा लवणसमुदं समप्पेंति ? लवणसमुद्र में मिलती हैं। उ०-गोयमा ! एगे छण्णउए सलिलासयसहस्से पुरथिम- उ०-गौतम ! पूर्व और पश्चिम दिशा में बहने वाली एक पच्चत्थिमाभिमुहे लवणसमुद्दं समप्पे ति त्ति। सौ छिन लाख नदियाँ लवणसमुद्र में मिलती हैं। प०-जंदीवे णं भंते ! दीवे केवइया सलिलासयसहस्सा प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप की पूर्व दिशा में पुरत्थिाभिमुहा लवणसमुदं समति ? बहने वाली कितनी लाख नदियाँ लबणसमुद्र में मिलती हैं ? उ०-गोयमा ! सत्तसलिलासयसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा उ०-गौतम पूर्व दिशा में बहने वाली सात लाख अठाईस पुरत्थिाभिमुहा लवणसमुदं समति त्ति। हजार नदियां लवणसमुद्र में मिलती हैं। प०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया सलिलासयसहस्सा प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप की पश्चिम दिशा में पच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समप्पेंति ? बहने वाली कितनी लाख नदियाँ लवणसमुद्र में मिलती हैं ? उ.-गोयमा ! सत्तसलिलासयसहस्सा अट्ठावीसं च सहस्सा उ०-गौतम ! पश्चिम दिशा में बहने वाली सात लाख पच्चत्थिमाभिमुहा लवणसमुदं समप्पेति ति। अठाईस हजार नदियाँ लवणसमुद्र में मिलती हैं। एवामेव सपुवावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोदससलिला इस प्रकार पूर्वापर की सब मिलाकर जम्बूद्वीप में चौदह सयसहस्सा छप्पण्णं च सहस्सा भवतीतिमक्खायं इति। लाख छपन हजार नदियां होती हैं-ऐसा कहा गया है। -जंबु० ववख०६, सु० १२५ चउद्दसमहाणईणं लवणसमुद्दे समत्ति चौदह महानदियों का लवणसमुद्र में मिलना५९२. जंबुद्दीवे णं बीवे चउद्दसमहाणईओ पुवावरेणं लवणसमुद्घ ५६२, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में चौदह महानदियाँ पूर्व और समप्पेंति, तं जहा पश्चिम में बहती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं। यथा पर Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन सूत्र ५६२-५६५ १. गंगा, २. सिंधु, ३. रोहिता, ४. रोहितंसा, ५. हरी, (१) गंगा, (२) सिन्धु, (३) रोहिता, (४) रोहितांशा, ६. हरिकता, ७. सीता, ८. सीतोदा, ६. नरकंता, १०. (५) हरी, (६) हरिकान्ता, (७) शीता, (८) शीतोदा, (९) नारिकता, ११. सुवण्णकूला, १२. रूप्पकूला, १३. रत्ता, नरकान्ता, (१०) नारीकांता, (११) सुवर्णकूला, (१२) रूप्यकूला, १४. रत्तवई।' -सम० १४, सु० ८ (१३) रक्ता, (१४) रक्तवती । दसण्हं गईणं गंगा-सिंधुसु समत्ति गंगा और सिन्धु नदी में दस नदियों का मिलना५६३. जंबु-मंदरदाहिणेणं गंगा-सिधुमहाणईओ दसमहाणईओ ५६३. जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण में गंगा और सिन्धु महासमप्पेंति, तं जहा नदियां मिलती हैं, यथा१. जउणा, २. सरऊ, ३. आवी, ४. कोसी, ५. मही, (१) यमुना, (२) सरयू, (३) आवी, (४) कोशी, (५) मही, ६. सतद्दु, ७. वितत्था, ८. विभासा, ६. एरावती, १०. (६) शतद्र, (७) वितस्ता, (८) विभासा, (९) ऐरावती, (१०) चंदभागा। -ठाणं १०, सु० ७१७ चन्द्रभागा। दसण्हं णईणं रत्ता-रत्तवइसु समत्ती रक्ता और रक्तवती नदी में दस नदियों का मिलना५६४. जंबु-मंदर उत्तरेणं रत्ता-रत्तवईओ महाणईओ दसमहाणईओ ५६४. जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर में रक्ता और रक्तवती समप्पेति, तं जहा महानदी में दस महानदियाँ मिलती हैं। १-१० किण्हा-जाव-महाभागा।' यथा-(१) कृष्णा, (२) महाकृष्णा, (३) नीला, (४) महा नीला, (५) महातीरा, (६) इन्द्रा, (७) इन्द्रसेना, (८) सुसेणा, -ठाणं १०, सु० ७१७ (६) वारिसेणा, (१०) महाभागा । गंगामहाणईए लवणसमुद्दे समत्ति गंगा महानदी का लवणसमुद्र में मिलना५६५. तस्स णं गंगप्पवायकुण्डस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं गंगामहा- ५६५. उस गंगाप्रपातकुण्ड के दक्षिणी तोरण (द्वार) से गंगा गई पढासमाणी उत्तरड्ढभरहवासं एज्जेमाणी सहि महानदी निकलकर उत्तरार्ध भरतक्षेत्र में बहती हुई सात हजार सलिलासहस्सेहि आउरेमाणी आउरेमाणी अहे खंडप्पवाय- नदियों को अपने में मिलाती है और बाद में खण्डप्रपातगुफा के गुहाए वेयड्ढपव्वयं दलइत्ता दाहिणड्ढभरहवासं एज्जेमाणी नीचे से होकर वैताढ्य पर्वत को दो भागो में विभक्त करती हुई एज्जेमाणी, दाहिणड्ढभरहवासस्स बहुमज्झदेसभागं गंता दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र में बहती हैं। (तथा वह गंगानदी) दक्षिणार्ध पुरत्थाभिमुही आवत्ता समाणी चोदसहि सलिलासहस्सेहिं भरतक्षेत्र के मध्य में होकर पूर्वाभिमुख होती हुई चौदह हजार समग्गा अहे जगई दालइ दालइत्ता पुरथिमेणं लवणसमुदं नदियों सहित जगती के नीचे से होती हुई पूर्वी लवणसमुद्र में समप्पेह। -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ मिल जाती है । १ जम्बुद्दीवे दीवे सत्तमहाणईओ पुरत्याभिमुहीओ लवणसमुदं समप्पेंति, तं जहा-(१) गंगा, (२) रोहिता, (३) हरी, (४) सीता, (५) नरकंता, (६) सुवण्णकूला, (७) रत्ता । जम्बुद्दीवे दीवे सत्तमहाणईओ पच्चत्थाभिमुहीओ लवणसमुई समप्पेंति, तं जहा-(१) सिन्धु, (२) रोहितंसा, (३) हरिकंता, (४) सीतोदा, (५) णारिकता, (६) रूप्पकूला, (७) रत्तवती । ठाणं ७, सु० ५५५ २ जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्बयस्स दाहिणेणं गंगामहानई पंचमहानईओ समप्पेंति, तं जहा-(१) जऊणा, (२) सरऊ, (३) आवी, (४) कोसी, (५) मही। जम्बूमंदरस्स दाहिणणं सिन्धुमहाणई पंचमहाणईओ समप्पेंति, तं जहा-(१) सतद्दद्र , (२) वितत्या, (३) बिभासा, (४) एरावती, (५) चंदभागा। -ठाणं ५, उ० ३, सु० ४७० जम्बूमंदरस्स उत्तरेणं रत्तामहाणई पंचमहाणईओ समप्पंति, तं जहा-(३) किण्हा, (२) महाकिण्हा, (३) नीला, (४) महानीला, (५) महातीरा। जम्बूमंदरस्स उत्तरेणं रत्तवई महाणई पंचमहाणईओ सप्पेंति, तं जहा-(१) इंदा, (२) इंदसेणा, (३) सुसेणा, (४) वारिसेणा, (५) महाभागा। -ठाणं ५, उ०३, सु० ४७० Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५६६-५६८ तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन गणितानुयोग ३२५ सिंधु महाणईए लवणसमुद्दे समत्ति सिन्धु महानदी का लवणसमुद्र में मिलना५६६. .....-जाव-अहे तिमिसगुहाए वेअद्धपव्वयं दालइत्ता' पच्चत्थि- ५६६. (वह सिन्धु नदी) तमिस्रागुफा के नीचे होकर वैताढ्य पर्वत माभिमुही आवत्ता समाणी चोद्दससलिलासहस्सेहि समग्गा को दो भागों में विभक्त करती हुई (दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में बहती अहे जगई पच्चत्थि मेणं लवणसमुद्द-जाव-२ समप्पेइ, सेसं तं है तथा वह सिन्धुनदी दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र के मध्य में होकर) चेवत्ति । पश्चिमाभिमुख होती हुई चौदह हजार नदियों सहित जगती के नीचे होती हुई पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है । शेष कथन -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ पूर्ववत् है। रत्तामहाणईए लवणसमुद्दे समत्ति रक्तामहानदी का लवणसमुद्र में मिलना-जंबुछ वक्ख० ४, सु० १११ रत्तवईमहाणईए लवणसमुद्दे समत्ति रक्तवती महानदी का लवणसमुद्र में मिलना-जंबु० वक्ख० ४, सु० १११ रोहिआमहाणईए लवणसमुद्दे समत्ति रोहिता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना.५६७. तस्स णं रोहिअप्पवायकुण्डस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिआ- ५६७. उस रोहितप्रपातकुण्ड के दक्षिणी तोरण से रोहिता महा महाणई पवढासमाणी, हेमवयं वासं एग्जेमाणी एज्जेमाणी- नदी निकलकर हैमवतक्षेत्र में बहती, बहती सहावई वट्टवेयड्ढपव्वयं अद्धजोअणेणं असंपत्ता, पुरत्था- शब्दापाती वृत्त वैताढ्य पर्वत से आधा योजन की दूरी पर भिमही आवत्ता समाणी हेमवयंवासं दुहा विभयमाणी विभय- पूर्वाभिमुख होती हुई हैमवत वर्ष को दो भागों में विभाजित माणी करती-करतीअट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहि समग्गा अहे जगई दालइत्ता अठाईस हजार नदियों से परिपूर्ण (वह रोहिता नदी) जगती पुरत्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पेइ।। के नीचे होती हुई पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है। -जंबु० वक्ख० ४, सु०८० रोहिअंसामहाणईए लवणसमुद्दे समत्ति- रोहितांशा महानदी का लवणसमुद्र में मिलना५६८. तस्स णं रोहिअंसप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं रोहि- ५६८. उस रोहितांशा प्रपातकुण्ड के उत्तरी तोरण से रोहितांसा अंसामहाणई पवूढा समाणी हेमवयं वासं एज्जेमाणी, एज्जे- महानदी निकलकर हैमवत वर्ष में बहती बहतीमाणी आगमोदय समिति की प्रति के पाठ में यहाँ संक्षिप्त वाचना का सांकेतिक वाक्य नहीं दिया है किन्तु यहाँ संक्षिप्त वाचना का सांकेतिक वाक्य देना आवश्यक था, जिससे बीच का पाठ कितना ग्राह्य है-यह जानने में सुविधा होती। टीकाकार ने यहाँ इस प्रकार सूचित किया है-"अधस्तमिस्रागुहाया वैताढ्यपर्वतं दारयित्वा 'देशदर्शनादेशस्मरण मिति' वाहिद्धभरहवासस्स बहुमज्झदेसभागं गंता' इति पदानि बोध्यानि ।" टीकाकार के सामने जो प्रति थी उसमें भी 'दालइत्ता' के आगेदाहिणइड्ढभरहवासं एज्जेमाणी एज्जेमाणी इतना पाठ छूटा हुआ प्रतीत होता है। पूरे पाठ के लिए देखें"तस्स णं सिन्धुप्पवाय कुण्डस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं सिन्धुमहाणई पबूढासमाणि उत्तरद्धभरहवासं एज्जेमाणी एज्जेमाणी, सत्तहि सलिलासहस्से हि आउरेमाणी आउरेमाणी अहे तिमिसगुहाए वेअड्ढपवयं दालइत्ता दाहिणड्ढभरहवासं एज्जेमाणी एज्जेमाणी दाहिणद्धभरहवासस्स बहुमज्झदेसभागं गंता पच्चत्थाभिमुही आवत्तासमाणी चोद्दसहिं सलिलासहस्से हिं समग्गा अहे जगई दालहदाल इत्ता पच्चथिमेगं लवणसमुई समप्पेइ, सेसं तं चैवति । - जम्बु० वक्ख० ४, सु०७४ २ (क) यह मूलपाठ आगमोदय समिति की प्रति से उद्धृत किया गया है-इस मूलपाठ में यह-जाव-अनावश्यक है। (ख) जम्बुद्वीप वक्ष०४, सूत्र ७४ में संक्षिप्त वाचना की सूचना-'एवं सिंधुए विणेयच्वं' अर्थ-इसी प्रकार (गंगा नदी के समान) सिंधू नदी का वर्णन जानना चाहिए । ३ इसका सम्बन्ध प्रवाह आदि से है। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : महानदी वर्णन सूत्र ५६८-६०१ चउद्दसहि सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी आपूरेमाणी, चौदह हजार नदियों को अपने में मिलाती मिलातीसद्दावइवट्टवेयड्ढपम्वयं अद्धजोयणेणं असंपत्तासमाणी, शब्दापाती वृत्त वैताढ्य पर्वत से आधा योजन की दूरी पर, पच्चत्थाभिमुही आवत्तासमाणी हेमवयंवासं दहा विमय- पश्चिमाभिमुख होती हुई, हैमवतवर्ष को दो भागों में विभक्त. माणी विभयमाणी, करती करतीअट्ठावीसाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता अठाईस हजार नदियों से परिपूर्ण (वह रोहितांशा नदी). पच्चत्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पेइ। जगती के नीचे होती हुई पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ७४ सुवण्णकूलाए महाणईए लवणसमुद्दे समत्ति- सुवर्णकूला महानदी का लवणसमुद्र में मिलनारुप्पकूलाए महाणईए लवणसमुद्दे समत्ति- रूप्यकूला महानदी का लवणसमुद्र में मिलना हरिसलिला महाणईए लवणसमुद्दे समत्ति- हरिसलिला महानदी का लवणसमुद्र में मिलना५६६. ..."-जाव-अहे जगई दालइत्ता छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं ५६६. -यावत्-(हरिसलिला महानदी) छप्पन हजार नदियों समग्गा पुरथिमलवणसमुद्द समप्पेइ ।' सहित जगती के नीचे होकर पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है। -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ हरिकतामहाणईए लवणसमुद्दे समत्ति- हरिकान्ता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना६००. तस्स णं हरिकंतप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं हरिकता- ६००. उस हरिकान्तप्रपातकुण्ड के उत्तरी तोरण से हरिकान्ता महाणई पवढा समाणी हरिवासं वासं एज्जेमाणी एज्जेमाणी, महानदी निकलकर हरिवर्ष क्षेत्र में बहती हुई, विअडावई वट्टवेयड्ढपव्वयं जोयणेणं असंपत्ता पच्चत्था- विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत से एक योजन दूर पश्चिमाभिभिमुही आवत्तासमाणी हरिवासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी, मुख होकर हरिवर्षक्षेत्र को दो भागों में विभक्त करती हई, छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता और छप्पन हजार नदियों सहित जमती के नीचे होकर पच्चत्थिमेणं लवणसमुद्द समप्पेइ। पश्चिमी लवणसमुद्र में मिल जाती है। -जंबु० वक्ख० ४, सु०८० णरकंता महाणईए लवणसमुहे समत्ति नरकान्ता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना६०१. जहा रोहिआ पुरथिमेणं गच्छइ। ६०१. रोहिता नदी के समान (नरकान्ता महानदी भी) पूर्वी -जंबु० बक्ख० ४, सु० १११ लवणसमुद्र में मिल जाती है । जम्बुद्धीपप्रज्ञप्ति वक्ष० ४, सूत्र ८४ में संक्षिप्त वाचना की सूचना इस प्रकार है-“एवं जा चेव हरिकताए वत्तव्वया सा चेव हरीए वि णेयब्बा" इस प्रकार जो हरिकंता (महानदी) का कथन है वही हरी (महानदी) का भी जानना चाहिए। ऊपर मूलपाठ आगमोदय समिति की प्रति से उद्धृत किया गया है-यह मूलपाठ अशुद्ध प्रतीत होता है। जम्बूद्वीप वक्ष०४, सु०८० में हरिकान्ता महानदी के मूल पाठ की रचना के अनुसार शुद्ध पाठ इस प्रकार होना चाहिए-"छप्पण्णाए सलिलासहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरत्थिमं लवणसमुदं समप्पेइ""" पूरित मूलपाठ"तस्स णं हरिसलिलप्पबायकुण्डस्स दाहिणणं हरिसलिला महाणई पबूढासमाणी हरिवास एज्जेमाणी एज्जेमाणी; गंधावइवट्टवेयड्ढपव्वयं दुहा विभयमाणी विभयमाणी; छप्पण्णाए सलिला-सहस्सेहिं समग्गा अहे जगई दालइत्ता पुरत्थिमं लवणसमुदं समप्पेइ । -जम्बु० वक्ख० ४, सु० ८४ २ जहा रोहियत्ति यथा-रोहिता 'पुरत्थिमेणं गच्छई' त्ति पूर्वेण गच्छति समुद्रमितिशेषः । –टीकाः Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६०२-६०४ तिर्यक लोक महानवी वर्णन नारीकंता महाणईए लवणसमुद्दे समति १०२. गवरमिमं जातं - गंधाबद्द यट्टवेयपथ्ययं जोजणं असंपता पचत्याभिमु आवता समाणी अवसिद्ध त बंब' - जंबु० वक्ख० ४, सु० ११० सीआमहागईए लवणसमुद्दे समति१०३. दाहिने सोलामहामईपबूढासमाणी उत्तरकुरु एक्ले माणी एज्जेमाणी, जमगपव्वए १. णीलवंत, २. उत्तरकुरू, ३ - ४. चंदेरावत, ५. मालवंतद्दहे अ दुहा विभयमाणी, विभयमाणी; चउरासीए सलिलासहस्सेहि आपूरेमाणी आपूरेमाणी, भद्द सालवणं एज्जेमाणी एज्जेमाणी, मंदरपव्ययं दोहिं जोवणेगं असंयत्ता पुरत्याभिगृही आवता समाणी, अहे मालवंतवक्खा रपव्वयं दालइ, दालइत्ता मंदरपव्वयस्स पुरस्थिमेणं पुष्वविदेहवासं दुहा विभयमाणी विभयमाणी, एगमेगाओ चक्कवट्टिविजयाओ अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए सलिलासहस्ते हि आपूरेमाणी आपूरेमाणी, पंचहि सलिलासय सहस्सेहि बत्तिसाए य सलिलास हस्से हि समग्गा, अहे विजयस्स दारस्स जगई दालइ दालइत्ता पुरत्थिमेणं लवणसमुद्र समप्पे अवसितं वि - जंबु० वक्ख० ४, सु० ११० सीओआमहानईए लवणसमुद्दे समति-६०४. तस्स णं सीओअप्पवायकुण्डस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओओमहागाई पबूढा समाणी देवकु एज्जेमाणा एज्जेमामा चित्त विचितकूडे पव्वए निसढ देवकुरु- सूर सुलस-विज्जुप्पभद हे अ हा विभयमाणी विभागी चउरासीए सलिलासहस्सेहि आपूरेमाणी आपूरेमाणी, भद्दसालवणं एज्जेमाणी एज्जेमाणी, मंदरं पव्वयं दोहिं जोयणेहि असंपत्ता पच्चत्थाभिमुही आवत्तासमाथी गणितानुयोग ३२७ कान्ता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना - ६०२. विशेष यह है कि नारीकान्ता महानदी गन्धापाती वृत्त वैताढ्य पर्वत से एक योजन दूर पश्चिमाभिमुख होकर... शेव पूर्ववत् है । शीता महानदी का लवणसमुद्र में मिलना६०३. उस सीतापतिकुण्ड के दक्षिणी (तोरण से ) सीता महानदी निकलकर उत्तरकुरु में बहती बहती यमकपर्वतों को तथा (१) नीलवन्त, (२) उत्तरकुरु, (३) चन्द्र, ( ४ ) ऐरावत और ( ५ ) माल्यवन्त - इन पाँचों द्रहों को दो भागों में विभक्त करती करती; चौरासी हजार नदियों को मिलाती मिलाती; भद्रशालवन में बहती बहती; मेरु पर्वत से दो योजन की दूरी पर पूर्वाभिमुख होती हुई; माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत के नीचे से होकर मेरुपर्वत से पूर्व में पूर्व महाविदेह को दो भागों में विभक्त करती करती प्रत्येक चक्रवर्ती विजय की अठाईस अठाईस हजार नदियों को अपने में मिलाती मिलाती; ( सब मिलाकर) पाँच लाख बीस हजार नदियों से परिपूर्ण ( वह शीता नदी), विजय द्वार के नीचे होकर पूर्वी लवणसमुद्र में मिल जाती है। शीतोदा महानदी का लवणसमुद्र में मिलना६०४. उस शीतोदा प्रपातकुण्ड के उत्तरी तोरण से शीतोदा महानदी निकलकर देवकुरुक्षेत्र में बहती बहती चित्र-विचित्रकूट पर्वतों के तथा (१) निषध, (२) देवकुरू, (३) सूर्य, (४) सुलस और (2) विद्युत्प्रभग्रह को दो भागों में विभक्त करती करती चौरासी हजार नदियों को अपने में मिलाती मिलाती; भद्रशाल भवन में बहती बहती; मेरुपर्वत से दो योजन की दूरी पर पश्चिमाभिमुख होती हुई. १ अवशिष्टं सर्व सदेव हरिकान्ता सतिलावदा समग्गा अहेजगई दालइ, दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लवणसमुद्दं समप्पेइ त्ति । ....यस्स णं सीअप्यवायकुष्टस्स.... इतना पाठ जोड़ देने पर पाठपूर्ण हो जाता है। ३ आगमोदम समिति की प्रति में 'दाहिने' के आगे 'तोरणं' पाठ नहीं है किन्तु 'तोरणे" पाठ होना चाहिए, क्योंकि जम्बूद्वीप वक्ष० ४, सु० ८४ में शीतोदानदी सम्बन्धी मूलपाठ में 'उत्तरिल्लेणं' के बाद 'तोरणेणं' पाठ है, अतः यहाँ भी 'तोरणेणं पाठ होना चाहिए। तवचारम्भणवास दहा विश्रयमाणी विषयमाणी छपाए सलिलसहि टीका Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : तीर्थ वर्णन सूत्र ६०४-६०५ अहे विज्जुप्पभं वक्खारपव्वयं दारइत्ता, विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत के नीचे से होकर, मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं अवरविदेहं वासं दुहा मेरुपर्वत से पश्चिमकी ओर अपरविदेह क्षेत्र को दो भागों में विभयमाणी विभयमाणी, विभक्त करती करती; एगमेगाओ चक्कट्टि विजयाओ अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए प्रत्येक चक्रवर्ती विजय की अठाईस-अठाईस हजार नदियों सलिलासहस्सेहिं आपूरेमाणी आपूरेमाणी, को अपने में मिलाती मिलाती; पहिं सलिलासयसहस्सेहि दुत्तीसाए अ सलिलासहस्सेहिं (सब मिलाकर) पाँच लाख बत्तीस हजार नदियों से परिपूर्ण समग्गा, (वह शीतोदा नदी), अहे जयंतस्स दारस्स जगई दालइत्ता पच्चत्थिमेणं लवण- जयन्तद्वार के नीचे होकर पश्चिमी लवणसमुद्र में मिलती है। समुद्द समप्पेति,' -जंबु० वक्ख० ४, सु० ८४ जंबुददीवे एगे बिउत्तरे तित्थसए जम्बूद्वीप में एक सौ दो तीर्थ६०५. ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भरहे वासे कति तित्था ६०५. प्र. भगवन् ! जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप के भरतक्षेत्र में पण्णत्ता ? कितने तीर्थ कहे गये हैं ? | उ०—गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता, तं जहा-१. मागहे, उ०-गौतम ! तीन तीर्थ कहे गये हैं यथा-(१) मागध, २. वरदामे, ३. पभासे । (२) वरदाम, (३) प्रभास । १ महाविदेह क्षेत्र के बत्तीस विजयों में प्रवाहित होने वाली बारह अन्तर नदियों में से छह अन्तर नदियां सीता महानदी और छह अन्तर नदियाँ सीतोदा महानदी में मिलती हैं । सीता और सीतोदा नदियाँ लवणसमुद्र में मिलती हैं । २ (क) ठाणं ३, उ० १, सु० १४२ धातकी खण्ड और पुष्करार्ध द्वीप के तीर्थों की गणना उनके वर्णन में देखें । (ख) जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार ३, सूत्र ४४-४५ और ४६ में भरत चक्रवर्ती की षट्खण्ड विजय यात्रा के प्रारम्भ में मागध वरदाम और प्रभास-इन तीनों तीर्थों का संक्षिप्त परिचय मिलता है अतः इनसे सम्बन्धित कुछ वाक्य यहाँ उद्धृत किये गये हैं। ....गंगाए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूले णं पुरथिमं दिसं मागहतित्थाभिमुहं पयातं पासइ । -जम्बु० वक्ख० ३, सु० ४४. 'जेणेव मागहतित्थे तेणेव उवागच्छइ' 'मागहतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठमभत्तं पगिण्हइ' 'मागहतित्थोदगं च गेण्हइ' 'मागहतित्थकुमारं देवं सक्कारेइ' 'मागहतित्थेणं लवणसमुद्दाओ पच्चुत्तरइ' -जम्बु. वक्ख० सु, सु०४५.. तए णं भरहेराया तं दिव्व चक्करयणं, दाहिण-पच्चत्थिम-वरदामतित्थाभिमुहं पयातं चाविपासइ..... ....जेणेव वरदामतित्थे तेणेव उवागच्छई' उवागच्छित्ता वरदामतित्थस्स अदूरसामंते दुवालस जोयणायाम, नवजोयणवित्थिण्णं विजयखंधावार निवेसं करेइ । 'वरदामतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहियाए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए' 'तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं-जाव-उत्तरपच्चत्थिमं दिसिं तहेव-जाव-पच्छिमदिसाभिमुहे पभासतित्थेणं लवणसमुई ओगाहेइ' 'पभासतित्थोदगं च गिण्हई २. त्ता-जाव-पच्चत्थिमेणं पभासतित्थमेराए.... 'तएणं से दिव्वे चक्करयणे पभासतित्थकुमारस्स देवस्स अट्ठाहिआए महामहिमाए णिधत्ताए समाणीए....। -जम्बु० वक्ख०३, सु० ४६. यह वर्णन केवल भरतक्षेत्र से सम्बन्धित है । Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६०५-६०७ प० - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे एरवएवासे कति तित्था पण्णत्ता ? उ०- -गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता, तं जहा - १. मागहे, २. वरदामे, ३. पभासे । तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन प० - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे महाविदेहे वासे एगमेगे चक्क - विजए कति तित्या पण्णत्ता ? उ० -गोयमा ! तओ तित्था पण्णत्ता, तं जहा- १. मागहे, २. वरदामे, ३. पभासे' । एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे एगे बिउत्तरे तित्यसए भवतीतिमश्यायंति। - जंबु० वक्ख० ६, सु० १२५ उ०- गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं ल्लहिमवतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिताओ लवणसमुद्द तिनि जोयसाई ओगाहिता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगुरुयदीवे णामं दीवे पण्णत्त । तिन्नि जोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं, व एगूणपण्णजोयणसए कि चिविसेसेणं परिक्खेवेणं, एवाए मरवाए एवं च यणसं समता संपरिक्खित्ते । सवओ - जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. १०६ - पउमवरवेयाए वणसंसय पमाणं६०७. सामवेडया अटु जोगाई · उपयसे पंच धणुसयाई विवखंभेणं, एगूरुयदीवं सव्वओ समता परिक्खेवेणं पण्णत्ता । तीसे परमवरवंड्याए अयमेवास्ये यण्णावासे से गणितानुयोग ३२६ अन्तरदीवगाणं परवणाएगोरीवाइणं ठाणण्यमाणाई अंतरद्वीपों की प्ररूपणाएकोरुकद्वीप के स्थान - प्रमाणादि ६०६. प० – कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगो ६०६. प्र० - हे भदन्त ! दक्षिण दिशा के - दाक्षिणात्य एकोरुक मनुष्यों का एकोद्वीप नाम का द्वीप कहाँ कहा गया है ? रुयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते ? प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप ( नामक ) द्वीप के ऐरवतक्षेत्र में कितने तीर्थ कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! तीन तीर्थ कहे गये हैं, यथा - (१) मागध, (२) वरदाम, (३) प्रभास । प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप ( नामक ) द्वीप के महाविदेह क्षेत्र के प्रत्येक चक्रवर्ती विजय में कितने तीर्थ कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! तीन तीर्थ कहे गये हैं, यथा - ( १ ) मागध (२) वरदाम, (३) प्रभास । इस प्रकार सब मिलाकर जम्बूद्वीप (नामक द्वीप में एक सी दो तीर्थ हैं- ऐसा कहा गया है। उ०- हे गौतम! जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में हिमवन्त वर्षधर पर्वत के अन्तिम उत्तरपूर्वान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर दक्षिणदिशा के एकोरक वाले मनुष्यों का एकोरुकद्वीप नाम का द्वीप कहा गया है । वह तीन सौ योजन लम्बा-चौड़ा है । नव सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है । एक पद्मवर वेदिका और एक वनखण्ड से वह चारों ओर घिरा हुआ है। पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का प्रमाण ६०७. वह पदमवरवेदिका आठ योजन ऊँची और पांच सौ धनुष चौड़ी है। उससे एकोरुकद्वीप चारों ओर से घिरा हुआ ह गया है । उस पद्मवर वेदिका का यह और इस प्रकार वर्णन कहा गया है । १ जम्बूद्वीप में १०२ तीर्थों की गणना इस प्रकार है भरत और ऐरवत क्षेत्र में तीन-तीन तथा महाविदेह के ३२ विजयों में (प्रत्येक में) तीन तीन - इस प्रकार १०२ तीर्थ होते हैं । इनके तीर्थ स्थल इस प्रकार हैं भरत और ऐरवत के ६ तीर्थं लवणसमुद्र में है । महाविदेह की कच्छादि आठ विजयों के और वत्सादि आठ विजयों के (अर्थात् सोलह विजयों के ४५ तीयं सीतानदी में है। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन सूत्र ६०७-६०८ ... तं जहा-बहरामया निम्मा एवं वेश्यावण्णओ भाणि- यथा-उसकी वज्रमय नींव-आधारभूमियाँ हैं इस प्रकार यव्वो।' वेदिका का वर्णन कहना चाहिए। सा णं पउमवरवेइया एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता वह पद्मवरवेदिका एक वनखण्ड से चारों ओर घिरी संपरिक्खित्ता। हुई है। से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं, वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन चारों ओर चौड़ा है। वेइयासमेणं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, वेदिका के समान उस वनखण्ड की परिधि कही गई है। से गं वणसडे किण्हे किण्होभासे एवं वणसंडवण्णओ वह वनखण्ड सघन वृक्ष समूह से श्याम एवं श्याम जैसा भाणियव्वो। प्रतीत हो रहा है। तणाण य वण्ण-गंध-फासो सद्दो तणाणं वावीओ उप्पाय- तृणों के वर्ण, गंध और स्पर्श तथा तृणों के शब्द, वापिकायें, पव्वया पुढविसिलापट्टगा य भाणियवा-जाव-तत्थ णं बहवे उत्पात पर्वत, पृथ्वी शिला पट कहने चाहिए यावत्-वहाँ अनेक वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति-जाव-विहरंति । वाणव्यन्तर देव-देवियाँ बैठते हैं-यावत्-विहरण करते हैं । -जीवा. पडि. ३, सु. १०६-११० एगोरुयदीवे वणमाला एकोरुकद्वीप में वनमाला६०८. एगोरुयदीवस्स णं दीवस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे ६०८. एकोरुकद्वीप में सर्वथा सम एवं रमणीय भूभाग कहा पण्णत्ते. गया है। से जहाणामए आलिंगपुक्खरेति वा, जिस प्रकार मृदंगतल है। एवं सणिज्जे भाणितब्वे-जाव-पुढविसिलापट्टगंसि तत्थ णं इसी प्रकार शय्या कहनी चाहिए-यावत्-पृथ्वीशिलापट बहवे एगुरुयदीवया मणुस्सा य, मणुस्सीओ य आसयंति-जाव- पर अनेक एकोरुकद्वीप के मनुष्य और स्त्रियाँ बैठते हैं-यावत विहरंति । विहरण करते हैं। एगुरुयदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे उद्दा- हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुकद्वीप में अनेक जगह अनेक लका कोद्दालका कतमाला णयमाला गट्टमाला सिंगमाला उद्दालक, कोद्दालक, कृतमाल, नत्तमाल, नृत्यमाल, शृङ्गमाल, संखमाला दंतमाला सेलमालगा णाम दुमगणा पण्णत्ता शंखमाल, दंतमाल, शैलमाल नाम के वृक्षों का समूह कहा समणाउसो ! गया है। कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो-जाव-बीय- कुश, विकुश आदि निकालकर जिन वृक्षों के मूल शुद्ध किए मंतो पत्तेहि य पुप्फेहि य अच्छण्णपडिच्छण्णा सिरीए अतीव गये हैं ऐसे शुद्ध मूल वाले कंद वाले-यावत्-बीज वाले, वृक्ष अतीव उवसोभेमाणा उवसोहेमाणा चिट्ठन्ति । पत्र एवं पुष्पों से आच्छादित तथा शोभा से अत्यन्त सुशोभित हैं। एक्कोरुयदीवे णं दीवे रुक्खा बहवे हेरुयालवणा भेरुया- एकोरुकद्वीप में हेरेताल-भैरुताल, मेरुताल, सेरुताल आदि लवणा मेरुयालवणा सेरुयालवणा सालवणा सरलवणा सत्त- अनेक प्रकार के तालवृक्षों के वन हैं । साल, सरल, सप्तवर्ण, पूतफल, वण्णवणा पूतफलिवणा खज्जूरिवणा णालिएरिवणा कुस- खजूर, नालियर आदि वृक्षों के अनेक वन हैं । सभी वृक्षों के मूल, विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति । कुश, विकुश रहित हैं, अतएव शुद्ध हैं । एगुरुयदीवे गं तत्थ तत्थ बहवे तिलया लवया नग्गोधा एकोरुकद्वीप में अनेक जगह अनेक तिलक, लवक, न्यग्रोध -जाव-रायरुक्खा गंदिरुक्खा कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला -यावत्-राजवृक्ष, नंदिवृक्ष हैं । कुश विकुश रहित उनके मूल -जाव-चिन्ति। एगुरुयदीवे णं तत्थ बहूओ पउमलयाओ-जाव--सामलयाओ एकोरुक द्वीप में अनेक जगह अनेक पद्मलताएँ-यावत्निच्चं कुसुमिताओ, एवं लयावण्णओ-जाव-पडिरूवाओ। सामलताएँ सदा पुष्पयुक्त हैं, इस प्रकार लता-वर्णक कहना चाहिए-यावत्-मनोहर है। १ जहा रायपसेणईए तहा भाणियव्वा । २ एवं जहा रायपसेणइय वणसंडवण्णओ तहा निरवसेसं भाणियब्वं । . ३ जहा उववाइए। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६०८-६१० तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३३१ एकोरुयदीवे गं तत्थ तत्थ बहवे सेरियागुम्मा-जाव-महा- एकोरुकद्वीप में अनेक जगह अनेक सेरिकागुल्म-यावत्जातिगुम्मा, ते गं गुम्मा दसद्धवणं कुसुमं कुसुमंति विघूय- महाजाइगुल्म हैं वे सभी गुल्म पाँच वर्ण के पुष्पों से सुशोभित हैं ग्गसाहा जेण वायविधूयग्गसाला। . और उनकी शाखायें वायु से हिलती हुई है। एगुरुयदीवस्स बहुसमरमणिज्जभूमिमागं मुक्कपुष्फपुजो- एकोरुकद्वीप के सभी सर्वथा सम एवं रमणीय भूभाग सदा वयारकलियं करेंति । _ खिले हुए पुष्पों से सुशोभित हैं। एकोऽयदीवे णं तत्थ तत्थ बहूओ वणराईओ पण्णत्ताओ, एकोरुकद्वीप में अनेक जगह अनेक वनराजियाँ हैं । ताओ णं वणराईतो किण्हातो किण्होमासाओ-जाव- वे सभी वनराजियाँ अनेकानेक वृक्षों से सघन एवं श्याम हैं। रम्माओ, महामेहणिगुरुबभूताओ-जाव-महति गंधणि मुयं- श्याम ही भासित होती हैं-यावत्-रमणीय हैं। वे श्याम मेघ तीओ पासादीयाओ-जाव-पडिरूवाओ। घटाएँ जैसी दिखाई देती हैं-यावत्-अति उग्र गंध फैलाती रहती हैं अतएव प्रसन्नता पैदा करने वाली है-यावत् मनोहर है । -जीवा. पडि. ३, सु. १११ एगुरुयदीवे दसविहादुमगणा एकोरुकद्वीप में दस प्रकार के वृक्षों के समूह६०६. एगुरुयदीवे तत्थ तत्थ बहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता ६०६. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुक द्वीप के अनेक स्थानों में समणाउसो! 'मत्तंग' नाम के अनेक वृक्षसमूह कहे गये हैं। जहा से चंदप्पभ-मणिसिलाग-वरसीधु-पवरवारूणि-सुजात- जिस प्रकार (१) चन्द्रप्रभ, (२) मणिसिलाक, (३) श्रेष्ठ फल-पत्त-पुष्फचोयणिज्जा, संसारबहुदय्वजुत्तसंभारकालसंध- सिधु, (४) उत्तम वारुणी, (५) सुजात (परिपक्व) (६) पत्र, यासवा। (७) पुष्प, (८) फल के साररूप, (६) अनेक प्रकार कल्कों के संयोजन से सजित आसव । महुमेरग-रिट्ठाभ'-बुद्धजातीय-पसन्नतल्लग-सताउ', (१) मधुमेरकसार, (२) रिष्टाभसार, (३) दुग्धजातिसार, खज्जूर-मुद्दियासार-काविसायण-सुपक्क खोयरस-वरसुरा-वण्ण- (४) तल्लक सार, (५) शतायुसार, (६) खजूरसार, (७) मृद्वीकारस-गंध-फरिसजुत्तबलवीरिय-परिणामा, मज्जविहित्थबहुप्प- द्राक्षासार, (८) कपिशायन, (8) सुपक्व, इक्षुरस निष्पन्न सुरा, गारा। श्रेष्ठ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श युक्त, बलवीर्य संवर्धक, अनेक प्रकार के मद्यों का विधान है। तहेव ते मत्तंगयावि दुमगणा, अणेगबहुविविहवीससापरिण- उसी प्रकार मत्तंग नामक द्रमगण भी अनेक प्रकार से याए मज्जविहीए उववेया फलेहि पुण्णा वीसंदति । स्वभावसिद्ध मद्य विधान युक्त फलों से पूर्ण विकसित हैं । कुस-विकुस-विसुद्ध-रूक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति । उन वृक्षों के मूल कुश=डाभ, विकुश= बल्बजघास रहित हैं अतएव विशुद्ध हैं। ६१०. एक्कोरुए दोवे तत्थ तत्थ बहवो भिगंगया णाम दुमगणा ६१०. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुकद्वीप के अनेक स्थानों में पण्णत्ता समणाउसो! 'भृतांग' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये हैं। जहा से वारग-घड-करग-कलस-कक्करि-पापकंचणि-उदक- जिस प्रकार (१) वारक=मांगल्यघट, (२) घट=घड़ा, वद्धणि-सुपविट्ठर-पारी-चसक-भंगार-करोडि-सरग-थरग-पत्ती. (३) करक, (४) कलश, (५) कर्करी, (६) पादकंचनिका, (७) उदकवर्धनी, (८) सुप्रतिष्ठक-पुष्पपात्र, (६) पारी-घी का बर्तन, (१०) चसक =सुरापान पात्र, (११) भृगार भरणी, (१२) करोड़ी घिलोडी, (१३) सरक=सरवो या सिकोरा, १ जम्बूफलकलिकाभा । २ आस्वादतः क्षीरसदृशी। ३ शतायुर्नाम या सुराशतवारं शोधितापि स्वरूपं न जहाति । Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ लोक-प्रज्ञप्ति तियेक लोक अन्तरद्वीप वर्णन : चाल-लक अपलित-अवपद-गवारक-विचित्त बटुक-मविक सुति - चारू पिणया-कंचण मणि रयण मत्तिविचित्ता भायण विधीए बहुमारा । तब से गंगा मगणा, अगबहुविविह्वीससाए, परिषताए भाजणविधीए उपवेया फलेहि पुनाविव विसन्ति कुल- विकुल- विबुद्ध-मूला जान- चिट्ठन्ति । जहा से मुग-पणन-हर- करडि-डिडिम गंगा-होरंभ" कणिया-खरसंखिरिली परिवाइस-वेणुबीना सुधोस बिंचि महति मिरिगसिंगा"- हलाल" कंसताल-सुपडता आलो. विधिणिउणगंधव्वसमयकुसल हि फंदिया, तिद्वाणसुद्धा, - तव ते तुडियंगयावि दुमगणा, अणेगबहुविविधवीससा - परिणामाए रात-वित पण-मुसिराए चढबिहाए आतोज्ज विहीए उपवेदा कहिं पुष्णा विसन्ति कुल विकुल- विमुखमूला जाब चिन्ति 1 (१४) बरग (१५) पी. (१६) चाल, (१०) व्यस्तक कवलित (१८) अवय, (१६) दगवारक पानी का घड़ा, ( २० ) सचित्र वर्तन (२१) मणिजटित वर्तन, (२२) सीप का वर्तन, (२३) बरु, (२४) पौनक अफीम लेने का पात्र, (२५) सचित्र स्वर्णपात्र, (२६) सचित्र मणिपात्र, (२७) सचित्र रत्नजटिल पात्र आदि अनेक प्रकार के पात्र होते हैं । " उसी प्रकार 'भृतांग' नाम के वृक्ष समूह भी अनेक स्वभावसिद्ध पात्राकार युक्त फलों से पूर्ण विकसित हैं, ६११. एगोरुगदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ बहवे तुडियंगा णाम दुमगणा ६११. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुद्वीप के अनेक स्थानों में पण्णत्ता समणाउसो ! 'ग' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये है। उन वृक्षों के मूल कुश =डाभ, विकुश बल्वजघास रहित हैं अतएव विशुद्ध हैं । सूत्र ६१०-६१२ = 1 जिस प्रकार ( १ ) आलिंग - भुरज, (२) मृदंग, (३) पणव, (४) पट (५) वर, (६) करी, (७) डिडिम, (८) गंभा (१) होरंभ, (१०) कणिका (११) खरमुली (१२) मुकुन्द (१३) लका, (१४) परिली (१५) बच्च (१६) परिवादिनी (१७) वंस, (१८) वेणुवीणा, (१६) सुघोषा, (२०) विपंची, (२१) महति, (२२) कच्छभी, (२३) रिगिसिगिका, (२४) तलताल, (२५) कांस्यताल आदि विविध वाद्यों के बजाने में निपुण संगीतशास्त्रकुशलों द्वारा बजाये गये त्रिस्थान (आदि-मध्य और अवसान स्थानों से ) शुद्ध वाद्य होते हैं, उसी प्रकार त्रुटितांग नाम के द्रुमगण भी अनेक प्रकार के स्वभावसिद्ध वाद्य विधानों से युक्त फलों से पूर्ण विकसित है। उन वृक्षों के मूल कुश - डाभ, विकुश – बल्वजघास रहित हैं अतएव शुद्ध हैं । १ 'आलिगोनाम' यो वादकेन आलिय वायते, 'सुरज' इति २ 'मृगङ्गो' लघुमर्दनः । ३ ' पणवः' भाण्डपटह 1 ४ 'दर्द्दरिको' यस्य चतुभिश्चरणैरवस्थानं भुवि स गोधाचर्मावनद्धो वाद्य विशेषः । ५ 'डिंडिम:' प्रथम प्रस्तावना सूचकः पणवविशेषः । ६ भंभा ढक्का | ७ होरंभा महाढक्का । ६ 'मुकुन्द' - मुरजविशेषो, यो अतिलीनं प्रायो वाद्यते । १०पा ११ पिरली वच्चको तृणरूपवाद्यविशेषौ । १२ रिगिसिगिका घार्यमाण वादित्र विशेष, देशिभाषायां - 'रणसिंगा' इति प्रसिद्धः । १३ तास हस्तपुस्ति न ६१२. एगोरुयदीवे णं दीवे तत्थ तत्थ बहवे दीवसिहा णाम दुमगणा ६१२. हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुकद्वीप के अनेक स्थानों में पण्णत्ता समणाउसो ! 'दीपशिखा' नाम के अनेक वृक्षों का समूह कहा गया है। ८ खरमुही काहला । विशेषस्तथापि तदुत्थित शब्दप्रतिकृतिः शब्द सत्यते । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र ६१२-६१४ तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३३३ जहा से संझाविरागसमए नवणिहिपतिणो दीविया चक्क- जिस प्रकार संध्या समय की लालिमा, चक्रवर्ती के मणि-रत्न वालविंदे पभूयवट्टिपलित्ताहिं धणिउज्जालियतिमिरमद्दए, जटित महर्घ्य स्वर्णमय विचित्र दण्डदीपिका चक्रवाल की स्नेहसिक्त कणगणिगरकुसुमितपालियातयवणप्पगासो कंचणमणिरयण- (तेल तृप्त) अधिक बढ़ी हुई एक साथ प्रज्वलित अनेक बत्तियों का विमल-महरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाहिं दीवियाहिं सहसा अन्धकार नाशक अति उज्ज्वल प्रकाश है, स्वर्णमय पारिजात पुष्पपज्जलिऊसविय-णिद्धतेय-दिप्पंत-विमलगहगण--समप्पहाहिं वन का प्रकाश, दैदीप्यमान ग्रहगण की विमल प्रभा, और वितिमिरकर-सूरपसरिउल्लोयचिल्लिाहि जावुज्जलपहसियाभि- तिमिरनाशक सूर्य की सुशोभित एवं मनोहर किरणों का प्रकाश रामाहिं सोभेमाणा, होता हैतहेव ते दीवसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरि- -उसी प्रकार दीपशिखा नामक द्र मगण भी अनेक प्रकार के णामाए उज्जोयविधीए उववेदा फलेहिं पुण्णा विसट्टन्ति, स्वभावसिद्ध प्रकाशयुक्त फलों से परिपूर्ण विकसित हैं। कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति । उन वृक्षों के मूल कुश-डाभ, विकुश-बल्बजघास रहित हैं अतएव शुद्ध हैं। ६१३. एगुरुयदीवे तत्थ तत्थ बहवे जोतिसिहा णाम दुमगणा पण्णत्ता ६१३. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुक द्वीप के अनेक स्थानों में समणाउसो! 'ज्योतिशिखा' नाम के अनेक वृक्ष-समूह कहे गये हैं । जहा से अचिग्गयसरय-सूरमंडल-पडंत-उक्कासहस्स- जिस प्रकार शरदऋतु के उदीयमान सूर्य का प्रकाश, उल्का दिपंत-विज्जज्जालहयवहनिम-जलियनिद्धतधोय-तत्ततव- सहस्र का उज्ज्वल तेज, बिजलियों की चमक, प्रज्वलित निर्धम णिज्ज-किसुयासोयजावासुयणकुसुम-विमलियपुञ्जमणिरयण- अग्नि की ज्वालायें, तपाये हुए स्वर्ण का वर्ण, विकसित किशक किरणजच्चहि-गुलुयणिगररुवाइरेगरूवा, एवं जवाकुसुम पुष्पसमूह की प्रभा, मणि-रत्नों का किरण पुज, और हिंगुल की राशि होती हैतहेव ते जोतिसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससा- उसी प्रकार ज्योतिशिखा नाम के छमगण भी अनेक प्रकार परिणयाए उज्जोयविहीए उववेदा सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदाय- के स्वभावसिद्ध शुभ, मंद, मंदातप प्रकाशों से कूट-शिखर के वलेस्सा कुडाय इव ठाणठिया अन्नमन्नसमोगादाहिं लेस्साहिं समान एक (अपने-अपने) स्थान पर स्थित; उन सभी वृक्षों के साए पभाए सपदेसे सव्व भो समंता ओभासंति उज्जोवेति प्रकाश एक दूसरे से समन्वित होकर अपने-अपने प्रदेश में चारों पभासेंति, ओर अबभासित; उद्योतित एवं प्रभासित होते हैं। कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति । उन वृक्षों के मूल कुश=डाभ, विकुश बल्बजघास रहित हैं अतएव विशुद्ध हैं। ६१४. एगरुयदीवे तत्थ तत्थ बहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता ६१४. हे आयुष्मन् श्रमण ! एको रुकद्वीप के अनेक स्थानों में समणाउसो! 'चित्रांग' नाम के वृक्ष-समूह कहे गये है। जहा से पेच्छाघरे विचित्ते रम्मे वरकुसुमदाममालुज्जले, जिस प्रकार प्रेक्षागृह =नाट्यशाला कुशल शिल्पियों द्वारा भासतमक्कपुष्कपूजोवयारकलिए, विरल्लिविचित्तमल्लसिरि- अनेक प्रकार के चित्रों से रमणीय, श्रेष्ठ पूष्पमालाओं से देदीप्यमान दाममल्लसिरिसमुदयप्पगब्भे गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेण विकसित मनोहर विरल-विचित्र पुष्पमालाओं से सुशोभित किया मल्लेण छेयसिप्पियं विभारतिएण सम्वतो चेव समणुबद्धे जाता है । ग्रन्थिम=गूंथकर, वेष्टिम=पुष्प पर पुष्प लगाकर पविरललवंतविप्पइट्रेहिं पंचवणेहिं कुसुमदामेहि सोभमाणेहि शिखर सदृश या मुकुट सदृश गंथकर, पूरिम-लघछिद्र में पुष्प सोभमाणे वणमालतग्गए चेव दिप्पमाणे, पूरकर, संघातिम=एक पुष्प की नाल में दूसरे पुष्प की नार जोड़कर बनाई हुई पाँच वर्ण की पुष्पमालाये कहीं-कहीं । अन्तर पर कहीं-कहीं अधिक अन्तर पर लगाने से सजिन है तथा उसके द्वारा वनमाला-बन्दन मालाओं से होता है। तदेव ते चित्तंगयावि मगणा अणेगबहुविविहवीससापरिण- उसी प्रकार चित्रांग नाम के द्र मगण भी याए मल्लविहीए उववेया, विधियों से युक्त होते हैं । Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन कुस - विकुस - विसुद्ध - रुक्खमूला जाव- चिट्ठन्ति । ६१५. गुरुदी तत्थ तत्थ बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से सुगंधर कलमसाल - विसिद्ध-हित- दुद्धरखे सारप-गुड-खंड-महुमेलिए, अतिरले परमन्ये होज्ज, उत्तम वण्णगंधमंते, 1 रणो जहा या चक्कस्सि होम णिउहि पुरिसेहि सज्जिएहि उपसेअसिस इ ओ कसमस लिज्जित एवि, विपक्क सवष्क- मिउ-वसय सगालसित्थे, अणेगसालण ग-संजुत्ते, अवाप सरकार अम-गंध-रस करिस जुत बलवी रियपरिणामे इंदियवलपुट्टिबद्धणे, खुप्पिवासमह पहाणंसकटिप- खंड -मच्छंडिय-उदगीर पमोयने सहसमय गर्भ हवेज्ज परमइट्ठगसंजुत्ते, सहेव ते चितरसावि तुमगणा अगबहुविविहवीससा परि णयाए भोजनविहीए उववेदा, कुकुस विद्धयमूला जाय-विट्ठन्ति । ६१६. एगुरुयदीवे तत्थ तत्थ बहवे मणियंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो । जहा से हारहार-बट्टग-म-कुण्डल- वामुसग हेमजाल-मणिजाल-कणगनालग मुग-उच्चपहाडिय एकावलि - कंठसुत्त-मंगरिम- उरत्थ- गेवेज्ज - सोणिसुत्तग-चूला - मणि-कणगतिलग फूल-सिद्धस्य कण्णवालि-ससिपूर-उसम कलमंग-डि-हत्यमालक लवणोणारमालिता, चंद सूर-मालिता, हरिसय केयूर वलय- पालंब - अंगुलेज्जग-कंचीमेहला कलापपरग-पायजान-इंटिय- खिखिणि रयणोदजाल तिथगियवरणेउर-चलणमालिया, कणगणिगरमालिया, कंचणमणिरयणमत्तिवित्ता, भूगविधी बहुप्यारा, सूत्र ६१४-६१६ उन वृक्षों के मूल कुश - डाभ, विकुश - बल्वजघास रहित हैं अतएव शुद्ध हैं । ६१५. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुकद्वीप के अनेक स्थलों में 'चित्ररस' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये हैं। जिस प्रकार अविक्रित विशिष्ट दूध में रांधे हुए और शरद् ऋतु के पुत, गुड़, खांड या मधु से मिश्रित श्रेष्ठ सुगन्धित चावल । उत्तम वर्ण, गंध, रस युक्त परमान्न क्षीर । = अथवा - चक्रवर्ती के पाकविद्या विशारद रसोइए के बनाए हुए चकल्प से सिक्त कलमशाली भाप से पकाने पर कोमल एवं फूली हुई, अनेक प्रकार के पुष्प फल संयुक्त चावल की कणिका । " अथवा - एला आदि समस्त द्रव्यों से संस्कारित, श्रेष्ठ वर्ण, गंध, रस-स्वतं युक्त, यल-वीर्य रूप में परिणमित चक्षु आदि सभी इन्द्रियों को पुष्ट करने वाले तथा शक्ति बढ़ाने वाले क्षुधा, तृषा, शामक, पक्व एवं पवित्र गुड़ खांड या मिश्री मिश्रित, तीन वार छने हुए आटे से बनाये हुए, अत्यन्त प्रिय - उपयोगी द्रव्यों से संयुक्त मोदक होते हैं , उसी प्रकार चित्ररस द्रुमगण भी अनेक प्रकार की स्वभाव सिद्ध भोजन विधि से युक्त होते हैं । उन वृक्षों के मूल कुश = डाभ, विकुश = बल्वजघास रहित है अतएव विशुद्ध है। ६१६. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुकद्वीप के अनेक स्थानों में 'मणिअंग' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये हैं। = जिस प्रकार ( १ ) हार - अठारह लड़ियों वाला, (२) अर्धहारनी लड़ियों वाला, (२) वेष्टनक कानों के (४) मुकुट, (५) कुण्डल, (६) वामोत्तक, (७) हेमजाल, (८) मणिजाल (२) कनकजाल, (१०) सुवर्णसूत्र, (११) उचितकटक, (१२) क्षुद्रक, (१३) एकावलि यू (१४) मकराकारहार, (१५) ग्रैवेयक = गले में पहनने का आभरण, (१६) कटिसूत्र (१७) चूडामणि, (१८) स्वर्णतिलक, (१२) पुष्पक, (२०) सिद्धार्थक, (२१) कर्णवालि, (२२) चन्द्रचक्र, (२३) सूर्य पत्र (२४) वृम पत्र (२५) तलभंग, (२६) त्रुटितभुजबंध, (२७) हस्तमालक, (२०) बल, (२२) दीनारमालक, (३०) चन्द्रमालक, (३१) सूर्यमालक, (३२) हर्षक, (३३) केयूर, (३४) वलय = कंकण, (३५) प्रालम्ब = लम्बी शृङ्खला अथवा झूमका, (२६) अंगुलेवक अंगुठी, (१७) कांबीला स्वर्णमयकटिसूत्र, (३८) कलापप्रतरक, (३९) पायल, (४०) घण्टिका, ( ४१ ) खितिणी छोटी पेटिका (४२) रत्नोपजाल, (४३) क्षुद्रिका, (४४) श्रेष्ठनुपुर, (४५) चरणमालिका (४६) कनकनिकर मालिका पैरों में पहनने के सोने के कड़े, स्वर्ण-मणि रत्नजड़ित चित्रयुक्त अनेक प्रकार के आभूषण होते हैं । - = -- Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६१६-६१८ तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३३५ तहेव ते मणियंगावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिः उसी प्रकार 'मणिअंग' नाम के द्रुमगण भी अनेक प्रकार की णताए भूसणविहीए उववेया । स्वभावसिद्ध भूषण विधि से युक्त होते हैं। कुस-विकुस-विसुद्ध-रुक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति । उन वृक्षों के मूल, कुश-डाभ, विकुश-बल्वजघास रहित होते हैं अतएव शुद्ध होते हैं। ६१७. एगुरुयए दीवे तत्थ तत्थ बहवे गेहागारा णाम दुमगणा ६१७. हे आयुष्मान् श्रमण ! एकोरुकद्वीप के अनेक स्थानों में पण्णत्ता समणाउसो! 'गृहाकार' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये हैं । जहा से पागार-ट्टालग-चरिय-दार-गोपुर-पासायाकासतल- जिस प्रकार (१) प्राकार-नगर की चार दिवारी, (२) मंडव-एगसाल-बिसालग-तिसालग-चउरंसचउसाल गब्भघर- अट्टालक-प्राकार पर बना हुआ एक मकान, (३) चरिकामोहणघर-वलभिघर-चित्तसाल-मालय-भत्तिघर-बट्ट-तंस-चतु- प्राकार पर आठ हाथ चौड़ा मार्ग, (५) गोपुर-नगर का द्वार, रंसणंदियावत्तसंठियायतपंडुरतलमुण्डमालहम्मिय, (५) प्रासाद-राजमहल, (६) आकाशतल-चटाइयों से बनी हुई कुटिया, (७) मण्डप-छाया के लिए कपड़े का बना हुआ तम्बू, (८) एगशाल-भवन, (6) द्वि-शाल-भवन, (१०) त्रि-शाल भवन, (११) चतुश्शाल-भवन, (१२) गर्भगृह = बीच का घर, (१३) मोहनघर=सुरतगृह, (१४) वल्लभी = बल्लियों के आधार पर बना हुआ घर, (१५) चित्रशाला, (१६) मालकगृह = मकान की छत पर बना घर, (१७) भक्तिगृह =अलग अलग घर, (१८) वृत्तगृह = गोल, (१६) त्रिकोणघर, (२०) चतुष्कोणघर, (२१) नन्द्यावर्तसंस्थितघर, (२२) पंडुरतल-सुधामयतल, (२३) मुण्डमालहर्म्य = महल की छत पर बना हुआ बिना छत का घर । अहवा णं धवलहर-अद्धमागह-विन्भम-सेलद्धसेलसंठिय- अथवा-(२४) धवलगृह, (२५) अर्धमागधविभ्रम, (२६) कडागारटुसुविहिकोट्ठग-अणेग घरसरणलेण-आवण-विडंगजाल- (२७) अर्द्ध शैलसंस्थित =आधा पर्वत पर और आधाभूतल पर चंदणिज्जूहअपवरकदोवालि--चंदसालियरुवविभत्तिकलिता बना हुआ भवन, (२८) कूटागाराढ्यसुविहितकोष्ठक = शिखराभवणविही बहुविकप्पा । कार सुरचित अनेक गृह (२६) अनेकघरसरणलयन = घास के छप्पर वाले अनेक घर, (३०) आपण = दूकान, (३१) विटंक = कपोतपालि, (३२) जालवृन्द = गवाक्ष-पंक्ति, (३३) नियूह-द्वार के ऊपर के भाग में निकले हुए काष्ठ, (३४) अपवरक = शयनागार, (३५) चन्द्रशालिका= सबसे ऊपर का घर इत्यादि अनेक प्रकार के घर हैं। तहेव ते गेहागारावि दुमगणा अणेग-बहुविविध-वीससा- उसी प्रकार गृहाकार द्र मगण भी अनेक प्रकार के स्वभावपरिणयाए, सुहारहणे महोत्ताराए, सुहनिक्खमणप्पवेसाए, सिद्ध आराम से चढ़े, उतरे, प्रवेश करे, निकले, इच्छानुसार दहरसोपाणपंतिकलिताए पइरिक्काए सुहविहाराए मणोऽणु- शयनादि करें, ऐसे सोपान पंक्ति सहित मन के अनकल विविध कूलाए भवणविहीए उववेया। भवन विधियों से युक्त हैं। कुस-विकुस-विसुद्ध रुक्खमूला-जाव-चिट्ठन्ति । उन वृक्षों के मूल कुश-डाभ, विकुश-बल्बजघास रहित है, अतएव शुद्ध हैं। "६१८. एगोरुयदीवे तत्थ तत्थ बहवे अजिंगणा णाम दुमगणा पण्णता ६१८. हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोषकद्वीप के अनेक स्थानों में समणाउसो ! 'अनग्न' नाम के अनेक वृक्षों के समूह कहे गये हैं। जहा से अणेगखोमं तणुतं, कंबल-दुगुल्ल-कोसेज्ज-काल• जिस प्रकार अनेक प्रकार के (१) शरीर के अनुकूल वस्त्र, मिगपट्ट-चीणंसुय-बरणातवारवणिगय-तुआभरण-चित्तसहिणग- कम्बल, दुकूल = गौड देश के कपास से बने हुए वस्त्र, (३) कल्लाणग-भिगिणील-कज्जल-बहवण्ण-रत्त-पीत-सुक्किल- कौशेय = कृमियों के निकाले हुए तन्तुओं से बने हुए वस्त्र, Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक अन्तरद्वीप वर्णन : १ मक्खयमिगलोम हेमवर सिंधु खसम दामिलबंग- कलिंग - नणि तंतुमयभत्तिचित्ता, वत्थविही बहुप्पकारा हवेज्ज वरपट्टणुग्गता वण्णरागकलिता, तहेव ते अणियणावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिबताए विधी उपया -विद्धि-मूला- जावति।" उ०- गोवमा ! जंबूद्दीवे दीने मंदरस्स पचपरस दाहिन चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिण-पुरत्थि मिल्लाओ चरिमंताओ लवण समुद्द तिष्णि जोयणसयं ओगाहित्ता, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं आभासियमणुस्साणं आभासियदीवे णामं दीव पण्णत्ते । से जहा एगुरुवाणं तहेब निरवसेसंभागिय ६२०.१० – कहिणं भंते! दाहित्लिाणं गंगोलिय-मगुस्साणं यही नाम दीये पण ? से से दसवा दुमगणा । - - ६१६. ० कहि गं भंते! दाहपिल्लानं आभासियमणुस्मा आभासियदीवे नामं दीवे पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! जंबूद्दीने दोधे मंदरस्स पश्चयरस दाहिणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपश्वयरस पच्चत्थिमिहलाओ = = (४) कालमृगपट्ट काले मृग के नर्म से बने हुए वस्त्र, (५) चीनांशुक = चीन देश के बने हुए वस्त्र, (६) सूत के बने हुए आभरणों के चित्रों से चित्रित वस्त्र, (७) सूक्ष्म तन्तुओं से निष्पन्न वस्त्र, (८) कल्याणक = उत्कृष्ट वस्त्र, (६) भृंगनील भृंग कीट जैसे नीले वस्त्र, (१०) कज्जल = वर्ण वाले वस्त्र, (११) बहुवर्ण = अनेक वर्ण वाले वस्त्र, (१२) रक्त, (१३) पीत, (१४) शुक्ल, वर्ण वाले वस्त्र, (१५) म्रक्षित = शुभ पुद्गलों से संस्कारित वस्त्र, (१६) मृग रोम और हेमसूत्रों से बने हुए वस्त्र (१७) रल्लक = राली, एक प्रकार का कम्बल, (१८) पश्चिम, (१९) उत्तर (२०) सिन्धु, (२१) ऋषभ, (२२) द्रविड, (२३) बंग, (२४) कलिंग आदि देशों में बने हुए वस्त्र, (२५) नलिन तन्तुमय वस्त्र, (२६) विशिष्ट चित्र-चित्रित वस्त्र, इत्यादि अनेक प्रकार के श्रेष्ठ वर्ण युक्त वस्त्र हैं । उसी प्रकार अनग्न नाम के दुमगण भी अनेक प्रकार के स्वभावसिद्ध वस्त्र युक्त हैं । उन वृक्षों के मूल कुश डाभ, विकुश = बल्वजघास रहित है अतएव विशुद्ध हैं । दस प्रकार के द्रुमगण समाप्त । ६१६० भदन्त दाक्षिणात्य आमासिक मनुष्यों का - हे ! आभासिकद्वीप नाम का द्वीप कहाँ कहा गया है ? सूत्र ६१८-६२० उ०- हे गौतम! जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत से दक्षिण में क्षुद्र हिमवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिण-पूर्वान्त के अन्तिम भाग से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर दाक्षिणात्य आभासिक मनुष्यों का आभासिकद्वीप नाम का द्वीप कहा गया है । शेष सब एकोकोपवासी मनुष्यों के समान कहना चाहिए। ६२० प्र० हे भदन्त दाक्षिणात्य नांगोलिक मनुष्यों का नांगोलिक द्वीप नामक द्वीप कहाँ कहा गया है ? उ० - हे गौतम! जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत से दक्षिण में क्षुद्रहिमवन्त वर्षधर पर्वत के पश्चिमान्त के अन्तिम भाग से (क) माहाराविहारखा (१) मतंगा व (२) भिंगा, (३) सिंगा, पेय होंति, (४) वित्तरसा (५) मणियंगा य, (६) अणियणा, (७) सत्तमगा कप्परुक्खा य ।। (ख) गाहा - दसविहा रुक्खा (१) मत्तंगाय, (२) भिंगा, (३) तुडियंगा, (४) दीव, (५) जोइ, (६) चित्तंगा । (७) चित्तरसा, (८) मणिबंदा, (९) बेहागारा, (३०) अशिवणा व ॥ (ग) जम्बु० वक्ख० २ सु० २० । विस्तृत वर्णन है । - ठाणं अ० ७ सु० ५५६ - ठाणं अ० १० सु० ७६६: Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२० ६२४ ति लोक अन्तरद्वीप वर्णन : चरिमंताओं दाणि पश्यत्थिमेणं लवणसमुद्द तिष्णि जोयणसयाई ओगाहिता, एस्थ णं शहिणिस्लाणं गंगो लियमणुस्साणं णंगुलियद्दीवे नामं दीवे पण्णत्ते । सेसं जहा एगुरुयाणं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं । उ०- गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं सहिमवंतस्स बासहरवस्वपस्स उत्तर पम्चत्थि मिल्लाओ चरिमंताओ उत्तर-पच्चत्विमेणं लवणसमुद्द तिमि जोयणसवाई ओगा हिसा, एस्थ नं दाहिमित्तानं साणियमणुस्साणं वेसाणियदीवे नामं दीवे पण्णत्ते । से वहा एगुस्यागं तहेब निश्वसेस भाणिय -जीवा. पडि. ३, सु. १११ ६२१. प० – कहि णं मंते ! दाहिणिल्लाणं वेसाणियमणुस्साणं वेसा - ६२१. प्र० - हे भदन्त ! दाक्षिणात्य वैसाणिक मनुष्यों का वैाणिकद्वीप नाम का द्वीप कहीं कहा गया है ? जिद्दीने नाम दीये पण्यते ? बारसजोयणसया पण्णट्ठी किचिविसेसूणा परिवखेवेणं, से णं एगाए पउमचरयाए से जहा एगुरुयाणं तव निरवसेसंभागिय ६२२.० मते । दाहिजिल्ला गयकरण-मराणं गय कण्णदीवे नामं दीवे पण्णत्ते ? हमकण्णाइयं दीव चउप हयकर्णादिक द्वीप चतुष्क ६२२. प०—–कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं हयकण्णमणस्साणं हय- ६२२. प्र० - हे मदन्त ! दाक्षिणात्य हयकर्ण मनुष्यों का हय कर्ण कण्णदीवे नामं दीवे पण्णत्ते ? द्वीप नाम का द्वीप कहाँ कहा गया है ? उ०- गोयमा ! एगोरुयदीवस्स उत्तर-पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुद्र चत्तारि ओवणसपाई ओमाहिला एस्य णं दाहिगिल्लाणं हथकण्णमनुस्साणं हमकण्णयीये नामं दीवे पण्णत्ते । चत्तारि जोयणसयाई आयाम विक्खंभेणं । उ०- गोयमा ! आभासियदोवस्त दाहिण पुरथिमिल्लाओ परिमताओ लवणसमुद्र चलारि जोसपाई भोगाहित्ता, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं गयकष्णमणुस्साणं गय कण्णदीवे नामं दीवे पण्णत्ते । गणितानुयोग ३३७ सेसं जहा हयकण्णाणं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं । ६२४. १० – कहि मं भंते! दाहिणिल्लाणं गोकणमस्ताणं गोकण्णदीवे नामं दीवे पण्णत्ते ? दक्षिण-पश्चिम में सयणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर दाक्षिणात्य नांगोलिक मनुष्यों का नांगोलिकद्वीप नाम का द्वीप कहा गया है। यस एकteesोपवासी मनुष्यों के समान कहना चाहिए। उ०- गोयमा ! बेसाणियदीवस्स दाहिण-पच्चत्थिमिल्लाओ चरिताओ लवणसमुद्र' चत्तारि जोपणसबाई ओगा हित्ता एत्य गं दाहिणिल्लाणं योकण्णम गुस्साणं गोकणदीवे नामं दीवे पण्णत्ते । सेसं जहा हमकण्णाणं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं । उ०- हे गौतम! जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में लुइहिमवन्त वर्षधर पर्यंत के उत्तर-पश्चिमान्त के अन्तिम भाग में उत्तर-पश्चिम में लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर दाक्षिणात्य वैसालिक मनुष्यों का सालिकद्वीप नाम का द्वीप कहा गया है । शेष सब एकोवक द्वीप के मनुष्यों के समान कहना चाहिए। उ०- हे गौतम! एकोरुद्वीप के उत्तर-पूर्वान्त के अन्तिम भाग से लवणसमुद्र में चार सौ योजन जाने पर दाक्षिणात्य - कर्ण मनुष्यों का हवकर्षद्वीप नाम का द्वीप कहा गया है। उस द्वीप की लम्बाई-चौड़ाई चार सौ योजन की कही गई है। बारह सौ पैंसठ योजन से कुछ कम की परिधि कही गई है। यह एक पद्मवेदिका से चारों ओर घिरा हुआ है। शेष सब एकोपवासी मनुष्यों के समान कहना चाहिए। ६२२. प्र० भदन्त ! दाक्षिणात्य गजकर्ण मनुष्यों का गजकर्णद्वीप नाम का द्वीप कहाँ कहा गया है ? उ०- हे गौतम | आभाविकद्वीप के दक्षिणपूर्वान् के अन्तिम भाग से लवणसमुद्र में चार सौ योजन जाने पर दाक्षिणात्य गजकर्ण मनुष्यों का गजकर्णद्वीप नाम का द्वीप कहा गया है । शेष समीपवासी मनुष्यों के समान कहना चाहिए। ६२४. प्र०—हे मदत! दाक्षिणात्य गोकर्ण मनुष्यों का गोकर्णद्वीप नाम का द्वीप कहाँ कहा गया है ? उ०- हे गौतम! वैसालिकद्वीप के दक्षिण-पश्चिमान्त के अन्तिम भाग से लवणसमुद्र में चार सौ योजन जाने पर दाक्षिणात्य गोकर्ण मनुष्यों का गोकर्णद्वीप नाम का द्वीप कहा गया है। शेब सब हयकर्णद्वीपवासी मनुष्यों के समान कहना चाहिए। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : अन्तरद्वीप वर्णन सूत्र ६२५ ६२५. ५०-कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं सक्कुलिकण्ण-मणुस्साणं ६२५. प्र०-हे भदन्त ! दाक्षिणात्य शष्कुलिकर्ण मनुष्यों का सक्कुलिकण्णदीवे नाम दीवे पण्णत्ते ? शकुलिकर्णद्वीप नाम का द्वीप कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! गंगोलियदीवस्स उत्तर-पच्चथिमिल्लाओ उ०-हे गौतम ! नंगोलिकाद्वीप के उत्तर-पश्चिमान्त के चरिमंताओ लवणसमुद्द चत्तारि जोयणसयाई ओगा- अन्तिम भाग से लवणसमुद्र में चार सौ योजन जाने पर दाक्षिहित्ता, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सक्कुलिकण्णम तुस्साणं णात्य शष्कुलिकर्ण मनुष्यों का शष्कुलिकर्णद्वीप नाम का द्वीप सक्कुलिकण्णदीवे नाम दीवे पण्णत्ते । कहा गया है। सेसं जहा हयकण्णाणं तहेव निरवसेसं भाणियव्वं । शेष सब हयकर्णद्वीपवासी मनुष्यों के समान कहना चाहिए। आयंसमुहाईयं दीवचउक्कं आदर्शमुखादिकद्वीप चतुष्क(पंचजोयणसयाई ओगाह) (ये पांच सौ योजन अवगाहन के बाद हैं ।) आसमुहाईयं दीवचउक्कं अश्वमुखादिक द्वीप चतुष्क(छ जोयणसयाई ओगाह) (ये छह सौ योजन अवगाहन के बाद हैं।) आसकन्नाईयं दीवचउक्कं अश्वकर्णादिक द्वीप चतुष्क(सत्त जोयणसयाई ओगाह) (ये सात सौ योजन अवगाहन के बाद हैं ।) उक्कामुहाईयं दीवचउक्कं उल्कामुखादिक द्वीप चतुष्क(अट्ठ जोयणसयाई ओगाह) (ये आठ सौ योजन अवगाहन के बाद हैं ।) घणदंताईयं दीवचउक्कं घणदंतादिक द्वीप चतुष्क(नव जोयणसयाई ओगाह) (ये नव-सौ योजन अवगाहन के बाद हैं।) गाहा गाथार्थएग्ररुयपरिक्खेवो नव चेव सयाई अउणपन्नाई। (१) एकोरुकादि द्वीप चतुष्क की परिधि नौ सौ योजन की है। बारसपन्नट्ठाई हयकण्णाईणं परिक्खेवो ॥ (२) हयकर्णादि द्वीप चतुष्क की परिधि बारा सौ पैंसठ योजन की हैं। आयसमूहाईणं पन्नरसेकासीए जोयणसते किंचिविसे- (३) अश्वमुखादिक द्वीप चतुष्क की परिधि पन्द्रह सौ साधिए परिक्खेवेणं । इक्यासी योजन से कुछ अधिक कहे हैं। एवं एएणं कमेणं उवउंजिऊण तव्वा चत्तारि चत्तारि इस प्रकार इस क्रम से उपयोग लगाकर चार चार द्वीपों एगपमाणा। को परिधि एक समान जाननी चाहिए। णाणत्तं ओगाहे, विखंभे परिक्खेवे । अवगाहन, विष्कम्भ और परिधि नाना प्रकार के हैं। पढम-बीय-तइय-चउक्काणं उग्गहो विक्खंभो परिक्खेवो प्रथम, द्वितीय और तृतीय, चतुष्क की परिधि कही गई है। भणिओ। चउत्यचउक्के छजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं, चतुर्थ द्वीप चतुष्क का आयाम-विष्कम्भ छ सौ योजन का अट्ठारसत्ताणउते जोयणसते परिक्खेवेणं । है। अठारह सौ नब्वे योजन की परिधि है। पंचमचउक्के सत्त जोयणसताई आयामविक्वंभेणं, पंचम द्वीप चतुष्क का आयाम-विष्कम्भ सात सौ योजन का बावीस तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं । है। बावीस सौ तेरह योजन को परिधि है। छट्टचउक्के अद्वजोयणसताई आयामविक्खंभेणं, पणुवीसं छठे द्वीप चतुक का आयाम-विष्कम्भ आठ सौ योजन का गुणतीसंजोयणसए परिक्खेवेणं । है। पच्चीस सौ गुणतीस योजन की परिधि हैं। सत्तमचउक्के नवजोयणसताई आयामविक्खंभेणं, दो सप्तम द्वीप चतुष्क का आयाम-विष्कम्म नौ सौ योजन का जोयणसहस्साई अट्र पणयाले जोयणसए परिक्वेवेणं । है। दो हजार आठ सौ पैंतालीस योजन की परिधि है। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२५-६२८ गाहा— १ जस्स व जो विश्वंभो ओहोणोतस्स तसिओ व पढमाइयाण परिरतो जाण सेसाण अहिओ उ ॥ तिर्यक लोक लवणसमुद्र वर्णन ऐसा जहा एगुरुवदीवसा जाब- सुदन्तदीये, देवलोकपरिग्गहा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो । - जीवा० पडि० ३ सु० ११२ — उ०- गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिस्त बासधरयस्वयरस उत्तरपुरथिमिलाओ चरिताओ समुद्द तिग जोयसाई ओगाहिता एत्थ णं उत्तरिल्लाणं एगुरुयमणुस्साणं एगुरुयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते । एवं जहा दाहिणिल्लाणं तहा उत्तरिल्लाणं भाणितव्वं, णवरं - सिरिस्स वासहरपव्वयस्स विदिसासु, एवं - जाव - सुद्धदन्तदीवेत्ति' - जाव - सत्तं अन्तरदीवका । - जीवा० पडि० ३, सु० ११२ लवणसमुद्दवण्णओ लवणसमुद्दस्स संठाणं, विक्खंभ-परिक्खेव पमाणं च६२७. जंबुद्वीनामंदी सब नाम समुद्दे व बलयागारठाण संठिते सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठति । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५४ ६२८. प० - लवणे णं मंते ! समुद्द े कि संठिए पण्णत्ते ? - उत्तरिल्लाणं एगोरुयाइदीवाणं ठाणप्पमाणाइं अत्तरेय एकोरकादि द्वीपों के स्थान प्रमाणादि ६२६. ० -- कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगुरुयमणुस्साणं एगुरुय - ६२६. प्र० - हे भदन्त ! औत्तरेय एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक दीवे णामं दीवे पण्णत्ते ? द्वीप नाम का द्वीप कहाँ कहा गया है ? उ०- हे गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर में शिखरी वर्षधर पर्वत के उत्तर-पूर्वान्त के अन्तिम भाग से सव समुद्र में तीन सौ योजन जाने पर औत्तरेयएकोक मनुष्यों का एकोरुकद्वीप नामक द्वीप कहा गया है । - , उ०- गोयमा ! गोतित्यसंठिते, नावासंठाणसंठिते, सिप्पिसंपुटिते सपठिते बलभिसंहिते, बट्टे वलया आसखंधसंटिते गारसंठाणसंठिते पण्णत्ते ! - जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १७२ भग० स० १० उ०७-२८ सु० १ । गणितानुयोग ३३६ गाथार्थ जिस द्वीप का जो विष्कम्भ है उसका उतना ही अवगाहन अन्तर है । प्रथमादि द्वीप चतुष्क की जितनी परिधि है शेष चतुष्कों की परिधि उनसे अधिक है । शुद्धदन्तद्वीप पर्यन्त शेष सब एकोरुकद्वीप के समान है । हे आयुष्मान् श्रमण ! वे मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं । जिस प्रकार दाक्षिणात्य मनुष्यों के द्वीप कहे उसी प्रकार औसरेय मनुष्यों के द्वीप कहने चाहिए। विशेष – शिखरी वर्षधर पर्वत की विदिशाओं में शुद्धदन्त द्वीप पर्यन्त ये सात अन्तरद्वीप हैं । लवण समुद्रवर्णन लवणसमुद्र का संस्थान, विष्कम्भ और परिधि का प्रमाण६२०. वृत एवं वलयाकार संस्थान से स्थित सवगसमुद्र जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है । ६२८. प्र० – भगवन् ! लवणसमुद्र का संस्थान (आकार) कैसा कहा गया है ? उ०- गौतम ! लवणसमुद्र गोतीर्थ संस्थान, नावा-संस्थान, शुक्तासंपुट-संस्थान, अश्वस्कंध संस्थान, बलभीगृह संस्थान, वृत्त और वलयाकार संस्थान से स्थित कहा गया है । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३४० लोक-प्राप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६२६-६३२ ६२६. ५०-लवणे गं भंते ! समुद्दे कि समचक्कवालसंठिते? ६२६. प्र.-भगवन् ! लवणसमुद्र क्या समचक्राकार संस्थान से विसमचक्कवालसंठिते ? स्थित है ? या विषमचक्राकार संस्थान से स्थित है ? उ०-गोयमा ! समचक्कवालसंठिए, नो विसमचक्कवाल- उ०-गौतम ! समचक्राकार-संस्थान से स्थित है, विषमसंठिए। चक्राकार-संस्थान से स्थित नहीं है। ६३०. ५०-लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं, ६३०. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र की चक्राकार चौड़ाई कितनी केवतियं परिक्खेवेणं पण्णते ? कही गई है और परिधि कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! लवणे णं समुद्दे दो जोयणसतसहस्साई उ०-गौतम लवणसमुद्र की चक्राकार चौड़ाई दो लाख योजन चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते,' की कही गई। पण्णरसजोयणसयसहस्साई एगासीइसहस्साई सयमेगोण- पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ उनतालीस योजन से चत्तालीसे किंचिविसेसाहिए लवणोदधिणो चक्कवाल- कुछ अधिक की लवणसमुद्र की चक्रवाल-परिधि कही गई है। परिक्खेवेणं पण्णत्ते ।। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५४ लवणसमुदस्स पउमवरवेइयाए वणसंडरस य पमाणं- लवणसमुद्र की पद्मवरवेदिका का तथा वनखण्ड का प्रमाण६३१. से णं एक्काए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सम्बओ ६३१. वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर समता संपरिक्खित्ते चिट्टइ । दोण्हवि वण्णओ। से घिरा हुआ है। दोनों (पद्मवरवेदिका और वनखण्ड) का वर्णन कहना चाहिए। ६३२. साणं पउमवरवेइया अद्धजोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं', पंचधणु- ६३२. वह पद्मवरवेदिका आधा योजन ऊपर की ओर ऊँची है, सयविक्खंभेणं, लवणसमुद्दसमियपरिक्खेवेणं, सेसं तहेव। पांच सौ धनुष चौड़ी है, लवणसमुद्र के समान परिधि वाली है शेष उसी प्रकार है। १ (क) ठाणं २, उ० ३, सु०६१। (ख) सम० सु० १२५। (ग) जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १७२ । (घ) लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते ? एवं नेयव्वं-जाव-लोगद्विती, लोगाणुभावे । -भग. स. ५, उ. २, सु. १८ २ (क) प०-लवणे णं! समुद्दे केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? उ०-गोयमा ! पण्णरसजोयणसयसहस्साई एकासीति च सहस्साई सतं च इगुयालं किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते । -जीवा पडि. ३, उ. २, सू. १७२ जीवा. प्रति. ३, उ. २, सू. १५४ में लवणसमुद्र की परिधि १५,८१,१३६ (पन्द्रह लाख, इक्यासी हजार, एक सौ उनतालीस) योजन से कुछ अधिक की कही गई है और जीवा. प्रति. ३, उ. २, सूत्र १७२ में १५,८१,१३६ (पन्द्रह लाख, इक्यासी हजार, एक सौ उनतालीस) योजन से कुछ कम की कही गई है। यद्यपि यह अन्तर विशेष नहीं है किन्तु एक ही आगम में दो प्रकार के ये कथन भ्रान्तिमूलक हैं । (ख) जीवा. प्रति. ३, उ. २, सूत्र १७२ में लवणसमुद्र के (१) संस्थान, (२) चक्रवालविष्कम्भ, (३) परिधि, (४) उद्वध, (५) उत्सेध और सर्वप्रमाण से सम्बन्धित पांच प्रश्न एक साथ हैं तथा पाँच उत्तर भी एक साथ हैं । किन्तु यहाँ एक प्रश्नोत्तर टिप्पण में लिया है और शेष प्रश्नोत्तर विषयानुक्रम से विभक्त करके दिये गये हैं। (ग) सूरिय. पा. १६, सु. १००। ३ ठाणं. अ. २, उ. ३, सु. ६१ । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६३४-६३६ तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३४१ ६३३. से गं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चवकवालविक्खंभेणं ६३३. वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन चक्रवाल चौड़ा है -जाव-विहरइ। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५४ यावत्-(देव) विचरण करते हैं । लवणसमुद्दस्स उदगमाल पमाणं लवणसमुद्र की उदकमाला का प्रमाण६३४. ५०-लवणस्स णं भंते ! समुद्दस्स के महालए उदममाले ६३४. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र की उदकमाला कितनी विशाल पण्णत्ते? ___ कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! दसजोयणसहस्साई उदगमाले पण्णत्ते । उ०-गौतम ! उदकमाला दस हजार योजन की कही -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७१ गई है । लवणसम दस्स उव्वेहाईणं पमाणं लवणसमुद्र के उद्व धादि का प्रमाण६३५. प०-लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं उव्वेहेणं पण्णत्ते ? ६३५. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र की गहराई कितनी कही गई है? उ.-गोयमा ! एग जोयणसहस्सं उब्वेहेणं पण्णत्ते । ___उ०-गौतम ! एक हजार योजन की गहराई कही गई है। ६३६. ५०-लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं उस्सेहेणं पण्णत ? ६३६. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र की ऊँचाई कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! सोलसजोयणसहस्साई उस्सेहेणं पण्णत्ते। उ०-गौतम ! सोलह हजार योजन की ऊँचाई कही गई है। ६३७. ५०-लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं सव्वग्गेणं पण्णत्ते ? ६३७. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र का सर्वाग्र कितना कहा गया है। उ०-गोयमा ! सत्तरसजोयणसहस्साई सम्वग्गेणं पण्णत्ते। उ०-गौतम ! सतरह हजार योजन का सर्वाग्र कहा -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७२ गया है। लवणसमुदस्स उव्वेहपरिवुड्ढी लवणसमुद्र में गहराई की वृद्धि६३८. ५०-लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं उठवेहपरिवड्ढोते ६३८. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र में गहराई की वृद्धि कितनी पण्णते? कही गई है ? उ०-गोयमा ! लवणस्स णं समुद्दस्स उभओ पासिं पंचाण- उ.- गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों ओर (जम्बूद्वीप की उति पंचाणउति पदेसे गंता पदेसं उब्वेहपरिवुड्ढीए वेदिका एवं लवणसमुद्र की वेदिका के अन्त से आरम्भ करके) पण्णते। पंचानवे पंचानवे प्रदेश जाने पर एक एक प्रदेश गहराई की वृद्धि कही गई। पंचाणति पंचाणउति वालग्गाई गंता वालग्गं उन्वेह- पंचानवे पंचानवे वालाग्र जाने पर एक-एक वालाग्र गहराई परिवुड्ढोए पण्णत्ते। की वृद्धि कही गई है। पंचाणउति पंचाणउति लिक्खाओगंता लिक्खा उब्वेह- पंचानवे पंचानवे लीक्षा जाने पर एक-एक लीक्षा गहराई की परिवुड्ढीए पण्णत्ते । वृद्धि कही गई है। एवं पंचाणउइ जवाओ जवमज्झे अंगुल-विहत्थि-रयणी- इसी प्रकार पंचानवे पंचानवे यव, यवमध्य, अंगुल, वितस्ति, कुच्छी-धण-गाउय-जोयण-जोयणसत-जोयणसहस्साई रनि, कुक्षी, धनुष, गाउ, सौ योजन और हजार योजन पर एकगंता जोयणसम्हसं उन्वेहपरिवुड्ढीए। एक यव, यवमध्य-यावत्-हजार योजन गहराई की वृद्धि कही -जीवा. पडि. ३, उ, २, सु. १७० गई है। लवणसमुदस्स उस्सेहपरिवुड्ढी लवणसमुद्र की उत्सेध परिवृद्धि६३६. प०-लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतियं उस्सेहपरिवुड्ढीए ६३६. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र की उत्सेधपरिवद्धि (शिखापण्णते? वृद्धि) कितनी कही गई है ? १ उदकमाला-समपानीयोपरिभूता। २ ठाणं. १०, सु० ७२० । ३ सम. १६, सु.७। ४ सम. १७, सु.५। ५ सम.६५ सु.३। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६३६-६४० उ०-गोयमा ! लवणस्स णं समुद्दस्स उभओ पासि पंचाण- उ०-गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों ओर पंचानवे पंचानवे उति पंचाणउति पदेसेगंता सोलसपएसे उस्सेहपरि- प्रदेश जाने पर सोलह प्रदेशों की शिखावृद्धि कही गई है। वुड्ढीए पण्णत्ते । गोयमा ! लवणस्स णं समुद्दस्स एएणेव कमेणं-जाव- गौतम ! इसी क्रम से-यावत्-पंचानवे पंचानवे हजार पंचाणउति पंचाणउति जोयणसहस्साई गंता सोलस- योजन की लवणसमुद्र की शिखावृद्धि कही गई । जोयणसहस्साई उस्सेहपरिवुड्ढीए पण्णत्ते।' -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७० लवणसम दवुड्ढी हाणि-कारणाई लवणसमुद्र की वृद्धि और हानि के कारण६४०.५०-कम्हा गं भंते ! लवणसमुद्दे चाउद्दसट्ठमुद्दिद्वपुण्णिमा- ६४०. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र (का पानी) चतुर्दशी, अष्टमी, सिणीसु अतिरेगं अतिरेगं वड्ढति वा, हायति वा? अमावस्या और पूर्णिमा को किस कारण से अधिकाधिक बढ़ता और घटता है ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स चउद्दिसि बाहि- उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के चारों ओर की रिल्लाओ वेइयंताओ लवणसमुदं पंचाणउति पंचाण- बाहरी वेदिकाओं के अन्त से लवणसमुद्र में पंचानवे पंचानवे उति जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थ णं चत्तारि हजार योजन जाने पर महाआलिंजर (विशालकुम्भ) के आकार महालिंजरसंठाणसंठिया महइमहालया महापायाला के चार बड़े-बड़े महापाताल (कलश) कहे गये हैं । पण्णत्ता, तं जहा–१. वलयामुहे, २. केतूए, यथा-(१) वलयामुख, (२) केतुक, ३. जूवे, ४. ईसरे। (३) यूप, और (४) ईश्वर । तेणं महापायाला एगमेगं जोयणसयसहस्सं उव्वेहेणं ।। प्रत्येक महापाताल (कलश) एक लाख योजन गहरा है । मूले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं, मूल दस हजार योजन चौड़ा है। मज्झे एगपदेसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसतसहस्सं एक एक प्रदेश की श्रेणी से (बढ़ते बढ़ते) मध्य में एक लाख विक्खंभेणं, योजन का चौड़ा है। उरि मुहमूले दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं, ऊपर के मुख का मूल (एक एक प्रदेश की श्रेणी कम होते होते) दस हजार योजन चौड़ा है। तेसि णं महापायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दसजोयण- उन महापाताल कलशों की दिवाले सर्वत्र समान हैं, वे दस सतबाहल्ला पण्णत्ता, सव्ववइरामया अच्छा-जाव- हजार योजन मोटी कही गई हैं। सब वज्रमय हैं स्वच्छ हैंपडिरूवा । यावत्-मनोहर हैं। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य अवक्कमंति, विउक्क- उन (दिवारों) में से अनेक जीव और पुद्गल निकलते हैं.. मंति, चयंति, उवचयंति । उत्पन्न होते हैं, चय और उपचय को प्राप्त होते हैं । सासया णं ते कुड्डा दन्वट्ठयाए । वे दिवारें द्रव्यों की अपेक्षा से शाश्वत हैं । पणज्जवेडिगंधपज्जवेहि रसपज्जवेहि फासपज्जवेहि वर्णपर्यायों, गंधपर्यायों, रसपर्यायों और स्पर्शपर्यायों की अपेक्षा असासया। से अशाश्वत हैं। तत्थ गं चत्तारि देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठि- वहाँ महधिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले चार देव, तीया परिवसंति, रहते हैं। १ सम. १६, सु. ७ । २ (क) ठाणं०४, उ० २, सु० ३०५। ३ ठाणं १०, सु० ७२० । (ख) सम० ६५, सु०२। ४ ठाणं १०, सु०७२० । Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६४१-६४३ तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३४३ तं जहा–१. काले, २. महाकाले, यथा-(१) काल, (२) महाकाल, ३. वेलंबे, ४. पमंजणे ।' (३) वेलम्ब और (४) प्रभंजन । ६४१. तेसि गं महापायालाणं तओ तिभागा पण्णता, ६४१. उन महापातालों के तीन विभाग कहे गये हैं। तं जहा–हेदिले तिभागे, मज्झिल्ले तिभागे, उवरिमे यथा-(१) नीचे का विभाग, (२) मध्य का विभाग, (३) तिभागे। ऊपर का विभाग। ते णं तिभागा तेत्तीसं जोयणसहस्सा तिण्णि य तेत्तीसं ये तीन भाग तेतीस हजार, तीन सौ, तेतीस योजन और जोयणसतं जोयणतिभागं च बाहल्लेणं । एक योजन के तीन भाग जितने मोटे हैं। तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे-एत्थ णं वाउकाओ उनमें से जो नीचे का त्रिभाग है उसमें वायुकाय है। संचिट्ठति । तत्थ णं जे से मज्झिल्ले तिभागे-एत्थ णं वाउकाए य, उनमें से जो मध्य का त्रिभाग है उसमें वायुकाय और आउकाए य संचिट्ठति । अप्काय है। तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे-एत्थ णं आउकाए उनमें से जो ऊपर का विभाग है उसमें अप्काय है । संचिट्ठति । ६४२. अदुत्तरं च गं गोयमा ! लवणसमुद्दे तत्थ तत्थ देसे बहवे ६४२. गौतम ! इनके अतिरिक्त लवणसमुद्र में जहाँ तहाँ छोटे खुड्डालिजरसंठाणसंठिया खुड्डुपायालकलसा पण्णत्ता। कलश के आकार के अनेक छोटे पाताल कलश कहे गये हैं। ते णं खुड्डा पाताला एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, प्रत्येक छोटे पाताल कलश एक हजार योजन के गहरे हैं । मूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं, प्रत्येक (छोटे पाताल कलश) का मूल (पैदा) एक सौ योजन चौड़ा है। मज्झे एगदेसियाए सेढीए एगमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभेणं, प्रत्येक (छोटे पाताल कलश) का मध्य एक एक प्रदेश की श्रेणी से (बढ़ते बढ़ते) एक हजार योजन का चौड़ा है। उप्पि मुहमूले एगमेगं जोयणसतं विक्खंभेणं । प्रत्येक (छोटे पाताल कलश) के ऊपर के मुख का मूल (एक एक प्रदेश की श्रेणी कम होते होते) एक सौ एक सौ योजन का चौड़ा है। ६४३. तेसि णं खुड्डागपायालाणं कुड्डा सव्वत्थ समा दस जोयणाई ६४३. उन छोटे पातालकलशों की दिवाले सर्वत्र समान हैं, वे बाहल्लेणं पण्णत्ता व्ववइरामया अच्छा-जाव-पडिहवा ।। दस योजन की मोटी कही गई हैं। सब वज्रमय हैं, स्वच्छ हैं यावत्-मनोहर हैं। तत्थ णं बहवे जीवा पोग्गला य अवक्कमंति-जाव-उव- उनमें से अनेक जीव और पुद्गल निकलते हैं यावत्चयंति । उपचय को प्राप्त होते हैं। सासया गं ते कुड्डा दम्वट्ठाए। उन (छोटे पातालकलशों) की दिवाले द्रव्यों की अपेक्षा से शाश्वत हैं। वण्णपज्जवेहि-जाव-फासपज्जवेहि असासया । वर्णपर्यायों की अपेक्षा से-यावत् - स्पर्शपर्यायों की अपेक्षा से अशाश्वत हैं। पत्तेयं पत्तेयं अद्धपलिओवमद्वितीताहि देवताहि परिग्गहिया। प्रत्येक (क्षुद्र पाताल कलश) अर्धपल्योपम की स्थिति वाली देवियों से परिगृहीत हैं। १ ठाणं ४, उ०२, सु० ३०५ २ ठाणं १०, सु० ७२० । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६४४-६४६ ६४४. तेसि णं खुड़गपातालाणं ततो तिभागा पण्णत्ता, तं जहा- ६४४. उन क्षुद्रपाताल कलशों के तीन त्रिभाग कहे गये हैं। हेट्ठिल्ले तिभागे, मज्झिल्ले तिभागे, उवरिल्ले तिभागे। यथा-(१) नीचे का त्रिभाग, (२) मध्य का त्रिभाग, (३) ऊपर का त्रिभाग। ते णं तिभागा तिणि तेत्तीसे जोयणसते जोयणतिभागं च ये त्रिभाग तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीन बाहल्लेणं पण्णत्ते। भाग जितने मोटे कहे गये हैं । तत्थ णं जे से हेट्ठिल्ले तिभागे-एत्थ णं वाउकाओ उनमें से जो नीचे का त्रिभाग है-उसमें वायुकाय है । संचिट्ठति, तत्थ णं जे से मझिल्ले तिभागे-एत्थ णं वाउकाए य उनमें से जो मध्य का त्रिभाग है-उसमें वायुकाय और आउकाए य संचिट्ठति, अप्काय है। तत्थ णं जे से उवरिल्ले तिभागे-एत्थ णं आउकाए उनमें से जो ऊपर का त्रिभाग है-उसमें अप्काय है। संचिट्ठति, एवामेव सपुब्वावरेणं लवणसमुद्दे सत्त पायालसहस्सा अट्ठ इस प्रकार सब मिलाकर लवणसमुद्र में सात हजार आठ सौ, य चुलसीता पातालसता भवंतीतिमक्खाया। चौरासी (क्षुद्र) पाताल (कलश) हैं, ऐसा कहा गया है। ६४५. तेसि णं महापायालाणं खुड्डगपायालाण य हेटिममज्झिमिल्लेसु ६४५. उन महापाताल कलशों के और क्षुद्रपाताल कलशों के तिभागेसु बहवे ओरालावाया संसेयंति समुच्छिमंति एयंति नीचे के तथा मध्य के विभागों में उदार वायुकाय (के जीव) चलंति कंपति खुम्भंति घट्टन्ति फंदंति तं तं भावं परिणमंति, उत्पन्न होते हैं, सम्मूछित होते हैं, हिलते हैं, चलते हैं, कम्पित तया णं से उदए उण्णाभिज्जति । होते हैं, क्षुब्ध होते हैं, टकराते हैं, घर्षण को प्राप्त होते हैं तथा उन उन भावों में परिणत होते हैं, तब वहाँ का पानी ऊपर की ओर उछलता है। जया गं तेसि महापायालाणं खुड्डगपायालाण य हेढिल्ल- जब उन महापाताल कलशों और क्षुद्रपाताल कलशों के नीचे मज्झिल्लेसु तिभागेसु नो बहवे ओराला वाया संसेयंति-जाव- के तथा मध्य के विभागों में उदार अनेक वायुकाय के जीव फंदति, तं तं भावं परिणमंति तया णं से उदए नो उन्ना- उत्पन्न नहीं होते हैं यावत्-घर्षण को प्राप्त नहीं होते हैं और मिज्जइ। उन उन भावों को परिणत नहीं होते है तब वहाँ का पानी ऊँचा नहीं उछलता है। अंतरा वियणं ते वायं उदीरेंति, अंतरा वि य णं से उदगे अतिरिक्त समय में भी जब वायुकाय की उदीरणा होती है उण्णामिज्जइ। __तो पानी ऊपर की ओर उछलता है। ___ अंतरा विय ते वाया नो उदीरंति, अंतरा वि य णं ते उदगे और जब वायुकाय की उदीरणा नहीं होती है तो पानी नो उण्णामिज्जइ। ऊपर की ओर नहीं उछलता है । ___ एवं खलु गोयमा ! लवणसमुद्दे चाउद्दसट्ठमुद्दिट्ठपुण्णमा- इस प्रकार गौतम ! लवणसमुद्र (का पानी) चतुर्दशी, अष्टमी, सिणीसु अइरेगं अइरेगं वड्ढति वा, हायति वा ।' अमावस्या और पूर्णिमा को अधिकाधिक बढ़ता और घटता है । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ तीसम हत्तेसु लवणसम ददो वड्ढति हायति य- तीस मुहूर्त में लवणसमुद्र बढ़ता है और घटता है६४६. ५०-लवणे णं भते ! समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं कतिखुत्तो ६४६. प्र०-भगवन् ! तीस मुहूर्त में (अहोरात्रि में) लवणसमुद्र अतिरेगं अतिरेगं वड्ढति वा हायति वा ? का पानी अधिक से अधिक कितनी बार बढ़ता है और घटता है ? उ.-गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो उ०—गौतम ! तीस मुहूर्त में लवणसमुद्र का पानी अधिक अतिरेगं अतिरेगं वड्ढति बा, हायति वा। से अधिक दो बार बढ़ता है और घटता है। १ भग० स० ३, उ० ३, सु० १७ । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६४७.६५० तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३४५ ६४७. ५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"लवणे गं समुद्दे ६४७. प्र०-भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि तोसाए मुहुत्ताणं दुक्खुत्तो अइरेगं अइरेगं बड्ढइ वा “तीस मुहूर्त में लवणसमुद्र का पानी अधिक से अधिक दो बार हायइ वा? बढ़ता है और घटता है ?" उ०-गोयमा ! उड्ढमतेसु पायालेसु वड्ढड, आपूरितेसु उ०-गौतम ! पाताल कलशों से पानी के बाहर आने पर पायालेसु हायइ। पानी बढ़ता है और पाताल कलशों में वायु भर जाने पर पानी घटता है। से तेण?णं गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तीसाए मुहु- इस कारण से गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-तीस मुहूर्त त्ताणं दुक्खुत्तो अइरेगं अइरेगं वड्ढइ वा, हायइ वा। में लवणसमुद्र का पानी अधिक से अधिक दो बार बढ़ता है और -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५७ घटता है । लवणसिहाए चक्कवालविक्खंभो लवणशिखा का चक्रवाल विष्कम्भ१४.५०-लवणसिहा णं भंते ! केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं, ६४८. प्र०-भगवन् ! लवणशिखा की चक्राकार चौडाई कितनी केवतियं अइरेगं अइरेगं वदति वा, हायति वा? है ? और वह ज्यादा से ज्यादा कितनी बढ़ती व घटती है ? उ०-गोयमा ! लवणसिहाए णं दस जोयणसहस्साई चक्क- उ०-गौतम ! लवणशिखा की चक्राकार चौड़ाई दस हजार वालविक्खंभेणं, देसूणं अद्धजोयणं अतिरेगं अतिरेगं योजन की है और ज्यादा से ज्यादा कुछ कम आधा योजन जितनी वड्ढति वा, हायति वा। बढ़ती व घटती है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५८ लवणसम इस्स वेलंधरणागरायाणं संखा६४६. ५०-लवणस्स णं भंते ! समुहस्स कइ णागसाहस्सीओ अभितरियं बेलं धारेंति? कइ नागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारेंति, कइ नागसाहस्सीओ अग्गोदयं वेलं धारेंति ? उ०-गोयमा ! लवणसमुद्दस्स बायालीसं णागसाहस्सीओ अभितरियं वेलं धारेंति, बावरि णागसाहस्सीओ बाहिरियं वेलं धारेंति, सढि णागसाहस्सीओ अग्गोदयवेल धारेति ।। एवामेव सपुष्वावरेणं एगा णागसतसाहस्सी चोवतरि च णागसहस्सा भवंतीतिमक्खाया। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५८ वेलंधर नागरायचउक्कवण्णणं६५०.५०-कति णं भंते ! वेलंधरा णागराया पण्णत्ता? उ०--गोयमा ! चत्तारि वेलंधरा णागराया पण्णत्ता, तं जहा- १. गोथूभे, २. सिवए, ३. संखे, ४. मणोसिलए। लवणसमुद्र के वेलंधर नागराजों की संख्या६४६. प्र०-भगवत् ! लवणसमुद्र की आभ्यन्तर वेला को कितने हजार नाग धारण करते हैं ? बाह्य वेला को कितने हजार नाग धारण करते हैं ? अग्रोदक वेला को कितने हजार नाग धारण करते हैं ? उ०-गौतम ! लवणसमुद्र कीआभ्यन्तर वेला को बियालीस हजार नाग धारण करते हैं। बाह्य वेला को बहत्तर हजार नाग धारण करते हैं। अग्रोदक वेला को साठ हजार नाग धारण करते हैं । इस प्रकार पूर्वापर के मिलाकर एक लाख चोहत्तर हजार नाग होते हैं-ऐसा कहा गया है । चार वेलंधर नागराजों का वर्णन६५०. प्र०-भगवन् ! वेलंधर नागराज कितने कहे गये हैं ? उ०-गौतम ! वेलंधर नागराज चार कहे गये हैं, यथा(१) गोस्तूप, (२) शिवक, (३) शंख, (४) मनःशिलाक । १ 'अग्रोदक'-'देशोनयोजनाई जलादुपरि वर्द्धमानं जलम्'।-टीका ३ सम. ७२, सु. २ । २ ४ सम. ४२, सु. ७ । सम.६०, सु.२। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र-६५०-६५२ प०-एतेसि णं भंते ! चउण्हं वेलंधरणागरायाणं कति प्र०-भगवन् ! इन चार वेलंधर नागराजों के आवासपर्वत आवासपव्वता पण्णत्ता? कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! चत्तारि आवासपव्वता पण्णत्ता, तं जहा- उ०-गौतम ! चार आवासपर्वत कहे गये हैं, यथा१. गोथूभे, २. उदगमासे, ३. संखे, ४. दगसीमे।' (१) गोस्तूप, (२) उदकभास, (३) शंख, (४) दकसीम । - -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ गोथूभ आवासपव्वयस्स अवट्ठिई पमाणं य- गोस्तूप आवासपर्वत की अवस्थिति और प्रमाण६५१. ५०-कहि णं भंते ! गोथूभस्स वेलंधरणागरायस्स गोथूभे ६५१. प्र०-भगवन् ! गोस्तूप वेलंधर नागराज का गोस्तूप आवासपवते पण्णत्ते ? आवासपर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीबे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप के मेरुपर्वत से पूर्व लवणं समुद्दबायालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता- में लवणसमुद्र में बियालीस हजार योजन जाने पर यहाँ पर एत्थ णं गोथूभस्स भुजगिदस्स भुजगरायस्स बेलंधर- गोस्तूप भुजगेन्द्र भुजगराज नामक वेलंधर नागराज का गोस्तूप णागरायस्स गोथूभे णामं आवासपव्वते पण्णत्ते। नामक आवासपर्वत कहा गया है। सत्तरसएक्कवीसाइं जोयणसताई उड्ढे उच्चत्तेणं, सत्रह सौ इक्कीस योजन ऊपर की ओर ऊँचा है । चत्तारि तीसे जोयणसते कोसं च उब्वेधणं, चार सौ, तीस योजन और एक कोश (भूमि में) गहरा है । मूले दसबावीसे जोयणसते आयाम-विवखंभेणं, मूल में एक हजार बावीस (१०२२) योजन लम्बा-चौड़ा है। मझे सत्ततेवीसे जोयणसते आयाम-विक्खंभेणं, मध्य में सात सौ, तेवीस (७२३) योजन लम्बा-चौड़ा है। उरिं चत्तारि चउवीसे जोयणसते आयाम-विक्खंभेणं, ऊपर चार सौ, चौबीस (४२४) योजन लम्बा-चौड़ा है। मूले तिणि जोयणसहस्साई दोणि य बत्तीसुत्तरे मूल में तीन हजार, दो सौ, बत्तीस (३२३२) योजन से कुछ जोयणसते किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, कम की परिधि है। मझे दो जोयणसहस्साई दोण्णि य छलसीते जोयणसते मध्य में दो हजार, दो सौ, छियासी (२२८६) योजन से कुछ किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, अधिक की परिधि है। उरि एगं जोयणसहस्सं तिण्णि य ईयाले जोयणसते ऊपर एक हजार, तीन सौ इकतालीस (१३४१) योजन से किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं । कुछ कम की परिधि है। मूले वित्थिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पि तणुए गोपुच्छ- मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर से पतला है, संठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे-जाव-पडिरूवे। गाय के पूंछ के आकार जैसा है, पूरा कनकमय है स्वच्छ है यावत्-प्रतिरूप है। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । दोण्हवि वण्णओ। घिरा हुआ है । यहां दोनों का वर्णन कहना चाहिए। ६५२. गोथूभस्स णं आवासपन्वतस्स उरि बहुसमरमणिज्जे भूमि- ६५२. गोस्तूप आवासपर्वत के ऊपर अधिक सम एवं रमणीय भागे पण्णत्ते-जाब-तत्थ णं बहवे नागकुमारा देवा आसयंति भूभाग कहा गया है-यावत्-वहाँ पर बहुत से नागकुमार देव सयंति-जाव-विहरति । बैठते हैं, सोते हैं-यावत्-विचरण करते हैं। तस्स ण बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए उस अधिक सम एवं रमणीय भूभाग के ठीक मध्य भाग में -एत्थ णं एगे महं पासायवढेसए। एक महान् प्रासादावतंसक है। बावट्ट जोयणद्धं च उड्ढं उच्चत्तेण, तं चेव पमाणं । (वह) साढ़ा बासठ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है, उसका वही द्ध आयाम-विवखंभेणं वण्णओ-जाव-सीहासणं सपरिवारं। प्रमाण है । उसका आधा (सवा बत्तीस योजन) लम्बा-चौड़ा है । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ प्रासाद का वर्णन-यावत्-सपरिवार सिंहासन का वर्णन है । १ ठाणं, अ. ४, उ. २, सु. ३०५। २ सम. १७, सु. ४ । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६५३-६५६ तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३४७ ... गोथभ आवासपव्वयस्स णामहेऊ गोस्तूप आवासपर्वत के नाम का हेतु६५३. ५०-से केण? गं भंते ! एवं बुच्चइ-गोथूभे आवास- ६५३. प्र०-भगवन् ! किस कारण से गोस्तूप आवासपर्वत को पव्वए, गोथूभे आवासपव्वए ? गोस्तूप आवासपर्वत कहा जाता है ? उ०—गोयमा ! गोथू णं आवासपन्वते तत्थ तत्थ देसे तहिं उ०-गौतम ! गोस्तूप आवासपर्वत पर जगह-जगह अनेक तहिं बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ-जाव-गोथूभवण्णाई बहूई छोटी छोटी (वापिकायें)-यावत्-गोस्तूप वर्ण वाले अनेक उप्पलाइं तहेव-जाव-गोथूभे तत्थ देवे महिड्ढीए-जाव- कमल है उसी प्रकार-यावत्-महधिक-यावत्-पल्योपम पलिओवमट्टितीए परिवसति । की स्थिति वाला गोस्तूप देव वहाँ रहता है । से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं-जाव-गोथूभस्स . वह वहाँ चार हजार सामानिक देवों के (साथ)-यावत्आवासपवतस्स गोथूभाए रायहाणीए-जाव-विहरति । गोस्तूप आवासपर्वत की गोस्तूपा राजधानी में-यावत्-विचरण करता है। से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-गोथूभे आवास- गौतम ! इसी कारण से गोस्तूप आवासपर्वत शाश्वतपव्वए सासए-जाव-णिच्चे। यावत्-नित्य कहा गया है । -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १५६ गो)भा रायहाणी गोस्तूपा राजधानी६५४. ५०-कहि णं भंते ! गोथूभस्स भुगिदस्स भुजगरायस्स ६५४ प्र०-हे भगवन् ! गोस्तूप भुजगेन्द्र भुजगराज की गोस्तूपा गोथूभा रायहाणी पण्णता? राजधानी कहाँ कही गई है ? उ०-गोयमा ! गोथूभस्स आवासपटवतस्स पुरत्थिमेणं हे गौतम ! गोस्तूप आवासपर्वत के पूर्व में तिरछे असंख्यद्वीप तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीतिवईत्ता अण्णं मि लवण- समुद्र लाँघने पर अन्य लवणसमुद्र में (राजधानी है) वही प्रमाण समुद्दे तं चेव पमाणं, तहेव सव्वं ।' है। उसी प्रकार सब है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ दओभासपव्वयस्स अवट्ठिइ पमाणं य दकभास आवासपर्वत की अवस्थिति और प्रमाण६५५. १०-कहिणं भंते ! सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दओभास- ६५५. प्र०-भगवन् ! शिवक वेलंधर नागराज का दकभास णामे आवासपव्वते पण्णते? नाम का आवासपर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत से दक्षिण लवणसमुहबायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता- में लवणसमुद्र में बियालीस हजार योजन जाने पर शिवक वेलंधर एत्थ णं सिवगस्स वेलंधरणागरायस्स दोभासे णामं नागराज का दकभास नामक आवासपर्वत कहा गया है। आवासपव्वते पण्णत्तं । तं चेव पमाणं जं गोथूभस्स । णवरि सव्वअंकामए, जो गोस्तूप (आवासपर्वत) का प्रमाण है वही इसका प्रमाण , अच्छे-जाव-पडिलवे-जाव- अट्ठो भाणियब्वो। है। विशेष यह है कि पूरा पर्वत अंकरत्नमय है स्वच्छ है-यांवत् -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ -मनोहर है-यावत्-नाम का हेतु कहना चाहिए। दओभासपव्वयस्स णामहेउ . दकभास आवासपर्वत के नाम का हेतु६५६. प०-से केण?णं मंते ! एवं बुच्चइ-"दओभासे नाम ६५६. प्र०-हे भगवन् ! किस कारण से दकभास आवासपर्वत आवासपवए, दोभासे नामं आवासपव्वए ?" को दकभास आवासपर्वत कहा जाता है? १ गोयमा ! गोथूभस्स आवासपव्वयस्स दुवालस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता गोथूभस्स भुजगिंदस्स भुजगरायस्स गोथूभा नामरायहाणी पण्णत्ता, सा च विजयारायहाणी सरिसी वत्तव्वया । (टीकान्तर्गत पाठान्तर) Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६५६-६६० उ०-गोयमा ! दोभासे णं आवासपन्वते लवणसमुद्दे अट्ठ- उ०-गौतम ! दकभास आवासपर्वत लवणसमुद्र के आठ जोयणियखेत्ते दगं सवतो समंता ओमासेति उज्जोवेति योजन जितने क्षेत्र में जल को सब ओर से अवभासित करता है, तवति पभासेति। उद्योतित करता है, तपाता है और प्रभासित करता है। --जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ सिविगा रायहाणी शिविका राजधानी६५७. सिवए इत्थ देवे महिड्ढीए-जाव-रायहाणी । ६५७. यहां शिवक महधिक देव है यावत्-राजधानी (का वर्णन) कहें, से दओभासस्स पब्वयस्स दक्खिणेणं अण्णंमि लवणसमुद्दे वह शिविका राजधानी दकभासपर्वत के दक्षिण में है। सिविगा रायहाणी दओभासस्स । सेसं तं चेव । शेष पूर्ववत् है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ संखस्स आवासपव्वयस्स अवट्टिई पमाणं य- शंख आवासपर्वत की अवस्थिति और प्रमाण६५८. ५०-कहिणं भंते ! संखस्स वेलंधरणागरायस्स संखे णामं ६५८. प्र०-भगवन् ! शंख वेलंधर नागराज का शंख नामक आवासपन्वते पण्णते? आवासपर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे गं वीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थि- उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप के मेरुपर्वत से मेणं लवणं समुह बायालीसं जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता पश्चिम में लवणसमुद्र में बियालीस हजार योजन जाने पर शंख -एत्थ णं संखस्स वेलंधरणागरायस्स संखे णाम आवास- वेलंधर नागराज का शंख नामक आवासपर्वत है। पर्वत का पन्वते । तं चेव पमाणं, णवरं सब्वरयणामए अच्छे प्रमाण गोस्तूप पर्वत के समान है। विशेष यह है कि-पूरा पर्वत -जाव-पडिरूवे । रत्नमय है, स्वच्छ है-यावत्-मनोहर है। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं-जाव- वह पर्वत एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से (सब अट्रो बहओ खडाखुड्डियामओ-जाव-बहूई उप्पलाई संखा- ओर से घिरा हुआ है)-यावत्-नाम का हेतु कहना चाहिए। भाई संखवण्णाई संखवष्णामाई । अनेक छोटी-छोटी (वापिकायें)-यावत्-अनेक उत्पल हैं। वे -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ शंख जैसी आभा वाले हैं, शंख जैसे वर्ण वाले हैं, शंख जैसे वर्ण की आभा वाले हैं। संखा रायहाणी शंखा राजधानी६५६. संखे एत्थ देवे महिड्ढीए-जाव-रायहाणीए पच्चत्थिमेणं, ६५६. वहाँ शंख (नामक) देव महधिक है-यावत्-राजधानी पश्चिम में है। संखस्स आवासपब्वयस्स संखा नामं रायहाणी, तं चेव शंख आवासपर्वत की शंखा नाम की राजधानी है। राजधानी पमाणं। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ का प्रमाण गोस्तूपा राजधानी के प्रमाण के समान है। दगसीम आवासपब्वयस्स अवट्रिइ पमाणं य- दकसीम आवासपर्वत की अवस्थिति और प्रमाण-- ६६०.५०-कहि णं भंते ! मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स दग- ६६०. प्र०-भगवन् ! मनःशिलाक वेलंधर नागराज का दकसीम सीमे णामं आवासपवते पण्णत्ते? नामक आवासपर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप के मेरुपर्वत से उत्तर लवणसमुह बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता- में लवणसमुद्र में बियालीस हजार योजन जाने पर मनःशिलाक एत्थ मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स दगसीमे वेलंधर नागराज का दकसीम नामक आवासपर्वत कहा गया है । णामं आवासपवते पण्णत्ते । तं चेव पमाणं, णवरि पर्वत का प्रमाण गौस्तूपपर्वत के समान है। विशेष यह है कि- सव्वफलिहामए अच्छे-जाव-अट्ठो। पूरा पर्वत स्फटिक रत्नमय है स्वच्छ है-यावत् -नाम का हेतु -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ कहना चाहिए। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६१-६६४ तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानयोग ३४६ दगसीम आवासपव्वयस्स णामहेउ दकसीम आवासपर्वत के नाम का हेत.६६१. ५०–से केण8 गं भंते ! एवं वुच्चइ-"दगसीमेणं आवास- ६६१. प्र०-भगवन् ! किस कारण से दकसीम आवासपर्वत को पव्वए दगसीमेणं आवासपब्वए ? दकसीम आवासपर्वत कहा जाता है ? उ.-गोयमा ! दगसोमंते णं आवासपन्वते सीतासीतोदगाणं उ०-गौतम ! दकसीम आवासपर्वत शीता और शीतोदा महाणदीणं तत्थ गतो सोए पडिहम्मति । महानदी के प्रवाह को प्रतिहत करता है। से तेण?ण दगसीमे णाम आवासपन्वते सासए जाव- इस कारण से यह दकसीम नामक आवासपर्वत शाश्वतणिच्चे। यावत्-नित्य है। मणोसिलए एत्थ देवे महिड्ढिीए-जाव-से णं तत्थ चउण्हं यहाँ मनःशिलाक महधिक देव है-यावत्-वह वहाँ चार सामाणियसाहस्सीणं-जाव-विहरति । हजार सामानिक देवों का (आधिपत्य करता हुआ)- यावत्-जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ विचरण करता है । मणोसिला रायहाणी मनःशिला राजधानी.६६२.५०-कहिणं भंते ! मणोसिलगस्स वेलंधरणागरायस्स ६६२. प्र०-भगवन् ! मनःशिलाक बेलंधर नागराज की मन - मणोसिला णामं रायहाणी पण्णत्ता ? सिला नाम की राजधानी कहाँ कही गई है ? उ०-गोयमा ! दगसीमस्स आवासपवयस्स उत्तरेणं तिरि- उ०-गौतम : दकसीम आवासपर्वत के उत्तर में तिरछे यमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीतिवइत्ता अण्णमि लवणसमुद्दे असंख्यद्वीप-समुद्र लाँघने पर अन्य लवणसमुद्र में मनःशिला नाम एत्थ णं मणोसिला णामं रायहाणी पण्णत्ता। तं चेव की राजधानी कही गई है। राजधानी का प्रमाण पूर्ववत हैपमाणं-जाव-मणोसिलए देवे । यावत्-मनःशिलाक देव है। गाहा-कणगंक-रययफालियमया य वेलंधराणमावासा। गाथार्य-वेलंधरों के आवासपर्वत कनकमय, अंकरत्नमय, . अणुवेलंधरराईण पध्वया होंति रयणमया ॥ रजतमय और स्फटिक रत्नमय हैं । अनुवेलंधरों के आवासपर्वत -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ रत्नमय होते है। अणुवेलंधरनागरायचउक्कवण्णणं चार अनुवेलंधर नागराजों का वर्णन.६६३. ५०-कहि गं भंते ! अणुवेलंधरणागरायाणो पण्णता? ६६३. प्र०-भगवन् ! अनुवेलंधर नागराज कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! चत्तारि अणुवलंधरणागरायाणो पण्णत्ता, उ०-- गौतम ! अनुवेलंधर नागराज चार कहे गये हैं. तं जहा-१. कक्कोडए, २. कद्दमए, ३. केलासे, ४. यथा-(१) कर्कोटक, (२) कर्दमक (३) कैलाश, (४) अरुणप्रभ । अरुणप्पभे। ५०-एतेसि गं भंते ! चउण्हं अणुवेलंधरणागरायाणं कति प्र०-भगवन् ! इन चार अनुवेलंधर नागराजों के आवासआवासपव्वया पण्णता? पर्वत कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! चत्तारि आवासपन्वया पण्णत्ता, तं जहा- उ-गौतम ! चार आवासपर्वत कहे गये हैं, यथा १. कक्कोडए, २. कद्दमए, ३. कइलासे, ४. अरुणप्पभे।' (१) कर्कोटक- (२) कर्दमक, (३) कैलाश, (४) अरुणप्रभ । '६६४.५०-कहि णं भंते ! कक्कोडगस्स अणुवेलंधरणागरायगस्स ६६४. प्र०-भगवन् ! कर्कोटक अनुवेलंधर नागराज का कर्कोटक कक्कोडए णाम आवासपव्वते पण्णत्ते ? नाम का आवासपर्वत कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर- उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप के मेरुपर्वत से पुरथिमेणं लवणसमुद्द बायालीसं जोयणसहस्साइं उत्तर पूर्व में लवणसमुद्र में बियालीस हजार योजन जाने पर ओगाहित्ता-कक्कोडगस्स अणुवेलंधरणागरायस्स कर्कोटक अनुवेलंधर नागराज का कर्कोटक नामक आवासपर्वत कक्कोडए णामं आवासपव्वए पण्णत्ते । कहा गया है। नाम का ११ ठाणं अ. ४, उ, २ सु. ३०५ । Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६६४-६६७ तं चेव पमाणं जं गोथूभस्स । णवरं-सव्वरयणामए गोस्तूप पर्वत का जितना प्रमाण है उतना ही इस पर्वत का अच्छे-जाव-निरवसेसं जाव सिहासणं सपरिवारं। प्रमाण है । विशेष यह है कि पूरा पर्वत सर्व रत्नमय है स्वच्छ है -यावत्-सपरिवार सिंहासन का सम्पूर्ण वर्णन है। अट्ठो-से बहुई उप्पलाई कक्कोडप्पभाई सेसं तं चेव। नामहेतु-अनेक उत्पल कर्कोटक जैसी प्रभावाले हैं, शेष णवरि कक्कोडगपव्वयस्स उत्तरपुरस्थिमेणं । एवं तं वर्णन पूर्ववत् है। विशेष यह है कि कर्कोटक पर्वत के उत्तर पूर्व चेव सव्वं । में (कर्कोटका नाम की राजधानी है) इस प्रकार सर्व वर्णन पूर्ववत् है। ६६५. (२) कद्दमस्स वि सो चेव गमओ अपरिसेसो । नवरं- ६६५. (२) कर्दमक (अनुवेलंधर नागराज) का सम्पूर्ण वर्णन दाहिणपुरथिमेणं आवासो, विज्जुप्पभा रायहाणी दाहिण- कर्कोटक जैसा है। विशेष यह है कि कर्दमक आवासपर्वत दक्षिण पुरथिमेणं । पूर्व में है। विद्युत्प्रभा राजधानी दक्षिण-पूर्व में है। (३) कइलासे वि एवं चेव । नवरं-दाहिण-पच्चत्थिमेणं (३) कैलाश (अनुवेलंधर नागराज) का वर्णन भी इसी प्रकार कइलासा वि रायहाणी ताए चेव दिसाए । है। विशेष यह है कि-कैलाश (आवासपर्वत) दक्षिण-पश्चिम में है । कैलाशा राजधानी भी उसी दिशा में है । (४) अरुणप्पभे वि उत्तरपच्चत्थिमेणं, रायहाणी वि ताए (४) अरुणप्रभ आवासपर्वत भी उत्तर-पश्चिम में है। चेव दिसाए। राजधानी भी उसी दिशा में है। चत्तारि वि एगप्पमाणा सब्बरयणामया य । चारों पर्वत एक समान प्रमाण वाले हैं और सर्वरत्नमय हैं। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६० जंबुद्दीवचरमंताओ गोत्थूभाइचरमंताणमंतर- जम्बूद्वीप के चरमान्त से गोस्तूपादि पर्वतों के चरमान्तों का अन्तर६६६. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ १. ६४६. जम्बूद्वीप द्वीप के पूर्वी चरमान्त से गोस्तुप आवासपर्वत के गोथभस्स णं आवासपब्वयस्स पच्चथिमिल्ले चरमंते, एस गं पश्चिमी चरमान्त का व्यवहित अन्तर बियालीस हजार योजन बायालीसं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते, का कहा गया है। एवं चउद्दिमि पि, इसी प्रकार चारों दिशाओं में, २. दोभासे, इसी प्रकार जम्बूद्वीप के दक्षिणी चरमान्त से दकावभास आवासपर्वत के उत्तरी चरमान्त का, ३. संखे, जम्बूद्वीप के पश्चमी चरमान्त से शंख आवासपर्वत के पूर्वी चरमान्त का, ४. दगसीमे य । जम्बूद्वीप के उत्तरी चरमान्त से दकसीम आवासपर्वत के दक्षिणी चरमान्त का व्यवहित अन्तर बियालीस हजार योजन -सम. ४२, सु. २-३ का है। ६६७. जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लाओ परमंताओ गोथुभस्स ६६७. जम्बूद्वीप द्वीप के पूर्वी चरमान्त से गोस्तूप आवासपर्वत के णं आवासपव्वयस्स पुरथिमिल्ले चरमंते, एस णं तेयालीसं पूर्वी चरमान्त का व्यवहित अन्तर तियालीस हजार योजन का जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णते, कहा गया है। एवं चउद्दिसि पि, इसी प्रकार चारों दिशाओं में, २. दोभासे, इसी प्रकार जम्बूद्वीप के दक्षिणी चरमान्त से दकावभास आवासपर्वत के दक्षिणी चरमान्त का ३. संखे, जम्बूद्वीप के पश्चिमी चरमान्त से शंख आवासपर्वत के पश्चिमी चरमान्त का, ४. दगसीमे य । जम्बूद्वीप के उत्तरी चरमान्त से दकसीम आवासपर्वत के उत्तरी चरमान्त का व्यवहित अन्तर तियालीस हजार योजनः -सम. ४३, सु, ३, ४ का है। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६८-६७२ तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३५१ मन्दरचरमंताओ गोधुभाइ य चरमंताणमंतरं- मंदरपर्वत और गोस्तूपादि चरमान्तों का अन्तर६६८. मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स ६६८. मन्दर पर्वत के पूर्वी चरमान्त से गोस्तूप आवासपर्वत के आवासपव्वयस्स पच्चथिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीइं पश्चिमी चरमान्त का व्यवहित अन्तर सत्यासी हजार योजन का जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । कहा गया है। मंदरस्स णं पव्वयस्स दक्खिणिल्लाओ चरमंताओ दग- मन्दर पर्वत के दक्षिणी चरमान्त से दकभास आवासपर्वत के भासस्स आवासपव्वयस्स उत्तरिल्ले चरमंते एस णं सत्तासीइं उत्तरी चरमान्त का व्यवहित अन्तर सत्यासी हजार योजन का जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । कहा गया है। मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चथिमिल्लाओ चरमंताओ संखस्स मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से शंख आवासपर्वत के आवासपब्वयस्स पुरथिमिल्ले चरमते, एस णं सत्तासीई पूर्वी चरमान्त का व्यवहित अन्तर सत्यासी हजार योजन कहा जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते, गया हैं। मंदरस्स णं पव्वयस्स उत्तरिल्लाओ चरमंताओ दगसीमस्स मन्दर पर्वत के उत्तरी चरमान्त से दकसीम आवासपर्वत के आवासपव्वयस्स दाहिणिल्ले चरमंते, एस णं सत्तासीई जोयण- दक्षिणी चरमान्त का व्यवहित अन्तर सत्यासी हजार योजन का सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। -सम. ८७, सु. १-४ कहा गया है । ६६६. मंद रस्स णं पव्वयस्स पच्चथिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स ६६६. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गोस्तुप आवास पर्वत णं आवासपव्वयस्स पच्चथिमिल्ले चरमंते, एस णं सत्ताणउइ के पश्चिमी चरमान्त का व्यवहित अन्तर सत्तानवें हजार योजन जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पण्णत्ते, का कहा गया है। एवं चउदिसि पि, -सम. ६७, सु. १,२ इसी प्रकार चारों दिशाओं में अन्तर कहना चाहिए। ६७०. मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चथिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स ६७०. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गोस्तुप आवास पर्वत णं आवासपव्वयस्स पुरथिमिल्ले चरमंते, एस णं अट्टाणउइ- के पूर्वी चरमान्त का व्यवहित अन्तर अठाणवें हजार योजन का जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पपणत्ते, कहा गया है। एवं चउदिसि पि, --सम. ६८, सु. २, ३ इसी प्रकार चारों दिशाओं में अन्तर कहना चाहिए। मन्दर मज्झभागाओ गोथुभाई चरमन्ताणमन्तरं- मन्दरपर्वत के मध्यभाग से गोस्तूपादि पर्वतों के चरमान्तों का अन्तर६७१. मदरस्स गं पव्वयस्स बहुमज्झदेसभागाओ गोथूभस्स आवास- ६७१. मन्दर पर्वत के बहुमध्य देसभाग से गोस्तूप आवासपर्वत पव्वयस्स पच्चथिमिल्ले चरमंते, एस णं बाणउई जोयण- के पश्चिमी चरमान्त का व्यवहित अन्तर बानवे हजार योजन का सहस्साइं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते, कहा गया है। एवं चउण्हं पि आवास पबयाणं, -सम.६२, सु. ३, इसी प्रकार दकावभास आवासपर्वत के उत्तरी चरमान्त का, शंख आवासपर्वत के पूर्वी चरमान्त का, दकसीम आवासपर्वत के दक्षिणी चरमान्त का व्यवहित अन्तर बानवें हजार योजन का है। गोथुभाइचरमंताओ बलयामुहाइमहापायालचरमंताण- गोस्तूपादि पर्वतों के चरमान्तों से वलयामुखादि महापाताल मन्तर कलशों के चरमान्तों का अन्तर६७२. गोथुभस्स णं आवासपव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ ६७२. गोस्तूप आवासपर्वत के पूर्वी चरमान्त से वलयामुख महा १. वलयामुहस्स महापायालस्स पच्चथिमिल्ले चरमंते, एस पाताल कलश के पश्चिमी चरमान्त का व्यवहित अन्तर बावन णं बावणं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । हजार योजन का कहा गया है। एवं २. दगभासस्स २. के उगस्स, इसी प्रकार दकभास पर्वत के पूर्वी चरमान्त से केतुक पाताल कलश के पश्चिमी चरमान्त का अन्तर है। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६७२-६७५ ३. संखस्स ३. जूयगस्स, इसी प्रकार संख आवासपर्वत के पूर्वी चरमान्त से युपक पातालकलश के पश्चिमी चरमान्त का अन्तर है। ४. दगसीमस्स ४. ईसरस्स, ___इसी प्रकार दकसीम आवासपर्वत के पूर्वी चरमान्त से -सम. ५२, सु. २, ३ ईसर पातालकलश के पश्चिमी चरमान्त का अन्तर है। गोधुभाइचरमन्ताओ वलयामुहमहापायालाइ मज्झ- गोस्तूपादि पर्वतों के चरमान्तों से वलयामुखादि महापाताल भागाणमन्तरं-- कलशों के मध्यभागों का अन्तर६७३. गोथुभस्स णं आवासपव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ ६७३. गोस्तूप आवासपर्वत के पूर्वी चरमान्त से वलयामुखपाताल वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं सत्तावन्नं कलश के मध्यभाग का व्यवहित अन्तर सत्तावन हजार योजन का जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते, कहा गया है। एवं २. दगभासस्स २. के उगस्स, इसी प्रकार दकभास आवासपर्वत के पूर्वी चरमान्त से केतुक पातालकलश के मध्यभाग का अन्तर है। ३. संखस्स ३. जूयगस्स, इसी प्रकार संख आवासपर्वत के पूर्वी चरमान्त से यूपक पातालकलश के मध्यभाग का अन्तर है। ४. दगसीमस्स ४. ईसरस्स, इसी प्रकार दकसीम आवासपर्वत के पूर्वी चरमान्त से -सम. ५७, सु. २, ३ ईसर पातालकलश के मध्यभाग का अन्तर है। गोभ चरमन्ताओ बलयामुहमहापायाल मज्झभायस्स गोस्तूप के चरमान्त से वलयामुख महापातालकलश के अंतरं मध्यभाग का अन्तर६७४. गोथुभस्स आवासपव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ ६७४. गोस्तूप आवासपर्वत के पूर्वी चरमान्त और वलयामख वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्मदेसभाए एस णं अट्ठावण्णं पातालकलश के मध्यभाग का व्यवहित अन्तर अट्रावन हजार जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । योजन का कहा गया है। एवं चउदिसि पि नेयव्वं, -सम. ५८, सु. ३, ४ इसी प्रकार चारों दिशाओं में जानना चाहिए। लवणसमुद्दजलावपीडणाओ जंबुद्दीवस्स अबाहाए लवणसमुद्र के जल से जम्बूद्वीप के जलमग्न न होने के कारणाणि कारण६७५.५०--जहणं भंते ! लवणसमुद्दे दो जोयणसतसहस्साई ६७५. प्र०-भगवन् ! यदि लवणसमुद्र की चक्राकार चौड़ाई दो चक्कवालविक्खंभेणं, पण्णरसजोयणसयसहस्साई एका-, लाख योजन की है, पन्द्रह लाख इक्यासी हजार एक सौ गुनतालीस सीति च सहस्साई सतं इगुयाल किंचिबिसेसूणे परिक्खे- योजन से कुछ कम की परिधि है, एक हजार योजन की गहराई वेणं, एग जोयणसहस्सं उब्वेहेणं, सोलसजोयणसहस्साई है, सोलह हजार योजन की ऊंचाई है और सतरह हजार योजन सव्वग्गणं पण्णत्ते । ___ का सर्वाग्र कहा गया है। कम्हाणं भंते ! लवणसमुद्दे जंबुद्दीव दीवं नो उवीलेति, तो भगवन् ! किस कारण से लवणसमुद्र जम्बूद्वीप नामक द्वीप नो उप्पोलेति नो चेव णं एक्कोदगं करेंति ? को बहाता क्यों नहीं है, उत्पीड़ित क्यों नहीं करता है और जल मग्न क्यों नहीं करता है ? उ०-१. गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भरहेरवएसु वासेसु उ०-(१) गौतम ! जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप के भरत और अरहंतचक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेवा चारणा विज्जाधरा ऐरवत क्षेत्र में अर्हन्त (तीर्थंकर), चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण समणा समणीओ सावया सावियाओ मणुया एगधच्चा (जंधाचारण और विद्याचारण मुनि) विद्याधर; श्रमण-श्रमणियाँ पगतिभट्टया पगतिविणीया पगतिउवसंता पगतिपयणु- श्रावक-श्राविकायें हैं तथा भद्र प्रकृति वाले, विनीत प्रकृति वाले, कोह-माण-माया-लोभा मिउमद्दवसंपन्ना अल्लीणा उपशांत प्रकृति वाले, अल्पक्रोध मान माया-लोभ की प्रकृति वाले, महगा विणीता-तेसि णं पणिहाते लवणे समुद्दे मार्दवसम्पन्न अलिप्त भद्र एवं विनीत मनुष्य रहते हैं-उनके जंबुट्टीवं दीवं नो उवीलेति, नो उप्पोलेति, नो चेव णं प्रभाव से लवणसमुद्र जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप को बहाता नहीं है. एगोदगं करेंति । उत्पीडित नहीं करता है और जलप्लावित नहीं करता है । Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६७५ तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३५३ M २. गंगा-सिंधु-रत्ता-रत्तवईसु सलिलासु देवयाओ-जाव- (२) गंगा सिन्धु रक्ता और रक्तवती नदियों में महधिकपलिओवमद्वितीयाओ परिवसंति । तेसि णं पणिहाए यावत्-पल्योपम की स्थिति वाली देवियाँ रहती है-उनके लवणसमुद्द-जाव-नो चेव णं एगोदगं करेंति । प्रभाव से लवणसमुद्र-यावत-जलप्लावित नहीं करता है। ३. चुल्लहिमवंत-सिहरेसु वासहरपन्वतेसु देवा महि- (३) लघुहिमवन्त और शिखरी वर्षधर पर्वत पर महधिकड्ढिया-जाव-पलिओवमद्वितीया परिवसंति । तेसि णं यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं उनके प्रभाव से पणिहाए लवणसमुद्द-जाव-नो चेव णं एगोदगं करेंति। लवणसमुद्र-यावत्- जलप्लावित नहीं करता है। ४. हेमवतेरण्णवतेसु वासेसु मणुया पगतिभद्दया-जाव- (४) हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में भद्र प्रकृति वाले मनुष्य विणीता-तेसि णं पणिहाए लवणसमुद्दे-जाव-नो चैव रहते हैं-यावत्-विनीत मनुष्य रहते हैं उनके प्रभाव से लवणणं एगोदगं करेंति । समुद्र-यावत्-जलप्लावित नहीं करता है। ५. रोहिता-रोहितंस-सुवण्णकूल-रुष्पकूलासु सलिलासु (५) रोहिता, रोहितांशा, सुवर्णकूला और रूप्यकूला नदियों देवयाओ महिड्ढियाओ-जाव-पलिओवमद्वितीयाओ में महधिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाली देवियाँ रहती हैंपरिवति । तेसि णं पणिहाए लवणसमुद्दे -जाव-नो उनके प्रभाव से लवणसमुद्र-यावत्-जलप्लावित नहीं करता है। चेव णं एगोदगं करेंति ।' ६. सद्दावति-वियडावतिवट्टवेयड्ढपव्वतेसु देवा महि- (६) शब्दापाति और विकटापति वृत्तवैताढ्य पर्वतों पर डिढया-जाव-पलिओवमद्वितीया परिवसंति । तेसि णं महधिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैंपणिहाए लवणसमुद्दे -जाव-नो चेव णं एगोदगं करेंति। उनके प्रभाव से लवणसमुद्र-यावत्-जलप्लावित नहीं करता है। ७. महाहिमवंत-रुप्पिसु वासहरपन्वतेसु देवा महिड्ढिया (७) महाहिमवंत और रुक्मिवर्षधर पर्वत पर महधिक-- -जाव-पलिओवमद्वितीया परिवसंति । तेसि णं पणिहाए यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं उनके प्रभाव से लवणसमुद्द-जाव-नो चैव णं एगोदगं करेंति । लवणसमुद्र-यावत्-जलप्लावित नहीं करता है। परिवास-रम्मयवासेसु मणुया पगतिभद्दया-जाव- (८) हरिवर्ष और रम्यक्वर्ष में भद्र प्रकृति वाले मनुष्य विणीता-तेसि णं पणिहाए लवणे समुद्द-जाव-नो चेव रहते हैं-यावत्-विनीत मनुष्य रहते है-उनके प्रभाव से णं एगोदगं करेंति । लवणसमुद्र-यावत्-जलप्लावित नहीं करता है । ६. गंधावति-मालवंतपरिताएसु वट्टवेयड्ढपव्वतेसु देवा (8) गंधापाति और माल्यवंत पर्याय वृत्त वैताढ्य पर्वतों पर महिडिया-जाव-पलिओवमद्वितीया परिवसंति । तेसि महधिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैंण पणिहाए लवणसमुह-जाव-नो चेव णं एगोदगं करति। उनके प्रभाव से लवणसमुद्र-यावत् -जलप्लावित नहीं करता है। १०.णिसढ-नीलवतेसु वासधरपव्वतेसु देवा महिड्ढिया (१०) निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वत पर महधिक-जाव-पलिओवमद्वितीया परिवसंति । तेसि णं पणिहाए यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले देव रहते हैं-उनके प्रभाव से लवणसमुद्द-जाव-नो चेव णं एगोदगं करेंति। लवणसमुद्र-यावत्-जलप्लावित नहीं करता है। ११. सव्वाओ दहदेवयाओ भाणियवाओ। (११) सभी द्रह देवियों का भी कथन करना चाहिएपउमद्दह-पुण्डरीअद्दह-महापउमद्दह-महापुण्डरीअद्दह- पद्मद्रह पुण्डरीकद्रह महापद्मद्रह महापुण्डरीकद्रह तिगिच्छतिगिच्छिहह-केसरिद्दहावसाणेसु देवा महिड्डिया-जाव- द्रह और अन्तिम केशरीद्रहों पर महधिक-यावत्-पल्योपम पलिओवमद्वितीया परिवसंति । तेसि गं पणिहाए की स्थिति वाले देव रहते हैं उनके प्रभाव से लवणसमुद्रलवणसमुद्दे-जाव-नो चेव णं एगोदगं करेंति । यावत् --जलप्लावित नहीं करता है। १२. पुम्वविदेहावरविदेहेसु वासेसु अरिहंत-चक्कवट्टि- (१२) पूर्व विदेह और अपरिविदेह (महाविदेह) क्षेत्र में अर्हन्त बलदेव-वासुदेवा चारणा विज्जाहरा समणा समणीओ चक्रवर्ती वासुदेव चारण विद्याधर श्रमण-श्रमणियाँ श्रावकमणया पगतिमद्दया-जाव-विणीता तेसि णं पणिहाए श्राविकायें तथा भद्र प्रकृति वाले–यावत्-विनीत मनुष्य रहते लवणसमुद्दे-जाव-नो चैव णं एगोदगं करेंति । हैं-उनके प्रभाव से लवणसमुद्र-यावत्-जलप्लावित नहीं करता है। १ आगमोदयसमिति से प्रकाशित प्रति में-नदियों के नामों में रोहिता नदी का नाम छुटा है। १ द्रहों के नामों में पुंडरीकद्रह- महापद्व्ह, महापुण्डरीकद्रह का नाम छूटा हुआ है। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६७५-६७७ १३. सोया-सीतोदगासु सलिलासु देवयाओ महिड्ढिी- (१३) शीता और शीतोदगा नदियों में महधिक-यावत्याओ-जाव-पलिओवमद्वितीयाओ परिवसति । तेसि गं पल्योपम की स्थिति वाली देवियां रहती है-उनके प्रभाव से पणिहाए लवणसमुद जाव-नो चेव णं एगोदगं करेंति। लवणसमुद्र-यावत्-जलप्लावित नहीं करता है । १४. देवकुरू-उत्तरकुरूसु वासेसु मणुया पगतिभद्दया (१४) देवकुरू और उत्तरकुरू क्षेत्र में भद्रप्रकृति वाले-जाव-विणीता-तेसि णं पणिहाए लवणे समुद्दे-जाव- यावत्-विनीत मनुष्य रहते हैं उनके प्रभाव से लवणसमुद्रनो चेव णं एगोदगं करेंति ।। यावत्-जलप्लावित नहीं करता है। १५. मंदरे पन्वते देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठि- (१५) मेरुपर्वत पर महधिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति तीया परिवसंति । तेसि णं पणिहाए लवणसमुद्दे-जाव- वाले देव रहते हैं-उनके प्रभाव से लवणसमुद्र-यावत् -जलनो चेव णं एगोदगं करेंति। प्लावित नहीं करता है। १६. जंबूए य सुदंसणाए जंबुद्दीवाहियती अणाढीए णाम (१६) जम्बू सुदर्शन वृक्ष पर महधिक-यावत्-पल्योपम देवे महिड्ढीए-जाव-पलिओवमद्वितीए परिवसंति । तस्स की स्थिति वाला जम्बूद्वीप का अधिपति अनाधृत नामक देव पणिहाए लवणसमुद्दे नो उवीलेति नो उप्पीलेति नो रहता है, उसके प्रभाव से लवणसमुद्र जम्बूद्वीप को बहाता नहीं है चव णं एकोदगं करेंति । उत्पीडित नहीं करता है और जलप्लावित नहीं करता है। १७. अदुत्तरं च णं गोयमा ! एसालोगढिती लोगाणु- (१७) अथवा हे गौतम ! लोक स्थिति एवं लोकानुभान ही भावे जण्णं लवणसमुद्दे जंबुद्दीवं दीवं नो उवोलेति नो ऐसा है जिसके कारण लवणसमुद्र जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप को उप्पोलेति नो चेव णं एगोदगं करेंति ।' बहाता नहीं है, उत्पीडित नहीं करता है और जलप्लावित नहीं -जीवा. पडि, ३, उ. २, सु. १७३ करता है । लवणसम हे दव्वसरूवं लवणसमुद्र में द्रव्यों का स्वरूप६७६. ५०-अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे दब्वाइं ६७६. प्र०-हे भगवन् ! लवणसमुद्र में द्रव्यसवण्णाइं पि, अवण्णाई पि, वर्णसहित भी हैं, वर्णरहित भी है, सगंधाई पि, अगंधाई पि, गंधसहित भी हैं. गंधरहित भी है, सरसाइं पि, अरसाई पि, रससहित भी हैं, रसरहित भी है, सफासाइं पि, अफासाई पि, स्पर्शसहित भी हैं, स्पर्श रहित भी है, अण्णमण्णबद्धाइं अण्णमण्ण पुट्ठाई, परस्पर बद्ध है, परस्पर स्पृष्ट हैं, अण्णमण्णबद्धपुट्ठाई, अण्णमण्ण घडताए चिट्ठन्ति ? परस्पर बद्ध-स्पृष्ट हैं, परस्पर सम्बद्ध हैं ? उ०-हंता गोयमा ! अस्थि । उ०-हाँ गौतम ! हैं। -भग. स. ११, उ. ६, सु. २६ जंबुद्दीवपएसाणं लवणसम दृफासाइ जम्बूद्वीप के प्रदेशों का लवणसमुद्र से स्पर्श६७७. प०-जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स पएसा लवणं समुद्दे ६७७. प्र०-भगवन् ! जम्बुद्वीप (नामक) द्वीप के प्रदेश क्या पुट्ठा? लवणसमुद्र से स्पृष्ट है ? उ०-हंता । पुट्ठा। उ०-हाँ स्पृष्ट हैं। प०-ते णं भंते ! कि जंबुद्दीवे दोवे लवणसमुद्दे ? प्र०-भगवन् ! क्या वे (प्रदेश) जम्बूद्वीप हैं या लवण समुद्र हैं ? उ०-गोयमा ! जंबुदीवे नो खलु ते लवणसमुद्दे ।। उ०-गौतम ! वे (प्रदेश) जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप है किन्तु -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १४६ लवणसमुद्र नहीं है । (ख) भग. स. ३, उ. ३ सु.१७ । १ (क) भग. स. ५, उ. २, सू.१८ । २ जंबु० वक्ख० ६, सु० १२४ । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६७८-६८४ तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३५५ लवणसम द्द-पएसाणं जबुद्दीवफासाइ लवणसमुद्र के प्रदेशों का जम्बूद्वीप से स्पर्श६७८. ५०-लवणस्स णं भंते ! समुद्दस्स पदेसा जंबुद्दीवं दीवं पुट्ठा? ६७८. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र के प्रदेश क्या जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप से स्पृष्ट हैं ? उ०-हंता ! पुट्ठा। उ०-हाँ स्पृष्ट हैं। ५०-ते णं भंते ! कि लवणसमुद्दे जंबुद्दीवे दीवे ? प्र०-भगवन् ! क्या वे (प्रदेश) लवणसमुद्र हैं या जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप है ? उ०-गोयमा ! लवणे णं ते समुद्दे नो खलु ते जंबुद्दीवे उ०—गौतम ! वे (प्रदेश) लवणसमुद्र हैं किन्तु वे (प्रदेश) दीवे। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १४६ जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप नहीं है। जंबुद्दीवजीवाणं लवणसम हे उप्पत्ति जम्बूद्वीप के जीवों की लवणसमुद्र में उत्पत्ति६७६. ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता ६७६. भगवन् ! जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप के जीव मर-मरकर लवणसमुद्दे पच्चायंति? ___ क्या लवणसमुद्र में उत्पन्न होते है ? उ०-गोयमा ! अत्थेगतिया पच्चायंति, अत्थेगतिया नो उ०-गौतम ! कुछ उत्पन्न होते हैं और कुछ उत्पन्न नहीं पच्चायति । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १४६ होते हैं । लवणसम दस्स जीवाणं जंबुद्दीवे उप्पत्ति- लवणसमुद्र के जीवों की जम्बूद्वीप में उत्पत्ति१०.५०-लवणे गं भंते ! समुद्दे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता जंबु- ६८०. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र के जीव मर-मर कर क्या दीवे दीवे पच्चायंति ? जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप में उत्पन्न होते हैं ? उ.-गोयमा ! अत्थेगतिया पच्चायंति, अत्थेगतिया नो उ०-गौतम ! कुछ उत्पन्न होते है और कुछ उत्पन्न नहीं पच्चायति । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १४६ होते हैं । लवणसम दस्स दारचउक्कं लवणसमुद्र के चार द्वार६८१.५०-लवणस्स णं भंते ! समुदस्स कति दारा पण्णता? ६८१. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र के द्वार कितने कहे गये हैं ? उ.-गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा-१. विजए, उ०-गौतम ! चार द्वार कहे गये हैं, यथा-(१) विजय, २. वेजयंते, ३. जयंते, ४. अपराजिते । (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित । ६८२.५०-कहिणं भंते ! लवणसमुद्दस्स विजए णामं दारे पण्णते? ६८२ प्र०--भगवन् ! लवणसमुद्र का विजय नामक द्वार कहाँ कहा गया है? उ०-गोयमा ! लवणसमुद्दस्स पुरथिमपेरते, धायइसंडस्स उ०-गौतम ! लवणसमुद्र के पूर्वान्त में, घातकीखण्ड द्वीप दीवस्स पुरथिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं, सीओदाए महा- के पूर्वाध के पश्चिम में और शीतोदा महानदी के ऊपर लवणनदीए उप्पि-एत्थ णं लवणसमुद्दस्स विजए णामं दारे समुद्र का विजय नामक द्वार कहा गया है। बह आठ योजन पण्णत्ते । अट्र जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, चत्तारि ऊपर की ओर ऊँचा है, चार योजन चौड़ा है। जोयणाइं विक्खंभेणं। एवं तं चेव सव्वं जहा जंबुद्दीवस्स विजयस्ससरिसे । इसका सम्पूर्ण वर्णन जम्बूद्वीप के विजयद्वार के सदृश है। ६८३. रायहाणी पुरत्थिमेणं अण्णमि लवणसमुद्दे । ६८३. इसकी राजधानी पूर्व में अन्य लवणसमुद्र में है। ६८४. प०-कहि णं भंते ! लवणसमुद्दे वेजयंते नामं दारं पण्णते? ६८४.प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र का वैजयन्त नामक द्वार कहाँ कहा गया है ? १ जंबु० वक्ख० ६, सु० १२४ की संक्षिप्त वाचना है। २ ठाणं ४. उ. २, सु. ३०५। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ लोक- प्रज्ञप्ति उ०- गोयमा ! लवणसमुद्द े दाहिणपेरते धायइडस्स दीवस्स दाहिणद्धस्स उत्तरेणं । सेसं तं चैव । एवं जयंते वि । णवर सीयाए महानदीए उप्पि भाणियव्वे । तिर्थ लोक समुद्र वर्णन एवं अपरिजाते वि । णवरं - दिसिभागे भाणियव्वो । - जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५४ ६८५. ते णं दारा णं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसे णं पण्णत्ते, तं जहा - तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्ढिया - जाव- पलिओवमट्टिया परिवसंति, तं जहा - १. विजए, २. विजयंते, ३. जयंते, ४. अपराजिए । - ठाणं ४, उ. २, सु. ३०५ उ०- गोयमा ! ( गाहा - ) तिण्णेव सतसहस्सा, पंचाणउति भवे सहस्साइं । दो जोयणसतअसिता, कोसं दारंतरे लचणे ॥ - जाव अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । -जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १५४ लवणसमदद नामहेड६८७ १० से - लवणसम दस्स दारस्स दारस्स य अंतरं लवणसमुद्र के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर ६८६. प० - लवणस्स णं भंते ! समुद्दस्स दारस्स य दारस्स य एस ६६६. प्र० - भगवन् ! लवणसमुद्र के एक द्वार से दूसरे द्वार का णं केवतियं अबाधीए अंतरे पण्णत्ते ? अबाधा अन्तर कितना कहा गया है ? लवणसमुद्र ?" उ०- गोवमा ! लबणे पं सम उदगे आविले रहले लोगे लिंदे खारए कडए । अपेज्जे बहूणं दुपच उपय-मिय-पसु-पक्खि- सिरीसवाणं गण्णत्थ तज्जोणियाणं सत्ताणं ।' उ०- गौतम ! लवणसमुद्र के दक्षिणान्त में धातकीखण्ड द्वीप के दक्षिणार्ध के उत्तर में है। शेष पूर्ववत् है । सोचिए एल्थ लवणाहिबई देवे महिड्डी ए-जापतिओ परिस सेमं तत्थ सामाणिय-जाय लवणसमुदस्स मुविपाए राहाणीए अण्णेंसि च बहूणं वाणमंतरदेवाणं देवीणं आहेबच जाय-बिहरह से एए गोयमा ! एवं बुच्चइ - लवणे णं समुद्दे, लवणे णं समुदे । अदुत्तरं च णं गोपमा ! लवणसमुदे सास-जाव णिच्चे । — जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १५४ सूत्र ६८४-६८७ इस प्रकार जयन्त द्वार का भी वर्णन है। विशेष यह है कि यह द्वार शीता महानदी के ऊपर कहना चाहिए । इस प्रकार अपराजित द्वार का भी वर्णन है। विशेष यह है कि इसका दिशाभाग कहना चाहिए । है ६८५. वे द्वार चार योजन चौड़े है उतना ही उनका प्रवेश मार्ग तथा वहाँ चार देव महधिक — यावत - पत्योपम की स्थिति वाले रहते हैं, यथा - ( १ ) विजय, (२) वेजयन्त, (३) जयन्त (४) अपराजित - के नाम का हेतु लवणसमुद्र भंते! एवं बुव" लवणसमु ६०० प्र० भगवन्! लवणसमुद्र को लवणसमुद्र किस कारण से कहा जाता है ? उ०- गौतम ! लवणसमुद्र का जल मलिन है, कीचड़ वाला है, लवणसदृश है, गोबर सदृश है, खारा है, कडुआ है । अनेक द्विपद, चतुष्पद, मुग, पशु, पक्षी और सरीसृपों के पीने योग्य नहीं है। केवल लवणसमुद्र में उत्पन्न प्राणियों के पीने योग्य है । उ०- पौतम (नाचार्थ) लवणसमुद्र के द्वारों का व्यवहित अन्तर तीन लाख पंचानवे हजार दो सौ अस्सी योजन और एक कोश का यावत् — कहा गया है। यहाँ लवणाधिपति सुस्थित देव महधिक — यावत् - पल्योपम की स्थिति वाला रहता है। १ प्र० -- लवणस्स णं भंते ! समुद्स्स उदए केरिसए अस्ताएणं पण्णत्ते ? ३० गोपमा । लवणस्स उदए आइले रहने (खारे) लिंदे लबने हुए गण्णत्थ तज्जोणियाणं सत्ताणं । वह वहाँ सामानिक - यावत् - लवणसमुद्र की सुस्थिता राजधानी में अन्य अनेक वाणव्यन्तर देव देवियों का आधिपत्य करता हुआ - विचरण करता है । गौतम ! इस कारण से लवणसमुद्र को लवणसमुद्र कहा जाता है । अथवा - गौतम ! लवणसमुद्र शास्वत है- यावत् - नित्य है । बहुप-उप-मिग-सु-पवनारसवा - जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १३७ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६८८-६६१ तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३५७ लवणसम दस्स पुरथिम-पच्चत्थिम चरिमाण अंतरं- लवणसमुद्र के पूर्व-पश्चिम चरमान्तों का अन्तर६८८. लवणसमुदस्स णं पुरथिमिल्लाओ चरमंताओ पच्चत्थि- ६८८. लवणसमुद्र के पूर्वी चरमान्त से पश्चिमी चरमान्त का मिल्ले चरिमंते-एस णं पंच जोयणसहस्साइं अबाहाए अंतरे व्यवहित अन्तर पाँच लाख योजन का कहा गया है। पण्णत्ते। -सम० सु० १२८ लवणसम दस्स गोतित्थस्स गोतित्थविरहितखेत्तस्स लवणसमुद्र के गोतीर्थ का और गोतीर्थ-विरहित क्षेत्र का य पमाणं प्रमाण६६. प०- लवणस्स णं भंते ! समदस्स के महालए गोतित्थे ६८६. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र का गोतीर्थ (क्रमशः निम्न पण्णते? निम्नतर अर्थात ढालुभाग) कितना विशाल कहा गया हैं ? उ०-गोयमा ! लवणस्स णं समुददस्स उभओ पासि पंचाण- उ.-गौतम ! लवणसमुद्र के दोनों ओर से (जम्बूद्वीप की उति पंचाणउति जोयणसहस्साइं गोतित्थं पण्णत्ते ।। वेदिका के अन्तिम भाग से लवणसमुद्र की वेदिका के अन्तिम भाग से) पंचानवे पंचानवे हजार योजन जाने पर गोतीर्थ कहा गया है। ६६०.५०-लवणस्स णं भंते ! समुदस्स के महालए गोतित्थ- ६६०. प्र०-भगवन् ! लवणसमुद्र का गोतीर्थ-विरहित क्षेत्र विरहिते खेत्ते पण्णते? (उतार चढ़ाव रहित भाग !) कितना विशाल कहा गया है ? उ०-- गोयमा ! लवणस्स णं समुदस्स दस जोयणसहस्साई उ०-गौतम ! लवणसमुद्र का गोतीर्थ-विरहित क्षेत्र दस गोतित्थ-विरहित खेत्ते पण्णत्ते । हजार योजन का कहा गया है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, मु. १७१ गोयमदीववण्णणं गौतम द्वीप का वर्णन६६१. ५०–कहि णं भंते ! सुट्ठियस्स लवणाहिवइस्स गोयमदीवे ६६१. प्र०-हे भगवन् ! लवणाधिपति सुस्थित (देव) का गौतम णामं दीवे पण्णत्ते ? द्वीप नामक द्वीप कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थि- उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप (नामक) द्वीप के मेरुपर्वत से मेणं लवणसमदं बारसजोयणसहस्साई ओगाहित्ता- पश्चिम में लवणसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर लवणाधिएत्थ णं सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स गोयमदीवे णामं पति सुस्थित देब का गौतम द्वीप नामक द्वीप कहा गया है। दीवे पण्णत्ते। बारसजोयणसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, वह बारह हजार योजन का लम्बा-चौड़ा कहा गया है। सत्ततीस जोयणसहस्साइं नव य अडयाले जोयणसए सेंतीस हजार नो सौ अड़तालीस योजन से कुछ कम की किचिविसेसोणे परिक्खेवेणं । परिधि वाला है। जंबूदीवं तेणं अद्धकोणणउते जोयणाई चत्तालीस पंचण- जम्बूद्वीप की ओर सेउतिभागे जोयणस्स ऊसिए जलंताओ, ८८-११-योजन वह जल से ऊँचा है । (५ लवणसमुदंतेणं दो कोसे ऊसिते जलताओ, लवणसमुद्र की ओर से वह जल से दो कोश ऊँचा है। से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से समंता संपरिक्खित्ते। घिरा हुआ है। तहेव वण्णओ दोव्ह वि। (पद्मवरवेदिका और वनखण्ड) इन दोनों का वर्णन पूर्ववत् है। गोयमदीवस्स णं दीवस्स अंतो-जाव-बहुसमरमणिज्जे गौतमद्वीप नामक द्वीप के अन्दर का भूभाग अत्यधिक सम भूमिभागे पण्णत्ते । एवं रमणीय कहा गया है। से जहानामए-आलिंगपुक्खरेइ वा-जाब-आसयंति। जिस प्रकार मृदंगवाद्य पर मंढा हुआ चर्म हो-यावत देवता बैठते है। १ गोतीर्थमिव गोतीर्थ क्रमेण नीचोनीचतरः प्रवेशमार्गः। २ ठाणं १०, सु०७२० । Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र वर्णन सूत्र ६६१-६६५ तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस- उस सम एवं रमणीय भूभाग के ठीक मध्य भाग में लवणाधिभागे-एत्थ णं सुट्ठियस्स लवणाहिवइस्स एगे महं पति सुस्थित देव का एक महान् अतिक्रीडावास नाम का भौमेय अइक्कीलावासे नाम भोमेज्जविहारे पण्णत्ते । विहार कहा गया है। बाढि जोयणाई अद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, वह साढ़े बासठ योजन ऊपर की ओर ऊँचा है । एक्कतीस जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं, सवा इक्कतीस योजन चौड़ा है । अणेगखंभसतसन्निविट्ठ भवणवण्णओ भाणियब्यो । अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर टिका हुआ है। भवन का यहाँ वर्णन कहना चाहिए। अइक्कीलावासस्स णं भोमेज्जविहारस्स अंतो बहुसम- उस अतिक्रीडावास नामक भौमेय विहार के अन्दर का भूभाग रमणिज्जे भूमिभागे पण्णते-जाव-मणीणं भासो। बहुत सम एवं रमणीय कहा गया है-यावत्-मणियों का प्रकाशयुक्त है। तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस- उस बहुत सम एवं रमणीय भूभाग के ठीक मध्य भाग में भाए-एत्थ णं एगा मणिपेढिया पण्णत्ता। एक मणिपीठिका कही गई है। सा णं मणिपेढिया दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, वह मणिपीठिका दो योजन की लम्बी-चौड़ी है, एक योजन जोयणबाहल्लेणं सब्वमणिमयी अच्छा-जाव-पडिरूवा। की मोटी है, सारी मणिमय हैं, स्वच्छ है-यावत्-मनोहर है । तीसे गं मणिपेढियाए उवरि-एत्थ णं देवसयणिज्जे उस मणिपीठिका के ऊपर एक देवशय्या कही गई है। यहाँ पण्णत्ते, वण्णओ। देवशय्या का वर्णन है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६६ गोयमदीवस्स णामहेउ-- गौतमद्वीप के नाम का हेतु६६२. ५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति-"गोयमदीवे गं ६६२. प्र०-भगवन् ! किस कारण से गौतमद्वीप गौतमद्वीप दीवे ? कहा जाता है ? उ०-तत्थ तत्थ तहि तहिं बहूई उप्पलाइं-जाव-गोयमप्पभाई। उ०-वहाँ स्थान स्थान पर अनेक उत्पल हैं-यावत् गौतम जैसी प्रभा वाले हैं। से एएण?णं गोयमा !-जाव-णिच्चे। इस कारण से गौतम ! (यह गौतम द्वीप कहा जाता है)-जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६१ यावत्-(यह नाम) नित्य है। सुट्ठिया रायहाणी सुस्थित राजधानी६६३. ५०-कहि णं भंते ! सुट्टियस्स लवणाहिवइस्स सुट्ठिया णामं ६६३. भगवन् ! लवणाधिपति सुस्थित देव की सुस्थिता नाम की रायहाणी पण्णत्ता ? राजधानी कहाँ कही गई है ? उ०-गोयमदीवस्स पच्चत्थिमेणं तिरियमसंखेज्जे-जाव- उ०-गौतमद्वीप के पश्चिम में तिरछे असंख्यद्वीप-समुद्रो के अण्णंमि लवणसमुद्दे वारसजोयणसहस्साई ओगा- बाद-यावत्-अन्य लवणसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर हित्ता, एवं तहेव सव्वं णेयव्वं-जाव-सुत्थिए देवे । है। इस प्रकार सारा वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए-यावत् -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६१ वहाँ सुस्थितदेव विहार (विचरण) करता है। मन्दरस्स गोयमदीवस्स य चरमन्ताणमन्तरं- मन्दर और गौतमद्वीप के चरमान्तों का अन्तर६६४. मंदरस्स णं पब्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरमताओ गोयम- ६६४. मन्दरपर्वत के पूर्वी चरमान्त से गौतम द्वीप के पूर्वी दीवस्स पुरथिमिल्ले चरमते, एसा णं एगूणसरि जोयण- चरमान्त का व्यवहित अन्तर सडसठ हजार योजन का कहा सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते, -सम० ६७, सु० ३ गया है । ६६५. मंदरस्स णं पव्वयस्स पच्चथिमिल्लाओ चरमंताओ गोयम- ६६५. मन्दर पर्वत के पश्चिमी चरमान्त से गौतम द्वीप के दीवस्स पच्चस्थिमिल्ले चरमंते, एस णं एगूणसरि जोयण- पश्चिमी चरमान्त का व्यवहित अन्तर उनहत्तर हजार योजन का सहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णते। -सम० ६७, सु०३ कहा गया है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६६-६७ तिर्यक् लोक लवणसमुद्र वर्णन लवणाइसमुद्दाणं उदगसख्यं लवणादि समुद्रों के जल का स्वरूप ६१६- १० - लवणं भंते! समुद्दे कि उस्सिओए ? कि त्यो ६२६. प्र० भगवन् ! क्या लवणसमुद्र उदक (ऊपर उठने दए ? कि जिले ? कि अशुभ वाले जल वाला) प्रस्तटोदक (समान जल वाला) है, क्षुब्ध जल वाला है या अक्षुब्ध जल वाला है ? ? उ०- गोयमा ! लवणे णं समुद्द े उस्सिओदए, नो पत्थडोदए, खुभियजले, नो अखुभियजले । प० - जहा णं भंते ! लवणसमुद्द े उसितोदगे, नो पत्थडोदगे, खुभियजले, नो अखुभियजले, तहा णं बाहिरगा समुद्दा कि उस्सिओदगा, पत्थडोदगा, खुभियजला, अखुभिय जला ? उ०- गोयमा ! बाहिरगा समुद्दा नो उस्सिओदगा, पत्थडोदगा नो अभिया, पुष्णा पुण्य माणा, बोलदृमाणा, बोसट्टमाणा, सममरपडत्ताए चिट्ठन्ति ।" प० से केणट्टणं भंते ! एवं बुच्चति बाहिरगा णं समुद्दा पुग्णा पुष्णष्यमाणा बोलमाणा बोलमाणा समभरघडया ए चिट्ठन्ति ? उ० गोपमा बाहिरए समूह बहने उदगजोगिया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति, विउक्कमंति, चयंति, उवचयंति । से ते गोपमा ! एवं बुवति "बाहिरगा समुद्दा, पुण्णा, पुण्णव्यमाणा- जाव- समभरघडत्ताए चिटुन्ति । जीवा पहि० २ ० २ ० १६२ लवणासु समद्देसु मन्छाईणं सम्भावो बाहिरएस समदे अभावो 3 り ६६७. ५० -अस्थि णं भंते! लवणसमुद्द े वेलंधराति वा नाग गणितानुयोग ३५६ उ०- गौतम ! लवणसमुद्र उच्छ्रितोदक ( ऊपर उठने वाले जल वाला) प्रस्तटोदक - समान जल वाला नहीं है, क्षुब्ध जल वाला है, अक्षुब्ध जल वाला नहीं है। प्र० - भगवन् ! जिस प्रकार लवणसमुद्र उच्छ्रितोदक (ऊपर की ओर उछलने वाले जल वाला है) समान जल वाला नहीं है, क्षुब्ध जल वाला है, अक्षुब्ध जल वाला नहीं है क्या उसी प्रकार बाहर के समुद्र उच्छ्रितोदक (ऊपर की ओर उछलने वाले जल वाले) हैं, समान जल वाले नहीं हैं, क्षुब्ध जल वाले हैं, अक्षुब्ध जल वाले नहीं हैं ? उ० - गौतम ! बाहर के समुद्र उच्छ्रितोदक नहीं है, समान जन वाले हैं, क्षुध जल वाले नहीं है, अधजल वाले हैं, क्योंकि वे पूर्ण है, सीमा तक परिपूर्ण हैं, भरे हुए होने से छलकते हुए प्रतीत होते हैं, अत्यधिक छलते हुए प्रतीत होते हैं और भरे हुए घड़े जैसे प्रतीत होते हैं। प्र० - भगवन् ! (अढाई द्वीप से) बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, पूर्ण प्रमाण वाले हैं, छलकते नहीं है किन्तु उहुए से प्रतीत होते हैं—ऐसा क्यों कहा जाता है ? उ०- गौतम ! बाहर के समुद्रों में जल योनि वाले अनेक जीव उत्पन्न होते रहते हैं और अनेक मरते रहते हैं, तथा अनेक पुद्गल उनमें से निकलते रहते हैं, और उदकरूप में अनेक पुद्गल बढ़ते रहते हैं । इस कारण से गौतम ! यह कहा जाता है कि अढाई द्वीप के बाहर के समुद्र पूर्ण हैं, पूर्ण प्रमाण वाले हैं-- यावत्-भरे हुए पड़े जैसे प्रतीत होते हैं। लवणादि समुद्रों में मत्स्यादि का अस्तित्व और बाह्यसमुद्रों में अभाव ६६७. प्र० -- भगवन् ! क्या लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज हैं ? १ वियाहपण्णत्ति में पाठ इस प्रकार है प्र०—– लवणे णं भंते । समुद्दे किं उस्सिओदए, पत्थडोदए, खुभियजले, अखुभियजले ? उ० – गोयमा ! लवणे णं समुद्दे उस्सिओदए नो पत्थडोदए, खुभियजले, नो अखुभियजले । एत्तो आढत्तं जहा जीवाभिगमे - जाव गोवमा ! बाहिरियाणं दीवसमुद्दा पुष्पा पुष्णप्यमाणा बोलद्रुमाणा बोसट्टमाणा समभारत चिति । से ते ( जीवाभिगम पडि. ३, उ. २, सु. १६६ में इतना ही पाठ मिलता है ।) "ठाणतो एमविहिविहाणा, वित्थरको गविहिविहाणा दुगुणा दृगुणप्यमागतो दीवसमुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो । ( संठाणतो से लेकर समणाउसो ! पर्यन्त का पाठ वियाहपण्णत्ति में है ) जाय अस्मि तिरिए संजा - वियाह. स. ६ उ ८, सु. ३५ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० लोक-प्रज्ञप्ति रायाति वा खन्नाति वा अग्घाति वा सिंहाति वा विजातीति वा' हासवट्टीति वा ? उ०- हंता अस्थि । प० - जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे अस्थि वेलंधराति वा नागरायाति वा अग्गाति वा सिंहाति वा विजातीति वा हासवट्टीति वा तहा णं बाहिरतेसु विसमुद्देसु अस्थि वेलंधराइ वा नागरायाति वा अग्घीति वा सीहाति वा विजातीति वा हासबट्टीति वा ? उ०- णो तिट्टे समट्टे । तिर्यक् लोक लवणसमुद्र वर्णन उ० प० - से केण णं भंते! एवं वृच्चति - " बाहिरगा णं समुद्दा पूण्णा पुण्णप्पमाणा बोलट्टमाणा वोसट्टमाणा सममरपडियाए चिgन्ति १" -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १६८ लवणासु समद्देसु वुट्ठी बाहिरएस समद्देमु लवणादि समुद्रों में वृष्टि और बाह्यसमुद्रों में अनावृष्टिअवुट्ठी ६६८. प - अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे बहवे ओराला बलाहका ६६८. प्र० - भगवन् ! क्या लवणसमुद्र में बहुत से उदारमेध संसेति संति वासं वासंति ? उ०- हंता अस्थि । बनने लगते हैं, बनते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? उ०- हाँ, ऐसा होता है । प० - जहा णं भंते ! लवणसमुद्द े बहवे ओराला बलाहका संसेयंति, संमुच्छति, वासं वासंति वा, तहा णं बाहिरए व समृद्देसु बहवे ओराला बलाहका संसेति संमुच्छंति, वासं वासंति ? उ०- यो तिग सम समुद्देसु बहये उदयजोणिया -गोपमा ! बाहिरए जीवा य, पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति, विउक्क मंति, चीयंते उवचीयते । से संगणं गोवमा एवं युष्य" बाहिरगा समुदा पुष्णा-जाव-समरपटलाए विट्ठन्ति । — - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १६६ देवेसु लवणसमद्दाणुपरियटणसामत्य-पव ६११. ० देवेमं महिदडीए-जामसोबले, पनू लवण समुद्र अणुपरिपट्टिता में यमागच्छतए ? उ०- हंता गोयमा ! पभू । सूत्र ६६७-६६६ -भग० स० १८ उ० ७, सु० ४५ खन्न अग्घ सीह विजाति (आदि मच्छ कच्छ) हैं ? और जल की हानि या वृद्धि है ? उ०- हाँ ऐसा है । प्र० - भगवन् ! जिस प्रकार लवणसमुद्र में वेलंधर नागराज हैं, खन्न अग्ध सीह विजाति (आदि मच्छ- कच्छ) हैं और जल की हानि या वृद्धि है तो क्या उसी प्रकार बाह्यसमुद्रों में भी वेलंधर नागराज हैं ? खन्न अग्घ सीह विजाति ( आदि मच्छ- कच्छ) हैं, और जल की हानि या वृद्धि हैं ? उ०- नहीं, ऐसा नहीं है । प्र०- भगवन् ! जिस प्रकार लवणसमुद्र में बहुत से उदारमेघ बनने लगते हैं, बनते हैं और वर्षा बरसाते हैं क्या उसी प्रकार बाहर के समुद्रों में भी बहुत से उदारमेष बनने लगते है, बनते है और वर्षा बरसाते हैं ? उ०- ऐसा नहीं होता है। प्र० - भगवन् ! किस किरण से ऐसा कहा जाता है कि'बाह्य समुद्र पूर्ण हैं अपनी सीमा तक परिपूर्ण हैं, भरे हुए होने से छलकते हुए प्रतीत होते हैं, अत्यधिक छलकते हुए प्रतीत होते हैं तथा भरे हुए घड़े जैसे प्रतीत होते हैं ? उ०- गौतम ! बाह्यसमुद्रों में से बहुत से जलयोनिक जीव तथा पुद्गल बाहर निकलते हैं और बहुत से उनमें उत्पन्न होते हैं; बढ़ते हैं, बहुत ज्यादा बढ़ते हैं । गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि बाह्य समुद्र पूर्ण है-भरे हुए पड़े जैसे प्रतीत होते हैं। देवों में लवणसमुद्र की परिक्रमा करने के सामर्थ्य प्ररूपण ६६९. प्र० - हे भगवन् ! महधिक — यावत् – महासुखी देव लवणसमुद्र की परिक्रमा करके शीघ्र आने में समर्थ है ? उ०- हाँ गौतम ! समर्थ है । १ अग्घादयो मत्स्य- कच्छप विशेषाः आह च चूर्णिकृत् - अग्घा सीहा विजाई इति मच्छ - कच्छभा इति । २ 'हासवट्टीति वा' - ह्रस्व-वृद्धी जलस्येति गम्यते इति । ३ अढाईद्वीप अर्थात् मनुष्य क्षेत्र अथवा समय क्षेत्र में केवल दो समुद्र हैं - ( १ ) लवणसमुद्र और ( २ ) कालोदधिसमुद्र । अढाईद्वीप से बाहर अनेक द्वीप तथा अनेक समुद्र हैं । यहाँ अढाईद्वीप के बाहर के समुद्रों से सम्बन्धित ये प्रश्न हैं । Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७००-७०४ तिर्यक् लोक : धातकोखण्डद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३६१ . . . . धायइसंडो दीवो धातकीखण्ड द्वीप धायइसंडदीवस्स संठाणं धातकीखण्डद्वीप का संस्थान७००. लवणसमुद्दधायइसंडे णामं दीवे वट्ट वलयागारसंठाणसंठिते ७००. वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित धातकीखण्ड नामक सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठति । द्वीप लवणससुद्र को चारों ओर से घेरकर स्थित है। प०-धायइसंडे णं भंते ! कि समचक्कवालसंठिते, विसम- प्र०-भगवन् ! धातकीखण्ड द्वीप समचक्राकार है या विषम चक्कवालसंठिते? चक्राकार है ? उ०-गोयमा ! समचक्कवालसंठिते, नो विसमचक्कवाल- उ०-गौतम ! समचक्राकार है, विषमचक्राकार नहीं है। संठिते। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७४ धायइसंडस्स विक्खंभ-परिक्खेवं धातकीखण्डद्वीप की चौडाई और परिधि७०१.५०-धायइसंडे गं भंते! दीवे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं, ७०१. प्र०-भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप की चक्राकार चौड़ाई एवं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? परिधि कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! चत्तारि जोयणसतसहस्साइं चक्कवालविक्खं- उ०-गौतम ! चार लाख योजन की चक्राकार चौड़ाई एवं भेणं, एगयालीसं जोयणसतसहस्साई दसजोयणसह- इकतालीस लाख, दस हजार, नो सौ इकसठ योजन से कुछ कम स्साइं णवएगट्ठ जोयणसते किचिविसेसणे परिक्खेवेणं की परिधि कही गई है। पण्णत्ते । -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १७४ धायइसंडस्स पउमवरवेइया ___ धातकीखण्डद्वीप की पद्मवरवेदिका७०२. से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वतो समंता ७०२. वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर संपरिक्खित्ते । दोण्ह वि वण्णओ, दीवसमिया परिक्खेवेणं से घिरा हुआ है । दोनों का वर्णन (कहना चाहिए) इनकी परिधि -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १७४ द्वीप के समान है। धायइसंडे दीवे वासा धातकीखण्डद्वीप मे वर्ष७०३. धायइसंडदीवपुरथिमद्धे णं सत्त वासा पण्णत्ता, तं जहा- ७०३. धातकीखण्ड द्वीप में पूर्वार्ध में सात वर्ष (क्षेत्र) कहे गये हैं, १-७भरहे-जाव-महाविदेहे । हैं, यथा-१-७ (भरत ---यावत्-(१) भरत, (२) ऐरवत, (३) हेमवत, (४) हिरण्यवत, (५) हरिवर्ष, (६) रम्यक्वर्ष, (७) महा विदेह) महाविदेह । धाय इसंडदीवे पच्छत्थिमद्धणं सत्त वासा एवं चेव । धातकीखण्डद्वीप के पश्चिमार्ध में भी इसी प्रकार (सात -ठाणं ७, सु० ५५५ वर्ष) हैं । धायइसंडे दीवे कम्मभूमीओ धातकीखण्डद्वीप में कर्मभूमियाँ७०४. धायइसंडेदीवे पुरथिमद्धे तओ कम्मभूमिओ पण्णत्ताओ, ७०४. धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में तीन कर्मभूमियाँ कही गई हैं तं जहा-१. भरहे, २. एरवए, ३. महाविदेहे । यथा-(१) भरत, (२) ऐरवत, (३) महाविदेह । १ सूरिय पा० १६ सु० १०० । २ (क) सम० सु०१२७ । (ख) ठाणं अ०४ उ०२ सु०३०६ । ३ सूरिय० पा० १६ सु० १००। ४ ठाणं० अ० २, उ० ३, सू० ६२ । ५ (क) ठाणं, ६, सूत्र ५२२ में एक महाविदेह का नाम छोड़कर शेष छह वर्ष (क्षेत्र) कहे गये हैं। तथा ठाणं १० सूत्र ७२३ में जम्बूद्वीपति दस क्षेत्रों के नाम कहे गये हैं। ऊपर सूत्र (ठाणं ७, सूत्र ५१२२) में जो सात वर्ष (क्षेत्र) कहे हैं उनमें से महाविदेह के स्थान में महाविदेह के चार विभागों के अलग-अलग नाम देकर सूत्र ७२३ में दस की संख्या पूरी की गई हैं । धातकीखण्डद्वीप और पुष्करार्धद्वीप में भी ये दस क्षेत्र हैं किन्तु सूत्र ७२३ में ऐसी कोई संक्षिप्त वाचना की सूचना नहीं हैं। धातकीखण्डद्वीप और पुष्करार्धद्वीप में महाविदेह क्षेत्र तो है ही, अतः सूत्र ७२३ के अनुसार जम्बूद्वीप के समान धातकीखण्ड द्वीप और पुष्करार्धद्वीप में भी दस क्षेत्र माने जा सकते हैं। Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक: धातकीखण्डद्वीप वर्णन सूत्र ७०४-७०७ एवं पच्चस्थिमद्धवि। -ठाणं ३, उ० ३, सु० १८३ इसी प्रकार (धातकोखण्ड के) पश्चिमाई में भी (तीन कर्म भूमियाँ) हैं। धायइसंडे दोवे अकम्मभूमीओ धातकीखण्डद्वीप में अकर्मभूमियाँ७०५. धायइसंडदीवे-पुरथिमद्धे गं छ अकम्मभूमिओ पण्णत्ताओ, ७०५. धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में छह अकर्मभूमियाँ कही गई तं जहा-१-६ हेमवए-जाव-उत्तरकुरा।' हैं । यथा-१-६ हैमवत्-यावत्-उत्तरकुरु । एवं पच्चत्थिमद्धे वि। इसी प्रकार (धातकीखण्ड के) पश्चिमार्च में भी (छह अकर्म -ठाणं ६, सू० ५२२ भूमियाँ कही गई) हैं। धायइसंडे दीवे धायइ दुमस्स पमाणं धातकीखण्डद्वीप में धातकी वृक्ष का प्रमाण७०६. धायइसंडदीवपुरथिमद्धे गं धायइरुक्खे, ७०६. धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में धातकी वृक्ष, अढ जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं बहुमज्झदेसमाए, मध्यभाग में आठ योजन ऊँचा है। अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, आठ योजन चौड़ा है, साइरेगाइं अट्ठजोयणाइं सव्वग्गणं पण्णत्ते, आठ योजन से कुछ अधिक उसकी पूरी ऊँचाई कही गई है। एवं धायइरुक्खाओ आढवेत्ता सच्चेव जंबूदीववत्तव्वया धातको वृक्ष से मन्दर चूलिका पर्यन्त जम्बूद्वीप के सम्बन्ध भाणियब्वा-जाव-मंदर चूलियत्ति, में जो कहा गया है उसके समान कहना चाहिए। एवं पच्चत्थिमद्धे वि महाधायइरुक्खाओ आढवेत्ता-जाव- इसी प्रकार पश्चिमार्ध में भी महाधातको वृक्ष से मन्दर मंदर चूलियत्ति। -ठाणं अ०८, सु०६४१ चूलिका पर्यन्त कहना चाहिए । धायइसंडदीवे वासहरपव्वया धातकीखण्ड में वर्षधर पर्वत७०७. धायइसंडदीवे पुरच्छिमद्धे णं सत्त वासहरपव्वया पण्णता, ७०७. धातकी खण्डद्वीप के पूर्वार्ध में सात वर्षधरपर्वत कहे गये तं जहा-चुल्लहिमवते-जाव-मंदरे । हैं यथा-क्षुद्रहिमवंत पर्वत-यावत्-मन्दर पर्वत । एवं पच्चत्थिम वि। -ठाणं ७, सु० ५५५ इसी प्रकार पश्चिमार्ध में भी (सात वर्षधर पर्वत कहे गये) हैं। १ (क) १. धायइसंडदीव-पुरथिमीणं मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं तओ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-(१) हेमवए, हरिवासे, (३) देवकुरा। २. धाय इसंडदीव-पुरस्थिमद्धणं मन्दरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं तओ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-(१) हेरण्णवए, (२) रम्मगवासे, (३) उत्तरकुरा । एवं पच्चत्थिमद्ध वि । -ठाणं ३, उ० ४, सु० १६७ (ख) ठाणं ४, उ० २, सु० ३०२ । (ग) ठाण ६, सु. ५२२, ठाण ३, सु. १६७ और ठाण ४, उ. २, सु. ३०२ में-'एवं जहा जम्बुद्दीवे' -संक्षिप्तवाचना की इस सूचना के अनुसार ऊपर सूत्रों के मूल पाठों की पूर्ति की गई है। १ (क) धायइसंडे णं दीवे दो चुल्लमहाहिमवंता। धाय इसंडे णं दीवे दो महाहिमवंता, धायइसंडे ण दीवे दो णिसहा, धायइसंडे णं दीवे दो णीलवंता, धायइसंडे णं दीवे दो रूप्पी, धायइसंडे णं दीवे दो सिहरी। -ठाणं उ. ३, सु. ६६ (ख) धायइसंडदीवपुरच्छिमद्ध मंदरदाहिणेणं तओ वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-(१) चुल्लहिमवंते, (२) महाहिमवंते, (३) णिसढे । धाय इसंडदीवपुरच्छिमद्ध मंदरदाहिणणं तओ वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-(१) नीलवंते, (२) रुप्पी, (३) सिहरी। एवं पच्छत्थिमद्ध वि, -ठाणं ३, उ. ४, सु. १६७ (ग) धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धणंछ वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं जहा चुल्लहिमवंते-जाव-सिहरी, एवं पच्छिमद्ध वि, -ठाणं ६, सु. ५२२ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७०८-७१० तिर्यक् लोक : धातकोखण्डद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३६३ धायइसंडदीवे वक्खारपव्वया . धातकीखडद्वीप के वक्षस्कार पर्वत७०८. धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धणं मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं ७०८. धातकीखण्डद्वीप नामक द्वीप के पूर्वार्ध में (स्थित) मेरुपर्वत सीयाए महाणईए उमओ कूले दस वक्खारपव्वया पण्णत्ता, के पूर्व में (बहने वाली) शीता महानदी के दोनों (उत्तर-दक्षिण) तं जहा-मालवते-जाव-सोमणसे । किनारों पर दस वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं, यथा-(१-१०) माल्यवंत-यावत् – सौमनस ।। ७०६. धायइसंडदीवपुरच्छिमद्धणं मंदरस्स पब्वयस्स पच्चत्थिमेणं ७०६. धातकीखण्ड नामक द्वीप के पूर्वार्ध में (स्थित) मेरुपर्वत के सीतोदाए महाणईए उभओ कूले दस वक्खारपब्वया पण्णत्ता, पश्चिम में (बहने वाली) शीतोदा महानदी के दोनों किनारों पर तं जहा-विज्जुप्पभे-जाव-गंधमादणे, दस वक्षस्कार पर्वत कहे हैं, यथा-(१-१०) विद्युत्प्रभ-यावत् - गंधमादन । एवं धायइसंडे पच्चत्थिमद्ध वि । इसी प्रकार धातकीद्वीपखण्ड के पश्चिमार्ध में भी वक्षस्कार -ठाणं १०, सु० ७६८ पर्वत हैं । ७१०.१. धायइसंडे णं दीवे दो मालवंता वक्खारपव्वया, ७१०. (१) धातकीखण्डद्वीप में दो माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत हैं। २. धायइसंडे णं दोवे दो चित्तकूडा वक्खारपम्वया, (२) धातकीखण्डद्वीप में दो चित्रकूट वक्षस्कार पर्वत हैं। ३. धायइसंडे णं दीवे दो पम्हकडा वक्खारपव्वया, (३) धातकीखण्डद्वीप में दो पक्ष्मकूट वक्षस्कार पर्वत हैं। ४. धायइसंडे णं दीवे दो नलिनकूडा वक्खारपव्वया, (४) धातकी खण्डद्वीप में दो नलिनकूट वक्षस्कार पर्वत हैं । ५. धायइसडे गं दीवे दो एगसेला वक्खारपब्वया, (५) धातकीखण्डद्वीप में दो एकशैल वक्षस्कार पर्वत हैं । ६. धायइसंडे णं दीवे दो तिकूडा वक्खारपब्वया, (६) धातकीखण्डद्वीप में दो त्रिकूट वक्षस्कार पर्वत हैं । ७. धायइसंडे णं दीवे दो वेसमणकडा वक्खारपब्वया, (७) धातकीखण्डद्वीप में दो वैश्रमण वक्षस्कार पवंत हैं । ८. धायइसंडे णं दीवे दो अंजणा वक्खारपब्वया, (८) धातकीखण्डद्वीप में दो अंजनक वक्षस्कार पर्वत हैं। ६. धायइसंडे णं दीवे दो मातंजणा वक्खारपव्वया, (8) धातकीखण्डद्वीप में दो मातंजन वक्षस्कार पर्वत हैं। १०. धायइसंडे णं दीवे दो सोमणसा वक्खारपव्वया, (१०) धातकीखण्डद्वीप में दो सौमनस वझस्कार पर्वत हैं। ११. धायइसंडे णं दीवे दो विजुप्पभा वक्खारपम्बया, (११) धातकीखण्डद्वीप में दो विद्युत्प्रभ वक्षस्कार पर्वत हैं। १२. धायइसंडे णं दीवे दो अंकावती वखारपव्वया, 1(१२) धातकीखण्डद्वीप में दो अंकावती वक्षस्कार पर्वत हैं । १३. धायइसंडे णं दीवे दो पम्हावती वक्खारपब्वया, (१३) धातकीखण्डद्वीप में दो पक्ष्मावती वक्षस्कार पर्वत हैं। १ (क) ....एवं धायइसंडपुरथिमद्ध वि वक्खारा भाणियन्वा-जाव-पुक्खरवरदीवड्ढपच्चत्थिमद्ध । ठाण १० स. ७६८ में संक्षिप्त पाठ है, ऊपर विस्तृत पाठ दिया है । (ख) ... एवं धायइसंडदीवपुरस्थिमद्ध वि कालं आदि करेत्ता-जाव-मंदरचूलियत्ति । ठाणं ४ उ. २, स. ३०२ में संक्षिप्त पाठ है। इस सत्र के अनुसार मंदरपर्वत से पूर्व-पश्चिम में शीता-शीतोदा के दक्षिणी-उत्तरी किनारों पर तथा चार विडियो में चार चार वक्षस्कार पर्वत हैं । (गोधायडसंडदीवपुर थिमीणं मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं सीताए महाणईए उत्तरेणं पंच वक्खारपव्वया पण्णत्ता. तं जहामालवंते जहा जम्बुद्दीवे । - ठाणं ५, उ. २ सु. ४३४ इस सूत्र के अनुसार मंदरपर्वत से पूर्व-पश्चिम में शीता-शीतोदा के दक्षिणी-उत्तरी किनारों पर पाँच पाँच वर्षका पर्वत हैं। (घ) स्थानांग ८ सूत्र ६३७ में जम्बूद्वीप के मंदरपर्वत से पूर्व-पश्चिम में शीता-शीतोदा के दक्षिणी-उत्तरी किनारों पर आठ आठ वक्षस्कार पर्वत है-ऐसा कहा है किन्तु धातकीखण्डद्वीप तथा पुष्करार्धद्वीप में भी इसी प्रकार आठ आठ वक्षस्कार पर्वत हैं' ऐसी सूचना का संक्षिप्तसूत्र नहीं है। ऊपर स्थानांग १० सत्र ७६८ में दस वक्षस्कार पवतो का कथन है अतः संक्षिप्तसूत्र के न होने पर भी पर्वत धातकीखण्डद्वीप में तथा पुष्करार्धद्वीप में स्वतः सिद्ध है। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : धातकीखण्डद्वीप वर्णन सूत्र ७१०-७१६ wwwwwwwww १४. धायइसंडे णं दीवे दो आसीविसा वक्खारपब्वया, (१४) धातकीखण्डद्वीप में दो आशिविष वक्षस्कार पर्वत हैं। १५. धायइसंडे णं दीवे दो सुहावहा वक्खारपब्वया, (१५) धातकीखण्डद्वीप में दो सुखावह वक्षस्कार पर्वत हैं । १६. धायइसंडे णं दोवे दो चंदपव्वया वक्खारपव्वया, (१६) धातकीखण्डद्वीप में दो चन्द्र वक्षस्कार पर्वत हैं। १७. धायइसंडे णं दीवे दो सूरपव्वया वक्खारपब्वया, (१७) धातकीखण्डद्वीप में दो सूर्य वक्षस्कार पर्वत हैं । १८. पायइसंडे णं दीवे दो गागपब्वया वक्खारपव्वया, (१८) धातकीखण्डद्वीप में दो नाग वक्षस्कार पर्वत हैं । १६. धायडसंडे णं दीव दो देवपब्वया वक्खारपब्वया, (१६) धातकीखण्डद्वीप में दो देव वक्षस्कार पर्वत हैं । २०. धायइसंडे णं दीवे दो गंधमायणा वक्खारपध्वया, (२०) धातकीखण्डद्वीप में दो गंधमादन वक्षस्कार पर्वत हैं। -ठाणं २, उ० ३, सु० १०० धायइसंडे दीवे मन्दर पव्वया धातकीखण्डद्वीप में मन्दर पर्वत७११. धायइसंडे णं दीवे दो मंदरा पव्वया पण्णत्ता । ७११. धातकीखण्डद्वीप में दो मन्दर पर्वत कहे गये हैं। -ठाणं २, उ० ३, सु०६२ ७१२. धायइसंडस्स णं मंदरा पंचासोति जोयणसहस्साई सम्वग्गेणं ७१२. धातकीखण्डद्वीप के मन्दर पर्वत पच्यासी हजार योजन पण्णत्ता। -सम० ८५, सु०२ पूर्ण प्रमाण के कहे गये हैं। ७१३. धायइसंडगा णं मंदरा दस जोयणसयाइं उन्हेणं, ७१३. धातकीखण्डद्वीप के मन्दरपर्वत एक हजार योजन भूमि में धरणितले देसूणाई दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं, कुछ कम दस हजार योजन चौड़े हैं। उरि दस जोयणसयाई विक्खंभेणं पण्णत्ता । ऊपर एक हजार योजन चौड़े कहे गये हैं। -ठाणं १०, सु०७२२ ७१४. धायइसंडे गं दीवे दो मंदरचूलिया पण्णत्ता । ७१४. धातकीखण्डद्वीप में दो मन्दर पर्वत की चूलिकायें कही -ठाणं २, उ० ३, सु० ६२ई हैं । ७१५. धायइसंडेणं दीवे मंदरचूलिया गं उरि चत्तारि जोयण१५. धातकीखण्डद्वीप में मन्दर पर्वत की चूलिकाओं का ऊपर विक्खंभेणं पण्णत्ता। -ठाणं ४, उ० २, सु० २६का भाग चार योजन चौड़ा कहा गया है। ७१६. पायइसंडे णं दीवे मंदरचूलिया णं बहुमज्झदेसभाए अट्ट ७१६. धातकीखण्डद्वीप में मन्दर पर्वतों की चूलिकाओं का मध्य जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता। -ठाणं ८, सु. ६४० भाग आठ योजन चौड़ा कहा गया है। धायइसंडे मन्दरे वाई धातकीखण्ड के मन्दर पर्वत पर वन७१७. दो भद्दसालवणा, दो नंदणवणा, ७१७. दो भद्रशालवन, दो नन्दनवन । दो सोमणसवणा, दो पंडगवणा, दो सोमनसवन, दो पण्डगवन । -ठाणं अ० २, उ०३, सु० १०० धायइसंडे मन्दरे अभिसेयसिलाओ धातकीखण्ड के मन्दर पर्वत पर अभिषेकशिलायें७१८. दो पंडुकंबलसिलाओ, दो अइपंडुकंबलसिलाओ, ७१८. दो पाण्डुकंबल शिलाएँ, दो अतिपाण्डु कंबल शिलाएँ । दो रत्तकंबलसिलाओ, दो अइरत्तकबलसिलाओ, दो रक्त कंबल शिलाएँ, दो अतिरक्त कंबल शिलाएँ । -ठाणं अ० २, उ० ३, सु० १०० धायइसंडे दीवे उसुयारपव्वया धातकीखण्डद्वीप में इषुकार पर्वत७१६. धायइसंडे णं दीवे दो उसुआरपब्वया पण्णत्ता।' ७१६. धातकीखण्ड द्वीप में दो इषुकार पर्वत कहे गये हैं। - ठाणं २, उ० ३. सु०६२ १ (क) यह इषुकार पर्वत जम्बूद्वीप में नहीं है। धातकी खण्ड में दो और पूष्करार्ध द्वीप में दो-इस प्रकार चार इषुकार पर्वत हैं। (ख) स्था. अ. ४, उ. २, सूत्र ३०६ में चार इषुकार पर्वत कहे गये हैं। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७२०-७२२ तिर्यक् लोक : घातकोखण्डद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३६५ धायइसंडदीवे चक्कवट्टि विजया रायहाणीओ य- धातकीखण्डद्वीप में चक्रवतीं विजय और राजधानियाँ७२०. धायइसंडे गं दीवे अट्ठसट्टि चक्कट्टिविजया, अट्ठसद्धिं राय- ७२०. धातकीखण्डद्वीप में अडसठ चक्रवति विजय हैं और उनकी हाणीओ पण्णत्ताओ। -सम० ६८, सु० १ अडसठ राजधानियाँ कही गई हैं। धायइसंडदीवे चवकवटिविजया धातकीखण्डद्वीप मे चक्रवर्ती विजयपुव्वमहाविदेहे चक्कवटिविजया पूर्वमहाविदेह में चक्रवर्ती विजय७२१. (१) १. धायइसंडेणं दीवे दो कच्छा , ७२१. (१) १. कच्छ नाम वाले दो विजय हैं। (२) २. धायइसंडेणं दीवे दो सुकच्छा, (२) २. दो सुकच्छ विजय हैं । (३) ३. धायइसंडेणं दीवे दो महाकच्छा, (३) ३. दो महाकच्छ विजय हैं। (४) ४. धायइसंडेणं दीवे दो कच्छावती, (४) ४. दो कच्छावती विजय है। (५) ५. धायइसंडेणं दीवे दो आवत्ता, (५) ५. दो आवर्त विजय हैं । (६) ६. धायइसंडेणं दीवे दो नंगलावत्ता, (६) ६. दो नंगलावर्त विजय है । (७) ७. धायइसंडेणं दीवे दो पुक्खला, ... (७) ७. दो पुष्कल विजय हैं । (८) ८. धायइसंडेण दीवे दो पुक्खलावतो, (८) ८. पुष्कलावती विजय हैं । (९) १. धायइसंडेणं दीवे दो वच्छा, (९) १. वत्स नाम वाले दो विजय हैं। (१०) २. धायइसंडेणं दीवे दो सुवच्छा, (१०) २. दो सुवस्स विजय हैं। (११) ३. घायइसंडेण दीवे दो महावच्छा, (११) ३. दो महावत्स विजय हैं। (१२) ४. धायइसंडेणं दीवे दो वच्छगावती, (१२) ४. दो वत्सगावती विजय हैं। (१३) ५. धायइसंडेणं दीवे दो रम्मा, (१३) ५. दो रम्य विजय हैं। (१४) ६. धायइसंडेणं दीवे दो रम्मगा, (१४) ६. दो रम्यक् विजय है । (१५) ७. धायइसंडेणं बीवे दो रमणिज्जा, (१५) ७. दो रमणीय विजय हैं । (१६) ८. धायइसंडेणं दीवे दो मंगलावती, (१६) ८. दो मंगलावती विजय हैं । -ठण २, उ० ३, सु० १०० अवरमहाविदेहे चक्कवटिविजया पश्चिम महाविदेह में चक्रवर्ती विजय७२२. (१७) १. धायइसंडेणं दीवे दो पम्हा, ७२२. (१७) १. दो पक्ष्म नाम वाले विजय है । (१८) २. धायइसंडेणं दीवे दो सुपम्हा, (१८) २. दो सुपक्ष्म विजय हैं । (१६) ३. धायइसंडेणं दीवे दो महापम्हा, (१६) ३. दो महापक्ष्म विजय हैं। (२०) ४. धायइसंडेणं दीवे दो पम्हगावती, (२०) ४. दो पक्ष्मकावति विजय हैं । (२१) ५. धायइसडेणं दीवे दो संखा, (२१) ५. दो शंख विजय हैं । (२२) ६. धायइसंडेणं दीवे दो णलिणा, (२२) ६. दो नलिन विजय हैं । (२३) ७. धायइसंडेणं दीवे दो कुमुया, (२३) ७. दो कुमुद विजय हैं। (२४) ८. घायइसंडेण दीवे दो सलिलावती, (२४) ८. दो सलिलावति विजय हैं। १ (क) जम्बुद्वीप के महाविदेह में ३२ विजय, भरत क्षेत्र में एक विजय, एरवत क्षेत्र में एक विजय, ये ३४ विजय और ३४ उनकी राजधानियाँ हैं। इसी प्रकार धातकीखण्ड के पूर्वाध में ३४ विजय, ३४ राजधानियाँ हैं तथा पश्चिमार्ध में ३४ विजय, ३४ राजधानियाँ हैं। सब मिलकर ६८ विजय और ६८ राजधानियाँ धातकीखण्ड में हैं। (ख) जम्बुद्वीप में जितने क्षेत्र पर्वत आदि हैं उनसे दुगुने क्षेत्र पर्वत आदि धातकीखण्ड में हैं' यह विधान स्थानांग अ. २. उ.३, सूत्र १२ में है। अतः धातकीखण्ड में ६८ विजय और ६८ राजधानियां हैं। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : घातकीखण्डद्वीप वर्णन सूत्र ७२२-७२४ (२५) १. धायइसंडेणं दीवे दो वप्पा, (२५) १. दो वप्र नाम वाले विजय है। (२६) २. धायइसंडेणं दीवे दो सुवप्पा, (२६) २. दो सुवप्रविजय हैं । (२७) ३. धायइसंडेणं दीवे दो महावप्पा, (२७) ३. दो महावप्र विजय हैं । (२८) ४. धायइसंडेणं दीवे दो वप्पगावई, (२८) ४. दो वप्रकावति विजय हैं । (२६) ५. धायइसंडेणं दीवे दो वग्गु, (२६) ५. दो वल्गु-विजय हैं । (३०) ६. धायइसंडेणं दीवे दो सुवरगु (३०) ६. दो सुवल्गु विजय हैं । (३१) ७. धायइसंडेणं दीवे दो गंधिला (३१) ७. दो गंधिल विजय हैं । (३२) ८. धायइसंडेणं दीवे दो गंधिलावई । (३२) ८. दो गंधिलावति विजय हैं । -ठाणं २, उ० ३, सु० १०० धायइसंडेणं दीवे चक्कवट्टिविजयाणं रायहाणीओ- धातकीखण्डद्वीप के चक्रवति-विजयों की राजधानियाँ पुव्वविदेहे चक्कवट्टिविजयाणं रायहाणीओ- पूर्वमहाविदेह में चक्रवति-विजयों की राजधानियाँ७२३. (१) १. धायइसंडेणं दोवे दो खेमाओ, ७२३. (१) १. क्षेमा नाम वाली दो राजधानियां हैं। (२) २. धायइसंडेणं दोवे दो खेमपुराओ, (२) २. दो क्षेमपुरा राजधानियां हैं। (३) ३. धायइसंडेणं दीवे दो रिट्ठाओ, (३) ३. दो रिष्टा राजधानियाँ हैं । (४) ४. धायइसंडेणं दीवे दो रिट्ठपुराओ, (४) ४. दो रिष्टपुरा राजधानियाँ हैं । (५) ५. धायइसंडेणं दीवे दो खग्गीओ, (५) ५. दो खड्गी राजधानियाँ हैं । (६) ६. धायइसंडेणं दीवे दो मंजूसाओ, (६) ६. दो मंजूषा राजधानियाँ हैं । (७) ७. धायइसंडेणं दीवे दो ओसधीओ, (७) ७. दो औषधी राजधानियाँ हैं । (८) ८. धायइसडेणं दीवे दो पुण्डरगिणीओ, (८) ८. दो पुण्डरिकणी राजधानियाँ हैं। (९) १. धायइसंडेणं दीवे दो सुसीमाओ, (६) १. सुसीमा नाम वाली दो राजधानियाँ हैं। (१०) २. धायइसंडेणं दीवे दो कुण्डलाओ, (१०) २. दो कुण्डला नाम वाली राजधानियाँ हैं । (११) ३. धायइसंडेणं दीवे दो अपराजियाओ, (११) ३. दो अपराजिता नाम वाली राजधानियाँ हैं । (१२) ४. धायइसंडेणं दीवे दो पभंकराओ, (१२) ४. दो प्रभंकरा नाम वाली राजधानियां हैं । (१३) ५. धायइसंडेणं दीवे दो अंकावईओ, (१३) ५. दो अंकावति नाम वाली राजधानियाँ हैं । (१४) ६. धायइसंडेणं दीवे दो पम्हावईओ, (१४) ६. दो पक्ष्मावति नाम वाली राजधानियां हैं। (१५) ७. धायइसंडेणं दीवे दो सुभाओ, (१५) ७. दो शुभा नाम वाली राजधानियाँ हैं। (१६) ८. धायइसंडेणं दीवे दो रयणसंचयाओ। (१६) ८. रत्नसंचया नाम वाली राजधानियाँ हैं । -ठाणं २, उ० ३, सु० १०० अवरविदेहे चक्कट्टियाणं रायहाणीओ पश्चिम महाविदेह में चक्रवर्ति-विजयों की राजधानियाँ(१७) १. धायइसडेणं दीवे दो आसपुराओ, ७२४. (१७) १. अश्वपुरा नाम वाली दो राजधानियां हैं। (१८) २. धायइसंडेणं दीवे दो सोहपुराओ, (१८) २. सिंहपुरा नाम वाली दो राजधानियाँ हैं । (१९) ३. धायइसंडेणं दीवे दो महापुराओ, (१६) ३. महापुरा नाम वाली दो राजधानियाँ हैं। (२०) ४. धायइसंडेणं दीवे दो विजयपुराओ, (२०) ४. विजयपुरा नाम वाली दो राजधानियाँ हैं । (२१) ५. धायइसंडेणं दीवे दो अवराजिआओ, (२१) ५. अपराजिता नाम वाली दो राजधानियाँ हैं । (२२) ६. धायइसंडेणं दीवे दो अरयाओ, (२२) ६. अरजा नाम वाली दो राजधानियाँ हैं । (२३) ७. धायइसंडेणं दीवे दो असोगाओ, (२३) ७. अशोका नाम वाली दो राजधानियां हैं। (२४) ८. धायइसंडेणं दीवे दो विगयसोगाओ, (२४) ८. विगतशोका नाम वाली दो राजधानियाँ हैं। (२५) १. धायइसडेणं दीवे दो विजयाओ, (२५) १. विजया नाम वाली दो राजधानियां हैं । (२६) २. धायइसंडेणं दीवे दो वेजयंतीओ, (२६) २. वैजयन्ति नाम वाली दो राजधानियां हैं। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७२४-७२८ तिर्यक् लोक : धातकीखण्डद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३६७ (२७) ३. धायइसंडेणं दीवे दो जयंतीओ, (२७) ३. जयन्ति नाम वाली दो राजधानियाँ हैं । (२८) ४, धायइसंडेणं दीवे दो अपराजियाओ, (२८) ४. अपराजिता नाम वाली दो राजधानियाँ हैं। (२६) ५. धायइसंडेणं दीवे दो चक्कपुराओ, (२६) ५. चक्रपुरा नाम वाली दो राजधानियाँ हैं। (३०) ६. धायइसंडेणं दीवे दो खग्गपुराओ, (३०) ६. खड्गपुरा नाम वाली दो राजधानियां हैं। (३१) ७. धायइसंडेणं दीवे दो अवज्झाओ, (३१) ७. अवध्या नाम वाली दो राजधानियाँ हैं। (३२) ८. धायइसंडेणं दीवे दो अउज्झाओ। (३२) ८. अयोध्या नाम वाली दो राजधानियां हैं। -ठाणं २, उ० ३, सु० १०० धायइसंडदीवे चोद्दस महाणईओ धातकीखण्डद्वीप में चौदह महानदियाँ७२५. धायइसंडदीवे पुरथिमद्धे णं सत्तमहाणईओ पुरत्थिाभिमुहीओ ७२५. धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में सात महानदियाँ हैं जो पूर्व कालोयसमुई समप्पेंति, तं जहा-गंगा-जाव-रत्ता, दिशा में बहती हुई कालोदसमुद्र में मिलती हैं यथा-गंगा - यावत्-रक्ता। धायइसंडदीवे पुरथिमद्धणं सत्तमहाणईओ पच्चत्थाभि- धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में सात महान दियाँ हैं जो पश्चिम मुहीओ लवणसमु समप्पेंति, तं जहा-सिंधु-जाव-रत्तवई। दिशा में बहती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं; यथा-सिंधु -यावत-रक्तवती। धायइसंडदीवे पच्चस्थिम णं सत्तमहाणईओ पुरत्थाभि- धातकीखण्डद्वीप के पश्चिमार्ध में सात महानदियाँ है जो मुहीओ लवणसमुद्दसमप्पेंति, तं जहा-गंगा-जाव-रत्ता, पूर्व दिशा में बहती हुई लवणसमुद्र में मिलती हैं, यथा-गंगा यावत-रक्ता। धायइसंडदीवे पच्चस्थिमद्धे णं सत्तमहाणईओ पच्चस्थाभि- धातकीखण्डद्वीप के पश्चिमार्ध में सात महानदियाँ हैं जो मुहीओ कालोयसमुद्द समप्पेंति, तं जहा-सिंधु-जाब-रत्तवई, पश्चिम दिशा में बहती हुई कालोदसमुद्र में मिलती हैं; यथा ठाणं अ०७, सु० ५५५ सिन्धु-यावत्-रक्तवती। धायइसंडे दीवे अन्तर नईओ धातकीखण्डद्वीप में अन्तर नदियाँ७२६. दो गाहावईओ, दो दहवईओ, दो पंकवईओ, ७२६. दो ग्राहावती, दो द्रहवती, दो पंकवती, दो तत्तजलाओ, दो मत्तजलाओ, दो उम्मत्तजलाओ, दो तप्तजला, दो मत्तजला, दो उन्मत्तजला, दो खीरोयाओ, दो सीयसोयाओ, दो अंतोवाहिणीओ, दो क्षीरोदका, दो शीतश्रोता, दो अन्तर्वाहिनी, दो उम्मिमालिणीओ, दो फेणमालिणीओ, दो गंभीरमालिणीओ, दो उर्मिमालिनी, दो फेनमालिनी, दो गंभीरमालिनी । -ठाणं अ० २, उ० ३, सु० १०० धायइसंडे चउत्तरदुसया तित्था धातकीखण्डद्वीप में दो सौ चार तीर्थ७२७. एवं धायइसंडदीवे पुरथिमद्ध वि, पच्चत्थिमद्ध' वि, ७२७. इस प्रकार धातकीखण्ड के पूर्वार्ध में और पश्चिमार्ध में -ठाणं ३, उ० १, सु० १४२ तीर्थ हैं। धायइसंडदीवे दव्वसरूवं धातकीखण्डद्वीप में द्रव्यों का स्वरूप'७२८. ५०-अत्थि णं भंते ! धायइसंडे दीवे दवाइं ७२८. प्र०-हे भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप में द्रव्य सवण्णाई पि, अवण्णाई पि-जाव वर्ण सहित भी हैं, वर्गरहित भी हैं-यावत्सफासाइं पि, अफासाइं पि, स्पर्श सहित भी हैं स्पर्शरहित भी है। अण्णमण्णबद्धाई, अण्णमण्णपुट्ठाई, परस्पर बद्ध हैं, परस्पर स्पृष्ट हैं । अण्णमण्ण बद्धपुट्ठाई, अण्णमण्णधडत्ताए चिट्ठन्ति ? परस्पर बद्ध-स्पृष्ट हैं, परस्पर सम्बद्ध हैं ? उ०—हंता गोयमा ! अस्थि, उ०-हाँ गौतम ! है। जम्बूद्वीप के समान धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में १०२ तीर्थ हैं और पश्चिमार्ध में भी १०२ तीर्थ हैं, इस प्रकार २०४ तीर्थ धातकीखण्डद्वीप में हैं। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : धातकीखण्डद्वीप वर्णन लवणसमुदस्स धायइडस् य पदेसाणं फासो ७२२. लवण एसा धावइड दीयं पुट्ठा तहेब जहाचे णं धायइसंडं जंबुदीवे वि. सोवेव गम', -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १५४ घायइडस कालोयसमुदस्स व पदेसाणं फासाइ ७३० प० - धायइसंडस्स णं भंते ! दीवस्स पदेसा कालोयगं समुद्द पुट्ठा ? उ०- हंता पुट्ठा ! ० ते मंकि धाडसंडे दीये कालोए समुद्र ? " उ०- ते धायइसंडे, नो खलु ते कालोयसमुद्दे । एवं कालोस्स वि । - लवणसमुद्दस्स परूवणं ७३१. १० - लवणे णं भंते ! समुद्द े जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइता धामसंडे दी पचायति ? उ०- गोयमा ! अत्येगइया पच्चायंति, अत्थेगइया नो पच्चायति । लवणसमुद्र और धातकीखण्डद्वीप के प्रदेशों का स्पर्ण७२९. लवणसमुद्र के प्रदेशाद्वीप का स्पर्श करते हैं। जिस प्रकार लवणसमुद्र के प्रदेश जम्बूद्वीप का स्पर्श करते हैं उसी प्रकार धातकीखण्ड का भी स्पर्श करते हैं । पूरा वर्णन उसी प्रकार है। सूत्र ७२६-७३३ धातकीखण्ड और कालोदसमुद्र के प्रदेशों का स्पर्श७३०. प्र० - भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप के प्रदेश कालोदक समुद्र से स्पृष्ट हैं ? उहाँ स्पृष्ट हैं। प्र० क्या वे (प्रदेश) धातकीखण्डदीप के है (अथवा कालोदसमुद्र के हैं ? -जीवा० प्रति ३, उ० २, सु० १७४ धायइडस्स व जीवाणं उत्पत्ति लवणसमुद्र और धातकीखण्डद्वीप के जीवों की उत्पत्ति का प्ररूपण उ०- वे ( प्रदेश ) धातकीखण्डद्वीप के हैं, कालोदसमुद्र के नहीं हैं । इसी प्रकार कालोदसमुद्र के ( प्रदेशों के प्रश्नोत्तर) भी हैं। ७३१. प्र० - भगवन् ! लवणसमुद्र के जीव मर-मरकर धातकीखण्डद्वीप में उत्पन्न होते हैं ? उ०- गौतम ! कुछ उत्पन्न होते हैं और कुछ उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के जीव भी उत्पन्न होते हैं । एवं व -जीवा० पडि० ३ ० २ ० १५४ धायइडदीवे - कालोयस मुद्दजीवाणं उप्पत्तिपरूवणं- धातकीखण्डद्वीप और कालोदसमुद्र के जीवों की उत्पत्ति का प्ररूपण ७३२. १० - धायइसंडदीवे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइसा कालोए समुद्दे ७३२. प्र० - भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप के जीव मर-मरकर क्या पञ्चायंति ? कालोदसमुद्र में उत्पन्न होते हैं ? उ०- गोयमा ! अस्थेगतिया पच्चायति, अत्थेगतिया नो पच्चायति । - गौतम ! कोई कोई उत्पन्न होते हैं और कोई कोई उत्पन्न नहीं होते हैं । उ० इसी प्रकार कालोदसमुद्र के (जीव ) भी कोई कोई ( धातकी खण्डद्वीप में उत्पन्न होते हैं और कोई कोई उत्पन्न नहीं होते हैं। धातकीखण्डद्वीप के चार द्वार १ (क) पाठपूर्ति के लिए देखें— जीवा पडि ३.२, सु. १४६ । (ख) जंबु. वक्ख. ६, सु. १२४ । एवं कालोए वि, अत्थेगतिया पच्चायंति, अत्थेगतिया तो पचायति । जीवा पडि० २,३०२, सु० १७४ धायइसंडस्स दारचउक्कं ७३३. प० - धायइडस्स णं भंते ! दीवस्स कति दारा पण्णत्ता ? ७३३. प्र० - भगवन ! धातकीखण्डद्वीप के कितने द्वार कहे. गये हैं? Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७३३-७३७ तिर्यक् लोक : धातकोखण्डद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३६६ उ०-गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा- उ०-गौतम ! चार द्वार कहे गये हैं, यथा-(१) विजय, १. विजए, २. वेजयंते, ३. जयंते, ४. अपराजिए। (२) वैजयन्त, (३) जयन्त और (४) अपराजित । ५०-कहि णं भंते ! धायइसंडस्स दीवस्स विजए णामं दारे प्र०- भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप का विजय नामक द्वार पण्णते? कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! धायइसंडपुरथिमपेरते, कालोयसमुद्दपुरत्थि- उ०-गौतम ! धातकीखण्डद्वीप के पूर्वान्त में, कालोदसमुद्र मद्धस्स पच्चत्थिमेणं, सीयाए महाणदीए उप्पि-एत्थ के पूर्वार्ध के पश्चिम में एवं शीतामहानन्दी के ऊपर धातकीखण्ड णं धायइसंडस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते। द्वीप का विजय नामक द्वार कहा गया है। दीवस्स वत्तव्वया भाणियब्वा । एवं चत्तारि वि दारा द्वीप का वर्णन कहना चाहिए । इसी प्रकार चारों द्वारों का भाणियब्वा। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७४ वर्णन कहना चाहिए। धायइसंडस्स दीवस्स दारस्स दारस्स य अंतरं- धातकीखण्डद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर७३४. ५०-धायइसंडस्स णं भंते ! दोवस्स दारस्स य दारस्स य ७३४. प्र०-भगवन् ! धातकीखण्ड के एक द्वार से दूसरे द्वार का एस णं केवइयं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? अव्यवहित अन्तर कितना कहा गया है ? उ०-गोयमा ! दस जोयणसयसहस्साई, सत्तावीसं च जोयण- उ०—गौतम ! एक द्वार से दूसरे द्वार का अव्यवहित अन्तर सहस्साई, सत्तपणतीसे जोयणसए, तिन्नि य कोसे दस लाख सत्तावीस हजार सात सौ पैतीस योजन और तीन कोश दारस्स य दारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७४ जंबददीववेइयंताओ धायइसंडचरिमंतमंतर- जम्बूद्वीप की वेदिका के अन्त से धातकीखण्ड के अन्त का अन्तर७३५. जंबद्दीवस्स णं दीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेइयंताओ धायइसंड- ७३५. जम्बूद्वीप द्वीप की पूर्वी वेदिका के अन्त से धातकीखण्ड के चक्कवालस्स पच्चथिमिल्ले चरिमंते सत्तजोयणसयसहस्साइं पश्चिमान्त का व्यवहित अन्तर सात लाख योजन का कहा अबाहाए अंतरे पण्णते, -सम. सु. १३० गया है। धायइसंडदीवस्स णामहेऊ धातकीखण्डद्वीप के नाम का हेतु७३६. प०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति -"धायइसंडे दीवे ७३६. प्र.-भगवन् ! किस कारण से धातकीखण्डद्वीप धातकीधायइसंडे दीवे ? खण्डद्वीप कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! धायइसंडे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं तहि उ०-गौतम ! धातकीखण्डद्वीप में जगह जगह धातकी वृक्ष पएसे धायइरुक्खा धायइवणा धायइसंडा णिच्चं हैं, धातकी वन हैं, और धातकीखण्ड हैं जो नित्य कुसुमित होते कुसुमिया-जाव-उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठन्ति । हैं--यावत्-(बहुत बहुत) सुशोभित होते हुए स्थित हैं। धायइ--महाधायइरुक्खेसु सुदंसण-पियदसणा दुवे देवा धातकी और महाधातकी वृक्षों पर महधिक-यावत्महिड्ड्यिा -जाव-पलिओवमट्टितीया परिवसंति । पल्योपम की स्थिति वाले सुदर्शन और प्रियदर्शन (नाम के) दो देव रहते हैं। से एएण?णं गोयमा! एवं वच्चइ-"धायइसंडे दीवे, गौतम ! इस कारण से धातकीखण्डद्वीप धातकीखण्डद्वीप धायइसंडे दीवे । कहा जाता है। अदुत्तरं च णं गोयमा !-जाव-णिच्चे। अथवा गौतम ! (यह नाम) शाश्वत -यावत्-नित्य है । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७४ देवेसु धायइसंडदीवाणुपरियट्टणसामत्थ-निरूवणं- देवों में धातकीखण्डद्वीप की परिक्रमा करने के सामर्थ्य का निरूपण७३७. ५०-देवे णं भंते ! महिड्ढीए-जाव-महेसक्खे पभू धायइसंडं ७३७. प्र-हे भगवन् ! महधिक-यावत् -महासुखी देव अणुपरिट्टित्ताणं हव्वमागच्छित्तए? धातकीखण्डद्वीप की परिक्रमा करके शीघ्र आने में समर्थ है ? उ०-हता गोयमा ! पभू ।-भग. स. १८, उ. ७, सु. ४६ उ०-हाँ गौतम ! समर्थ हैं। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० लोक-प्रज्ञप्ति कालोदसमुद्द वण्णओ कालोदसमुदस्स संठाणं- ७३८. धायइसंडं णं दीवं कालोदे णामं समुद्द े वट्ट े वलयागार - संठाणसंठित सव्वतो समता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ । तिर्य] लोक कालोदसमुद्र वर्णन प० - कालोदे णं भंते ! समुद्दे कि समचक्कवालसंठाणसंठिते ? विसमचक्कवालसंठाणसंठिते ? ३०- गोपमा ! समाणसं वालसंठाणसंठिते । ' १ ३ -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७५ कालोदसमुदस्स आयाम विक्लभ-परिक्वे ७३.१० कालो भते समूह केवतियं चक्कवालनिभे - णं केवतियं परिक्खवेणं पण्णत्ते ? उ०- गोपमा ! अद्र जोयणसहस्साई चक्काल एका उति जोयणसय सहस्साइं सत्तरिसहस्साइं छच्च पंचतरे जण fafe विसेसाहिए परिक्षेवे पण्णत्ते । कालोदसमुदस्स पउमवरवे पाए - जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १७५ - મ से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं य वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते णं चिट्ठइ । दोण्ह वि वण्णओ । - जीवा. पडि, उ. २, सु. १७५ कालोदसमुदस्स दारच उक्तं७४०. ५० – कालोदस्स णं भते ! समुद्दस्स कति दारा पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा - १. विजय, २. वैजयंते, ३. जयंते, ४. अपराजिए । प० - कहि णं भंते ! कालोदस्स समुहस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! कालोदे समुद्द े पुरत्थिमपेरते पुक्खर वरदीव पुरत्थमद्धस्स वस्त्रस्थिमेणं सोतोदाए महानदीए उप्पि - एत्थ णं कालोदस्स समुहस्स विजए णामं दारे पण अट्ट जोयणा ( उ उच्चत्ते ने पाणं वाव राहाणी प० – कहि णं भंते ! कालोयस्स समुद्दस्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते ? कालोदसमुद्र वर्णन - कालोदसमुद्र के संस्थान ७३८. वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित कालोद नामक समुद्र धातकीखण्डद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है । प्र० - भगवन् ! कालोदसमुद्र क्या समचक्राकार स्थित है। अथवा ) विषम चक्राकार स्थित है ? ( उ०- गौतम ! ( वह समुद्र ) समचक्राकार स्थित है, विषम चक्राकार स्थित नहीं है । सूत्र ७३८-७४० कालोदसमुद्र की आयाम-विष्कम्भ-परिधि - ७३९. प्र० भगवन्! कालोदसमुद्र की चक्राकार पौड़ाई व परिधि कितनी कही गई है ? उ०- गौतम ! आठ लाख योजन की चक्राकार चौड़ाई है । इकानवें लाख, सतरह हजार छह सौ पचहत्तर योजन से कुछ अधिक की परिधि कही गई है। कालोदसमुद्र की पद्मवरवेदिका वह एक पद्मव वेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है । दोनों का वर्णन यहाँ कहना चाहिए। कालोदसमुद्र के चार द्वार ७४०. प्र० • भगवन् ! कालोदसमुद्र के कितने द्वार कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! चार द्वार कहे गये हैं, यथा - ( १ ) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित । - प्र० - भगवन् ! कालोदसमुद्र का विजय नामक द्वार कहाँ कहा गया है ? उ०- गौतम ! कालोदसमुद्र के पूर्वान्त में, पुष्करवरद्वीप के पूर्वार्ध के पश्चिम में और शीतोदा महानदी के ऊपर कालोदसमुद्र का विजय नामक द्वार कहा गया है। प्रमाण आठ योजन ऊँचा पूर्ववत् है- पावत् राजधानी है। सूरिय. पा. १६, सु. १०० ॥ (क) सम . ६१, सु. २ । (ख) सूरिय. पा. १६ सु. १०० । ४ २ ठाणं ८, ६३ । प्र० - भगवन् ! कालोदसमुद्र का वैजयन्त नामक द्वार कहाँ कहा गया है ? ठाणं २, उ. ३, सु. ६३ । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७४०-७४३ ww तिर्यक् लोक : कालोदसमुद्र वर्णन उ०- गोयमा ! कालोयसमुद्दस्स दक्खिणपेरते, पुक्खरवरदीवस्स दक्खिणद्धस्स उत्तरेणं, एत्थ णं कालोयसमुद्दस्स वैजयंते णामं दारे पण्णत्ते । ww प० कहि मं ! कालोयसमुद्दस्त जयंते नामं दारे पण्णत्ते ? उ०- गोवमा ! कालोयसमुदयस्स पञ्चत्विते पुखर वरदीवस्स पच्चत्थिमद्धस्स पुरत्थिमेणं, सीताए महाण दीए उप- ( एत्थ णं कालोयसमुद्दस्स) जयंते णामं दारे पण्णत्ते ? ० कहि मते ! ( कालोय समुदस्स) अपराजिए नॉर्म दारे पण्णत्ते ? उ० उ०- गोपमा ! कालोयसमुदस्स उत्तरद्वपेरते, पुखरबरवीवोत्तर बाहिओ एत्थ णं फालोयसमुदस्स अपराजिए णामं दारे पण्णत्ते । सेसं तं चेव । -- जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १७५ कालोयसमुद्दस्त दारस्स दारस्स य अन्तर७४१. ५० - कालोयस्स णं भंते ! समुदस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवतियं केवतियं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? -गोयमा ! - गाहा बावीसहस्सा बाणउति खलु भवे सहस्साई छच्चसया बायाला, दारंतर तिनि कोसा य ॥ दारस्स य दारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७५ कालोस्स पुक्खरवरवीबद्धस्स य पएसाणं फुसणा एवं पुक्खरवरदीवद्धस्स वि जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइता कालोय मुद्दे पञ्चायति । तहेव भाणियश्व । — जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १७५ कालोदसमुदस्स नामहेऊ— गणितानुयोग ३७१ उ०- गौतम! कालोदसमुद्र के दक्षिणांत में और पुष्करवरद्वीप के दक्षिणार्ध के उत्तर में कालोद समुद्र का वैजयन्त नामक द्वार कहा गया है । प्र० - भगवन् ! कालोदसमुद्र का जयंत नामक द्वार कहाँ कहा गया है ? उ० गौतम कालोदसमुद्र के पश्चिमांत में, पुष्करवरद्वीप के पश्चिमार्धं के पूर्व में और शीता महानदी के ऊपर जयंत नामक द्वार कहा गया है। प्र० -- भगवन् ! कालोदसमुद्र का अपराजित नामक द्वार कहाँ कहा गया है ? उ०- गौतम ! कालोदसमुद्र के उत्तरार्ध के अन्त में और पुष्करवरद्वीप के उत्तरार्ध के दक्षिण में कालोदसमुद्र का अपराजित नामक द्वार कहा गया हैं। शेष वर्णन पूर्ववत् है । कालोदसमुद्र के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर७४१ प्र० - भगवन् ! कालोदसमुद्र के एक द्वार से दूसरे द्वार के मध्य में व्यवहित अन्तर कितना कहा गया है ? उ०- गौतम ! गाथार्थ - एक द्वार से दूसरे द्वार के मध्य का व्यवहित अन्तर बाईस लाख बानवे हजार छह सौ बियालीस योजन तथा तीन कोश का कहा गया है। - कालोदसमुद्र और पुष्करवरद्वीपार्ध के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श७४२. ५० - कालोयस्स णं भते ! समुद्दस्य परसा खरखरदीबद्ध ७४२. भगवन्! कालोदसमुद्र के प्रदेश पुष्करवरद्वीपा से पृष्ट है ? प्र०- पुड़ा ? उ०- गोयमा ! तहेव ! उ०- गौतम (ये प्रश्नोत्तर) पूर्व है। - जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७५ पुरवरवीबद्धस्स कालोपसमुहस्स व परोप्परं जीवाणं उप्पई कालोद और पुष्करवरद्वीपार्थ के जीवों की एक-दूसरे में उत्पत्ति इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्ध के जीव मर मरकर कालोदसमुद्र में उत्पन्न होते हैं । (ये प्रश्नोत्तर भी) पूर्ववत् कहने चाहिए। कालोदसमुद्र के नाम का हेतु ७४३.५० सेकेण षं भंते! एवं बुवद-"कालोए समुद्दे ७४२. भगवन् किस कारण से कालोदसमुद्र कालोदसमुद्र कहा कालोए समुद्दे ? जाता है ? Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : पुष्करवरद्वीप वर्णन सूत्र ७४३-७४५ उ०-गोयमा ! कालोयस्स णं समुद्दस्स उदके आसले मासले उ०-गौतम ! कालोदसमुद्र का पानी स्वादिष्ट, पुष्टिकारक पेसले कालए मासरासिवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं श्रेष्ठ, कृष्ण माष (उड़द) की राशि जैसे वर्ण वाला एवं प्राकृतिक पण्णत्ते, पानी जैसे रस वाला कहा गया है । काल-महाकाला-एत्थ दुवे देवा महिड्ढीया-जाव- यहाँ काल और महाकाल नाम के महधिक-यावत् - पलिओवमद्वितीया परिवसंति । पल्योपम की स्थिति वाले दो देव रहते हैं। से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"कालोए समुद्दे इस कारण से गौतम ! यह कालोदसमुद्र कालोदसमुद्र कहा कालोए समुद्दे । जाता है। अवृत्तरं च णं गोयमा ! कालोए समुद्दे सासए-जाव- अथवा गौतम ! कालोदसमुद्र शाश्वत है-यावत् -नित्य है। णिच्चे । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७४ पुक्खरवरदीवो पुष्करवरद्वीप पुक्खरवरदीवस्स संठाणं पुष्करवद्वीप का संस्थान७४४. कालोयं णं समुद्दे पुक्खरवरे णामं दीवे बट्ट वलयागारसंठाण- ७४४. वृत्त (गोल) एवं वलयाकार संस्थान से स्थित पुष्करवर संठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति । नामक द्वीप कालोदसमुद्र को चारों ओर से घेरकर स्थित है। तहेव-जाव-समचक्कवालसंठाणसंठिते, नो विसमचक्कवाल- उसी प्रकार-यावत्- समचक्रकार संस्थान से स्थित है, संठाणसंठिए। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७६ विषम चक्राकार संस्थान से स्थित नहीं है। पुक्खरवरदीवस्स विक्खंभ-परिक्खेवं पूष्करवरद्वीप का विष्कम्भ और परिधि७४५. ५०-पुक्खरवरे णं भंते ! दीवे केवतियं चक्कवाल विक्खं- ७४५. प्र०-भगवन् ! पुष्करवरद्वीप की चक्राकार चौड़ाई और भेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? परिधि कितनी कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! सोलस जोयणसतसहस्साई चक्कवाल विक्खं- उ०-गौतम ! सोलह लाख योजन की चक्राकार चौड़ाई भेणं पण्णत्ते। कही गई है। गाहा-एगाजोयणकोडी, वाणउति खलु भवे सयसहस्सा। गाथार्थ - एक करोड़, बाण लाख, निव्यासी हजार, आठ अउणाणउति च सहस्सा, अट्ठसया चउणउया परिक्खे- सौ चौरानवे योजन की परिधि पुष्करबरद्वीप की कही गई है। वेणं पण्णत्ते (परिरओ) पुक्खरवरस्स । ---जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७६ परिधि १ प्र०-कालोयस्स णं भंते ! समुदस्स केरिसए अस्साएणं पण्णते ? उ०--गोयमा ! आसले पेसले मासले कालए मासरासिवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं पण्णत्ते । --जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८७ २ भग. स. ५ उ. १ सु. २६ । ३ सूरिय. पा. १६, सू. १०० । ४ सूरिय. पा. १६, सू. १००। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७४६-७५१ , तिर्य लोक पुष्करवरद्वीप वर्णन क्लरवरदीवरस वेइया वणखंडो य पुष्करवरद्वीप की वेदिका और वनखण्ड ०४६ से एगाए पमवरवेदिवाए एव वणसंग सम्ब७४६. वह एक पद्मवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ स्थित है। दोनों का वर्णन (यहाँ कहना चाहिए ) । सु. १७६ समता संपरिक्खित्तेणं चिट्ठइ । दोण्ह वि वण्णओ । — जीवा. पडि. ३, उ. २, पुक्खरवरदीवस्स चत्तारि दारा७४७. १० - पुक्खरवरस्स दीवस्स णं भंते ! कति दारा पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा - १. विजए, २. अपराजिते । २. -- प० - कहि णं भंते ! पुक्खरवरस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? ३० गोमा क्वरवरदीव पुरच्छिमपेरते, रोदसमुह पुरमिद्धस्स पश्चरिथमेणं, एव पं पुरखरबरवीयरस विजए णानं दारे पण्णत्ते । एत्थ तं चैव सव्वं, एवं चत्तारि विदारा । सीया- सीओदा णत्थि भाणियव्वाओ ॥ चउन्हं दाराणमंतरं७४८.५० - पुक्खरवरस्स णं भंते! दीवस्स दारस्स य दारस्स य, एस केवइए अमाहाए अंतरे पण ? उ०- गोयमा ! अडयालीसं च जोयणसयसहस्साइं बावीससहरसाई बसारि व अउतरे जोयणसए दारस्य दारस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । - - जीवा पडि ३, उ. २, सु. १७४ • कालोदसमुहस्स पुक्खरवरदीवस्स य पएसाणं परोप्परं फुसणा -७४६. "पदेसा दोह वि पुट्ठा" - जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १७६ कालोदसमुदस्स पुक्खर बरवीयरस य जीवाणं अण्णमण्णे उववज्जण उ. ७५०. जीवा दोसु भाणियव्वा जीवा. पडि. ३, २, सू. १७६ पुक्रवरदीवस णाम हेऊ ७५१. १० सेकेणं ते! एवं पुष्यति'कारवरदीचे पुक्खरवरदीवे ? - गणितानुयोग ३७३ — जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७४ महानदियों का कथन नहीं करना चाहिए। चारों द्वारों का अन्तर " पुष्करवरद्वीप के चार द्वार ७४७. प्र० – भगवन् ! पुष्करवरद्वीप के द्वार कितने कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! चार द्वार कहे गये हैं, यथा - (१) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयंत, (४) अपराजित । प्र० - भगवन् ! पुष्करवरद्वीप का विजय नामक द्वार कहाँ कहा गया है ? उ०- गौतम ! पुष्करवरद्वीप के पूर्वान्त में एवं पुष्करोद समुद्र के पूर्वाध के पश्चिम में पुष्करवरदीप का विजय नामक द्वार कहा गया है । उसका सब वर्णन पूर्ववत् है । इसी प्रकार चारों द्वारों का वर्णन भी पूर्ववत् कहना चाहिए। किन्तु यहाँ शीता और शीतोदा ७४८. भगवन् ! पुष्करवरद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का व्यवहित अन्तर कितना कहा गया है ? उ०- गौतम ! पुष्करवरद्वीप के चारों द्वारों का व्यवहित अन्तर (अर्थात् प्रत्येक द्वार का अन्तर) अड़तालीस लाख, बाईस हजार, चार सौ उनसत्तर योजन का है । कालोदसमुद्र और पुष्करवरद्वीप के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श ७४९. दोनों के प्रदेश परस्पर स्पृष्ट हैं । कालोदसमुद्र और पुष्करवरद्वीप के जीवों की एक दूसरे में उत्पत्ति ७५०. दोनों में जीव (मर-मरकर उत्पन्न होते हैं - ऐसा ) कहना चाहिए। पुष्करवरद्वीप के नाम का हेतु - ७२१. प्र० भगवन् ! पुष्करवरद्वीप की पुष्करवरद्वीप ही क्यों कहा जाता हैं ? १ सब्वेसि पि णं दीव-समुद्दाणं वेइयाओ दो गाउयाई उड्ढं उच्चतेणं पण्णत्ताओ । २ गाहा— अडयालसयसहस्सा, बावीसं खलु भवे सहस्साई । अउणुत्तरा य चउरो, दारंतरं च पुक्खरवरस्स ।। - जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १७४ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : पुष्करवरद्वीप वर्णन सूत्र ७५१-७५२ w उ०-गोयमा ! पुक्खरवरे गं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं उ०-पुष्करवरद्वीप में स्थान स्थान पर पद्मवृक्ष हैं और बहवे पउमरुक्खा पउमवणसंडा णिच्चं कुसुमिता-जाब- पद्म वनखण्ड हैं वे नित्य कुसुमित हैं-यावत्-स्थित हैं । चिट्ठन्ति । पउम-महापउमरुक्खे-एत्थ णं पउम-पुण्डरीआ णामं (उक्त) पद्म और महापद्मवृक्ष पर पद्म और पुण्डरीक दुवे देवा महिड्ढिया-जाव-पलिओवमद्वितीया परि- नामक दो देव रहते हैं जो महधिकः-यावत्-पल्योपम की वसति । स्थिति वाले हैं ! से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चति-पुक्खरवरदीवे, गौतम ! इस कारण से पुष्करवरद्वीप को पुष्करवरद्वीप कहा पुक्खरवरदीवे । जाता है। अदुत्तरं च णं गोयमा ! पुक्खरवरे दीवे सासए-जाव- अथवा गौतम ! पुष्करवरद्वीप (यह नाम) शाश्वत है—यावत् णिच्चे। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७६ -नित्य है । माणुसोत्तरपव्वयस्स पमाणं मानुषोत्तर पर्वत का प्रमाण७५२. ५०-माणुसुत्तरे णं भंते ! पन्वते केवतियं उड्ढं उच्चत्तणं? ७५२. प्र०-भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वत ऊपर की ओर ऊँचा केवतिय उब्वेहेणं? केवतियं मूले विक्खंभेणं ? केवतियं कितना है ? भूमि में गहरा कितना है ? भूमि में चौड़ा कितना मझ विक्खंभेणं ? केवतियं सिहरे विक्खंभेणं ? केव- है ? मध्य में चौड़ा कितना है ? शिखर पर चौड़ा कितना है ? तियं अंतो गिरिपरिरएणं? केवतियं बाहिं गिरिपरि- भूमि में उस पर्वत की परिधि कितनी है ? भूमि के बाहर उस रएण ? केवतियं मझे गिरिपरिरएणं, केवतिय उरि पर्वत की परिधि कितनी है ? मध्य में उस पर्वत की परिधि परिरएणं? कितनी है ? उ०-गोयमा ! माणुसुत्तरे गं पन्वते सत्तरस एक्कवीसाइं उ०-गौतम ! मानुषोत्तर पर्वत सत्रह सौ इकवीस (१७२१) जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेण , चत्तारि तीसे जोयणसए योजन ऊपर की ओर ऊंचा है। चार सौ तीस (४३०) योजन कोसं च उव्वेहेणं, __ और एक कोश भूमि में गहरा है । मूले दस बावीसे जोयणसते विक्खंभेणं, मझे सत्त- मूल में एक हजार बावीस (१०२२) योजन चौड़ा है । मध्य तेवीसे जोयणसते विक्ख भेणं, उरि चत्तारि चउवीसे में सात सौ तेवीस (७२३) योजन चौड़ा है । ऊपर चार सौ जोयणसते विक्खंभेणं, चौवीस (४२४) योजन चौड़ा है। अंतो गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च भूमि में उस पर्वत की परिधि एक करोड़, बियालीस लाख, सयसहस्साइं तीसं च सहस्साई दोणि य अउणापण्णे तीस हजार, दो सौ एगुनपचास (१,४२,३०,२४६) योजन से कुछ जोयणसते किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, अधिक है। बाहिरगिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च भूमि के बाहर उस पर्वत की परिधि एक करोड़, बियालीस सयसहस्साई छत्तीसं च सहस्साई सत्त चोदसोत्तरे लाख, छत्तीस हजार, सात सौ चौदह (१,४२,३६,७१४) योजन जोयणसते परिक्खेवेणं, की है। मज्झे गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च मध्य में उस पर्वत की परिधि एक करोड़, बियालीस लाख सतसहस्साई चोत्तीसं च सहस्साइं अट्ठतेवीसे जोयण- चौतीस हजार, आठ सौ तेवीस (१,४२,३४,८२३) योजन की है । सते परिक्खेवेणं, उरि गिरिपरिरएणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च ऊपर उस पर्वत की परिधि एक करोड़, बियालीस लाख, सयसहस्साई बत्तीसं च सहस्साई नव य बत्तीसे जोयण- बत्तीस हजार, नव सौ बत्तीस (१,४२,३२,६३२) योजन की है। सते परिक्खेवेणं, मूले वित्थिण्णे, मज्झे सखिते, उप्पि तणुए, मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर से पतला । १. सम०१७, सू०३ । २ ठा० १०, सु०७२४ । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७५२-७५६ तिर्यक् लोक : पुष्करवरद्वीप वर्णन गणितानयोग ३७५ अंतो सण्हे, मज्झे उदग्गे, बाहिं दरिसणिज्जे, ईसि अन्दर से चिकना, मध्य में श्रेष्ठ, ऊपर से दर्शनीय बैठे हुए सण्णिसण्णे सीहणिसाई, अवद्धजवरासिसंठाणसंठिए, सिंह के समान एक ओर से नीचा तथा एक ओर से ऊँचा, आधे सध्वजंबूणयामए अच्छे सण्हे-जाव-पडिरूवे । यवों की राशि के आकार से स्थित, सम्पूर्ण पर्वत जम्बूनद स्वर्ण मय है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है-यावत्-मनोहर है। उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेदियाहिं दोहि य वण- (वह पर्वत) दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं से एवं दो। संहि सव्वओ समता संपरिक्खित्ते। वण्णओ दोण्ह वनखण्डों से चारों ओर से घिरा हुआ है। यहाँ दोनों का वर्णक वि। -जीवा. पडि. ३, उ. २. सु. १७८ कहना चाहिए। माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स चत्तारिकूडा मानूषोत्तर पर्वत के चार कूट७५३. माणुसुत्तरस्स णं पव्वयस्स चउदिसि चत्तारि कूडा पण्णत्ता, ७५३. मानुषोत्तर पर्वत के चारों दिशाओं में चार कूट कहे गये तं जहा--१. रयणे, २. रयणुच्चए, ३. सवरयणे, ४. रयण- हैं । यथा-(१) रत्नकूट, (२) रत्नोच्चयकूट, (३) सर्व रत्नकूट, संचए। -ठाणं अ० ४, उ० २, सु० ३०० (४) रत्नसंचयकूट । माणुसोत्तर पव्वयस्स नामहेऊ - मानुषोत्तर पर्वत के नाम का हेतु७ १४. ५०–से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति -"माणुसुत्तरे पव्वत्ते, ७५४ प्र०-भगवन् ! मानुषोत्तरपर्वत मानुषोत्तरपर्वत ही क्यों माणुसुत्तरे पब्बते ? कहा जाता है ? उ.-गोयमा ! माणुसुत्तरस्स णं पब्वयस्स अंतो मणुया, उप्पि उ०- गौतम ! मानुषोत्तरपर्वत के अन्दर की ओर मनुष्य सुवण्णा, बाहिं देवा। रहते हैं, ऊपर सुवर्णकुमार (भवनवासीदेव) रहते हैं, और बाहर देव (ज्योतिषीदेव) रहते हैं। अदुत्तरं च णं गोयमा ! माणुसुत्तरपव्वतं मणुया ण अथवा गौतम ! जंघाचारण, विद्याधर और देव अपहृत कयाइ वोतिवइंसु वा, वीतिवयंति वा, बीतिवइस्संति मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी मनुष्य ने मानुषोत्तर पर्वत का वा, णण्णत्थ चारणेहिं वा, विज्जाहरेहि वा, देवकम्मुणा अतीत में उल्लंघन किया नहीं था, वर्तमान में उल्लंघन करते वावि। नहीं है और भविष्य में भी उल्लंघन करेंगे नहीं। से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"माणुसुत्तरे पन्वते गौतम ! इस कारण से मानुषोत्तरपर्वत मानुषोत्तरपर्वत हो माणुसुत्तरे पन्वते । कहा जाता है । अदुत्तरं च णं गोयमा ! माणुसुत्तरे पव्वए' सासए अथवा गौतम ! मानुषोत्तरपर्वत यह नाम शाश्वत है -जाव-णिच्चे ति।-जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७८ यावत्-नित्य है। पुक्खरवरदीवस्स दुवे भागा पुष्करवरद्वीप के दो विभाग७५५. पुक्खरवरदीवस्स गं बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं माणुसुत्तरे ७५५. पुष्करवरद्वीप के ठीक मध्य भाग में वृत्त वलयाकार नाम पव्वते पण्णत्ते वट्ट वलयागारसंठाणसंठिते जे गं पुक्खर- संस्थान से स्थित मानुषोत्तर नामक पर्वत कहा गया है जो वरं दीवं दुहा विभयमाणे विभयमाणे चिट्ठन्ति, तं जहा- पुष्करवरद्वीप के दो विभाग करता हुआ स्थित है, यथाअभितरपुक्खरद्धं च, बाहिरपुक्खरद्धं च । (१) आभ्यन्तर पुष्करार्ध (२) बाह्य पुष्करार्ध । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७६ अभितर पुक्खरद्धस्स संठाणं आभ्यन्तर पुष्कराध का संस्थान७५६. ५०-अभिंतरपुक्खरद्धे णं भंते ! केवतियं चक्कवालविक्खं- ७५६. ५०-भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्कराध की चक्राकार चौड़ाई भेणं, केवतियं परिक्खैवेणं पण्णते ? ___ कितनी कही गई है और परिधि कितनी कही गई है ? १ ठाणं अ०३, उ० ४, सु० २०४, मानुषोत्तरपर्वत के नाम का उल्लेख है। २ सूरिय० पा० १६ सु० १००। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : पुष्करवरद्वीप वर्णन सूत्र ७५६-७६० उ०-गोयमा ! अट्ठ जोयणसहस्साई चक्कवालविश्खंभेण' उ-गौतम ! आठ लाख योजन की चक्राकार चौड़ाई पण्णत्ते। ____ कही गई है। गाहा-एक्काजोयणकोडी, पातालीसं च सतसहस्साई च। गाथार्थ-एक करोड़, पेतालीस लाख तीस हजार दो सौ तीसं च सहस्साई, दोणि य अउणापण्णे जोयणसते ॥ उनपचास (१,४५,३०,२४६) योजन से कुछ अधिक की परिधि किंचिबिसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णते। कही गई है। पुक्खरवरदीवड्ढे कम्मभूमीओ पुष्करवरद्वीपार्ध में कर्मभूमियाँ७५७. पुक्खरवरदीवड्ढ पुरथिमद्धे पच्चत्थिमद्धे य तओ तओ ७५७. पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वाद्ध और पश्चिमार्ध में तीन तीन कम्मभूमीओ पप्णत्ताओ; तं जहा कर्मभूमियाँ कही गई है, यथा१. भरहे, २. एरवए, ३. महाविदेहे । (१) भरत, (२) ऐरवत, (३) महाविदेह । -ठाणं अ० ३, उ० ३, सु० १८६ पुक्खरवरदीवड्ढे अकम्मभूमीओ पुष्करवरद्वीपार्ध में अकर्मभूमियाँ७५८. पुक्खरवरदीवड्ढ पुरथिमद्धे पच्चत्थिमद्धे य छ छ अकम्म- ७५८. पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में छः छः भूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा अकर्मभुमियाँ कही गई हैं, यथा१. हेमवए, २. हेरण्णवए, ३. हरिवस्से, ४. रम्मगवस्से, (१) हैमवत, (२) हैरण्यवत, (३) हरिवर्ष, (४) रम्यक्वर्ष, ५. देवकुरा, ६. उत्तरकुरा। -ठाणं अ० ६, सु० ५२२ (५) देवकुरा, (६) उत्तरकुरा । पुक्खरवरदीवड्ढे वासहरपव्वया पुष्करवरद्वीपार्ध में वर्षधर पर्वत७५६. पुक्खरवरदीवड्ढ पुरच्छिमद्धेणं सत्तवासहरपव्वया पण्णत्ता, ७५६. पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध में सात वर्षधर पर्वत कहे गये . तं जहा-चुल्लहिमवंते-जाव-मंदरे। हैं, यथा-क्षुद्रहिमवंत पर्वत-यावत्-मन्दर पर्वत। एवं पच्चत्थिमद्ध वि, -ठाणं ७, सु० ५५५ इसी प्रकार पश्चिमाई में भी हैं। ७६०. पुक्खरवरदीवड्ढपुरच्छिमद्धे गं छ वासहरपब्वया पण्णत्ता, ७६०. पुष्करवरद्वीपार्ध में छ वर्षधर पर्वत कहे गये हैं, यथा-- तं जहा-चुल्लहिमवंते जाव-सिहरी। क्षुद्रहिमवंत पर्वत--यावत्-शिखरी पर्वन । एवं पच्छद्धिमद्धे वि', -ठाणं ६, सु० ५२२ इसी प्रकार पश्चिमार्च में भी हैं। १ (क) अब्भंतर पुक्खरद्धणं अट्ठ जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णत्ते । एवं बाहिरपुक्खरद्ध वि । -ठाणं ८, स० ६३२ (ख) सुरिय० पा० १६ सु० १००। २ कोडी बायालीसा, तीसं दोण्णि य सया अगुणवण्णा । पुक्वरअद्ध परिरओ, एवं च मणुसखेत्तस्स ॥ -जीवा. पडि. ३ उ०२ सु०१७६ ३ पूक्ख रबर दीवड्ढपुरथिमद्ध मदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं तओ अकम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा (१) हेमवए, (२) हरिवासे, (३) देवकुरा । पुक्खरवरदीवड्ढपुरस्थिमद्धे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं तओ कम्मभूमीओ पण्णत्ताओ, तं जहा(१) उत्तरकुरा, (२) रम्मगवासे, (३) एरण्णवए। -ठाणं अ०३, उ०४, सु० १६६ ४ (क) पूक्खरवरदीवड्ढपुरच्छिमद्धेमंदरदाहिणेणं तओ वासहर पव्वया पण्णत्ता, तं जहा (१) चुल्ल हिमवंते, (२) महाहिमवंते, (३) णिस । पुखरवरदीवड्ढपुरच्छिमद्धे मंदरउत्तरेणं तओ वासहरपव्वया पण्णत्ता, तं जहा-(१) नीलवंते, (२) रूप्पी, (३) सिहरी । एवं पच्छद्धिमद्ध वि। ___-ठाणं ३, उ० ४, सु० १६७ (ख) पुक्खरवरदीवड्ढ पुरच्छिमद्ध दो चुल्लहिमवंता--जाव-दो सिहरी । एवं पुक्खरवरदीवड्ढ पच्चत्थिमद्ध वि। ... -ठाणं २, उ० ३, सु०६३ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७६१-७६७ तिर्यक् लोक : पुष्करवरद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३७७ पुक्खरवरदीवड्ढे वक्खारपब्वया-- पुष्करवरद्वीपार्ध में वक्षस्कार पर्वत७६१. पुक्खरवरदीवड्ढ पुरच्छिमद्धे णं मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थि- ७६१. पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध में मन्दर पर्वत से पूर्व में शीता मेणं सीयाए महाणईए उभओ कूले दस वक्खारपब्वया पण्णत्ता, महानदी के दोनों किनारों पर दस वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं, तं जहा-मालवंते-जाव-सोमणसे । यथा-मालवंत पर्वत-यावत्-सौमनस पर्वत । पुक्खरवरदीवड्ढ पुरच्छिमद्धे णं मंदरस्स पध्वयस्स पच्च- पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध में मन्दर पर्वत से पश्चिम में त्थिमेणं सीतोदाए महाणईए उभओ कूले दस वक्खारपब्वया शीतोदा महानदी के दोनों किनारों पर दस वक्षस्कार पर्वत कहे पण्णत्ता, तं जहा--विजुप्पभे-जाव-गंधमावणे, गये हैं, यथा-विद्युत्प्रभ पर्वत-यावत्-गंधमादन पर्वत । एवं पुक्खरवरदीवड्ढ पच्चत्थिमद्ध वि । इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्ध के पश्चिमार्ध में भी वक्षस्कार -ठाणं १०, सु० ७६८ पर्वत हैं। पुक्खरवरदीवड्ढे मंदरपव्वया पुष्करवरद्वीपार्ध में मन्दर पर्वत७६२. पुक्खरवरदीवड्ढे गं दो मंदरा पव्वया पण्णत्ता, ७६२. पुष्करवरद्वीपार्ध में दो मन्दर पर्वत कहे गये हैं। -ठाणं २, उ० ३, सु०६२ ७६३. पूक्खरवरदीवड्ढगाणं मंदरा दसजोयणसयाई उव्वेहेणं ७६३. पुष्करवरद्वीपार्ध के मन्दर एक हजार योजन भूमि में गहरे . -जाव-दस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता । हैं-यावत्-दस योजन चौड़े कहे गये हैं। -ठाणं १०, सु० ७२१ ७६४. पुक्खरवरदीवड्ढेणं दो मंदरचूलिया पण्णत्ता, ७६४. पुष्करवरद्वीपार्ध में दो मंदरचूलिकायें कही गई हैं। -ठाणं २, उ० ३, सु० ६२ पुक्खरवरदीवड्ढ उसुयारपब्वया पुष्करवरद्वीपार्ध में इषुकार पर्वत७६५. पुक्खरवरदीवड्ढे दो उसुयारपव्वया पण्णत्ता । ७६५. पुष्करवरद्वीपार्ध में दो इषुकार पर्वत कहे गये हैं। -ठाणं २, उ० ३, सु० ६३ पुक्खरवरदीवड्ढे चक्कवट्टि विजया रायहाणीओय- पुष्करवरद्वीपार्ध में चक्रवति विजय और उनकी राज धानियाँ७६६. पुक्खरवरदीवड्ढे णं अट्ठट्टि विजया अट्ठसट्टि रायहाणीओ ७६६. पुष्करवरद्वीपार्ध में अड़सठ (६८) चक्रवति विजय हैं और पण्णत्ताओ। -सम० ६८, सु०२ उनकी अड़सठ (६८) राजधानियाँ कही गई हैं। पुक्खरवरदीवड्ढे चउत्तर दुसया तित्था पुष्करवरद्वीपार्ध में दो सौ चार तीर्थ७६७. एवं पुक्खरवरदीवड्ढपुरथिमद्धे वि, पच्चत्थिमद्धे वि। ७६७. इस प्रकार पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध में भी और पश्चिमार्ध -ठाणं अ० ३, उ० १, सु० १४२ में भी तीर्थ हैं । ....एवं धायइसंडपूरस्थिम वि वक्खारा भाणियव्वा-जाव-पुक्खरवरदीवड्ढपचत्थिमद्ध -ठाण १०, सु० ७६८ में संक्षिप्त पाठ है, ऊपर विस्तृत पाठ दिया है। एवं-जाव-पुक्खरवरदीवड्ढपचत्थिमद्ध-जाव-मंदरचलियत्ति । -ठाण, ४, उ०२, सु० २६६ जहा जबुद्दीवे तहा-जाव-पुक्खरवरदीवड्ढपच्चत्थिमद्ध बक्खारा बक्खार पब्बयाणं उच्चत्तं भाणियब्वं ।। -ठाणं ५, उ० २, सु० ४३४ इन दो संक्षिप्त सूत्रों के आधार से तथा स्थानांग ८ सूत्र ६३७ के आधार से वक्षस्कार पर्वतों की गणना समझना चाहिए । १ पूरा पाठ धातकीखण्ड के मन्दरपर्वतों के वर्णन में देखें। २ मन्दरचूलिकाओं के मध्य का विष्कम्भ और ऊपर का विष्कम्भ धातकीखण्ड की मन्दर चूलिकाओं के समान है। ३ धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध-पश्चिमाधं के समान पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध-पश्चिमार्ध में भी २०४ तीर्थ हैं । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : पुष्करवरद्वीप वर्णन सूत्र ७६८-७७० पुक्खरवरदीवडढे तुल्ला महद्दुमा पुष्करवरद्वीपार्ध में तुल्य महाद्र म-- ७६८. पुक्खरवरदीवड्ढपुरच्छिमझे मदरस्स पव्वयस्स उत्तर- ७६८. पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध में मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण दाहिणणं दो कुराओ बहुसमतुल्लाओ अविसेस मणाणत्ताओ में दो कुरा अधिक सम एवं तुल्य हैं, न इनमें विशेषता है न इनमें अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति, आयाम-विक्खम्भ-संठाण-परिणाहेणं नानापन है । आयाम-विष्कम्भ, संस्थान एवं परिधि से एक-दूसरे त जहा- १. देवकुरा चेव, २. उत्तरकुरा चेव । का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा-(१) देवकुरा, (२) उत्तर कुरा। तत्थ णं दो महइमहालया महद्दुमा बहुसमतुल्ला, अवि- वहाँ दो अतिविशाल महावृक्ष अधिक सम एवं तुल्य हैं, न सेसमणाणत्ता अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति आयाम-विक्खंभुच्चत्तो- इनमें विशेषता हैं, न इनमें नानापन है, आयाम-विष्कम्भ-ऊंचाई व्वहे-संठाण-परिणाहेण, तं जहा–१. कूडसामली चेव, २. गहराई संस्थान एवं परिधि से एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं पउमरुक्खे चैव ।' _ करते हैं, यथा-(१) कूटशाल्मली वृक्ष (२) पद्मवृक्ष । तत्थ णं दो देवा महिद्दिढया-जाव-महासोक्खा पलिओव- उन वृक्षों पर महधिक-यावत्-महासुखी पल्योपम की मद्विइया परिवसंति, तं जहा-१. गरुले चेव वेणुदेवे, २. स्थिति वाले दो देव रहते हैं, यथा-(१) गरुड वेणुदेव, (२) पउमे चैव। पद्मदेव। पुक्खरवरदीवड्ढ पच्चत्थिमद्धे णं मदरस्स पब्वयस्स उत्तर- पुष्करवरद्वीपार्ध के पश्चिमार्ध में मन्दर पर्वत से उत्तरदाहिणे णं दो कुराओ बहुसमतुल्लाओ-जाव-आयाम-विक्खंभ- दक्षिण में दो कुरा अधिक सम एवं तुल्य है-यावत-आयाम संठाण-परिणाहेणं, तं जहा-१. देवकुरा चैव, २. उत्तर- विष्कम्भ संस्थान एवं परिधि से एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं कुराओ चेव । करते हैं । यथा-(१) देवकुरा, (२) उत्तरकुरा । तत्थ णं दो महइ महालया महदुमा बहुसमतुल्ला-जाव- उन में दो अति विशाल महावृक्ष हैं वे अधिक सम एवं तुल्य आयाम विक्खंभुच्चत्तोब्वेह सठाण-परिणाहेणं, तं जहा- हैं-यावत्-वे आयाम, विष्कम्भ, ऊँचाई, गहराई, संस्थान एवं १. कूडसामली चेव, २. महापउमरुक्खे चेव । परिधि से एक-दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा (१) कूटशाल्मली वृक्ष, (२) महापद्म वृक्ष । तत्थ णं दो देवा महिड्ढिया-जाव-महासोक्खा पलिओवम- उन वृक्षों पर महधिक-यावत्-महासुखी, पल्योपम की द्विइया परिवसंति, तं जहा-१. गरुले चेव वेणुदेवे, २. स्थिति वाले दो देव रहते हैं, यथा-(१) गरुडवेणु देव, (२) पुण्डरीए चेव। -ठाण अ० २, उ० ३, सु०६३ पुण्डरीक देव । अभितर पुक्खरद्धस्स णामहेउ आभ्यन्तरपुष्करा के नाम का हेतु७६६. ५०-से केण? णं भते ! एवं बुच्चति-"अम्भितरपुक्खरद्धे ७६६. प्र०-भगवन् ! आभ्यन्तर पुष्कराध को आभ्यन्तर पुष्कय, अभितरपुक्खरद्धे य। रार्ध क्यों कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! अभितर पुक्खरद्धण माणुसुत्तरेणं सव्वतो उ०-गौतम ! आभ्यन्तर पुष्कराध को मानुषोत्तर पर्वत समंता संपरिक्खित्ते णं चिट्ठति । से एएण?णं गोयमा! चारों ओर से घेरकर स्थित है । गौतम ! इस कारण से आभ्यन्तर एवं वुच्चइ-अभितरपुक्खरद्धे य, अभितरपुक्ख- पुष्कराध को आभ्यन्तर पुष्करार्ध कहा जाता है । रद्धे य। अबुत्तरं च णं गोयमा ! अभितरपुक्खरद्ध य सासए अथवा गौतम ! आभ्यन्तर पुष्करार्ध (यह नाम) शाश्वत है -जाव-णिच्चे । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७६ -यावत -नित्य है। अड्ढाइज्जेसु दीवेसु तुल्लावासा अढाई द्वीप में तुल्य वर्ष७७०. जंबहीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तर-दाहिणणं दो वासा ७७०. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में दो क्षेत्र पण्णत्ता, कहे गये हैं । १ ठाणं अ०८ सु०६४१ । २ ठाणं अ०८ सु०६४१ । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७७०-७७३ बहुसमतुल्ला, अबिसेसमणाणत्ता, अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति आयाम-विषखंभ-संठाण परिणाहेणं तं जहा - १. भरहे चेव, २. एरवए चैव । एवमेषमभिसा १. ए १. हरिवासे चे २. 3 एव २ रम्मएवासे व खेत्ता पण्णत्ता, तिर्यक् लोक : अढाईद्वीप वर्णन - ठाणं अ० २, उ०३, सुत्तं ८० २. एवं धाय पुरथिमी, पन्चमि वि - ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं ६६ ३. एवं पुक्खरवरदीवड्ढपुरत्थिमद्ध े, पच्चत्थिमद्ध े वि - ठाणं अ० २, उ०३, सुत्तं १०३ इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में और पश्चिमार्थ में भी दो दो तुल्य क्षेत्र हैं । इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्थ के पूर्वार्ध और पश्चिमार्थ में भी दो दो तुल्य क्षेत्र हैं । अढाई द्वीप में तुल्य क्षेत्र अढाइ दीवेतुल्ला देता७७१.१.[वेदी मंदरस्स पण्ययस्स पुरत्यिमपत्विमे दो ७०१ जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व पश्चिम में दो क्षेत्र कहे गये हैं । वे ( दोनों क्षेत्र ) सर्वथा सदृश हैं, न उनमें किसी प्रकार की विशेषता है और न नानापन है । बहुसमतुल्ला, अविसेससमणाणसा, अगमणं नाइवन्ति, आयाम-विच-संधान परिमाणं पणता जा १.२. अवरविदेहे चेब, तं 1 - ठाणं अ० २, उ०३, सुत्तं ८१ २. एवं धामपुरथिमढ, पन्चत्यिमई वि — ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं ६६ ३. एवं पुरवरदीपुरस्थिम पच्यत्थिम वि , ― - ठाणं अ० २, उ०३, सुत्तं १०३ गणितानुयोग ३७६ अणमण्णं नाइवट्टन्ति, आयाम विक्खंभ-संठाण-परिणाहेणं, तं जहा - १. देवकुरा चैव २. उत्तरकुर चेव । वे ( दोनों क्षेत्र) सर्वथा सदृश हैं, न उनमें किसी प्रकार की विशेषता है और न नानापन है । तत्थ णं दो महइमहालया महादुमा पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला, अविसेसमणाणत्ता, वे लम्बाई, चौड़ाई, संस्थान और परिधि से एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं । यथा - ( १ ) भरत, ( २ ) ऐरवत । इसी प्रकार ऐसे ही अभिलाप से (१) (दक्षिण में हेम (२) (उत्तर में) हेरभ्यवत । (१) (दक्षिण में हरिववं, (२) (उत्तर में ) रम्यवर्ष क्षेत्र तुल्य हैं। वे लम्बाई, चौड़ाई, आकार और परिधि से एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा-१. पूर्वविदेह, (२) पश्चिम विदेह | इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी तुल्य क्षेत्र हैं । अटाइज्जे दीवेसु तुल्ला कुरा ७७२. १. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर- दाहिणे णं दो ७७२ जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में दो कुरा कहे कुराओ पण्णत्ताओ, गये हैं । बहुसमतुल्लाओ, अविसेसमणाणताओ, इसी प्रकार पुष्करवरद्वीप के पूर्वाचं और पश्चिमार्थ में भी क्षेत्र है । तुल्य अढाई द्वीप में तुल्य कुरा वे ( दोनों क्षेत्र) सर्वथा सदृश हैं, न उनमें किसी प्रकार की विशेषता है और न नानापन है । लम्बाई, चौड़ाई, आकार और परिधि से एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं । यथा - ( दक्षिण में ) देवकुरा, (२) (उत्तर में) उत्तरकुरा । वहाँ दो अतिविशाल महावृक्ष कहे गये हैं जो सर्वथा समान है, उनमें किसी प्रकार की कोई विशेषता नहीं है और न नानापन है । १ (क) स्था० अ० ७, सु० ५५५ में जम्बूद्वीप में सात वर्ष कहे गये हैं किन्तु यहाँ समान प्रमाण की विवक्षा होने के कारण छ वर्ष कहे गये हैं। (ख) ठाणं० अ० ३ उ० ४, सुत्तं १६६ (ग) ठाणं अ० ६, सुत्तं ५२२ । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : अढाईद्वीप वर्णन सूत्र ७७२-७७३ अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति, आयाम-विक्खंभुच्चत्तोव्वेह-संठाण- लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई, आकार और परिधि से वे परिणाहेणं, तं जहा–१. कूडसामली चेव, २. जंबू चैव एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा-(१) कूटशाल्मली, सुदंसणा, (२) जम्बू-सुदर्शना । तत्थ णं दो देवा महिड्ढिया, महज्जुइया, महाणुभागा, वहाँ पल्योपम की स्थिति वाले, महाऋद्धि वाले, महाद्युति महायसा, महाबला, महासोक्खा, पलिओवमद्वितीया परि- वाले, महासामर्थ्य वाले, महायश वाले, महाबल वाले, महासुख वसंति, तं जहा भोगने वाले दो देव रहते हैं यथा१. गरुले चव वेणुदेवे,२. अणाढिए चैव जंबुद्दीवाहिवइ, (१) गरुडवेणुदेव, (२) जम्बूद्वीपाधिपति अनाधृत देव । -ठाणं अ०२, उ० ३, सुत्तं ८२ एवं धाय इसंडे दीवे पुरथिमद्ध, इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में हैणवरं-दुमा १. कूडसामली चेव, २. धाय इरुक्खे चेव, विशेष-वृक्ष (१) कूटशाल्मली वृक्ष, (२) धातको वृक्ष । देवा, १. गरुले चेव वेणुदेवे, २. सुदंसणे चेव । देव (१) गरुड वेणुदेव, (२) सुदर्शन देव । एवं धाय इसंडे दीवे पच्चत्थिमद्ध, इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पश्चिमार्ध में हैणवरं-दुमा, १. कूडसामली चेव, २. महाधाय इरुक्खे, विशेष-वृक्ष (१) कूटशाल्मलीवृक्ष (२) महाधातकीवृक्ष । देवा, १. गरुले चेव वेणुदेवे, २. पियदंसणे चेव । देव (१) गरुडवेणुदेव, (२) प्रियदर्शनदेव । -ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं० ६६ एवं पुक्खरवरदीवड्ड पुरथिमी, इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपा के पूर्वार्ध में हैणवरं-महददुमा, १. कूडसामली चेव, २. पउमरुक्खे चेव, विशेष-वृक्ष (१) कूटशाल्मली वृक्ष, (२) पद्मवृक्ष । देवा-१. गरुले चेव वेणुदेवे, २. पउमे चेव, देव (१) गरुडवेणुदेव, (२) पद्मदेव । __ एवं पुक्खरवरदीवड्ढ पच्चत्थिमद्ध, इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्ध के पश्चिमार्क में हैणवर-महद्दुमा, १. कूडसामली चेव, २. महापउमरुक्खे चेव, विशेष-वृक्ष (१) कूटशाल्मलीवृक्ष (२) महापद्मवृक्ष । देवा-१. गरुले चेव वेणुदेवे, २. पुण्डरीए चेव, देव (१) गरुडवेणुदेव, (२) पुण्डरीकदेव । -ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं १०३ अड्ढाइज्जेसु दीवेसु तुल्ला वासहरपव्वया अढाईद्वीप में तुल्य वर्षधर पर्वत७७३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणे णं दो वासहर- ७७३. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में दो वर्षपव्वया पण्णत्ता, धर पर्वत कहे गये हैं। बहुसमतुल्ला, अविमेसमणाणता, __ वे (दोनों पर्वत) सर्वथा सदृश हैं, न उनमें किसी प्रकार की विशेषता है और न नानापन है। अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति, आयाम-विक्खंभुच्चत्तोन्वेह-संठाण- वे लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई, संस्थान और परिधि से परिणाहेणं, तं जहा-१. चुल्लहिमवंते चेव, २. सिहरी चेव, एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा-(दक्षिण में) क्षुद्र हिमवन्त पर्वत (२) (उत्तर में) शिखरी पर्वत । एवं १. महाहिमवते चेव, २. रुप्पि चेव, (दक्षिण में) महाहिमवान् पर्वत (उत्तर में) रुक्मिपर्वत । एवं १. निसढे चेव, २. नीलबंते चेव' । (दक्षिण में) निषधपर्वत, (उत्तर में) नीलवंत पर्वत । ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं ८३ एवं धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धे पच्चत्थिमद्धे वि, धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में और पश्चिमार्ध में वर्षधर पर्वत हैं। १. दो चुल्लहिमगता, (१) (दक्षिण में) दो क्षुद्र हिमवन्त पर्वत हैं । २. दो महाहिमनंता, (२) (उत्तर में) दो महाहिमवन्त पर्वत हैं । स्था० अ० ७, सूत्र ५५५ में जम्बूद्वीप में सात वर्षधर पर्वत कहे गये हैं किन्तु यहाँ समान प्रमाण की विवक्षा होने के कारण मंदरपर्वत को छोड़कर छ: वर्षधर पर्वत कहे गये हैं। Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७७३-७७५ ३. दो निसढा, ४. दो नीलवंता, ५. दो रुप्पी, ६. दो सिहरी, - ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं १०० एवं पुक्खरवरदी वड्ढे - पुरस्थिम पच्चत्थिम वि दो चुल्ल हिमगंता जाव -दो सिहरी । - ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं १०३ अड्ढा इज्जेसु दीवेसु तुल्ला वट्टवेयड्ढपव्वया ७७४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणे णं हेमवय हेरवा बासे को वेपया पणा, बहसमतुल्ला, अविसेसमणाणत्ता, तिर्यक् लोक अढाईद्वीप वर्णन अण्णमध्य नावन्ति, आयाम-विमोच्यो-ठाण परिणाहेणं, तं जहा १. सद्दावई चेव, २. वियडावई चैव, तत्थ णं दो देवा महिड्डिया - जाव- पलिओवमट्टिइया परिवसंति, तं जहा १. साती चेव, २. पभासे चैव । जंबुवेदीचे मंदर पन्चयस्स उत्तर दाहिणेणं हरिवासरम्मएस वाले दो बहुवे पा बहुसमतुल्ला - जाव तं जहा १. गंधावती चैव, २. मालवंतपरियाए चेव । तत्थ णं दो देवा महिड्डिया - जाव - पलिओवमट्टिइया परिवसंत तं जहा १. अरुण चेव, २. पउमे चेव, धाडे दीवे पुरत्थिमद्ध पच्चत्थिमद्ध े वि-७७५. दो सद्दावई, दो सद्दावईवासी साई देवा, दो पिडा दो वासी माता देवा, दो गंधावई, दो गंधावईवासी अरुणा देवा गणितानुयोग (३) (दक्षिण में दो निषध पर्वत हैं। (४) (उत्तर में ) दो नीलवन्त पर्वत हैं । (५) (दक्षिण में दो रूक्मि पर्वत हैं । (६) (उत्तर में दो शिखरी पर्वत हैं। ३८१ इसी प्रकार पुष्करवरडीपार्थ के पूर्वाध में और पश्चिमार्थ में भी दो क्षुद्रहिमवान् यावत्-दो शिखरी वर्षधर पर्वत है । अडाद्वीप में तुल्य वृत्तवैताय पर्वत - ७७४. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में हेमवतहैरण्यवत् क्षेत्रों में दो वृत्त वैताढ्यपर्वत कहे गये हैं । वे ( दोनों पर्वत) सर्वथा सदृश हैं, उनमें न किसी प्रकार की विशेषता है और न नानापन है। ये लम्बाई चौड़ाई ऊंचाई गहराई संस्थान और परिधि से एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा (दक्षिण में हैमवतक्षेत्र में शब्दापाति (वृत्तवताइय पर्वत) है। ( उत्तर में हैमवत क्षेत्र में ) विकटापाति ( वृत्तवैताद्य पर्वत ) हैं । उन पर महधिक - यावत् — पल्योपम की स्थिति वाले दो देव रहते हैं, यथा - ठाणं अ० २, उ०३, सुत्तं ८४ पद्मदेव | (शब्दापाती पर्वत पर ) स्वातिदेव (विकटापाती पर्वत पर ) प्रभास देव । जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में हरिवर्षरम्यवर्ष में दो वृत्तता पर्वत कहे गये हैं। वे ( दोनों पर्वत) सर्वथा सदृश हैं - यावत्-यथा(दक्षिण में हरिक्षेत्र में गंधापासी (वृत्तपत ( उत्तर में रम्यकूक्षेत्र में ) माल्यवन्तपर्याय ( वृत्तवेताढ्य पर्वत ) है । उन पर महधिक — यावत् - पल्योपम की स्थिति वाले दो देव रहते हैं, यथा (गंधापाती पर्वत पर ) अरुणदेव, ( माल्यवन्तपर्याय पर्वत पर ) धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध-पश्चिमार्ध) में - ७७५. दो शब्दापाती पर्वत हैं, दो शब्दापाती पर्वतवासी दो स्वाती देव हैं । दो विकटापाती पर्वत हैं, दो विकटापाती पर्वतवासी दो प्रभास देव हैं । दो गंधापाती पर्वत हैं दो गंधापाती पर्वतवासी दो अरुण देव हैं । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : अढाईद्वीप वर्णन सूत्र ७७५-७७८ देवा, दो मालवंतपरियागा, दो मालवंतपरियागवासी पउमा- दो माल्यवन्तपर्याय पर्वत हैं, दो माल्यवन्तपर्याय पर्वतवासी -ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं १०० दो पद्मदेव हैं। एवं पुक्खरवरदीवड्ढे, पुरथिमद्धे पच्चत्थिमद्धे वि। इसी प्रकार पुष्करवर द्वीपा के पूर्वार्ध और पश्चिमार्च में -ठाणं० अ० २, उ० ३, सुत्तं १०३ भी वृत्तवैतादय पर्वत हैं । अड्ढाइज्जेसु दीवेसु तुल्ला वक्खारपव्वया- अढाईद्वीप में तुल्य वक्षस्कार पर्वत७७६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं देवकुराए कुराए ७७६. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में देवकुरा कुरा के पुष्वावरे पासे एत्थ णं आसखंधगसरिसा अद्धचंदसंठाणसंठिया पूर्व-पश्चिम पार्श्व में अश्वस्कन्ध के सदृश अर्धचन्द्र के आकार से दो वक्खारपव्वया पण्णता, स्थित दो वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं। बहुसमतुल्ला, अविसेसमणाणत्ता, वे (दोनों पर्वत) सर्वथा सदृश हैं न उनमें किसी प्रकार की विशेषता है और न नानापन है। अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति आयाम-विक्खंभोच्चत्तोम्बेह-संठाण- बे लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई, संस्थान और परिधि से परिणाहेणं, तं जहा एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं यथा१. सोमणसे चेव, २. विज्जुप्पभे चेव, (१) सौमनस, (२) विद्युत्प्रभ । जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में । उत्तरकुराए कुराए पुव्वावरे पासे, एत्थ णं आसखंधग- उत्तरकुरा कुरा के पूर्व-पश्चिम पार्श्व में अश्वस्कन्ध के सदृश. सरिसा अद्धचंबसंठाणसंठिया दो वक्खारपब्वया पण्णत्ता, अर्धचन्द्र के आकार से स्थित दो वक्षस्कार पर्वत कहे गये हैं। . बहुसमतुल्ला-जाव-तं जहा वे (दोनों पर्वत) सर्वथा सदृश हैं-यावत्-यथा१. गंधमायणे वेव, २. मालवते चेव । (१) गंधमादन पर्वत, (२) मालवन्त पर्वत । -ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं ८५ धायईसंडे दीवे पुरथिमद्ध धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में७७७. दो मालवंता, दो चित्तकूडा, ७७७. दो माल्यवन्त पर्वत, दो चित्रकूट पर्वत दो पम्हकूडा, दो नलिनकूडा, दो पक्ष्मकूट पर्वत, दो नलिनकूट पर्वत दो एगसेला, दो तिकूडा, दो एकशैल पर्वत, दो त्रिकूट पर्वत दो वेसमणकूडा, दो अंजणा, दो वैश्रमणकूट पर्वत, दो अंजन पर्वत दो मातंजणा, दो सोमणसा, दो मातंजन पर्वत, दो सौमनस पर्वत दो विज्जुष्पभा, दो अंकावती, दो विद्युत्प्रभ पर्वत, दो अंकावती पर्वत दो पम्हावती, दो आसीविसा, दो पक्ष्मावती पर्वत, दो आशीविष पर्वत दो सुहावहा, दो चंदपव्वया, दो सुखावह पर्वत, दो चन्द्र पर्वत दो सूरपव्वया, दो णागपन्वया, दो सूर्य पर्वत, दो नाग पर्वत दो देवपव्वया, दो गंधमायणा, दो देव पर्वत, दो गंधमादन पर्वत दो उसुगारपव्वया, दो इषुकार पर्वत । एवं पच्चत्थिमद्ध वि। इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पश्चिमार्ध में भी वक्षस्कार -ठाणं अ० २, उ० ३, सु० १०० पर्वत एवं इषुकार पर्वत हैं। एवं पुक्खरवरदीवड्ढपुरथिमद्ध, पच्चत्थिमद्ध वि। इसी इकार पुष्करवरद्वीपाधं के पूर्वार्ध में तथा पश्चिमार्ध में -ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं १०३ भी हैं। अड्ढाइज्जेसु दीनेस तुल्ला दोहोयड्ढा अढाईद्वीप में तुल्य दीर्घ वैताढ्य पर्वत७७८, जबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणणं दो दोह- ७७८. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में दो दीर्घवेयड्ढा पण्णत्ता, वैताढ्य पर्वत कहे गये हैं। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७७८ ७८० बसमतुल्ला अविसेसमणाणला अम नायट्टति आयाम-विलोलो-ठाणपरिमाणं तं जहा १. बारह व दीवे २. एराए तिर्यक लोक : अढाईद्वीप वर्णन दी। - ठाणं० २, उ० ३, सुत्तं ८६ एवं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्ध े, पच्चत्थिमद्ध े, वि -- ठाणं अ० २, उ० ३ सुत्तं ६६ एवं पुक्खवरदीवड्ढ पुरत्थिमद्धे पच्चत्थिमद्धे वि । - ठाणं अ० २, उ. ३, सुत्तं १०३ अड्ढाइज्जेसु दीगेसु तुल्लाओ गुहाओ७७. भारए दी दो गुहाओ पाओ, णं बसमतुलाओ, अविसेसमानताओ अष्णमणं नाइवदृग्ति आयाम-विवखंत संठाणपरिणाहेणं, त जहा - १. तिमिसगुहा चेव, २. खंडप्पवाय गुहा चेव । तस्य णं दो देवा महिडिया जावयलिओ वमहिया परिवसंति, तं जहा - १. कयमालए चेव, २. णट्टमालए चैव । एवं एरवए वि दीहवेयड्ढे दो गुहाओ, - ठाणं अ० २ उ० ३, सुत्तं ८६ एवं धायसंडे दीवे पुरस्थिमद्ध े, पच्चत्थिमो वि, -- ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं ६६ एवं पुखरवरदीपुरस्थिमदं पञ्चत्थिमव - ठाणं अ० २, उ० ३, सु० १०३ 1 अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति आयाम-विवखंभुच्चत्त-संठाणपरिमाणं तं जहा - १. हिचे २. सम कुठे जेव गणितानुयोग २. जंवेदी मंदरस्स व्वयस्स वाहिणे महाहिमवते खासहरपव्वए दो कूडा पण्णत्ता, ३८३ वे ( दोनों पर्वत) सर्वथा सदृश हैं, न उनमें किसी प्रकार की विशेषता है और न नानापन है। वे लम्बाई, चौड़ाई; ऊँचाई, गहराई, संस्थान और परिधि से एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा (१) (दक्षिण में) भरतक्षेत्र में दीर्घताय पर्वत । (२) (उत्तर में ऐरवत क्षेत्र में दीर्घवेतादय पर्वत । इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध एवं पश्चिमार्ध में भी दीर्घवेताढ्य पर्वत हैं । इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपा के पूर्वार्ध-पश्चिम में भी दीर्घवैताढ्य पर्वत हैं । अढाई द्वीप में तुल्य गुफाएँ ७७. भरतक्षेत्र के ताप पर दो गुफाएँ कही गई है। वे ( दोनों गुफाएँ) सर्वथा सदृश हैं । न उनमें किसी प्रकार की विशेषता है और न नानापन है। वे सम्बाई चौड़ाई, ऊंचाई, संस्थान और परिधि से एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करती है, यथा - ( १ ) तमिस्र गुफा, ( २ ) खण्डप्रपात गुफा | इसी प्रकार ऐश्वत क्षेत्र के दीर्घवंताय पर्वत पर ये गुफायें हैं । इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध-पश्चिमार्थ में भी है। इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध - पश्चिमार्ध में भी हैं । अड्ढाइज्जेसु दीवेसु तुल्ला कूडा अढाई द्वीप में तुल्य कूट ७८०.१. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंते ७८० जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में क्षुद्र हिमवन्त वासहरपब्वए दो कूडा पण्णत्ता । वर्षधर पर्वत पर दो कूट कहे गये हैं । बहुमतुला अयिसेसमणागला, उनमें महधिक - यावत् - पल्योपम की स्थिति वाले दो देव रहते हैं यथा - (१) कृतमालदेव, (२) नृत्यमालकदेव । ये दोनों कूट) सर्वधा हैं, उनमें न किसी प्रकार की विशेषता है, और न नानापन है । वे लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, संस्थान और परिधि से एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते है यथा- (१) मन्त कूट (२) वैभ्रमण कूट । 1 जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में महाहिमवन्त वर्षधर पर्वत पर दो कूट कहे गये हैं । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : अढाईद्वीप वर्णन सूत्र ७८०-७८२ बहुसमतुल्ला-जाव-तौं जहा–१. महाहिमवंतकूडे चैव, वे (दोनों कूट) सर्वथा सदृश हैं-यावत्-यथा-(१) महा२. वेरुलिएकूडे चेव । हिमवन्त कूट, (२) गैडूर्य कूट । ३. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं निसढे जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में महाहिमवन्त वासहरपव्वए दो कूडा पण्णत्ता, ___ वर्षधर पर्वत पर दो कूट कहे गये हैं। बहुसमतुल्ला-जाव-तौं जहा-१. निसधकूडे चव, २. वे (दोनों कूट) सर्वथा सदृश हैं-यावत् –यथा-(१) रुयगकडे चेव । निषधकूट, (२) रूचककूट । ४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं नीलवंते जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में नीलवन्त वर्षधर वासहरपव्वए दो कूडा पण्णता, पर्वत दो कूट कहे गये हैं। बहुसमतुल्ला-जाब-तौं जहा–१. नीलवंतकूडे चैव, २. वे (दोनों कूट) सर्वथा सदृश हैं—यावत्-यथा-नीलवन्त उवदसणकूडे चेव । कूट, (२) उपदर्शन कूट । ५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं रुप्पिमि जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में रुक्मि वर्षधर वासहरपव्वए दो कूडा पण्णत्ता, पर्वत पर दो कूट कहे गये हैं। बहुसमतुल्ला-जाव-त जहा-१. रुप्पिकूडे चेव, २. मणि- वे (दोनों कूट) सर्वथा सदृश हैं-यावत्-यथा-(१) रुक्मिकंचणकूडे चेव । कूट, (२) मणिकंचनकूट । ६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं सिहरिम्मि जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में शिखरी वर्षधर वासहरपब्वए दो कूडा पण्णत्ता, __ पर्वत पर दो कूट कहे गये हैं । बहुसमतुल्ला-जाव-तं जहा–१. सिहरीकूडे चेव, २. वे (दोनों कूट) सर्वथा सदृश हैं-यावत्-यथा-(१) तिगिछिकूडे चेव। -ठाणं २, उ० ३, सुत्तं ८७ शिखरीकूट, (२) तिकित्सकूट । एवं धायइसंडे दीने पुरथिमद्ध पच्चत्थिमद्ध वि- इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में७८१. दो चुल्ल हिमवन्त कूडा दो वेसमण कूडा ७८१.दो क्षुद्र हिमवन्तकूट, दो वैश्रमणकूट, दो महाहिमवन्त कूडा दो वेरूलिय कूडा दो महाहिमवन्तकूट, दो वैडूर्यकूट, दो निसध कूडा दो ख्यग कूडा दो निषधकूट, दो रुचककूट, दो नीलवंत कूडा दो उवदंसण कूडा दो नीलवन्तकूट, दो उपदर्शनकूट हैं । -ठाणं अ० २, उ० ३, सु० १०० एवं पुक्खरवरदीवड्ढपुरथिमद्धे पच्चत्थिमद्धेवि, इसी प्रकार पुष्करबरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध और पश्चिमा में भी -ठाणं अ० २, उ० ३, सु० १०३ कूट हैं। अड्ढाइज्जेसु दीनेसु तुल्ला महद्दहा अढाई द्वीप में तुल्य महाद्रह७८२. १. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणणं चुल्ल- ७८२. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में क्षुद्र हिमवंत-सिहरीसु वासहरपव्वएसु दो महद्दहा पण्णत्ता, हिमवन्त और शिखरी वर्षधर पर्वत पर दो महाद्रह कहे गये हैं। बहुसमतुल्ला, अविसेसमणाणत्ता, ___ वे (दोनों महाद्रह) सर्वथा सदृश हैं, उनमें न किसी प्रकार की विशेषता है और न नानापन है । अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति, आयाम-विक्खंभ-उब्वेह-संठाण- वे लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, संस्थान और परिधि से एक दूसरे परिणाहेणं, त जहा-१. पउमद्दहे चेव, २. पुण्डरीयद्दहे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, यथा-(१) पद्मद्रह, (२) पुण्ड रोकद्रह । तत्थ णं दो देवयाओ महिड्ढियाओ-जाव-महासोक्खाओ उन द्रहों पर महधिक-यावत्-महासुखी पल्योपम की पलिओवमट्टिइयाओ परिवसंति, त जहा-१. सिरि चेव, स्थिति वाली दो देवियाँ रहती हैं, यथा-(१) श्रीदेवी, (२) २. लच्छी चेव । लक्ष्मीदेवी। चेव । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ७८२-७८४ तिर्यक् लोक अपवर्तन २. जंबुद्दी मंदरसपरस उत्तर दाहिनेणं महाहिमवंत पीवासहरपयए दो महापा बहुसमतुल्ला - जाव तं जहा १. महाप मद्दहे चेव, २. महापोंडरीयद्दहे चेब, सत्य णं दो देवयाओ महिया-जाय महासोक्खाओ पतिओमइयाओ परिवति तं जहा १. हिरि वेब २. बुद्धि व ३. जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर दाहिणे णं निसह-नीलवंते वासहरपत्वए दो महदहा पष्णता बहुसमतुल्ला - जाव-तं जहा १. तिगछि चेव, २. केसरिद्दहे चेव । तत्थ णं दो देवयाओ महिड्डियाओ - जाव महासोक्खाओ पलिओयमयाओ परिवति तं जहा १. घिती चैव २. कित्ती चेव । - ठाणं अ० २, उ०३, सुत्तं०८८ ७८३. धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे पच्चत्थिमद्धे य, o १. दो पउमद्दहा, बो पउमद्दहवासिणीओ सिरीदेवीओ । २. दो महामा से महापमवासिणीओ हिरीओ देवीओ । ३. दो तिमि दो तिगिटिहवासिनीओपिओ देवीओ | ४. दो केसरिहा, दो केसरिद्दहवासिणीओ कित्तीओ देवीओ । ५. दो महायोंडरीया, दो महापौरीबहावासिनीओ बुद्धीओ देवीओ । ६. दो पोंडरीयद्दहा, दो पोंडरीयद्दहवासिणोओ लच्छीओ देवीओ | - ठाणं अ० २, उ० ३, सुतं १०० एवं पुक्खरवर दीवड्ढपुरत्थिमद्धे पच्चत्थिमद्धे वि । - - ठाणं अ० २, उ०३, सुत्तं १०३ अड्डाइज्जेसु दीवेसु तुला पायद्दहा७८४. १. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं भरहे वासे दो पायद्दहा पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला । अविसेसमणाणत्ता, अण्णमण्णं नाइवट्टन्ति, आयाम-विवखंभ उव्वेह संठाण- परिणाहेणं, तं जहा १. गाय २. सिपुष्पवायचेव । २. वे दो मंदररसपव्ययस्स दाहिणं हेमवए वासे दो पायद्दहा पण्णत्ता । बहुसमतुल्ला - जाव-तं जहा- -१. रोपवायचे २. रोहिसवाय चैव। , ३. जंबूद्दीने दी मंदरस्स पञ्चस्स वाहिणं हरिवासे दो पवायद्दहा पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला - जाव तं जहा - १. हरिप्पबाय २. हरि गणितानुयोग ३८५ जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में महाहिमवन्त और रुक्मी वर्षधर पर्वत पर दो महाद्रह कहे गये हैं । वे ( दोनों महाद्रह ) सर्वथा सदृश हैं - यावत्-यथा(१) महापद्मद्रह, (२) महापौंडरीकड उन ग्रहों पर महधिक - यावत् - महासुखी पल्योपम की स्थिति बाली दो देवियां रहती हैं, यथा- (१) ह्रीदेवी, (२) बुद्धिदेवी। जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में निषध और नीलवन्त वर्षधर पर्वत पर दो महाद्रह कहे गये हैं । वे ( दोनों महाद्रह ) सर्वथा सदृश हैं - यावत् यथा(१) तिच्छिद्रह, (२) केसरी द्रह | उन ग्रहों पर महधिक यावत् — महासुखी पत्योपम की स्थिति वाली दो देवियां रहती है, यथा- (१) धूति देवी, (२) कीर्ति देवी । ७८३. धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वार्ध, पश्चिमार्ध में (१) दो पद्मद्रह दो पद्मद्रहवासिनी श्रीदेवियाँ हैं। (२) दो महापद्मद्रह, दो महापद्मद्रहवासिनी ह्रीदेवियाँ हैं । (३) दो तिछिद्र दो तिछिद्रवासिनी घुति देवियाँ हैं। (४) दो केसरीद्रह, दो केसरीद्रहवासिनी कीर्तिदेवियाँ हैं । (५) दो महापौंडरीकद्रह दो महापौहरीकद्रवासिनी वृद्धि देवियों हैं। (६) दो पौंडरीकद्रह, दो पौंडरीकद्रहवासिनी लक्ष्मी देवियाँ । इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपा के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी महाद्रह हैं। अढाई द्वीप में तुल्य प्रपात ग्रह ७८४. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में भरत क्षेत्र में दो प्रपातद्रह कहे गये हैं जो सर्वथा समान है, न उनमें किसी प्रकार की कोई विशेषता है और न उनमें नानापन है, लम्बाई चौड़ाई, गहराई, आकार और परिधि में एक दूसरे का अतिक्रमण नहीं करते है, यथा-(१) गंगा (२) । जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में हेमवत क्षेत्र में दो प्रपातद्रह कहे गये हैं, जो सर्वथा समान हैं- यावत्-यथा(१) रोहित प्रपातग्रह, (२) रोहितांस प्रपातद्रह् । जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में हरिक्षेत्र मे 41 प्रपातद्रह कहे गये हैं, जो सर्वथा समान हैं- यावत्-यथा(१) हरिप्रपातद्रह, (२) हरिकान्तप्रपातद्रह | Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : अढाईद्वीप वर्णन सूत्र ७८४-७८६ ४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणेणं जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में महाविदेह महाविदेहे वासे दो पवायद्दहा पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव- क्षेत्र में दो प्रपातद्रह कहे गये हैं, जो सर्वथा समान है-यावत्तं जहा–१. सीतप्पवायदृहे चेव, २. सीतोदष्पवायद्दहे चेव। यथा-(१) शीतप्रपातद्रह, (२) शीतोदप्रपातद्रह । ५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं रम्मए वासे जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में रम्यक् क्षेत्र में दो दो पवायदहा पण्णता, बहुसमतुल्ला-जाव-तं जहा–१. नर- प्रपातद्रह कहे गये हैं, जो सर्वथा समान है-यावत -यथाकंतप्पवायद्दहे चेव, २. नारिकतप्पवायदहे चेव । (१) नरकान्तप्रपातद्रह, (२) नारीकान्त प्रपातद्रह । ६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं हेरण्णवए जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में हैरण्यवतक्षेत्र में वासे दो पवायदहा पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-तं जहा- दो प्रपातद्रह कहे गये हैं। जो सर्वथा समान हैं—यावत् –यथा१. सुवण्णकूलप्पवायद्दहे चेव, २. रुप्पकूलप्पवायहहे चेव। (१) सुवर्णकूलाप्रपातद्रह, (२) रूप्यकुलाप्रपातद्रह । ७. जंदुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं एरवए वासे जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में ऐरवत क्षेत्र में दो पवायदहा पण्णत्ता, बहुसमतुल्ला-जाव-तं जहा- दो प्रपातद्रह कहे गये हैं जो सर्वथा समान हैं-यावत्-यथा१. रत्तप्पवायदहे चेव, २. रत्तावईपवायदहे चेव । (१) रक्तप्रपातद्रह, (२) रक्तावतीप्रपातद्रह । -ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं० १० धायइसंडे दोवे पुरथिमद्ध पच्चत्थिमद्ध धातकीखण्डद्वीप के पूर्वाध और पश्चिमार्ध में७८५. १. दो गंगप्पवायदहा, दो सिंधुप्पवायदहा । ७८५. (१) दो गंगप्रपातद्रह, दो सिन्धुप्रपातद्रह । २. दो रोहियप्पवायदहा, दो रोहियंसप्पवायदहा । (२) रोहितप्रपातद्रह, दो रोहितांसप्रपातद्रह । ३. दो हरिप्पवायदहा, दो हरिकतप्पवायदहा । (३) दो हरिप्रपातद्रह, दो हरिकान्तप्रपातद्रह । ४. दो सीतप्पवायदहा, दो सीतोदप्पवायदहा । (४) दो शीतप्रपात द्रह, दो शीतोदप्रपातद्रह । ५. दो नरकंतप्पवायदहा, दो नारिकतप्पवायद्दहा । (५) दो नरकान्तप्रपातद्रह, दो नारीकान्तप्रपातद्रह । ६. दो सुवण्णकूलप्पवायद्दहा, दो रुप्पकूलप्पवायदहा । (६) दो सुवर्णकूलप्रपातद्रह, दो रूप्यकुलाप्रपातद्रह । ७. दो रत्तप्पवायदहा, दो रत्तावईपवायदहा । (७) दो रक्तप्रपातद्रह, दो रक्तावतीप्रपातद्रह । -ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं १०० ६. एवं पुक्खरवरदीवड्ढपुरथिमी पच्चत्थिमद्धे वि, इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्थ के पूर्वार्ध में और पश्चिमार्ध -ठाणं अ० २, उ० ३, सुत्तं १०३ में भी हैं। अड्ढाइज्जेसु दीनेसु तुल्लाओ महाणईओ- अढाई द्वीप में तुल्य महानदियाँ - ७८६. १. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स दाहिणणं भरहे वासे दो ७८६. जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण भरत क्षेत्र में दो महाणईओ पण्णत्ताओ, बहुसमतुल्लाओ, अविसेसमणाणत्ताओ, महानदियाँ कही गई हैं, जो सर्वथा समान हैं, न उनमें किसी प्रकार की कोई विशेषता है और न उनमें नानापन हैं। . अण्णमण्णं णाइवट्टन्ति, आयाम-विक्खंभ-उन्वेह-संठाण- लम्बाई चौड़ाई गहराई आकार और परिधि में एक दूसरे परिणाहेणं; तं जहा का अतिक्रमण नहीं करती हैं यथा१. गंगा चेव, २. सिंधु चेव। (१) गंगा, और (२) सिन्धु । ,२. जंबहीवे दीवे मंदरस्स पध्वयस्स दाहिणणं हेमवए वासे जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण हैमवत क्षेत्र में दो दो महाणईओ पण्णताओ बहुसमतुल्लाओ-जाव-तं जहा- महानदियाँ कही गई हैं, जो सर्वथा समान हैं-यावत-यथा१. रोहिता चेव, २. रोहितंसा चेव । (१) रोहिता, और (२) रोहितांसा ।। ३. जंबहीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं हरिवासे दो जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण हरिवासक्षेत्र में दो महाणईओ पण्णत्ताओ, बहुसमतुल्लाओ-जाव-तं जहा- महानदियाँ कही गई हैं, जो सर्वथा समान हैं-यावत -यथा१ हरि चेव, २. हरिकता चेव । (१) हरी, और (२) हरीकान्ता । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७८६-७८६ तिर्यक् लोक : अढाईद्वीप वर्णन गणितानुयोग ३८७ ४. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पध्वयस्स उत्तरदाहिणेणं महा- जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में महाविदेह विदेहेवासे दो महाणईओ पण्णत्ताओ, बहुसमतुल्लाओ-जाब- क्षेत्र में दो महानदियाँ कही गई हैं, जो सर्वथा समान हैं-यावत् तं जहा–१. सीता चेव, २. सीतोदा चेव । -यथा-(१) दक्षिण में शीता, (२) उत्तर में शीतोदा। ५. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं रम्मए वासे जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में रम्यक्षेत्र में दो 'दो महाणईओ पण्णत्ताओ, बहुसमतुल्लाओ-जाव-तं जहा- महानदियाँ कही गई हैं, जो सर्वथा समान हैं-यावत् --यथा१. नरकंता चेव, २. नारिकता चेव । (१) नरकान्ता, और (२) नारीकान्ता । ___६. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स उत्तरेणं हेरण्णवए जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दरपर्वत से उत्तर में हैरण्यवत में दो वासे दो महाणईओ पण्णत्ताओ, बहुसमतुल्लाओ-जाव-तं जहा- महानदियाँ कही गई हैं, जो सर्वथा समान हैं--यथा-(१) सुवर्ण १. सुवष्णकूला चेव, २. रुष्पकूला चेव । कूला । (२) रूप्यकूला। ७. जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेण एरवए वासे जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दरपर्वत से उत्तर में ऐरवत क्षेत्र में दो दो महाणईओ पण्णताओ, बहुसमतुल्लाओ-जाव-तं जहा- महानदियाँ कही गई हैं, जो सर्वथा समान हैं,-यावत्-यथा१. रत्ता चेव, २. रत्तवती चेव। (१) रक्ता, और (२) रक्तावती । -ठाण अ० २, उ० ३, सुत्तं ६१ धायइसंडे दोने पुरथिमद्ध पच्चत्थिमद्धय- धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध में और पश्चिमाई में७८७.१. दो गंगा, दो सिंधू, ७८७. (१) दो गंगा, दो सिन्धु, २. दो रोहिया दो रोहितंसा, (२) दो रोहिता, दो रोहितांसा, ३. दो हरी दो हरिकता, (३) दो हरी, दो हरीकान्ता, ४. दो सीता, दो सीतोदा, (४) दो शीता, दो शीतोदा, ५. दो नरकंता, दो नारिकता, (५) दो नरकता, दो नारीकान्ता, ६. दो सुवण्णकूला, दो रुप्पकूला, (६) दो सुवर्णकूला, दो रूप्यकूला, ७. दो रत्ता, दो रत्तवती। (७) दो रक्ता, दो रक्तावती हैं । -ठाणं अ० २ उ० ३ सुत्तं १०० ६. एवं पुक्खरवरदीवड्ढपुरथिमद्ध पच्चत्थिमद्ध वि, इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में -ठाण अ० २, उ० ३, सुत्तं १०३ भी हैं। बेइयामूल विक्खंभे __ वेदिका के मूल की चौड़ाई७८८. जबट्टीवस्स णं दोवस्स वेइयामूले दुवालस जोयणाई विक्ख- ७८८. जम्बूद्वीप द्वीप की वेदिका मूल में बारह योजन की चौड़ी भेणं पण्णत्ता।' -सम० १२, सु० ७ कही गई हैं । सोसि दीव-समुदाणं गेइया पमाणं -- सब द्वीप-समुद्रों की वेदिका का प्रमाण७८९. सर्वेसि पि णं दीव-समुद्दाणं वेइया दो गाउयाइ उड्ढं ७८६. सब द्वीप-समुद्रों की वेदिका दो गाऊ ऊँची कही गई है। उच्चत्तेणं पण्णत्ता। -ठाणं अ० २, उ० ३, सु०६३ १ (क) जीवा. प्रति. ३, सूत्र १८६ में 'जम्बूद्वीप आदि नाम वाले द्वीप तथा लवणसमुद्र आदि नाम वाले समुद्र इस तिर्यक्लोक में असंख्य है' और (१) देव, (२) नाग, (३) यक्ष, (४) भूत, (५) स्वयम्भुरमण, इन पांच नाम वाले द्वीप-समुद्र एक एक हैं" ऐसा कहा है। इन सब द्वीप-समुद्रों की वेदिका प्रमाण इस सूत्र के अनुसार कहा गया है। (ख) इस सूत्र में केवल जम्बूद्वी। की वेदिका के मूल का विष्कम्भ कहा गया है किन्तु वेदिका की ऊँचाई निरूपक उपरोक्त सूत्रानुसार सभी द्वीप-समुद्रों की वेदिकाओं के मूल का विष्कम्भ भी जानना चाहिए । २ जम्बुद्दिवस्स ण दीवस्स वेइया दो गाउयाई उड्ढं उच्चत्ते णं पण्णता, -ठाणं अ. २, उ. ३, सु. ६१ लवणस्स णं समुद्दस्स वेइया दो गाउयाई उड्ढं उच्चत्ते णं पण्णत्ता, -ठाणं अ. २, उ. ३, सु. ६१ धाय इसंडस्स णं दीवस्स वेइया दोगाउयाई उड्ढं उच्चत्ते ण पण्णत्ता, -ठाणं अ. २, उ. ३, सु. ६२ पुक्खरवरस्स णं दीवस्स वेइया दो गाउयाई उड्ढे उच्चत्ते णं पण्णत्ता, -ठाणं अ. २, उ. ३, सु. ६३ लवणस्स णं समुद्दस्स वेइया दो गाउयाई उड्ढं उच्चत्ते णं पण्णत्ता, -ठाणं अ. २, उ. ३, सु. ६१ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : समयक्षेत्र वर्णन सूत्र ७६०-७६३ समयखेत्तो समयक्षेत्र समयखित्त-सरूव निद्देसो समयक्षेत्र के स्वरूप का निर्देश७६०. ५०-किमिदं भंते ! समयखेत्ते ति पवुच्चइ ? ७६०. प्र०-हे भगवन् ! समयक्षेत्र का स्वरूप क्या है ? उ०-गोयमा ! अड्ढाइज्जा दीवा, दो य समुद्दा, एस णं उ०-हे गौतम ! अढाईद्वीप और दो समुद्र यह इतना एवतिए, समयखेत्ते त्ति पवुच्चइ । समयक्षेत्र कहा जाता है। -भग० स०२, उ०६, सु०१ समयखेत्तस्स आयामाईणं पमाणं समयक्षेत्र क आयामादि का प्रमाण७६१. ५०-समयखेत्ते णं भंते ! केवतियं आयाम-विक्खंभेणं, केव- ७६१. हे भगवन् ! समयक्षेत्र की लम्बाई चौड़ाई और परिधि तियं परिक्खेवेणं पण्णते ? कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयाम- उ०-हे गौतम ! पैंतालीस लाख योजन की लम्बाई चौड़ाई विक्खंभेणं' कही गई है। एगा जोयणकोडी-जाव-अभितरपुक्ख द्धपरिरओ सो एक करोड़ (बियालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास भाणियब्वो-जाव-अउणपणे ।' योजन को) आभ्यन्तर पुष्कराध की परिधि कही गई है। यही -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १७७ परिधि समयक्षेत्र की है। समयखेत्ते कुलपव्वया समयक्षेत्र में कुलपर्वत७६२. समयखेत्ते णं एकूणचत्तालीसं कुलपत्वया पण्णत्ता, तं जहा- ७६२. समयक्षेत्र में एगुनचालीस कुलपर्वत कहे गये हैं, यथातीसं वासहरा, पंच मंदरा चत्तारि उसुकारा । तीस वर्षधर पर्वत, पाँच मेरु पर्वत और चार इषुकार पर्वत । -सम० ३६, सु०२ समयखेत्ते वासा पव्वया य समयक्षेत्र में क्षेत्र पर्वतादि का प्ररूपण७६३. समयखेत्ते णं मंदरवज्जा एकूणसरि वासा, वासहरपब्वया, ७६३. समयक्षेत्र में (पाँच) मेरु को छोड़कर एगुनसित्तर वर्ष, उसुयारपव्वया य पण्णत्ता, तं जहा-पणतीसं वासा, तीसं वर्षधर पर्वत और इषुकार कहे गये हैं, यथा-पैंतीस वर्ष, तीस वासहरा, चत्तारि उसुयारा य पण्णत्ता, वर्षधरपर्वत और चार इषुकार (पर्वत) कहे गये हैं । -सम० ६६, सु०१ १ सम. ४५ सु. १। २ (क) गाथा-एक्का जोयणकोडी, वातालीसं च सतसहस्साई। तीसं च सहस्साई, दोणि य अउणापण्णजोयणसते ॥ -जीवा. पडि. ३. उ. २ सु. १७७ (ख) समयखेत्ते पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बायालीसं च जोयणसयसहस्साइं तीसं च जोयणसहस्साई दोन्नि य अउणापन्ने जोयणसए किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णते, -भग. स. ११, उ. १०, सुत्तं २७ -भग. स. २, उ. १, सुत्तं २४/३ (ग) सूरिय. पा. १६ सु. १००। आभ्यन्तर पुष्कराध की परिधि और समयक्षेत्र की परिधि समान है। ___ मनुष्यक्षेत्र और समयक्षेत्र ये दोनों नाम यद्यपि पर्यायवाची हैं किन्तु दोनों की व्याख्या भिन्न भिन्न हैं - (अ) मनुष्यक्षेत्र में कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तरद्वीपज मनुष्य रहते हैं । मनुष्यों का जन्म-मरण भी मनुष्यक्षेत्र में ही होता है । बाहर नहीं इसलिए यह मनुष्यक्षेत्र कहा जाता है। (ब) समयक्षेत्र में ही घड़ी, मुहर्त, दिन-रात आदि सभी समय विभागों का सर्वदा व्यवहार होता है अन्यत्र नहीं । वह पैतालीस लाख योजन का लम्बा चौड़ा है। ठाणं, समवायंग, भगवती आदि आगमों में मनुष्यक्षेत्र एवं सम पक्षेत्र-इन दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७६४-७६७ तिर्यह लोक समयक्षेत्र वर्णन 00 समयलेलं भरहाईणं पवर्ण ७२४. समय पंच भरहाई, पंथ एश्ववाई एवं जहा चट्टा feature से तहा एत्थ वि भाणियध्वं जाव-पंच मंदरा, पंच मंदर चूलियाओ, नवरं उसुधारा नत्थि । समयक्षेत्र में भरतादि का प्ररूपण 7 ७१४. जिस प्रकार ठाणांत चतुर्थस्थान के द्वितीय उद्देशक में (चार भरत, चार ऐरवत - यावत् - चार मन्दर-पर्वत, चार मंदर चूलिकायें) कही हैं उसी प्रकार यहाँ भी समयक्षेत्र में भी - ठाणं ५, ०२, ० ४३४ पाँच भरत, पाँच ऐरवत यावत् पाँच मंदर पर्वत, पाँच मंदरचूलिकायें कहनी चाहिए। विशेष यह है कि इषुकार पर्वत (पाँच) नहीं है। ', तत्थ णं दस महइमहालया महादुमा पण्णत्ता, तं जहा - १. जबसुदंसणा २. धायइरुक्खे, २. महाप्रायस्वचे ४५. महान ६. पंचकूडसालीओ तत्य णं दस देवा महिड्डीया जाय-पलिओयमद्वितिया परिवसंति, तं जहा - १. अणाढिए जंबुद्दीवाहिवई, २. सुदंसणे, ३. पियदसणे, ४. पोंडरीए, ५. महापोंडरीए । ६-१० पंच गावेणुदेवा । मणुस्खेत्ते वो समुद्दा ७६६. अंतोनं मणुस्स खेत्तस्स दो समुद्दा पण्णत्ता, १. लवणे चेव, २. कालोदे चेव । समय कुरा दुमाणं तहा देवानं मिरवणं समयक्षेत्र के कुराओं में वृक्ष और देवों का निरूपण ७६५. समयखे ते णं दस कुराओ पण्णत्ताओ, तं जहा—पंच देव- ७९५. समयक्षेत्र में दस कुरा कहे गये हैं, यथा- पाँच देवकुरा कुराओ, पंच उत्तरकुराओ । और पाँच उत्तरकुरा । तं जहा - ठाणं १०, सु० ७६४ (६-१०) पांच गरुड वेणुदेव । - ठाणं अ० २, उ० ४, सु० १२२ wwwwww उ०- गोयमा ! माणुसखेत्ते णं तिविधा मणुस्सा परिवसंति, तं जहा गणितानुयोग १. कम्मभूमगा, २. अकम्मभूमगा, ३. अंतरदीबगा । सेट्टणं गोयमा ! एवं बुच्चति - " माणुसखेते, माणुस।" - जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १७७ ३८६ उनमें दस महाविशाल महावृक्ष कहे गये हैं, यथा - ( १ ) जम्बु सुदर्शन, (२) धातकीवृक्ष (३) महापातकीवृक्ष (४) पद्मवृक्ष, (५) महापद्म ६-१० पाँचकूटशाल्मलीवृक्ष । उन पर दस महधिक - यावत् - पत्योपमस्थिति वाले देव रहते हैं, यथा - ( १ ) अनाधृत- जम्बूद्वीपाधिपति, (२) सुदर्शन, (३) प्रियदर्शन, (४) पौडरिक, (५) महापौहरिक । मनुष्यक्षेत्र में दो समुद्र - ७६६. मनुष्य क्षेत्र के अन्दर दो समुद्र कहे गये हैं, यथा(१) लवणसमुद्र, और (२) कालोदसमुद्र । माणुसवेत्तरस नाम हेउ मनुष्य क्षेत्र के नाम का हेतु ७६७. १० सेकेण णं भंते ! एवं बुच्चति - "माणुसखेत्ते, माणुस ७६७. प्र० - भगवन् ! मनुष्यक्षेत्र मनुष्यक्षेत्र ही क्यों कहा खेते ?" जाता है ? उ०- गौतम ! मनुष्यक्षेत्र में तीन प्रकार के मनुष्य रहते हैं, यथा (१) कर्मभूमिज, (२) अकर्मभूमिज, (३) अंतरद्वीपज । गौतम ! इस कारण से मनुष्यक्षेत्र मनुष्यक्षेत्र कहा जाता है । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० लोक- प्रज्ञप्ति पुखरोदसमुद्द वण्णओ पुक्खरोदसमुदरस संठाणं ७६८. पुक्खरवरणं दीवं पुक्खरोदे नामं समुद्दे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिते सव्वओ समता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति । - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १५० - तिर्यक् लोक पुष्करोद समुद्र वर्णन उ०- गोयमा ! संखेज्जाइं जोयणसहस्साई चक्कवाल- विक्खभेणं संखेन्जाई जोयणसयस हस्लाई परिषख वेगं पण्णसे" - जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८० पुक्खरोदसमुहस्स चत्तारि दारा८०० प० - पुक्खरोदस्स णं भंते ! समुद्दस्स कतिदारा पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता । सबस खरोदसमुहस्स विक्संभ-परिक्वेवं पुष्करोदसमुद्र का विष्कम्भ और परिधि ७६६. ० - पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवतियं चक्कवाल- विक्खं- ७६६. भगवन् ! पुष्करोद समुद्र कितना चौड़ा कहा गया है ? भेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? और उसकी परिधि कितनी कही गई है ? नवरं पुषखरोदसमुद्दपुरस्थिमपेरते वरणवरदीयपुर रियमद्धस्स पच्चत्थिमेण एव पं पुरखरोदस्स विजए नामं दारे पण्णत्ते । एवं सेसाण वि भाणिअव्वोत्ति । - जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १५० एवं सेसाण वि । पदेला जीवाप तहेव । - सूत्र ७६८-८०२ पुष्करोद समुद्र वर्णन__ पुष्करोदसमुद्र का संस्थान ७६८. वृत्त एवं वलयाकार संस्थान में स्थित पुष्करोद नामक समुद्र पुष्करवरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है। चउण्हदाराणमंतरं चारों द्वारों का अन्तर ८०१. दारंतरंभि संखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं अबाहाए अंतरे ८०१ द्वारों का अव्यवहित अन्तर संख्यात लाख योजन का कहा पण्णत्ते । गया है । शेष तीनों द्वारों का अन्तर भी इसी प्रकार है । प्रदेशों का परस्पर स्पर्श और जीवों की उत्पत्ति पूर्ववत् है । पुक्खरोदसमुदस्स णामहेउ पुष्करोद समुद्र के नाम का हेतु ८०२. १० सेकेण्डपं मते ! एवं बुवइ "पुक्खरोदे समुद्र ८०२. प्र० भगवन्! पुष्करोद समुद्र को पुष्करोव समुद्र ही , पुक्खरोदे समुद्दे ? क्यों कहा जाता है ? उ०- गोयमा ! पुक्खरोदस्स णं समुद्दस्त उदगे अच्छे पत्थे जज्बे त फलिहवा पणती उगरसे।" उ०- गौतम ! वह संख्यात लाख योजन का चक्रकार चोड़ा कहा गया है और संस्थात लाख योजन की ही परिधि कही गई है। पुष्करोवसमुद्र के चार द्वार ८००. प्र० - भगवन् ! पुष्करोद समुद्र के कितने द्वार कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! चार द्वार कहे गये हैं । जम्बूद्वीप के चार द्वारों के समान इन चार द्वारों का सम्पूर्ण वर्णन है। विशेष यह है कि पुष्करोद समुद्र के पूर्वान्त में और बरु बरद्वीप के पूर्वार्ध के पश्चिम में पुष्करोद समुद्र का विजय नामक द्वार कहा गया है। इसी प्रकार शेष तीन द्वारों का वर्णन कहना चाहिए। उ०- गौतम! पुष्करोव समुद्र का पानी स्वच्छ है पच्य है, स्वजातीय है, हल्का है, स्फटिक वर्ण वाला है, स्वाभाविक स्वाद वाला है । १ सूरिय. पा. १६ सु० १०१ । २० पुसणं भत! समुहस्स केरिसए मस्सारणं पणसे ? उ०- गोयमा ! अच्छे- जाव - फालियवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं पण्णत्ते । - जीवा पडि ३, उ. २, सु. १८७. Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८०२-८०६ सिरिधर - सिरिप्पभा य दो देवा महिड्ढीया- जावपतिओमद्वितीया परिवसति । तिर्यक् लोक वरुणवरद्वीप वर्णन से एणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - "पुक्खरोदे समुद्द े, क्रोधे समुई।" पुक्खरोदसमूहस्स निच्चत ८०३. दुसरं च गोषमा ! पुक्खरोदे समुद्द सासए-जाय-शिपले - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८० वरुणवरदीववण्णओ वरुणवरदोवस्त संठाणं ८०४. पुक्खरोदे णं समुद्द े वरुणवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समता संपरिक्खिताणं चिट्ठति । तहेव समचक्कवाल संठाणसंठिते । - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८० वरुणवरदीयस्स विकतंभ-परिव ८०५. १० – वरुणवरे णं भंते ! दीवे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं, केवलियं परिप्रेवे? उ०- गोयमा ! संखेज्जाई जोयणसय सहस्साइं चक्कवालविश्वंभे संखेश्वा जोपसयसहस्सा परिषवेणं पण्णत्ते । ' पउमवरवेदिया वणसंडवण्णओ । दारा, दारंतरं, पदेसा, जीवा, तहेव सव्वं । 深團榮 - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८० १ सुरिय. पा. १६ सु. १०१ । उ० – गोयमा ! वरुणवरे णं दीवे तत्थ देसे तह तह बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ - जाव- बिलपंतियाओ अच्छाओ-जावमहर सरणाइया वारुणिवददिहत्थाओं पासा तीताओ - जाव- पडिरूवाओ । पत्ते पत्ते पर बेवा- यणसंडपरिि श्रीधर और श्रीप्रभ - ये दो महर्थिक - यावत्-- पल्योपम की स्थिति वाले देव वहाँ रहते हैं। गौतम ! इस कारण से पुष्करोद समुद्र को पुष्करोद समुद्र का जाता है । पुष्करोदसमुद्र की नित्यता गणितानुयोग ८०२. अथवा गौतम! पुष्करोवसमुद्र यह नाम शास्यत है-- यावत् नित्य है । - ३९१ वरुणवरद्वीप वर्णन_ वरुणवरद्वीप का संस्थान ८०४. वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित वरुणवरद्वीप पुष्करोद समुद्र को चारों ओर से घेरकर स्थित है । यह उसी प्रकार समचक्रवाल संस्थान से स्थित है । वरुणवरद्वीप का विष्कम्भ एवं परिधि ८०५. प्र० - भगवन् ! वरुणवरद्वीप चक्राकार चौड़ा कितना कहा गया है और ( उसकी ) परिधि कितनी कही गई है ? उ०- गौतम ! वह संख्यात लाख योजन चक्राकार चौड़ा हैं। और संस्पात लाख योजन की ही उसकी परिधि कही गई है। वरुणवरदीवस्स णामऊ वरुणवरद्वीप के नाम का हेतु ८०६. प०—से केणट्ट ेणं,भंते ! एवं बुच्चइ - " वरुणवरे दीवे, ८०६. प्र० - भगवन् ! वरुणवरद्वीप को वरुणवरद्वीप ही क्यों वरुणवरे दीवे ? कहा जाता है ? पदमवरवेदिका और वनखण्ड के वर्णक (यहाँ कहने चाहिए।) द्वार, द्वारों के अन्तर, प्रदेशों का स्पर्श, जीवों की उत्पति ये सब उसी प्रकार (पूर्ववत है। उ० – वरुणवरद्वीप में स्थान स्थान पर अनेक छोटी छोटी वापिकायें हैं- यावत्-विलपंक्तियाँ हैं। स्वच्छ हैं - यावत्मधुर स्वर से गुंजायमान है श्रेष्ठ वाराणि जैसे जल से परिपूर्ण हैं। प्रसादगुणयुक्त हैं यावत् मनोहर है। प्रत्येक वापिका पदुमवरवेदिका एवं खण्ड से घिरी हुई है। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक वरुणोदसमुद्र वर्णन णं सासु बुट्टा छुट्टिया-जाय-विलपतिया बहवे उपायपव्वता जाव - खडहडगा सव्वफलिहामया अच्छा-जावपडिल्वा । तहेव वरुण वरुणप्पभा य एत्थ दो देवा महिड्ढोया जावपलिओवमद्वितीया परिवर्तति । से तेषां गोयमा ! एवं बुम्बइ- " वरुणरे दीये, वरुणवरे दीवे । - जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८० वरुणवरदीवरस निश्व ८०७. अदुत्तरं च णं गोयमा ! वरुणवरे दीवे सासए - जाव- णिच्चे । - जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८० वरुणोदसमुद्दवण्णओ वरुणोदसमुद्रदरस संठाणं ८०८. वरुणवरणं दीवं वरुणोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागार संठाणसंठिए सव्वओ समता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति । लहेब समचक्काणसंठिए । क्विंभरियो विना जोपणरायसहस्साई दारा, दारंतर परवेश्या, बणसंडे, परसा, जीवा, अट्ठो सहेब । -जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १०८ वरुणोदसमुदस्स नामहेउ - 返回家 उ०- गोयमा ! वरुणोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहा नामए - चंदप्पभाइ वा मणिसिलागाइ वा, वरसीधुवरवारुणीइ वा, पत्तासवेइ बा, पुप्पफासवेइ वा चोयासवे वा, फलासवेइ वा, महुमेरएइ वा, जातिप्पसाद या खजूरसारेद वा मुडियासारेड वा कापसाणा वा सुखोयरसे वा पभूतसंभार संचिता पोसमास - सतभिसयजोगवत्तिता, निरुवहत विसिदिन्नकालोवयारा, सुधोता उक्कोसगमयपत्ता सूर. पा. १२ सु. १०१। सूत्र ८०६-८०६. उन वापिकाओं पातु विलपतियों के मध्य में अनेक उत्पात पर्वत - पर्वतगर्त हैं। सभी स्फटिक रत्नमय हैं स्वच्छ हैं। - यावत् - मनोहर हैं। - www.w उसी प्रकार वरुण, वरुणप्रभ ये दो महधिक - यावत्त्योपस्थिति वाले देव वहाँ रहते हैं। गौतम ! इस कारण से वरुणवरद्वीप कहा जाता है । - वरुणवरद्वीप की नित्यता ८०७. अथवा — गौतम ! वरुणवरद्वीप यह नाम शास्वत हैयावत्- नित्य है । वरुणोद समुद्र वर्णन— वरुणोद समुद्र का संस्थान ८०८. वरुणवरद्वीप को वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित वरुणोद समुद्र चारों ओर से घेरकर स्थित है। 1 ८०६. १० सेकेणं ते! एवं मुम्बइ वरुणोये समृद्द ८०६. प्र० - भगवन् ! बमोद समुद्र को वरुणोदसमुद्र ही क्यों वरुणोदे समुद्द ? कहा जाता है ? उसी प्रकार समचक्राकार संस्थान से स्थित है । विष्कम्भ एवं परिधि संख्यात लाख योजन की है। वरुणोद समुद्र का द्वार, द्वारों के अन्तर पमवरवेदिका, वनखण्ड, प्रदेशों का स्पर्श, जीवों की उत्पति पूर्ववत है । वरुणोद समुद्र के नाम का हेतु उ०- गौतम ! तरुणोद समुद्र का जल क्या चन्द्रप्रभा, मणिशिला श्रेष्ठ सीधु, श्रेष्ठ वारुणि, पत्रासव, पुष्पासव, चोयासव त्वचासव फलासव, मधुमेरक, जाई के पुष्पों से निर्मित मदिरा, खजूरसार, द्राक्षासार, कापिशायनमद्य, सुपक्व इक्षुरस, अतिसंभार पूर्वक संकित, पौषमास में शतभिषा नक्षत्र का योग होने पर निर्मित सावधानी से विशिष्ट काल में उपचार से निर्मित, सुधा जैसा उज्ज्वल, उत्कृष्टमद प्राप्त, अष्ट प्रकार से पिष्टद्रव्यों से Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८०६-८१० तिर्यक् लोक : वरुणोदसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३६३ अपिट्टपुट्ठा पिटुनिट्ठिज्जा । आसला मांसला पेसला निर्मित स्वादिष्ट, मांसवर्धक, मधुर (ओष्ठ को, आँखों को कुछ (ईसी ओढावलंबिणी, ईसी तंबच्छिकरणी, ईसी लालिमा देने वाली कुछ कटु होने से त्याज्य) वर्ण, गंध, रस एवं वोच्छेया कडुआ) वणेणं उववेया, गंधेणं उववेया, स्पर्श से युक्त क्या ऐसा है ? रसेणं उवया भवे एयारूवे सिया ? गोयमा ! नो इणट्ठ समट्ठ । वारुणस्स गं समुदस्स हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वारुण समुद्र का पानी उदए एत्तो इट्ठतरे-जाव-उदए आसाएणं पण्णत्ते। इससे भी अधिक इष्ट, इष्टतर-यावत्-अधिक स्वादिष्ट कहा गया है। तत्थ णं वारुणि-वारुणकता देवा महिड्डीया-जाव- वहाँ पर वारुणि और वारुणकंता नामक महधिक-यावत् पलिओवमट्ठितिया परिवसंति । -पल्योपम की स्थिति वाले दो देव रहते हैं । से एएण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ-"वरुणोदे समुद्दे, हे गौतम ! इस कारण के वरुणोद समुद्र वरुणोद समुद्र कहा वरुणोदे समुद्दे। जाता है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८० वरुणोदसमुदस्स निच्चत्त वरुणोद समुद्र की नित्यता८१०. अदुत्तरं च णं गोयमा ! वरुणोदे समुद्दे सासए-जाव-णिच्चे। ८१०. अथवा-हे गौतम ! वरुणोद समुद्र शाश्वत-यावत - -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८० नित्य है । १ "मुख इंत वर किमदिण्णकद्दमा, कोपसन्ना, अच्छा, वरवारुणी, अतिरसा, जम्बू फलपुटुवन्ना, सुजात ईसिउट्ठावलंबिणी, अहियमधुर पेज्जा, ईसासिरत्तणेत्ता, कोमलकवोलकरणी-जाव-आसादित्ता, विसादित्ता, अणिहुयसलावकरणहरिसपीतिजणणी, संतोस-ततबिबोक्क-हाव-बिब्भम-विलास-वेल्लहलगमणकरणी, विरणमधियसत्तजणणी य होति संगाम-देस-कालेकरयणसमरपसरकरणी, कढियाणविज्जुपयतिहिययाण मंउयकरणी य होति, उववेसिता समाणा गति खलावेति य सयलंमि वि सुभास बुप्पालिया समरभग्गवणोसहयारसुरभिरसदीविया सुगंधा आसायणिज्जा विस्सायणिज्जा पीणणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सबिदियगात पल्हायणिज्जा ।" मूल प्रति में कोष्ठकान्तर्गत इतना पाठ और है किन्तु वृत्तिकार ने इस की व्याख्या नहीं की है । २ प्र०-वरुणोदस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ? उ.-गोयमा ! से जहा नामए पत्तासवेति वा चोयासवेति वा खज्जूरसारेति वा, सुपक्कखोतरसेति वा, मेरएति वा काविसायणेति वा चंदप्पभाति वा मणसिलातिवा वरसीधूति वा पवरवारुणी वा, अनुपिट्ठपरिणिट्ठिताति वा जम्बूफलकालिया वरप्पसण्णा उक्कोसमदपत्ता ईसिउट्टावलंबिणी ईसितंबच्छिकरणी ईसिवोच्छयकरणी आसला मांसला पेसला वगं उववेता-जाव फासेणं उववेत्ता। प्र०-भवे एयारवे सिया ? उ०-गोयमा ! नो तिण? सम8। वारुणोदए एत्तो इट्टतरए चेव-जाव-अस्साणं पण्णत्ते। -जीवा पडि. ३, उ.२, सु. १८७ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : क्षीरवरद्वीप वर्णन सूत्र ८११-८१४ खीरवरदीवो वण्णओ क्षीरवरद्वीप वर्णन खीरवरदीवस्स संठाणं क्षीरवरद्वीप का संस्थान - ८११. वरुणोदण्णं समुह खीरवरे णाम दीवे वट्ट वलयागारसंठाण- ८११. वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित क्षीरवरद्वीप वरुणोद संठिए सवओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति ।' समुद्र को चारों ओर से घेरकर स्थित है। तहेव समचक्कवाल संठाणसंठिए। वह उसी प्रकार समचक्राकार संस्थान से स्थित है। विक्खंभ-परिक्खेवो संखिज्जाई जोयणसयसहस्साई। उसका विष्कम्भ और परिधि संख्यात लाख योजन की है। दारा, दारंतरं, पउमवरबेइया, वणसंडे, पएसा, जीवा तहेव।। क्षीरवरद्वीप के द्वार, द्वारों के अन्तर, पद्मवरवेदिका, -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८१ वनखण्ड, द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श, द्वीप और समुद्र के जीवों को एक दूसरे में उत्पत्ति पूर्ववत है । खीरदीवस्स णामहेऊ क्षीरवरद्वीप के नाम का हेतु८१२. ५०-से केण? णं भंते ! एवं वुच्चइ-"खीरवरे दीवे, ८१२. प्र०-क्षीरवरद्वीप क्षीरवरद्वीप ही क्यों कहा जाता है ? खीरवरे दीवे ?" उ०-गोयमा ! खीरवरेणं दीवे तत्थ तत्थ देसे देसे तहि तहिं 3०-गौतम ! क्षीरवरद्वीप में स्थान स्थान पर अनेक छोटी बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ बावीओ-जाव-सरसरपंतियाओ छोटी वापिकायें है-यावत् --सरोवरों की पंक्तियाँ है। वे सब खीरोदगपडिहत्थाओ पासातीयाओ-जाव-पडिहवाओ। क्षीर जैसे उदक से प्रतिपूर्ण भरे हुए हैं, दर्शनीय है-यावत - मनोहर हैं। तासु णं खुड्डियासु-जाव-बिलपंतियासु बहवे उप्पाय- उन छोटी छोटी वापिकाओं में-यावत -बिलपंक्तियों में पव्वगा-जाव-सव्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। अनेक उत्पात पर्वत हैं यावत् - वे सब रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं मनोहर हैं। पुण्डरीग-पुप्फदंता एत्थ दो देवा महिड्ढीया-जाव- पुण्डरीक और पुष्पदन्त नामक महधिक-यावत -पत्योपम पलिओवमद्वितीया परिवसंति । की स्थिति वाले दो देव वहाँ रहते हैं। से एतेण?ण गोयमा ! एवं वुच्चइ -"खीरवरे दीवे, गौतम ! इस कारण से क्षीरवरद्वीप, क्षीरवरद्वीप कहा खीरवरे दीवे। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८१ जाता है। खीरवरदीवस्स निच्चत्तं क्षीरवरद्वीप की नित्यता५१३. अदुत्तरं च णं गोयमा ! खीरवरे बीवे सासए-जाव-णिच्चे। ८१३. अथवा-गौतम ! क्षीरवरद्वीप यह नाम शास्वत है -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु, १८१ यावत -नित्य है । खीरोदसमुद्दो क्षीरोदसमुद्र खीरोदसमुद्स्स्स संठाणं क्षीरोद समुद्र का वर्णन८१४. खीरवरणं दीवं खोरोए णामं समुद्दे वट्ट वलयागार संठाण- ८१४. वृक्ष एवां वलयाकार संस्थान से स्थित क्षीरोदसमुद्र क्षीर संठिते सव्वओ समता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठति ।' वरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है। १ सूरिय. पा. १६ सु. १०१ । २ सूरिय. पा. १६ सु. १०१। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८१४-८१६ तिर्यक् लोक : क्षीरोद समुद्र वर्णन सहेब समचक्कवालठाणसंहिए विश्वंभ-परियोजाई जाई दारा, दारंतरं, पउमवरवेइया, वणसंडो, पदेसा, जीवा य तहेव । - जीवा. पडि, ३ . २ सु. १८१ - वह उसी प्रकार समचक्राकार संस्थान से स्थित है । उसका विष्कम्भ और परिधि संख्यात लाख योजन के हैं । क्षीरोदसमुद्र के द्वार, द्वारों के अन्तर पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श, द्वीप और समुद्र के जीवों की एक दूसरे में उत्पत्ति, पूर्ववत है। खीरोदसमुद्रस्स नामहेऊ क्षीरोदसमुद्र के नाम का हेतु ८१५ १० सेकेण णं ते! एवं बुम्बद खीरोदसमुद्दे ८१५. भगवन्! क्षीरोदसमुद्र को क्षीरोदसमुद्र ही क्यों कहा खीरोदसमुद्द" ? जाता है ? 1 उ०- गोयमा ! खीरोयस्स णं समुद्दस्स उदगं से जहाणामए रणो चाउरंतयट्टिस्स उबविते डगुडमच्छडो वणी पदग्ठिले बम्गेणं उपयते वाय-फासेणं बाजे दिसायनिक पोणि-जाव सचिदिवगातपाणि भये एवं सिया ? गोमा ! णो इण समट्ठ े । खीरोदसणं से उब एतो दुतराए चंब आसाएगं पण्णत्ते ।" विमल विमलापमा एत्थ दो देवा महिड्ढीया - जावपमिट्टिया परिवर्तति से तेणटुणं गोयमा ! एवं बुच्चइ खीरोदसमुद्द े, खीरोदसमुद्दे जीवा परि० ३ उ. २, सु. १०१ खीरोदसमुदरस निच ८१६. अदुत्तरं च णं गोयमा ! खीरोदसमुद्द सासए - जाव- णिच्चे । - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८१ गणित योग ३६५ -- , उ०—जैसे खांड, गुड़ या मिश्री युक्त जल जो मंदाग्नि से पक्व हो, चारों दिशाओं के स्वामी चक्रवर्ती राजा के पीने योग्य आस्वादतीय, विशेष आस्वादनीय पुष्टिकर यावत् सभी इन्द्रियों और शरीर को आनन्ददायी वर्णयुक्त यावत स्वतंयुक्त जन है, गौतम ! क्षीरोद समुद्र का जल गया ऐसा है ? गौतम ! यह अर्थ - अभिप्राय समर्थ -संगत नहीं है । क्षीरोदसमुद्र का जल इससे भी इष्टतर है- यावत स्वाद से मनोहर कहा गया है। --- विमल और विमलप्रभ-ये दो महधिक - यावत - पल्योपम स्थिति वाले देव वहाँ रहते हैं । गौतम ! इस कारण से क्षीरोदसमुद्र क्षीरोदसमुद्र कहा जाता है । क्षीरोदसमुद्र की नित्यता ८१६. अथवा — गौतम ! क्षीरोदसमुद्र यह नाम शास्वत हैयावत - नित्य है । १ गोयमा ! खीरोयस्स णं समुहस्स उदगं से जहाण मए ( सुउसुहीमारूपण अज्जुणतरूण सरसपत्तकोमलअत्थिग्गत्तणग्ग पोंडगवरुच्छुचारिणीणं लवंगपत्तपुष्कपल्लव कक्कोलगसफल रुक्ख बहुगुच्छमुम्म कलितमलट्ठिमधुपयुर पिप्पलीफलितवल्लिवरविवर चारिणीणं, अप्पोपोटससमभूमिभागणिभय होसियाणं मुप्पेसित हातरोगपरिवजिताण पिवतसरीरिणं कालप्यमविषीर्ण वितियसतिय सामग्यसूताणं जनवरवर जच्चजण रिटुभमरपभूयसमध्यभाणं कुण्डदोहगाणं वत्यीपत्ताणं हा मधुमास कालेसरहने हो अज चातुरमेल हो तानि धीरे मधुररसन्दिपले पले मंदगतेि " । आगमोदय समिति से प्रकाशित जीवाभिगम सूत्र की प्रति में यह कोष्ठकान्तर्गत मूलपाठ है किन्तु टीकाकार ने इस पाठ की टीका नहीं की है अतः यह पाठ यहाँ टिप्पण में दिया गया है । प्र०- - खीरोदस्स णं भंते ! उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ? उ०- गोमा से जहा नामए रणो पाउरंत पक्वस बाउरके गोली पत्तमंदसुते उत्तर यछेडतोयवेते वण्णेण उववेते - जाव - फासेणं उववेते । भवे एयारूवे सिया ? णोति सम । गोयमा । एतो इट्ठतराए चेव - जाव - अस्साएणं पण्णत्ते । - जीवा पडि. ३, उ. २, सु. १८७ ऊपर अंकित पाठ में और इस पाठ में याने दोनों पाठों में क्षीरोदसमुद्र के पानी के आस्वाद का वर्णन है, दोनों पाठों का भाव साम्य होने से एक पाठ यहाँ टिप्पण में दिया है । Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ लाक- प्रज्ञप्ति घयव रदीवो_ तिर्यक् लोक घृतवरद्वीप वर्णन घयवरदीवस्स सठाणं ८१७. खीरोदण्ण समुद्द घयवरे णामं दीवे वट्ट े वलयागारसंठाण संठिते सव्वओ समंता संपरिविखत्ता णं चिट्ठति । ' तव समचाणठिए । -परिवखज्जाई जोयणसहसा दारा, दारंतर, पदमबरमेया बगडे, पसा जीवा तब - जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १५१ वह उसी प्रकार समचक्राकार संस्थान से स्थित है । उसका विष्कम्भ और परिधि संख्यात लाख योजन के हैं । घृतवर द्वीप के द्वार और द्वारों के अन्तर पद्मवर वेदिका, वनखण्ड द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श, द्वीप और समुद्र के जीवों की एक दूसरे में उत्पति पूर्ववत है । घयवरदीवस्स णामहेऊ घृतवरद्वीप के नाम हेतु - ८१८.५० - सेकेणणं भंते ! एवं बुच्चइ – “घयवरेदीवे घयवरे ८१८. प्र० - भगवन् ! घृतवर द्वीप को घृतवर द्वीप ही क्यों कहा दीवे ?" जाता है ? उ०- गोयमा ! घयवरे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे देसे तह तह बहुओ बुडाबुट्टियाम बावीओ-जाव- सरसरपंतियाओ योगपत्थिाम पासाइयाओ जाव-परिवाओ। तासु बुद्धियासुजाव विलपतिया बहवे पब्बगा-जाव-खडहडगा सथ्वकंचणमया अच्छा-जावपडिलवा | कण-कणयप्पमा एत्थ दो देवा महिड्डिया - जावपलिओमद्वितिया परिवर्तति । से एले गोमा ! एवं पुचर "घरेदीचे घयवरे दीवे ।" -जीवा. पडि, ३, उ. २, सु. १८१ घयवरदीवरस निय ८१६. अनुत्तरं च णं गोयमा ! घयवरे दीवे सासए- जाव- णिच्चे । —जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८१ १ सूरिय० पा. १६ सु. १०१ । घृतवरद्वीप - सूत्र ८१७- ८१६ घृतवरद्वीप का संस्थान ८१७. वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित घृतवर नाम का द्वीप क्षीरोदसमुद्र को चारों ओर से घेरकर स्थित है । उ०- गौतम ! घृतवरद्वीप में स्थान स्थान पर अनेक छोटी छोटी वापिकायें है यावत् सरों की पंक्तियाँ है, ये सब लोक से परिपूर्ण हैं, प्रसन्नताजनक हैं- यावत - मनोहर हैं। - उन वापिकाओं में - यावत - बिलपंक्तियों में अनेक उत्पात पर्णत हैं - यावत - पर्वतगृह हैं, सभी कंचनमय हैं स्वच्छ हैंयावत मनोहर है। कनक और कनकप्रभ ये दो महधिक - यावत्, पल्योपम स्थिति वाले देव वहाँ रहते हैं । गौतम | इस चारण से धूतवरद्वीय तवरद्वीप कहा जाता है। ! घृतवरद्वीप का नित्यत्व ८१६, अथवा हे गौतम! घृतवर द्वीप यह नाम शास्वत यावत्नित्य है । 口聚口二 Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८३०८३१ तिर्यक् लोक : घृतोद समुद्र वर्णन गणितानुयोग ३९७ घयोदसमुद्दो घृतोदसमुद्र घयोदसमुदस्स संठाणं घृतोद समुद्र का संस्थान- . ८३०. घयवरण्णं दीवं घतोदे नामं समुद्दे वट्ट वलयागारसंठाण- ८३०. वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित घृतोद नामक समुद्र संठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति ।' घृतवरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है। तहेव समचक्कवाल-संठाणसंठिए, वह उसी प्रकार समचक्राकार संस्थान से स्थित है। विक्खंभ-परिक्खेवो, संखिज्जाइं जोयणसयसहस्साई, उसका विष्कम्भ और परिक्षेप संख्यात लाख योजन का है। दारा दारंतरं, पउमवरवेइया, वणसंडे, पएसा, जीवा तहेव, धृतोदसमुद्र के द्वार, दारों के अन्तर पत्मवरवेदिका, बन-जीवा. पडि. ३ उ. २ सु, १८२ खण्ड, द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श, द्वीप और समुद्र के जीवों को एक दूसरे में उत्पत्ति पूर्ववत् है। घयोदस मुदस्स णामहेऊ घृतोदसमुद्र के नाम का हेतु८३१. ५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"घतोदे समुद्दे, ८३१. प्र०-भगवन् ! घृतोदसमुद्र घृतोदसमुद्र ही क्यों कहा घतोदे समुद्दे ? जाता है ? उ०-गोयमा ! घयोदस्स णं समुदस्स उदए से जहा नामए उ०-हे गौतम ! घृतोद समुद्र का जल क्या विकसित पप्फुल्लसल्लइ-विमुक्कलकण्णियार सरसवसुविबुद्धको- शल्लकी, विकसित कनेर, सरसों, खिले हुए कोरंट पुष्पों की रेंटदामपिडिततरस्स निद्धगुणतेयदीविय निरूवहयवि- गुंथी माला के वर्ण के समान वर्ण वाले, स्निग्ध गुण वाले, अग्नि सिट्टसुन्दरतरस्स सुजायदहिमहियतद्दिव सगहिय नव- पर पकाए हुए किन्तु निरूपहत एवं विशिष्ट सुन्दर, दधि को मथ णीय-पडुवणावियमुक्कड्ढिय उद्दावसज्जविसंदियस्स कर निकाले हुए उसी दिन के नवनीत को तपाकर तैयार किये अहियं पोवरसुरहिगंधमणहरमहुरपरिणामदरिसणि- हुए ताजा, अतिश्रेष्ठ, सुगन्धयुक्त, मनोहर मधुर परिणमन से ज्जस्स पत्थनिम्मलसुहोवभोगस्स सरयकालंमि होज्ज युक्त दर्शनीय पथ्य निर्मल सुखोपभोग्य शरत्कालीन गौघृत के गोघतवरस्स मंडए, भवे एयारूवे सिया।। समान है ? णो तिण8 सम?। हे गौतम ! नहीं, ऐसा नहीं हैगोयमा! घतोवस्स णं समुद्दस्स एत्तो इट्टतराए चेव घृतोद समुद्र का जल इससे भी अधिक इष्ट-यावत - -जाव-आसाएणं पण्णत्ते।' आस्वादनीय कहा गया है। कंत-सुकता एत्थ दो देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओव- यहाँ कान्त सुकान्त नामक महधिक-यावत् –पल्योपम की मट्ठितिया परिवसंति । स्थिति वाले दो देव रहते हैं। से एएण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ-"घतोदे समुद्दे हे गौतम ! इस कारण से घृतोदसमुद्र घृतोदसमुद्र कहा घतोदे समुद्दे।" -जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १०२ जाता है। १ सूरिय. पा. १६ सु. १००। २ आगमोदय समिति से प्रकाशित जीवाभिगम की प्रति में यह मूलपाठ मुद्रित है किन्तु टीकाकार ने इस मूलपाठ की टीका नहीं की है। ३ प्र०-घतोदस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ? उ०-गोयमा ! से जहाणामए सारइयस्स गोघयपरस्स मंडे सल्लइ-कण्णियापुप्फवण्णाभे सुकड्ढित उदारसज्झविसंदिते वर्णणं उववेते-जाव-फासेण उववेते, भवे एयारूवे मिया? णो तिण? सम? । गोयमा ! घतोदस्स उदए एत्तो इट्टतरा चेव -जाव-अस्साएणं पण्णत्ते । -जीवा. पडि. ३ उ.२, सु. १८७ ऊपर अकितपाठ और इस पाठ में घृतोदसमुद्र के पानी के आस्वाद का ही वर्णन है, दोनों पाठों में शब्द साम्य भी है अतः यह पाठ यहां टिप्पण में दिया है। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : क्षोदवरद्वीप वर्णन सूत्र ८३२-८३५ W we घयोदसमुदस्स निच्चत्तं घृतोद समुद्र की नित्यता८३२. अदुत्तरं च णं गोयमा ! घतोदे समुद्दे सासए-जाव-णिच्चे । ८३२. अथवा है गौतम ! घृतोद समुद्र शास्वत है-यावत् -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८२ नित्य है। INDIAN खोदवरदीवो क्षोदवरद्वीप खोदवरदीवस्स संठाणं क्षोदवरद्वीप का संस्थान८३४. घतोदण्णं समुद्द खोदवरे णाम दीवे वट्ट वलयागारसंठाण- ८३३. वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित क्षोदवरद्वीप घृतोद संठिए सव्वओ समता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति ।' समुद्र को चारों ओर से घेरकर स्थित है। तहेव समचक्कवालसंठाणसंठिए। पूर्ववत समचक्रवाल संस्थान से स्थित है। विक्खंभ-परिक्खेवो संखिज्जाइं जोयणसयसहस्साई । विष्कम्भ और परिधि संख्यात लाख योजन की है । दारा, दारंतरं, पउमवरवेइया, वणसंडे, पएसा, जीवा तहेव। क्षोदवर द्वीप के द्वार, द्वारों के अन्तर, पद्मवरवेदिका, --जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १८२ वनखण्ड, समुद्र और द्वीप के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श, समुद्र और द्वीप के जीवों को एक दूसरे में उत्पत्ति पूर्ववत् कहें । खोदवरदीवस्स णामहेऊ क्षोदवरद्वीप के नाम का हेतु८३४. ५०-से केण? णं भंते ! एवं वुच्चइ-"खोदवरे दोवे, ८३४. प्र० - हे भगवन् ! खोदवरद्वीप को 'खोदवरद्वीप' किस खोदवरे दीवे ?" कारण के कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! खोतबरे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं उ०-हे गौतम ! खोदवरद्वीप के प्रत्येक विभाग में और तहिं बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ बावीओ-जावसरसरपंति- उन विभागों के छोटे छोटे विभागों में अनेक छोटी छोटी बावड़ियां याओ खोदोदगपडिहत्थाओ पासाइयाओ-जाव- पडि- क्षोदोदक (ईक्षुरस जैसे जल) से परिपूर्ण हैं वे दर्शनीय हैं-यावत रूवाओ। -मनोहर हैं । तासु णं खुड्डियासु-जाव-बिलपंतियासु बहवे उप्पाय- उन बावड़ियों पर-यावत्-बिलों की पंक्तियों पर अनेक पन्वगा-जाव-खडहडगा सव्व वेरुलियामया अच्छा-जाव- उत्पात पर्वत हैं—यावत्-पर्वत गृह हैं, वे सभी वैडूर्यरत्नमय हैं पडिरूवा। स्वच्छ हैं-यावत्-मनोहर हैं । सुप्पभ-महप्पभा य दो देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओव- वहाँ पर महधिक-यावत्-पल्योपम की स्थिति वाले, मद्वितिया परिवसंति । 'सप्रभ, महाप्रभ नाम के दो देव रहते हैं । से एतेणट्टणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-"खोदवरे दीवे हे गौतम ! इस कारण से 'खोदवरद्वीप' खोदवरद्वीप कहा खोदवरे दीवे। --जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १८२ जाता है । खोदवरदीवस्स निच्चत्त क्षोदवरद्वीप की नित्यता८३५. अदुत्तरं च णं गोयमा ! खोदवरे दीवे सासए-जाव-णिच्चे । ८३५. अथवा हे गौतम ! खोदवरद्वीप यह नाम शास्वत है -जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १८२ यावत्-नित्य है। १ सूरियः पा. १६ सू १०१ । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८३६-८३७ तिर्यक् लोक : क्षोतोद समुद्र वर्णन गणितानुयोग ३६६ खोदोदसमुद्दो क्षोतोद समुद्र खोदोदसमुदस्स संठाणं क्षोतोद समुद्र का संस्थान-- ८३६. खोयवरण्णं दीवं खोदोदे णामं समुद्दे वट्ट वलयागारसंठाण- ८३६. वृत्त वलयाकार संस्थान से स्थित क्षोतोद नामक समुद्र संठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति ।' क्षोतवरद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए है। तहेव समचक्कवालसंठाणसंठिए । वह पूर्ववत् समचक्रवाल संस्थान से स्थित है। विक्खंभ-परिक्खेवो संखिज्जाई जोयणसयसहस्साई । उसका विष्कम्भ और परिधि संख्यात लाख योजन की है। दारा, दारंतरं, पउमवरवेइया, वणसंडे, पएसा, जीवा तहेव । क्षोतोद समुद्र के द्वार, द्वारों के अन्तर, पद्मवरवेदिका, वन खण्ड, द्वीप और समुद्र के प्रवेशों का परस्पर स्पर्श, समुद्र के जीवों -जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १८२ की द्वीप में उत्पत्ति और द्वीप के जीवों की समुद्र में उत्पत्ति पूर्ववत है। खोदोदसमुदस्स णामहेऊ क्षोतोदसमुद्र के नाम का हेतु८३७. ५०-से केण? णं भंते ! एवं वुच्चइ-"खोदोदसमुद्दे, ८३६. प्र०-हे भगवन् ! क्षोतोदसमुद्र किस कारण से क्षोतोद खोदोदसमुद्दे ?" समुद्र कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! खोदोदस्स णं समुदस्स उदए से जहा णामए उ०-हे गौतम ! जिस प्रकार आस्वाद्य, मसल (लाभप्रद) आसल-मांसल-पसत्थ-वीसंत-निद्ध सुकुमालभूमिभागे प्रशस्त, विश्रान्त, स्निग्ध एवं सुकुमाल भूमिभाग को कोई कशल सुच्छिन्ने सुकट्ठ-लट्ठ विसिट्ठ-निरुवहयाजीयवावीय- कृषिकार सुकाष्ठ के सुन्दर एवं विशिष्ट हल से जोतकर ईख सुकासजपयत्तनिउण-परिकम्म-अणुपालिय-सुवुड्ढि- बोये, निपुण रक्षक उसकी रक्षा करे, निनाण करने पर अच्छी वडढाणं, सुजाताणं, लवणतणदोसवज्जियाणं णयाय- तरह बढ़े, तृण आदि के दोष से रहित कृषि प्रणाली से परिपरिवडिढयाणं, णिम्मातसुन्द राणं, रसेणं परिणयमउ- वधित, मृदु, पुष्ट एवं मधुर रस युक्त पोर, पुष्परज रहित. पीणपोरभंगुरसुजाय-मधुर रस-पुप्फविरिइयाणं, उवद- उपद्रवजित शीतस्पर्श युक्त ताजा तोड़े हए रस से लिप्त ऊपर व-विवज्जियाणं, सीयपरिफासियाणं, अभिणवमग्गाणं. तृतीय भाग और अधोभाग (मूल) रहित, गाँठे साफ कर कुशल अभिलित्ताणं तिभायणिच्छोडियवाडिगाण, अवणित- पुरुष द्वारा काटकर तैयार किए गये--यावत्-पौण्डजनपद के मलाणं गंठिपरिसोहियाणं, कुसलनर कप्पियाणं, उन्वणं ईक्षु बलवान पुरुष द्वारा यंत्र से पीले गये वस्त्र से छाने गये. -जाव-पोंडियाणं, बलवगणरजत्त, जतपरिगालितमेत्ताणं इलायची आदि से सुवासित किये गये, पथ्यकर सुपाच्य वर्णवान खोयरसे होज्जा' बत्थपरिपूए चाउज्जातगसुवासिते, इक्षुरस है, अहियपत्थलहुके वण्णोववेते-जाव-फासेणोववेते। भवे एयारूवे सिया ? क्या क्षोतोद समुद्र का जल ऐसा है ? णो तिण?' सम?, गोयमा ! खोदोदस्सणं समुदस्स गौतम ! नहीं ऐसा नहीं है, क्षोतोदसमुद्र का जल इससे भी उदए एतो इतरए चेव-जाव-आसाएणं पण्णत्ते । इष्टतर-यावत्-स्वादिष्ट कहा गया है। १ सूरिय. पा. १६ सु. १०१ । २ रसेणं परिणय-मउ-पीण-पोर-भंगुर-सुजाय-महुररस-पुप्फविरइयाणं उवद्दवविवज्जियाणं, सीयपरिफासियाण, अभिणवतवग्गाणं अपालिताणं (कुछ प्रतियों में इतना पाठ अधिक है ।) प्र०-खोदोदस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ? उ०-गोयमा ! से जहा णामए उच्छृणं जच्चपुण्डकाणं वा, हरियालपिंडराणं वा, भेरुण्डछणाणं वा, कालपोराणं बा. तिभाग निवाडियवाडगाणं वा, बलबगपरजंत-परिगालिय मित्ताणं वा, जे य से रसे होज्जा वत्थपरिपूए चाउज्जातगसूवासिते अहियपत्थे लहुए वण्णेणं उबवेए-जाव-फासेणं उववेए। प्र०-भवे एयारूवे सिया । उ०-नो इण? समट्ट, गोयमा ! एत्तो इट्टतराए चेव- अस्साएणं पण्णत्ते । जहा खोतोदो तहा सेसा वि, णवरं सयंभूरमणसमुद्दो-- जहा-पुक्खरोदो। -जीवा. पडि. ३ उ. २. १८७ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नंदीश्वरद्वीप वर्णन सूत्र ८३७-८४१ पुण्णभद्द-माणिभद्दा य इत्थ दुवे देवा महिड्ढीया यहाँ पल्योपम की स्थिति वाले महधिक-यावत्-महासुखी -जाव-पलिओवमद्धितिया परिवसंति । पूर्णभद्र, माणिभद्र नाम वाले दो देव रहते हैं । से एएण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ--"खोदोदसमुद्दे, हे गौतम ! इस कारण से 'खोतोदसमुद्र' खोतोदसमुद्र कहा खोदोदसमुद्दे । जाता है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८२ खोदोदसमुदस्स निच्चत्त खोदोद समुद्र की नित्यता८३८. अदुत्तरं च णं गोयमा ! खोदोदसमुद्दे सासए-जाव-णिच्चे । ८३८. अथवा है गौतम ! खोदोदसमुद्र शास्वत है-यावत् . -जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १८२ नित्य है। गंदीसरदीवो नंदीश्वरद्वीप गंदीसरवरदीवस्स संठाणं नन्दीश्वर द्वीप का संस्थान८३६. खोदोदण्णं समुदं गंदिसरवरे णाम दीवे वट्ट वलयागार• ८३६. नन्दीश्वर नामक द्वीप वृत्त वलयाकार संस्थान से स्थित सठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति ।' क्षोतोदसमुद्र को चारों ओर से घेरे हुए स्थित है। तहेव समचक्कवालसंठाणसंठिए । वह पूर्ववत् समचक्रवाल संस्थान से स्थित है। विक्खंभ-परिक्खेवो संखिज्जाइं जोयणसयसहस्साई । उसकी चौड़ाई और परिधि संख्येय लाख योजन की कही दारा, दारंतरं, पउमवरवेइया, वणसंडे, पएसा जीवा तहेव । नदीश्वर द्वीप के द्वार, द्वारों के अन्तर, पदमवरवेदिका वनखण्ड, द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श द्वीप और -जीवा. पडि. ३, उ. २ सु. १८३ समुद्र के जीवों को एक दूसरे में उत्पत्ति, ये सब पूर्ववत हैं। गंदीसरवरदीवस्स णामहेऊ नन्दीश्वर द्वीप के नाम का हेतु८४०. प०-से केण? गं भंते ! एवं बुच्चइ--"णवीसरदीवे, ८४०. हे भगवन् ! किस कारण से 'नन्दीश्वर द्वीप' नन्दीश्वर गंदीसरदीवे ?" ___ द्वीप कहा जाता है ? उ०--गोयमा ! गंदीसरवरे गं दीवे तत्य तत्थ देसे देसे तहिं उ०-हे गौतम ! नन्दीश्वरद्वीप के सब विभागों में जगह तहि बहओ खडाखुड्डियाओ बावीओ-जाव-सरसरपंति- जगह अनेक छोटी छोटी बावड़ियाँ हैं-यावत्-सरोवरों की याओ खोदोदगपडिहत्थाओ पासाइयाओ-जाव-पडि- पंक्तियाँ हैं, वे सब ईक्षुरस से भरी हुई हैं, प्रसन्नता देने वाली है रूवाओ। यावत्-मनोहर है। तासु ण खुड्डियासु-जाव-बिलपंतियासु बहवे उप्पाय- उन छोटी छोटी बावड़ियों पर-यावत्-बिलपंक्तियों पर पन्वगा-जाव-खडहडगा सव्ववइरामया अच्छा-जाव- अनेक पर्वत -यावत् -पर्वतगर्त (खडहडगा) हैं, सभी वज्रमय हैं पडिरूवा। --जीवा. पडि. ३ उ २ सु. १८३ स्वच्छ हैं -यावत्-मनोहर हैं। गंदीसरवरदीवे चत्तारि अंजणगपव्वया-- नन्दीश्वरवरद्वीप में चार अंजनक पर्वत८४१. अदुत्तरं च णं गोयमा ! णंदिरसरदीवचक्कवालविक्खंभबहु- ८४१. अथवा हे गौतम ! नन्दीश्वरवरद्वीप के चक्रवाल विष्कम्भ मज्झदेसभागे एत्थ ण चउदिसि चत्तारि अंजणगपव्वता के मध्य भाग की चारों दिशाओं में चार अंजकनक पर्वत कहे पण्णत्ता। गये हैं। १ सूरिय पाठ १६, सु० १०१ । Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८४१ तिर्यक् लोक : नंदीश्वरद्वीप गणितानुयोग ४०१ ते गं अंजणगपरवयगा चतुरासीतिजोयाणसहस्साई उड्ढं वे अंजनक पर्वत चौरासी हजार योजन ऊंचे हैं । उच्चत्तेणं,' एगमेगं जोयणसहस्सं उव्वेहेणं, एक हजार योजन भूमि में गहरे हैं । मूले साइरेगाई बस जोयणसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, मूल में दस हजार योजन से कुछ अधिक लम्बे चौड़े हैं। धरणियले बस जोयणसहस्साई आयाम-विक्खंभेणं, धरणि तल पर दस हजार योजन लम्बे चौड़े हैं । ततोऽणंतरं च णं माताए माताए पदेसपरिहाणीए परि- तदनन्तर थोड़े थोड़े प्रदेश घटते घटते ऊपर एक हजार हायमाणा परिहायमाणा उरि एगमेगं जोयणसहस्सं आयाम- योजन लम्बे चौड़े हैं। विक्खंभेणं, मूले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसते मूल में इगतीस हजार छ: सौ तेवीस योजन में कुछ कम की किचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं, परिधि हैं। धरणियले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयण- धरणितल पर इकतीस हजार छः सौ तेवीस योजन में कुछ सते देसूणे परिक्खेवेणं, अधिक की परिधि है। सिहरतले तिष्णि जोयणसहस्साई एक्कं च बावट्ठ जोयण- शिखरतल पर तीन हजार एक सौ बासठ योजन से कुछ सतं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ता, अधिक की परिधि कही गई है। मूले वित्थिण्णा, मझे संखित्ता, उप्पि तणुया, गोपुच्छ- मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर पतले गोपुच्छ के संठाणसंठिया सव्वंजणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। आकार वाले वे सारे अंजनक पर्वत स्वच्छ है-यावत्-. मनोहर हैं। पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइया परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं प्रत्येक अंजनक पर्वत पद्मवरवेदिका से घिरा हुआ है और वणसंडपरिक्खित्ता, प्रत्येक पद्मवरवेदिका बनखण्ड से घिरी हुई है। वण्णओ। पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णक कहें। तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उरि पत्तेयं पत्तेयं बहुसमर- प्रत्येक अंजनक पर्वत पर सर्वथा सम रमणीय भूमिभाग कहा मणिज्जो भूमिभागो पण्णत्तो, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेति गया है जिस प्रकार मृदंगतल है-यावत्-वहाँ देव-देवियाँ वा-जाव-विहरंति । विहरण करते हैं। तेसि गं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए उन सर्वथा रमणीय भूमिभागों के ठीक मध्यभाग में सिद्धायपत्तेयं पत्तेयं सिद्धायतणा पण्णत्ता। तन कहे गये हैं। एगमेगं जोयणसतं आयामेणं, पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं, प्रत्येक सिद्धायतन सौ योजन लम्बा, पचास योजन चौड़ा बावत्तरिजोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अणेगखंभसतसनिविट्टा, बहत्तर योजन ऊंचा सैंकड़ों स्तम्भों से बना हुआ है। वण्णओ। यहाँ सिद्धायतन का वर्णक कहें। तेसि गं सिद्धायतणाणं पत्तयं पत्तेयं चउद्दिसि चत्तारि उन प्रत्येक सिद्धायतनों के चारों दिशाओं में चार चार द्वार दारा पण्णत्ता, तं जहा कहे गये हैं यथा१. पुरत्थिमेणं देवदारे, (१) पूर्व दिशा में, देवद्वार, २. दाहिणेण असुरद्दारे, (२) दक्षिण दिशा में असुरद्वार, ३. पच्चत्थिमेणं णागद्दारे, (३) पश्चिम दिशा में नागद्वार, ४. उत्तरेणं सुवण्णदारे। (४) उत्तर दिशा में सुवर्णद्वार । १ सम. ८४, सु. ७। २ सव्वेवि णं अंजणगपवता यसजोयणसयाइमुब्वेहेणं मूले दस जोयणसहस्साई विक्वंभेग, उरि दसजोयणसताई विखंभेणं पण्णत्ता। - ठाण १०, सु० ७२५ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नंदीश्वरद्वीप सूत्र ८४१ तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमद्वितीया वहाँ पल्योपम की स्थिति वाले चार महधिक-यावत्परिवति, तं जहा महासुखी देव रहते हैं यथादेवे, असुरे, णागे, सुवण्णे । (१) देव, (२) असुर, (३) नाग, (४) सुपर्ण । तेणं दारा सोलसजोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, अट्ठ जोयणाईवे द्वार सोलह योजन ऊँचे हैं । आठ योजन चौड़े हैं उतने ही विक्खंभेण, तावतियं चैव पवेसेण, सेता वरकणगथूभियागा चौड़े उनके प्रवेश भाग हैं, वे सब श्रेष्ठ कनक स्तूपिकाओं से -जाव-वणमाला। सुशोभित हैं यावत्-वनमालायें लटक रही है। वण्णओ। यहाँ द्वार वर्णक है। तेसि णं दाराणं चउदिसि चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता। उन द्वारों के चारों दिशाओं में चार मुख मण्डप कहे गये हैं, तेणं मुहमंडवा एगमेगं जोयणसतं आयामेणं, पण्णासं वे मुख मण्डप एक सौ योजन लम्बे हैं, पचास योजन चौड़े है, जोयणाई विक्खंभेणं, साइरेगाई सोलस जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं, सोलह योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं । वण्णओ। यहाँ मुखमण्डप वर्णक है। तेसि णं मुहमंडवाणं चउदिसि चत्तारि दारा पण्णत्ता, उन मुखमण्डपों में चारों दिशाओं के चार द्वार कहे गये हैं । तेणं दारा सोलसजोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, वे द्वार सोलह योजन ऊँचे हैं, अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं, आठ योजन चौड़े हैं। तावतियं चंव पवेसेणं, उतना ही चौड़ा उनका प्रवेशभाग है । सेसं तं चेव-जाव-वणमालाओ। शेष सब पूर्ववत्-यावत्-वनमालाओं का वर्णन करना चाहिए। एवं पेच्छाघरमंडवा वि। इसी प्रकार प्रेक्षाघर मण्डप भी है। तं चेव पमाणं, जं मुहमडवाणं, उन प्रेक्षाघर मण्डपों का प्रमाण पूर्ववत् है। दारा वि तहेव। उनके द्वारों का प्रमाण भी पूर्ववत् है। णवरं-बहुमज्झदेसे पेच्छाघरमंडवाणं, अक्खाडगा, मणि- विशेष-वे द्वार प्रेक्षाघर मण्डपों के मध्यभाग में है; आधे पेढियाओ अद्धजोयणप्पमाणाओ, योजन लम्बे चौड़े अखाड़े और मणिपीठिकायें हैं । सीहासणा अपरिवारा-जाव-दामा। परिवार रहित सिंहासन-यावत्-मालाओं का वर्णन कहना चाहिए। थूभाई चउद्दिसि तहेव । चारों दिशाओं में पूर्ववत् चार स्तूप हैं । णवरं-सोलस जोयणप्पमाणा सातिरेगाइं सोलस जोय- विशेष-वे स्तूप सोलह योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं, शेष णाई उड्ढे उच्चत्तणं, सेसं तहेव-जाव-जिणपडिमा। पूर्ववत्-यावत्-जिन प्रतिमाओं का वर्णक है । चेइयरूक्खा तहेव चउद्दि सिं तं चेव पमाणं, जहा विजयाए स्तूपों के चारों दिशाओं में चैत्यवृक्ष पूर्ववत् है, उनका रायहाणीए । प्रमाण विजया राजधानी के चैत्य वृक्षों के समान है। णवरं-मणिपेढियाए सोलस जोयणप्पमाणाओ। विशेष-मणिपीठिकायें सोलह योजन लम्बी चौड़ी है । तेसि णं चेइयरुक्खाण चउदिसि चत्तारि मणिपेन्यिाओ उन चैत्य वृक्षों के चारों दिशाओं में आठ योजन चोड़ी चार अट्ट जोयणविक्खंभाओ चउजोयण बाहल्लाओ । योजन मोटी मणिपीठिकायें हैं। महिंदज्झया चउसट्ठिजोयणुच्चा, जोयणोब्वेधा, जोयण- चौसठ योजन ऊँची महेन्द्र ध्वजायें हैं। विक्खंभा। वे एक योजन भूमि में गहरी हैं और एक योजन चोड़ी है। सेसं तं चेव । शेष सब पूर्ववत् है । एवं च उद्दिसि चत्तारि णंदा पुक्खरिणीओ, इसी प्रकार चारों दिशाओं में चार नन्दा पुष्करणियाँ हैं। णवरं-खोयरसपडिपुण्णाओ। विशेष-वे इक्षुरस जैसे जल से भरी हुई है। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८४१-८४३ तिर्यक् लोक : नंदीश्वरद्वीप वर्णन गणितानुयोग ४०३ जोयणसतं आयामेणं, पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं, पण्णासं एक सो योजन लम्बी हैं-पचास योजन चौड़ी है, पचास जोयणाई उव्वेधेणं । सेसं तं चेव । योजन गहरी है, शेष सब पूर्ववत् है । मणोगलियाणं गोमाणसीण य अडयालीसं अडयालीसं आस्थानमण्डप और शय्यागृह अड़तालीस अड़तालीस सहस्साई। हजार है। पुरथिमेणं वि सोलस, पूर्व दिशा में सोलह हजार, पच्चत्थिमेणं वि सोलस, पश्चिम दिशा में सोलह हजार, दाहिणणं वि अट्ठ, दक्षिण दिशा में आठ हजार, उत्तरेणं वि अट्ठ साहस्सीओ, उत्तर दिशा में आठ हजार, तहेव सेसं। शेष सब पूर्ववत् है। उल्लोया भूमिभागा-जाव-बहुमज्झदेसभागे मणिपेढिया छतों के भूमिभाग-यावत्-उनके मध्यभाग में सोलह सोलसजोयणाई आयाम-विक्खंभणं, अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं योजन लम्बी चौड़ी ओर आठ योजन मोटी मणिपीठिकायें हैं। तारिसं। मणिपीढियाणं उपि देवच्छंदगा सोलस जोयणाई आयाम- मणिपीठिकाओं के ऊपर सोलह योजन लम्बे चौड़े और विक्खंभेणं, सातिरेगाइं सोलस जोयणाई, उड्ढं उच्चत्तेणं, सोलह योजन से कुछ अधिक ऊँचे देवछंदक-चंदवे हैं, वे सब सव्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। रत्नमय हैं-यावत्-मनोहर है । अट्ठसयं जिणपडिमाणं सव्वो सो चेव गमो जहेव वेमाणिय एक सौ आठ जिन प्रतिमाओं का सम्पूर्ण वर्णन वैमानिक सिद्धायतणस्स। -जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८३ देवों के सिद्धायतनों को प्रतिमाओं के समान है। पुरथिमिल्ले अंजणगपव्वए पूर्वी अंजनक पर्वत८४२. तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले अजणगपवते तस्स णं चउद्दिसि ८४२. उनमें से पूर्व दिशा के अंजनक पर्वत पर उसके चारों चत्तारि णदाओ पोक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- दिशाओं में चार नन्दा पुष्करणियाँ कही गई है, यथागंदुत्तरा य णंदा आणंदा गंदिवद्धणा।' (१) नन्दुत्तरा, (२) नन्दा, (३) आनन्दा, (४) नन्दीवर्धना । ताओ गंदा पुक्खरिणीओ एगमेगं जोपणसयं आयाम- वे नन्दा पुष्करणियाँ प्रत्येक एक सौ योजन लम्वी चौड़ी है विक्खंभेणं, दस जोयणाई उध्वेहेणं, अच्छाओ-जाव-पडिरूवाओ। दस योजन गहरी है । स्वच्छ हैं—यावत् -- मनोहर है। पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेदिया परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं प्रत्येक नन्दापुष्करणी पद्मवरवेदिका से घिरी हुई है, प्रत्येक वणसंडपरिक्खित्ता । पद्मवरवेदिका वनखण्ड से घिरी हुई है। तत्थ तत्थ-जाव-सोवाणपडिरूवगा तोरणा । उन सबके-यावत् --पगथिया तथा तोरण हैं। -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८३ पुक्खरणीसु दधिमुहपव्वया पुष्करणियों में दधिमुख पर्वत८४३. तासि णं पुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए, ८४३. उन पुष्करिणियों के मध्य भाग में दधिमुख पर्वत है। पत्तेयं पत्तेयं दहिमुहपध्वया चउसट्ठि जोयसहस्साई उड्ढे प्रत्येक दधिमुख पर्वत चौसठ हजार योजन ऊंचा है, एक उच्चत्तेणं, एगं जोयणसहस्सं उब्वेहेणं, हजार योजन भूमि में गहरा है। सव्वत्थ समा पल्लगसंठाणसंठिता दस जोयणसहस्साई पल्यंक के आकार से स्थित है अतएव सर्वत्र समान है, दस विक्खंभणं', हजार योजन चौड़ा है। १ पाठान्तर-नदिसेणा अमोघा य गो) भा य सुदंसणा । २ सब्वे वि ण दधिमुहपव्वया पल्लगसंठाणसं ठिता सम्वत्यसमाविक्खंभुस्सेहेणं चउसट्टि चउसट्टि जोयणसहस्साई पण्णता । -सम. ६४, सु. ४ ३ सब्वे वि णं दधिमुहपब्बता दसजोयणसताई, सम्वत्थ समा पल्लगसंठिता, दस जोयणसहस्साई विक्खं भेणं पण्णत्ता । -ठाण १०, सु. ७२५ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्वक लोक नंदीश्वरद्वीप वर्णन : एक्कतीस जोयणसहस्सा तेवी जोगस परि वेणं पण्णत्ता, सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिख्वा । तहा पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवे इया परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता, दोपह वि वण्णओ । तेसि णं दधिमुहपव्वयाणं उर्वार बहुसमरमणिज्जो भूमि - भागो पण्णत्तो, से जहा नामए आलिंगपुक्खरेइ वा जावविहरति । सिद्धायतणं तं चैव पमाणं । अंजणपव्वसु सच्चेव वत्तव्वया णिरवसेसं भाणियव्वं जब उपि अमंग - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८३ दक्खिहिले अंजणगपग्वए ८४४. तत्थ णं जे से दक्खिणिल्ले अंजणपव्वते तस्स णं चउद्दिस चारि णंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा भद्दा य विसाला या पुण्डरि गिणी', तं चैव पमाण, तं चैव दधिमुहा पव्वया, तं चैव पमाण, - जाव-सिद्धायतणा । जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८३ पच्चरिथमिल्ले अंजणगपबए ८४५ तत्थ णं जे से पच्चत्थिमिल्ले अंजणगपव्वए तस्स णं चउदिसि बारि रिओ तं जहा मंदिसेगाव, अमोहा य, गोत्थूमी य सुदंसणा । तं चैव सम्भाव्यं जाव-सिद्धायणा । - -जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८३ सूत्र ८४३-८४६ उत्तरिल्ले अंजणगपव्वए८४६. तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले अंजणगपव्वते, तस्स णं चउद्दिस चत्तारि मंदापुषखरिणीओ पण्णत्ताओ, तं महा-विजया बेजयंती, जयंती, अपराजिया | सेसं तहेव जाव-सिद्धायतणा, सव्वा वण्णणा गातव्वा, उसकी परिधि इकतीस हजार छः सौ तेवीस योजन की कही गई है। प्रत्येक पर्वत सर्वरत्नमय है स्वच्छ है - यावत् - मनोहर है । प्रत्येक पर्वत पद्मवरवेदिका से घिरा हुआ है और प्रत्येक पद्मवर वेदिका वनखण्ड से घिरी हुई। उन दधिमुख पर्वतों पर सर्वथा सम रमणीय भूभाग कहा गया है । जिस प्रकार मृदंग तल है - यावत् — उन पर देव देवियाँ विहरण करती हैं। उन पर सिद्धायतन का प्रमाण पूर्ववत् है । अंजनक पर्वतों पर का सम्पूर्ण वर्णन वही है - यावत् उन पर आठ आठ मंगल हैं। दक्षिणी अंजनक पर्वत ८४४. उनमें से दक्षिण दिशा के अंजनक पर्वत पर उसके चारों दिशाओं में चार नन्दा पुष्करणियाँ कही गई हैं, यथा - ( १ ) भद्रा, (२) विसाला, (३) कुमुदा, (४) पुण्डरी किणी । उन सबका प्रमाण पूर्ववत् है । दधिमुख पर्वतों का प्रमाण भी पूर्ववत् है। याय सिद्धानों का वर्णन मी पूर्ववत् है। पश्चिमी अंजनक पर्वत ८४५. उनमें से पश्चिमदिशा के अंजनक पर्वत पर उसके चारों दिशाओं में चार नन्दा पुष्करणियां कही गई है, यथा(१) नन्दिसेणा (२) अमीषा (३) गोस्तुपा और (४) दर्शना । सिद्धायतन पर्यन्त सारा वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए । उत्तरी अंजनक पर्वत ८४६. उनमें उत्तरदिशा के अंजनक पर्वत पर उसके चारों दिशाओं में चार नन्दा पुष्करपियां कहीं गई है, क्या(१) विजया (२) जयंती (2) जयंती (३) अपराजिता । शेष सिद्धायतन पर्यन्त सारा वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। १ पाठान्तर नंदुत्तरा य नंदा आनदा नंदिवड्ढणा । २ (भावाला कुमुदा पुण्डरीकणी) ३ गंदीसरवरदीवे चत्तारि अंजणगपव्त्रया : गंदीसरवरस्स ण दीवस्स चक्कवालविक्खंभस्स बहुमज्झदेसभागे चत्तारि अंजणगपव्वया पण्णत्ता, तं जहा १. पुरथिमिल्ले अंजणगपव्वए, २. दाहिणिल्ले अंजणगपव्वर, ३. पच्चत्थिमिल्ले अंजणगपव्त्रए, ४. उत्तरिल्ले अंजणगपत्रए । ते णं अंगाचउरासी इजोप्रगसहस्साई उड्ढं उच्चतेणं, एमेजोयणसह उ मूले दस जोपणसहस्वाई विभेणं, (शेष पृ० ४०५ पर) Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८४६ तिर्यक् लोक : नंदीश्वरद्वीप वर्णन गणितानुयोग ४०५ तत्थ गं बहवे भवणवइ-वाणमंतर-जोतिसिय वेमाणिया उन पर्वतों पर अनेक भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और देव चाउमासियापडिवएसु संवच्छरिएसु वा अण्णेसु य बहूसु वैमानिक देव चातुर्मासिक प्रतिपदाओं में, संवत्सरी में अन्य अनेक जिणजम्मण-णिक्खमण णाणुप्पत्ति-णिव्वाणमादिएसु य देव- जिन जन्म-निष्क्रमण ज्ञानोत्पत्ति, निर्वाण आदि के प्रसंग पर तथा कज्जेसु य देवसमुदयेसु य देवसमितीसु य देवसमवाएसु य देवकार्यों में, देवसमूहों में, देवसमितियों में, देवसमवायों में, देव देवपओयणेसु य एगतओ सहिता समुवागता समाणा पमुदित- प्रयोजनों में एकत्रित होकर आए हुए आमोद प्रमोद करते हुए पक्कीलिया अट्टाहितारूवाओ महामहिमाओ करेमाणा पाले- क्रीड़ा करते हुए सुखपूर्वक विहरण करते हैं । माणा सुहं सुहेणं विहरं ति । - (शेष पृ० ४०४ का) तदणंतरं च णं मायाए मायाए परिहाएमाणे परिहाएमाणे, उवरिमेगं जोयणसहस्सं विक्खंभणं पण्णत्ता । मूले एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं । उरि तिण्णि तिण्णि जोयणसहस्साई एगं च बावट्ट जोयणसयं परिक्खेवेणं । मूले वित्थिण्णा, मझे संखित्ता, उप्पि तणुया, गोपुच्छसंठाणसंठिया, सव्व अंजणमया अच्छा-जाव-पडिरूवा । तेसि णं अंजणगपव्वयाणं उवरि बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता। तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि सिद्धाययणा पण्णत्ता, ते णं सिद्धाययणा एगं जोयणसयं आयामेणं, पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं, बावतरि जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं, तेसि णं सिद्धाययणाणं चउदिसिं चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा-१. देवदारे, २. असुरदारे, २. णागदारे, ४. सुवण्णदारे। तेसु णं दारेसु चउव्विहा देवा परिवसन्ति तं जहा–१. देवा, २. असुरा, ३. गागा, ४. सुवण्णा । तेसि णं दाराणं पुरओ चत्तारि मुहमंडवा पण्णत्ता, तेसि णं मुहमंडवाणं पुरओ चत्तारि पेच्छा घरमंडवा पण्णत्ता। तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि वइरामया अक्खाडगा पण्णत्ता । तेसि णं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, तासि णं मणिपेढियाणं उरिं चत्तारि सीहासणा पण्णत्ता, तेसि णं सीहासणाणं उवरिं चत्तारि विजयदूसा पण्णत्ता। तेसि णं विजयदूसगाणं बहुमज्झदेसभागे चत्तारि वइरामया अंकुसा पण्णत्ता, तेसि णं वइरामएस अंकुसेसु कुम्भिकमुत्तादामा पण्णत्ता, ते णं कुम्भिका मुत्तादामा पत्तेयं पत्तेयं अन्नेहिं तदद्ध उच्चत्तपमाणमेत्तेहिं चउहिं अद्ध कुम्भिकेहिं मुत्तादामेहि सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता, तेसि णं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ । तासि णं मणिपेढियाणं उरिं चत्तारि चेइयथूभा पण्णत्ता । तेसि णं चेइयथूभाणं पत्तेयं पत्तेयं चउदिसिं चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ। तासि णं मणिपेढियाणं उरि चत्तारि जिणपडिमाओ सम्वरयणामईओ सपलियंक णिसण्णाओ थूभाभिमुहीओ चिट्ठन्ति तं जहा१. रिसभा, २. बद्धमाणा, ३. चंदाणणा, ४. वारिसे णा, तेसि णं चेइयथूभाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ। तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि चेइयरुक्खा पण्णत्ता। तेसि णं चेइयरुक्खाणं पुरओ चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ। तासि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि महिंदज्झया पण्णत्ता । तासि णं महिंदज्झयाणं पुरओ चत्तारि गंदा पोक्खरिणीओ पण्णत्ताओ। तासि णं पोक्खरणीणं पत्तेयं पत्तेयं चउदिसि चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा१. पुरथिमेणं, २. दाहिणेणं, ३. पच्चत्थिमेणं, ४. उत्तरेणं । (शेष पृष्ठ ४०६ पर) Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक नंदीश्वरद्वीप वर्णन : कइलास हरियाणा व तत्व हुवे देवा महिदीया जाव पद्वितिया परिवसति । से एतेषं गोषमा ! एवं बुम्बद "मंदिरसरबरे दी णंदिस्सरवरे दीवे ।" वहाँ पर पल्योपम की स्थिति वाले महधिक - यावत्-महासुखी कैलाश और हरिवाहन ये दो देव रहते हैं । हे गौतम ! इस कारण से 'नन्दीश्वरद्वीप' नन्दीश्वरद्वीप कहा जाता है । - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १०३ णंदीसरवरदीवस्स निच्चत्त८४७. अदुत्तरं च णं गोयमा ! णंदिस्सरवरे दीवे सासए जावणिच्चे | — जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १५३ ( शेष पृष्ठ ४०५ का ) माहा पृथ्वेगं असगवणं, दाहिणओ होइ सतवणवण अवरेण परावणं, अवर्ण उत्तरे पासे । सूत्र ८४६ नन्दीश्वरद्वीप की नित्यता ७४७. अथवा हे गौतम! नन्दीश्वरद्वीप शाश्वत है- यावत्नित्य है । १ पुरथिमि नगपचए तर जे से पुरथिमिले गए तरस चउदिति बतारि गंदाओ पोखरिणीओ पाओ, तं जहा१.२. ३. आनंदा, ४. दिवद्वणा । ताओ णं णंदाओ पोक्खरणीओ एवं जोयणसय सहस्सं आयामेणं, पण्णासं जोयणसहस्साई विवखंभेणं, दसजोयणसयाई उच्वेहेणं तासि णं पोक्खरणीणं पत्तेयं पत्तेयं चउदिसि चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ चत्तारि तोरणा पण्णत्ता, तं जहा १. मे २. दाणे १. पथ्यस्थिमेणं, ४. उस , तासि णं पोखरणीणं पत्तेयं पत्तेयं चउदिसिं चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा १. पुरत्थि मे णं, २. दाहिणे णं, ३. पच्चत्थिमे णं, ४. उत्तरे णं । गाहा— पुत्रे णं असोगवणं, दाहिणओ होइ सत्तवष्णवणं । अवरे णं चंपगवणं, चूय वर्ण उत्तरे पासे ॥ तासि णं क्रणी बहुमभागे चत्तारि दधिमुपयवा पण्णत्ता । ते णं दधिमुपयया चउस जोयणसहस्साई उई उचलेगं एवं जोपणसह उच्हेग, सच्चत्यसमा पस्नगठगठिया । दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं एक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्च तेवीसे जोयणसए परिक्खेवेणं, सव्वरयणा मया अच्छा-जाब-पडिरुवा । २. दाहिणिल्ले अंजणगपव्वए तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले अंजणगपव्वए तस्स णं चउदिसं चत्तारि णंदाओ पोक्खरणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा १. भद्दा, २. विसाला, ३. कुमुदा, ४. पोंडरिगिणी । ताओ णं णंदाओ पोक्खरणीओ एक्कं जोयणसयसहस्सं, आयामेणं, सेसं तं चैव पमाणं तहेव दधिमुहगपब्वया, तहेव सिद्धाययणा - जाव- वणसंडा । ३. पञ्चत्थिमिल्ले अंजणगपव्वए - तत्य णं जे से परिवमिस्ले जगपए तरस गं उदिति बारि गंदा पोखरणीओ पण्णत्ताओं तं जहा१. दिमेा २. अमोहा, ३. गोभा ४. सुदंसगा शाओ णं णंदाओ पोक्खरणीओ एक्क जोपणससह आयामेणं, सेसं तं चैव पमाणं लहेब दधिमुहगपण्यया सहेब सिद्धावणा - जाव-वणसंडा । ४. उत्तरिल्ले अंजणगपव्वए तत्व से उतर गए तस्म णं चउदिसि चत्तारि णंदाओ पोक्खरणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १. विजया, २. वेजयंती, ३. जयंती, ४. अपराजिया । ताओ णं णंदाओ पोक्खरणीओ एक्कं जोयणसय सहस्सं आयामेणं, सेसं तं चेव पमाणं, तहेव दधिमुहगपव्वया, तहेव सिद्धाययणा - ठाणं अ० ४, उ० ३, सु० ३०७ - जाव-वणसंडा । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८४८.८५० तिर्यक् लोक : नंदीश्वरद्वीप वर्णन गणितानुयोग ४०७ गंदीसरवरे दीवे चत्तारि रतिकरगपव्वया- नन्दीश्वर में चार रतिकर पर्वत८४८. गंदीसरवरस्स णं दीवस्स चक्कवालविक्खंभस्स बहुमज्झ- ८४८. नन्दीश्वरद्वीप के चक्रवाल विष्कम्भ के मध्यभाग की चार देसभागे चउसु विदिसासु चत्तारि रतिकरगपव्वया पण्णत्ता, विदिशाओं में चार रतिकर पर्वत कहे गये हैं । यथातं जहा१. उत्तर-पुरथिमिल्ले, रतिकरगपवए, (१) उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में रतिकर पर्वत । २. दाहिण-पुरथिमिल्ले रतिकरगपव्वए, (२) दक्षिण-पूर्व (आग्नेयकोण) में रतिकर पर्वत । ३. दाहिण-पचत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वए, (३) दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यककोण) में रतिकर पर्वत । ४. उत्तर-पच्चथिमिल्ले रतिकरगपव्वए, (४) उत्तर-पश्चिम (वायव्यकोण) में रतिकर पर्वत । ते णं रतिकरगपव्वया दसजोयणसयाई उडढं उच्चत्तेणं, वे रतिकर पर्वत एक हजार योजन ऊंचे हैं। दस गाउयसयाई उब्वे हेणं, एक हजार गाउ भूमि में गहरे हैं। सव्वत्थसमा, झल्लरिसंठाणसंठिया, ये पर्वत झालर के आकार से स्थित हैं अतएब सर्वत्र समान है। दसजोयणसहस्साई विक्खंभेणं, दम हजार योजन चौड़े हैं। एक्कतीसं जोयणसहस्साई छच्च तेवीसे जोयणसए इन पर्वतों की परिधि इकतीस हजार छः सौ तेवीस योजन परिक्खेवेणं, की है। सव्वरयणामया, अच्छा-जाव-पडिरूवा। ये पर्वत सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं-यावत्-मनोहर है। -ठाणं अ० ३, उ०४, सु० ३०७ उत्तरपुरथिमिल्ले रतिकरगपव्वए उत्तरपूर्व दिशा में रतिकर पर्वत८४६. तत्थ णं जे से उत्तरपुरथिमिल्ले रतिकरगपब्बए तस्स णं ८४६. उन पर्वतों से उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) के रतिकर पर्वत चउदिसिमीसाणस्स देविंदस्स देवरणो चउण्हमग्गमहिसीणं की चारों दिशाओं में ईशान देवेन्द्र देवराज की चारों अग्रमहिषियों जंबुद्दीवपमाणाओ चत्तारि रायहाणीओ पण्णत्ताओ, की जम्बूद्वीप जितनी लम्बी चौड़ी चार राजधानियाँ कही गई हैं, तं जहा यथा१. णंदुत्तरा, २. गंदा, ३. देवकुरा. ४. उत्तरकुरा । (१) नन्दुत्तर, (२) नन्दा, (३) कुरा, (४) उत्तरकुरा । १. कण्हाए, (कृष्णा अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) नन्दुत्तरा, २. कण्हराईए, (कृष्णराजी अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) नन्दा, ३. रामाए, (रामा अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) देवकुरा, ४. रामरक्खियाए। (रामरक्षिता अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) उत्तरकुरा, -ठाणं अ० ३, उ०४, सु० ३०७ दाहिणपुरथिमिल्ले रतिकरगपव्वए- दक्षिण-पूर्व दिशा में रतिकर पर्वत८५०. तत्थ णं जे से दाहिण-पुरथिमिल्ले रतिकरगपव्वए, तस्स णं ८५०. उन पर्वतों में से दक्षिण-पूर्व (आग्नेयकोण) के रतिकर चउदिसि सक्कस्स देविवस्स देवरणो, चउण्हमग्गमहिसीणं पर्वत को चारो दिशाओं में शक देवेन्द्र देवराज की चारों अग्रजंबुदीवपमाणाओ चत्तारि रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- महिषियों की जम्बूद्वीप जितनी लम्बी चौड़ी चार राजधानियाँ कही गई हैं, यथा१. समणा, २. सोमणसा, ३. अच्चिमाली, ४. मणोरमा। (१) समणा, (२) सोमणसा, (३) अचिमाली, (४) मनोरमा, १. पउमाए, १. (पद्मा अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) समणा, २. सिवाए, २. (शिवा अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) सोमणसा, ३. सईए, ३. (शची अग्रमहिषो की राजधानी का नाम) अचिमाली, ४. अंजूए। -ठाणं अ०३, उ०४, सु० ३०७ ४. (अंजू अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) मनोरमा, Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ लोक-प्रज्ञप्ति दाहिण पच्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वए८५१. तत्थ णं जे से दाहिण-पच्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वए, तस्स णं चउदिसि सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो चउण्हमग्गमहिसोणं जंबूदीपमा माओ जारि राहाणीओ पष्णताओ, तं जहा तिर्वक लोक मंदीश्वरीय वर्णन 1:3 १. भूता, २. भूतवडेंसा, ३. गोथूभा, ४. सुदंसणा । १. अमलाए, २. अच्छराए, २. गमियाए, ४. रोहिणीए । -ठाणं अ० ३, उ० ४, सु० ३०७ उत्तर- पञ्चत्थिमिले रतिकरगए८५२. तत्थ णं जे से उत्तर-पच्चत्थिमिल्ले रतिकरगपव्वए, तस्स णं चदिसिमीसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो चउण्हमग्गमहिसीणं, जंत्रीवपमाना बतारि हामी माओ से नहा रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं १. वसूए, २. वसुगुप्ताए, ३. वाए, १. रयणा, २. रयणुच्चया, ३. सव्वरयणा, ४. रयणसंचया । ४. वसुन्धराए ।" - - ठाणं अ० ३, उ० ४, सु० ३०७ सूत्र ८५१-८५२ दक्षिण-पश्चिम दिशा में रतिकर पर्वत ८५१. उन पर्वतों में से दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण) के रतिकर पर्वत की चारों दिशाओं में शक्र देवेन्द्र देवराज की चारों अग्रमहिषियों की जम्बूद्वीप जितनी लम्बी पौड़ी चार राजधानियां कही गई हैं। यथा (१) भूता, (२) भूतावतंसा, (३) गोस्तूपा, (४) सुदर्शना । (१) ('अमरा' अग्रमहिषी की राजधानी का नाम ) भुता, (२) (अप्सरा अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) भूतावतंसा, (३) ( ' नवमिला' अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) गोस्तूपा, (४) ('रोहिणी' अग्रमपी की राजधानी का नाम) सुदर्शना, उत्तर-पश्चिम दिशा में रतिकर पर्वत - ८५२. उन पर्वतों में से उत्तर-पश्चिम (वायव्यकोण) के रतिकर पर्वत की चारों दिशाओं में ईशान देवेन्द्र देवराज की चार अग्रमहिषियों की जम्बूद्वीप जितनी लम्बी चोटी बार राजधानियाँ कही गई हैं, यथा - (१) रत्ना, (२) रत्नोच्चया, (३) सर्वरत्ना, (४) रनसंचया । (१) ('वसु' अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) रत्ना, (२) ('वसुगुप्ता' अपमहिषी की राजधानी का नाम) रत्नोच्या (२) ('वसुमित्रा' अग्रमहिषी की राजधानी का नाम) सर्व रत्ना, (४) ('वसुन्धरा' अग्रमहिषी की राजधानी का नाम ) रत्नसंचया, १ तृतीय उपांग जीवाभिगम के वृत्तिकार श्री मलयगिरि इस सूत्र की वृत्ति में लिखते हैं- "केषु चित्पुस्तकेषु रतिकरपर्वत चतुष्टयवक्तव्यता सर्वथा न दृश्यते" अतः यह स्वतः स्पष्ट है कि उनके सामने एक ऐसी प्रति भी थी, जिसमें रतिकरपर्वत चतुष्टयवाला पाठ था, क्योंकि इस पाठ की वृत्ति भी उन्होंने की है। आगमोदय समिति से प्रकाशित जोवाभिगम की प्रति में "रतिकरपर्वत" चतुष्टयवाला मूलपाठ तो नहीं है किन्तु उस पाठ की श्री मलयगिरिकृत वृत्ति अक्षरश: अंकित है । स्थानाग के चतुर्थ स्थान द्वितीय उद्देशक सूत्र ३०७ में जीवाभिगम के समान नंदीश्वरवरद्वीप की चार दिशाओं में स्थित चार अंजनक पर्वतों का तथा चार विदिशा में स्थित चार रतिकर पर्वतों का वर्णन है । आगमोदय समिति से प्रकाशित स्थानांग की प्रति से ( रतिकरपर्वत चतुष्टय वाला) पाठ यहाँ उद्धृत किया गया है । यदि रतिकर पर्वत चतुष्टयवाला पाठ स्थानांग में नहीं मिलता तो यह पाठ विच्छिन्न हो गया होता। क्योंकि जीवाभिगम की उपलब्ध प्रतियों में यह पाठ मिलता नहीं है । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८५३-८५६ तिर्यक् लोक : नंदीश्वरोद समुद्र गणितानुयोग ४०६ नंदीसरोदसमुद्दो नंदीश्वरोद समुद्र तहेव, नंदीसरोदसमुहस्स संठाणं नन्दीश्वरोद समुद्र का संस्थान८५३. णंदोस्सरवरण्णं दीवं गंदीसरोदे णामं समुद्दे वट्ट वलयागार- ८५३. नन्दीश्वरोद नामक समुद्र वृत्त वलयाकार संस्थान से संठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्टइ,' स्थित नन्दीश्वरवरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है। तहेव समचक्कवालसंठाणसंठिए । वह समचक्रवाल संस्थान से पूर्ववत् स्थित है। विक्खंभ-परिक्खेवो संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई। उसकी चौड़ाई और परिधि संख्यात लाख योजन की है। दारा, दारंतरं, पउमवरवेइया, वणसंडे, पएसा, जीवा, नन्दीश्वरोदसमुद्र के द्वार, द्वारों के अन्तर, पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श, समुद्र और द्वीप के जीवों को एक दूसरे में उत्पत्ति पूर्ववत है। अट्ठो जो खोदोदगस्स,-जाव नन्दीश्वरोद नामक समुद्र के नाम का हेतु क्षोतोदसमुद्र के नाम के हेतु के समान है-यावत्सुमण-सोमणस भद्दा, एत्थ दो देवा महिड्ढिया-जाव- पल्योपम की स्थिति वाले सुमन और सोमनसभद्र नाम वाले पलिओवमट्टिईया परिवसंति, दो महधिक-यावत्-देव वहाँ रहते हैं । से एएणढणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-“णंदीसरोदे समुद्दे, हे गौतम ! इस कारण से 'नन्दीश्वरोद समुद्र' नन्दीश्वरोद गंदीसरोदे समुद्दे, समुद्र कहा जाता है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८४ नंदीसरोदसमद्दस्स निच्चत्तं नन्दीश्वरोद समुद्र की नित्यता८५४. अदुत्तरं च णं गोयमा ! गंदीसरोदे समुद्दे सासए-जाव- ८५४. अथवा हे गौतम ! नन्दीश्वरोदसमुद्र शाश्वत हैं यावत्णिच्चे। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८४ नित्य हैं । णंदीसरदीवे सत्तदोवा नन्दीश्वरद्वीप में सात द्वीप८५५. गंदीसरवरस्स णं दीवस्स अंतो सत्तदीवा पण्णता, हे जहा- ८५५. नन्दीश्वरद्वीप में सात द्वीप कहे गये हैं, यथा-(१) जम्बू १. जंबुद्दीबे, २. धायइसंडे, ३. पोक्खरवरे, ४. वरुणवरे, द्वीप, (२) धातकीखण्डद्वीप, (३) पुष्करवरद्वीप, (४) वरुणवरद्वीप, ५. खीरवरे, ६. घयवरे, ७. खोयवरे। (५) क्षीरवरद्वीप, (६) घृतवरद्वीप । -ठाणं ७, सु० ५८० गंदीसरदीवे सत्त समुद्दा नन्द्वीश्वरद्वीप में सात समुद्र८५६. गंदीसरवरस्स गं दीवस्स अंतो सत्तसमुद्दा पण्णता, तं जहा- ८५६. नन्दीश्वरद्वीप में सात समुद्र कहे गये हैं, यथा-(१) १. लवणे, २. कालोए, ३. पुक्खरोदे, ४. वरुणोदे, लवणसमुद्र, (२) कालोदसमुद्र, (३) पुष्करोदसमुद्र, (४) वरुणोद५. खोरोदे, ६. घओदे, ७. खोओदे। समुद्र. (५) क्षीरोदसमुद्र, (६) घृतोदसमुद्र, (७) क्षोदोदसमुद्र । -ठाणं ७, सु०५८० १ सूरिय० पाठ १६, सु० १०१ । Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : अरुणादिद्वीप समुद्र सूत्र ९५७-८५६ अरुणाइदीवसमुद्दा अरुणादिद्वीप समुद्र कवच अरुणाइ दीव-समुदाणं संखित्त परूवणं अरुणादि दीप-समुद्रों का संक्षिप्त प्ररूपणअरुणदीवस्स संठाणं अरुणद्वीप का संस्थान८५७. गंदीसरोवं समुद्द अरुणे णामं दीवे वट्ट वलयागार संठाण- ८५७. 'अरुण' नामक द्वीप वृत्त वलयाकार संस्थान से स्थित है, संठिए सम्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठति, __ वह नन्दीश्वरोद समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए स्थित हैं। प०-अरुणे णं भंते ! दीवे किं समचक्कवाल सठाणसंठिए प्र०-हे भदंत ! अरुणद्वीप क्या समचक्रवाल संस्थान से विसमचक्कवाल संठाणसं ठिए ? स्थित है या विषमचक्रगल संस्थान से स्थित है ? उ०-गोयमा ! समचक्कवालसंठाणसंठिए, नो विसमचक्क- उ-हे गौतम ! (अरुणद्वीप) समचक्रवाल संस्थान से वालसंठाणसंठिए, स्थित हैं किन्तु विषमचक्रवाल संस्थान से स्थित नहीं है। -जीवा. पडि. ३,. उ. २, सू. १८५ अरुणदीवस्स विक्खंभ-परिक्खेवं अरुणद्वीप की चौड़ाई और परिधि८५८. ५०-अरुणे णं भंते ! दीवे केवइयं चक्कवाल-विक्खंभेणं ८५८. प्र०-हे भदंत ! अरुणद्वीप का चक्रवाल विष्कम्भ और केवइयं चक्कवाल-परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? चक्रवाल परिधि कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई चक्कवाल- उ-हे गौतम ! संख्यात लाख योजन की चक्रवाल चौड़ाई विक्खंभेणं, पण्णत्ते, संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई और संख्यात लाख योजन की परिधि कही गई है। परिक्खेवेणं पण्णते,' 'पउमवर वेइया' वणखंडो, दारा, दारंतरं य तहेव, अरुणद्वीप की पद्मवरवेविका, वनखण्ड, द्वार, द्वारों के अन्तर पूर्ववत् हैं। संखेज्जाई जोयणसयसहस्साई दारंतरं-जाव-अट्ठो, द्वारों का संख्यात लाख योजन का अन्तर है यावत्-नाम का हेतु पूर्ववत् है। वावीओ खोदोदगपडिहत्था, वापिकायें इक्षुरस से भरी हुई हैं। उपायपव्वया सव्ववइरामया अच्छा-जाव-पडिरूवा, उत्पात पर्वत सर्ववनमय हैं, स्वच्छ हैं-यावत्-मनोहर हैं। असोग-वीतसोगा य एत्थ दुवे देवा महिड्ढीया-जाव- अशोक और वीतशोक नाम वाले महधिक-यावत्-पल्योपलिओवमट्ठिइया परिवसंति, पम की स्थिति वाले दो देव वहाँ रहते हैं। से तेणणं गोयमा ! एवं वुच्चइ अरुण णामं दीवे, हे गौतम ! इस कारण से अरुण नामक द्वीप 'अरुण नामक अरुणे णामं दीवे', द्वीप' कहा जाता है। -जीवा पडि. ३, उ. २, सु. १८५ ८५६. अरुणे णं दीव अरुणोद णामं समुद्दे बट्ट वलयागार-संठाण- ८५६. अरुणोद समुद्र वृत्त, वलयाकार संस्थान से स्थित है, वह संठिए सत्रओ समंता संपरिखित्ताणं चिट्ठइ', अरुणद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है। तस्स वि तहेव चक्कवालविक्खंभो पक्खेिवो, य, उसकी चक्रवाल चौड़ाई और परिधि, पूर्ववत् है। अट्ठो, खोतोदगं तहेव उसके नाम का हेतु और इक्षरस जैसा जल, पूर्ववत् है। णवरं-सुभद्द-सुमणभद्दा, रत्थ दो देवा महि ड्ढीया-जाव- विशेष -सुभद्र और सुमनभद्र नाम वाले महधिक-यावत्पलिओवमट्ठिइया परिवसंति, सेसं तहेव ।। पल्योपम की स्थिति वाले दो देव वहां रहते हैं। शेष पूर्ववत् है । -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८५ १ सूरिय० पाठ १६, सु० १०१ । २ स च देवप्रभया, पर्वतादिगत बज्ररत्नप्रभया चारुण इति अरुणनामा । ३ सूरिय० पाठ १६. सु० १०१ । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८६०-८६२ तिर्यक लोक अरुणादिद्वीय वर्णन : अरुणवरवीवस्स संठाणं ८६०. नंदीसरवरोदं समुद्द े अरुणवरे णामं दीवे वट्ट े वलयागारसंठाण संठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति । " प० - अरुणवरे णं भंते! दीवे कि समचक्कवालसं ठाणसंठिते, विसमचक्कवालसंठाणसंठिते ? उ०- गोधमा ! समवालसंडासंडिले, नो सिम वालठाणसंठिते । - जीवा पडि ३, उ. २, सु. १८५ अरुणवरदीवरस विसंभ-परिषखेवं ८६१. ५० – अरुणवरे णं भंते ! दीवे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! संखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई चक्कवालबिक्मेणं, संजाई जोपणसमसहस्सा परि पण्णत्ते । दारा, दातरा व सहेब संजाई जोवनसतसहस्साई सेणं एगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते चिटुइ, दोहवि वण्णओ । पदेसा दोण्डव (परोपरं पदा उ०- गोयमा ! अरुणवरे णं दीवे तत्थ तत्थ देसे देसे तह तहि बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ-जाव- बिलपंतियाओ अच्छाओ-गाव-महूरसरणाहयाओ लोबोपहित्याओ पासावा जाव पवा तालु पंखुड़िया-जाय-विलपतिया बहवे उपायपव्वया जाव सव्ववइरामया अच्छा-जाव पडिरूवा । अरुणवरभद्द- अरुणवरमहाभद्रा एत्थ दो देवा महिढिया जाव - पलिओवर्माद्वितिय परिवसंति । से एएणटुणं गोयमा ! एवं बुच्चइ – अरुणवरे दीवे, अरुणवरे दीवे ।" - - जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८५ १ सूरिय० पाठ १६, सु० १०१ । गणितानुयोग ४११ अरुणद्वीप का संस्थान - ८६०. अरुणवर नामक द्वीप वृत्त वलयाकार संस्थान से स्थित है, वह नन्दीश्वरोद समुद्र को चारों ओर से घेरकर स्थित है । प्र० - हे भदन्त ! अरुणवरद्वीप क्या समचक्रवाल - संस्थान से स्थित है ? उ०- हे गौतम! अरुणवरद्वीप समचक्रवाल - संस्थान से स्थित है, विषम चक्रवाल संस्थान से स्थित नहीं है । अरुणवरद्वीप और नन्दीश्वरोद समुद्र के प्रदेश परस्पर स्पृष्ट हैं । जीवा दोसु (दीवेसु वि- समुद्देसु) वि पच्चायति । अरुगद्वीप के जीव और नन्दीश्वरोद समुद्र के जीव एक दूसरे में उत्पन्न होते हैं । — जीवा० पडि०३, उ० २, सु० १८५ अरुणव रवीवरस णामहेऊ अरुणवरद्वीप के नाम का हेतु ८६२. ५०—–से केणट्टे णं भंते ! एवं वुच्चइ - " अरुणवरे दीवे ८६२. प्र० - हे भगवन् ! किस कारण से 'अरुणवरद्वीप' अरुण -- , अरुणवरे दीवे ? वरद्वीप कहा जाता है ? अरुणवरद्वीप की चौड़ाई एवं परिधि ८६१. प्र० - हे भदन्त ! अरुणवरद्वीप का चक्रवाल विष्कम्भ और उसकी परिधि कितनी कही गई है ? उ०- हे गौतम! संख्यात लाख योजन की चक्रवाल चोड़ाई है और संख्या लाख योजन की परिधि कही गई है। उसके द्वार और द्वारों का अन्तर संख्यात लाख योजन के है। यहां पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन है । उ०- हे गौतम! अरुणवरद्वीप के सभी विभागों में सर्वत्र छोटी बावड़ियाँ है- यावत्- बिलपंक्तियाँ है, वे सब स्वच्छ हैं— यावत्-मधुर स्वर से गूंजने वाली हैं और ओतोद ( इ रस जैसे जल) से भरी हुई है, प्रसन्नता प्रदान करने वाली है - यावत्मनोहर है। उन बावड़ियों में यावत् बिलपंक्तियों में अनेक उत्पात पर्वत हैं - यावत् - वे सब वज्रमय हैं, स्वच्छ हैं- यावत्--- मनोहर है। वहाँ महधिक - यावत् - पल्योपम की स्थिति वाले अरुणवर भद्र और अरुणवरमहाभद्र नाम वाले दो देव रहते हैं । हे गौतम! इस कारण से 'अरुणवरद्वीप' अरुणवरद्वीप कहा जाता है । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ लोक- प्रज्ञप्ति ww www. अरुणवरदीवस्स निच्चत्तं - ८६३ अनुसरणं गोपमा ! अरुणवरे बीचे सासरजाव-विच्चे। - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८५ ८६४. अरुणवरं णं दीवं अरुणवरोदे णामं समुदे वट्ट े जाव चिट्ठति । तिर्यक्लोक: अरुणादिद्वीप वर्णन अरुणवर-अरुणवरमहावरा व एस्य दो देवा महिडीया -जाब-पलिसोयमहिया परिवसति सेसं सव्वं तहेव । अरुणवरावभासभद्दे - अरुणवराभासमहाभदा य एत्थ दो देवा महिया-जाय पतिओवमट्टिया परिवर्तति, से तहेव । अरुणवरावभास - अरुणवरावभासमहावरा एत्थ दो देवा महिदीया जाय- पलिशोषमट्टिया परिवति, सेर्स सम्यं तव । ८६५. अरुणवरोदं समुदं अरुणवरावभासे णामं दीवे वट्ट े -जाव- ८६५. वृत्त वलयाकार संस्थान से स्थित अरुणवरावभासद्वीप अरुणवरोदसमुद्र को चारों ओर से घेरकर स्थित है । चिति । -जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८५ -- १ सूरिय० पा० १६, सु० १०१ । २ सूरिय० पा० १९, ०१०१। २ सुरिय० पा० ११. ०१०१ । सूत्र ८६३-८६६ अरुणवरद्वीप की नित्यता ८६३. अथवा हे गौतम! अरुणवरद्वीप शाश्वत है-यावत्नित्य है । ८६४. वृत्त वलयाकार संस्थान से स्थित अरुणवरोद समुद्र अरुणवरद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है । ८६६. अरुणवरावभासे णं दीवं अरुणवरावभासे णामं समुद्दे वट्ट ८६६. वृत्त वलयाकार संस्थान से स्थित अरुणवरावभास समुद्र जा-चिति । अरुणवरावभासद्वीप को चारों ओर से घेरकर स्थित है । पत्योपम की स्थिति वाले अरुणवर और अरुणवरमहावर नाम के दो महधिक देव - यावत्-वहाँ रहते हैं । शेष सब वर्णन पूर्ववत् है । पत्योपम की स्थिति वाले अरुणवरावभासभद्र और अरुणवरावभासमहाभद्र नाम के दो महधिक देव-यावत्-वहाँ रहते हैं, शेष सब वर्णन पूर्ववत् है। पल्योपम की स्थिति वाले अरुणवरावभास और अरुणवरावभासमहावर नाम के दो महधिक देव - यावत् - वहाँ रहते हैं । शेष सब वर्णन पूर्ववत् है। ** Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र ८६७-८७४ तिर्यक् लोक : कुण्डलवराविद्वीप समुद्र गणितानुयोग ४१३ कुण्डलाइ दीव-समुद्दा कुण्डलवरादि द्वीप समुद कुण्डलाइ दीव-समुद्दाणं संखित्त परूवणं कुण्डलादि द्वीप-समुद्रों का संक्षिप्त प्ररूपण८६७. कुण्डले दीवे-कुण्डभई-कुण्डलमहाभद्दा एत्थ दो देवा महि- ८६७. पल्योपम की स्थिति वाले कुण्डलभद्र और कुण्डलमहाभद्र ड्ढीया-जाव-पलिओवमट्टितिया परिबसंति ।' नाम के दो महधिक देव-यावत्--कुण्डलद्वीप में रहते हैं । ८६८. कुण्डलोदे समुद्दे-चक्खु-सुभचक्खुकंता एत्थ दो देवा महि- ८६८. पल्योपम की स्थिति वाले चक्षु और शुभचक्षुकांत नाम के ड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठितिया परिवसंति। दो महधिक देव-यावत्--कुण्डलोद समुद्र में रहते हैं। ८६९. कुण्डलवरे दीवे-कुण्डलवरभद्द-कुण्डलवरमहाभद्दा एत्थ दो ८६६. पल्योपम की स्थिति वाले कुण्डलवरभद्र और कुण्डलवरदेवा महिडढीया-जाव-पलिओवमद्वितिया परिवसंति । महाभद्र नाम के दो महधिक देव-यावत्-कुण्डलवरद्वीप में रहते हैं। ८७०. कुण्डलवरोदे समुद्दे-कुण्डलवर-कुण्डलवरमहावरा एत्थ दो ८७०. पल्योपम की स्थिति वाले कुण्डलवर और कुण्डलवरमहावर देवा महिड्ढीया जाव-पलिओवमट्टितिया परिवसंति । नाम के दो महधिक देव-यावत्-कुण्डलवरोद समुद्र में रहते हैं। ८७१. कुण्डलवरावभासे दीवे-कुण्डलवरावभासभद्द-कुण्डलवराव- ८७१. पल्योपम की स्थिति वाले कुण्डलबरावभासभद्र और कुण्डल भासमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्टि- वरावभास महाभद्र नाम के दो महधिक देव-यावत् - कुण्डल. तिया परिवसंति ।५ वरावभास द्वीप में रहते हैं। ८७२. कुण्डलवरोभासोदे समुद्दे-कुण्डलवरोभासवर-कुण्डलवरो- ८७२. पल्योपम की स्थिति वाले कुण्डलवरोभासवर और कुण्डल भासमहावरा एत्थ दो देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठि- वरोभासमहावर नाम के दो महधिक देव-यावत्-कुण्डलवरतिया परिवसंति । भासोद समुद्र में रहते हैं। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८५ रुयगाइ-दीवसमुदाणं संखित्तपरूवणं रुचकादि द्वीप-समुद्रों का संक्षिप्त प्ररूपणरूयगदीवस्स संठाणं रुचकवरद्वीप का संस्थान८७३. कुण्डलवरोभासं णं समुई रुचगे णाम दीवे वट्ट वलयागार- ८७३. वृत्त वलयाकार संस्थान से स्थित रुचक नाम का द्वीप संठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति । कुण्डलवरभासोद समुद्र को चारों ओर से घेरे हुए स्थित है। प० रुचगे गं भंते ! दीवे किं समचक्कवालसंठाणसंठिए प्र.-हे भगवन् ! रुचकवरद्वीप समचक्रवाल संस्थान से विसमचक्कवालसंठाणसंठिए। स्थित है ? या विषम चक्रवाल संस्थान से स्थित है ? उ०-गोयमा ! समचक्कवालसं ठाणसंठिए, नो विसमचक्क- उ०-हे गौतम ! समचक्रवाल संस्थान से स्थित है; विषम वालसंठाणसंठिए। चक्रवाल संस्थान से स्थित नहीं है। -जीवा. पडि. ३, उ. २. सु. १८५ ख्यगवरदीवस्स विक्खंभ-परिक्खेवं रुचकवरद्वीप की चौड़ाई और परिधि८७४. ५०-रुचगे णं भंते ! दीवे केवतियं चक्कवालविक्खंभेमं ८७४. प्र०-हे भगवन् ! रुचकवरद्वीप का चक्रवाल विष्कम्भ केवतियं परिक्खेवेणं पण्णते ? और परिधि कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! संखेज्जाई जोयणसतसहस्साई विक्खंभेणं, उ.-हे गौतम ! संख्यात लाख योजन की चौड़ाई और संखेज्जाई जोयणसतसहस्साई परिक्खेवेणं पच्चत्ते । संख्यात लाख योजन की परिधि कही गई है। १-६ सम्वेसि विक्खंभ-परिक्खेवो जो इसाई पुक्खरोदसागर सरिसाई । -सूरिय० पा० १६, सु० १०१ २ ५०-तारुयए णं दीवे केवइयं समचक्कवालविक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं ? उ-ता असंखेज्जाई जोयण सहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं, असंखेज्जाई जोयण सहस्साई परिक्खेवेणं आहिए त्ति वएज्जा । -सूरिय. पा० १६, सु० १०१ यह आयाम विष्कम्भ की विभिन्नता संशोधन योग्य है। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कुण्डलवरादिद्वीप समुद्र सूत्र ८७४-८८२ दारा, दारंतरं पि सव्वं संखेज्जं भाणियव्वं । रुचकवरद्वीप के द्वार, द्वारों के अन्तर आदि का प्रमाण सभी संख्यात योजन के कहने चाहिए। सम्वट्ठ-मणोरमा एत्थ दो देवा महिड्ढिया-जाव-पलिओ- पल्योपम की स्थिति वाले सर्वार्थ और मनोरमा नाम के दो वमट्टिइया परिवसंति, महधिक देव-यावत्-वहाँ रहते हैं । सेसं सव्वं तहेवं । शेष सब पूर्ववत् है। -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८५ देवेसु रूयगवरदीवाणुपरियणसामत्थनिरूवणं- देवों में रुचकवरद्वीप की परिक्रमा करने के सामर्थ्य का निरूपण८७५. ५०-देवे णं भंते ! महिड्ढोए-जाव-महासोक्खे पभू स्यगवरं ८७५. प्र०-हे भगवन् ! महधिक-यावत्-महासुखी देव दीवं अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छित्तए? रुचकवरद्वीप की परिक्रमा करके शीघ्र आने में समर्थ है ? उ०-हंता गोयमा ! पभू। उ०-हाँ गौतम ! आने में समर्थ नहीं हैं। ते गं परं बीईवएज्जा नो चेव णं अणुपरियोज्जा। उससे आगे वह देव जा तो सकता है किन्तु परिक्रमा करके -भग० स० १८, उ०७, सु० ४७ शीघ्र आने में समर्थ नहीं है । ८७६. रूयगोदेणामं समुद्दे जहा खोदोदे समुद्दे', ८७६ रुचकोदसमुद्र क्षोतोदसमुद्र के समान है। अट्टो वि जहेव । उसके नाम का हेतु भी उसी प्रकार है। सुमण-सोमणसा एत्थ दो देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओव- पल्योपम की स्थिति वाले सुमन और सोमनस नाम के दो मट्ठिइया परिवसंति। महधिक देव-यावत्-वहाँ रहते हैं। रूयगाओ आढत्तं सव्वं असंखेज भाणियव्वं । रुचकवरद्वीप और उससे आगे के सभी द्वीप समुद्र असंख्य योजन के प्रमाण वाले कहने चाहिए। ८७७. रुयगोदण्णं समुद्द रुयगवरे णं दीवे वट्ट वलयागारसंठाण- ८७७. वृत्त और वलयाकार संस्थान से स्थित रुचकवरद्वीप रुचसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति', कोदसमुद्र को चारों ओर से घेरे हुए स्थित है। रुयगवरभद्द-रुयगवरमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिड्ढीया पल्योपम की स्थिति वाले रुचकवरभद्र और रुचकवरमहा-जाव-पलिओवमट्ठिइया परिवसंति । भद्र नाम के दो महधिक देव-यावत्-वहाँ रहते हैं। ८७८. रुयगवरोदे समुद्द-रुयगवर-रुयगवरमहावरा एत्य दो देवा ८७८. पल्पोपम की स्थिति वाले रुचकवर और रुचकवर महावर महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठिइया परिवसंति, ___नाम के दो महधिक देव-यावत्-रुचकवरोद समुद्र में रहते हैं। ८७६. रुयगवरावभासे दीबे-रुयगवरावभासई-रुयगवरावभासमहा- ८७६. पल्योपम की स्थिति वाले रुचकवरावभासभद्र और रुचक भद्दा एत्थ दो देवा महिड्ढीयाजाव-पलिओवमट्ठिइया परि- वरावभासमहाभद्र नाम वाले दो महधिक देव-यावत्-रुचकवसंति, वरावभासद्वीप में रहते हैं। ८८०. रुयगवरावभासे समुद्दे-रुयगवरावभासवर-रुयगवरावभास- ८८०. पल्योपम की स्थिति वाले रुचकवरावभासवर और रुचक महावरा एत्थ दो देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठिया वरावभास महावर नाम वाले दो महधिक देव-यावत्-रुचकपरिवसंति५, -जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८५ वरावभास समुद्र में रहते हैं। हाराइदीव-समुद्दाणं संखित्त-परूवणं हारादि द्वीप-समुद्रों का संक्षिप्त प्ररूपण८५१. हारद्दीवे-हारभद्द-हारमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिड्ढीया ८८१. पल्पोपम की स्थिति वाले हारभद्र और हारमहाभद्र नाम -जाव-पलिओवमट्ठिया परिवसंति । वाले दो महधिक देव-यावत्-हारद्वीप में रहते हैं। ८८२. हारसमुद्दे--हारवर-हारवरमहावरा एत्थ दो देवा महिड्ढीया ८८२. पल्योपम को स्थिति वाले हारवर और हारवरमहावर ' -जाव-पलिओवमट्टिइया परिवसंति । नाम वाले दो महधिक देव-यावत्-हारसमुद्र में रहते हैं। १ सूरिय० पा० १६, सु० १०१ । २-५ सूरिय० पा० १६, सु. १०१ । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८८३-८६२ तिर्यक् लोक : कुण्डलवरद्वीप समुद्र गणितानुयोग ४१५ ८८३. हारवरेदीवे-हारवरभद्द-हारवरमहाभद्दा एत्थ दो देवा ८८३. पल्योपम की स्थिति वाले हारवरभद्र और हारवरमहाभद्र महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठिइया परि वसंति । नाम वाले दो महधिक देव-यावत्-हारवरद्वीप में रहते हैं। ८८४. हारवरोदे समुद्दे-हारवर-हारवरमहावरा एत्थ दो देवा ८८४. पल्योपम की स्थिति वाले हारवर और हारवरमहावर नाम महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठिइया परिवसंति । वाले दो महधिक देव-यावत् -हारवरोद समुद्र में रहते हैं । ८८५. हारवरावभासे दीवे-हारवरावभासभद्द-हारवरावभासमहाभद्दा ८८५. पल्योपम की स्थिति वाले हारवरावभासभद्र और हारTथ दो देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठिया परिवसंति। वरावभासमहाभद्र नाम वाले दो महधिक देव-यावत्-हार वरावभासद्वीप में रहते हैं। ८८६. हारवरावभासोदे समुद्दे- हारवराभासवर-हारवरावभास- ८८६. पल्योपम की स्थिति वाले हारवरावभासवर और हार महावरा एत्थ दो देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठिइया वरावभासमहावर नाम वाले दो महधिक देव-यावत्-हार परिवसंति। -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८५ वरावभासोद समुद्र में रहते हैं । ८८७. एवं सब्वे वि तिपडोयारा णेयवा-जाव-सूरवरभामोद समुद्दे, ८८७. इस प्रकार सभी द्वीप-समुद्र सूरवरभासोद समुद्र पर्यन्त -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८५ तीन तीन पदों के अवतरण वाले जानने चाहिए । देवाइ दीव-समुदाणं संखित्तपरूवणं देवादि द्वीप-समुद्रों की संक्षिप्त प्ररूपणा८८८. ता सरवरो भासोदण्णं समुद्द देवे णामं दीवे वट्ट वलया- ८८८. देव नामक द्वीप वृत्त वलयाकार संस्थान स्थित वह स्य गार संठाणसंठिए, सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठइ-जाव- वरभासोद समुद्र को चारों ओर से घेरकर स्थित है-यावतनो विसमचक्कवालसंठिए। विषम चक्रवाल के आकार वाला नहीं है। 10--तो देवे गं भंते ! दीवे केवइयं चक्कवालविक्खंभेणं प्र०-हे भदन्त ! देवद्वीप की चक्रवाल चौड़ाई और परिधि केवइयं परिक्खेवेणं आहिए त्ति वएज्जा? कितनी कही गई है ? उ.-गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई चक्कवाल- उ०-हे गौतम ! असंख्य हजार योजन की चक्रवाल चौड़ाई विक्खंभेणं, असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं है और असंख्य हजार योजन की परिधि कही गई है। आहिए त्ति वएज्जा ।-सूरिय० पा० १६, सु० १०१ देवदीवे - देवभट्ट-देवमहाभद्दा एत्थ दो देवा महिड्ढीया-जाव- ८८६. पल्योपम की स्थिति वाले देवभद्र और देवमहाभद्र नाम पलिओवमट्ठिया परिवसंति । वाले दो महधिक देव-यावत्-देवद्वीप में रहते हैं । १०. देवोदे समदेववर देवमहावरा एत्थ दो देवा महिड्ढीया ८६०. पल्योपम की स्थिति वाले देववर और देवमहावर नाम -जाव-पलिओवमट्ठिया परिवसंति । वाले दो महधिक देव-यावत्-देवोद समुद्र में रहते हैं । ८६१. सयभरमणे दीवे-सयंभूरमणभद्द-सयंभूरमणमहाभद्दा एत्थ ८६१. पल्योपम की स्थिति वाले स्वयम्भूरमणभद्र और स्वयम्भरदो देवा महिड्ढीया-जाव-पलिओवमट्ठिइया परिवसंति । मणमहाभद्र नाम वाले दो महधिक देव-यावत्-स्वयम्भरमण -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८५ द्वीप में रहते हैं। सव्वदीव-समुदाणं संखित्त वियारणा- सर्व द्वीप-समुद्रों की संक्षिप्त विचारणा८१२. "दीवेस भद्दनामा, वरनामा होंति उदहीसु"-जाव-पच्छिम ८६२. विश्व में जितने शुभ नाम हैं उन सब नाम वाले इस .. भावं च । तिर्यकलोक में द्वीप हैं। उन सब नामों के साथ 'वर' संयुक्त करने पर समुद्रों के नाम होते हैं । खोतवरादीसु सयंभूरमणपज्जतेसु बावीओ खोओदगपडि- क्षोतवर आदि द्वीपों से लेकर स्वयम्भूरमणद्वीप पर्यन्त सब हत्थाओ, द्वीपों में इक्षुरस जैसे जल से भरी हुई वापिकायें हैं। पव्वयगा सव्व वइरामया । उन वापिकाओं में सभी पर्वत बनमय हैं। -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८५ १ १. सूरे दीवे, सूरोदे समु दे, २. सूरवरे दीवे, सूरवरोदे समुद्दे, ३. सूरवर भामे दीवे, सूरवरभासोदे समुद्दे, सवेसि विक्खंभ-परिक्खेव जोइसाइ रूयगवरदीवसरिसाइ। -सूरिय० पा० १६, सु०१०१.. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : कुण्डलवरद्वीप समुद्र सूत्र ८६३-८९७ सयंभूरमण समुदरस संठाणं-- स्वयम्भूरमण समुद्र का संस्थान८६३. सयंभूरमणण्णं दीवं सयंभूरमणोदे णामं समुद्दे वट्ट वलया- ८६३. बृत्त वलयाकार संस्थान से स्थित स्वयम्भूरमणोद नाम का गारसंठाणसंठिए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठति। समुद्र स्वयंभूरमणद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए स्थित है । तहेव समचक्कवालसं ठाणसंठिए । वह समचक्रवाल संस्थान से पूर्ववत् स्थित है। विक्खंभ-परिक्खेवो असंखेज्जाई जोयणसतसहस्साई, उसकी चौड़ाई और परिधि असंख्यात लाख योजन की है। दारा, दारंतरं, पउमवरवेइया, वणसंडे, पएसा जीवा, स्वयंभूरमण समुद्र के द्वार, द्वारों का अन्तर, पद्मवरवेदिका वनखण्ड, द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का परस्पर स्पर्श, द्वीप और समुद्र के जीवों को एक दूसरे में उत्पत्ति । सव्वं तहेव। -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८५ शेष सब पूर्ववत् है। सयंभूरमणसमुदस्स णामहेऊ स्वयम्भूरमणसमुद्र के नाम का हेतु८६४. ५०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-सयंभूरमणोदे समुद्दे, ८६४. हे भगवन् ! किस कारण से 'स्वयम्भूरमणोद समुद्र' स्वयसयंभूरमणोदे समुद्दे ? म्भूरमणोद समुद्र कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! सयंभूरमणोदए उदए अच्छे पत्थे जच्चे तणुए हे गौतम ! स्वयम्भूरमणोद समुद्र का उदक स्वच्छ, पथ्य, फलिहवण्णाभे पगतीए उदगरसेणं पण्णत्ते । पिण्णत्त। शुद्ध, लघु, स्फटिकवर्ण सदृश, स्वाभाविक उदक रस जैसा कहा गया है। सयंभूरमणवर-सयंभूरमणमहावरा एत्थ दो महिढीया पल्योपम की स्थिति वाले स्वयम्भूरमणवर और स्वयम्भूर-जाव-पलिओवमट्टिइया परिवसंति, मणमहावर नाम वाले दो महधिक देव-यावत्-वहाँ रहते हैं। सेस सव्वं तहेव । शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिए। -जीवा० पडि० ३, उ०२, सु०१८५ दीव-समुदाणं संखा द्वीप-समुद्रों की संख्या८६५. ५०-केवइया णं भंते ! जंबुद्दीवा दीवा णामधेज्जेहि ८६५. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नाम वाले द्वीप (मध्यलोक पण्णत्ता? में) कितने कहे गए हैं ? उ०-गोयमा ! असंज्जा जंबुद्दीवा दीवा गामधेज्जेहिं उ०-हे गौतम ! जम्बूद्वीप नाम वाले द्वीप असंख्य कहे पण्णत्ता। गये हैं। ८६६. ५०-केवइया णं भते ! लवणसमुद्दा समुद्दा नामधेज्जेहिं ८६६. प्र०-हे गौतम ! लवणसमुद्र नाम वाले समुद्र (मध्यलोक पण्णता? में) कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! असंखेज्जा लवणसमुद्दा समुद्दा णामधेज्जेहि उ०-हे गौतम ! लवणसमुद्र नाम वाले समुद्र असंख्य कहे पण्णत्ता। गये हैं। एवं धाय इसडा वि-जाव-असंखेज्जा सूरदीवा णाम- इसी प्रकार धातकीखण्ड-यावत्-सूर्यद्वीप नाम वाले द्वीप धेज्जेहिं य । असंख्य कहे गये हैं। एए दीवा समुदा एगेगा ये द्वीप-समुद्र एक एक हैं८६७. १. एगे देवे दीवे, २. एगे देवोदे समुद्दे, ८६७. (१) एक देव द्वीप, (२) एक देवोद समुद्र, ३. एगे नागे दीवे, ४. एगे नागोदे समुद्दे, (३) एक नाग द्वीप, (४) एक नागोद समुद्र, ५. एगे जक्खे दीवे, ६. एगे जक्खोदे समुद्दे, (५) एक यक्ष द्वीप, (६) एक यक्षोद समुद्र, ७. एगे भूते दोवे, ८. एगे भूतोदे समुद्दे, (७) एक भूत द्वीप, (८) एक भूतोद समुद्र, ६. एगे सयंभूरमणे दीवे, १०. एगे सयंभूरमणेसमुद्दे,' (९) एक स्वयम्भूरमण द्वीप, (१०) एक स्वयम्भूरमण समुद्र नामधेज्जेणं पण्णत्ते । नाम वाला कहा गया है। - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८६ १ सव्वेसि विक्खंभ परिक्खेव जोइसाई देवदीव सरिसाइ। -सूरिय० पा० १६, सु० १०१ २. एवं दशाप्येते एकाकारा वक्तव्याः । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र८९८-९०३ तिर्यक् लोक : द्वीपसमुद्र प्रमाण गणितानुयोग ४१७ पत्तेगरसाणं उदगरसाणं च समुद्दाणं संखा- प्रत्येकरस और उदकरस समुद्रों की संख्या८९८.५०-कति णं भंते ! समुद्दा पत्तेगरसा पण्णता? ८६८. प्र०-हे भगवन् ! प्रत्येकरस समुद्र कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! चत्तारि समुद्दा पत्तैगरसा' पण्णत्ता, उ०-हे गौतम ! चार समुद्र प्रत्येकरस वाले कहे गये हैं तं जहा-लवणे, वरुणोदे, खीरोदे, घयोदे । ___ यथा-(१) लवणसमुद्र, (२) वरुणोदसमुद्र, (३) क्षीरोदसमुद्र, (४) घृतोदसमुद्र। ८६६. ५०-कति णं भंते ! समुद्दा पगतीए उदगरसे णं पण्णत्ता? ८६६. प्र०-हे भगवन् ! स्वाभाविक जल जैसे जल वाले समुद्र कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! तओ समुद्दा पगतीए उदगरसेणं पण्णत्ता, उ०-हे गौतम ! तीन समुद्र स्वाभाविक जल जैसे जल तं जहा-कालोए, पुक्ख रोए, सयंभूरमणे । वाले कहे गये हैं यथा-(१) कालोद समुद्र, (२) पुष्करोद समुद्र, (३) स्वयम्भूरमण समुद्र । अवसेसा समुद्दा उस्सण्णं खोतरसा पण्णत्ता समणाउसो! हे आयुष्मन् श्रमण ! शेष सभी समुद्र प्रायः क्षोतोदरस -जीवा० पडि० ३ उ० २, सु० १८७ (ईक्ष रस) जैसे जल वाले कहे गये हैं । दीव-समुद्दाणं पमाणं द्वीप-समुद्रों का प्रमाण९००. ५०- केवतिया णं भंते ! दीव-समुद्दा नामधेजेहिं पण्णत्ता? ६००. प्र०-हे भगवन् ! नाम वाले द्वीप-समुद्र कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! जावतिया लोगे सुभा णामा, सुभा वण्णा, उ०-हे गौतम ! इस लोक में जितने शुभ नाम हैं, शुभवर्ण - सुभा गंधा, सुभा रसा, सुभा फासा, एवतियाणं दीव- हैं, शुभ गंध हैं, शुभ रस हैं, और शुभ स्पर्श हैं, इतने नाम वाले समुद्दा णामधेजेंहिं पण्णत्ता । द्वीप-समुद्र कहे गये हैं। ६०१. प०-केवतिया णं भंते ! दीव-समुद्दा उद्धार-समएणं पण्णत्ता? ६०१. प्र०-हे भगवन् ! उद्धार समय की अपेक्षा से कितने द्वीप ___समुद्र कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! जावतिया अडढाइज्जाण सागरोवमाणं उ०-हे गौतम ! अढाई द्वीप सागर के जितने उद्धार समय उद्धारसमया, एवतिया दीव-समुद्दा उद्धार-समएणं होते हैं, उतने द्वीप-समुद्र उद्धार समय की अपेक्षा से कहे गये हैं। पण्णत्ता', -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८६ दीव-समुद्दाणं परिणमनपरूवणं द्वीप-समुद्रों का परिणमन प्ररूपण६०२. ५०-दीव-समुद्दा णं भंते ! किं पुढविपरिणामा, आउपरि- ९०२. प्र०-हे भगवन् ! द्वीप-समुद्र क्या पृथ्वी के परिणाम हैं, णामा, जीवपरिणामा, पुग्गलपरिणामा ? जल के परिणाम हैं. जीव के परिणाम हैं, या पुद्गल के परि णाम हैं ? उ०-गोयमा ! पुढविपरिणामा वि, आउपरिणामा वि, उ०-हे गौतम ! पृथ्वी, जल, जीव और पुद्गल के परिजीवपरिणामा वि, पुग्गलपरिणामा वि, णाम हैं। -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १६०१ दीवोदहीण फुसणा द्वीप और समुद्रों का स्पर्श६०३. ५०-जंबुद्दीवे णं भते ! दीव किण्णा फुडे ? ६०३. प्र०--हे भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप किससे स्पृष्ट है ? १ यहाँ 'प्रत्येकरस' का अर्थ है असाधारण रस अर्थात् विशिष्ट रस । २ यावन्तोऽद्ध तृतीयानामुद्धारसागराणां उद्धारसमया-एककेन सूक्ष्मबालाग्रापहारसमया एतावन्तो द्वीप-समुद्रा उद्धारेण प्रज्ञप्ताः । उक्तं च गाहाउद्धारसागराणं, अड्ढा इज्जाण जत्तिया समया । दुगुणा दुगुण पवित्थर दीवोदहि रज्जु एवइया । ३ द्वीपों और समुद्रों की रचना पृथ्वी, जल, जीव और पुद्गलों से हुई है । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : द्वीपसमुद्र प्रमाण सूत्र ९०३-९०४ कतिहिं वा काहि फुडे ? कितनी कायों से स्पृष्ट है ? किं धम्मत्थिकाएणं-जाव-आगासत्थिकाएणं फुडे ? क्या धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है ?-यावत्-क्या आकास्ति काय से स्पृष्ट है ? एएणं भेदेणं-जाव-किं पुढविकाइएणं, फुडे-जाव-तसकाएणं क्या पृथ्वीकाय से स्पृष्ट हैं-यावत्-क्या त्रसकाय से स्पृष्ट है ? अद्धासमएणं फुडे ? अद्धा समय से स्पृष्ट है ? उ०-गोयमा ! णो धम्मत्थिकाएणं फुडे, उ० हे गौतम ! धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है। धम्मत्थिकायस्स देसेणं फुडे, धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है । धम्मत्थिकायस्स पएसेहिं फुडे । धर्मास्तिकाय के प्रदेश से स्पृष्ट है । एवं अधम्मत्थिकायस्स वि, आगासत्थिकायस्स वि । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय से भी स्पृष्ट नहीं है । (किन्तु इनके देश-प्रदेश से स्पृष्ट है।) पुढविकाइएणं फुडे-जाव-वणप्फइकाइएणं फुडे । पृथ्वीकाय से स्पृष्ट है-यावत्-वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है । तसकाएणं सियफुडे, सिय नो फुडे, त्रसकाय से कभी स्पृष्ट है कभी स्पृष्ट नहीं है। अद्धासमएणं फुडे । अद्धासमय से स्पृष्ट है । २०४. एवं लवणसमुद्दे, धायइसंडेदीवे, कालोए समुद्दे, अभितर ६०४. इसी प्रकार लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदसमुद्र, पुक्खरद्ध। आभ्यन्तर पुष्कराई है। बाहिरपुक्खरद्ध एवं चेव, बाह्यपुष्कराध भी इसी प्रकार है। णवरं-अद्धासमएणं णो फुडे, विशेष-बाह्यपुष्करार्ध अद्धासमय से स्पृष्ट नहीं है । एवं-जाव-सयंभूरमणे समुद्दे । इसी प्रकार-यावत-स्वयम्भूरमण समुद्र भी अद्धासमय से स्पृष्ट नहीं है। एसा परिवाडी इमाहिं गाहाहिं अणुगंतव्वा, तं जहा- यह क्रम इन गाथाओं में जानना चाहिए यथाजंबुद्दीवे लवणे, धायइ कालोए पुक्खरे वरुणे । जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदसमुद्र, पुष्करवर द्वीप, वरुणद्वीप । खीर घत खोत नंदि य, अरुणवरे कुण्डले रुयए ।।१।। क्षीर, घृत, क्षोत = इक्षुरस, नन्दी, अरुणवर, कुण्डल, और रुचक ॥१॥ आभरण-वत्थ-गंधे, उप्पल-तिलए य पुढवि-णिहि-रयणे। आभरण, वस्त्र, गंध, उत्पल, तिलक, पृथ्वी, निधिरत्न, वासहर-दह-नदीओ, विजया-वक्खार-कप्पिदा ॥२॥ वर्षधर, ब्रह, नदियाँ, विजय, वक्षस्कार कल्पेन्द्र ॥२॥ कुरु-मंदर-आवासा, कूडा णक्खत्त-चंद-सूरा य । कुरु, मन्दर, आवासपर्वत, कूट, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, देव, देवे णागे जक्खे, भूए य सयंभूरमणे य ॥३॥ नाग, यक्ष, भूत, स्वयम्भूरमण ॥३॥ (इन नाम वाले द्वीप-समुद्र इस मध्यलोक में है) यह कथन सम्पूर्ण जम्बूद्वीप की अपेक्षा से है। सूक्ष्म पृथ्वीकाय-यावत -सूक्ष्म वनस्पतिकाय के समान त्रसकाय के सूक्ष्म न होने से सर्वत्र व्याप्त नहीं है। अतएव जम्बूद्वीप त्रसकाय से कभी स्पष्ट नहीं है' यह कथन संगत है । केवली त्रस हैं-केवल समुद्घात के समय उनके आत्म-प्रदेशों से सम्पूर्ण लोक के समान सम्पूर्ण जम्बूद्वीप भी त्रसकाय से स्पृष्ट है । अत: यह कथन भी संगत है। २ जीवा. पडि. ३, २, सु. १६६ । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६०४-६०५ तिर्यक् लोक : पृथ्वी प्रकम्पन वर्णन गणितानुयोग ४१६ एवं जहा बाहिरपुक्खरद्ध भणितं तहा-जाव-सयंभूरमणे जिस प्रकार बाह्य पुष्कराध के सम्बन्ध में कहा-उसी समुद्दे-जाव-अद्धासमएणं णो फुडे ।। प्रकार-यावत् –स्वयम्भूरमण समुद्र-यावत्-अद्धा समय से -पण्ण० प० १५, उ० १, सु० १००३(१)(२) स्पृष्ट नहीं है । पुढवीपकंपण-परूवर्ण पृथ्वी-कम्पन का प्ररूपण९०५. तिहि ठाणेहि देसे पुढवीए चलेज्जा, तं जहा ६०५. तीन कारणों से पृथ्वी का एक देस (भाग) चलायमान होता है । यथा१. अहे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उराला (१) इस रत्नप्रभा पृथ्वी के स्थूल पुद्गल अलग हों, उन पोग्गला णिवतेज्जा, तते णं उराला पोग्गला णिवतमाणा स्थूल पुद्गलों के अलग होने पर पृथ्वी का एक देस =भाग देसं पुढवीए चलेज्जा, चलायमान होता है। महोरगे वा महिड्ढीए-जाव-महासोक्खे इमीसे रयणप्पभाए (२) कोई महोरगव्यन्तरदेव जो महधिक-यावत - पुढवीए अहे उम्मज्जण-णिमज्जणं करेमाणे देसं पुढवीए महासुखी हो, वह इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे उत्पतन या निपतन चलेज्जा , करे तो पृथ्वी का एक भाग चलायमान होता है। णाग-सुवण्णाण वा संगामंसि वट्टमाणंसि देसं पुढवीए (३) नागकुमारों और सुपर्णकुमारों का संग्राम होने पर चलेज्जा। पृथ्वी का एक भाग चलायमान होता है । इच्चएहि तिहि ठाणेहि देसे पुढवीए चलेज्जा, __इन तीन कारणों से पृथ्वी का एक भाग चलायमान होता है। तिहि ठाणेहि केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा, तीन कारणों से सम्पूर्ण पृथ्वी चलायमान होती है। तं जहा-१. इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए गुप्पेज्जा, यथा-(१) इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे धनवात क्षुब्ध हो, तए णं से घणवाए गुविए समाणे घणोदहिमेएज्जा, तए णं क्षुब्ध हुआ धनवात घनोदधि को कम्पित करता है और कम्पित से घणोदही एइए समाणे केवलकप्पं पुढवि चलेज्जा, हुआ घनोदधि सम्पूर्ण पृथ्वी को चलायमान करता है। देवे वा महिड्ढीए-जाव-महासोक्खे तहारूवस्स समणस्स (२) कोई महधिक-यावत -महासुखी देव तथारूप श्रमणमाहणस्स वा इड्ढि जुई, जसं, बलं, वोरियं पुरिसक्कार- माहण को अपनी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य एवं पुरुषाकार, परक्कम उवदंसेमाणे केवलकप्पं पुढवि चलेज्जा, प्रदर्शित करता हूआ सम्पूर्ण पृथ्वी को चलायमान करता है। देवासुरसंगामंसि वा वट्टमाणंसि केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा। (३) देवों और असुरों का संग्राम होने पर सम्पूर्ण पृथ्वी चलायमान होती है। इच्चेएहि तिहि ठाणेहि केवलकप्पा पुढवी चलेज्जा, इन तीन कारणों से सम्पूर्ण पृथ्वी चलायमान होती है। -ठाणं अ० ३, उ० ४, सु० १८६ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन सूत्र ६०६ वाणमंतरा देवा वाणव्यंतर देव वाणमंतर देवठाणाइ वाणव्यन्तर देवों के स्थान१०६. ५० १-कहि णं भंते ! वाणमंतराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्ज- १०६. प्र०-(१) हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर त्ताणं ठाणा पण्णता? देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? २–कहि णं भंते ! वाणमंतरा देवा परिवसंति ? (२) हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देव कहाँ रहते हैं ? उ० १–गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स उ०-(१) हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सहस्र योजन कंडस्स जोयणसहस्स बाहल्लस्स, विस्तीर्ण रत्नमय काण्डरूप पृथ्वीपिण्ड केउरि एगं जोयणसयं ओगाहित्ता, ऊपर से सौ योजन अवगाहन करने पर और हेट्ठा वि एगं जोयणसयं वज्जेता, सो योजन नीचे के भाग को छोड़कर, मजा असु जोयणसएसु, एत्थ णं वाणमंतराणं मध्य के आठ सौ योजन में तिरछे वाणव्यन्तर देवों के देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जणगरावाससतसहस्सा असंख्य लाख भौमेय नगरावास हैं-ऐसा कहा गया है। भवंतीतिमक्खातं । ते णं भोमेज्जा णगरा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा ये भौमेय नगर बाहर से गोल अन्दर से चौकोर-यावत-जाव-पडागमालाउलाभिरामा, सव्वरयणामया अच्छा पताकाओं की श्रेणी से व्याप्त और मनोहर हैं, वे सब रत्नमय हैं -जाव-पडिरूवा-एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं पज्ज- स्वच्छ हैं-यावत्-प्रतिरूप हैं। यहाँ पर्याप्त तथा अपर्याप्त ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। वाणव्यन्तर देवों के स्थान कहे गये हैं। २-तिसु वि लोगस्स असंखेज्ज इभागे-तत्थ णं बहवे (२) इनका उपपात समुद्घात और स्वस्थान-ये तीनों ही वाणमंतरा देवा परिवसंति, तं जहा-१. पिसाया, लोक के असंख्यातवें भाग में हैं-वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव २. भूया, ३. जक्खा , ४. रक्खया, ५. किन्नरा, ६. रहते हैं यथा-(१) पिशाच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस, किरिसा, ७. भुयगवइणो य महाकाया, ८. गंधव्व- (५) किन्नर, (६) किंपुरुष, (७) भुजगपति महाकाय महोरग, गणा य निउणगंधवगीतरइणो,' (८) गन्धवों के निपुण गायन में प्रीति रखने वाले गन्धर्व गण । १. अणवणिय, २. पणवण्णिय, ३. इसिवाइय, (१) अणपन्निक, (२) पणपन्निक, (३) रिपिवादिक (४) ४. भूयवाइय ५. कंदिय, ६. महाकंदिया य, ७. कुहंड, भूतवादिक, (५) कंदित, (६) महाकदित, (७) कहंड, (क) ८. पयंगदेवा। पतंगदेव । चंचलचलचवलचित्तकोलण-दवप्पिया, गहिरहसिय- ये सब चंचल और अत्यन्त चपल चित्त वाले हैं इन्हें क्रीडा गीय-णच्चणरई, वणमाला-मेल-मउल-कुण्डल-सच्छंद- एवं हास्य प्रिय है, गीत और नृत्य में इनकी अधिक रुचि है, विउव्वियाभरणचारुभूसणधरा, सव्वोउयसुरभि कुसुम वनमालाओं से सजे हुए मुकुट तथा कुण्डल और स्वेच्छा से सरइय पलंबसोहंतकंतवियसंतचित्त-वणमालरइयवच्छा, (वैक्रियशक्ति द्वारा) बनाये हुए आभरण एवं सुन्दर भूषण धारण कामकामा, करने वाले हैं, इनके वक्षस्थल पर सभी ऋतुओं के सुगन्धित विकसित पुष्पों से सुशोभित अनेक प्रकार की विचित्र वनमालायें हैं, ये स्वेच्छा से गमन करने वाले हैं, अपनी इच्छाओं के अनुरूप --सम. ८००, स. १११ १ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमे कंडे अट्ठसु जोयणसासु वाणमंतर भोमेज्ज विहारा पण्णत्ता। २ सम० १५०/सु० ३ । ३ (क) ठाणं ८, सु. ६५४ । (ख) उत्त. अ. ३६, गा. २०७ । (ग) भग. स. ५ उ.६, सु. १७ । (घ) मग. स.८, उ. १, सु. १४ । (ङ) पण्ण. प. १, स .१४१ क्रम भिन्न है । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र९०६-६०८ तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन गणितानुयोग ४२१ कामरूवदेहधारी, णाणाविह वण्णरागवर- देह धारण करने वाले हैं विविध वर्ण के विचित्र चमकते हुए वत्थचित्त-चिल्लगणियंसणा, विविहदेसिणेच्छगहियवेसा, श्रेष्ठ वस्त्र पहनने वाले हैं, नाना देशों के नेपथ्य वेशभूषा धारण पमुडयकंदप्प-कलह-केलि-कोलाहलप्पिया, हासबोल- करने वाले हैं, कंदर्प क्रीडा से ये प्रमुदित रहते हैं। कलह-क्रीड़ा बहला, असि-मोग्गर-सत्तिकोंतहत्था, अणेगमणिरयण- और कोलाहल इन्हें प्रिय है, ये स्वयं भी अत्यधिक हास्य और विविहणिजुत्तविचितचिंधगया, सुरुवा-जाव-पभासे- कोलाहल करने वाले हैं। इनके हाथों में तलवार, मुद्गर शक्ति माणा। और भाले रहते हैं इनके चिह्न विविध मणिरत्नों से युक्त है सुरूप है-यावत् -प्रभासित करते हैं। ते गं तत्थ साणं साणं भोमेज्जणगरावास सत- वे अपने अपने असंख्यात लाख भौमेय नगरावासों का, सहस्साणं, साणं साणं सामाणिय साहस्सीण, साणं हजारों सामाजिक देवों का, अग्रमहिषियों का, परिषदाओं का, साणं अग्गमहिसोणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साणं सेनाओं का, सेनापतियों का, हजारों आत्मरक्षक देवों का और अणियाणं, साणं साणं आणियाहिवईणं साणं साणं आय- अन्य अनेक वाणव्यन्तर देव देवियों का आधिपत्य करते हएरक्खदेवसाहस्सीणं अणेस च बहूणं वाणमंतराणं यावत्-रहते हैं। देवाण य देवीण य आहेबच्च-जाव-विहरति ।' -पण्ण. प.२, .१८८ पिसायवाणमंतरदेवठाणाई 'पिशाच' वाणव्यन्तर देवों के स्थान१०७. प०१-कहिणं भंते ! पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं १०७. प्र०-(१) हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त पिशाच ठाणा पण्णत्ता? देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? २--कहि णं भंते ! पिसाया देवा परिवसंति ? (२) हे भगवन् ! पिशाच देव कहाँ रहते हैं ? उ० १-गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स उ०-(१) हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सहस्र योजन कंडस्स जोयणसहस्स बाहल्लस्स, विस्तीर्ण रत्नमय काण्डरूप पृथ्वीपिण्ड के, उरि एग जोयणसतं ओगाहित्ता, ऊपर से सौ योजन अवगाहन करने पर, हेट्ठा वेगं जोयणसतं वज्जेत्ता, और सौ योजन नीचे के भाग को छोड़कर, मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु-एत्थ णं पिसायाणं मध्य के आठ सौ योजन में तिरछे पिशाच देवों के असंख्यात देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जणगरावाससतसहस्सा लाख भौमेय नगरावास हैं। भवंतीति मक्खातं । ते णं भोमेज्जणगरा बाहि वट्टा जहा ओहिओ ये भोमेय नगरावास बाहर से वृत्ताकार हैं, अन्दर से चतुष्कोण भवणवण्णओ (स० १७७) तहा भाणियब्वो-जाव- हैं-इत्यादि सामान्य भवन वर्णन के समान कहना चाहिएपडिरूवा-एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्ज- यावत् - नित्य नये दिखाई देने वाले हैं। इन भवनों में पर्याप्त ताणं ठाणा पण्णत्ता। तथा अपर्याप्त पिशाच देवों के स्थान कहे गये हैं। २-तिस वि लोगस्स असंखेज्जइभागे । तत्थ णं बहवे (२) (इनका उपपात समुद्घात और स्वस्थान) ये तीनों ही पिसाया देवा परिवसंति । महिडिया जहा ओहिया लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ अनेक पिशाच देव रहते -जाव-विहरंति । हैं। वे महधिक हैं शेष सामान्य वर्णन के समान है-यावत्-पण्ण. प. २, सु. १८६(१) दिव्य भोग भोगते हुए रहते हैं। पिसायदेवइंदा पिशाच देवेन्द्र-- १०८. काल-महाकाला यऽत्थ दुबे पिसायइंदा पिसायरायाणो परि- ९०८. यहाँ (१) काल (२) महाकाल नाम के दो पिशाच राज वसंति । महड्ढिया महज्जुइया-जाव-विहरंति', . -पिशाचेन्द्र रहते हैं । वे महधिक हैं, महाति वाले हैं-यावत् -पण्ण. प. २, सु. १८६(२) दिव्य भोग भोगते हुए रहते हैं। १ जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० १२१ । २ (क) ठाणं अ. २, उ. ३, सु. ६४, (ख) जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. १२१ । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन सूत्र ६०६-६११ दाहिणिल्लपिसायदेवठाणाइं दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान१०६. प० १–कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं ६०६. प्र०-(१) हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दक्षिण के पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? पिशाच देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? २-कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परि- (२) हे भगवन् ! दक्षिण के पिशाच देव कहाँ रहते हैं ? वसंति ? उ० १-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं उ०-(१) हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स से दक्षिण में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सहस्र योजन विस्तीर्ण रत्नजोयणसहस्सबाहल्लस्स। मय काण्डरूप पृथ्वी पिण्ड के, उरि एग जोयणसतं ओगाहेत्ता, ऊपर से सौ योजन अवगाहन करने पर, हेट्ठा वेगं जोयणसतं वज्जेत्ता, और सौ योजन नीचे के भाग को छोड़कर, मझे अट्ठसु जोयणसएसु-एत्थ णं दाहिणिल्लाणं मध्य के आठ सौ योजन में तिरछे दक्षिण के पिशाच देवों के पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जनगरावास- असंख्येय लाख भौमेयनगरावास हैं-ऐसा कहा गया है। सयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं ।। ते णं भोमेज्ज-णगरा बाहिं वट्टा, जहा ओहिओ (१) ये भौमेयनगर बाहर से वृत्ताकार हैं--सामान्य भवन भवणवण्णो तहा भाणियन्वो-जाव-पडिरूवा। वर्णन जिस प्रकार है उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए-यावत् नित्य नये दिखाई देने वाले हैं। एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्ज- यहाँ पर्याप्त तथा अपर्याप्त दक्षिण के पिशाच देवों के स्थान ताणं ठाणा पणत्ता। कहे गये हैं। २-तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे-तत्थ णं बहवे (२) इन देवों के [उपपात समुद्घात और स्वस्थान]-ये तीनों दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति । महिड्ढिया ही लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ पर अनेक दक्षिण के जहा ओहिया-जाब-विहरंति ।' पिशाच देव रहते हैं। वे महधिक हैं-सामान्य वर्णन के समान -पण्ण. प. २, सु. १६०(१) -यावत्-रहते हैं। दाहिणिल्लपिसायइंदस्स "कालस्स" वण्णणं- दाक्षिणात्य पिशाचेन्द्र 'काल' का वर्णन६१०. काले यऽत्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसइ । महिड्ढीए ६१०. यहाँ पर काल नामक पिशाचराज पिशाचेन्द्र रहते हैं-वे -जाव-पभासेमाणे । से णं तत्थ तिरियमसंखेज्जाणं भोमेज्जग- महधिक हैं-यावत्-प्रभासमान हैं। वे वहाँ पर तिरछे असंख्येय नगरावाससतसहस्साणं, चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं, चउण्ह- लाख भौमेयनगरावासों का चार हजार सामानिक देवों का, मग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणि- सपरिवार चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात याणं, सत्तण्हं अणियाधिवईणं, सोलसण्हं आयरक्खदेवसाह- सेनाओं का, सात सेनापतियों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों स्सीणं, अण्णेसि च बहूणं दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं देवाण का और अन्य अनेक दक्षिण के पिशाच वाणव्यन्तर देव-देवियों य देवीण य आहेवच्चं-जाव-विहरइ । का आधिपत्य करता हुआ-यावत् विचरते हैं । -पण्ण. प. २, सु. १६०(२) उत्तरिल्लपिसायदेवाणं ठाणाई उत्तरीय पिशाचदेवों के स्थानतेसि इंदस्स महाकालस्स वष्णणं च और उनके इन्द्र महाकाल का वर्णन६११. १०-कहि णं भंते ! उतरिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ता-९११. प्र०-है भगवन ! पर्याप्त और अपर्याप्त उत्तर के पिशाच ऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? .. देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला पिसाया देवा परिवसंति ? हे भगवन् ! उत्तर के पिशाचदेव कहाँ रहते हैं ? १ जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० १२१ । Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६११-६१४ तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन गणितानुयोग ४२३ उ०--गोयमा ! जहेव दाहिणिल्लाणं वत्त व्वया तहेव उत्त- उ०-हे गौतम ! जिस प्रकार दक्षिण के पिशाचों का वर्णन रिल्ला णं पि । नवर-मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं । है उसी प्रकार उत्तर के पिशाचों का भी वर्णन है, विशेष-ये -पण्ण. प. २, सु १६१ (१) मेरु पर्वत के उत्तर में है। महाकाले यऽत्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसं ति यहाँ पिशाचराज पिशाचेन्द्र महाकाल रहते हैं-यावत् -जाव-विहरंति। -पण्ण. प. २, सु १६१(२) विहार करते हैं। वाणमंतराणं देवाणं ठाणजाणणानि(सो, तेसि इंदा य- वाणव्यन्तरों के स्थान जानने का निर्देश और उनके इन्द्र९१२. एवं जहा पिसायाणं तहा भूयाणं पि-जाव-गंधव्वाणं । ६१२. जिस प्रकार पिशाचों का वर्णन है उसी प्रकार भूतों काणवर-इंदेसु णाणत्तं भाणियव्वं इमेण विहिणा यावत्- गंधर्वो का है। विशेष--इन्द्रों के विभिन्न नाम इस प्रकार कहने चाहिए। (२) भूयाणं-१. सुरूव, २. पडिरूवा । (२) भूतों के–दक्षिण के इन्द्र १, सुरूप; उत्तर के इन्द्र २, प्रतिरूप। (३) जक्खाणं-१. पुण्णभद्द, २. माणिभद्दा । (३) यक्षों के दक्षिण के इन्द्र १, पूर्णभद्र; उत्तर के इन्द्र २, मणिभद्र। (४) रक्खसाणं-१. भीम, २. महाभीमा। (४) राक्षसों के-दक्षिण में इन्द्र १, भीम'; उत्तर के इन्द्र २, महाभीम। (५) किण्णराणं-१. किण्णर, २. किंपुरिसा । (५) किन्नरों के-दक्षिण के इन्द्र १, किन्नर ; उत्तर के इन्द्र २, किंपुरुष । (६) किंपुरिसाणं-१. सप्पुरिस, २. महापुरिसा। (६) किंपुरुषों के दक्षिण के इन्द्र १, सत्पुरुष, उत्तर के इन्द्र २, महापुरुष१२। (७) महोरगाणं-१. अइकाय, २. महाकाया। (७) महोरगों के-दक्षिण के इन्द्र १, अतिकाय; उत्तर के इन्द्र २, महाकाय । (८) गंधव्वाणं-१. गीतरती, २. गीतजसे-जाव-विहरति । (८) गंधर्वो के दक्षिण के इन्द्र १, गीतरती५, उत्तर के इन्द्र २, गीतयश-यावत्-रहते हैं। वाणमंतरेंदनामसंगहगाहाओ वाणव्यन्तर इन्द्रों के नामों की संग्रह गाथाएँ११३. १, काले य महाकाले, २. सुरुव-पडिरूव, ३. पुण्णभद्दे य। ६१३. गाथार्थ-(१) काल, (२) महाकाल, (३) सुरूप, अमरवइ माणिभद्दे, ४. भीमे य तहा महाभीमे ॥ (४) प्रतिरूप, (५) पूर्णभद्र, (६) मणिभद्र, (७) भीम, (८) महा५. किण्णर किंपुरिसे खलु, ६. सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । भीम, (६) किन्नर, (१०) किंपुरुष, (११) सत्पुरुष, (१२) महा७. अइकाय महाकाए८. गीयरई चेव गीतजसे । पुरुष, (१३) अतिकाय, (१४) महाकाय, (१५) गीतरती, -पण्ण. प. २, सु १९२ (१६) गीतयश । वाणमन्तरदेवाणं चेइयरुक्खा वाणव्यन्तर देवों के चैत्यवृक्ष११४. एएसि गं अट्टण्हं वाणमंतरदेवाणं अट्ठ चेयइरूक्खा पणत्ता, ६१४. इन आठ वाणव्यन्तर देवों के आठ चैत्य वृक्ष कहे गये हैं, तं जहा-गाहाओ यथा-गाथार्थकलंबो अ पिसायाणं बडो जस्खाण चेइयं । (१) पिशाचों का चैत्यवृक्ष-कदंब, (२) यक्षों का चैत्यतुलसी भूयाण भवे, रक्खसाणं च कंडओ॥ .. वृक्ष - वटवृक्ष, (३) भूतों का चैत्यवृक्ष-तुलसी, (४) राक्षसों असोओ किण्णराणं च, किंपुरिसाण य चंपओ। का चैत्यवृक्ष-कंटक, (५) किन्नरों का चैत्यवृक्ष-अशोक, नागरूक्खो भयंगाणं, गंधव्वाण य तेंदुओ। (६) किंपुरुषों का चैत्यवृक्ष-चपक, (७) भुजंगों का चैत्यवृक्ष-----ठाणं अ.८, सु ६५४ नागवृक्ष, (८) गंधर्वो का चैत्यवृक्ष-तिबुक । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन सूत्र ६१४-६१७ चेइयरुषखाणं उच्चत्तं चैत्य वृक्षों की ऊँचाईवाणमंतराणं देवाणं चेयइरूक्खा अट्ट जोयणाई उड्ढं उच्च- वाणव्यन्तर देवों के चैत्यवृक्ष आठ योजन ऊँचे कहे गये हैं। तेणं पण्णत्ता. -सम. ८, सु ३ अपवनियवाणमन्तरदेवठाणाई अणपत्रिक वाणव्यन्तर देवों के स्थान-- ११५. ५० १-कहि णं भंते ! अणवनियाणं देवाणं पज्जताऽ- ६१५. प्र०-(१) हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अणपनिक पज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? २-कहि णं भंते ! अणवणिया देवा परिवसंति ? (२) हे भगवन् ! अणवन्निक देव कहाँ रहते हैं ? उ० १-गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स उ.-(१) हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सहस्र योजन कंडस्स जोयणसहस्स बाहल्लस्स विस्तीर्ण रत्नमय काण्डरूप पृथ्वीपिण्ड के, उरि एग जोयणसयं ओगाहित्ता, ऊपर से सौ योजन अवगाहन करने पर, हेट्ठा वेगं एगं जोयणसयं बज्जेत्ता, और सौ योजन नीचे के भाग को छोड़कर, मज्झे अट्ठसु जोयणसतेसु मध्य के आठ सौ योजन में, एत्थ णं अणवण्णियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा तिरछे अणपनिक देवों के असंख्य लाख भौमेयनगरावास हैंणगरावाससयसहस्सा भवतीतिमक्खातं । ऐसा कहा गया है। तेणं भोमेज्ज-णगरा बाहिं वट्टा जहा ओहिओ भवण- ये भौमेय नगर बाहर से बृत्ताकार हैं जिस प्रकार सामान्य वण्णओ, तहा भाणियव्वो-जाव-पडिरूवा एत्थ णं अण- भवन वर्णन हैं उसी प्रकार कहना चाहिए यावत्-वे भवन वणियाणं देवाणं ठाणा पण्णत्ता। नित नये दिखाई देने वाले हैं-यहाँ पर अणपन्निक देवों के स्थान कहे गये हैं। २-उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, (२) उपपात की अपेक्षा से ये लोक के असंख्यातवें भाग समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुद्घात की अपेक्षा से ये लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे स्वस्थान की अपेक्षा ये लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ अणवन्निया देवा परिवसंति, महड्ढिया जहा पिसाया पर अनेक अणपनिक देव रहते हैं। वे महधिक हैं। जिस प्रकार जाव विहरंति । पिशाचों का वर्णन है उसी प्रकार इनका वर्णन है—यावत्-ये -पण्ण. प. २, सु. १६३(१) रहते हैं। अणवनिय देवेंदा अणपन्निक देवेन्द्र६१६. सन्निहिय-सामाणा यऽत्थ दुवे अणवणिंदा अणवण्णियकुमार- ६१६. अणपनिक कुमारराज अणपन्निकेन्द्र सन्निहित और रायाणो परिवसति । महिड्ढिया जहा काल-महाकाला। सामान्य ये दो इन्द्र यहाँ रहते हैं-ये महधिक हैं-जिस प्रकार -पण्ण. प. २, सु. १६३(२) काल-महाकाल इन्द्रों का वर्णन है उसी प्रकार इनका वर्णन है। दाहिणिल्ल उत्तरिल्ल अणवन्नियदेवाणं, दाक्षिणात्य और उत्तरीय अणपन्निक देवों की और तेसि इंदाणं च वत्तवया निदेसो उनके इन्द्रों की वक्तव्यता का निर्देशएवं जहा काल-महाकालाणं दोण्हं पि दाहिणिल्लाणं उत्त- जिस प्रकार दक्षिण और उत्तर के काल-महाकाल इन्द्रों का रिल्लाणं य भणिया तहा सन्निहिय-सामाणाईणं पि भाणि- वर्णन है उसी प्रकार सन्निहित और सामान्य नामक इन्द्रों का यब्बा । -पण्ण. प. २, सु. १६४ वर्णन है। अणवन्नियाइवाणमन्तरदेवनामाइं तहासोलसेंदनाम- अणपन्निकादि वाणव्यन्तरदेवों के नामगाहाओ और उनके सोलह इन्द्रों के नाम६१७. १. अणवन्निय, २. पणवन्निय, ६१७, (१) अणपन्निक, दक्षिण के इन्द्र सन्निहित १७, २ उत्तर के ३. इसिवाइय, ४. भूयवाइया चेव । इन्द्र सामान्य १८ । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६१७ ६१८ ५. दि ७. कुड, ६. महाकंदिया, ८. पययदेवा य इमे इंदा ॥ १. सणिहिया सामागा, २. धाय ४. विधाए ५. इसी य, ६. इसिपाले । ७. ईसर, ८. महेसरे य, हवइ, ६. सुवच्छे, १०. विसाले य ॥ तिर्यक लोक बाणव्यंतरदेव वर्णन : ११. हासे १२. हासरई विप , १३. सेते य तहा भवे, १४. महासेते । १५. पयते, १६. पययपई वि य, नेव्या पुथ्वी ॥ -पण्ण. प. २, सु. १६४ वाणमंत दाणं अग्गमहिसीओ ६१८. कालस्स णं पिसाइंदस्स पिसायरण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १. कमला, २. कमलप्पभा, ३. उप्पला, ४. सुदंसणा । एवं महाकालस्स वि । मुरुवरस में सूदस्त भूधरग्गो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १. रूववई, २. बहुरुवा, ३. सुरूवा, ४. सुभगा । एवं पडिरूवस्स वि । पुण्णमद्दस्स णं जक्खिं दस्स जक्खरण्णो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १. पुत्ता, २. बहुपुत्तिया उत्तमा, ४. तारगा । एवं मणिभद्दस्स वि । ३. भीमस्स णं रक्खसदस्स रक्खसरण्णो चत्तारि अग्गमहि सीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १. पउमा २ वसुमई, ३. कणगा, ४. रयणप्पभा । एवं महाभीमस्स वि । किनरस्त में निश्विरस किरणो चत्तारि अयमहिसीओ पाओ जहा १. वडसा, २. केतुमई, ३. रति तं सेना, ४. रतिप्यमा एवं किपुरिसस वि सप्पुरिसस पं किपुरिसिटरस किपुरिसरण्यो चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १. रोहिणी, २. नवमिया, ३. हिरी, ४. पुप्फबई एवं महापुरिसस्स वि । अकायस्तणं महोरगिवरस महोरगरम्यो चलारिय महिसीओ पण्णलाओ, १, २. भूपगवाई " गणितानुयोग ४२५ (२) पणपनिक, १ दक्षिण के इन्द्र धाता १६, २ उत्तर के इन्द्र विधाता २० । (३) ऋषीवादी १ दक्षिण के इन्द्र ऋषि २१, २ उत्तर के इन्द्र ऋषिपाल २२ । (४) भूतवादी, १ दक्षिण के इन्द्र ईश्वर २३, २ उत्तर के इन्द्र महेश्वर २४ । (५) कंदित, १ दक्षिण के इन्द्र सुवत्स २५ २ उत्तर के इन्द्र विशाल २६ । (६) महाकंदित, १ दक्षिण के इन्द्र हास २७, २ उत्तर के इन्द्रहासरति २८ । (७) कोहंड, १ दक्षिण के इन्द्र श्वेत २६, २ उत्तर के इन्द्र महाश्वेत ३० । (८) पतंगदेव, दक्षिण के इन्द्र पतंग ३१, २ उत्तर के इन्द्र पतंगपति ३२ । इस प्रकार क्रम से जानना चाहिए । वाणव्यन्तरों के इन्द्रों की अग्रमहिषियाँ ६१८. काल पिशाचराज पिशाचेन्द्र की चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, यथा - ( १ ) कमला, (२) कमलप्रभा (३) उत्पला, (४) सुदर्शना । इसी प्रकार महाकाल पिशाचेन्द्र की चार अग्रमहिषियां हैं। सुरूप भूतराज भूतेन्द्र की चार अग्रमहिषियां कही गई हैं, यथा - ( १ ) रूपवती, (२) बहुरूपा, (३) सुरूपा, (४) सुभगा । इसी प्रकार प्रतिरूप भूतेन्द्र की चार अग्रमहिषियों के नाम हैं। पूर्णभद्र यक्षराज यक्षेन्द्र की चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, यथा -- (१) पुत्रा, (२) बहुपुत्रिका, (३) उत्तमा, (४) तारका । इसीप्रकार मणिभद्र यक्षेन्द्र की चार अग्रमहिषियों के नाम हैं। - भीम राक्षसराज राक्षसेन्द्र की चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, यथा - ( १ ) पद्मा, (२) वसुमती, (३) कनका, (४) रत्नप्रभा । इसी प्रकार महाभीम राक्षसेन्द्र की चार अग्रमहिषियों के नाम हैं। किरकिरराज निरेन्द्र की चार अग्रमहिषियां कही गई है यथा- (१) अयतंसिका (२) केतुमति, (३) रतिसेना, (४) रतिप्रभा इसी प्रकार किपुरुष की चार अयमहिषियों के नाम हैं । 1 सत्पुरुष किंपुरुषराज किंपुरुषेन्द्र की चार अग्रमहिषियों कही गई हैं, यथा - ( १ ) रोहिणी, ( २ ) नवमिका, (३) ह्री, (४) पुष्पवती । इसी प्रकार महापुरुष की चार अग्रमहिषियों के नाम हैं। अतिकाय महोरगराज महोरगेन्द्र की चार अप्रमहिषियों कही गई है, पवा - (१) भुजना, (२) भुजगवती (३) महाकण्डा, Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन सूत्र ६१८-६२३ ३. महाकच्छा, ४. फुडा। एवं महाकायस्स वि। (४) स्फुटा । इसी प्रकार महाकाय महोरगेन्द्र की चार अग्न महिषियों के नाम हैं। गीयरइस्स गं गंधव्विंदस्स गंधवरणो चत्तारि अग्गमहि- गीतरस गंधर्वराज गंधर्वेन्द्र की चार अग्रमहिषियों कही गई सीओ पण्णताओ, तं जहा-१. सुघोसा, २. विमला, ३. है, यथा-(१) सुघोषा, (२) विमला, (३) सुस्वरा, (४) सरसुस्सरा, ४. सरस्सई । एवं गीयजसस्स वि। स्वती । इसी प्रकार गीतयश महोरगेन्द्र की चार अग्रमहिषियों के -ठाणं ४, उ० १, सु० २७३ नाम हैं। वाणमंतर-नगराणं संखा सरूवं च वाणव्यन्तरों के नगरों की संख्या और स्वरूप११९. ५०–केवतिया णं भंते ! वाणमंतर भोमेज्जनगरावाससय- ६१६. प्र०-है भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों के कितने लाख भौमेय सहस्सा पन्नत्ता ? नगरावास कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतर भोमेज्जनगरावाससय- उ०-हे गौतम ! वाणव्यन्तरदेवों के असंख्य लाख भौमेय सहस्सा पन्नत्ता। नगरावास कहे गये हैं। प०-ते गं भंते ! किमया पन्नत्ता? प्र०-हे भगवन् ! वे भौमेयनगरावास किन पदार्थों के बने उ०-गोयमा ! सव्वरयणामया अच्छा सहा-जाव-पडिरूवा। उ०-हे गौतम ! वे सब रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण हैं तत्थ णं बहवे जीवा य पोग्गला य वक्कमति विउक्क- यावत -नित्य नये दिखाई देने वाले हैं। उनमें अनेक जीव मंति चयंति उववज्जति । उत्पन्न होते हैं, मरते हैं, तथा अनेक पुद्गल मिलते हैं और बिखरते हैं। सासया गं ते भवणा दवट्ठयाए, वण्णपज्जवेहि-जाव- द्रव्यों की अपेक्षा से वे भवन शास्वत हैं, और वर्ण पर्यायों फासपज्जवेहि असासया । एवं-जाव-गीयजस-भोमेज्ज- -यावत -स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा से अशास्वत हैं-यावत नगरावासा। -भग. स. १६, उ. ७, सु. ४-५ गोतयश इन्द्र के भौमेयनगरावास हैं । असंखेज्जा वाणमंतरावासा तेसि वित्थरं च- असंख्य वाणव्यन्तरावास और उनका विस्तार१२०. प०-केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता? ६२०. हे भंते ! वाणव्यन्तरावास कितने लाख कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता। उ०-हे गौतम ! वाणव्यन्त रावास असंख्य लाख कहे गये हैं। 40_ते ते! कि संखेज्ज वित्थडा असंखेज्जवित्थडा? प्र०-हे भंते ! वे संख्येय योजन विस्तार वाले हैं या असंख्येय योजन विस्तार वाले हैं ? उ०-गोयमा ! संखेज्ज वित्थडा, नो असंखेज्जवित्थडा। उ०-हे गौतम ! संख्येय योजन विस्तार वाले हैं. असंख्येय -भग. स. १३, उ. २, सु. ७-८ योजन विस्तार वाले नहीं हैं । सभाए सुहम्माए उच्चत्तं सुधर्मा सभा की ऊँचाई९२१. वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुहम्माओ नव जोयणाई उड्ढे ६२१. वाणव्यन्तर देवों की सुधर्मा सभाएँ नौ योजन ऊँची कही उच्चत्तेणं पण्णत्ता। -सम. ६, सु. १० गई है। अंजण कंडाओ भोमेज्जविहाराणं अन्तरं-- अंजण काण्ड से भौमेयविहारों का अन्तर१२२. इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए, अंजणस्स कंडस्स हेट्ठिल्लाओ ६२२. इस रत्नप्रभापृथ्वी के अंजन काण्ड के ऊपर के अन्तिम भाग चरिमंताओ वाणमंतर-भोमेज्जविहाराणं उबरिमते, एस णं से वाणव्यंतरों के भौमेय-विहारों के ऊपर के अन्तिम भाग का नवनउइ जोयणसयाई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । व्यवधानात्मक अन्तर निन्यानवें सौ ६६०० योजन का कहा -सम. ६६, सु. ७ गया है। वाणमंतराणं परिसाणं देव-देवीणं संखा वाणव्यन्तरों की परिषदों के देव-देवियों की संख्या६२३. ५०-कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमार- ६२३. प्र०-हे भंते ! पिशाचमारेन्द्र पिशाचराज की कितनी रणो कइ परिसाओ पप्णत्ताओ? परिषदाएं कही गई है ? Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२३-६२४ तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन गणितानुयोग ४२७ उ०-गोयमा ! तिग्णि परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा- उ.-हे गौतम ! तीन परिषदाएँ कही गई हैं, यथा१. ईसा, २. तुडिया, ३. दढरहा, (१) ईसा, (२) त्रुटिता, (३) दृढ़रथा, १. अभितरिया ईसा, (१) आभ्यन्तर परिषद ईसा, २. मज्झिमिया तुडिया, (२) मध्य परिषद् त्रुटिता, ३. बाहिरिया दढरहा,' (३) बाह्य परिषद् दृढ़रथा, १०-कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमार- प्र०-हे भंते ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की रण्णो अभितरियाए, मज्झिमियाए, बाहिरियाए परि- आभ्यन्तर, मध्यमिका और बाह्य परिषद् के कितने हजार देव कह साए कइ देवसाहस्सिओ पण्णत्ताओ? अभितरियाए, गये हैं ? तथा कितनी सौ देवियाँ कही गई हैं ? मज्झिमियाए, बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णता? उ.-गोयमा ! अभितरियाए परिसाए अट्ट देवसाहस्सिओ उ०-हे गौतम ! आभ्यन्तर परिषद् के आठ हजार देव पण्णत्ताओ, ___ कहे गये हैं ? मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सिओ पण्णत्ताओ, मध्यमिका परिषद् के दस हजार देव कहे गये है, बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सिओ पण्णत्ताओ, बाह्य परिषद् के बारह हजार देव कहे गये हैं। अभितरियाए परिसाए एगं देविसयं पण्णत्त, आभ्यन्तर, मध्यमिका और बाह्य परिषद् की एकेक सौ मज्झिमियाए परिसाए एग देविसयं पण्णत्तं, देवियाँ कही गई हैं बाहिरियाए परिसाए एगं देविसयं पण्णत्तं, एवं जहा पिसायाणं तहा भूयाण वि-जाव-गंधव्वाणं । पिशाचों की परिषदों के देव-देवियों की जितनी संख्या हैं उतनी ही भूतों की परिषदों के देव-देवियों की संख्या हैं-यावत् -जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. १२१ गंधवों को भी उतनी ही है। जंभयाणं देवाणं सरूवं भेया ठाणं य जम्भक देवों का स्वरूप भेद और स्थान३२४. ५०-अत्थि णं भंते ! जंभया देवा, जंभयादेवा ? ६२४. प्र०-हे भंते ! जुम्भकदेव ज़म्भकदेव हैं ? उ०-हंता, अत्थि। उ०—(गौतम !) हाँ है। प०–से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"जभयादेवा, जंभयादेवा प्र०-हे भन्ते ! किस कारण ये 'जृम्भकदेव' जुम्भकदेव कहे जाते हैं ? उ०-गोयमा ! जंभगाणं देवा निच्च पमुदितपक्कीलिया उ.-गौतम ! ये जुम्भकदेव सदा प्रमुदित एवं क्रीडारत रहते कंदप्परतिमोहणसीला जे गं ते देवे पासेज्जा से णं हैं तथा काम-क्रीड़ा में मुग्ध रहते हैं । जो उन देवों को तुष्ट महंतं अयसं पाउणेज्जा, जे णं ते देवे तु8 पासेज्जा (प्रसन्न) देखता है वह महान् यश को प्राप्त होता है। जो उन से णं महतं जसं पाउणेज्जा। देवों को कुपित देखता है वह महान अयश को प्राप्त होता है। से तेण?णं गोयमा ! "जंभगादेवा, जंभगादेवा।" इसलिए गौतम ! वे जृम्भकदेव जृम्भकदेव कहे जाते हैं । प०-कतिविहाणं भंते ! जंभगादेवा पण्णता? । प्र०-हे भन्ते ! जम्भकदेव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! दसविहा पन्नत्ता, तं जहा-१. अन्नजंभगा, उ०-गौतम ! दस प्रकार के कहे गये हैं, यथा-(१) अन्न ३. वत्थजंभगा, ४. लेणजभगा, ५. सपणजभगा, जुम्भक, (२) पानजुम्भक, (३) वस्त्रजुम्भक, (४) लयनजम्भक, ६. पुप्फफलजंभगा, ह. विज्जाजभगा, १०. अवियत्ति- (६) पुष्पजृम्भक, (७) फलज़म्भक, (८) पुष्प-फलज़म्भक, जंभगा। (६) विद्याजृम्भक, (१०) अव्यक्तजृम्भक । १०- जंभगाणं भंते ! देवाणं कहि वसहि उति ? प्र०-हे भन्ते ! जृम्भकदेवों की वसति (स्थान) कहाँ पर है ? १ ठाणं ३, उ०२, सु० १५४ । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ लोक-प्रज्ञप्ति ___तिर्यक् लोक : ज्योतिष्क-निरूपण सूत्र ६२४-६२६ उ०-सव्वेसु चेव दोहवेयड्ढेसु चित्तविचित्तजमगपव्वएसु उ०-(गौतम) सभी दीर्घ वैताढ्यों पर, चित्र-विचित्र यमक कंचणपव्वएसु य एत्थ णं जंभगादेवा वसहि उति,' पर्वतों पर, कंचनपर्वतों पर-जम्भकदेवों की वसति प्राप्त -भग. स. १४, उ. ८, सु. २५, २६, २७ होती है । जोइसिय-निरुवणं ज्योतिष्क-निरूपण जोइसियाणं संखाणं सव्वण्णूपदिट्ट ज्योतिष्कों का गणित सर्वज्ञ कथित है६२५. गाहा ६२५. गाथार्थरवि-ससि-गह-णक्खत्ता, एवइया आहिया मणुयलोए। सूर्य-चंद्र-ग्रह-नक्षत्र मनुष्य लोक में इतने कहे गये हैं, जिनके जेसि नामागोयं, न पागया पन्नवेहिति ॥ नाम गोत्रादि सामान्य व्यक्ति नहीं कह सकते हैं, अर्थात् सर्वज्ञ ही -जीवा०प० ३, उ० २, सु० १७७ कह सकते हैं। जोइसियाणं चारविसेसेणं मणस्साणं सुह-दुक्खं- ज्योतिष्कों की विशेष गति से मनुष्यों को सुख-दुख __ होता है६२६. गाहा ६२६. गाथार्थरयणियर-दिणयराणं, नक्खत्ताणं महग्गहाणं च । चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र और ग्रहों की विशेष गति से मनुष्यों को चारविसेसेण भवे, सुह-दुक्खविही मणुस्साणं ॥ सुख-दुःख प्राप्त होता है। -जीवा०प० ३, उ० २, सु० १७७ १ (क) जम्भकदेवों की स्थिति द्रव्यानुयोग के स्थितिप्रज्ञप्ति विभाग में देखें । (ख) ये जृम्भकदेव व्यंतरदेव हैं-यह उनकी स्थिति और स्थान से निश्चित हो जाता है और वे दृश्य देव हैं-यह भी जुम्भक नाम से परिलक्षित हो जाता है किन्तु १६ प्रकार के व्यंतरों में ये किसके अन्तर्गत है ? व्यंतरों के ३२ इन्द्रों में से किस इन्द्र के अधीनस्थ है ? तथा शक्रेन्द्र के चार लोकपालों में से किस लोकपाल के अधीन है? ये सभी प्रश्न समाधान के की अपेक्षा रखते हैं। भग. श. ३, उ. ७ में वैश्रमणलोकपाल के अधीन वाणव्यंतरदेव माने गये हैं, पर वहाँ जम्भकदेवों का नाम निर्देश नहीं हैं। भग. श. ३, उ. ७ में यमलोकपाल के अपत्यस्थानीयदेवों में "कंदर्प" नामक देव हैं। यहाँ जम्भकदेवों का विशेषण "कंदपं" है-यदि इस विशेषण से जम्भकदेव यमलोकपाल के अधीनस्थ हो तो ठीक है । आगमज्ञों की परम्परागत धारणाओं के अनुसार स्पष्टीकरण आवश्यक है। २ (क) सूरिय० पा० १६, सु० १००, चंद० पा० १६, सु० १०० (ख) “रजनिकर-दिनकराणां” चन्द्रादित्यानां, नक्षत्राणां, महाग्रहाणां च “चार विशेषण" तेन तेन चारेण सुख-दुःखविधयो मनुष्याणां, संभवंति, तथाति-द्विविधानि संति सदा मनुष्याणां कर्माणि, तद्यथा-शुभवेद्यानि, अशुभवेद्यानि च, कर्मणां च सामान्यतो विपाकहेतवः पंचः तद्यथा-१. द्रव्यं, २. क्षेत्र, ३. कालो, ४. भावो, ५. भवश्च । उक्तं च, गाहाउदय-क्खय-खओवसमोवसमा, जं च कम्मुणो भणिया । दव्वं, खेत्तं, कालं, भावं, भवं च संपप्प ।। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२७-६२८ तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन गणितानुयोग ४२६ पंचविहा जोइसिया पाँच प्रकार के ज्योतिषिक६२७. प०-से कि त जोइसिया ? ६२७. प्र० --ज्योतिषिक कितने प्रकार के हैं ? उ०--जोइसिया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा उ०-ज्योतिषिक पाँच प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. चंदा, २. सूरा, ३. गहा, ४. गक्खत्ता, ५. तारा।' (१) चन्द्र, (२) सूर्य, (३) ग्रह, (४) नक्षत्र और (५) तारे । -पण्ण० ५० १, सु० १४२/१ जोइसियाणं देवाणं ठाणा ज्योतिषी देवों के स्थान६२८. ५०-कहि णं भंते ! जोइसियाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ६२८. प्र०-हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त ज्योतिषी देवों के ठाणा पण्णत्ता? स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? कहि णं भंते ! जोइसिया देवा परिवसंति ? हे भगवन् ! ज्योतिषी देव कहाँ रहते है ? (क्रमशः) शुभवेद्यानां च कर्मणां प्रायः शुभद्रव्य-क्षेत्रादि सामग्री विपाकहेतु : अशुभवेद्यानामशुभ द्रव्य-क्षेत्रादि सामग्री, ततो यदा येषां जन्मनक्षत्राद्यानुकूलश्चंद्रादीनां चारस्तदा तेषां प्रायो यानि शुभवेद्यानि कर्माणि तानि तथाविधां विपाकसामग्रीमधिगम्य विपाकं प्रपद्यन्ते । प्रपन्नविपाकानि शरीरनीरोगतासंपादनतो धनवृद्धिकरणेन च वैरौपशमनतः प्रियसंप्रयोगसंपादनतो वा । यदि वा, प्रारब्धाभीष्टप्रयोजन-निष्पत्तिकरणतः सुखमुपजनयंति । अत एव महीयांसः परमविवेकिनः स्वल्पमपि प्रयोजनं शुभ-तिथि-नक्षत्रादावारभंते । न तु यथा कथं च न । अत एव जिनानामपि भगवतामाज्ञा प्रव्राजनादिकमधिकृत्यैवमवतिष्टः यथा शुभक्षेत्रे शुभदिशमभिमुखीकृत्य शुभे तिथि-नक्षत्र-मुहूर्तादौ प्रव्राजन-व्रतारोपणादि कर्तव्यं, नान्यथा तथा चोक्तं पंचवस्तुकेगाहा एसा जिणाण आणा, खेत्ताइया य कम्मुणो भणिया । उदयाइ कारणं जं, तम्हा सव्वत्थ जइयव्वं ।। अस्या अक्षरगमनिकाएषा जिनानामाज्ञा यथा शुभक्षेत्रे शुभां दिशमभिमुखीकृत्य शुभे तिथि-नक्षत्र-मुहूर्तादौप्रव्राजन-व्रतारोपणादि कर्तव्यं नान्यथा । अपि च-क्षेत्रादयोऽपि कर्मणामुदयादिकारणं भगवद्भिरुक्तास्ततो शुभ-द्रव्य-क्षेत्रादि सामग्रीमवाप्य कदाचिदशुभवेद्यानि कर्माणि विपाकं गत्वोदसमासादयेयुः । तदुदये च गृहीत-व्रतभंगादिदोष-प्रसंगः । शभक्षेत्रादिसामग्री तु प्राप्य जनानां शुभकर्मविपाकसम्भवः इति, सम्भवति निर्विघ्नं सामायिक-परिपालनादि, तस्मादवश्यं छद्मस्थेन सर्वत्र शुभक्षेत्रादौ यतितव्यम् । ये तु भगवंतोऽतिशयमंतस्ते अतिशयबलादेव निर्विघ्नं सविघ्नं वा सम्यगवगच्छंति । अतो न शुभ-तिथि-मुहूर्तादिक मपेक्षत, इति तन्मार्गानुसरणं छद्मस्थानां न न्याय्यं । तेन ये च परममुनिपयुपासित-प्रवचनविडम्बका अपरिमलित जिनशासनोपनिषद्भूतशास्त्र-गुरुपरम्परायात-निरवद्य-विशद कालोचित सामाचारी । प्रतिपन्थिनः स्वमतिकल्पित-सामाचारिका अभिदधति । “यथा न प्रव्राजनादिषु शुभ-तिथि-नक्षत्रादिनिरीक्षणे यतितव्यं, न खलु भगवान् जगत्स्वामी प्रव्राजनायोपस्थितेषु शुभ-तिथ्यादिनिरीक्षणं कृतवानिति तेऽपास्ता द्रष्टव्या इति । --जीवा. प्र. ३ उ. २ सू. १७७ की टीका से उद्धृत १ (क) ठाणं ५. उ.१, सु. ४०१. केवल उत्तर सूत्र हैं। (ख) भग. स. ५. उ., सु. १७, “जोतिसिया पंचविहा" इतना ही है। (ग) चंदा सूरा य नक्खत्ता, गहा तारागणा तहा । दिनाविचारिणो देव, पंचहा जोइसालया ।। -उत्त. अ. ३६, गा. २०८ (घ) चंदा सूरा तारागणा य, नक्खत्त-गहगण समत्ता। पंचविहा जोइसिया ................... ... ... .. -देविंद. गा. ८१ (ङ) भग. स. १६, उ. ८, सु. ४, जीवनिवृत्ति के भेद प्रभेद में। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन सूत्र ६२८ उ०-गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणि- उ०-हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अतिसम एवं ज्जाओ भूमिभागाओ सत्ताणउए जोयणसए उड्डं उप्प- रमणीय भूमिभाग से सात सौ नब्वे योजन की ऊँचाई पर ऊपर इत्ता दसुत्तरे जोयणसय बाहल्ले तिरियमसंखेज्जे की ओर एक सौ दस योजन के विस्तृत क्षेत्र में ज्योतिषी देवों के जोइसविसये; एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियम- असंख्य स्थान हैं । यहाँ तिरछे ज्योतिषी देवों के असंख्य लाख संखेज्जा जोइसियाविमाणाबाससयसहस्सा भवतीति- विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है। मक्खायं ।' ते ण विमाणा अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिया सव्व- ये विमान अर्धकपित्थक (आधे कपित्थफल) के आकार के फालियामया अन्भुग्गयमूसियपहसिया इव विविहमणि- हैं, सभी स्फटिक रत्नमय हैं, ऊंचे उन्नत अपनी प्रभा से हंसते हुए कणग-रयणभित्तिचित्ता बाउद्धृयविजयवेजयंतीपडाग- से प्रतीत होते हैं, विविधमणी, कनक-रत्नों की रचना से चित्रछत्ताइछत्तकलिया तुगा गगणतलमणुलिहमाणसिहरा विचित्र हैं, वायु से उड़ती हुई विजय-वैजयन्ती पताकाओं से तथा जालंतररयण-पंजरुम्मिलियब्व - मणि-कणग)भियागा छत्रातिछत्रों से सुशोभित हैं, ऊँचे गगनचुम्बी शिखरों वाले हैं, वियसियसयवत्तपुण्डरीया तिलयरयणद्धचंदचित्ता णाणा- जालियों में लगे हुए रत्नों वाले हैं, मणिजटित कनकमय मणिमय दामालंकिया अंतो बहिं च सहा तवणिज्ज- स्तूपिकाओं से युक्त हैं, विकसित शतपत्र एवं पुण्डरीक कमलों रूइल-वालुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीया सुरुवा पासा- वाले हैं, तिलक एवं रत्नमय अर्धचन्द्रों से विचित्र हैं, नाना मणिईया-जाव-पडिरूवा= मयमालाओं से अलंकृत हैं. अन्दर और बाहर चिकने हैं, मुलायम तपनीय (लाल-स्वर्ण) की वालुका वाले हैं, सुखद स्पर्श वाले हैं, शोभायुक्त हैं सुरूप हैं प्रासादिक हैं-यावत -प्रतिरूप-रमणीय हैं। एस्थ जोइसियाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं यहाँ (इन विमानों में) पर्याप्त और अपर्याप्त ज्योतिषी देवों ठाणा पण्णत्ता। के स्थान कहे गये हैं। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे = (उत्पत्ति, समुद्घात और स्वस्थान) इन तीन की अपेक्षा से ये (ज्योतिष्क देवों के विमान) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। तत्थ णं बहवे जोइसिया देवा परिवसंति, तं जहा- इन विमानों में अनेक ज्योतिषी देव रहते हैं, यथा१. बहस्सई, २. चंदा, ३. सूरा, ४. सुक्का, ५. सणि- (१) बृहस्पती, (२) चन्द्र, (३) सूर्य, (४) शुक्र, (५) शनैश्चर च्छरा, ६. राहू, ७. धूमकेऊ, ८. बुहा, ६. अंगारगा, (६) राहु, (७) धूमकेतु, (८) बुध, (६) अंगारक (मंगल) ये तत्ततवणिज्जकणगवण्णा। तप्तस्वर्ण वर्ण जैसे वर्ण वाले हैं। जे य गहा जोइसम्मि चार चरंति केतू य गइरइया (इन उक्त ग्रहों से) ज्योतिष क्षेत्र में गति करने वाले अन्य अट्ठावीसइविहा य नक्खत्तदेवयगणा, णाणासंठाण- ग्रह, गतिरतकेतु, अठावीस प्रकार के नक्षत्र देवों के गण, और संठियाओ य पंचवण्णाओ तारयाओ, ठितलेस्सा- नाना प्रकार के पांच वर्ण वाले तारे-ये सदा समान तेज वाले १ प्र-कहि णं भंते ! जोइसियाणं देवाणं विमाणा पण्णत्ता? कहिणं भंते ! जोइसिया देवा परिवसंति ? उ०-गोयमा ! उप्पिं दीवसमुद्दाणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तणउए उड्ढं उप्पइत्ता दसुत्तरसया जोयणबाहल्लेणं तत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा जोइसियविमाणावासयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं । -जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. १२२ २ (क) जीवा. प. ३, सु. १६७ । (ख) सूरिय. पा. १८, सु. ६४ । (ग) चंद. पा. १८ सु. ६४ । ३ गगणतलमहिलंघमाणसिहरा-पाठांतर । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२८-६२६ तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन गणितानुयोग ४३१ चारिणो अविस्साममंडलगई पत्तेयणामकपागडियांचध- हैं, अपने अपने मण्डल में निरन्तर गति करने वाले हैं, प्रत्येक देवमउडा महिड्ढिया-जाव-पभासेमाणा, मुकुट में स्पष्ट नामांकन चिह्न वाले हैं, महाऋद्धि वाले-यावत् -प्रभासमान हैं। ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं, ये अपने अपने लाखों विमानावासों का, अपने अपने हजारों साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं, साणं साणं अग्ग- सामानिक देवों का, अपनी अपनी सपरिवार अग्रमहिषियों का, महिसीणं सपरिवाराणं, साणं साणं परिसाणं, साणं अपनी अपनी परिषदाओं का, अपनी अपनी सेनाओं का, अपने साणं अणियाणं, साणं साणं अणियाहिवईणं, साणं साणं सेनापतियों का, अपने अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का और अन्य आयरक्खदेवसाहस्सोणं अणेसि च बहूण जोइसियाणं अनेक देव-देवियों का आधिपत्य एवं पुरोवर्तित्व करते हुएदेवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं-जाव-विहरति,' यावत्-विचरते हैं । -पण्ण०प०२, सू०१६५/२ चंद-सर-गह-णक्खत्त-ताराविमाणाणं संठाणं चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और ताराविमानों के संस्थान९२९. प्र०-चंद विमाणे गं भंते ! कि संठिते पण्णते ? ६२६. प्र०-हे भगवन् ! चन्द्र विमान का संस्थान=आकार किस प्रकार का कहा गया है ? उ०—गोयमा ! अद्धकविट्ठगसंठाणसंठिते पण्णत्ते, सम्वफालि- उ०—हे गौतम ! अर्ध कपित्थगफल जैसा आकार कहा गया यामए अब्भग्गयमूसियपहसिए-जाव-पडिरूवे। है। सारा स्फटिकमय है, चारों ओर से निकलती हुई किरणों से प्रभासित है-यावत्-प्रतिरूप है। एवं सूरविमाणेवि, गहविमाणेवि, नक्खत्तविमाणेवि, इसी प्रकार सूर्यविमान, ग्रहविमान, नक्षत्रविमान और ताराविमाणे वि अद्धकविट्ठसंठाणसंठिए । ताराविमान अर्धकपित्थक फल जैसे संस्थान से स्थित है। -जीवा०प० ३, उ० २, सु० १६७ ४ (क) सम. सु. १५० । (ख) जीवा. प. ३, सु. १२२।। यावत्करणात्-विविहमणिरयणभत्तिचिते, वाउदयविजयवेजयंती पडागछत्तातिछत्त कलिए, तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे, जालंतररयण-पंजरोम्मीलिय-मणि-कणग-थूभियागे बियसियसयवत्तपुंडरीयतिलगरयद्धचंदचित्ते, अंतो बहिं च सण्हे तवणिज्जवालुयापत्थडे, सुहफासे, सस्सिरीयरूवे पासाईए-जाव—पडिरूवे । -जीवा. प. ३, उ. २; सु. १६७ की टीका से उद्ध त २ (क) चन्द्र आदि सभी ज्योतिष्क विमानों के संस्थान आकार अर्धकपित्थफल जैसे कहे है किन्तु सभी ज्योतिष्कों के विमान हमें वर्तुलाकार दिखाई देते हैं-टीकाकार स्वयं इस प्रकार की आशंका करके समाधान करते हैं - प्र०—यदि चन्द्रविमानमुत्तानीकृतार्धकपित्थसंस्थानसंस्थितं तत उदयकालेऽस्तमयकाले वा यदि वा तिर्यक् परिभ्रमत् पौर्णमास्यां कस्मात्तदर्धकपित्थफलाकारं नोपलभ्पते ? उ०—कामं शिरस उपरि वर्तमानं वर्तुलमुपलभ्यते, अर्धकपित्थस्य शिरस उपरि दूरमवस्थापित-परभागादर्शनतो वर्तुलतया दृश्यमानत्वात् । उच्यते-इहार्धकपित्थफलाकारं चन्द्रविमान न सामस्त्येन प्रतिपत्तवयं किन्तु तस्य विमानस्य पीठ, तस्य व पीठस्योपरि चन्द्रवेदस्य ज्योतिष्चक्रराजस्य प्रासादः, स च प्रासादस्तथा कथञ्चनापि व्यवस्थितो यथा पीठेन सह भूयान् वतुल आकारो भवति । स च दूराभावादेकान्ततः समवृत्ततया जनानां प्रतिभासते-ततो न कश्चिद्दोषः नचैतत् स्वमनीषिकाया विजृम्भितं, यत एतदेव जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन विशेषेणवत्यामाक्षेप पुरस्सरमुक्तम्गाहाओ-अद्धकविट्ठागारा, उदयत्थमणमि कहं न दीसंति । ससि-सूराणविमाणा, तिरियक्वेत्ते ठियाणं च ।। उत्ताणद्धकविट्ठागारं, पीढं तदुरिं च पासाओ । वट्टालेखेण ततो, समवं दूरभावातो ।। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६७ टीका (ख) सूरिय. प. १८, सु. ६४. (ग) जंबू. वक्ख. ७, सु. १६५ । (घ) चंद्र. पा. १८, सु. ६४ । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ४३२ लोक- प्रज्ञप्ति उ० मणुस्सखेले चंद-सूर-गह-णक्लस-ताराणं परिमाणं ३०. प्र०—ता कइ णं चंदिम-सूरिया सव्वलोयं ओभासंति उम्नोति सर्वोत, पमासेति ? आहिए लि एक्जा तिर्यक लोक क्योतिषिकदेव वर्णन 1. - तत्थ खलु इमाओ दुवालस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा तत्येगे एवमाहंसु : १. ता एगे चंदे एगे सम्बलोयं ओमसद उम्जोएड सवे, मासे, एगे एवमाहं । २. एगे पुण एवमाहंसु : ता तिष्णि चंदा, तिष्णि सूरा सव्वलोयं ओभासंति उज्जोएंति, तवेंति, पभासेंति, एगे एवमाहंसु । २. एणे पुण एवमाहं : ता अद्भुट्ठ चंदा, अट्ठ सूरा, सध्यलोयं ओभासेंति -जाय पभाति एगे एवमाहं एएवं अभिलावेगं य ४. सत्त चंदा, सत्त सूरा, ५. दस चंदा, दस सूरा, ६. बारस चंदा, बारस सूरा, ७. बायालीसं चंदा, बायालीसं सूरा, ८. बावत्तरी चंदा, बावत्तरी सूरा, ९. बालचंद बापाली सुरस १०. बायत दस बावतरं सुरस, ११.सं बापालीसं सूरसहसं १२. बावत्तरं चंदसहस्सं, बावत्तरं सूरसहस्सं, सव्वलोयं ओमासंति-नाय-मासेति एगे एवमाहंगु । 1 वयं पुण एवं वयामो : ता अयणं बुरी दोवे सत्वदीयसमुद्दाणं सम्यन्त राए सवा एवं जोयससह आयामविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई, सोलस सहस्सा, दो व सत्तावीसे जोयणसए, तिमि व कोसे, अट्ठावीस च धनुस तेरस अंगुलाई, अहं विवाह परिवलेवेणं पण्णसं'। सुरिय० पा० १६, सु० १०० चन्द्र. पा. १६, सु. १०० । यथा मनुष्य क्षेत्र में चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र और ताराओं का परिमाण -- ६३० प्र० - कितने चन्द्र-सूर्य तारे (मनुष्य) लोक को अवभासित करते हैं, उपोतित करते हैं, तपाते हैं और प्रकाशित करते हैं ? कहें। उ०- इस सम्बन्ध में बारह प्रतिपत्तियाँ (मान्यता) कही गई हैं। सूत्र ६३० इनमें से एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं ( १ ) एक चन्द्र और एक सूर्य सारे लोक को अवभासित करता है, उद्योतित करता है, तपाता है, प्रकाशित करता है । (२) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैंतीन चन्द्र और तीन सूर्य सारे लोक को अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं, उपाते हैं, प्रकाशित करते हैं। (३) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैंसाढ़े तीन चन्द्र और साढ़े तीन सूर्य सारे लोक को अवभासित करते हैं- यावत् प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार के अभिलाप (आगे) जानने चाहिए (४) सात चन्द्र सात सूर्य, (५) दस चन्द्र, दस सूर्य, (६) बारह चन्द्र, बारह सूर्य, (७) बयालीस चन्द्र, बयालीस सूर्य, ( - ) बहत्तर चन्द्र, बहत्तर सूर्य, (६) एक सौ बियालीस चन्द्र, एक सौ बियालीस सूर्य, (१०) एक सौ बहत्तर चन्द्र, एक सौ बहत्तर सूर्य, (११) बयालीस हजार चन्द्र, बयालीस हजार सूर्य, (१२) बहत्तर हजार चन्द्र, बहत्तर हजार सूर्य, सारे लोक को अवभासित करते हैं- यावत् - प्रकाशित करते हैं। हम फिर इस प्रकार करते हैं यह जम्बूद्वीप द्वीप सर्व द्वीप समुद्रों के मध्य में सबसे छोटा - यावत् — एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा, तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तवीस योजन तीन कोश अट्ठावीस धनुष तेरह अंगुल आये अंगुल से कुछ विशेष अधिक की परिधि वाला कहा गया है। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६३१ तिर्यक लोक : जम्बूद्वीप में ज्योतिषीदेव गणितानुयोग ४३३ जंबुद्दीवे जोइसिया देवा जम्बूद्वीप में ज्योतिष्क देव६३१. (१) ५०–ता जंबुद्दीवे दीवे ६३१. (१) प्र०-इस जम्बूद्वीप द्वीप मेंकेवइया चंदा पभासिसु वा, पभासिति वा, अतीत में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, वर्तमान में कितने पभासिस्संति वा ? चन्द्र प्रभासित होते हैं और भविष्य में कितने चन्द्र प्रभासित होंगे? (२) प०-केवइया सूरा तविसु वा, तर्वेति वा, तविस्संत्ति (२) प्र०-अतीत में कितने सूर्य तपाते थे, वर्तमान में वा? कितने सूर्य तपाते हैं और भविष्य में कितने सूर्य तपाएंगे? (३) ५०-केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा, (३) प्र०-अतीत में कितने ग्रह गति करते थे, वर्तमान में चरिस्संति वा? कितने ग्रह गति करते हैं और भविष्य में कितने ग्रह गति करेंगे? (४) प०-केवइया णक्खत्ता जो जोइंसु वा, जोएंति वा, (४) प्र०- अतीत में कितने नक्षत्र योग करते थे वर्तमान में जोइस्संति वा? कितने नक्षत्र योग करते हैं और भविष्य में कितने नक्षत्र योग करेंगे? (५) ५०-केवइया तारागणकोडि-कोडिओ सोभं सोभेसु वा, (५) प्र०-अतीत में कितने कोटा कोटी तारागण सुशोभित सोभंति वा, सोभिस्संति वा? होते थे, वर्तमान में कितना कोटाकोटी तारागण सुशोभित होते हैं और भविष्य में कितने कोटाकोटी तारागण सुशोभित होगे? (१) उ०- ता जंबुद्दीवे दीवे (१) उ०—इस जम्बूद्वीप मेंदो चन्दा पभासेंसु वा, पभासिति वा, पभासि- अतीत में दो चन्द्र प्रकाशित होते थे वर्तमान में दो चन्द्र स्संति वा, प्रकाशित होते हैं और भविष्य में दो चन्द्र प्रकाशित होंगे। (२) उ०-दो सूरिया विसु वा, तवेंति वा, तविस्संति वा, (२) उ०–अतीत में दो सूर्य तपते थे, वर्तमान में दो सूर्य ___ तपते हैं और भविष्य में दो सूर्य तपेंगे । (३) उ०-छावर्तारं गहसयं चारं चरिसुवा, चरंति वा, (३) उ०-अतीत में एक सौ छिहत्तर महाग्रह गति करते चरिस्संति वा, थे, वर्तमान में एक सौ छिहत्तर ग्रह गति करते हैं और भविष्य में एक सौ छिहत्तर ग्रह गति करेंगे । (४) उ०-छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं जोएंसु वा, जोएंति वा, (४) उ०-अतीत में छप्पन नक्षत्र योग करते थे, वर्तमान जोइस्संति वा, में छप्पन नक्षत्र योग करते हैं भविष्य में छप्पन नक्षत्र योग करेंगे। (५) उ०-एगं सयसहस्सं तेत्तीसं च सहस्सा गव सया (५) उ०-एक लाख तेतीस हजार नौ सौ पचास कोटा पण्णासा तारागण कोडि-कोडीणं सोभं सोभेसु कोटी तारागण अतीत में सुशोभित होते थे, वर्तमान में सुशोभित वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा। होते हैं और भविष्य में सुशोभित होंगे । गाहाओ गाथार्थदो चंदा दो सूरा, णक्खत्ता खलु हवंति, छप्पणा। दो चन्द्र, दो सूर्य, छप्पन नक्षत्र एक सौ छिहत्तर ग्रह और जावत्तरं गहसयं, जंबुद्दीवे विचारी गं ॥ एक लाख तेतीस हजार नौ सौ पचास कोटा कोटी तारागण इस एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई। जम्बूद्वीप में गति करते हैं। णव य सया पण्णासा, तारागणकोडि कोडीणं ॥ -सूरिय० पा० १६, सू० १०० १ (क) चंद, पा. १६, सु. १००। (ख) जम्बु. वक्ख. ७, सु. १२६ । (ग) जीवा. प. ३, उ. २, सु. १५३ । (घ) भग. स. ६, उ. २, सु. २ । प्र०–ता एगमेगस्स णं चंदस्स देवस्स केवतिया गहा परिवारो पण्णत्तो ? केवतिया णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो? केवतिया तारा परिवारो पण्णत्तो ? (क्रमशः ४३४ पर) Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र में ज्योतिषिदेव सूत्र ६३२ लवणसमुद्दे जोइसिया देवा लवणसमुद्र में ज्योतिष्क देव९३२. (१) प०-ता लवणसमुद्दे ६३२. (१) लवणसमुद्र मेंकेवइया चंदा पभासिसु वा, पभासिति वा, कितने चन्द्र प्रभासित हुए थे, प्रभासित होते हैं और प्रभापभासिस्संति वा? ___सित होंगे? (२) ५०-केवइयं सूरा विसु वा विति वा, तविस्संति वा? (२) प्र०-कितने सूर्य तपाते थे, तपाते हैं और तपाएँगे? (३) प०-केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा, चरि- (३) प्र०—कितने ग्रह गति करते थे, गति करते हैं और स्संति वा? गति करेंगे? (४) ५०-केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा, (४) प्र०-कितने नक्षत्र योग करते थे, योग करते हैं और जोइस्संति वा? योग करेंगे? (५) प०- केवइया तारागण कोडाकोडीओ सोभं सोभेसु वा (५) प्र०—कितने कोटाकोटी तारागण सुशोभित होते थे, सोभंति वा सोभिस्संति वा? सुशोभित होते हैं और सुशोभित होंगे? (१) उ०-ता लवणसमुद्दे (१) उ०-लवणसमुद्र मेंचत्तारि चन्दा पभासिसु वा, पभासिति वा, पभा- चार चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और प्रभासित सिस्संति वा, होंगे। (२) उ०-चत्तारि सूरिया तविसु वा, तविति वा, तवि- (२) उ०-चार सूर्य तपाते थे, तपाते हैं और तपाएँगे । स्संति वा, (३) ७०-तिण्णि वावण्णा महग्गहसया चारं रिसुवा, (३) उ०-तीन सौ बावन महाग्रह गति करते थे, गति चरंति वा, चरिस्संति वा, करते हैं और गति करेंगे। (४) उ०-बारस णक्खत्तसयं जोगं जोएंसु वा जोएंति वा, (४) उ०-बारह सौ नक्षत्र योग करते थे, योग करते हैं जोइस्संति वा, और योग करेंगे। (५) उ०-दो सयसहस्सा सटुिं च सहस्सा णव य सया (५) उ०-दो लाख सडसठ हजार नौ सौ कोटाकोटी तारागण कोडाकोडीणं सोभं सोभेसु बा, सोभंति तारागण सुशोभित होते थे; सुशोभित होते हैं और सुशोभित वा, सोभिस्संति वा, होंगे। गाहाओ गाथार्थचत्तारि चेव चंदा, चत्तारि य सुरिया लवणेताए। लवणसमुद्र में चार चन्द्र, चार सूर्य, बारह सौ नक्षत्र, तीन बारस णक्खत्तसयं गहाण तिण्णेव बावण्णा ॥ सौ बावन ग्रह और दो लाख सडसठ हजार नौ सौ कोटाकोटी दो च्चेव सयसहस्सा, सट्टि खलु भवे सहस्साई। तारागण हैं। णव य सया लवणजले, तारागण कोडिकोडी णं ।' —सूरिय० पा० १६, सु० १०० -(क्रमशः ४३३ का) उ-ता एगमेगस्स णं चंदस्स देवस्स अट्ठासीति गहा परिवारो पण्णत्तो, अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तोगाहा छावट्टिसहस्साई णव चेव सताइं पंचुत्तराई (पंचसयराई) । एगमसीपरिवारो, तारागणकोडिकोडीणं परिवारो पण्णत्तो ।।* -सूर. पा. १८, सु. ६१ * तुलना-(क) जम्बु. वक्ख. ७, सु. १६३ । (ख) जीवा. प. ३, उ. २, सु. १६४ । १ (क) चंद. पा. १६, सु. १००। (ख) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५५ । (य) भग. स. ६, उ. २, सु.३ । (घ) ठाणं अ. ४, उ. २, सु. ३०५ । Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ९३३-९३४ तिर्यक् लोक : धातकीखण्ड में ज्योतिषिदेव गणितानुयोग ४३५ धायइसंडे जोइसिय देवा धातकीखण्डद्वीप में ज्योतिष्क देव१३३. (१) ५०-धायइसंडे दीवे ६३३. (१) प्र०-धातकीखण्ड द्वीप मेंकेवइया चंदा पभासेंसु वा, पभासिति वा, पमा- कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और प्रभासिस्संति वा? सित होंगे ? (२) प०-केवइया सूरिया तवेंसु वा, तविति वा, तवि- (२) प्र०—कितने सूर्य तपाए थे, तपाते हैं और तपाएँगे ? सिस्संति वा? (३) ५०-केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा, चरि- (३) प्र०-कितने ग्रह गति करते थे, गति करते हैं और स्संति वा? गति करेंगे? (४) प०-केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा, (४) प्र.-कितने नक्षत्र योग करते थे, योग करते हैं और जोइस्संति वा? योग करेंगे? (५) ५०-केवइया तारागण कोडाकोडीओ, सोभं सोभेसु वा, (५) प्र०—कितने कोटाकोटी तारागण सुशोभित होते थे, सोभंति वा, सोभिस्संति वा? सुशोभित होते हैं और सुशोभित होंगे? धायइसंडे दीवे (१) उ०-धातकीखण्ड द्वीप में(१) उ०-बारस चंदा पभासेंसु वा, पभासंति वा, पमा- बारह चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और प्रभासिस्संति वा, सित होंगे। (२) उ.-बारस सूरिया तवेंसु वा, तविति वा तविसिस्संति (२) उ०-बारह सूर्य तपाते थे, तपाते हैं और तपाएंगे । वा, (३) उ०—एगं छप्पण्णं महग्गहसहस्सं चारं चरिसुवा, चरंति (३) उ०—एक सौ छप्पन महाग्रह गति करते थे, गति वा, चरिस्संति वा, करते हैं और गति करेंगे। (४) उ०—तिणि छत्तीसा णक्खत्तसया जोगं जोएंसु वा, (४) तीन सौ नक्षत्र योग करते थे, योग करते हैं और योग जोएंति वा, जोइस्संति वा, करेंगे। (५) उ०-अवसय सहस्सा, तिण्णि सहस्साई सत्त य सयाई। (५) उ०-आठ लाख तीन हजार सात सौ कोटाकोटी एगससीपरिवारो, तारागणकोडिकोडी णं सोभं तारागण सुशोभित होते थे, सुशोभित होते हैं और सुशोभित होंगे। सो सु वा, सोभंति वा, सोभिस्संति वा ॥ गाहाओ गाथार्थचउवीसं ससि-रविओ, णक्खत्तसया य तिणि छत्तीसा। धातकीखण्ड द्वीप में बारह चन्द्र, बारह सूर्य, तीन सौ छत्तीस एगं च गहसहस्सं, छप्पणं धायइसंडे ॥ नक्षत्र, एक हजार छप्पन ग्रह, आठ लाख तीन हजार सात सौ अट्ठव सयसहस्सा, तिण्णि सहस्साई सत्त य सयाई। कोटाकोटी तारागण हैं । धायइसंडे दीवे, तारागण कोडिकोडी ॥ -सूरिय० पा० १६, सु० १०० कालोद समुद्दे जोइसिय देवा कालोदसमुद्र में ज्योतिष्क देव-६३४. (१) ५०–ता कालोयणे णं समुद्दे ६३४. (१) प्र०—कालोदसमुद्र मेंकेवइया चंदा पभासिसु वा, पभासिति वा, पभा- कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और सिस्संति वा? प्रभासित होगे? १ (ख) भग. स.६, उ. २, सु. ४ । (क) चंद पा. १६, सु. १०० । (ग) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७४ । Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : पुष्करवरद्वीप में ज्योतिषिदेव सूत्र ६३४-६३५ (२) ५०-केवइया सूरा विसु वा, तवेति वा, तविस्संति वा? (२) प्र०-कितने सूर्य तपाते थे, तपाते हैं और तपाते होगे? (३) ५०-केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा, चरि- (३) प्र०-कितने ग्रह गति करते थे, गति करते हैं और स्संति वा? गति करेंगे? (४) प०-केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा, (४) प्र०—कितने नक्षत्र योग करते थे, योग करते हैं और जोइस्संति वा? __योग करेंगे? (५) ५०--केवइया तारागण कोडि कोडीओ सोभं सोभेसु वा (५) प्र०—कितने कोटाकोटी तारागण सुशोभित होते थे, सोभंति वा, सोभिस्संति वा ? सुशोभित होते हैं और सुशोभित होंगे? (१) उ०-ता कालोयणे णं समुद्दे (१) उ०-कालोदसमुद्र मेंबायालीसं चंदा पभासेंसु वा पभासिति वा, पभा- बियालीस चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और सिस्संति वा, प्रभासित होंगे। (२) उ०-बायालीसं सूरा तवेंसु वा, तति वा, तविस्संति वा, (२) उ०-बियालीस सूर्य तपाते थे, तपाते हैं और तपाएँगे। (३) उ०—तिन्नि सहस्सा छच्च छन्नउया महगहसया चारं (३) उ०—तीन हजार छ: सौ छिनवे महाग्रह गति करते चरिंसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा, थे; गति करते हैं और गति करेंगे। (४) उ०-एक्कारस छावत्तरा णक्खत्तसग जोगं जोइंसु वा, (४) उ०—इग्यारह सौ छिहत्तर नक्षत्र योग करते थे, योग जोएंति वा, जोइस्संति वा, करते हैं और योग करेंगे। (५) उ०-अट्ठावीसं सयसहस्साइं, बारस सहस्साई नव य (५) उ०-अट्ठावीस लाख बारह हजार नौ सौ कोटाकोटी सयाइं पण्णासा तारागण कोडिकोडीओ सोभं तारागण सुशोभित होते थे, सुशोभित होते हैं और सुशोभित सोभेसु वा सोभंति वा, सोभिस्संति वा, होंगे। गाहाओ गाथार्थबायालीसं चंदा, बायालीसं च दिणकरादित्ता । कालोद समुद्र में वियालीस चन्द्र, बियालीस सूर्य कालोदहिमि एए, चरंति संबद्धलेसागा ॥ इग्यारह सौ छिहत्तर नक्षत्र, तीन हजार छः सौ छिनवे णक्खत्तसहस्सं, एगमिव छावत्तरं ज सतमण्णे। महाग्रह और छच्चसया छण्णउया, महग्गह, तिण्णि य सहस्सा॥ अदावीसं सयसहस्सं, बारस य सहस्साई। अट्ठावीस लाख बारह हजार नौ सौ पचास कोटा कोटी णव य सया पण्णासा, तारागण कोडिकोडीणं'॥ तारागण हैं। -सूरिय० पा० १६, सु० १०० पुक्खरवरदीवे जोईसिय देवा पुष्करवरद्वीप में ज्योतिष्क देव६३५. (१) ५०–ता पुक्खरवरे णं दीवे ६३५. (१) प्र०-पुष्करवरद्वीप मेंकेवइया चंदा पभासेंसु बा, पभासिति वा, पभा- कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और प्रभासिस्संति वा ? सित होंगे? (२) ५०-केवइया सूरा विसु वा, तति वा, तविस्संति वा? (२) प्र०—कितने सूर्य तपाते थे, तपाते हैं और तपाएँगे? (३) प०-केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा, चरि- (३) प्र०-कितने ग्रह गति करते थे, गति करते हैं और स्संति वा? __गति करेंगे? (४) ५०-केवइया लक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा (४) प्र०—कितने नक्षत्र योग करते थे, योग करते हैं और जोइस्संति वा? योग करेंगे? १ (क) चंद पा. १६, सु. १००। (ग) भग. स. ६, उ. २, सु. ४ । (ख) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७५ । (घ) सम. ४२, सु. ४ । Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६३५-६३६ तिर्यक् लोक : पुष्करवरद्वीप में ज्योतिषिकदेव गणितानुयोग ४३७ (५) ५०-केवइया तारागणकोडिकोडिओ सोभ सोभेसु वा, (५) प्र०-कितने कोटाकोटी तारागण सुशोभित होते थे, सोभंति वा, सोभिस्संति वा ? सुशोभित होते हैं और सुशोभित होंगे ? (१) उ०-पुक्खरबरे णं दीवे-- . (१) उ०—पुष्करवर द्वीप मेंता चोयालं चंदसयं पभासेंसु वा, पभासिति वा, एक सौ चम्मालीस चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं पभासिस्संति वा, और प्रभासित होंगे। (२) उ०-चोयालं सूरियाणं सयं तविसं वा, तति वा, (२) उ०—एक सौ चम्मालीस सूर्य तपाते थे, तपाते हैं और तविस्संति वा, तपाएंगे। (३) उ०-बारस सहस्साई छच्च बावत्तरा महग्गहसया चारं (३.) उ०-बारह हजार छ: सौ बहत्तर महाग्रह गति करते चरिसुवा, चरंति वा, चरिस्संति वा, थे, गति करते हैं और गति करेंगे । (४) उ०-चत्तारि सहस्साई बत्तीसं च णक्खत्ता जोगं जोएंसु (४) उ०-चार हजार बत्तीस नक्षत्र योग करते थे, योग वा, जोएंति वा, जोइस्संति वा, करते हैं और योग करेंगे। (५) उ०-छण्णउइसयसहस्साई चोयालीसं सहस्साइं चत्तारि (५) उ०-छिनवे लाख चमालीस हजार चार सौ कोटा य सयाई तारागणकोडिकोडी णं सोभं सोभेसु वा, कोटी तारागण सुशोभित होते थे, सुशोभित होते हैं और सुशोसोभेति वा, सोभिस्संति वा, भित होंगे। गाहाओ गाथार्थचत्तालं चंदसयं, चत्ताल चेव सूरियाण सयं। पुष्करवरद्वीप में चम्मालीस सौ चन्द्र चम्मालीस सौ सूर्य पोक्खरवरबीवम्मि य, चरंति एए पभासंता ॥ प्रकाश करते हुए विचरते हैं, चत्तारि सहस्साई बत्तीसं चेव हुँति णक्खता। चार हजार बत्तीस नक्षत्र, बारह हजार छ: सौ बहत्तर छच्च सया बावत्तरं, महग्गहा बारह सहस्सा ॥ महाग्रह, (तथा) छण्णउइ सय सहस्सा चोत्तालोसं खलु भवे सहस्साई। छिनवे लाख चम्मालीस हजार चार सौ कोटाकोटी तारागण चत्तारि य सया खलु, तारागणकोडिकोडी णं॥ हैं। -सूरिय. पा. १६. सु० १०० अब्भंतरपुक्खरद्ध जोइसिय देवा . आभ्यन्तर पुष्करार्ध में ज्योतिष्क देव -- ९३६. (१) ५०-ता अन्भिंतर पुक्खरखे , ६३६. प्र० -आभ्यन्तर पुष्करार्ध मेंकेवइया चंदा पभासेंसु वा, पभासिति वा, पभा- कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और प्रभासिस्संति वा। सित होंगे? (२) १०-- केवइया सूरा तवेंसु वा, तवेति वा, तविस्संति वा? (२) प्र०--कितने सूर्य तपाते थे, तपाते हैं और तपाएंगे? (३) ५०-केवइया गहा चार चरिंसु वा, चरंति वा, चरि- (३) प्र०—कितने ग्रह गति करते थे, गति करते हैं और स्संति वा? गति करेंगे? (४) ५०-केवइया णक्खत्ता जोगं जोएंसु वा, जोएंति वा, (४) प्र०-कितने नक्षत्र योग करते थे. योग करते हैं और जोइस्संति वा? ___ योग करेंगे? (५) ५०-केवइया तारागण कोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा, (५) प्र०-कितने कोटा कोटी तारागण सुशोभित होते थे, सोभंति वा, सोभिस्संति वा ? सुशोभित होते हैं और सुशोभित होंगे। (१) उ०-अभिंतर पुक्खर णं (१) उ०-आभ्यन्तर पुष्करार्ध मेंबावरि चंदा पभासेंसु वा, पभासिति वा, पभा- बहत्तर चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और प्रभासिस्संति वा, सित होंगे। १ (ख) जीवा, पडि. ३, उ. २, सु. १७६ । (क) चंद पा. १६, सु. १००। (ग) भग. स. ६, उ. २, सू. ४ । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : पुष्करोद समुद्र में ज्योतिषिकदेव सूत्र ६३६-६३७ (२) उ०-बावरि सूरिया तवेंसु वा, तति वा, तविस्संति (२) प्र०- बहत्तर सूर्य तपाते थे तपाते हैं और तपाएँगे। वा, । उ०-छ महग्गहसहस्सा तिन्निसए य छत्तीसा चारं (३) ख०-छः हजार तीन सौ छत्तीस महाग्रह गति करत चरेसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा, थे. गति करते हैं और गति करेंगे। (४) उ०-दोण्णि सोला णक्खत्तसहस्सा जोग जोएंसु वा, (४) उ०- सोलह हजार दो नक्षत्र योग करते थे, योग जोएंति वा, जोइस्संति वा, करते हैं और योग करेंगे। (५) उ०-अडयालीस सयसहस्सा, बावीसं च सहस्सा दोण्णि (५) उ०- अड़तालीस लाख बाईस हजार दो सौ कोटा य सया तारागणकोडिकोडीणं सोभं सोभेसु वा कोटी तारागण सुशोभित होते थे, सुशोभित होते और सुशोभित सोभंति वा सोभिस्संति वा, होंगे। गाहाओ गाथार्थबावरि च चंदा बावत्तरिमेव दिणकरादित्ता। पुष्करवरद्वीपार्ध में बहत्तर चन्द्र, बहत्तर सूर्य प्रकाश करते पुक्खरवरदीवड्ढे, चरंति एए पभासेंता ॥ हुए विचरते हैं । तिणि सया छत्तीसा, छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु। छः हजार तीन सौ छत्तीस महाग्रह सोलह हजार दो नक्षत्र, णक्खत्ताणं तु भवे, सोलाई दुवे सहस्साई ॥ अडयालसय सहस्सा, बाबीसं खलु भवे सहस्साई। अड़तालीस लाख बाईस हजार दो सौ कोटाकोटी तारागण है। दो य सण पुक्खरद्ध, तारागण कोडिकोडीणं'। -सूरिय. पा. १६, सु. १०० पुक्खरोदे समुद्दे जोइसिया देवा पुष्करोद समुद्र में ज्योतिष्कदेव६३७. ५०–ता पुक्खरोदे णं समुद्दे ६३७. (१) प्र०—पुष्करोदसमुद्र में(१) केवइया चंदा पभासिसु वा, पभासिति बा, पभा- कितने चन्द्र प्रकाशित हुए हैं, प्रकाशित होते हैं और प्रकाशित सिस्संति वा? होंगे? (२) केवइया सूरा विसु वा, तविति वा, तविस्संति (२) कितने सूर्य तपे, तपते हैं और तपेंगे ? वा? (३) कितने ग्रह गति युक्त रहे, गति युक्त हैं और गति युक्त रहँगे? (३) केवइया गहा चारं चरिसु वा, चारं चरंति वा, चारं चरिस्संति वा? (४) केवइया णक्खत्ता जोगं जोएंसु वा, जोगं जोएंति वा, जोगं जोइस्संति वा? (५) केवइया तारा सोभं सोभिसु वा, सोभं सोभंति वा, सोभं सोभिस्संति वा ? उ०—(१) पुक्खरोदे णं समुद्दे संखेज्जा चंदा पभासिसु वा, पभासिति वा, पभा- सिस्संति वा, (२) संखेज्जा सूरा तविसु वा, तविति वा, तविस्संति वा, (३) संखेज्जा गहा चारं चरिंसु वा, चारं चरंति वा, चारं चरिस्संति वा, (४) कितने नक्षत्र (चन्द्र या सूर्य) के साथ योग युक्त रहे, योग युक्त हैं और योग युक्त रहेंगे? (५) कितने तारागण शोभा से सुशोभित हुए, शोभा से सुशोभित हैं और शोभा से सुशोभित होंगे? (१) उ०—पुष्करोद समद मेंसंख्येय चन्द्र प्रकाशित हुए प्रकाशित है और प्रकाशित होंगे। (२) संख्येय सूर्य तपे, तपते हैं और तपेंगे। (३) संख्येय ग्रह गति युक्त रहे, गति युक्त हैं और गति युक्त रहेंगे। १ (क) चंद पा. १६, सु. १०० । (ग) भग. स. ६, उ. २, सु.५। (ख) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु, १७६ । (घ) सम. ७२, सु. ५। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६३७-६३८ तिर्यक् लोक : समयक्षेत्र में ज्योतिषिकदेव गणितानुयोग ४३६ (४) संखेज्जा णक्खत्ता जोगं जोएंसु वा, जोगं जोएंति (४) संख्येय नक्षत्र योग युक्त रहे, योग युक्त है और योग ___वा, जोगं जोइस्संति वा, युक्त रहेंगे। (५) संखेज्जा तारागण कोडाकोडीणं सोभं सोभिंसु वा, (५) संख्येय कोटाकोटी तारागण शोभा से सुशोभित रहे, सोभं सोभिति वा, सोभं सोभिस्सिंति वा। शोभा से सुशोभित है और शोभा से सुशोभित रहेंगे । -सूरिय. पा. १६, सु० १०१ समयखेत्ते जोइसिय देवा मनुष्यक्षेत्र में ज्योतिष्क देव .... ६३८. (१) ५०–ता समयखेत्ते णं केवइया चंदा पभासेंसु वा, पभा- ६३८. (१) प्र०—मनुष्य क्षेत्र मेंसंति वा; पभासिस्संति वा ? कितने चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और प्रभा सित होंगे ? (२) ५०–केवइया सूरा तवेंसु वा, तवंति वा, तविस्संति वा? (२) प्र-कितने सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपते होंगे ? (३) प०–केवइया गहा चारं चरिंसु वा, चरंति वा, चरि- (३) प्र०—कितने ग्रह गति करते थे, गति करते हैं और स्संति वा? गति करेंगे। (४) ५०–केवइया णक्खत्ता जोगं जोइंसु वा, जोइंति वा, (४) प्र०-कितने नक्षत्र योग करते थे, योग करते हैं और जोइस्संति वा? योग करेंगे? (५) ५०–केवइया तारागण कोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा (५) प्र०-कितने कोटाकोटी तारागण सुशोभित होते थे, सोभंति वा, सोभिस्संति वा ? सुशोभित होते हैं और सुशोभित होंगे? (१) उ०—समयखेत्ते-- . (१) उ०—मनुष्य क्षेत्र मेंता बत्तीसं चंदसयं पभासेंसु वा, पभासंति वा, एक सौ बत्तीस चन्द्र प्रभासित होते थे, प्रभासित होते हैं और पभासिस्संति वा, प्रभासित होंगे। (२) उ०—ता बत्तीसं सूरसयं तवेंसु वा, तति वा (२) उ०—एक सौ बत्तीस सूर्य तपते थे, तपते हैं और तविस्संति वा, तपेंगे। (३) उ०–ता एक्कारस सहस्सा छच्च सोलस महग्गहसया (३) उ०—इग्यारह हजार छः सौ सोलह महाग्रह गति चार चरिसु वा, चरंति वा, चरिस्संति वा, करते थे, गति करते हैं और गति करेंगे। (४) उ०–ता तिण्णि सहस्सा छच्च छण्णउया णक्खत्तसया (४) उ० -तीन हजार छ: सौ छिनवे नक्षत्र योग करते थे, जोगं जोएंसु वा, जोएंति वा, जोइस्पति वा, योग करते हैं और योग करेंगे। (५) उ०—ता अट्टासीई सय सहस्साई चत्तालीसं च सहस्सा (५) उ०-अट्ठासी लाख चालीस हजार सात सौ कोटा सत्त य सया तारागण कोडिकोडिणं सोभं सोभेसु कोटी तारागण सुशोभित होते थे, सुशोभित होते हैं और सुशोभित वा, सोभंति वा. सोभिस्संति वा, होंगे। गाहाओ गाथार्थबत्तीसं चंदसयं, बत्तीसं चेव सूरियाणं सयं । मनप्य क्षेत्र में एक सौ बत्तीस चन्द्र एक सौ बत्तीस सूर्य सयलं माणुसलोयं चरंति एए पभासेंता॥ प्रकाश करते हुए विचरते हैं । एक्कारस य सहस्सा, छप्पिय सोला महग्गहाणं तु। . इग्यारह हजार छः सौ सोलह ग्रह, तीन हजार छ: सौ छिनवे छच्च सया छण्णउया णक्खत्ता तिण्णि य सहस्सा ॥ नक्षत्र और अट्ठासीइ चत्ताई सय सहस्साई मणुयलोमि। अट्टासी लाख चालीस हजार सात सौ कोटाकोटी तारागण है। सत्त य सया अणणा, तारागणकोडिकोडीणं॥ -सूरिय. पा. १६, सु० १०० १ (क) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८० । (ख) चंद. पा. १६ सु. १०१ । २ (क) चंद पा. १६, मु. १००। (ख) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७७ । (ग) भग. स. ६, उ. २, सु. ४ । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक लोक : वरुणवरद्वीप में ज्योतिषिकदेव सूत्र ६३६-६४१ वरुणवराइसु दीव-समुद्देसु जोइसिया देवा वरुणवरादि द्वीप-समुद्रों में ज्योतिष्कदेव६३६. एवं एएणं अभिलावेणं ६३६. इसी प्रकार इस अभिलाप से१. वरुणवरे दीवे', २. वरुणोदे समुद्दे, (१) वरुणवरद्वीप, (२) वरुणोद समुद्र, १. खीरवरे दीवे, २. खीरोदे समुद्दे, (१) क्षीरवरद्वीप, (२) वरुणोद समुद्र, १. घयवरे दीवे, २. घयोदे समुद्दे, (१) घृतवरद्वीप, (२) घृतोद समुद्र, १. खोयवरे दीवे, २. खोयोदे समुद्दे, (१) क्षोतवरद्वीप, (२) क्षोतोद समुद्र, १. नंदीसरवरे दोवे, २. नंदीसरे समुद्दे, (१) नन्दीश्वरवरद्वीप, (२) नन्दीश्वर समुद्र, १. अरुणे दोवे, २. अरुणोदे समुद्दे, (१) अरुणद्वीप, (२) अरुणोद समुद्र, १. अरुणवरे दीवे, २. अरुणवरोदे समुद्दे, (१) अरुणवरद्वीप, (२) अरुणवरोद समुद्र, १. अरुणवरोभासे दीवे, २. अरुणवरभासोदे समुद्दे', (१) अरुणवरोभासद्वीप, (२) अरुणवरोभासोद समुद्र, १. कुण्डले दीवे, २. कुण्डलोदे समुद्दे, (१) कुण्डलद्वीप, (२) कुण्डलोद समुद्र, १. कुण्डलवरे दीवे, २. कुण्डलवरोदे समुद्दे, (१) कुण्डलवरद्वीप, (२) कुण्डलवरोद समुद्र, १. कुण्डलवरोभासे दीवे, २. कुण्डलवरभासोदे समुद्दे, (१) कुण्डलवरोभासद्वीप, (२) कुण्डलवरभासोद समुद्र, सव्वेसि जोइसाई पुक्खरोदसागरसरिसाई । इन सबके ज्योतिष्क देव पुष्करोद सागर के सदृश हैं। - सूरिय. पा. १६, सु. १०१ रुयगाइसु दीव-समद्देसु जोइसिया देवा रुचकादि द्वीप-समुद्रों में ज्योतिष्कदेव१४०. ५०–ता रुयगे णं दीवे केवइया चंदा पभासेंसु वा-जाव- ६४०. प्र०-रुचकद्वीप में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे-यावत केवइया तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा -कितने कोटा कोटी तारागण सुशोभित होंगे? सोभिस्संति वा ? उ०–ता रुयगे णं दीवे असंखेज्जा चंदा पभासेसु वा-जाव- उ०-रुचकद्वीप में असंख्य चन्द्र प्रभासित होते थे-यावत असंखेज्जाओ तारागण कोडिकोडीओ सोमं सोभिस्संति असंख्य कोटा कोटी तारागण सुशोभित होंगे । वा? एवं रुयगोदे समुद्दे, इसी प्रकार रुचकोद समुद्र है। १. रुयगवरे दीवे, २. रुयगवरोदे समुद्दे, (१) रुचकवरद्वीप, (२) रुचकवरोद समुद्र, २. रुयगवरोभासे दीवे, २. रुषगवरभासोदे समुद्दे, (१) रुचकवरोभास द्वीप, (२) रुचकवरभासोद समुद्र, एवं तिपडोयारा दीब-समुद्दा णायव्वा,-जाव इस प्रकार तीन-तीन द्वीप-समुद्र जानने चाहिए-यावत्१. सूरे दीवे, २. सूरोदे समुद्दे, (१) सूरद्वीप, (२) सूरोद समुद्र, १. सूरवरे दोवे, २. सूरवरोदे समुद्दे, । (१) सूरवरद्वीप, (२) सूरवरोद समुद्र, १. सूरवरोभासे दीवे, २. सूरवरभासोदे समुद्दे, (१) सूरवरोभासद्वीप, (२) सूरवरभासोद समुद्र । सव्वेसि जोइसाई रुयगवर दीव-सरिसाई, इन सबके ज्योतिष्क देव रुचक द्वीप के सदृश है। -सूरिय..पा. १६, सु. १०१ देवाइसु दीव-समुद्देसु जोइसिया देवा देवादि द्वीप-समुद्रों में ज्योतिष्कदेव९४१.५०–ता देवे णं दीवे केवइया चंदा पभासेंसु वा-जाव-केवइया ६४१. प्र०-देव द्वीप में कितने चन्द्र प्रभासित होते थे-यावत तारागण कोडिकोडीओ सोभं सोभेसु वा ? कितने कोटा कोटी तारागण सुशोभित होंगे? १ जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८० । ३-४ (क) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८५ । ५ जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८५ । २ जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८२ । (ख) चंद. पा. १६, सु. १०१ । ६ चंद. पा. १६ सु. १०१ । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४१-९४३ तिर्यक् लोक : देवादि द्वीप में ज्योतिषिक देव उ०- ता देवे णं दीवे असंखेज्जा चंदा पभासेंसु वा जावअसंखेज्जाओ तारागणकोडिकोडीओ सोभं सोभैंसु वा, एवं देवोदे समुद्दे - १. जागे दीवे, २. णागोदे समुद्दे, १. जक्खे दीवे, २. जक्खोदे समुद्दे. १. भूदी २. समु १. सयंभुरमणे दीवे, २. सयंभुरमणे समुद्दे, ' ससि जसा देवदीय सरिसाई ।" सूर. पा. १२. सु. १०१ जोइसियाणं अप्प - बहुत्तं— ४२. ५० - ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गह ताराणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? उ०- ता चंदा थ सूराय एएणं दोवि तुल्ला, सव्वत्थोवा णक्खत्ता, संखिज्जगुणा गहा, खिजगुणा तारा - सूरिय. पा. १८, सु. १०० उ०- दोषमा इक्कारसहि इक्कीसेहि जोहि अवाहाए जोइस चारं चर, - जंबु. वक्ख. ४, सु. १६४ १ जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १८५ । ३ (क) जम्बु बक्ख. ७, सु. १७२ । उ० – देव द्वीप में असंख्य चन्द्र प्रभासित होते - यावत्असंख्य कोटा कोटी तारागण सुशोभित होंगे । इसी प्रकार देवोद समुद्र है (१) नागद्वीप, (२) नागोद समुद्र, (२) यक्षद्वीप, (२) यक्षोद समुद्र, (१) भूतद्वीप (२) भूतोद समुद्र, (१) स्वयंभूरमण द्वीप, (२) स्वयंभूरमण समुद्र सबके ज्योतिक देव देवद्वीप के सदृश हैं। गणितानुयोग ज्योतिष्कों का अल्प-बहुव ९४२. प्र० - इन चन्द्र-सूर्य ग्रह नक्षण और ताराओं में कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है और विशेषाधिक है ? - चन्द्र और सूर्य तुल्य है । उ० २ सबसे अल्प नक्षत्र है । ग्रह संख्येव गुण है। तारा संख्येय गुण है । मंदरपव्वयाओ जोइसियाणं अंतर मन्दर पर्वत से ज्योतिष्कों का अन्तर ४३. ५० - मंदरस्स णं भंते ! पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए जोइस ९४३. प्र० - हे भगवन् ! मन्दरपर्वत से कितने अन्तर पर चारं चरइ ? ज्योतिष्क गति करते हैं ? ४४१ उ०- हे गौतम! इग्यारह सौ इकवीस योजन के अन्तर पर ज्योतिष्क गति करते हैं । चंद. पा. १६ सु. १०१ । (ख) चंद. पा. १८, सु. ६६ ॥ (ग) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. २०६ ॥ ४ (क) जम्बूद्दीने दी दीने मंदरस्स पम्ययस्त एक्कारसहि एक्कसीसेहि जोनसह अवाहाए जोइसेवा परंत - सम. ११, सु. ३ (ख) प० - ता मंदरस्स पव्वतस्स केवतियं अबाधाए जोइसे चारं चरइ ? उ०- ता एक्कारस एक्कवीसे जोयणसते अबाधाए जोइसे चारं चरति । यूरिय. पा. १० सु. १२ -- 7 (ग) प० - जम्बुदीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ केवइयं अत्राहाए जोइस चारं चरति ? उ०- गोपमा ! एक्कारसहि एक्वीहि जोपणसएहि अवाहाए जोइस वारं चरति एवं दक्षताओं पवत्विमिल्लाओ, उत्तरिलामो परिमंताओ एस्कारसहि जणसह अहए जो नारं चरति । जीवा पहि. १ . २ सु. १२५ (घ) इस प्रश्नोत्तर सूत्र में ज्योतिष्कों का जो अन्तर कहा गया हैं वह जम्बुद्वीप के मध्यभागवति मन्दर (मेरु) पर्वत की अपेक्षा से ही कहा गया है । इसी प्रकार धातकीखण्ड और पुष्करार्ध द्वीप के शेष चार मन्दर पर्वतों से भी इतने ही अन्तर पर ज्योतिष्क विमान हैं । Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लोकान्त से ज्योतिष्कों का अन्तर सूत्र ६४४-६४५ लोगताओ जोइसियाणं अन्तरं लोकान्त से ज्योतिष्कों का अन्तर१४४. ५०-लोगताओ णं भंते ! केवइआए अबाहाए जोइसे ६४४. प्र०-हे भगवन् ! लोकान्त से कितने अन्तर पर ज्योतिष्क पण्णत्ते ? कहे गये हैं ? उ०—गोयमा ! एक्कारस एक्कारसेहिं जोयणसएहि अबाहाए उ०-हे गौतम ! लोकान्त से इग्यारह सौ इग्यारह योजन जोइसे पण्णत्ते', -जंबु. बक्ख. ७, सु. १६४ के अन्तर पर ज्योतिष्क कहे गये हैं । चंदाइच्चाइणं भूमिभागाओ उड्ढतं चन्द्र-सूर्य आदि की भू-भाग से ऊँचाई१४५. ५०–ता कहं ते उच्चत्ते आहितेति बदेज्जा ? ६४५. प्र०-चन्द्र-सूर्य आदि की भूभाग से कितनी ऊँचाई कही गई है; सो कहें ? उ०-तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तिओ पण्णत्ताओ उ०-इस सम्बन्ध में ये पच्चीस प्रतिपत्तियाँ कही गई हैं तं जहा यथा१. तत्थेगे एवमाहसु (१) इनमें से कुछ पर-तीथिकों ने ऐसा कहा हैता एग जोयणसहस्सं सूरे उड्ढं उच्चत्ते णं दिवड्ढं चंदे, सूर्य एक हजार योजन ऊँचाई पर है, चन्द्र डेढ हजार योजन एगे एवमाहंसु, ऊँचा है। २. एगे पुण एवमाहंसु (२) कुछ पर-तीथिकों ने ऐसा कहा है-- ता दो जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अड्ढाति- सूर्य दो हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र ढाई हजार योजन ज्जाइं चंदे, एगे एवमाहंसु, ऊँचा है। ३. एगे पुण एवमाहंसु (३) कुछ पर-तीथिकों ने ऐसा कहा हैता तिनि जोयणसहस्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं, अद्ध - सूर्य तीन हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे तीन हजार ढाई चंदे, एगे एवमाहंसु, योजन ऊँचा है। ४. एगे पुण एवमाहंसु (४) कुछ पर-तीथिकों ने ऐसा कहाता चत्तारि जोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्ध- सूर्य चार हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे चार हजार पंचमाइं चंदे, एगे एवमाहंसु, योजन ऊँचा है। १ (क) लोगताओ णं एक्कारसहि एक्कारेहिं जोयणसहि अबाहाए जोइसे पण्णत्ते । --सम. ११, सु. २ (ख) जीवा. प. ३, सु. १६५ । (ग) प०–ता लोअंताओ णं केवइयं अबाहाए जोइसे पण्णत्ते ? उ०-ता एक्कारस एक्कारे जोयणसए अबाहाए जोइसे पण्णत्ते । -सूरिय. पा. १८ सु. ६२ (घ) लोकान्त से इग्यारह सौ इग्यारह योजन के अन्तर पर जो ज्योतिष्क हैं वे स्थिर ज्योतिष्क है, क्योंकि इस प्रश्नोत्तर सूत्र में ज्योतिष्कों की गति का कथन नहीं है। मनुष्य क्षेत्र के अन्तिम भाग से अर्थात् मनुष्य क्षेत्र के बाहर लोकान्त पर्थन्त स्थिर ज्योतिष्क हैं, मनुष्य क्षेत्र के बाहर लोकान्त पर्यन्त का क्षेत्र असंख्य योजन विस्तृत है, इसमें असंख्य स्थिर ज्योतिष्कदेव हैं। गाहाओ अंतो मणुम्सखेत्ते, हवंति चारोवगा य उववण्णा । पंचविहा जोइसिया, चंदासूरागहगणा य ।। तेण परं जे सेसा, चंदाइच्च-गह-तार-नक्खत्ता । नात्थि गई न वि चारो, अवट्ठिया ते मृणेयब्बा ।। -जीवा. प. ३, उ.२, सू.१७७ गा. २१, २२. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६४५ तिर्यक् लोक : लोकान्त से ज्योतिष्कों का अन्तर गणितानुयोग ४४३ ५. एगे पुण एवमाहंसु (५) कुछ परतीथिकों ने ऐसा कहा हैता पंच जोयणसहस्साइं सूरे उच्चत्तेणं, अद्धछट्ठाई चंदे, सूर्य पांच हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे पाँच हजार एगे एवमाहंसु, योजन ऊँचा है। ६. एगे पुण एवमाहंसु (६) कुछ परतीथिकों ने ऐसा कहा हैता छ जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धसत्त- सूर्य छः हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे छः हजार योजन माई चंदे, एगे एवमाहंसु, ___ ऊँचा है। ७. एगे पुण एवमाहंसु (७) कुछ परतीथिकों ने ऐसा कहा हैता सत्तजोयणसहस्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं अट्ठमाई सूर्य सात हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे सात हजार चंदे, एगे एवमाहंसु, योजन ऊँचा है। ८. एगे पुण एवमाहंसु (८) कुछ परतीथिकों ने ऐसा कहा हैता अट्ट जोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं अद्धनव- सूर्य आठ हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साड़े आठ हजार माइं चंदे, एगे एवमाहंसु, योजन ऊँचा है। ६. एगे पुण एवमाहंसु, (8) कुछ परतीथिकों ने ऐसा कहा हैता नवजोयणसहस्साइं सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं, अद्धदसमाई सूर्य नौ हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे नौ हजार योजन चंदे, एगे एवमाहंसु ऊँचा है। १०. एगे पुण एवमाहंसु (१०) कुछ परतीथिकों ने ऐसा कहा हैता दसजोयणसहस्साई सूरे उड्ढे उच्चत्तेणं, अद्ध- सूर्य दस हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे दस हजार योजन एक्कारस चंदे, एगे एवमाहंसु, ऊँचा है। ११. एगे पुण एवमाहंसु (११) कुछ परतीथिकों ने ऐसा कहा हैता एक्कारस जोधणसहस्साई मूरे उड्ढं उच्चत्तेणं अद्ध- सूर्य इग्यारह हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे इग्यारह बारस चंदे, एगे एवमाहंसु, हजार ऊँचा है। एते णं अभिलावेणं णेतव्वं नीचे लिखे अभिलाप के अनुसार पच्चीसवीं प्रतिपत्ति पर्यन्त जानें१२. बारस सूरे, अद्धतेरस चंदे, (१२) सूर्य बारह हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे बाहर हजार योजन ऊँचा है। १३. तेरस सूरे, अद्धचोद्दस चंदे, (१३) सूर्य तेरह हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे तेरह हजार योजन ऊँचा है। १४. चोद्दस सूरे, अद्धपण्णरस चंदे, (१४) सूर्य चौदह हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे चौदह हजार योजन ऊँचा है। १५. पण्णरस सूरे, अद्धसोलस चंदे, (१५) सूर्य पन्द्रह हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे पन्द्रह हजार योजन ऊंचा है। १६. सोलस सूरे, अद्धसत्तरस चंदे, (१६) सूर्य सोलह हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे सोलह हजार योजन ऊँचा है। १७. सत्तरस सूरे, अद्धअट्ठारस चंदे, (१७) सूर्य सत्तरह हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे सत्तरह हजार योजन ऊँचे हैं। १८. अट्ठारस सूरे, अद्धएकोणवीस चंदे, (१८) सूर्य अठारह हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे अठारह हजार योजन ऊँचा है। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : लोकान्त से ज्योतिष्कों का अन्तर सूत्र ६४५ १६. एकोणवीसं सूरे, अद्धवीस चन्दे, (१६) सूर्य उन्नीस हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे उन्नीस हजार योजन ऊँचा है। २०. वीसं सूरे, अद्धएक्कवीसं चन्दे, (२०) सूर्य वीस हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे बीस हजार योजन ऊँचा है। २१. एक्कदीसं सूरे, अद्धबावीसं चन्दे, (२१) सूर्य इक्कीस हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे इक्कीस हजार योजन ऊँचा है। २२. बावीसं सूरे, अद्धतेवीसं चन्दे, (२२) सूर्य बाईस हजार योजन ऊँचा हैं, चन्द्र साडे बाईस हजार योजन ऊँचा है। २३. तेवीसं सूरे, अद्धचउवीसं चन्दे, (२३) सूर्य तेईस हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे तेईस हजार योजन ऊँचा है। २४. चउवीस सूरे, अद्धपणवीसं चन्दे, (२४) सूर्य चोवीस हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे चोवीस हजार योजन ऊँचा है। २५. एगे पुण एवमाहंसु (२५) सूर्य पच्चीस हजार योजन ऊँचा है, चन्द्र साडे पच्चीस ता पणवीसजोयणसहस्साई सूरे उड्ढं उच्चत्तेणं अद्ध- हजार योजन ऊँचा है । छन्वीसं चन्दे, एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वदामो हम इस प्रकार कहते हैंता इमीसे रयणप्पभापुढवीए बहुसम-रमणिज्जाओ इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अति सम-रमणीय भूभाग से सात सौ भूमिभागाओ, सत्तणउइ जोयणसए उड्ढं उपतित्ता नव्वे योजन ऊपर-नीचे का तारा विमान चलता है। हिडिल्ले ताराविमाणे चारं चरति, अट्ट जोयणसते उड्ढं उप्पतित्ता सूरविमाणे चारं चरति, आठ सौ अस्सी योजन ऊपर चन्द्र विमान चलता है। अट्ठअसीए जोयणसए उडुढं उप्पइत्ता चंदविमाणे चार आठ सौ योजन ऊपर सूर्य विमान चलता है। चरति । णवजो सताई उड्ढं उप्पतित्ता उरि ताराविमाणे नब सौ योजन ऊपर तारा विमान संचार करता है। चारं चरति', हेट्ठिलातो ताराविमाणातो दसजोयणाइ उड्ढं उप्पइत्ता नीचे के तारा विमान से दस योजन ऊपर सूर्य विमान सूरविमाणा चार चरंति । विचरता है। नति जोयणाई उड्ढे उप्पइत्ता चंदविमाणा चार नव्वे योजन ऊपर जाने पर चन्द्र विमान चलता है । चरति । दसोत्तरं जोयणसत उड्ढं उप्पइत्ता उबरिल्ले ताराहवे एक सौ दस योजन ऊपर तारा विचरता है। चारं चरति । सूरविमाणातो असीति जोयणाई उड़ढं उप्पइत्ता सूर्य विमान से अस्सी योजन ऊपर जाने पर चन्द्र विमान चंदविमाणे चारं चरति। विचरता है। जोयणसतं उड्ढे उप्पइत्ता उबरिल्ले तारारूवे चारं सो योजन ऊपर तारा विचरण करता है। चरति । १ (क) भग. श. १४, उ.८, सु.५। (ग) सम. ६, सु. ७ । (ख) ठाण अ.६, सु. ६७० । (घ) सम. ११२, सु.५। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभूतल पृथ्वी से ज्योतिष चक्र की दूरी दर्शक चित्र तिर्यग लोक का मध्य एवं ज्योतिष चक्र शनि २०० मगल ८१४ बुध ति च्छी लोक नक्षत्र मंडल नि.श चन्द्र मंडल ८८०० पू.रा. समभूतला Fतियंग लोक +का मध्य आणज्यतर सूर्य मंडल योजन २०० योजन " केतु ००० यो. सम भूतला विशेष वर्णन के लिए देखें-सूत्र ६४५ पृष्ठ ४४४ वर्णन देखें-सूत्र ९२८ पृष्ठ ४३० पर Page #605 --------------------------------------------------------------------------  Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६४५-४६ ता चंदविमाणातो णं वीसं जोयणाई उड्ढं उप्पतित्ता उवरिल्ले तारारूवे चारं चरति । ४६. १० – ता चन्दविमाणे णं केवइयं आयाम - विक्खभे णं, तिर्यक् लोक ज्योतिषिकदेव वर्णन १ (क) चंद पा. १८, सु. ८६ । (ख) प० क एवमेव सपुव्यावरेणं मुसर जोयगतं बाहल्ले तिरियमसंखेने जोतिससिए जोतिस चारं परति । आहितेति मदेजा। सूर० पा० १८, सु०८६ चन्द-सूर-गणश्वतं ताराविमाणाण आयाम-विस्वं चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र और ताराविमानों का आयामपरिक्लेव बालाई विष्कम्भ परिधि और मोटाई चन्द्र विमान से बीस योजन ऊँचा ऊपर वाला तारा विचरण करता है । इस प्रकार सब मिलाकर एक सौ दस योजन के विस्तार में तिर्यक् असंख्य ज्योतिष्क मनुष्य लोक में विचरण करते हैं ऐसा कहा गया है । ६४६. प्र० - चन्द्र विमान काआयाम - विष्कम्भ कितना है ? - गणितानु ख - केवइयं अबाहाए सूरविमाणे चारं चरति ? ग - केवइयं अबाहाए चंदविमाणे चारं चरति ? केवयं अवाहाए सम्बउवरिल्वे तारास्ते चारं चरति ? इसी से पं भंते रमणभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ केवइ अबाहाए सम्बहेट्टिले तारास्त्रे चारं चरति ? ग—अट्ठहि असीएहि जोयणसएहि अबाहाए चंदविमाणे चारं चरति, घनवह जोयणसएहि अबाहाए सम्बउवरि - तारास्ये पारं परति । उ०- क — गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सतह णउएहि जोयणसएहि अबाहाए जोइस सम्बडिल्ले तारास्त्रे चारं परति ख-अहि जोयणसहि अहाए सुरविमाणे चारं परति ४४५ प० - क - सव्वहेट्ठिमिल्लाओ णं भंते ! तारारुवाओ केवइयं अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ ? ख - केवइयं अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ ? ग - केवइयं अबाहाए सव्वउवरिल्ले तारास्वे चारं चरइ ? उ०—क - गोयमा ! सव्वहेट्टिल्लाओ णं तारारूवाओ दसह जोयणेहि अबाहाए सूरविमाणे चारं चरइ, ख - उइए जोयणेहि अबाहाए चंदविमाणे चारं चरइ, ग - दसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सब्वोवरिल्ले तारारुवे चारं चरइ, प० - क — सूरविमाणाओ णं भंते ! केवइयं अबाहाए चंदविमाणे चारं चरति । ख - केवइयं सव्वउवरिल्ले तारारूवे चारं चरति ? उ०- गोवमा ! सुरविमाषाओ गं असीए जीवहि चंदयिमाणे चारं चरति । ख - जोयणसय अबाहाए सब्वोवरिल्ले तारारूवे चारं चरति । (ग) प० - धरणितलाओ णं भंते ! उड्ढं उप्पइत्ता केवइआए अबाहाए हिट्टिल्ले जोइसे चारं चरइ ? उ०- गोयमा ! सत्तहि उहि जोयणसएहि जोइसे चार चरह - जीवा. प. ३, २, सु. १६५ एवं सूरविमा अहि, सहि, चंदविमा अहि असीएहि उबरिल्वे तारावे नवहिं जोयणसएहि चारं चरह, प० जोइसरस अंते । डिल्लाओ याए अवाहाए सुरविमा चारं परह ? उ०- गोयमा ! दसह जोयणेहि अबाहाए चारं चरइ, एवं चंदनमा उइए जोयहि पारं चरद उवरिल्ले तारावे दत्तरे जोयणसए चारं चर सुरविमाणाओ चंदविमाणे असीईए जोयहि चारं पर, सूरविमाणाओ जोवणसए उपरि तारास्वे वारं परह चंदविमाणाओ बीसाए जोयणेहि उवरिल्ले णं ताराख्वे चारं चरइ, - जम्बू. वक्ख. ७, सु. १६४ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन सूत्र ६४६ केवइयं परिक्खेवे गं, परिधि कितनी है ? केवइयं बाहल्ले पण्णत्ते ? बाहल्य कितना है ? कहें, उ०–ता छप्पण्णं एगट्ठिभागे जोयणस्स आयाम-विक्खंभे गं, उ०-एक योजन के इगसठ भागों में से छप्पन भाग जितना है। तं तिगुण सविसेस परिक्खेवे णं, इससे तिगुणी परिधि है। अट्ठावीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्ले णं पण्णत्ते', एक योजन के इगसठ भागों में से अट्ठावीस भाग जितना है। ५०-ता सूरविमाणे णं केवइयं आयाम-विक्खभे ण? प्र०-सूर्य विमान का आयाम-विष्कम्भ कितना है ? केवइयं परिक्खेवेणं? परिधि कितनी है ? केवइयं बाहल्ले णं पण्णते? बाहल्य कितना है ? उ०–ता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स आयाम-वियखभे उ.-एक योजन के इगसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितना है। तं तिगुणं सबिसेस परिक्खेवे ण इससे तिगुणी परिधि है। चउब्वीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्ले ण पण्णत्त', एक योजन के इगसठ भागों में से चौबीस भाग जितना है। १०–ता गहविमाणे णं केवइयं आयाम-विक्खंभे गं? प्र०-ग्रहविमान का आयाम-विष्कम्भ कितना है ? केवइयं परिक्खेवे णं? परिधि कितनी है ? केवइयं बाहल्ले ण पण्णत्ते ? वाहल्य कितना है? उ०-ता अद्धजोयणं आयाम-विक्खंभे णं, उ०- आधे योजन का आयाम-विष्कम्भ है। तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवे णं, इससे तिगुनी परिधि है। कोसं बाहल्ले ण पण्णत्ते, एक कोस का बाहल्य है। प०–ता णक्खत्तविमाणे णं केवइयं आयाम-विक्खभे थे? प्र०-नक्षत्र विमान का आयाम-विष्कम्भ कितना है? केवइयं परिक्खेवेणं? परिधि कितनी है ? केवइयं बाहल्लेणं? बाहल्य कितना है? उ०—ता कोसं आयाम-विक्खभे णं, उ०-एक कोस का आयाम-विष्कम्भ है । तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवे णं, इससे तिगुनी परिधि है। अद्धकोसं बाहल्ले णं पण्णत्ते. आधे कोस का बाहल्य है। ५०–ता ताराविमाणे णं केवइयं आयाम-विक्खंभेणं? प्र०–तारा विमान का आयाम-विष्कम्भ कितना है ? केवइयं परिक्खेवे गं? परिधि कितनी है ? केवइयं बाहल्ले गं? वाहल्य कितना है? उ०–ता अद्धकोस आयाम-विक्खंभेणं उ० --आवे कोस का आयाम-विष्कम्भ है । तं तिगुणं सविसेस परिक्खेवेणं, इससे तिगुनी परिधि है। पंचधणुसयाइ बाहल्ले णं पण्णत्ते ।। पाँच सौ धनुष का बाहल्य है। -सूरिय० पा० १८, सु० ६४ -सम. ६१, सु.३ १ (क) जम्बु. वक्ख. ७, सु. १४७ । (ख) चंदमंडले णं एगसद्धिविभाग-विभाइए समंसे पण्णत्ते, इस सूत्र से यह स्पष्ट है कि चंद्र विमान और चंद्र मण्डल एक ही है। २ (क)-सम. ६१, सु. ४ । (ख) सम. १३, सु. ८ । ३ (क) प०-चंदविमाणे ण भंते ! केवइयं आयाम-विक्खभणं ? केवइयं बाहल्ले ? (क्रमशः) Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६४७ - - चंद सूर-गह णक्खत्त-ताराण विमाण वाहगदेवाणं चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र और ताराविमानवाहक देवों की संख्या सखा ४७. १० -- चंदविमाणे णं भंते ! कति देवसाहस्सीओ परिवहंति ? उ०- गोयमा ! सोलसदेवसाहस्सीओ परिवहतीति । तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन चंदविमाणस्स णं पुरत्थिमेणं सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतल-विमल-निम्मल-दधिघण-गोखीर फेण-रययणिगरप्पवासार्थ विर-ल-प-पीपर-सिसि विसिद्ध तिक्खदाढाविडंबिअ मुहाणं, रसुप्यपसमय माला-जहा महूगुलि-पिगलमखागं, वइरामयणक्खाणं, वइरामय-दाढाणं, पीवरवरोरू पडिपुण्ण-विउल-खंधाणं, मिउविसय-सुम - लक्खणपसत्थ- वरवण्ण- केसर सडोवसो हिला गं ऊसिय-सुन मिय- सुजाय- अप्फोडिअ लंगूलाणं, बहरामप-दंताणं, सज्जीहाण, तवणिज्जन-तालुआणं, तणिज्ज-जोगिया, उ०- गाहाओ , कामगमाणं, पीइगमाणं, मणोगमाणं, मणोरमाणं, अमिअ-गईणं, (ख) जीवा० प० ३, उ० २, सु० १६७ ॥ गणितानुयोग ~ ४७. प्र० - हे भगवन् ! चन्द्रविमान को कितने हजार देव वहन करते हैं ? ४४७ उ० - हे गौतम! सोलह हजार देव वहन करते हैं— चन्द्रविमान के पूर्व में स्वेत सुभग सुप्रभ, शंखतल के समान विमल, निर्मल-दधिपिण्ड - गोदुग्धफेन ( झाग ) एवं रजतराशि के समान प्रकाशमान कान्त कठोर गोल पुष्ट छिद्ररहित तीक्ष्णदादाओं से युक्त बुने हुए मुंह वाले, दृढ़ रक्तकमलपत्र के सदृश अतिकोमल-तालु एवं जिह्वा वाले, गांड मधु पिण्ड के सह-पीली आंखों वाले, स्थूल एवं विशाल जंपा वाले प्रतिपूर्ण विशाल वाले वज्रमय नखों वाले, वज्रमय दाढाओं वाले, वज्रमय दाँतों वाले, तप्त स्वर्ण सदृश जिह्वा वाले, तप्त स्वर्ण सदृश तालु वाले, तप्त स्वर्ण जोत वाले, कोमल लम्बे पतले प्रशस्त लक्षणयुक्त केशर वर्ण वाले स्कन्ध पर फैले हुए सुशोभित केशों वाले । इच्छानुसार गमन करने वाले समान वेगवती गति वाले, मनोरम ऊपर उठी हुई कुछ झुकी हुई एवं भूमि पर उछलती हुई सुशोभित पूँछ वाले, "वृत्त वस्तुनः सद्दशायाम - विष्कम्भात्" परिक्षेपस्तु स्वयमभ्यूः वृत्तस्य स्त्रिगुणः परिधिरिति प्रसिद्धः । यह स्पष्टीकरण जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के वृत्तिकार ने ऊपर लिखित सूत्र का दिया है। (ग) चंद० पा० १८, सु०६४ | उपरणं खलु भारवि बंद हो । अट्ठावीस भाए बाहल्लं तस्स बोद्धव्वं ॥ १ ॥ अयाली भए, विवरण, सूरमंद होइ चवीसं खलु भाए, बाल्लं तस्स बोद्धव्वं ॥ २ ॥ दो कोसे अगहाणं, णक्खत्ताण तवई तस्सद्ध । तस्सद्ध ताराणं, तसद्ध चेव बाहल्ले || ३ | -जम्बु० वक्ख० ७ सु० १६५. " एकस्य प्रमाणागुलं योजनस्यैकपष्टी भागीकृतस्य षट्पंचाशता भागैः समुदिते यावत्प्रमाणं भवति तावत्प्रमाणोऽस्य विस्तार:" प्रीतिकर गति वाले, मन के मनहर अमित गति वाले, Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन सूत्र ६४७ अमिअ-बल-वीरिअ-पुरिसक्कार-परक्कमाणं, अप्फोडिअ- अमित बल, वीर्य, पौरुष एवं पराक्रम वाले, महासिंहनाद की सीहणाय-बोल-कलकल-रवेणं, महुरेणं, मणहरेण, पुरता ध्वनि के मधुर मनहर कलकलरव से पूरित आकाश एवं दिशाओं अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ को सुशोभित करते हुए सिंहरूपधारी चार हजार देव पूर्वी बाहु सीहरूवधारीणं पुरित्थिमिल्लं बाहं वहंति, का वहन करते हैं। चंदविमाणस्स णं दाहिणे ण सेआणं सुभगाणं सुप्पभाणं चन्द्रविमान के दक्षिण में श्वेत सुभग सुप्रभ शंखतल के संखतल-विमल-निम्मल-दधिधन - गोखीरफेण - रयय- समान विमल, निर्मल दधिपिण्ड, गोदुग्ध फेन तथा रजतरागि के णिगरप्पगासाणं, समान प्रकाशमान, वइरामय कुम्भजुअल सुट्ठिअ-पीवर-वरवइर सोंड बट्टि- वज्रमय कुंभयुगल (गण्डस्थल) वाले, सुस्थित श्रेष्ठ पुष्ठ अ-दित्त-सुरत्त-पउमप्पगासाणं, अब्भुण्णय-मुहाणं, वज़मय गोल शुण्ड से दैदिप्यमान-रक्तकमल सदृश उन्नत मुख वाले, तवणिज्जविसाल कण्णं चंचलचलंत-विमलुज्जलाणं, तप्त स्वर्ण सदृश विशाल-चंचल-चलायमान-विमल-उज्ज्वल कर्ण वाले, महुवष्ण-भिसंत-णिद्ध-पत्तल-निम्मल-तिवण्णमणिरयण मधु सदृश वर्ण से दैदीप्यमान-स्निग्ध-पिगल-भोहों से युक्त लोअणाणं ___एवं विवर्ण के मणि-रत्नमय-निर्मल लोचन वाले । अब्भुग्गय-मउल-महिला-धवल-सरिस-संठिअ-णिव्वण- उन्नत-कलिकायें तथा चमेली-पुष्प-सदृश श्वेत, एक समान बढ-कसिण-फालियामय-सुजाय-दंतमुसलो व सोभिआणं, सुन्दराकार-व्रणरहित-दृढ़-सर्वफटिकमय-सुन्दर दन्तमूसल वाले । कंचणकोसीपविट्ठ-दंतग्ग-विमल मणिरयण-रुइल-पेरंत- विमलमणि-रत्नमय-सुन्दर-विचित्र-चित्रचित्रित-स्वर्णमय कोशी चित्तरूवग-विराइआणं, में प्रविष्ट दन्तान वाले, तवणिज्ज-विसालतिलग-प्पमुह-परिमंडिआणं, नाना- तप्त स्वर्णसदृश वर्ण के विशाल तिलकादि से परिमण्डित, मणि-रयण-मुद्ध-गेविज्ज-बद्ध-गलय-वरभूसणाणं, नाना प्रकार के मणि-रत्न-जटित गले के आभूषणों से बद्ध ग्रीवा वाले, वेरुलिअ-विचित्त-दण्ड-निम्मल-वइरामय-तिक्ख-लटु- वैडूर्यमय विचित्र दण्ड एवं निर्मल वज्रमय अंकुश युक्त कुंभअंकुस-कुम्भजुयलंतरोडिआणं, युगल वाले, तवणिज्ज-सुबद्ध-कच्छ-दप्पिअ-बलुद्धराणं, स्वर्णमयी रज्जु के बद्ध एवं मदमत्त उत्कट बल वाले, विमलघणमण्डल-वइरामय-लालाललियताणं, निर्मल निविडघन मण्डल वाली, णाणामणियरण-घंट पासग-रजतामय-बद्ध-रज्जु-लंबिअ- नानामणि-रत्नमय-पाववर्ती घंटा वाली, रत्नमय रज्जु से घंटाजुअल-महुरसरमणहराणं, बँधे हुए एवं लटकते हुए घटायुगल के मधुर स्वर से मनहर, अल्लोणपमाणजुत्त-वट्टिअ-सुजाय-लक्खण-पसत्य-रमणि- संलग्न-प्रमाणयुक्त-गोल-सुन्दर-प्रशस्त लक्षण एवं रमणीय ज्ज-वालगत-परिपुछणाणं, वालों से युक्त पूछ से गात्र पूछने वाले, उवचिअ-पडिपुण्ण-कुम्मचलण-लहुविक्कमाणं, मांसल-प्रतिपूर्ण कूर्म जैसे चरणों से शीघ्र गति वाले, अंक मय-णखाणं, अंकरत्नमय- नख वाले, तवणिज्ज-जीहाणं, तप्त स्वर्ण वर्ण जैसी जिह्वा वाले, तवणिज्ज तालुआणं, तप्त स्वर्ण वर्ण जैसे तालु वाले, तवणिज्ज-जोत्तग-सुजोइआणं, तप्त स्वर्ण वर्ण जैसे जोतों से जुते हुए, कामगमाणं, पोइगमाणं, मणोगलाणं मणोरमाणं, इच्छानुसार चाल वाले, प्रीतिकर चाल वाले, मन के जैसी अमिअगईणं, वेगवती गति वाले, मनोरम,-मनोहर-अमित गति वाले, अमिअबलवीरिय-पुरिसक्कारपरक्कमाणं, अमितबल-वीर्य-पुरुषार्थ एवं पराक्रम वाले, महया गम्भीर-गुलगुलाइत-रवेणं, महुरेणं, मणहरेणं, पूरेता अति गम्भीर-गुलगुलायित, मधुर और मनोहर शब्दों से पूरित, Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६४७ तिर्यक लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन गणितानुयोग ४४६ अम्बरं दिसाओअसोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ आकाश एवं दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार हजार गयरूबधारीणं देवाणं दक्खिणिल्लं बाहं परिवहंतीत्ति, गजरूपधारी देव दक्षिण की बाह का वहन करते हैं। चन्दविमाणस्स पच्चत्थिमे णं, चन्द्रविमान के पश्चिम में, सेआणं सुभगाणं सुप्पभाएं चल-चवल-ककुह सालोणं, श्वेत शुभग सुप्रभ-चलायमान चपल ककुद से सुशोभित, घण निचिअ-सुबद्ध-लक्खणुण्णय-ईसिआणय-वसभोट्ठाणं, सघन पुष्ट सुबद्ध सुलक्षणयुक्त कुछ झुके हुए श्रेष्ठ ओष्ठ वाले, चंकमिअ-ललिअ-पुलिअ-चल-चवल-गब्विअगईणं, कुटिलगति-ललितगति-आकाशगति-चक्रवालगति-चपलगति एवं गवित गति वाले, सन्नतपासाणं संगतपासाणं सुजायपासाणं, सन्नत और संगत पावं वाले, सुरचित पार्श्व वाले, पोवर-वट्टिअ-सुसंठिअ-कडीणं, पुष्ट गोल एवं सुसंस्थित कटि वाले, ओलंब-पलंब-लक्खणपमाणजुत्त-रमणिज्जवाल गण्डाणं, लटकती हुई-लम्बी-लक्षण एवं प्रमाणयुक्त-रमणीय रोमराजि बाले, समखुरं-बालिधाणाणं, समान खुर और समान पूंछ वाले, समलिहिअ-सिंगतिक्खग्गसंगयाणं, एक से अलिखित एवं तीक्ष्ण शृंगाग्र वाले, तणु-सुहम-सुजाय-णिद्ध-लोमच्छविधराणं, पतली-सूक्ष्म-सुन्दर एवं स्निग्ध रोमराजि वाले, उवचिअ-मंसल-विसाल-पडिपुण्ण-खंधपएस-सुन्दराणं, बढ़े हुए मांसल-विशाल-प्रतिपूर्ण एवं सुन्दर स्कन्धप्रदेश वाले, वेरुलिअ-भिसंत-कडक्ख-सुनिरिक्खणाणं, वैडूर्यमणि के समान चमकदार कटाक्ष पूर्ण निरीक्षण करने बाले, जुत्तपमाण, पहाण-लक्खण-पसत्थ-रमणिज्ज-गग्गर- प्रधान प्रमाणयुक्त प्रशस्त लक्षणयुक्त एवं रमणीय गलगलियों गल्लेसोभिआणं से सुशोभित गले वाले, घरघरग-सुसह-बद्ध-कंठ-परिमण्डिआणं, मधुर ध्वनिवाली धुंघरूमालाओं से परिमंडित कंठ वाले, णाणामणि-कणग-रयण-घटिआ-वेगच्छिग-सुकयमालि- नाना प्रकार के मणिरत्न एवं स्वर्ग से सुरचित घंटियों की याणं, माला धारण करने वाले, . वरघंटा-गलय-मालुज्जल-सिरिधराणं, श्रेष्ठ घण्टाओं की चमकती हुई सुशोभित गलमालायें धारण करने वाले, पउमुप्पल-सगल-सुरभि-मालाविभूसिआणं, सभी सुगन्धित कमल-पुष्पमाला वाले, बइर खुराणं, वज्रमय खुरों वाले, विविहविक्खुराणं, विविध खुरों वाले, फालियामय दंताणं, स्फटिकमय दाँतों वाले, तवणिज्ज-जीहाणं, तप्त स्वर्ण सदृश जिह्वा वाले, तवणिज्ज-तालुआणं, तप्त स्वर्ण सदृश तालु वाले, तवणिज्ज-जोत्तगसुजोइयाणं, तप्त स्वर्ण सदृश जोतों से जुते हुए, कामगमाणं, पीइगमाणं मणोगमाणं, मणोरमाणं अमि- इच्छानुसार चाल बाले, प्रीतिकर गति वाले, मन के समान अगईणं, चंचल गति वाले, मनोरम मनोहर अमित गति वाले, अमिय-बल-वीरिअ-पुरिसक्का रपरक्कमाणं, अमित बल-वीर्य-पुरुषार्थ एवं पराक्रम वाले, महयागज्जिअगम्भीर-रवेणं, महुरेणं, मणहरेणं, पूरेता महान गम्भीर गर्जना के मधुर मनहर शब्दों से पूरित अंबरं दिसाओ य सोभयन्ता चत्तारि देवसाहस्सीओ आकाश एवं दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार हजार Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन सूत्र ६४७ वसहरूवधारीणं देवाणं पच्चथिमिल्लं बाहं परिवहंति वृषभ रूपधारी देव पश्चिमी बाहु का वहन करते है। त्ति', १ (क) प०–ता चंदविमाणे णं कति देवसाहस्सीओ परिवहति ? उ०-सोलस देवसाहस्सीओ परिवहंति, तं जहा पुरस्थिमेणं सीहरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहति । वाहिणणं गयरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति । पच्चत्थिमेणं वसभरूबधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहति । उत्तरेणं तुरगरूवधारीणं चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहति । एवं सूरविमाणं पि। प०-ता गहविमाणे णं कति देवसाहस्सीओ परिवहति ? उ०-ता अट्ठ देवसाहस्सीओ परिवहति तं जहा पुरथिमे णं सीहरूवधारीणं देवाणं दो देवसाहस्सीओ परिवहति । एवं-जाव-उत्तरे णं तुरगरूवधारिणं देवाणं दो देवसाहस्सीओ परिवहति । ५०-ता णक्खत्तविमाणे णं कति देवसाहस्सीओ परिवहति ? उ०–ता चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहंति, तं जहा - पुरत्थिमे णं सीहरूबधारीणं देवाणं एक्का देवसाहस्सी परिवहति । एवं-जाव-उत्तरे णं तुरगरूवधारीणं देवाणं एक्का देवसाहस्सी परिवहति । प०–ता ताराविमाणे णं कति देवसाहस्सीओ परिवहंति ? उ०–ता दो देवसाहस्सीओ परिवहंति, तं जहा पुरत्थिमे णं सीहरूवधारीणं देवाणं पंच देवसता परिवहति । एवं-जाव-उत्तरे णं तुरगरूवधारीणं देवाणं पंच देवसता परिवहति । -सूरिय. पा. १८, सु. ६४ (ख) चंद. पा. १८ सु. ६४ । (ग) ५०-चंदविमाणे णं भंते ! कति देवसाहस्सीओ परिवहति ? उ०-गोयमा ! चंदविमाणस्स णं पुरत्थिमे णं सेयाणं सुभगाणं सुप्पभाणं संखतल-विमल-निम्मल-दधिषण-गोखीरफेण रययणिगरप्पगासाणं, थिरलट्ठ-बट्ट-पीवर-सुविलिट्ठ-सुविसिट्ठ-तिक्खदाढाविडंबितमुहाण, रत्तुप्पलपत्त-मउय-सुकुमालतालुजीहाणं, विसाल-पीवरोरू-पडिपुण्ण-विउलखंधाणं, मिउविसय-पसत्थ-सुहुम-लक्खण-वित्थिण्ण-केसरसडोवसोभिताणं, चंकमित-ललिय-पुलित-धवल-गव्वितगणीणं उस्सिय-सुणिम्मिय-सुजाय-अप्फोडिय-णंगूलाण, वइरामय-णक्खाणं, वइरामय-दंताणं, वइरामय-दाढाणं, तवणिज्ज-जीहाणं, तवणिज्ज-तालुयाणं, तवणिज्ज-जोत्तगसुजोइयाणं, कामगाणं, पीतिगमाण-मणोगमाणं, मणोरमाणं, मणोहराण, अमियगतीणं, अमिय-बल-वीरिय-पुरिसक्कार-परक्कमाण, महया अप्फोडिय-सीहनादीयबोलकल-कल-रवेणं, महुरेणं, मणहरेण य पूरिता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ सीहरूवधारीणं, देवाणं पुरिथिमिल्ल बाहं परिवहति । कोष्ठकान्तर्गतपाठ :-(महुगुलियपिंगलक्खाणं) (पउट्ठ) पसत्थसत्थ-वेरूलियभिसंत-कक्कड-नहाणं) चंदविमाणस्स णं दक्खिणे णं, सुभगाणं, सुप्पभाणं, संखतल-विमल-निम्मल-दधिघण-गोखीरफेण-रययणि यरप्पन गामाणं, वइरामय-कुम्भजुयल-सुट्ठिय-पीवर-वरवइर-सोंडवट्टिय-दित्त-सुरत-पउमप्पकासाणं, अब्भुण्णयगुणाणं, तवणिज्जबिमाल-चंचल-चलंत-चवल-कष्ण-विमलुज्जलाण, मधुवष्ण-भिसंत-णिद्ध-पिंगल-पत्तल-तिवण्णं-मणि-रयण-लोयणाणं, अब्भग्गय-मउल-मल्लियाणं, धवल-सरिस-संठित-णिब्वण-दढ-कसिण-फालियामय-सुजाय-दंत-मुसलोवसोभियाणं, कंचण-कोसी-पविट्ठ-दंतग्ग-विमल-मणि-रयण-रूइर-पेरंत-चित्तरूवग-विरायिताणं, तवणिज्ज-विसाल-तिलग-पमुहपरिमंडिताणं, णाणा-मणि-रयण-मुद्ध-गेवेज्ज-बद्ध-गलय-वरभूसणाणं, वेरुलिय-विचित्त-दंड-णिम्मल-वइरामय-तिक्ख-लट्ठ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६४७ तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन गणितानुयोग ४५१ चंदविमाणस्स उत्तरे णं सेआणं चन्द्रविमान के उत्तर में, सुभगाणं सुप्पभाणं तरमल्लिहायणाणं, श्वेत-सुभग-सुप्रभा वाले, यौवन वाले, हरिमेल-मउल-मल्लिअच्छणाणं, हरिमेलक वनस्पति की कलियाँ तथा चमेली के पुष्प समान श्वेत नेत्र वाले, चचुच्चिअ-ललिअ पुलिअ-चल-चवल-चंचलगईणं, ___ कुटिलगति-ललितगति-पुलित (आकाश) गति-चक्रवालगति चपलगति तथा चंचल गति वाले, लंघण-वग्गण-धावण-धोरण-तिवउ-जइण-सिक्खिअगईणं, लंघन (लांघना), वल्गन (कूदना), धावन (दौड़ना), धोरण (गति चातुर्य), त्रिपदी (भूमि पर तीन पैर टिकाना) तथा जविनी (वेगवती गति) की शिक्षा प्राप्त करने वाले, अंकुस-कुम्भ-जुयलंतरोदियाणं, तवणिज्ज-सुबद्ध-कच्छ-दप्पिय-वलुद्धराणं, जंबूणय-विमल-घण-मंडल-वइरामय-लालाललियताल-णाणामणि-रयण-घण्ट-पासग-रयतामय-रज्जू-बद्धलंबित-घंटाजुयल-महुर-सर-मणहराणं, अल्लीण-पमाणजुत्त-वट्ठिय-सुजात-लक्खण-पसत्थ-तबणिज्ज-बालगत्त-परिपुच्छणाणं, उयविय-पडिपुण्ण-कुम्मचलण-लहुविक्कमाणं, अंकामय-णक्खाणं, तवणिज्ज-तालुयाणं, तबणिज्ज-जीहाणं, तवणिज्ज-जोत्तगसुजोतियाणं, कामकमाण, पीति-कमाणं, मणोगमाणं, मणोरमाणं, मणोहराणं, अमियगतीणं, अमिय-बलवीरिय-पुरिसकारपरक्कमाणं, महया गम्भीरगुलगुलाइय-रवेणं, महुरेणं, मणहरेणं, पूरेता अंबर दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ गयरूवधारीणं दक्खिणिल्लं बाहं परिवहति । कोष्ठान्तर्गतपाठ :-अब्भुण्णयगुणा (मुहा) णं । चंदविमाणस्स णं पच्चत्थिमे णं सेयाणं, सुभगाणं, सुप्पभाणं, चंकमिय-ललिय-पुलित-चल-चवल-ककुदसालीणं, सण्णयपासाणं, संगयपासाणं, सुजायपासाणं, मियमाइत-पीण-रइतपासाणं, झस-विहग-सुजात-कुच्छीणं, पसत्थ-णिद्ध-मधुगुलित-भिसंत-पिंगलक्खाणं, विसाल-पीवरोरू-पडिपुण्ण-विपुल-खंधाणं, वट्ट-पडिपुण्ण-विपुल-कवोल-कलिताणं, घणणिचित-सुबद्ध-लक्खणुण्णत-ईसि-आणय-वसभोंढाणं, चंकमित-ललित-पुलिय-चक्कवाल-चवल-गब्वितगतीणं, पीवरोरूवट्टि-सुसंठित-कडीणं, ओलंब पलंब-लक्खण-पमाणजुत्त-पसत्थ-रमणिज्ज-वालगंडाणं, समखुरधारीणं, समलिहिततिक्खग्गसिंगाणं, तणु-सुहम-सुजात-णिद्ध-लोमच्छविधराणं, उवचित-मसल-विसाल-परिपुण्ण-द-पमूह-पुण्डराणं, वेरूलिय-भिसंत-कडक्ख-सुणिरिक्खिणाणं, जुत्तप्पमाणप्पधाण-लक्खण-पसत्थ-रमणिज्ज-गग्गर-गल-सोभिताणं, घग्घरगसुबद्ध-कण्ठ-परिमंडियाणं, णाणामणि-कणग-रयण-घण्ट-वेयच्छग-सुकय-रतियमालियाणं, वरघंटा गलगलिय-सोभंतसस्सिरीयाणं, पउमुप्पल-भसल सुरभि-मालाविभूसिताणं, वइरखुराणं, विविध-विखुराणं, फालियामय-दंताणं, तबणिज्ज-जीहाणं, तवणिज्ज-तालुयाणं, तवणिज्ज-जोत्तग-सुजोतियाणं, कामकामाणं पीतिकामाणं, मणोगमाणं, मणोरमाणं, मणोहराणं अमितगतीणं, अमियबलवीरिय-पुरिसक्कारपरक्कमाणं, महया गम्भीर गज्जिय-रवेणं मधु रेणं मणहरेण य पूरेता अंबरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ वसभरूवधारीणं देवाणं पच्चथिमिल्ल बाहं परिवहति । कोष्ठकान्तर्गतपाठः-(खधयएससुन्दराण) चंदविमाणस्स ण उत्तरे ण सेयाणं, सुभागाणं, सुप्पभाणं, जच्चाणंतर-मलिहायणाणं, हरिमेलामदुलमल्लियच्छाणं, घण-णिचित-सुबद्ध-लक्खणुण्णताचंकमिय-ललिय-पुलिय-चल-चवल-चंचलगतीणं, लंघण वग्गण-धावण-धारण-तिवई-जईणसिक्खितगईणं, ललंतलामगलाय-वरभूसणाणं, सण्यपासाणं, संगतपासाणं, सुजायपासाण मितमाइत-पीण-रइयपासाणं, झस-विहग-सुजातकुच्छीणं. पीण-पीवर-वट्टित-सुसंठितकडीणं, ओलम्ब-पलम्ब-लक्खण-पमाणजुत्त-पसत्थ-रमणिज्जवालगंडाणं, तणु-सुहुम-सुजाय-णिद्ध-लोमच्छविधराणं, मिउविसय-पसत्थ-सुहुम-लक्खण-विकिष्ण-केसर वालिघराणं, ललिय-सविलास-गतिलाड-वरभूसणाणं, मुहमंडगोचूल-चमर-थासग-परिमंडिय-कडीणं, तवणिज्ज-त्रुराणं, तवणिज्जजीहाणं, तवणिज्ज-तालुयाणं, तवणिज्ज-जोत्तगसुजोतियाणं, कामगमाणं, पीतिगमाणं, मगोगमाणं, मणोरमाण, मणोहराणं अमितगतीणं, अमिय-बल-वीरिय-पुरिसयार-परक्कमाणं, महयायहेसिय-किलकिलाइय-रवेणं, महुरेणं मणहरेण य पूरेता अम्बरं दिसाओ य सोभयंता चत्तारि देवसाहस्सीओ हयरूवधारीणं उत्तरिल्लं बाहं परिवहति । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ लोक-प्रज्ञप्ति m ललंत-लाम गललाय वरभूसणाणं, सन्नयपासाणं, संगत-पासाणं, सुजायपासाणं, पीपर-बल-किडीगं, ओलम्ब - पलम्ब-लक्खण- पमाण - जुत्त-रमणिज्जवालपुच्छा, -सुम-सुजाय-षिद्ध-लोमच्छविहराणं, मिउ-विसय २ -सुहुम-लक्खण-पसत्थ विच्छिण्णं केसरवालिहराणं, ललंत-थासग - ललाड-वरभूसणाणं, मुमण्डल-ओचूलग चामर- वासग परिमण्डिस कडीण, तवणिज्ज- खुराणं, जि-जीहाणं, तालु तिर्यक् लोक ज्योतिषिकदेव वर्णन : जोजोइया, कामगमाणं जाव मणोरमाणं, अमिअगईणं, पूरेंता अमिअ-बल-वीरिअ पुरिसक्कारपरक्कमाणं, महया महेसिन किलकिलाइव रवेण मगहरे अन्यरं दिखाओ व सोभयन्ता बसारि देवसाहस्सी हयवधारणं देवागं उत्तरितं बाई परिवति, गाहाबी सोलसदेवसहस्सा हवंति चंबेसु वेव सूरेसु । अव सहरसा एक्केक्कम गहविमाणे ॥ चत्तारि सहस्सा गमि अवंति विक दो चेव सहस्साई, तारारूवेक्कमेक्कमि ॥ एवं सुरयमाणानं जाय ताराख्य विमाषाण' वरंएस देवसंचालि - जंबु. वक्ख. ७, सु. १६६ प० - एवं णक्खत्तविमाणस्स वि पुच्छा ? जिनके गले में, श्रेष्ठ आभूषण लटक रहे हैं, सन्नत-संगत एवं सुन्दर पार्श्व वाले, पुष्ट गोलस्थित कट वाले, लटकती हुई लम्बी लक्षण एवं प्रमाणयुक्त रमणीय केशों की पूंछ वाले, पतली-सूक्ष्म- सुन्दर स्निग्ध ( चिकनी ) श्याम रोमराजी वाले, कोमल - विशाल बारीक प्रशस्त लक्षणयुक्त विस्तृत अयाल (गर्दन के बाल ) वाले, जिनके ललाट पर दर्पणाकार श्रेष्ठ आभूषण बँधे हुए हैं, मुखमण्डल (मुंह पर पहराने का आभूषण लम्बे नामर तथा दर्पणाकार आभूषणों से परिमण्डित कटि वाले, वाले, सूत्र ६४७ १ प० एवं सुरविमाणस्स वि पुच्छा ? उ०- गोयमा ! सोलसदेवसाहस्सीओ परिवहति पुव्वकमेणं । प० -- एवं गहविमाणस्स वि पुच्छा ? उ०- गोवमा ! अटुदेव साहसीओ परिवहति पुण्यकमेणं । दो देवा साहसीओ पुरित्यमिवं बाह परिवहति । दो देवा साहसीओ दल बाहं परिवहति । दो देवा साहसीओ पच्चत्थिमित्वं वाहं परिवहति । तप्त स्वर्ण सदृश खुरों वाले तप्त स्वर्ण सदृश जिल्ला वाले, तप्त स्वर्ण सदृश तालु वाले, तप्त स्वर्ण सदृश जोतों से जुते हुए । इच्छानुसार गति वाले बाबत् मनोरम अमित गति अमित त्रल- - वीर्य पौरुष एवं पराक्रम वाले, महान् हिनहिनाट तथा मनहर कल-कल ध्वनि से पूरित आकाम एवं दिशाओं को सुशोभित करते हुए चार हजार अश्व रूपधारी देव उत्तर की बाहु का वहन करते हैं । गावार्थ चंद्र और सूर्य के विमानों का वहन सोलह सोलह हजार देव करते हैं, प्रत्येक ग्रह विमान का वहन आठ आठ हजार देव करते हैं। प्रत्येक नक्षत्र - विमान का वहन चार-चार हजार देव करते हैं, प्रत्येक तारा- विमान का वहन दो दो हजार देव करते हैं । इसी प्रकार सूर्यविमानों का यावत्-तारा विमानों का वहन कहते है । - दो देवा साहसीओ स्वधारिण उत्तरित्वं वा परिवहति । (क्रमश:) Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६४८ तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन गणितानयोग ४५३ चन्द-सूरिय-गह-णक्खत्त-तारारूवाईणं देवाणं काम- चंद्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र तथा तारारूप आदि देवों के काम भोगा भोग--- ६४८. ५०-चंदिम-सूरिया णं भंते ! जोइसिदा जोइसरायाणो ६४८. प्र०—हे भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र-सूर्य केरिसए कामभागे पच्चणुभवमाणा विहरंति? किस प्रकार के काम-भोगों का अनुभव करते हुए विहरते हैं ? उ०-गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोव्वणुट्ठाण- उ०—हे गौतम ! जिस प्रकार युवावस्था के प्राथमिक बलत्थे पढमजोव्वणुट्ठाणबलत्थाए भारियाए सद्धि उत्थान वाले बलवान् किसी पुरुष को युवावस्था के प्राथमिक अचिरवत्तविवाहकज्जे। उत्थान वाली बलवती किसी भार्या के साथ विवाह हुए कुछ ही समय हुआ हो। अत्थगवेसणाए सोलसवासविप्पवासिए, से णं तओ वह धन कमाने के लिए सोलह वर्ष पर्यन्त के प्रवास में लद्ध? कयकज्जे अणहसमग्गे पुणरवि नियग गिहं धन कमाने का कार्य पूर्ण करके निर्विघ्न अपने घर शीघ्र हव्वमागए। आया हो । व्हाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगल-पायच्छित्ते सव्वा- स्नान, बलिकर्म, कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त करके समस्त लंकार विभूसिए, अलंकारों से विभूषित हो । मणुण्णं थालिपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं भोयणं भुत्ते मनोज्ञ, थाली में पकाया हुआ शुद्ध, अठारह प्रकार के समाणे तंसि तारिसगंसि वासघरंसि वण्णओ महब्बले व्यंजनों से युक्त भोजन भोगकर महाबल के उद्देशक में वणित(भग. स. ११, उ. ११)-जाव-सयणोवयारकलिए ताए यावत्-शयनोपचारयुक्त वासगृह में शृंगार एवं मनोहर वेषयुक्त तारिसियाए भारियाए सिंगारागार चार वेसाए-जाव- -यावत्-ललित कलायुक्त, अनुरक्त, अत्यन्तरागयुक्त, मन के कलियाए अणुरत्ताए अविरत्ताए मणाणुकूलाए सद्धि अनुकूल उस भार्या के साथ इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंधइतै सद्दे फरिसे रसे रूवे गंधे पंचविहे माणुस्सए काम- इन पाँच प्रकार के काम-भोग भोगता हुआ रहता है, भोगे पच्चणुभवमाणे विहरेज्जा। ५०-से णं गोयमा ! पुरिसे विओसमणकालसमयंसि केरि- प्र०-हे गौतम ! वह वेद उपशमन काल में किस प्रकार के सयं सायासोक्खं पच्चणुभवमाणे विहरइ ? सुख का अनुभव करता हुआ विहरता है ? उ०-'ओरालं समणाउसो !" तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स उ०-हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस पुरुष के उदार कामभोएहितो वाणमंतराणं देवाणं एतो अणंतगुण- काम-भोगों से वाणव्यन्तर देवों के काम-भोग अनन्तगुण विशिष्टविसिट्टतरा चेव कामभोगा। तर हैं। - (क्रमशः) उ०.-गोयमा ! चत्तारि देवसाहस्सीओ परिवहति । सीहरूवधारीणं देवाणं पंचदेवसया पुरथिमिल्लं बाहं परिवहति । एवं चउद्दिसि पि । -जीवा. प. ३, उ. २, सु. १६८ यहाँ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के १६६वें सूत्र में और टिप्पण में दिये गये जीवाभिगम के १६८वें सूत्र में चन्द्र-विमान का वहन करने वाले देवों का वर्णन है, इनमें सिंह, गज, वृषभ और अश्वरूपधारी देवों के वर्णक है, इन वर्णक सूत्रों में लोकप्रसिद्ध पूर्वादि चार दिशाओं का कथन नहीं है किन्तु चन्द्रविमान के सन्मुखभाग को पूर्व, पृष्ठभाग को पश्चिम, दायें भाग को दक्षिण और बायें भाग को उत्तर माना गया है । इन वर्णक सूत्रों के सम्बन्ध में टीकाकार आचार्य का अभिमत इस प्रकार है : "एषु च चतुर्व पि विमानबाहा-बाहक-सिहादिवर्णकसुत्रेषु कियन्तिपदानि प्रस्तुतोपांगसूत्रादर्शगतपाठानुसारीण्यपि श्रीजीवाभिगमोपांगसूत्रादर्शपाठानुसारेण व्याख्यातानि, न च तत्र वाचनाभेदात् पाठभेदः सम्भवतीतिवाच्यम् । यतः श्रीमलयगिरीपादे “जीवाभिगमवृत्तावेव" क्वचित् सिंहादीनां वर्णनं दृश्यते तद्वहुषु पुस्तकेषु न दृष्टिमित्युपेक्षितं, अवश्यं चेत्तद् व्याख्यानेन प्रयोजनं तहि जम्बूद्वीप टीका परिभावनीया, तत्र सविस्तरं तद् व्याख्यानस्य कृतत्वादित्यतिदेशविषयीकृतत्वेन द्वयोः सूत्रयोः सदृशपाठकत्वमेव सम्भाव्यत इति । यत्तु जीवाभिगमपाठदृष्टान्यपि-"मिअ-माइअ-पीण-रइअपाससाण" मित्यादि पदानि न व्याख्यातानि तत् प्रस्तुतसूत्रे सर्वथा अदृष्टत्वात्, यानि च पदानि प्रस्तुतसूत्रादर्शपाठे दृष्टानि तान्येव जीवाभिगमपाठानुसारेण संगतपाठीकुत्य व्याख्यातानीत्यर्थः ।। Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ लाक प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक ज्योतिषिकदेव वर्णन : वाणमंतराणं देवानं काममोहितो अरियाणं वाणव्यन्तर देवों के काम-भोगों से असुरेन्द्र को छोड़कर भवणवासीणं देवाणं एत्तो अनंतगुणविसितरा चैव भवनवासी देवों के काम-भोग अनन्तगुण विशिष्टतर है । कामभोगा । अरिजियाणं भवणवासी देवानं काममोहितो असुरकुमाराणं देवाणं एतो अनंतगुणविसिट्टतरा चैव कामभोगा । असुरकुमाराणं देवाणं कामभोगेहिंतो गहगण नक्खत्तताराख्याणं जो सिवानं देवानं एतो अनंतगुणविसिद्ध तरा चैव कामभोगा । महगण-नारायाणं देवानं काममोहितो चंदिमसूरियाणं जाणं जोइसराई एसो अनंतगुण विसितरा चैव कामभोगा । चंदिम-सूरिया णं गोयमा ! जोइसिंदा जोइसरायाणो एरिसे कामभोगे पञ्चभवमाणाविहरति । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव- विहरइ । - भग. स. १२, उ. ६, सु. ८ चंद-सूर-गह-णवखल-साराणं अम्गमहिसीओ दिव्य भोगाई य ४६. ५० - चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कति अग्गमहिसीओ ताओ ? उ०- गोयमा ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा(१) चंदप्पभा, (२) दोसिणाभा, (३) अच्चिमाली, (४) पकरा । एत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि चत्तारि देविसाहस्सीओ परिवारे य । पभूणं ततो एगमेगा देवी अण्णाई चत्तारि चत्तारि देविसहस्साई परिवारं विविए । एवामेव सपुव्वावरेणं सोलस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ सेतं तुडिए । प० प णं भंते! पदे जोइसिये जोइसराया चंदडसए विमाणे समाए हम्माए चंसि सोहासांसि डिएम सडि दिया भोग भोगाई मुजमाणे बिहरितए ? उ०पो तिग सम प० सेकेणट्टणं भंते ! एवं बुच्चइ - " तो पभू चन्दे जोड़सिदे जोइसराया दस विमा समाए तुम्माए १ (क) सूरिय. पा. २० सु० १०५ । २ (क) ठाणं ४ उ. १ सु. २७३ । सूत्र ६४८-६४६ असुरेन्द्र वर्जित भवनवासी देवों के काम-भोगों से असुरेन्द्र रूप देवों के काम-भोग अनन्तगुण विशिष्टतर है । असुरेन्द्र रूप देवों के काम-भोगों से ग्रहगण नक्षत्र तारारूप ज्योतिषी देवों के काम-भोग अनन्तगुण विशिष्टतर है। ग्रहगण नक्षत्र तारारूप ज्योतिषी देवों के काम-भोगों से चन्द्र-सूर्यो के काम-भोग अनन्तगुण विशिष्टतर हैं। हे गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र-सूर्य इस प्रकार के काम-भोगों का अनुभव करते हुए विहरते हैं। हे भगवन् ! उनके काम-भोगों का सुख इसी प्रकार है । भगवान् गौतम और श्रमण भगवान् महावीर —- यावत्-विहरते हैं । चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र ताराओं की अग्रमहिवियाँ और उनके दिव्य काम भोग ६४६. प्र०- - हे भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र की कितनी अग्रमहिषियां कही गई हैं ? उ०- हे गौतम! चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, यथा(१) चन्द्रप्रभा, (२) दो: ष्णाभा (३) अर्चिमाली, (४) प्रभंकरा । 7 यहाँ प्रत्येक देवी के चार चार हजार देवियों का परिवार है। प्रत्येक देवी अन्य चार चार हजार देवियों के परिवार की विकुर्वणा करने में समर्थ है। इस प्रकार पहले पीछे की मिलाकर सोलह हजार देवियाँ कही गई हैं । यह चन्द्र का अन्तःपुर है । प्र० - हे भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में चन्द्रसिहासन पर अग्रमहिषियों के साथ दिव्य भोग भोगते हुए विहरने में समर्थ है ? उ०- ऐसा करने में समर्थ नहीं है । प्र० - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि ज्योतिष्येन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान की सुधर्मा (ख) चंद. पा. २० सु. १०५ । (ख) सूरिय. पा. २० सु. १०५ । Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ९४६ तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेव वर्णन गणितानुयोग ४५५ चंदंसि सीहासणंसि तुडिएण सद्धि दिव्वाइं भोगभोगाई सभा में चन्द्रसिंहासन पर अग्रमहिषियों के साथ दिव्य-भोग मुजमाणे विहरित्तए ? भोगते हुए विहरने में समर्थ नहीं है ? उ०- -गोयमा ! चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरण्णो चंद वडेंसए उ० है गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र विमाणे सभाए सुहम्माए माणवर्गसि चेइयखंभंसि वइ- वतंसक विमान की सुधर्मा सभा में माणवक चैत्यस्तम्भ पर वज्ररामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहुयाओ जिणसकहाओ मय गोलवृत्ताकर डिब्बों में बहुत सी जिनअस्थियाँ रखी हुई हैं । सण्णिक्खित्ताओ चिट्ठन्ति । जाओ णं चंदस्स जोइसिंदस्स जोइसरण्णो अण्णेसिं च वे जिन अस्थियां ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के और बहुणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ अन्य अनेक ज्योतिषी देव देवियों के अर्चनीय-यावत्-पर्युपास-जाव-पज्जुवासणिज्जाओ। नीय है। तासि पणिहाए नो पभू चंदे जोइसिदे जोइसराया चंद- उन रखी हुई जिनअस्थियों के कारण ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदंसि सोहासणंसि राज चन्द्र चन्द्रावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में चन्द्र सिंहासन तुडिएण सद्धि दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणे विहरि- पर अग्रमहिषियों के साथ दिव्य भोग भोगते हुए विहरने में त्तए। समर्थ नहीं है। से एएणढणं गोयमा ! नो पभू चन्दे जोइसिदे जोइस- हे गौतम ! इस कारण से ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र राया चन्दबडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए सोहासणंसि चन्द्रावतंसक विमान की सुधर्मा सभा में चन्द्र सिंहासन पर तुडिएण दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरित्तए। अग्रमहिषियों के साथ दिव्य भोग भोगते हुए विहरने में समर्थ नहीं है। अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चन्दे जोइसिदे जोइसराया अथवा हे गौतम ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र चन्द्राचन्दवडेंसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदंसि सीहास- बतंसक विमान की सुधर्मा सभा में चन्द्र सिंहासन पर चार गंसि चहिं सामाणिय साहस्सीहिं-जाव-सोलसहि हजार सामानिक देवों से—यावत्-सोलह हजार आत्मरक्षक आयरक्खदेवसाहस्सीहि अन्नेहिं च बहूहिं जोइसिएहिं देवों से और अन्य अनेक ज्योतिषी देव देवियों से घिरा हुआ देवेहि देवीहि य सद्धि संपरिबुडे महयाहय-जाव-रवेणं बहुत जोर से हो रहे नृत्य, गीत, वाद्य-यावत्-आदि की दिव्वाइं भोगभोगाइं भुजमाणे विहरित्तए। ध्वनि से दिव्य भोग भोगते हुए विहरने में समर्थ है। केवलं परियार तुडिएण सद्धि भोगभोगाइं बुद्धीए, नो केवल परिचर्या की बुद्धि से अग्रमहिषियों के साथ भोग चेव णं मेहुणवत्तियं । ___ भोगने में समर्थ है, मैथुन की बुद्धि से नहीं। प०–सूरस्स णं भंते ! जोइसिंबस्स जोइसरण्णो कइ अग्ग- प्र०-हे भगवन् ! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज सूर्य के कितनी महिसीओ पण्णत्ताओ? अग्रमहिषियाँ कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! चत्तारि अग्गहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- उ-हे गौतम ! चार अग्रमहिषियाँ कही गई हैं, यथा (१) सूरप्पभा, (२) आयवाभा, (३) अच्चिमाली, (१) सूर्यप्रभा, (२) आतपाभा, (३) अचिमाली, (४) प्रभंकरा । (४) पभंकरा। एवं अवसेसं जहा चंदस्स । शेष सारा क्थन चन्द्र जैसा है। णवरं—सूरिडिसए विमाणे सूरंसि सीहासणंसि । विशेष—सूर्यावतंसक विमान, सूर्य सिंहासन । तहेव ।* सब्वेसिपि गहाईण चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, सभी प्रग्रहादि की चार चार. अग्रमहिषियों कही गई हैं, यथातं जहा-(१) विजया, (२) वैजयन्ती, (३) जयन्ती, (१) विजया, (२) वैजयंती, (३) जयंति, (४) अपराजिता। (४) अपराजिया। १ ठाणं, ४ उ. १, सु० २७३ में 'दोसिणाभा" नाम है। २ (क) सूरिय. पा. १८ सु, ६७ । (ख) चंद, पा, १८ सु.६७ । (ग) भग. श. १२ उ. ६ सु. ६-७ । (घ) भग. श. १० उ. ५ सु. २७-२८ । Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : ज्योतिष्क देवों की गति का प्रमाण सूत्र ६४६-६५१ तेसिपि तहेव ।' इनका सारा वर्णन उसी प्रकार है। _ --जीवा. प. ३, उ. २, सु. २०२-२०४ जोतिसिय देवाणं गइप्पमाणं ज्योतिष्कदेवों की गति का प्रमाण९५०. ५०-ता एगमेगे णं मुहत्ते गं चन्दे केवइयाइं भागसयाइं ६५०. प्र०—प्रत्येक मुहूर्त में चन्द्र मण्डल के कितने सौ भाग गच्छइ? ____गति करता है ? उ०-ता जं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तस्स तस्स उ०—जिस जिस मण्डल का उपसंक्रमण करके चन्द्र गति मंडल परिक्खेवस्स सत्तरस अडसिट्ठभागसए गच्छइ, करता है उस उस मण्डल के एक लाख अठाणवे सौ भाग करके मंडलं सयसहस्से गं अट्ठाणउइ सहि छेत्ता छेत्ता, उस उस मण्डल की परिधि के अठारह सौ तीस भाग पर्यन्त गति करता है। प०-ता एगमेगे णं मुहुत्ते णं सूरिए केवइयाए भागसयाई प्र०—प्रत्येक मुहूर्त में सूर्य मण्डल के कितने सौ भाग गति गच्छइ? करता है ? उ०-ताजं जं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स तस्स उ०—जिस जिस मण्डल का उपक्रमण करके सूर्य गति मण्डल-परिक्खेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसए गच्छइ, करता है उस उस मण्डल के एक लाख अठाणवें सौ भाग करके मण्डलं सयसहस्से गं अट्ठाणउई सहि छेत्ता छत्ता। उस मण्डल की परिधि के अठारह सौ तीस भाग पर्यन्त गति करता है। प०–ता एगमेगे णं मुहुत्ते णं णक्खत्ते केवइयाइं भागसयाई प्र०-प्रत्येक मुहूर्त में नक्षत्र मण्डल के कितने सौ भाग गच्छइ? गति करते हैं ? उ०–ता जं जं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स तस्स उ०—जिस जिस मण्डल का उपसंक्रमण करके नक्षत्र गति मण्डल-परिक्खेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसए गच्छइ, करते हैं उस उस मण्डल के एक लाख अठाणवें सौ भाग करके मण्डलं सयसहस्से णं अट्ठाणउई सएहि छेत्ता छेत्ता। उस उस मण्डल की परिधि के अठारह सो पैतीस भाग पर्यन्त -सूरिय० पा० १५, सु० ८३ गति करते हैं । चन्द-सूर-गह-णक्खत्त-ताराणं गइपरूवण चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और ताराओं की गति का प्ररूपण९५१.५०–ता कहं ते सिग्घगई ? आहिए त्ति वएज्जा। ६५१. प्र०—(चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और ताराओं में किस से) किसकी शीघ्र गति हैं ? कहें, १ जम्बु. वक्ख. ७ सु. १६८ । २ ग्रहों की गति का निरूपण मूलपाठ में नहीं है ग्रहों की गति के सम्बन्ध में टीकाकार का स्पष्टीकरण,-"ग्रहास्तु वक्रानुवक्रादिगति भावतोऽनियतगति प्रस्थानास्तो न तेषामुक्त प्रकारेण गतिप्रमाण प्ररूपणा कृता उक्तं च गाहाओ "चंदेहि, सिग्घयरा, सूरा सूरेहि होति णक्खत्ता। अणिययगइपत्थाणा, हंवति सेसा गहा सव्वे ।।१।। अट्ठारस पणतीसे, भागसए गच्छइ मुहुत्ते णं । नक्खत्तं चंदो पुण, सत्तरससए उ अडस? ।।२।। अट्ठारस भागसए, तीसे गच्छइ खीमुहत्तेण । नक्खत्तसीमछेदो, सो चेव इहं पि णायन्तो ।।३।। -सूरिय. पा. १५ सु. ८३ टीका ३ (क) ताराओं की गति सबसे अधिक है, ऐसा मूलपाठ में कथन है किन्तु गति के प्रमाण का कथन नहीं है, टीकाकार ने भी इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है। (ख) चंद. पा.१५ सु. ८३ । Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ९५१-६५४ तिर्यक् लोक : ज्योतिष्कों का अल्प या महाऋद्धि का प्ररूपण गणितानुयोग ४५७ उ०–ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-तारा- उ०-इन चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और ताराओं में चन्द्रमाओं रूवाणं से सूर्य शीघ्र गति करता है, चंदेहि तो सूरे सिग्घगई, सूर्य से ग्रह शीघ्र गति वाले हैं, सूरेहिं तो गहा सिग्घगई, ग्रहों से नक्षत्र शीघ्र गति वाले हैं, गहेहि तो णक्खत्ता सिग्घगई, नक्षत्रों से तारा शीघ्र गति वाले हैं, णक्खतहिं तो तारा सिग्घगई, सबसे अल्प गति चन्द्रमाओं की है, सव्वप्पगई चन्दा सव्वसिग्धगई तारा।' सबसे शीघ्र गति ताराओं की है, -सूर. पा. १५, सु. ८३ जोइसियाणं अप्पमहिड्ढि पख्वणं ज्योतिष्कों की अल्प या महाऋद्धि का प्ररूपण१५२. ५०–ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गह-णक्खत्त-तारारूवाणं ६५२. प्र०-इन चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और ताराओं में कौन कयरे कयरेहितो अप्पड्ढिया वा महिड्ढिया वा? किससे अल्प ऋद्धि या महा ऋद्धि वाला है ? उ०—ता ताराहितो महिड्ढिया णक्खत्ता, उ०--ताराओं से नक्षत्र महधिक है, णक्खत्तेहितो महिड्ढिया गहा । नक्षत्रों से ग्रह महधिक है, गहेहितो महिड्ढिया सूरा, ग्रहों से सूर्य महधिक है, सूरेहितो महिड्ढिया चन्दा, सूर्य से चन्द्र महधिक है, सव्वप्पढिया तारा, सबसे अल्प ऋद्धि वाले तारे हैं, सव्वमहिड्ढिया चन्दा। सबसे महा ऋद्धि वाले चन्द्र हैं। - सूरिय. पा. १८, सु. ६५ जोइसियाणं पिडगाई ज्योतिष्कों के पिटक९५३. गाहाओ ६५३. गाथार्थछावट्टि पिडगाई, चंदाइच्चाणं मणुएलोगंमि । प्रत्येक पिटक में दो चन्द्र दो सूर्य हैं। दो चन्दा दो सूरा, य हुँति एक्केकए पिडए । ऐसे छासठ पिटक चन्द्र-सूर्य के मनुष्य लोक में है ।। छाढि पिडगाई, महागहा णं मणुयलोगमि। . प्रत्येक पिटक में एक सौ छिहत्तर ग्रह हैं। छावत्तरं गहसय, होइ एक्केकए पिडए । ऐसे छासठ पिटक ग्रहों के मनुष्य लोक में है ।। छार्टि पिडगाई णक्खताणं तु मणुयलोगमि । प्रत्येक पिटक में छप्पन नक्षत्र हैं। छप्पण्णं णक्खत्ता हुँति एक्केकए पिडए ॥' ऐसे छासठ पिटक नक्षत्रों के मनुष्य लोक में है ।। -सूरिय. पा. १६, सु. १०० - जोइसाण पंतीओ ज्योतिष्कों की पंक्तियाँ६५४. गाहाओ ६५४. गाथार्थचत्तारि य पंतीओ, चंदाइच्चाणं मणुयलोगंमि । प्रत्येक पंक्ति में छासठ छासठ चन्द्र सूर्य हैं। छाट्ठि छाढेि च, हवइ एक्केक्किया पती॥ ऐसी चन्द्र-सूर्य की चार पंक्तियाँ मनुष्य लोक में है ।। १ (क) प०–ता एएसि णं चंदिम-सूरिय-गह-णक्खत्त-तारारूवाणं कयरे कयरेहितों सिग्घगई वा, मंदगई वा ? उ०–ता चंदेहि तो सूरा सिग्धगई, सूरेहिं तो गहा सिग्घगई, नहेहि तो णक्खत्ता सिग्घगई, णक्खत्तेहिं तारा सिग्घगई, -सूरिय. पा. १८, सु. ६५ (ख) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु, १६६ । (ग) चंद पा. १५, सु. ८३ । (घ) जम्बु. वक्ख. ७, सु. १६७ । २ (क) जम्बु. वक्ख. ७, सु. १६८ । (ख) चंद. पा. १८, सु. ६५ । (ग) जीवा. पडि. ३, सु, २०० । ३ (क) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७७ । (ख) चन्द. पा, १६, सु. १०० । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ लोक-प्राप्ति तिर्यक् लोक : ज्योतिषकों को पंक्तियाँ सूत्र ६५४-९५८ छावत्तरं गहाणं, पंतिसयं हवंति मणुयलोगंमि । प्रत्येक पंक्ति में छासठ छासठ ग्रह हैं। छाट्ठि छाढेि हवइ एक्केक्किया पंतो ॥ ऐसी ग्रहों की एक सौ छिहत्तर पंक्तियाँ मनुष्य लोक में हैं ।। छप्पन्नं पंतीओ, णक्खत्ताणं तु मणुयलोगंमि । प्रत्येक पंक्ति में छप्पन छप्पन नक्षत्र हैं । छाट्ठि छा४ि हवइ एक्कक्किया पती॥' ऐसी नक्षत्रों की छप्पन पंक्तियाँ मनुष्य लोक में है ।। -सूरिय. पा. १६, सु. १०० जोइसियाण मंडला ज्योतिष्कों के मण्डल६५५. गाहाओ ६५५. गाथार्थते मेरुमणुचरन्ता, पदाहिणावत्त मंडला सम्वे । ___ चन्द्र-सूर्य और ग्रहों के सभी मण्डल अनवस्थित हैं और वे अणवट्ठिय जोगेहि, चन्दा सूरा गहगणाय ॥ मेरु की प्रदक्षिणा करने वाले हैं । णक्खत्त-तारागाणं, अवट्ठिया मण्डला मुणेयव्वा। नक्षत्र और ताराओं के सभी मण्डल अवस्थित है और वे ते वि य पदाहिणावत्तमेव मेरू अणुचरन्ति । मेरु की प्रदक्षिणा करने वाले हैं । -सूरिय. पा. १६, सु. १०० जोइसियाणं मंडलसंकमणं ज्योतिष्कों का मण्डल संक्रमण-- ६५६. गाहाओ ६५६. गाथार्थरयणिकर-दिणकराणं, उद्धं च अहेवसंकमो नत्थि। चन्द्र और सूर्य अपने अपने मण्डलों आभ्यन्तर बाह्य तथा मण्डलसंकमणं पुण सम्भंतर-बाहिरं तिरिए ॥ तिर्यक् क्षेत्र में मण्डल संक्रमण करते हैं । किन्तु मण्डलों से ऊर्ध्व -सूरिय. पा. १६, सु. १०० और अधो क्षेत्र में संक्रमण नहीं करते हैं । अणवटिठया अवठ्ठिया वा जोइसिया अनवस्थित और अवस्थित ज्योतिष्क-- गाहाओ ९५७. गाथार्थअंतोमणुस्स खेत्ते, हवंति चारोवगा उ उबवण्णा । मनुष्य क्षेत्र में उत्पन्न एवं संचरण करने वाले चन्द्र-सूर्य-ग्रहपंचविहा जोइसिया, चन्दा सूरा गहगणा य॥ नक्षत्र और तारा ये पाँच प्रकार के ज्योतिष्क देव अनवस्थित हैं । तेण परं जे सेसा, चंदाइच्च-गह-तार-णक्खत्ता। मनुष्य क्षेत्र के बाहर जो चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारा हैं पत्थि गई णवि चारो, अवट्ठिया ते मुणेयव्वा ॥ वे सब न गति करते हैं और न संचरण करते हैं अतः उन्हें अव -सूरिय. पा. १६, सु. १०० स्थित जानना चाहिए । दीवसमूहेस जोइसियाणं संखाजाणण-विही- द्वीप-समुद्रों के ज्योतिष्कों की संख्या जानने की विधि६५८. गाहाओ ६५८. गाथार्थदो दो जंबुद्दीवे ससि-सूरा दुगुणिया भवे लवणे । जम्बूद्वीप के दो चन्द्र दो सूर्य को दुगुणा करने पर लवणलावणिगा य तिगुणिया ससि-सूर। धायइसंडे ॥ समुद्र में चार चन्द्र चार सूर्य हैं, इनको तिगुणा करने पर धातकीखण्ड में बारहचन्द्र और बारह सूर्य हैं। बारह को तिगुणा करने पर छत्तीस हुए इनमें जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र की चन्द्र संख्या छह संयुक्त करने पर कालोद समुद्र में बियालीस चन्द्र और बियालीस सूर्य हैं । १ (क) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७७ । २ चंद. पा. १६, सु. १०० : ४ (क) जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७७ । ५ गाहा–दो चन्दा इह दीवे, चत्तारिय सागरे लवणतीए । धायइसंडे दीवे, बारस चंदा य सूरा ।। (ख) चन्द. पा. १६, सु. १०० । ३ चंद. पा. १६, सु. १०० । (ख) चन्द. पा. १६, सु. १००। -जीवा.प. ३, उ. २, सु. १७७ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६५८-६६१ तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेवों की गति युक्तता गणितानुयोग ४५६ धायइसंडप्पभिई, उद्दिट्ट तिगुणिया भवे चन्दा । बियालीस को तीन गुणा करने पर एक सौ छब्बीस हुए। आइल्ल चन्दसहिया, अणंतराणंतरे खेत्ते ॥ इनमें जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र और धातकीखण्ड की चन्द्रसंख्या अठारह संयुक्त करने पर पुष्करवर द्वीप में एक सौ चुम्मालीस चन्द्र और एक सौ चुम्मालीस सूर्य हुए। रिक्खग्गह-तारगं, दीवसमुद्दे जहिच्छसे नाउं । द्वीप और समुद्रों के नक्षत्र, ग्रह और ताराओं की संख्या तस्स ससीहि गुणियं, रिक्खग्गह-तारगाणं तु॥ यदि जानना चाहें तो उनकी संख्या को चन्द्र संख्या से गुणा करने पर नक्षत्र ग्रह और ताराओं की संख्या ज्ञात हो जाती है । उदाहरण-एक चन्द्र के परिवार में अठावीस नक्षत्र होते हैं और लवणसमुद्र में चार चन्द्र हैं, अठावीस को चार में गुणा करने पर एक सौ बारह नक्षत्र लवणसमुद्र में है, इसी प्रकार एक चन्द्र के ग्रहों और ताराओं की संख्या को चार चार से गुणा करने पर लवणसमुद्र के ग्रहों और ताराओं की संख्या ज्ञात हो -जीवा. प. ३, उ. २, सु. १७७ जाती है, इसी प्रकार सर्वत्र गुणा करें। चंद-सूर-गह-णक्खत्ताणं गइसमावण्णत्तं चन्द्र-सूर्य-ग्रह और नक्षत्रों की गति युक्तता१५६. ता जया णं इमे चन्दे गइसमावण्णए भवइ. ६५६. जब यह चन्द्र गति युक्त होता है, तया णं इयरेऽवि चन्दे गइसमावण्णए भवइ, तब अन्य चन्द्र भी गति युक्त होता है, जया णं इयरे चन्दे गइसमावण्णए भवइ, जब अन्य चन्द्र गति युक्त होता है, तया णं इमेऽवि चन्दे गइसमावण्णए भवइ, तब यह चन्द्र भी गति युक्त होता है, ता जया णं इमे सूरिए गइसमावण्णए भवइ, जब यह सूर्य गति युक्त होता है, तया णं इयरेऽवि सूरिए गइसमावण्णए भवइ, तब अन्य सूर्य भी गति युक्त होता है, ता जया णं इयरे सूरिए गइसमावण्णए भवइ, जब अन्य सूर्य गति युक्त होता है, तया गंऽइमे वि सूरिए गइसमावण्णए भवइ, तब यह सूर्य भी गति युक्त होता है, एवं गहे वि, णक्खत्ते वि, -सूरिय. पा. १०, सु. ७० इसी प्रकार ग्रह और नक्षत्र भी गति युक्त होते हैं । चन्द-सूर-गहणक्खत्ताणं जोगो चन्द्र-सूर्य-ग्रह और नक्षत्रों का योग९६० ता जया णं इमे चन्दे जुत्ते जोगे भवइ, ६६०. जब यह चन्द्र योग युक्त होता है, तथा णं इयरेऽवि चन्दे जुत्ते जोगे णं भवइ, तब अन्य चन्द्र भी योग युक्त होता है, ता जया णं इयरे चन्दे जुत्ते जोगे णं भवइ, जब अन्य चन्द्र योग युक्त नहीं होता है, तया णं इमेऽवि चन्दे जुत्ते णं भवइ, तब यह चन्द्र भी योग युक्त नहीं होता हैं, एवं सूरेऽवि गहेऽवि णक्खत्तेऽबि, इसी प्रकार सूर्य-ग्रह और नक्षत्र भी योग युक्त होते हैंसया वि चन्दा जुत्ता जोगेहि, चन्द्र (ग्रह-नक्षत्रों से) सदा ही योग युक्त होता है, सया वि सूरा जुत्ता जोगेहि, सूर्य (ग्रह-नक्षत्रों से) सदा ही योग युक्त होते हैं, सया वि गहा जुत्ता जोगेहि, ग्रह (चन्द्र-सूर्य से) सदा ही योग युक्त होते हैं, सया वि णक्खत्ता जुत्ता जोहि, नक्षत्र (चन्द्र-सूर्य से) सदा ही योग युक्त होते हैं, दुहओऽवि चन्दा जुत्ता जोगेहिं, चन्द्र पूर्व-पश्चिम से या दक्षिण-उत्तर से (ग्रह-नक्षत्रों से) योग युक्त होते हैं, दुहओऽवि सूरा जुत्ता जोगेहि, सूर्य पूर्व-पश्चिम से या दक्षिण-उत्तर से (ग्रह नक्षत्रों से) योग युक्त होते हैं, (ख) चन्द. पा, १६ सु. १००। १ २ (क) सूरिय. पा. १६, सु. १०० । चन्द. पा. १०, सु. ७० । Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : ज्योतिषिकदेवों की गति प्ररूपणा सूत्र ६६०-६६२ ommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmwww...m दुहओऽवि गहा जुत्ता जोगेहि, ग्रह पूर्व-पश्चिम से या दक्षिण-उत्तर से (चन्द्र-सूर्य से) योग युक्त होते हैं, दुहओऽवि णक्खत्ता जुत्ता जोगेहि, नक्षत्र पूर्व-पश्चिम से या दक्षिण-उत्तर से (चन्द्र-सूर्य से) योग युक्त होते हैं, मंडल सयसहस्सेणं अट्ठाणउईए सरहिं छत्ता इच्चेसं गक्खत्ते मण्डल के एक लाख अठाणवें सौ विभाग, नक्षत्रों का क्षेत्र खेत्तपरिभागे। परिभाग है। जक्खत्तविजए पाहुडे, तिबेमि । यह नक्षत्र विजय (स्वरूप) प्राभूत है। --- सूरिय. पा. १०, पाहु. २२, सु.७० (ज्ञानियों के कहे अनुसार) मैं ऐसा कहता हूँ। चन्द-सूर-गह-णक्खत्ताणं विसेसगइ परूवणं- चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की विशेष गति का काल प्ररूपण६६१. ५०-ता जया णं चंद गइसमावण्णं सूरे गइसमावण्णे भवइ, ६६१. (१) प्र०-जब चन्द्र गति युक्त होता है तब सूर्य के गति से णं गइमायाए केवइयं विसेसेइ ? युक्त होने पर उसकी गति का परिमाण कितना विशेष होता है ? उ०—बासट्ठिभागे विसेसेइ। उ०-बासठ भाग विशेष होता है। प०-ता जया गं चंद गइसमावण्णं, णक्खत्ते गइसमावण्णे (२) प्र०-जब चन्द्र गति युक्त होता है तब नक्षत्रों के गति भवइ, से णं गइमायाए केवइयं विसेसेइ ! युक्त होने पर उनकी गति का परिमाण कितना विशेष होता है ? उ०—ता सट्टि भागे बिसेसेइ । उ०-सडसठ भाग विशेष होता है। प०–ता जया णं सूरं गइसमावण्णं णक्खत्ते गइसमावण्णे (३) प्र०-जब सूर्य गति युक्त होता है तब नक्षत्रों के गति भवइ, से णं गइमायाए केवइयं विसेसेइ ? युक्त होने पर उनकी गति का परिमाण कितना विशेष होता है ? उ०—ता पंच भागे विसेसेइ । —सूरिय. पा. १५, सु. ८४ उ०-- पाँच भाग विशेष होता है। चन्दस्स-णक्खत्ताणंय जोगगइ परूवणं चन्द्र का नक्षत्रों से योग युक्त होने पर उनकी गति का काल प्ररूपण६६२. १. ता जया णं चन्दे गइसमावण्णं अभिई णक्खत्ते णं गइ- ६६२. (१) जब चन्द्र गति युक्त होता है तत्र पूर्वी भाग से गति समावण्णे पुरथिमाए भागाए समासाएइ पुरथिमाए युक्त अभिजित् नक्षत्र नौ मुहूर्त और एक मुहूर्त से सडसठ भागों भागाए समासाइत्ता णवमुहुत्ते सत्तवीसं च सत्त-सट्ठिभागे में से सत्तावीस भाग पर्यन्त चन्द्र से योग करता है; योग करके मुहत्तस्स चंदेणं सद्धि जोग जाएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, परिभ्रमण करता है परिभ्रमण करके योग का परित्याग करता जोगं अणुपरियट्टित्ता जोगं विप्पजहइ विगयजोगी या है और योग रहित होकर योग मुक्त हो जाता है। वि भवइ। २. ता जया ण चंदं गइसमावण्ण सवणे णक्खत्ते गइसमावणे (२) जब चन्द्र गति युक्त होता तब पूर्वी भाग से गति युक्त पुरथिमाए भागाए समासाएइ, पुरथिमाए भागाए समा- श्रवण नक्षत्र तीस मुहूर्त पर्यन्त चन्द्र के साथ परिभ्रमण करता है साइत्ता तीस मुहत्ते चंदेण सद्धि जोग जोएइ, जोगं परिभ्रमण करके योग का परित्याग करता है और योग मुक्त जोएता जोग अणुपरियट्टइ जोग अणुपरियट्टित्ता जोग होकर योग रहित हो जाता है । विप्पजहइ विगयजोगी या वि भवइ । ३-२८. एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्वं, पण्णरसमुहुत्ताई, तीस- (३-२८) इस प्रकार इन अभिलापों से पन्द्रह मुहूर्त, तोस इमुहुत्ताइ पणयालीस-मुहुत्ताई भाणियव्वाइं जाव मुहूर्त और पैंतालीस मुहूर्त पर्यन्त के सात नक्षत्रों का योग जानना उत्तरासाढा । चाहिए यावत्-उत्तराषाढा नक्षत्र पर्यन्त चन्द्र का नक्षत्रों के -सूरिय. पा. १५, सु. ८४ साथ योग कहना आहिए। २ चन्द. पा. १५, सु. ८४ । १ ३ चन्द. पा.१०, सु. ७० । चन्द पा. १५, सु.८४ । Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६३-६६६ तिर्यक् लोक : चन्द्र-सूर्य का गतिकाल गणितानुयोग ४६१ चंदस्स गहाणं य जोग-गइकाल परूवणं--- चन्द्र का ग्रह से योग युक्त होने पर उसकी गति का काल प्ररूपण९६३. ता जया णं चंदं गइसमावण्णं गहे गइसमावण्णे पुरत्थिमाए ६६३. जब चन्द्र गति युक्त होता है तब पूर्वी भाग से ग्रह चन्द्र भागाए समासाएह पुरथिमाए भागाए समासाइत्ता, चंदेणं से योग करता है, योग करके परिभ्रमण करता है, परिभ्रमण सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोग अणुपरियट्टइ, जोगं करके योग का परित्याग करता है और योग-मुक्त होकर योग अणुपरियट्टित्ता जोगं विप्पजहइ, विगयजोगी या वि भवइ ।' रहित हो जाता है । -सूरिय. पा. १५, सु. ८४ सूरस्स-णक्खत्ताणं य जोग-गइकाल परूवणं- सूर्य का नक्षत्रों से योग युक्त होने पर उनकी गति का काल प्ररूपण९६४. १. ता जया णं सूरं गइसमावण्णं अभिईणक्खत्ते गइसमावणे ६६४. (१) जब सूर्य गति युक्त होता है तब पूर्वी भाग से पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ, पुरथिमाए भागाए समा- अभिजित नक्षत्र चार अहोरात्र और छः मुहूर्त पर्यन्त सूर्य से योग साइत्ता, चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोगं करता है, योग करके परिभ्रमण करता है, परिभ्रमण करके योग जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरि- का परित्याग करता है और योग-मुक्त होकर योग रहित हो यट्टित्ता जोगं विप्पजहइ, विगयजोगी या वि भवइ, जाता है। २-२७. एवं छ अहोरत्ता एक्कवीसं मुहुत्ता य, तेरस अहो- (२-२७) इस प्रकार छः अहोरात्र इक्कीस मुहूर्त, तेरह अहो रत्ता बारस मुहुत्ता य, बीसं अहोरत्ता तिणि मुहुत्ता रात्र बारह मुहूर्त और बीस अहोरात्र तीन मुहूर्त सभी नक्षत्रों का य सव्वे भाणियव्वा जाव-- क्रमशः सूर्य के साथ योग कहना चाहिए-यावत्२८. ता जया णं सूरं गइसमावणं उत्तरासाढा णक्खत्ते (२८) जब सूर्य गति युक्त होता है तब पूर्वी भाग से उत्तरा गइसमावण्णे पुरत्थिमाए भागाए समासाएइ, पुरत्थि- षाढा नक्षत्र बीस अहोरात्र तीन मुहूर्त पर्यन्त सूर्य से योग करता है माए भागाए समासाइत्ता वीसं अहोरत्ते तिण्णि च योग करके परिभ्रमण करता है और योग मुक्त होकर योगरहित मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएइ, डोगं जोएत्ता जोगं हो जाता है । अणुपरियट्टइ, जोगं अणुपरियट्टित्ता जोगं विप्पजहइ, विगयजोगी या वि भवइ । -सूरिय. पा. १५, सु. ८४ सूरस्स गहाणं य जोग-गइकाल परवणं सूर्य का ग्रह से योग युक्त होने पर उसकी गति का काल प्ररूपण६६५. ता जया णं सूरं गइसमावण्णं गहे गइसमावण्णे पुरत्थिमाए ६६५. जब सूर्य गति युक्त होता है तब पूर्वी भाग से ग्रह सूर्य से भागाए समासाएइ, पुरत्थिमाए भागाए समासाइत्ता सूरेण योग करता है योग करके परिभ्रमण करता है परिभ्रमण करके सद्धि जोगं जोएइ, जोगं जोएत्ता जोगं अणुपरियट्टइ, जोगं योग का परित्याग करता है और योग मुक्त होकर योग रहित अणुपरियट्टित्ता जोगं विप्पजहइ विगयजोगी या वि भवइ । हो जाता है । -सूरिय. पा. १५, सु. ८४ एगमेगे अहोरत्ते चन्द-सूर-णक्खत्ताणं मंडल चार- प्रत्येक अहोरात्र में चन्द्र सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति६६६. १. ५०-ता पगमेगे णं अहोरते णं चंदे कइ मंडलाइं चरइ? ६६६. (१) प्र०—प्रत्येक अहोरात्र में चन्द्र कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०—ता एगं अद्धमंडलं चरइ एक्कतोसेहि भागेहि ऊण- उ०-एक अर्द्ध मण्डल और अर्धमण्डल के पन्द्रह सौ नौ णहि पण्णरसेहि सरहिं अद्धमंडल छेत्ता। भागों में से इकतीस भाग कम पर्यन्त चन्द्र गति करता है। १ ३ चन्द. पा. १५, सु. ८४ । चन्द. पा. १५, सु. ८४ । २ चन्द. पा, १५, सु. ८४ । Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ लोक- प्रज्ञप्ति १ ३ २. ५० -- ता एगमेगे णं अहोरते णं सूरे कइ मंडलाई चरइ ? उ०- ता एवं अद्धमंडलं चरइ । ३. प० - ता एगमेगे णं अहोरते णं णक्खत्ते कइ मंडलाई ? तिर्यक लोक चन्द्र-सूर्य-नक्षत्रों की मण्डल गति चरइ उ०- ता एवं अद्धमंडलं चरइ, दोहिं भागेहं अहियं सतह बत्तीसह सहि अद्धमडलं ऐसा - सूरिय. पा. १५, सु, ८६ एगमेगे मंडले चन्द-सूर गवसताण अहोरत चारं ε६७. १. १० – ता एगमेगं मंडलं चंदे कतििह अहोरतेहि चरइ ? उ०- ता दोहिं अहोरतेहि चरइ एक्कती सेहि भाएहि अहिएहि चहि चोपालेहि सहि राइदिएहि ऐसा । २० मंडल सुरे कतिहि अहोरह रह ? उ०- ता दोहिं अहोरतेहि चरइ । ३. ५० ता एमेमंड उ०ता दोहि अहोरसंहि चर तिहिं सत्तस हि सएहिं दोहि मागेहि अहि राइदिएहिं छेत्ता । " यि पा. १५,०६ एगमेगे जुगे चन्द सूर-णक्खत्ताणं मंडल चारं - ६८. १. ५० - ता जुगे णं चन्दे कइ मंडलाई चरइ ? कतिहि अहोरसेहि चरह ? उ०ता सीए मंडलए चर । २. प० – ता जुगे णं सूरे कइ मंडलाई चरइ ? उ०- ता णव पण्णरस मंडलसए चरइ । ० - ता जुगे णं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ ? ३. ५० उ०—ता अट्ठारस पणतीसे दुभागमंडलसए चरइ । चन्द. पा. १५, सु. ८६ । चन्द. पा. १५, सु. ८६ । इन्वेसा मूहलाई रिक्य-उदुमास राईदिय-जुग मंडल पभिति सिम्यगई वस्त्थू आहिए तिबेमि मूरिय. पा. १२.६ । (२) प्र० - प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०- एक अर्द्ध मण्डल पर्यन्त गति करता है । सूत्र ६६५-६६८ (३) प्र० - प्रत्येक अहोरात्र में नक्षत्र कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०- एक अर्द्ध मण्डल और अर्द्ध मण्डल के सात सौ बत्तीस भागों में से दो भाग अधिक नक्षत्र गति करता है । प्रत्येक मण्डल में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्र कितने अहोरात्र गति करता है ६७. (१) प्र० - प्रत्येक मण्डल को चन्द्र कितने अहोरात्र में पूर्ण रूप से पार करता है ? उ०- दो अहोरात्र और एक अहोरात्र के चार सौ चुमालीस भागों में से इकतीस भाग अधिक में चन्द्र प्रत्येक मण्डल को पार करता है । (२) प्र० - प्रत्येक मण्डल को सूर्य कितने अहोरात्र में पार करता है ? उ०—दो अहोरात्र में प्रत्येक मण्डल को सूर्य पार करता है । (३) प्र० - प्रत्येक मण्डल को नक्षत्र कितने अहोरात्र में पार करता है ? उ०- दो अहोरात्र और एक अहोराय के तीन सौ सदसठ भागों में से दो भाग कम प्रत्येक मण्डल को नक्षत्र पार करता है। प्रत्येक युग में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति६८. (१) प्र० - प्रत्येक युग में चन्द्र कितने मण्डल गति करता है ? उ०- आठ सौ चौरासी मण्डल पर्यन्त गति करता है । (२) प्र० - प्रत्येक युग में सूर्य कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०- पन्द्रह सौ नौ मण्डल गति करता है । (३) प्र० - प्रत्येक युग में नक्षत्र कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०- अठारह सौ पैंतीस अर्द्ध मण्डल पर्यन्त नक्षत्र गति करता है । यह मुहूर्त गति नक्षत्र ऋतुमास अहोरात्र- युग, मण्डल आदि की शीघ्र गति का अध्ययन कहा, ऐसा मैं कहता हूँ । । २ चन्द. पा. १५, सु. ८६ । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६६-६७१ तिर्यक् लोक : चन्द्र-सूय-नक्षत्रों की मण्डलगति गणितानुयोग ४६३ चन्दमासे चन्दस्स सूरस्स णक्खत्तस्स य मण्डल चारं- चन्द्रमास में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति संख्या६६६. १. ५०–ता चंदे णं मासे णं चन्दे कइ मंडलाइं चरइ? ६६६. (१) प्र०-चन्द्रमास में चन्द्र कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है? उ०-चोद्दस चउभागाइं मंडलाइं चरइ । एगं च चउवीस- उ०-चौदह मण्डल और पन्द्रहवें मण्डल का चौथा भाग सयं भाग मंडलस्स । तथा मण्डल के एक सौ चौबीस भागों में से एक भाग पर्यन्त गति करता है। २. ५०–ता चंदे णं मासे णं सूरे कइ मंडलाइं चरइं? (२) प्र०-चन्द्रमास में सूर्य कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०—ता पण्णरस चउभागूणाई मंडलाइं चरइ । एगं च उ०-चौदह मण्डल पूर्ण पन्द्रहवें मण्डल का चौथा भाग कम चउवीससयभागं मंडलस्स। और पन्द्रहवें मण्डल के एक सौ चौबीस भागों में से एक भाग पर्यन्त सूर्य गति करता है। ३. ५०–ता चन्दे णं मासे णं णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ? (३) प्र०-चन्द्रमास में नक्षत्र कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०–ता पण्णरस चउभागूणाई मंडलाइं चरइ । छच्च उ०-चौदह मण्डल पूर्ण, पन्द्रहवें मण्डल का चौथा भाग चउवीससयभागे मंडलस्स।' कम और पन्द्रहवें मण्डल के एक सौ चौबीस भागों में से छ: -सूरिय. पा. १५, सु. ८५ भाग पर्यन्त सूर्य गति करता है । आइच्चमासे चंदस्स, सूरस्स णक्खत्तस्स य मण्डल आदित्यमास में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति चारं संख्या६७०. १. १०–ता आइच्चे गं मासे णं चन्दे कइ मंडलाइं चरइ ? ९७०. (१) प्र०-आदित्यमास में चन्द्र कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०-ता चोद्दस मंडलाइं चरइ, एक्कारस भागे मंडलस्स। उ० --- चौदह मण्डल पूर्ण और पन्द्रहवें मण्डल के इग्यारह भाग पर्यन्त चन्द्र गति करता है। २. ५०–ता आइच्चे गं मासे णं सूरे कइ मंडलाइं चरइ ? (२) प्र०----आदित्य मास में सूर्य कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०—ता पण्णरस चउभागाहिगाई मंडलाइं चरइ । उ०-पन्द्रह मण्डल पूर्ण और सोलहवें मण्डल के चौथे भाग पर्यन्त सूर्य गति करता है। ३. ५०-ता आइच्चे णं मासे ण णक्खत्ते कइ मंडलाई चरइ? (३) प्र०—आदित्य मास में नक्षत्र कितने मण्डल पर्यन्त गति पर्यन्त करता है ? उ०–ता पण्णरस चउभागाहिगाइं मंडलाइं चरइ पंच- उ०-पन्द्रह मण्डल पूर्ण सोलहवें मण्डल का चौथा भाग तीसं च चउवीससयभागे मंडलाइं चरइ। और सोलहवें मण्डल के एक सौ चौबीस भागों में से पैतीस भाग —सूरिय. पा. १५, सु. ८५ पर्यन्त गति करता है। णक्खत्तमासे चंदस्स, सूरस्स, णक्खत्तस्स य मण्डल नक्षत्रमास में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति चारं संख्या९७१. १. ५०–ता णक्खत्ते णं मासे णं चन्दे कइ मंडलाइं चरइ? ६७१. (१) प्र०-नक्षत्रमास में चन्द्र कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? १ चन्द. पा. १५, सु. ८७ । २ चन्द. पा.१५, सु. ८५ । Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : चन्द्र-सूर्य-नक्षत्रों की मण्डल गति सूत्र ९७१-९७३ उ०–ता तेरस मंडलाइं चरइ । तेरस य सत्तट्ठिभागे उ-तेरह मण्डल और एक मण्डल के सडसठ भागों में से मंडलस्स। तेरह भाग पर्यन्त गति करता है । २. ५०–ता णक्खत्ते णं मासे णं सूरे कइ मंडलाइं चरइ? (२) प्र०-नक्षत्रमास में सूर्य कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०–ता तेरस मंडलाइं चरइ। चोत्तालीसं च सत्तट्ठिभागे उ०-तेरह मण्डल और एक मण्डल के सडसठ भागों में से मंडलस्स। चुमालीस भाग पर्यन्त गति करता है। ३. प०-ताणक्खत्ते णं मासे मणक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ? (३) प्र०-नक्षत्र मास में नक्षत्र कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है? उ०—ता तेरस मंडलाइं चरइ । अद्ध सेतालीसं च सत्तट्ठि- उ-तेरह मण्डल और एक मण्डल के सडसठ भागों में से भागे मंडलस्स ।' -सूरिय. पा. १५, सु. ८५ साड़े सेंतालीस भाग पर्यन्त गति करता है। उडमासे चंदस्स सूरस्स णक्खत्तमासस्स य मण्डल चारं- ऋतुमास में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति संख्या९७२. १. १०–ता उडुणा मासे गं चन्दे कइ मंडलाई चरइं? ६७२. (१) प्र०-ऋतुमास में चन्द्र कितने मण्डल पर्यन्त गति ____ करता है? -ता चोइस मंडलाइं चरइ तीसं च एगट्ठिभागे उ०-चौदह मण्डल पूर्ण और मण्डल के इगसठ भागों में से मंडलस्स । तीस भाग पर्यन्त चन्द्र गति करता है। २. ५०–ता उडुणा मासे णं सूरे कइ मंडलाई चरइ? (२) प्र०-ऋतुमास में सूर्य कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०-ता पण्णरस मंडलाइं चरइ । उ०-पन्द्रह मण्डल पूर्ण पर्यन्त सूर्य गति करता है? ३. ५०-ता उडुणा मासे ण णक्खत्ते कइ मंडलाइं चरइ? (३) प्र०---ऋतुमास में नक्षत्र कितने मण्डल पर्यन्त गति करता है ? उ०–ता पण्णरस मंडलाइं चरइ। पंच य बावीससय भागे उ०-पन्द्रह मण्डल पूर्ण और सोलहवें मण्डल के एक सौ __मंडलस्स। -सूरिय, पा. १५, सु. ८५ बावीस भागों में से पांच भाग पर्यन्त नक्षत्र गति करता है। अभिवडिढयमासे चंदस्स सरस्स णक्खत्तस्स य मंडल अभिवधित मास में चन्द्र-सूर्य और नक्षत्रों की मण्डल गति चार संख्या१७३. १.५०–ता अभिवढिए णं मासे णं चन्दे कइ मंडलाइं ९७३. (१) प्र०-अभिवधितमास में चन्द्र कितने मण्डल गति चरइ? करता है ? उ०-ता पण्णरस मंडलाई चरइ, तेसीई छलसीयभागे उ०-पन्द्रह मण्डल पूर्ण सोलहवें मण्डल के छियासी भागों मंडलस्स । में से तियासी भाग पर्यन्त चन्द्र गति करता है। २.५०-ता अभिवढिए णं मासे गं सूरे कइ मंडलाई (२) प्र०-अभिवधित मास में सूर्य कितने मंडल गति चरइ? करता है ? उ०–ता सोलस मंडलाइं चरइ, तिहिं भागेहिं ऊणगाई उ०-सोलह मंडल पूर्ण, सत्रहवें मंडल के दो सौ अड़तालीस दोहि अडयालेहिं सएहिं मंडलं छित्ता। भागों में से तीन भाग कम सूर्य गति करता है । ३. ५०–ता अभिवढिए णं मासे णं णक्खत्ते कइ मंडलाइं (३) प्र०-अभिवधित मास में नक्षत्र कितने मंडल गति चरइ? करता है ? उ०–ता सोलसमंडलाई चरइ । सेयालीसएहि भागेहिं उ०-सोलह मंडल पूर्ण सत्रहवें मंडल के चौदह सौ अदासी अहियाहिं चोइसहिं अट्ठासीएहि मंडलं छेत्ता। भागों में से सैंतालीस भाग अधिक पर्यन्त नक्षत्र गति करता है। -सूरिय. पा. १५, सु. ८५ २ चन्द. पा. १५, सु. ८५ । १ ३ चन्द. पा. १५, सु. ८५ । चन्द. पा. १५, सु. ८५ । Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६७४-६७५ तिर्यक् लोक चन्द्र वर्णन चन्द्र वर्णन ससी सदस्य विसिठत्वं in ७४.० सेकेणणं भंते ! एवं बुच्चइ-चन्दे ससी चन्दे ९७४. प्र० - हे भगवन् ! चन्द्र को " शशी" किस अभिप्राय से ससी ? कहा जाता है ? 17 से तेण णं गोयमा ! एवं बच्चइ – " चन्दे ससी चन्दे ससी ।"" -भग. स. १२, उ. ६, सु. ४ उ०- गोयमा ! चन्दस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरण्णो मियंके ॐ० हे गौतम! ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र के मृगाङ्क विमाणे, कंता देवा कंताओ देवीओ, कंताई आसण- विमान में मनोहर देव, मनोहर देवियां, तथा मनोज्ञ आसनसण-खंभ-भंड मत्तोवगरणाई । शयन स्तम्भ भाण्ड-पात्र आदि उपकरण हैं, और ज्योतिष्केन्द्र अपणा वियणं जन्बे जोतिसिंदे जोतिसराया सोमे ज्योतिषराज चन्द्र स्वयं भी सौम्य, कान्त, सुभग, प्रदर्शन एवं कते सुभए पियस सुरु सुरूप है। जंबुद्दीवे चंद उदयत्यमण-परूवणा १७५. १० -- ( क ) जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे चंदिमाउदीपायी पायीगं दाहिणमागच्छति ? (ख) पादीनं दाहिणमुग्गच्छ दाहिण-पादीणमा गच्छति ? (ग) दाहिण-पादीणमुग्गच्छ पादीण उदीणमागच्छंति ? (घ) पादीनं-उदीम उदीर्ण यादीगमागच्छति १ उ० – (क-घ) हंता गोर्यमा ! जबुद्दीवे गं दीवे बंदिमा उदीर्ण-पावीण पाषाणमागच्छति जपावी-उदीम उदीर्ण पादोण उदीर्णमुग्गच्छ मागच्छति । - भग. स, ५, उ. १०, सु. १ लवणसमुह-धायइड-कालोयसमुद्र- युक्खर चंद उदयत्थमण परूवणा १ (क) सूरिय. पा. २०, सु. १०८ । २ (क) जम्बु वक्ख. ७, सु. १५० । (ग) चन्द. पा. ८ सु. २६ । शशि शब्द का विशिष्टार्य ना RATORY "जच्चेव जंबुद्दीवस्स वत्तवता भणिता, सच्चेव सव्वा लवणसमुद्दपभिइ पुक्खरद्धपज्जवसाणा वि भाणितव्वा । " - भग. स. ५ . १० का संक्षिप्त पूरक पाठ, गणानुयोग ४६५ हे गौतम ! इस कारण से चन्द्र को " शशी" ( या सश्री) कहा जाता है । जम्बूद्वीप में चन्द्रमाओं का उदयास्त प्ररूपण ६७५. प्र०— (क) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में चन्द्रईशानकोण में उदय होकर अग्निकोण में अस्त होते हैं? (ख) अग्निकोण में उदय होकर नैऋत्यकोण में अस्त होते हैं ? (ग) नैऋत्यकोण में उदय होकर वायव्यकोण में अस्त • होते हैं ? (घ) वायव्यकोण में उदय होकर ईशानकोण में अस्त होते हैं ? उ० (क-घ) हाँ गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में चन्द्रईशानकोण में उदय होकर अतिकोप में अस्त होते हैंयावत्-वायव्यकोण में उदय होकर ईशानकोण में अस्त होते हैं। लवणसमुद्र घातकीखण्ड कालोदसमुद्र-पुष्करार्ध में चन्द्रमाओ के उदयास्त का प्ररूपण-:. "जो जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में कहने योग्य कहा गया है वही लवणसमुद्र आदि से पुष्करार्धद्वीप पर्यन्त के सम्बन्ध में कहना चाहिए । (ख) चन्द. पा. २० सु. १०५ । (ख) सूरिय. पा. ८, सु. २६ ॥ Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : चन्द्र वर्णन सूत्र ६७६ चंदस्स परिवुड्ढि-परिहाणी६७६. गाहाओ केणइ वड्ढइ चन्दो? परिहाणी केण हुन्ति चन्दस्स ? कालो वा जोण्हो वा, केणऽणुभावेण चन्दस्स? । किण्हं राहु विमाणं, णिच्चं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमसंपत्तं, हिच्चा चन्दस्स तं चरइ ॥ बावळिं बावठिं, दिवसे दिवसे तु सुक्कपक्खस्स । जं परिवड्ढइ चन्दो, खवेइ तं चेव कालेणं ॥' चन्द्र की हानि-वृद्धि६७६. गाथार्थ प्र०-चन्द्र की हानि किसके निमित्त से होती है ? चन्द्र की वृद्धि किसके निमित्त से होती है ? चन्द्र का प्रभास काल किसके निमित्त से घटता बढ़ता है ? और चन्द्र की ज्योत्सना किसके निमित्त से घटती बढ़ती है ? उ०-राहु का कृष्ण विमान चन्द्र विमान का स्पर्श किए चार अंगुल छोड़कर नीचे नित्य निरन्तर गति करता है। उ०—-शुक्ल पक्ष में चन्द्र का प्रतिदिन बासठवां भाग (राहु से अनावृत्त होकर) बढ़ता जाता है और कृष्ण पक्ष में चन्द्र का बासठवाँ भाग (राहु से आवृत्त होकर) घटता जाता है। पन्द्रह दिन चन्द्र के पन्द्रह भाग क्रमशः राहु के पन्द्रह भागों से अनावृत होते रहते हैं। पन्द्रह दिन चन्द्र के पन्द्रह भाग क्रमश: राहु के पन्द्रह भागों से आवृत होते रहते हैं । इस प्रकार चन्द्र की वृद्धि और हानि प्रतिभासित होती है और इसी कारण से चन्द्र का कृष्ण पक्ष तथा शुक्ल पक्ष होता है। पण्णरसइ भागेण य चन्दे पण्णरसमेव तं वरइ । पण्णरसइ भागेण य, पुणो वि तं चेवऽवक्कमइ ॥२ एवं वड्ढइ चन्दो, परिहाणी एवं होइ चन्दस्स ।' कालो वा जोण्हो वा, एवंडणुभावेण चन्दस्स ॥ -सूरिय. पा. ३६, सु. १०० १ (क) सम. स. ६२, सु. ३ । (ख) "बावट्ठि" मित्यादि, इह द्वाषष्टिभागीकृतस्यचन्द्रविमानस्य द्वौ भागावुपरितनावपाकृत्य शेषस्य पंचदशभागे हुते ये चत्वारो भागा लभ्यन्ते, ते द्वाषष्टिशब्देनोव्यन्ते, "अवयवे समुदायोपचारात्" एतच्चव्याख्यानम् । अस्या एव गाथाया व्याख्याने जीवाभिगम चूणि"चन्द्रविमानं द्वाषष्टिभागी क्रियते, ततः पंचदशभिर्भागो हियते, तत्र चत्वारो भागा द्वाषष्टिभागानां पंचदशभागेन लभ्यन्ते शेषौ द्वौ भागौ, एतावद् दिने दिने शुक्लपक्षस्य राहुणा मुच्यते' “यत् समवायांग सूत्रे उक्तम्"-सुक्कपक्खस्स दिवसे दिवसे चन्दो बाढ़ि भागे परिवड्ढइ, त्ति तद्येवमेव व्याख्येयम् । "शुक्लपक्षस्य दिवसे दिवसे द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् परिवद्ध ति" । "काले-कृष्णपक्षे दिवसे दिवसे तानेव द्वाषष्टिभागसत्कान् चतुरश्चतुरो भागान् क्षपयति, परिहापयति" । २ "पण्णरस" इत्यादि कृष्ण पक्षे प्रतिपद् आरभ्यालीयेन पंचदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकेकं पंचदशभागमुपरितनभागादारभ्याबृणोति । शुक्लपक्षे तु प्रतिपद् आरम्भ तेनैव क्रमेण प्रतिदिवसमेकैकं पंच दशभागं प्रकटीकरोति । तेन जगति चन्द्रमंडल वृद्धि-हानि प्रतिभासेते, स्वरूपतः पुनश्चन्द्रमण्डलावस्थितमेव । "एवं वड्ढइ” इत्यादि, एवं-राहविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणानावरणतो बर्द्ध ते, बद्धमानःप्रतिभासते चन्द्रः एव राहविमानेन प्रतिदिवसं क्रमेणावरणकरणतः प्रतिहानिःप्रतिभासो भवति चन्द्रस्य विषये । "एतेनैनानुभावेन कारणेन एकःपक्षःकाल कृष्णो भवति, यत्र चन्द्रस्य परिहानिः प्रतिभासते । एकस्तु ज्योत्स्नः शुक्लो यव चन्द्रविषयो वृद्धिप्रतिभासः" ४ (क) जीवा. प. ३, उ. २, सु. १७७ । (ख) चन्द. पा. १६ सु. १०० । Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ९७७-६७८ तिर्यक्लोक : चन्द्रमा की वृद्धि-हानि गणितानुयोग ४६७ चंदमसो वड्ढोऽवड्ढी चन्द्र की वृद्धि-हानि९७७. ५०-ता कहं ते चंदमसो वड्ढोऽवड्ढी ? आहिए त्ति वएज्जा, ६७७. प्र०-चन्द्र की वृद्धि-हानि किस प्रकार होती है ? कहें । उ०–ता अट्ट पंचासीते मुहत्तसते तीसं च बावट्ठिभागे उ०-आठ सौ पिच्यासी मुहूर्त और एक मुहूर्त के बासठ मुहुत्तस्स। भागों में से तीस भाग तक चन्द्र की वृद्धि-हानि होती रहती है । ता दोसिणापक्खाओ गं अंधगारपक्खं अयमाणे चंदे शुक्ल पक्ष से कृष्ण पक्ष की ओर आता हुआ चन्द्र चार सौ चत्तारि बायालमुहत्तसए। छत्तालीसं च बावट्ठिभागे बियालीस मुहूर्त और एक मुहूर्त के बासठ भागों में से छियालीस मुहत्तस्स जाई चन्दे रज्जइ,' तं जहा-पढमाए पढमं भाग तक राहु से रक्त (आच्छादित) रहता है, यथा-प्रतिपदा भागं बितियाए वितियं भागं-जाव-पण्णरसीए पण्णर- को एक भाग, द्वितीया को दो भाग-यावत्-पन्द्रहवीं को समं भागं। पन्द्रह भाग। चरिमसमए चंदे रत्ते भवइ । अवसेसे समए चंदे रत्ते पन्द्रहवीं के अन्तिम समय में चन्द्र राहु से पूर्ण रक्त रहता य विरत्ते य भवइ । इयण्णं अमावासा, एत्थ णं पढमे है, शेष समयों में चन्द्र राहु से रक या विरक्त भी रहता है । पव्वे अमावासे ता अंधगार पक्खो । यह अमावस्या है । यह प्रथम पर्व अमावस्या का है। यह कृष्ण पक्ष है। ता णं दोसिणापक्खं अयमाणे चंदे चत्तारे बायाले कृष्ण पक्ष से शुक्ल पक्ष में जाता हुआ चन्द्र चार सौ मुहत्तसए छत्तालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स जाई चंदे बियालीस मुहूर्त और एक मुहूर्त के बासठ भागों में से छियालीस विरज्ज, भाग तक राहु से विरक्त (अनाच्छादित) रहता है। तं जहा-पढमाए पढम भागं बितियाए बितियं भागं यथा-प्रतिपदा को एक भाग, द्वितीया को दो भाग-जाव-पण्णरसीए पण्णरसमं भागं, यावत्-पन्द्रहवीं को पन्द्रह भाग । चरिमसमए चंदे विरत्ते भवइ, पन्द्रहवीं के अन्तिम समय में चन्द्र राहु से सर्वथा विरक्त रहता है। अवसेसे समए रत्ते य विरत्ते य भवइ । अवशेष समयों में रक्त और विरक्त भी रहता है। इयण्णं पुण्णमासिणी एत्थ णं दोच्चे पन्वे पुण्णमासिणी, यह पूर्णमासी है, यह दूसरा पर्व पूर्णमासी का है, यह शुक्ल ता दोसिणा पक्खो।' पक्ष है। -सूरिय. पा. १३, सु०७६ विवेचन एक चन्द्रमन्डल के ६३१ भाग कल्पित है। उनमें से एक भाग अमावस्या की रात्रि में भी नित्य राहु से अनावृत रहता है । अतः उस एक भाग को छोड़कर शेष ६३० भागों में से शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन बासठ बासठ भाग चन्द्रमा बढ़ता रहता है । अर्थात् चन्द्रमा नित्य राहु से अनावृत होता रहता है । इसी प्रकार कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा प्रतिदिन बासठ बासठ भाग घटता रहता है । अर्थात् चन्द्रमा नित्य राहु से आवृत होता रहता है । दोसिणा अंधयारस्स य बहुत्त कारणं चन्द्रिका और अन्धकार आधिक्य के कारण६७८. (क) १. ५०-ता कता ते दोसिणा बहू आहितेति वदेज्जा? ६७८. (१) प्र०—(क) चन्द्रिका कब अधिक कही गई है ? उ०–ता दोसिणापक्खे णं दोसिणा बहू आहितेति उ०-शुक्लपक्ष में चन्द्रिका अधिक कही गई है । वदेज्जा , १ सम. ६२ सु. ३ । २ (क) चन्द, पा. १३, सु. ७६ । (ख) जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १७७ । Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : चन्द्रमा की वृद्धि-हानि सूत्र ६७८ २. ५०-ता कहं ते दोसिणापक्खे णं दोसिणा बहू (२) प्र०-शुक्लपक्ष में चन्द्रिका अधिक क्यों कहीं गई है आहितेति बदेज्जा ?" -:.--- . . .. । उ०—ता अंधकारपक्खाओणं दोसिणत बहू आहि- ज-अन्धकार पक्ष से (शुक्लपक्ष की) चन्द्रिका अधिक तेति वदेज्जा, कही गई है। ३. ५०–ता कहं ते अंधकारपक्खाओ णं दोसिणापक्खे (३) प्र०- अन्धकार पक्ष से शुक्ल पक्ष में चन्द्रिका अधिक दोसिणा बह आहितेति बवेज्जा? ... क्यों कही गई है।.... .. उ०-ता अंधकारपक्खाओ णं दोसिणापक्खं अयमाणे उ अन्धकार पक्ष से शुक्ल पक्ष में आता हुआ चन्द्र चन्दे चत्तारि बायाले मुहत्तसते छत्तालीसं च. चार सौ बियालीस मुहूर्त और एक मुहूर्त के बासठ भागों में से बावट्ठिभागे मुहत्तस्स जाई चन्दे विरज्जति, छियालीस भाग जितने समय तक नित्यराहु से अनावृत रहता तं जहा–पढमाए पढम भागं बितियाए बितियं है यथा-प्रतिपदा को एक भाग, द्वितीया को दो भाग-यावत् भागं-जाब-पण्णरसीए पण्णरसं भाग, पन्द्रहवीं (पूर्णिमा) को पन्द्रह भाग । एवं खलु अंधकारपक्खाओ णं दोसिणापक्खे इस प्रकार अन्धकार पक्ष से शुक्लपक्ष में चन्द्रिका अधिक दोसिणा बहू आहिताति वदेज्जा, रहती है। ४. ५०-ता केवतिया णं दोसिणापक्खे दोसिणा बहू (४) प्र०-शुक्लपक्ष में चन्द्रिका कितनी अधिक कही आहिताति वदेज्जा? गई: 11: ज०- ता परित्ता असंखेज्जा भागा, 38-परिमित' असंख्य भाग । (ख) १. ५०–ता कता ते अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा ? (१) प्र०—(ख) अन्धकार कब अधिक कहा गया है ? उ०-ता अंधकारपक्खे णं अंधकारे बह आंहितेति उ अन्धकार कृष्णपक्ष में अधिक कहा गया है। वदेज्जा, २.५०-ता कहं ते अंधकारपक्खे गं अंधकारे बहू (२) प्र०–अन्धकार पक्ष में अन्धकार अधिक क्यों कहा आहितेति वदेज्जा? गया है ? उ०—ता दोसिणापक्खाओ अंधकारपक्खे गं अंधकारे उ०-शुक्लपक्ष से कृष्णपक्ष में अन्धकार अधिक कहा बह आहितेति वदेज्जा, ३. ५०-ता कहं ते दोसिणापक्खाओ अंधकारपक्खेणं (३) प्र०-शुक्ल से अन्धकार पक्ष में अन्धकार अधिक अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा? क्यों कहा गया है ? उ०–ता दोसिणापक्खाओ णं अंधकारपक्खं अयमाणे उ०-शुक्ल पक्ष से अन्धकार पक्ष में आता हुआ चन्द्र चंदे चत्तारि बायाले मुहुत्तसते छत्तालीसं च चार सौ बियालीस मुहूर्त और एक मुहूर्त के बासठ भागों में से - बावद्विभागे मुहत्तस्स जाइं चन्दे रज्जति, छियालीस भाग जितने समय तक नित्य राहु से आवृत होता तं जहा-पढमाए पढम भागं बितियाए रहता है, यथा-प्रतिपदा को एक भाग, द्वितीया को दो भाग-- बितियं भाग-जाव-पण्णरसं भाग, यावत्-पन्द्रहवीं (अमावस्या) को पन्द्रह भाग । ...... एवं खलु दोसिणापक्खाओ ण अंधकारपक्खे इस प्रकार शुक्लपक्ष से अन्धकार पक्ष में अन्धकार अधिक - - अंधकारे बहू आहितेति वदेज्जा, कहा गया है। ४. ५०.-ता केवतिए णं अंधकारपक्खे अंधकारे बहू (४) प्र०–अन्धकार पक्ष में अन्धकार कितना अधिक कहा आहितेति बदेज्जा? .. गया है? ..उ०-परित्ते असंखेज्ज भागे,'..... 7. -4 : ... ..उ-परिमित असंख्य भाग । ............. -सूरिय. पा.१४, स. ८२ mputer १ (क) चन्द. पा. १४, सु. ८२ । (ख) "सूर्य प्रज्ञप्ति प्राभूत १३, सूत्र ७६ और सूर्यप्रज्ञप्ति प्राभृत १४ सूत्र ८२" इन दोनों सूत्रों का फलितार्थ समान है। अन्तर इतना ही है कि सूत्र ७६ में "चन्द्र की हानि-वृद्धि" का कथन है। सूत्र ८२ में "चन्द्रिका तथा अन्धकार की अधिकता" का कथन है । किन्तु चन्द्र की हानि-वृद्धि से ही चन्द्रिका एवं अन्धकार की अधिकता होती है । __गया है । Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६७६-६८२ चंदमण्डल संखा ६७६ प० - ता कति ते चंदमंडला पण्णत्ता ? उ०- ता पण्णरस चंदमंडला पण्णत्ता, चंदमंडलस्स पमाणं ६८० प० - चंदमंडले णं भते ! मूरिय. पा. १० पाहू० ११, सु० ४५ तिर्यक् लोक : चन्द्रमण्डलों की संख्या केवइयं आयाम - विक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेणं ? केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ता ? १ २ उ० – गोयमा ! छप्पन्न एगसट्टिभाए जोअणस्स आयामविक्खंभेणं । तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं । अट्ठावीस एक्सट्टिभाए जो बाते प - जंबु० वक्ख-७, सु० १४५ पण्णरस-चंदमंडलाण ओगाहणवेत-' उ०- गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे असीयं जोयणसयं ओगाहित्ता एत्थ णं पंच चंदमंडला पण्णत्ता । प० लवणं भंते! समुद्दे केवइयं ओगाहिता केवइया चंदमंडला पण्णत्ता ? इससे कुछ अधिक तीन गुणी परिधि कही गई है । एक योजन के इकसठ भागों में से अठावीस भाग जितना बाहुल्य कहा गया है । पन्द्रह चन्द्रमंडलों का अवगाहन क्षेत्र ६८१ ५० - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयं ओगाहित्ता केवइया ६८१. प्र० - हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में कितना चंदमंडला पण्णत्ता ? अवगाहन करने पर कितने चन्द्रमंडल कहे गये हैं ? उ०- गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तिण्णि तीसाइं जोयणसयाई ओगाहित्ता । एत्थ णं दस चंदमंडला पण्णत्ता । एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे । लवणे व पन्नरस चंदमंडला भवतीतिमक्खायं । - जंबु० वक्ख० ७, सु० १४२ चन्द्रमण्डलों की संख्या६७६. प्र० -चन्द्रमंडल कितने कहे गये हैं ? उ० – पन्द्रह चन्द्रमंडल कहे गये हैं । उ०- गोयमा ! पणती पणतीस जोपणा तीसंच एगसद्धिभाए जोयणस्स । एगसट्टिभागं च सत्तहा छेत्ता । चारि गिआभाए चंदमंडल चंदमंडलस्स अब हाए अंतरे पण्णत्ते । - जंबु. वक्ख. ७, सु. १४४ गणितानुयोग चन्द्रमण्डल का प्रमाण ८० प्र० - हे भगवन् ! चन्द्रमंडल का - आयाम - विष्कम्भ कितना कहा गया है ? परिधि कितनी कही गई है ? और बाहल्य (मोटाई) कितना कहा गया है ? उ०- हे गौतम ! एक योजन के इकसठ भागों में से छप्पन भाग जितना आयाम - विष्कम्भ कहा गया है । ४६६ उ०- हे गौतम! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में एक सौ अस्सी योजन अवगाहन करने पर पाँच चन्द्रमंडल कहे गये हैं । प्र०-हे भगवन्! तवसमुद्र में कितना अवगाहन करने पर कितने चन्द्रमंडल कहे गये हैं ? उ०- हे गौतम! लवणसमुद्र में तीन सौ तीस योजन अवगाहन करने पर दस चन्द्रमंडल कहे गये हैं । पत्तेयं चन्द्रमण्डलरस अंतरं - प्रत्येक चन्द्रमंडल का अन्तर ८२. ५० - चंदमंडलस्स णं भंते ! चंदमंडलस्स केवइआए अबाहाए ६८२. प्र० - हे भगवन् ! एक चन्द्रमंडल से दूसरे चन्द्रमंडल का व्यवधान रहित कितना अन्तर कहा गया है ? अंतरे पण ? इस प्रकार पूर्वापर के मिलाकर जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र में पन्द्रह चन्द्रमंडल कहे गये हैं । (ख) चन्द. पा. १० पाहु. ११ सु. ४५ । उ०- हे गौतम! पैंतीस योजन तथा एक योजन के इगसठ भागों में से तीस भाग और एक भाग के सात भागों में से चार पूर्णिका भाग जितना एक चन्द्रमंडल से दूसरे चन्द्रमंडल का व्यवधान रहित अन्तर कहा गया है। (क) जम्बु. वक्ख. ७, सु. १४२ । इस सूत्र से यह स्पष्ट है कि चन्द्र विमान और चन्द्र मण्डल एक ही है । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : चन्द्रमंडलों का अन्तर सूत्र ६८३-६८४ सव्वब्भंतर-बाहिर-चदमण्डलाणं अन्तरं सर्वआभ्यंतर और सर्वबाह्य चन्द्रमंडलों का अन्तर९८३. ५०-सव्वन्भंतराओ णं भंते ! चंदमंडलाओ णं केवइआए ६८३. प्र० --हे भगवन् ! सर्व आभ्यन्तर चन्द्रमंडल से सर्वबाह्य अबाहाए सव्वबाहिरे चंदमंडले पण्णत्ते ? चन्द्रमंडल व्यवधान रहित कितनी दूरी पर कहा गया है ? उ०—गोयमा ! पंचदसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरए उ०—हे गौतम ! सर्व आभ्यन्तर से सर्वबाह्य चन्द्रमंडल चंदमंडले पण्णत्ते।' -जंबु. वक्ख. ७, सु. १४३ व्यवधान रहित पाँच सौ दस योजन की दूरी पर कहा गया है। मंदरपव्वयाओ सबभतर-बाहिर-चन्दमण्डलाणं मन्दर पर्वत से सर्व आभ्यन्तर और सर्व बाह्य चन्द्रमंडलों अबाहा अन्तरे का व्यवधान रहित अन्तर१८४. १.५०-जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए ६८४. (१) प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर सव्वन्भंतरे चंदमंडले पण्णते ? पर्वत से व्यवधान रहित कितनी दूरी पर सर्व आभ्यन्तर चन्द्र मंडल कहा गया है ? उ०-गोयमा ! चोआलीसं जोयणसहस्साई अट्ठ य वीसे उ०-हे गोतम ! मन्दर पर्वत से व्यवधान रहित चम्मालीस जोयणसए अबाहाए सब्वभंतरे चंदमंडले पण्णतें हजार आठ सौ बीस योजन की दूरी पर सर्वआभ्यन्तर चन्द्रमंडल - कहा गया है। २.५०–जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स केवइयाए अबाहाए अभंत- (२) प्र०--हे भगवन् ! जम्बुद्वीप नाम द्वीप में मन्दर पर्वत राणंतरे चंदमंडले पण्णते ? से व्यवधान रहित कितनी दूरी पर सर्व आभ्यन्तर चन्द्रमंडल से "अनन्तर चन्द्रमंडल" कहा गया है ? उ०-गोयमा ! चोआलीसं जोयणसहस्साई अट्ट य छप्पण्णे उ०-हे गोतम ! (मन्दर पर्वत से व्यवधान रहित) चम्मालीस जोयणसए । पणवीसं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स। हजार आठ सौ छप्पन योजन तथा एक योजन के इकसठ भागो एगट्रिभागं च सत्तहा छत्ता चत्तारि चुण्णिआभाए में से पच्चीस भाग और एक भाग के सात भागो में से चार अबाहाए अब्भंतराणतरे चंदमंडले पण्णते ? चणिका भाग जितनी दूरी पर सर्व आभ्यन्तर चन्द्रमंडल से "अनन्तर चन्द्रमंडल' कहा गया है । ३. ५०-जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए (३) प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर अब्भंतर तच्चे चंदमण्डले पणते ? पर्वत में व्यवधान रहित कितनी दूरी पर सर्व आभ्यन्तर चन्द्र मंडल से तृतीय चन्द्रमंडल कहा गया है ? उ०-गोयमा ! चोआलीसं जोयणसहस्साई अट्ठ य बाण- उ०-हे गौतम ! मन्दर पर्वत से व्यवधान रहित चुम्मालीस उए जोयणसए एगावण्णं च एगसट्ठिभाए जोय- हजार आठ सौ वाणवे योजन एक योजन के इगसठ भागों में से णस्स । एगट्रिभागं च सत्तहा छेत्ता । एगं चुण्णिआ इक्काबन भाग और एक भाग के सात भागों में एक चणिका भागं अबाहाए अभंतर तच्चे चंदमंडले पण्णते। भाग कितनी दूरी पर आभ्यन्तर चन्द्रमंडल से तृतीय चन्द्रमंडल कहा गया है। एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चंदे तया- इस प्रकार इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ चन्द्र एक गंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलसंकममाणे चन्द्रमंडल से अनन्तर चन्द्रमंडल की ओर बढ़ता बढ़ता व्यवधान संकममाणे छत्तीसं छत्तीसं जोयणाई पणवीसं च रहित छत्तीस छत्तीस योजन एक योजन के इकसठ भागों में से एगसट्रिभाए जोयणस्स । एगट्ठिभागं च सत्तहा पच्चीस भाग एक भाग के सात भागों में से चार चूणिका भाग छत्ता । चत्तारि चण्णिआभाए एगमेगे मंडले अबा- जितनी दूरी की प्रत्येक चन्द्रमंडल में वृद्धि करता करता सर्व हाए वडिढ अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे सव्वबा- बाह्य चन्द्रमंडल की ओर बढता हआ गति करता है। हिरं चंदमण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। जम्बू वक्ष. ७, सु. १४२ के अनुसार जम्बूद्वीप में एक सौ अस्सी योजन अवगाहन करने पर पाँच चन्द्रमंडल हैं और लवणसमुद्र में तीन सौ तीस योजन अवगाहन करने पर दस चन्द्रमंडल हैं, अतः एक सौ अस्सी और तीन सौ तीस-इन दोनों संख्याओं को संयुक्त करने पर पांच सौ दस योजन होते हैं । २ आभ्यंतरानन्तर - अर्थात् आभ्यंतर के बाद का दूसरा । Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ९८४-६८५ तिर्यक् लोक : चन्द्रमण्डलों का अन्तर गणितानुयोग ४७१ १.५०–जंबुद्दीव दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए (१) प्र०—हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर सव्वबाहिरे चंदमण्डले पण्णते ? पर्वत से व्यवधान रहित कितनी दूरी पर सर्व बाह्य चन्द्रमंडल कहा गया हैं ? उ०-गोयमा! पणयालीसं जोयणसहस्साइं तिण्णि अ उ०-हे गौतम ! मन्दर पर्वत से व्यवधान रहित पेंतालीस तीसे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरए चंदमण्डले हजार तीन सौ तीस योजन की दूरी पर सर्वबाह्य चन्द्रमंडल पण्णत्ते। कहा गया है। २.५०-जंबुद्दीवे दीवे मदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए (२) प्र०- हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर बाहिराणंतरे चंदमण्डले पण्णत्ते ? पर्वत से व्यवधान रहित कितनी दूरी पर सर्व बाह्य चन्द्रमंडल से अनन्तर चन्द्रमंडल कहा गया है ? उ०-गोयमा ! पणयालोसं जोयणसहस्साइं दोणि य उ०-हे गौतम ! मन्दर पर्वत से व्यवधान रहित पंतालीस तेणउए जोयणसए । पणतीसं च एगसट्ठिभाए जोयण- हजार दो सौ तिरानवे योजन एक योजन के इगसठ भागों में से स्स एगट्ठिभागं च सत्तहा छत्ता तिण्णि चुणिया पेंतीस भाग एक भाग के सात भागों में से तीन चूणिका भाग भाए अबाहाए बाहिराणंतरे चंदमण्डले पण्णत्ते। जितनी दूरी पर सर्व बाह्य चन्द्रमंडल से अनन्तर का चन्द्रमंडल कहा गया है। ३. ५०-जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए (३) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर पर्वत से बाहिरतच्चे चंदमण्डले पण्णते ? व्यवधान रहित कितनी दूरी पर सर्व बाह्य चन्द्रमंडल से तृतीय चन्द्रमंडल कहा गया है ? उ०-गोयमा ! पणयालीसं जोयणसहस्साई दोण्णि अ उ०-हे गौतम ! मन्दर पर्वत से व्यवधान रहित पेंतालीस सत्तावष्णे जोयणसए णव य एगसट्ठिभाए जोयण- हजार दो सो सत्तावन योजन एक योजन के इगसठ भागों में से स्स । एगट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता । छ चुण्णिआ- नौ भाग और एक भाग के सात भागों में से छः चूणिका भाग भाए अबाहाए बाहिरतच्चे चंदमण्डले पण्णत्ते । जितनी दूरी पर सर्व बाह्य चन्द्रमंडल से तृतीय चन्द्रमंडल कहा गया है। एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चंदे तयाणंत- इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ चन्द्र एक चन्द्रराओ मण्डलाओ तयाणंतर मण्डलं संकममाण मंडल से अनन्तर चन्द्रमंडल की ओर बढ़ता बढ़ता व्यवधान संकममाणे छत्तीसं छत्तीसं जोयणाई। पणवीसं च रहित छत्तीस छत्तीस योजन एक योजन के इगसठ भागों एगसट्ठिभाए जोयणस्म एगट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता में से पच्चीस भाग और एक भाग के सात भागों में से चार चत्तारि चुण्णिआभाए एगमेगे मण्डले अबाहाए चूणिका भाग जितनी दूरी की प्रत्येक चन्द्रमंडल में हानि करता वुद्धिं निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे सव्वभंतरं मण्डलं करता सर्व आभ्यन्तर चन्द्रमंडल की ओर बढ़ता हुआ गति उवसंकमित्ता चारं चरइ। करता है। ___-जंबु. वक्ख. ७, सु. १४६ सव्वन्भंतर-बाहिर चन्दमण्डलाणं आयाम-विक्खभो सर्व आभ्यन्तर और बाह्य चन्द्रमंडलों का आयाम-विष्कम्भ परिक्खेवो य तथा परिधि१८५. १. १०-(क) सवभंतरे णं भंते ! चंदमण्डले केवइयं ९८५. (१) प्र०—(क) हे भगवन् ! सर्व आभ्यन्तर चन्द्रमंडल आयाम-विक्खंभेणं? का कितना आयाम-विष्कम्भ है ? (ख) केवइयं परिक्खेवेणं पणते ? (ख) और कितनी परिधि कही गई है ? १ प्रस्तुत सूत्र के सभी प्रश्नों में "जम्बुद्दीवे दीवे" ऐसा मूल पाठ है, इसके स्थान में "जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे' ऐसा पाठ होना उचित है । क्योंकि सभी उत्तरों में "गोयमा" पाठ का प्रयोग है। Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : चन्द्रमंडलों का आयाम-विष्कम्भ-परिधि सूत्र ६८५ उ०—(क) गोयमा ! सव्वभंतरे णं चंदमण्डले णवणउई उ०—(क) हे गौतम ! सर्व आभ्यन्तर चन्द्रमंडल का जोयणसहस्साई छच्चचत्ताले जोयणसए आयाम आयाम-विष्कम्भ निन्यानवे हजार छः सौ चालीस योजन का है । विक्खंभेणं। (ख) तिण्णि अ जोयणसयसहस्साई पष्णरस जोयण- (ख) और तीन लाख पन्द्रह हजार निव्यासी योजन से कुछ सहस्साई अउणाणत्ति च जोयणाई किंचि अधिक की परिधि कही गई है। विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । २. ५०-(क) अभंतराणंतरे णं भंते ! चंदमण्डले केवइयं (२) प्र०—(क) हे भगवन् ! आभ्यन्तरानन्तर चन्द्र मंडल आयाम-विक्खंभेणं? का कितना आयाम-विष्कम्भ है ? (ख) केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? (ख) और कितनी परिधि कही गई है ?, उ०-(क) गोयमा ! अब्भंतराणंतरे णं चंदमण्डले णवण- उ०—(क) हे गौतम ! आभ्यन्तरानन्तर का चन्द्रमंडल का उई जोयणसहस्साई-सत्त य बारसुत्तरे आयाम-विष्कम्भ निन्यानवे हजार सात सौ बारह योजन और जोयणसए एगावणं च एगसट्ठिभागे एक योजन के इगसठ भागों से इक्कावन भाग तथा एक भाग के जोयणस्स एगट्ठिभागं च सत्तहा छत्ता एगं सात भागों में से एक चूणिका भाग जितना है । चुण्णिाभागं आयाम-विक्खंभेणं । (ख) तिष्णि अ जोयणसयसहस्साइं तिष्णि अ (ख) तीन लाख तीन सौ उन्नीस योजन से कुछ अधिक की एगूणवीसे जोयणसए किचिविसेसाहिए परि- परिधि कही गई है । क्खेवेणं पण्णत्ते। ३.५०-(त) अब्भंतरतच्चे णं भंते ! चंदमण्डले केवइयं (३) प्र०—(क) हे भगवन् ! आभ्यन्तर तृतीय चन्द्रमंडल आयाम-विक्खंभेणं? का कितना आयाम-विष्कम्भ है ? (ख) केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते ? (ख) और कितनी परिधि कही गई है ? उ०-(क) गोयमा ! अब्भंतरच्चे णं चंदमण्डले णवणउई उ०- (क) हे गौतम ! आभ्यन्तर-तृतीय चन्द्रमंडल का जोयणसहस्साई सत्त य पंचासीए जोयणसए आयाम-विष्कम्भ निन्यानवे हजार सात सौ पच्चीस योजन तथा इगतालीसं च एगसट्ठीभाए जोयणस्स । एक योजन के इकसठ भागों से इगतालीस भाग और एक भाग एगट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता दोण्णि अ में से दो चूणिका भाग जितना है । चुण्णियाभाए आयाम-विक्खंभेणं । (ख) तिष्णि अ जोयणसयसहस्साई पप्णरस जोयण- (ख) तीन लाख पन्द्रह हजार पाँच सौ उनपचास योजन से सहस्साइं पंच य इगुणापण्णे जोयणसए किंचि कुछ अधिक की परिधि कही गई है। विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । एवं खल एएणं उवाएणं णिक्खममाणे चन्दे इस प्रकार इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ चन्द्र एक चन्द्र तयाणंतराओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं मंडल से दूसरे चन्द्रमंडल की ओर बढ़ता बढ़ता बहत्तर-बहत्तर संकममाणे संकममाणे बावरि बावरि योजन एक योजन के इगसठ भागों में से इक्कावन भाग और जोयणाई एगावण्णं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स । एक भाग के सात भागों से एक चूणिका भाग जितनी विष्कम्भ एगट्ठिभागं च सत्तहा छत्ता एगं च चुण्णिआ- वृद्धि को प्रत्येक मडल में बढ़ाता बढ़ाता दो सौ तीस योजन, भागं एगमेगे मण्डले विक्खंभवुड्ढि अभिवड्ढे- दो सौ तीस योजन परिधि की वृद्धि करता करता सर्व बाह्यमाणे अभिवड्ढेमाणे । दो दो तीसाइं जोयण- मंडल की ओर गति करता है। सयाइ परिरयवुडिढं अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढे माणे सव्वबाहिरं मण्डल उवसंकमित्ता चारं चरइं। १.५०-(क) सम्बबाहिरए णं भंते ! चंदमण्डले केवइयं (१) प्र०—(क) हे भगवन् ! सर्व बाह्य चन्द्रमंडल का आयाम-विक्खंभेणं? कितना आयाम-विष्कम्भ हैं ? Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६८५ तिर्यक् लोक : चन्द्रमण्डलों का आयाम-विष्कम्भ-परिधि गणितानुयोग ४७३ (ख) केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? (ख) और कितनी परिधि कही गई है ? उ०—(क) गोयमा ! सम्बबाहिरए णं चंदमण्डले एगं उ-हे गौतम ! सर्व बाह्य चन्द्रमंडल का आयाम-विष्कम्भ जोयणसयसहस्सं छच्चसट्टे जोयणसए । एक लाख छ: सौ साठ योजन का है। आयाम-विक्खंभेणं । (ख) तिष्णि अ जोयणसयसहस्साइं अट्ठारससह- (ख) और तीन लाख अठारह हजार तीन सौ पन्द्रह योजन स्साइं तिष्णि अ पण्णरसुत्तरे जोयणसए परि- की परिधि कही गई है। क्खेवेणं पण्णत्ते। २. ५०-(क) बाहिराणंतरे णं भंते ! चंदमण्डले केवइयं (२) प्र० -- (क) हे भगवन् ! बाह्यान्तर चन्द्रमंडल का आयाम-विक्खंभेणं? कितना आयाम-विष्कम्भ है ? (ख) केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? (ख) और परिधि कितनी कही गई है ? उ०—(क) गोयमा ! बाहिराणंतरे णं चंदमण्डले एगं उ०--(क) हे गौतम ! बाह्याभ्यन्तर वन्द्रमडल का आयाम जोयणसयसहस्सं पंच सत्तासीए जोयणसए। विष्कम्भ एक लाख पाँच सौ सित्यासी योजन; एक योजन के णव य एगसट्ठिभाए जोयणस्स । एगट्ठिभागं इगसठ भागों में से नौ भाग और एक भाग के सात भागों में से च सत्तहा छत्ता छ चुण्णिआभाए आयाम- छः चूणिका भाग जितना है । विक्खंभेणं। (ख) तिणि अ जोयणसयसहस्साई अट्ठारससहस्साई, (ख) और तीन लाख अठारह हजार पच्यासी योजन की पंचासीइं च जोयणाई परिक्खेवेणं पण्णत्ते। परिधि कही गई है। ३.५०-(क) बाहिरतच्चे णं भंते ! चंदमण्डले केवइयं (३) प्र०—(क) हे भगवन् ! बाह्य तृतीय मंडल का कितना आयाम-विक्खंभे गं? आयाम-विष्कम्भ है ? (ख) केवइयं परिक्खेवेणं पणते ? (ख) और कितनी परिधि कही गई है ? उ०—(क) गोयमा ! बाहिरतच्चे णं चंदमण्डले एगं उ० ---(क) हे गौतम ! बाह्य तृतीय मंडल का आयाम जोयणसयसहस्सं पंच य दसुत्तरे जोयणसए विष्कम्भ एक लाख पाँच सौ दस योजन एक योजन के इगसठ एगूणवीसं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स । एगट्ठि- भागों में से उन्नीस भाग और एक भाग के सात भागों में से भागं च सत्तहा छत्ता पंच चुण्णिाभाए पाँच चूणिका भाग जितना है । आयाम-विक्खंभेणं । (ख) तिणि अ जोयणसय सहस्साइं। सत्तरस सह- (ख) और तीन लाख सतरा हजार आठ सौ पचपन योजन स्साइं अट्ट य पणपण्णे जोयणसए परिक्खेवेणं की परिधि कही गई है। पण्णत्ते। एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चन्दे इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ चन्द्र एक चन्द्रतयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मण्डलं मंडल से दूसरे चन्द्रमंडल की ओर बढ़ता बढ़ता बहत्तर बहत्तर संकममाणे संकममाणे बावरि बावरि योजन एक योजन के इगसठ भागों में से इक्कावन भाग और जोयणाई एगावण्णं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स। एक भाग के सात भागों में से एक चूणिका भाग जितनी विष्कम्भ एगट्ठिभागं च सत्तहा छेत्ता एगं चुपिणआ भागं वृद्धि को प्रत्येक चन्द्रमंडल में घटाता तथा दो सो तीस योजन एगमेगे मण्डले विखंभवुड्ढिं णिवुड्ढेमाणे दो सौ तीस योजन (प्रत्येक चन्द्रमंडल में) परिधि की वृद्धि को णिवुड्ढेमाणे दो दो तीसाइं जोयणसयाई घटाता घटाता सर्व आभ्यन्तर चन्द्रमंडल की ओर बढता बढ़ता परिरयवडिढं णिवुड्ढेमाणे णिवुड्ढेमाणे गति करता हैसव्वभंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। -जबु. वक्ख. ७, सु. १४७ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : चन्द्रमण्डल की गति का प्रमाण सूत्र ६८६ सब्वभंतरं-बाहिर-चंदमण्डलेसु चंदस्स एगमुहत्तगति सर्व आभ्यन्तर और बाह्य चन्द्रमण्डलों में चन्द्र की एक पमाण मुहूर्त की गति का प्रमाण१८६. १. ५०-जया णं भंते चन्दे सव्वभंतरमण्डलं उवसंकमित्ता ६८६. (१) प्र०-हे भगवन् ! चन्द्र सर्व आभ्यन्तर मंडल में चारं चरइ। तया णं एगमेगे णं मुहुत्ते णं केवइयं पहुंचकर जब गति करता है, तब प्रत्येक मुहूर्त में कितने क्षेत्र को खेत्तं गच्छइ? पार करता है ? उ०-गोयमा ! पंचजोयणसहस्साई। तेवरि च जोय- उ०-हे गौतम ! पाँच हजार तेहत्तर योजन और सितत्तर णाई। सत्तरं च चोआले भागसए गच्छइ । सौ चम्मालीस भाग जितने क्षेत्र को (प्रत्येक मुहूर्त में) पार करता है। मण्डलं तेरसहि सहस्सेहि सत्तहि अ पणवीसेहि मंडल की परिधि को तेरह हजार सात सौ पच्चीस का सएहि छेत्ता इति । भाग देने पर (चन्द्र की एक मुहूर्त में होने वाली गति का प्रमाण) होता है। तया ण इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोयण- (चन्द्र जब सर्व आभ्यन्तर मण्डल में गति करता है) उस सहस्सेहिं दोहि य तेवढे हिं जोयणएहिं एगवीसाए समय सेंतालीस हजार दो सौ वेसठ योजन और एक योजन के इगसद्विभाएहिं जोयणस्स चन्दे चक्खुकासं हव्वमा- इगपठ भागों में से इकवीस भाग जितनी दूरी से यहाँ रहे हुए गच्छद। मनुष्य को अपनी आँख से चन्द्र दिखाई देता है। २. ५०–जया णं भंते ! चन्दे अब्भंतराणंतरं मण्डलं उव- (२) प्र०-हे भगवन् ! चन्द्र जव आभ्यन्तरानन्तर (अर्थात् संकमित्ता चारं चरइ। तया गं एगमेगे णं मुहुत्ते सर्व आभ्यन्तर से दूसरा) मण्डल में पहुँच कर गति करता है तब णं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? प्रत्येक मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पार करता है ? उ०-गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई सत्तत्तरि च जोय- उ-हे गौतम ! पाँच हजार सत्तर योजन और छत्तीस सौ णाई। छत्तीस च चोअत्तरे भागसए गच्छइ। चोहत्तर भाग जितना क्षेत्र (प्रत्येक मुहूर्त में) पार करता है । मण्डलं तेरसहिं सहस्सेहि सत्तहि अ पणवीसेहिं मंडल की परिधि को तेरह हजार सात सौ पच्चीस का सएहि छेत्ता इति । भाग देने पर (चन्द्र की एक मुहूर्त में होने वाली गति का प्रमाण) होता है। ३. ५०-जया णं भते ! चन्दे अभंतर तच्च मण्डल उव- (३) प्र०-हे भगवन् ! चन्द्र आभ्यन्तर तृतीय मंडल में संकमित्ता चार चरइ । तया णं एगमेगे णं मुहुत्ते ण पहुँचकर जब गति करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में कितने क्षेत्र को केवइयं खेतं गच्छ? पार करता है? उ०-गोयमा ! पंचजोयणसहस्साई असीइ च जोयणाई। उ०-हे गौतम ! पांच हजार अस्सी योजन और तेरह तेरस य भागसहस्साई तिण्णि अ एगूणवीसे भागसए हजार तीन सौ उगणीस भाग जितने क्षेत्र को (प्रत्येक मुहूर्त में) गच्छ। पार करता है। मण्डलं तेरसहि सहस्सेहिं सत्तहि अ पणवीसेहि मंडल की परिधि को तेरह हजार सात सौ पच्चीस का सएहिं छेत्ता इति । भाग देने पर (चन्द्र की एक मुहूर्त में होने वाली गति का प्रमाण) होता है। एवं खलु एएण उवाएण णिक्खम्ममाणे चन्दे तया- इस प्रकार इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ चन्द्र तदनन्तर गंतराओ मण्डलाओ तयाणतरे मण्डलं सकममाणे मंडल से तदनन्तर मंडल में पहुंचता पहुँचता प्रत्येक मंडल में संकममाणे तिष्णि तिण्णि जोयणाई छण्णउई च तीन तीन योजन तथा छिनवे सौ पचास भाग जितने क्षेत्र की पचावण्णे भागसए एगभेगे मण्डले मुहत्तगई अभि- मुहूर्त गति बढ़ाता बढ़ाता सर्व बाह्यमंडल की ओर बड़ता हुआ वड्ढेमाणे अभिवड्डेमाणे सत्वबाहिरं मण्डलं उब- गति करता है। संकमित्ता चारं तरइ। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६८६ तिर्यक् लोक : चन्द्रमण्डल की गति का प्रमाण गणितानुयोग ४७५ १.५०-जया णं भंते ! चन्दे सब्वबाहिरं मण्डलं उवसंक- (१) प्र०-हे भगवन् ! चन्द्र सर्व बाह्यमंडल में पहुँच कर मित्ता चारं चरई। तया णं एगमेगे णं केवइयं जब गति करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पार खेत्तं गच्छइ ? करता है? उ०-गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई एगं च पणवीसं उ० -हे गौतम ! पाँच हजार एक सौ पच्चीस योजन और जोयणसय अउणत्तरं च णउए भागसए गच्छइ। उनहत्तर सौ निब्बे भाग जितने क्षेत्र को (प्रत्येक मुहूर्त में) पार करता है। मण्डल तेरसहिं सहस्सेहिं सत्तहि अ पणवीसेहिं मंडल (की परिधि) को तेरह हजार सात सौ पच्चीस का सएहिं छेत्ता इति । भाग देने पर (चन्द्र की एक मुहूर्त में होने वाली गति का प्रमाण) होता है। तया णं इहगयस्स मणूसस्स एक्कतीसाए जोयण- (चन्द्र जब सर्व बाह्य मंडल में गति करता है) उस समय सहस्सेहिं अट्ठहि य एगत्तीसेहिं जोयणसएहिं चन्दे इगतीस हजार आठ सौ इगतीस योजन की दूरी से यहाँ रहे हुए चक्खुफासं हवमागच्छइ। मनुष्य को अपनी आँख से चन्द्र दिखाई दे जाता है । २. ५०–जया णं भंते ! चंदे बाहिराणंतरं मण्डलं उवसंक- (२) प्र० --हे भगवन् ! बाह्यान्त र मंडल में पहुंचकर चन्द्र मित्ता चार चरइ। तया णं एगमेगे णं मुहुत्ते णं जब गति करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पार केवइयं खेत्त गच्छइ? करता है? उ०-गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई एक्कं च एक्कवीसं उ०-हे गौतम ! पाँच हजार एक सौ इक्कीस योजन और जोयणसयं एक्कारस य सट्ठ भागसए गच्छइ। इग्यारह सौ साठ भाग जितने क्षेत्र को (प्रत्येक नुहूर्त में) पार करता है। मण्डलं तेरसहिं सहस्सेहि सत्तहि अ पणवीसेहिं मंडल की परिधि को तेरह हजार सात सौ पच्चीस का सएहिं छेत्ता इति । भाग देने पर (चन्द्र की एक मुहूर्त में होने वाली गति का प्रमाण) होता है। ३. ५०-जया णं भंते ! चंदे बाहिर तच्चं मण्डलं उवसंक- (३) प्र०-हे भगवन् ! चन्द्र बाह्य तृतीय मण्डल में जब मित्ता चारं चरइ। तया णं एगमेगे णं मुहुत्ते णं गति करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पार केवइयं खेत्तं गच्छइ? करता है? उ०-गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई एगं च अट्ठारसुत्तरं उ-हे गौतम ! पाँच हजार एक सौ अठारह योजन और जोयणसयं चोद्दस य पंचुत्तरे भागसए गच्छइ। चौदह सौ पाँच भाग जितने क्षेत्र को (प्रत्येक मुहूर्त में) पार करता है। मण्डलं तेरसहिं सहस्सेहि सत्तहिं वणवीसेहिं सएहिं मडल (की परिधि) को तेरह हजार सात सौ पच्चीस का छेत्ता इति । भाग देने पर (चन्द्र की एक मुहूर्त में होने वाली गति का प्रमाण) होता है। एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे चंदे तयाणंत- इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ चन्द्र तदनन्तर राओ मण्डलाओ तयाणंतर मण्डलं संकममाणे मंडल से तदनन्तर में पहुँचता पहुँचता प्रत्येक मुहत मंडल में तीन संकममाणे तिग्णि तिण्णि जोयणाई छण्णउतिं च तीन योजन तथा छिनवे सौ पचास जितनी मुहूर्त गति को पचावण्णे भागसए एगमेगे मण्डले मुहत्त गई णिवुड्ढे- घटाता घटाता सर्व आभ्यन्तर मंडल की ओर बढ़ता हुआ गति माणे णिबुड्ढेमाणे सव्वन्भंतरं मण्डलं उबसंकमित्ता करता है । चारं चरइ। - जंबु. वक्ख. ७, सु. १४८ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : योगों का चन्द्र के साथ योग सूत्र ९८७-६८९ एगमेगे मुहत्ते मण्डलस्स भागेसु चंदस्स गईए परूवणं- प्रत्येक मुहर्त में मंडल के भागों में चन्द्र की गति का प्ररूपण९८७.५० -एगमेगे णं भंते ! मुहत्ते गं चंदे केवइयाइं भागसयाई ९८७. प्र०-भगवन् ! चन्द्र प्रत्येक मुहूर्त में मण्डल के कितने गच्छइ? भागों में गति करता है ? उ०-गोयमा ! जं जं मण्डलं उबसंकमित्ता चार चरइ। उ०-हे गौतम ! चन्द्र जिस जिस मंडल पर आरूढ़ होकर तस्स तस्स मण्डलपरिक्खेवस्स सत्तरस अडसठिं भाग- गति करता है उस उस मण्डल की एक लाख अठानवें सौ योजन सए गच्छइ । मण्डलं सयसहस्सेणं अट्टाणउइए सएहिं की परिधि के सतरहा सौ अडसठ भाग चलता है। छेत्ता । -जंबु. वक्ख. ७, सु. १४६ जोगाणं चन्देण सद्धि जोग-परूवण योगों का चन्द्र के साथ योग प्ररूपण१८८. तत्थ खलु इमे दसविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा १८८. ये दस प्रकार के योग कहे गये हैं यथा१. वसभाणु जोए, २. वेणुयाणु जोए (१) वृषभानुयोग, (२) वेणुकानुयोग, ३. मंचे जोए, ४. मंचाइमंचे जोए (३) मंचयोग, (४) मंचातिमंचयोग, ५. छत्ते जोए, ६. छत्ताइछत्ते जोए (५) छत्रयोग, (६) छत्रातिछत्रयोग, ७. जुवणद्धे जोए, ८. घणसंमद्दे जोए (७) युगनद्धयोग, (८) घनसंमर्दयोग, ६. पीणिए जोए, १०. मंडुकप्पुते जोए (6) प्रीणितयोग, (१०) मंडुकप्लुतयोग, १.५०-ता एएसिं थे पंचण्ह संवच्छराणं छत्ताइछत्तं जोयं (१) प्र०-इन पाँच संवत्सरों में चन्द्र मंडल के किस भाग चंदे कसि देसंसि जोएइ? ___ में छत्रातिछत्र योग करता है ? उ०-ता जंबुद्दीवस्स दीवस्स, पाईण-पडिणीआययाए, उ०- जम्बूद्वीप द्वीप की पूर्व-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर लम्बी उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मण्डलं चउव्वीसेणं जीवा से मंडल के एक सौ चौबीस भाग करके दक्षिण-पूर्व सएणं छित्ता दाहिण-पुरथिमिल्लसि चउभाग- (नैऋत्यकोण) में मंडल के चतुर्थ भाग प्रदेश में सत्तावीस अंश मण्डलंसि सत्तावीस भागे उवाइणावेत्ता अट्ठावीसइ- भोग कर अट्ठावीस अंश के बीस भाग करके अठारह अंशों को भागं वीसधा छेत्ता अट्ठारसभागे उवाइणावेत्ता तिहिं ग्रहण करके तीन भाग दो कला से दक्षिण-पूर्व के चतुर्थ भाग भागेहि दोहिं कलाहिं दाहिण-पुरथिमिल्लं चउन्भाग- प्रदेश में प्रवेश करने से पूर्व चन्द्र "छत्रातिछत्र" योग करता है। मण्डलं असंपत्ते एत्य णं से चन्दे छत्तातिच्छत्तं जोयं जोएइ। उप्पिं चंदो, मज्झे जक्खत्ते, हेट्ठा आइच्चे, ऊपर चन्द्र, मध्य में नक्षत्र और नीचे सूर्य । २. ५०--तं समयं च षं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? (२) प्र०-उस समय चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०-ता चित्ताहिं चित्ताणं चरम समए । उ०—चित्रा नक्षत्र से योग करता है। -सूरिय० पा० १२, सु०७८ चन्दस्स पुण्णिमासिणिसु जोगो चन्द्र का पूर्णिमाओं में योग६८६. तत्थ खलु इमाओ बावट्ठि पुणिमासिओ बावट्ठि अमावा- ६८६. पाँच संवत्सरों में ये बासठ पूर्णिमायें और बासठ अमासाओ पण्णत्ताओ, वास्यायें कही गई हैं। १. प०-ता एएसि णं पचण्ह संवच्छराणं पढम पुणिमा- (१) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की प्रथम पूर्णिमासी को सिणि चंदे कसि देसंसि जोएइ ? चन्द्र मंडल के किस देश (विभाग) में योग करता है ? १ मूरिय. पा. १५, सु. ८३ । २ चन्द. पा. १२ सु. ७८ । Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६८९ तिर्यक् लोक : चन्द्र का पूर्णिमाओं में योग गणितानुयोग ४७७ उ०-जंसि णं देसंसि चरिमं बाढि पुण्णिमासिणि जोएइ उ०-अंतिम बासठवीं पूर्णमासी को मंडल के जिस देश में ताए तेणं पुण्णिमासिणिद्वाए' मण्डलं चउव्वीसेणं चंद्र योग करता है उसी पूर्णिमास्थान से आगे वाले मंडल के सएणं छत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से एक सौ चौबीस विभाग करके (उनमें से) वत्तीस विभाग को चंदे पढमं पुण्णिमासिणि जोएइ, लेकर उनमें प्रथमा पूर्णिमासी को चंद्र योग करता है। २. ५०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं पुण्णिमा- (२) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की द्वितीया पूर्णमासी को सिणि चंदे कसि देसंसि जोएइ? चंद्र मंडल के किस देश-विभाग में योग करता है ? उ०-जंसि णं देसंसि चंदे पढमं पुण्णिमासिणि जोएइ, उ०-प्रथमा पूर्णमासी को मंडल के जिस देश में योग ताए तेणं पुण्णिमासिणिट्ठाणाए मण्डलं चउन्वीसेणं करता है उसी पूर्णिमा स्थान से आगे वाले मंडल के एक सौ सएणं छत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से चौबीस विभाग करके (उनमें से) बत्तीस विभाग को लेकर उनमें चंदे दोच्चं पुण्णिमासिणि जोएइ, द्वितीया पूर्णमासी को चंद्र योग करता है । ३. ५०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णिमासिणिं (३) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की तृतीया पूर्णमासी को चंदे कंसि देसंसि जोएइ? चंद्र मंडल के किस देश-विभाग में योग करता है ? उ०-जंसि णं देसंसि चंदे दोच्चं पुणिमासिणिं जोएइ, उ०—द्वितीया पूर्णमासी को मंडल के जिस देश में चंद्र योग ताए ते णं पुण्णिमासिणिट्ठाणाए मण्डलं चउव्वीसेणं करता है उसी पूर्णिमा स्थान से आगे वाले मंडल के एक सौ सएणं छेत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से चौबीस विभाग करके (उनमें से) बत्तीस विभाग को लेकर उनमें चंदे तच्चं पुण्णिमासिणिं जोए इ, तृतीया पूर्णमासी को चंद्र योग करता है । ४. ५०–ता एएसि गं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं पुण्णि- (४) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की बारहवीं पूर्णमासी को मासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएइ ? चंद्र मंडल के किस देश = विभाग में योग करता है ? उ०-जंसि णं देसंसि चंदे तच्चं पुण्णमासिणि जोएइ, उ०-तृतीया पूर्णमासी को चंद्र मंडल के जिस देश में योग ता पुण्णिमासिणिढाणाए मण्डलं चउव्वीसेणं सएणं करता है उसी पूणिमास्थान से आगे वाले मंडलों के एक सौ छेत्ता दोण्णि अट्ठासीए भागसए उवाइणावेत्ता, चौबीस एक सौ चौबीस विभाग करके उनमें से दो सौ अट्टासी एत्थ णं से चंदे दुवालसमं पुणिमासिणि जोएइ, भाग लेकर उनमें क्रमशः योग करता हुआ बारहवीं पूर्णमासी को चंद्र योग करता है। एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए पुण्णिमासिणि- इस प्रकार इस क्रम से उन उन पूणिमा स्थानों से आगे वाले ढाणाए मण्डलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता बत्तीसं भागे मंडलों के एक सौ चौबीस एक सौ चौवीस विभाग करके उनमें उवाइणावेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं पुण्णमासिणि से प्रत्येक मंडल के बत्तीस बत्तीस विभागों को लेकर उन उन चंदे जोएइ। विभागों में उन उन पूर्णिमाओं को चंद्र योग करता है । ५.५०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरम बाट्ठि (५) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की अन्तिम बासठवीं पूर्णिमा पुण्णिमासिणि चंदे कंसि देसंसि जोएइ? को चंद्र मंडल के किस विभाग में योग करता है ? उ०–ता जंबुद्दीवस्स णं दोवस्स पाईण-पडिणाययाए उ०—जम्बूद्वीप के ईशान एवं नैऋत्यकोण स्थित लम्बी उदीण-दाहिणययाए जीवाए मंडलं चउव्वीसेण जीवा में मंडल के एक सौ चौबीस विभाग करके, दक्षिण में सएणं छेत्ता दाहिणंसि चउभागमंडलंसि सत्तावीसं मंडल के चार भागों में से सत्तावीस भाग लेकर अठावीसवें भाग भागे उवाइणावेत्ता, अट्ठावीसइ भागे वोसहा छत्ता के बीस भाग करके उनमें से अठारह भाग लेकर पश्चिम वाले १ तस्मात्पूर्णमासीस्थानात्-चरमद्वाषष्टितम, पौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतोमण्डलं, चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्वाविभज्य, २ "दोण्णि अट्ठासीए भागसए" ति, तृतीयस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी भवति, ततो नवभित्रिंशतो गुणने द्वशते अष्टाशीत्यधिके भवतः । Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : चन्द्र का अमावस्या में योग सूत्र ९८९-९६० अट्ठारसभागे उवाइणावेत्ता तिहि भागेहिं दोहि य मंडल के चार भागों को प्राप्त किए बिना तीन भागों में दो दो कलाहिं पच्चथिमिल्लं चउभागमडलं असंपत्ते कलाओं से चंद्र अन्तिम बासठवीं पूर्णिमा को योग करता है। एत्थ णं चंदे चरिमं बाढि पुण्णिमासिणि जोएइ .१ -सुरिय० पा० १०, पाहु० २२, सु०६३ चन्दस्स अमावासासु जोगो चन्द्र का अमावस्याओं में योग६६०. १. ५०–ता एएसि गं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं अमावासं ६६०. प्र०-इन पाँच संवत्सरों की प्रथम अमावस्या को चंद्र चंदे कसि देसंसि जोएइ? मंडल के किस देश विभाग में योग करता है ? उ०—ता जंसि णं देसंसि चन्दे चरिमं बाढि अमावासं उ०-चंद्र अन्तिम बासठवीं अमावस्या को जिस देश में जोएइ ताए अमावासटाणाए मंडलं चउव्वीसे णं योग करता है उसी अमावस्या स्थान से आगे वाले मंडल के एक सएणं छत्ता बत्तीस भागे उवाइणावेत्ता एत्थ णं से सौ चौबीस विभाग करके उनमें से बत्तीस भाग लेकर उनमें चंद्र चन्दे पढमं अमावासं जोएइ, प्रथम अमावस्या को योग करता है। एवं जेणेव अभिलावेणं चंदस्स पुण्णिमासिणीओ इस प्रकार जिस अभिलाप से चंद्र का पूर्णिमाओं में योग भणिआओ तेणेव अभिलावेणं अमावासाओ भाणि- कहा है उसी अभिलाप से चंद्र का अमावस्याओं में योग कहना यवाओ तं जहा-बिइया, तइया, दुवालसमी। चाहिए, यथा-द्वितीया, तृतीया, बारहवीं । एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए अमावासाठाणाए इस प्रकार इस क्रम से उन उन अमावस्याओं में मंडल के मंडलं चउव्वीसे णं सएणं छत्ता बत्तीसं बत्तीसं भागे एक सौ चौबीस विभाग करके उनमें से बत्तीस बत्तीस विभागों उवाइणावेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं को लेकर उन उन विभागों में एवं उन उन अमावस्याओं में चंदेण जोएइ, चन्द्र योग करता है। २.१०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरमं बाट्टि प्र०-इन पाँच संवत्सरों की अन्तिम बासठवीं अमावस्या अमावासं चन्दे कंसि देसंसि जोएइ? को चंद्र मंडल के किस देश में योग करता है। १ (क) चन्द. पा. १० सु. ६३ "जम्बुद्दीवस्स णमित्यादि" । जम्बूद्वीपस्य णमिति वाक्यालंकारे द्वीपस्योपरि प्राचीना प्राचीनतया, इह प्राचीन ग्रहणेनोत्तरपूर्वा (ईशान) गृह्यते, अपाचीन ग्रहणेन दक्षिणापरा, (नैऋत्य) । ततोऽयमर्थः पूर्वोत्तर-दक्षिणापरायतया, एवमुदीचि-दक्षिणायतया, पूर्व-दक्षिणोत्तरापरायतया जीवया प्रत्यंच्चया दवरिकया इत्यर्थः, मण्डलं चतुर्विशेन-चतुर्विशष्यधिकेन शतेन छित्वा, विभज्य भूयश्चतुर्भिविभज्यते, ततो दाक्षिणात्ये चतुर्भाग मण्डले एकत्रिशभागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाष्टाविंशतितमं च भागं विंशतिधा छित्वा तद्गतानष्टादशभागानपादायशेषस्त्रिभिर्भागश्चतुर्थस्य भागस्य द्वाभ्यां कलाभ्यां, पाश्चात्यं चतुर्भागमडलमसंप्राप्तः अस्मिन् प्रदेशे चन्द्रो द्वाषष्टितमां चरमा पौणिमासि परिसमापयति । _ -टीका २ "एवमित्यादि" एवमुक्तप्रकारेण येनैवाभिलापेन चन्द्रस्य पौर्णमास्यो भणितास्ते नैवाभिलापेनामावास्या अपि भणितव्या तद्यथा-द्वितीया, तृतीया, द्वादशी च ताश्चैवम् । प०–ता एएसि णं पंचह संवच्छराणं दोच्च अमावासं चंदे कसि देसंमि जोएइ? उ०-ता जंसि णं देससि चन्दे पढम अमावास जोएइ, ताओ णं अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउवीसेणं सएणं छेत्ता बत्तीसं भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चंदे दोच्चं अमावासं जोएड, प०–ता एएसि णं पंचह संवच्छराणं तच्च अमावासं चन्दे कंसि देसंसि जोएइ ? उ०-ता जंसि णं देसंसि चंदे दोच्चं अमावासं जोएइ, ताओ अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता, बत्तीस भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से चन्दे तच्च अमावासं जोएइ, प०-ता एएसि णं पंचण्हं संबच्छराणं दुवालसमं अमावासं चन्दे कंसि देसंसि जोएइ? उ०—ता जंसि णं देसंसि चन्दे तच्च अमावासं जोएइ, ताओ णं अमावासटाणाओ मंडलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता, दोण्णि अट्ठासीए भागसए उवाइणावेत्ता, एत्थ णं चन्दे दुवालसमं अमावासं जोएइ । Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२६-६३१ तिर्यक् लोक : चन्द्रद्वीपों के नाम का हेतु गणितानुयोग ४७६ उ०—ता जंसि गं देसंसि चन्दे चरिमं बाट्ठि पुण्णिमा- उ-चंद्र अन्तिम बासठवीं पूर्णिमा को मंडल के जिस सिणि जोएंति, ताए पुण्णिमासिणिठाणाए मंडलं देश = विभाग में योग करता है उसी पूर्णिमा स्थान से आगे चउव्वीसेणं सए णं छेत्ता सोलसभागे ओसक्क- वाले मंडल के एक सौ चौबीस विभाग करके उनमें से सोलह वइत्ता, एत्थ णं से चन्दे चरिमं बाढि अमावासं भाग कम करके चन्द्र अन्तिम बासठवीं अमावास्या को योग जोएइ,' -सूरिय. पा. १०, पाहु. २२, सु. ६५ करता है । जम्बुद्दीवग चंदाणं चंददोवा ___ जम्बूद्वीप के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप--- १. ५०–कहि णं भंते ! जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंददीवा णाम ६२६. प्र० -- हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहाँ दीवा पण्णता? कहे गये हैं? उ०—गोयमा ! जंबुद्दीवस्स मदरस्स पब्वयस्स पुरथिमे णं उ०-हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मन्दरपर्वत से पूर्व में लवण लवणसमुद्दबारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता-एत्थ समुद्र में बारह हजार योजन जाने पर जम्बूद्वीप के चन्द्रों के णं जबुद्दीवगाणं चदाणं चंददीवा णाम दीवा पण्णत्ता। 'चन्द्रद्वीप' नाम के द्वीप कहे गये हैं। जंबुद्दीवतेणं अद्धकोणणउइ जोयणाई चत्तालीस वे चन्द्रद्वीप जम्बूद्वीप के अन्तिम भाग से साढ़े नवासी योजन पंचाणउइंभागे जोयणस्स ऊसिया जलंताओ, लवण- तथा एक योजन के पचानवें भागों में से चालीस भाग जितने समुदंतेणं दो कोसे ऊसिया जलंताओ, जल से ऊँचे हैं और लवणसमुद्र के अन्तिम भाग से दो कोस जल से ऊँचे हैं। बारस जोयणसहस्साई आयाम-विक्खंभेण, वे बारह हजार योजन के लम्बे कहे गये हैं । सेसं तं चेव जहा गोतमदीवस्स । शेष सब पूर्ववत् गौतम द्वीप जैसा है। पत्तेयं पत्तेयं एगाए पउमवरवेइयाए, एगेण य वण- प्रत्येक चन्द्रद्वीप एक-एक पद्मवरवेदिका और एक एक वनसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्तेण चिट्ठति, दोण्हं खण्ड से घिरे हुए हैं । यहाँ दोनों के वर्णक हैं। वि वण्णओ। चंददीवाणं अंतो-जाव-बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा चन्द्रद्वीपों के अन्दर-यावत्-सर्वथा सम रमणीय भूमिभाग पण्णता,-जाव-जोइसिया देवा विहरति ।। कहे गये हैं - यावत् - ज्योतिषी देव वहाँ विहरण करते हैं । तेसि णं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पासायवडेंसगा उन चन्द्रद्वीपों के सर्वथा समरमणीय भूभागों पर बासठ बाढेि जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेणं, ___ योजन ऊंचे प्रासादावतंसक हैं। पासायवण्णो भाणियब्वो। यहाँ प्रासादों के वर्णक कहने चाहिए। तेसि गं बहुसमरमणिज्जभूमिभागाणं बहुमज्झदेस- उन सर्वथा सम रमणीय भूभागों के मध्य भाग में मणिभाए मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ मणिपेढियाओ पीठिकायें दो योजन लम्बी-चौड़ी हैं-यावत -सपरिवार दो जोयणाई आयाम-विक्खभेणं-जाव-सीहासण। सपरि सिंहासन कहने चाहिए। वारा भाणियब्वा । --जीवा० पडि०३, उ० २. मू०१२ चंददीवाणं णामहेऊ चन्द्रद्वीपों के नाम का हेतु९६२.५०-से केण?णं भंते ! एव बुच्चइ-"चंदद्दीवा, चंद- ६३०. प्र०-हे भगवन् ! किस कारण से चन्द्रद्वीप चन्द्रद्वीप कहे दीवा?" जाते हैं ? उ०-गोयमा ! चंदद्दीवेसु णं तत्थ तत्थ तहि तहिं बहसु उ०-हे गौतम ! चन्द्रद्वीपों में जगह जगह छोटी छोटी खड्डासु खुड्डियासु बहुई उप्पलाई चंदवण्णाभाई चंदा बावड़ियाँ हैं उनमें अनेकानेक चन्द्र वर्ण वाले कमल हैं। वहाँ पर १ चन्द पा. १० सु. ६५ । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : चन्द्रमण्डलों की संख्या सूत्र ६६२-६६४ एत्थ जोतिसिदा जोतिसि रायाणो महिड्ढीया-जाव- महधिक-यावत – पल्योपम की स्थिति वाले ज्योतिषकेन्द्र पलिओवमद्वितीया परिवसंति,' ज्योतिषराज रहते हैं। तेणं तत्थ पत्तेय पत्तेयं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं अतः प्रत्येक चन्द्र के चार हजार सामानिक देव-यावत - -जाव-चंददीवाणं चंदाण य रायहाणीणं, अणेसि च चन्द्रद्वीपों के चन्द्रों की राजधानियाँ है और वे अन्य अनेक बहणं जोतिसियाणं देवाणं देवीण य आहेबच्च-जाव- ज्योतिषी देव-देवियों पर आधिपत्य करते हुए-यावत्-विहरण विहरति । करते हैं। से तेणटुण गोयमा ! एवं वुच्चइ- 'चंदद्दीवा हे गौतम ! इस कारण से 'चन्द्रद्वीप' चन्द्रद्वीप कहे जाते हैं। चंदद्दीवा।" अदुत्तरं च णं गोयमा ! चंदद्दीवा सासया-जाव- अथवा हे गौतम ! चन्द्रद्वीप शाश्वत है-यावत्-नित्य है । णिच्चा। -जीवा० पडि० ३, ७० २, सु० १६२ चंदाणं रायहाणीण परूवणं चन्द्रा राजधानियों का प्ररूपण६६३.५०-कहि णं भते ! जंबुद्दीवगाणं चंदाणं चंदाओ णाम ६३१. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के चन्द्रों की चन्द्र राजधानियाँ रायहाणीओ पण्णत्ताओ? ___ कहाँ कही गई हैं ? उ०-गोयमा ! चंदहीवाणं पुरथिमेणं तिरियमसंखेज्जे दीव- उ०-हे गौतम ! चन्द्रद्वीपों के पूर्व में तिरछे असंख्य द्वीप समुद्दे वोतिवतित्ता अण्णमि जबुद्दोवे दोवे बारस में बारह योजन जाने पर जम्बूद्वीप के चन्द्रों की चन्द्रा नाम की जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं जंबुद्दीवगाणं राजधानियाँ कही गई हैं। उनका प्रमाण पूर्ववत्-यावत्-- ऐसे चंदाओ णाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ, तं चेव पमाण महधिक चन्द्रदेव है। -जाव-महिड्ढीया-जाव- चंदा देवा, चंदा देवा । -जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १६२ रवि-ससि-णक्खत्तेहि अविरहियाणं, विरहियाणं, साम- सूर्य-चन्द्र और नक्षत्रों से अविरहित-विरहित तथा सामान्य ण्णाणं य चन्दमण्डलाणं सखा-- चन्द्रमंडलों की संख्या६६४. (क) ता एएसि णं पण्णरसण्हं चंदमण्डलाणं अत्थि चन्दमण्डला ६६४. (क) इन पन्द्रह चन्द्रमण्डलों में से कुछ चन्द्रमण्डल ऐसे हैं जे गं सया णक्खत्तेहिं अविरहिया, जो सदा नक्षत्रों से अविरहित रहते हैं । (ख) अत्थि चन्दमण्डला जे णं सया णक्खतहिं विरहिया, (ख) कुछ चन्द्रमण्डल ऐसे हैं जो सदा नक्षत्रों से विरहित रहते हैं। (ग) अस्थि चन्दमण्डला जे णं रवि-ससि-णक्खत्ताणं सामण्णा (ग) कुछ चन्द्रमण्डल ऐसे हैं जो सूर्य-चन्द्र और नक्षत्रों के भवंति, साथ सामान्य रहते हैं। (घ) अस्थि चन्दमण्डला जे णं सया आदिच्चेहि विरहिया, (घ) कुछ चन्द्रमण्डल ऐसे जो सदा सूर्यों से विरहित रहते हैं। ५०—(क) ता एएसि णं पण्णरसण्हं चन्दमण्डलाणं कयरे प्र०-(क) इन पन्द्रह चन्द्रमण्डलों में से कितने चन्द्रमण्डल चन्दमण्डला जे णं सया णक्खत्तेहिं अविरहिया? ऐसे हैं जो सदा नक्षत्रों से अविरहित रहते हैं ? (ख) कयरे चन्दमण्डला जे णं सया णक्खत्तेहिं विर- (ख) कितने चन्द्रमण्डल ऐसे हैं जो सदा नक्षत्रों से विरहित रहते हैं ? हिया ? १ प्र०-चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? उ०-गोयमा ! जहण्णणं चउभागपलिओवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं वाससतसहस्समब्भहियं । -पण्णं. प. ४, सु. ३६७ (१) प्रज्ञापना के इस पाठ से ऊपर अंकित जीवाभिगम के पाठ का साम्य नहीं है, चन्द्र-ज्योतिष्क देवों का इन्द्र है अत: उसकी स्थिति सदा उत्कृष्ट ही होती हैं। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६४ तिर्यक् लोक : चन्द्रमण्डल वर्णन गणितानुयोग ४८१ (ग) कयरे चन्दमण्डला जे णं रवि-ससि-णक्खत्ताणं (ग) कितने चन्द्रमण्डल ऐसे हैं जो सूर्य-चन्द्र और नक्षत्रों के सामण्णा भवंति ? साथ सामान्य रहते हैं ? (घ) कयरे चन्दमण्डला जे णं सया आदिच्चेहि विर- (घ) कितने चन्द्रमण्डल ऐसे हैं जो सदा सूर्यों से विरहित हिया ? रहते हैं ? उ०—(क) ता एएसि णं पण्णरसण्ह चन्दमण्डलाणं तत्थ जे उ०—(क) इन पन्द्रह चन्द्रमण्डलों में से जितने चन्द्रमण्डल ते चन्दमण्डला जे णं सया णक्खत्तेहि अविरहिया, नक्षत्रों से सदा अविरहित रहते हैं वे आठ हैं, यथाते गं अट्ठ, तं जहा१. पढमे चन्दमण्डले, २. ततिए चंदमण्डले, (१) प्रथम चन्द्र मण्डल, (२) तृतीय चन्द्रमण्डल, (३) छठा ३. छ? चन्दमण्डले, ४. सत्तमे चन्दमण्डले, चन्द्रमण्डल, (४) सातवाँ चन्द्र मण्डल, (५) आठवां चन्द्रमण्डल, ५. अट्टमे चन्दमण्डले, ६. दसमे चन्दमण्डले, (६) दसवाँ चन्द्रमण्डल, (७) इग्यारहवाँ चन्द्रमण्डल, (८) पन्द्रहवाँ ७. एकादसे चन्दमंडले, ८. पण्णरसमे चन्दमंडले, चन्द्रमण्डल। (ख) तत्थ जे ते चन्दमण्डला जे णं सया णक्खहिं (ख) जितने चन्द्रमण्डल नक्षत्रों से सदा विरहित रहते हैं, विरहिया, ते ण सत्त तं जहा- वे सात हैं, यथा१. बितिए चन्दमण्डले, २. चउत्थे चन्दमण्डले, (१) द्वितीय चन्द्रमण्डल, (२) चतुर्थ चन्द्र मण्डल, (३) पंचम ३. पंचमे चन्दमण्डले, ४. नवमे चन्दमण्डले, चन्द्रमण्डल, (४) नवम चन्द्र मण्डल, (५) द्वादशम चन्द्रमण्डल, ५. बारसमे चन्दमण्डले, ६. तेरसमे चन्दमण्डले, (६) त्रयोदशम चन्द्रमण्डल, (७) चतुर्दशम चन्द्रमण्डल । ७. चउद्दसमे चन्दमण्डले, (ग) तत्थ जे ते चन्दमण्डला जे णं रवि-ससि-णक्ख- (ग) जितने चन्द्रमण्डल सूर्य-चन्द्र और नक्षत्रों के साथ ताणं सामण्णा भवंति, ते णं चत्तारि, तं जहा- सामान्य रहते हैं वे चार हैं. यथा१. पढमे चन्दमण्डले, २. बीए चन्दमण्डले, (१) प्रथम चन्द्रमण्डल, (२) द्वितीय चन्द्रमण्डल, (३) एका ३. इक्कारसमे चदमंडले, ४. पन्नरसमे चंदमंडले, दशम चन्द्रमण्डल, (४) पंचदशम चन्द्रमण्डल । (घ) तत्थ जे ते चंदमण्डला जे णं सया आदिच्चेहि (घ) जितने चन्द्रमण्डल सूर्यों से सदा विरहित रहते हैं, वे विरहिया ते णं पंच ।तं जहा पाँच हैं; यथा१. छ? चन्दमण्डले. २. सत्तमे चन्दमण्डले, (१) छठा चन्द्रमण्डल, (२) सप्तम चन्द्रमण्डल, (३) अष्टम ३. अट्रमे चन्दमण्डले, ४. नवमे चन्दमण्डले, चन्द्रमण्डल, (४) नवम चन्द्रमण्डल, (५) दसम चन्द्रमण्डल । ५. दसमे चन्दमण्डले, -सूरिय. पा. १०, पाहु. ११, सु. ४५ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य वर्णन सूत्र ९६५-६६७ सूर्य वर्णन सूर सदस्स विसिट्ठऽत्थं सूर्य शब्द का विशिष्टार्थ६६५. ५०----से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-"सूरे आदिच्चे सूरे ६६५. प्र०-हे भगवन् ! सूर्य को "आदित्य' किस अभिप्राय से आदिच्चे"? कहा जाता है ? उ०-गोयमा ! सूरादीया णं समया इ वा, आवलिया इवा, उ०-हे गौतम ! समय, आवलिका-यावत्-अवसर्पिणी, -जाव-ओसप्पिणी इ वा, उस्सप्पिणी इ वा। उत्सर्पिणीकाल का आदि भूत कारण सूर्य है । से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ- 'सूरे आदिच्चे हे गौतम ! इस कारण से सूर्य "आदित्य' का जाता है । सूरे आदिच्चे"। --भग. स. १२, उ. ६, सु. ५ सरियस्स सरुवअण्णयत्थ-पभा-छाया-लेस्साणं सुभत्त- सूर्य के स्वरूप अन्वयार्थ-प्रभा-छाया और लेश्याओं का शुभत्व६६६. तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे अचिरुग्गय बालसूरियं ६६६. उस काल और उस समय में भगवान गौतम अचितरोद्गत जासुमणा कुसुमपुञ्जप्पगास लोहीतगं पासति, पासित्ता जाय- (अभी अभी उगे हुए) जासुमन-पुष्प-पुंज के समान रक्तवर्ण सद्दे-जाव-समुष्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव आभा वाले बाल सूर्य को देखते हैं देखकर श्रद्धावश-यावत्उवागच्छइ उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता-जाव- उत्पन्न-कौतूहल के वश हो जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे वहाँ एवं वयासी आते हैं आकर वन्दना नमस्कार करते हैं, वन्दना नमस्कार करके -यावत-इस प्रकार बोलेप०-किमिदं भंते ! सूरिए ? किमिदं भंते ! सूरियस्स अट्ठ? प्र०—हे भगवन् ! यह सूर्य क्या है ? और सूर्य का अर्थ क्या है ? उ०—गोयमा ! सुभे सूरिए; सुभे सूरियस्स अट्ठ। उ०-हे गौतम ! सूर्य शुभ हैं और सूर्य का अर्थ शुभ है । ५०--किमिदं भंते ! सूरिए ? किमिदं भंते ! सूरियस्स पभा ? प्र०-हे भगवन् ! यह सूर्य क्या है और सूर्य की प्रभा क्या है ? उ०—एवं चेव । एवं छाया । एवं लेस्सा । उ०—पूर्वोक्त के समान है। इसी प्रकार छाया और लेश्या --भग. स. १४, उ. ६, सु. १३-१६ के प्रश्नोत्तर हैं। मूरिअस्स उदगऽत्थमणाई पडुच्च अन्तर-पगास-खेत्ताइं सूर्य के उदयास्त को लेकर अन्तर, प्रकाश, देवादि का परूवण प्ररूपण६६७. १. ५०-जावइयाओ णं भंते ! ओवासंतराओ उदयंते सूरिए ६६७. (१) प्र०-भगवन् ! उदय के समय में सूर्य जितने चक्खुप्फासं हवमागच्छइ । अवकाशान्तर से चक्षुस्पर्श की शीघ्र प्राप्त होता है । अस्थमते वि य णं सूरिए तावइयाओ चेव ओवा- क्या अस्त के समय भी सूर्य उतने ही अवकाशान्तर से चक्षु संतराओ चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ ? स्पर्श को शीघ्र प्राप्त होता है ? उ०-हता गोयमा ! जावइयाओ णं ओवासंतराओ उद- उ-हाँ गौतम ! उदय के समय में सूर्य जितने अवका यंते सूरिए चक्खुफास हब्वमागच्छइ । शान्तर से चक्षुस्पर्श को शीघ्र प्राप्त होता है । अत्थमंत वि सूरिए तावइयाओ चेव ओवासंतराओ अस्त समय में भी सूर्य उतने ही अवकाशान्तर से चक्षुस्पर्श चक्खुप्फासं हवमागच्छ। को शीघ्र प्राप्त होता है। १ (१) सूरिय. पा. २०, सु. १०४ । (ख) चन्द पा. २०, सु. १०४ । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६६७ तिर्यक् लोक : सूर्य वर्णन गणितानुयोग ४८३ २. ५०-जावइयं णं भंते ! खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं (२) प्र०-भगवन् ! उदय के समय में सूर्य चारों ओर से सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोएइ, तवेइ, पभासेइ। जितने क्षेत्र को आतप से अवभासित करता है उद्योतित करता है, तपाता है प्रभासित करता है। अस्थमंते वि य णं सूरिए तावइयं चेव खेतं आयवेणं क्या अस्त समय में भी सूर्य चारों ओर से उतने ही क्षेत्र सव्वओ समंता ओभासेइ, उज्जोएइ, तवेइ पभासेइ? को आतप से अवभासित करता हैं ? उद्योतित करता है ? तपाता है ? प्रभासित करता है ? उ०-गोयमा ! जावइयं ण खेत्तं उदयंते सूरिए आयवेणं उ०–हाँ गौतम ! उदय के समय में सूर्य चारों ओर से सव्वओ समंता ओभासेइ, उज्जोएइ, तवेइ. पभासेइ। जितने क्षेत्र को आतप से अवभासित करता है, उद्योतित करता है तपाता है, प्रभासित करता है। अस्थमंते वि सूरिए तावइयं चेव खेत्तं आयवेणं अस्त समय में भी सूर्य चारों ओर से उतने ही क्षेत्र को सव्वओ' समंता ओभासेइ, उज्जोएइ, तबेइ, पभासेइ। आतप से अवभासित करता है, उद्योतित करता है । तपाता है प्रभासित करता है। ३. प०–त भंते ! कि पुटु ओभासेइ ? अपुट्ठ ओभासेइ? (३) प्र०-भगवन् ! क्या वह सूर्य स्पृष्टक्षेत्र को अवभासित करता है। ___ उ०—गोयमा ! पुट्ठ ओभासेइ, नो अपुट्ठ । उ०-हे गौतम ! स्पृष्टक्षेत्र को अवभासित करता है अस्पृष्टक्षेत्र को अवभासित नहीं करता है। ४. ५०-तं भंते ! कि ओगाढं ओभासेइ ? अणोगाढं ओभा- (४) प्र०-भगवन् ! क्या वह अवगाढक्षेत्र को अवभासित करता है? उ०—गोयमा ! ओगाढं ओभासेइ, नो अणोगा । उ०-हे गौतम ! अवगाढक्षेत्र को अवभासित करता है । अनवगाढक्षेत्र को अवभासित नहीं करता है । ५. ५०–त भंते ! कि अणंतरोगाढं ओभासेइ ? परम्परोगाद (५) प्र०-भगवन् ! क्या वह अनन्तरावगाढक्षेत्र को अवओभासेइ? भासित करता है ? या परम्परावगाढ क्षेत्र को अवभासित करता है ? उ०-गोयमा ! अणंतरोगाढ ओभासेइ, नो परंपरोगाढं। उ०—हे गौतम ! अवगाढक्षेत्र को अवभासित करता है परम्परावगाहक्षेत्र को अवभासित नहीं करता है ? ६.५०–त भंते ! कि अणुं ओभासेइ ? बायरं ओभासेइ? (६) प्र०-भगवन् ! क्या वह अणु (सूक्ष्म) को अवभासित करता है ? या बादर (स्थूल) को अबभासित करता है ? उ०-गोयमा ! अणु पि ओभासेइ, बायरं पि ओभासेइ। उ०—हे गौतम ! अणु को भी अवभासित करता है; बादर को भी अवभासित करता है। ७. ५०-तं भंते ! कि उड्ढं ओभासेइ ? तिरियं ओभासेइ ? (७) भगवन् ! क्या वह ऊँचे क्षेत्र को अवभासित करता अहे ओभासेइ ? है ? तिरछे क्षेत्र को अवभासित करता है? नीचे के क्षेत्र को अवभासित करता है ? उ०-गोयमा ! उड्ढे पि ओभासेइ तिरिय पि ओभासेइ उ०-हे गौतम ! ऊँचे, तिरछे और नीचे के क्षेत्र को भी अहे पि ओभासेइ। अवभासित करता है। ८.५०-तं भंते ! कि आइं ओभासेइ ? मज्झे ओभासेइ ? (८) प्र०-भगवन् ! क्या वह सूर्य क्षेत्र के आदि भाग को अंते ओभासेइ ? अवभासित करता है ? क्षेत्र के मध्यभाग को अवभासित करता है। क्षेत्र के अन्तिमभाग को अवभासित करता है ? उ०--गोयमा ! आइपि ओभासेइ मज्झे वि ओभासेइ उ-हे गौतम ! वहाँ सूर्य क्षेत्र के आदि भाग को, मध्यअते वि ओभासेइ। भाग को और अन्तिम भाग को अवभासित करता है । Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य वर्णन सूत्र ६६७-६६८ ९.५०-तं भंते ! कि सविसए ओभासेइ ? अविसए ओभा- () प्र०-भगवन् ! क्या वह सूर्य स्वविषय को अवभासित सेइ? करता है ? या अविषय को अवभासित करता है ? उ०—गोयमा ! सविसए ओभासेइ नो अविसए। उ०-हे गौतम ! वह स्वविषय को ही अवभासित करता है अविषय को अवभासित नहीं करता है । १०. ५०-तं भंते ! कि आणटिव ओभासेइ ? अणाणपुदिव (१०) प्र०-भगवन् ! क्या वह सूर्य क्रम से अवभासित ओभासेइ ? करता है? या बिना क्रम के अवभासित करता है ? उ०-गोयमा ! आणुपुटिव ओभासेइ णो अणाणुपुर्दिव उ.-हे गौतम ! वह क्रम से अवभासित करता है, बिना ओभासेइ। क्रम के अवभासित नहीं करता है। ११. ५०-तं भंते ! कइदिसि ओभासेइ ? (११) प्र०-भगवन् ! वह सूर्य किस दिशा को अवभासित करता है? उ०-गोयमा ! नियमा छद्दिसि । उ०-हे गौतम ! वह नियमित छहों दिशाओं को अव भासित करता है। एवं (११) २२ उज्जोवेइ, (११) ३४ तवेइ (११) इसी प्रकार वह (११)२२ उद्योतित करता है (११)३३ ४४ पभासेइ-जाव-नियमा छद्दिसि ।' तपाता है—यावत्-वह नियमतः छहों दिशाओं को (११)४४ प्रभासित करता है। ४५. ५०-से नणं भंते ! सन्वंति सव्वावंति फुसमाणकाल (४५) प्र०-भगवन् ! क्या वह सूर्य स्पर्शकाल के समय समयंसि जावइयं खेत्तं फुसइ तावइयं फुसमाणे पुढे जितने क्षेत्र को स्पर्श करता है उतने सारे क्षेत्र को सब ओर से त्ति वत्तव्वं सिया ? स्पर्श करता हुआ स्पृष्ट कहा जाता है ? उ०-हंता गोयमा ! सव्वंति सव्वावंति फुसमाणकाल उ.-हे गौतम ! स्पर्शकाल के समय जितने क्षेत्र को स्पर्श समयंसि जावइयं खेत्तं फुसइ तावइयं फुसमाणे पुढे करता है उतने सारे क्षेत्र को सब ओर से स्पर्श करता हुआ त्ति वत्तव्वं सिया। स्पृष्ट कहा जाता है। ४६. ५०-तं भंते ! किं पुट्ठफुसइ ? अपुट्टफुसइ ? (४६) प्र०-भगवन् ! क्या वह सूर्य स्पृष्ट क्षेत्र को स्पर्श करता है ? या अस्पृष्ट क्षेत्र को स्पर्श करता है ? उ०-गोयमा ! पुटु फुसइ नो अपुढे । उ०-हे गौतम ! स्पृष्ट क्षेत्र को स्पर्श करता है। अस्पृष्ट क्षेत्र को स्पर्श नहीं करता है। ४७-५६-जाव -- यावत् – (४७-५६)। ५७. प०-तं भंते ! कइदिसि फुसइ? ५७. प्र०-भगवन् ! वह किस दिशा को स्पर्श करता है ? ___ उ०-गोयमा ! नियमा छद्दिसि फुसइ । उ०-हे गौतम ! वह नियमित छहों दिशाओं को स्पर्श -भग. स. १, उ. ६, सु. १-४ करता है। लवणसमुद्दे सूरिय-उदयाइ परूवणा-- लवणसमुद्र में सूर्योदयादि का प्ररूपण६६८. प०-लवणे णं भते ? समुद्दे सूरिया ६६८. प्र०-हे भगवन् ! लवणसमृद्र में सूर्यउदीण-पाईणमुग्गच्छ दाहिण-दाहिणमागच्छंति ? ईशान कोण में उदय होकर अग्निकोण में अस्त होते हैं ? पाईण-दाहिणमुग्गच्छ दाहिण-पाईणमागच्छंति ? अग्निकोण में उदय होकर नैऋत्यकोण में अस्त होते हैं ? दाहिण-पाईणमुग्गच्छ पाईण-उदीणमागच्छति ? नैऋत्यकोण में उदय होकर वायव्यकोण में अस्त होते हैं ? पाईण-उदीणमुग्गच्छ उदीण-पाईणमागच्छंति ? वायव्यकोण में उदय होकर ईशानकोण में अस्त होते हैं ? १ जम्बु. वक्ख. ७. सु. १३७ । Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र EE८-ECT ww उ०- हंता गोपमा ! लवणसमुद्दे यूरिया तिर्यक् लोक : धातकीखण्ड में सूर्योदयादि की प्ररूपणा उदगाव-उरीगाईमागच्छति "जच्चेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया भणिया, सच्चेव सब्वा अपरिसेसिया लवणसमुदस्स विभाषियन्या" नवरं - इमेण आलावेण सव्वे आलावगा भाणियव्वा, प० - " जया णं भंते ! लवणे समुद्दे दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तथा गं उत्तर वि दिवसे भवट्ट, जयागं उत्तर दिवसे भवइ, तया णं लवणे समुद्दे पुरत्थिम-पच्चत्थिमेण राई भवइ । " उ०- हंता गोयमा ! जया णं लवणसमुद्दे दाहिणड्ढे दिवसे भवइ-जाव तयाणं लवणसमुद्दे पुरत्थिम-पच्चत्थिमेणं राई भवइ, एएणं अभिलावेणं णेयव्वं, " -भग. स. ५, उ. १, सु. २२ चायइडे सूरिय उदया पहवणा६६. १० - धायइसंडे णं भंते ! दीवे सूरिया उदीच पाया जाय-उदीण पाईणमागच्छति ? उ०- हंता गोपमा ! धायसंडेदीये सूरियाउचाई शाद-उदीण पाईपमानांत "जच्चेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया भणिया, सच्चेव धायइडस्स वि भाणियव्वा, नवरं — इमेण आलावेण सव्वे आलावगा भाणियव्वा । प० ० जया गं ! धामसंडे नीचे बहिण दिवसे भव तयानं उत्तर वि दिवसे भवद्द, जया में उत्तर दिवसे भवइ, तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरत्थम-पश्चत्विमे राई भवइ ? उ०- हंता दोषमा! जय गं धायसंडे दौवे दाहि दिवसे भवइ - जाव-तया णं धायइसंडे दोवे मंदराणं पवयाणं पुरत्थम-स्वस्थिमेणं राई भवइ । प० -जया णं भंते! धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्बयाणं पुरात्थिमेणं दिवसे भव तथा नं पच्चरियमेव दिवसे भवइ ? 1 १ (क) सूरिय. पा. ८, सु, २६ । (ग) जम्बु. वक्ख. ७, सु. १५० । उ०- हां गौतम ! लवणसमुद्र में सूर्यईशानकोण में उदय होकर — यावत्-ईशानकोण में अस्त होते हैं। गणितानुयोग जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में पहले जितने प्रश्नोत्तर कहे गये हैं वे सारे प्रश्नोत्तर लवणसमुद्र के सम्बन्ध में कहने चाहिए । विशेष - प्रश्नोत्तर इस प्रकार जानने चाहिए। प्र० - हे भगवन् ! जब लवणसमुद्र के दक्षिणार्ध में दिन होता है तब उत्तरार्ध में भी दिन होता है, जब उत्तरार्ध में दिन होता है तब लवणसमुद्र के पूर्व-पश्चिम में रात्रि होती है ? ४८५ उ०- हाँ गौतम ! जब लवणसमुद्र के दक्षिणार्ध में दिन होता है— यावत्— तब लवणसमुद्र के पूर्व-पश्विम में रात्रि होती है । एसे प्रश्नोत्तर जानने चाहिए। धातकीखण्ड में सूर्योदयादि की प्ररूपणा६६६. प्र० - हे भगवन ! धातकीखण्ड द्वीप में सूर्य ईशानकोण में उदय होकर - यावत् — ईशानकोण में अस्त होते हैं ? उ०- हे गौतम ! धातकीखण्ड द्वीप में सूर्यईशानकोण में उदय होकर यावत्-ईशानकोण में अस्त होते हैं। - "जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में पहले जितने प्रश्नोत्तर कहे गये हैं। वे सारे प्रश्नोत्तर धातकीखण्ड के सम्बन्ध में कहने चाहिए। विशेष—इस आलापक के अनुसार सारे आलापक कहने चाहिए । उ०- हा प्र० - हे भगवन् ! जब धातकीखण्ड द्वीप के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है, जब उत्तरार्द्ध में दिन होता है तब धातकीखण्डद्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्वपश्चिम में रात्रि होती है ? गौतम ! जब धातकीखण्ड द्वीप के दक्षिणार्द्ध में दिन होता है - यावत् तब धातकीखण्ड के मन्दर पर्वत से पूर्व - पश्चिम में रात्रि होती है। (ख) चन्द्र. पा. ८, स. २६ ॥ प्र० - हे भगवन् ! जब धातकीखण्ड द्वीप में मन्दर पर्वतों से पूर्व में दिन होता है तब पश्चिम में भी दिन होता है ? Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक कालोबसमुद्र में सूर्योदय आदि की प्ररूपणा सूत्र ६६९-१००१ जया णं पच्चत्थिमणं दिवसे भवइ, तया गं धायइसंडे जब पश्चिम में दिन होता है तब धातकीखण्ड द्वीप में मन्दर दीवे मंदराणं पव्वयाणं उत्तरदाहिणणं राई भवइ? पर्वतों के उत्तर-दक्षिण में रात्रि होती है ? उ०- -हंता गोयमा ! जया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्व- उ०-हाँ गौतम ! जब धातकीखण्ड द्वीप में मन्दर पर्वतों याणं पुरत्थिमे दिवसे भवइ-जाव-तया णं धायइसंडे के पूर्व दिन होता है-यावत्-तब धातकीखण्ड द्वीप में मन्दरदीवे मंदराणं पध्वयाणं उत्तर-दाहिणणं राई भवइ। पर्वतों से उत्तर-दक्षिण में रात्रि होती है । एवं एएणं अभिलावेणं णेयवं इस प्रकार के प्रश्नोत्तर से सारे प्रश्नोत्तर जानने चाहिए। -भग. स. ५, उ. १, सु. २३-२५ कालोद समुद्दे सूरियोदयाई परूवण कालोदसमुद्र में सूर्योदय आदि का प्ररूपण१०००. जहा लवणसनुद्दस्स वत्तव्वया भणिया, १०००. जिस प्रकार लवणसमुद्र के सम्बन्ध में कहने योग्य कहातहा कालोदस्स वि भाणियव्वा, उसी प्रकार कालोदसमुद्र के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। नवरं :–कालोदस्स नामं भाणियब्वं, विशेष-(लवणसमुद्र के प्रश्नोत्तर सूत्रों में "लवणसमुद्र" नाम के स्थान में "कालोदसमुद्र" कहना चाहिए) "कालोद" नाम -भग. स. ५, उ. १, सु. २६ कहना चाहिए। अब्भतर पुक्खरद्ध सूरिय-उदयाइ परूवणा- आभ्यन्तर पुष्क रार्ध में सूर्योदयादि का प्ररूपण१. ता अब्भंतर-पुक्खरखे गं सोवे सूरिया १. आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध द्वीप में सूर्यउदीण-पाईणमुग्गच्छंति, पाईण-दाहिणमागच्छंति, ___उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में उदय होकर (अग्निकोण) पूर्व-दक्षिण में आते हुए दिखाई देते हैं। -जाव-पडीण-उदीणमुग्गच्छंति, उदीण-पाईणमागच्छति, -यावत्-पश्चिम उत्तर (वायव्यकोण) में उदय होकर उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में आते हुए दिखाई हैं। ता जया णं अब्भंतर-पुक्खरद्धे मंदराणं पन्वयाणं दाहिणड्ढे जब आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध के मन्दर पर्वत से दक्षिणार्द्ध में दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि दिवसे भवइ, दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है । जया णं उत्तरड्ढे दिवसे भवइ, तया णं अभिंतरपुक्खरद्धे जब उत्तरार्द्ध में दिन होता है तब आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध के मंदराणं पव्वयाणं पुरस्थिम-पच्चत्थिमे णं राई भवइ, मन्दर पर्वत से पूर्व-पश्चिम में रात्रि होती है। सेसं जहा जंबुद्दीवे दीवे तहेव-जाव-ओसप्पिणी,' जिस प्रकार जम्बूद्वीप के आलापक कहे हैं उसी प्रकार आभ्यन्तर पुष्कराद्ध के अवसर्पिणी पर्यन्त शेष आलापक कहने —सूरिय. पा. ८, सु. २६ चाहिए । १ (क) सूरिय. पा. ८, सु. २६ । (ख) चन्द. पा. ८. सु. २६ । (ग) जम्बु. बक्ख. ७, सु. १५० । २ (क) सूरिय. पा. ८, सू. २६ । (ख) चन्द. पा. ८, सु. २६ । ३ (क) प०--अभिंतर पुक्खरद्धे णं भंते ! सूरिया उदीण-पाईणमुग्गच्छ पाईण-दाहिणमागच्छंति-जाव पाईणउदीणमुग्गच्छ उदीण-पाईणमागच्छति ? उ०-हंता गोयमा ! अभिंतर पुक्खरद्धे सूरिया उदीण-पाईणमुग्गच्छ, पाईण-दाहिणमागच्छंति-जाव-पादीण-उदीणमुग्गच्छ उदीण-पाईणमागच्छति, जहेब धायइसंडस्स वत्तब्बया भणिया, तहेव अभितरपुक्खरद्धस्स वि भाणियन्वा, नवर:-सब्वे अभिलावा जाणियब्वा-जाव- । -भग. स. ५, उ. १, सु. २७ (ख) चन्द. पा. ८, मु. २६ । (ग) जम्बु. वक्ख. ७, सु. १५० । * सूत्र संख्या १ से पुनः प्रारम्भ की गई है जिसे पाठक १००१ क्रमशः समझें । Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १००२ तिर्यक् लोक : सूर्य की उदय-व्यवस्था गणितानुयोग ४८७ सूरस्स उदय-संठिई सूर्य की उदय व्यवस्था२. ५०–ता कहं ते उदयसंठिई ? आहिए त्ति वएज्जा, २. प्र०-(सूर्य की) उदय-संस्थिति=व्यवस्था किस प्रकार है ? कहें। उ०-तत्थ खलु इमाओ तिणि पडिवत्तीओ, पण्णत्ताओ, उ०-(सूर्य की उदय-व्यवस्था के सम्बन्ध में) ये तीन प्रतितं जहा पत्तियाँ कही गई है, यथा१. तत्थेगे एवमाहंसु १. इनमें से एक मान्यता वालों ने इस प्रकार कहा है(क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिगड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते (क) जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में अठारह मुहूर्त का दिन दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि अट्ठारसमुहुत्ते होता है, तब उत्तरार्द्ध में भी अठारह मुहूर्त का दिन होता है । दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तथा जब उत्तरार्द्ध में अठारह मुहूर्त का दिन होता है तब णं वाहिणड्ढेऽवि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दक्षिणार्द्ध में भी अठारह मुहूर्त का दिन होता है । (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ते (ख) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में सतरह मुहूर्त का दिवसे भवइ, तथा णं उतरड्ढेऽवि सत्तरसमुहुत्ते दिन होता है तब उतरार्द्ध में भी सतरह मुहूर्त का दिन होता है। दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया जब उत्तरार्द्ध में सतरह मुहूर्त का दिन होता है तब दक्षिणार्द्ध णं वाहिणड्ढेऽवि सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, में भी सतरह मुहूर्त का दिन होता है। (ग) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ते (ग) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में सोलह मुहूर्त का दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि सोलसमुहुत्ते दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी सोलह मुहूर्त का दिन होता है। दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया जब उत्तरार्द्ध में सोलह मुहूर्त का दिन होता है तब दक्षिणार्द्ध णं दाहिणड्ढेऽवि सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, में भी सोलह मुहूर्त का दिन होता है । (घ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पण्णरसमुहुर्त (घ) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में पन्द्रह मुहूर्त का दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि पण्णरसमुहुत्ते दिन होता है तब उत्तराद्धं में भी पन्द्रह मुहूर्त का दिन होता है । दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में पन्द्रह मुहूर्त का दिन होता है तब दक्षिणार्द्ध तया णं दाहिणड्ढेऽवि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, में भी पन्द्रह मुहूर्त का दिन होता है । (ङ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे चउद्दसमुहत्ते दिवसे (ड) ज- जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में चौदह मुहूर्त का भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि चउद्दसमुहत्ते दिवसे दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी चौदह मुहूर्त का दिन होता है । भवइ, जया णं उत्तरड्ढे चउद्दसमुहत्ते दिवसे भवइ, जब उत्तराद्धं में चौदह मुहर्त का दिन होता है तब दक्षिणार्द्ध तया णं दाहिणड्ढेऽवि चोद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ, में भी चौदह मुहुर्त का दिन होता है । (च) ता जया ण जंबुद्दीवे दोवे दाहिणड्ढे तेरसमुहुत्ते (च) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में तेरह मुहूर्त का दिवसे भवइ, तया ण उत्तरड्ढेऽवि तरसमुहत्ते दिन होता हैं तब उत्तरार्द्ध में भी तेरह मुहूर्त का दिन होता है दिवसे भवइ, " जया णं उत्तर तेरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया जब उत्तरार्द्ध में तेरह मुहूर्त का दिन होता है तब दक्षिणार्द्ध णं दाहिणड्ढेऽवि तेरसमुहत्ते दिवसे भवइ, में भी तेरह मुहूर्त का दिन होता है । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य की उदय-व्यवस्था सूत्र १००२ (छ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीदें दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ते (छ) जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में बारह मुहूर्त का दिन दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि बारसमुहत्ते होता है तब दक्षिणार्द्ध में भी बारह मुहूर्त का दिन होता है । दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया जब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त का दिन होता है तब दक्षिणार्द्ध णं दाहिणड्ढेऽवि बारसमुहत्ते दिवसे भवइ, में भी बारह मुहूर्त का दिन होता है। (ज) तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्बयस्स पुरत्थिम- (ज) जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दरपर्वत से पूर्व-पश्चिम में सदा पच्चत्यिमे णं पण्णरसमुहत्ते दिवसे भवइ, सया पन्द्रह मुहूर्त का दिन होता है और पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि होती पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, अवट्ठिया णं तत्थ है । वहाँ रात-दिन अवस्थित कहे गये हैं। राइंदिया पण्णत्ता, समणाउसो ! एगे एवमाहंसु, हे आयुष्मन् श्रमण ! एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं । २. एगे पुण एवमाहंसु (२) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं(क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहत्ता- (क) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में अठारह मुहूर्त से जंतरे दिवसे भवइ. तया णं उत्तरढेऽबि अट्ठारस- कुछ कम का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध भी अठारह मुहूर्त से मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, कुछ कम का दिन होता है। जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में अठारह मुहूर्त से कुछ कम का दिन तया णं दाहिणड्ढेऽवि अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे होता है । तब दक्षिणार्द्ध में भी अठारह मुहूर्त से कुछ कम का भवइ, दिन होता है। (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ता-. (ख) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में सत्रह मुहूर्त से कुछ गंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि सत्तरस- कम का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी सत्रह मुहूर्त से कुछ मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, कम का दिन होता है । जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में सत्रह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तया णं दाहिणड्ढेऽवि सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तब दक्षिणार्द्ध में भी सत्रह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है । (ग) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ता- (ग) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में सोलह मुहूर्त से कुछ जंतरे दिवसे भवइ, तया जं उत्तरड्ढेऽवि सोलस- कम का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी सोलह मुहूर्त से कुछ मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, कम का दिन होता है। जया णं उत्तरड्ढे सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में सोलह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तया णं दाहिणड्ढेऽवि सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तब दक्षिणार्द्ध में भी सोलह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है । (घ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पण्णरसमुहत्ता- (घ) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में पन्द्रह मुहूर्त से कुछ जंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि पण्णरस- कम का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी पन्द्रह मुहूर्त से कुछ मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, कम का दिन होता है। जया णं उत्तरड्ढे पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में पन्द्रह मुहुर्त से कुछ कम का दिन होता है तया णं दाहिणड्ढेऽवि पण्णरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तब दक्षिणाद्ध में भी पन्द्रह मुहुर्त से कुछ कम का दिन होता है । (ङ) ता जया णं जंबुद्दीवे दोवे दाहिणड्ढे चोटुसमुहुत्ता- (ड) जब जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध में चौदह मुहुर्त से कुछ गंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि चोद्दस- कम का दिन होता है। तब उत्तरार्द्ध में भी चौदह मुहूर्त से कुछ मुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, कम का दिन होता है। जया णं उत्तरड्ढे चोद्दसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में चौदह मुहुर्त से कुछ कम का दिन तया णं दाहिणड्ढेऽवि चोद्दसमुहुत्ताणंतरे दिवसे होता है तब दक्षिणार्द्ध में भी चौदह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है। भवइ, Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १००२ तिर्यक् लोक : सूर्य को उदय-व्यवस्था गणितानुयोग ४८६ (च) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे तेरसमुहुत्तागंतरे (च) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में तेरह मुहुर्त से कुछ दिवसे भवइ, तया णं उत्तरढेऽवि तेरसमुहत्ताणतरे कम का दिन होता है तब उत्तराद्धं में भी तेरह मुहर्त से कुछ दिवसे भवइ, कम का दिन होता है। जया णं उत्तरड्ढे तेरसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जब उत्तराद्ध में तेरह मुहुर्त से कुछ कम का दिन होता है तया णं दाहिणड्ढेऽवि तेरसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तब दक्षिणाद्ध में भी तेरह मुहुर्त से कुछ कम का दिन होता है । (छ) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ताणंतरे (छ) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में बारह मुहुर्त से दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेऽवि बारसमुहत्ताणतरे कुछ कम का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी बारह महर्त से दिवसे भवइ, कुछ कम का दिन होता है। जया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त में कुछ कम का दिन होता है तया णं दाहिणड्ढेऽवि बारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, तब दक्षिणार्द्ध में भी बारह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है। (ज) तथा णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवधस्स पुरत्थिम- (ज) जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व-पश्चिम में पन्द्रह पन्चत्थिमे णं णो सया पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, मुहूर्त का दिन सदा नहीं होता है और न पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि णो सया पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ, ही सदा होती है। अणवट्ठिया णं तत्थ राइंदिया पण्णत्ता, वहाँ रात-दिन अनवस्थित कहे गये हैं। समणाउसो ! एगे एवमाहंसु, हे आयुष्मन् श्रमण ! एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं। ३. एगे पुण एवमाहंसु (३) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं(क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहूत्ते (क) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध भरत में अठारह दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई मुहूर्त का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि भवइ, होती है। जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया जब उत्तरार्द्ध में अठारह मुहूर्त का दिन होता है तब णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, . दक्षिणार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। (ख) ता जया णं जबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे अट्ठारसमुहुत्ता- (ख) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में अठारह मुहूर्त से णंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे सारसमुहुत्ता कुछ कम का दिन होता है, तब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त की राई भवइ. रात्रि होती है। जया णं उत्तरड्ढे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जय उत्तरार्द्ध में अठारह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ. है तब दक्षिणार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुत्ते (क) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में सत्रह मुहूर्त का दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में वारह मुहूर्त की रात्रि होती है । भवइ, जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं जब उत्तरार्द्ध में सत्रह मुहूर्त का दिन होता है तब दक्षिणार्द्ध दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, में भी बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सत्तरसमुहुता- (ख) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में सत्रह मुहूर्त से कुछ गंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ता कम का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि राई भवइ, होती है। जया णं उत्तरड्ढे सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में सत्रह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, तब दक्षिणार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ते (क) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में सोलह मुहूर्त का दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहत्ता राई दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । भवइ, Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य की उदय-व्यवस्था सूत्र १००२ जया णं उत्तरड्ढे सोलसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं जब उत्तरार्द्ध में सोलह अहर्त का दिन होता है तब दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, दक्षिणार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे सोलसमुहुत्ता- (ख) जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में सोलह मुहूर्त से कुछ जंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता कम का दिन होता है ता उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि राई भवइ, होती है। जया णं उत्तरड्ढे सोलसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में सोलह मुहर्त से कुछ कम का दिन होता तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, है तब दक्षिणाद्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पण्णरसमुहुत्ते (क) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में पन्द्रह मुहूर्त का दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई दिन होता है तब उत्तराद्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । भवइ, जया णं उत्तरड्ढे पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं जब उत्तरार्द्ध में पन्द्रह मुहूर्त का दिन होता है तब दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, दक्षिणार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (ख) ता जया जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे पण्णरसमुहुत्ता- (ख) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में पन्द्रह मुहूर्त से यंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता कुछ कम का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त की राई भवइ, रात्रि होती है। जया णं उत्तरड्ढे पण्णस्समुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में पन्द्रह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तया ण दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, तब दक्षिणार्द्ध में वारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे चोद्दसमुहुत्ते (क) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणा में चौदह मुहूर्त का दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई दिन होता है तब उत्तरार्ध में बारह मुहूर्त रात्रि होती है । भवइ, जया णं उत्तरड्ढे चोद्दसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं जब उत्तराद्ध मैं चौदह मुहूर्त का दिन होता है तब दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, दक्षिणार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती होती है। (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे चोद्दसमुहुत्ता- (ख) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध मे चौदह मुहूर्त से णंतरे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता कुछ कम का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त की राई भवइ, रात्रि होती है। जया णं उत्तरड्ढे चोद्दसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवइ, जब उत्तरार्द्ध में चौदह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तया णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, तब दक्षिणार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (क) ता जया णं जं जंबुद्दीवे बोबे दाहिणड्ढे तेरसमुहुत्ते (क) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्द्ध में तेरह मुहूर्त का दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। भवइ, जया णं उत्तरड्ढे तेरसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं जब उत्तरार्द्ध में तेरह मुहूर्त का दिन होता है तब दक्षिणाद्ध दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, ___ में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे तेरसमुहुत्ताणंतरे (ख) जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणाद्ध में तेरह मुहूर्त से कुछ दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई कम का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में बारह मुहुर्त की रात्रि भवइ, होती है। जया णं उत्तरड्ढे तेरसमुहुत्ताणतरे दिबसे भवइ, तया जब उत्तरार्द्ध मे तेरह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है णं दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ता राई भवइ, तब दक्षिणार्द्ध में बारह महुर्त की रात्रि होती है । Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १००२ तिर्यक् लोक : सूर्य की उदय-व्यवस्था wwwwwwwwww (क) ता जया जं दिवसे इतया भवइ, जया णं उत्तरड्ढे बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं दाहिणड्ढे वारसमुहुत्ता राई भवइ, जपा गं उत्तर तया णं याहि दी राहिण सारसमुहुसे दाहिगडे वारसमुहसा राई (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे बारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवइ, तथा णं उत्तरड्ढे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ वारसा दिवसे भव वारसमुहसा राई अव (ग) तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिम पच्चत्थि मे गं वत्थि पण्णरसमुहने दिवसे भवइ वस्थिपण्णरसमुहत्ता राई भवइ, , वोच्छिष्णा ण तत्थ राइंदिया पण्णत्ता, समणाउसो ! एवमाहं, ' - सूरिय. पा. ८ सु. २६ १ वयं पुण एवं वयामो ता जंबुद्दीवे दी सूरिया, उदो-पाई मुमाच्छति पाईप दाहिति पाईं दाणिच्छति दाह-पढीमागच्छंत, ग्राहिण-पोषणच्छंति, पोग-उदीमागच्छति पडी - उदीणमुग्गच्छंति, उदीण पाइणमागच्छंति, * २. (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पथ्वयस्स दाहिणड्ढे दिवसे भवइ, तया णं उत्तरड्ढेवि दिवसे भवइ, जया णं उत्तरड्ढे दिवसे भवइ, तथा णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमे पच्चत्थिमे गं राई भबइ, गणितामयोग wwwwwwwwww ૪૯૧ (क) जय जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणा में बारह मुहूर्त का दिन होता है तर उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। जब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त का दिन होता है तब दक्षिणाद्ध में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। (ख) जत्र जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणा में मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है । तब उत्तरार्द्ध में बारह मुहूर्त की रानि होती है। जब उत्तराद्ध में बारह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तब दक्षिणा में बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (ग) उस समय जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व-पश्चिम में न पन्द्रह मुहूर्त का दिन होता है और न पह मुहूर्त की रात्रि होती है। वहाँ रात-दिन व्युच्छिन्न कहे गये हैं, हे आयुष्मन् श्रमण ! एक मान्यता वाले इसे इस प्रकार कहते हैं । हम फिर इस प्रकार कहते हैंजम्बूद्वीप द्वीप में सूर्य १ - उसर-पूर्व (ईशानकोण) में उदय होते हैं और पूर्व दक्षिण (आग्नेयकोण) में आते हुए दिखाई देते हैं। पूर्व-दक्षिण (आग्नेयकोण) में उदय होते हैं और दक्षिण पश्चिम (नैऋत्यकोण) में आते ( हुए दिखाई देते ) हैं । दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण) में उदय होते हैं और पश्चिमउत्तर (वायव्यकोण) में आते ( हुए दिखाई देते ) हैं । पश्चिम-उत्तर वायव्यकोण में उदय होते हैं और उत्तरपूर्व (ईशानकोण) में आते ( हुए दिखाई देते ) है । १ चन्द. पा. ८, सु. २६ । २ (क) प० जीवे पं घंते! दीवे सूरिआ, उदीप यागमुगच्छ पाईप दाहिणमागच्छति ? - २ - ( क ) जब जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिणाद्ध में दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी दिन होता है । जब उत्तरार्द्ध में दिन होता है तब जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व और पश्चिम में रात्रि होती है । पाइन दाहिमुच्छ दाहिणीणमागच्छति ? दाहिण -पडीणमुग्गच्छ पडीण - उदीण मागच्छंति ? पडी-उदीमा उदीयमान ? उ०- हंता गोपमा ! जहा पंचमसए पहले उसे जावर उस्सप्पिणी अपट्टिए सत्य काले पं. समगाउसो ! - भग. स. ५, उ. १, सु. ५ (ख) जम्बु. वक्ख. ७, सु. १५० । Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य की उदय-व्यवस्था सूत्र १००२ ३. (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे ३-(ख) जब जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व में दिन ण दिवसे भवइ, तया णं पच्चत्थिमेऽवि दिवसे भवइ, होता है तब पश्चिम में भी दिन होता है । जया णं पच्चत्थिमे गं दिवसे भवइ, तया णं जंबुद्दीवे जब पश्चिम में दिन होता है तब जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहिणे णं राई भवइ, पर्वत से उत्तर और दक्षिण में रात्रि होती है । ४. (क) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणड्ढे ४-(क) जब जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिणार्द्ध उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया णं उत्तर- में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है तब उत्तरार्द्ध में भी ड्ढेऽवि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है। जया णं उत्तरड्ढे उक्कोसिए अट्ठारसमुहत्ते विवसे जब उत्तरार्द्ध में उत्कृष्ट अठारह मुहुर्त का दिन होता है भवइ, तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स तब जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व-पश्चिम में जघन्य वारह पुरथिम-पच्चत्थिमे गं जहणिया दुवालसमुहुत्ता मुहूर्त की रात्रि होती है। राई भवइ, ५. (ख) ता जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे (ख) जब जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व में उत्कृष्ट गं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, तया गं अठारह मुहूर्त का दिन होता है तब पश्चिम में भी उत्कृष्ट अठारह पच्चत्थिमेऽवि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, मुहूर्त का दिन होता है। जब पश्चिम में उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है तब भवइ, तया गं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर- जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर-दक्षिण में जघन्य बारह दाहिणे णं जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, मुहूर्त की रात्रि होती है । एवं एएणं गमेणं णेयव्वं इस प्रकार इस इन सदृश पाठों से (आगे) जानना चाहिए। अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे, साइरेग-दुवालस-मुहुत्ता जब अठारह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तब बारह राई, मुहूर्त से कुछ अधिक की रात्रि होती है। सत्तरस-मुहुत्ते दिवसे, तेरस-मुहत्ता राई, ___ जब सत्रह मुहूर्त का दिन होता है तब तेरह मुहूर्त की रात्रि होती है। सत्तरस-मुहुत्ताणतरे दिवसे, साइरेग-तेरस-मुहुत्ता राई, जब सत्रह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तब तेरह मुहूर्त से कुछ अधिक की रात्रि होती है । सोलस-मुहुत्ते दिवसे, चोद्दस-मुहुत्ता राई, ___ जब सोलह मुहूर्त का दिन होता है तब चौदह मुहूर्त की रात्रि होती है। सोलस-मुहत्ताणंतरे दिवसे, साइरेगे-चोद्दस-मुहत्ता राई, जब सोलह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तब चौदह मुहूर्त से कुछ अधिक की रात्रि होती है । पण्णरस-मुहुत्ते दिवसे, पण्णरस-मुहत्ता राई, जब पन्द्रह मुहूर्त का दिन होता है तब पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि होती है। पण्णरस-मुहत्ताणंतरे दिवसे, साइरेन-पष्णरस-मुहत्ता जब पन्द्रह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तब पन्द्रह राई, मुहूर्त से कुछ अधिक की रात्रि होती है । चोद्दस-मुहुत्ते दिवसे, सोलस-मुहुत्ता राई, जब चौदह मुहूर्त का दिन होता है तब सोलह मुहूर्त की रात्रि होती है। चोद्दस-मुहत्ताणतरे दिवसे साइरेग-सोलस-मुहत्ता राई, जब चौदह मुहूर्त से कुछ कम का दिन होता है तब सोलह मुहूर्त से कुछ अधिक की रात्रि होती है। तेरस-मुहुत्ते दिवसे सत्तरस-मुहुत्ता राई, जब तेरह मुहूर्त का दिन होता है तब सत्रह मुहूर्त की रात्रि होती है। Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सूत्र १००२-१००३ उ० तिर्यक लोक सूर्य के ओज की संस्थिति तेरस मुहसानंतरे दिवसे, साइरेग-सत्तर-मुत्ता राई, जम्वालसमु दिवसे भवइ, उक्कोसिया अट्ठारस मुहुत्ता राई भवइ । एवं भाणियव्वं ।' -सूरिय० पा० ८, सु० २६ सूरियस ओय संठई— ३. प० -ता कहं ते ओयसंठिई ? आहिए त्ति वएज्जा, - तत्थ खलु इमाओ पणवीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ तं जहा तायेंगे एवाहं १. ता अणुसमयमेव सूरियस ओवा अन्य उप अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु - एमे पुण एवमाहंसु २. ता अणुमुत्तमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवे, एगे एवमाहं एगे पुण एवमाहं सु ३. ता अगुराईदियमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पम्जद, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु ४. ता अपश्यमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्ज अण्णा अवेद, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु ५. ता अणुमाससेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेs, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाह सु ६. ता अणु उउमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अबे एगे एवमाहंसु एगे पुण एवमाहं ७. ता अणु अयणमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अबेs. एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ८. ता अणुसंवच्छरमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवे, एगे एवमाहं. भग. श. ५ उ. १ सु. ५-१३ । गणितानुयोग ४६३ जब तेरह मुहुर्त से कुछ कम का दिन होता है तब सत्रह मुहूर्त से कुछ अधिक की रात्रि होती है। जब जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है तब उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है। इस प्रकार कहना चाहिए। सूर्य के ओज (प्रकाश) की संस्थिति (एक रूप में रहने की सीमा) २. प्र० ( सूर्य के ओज (प्रकाश) की संस्थिति कितनी है ? कहें । उ० – इस सम्बन्ध में ये पच्चीस प्रतिपत्तियाँ ( मान्यतायें ) कही गई है, यथा उनमें से एक मान्यता वालों ने ऐसा कहा है (१) सूर्य का प्रकाश प्रतिक्षण अन्य उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता है । एक (मान्यता बालों) ने फिर ऐसा कहा है (२) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक मुहूर्त में अन्य उत्पन्न होता है. और अन्य विलीन होता है । एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है (३) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक अहोरात्र में अन्य उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता है । एक ( मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है (४) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक पक्ष में अन्य उत्पन्न होता है। और अन्य विलीन होता है। एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है (५) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक मास में अन्य उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता है । एक (मान्यता बालों) ने फिर ऐसा कहा है (६) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक ऋतु में अन्य उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता है । एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है (७) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक अयन में अन्य उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता है । एक (मान्यता वालों ने फिर ऐसा कहा है (८) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक संवत्सर में अन्य उत्पन्न होता है। और अन्य विलीन होता है । मुरिय. पा. सु. २६ Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य के ओज को संस्थिति सूत्र १००३ एगे पुण एवमाहंसु एक मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है६. ता अणुजुगमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ । (8) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक युग में अन्य उत्पन्न होता है और - अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, अन्य विलीन होता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१०. ता अणुवास-सयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्प- (१०) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक सौ वर्षों में अन्य उत्पन्न होता ज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, है और अन्य विलीन होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है११. ता अणुवास-सहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा (११) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक हजार वर्ष में अन्य उत्पन्न उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, होता है और अन्य विलीन होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है-- १२. ता अणुवाससयसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा (१२) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक लाख वर्ष में अन्य उत्पन्न उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, होता है और अन्य विलीन होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों ने फिर ऐसा कहा है१३. ता अणुपुत्वमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ (१३) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक पूर्व में अन्य उत्पन्न होता है अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, और अन्य विलीन होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१४. ता अणुपुत्वसयमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्प- (१४) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक सौ पूर्व में अन्य उत्पन्न होता ज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, है और अन्य विलीन होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१५. ता अणु पुव्वसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा (१५) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक हजार पूर्व में अन्य उत्पन्न उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, होता है और अन्य विलीन होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१६. ता अणुपुत्वसयसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा (१६) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक लाख पूर्व में अन्य उत्पन्न होता उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, है और अन्य विलीन होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालो) ने फिर ऐसा कहा है१७. ता अणुपलिओवममेव सूरियस्स ओया अण्णा (१७) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक पल्योपम में अन्य उत्पन्न होता उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, है और अन्य विलीन होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है-- १८. ता अणुपलिओवमसयमेव सूरियस्स ओया अण्णा (१८) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक सौ पल्योपम में अन्य उत्पन्न उप्पज्जइ. अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, होता है और अन्य विलीन होता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१६. ता अणुपलिओवमसहस्समेव सूरियस्स ओया अण्णा (१६) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक हजार पल्योपम में अन्य उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है२०. ता अणुपलिओवमसयसहस्समेव सूरियस्स ओया (२०) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक लाख पूर्व में अन्य उत्पन्न अण्णा उप्पज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, होता है और अन्य विलीन होता है। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १००३ एगे पुग एवमाहं २१. ता अणुसागरोवयमेव रिवस भोया अन्या उपज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २२. ता अणुसागरोवम-यमेव सूरियस्स ओवा अण्णा उपज्जइ अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु २२. ता अनुसागरोचम- सहस्वमेवरिया भोया अभ्या उपज अण्णा अवेइ, एगें एवमाहंसु, एगे पुग एवमाहं -- तिर्यक लोक सूर्य के ओज की संस्थिति २४. ता अगुसागरोवम-सयस हस्तमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहसु २५. ता अणु उस्सप्पिणि, ओसप्पिणिमेव सूरियस्स ओया अण्णा उप्पज्जइ, अण्णा अवेइ, एगे एवमाहंसु,' वयं पुण एवं वयामो (क) ता ती ती मुहले सूरियस मोया अट्टिया भ ते परं सूरियस ओया अगट्टिया भव (च) धम्मासे रिए ओपंडि छम्मासे सूरिए ओयं अभिवुड्ढइ, (ग) नियममाणे सुरिए बेि पविसमा सुरिए दे अभि प० - तत्थ को हेउ ? आहिए ति वएज्जा, उ०- ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्व दीव-समुद्दाणं सव्वभंतराए सम्म खुट्टा वट्टे जाव जोयणसहस्वमायाम विक्खंभे णं तिष्णि जोयणसयसहस्साइं दोण्णि य सत्ता से जोणस, तिणि कोसे, अट्ठावीसं च घणुसयं, तेरस य अंगुलाई अर्द्धगुलं च किचि विसेसाहिए परिक्खेवे णं पण्णत्ते, गणितानुयोग ૪૨ एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है (२१) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक सागरोपम में अन्य उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता है । एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है (२२) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक सौ सागरोपम में अन्य उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता है । एक मान्यता वालों ने फिर ऐसा कहा है ( २३ ) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक हजार सागरोपम में अन्य उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता है। एक (मान्यता वालों ने) फिर ऐसा कहा - (२४) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक लाख सागरोपम में अन्य उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता हैं । एक (मान्यता बालों) ने फिर ऐसा कहा है (२५) सूर्य का प्रकाश प्रत्येक उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में अन्य उत्पन्न होता है और अन्य विलीन होता है । हम फिर इस प्रकार कहते हैं (क) सूर्य का प्रकाश तीस तीस मुहूर्त पर्यन्त अवस्थित रहता है तदनन्तर सूर्य का प्रकाश अनवस्थित हो जाता है । (ख) सूर्य का प्रकाश छः मास में घटता रहता है। सूर्य का प्रकाश छः मास में बढ़ता रहता है । (ग) (सर्वाभ्यन्तर मण्डल से भागों में से एक एक भाग को ) घटाता रहता है । निकलता हुआ सूर्य (१०३० देश को ( प्रत्येक अहोरात्र में ) (सर्व बाह्यमण्डल से सर्वाभ्यन्तर मण्डल की ओर प्रवेश करता हुआ सूर्य (१८३० भागों में से एक एक भाग को ) देश को (प्रत्येक अहोरात्र में बढ़ता रहता है। प्र०—- इस प्रकार कथन करने का हेतु क्या है ? कहें । उ०---- यह जम्बूद्वीप द्वीप सब द्वीप समुद्रों के अन्दर हैं सबसे छोटा है वृत्ताकार संस्थान से स्थित है— बाबद एक सा योजन लम्बा चौड़ा है, तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोस एक सौ अट्ठावीस धनुष तेरह अंगुल और कुछ अधिक की परिधि कही गई है। अं १ इन प्रतिपत्तियों से ऐसा प्रतीत होता है कि जैनागमों के अतिरिक्त अन्य दार्शनिक पुराणादि ग्रन्थों में भी औपमिककालवाचक "पल्योपम-सागरोपम, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी" आदि शब्दों का प्रयोग था । वर्तमान में भी यदि पुराणादि ग्रन्थों में इन औपमिककाल वाचक शब्दों का कहीं प्रयोग हो तो अन्वेषणशील आत्मायें प्रत् करके प्रकाशित करें । Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य के ओज को संस्थिति सूत्र १००३ Www (१) ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता (१) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारस- करता है तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन मुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई होता है, जघन्य बारह मुहुर्त की रात्रि होती है । भवइ, (२) से निक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि (२) (सर्वाभ्यन्तर मण्डल से) निकलता हुआ सूर्य नये संवत्सर अहोरत्तंसि अभिंतराणंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं के दक्षिणायन को प्रारम्भ करता हुआ प्रथम अहोरात्र में आभ्यन्तचरइ, रान्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं सूरिए अमितराणंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता जब सूर्य आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति चारं चरइ, तया णं एगे णं राइदिए णं एगं भागं करता है तब मण्डल को अठारह सौ तीस भागों में विभाजित ओयाए दिवसखित्तस्स निवुढित्ता रयणि-खित्तस्स करके एक अहोरात्र में एक भाग दिवस क्षेत्र के एक प्रकाश को अभिवुड्ढित्ता चार चरइ, मंडलं अट्ठारसेहि तीसेहिं घटाकर और रजनि-क्षेत्र को बढ़ाकर गति करता है । सहि छेत्ता, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभाग- उस समय एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से दो भाग कम मुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहत्ता राई भवइ; दोहिं एगट्ठि- अठारह मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग भागमुहुर्तेहि अहिया, तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (३) से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभिंतरा- (३) (आभ्यन्तरानन्तर मण्डल से) निकलता हुआ वह सूर्य अंतरं तच्चं मण्डलं उबसंकमित्ता चार चरइ, दूसरे अहोरात्र में आभ्यन्तरानन्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करता है । ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं तच्चं मण्डलं उवसंक- जब सूर्य आभ्यन्तरान्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके मित्ता चारं चरइ, तया गं दोहिं राइदिएहिं दो भागे गति करता है तब मण्डल को अठारह सौ तीस भागों में ओयाए दिवस-खेत्तस्स निवुढिता, रयणि-खेत्तस्स- विभाजित करके दो अहोरात्र में दो भाग दिवस-क्षेत्र के प्रकाश अभिवुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसेहिं तीसेहिं को घटाकर और रजनि-क्षेत्र को बढ़ाकर गति करता है। सरहिं छत्ता, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहिं एगट्ठिभाग उस समय एक मुहुर्त के इगसठ भागों में से चार भाग कम मुहुर्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चहिं एगट्ठि- अठारह मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग भागमुहुत्तेहि अहिया, तथा चार भाग अधिक बारह मुहुर्त की रात्रि होती है । (४) एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणत- (४) इस प्रकार इस क्रम से निकलता हुआ सूर्य तदनन्तर राओ मण्डलाओ तयाणंतर मण्डलं संकममाणे संकम- मण्डल से तदनन्तर मण्डल को संक्रमण करता करता प्रत्येक माणे एगमेगे मंडले, एगमेगे णं राइदिए णं एगमेगं मण्डल में एवं प्रत्येक अहोरात्र में एक एक भाग दिवस क्षेत्र के एगमेगं भाग ओयाए दिवस-खेत्तस्स निव्वुड्ढेमाणे प्रकाश को घटाता घटाता और रजनि-क्षेत्र को बढ़ाता बढ़ाता निव्वुड्ढेमाणे रयणि-खेत्तस्स अभिवुड्ढेमाणे अभिवुड्ढे- सर्व बाह्य मण्डल की ओर बढ़ता हुआ गति करता है । माणे सव्व बाहिरं मंडलं उवसंकमिता चारं चरइ, (५) ता जया ण सूरिए सव्वमंतराओ मंडलाओ सव्व बाहिरं (५) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से सर्व बाह्यमण्डल की मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तथा णं सम्वन्भंतरं ओर गति करता है तब मण्डल को अठारह सौ तीस भागों में मंडलं पणिहाय एगे णं तेसिए राइंदियसए णं एग विभाजित करके सर्वाभ्यन्तर मण्डल को छोड़कर एक सौ तेसोयं भागसयं ओयाए दिवस-खेत्तस्स निव्वुड्ढेत्ता तिरासी भाग दिवस क्षेत्र के प्रकाश को घटाकर और रजनि-क्षेत्र रयणि-खेत्तस्त अभिवुड्ढेत्ता चारं चरइ मंडलं अट्ठार- को बढ़ाकर गति करता है। सेहिं तोसेहिं सएहि छेत्ता, Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वाभ्यन्तर मंडल से सर्व बाह्य मंडल में जाते प. सर्व बाह्य मंडल समुद्र लवण सर्वाभ्यन्तर सर्व बाह्य मंडल जम्बू सर्व वाह्य मंडल में स्थित पूर्व और पश्चिम दिशा सर्वाभ्यन्तर सर्वाभ्यन्तर मेरु हुए पूर्व और पश्चिम दिशा के (दो) सूर्य मंडल सर्वाभ्यन्तर मं. मंडल सर्व बाह्य मंडल के सूर्यो का पुनः सर्वायन्तर मंडल में प्रवेश द्वीप - मंडल अन्तर २ यो. सर्व बाह्य मंडल लवण समुद्र जबू विशेष वर्णन के लिए देखें – सूत्र १००३ पृष्ठ ४६५ से ४६७ तक पू. पू. Page #659 --------------------------------------------------------------------------  Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १००३ तिर्यक् लोक : सूर्य के ओज की संस्थिति गणितानुयोग ४९७ तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, रात्रि होती है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । एस णं पढमे छम्मासे, ये प्रथम छ: मास (दक्षिणायन के) हैं। एस गं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, यह प्रथम छ: मास का अन्त है । (१) से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अपमाणे पढमंसि (१) (सर्व बाह्य मण्डल की ओर से) प्रवेश करता हुआ वह अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं सूर्य दूसरे छः मास से उत्तरायण प्रारम्भ करता हुआ प्रथम चरइ, अहोरात्र में बाह्यानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है। ता जया ण सूरिए बाहिराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता जब सूर्य बाह्यानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता चारं चरइ, तया णं एगे णं राइदिए णं एगं भागं है तब मण्डल को अठारह सौ तीस भागों में विभाजित करके ओयाए (यणिखेत्तस्स निव्वुड्ढेत्ता दिवस-खेत्तस्स अभि- एक अहोरात्र में एक भाग रजनि-क्षेत्र में से प्रकाश को घटाकर वुड्ढेत्ता चार चरइ मंडलं अट्ठारसेहिं तीसेहि सरहिं और दिवस-क्षेत्र का बढ़ाकर गति करता है। छत्ता , तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहि एगट्ठिभाग- उस समय एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से दो भाग कम मुहुर्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठि- अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहर्त के इगसठ भाग भागमुहुहि अहिए, तथा दो भाग अधिक बारह मुहुर्त का दिन होता है । (२) से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिराणतरं (२) (बाह्यानन्तर मण्डल की ओर से) प्रवेश करता हुआ तच्च मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, वह सूर्य दूसरे अहोरात्र में बाह्य तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं सूरिए बाहिराणंतर तच्चं मंडलं उवसंक- जब सूर्य बाह्यानन्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति मित्ता चारं चरइ, तया गं दोहिं राइंदिरहि दोभाए करता है तव मण्डल को अठारह सौ तीस भागों में विभाजित ओयाए रयणिखेत्तस्स निव्वुड्ढेत्ता दिवस-खेत्तस्स अभि- करके दो अहोरात्र में दो भाग रजनि-क्षेत्र में से प्रकाश से घटावुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं अट्ठारसहि तीसेहि सरहिं कर और दिवस-क्षेत्र के बढ़ाकर गति करता है । छत्ता , तया णं अट्ठारसमुत्ता राई भवइ, चउहिं एगट्ठिभाग- उस समय एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से चार भाग कम मुहुर्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहि एगट्ठि- अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग भागमुहुहि अहिए, तथा चार भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है। (३) एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य तदनन्तर मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे एग- मण्डल से तदनन्तर मण्डल की ओर संक्रमण करता करता प्रत्येक मेगे मंडले एगमेगे गं राईदिए गं एगमेगं भागं ओयाए मण्डल में एवं प्रत्येक अहोरात्र मे एक एक भाग रजनि-क्षेत्र में से रयणि-खेत्तस्स निव्वुड्ढेमाणे निव्वुड्ढमाणे दिवस- प्रकाश के घटाता घटाता और दिवस क्षेत्र के बढ़ाता बढ़ाता खेत्तस्स अभिवडढेमाणे अभिवुड्ढेमाणे सम्वन्भंतरं सर्वाभ्यन्तर मण्डल की ओर बढ़ता हुआ गति करता है। मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, (४) ता जया णं सूरिए सव्व बाहिराओ मंडलाओ सव्व- (४) जब सूर्य सर्व बाह्यमण्डल से सर्वाभ्यन्तरमण्डल की भंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव. ओर गति करता है तब मण्डल को अठारह सौ तीस भागों में बाहिरं मंडलं पणिहाय एगे णं तेसीए णं राइंबियसए विभाजित करके सर्व बाह्यमण्डल को छोड़कर एक सौ तिरासी गं एगे तेसीयं भागसयं ओयाए रयणि-खेत्तस्स निन्वु- अहोरात्र में एक सौ तिरासी भाग रजनि-क्षेत्र में से प्रकाश के ड्ढेत्ता दिवस-खेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चारं चरइ, मंडलं घटाकर और दिवसक्षेत्र के बढ़ाकर गति करता है। अट्ठारसेहि तीसेहि सएहि छेत्ता, तया णं उत्तभकट्टपत्ते उक्कोसए अठारसमुहुत्ते दिवसे उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठाररह मुहुर्त का भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ५ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य से प्रकाशित पर्वत एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस आइचे संब एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे, ' - सूरिय. पा. ६, सु. २७ सूरियेण पगारिया पन्यया ४. ५० - ता कि ते सूरियं वरइ ? आहिएत्ति वएज्जा, उ० – तत्थ खलु इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - तत्थेगे एवमाहंसु १. ता मंदरे णं पव्वए सूरियं वरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहं २. ता मेरु णं पव्वए सूरियं वरइ एगे एवमाहंसु, ३ - १६. एवं एएवं अभिलावे णं णेयव्वं तहेव-जाव- 13 एगे पुण एवमाहंसु - २०. ता पव्वयराये णं पव्वए सूरियं वरइ, एगे एवमाहंसु वयं पुण एवं वदामो ता मंदरे णं पव्वए सूरियं वरइ, एवं वि पवुच्चइ तहेव - जाव (१-२० सूरिय. पा. ५, सु. २६ को देखें ता पव्वयराये णं पव्वए सूरियं वरइ, एवं वि (क) ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पुग्गला सूरियं वरयति पवच्चइ (ख) अदिट्ठा वि णं पोग्गला सूरियं वरयंति, (ग) चरिमले संतरगया वि गं पोग्गला सूरियं वरयंति, - सूरिय. पा. ७, सु० २८ ये दूसरे छः मास ( उत्तरायण के ) हैं । ये दूसरे छः मास का पर्यवसान है । यह आदित्य संवत्सर है। यह आदित्य संवत्सर का पर्यवसान है । सूत्र १००३ - १००४ सूर्य से प्रकाशित पर्वत ४. प्र० ३० सूर्य से कौनसा (पर्वत) प्रकाशित होता है ? कहें।" इस सम्बन्ध में वे बीस प्रतिपत्तियां (मान्यतायें कही गई है, यथा- इनमें से एक (मान्यता वालों) ने ऐसा कहा है(१) सूर्य से 'मन्दर पर्वत' प्रकाशित होता है । एक मान्यता वालों ने फिर ऐसा कहा है (२) सूर्य से मेरु पर्वत प्रकाशित होता है। (३-१६ ) इस प्रकार इन अभिलापों से पूर्ववत् - यावत्जानना चाहिए । एक (मान्यता वालों ने फिर ऐसा कहा है (२०) सूर्य से "पर्वतराज" प्रकाशित होता है। हम फिर इस प्रकार कहते हैं सूर्य से " मन्दर पर्वत" भी प्रकाशित कहा जाता है— यावत् " पर्वतराज" भी प्रकाशित कहा जाता है । (क) जितने पुद्गल सूर्य के प्रकाश का स्पर्श करते हैं उतने ही पुद्गलों को सूर्य प्रकाशित करता है। (ख) अदृष्ट ( अति सूक्ष्म) पुदगलों को भी सूर्य प्रकाशित करता है । (ग) मन्दर पर्वत के चारों ओर के ऊपरी भाग के पुद्गलों को भी सूर्य प्रकाशित करता है । १ चन्द. पा. ६ सु. २७ । २ प्र० - सूर्य को ( स्व प्रकाश रूप में) कौन (पर्वत) वरण (स्वीकार ) करता है ? उ०- सूर्य को "मन्दर पर्वत " ( स्व प्रकाश रूप में) वरण (स्वीकार ) करता है । ऊपर लिखे इन बीस सूत्रों का शब्दार्थ इस प्रकार होता है, यहाँ अनुवाद में केवल फलितार्थ ही दिया हैं । ३ " सूरियस्स लेस्सा पडिघायगा पव्वया" इस शीर्षक के अन्तर्गत सूर्य प्रा. ५, सु. २६ में बीस प्रतिपत्तियों के अनुसार सूर्य की लेश्या को प्रतित करने वाले बीस पर्वतों के नाम गिनाये हैं यहाँ भी उसी के अनुसार मूल पाठ एवं अनुवाद के सभी आलापक कहने चाहिए। ४ ऊपर के टिप्पण में सूचित शीर्षक के अन्तर्गत सूर्य. पा. ५, सु. २६ के अनुसार सूर्य प्रज्ञप्ति के संकलन कर्ता ने यहाँ भी मन्दर पर्वत के बीस नामों को पर्यायवाची मानकर समन्वय कर लिया हैं । चन्द. पा. ७ सु. २८ । Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १००५ तिर्यक्लोक : सूर्य-तेज को अवरुद्ध करने वाले पर्वत गणितानुयोग ४६ सूरियस्स लेस्सा पडिघायगा पब्बया सूर्य के तेज को अवरुद्ध करने वाले पर्वत५. ५०–ता कस्सि णं सूरियस्स लेस्सा पडिहया? आहिए ति ५. प्र०—सूर्य का तेज किससे अबरुद्ध होता है ? कहें । वएज्जा । उ०-तत्थ खलु इमाओ वीसं पडिवत्तीओ पण्णताओ, उ०—इस सम्बन्ध में ये बीस प्रतिपत्तियाँ (मान्यताएँ) कही तं जहा गई हैं, यथातत्थेगे एवमाहंसु इनमें से एक (मान्यता वालों) ने ऐसा कहा है१. ता मंदरंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, (१) सूर्य का तेज "मन्दर" पर्वत से अवरुद्ध होता है । आहिए ति वएज्जा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है२. ता मेरू सि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, (२) सूर्य का तेज "मेरु" पर्वत से अवरुद्ध होता है। आहिए त्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है३. ता मणोरमंसि णं पव्वर्यास सूरियस्स लेस्सा पडि- (३) सूर्य का तेज “मनोरम' पर्वत से अवरुद्ध होता है। हया, आहिए ति वएज्जा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है४. ता सुदंसणंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, (४) सूर्य का तेज "सुदर्शन" पर्वत से अवरुद्ध होता है । आहिए त्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है५. ता सयपहंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, (५) सूर्य का तेज "स्वयम्प्रभ" पर्वत से अवरुद्ध होता है । आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है६. ता गिरिरायंसि णं पब्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडि- (६) सूर्य का तेज "गिरिराज' पर्वत से अवरुद्ध होता है। हया, आहिए ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है७. ता रयणुच्चयंसि पन्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया (७) सूर्य का तेज "रत्नोच्चय" पर्वत से अवरुद्ध होता है। आहिए ति वएज्जा, एगे एवमासु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है८. ता सिलुच्चयंसि णं पन्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडि- (८) सूर्य का तेज "शिलोच्चय" पर्वत से अवरुद्ध होता है। हया, आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है६. ता लोयमझंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडि- (६) सूर्य का तेज "लोक-मध्य" पर्वत से अवरुद्ध होता है। हया. आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१०. ता लोगनाभिसि णं पब्वयंसि सूरियस्स लेस्सा (१०) सूर्य का तेज "लोक-नाभि" पर्वत से अवरुद्ध पडिहया, आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, होता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है११. ता अच्छंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडि... (११) सूर्य का तेज "अच्छ” पर्वत से अवरुद्ध होता हैं । हया आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूय-तेज को अवरुद्ध करने वाले पर्वत सूत्र १००५ एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१२. ता सूरियावत्तंसि गं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा (१२) सूर्य का तेज "सूर्यावर्त' पर्वत से अवरुद्ध होता है। पडिहया आहिए त्ति वएज्जा एगे एवमाहसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१३. ता सूरियावरणंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा (१३) सूर्य का तेज "सूर्यावरण" पर्वत से अवरुद्ध होता है। पडिहया आहिए ति वएज्जा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है-- १४. ता उत्तमंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया (१४) सूर्य का तेज "उत्तम" पर्वत से अवरुद्ध होता है । आहिए त्ति वएज्जा एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१५. ता दिसादिसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडि- (१५) सूर्य का तेज "दिशाओं के आदिरूप" पर्वत से अवरुद्ध हया आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु होता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१६. ता अवयंसंसि गं पन्वयं सि सूरियस्स लेस्सा पडि- (१६) सूर्य का तेज "अवतंस" पर्वत से अवरुद्ध होता है। हया आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१७. ता धरणि खीलंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा (१७) सूर्य का तेज 'धरणी-कील" पर्वत से अवरुद्ध पडिहया, आहिए ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु. होता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है१८. ता धरणि सिगंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा (१८) सूर्य का तेज "धरणी-शृंग" पर्वत से अवरुद्ध पडिहया आहिए ति वएज्जा, एंगे एवमाहंसु, होता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है- . १६. ता पच्वइंदसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडि- (१६) सूर्य का तेज “पर्वतेन्द्र" पर्वत से अवरुद्ध होता है। हया आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है२०. ता पन्वयरायसि नं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा (२०) सूर्य का तेज "पर्वतराज' पर्वत से अवरुद्ध होता है। पडिहया आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो हम फिर ऐसा कहते हैंजंसि जं पव्वयंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहया, से ता जिस पर्वत से सूर्य का तेज अवरुद्ध होता है वह “मन्दर मंदरे वि पवुच्चइ-जाव-पव्वयराया वि पवुच्चइ,' पर्वत" भी कहा जाता है-यावत्- "पर्वतराज' भी कहा जाता है। १ मन्दरस्स णं पब्वयस्स सोलस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा, गाहाओ (१) मन्दर (२) मेरु (३) मणोरम (४) सुदंसण (५) सयंपभे य (६) गिरिराया ।। (७) रयणुच्चय (८) पियदसण (6-१०) मज्झे लोगस्स, नाभी य ॥१॥ (११) अच्छे य (१२) सूरियावत्ते (१३) सूरियावरणे ति य ॥ (१४) उत्तमे य (१५) दिसादि य (१६) वडेसेइ य सोलसे ।।२।। -(क) सम. स. १६, सु. ३ -(ख) जम्बु. वक्ख. ४, सु. १०६ इन दो गाथाओं में “मन्दर पर्वत" के सोलह नाम गिनाये हैं, यहाँ उनके अतिरिक्त चार औपमिक नाम और भी हैं। मन्दर पर्वत के इन बीस पर्यायवाची नामों को अन्यान्य मान्यता वाले भिन्न भिन्न पर्वत मानते हैं। किन्त सर्यप्रज्ञप्ति के संकलन कर्ता ने समवायांग और जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति के अनुसार मन्दर पर्वत के ये बीस पर्यायवाची नाम मानकर सभी अन्य मान्यताओं का "समन्वय" किया है। Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १००५-१००६ तिर्यक् लोक : जम्बूद्वीप में सूर्यों की क्षेत्रगति का प्ररूपण गणितानुयोग ५०१ हणंति, (क) ता जे णं पुग्गला सूरियस्स लेस्स फुसति ते णं पुग्गला जितने पुद्गल सूर्य के तेज का स्पर्श करते हैं वे ही पुद्गल सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, सूर्य के तेज को अवरुद्ध करते हैं । (ख) अदिट्ठा वि णं पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, अदृष्ट (सूक्ष्म) पुद्गल भी सूर्य के तेज को अवरुद्ध करते हैं। (ग) चरिमलेस्संतरगया वि पुग्गला सूरियस्स लेस्सं पडि- चरिम (मेरु पर्वत के चारों ओर के ऊपरी भाग के) पुद्गल -सूरिय. पा. ५, सु. २६ भी सूर्य तेज को अवरुद्ध करते हैं । जंबुद्दीवे सूरियाणं खेत्तगइ-परूवणं- जम्बूद्वीप में सूर्यों को क्षेत्र गति का प्ररूपण६. ५०—(क) जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया-कि तीयं खेत्तं ६. प्र.-(क) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य क्या गच्छंति ? अतीत क्षेत्र में चलते हैं ? (ख) पडुप्पन्न खेत्तं गच्छंति ? (ख) वर्तमान क्षेत्र में चलते हैं ? (ग) अणागयं खेत्तं गच्छंति ? (ग) या अनागत क्षेत्र में चलते हैं ? उ०—(क) गोयमा ! णो तीयं खेत्तं गच्छति । उ०—(क) हे गौतम ! अतीत क्षेत्र में नहीं चलते हैं । (ख) पडुप्पन्न खेत्तं गच्छंति, (ख) वर्तमान क्षेत्र में चलते हैं । (ग) नो अणागयं खेत्तं गच्छंति । (ग) अनागत क्षेत्र में नहीं चलते हैं। ५०.-तं भंते ! कि पुट्ट गच्छंति, अपुटु गच्छंति ? प्र० --हे भगवन् ! वे सूर्य वर्तमान क्षेत्र का स्पर्श करके चलते हैं या स्पर्श किये बिना ही चलते हैं ? उ०-गोयमा ! पुट्ठ गच्छंति, नो अपुटु गच्छंति-जाव- उ०—हे गौतम ! वे सूर्य वर्तमान क्षेत्र का स्पर्श करके ही चलते हैं, स्पर्श किये बिना नहीं चलते हैं यावत्५०-तं भंते ! कि एगदिसि गच्छंति, छदिसि गच्छंति ? प्र०—हे भगवन् ! क्या वे (सूर्य) एक दिशा में चलते हैं या छहों दिशा में चलते हैं ? उ०—गोयमा ! णो एगदिसि गच्छंति, नियमा छद्दिसि उ०-हे गौतम ! वे एक दिशा में नहीं चलते हैं, वे निश्चित गच्छति। -जंबु. वक्ख. ७, सु. १३७ रूप से छहों दिशा में चलते हैं । १ चन्द. पा. ५ सु. २६ । २ भग. स. ८, उ.८, सु. ३८ । ३ यावत्-पद से संग्रहित सूत्र प०-तं भंते ! कि ओगाढं गच्छंति, अणोगाढं गच्छंति ? उ०-गोयमा ! ओगाढं गच्छंति णो अणोगाढं गच्छति । प०-तं भंते ! कि अणंतरोगाढं गच्छंति, परंपरोगाढं गच्छंति ? उ०-गोयमा ! अणंतरोगाढं गच्छंति, णो परंपरोगाढं गच्छति । १०-तं भंते ! कि अणु गच्छंति, बायरं गच्छंति ? उ०-गोयमा ! अणुपि गच्छंति, बायरं पि गच्छंति । प०-तं भंते ! कि उद्धं गच्छंति. अहे गच्छंति. तिरियं गच्छति ? उ०-गोयमा ! उद्धं पि गच्छंति, अहे वि गच्छंति, तिरियं वि गच्छंति । तं भंते ! कि आइं गच्छंति, मज्झे गच्छंति, पज्जवसाणे गच्छंति ? गोयमा ! आई पि गच्छंति, मझे वि गच्छंति, पज्जवसाणे बि गच्छति । तं भंते ! कि सविसयं गच्छति, अविसयं गच्छंति ? गोयमा ! सविसयं गच्छंति, णो अविसयं गच्छति । तं भंते ! किं आणुपुब्बि गच्छंति, अणाणुपुट्विं गच्छंति ? गोयमा ! आणुपुबि गच्छति, णो अणाणुपुनि गच्छंति । तं भंते ! कि एगदिसि गच्छंति-जाव-छद्दिसि गच्छंति ? गोयमा ! नो एगदिसि गच्छंति, नियमा छद्दिसि गच्छंति । -जम्बु. वक्ख. ७, सु. १३७, टीका से उद्धृत Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : जम्बूद्वीप में सूर्यों को क्षेत्रगति का प्ररूपण सूत्र १००७-१००८ जंबुद्दीवे सूरिया पडुप्पन्न खेत्तं उज्जोवेति- जम्बूद्वीप में सूर्य वर्तमान क्षेत्र को उद्योतित करते हैं७. ५०—(क) जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे सूरिया–कि तीयं खेत्तं (७) प्र०-(क) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य क्या उज्जोति ? अतीत क्षेत्र को उद्योंतित करते हैं ? (ख) पडुप्पन्न खेत्तं उज्जोबॅति ? (ख) वर्तमान क्षेत्र को उद्योतित करते हैं ? (ग) अणागय खेत्तं उज्जोवेति ? (ग) अनागत क्षेत्र को उद्योतित करते हैं ? उ.-(क) गोयमा ! नो तीयं खेत्तं उज्जोति, उ०—(क) हे गौतम ! वे अतीत क्षेत्र को उद्योतित नहीं करते हैं। (ख) पडुप्पन्न खेत्तं उज्जोर्वेति, (ख) वर्तमान क्षेत्र को उद्योतित करते हैं । (ग) नो अणागयं खेत्तं उज्जोति, (ग) अनागत क्षेत्र को उद्योतित नहीं करते हैं । एवं तवेंति, एवं भासंति-जाव-नियमा छद्दिसि इसी प्रकार तपाते हैं, इसी प्रकार प्रकाशित करते हैं यावत् भासंति,' -भग. स. ८, उ. ८, सु. ४१-४२ नियमित रूप से छहों दिशाओं को प्रकाशित करते हैंजबुद्दीवे सूरिया पडप्पन्न खेत्तं ओभासंति जम्बूद्वीप में सूर्य वर्तमान क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं८. ५०-(क) जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे सूरिया, कि तीयं खेत्तं ८. प्र०—(क) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य क्या ओभासंति? अतीत क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं ? (ख) पडुप्पन्न खेत्तं ओभासंति ? (ख) बर्तमान क्षेत्र की प्रकाशित करते हैं ? (ग) अणागयं खेत्तं ओभासंति ? (ग) या अनागत क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं ? उ०—(क) गोयमा ! नो तीयं खेत्तं ओभासंति, उ०-(क) हे गौतम ! अतीत क्षेत्र को प्रकाशित नहीं करते हैं। (ख) पडुप्पन्न खेत्तं ओभासंति, (ख) वर्तमान क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं । (ग) नो अणागयं खेत्तं ओभासंति, (ग) अनागत क्षेत्र को प्रकाशित नहीं करते हैं। प०-तं भंते ! कि पुट्ठ ओभासंति, अपुट्ठ ओभासंति ? प्र०-हे भगवन् ! क्या वे स्पर्शित क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं ? या अस्पृष्ट क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं ? उ०-गोयमा? पुट्ठ ओभासंति, नो अपुट्ठ ओभासंति-जाव-२ उ०-हे गौतम ! वे स्पशित क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं । अस्पशित क्षेत्र को प्रकाशित नहीं करते हैं । १ जम्बु० वक्ख. ७, सु० १३७ । २ -यावत्-पद से संग्रहितसूत्रः ५०-तं भंते ! कि ओगाढं ओभासंति, अणोगाढं ओभासंति ? उ०-गोयमा ! ओगाढं ओभासंति, नो अणोगाढं ओभासंति, प०-तं भंते ! किं अणंतरोगाढं ओभासंति. परंपरोगाढं ओभासंति ? उ०-गोयमा ! अणंतरोगाढं ओभासंति, नो परंपरोगाढं ओभासंति, प०-तं भंते ! कि अणु ओभासंति, बायर ओभासेंति ? उ०-गोयमा ! अणुपि ओभासेंति, बायरं पि ओभासेंति. प०-तं भंते ! कि उड्ढं ओभासेंति, तिरिय ओभासेंति अहे ओभासेंति ? उ०-गोयमा ! उड्ढं पि, तिरियं पि, अहे वि ओभासेंति, प०-तं भंते ! कि आई ओभासें ति, मज्झे ओभासेंति, अंते ओभासेंति ? उ०-गोयमा ! आई पि, मझे वि, अंते वि ओभासेंति, (क्रमशः) Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १००८-१००६ तिर्यक् लोक : जम्बूद्वीप में सूर्यों का तापक्षेत्र गणितानुयोग ५०३ ५०-तं भंते ! कि एगदिसि ओभासेंति, छद्दिसि ओभासेंति ? प्र०- हे भगवन् ! क्या वे एक दिशा को प्रकाशित करते हैं ? या छः दिशा को प्रकाशित करते हैं ? उ०-गोयमा ! नो एक दिसि ओभासेंति, नियमा छसि उ०-हे गौतम ! वे एक दिशा को प्रकाशित नहीं करते हैं ओभाति ।' -भग. स. ८, उ. ८, सु. ३६-४० वे नियमित छहों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। जंबुद्दीवे सूरियाणं ताव खेत्तपमाणं-- जम्बूद्वीप में सूर्यों का तापक्षेत्र प्रमाण६. ५०-(क) जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया-केवतियं खेत्तं १. प्र०-(क) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य ऊपर उड्ढं तवंति ? की ओर कितना क्षेत्र तपते हैं ? (ख) केवतियं खेत्तं अहे तवंति ? (ख) नीचे की ओर कितना क्षेत्र तपते हैं ? (ग) केवतियं खेत्तं तिरियं तवंति ? (ग) तिरछे कितना क्षेत्र तपते हैं ? उ०—(क) गोयमा ! एगं जोयणसयं उड्ढं तवंति,२ उ०—(क) हे गौतम ! ऊपर की ओर एक सौ योजन तपते हैं। (ख) अट्ठारसजोयणसयाई अहे तवंति,' (ख) नीचे की ओर अठारह सौ योजन तपते हैं। (ग) सीयालीसं जोयणसहस्साई दोणि तेवढें जोयण- (ग) तिरछे सैतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन और एक सए एक्कवीसं च सद्विभाए जोयणस्स तिरियं योजन के साठ भागों में से इकवीस भाग जितना क्षेत्र तपते हैं। तवंति, - भग. स. ८, उ. ८, मू. ४५ - (क्रमशः) ५०-तं भंते ! कि सविसए ओभासेंति, अविसए ओभासेति ? उ०-गोयमा ! सविसए ओभासें ति नो अविसए ओभासेंति, प०-तं भंते ! कि आणुपुट्विं ओभासेंति अणाणुपुब्वि ओभासेंति ? उ०-गोयमा ! आणुपुब्वि ओभासेंति नो अणाणुपुब्धि ओभासें ति, प०-तं भंते ! कइ दिसि ओभासेंति ? | उ०-गोयमा ! नियमा छद्दिसि ओभासेंति, प०-तं भंते ! किं एगदिसि ओभासेंति छद्दिसि ओभासेंति ? उ०-गोयमा ! नो एगदिसि ओभासें ति, नियमा छद्दिसि ओभाति, -भग. स. ८, उ. ८, सु. ३६ टीका १ जम्बु. बक्ख. ७, सु. १३७ । २ सूर्य के विमान से सौ योजन ऊपर शनैश्चर ग्रह का विमान है और वहीं तक ज्योतिष चक्र की सीमा है, अतः इससे ऊपर सूर्य का तापक्षत्र नहीं है। ३ (क) जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह से जयंतद्वार की ओर लवण समुद्र के समीप क्रमशः एक हजार योजन पर्यन्त भूमि नीचे है, इस अपेक्षा से एक हजार योजन तथा मेरु के समीप की समभूमि से ८०० योजन ऊँचा सूर्य का विमान है, ये आठ सौ योजन संयुक्त करने पर अठारह सौ योजन सूर्य विमान से नीचे की ओर का तापक्षेत्र है, अन्य द्वीपों में भूमि सम रहती है । इसलिए वहाँ सूर्य का नीचे का तापक्षेत्र केबल आठ सौ योजन का है । अठारह सौ योजन नीचे की ओर के तापक्षत्र के और सौ योजन ऊपर की ओर के तापक्षेत्र के इन दोनों संख्याओं के संयुक्त करने पर १६०० योजन का सूर्य का तापक्षत्र है। ४ (क) यहाँ तिरछे तापक्षेत्र का कथन पूर्व-पश्चिम दिशा की अपेक्षा से कहा गया है, अर्थात् उत्कृष्ट इतनी दूरी पर स्थित सूर्य मानव-चक्ष से देखा जा सकता है। उत्तर में १८० योजन न्यून पैंतालीस हजार योजन तथा दक्षिण दिशा में द्वीप में १८० योजन और लवण समुद्र में तेतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन तथा एक योजन के तृतीय भाग युक्त दूरी से सूर्य देखा जा सकता है । (ख) जम्बूद्दीवे णं दीवे सूरिआ उक्कोसेणं एगुणवीसजोयणसयाई अड्डमहो तवयति । -सम. १६ सु. २ (ग) जम्बु. वक्ख. ७ सु. १३६ । (घ) सूरिय. पा. ४, सु. २५ । (च) चन्द. पा. ४ सु. २५ । Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य के तापक्षेत्र की संस्थिति सूत्र १०१० सूरियस्स तावक्खेत्तसंठिती सूर्य के ताप-क्षेत्र की संस्थिति१०.५०-ता कहं ते तावक्खेत्तसंठिती ? आहिए त्ति वएज्जा, १०. प्र०—सूर्य के ताप-क्षेत्र की संस्थिति = व्यवस्था कैसी है ? कहें। उ०-तत्थ खलु इमाओ सोलसपडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-(सूर्य के तापक्षत्र से सम्बन्धित) ये सोलह प्रतितं जहा पत्तियाँ मान्यताएँ कही गई हैं, यथातत्थ णं एगे एवमाहंसु (१) इनमें से एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं । १. ता गेहसंठिता तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, "घर के आकार जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति एगे एवमाहंसु, कही गई है। २. एगे पुण एवमाहंसु (२) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, गेहावणसंठिया तावक्खेत्त संठिती पण्णत्ता, गुहापण=घर और दुकान एक साथ जैसी (सूर्य के) तापक्षेत्र एगे एवमाहंसु, की संस्थिति कही गई है। ३. एगे पुण एवमाहंसु (३) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, पासायसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पणत्ता, प्रासाद=राजमहल जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति एगे एवमाहंसु, कही गई है। ४. एगे पुण एवमासु (४) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, गोपुरसंठिया तावक्खेत्तसंठितो पण्णत्ता, गोपुर नगरद्वार जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति एगे एवमाहंसु, कही गई है। ५. एगे पुण एवमाहंसु (५) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, पिच्छाघरसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, प्रेक्षा-गृह = मंत्रणागृह जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति एगे एवमाहंसु, कही गई है। ६. एगे पुण एवमाहंसु (६) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, वलभीसंडिया तावक्खेत्तसंठिती पप्णता, वलभी = घर पर ढाँके जाने वाले छप्पर जैसी (सूर्य के) एगे एवमाहंसु, तापक्षेत्र की संस्थिति कही गई है। ७. एगे पुण एबमाहंसु (७) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, हम्मियतलसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, हऱ्यातल-तलघर जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति एगे एवमाहसु, कही गई है। ८. एगे पुण एवमाहंसु (८) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, वालग्गपोतिया संटिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णता, वालाग्रपोतिका = आकाशतटाक के मध्य में स्थित क्रीडागृह एगे एवमाहंसु, के लिए लघुप्रासाद जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। ६. एगे पुण एवमाहंसु (६) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, जस्संठिए जंबुद्दीवे तस्संठिए तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, जम्बुद्वीप का जो आकार है उसी आकार की (सूर्य के) एगे एवमाहंसु, ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। १०. एगे पुण एवमाहंसु (१०) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, जस्संठिए भारहे वासे तस्संठिए तावक्खेत्तसंठिती भरतक्षेत्र का जो आकार है उसी आकार की (सूर्य के) पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०१०-१०११ तिर्यक्लोक : सूर्य के तापक्षेत्र को संस्थिति गणितानुयोग ५०५ ११. एगे पुण एवमाहंसु (११) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, उज्जाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, उद्यान बाग जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही एगे एवमाहंसु, १२. एगे पुण एवमाहंसु (१२) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, निज्जाणसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, निर्याण = ग्राम या नगर से निकलने के मार्ग जैसी (सूर्य के) एगे एवमाहंसु, ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। १३. एगे पुण एवमाहसु (१३) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, एगओ णिसधसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, एक निषधरथ के एक बैल जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की एगे एवमाहंसु, संस्थिति कही गई है। १४. एगे पुण एवमाहंसु (१४) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, दुहओ णिसधसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, दो निषध =रथ के दो बैलों जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की एगे एवमाहंसु, संस्थिति कही गई है। १५. एगे पुण एवमाहंसु (१५) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, सेयणगसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णता, एगे एवमाहंसु, सेचानक = बाज पक्षी जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। १६. एगे पुण एवमाहंसु (१६) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, सेयणगपट्टसंठिया तावक्खेत्तसंठिती पण्णत्ता, सेचानक-पृष्ठ=बाज पक्षी के पृष्ठ भाग जैसी (सूर्य के) एगे एवमाहंसु, ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। वयं पुण एवं वदामो हम फिर इस प्रकार कहते हैंता जद्धीमुह कलंबुआ-पुष्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिती ऊपर की ओर मुंह किये हुए कलंबुकापुष्प =नालिका पुप्प पण्णत्ता, जैसी (सूर्य के) ताप-क्षेत्र की संस्थिति कही गई है। अंतो संकुचिया, बाहिं वित्थडा अन्दर से संकुचित, बाहर से विस्तृत, अंतो वट्टा, बाहिं पिधुला, अन्दर से वृत्तवर्तुलाकार, बाहर से पृथुल = लम्बी-चौड़ी, अंतो अंकमुहसंठिया.' बाहिं सत्थिमुहसंठिया' अन्दर से अंकमुख = पद्मासन स्थित पुरुषाकार है बाहर से -सूरिय. पा. ४, सु. २५ स्वस्तिक-अग्रभागाकार है। तावक्खेत्त संठिइए दुवे बाहाओ तापक्षेत्र संस्थिति की दो बाहायें११. उभओ पासेणं तीसे दुवे बाहाओ अवट्ठियाओ भवंति, पण- ११. तापक्षेत्र के दोनों पार्श्व में दोनों बाहायें पैतालीस पैतालीस यालीसं पणयालीसं जोयणसहस्साई आयामेणं, हजार योजन लम्बी अवस्थित हैं। तीसे दुवे बाहाओ अणवट्ठिआओ भवंति, तं जहा-१. सन्व ये दोनों बाहायें अनवस्थित हैं। यथा-(१) सर्व आभ्यन्तर भंतरियो चेव बाहा, २. सव्व बाहिरिया चेव बाहा, बाहा, (२) सर्व बाह्य बाहा, १ अंतर्मरुदिशि अंक = पद्मासनोपविष्टस्योत्संगरूप आसनबन्धः तस्य मुखं अग्रभागोर्द्धवलयाकारस्तस्येव संस्थित संस्थानं यस्या सा. २ (क) तथा बहिर्लवण दिशि स्वस्तिकमुखसंस्थिता, स्वस्तिकः सुप्रतीतः तस्य मुखं अग्रभागः तस्येवातिवस्तीर्णतया संस्थित-संस्थान यस्या सा, (ख) चंद. पा. ४ सु, २५ । ३ "ये द्वे बाहे ते आयामेन-जम्बूद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते भवतः ।" -सूरिय. वृत्ति. ४ " च बाहे अनवस्थिते भवतः तद्यथा सर्वाभ्यन्तरा, सर्व बाह्या च । . (क) तत्र या मेरुसमीपे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वाभ्यन्तरा । (ख) या तु लवणदिशि जम्बुद्वीप पर्यन्त विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्व बाह्यबाहा । (ग) आयामश्च-दक्षिणायततया प्रतिपत्तव्यो, विष्कम्भः पूर्वापरायततया । बाहा, Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : तापक्षेत्र संस्थिति की परिधि सूत्र १०११-१०१२ प०–तत्थ को हेउ ति? वएज्जा, प्र०–उक्त व्यवस्था का हेतु क्या है ? कहें । उ०—ता अयण्णं जबुद्दीवे दोवे उ०-यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सब द्वीप-समुद्रों के अन्दर सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वन्भंतराए, सव्व खुड्डाए है, सबसे छोटा है। वट्टतेल्लापूय-संठाण-संठिए, तैल में पके हुए मालपुए जैसे वृत्ताकार संस्थान से स्थित है। वट्ट रहचक्कवाल-संठाण-संठिए, रथ के पहिए जैसे वृत्ताकार संस्थान से स्थित है। वट्ट पुक्खरकण्णिया-संठाण-संठिए, कमल-कणिका जैसे वृत्ताकार संस्थान से स्थित है । वट्ट पडिपुण्णचंद-संठाण-संठिए, प्रतिपूर्ण चन्द्र जैसे वृत्ताकार संस्थान से स्थित है। एग जोयणसयसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं, एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा है । तिण्णि जोयणसयसहस्साइं, सोलससहस्साइं दोण्णि य सत्ता- तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोस वीसे जोयणसए, तिण्णि य कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस अट्ठावीस धनुष तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, उसकी परिधि कही गई है। -सूरिय० पा० ४, सु० २५ । तावक्खेत्तसंठिइए परिक्खेवा तापक्षेत्र संस्थिति की परिधि - १२. ता जयाणं सूरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं १२. जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल का लक्ष्य करके गति करता है चरंति, तया णं उद्धोमुहकलंबुआ-पुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई तब ऊपर की ओर मुंह वाले नलिनी पुष्प के संस्थान जैसी तापआहिताति वएज्जा, अंतो संकुडा, बाहिं वित्थडा, अंतो वट्टा, क्षेत्र की आकृति होती है। बाहि पि थुला, अंतो अंकमुहसंठिया, बाहिं सत्थिमुहसंठिया, वह अन्दर से संकुचित, बाहर से विस्तृत, अन्दर से वृत्ताकार दुहओ पासेणं तोसे तहेव जाव सव्वबाहिरिया चेव बाहा, बाहर से विस्तृत, अन्दर से पद्मासन के अग्रभाग जैसी अर्थात् अर्द्धवलयाकार, बाहर से स्वस्तिक के अग्रभाग जैसी है । दोनों पार्श्वभाग से तापक्षेत्र की संस्थिति उसी प्रकार है यावत्-सर्वबाह्य बाहा, (क) तीसे गं सव्वभंतरिया बाहा-मंदरपब्वयं तेणं णव जोय- (क) उस (तापक्षेत्र) की सर्व आभ्यन्तर बाहा उसकी णसहस्साइं चत्तारि य छलसीए जोयणसए णव य दस- परिधि मन्दर पर्वत के समीप नौ हजार चार सौ छियासी योजन भागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, आहिए त्ति वएज्जा, और एक योजन के दस भागों में से नौ भाग जितनी है। ५०-ता सेणं परिक्खेवविसेसे कओ? आहिए त्ति वएज्जा? प्र०--उस (सर्व आभ्यन्तर) बाहा की इस परिधि विशेष की सिद्धि किस प्रकार है ? कहें। उ०–ता जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे, त परिक्खेवं उ०-मन्दर पर्वत की परिधि को तीन से गुणा करें । दश तिहि गुणित्ता, दसहि छित्ता दसहि भागे हीरमाणे- का भाग दें, दस का भाग देने पर यह परिधि विशेष होती है। एस णं परिक्खेवविसेसे, आहिए त्ति वएज्जा, (ख) तोसे णं सव्वबाहिरिया बाहा = लवणसमुदं तेणं, (ख) उस (तापक्षेत्र) की सर्व बाह्य बाहा = उसकी परिधि चउणउई जोयणसहस्साई, अट्ठ य अट्ठसठे जोयणसए, लवणसमुद्र के समीप चोराणवें हजार आठ सौ अडसठ योजन चत्तारि य दसभागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, आहिए त्ति और एक योजन के दस भागों में से चार भाग जितनी है । वएज्जा, १ (क) चन्द. पा. ४ सु. २५ । (ख) जम्बु. वक्ख ७ सु. १३५ । २ मेरु की परिधि ३१,६,२३ योजन की है, इसे तीन से गुणा करने पर ६४,८,७६ योजन हुए। इनके दस का भाग देने पर (६.८,८६, लब्ध होते हैं- यह सर्व आभ्यन्तर बाहा की परिधि है । Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०१२-१०१३ तिर्यक् लोक : तापक्षेत्र और अन्धकारक्षेत्र गणितानुयोग ५०७ ५०–ता से णं परिक्खेवविसेसे कओ ? आहिए त्ति वएज्जा, प्र०-उस (सर्व बाह्य बाहा की) परिधि की (सिद्धि) किस प्रकार है ? उ०–ता जे णं जंबुद्दीव-दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहि उ०-जम्बूद्वीप की परिधि तीन गुणा करें, दस का भाग दें, गुणित्ता, दसहि छत्ता, दसहि भागे हीरमाणे =एस णं दस का भाग देने पर यह परिधि विशेष होती है। परिक्खेव-बिसेसे, आहिए ति वएज्जा, -सूरिय. पा. ४, सु. २५ तावखेत्तस्स अधकार खेत्तस्स य आयामाईणं परवणं- तापक्षेत्र और अन्धकारक्षेत्र के आयामादि का प्ररूपण१३. ५०–ता तोसे णं तावक्खेत्ते केवइयं आयामेणं ? आहिए १३. प्र०-सूर्य के उस ताप (प्रकाशित) क्षेत्र का आयाम कितना त्ति वएज्जा, उ०–ता अट्टतरि जोयणसहस्साई, तिण्णि य तेत्तीसे जोय- उ०-अठहत्तर हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक णसए जोयणतिभागे च आयामेणं, आहिए ति योजन के तीन भागों में से एक भाग जितना है । वएज्जा , प०-तया णं कि संठिया अंधकारसंठिई ? आहिए ति प्र०-उस अन्धकार (सूर्य से अप्रकाशित क्षेत्र) की संस्थिति वएज्जा , कैसी है ? कहें, उ०-उद्धीमुह-कलंबुआ-पुप्फसंठिया तहेव जाव बाहिरिया उ०-ऊपर की ओर मुंह किये हुए नलिनी पुष्प जैसी हैचेव बाहा, यावत्-बाह्य पर्यन्त उसी प्रकार से कहें। तीसे णं सम्वन्भंतरिया बाहा मंदरपव्वयंतेणं छज्जोय- उसकी सर्वाभ्यन्तर बाहा मन्दर पर्वत के समीप छः हजार णसहस्साई तिण्णि य चउवीसे जोयणसए छच्च बस- तीन सौ चीबीस योजन और एक योजन के दस भागों में से छः भागे जोयणस्स परिक्खेवेणं आहिए ति वएज्जा, भाग जितनी परिधि वाली है। ५०-ता तोसे गं परिक्खेवविसेसे कओ? आहिए त्ति प्र०-उसकी इस परिधि विशेष का प्रमाण किस प्रकार है ? वएज्जा, कहें। उ०–ता जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवेणं तं परिक्खेवं उ०-मन्दर पर्वत की पूर्वोक्त परिधि को दो से गुणा करके दोहिं गुणेत्ता, दहि छित्ता दसहि भागे हीरमाणे, दस से भाग देने पर परिधि विशेष का प्रमाण उपलब्ध होता है। एस णं परिक्खेव-विसेसे, आहिए त्ति बएज्जा, तोसे सव्वबाहिरिया बाहा लवणसमुदं तेणं तेवट्ठि उसकी सर्व बाह्य बाहा लवणसमुद्र के समीप त्रेसठ हजार जोयणसहस्साई दोण्णि य पणयाले जोयणसए छच्च दस दो सौ पैतालीस योजन और एक योजन के दस भागों में से छः भागे जोयणस्स परिक्खेवेणं, आहिए त्ति वएज्जा, भाग जितनी परिधि वाली है। प०–ता से गं परिक्खेवविसेसे कओ? आहिए त्ति वएज्जा, प्र०- उसकी इस परिधि विशेष का प्रमाण किस प्रकार उ०—ता जे णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स परिक्खेवे, त परिक्खेवं उ०-जम्बूद्वीप की पूर्वोक्त परिधि को दुगुणा करके दस का दोहि गुणेत्ता दसहि छेत्ता दसहि भाहिं हीरमाणे भाग देने पर इस परिधि विशेष का प्रमाण उपलब्ध होता है। दसणं परिक्खेवविसेसे, आहिए त्ति वएज्जा, प०-ता जे गं अंधकारे केवइय आयामेणं? आहिए ति प्र०--उस अन्धकार (सूर्य से अप्रकाशित क्षेत्र) का आयाम वएज्जा , कितना है ? कहें, २ (क) जम्बूद्वीप की परिधि ३, १६, २, २७ योजन तीन कोस २८ धनुष १३ अंगुल तथा आधे अंगुल से कुछ अधिक है। इनके दस का भाग देने पर ६४,८,६८ योजन और एक योजन के दस भागों में से चार भाग जितनी सर्वबाह्य बाहा की परिधि विशेष है। (ख) चन्द. पा. ४ सु. २५ । (ग) जम्बु. वक्ख. ७ सु. १३५ । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : तापक्षेत्र और अंधकारक्षेत्र सूत्र १०१३-१०१४ " उ०—ता अट्टतरि जोयणसहस्साई तिण्णि य तेत्तीसे जोयण- उ०-अठहत्तर हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक सए जोयणतिभागं च आयामेणं, आहिए त्ति वएज्जा, योजन के तीन भागों में से एक भाग जितना है । तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे उस समय सूर्य का परम उत्कर्ष होने से उत्कृष्ट अठारह भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। प०–ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता प्र०--जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल का लक्ष्य करके गति चारं चरइ तया णं किं संठिया तावखेत्तसंठिई ? करता है तब सूर्य के उस ताप क्षेत्र की संस्थिति किस प्रकार की आहिए त्ति वएज्जा, होती है ? कहें, उ०–ता उद्धीमुह-कलंबुया पुप्फसंठिया तावक्खेत्तसंठिई उ०-- ऊपर की ओर मुंह किये हुए नलिनी पुष्प जैसी आहिए त्ति वएज्जा, होती है। एवं जं अभिंतरमंडले अंधकारसंठिईए पमाणं तं जिस प्रकार आभ्यन्तर मण्डल में अन्धकार को संस्थिति का बाहिरमंडले तावक्खेत्तसंठिईए जं तहिं तावक्खेत्त- प्रमाण हैं वही बाह्य मण्डल में ताप क्षेत्र की संस्थिति का प्रमाण संठिईए तं बाहिरमंडले अंधकारसंठिईए भाणियव्वं, है और आभ्यन्तर मण्डल में जो ताप क्षेत्र की संस्थिति का प्रमाण जाव... है वही बाह्य मण्डल में अन्धकार की संस्थिति का प्रमाण कहना चाहिए-णवत्तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसेणं अट्ठारस मुहुत्ता राई उस समय सूर्य का परम उत्कर्ष होने से उत्कृष्ट अठारह भवति, जहण्णिए दुवालस मुहुत्ते दिवसे भवइ,' मुहूर्त की रात्रि होती है और जघन्य बारह मुहर्त का दिन -सूरिय. पा. ४, सु. २५ होता है। जंबहीवे सूरियाणं खेत्तं किरिया परूवणं जम्बूद्वीप में सूर्यों की क्षेत्रों में क्रिया प्ररूपण-. १४. ५०—(क) जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया–कि तीए खेत्ते १४. प्र०—(क) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य क्या किरिया कज्जइ? अतीत क्षेत्र में क्रिया करते हैं ? (ख) पडुप्पन्ने खेत्ते किरिया कज्जइ ? (ख) वर्तमान क्षेत्र में क्रिया करते हैं ? (ग) अणागए खेत्ते किरिया कज्जइ ? (ग) या अनागत क्षेत्र में क्रिया करते हैं ? उ०—(क) गोयमा ! नो तीए खेत्ते किरिया कज्जइ, उ०—(क) हे गौतम ! वे अतीत क्षेत्र में क्रिया नहीं करते हैं। (ख) पडुप्पण्णे खेत्ते किरिया कज्जइ, (ख) वर्तमान क्षेत्र में क्रिया करते हैं, (ग) नो अणागए खेत्ते किरिया कज्जइ, (ग) अनागत क्षेत्र में क्रिया नहीं करते हैं। प०-सा भंते ! किं पुट्ठा किरिया कज्जति, अपुट्ठा किरिया प०-हे भगवन् ! वे स्पृष्ट क्रिया करते हैं या अस्पृष्ट क्रिया कज्जति ? करते हैं ? उ०-गोयमा ! पुट्ठा किरिया कज्जति, नो अपुट्ठा किरिया उ०-हे गौतम ! वे स्पृष्ट क्रिया करते हैं, अस्पृष्ट क्रिया कज्जति-जाव-२ नहीं करते हैं-यावत - १ (क) जम्बु. वक्ख. ७ सु. १३५ । (ख) चन्द. पा. ४ सु. २५ । १ –यावत्-पद से संग्रहित सूत्र प०-से ण भंते ! कि ओगाढा किरिया कज्जइ ? अणोगाढा किरिया कज्जइ? उ०-गोयमा ! ओगाढा किरिया कज्जइ, नो अणोगाढा किरिया कज्जइ । प०–से णं भंते ! कि अणंतरोगाढा किरिया कज्जइ? परंपरोगाढा किरिया कज्जइ? उ०-गोयमा ! अणंतरोगाढा किरिया कज्जइ, नो परंपरोगाढा किरिया कज्जइ । (क्रमशः) Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०१४-१०१५ तिर्यक् लोक : जम्बूद्वीप में सूर्य गणितानुयोग ५०६ ५०-सा भंते ! कि एगदिसि किरिया कज्जति, छद्दिसि प०-हे भगवन् ! क्या वे एक दिशा में क्रिया करते हैं या किरिया कज्जइ ? छहों दिशाओं में किया करते हैं ? उ०-गोयमा ! नो एगदिसि किरिया कज्जति, नियमा 30-हे गौतम ! वे एक दिशा में क्रिया नहीं करते हैं वे छद्दिसि किरिया कज्जई', नियमित रूप से छहों दिशाओं में क्रिया करते हैं । _ --भग. स. ८, उ.८, सु. ४३, ४४ जंबद्दीवे सूरिया कहं दूरे समीवे दीसंति ? जम्बूद्वीप में सूर्य दूर और समीप किस प्रकार दिखाई देते हैं१५. ५०-(क) जंबुद्दीवे णं भंते ? दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि १५. प्र० -(क) हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य उदय दूरे य, मूले य दोसंति ? के समय दूर होते हुए भी समीप में दिखाई देते हैं ? (ख) मज्झंतियमुहत्तंसि मूले य, दूरे य दीसंति ? (ख) मध्याह्न के समय समीप होते हुए भी दूर दिखाई देते हैं ? (ग) अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य, मूले य, दीसंति ? (ग) अस्त होने के समय दूर होते हुए भी समीप में दिखाई देते हैं ? उ०—(क-ग) हंता गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दोवे सूरिया-- उ०—(क-ग) हाँ गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य, मूले य दीसंति-जाव- उदय के समय दूर होते हुए भी समीप में दिखाई देते हैं यावत् अस्थमणमुहुरासि दूरे य, मूले य दीसंति, -अस्त होने के समय दूर होते हुए भी समीप दिखाई देते हैं । ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया-उग्गमणमुहत्तंसि य, प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य उदय के मझंतियमुहत्तंसि य, अत्थमणमुहुत्तंसि य सव्वत्थ समा समय मध्याह्न और अस्त के समय अर्थात् सर्वत्र समान ऊँचे उच्चत्ते ण? रहते हैं। उ०-हंता गोयमा ! जंबुद्दीवे गं दोवे सूरिया-उर गमण- उ०–हाँ गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य उदय के मुहत्तंसि य, मज्झंतियमुहुत्तंसि य, अत्थमणमुहत्तंसि य समय, मध्याह्न के समय और अस्त के समय अर्थात् सर्वत्र समान सम्वत्थ समा उच्चत्तेणं । ऊँचे रहते हैं। ५०-जइ णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि प्र०—हे भगवन् ! यदि जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सूर्य उदय य, मज्झसियमुहत्तंसि य, अत्थमणमुहत्तंसि य सम्वत्थ के समय मध्याह्न के समय और अस्त के समय अर्थात् सर्वत्र समा उच्चत्तेणं, समान ऊँचे रहते हैं तो,(क्रमशः) प०-सा णं भंते ! कि अणु किरिया कज्जइ ? बायरा किरिया कज्जइ ? उ०-गोयमा ! अणु वि किरिया कज्जइ, बायरा वि किरिया कज्जइ । प०-सा णं भंते ! कि उड्ढं किरिया कज्जइ ? अहे किरिया कज्जइ ? तिरिय किरिया कज्जइ ? उ०-गोयमा ! उड्ढं वि किरिया कज्जइ, अहे वि किरिया कज्जइ, तिरिय किरिया कज्जइ । ५०-सा णं भंते ! कि आइं किरिया कज्जइ ? मज्झे किरिया कज्जइ ? पज्जवसाणे किरिया कज्जइ ? उ०-गोयमा ! आई वि किरिया कज्जइ, मज्झे वि किरिया कज्जइ. पज्जवसाणे किरिया कज्जइ । प०-सा णं भंते ! कि सविसया किरिया कज्जइ ? अविसया किरिया कज्जइ? उ०-गोयमा ! सविसया किरिया कज्जइ, नो अक्सिया किरिया कज्जइ । प०-सा णं भंते ! कि आणुपुब्वि किरिया कज्जइ ? अणाणुपुब्वि किरिया कज्जइ ? उ०-गोयमा ! आणुपुब्वि किरिया कज्जइ, नो अणाणुपुव्वि किरिया कज्जइ । प०-सा णं भंते ! कि एगदिसि किरिया कज्ज इ-जाव-छद्दिसि किरिया कज्ज.इ? उ०-गोयमा ! नो एगदिसि किरिया कज्जइ, नियमा छद्दिसि किरिया कज्जइ। -जम्बु. वक्ख. ७, सु०१३८ की टीका से जम्बु. वक्ख. ७, सु. १३८ । २ जम्बूद्वीप में दो न्द्र चऔर दो सूर्य हैं- इस अपेक्षा से वहाँ बहुवचन का प्रयोग है। Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : पौरुषी छाया वर्णन सूत्र १०१५-१०१६ से के णं खाइ अट्ठणं भंते ! एवं बुच्चइ-"जंबुद्दीवे हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि-"जम्बूणं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य, मूले य दीसंति द्वीप नामक द्वीप में सूर्य उदय के समय दूर होते हुए भी समीप -जाव-अत्थमणमुत्तसि दूरे य, मूले य दीसंति ? में दिखाई देते हैं यावत्-अस्त होने के समय दूर होते हुए भी समीप में दिखाई देते हैं ? उ०-(क) गोयमा। लेसापडिघाएणं उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य, उ०—(क) हे गौतम ! लेश्या-तेज के प्रतिघात से उदय मूले य दीसंति, के समय दूर होते हुए भी समीप दिखाई देते हैं । (ख) लेसाभितावेणं मउझंतियमुहत्तंसि मूले य, दूरे य लेश्या के अभिताप से मध्याह्न के समय समीप होते हुए भी दीसंति, दूर दिखाई देते हैं। (ग) लेस्सापडिघाएणं अत्थमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य लेश्या के प्रतिघात से अस्त होने के समय दूर होते हुए भी दीसंति, समीप में दिखाई देते हैं। से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ- 'जंबुद्दीवे णं इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि-"जम्बूदोवे सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति द्वीप नामक द्वीप में सूर्य उदय के समय दूर होते हुए भी समीप -जाब-अत्थमणमुत्तसि दूरे य, मूले य दीसति'। में दिखाई देते हैं-यावत् - अस्त होने के समय दूर होते हुए भी -भग. स. ८, उ. ८, सु. ३५-३७ समीप में दिखाई देते हैं। पोरिसि च्छाय-निव्वत्तणं पौरुषी छाया की उत्पत्ति१६. ५०–ता क इकट्ठ ते सूरिए पोरिसीच्छायं णिवत्ते ति? १६. प्र०-सूर्य कैसी स्थिति में पौरुषी छाया को उत्पन्न करता आहिए त्ति वएज्जा, उ०-तत्थ खलु इमाओ तिष्णि पडिवत्तीओ पण्णताओ, उ०.- इस सम्बन्ध में तीन अन्य मान्यताएँ कही गई है तं जहा यथा१. तत्थेगे एवमाहंसु (१) उनमें से एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं । ता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोग्गला सूर्य के तेज से जितने पुद्गल स्पर्श को प्राप्त होते हैं वे तपते संतप्पंति, ते णं पोग्गला संतप्पमाणा तदणंतराइं बाहि- हैं और तपने के बाद वे बाह्य पुद्गलों को तपाते हैं । राई पोग्गलाई संतातीति, एस णं से समिए तावक्खेत्ते एगे एवमाहसु, यह (सूर्य से) उत्पन्न ताप क्षेत्र है। २. एगे पुण एवमाहसु (२) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैंता जे णं पोग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोगला सूर्य के तेज से जितने पुद्गल स्पर्श को प्राप्त होते हैं वे नहीं नो संतप्पंति, ते णं पोग्गला असतप्पमाणा तदणंतराइं तपते हैं, नहीं तपे हुए वे पुद्गल समीप के बाह्य पुद्गलों को भी बाहिराई पोग्गलाई णो संतावेंतीति, नहीं तपाते हैं। एस णं से समिए तावक्खेत्ते, एगे एवमासु, वह (सूर्य से) उत्पन्न ताप क्षेत्र हैं। ३. एगे पुण एवमाहंसु (३) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैंता जे णं पोग्गला सरियस्स लेसं फुसंति, ते णं पोग्गला सूर्य के तेज से जितने पुद्गल स्पर्श को प्राप्त होते हैं उनमें अत्थेगइया संतप्पंति, अत्गइया नो संतप्पति, से कुछ पुद्गल तपते हैं और कुछ पुद्गल नहीं तपते हैं । तत्थ अत्थेगइया संतप्पमाणा तदणतराई बाहिराई उनमें से तपे हुए कुछ पुद्गल समीप के कछ बाह्य पुद्गलों पोग्गलाई अत्थेगयाई संताति, अत्थेगथाई नो संता- को तपाते हैं और कुछ को नहीं तपाते हैं । वतीति, १ जम्बु. वक्ख. ७, सु. १३६ । Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०१६-१०१७ तिर्यक् लोक : पौरुषी-छाया का निष्पादन गणितानुयोग ५११ एस णं से समिए तावक्खेत्ते, एगे एवमाहंसु, यह (सूर्य से) उत्पन्न ताप क्षेत्र है । वयं पुण एवं वयामो हम फिर इस प्रकार कहते हैता जाओ इमाओ चंदिम-सूरियाणं देवाणं विमाणेहितो सूर्य देवों के विमानों से निकले हुए तेज से तेज तथा चन्द्र लेसाओ बहित्ता उच्छूढा अभिणिसट्ठाओ पंताति, देवों के विमानों से निकले हुए उद्योत से उद्योत निकलकर पुद्गलों को तपाते हैं; प्रकाशित करते है । एयासि णं लेसाणं अंतरेसु अण्णयरीओ छिण्णलेसाओ सूर्य के तेज से निकले हुए तेज तथा चन्द्र के उद्योत से संमुच्छति, तए ण ताओ छिण्णलेस्साओ संमुच्छ्यिाओ निकले हुए उद्योत सम्मूछित होते हुए अनन्तर स्थित बाह्य समाणीओ तदणंतराइ बाहिराइं पोग्गलाई सतावेतीति, पुद्गलों को तपाते हैं, प्रकाशित करते हैं । एस णं से समिए तावक्खेत्ते, यह सूर्य से उत्प तापक्षेत्र है। -सूरिय. पा. ६, सु. ३० (यह चन्द्र से उत्पन्न प्रकाशक्षेत्र है।) पोरिसिच्छाय-निवत्तणं पौरुषी-छाया का निष्पादन१७. ५०-ता कइकट्ठ ते सूरिए पोरिसि च्छाय णिव्वत्ति ? १७. प्र०--सूर्य कितने समय में “पौरुषी-छाया" की निष्पत्ति आहिए त्ति वएज्जा, करता है ? कहें। उ०–तत्थ खलु इमाओ पणवोस पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-इस सम्बन्ध में ये पच्चीस प्रतिपत्तियाँ (मान्यतायें) तं जहा कही गई हैं, यथातत्थेगे एवमाहंसु उनमें से एक (मान्यता वाले) इस प्रकार कहते हैं१. ता अणुसमयमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेइ, (१) सूर्य प्रत्येक समय में पौरुषी-छाया की निष्पत्ति आहिए त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, करता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वाले) फिर इस प्रकार कहते है-- २. ता अणुमुहुत्तमेव सूरिए पोरिसिच्छायं णिवत्तेइ, (२) सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में पौरुषी-छाया की निष्पत्ति आहिए त्ति वएज्जा करता है। जाओ चेव ओयसंठिईए पडिवत्तीओ एएणं अभिलावणं (३-२४) ओज संस्थिति की जितनी (पच्चीस) प्रतिपत्तियाँ णेयवाओ,-जाव-२ (३-२४) हैं उतनी ही यहाँ इन अभिलापों से जाननी चाहिए। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वाले) फिर इस प्रकार कहते हैं -- २५. ता अणुउस्सप्पिणि-ओसप्पिणिमेव सूरिए पोरि- (२५) सूर्य प्रत्येक उत्सपिणी-अवसर्पिणी में 'पौरुषी-छाया" सिच्छायं णिव्वत्तेइ, आहिए ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, की निष्पत्ति करता है। वयं पुण एवं वयामो हम फिर इस प्रकार कहते हैं१. ता सूरियस्स णं (१) सूर्य की ऊँचाई और लेश्या (प्रकाश) की अपेक्षा करके उच्चत्तं च लेसं च, पडुच्च छायुद्देसे, छाया (पौरुषी-छाया) का कथन हैं । २. उच्चत्तं च, छायं च पडुच्च लेसुद्देसे, (२) सूर्य की ऊचाई और छाया (पौरुषी-छाया) की अपेक्षा करके लेश्या (प्रकाश) का कथन है । ३. लेस्सं च छायं च पडुच्च उच्चतो(से' (३) सूर्य की लेश्या (प्रकाश) और छाया (पौरुषी-छाया) -सूरिय. पा. ६, सु. ३१ की अपेक्षा करके ऊँचाई का कथन है। २ सूरिय. पा. ६, सु. २७ । १ ३ चन्द. पा. चन्द. पा. सु.३० । सु. ३१ । Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : पौरुषी छाया का निवर्तन सूत्र १०१८ पोरिसिच्छाय-निव्वत्तणं पौरुषी छाया का निवर्तन१८. ५०-............. १८. प्र०-प्रश्न सूत्र विछिन्न है, उ०-तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिबत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-इस सम्बन्ध में ये दो प्रतिपत्तियाँ (मान्यतायें) कही तं जहा गई हैं यथातत्थेगे एवमाहंसु इनमें से एक (मान्यता वाले) इस प्रकार कहते हैं(क) १. ता अस्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि (क) १. ऐसा एक दिबस है-जिस (दिवस) में सूर्य चार सूरिए चउपोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, पौरुषी-छाया का निवर्तन (निष्पादन) करता है । (ख) अस्थि णं से दिवसे जंसि ण दिवसंसि सूरिए (ख) ऐसा एक दिवस है-जिस (दिवस) में सूर्य दो-पौरुषी दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु- छाया का निवर्तन (निष्पादन) करता है। एगे पुण एवमाहंसु ___ एक (मान्यता वाले) फिर इस प्रकार कहते हैं(क) २. ता अत्थि णं से दिवसे जंसि गं दिवससि (क) २. ऐसा एक दिवस है-जिस (दिवस) में सूर्य दोसूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, पौरुषी छाया का निवर्तन (निष्पादन) करता है । (ख) अत्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि सूरिए नो (ख) ऐसा एक दिवस है-जिस (दिवस) में सूर्य किसी किंचि पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, प्रकार की छाया का निवर्तन (निष्पादन) नहीं करता है । तत्थ जे ते एवमाहंसु उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं(क) १. ता अत्थि णं से दिवसे जंसि णं दिवसंसि (क) १. ऐसा एक दिवस है-जिस (दिवस) में सूर्य चार सूरिए चउ-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, पौरुषी-छाया का निवर्तन (निष्पादन) करता है । (ख) अत्थि णं से दिवसे-जंसि णं दिवसंसि सूरिए दु- (ख) ऐसा एक दिवस हैं—जिस (दिवस) में सूर्य दो-पौरुषी पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, छाया का निवर्तन (निष्पादन) करता है । ते एवमाहंसु, (वे अपनी मान्यताओं की सिद्धि इस प्रकार करते हैं) (क) १. ता जया ण सरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उव- (क) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति संकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्को- करता है, उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त सिए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालस- का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती हैमुहुत्ता राई भवइ, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए चउ-पौरिसिच्छा निव्व- उस दिन सूर्य चार पौरुषी-छाया का निवर्तन करता है तेइ, तं जहाउग्गमण-मुहुत्तंसि य, अत्थमण-मुहत्तंसि य, उद्गमन मुहूर्त में और अस्तमन मुहूर्त में, लेसं अभिवड्ढेमाणे नो चेव णं निन्वुड्ढेमाणे, लेश्या (प्रकाश) को बढ़ाता हुआ, घटाता हुआ नहीं, यथा १ सूर्य प्रज्ञप्ति की संकलन शैली के अनुसार यहाँ प्रश्नसूत्र होना चाहिए था, किन्तु यहाँ प्रश्नसूत्र आ. स. आदि किसी प्रति में नहीं है, अतः यहाँ का प्रश्नसूत्र विच्छिन्न हो गया है, ऐसा मान लेना ही उचित है । सूर्यप्रज्ञप्ति के टीकाकार भी यहाँ प्रश्न-सूत्र के होने या न होने के सम्बन्ध में सर्वथा मौन हैं, अतः यहाँ प्रश्न-सूत्र का स्थान रिक्त रखा है। यदि कहीं किसी प्रति में प्रश्न-सूत्र हो तो स्वाध्यायशील आगमज्ञ सूचित करने की कृपा करें, जिससे द्वितीय संस्करण में संशोधन परिवर्धन किया जा सके। २ मूल पाठ में ऐसा सूचना पाठ नहीं है-यह सूचना सम्पादक ने अपनी ओर से दी है। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूत्र१०१८ तिर्यक् लोक : पौरुषी छाया का निवर्तन गणितानुयोग ५१३ (ख) ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंक- (ख) जब सूर्य सर्व बाह्य मण्डल को प्राप्त करके गति करता मित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया है, उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालस-मुहत्ता होती है, जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । दिवसे भवइ, तंसि च ण दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, उस दिन सूर्य दो-पौरुषी-छाया का निवर्तन करता है, तं जहा यथाउग्गमण-मुहत्तंसि य, अत्थमण-मुहुत्तंसि य, उद्गमन मुहूर्त में और अस्तमन मुहूर्त में, लेसं अभिवड्ढमाणे नो चेव ण निव्वुड्ढेमाणे, लेश्या को बढ़ाता हुआ, घटाता हुआ नहीं, तत्थ णं जे ते एवमाहंसु उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं(क) २. ता अत्थि णं से दिवसे-जंसि णं दिवसंसि (२) ऐसा एक दिवस है--जिस (दिवस) में सूर्य दो पौरुषी सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, छाया का निवर्तन (निष्पादन) करता है। अस्थि णं से दिवसे-जसि णं दिवसंसि सूरिए नो किचि ऐसा एक दिवस है-जिस (दिवस) में सूर्य किसी प्रकार पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, की छाया का निवर्तन नहीं करता है । ते एवमाहंसु वे अपनी मान्यताओं को इस प्रकार सिद्ध करते हैं(क) ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतर मण्डलं उवसंक- (क) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति मित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसिए करता है तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह महर्त का दिन अट्ठारस-मुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुबालस-मुहुत्ता होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। राई भवइ, तसि च णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ उस दिन सूर्य दो पौरुषी छाया का निवर्नन करता है, तं जहा यथाउग्गमण-मुहुत्तंसि य, अत्थमण-मुहुनंसि य, उद्गमन मुहूर्त में और अस्तमन महूर्त में, लेसं अभिवड्ढेमाणे, नो चेव णं निम्बुड्ढेमाणे, लेश्या (प्रकाश) को बढ़ाता हुआ-घटाता हुआ नहीं । (ख) ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंक- (ख) जब सूर्य सर्व बाह्यमण्डल को प्राप्त करके गति करता मित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया है, तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहर्त की रात्रि होती अट्ठारस-मुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालस-मुहते है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है। दिवसे भवइ, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए नो किचि पोरिसिच्छायं उस दिन सूर्य किसी प्रकार की पौरुषी छाया का निवर्तन निव्वत्तेइ, त जहा नहीं करता है यथाउग्गमण-मुहुत्तसि य, अत्थमण-मुहुत्तंसि य, उद्गमन मुहूर्त में और अस्तमन मुहूर्त में, नो चेव ग लेसं अभिवड्ढेमाणे वा, निव्वुड्ढेमाणे वा', न लेश्या (प्रकाश) को बढ़ाता हुआ, न घटाता हुआ, -सूरिय. पा. ६, सु. ३१ १ (क) इसके अनन्तर यहाँ स्वमतसूचक "वयं पुण एवं वयामो" यह वाक्य नहीं है और न स्वमत का कथन ही है । "तदेवं परतीथिक-प्रतिपत्तिद्वयं श्रुत्वा भगवान् गौतमः स्वमतं पृच्छति, ता कइ कट्टमित्यादि" -सूर्य. टीका. टीकाकार का यह कथन सूर्यप्रज्ञप्ति की संकलन शैली के अनुरूप नहीं है क्योंकि प्रतिपत्तियों के कथन के अनन्तर "वयं पुण एवं वयामो" इस वाक्य से ही सर्वत्र स्वमत का प्रतिपादन किया गया है। (ख) चन्द पा.६ सु. ३१ । २ यह पंक्ति सम्पादक ने दी है। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : पौरुषी छाया का निवर्तन सूत्र १०१६ पोरिसिच्छाय-निव्वत्तणं-- पौरुषी छाया का निवर्तन१९. ५०-ता कइकट्ठ ते सूरिए पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ ? आहिए १६. प्र०—सूर्य किस स्थान में कितनी पौरुषी छाया की निष्पत्ति त्ति बएज्जा, करता है ? कहें। उ०-तत्थ इमाओ छण्णउइ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-इस सम्बन्ध में ये छन्नवे (९६) प्रतिपत्तियाँ (मान्यतायें) तं जहा कही गई हैं यथातत्लेगे एवमाहंसु इनमें से एक (मान्यता वाले) इस प्रकार कहते हैं१. ता अत्थि णं से देसे-जंसि णं देसंसि सूरिए एग- (१) एक ऐसा देश (स्थान) है-जिस देश में सूर्य एक पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु, पौरुषी-छाया की निष्पत्ति करता है, एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वाले) फिर इस प्रकार कहते हैं२. ता अस्थि णं से देसे-जसि णं देसंसि सूरिए दु- (२) एक ऐसा देश है-जिस देश में सूर्य दो पौरुषी छाया पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ, एने एवमाहंसु, की निष्पत्ति करता है। एवं एएणं अभिलावेणं णेयव्वं,-जाव-(३-६५) (३-६५) इस प्रकार इस अभिलाप से जानना चाहिए यावत्एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वाले) फिर इस प्रकार कहते हैं --- ६६. ता अस्थि णं से देसे-जंसि णं देसंसि सूरिए छण्ण- (६६) एक ऐसा देश है-जिस देश में सूर्य छिन्नवे पौरुषी उइ पोरिसीयं छाय निव्वत्तेइ, एगे एवमाहंसु, छाया की निष्पत्ति करता है । तत्थ जे ते एवमाहंसु उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं -- १. ता अस्थि णं से देसे-जंसि णं देसंसि सूरिए एग- (१) एक ऐसा देश है -- जिस देश में सूर्य एक पौरुषी-छाया पोरिसीयं छायं नित्वत्तेइ त्ति, की निष्पत्ति करता है। ते एवमाहंसु, (वे अपनी मान्यता को इस प्रकार सिद्ध करते हैं) ता सूरियस्स णं सव्वहेट्ठिमाओ सूर-प्पडिहीओ बहित्ता इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अधिक सम-रमणीय भूभाग से सूर्य अभिणिसट्टाहि लेसाहिं ताडिज्जमाणीहि इमीसे रयण- जितना ऊँचा है उतने ही एक मार्ग में, सूर्य के सबसे नीचे के प्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ निवेश से निकली हुई किरणों से स्पशित पदार्थ की छाया जहाँ जावइयं सूरिए उड्ढ उच्चत्तेणं, एवइयाए एगाए अद्धाए, अनुमान प्रमाण से विभक्त की जाती है, वहाँ सूर्य (एक पुरुष एगेणं छायाणुमाणप्पमाणेणं उमाए, तत्थ से सूरिए प्रमाण) पौरुषी छाया की निष्पत्ति करता है। एगपोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ त्ति, तत्थ जे ते एवमाहंसु उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं२. ता अत्थि णं से देसे, जंसि णं देसंसि सूरिए (२) ऐसा एक देश है- जिस देश में सूर्य दो पौरुषी छाया दु-पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ 'त्ति' की निष्पत्ति करता है। ते एवमाहंसु, (वे अपनी मान्यता को इस प्रकार सिद्ध करते हैं) ता सूरियस्स णं सव्वहेटिमाओ सूर-प्पडिहीओ बहिता इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अधिक सम-रमणीय भूभाग से सूर्य अभिणिसदाहि लेसाहिं ताडिज्जमाणीहि, इमीसे रयण- जितना ऊँचा है उतने ही दो मार्गों में सूर्य के सबसे नीचे के प्पभाए पुढबीए बहसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ निवेश से निकलती हुई किरणों से स्पशित पदार्थ की छाया जहाँ १ तत्र-तेषां षष्ण बत: परतीथिकानां मध्ये, एके एवमाहुः "ता' इति पूर्ववत् अस्ति स देशो, यस्मिन् देशे सूर्यः आगतःसन् एकपौरूषी-एकपुरुष-प्रमाणां (पुरुषग्रहणमुपलक्षणं सर्वस्यापि प्रकाश्यवस्तुनः स्व-प्रमाणां) छायां निवर्तयति, --सूर्य. टीका. Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०१६-१०२० तिर्यक् लोक : पौरुषी छाया का प्रमाण गणितानुयोग ५१५ जावइयं सूरिए उड्ढं उच्चत्तेणं, एवइयाई दोहि अाहि अनुमान प्रमाण से दो भागों में विभक्त की जाती है वहाँ सूर्य दोहि छायाणुमाण-प्पमाणेहि उमाए, एत्थ णं से सूरिए दो (पुरुषप्रमाण) पौरुषी छाया की निष्पत्ति करता है। दुपोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ त्ति, ३-६५. एवं एएण अभिलावेणं णेयव्वं,-जाव (३-६५) इस प्रकार इस अभिलाप से जानना चाहिए यावत्तत्थ जे ते एवमाहंसु उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं६६. "ता अस्थि णं से देसे-जंसि णं देसंसि सूरिए छण्ण- ६६. ऐसा एक देश है-जिस देश में सूर्य छन्नवें पौरुषी छाया उई पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइत्ति" की निष्पत्ति करता है। ते एवमाहंसु, (वे अपनी मान्यता को इस प्रकार सिद्ध करते हैं) ता सूरियस्स णं सव्वहिटिमाओ सूरप्पडिहीओ बहित्ता इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अधिक सम-रमणीय भुभाग से सूर्य अभिणिसट्राहि लेसाहिं ताडिज्जमाणीहि इमीसे रयण- जितना ऊँचा है उतने ही “छन्नवें" मार्गों में सूर्य के सबसे नीचे प्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ के निवेश से निकली हुई किरणों से स्पशित पदार्थ की छाया जावइयं सूरिए उड्ढ उच्चत्तेणं, एवइयाई छण्णउईए जहाँ अनुमान प्रमाण से छन्न भागों में विभक्त की जाती है वहाँ छायाणुमाण-पमाणेहि उमाए, एत्थ णं से सूरिए छण्ण- सूर्य छन्नवें (पुरुष प्रमाण) पौरुपी छाया की निष्पत्ति करता है। उई पोरिसीयं छायं निव्वत्तेइ त्ति, वयं पुण एवं वयामो हम फिर इस प्रकार कहते हैंता साइरेग-अउण द्वि-पोरिसीणं सूरिए पोरिसिच्छायं सूर्य कुछ अधिक उनसठ (५६) पौरुषी छाया की निष्पत्ति निव्वत्तेइ त्ति, -सूरिय. पा. ६, सु. ३१ करता है । पोरिसिच्छाय-प्पमाणं पौरुषी छाया का प्रमाण २०. (क) ५०-ता अवद्ध-पोरिसी गं छाया दिवसस्स कि गए वा, २०. प्र-अपाधं पौरुषी "आधीपौरुषी" अर्थात् पुरुष की आधी सेसे वा? छाया तथा सभी प्रकाश्य पदार्थों की आधी छाया, दिन का कितना भाग बीतने पर अथवा कितना भाग शेष रहने पर होती है ? उ०-ता ति-भागे गए वा सेसे वा। उ०—दिन के तीन भाग बीतने पर अथवा तीन भाग शेष रहने पर आधी पौरुषी होती है । (ख) ५०–ता पोरिसी गं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे प्र०-पौरुषी अर्थात् पुरुष की स्वप्रमाण छाया, तथा सभी वा? प्रकाश्य पदार्थों की स्वप्रमाण छाया, दिन का कितना भाग बीतने पर अथवा कितना भाग शेष रहने पर होती है? उ०--ता चउभागे गए वा, सेसे वा, उ.-दिन के चार भाग बीतने पर तथा दिन के चार भाग शेष रहने पर "पौरुषी-छाया" होती है। १ पौरुषी की परिभाषा "पुरिसत्ति, संकू, परिस-सरीरं वा, ततो, पुरिसे निप्फन्ना पोरिसी, एवं सबस्स वत्थुणों यदा स्वप्रमाणा छाया, भवति, तदा हवइ, एवं पोरिसि-प्रमाणं उत्तरायणस्स अंते, दक्षिणायणस्स, आईए इक्कं दिणं भवइ अतोपरं अद्ध-एगसटिभागा अंगलस्स दक्षिणायणे बड्डंति, उत्तरायणे हस्संति, एवं मंडले मंडले अन्ना पोरिसी' । "यह पौरुषी की परिभाषा सूर्य-प्रज्ञप्ति की टीका में नन्दिचूर्णी से उधृत है ।” चूर्णी की परिभाषा संस्कृत-मिश्रित प्राकृत होती है-अतः ऊपर अंकित चूर्णी-पाठ अशुद्ध नहीं है। Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ सोम-प्राप्ति (ग) प० - ता दिवड्ढ - पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा ? उ०-ता पंचभागे गए बा, सेसे वा । (घ) प० - ता बि-पोरिसी णं छाया दिवसस्स कि गए वा, सेसे वा ? उ० -छब्भा गगए वा, उ० तिर्यक् लोक : पौरुषी छाया का प्रमाण सेसे वा प० - ता अड्ढाइज्ज -पोरिसी णं छाया दिवसस्स कि गए वा, सेसे वा ? उ०- ता सत्तभाग गए वा, सेसे वा । एवं अवड्ढपोरिसि छोढ़ छोढुं पुच्छा' दिवसभा छोई छो वागरणंजाब..... प० - ता अद्धा अउणसट्टि पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा सेसे वा ? -ता एगूणवीस सय-भागे गए वा, सेसे वा । उ० प०-ता अउणसट्ठि पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा ? -बावीससहस्सभागे गए वा, सेसे वा । प० -ता साइरेग अउणसट्ठि पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा ? उ०-ता नत्थि किंचि गए वा, सेसे वा, प्र० - डेढ - पौरुषी छाया दिन का कितना भाग बीतने पर अथवा कितना भाग शेष रहने पर होती है ? उ०- दिन के पाँच भाग बीतने पर तथा दिन के पाँच भाग शेष रहने पर "डेढ पौरुषी - छाया" होती है | प्र० - दो पौरुषी - छाया दिन का कितना भाग बीतने पर अथवा कितना भाग शेष रहने पर होती है ? सूत्र १०२० उ०- दिन के छः भाग बीतने पर तथा दिन के छः भाग शेष रहने पर "दो-पौरुषी- छाया" होती है । प्र० - अढाई - पौरुषी - छाया दिन का कितना भाग बीतने पर अथवा कितना भाग शेष रहने पर होती है ? उ०- दिन के सात भाग बीतने पर तथा दिन के सात भाग शेष रहने पर "अढाई - पौरुषी - छाया" होती है । इस प्रकार " अर्धपौरुषी" मिला मिलाकर प्रश्नसूत्र कहें । दिवसभाग मिला मिलाकर उत्तरसूत्र कहें- यावत् प्र० - उनसठ - पौरुषी- छाया दिन का कितना भाग बीतने पर अथवा कितना भाग शेष रहने पर होती है ? ७० - दिन के एक सौ उन्नीस भाग बीतने पर तथा दिन के एक सौ उन्नीस भाग शेष रहने पर "उनसठ - पौरुषी - छाया” होती है। प्र० - उनसठ पौरुषी छाया दिन का कितना भाग बीतने पर अथवा कितना भाग शेष रहने पर होती है ? उ०- दिन का एक हजार बावीसवाँ भाग व्यतीत होने पर एवं बाकी अर्ध का शेष रहने पर होती है । प्र० - कुछ अधिक "उनसठ पौरुषी छाया" दिन का कितना भाग बीतने पर अथवा कितना भाग शेष रहने पर होती है ? उ०- दिन का कोई भाग बीतने पर या शेष रहने पर साठ पौरुषी छाया नहीं होती हैं । १ एवमित्यादि - एवमुक्तेन प्रकारेण "अर्द्ध- पौरुषी" अर्द्धपुरुष प्रमाणां छायां क्षिप्त्वा, क्षिप्त्वा पृच्छा, पृच्छा सूत्रं द्रष्टव्यं । - सूर्य. टीका. २ दिवसभागं ति पूर्व-पूर्वसूत्रापेक्षया एकैकमधिकं दिवसभागं क्षिप्ला क्षिप्त्वा व्याकरणं, उत्तरसूत्रं ज्ञातव्यं । सूर्य. टीका. ३ यहाँ अंकित प्रश्नोत्तर यहाँ दी गई संक्षिप्त वाचना की सूचनानुसार संशोधित है । सूर्यप्रज्ञप्ति की “१ अ. स. १२ शा. स. १२ अ. सु. १४ ह. ग्र." इन चारों प्रतियों में दिये गये प्रश्नोत्तर यहाँ दी गई संक्षिप्त वाचना की सूचना से कितने विपरीत हैं ? यह निर्णय पाठक स्वयं करें । सेसे वा प० - "ता अद्ध अउणर्साट्ठि पोरिसी णं छाया दिवसस्स कि गये वा, उ०- ता एगुणवीस सयभाने गए वा, सेसे वा । प०-ता अउणसट्ठि पोरिसी णं छाया दिवसस्स किं गए वा, सेसे वा ? उ०- ता बावीस-सहस्स भागे गए वा, सेसे वा प० - साइरेग अणसट्टि पोरिसी णं छाया दिवस्स किं गए वा, सेसे वा ? उ०- ता नत्थि किंचि गए वा, सेसे वा । ? (क्रमशः ) Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०२०-१०२१ तिर्यक् लोक : सूर्यमण्डलों की संख्या गणितानयोग ५१७ तत्थ खलु इमा पणवीसविहा छाया पण्णत्ता, तं जहा- उनमें ये पच्चीस प्रकार की छाया कही गई है, यथा१. खंभ-छाया, २. रज्जु-छाया, ३. पागार-छाया, (१) स्तम्भछाया, (२) रज्जुछाया, (३) प्राकारछाया, ४. पासाय-छाया, ५. उग्गम-छाया, ६. उच्चत्त-छाया, (४) प्रासाद छाया, (५) उद्गम छाया, (६) उच्चत्व=(ऊंचाई ७. अणुलोम-छाया, ८. पडिलोम-छाया, .. आरंभिया- की) छाया, (७) अनुलोमछाया, (८) प्रतिलोम छाया, छाया, १०. उवहया-छाया, ११. सभा-छाया, १२. (९) आरंभिका छाया, (१०) उपहता छाया, (११) सभा छाया, पडिहया-छाया, १३. खोल-छाया, १४. पक्ख-छाया, (१२) प्रतिहता छाया, (१३) कील छाया, (१४) पक्ष छाया, १५. पुरओ-उदया-छाया, १६. पुरिम कंठ-भागुवगया- (१५) पूर्वोदय छाया, (१६) पूर्वकण्ठभाग उपगता छाया, छाया, १७. पन्छिम-कंठ-भागुवगया-छाया, १८. छाया- (१७) पश्चिम कण्ठभाग उपगता छाया, (१८) छायानुवादिनी णुवाइणी-छाया. १६. किट्ठाणुवाइणी-छाया, २०. छाय- छाया, (१६) कृत्यानुवादिनी छाया, (२०) छाय-छाया, छाया, २१. विकल्प-छाया, २२. वेहास-छाया, २३. (२१) विकल्प छाया, (२२) विहाय छाया, (२३) कट छाया, कड-छाया, २४. गोल-छाया, २५. पिट्ठओदग्गा-छाया। (२४) गोल छाया, (२५) पृष्ठतोदया छाया । तत्थ णं गोल-छाया अट्टविहा पण्णता, तं जहा इनमें गोल छाया आठ प्रकार की कही गई है, यथा१. गोल-छाया, २. अवड्ढ-गोल-छाया, ३. गाढ-गोल- (१) गोल छाया, (२) अपार्धगोल छाया, (३) गाढगोल छाया, ४. अवड्ढ-गाढ-गोल-छाया, ५. गोलावलि- छाया, (४) अपार्धगाढगोल छाया, (५) गोलावलि छाया, छाया, ६. अवड्ढ-गोलावलि-छाया, ५. गोलपुजछाया, (६) अपार्धगोलावलि छाया, (७) गोलपुंज छाया, (८) अपार्ध८. अवड्ढ-गोल-पुज-छाया। गोलपुंज छाया। -सूरिय. पा. ६, सु. ३१ सूरमंडलाणं संखा सूर्यमण्डलों की संख्या२१. ५०-कइ णं भंते ! सूरमंडला पण्णत्ता? २१. प्र०-हे भगवन् ! सूर्यमण्डल कितने कहे गये हैं ? उ०—गोयमा ! एगे चउरासीए मंडलसए पण्णत्ते । उ.-हे गौतम ! एक सौ चौरासी सूर्यमण्डल कहे गये हैं । -जंबु. वक्ख. ७, सु. १२७ (क्रमशः) (क) यहाँ इन प्रश्नोत्तरों में व्यतिक्रम हो गया प्रतीत होता है। सर्वप्रथम साढे उनसठ पौरुषी छाया का प्रश्नोत्तर है । द्वितीय प्रश्नोत्तर उनसठ पौरुषी छाया का है तृतीय प्रश्नोत्तर कुछ अधिक उनसठ छाया का है। (ख) यहाँ प्रश्नों के अनुरूप उत्तर भी नहीं है। प्रथम प्रश्नोत्तर में-“साढे उनसठ पौरुषी छाया, एक सौ उन्नीस दिवस भाग से निष्पन्न होती है" ऐसा माना है किन्तु संक्षिप्तवाचना पाठ के सूचनानुसार एक सौ बीस दिबस भाग से निष्पन्न होती है। द्वितीय प्रश्नोत्तर में—उनसठ पौरुषी छाया की निष्पत्ति बावीस हजार दिवस भाग से होती है-ऐसा माना है, किन्तु यह मानना सर्वथा असंगत है, क्योंकि संक्षिप्त वाचना के सूचना पाठ की टीका में एक एक दिवस भाग बढ़ाने का ही सूचन है । तृतीय प्रश्नोत्तर में प्रश्न ही असंगत है, क्योंकि संक्षिप्त वाचना के सूचना पाठ में अर्द्ध पौरुषी छाया से सम्बन्धित प्रश्न हो तो यहाँ कहा गया उत्तर सूत्र यथार्थ है । १ (क) प्रस्तुत सूत्र में छाया के पच्चीस प्रकार तथा गोल छाया के आठ प्रकार का कथन है। "तत्थेत्यादि, तत्र=तासां पंचविंशति-छायानां मध्ये खल्वियं गोल-छाया अष्टविधा प्रज्ञप्ता," मूर्यप्रज्ञप्ति की टीका के इस कथन से प्रतीत होता है कि छाया के पच्चीस प्रकारों में "गोल-छाया" का नाम था और उसके आठ प्रकार भिन्न थे, किन्तु सूर्य प्रज्ञप्ति की" १ आ. स. १२ शा. स. १३ अ. सु. १" इन तीन प्रतियों में छाया के केवल सतरह नाम है और गोल-छाया के आठ नाम है । इस प्रकार पच्चीस पूरे मान लिए गये हैं। सतरह नामों में गोल-छाया का नाम नहीं है फिर भी "तत्थेत्यादि" पाठ से संगति करके पच्चीस नाम पूरे मानना आश्चर्यजनक है एक "ह. अ." प्रति में छाया के पच्चीस नाम तथा गोल-छाया के आठ नाम हैं, जो मूल पाठ के अनुसार है। (ख) चंद. पा. ६ सु. ३१ । Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : जम्बूद्वीप में सूर्यमण्डलों की संख्या सूत्र १०२२-१०२५ जंबुद्दोवे सूरमंडलाणं संखा जम्बूद्वीप में सूर्यमण्डलों की संख्या२२. ५०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयं ओगाहित्ता केवइया २२. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में कितने (योजन) सूरमंडला पण्णत्ता ? अवगाहन करने पर कितने सूर्यमण्डल कहे गये हैं ? उ०—गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे असीअं जोयणसयं ओगाहित्ता उ०-हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में एक सौ अस्सी एत्थ णं पण्णट्ठी सूरमंडला पण्णत्ता' योजन अवगाहन करने पर पेंसठ सूर्यमण्डल कहे गये हैं। -जंबु, वक्ख. ७, सु. ११७ लवणसमुद्दे सूरमंडलाणं संखा लवणसमुद्र में सूर्य-मण्डलों की संख्या२३. ५०-लवणे णं भंते ! समुई केवइ ओगाहित्ता केवइआ २३. प्र०-हे भगवन् ! लवणसमुद्र में कितने (योजन) अवगाहन सूरमंडला पण्णता? ___ करने पर कितने सूर्यमण्डल कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! लवणे समुद्दे तिणि तीसे जोयणसए ओगा- उ०-हे गौतम ! लवणसमुद्र में तीन सौ तीस योजन हित्ता एत्थ णं एगूणवीसे सूरमंडलसए पण्णत्ते। अवगाहन करने पर एक सौ उन्नीस सूर्यमण्डल कहे गये हैं । एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे लवणे असमुद्दे एगे इस प्रकार जम्बूद्वीप नामक द्वीप में और लवणसमुद्र में चउरासीए मंडलसए भवतीति मक्खायंति', पूर्वापर के मिलाकर एक सौ चौरासी सूर्यमण्डल होते हैं-ऐसा - जंबु. वक्ख. ७, सु. १२७ कहा गया है । निसढ-नीलवंतेसु सूरमंडल संखा परूवण निषध और नीलवंत पर्वत पर सूर्यमण्डलों की संख्या का प्ररूपण-- २४. णिसढे णं पन्वए तेवट्टि सूरोदया पण्णत्ता । २४. निषध पर्वत पर वेसठ सूर्य मण्डल कहे गये हैं । एवं नीलवते वि। -सम. ६३, सु. ३-४ इसी प्रकार नीलवंत पर्वत पर भी वेसठ सूर्य मण्डल हैं। सूरियाणं अण्णमण्णस्स अन्तर-चार सूर्यों की एक दूसरे से अन्तर गति-- २५. ५०–ता केवइयं एए दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स अन्तरं कटु २५. प्र०-ये दोनों (भारतीय और ऐरावतीय) सूर्य एक दूसरे चारं चरंति ? आहिए त्ति वएज्जा, से कितना अन्तर करके गति करते हैं ? । उ०-तत्थ खलु इमाओ छ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-इस सम्बन्ध में ये छ: प्रतिपत्तियाँ (मतान्तर) कही तं जहा गई हैं, यथातत्थ एगे एवमाहंसु इनमें से एक (मत वालों) ने ऐसा कहा है१. ता एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसय अण्ण- (१) भारतीय सूर्य ऐरावतीय सूर्य से एक हजार योजन मण्णस्स अंतरं कटु सूरिया चार चरंति, आहितेति का अन्तर करके गति करता है और ऐरावतीय सूर्य भारतीय वएज्जा, एगे एवमाहंसु, सूर्य से एक सौ तेतीस योजन का अन्तर करके गति करता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है२. ता एगं जोयणसहस्स एगं च चोत्तीस जोयणसयं (२) भारतीय सूर्य ऐरावतीय सूर्य से एक हजार योजन का अण्णमण्णस्स अंतरं कट्ट सूरिया चारं चरंति, अन्तर करके गति करता है और ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से आहितेति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एक सौ चौतीस योजन का अन्तर करके गति करता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मतवालों) ने फिर ऐसा कहा है-- .३. ता एग जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं (३) भारतीय सूर्य ऐरावतीय सूर्य से एक हजार योजन का १ जम्बुद्दीवे गं दीवे पणसट्टि सूरमंडला पण्णत्ता । –सम. स. ८५, सु. १ जम्बूद्वीप में पैंसठ सूर्यमण्डल और लवणसमुद्र में एक सौ उगणीस सूर्य मण्डल-इन दोनों संख्याओं के संयुक्त करने पर एक सौ चौरासी सूर्यमण्डल होते हैं । ३ भरतक्षेत्रवर्ती । Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०२५ प० तिर्यक्लोक : सूर्यो की एक-दूसरे से अन्तर गति अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु सूरिया चारं चारंति, अन्तर करके गति करता है और ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से आहितेति एक्जा, एगे एवमाहं, एक सौ पैंतीस योजन का अन्तर करके गति करता है । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है एगे पुण एवमाहंसु ४- १. ता एवं दीवे, एवं समुद्दे अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वएज्जा, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाह ५- २. ता दो दीवे, दो समुद्दे अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु सूरिया चारं चरंति आहितेति बजाए एवाहं एगे पुण एवमाहंसु ६- ३. ता तिष्णि दीवे, तिष्णि समुद्दे, अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु सूरिया चारं चरंति, आहितेति वएज्जा, एगे एवमा वयं पुण एवं वयामो ता पंच पंच जोपा पणतीस एट्टिभागे जस एगमेगे मंडले अण्णमण्णस्स अन्तरं अभिवड्ढे माणा वा निवड्ढे माणा वा सूरिया चारं चरंति, आहितेति वएज्जा, -तत्थ णं को हेऊ ? आहितेति वएज्जा, उ०ता अयं णं जंबुद्वीचे बीचे सम्यदीय- समुद्राणं सम्वत राए सब्वबुड्डा वट्ट - जाव- जोयणसयसहस्समायाम विक्खंभे णं, तिणि जोयणसयसहस्साइं दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए, तिष्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, तेरस अंगुलाई किचि बिसेसाहिए परिक्लेवे णं पण्णत्ते, १. ता जया णं एते दुवे सूरिया सव्वमंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरंति तया णं णवणउई जोयणसहस्साई, छच्च चत्ताले जोयणसए अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु चारं चरंति आहितेति वएज्जा, तपाणं उत्तमकटुपले उनकोसए अङ्गारसमुहले बसे भवइ जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, २. ते निक्खममाणा सूरिया णवं संवच्छरं अयमाणा पढमंसि अहोरत्तंसि अन्मिंतरानंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, गणितानुयोग ५१६ ता जया णं एते दुवे सूरिया अन्मिंतरानंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं णवणउई जोयण (४-१) भारतीय सूर्य ऐरावतीय सूर्य से एक द्वीप का अन्तर करके गति करता है और ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से एक समुद्र का अन्तर करके गति करता है । एक (मत वालों ने फिर ऐसा कहा है (५-२) भारतीय सूर्य ऐरावतीय सूर्य से दो द्वीप का अन्तर करके गति करता है और ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से दो समुद्र का अन्तर करके गति करता है । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (६-३) भारतीय सूर्य ऐरावतीय सूर्य से तीन द्वीप का अन्तर करके गति करता है ऐरावतीय सूर्य भारतीय सूर्य से तीन समुद्र का अन्तर करके गति करता है । हम फिर इस प्रकार कहते हैं। प्रत्येक मण्डल में ये दोनों सूर्य पाँच पाँच योजन तथा एक योजन के इगसठ भागों में से पैंतीस भाग जितना अन्तर एक दूसरे से बढ़ाते हुए अथवा घटाते हुए गति करते हैं । प्र० - इस ( उक्त ) मान्यता ( की सिद्धि) के सम्बन्ध में क्या हेतु है ? कहें। उ०- यह जम्बूद्वीप (नायक) द्वीप सब द्वीप-समुद्रों के मध्य में है, सबसे छोटा है, वृत्ताकार है यावत् — एक लाख योजन का लम्बा चौड़ा है तथा तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोश एक सौ अठावीस धनुष तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक की परिधि वाला कहा गया है। (१) जब ये दोनों सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं तब वे निन्यानवे हजार छः सौ चालीस योजन का पेरस्पर अन्तर करके गति करते हैं । तब परम उत्कर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (२) (सर्वाभ्यन्तर मण्डल से निकलते हुए वे दोनों सूर्य नये संवत्सर का दक्षिणायन प्रारम्भ करते हुए प्रथम अहोरात्र में आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं । जब ये दोनों सूर्य आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं तब वे निन्यानवे हजार छः सौ पैंतालीस योजन Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्यों को एक-दूसरे से अन्तर-गति सूत्र १०२५ सहस्साई छच्च पणयाले जोयणसए पणतीसं च एगट्टि- तथा एक योजन के इगसठ भागों में से पैंतीस भाग जितना भागे जोयणस्स अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्ट चारं चरंति परस्पर अन्तर करके गति करते हैं । आहितेति वएज्जा, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहि एगद्विभाग तब एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से दो भाग कम अठारह मुहत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभाग मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग तथा दो मुहुत्तेहिं अहिया, भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । ३. ते निक्खममाणा सूरिया दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभिंतर (३) (आभ्यन्तरानन्तर मण्डल से) निकलत हुए वे दोनों तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरंति, सूर्य दूसरे अहोरात्र में आभ्यन्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं । ता जया णं एते दुवे सूरिया अभिंतरं तच्चं मण्डलं जब ये दोनों सूर्य आभ्यन्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके उवसंकमित्ता चारं चरंति, तया णं णवणउई जोयण- गति करते हैं तब वे निन्यानवे हजार छः सौ इक्कावन योजन सहस्साई छच्च इक्कावण्णे जोयणसए नव य एगट्ठिभागे तथा एक योजन के इगसठ भागों में से नौ भाग जितना परस्पर जोयणस्स अण्णमण्णस्स अन्तरं कटु चारं चरंति, अन्तर करके गति करते हैं। आहितेति वदेज्जा, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहि एगट्ठिमुहुर्तेहि तब एक मुहूर्त के इगसठ भागों से चार भाग कम अठारह ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग तथा चार अहिया, भाग अधिक बार मुहूर्त की रात्रि होती है। एवं खल एएणं उवाएणं निक्खममाणा एते दुवे सूरिया इस प्रकार इस क्रम में निकलते हुए ये दोनों सूर्य तदनन्तर तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणा मण्डल से तदनन्तर मण्डल की ओर संक्रमण करते करते प्रत्येक संकममाणा पंच पच जोयणाइं पणतीसं च एगट्ठिभागे मण्डल में पाँच पाँच योजन तथा एक योजन के इगसठ भागों में जोयणस्स एगमेगे मण्डले अण्णमण्णस्स अंतरं अभिवड्ढे- से पैतीस भाग जितने अन्तर को परस्पर बढ़ाते बढ़ाते सर्व बाह्य माणा अभिवड्ढमाणा सव्व बाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता मण्डल की ओर बढ़ते हुए गति करते हैं। चारं चरंति, १. ता जया णं एते दुवे सूरिया सम्व बाहिरं मण्डलं उब- (१) जब ये दोनों सूर्य सर्व बाह्यमण्डल की ओर बढ़ते हुए संकमित्ता चारं चरंति, तया णं एगं जोयणसयसहस्सं गति करते हैं तब एक लाख छः सौ साठ योजन जितना अन्तर छच्च सटु जोयणसए अण्णमण्णस्स अन्तर कटु चारं परस्पर करके गति करते हैं। चरंति, तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, होती है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है। एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स ये प्रथम छः मास (दक्षिणायन के) है यह प्रथम छः मास पज्जवसाणे, का अन्त है। २. ते पविसमाणा सूरिया दोच्च छम्मासं अयमाणा पढमंसि (२) (सर्व बाह्यमण्डल की ओर से प्रवेश करते हुए वे अहोरत्तंसि बाहिराणंतर मण्डलं उवसंकमित्ता चारं दोनों सूर्य दूसरे छः मास से उत्तरायण प्रारम्भ करते हुए प्रथम चरंति, अहोरात्र में बाह्यान्तरमण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं । ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिराणंतरं मण्डलं उव- जब ये दोनों सूर्य बाह्यानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति संकमित्ता चारं चरंति, तया णं एगं जोयणसयसहस्सं करते हैं तब एक लाख छः सो चौवन तथा एक योजन के इगसठ छच्च चउप्पण्णे जोयणसए छत्तीसं च एगट्ठिभागे भागों में से छत्तीस भाग जितना अन्तर परस्पर करके गति जोयणस्स, अण्णमण्णस्स अन्तरं कटट चार चरन्ति, करते हैं। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०२५-१०२६ १ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहि एगट्टिभागमुहुरोहि ऊगा दुबालसमुहले दिवसे भवद दोहि भागमुहिए तिर्यक लोक सूर्यों के संचरण-क्षेत्र ३. ते पविमाणा सूरिया दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्च मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरन्ति, ता जया णं एते दुवे सूरिया बाहिरं तच्च मंडलं उबसंकमित्ता चारं चरन्ति, तथा णं एगं जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावण्णं च एगट्टिभागे जोय णस्स, अण्णमण्णस्स अन्तरं कट्टु चार चरन्ति, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, चहं एगट्टिभागमुहा दुवाल दिवसे हि भवइ, एगट्टिभाग मुहुर्तो अहिए, एवं एएवं उपाए पविसमाणा एते दुवे सूरिया तयाणंतराओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणा संकममाणा पंच पंच जोयणाई पणतीसे च एगट्टिभागे जोयणस्स एगमेगे मण्डले अण्णमण्णस्स अन्तरं निवडढेमाणा निवड्ढे माणा सव्वब्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरन्ति, ता जया णं एते दुवे सूरिया सम्वन्धंतरं मण्डलं उबसंकमित्ता चारं चरन्ति, तया णं णवणउई जोयणसहस्साइं छच्च चत्ताले जोयणसए अण्णमण्णस्स अंतरं कट्टु चारं चरन्ति तया णं उत्तमकट्टपते, उक्कोसए अट्ठारसमुहते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोच्चे छम्मासे एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पजवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे, ' १ - सूरिय. पा. १, पाहु. ४, सु. १५ सूरियाणं संचरण खेल२६. ५० ता कि ते चिण्णं पडिचरति आहितेति वदेज्जा ? - चन्द. पा. १ सु. १५ । उ०- तत्थ खलु इमे दुवे सूरिया पण्णत्ता, तं जहाभारहे चेव सूरिए, एरवए चेव सूरिए । ता एए में वे सूरिया पत्ते पत्ते सीसाए सीसाए गणितानुयोग ५२१ तब एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से दो भाग कम अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है । (३) (बाह्यानन्तर मण्डल की ओर से ) प्रवेश करते हुए वे दोनों सूर्य दूसरे अहोरात्र में बाह्य तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं । जब ये दोनों सूर्य बाह्य तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं तब एक लाख छः सौ अडतालीस योजन तथा एक योजन के इगसठ भागों में से बावन भाग जितना अन्तर परस्पर करके गति करते हैं । तब एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से चार भाग कम अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मूर्त के इस भाग तथा चार भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है । इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करते हुए ये दोनों सूर्य तदनन्तर मण्डल से तदनन्तरमण्डल की ओर संक्रमण करते करते प्रत्येक मण्डल में पाँच पाँच योजन तथा एक योजन के इगसठ भागों में से पैंतीस भाग जितने अन्तर को परस्पर घटाते घटाते सर्व आभ्यन्तर मण्डल की ओर बढ़ते हुए गति करते हैं । जब ये दोनों सूर्य सर्व आभ्यन्तर मण्डल की ओर बढ़ते हुए गति करते हैं तब निन्यानवे हजार छः सौ चालीस योजन जितना परस्पर अन्तर करके गति करते हैं । तब परम उत्कर्ष प्राप्त अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की राति होती है । ये दूसरे छः मास ( उत्तरायण के ) हैं यह दूसरे छ मास का अन्त है । यह आदित्य संवत्सर है। यह आदित्य संवत्सर का अन्त है । सूर्यों के संचरण क्षेत्र २६. ० कौनसा सूर्य (स्वयं या दूसरे के चले हुए क्षेत्र में पुनः पुनः चलता है ? कहें । उ० – इस ( जम्बूद्वीप ) में ये दो सूर्य कहे गये हैं यथाभरतक्षेत्र का सूर्य और ऐरवत क्षेत्र का सूर्य इन दोनों सूर्यों में से प्रत्येक सूर्य तीस तीस मुहूर्त में एक Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्यों के संचरण क्षेत्र सूत्र १०२६ मुहुत्तेहिं एगमेगं अद्धमण्डलं चरइ, सट्ठीए सट्ठीए मुहहि एक एक अर्धमण्डल पर चलता है. और साठ साठ मुहूर्त में एक एगमेगं मण्डलं संघाययंति, एक पूर्णमण्डल पर चलता है। ५०-ता निक्खममाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स प्र०-(सर्व आभ्यन्तरमण्डल से) निकलते हुए ये दोनों सूर्य चिण्णं पडिचरन्ति, पविसमाणा खलु एते दुवे सूरिया एक-दूसरे के चले हुए क्षेत्र में नहीं चलते हैं (किन्तु सर्व बाह्यअण्णमण्णस्स चिणं पडिचरन्ति तं सयमेगं चोयालं, मण्डल से) प्रवेश करते हुए ये दोनों सूर्य एक दूसरे के चले हुए क्षेत्र में चलते हैं यह चीर्ण (चला हुआ) क्षेत्र मण्डलों के एक सौ चुम्मालीस भागों में विभक्त है । तत्थ णं को हेउ, ति वदेज्जा ? इसमें क्या हेतु है ? वह कहें । उ०–ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्व दीव-समुद्दाणं सम्वन्भंत- उ०-यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सर्व द्वीप-समुद्रों के मध्य में राए सव्व खुड्डागे वट्ट-जाव जोयणसयसहस्समायाम- है, सबसे छोटा है वृत्ताकार हैं-यावत्-एक लाख योजन का विक्खंभे णं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई, दोन्नि य सत्ता- लम्बा चौड़ा और तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोश वीसे जोयणसए, तिणि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, एक सौ अठावीस धनुष तेरह अंगुल तथा आधे अंगुल से कुछ तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परि- अधिक की परिधि वाला कहा गया है । क्खेवे ण पण्णत्ते, तत्थ णं अयं भारहए चेव सूरिए जंबुद्दीवस्स दोवस्स इस जम्बुद्वीप में जम्बूद्वीप की पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर-दक्षिण पाईण-पडीणाययाए उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं की लम्बी जीवा से मण्डल के एक सौ चोबीस भाग करने पर चउवीसएणं सएणं छत्ता-दाहिण-पुरथिमिल्लसि मण्डल के दक्षिण-पूर्वी चतुर्थ भाग में अर्थात् इगतीस भागों में चउन्भागमंडलसि बाणउतिय सूरियमयाइं जाई सूरिए रहा हुआ ये भरतक्षेत्र का सूर्य (भरतक्षेत्रीय सूर्य के ही चले हुए) अध्पणा चेव चिण्णाई पडिचरइ, बानवे मण्डलों में स्वयं पीछा चलता है। उत्तर-पच्चथिमिल्लसि चउभागमंडलंसि एक्काणइयं मण्डल के उत्तर-पश्चिमी चतुर्थ भाग में रहा हुआ यह भरत सूरियमयाइं जाई सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडि- का सूर्य (भरतक्षेत्रीय सूर्य के ही चले हुए) इकानवे मण्डलों में चरइ, स्वयं पुनः चलता है। तत्थ णं अयं भारहे सूरिए एरवयस्स सूरियस्स जंबु- इस जम्बूद्वीप में जम्बूद्वीप की पूर्व-पश्चिमी तथा उत्तरदीवस्स दीवस्स पाईण-पडीणाययाए उदीण-दाहिणाय- दक्षिण की लम्बी जीवा से मण्डल के एक सौ चौबीस भाग करने याए जीवाए मण्डलं चउबीसए णं सए णं छत्ता- पर मण्डल के उत्तर-पूर्वी चतुर्थ भाग में रहा हुआ यह भरत क्षेत्र उत्तर-पुरथिमिल्लसि चउन्भागमंडलंसि बाणउइय का सूर्य (ऐरावतक्षेत्रीय सूर्य के चले हुए क्षेत्र में) पर के चले हुए सूरियमयाइं जाइं सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ, बान मण्डलों में चलता है। दाहिण-पञ्चस्थिमिल्लसि चउब्भागमंडलंसि एक्काण- मण्डल के दक्षिण-पश्चिमी चतुर्थ भाग मे रहा हुआ यह उइयं सूरियमयाई जाई मूरिए परस्स चेव चिण्णाई भरत क्षेत्र का सूर्य (ऐरावत क्षेत्रीय सूर्य के चले हुए क्षेत्र में) पडिचरइ, परके चले हुए इकानवें मण्डलों में पीछा चलता है । तत्थ णं अयं एरवए चेव सूरिए जंबुद्दीवस्स दीवस्स इस जम्बूद्वीप में जम्बूद्वीप की पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर-दक्षिण पाइण-पडीणाययाए उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मंडलं लम्बी जीवा से मण्डल के एक सौ चौबीस भाग करने पर मण्डल चउवीसएणं सएणं छत्ता-उत्तर-पुरथिमिल्लसि चउ- के उत्तर-पूर्वी चतुर्थ भाग में रहा हुआ यह ऐरावत क्षेत्र का सूर्य भागमंडलंसि बाणउइयं सूरियमयाइं जाई सूरिए (ऐरावतक्षेत्रीय सूर्य के ही चले हुए) बानवे मण्डलों में स्वयं पीछा अप्पणा चेव चिण्णाई पडिचरइ, चलता हैं । दाहिण-पुरथिमिल्लसि चउब्भागमंडलंसि एक्काणउइय मण्डल के दक्षिण-पूर्वी चतुर्थ भाग में रहा हुआ यह भरत सूरियमयाइं जाई सूरिए अप्पणा चेव चिण्णाई पडि- क्षेत्र का सूर्य (ऐरावतक्षेत्रीय सूर्य के ही चले हुए) इकानवें मण्डलों चरइ, में स्वयं पीछा चलता है। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०२६-१०२६ तिर्यक् लोक : सूर्यमण्डलों का आयाम-विष्कम्भ और बाहल्य गणितानुयोग ५२३ तत्य णं अयं एरवए सूरिए भारहस्स सूरियस्स जंबुद्दीवस्स इस जम्बूद्वीप में जम्बूद्वीप की पूर्व-पश्चिम तथा उत्तर-दक्षिण दीवस्स पाईण-पडीणाययाए उदीण-दाहिणाययाए लम्बी जीवा से मण्डल के एक सौ चौबीस भाग करने पर मण्डल जीवाए मण्डलं चउवीसएणं सएणं छेत्ता-दाहिण- के दक्षिण पश्चिमी चतुर्थ भाग में रहा हुआ ऐरावत क्षेत्र का सूर्य पच्चथिमिल्लसि च उब्भागमंडलंसि बाणउइय सूरिय- (भरतक्षेत्रीय सूर्य के चले हुए) परके चले हुए बानवे मण्डलों में मयाइं जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ, पीछा चलता है । उत्तर-पुरथिमिल्लसि चउभागमंडलं सि एक्काणउइय मण्डल के उत्तर-पूर्वी चतुर्थ भाग में रहा हुआ ऐरावत क्षेत्र सूरियमयाइं जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णाई पडिचरइ, का सूर्य (भरतक्षेत्रीय सूर्य के चले हुए) परके चले हुए इकानवे मण्डलों में पीछा करता है। ता निक्खममाणा खलु एए दुवे सरिया णो अण्णमण्णस्स (सर्व आभ्यन्तर मण्डल से) निकलते हुए ये दोनों सूर्य एक चिणं पडिचरन्ति, दूसरे के चले हुए मण्डलों में पीछे नहीं चलते हैं। पविसमाणा खलु एए दुवे सूरिया अण्णमण्णस्स चिण्णं (सर्व बाह्यमण्डल से) प्रवेश करते हए ये दोनों सूर्य एक पडिचरन्ति सयमेग चोयालं, दूसरे के चले हुए मण्डलों में पीछे चलते हैं यह चीर्ण क्षेत्र मण्डलों -सूरिय. पा. १, पाहु. ३,सु. १४ के एक सौ चुम्मालीस भागों में विभाजित है । सम्वन्भतर-बाहिर-सूरमण्डलाणं अबाहा अन्तरं- सर्व आभ्यन्तर और बाह्य सूर्यमण्डलों का व्यवधान रहित अन्तर२७. ५०-सव्वन्भंतराओ णं भते ! सूरमंडलाओ केवइआए अबा- २७. प्र.-हे भगवन् ! सर्व आभ्यन्तर सूर्यमण्डल से सर्ववाह्य हाए सव्वबाहिरए सूरमण्डले पण्णत्ते ? सूर्यमण्डल व्यवधान रहित कितने अन्तर पर कहा गया है ? उ०-गोयमा ! सम्वन्भंतराओ सूरमंडलाओ पंचदसुत्तरे उ०—हे गौतम ! सर्व आभ्यन्तर सूर्यमण्डल से सर्व बाह्य जोयणसए अबाहाए सव्व बाहिरए सूरमण्डले पण्णत्ते । सूर्यमण्डल व्यवधान रहित पाँच सौ दस यौजन के अन्तर पर -जंबु. वक्ख. ७, सु. १२८ कहा गया है । सूरमंडलस्स आयाम-विक्खंभ-बाहल्लं- सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ और बाहल्य२८.५०-सूरमंडले णं भंते ! केवइयं आयाम-विक्खंभेणं? २८. प०-भंते ! सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ कितना है ? केवइयं परिक्खेदेणं ? केवइयं बाहल्लेणं? परिधि कितनी है ? बाहल्य (मोटाई) कितना है? उ०-गोयमा ! अडयालीस एगसट्ठिभाए जोयणस्स आयाम- उ०-हे गौतम ! अडतालीस योजन के इगसठ भाग जितना विक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, चउवीसं लम्बा-चौड़ा है, इससे कुछ अधिक तिगुनि परिधि है और चौबीस एगसट्ठिभाए जोयणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते । योजन के इगसठ भाग जितना बाहल्य है। -जंबु. वक्ख. ७, सु. १३० सरस्स सन्धमंडलाणं बाहल्लं आयाम-विक्खभ-परि- सूर्य के सर्वमण्डलों का बाहल्य आयाम-विष्कम्भ और क्खेवं च परिधि२६. ५०–ता सव्वा वि ण मंडलवया-केवइयं बाहल्ले णं? २६. प्र०—(सूर्य के) सर्वमण्डलों का बाहल्य कितना है ? केवइयं आयाम-विक्खंभे णं? आयाम-विष्कम्भ कितना है ? केवइयं परिक्खेवे णं? आहितेति वदेज्जा, परिधि कितनी है ? कहैं। उ०-तत्थ खलु इमा तिण्णि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-इस सम्बन्ध में ये तीन प्रतिपत्तियां (मतान्तर) कही तं जहा- ' गई हैं, यथा। तत्थेगे एवमाहंसु-- इनमें से एक (मत वालों) ने ऐसा कहा है १ चन्द. पा.१ सु. १४ । २ सम. ४८, सु. ३ । Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्यमण्डलों का आयाम-विष्कम्भ और बाहल्य सूत्र १०२६ १. ता सव्वा वि जं मण्डलवया जोयणं बाहल्ले णं, (१) (सूर्य के) सभी मण्डलों का बाहल्य एक योजन का है। एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीसं जोयणसयं आयाम- एक हजार एक सौ तेतीस योजन का आयाम-विष्कम्भ हैं । विक्खंभे णं, तिण्णि जोयणसहस्साई तिण्णि य णवण- तीन हजार तीन सौ निन्यानवें योजन की परिधि कही गई है। उई जोयणसए परिक्खेवे णं पण्णत्ता एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है२. ता सव्वा वि जं मण्डलवया जोयण बाहल्ले णं, (२) (सूर्य के) सभी मण्डलों का बाहल्य एक योजन का हैएगं जोयणसहस्सं एगं च चउत्तीसं जोयणसयं आयाम- एक हजार एक सौ चौबीस योजन का आयाम-विष्कम्भ है । विक्खभे णं, तिणि जोयणसहस्साइं चत्तारि विउत्तराई तीन हजार चार सौ दो योजन की परिधि कहीं गई है। जोयणसयाई परिक्खेवे गं पण्णत्ता, एगं एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है३. ता सव्वा वि णं मण्डलवया जोयणं बाहल्ले गं, (३) (सूर्य के) सभी मण्डलों का बाहल्य एक योजन का है। एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसयं आयाम- एक हजार एक सौ पैंतीस योजन का आयाम-विष्कम्भ है। विक्खंभेणं, तिण्णि णोयणसहस्साई चत्तारि पंचुत्तराई तीन हजार चार सौ पाँच योजन की परिधि कही गई है। जोयणसयाई परिक्खेवेणं पण्णत्ता-एगे एवमाहंसु, वयं पुण एवं वयामो हम फिर इस प्रकार कहते हैंता सव्वा वि णं मण्डलवया अडयालीसं एगट्ठिभागे (सूर्य के) सभी मण्डलों का बाहल्य एक योजन के इगसठ जोयणस्स बाहल्ले णं, भागों में से अड़तालीस भाग जितना है। अणियया आयाम-विक्खंभ-परिक्खेवे णं, आहितेति आयाम-विष्कम्भ और परिधि अनियत कही है। वदेज्जा, प०-तत्थ णं कोहेऊ ? ति वदेज्जा, प्र०-इस प्रकार कहने का कारण क्या है ? उ०-ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्व दोव-समुद्दाणं सन्वन्भंत. उ०-यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सब द्वीप-समुद्रों के मध्य में राए सव्व खुड्डागे वट्ट-जाव-जोयणसहस्समायाम- है, सबसे छोटा है. वृत्ताकार है-यावत्-एक लाख योजन का विक्खंभे णं, तिणि जोयणसयसहस्साई, दोण्णि य लम्बा-चौड़ा है और तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन सत्तावीसे जोयणसए, तिग्णि कोसे, अट्ठावीसं च धणु- कोश एक सौ अठावीस धनुष तेरह अंगुल तथा आधे अंगुल से सयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए कुछ अधिक की परिधि कही गई है। परिक्खेवे णं पण्णत्ते, १. ता जा णं सूरिए सम्वन्भंतरं मण्डल उवसंकमित्ता (१) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति चारं चरइ, तया णं सा मण्डलवया अडयालीस एगट्ठि- करता है, तब मण्डल का बाहल्य एक योजन के इगसठ भागों में भागे जोयणस्स बाहल्ले णं, णवणउइ जोयणसहस्साइं से अडतालीस भाग जितना है । निन्यानवे हजार छः सौ चालीस छच्च चत्ताले जोयणसयाई आयाम-विक्खंभे गं, योजन का आयाम-विष्कम्भ है। तिण्णि जोयणसय सहस्साइं पण्णरस जोयणसहस्साइं तीन लाख पन्द्रह हजार निव्यासी योजन से कुछ अधिक की एगणणउई जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिक्खेवे णं,' परिधि कही गई है। भागा म १ सूर्यप्रज्ञप्ति तथा जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति के सूत्रों में सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ कहा गया है किन्तु समवायांग के सूत्र में केवल विष्कम्भ ही कहा गया है। इसका समाधान यह है कि वृत्ताकार का आयाम विष्कम्भ सदा समान होता है, सूर्यमण्डल वृत्ताकार है अतः केवल विष्कम्भ कहने से आयाम विष्कम्भ समझ लेना चाहिए। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का बाहल्य एक योजन के इगसठ भागों में से अडतालीस भाग जितना कहा गया है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में सूर्य मण्डल का बाहल्य एक योजन के इगसठ भागों में से चौबीस भाग जितना कहा गया है। (क्रमशः) Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०२६ तिर्यक्लोक : सूर्यमण्डलों का आयाम-विष्कम्भ और बाहल्य गणितानुयोग ५२५ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। २. से निक्खम्ममाणे सूरिए णवं सवच्छरं अयमाणे पढमंसि (२) (सर्वाभ्यन्तर मण्डल से) निकलता हुआ वह सूर्य नये अहोरत्तंसि अन्मिंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं संवत्सर के दक्षिणायन को प्रारम्भ करता हुआ, प्रथम अहोरात्र चरइ, में आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं सूरिए अमितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता जब सूर्य आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगट्ठि- करता है तब मण्डल का बाहल्य एक योजन के इगसठ भागों में भागे जोयणस्स बाहल्ले णं, से अड़तालीस भाग जितना है । णवणउई जोयणसहस्साई छच्च पणयाले जोयणसए निन्यानवे हजार छ: सौ पैंतालीस योजन और एक योजन पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स आयाम-विक्खंभे णं, के इगसठ भागों में से पैंतीस भाग जितना आयाम-विष्कम्भ है। तिणि जोयणसयसहस्साइं पण्णरस जोयणसहस्साइं तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ चार योजन से कुछ कम एगं चउत्तरं जोयणसयं किंचि विसेसूर्ण परिक्खेवे गं, की परिधि कही गई है। तया गं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहि एगट्ठिभाग- उस समय एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से दो भाग कम मुहुर्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहि एगट्ठि- अठारह मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग भागमुहुर्ताह अहिया, तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । ३. से निक्खम्ममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तसि अभितरं (३) (आभ्यन्तरानन्तर मण्डल से) निकलता हुआ वह सूर्य तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, दूसरे अहोरात्र में आभ्यन्तर तृतीय मण्डल प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं सूरिए अभितरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता जब सूर्य आभ्यन्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगट्ठि- करता है तब मण्डल का बाहल्य एक योजन के इगसठ भागों में भागे जोयणस्स बाहल्ले णं, से अड़तालीस भाग जितना है। णवणउइ जोयणसहस्साई छच्च एकावन्ने जोयणसए निन्यानवे हजार छः सौ इक्कावन योजन और एक योजन णव य एगट्ठिभागे जोयणस्स आयाम-विक्खंभे गं, के इगसठ भागों में से नौ भाग जितना आयाम-विष्कम्भ है। तिण्णि जोयणसयसहस्साइं पण्णरस जोयणसहस्साई तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ पच्चीस योजन की परिधि एगं च पणवीसं जोयणसयं परिक्खेवे णं पण्णत्ते, कही गई है। तया णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ, चहिं एगट्ठिभाग- उस समय एक मुहूर्त के इसठ भागों में से चार भाग कम मुहुर्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । चहि एगट्ठि- अठारह मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग भागमुहुर्तेहिं अहिया, तथा चार भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । एवं खल एएणं उवाएणं निक्खम्ममाणे सूरिए तया- इस प्रकार इस क्रम से निकलता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डल गंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकम- से तदनन्तर मण्डल की ओर संक्रमण करता करता पाँच-पांच माणे पंच पंच जोयणाइं पणतीसं च एगट्ठिभागे जोय- योजन तथा एक योजन के इगसठ भागों में से पैतीस भाग जितनी (क्रमशः) इन दो प्रकार के बाहल्य प्रमाणों में से कौन सा वास्तविक है यह शोध का विषय है। सूर्यप्रज्ञप्ति में मूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ और परिधि बाह्याभ्यन्तर मण्डलों की अपेक्षा अनियत लिखा है किन्तु जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ और परिधि अनियत नहीं लिखी है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ और परिधि कही है वह आभ्यन्तर या बाह्यमण्डलों की है। क्योंकि सूर्यप्रज्ञप्ति में कथित बाह्याभ्यन्तर मण्डलों के आयाम-विष्कम्भ प्रमाणों में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति कथित आयाम-विष्कम्भ परिधि का प्रमाण मिलता नहीं है। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूयमंडलों का आयाम-विष्कम्भ और बाहल्य सूत्र १०२६ णस्स एगमेगे मंडले विक्खंभ बुढि अभिवड्ढेमाणे विष्कम्भ वृद्धि प्रत्येक मण्डल में बढ़ाता बढ़ाता अठारह अठारह अट्ठारस अट्ठारस जोयणाई परिरयड्ढि अभिवड्ढेमाणे योजन परिधि की वृद्धि बढ़ाता सर्व बाह्यमण्डल की ओर बढ़ता अभिवड्ढेमाणे सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं हुआ गति करता है। चरइ, ४. ता जया णं सूरिए सव्व बाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता (४) जब सूर्य सर्व बाह्यमण्डल को प्राप्त करके गति करता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगट्ठि- है तब मण्डल का बाहल्य एक योजन के इगसठ भागों में से भागे जोयणस्स बाहल्ले णं, अड़तालीस भाग जितना है । एगं च जोयणसयसहस्सं छच्चसट्टे जोयणसए आयाम- एक लाख छः सौ साठ योजन जितना आयाम-विष्कम्म है। विक्खंभे णं, तिण्णि जोयणसयसहस्साई अटारससहस्साई तिणि य तीन लाख अठारह हजार तीन सौ पन्द्रह योजन की परिधि पण्णरसुत्तरे जोयणसए परिक्खेवेण, कही गई है। तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की भवइ, जहण्णिए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, रात्रि होती है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है। एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स ये प्रथम छ: मास (दक्षिणायन के) हैं यह प्रथम छः मास पज्जवसाणे, का अन्त है। १. से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि (१) (सर्व बाह्यमण्डल से) प्रवेश करता हुआ वह सूर्य दूसरे अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं छः मास से उत्तरायण प्रारम्भ करता हुआ प्रथम अहोरात्र में चरइ, बाह्यानन्तर मण्डल को प्राप्त करता हुआ गति करता है । ता जया गं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता जब सूर्य बाह्यानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगट्ठि- तब मण्डल का बाहल्य एक योजन के इगसठ भागों में से अड़ताभागे जोयणस्स बाहल्ले णं, लीस भाग जितना है। एग जोयणसयसहस्सं छच्च चउप्पणे जोयणसए एक लाख छः सौ चौवन योजन और एक योजन के इगसठ छन्वीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स आयाम-विक्खंभे णं भागों में से छब्बीस भाग जितना मण्डल का आयाम-विष्कम्भ है। तिण्णि जोयणसयसहस्साई अट्ठारस सहस्साइं दोण्णि य तीन लाख अठारह हजार दो सौ सत्तानवे योजन की परिधि सत्ताणउए जोयणसए परिक्खेवे णं पण्णत्ते, कही गई है। तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभाग- उस समय एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो भाग कम मुहहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगट्ठि- अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहूर्त के इ कसठ भाग भागमुहुर्तेहि अहिए, तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है। २. से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं (२) (बाह्यानन्तर मण्डल से) प्रवेश करता हुआ वह सूर्य तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, दूसरे अहोरात्र में बाह्य तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता जब सूर्य बाह्य तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीसं एगट्ठिभागे है तब मण्डल का बाहल्य एक योजन के इकसठ भागों में से जोयणस्स बाहल्ले गं, अड़तालीस भाग जितना है। एगं जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावणं एक लाख छः सौ अड़तालीस योजन और एक योजन के च एगट्ठिभागे जोयणस्स आयाम-विक्खंभे णं, इगसठ भागों में से बावन भाग जितना आयाम-विष्कम्भ है । तिष्णि जोयणसयसहस्साइं अट्ठारससहस्साई दोण्णि य तीन लाख अठारह हजार दो सौ गण्यासी योजन की परिधि एगूणासोए जोयणसए परिक्खेवे णं पण्णत्ते, कही गई है। Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०२६-१०३० गया में अट्ठारसमुहसा राई भवर चढहि एगट्टिभागमुहुर्तोह ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । चह एगट्टिभागमुहुर्तो अहिए, तिर्यक् लोक : सूर्यमण्डलों का बाहल्य अन्तर एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तथाणंतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुढ निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोयणाइं परिरयबुढि निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ३. ता जया णं सूरिए सव्वमंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीस एगट्टि भागे जोयणस्स बाहल्ले णं पण आयाम - विक्खंभे णं, जोपसपसहस्साई उच्च चत्ताले जोयणसए तिणि जीवणराय सहस्साई पण्यरतसहस्साई एउ जोगाई विसेसाहिए परिक्लेवे णं प तया में उत्तम पत्ते उस्कोसए द्वारसमुहले दिवसे भव जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे । एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे, ' - सूरिय० पा० १, पाहु० ८, सु१२० सत्य सूरमंडलाण बाल्लं अन्तरं अद्धा पमाणं च३०. ता सव्वा विणं मंडलवया अडयालीसं च एगट्टिभागे जोयणबाह सव्वा वि णं मण्डलं तरिया दो जोषणाई विक्खभे णं, एस अड्डा तेसीय सपंदरे जोपणसए आहिए ति बा चन्द. पा. १, सू. २० । गणितानुयोग उस समय एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से चार भाग कम अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग तथा चार भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है। ५२७ इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डल से तदनन्तर मण्डल का संक्रमण करता करता प्रत्येक मण्डल में पाँच पाँच योजन और एक योजन के इगसठ भागों में से पैंतीस भाग जितनी विष्कम्भ वृद्धि तथा अठारह अठारह योजन की परिधि-वृद्धि को घटाता घटाता सर्व आभ्यन्तर मण्डल की ओर बढ़ता हुआ गति करता है । (३) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है तब मण्डल का बाहल्य एक योजन इगसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितना है । निन्यानवे हजार छः सौ चालीस योजन का आयामविष्कम्भ है । तीन लाख पन्द्रह हजार निवासी योजन से कुछ अधिक की परिधि कही गई है। उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । ये दूसरे छ: मास (उत्तरायण के) है। यह दूसरे छः मास का अन्त है । यह आदित्य संवत्सर है। यह आदित्य संवत्सर का अन्त है । २ सर्व सूर्य मण्डलों का बाहुल्य अन्तर और मार्ग प्रमाण३०. सभी मण्डलों का बाहल्य (मोटाई) एक योजन के इकसठः भागों में से अड़तालीस भाग जितना है । सभी मण्डलों के विद्यमान एक सौ तिरासी ( मण्डलों) के (गुणन से ) पाँच सौ दस योजन ( जितना लम्बा ) मार्ग हैं | अन्तर का विष्कम्भ दो योजन का है । सम. ४८ सु. ३ १ ३ गणित की प्रक्रिया एक सौ तिरासी मण्डल हैं और प्रत्येक मण्डल का अन्तर दो योजन का है, अतः एक सौ तिरासी को दो से गुणा करने पर तीन सो छासठ योजन होता है । एक योजन के इगसठ भागों में से यहाँ अड़तालीस भाग ग्राह्य हैं अतः अडतालीस को एक सौ तिरासी ( मण्डल की संख्या) से गुणा करने पर आठ हजार सात सौ चौरासी भाग हुए, इनके इगसठ ( एक योजन के) का भाग देने पर एक सौ चम्मालीस योजन हुए । तीन सौ छासठ योजन और एक सौ चम्मालीस योजन के जोड़ने पर पाँच सौ दस योजन हुए । Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक लोक सूर्यमण्डलों का बाल्य अन्तर प० - ता अब्मिंतराओ मण्डलवयाओ बाहिरं मण्डलवयं बाहिराओ वा मंडलवयाओ अब्भिंतरं मण्डलवयं, एस अदा केलयं आहिए ति बा ? उ०ता पंचसुतरे जो आहिए सि एग्जा प० - अभिंतराए मण्डलवयाए बाहिरा मंडलवयाओ अब्भिंतर मण्डलवा एस णं अद्धा केवइयं आहिए त्ति वएज्जा ? उ०-ता पंचदसुत्तरे जोयणसए अडयालीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स अहिया, प० - ता अब्भिंतराओ मण्डलवयाओ बाहिर मण्डलवया बाहिराओ मण्डलवयाओ अभिंतर- मण्डलवया - एस णं अद्धा केवइयं आहिए ति वदेज्जा ? उ०-ता पंचनवुत्तरे जोयणसए तेरस एगट्टिभागे जोयणस्स आहिए सि बया प० - अभिंतराओ मण्डलवयाओ बाहिरा मण्डलवया, बाहिराए मण्डलवाए अभिंतर-मण्डलवया - एस णं अद्धा केवइया आहिए सि वदेज्जा ? T उ०ता पंचरत्तरे जोयणसए आहिए सि वदेजा, " - सूरिय० पा० १ ००२० सूरमण्डलस्स आयाम - विक्खंभो परिक्खेवो बाहल्लं च - ३१. १० (क) सूरमण्डले गं मंते! केवइयं आगम-विश्खमे ? (ख) केवइयं परिक्खेवे णं ? (ग) केवइयं बाले पण ? उ०- (क) गोयमा ! सूरमण्डले - अडयालीसं एगसट्टिभाए जोपणस्स आयाम - विक्ष (ख) तंतिपूर्ण सविसेस परिसेवेनं (ग) चडवी एक्सट्टिभाए जो बाहल्ले में प - जंबु. वक्ख. ७, सु. १३० सूरमण्डलाणं आयाम - विक्खंभ- परिक्खेवं मण्डलाणं विश्वंभ बुडि हाणि च ३२. १. ५० – जंबुद्दीवे दीवे सव्वब्भंतरे णं भंते ! सूरमण्डले hasi आयाम - विक्खंभे णं, केवइयंप रिक्खेवे णं पण्णत्ते ? प्र० - आभ्यन्तर मण्डल से बाह्यमण्डल और बाह्यमण्डल से आभ्यन्तरमण्डल ( पर्यन्त) कितना ( लम्बा ) मार्ग है ? सूत्र १०३०-१०३२ उ०- पाँच सौ दस योजन ( जितना लम्बा मार्ग) है । प्र० – आभ्यन्तर मण्डल पद से बाह्यमण्डल पद और बाह्यमण्डल पद से आभ्यन्तर मण्डल पद का मार्ग कितना लम्बा है ? उ०- पाँच सौ दस योजन और एक योजन के इकसठ भाग तथा अड़तालीस भाग अधिक ( लम्बा मार्ग ) है । प्र०—- आभ्यन्तर मण्डल पद से बाह्यमण्डल पद और बाह्यमण्डल पद से आभ्यन्तर मण्डल पद- इनका मार्ग कितना (चम्बा) है? उ०- पाँच सौ नौ योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से तेरह भाग जितना ( लम्बा ) मार्ग है । प्र ० - आभ्यन्तर मण्डल पद से बाह्य मण्डल पद और बाह्य मण्डल पद से आभ्यन्तर मण्डल पद - इनका मार्ग कितना (स) है ? उ०- पाँच सौ दस योजन जितना ( लम्बा मार्ग ) है । सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भः परिधि और बाहल्य३१. प्र० (क) हे भगवन् ! सूर्यमण्डल का आयाम-विष्कम्भ कितना है ? - (ख) कितनी परिधि है ? (ग) और कितना बाहल्य कहा गया है ? उ०- ( क ) हे गौतम! एक योजन के इगसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितना सूर्यमण्डल का आयाम - विष्कम्भ है । (ख) इससे कुछ अधिक तीन गुणी परिधि है । (ग) एक योजन के इगसठ भागों में से चौबीस भाग जितना बाहल्य= मोटाई है । सूर्यमण्डलों का आयाम विष्कम्भ परिधि और मण्डलों के विष्कम्भ की हानि-वृद्धि ३२. (१) प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप द्वीप में सर्वाभ्यन्तर सूर्यमण्डल का आयाम - विष्कम्भ और परिधि कितनी कही गई है ? १ चन्द. पा. १ सु. २० । २ (क) सूरमण्डले णं अडयालीस एगसट्टिभागे जोयणस्स विक्खंभे णं पण्णत्ता, (ख) सूरमण्डलं जोयणे णं तेरसहि एगट्टिभागेहि जोयणस्स ऊणं पण्णत्तं, - सम. ४८, सु. ३ -सम. १३. सु. ८ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०३१ तियक लोक : सूर्यमण्डलों का आयाम-विष्कम्भ गणितानुयोग ५२९ उ०-गोयमा ! णवणउइं जोयणसहस्साई छच्च चत्ताले उ-हे गौतम ! निन्यानवे हजार छः सौ चालीस योजन जोयणसए आयाम-विक्खंभेणं, तिण्णि य जोयणसय- का आयाम-विष्कम्भ और तीन लाख पन्द्रह हजार निवासी सहस्साइं, पण्णरस य जोयणसहस्साइं एगणणउइं योजन से कुछ अधिक की परिधि कही गई है। च जोयणाइं किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । २. ५०-अभंतराणंतरे णं भंते ! सूरमण्डले केवइयं आयाम- (२) प्र०-भगवन् ! आभ्यन्तरानन्तर (दूसरे) सूर्यमण्डल विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते? का आयाम-विष्कम्भ और परिधि कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! णवणउइं जोयणसहस्साई छच्च पणयाले उ-हे गौतम ! निन्यानवे हजार छः सौ पैतालीस योजन जोयणसए पणतीसं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स और पैंतीस योजन के इगसठ भाग जितना आयाम विष्कम्भ तथा आयाम-विक्खंभेणं । तिणि य जोयणसयसहस्साई तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ सात योजन की परिधि कही एगं सत्त्तरं जोयणसयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। गई है। ३.५०-अब्भंतर तच्चे णं भंते ! सूरमण्डले केवइयं आयाम- (३) प्र०-भगवन् ! आभ्यन्तर तृतीय सूर्यमण्डल का विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते ? आयाम-विष्कम्भ और परिधि कितनी कही गई है ? -गोयमा ! णवणउइं जोयणसहस्साई छच्चं एकावण्णे उ०-हे गौतम ! निन्यानवे हजार छः सौ इक्कावन योजन जोयणसए णव य एगसट्ठिभाए जोयणस्स आयाम- तथा नौ योजन के इकसठ भाग जितना आयाम-विष्कम्भ और विक्खंभेणं । तिण्णि य जोयणसयसहस्साइं पण्णरस तीन लाख पन्द्रह हजार एक सौ पच्चीस योजन की परिधि कही जोयणसहस्साई एगं च पणवीसं जोयणसयं परिक्खे- गई है। वेणं पण्णत्ते। एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तया- इस प्रकार इस क्रम से निकलता हुआ सूर्य एक के बाद दूसरे गंतराओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं उवसंकममाणे मण्डल पर उपसंक्रमण करता करता प्रत्येक मण्डल में पाँच पाँच उवसंकममाणे पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगसट्ठि- योजन तथा तैतीस योजन के इकसठ भाग जितनी विष्कम्भ भाए जोयणस्स एगमेगे मण्डले विक्खंभवुड्ढिं अभि- वृद्धि करता करता और परिधि में अठारह अठारह योजन की वड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोयणाई वृद्धि करता करता सर्वबाह्य मण्डल पर उपसक्रान्त होकर गति परिरयवुड्ढेि अभिवुड्ढेमाणे अभिवुड्ढेमाणे सव्व- करता है। बाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चार चरइ । ४. ५०-सव्व बाहिरएणं भंते ! सूरमण्डले केवइयं आयाम- (४) प्र०-भगवन् ! सर्वबाह्य सूर्यमण्डल का आयाम विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते? विष्कम्भ और परिधि कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! एगं जोयणसयसहस्सं छच्च सटु जोयण- उ०-हे गौतम ! एक लाख छ: सौ साठ योजन का सए आयाम-विक्खंभेणं । तिण्णि य जोयणसयसह- आयाम विष्कम्भ और तीन लाख अठारह हजार तीन सौ पन्द्रह स्साइं अट्ठारस य सहस्साई तिण्णि य पण्णरसुत्तरे योजन की परिधि कही गई है। जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । "५. ५०-बाहिराणंतरे णं भंते ! सूरमण्डले केवइयं आयाम- (५) प्र०-भगवन् ! बाह्यानन्तर (बाहर से दूसरा) सूर्य विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते? मण्डल का आयाम-विष्कम्भ और परिधि कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! एग जोयणसयसहस्सं छत्र चउप्पण्णे उ०—हे गौतम ! एक लाख छः सौ चौवन योजन तथा जोयणसए छन्वीसं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स छब्बीस योजन के इगसठ भाग जितना आयाम-विष्कम्भ और आयाम-विक्खंभेणं। तिण्णि य जोयणसयसहस्साई तीन लाख अठारह हजार दो सौ सत्तानवे योजन की परिधि अट्ठारस य सहस्साई दोण्णि य सत्ताणउए जोयणसए कही गई है। परिक्खेवेणं पण्णत्ते। ६.५०-बाहिर तच्चे णं भंते ! सूरमण्डले केवइयं आयाम- (६) प्र०-भगवन् ! बाह्य तृतीय सूर्यमण्डल का आयाम विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेडेणं पण्णत्ते ? विष्कम्भ और परिधि कितनी कही गई है ? Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० लोक- प्रज्ञप्ति उ० उ०- गोयमा ! एवं जोयणसयसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावण्णं च एगसट्टिभाए जोयणस्स आयाम विक्खभेणं । तिण्णि य जोयणसयसहस्साइं अट्टासहस्साई दोषिय अगासीए जोयणसए परिक्खेवेणं पण्णत्ते । पत्तेय सूरमण्डलस्स अन्तरं - तिर्यक् लोक प्रत्येक सूर्यमण्डल का अन्तर एवं खलु एएवं उबाएणं पचिसमा सुरिए तयातराओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संकममाणे पंत्र पंच जोयणाई पणतीसं च एगसट्ठि भाए जोयणस्स एगमेगे मण्डले विक्खंभवुद्धिं णिबुड्ढेमाणे णिव्वुड्ढेमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोयगाई परिरयबुद्धि निमाणे निव्युद्देमाने सव्वमंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । - जंबु. वक्ख. ७, सु. १३२ ३३. प० - सूरमण्डलस्स णं भंते ! सूरमण्डलस्स य केवइयं अबाहाए अन्तरे पण्णत्ते ? -गोयमा ! सूरमण्डलस्स सूरमण्डलस्स य दो जोयणाइं अबाहाए अन्तरे पण्णत्ते । - सूत्र १०३२-१०३४ उ०- हे गौतम ! एक लाख छः सौ अड़तालीस योजन तथा बावन योजन के इगसठ भाग जितना आयाम - विष्कम्भ और तीन लाख अठारह हाजर दो सौ उन्नासी योजन की परिधि कही गई है। इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य एक के बाद दूसरे मण्डल पर संक्रमण करता करता प्रत्येक मण्डल में पाँचपाँच योजन तथा पैंतीस योजन के इगसठ भाग जितनी विष्कम्भ (चौड़ाई में) हानि करता करता और परिधि में अठारह अठारह योजन की कमी करता करता सर्वाभ्यन्तर मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है। प्रत्येक सूर्यमण्डलका अन्तर- ३२. प्र० ] भगवन्! एक सूर्यमण्डल से दूसरे सूर्यमण्डल का व्यवधान रहित कितना अन्तर कहा गया है ? उ०- हे गौतम! एक सूर्यमण्डल से दूसरे सूर्यमंडल का व्यवधान रहित दो योजन का अन्तर कहा गया है । - जंबु. वक्ख. ७, सु. १२६ की हानि-वृद्धि- मन्दरपाओ सूरियमण्डलाणमंतर मण्डले गईए मन्दरपर्वत से सूर्यमण्डलों का अन्तर और मण्डलों में गति हाणि बुद्धी३४. १. ५० - जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइपाए हाए सम्म्मंतरे सूरमण्डले पण ? उ०- गोयमा ! चोआलीसं जोयणसहस्साइं अट्ठ य वीसे जोयणसए अबाहाए सव्वन्धंतरे सूरमण्डले पण्णत्ते । २. प० - जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइ याए अमाहाए सतराणंतरे सूरमण्डले पण ? उ०- गोमा ! चोआलीसं जोयणसहस्साइं अट्ठ य बावीसे जोयणसए अडयालीसं च एगसट्टिभागे जोयणस्स अवाहाए सत्यन्यंतरानंतरे सूरमण्डले पसे । ३. ५० - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अवाहाए अभ्यंतर सच्चे सूरमण्डले पण्य ? उ० – गोयमा ! चोआलीस जोयणसहस्साइं अट्ठ य पणवी से जोयणसए पणतीसं एगसद्विभागे जोयणस्स अबाहाए अब्भंतर तच्चे सूरमण्डले पण्णत्ते । एवं खलु एएवं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तया तरं मण्डलं संकममाणे संकममाणे दो दो जोयणाई अडयालीस च एगसट्टिभागे जोयणस्स अबाहाए युद्धं अभियमाणं अभिवमा सम्बवाहिर मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइति । ३४ (१) प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से कितने व्यवहित] अन्तर पर सर्वान्वन्तर सूर्यमण्डल कहा गया है ? उ०- हे गौतम! सर्वाम्यन्तर सूर्यमण्डल धम्मालीस हजा आठ सौ बीस योजन के अन्तर पर कहा गया है। (२) प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत से कितने व्यवहित अन्तर पर सर्वाभ्यन्तरानन्तर सूर्यमण्डल कहा गया है। उ०- हे गौतम! सर्वाभ्यन्तरानन्तर मण्डल चम्मालीस हजार आठ सौ बावीस योजन और अड़तालीस योजन के इकसठ भाग जितने अन्तर पर कहा गया है। (२) प्र० - भगवन् ! जम्बुद्वीप के मन्दरपर्वत से कितने व्यवहित अन्तर पर आभ्यन्तर तृतीय सूर्यमण्डल कहा गया है ? उ०- हे गौतम | आभ्यन्तर तृतीय सूर्यमण्डल चम्मालीस हजार आठ सौ पच्चीस योजन और पैंतीस योजन के इकसठ भाग जितने अन्तर पर कहा गया है । इस क्रम से निकलता हुआ सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर संक्रमण करता करता प्रत्येक मण्डल की दूरी में दो दो योजन और अड़तालीस योजन के इकसठ भाग जितनी वृद्धि करता करता सर्ववा मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०३४ १०३६ तिर्यक् लोक रात-दिन का प्रमाण CO ४. ५० - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए सत्यवाहिरे सूरमण्डले? उ०- गोयमा ! पणयालीसं जोयणसहस्साइं तिष्णि य तीसे जोयणसए अबाहाए सव्वबाहिरे सूरमंडले पण्णत्ते ५. प० - जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबहाए सत्यवाहिरात सूरमण्डले पण्णले ? उ०- गोपमा ! पणवालीस जोपणसहस्साई तिमि व सत्तावीसे जोयणसए तेरस य एगसट्टिभागे जोयणस्स अबाहाए बाहिराणंतरे सूरमण्डले पण्णत्ते । ६. प० - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए बाहिर तच्चे सूरमण्डले पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! पणयालीसं जोयणसहस्साइं तिष्णि य चवीसे जोयणसए छब्वीसं च एगसट्टिभागे जोयणस्स अबाहाए बाहिर तच्चे सूरमण्डले पण्णत्ते । एवं एएवं उपाए पविसमाणे प्यूरिए तथा अंतराओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संक्रममाणे दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगसट्ठिभाए जोयणस्स एगमेगे मण्डले अबाहाए वुद्धिं णिव्वुड्ढेमाणे णिव्वुड्ढेमाणे सव्वमंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । १ ३ - जंबु. वक्ख. ७, सु. १३१ सव्व सूरमण्डलम सूरस्स गमणागमण-राईदिय प्पमाण ३५. १० – ता जया णं सूरिए सव्वमंतराओ मण्डलाओ सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । सव्व बाहिओ मण्डलाओ सव्वभंतरं मण्डलं उवसकमित्ता चारं चरइ । एस णं अद्धा केवइयं राइदियग्गे णं आहितेत्ति वदेज्जा ? उ०ता तिमि छाव राइदिए राइदियो अहिलेति वदेज्जा ।" सूरिय. पा. १, पाहु. १, सु. सूरमण्डले सूरस्स सइ दुक्तो वा चार-३६. ५० - ता एताए अद्धाए सूरिए कति मण्डलाई चरइ ? उ०- ता चुलसीयं मंडलसयं चरइ । बासी मण्डलसयं दुक्खुत्तो चरइ, माणे चेव, पवेसमाणे चेव । * दुवे य खलु मण्डलाई सई चरई, तं चेय मण्डल सम्ववाहिर दे चन्द. पा. १ सु. ६ । चन्द. पा. १ सुः १० । तं जहा - क्खिम जहा— सव्वमंतरं - सूरिय. पा. १, पाहु. १, सु. १० गणितानुयोग ५३१ (४) प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप के मन्दरपर्वत के कितने व्यवहित अन्तर पर सर्वबाह्यसूर्यमण्डल कहा गया है ? उ०- हे गौतम! सर्वासूर्यमण्डल पैतालीस हजार तीन सौ तीस योजन के अन्तर पर कहा गया है । (५) प्र० ] भगवन्! जम्बूद्वीप के मन्दरपर्वत से कितने व्यवहित अन्तर पर सर्व वाह्यानन्तर सूर्यमण्डल कहा गया है ? उ०—हे गौतम! सर्व बाह्यानन्तर सूर्यमण्डल पैंतालीस हजार तीन सौ सत्तावीस योजन और तेरह योजन के इगसठ भाग जितने अन्तर पर कहा गया है । (६) प्र० - भगवन् ! जम्बूद्वीप के मन्दरपर्वत से कितने व्यवहित अन्तर पर बाह्य तृतीय सूर्य मण्डल कहा गया है ? उ० – हे गौतम ! बाह्य तृतीय सूर्य मण्डल पैंतालीस हजार तीन सौ चौबीस योजन और छब्बीस योजन के इकसठ भाग जितने अन्तर पर कहा गया है । इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर संक्रमण करता करता प्रत्येक मण्डल की दूरी में दो दो योजन और अड़तालीस योजन के इगसठ भाग जितनी कमी करता करता सर्वाभ्यन्तर मण्डल पर उपसंक्रान्त होकर गति करता है । सर्व सूर्य मण्डलों के मार्ग में सूर्य के गमनागमन के रातदिनों का प्रमाण ३५. प्र०. - सूर्य जब सर्व आभ्यन्तर मण्डल के सर्व बाह्य मण्डल की ओर तथा सर्व बाह्य मण्डल से सर्व आभ्यन्तर मण्डल की ओर गति करता है, तब वह सूर्य मण्डलों का मार्ग कितने रातदिनों में पार करता है ? यह कहें । उ०- वह मार्ग तीन सौ छासठ पूर्ण दिन-रात में पार करता है - ऐसा कहा है । सूर्य मण्डलों में सूर्य की एक बार अथवा दो बार गति३६. प्र० - इन सूर्यमण्डलों के मार्ग में सूर्य कितने मण्डलों में गति करता है ? ० सूर्य एक सौ चौरासी मण्डलों में गति करता है। एक सौ बियासी मण्डलों में सूर्य दो बार गति करता है, यथा - निष्क्रमण करता हुआ और प्रवेश करता हुआ । दो मण्डलों में सूर्य एक बार गति करता है, यथा-सर्वआभ्यन्तर मण्डल में और सर्व बाह्यमण्डल में । २ सम. ८२ सु. १ । Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य का मंडल से मण्डल में संक्रमण सूत्र १०३७ सूरस्स मण्डलाओ मण्डलांतर-संकमणं सूर्य का एक मण्डल से दूसरे मण्डल की ओर संक्रमण३७. ५०–ता कहं ते मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे संकममाणे ३६. प्र०—सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण सूरिए चारं चरइ? आहिए त्ति वएज्जा, करता करता किस प्रकार की गति करता है ? कहें । उ०-तत्थ खलु इमाओ दुवे पडिवत्तीओ पण्णताओ, उ०—इस सम्बन्ध में ये दो प्रतिपत्तियाँ (मान्यताएँ) कही तं जहा गई हैं । यथातत्थेगे एवमाहंसु-- इनमें से एक (मान्यता वालों) ने ऐसा कहा है१. ता मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे संकममाणे सूरिए (१) सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण भेयघाएणं संकामइ, एगे एवमाहंसु करता करता भेदघात से संक्रमण करता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता व लों) ने फिर ऐसा कहा है२. ता मण्डलाओ मण्डल संकममाणे संकममाणे सूरिए (२) सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण करता कण्णकलं निव्वेढेइ एगे एवमाहंसु, हुआ कर्णकला से मंडल को छोड़ता है। तत्थ णं जे ते एवमाहंसु । उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं१. ता मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे संकममाणे सूरिए (१) सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण करता भेयघाए णं संकामइ। करता भेद (दो मंडलों के अन्तराल में) घात (गमन) से संक्रमण करता है। तेसि णं अयं दोसे, उनकी इस मान्यता में यह दोष है। ता जेणंतरेणं मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे संकममाणे सूर्य एक मंडल से दूसरे मडल की ओर संक्रमण करता भेयघाएणं संकमइ–एवइयं च णं अद्धं पुरओ न करता करता भेद (दो मंडलों क अन्तराल में) घात (गमन गच्छइ, पुरओ पुरओ अगच्छमाणे मण्डलकालं परि• करने) से जितने समय में संक्रमण करता है उतने समय तक वह हवेइ । तेसि णं अयं दोसे, आगे (अन्य मंडल में। नही जाता है। इस प्रकार आगे आगे (अन्य अन्य मंडलों में) न जाने पर (मंडलों के अन्तरालों में सूर्य की गति होते रहने से) मडलों में गति करने का काल समाप्त हो जाता है (अतः सर्वविदित दिन-रात का निश्चित प्रमाण भंग हो जाता है।) तत्थ णं जे ते एवमाहंसु उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं२. ता मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे सूरिए कण्णकलं (२) एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण करता निवेढेइ हुआ कर्ण (मंडल के प्रारम्भ से द्वितीय मंडल के प्रारम्भ तक) (एकेक) कला से मंडल को छोड़ता है। १ मंडलादपरमण्डलं संक्रामन् संक्रमितुमिच्छन् सूर्यो भेदघातेन संक्रामति भेदो मंडलस्य मंडलस्यापान्तरालं तत्र घातो-गमनं, एतच्च प्रागेवोक्तं, तेन संक्रामति, किमुक्तं भवति ? विवक्षिते मंडले सूर्येणापूरिते सति तदनन्तरमपान्तरालगमनेन द्वितीयं मंडल संक्रामति संक्रम्य च तस्मिन् मंडले चारं चरति, -सूर्य • टीका मंडलान्मंडलं संक्रामन् संक्रमितुमिच्छन् सूर्यस्तदधिकृतं मंडलं प्रथमक्षणादूर्ध्वमारभ्य कर्ण-कलं निर्वेष्टयति मुँचति, इयमत्र भावना-"भारत ऐरावतो वा सूर्यः स्व स्व स्थाने उद्गतः सन् अपरमंडलगतं कर्ण प्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्य शनैः शनैरधिकृतं मंडल तथा कयाचनापि कलया मुञ्चन् चारं चरति" येन तस्मिन्नहोरात्रेऽतिक्रान्ते सति अपरानन्तरमंडलस्यारम्भे वर्तते इति, कर्णकलमिति च क्रियाविशेषणं द्रष्टव्यं, तच्चवं भावनीय "कर्ण-अपरमंडलगतप्रथमकोटिभागरूपं लक्ष्यीकृत्याधिकृतमंडलं प्रथमक्षणादूर्ध्व क्षणे क्षणे कलयाऽतिक्रान्तं यथा भवति तथा निर्वेष्टयतीति, -सूर्य. टीका. Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०३७-१०३८ १ तिर्यक लोक सूर्य की एक मंडल से दूसरे मंडल में संक्रमण क्षेत्र-पति गणितानुयोग ५३३ लेस अर्थ विलेसे ता जेणंतरेणं मण्डलाओ मण्डलं संकममाणे सूरिए कण्णकललं निव्वेढेइ एवइयं च णं अद्धं पुरओ गच्छछ, पुरओ गच्छमाणे मण्डलकालं न परिहवेइ, तेसि णं अर्थ विसेसे सत्य जे ते एमासु मण्डलाओ मण्डल संकममाणे सूरिए कण्णकलं निब्बेढेइ एएणं प्पएणं णेयव्वं, णो चेव णं इयरेणं, ' - सूरिय० पा० २, पाहू. २, सु० २२ सूरस्स एगमेगे राईदिए मण्डलाओ मण्डलसंकमणखेत चार ३८. ५० - ता केवइयं ते एगमेगे णं राइदिए णं विकंपइत्ता विपत्तारिए बारं बरह ? आहितेति वदेना । उ०- तत्थ खलु इमाओ सत्त पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा तत्येगे एमा १. ता दो फोगाई अचालीसे तेसो सवमागे जोपणस्स एयमेगे गं राईदिए णं विकंपडत्ता विकंप इत्ता, सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २. ताई जोवणाई एम मेगे राइदिए विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ । एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु ३. ता तिभागूणाई तिन्नि जोयणाई एगमेगे णं राइदिए विपदा विपहला सूरिए चारं चर एगे एवमाहंगु एगे पुण एवमाहं - ४. ता तिणि जोयणाई अद्धसीतालीस च तेसीइसयभागे जोयस्त एगमेगे णं राईदिए णं विरूपता विरूपता सूरिए चार चरइ, एगे एवमाहसु, चन्द. पा. २, सु. २२ । उनकी इस मान्यता में यह विशेषता है एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण करता हुआ सूर्य जितने समय में कर्ण ( मंडल के प्रारम्भ से द्वितीय मंडल के प्रारम्भ पर्यन्त (एकेक) कला (समय का विभाग) से मंडल को छोड़ता है उतने ही समय में आगे ( अन्य मंडल पर्यन्त) वह पहुँच जाता है । आगे ( अन्य मंडल पर्यन्त) जाने पर मंडल में गति करने का काल समाप्त नहीं होता है ( अतः सर्वविदित दिन-रात का निश्चित प्रमाण भंग नहीं होता है । उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं " सूर्य एक मंडल से दूसरे मंडल की ओर संक्रमण करता हुआ कर्ण कला से मंडल को छोड़ता है" । इस अभिप्राय के अनुसार ही हमारा मन्तव्य जानना चाहिए । अन्य मन्तव्य के अनुसार नहीं। प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य की एक मंडल से दूसरे मण्डल में संक्रमण क्षेत्र की गति ३८ प्र० - प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुँचने में कितने क्षेत्र को पार करता है ? कहें । उ० – इस सम्बन्ध में ये सात प्रतिपत्तियाँ ( मतान्तर ) कही गई हैं, यथा (१) इनमें से एक (मत वालों ने ऐस कहा है। प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुंचने में दो योजन और एक योजन के एक सौ तिरासी भागों 1. में से साढ़े इकतालीस भाग जितने क्षेत्र को पार करता है । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा हैं (२) प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुँचने में अढाई योजन जितने क्षेत्र को पार करता है । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (३) प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुंचने में (एक योजन के एक सौ तिरासी भागों में से) तीन भाग कम तीन योजन जितने क्षेत्र को पार करता है । एक (मत वालों ने फिर ऐसा कहा है (४) प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुंचने में तीन योजन और एक योजन के एक सौ तिरासी भागों में से साडे छियालीस भाग जितने क्षेत्र को पार करता है । Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : सूर्य की एक मंडल से दूसरे मंडल में संक्रमण क्षेत्र - गति एगे पुण एवमाहंसु २. ता अट्ठाईजोबनाई एगमेगे में राईदिए पं किंपत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंमु ६. तापमाना पत्तारि जोषणाई एगमेगे पं राइदिए णं विकंपइत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, एगेन एवमाहं ७. ता चत्तारि जोयणाइं अद्ध बावण्णं च तेसीइसयभागे जोयणस्स एगमेगे णं राइदिए णं विरूपत्ता विकंपइत्ता सूरिए चारं चर एगे एवमाहंसु वयं पुण एवं वयामो ता दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्टिमागे जोयणस्स एगमेवं मण्डलं एयमेगे नं राईदिए णं विकंपता विकंपइत्ता चारं चरइ, प० तत्थ णं को हेऊ ? इति वदेज्जा, उ०- ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्व दीव-समुद्दाणं सव्वत राए सम्बडा वट्ट - जाव जोपणस्यसह समायाम विसंमेणं, तिष्णि जोपणस्यसहरसाई, दोणिय सत्तावीसे जोयणसए, तिष्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई, अलंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, १. ता जया णं सूरिए सब्वब्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारस मुटु दिवसे भवद, जहणिया बुवालसमुहता राई भवइ, ता जया णं सूरिए अभिंतरानंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरs, तया णं दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्टि भागे जोयणस्स एगे णं राईदिए णं विकंपइत्ता विकंप इत्ता चारं चरइ, तथा णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोह गट्टभाग ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दो एगट्टिभागमुह अहिया, सूत्र १०३८ ३. से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अब्भिंतरं तच्चं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरड़, एक (मत बालों) ने फिर ऐसा कहा है (५) प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुँचने में साडे तीन योजन जितने क्षेत्र को पार करता है । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा हैं (६) प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुँचने में (एक योजन के एक सौ तिरासी भागों में से ) चार भाग कम चार योजन जितने क्षेत्र को पार करता है । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (७) प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य एक मण्डल से दूसरे मण्डल पर्यन्त पहुंचने में चार योजन और एक योजन के एक सौ तिरासी भागों में से साडे इक्कावन भाग जितने क्षेत्र को पार करता है । हम फिर इस प्रकार कहते हैं सूर्य एक अहोरात्र में दो योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितने क्षेत्र को पार करके एक मण्डल को पहुंचता है। प्र० - इस कथन के सम्बन्ध में हेतु क्या है ? उ०- यह जम्बूद्वीप सब द्वीप समुद्रों के मध्य में है, सबसे छोटा है, वृत्ताकार है- यावत् एक लाख योजन का लम्बाचौडा है, और तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोश एक सौ अठावीस धनुष तेरह अंगुल तथा आधे अंगुल से कुछ अधिक की परिधि वाला कहा गया है । २. से मारिए गर्व संवर अपमा (२) (सर्व आभ्यन्तर मण्डल से) निकलता हुआ वह सूर्य अहोरत्तंसि अभिंतरानंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं नए संवत्सर के दक्षिणायन को प्रारम्भ करता हुआ प्रथम अहोरात्र में आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है । चरई, (१) जब सूर्य आभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है तब परम उत्कर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जयन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। जब सूर्य आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है तब एक अहोरात्र में दो योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितने क्षेत्र को पार करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो भाग क अठारह मुहूर्त का दिन होता है तथा एक मुहूर्त के इकसठ भाग और दो भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (३) (आभ्यन्तरानन्तर मण्डल से) निकलता हुआ वह सूर्य दूसरे अहोरात्र में आभ्यन्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करता है । Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०३८ तिर्यक् लोक : सूर्य की एक मण्डल से दूसरे मण्डल में संक्रमण क्षेत्र-गति गणितानुयोग ५३५ ता जया णं सूरिए अमिंतरं तच्चं मण्डलं उवसंकमित्ता जब सूर्य आभ्यन्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति चारं चरइ, तया णं पंच जोयणाई पणतीसं च एगट्ठि- करता है तब पाँच योजन और एक योजन के इकसठ भागों में भागे जोयणस्स बोहिं राइविएहि विकंपइत्ता चार चरइ, से पैंतालीस भाग जितने क्षेत्र को दो अहोरात्र में पार करता है, तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहि एगट्ठिभाग तब तक मुहूर्त में। इकसठ भागों में से चार भाग कम अठारह मुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । चहि एगट्ठि- मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त के इकसठ भाग तथा भागमुहत्तेहिं अहिया, चार भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंत- इस प्रकार इस क्रम से निकलता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डल राओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संकम- से तदनन्तर मण्डल को संक्रमण करता करता प्रत्येक अहोरात्र में माणे दो दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोय- दो दो योजन और एक योजन के इकसठ भागों में से अड़तालीस णस्स एगमेगं मण्डलं एगमेगे णं राइविएहि विकंपमाणे भाग जितने क्षेत्र को पार करता करता सर्व बाह्यमण्डन को विकंपमाणे सव्वबाहिर मण्डलं उवसंकमित्ता चारं प्राप्त करके गति करता है। चरइ, ता जया णं सूरिए सव्वग्मंतराओ मण्डलाओ सव्व जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से सर्व बाह्यमण्डल पर्यन्त उपबाहिरं मण्डलं उवसंकमिता चार चरइ, तया णं सव्व- संक्रमण करके गति करता है तब सर्वाभ्यन्तर मंडल को छोड़कर मंतरं मण्डलं पणिहाय एगे णं तेसीए णं राइंदिषसए एक सौ तिरासी अहोरात्र में पांच सौ दस योजन जितने क्षेत्र गं पंचवसुत्तरजोयणसए विकंपइत्ता विकंपइत्ता चारं को पार करके गति करता है। चरइ, चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहर्त की रात्रि होती भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । एस गं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स ये प्रथम छः मास (दक्षिणायन के) हैं यह प्रथम छः मास पज्जबसाणे, का अन्त है। १. से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि (१) (सर्व बाह्यमंडल से सर्व आभ्यन्तर मंडल की ओर) अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं प्रवेश करता हुआ वह सूर्य दूसरे छः मास का उत्तरायण प्रारम्भ कर प्रथम अहोरात्र में बाह्यानन्तर मंडल को प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मण्डलं उवसंकमित्रा जब सूर्य बाह्यानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है चारं चरइ, तया णं दो दो जोयणाई अडयालीसं च तब एक अहोरात्र में दो योजन एक योजन के इकसठ भागों में से एगट्ठिभागे जोयणस्स एगे गं राइंदिए गं विकंपइत्ता अडतालीस भाग जितने क्षेत्र को पार करता है । चारं चरइ, तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ । दोहिं एगट्ठिभाग- तब तक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो भाग कम अठारह मुहत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ । दोहिएगट्ठि- मुहूर्त की रात्रि होती हैं और एक मुहूर्त के इकसठ भाग तथा भाग मुहुर्तेहि अहिए, दो भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है। २. से पविसेमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्च (२) (बाह्यानन्तरमंडल से बाह्य तृतीय मंडल की ओर) मण्डलं उवसंकमित्ता चार चरइ, ता जया णं सूरिए प्रवेश करता हुआ वह सूर्य दूसरे अहोरात्र में बा तृतीय मंडल बाहिरं तच्चं मण्डलं उवसंकमिता चारं चरइ, तया णं को प्राप्त करके गति करता है, तब दो अहोरात्र में पाँच योजन पंचजोयणाई पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स दोहिं और एक योजन के इगसठ भागों में से पैतीस भाग जितने क्षेत्र राइंदिएहि विकंपइत्ता विकंपइत्ता चार चरइ, को पार करता है। तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, चउहि एगट्ठिभाग- तब तक मुहूर्त के इगसठ भागों में से चार भाग कम अठारह मुहुर्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहि मुहुर्त की रात्रि होती है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग तथा एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए, चार भाग अधिक बारह महर्त का दिन होता है। Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य को द्वीप-समुद्र में गति सूत्र १०३८-१०३६ एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संकममाणे दो मंडल से तदनन्तर मंडल को संक्रमण करता करता प्रत्येक दो जोयणाई अडयालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एग- अहोरात्र में प्रत्येक मंडल के दो योजन और एक योजन के मेगं मण्डलं एगमेगे णं राइदिए णं विकंपमाणे विकंप- इगसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितने क्षेत्र को पार करता माणे सव्वन्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, हुआ सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करके गति करता है । ता जया णं सूरिए सव्वबाहिराओ मण्डलाओ सव्व- जब सूर्य सर्व बाह्यमंडल से सर्व आभ्यन्तर मंडल की ओर भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं लक्ष्य करके गति करता है तब बाह्य मंडल की अवधि से एक सव्वबाहिर मण्डलं पणिहाय एगे णं तेसीए णं राइंदिय- सौ तिरासी अहोरात्र में पांच सौ दस योजन जितने क्षेत्र को सए णं पंचदसुत्तरे जोयणसए विकंपइत्ता चारं चरइ, पारकर सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करके गति करता है। तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता भवइ, जहणिया राई भवइ, है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स ये दूसरे छः मास (उत्तरायण से) हैं, यह दूसरे छः मास का पज्जवसाणे, अन्त है। एस णं आइच्चे संवच्छरे एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स यह आदित्य संवत्सर है, यह आदित्य संवत्सर का अन्त है। पज्जवसाणे.' -सूरिय. पा. १, पाहु. ८, सु. १८ सूरस्स दीव-समुद्द-ओगाहणाणतरं चार सूर्य की द्वीप-समुद्र के अवगाहनानन्तर गति३९.१०ता केवइयं ते दीवं वा, समुह वा ओगाहित्ता सूरिए ३६. प्र०-कितने द्वीप-समुद्र का अवगाहन (लंघन) करके सूर्य चार चरइ ? आहिते ति वदेज्जा, गति करता है ? कहें। उ०-तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-इस सम्बन्ध में ये पाँच प्रतिपत्तियाँ (मतान्तर) कहे तं जहा गये हैं, यथातत्थेगे एवमाहंसु इनमें से एक (मत वालों) ने ऐसा कहा हैं१. ता एगं जोयण-सहस्सं एगं च तेत्तीस जोयणसयं, (१) एक हजार एक सौ तेतीस योजन (विस्तृत) द्वीप या दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरइ, एगे समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति करता है। एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है२. ता एग जोयण-सहस्स, एगं च चउत्तीसं जोयणसयं, (२) एक हजार एक सौ चौतीस योजन (विस्तृत) द्वोप या दीवं वा समुह वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, एगे समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति करता है। एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है३. ता एगं जोयण-सहस्सं, एगं च पणतीसं जोयणसयं (३) एक हजार एक सौ पैंतीस योजन (विस्तृत) द्वीप या दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरइ, एगे समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति करता है। एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है४. ता अवडढं दीवं वा, समूह वा, ओगाहित्ता सूरिए (४) आधे द्वीप या समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति चारं चरइ, एगे एवमाहंसु, करता है। १ चंद. पा. १ सु. १८ । Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सूत्र १०३६ ति लोक सूर्य की द्वीप-समुद्र में गति एगे पुण एवमाहं तानो कवि दी वा समुदं वा ओगाहिता सूरिए चार चर एगे एवमाहं एमा १. ता एवं जोणसहस्सं एवं च तेतीस जोयणासयं दीवं वा समुदं वा ओगाहिता सूरिए चारं चरइ, ते एवमाहंसु (क) ता जया णं सूरिए सब्वन्मंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं जंबुद्दीवं दीवं एगं जोयणसहस्सं, एगं च तेत्तीस जोयणसयं ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, तया णं उत्तमरूपले उनकोस अहारसमुहले दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, (ख) ता जया णं सूरिए सव्व बाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं लवणसमुद्द एवं जोयणसहस्सं, एगं च तेत्तीस जोयणसयं ओगाहित्ता चार चरइ, तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राई भवद, जहणए बालसमुह दिवसे भव २. एवं उसी वि जोवणस ३. पणतीसे वि एवं चेव भाणियव्वं, तत्थ णं जे ते एवमाहंसु - ४. ता अवढं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, ते एवमाहंसु ता जया णं सूरिए सव्वभंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अवड्ढ जंबुद्दीवं दीबं ओगाहित्ता सूरिए चार वर तया में उत्तम भव, जहथिया दुवास एवं सव्य बाहिरे मंडले बि - वरं "अब लवणसमुद्र" तथा गं "राईदिय" तहेब ।" उक्कोसए अट्टारसमुह दिवसे राई भ ऊपर अंकित सूत्र के समान है । गणितानुयोग ५३७ एक मतवालों ने फिर ऐसा कहा है (५) किसी द्वीप या समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति नहीं करता है । इनमें से जिन्होंने इस प्रकार कहा है (१) एक हजार एक सौ तेतीस योजन (विस्तृत) द्वीप या समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति करता है । उन्होंने इस प्रकार कहा है (क) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तरमंडल को प्राप्त करके गति करता है तब एक हजार एक सौ तेतीस योजन जम्बूद्वीप का अवगाहन करके गति करता है । तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । (ख) जब सूर्य सर्व बाह्यमंडल को प्राप्त करके गति करता है तब एक हजार एक सौ तेतीस योजन लवण समुद्र का अवगाहन करके गति करता है । तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है, और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । ( २ ) इसी प्रकार एक हजार एक सौ चौतीस योजन अवगाहित द्वीप समुद्र के बाद सूर्य की गति तथा दिन-रात्रि का प्रमाण कहें । ( ३ ) इसी प्रकार एक हजार एक सौ पैंतीस योजन अवगाहित द्वीप समुद्र के बाद सूर्य की गति तथा दिन-रात्रि का प्रमाण कहें, इनमें से जिन्होंने इस प्रकार कहा है (४) आधे द्वीप या समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति करता है । उन्होंने इस प्रकार कहा है जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करके गति करता है। तब आधे जम्बूद्वीप का अवगाहन करके गति करता है । तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । इसी प्रकार सर्वबाह्यमण्डल में भी कहें विशेष- आधे लवणसमुद्र के बाद सूर्य की गति तथा दिनरात्रि का प्रमाण उसी प्रकार कहें Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ १ ३ लोक- प्रज्ञप्ति उ० तिर्यक लोक सूर्यो की तिरछी गति एमा ५. ता नो किचि दीवं वा समूहं वा ओगाहिता चारं चरइ, ते एवमाहं ता जया णं सूरिए सव्वमंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं नो किचि दीवं वा समुद्दं वा ओमाहिता सूरिए चारं चर तथा उत्तमकरुपले उनकोसए अट्ठारसमुद्वसे दिवसे भव, महष्णिया वालसा राई भ एवं सम्म बाहिरे मंडले वि परं - " नो किचि तव चारं चरइ, राइदियं तहेव । " वयं पुण एवं वयामो . (क) ता जया णं सूरिए सश्वन्मंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं जंबुद्दीवं दीवं असीयं जोयणसयं ओगाहिता सुरिए चारं चर तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भव, जहणिया सुवालसमुहसा राई भ (ख) ता जया णं सूरिए सव्व बाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तथा णं लवणसमुद्दं तिण्णि तोसे लोणसए ओगाहिता सूरिए चारं चरड़, तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भव, अहम्ण बालसमुहले दिवसे भव ( गाहाओ भाषियाओ)" सूरिय. पा. १ पाहू. सु. १६-१७ सूराणं तेरिच्छगई ४०. प० - ता कहं ते तेरिच्छगई ? आहिए त्ति वएज्जा । - तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहालत्येगे एवमाहं भोगाहिता रिए ऊपर अंकित सूत्र के समान हैं । चन्द. पा. १ सु. १६-१७ । १. ता पुरानोताओ पाओ मरीची आगासंसि उद से षणं इमं लोयं तिरियं करेद्र करिता पश्यस्थिमंसि लोयंतंसि सायंमि आगासंसि विद्धसई एगे एव माहंसु, एगे पुण एवमाहंसु २. तोताओ पाओ रिए आवासंसि सूत्र १०३५-१०४० इनमें से जिन्होंने इस प्रकार कहा है (५) किसी द्वीप या समुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति नहीं करता है, उन्होंने इस प्रकार कहा है जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है तब किसी द्वीप या समुद्र का अवगाहन करके गति नहीं करता है । तब परम उत्कर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । इसी प्रकार सर्व बाह्य मण्डल में भी कहें विशेष लवणसमुद्र का अवगाहन करके सूर्य गति नहीं करता है, रात्रि और दिन का प्रमाण उसी प्रकार कहें, हम फिर इस प्रकार कहते हैं (क) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल को प्राप्त करके गति करता है तब एक सौ अस्सी योजन जम्बूद्वीप को अवगाहन करके गति करता है । तब परम उत्कर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है, (ख) जब सूर्य सर्व बाह्यमंडल को प्राप्त करके गति करता है तब तीन सौ तीस योजन लवणसमुद्र को अवगाहन करके गति करता है । तब परम उत्कर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और जघन्य वारह मुहूर्त का दिन होता है । गाथायें कहनी चाहिए। सूर्यो की तिरछी गति— ४०. प्रा० (सूर्यो की तिरछी गति कितनी कही गई है? कहें। उ०- इस सम्बन्ध में ये आठ प्रतिपत्तियाँ कही गई, यथाइनमें से एक (मत वालों) ने ऐसा कहा है (१) पूर्वी लोकान्त से किरण-समुदाय आकाश में उठता है। वह इस तिर्यक्लोक को ( प्रकाशित ) करता है और प्रकाशित करके पश्चिमी लोकान्त में सायंकाल के समय आकाश में विलीन होता है।* एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (२) पूर्वी लोकान्त से प्रातः सूर्य आकाश में उदय होता है, २ सम. ८० सु. ७ । ४ इनकी मान्यतानुसार सूर्य किरण-समुदाय मात्र है। Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४० तिर्यक् लोक : सूर्यों को तिरछी गति गणितानुयोग ५३६ उट्ठाइ, से णं इमं लोयं तिरियं करेइ करित्ता पच्चत्थि- वह इस तिर्यक् लोक को (प्रकाशित) करता है और प्रकाशित मंसि लोयतंसि सायं सूरिए आगासंसि विलुसइ। एगे करके पश्चिमी लोकान्त में सायंकाल के समय सूर्य आकाश में एवमाहंसु, विलीन हो जाता है। एगे पुण एवमाहसु ____एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है३. ता पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आगासंसि. (३) पूर्वी लोकान्त से प्रातः सूर्य आकाश में उदय होता है, उड से गं इमं लोयं तिरियं करेइ करित्ता पच्चत्थि- वह इस तिर्यक् लोक को (प्रकाशित) करता है, प्रकाशित करके मंसि लोयंतसि सायं सूरिए आगासं अणुपविसइ अणुप- पश्चिमी लोकान्त में सायंकाल के समय सूर्य आकाश में प्रवेश विसित्ता अहे पडियागच्छइ पडियागच्छित्ता पुणरवि करता है, आकाश में प्रवेश करके नीचे चला जाता है, नीचे अवरभू-पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आगासंसि जाकर के पुनः वह दूसरे भू (लोक) के पूर्वी लोकान्त से आकाश उ8 इ. एगे एवमाहंसु, में (वही) सूर्य उदय होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा हैं४. ता पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए पुढविका- (४) पूर्वी लोकान्त से प्रातः सूर्य पृथ्वी में से निकल कर यंसि उद्रह से इमं लोय तिरियं करेइ करित्ता उदय होता है । वह इस तिरछे लोक को (प्रकाशित) करता है । पच्चत्थिमंसि लोयंतंसि सायं सूरिए पुढविकायंसि प्रकाशित करके पश्चिमी लोकान्त में सायंकाल के समय पृथ्वीकाय विद्धसइ, एगे एवमाहंसु, में विलीन हो जाता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है५. ता पुरत्थिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए पुढविओ (५) पूर्वी लोकान्त से प्रातः सूर्य पृथ्वी में से निकलकर उड, से गं इमं तिरिय लोय करेइ, करित्ता पचत्थि- उदय होता है, वह इस तिरछे लोक को (प्रकाशित) करता है मंसि लोयंतंसि सायं सूरिए पुढविकायं अगुपविसइ प्रकाशित करके पश्चिमी लोकान्त में सायंकाल के समय पृथ्वी अणुपविसित्ता अहे पडियागच्छइ पडियागन्छित्ता पुण- में प्रवेश करता है, पृथ्वी में प्रवेश करके नीचे चला जाता है, रवि अवरभू-पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए पुढ- नीचे जाकर के पुनः दूसरे भू लोक में पूर्वी लोकान्त से प्रातः विओ उर्दुइ एगे एवमासु, सूर्य पृथ्वी में से निकल कर उदय होता है । एगे पुण एवमाहंसु ____एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है६. ता पुरथिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आउ- (६) पूर्वी लोकान्त से प्रातः सूर्य आकाश में अप्काय (जल) कायसि उदृइ से णं इमं लोयं तिरियं करेइ करित्ता से उदय होता है । वह इस तिर्यक् लोक को (प्रकाशित) करता है । पच्चत्थिमंसि लोयंतसि सायं सूरिए आउकायंसि विद्धं- प्रकाशित करके पश्चिमी लोकान्त में सायंकाल के समय सूर्य सइ, एगे एवमाहंसु, अपकाय (जल) में विलीन हो जाता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है७. ता पुरत्यिमाओ लोयंताओ पाओ सूरिए आउओ (७) पूर्वी लोकान्त से प्रात: सूर्य (समुद्र के) जल में से उद्रइ, से णं इस लोयं तिरियं करेइ करिता पच्चस्थि- निकलकर उदय होता है वह इस तिर्यक लोक को प्रकाशित मंसि लोयतंसि सायं सूरिए आउकायंसि पविसइ, करता है, प्रकाशित करके पश्चिमी लोकान्त में सायंकाल के पविसित्ता अहे पडियागच्छइ पडियागच्छित्ता पुणरवि समय (समुद्र के) जल में प्रवेश करता है, प्रवेश करके नीचे चला अवरभू-पुरथिमाओ लोयन्ताओ पाओ सूरिए आउओ जाता है, नीचे जाकर पुनः दूसरे भु लोक में पूर्वी लोकान्त से उ8 इ, एगे एवमाहंसु, प्रातः सूर्य (समुद्र के) जल में से निकलकर उदय होता है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है८. ता पुरथिमाओ लोयन्ताओ बहूई जोयणाई बहूई (1) पूर्वी लोकान्त से अनेक योजन अनेक शत योजन और जोयणसयाई बहुइं जोयणसहस्साई उड्ढे दूरं उप्पइत्ता अनेक सहस्र योजन ऊपर दूर दूर चलकर यहाँ प्रातः सूर्य एत्थ णं पाओ सूरिए आगासंसि उट्ठ इ, से णं इमं आकाश में उदय होता है वह इस दक्षिणार्द्ध तिर्यक् लोक को Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्यों को तिरछी गति सूत्र १०४०-१०४१ दाहिणड्ढं लोयं तिरियं करेइ करित्ता उत्तरड्ढलोयं प्रकाशित करता है प्रकाशित करके उत्तरार्द्ध तिर्यक्लोक में रात्रि तमेव राओ, से णं इमं उत्तरड्ढलोयं तिरियं करेइ करता है । वह इस उत्तरार्द्ध तिर्यक् लोक को प्रकाशित करता है करिता दाहिणड्ढलोयं तमेव राओ, से णं इमाइं प्रकाशित करके दक्षिणार्द्ध तिर्यक् लोक में रात्रि करता है । दाहिण-उत्तरड्ढलोयाई तिरियं करेइ करित्ता पुरत्थि- इस प्रकार दक्षिणार्द्ध-उत्तरार्द्ध तिर्यक्लोकों को प्रकाशित माओ लोयन्ताओ बहूई जोयणाई बहूइं जोयणसयाई, करता है, प्रकाशित करके पूर्वी लोकान्त से अनेक योजन अनेक बहूई जोयणसहस्साई उड्ढं दूरं उप्पइत्ता, एत्थ णं सहस्र योजन ऊपर दूर दूर चलकर यहाँ प्रातः सूर्य आकाश में पाओ सूरिए आगासंसि उ8 इ, एगे एवमाहंसु, उदय होता है। वयं पुण एवं वयामो हम फिर ऐसा कहते हैंता जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईण-पडीणायय-उदीण-दाहि- जम्बूद्वीप की पूर्व-पश्चिम और उत्तर-पश्चिम और उत्तरणाययाए जीवाए मण्डलं चउव्वीसेणं सएणं छेत्ता दक्षिण लम्बी जीवा से मंडलों के एक सौ चौबीस विभाग दाहिण-पुरत्थिमंसि उत्तर-पच्चत्थिमंसि य चउभाग- करके दक्षिण-पूर्वी और उत्तर-पश्चिमी मण्डल के चतुर्थ भागों में मण्डलंसि इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणि- इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अति सम-रमणीय भू-भाग से आठ सौ ज्जाओ भूमिभागाओ अट्ठजोयणसयाई उड्ढं उप्पइत्ता योजन ऊपर की ओर जाने पर यहाँ प्रातः दो सूर्य आकाश में एत्थ णं पाओ दुवे सूरिया आगासाओ उत्तिट्ठन्ति, उदय होते हैं । ते णं इमाई दाहिणुत्तराई जंबुद्दीव-भागाई तिरियं वे सूर्य तिर्यक्लोक में जम्बूद्वीप के इन दक्षिण-उत्तर के करेंति, करेंतित्ता पुरथिम-पच्चत्थिमाई जंबुद्दीव-भागाई विभागों को प्रकाशित करते हैं, प्रकाशित करके जम्बूद्वीप के तामेव राओ, पूर्वी पश्चिमी विभागों में रात्रि करते हैं। ते णं इमाई पुरथिम-पच्चत्थिमाई जंबुद्दीवभागाइं वे सूर्य तिर्यक् लोक में जम्बूद्वीप के पूर्वी-पश्चिमी विभागों तिरियं करेंति, करेंतित्ता दाहिणुत्तराई जंबुद्दीवभागाइं को प्रकाशित करते हैं, प्रकाशित करके जम्बूद्वीप के दक्षिण-उत्तर तामेव राओ, के विभागों में रात्रि करते हैं । ते णं इमाई दाहिणुत्तराई पुरथिम-पच्चत्थिमाइं जंबु- (इस प्रकार) ये सूर्य तिर्यक् लोक में जम्बूद्वीप के इन होवभागाइं तिरिय करेंति, करेंतित्ता जंबुद्दीवस्स दीवस्स दक्षिणी-उत्तरी तथा पूर्वी-पश्चिमी विभागों को प्रकाशित करते पाईण-पडीणायय-उदीण-दाहिणाययाए जीवाए मण्डलं हैं प्रकाशित करके जम्बूद्वीप द्वीप की पूर्व-पश्चिम और दक्षिणचउव्वीसेणं सएणं छत्ता दाहिण-पुरथिमंसि उत्तर- उत्तर लम्बी जीवा से मण्डलों के एक सौ चौबीस विभाग करके पच्चत्थिमंसि य चउन्माग-मण्डलंसि इमोसे रयणप्पभाए दक्षिण-पूर्वी तथा उत्तर-पश्चिमी मण्डलों के चतुर्थ भागों में इस पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ अट्ट जोयण- रत्नप्रभा पृथ्वी के अति सम रमणीय भू भाग से आठ सौ योजन सयाई उड्ढे उप्पइत्ता-एत्थ गं पाओ दुवे सूरिया ऊपर जाने पर प्रातः यहाँ दो सूर्य आकाश में उदय होते हैं । आगासंसि उत्तिट्ठन्ति, -सूरिय. पा. २, पाहु. १, सु. २१ सूरस्स मुहत्त-गइ-पमाणं सूर्य की मुहूर्त-गति का प्रमाण४१. ५०-ता केवइयं ते खेत्तं सूरिए एगमेगे णं मुहत्ते णं गच्छइ? ४१. प्र०—सूर्य एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र को पार करता है? आहिए ति वएज्जा, उ०-तत्थ खलु इमाओ चत्तारि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-इस सम्बन्ध में ये चार प्रतिपत्तियाँ (मान्यतायें) कही तं जहा गई हैं, यथातत्थेगे एवमाहंसु उनमें से एक (मान्यता वालों) ने ऐसा कहा है१. ता छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगे णं मुहुत्ते (१) सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में छः छः हजार योजन (जितने णं गच्छइ, एगे एवमाहंसु, क्षेत्र) को पार करता हैं, १ चंद. पा. २ सु. २१ । Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४१ तिर्यक् लोक : सूर्यमण्डलों की तिरछी गति गणितानुयोग ५४१ एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है२. ता पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगे गं (२) सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में पाँच पाँच हजार योजन (जितने मुहुत्ते गं गच्छइ, एगे एवमाहंसु, क्षेत्र) को पार करता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है३. ता चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सरिए एगमेगे (३) सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में चार चार हजार योजन (जितने णं मुहुत्ते णं गच्छइ, एगे एवमाहंसु, क्षेत्र) को पार करता है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वालों) ने फिर ऐसा कहा है४. ता छ वि, पंच वि, चत्तारि वि जोयणसहस्साई (४) सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में छः हजार पाँच हजार और चार सूरिए एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, एगे एवमाहंसु, हजार योजन जितने क्षेत्रों को भी पार करता है। तत्थणं जे ते एवमाहंसु इनमें से जो इस प्रकार कहते हैं१. ता छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगे णं मुहुत्ते (१) सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में छः छः हजार योजन (जितने णं गच्छइ ते एवमाहंसु, क्षेत्र) को पार करता है, (क) "ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतर मण्डलं उवसंक- (क) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति मित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए करता है तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन अट्ठारस मुहत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालस मुहुत्ता होता है । और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। राई भवइ, तंसि च णं दिवसंसि एग जोयणसयसहस्सं अट्ठ य उस दिन एक लाख आठ हजार योजन जितना ताप क्षेत्र जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते, कहा गया है। (ख) ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंक- (ख) जब सूर्य सर्व बाह्यमण्डल को प्राप्त करके गति करता मित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया है तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहुर्त की रात्रि होती अट्ठारस मुहुत्ता राई भवइ । जहन्नए दुवालसमुहुत्ते है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । दिवसे भवइ, तंसि च णं दिवसंसि बावरि जोयणसहस्साई ताव- उस दिन बहत्तर हजार योजन (जितना) ताप क्षेत्र कहा क्खेत्ते पण्णत्ते, तया णं छछ जोयणसहस्साई सूरिए गया है, उस समय सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में छः छः हजार योजन एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, (जितने क्षेत्र) को पार करता है।' तत्थ णं जे ते एवमाहंसु इनमें से जो इस प्रकार कहते हैं२. ता पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगे णं (२) सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में पाँच पाँच हजार योजन (जितने मुहुत्ते णं गच्छइ, ते एवमाहंसु क्षेत्र) को पार करता है। (क) ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं मंडल उवसंक- (क) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति मित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए करता है तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का अट्ठारसमुहने दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता दिन होता है और जघन्य बारह महूर्त की रात्रि होती हैं। राई भवइ, तंसि च णं दिवसंसि नउइ जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते उस दिन निन्यानवे हजार योजन का ताप क्षेत्र कहा पण्णत्ते, गया है। विधियाँ -- १. ( १०८००० = ६०००, १२००० = ६००० ) १८ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्यों को तिरछी गति सूत्र १०४१ (ख) ता जया णं सूरिए सव्व बाहिरं मंडल उवसंक- (ख) जब सूर्य सर्व बाह्यमण्डल को प्राप्त करके गति करता मित्ता चारं चरइ, तयाणं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया है तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ । जहण्णए दुवालसमुहुत्ते है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है। दिवसे भवइ, तंसि च णं दिवसंसि सढि जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते उस दिन साठ हजार योजन का तापक्षेत्र कहा गया है उस पण्णत्ते तया णं पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगे णं समय सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में पाँच पाँच हजार योजन (जितने क्षेत्र) मुहुत्ते णं गच्छइ, को पार करता है।' तत्थ णं जे ते एवमाहंसु इनमें से जो इस प्रकार कहते हैं-- ३. ता चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगे सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में चार चार हजार योजन (जितने क्षेत्र) णं मुहुत्ते णं गच्छइ, ते एवमाहंसु को पार करता है। (क) ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंक- (क) जब सूर्य सर्व आभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति मित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए करता है तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ । जहणिया दुवालसमुहुत्ता होता है ओर जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। राई भवइ, तंसि च णं दिवसंसि बावरि जोयणसहस्साई उस दिन बहत्तर हजार योजन का तापक्षेत्र कहा गया है। तावेक्खेत्ते पण्णत्ते, (ख) ता जया णं सूरिए सव्व बाहिरं मंडल उवसंक- (ख) जब सूर्य सर्व बाह्यमण्डल को प्राप्त करके गति करता मित्ता चारं चरइ तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया है तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ । जहण्णए दुवालसमुहुत्ते है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । दिवसे भवइ, तंसि च णं दिवसंसि अडयालीसं जोयणसहस्साइं उस दिन अडतालीस हजार योजन का ताप क्षेत्र कहा गया तावक्खेत्ते पण्णत्ते तया णं चत्तारि चत्तारि जोयण- है, उस समय सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में चार चार हजार योजन सहस्साई सूरिए एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, (जितने क्षेत्र) को पार करता है।' तत्थ णं जे ते एवमाहसु इनमें से जो इस प्रकार कहते हैं४. ता छवि पंच वि, चत्तारि वि जोयणसहस्साई (४) सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में छः, पाँच और चार हजार योजन सूरिए एगमेगे णं मुहुत्ते गं गच्छइ, ते एवमाहंसु, (जितने क्षेत्र) को भी पार करता है ! ता सूरिए णं उग्गमणमुहुत्तंसि य, अत्थमणमुहुत्तंसि य सूर्य उदय-मुहूर्त (काल) में और अस्त-मुहूर्त (काल) में शीघ्र सिग्धगई भवइ, तया गंछ छ जोयणसहस्साइं एग- गति वाला होता है, उस समय छ: छः हजार योजन (जितने मेगे गं मुहुत्ते णं गच्छइ, ___ क्षेत्र) को प्रत्येक मुहूर्त में पार करता है । मज्झिमं तावक्खेत्ते समासाएमाणे समासाएमाणे सूरिए मध्यम ताप क्षेत्र को प्राप्त सूर्य मध्यम गति वाला होता है, मज्झिमगइ भवइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साइं उस समय वह प्रत्येक मुहूर्त में पाँच पाँच हजार योजन (जितने एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, क्षेत्र) को पार करता है। विधियाँ-१. ( ७२००० = ४०००, ४१९२० = ४०००) Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४१ तिर्यक्लोक : सूर्यों को तिरछी गति गणितानुयोग ५४३ मज्झिमं तावक्खेत्तं संपत्ते सूरिए मंदगई भवइ, तया मध्यम ताप क्षेत्र को प्राप्त सूर्य मंदगति वाला होता है, उस णं चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साइं एगमेगे णं मुहत्ते समय वह प्रत्येक मुहूर्त में चार चार हजार योजन (जितने क्षेत्र) णं गच्छा , को पार करता है। ता जया णं सूरिए सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता चारं चरइ तया णं उत्तमकठपत्ते उक्कोसए अट्ठारस- है, तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता मुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई है और जघन्य मुहूर्त की रात्रि होती है । भवइ, तंसि च दिवसंसि एक्काणउइ जोयणसहस्साई उस दिन इकानवे हजार योजन का ताप क्षेत्र कहा गया है । तावक्खेत्ते पण्णत्ते, ता जया णं सूरिए सव्व बाहिर मंडलं उवसंकमित्ता जब सूर्य सर्व बाह्यमण्डल को प्राप्त करके गति करता है तब चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठा- परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहुर्त की रात्रि होती है और रसमुहुत्ता राई भवइ । जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है। भवइ, तंसि च णं दिवसंसि एगट्ठि जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते उस दिन इकसठ हजार योजन का ताप क्षेत्र कहा गया है । पण्णत्ते तया णं छ वि पंच वि चत्तारि वि जोयण- उस समय सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में छः पाँच और चार हजार सहस्साई सूरिए एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, एगे योजन (जितने क्षेत्र) को भी पार करता है।' एवमाहंसुवयं पुण एवं वयामो हम फिर इस प्रकार कहते हैंता साइरेगाइं पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगे सूर्य प्रत्येक मुहूर्त में कुछ अधिक पाँच पाँच हजार योजन णं मुहुने णं गच्छइ, (जितने क्षेत्र) को पार करता है । प०-तत्थ को हेउ ? ति वएज्जा, प्र०-इस प्रकार कथन करने का हेतु क्या है ? उ०-ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं उ०—यह जम्बूद्वीप द्वीप सब द्वीप समुद्रों के अन्दर है, सबसे सम्वन्भतराए सव्व खुड्डागे वट्टे-जाव जोयण-सय- छोटा है, वृत्ताकार है-यावत -एक लाख योजन लम्बा चौड़ा सहस्समायाम-विक्खंभे णं, तिन्नि जोयणसयसहस्साइं है, तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोस एक सौ अटावीस दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे, अट्ठावीसं धनुष तेरह अंगुल और आधे अगुल से कुछ अधिक की परिधि च धणुसयं, तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसे- कही गई है। साहिए परिक्खेवे णं पण्णत्ते । (१) ता जया गं सरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता (१) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति चारं चरह तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में पाँच पाँच हजार दो सौ इक्कावन य एक्कावण्णे जोयणसयाई एगूणतीसं च सट्ठिभाए योजन और एक योजन के साठ भागों में से उनतीस भाग (जितने जोयणस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, क्षेत्र) को पार करता है। तया ण इहगयस्स मणसस्स सीयालीसाए जोयण- उस समय सेंतालीस हजार दो सौ सठ योजन तथा एक सहस्सेहि दोहि य तेवढेंहि जोयणसएहि एक्कवीसाए योजन के साठ भागों में से इकवीस भाग जितनी दूरी से यहाँ य सट्रिमागेहि जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमा- रहे हुए मनुष्य को सूर्य आँखों से दिखाई दे जाता है। गच्छइ,२ १ विधि-६१००० योजन का हिसाब इस प्रकार है-प्रथम मुहूर्त ६०००, अन्तिम मुहूर्त ६०००, मध्यम मुहूर्त ४००० एवं शेष १५ मुहर्त ५०००x१५%= ७५००, कुल ६०००+६०००+४०००+ ७५०००=६१०००, ६१००० योजन का हिसाब इस प्रकार है-प्रथम मुहूर्त में ६०००, अन्तिम मुहूर्त में ६०००, मध्यम मुहर्त में ४००० एवं हमहर्त में ५०००XE= ४५०००, कुल ६०००+६०००-४०००+४५०००=६१००० । २ सम. ४७ सु. १ । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *** लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक लोक सूर्यो की तिरछी गति तया णं उत्तमकटुपत्ले उस्कोसाए अद्वारसमुह दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, २. से नियममा सुरिए गवं संवन्टर अपमानें पढमंसि अहोरत्तंसि अभितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं मडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोणि य एक्कावण्णे जोयणसए सीयालीसं च सट्ठि भाए जोपणस्स एयमेगे मुझे गच्छ तपाइमस्स मसल्स सोयालीसाए जो सेहिं एगूणासीए य जोयणसए सत्तावण्णाए सट्टिभा एहि जोयणस्स सट्टिभागं च एगट्ठिहा छेत्ता एगुण बीसाए पुणिमाह सूरिए चक्का हन्यमा गच्छइ, तया षं अट्टारसमुहले दिवसे भव दोहि एमट्टिभाग मुहतेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठि भाग अहिया, २. से मारिए दोसि अहोर तरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरड़, ता जया णं सूरिए अब्भतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साइं दोण्णि य बावण्णे जोयणसए पंच य सट्टिभाए जोय णस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोयण - सहस्सेहिं छण्णउईए य जोयणेहि तेतीसाए य सट्टि भागेहि जोयणस्स सट्टिभागं च एगट्टिहा छेत्ता दोहिं चुणिमाभागेहि सूरिए फाय तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चहिं एगट्टिभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चह एगट्टि भागमुहुर्तो अहिया, एवं एएवं उपाए निक्लममा सूरिए तथातराओ मंडलाओ तयानंतर मंडलं संकममाणे संक ममा अट्ठारस अट्ठारस सद्विभागे जोयमरस एममेगे मंडले मुत्तगई अभिबुड्ढेमाणे अभिबुड्ढेमाणे चुलसीइं सीवाई जोगाई परिसन्छायं निबुद्देमाणे निम्बु मागे वाहिर मंडल उवसंकमित्ता चारं पर, १. ता जया णं सूरिए सव्वब्बाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साइं सूत्र १०४१ www उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहर्त की रात्रि होती है। (२) (सर्वाभ्यन्तर मण्डल से निकलता हुआ सूर्य नये संवत्सर के दक्षिणायन को प्रारम्भ करता हुआ प्रथम अहोरात्र में आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है। जब सूर्य आभ्यन्तरानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में पाँच पाँच हजार दो सौ इक्कावन योजन और एक योजन के साठ भागों में से सेंतालीस भाग ( जितने क्षेत्र) को पार करता है । उस समय संतालीस हजार एक सौ गुण्यासी योजन तथा एक योजन के साठ भागों में से सत्तावन भाग और साठवें भाग को इगसठ से विभाजित करके उन्नीस चूर्णिका भाग जितनी दूरी से यहाँ रहे हुए मनुष्य को सूर्य आंखों से दिखाई दे जाता है। उस समय एक मुहूर्त के इकसठ भागों में में दो भाग कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त के इकसठ भाग तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । ( ३ ) ( आभ्यन्तरानन्तर मण्डल से) निकलता हुआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में आभ्यन्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करता है । जब सूर्य आभ्यन्तर तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में पाँच हजार दो सौ बावन योजन और एक योजन के साठ भागों में से पाँच भाग ( जितने क्षेत्र ) को पार करता है । उस समय सैंतालीस हजार छिन्नवे योजन और एक योजन के साठ भागों मे से तेतीस भाग तथा साठवें भाग को इकसठ से विभाजित करने पर दो चूर्णिका भाग जितनी दूरी से यहाँ रहे हुए मनुष्य को सूर्य आँखों से दिखाई दे जाता है । उस समय एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से चार भाग कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त के इकसठ भाग तथा चार भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । इस प्रकार इस क्रम से निकलता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डल से तदनन्तर मण्डल को संक्रमण करता करता प्रत्येक मण्डल में एक मुहूर्त के साठ भागों में से अठारह अठारह भाग जितनी मुहूर्त गति बढ़ाता बढ़ाता कुछ कम चौरासी चौरासी योजन पुरुष छाया ( सूर्य के दृष्टिपथ प्राप्त परिमाण में से) को घटाता घटाता सर्व बाह्यमण्डल के प्राप्त करके गति करता है । (१) जब सूर्य सर्व बाह्यमण्डल को प्राप्त करके गति करता है। तब प्रत्येक मुहूर्त में पाँच पाँच हजार तीन सौ पाँच योजन और Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४१ तियक लोक : सूर्यों को तिरछी गति गणितानुयोग ५४५ तिनि य पंचुत्तरे जोयणसए पण्णरस य सट्ठिभागे एक योजन के साठ भागों में से पन्द्रह भाग (जितनी क्षेत्र) को जोयणस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, . पार करता है। तया णं इहगयस्स मणूसस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहि उस समय इकतीस हजार आठ सौ इकतीस योजन और अहिं एक्कतीसेहिं जोयणसएहिं तीसाए य सट्ठिभा- एक योजन के साठ भागों में से तीस भाग जितनी दूरी से यहाँ एहि जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ,' रहे हुए मनुष्य को सूर्य आँखों से दिखाई दे जाता है। तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहुर्त की भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, रात्रि होती है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स ये प्रथम छः मास (दक्षिणायन के) हैं, यह प्रथम छः मास पज्जवसाणे, का अन्त है। से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि (सर्व बाह्यमण्डल से) प्रवेश करता हुआ वह सूर्य दूसरे अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उबसंकमित्ता चारं छः मास से उत्तरायण प्रारम्भ करता हुआ प्रथम अहोरात्र में चरइ, बाह्यानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है। २. ता जया णं सूरिए बाहिराणंतर मंडलं उवसंक- (२) जब सूर्य बाह्यानन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति मित्ता चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में पाँच पाँच हजार तीन सौ चार तिण्णि य चउरुत्तरे जोयणसए सत्तावण्णं च सट्ठिभाए योजन और एक योजन के साठ भागों में से सत्तावन भाग जोयणस्स एगमेगे णं मुहुते णं गच्छइ, (जितना क्षेत्र) पार करता है। तया णं इहगयस्स मणूसस्स एक्कतीसाए जोयणसहस्सेहि उस समय इकतीस हजार नो सौ सोलह योजन और एक नवहि य सोलसुत्तरेहि जोयणसएहिं एगूणचत्तालीसाए योजन के साठ भागों में से गुनचालीस भाग के साठवें भाग का सटुिभागेहि जोयणस्स सट्ठिभागं च एगट्ठिहा छत्ता इकसठ से विभाजन करने पर साठ चूणिका भाग जितनी दूरी सटिए चुणिया भागेहि, सूरिए चक्खुप्फासं हव- से यहाँ रहे हुए मनुष्य को सूर्य आँखों से दिखाई दे जाता है । मागच्छइ, तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्ठिभाग- उस समय एक मुहर्त के इकसठ भागों में से दो भाग कम मुहत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ, दोहि अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहर्त के इकसठ भाग एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिए, तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है। से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तप्ति बाहिरं तच्च (बाह्यानन्तर मण्डल से) प्रवेश करता हुआ वह सूर्य दूसरे मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, अहोरात्र में बाह्य तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति करता है । ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता (३) जब सूर्य बाह्य तृतीय मण्डल को प्राप्त करके गति चारं चरइ, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई तिन्नि करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में पांच पांच हजार तीन सौ चार य चउरूत्तरे जोयणसए एगूणचत्तालीसं च सद्विभाए योजन और एक योजन के साठ भागों में से उनचालीस भाग जोयणस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, (जितने क्षेत्र) को पार करता है। तया णं इहगयस्स मणूसस्स एगाहिएहि बत्तीसाए उस समय बत्तीस हजार एक योजन और एक योजन के जोयणसहस्सेहि एगणपण्णाए च सद्विभाएहि जोयणस्स साठ भागों में से उनपचास भाग तथा साठवें भाग को इकसठ से सट्ठिभागं च एगट्ठिहा छेता तेवीसाए चुण्णियाभागेहिं विभाजित करने पर तैवीस चूणिका भाग जितनी दूरी से यहाँ सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ', · रहे हुए मनुष्य को सूर्य दिखाई दे जाता है । १ सम. ३१ सु. ३। २ जया णं सूरिए बाहिराणंतरं तच्च मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं इहगयस्स पुरिसस्स तेत्तिसाए जोयणसहस्सेहि किचि विसेसूहि चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ । -सम. ३३, सु. ४ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्यों की तिरछी गति सूत्र १०४१ तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइ चढहिं एगट्ठिभाग- उस समय एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से चार भाग कम मुहुत्तेहि उणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहिं अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहुर्त के इकसठ भाग एगट्ठिभागमुहुरोहिं अहिए, तथा चार भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है। एवं खलु एएण उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंत- इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य तदनन्तर राओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकम- मण्डल से तदनन्तर मण्डल की ओर संक्रमण करता करता प्रत्येक माणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मण्डल में योजन के साठ भागों में से अठारह अठारह भाग मंडले मुहत्तगई निव्वुड्ढेमाणे निव्वुड्ढेमाणे साइरेगाइं (जितने क्षेत्र) को घटाता घटाता कुछ अधिक पच्यासी पच्यासी पंचासीइ पंचासोइ जोयणाई पुरिसच्छायं अभिवुड्ढेमाणे योजन पुरुष छाया (सूर्य के दृष्टि पथ प्राप्त परिमाण) को बढ़ाता अभिवडढेमाणे सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं बढ़ाता सर्वाभ्यन्तर मण्डल की ओर बढ़ता हुआ गति करता है । चरइ, ता जया णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता चारं चरई, तया णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि है तब प्रत्येक मुहूर्त में पाँच पाँच हजार दो सौ इक्कावन योजन य एक्कावण्णे जोयणसए अद्वतीसं च सट्ठिभागे जोय- और एक योजन के साठ भागों में से अड़तीस भाग जितने णस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, क्षेत्र को पार करता है। तया णं इहगयस्स मणुसस्स सीयालीसाए जोयण- उस समय संतालीस हजार दो सौ बासठ योजन और एक सहस्सेहिं दोहि य तेवठेहि जोयणसएहि य एक्क- योजन के साठ भागों में से इकवीस भाग जितनी दूरी से यहाँ वीसाए य सद्विभार्गेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं रहे हुए मनुष्य को सूर्य आँखों से दिखाई दे जाता है। हब्वमागच्छइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ,' होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। १ सम. ४७, सु. १ । २ (१) प०-जया ण. भंते ! सूरिए सव्वभंतरं मडल उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगमेगे णं मुहुत्ते णं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? उ०-गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि अ एगावण्णे जोयणसए एगूणतीसं च सद्विभाए जोयणस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छद। तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि अ तेवढेहि जोयणसएहिं एगवीसाए जोयणस्स सद्विभाहि सूरिए चक्खुप्फास हव्वमागच्छइ, ति, से णिक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छर अयमाणे पढमंसि अहोरत्तसि अब्भतराणंतरं मंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ, त्ति, (२) प०-जया णं भंते ! सूरिए अभंतराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगमेगे णं मुहुत्ते णं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? उ०-गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि अ एगावण्णे जोयणसए सीआलीसं च सद्विभाए जोयणस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, तया ण इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोयणसहस्सेहि एगुणासीए जोयणसए सत्तावण्णाए अ सट्ठिभाएहि जोयणस्स सटिभागं च एगट्ठिधा छेत्ता एगूणवीसाए चुण्णिआभागेहिं सूरिए चक्नुप्फास हव्वमागच्छइ, त्ति, से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अब्भंतरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, त्ति, (३) प०-जया णं भंते ! मूरिए अभंतरतच्च मंडल उवसंकमित्ता चार चरइ, तया णं एगमेगे णं मुहुत्ते णं केवइयं खेत्तं गच्छइ? उ०-गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साइं दोण्णि अ बावण्णे जोयणसए पंच य सद्विभाए जोयणस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीयालीसाए जोयणसहस्सेहि छण्ण उइए जोयणेहि तेत्तिसाए सद्विभाएहिं जोयणस्स सट्ठिभागं च एगसद्विधा छेत्ता दोहिं चुण्णिआभागेहि मूरिए चक्खुप्फास हव्वमागच्छइ त्ति, (क्रमशः) Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४१-१०४२ तिर्यक् लोक : सूर्यों को तिरछी गति गणितानुयोग ५४७ Homemaram एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स ये दूसरे छः मास (उत्तरायण के) हैं, यह दूसरे छः मास का पज्जवसाणे, अन्त है। एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छ- यह आदित्य संवत्सर है, यह आदित्य संवत्सर का अन्त है । रस्स पज्जवसाणे, -सूरिय. पा. २, पाहु. ३, सु. २३ एगमेगे मण्डले सूरस्स मुहुत्तगई पमाणं-परूवण- प्रत्येक मुहूर्त में सूर्य की मुहर्त गति के प्रमाण का प्ररूपण४२. एगमेगे णं मण्डले सूरिए सट्ठि मुहुत्तेहिं संघाइए। ४२. प्रत्येक मण्डल में सूर्य साठ, साठ मुहूर्त पूरे करता है । -सम. ६०, सु. १ (क्रमशः) एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सुरिए तयाणंतराओ मडलाओ तयाणंतरं मंडल संकममाणे संकमाणे अटारस अट्ठारस सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगइ अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे चुलसीइं चुलसीइं सयाई जोयणाई पुरिसच्छाय' निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे सन्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, (१) प०-जया णं भंते ! सूरिए सव्व बाहिरमंडल उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगमेगे णं मुहुत्ते णं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? उ०-गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई तिण्णि अ पंचुत्तरे जोयणसए पण्णरसए सट्ठिभाए जोयणस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणूसस्स एगतीसाए जोयणसहस्सेहिं अहिं य एगत्तीसेहिं जोयणसएहि तीसाए अ सट्ठिभाएहि जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फास हब्बमागच्छइ, त्ति, एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, से सूरिए दोच्चे छम्मासे अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, (२) प०-जया णं भंते ! सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगमेगे णं मुहत्ते णं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? उ.--गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई तिण्णि अ चउरूत्तर जोयणसए सत्तावणं च सद्विभाए जोयणस्स एगमेगे गं मुहुत्ते णं गच्छइ, तया णं इहगयस्स एगत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं णवहि अ सोलसुत्तरेहि जोयणसएहि इगूणालीसाए अ सट्टिभाएहि जोयमस्स सट्ठिभागं च एगसट्ठिधा छेत्ता, सट्ठिए चूण्णिआभागेहिं सूरिए चक्छुप्फास हव्वमागच्छइ त्ति, से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरतच्चं मंडल उवसंकमित्ता चार चरइ, (३) प०-जया णं भंते ! सूरिए बाहिर तच्चं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं एगमेगे णं मुहुत्ते णं केवइयं खेत्तं गच्छइ ? उ०—गोयमा ! पंच पंच जोयणसहस्साई तिणि अ चउरुत्तरे जोयणसए इगुणालीसं च सट्टिभाए जोयणस्स एगमेगे णं मुहुत्ते णं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणुसस्स एगाहिएहि बत्तीसाए जोयणसहस्सेहिं एगणपण्णाए अ सट्ठिभाएहि जोयणस्स सट्टिभागं च एगसट्ठिधा छेत्ता तेवीसाए चुण्णिआभाएहि सूरिए चक्खुप्फास हव्वमागच्छइ, त्ति, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे मूरिए तयाणंतराओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभाए जोयणस्स एगमेगे मण्डले सहुत्तगई निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे सातिरेगाइं पंचासीति पंचासीति जोयणाइं पुरिसच्छायं अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे सव्वब्भंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते । -जम्बु. वक्ख. ७, सु. १३३ (४) चन्द. पा. २ सु. ३३ : १ "चच्खुप्फास"-"चक्षुस्पर्श" और "पुरिषच्छायं" पुरुष-छाया-ये दोनों समानार्थक हैं, -इसी सूत्र की सं. टीका. पुरुषछाया अर्थात् जितने योजन दूर से सूर्यदर्शन होता है उतनी दूरी में से सूत्रोक्त संख्या को क्रमशः घटाना । Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : आदित्य संवत्सर में अहोरात्र का प्रमाण सूत्र १०४३-१०४४ एगमेगे मुहत्ते मण्डलभागगइ पमाण-परूवणं- प्रत्येक मुहूर्त में मण्डल के भागों में गति के प्रमाण का प्ररूपण४३. ५०-एगमेगे णं भंते ! मुहुत्ते णं सूरिए केवइयाइं भागसयाई ४३. प्र०- भगवन् ! प्रत्येक मुहूर्त में सूर्य मण्डल का कितना गच्छद? भाग चलता है ? उ०-गोयमा ! जं जं मण्डलं उवसंकमित्ता चार चरइ तस्स उ०-हे गौतम ! सूर्य जिस जिस मण्डल पर आरूढ़ होकर तस्स मण्डल परिक्खेवस्स अट्ठारस पणतीसे भागसए गति करता है उस उस मण्डल की परिधि का अठारह सौ पैतीस गच्छइ, मण्डलं सयसहस्सेहि अट्ठाणउइए असएहि योजन के एक लाख अठाणवें सौ भाग चलता है। छेत्ता। -जंबु. वक्ख. ७, सु. १४६ आइच्च संवच्छरे अहोरत्तप्पमाणं आदित्य संवत्सर में अहोरात्र का प्रमाण४४. जइ खलु तस्सेव आदिच्चस्स संवच्छरस्स सइं अट्ठारसमुहत्ते ४४. उस आदित्य संवत्सर में एक बार अठारह मुहूर्त का दिन दिवसे भवइ, होता है। सई अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, एक बार अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है । सई दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, एक वार बारह मुहूर्त का दिन होता है । सई दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एक वार बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । पढमे छम्मासे प्रथम छः मास मेंअस्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, नत्थि अट्ठारसमुहत्ते दिवसे, अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है किन्तु अठारह मुहूर्त का दिन नहीं होता है। अस्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे, नत्थि दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । __ बारह मुहूर्त का दिन होता है किन्तु बारह मुहूर्त की रात्रि नहीं होती है। दोच्चे छम्मासे द्वितीय छः मास मेंअस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, नत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई, अठारह मुहूर्त का दिन होता है किन्तु अठारह मुहूर्त की रात्रि नहीं होती है। अस्थि दुवालसमुहुत्ता राई, नत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, बारह मुहूर्त की रात्रि होती है किन्तु बारह मुहूर्त का दिन नहीं होता है। 4०-पढमे छम्मासे, दोच्चे छम्मासे, पत्थि पण्णरसमुहुत्ते प्र०-प्रथम छः मास में तथा द्वितीय छः मास में न पन्द्रह दिवसे भवइ, णत्थि पण्णरसमुहत्ता राई भवइ । मुहूर्त का दिन होता है, और न पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि होती है, तत्थ णं के हेडं वदेज्जा? उक्त मान्यता का हेतु क्या है ? उ०--ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वन्भंत- उ०—यह जम्बूद्वीप द्वीप सब द्वीप-समुद्रों के अन्दर है, सबसे राए सव्व खुड्डागे वट्ट-जाव-जोयण-सयसहस्समायाम- छोटा है, वृत्ताकार है-यावत्-एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा विक्खंभे णं, तिन्नि जोयणसयसहस्साई दोन्नि य सत्ता- है, तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोस एक सौ वीसे जोयणसए तिन्नि कोसे, अट्ठावीसं च धणुसयं, अट्ठाईस धनुष, तेरह अंगुल और आवे अंगुल से कुछ अधिक की तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किचि विसेसाहिए परि- परिधि कही गई है। क्खेवे णं पण्णत्ते। १. ता जया णं सूरिए सव्वन्भंतर-मण्डलं उवसंकमित्ता (१) जब सूर्य सर्व आभ्यन्तर मण्डल की ओर संक्रमण करके चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारस- गति करता है तब परम उत्कर्ष को प्राप्त होने पर उत्कृष्ट अठारह मुहुत्ते दिवसे भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४४ तिर्यक्लोक : आदित्य संवत्सर में अहोरात्र का प्रमाण गणितानुयोग ५४६ चरइ, से निक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि वह निष्क्रमण करता हुआ सूर्य नये संवत्सर के दक्षिणायन अहोरत्तंसि अभिंतराणंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं की प्रथम अहोरात्र में आभ्यन्तर मण्डल के अनन्तर (द्वितीय) मण्डल की ओर संक्रमण करके गति करता है। २. ता जया णं सूरिए अभिंतराणंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता (२) जब सूर्य आभ्यन्तर द्वितीय मण्डल की ओर संक्रमण चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ दोहि करके गति करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो भाग एगट्ठिभागमुहुर्तेहिं ऊणे । दुवालसमुहुत्ता राई भवइ कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है। एक मुहूर्त के इकसठ भागों दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया, में दो भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभितर- वह निष्क्रमण करता हुआ सूर्य अहोरात्र में आभ्यन्तर तृतीय तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ । मण्डल की ओर संक्रमण करके गति करता है । ३. ता जया गं सूरिए अन्भिंतरतच्चं मडलं उवसंकमित्ता (३) जब सूर्य आभ्यन्तर तृतीय मण्डल की ओर संक्रमण चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुते दिवसे भवइ, चहि करके गति करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से चार एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, भाग कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है । एक मुहूर्त के इकसठ चहिं एगट्ठिभागमुहुर्तेहि अहिया, भागों से चार भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सुरिए तयाणंत- इस प्रकार इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य (तृतीय) राणंतरं मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकभमाणे संकम- मण्डल से मण्डलान्तर की ओर संक्रमण करता करता प्रत्येक माणेदो दो एगद्विभागमुहुत्ते एगमेगे मंडले दिवसखेत्तस्स मण्डल में एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो दो भाग दिवस णिवुड्ढेमाणे णिवुड्ढेमाणे रयणिखेत्तस्स अभिवुड्ढेमाणे क्षेत्र को घटाता घटाता तथा रजनी क्षेत्र को बढ़ाता बढ़ाता सर्व अभिवुड्ढेमाणे सत्व बाहिरमंडलं उवसंकसित्ता चारं चरइ, बाह्य मण्डल की ओर संक्रमण करता हुआ गति करता है । ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतराओ मंडलाओ सव्व (१) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से बाह्य मण्डल की ओर बाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं उपसंक्रमण करके गति करता है, तब सर्व आभ्यन्तर मण्डल का सम्वन्मतरं मंडलं पणिहाय एगे गं तेसीए णं राइंदिय- लक्ष्य करके एक सौ तिरासी दिन-रात में से एक मुहर्त के सए णं तिण्णि छावठे एगट्ठिभागमुहुत्तसए दिवस- इकसठ भाग जैसे तीन सौ छासठ भाग दिन के क्षेत्र में घटाकर खित्तस्स णिवुड्ढित्ता रयणि-खित्तस्स अभिवुढित्ता तथा रात्रि के क्षेत्र में बढ़ाकर गति करता है। चार चरइ, तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राइ उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त अठारह मुहूर्त की रात्रि होती भवइ, जहण्णए बारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, है जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है। एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स ये दक्षिणायन के प्रथम छ मास हुए। पज्जवसाणे, यह प्रथम छः मास का पर्यवसान हुआ। से पविसमाणे सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि वह प्रवेश करता हुआ सूर्य दूसरे छः मास के (उत्तरायण) अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं प्रथम अहोरात्र में बाह्यानन्तर मण्डल की ओर संक्रमण करके गति करता है। २. ता जया णं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता (२) जब सूर्य बाह्यानन्तर मण्डल की और संक्रमण करके चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, दोहि गति करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो भाग एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, कम अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है । एक मुहूर्त के इकसठ भागों दोहिं एगट्ठिभागमुहुर्तेहिं अहिए, से दो भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है । से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरं तच्चं वह प्रवेश करता हुआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में बाह्य तृतीय मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। मण्डल की ओर संक्रमण करके गति करता है । ३. ता जया गं सूरिए बाहिरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता (३) जब सूर्य बाह्य तृतीय मण्डल की ओर संक्रमण करके चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, चहिं गति करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से चार भाग एगट्ठिभागमुहुर्तेहिं ऊणा, कम अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है। पाहा. चरइ, Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : आदित्य संवत्सर में अहोरात्र का प्रमाण सूत्र १०४४ अहिए, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहिं एक मुहूर्त के इकसठ भागों से चार भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है। एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंत- इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य अनन्तर राओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे मण्डल से अनन्तर मण्डल की ओर संक्रमण करता करता प्रत्येक दो दो एगट्ठिभागमुहुत्ते एगमेगेमंडले रयणिखेत्तस्स मण्डल में एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो दो भाग रजनिणिवुड्ढेमाणे णिवुड्ढेमाणे दिवसखेत्तस्स अभिवड्ढेमाणे क्षेत्र को घटाता घटाता तथा दिवस क्षेत्र को बढ़ाता-बढ़ाता अभिवड्ढेमाणे सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं सर्व आभ्यन्तर मण्डल की ओर संक्रमण करके गति करता है। चरइ, ता जया णं सूरिए सत्व बाहिराओ मंडलाओ सम्वन्भंतरं जब सूर्य बाह्यमण्डल से सर्व आभ्यन्तर मण्डल की ओर मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव्व बाहिरं संक्रमण करके गति करता है तब सर्व बाह्यमण्डल को छोड़कर मंडलं पणिहाय एगे णे तेसीए णं राइंदियसए णं तिन्नि एक सौ तिरासी दिन में एक मुहूर्त के इकसठ भागों की गणना छावठे एगट्ठिभागमुहत्तसए रयणि-खेत्तस्स निवुड्ढेत्ता से तीन सौ छासठ भाग क्षेत्र से घटाकर तथा दिवस क्षेत्र में दिवस खेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चारं चरइ । बढ़ाकर गति करता है। तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्कोसए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन भवइ । जहणियादुवालसमुहुत्ता राइ भवइ, होता है तथा जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । एस णं दोच्चे छम्मासे, ये (उत्तरायण) के दूसरे छः मास हैं । एस णं दुच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, यह दूसरे छः मास का पर्यवसान है। एस णं आदिच्चे संवच्छरे यह आदित्य संवत्सर है। एस णं आविच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे,' यह आदित्य संवत्सर का पर्यवसान है । १ (१) प०-जया णं भंते ! सूरिए सव्वब्भंतरं मडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं के महालए दिवसे के महालया राई भवइ ? उ०-गोयमा ! तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अब्भंतराणं मण्डलं उवसंकमित्ता चार चरइ, (२) प०-जया णं भंते ! सूरिए अभंतराणंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं के महालए दिवसे के महालया राई भवइ? उ०-गोयमा ! तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं अ एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिअत्ति. से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि अभंतरतच्चं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, (३) प०-जया णं भते ! सुरिए अब्भंतरतच्चं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं के महालए दिवसे के महालया राई भवइ ? उ०—गोयमा ! अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहि एगट्ठिभागमुहत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चहि एगठि भागमुहुत्तेहिं अहिअत्ति, एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगठ्ठिभाग महत्तेहिं एगमेगे मण्डले दिवस-खित्तस्स निवुड्ढमाणे निवुड्ढेमाणे रयणि-खित्तस्स अभिवड्ढेमाणे अभिवड्ढेमाणे सब बाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ त्ति, जया णं सूरिए सम्वन्भंतराओ मण्डलाओ सव्व बाहिरं मण्डल उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव्वभंतरं मण्डलं पणिहाय एगे णं तेसिए णं राइंदियसए णं तिण्णि छावठे एगठिभागमुहत्तसए दिवसखेत्तस्स निम्बुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिवुड्ढेत्ता चारं चरइ त्ति, (क्रमशः) Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४४ उवसंहार सुत्तं एवं खलु तस्सेव आदिच्चस्स संवच्छरस्स सई अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवइ, सई अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, सई दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, तिर्यक् लोक : उपसंहार पढमे छम्मासे - अत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, अस्थि अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे, अस्थि बालसमुहसे दिवसे भवद्द, नीव दुवालसमुहला नस्थि राई, दोचे वा छम्मा से अदभ नत्थि अट्ठारसमुहुत्ता राई, अस्थि दुवालसमुहुत्ता राई, नत्थि दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, पढमे वा छम्मासे, दोच्चे वा छम्मासे – णत्थि पण्णरसमुहुत्ते दिवसे भव, णत्थि पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ रथ रादियाणं यद्दी मुहान वा यो चणं गाय वा अनुचाईए उ० गणितानुयोग ५५१ उपसंहार सूत्र इस प्रकार उस आदित्य संवत्सर में एक बार अठारह मुहूर्त का दिन होता है। एक वार अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है । एक बार बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। प्रथम छः मास में अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है किन्तु अठारह मुहूर्त का दिन नहीं होता है। बारह मुहूर्त का दिन होता है किन्तु बारह मुहर्त की रात्रि नहीं होती है। وا द्वितीय छ: मास में अठारह मुहूर्त का दिन होता है किन्तु अठारह मुहूर्त की रात्रि नहीं होती है। बारह मुहूर्त की रात्रि होती है किन्तु बारह मुहूर्त का दिन नहीं होता है । (१) प० – जया णं भंते! सूरिए सब्वबाहिरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं के महालए दिवसे के महालया राई भवइ ? गोयमा ! तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिआ अट्ठारस मुहुत्ता राई भवइ । जहणए दुवालसमुत्ते दिवसे भवइ, त्ति, एस णं पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, से पविसमा सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, (२) प० - जया णं भंते ! सूरिए बाहिराणंतरं मण्डलं उवसंकमिता चारं चरई, तया णं के महालए दिवसे के महालया राई भवइ ? प्रथम छः मास में तथा द्वितीय छः मास में - ( १ ) रातदिन की वृद्धि-हानि, (२) मुहूर्तों की घट-बढ़ तथा, (३) अनुपात गति के अतिरिक्त न पन्द्रह मुहूर्त का दिन होता है और न पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि होती है। ३० गोपमा ! अट्ठारसमुहसा राई भवद दोहि एगट्टिभागमुहणा, बालसमुटु दिवसे भयइ दोहि एमट्ठिभागमुह महिए ति से पविसमा सूरिए दोसि अहोरसि बाहिरतत्वं मण्डलं उपसंकमित्ता चारं चर (३) प० – जया णं भंते ! सूरिए बाहिरतच्चं मण्डलं उवसंकमिता चारं चरइ, तया णं के महालए दिवसे के महालिया राई भवइ ? उ०- गोयमा ! तथा गं अठारममुत्ता राई भवद, चउहि एमट्टिभाग ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे चउहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए ि एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संक्रममाणे दो दो एगट्ठभागमुहुत्ते हि एगमेगे मण्डले रयणिखेत्तस्स निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे दिवसखेत्तस्स अभिवुड्ढेमाणे अभिवुड्ढे - माणे सव्वभंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइत्ति, जया णं सूरिए सव्व बाहिराओ मण्डलाओ सव्वमंतरं मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सव्वबाहिरं मण्डलं पणिहाय एगे णं तेसीए णं राइंदिय सए णं तिण्णि छावट्ठे एगट्ठिभागमुहुत्तसए रणिवेत्तस्स निम्बुड्स दिवस बेतस्य अभिवर्द्धता चारं चर, एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दुच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं इच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्यस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णत्ते, - जम्बु. वक्ख. ७, सु. १३४ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य की दक्षिणार्द्ध मण्डल संस्थिति सूत्र १०४३-१०४६ www गाहाओ भाणियवाओ,' यहाँ गाथाएँ कहनी चाहिए। -सूरिय. पा. १, पाहु. १, सु. ११ सुरिअस्स गमणागमणेण विसम अहोरत्त परूवणं- सूर्य के गमनागमन से विषम अहोरात्र का प्ररूपण४५. तेणउईमंडलगते णं सूरिए अतिवट्टमाणे वा, निवट्टमाणे वा ४५. तिरानबेवें मण्डल में रहा हुआ, सूर्य आभ्यन्तर मण्डल की समं अहोरत्तं विसमं करेइ। ओर जाता हुआ तथा बाह्य मण्डल की ओर आता हुआ समान -सम. ६३, सु. ३ अहोरात्र को विषम करता है । सूरस्सदाहिणा अद्धमंडल सठिई सूर्य की दक्षिणाद्ध मण्डल-संस्थिति४६. ५०–ता कहं ते अद्धमंडलसंठिई आहिताति वदेज्जा? ४६. सूर्य की अर्धमण्डल संस्थिति अर्थात् “प्रत्येक अहोरात्र में सूर्य की एकेक अर्द्धमण्डलों में परिभ्रमण-व्यवस्था" किस प्रकार कही गई है ? वह कहें, उ०-तत्थ खलु इमे दुवे अद्धमंडलसंठिई पप्णत्ता, तं जहा- उ०-यहां ये दो प्रकार की अर्धमण्डल-संस्थिति कही गई १. दाहिणा चेव अद्धमंडलसंठिई, २. उत्तरा चेव अद्ध- हैं, यथा-दक्षिणार्धमण्डलसंस्थिति और उत्तरार्धमण्डलसंस्थिति । मंडलसंठिई। ५०–ता कहं ते दाहिणा अद्धमंडलसंठिई आहिताति प्र०-दक्षिणार्धमण्डल-संस्थिति किस प्रकार की कही गई वदेज्जा? है? वह कहें। उ०–ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वन्भंत- उ०-यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप-समुद्रों के मध्य में सबसे राए सव्वखुड्डागे वट्टे जाव जोयणसयसहस्समायाम- छोटा वृत्ताकार है-यावत्-एक लाख योजन का लम्बा चौड़ा विक्खंभेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साई, दोन्नि य सत्ता- है और तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन कोश एक सौ वीसे जोयणसए-तिणि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं अट्ठावीस धनुष तेरह अंगुल तथा आधे अंगुल से कुछ अधिक तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिए परिक्खे- की परिधि वाला कहा गया है। वेणं पण्णत्ते। ता जया णं सूरिए सव्वन्मंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति जब सूर्य सर्व आभ्यन्तर दक्षिणार्धमण्डल संस्थिति को प्राप्त उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्को- करके गति करता है तब परम उत्कर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह सए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालस मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि है। मुहुत्ता राइ भवइ। से निक्खममाणे सूरिए णवं सवच्छरं अयमाणे पढमंसि (सर्व आभ्यन्तर मण्डल से) निकलता हुआ वह सूर्य नये अहोरत्तंसि दाहिणाए अंतराए भागाए तस्सादि पदेसाए संवत्सर का दक्षिणायन प्रारम्भ करता हुआ प्रथम अहोरात्र में अभितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडलं संठिइं उवसंकमित्ता दक्षिण के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से आभ्यन्तरानन्तर चारं चरइ। उत्तरार्धमण्डल संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है । ता जया णं सूरिए अभितराणंतरं उत्तरं अद्धमंडल- जब सूर्य आभ्यन्तरानन्तर उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त संठिइं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया गं अट्ठारस- करके गति करता है, तब तक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो मुहुत्तेहिं दिवसे भवव दोहिं एगट्ठिभागमुहुर्तेहिं ऊणे। भाग कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है। बुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्टि भागमुहुहि एक मुहूर्त के इकसठ भाग तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त अहिया, की रात्रि होती है। १ (क) चन्द. पा. १ सु. ११ । (ख) अत्र अनन्तरोक्तार्थसंग्राहिका अस्या एव सूर्यप्रज्ञप्तेर्भद्रबाहुस्वामिना या नियुक्तिःकृता तत्प्रतिबद्धा अन्या वा काश्चन ग्रन्थान्तरसुप्रसिद्धा गाथा वर्तन्ते ता "भणितव्या" पठनीया, ताश्च सम्प्रति क्वापि पुस्तके न दृश्यन्त, इति व्यवच्छिन्ना सम्भाव्यन्ते ततो न कथयितुं व्याख्यातुवा शक्यन्ते" -सूर्य. टीका. Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४६ तिर्यक् लोक : सूर्य को दक्षिणार्ध मण्डल-संस्थिति गणितानुयोग ५५३ से निक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि उत्तराए (आभ्यन्तरानन्तर मण्डल से) निकलता हुआ वह सूर्य दूसरे अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए अभितरं तच्च अहोरात्र में उत्तर के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से आभ्यन्तर दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ। तृतीय दक्षिणार्धमण्डल संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है । ता जया णं सूरिए अभितरं तच्चं दाहिणं अद्धमंडल- जब सूर्य आभ्यन्तर तृतीय दक्षिणार्ध मण्डल-संस्थिति को संठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारस- प्राप्त करके गति करता है तब एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से महत्ते दिवसे भवइ, चहि एगट्ठिभागमुहुतेहि ऊणे। चार भाग कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है और एक मूहुर्त दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, चहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं के इगसठ भाग चार भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। अहिया। एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंत- इस प्रकार इस कम से निकलता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डल राओ मंडलाओ तयाणंतरमंडलस्स तंसि देसंसि तं तं से तदनन्तर मण्डल के उस उस प्रदेश की उन उन अर्धमण्डलअद्धमंडलसंठिति संकममाणे संकममाणे दाहिणाए अंत- संस्थिति को संक्रमण करता करता दक्षिण के आभ्यन्तर भाग के राए भागाए तस्सादिपदेसाए सव्वबाहिर उत्तरं अद्ध- आदि प्रदेश से सर्व बाह्य उत्तरार्धमण्डलसंस्थिति को प्राप्त करके मंडलसंठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ। गति करता है। ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं उत्तरं अद्धमंडलसंठिति जब सूर्य सर्व बाह्य उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त करके उवसंकमित्ता चार चरइ, तग णं उत्तमकट्ठपत्ता गति करता है तब मण्डल के अन्तिम भाग को प्राप्त होने पर उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवा- उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और जघन्य बारह मुहूर्त लसमुहुत्ते दिवसे भवइ । का दिन होता है। एस णं पढमे छम्मासे, एस गं पढमस्स छम्मासस्स- ये (दक्षिणायन के) प्रथम छः मास है और यह प्रथम छः पज्जवसाणे । मास का अन्त है। से पविसमाणे सूरिए दोच्च छम्मासं अयमाणे पढमंसि (सर्व बाह्यमण्डल से सर्व आभ्यन्तरमण्डल की ओर) प्रवेश अहोरत्तंसि उत्तराए अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए करता हुआ वह सूर्य छः मास का उत्तरायण प्रारम्भ करता हुआ बाहिराणंतरं दाहिणं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता प्रथम अहोरात्र में उत्तर के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से चारं चरइ, बाह्यानन्तर दक्षिणार्धमण्डल संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं मूरिए बाहिराणंतरं दाहिण अद्धमंडल- जब सूर्य बाह्यानन्तर दक्षिणार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त संठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारस- करके गति करता है तब एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से दो मुहुत्ता राई भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुर्तेहि ऊणा । दुवा- भाग कम अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहूर्त के लसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहि एगट्ठिभागमुहुर्तेहि अहिए। इकसठ भाग तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है। से पवेिसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए (बाह्यानन्तर मण्डल से बाह्यतृतीयमण्डल की ओर) प्रवेश अंतराए भागाए तस्सादिपदेसाए बाहिरंतरं तच्चं करता हुआ वह सूर्य दूसरे अहोरात्र मे दक्षिण के आभ्यन्तर भाग उत्तरं अद्धमंडलसंठिति उवसंकमित्ता चार चरइ, के आदि प्रदेश से बाह्य तृतीय उत्तरार्धमण्डल संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं सूरिए बाहिरं तच्चं उत्तरं अद्धमंडल- जव सूर्य बाह्य तृतीय उत्तरार्धमण्डल संस्थिति को प्राप्त संठिति उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं अट्ठारस. करके गति करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से चार मुहुत्ता राई भवइ, चउहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा, भाग कम अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहूर्त के दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ, चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं इकसठ भाग तथा चार भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन अहिए, होता है। एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंत- इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य तदनन्तर राओ मंडलाओ तयाणंतरंसि तंप्ति तंसि देसंसि तं तं मण्डल से तदनन्तर मण्डल के उस देश में उन उन अर्धमण्डल Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य को उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति सूत्र १०४६-१०४७ अद्धमण्डलसंठिई संकममाणे संकममाणे उत्तराए अंत- संस्थितियों की ओर संक्रमण करता करता उत्तर के आभ्यन्तर राए भागस्स तस्साविपदेसाए सम्वन्भंतरं दाहिणं अद्ध- भाग के आदिप्रदेशों से सर्व आभ्यन्तर दक्षिणार्धमण्डल-संस्थिति मण्डलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । को प्राप्त करके गति करता है । ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं वाहिणं अद्धमण्डल- जब सूर्य सर्व आभ्यन्तर दक्षिणार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त संठिति उवसंकमित्ता चार चरइ, तया णं उत्तमकट्ठ- करके गति करता है तब (मण्डल के अन्तिम भाग को प्राप्त पत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया करने पर) उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मास्स ये दूसरे छः मास (उत्तरायण के) हुए, यह दूसरे छः मास पज्जवसाणे, का अन्त हुआ। एस णं आइच्चे संवच्छरे, एस णं आइच्चस्स संवच्छ- यह आदित्य संवत्सर है, यह आदित्य संवत्सर का अन्त है। रस्स पज्जवसाणे, -सूरिय० पा० १, पाहु० २, सु०१२ सूरस्स उत्तरा अद्धमण्डलसंठिई सूर्य की उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति४७. ५०-ता कहं ते उत्तरा अद्धमण्डलसंठिई आहितेति वदेज्जा? ४७. प्र०-उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति किस प्रकार की कही गई है ? वह कहें। उ०-ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सस्व दीव-समुद्दाणं सम्बन्भंत- उ०—यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सर्व द्वीप-समुद्रों के मध्य राए सव्व खुड्डागे बट्ट-जाव-जोयणसयसहस्समायाम- में सबसे छोटा वृत्ताकार है-यावत्-एक लाख योजन का बिक्खंभे गं। तिण्णि जोयणसयसहस्साइं, दोन्नि य लम्बा-चौड़ा है और तीन लाख दो सौ सत्तावीस योजन तीन सत्तावीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, कोश एक सौ अट्ठावीस धनुष तेरह अंगुल तथा आधे अंगुल से तेरस य अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परि- कुछ अधिक की परिधि वाला कहा गया है । क्खेवे णं पण्णत्ते, ता जया णं सूरिए सवनभंतरं उत्तरं अद्धमण्डलसंठिई जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं उत्तमकट्टपत्ते उक्को- करके गति करता है तब परम प्रकर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अट्ठारह सए अट्ठारस मुहत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालस- मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि मुहुत्ता राई भवइ । होती है। से निक्खममाणे सूरिए गवं संवच्छर अयमाणे पढमंसि सर्व आभ्यन्तर मण्डल से निकलता हुआ सूर्य नये संवत्सर अहोरत्तंसि उत्तराए अन्तराए भागाए तस्साइपएसाए का दक्षिणायन को प्रारम्भ करता हुआ प्रथम अहोरात्र में उत्तर अभंतराणंतरं दाहिणं अद्धमण्डलसंठिई उवसंकमित्ता के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से आभ्यन्तरानन्तर दक्षिणार्ध चारं चरइ। मण्डल-संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं सूरिए अब्भतराणंतरं दाहिणं अद्धमण्डल- जब सूर्य आभ्यन्त रानन्तर दक्षिणार्ध मण्डल-संस्थिति को संठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । तया णं अट्ठारसमुहुत्ते प्राप्त करके गति करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों में दिवसे भवइ, दोहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणे, दुवालस- से दो भाग कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है और एक मुहूर्त मुहुत्ता राई भवइ, बोहि एगट्ठिभागमुहुर्तेहि अहिया । के इकसठ भाग तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। से णिक्खममाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि दाहिणाए (आभ्यन्तरानन्तर मण्डल से) निकलता हुआ वह सूर्य दूसरे अन्तराए भागाए तस्साइपएसाए अभिंतराणंतरं तच्चं अहोरात्र में दक्षिण के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से उत्तरं अद्धमण्डलसंठिई उवसंकमित्ता चारं चरइ । आभ्यन्तरानन्तर तृतीय उत्तरार्ध मण्डल-संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है। १ चन्द. पा. १ सु. १२ । । Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४७ तिर्यक् लोक : सूर्य को उत्तरार्द्ध मण्डल संस्थिति गणितानुयोग ५५५ ता जया णं सूरिए अभिंतराणंतरं तच्च उत्तरं अद्ध- जब सूर्य आभ्यन्तरानन्तर तृतीय उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति मण्डलसंठियं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारस- को प्राप्त करके गति करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों मुहुत्ते दिवसे भवइ । चहिं एगट्ठिभागमुहुर्तेहि ऊणे, में से चार भाग कम अठारह मुहूर्त का दिन होता है और एक दुवालसमुहुत्ता राई भवइ चहिं एगट्ठिभागमुहुर्तेहि मुहूर्त के इकसठ भाग तथा चार भाग अधिक बारह मुहूर्त की अहिया। रात्रि होती है। एवं खलु एएणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंत- इस प्रकार इस क्रम से निकलता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डल राओ मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संकममाणे से तदनन्तर मण्डल को संक्रमण करता करता उस उस देश में तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमण्डलसंठिई संकममाणे उन उन अर्धमण्डल-संस्थितियों की ओर संक्रमण करता करता संकममाणे उत्तराए अन्तराए भागाए तस्साइ पएसाए उत्तर के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से सर्व बाह्य दक्षिणार्ध सव्वबाहिरं दाहिणं अद्धमण्डलसंठिइं उवसंकमित्ता चार मण्डल-संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है। चरइ, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं दाहिणं अद्धमण्डलसंठिई जब सूर्य सर्व बाह्य दक्षिणार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त उवसंकमित्ता चार चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्को- करके गति करता है तब परम प्रकर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह सिया अट्ठारसमुहूत्ता राई भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते मुहूर्त की रात्रि होती है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन दिवसे भवइ, होता है। एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स ये प्रथम छ: मास दक्षिणायन के हैं यह प्रथम मास का पज्जवसाणे। अन्त है। से पविसमाणे सूरिए दोच्च छम्मासं अयमाणे पढमंसि (सर्व बाह्य मण्डल से) प्रवेश करता हुआ वह सूर्य दूसरे अहोरत्तंसि दाहिणाए अन्तराए भागाए तस्साइपएसाए छः मास से उत्तरायण प्रारम्भ करता हुआ प्रथम अहोरात्र में बाहिराणतरं उत्तरं अद्धमण्डलसंठिई उवसंकमित्ता चारं दक्षिण के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से बाह्यानन्तर चरइ, उत्तरार्धमण्डल स स्थिति को प्राप्त करके गति करता है। ता जया णं सूरिए बाहिराणतरं उत्तरं अद्धमण्डलसंठिइ जब सूर्य बाह्यानन्तर उत्तरार्ध मण्डल-संस्थिति को प्राप्त उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई करके गति करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से दो भवइ, दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि ऊणा, दुवालसमुहुत्ते भाग कम अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहूर्त के दिवसे भवइ दोहिं एगठिभागमुहुत्तेहिं अहिए. इगसठ भाग तथा दो भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है । से पविसमाणे सूरिए दोच्चसि अहोरत्तंसि उत्तराए (बाह्यानन्तर मण्डल से) प्रवेश करता हुआ वह सूर्य दूसरे अन्तराए भागाए तस्साइपएसाए बाहिर तच्चं दाहिणं अहोरात्र में उत्तर के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से बाह्य अद्धमण्डलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तृतीय दक्षिणार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है । ता जया णं सूरिए बाहिर तच्चं दाहिणं अद्धमण्डल- जब सूर्य बाह्य तृतीय दक्षिणार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त संठिइं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया गं अट्ठारसमुहुत्ता करके गति करता है तब एक मुहूर्त के इकसठ भागों में से चार राई भवइ चउहि एगट्ठिभागमुहुर्तोह ऊणा, दुवालस- भाग कम अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहूर्त के मुहुत्ते दिवसे भवइ चहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहि अहिए, इकसठ भाग तथा चार भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है। एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डलाओ तयाणंतरं मण्डलं संकममाणे संकममाणे मण्डल से तदनन्तरमण्डल को संक्रमण करता करता उस उस तंसि तंसि देसंसि तं तं अद्धमण्डलसंठिई संकममाणे देश में उन उन अर्धमण्डल संस्थितियों की ओर संक्रमण करता संकममाणे दाहिणाए अन्तराए भागाए तस्साइपएसाए करता दक्षिण के आभ्यन्तर भाग के आदि प्रदेश से सर्वाभ्यन्तर सम्वन्भंतर उत्तरं अद्धमण्डलसंठिइं उवसंकमित्ता चारं उत्तरार्धमण्डल संस्थिति को प्राप्त करके गति करता है । चरइ, Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्यमंडलों का आयाम-विष्कम्भ प्ररूपण सूत्र १०४७-१०४६ ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतरं उत्तरं अद्धमण्डलसंठिइं जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर उत्तरार्धमण्डल-संस्थिति को प्राप्त उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्को- करके गति करता है तब परम प्रकर्ष को प्राप्त उत्कृष्ट अठारह सए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहन्निया दुवालस- मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि मुहुत्ता राई भवई, होती है। एस णं दोच्चे छम्मासे एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स ये दूसरे छः मास (उत्तरायण के) हुए, यह दूसरे छः मास पज्जवसाणे, का अन्त हुआ। एस णं आइच्चे संवच्छरे एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स यह आदित्य संवत्सर है, यह आदित्य संवत्सर का अन्त है । पज्जवसाणे, -सूरिय० पा० १, पाहु० २, सु० १३ उत्तरे पढम-बितिय-तइय सूरियमण्डलाणं आयाम- उत्तर दिशा के प्रथम-द्वितीय और तृतीय सूर्यमण्डल के विक्खंभ परूवणं आयाम विष्कम्भ का प्ररूपण४८. उत्तरे पढमे सूरिय मण्डले नवनउइ-जोयण-सहस्साइं साइरे- ४८. उत्तर दिशा के प्रथम सूर्य मण्डल का आयाम-विष्कम्भ कुछ गाई आयाम-विक्खंभेणं पण्णत्ते, अधिक निनानबे हजार योजन का कहा गया है । दोच्चे सूरियमण्डले नवनउइ-जोयण-सहस्साइं साहियाइं दूसरे सूर्य मण्डल का आयाम-विष्कम्भ कुछ अधिक निनानवे आयाम-विक्खंभेणं पण्णत्ते। हजार योजन का कहा गया है । तइए सूरियमण्डले नवनउइ-जोयण-सहस्साइं साहियाई आयाम- तृतीय सूर्य मण्डल का आयाम-विष्कम्भ कुछ अधिक निनानबे विक्खंभेणं पण्णत्ते । -सम. ६६, सु. ४-६ हजार योजन का कहा गया है। उत्तरायणे दक्षिणायणे य सूरस्सगइए हाणी-बुड्ढी उत्तरायण और दक्षिणायन में सूर्य की गति की हानि-वृद्धि परूवणं का प्ररूपण४६. उत्तरायणनियट्ट णं सूरिए पढमाओ मण्डलाओ एगूणचत्ता- ४६. उत्तरायण से लौटता हुआ सूर्य प्रथम मण्डल से उनतालीसवें लीसइमे मण्डले अट्ठरि एगसट्ठिभाए विवसखेत्तस्स निवु- मण्डल पर्यन्त एक मुहूर्त अठहत्तर भागों में से इकसठ भाग ड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता णं चार चरइ, प्रमाण दिन की हानि तथा रात्रि की वृद्धि करता हुआ गति करता है। एवं दक्खिणायणनियट्ट वि। -सम, ७८, सु. ३-४ इसी प्रकार दक्षिणायन से लौटता हुआ भी गति करता है । बाहिराओ उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढम छम्मासं अय- बाह्य मण्डलात्मक उत्तर दिशा से प्रथम छ: मास में माणे चोवालीसइमे मण्डलगते अट्ठासीइ इगसट्ठिभागे मुहुत्त- (दक्षिणायन की ओर) गति करता हुआ सूर्य जब चौवालीसवें स्स दिवसखेत्तस्स निवुड्ढेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुड्ढेत्ता मण्डल में आता है तब एक मुहूर्त के अट्ठायासी भागों में से सूरिए चारं चरइ। इकसठ भाग प्रमाण दिन की हानि तथा रात्रि की वृद्धि करता हुआ गति करता है। दक्षिणकट्ठाओ णं सूरिए दोच्चं छम्मासं अयमाणे चोया- दक्षिण दिशा से दूसरे छः मास में (उत्तरायण की ओर) लीसइमे मण्डलगते अट्ठासीई इगसट्ठिभागे मुहुत्तस्स रयणि- गति करता हुआ सूर्य जब चौवालीसवें मण्डल में आता है तब खेत्तस्स निबुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुढित्ता णं सूरिए एक मुहुर्त के अठ्ठयासी भागों में से इकसठ भाग प्रमाण रात्री चारं चरइ। -सम. ८८, सु. ६ की हानि तथा दिन की वृद्धि करता हुआ गति करता है। उत्तराओ णं कठ्ठाओ सूरिए पढमं छम्मासं अयमाणे एगूण- प्रथम छः मास में उत्तर दिशा से (दक्षिण दिशा की ओर) पन्नासतिमे मण्डलगते अट्ठाणउइ एकसट्ठिभागे मुहत्तस्स गति करता हुआ सूर्य जब उनचासवें मण्डल में आता है तब एक दिवसखेत्तस्स रयणिखेत्तस्स अभिनिवुढित्ता णं सूरिए चारं मुहूर्त के अठानवें भागों में से इकसठ भाग प्रमाण दिन की हानि चरइ। तथा रात्रि की वृद्धि करता हुआ गति करता है । १ चन्द. पा. १ सु, १३ । Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०४६-१०५० तिर्यक् लोक : सूर्य का पूर्णिमाओं में योग गणितानुयोग ५५७ पन्नासइमे मण्डलगते अट्ठा अभिनिवृड्डित्ता णं सरल तथा दिन की वृद्धि ' दक्खिणाओ णं कटाओ सूरिए दोच्च छम्मासं अयमाणे एगूण- द्वितीय छः मास में दक्षिण दिशा से (उत्तर दिशा की ओर) पन्नासइमे मण्डलगते अट्ठाणउइ एकसट्ठिभाए मुहुत्तस्स रयणि- गति करता हुआं सूर्य जब उनचासवें मण्डल में आता है तब एक खित्तस्स निबुड्ढेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुड्ढित्ता णं सूरिए मुहूर्त के अठान भागों में से इकसठ भाग प्रमाण रात्रि की हानि चारं चरइ। -सम. ६८, सु. ५-६ तथा दिन की वृद्धि करता हुआ गति करता है । सूरस्स पुण्णिमासिणिसु जोगो सूर्य का पूर्णिमाओं में योग५०. १. ५०–ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं पढम पुण्णिमा- ५०. (१) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की प्रथमा पूर्णिमासी को सूर्य सिणि सूरे कंसि देसंसि जोएइ ? मंडल के किस देश-विभाग में योग करता है ? उ०–ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बाढि पुण्णिमा- उ०—सूर्य अन्तिम बासठवीं पूर्णमासी को मडल के जिस सिणि जोएइ, ताए पुण्णिमासिणिठाणाए मण्डलं देश-विभाग में योग करता है उसी पूर्णिमा स्थान से आगे वाले चउव्वीसेणं सएणं छत्ता चउणवइं भागे उवाइणा- मंडल के एक सौ चौबीस विभाग करके उनमें से चौरानवें भाग वेत्ता एत्थ णं से सूरिए पढमं पुणिमासिणिं लेकर उनमें सूर्य प्रथम पूर्णमासी को योग करता है। जोएइ। २. ५०–ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं वोच्चं पुण्णिमा- (२) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की द्वितीया पौर्णमासी को सिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएइ? सूर्य मंडल के किस देश-विभाग में योग करता है ? उ०–ता जंसि गं देसंसि सूरे पढम पुण्णिमासिणिं उ०-सूर्य प्रथमा पूर्णिमासी को मंडल के जिस देश-विभाग जोएइ, ताए पुण्णिमासिणिठाणाए मण्डलं चउव्वीसे में योग करता है, उसी पूर्णिमा स्थान से आगे वाले मंडल के एक णं सएणं छत्ता दो चउणवइभागे उवाइणावेत्ता एत्थ सौ चौबीस विभाग करके उनमें से चौरानवें भाग लेकर उनमें णं से सूरिए दोच्च पुण्णिमासिणिं जोएइ, सूर्य द्वितीया पूर्णमासी को योग करता है । ३. ५०–ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं तच्चे पुण्णिमा- (३) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की तृतीया पूर्णमासी को सिणिं सरे कंसि देसंसि जोएइ? सूर्य मंडल के किस देश-विभाग में योग करता है ? उ०-ता जंसि गं देसंसि सूरे दोच्चं पुण्णिमासिणिं उ०-सूर्य द्वितीया पूर्णमासी को मंडल के जिस देश-विभाग जोएइ, ताए पुण्णिमासिणिठाणाए मण्डलं चउव्वीसे में योग करता है उसी पूर्णिमा स्थान से आगे वाले मंडल के एक णं सएणं छत्ता चउणवइभागे उवाइणावेत्ता एत्थ सौ चौबीस विभाग करके उनमें से चौरानवें भाग लेकर उनमें णं से सूरिए तच्चं पुण्णिमासिणिं जोएइ, सूर्य तृतीया पूर्णिमासी को योग करता है। ४. ५०–ता एएसि णं पचण्हं संवच्छराणं दुवालसं पुण्णिमा- (४) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की बारहवीं पूर्णमासी को सिणिं सूरे कसि देसंसि जोएइ? सूर्य मंडल के किस देश-विभाग में योग करता है ? ज०ता जंसि णं देसंसि सूरे तच्च पुण्णिमासिणिं जोएइ, उ०-सूर्य तृतीया पूर्णमासी को मंडल के जिस देश-विभाग ताए पुण्णिमासिणिठाणाए मण्डलं चउव्वीसेणं में योग करता है उसी पूर्णिमा स्थान से आगे वाले मंडलों के सएणं छेत्ता, अट्ठछत्ताले भागसए' उवाइणावेत्ता, एक सौ चौबीस एक सौ चौबीस विभाग करके उनमें से आठ सौ एत्थ णं से सूरिए दुवालसमं पुण्णिमासिणि जोएइ, छियालीस भाग लेकर उनमें क्रमशः योग करता हुआ सूर्य बारहवीं पूर्ण मासी को योग करता है। एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए पुणिमासिणिठा- इस प्रकार इस क्रम से उन उन पूर्णमासी स्थानों से आगे णाए मण्डलं चउव्वीसेणं सएणं छत्ता चउणवइ चउण- वाले मंडलों के एक सौ चौबीस एक सौ चौवीस विभाग करके १ "अट्ठछत्ताले भागसए" त्ति, तृतीयस्या पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किल पौर्णमासी नवमी, ततश्चतुर्नवतिर्नवमिगुण्यते,जातान्यष्टी शतानि षट् चत्वारिंश दधिकानि । Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : सूर्य का अमावस्याओं में योग सूत्र १०५०-१०५१ वई भागे उवाइणावेत्ता,' तंसि णं देसंसि तं तं उनमें से प्रत्येक मंडल के चौरानवें चौरानवें भाग लेकर उन उन पुणिमासिणि सूरे जोएइ, विभागों में उन उन पूर्णिमाओं को सूर्य योग करता है । ५. ५०–ता एएसि गं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं बाट्ठि (५) प्र०—इन पाँच संवत्सरों की अन्तिम बासठवीं पूर्णिमा पुण्णिमासिणिं सूरे कंसि देसंसि जोएइ? को सूर्य मंडल के किस देश-विभाग में योग करता है ? उ०-ता जंबुद्दीवस्स गं दीवस्स पाईण-पडिणाणयाए उ०-जम्बूद्वीप द्वीप के ईशान एवं नैऋत्यकोण स्थित उदीण दाहिणाययाए जीवाए मण्डलं चउब्बीसे गं लम्बी जीवा में मंडल के एक सौ चौवीस विभाग करके पूर्व वाले सए णं छत्ता पुरथिमिल्लसि चउभागमण्डलसि मंडल के चार भागों में से सत्तावीस भाग लेकर अट्ठावीसवें सत्तावीसं भागे उवाइणावेत्ता अट्ठावीसइभागं वीसहा भाग के बीस भाग करके उनमें से अठारह भाग लेकर दक्षिण छेत्ता अट्ठारसभागे उवाइणावेत्ता तिहि भागेहिं वाले मंडल के चार भागों को प्राप्त किए बिना तीन भागों में दोहि य कलाहिं दाहिणिल्लं चउभागमण्डलं दो दो कलाओं से सूर्य अन्तिम बासठवीं पूर्णिमा को योग असंपत्ते, एत्थ णं सूरिए चरिमं बावळिं पुण्णिमा- करता है । सिणिं जोएइ, -सूरिय. पा. १०, पाहु. २२, सु. ६४ सूरस्स अमावासासु जोगो सूर्य का अमावस्याओं में योग५१. ५०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम अमावासं सूरे ५१. प्र०—इन पाँच संवत्सरों की प्रथमा अमावस्या को सूर्य कंसि देसंसि जोएइ? मंडल के किस देश-विभाग में योग करता है ? उ०-ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बावठिं अमावासं उ०—सूर्य अन्तिम बासठवीं अमावस्या को मंडल के जिस जोएइ, ताए अमावासठाणाए मण्डलं चउब्वीसे णं सए देश में योग करता है, उसी अमावस्या स्थान से आगे वाले णं छत्ता चउणउइभागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से सूरे मंडल के एक सौ चौबीस विभाग करके उनमें से चौरानवें विभाग पढम अमावासं जोएइ, लेकर उनमें सूर्य प्रथमा अमावस्या को योग करता है। एवं जेणेव अभिलावेणं सूरियस्स पुण्णिमासिणीओ इस प्रकार जिस अभिलाप से सूर्य का पूर्णिमाओं में योग तेवेण अभिलावेणं अमावासाओ भणियव्वाओ, तं कहा उसी अभिलाप से अमावस्याओं में कहना चाहिए, यथाजहा-बिइया, तइया, दुवालसंभी।' दूसरी, तीसरी और बारहवीं अमावस्या में, पाश्चात्ययुग चरम द्वाषष्टितम पौर्णमासी-परिनमाप्तिनिबन्धतात् स्थानात् परतो मंडलस्य चतुर्विशत्यधिकरात्रि प्रविभक्तस्य सत्कानां चतुर्नवति चतुर्नवति भागानामतिक्रमे तस्याः तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, ततश्चतुर्नवति षिष्ट्या गुण्येते, जातान्यष्टा पंचाशच्छंतानि अष्टाविंशत्यधिकानि, तेषां चतुर्विशत्यधिकेन शतेन भागो हियते लब्धाः सप्तचत्वारिंशत्सकलमंडलपरावर्ताः। -टीका २ चन्द. पा. १० सु. ६४ । ___ एवमित्यादि एवमुक्तेनप्रकारेण वेनैवाभिलापेन सूर्यस्य पौर्णमास्य उक्तास्तेनैवाभिलापेनामावास्या अपि वक्तव्याः तद्यथा-द्वितीया, तृतीया द्वादशी च ताश्चैवम् । प०-एएसिणं णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं अमावासं सूरे कसि देसं सि जोएइ ? उ०–ता जंसि णं देसंसि सूरे पढमं अमावास जोएइ, ताओ अमावासट्ठाणाओ मंडल चउवीसेगं सएणं छेत्ता चउणउई भागे उवाइणावेत्ता, एत्थ णं सूरे दोच्चं अमावासं जोएइ, प०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्च अमावासं सूरे कसि देसंसि जोएइ ? उ०–ता जंसि ण देसंसि दोच्च अमावासं जोएइ, ताओ अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउव्वीसे णं सएणं छत्ता चउणउइ भागे उवाइणावेत्ता एत्थणं सूरे तच्च अमावासं जोएइ, प०–ता एएसि णं पंचण्डं संवच्छराणं दुवालसमं सूरे कंसि देसंसि जोएइ? उ०–ता जंसि ण देसंसि सूरे तच्च अमावासं जोएइ, ताओ अमावासट्ठाणाओ मंडलं चउब्बीसे णं सएणं छत्ता अट्ठ छत्ताले भागसए उवाइणावेत्ता, एत्थ णं से सूरे दुवालसमं अमावासं जोएइ, Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०५१-१०५३ तिर्यक् लोक : चन्द्र-सूर्य वर्णन गणितानुयोग २५६ एवं खलु एएणं उवाएणं ताए ताए अमावासटाणाए इस प्रकार इस क्रम से उन उन अमावस्याओं में आगे वाले मण्डलं चउन्बीसे गं सएणं छत्ता, चउणउई चउण- प्रत्येक मंडल के एक सौ चौवीस एक सौ चौवीस विभाग करके उई भागे उवाइणावेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं अमा- उनमें से चुरानवें चुरानवें विभाग लेफर उन उन विभागों में वासं सूरिए जोएइ, उन उन अमावस्याओं को सूर्य योग करता है। ५०–ता एए सि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं बावट्ठि अमा- प्र०-इन पाँच संवत्सरों की अन्तिम बासठवीं अमावस्या वास सूरे कंसि देस सि जोएइ ? को सूर्य मंडल के किस देश-विभाग में योग करता है? उ०–ता जंसि गं देसंसि सूरे चरिमं बाढि अमावासं उ०—सूर्य अन्तिम बासठवीं अमावस्या को मंडल के जिस जोएइ, ताए पुण्णिमासिणिठाणाए मण्डलं चउब्बीसे देश में योग करता है उसी पूर्णिमा स्थान से आगे वाले मंडल के णं सएणं छत्ता सत्तालीस भागे ओसक्कावइत्ता, एत्य एक सौ चौवीस विभाग करके उनमें से सेंतालीस भाग पीछे णं से सूरिए, चरिम बाट्ठि अमावासं जोएइ,' रखकर शेष भागों में सूर्य अन्तिम वासठवीं अमावस्या को योग -सूरिय. पा. १०, पाहु. २२, सु. ६६ करता है । चन्द्र-सूर्य वर्णन जोइसिन्दा चंद-सूरिया ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र और सूर्य१०५२. चंदिम-सुरिया यऽतत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायाणो परि- ५२. यहाँ दो ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र और सूर्य रहते हैं वे वंसति महिड्ढिया जाव पभासेमाणा, महधिक हैं—यावत्-दैदिप्यमान हैं । ते णं तत्थ साणं साणं जोइसियविमाणावाससतहस्साणं, वे वहाँ अपने अपने ज्योतिष विमानवासी लाखों देवों के, चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं, चार हजार सामानिक देवों के, चउण्हं अग्गमहिसोणं सपरिवाराणं, चार सपरिवार अग्रमहिषियों के, तिण्हं परिसाणं, तीन परिषदाओं के, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्हं अणियाधिवतीणं, सात सेनाओं के, सात सेनाधिपतियों के, सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के. अण्णेसि च बहूणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं और अन्य अनेक देव-देवियों के आधिपत्य अग्रमामित्व को पोरेवच्चं जाव विहरंति, -पण्ण. प, २, सु. १६५ (२) प्राप्त करके -यावत् -विहरण करते हैं । एगमेगस्स चंदिम-सूरियस्स परिवार परूवणं- प्रत्येक चन्द्र-सूर्य के परिवार का प्ररूपण--- ५३. ५०–एगमेगस्स णं भंते । चंदिम-सूरियस्स, ५३. प्र०-भगवन् ! प्रत्येक चन्द्र-सूर्य के, १ चन्द. पा. १० सु. ६६ । २ (क) ठाणं अ. २, उ. ३, सु. १०५ । (ख) भग. स. ३, उ. ८, सु. ८ । ३ “एगमेगस्स णं चन्दिम-सूरियस्स"-जीवा. सूत्र १६४ में इतना गद्य अंश देकर दो गाथाएँ दी गई हैंगाहाए-अट्ठासीति च गहा, अट्ठावीसं च होइ णक्खत्ता । एगससी परिवारो. एत्तो ताराण बोच्छामि ।। छावट्ठि सहस्साइं, णव चेव सयाई पंचसयराई । एगससी परिवारो, तारागण कोडि कोडीणं ।। जीवा. सूत्र १७७ में भी ये दोनों गाथाएँ हैं। Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : चन्द्र-सूर्य की परिषदाएं सूत्र १०५३-१०५५ केवइया महग्गहा परिवारो?' महाग्रहों का परिबार कितना है ? केवइया णक्खत्ता परिवारो? नक्षत्रों का परिवार कितना है ? केवइया तारागण कोडाकोडी परिवारो? ताराओं का परिवार कितना है ? उ०—गोयमा ! अट्टासीइ महग्गहा परिवारो, उ०-गौतम ! अठयासी महाग्रहों का परिवार है । अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो, अट्ठवीस नक्षत्रों का परिवार है । छावद्विसहस्साई णवसया पण्णत्तरा तारागण कोडा- छासठ हजार नौ सौ पचहत्तर कोटाकोटी ताराओं का कोडीओ पण्णत्ताओ। परिवार है। -जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १६४ चन्दस्स सूरस्स य परिसाओ चन्द्र-सूर्य की परिषदाएँ५४. चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोयसरण्णो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, ५४. ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिषराज चन्द्र की तीन परिषदाएँ कही तं जहा–१. तुम्बा, २. तुडिया, ३. पव्वा । गई हैं, यथा-(१) तुम्बा, (२) तुटिका, (३) पर्वा । एवं सामाणिय अग्गमहिसीणं । इसी प्रकार सामानिक देवों की तथा अग्रमहिषियों की परिषदाएं हैं। एवं सूरस्स वि । --ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १६२ इसी प्रकार सूर्य को परिषदाएँ भी हैं। १ एगमेगस्स णं चन्दिम-सूरियस्स अट्टासीइ अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो पण्णत्तो । -सम. ८८, सु. १ २ (क) प०–एगमेगस्स णं भंते ! चन्दस्स केवइआ महग्गहा परिवारो? केवइआ णक्खत्ता परिवारो? केवइआ तारागण कोडा कोडीओ पण्णत्ताओ? उ०—गोयमा ! अट्टासीइ महग्गहा परिवारो, अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो, छावठ्ठि सहस्साई णवसया पण्णत्तरा तारागण कोडाकोडीओ पण्णत्ताओ। -जम्बु. वक्ष. ७, सु. १६३ (ख) प.-ता एगमेगस्स णं चन्दस्स देवस्स केवइया गहा परिवारो पण्णत्तो? केवइया णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो? केवइया तारा परिवारो पण्णत्तो ? उ०–ता एगमेगस्स णं चदस्स देवस्स अट्ठासीति गहा परिवारो पण्णत्तो, अट्ठावीसं णक्खत्ता परिवारो पण्णत्तो । गाहा-छावट्ठिसहस्साई णव चेव सयाई पंचसयराइं । एगससि परिवारो, तारागण कोडिकोडी णं ।। परिवारो पण्णत्तो ।। -सूरिय. पा. १८, सु. ६१ (ग) चन्द. पा. १८, सु. ६१ । सूर्यप्रज्ञप्ति सौवें (१००) सूत्र में भी एक चन्द्र के परिवार की सूचक दो गाथाएँ जीवाभिगम के समान हैं । सूत्र संकलन की विभिन्न शैलियाँ तुलनात्मक अध्ययन के योग्य हैं। चन्द्र-सूर्य के ग्रह परिवार का सूचक समवायांग का सूत्र है । इसी सूत्र के एक अंश को जीवाभिगम के संकलनकर्ता ने उद्धृत करके चन्द्र परिवार की सूचक दो गाथायें उद्धृत की हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति और सूर्य प्रज्ञप्ति में ग्रह, नक्षत्र, तारा, चन्द्र का परिवार माना गया है, तो सर्वथा संगत है । जीवाभिगम और समवायांग में ग्रह, नक्षत्र, ताराओं को चन्द्र-सूर्य का संयुक्त परिवार माना गया है, किन्तु ग्रह नक्षत्र और ताराओं का इन्द्र (स्वामी) चन्द्र ही है, सूर्य तो इनका औपचारिक इन्द्र है अतः ग्रह, नक्षत्र, तारा चन्द्र के ही परिवार है। ३ प्र०-सूरस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ। उ०-गोयमा ! तिण्णि परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-(१) तुम्बा, (२) तुडिया, (३) पेच्चा, (१) अभिंतरिया तुम्बा, (२) मज्झिमिया तुडिया, (३) बाहिरिया पेच्चा"..."चन्दस्स वि एवं चेव । -जीवा. प. ३, उ. १, सु. १२२ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०५५-१०५६ तिर्यक् लोक : दक्षिणार्ण- उत्तरार्ध मनुष्य क्षेत्र में ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र-सूर्य गणितानुयोग दाहिणड्डे उत्तर माणुस्सखेले जो सिदा चंद दक्षिणार्थ- उत्तरार्धं मनुष्य क्षेत्र में ज्योतिषकेन्द्र चन्द्र-सूर्यसूरिया- ५५. दाहिगड माणूसवेत्ताणं छावडिं चन्दा पभासि वा पा संति वा, पभासिस्संति वा छाट्ठ सूरिया तवइंसु वा तव इति वा तदति वा उत्तरड्ढमाणुस्सखेत्ता णं छार्वाट्ठ चन्दा पभासिंसु वा पभासंति वा, पभासिस्संति वा, छाट्ठ सूरिया तवइंसु वा तवइंति वा, तवइस्संति वा, - सम. ६६, सु. १-४ चंदिम सूरियाणं अणुभावो (सब) - २६. १० ते अणुमाये ? आहिए सि बाजा उ०—ता तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा तत्येंगे एवमाहंसु — १. ता चंदिम- सूरिया णं--नो जीवा, अजीवा, नो पणा, सिरा 7 नो बादरबोंदिधरा कलेवरा, नत्थि णं तेसि - १. उट्ठाणे इ वा, २. कम्मेइ वा, ३. बलेइ वा ४. वीरिएइ वा ५. पुरिसक्कारपरक्कमेड वा. नो बितति, नो अणि लवंति नो घणियं सयंत अहे य णं बादरे वाउकाए संमुच्छइ, संमुच्छित्ता विज्जु पि लवंत, असिणं पि लवंति, थणियं पि लवंति "एगे एवमाहंसु " एगे पुण एवमाहं २. तादिमरिया गंजीवा नो अजीवा, पण को सिरा 7 बादरबोंदिधरा, नो कलेवरा, अत्थि णं तेंसि १. उट्ठाणेइवा, २. कम्मेइवा, ३. बलेइ बा ४. परि. पुरिसस्कारपरक्कमेड वा ते विज्जु पि लवंति — असण पि लवंति थणियं पि ति "एगे एमासु" वयं पुण एवं वयामो ता चंदिम सूरिया णं देवाणं महिड्डिया महज्जुइया, महब्बला, महाजसा, महासोक्खा, महाणुभागा वरवत्थ ५६१ ५५. दक्षिणार्ध मनुष्यक्षेत्र में छियासठ चन्द्र प्रभासित हुए हैं। प्रभासित होते हैं और प्रभासित होंगे। छियासठ सूर्य तपे हैं, तपते है और तपेंगे। उत्तरार्ध मनुष्यक्षेत्र में छियासठ चन्द्र प्रभावित हुए हैं प्रभासित होते हैं और प्रभासित होंगे। छियासठ सूर्य तपे हैं, तपते हैं और तपेंगे । चन्द्र और सूर्यो का अनुभाव (स्वरूप) - - ५६. प्र० - ( चन्द्र और सूर्यो का ) अनुभाव ( विशेष स्वरूप) कैसा है ? कहें। उ०- इस सम्बन्ध में ये दो प्रतिपत्तियाँ ( अन्य मान्यतायें) कही गई हैं, यथा उनमें से एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं (१) पन्द्र और सूर्य जीव नहीं है, अजीब है, घनीभूत नहीं है, छिद्रों वाले है, स्थूल (सजीव, सुव्यक्त, अवयवयुक्त) शरीर वाले नहीं हैं। केवल कलेवर हैं, उनमें उत्थान, कर्म, बल-वीर्य और पुरुषाकार-पराक्रम नहीं है, न वे विद्युत उत्पन्न करते हैं, न वे कड़कते हैं, न वे गर्जते हैं, उनके नीचे स्थूल (घन ) वायु उत्पन्न होता है उससे विद्युत उत्पन्न होती है, कड़कने का भयंकर शब्द होता है, गर्जना भी होती है। एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं (२) चन्द्र-सूर्य जीव है, अजीब नहीं है। पन (ठोस वाले नहीं है। स्कूल (राजीव सुव्यक्त अवयव युक्त) शरीर वाले हैं, ले नहीं है। उनमें उत्थान कर्म बल-वीर्य और पुरुषाकार पराक्रम है। विद्युत उत्पन्न करते हैं, कहते हैं, गरजते हैं। हम फिर इस प्रकार कहते हैं चन्द्रसूर्यदेवमधिक है, महावृति वाले हैं, महाल वाले हैं, महायश वाले हैं, अत्यधिक सुखी हैं, बड़े भाग्यशाली हैं, + Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक चन्द्र-सूर्य मण्डलों का आकार : धरा, वरमल्लधरा, वराभरणधरा अवोछित्तिणयट्टयाए श्रेष्ठ वस्त्र धारण करने वाले हैं, श्रेष्ठ मालायें धारण करने वाले अन्ते चयंति, अन्ने उबवति १ चंद-सूर-मण्डल संठि ५७. प० - ता कहं ते मंडल संठिर्ड ? आहितेति वदेज्जा, उ०- तत्थ खलु इमाओ अट्ठ पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - सूरिय. पा. २०, सु. १०२ होते हैं । तत्थेगे एवमाहंसु - १. ता सव्वावि णं मण्डलावता समचउरंस संठाण संठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - २. ता सव्वावि णं मण्डलावता विसमचउरंस संठाण सठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहं एगे पुण एवमाहंसु ३. ता सब्वावि णं मण्डलावता समचउक्कोण संठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु ४. ता सव्वा वि णं मण्डलावता विसमचउक्कोणसंठिया पाएमा एगे पुण एवमाहंसु ५. ता सव्वा वि णं मण्डलावता समचक्कवालसंठिया पणता एगे एवमाहंसु १ चंद. पा. २०, मू. १०२ । एगे पुण एवमाहंसु ६. ता सव्वा वि णं मण्डलावता विसमचक्कवालसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाह - ७. ता सव्वा विणं मण्डलावता चक्कद्धचक्कवालसंठिया पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंमु ८. ता सव्वा वि णं मण्डलावता छत्तागारसंठिया पाएंगे एमा तर ते एमा ता सव्वा वि णं मण्डलावता छत्तागारसंठिया पण्णत्ता, सूत्र १०५६- १०५७ हैं, श्रेष्ठ आभूषण धारण करने वाले हैं, द्रव्यार्थिक नम से पूर्वोत्पन्न अन्य ययते (देह स्युत होते हैं और अन्य उत्पन्न चन्द्र-सूर्य के मंडलों का आकार ५७. प्र० - ( चन्द्र सूर्य के ) मंडलों की संस्थिति कैसी है ? उ०—इस सम्बन्ध में ये आठ प्रतिपत्तियाँ ( मतान्तर ) कही गई हैं, यथा इनमें से एक मत वालों ने ऐसा कहा है (१) चन्द्र-सूर्य के सभी मंडल समचतुरख संस्थान से स्थित हैं । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (२) (चन्द्र-सूर्य के सभी मंडल मिचतुरस्र संस्थान से स्थित हैं । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (३) (चन्द्र-सूर्य के ) सभी मंडल समचतुष्कोण रूप में स्थित है। एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (४) (चन्द्र-सूर्य के सभी मंडल विषम चतुष्कोण रूप में स्थित हैं । एक (मत वालों) ने किर ऐसा कहा है (५) ( चन्द्र-सूर्य के ) सभी मंडल समचक्रवालरूप में स्थित हैं । एक (मत वालों ने फिर ऐसा कहा है (५) (चन्द्र-सूर्य के सभी मंडल विषमवाल रूप में स्थित हैं । एक ( मतवालों) ने फिर ऐसा कहा है (७) (चन्द्र-सूर्य के सभी मंडल अर्धक के चक्रवाल के रूप में स्थित है। एक (मत वालों ने फिर ऐसा कहा है (८) (चन्द्र-सूर्य के ) सभी मंडल छत्राकार के रूप में स्थित हैं । इनमें से जिन्होंने ऐसा कहा है ( चन्द्र-सूर्य के ) सभी मंडल छत्राकार के रूप में स्थित हैं Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०५७-१०५६ तिर्यक् लोक : चन्द्र-सूर्य मण्डलों के समांश कर प्ररूपण गणितानुयोग ५६३ एएणं गएणं णायव्वं, णो चेव णं इयरेहिं ।' केवल इस प्रतिपत्ति का यह कथन नयानुसार (हमारी मान्यता नुसार) जानना चाहिए शेष (पूर्वोक्त) सात प्रतिपत्तियों का कथन हमारी मान्यतानुसार नहीं है—(क्योंकि ऊपर उठाये हए अर्धकपित्थ के आकार जैसे चन्द्र-सूर्य के सभी मंडल-विमान हैं । अर्ध-कपित्थ और छत्र के आकार में साम्य हैं ।) पाहुडगाहाओ भाणियब्वाओ। यहाँ प्राभत गाथायें कहनी चाहिए। ----सूरिय. पा. १, पाहु. ७, सु. १६ चन्द-सूर मण्डलाणं समंस-परूवणं चन्द्र-सूर्य मंडलों के समांश का प्ररूपण५८. चंद मण्डले णं एगसट्ठि विभाग विभाइए समसे पण्णता । ५८. चन्द्र मंडल का समाश एक योजन के इकनट विभाग करने पर पैंतालीम (४५) होता है। एवं सूरस्स वि। -सम. ६१, सु, ३.४ इसी प्रकार सूर्यमंडल का समांश भी है। चंदिम-सूरियसंठिई चन्द्र-सूर्य की संस्थिति५६. ५०–ता कहं ते सेआते' संठिइ आहिताति बदेज्जा? ५६. प्र०---श्वेतता की संस्थिति (आकार) किस प्रकार की कही गई है ? कहैं। उ०-तत्थ खलु इमा दुविहा संठिती पण्णत्ता, तं जहा-- उ०—यह संस्थिति दो प्रकार की कही गई है, यथा १. चंदिम-सूरियसंठिती य, २. तावक्खेत्तसंठिती य, (१) चन्द्र-सूर्य की संस्थिति, (२) तापक्षेत्र की संस्थिति । ५०-ता कहं ते चंदिम-सूरियसंठिती आहिताति वदेज्जा ? प्र०--चन्द्र-सूर्य की संस्थिति किस प्रकार की कही गई है ? उ०–तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-इस विषय में सोलह प्रतिपत्तियाँ (मान्यतायें) कही तं जहा गई हैं, यथा१. तत्थेगे एवमाहंसु (१) उनमें से एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं, ता समचउरंससंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता एगे चन्द्र-सूर्य की समचतुरस्र संस्थिति है । एवमाहंसु, २. एगे पुण एवमाहंसु (२) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, ता विसम चउरंससंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, चन्द्र-सूर्य की विषम चतुरस्र संस्थिति है । एगे एवमाहंसु, ३. एगे पुण एवमाहंसु (३) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, ता सम चउकोणसंठिया चंदिम-सूरिय संठिती पण्णत्ता, चन्द्र-सूर्य की समचतुष्कोण संस्थिति है। एगे एवमाहंसु, प्र० १ चन्द. पा. १, सु. १६ । २ ये गाथायें उपलब्ध नहीं हैं। ३ वृत्तिकार ने "श्वेतता" की व्याख्या इस प्रकार की है "इह श्वेतता चन्द्र-सूर्य विमानानामपि विद्यते, तत्कृततापक्षेत्रस्य च, ततः श्वेततायोगादुभयमपि श्वेतताशब्देनोच्यते । ४ चन्द्र-सूर्य विमानों के संस्थान अन्यत्र कहे गये हैं अतः चन्द्र-सूर्य विमानों की संस्थिति के सम्बन्ध में प्रश्नकर्ता के अभिप्राय का स्पष्टीकरण वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है"इह चन्द्र-सूर्यविमानानां संस्थानरूपा संस्थिति प्रागेवाभिहिता तत इह चन्द्र-सूर्य विमान-संस्थितिश्चतुर्णामपि अवस्थानरूपा पृष्टा द्रष्टव्या" Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૬૪ लोक- प्रज्ञप्ति ४. एगे पुण एवमाहंसु ता विसमचउक्कोणसंठिया चंदिम-सूरिय संठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, ५. एगे एवमाहं ता सम चक्कवालसंठिया चंदिम-सूरिय संठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहं तिर्यक् लोक चन्द्र-सूर्य की संस्थिति ६. एगे पुण एवमाहंसु - ता विसय चवालसंठिया बंदिमसूरिय संडिसी पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, ७. एगे पुण एवमाहंसु - ता चक्कद्धचक्कवालसंठिया बंदिम-सूरिय संहिती पण एगे एवमु ८. एगे पुण एवमाहंसु ता सागारसंठिया दिम-रियो सा एगे एमा २. एगे पुण एवमाहं - लागेसंडवा चंदिमसूरिय संठिती पणता एगे एमा १०. एगे एवाहं ता गेहायणसंडिया चंदिमरिय संडितो पणा, एगे एमा ११. पुर्ण एवमातुतापासासंठिया दिम-सूरियसहितो पलाए एवमाहंसु, १२. ए ता गोपुरखंडिया विम-सूरियसंहितो पत्ता, एगे एवमाहंसु, १३. एगे एमासापेछाघरसंदिया चंदिम-सूरियसंहिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु १४. एगे पुण एवमाहंसु ता वलभीसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु १२. ए एमा ता हम्मियतलसंठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, एएमा 37 एमासु (४) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की विषमचतुष्कोण संस्थिति है । (५) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की समचक्राकार संस्थिति है । (६) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की विषम चक्राकार संस्थिति है । (७) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की अर्धचक्राकार संस्थिति है । (८) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की छत्राकार संस्थिति हैं । (६) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की गृहाकार संस्थिति है। सूत्र १०५६ (१०) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की गृहाण (घर-दुकान साथ) जैसी स्थिति है (११) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की प्रासादाकार संस्थिति है । (१२) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की गोराकार संस्थिति है। (१३) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की प्रेक्षागृहाकार संस्थिति है। (१४) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, चन्द्र-सूर्य की बलभी (घर के छप्पर) जैसी स्थिति है। (१५) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, सूर्य की हल (तलघर) जैसी संस्थिति है। Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०५६-१०६० तिर्यक्लोक : ज्योत्स्ना आदि के लक्षण गणितानुयोग ५६५ १६. एगे पुण एवमाहंसु (१६) एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं, ता वालग्गपोतिया संठिया चंदिम-सूरियसंठिती चन्द्र-सूर्य की बालाग्रपोतिकाकार (आकाश गंगा में क्रीडागृह पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, के लिए लघु प्रासाद) जैसी संस्थिति है । तत्थ जे ते एवमाहंसु इनमें से जो यह कहते किता समचउरंस-संठिया चंदिम-सूरियसंठिती पण्णत्ता, "चन्द्र-सूर्य की समचतुरस्र संस्थिति है" यह कथन नययुक्त है एएणं गएणं णेयव्वं; णो चेव णं इयरेहि अतएव मान्य है, अन्य मान्यताएँ मान्य नहीं हैं । -सूरिय. पा. ४, सु० २५ दोसिणाइया णं लक्खणा ज्योत्स्ना (आतप-अन्धकार) आदि के लक्षण६०. १. ५०–ता कहं ते दोसिणा लक्खणा? आहिए ति वएज्जा, ६०. (१) प्र०-ज्योत्स्ना का क्या लक्षण है ? कहें, उ०–ता चंदलेसाई य दोसिणाई य, उ०-चन्द्र की लेश्या ही ज्योत्स्ना है। २. ५०-दोसिणाई य चंदलेसाई य के अट्ठ, कि लक्खणे ? (२) प्र०-ज्योत्स्ना और चन्द्र लेश्या का क्या अर्थ है और क्या लक्षण है ? उ०–ता एगट्ठ एग लक्खणे, उ०-इन दोनों का अर्थ एक है और एक ही लक्षण है। १. ५०-ता कहं ते सूरलेस्सा लक्खणो? आहिए त्ति वएज्जा, (१) प्र०-सूर्य लेश्या का क्या लक्षण है ? कहें, ___ उ०–ता सूरलेस्साई य आयवेई य, उ०—सूर्य की लेश्या ही आतप है, २. ५०-ता सूरलेस्साई य, आयवेई य के अट्ठ किं लक्खणे? (२) प्र०-सूर्य लेश्या और आतप का क्या अर्थ है और क्या लक्षण है? उ०–ता एगट्ठ', एगलक्खणे, उ०-इन दोनों का अर्थ एक है और एक ही लक्षण है । १.५०-ता कहं ते छाया लक्खणे ? आहिए त्ति वएज्जा, (१) प्र०-छाया का क्या लक्षण है ? कहें, __उ०-ता छायाई य, अंधकाराई य, उ०-छाया ही अन्धकार है । २. ५०–ता छायाई य अंधकाराई य के अ? किं लक्खणे? (२) प्र०-छाया और अन्धकार का क्या अर्थ है और क्या लक्षण है ? उ०–ता एगट्ठ', एगलक्खणे। उ०-इन दोनों का अर्थ एक है और एक ही लक्षण है। -सूरिय. पा. १६, सु. ८७ १ बालाप्रपोतिका शब्दो देशीशब्दत्वादाकाशतडागमध्ये व्यवस्थितंक्रीडास्थानं लघुप्रासादम् । -सूर्य. वृत्ति २ (क) परतीथिकों की इन सोलह प्रतिपत्तियों में से केवल एक प्रतिपत्ति सूत्रकार की मान्यतानुसार है, इस विषय में वृत्तिकार का कथन यह है -"तत्थे इत्यादि-तत्र तेषां षोडषानां परतीथिकानां मध्ये ये ते वादिन एवमाहु - "समचतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यसंस्थितिःप्रज्ञप्ता इति, एतेन नयेन नेतव्यं, ऐतेनाभिप्रायेणाऽस्मन्मतेऽपि चन्द्र-सूर्यसंस्थितिरवधायेति भावः, तथाहि"इह सर्वेऽपि कालविशेषाःसुषम-सुषमादयो युगमूलाः युगस्य चादौ श्रावणे मासि बहुलपक्षप्रतिपदिप्रातरूदयसमये एकसूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां दिशि वर्तते, तद्वितीयस्त्वपरोत्तरस्यां, चन्द्रमा अपि तत्समये एको दक्षिणापरस्यां दिशि वर्तते, द्वितीय उत्तरपूर्वस्यामत एतेषु युगस्यादौ चन्द्र-सूर्याःसमचतुरस्रसंस्थिति वर्तन्ते, यत्वत्र मण्डलकृतं वैषम्यं यथा सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्तते, चन्द्रमसौ सर्वबाह्य-इति तदल्पमितिकृत्वा न विवक्ष्यते, तदेवं यतःसकलकालविशेषाणां सुषमा-सुषमादिरूपाणामादिभूतस्य युगस्यादौ समचतुरस्रसंथितासूर्य-चन्द्रमसो भवन्ति, ततस्तेषां संस्थितिः समचतुरस्रसंस्थिानेनोपवर्णिता, अन्यथा वा यथासम्प्रदाय समचतुरस्रसंस्थितिःपरिभावनीयेति नो चेव णं इयरेहि ति-नो चेव नैव इतरैः-शेषेर्नयैश्चन्द्र-सूर्यसंस्थिति तिव्या, तेषां मिथ्यारूपत्वात्, तदेवमुक्ता चन्द्र-सूर्यसंथितिः । (ख) चन्द. पा. ४ सु. २५ । ३ चंद. पा. १६, सु. ८७ । Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ लोक- प्रज्ञप्ति चंदम-सूरियाण ओमासखेत उज्जोय वेस तायवेस' चन्द्र-सूर्यो का अवभासक्षेत्र, उद्योतक्षेत्र, तापक्षेत्र और पगासखेत्तं चप्रकाशक्षेत्र तिर्यक् लोक चन्द्र-सूर्यो का अवभास, उद्योत, ताप और प्रकाशक्षेत्र ६१. ० -ता केवइयं खेत्तं चंदिम-सूरिया ओभासेंति, उज्जोवेंति ६१. प्र० - चन्द्र और सूर्य कितने क्षेत्र को अवभासित करते हैं। तथेति पाति ? आहिएति एमा उद्योतित करते हैं, तपाते हैं तथा प्रकाशित करते हैं ? कहें, उ० – इस सम्बन्ध में बारह प्रतिपत्तियाँ ( मतान्तर) हैं, यथा उ०- तत्थ खलु इमाओ बारसपडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा सायेंगे एवमाहं १. ता एवं दीचं एवं समुद्र चंदिम सूरिया ओमासेति तितति गाति' एगे एवमाहं " एगे पुण एवमाहं २. सातवी तिमिण समुद्दे चंदिम-सूरिया ओमाति-जावयासति एगे एमा 1 एगे पुग एवमाहं - ३. ता अद्ध चउत्थे दीवे, अद्ध चउत्थे समुद्दे चंदिमसुरिया ओभातिजान-गात एगे एवमाह " ر एमे पुग एवमाहं ४. ता सत्तदोवे, सत्तसमुद्दे चंदिम-सूरिया ओभासेंति, - जाव - पगा सेंति, एगे एवमाहंसु, एगे पुण एवमाहंसु - ५. सासदीवे दससमुद्दे बंदिम-सूरिया ओभासंति जानाति एमे एवमाहं एगे पुष एवमाहं---- ६. ता बारसीये, बारससमुद्दे चदिम-सूरिया ओमासेति -जाय-पगासति एगे एमा " सूत्र १०६१ एगे एमा ७. ता बावालीसं दीवे, बापाली समुद्दे चंदम-सूरिया भाति-जावपणासेति एगे एवमाहं एगे पुण एवमाहंसु ८. ता बावर्त्तार दीवे, बावर्त्तारं समुद्दे चंदिम-सूरिया ओमासेंति- जाव - पगासेंति, एगे एवमाहंसु, इनमें से एक मत (मत वालों ने ऐसा कहा है (१) चन्द्र और सूर्य एक द्वीप तथा एक समुद्र को अवभासित करते हैं, उद्योतित करते हैं, तपाते हैं, प्रकाशित करते हैं । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (२) चन्द्र और सूर्य तीन द्वीप तथा तीन समुद्रों को अव भासित करते हैं -- यावत् - प्रकाशित करते हैं । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (२) चन्द्र और सूर्य साढ़े तीन द्वीप तथा साढ़े तीन समुद्रों को अवभासित करते हैं-पावत्प्रकाशित करते हैं। एक (मत वालों ने फिर ऐसा कहा है- (४) चन्द्र और सूर्य सात द्वीपों तथा सात समुद्रों को अवभासित करते हैं- यावत् — प्रकाशित करते हैं । एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (५) चन्द्र और सूर्य दस द्वीप तथा दस समुद्रों को अवभासित करते हैं - यावत् -- प्रकाशित करते हैं । एक (मत बालों) ने फिर ऐसा कहा है (६) चन्द्र और सूर्य बारह द्वीप तथा बारह समुद्रों को अवभाति करते हैं। एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (७) चन्द्र और सूर्य बियालीस द्वीप तथा बियालीस समुद्रों को अवभासित करते है-वाद- प्रकाशित करते हैं। एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है (८) चन्द्र और सूर्य बहत्तर द्वीप तथा बहत्तर समुद्रों को अवभासित करते हैं- यावत् - प्रकाशित करते हैं । १ अवभासयन्ति तत्रावभासो ज्ञानस्यापि व्यवह्रीयते अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह उद्योतयन्ति स चोद्योतो यद्यपि लोके भेदेन प्रसिद्धो यथा सूर्यगत आतप इति चन्द्रगतः प्रकाश इति, तथाप्या तपशब्दश्चन्द्रप्रभायामपि वर्तते तथा चन्द्रातः स्मृतः इति प्रकाशशब्दः सूर्य प्रभायामपि एतश्च प्रायो बहूनां सुप्रतीतं भूयोऽकामा तापयन्ति प्रकाशयन्ति आख्याता इति यदुक्तम् चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना, तत एतदर्थ प्रतिपत्यर्थमुभयसाधारणं Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६१ तिर्यक् लोक : चन्द्र-सूर्यों का अवमास, उद्योत, ताप और प्रकाशक्षेत्र गणितानुयोग ५६७ एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है६. ता बायालीसं दीवसयं, बायालीसं समुद्दसयं चंदिम- (९) चन्द्र और सूर्य एक सौ बियालीस द्वीप तथा एक सौ सूरिया ओभासेंति-जाव-पगासेंति, एगे एवमाहंसु, बियालीस समुद्रों को अवभासित करते हैं यावत्-प्रकाशित करते हैं। एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है१०. ता बावरि दीवसयं बावरि समुद्दसयं चंदिम- (१०) चन्द्र और सूर्य एक सौ बहत्तर द्वीप तथा एक सौ सूरिया ओभार्सेति,-जाव-पगासेंति, एगे एवमाहंसु, बहत्तर समुद्रों को अवभासित करते हैं यावत्-प्रकाशित करते हैं। एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है११. ता बायालीसं दीवसहस्स, बायालीसं समुद्दसहस्सं (११) चन्द्र और सूर्य बियालीस हजार द्वीप तथा बियालीस चंदिम-सूरिया ओभासेंति-जाव-पगासेन्ति, एगे एवमाहंसु, हजार समुद्रों को अवभासित करते हैं—यावत -प्रकाशित करते हैं। एगे पुण एवमाहंसु एक (मत वालों) ने फिर ऐसा कहा है१२. ता बावत्तरं दीवसहस्सं बावत्तरं समुद्दसहस्सं (१२) चन्द्र और सूर्य बहत्तर हजार द्वीप तथा बहत्तर हजार चंदिम-सूरिया ओभासेंति-जाव-पगासेति, एगे एवमाहंसु, समुद्रों को अवभासित करते हैं-यावत -प्रकाशित करते हैं। वयं पुण एवं वयामो हम फिर इस प्रकार कहते हैंता अयण्णं जंबुद्दीवे दोडे सव्व दीद-समुद्दाणं सम्वन्भंत- यह जम्बूद्वीप द्वीप सब द्वीप समुद्रों के अन्दर है सबसे छोटा राए सव्वखुड्डागे वट्ट -जाव-जोयणसहस्समायाम- है, वृत्ताकार है-यावत्-एक लाख योजन लम्बा चौड़ा है, तीन विक्खंभे णं तिण्णि जोयणसयसहस्साइं, दोण्णि य सत्ता- तीन लाख दो सौ सत्तावीस योज। तीन कोस एक सौ अट्ठावीस वीसे जोयणसए, तिण्णि कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं, धनुष तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक की परिधि तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परि- कही गई है। क्खेवे णं पण्णत्ते, से णं एगाए जगईए सव्वओ समंता संपरिकखित्ते, साणं वह जम्बूद्वीप चारों ओर एक जगती से घिरा हुआ है। वह जगई अटु-जोयणाई उड्ढे उच्चत्ते णं पण्णत्ता, जगती आठ योजन ऊँची कही गई है । एवं जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए-जाव- एवामेव सपुव्वा- जिस प्रकार जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में कहा है उसी प्रकार पूर्वापर वरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोद्दस सलिलासयसहस्सा छप्पण्णं को मिलाकर जम्बूद्वीप द्वीप में चौदह लाख छप्पन हजार नदियाँ च सलिलासहस्सा भवंतीतिमक्खायं, हैं; ऐसा कहा गया है। जंबुद्दीवे गं दीवे पंच चक्कभागसंठिया, आहियात्ति जम्बूद्वीप पाँच चक्र भाग संस्थान से स्थित है। वएज्जा, ५०-ता कहं गं जंबुदीवे दीवे पच चक्कभागसंठिए? आहिए प्र०-जम्बूद्वीप द्वीप में पाँच चक्र भाग कौन से हैं ? कहें, त्ति वएज्जा, उ०–ता जया णं एए दुवे सूरिया सव्वन्भतरं मण्डलं उव- उ०-जब ये दोनों (एक भरत का और एक ऐरवत का) संकमित्ता चारं चरन्ति, तया णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स सूर्य सर्वाभ्यन्तरमण्डल को प्राप्त करके गति करते हैं तब तिण्णि पंच चक्कभागे ओभाति-जाव-पगासेन्ति, जम्बूद्वीप द्वीप के पाँच चक्रभागों में से तीन चक्र भागों को तं जहा-- अवभासित करते हैं-यावत्-प्रकाशित करते हैं । यथा १ जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति के प्रथम वक्षस्कार सूत्रांक ४ से षष्ठवक्षस्कार सूत्रांक १२५ पर्यन्त के सभी सूत्रों के पाठ यहाँ समझने की सूचना है। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : एक युग में सूर्य और चन्द्र की गति संख्या सूत्र १०६१-१०६२ www ता एगे वि सूरिए एग दिवड्ढं पंच चक्कभागं ओभा- एक सूर्य (भरत का) पाँच चक्र भागों में से (पूर्वोक्त तीन सेइ-जाव-पगासेइ, भाग के आधे) डेढ़ भाग को अवभासित करता है-यावत् प्रकाशित करता है। ता एगे वि सूरिए एग दिवड्ढं पंच चक्कभागं ओभा- एक सूर्य (ऐरवत) पाँच चक्र भागों में से (पूर्वोक्त तीन भाग सेइ-जाव-पगासेइ, के आधे डेढ़ भाग को अवभासित करता है यावत्-प्रकाशित करता है। तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का भवइ जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, दिन होता है, जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । ता जया णं एए दुवे सूरिया सब्वबाहिर मण्डलं उव- जब ये दोनों सूर्य सर्व बाह्यमण्डल को प्राप्त करके गति संकमित्ता चारं चरंति, तया णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स करते हैं, तब जम्बूद्वीप द्वीप के पाँच चक्रभागों में से दो चक्र दोण्णि पंच चक्कभागे ओभासेन्ति-जाव पगासेन्ति, भागों को अवभासित करते हैं-यावत्-प्रकाशित करते हैं। ता एगे वि सूरिए एग पंच चक्कवालभागं ओभासेइ एक सूर्य (भरत का) पाँच चक्र भागों में से (पूर्वोक्त तीन -जाव-पगासेइ, के बाद शेष रहे दो में से) एक चक्र भाग को अवभासित करता है-यावत्-प्रकाशित करता है। ता एगे वि सूरिए एग पंच चक्कवालभागं ओभासेइ एक सूर्य (ऐरवत का) पाँच चक्र भागों में से (पूर्वोत्तर दो में -जाव-पगासेइ, से शेष रहे) एक चक्र भाग को अवभासित करता है-यावत् प्रकाशित करता है। तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की भवइ जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ,' रात्रि होती है; जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है। -सूरिय. पा. ३, सु. २४ एगे जुगे आदिच्च-चन्द चार संखा एक युग में सूर्य और चन्द्र की गति संख्या६२. ५०–ता कहं ते चारा? आहिए त्ति वएज्जा, ६२. ५०-(एक युग में सूर्य-पेन्द्र की) गति कितनी बार होती उ०-तत्थ खलु इमा दुविहा चारा पण्णत्ता, तं जहा १. आदिच्चचारा य, २. चंदचारा य, १०-(क) ता कहं ते चंदचारा? आहिएत्ति वएज्जा, उ०—ये दो प्रकार की गति कही गई है, यथा-(१) सूर्य की गति, (२) चन्द्र की गति । प्र०—(क (एक युग में) चन्द्र की गति कितनी बार होती है ? कहैं, उ०- ता पंच संवच्छरिए णं जुगे, १. अभीइ णक्खत्ते सत्तसद्विचारे चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, २. सवणे णक्खत्ते सत्तसद्विचारे चंदेण सद्धि जोगं जोएइ, एवं-जाव-, ३-२८. उत्तरासाढा णक्खत्ते सत्तसद्विचारे चदेण सद्धि जोगं जोएइ, उ०—पाँच संवत्सर का एक युग होता है, (ऐसे एक युग में) (१) अभिजित नक्षत्र सडसठ (६७) बार चन्द्र के साथ योग योग करता है। (२) श्रवण नक्षत्र सडसठ (६७) बार चन्द्र के साथ योग करता है-इस प्रकार-यावत् (३-२८) उत्तराषाढा नक्षत्र सडसठ (६७) बार चन्द्र के साथ योग करता है। १ चन्द. पा. ३ सू. २४ । Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६२-१०६३ तिर्यक्लोक : चन्द्र-सूर्य अर्द्धमास में चन्द्र-सूर्य की मण्डल-गति गणितानुयोग ५६६ प०–(ख) ता कहं ते आइच्च चारा ? आहिए त्ति वएज्जा, प्र०-(एक युग में) सूर्य की गति कितनी बार होती है ? कहे, उ०- ता पंचसंवच्छरिए णं जुगे, उ०—पाँच संवत्सर का एक युग होता है, (ऐसे एक युग में) १. अभीई णक्खत्ते पंचचारे सूरेण सद्धि जोगं जोएइ (१) अभिजित नक्षत्र पाँच बार सूर्य के साथ योग करता है, एवं-जाव-, इस प्रकार--यावत्२-२८. उत्तरासाढा णक्खत्ते पंचचारे सूरेण सद्धि जोगं (२-२८) उत्तराषाढा नक्षत्र पाँच बार सूर्य के साथ योग जोएइ, करता है। -सूरिय० पा० १०, पाहु. १८, सु० ५२ ।। चन्दाइच्च अद्धमासे चन्दाइच्चाणं मण्डलचार- चन्द्र-सूर्य अद्ध मास में चन्द्र-सूर्य की मण्डल गति६३. १. ५०–ता चंदेणं अद्धमासेणं चंदे कइ मण्डलाई चरइ ? | ६३. (१) प्र०-चन्द्र अर्द्ध मास में चन्द्र कितने मंडलों में गति करता है ? उ०-ता चउद्दस चउब्भागमण्डलाई चरइ एगं च चउ- उ०-चौदह मंडल और (पन्द्रहवें) मण्डल के एक सौ वीस-सयभागं मण्डलस्स, चौवीस भागों में से चौथा भाग (अर्थात इकतीस भाग) और एक भाग में गति करता है ? २.५०-ता आइच्चे णं अद्धमासे णं चंदे कइ मण्डलाइं चरइ? (२) प्र०-सूर्य अर्द्धमास में चन्द्र कितने मंडलों में गति करता है। उ०-ता सोलस मण्डलाई चरइ, सोलसमण्डलाचारी तया उ० -- सोलह मंडलों में गति करता है और सोलहवें मंडल अवराई खलु दुवे अट्ठकाइ जाइं चंदे केणइ असा- में गति करते समय अन्य दो आठ भागों में जिनमें चन्द्र किसी मण्णगाई सयमेव पविट्टित्ता पविद्वित्ता चारं चरइ, असामान्य गति से स्वयं प्रवेश करके गति करता है । ३. ५०-कयराइं खलु दुवे अटुगाई जाइं चंदे केणइ असा- (३) प्र० --ये दो आठ भाग कौनसे हैं जिनमें चन्द्र किसी मण्णगाइं सयमेव पविट्टित्ता पविद्वित्ता चारं चरइ? असामान्य गति से स्वयं प्रवेश कर करके गति करता है ? उ०—इमाई खलु ते दुवे अट्टगाइ जाइं चंदे केणइ असा- उ०—ये दो आठ भाग हैं, जिनमें चन्द्र किसी असामान्य मण्णगाइं सयमेव पविट्टित्ता पविद्वित्ता चारं चरइ, गति से स्वयं प्रवेश करके गति करता है। तं जहा यथा१. निक्खम्ममाणे चेव अमावासंतेणं, (१) सर्वाभ्यन्तर मंडल से निष्क्रमण करता हुआ धन्द्र अमावस्या को प्रथम अष्टक में किसी असामान्य गति से स्वयं प्रवेश करके गति करता है। २. पविसमाणे चेव पुण्णिमासितेणं, (२) सर्व बाह्य मंडल से प्रवेश करता हुआ चन्द्र पूर्णिमा की द्वितीय अष्टक में किसी असामान्य गति से स्वयं प्रवेश कर करके गति करता है। एयाई खलु दुवे अट्ठगाई जाई चंदे केणई असामण्ण- ये दो आठ भाग हैं, जिनमें चन्द्र किसी असामान्य गति से गाई सयमेव पविट्टित्ता पविट्टित्ता चारं चरइ, प्रवेश कर करके गति करता है । पढम चंदायणं प्रथम चन्द्रायण-- ता पढमायण गए चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे प्रथम अयन गत चन्द्र दक्षिण भाग से प्रवेश करता हुआ सत्त अद्धमण्डलाई जाइं चंदे दाहिणाए भागाए पवि- सात अर्द्धमंडलों में जिनमें चन्द्र दक्षिण भाग से प्रवेश करता समाणे चारं चरइ, हुआ गति करता है। १ चन्द. पा. १० सु०५२ । Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० लोक- प्रज्ञप्ति सिर्व लोक चन्द्र-सूर्य अर्द्धमास में चन्द्र-सूर्य की मण्डल-पति १. प० – कराई खलु ताइं सत्त अद्धमण्डलाई जाई चंदे दाहिणाए भागाए पविसमा पारं वरद ? उ० – इमाई खलु ताइं सत्तअद्धमण्डलाई जाई चंदे दाहिजाए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, तं जहा - १. बिइए अद्धमण्डले, २. चउत्थे अद्धमण्डले, ३. छट्ट े अद्धमण्डले, ४. अट्टमे अद्धमण्डले ५ दसमे अद्धमण्डले, ६. बारसमे अद्धमण्डले, ७. चउदसमे अनुमण्डले, एयाई खलु ताई सत्त अद्धमण्डलाई जाई चंदे दाहिणाए भागाए पविसमाणे चारं चरड़, ता पढमायणगए चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे छ अद्धमण्डलाई तेरस य सत्तट्टिभागाई अद्धमण्डलस्स जाई चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, २. प० – कराई खलु ताई छ अद्धमण्डलाई तेरस य सत्तट्ठिभागाई अद्धमण्डलस्स जाई चंदे उत्तराई भागाए पविसमाणे चारं चरइ ? उ०- इमाई खलु ताई छ अद्धमण्डलाई तेरस य सत्तट्ठिभागाई अद्धमण्डलस्स जाई चंदे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, तं जहा - १. ए २. पंचमे समण्डले, ३. सत्तमे अद्धमण्डले, ४. नवमे अद्धमण्डले, ५. एक्कारसमे अद्धमण्डले, ६. तेरसमे अद्धमण्डले, पण्णरस मण्डलस्स तेरस सत्तट्ठिभागाई, एलाई खलु ताई अण्डलाई तेरस व सत्तभागाई अद्धमण्डलस जाई चन्दे उत्तराए भागाए पविसमाणे चारं चरइ, एयावया च पढने चंदायणे समते भवइ, दोच्चे चंदायणे या पदे अदमासे तो अमानो घंटे अद्धमासे, अमा १. प० -- ता णक्खताओ अद्धमासाओ ते चंदे चंदेणं अद्धमासे णं किमधियं चरइ ? उ०- ता एवं अद्धमण्डलं चरइ, चत्तारि य सत्तट्टिभागाई अद्धमण्डलस सत्तद्विभागं एगतीसाए छेत्ता जव भागाई, तादोच्चाए दे पुरण्डिमाए भागाए ि ममाणे सत्त चउप्पणाई जाई चंदे परस्स चिन्नं पडिचरइ, सत्त तेरसगाई जाई चंदे अप्पणा चिण्णं चरइ, (१) प्र० - वे सात अर्द्धमंडल कौनसे हैं जिनमें चन्द्र दक्षिण भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता है ? सूत्र १०६३ उ० – ये वे सात अर्द्धमंडल हैं जिनमें चन्द्र दक्षिण भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता है । यथा (१) दूसरा अर्द्धमंडल, (२) चौथा अर्द्धमंडल, (३) छठा अर्द्ध मंडल, (४) आठवाँ अर्द्धमंडल, (५) दसवाँ अर्द्धमंडल, (६) बारहवाँ अर्द्धमंडल, (७) चौदहवाँ अर्द्धमंडल । ये सात अर्द्धमंडल हैं जिनमें चन्द्र दक्षिण भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता है । प्रथम अयनगत चन्द्र उत्तर भाग से प्रवेश करता हुआ छ: अर्द्धमंडल और अर्द्धमंडल के सड़सठ भागों में से तेरह भाग हैं जिनमें चन्द्र उत्तर भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता है । (२) प्र० वे कौन से छह अमंडल और मंडल के सड़सठ भागों में से तेरह भाग हैं जिनमें चन्द्र उत्तर भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता है ? उ०- वे ये छह अर्द्धमंडल और अर्द्धमंडल के सड़सठ भागों में से तेरह भाग हैं जिनमें चंद्र उत्तर भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता है, यथा " , (१) तीसरा मंडल (२) पांच मंडल (१) सातव अर्द्धमंडल, (४) नवमा अर्द्धमंडल, (५) ग्यारहवाँ अर्द्धमंडल, (६) तेरहवाँ अर्द्धमंडल । पन्द्रहवें मंडल के सड़सठ भागों में से तेरह भाग । वे ये छह अर्द्धमंडल और अर्द्धमंडल के सड़सठ भागों में से तेरह भाग हैं जिनमें चन्द्र उत्तर से प्रवेश करता हुआ ि करता है । इतने पर प्रथम चन्द्रायण समाप्त होता है । द्वितीय चन्द्रायण- नक्षत्र अर्द्धमास, चन्द्र अर्द्धमास नहीं है । चन्द्र अर्द्धमास, नक्षत्र अर्द्धमास नहीं है । ( १ ) प्र० - चन्द्र-नक्षत्र अर्द्धमास से चन्द्र-अर्द्धमास कितना अधिक चलता है ? उ० - एक अर्द्धमंडल तथा द्वितीय अर्द्धमंडल के सड़सठ भागों में से चार भाग और सड़सठवें इकतीस भागों में से नौ भाग अधिक चलता है । द्वितीय अयनगत चन्द्र सर्वाभ्यन्तर मंडल के पूर्वी भाग से निष्क्रमण करता हुआ (अर्द्धमंडल के ) सडसठ भागों में से चौवन भागों में जिनमें अन्य संचरित मंडल के भागों में चन्द्र गति करता है और (अर्द्ध मंडल के ) सड़सठ भागों में से तेरह भागों में जिनमें चन्द्र (अपने ) संचरित मंडल के भागों में चन्द्र गति करता है । Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६३ तिर्यक् लोक : चन्द्र-सूर्य अर्द्धमास में चन्द्र-सूर्य को मण्डल-गति गणितानुयोग ५७१ ता दोच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए णिक्ख- द्वितीय अयनगत चन्द्र सर्वाभ्यन्तर मंडल के पश्चिम भाग ममाणे छ चउप्पण्णाइं जाई चंदे परस्स चिण्णं से निष्क्रमण करता हुआ (अर्द्ध मंडल के) सड़सठ भागों में से पडिचरइ, छ तेरसगाई चंदे अप्पणो चिण्णं पडि- चौवन भागों में जिनमें अन्य संचरित मंडल के भागों में चन्द्र चरइ, गति करता है और (अर्द्ध मंडल के) सडसठ भागों में से तेरह भागों मे जिनमें स्वयं संचरित मंडल के भागों में चन्द्र गति करता है। अवर गाई खलु दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ दो दूसरे तेरह भाग हैं, जिनमें चन्द्र किसी असामान्य गति असामण्णगाई सयमेव पविट्ठित्ता पविट्टित्ता चारं चरइ, से स्वयं प्रवेश कर करके गति करता है । २.५०- -कयराइं खलु ताई दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ (२) प्र०-वे कौनसे दो दूसरे तेरह भाग हैं जिनमें चन्द्र असामण्णागाइं सयमेव पविद्वित्ता पविद्वित्ता चारं किसी असामान्य गति से स्वयं प्रवेश कर करके गति करता है ? चरइ? उ०-इमाइं खलु ताई दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ उ०-वे ये दो दूसरे तेरह भाग हैं जिनमें चन्द्र किसी असामण्णगाई सयमेव पविद्वित्ता पविद्वित्ता चारं असामान्य गति से स्वयं प्रवेश कर करके गति करता है। चरइ. १. सव्वन्भंतरे चेव मण्डले, सर्व आम्पन्तर मंडल के (सड़सठ भागों में से तेरह भाग), २. सव्वबाहिरे चेव मण्डले, सर्व बाह्यमंडल के (सड़सठ भागों में से तेरह भाग), एयाणि खलु ताणि दुवे तेरसगाई जाइं चंदे केणइ ये वे दो दूसरे तेरह भाग हैं जिनमें चन्द्र किसी असामान्य असामण्णगाई सयमेव पविट्टित्ता पविद्वित्ता चारं गति से स्वयं प्रवेश कर करके गति करता है । चरइ, एयावया दोच्चे चंदायणे समत्ते भवइ, यह दूसरा चन्द्रायण समाप्त हुआ । तच्चे चंदायणे तृतीय चन्द्रायणता णक्खत्ते मासे नो चंदे मासे, नक्षत्र मास है, वह चन्द्रमास नहीं है, चंदे मासे नो णक्खत्ते मासे, चन्द्र मास है, वह नक्षत्र मास नहीं है, १.५०-ता णक्खत्ताए मासाए चंदे चंदेणं मासे णं किमधिय प्र०-चन्द्रनक्षत्र मास से चान्द्रमास में कितनी अधिक गति चरइ? करता है? उ०-ता दो अद्धमण्डलाइंचरइ अट्ठ य सत्तट्टि भागाई उ०-दो अर्द्धमंडल तथा अर्द्धमंडल से सड़सठ भागों में से अद्धमण्डलस्स, सत्तट्ठिभागं च एक्कतीसधा छेत्ता आठ भाग और सड़सठवें भाग के इकवीस भागों में से अठारह अट्ठारस भागाई, भाग अधिक गति करता है । ता तच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए पविस- तृतीय अयनगत चन्द्र पश्चिमी बाह्यानन्तर अर्द्धमंडल के माणे बाहिराणंतरस्स पच्चथिमिल्लस्स अद्धमण्डल- सड़सठ भागों में से स्व-संचरित इकतालीस भाग से प्रवेश स्स इगयालीसं सत्तट्ठिभागाइं जाई चंदे अप्पणो, करता हुआ गति करता है । परस्स य चिन्नं पडिचरइ, तेरस सत्तट्ठिभागाई जाई चंदे परस्स चिण्णं पडि- उसी अर्द्धमंडल के सड़सठ भागों में से पर संचरित तेरह चरइ, भागों में जिनसे चन्द्र (बाह्यानन्तर मण्डल के पश्चिमी भाग से प्रवेश करता हुमा) गति करता है। तेरस सत्तट्ठिभागाइं चंदे अप्पणो परस्स य चिण्णं उसी अर्द्धमण्डल के सड़सठ भागों में से स्व-पर संचरित पडिचरइ, तेरह भागों में, जिनमें चन्द्र (बाह्यानन्तर मण्डल के पश्चिमी भाग से प्रवेश करता हुआ) गति करता है । Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ ww १ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक लोक चन्द्र-सूर्य अर्द्धमास में चन्द्र-सूर्य की मण्डल गति www एवावा बाहिराणंतरे पथिमिले अनुमण्डले समते भवइ, तच्चायणगए चंदे पुरत्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिरतश्चस्स पुरथिमिल्लस्स अद्धमण्डलस्स इगयालीसं सत्तट्ठिभागाई जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिणं परि तेरस तलाई जाई चंदे परस्स विि यरइ, तेरस सत्तट्ठिभागाइं जाई चंदे अप्पणो परस्स य विवर एयावया बाहिरतच्चे पुरस्थिमिल्ले अद्धमण्डले समत्ते भवइ. ता तच्चायणगए चंदे पच्चत्थिमाए भागाए पविसमाणे बाहिर चउत्थस्स पच्चत्थिमिल्लस्स अद्धमण्डलस्स अभागा, ससद्विभागं च एवकतोसधा छेत्ता अट्ठारस भागाइं जाई चंदे अप्पणो परस्स य चिणं परि एयावया बाहिरच उत्थ पच्चत्थिमिल्ले अद्धमण्ड समत्ते भवइ एवं खलु चंदेणं मासेणं चंदे तेरस चउप्पण्णागाई दुवे तेरा नाई डे परस्स चिग्ण परिह तेरस तेरसगाई जाई चंदे अप्पणो चिण्णाई पडि यरइ, चन्द्र. पा. १३ सु. ८१ दुवे इगयालीसगाई दुबे तेरसगाई, अट्ठ सत्तट्टिभागाई सत्तद्विभागं च एक्कतीसधा छत्ता अट्ठारसभागाई जाई चंदे अध्पणो परस्स य चिण्णं पडियरइ, अवराई खलु दुवे तेरसगाई जाई चंदे केणइ अस्सामन्नगाई सयमेव पविट्टित्ता पविद्वित्ता चारं चरइ, इस्सो चंदमासो अभिगमन-नियमणबुद्धि बुड्ढ - अणवट्टिय संठाण-संठिई विउव्वणगिड्ढि पत्ते रूवी चंदे देवे चंदे देवे, आहिए त्ति वएज्जा,' - सूरिय. पा. १३, सु. ८१ सूत्र १०६३ यह बाह्यानन्तर (बाह्यमण्डल से दूसरा) पश्चिमी अर्द्धमण्डल समाप्त हुआ । तृतीय अयनगत चन्द्र बाह्य तृतीय पूर्व अर्द्धमण्डल के सड़सठ भागों में से स्व पर संचरित इकतालीस भागों में जिनमें चन्द्र पूर्वी भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता है । उसी पूर्वी तृतीय अर्द्धमण्डल के सडसठ भागों में से परसंचरित तेरह भागों में, जिनमें चन्द्र पूर्वी भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता है । उसी पूर्वी तृतीय अर्द्धमण्डल के सड़सठ भागों में से स्व-पर संचरित तेरह भागों में जिनमें चन्द्र पूर्वी भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता है । यह बाह्य तृतीय पूर्वी अर्द्धमण्डल समाप्त हुआ । तृतीय अयनगत चन्द्र बाह्य चतुर्थ पश्चिमी अर्द्धमण्डल के सड़सठ भागों में से आठ जिनमें चन्द्र पश्चिमी भाग से प्रवेश करता हुआ गति करता है। यह बाह्य चतुर्थ पश्चिमी अर्द्धमण्डल समाप्त हुआ । इस प्रकार चन्द्र मास में चन्द्र पर संचरित चौवन भागों में स्व-संचरित तेरह भागों में तथा दो तेरह भागों में जिनमें चन्द्र प्रवेश कर करके गति करता है । सभी स्व-संचरित तेरह भागों में जिनमें चन्द्र प्रवेश करके गति करता है । स्व पर संचरित दो इकतालीस भाग दो तेरह भाग सड़सठ भागों में से आठ भाग सडसठवें भाग के इकतीस भागों में से अठारह भाग जिनमें चन्द्र प्रवेश करके गति करता है । अन्य दो तेरह भागों में, जिनमें चन्द्र स्वयं किसी असामान्यप्रवेश कर करके गति करता है। यह चन्द्र देव का चन्द्र मास प्रवेश निष्क्रमण हानि-वृद्धि, अवस्थित, संस्थान संस्थिति, विकुर्वणा, काम-भोगों में आसक्ति चन्द्रदेव आदि कहा गया है । Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६४ तिर्यक् लोक : चन्द्र और सूर्य नक्षत्रों का योगकाल गणितानुयोग ५७३ चंदेण य सूरेण य णक्खत्ताणं जोगकालं चन्द्र और सूर्य से नक्षत्रों का योगकाल६४. १. (क) ताजे णं अज्ज णक्खत्ते णं चंदे जोगं जोएइ जंसि ६४. (१) (क) जो चन्द्र मण्डल के जिस देश में जिस नक्षत्र से देसंसि से णं इमाइं अट्ठ एगूणवीसाइं मुहुत्तसयाई आज योग करता है तो (अठाईस नक्षत्रों के योगकाल के) आठ चउवीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं सौ उन्नीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में से चौवीस भाग च सत्तद्विधा छेत्ता, बाटि चुण्णियामागे उवाइ- और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से बासठ चूर्णिका भाग णावेत्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं सरिसएणं चेव (बीतने के बाद) पुनः वही चन्द्र मंडल के अन्य देश में अन्य णक्खत्तेणं जोगं जोएइ अण्णंसि देसंसि । सदृश नक्षत्र से योग करता है। (ख)–ता जे णं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोगं जोएइ, जंसि (ख) जो चन्द्र मण्डल के जिस देश में जिस नक्षत्र से आज देसंसि से णं इमाइं सोलस अटुतीसं मुहत्तसयाई योग करता है तो (छप्पन नक्षत्रों के योगकाल के) सोलह सौ अउणापण्णं च बावट्टि भागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभाग अड़तीस मुहूर्त एक मुहूर्त के बासठ भागों में से उनपचास भाग च सत्तद्विधा छत्ता, पट्ठि चुणियाभागे उवा- और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से पैसठ चूणिका भाग इणावेत्ता, पुणरवि से णं चंदे ते णं चेव णक्खत्ते (बीतने के बाद) पुनः वही चन्द्र मण्डल के अन्य देश में उसी णं जोगं जोएइ, अण्णंसि देसंसि, नक्षत्र से योग करता है। (ग)-ता जे णं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोगं जोएइ, जसि (ग) जो चन्द्र मण्डल के जिस देश में जिस नक्षत्र से आज देसंति से णं इमाई चउपण्णमुहुत्त सहस्साई णव य योग करता है तो (अठाईस नक्षत्रों से एक युग के योगकाल के) मुहत्त सयाई जवाइणावेत्ता पुणरवि से चंदे अण्णेणं चौवन हजार नौ सौ मुहूर्त (बीतने के बाद) पुनः वही चन्द्र तारिसएणं णक्खत्तेणं जोगं जोएइ, तंसि देसंसि, मण्डल के उसी देश में अन्य वैसे ही नक्षत्र से योग करता है। (घ)–ता जे णं अज्ज णक्खत्तेणं चंदे जोगं जोएइ जंसि (घ) जो चन्द्र मण्डल के जिस देश में जिस नक्षत्र में आज देसंसि से णं इमाई एगलक्खं नव य सहस्सं अट्ठ योग करता है तो (अठाईस नक्षत्रों से दो युग के योगकाल के) य मुहत्तसए उवाइणावेत्ता पुणरवि से चंदे ते णं एक लाख नौ हजार आठ सौ मुहर्त (बीतने के बाद) पुनः वही चेव णक्खत्ते णं जोगं जोएइ तंसि देसंसि, चन्द्र मण्डल के उसी देश में उसी नक्षत्र से योग करता है। २. (क)–ता जे णं अज्ज णक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएइ जंसि (२) (क) जो सूर्य मण्डल के जिस देश में जिस नक्षत्र से देसंसि से णं इमाई तिण्णि छावट्ठाई राइंदिय- आज योग करता है तो तीन सौ छासठ अहोरात्र के बाद पुनः सयाइ उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरिए अग्णे णं वही सूर्य मण्डल के उसी देश में अन्य वैसे ही नक्षत्र से योग तारिसएणं चेव णक्खत्तेणं जोगं जोएइ तंसि करता है। देसंसि, (ख)–ता जे णं अज्ज णक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएड तंसि (ख) जो सूर्य मण्डल के जिस देश में जिस नक्षत्र से आज देससि से णं इमाई सत्त दुतीसं राइंदियसयाई योग करता है तो सात सौ बत्तीस अहोरात्र के बाद पुनः उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरे अण्णेणं चेव तारि- वही सूर्य मण्डल के उसी देश में अन्य वैसे ही नक्षत्र से योग सएणं णक्खत्तेणं जोगं जोएइ तंसि देसंसि, करता है। -ता जे गं अज्ज णक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएइ, जंसि (ग) जो सूर्य मण्डल के जिस देश में जिस नक्षत्र से आज देसंसि से णं इमाइं अट्ठारस तीसाइं राइंदिय- योग करता है तो अठारह सो तीस अहोरात्र के बाद पुनः वही सयाई उवाइणावेत्ता पुणरवि सूरे तेणं णक्खत्तेणं सूर्य मण्डल के उसी देश में अन्य वैसे ही नक्षत्र से योग करता है। जोगं जोएइ, तंसि देसंसि, -ता जे गं अज्ज णक्खत्तेणं सूरे जोगं जोएइ जंसि (घ) जो सूर्य मण्डल के जिस देश में जिस नक्षत्र से आज देसंसि ते णं इमाई छत्तीसं सट्ठाई राइंबियसयाई योग करता है तो छत्तीस सौ साठ (तीन हजार छः सौ साठ) उवाइणावेत्ता पुणरवि से सूरे ते णं चेव णक्खत्तेणं अहोरात्र के बाद पुनः वही सूर्य मण्डल के उसी देश में उसी जोगं जोएइ तं सि देसंसि,' नक्षत्र से योग करता है। -सूरिय० पा० १०, पाहु० २२, सु० ६६ (ग) चंद. पा. १०, सु. ६६ । Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : पूर्णिमाओं में चन्द्र और सूर्य का नक्षत्रों से योग सूत्र १०६५ पुणिमासिणिसु चंदस्स य सूरस्स य णक्खत्ता णं पूर्णिमाओं में चन्द्र और सूर्य का नक्षत्रों से योग__ जोगो ६५. १. (क) प०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम पुण्णि- ६५. (१) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की प्रथमा पूर्णमासी में मासिणि चंदे केणं णक्खत्ते णं जोएइ? चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०--ता धणिवाहि धणिट्ठाणं तिण्णि मुहुत्ता एगूण- उ०-धनिष्ठा के तीन मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों वीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च में से उगणीस भाग और बासठवें भाग के सडसठ विभागों में से सत्तद्विधा छेत्ता पण्णट्ठि चुणिया भागा सेसा, पैसठ चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र धनिष्ठा नक्षत्र से योग करता है। (ख) प०-तं समयं च णं सूरिए के णं णक्खत्ते णं (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? जोएइ ? उ०–ता पुव्वफग्गुणोहिं पुन्वफग्गुणीणं अट्ठावीसं उ०-पूर्वाफाल्गुनी के अठावीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ मुहुत्ता अद्रुतीसं च बाट्ठिभागा मुहुत्तस्स भागों में से अड़तीस भाग और बासठवें भाग के सडसठ भागों में बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता बत्तीसं से बत्तीस चूणिका भाग शेष रहने पर सूर्य पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र के चुण्णिया भागा सेसा, साथ योग करता है। २. (क) ५०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्च पुण्णि- (२) (क) प्र० - इन पाँच संवत्सरों की द्वितीया पूर्णमासी मासिणि चंदे के णं णक्खत्ते णं जोएइ ? में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०-ता उत्तराहि पोट्ठवयाहिं उत्तराणं पोट्ठवया उ०-उत्तरा भाद्रपद के सत्तावीस मुहूर्त एक मुहूर्त के णं सत्तावीसं मुहुत्ता चोद्दस्स य बावट्ठि- बासठ भागों में से चौदह भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागा मुहत्तस्स बावट्ठि भागं च सत्तद्विधा भागों में से बासठ चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र उत्तरा छत्ता बावट्ठि चुणिया भागा सेसा, भाद्रपद नक्षत्र से योग करता है । (ख) प०-तं समयं च णं सूरिए के गं णक्खत्ते गं (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता हैं ? जोएइ? उ०—ता उत्तराहि फग्गुणीहिं उत्तराफग्गुणोणं उ०-उत्तरा फाल्गुनी के सात मुहूर्त एक मुहूर्त के बासठ सत्तमुहत्ता च तेत्तीसं च बावट्ठिभागा भागों में से तेतीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में मुहुत्तस्स बावठ्ठि भागं च सत्तठिधा छेत्ता, से इक्कीस चूणिका भाग शेष रहने पर सूर्य उत्तरा फाल्गुनी एक्कवीसं चुणिया भागा सेसा, नक्षत्र से योग करता है। ३. (क) ५०-ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं पुण्णि- (३) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की तृतीया पूर्णिमासी मासिणि चंदे के णं णक्खत्ते गं जोएइ? को चन्द्र किस नक्षत्र के साथ योग करता है ? उ०-ता अस्सिणीहि अस्सिणीणं एक्कवीसं मुहुत्ता उ०—अश्विनी के इक्कीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों णव य बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं में से नौ भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से सठ च सत्तद्विधा छेत्ता तेवढेिं चुणिया भागा चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र अश्विनी नक्षत्र के साथ योग करता है। (ख) प०-तं समयं च णं सूरे के णं णक्खत्ते णं जोएइ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०–ता चित्ताहि चित्ताणं एक्को मुहुत्तो अट्ठावीसं उ०-चित्रा का एक मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च से अठावीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से सत्तट्ठिया छत्ता, तीसं चुणियाभागा सेसा, तीस चूणिका भाग शेष रहने पर सूर्य चित्रा नक्षत्र से योग करता है। ४. (क) ५०-ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं (४) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की बारहवीं पूर्णिमासी पुण्णिमासिणि चंदे केणं णक्खत्ते गं जोएइ? को चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? सेसा, Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६५-१०६६ तिर्यक् लोक : अमावस्याओं में चन्द्र और सूर्य के साथ नक्षत्रों का योग गणितानुयोग ५७५ उ०-ता उत्तराहि आसाढाहिं उत्तराणं च आसा- उ.-उत्तराषाढा के छब्बीस मुहूर्त एक मुहूर्त के बासठ ढाणं छवीसं मुहुत्ता छवीसं च बावट्ठिभागा भागों में से छब्बीस भाग और बासठवें भाग के इकसठ भागों में मुहत्तस्स बावठ्ठिभागं च सत्तद्विधा छत्ता, से चौवन चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र उत्तराषाढा नक्षत्र के चउप्पण्णं चुण्णियाभागा सेसा, साथ योग करता है। (ख) ५०-तं समयं च णं सूरे के णं णक्खत्ते णं जोएइ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०-ता पुणव्वसुणा पुणव्वसुस्स सोलस मुहुत्ता उ०-पुनर्वसु के सोलह मुहूर्त, एक मुहूर्त बासठ भागों में अट्ठ य बावट्ठि भागा मुहत्तस्स, बावट्ठिभागं से आठ भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से बीस च सत्तट्टिधा छत्ता बीसं चुण्णियाभागा चूणिका भाग शेष रहने पर सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र से योग करता है। सेसा। ५. (क) ५०–ता एएसि गं पंचण्डं संवच्छराणं चरम (५) (क) प्र०- इन पांच संवत्सरों की अन्तिम बासठवीं बावट्ठि पुण्णिमासिणि चंदे के णं णक्खत्ते णं पूर्णमासी को चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? जोएइ? उ०—ता उत्तराहि आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं उ०-उत्तराषाढा के अन्तिम समय में उत्तराषाढा नक्षत्र से चरम समए, योग करता है। (ख) प०-तं समयं च णं सूरे के गं णक्खत्ते णं जोएइ ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है । उ०–ता पुस्से णं पुस्सस्स एगूणवीसं मुहुत्ता तेता- उ०-पुष्य के उन्नीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में लीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं से तियालीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से च सत्तट्ठिधा छेत्ता तेतीसं चुणिया भागा तेतीस चूणिका भाग शेष रहने पर सूर्य पुष्य नक्षत्र से योग करता है। -- सूरिय. पा. १०, पाहु. २२, सु. ६७ अमावासासु चंदस्स य सूरस्स य णक्खत्ताणं जोगो- अमावस्याओं में चन्द्र और सूर्य के साथ नक्षत्रों का योग६६. १. (क) प०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढम अमा- ६६. (१) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की प्रथमा अमावस्या वासं चंदे केण णक्खत्तेणं जोएइ? को चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०–ता अस्सेसाहिं चेव अस्सेसाणं एक्के मुहुत्ते उ०-अश्लेषा का एक मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में चत्तालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठि- से चालीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से भागं सत्तद्विधा छत्ता, बावठिं चुणिया बासठ चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र अश्लेषा नक्षत्र से योग भागा सेसा । करता है। (ख) प०-तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? ___ उ०—ता अस्सेसाहिं चेव अस्सेसाणं एक्को मुहत्तो उ० --अश्लेषा का एक मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों चत्तालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठि- में से चालीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से भागं च सत्तद्विधा खेत्ता, बावठिं चुण्णिया बासट चूणिका भाग शेष रहने पर सूर्य अश्लेषा नक्षत्र से योग भागा सेसा, , करता है। २. (क) ५०-ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं अमा- (२) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की द्वितीया अमावस्या वासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? को चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है? उ०-ता उत्तराहि चेव फग्गुणीहि उत्तराणं फग्गु- उ-उत्तराफाल्गुनी के चालीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के __णोणं चत्तालीसं मुहुत्ता पणतीसं च बावट्ठि- बासठ भासों में से पैतीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ सेसा, १ चन्द. पा. १० सु. ६७ । Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : हेमति आवृत्तियों में चन्द्र-सूर्य से नक्षत्रों का योग सूत्र १०६६-१०६७ wwwww भागा मुहुत्तस्स बावविभागं च सत्तद्विधा छत्ता, भागों में से पैसठ चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र उत्तराफाल्गुनी पण्णढिं चुण्णिया भागा सेसा, नक्षत्र से योग करता है । (ख) ५०-तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०–ता उत्तराहि चेव फग्गुणीहि उत्तराणं फग्गु- उ०-उपरोक्त चन्द्र के जैसे उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र से योग णीणं जहेव चंदस्स, करता है। ३. (क) ५०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चं अमा- (३) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की तृतीया अमावस्या वासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? को चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०—ता हत्थे ण चेव हत्थस्स चत्तारि मुहुत्ता तोसं उ०-हस्त के चार मुहूर्त एक मुहूर्त के बासठ भागों में से च बावट्ठिभागा मुहत्तस्स बावट्ठिभागं च तीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से बासठ सत्तट्ठिधा छेत्ता बावट्ठि चुण्णियाभागा सेसा, चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र हस्त नक्षत्र से योग करता है । (ख) प०-तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०–ता हत्थे णं चेव हत्थस्स जहेव चंदस्स, उ०--उपरोक्त चन्द्र के जैसे हस्त नक्षत्र से योग करता है। ४. (क) प०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दुवालसमं (४) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की बारहवीं अमावस्या अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? को चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०-ता अद्दाहिं चेव अदाणं चत्तारि मुहुत्ता, दस उ०—आर्द्रा नक्षत्र के चार मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों य बावट्ठिभागा मुहत्तस्स, बावट्ठिभागं च में से दस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से सत्तद्विधा छत्ता चउप्पण्णं चुण्णिया भागा चौवन चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र आर्द्रा नक्षत्र से योग सेसा, करता है। (ख) प०-तं समयं च सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०—ता अद्दाहिं चेव अद्दाणं जहेब चंदस्स, उ०-उपरोक्त चन्द्र के जैसे सूर्य आर्द्रा नक्षत्र से योग करता है। ५. (क) प०-ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चरिमं (५) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की अन्तिम बासठवीं बावटिळ अमावासं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? अमावस्या को चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०—ता पुणध्वसुणा चेव पुणव्वसुस्स बावीस मुहुत्ता उ०—पुनर्वसु के बावीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों बायालीसं च बासट्ठिभागा मुहुत्तस्स सेसा, में से बियालीस भाग शेष रहने पर चन्द्र पुनर्वसु नक्षत्र से योग करता है। (ख) ५०-तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ-ता पुणब्वसुणा चेव , पुणव्वसुस्स जहा चंदस्स' उ०-उपरोक्त चन्द्र के जैसे सूर्य पुनर्वसु नक्षत्र से योग -सूरिय० पा० १०, पाहु० २२, सु० ६८ करता है। हेमंतियासु आवट्टियासु चंदेण, सूरेण य णक्खत्त- हेमंति आवृत्तियों में चन्द्र-सूर्य से नक्षत्रों का योगकाल जोगकालो६७. १. (क) ५०-ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमं हेमति ६७. (१) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की पहली हेमंति आउटिं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ?. आवृत्ति में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०—ता हत्थे णं, हत्थस्स णं पंचमुहुत्ता, पण्णासं उ०-हस्त नक्षत्र के पाँच मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठिभागं च में से पचास भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से सत्तट्ठिधा छेत्ता सट्टि चुणियाभागा सेसा, साठ चूणिका भाग शेष रहने पर हस्त नक्षत्र के साथ चन्द्र योग करता है। १ चन्द. पा. १० सु, ६८ । Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६७ लिक् लोक हेमंत आवृत्तियों में चन्द्र-सूर्य से नक्षत्रों का योगकाल गणितानुयोग (ख) प० - तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ०- ता उत्तराहि आसाढाहि उत्तराणं आसाढाणं चरिम समए, २. (क) प० ता एएसि णं पंचन्हं संवच्छराणं दोच्चं हेमंति आउट्टि चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ०- ता सतभिसयाहि सतभिसयाणं दुन्निमुहुत्ता अट्ठावीस चा बावट्टभागा मुहुत्तस्स बावट्टिभागं साता छतालों व चुम्बिया भागा सेसा, (ख) प० तं समयं सूरे जोए ? उ०- ता उत्तराहि आसाढाहि उत्तराणं आसाढाणं चरिम समए, ३. (क) प० - ता एएसि णं पंचण्हं संवछराणं तच्चं हेमंति भट्ट चंदे के जोए ? उ०- ता पूसे णं, पूसस्स एगूणवीसं मुहुत्ता, तेतालीसं च बावट्टिभागा मुहुत्तस्स, बावट्टिभागं च सत्तद्विधा छता तेत्तीसं चुण्णियाभागा सेसा, (ख) प० - तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ०- ता उत्तराहि आसाढाहि उत्तराणं आसाढाणं चरिम समए, ४. (क) प० -ता एएसि णं पंचन्हं संबच्छराणं चउत्थि आउदिन्ये केण व जोए ? उ० -ता मूले णं, मूलस्स छमुहुत्ता, अट्ठावन्न च बावट्टिभागा मुहुत्तस्स, बावट्टिभाग सत्तद्विधा छत्ता वीसं चुण्णिया भागा सेसा, (ख) प० - तं समयं च णं सूरे केणं णक्वत्तेणं जोएइ ? उ०- ता उत्तराहि असाढाहि, उत्तराणं आसाढा णं, चरिम समए, ५. (क) प० –ता एएसि णं पंचन्हं संवच्छराणं पंचमं हेमंति आउटि चन्दे केणं शक्य जोए ? उ०- ता कत्तियाहि, कत्तियाणं अट्ठारस मुहुत्ता, छत्तीसं च बावट्टिभागा मुहुत्तस्स, बावट्टिभागं च सत्तद्विधा ऐसा छष्णया भागा सेसा (ख) प० - तं समयं च सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ०- ता उत्तराहि आसाढाहि, उत्तराणं आसाढाणं चरिम समए सूरिय. पा. १२, सु. ७७ ५७७ (ख) प्र० -- उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०- उत्तराषाढा के अन्तिम समय में सूर्य उससे योग करता है ? (२) (क) प्र० इन पांच मंत्रों की दूसरी हेमंत आवृति में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०- शतभिषक् के दो मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में से अठावीस भाग और वासठवें भाग के सड़सठ भागों में से छियालीस नृषिका भाग शेष रहते पर चन्द्र शतभिषक नक्षत्र से योग करता है । (ख) प्र० -उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०- उत्तराषाढा के अन्तिम समय में सूर्य उससे योग करता है । (३) (क) प्र० – इन पाँच संवत्सरों की तीसरी हेमंत आवृत्ति में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०- पुष्य के उन्नीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में से तियालीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से तेतीस चूर्णिका भाग शेष रहने पर चन्द्र पुष्य नक्षत्र से योग करता है । (ख) प्र० - उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ० -- उत्तरषाढा के अन्तिम समय में सूर्य उससे योग करता है । (४) (क) प्र० इन पांच संवत्सरों की बीवी हेमंत आवृति में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ० – सूर्य के छः मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में से अठावन भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से बीस चूर्णिका भाग शेष रहने पर चन्द्र मूल नक्षत्र से योग करता है । (ख) प्र० - उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता हैं ? उ०- उत्तराषाढा के अन्तिम समय में सूर्य उससे योग करता है । (५) (क) प्र० – इन पाँच संवत्सरों की पाँचवीं हेमति आवृत्ति में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०- कृत्तिका के अठारह मुहूर्त एक मुहूर्त के बासठ भागों में से छत्तीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से छह पुर्णिका भाग शेष रहने पर चन्द्र कृतिका नक्षत्र से योन करता है । (ख) प्र० -- उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ० – उत्तराषाढा के अन्तिम समय में सूर्य उससे योग करता है । - Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : वार्षिकी आवृत्तियों में चन्द्र-सूर्य के नक्षत्रों का योगकाल सूत्र १०६८ वासिक्कियासु आउटियासु चंदेण सूरेण य णक्खत्त- वार्षिकी आवृत्तियों में चन्द्र-सूर्य के नक्षत्रों का योग जोगकालो-- काल६८. तत्थ खलु इमाओ पंचवासिकीओ, पंच हेमंतीओ आउट्टिओ ६८. इनमें ये पाँच वार्षिकी (वर्षाकाल भाविनी) और पाँच पण्णत्ताओ, हेमंति आवृत्तियाँ कही गई हैं१. (क) प०-ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं पढम (१) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की पहली वार्षिकी वासिक्किं आउट्टि चन्दे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? आवृत्ति में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०-ता अभिईणा, अभिइस्स पढमसमएणं, उ०-चन्द्र अभिजित नक्षत्र के प्रथम समय में अभिजित ___ नक्षत्र से योग करता है। (ख) ५०--तं समयं च सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०—ता पूसेणं, पूसस्स एगूणवीसं मुहुत्ता तेतालीसं उ.-पुष्य के उन्नीस मुहूर्त एक मुहूर्त के बासठ भागों में च बावविभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्त- से तियालीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से द्विधा तेतीसं चुणिया भागा सेसा, तेतीस चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र पुष्य नक्षत्र से योग करता है। २. (क) ५०-ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चं (२) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की दूसरी वार्षिकी वासिक्कं आउट्टि चन्दे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? आवृत्ति में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता हैं ? उ०-ता संठाणाहि, संठाणाणं एक्कारस मुहुत्ते, उ०-मृगसर के इग्यारह मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों एगूणतालीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स, बावट्ठि- में से गुनतालीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से भागं च सत्तद्विधा छत्ता, तेपण्णं चुण्णिया वेपन चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र मृगशिर नक्षत्र से योग भागा सेसा, करता है। (ख) प०-तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०-ता पूसे णं, पूसस्स णं तं चेव, जं पढमाए, उ०-प्रथम वार्षिकी आवृत्ति के समान सूर्य पुष्य नक्षत्र के साथ योग करता है। ३. (क) प०–एएसि ण पंचव्ह संवच्छराणं तच्च वासिक्कि (३) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की तीसरी वार्षिको आउट्टि चन्दे केणं णक्खत्तेण जोएइ? आवृत्ति में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? । उ०-ता विसाहाहि, विसाहा णं तेरस मुहत्ता, चउ- उ-विशाखा के तेरह मुहूर्त एक मुहूर्त के बासठ भागों में प्पण्णं च बाबविभागं च सत्तद्विधा छत्ता, से चोवन भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से चालीस चत्तालीस चुणिया भागा सेसा, चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र विशाखा नक्षत्र से योग करता है। (ख) ५०-तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०-ता पूसे णं, पूसस्स णं तं चेव, जं पढमाए। उ०-प्रथम वार्षिकी आवृत्ति के समान सूर्य पुष्य नक्षत्र के साथ योग करता है। ४. (क) ५०–ता एएसि णं पंचण्ह संवच्छराणं च उत्थं (४) (क) प्र०-इन पाँच सवत्सरों की चौथी वार्षिकी वासिक्किं आउटि चन्दे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? आवृत्ति में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०–ता रेवईहि, रेवईणं पणवीस मुहत्ता बत्तीसं च उ०-रेवती के पच्चीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों बासटिठभागा महत्तस्स, बावट्ठिभागं च सत्त- में से बत्तीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से टिठधा छत्ता छत्तीसं चण्णिया भागा सेसा, छत्तीस चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र रेवती नक्षत्र से योग करता है। (ख) प०-त समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र१०६८-१०७० तिर्यक् लोक : लवणसमुद्र के अन्दर चन्द्र-सूर्य के द्वीपों का प्ररूपण गणितानुयोग ५७६ उ०–ता पूसे णं, पूसस्स णं तं चेव, जं पढमाए । उ -प्रथम वार्षिकी को आवृत्ति के समान सूर्य पुष्य नक्षत्र के साथ योग करता है। ५. (क) प०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं च पंचम (५) (क) प्र०-इन पाँच संवत्सरों की पांचवी वार्षिकी वासिक्किं आउट्टि चंदे केणं णक्खत्ते णं जोएइ? आवृत्ति में चन्द्र किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०–ता पुव्वाहि फग्गुणीहि, पुवाफग्गुणीण बारस- उ.--पूर्वा फाल्गुनी के बारह मुहूर्त एक मुहूर्त के बासठ मुहत्ता सत्तालीसं च बावद्विभागा मुहत्तस्स भागों में से सेंतालीस भाग और बासठवें भाग के सड़सठ भागों बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता तेरस चुणिया में से तेरह चूणिका भाग शेष रहने पर चन्द्र पूर्वाफाल्गुनी से योग भागा सेसा, करता है। (ख) प०-तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएइ? (ख) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र से योग करता है ? उ०–ता पूसे णं पूसस्स णं तं चेव, जं पढमाए।' प्रथम वार्षिकी आवृत्ति के समान सूर्य पृष्य नक्षत्र के साथ -सूरिय. पा. १२, पाहु. सु. ७६ योग करता है । अभितरलावणगाणं चंद-सूरदीवाणं परूवणं- लवणसमुद्र के अन्दर के चन्द्र सूर्य द्वीपों का प्ररूपण६६. ५०-कहि णं भंते ! अम्भिंतरलावणगाणं चन्दाणं चन्ददीवा ६६. प्र०-हे भगवन् ! लवणसमुद्र के अन्दर के चन्द्रों के चन्द्रणामं दीवा पण्णत्ता ? द्वीप कहाँ कहे गये हैं ? उ०- -गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमे णं उ-हे गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दरपर्वत से पूर्व लवणसमुदं बारसजोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्य गं में लवणसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर लवणसमुद्र के अभितरलावणगाणं चन्दाणं चन्ददीवा णाम दीवा अन्दर के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहे गये हैं। पण्णत्ता। जहा जंबुद्दीवगा चंदा तहा भाणियव्वा । जिस प्रकार जम्बूद्वीप के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहे उसी प्रकार लवणसमुद्र के अन्दर के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहने चाहिए। णवरं-रायहाणीओ अण्णमि लवणे समुद्द, सेसं विशेष-इनको राजधानियाँ अन्य लबणसमुद्र में है। शेष तं चेव । सब पूर्ववत् है। एवं अभिंतरलावणगाणं सूराण वि । तहेव सव्वं जाव इसी प्रकार लवणसमुद्र के अन्दर के सूर्यों के सूर्यद्वीप है। रायहाणीओ। --- जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६३ सब पूर्ववत् है-यावत्-राजधानियाँ कहनी चाहिए। बाहिरलावणगाणं चन्द-सूरदोवाणं परूवणं लवणसमुद्र के बाहर के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण७०. ५०-कहि णं भंते ! बाहिरलावणगाणं चन्दाणं चन्ददीवा ७०. प्र०—हे भगवन् ! लवणसमुद्र के बाहर के चन्द्रों के चन्द्रणामं दीवा पण्णता? द्वीप कहाँ कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! लवणस्स समुदस्स पुरथिमिल्लाओ वेदि- उ-हे गौतम ! लवणसमुद्र की पूर्वी वेदिका के अन्तिम यंताओ लवणसमुदं पच्चत्थिमे णं बारसजोयणसहस्साई भाग से लवणसमुद्र के पश्चिम बारह हजार योजन जाने पर ओगाहित्ता, एत्थ णं बाहिरलावणगाणं चन्दाणं चन्द- लवणसमुद्र के बाहर के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप कहे दीवा णाम दीवा पण्णता। गये हैं। आयाम-विक्खंभ-परिक्खेवो जहा गोतमदीवस्स । चन्द्र द्वीपों की लम्बाई-चौड़ाई और परिधि गौतमद्वीप के समान है। धायतिसंडदीवंतेणं अद्धकोणणवतिजोयणाई चत्तालीसं ये द्वीप धातकीखण्डद्वीप के अन्तिम भाग से साड़े अठ्यासी च पंचणउतिभागे जोयणस्स ऊसिताजलंतातो । योजन और चालीस योजन के पच्यानवे भाग (८८११४७) जितने जलान्त (जल-स्तर) से ऊँचे हैं। १ चन्द. पा. १२ सु. ७६ । Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक लोक सूर्य की दक्षिणार्द्ध मण्डल संस्थिति : दो कोसे ऊसिता जयंताओ। परवेयाओ, बणसंडा, बहुसमरमगिज्जा भूमिभागा, मणिपेढियाओ, सो चेव अट्ठो । रायहाणीओ सerगदीवाणं पुरात्थिमेवं तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्द वीतिवतिता अण्णंमि लवणसमुद्दे । तहेव सव्वं भाणियव्वं । प० - कहि णं भंते ! बाहिरलावणगाणं सूराणं सूरदीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! लवणसमुहस्स पच्चत्थिमिल्लातो वेदियंताओ लवणसमुद्द पुरत्थिमेणं बारसजोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, एत्थ णं बाहिरलावगाणं सूराणं सूरदीवा णामं दीवा पण्णत्ता । आयाम विक्खंभ- परिक्खेवो जहा गोतमदीवस्स । धायइड दीवंते णं अर्द्धकूणणउति जोयणाई चत्तालीसं च पंचणउतिभागे जोयणस्स ऊसिता जलंताओ, लवणसमुद्दतेणं दो कोसे उसिता जलताओ । परवेश्याओं, पसंदा, बहुसमरमगिज्जा भूमिभागा, मणिपेढियाओ, सो चेव अट्ठो । रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पच्चत्थिमेणं तिरियमदीव-समीतियतिता अमिलवणसमूह तहेव सवं भागियन्वं । जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६३ घायतिडवीवगाणं चन्दसूरदीवाणं पवणं७१. ५० कहि णं भंते! धायतिसंडदीवगाणं चन्दाणं चन्ददीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? उ०- गोपमा ! धाडस दोस्तपुरस्थि यंताओ कालोयं णं समुदं बारसजोयणसहस्साइं ओगा हित्ता एत्थ ण धायइसंडदीवाणं चन्दाणं चन्ददीवा णामं दीवा पण्णत्ता । आयाम विक्खंभ- परिक्खेवो जहा गोतमदीवस्स । सव्वाओ समंता दो कोसा ऊसिता जलंताओ परवेश्याओ वणसंडा बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा, पासायवडिगा, मणिपेढियाओ सीहासणा सपरिवारा, सो चेव अट्टो । सूप १०७०-१०७१ लवणसमुद्र के अन्तिम भाग के जलान्त से दो कोश ऊँचे हैं । इन द्वीपों की पद्मवरवेदिकायें वनखण्ड सर्वथा सम- रमणीय भूमिभाग, मणिपीठिकायें और नाम का हेतु पूर्ववत् है । उन द्वीपों की राजधानियाँ पूर्व दिशा में तिरछे असंख्यद्वीपसमुद्रों के बाद अन्य लवणसमुद्र में है । शेष सय पूर्ववत् कहना चाहिए । ! प्र०-हे भगवत् । लवणसमुद्र के बाहर के सूपों के सूर्यद्वीप नामक द्वीप कहाँ कहे गये हैं? उ०- हे गौतम ! लवणसमुद्र की पश्चिमी वेदिका के अन्तिम भाग से लवणसमुद्र के पूर्व में बारह हजार योजन जाने पर लवणसमुद्र के बाहर के सूर्यों के सूर्यद्वीप नामक द्वीप कहे गये हैं । उन द्वीपों की लम्बाई-चौड़ाई और परिधि गौतमद्वीप के समान है । ये द्वीप धातकीखण्डद्वीप के अन्तिम भाग से अध्यासी योजन और चालीस योजन के पच्यानवें भाग (१६) ६५ जितने जलान्त से ऊंचे हैं । लवणसमुद्र के अन्तिम भाग के जलान्त से दो कोश ऊँचे हैं। इन द्वीपों की पद्मवरवेदिकायें, वनखण्ड सर्वथा समरमणीय भूमिभाग, मणिपीठिकायें, नाम का हेतु ये सब पूर्ववत् है। उन द्वीपों की राजधानियाँ पश्चिम में तिरछे असंख्यद्वीपसमुद्रों के बाद अन्य लवणसमुद्र में है। शेष सय पूर्ववत् है। धातकीखण्डद्वीप के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण७१ प्र० - हे भगवन् ! धातकीखण्डद्वीप के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहाँ कहे गये हैं? उ०- हे गौतम! धातकीखण्डद्वीप की पूर्वी वेदका के अन्तिम भाग से कालोदसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर धातकीखण्डद्वीप नाम के द्वीप कहे गये हैं । उन द्वीपों को लम्बाई-चौड़ाई और परिधि गौतमद्वीप के समान है । ये द्वीप चारों ओर जलान्त से दो कोश ऊँचे हैं । इन द्वीपों की पद्मबरवेदिकायें, वनखण्ड सर्वथा समरमणीय भूमिभाग, प्रासादावतंसक मणिपीठिकायें सपरिवार सिंहासन और नाम का हेतु पूर्ववत् है । Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०७१-१०७२ तिर्यक् लोक : कालोदगसमुद्र के चन्द्र-सूर्य द्वीपों को प्ररूपण गणितानुयोग ५८१ रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पुरत्थिमेणं तीरियम- उन द्वीपों की राजधानियां अपने अपने द्वीपों के पूर्व में संखेज्जे दीव-समुद्दे वीतिवतित्ता अण्ण मि धायतिसंडे तिरछे असंख्य द्वीप-समुद्रों के बाद अन्य धातकीखण्डद्वीप में है, दीवे सेसं तं चेव । शेष सब पूर्ववत् है। एवं सूरदीवावि । इसी प्रकार सूर्यद्वीप भी है। णवरं - धायइसंडस्स दीवस्स पच्चथिमिल्लातो वेदि- विशेष-धातकीखण्डद्वीप की पश्चिमी वेदिका के अन्तिम यंताओ कालोयं णं समुद्द वारसजोयणसहस्साई भाग के कालोद समुद्र में बारह हजार योजन जाने पर धातकीओगाहित्ता एत्थ णं धायइसंडदीवाणं सूराणं सूरदीवा खण्ड द्वीप के सूर्यों के सूर्यद्वीप कहे गये हैं। णामं दीवा पण्णत्ता। तहेब सव्व-जाव-रायहाणीओ सूराणं दीवाणं पच्चत्थि- इसी प्रकार सब पूर्ववत् है-यावत्-उनको राजधानियाँ मेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुह वीतिवतित्ता अण्णमि सूर्यद्वीपों के पश्चिम में तिरछे असंख्यद्वीप-समुद्रों के बाद अन्य धायइसंडे दीवे । सव्वं तहेव । धातकीखण्डद्वीप में है । शेष सब पूर्ववत् है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६४ कालोयगाणं चन्द-सूरदीवाणं परूवणं __ कालोदगसमुद्र के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण - ७२. प०-कहि णं भंते ! कालोयगाणं चन्दाणं चन्ददीवा णामं ७२. प्र०-हे भगवन् ! कालोदक समुद्र के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप दोवा पण्णत्ता? ___ कहाँ कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! कालोदगसमुद्देसु पुरथिमिल्लाओ वेदियंताओ उ०.-हे गौतम ! कालोदकसमुद्र की पूर्वी वेदिका के कालोयण्णं समुदं पच्चत्थिमेण बारसजोयणसहस्साइ अन्तिम भाग से कालोदसमुद्र के पश्चिम भाग में बारह हजार ओगाहित्ता-एत्थ णं कालोयगचन्दाणं चन्ददीवा णामं योजन जाने पर कालोदक समुद्र के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक द्वीप दीवा पण्णत्ता। कहे गये हैं। आयाम-विक्ख भ-परिक्खेवो जहा गोतमदीवस्स । उनकी लम्बाई-चौड़ाई और परिधि गौतमद्वीप के समान है । सब्वओ समंता दो कोसा ऊसिता जलंताओ। वे द्वीप जल की ऊपरी सतह से दो कोश ऊंचे हैं । पउमवरवेइयाओ, वणसंडा, बहुसमरमणिज्जा भूमि- उन द्वीपों की पद्मवरवेदिका, वनखण्ड, सर्वथा समरमणीय भागा, पासायडिंसगा, मणिपेढियाओ, सीहासणा भूमिभाग, प्रासादावतंसक, मणिपोठिकायें सपरिवार सिंहासन सपरिवारा, सो चेव अट्ठो। __ और नाम के हेतु पूर्ववत् कहें। सेसं तहेव-जाव-रायहाणीओ। शेष पूर्ववत्-यावत्-राजधानियाँ। सगाणं दीवाणं पुरथिमेणं तिरियमसंखेज्जे दीव-समुद्दे अपने द्वीपों के पूर्व में तिरछे असंख्य द्वीप समुद्रों का अतिवीतिवतित्ता अण्णमि कालोदगसमुद्दे । तं चेव सव्वं क्रमण करने पर अन्य कालोदसमुद्र में है। शेष पूर्ववत्-यावत् -जाव-चंदा देवा, चंदा देवा । चंद्रदेव चंद्रदेव । एवं सूराण वि। इसी प्रकार सूर्यों के सूर्यद्वीप भी है । णवरं-कालोयगपच्वत्थिमिल्लातो वेदियंताओ कालो- विशेष—कालोदसमुद्र की पश्चिमी वेदिका के अन्तिम भाग यगसमुद्दपुरथिमेणं बारस जोयणसहस्साइं ओगा- से, कालोदसमुद्र के पूर्वी भाग में बारह हजार योजन जाने पर हित्ता कालोयगसूराणं सूरदीवा णामं सूरदीवा कालोदसमुद्र के सूर्यों के सूर्यद्वीप कहे गये हैं। पण्णत्ता। सेसं तहेव-जाव-रायहाणीओ सगाणं दीवाणं पच्चत्थि- शेष पूर्ववत्-यावत्--राजधानियाँ अपने द्वीपों से पश्चिम मेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीतिबतित्ता अण्णंमि में तिरछे असंख्य द्वीप-समुद्रों का अतिक्रमण करने पर अन्य कालोयगसमुद्दे । कालोदसमुद्र में है। त चेव सव्वं सूरा देवा, सूरादेवा । शेष सब पूर्ववत् सूर्यदेव सूर्यदेव । --जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६५ . Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यश् लोक पुष्करवरहीयगत चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण पुक्खश्वरदीवगाणं सेसाण सम्यदीय- समुद्गाणं य चंद पुष्करवरद्वीपगत और शेष सब द्वीप समुद्रगत चन्द्र-सूर्यो सूराणं चंद-सूरदीवाणं परुवर्ण के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण ७३. एवं पुक्खरवरगाणं चंदाणं पुक्खरवरस्स दीवस्स पुरत्थि मिल्लाजी देवताओं खरवर समूह ओगाहिता चंददीया पुक्खरवर । मिक्सरवरे दीये राहाणीओ तब एवं सूराण वि दीवा पुक्खरवरदीवस्स पच्चत्थिमिल्लाओ वेइयंताओ पुक्खरोदं समुद्द बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता, तहेव सव्वं - जाव -राहाणीओ। दीविलगाणं दोने, समुहगाणं समुद्र चेव । एगाणं अभिंतरपासे एगाणं बाहिरपासे । रायहाणीओ दीविल्लगाणं दीवेसु । समुद्दगाणं समुद्द ेसु सरिसणामएसु', - - जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६८ देवदीवगाणं चंद सुराणं चन्द-सूरवीवाणं परूवणं७४. ५० - कहि णं भंते! देवदीवगाणं चंदाणं चंददीवा णामं दीवा पण्णत्ता ? सूत्र १०७३-१०७४ wi उ० – गोयमा ! देवदीवस्स देवोदं समुद्दं बारस जोयणसहस्साई ओगाहिता तेणेव कमेणं पुरथिमिल्लाओ वेदयंताओ - जाव - रायहाणीओ, सगाणं दीवाणं पुरत्थिमेणं देवोदं समुद्र असंखेन्जाई जोयणसहस्सा ओगाहिता, एथ णं देवदीवगाणं चंदाणं चंदाओ णामं रायहाणीओ पण्णत्ताओ, सेसं तं चेव, देवदीव चंदादीवा । एवं सूराणवि ७३. इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपगत चन्द्रों के चन्द्र द्वीप पुष्करवरद्वीप पूर्वी बेविका के अन्तिम भाग से पुष्करोव समुद्र में जाने पर आते हैं। उन द्वीपों की राजधानियां अन्य पुष्करवरद्वीप में है, शेष पूर्ववत् है । इसी प्रकार सूर्यो के सूर्यद्वीप भी हैं। पुष्करवरद्वीप की पश्चिमी वेदिका के अन्तिम भाग से बारह हजार योजन जाने पर, पूर्ववत् सब हैं- यावत्-राजधानियाँ हैं । डीपगत चन्द्र-सूर्य होपों की राजधानियों द्वीपों में और समुद्रगत चन्द्र-सूर्य द्वीपों की राजधानियां समूहों में है। कुछ की राजधानियाँ आभ्यन्तर पार्श्व में है । कुछ की राजधानियाँ बाह्य पार्श्व में है । राजधानियाँ द्वीपगत चन्द्र-सूर्यो की सदृश नाम वाले अन्य द्वीपों में है । समुद्र-सूर्यो की राजधानियां सह नाम वाले समुद्रों में है । देवद्वीपगत चन्द्र-सूर्यो के चन्द्र-द्वीपों का प्ररूपण७४. हे भगवन् ! देवद्वीप के चन्द्रों के चन्द्रद्वीप कहाँ कहे गये हैं ? उ०- हे गौतम! देवद्वीप से देवोदसमुद्र में बारह हजार योजन जाने पर उसी (पूर्वोक्त) क्रम से पूर्वी वेदिका के अन्तिम भाग से - यावत् — अपने अपने द्वीपों से पूर्व में देव समुद्र में असंख्य हमार] योजन आगे जाने पर देवद्वीप के चन्द्रों की चन्द्रा नाम की राजधानियाँ कही गई हैं । शेष सब पूर्ववत् है ये देवीप के चन्द्रद्वीप है। इसी प्रकार सूर्यों के सूर्यद्वीप भी है । १ एवं शेष द्वीपगतानापि चन्द्राणां चन्द्रद्वीपगतात्पूर्वस्माद्वे दिकान्तादनन्तरे समुद्र द्वादशयोजन सहस्त्रण्यवगाह्य वक्तयाः । सूर्याणां सूर्यद्वीपाः स्वस्वद्वीपगतात्पश्चिमान्ताद्वे दिकान्तादनन्तरे समुद्र । राजधान्यश्चन्द्रागामात्मीयचन्द्रद्वीपेभ्यः पूर्वदिशि अन्यस्मिन् सहनामके सदृशनामके द्वीपे । सूर्यागामध्यात्मीयसूर्य द्वीपेभ्यः पश्चिमदिशि तस्मिन्नेव सहशामकेऽस्मिन् द्वीपे द्वादशयोजनसह भ्यः परतः । शेषसमुद्रतानां तु चन्द्राणां चन्द्रद्वीपा स्वस्व समुद्रस्य पूर्वस्माई विकान्तात्पश्चिमदिशि द्वादशयोजनहलाया। सूर्याणां तु स्वस्व समुद्रस्य पश्चिमान्ताद्व दिकान्तात्पूर्वदिशि द्वादश योजन सहस्राण्यवगाह्य । चन्द्राणां राजधान्यः स्व-स्वद्वीपानां पूर्वदिति अन्यस्मिन सहयनामके समुद्र । Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०७४-१०७६ तिर्यक् लोक : देवोदसमुद्रगत चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण गणितानुयोग ५८३ णवरं-पच्चथिमिल्लाओ वेइयंताओ पच्चत्थिमेणं विशेष-पश्चिमी वेदिका के अन्तिम भाग से पश्चिम में ही भाणियव्वा, तंमि चेव समुद्दे । उसी देव समुद्र में उनको राजधानियाँ कहनी चाहिए। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६७ देवोदसमुद्दगाणं चन्द-सूराणं चन्द-सूरदीवाण परूवणं-- देवोद समुद्रगत चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का प्ररूपण७५. ५०-कहि णं भंते ! देवोदसमुद्दगाणं चन्दाणं चन्ददीवा णामं ७५. प्र०-हे भगवन् ! देवोदसमुद्रदगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप नामक दीवा पण्णता? द्वीप कहाँ कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! देवोदगस्स समुदस्स पुरथिमिल्लाओ वेइ- उ०-हे गौतम ! देवोद समुद्र की पूर्वी वेदिका के अन्तिम यंताओ देवोदगं समुद्दे पच्चत्थिमे गं बारस जोयण- भाग से देवोद समुद्र के पश्चिम भाग में बारह हजार योजन सहस्साइं ओगाहित्ता, जाने पर है। तेणेव कमेणं-जाव-रायहाणीओ सगाणं दीवा णं पच्च- उसी (पूर्वोक्त) क्रम से-यावत् -राजधानी पर्यन्त अपने त्थिमे णं देवोदगं समुद्दे असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं अपने द्वीपों से पश्चिम में देवोद समुद्र में असंख्य हजार योजन ओगाहित्ता, एत्थ णं देवोदगाणं चन्दाणं चन्दाओ नाम जाने पर देवोद समुद्रगत चन्द्रों की चन्द्रा नाम की राजधानियाँ रायहाणीओ पण्णत्ताओ। कही गई है। सेस तं चेव सव्वं । शेष सब पूर्ववत् है। एवं सूराण वि। इसी प्रकार सूर्यों के सूर्यद्वीप भी हैं। णवरं-देवोदगस्स समुद्दगस्स पच्चत्थिमिल्लाओ वेइ- विशेष-देवोद समुद्र को पश्चिमी वेदिका के अन्तिम भाग यंताओ देवोदगं समुद्द असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई। से देवोद समुद्र के पूर्वभाग में बारह हजार योजन जाने पर राजधानियाँ हैं जो अपने अपने द्वीपों के पूर्व में देवोदक समुद्र से असंख्य हजार योजन पर है। एवं णागे, जखे , भूते वि चउण्हं दीवसमुद्दाणं । ___ इसी प्रकार नागद्वीप, यक्षद्वीप और भूतद्वीप के चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र सूर्य द्वीप तथा समुद्रगत चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र-सूर्यद्वीप तथा -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६७ राजधानियाँ है । सयंभूरमणदीवगाण चंद-सूराणं चंद-सूरदीवाणं स्वयम्भूरमणद्वीपगत चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का परूवणं प्ररूपण७६. ५०-कहि णं भंते ! सयंभूरमणदीवगाणं चन्दाणं चन्ददीवा ७६. प्र०-हे भगवन् ! स्वयम्भूरमणद्वीपगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप पण्णत्ता ? कहाँ कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! सयंभूरमणस्स दीवस्स पुरथिमिल्लाओ वेइ. उ०-हे गोतम ! स्वयम्भुरमणद्वीप की पूर्वी वेदिका के यंताओ सयंभूरमणोदगं समुदं बारस जोयणसहस्साई अन्तिम भाग से स्वयम्भूरमणोदक समुद्र में बारह हजार योजन ओगाहित्ता, सेसं तहेव । जाने पर हैं । शेष पूर्ववत् है। रायहाणीओ सगाणं सगाणं दीवाणं पुरथिमे णं राजधानियाँ उनके अपने-अपने द्वीप से पूर्व में स्वयम्भूरमणोसयंभूरमणोदगं समुद्दपुरस्थिमे णं असंखेज्जाइं जोयण- दक समुद्र में असंख्य हजार योजन जाने पर है। शेष सब सहस्साई, तं चेव । पूर्ववत् है। एवं सूराणं वि । इसी प्रकार सूर्यों के द्वीप हैं। सयंभूरमणस्स दीवस्स पच्चस्थिमिल्लाओ वेइयंताओ स्वयम्भूरमणद्वीप को पश्चिमी वेदिका के अन्तिम भाग से रायहाणीओ सगाणं सगाणं दीवाण पच्चत्थिमे णं राजधानियां अपने-अपने द्वीपों के पश्चिम में स्वयम्भूरमणोद समुद्र सयंभूरमणोदं समुद्द असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं में असंख्य हजार योजन जाने पर है। ओगाहित्ता, सेसं तं चेव । शेष सब पूर्ववत् है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६७ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : ग्रह वर्णन सूत्र १०७७-१०७८ सयंभूरमणसमुद्दगाणं चंद-सूराणं चंद-सूरदीवाणं स्वयम्भूरमणसमुद्रगत चन्द्र-सूर्यों के चन्द्र-सूर्य द्वीपों का परूवणं प्ररूपण७७. ५०-कहि णं भंते ! सयंभूरमणसमुद्दगाणं चन्दाणं चन्ददीवा ७७. प०-हे भगवन् ! स्वयम्भूरमण समुद्रगत चन्द्रों के चन्द्रद्वीप पण्णत्ता ? कहाँ कहे गये हैं ? -गोयमा ! सयंभूरमणस्स समुदस्स पुरथिमिल्लाओ उ०-हे गौतम ! स्वयम्भुरमण समुद्र की पूर्वी वेदिका के वेइयंताओ सयंभूरमणसमुद्दे पच्चत्थिमे गं बारस जोयण- अन्तिम भाग से स्वयम्भूरमण समुद्र के पश्चिम में बारह हजार सहस्साई ओगाहित्ता, सेसं तं चेव । योजन जाने पर हैं । शेष सब पूर्ववत् है। एवं सूराण वि। इसी प्रकार सूर्यों के द्वीप हैं। सयंभूरमणस्स समुदस्स पच्चत्थिमिल्लाओ वेइयंताओ स्वयम्भूरमण समुद्र की पश्चिमी वेदिका के अन्तिम भाग सयंभूरमणोदं समुद्दपुरत्थिमेणं बारस जोयणसहस्साई से स्वयम्भूरमणोद समुद्र के पूर्व में बारह हजार योजन जाने ओगाहित्ता, पर है। रायहाणीओ सगाणं सगाणं दीवाणं पुरथिमे णं सयंभू- राजधानियाँ अपने अपने द्वीपों के पूर्व में स्वयम्भूरमणसमुद्र रमणं समुद्दे असंखेज्जाई जोयणसहस्साई ओगाहित्ता। में असंख्य हजार योजन जाने पर है। एत्थ णं सयंभूरण-जाव-सूरादेवा । यहाँ स्वयम्भूरमण समुद्र से—यावत्-सूर्यदेव के द्वीप है। -जीवा. पडि. ३. उ. २, सु. १६७ ग्रह वर्णन अट्ठासी महग्गहा अट्ठयासी महाग्रह७८. तत्थ खलु इमे अट्ठासीई महग्गहा पण्णत्ता, तं जहा- ७८. इनमें ये अट्ठयासी महाग्रह कहे गये हैं यथा १. इंगालए, २. वियालए, ३. लोहियक्खे, ४. सणिच्छरे, १. अंगारक, २. विकालक, ३. लोहिताक्ष, ४. शनैश्चर, ५. आहुणिए, ६. पाहुणिए, ७. कणे, ८. कणए, ६. कणकणए, ५. आधुनिक, ६. प्राधुनिक, ७. कन, ८. कनक, ६. कनकनक, १०. कणवियाणए, ११. कणसंताणए। १०. कनवितानक, ११. कनसंतानक । १२. सोमे, १३. सहिए, १४. अस्सासणे, १५. कज्जोबए, १२. सोम, १३. सहित, १४. आश्वासन, १५. कार्योपक, १६. कब्बडए, १७. अयकरए, १८. दुन्दुभए, १६. संखे, १६. कर्बटक, १७. अजकरक, १८. दुन्दुभक, १६. शंख, २०. संखवणे, २१. संखवण्णाणे, २२. कसे। २०. शंख वर्ण, २१. शंखवर्णाभ, २२. कंस। २३. कंसवण्णे, २४. कंसवण्णाभे, २५. णीले, २६. णीलो- २३. कंसवर्ण, २४. कंसवर्णाभ, २५. नील, २६. नीलाबभासे, २७. रूप्पो, २८. रूप्पोभासे, २६. भासे, ३०. भास- भास, २७. रुक्म, २८. रूप्यावभास, २९. भस्म, ३०. भस्मराशी, रासी, ३१. तिले, ३२. तिलपुप्फवण्णे, ३३. दगे। ३१. तिल, ३२. तिलपुष्पवर्ण, ३३. दक । ३४. दगपंचवणे, ३५. काए, ३६. काकंधे, ३७. इंदग्गी, ३४. दकपंचवर्ण, ३५. काय, ३६. काकंध, ३७. इन्द्राग्नि, ३८. धुमकेऊ, ३६. हरी, ४०. पिगंले, ४१. बुहे, ४२. सुक्के, ३८. धूमकेतु, ३६, हरी, ४०. पिंगल, ४१. बुध, ४२. शुक्र, ४३. बहस्सई, ४४. राहू। ४३. बृहस्पति, ४४. राहु । Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०७८-१०८१ तिर्यक्लोक : महाग्रह वर्णन गणितानुयोग ५८५ ४५. अगत्थी, ४६. माणवगे, ४७. कासे, ४८. फासे, ४५. अगस्ती, ४६. माणवक, ४७. काश, ४८. स्पर्श, ४६. धुरे, ५०. पमुहे, ५१. वियडे, ५२. विसंधी, ५३. णियल्ले, ४६. धुर, ५०. प्रमुख, ५१. विकट, ५२. विसंधी, ५३. निकल्प, ५४. पयल्ले, ५५. जडियाइल्ले । ५४. प्रकल्प, ५५. जटिलक । ५६. अरूणे, ५७. अग्गिलए, ५८. काले, ५६. महाकाले, ५६. अरुण, ५७. अग्निल, ५८. काल, ५६. महाकाल, ६०. सोत्थिए, ६१. सोवत्थिए, ६२. वद्धमाणगे, ६३. पलंबे, ६०. स्वस्तिक, ६१. सौवस्तिक, ६२. वर्धमान, ६३. प्रलंब, ६४. णिच्चालोए, ६४. निच्चुज्जोए, ६६. सयंपभे। ६४. नित्यालोक, ६५. नित्योद्योत, ६६. स्वयंप्रभ । ६७. ओभासे, ६८. सेयंकरे, ६६. खेमकरे, ७०, आभंकरे, ६७. अवभास, ६८. श्रेयस्कर, ६६. क्षेमंकर, ७०. आभ्यंकर, ७१. पभंकरे, ७२. अपराजिए, ७३. अरए, ७४. असोगे, ७१. प्रभंकर, ७२. अपराजित, ७३. अरज, ७४. अशोक, ७५. वीयसोगे, ७६. विमले, ७७. वियत्ते ।। ७५. वीतशोक, ७६. विमल, ७७. विवर्त । ७८. वितथे, ७६. विसाले, ८०. साले, ८१. सुब्वए, ७८. वित्रस्त, ७६. विशाल, ८०. शाल, ८१. सुव्रत, ८२. अनियट्टी, ८३. एगजडी, ८४, दुजडी, ८५. करकरिए, ८२. अनिवृत्ति, ८३. एकजटी, ८४. द्विजटी, ८५. कर करिक, ८६. रायग्गले, ८७. पुप्फकेऊ, ८८. भावकेऊ ।' ८६. राजर्गल, ८७. पुष्पकेतु, ८८. भावकेतु, __-सूरिय. पा. २०, सु. १०६ अट्टमहग्गहणाम परूवणं आठ महाग्रहों के नामों का प्ररूपण७६. अट्ठ महग्गहा पण्णत्ता। ७६. आठ महाग्रह कहे गये हैं, तं जहा-१. चन्दे, २. सूरे, ३. सुक्के, ४. बुहे, ५. बहस्सइ, यथा-(१) चन्द्र, (२) सूर्य, (३) शुक्र, (४) बुध, ६. अंगारे, ७. सणिच्छरे, ८. केउ । (५) बृहस्पति, (६) मंगल, (७) शनैश्चर, (८) केतु । -ठाणं अ. ८, सु. ६१३ छ तारग्गह णाम परूवणं छ तारक ग्रहों का प्ररूपण८०.७ तारग्गहा पण्णत्ता । ८०. छ: तारक ग्रह कहे गये हैं, तं जहा--१. सुक्के, २. बुहे, ३. बहस्सइ, ४. अंगारे, यथा--(१) शुक्र, (२) बुध, (३) बृहस्पति, (४) मंगल, ५. सणिच्छरे, ६. केउ। -ठाणं. अ. ६, सु. ४८१ (५) शनिश्चर, (६) केतु । सुक्क महग्गहस्स वीहीणं परूवणं शुक्र महाग्रह की वीथियों का प्ररूपण८१. सुक्कस्स णं महग्गहस्स णव वीहीओ पण्णताओ। ८१. शुक्र महाग्रह की नौ वीथियाँ कही गई हैं, १ (क) स्थानांग अ. २, उ. ३, सु. ६५ में जम्बूद्वीप के दो चन्द्र दो सूर्य के ८८ ग्रहों की संख्या दो दो की दी गई है । (ख) ठाणं २, उ. ३, सु.६०। (ग) चन्दः पा. २०, सु. १०६ । (घ) एगमेगस्स णं चंदिम सूरियस्स अट्ठासीइ-अट्ठासीइ महग्गहा परिवारो पण्णत्तो।। -सम.८८, सु. १ (च) अट्रयासी ग्रहों के नामों की संग्रहणी गाथाएँ भी सूर्य प्रज्ञप्ति प्राभूत २० सूत्र १०६ में हैं किन्तु उनमें कुछ नाम भेद और क्रम भेद हैं। (छ) (२) विजया, (२) वेजयंती, (३) जयंती, (४) अपराजिआ । सब्वेसि गहाईणं एयाओ अग्गमहिसीओ। छावत्तरस्सवी गहसयस्स एयाओ अग्गमहिसीओ वत्तव्वाओ, एवं भाणियव्व-जाव-भावके उस्स अग्गमहिसीओत्ति । -जम्बु. बक्ख. ७, सु. १६६ २ इन ग्रहों की संख्या अट्टयासी निश्चित है किन्तु अनेक प्रतियों में अट्टयासी से कुछ कम या कुछ अधिक मिलते हैं । पूरे अट्ठयासी नाम किसी एक दो प्रति में मिले हैं, तो कुछ नामों में परस्पर वैषम्य है । अनुवाद में भी इतना वैषम्य है कि किसी अनुवादक ने एक नाम का जो अनुवाद किया है दूसरे अनुवादक ने उसी नाम का दूसरा अनुवाद किया है। Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : शुक्र के उदयास्त का प्ररूपण तं जहा - १. हयवीही, २. गयवीही, ३. नागवीही, ४. वसहवीही, ५. गोबीही, ६. उरगवीही, (जरग्गउवीही) ७. अयही मावीही १. साणीहो । - ठाणं. अ. ६, सु. ६६६ सुक्कस्स उदय अत्यमण परूवणं२. सुके महत् अवरे उदिए समाने एमबीस गाई सम चारं चरिता अवरेण अत्थमणं उवागच्छइ । णं - सम. १६, सु. ३ राहस्स बुविहल ८३. प० – कइविहे णं राहू पण्णत्ते ? उ०- दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा-ता ध्रुव राहु य, पन्वराहु य । (क) तत्थ णं जे से ध्रुव राहु से णं बहुलपक्खस्स पाडि - पण रस भागेणं पण्णरसइ भागं चन्दस्स लेस आवरेमाणे आवरेमाणे चिट्ठइ, तं जहा- पढमाए पढमं भागं, जाव पण्णरसमीए पण्णरसमं भागं । चरमे समए चन्दे रत्ते भवइ, अवसेसे समए चन्दे रत य विरत्ते य भवइ, तमेव सुपनले उपदंसेमा उबसेमा चि तं जहा - पढमाए पढमं भागं- जाव- पण्णरसमीए पण समं भागं ।" चरमे समए चन्दे विरते भवइ । अवसेसे समए चन्दे रत्ते य विरतेय भवइ, तत्थ णं जे ते पव्वराहू से जहणणं छण्हं मासाण, उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चन्दस्स, अडयालीसाए संबच्छराणं सूरस्स 12 - सूरिय. पा. २०, सु. १०३ राहुस्स णव णामाई८४. ता राहुस्स णं देवस्स णव णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा १. ए २. लिए ४. वेत्तए, ५. ढड्ढी, ७. मच्छे ८. कच्छ, १ सम. १५, सु. ३ । २ (क) चन्द्र. पा. २०, सु. १०३ । ३ (क) भग. स. १२, उ. ६, सु. २ । " ३. खरए, ६. मगरे, ६. कण्णसप्पे । * --सूरिय. पा. २०, सु. १०३ (१) अबी, (२) गजबीबी, (३) नागवीथी, (४) वृषभवीथी, (५) गौवीथी, (६) उरगवीथी ( जरद्गववीथी), (७) अजवीथी, (८) मृगवीथी, (६) वेश्वानरवीथी । शुक्र के उदयास्त का प्ररूपण ८२. शुक्र महाग्रह पश्चिम दिशा में उदित होकर उन्नीस नक्षत्रों के साथ गति करके गति पश्चिम दिशा में ही अस्त हो जाता है । के दो प्रकार राहु ८३. प्र० - राहु कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उ०- दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-ध्रुवराहु और पर्वराहु, इनमें जो ध्रुव राहु है वह कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से प्रारम्भ करके पन्द्रहवें दिन पर्यन्त अपने पन्द्रहवें भाग से चन्द्र के पन्द्रहवें भाग के प्रकाश को आवृत करता हुआ रहता है, यया - प्रतिपदा में प्रथम भाग को - यावत् - पन्द्रहवीं में पन्द्रहवें भाग को । पन्द्रहवें के अन्तिम समय में चन्द्र ध्रुव राहु से पूर्ण आवृत होता है । शेष समयों में चन्द्र ध्रुव राहु से आवृत और अनावृत रहता है । सूत्र १०८१ १०८४ वही ध्रुव राहु शुक्लपक्ष में चन्द्र को अनावृत करता रहता है; यथा शुक्लपक्ष की प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यन्त प्रतिदिन एक एक भाग को अनावृत करता रहता है। प्रतिपदा को प्रथम भाग यावत् - पूर्णिमा को पन्द्रहवाँ भाग अनावृत हो जाता है । पूर्णिमा के अन्तिम समय में चन्द्र सर्वथा अनावृत हो जाता है, शेष समयों में चन्द्र कुछ आवृत और कुछ अनावृत रहता हैं । इनमें से जो पर्व राहु है वह जघन्य छः मास बाद चन्द्र या सूर्य को आवृत करता है । उत्कृष्ट बियालीस माम बाद चन्द्र को आवृत करता है और अड़तालीस संवत्सर बाद सूर्य को आवृत करता है । राहु के नो नाम ८४. - राहु देव के नौ नाम कहे गये है, यथा(१) सिपाटक, (२) जटिल, (२) दग्मी, (४) क्षेत्र, (७) मच्छ, (८) कच्छप, (ख) भग. स. १२, उ. ६, सु. ३ । (ख) चन्द. पा. २० सु. १०३ । (३) खर, (६) मगर, (e), Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०८४ १०८६ राहुस्स विमाणा पंचवण्णा ८५. राहुस्स ण देवस्स विमाणा पंचवण्णा पण्णत्ता, तं तहा१. कन्हा २. नीला, ३. लोहिया, ४. हालिद्दा, ५. सुविकल्ला, १. अस्थि कलए बिमाणे जगण्याने प २. अस्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवण्णाभे, पण्णत्ते, ३. अस्थि लोहिए राहुविमाणे मंजिट्टवण्णाभे, पण्णत्ते, ४. अस्थि हालिए राहुविमाणे हालिद्दा वण्णाभे पण्णत्ते, ५. अविक्किल राहुविमा भासरासि प सूरिय. पा. २०, सु. तियक् लोक : राहु विमाण के पाँच वर्ण १ राहु-सरूव परूवणं ८६. पता कहं ते राहुकम्मे ? आहिए त्ति वएज्जा, उ०- - तत्थ खलु इमाओ दो पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १०३ तरवेगे एवमाहं १. अस्थि णं से राहु देवे, जेणं चंदे वा, सूरं वा, गिoes, 'एगे एवमाहंसु' एगे पुरा एवमाहं २. नथणं से राहु देवे जे णं चंदे वा, सूर वा गिव्हइ, 'एगे एवमाहंसु' तत्थ णं जे ते एवमाहंसु १. बुद्धते गिहित्ता, बुद्धतेणं मुयइ, २. बुद्धते गिहित्ता, मुद्धतेणं मुयइ, गिता २. द ४. मुद्धते गिहित्ता, मुद्धतेणं मुयइ, ता अस्थि से राहु देवे, जेणं चंदं वा सूरं वा गिoes, से एवमाहंसु ता राहु देवे चंद वारंवा (क) भग. स. १२, उ. ६, सु. २ । १. वामभुयंते णं गिव्हित्ता वामभुयंते णं मुयइ, २. वामभुते णं गिव्हित्ता, दाहिणभुयंते णं मुयइ, ३. दाणिं विहिता, बामनुष सुव ४. दाणि गिरिहता, दाहिण मुह राहु विमाण के पांच वर्ण ८५. राहु देव के विमान पाँच वर्ण वाले कहे गये हैं, यथा(१) कृष्ण, (२) नील, (३) रक्त, (४) पीत, (५) शुक्ल । गणितानुयोग राहु का कृष्ण वर्ण विमान खंजन वर्ण वाला कहा गया है। राहु का नील वर्ण विमान तुम्ब वर्ण वाला कहा गया है। राहु का लोहित वर्ण विमान मंजिष्ठ वर्ण वाला कहा गया है । ५८७ राहू का हाद्रि वर्ष विमान हाद्रि वर्ण वाला कहा गया है । गया है । राहु का शुक्ल वर्ण विमान भस्मराशि वर्ण वाला कहा कर्म प्ररूपण - राहु ८६. प्र० - राहु का कर्म ( कार्य ) क्या है ? कहें । उ० – इस सम्बन्ध में दो प्रतिपत्तियाँ ( अन्य मान्यतायें ) कही गई हैं, यथा इनमें से एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं(१) राहु देव है, वह चन्द्र और सूर्य को ग्रहण करता है। एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं (२) चन्द्र-सूर्य को पहण करने वाला राहु देव नहीं है। इनमें से जो ऐसा कहते है कि राहु चन्द्र-सूर्य को ग्रहण करने वाला देव है (उनके कहे अनुसार) राहु देव चन्द्र-सूर्य को (ख) चन्द. पा. २०, सु. १०३ । (१) नीचे से ग्रहण करके नीचे से मुक्त करते हैं । (२) नीचे से ग्रहण करके ऊपर से मुक्त करते है । (३) उपर से ग्रहण करके नीचे से मुक्त करते हैं । ( ४ ) ऊपर से ग्रहण करके ऊपर से ही मुक्त करते हैं । (१) वामभुजा से ग्रहण करके वामभुजा से मुक्त करते हैं। (२) वामभुजा से ग्रहण करके दक्षिणा से मुक्त करते हैं। (३) दक्षिणा से प्रण करके वामभुजा से मुक्त करते हैं। (४) दक्षिण भुजा से ग्रहण करके दक्षिणभुजा से ही मुक्त करते हैं। Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण का प्ररूपण सूत्र १०८६-१०८७ तत्थ णं जे ते एवमाहंसु इनमें से जो ऐसा कहते हैं कि "चन्द्र-सूर्य को ग्रहण करने ता नत्थि णं से राहू देवे जेणं चंदं वा, सूरं वा वाले राहु देव नहीं हैं" (उनकी मान्यता के अनुसार ये पन्द्रह गेण्हइ, ते एवमाहंसु-तत्थ णं इमे पण्णरस कसिण- प्रकार के कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल कहे गये हैं, यथा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा१. सिंघाणए, २. जडिलए, ३७ खरए (१) सिंघाण =लोहे का काठ, (२) जटिल, (३) खंजन, ४. खतए. ५. अंजणे, ६. खंजणे (४) क्षत, (५) अंजन, (६) खंजन (७) शीतल, (८) हिमशीतल, ७. सीतले, ८.हिमसीतले, ६. केलासे (8) कैलाश, (१०) अरुणाभ, (११) पारिजात, (१२) णभसूर, १०. अरुणाभे, ११. परिज्जए, १२. णभसूरए (१३) कपिल, (१४) पिंगल, (१५) राहू । १३. कविलिए, १४. पिगंलए, १५. राहू ता जया णं एए पण्णरस कसिणा कसिणा पोग्गला सया ये पन्द्रह प्रकार के पुद्गल जब जब चन्द्र-सूर्य के प्रकाश से चंदस्स'वा सूरस्स वा लेसाणुबद्धचारिणो भवति, तया अनुबद्ध होकर चलते हैं तब मनुष्य लोक में मनुष्य इस प्रकार णं माणुसलोयंसि माणुसा एवं वयंति ‘एवं खलु राहु चंदं कहते हैं कि “राहु ने चन्द्र-सूर्य को ग्रहण कर लिया"। वा सूर वा गेण्हइ, एवं एवं ता जया णं एए पण्णरस कसिणा कसिणा ये पन्द्रह प्रकार के कृष्ण वर्ण वाले पुद्गल जब जब चन्द्र-सूर्य पोग्गला णो सया चंदस्त वा सूरस्स वा लेसाणुबद्ध- के प्रकाश से अनुबद्ध होकर नहीं चलते हैं तब तब मनुष्य लोक चारिणो भवंति, णो खलु तया माणुसलोयंसि माणुसा में मनुष्य ऐसा नहीं कहते हैं कि “राहु ने चन्द्र-सूर्य को ग्रहण एवं वयंति, ‘एवं खलु राहु चंदं वा सूरं वा गेण्हइ' ते कर लिया। एवमासु, वयं पुण एवं वयामो हम फिर इस प्रकार कहते हैंता राहू णं देवे महिड्ढीए महज्जुइए महबले महायसे राहु देव महधिक है, महा द्युति वाला है, महा बल वाला महासोक्खे महाणुभावे, वरवत्थधरे, वरमल्लथरे वरा- है, महायश वाला है, अत्यन्त सुखी है, अति आदरणीय है, श्रेष्ठ भरणधारी। वस्त्र धारण करने वाला है, श्रेष्ठ मालाएँ धारण करने वाला है, .... सूरिय. पा. २०, सु. १०३ श्रेष्ठ आभरण करने वाला है । चंदोवरागस्स सूरोवरागस्स य परूवणं चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण का प्ररूपण.... ८७. १. ता जया णं राहूदेवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, ८७. (१) राहु देव आता हुआ, जाता हुआ विकुर्वणा करता हुआ विउत्वेमाण वा, परियारमाणे वा, चंदस्स वा, सूरस्स वा अथवा परिचारणा करता हुआ जब सूर्य के प्रकाश को पूर्व से लेस्सं पुरत्थिमेणं आवरित्ता पच्चस्थिमे णं वोईवयइ, तया आवृत करके पश्चिम में चला जाता है तब चन्द्र या सूर्य पूर्व में ण पुरथिमेण चन्दे वा सूरे वा उवदंसेइ पच्चत्थिमेणं राहू। दिखाई देता है और राहु पश्चिम में दिखाई देता है। २. ता जया णं राह देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, (२) राहु देव आता हुआ, जाता हुआ विकुर्वणा करता हुआ विउब्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चन्दस्स वा, सूरस्स परिचारणा करता हुआ जब चन्द्र या सूर्य के प्रकाश को दक्षिण वा, लेसं दाहिणेणं आवरित्ता, उत्तरेणं बीईवयइ, तया में आवृत करके उत्तर में चला जाता है तब दक्षिण में चन्द्र या णं दाहिणेणं चन्दे वा, सूरे वा, उवदंसेइ, उत्तरेणं राहू। सूर्य दिखाई देता है और उत्तर में राहु दिखाई देता है । एएणं अभिलावे णं पच्चत्थिमे णं आवरित्ता पुरत्थिमे णं इस प्रकार के अभिलाप से चन्द्र या सूर्य को पश्चिम में बीईबयइ, उत्तरेणं आवरित्ता दाहिणे णं वीईवयई। आवृत करके राहु पूर्व में चला जाता है उत्तर में आवृत करके दक्षिण में चला जाता है, ऐसा कहें। ३. ता जया णं राह देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, (३) राहु देव आता हुआ, जाता हुआ विकुर्वणा करता हुआ विउब्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चन्दस्स वा, सूरस्स या परिचारणा करता हुआ जब चन्द्र या सूर्य के प्रकाश को १ (क) भग. स. १२, उ. ६, सु.२ । (ख) चन्द. पा. २०, उ. सु. १०३ । Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०८७ तिर्यक् लोक : चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण का प्ररूपण गणितानुयोग ५८९ वा लेसं दाहिणपुरत्थिमे णं आवरित्ता उत्तरपच्चत्थिमेणं दक्षिण-पूर्व में आवृत करके उत्तर-पूर्व में चला जाता है तब वीईवयइ, तया णं दाहिणपुरस्थिमेणं चन्दे वा, सूरे वा, दक्षिण पूर्व में चन्द्र या सूर्य दिखाई देता है और उत्तर-पश्चिम में उवदंसेइ, उत्तरपच्चत्थिमेणं राहू । राहु दिखाई देता है। ४. ता जया णं राहु देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, (४) राहु देव आता हुआ जाता हुआ विकुर्वणा करता हुआ विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा चन्दस्स वा सूरस्स वा या परिचारणा करता हुआ जब चन्द्र या सूर्य के प्रकाश को लेसं दाहिणपच्चस्थिमे णं आवरित्ता, उत्तरपुरस्थिमे णं दक्षिण-पश्चिम में आवृत करके उत्तर-पश्चिम में चला जाता है वोईवयइ, तपा णं दाहिणपच्चत्थिमे णं चन्दे वा, सूरे वा तब दक्षिण-पश्चिम में चन्द्र या सूर्य दिखाई है और उत्तर-पूर्व उवदंसेइ उत्तरपुरत्थिमे णं राहू । में राहु दिखाई देता है। एएणं अभिलावे णं उत्तर-पच्चत्थिमे णं आवरेत्ता दाहिण- इस प्रकार के अभिलाप से चन्द्र या सूर्य को उत्तर दिशा पुरथिमे णं वीईबयइ, उत्तरपुरथिमे णं आवरेत्ता में आवृत करके राहु दक्षिण-पूर्व में चला जाता है, उत्तर-पूर्व में दाहिणपच्चत्थिमे णं वीईवयइ, आवृत करके दक्षिण-पश्चिम में चला जाता है, ऐसा कहें। ५. ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा, (५) राहु देव आता हुआ, जाता हुआ विकुर्वणा करता हुआ विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा, सूरस्स वा या परिचारणा करता हुआ जब चन्द्र या सूर्य के प्रकाश को लेसं आवरेत्ता वीईवयइ तथा णं माणुसलोयंसि मणुस्सा आवृत करके चला जाता है तब मनुष्य लोक में मनुष्य ऐसा एवं वयंति, 'राहुणा चदे वा, सूरे वा गहिए, कहते हैं ''राहु ने चन्द्र या सूर्य को ग्रहण किया है।" ६. ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा (६) राहु देव आता हुआ, जाता हुआ विकुर्वणा करता हुआ विउव्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा सरस्स वा या परिचारणा करता हुआ जब चन्द्र या सूर्य के प्रकाश को लेसं आवरेत्ता पासेणं वीईवयइ, तया गं माणुसलोयसि आवृत करके उनके समीप होकर जाता है तब मनुष्य लोक में मणुस्सा एवं वयंति 'चंदेण वा, सूरेण वा राहूस्स कुच्छी- , मनुष्य इस प्रकार कहते हैं-"चन्द्र या सूर्य ने राहु की कुक्षी को भिन्न कर दिया है ।" ७. ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, (७) राहु देव आता हुआ, जाता हुआ विकुर्वणा करता हुआ विउब्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चदस्स वा, सूरस्स वा या परिचारणा करता हुआ जब चन्द्र या सूर्य के प्रकाश को लेसं आवरेत्ता पच्चोसकइ तया णं माणुसलोयंसि मणुस्सा आवृत करके पीछे सरकता है, तब मनुष्य लोक में मनुष्य इस एवं वयंति 'राहुणा चंदे वा, सूरे वा वंते', प्रकार कहते हैं-राहु ने चन्द्र या सूर्य का वमन कर दिया है।" ८. ता जया णं राहू देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, (८) राहु देव आता हुआ, जाता हुआ विकुर्वणा करता हुआ विउध्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा, चंदस्स वा, सूरस्स वा या परिचारणा करता हुआ जब चन्द्र या सूर्य के प्रकाश को लेसं आवरेत्ता मझमज्झेणं वीईवयइ, तया णं माणुस- आवृत करके मध्य भाग से चला जाता है तब मनुष्य लोक में लोयंसि मणुस्सा एवं वयंति 'राहुणा चंदे वा, सूरे वा मनुष्य इस प्रकार कहते हैं- "राहु ने चन्द्र या सूर्य को विदारित विइयरिए', किया है।" ६. ता जया णं राहु देवे आगच्छमाणे वा, गच्छमाणे वा, (8) 'राहु देव आता हुआ जाता हुआ, विकुर्वणा करता हुआ विउब्वेमाणे वा, परियारेमाणे वा चंदस्स वा, सूरस्स वा या परिचारणा करता हुआ जब चन्द्र या सूर्य के प्रकाश को आवृत लेसं आवरेत्ता अहे सपक्खिं सपडिदिसि चिट्ठइ, तया णं करके नीचे सभी विदिशाओं में रहता है तब मनुष्यलोक में मनुष्य माणुसलोयंसि मणुस्सा एवं वयंति 'राहुणां चंदे वा सूरे इस प्रकार कहते हैं-"राहु ने चन्द्र या सूर्य को अस लिया है"। वा घत्थे" -सूरिय, पा. २०, सू. १०३ भिण्णा, १ (क) भग. स. १२, उ. ६, सु. २ । (ख) चन्द. पा. २०, सु. १०३ । Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : नक्षत्र वर्णन सूत्र १०८८-१०८६ नक्षत्र वर्णन णक्खत्त णामाइं नक्षत्रों के नाम८८. ५०-कइ णं भते ! नक्खत्ता पण्णत्ता ? ८८. प्र०-भगवन् ! नक्षत्र कितने कहे गये हैं ? उ०—गोयमा ! अट्ठावीसं णक्खत्ता पण्णत्ता, उ०-गौतम ! अट्ठावीस नक्षत्र कहे गये हैं। १. अभिई, २. सवणो, ३. धणिट्टा, ४. सयभिसया, (१) अभिजित्, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा, (४) शतभिषक्, ५. पुवभद्दवया, ६. उत्तरभद्दवया, ७. रेवई, ८. (५) पूर्वाभाद्रपद, (६) उत्तराभाद्रपद, (७) रेवति, (८) अश्विनी, अस्सिणी, ६. भरणी, १०. कत्तिा ', ११. रोहिणी, (६) भरणी, (१०) कृत्तिका, (१२) मृगशीर्ष, (१३) आर्द्रा, १२. मिअसिर, १३. अद्दा, १४. पुणब्वसु, १५. पूसो, (१४) पुनर्वसु, (१५) पुष्य, (१६) अश्लेषा, (१७) मघा, १६. अस्सेसा, १७. मघा, १८. पुव्वफग्गुणी, १६. (१८) पूर्वाफाल्गुनी, (१६) उत्तराफाल्गुनी, (२०) हस्त , उत्तरफग्गुणी, २०. हत्थो, २१. चित्ता, २२. साई, (२१) चित्रा, (२२) स्वाति, (२३) विशाखा, (२४) अनुराधा, २३. विसाहा, २४. अणुराहा, २५. जेट्ठा, २६. मूलं, (२५) ज्येष्ठा, (२६) मूल, (२७) पूर्वाषाढा, (२८) उत्तराषाढा। २७. पुब्वसाढा, २८. उत्तरासाढा, -जंबु. वक्ख. ७, सु. १५५ णक्खत्ताणं आलिया-णिवाय जोगो य नक्षत्रों का आवलिकानिपात और योग५६.५०–ता कहं ते जोगे ति वत्थुस्स आवलिया-णिवाए? ८६. प्र०-(चन्द्र-सूर्य के साथ) नक्षत्र समुदाय के योग का आहिए त्ति वएज्जा। पंक्तिरूप क्रम कैसा है ? कहेंउ०-तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णताओ उ०-इस सम्बन्ध में पाँच प्रतिपत्तियाँ (मान्यताएँ) कही तं जहा गई है, यथातत्थेगे एवमाहंसु ___ उनमें से एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं१. ता सव्वे वि णं णखत्ता, कत्तियादिया भरणि- (१) कृत्तिका से भरणीपर्यन्त सभी नक्षत्रों का (चन्द्र-सूर्य के पज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु । साथ) योग पंक्तिरूप क्रम है। एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वाले) फिर इस प्रकार कहते हैं२. ता सव्वे वि ण णक्खत्ता, महादिया अस्सेस-पज्ज- (२) मघा से अश्लेषा पर्यन्त सभी नक्षत्रों का (चन्द्र-सूर्य के वसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु । साथ) योग पंक्तिरूप क्रम है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वाले) फिर इस प्रकार कहते हैं३. ता सन्वे वि णं णक्खत्ता, धणिट्ठादिया सवण-पज्ज- (३) धनिष्ठा से श्रवण पर्यन्त सभी नक्षत्रों का (चन्द्र-सूर्य के वसाणा पण्णत्ता; एगे एवमाहंसु । साथ) योग पंक्तिरूप क्रम है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वाले) फिर इस प्रकार कहते हैं४. ता सब्वे वि णं णक्खत्ता, अस्सिणी-आदिया रेवई (४) अश्विनी से रेवती पर्यन्त सभी नक्षत्रों का (चन्द्र-सूर्य पज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु । के साथ) योग पंक्तिरूप क्रम है । एगे पुण एवमाहंसु एक (मान्यता वाले) फिर इस प्रकार कहते हैं५. ता सब्वे विणं णक्खत्ता, भरणी आदिया अस्सिणी (५) भरणी से अश्विनी पर्यन्त सभी नक्षत्रों का (चन्द्र-सूर्य पज्जवसाणा पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु । के साथ) योग पंक्तिरूप क्रम है । १ (क) ठाणं, अ. २, उ. ३, सु. ६५ । (ख) अणु. सु. २८५, गाथा. ८६-८८ । स्थानांग में और अनुयोगद्वार में कृत्तिका से भरणी पर्यन्त नक्षत्र गणना का कम है। Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०८६-१०६१ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के गोत्र गणितानुयोग ५६१ वयं पुण एवं वयामो हम फिर इस प्रकार कहते हैंता सव्वे वि णं गक्खत्ता, अभिई आदिया, उत्तरासाढा अभिजित् से उत्तराषाढा पर्यन्त सभी नक्षत्रों का (चन्द्र-सूर्य पज्जवसाणा, पण्णत्ता तं जहा-अभिई सवणो जाव के साथ) योग पंक्तिरूप क्रम है, यथा-अभिजित् श्रवण-यावत्उत्तरासाढा,' उत्तराषाढा । -सूरिय. पा. १०, पाहु.१, सु. ३२ जंबुद्दीवे ववहारजोग्गा णक्खत्ता जम्बूद्वीप में व्यवहार योग्य नक्षत्र६०. जंबुद्दीवे दोवे अभिइवज्जेहि सत्तावीसाए णक्खत्तेहि संववहारे ६०. जम्बूद्वीप द्वीप में अभिजित् को छोड़कर सत्तावीस नक्षत्रों से __ वट्टति, -सम. २७, सु. २ व्यवहार होता है । णक्खत्ताणं गोत्ता नक्षत्रों के गोत्र६१. प०–ता कहं ते गोत्ता ? आहिए त्ति वएज्जा, ६१. नक्षत्रों के गोत्र कौन-कौन से है ? कहें, १. ५०--ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ता णं अभियो (१) प्र०-इन अट्ठावीस नक्षत्रों में से अभिजित् नक्षत्र का णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णत्ते ? गोत्र कौनसा कहा गया है? उ०–ता मोग्गलायणसगोत्ते पण्णत्ते, उ०-मौद्गलायनस गौत्र कहा गया है । २. प०-सवणे णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णत्ते ? (२) प्र०-श्रवण नक्षत्र का गौत्र कौनसा कहा गया है ? ___ उ०–संखायणसगोत्ते पण्णत्ते, उ०-संखायनस गौत्र कहा गया है । ३. ५०-धणिट्ठा णक्खत्ते कि गोते पण्णते ? (३) प्र०-धनिष्ठा नक्षत्र का गौत्र कौनसा कहा गया है ? ____उ०-अग्गितावसगोते पण्णत्ते, उ०-अग्नितापस गौत्र कहा गया है । ४. ५०.-सतभिसया णक्खत्ते कि गोते पण्णते ? (४) प्र०-शतभिषक् नक्षत्र का गौत्र कौनसा कहा गया है ? उ०—कण्णलोयणस गोत्ते पण्णत्ते, 30-कर्णलोचनस गौत्र कहा गया है । ५. ५०-पूश्वा पोटुवया णक्खन्ने किं गोते पण्णते ? (५) प्र०-पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का गौत्र कौनसा कहा गया है? उ.-जोउकण्णियस गोत्ते पण्णत्ते, उ०-जातुकणिस गौत्र कहा गया है । ६. ५०-उत्तरा पोटुवया णक्खत्ते किं गोते पण्णते ? (६) प्र०-उत्तराभाद्रपद नक्षत्र का गौत्र कौनसा कहा गया है? उ०-धनंजयस गोत्ते पण्णत्ते, उ०-धनंजयस गोत्र कहा गया है । ७. ५०-रेवई णक्खत्ते कि गोते पण्णते ? (७) प्र०-रेवति नक्षत्र का कौनसा गौत्र कहा गया है ? उ०पुस्सायणस गोत्ते पण्णत्ते, उ०-पुष्यायनस गौत्र कहा गया हैं। ८.५०-अस्सिणी णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णत्ते ? (७) प्र०-अश्विनी नक्षत्र का कौनसा गौत्र कहा गया है ? ___उ०—अस्सादणस गोते पण्णत्ते, उ०-आश्वायनस गौत्र कहा गया है । ९.५०-भरणी णक्खत्ते कि गोते पण्णते? (8) प्र०-भरणी नक्षत्र का कौनसा गौत्र कहा गया है ? उ०-भग्गवेसस गोत्ते पण्णत्ते, उ०-भार्गवेसश गौत्र कहा गया है । १०.५०-कत्तिया णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णत्ते ? (१०) प्र०-कृत्तिका नक्षत्र का कौनसा गौत्र कहा गया है? उ०-अग्गिवेसस गोते पण्णत्ते, उ०-अग्निवेसश गौत्र कहा गया है । -सम. २७, सु. २. १ (क) जम्बुद्दीवे दीवे अभिइवज्जेहिं सत्तावीसाए णक्खत्तेहिं संववहारे वट्टति । (ख) चन्द. पा. १०, सु. ३२ । (ग) जम्वु. वक्ख. ७, सु. १५५ । Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के गोत्र सूत्र १०६१ ११.५०- रोहिणी णक्खत्ते कि गोते पण्णते ? उ०-गोतमस गोते पण्णत्ते, १२.५०-संठाणा णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णत्ते ? ___उ०-भारद्दायस गोते पण्णत्ते, १३. १०-अद्दा णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णते ? उ०-लोहिच्चायणस गोत्ते पण्णत्ते, १४. ५०-पुणव्वसु णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णत्ते ? ___ उ०-वासिट्ठस गोते पण्णत्ते, १५. ५०-पुस्से णक्खत्ते किं गोते पण्णते ? उ०-उज्जायणस गोत्ते पण्णत्ते, १६. ५०-अस्सेसा णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णत्ते ? उ०-मंडब्वायणस गोते पण्णत्ते, १७. ५०–मघा णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णत्ते ? उ०—पिंगायणस गोते पण्णत्ते, १८. ५०-पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते कि गोते पण्णते? उ०-गोवल्लायणस गोते पण्णत्ते, १६.५०-उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते कि गोते पण्णते ? (११) प्र०-रोहिणी नक्षत्र का कौनसा गौत्र कहा गया है ? उ.- गौतमस गौत्र कहा गया है । (१२) प्र०-मृगशिर नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०–भारद्वाजस गोत्र कहा गया है। (१३) प्र० --आर्द्रा नक्षत्र का कौनसा गौत्र कहा गया है ? उ०-लोहित्यायनस गोत्र कहा गया है। (१४) प्र०-पुनर्वसू नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०-वासिष्ठस गोत्र कहा गया है। (१५) प्र०-पुष्य नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०-उद्यायनस गोत्र कहा गया है। (१६) प्र०—अश्लेषा नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०-मांडव्यायनस गोत्र कहा गया है । (१७) प्र०-मघा नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०—पिंगायनस गोत्र कहा गया है। (१८) प्र०-पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०-गोभिल्लायनस गोत्र कहा गया है। १९) प्र०-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०-काश्यप गोत्र कहा गया है । (२०) प्र.-हस्त नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०-कौशिक गोत्र कहा गया है। (२१) प्र.-चित्रा नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है? उ०-दाभिकानस गोत्र कहा गया है । (२२) प्र०-स्वाति नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०-चामरक्ष गोत्र कहा गया है। (२३) प्र०-विशाखा नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ० - सुंगायनस गोत्र कहा गया है । (२४) प्र०-अनुराधा नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया हैं ? उ०-गौलव्यायनस गोत्र कहा गया है। (२५) प्र०-ज्येष्ठा नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०—चिकित्सायनस गोत्र कहा गया है। (२६) प्र०-मूल नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है। उ०-कात्यायनस गोत्र कहा गया है। (२७) प्र०-पूर्वाषाढा नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है ? उ०-वात्स्यायनस गोत्र कहा गया है। उ.-कासवगोते पण्णत्ते, २०.५०-हत्थे णक्खत्ते किं गोते पण्णत्ते ? उ.-कोसिय गोत्ते पण्णत्ते, २१.५०-चित्ता णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णत्ते ? उ०-दभियाणस गोत्ते पण्णत्तं, २२.५०-साई णक्खत्ते किं गोते पण्णते? उ०-चामरच्छ गोते पण्णत्ते, २३. ५०-यिसाहा णक्खत्ते किं गोते पण्णते? उ०-सुंगायणस गोत्ते पण्णत्ते, २४.५० -अणुराहा णक्खत्ते कि गोते पण्णते ? उ०-गोलवायणस गोत्ते पण्णत्ते, २५. १०-जेट्ठा णक्खत्ते कि गोते पणते ? उ०-तिगिच्छायणस गोने पण्णत्ते, २६. ५०-मूले णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णते ? उ०-कच्चायणसगोते पण्णत्ते, २७. ५०-पुव्वासाढा णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णते ? उ०-वज्झियायणस गोते पण्णत्ते, Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६१-१०६२ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के देवता गणितानुयोग ५६३ २८. ५०-उत्तरासाढा णक्खत्ते किं गोते पण्णत्ते ? (२८) प्र०-उत्तराषाढा नक्षत्र का कौनसा गोत्र कहा गया है? उ०-वग्यावच्चस गोते पण्णत्ते, उ०-व्याघ्रायनस गोत्र कहा गया है । -सूरिय. पा. १०, पाहु. १६, सू. ५० णक्खत्ताणं देवया नक्षत्रों के देवता६२. १. प्र०–ता कहं ते णक्खत्ताणं देवया? आहिए त्ति वएज्जा, ६२. (१) प्र०-नक्षत्रों के देवता कौनसे हैं ? कहें। ता एएणं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीई णक्खत्ते कि इन अट्ठावीस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र का कौनसा देवता देवयाए पण्णते? कहा गया है ? उ०-बंभदेवयाए पण्णत्ते, उ०-ब्रह्मा देवता कहा गया है । १ (क) प०-एएसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताण अभिइ णक्खत्ते कि गोत्ते पण्णत्ते ? उ०-गोयमा ! मोग्गलायणस गोत्ते पण्णत्ते, गाहाओ-(१) मोग्गलायण. (२) संखायणे अ तह, (३) अग्गभाव, (४) कसिणल्ले । ततो अ, (५) जाउकण्णे, (६) धणंजए चेव बोद्धव्वे ।।१।। (७) पुस्सायणे य, ८. अस्सायणे य, (६) भगावेसे य, (१०) अग्गिवेसे य । (११) गोयम, (१२) भारद्दाए, (१३) लोहिच्चे चेब, (१४) वासि? ॥२।। (१५) ओमज्जायण, (१६) मंडव्वायणे य, (१७) पिंगायणे य, (१८) गोवल्ले । (१६) कासव, (२०) कोसिय, (२१) दब्भाय, (२२) चामरच्छाय, (२३) सुंगा य ।।३।। (२४) गोवल्लायण, (१५) तेगिच्छायणे अ, (२६) कच्चायणे हवइ मूले । (२७) ततो अ वज्झियायण, (२८) बग्घावच्चे य गोत्ताई ॥४॥ . -जम्बु. वक्ख. ७, सु. १५६ (ख) चन्द्र. पा. १० सु. ५० । (ग) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, वृहद् देवज्ञरंजन जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, बृहद देवज्ञरंजन एवं सूर्यप्रज्ञप्ति में ग्रन्थ में एवं सूर्यप्रज्ञप्ति में ग्रन्थ में नक्षत्र नाम नक्षत्र गोत्र संहिता प्रदीप नक्षत्र नाम नक्षत्र गोत्र संहिता प्रदीर से उद्धृत, से उद्धृत १ अभिजित् मौद्गल्यायन १५ पुष्य अवमज्जायन २ श्रवण सांख्यायन अगस्त्य १६ अश्लेषा माण्डव्यायन आग्रायणी ३ धनिष्ठा अग्रभाव संख्यानक १७ मघा पिंगायन ४ शतभिषक् कण्णिलायन कात्यायन १८ पूर्वाफाल्गुनी गोवल्लायन परासर ५ पूर्वाभाद्रपद जातुकर्ण हारित १६ उत्तराफाल्गुनी काश्यप खादसत्य ६ उत्तराभाद्रपद धनंजय काश्यप २० हस्त कौशिक कुण्डिनी ७ रेवती पुष्यायन २१ चित्रा दार्भायन अत्रिगोत्र ८ अश्विनी आश्वायन आश्विन २२ स्वाति चामरच्छायन मांडव ६ भरणी भार्गवेश मोद्गल्यायन २३ विशाखा शंगायन कौशिकी १० कृत्तिका अग्निवेश्य अग्निवेश्य २४ अनुराधा गोलव्यायन पाक्क ११ रोहिणी गोतम २५ ज्येष्ठा चिकित्सायन काश्यप १२ मृगशिरा भारद्वाज कात्यायन २६ मूल कात्यायन कौशिकी १३ आर्द्रा लोहित्यायन शीदी २७ पूर्वापाढा बाभ्रव्यायन दाक्षायण १४ पुनर्वसु वाशिष्ठ वात्स्यायन २८ उत्तराषाढा व्याघ्रापत्य गार्गी गर्ग गौतम Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ लोक- प्रज्ञप्ति wwww तिर्यक् लोक नक्षत्रों के देवता wwww.m २. प० -- ता सवणे णक्खत्ते किं देवयाए पण्णत्ते ? ३० विष्णुदेवा पण्णसे, ३. १०ता गिट्ठा मक्ख कि देवयाए पते ? उ० असुदेवपाए पण, ४. ५० ता सर्याभिसया णक्खते कि देवयाए पण्णत्ते ? उ०- वरुणदेवया पसे, ५. प० – ता पुव्वपोट्ठवया णक्खत्ते किं देवयाए पण्णत्ते ? उ०- अजदेवयाए पण्णत्ते, ६. ० तारायाणक्यले कि देवयापयते ? उ०- अहिवड्ढि ' देवयाए पण्णत्ते, ७. ५०- -ता रेवई णक्खते किं देवयाए पण्णत्ते ? उ०- पुसदेवयाएर पण्णत्ते, ८. पoता अस्सिणी णक्खत्ते किं देवयाए पण्णत्ते ? उ०- अस्सदेवयाए पण्णत्ते, ६. प० – ता भरिणी णक्खते कि देवयाए पण्णते ? उ० – जमदेवयाए पण्णत्ते, ४ १०. ५० - ता कत्तिया णक्खत्ते किं देवयाए पण्णत्ते ? ३० अगिवाए पम्पसे ११. ५० - ता रोहिणी णक्खते किं देवयाए पण्णत्ते ? उ०- पयावइदेवयाएर पण्णत्ते, १२. ५० - ता संठाणा णक्खसे कि देवयाए पण्णत्ते ? उ०- सोमदेवपाए पसे १३. प० – ता अद्दा णक्खत्तं किं देवयाए पण्णत्ते ? उ०रुदेवनाएं पण्णसे, १ २ ३ ४ (क) ठाणं, अ. २ उ. ३ सु, १५ । प्र० (२) - श्रवण नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- विष्णु देवता कहा गया है । (३) प्र० - धनिष्ठा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- वसु देवता कहा गया है ? सूत्र १०६२ (४) प्र० - शत्भिषक् नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- वरुण देवता कहा गया है। (५) प्र० - पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- अज देवता कहा गया है। (६) प्र० - उत्तराभाद्रपद नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- अभिवृद्धि देवता कहा गया है । (७) प्र० - रेवती नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- पूष देवता कहा गया है । (८) प्र० - अश्विनी नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- अश्व देवता कहा गया है । (६) प्र० - भरणी नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- यम देवता कहा गया है। (१०) प्र० - कृतिका नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- अग्नि देवता कहा गया है । (११) प्र०- - रोहिणी नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- प्रजापति देवता कहा गया है। (१२) प्र० - संठाणा = मृगशिरा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- सोम देवता कहा गया है । अभिवृद्धि, अन्यत्र - अहिर्बुध्न, इति । पापानामको देवो नतु सूर्य पर्यायस्तेन रेवत्येव पौष्णमिति प्रसिद्ध । अश्व नामको देव, (१३) प्र० - आर्द्रा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०-- रुद्र देवता कहा गया है । (ख) अणु. सु. २८६, गा. ८-१०, स्थानांग और अनुयोगद्वार में अग्नि से यम पर्यंत नक्षत्र देवता का गणना क्रम है । ५ प्रजापतिरिति ब्रह्म नामको देवः, अयं च ब्रह्मणः पर्यायान् सहत, तेन ब्राह्यमित्यादि प्रसिद्धम | ६ सोमन सौम्यं चान्द्रममित्यादि प्रसिद्धम् । ७ रूद्र - शिवस्तेन रोद्रा कालिनीति प्रसिद्धम् । Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६२ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के देवता गणितानुयोग ५६५ १४. ५०–ता पुणव्वसू णक्खत्ते कि देवयाए पण्णत्ते ? उ०--अदितिदेवयाए पण्णत्ते, १५. ५०–ता पुस्से णक्खत्ते कि देवयाए पण्णत्ते ? उ०बहस्सइ देवयाए पण्णत्ते, १६. ता अस्सेसा णक्खत्ते कि देवयाए पण्णत्ते? ' उ०–सप्पदेवयाए पण्णत्ते, १७. ५०–ता महा णक्खत्ते किं देवयाए पण्णत्ते ? उ०—पिति देवयाए' पण्णत्ते, १८. ५०–ता पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते कि देवयाए पण्णत्ते ? उ०-भगदेवयाए पण्णत्ते, १९. ५०–ता उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते कि देवयाए पण्णत्ते ? उ०-अज्जम देवयाए पण्णत्ते, २०.५०-ता हत्थे णक्खत्ते कि देवयाए पण्णत्त ? उ०-सुविया देवयाए' पण्णते, २१. ५०–ता चित्ता णक्खत्ते कि देवयाए पण्णते ? उ०-तटुदेवयाए पण्णत्ते, २२. ५०-ता साती णक्खत्ते कि देवयाए पण्णते? ___ उ०-वाउदेवयाए पण्णत्ते, २३. ५०–ता विसाहा णक्खत्ते कि देवयाए पण्णते? (१४) प्र०-पुनर्वसु नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- अदिति देवता कहा गया है । (१५) प्र०-पुष्य नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०-बृहस्पति देवता कहा गया है। (१६) प्र०-अश्लेषा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०-सर्प देवता कहा गया है । (१७) प्र०-मघा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०—पितृ देवता कहा गया है। (१८) प्र०-पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है? उ०-भग देवता कहा गया है। (१६) प्र०-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है। उ०-अर्यमा देवता कहा गया है । (२०) प्र०-हस्त नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०-सविता देवता कहा गया है । (२१) प्र०-चित्रा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? 30-त्वष्टा देवता कहा गया है। (२२) प्र०-स्वाती नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०-वायु देवता कहा गया है। (२३) प्र०-विशाखा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०-इन्द्राग्नि देवता कहा गया है। (२४) प्र०-अनुराधा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है? उ०-मित्र देवता कहा गया है। (२५) प्र०-ज्येष्ठा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०- इन्द्र देवता कहा गया है । (२६) प्र०-मूल नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है ? उ०-नैऋत देवता कहा गया है । उ०-इंदग्गीदेवयाए पण्णत्ते, २४. ५०-ता अणुराहा णक्खत्ते कि देवयाए पण्णते ? उ०-मित्तदेवयाए पण्णते, २५. ५०–ता जेट्ठा णक्खत्ते कि देवयाए पण्णते? उ०-इंद देवयाए पण्णत्ते, २६. ५०–ता मूले णक्खत्ते कि देवयाए पण्णत्ते? उ०—णिरइदेवयाए' पण्णत्ते, २ अर्यमा-अर्यम नामको देव विशेषः । ४ त्वष्टा-त्वष्ट नामको देवस्तेन त्वाष्ट्री-चित्रा इति प्रसिद्धम् । १ पितृनामा देव । ३ सविता-सूर्य । ५ (क) विशाखा-द्विदैवतमिति प्रसिद्धिम् । ६ नैऋतः-राक्षसस्तेनमूल, आस्रप इति प्रसिद्धम् । Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के देवता सूत्र १०६२-१०६३ २७. ५०–ता पुब्वासाढा णक्खत्ते कि देवयाए पण्णत्ते? (२७) प्र०-पूर्वाषाढा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है? उ०-आउदेवयाए' पण्णत्ते, उ०-आप =जल देवता कहा गया है । २८. ५०–ता उत्तरासाढा णक्खत्ते कि देवयाए पण्णते? (२८) प्र०-उत्तराषाढा नक्षत्र का कौनसा देवता कहा गया है? उ०-विस्सदेवयाए पण्णत्ते, उ०-विश्व देवता कहा गया है। -सूरिय. पा. १०, पाहु. १२, सु. ४६ णक्खत्ताणं संठाणं नक्षत्रों के संस्थान६३. ता कहं ते णक्खत्त संठिई ? आहिए त्ति वएज्जा, ६३. नक्षत्रों के संस्थान किस प्रकार के हैं ? कहें । १.५०-ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्ख ताणं अभीयो (१) प्र०-इन अठाईस नक्षत्रों में अभिजित् नक्षत्र का णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०—गोसीसावलि संठिए पण्णत्ते, उ०- 'गो शृंग' जैसा संस्थान कहा गया है । २. ५०–ता सवणे णक्खत्ते कि संठिए पण्णते? (२) प्र०-श्रवण नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ०-काहार संठिए पण्णत्ते, उ०—'कावड' जैसा संस्थान कहा गया है । ७ आपो-जलनामा देवस्तेन पूर्वाषाढा तोमिति प्रसिद्धम् । ४ (क) विश्वेदेवास्त्रयोदश । (ख) प०-एएसि ण भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीई णक्खत्ते किं देवयाए पण्णत्ते ? उ०-गोयमा ! बम्हदेवया पण्णत्ता, ___एएणं कमेणं णेयव्वा अणुपरिवाडी य इमाओ देवयाओ, गाहाओ-(१) बम्हा, (२) विण्ड, (३) वसू, (४) वरुणे, (५) अय, (६) अभिवद्धी, (७) पूसे, (८) आसे, (९) जमे, (१०) अग्गी, (११) पयावई, (१२) सोमे, (१३) रुद्दे, (१४) अदिइ ।। १ ॥ (१५) बहस्सई, (१६) सप्पे, (१७) पिऊ, (१८) भगे, (१६) अज्जम, (२०) सविआ, (२१) तट्ठा, (२२) वाउ, (२३) इंदग्गी, (२४) मित्तो, (२५) इंद, (२६) निरई, (२७) आउ, (२८) विस्सा य ।। २ ।। एवं णक्खत्ताणं एगा परिवाडी अब्वा, जावप०-उत्तरासाढा णक्खत्ते ण ऋते किं देवयाए पण्णत्ते ? उ०–गोयमा ! विस्सदेवया पण्णत्ता । -जम्बु० वक्ख० ७. सु. १५७ । (ग) एतया-ब्रह्म-विष्णु-वरुणादिरूपया परिपाट्या, न तु परतीथिकप्रयुक्त-अश्व-यम-दहन-कमल आदिरुपया नेतव्या-परिसमदि प्रापणीया । गाहाओ-(१) बम्हा, (२) विण्हू, (३) वसू, (४) वरुणे, (५) अय, (६) वुड्ढी, (७) पूस, (८) आस, (६) जमे । (१०) अग्गि, (११) पयावइ, (१२) सोमे, (१३) रुद्दे, (१४) अदिति, (१५) बहस्सई, (१६) सप्पे ॥१॥ (१७) पिउ, (१८) भग, (१६) अज्जम, (२०) सविआ, (२१) तट्ठा, (२२) वाउ, (२३) तहेव इंदग्गी। (२४) मित्ते, (२५) इंदे, (२६) निरूई, (२७) आउ, (२८) विस्साय बोद्धब्वे ॥ २ ॥ -जम्बु० वक्व०७, सु. १७०. (घ) चंद. पा. १० सु. ४६. (१) एक ही आगम में अट्ठावीस नक्षत्र देवताओं के नामों की गाथाएँ भिन्न भिन्न रचना शैली में दो बार आना, विचारणीय. प्रश्न है । इसका समाधान बहुश्रुत करें तो जिज्ञासुओं के ज्ञान की वृद्धि होंगी। Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन क्लिक तीवर मावा पिलाया नपुर्ण विवर असलवालमनिसार Jabrdsti RRRBAR PostponeREPAREERBHEERE NIENTRETREAMERITER PahlioidishalliatisaacRIARREALISHERAPE AidinatantanslAASHIRAINMARE ARE Anitiohis geLHARMARitnamaAR ARREATE AathiAGARMATitialihenaksheHAREHRite Agarajklela धमलासमक्षामा समानता asiuless Himpethe வரவுமாமர் MAHallerjitman FOONS अनिशामिमा एक प्राचीन चित्र के अनुसार २८ नक्षत्रों के तारा एवं संस्थान (आकृति) वर्णन देख पृष्ठ ५६६ सूत्र ६३-६४ Page #761 --------------------------------------------------------------------------  Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६३ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के संस्थान गणितानुयोग ५६७ ३. ५०-ता धणिट्ठा णक्खत्ते कि संठिए पण्णते? उ०—सउणीपलीणगसंठिए पण्णत्ते, ४. ५०-ता सय भिसया णक्खत्ते कि संठिए पण्णते? उ०-पुप्फोवयार संठिए पण्णते, ५. प०–ता पुव्वापोटुवया णक्खत्ते किं संठिए पण्णते? उ०-अवड्ढवावि संठिए पण्णत्ते, - ६. ५०–ता उत्तरापोटुवया णक्खत्ते कि संठिए पण्णते? उ०-अवड्ढवावि संठिए पण्णत्ते, ७. ५०-ता रेवई णक्खत्ते कि संठिए पण्णते? उ०-णावा सैठिए पण्णत्ते, ८. प०–ता अस्सिणी णक्खत्ते कि संठिए पण्णते? उ०-आसक्खंध संठिए पण्णत्ते, ६.५०ता भरणी णक्खत्ते कि संठिए पण्णते ? (३) प्र०-धनिष्ठा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०-'पक्षियों के पिंजरे' जैसा संस्थान कहा गया है। (४) प्र०-शतभिषा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ०-'पुष्प-राशि' जैसा संस्थान कहा गया है । (५) प्र०-पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०-आधी 'वापी' जैसा संस्थान कहा गया है । (६) प्र०-उत्तराभाद्रपद नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है। आधी 'वापी' जैसा संस्थान कहा गया है । (७) प्र०-रेवती नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार कहा गया है ? उ०—'नौका' जैसा संस्थान कहा गया है। (6) प्र०-अश्विनी नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०-'अश्वस्कंध' जैसा संस्थान कहा गया है। (९) प्र०-भरणी नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ.-'भग' जैसा संस्थान कहा गया है । (१०) कृत्तिका नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०-'छुरे के घर' जैसा संस्थान कहा गया है । (११) प्र०- रोहिणी नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया हैं ? उ०-'गाड़ी की धुरी' जैसा संस्थान कहा गया है । (१२) प्र०-मृगशिरा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ.-'मृग के मस्तक' जैसा संस्थान कहा गया है। (१३) प्र०-आर्द्रा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ०-'रुधिर के बिन्दु' जैसा संस्थान कहा गया है। (१४) प्र०-पुनर्वसु नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? उ०-'तुला' जैसा संस्थान कहा गया है। उ०-मगसंठिए पण्णत्ते, १०.५०-ता कत्तिया णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते? . उ०-छुरघरग संठिए पण्णत्ते, ११.५०–ता रोहिणी णक्खत्ते कि संठिए पण्णते ? उ०—सगडुड्ढि संठिए पण्णत्ते, १२. ५०-ता मियसिरा णक्खत्ते कि संठिए पण्णते ? उ०-मिगसीसावलि संठिए पण्णत्ते, १३. ५०–ता अद्दा गक्खत्ते कि संठिए पणते ? उ०-रुहिरबिंदु संठिए पण्णत्ते, . १४. ५०–ता पुणन्वसु णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? उ०—तुला संठिए पष्णत्ते, Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के संस्थान सूत्र १०६३ १५. ५०-ता पुस्से णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्त ? उ०-बद्धमाण संठिए पण्णते, १६. प०–ता अस्सेसा णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्त ? उ०-पडागसंठिए पण्णत्त, १७. ५०–ता महा णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? उ०—पागार संठिए पण्णत्ते, १८. ५०–ता पुवाफग्गुणी णक्खत्ते कि संठिए पण्णते ? उ०—अद्धपलियंक सठिए पण्णत्ते, १६.५०–ता उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? उ०-अद्धपलियंक संठिए पण्णत्ते, २०.५०-ता हत्थ णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? उ०-हत्थ संठिए पण्णत्ते, २१. प०-ता चित्ता णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? (१५) प्र०-पुष्य नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ.-'वर्धमान' दीपक जैसा संस्थान कहा गया है। (१६) अश्लेषा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०-'पताका' जैसा संस्थान कहा है । (१७) प्र०-मघा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? ऊ०-'प्राकार' जैसा संस्थान कहा गया है। (१८) प्र०-पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०—'आधे पलंग' जैसा संस्थान कहा गया है। (१६) प्र०-उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०-'आधे पलग' जैसा संस्थान कहा गया है । (२०) प्र०-हस्त नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०-'हाथ' जैसा संस्थान कहा गया है । (२१) प्र०--चित्रा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०-फूले हुए मुंह जैसा संस्थान कहा गया है । (२२) प्र०-स्वाती नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ.-'खीले' जैसा संस्थान कहा गया है । (२३) प्र०-विशाखा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है। उ०-दामनिका (पशु बाँधने की रज्जु) जैसा संस्थान कहा गया है। (२४) प्र०-अनुराधा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ–'एकावलिहार' जैसा संस्थान कहा गया है। (२५) प्र०-ज्येष्ठा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०-'गजदन्त' जैसा संस्थान कहा गया है । (२६) प्र०-मूल नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा उ०-मुहफुल्ल संठिए पण्णत्ते, २२. ५०–ता साई णक्खत्ते कि संठिए पण्णते? उ०-खीलग संठिए पण्णत्ते, २३. ५०-ता विसाहा णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते? उ०-दामणि संठिए पण्णत्ते, २४. ५०-ता अणुराहा णक्खत्ते कि संठिए पण्णत ? उ०-एगावलि संठिए पण्णत्ते, २५. ५०-ता जेट्ठा णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? उ०-गयदन्त संठिए पण्णत्ते, २६. ५०–ता मूले णक्खत्ते कि संठिए पण्णत्ते ? गया है? उ०-विच्छ्यलंगोलसंठिए पण्णत्ते, उ०-'विच्छ की पूंछ' जैसा संस्थान कहा गया है । Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६३ तिर्यक्लोक : नक्षत्रों के संस्थान गणितानुयोग ५६९ २७. ५०–ता पुब्वासाढा णक्खत्ते कि सठिए पण्णत्ते ? उ०-गयविक्कम संठिए पण्णत्ते, २८. ५०–ता उत्तरासाढा णक्खत्त कि संठिए पण्णत्त ? (२७) प्र०-पूर्वाषाढा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ.--'गजगति' जैसा संस्थान कहा गया है । (२८) प्र०-उत्तराषाढा नक्षत्र का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०–'बैठे हुए सिंह जैसा संस्थान कहा गया है। उ०—सीहनिसाइय संठिए पण्णत्त, -सूरिय. पा. १०, पाहु.८, सु. ४१ १ (क) प०-एएसि ण भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीई णक्खत्ते कि सठिए पण्णत्ते ? उ०-गोयमा ! गोसीसावलिसंठिए पण्णत्ते, गाहाओ-(१) गोसीसावलि, (२) काहार, (३) सउणी, (४) पुप्फोवयार, (५-६) वावी य । (७) णावा, (८) आसक्खधग, (६) भग, (१०) छुरघरए, अ (११) संगडुद्धी ।। (१२) मिगसीसावली, (१३) रूहिरबिंदु, (१४) तुल्ल, (१५) बद्धमाणग, (१६) पडागा। (१७) पागारे, (१८.१६) पलिअंके, (२०) हत्थे, (२१) मुहफुल्लए चेव ।। (२२) खीलग, (२३) दामणी, (२४) एगावली य, (२५) गयदंत, (२६) विच्छ्य लगुले य । (२७) गयविक्कमे य तत्तो, (२८) सीहनिसीही य संठाणा ।।। -जम्बु. वक्ख. ७, सु. १५६ सूर्यप्रज्ञप्ति की वृत्ति में भी ये गाथाएँ उद्धृत हैं। पूर्वाभाद्रपद-उत्तराभाद्रपद के संस्थान तथा पूर्वाफाल्गुनी-उत्तराफाल्गुनी के संस्थान समान माने गये हैं किन्तु पूर्वाषाढा के संस्थान भिन्न भिन्न माने गये हैं। संस्थानों की इस विभिन्नता का हेतु इस प्रकार हैपूर्व भद्रपदायाः अर्द्धवापीसंस्थान, उत्तरभद्रपदाया अप्यर्धवापीसंस्थान, एतदर्द्धवापी द्वयमीलनेन परिपूर्णा वापी भवति, तेन सूत्रे वापीत्युक्तम् । पूर्वफल्गुन्या अर्धपल्यं कसंस्थान, उत्तरफल्गुन्या अप्यर्धपल्यंक संस्थान -अत्रापि अर्धपल्यंक द्वयमीलनेन परिपूर्ण पल्यंको भवति, तेन संख्यान्युनता न । ---जंबु. वक्ख. ६, सु. १५६ वृत्ति (ख) चंद. पा. १० सु. १ । (ग) मुहूर्त चिन्तामणी मुहूर्त चिन्तामणी सूर्य प्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति नक्षत्र नाम नक्षत्र संस्थान नक्षत्र नाम नक्षत्र संस्थान १ अश्विनी अश्वमुख अश्वस्कंध २ भरणी भग श्रवण भग ३ कृत्तिका छुरा धनिष्ठा छु ४ रोहिणी शकट शतभिषक शकट ५ मृगसिरा हरिणमुख पूर्वाभाद्रपद मृग का शिर ६ आर्द्रा उत्तराभाद्रपद रुधिर विन्दु ७ पुनर्वसु गृह रेवती तुला ८ पुष्य वाण अश्विनी वर्धमान है अश्लेषा चक्र भरणी पताका मघा भवन कृत्तिका प्राकार ११ पूर्वाफाल्गुनी मच रोहिणी अर्ध पल्यंक १२ उत्तराफाल्गुनी शय्या मृगशिरा अर्ध पल्यंक (क्रमशः) अभिजित् मणि Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० लोक-प्रज्ञप्ति णक्खत्ताणं तारग्ग सखा ६४. १. ० -ता कहं ते तारगे ? अहिए त्ति वएज्जा, ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभीई णक्खत्ते . कतितारे पण्णत्त ? उ०- तितारे पण्णते । २. प० - सवणे णक्खत कतितारे पण्णत्त े ? उ०-- तितारे पण्णत्त ।" ३. ५० घणिट्ठा णक्खत्त कतितारे पण्णत्त ? उ०- पणतारे पण्णत्त । ३. ५० -- सतभिसया णक्खत्त कतितारे पण्णस ? उ०- सत्ततारे पण्णत्त ।" (क्रमशः ) १३ हस्त १४ चित्रा १५ स्वाती १६ १७ विशाखा अनुराधा जेष्ठा १८ १६ मूल २० पूर्वापाठा २१ उत्तराषाढा २२ अभिजित् २३ श्रवण २४ धनिष्ठा २५ शतभिषक २६ पूर्वाभाद्रपद २७ उ० तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के ताराओं की संख्या हाथ मोती उत्तराभाद्रपद मूंग तोरण भात (रथ) कुण्डल सिंह- पुच्छ हाथीदाँत मंच त्रिकोण त्रिचरण वामनरूप मृदंग यतुं स मंच मानव युगल मृदंग आर्द्रा पुनर्वसु नक्षत्रों के ताराओं की संख्या ६४. (१) प्र० - नक्षत्रों के ताराओं का प्रमाण कितना है ? कहेंइन अट्ठावीस नक्षत्रों में से अभिजित नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं? उ०- तीन तारे कहे गये हैं । (२) प्र० - श्रवण नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०- तीन तारे कहे गये हैं ? (३) प्र० - धनिष्ठा नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०- पांच तारे कहे गये हैं । (४) प्र० शतभिषक् नक्षत्र के कितने तारे कहे गये है? उ०- सात तारे कहे गये हैं । पुष्प अश्लेषा मघा पूर्वाफाल्गुनी उत्तराफाल्गुनी हस्त च स्वाति विशाखा अनुराधा जेष्ठा m मूल पूर्वाषाढा उत्तराषाढा पुष्पहार अर्थ वापी अर्ध वापी २८ रेवती नौक सूर्यप्रज्ञप्ति में नक्षत्रों के संस्थान अभिजित् से प्रारम्भ होकर उत्तराषाढा पर्यन्त कहे गये हैं। मुहूर्त चिन्तामणी में नक्षत्रों के संस्थान अश्विनी से रेवती पर्यन्त कहे गये हैं । संहिता प्रदीप में नक्षत्रों के संस्थान कृतिका से भरणी पर्यन्त कहे गये हैं । १ (क) प० एएसि घते ! अट्ठावीसाए पत्ताणं अभिई पक्वते कतितारे पष्णते ? सूत्र १०६३ - १०६४ हाथ प्रफुल्ल मुख खीला दामणा - पशु बाँधने की रस्सी हार एकावली गजदंत विष्णु की पूंछ गज- विक्रम सिंह निषद्या गो श्रृंगावल कावड़ पक्षी - पिंजरा -गोयमा ! तितारे पण्णत्ते, एवं णेयव्वा जस्स जइयाओ ताराओ इमं च तं तारगा । गाहाओ - तिगतिगन्यंग- सम-युग बत्तीसन-ति तह लिगं तह लिगं च । छ-पंचग-तिग- एक्कग-पंचग-तिग-छक्कगं चेव ।। १ ।। सत्तग- दुग-दुग-पंचग-एक्के क्कग-पंच- चउतिगं चैव । एक्कारसग चउक्कं चउक्कं चैव तारगं ॥ २ ॥ 1 (ख) अभि गम्यते तितारे पाले एवं सवणो, अस्सिणी, भरणी, मगसिरे से पेट्टा (ग) अभि क्वतं तितारे पते । २ (क) ठाणं. अ. ३, उ, ३, सु. २२७ ॥ (ख) सम. ३, सु. १० । ३ (क) पंच णक्खत्ता पंचतारा पण्णत्ता, तं जहा - (१) घणिट्टा, (२) रोहिणी, (३) पुणव्वसू, (४) हत्थो, (५) विसाहा । (ख) सम. ५, सु. १३ । ४ सतभिसया णक्खत्ते एगसयतारे पण्णत्ते । -- जंबु. वक्ष. ६, सु. १५८ - ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. २२७ -सम. ३, सु. ६ - ठाणं अ, ५, उ. ३, सु. ४७३ - सम. १००, सु. २ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६४ तियक लोक ! नक्षत्रों के ताराओं की संख्या गणितानुयोग ६०१ ५. ५०-पुब्वापोटुवया णक्खत्त कतितारे पण्णते ? उ०--दुतारे पण्णत्त । ६. ५०-उत्तरापोदवया णक्खत्त कतितारे पण्णत्त ? उ०-दुतारे पण्णत्त ।। ७. ५०-रेवई णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? उ०-बत्तीसइतारे पण्णत्त ।' ८.५०-अस्सिणी णक उत्त कतितारे पण्णत्त ? ___ उ०-तितारे पण्णत्त । ६. ५०-भरणी णक्खत्त कतितारे पण्णत्तं ? उ.-तितारे पण्णत्त । १०.५०–कत्तिया णक्खते कतितारे पण्णत्त ? उ.-छ तारे पणत्त । ११.५०-रोहिणीणक्खत्त कतितारे पण्णत्त ? :उ०—पंचतारे पण्णत्ते ।। १२.५०-मिगसिरे णक्खत्ते कतितारे पण्णते ? ... -तितारे पण्णत्ते । । १३. ५०-अद्दा णक्खत्ते कतितारे पण्णत्त ? - उ०-एगतारे पण्णत्त । १४. ५०-पुणव्वसू णक्खत्ते कतितारे पण्णत्त ? उ०-पंचतारे पण्णत्ते । १५. ५०-पुस्से णक्खत्ते कतितारे पण्णत्ते ? . उ०-तितारे पण्णत्त ।१ १६. ५०-अस्सेसा णक्खत्त कतितारे पण्णत ? उ०-छ तारे पण्णत ।२ १ (क) पुव्वा भद्दवया णक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते । (ख) सम. २, सु. ७ । २ (क) उत्तराभद्दवया णक्खत्ते दुतारे पण्णत्ते । (ख) सम. २, सु. ७ । ३ रेवई णक्खत्ते बत्तीसइ तारे पण्णत्ते । ४ (क) ठाणं, अ. ३, उ. ३, सु. २२७ । ५ (क) ठाणं, अ. ३, उ. ३, सु. २२७ । ६ कत्तिया णक्खत्ते छ तारे पण्णत्ते । ७ (क) ठाणं, अ. ५, उ. ३, सु. ४७३ । ८ (क) ठाणं अ. ३, उ. ३, सु. २२७ । ६ (क) अद्दा णक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते । (ख) सम. १, सु. २३ । १० (क) ठाणं. ५, उ. ३, सु, ४७३ । ११ (क) टाणं अ. ३, उ. ३, सु. २२७ । १२ (क) ठाणं, अ. ६ सु. ५३६ । (५) प्र०-पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०-दो तारे कहे गये हैं। (६) प्र०-उत्तराभाद्रपद नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०-दो तारे कहे गये हैं। (७) प्र०-रेवति नक्षत्र के कितने तारे कहे गये है ? उ०-बत्तीस तारे कहे गये हैं। (८) प्र०-अश्विनी नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०-तीन तारे कहे गये हैं। (8) प्र०-भरणी नक्षत्र के कितने तारे कहे गये है ? उ०-तीन तारे कहे गये हैं। (१०) प्र. - कृत्तिका नक्षत्र के.कितने तारे कहे गये है ? उ०-छ तारे कहे गये हैं। (११) प्र०-रोहिणी नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०-पाँच तारे कहे गये हैं । (१२) प्र०-मृगशिर नक्षत्र के कितने तारे कहे गये है ? उ०-तीन तारे कहे गये हैं। (१३) प्र०-आर्द्रा नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? . उ०-एक तारा कहा गया है। (१४) प्र०-पुनर्वसु नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०—पाँच तारे कहे गये हैं। (१५) प्र०-पुष्य नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०-तीन तारे कहे गये हैं। (१६) प्र०-अश्लेषा नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०-छ तारे कहे गये हैं। --ठाणं अ. २, उ. ४, सु. ११० -ठाणं. अ. २, उ. ४, सु. ११० -सम. ३२. सु. ५ (ख) सम. ३, सु. ११ ॥ (ख) सम. ३, सु. १२ । -ठाणं, अ. ६, सु. ७ । (ख) सम. ५, सु.६। (ख) सम. ३, सु. ६ । -ठाणं. अ. १ सु. ५५ (ख) सम.५, सु. १०। (ख) सम. ३ सु. ७ । (ख) सम. ६, सु. ८। Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ १ ४ ५ ६ ७ ८ लोक- प्रज्ञप्ति १७. ५० - मघा णक्खत्त कतितारे पण्णत्त ? उ०- सत्ततारे पण्णत्त ।" १८. प० – पुव्वा फग्गुणी णक्खत्त कतितारे पण्णत्तो ? उ०- दुतारे पण्णत्त । १६. ५० – उत्तराफग्गुणी णक्खत्त कतितारे पण्णत्तो ? ३० - दुसरे म् २० प० - हत्थ णक्खत्त कतितारे पण्णत्तं ? उ०- पंचतारे पण्णत्त २१. ५० - चित्ता णक्खत्त कतितारे पण्णत्त ? उ०- एकतारे पण्णत्ते | तिर्यक् लोक नक्षत्रों के ताराओं की संख्या २२. १० - साती णक्खत कतितारे पण्णस ? ३० एकतारे पण " २३. प० विसाहा णक्खत्त कतितारे पण्णत्तो ? उ०- पंचतारे पण्णत्ते । 7 २४. १०- -अणुराहा णक्खत्त कतितारे पण्णत्त ? उ० – पंचतारे पण्णत्तं । २५. ५० - जेट्टा णक्खत्त कतितारे पण्णत्त ?* उ०- तितारे पण्णत्त । "g २६. प० - मूले णक्खत े कतितारे पण्णत्तो ? उ०- एगतारे पण्णत्त । १५ उ० २७. प० - पुण्यासाढा णक्खत्त े कतितारे पण्णत्त े ? - चउतारे पण्णत्त १२ २ (क) ठाणं अ. २, उ. ४, सु. ११० । ३ (क)ठाठा, २, उ. ४, सु. ११० । (क) ठाणं, ठा. ५, उ. ३, सु. ४७३ । (क) मघा णक्खत्ते सत्ततारे पण्णत्ते । (ख) सम ७, सु. ७ । (क) ठाणं. ठा. १, सु. ५५ । ( क ) ठाणं ठा. १, सु ५५ । (क) ठाण, ठा. ५, उ. ३, सु. ४७३ । (क) अणुराहा णक्खत्तं चउतारा पण्णत्ते । (ख) सम. ४, सु. ७ । २ वटा रजसा एगुणवीसानवता भट्टा रेवती से प्रारम्भ कर ज्येष्ठा पर्यन्त १६ नक्षत्रों के ८ तारे १० (क) ठाणं, ठा. ३, उ. ३, सु. २२७ । ११ मूल नक्खते एक्कारसतारे पण्णत्ते । १२ (क ) ठाणं ठा. ४, उ. ४, सु. ३८६ । (१७) प्र० - मघा नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०- सात तारे कहे गये हैं । (१८) प्र० - पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०- दो तारे कहे गये हैं । सूत्र १०६४ -- (१२) १० उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०- दो तारे कहे गये हैं । wwwwww. ( २० ) प्र० - हस्त नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०- पाँच तारे कहे गये हैं । (२१) प्र० - चित्रा नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०- एक तारा कहा गया है। (२२) २० स्वाती नक्षत्र के कितने तारे कहे गये है? उ०- एक तारा कहा गया है । (२३) प्र० बाबा नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०- पाँच तारे कहे गये हैं । (२४) प्र० - अनुराधा नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? ०पाँच तारे कहे गये हैं। (२५) प्र०- - ज्येष्ठा नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०- तीन तारे कहे गये हैं । (२६) प्र० मूल नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०- एक तारा कहा गया है । - ठाणं, अ. ७, सु. ५८६ (२७) २० पूर्वाषाढा नक्षत्र के कितने तारे गये हैं उ०- चार तारे कहे गये हैं । (ख) सम. २, सु. ४ । (ख) सम, २, सु. ५। (ख) सम. ५, सु. ११ । (ख) सम. १, सु. २४ । ख सम. १, सु. २५ । (ख) सम. ५, सु. १२ । - ठाणं ४, उ. ४, सु. ३८६ ताराओ मे पता होते हैं ।) (ख) सम. ३, सु. ८ । (ख) सम. ४, सु. ८ । -सम. ६८, सु. । - सम. ११, सु. ५ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६४ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के ताराओं की संख्या गणितानुयोग ६.३ १ २८. १०-उत्तरासाढा णक्खत्त कतितारे पण्णत्त ? (२८) प्र०-उत्तराषाढा नक्षत्र के कितने तारे कहे गये हैं ? उ०-चउतारे पण्णते। उ०-चार तारे कहे गये हैं। - सूरिय. पा. १०, पाहु. ६, सु. ४२ (क) ठाणं, ठा. ४, उ. ४, सु. ३८६ । (ख) सम. ४ सु.६ । (ग) सम० की गणना से ६८, जम्बु० की गणना से ६७ नक्षत्र होते हैं।) (घ) चन्द० पा० सु० ४२ ।। आगमों में और ज्योतिष ग्रन्थों में नक्षत्रों के ताराओं की संख्या समान होनी चाहिए क्योंकि नक्षत्रों के ताराओं की संख्य । आकाश में तो सुनिश्चित एवं एक रूप है फिर यह अन्तर क्यों है । सुर्य प्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में मूल नक्षत्र का एक तारा कहा गया है और समवायांग के इग्यारहवें समवाय में मुल नक्षत्र के इग्यारह तारे कहे गये हैं। सूर्य प्रज्ञप्ति और जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति में नक्षत्रों के ताराओं की गणना अभिजित् नक्षत्र से प्रारम्भ होकर उत्तराषाढा नक्षत्र पर्यन्त की कही गई है। किन्तु सूर्य प्रज्ञप्ति में अनुराधा नक्षत्र के पाँच तारे कहे गये हैं और स्थानांग, समवायांग, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में अनुराधा नक्षत्र के चार तारे गये हैं। यदि यह अन्तर लिपिक युग के लेखकों की असावधानी से हो गया हो तो आधुनिक आकाश दर्शक यन्त्र द्वारा निर्णय करके संशोधन करना आवश्यक है। आगमों में सदा नक्षत्रों के ताराओं की वास्तविक संख्या एवं एकवाक्यता होना ही उनकी प्रामाणिकता का मूल है। नक्षत्रों के तारे क्रम० स्थानांग स्थान विवरण २२७ अभिजित् के ३ तारे श्रवण के तीन तारे ४७३ धनिष्ठा के ३ तारे सूत्र पूर्वाभाद्र पद के २ तारे उत्तराभाद पद के दो तारे m m x.rror murrrorxmro GG WWW.GM WEGWGG ० ० ० ०WG ५३६ ४७३ अश्विनी के ३ तारे भरणी के ३ तारे कृत्तिका के ६ तारे रोहिणी के ५ तारे मृगशिरा के ३ तारे आर्द्रा का १ तारा पुनर्वसु के ५ तारे पुष्य के ३ तारे अश्लेषा के ६ तारे मघा के ७ तारे पूर्वाफाल्गुनी के २ तारे उत्तराफाल्गुनी के २ तारे हस्त के ५ तारे चित्रा का ? तारा स्वाती का १ तारा (क्रमशः) ५३६ ५८६ ११० ४७३ xxx ५५ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के तारों की संख्या सूत्र १०६४ - (क्रमश:) ४७३ ३८६ विशाखा के ५ तारे अनुराधा के ४ तारे ज्येष्ठा के ३ तारे २२७ ३८६ पूर्वाषाढा के ४ तारे उत्तराषाढा के ४ तारे तारक ग्रह ६ हैं। ४८१ नक्षत्रों के तारे समवायांग म " 0 0 0 0 0 0 0 mm 0 mm x mm worm you विवरण अभिजित् के ३ तारे श्रवण के ३ तारे धनिष्ठा के ५ तारे शतभिषक् के १०० तारे पूर्वाभाद्रपद के २ तारे उत्तराभाद्रपद के २ तारे रेवती के ३२ तारे अश्विनी के ३ तारे भरणी के ३ तार कृत्तिका के ६ तारे रोहिणी के ५ तारे मृगशिरा के ३ तारे आर्द्रा का १ तारा पुनर्वसु के ५ तारे पुष्य के तीन तारे अश्लेषा के ६ तारे मघा के ७ तारे पूर्वाफाल्गुनी के २ तारे उत्तराफाल्गुनी के २ तारे हस्त के ५ तारे चित्रा का १ तारा स्वाति का १ तारा विशाखा के ५ तारे अनुराधा के ४ तारे जेष्ठा के ६ तारे मूल के ११ तारे पूर्वाषाढा के ४ तारे उत्तराषाढा के ४ तारे रेवती से ज्येष्ठा तक ६८ तारे सर्वोपरि तारा की ऊँचाई सर्वोपरि तारा की ऊँचाई " . n - Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६५ तिर्यक्लोक : नक्षत्रों के दिशा द्वार गणितानुयोग ६०५ in m w णक्खत्ताणं दाराई नक्षत्रों के दिशा द्वार६५. ५०-ता कहं ते जोइसस्स दारा? आहिए त्ति वएज्जा, ६५. प्र०-ज्योतिष्कों के (दिशा) द्वार किस प्रकार कहे गये हैं ? कहें। उ०-तत्थ खलु इमाओ पंच परिवत्तीओ पण्णत्ताओ, उ०-इस सम्बन्ध में ये पाँच प्रतिपत्तियाँ कही गई हैं तं जहा यथातत्थेगे एवमाहंसु उनमें से एक मान्यता वाले इस प्रकार कहते हैं१. ता कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, (१) कृत्तिका आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले कहे एगे एवमाहंसु, गये हैं। (क्रमशः) (घ) मुहूर्त चिन्तामणी मुहूर्त चिन्तामणी सूर्यप्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति नक्षत्र नाम नक्षत्र-तारा संख्या नक्षत्र नाम नक्षत्र-तारा संख्या . १ अश्विनी ३ तारा अभिजित् ३ तारा २ भरणी श्रवण ३ कृत्तिका धनिष्ठा ४ रोहिणी शतभिषक ५ मृगशिरा पूर्वाभाद्रपद ६ आर्द्रा उत्तराभाद्रपद ७ पुनर्वसु रेवती ८ पुष्य अश्विनी ९ अश्लेषा १० मघा कृत्तिका ११ पूर्वाफाल्गुनी रोहिणी १२ उत्तराफाल्गुनी मृगशिरा आर्द्रा १४ चित्रा पुनर्वसु १५ स्वाती पुष्य १६ विशाखा अश्लेषा १७ अनुराधा मघा १८ जेष्ठा पूर्वाफाल्गुनी १६ मूल उत्तराफाल्गुनी २० पूर्वाषाढा हस्त २१ उत्तराषाढा २२ अभिजित् स्वाती २३ श्रवण विशाखा २४ धनिष्ठा अनुराधा २५ शतभिषक् जेष्ठा २६ पूर्वाभाद्रपद मूल २७ उत्तराभाद्रपद पूर्वाषाढा २८ रेवती उत्तराषाढा x me on or mr w भरणी xm »m xxxxxror»»rrrr mm» .rror a rnx on on or of ar an x x mr ar xmorrn चित्रा Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के द्वार सूत्र १०६५ एगे पुण एवमाहंसु एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं२. ता महादीया सत्त णक्खत्ता पुस्वदारिया पण्णत्ता, (२) मघा आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले कहे एगे एवमाहंसु, गये हैं। एगे पुण एवमाहंसु एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं३. ता धणिद्वादीया सत्त णक्खत्ता पुष्वदारिया पण्णत्ता, (३) धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले कहे एगे एवमाहसु, गये हैं। एगे पुण एवमाहंसु एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते हैं४. ता अस्सिणीयादीया सत्त णक्खत्ता पुन्वदारिया (४) अश्विनी आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले कहे पण्णत्ता, एगे एवमासु, गये हैं। एगे पुण एवमाहंसु एक मान्यता वाले फिर इस प्रकार कहते है५. ता भरणीयादीया सत्त णक्खत्ता पुटवदारिया (५) भरणी आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले कहे पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु, गये हैं। १. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं(क) ता कत्तिवादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया (१) कृत्तिका आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले पण्णता, ते एवमाहसु. तं जहा-१. कत्तिया, कहे गये हैं वे इस प्रकार कहते हैं, यथा-(१) कृत्तिका, २. रोहिणी, ३. संठाणा, ४. अद्दा, ५. पुणव्वसु, (२) रोहिणी, (३) मृगशिर, (४) आर्द्रा, (५) पुनर्वसु, (६) पुष्य, ६. पुस्सो, ७. असिलेसा। (७) अश्लेषा। (ख) महादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, (२) मघादि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा के द्वार वाले कहे तं जहा-१. महा, २. पुवाफग्गुणी, ३. उत्तरा- गये हैं, यथा-(१) मघा, (२) पूर्वाफाल्गुनी, (३) उत्तराफाल्गुनी, फग्गुणी, ४. हत्थो, ५. चित्ता, ६. साई, ७. बिसाहा, (४) हस्त, (५) चित्रा, (६) स्वाती, (७) विशाखा । (ग) अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया (३) अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा के द्वार पण्णत्ता तं जहा–१. अणुराधा, ३. जेट्ठा, ३. मूलो, वाले कहे गये हैं, यथा-(१) अनुराधा, (२) जय्येठा, (३) मूल, ४. पुब्वासाढा, ५. उत्तरासाढा, ६. अभीह, ७. सवणो, (४) पूर्वाषाढा, (५) उत्तराषाढा, (६) अभिजित्, (७) श्रवण, (घ) धणिद्वारीया सत्त मक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, (४) धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा के द्वार वाले तं जहा--१. धणिट्ठा, २. सतभिसया, ३. पुव्वापोट्ठ- कहे गये हैं, यथा-(१) धनिष्ठा, (२) शतभिषक्, (३) पूर्वावया, ४. उत्तरापोट्टवया, ५. रेवई, ६. अस्सिणी, भाद्रपद, (४) उत्तराभाद्रपद, (५) रेवती, (६) अश्विनी, ७. भरणी, (७) भरणी। २. तत्थ णं जेते एवमाहंसु उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं(क) ता महादीया सत्त गक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता (१) मघा आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले हैं, १ (क) कत्तियाईया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, (ख) महाईया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता, (ग) अणुराहाईया सत्त णक्खत्ता अवरदारिया पण्णत्ता, (घ) धणिट्ठाइया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, -सम० स०७ सु०८, ६, १०, ११ ये समवायांग के सूत्र जो यहाँ दिए गये हैं वे अन्य मान्यता के सूचक हैं किन्तु इन सूत्रों में ऐसा कोई वाक्य नहीं है जिससे सामान्य पाठक इन सूत्रों को अन्य मान्यता के जान सकें, यद्यपि जैनागमों में नक्षत्र मण्डल का प्रथम नक्षत्र अभिजित् है और अन्तिम नक्षत्र उत्तराषाढा है, पर इसके अतिरिक्त भिन्न भिन्न कालों में परिवर्तित नक्षत्र मण्डलों के भिन्न भिन्न क्रमों का परिज्ञान आगमों के स्वाध्याय के बिना सम्भव कैसे ? Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६५ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के दिशा द्वार गणितानुयोग ६०७ w ww ते एवमाहंसु, तं जहा–१. महा, २. पुव्वाफग्गुणी, वे इस प्रकार कहते हैं यथा- (१) मघा, (२) पूर्वाफाल्गुनी, ३. उत्तराफरगुणी, ४. हत्थो, ५. चित्ता, ६. साती, (३) उत्तराफाल्गुनी, (४) हस्त, (५) चित्रा, (६) स्वाती, ७. विसाहा, (७) विशाखा। (ख) अणुराधादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया (२) अनुराधा आदि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा के द्वार वाले पण्णता; तं जहा--१. अणुराधा, २. जेट्टा, २. मूले, हैं, यथा-(१) अनुराधा, (२) ज्येष्ठा, (३) मूल, (४) पूर्वाषाडा, ४. पुवासाढा, ५. उत्तरासाढा, ६. अभिई, ७. सवणे, (५) उत्तराषाढा, (६) अभिजित् (७) श्रवण । (ग) अणिट्ठादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया (३) धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा के द्वार वाले पण्णत्ता; जं जहा-१. धणिट्ठा, २. सतभिसया, हैं, यथा-(१) धनिष्ठा, (२) शतभिषक्. (३) पूर्वाभाद्रपद्र, ३. पुवापोट्टवया, ४. उत्तरापोटुवया, ५. रेवई, (४) उत्तराभाद्रपद, (५) रेवती, (६) अश्विनी, (७) भरणी । ६. अस्सिणी, ७. भरणी, (घ) कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णता (४) कृत्तिका आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा के द्वार वाले तं जहा-१. कत्तिया, २. रोहिणी, ३. संठाणा, कहे गये हैं, यथा-(१) कृत्तिका, (२) रोहिणी, (३) मृगशिर, ४. अद्दा, ५. पुणव्वसु, ६. पुस्सो, ७. अस्सेसा, (४) आर्द्रा, (५) पुनर्वसु, (६) पुष्य, (७) अश्लेषा । ३. तत्थ ण जे ते एवमाहंसु उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं(क) ता धणिट्ठादीया सत्त णक्खत्ता पुत्वदारिया (१) धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले कहे पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहा ___ गये हैं; वे इस प्रकार कहते हैं, यथा-(१) धनिष्ठा, (२) शत१. घणिट्ठा, २. सतभिसया, ३. पुव्वापोटुवया, भिषक्, (३) पूर्वाभाद्रपद, (४) उत्तराभाद्रपद, (५) रेवती, ४. उत्तरापोटुवया, ५. रेवई, ६. अस्सिणी, ७. भरणी, (६) अश्विनी, (७) भरणी। (ख) कत्तियादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया (२) कृत्तिका आदि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा के द्वार वाले पण्णता; तं जहा-१. कत्तिया, २. रोहिणी, ३. सठाणा कहे गये हैं; यथा-(१) कृत्तिका, (२) रोहिणी, (३) मृगशिर, ४. अद्दा, ५. पुणव्वसु, ६. पुस्सो, ७. अस्सेसा, (४) आर्द्रा, (५) पुनर्वसु, (६) पुष्य, (७) अश्लेषा। (ग) महादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णता (३) मघा आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा के द्वार वाले तं जहा–१. महा, २. पुव्वाफग्गुणी, ३. उत्तरा- कहे गये हैं; यथा-(१) मघा, (२) पूर्वाफाल्गुनी, (३) उत्तराफग्गुणी, ४. हत्थो, ५. चित्ता, ६. साई, ७. विसाहा, फाल्गुनी, (४) हस्त, (५) चित्रा, (६) स्वाति, (७) विशाखा । (घ) अणुराधादीया सत्त गक्खत्ता उत्तरदारिया (४) अनुराधा आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा के द्वार वाले पण्णत्ता; तं जहा–१. अणुराहा, २. जेट्ठा, ३. मूलो, कहे गये हैं; यथा-(१) अनुराधा, (२) ज्येष्ठा, (३) मूल, ४. पुब्वासाढा, ५. उत्तरासाढा, ६. अभीयी, (४) पूर्वाषाढा, (५) उत्तराषाढा, (६) अभिजित्. (७) श्रवण । ७. सवणो, ४. तत्थ णं जे ते एवमाहंमु उनमें जो इस प्रकार कहते हैं(क) ता अस्सिणी आदीया सत्त णक्खत्ता पुत्रदारिया (१) अश्विनी आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले पण्णता, ते एवमाहंमु, तं जहा-१. अस्सिणी, कहे गये हैं, यथा-(१) अश्विनी, (२) भरणी, (३) कृत्तिका, २. भरणी, ३. कत्तिया, ४. रोहिणी, ५. संठाणा, (४) रोहिणी, (५) मृगशिर, (६) आर्द्रा, (७) पुनर्वसु । ६. अद्दा, ७. पुणव्वसु, (ख) पुस्सादीया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पग्णत्ता (२) पुष्यादि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा के द्वार वाले कहे तं जहा–१. पुस्सा, २. अस्सेसा, ३. महा, ४. पुव्वा- गये हैं, यथा-(१) पुष्य, (२) अश्लेषा. (३) मघा, (४) पूर्वाफग्गुणी, ६. हत्थो, ७. चित्ता, फाल्गुनी, (५) उत्तराफाल्गुनी, (६) हस्त, (७) चित्रा। (ग) साइयाइया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता (३) स्वाति आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा के द्वार वाले तं जहा-१. साती, २. बिसाहा, ३. अणुराहा, कहे गये हैं, यथा-(१) स्वाती, (२) विशाखा, (३) अनुराधा, ४. जेट्टा, ५. मूलो, ६. पुव्वासाढा, ७. उत्तरासाढा, (४) ज्येष्ठा, (५) मूल, (६) पूर्वाषाढा, (७) उत्तराषाढा । फाल्गुनी। Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के दिशा द्वार (घ) अभिइयादिया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पणता तं जहा - १. अभिई, २. सवगो, २. धणि, ४. सतभिसया १. पृथ्वभक्या . उत्तरभयया ७. रेवई, ५. तत्थ णं जे ते एवमाहंसु (क) ता भरणियादीया सत्त णक्खत्ता पुव्ववारिया पण्णत्ता, ते एवमाहंसु, तं जहा - १. भरणी, २. कतिया, ३. रोहिणी, ४. संठाणा, ५. अद्दा, ६. पुणव्वसु, ८. पुरुसो, , (ख) अस्सादीया सत्त पक्वता दाहिणदारिया पातं जहा - १. अस्सा, २. महा ३. पुण्या फग्गुणी, ४. उत्तराफल्गुण ५. यो ६. विसा, ७. साई, (ग) विसाहादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता; तं जहा - १. बिसाहा, २. अणुराहा, ३. जेट्ठा, ४. मूलो, ५. पुण्यासादा, ६. उत्तरासादा, ७. अभिई, (घ) सवणादीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता, तं जहा - १. सवणो, २. धणिट्ठा, ३. सतभिसया, ४. पुव्वापोट्ठवया, ५. उत्तरापोट्ठवया, ६. रेवई, ४. अस्सिणी, वयं पुण एवं वयामो (क) ता अभीईयादीया सत्त णक्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता; तं जहा - १. अभिई, २. सवणो, ३. धणिट्ठा, ४. सतभिसया, २. पुवापोटुवया, ६. उत्तरायोवया, ७. रेवई । (ख) अस्तिषोआदीया सत्स भरणा दाहिणदारिया पण्णत्ता; तं जहा - १ अस्सिणी, २. भरणी, २. कणि ४. रोहिणी, ५. संठाणा, ६. अद्दा, , ७. (ग) पुस्सादीया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता तं जहा १ पुसो, २. अस्सा, ३. महा ४. पुण्या फगुणी, ३. उत्तरागुणी, ६. हत्थो, ७. पिता। (घ) साइआदीया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता तं जहा १. साई २. विवाहा, २. अनुराह ४. जेट्ठा, ५. मूले, ६. पुव्वासाढा, ७. उत्तरासाढा । - सूरिय. पा. १०, पाहु. २१, सु० ५ε सूत्र १०६५ (४) अभिजित् आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा के द्वार वाले कहे गये हैं, यथा-(१) अभिजित्, (२) श्रवण, (२) धनिष्ठा, (४) शतभिषक् (५) पूर्वाभाद्रपद, (६) उत्तराभाद्रपद, (७) रेवती । उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं (१) भरणी आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले कहे गये हैं, वे इस प्रकार कहते हैं, यथा - ( १ ) भरणी, (२) कृत्तिका, (३) रोहिणी, (४) मृगशिर, (५) आर्द्रा, (६) पुनर्वसु, (७) पुष्य । (२) अश्लेषा आदि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा के द्वार वाले कहे गये हैं, दवा - (१) अश्लेषा, (२) मघा, (३) पूर्वाफाल्गुनी, (४) उत्तराफाल्गुनी, (५) हस्त, (६) चित्रा, (७) स्वाति । (३) विशाखा आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा के द्वार वाले कहे गये हैं, यथा - ( १ ) विशाखा, (२) अनुराधा, (३) ज्येष्ठा, (४) मूल, (५) पूर्वाषाढा (६) उत्तराषाढा (७) अभिि (४) श्रवण आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा के द्वार वाले कहे गये हैं, यथा – (१) श्रवण, (२) धनिष्ठा, (३) शतभिषक्, (४) पूर्वाभाद्रपद, (६) रेवती, (७) अश्विनी । - हम फिर इस प्रकार कहते हैं - (१) अभिजित् आदि सात नक्षत्र पूर्व दिशा के द्वार वाले कहे गये हैं, यथा - ( १ ) अभिजित्, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा, (४) शतभियक्, (५) पूर्वाभाद्रपद, (६) उत्तराभाद्रपद, (७) रेवती । (२) अश्विनी आदि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा के द्वार वाले कहे गये हैं, यथा - ( १ ) अश्विनी, (२) भरणी, (३) कृत्तिका, (४) रोहिणी, (५) मृगशिर (६) आर्द्रा, (७) पुनर्वसु । (३) पुष्य आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा के द्वार वाले कहे गये हैं, यथा- (१) पुष्य, (२) अश्लेषा (२) मधा (४) पूर्वाफाल्गुनी (५) उत्तराफाल्गुनी, (६) हस्त, (७) चित्रा 1 (४) स्वाति आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा के द्वार वाले कहे गये है, यथा- (१) स्वाति, (२) विशाखा (३) अनुराधा (४) ज्येष्ठा, (५) मूल, (६) पूर्वाषाढा, (७) उत्तराषाढा । १ (क) ठाणं अ० ७ सु० ५८६ में नक्षत्रों के जो दिशा द्वार कहे गये हैं वे स्वमान्यता के सूचक हैं । (ख) चंद० पा० १० सु० ५६ । Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६६ उ० तिर्यक्लोक : नक्षत्रों के कुल, उपकुल और कुलोपकुल णक्खत्ताणं कुलोवकुलाइ नक्षत्रों के कुल उपकुल और कुलोपकुल १६. १० – ता कहं ते कुला ('उवकुला, कुलोवकुला') ? आहिए ति ९६. प्र० - ( नक्षत्रों के) कुल ( उपकुल और कुलोपकुल) किस वएज्जा प्रकार हैं ? कहें । - तत्थ खलु इमे बारस कुला, बारस उवकुला, चत्तारि कुलोवकुला पण्णत्ता । उ० 2 बारसकुला पण्णत्ता, तं जहा - १. धणिट्ठा कुलं, २. उत्तराय, २. असिमीकुल ४. कलिया कुलं ५. मिसिरकुलं ६. पुरसाकुल ७. महाकुल ८. उत्तराणी. चित्ताकुलं १०. दिसाहा कुलं, ११. मूलाकुलं, १२. उत्तरासाढाकुलं । बारस उवकुला पण्णत्ता; तं जहा - १. सवणो उवकुलं, २. पुण्यापोवा उबकुल ३. रेवई उपकुल ४. भरणी उबकुलं ५. रोहिणी उबकुल ६. पुणत्वसु उबकुलं ७. अस्सेसा उबकुलं, ८ पुव्वाफरगुणी उबकुलं, ६. हत्थो उवकुलं, उवकुलं, यो कुल १०. साली कुल ११. जेट्टा उवकुल १२ साउ 1 चत्तारि कुलोवकुला पण्णत्ता; तं जहा - १. अभियो कुलोकुल २ सप्तभिसा कुलोयकुलं, २. अद्दा कुलोवकुलं, ४. अणुराहा कुलोवकुला । " वि. पा. १० पाहू. ५. सु. १७ - गणियोग उ०- ( अठाईस नक्षत्रों में) ये बारह कुल संज्ञक नक्षत्र हैं, बारह उपकुल संज्ञक नक्षत्र है, और चार कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र हैं । ६०६ बारह कुल ( संज्ञक नक्षत्र) कहे गये हैं; यथा - ( १ ) धनिष्ठाकुल (२) उत्तराभाद्रपदल, (२) अश्विनीकुल (४) कृत्तिका कुल, (५) मृगसिराकुल, (६) पुष्यकुल, (७) मधाकुल, (८) उत्तराफाल्गुनीकुल, (२) विवाकुल, (१०) विशाखाकुल, (११) मूलकुल, (१२) उत्तराषाढाकुल । बारह उपकुल ( संज्ञक नक्षत्र) हैं; यथा – (१) श्रवण उपकुल, (२) पूर्वाभाद्रपद उपकुल, (२) रेवती उपकुल (४) भरणी उपकुल (५) रोहिणी उपकुल (७) पुनर्वसु उपकुल, (७) अश्लेषा उपकुल, (८) पूर्वाफाल्गुनी उपकुल, (६) हस्त उपकुल, (१०) स्वाती उपकुल, (११) ज्येष्ठा उपकुल, (१२) पूर्वाषाढा उपकुल । चारलोपल (संज्ञक नक्षत्र है, यथा (१) अभिजित् कुलोपकुल, (२) शतभिषक् लोपकुल (३) आर्द्रा कुल (४) अनुराधा कुलोपकुल । १ सूर्य प्रज्ञप्ति में प्रस्तुत प्रश्नसूत्र खण्डित है, अतः कोष्ठक के अन्तर्गत “उवकुला, कुलोवकुला" अंकित करके उसे पूरा किया है, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्ष० ७ सूत्र १६१ में, यह प्रश्नसूत्र इस प्रकार है । प्र० - कति णं भंते ! कुला ? कति उबकुला ? कति कुलोवकुला पण्णत्ता ? -गोयमा ! बारसकुला, बारस उवकुला, चत्तारि कुलोवकुला पण्णत्ता | शेष पाठ सूर्य प्रज्ञप्ति के समान है, किन्तु जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के इस प्रश्नोत्तर सूत्र में बारह कुल नक्षत्रों के नामों के बाद कुलादि के लक्षणों की सूचक एक गाथा दी गई है जो सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका में भी उद्धृत है और यह गाथा प्रस्तुत संकलन में भी उद्धृत है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के संकलन कर्ता यदि यह गाथा प्रस्तुत सूत्र के प्रारम्भ में वा अन्त में देते तो अधिक उपयुक्त रहती । २ बाहा मासा परिणामा, होति कुला, उबकुला उहेट्टिमगा । होति पुण कुलोवकुला, अभियी सयभिसय अद्द - अणुराहा ॥ १ " कि कुलादिनां लक्षणं ? - - जम्बु० वक्ख० ७, सू० १६१ 7 उच्यते-मासानां परिणामानि परिसमापकानि भवन्ति कुलानि को अर्थ ? इह यैर्नक्षत्र : प्रायो मासानां परिसमाप्तयः उपजायन्ते मासन नामानि च तानि नक्षत्राणि कुलानीति प्रसिद्धानि" " कुलानामधस्तनानि नक्षत्राणि श्रवणादीनि उपकुलानि कुलानां समीपमुपकुलम् तत्र वर्तन्ते यानि नक्षत्राणि तान्युपचारादुपलादि" । " यानि कुलानामुपकुलानां चाधस्तानि तानि कुलोपकुलानि " ३ चंद्र० पा० १०, सु० ३७ । - जम्बू ० ० टीका० Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक बारह पूर्णिमाओं में कुलादि नक्षत्रों को योग संख्या wwwwwwwww दुवालसासु पुण्णमासिणीसु कुलाइ णक्खत्त-जोगसंखा - ७. १५० -ता साविट्टिण्णं पुष्णिमं णं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएड. कुलोकुल जोएड - ३०ता कुतं वा जोएडा जोएल वा जोएइ । १. कुल जोएमा धान जोएड २. उपकुल जोमाने सय खते जोएड ३. कुलोवकुलं जोएमाणे अभिई णक्खते जोएइ, साविहिणि पुष्णिमं कुलं वा जोएड उपकृतं वा जोएइ कुलोवकलं वा जोएइ । कुवा, कुवा, लोवलेज या कुत्ता साविट्टी पुणिमा जुत्ताति वत्तव्वं सिया । २. १०ता पोहणं मंजोए जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ ? उपकुल उ०तावा जो उपकुलं या जोएड. कुलो वा जोएइ, १. कुलं जोएमाणं उत्तरापोट्ठवया णक्खत्ते जोएइ, २. उपकुल जोमाणे पुण्यापोवा णक्खसे नोएड ३. कुलोवकुलं जोएमाणे सतभिसया णक्खत्ते जोएइ, पोहणं पृष्णिमं कुलं वा जोएड उबकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएई', कुलेण वा, उवकुलेण वा कुलोवकुलेण वा जुत्ता पुटुवया पुण्णिमा जुत्ताति वत्तम्वं सिया । ww सूत्र १०६७ बारह पूर्णिमाओं में कुलादि नक्षत्रों की योग संख्या९७ (१) प्र० - श्रावणी पूर्णिमा को क्या कुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है या कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०- कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता हैं, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । ( १ ) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो धनिष्ठा नक्षत्र योग करता है । (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो श्रवण नक्षत्र योग करता है । (३) कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो अभिजित् नक्षत्र योग करता है । इस प्रकार श्रावणी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपलसंग करता है और कुलोपनक्ष योग करता है । कुलसंज्ञक, उपकुलसंज्ञक और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का श्रावणी पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है । (२) प्र० - भाद्रपदी पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुल नक्षत्र योग करता है ? उ०- कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र भी योग करता है । (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो उत्तराभाद्रपद नक्षत्र योग करता है । (२) उपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करे तो पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र योग करता है । (३) कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करे तो शतभिषक् नक्षत्र योग करता है । इस प्रकार भाद्रपदी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। उपकुलगंज्ञक नक्षत्र योग करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । 1 उपकूल और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का भाद्रपदी पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। १ शेषमपि सूत्र निगमनीयं एवं नेयव्त्राओ, जाव - आसाढी- पुष्णिमं जुत्तेति बत्तव्वं सिया णवरं पौषी पौर्णमासी, ज्येष्ठामूली च पौर्णमासी कुलोपकुलमपि युनक्ति, अवशेषामू च पौर्णमासीषु कुलोपकुलनास्तीति परिभाव्य वक्तव्याः । - सूर्य. टीका Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६७ तिर्यक् लोक : बारह पूर्णिमाओं में कुलादि नक्षत्रों का योग गणितानुयोग ६११ ३. ५०-ता आसोइण्णं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ ? कुलोवकुलं जोएइ ? उ०–ता कुल वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नोलभइ कुलोवकुलं । १. कुलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे रेवई णक्खत्ते जोएइ, आसोइण्णं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कलेण वा, उवकलेण वा जुत्ता आसोइण्णं पुण्णिमं जुत्ते ति वत्तव्वं सिया, ४. ५०–ता कत्तिइण्णं पुण्णिमं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ०-ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लाइ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमाणे कत्तिआ णक्खत्ते जोएइ, (३) प्र०-आसोजी पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०-कलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है उपकलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है। (१) कुल संज्ञक नक्षत्र योग करे तो अश्विनी नक्षत्र योग करता है। (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो रेवती नक्षत्र योग करता है। इस प्रकार आसोजी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, और उपकुलसंज्ञक योग करता है । कलसंज्ञक और उपकल संज्ञक नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का आसोजी पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। (४) प्र० - कार्तिकी पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है । (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो कृत्तिका नक्षत्र योग करता है। (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो भरणी नक्षत्र योग करता है। इस प्रकार कार्तिकी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। कुलसंज्ञक और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का कार्तिकी पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। (५) प्र०-मार्गसिरी पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता हैं, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ.-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है। (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो मृगशिर नक्षत्र योग करता है। (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो रोहिणी नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे भरणी णक्खत्ते जोएइ, कत्तिइण्णं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा जोएइ, कुलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता कत्तिइण्णं पुण्णिमं जुत्ते त्ति वत्तव्वं सिया, ५. ५०--ता मागसिरों पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ? उ०-ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ कुलोवकुलं, १. कुल जोएमाणे मग्गसिरं णक्खत्ते जोएइ, २. उबकुलं जोएमाणे, रोहिणी णक्खत्ते जोएइ, Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : बारह पूर्णिमाओं में कुलादि नक्षत्रों की योग संख्या सूत्र १०६७ मागसिरों पुण्णिमं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा इस प्रकार मार्गसिरी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग जोएइ, ___ करता है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। कुलेण वा, उवकुलेण जुत्ता मागसिरी पुण्णिमं कुलसंज्ञक और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया। का मार्ग सिरी पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती हैं। ६. ५०-ता पोसिण्णं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं (६) प्र०-पौषी पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षा योग जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ? करता है ? उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसज्ञक नक्षत्र योग करता है? उ०-ता कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, कुलोबकुलं उ०-कुलसंज्ञक योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग वा जोएइ, करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। १. कुल जोएमाणे पुस्से णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो पुष्य नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे पुणव्वसू णक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो पुनर्वसु नक्षत्र योग करता है। ३. कुलोवकुलं जोएमाणे अद्दा णक्खत्ते जोएइ, (३) कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो आर्द्रा नक्षत्र योग करता है। पोसिण्णं पुण्णिमं कुल वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, इस प्रकार पौषी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षा योग करता कुलोवकुलं वा जोएइ, है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र भी योग करता है। कुलेण वा, उवकुलेण वा, कुलोवकुलेण वा जुत्ता कुलसंज्ञक नक्षत्र, उपकुलसंज्ञक नक्षा और कुलोपकूलसंज्ञक पोसिणं पुण्णिमं जुत्तेत्ति बत्तन्वं सिया, नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का पोषी पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। ७. ५०–ता माहिणं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं (७) प्र०-माघी पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षा योग जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०-ता कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, नो लभइ उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र कुलोवकुलं, योग करता है, किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है । १. कुलं जोएमाणे महा णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो मघा नक्षत्र योग करता है। २. उबकुलं जोएमाणे अस्सेसा पक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो अश्लेषा नक्षत्र योग करता है। माहिण्णं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उबकुलेण वा इस प्रकार माघी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता जोएइ, है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । कुलेण वा, उबकुलेण वा जुत्ता माहिण्णं पुण्णिम कुलसंज्ञक नक्षा और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक जुत्तेत्ति वत्तवं सिया, नक्षा का माघी पूर्णिमा का योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। ८. १०–ता फग्गुणीणं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुल (क) प्र०-फाल्गुनी पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ? करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षा योग करता है कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है? Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६७ तिर्यक् लोक : बारह पूर्णिमाओं में कुलादि नक्षत्रों का योग गणितानुयोग ६१३ उ.--ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ नो लभइ उ० -- कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुलसंज्ञक कुलोवकुलं, नक्षत्र योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है। १. कुलं जोएमाणे उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र योग करता है। फग्गुणीणं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा इस प्रकार फाल्गुनी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र और जोएइ, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । कुलेण वा उवकुलेण वा जुत्ता फग्गुणीणं पुण्णिमं कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया, नक्षत्र का फाल्गुनी पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। ९.५०–ता चित्तिण्णं पुण्णिमं कि कुलं जोएइ, उवकुलं (९) प्र०-चैत्री पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ ? करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है? उ०–ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ 3०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुलसंज्ञक कुलोवकुलं, नक्षत्र योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है। १. कुलं जोएमाणे चित्ता णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो चित्रा नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोयमाणे हत्थ गक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो हस्त नक्षत्र योग करता है। चित्तिण्णं पुण्णिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा इस प्रकार चैत्री पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुल जोएइ, संज्ञक नक्षत्र योग करता है। कुलेण वा, उबकुलेण वा जुत्ता चित्तिण्णं पुण्णिम कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया। नक्षत्र का चैत्री पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। १०.५०-ता विसाहिणं पुण्णिमं किं कुलं जोएइ, उवकुलं (१०) प्र०-बैसाखी पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ ? करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०-ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लभइ उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र कुलोवकुलं, योग करता है, किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है। १. कुलं जोएमाणे विसाहा णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो विशाखा नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे साती णक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो स्वाति नक्षत्र योग करता है। विसाहिणं पुणिमं कुलेण वा जोएइ, उवकुलेण वा इस प्रकार वैसाखी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता जोएइ, है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : बारह पूर्णिमाओं में कुलादि नक्षत्रों का योग सूत्र १०६७ कुलेण वा, उवकुलेण वा जुत्ता विसाहिण्णं पुण्णिमं कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया, नक्षत्र का वैसाखी पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। . ११.५०-ता जेट्टा-मूलिण्णं पुण्णिमं कि कुल जोएइ, उवकुलं (११) प्र०-ज्येष्ठा-मूली पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०-ता कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोबकुलं उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र वा जोएइ, योग करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । १. कुलं जोएमाणे मूले णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो मूल नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे जेट्ठा णक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो ज्येष्ठा नक्षत्र योग करता है। ३. कुलोवकुलं जोएमाणे अणुराहा णक्खत्ते जोएइ, (३) कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो अनुराधा नक्षत्र योग करता है। जेट्ठा-मूलिण्णं पुण्णिम कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा इस प्रकार ज्येष्ठामूली पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। कुलेण वा, उवकुलेण वा, कुलो वकुलेण वा जुत्ता कुलसंज्ञक नक्षत्र, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र और कुलोपकुलसंज्ञक जेट्ठा-मूलिण्णं पुण्णिमं जुत्तेत्ति वत्तब्वं सिया, नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का ज्येष्ठामूली पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है । १२.५०–ता आसाढिण्णं पुण्णिमं किं कुल जोएइ, उवकुलं (१२) प्र०--आषाढी पूर्णिमा को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ? योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है? उ०—ता कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, नो लभइ उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योम करता है और उपकुलसंज्ञक कुलोवकुलं, नक्षत्र योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है। १. कुलं जोएमाणे उत्तरासाढा णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो उत्तराषाढा नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे पुब्वासाढा णक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो पूर्वाषाढा नक्षत्र योग करता है। आसाढिण्णं पुण्णिमं कुलं वा जोएइ उवकुलं वा इस प्रकार आषाढी पूर्णिमा को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता जोएइ, है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। कुलेण वा उवकुलेण वा जुत्ता आसाढिण्णं पुण्णिमं कुलसज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक जुत्तेत्ति वत्तव्वं सिया,' नक्षत्र का आषाढी पूर्णिमा को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से -सूरिय. पा. १०, पाहु. ६, सु. ३६ युक्त कही जाती है। १ (क) जंबु० वक्ख ० ७ सु० १६१ । (ख) चंद० पा० १० सु० ३६ । Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६८ तिर्यक् लोक : बारह अमावास्याओं में कुलादि नक्षत्रों का योग गणितानुयोग ६१५ www दुवालसासु अमावासु कुलाइ-णक्खत्त-जोगसंखा- बारह अमावस्याओं में कुलादि नक्षत्रों की योग संख्या१८. १.५०-ता साविट्ठिण्णं अमावासं कि कुलं जोएइ, उवकुलं ६७. (१) प्र०-श्रावणी अमावास्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है या कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०-कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लब्भइ उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र कुलोवकुलं, योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता नहीं है । १. कुलं जोएमाणे महा णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो मघा नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे असिलेसा जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो अश्लेषा नक्षत्र योग करता है। ता साविट्ठि णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं इस प्रकार श्रावणी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग वा जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ। करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता, साविट्ठी कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक अमावासा जुताति बत्तन्वं सिया। नक्षत्र का श्रावणी अमावास्या को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। २.५०–ता पोटुवइ णं अमावास कि कुलं जोएइ, उबकुलं (२) प्र०-भाद्रपदी अमावास्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ? योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है? उ०-कुल वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लन्भइ उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र कुलोवकुल, योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है । १. कुलं जोएमाण उत्तराफग्गुणी जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र योग करता है। २. उवकुल जोएमाणे पुवाफग्गुणी जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र योग करता है। पुटुवई णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा इस प्रकार भाद्रपदी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग जोएइ, करता है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता, पोटुवया कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक अमावासा जुत्ताति बत्तव्वं सिया । नक्षत्र का भाद्रपदी अमावास्या को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। ३. ५०- ता आसोई णं अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं (३) प्र०-आसोजी अमावास्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०-कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लन्भइ उ०—कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र कुलोवकुलं, योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है। १. कुलं जोएमाणे चित्ता पक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो चित्रा नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे हत्थ णक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो हस्त नक्षत्र योग करता है। Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : बारह अमावास्याओं में कुलादि नक्षत्रों को योग संख्या सूत्र १०६८ ता आसोई गं अमावासं कुलं जोएइ, उवकुलं इस प्रकार आसोजी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग जोएइ, करता है, और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता आसोइ अमा- कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक बासा जुत्ता ति बत्तन्वं सिया, नक्षत्र का आसोजी अमावास्या को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। ४. ५०–कत्तिइं गं अमावासं कि कुलं जोएइ, उवकुलं (४) प्र०-कार्तिकी अमावास्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०-कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लन्मइ उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र कुलोवकुलं, योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है । १. कुलं जोएमाणे विसाहा णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो विशाखा नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे साई णक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो स्वाति नक्षत्र योग करता है। ता कत्तिइं णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा इस प्रकार कार्तिकी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग जोएइ, करता है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता कत्तिइ णं कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक अमावासं जुत्तात्ति वत्तन्वं सिया, नक्षत्र का कार्तिकी अमावास्या को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। ५. ५०–ता मग्गसिरि णं अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं (५) प्र०–मार्गसिरी अमावास्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ? योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०—कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं वा उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है उपकुलसंज्ञक नक्षत्र जोएइ, योग करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । १. कुलं जोएमाणे मूल णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो मूल नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे, जेट्ठा पक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो जेष्ठा नक्षत्र योग करता है। ३. कुलोवकुलं जोएमाणे अणुराहा णक्खत्ते जोएइ, (३) कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो अनुराधा नक्षत्र योग करता है। ता मग्गसिरि णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं इस प्रकार मार्गसिरी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग वा जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता कुलोवकुलेण कुलसंज्ञक नक्षत्र, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र और कुलोपकुलसंज्ञक वा जुत्ता, मग्गसिरि णं अमावासं जुत्तात्ति वत्तव्वं नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का मार्ग सिरी अमावास्या को योग सिया। होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती हैं। ६. ५०-ता पोषि णं अमावासं कि कुलं जोएइ, उवकुलं (६) प्र०-पौषी अमवास्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षा योग जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और कुलोपकुलसज्ञक नक्षत्र योग करता है? Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६८ तिर्यक्लोक : बारह अमावास्याओं में कुलादि नक्षत्रों का योग गणितानुयोग ६१७ ताह! उ.-ता कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, नो लब्भइ उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र कुलोवकुलं, योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षा योग नहीं करता है । १. कुलं जोएमाणे पुब्बासाढा णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो पूर्वाषाढा नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे उत्तरासाढा णक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो उत्तराषाढा नक्षत्र योग करता है। ता पोषि णं अमावासं कुल वा जोएइ, उबकुलं वा इस प्रकार पौषी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षा योग जोएइ, करता है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता, पोषि णं कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक अमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया, नक्षत्र का पौषी अमावास्या को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। ७. ५०–ता माहिं णं अमावासं किं कुलं जोएइ, उवकुलं (७) प्र०-माही अमावास्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षा योग जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०-कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोवकुलं उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र वा जोएइ, योग करता है, और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । १. कुलं जोएमाणे अभीयो णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो अभिजित् नक्षत्र योग करता है। २. उवकुलं जोएमाणे सवणे णक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो श्रवण नक्षत्र योग करता है। ३. कुलोवकुल जोएमाणे धणिट्ठा णक्खत्ते जोएइ, (३) कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो धनिष्ठा नक्षत्र योग करता है। ता माहिं गं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा इस प्रकार माही अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता जोएइ, कुलोवकुलं वा जोएइ, है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है। कुलेण वा जुत्ता, उबकुलेण वा जुत्ता, कुलोवकलेण कुलसंज्ञक नक्षत्र, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र और कुलोपकुलसंज्ञक वा जुत्ता माहि णं अमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया, नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का माही अमावास्या को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है । ८.५०–ता फग्गुणीणं अमावासं कि कुलं जोएइ, उवकुल (क) प्र०-फाल्गुनी अमावास्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्रा जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुल संज्ञक नक्षा योग करता है ? उ०-कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, नो लब्भइ उ०-कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है उपकुलसंज्ञक नक्षत्र कुलोबकुलं, योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है। १. कुलं जोएमाणे सतभिसया णक्खत्ते जोएइ, (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो शतभिषा नक्षत्र योग करता है। २. उवकुल जोएमाणे पुत्वापोटुवया णक्खत्ते जोएइ, (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र योग करता है। Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : बारह अमावास्याओं में कुलादि नक्षत्रों की योग संख्या ता फग्गुणी णं अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएड कुले वा त्ता, उबग या कुत्ता फग्गुणी गं अमावासा जुत्तात्ति वत्तव्वं सिया, ६. ५० -ता चेत्ति अमावासं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुलं जोएइ ? उ०- कुवा जोए उब था जो नो सम्म लवकु १. कुलंजोएमा जोड २. उवकुलं जोएमाणे अस्सिणी णक्खते जोएइ, तादेति वा कुलं वा जोए उवा जोएड कुलेण वा कुत्ता, उवकुले वा जुला, बेसि अमावासा जुत्तात्ति वत्तव्वं सिया, १०. ५० - ता साहिं अमावासं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएल जोए ? उ०- हुवा जोएड उवा जो नो ल कुलोवकुलं, १. जोमाने भर से जोड २. उबकुलं जोएमाणे कत्तिया णक्खत्ते जोएइ, ता वेसाहिं अमावासं कुलं वा जोएइ, उबकुलं वा जोएइ, कुले वा जुत्ता, उपकुले या कुत्ता बेसाह अमाबाबा सति वत्तव्यं सिया, ११. ५० - ता जेट्टामूली अमावासं कि कुलं जोएइ, उवकुलं जोएइ, कुलोवकुल जोएइ ? सूत्र १०६८ इस प्रकार फाल्गुनी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है । कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपमुखसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र को फाल्गुनी अमावस्या को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है । (e) प्र० - चैत्री अमावास्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०-- कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है किन्तु कुलोक नक्षत्र योग नहीं करता है । ( १ ) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो रेवती नक्षत्र योग करता है । (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो नक्षत्र योग करता है । इस प्रकार चैत्री अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का चैत्री अमावास्या को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है। (१०) प्र० – वैशाखी अमावास्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपयोग करता है और कुलप संज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०- कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है । (१) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो भरणी नक्षत्र योग करता है । (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो कृत्तिका नक्षत्र योग करता है । इस प्रकार वैशाखी अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करता है । कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का वैशाखी अमावास्या को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है । (११) २० पेष्टामुली अमावस्या को क्या संक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है ? Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६८ - १०६६ ६. तिर्यक्लोक नक्षत्रों का पूर्वादिभागों से योग क्षेत्र और काल प्रमाण गणितानुयोग कुलं वा जोएड उपकूलं वा जोए नो सम्भ कुलोवकुलं, १. कुलं जोएमा रोहिणी जोड. उ० wwwwww २. उवकुलं जोएमाणे मग्गसिरे णक्खते जोएइ, ता जेट्टामूली अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलेण वा जुत्ता, उवकुलेण वा जुत्ता जेट्टामूली अमावासा जुत्तत्ति वत्तव्वं सिया, १२. ५० - ता आसाढ अमावासं किं कुलं जोएइ, उबकुलं जोएड. कुलोकुल जोए ? उ०- कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोएइ, कुलोबकुलं वा जोएड. १. कुलं जोएमाणे अद्दा णक्खत्ते जोएइ, २. उवकुलं जोएमाणे पुणव्वसू णक्खत्ते जोएइ, २. कुलो जीएमागे पुरसे गर जोएड. ता आसाढ अमावासं कुलं वा जोएइ, उवकुलं वा जोए लोकुवा जोएड कुलेण वा जुत्ता, उयकुलेण वा जुत्ता, कुलोकुले वा जुत्ता, आसाढ अमावासा जुत्तात्ति वत्तव्वं सिया' यूरिय. पा. १० पाहू. ६, सु. ३६ खत्ताणं वाइभागा खेत्त कालप्यमाणं व पता एवं भागा ? आहिए सि एग्जा (क) ता एएसि णं अट्ठावीसाए गक्खत्ताणं, अस्थि णक्खत्ता पुग्वंभागा, समखेत्ता तीसइ मुहुत्ता पण्णत्ता । १ (क) जंबु० वक्ख० ७ सु० १६१ । ६१ε उ०- कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उप नक्षत्र योग करता है किन्तु कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग नहीं करता है ? ( १ ) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो रोहिणी नक्षत्र योग करता है । ( २ ) उपकुल संज्ञक नक्षत्र योग करे तो मृगसिर नक्षत्र योग करता है । इस प्रकार ज्येष्ठामूली अमावास्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है । कुलसंज्ञक नक्षत्र और उपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का ज्येष्ठामूली अमावास्या को योग होने पर वह उसी नक्षत्र से युक्त कही जाती है । (१२) प्र० - आषाढी अमावस्या को क्या कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है ? उ०- कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र भी योग करता है । ( १ ) कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो आर्द्रा नक्षत्र योग करता है । (२) उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करे तो नक्षत्र योग करता है । (३) कुलोपनक्षत्र योग करे तो पुष्य नक्षत्र योग करता है । इस प्रकार आषाढी अमावस्या को कुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र योग करता है और कुलोपकुल संज्ञक नक्षत्र भी योग करता है । कुलसंज्ञक नक्षत्र, उपकुलसंज्ञक नक्षत्र और कुलोपकुलसंज्ञक नक्षत्र में से किसी एक नक्षत्र का आषाढी अमावस्या को योग होने पर वह उसी क्षण से युक्त कही जाती है। नक्षत्रों का पूर्वादिभागों से योग क्षेत्र और काल प्रमाण६६. प्र०- ( नक्षत्रों का ) पूर्वादिभागों से योग ( क्षेत्र और काल प्रमाण) कैसा है ? कहें । उ०- (क) इन] अट्ठाईस नक्षत्रों में कुछ नक्षत्र हैं जो दिन के प्रारम्भ में (चन्द्र के साथ) समक्षेत्र में तीस मुहूर्त पर्यन्त योग करने वाले कहे गये हैं । (ख) चंद० पा० १० सु० ३६ । Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का पूर्वादिभागों से योग क्षेत्र और काल प्रमाण सूत्र १०६६ अस्थि णक्खत्ता पच्छंभागा, समखेत्ता तीसह मुहत्ता (ख) कुछ नक्षत्र हैं जो दिन के अन्तिम भाग में (चन्द्र के पण्णत्ता। साथ) समक्षेत्र में तीस मुहूर्त पर्यन्त योग करने वाले कहे गये हैं। अस्थि णक्खत्ता णतंभागा अवड्ढ खेत्ता पण्णरस- (ग) कुछ नक्षत्र हैं जो चन्द्र के साथ रात्रि के प्रारम्भ में मुहुत्ता पण्णत्ता। (चन्द्र के साथ) आधे क्षेत्र में पन्द्रह मुहूर्त पर्यन्त योग करने वाले कहे गये हैं। अस्थि णक्खत्ता उभयं भागा दिवड्ढ खेत्ता, (घ) कुछ नक्षत्र हैं जो चन्द्र के साथ प्रथम दिन के प्रारम्भ पणयालीसं महत्ता पण्णत्ता। से दूसरे दिन के सायंकाल तक डेढ़ क्षेत्र में पैतालीस मुहूर्त पर्यन्त योग करने वाले कहे गये हैं । ५०-(क) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ता णं, प्र०—(क) इन अट्ठाईस नक्षत्रों मेंकयरे गक्खत्ता पुग्वं भागा, सम खेत्ता, तीसइ- कितने नक्षत्र हैं जो दिन के प्रारम्भ में चन्द्र के साथ सममुहुत्ता पण्णता? क्षेत्र में तीस मुहूर्त पर्यन्त योग करते हैं ? ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (ख) इन अट्ठाईस नक्षत्रों मेंकयरे णक्खत्ता पच्छंभागा समखेत्ता तीसइ-मुहुत्ता कितने नक्षत्र हैं जो दिन के अन्तिम भाग में (चन्द्र के साथ) पण्णत्ता? समक्षेत्र में तीस मुहूर्त पर्यन्त योग करने वाले कहे गये हैं ? ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (ग) इन अट्ठाईस नक्षत्रों मेंकयरे णक्खत्ता, णतंभागा अवड्ढखेत्ता पण्णरस- कितने नक्षत्र हैं जो रात्रि के प्रारम्भ में (चन्द्र के साथ) मुहुत्ता पण्णता? आधे क्षेत्र में पन्द्रह मुहूर्त योग करने वाले कहे गये हैं ? ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (घ) इन अट्ठाईस नक्षत्रों मेंकयरे णक्खत्ता उभयंभागा दिवड्ढ खेत्ता, पणया- कितने नक्षत्र हैं जो प्रथम दिन के प्रारम्भ से दूसरे दिन के लोसं-मुहुत्ता पण्णता? सायंकाल तक डेढ़ क्षेत्र में पैतालीस मुहूर्त पर्यन्त योग करने वाले कहे गये हैं। उ०-(क) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, उ०—(क) इन अट्ठाईस नक्षत्रों मेंतत्थ जे ते णक्खत्ता पुन्वं भागा, समखेत्ता, तीसइ जो दिन के प्रारम्भ में (चन्द्र के साथ) समक्षेत्र में तीस मुहुत्ता पण्णत्ता, ते णं छ; तं जहा–१. पुब्वा मुहूर्त पर्यन्त योग करने वाले हैं वे छह हैं, यथा-(१) पूर्वाभाद्र. पोट्ठवया, २. कत्तिया, ३. महा, ४. पुव्वाफग्गुणी, पद, (२) कृत्तिका, (३) मघा, (४) पूर्वाफाल्गुनी, (५) मूल, ५. मूलो, ६. पुव्वासाढा। (६) पूर्वाषाढा । ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (ख) इन अट्ठाईस नक्षत्रों मेंतत्थ जे ते णक्खत्ता पच्छं भागा समक्खेत्ता तीसइ जो दिन के अन्त में (चन्द्र के साथ) समक्षेत्र में तीस मुहूर्त मुहुत्ता पण्णत्ता, ते णं दस, तं जहा-१. अभिई, पर्यन्त योग करने वाले हैं, वे दश हैं, यथा-(१) अभिजित, २. सवणो, ३. धणिट्ठा, ४. रेवई, ५. अस्सिणी, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा, (४) रेवती, (५) अश्विनी, (६) मृग६. मिगसिरं, ७. पूसो, ८. हत्थो, ६. चित्ता, शिरा, (७) पुष्य, (८) हस्त, (६) चित्रा, (१०) अनुराधा । १०. अणुराहा। ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (ग) इन अट्ठाईस नक्षत्रों मेंतत्थ जे ते णक्खत्ता णतंभागा अवड्ढखेत्ता पण्ण- जो रात्रि के प्रारम्भ में (चन्द्र के माथ) आधे क्षेत्र में पन्द्रह रस-मुहुत्ता पण्णत्ता, ते णं छ, तं जहा-१. सय- मुहूर्त पर्यन्त योग करने वाले हैं, वे छह हैं, यथा-(१) शतभिषक, भिसया, २. भरणी, ३. अद्दा, ४. अस्सेसा, (२) भरणी, (३) आर्द्रा, (४) अश्लेषा, (५) स्वाती, ५. साती, ६. जेट्टा। (६) ज्येष्ठा। Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १०६६-११०१ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का आभ्यन्तरादि संचरण गणितानुयोग ६२१ ता एएसि गं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (घ) इन अट्ठाईस नक्षत्रों मेंतत्थ जे ते णक्खत्ता उभयंभागा दिवड्ड खेत्ता, जो नक्षत्र (चन्द्र के साथ) प्रथम दिन के प्रारम्भ से दूसरे पणयालीसं मुहुत्ता पण्णत्ता, ते णं छ, तं जहा- दिन के सायंकाल तक डेढ़ क्षेत्र में पैंतालीस मुहूर्त पर्यन्त योग १. उत्तरापोटुवया, २. रोहिणी, ३. पुणब्वस, करने वाले हैं, वे छह हैं, यथा-(१) उत्तराभाद्रपद, (२) रोहिणी, ४. उत्तराफग्गुणी, ५. विसाहा, ६. उत्तरासाढा।' (३) पुनर्वसु, (४) उत्तराफाल्गुनी, (५) विशाखा, (६) उत्तरा -सूरिय. पा.१०, पाहु. ३, सु. ३५ षाढ़ा । णक्खत्ताणं अब्भतराइ चारं नक्षत्रों का आभ्यन्तरादि संचरण - ११००. १.५०-ता जंबुद्दीवे णं दीवे कयरे गक्खत्ते सव्वन्भंतरिल्लं १००. प्र०-(क) जम्बूद्वीप द्वीप में कौनसा नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर चारं चरइ ? मण्डल में गति करता है ? २. ५०–कयरे णक्खत्ते सव्वबाहिरिल्लं चार चरइ ? (ख) जम्बूद्वीप द्वीप में कौनसा नक्षत्र सर्वबाह्य मण्डल में गति करता है ? ३. ५०–कयरे णक्खत्ते सव्वुवरिल्लं चारं चरइ ? (ग) जम्बूद्वीप द्वीप में कौनसा नक्षत्र सर्वोपरि गति करता है ? ४. ५०–कयरे णक्खत्ते सब्वहेछिल्लं चारं चरइ ? (घ) जम्बूद्वीप द्वीप में कौनसा नक्षत्र सबसे नीचे गति करता है ? १. उ०-अभिई णक्खत्ते सव्वब्भंतरिल्लं चारं चरइ ।' उ०-(क) अभिजित् नक्षत्र सर्वाभ्यन्तर मण्डल में गति करता है। २. उ०-मूले णक्खत्ते सम्बबाहिरिल्ल चार चरइ ।' (ख) मूल नक्षत्र सर्व बाह्य मण्डल में गति करता है । ३. उ०—साई णक्खत्ते सव्वुवरिल्लं चारं चरइ ।। (ग) स्वाती नक्षत्र सर्वोपरि गति करता है । ४. उ०-भरणी णक्खत्ते सव्वहेटिल्ल चार चरइ ।। (घ) भरणी नक्षत्र सबसे नीचे गति करता है। -सूरिय. पा. १८, सु. ६३ णक्खत्ताण चन्देण जोगं नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग१०१. (क) प०-ता एएसि णं छप्पणाए णक्खत्ताणं-किसया १०१. प्र०.-- (क) ये छप्पन नक्षत्र क्या प्रातःकाल चन्द्र के साथ पादो चंदेण सद्धि जोगं जोएंति ? योग करते हैं ? (ख) १०–ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं-कि सया (ख) ये छप्पन नक्षत्र क्या सदा सायंकाल चन्द्र के साथ साय चंदेण सद्धि जोगं जोएंति ? योग करते हैं ? १ चंद० पा० १० सु० ३५ २ "सर्वाभ्यन्तरं सर्वेभ्यो मण्डलेभ्योऽभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तरः अनेन द्वितीयादि मण्डल चार प्युदासः" "यद्यपि सर्वाभ्यन्तर मण्डल चारीण्य भिजिदादिद्वादशनक्षत्राण्यभिहितानि, तथापीदं शेषेकादशनक्षत्रापेक्षया मेरुदिशि स्थितं सत चारं चरतीति सर्वाभ्यन्तरचारीत्युक्तम्" । ३ "सर्व बाह्य-सर्वतो नक्षत्रमण्डलिकाया बहिश्चारं चरति" । "यद्यपि पंचदशमण्डलाबहिश्चारीणि मृगशिरः प्रभृतीनि षड् नक्षत्राणि, पूर्वाषाढोत्तराषाढयोश्चतुर्णा तारकाणां मध्ये केंदच तारे उक्तानि, तथाप्येतदपर बहिश्चारि नक्षत्रापेक्षया लवणदिशि स्थितं सच्चारं चरतीति सर्वबहिश्चारीत्युक्तम ।" ४ (क) "दशोत्तरशतयोजनरूपे ज्योतिश्चक्र बाहल्ये यो नक्षत्राणां क्षेत्र विभागश्चतुर्योजन प्रमाणस्तदपेक्षयोक्त नक्षत्रयोः क्रमेणाधस्त नोपरितनभागो ज्ञयो, । इस टिप्पण में उद्धृत उद्धरण जम्बु. वक्ख. ७, सु. १६५ टीका के हैं । (ख) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के सूत्र १६५ के समान यह सूर्य प्रज्ञप्ति का सूत्र भी है। (ग) जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १६६ । (घ) चंद. पा. १८ सु.६३ । Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक लोक : चन्द्र के मार्ग में योग करने वाले नक्षत्रों की संख्या सूत्र ११०१-११०२ (ग) प०–ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं-कि सया (ग) ये छप्पन नक्षत्र क्या प्रातः और सायं दोनों ओर से दुहा पविसिय पविसिय चंदेण सद्धि जोगं जोएंति? (आकाश में) प्रवेश करके चन्द्र के साथ योग करते हैं ? (क) उ०–ता एएसिणं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं-न कि पिउ०-ये छप्पन नक्षत्र न सदा प्रातः चन्द्र के साथ योग तंज सया पादो चंदेण सद्धि जोगं जोएंति, करते हैं । (ख) उ०-न सया सायं चंदेण सद्धि जोगं जोएंति, (ख) ये छप्पन नक्षत्र न सदा सायं चन्द्र के साथ योग करते हैं। (ग) उ०-न सया दुहओ पविसित्ता पविसित्ता चंदेण सद्धि (ग) दो अभिजित् के अतिरिक्त ये छप्पन नक्षत्र प्रातः और जोगं जोएंति, णण्णत्थ दोहिं अभिईहिं। सायं दोनों ओर से (आकाश में) प्रवेश करके चन्द्र के साथ योग नहीं करते हैं। ता एएणं दो अभिई पायंचिय पायंचिय चोत्तालीसं ये दो अभिजित् (प्रत्येक) चुमालीसवीं अमावस्या को प्रातः चोत्तालीसं अमावासं जोएन्ति णो चेव णं पुण्ण- काल ही चन्द्र के साथ योग करते हैं (किन्तु) पूर्णिमा को चन्द्र मासिणि ।' के साथ योग नहीं करते हैं । - सूरिय. पा. १०, पाहु. २२, सु. ६२ चंदमग्गे णक्खत्त जोगसंखा चन्द्र के मार्ग में योग करने वाले नक्षत्रों की संख्या१०२. ५०–ता कहं ते चंदमग्गा? आहिए त्ति वएज्जा, १०२. प्र०-चन्द्र के मार्ग कितने हैं ? कहें । उ०-१. ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं उ०-(१) इन अट्ठावीस नक्षत्रों मेंअत्थि णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणे णं जोगं कुछ नक्षत्र हैं जो सदा चन्द्र के दक्षिण भाग में योग जोएंति, ___ करते हैं। २. अत्थि णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेण जोगं (२) कुछ नक्षत्र हैं जो सदा चन्द्र के उत्तर भाग में योग जोएंति, करते हैं। ३. अत्थि णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणवि उत्तरेण (३) कुछ नक्षत्र हैं जो दक्षिण भाग में भी और उत्तर भाग वि पमपि जोगं जोएंति, में भी प्रमर्द योग करते हैं। ४. अत्थि णक्खता जे णं चंदस्स दाहिणेणऽवि पमइंपि (४) कुछ नक्षत्र हैं जो दक्षिण भाग में ही प्रमर्द योग जोगं जोएंति, करते हैं। ५. अत्थि णक्खत्ता जे णं चंदस्स सया पमई जोगं (५) कुछ नक्षत्र हैं जो चन्द्र के साथ सदा प्रमर्द योग जोएंति, करते हैं। १०-१. ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं प्र०- (१) इन अट्ठावीस नक्षत्रों मेंकयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेणं जोग कितने नक्षत्र हैं जो सदा चन्द्र के दक्षिण भाग में योग जोएंति? करते हैं ? २. कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं (२) कितने नक्षत्र हैं जो सदा चन्द्र के उत्तर भाग में योग जोएंति? करते हैं? ३. कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणेणऽवि (३) कितने नक्षत्र हैं जो चन्द्र के दक्षिण में भी और उत्तर उत्तरेणऽवि पमई जोगं जोएंति? भाग में भी प्रमर्द योग करते हैं ? ४. कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणवि पमई (४) कितने नक्षत्र हैं जो चन्द्र के दक्षिण भाग में ही प्रमर्द जोगं जोएंति? योग करते हैं ? १ चंद. पा. १० सु. ६२ । Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०२ तिर्यलोक चन्द्र के मार्ग में योग करने वाले नक्षत्रों की संख्या गणितानुयोग ५. कयरे णक्खत्ता जे णं चंदस्स सया पमद्दं जोगं जोएंति ? उ०- १. ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं उ०- ( १ ) इन अट्ठावीस नक्षत्रों में जो नक्षत्र सदा चन्द्र के दक्षिण भाग में योग करते हैं वे छह हैं, यथा - ( १ ) मृगशिर, तत्थ जे णं णक्खत्ता सया चंबस्स दाहिणे णं जोगं जोति ले छतं महा १ मा २. अहा, (२) आर्द्रा, (३) पुष्प, (४) अश्लेषा, (५) हस्त, (६) मूल णं - संठाणा, ३. पुरसो ४. अस्सेसा, ५. हत्थो, ६. मूलो, । ― २. तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरे णं जोगं जोएंति, ते ण बारस, तं जहा - १. अभिई, २. सब, २. षि, ४ सभा ४. पुव धणिट्ठा, सतभिसया, मक्या, ६. उत्तरमा ७. रेवई, ८. अस्सिमी ६. भरणी, १०. गुणी, ११ उत्तरगुणी, पुव्वफग्गुणी, १२. साती, ३. तत्थ जे ते णक्खत्ता जेणं चंदस्स दाहिणेणऽवि उत्तरेणऽवि पमद्दं जोगं जोएंति, ते णं सत्त, तं - पुण्णवसू, महा १. कतिया २. रोहिणी, ३. पुण्य ४. महा, ५. चित्ता, ६. विसाहा, ७. こ अणुराहा, ४. तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं चंदस्स दाहिणेणऽवि पमद्दं जोगं जोएंति, ताओ णं दो आसाढाओ सव्वबाहिरे मण्डले जोगं जोएंसु वा जोएंति वा, जोतिबा ५. तत्थ जे ते णक्खत्ते जे णं सया चंदस्स पमद्द जोगं जोएइ, सा णं एगा जेट्ठा, सूरि. पा. १० पाहू. ११. ० ४४ - णं (५) कितने नक्षत्र हैं जो चन्द्र के साथ सदा प्रमर्द योग करते हैं ? ६२३ (२) जो नक्षत्र सदा चन्द्र के उत्तर भाग में योग करते हैं वे बारह हैं, यथा - ( १ ) अभिजित्, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा, (४) शतभिषक, (५) पूर्वाभाद्रपद, (५) उत्तराभाद्रपद, (७) रेवती, (८) अश्विनी, (२) भरणी, (१०) पूर्वाफाल्गुनी, (११) उत्तरा (१२) स्वाती । (३) जो नक्षत्र चन्द्र के दक्षिण भाग में में भी प्रमर्द योग करते हैं वे सात हैं, (२) रोहिणी, (३) पुनर्वसु, (४) (६) विशाखा, (७) अनुराधा । उ०- (१) गोयमा ! एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अट्ठावीसाए गक्खत्ताणं णं सया चंदस्स दाहिणे णं जोगं जोएंति ? णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति ? (४) जो नक्षत्र चन्द्र के दक्षिण भाग में ही प्रमर्द योग करते है वे दो पूर्वाषाढा और उत्तरासाढा हैं । जो सर्व बाह्य मण्डल में योग करते थे, योग करते हैं, और योग करेंगे । (५) जो नक्षत्र चन्द्र के साथ सदा प्रमर्द योग करता है वह एक है ज्येष्ठा । १ (क) अभीजि आइया नव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति तं जहा - अभीजि सवणो- जाव-भरणी । (ख) ठाणं अ. सु. ६६९ । २ अादेश दिपम जोग जोति से जहा (१) कलिया, (२) रोहिणी, (३) पुणव्यसू, (४) महा, (५) चित्ता, (६) विवाहा, (७) बराहा, (६) बेट्टा - सम. ८ सु. ६ ३ (५) १० (१) एएन भने कयरे णक्खत्ता (२) कयरे णक्खत्ता जे चंदस्स दाहिणेणऽवि उत्तरेणऽवि पमद्द जोगं जोएंति ? (३) कयरे णक्खत्ता जे (४) कयरे णक्खत्ता जे णं सया दाहिणेणं पमद्द जोगं जोएंति ? (५) कयरे णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स पमद्द जोगं जोएंति ? भी और उत्तर भाग यथा - ( १ ) कृत्तिका, मघा, (५) चिया, - - सम. सु. ६ तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणे णं जोगं जोएंति, ते णं छ, तं जहा - (१) संठाण, (२) अद्द, (३) पुस्सी, (४) अखिलेस, (५) हत्यो, (६) तहेव मूलोऽबाहिर बाहिरमंडलस्स छप्पे णमखत्ता । (२) तत्थ णं जेते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति, ते णं बारस, तं जहा – (१) अभिई, (२) सब, (३) धणिट्टा, (४) समभिसवा, (५) पुव्यभवया (६) उत्तरभवया, (७) रेवई (८) अरणी, (१) भरणी, (१०) पुब्वफम्गुणी, (११) उत्तरफम्बुगी, (१२) साठी । Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : बारह पूर्णिमाओं में चन्द्र के साथ योग करने वाले नक्षत्रों की संख्या सूत्र ११०३ दुवालसासु पुण्णमासिणीसु णक्खत्त-संजोग-संखा- बारह पूर्णिमाओं में चन्द्र के साथ योग करने वाले नक्षत्रों की संख्या१०३. ५०-ता कहं ते पुण्णिमासिणी ? आहिए त्ति वएज्जा, १०३. प्र०--पूर्णिमायें कितनी हैं ? कहें । उ०-तत्थ खलु इमाओ बारस पुणिमासिणीओ, बारस उ०-बारह पूर्णिमायें और बारह अमावास्यायें कही गई हैं, अमावासाओ पण्णत्ताओ, तं जहा यथा१. साविट्ठि, २. पोट्ठवई, ३. आसोया, ४. कत्तिया, (१) श्रावणी, (२) भाद्रपदी, (३) आश्विनी, (४) कार्तिकी, ५. मग्गसिरी, ६. पोसी, ७. माही, ८. फग्गुणी, (५) मार्गशिर्षी, (६) पौषी, (७) माघी, (८) फाल्गुनी, ६. चेती, १०. विसाही, ११. जेट्ठामूली, १२. आसाढी, (६) चैत्री, (१०) वैशाखी, (११) ज्येष्ठामूली, (१२) आषाढ़ी । प०-१. ता साविट्टिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति? (१) प्र०-श्रावणी पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०-ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा–१. अभिई, उ-तीन नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) अभिजित्, २. सवणो, ३. धणिट्ठा, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा । प०-२. ता पोटुवईण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? (२) प्र०-भाद्रपदी पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते है ? उ०-ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा–१. सतभिसया, उ०-तीन नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) शतभिषक्, २. पुवापोटुवया, ३. उत्तरापोट्टवया, (२) पूर्वाभाद्रपद. (३) उत्तराभाद्रपद । ५०-३. ता आसोईणं पुष्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति? (३) प्र०-आश्विनी पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०–ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-१. रेवती, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) रेवती, २. अस्सिणी य, (२) अश्विनी। ५०–४. ता कत्तिइण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? (४) प्र०-कार्तिकी पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०–ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तंज हा१. भरणी, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) भरणी, २. कत्तिया य, (२) कृत्तिका । प०-५. ता मग्गसिरी पुण्णिमासि कति णखत्ता जोएंति? (५) प्र०-मार्गशिर्षी पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०-ता दोण्णि णक्खता जोएंति, तं जहा-१. रोहिणी, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) रोहिणी, २. मग्गसिरी य, (२) मृगशिरा। प०-६. ता पोसिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति ? (६) प्र०-पोषी पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०-ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-१. अद्दा, उ०-तीन नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) आर्द्रा, २. पुणव्वसू, ३. पुस्सो, (२) पुनर्वसु, (३) पुष्य । (क्रमशः) (३) तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणओऽवि, उत्तरओऽवि पमई जोग जोएंति, ते ण सत्त, तं जहा-(१) कत्तिया, (२) रोहिणी, (३) पुण्णव्वसु, (४) मघा, (५) चित्ता, (६) विसाहा, (७) अणुराहा । (४) तत्थ णं जे ते णक्खत्ता जे णं सया चंदस्स दाहिणओ पम जोगं जोएंति. ताओ णं दुवे आसोढाओ सव्व बाहिरए मंडलेजोगं जोएंसु वा, जोएंति वा, जोएस्संति वा । (५) तत्थ ण जे से णक्खत्ता, जे णं सया चंदस्स जोग जोएइ सा णं एगा जेट्रा। -जम्बु. वक्ख. ७, सु. १५६ (ख) चन्द. पा. १० सु. ४४ । / Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११०३-११०४ तिर्यक् लोक : बारह अमावस्याओं में नक्षत्रों के योग की संख्या गणितानुयोग ६२५ ५०-७. ता माहिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता, जोएंति? (७) प्र०-- माघी पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०–ता दोणि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-१. अस्सेसा, उ.---दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) अश्लेषा, २. महा य, (२) मघा । प०-८. ता फग्गुणोणं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति? (८) प्र०-फाल्गुनी पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०–ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-१. पुन्वाफग्गुणी, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) पूर्वाफाल्गुनी, २. उत्तराफग्गुणो य, (२) उत्तराफाल्गुनी। ५०-६. ता चित्तिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएति? (6) प्र०-चैत्री पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ.-ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-१. हत्थो, उ०--दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) हस्त, २. चित्ता य, (२) चित्रा। प०-१०. ता विसाहिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति? (१०) प्र०-वैशाखी पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ.--ता दोणि णक्खत्ता जोएति, तं जहा-१. सोती, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) स्वाती, २. विसाहा य, विशाखा। प०-११. ता जेट्टा-मूलिण्णं पुण्णमासि कति णक्खता जोएंति? (११) प्र०-ज्येष्ठामूली पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०–ता तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा–१. अणुराहा, उ०-तीन नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) अनुराधा, २. जेट्ठा, ३. मूलो, (२) ज्येष्ठा, (३) मूल । प०-१२. ता आसाढिण्णं पुण्णमासि कति णक्खत्ता जोएंति? (१२) प्र०-आषाढ़ी पूर्णिमा को चन्द्र के साथ कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०-ता दोण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-१. पुव्वासाढा, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) पूर्वाषाढ़ा, २. उत्तरासाढा य, (२) उत्तराषाढ़ा। -सूरिय. पा. १०, पाहु. ५, सु. ३८ दुवालसासु अमावासासु णक्खत्त संजोग-संखा- बारह अमावस्याओं में नक्षत्रों के योग की संख्या१०४. १.५०–ता साविढि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति? (१) प्र०-श्रावणी अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०-दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-अस्सेसा य उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं यथा-अश्लेषा, मघा । । मघा य, २.५०–ता पोट्रवई णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति? (२) प्र०-भाद्रपदी अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०-दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-पुन्वाफग्गुणी, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं यथा--पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराउत्तराफग्गुणी, फाल्गुनी। ३. ५०-ता आसोई णं अमावास कति णक्खत्ता जोएंति ? (३) प्र०-आसोजी अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? १ (क) जम्बु. वक्ख. ७ सु. १६१ । (ख) चन्द. पा. १० सु. ३८ । Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : बारह अमावस्याओं में नक्षत्रों के योग की संख्या सूत्र ११०४ उ०-दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-हत्थो, चित्ता य, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं यथा-हस्त, चित्रा । ४. ५०–ता कत्तिई णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? (४) प्र०- कार्तिकी अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं? उ०-दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-साती, विसाहा उ.- दो नक्षत्र योग करते हैं यथा-स्वाती, विशाखा । ५. ५०–ता मग्गसिरी णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएति? (५) प्र०-मार्गसिरी अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०—तिण्णि णक्खत्ता जोएंति तं जहा–अणुराहा, जेट्ठा, उ०-तीन नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) अनुराधा, मूलो य, (२) जेष्ठा, (३) मूल । ६. ५०–ता पोसि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? (६) प्र०-पौषी अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०-दुण्णि णक्खत्ता जोएंति तं जहा -पुव्वासाढा, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-पूर्वाषाढ़ा, उत्तराउत्तरासाढा, षाढ़ा। ७. ५०–ता माहि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? (७) प्र०-माघी अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०—तिण्णि णक्खत्ता जोएति, तं जहा-१. अभीयी, उ०-तीन नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) अभिजित्, २. सवणो, ३. धणिट्ठा, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा । ८.५०-ता फग्गुणी णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? (८) प्र०-फाल्गुनी अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ.-दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा–१. सतभिसया, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं यथा-(१) शतभिषक्. २. पुव्वापोटुवया। (२) पूर्वाभाद्रपद । ६.५०-ता चेत्ति ण अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? (8) प्र.-चैत्री अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०-दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-रेवई, अस्सिणी उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा- (१) रेवती, (२) अश्विनी । १०.५०---ता विसाहिं णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? (१०) प्र०-वैशाखी अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०-दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-भरणी, कत्तिया उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) भरणी, २) कृत्तिका । ११.५०–ता जेट्टा-मूलि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति? (११) प्र०-ज्येष्ठामूली अमावस्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ.-दुण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा–रोहिणी, उ०-दो नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) रोहिणी, मग्गसिरं च, (२) मृगसिर । १२.५०–ता आसाढि णं अमावासं कति णक्खत्ता जोएंति ? (१२)प्र०-आषाढ़ी अमावास्या को कितने नक्षत्र योग करते हैं ? उ०—तिण्णि णक्खत्ता जोएंति, तं जहा-१. अद्दा, उ०-तीन नक्षत्र योग करते हैं, यथा-(१) आर्द्रा, २. पुणब्वसु, ३. पुस्सो,' (२) पुनर्वसु, (३) पुष्य । -सूरिय. पा, १०, पाहु. ६, मु. ३६ १ (क) चन्द. पा. १० सु. ३६ । (ख) जम्बु. वक्ख. ७ सु. १६१ । Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११०५ तिर्यक् लोक : बारह पूर्णिमाओं और अमावस्याओं में चन्द्र के साथ नक्षत्रों का योग गणितानुयोग ६२७ दुवालसपुण्णिमासु अमावासासु य चदेण-णक्खत्त बारह पूर्णिमाओं और अमावास्याओं में चन्द्र के साथ संजोगो नक्षत्रों का योग१०५. १.५०-ता कह ते सण्णिवाए ? आहिए त्ति वएज्जा, १०५. (१) प्र० -(वारह पूणिमाओं और अमावास्याओं में चन्द्र के साथ नक्षत्रों का) सन्निपात योग किस प्रकार का है ? कहें। उ०-(क) ता जया णं साविट्ठी पुण्णिमा भवइ, उ०—(क) जब श्रावणी पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ तीन तया णं माही अमावासा भवइ । नक्षत्र (१) अभिजित्, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा) योग करते हैं तब माघी अमावास्या को (तीन नक्षत्र (१) अभिजित्, (२) अश्लेषा, (३) मघा चन्द्र के साथ) योग करते हैं। (ख) ता जया णं माही पुण्णिमा भवइ, (ख) जब माघी पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र तया णं साविट्ठी अमावासा भवइ । (१) अभिजित्, (२) अश्लेषा, (३) मघा) योग करते हैं तब श्रावणी अमावास्या को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र (१) अभिजित्, (२) श्रवण, (३) धनिष्ठा) योग करते हैं । २. (क) ता जया णं पुट्ठवइ पुण्णिमा भवइ, (२) (क) जब भाद्रपदी पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ तीन तया णं फग्गुणी अमावासा भवइ । नक्षत्र (१) पूर्वाभाद्रपद, (२) उत्तराभाद्रपद, (३) शतभिषक्) योग करते हैं तब फाल्गुनी अमावास्या को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र (१) पूर्वाफाल्गुनी, (२) उत्तराफाल्गुनी, (३) शतभिषक्) योग करते हैं। (ख) ता जया णं फग्गुणी पुण्णिमा भवइ, (ख) जब फाल्गुनी पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र तया णं पुट्ठवई अमावासा भवइ । (१) पूर्वाफाल्गुनी, (२) उत्तराफाल्गुनी, (३) शतभिषक्) योग करते हैं तब भाद्रपदी अमावास्या को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र (१) पूर्वाभाद्रपद, (२) उत्तराभाद्रपद, (३) शतभिषक्) योग करते हैं। ३. (क) ता जया णं आसोई पुण्णिमा भवइ, (३) (क) जब आसोजी पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ दो तया णं चेती अमावासा भवइ । नक्षत्र (१) अश्विनी, (२) रेवती) योग करते हैं तब चैनी अमावास्या को (चन्द्र के साथ दो नक्षत्र (१) हस्त, (२) चित्रा) योग करते हैं । (ख) ता जया णं चेत्ती पुण्णिमा भवइ, (ख) जब चैत्री पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ दो नक्षत्र तया णं आसोई अमावासा भवइ । (१) हस्त, (२) चित्रा) योग करते हैं तब आसोजी अमावास्या को (चन्द्र के साथ दो नक्षत्र (१) अश्विनी, (२) रेवती) योग करते हैं। ४. (क) ता जया णं कत्तियो पुण्णिमा भवइ, (४) (क) जब कार्तिकी पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ दो नक्षत्र तया णं वेसाही अमावासा भवइ । (१) भरणी, (२) कृत्तिका) योग करते हैं तब वैशाखी अमावास्या को (चन्द्र के साथ दो नक्षत्र (१) विशाखा, (२) स्वाती) योग करते हैं। (ख) ता जया णं वेसाही पुण्णिमा भवइ, (ख) जब वैशाखी पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ दो नक्षत्र तया णं कत्तियी अमावासा भवइ । (१) विशाखा, (२) स्वाती) योग करते हैं तब कातिकी अमा वास्या को (चन्द्र के साथ दो नक्षत्र (१) भरणी, (२) कृत्तिका) योग करते हैं। Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : वर्षा हेमन्त और ग्रीष्म के दिन-रात पूर्ण करने वाले नक्षत्रों की संख्या सूत्र ११०५-११०६ (क) ता जया गं मग्गसिरी पुण्णिमा भवइ, (५) (क) जब मार्गसिरी पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ तीन तया णं जेट्टामूली अमावासा भवइ । नक्षत्र (१) अनुराधा, (२) रोहिणी, (३) मृगशिरा) योग करते हैं तब ज्येष्ठामूली अमावास्या को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र (१) अनुराधा, (२) ज्येष्ठा, (३) मूल) योग करते हैं । (ख) ता जया गं जेट्ठामूली पुण्णिमा भवइ, (ख) जब ज्येष्ठामूली पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र तया णं मग्गसिरी अमावासा भवइ । (१) अनुराधा, (२) ज्येष्ठा, (३) मूल) योग करते हैं तब मार्ग सिरी अमावास्या को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र (१) अनुराधा, (२) रोहिणी, (३) मृगशिरा) योग करते हैं । ६. (क) ता जया णं पोसी पुण्णिमा भवइ, (६) (क) जब पौषी पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र तया णं आसाढी अमावासा भवइ । (१) आा, (२) पुनर्वसु, (३) पुष्य) योग करते हैं तब आषाढी अमावास्या को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र (१) आर्द्रा, (२) पूर्वा षाढा, (३) उत्तराषाढा) योग करते हैं । (ख) ता जया गं आसाढी पुण्णिमा भवइ, ____ जब आषाढी पूर्णिमा को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र, तया णं पोसी अमावासा भवइ ।' (१) आर्द्रा, (२) पूर्वाषाढा, (३) उत्तराषाढा) योग करते हैं तब पोषी अमावास्या को (चन्द्र के साथ तीन नक्षत्र (१) आर्द्रा, -सूरिय. पा. १०, पाहु. ७, सु. ४० (२) पुनर्वसु, (३) पुष्य) योग करते हैं । वास-हेमन्त-गिम्ह-राइंदियाणं वर्षा हेमन्त और ग्रीष्म के दिन-रात पूर्ण करने वाले नक्षत्रों की संख्या१०६. ५०-(क) ता कहं ते णेता? आहिए त्ति वएज्जा, १०६. (१) प्र०-वर्षा , हेमन्त और ग्रीष्म के दिन-रात कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? कहें । (ख) १. ता वासाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता गति? वर्षा ऋतु के प्रथम मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? उ.- ता चत्तारि णक्खत्ता णेति, तं जहा–१. उत्तरा- उ०-चार नक्षत्र पूर्ण करते हैं, यथा-(१) उत्तराषाढा, साढा, २. अभिई, ३. सवणो, ४. धणिट्ठा, (२) अभिजित्, (३) श्रवण, (४) धनिष्ठा । १. उत्तरासाढा चोद्दस अहोरत्ते णेइ, (१) उत्तराषाढा चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है । २. अभिई सत्त अहोरत्ते णेइ, (२) अभिजित् सात अहोरात्र पूर्ण करता है। ३. सवणे अट्ठ अहोरत्ते णेइ, (३) श्रवण आठ अहोरात्र पूर्ण करता है । ४. धणिट्ठा एगं अहोरत्तं णेइ, (४) धनिष्ठा एक अहोरात्र पूर्ण करता है। तंसि णं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए उस मास में चार अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण अणुपरियट्टइ। करता है। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पादाइं चत्तारि उस मास के अन्तिम दिन में दो पैर और चार अंगुल य अंगुलाणि पोरिसी भवइ, पौरुषी होती है। १०-२. ता वासाणं बितियं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? (२) प्र०-वर्षा ऋतु के द्वितीय मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? उ०- ता चत्तारि णक्खत्ता णेति तं जहा--१. धणिट्ठा, उ.-चार नक्षत्र पूर्ण करते हैं यथा-(१) धनिष्ठा, २. सतभिसया, ३. पुटबपोट्टवया, ४. उत्तरपोढवया, (२) शतभिषक, (३) पूर्वाभाद्रपद, (४) उत्तराभाद्रपद । १ (क) चन्द. पा. १० सु. ४० । (ख) जम्बु, वक्ख. ७ सू १६१ । Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११०६ तिर्यक् लोक : वर्षा, हेमंत और ग्रीष्म के दिन-रात पूर्ण करने वाले नक्षत्रों की संख्या गणितानुयोग ६२६ १. धणिट्ठा चोद्दस अहोरत्ते णेइ, (१) धनिष्ठा चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है । २. सतभिसया सत्त अहोरत्ते णेइ, (२) शतभिषक् सात अहोरात्र पूर्ण करता है। ३. पुब्व पोटुवया अट्ट अहोरत्ते णेइ, (३) पूर्वाभाद्रपद आठ अहोरात्र पूर्ण करता है। ४. उत्तर पोट्टवया एगं अहोरत्तं णेइ, (४) उत्तराभाद्रपद एक अहोरात्र पूर्ण करता है । तसि णं मासंसि अट्ठ गुल पोरिसीए छायाए सूरिए उस मास में आठ अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण अणुपरियट्टइ, करता है। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पादाइं अट्ठअंगुलाई उस मास के अन्तिम दिन में दो पैर और आठ अंगुल पौरुषी पोरिसी भवइ, होती है। प०-३. ता वासाणं ततियं मासं कति णक्खत्ता णेति ? (३) प्र०- वर्षा ऋतु के तृतीय मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? उ०–ता तिण्णि णक्खत्ता णेति, तं जहा–१. उत्तरपोटुवया, उ०-तीन नक्षत्र पूर्ण करते है यथा-(१) उत्तराभाद्रपद, २. रेवई, ३. अस्सिणी, (२) रेवती, (३) अश्विनी । १. उत्तरपोढुवया चोद्दस अहोरत्ते णेइ, (१) उत्तराभाद्रपद चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है। २. रेवई पण्णरस अहोरत्ते णेइ, (२) रेवती पन्द्रह अहोरात्र पूर्ण करता है। ३. अस्सिणी एगं अहोरत्तं णेइ, (३) अश्विनी एक अहोरात्र पूर्ण करता है । तंसि च णं मासंसि दुवालसंगुलाए पोरिसीए छायाए उस मास में बारह अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण सूरिए अणुपरियट्टइ, करता है। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहत्थाई तिण्णि पयाइं उस मास के अन्तिम दिन में रेखास्थ तीन पैर पौरुषी पोरिसी भवइ, होती है। प०-४. ता वासाणं चउत्थं मासं कति णक्खत्तं णेति ? (४) प्र०-वर्षा ऋतु के चौथे मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते है ? उ०–ता तिण्णि णक्खता ति, तं जहा-१. अस्सिणी, उ०-तीन नक्षत्र पूर्ण करते हैं यथा-(१) अश्विनी, २. भरणी, ३. कत्तिया, (२) भरणी, (३) कृत्तिका ।। १. अस्सिणी चउद्दस अहोरत्ते णेइ, (१) अश्विनी चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है । २. भरणी पण्णरस अहोरते णेइ, (२) भरणी पन्द्रह अहोरात्र पूर्ण करता है। ३. कत्तिया एगं अहोरत्तं गेइ, (३) कृत्तिका एक अहोरात्र पूर्ण करता है। तंसि च णं मासंसि सोलसंगुला पोरिसी छायाए सूरिए उस मास में सोलह अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण अणुपरियट्टइ, करता है। तस्स गं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाइं चत्तारि उस मास के अन्तिम दिन में तीन पैर और चार अंगुल अंगुलाई पोरिसी भवइ, पौरुषी होती है। १०-१. ता हेमंताणं पढम मासं कति णक्खत्ता ऐति ? (५) प्र०-हेमन्त ऋतु के प्रथम मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? उ०-ता तिण्णि णक्खत्ता गति, तं जहा–१. कत्तिया, उ०-तीन नक्षत्र पूर्ण करते हैं यथा-(१) कृत्तिका, २. रोहिणी, ३. संठाणा, (२) रोहिणी, (३) मृगशिर । १. कत्तिया चोद्दस अहोरत्ते णेइ, (१) कृत्तिका चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है । २. रोहिणी पण्णरस अहोरत्ते णेइ, (२) रोहिणी पन्द्रह अहोरात्र पूर्ण करता है। ३. संठाणा एग अहोरत्तं णेइ, (३) मृगशिर एक अहोरात्र पूर्ण करता है । Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : वर्ण हेमंत और ग्रीष्म के दिन-रात पूर्ण करने वाले नक्षत्रों की संख्या सूत्र ११०६ तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए उस मास में बीस अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण अणुपरियट्टइ, करता है। तस्स गं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पयाई अटुअंगु- उस मास के अन्तिम दिन में तीन पैर और आठ अंगुल लाई पोरिसी भवइ, पौरुषी होती है। प०-२. ता हेमंताणं बितियं मासं कति णक्खत्ता ऐति ? (६) प्र०–हेमन्त ऋतु के द्वितीय मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? उ०–ता चत्तारि णक्खत्ता ऐति, तं जहा–१. संठाणा, उ०-चार नक्षत्र पूर्ण करते हैं यथा-(१) मृगशिर, २. अद्दा, ३. पुणब्वसु, ४. पुस्सो, (२) आर्द्रा, (३) पुनर्वसु, (४) पुष्य । १. संठाणा चोद्दस अहोरत्ते णेइ, (१) मृगशिर चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है। २. अद्दा सत्त अहोरत्ते णेइ, (२) आर्द्रा सात अहोरात्र पूर्ण करता है। ३. पुणव्वसु अट्ठ अहोरते णेइ, (३) पुनर्वसु आठ अहोरात्र पूर्ण करता है । ४. पुस्से एगं अहोरत्ते णेइ, (४) पुष्य एक अहोरात्र पूर्ण करता है। तंसि च णं मासंसि वीसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए उस मास में बीस अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण अणुपरियट्टइ, करता है। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहत्थाई चत्तारि पदाई उस मास के अन्तिम दिन में रेखास्थ चार पैर पौरुषी पोरिसी भवइ, होती है। प०-३. ता हेमंताणं ततियं मासं कति णक्खत्ता णेति ? (७) प्र०-हेमन्त ऋतु के तृतीय मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? उ०—ता तिण्णि णक्खत्ता ऐति, तं जहा–१. पुस्सो, उ०-तीन नक्षत्र पूर्ण करते हैं यथा-(१) पुष्य, २. अस्सेसा, ३. महा, (२) अश्लेषा, (३) मघा। १. पुस्सो चोद्दस अहोरत्ते णेइ, (१) पुष्य चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है। २. अस्सेसा पंचदस अहोरत्ते णेइ, (२) अश्लेषा पन्द्रह अहोरात्र पूर्ण करता है । ३. महा एगं अहोरत्तं णेइ, (३) मघा एक अहोरात्र पूर्ण करता है । तंसि च णं मासंसि वीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए उस मास में बीस अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण अणुपरियट्टइ, करता हैं। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिण्णि पदाइं अट्ठ गुलाइं उस मास के अन्तिम दिन में तीन पैर और आठ अंगुल से पोरिसी भवइ, पौरुषी होती है। प०-४. ता हेमंताणं चउत्थं मासं कति णक्खत्ता ति? (८) प्र०-हेमन्त ऋतु के चौथे मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? उ०—ता तिणि णक्खत्ता ऐति, तं जहा–१. मघा, उ०-तीन नक्षत्र पूर्ण करते हैं यथा-(१) मघा, (२) पूर्वा२. पुन्वाफग्गुणि, ३. उत्तराफग्गुणि। फाल्गुनी, (३) उत्तराफाल्गुनी।। १. मघा चोइस अहोरत्ते णेइ, (१) मघा चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है। २. पुव्वाफग्गुणी पण्णरस अहोरत्ते णेइ, (२) पूर्वाफाल्गुनी पन्द्रह अहोरात्र पूर्ण करता है। ३. उत्तराफग्गुणी एगं अहोरत्तं णेइ, (३) उत्तराफाल्गुनी एक अहोरात्र पूर्ण करता है । तंसि च गं मासंसि सोलस अंगुलाई पोरिसीए छायाए उस मास में सोलह अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण सूरिए अणुपरियट्टइ। करता है। तस्स गं मासस्स चरिमे दिवसे तिणि पयाइं चत्तारि उस मास के अन्तिम दिन में तीन पैर और चार अंगुल अंगुलाई पोरिसी भवइ। पौरुषी होती है। Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११०६ तिर्यक् लोक : वर्षा हेमंत और ग्रीष्म के दिन रात पूर्ण करने वाले नक्षत्रों की संख्या wwwww ww प० - १. ता गिम्हाणं पढमं मासं कति णक्खत्ता णेंति ? उ०- ता तिष्णि णक्खत्ता णेंति, तं जहा - १. उत्तराफग्गुणी, २. ३. चिता, उ० १. उत्तराणी चोट्स अहोरले पेड़, २. हत्थो पण्णरस अहोरते णेइ, ३. बिसाएगं होतं . तंसि च णं मासंसि दुवाल संगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अपरिप तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्टाई य तिष्णि पयाई पोरिसी भवइ, प० -- २. ता गिम्हाणं बितियं मासं कति णक्खत्ता ति ? -ता तिण्णि णक्खत्ता ति तं जहा - १. चित्ता, २. साई, ३. विसाहा, १. चित्ता चोट्स अहोर २. साई पण्णरस अहोरते इ, ३. विसाहा एवं अहोरत्ते णेइ, तंसि च णं मासंसि अट्ठ गुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अपरियगृह, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पयाइं अट्ठ अंगुलाई पोरिसी भवइ, प० - ३. गिम्हाणं ततियं मासं कति णक्खत्ता र्णेति ? उ०- ता तिष्णि णक्खत्ता ति तं जहा- १. बिसाहा, २. अराहा, ३. बेामूली, १. विसाहा चोइस अहोरते णेइ, २. अणुराहा पम्परस अहोरते ह ३. मुलो एवं अहोर ड सिमासि नवरंगुलपोरिसोए छायाए सूरिए अणुपरियदृइ, तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पायाणि य चत्तारि अंगुलानि पोरिसो भव प० - ४. ता गिम्हाणं चउत्थं मासं कति णक्खत्ता ति ? उ०- ता तिष्णि णक्खत्ता र्णेति तं जहा - १. मूलो, २. पुव्वासाढा, ३. उत्तरासाढा, गणितानुयोग (e) प्र० - ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? उ०- तीन नक्षत्र पूर्ण करते हैं, यथा - ( १ ) उत्तराफाल्गुनी, (२) हस्त (३) विश । (१) उत्तराफाल्गुनी चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है । (२) हस्त पन्द्रह अहोरात्र पूर्ण करता है। (३) चित्रा एक अहोरात्र पूर्ण करता है । ६३१ उस मास में बारह अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण करता है । उस मास के अन्तिम दिन में रेखास्थ तीन पैर पौरुषी होती है। | (१०) प्र० - ग्रीष्म ऋतु के द्वितीय मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? उ०- तीन नक्षत्र पूर्ण करते हैं यथा – (१) चित्रा, (२) स्वाति, (३) विज्ञाया। (१) चित्रा अहोराश पूर्ण करता है। (२) स्वाति पन्द्रह अहोरात्र पूर्ण करता है । (३) विशाखा एक अहोरात्र पूर्ण करता है । उस मास में आठ अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण करता है । उस मास के अन्तिम दिन में दो पैर आठ अंगुल पौरुषी होती है। (११) प्र० - ग्रीष्म ऋतु के तृतीय मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं? उ०- तीन नक्षत्र पूर्ण करते हैं, यथा - ( १ ) विशाखा, (२) अनुराधा, (३) ज्येष्ठा । (१) विशाखा चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है। (२) अनुराधा पन्द्रह अहोरात्र पूर्ण करता है। (३) ज्येष्ठा एक अहोरात्र पूर्ण करता है । उस मास में चार अंगुल पौरुषी छाया से सूर्य परिभ्रमण करता है । उस मास के अन्तिम दिन में दो पैर और चार अंगुल पोरुषी होती है । (१२) प्र० - ग्रीष्म ऋतु के चौथे मास को कितने नक्षत्र पूर्ण करते हैं ? उ०—तीन नक्षत्र पूर्ण करते हैं यथा - (१) मूल, (२) पूर्वाषाढा, (३) उत्तराषाढा । Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रमण्डलों की संख्या सूत्र ११०६-११०६ १. मूलो चोद्दस अहोरत्ते णेइ, (१) मूल चौदह अहोरात्र पूर्ण करता है। २. पुव्वासाढा पण्णरस अहोरत्ते गेइ, (२) पूर्वाषाढा पन्द्रह अहोरात्र पूर्ण करता है। ३. उत्तरासाढा एगं अहोरत्तं णेइ, (३) उत्तराषाढा एक अहोरात्र पूर्ण करता है। तंसि च णं मासंसि वट्टाए समचउरंस संठियाए णग्गोध उस मास में वृत्त समचौरस वट वृक्ष के समान अपने शरीर परिमंडलाए सकायमणुरंगिणीए छायाए सूरिए अणु- के अनुरूप छाया से सूर्य परिभ्रमण करता है । परियट्टइ। तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाई दो पदाइं उस मास के अन्तिम दिन में रेखास्थ दो पैर पौरुषी पोरिसीए भवइ ।' होती है। -सुरिय. पा. १०, पाहु. १०, सु. ४३ णक्खत्तमंडलाणं संखा--- नक्षत्र मण्डलों की संख्या१०७. ५०-कइ णं भंते ! णक्खत्तमंडला पण्णत्ता? १०७. प्र.-भगवन् ! नक्षत्र मण्डल कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! अट्ठ णक्खत्तमंडला पण्णत्ता। उ०-गौतम ! आठ नक्षत्र मण्डल कहे गये हैं । प०-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइयं खेत्तं ओगाहित्ता केवइया प्र०-भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में कितना क्षेत्र अवणक्खत्तमंडला पण्णता? ____ गाहन करने पर कितने नक्षत्र मण्डल कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे असियं जोयणसयं ओगाहेत्ता उ०- गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में एक सौ अस्सी एत्थ गं दो गक्खत्तमंडला पण्णत्ता। योजन अवगाहन करने पर दो नक्षत्र मण्डल कहे गये हैं। प०-लवणे णं भंते ! समुद्दे केवइयं खेत्तं ओगाहित्ता केवइआ प्र०-भगवन् ! लवण समुद्र में कितना क्षेत्र अवगाहन करने णक्खत्तमंडला पण्णता? ___ पर कितने नक्षत्र मण्डल कहे गये हैं। उ०-गोयमा ! लवणे णं समुद्दे तिणि तीसे जोयणसए उ०-गौतम ! लवणसमुद्र में तीन सौ तीस योजन अव ओगाहित्ता एत्थ गं छ णक्खत्तमंडला पण्णता। गाहन करने पर छ नक्षत्र मण्डल कहे गये हैं । एवामेव सपुब्वावरेणं जंबुद्दोवे दीवे लवणे समुद्दे अट्ठ इस प्रकार जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र में आठ नक्षत्र मण्डल णक्खत्तमंडला भवतीतिमक्खायं । - होते हैं- ऐसा कहा गया है । -जंबु. वक्ख. ७, सु. १४६ बाहिराब्भंतर णक्खत्तमंडलाणमंतरं आभ्यन्तर और बाह्य नक्षत्र मण्डलों का अन्तर१०८. ५०-सम्वन्भंतराओ णं भंते ! णक्खत्तमंडलाओ केवइआए १०८. प्र०-भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्र मण्डल से सर्वबाह्य अबाहाए सवबाहिरए णक्खत्तमण्डले पण्णत्ते? नक्षत्र मण्डल कितनी दूरी पर कहा गया है ? उ०--गोयमा ! पंचदसुत्तरे जोयणसए अबाहाए सब्वबाहिरए उ०-गौतम ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्र मण्डल से पांच सौ दस णक्खत्तमण्डले पण्णत्ते। योजन की दूरी पर सर्वबाह्य नक्षत्र मण्डल कहा गया है । -जंबु० वक्ख०७, सु० १४६ णक्खत्तमंडलाणमंतरं नक्षत्र मन्डलों का अन्तर१०६. प०–णक्खत्त मण्डलस्स णं भंते ! णक्खत्तमण्डलस्स य एस १०६. प्र०-भगवन् ! एक नक्षत्र मण्डल से दूसरे नक्षत्र मण्डल णं केवइयाए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? का अन्तर कितना कहा गया है ? उ०-गोयमा ! दो जोयणाई णक्खत्तमण्डलस्स णक्खत्त- उ०-गौतम ! एक नक्षत्र मण्डल से दूसरे नक्षत्र मण्डल का मण्डलस्स य अबाहाए अन्तरे पण्णत्ते । अन्तर दो योजन कहा गया है । -जंबु० वक्ख०७, सु० १४६ १ चन्द. पा. १०, सु. ४३ । Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १११०-१११२ तिर्यक् लोक नक्षत्र मण्डल की लम्बाई, चौड़ाई और परिधि केवइयं परिक्लेवेणं ? के बाहल्ले पम्पले ? उ०- गोयमा ! गाउयं आयाम विक्खंभेणं । णक्लत्त मण्डलस्स आयाम- विश्वंभ-परिक्खेव बाहल्ल नक्षत्र मण्डल की लम्बाई चौड़ाई, परिधि और मोटाई ११०. प० -णक्खत्त मण्डले णं भंते ! केवइयं आयाम विक्खंभेणं ? ११०. प्र० - -भगवन ! नक्षत्र मण्डल की लम्बाई चौड़ाई कितनी कही गई है ? परिधि कितनी कही गई है ? मोटाई कितनी कही गई है ? तं तिगुणं सविसेसं परिणं । अगा बाहल्लेणं पयते । - जंबु० वक्ख० ७, सु० १४६ मंदरपव्यय!ओ अम्नंतर बाहिरणक्खत्त मंडलाणमंतरं जंबुद्दीवे दीवे - १११. ०णं भंते! भी मंदरस पव्ययस्स केवइआए अबाहाए सव्वभंतरे णक्खत्तमण्डले पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! चोयालीसं जोयणसहस्साइं अट्ठ य वीसे जोयणसए अबाहाए सव्वन्तरे णक्खत्तमण्डले पण्णत्ते । प० - जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमण्डले पण्णत्ते ? । उ०- गोयमा ! पणयालीसं जोयणसहस्साइं तिष्णि य तीसे जो अवाहाए सवाहिरए पक्तमंडले पण - जंबु० वक्ख० ७, सु० १४६ सव्वभर बाहिर नक्सल मण्डलाण आयाम विश्वंभ परिक्लेवं - ११२. ५० -- सव्वभंतरे णं भंते ! णक्खत्त मण्डले केवइयं आयामविक्खंभेणं ? केवइयं परिक्खेवेण पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! णवणउई जोयणसहस्साइं छच्च चत्ताले जोयणसए आयाम - विक्खभेणं । तिष्णि य जोयणसय सहस्साइं पण्णरस सहस्माई एगूणणवई च जोयणाई किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पणते । आयाम-विसंमेणं? १० चाहिए गणितानुयोग केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! एवं जोयणसय सहस्सं छच्च सट्ट े जोयणसए आयाम विक्खभेणं । तिष्णि जोपससस्साई अारस च सहस्वाई तिमि य पण्णरसुतरे जोगसए परिवखेवेणं पण्णले - जंबु० वक्ख ० ७ ० १४६ ६३३ उ०- गौतम ! नक्षत्र मण्डल की लम्बाई चौड़ाई एक गाउ की कही गई है । तिगुणी से कुछ अधिक की परिधि कही गई है। आधे गाउ की मोटाई कही गई है । मन्दर पर्वत से सर्वाभ्यन्तर और नक्षत्र मण्डल का अन्तर१११. प्र० भगवन्! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत से - सर्वाभ्यन्तर नक्षत्र मण्डल का अन्तर कितना कहा गया है ? उ०- गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत से सर्वाभ्यन्तर नक्षत्र मण्डल चम्मालीस हजार आठ सौ बीस योजन के अन्तर पर कहा गया है । प्र० - भगवन् ! जम्बुद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत सर्व बाह्य नक्षत्र मण्डल का अन्तर कितना कहा गया है ? उ०- गौतम ! जम्बुद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत से सर्व नक्षत्र मण्डल पैतालीस हजार तीन सौ तौ योजन के तीस अन्तर पर कहा गया है । सर्वाभ्यन्तर और सर्वबाह्य नक्षत्र मण्डलों की लम्बाई चौड़ाई और परिधि ११२. प्र०. -भगवन् ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्र मण्डल की लम्बाईचौड़ाई कितनी कही गई है ? परिधि कितनी कही गई है ? उ०- गौतम ! सर्वाभ्यन्तर नक्षत्र मण्डल की लम्बाई चौडाई निन्यानवे हजार छ सौ चालीस योजन की कही गई है । तीन लाख पन्द्रह हजार नवासी योजन से कुछ अधिक की परिधि कही गई है । प्र० - भगवन् ! सर्वबाह्य नक्षत्र मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई कितनी कही गई है? परिधि कितनी कही गई है ? उ०- गौतम ! सर्ववाल नक्षत्र मण्डल की लम्बाई-चौड़ाई एक लाख छ सौ साठ योजन की कही गई है । तीन लाख अठारह हजार तीन सौ पन्द्रह योजन की परिधि कही गई है। Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों की गति का प्ररूपण सूत्र १११३-१११५ सव्वभंतर-बाहिरमण्डलेसु एगमेगे मुहुत्ते णक्खत्तगइ सर्वाभ्यन्तर और सर्वबाह्य मण्डलों के प्रत्येक मुहूर्त में परूवणं नक्षत्र की गति का प्ररूपण११३. ५०-जया णं भंते ! णक्खत्ते सव्वभंतर मण्डलं उवसंकमित्ता ११३. प्र०-भगवन् ! नक्षत्र जब सर्वाभ्यन्तर मण्डल पर चारं चरइ, तया णं एगमेगे णं मुहत्ते णं केवइयं खेते संक्रमण करके गति करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में कितना क्षेत्र गच्छइ ? चलता है ? उ०-गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई दोण्णि अ पण्ण? उ०—गौतम ! नक्षत्र प्रत्येक मुहूर्त में पाँच हजार दो सौ जोयणसए अट्ठारस य भागसहस्से दोण्णि य तेवढे पैसठ योजन और मण्डल के इक्कीस हजार नौ सौ साठ भागों भागसए गच्छइ। मंडल एक्कवीसाए भागसहस्सेहिं में से अठारह हजार दो सौ त्रेसठ भाग जितना चलता है । णवहि अ सोहि सरहिं छेत्ता। प०-जया णं भंते ! णक्खत्ते सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंक- प्र०-भगवन् ! नक्षत्र जब सर्वबाह्य मण्डल पर संक्रमण मित्ता चार चरइ। तया णं एगमेगे णं मुहुत्ते केवइयं करके गति करता है तब प्रत्येक मुहूर्त में कितना क्षेत्र चलता है ? खेत्तं गच्छइ ? उ.- गोयमा ! पंच जोयणसहस्साई तिण्णि अ एगूणवीसे उ०-गौतम ! नक्षत्र प्रत्येक मुहूर्त में पाँच हजार तीन सौ जोयणसए सोलस य भागसहस्सेहिं तिणि य पणस? उन्नीस योजन और मण्डल के इक्कीस हजार नो सौ साठ भागों भागसए गच्छइ। मण्डलं एक्कवीसाए भागसहस्सेहिं में से सोलह हजार तीन सौ पैंसठ भाग जितना चलता है । णवहि य सहहिं छत्ता। -जंबु० वक्ख० ७, सु० १४६ चंदमण्डल मिलिया णक्खत्त मण्डला चन्द्र मण्डलों से मिले हुए नक्षत्र मण्डल११४. प०-एए णं भंते ! अट्ठ णक्खत्तमण्डला कतिहिं चंदमंडलेहि ११४. प्र०-भगवन् ! ये आठ नक्षत्र मण्डल कितने चन्द्र मण्डलों समोअरंति? के साथ मिले हुए हैं ? उ०-अट्ठहिं चंदमंडलेहि समोअरंति; तं जहा उ०-गौतम ! ये आठ नक्षत्र मण्डल आठ चन्द्र मण्डलों के साथ मिले हुए है, यथा - १. पढमे चन्दमण्डले, प्रथम चन्द्र मण्डल के साथ प्रथम नक्षत्र मण्डल । २. ततिए, तृतीय चन्द्र मण्डल के साथ तृतीय नक्षत्र मण्डल, ३. छ8, छठे चन्द्र मण्डल के साथ तृतीय नक्षत्र मण्डल, ४. सत्तमे, सातवें चन्द्र मण्डल के साथ चतुर्थ नक्षत्र मण्डल, ५. अट्ठमे, आठवें चन्द्र मण्डल के साथ पंचम नक्षत्र मण्डल. ६. दसमे, दसवें चन्द्र मण्डल के साथ छठा नक्षत्र मण्डल, ७. इक्कारसमे, इग्यारहवें चन्द्र मण्डल के साथ सातवाँ नक्षत्र मण्डल, ८. पण्णरसमे चंदमण्डले, पन्द्रहवें चन्द्र मण्डल के साथ आठवाँ नक्षत्र मण्डल । -जबु० वक्ख० ७, सु० १४६ एगमेगे मुहत्ते णक्खत्रोण मण्डल भागगमणं- प्रत्येक मुहूर्त में नक्षत्र द्वारा मण्डल के भागों में गमन११५. ५०-एगमेगे णं भंते ! मुहत्ते णं णक्खत्ते केवइयाई भाग ११५. प्र०-भगवन् ! नक्षत्र प्रत्येक मुहूर्त में कितने सौ भागों में सयाई गच्छइ? गति करता है ? उ०-गोयमा ! ज ज मण्डलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तस्स उ० --गौतम ! नक्षत्र जिस जिस मण्डल पर संक्रमण करता तस्स मण्डल परिक्खेवस्स अट्ठारस पणतोसे भागसए है उस उस मण्डल की परिधि के एक लाख अढाणवें सौ भागों गच्छइ । मण्डलं सयसहस्सेणं अट्ठाणउइए अ सहिं में से एक हजार आठ सौ पैतीस भाग चलता है । छेत्ता । -जंबु० वक्ख०७, सु० १४६ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १११६ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के मण्डलों का सीमा विष्कम्भ गणितानुयोग ६३५ 1 . णक्खत्त मण्डलाणं सोमाविक्खंभो नक्षत्रों के मण्डलों का सीमा विष्कम्भ११६. ५०–ता कहं ते सीमाविक्खंभे ? आहिए त्ति वएज्जा, ११६. प्र० - नक्षत्रों (के मण्डलों) का सीमा विष्कम्भ कितना है ? कहें। उ०—(क) ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं उ०—(क) इन छप्पन नक्षत्रों मेंअत्थि णक्खत्ता, जेसि णं छसया तीसा सत्तसट्ठि कुछ नक्षत्र हैं, (जिनके मण्डलों) का सीमा विष्कम्भ छ सौ भाग तीसइ भागाणं सीमाविक्खंभो, तीस योजन और एक योजन के सड़सठ भागों में से तीस भाग जितना हैं। (ख) अत्थि णक्खत्ता जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तसद्धि (ख) कुछ नक्षत्र हैं, जिन (के मण्डलों) का सीमा विष्कम्भ भाग तीसइ भागाणं सीमा विक्खंभो, एक हजार पाँच योजन और एक योजन के सड़सठ भागों में से तीस भाग जितना है। (ग) अस्थि णक्खत्ता जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा (ग) कुछ नक्षत्र हैं, जिन (के मण्डलों) का सीमा विष्कम्भ सत्तसट्टि भाग तोसइ भागाणं सीमाविक्खंभो, दो हजार दस योजन और एक योजन के सड़सठ भागों में से तीस भाग जितना है। (घ) अस्थि णक्खत्ता जेसि णं तिसहस्सं पंचदसुत्तरं (घ) कुछ नक्षत्र हैं, जिन (के मण्डलों) का सीमा विष्कम्भ सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागाणं सीमा विक्खंभो, तीन हजार पन्द्रह योजन और एक योजन और एक योजन के सड़सठ भागों में से तीस भाग जितना है । १०-(क) ता एएसि गं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं प्र० -- (क) इन छप्पन नक्षत्रों मेंकयरे णक्खत्ता जेसि णं छ सया तीसा सत्तसट्टि कितने नक्षत्र हैं, जिन (के मण्डलों) का सीमा विष्कम्भ छ भाग तीसइ भागाणं सीमा विक्खंभो ? सौ तीस योजन और एक योजन के सड़सठ भागों में से तीस भाग जितना है ? (ख) कयरे णक्खत्ता जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तसट्ठि (ख) कितने नक्षत्र हैं, जिन (के मण्डलों) का सीमा विष्कम्भ भाग तीसइ भागाणं सीमा विक्खंभो? एक हजार पाँच योजन और एक योजन के सड़सठ भागों में से तीस भाग जितना है ? (ग) कयरे णक्खत्ता जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा (ग) कितने नक्षत्र हैं, जिन (के मण्डलों) का सीमा विष्कम्भ सत्तसट्ठि भाग तीसइ भागाणं सीमा विक्खंभो? दो हजार दस योजन और एक योजन के सड़सठ भागों में से तीस भाग जितना है? (घ) कयरे णक्खत्ता जेसि णं तिसहस्सं पंचदसुत्तरं (घ) कितने नक्षत्र हैं, जिन (के मण्डलों) का सीमा विष्कम्भ सत्तसद्विभाग तीसइ भागाणं सोमा विक्खंभो? तीन हजार पन्द्रह योजन और एक योजन के सड़सठ भागों में से तीस भाग जितना है? उ०—(क) ता एएसि गं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं उ०—इन छप्पन नक्षत्रों मेंतत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं छ सया तीसा सत्त- जो नक्षत्र छ सौ तीस योजन और एक योजन के सड़सठ सट्ठिभाग तीसइ भागे णं सीमा विक्खंभो, ते णं भागों में से तीस भाग जितने (मण्डलों के) सीमा विष्कम्भ वाले दो अभिई। हैं वे दो अभिजित् हैं। (ख) तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसि णं सहस्सं पंचत्तरं (ख) जो नक्षत्र एक हजार पाँच योजन और एक योजन के सत्तसद्विभाग तीसइ भागे णं सीमा विक्खंभो, ते सड़सठ भागों में से तीस भाग जितने (मण्डल के) सीमा विष्कम्भ णं बारस तं जहा वाले हैं वे बारह हैं, यथा१. दो सतभिसया, २. दो भरणी, ३. दो अद्दा, (१) दो शतभिषक्, (२) दो भरणी, (३) दो आर्द्रा, ४. दो अस्सेसा, '. दो साती, ६. दो जेट्ठा। (४) दो अश्लेषा, (५) दो स्वाती, (६) दो ज्येष्ठा । Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक लोक : नक्षत्रों का सीमा-विष्कम्भ समांश सूत्र १११६-११२० (ग) तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा (ग) जो नक्षत्र दो हजार दस योजन और एक योजन के सत्तसद्विभाग तीसइ भागे णं सीमा विक्खंभो, ते सड़सठ भागों में से तीस भाग जितने (मण्डल के) सीमा विष्कम्भ णं तीसं, तं जहा वाले हैं वे तीस हैं यथा१. दो सवणा, २. दो धणिट्टा, ३. दो पुव्वा भद्द- (१) दो श्रवण, (२) दो धनिष्ठा, (३) दो पूर्वाभाद्रपद, वया, ४. दो रेवई, ५. दो अस्सिणी, ६. दो (४) दो रेवती, (५) दो अश्विनी (६) दो कृत्तिका, (७) दो कत्तिया, ७. दो संठाणा, ८. दो पुस्सा, ६. दो मृगसिर, (८) दो पुष्य, (६) दो मघा, (१०) दो पूर्वाफाल्गुनि महा, १०. दो पुवाफग्गुणी, ११. दो हत्था, (११) दो हस्त, (१२) दो चित्रा, (१३) दो अनुराधा, (१४) दो १२. दो चित्ता, १३. दो अणुराहा, १४. दो मूला, मूल, (१५) दो पूर्वाषाढा । १५. दो पुब्वासाढा, (घ) तत्थ जे ते णक्खत्ता जेसि गं तिणि सहस्सा (घ) जो नक्षत्र तीन हजार पन्द्रह योजन और एक योजन पण्णरसुत्तरा सत्तसट्ठिभाग तीसइ भागे णं सीमा के सड़सठ भागों में से तीस भाग जितने (मण्डल के) सीमा विक्खंभो, ते णं वारस तं जहा विष्कम्भ वाले हैं; वे बारह हैं यथा१. दो उत्तरापोटुवया, २. दो रोहिणी, ३. दो (१) दो उत्तराभाद्रपद, (२) दो रोहिणी, (३) दो पुनर्वसु, पुणव्वसु, ४. दो उत्तराफग्गुणी, ५. दो विसाहा, (४) दो उत्तराफाल्गुनि, (५) दो विशाखा, (६) दो उत्तराषाढा । ६. दो उत्तरासाढा। -सूरिय. पा. १०, पाहु. २२, सु. ६१ णक्खत्ताण सीमाविक्खंभो समांसो- . नक्षत्रों का सीमा-विष्कम्भ समांश११७. सव्वेसि उि णं नक्खत्ताणं सीमाविक्खंभेणं सट्टि भाग भइए ११७. सभी नक्षत्रों के सीमा-विष्कम्भ का समांश एक योजन के समसे पण्णत्ते । सड़सठ भागों में विभाजित करने पर होता है। -सम. ६७, सु. ४ चंदस्स मण्डले कत्तिया णक्खत्तस्स गइ चन्द्र मण्डल में कृत्तिका नक्षत्र की गति११८. कत्तियाणक्खत्ते सव्वबाहिराओ मण्डलाओ इसमे मण्डले चारं ११८. कृत्तिका नक्षत्र चन्द्र के सर्व बाह्य मण्डल से दसवें मण्डल चरइ। में भ्रमण करता है। -ठाणं० १०, सु०७८० चंदस्स मण्डले अणुराहा णक्ख त्तस्स गइ चन्द्र मण्डल में अनुराधा नक्षत्र की गति११६. अणराहा णक्खत्ते सव्वभंतराओ मण्डलाओ दसमे मण्डले ११६. अनुराधा नक्षत्र चन्द्र के सर्व आभ्यन्तर मण्डल से दसवें चारं चरइ। मण्डल में भ्रमण करता है। -ठाणं० १०, सु० ७८० चंदस्स पिटठभागे गममाणा णव णक्खत्ता चन्द्र के पृष्ठभाग पर गति करने वाले नौ नक्षत्र है१२०. नव नक्खत्ता चन्दस्स पच्छंभागा पण्णत्ता, तं जहा- १२०. नौ नक्षत्र चन्द्र के पीछे से गति करते हैं, यथागाहा गाथाअभिई सवणो धणिट्टा, रेवइ अस्सिणि मग्गसिरं पूसो । (१) अभिजित् (२) श्रवण (३) धनिष्ठा हत्थो चित्ता य तहा-पच्छंभागा नव हवंति ॥१॥ . (४) रेवती (५) अश्विनी (६) मृगशिरा -ठाणं० १, सु० ६६४ (७) पुष्य (८) हस्त (६) चित्रा १ चन्द. पा. १० सु. ६१ । Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२१ तिर्यक्लोक : नक्षत्रों के स्वरूप का प्ररूपण गणितानुयोग ६३७ णक्खत्ताणं सरूव परूवणं नक्षत्रों के स्वरूप का प्ररूपण१२१. ५०-ता कहं ते गक्खत्त विजय ? आहिए त्ति वएज्जा, १२१. (क) प्र०-नक्षत्रों के स्वरूप का निरूपण किस प्रकार है ? कहें। उ०-ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीजे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वन्भंत- उ०—यह जम्बूद्वीप द्वीप सभी द्वीप-समुद्रों के अन्दर (बीच राए सव्वखुड्डाए-जाव-एगं जोयणसयसहस्सं आयाम- में है, सबसे छोटा है-यावत्-एक लाख योजन का लम्बाविक्खंभेणं, तिणि जोयणसयसहस्साई, सोलससहस्साई, चौड़ा है, तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन तीन दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिणि य कोसे, अट्ठा- कोस अट्ठाईस धनुष. तेरह अंगुल और आधे अंगुल से कुछ अधिक वीस च धणुसयं, तेरस अंगुलाई, अद्धंगुलं च किंचि की उसकी परिधि कही गई है। विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, (क) ता जंबुद्दीवे णं दीवे उस जम्बूद्वीप द्वीप मेंदो चन्दा १. पभासेंसु वा, २. पभासेंति वा, ३. पभा- दो चन्द्र प्रभासित हुए थे, होते हैं और होंगे, सिस्संति वा, (ख) दो सूरिया १. विसु वा, २. तवेति वा, ३. तवि- ___दो सूर्य तपे हैं, तपते हैं और तपेंगे स्संति वा, (ग) छप्पण्णं णक्खत्ता जोयं १. जोएंसु वा, २. जोएंति वा, छप्पन नक्षत्रों ने (चन्द्र-सूर्य के साथ) योग किये हैं, योग ३. जोइस्संति वा, तं जहा करते हैं और योग करेंगे, यथा१. दो अभीई, २. दो सवणा, ३. दो धणिट्ठा, ४. दो (१) दो अभिजित्, (२) दो श्रवण, (३) दो धनिष्ठा, सतभिसया, ५. दो पुत्वा पोट्टवया, ६. दो उत्तरापोट्ठ- (४) दो शतभिषक्, (५) दो पूर्वाभाद्रपद, (६) दो उत्तराभाद्रपद, वया, ७. दो रेवई, ८. दो अस्सिणी, ६. दो भरणी, (७) दो रेवती, (८) दो अश्विनी, (६) दो भरणी, (१०) दो १०. दो कत्तिया, ११. दो रोहिणी, १२. दो संठाणा, कृत्तिका, (११) दो रोहिणी, (१२) दो मृगशिरा, (१३) दो १३. दो अद्दा, १४. दो पुणव्वसु, १५. दो पुस्सा, आर्द्रा, (१४) दो पुनर्वसु, (१५) दो पुष्य, (१६) दो अश्लेषा, १६. दो अस्सेसाओ, १७. दो महाओ, १८. दो पुब्बा- (१७) दो मघा, (१८) दो पूर्वाफाल्गुनि, (१६) दो उत्तरा फग्गुणी, १६. दो उत्तराफग्गुणी, २०. दो हत्था, फाल्गुनी, (२०) दो हस्त, (२१) दो चित्रा, (२२) दो स्वाती, २१. दो चित्ता, २२. दो साई, २३. दो विसाहा, (२३) दो विशाखा, (२४) दो अनुराधा, (२५) दो ज्येष्ठा, २४. दो अणुराधा, २५. दो जेट्ठा, २६. दो मूला, (२६) दो मूल, (२७) दो पूर्वाषाढ़ा, (२८) दो उत्तराषाढ़ा। २७. दो पुव्वासाढा, २८. दो उत्तरासाढा, (दो चन्द्रों के साथ योग करने वाले नक्षत्र)ता एएसि णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं इन छप्पन नक्षत्रों में(क) अत्थि णक्खत्ता जे णं णब मुहत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठि (क) कुछ नक्षत्र हैं जो नौ मुहूर्त और एक मुहूर्त के सड़सठ भागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोय जोएंत्ति, भागों में से सत्तावीस भाग जितने समय तक चन्द्र के साथ योग करते हैं। (ख) अत्थि णक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं (ख) कुछ नक्षत्र हैं जो पन्द्रह मुहूर्त चन्द्र के साथ योग जोएंति, करते हैं। (ग) अत्थि णक्खत्ता जे णं तीस मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं (ग) कुछ नक्षत्र हैं जो तीस मुहूर्त चन्द्र के जोएंति, __ करते हैं । (घ) अत्थि णक्खत्ता जे गं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि (घ) कुछ नक्षत्र हैं जो पैतालीस मुहूर्त चन्द्र के साथ योग जोयं जोएंति, करते हैं। १ जंबुद्दीवे णं दीवे छप्पन्नं नक्खत्ता चंदेण सद्धि जोगं जोइंसु वा, जोइंति वा, जोइस्संति । -सम. ५६ सु. १ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों के स्वरूप का प्ररूपण सूत्र ११२१ ५०—(क) ता एएसि छप्पण्णाए णक्खत्ताणं प्र०—(क) इन छप्पन नक्षत्रों मेंकयरे णक्खत्ता जे णं णवमुहत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे कितने नक्षत्र हैं जो नौ मुहूर्त और एक मुहूर्त के सड़सठ मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएंति ? भागों में से सत्तावीस भाग जितने समय तक चन्द्र के साथ योग करते हैं ? (ख) कयरे णक्खत्ता जे णं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं (ख) कितने नक्षत्र हैं जो पन्द्रह मुहूर्त चन्द्र के साथ योग जोएंति? करते हैं ? (ग) कयरे णक्खत्ता जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं (ग) कितने नक्षत्र हैं जो तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ योग जोएंति ? करते हैं ? (घ) कयरे णक्खत्ता जे णं पणयालीसं मुहत्ते चंदेण सद्धि (घ) कितने नक्षत्र हैं जो पैतालीस मुहूर्त चन्द्र के साथ योग जोयं जोएंति ? करते हैं ? उ०—(क) ता एएसि गं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं उ०-(क) इन छप्पन नक्षत्रों मेंतत्य जे ते णक्खत्ता, जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च जो नक्षत्र नौ मुहूर्त और एक मुहूर्त के सड़सठ भागों में से सत्तसटिभागे मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोगं जोएंति, ते णं सत्तावीस भाग जितने समय तक चन्द्र के साथ योग करते हैं, वे दो अभीयो,' दो अभिजित् हैं। (ख) तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं पण्णरसमुहुत्ते चंदेण सद्धि (ख) जो नक्षत्र पन्द्रह मुहुर्त चन्द्र के साथ योग करते हैं, वे जोगं जोएंति, ते णं बारस तं जहा बारह हैं, यथा१. दो सतभिसया, २. वो भरणी, ३. दो अद्दा, (१) दो शतभिषक्, (२) दो भरणी, (३) दो आर्द्रा, ४. वो अस्सेसा, ५. दो साती, ६. दो जेट्ठा। (४) दो अश्लेषा, (५) दो स्वाती, (६) दो ज्येष्ठा । (ग) तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि (ग) जो नक्षत्र तीस मुहर्त चन्द्र के साथ योग करते हैं, वे जोगं जोएंति, ते णं तीसं, तं जहा तीस हैं, यथा१. दो सवणा, २. दो धणिट्ठा, ३. दो पुव्वाभद्दवया, (१) दो श्रवण, (२) दो धनिष्ठा, (३) दो पूर्वाभाद्रपद, ४. दो रेवई, ५. दो अस्सिणी, ६. बो कत्तीया, ७. दो (४) दो रेवती, (५) दो अश्विनी, (६) दो कृत्तिका, (७) दो संठाणा, ८. दो पुस्सा, ६. दो महा, १०. दो पुव्वा- मृगसर, (८) दो पुष्य, (६) दो मघा, (१०) दो पूर्वाफाल्गुनी, फग्गुणी, ११. दो हत्था, १२. दो चित्ता, १३. दो (११) दो हस्त, (१२) दो चित्रा, (१३) दो अनुराधा, (१४) दो अणुराधा, १४. दो मूला, १५. दो पुव्वासाढा। मूल, (१५) दो पूर्वाषाढ़ा। (घ) तत्थ जे ते गक्खत्ता जे गं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण (घ) जो नक्षत्र पैतालीस मुहूर्त चन्द्र के साथ योग करते हैं, सद्धि जोगं जोएंति ते णं बारस, तं जहा वे बारह हैं यथा१. दो उत्तरापोटुवया, २. दो रोहिणी, ३. दो पुणव्वसु, (१) दो उत्तराभाद्रपद, (२) दो रोहिणी, (३) दो पुनर्वसु, ४. दो उत्तराफग्गुणी, ५. दो विसाहा, ६. दो उत्तरा- (४) दो उत्तराफाल्गुनि, (५) दो विशाखा, (६) दो उत्तराषाढा । साढा । -सूरिय. पा. १०, पाहु. २२, सु. ६० १ सम.६ सु. ५। २ छ नक्खत्ता पन्नरस मुहुत्त संजुत्ता पण्णत्ता, तं जहा सतभिसय भरणी, अद्दा असलेसा साई तहा जेट्ठा । एते छ नक्खत्ता पन्नरस मुहुत्त संजुत्ता ।। -सम. १५ सु. ४ ३ सव्वेवि णं दिवड्ढ खेत्तिया नक्खत्ता पणयालीस मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोइंसु वा, जोएंति वा जोइस्संति वा-तिन्नेव उत्तराई, पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य एए छ नक्खत्ता पणयाल-मुहुत्त संजोगा। -सम. ४५ सु.७॥ ४ चद. पा. १० सु. ६० । Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२१ तिर्यक्लोक : नक्षत्रों के स्वरूप का प्ररूपण गणितानुयोग ६३६ (दो सूर्यों के साथ योग करने वाले नक्षत्र-) (क) ता एएस णं छप्पण्णाए णक्खत्ताणं (क) इन छप्पन नक्षत्रों मेंअत्थि णक्खत्ता जे णं चत्तारि अहोरत्ते, छच्च मुहुत्ते कुछ नक्षत्र हैं जो चार अहोरात्र, छ मुहूर्त सूर्य के साथ योग सूरिएण सद्धि जोगं जोएंति, करते हैं। (ख) अत्थि णक्खत्ता जे गं छ अहोरत्ते, एगवीसं च मुहुत्ते (ख) कुछ नक्षत्र हैं जो छ अहोरात्र, इकवीस मुहूर्त सूर्य के सूरिएणं सद्धि जोगं जोएंति, साथ योग करते हैं। (ग) अत्थि णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुहुत्ते (ग) कुछ नक्षत्र हैं जो तेरह अहोरात्र बारह मुहूर्त सूर्य के सूरिएण सद्धि जोगं जोएंति, साथ योग करते हैं। (घ) अत्थि णक्खत्ता जे णं वीस अहोरत्ते तिन्नि य मुहुत्ते (घ) कुछ नक्षत्र हैं जो बीस अहोरात्र तीन मुहूर्त सूर्य के सूरेण सद्धि जोगं जोएंति, साथ योग करते हैं। प०-(क) ता एएसि णं णक्खत्ताणं प्र०-(क) इन छप्पन नक्षत्रों मेंकयरे णक्खत्ता जे णं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते कितने नक्षत्र हैं जो चार अहोरात्र छ मुहूर्त सूर्य के साथ सूरिएण सद्धि जोगं जोएंति ? योग करते हैं ? (ख) कयरे णक्खत्ता जे गं छ अहोरत्ते एगवीसं च मुहुत्ते (ख) कितने नक्षत्र हैं जो छह अहोरात्र इकवीस मुहूर्त सूर्य सूरिऐण सद्धि जोगं जोएंति ? । के साथ योग करते हैं ?। (ग) कयरे णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुहत्ते (ग) कितने नक्षत्र हैं जो तेरह अहोरात्र बारह मुहूर्त सूर्य के सूरिएण सद्धि जोगं जोएंति? साथ योग करते हैं ? (घ) कयरे णक्खत्ता जे णं वीस अहोरत्ते, तिन्नि य मुहुत्ते (घ) कितने नक्षत्र हैं जो बीस अहोरात्र तीन मुहूर्त सूर्य के सूरिएण सद्धि जोगं जोएंति ? साथ योग करते हैं ? उ०—(क) ता एएसि गं छप्पण्णाए णक्खत्ता णं उ०—(क) इन छप्पन नक्षत्रों मेंतत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं चत्तारि अहोरत्ते, छच्च जो नक्षत्र चार अहोरात्र, छ मुहूर्त सूर्य के साथ योग करते मुहत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएंति, ते णं दो अभीयो, हैं वे दो अभिजित् हैं। (ख) तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं छ अहोरत्ते एगवीसं च उ०-(ख) जो नक्षत्र छ अहोरात्र इकवीस मुहूर्त सूर्य के मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएंति, ते णं बारस, तं जहा- साथ योग करते हैं वे बारह हैं, यथा१. दो सतभिसया, २. दो भरणी, ३. दो अद्दा, ४. दो (१) दो शतभिषक्, (२) दो भरणी, (३) दो आर्द्रा, (४) दो अस्सेसा, ५. दो साती, ६. दो जेट्टा। अश्लेषा, (५) दो स्वाती, (६) दो ज्येष्ठा । (ग) तत्थ जे ते णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते बारस मुहुत्ते (ग) जो नक्षत्र तेरह अहोरात्र बारह मुहूर्त सूर्य के साथ योग सूरेण सद्धि जोगं जोएंति, ते ण तीसं तं जहा- करते है वे तीस हैं, यथा१. दो सवणा, २. दो धणिट्ठा, ३. दो पुव्वाभद्दवया, (१) दो श्रवण, (२) दो धनिष्ठा, (३) दो पूर्वाभाद्रपद, ४. दो रेवती, ५. दो अस्सिणी, ६. दो कत्तिया, ७. दो (४) दो रेवती, (५) दो अश्विनी, (६) दो कृत्तिका, (७) दो संठाणा, ८. दो पुस्सा, ६. दो महा, १०. दो पुब्वा- मृगसर, (८) दो पुष्य, (६) दो मघा, (१०) दो पूर्वाफाल्गुनी, फग्गुणी, ११. दो हत्था, १२. दो चित्ता, १३. दो (११) दो हस्त, (१२) दो चित्रा, (१३) दो अनुराधा, (१४) दो अणुराधा, १४. दो मूला, १५. दो पुव्वासाढा, मूल, (१५) दो पूर्वाषाढ़ा। (घ) तत्य जे ते णक्खत्ता जे णं वीस अहोरते तिण्णि य (घ) जो नक्षत्र बीस अहोरात्र तीन मुहूर्त सूर्य के साथ योग मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएंति, ते णं बारस. तं जहा- करते हैं वे बारह हैं, यथा१. दो उत्तरापोटुवया, २. दो रोहिणी, ३. दो पुणव्वसु (१) दो उत्तराभाद्रपद, (२) दो रोहिणी, (३) दो पुनर्वसु, ४. दो उत्तराफग्गुणी, ५. दो विसाहा, ६. दो उत्तरा- (४) दो उत्तरा फाल्गुनी, (५) दो विशाखा, (६) दो उत्तराषाढ़ा । साढा,' -सूरिय. पा. १०, पाहु. २२, सु. ६० १ चंद. पा. १० सु. ६०। Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० . लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : नक्षत्रों का चन्द्रों के साथ योगकाल सूत्र ११२२ णक्खत्ताणं चंदेण जोगकालं नक्षत्रों का चन्द्रों के साथ योगकाल१२२.५०-ता कहं मुहूत्ता य? आहिए त्ति वएज्जा। १२२. (नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग) कितने मुहूर्त रहता है ? कहेंउ०—ता एएसि गं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं । उ०—(क) इन अठावीस नक्षत्रों में कुछ नक्षत्र हैं । (क) अत्थि णक्खतं जे णं णव मुहत्ते सत्तावीसं च सत्तट्टि जो नौ मुहूर्त और एक मुहूर्त के सड़सठ भागों में से सत्तावीस भाए मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएइ । भाग जितने समय तक चन्द्र के साथ योग करते हैं । (ख) अस्थि णक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं (ख) कुछ नक्षत्र हैं जो पन्द्रह मुहूर्त पर्यन्त चन्द्र के साथ जोएंति । योग करते हैं। (ग) अस्थि णक्खत्ता जे णं तीसं मुहत्ते चंदेण सद्धि जोयं (ग) कुछ नक्षत्र हैं जो तीस मुहूर्त पर्यन्त चन्द्र के साथ योग जोएंति। करते हैं। (घ) अत्थि णक्खत्ता जे णं पणयालीसे मुहुत्ते चंदेण सद्धि (घ) कुछ नक्षत्र हैं जो पैंतालीस मुहूर्त पर्यन्त चन्द्र के साथ जोयं जोएंति। योग करते हैं । प०–ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं? प्र०—(क) इन अठावीस नक्षत्रों में(क) कयरे णक्खत्ते जे णं णव मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभाए कितने नक्षत्र हैं जो नौ मुहूतं और एक मुहूर्त के सड़सठ मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोए ति? भागों में से सतावीस भाग जितने समय तक चन्द्र के साथ योग करते हैं? (ख) कयरे णक्खत्ता जे णं पण्णरस मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोय (ख) कितने नक्षत्र हैं जो पन्द्रह मुहूर्त चन्द्र के साथ योग जोएंति ? करते हैं ? (ग) कयरे णक्खत्ता जे ण तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं (ग) कितने नक्षत्र हैं जो तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ योग जोएंति ? करते हैं ? (घ) कयरे णक्खत्ता जे गं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं (घ) कितने नक्षत्र हैं जो पैतालीस मुहूर्त चन्द्र के साथ योग ___जोयं जोएंति ? करते हैं? उ०—(क) ता एएसि गं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे उ०-(क) इन अठाइस नक्षत्रों में जो नक्षत्र नौ मुहूर्त ते गक्खत्ते, जे णं णव मुहुत्ते सत्ताबीसं च सत्तविभाए और एक मुहूर्त के सड़सठ भागों में से सत्तावीस भाग जितने मुहुत्तस्स चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, से णं एगे, अभीया। समय तक चन्द्र के साथ योग करता है, वह एक अभिजित् हैं । (ख) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्वत्ता गं तत्थ जे ते (ख) इन अठाईस नक्षत्रों में जो नक्षत्र पन्द्रह मुहूर्त पर्यन्त णक्खता, जे णं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, ते चन्द्र के साथ योग करते हैं, वे छ हैं, यथा-(१) शतभिषक्, णं छ तं जहा–१. सतमिसया, २. भरणी, ३. अद्दा, (२) भरणी, (३) आर्द्रा, (४) अश्लेषा, (५) स्वाती, ४. अस्सेसा, ५. साति, ६. जेट्ठा । (६) ज्येष्ठा । (ग) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (ग) इन अठाईस नक्षत्रों मेंतत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं तीसं महत्तं चंदेण सद्धि जो नक्षत्र तीस मुहूर्त पर्यन्त चन्द्र के साथ योग करते हैं वे जोयं जोएंति, ते गं पण्णरस तं जहा पन्द्रह हैं, यथा१. सवणो, २. धणिट्ठा, ३. पुढवा भद्दवया, ४. रेवई, (१) श्रवण, (२) धनिष्ठा, (३) पूर्वाभाद्रपद, (४) रेवती, -सम. स.६ सु. ५ १ (क) अभीजि णक्खत्ते साइरेगे णव महत्ते चंदेण सद्धि जोग जोएइ । (ख) ठाणं अ. ६, सु. ६६६ । २ ठाण ६, सु.५१५ । Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२२-११२३ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का सूर्य के साथ योगकाल ५. अस्सिणी, ६. कत्तिया, ७. मग्गसिर, ८. पुरसो, ६. महा, १०. वाफग्गुणी, ११. हत्थो, १२. चित्ता, १३. अणुराहा, १४. मूलो, १५. पुव्वासाढा । (घ) ता एएस में अट्ठावीसाए गरजला, तसे णक्खत्ता, जे णं पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, ते गं छ तं जहा १. उत्तरा भद्दवया, २. रोहिणी, ३. पुणव्वसू, ४. उत्तराफग्गुणी, ५. विसाहा, ६. उत्तरासाढा ।" सूरिय. पा. १० पाहू. २, सु. ३२ णक्खत्ताणं सूरेण जोगकाल- १२३. ( क ) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं । अस्थि णक्खत्ते जेणं चत्तारि अहोरत्ते, छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएति । (ख) अस्थि णक्खता जेणं छ अहोरते, एक्कवीमं च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति । (ग) अत्थि णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति । (घ) अस्थि गक्खता जे पी अहोरसे तिष्णि यमुले सूरेण सद्धि जो जोति । १० (क) ता एएस में अट्ठावीसाए रखता, कमरे से गं बतारि अहोरते उच्च मुह सुरेण सद्धि जो जोएंति (ख) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, रेगनले जे छ अहोरले एक्कवीस च नुह सुरेन सद्धि जो जोति ? (ख) चंद पा. १०, सु, ३३ । (घ) ठाणं ६ सु. ५१७ । (५) अश्विनी, (६) कृत्तिका, (७) मार्गशीर्ष, (८) पुष्य, (६) मघा, (१०) पूर्वा फाल्गुनी, (११) हस्त, (१२) चित्रा, (१३) अनुराधा, (१४) मूल (१५) पूर्वाषाड़ा। गणितानुयोग ६४१ (घ) इन अठाईस नक्षत्रों में जो नक्षत्र पैंतालीस मुहूर्त पर्यन्त चन्द्र के साथ योग करते हैं, वे छ हैं, यथा (१) उत्तराभाद्रपद, (२) रोहिणी, (३) पुनर्वसु, (४) उत्तरा फाल्गुनी, (५) विशाखा, (६) उत्तराषाढ़ा । नक्षत्रों का सूर्य के साथ योग काल१२३. (क) इन अठावीस नशों में - कुछ नक्षत्र हैं जो चार अहोरात्र और छ मुहूर्त पर्यन्त सूर्य साथ योग करते हैं । के (ख) कुछ नक्षत्र हैं जो छ अहोरात्र और इकवीस मुहूर्त पर्यन्त सूर्य के साथ योग करते हैं । (ग) कुछ नक्षत्र हैं जो तेरह अहोरात्र और बारह मुहूर्त पर्यन्त सूर्य के साथ योग करते हैं। (घ) कुछ नक्षत्र है जो बीस अहोरा और तीन मुहूर्त पर्यन्त्र सूर्य के साथ योग करते हैं । प्र० - ( क ) इन अठावीस नक्षत्रों में कितने नक्षत्र हैं जो चार अहोरात्र और छ मुहूर्त पर्यन्त सूर्य के साथ योग करते हैं ? (ख) इन अठावीस नक्षत्रों में कितने नक्षत्र हैं जो छ अहोरात्र और इकवीस मुहूर्त पर्यन्त सूर्य के साथ योग करते हैं ? ३ (क) १० - एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई णक्खत्ते कतिमुहुत्ते चंदेण सद्धि जोगं जोएइ ? उ०- गोयमाणमुहते सत्तावीस च सत्तभाए मुहूतस्य चंदे सद्धि जोगं जोएह एवं इमाहि गाहाहि अगंतव्य | माहाओ - अभित्स चंदजोगी सत्त बंदियो महोरतो । ते हुति णव मुहुत्ता सत्तावीसं कलाओ अ ।। १ ।। भिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । गते छष्णक्खत्ता पण्णस्समुहुत्तसंजोगा ।। २ ।। तिण्णव उत्तराई पुणव्वसू रोहिणी विसाहा य । एए छम्मता पणयात जोगा ।। ३ ।। अबसेसारखा परणरसनिति तीसइमुहुत्ता। चंदमि एस जोगो गक्त्ता ॥ ४ ॥ (ग) सम . ६, सु. ६ । - जंबु. वक्ख. ७, सु. १६० Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का सूर्य के साथ योगकाल सूत्र ११२३ (ग) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (ग) इन अठावीस नक्षत्रों में-- . कयरे णक्खत्ता जे णं तेरस अहोरत्ते, बारस य मुहुत्ते कितने नक्षत्र हैं जो तेरह अहोरात्र और बारह मुहूर्त पर्यन्त सूरेण सद्धि जोयं जोएंति ? सूर्य के साथ योग करते हैं ? (घ) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (घ) इन अठाईस नक्षत्रों मेंकयरे णक्खत्ता जे णं वीसं अहोरत्ते, तिण्णि य मुहुत्ते कितने नक्षत्र हैं जो बीस अहोरात्र और तीन मुहूर्त पर्यन्त सूरेण सद्धि जोयं जोएंति ? सूर्य के साथ योग करते हैं ? उ०—(क) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, उ०—(क) इन अठाईस नक्षत्रों में सेतत्थ जे ते णक्खत्ते जे णं चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते जो नक्षत्र चार अहोरात्र और छः मुहूर्त सूर्य के साथ योग सूरेण सद्धि जोयं जोएंति, से णं एगे अभीयो । करता है वह एक अभिजित् है । (ख) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (ख) इन अठाईस नक्षत्रों में सेतत्थ जे ते णक्खता जे णं छ अहोरत्ते, एक्कवीसं च जो नक्षत्र छ अहोरात्र और इक्कीस मुहूर्त सूर्य के साथ योग मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति ते णं छ तं जहा- करते हैं वे छ हैं, यथा-(१) शतभिषक, (२) भरणी, १. सतभिसया, २. भरणी, ३. अद्दा, ४. अस्सेसा, (३) आर्द्रा, (४) अश्लेषा, (५) स्वाती, (६) ज्येष्ठा । ५. सातो, ६. जेट्ठा। (ग) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, (ग) इन अठाईस नक्षत्रों में सेतत्थ जे ते णक्खत्ता, जे गं तेरस अहोरत्ते दुवालस य जो नक्षत्र तेरह अहोरात्र और बारह मुहूर्त सूर्य के साथ योग मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोयं जोएंति, ते गं पण्णरस तं जहा- करते हैं वे पन्द्रह है, यथा-(१) श्रवण, (२) धनिष्ठा, १. सवणो, २. धणिट्ठा, ३. पुव्वा भद्दवया, ४. रेवई, (३) पूर्वाभाद्रपद, (४) रेवती, (५) अश्विनी, (६) कृत्तिका, ५. अस्सिणी, ६. कत्तिया, ७. मग्गसिरं ८. पुस्सो, (७) मृगशिर, (८) पुष्य, (६) मघा, (१०) पूर्वाफाल्गुनी, ६. महा, १०. पुवाफग्गुणी, ११. हत्थो, १२. चित्ता, (११) हस्त, (१२) चित्रा, (१३) अनुराधा, (१४) मूल, १३. अणुराहा, १४. मूलो, १५. पुव्वासाढा । (१५) पूर्वाषाढ़ा। (घ) ता एएसि णं अट्ठावीसाए णक्ख ताणं, इन अठाईस नक्षत्रों में सेतत्थ जे ते णक्खत्ता, जे णं वीसं अहोरत्ते, तिण्णि य जो नक्षत्र बीस अहोरात्र और तीन मुहूर्त सूर्य के साथ योग महत्ते, सूरेण सद्धि जोयं जोएंति ते णं छ, तं जहा- करते हैं, वे छ हैं, यथा-(१) उत्तराभाद्रपद, (२) रोहिणी, १. उत्तराभवया, २. रोहिणी, ३. पुणव्वसू, ४. उत्तरा- (३) पुनर्वसु, (४) उत्तराफाल्गुनी, (५) विशाखा, (६) उत्तराफग्गुणी, ५. विसाहा, ६. उत्तरासाढा । षाढा । -सूरिय० पा० १०, पाहु० २, सु० ३४ १ (क) प०-एतेसि णं भंते ! अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिईणक्खत्ते कति अहोरत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएइ ? उ०-गोयमा ! चत्तारि अहोरत्ते छच्च मुहुत्ते सूरेण सद्धि जोगं जोएइ, एवं इमाहिं गाहाहि अव्वंगाहाओ-अभिई छच्च मुहुत्ते चत्तारि अ केवले अहो रत्ते । सूरेण समं गच्छइ एत्तो सेसाण वोच्छामि ॥ १ ॥ सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्टा य । वच्चंति मुहुत्ते इक्कवीस छच्चेवाहोरत्ते ।। २ ।। तिण्णेव उत्तराई पुणव्वसु रोहिणी विसाहा य । वच्चंति मुहुत्ते तिण्णि चेव वीसं अहोरत्ते ।। ३ ।। अवसेसा णक्खत्ता पण्णरसवि सूरसहगया जंति । वारस चेव मुहुत्ते तेरस य समे अहोरत्ते ।। ४ ।। -जंबु. वक्ख. ७, सु. १६० (ख) चंद. पा. १०, सु. । Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२४ तिर्यक्लोक : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग का प्रारम्भ काल गणितानुयोग ६४३ . -- - णक्खत्ताणं चंदेण जोगारंभकालं नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग का प्रारम्भ काल१२४. प०-१. ता कहं ते जोगस्स आई ? आहिए त्ति वएज्जा, १२४. (१) प्र०—(नक्षत्रों का चन्द्र के साथ) योग की आदि (योग का प्रारम्भ) किस प्रकार होती है ? कहे, उ०–ता अभियी-सवणा खलु दुवे णक्खत्ता, पच्छाभागा उ०-अभिजित् और श्रवण-ये दोनों नक्षत्र "दिन के" समखित्ता', साइरेग-एगूणचत्तालिसइ मुहत्ता तप्पढ- पिछले भाग-सायंकाल में चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करते हैं, मयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, तओ पच्छा उसके बाद कुछ अधिक एक दिवस अर्थात् कुछ अधिक उनचालीस अवरं साइरेग दिवसं । मुहूर्त "पर्यन्त" चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योगयुक्त रहते हैं । एवं खलु अभियी-सवणा दुवे णक्खत्ता एगराई एगं च इस प्रकार अभिजित् और श्रवण-ये दो नक्षत्र एक रात्रि साइरेग दिवसं चंदेण सद्धि जोयं जोएंति, तथा कुछ अधिक एक दिवस' “पर्यन्त” चन्द्र के साथ योग युक्त रहते हैं। जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टन्ति, योग करके योग मुक्त हो जाते हैं, जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंद धणिट्ठाणं समप्पेति, योगमुक्त होकर सायंकाल में “ये दोनों नक्षत्र" धनिष्ठा नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देते हैं। २. ता धणिवा खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ- (२) धनिष्ठा नक्षत्र “दिन के" पिछले भाग सायंकाल में मुहत्ते तप्पढमयाए सायं चदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है, उसके बाद एक रात्रि तथा पच्छाराई अवरं च दिवसं । एक दिवस, अर्थात् तीस मुहूर्त "पर्यन्त" "चन्द्र के साथ" सम क्षेत्र में योग युक्त रहता है। एवं खलु धणिट्ठा णक्खत्ते एगं च राई एगं च दिवसं इस प्रकार धनिष्ठा नक्षत्र एक रात्रि और एक दिवस चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, "पर्यन्त' चन्द्र के साथ योग युक्त रहता है । जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग मुक्त हो जाता है। जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं सयभिसयाण समप्पेइ, योग से अलग होकर सायंकाल में "धनिष्ठा नक्षत्र" शतभि षक नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। १ "इह अभिजिन्नक्षत्र' न समक्षेत्र, नाप्यपार्धक्षत्र, नापि द्वयर्द्धक्षत्र, केवलं श्रवणनक्षत्रण सह सम्बद्धमुपात्तमित्यभेदोपचारात् तदपि समक्षेत्रमुपकल्प्य समक्षेत्रमित्युक्तम्"।। २ “सातिरेका नवमुहूर्ताः अभिजित् स्त्रिशन्मुहूर्ताः श्रवणस्येत्युभयमीलने यथोक्त मुहूर्तपरिमाणं भवति" । ३ "सायं-विकालवेलायां, इह दिवसस्स कतितमाच्चरमाद्भागादारभ्य यावद्रात्र कतितमो भागो यावन्नाद्यापि परिस्फुट-नक्षत्र मण्डलालोक स्तावान् कालविशेषः सायमिति विवक्षितो द्रष्टव्यः' । ४ "इहाभिजिन्नक्षत्र यद्यपि युगस्यादौ प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, तथापि श्रवणेन सह सम्बद्धमिह तद्विवक्षित, श्रवणनक्षत्रं च मध्याह्लादूर्ध्वमपसरति दिवसे चन्द्रण सहयोगमुपादत्ते, ततस्तत्साहचर्यात् तदपि सायं समये चन्द्रेण युज्यमानं विवक्षित्वा सामान्यतः सायं चन्द्रेण सद्धि जोयं जोएंति' इत्युक्तम् । अथवा युगस्यादिमतिरिच्यान्यदा बाहुल्यमधिकृत्येदमुक्त ततो न कश्चिद्दोषः” । ५ एक रात तथा एक दिवस के तीस मुहर्त होते हैं, उनमें अभिजित् नक्षत्र के नौ मुहूर्त मिलाने पर उनचालीस मुहूर्त हो जाते हैं। ६ "एतावन्तं काल योगं युक्त्वा तदनन्तरं योगमनुपरिवर्तयते, आत्मनश्चयावयत इत्यर्थ," -सूर्य प्रज्ञप्ति की टीका से उद्धृत, ७ “समक्षेत्रे' त्रिंशन्मुहूर्तम्" चन्द्र के साथ किसी भी नक्षत्र का योग, यदि तीस मुहूर्त पर्यन्त रहता है तो वह “समक्षेत्र-योग" कहा जाता है। Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग का प्रारम्भ काल सूत्र ११२४ ३. ता सयभिसया खलु णक्खत्ते णतंभागे अवड्ढखेत्तें' (३) शतभिषा नक्षत्र सायंकाल में चन्द्र के साथ योग पण्णरस-मुहुत्ते, तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं प्रारम्भ करता है और रात्रि में पन्द्रह मुहूर्त पर्यन्त आधे क्षेत्र में जोएइ, नो लभइ अवरं दिवस, योग-युक्त रहता है किन्तु दूसरे दिन अलग हो जाता है। एवं खलु सयभिसया णक्खत्ते, एगं राइं चंदेण सद्धि इस प्रकार शतभिषक् नक्षत्र एक रात्रि पर्यन्त चन्द्र के साथ जोयं जोएइ, योग-युक्त रहता है। जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं पुव्वपोटुवयाणं समप्पेइ, योग से अलग होकर सायंकाल में 'शतभिषक् नक्षत्र" . पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। ४. ता पुव्वा-पोटुवया खलु णक्खत्ते पुव्वं भागे समक्खेत्ते (४) पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र "दिन के” पूर्वभाग-प्रातःकाल में तीसइ-मुहत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है, बाद में एक रात्रि पर्यन्त जोएइ, तओ पच्छा अवरं राई, “पूर्वापर का काल मिलाकर" तीस मुहूर्त पर्यन्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु पुव्वापोटुवया णक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च इस प्रकार पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र एक दिन और एक रात्रि राइं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, पर्यन्त चन्द्र के साथ योग युक्त रहता है। जोयं जोएत्ता अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं उत्तरापोट्टवयाणं योग-मुक्त होकर प्रातःकाल में "पूर्वाभाद्रपद" नक्षत्र उत्तरासमप्पेइ, भाद्रपद नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है । ५. ता उत्तरापोट्ठवया खलु णक्खत्ते उभयं भागे दिवड्ढ- (५) उत्तराभाद्रपद नक्षत्र "दिन के" पूर्व भाग-प्रातःकाल में खेत्ते पणयालीस-मुहत्ते , तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि तथा “दिन के" पिछले भाग-सायंकाल में चन्द्र के साथ योग जोय जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं च प्रारम्भ करता है । बाद में दूसरी रात्रि तथा दूसरा दिन, अर्थात् दिवसं। "पूर्वापर का काल मिलाकर" पेंतालीस मुहूर्त पर्यन्त चन्द्र के साथ डेढ़ क्षेत्र में योग युक्त रहता है । एवं खलु उत्तरापोटुवया णक्खत्ते दो दिवसे एगं च इस प्रकार उत्तराभाद्रपद नक्षत्र दो दिन तथा एक रात्रि राइं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, पर्यन्त चन्द्र के साथ योग युक्त रहता है । जोयं जोइत्ता अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं रेवईणं समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में" रेवती नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है । १ "अपार्ध-क्षेत्र पंचदशमुहूर्तम्" चन्द्र के साथ किसी भी नक्षत्र का योग यदि पन्द्रह मुहूर्त पर्यन्त रहता है तो वह “अपार्ध-क्षेत्र योग" अर्थात् "आधा क्षेत्र योग' कहा जाता है। २ "इह पूर्वप्रोष्टपदानक्षत्रस्य प्रातश्चन्द्रण सह प्रथमतया योगः प्रबृत्त, इतीदं पूर्वभागमुच्यते”। "इदं किलीत्तराभाद्रपदाख्यं नक्षत्रमुक्तप्रकारेण प्रातश्चन्द्र ण सहयोगमधिगच्छति । केवलं प्रथमान् पंचदश-मुहूर्तान् अधिकानपनीय समक्षेत्र कल्पयित्वा यदा योगश्चिन्त्यते तदा नक्तमपि योगोअस्तीत्युभयभागमवसेयम् । ४ "उत्तरप्रोष्ठपदानक्षत्र खलुभयभागं द्वयर्धक्षेत्र पंचचत्वारिंशन्मुहूर्त, तत्प्रथमतया-योगप्रथमतया प्रातश्चन्द्रण सार्द्ध योगं युनक्ति, तच्च, तथायुक्तं सततं सकलमपि दिवसमपरं च राशि ततः पश्चादपरं दिवसं यावद्वर्तते । ५ "द्वयर्द्ध क्षेत्र पंच-चत्वारिंशन्मुहर्तम्" चन्द्र के साथ किसी भी नक्षत्र का योग यदि पैंतालीस मुहूर्त पर्यन्त रहता है तो वह "द्वयर्द्धक्षेत्रयोग अर्थात् डेढ़ क्षेत्रा योग" कहा जाता है। Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२४ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग का प्रारम्भ काल गणितानुयोग ६४५ ६. ता रेवई खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ- (६) रेवती नक्षत्र 'दिन के" पिछले भाग सायंकाल में मुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है, तदनन्तर एक दिन, अर्थात् तओ पच्छा अवरं दिवस, "पूर्वापरका काल मिलाकर" तीस मुहर्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु रेवई णक्खत्ते एगं च राई, एगं च दिवसं इस प्रकार रेवती नक्षत्र एक रात्रि और एक दिवस चन्द्र के चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, साथ योग-युक्त रहता है । जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अस्सिणीणं समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "रेवती नक्षत्र" अश्विनी नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है । ७. ता अस्सिणी खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ- (७) अश्विनी नक्षत्र "दिन के" पिछले भाग—सायंकाल में महत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है । तदनन्तर एक दिन, अर्थात् पच्छा अवरं दिवस, "पूर्वापर का काल मिलाकर" तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु अस्सिणी णक्खत्ते, एगं च राई, एगं च दिवस, इस प्रकार अश्विनी नक्षत्र, एक रात्रि और एक दिवस चन्द्र चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, के साथ योग-युक्त रहता है । जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता, सायं चदं भरणीण समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "अश्विनी नक्षत्र" भरणी नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है । ८. ता भरणी खलु णक्खत्ते णतंभागे, अवड्ढखेत्ते पण्णरस- (८) भरणी नक्षत्र सायंकाल में चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ मुहत्तं तप्पढमयाए सायं चदेण सद्धि जोयं जोएइ, करता है, रात्रि में पन्द्रह मुहूर्त चन्द्र के साथ अर्ध क्षेत्र में योगनो लभइ अवरं दिवस, युक्त रहता है । किन्तु दूसरे दिन अलग हो जाता है । एवं खलु भरणी णक्खत्ते एगं च राइं चंदेण सद्धि जोयं इस प्रकार भरणी नक्षत्र एक रात्रि चन्द्र के साथ योग जोएइ, करता है। जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है। जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं कत्तियाणं समप्पेइ, योग-मुक्त होकर प्रातःकाल में "भरणी नक्षत्र" कृत्तिका नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। १. ता कत्तिया खलु णक्खत्ते पुव्वं भागे समक्खेत्ते तोसइ- (E) कृत्तिका नक्षत्र “दिन के" पूर्वभाग-प्रातःकाल में चन्द्र महत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, के साथ योग प्रारम्भ करता है तदनन्तर रात्रि में चन्द्र के साथ तओ पच्छाराई, समक्षेत्र में तीस मुहूर्त योग-युक्त रहता है। एवं खलु कत्तिया णक्खत्ते, एगं च दिवसं एगं च राई इस प्रकार कृत्तिका नक्षत्र एक दिन और एक रात्रि चन्द्र के चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, साथ योग-युक्त रहता है। जोयं जोएता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है। जोयं अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं रोहिणीणं समप्पेइ, योग-मुक्त होकर प्रातः-काल में 'कृत्तिका नक्षत्र" रोहिणी नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। १ "योगमनुपरिवर्त्य सायं परिस्फुटन्नक्षत्रमण्डलालोकसमये भरण्याः समर्पयति, इदं च भरणी नक्षत्रमुक्तयुक्त्या रात्री चन्द्रेण सह योगमुपैति, ततो नक्त भागमवसेयम्"। . २ इसके आगे मूल प्रति में–“संक्षिप्तवाचना का पाठ इस प्रकार है(१०) 'रोहिणी जहा उत्तराभवया", (११) मगसिरं जहा धणिट्ठा, (क्रमशः) Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग का प्रारम्भ काल सूत्र ११२४ १०. ता रोहिणी खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिवड्ढखेत्ते (१०) रोहिणी नक्षत्र "दिन के" पूर्व भाग-प्रातः काल में पणयालीस-मुहत्ते तप्पढमयाए, पाओ चंदेण सद्धि नोयं तथा “दिन के" पिछले भाग-सायंकाल में चन्द्र के साथ योग जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं दिवस, प्रारम्भ करता है। तदनन्तर एक रात्रि और एक दिवस अर्थात् 'पूर्वापर का काल" मिलाकर पैंतालीस मुहूर्त चन्द्र के साथ डेढ़ क्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु रोहिणी णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राइंचवेण इस प्रकार रोहिणी नक्षत्र दो दिन तथा एक रात्रि चन्द्र के सद्धि जोयं जोएइ, ___ साथ योग-युक्त रहता है। जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं मिगसरस्स समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "रोहिणी-नक्षत्र" मृगशिरा नक्षण को चन्द्र समर्पित कर देता है । ११. ता मिगसिरे खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ (११) मृगशिर नक्षत्र "दिन के" पिछले भाग सायंकाल में मुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ । तओ चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है । तदनन्तर एक रात्रि तथा पच्छाराई अवरं च दिवसं. एक दिन अर्थात् तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ योग-युक्त रहता है । एवं खलु मिगसिरे णक्खत्ते एमं च राई एगं च दिवसं इस प्रकार मृगशिर नक्षत्र एक रात्रि और एक दिवस चन्द्र चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, के साथ योग-युक्त रहता है। जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है। जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अदाए समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "मृगशिर-नक्षत्र" आर्द्रा नक्षत्र को चन्द्र-समर्पित कर देता है । १२. ता अद्दा खलु णक्खत्ते नतंभागे अवड्ढखेत्ते पण्णरस- (१२) आर्द्रा नक्षत्र सायंकाल में चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ मुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, नो करता है, रात्रि में पन्द्रह मुहूर्त चन्द्र के साथ योग-युक्त रहता है, लभइ अवरं दिवस, दूसरे दिन योग-युक्त नहीं रहता है। एवं खलु अद्दा णक्खत्ते एगं च राई चंदेण सद्धि जोयं इस प्रकार आर्द्रा नक्षत्र एक रात्रि चन्द्र के साथ योग-युक्त जोएइ, रहता है। जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं पुणव्वसुण समप्पेइ, योग-मुक्त होकर प्रातःकाल में आर्द्रा नक्षत्र पुनर्वसु नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। १३. ता पुणव्वसु खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिवड्ढखेते (१३) पुनर्वसु नक्षत्र “दिन के" पूर्वभाग-प्रातःकाल में पणयालीस-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं तथा "दिन के" पिछले भाग-सायंकाल में चन्द्र के साथ योग जोएइ, अवरं च राइं तओ पच्छा अवरं च दिवसं ।। प्रारम्भ करता है। तदनन्तर एक रात्रि तथा एक दिवस अर्थात् 'पूर्वापर का काल मिलाकर पैतालीस मुहूर्त चन्द्र के साथ डेढ़ क्षेत्र में योग-युक्त रहता है । . (क्रमशः) (१२) अद्दा जहा सतभिसया, (१३) पुणब्वसू जहा उत्तराभद्दवया, (१४) पुस्सो जहा धणिट्ठा, (१५) असलेसा जहा सतभिसया, (१६) महा जहा पुव्वाफग्गुणी, (१७) पुव्वाफग्गुणी जहा पुन्वाभद्दवया, (१८) उत्तराफग्गुणी जहा उत्तराभद्दवया, (१६-२०) हत्थो, चित्ताय जहा धणिट्ठा, (२१) साती जहा सतभिसया, (२२) विसाहा जहा उत्तराभद्दवया, (२३) अणुराहा जहा धणिट्ठा, (२४) जिट्ठा जहा सतभिसया, (२५) मूलो जहा पुव्वाभद्दवया, (२६) पुवासाढा जहा पुव्वाभद्दबया, (२७) उत्तरासाढा जहा उत्तराभद्दवया । -सूरिय. पा. १०. पाहु. ४, सु. ३६ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२४ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग का प्रारम्भ काल गणितानुयोग ६४७ एवं खलु पुणवसु णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राइं चंदेण इस प्रकार पुनर्वसु नक्षत्र दो दिन और एक रात्रि चन्द्र के सद्धि जोयं जोएइ, साथ योग-युक्त रहता है। जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं पुस्सस्स समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "पुनर्वसु नक्षत्र" पुष्य नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है । १४. ता पुस्से खलु णक्खत्ते पच्छे भागे समक्खेत्ते तीसइ- (१४) पुष्य नक्षत्र "दिन के" पिछले भाग-सायंकाल में महत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है, नदनन्तर एक रात्रि और पच्छाराइं अवरं च दिवसं, एक दिवस अर्थात् "पूर्वापर का काल मिलाकर" तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है । एवं खलु पुस्से णक्खत्ते एगं च राई एगं च दिवसं इस प्रकार पुष्य नक्षत्र एक रात और एक दिन चन्द्र के साथ चदेण सद्धि जोयं जोएइ. योग-युक्त रहता है। जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं असिलेसा समप्पेइ, योग-मुक्त होकर "पुष्य नक्षत्र" अश्लेषा नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। १५. ता असिलेसा खलु णक्खत्ते नत्तंभागे अवड्ढखेत्ते पन्न- (१५) अश्लेषा नक्षत्र मायंकाल में चन्द्र के साथ योग रसमुहत्ते तप्पढमयाए सायं चदेण सद्धि जोयं जोएइ, प्रारम्भ करता है । रात्रि में पन्द्रह मुहूर्त चन्द्र के साथ अर्ध क्षेत्र नो लभइ अवर दिवस, में योग-युक्त रहता है । “किन्तु" दूसरे दिन योग-युक्त नहीं रहता है। एवं खलु असिलेसा णक्खत्ते एगं च राई चंदेण सद्धि इस प्रकार अश्लेषा नक्षत्र एक रात्रि चन्द्र के साथ योग-युक जोयं जोएइ, रहता है। जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोय अणुप यट्टित्ता पाओ चंदं मघाणं समप्पेइ, योग-मुक्त होकर प्रातःकाल में "अश्लेषा नक्षत्र" मघा नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। १६. ता मघा खलु णक्खत्ते पुन्वंभागे समक्खेते तीसइ-मुहुत्ते (१६) मघा नक्षत्र ''दिन के" पूर्वभाग-प्रातःकाल में चन्द्र के तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ साथ योग प्रारम्भ करता है । तदनन्तर एक रात्रि अर्थात् "पूर्वापच्छा अवरं राई, पर का काल मिलाकर" तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खल मघा णक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च राइं इस प्रकार मघा नक्षत्र एक दिन और एक रात चन्द्र के साथ चंदेण सद्धि जोय जोएइ, योग-युक्त रहता है । जोय जोइत्ता जोय अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोय अणु परियट्टित्ता पाओ चंद पुव्वाफग्गुणीणं योग-मुक्त होकर प्रातःकाल में “मघा नक्षत्र" पूर्वाफाल्गुनी समप्पेइ, नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है । १७. ता पुत्वाफग्गुणी खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समक्खेते (१७) पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र 'दिन के" पूर्वभाग-प्रातःकाल में तीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चदेण सद्धि जोय' चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है, तदनन्तर एक रात्रि अर्थात् जोएइ, तओ पच्छा अवरं राई, "पूर्वापर का काल मिलाकर" तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु पुवाफग्गुणी णक्खत्ते एगं च दिवसं एगं च इस प्रकार पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र एक दिन और एक रात्रि राई चंदेणं सद्धि जोय जोएइ, चन्द्र के साथ योग-युक्त रहता है । Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग का प्रारम्भ काल सूत्र ११२४ जोय जोइत्ता जोय अणुपरियट्ट इ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है। जोय अणुपरियट्टित्ता पाओ चंद उत्तराफग्गुणीणं योग-मुक्त होकर प्रातःकाल में "पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र" समप्पेइ, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। १८. ता उत्तरा-फग्गुणी खलु णक्खत्ते उभय भागे दिवड्ढ- (१८) उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र “दिन के" पूर्वभाग-प्रात: खेत्ते पणयालीसइ-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि काल में तथा “दिन के" पिछले भाग सायंकाल में चन्द्र के साथ जोय जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं च योग प्रारम्भ करता है। तदनन्तर एक रात्रि और एक दिन दिवस, अर्थात 'पूर्वापर का काल मिलाकर" पैंतालीस मुहूर्त चन्द्र के साथ डेढ़ क्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु उत्तराफग्गुणी णक्खत्ते दो दिवसे एगं च इस प्रकार उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र दो दिन और एक रात राइं चंदेण सद्धि जोय जोएइ, चन्द्र के साथ योग-युक्त रहता है ।। जोय जोइत्ता जोय अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोय अणुपरियट्टित्ता साय चंदं हत्थं समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में-"उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र" हस्त नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। १६. ता हत्थे खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते (१६) हस्त नक्षत्र “दिन के" पिछले भाग सायंकाल में तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोय जोएइ, तओ चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है । तदनन्तर एक दिन, अर्थात् पच्छाराई अवरं च दिवस, "पूर्वापर का काल मिलाकर" तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु हत्थ णक्खत्ते एगं च राई, एगं च दिवसं इस प्रकार हस्त नक्षत्र एक रात्रि और एक दिवस चन्द्र के चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, साथ योग-युक्त रहता है। जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणु परियट्टित्ता सायं चंदं चित्ताए समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "हस्त नक्षत्र" चित्रा नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। २०. ता चित्ता खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ- (२०) चित्रा नक्षत्र 'दिन के" पिछले भाग-सायंकाल में मुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, तओ चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता हैं, तदनन्तर एक दिवस अर्थात् पच्छाराई अवरं च दिवस, "पूर्वापर का काल मिलाकर" तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु चित्ता णक्खते एगं च राई, एगं च दिवसं इस प्रकार चित्रा नक्षत्र एक रात्रि और एक दिवस चन्द्र के चदेण सद्धि जोय जोएइ, साथ योग-युक्त रहता है। जोय जोइत्ता जोय अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोय अणुपरियट्टित्ता साय' चंदं साईए समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "चित्रा नक्षत्र" स्वाती नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। २१. ता साई खलु णक्खत्ते नत्तंभागे अवड्ढखेत्ते पण्णरस- (२१) स्वाती नक्षत्र सायंकाल में चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ मुहुत्ते तप्पढमयाए साय चंदेण सद्धि जोय जोएइ, करता है, रात्रि में पन्द्रह मुहूर्त चन्द्र के साथ अर्धक्षेत्र में योगनो लभइ अवरं दिवस, युक्त रहता है । किन्तु दूसरे दिन योग-युक्त नहीं रहता है । एवं खल साइ गक्खत्ते एगं च राई चंदेण सद्धि जोय इस प्रकार स्वाती नक्षत्र एक रात्रि चन्द्र के साथ योग-युक्त जोएइ, रहता है। जोय जोइत्ता जोय अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२४ तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग का प्रारम्भ काल गणितानुयोग ६४६ जोय अणु परियट्टित्ता पाओ चंदं विसाहाणं, समप्पेइ, योग-मुक्त होकर प्रातःकाल में "स्वाती नक्षत्र" विशाखा नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है । २२. ता विसाहा खलु णक्खत्ते उभय भागे दिवड्ढखेत्ते (२२) विशाखा नक्षत्र “दिन के” पूर्वभाग-प्रातःकाल में पणयालीस-महत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि तथा “दिन के" पिछले भाग-सायंकाल में चन्द्र के साथ योग जोय जोएइ-अवरं च राई तओ पच्छा अवरंदिवस, प्रारम्भ करता है, तदनन्तर एक रात्रि और एक दिवस अर्थात् 'पूर्वापर का काल मिलाकर “पैतालीस मुहर्त चन्द्र के साथ डेढ़ क्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु विसाहा णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई इस प्रकार विशाखा नक्षत्र दो दिन तथा एक रात्रि चन्द्र के चंदेण सद्धि जोय जोएइ, साथ योग-युक्त रहता है। जोय जोइत्ता जोय अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोय अणुपरियट्टित्ता साय चंदं अणुराहाए समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "विशाखा नक्षत्र" अनुराधा नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है । २३. ता अणुराहा खलु णक्खत्ते पच्छंभागं समक्खेत्ते तीसइ- (२३) अनुराधा नक्षत्र "दिन के" पिछले भाग सायंकाल में मुहत्ते तप्पढमयाए साय चंदेण सहि जोय जोएइ, चन्द्र के साथ योग-प्रारम्भ करता है। तदनन्तर एक रात्रि और तओ पच्छा राई अवरं च दिवसं, एक दिवस अर्थात् “पूर्वापर का काल मिलाकर" तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है । एवं खलु अणुराहा णक्खत्ते एगं राई एगं च दिवसं इस प्रकार अनुराधा नक्षत्र एक रात्रि और एक दिवस चन्द्र चंदेण सद्धि जोय जोएइ, के साथ योग-युक्त रहता है। जोय जोइत्ता जोय अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोय अणुपरियट्टित्ता साय चंद जिट्ठाए समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में “अनुराधा नक्षत्र" ज्येष्ठा नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। २४. ता जेट्ठा खलु णक्खत्ते नत्तं भागे अवड्ढखेते पण्णरस- (२४) ज्येष्ठा नक्षत्र सायंकाल में चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ मुहत्ते तप्पढमयाए साय चंदेण सद्धि जोय जोएइ, करता है, रात्रि में पन्द्रह मुहूर्त चन्द्र के साथ अर्धक्षेत्र में योगनो लभइ अवर दिवस, युक्त रहता है । किन्तु दूसरे दिन योग-युक्त नहीं रहता है । एवं खलु जिट्ठा णक्खत्ते एगं च राई चंदेण सद्धि जोय इस प्रकार ज्येष्ठा नक्षत्र एक रात्रि चन्द्र के साथ योग-युक्त जोएइ, रहता है। जोय जोइत्ता जोय अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोय अणुपरियट्टित्ता पाओ चंद मूलस्स समप्पेइ, योग-मुक्त होकर प्रातःकाल में "ज्येष्ठा नक्षत्र" मूल नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। २५. ता मूले खलु णक्खत्ते पुव्वंभागे समक्खेत्ते तीसइ-मुहुत्ते (२५) मूल नक्षत्र “दिन के” पूर्वभाग प्रातःकाल में चन्द्र के तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोय जोएइ, साथ योग प्रारम्भ करता है, तदनन्तर एक रात्रि अर्थात् "पूर्वा पर का काल मिलाकर" तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु मूलं णक्खत्तं एगं च दिवसं एगं च राई चंदेण इस प्रकार मूल नक्षत्र एक दिन और एक रात चन्द्र के साथ सद्धि जोय जोएइ, __योग-युक्त रहता है। जोय जोइत्ता जोय अणुपरियट्ठइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है। जोय अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं पुब्वासाढाणं समप्पेइ, योग-मुक्त होकर प्रातःकाल में "मूल नक्षत्र" पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र - को चन्द्र समर्पित कर देता है । Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक नक्षत्रों के भोजन और कार्य सिद्धि : २६. ता पुव्वासाढा खलु णक्खत्ते पुव्वं भागे समक्खेत्ते तीस मुहुत्ते तपढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोय जोएइ; तओ पच्छा अवरं च राई, एवं खलु पुथ्वासाढा णक्खत्ते एगं च दिवस एवं च राई चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, जोयं जोइता जोय अणुपरियट्टइ जोय' अणुपरियट्टित्ता पाओ चंदं उत्तरासाढाणं समप्पेइ, २७. ता उत्तरासाढा खलु णक्खत्ते उभय भागे दिवड्ढखेत्ते पणयालीस मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोय' जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं च दिवस, एवं खलु उत्तरासाढा णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राई सिद्धि जो जोएड जोय' जोइसा जोव अनुपविट्टड, जोय अणुपरियट्टित्ता सायं चंदे अभिई सवणाणं समप्पेह - सूरिय. पा. १०, पाहु. ४, सु. ३६ णक्खत्ताणं भोयणं कज्ज-सिद्धि य१२५. ५० - ता कहं ते भोयणा ? आहिए ति वएज्जा, उ०- ता एएसि णं अट्ठावीसाए णं णक्खत्ताणं मज्झे१. कत्तिया हि दक्षिणा भोच्चा कज्जं साधेंति, २. रोहिणीहि वसभ-मंसं भोच्चा कज्जं साधेंति, २. मिसरे (ठाणा) मिगमं भोच्या क सार्धेति ४. अहाहि यणएवं भोक साति ५. पुणव्वसुणाऽथ घएणं भोच्चा कज्जं साधेंति, ६. पुस्से णं खीरेण भोच्चा कज्जं साधेति, सूत्र ११२४-११२५ (२६) पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र "दिन के" पूर्वभाग - प्रातः काल में चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है। तदनन्तर एक रात्रि अर्थात् "पूर्वापर का काल मिलाकर" तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ समक्षेत्र में योग-युक्त रहता है। इस प्रकार पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र एक दिवस और एक रात्रि चन्द्र के साथ योग-युक्त रहता है । योग करके योग मुक्त हो जाता है । योग मुक्त होकर प्रातः काल में " पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र" उत्तराषाढ़ा नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है । (२७) उत्तराषाढा नक्षत्र "दिन के" पूर्वभाग - प्रातः काल में तथा " दिन के" पिछले भाग - सायंकाल में अर्थात् उभयभाग में चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है, तदनन्तर एक रात्रि और एक दिवस अर्थात् " पूर्वापर का काल मिलाकर पैंतालीस मुहूर्त चन्द्र के साथ योग-युक्त रहता है । इस प्रकार उत्तराषाढ़ा नक्षत्र दो दिन और एक रात चन्द्र के साथ योग-युक्त रहता है । योग करके योग मुक्त हो जाता है । योग मुक्त होकर सायंकाल में "उत्तराषाढ़ा नक्षत्र" अभिजित और श्रवण नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है । नक्षत्रों के भोजन और कार्य सिद्धि १२५. प्र० - नक्षत्र के भोजन क्या हैं ? कहें । उ०—इन अट्ठाईस नक्षत्रों में से (१) कृत्तिका नक्षत्र में दही खाकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है। (२) रोहिणी नक्षत्र में वृषभ का मांस खाकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है। (३) मृगशिरा नक्षत्र में मृग का मांस खाकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है । (४) आर्द्रा नक्षत्र में नवनीत खाकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है । (५) पुनर्वसु नक्षत्र में घृत खाकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है। (६) पुष्य नक्षत्र में दूध पीकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है। १ (क) सुत्रांक १० से २७ पर्यंन्त के मूलपाठ सूर्य प्रज्ञप्ति की टीका से यहाँ उद्धृत किये हैं । (ख) चंद. पा. १० सु. ३६ । २ रोहिणीहि मम मसं ( चमसम सं ) भोच्चा कज्जं साधेंति, आ. स. समिति से प्रकाशित प्रति के पृष्ठ १५१ पर (पाठान्तर ) है । Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२५ तिर्यक लोक : नक्षत्रों के भोजन और कार्य-सिद्धि गणितानुयोग ६५१ ७. अस्सेसाए दीवग-मंसं भोच्चा कज्ज साधेति, (७) अश्लेषा नक्षत्र में दीपक का मांस खाकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है। ८. महाहि कसोति भोच्चा कजं साधेति, (८) मघा नक्षत्र में कथोटी खाकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है। ६. पुव्वाहि फग्गुणीहिं मेढक-मंसं भोच्चा कज्जं (६) पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में मेंढक का मांस खाकर कार्य करे साधेति, तो कार्य सिद्ध होता है। १०. उत्तराहि फग्गुणीहिं णक्खी मंसं भोच्चा कज्ज (१०) उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में नख वाले का मांस खाकर साधेति, कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है । ११. हत्येण वत्थाणीए णं भोच्चा कज्ज साधेति, (११) हस्त नक्षत्र में वस्त्रानीत-खाद्य विशेष खाकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है। १२. चित्ताहि मुग्ग-सूवेणं भोच्चा कज्ज साधति, (१२) चित्रा नक्षत्र में मूग की दाल खाकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है। १३. साइणा फलाई भोच्चा कज्ज साधेति, (१३) स्वाती नक्षत्र में फल खाकर कार्य करें तो कार्य सिद्ध होता है। १४. विसाहाहि आसित्तियाओ भोच्चा कज्ज साधेति, (१४) विशाखा नक्षत्र में आसित्तिका खाद्य विशेष खाकर कार्य करें तो कार्य सिद्ध होता है । १५. अणु राहाहि मिस्सारं भोच्चा कज्ज साधेति, (१५) अनुराधा नक्षत्र में मिश्रकूर-खाद्य विशेष खाकर कार्य करें तो कार्य सिद्ध होता है । १६. जेद्वाहि लट्ठिएण भोच्चा कज्ज साधेति, (१६) जेष्ठा नक्षत्र में लट्ठिअ = खाद्य विशेष खाकर कार्य करें तो सिद्ध होता है। १७. मलेणं मूलापन्नेणं भोच्चा कज्ज साधेति, (१७) मूल नक्षत्र में मूली के पत्ते खाकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है। १८. पुव्वाहि आसाढाहि आमलग-सरीरे भोच्चा कज्ज (१८) पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में आमलक खाकर कार्य करे ता साधेति, कार्य सिद्ध होता है। १६. उत्तराहि आसाढाहि बलेहि भोच्चा कज्ज साधेति, (१६) उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में बल=खाद्य विशेष खाकर कार्य करें तो कार्य सिद्ध होता है। २०. अभीयिणा पुप्फेहि भोच्चा कज्जं साधेति, (२०) अभिजित् नक्षत्र में पुष्प खाकर कार्य करें तो कार्य सिद्ध होता है। २१. सवणे णं खीरे णं भोच्चा कज्ज साधेति, (२१) श्रवण नक्षत्र में दुग्ध पीकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है। २२. धणिट्ठाहिं जूसे णं भोच्चा कज्ज साधेति, (२२) धनिष्ठा नक्षत्र में जूस =मूग आदि का क्वाथ पीकर कार्य करे तो कार्य सिद्ध होता है । २३. सतभिसयाए तुवरीओ भोच्चा कज्जं साधेति, (२३) शतभिषक् नक्षत्र में तुवर की दाल खाकर कार्य करें तो कार्य सिद्ध होता है। २४. पुवाहि पुट्ठवयाहि कारिल्लएहि भोच्चा कज्ज (२४) पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र में करेला खाकर कार्य करें तो साधेति, कार्य सिद्ध होता है। २५. उत्तराहि पुट्ठवयाहि वराहमंसं भोच्चा कज्ज (२५) उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में बराह का मांस खाकर कार्य साधेति, करें तो कार्य सिद्ध होता है। २६. रेवतीहिं जलयर-मंसं भोच्चा कज्ज साधेति, (२६) रेवती नक्षत्र में जलचर का मांस खाकर कार्य करें तो कार्य सिद्ध होता है। Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक्लोक : नक्षत्रों के भोजन और कार्य-सिद्धि सूत्र ११२५ २७. अस्सिणीहि तितिर-मंसं वट्टकमसं वा भोच्चा कज्ज (२७) अश्विनी नक्षत्र में तीतर का या घतक का मांस साधेति, खाकर कार्य करें तो कार्य सिद्ध होता है । २८. भरणीहि तलं तंदुलकं भोच्चा कज्ज साधेति,' (२८) भरणी नक्षत्र में तिल और चावल खाकर कार्य करें -सूरिय. पा. १०, पाहु. १७, सु. ५१ तो कार्य सिद्ध होता है। १ चंद. पा.१० सु.५१ । कूल्माषांस्तिल तण्डुलानपि तथा माषांश्च गव्यं दधि; त्वाज्यं दुग्धमथैणमांसमपरं तस्यैव रक्तं तथा । तद्वत्पायसमेव चापपललं मार्ग च शाशं तथा षाष्टिवयं च प्रियंग्वपूपमथवा चित्राण्डजान् सत्फलम् ।। ८४ ।। कौम सारिकगोधिकं च पललं शाल्यं हविष्यं हयाद्यक्ष स्यान्कृसरानमुद्गमपि वा पिष्टं यवानां तथा । मत्स्यान्नं खलु चित्रितान्नमथवा दध्यन्नमेवं क्रमाद् भक्ष्याऽभक्ष्यमिदं विचार्य मतिमान् भक्षत्तथाऽऽलोकयेत् ।। ८५ ॥ -मुहूर्तचिन्तामणि यात्राप्रकरण सूर्यप्रज्ञप्ति और मुहूर्त चिन्तामणी के अनुसार नक्षत्रा भोजन विधान की तालिकासूर्यप्रज्ञप्ति सूर्यप्रज्ञप्ति मुहूर्त चिन्तामणी मुहूर्त चिन्तामणी क्र० नक्षत्र नाम नक्षत्र भोजन नक्षत्र नाम नक्षत्र भोजन १ अभिजित् पुष्प अश्विनी २ श्रवण भरणी खिचड़ी ३ धनिष्ठा कृत्तिका मूग-भात ४ शतभिषक् तुवरदाल रोहिणी जौ का आटा ५ पूर्वाभाद्रपद करेला मृगशिरा मछली-भात ६ उत्तराभाद्रपद वराह-मांस आर्द्रा खिचड़ी ७ रेवती जलचर-मांस पुनर्वसु दही-भात ८ अश्विनी तीतर मांस, बतक मांस । पुष्य उड़द जौ ६ भरणी तिल, चावल अश्लेषा तिल, चावल १० कृत्तिका मघा उड़द ११ रोहिणी वृषभमांस पूर्वाफाल्गुनी गाय का दही १२ मृगशिरा मृग-मांस उत्तराफाल्गुनी गाय का घृत १३ आर्द्रा नवनीत हस्त गाय का दूध १४ पुनर्वसु चित्रा हरिण-मांस १५ पुष्य दूध स्वाती हरिण-रक्त १६ अश्लेषा दीपक-मांस विशाखा क्षीर कथौटी अनुराधा पपीहा-मांस १८ पूर्वाफाल्गुनी मेंडक-मांस हरिण-मांस १६ उत्तराफाल्गुनी श्वापद-मांस मूल शशक-मांस २० हस्त वस्त्रानीत पूर्वाषाढ़ा साठी-चावल २१ चित्रा मूगदाल उत्तराषाढ़ा मालकांगनी २२ स्वाती फलाहार अभिजित् २३ विशाखा आसित्तिका श्रवण विचित्र पक्षी २४ अनुराधा मिश्रकूर धनिष्ठा उत्तम फल २५ जेष्ठा लट्ठि शतभिषक् कच्छप-मांस मुली-पत्र पूर्वाभाद्रपद सारिका पक्षी मांस २७ पूर्वाषाढ़ा आमला उत्तराभाद्रपद गोधा-मांस २८ उत्तराषाढ़ा बल रेवती साही-मांस (क्रमशः) दही घृत १७ मघा जेष्ठा पूआ Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११२६-११२७ तिर्यक् लोक : मान-वृद्धि करने वाले इस नक्षत्र गणितानुयोग ६३ णाणस्स बुढिकरा दस णक्खत्ता ज्ञान वृद्धि करने वाले दस नक्षत्र११२६. दस णक्खत्ता णाणस्स बुढिकरा पण्णत्ता, तं जहा- ११२६. ज्ञान की वृद्धि करने वाले दस नक्षत्र हैं, यथागाहा गाथायेंमिगसिरमद्दा पुस्सो, तिणि य पुबाई मूलमस्सेसा । . (१) मृगशिर, (२) आर्द्रा, (३). पुष्य, (४) पूर्वाषाढा, हत्थो चित्ता य तहा, दस वुढिकराई नाणस्स ॥१॥' (५) पूर्वाफाल्गुनी, (६) उत्तराफाल्गुनी, (७) मूल, (८) अश्लेषा, -ठाणं. १०, सु० ७८१ (९) हस्त, (१०) चित्रा । ताराणं अणुत्तं, तुल्लतं ताराओं का अणुत्व-तुल्यत्व११२७. ५०-(क) अस्थि भंते ! चंदिम-सूरयाणं हिटि पि ११२७. प्र०—(क) हे भगवन् ! चन्द्र-सूर्य-विमान के नीचे जो तारारूवा-अणुपि तुल्लावि? तारे हैं वे (चन्द्र-सूर्य की कान्ति से) हीन हैं या तुल्य हैं ? (ख) समे वि तारारूवा-अणु पि, तुल्ला वि? (ख) समक्षेत्र में जो तारे हैं वे हीन हैं या तुल्य हैं ? (ग) ऊपर जो तारे हैं वे हीन हैं या तुल्य हैं ? उ०-(क-ग) हंता ! गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्वं । उ.-(क-ग) हाँ गौतम ! प्रश्नसूत्र के समान ही (उत्तर सूत्र) कहना चाहिए। ५०-से केण?णं भंते ! एवं वृश्चइ-"अस्थि णं चंदिम- प्र०-हे भगवन् ! यह किस प्रकार कहा जाता है, चन्द्र-सूर्य सूरियाणं हिदिपि ताराख्वा-अणु पि तुल्लावि-जाव- विमानों के नीचे जो तारे हैं वे हीन भी हैं, तुल्य भी हैं यावत्उम्पिपि तारारूवा-अणुषि, तुल्लावि? ऊपर जो तारे हैं वे हीन भी हैं, तुल्य भी हैं ? उ०-गोयमा ! जहा-जहाणं तेसि देवाणं तब-नियम-बम- उ०-हे गौतम ! जिन-जिन देवों के (पूर्वभव के) तप-नियम चेराणि उसियाई भवंति तहा तहाणं तेसि णं देवाण- ब्रह्मचर्य जितने-जितने उत्कृष्ट होते हैं उन देवताओं के (द्युति-वैभव एवं पण्णायए, तं जहा-अणुत्ते वा, तुल्लत्तेवा। आदि) उतने ही जाने जाते हैं, यथा-हीनत्व या तुल्यत्व । - (क्रमशः) सूर्यप्रज्ञप्ति के संकलनकर्ता ने पूरे आगम में सभी गणित के सूत्र दिए हैं केवल यही एक सूत्र इसमें फलित से सम्बन्धित हैं। जैनागमों में निमित्त शास्त्र को पापश्रुत और निमित्त के प्रवक्ता श्रमण को पापश्रमण कहा है, अतः फलित के कथन का प्ररूपण इस आगम में होना श्रमण-साधना से सर्वथा विपरीत है। नक्षत्र भोजन विधान में कतिपय महाविगयों के भोजन तो अहिंसा के उपासक गृहस्थों के लिए भी वर्ण्य हैं। वृत्तिकार ने भी इस सूत्र की वृत्ति में मांस वाचक पदार्थों को फलवाचक सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं किया है। किन्तु स्व० आचार्य अमोलकऋषिजी महाराज और स्व० पूज्य श्री घासीलालजी महाराज ने मांस वाचक पदार्थों को फलवाचक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। उनके इस प्रयत्न से यह सूत्र सर्वज्ञ प्ररूपित सिद्ध हो गया है । एक ओर निमित्त कथन को पापश्रुत मानना और दूसरी ओर इस सूत्र को सर्वज्ञ प्ररूपित सिद्ध करना परस्पर विरोधी कथन के अतिरिक्त अपने हाथों से ही अपने पैरों पर कुठाराघात करना है। सम्भव है रूढ़ परम्परा वालों ने ऐसे सूत्रों के कारण ही चन्द्र-सूर्यप्रज्ञप्ति के स्वाध्याय से विक्षिप्त होने के भय का भूत खड़ा कर दिया है। अनेक शोध-निबन्ध लेखक देश-विदेश के विद्वानों ने इन आगमों का पठन-पाठन किया है, फिर भी वे विक्षिप्त नहीं हुए हैं अतः गणितज्ञ इन आगमों का स्वाध्याय काल में स्वाध्याय करके ज्ञान वृद्धि कर सकते हैं। जम्बूदीप प्रज्ञप्ति वक्ष. सु. १५६ में नक्षत्रों के नाम अभिजित् से उत्तराषाढा पर्यन्त कहे गये हैं और सूर्यप्रज्ञप्ति में भी नक्षत्र विषयक सभी कथन अभिजित् से उत्तराषाढ़ा पर्यन्त कहे गये हैं, केवल यही एक सूत्र कृतिका से भरणी पर्यन्त उपलब्ध है अतः यह सूत्र अन्य मान्यता का सूचक है किन्तु इसकी वाक्यावली लिपिकों की भ्रान्ति से परिवर्तित हो गई है। अथवा यह सूत्र प्रक्षिप्त है। -सम्पादक १ सम. १०, सु.७। Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४. लोकप्रति तिर्यक् लोक ताराओं का अणुत्व-सुल्यत्व जहा जहा णं तेसि- बेवाणं तव नियम वंभराणि पो उसिपाई भवति सहा तहा गं तैसि देवानं एवं जो पाय, तं जहा असं वा, तुलसेवा । - जंबु० वक्ख० ७, सु० १६२ से एएट्ट णं गोयमा ! एवं बुच्चइ - " अत्थि णं चंदिम सूरियाणं हिट्ठिपि तारारूवा अणुपि, तुल्लावि - जाव-उत्पिपि तावा अणु'पि, तुल्लावि ।" - जीवा० प० ३, उ० २, सु० १६३ ताराणं अबाहा अंतरं परूवणं ११२८. ०९ता जंबुद्दीवे णं वीवे ताराहवस्य वासवस्त य एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? उ०- दुविहे अंतरे पण्णत्ते, तं जहा (१) वाधाइमे य, (२) निव्वाधाइने य (क) से बाइसे, से णं जहत्येनं बोणि शोषण, उपलोसे पं. बारस जोषण सहस्साइं दोणि बाबाले जोयणसए तारारूवस्स य ताराबस्स य अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । (ख) तस्थ णं जे से णिवाद्याइमे से णं जह पंचधणु समाई, उनकोसे णं अद्धजोयणं तारा रूवस्त य, अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । " - सूरिय० पा० १८, सु० ६६ सूत्र ११२७-११२ जिन-जिन देवों के (पूर्वभव के) तप-नियम ब्रह्मचर्य उत्कृष्ट नहीं होते हैं. उनके (बुद्धि-भव आदि) उतने नहीं जाते है, हीनत्व या तुल्यस्थ हे गौतम ! इस प्रकार यह कहा जाता है कि "चन्द्र-सूर्यविमानों के नीचे जो तारे हैं वे हीन भी हैं और तुल्य भी हैं - यावत् - ऊपर जो तारे हैं वे हीन भी हैं और तुल्य भी हैं। ताराओं के अबाधा अन्तर का प्ररूपण ११२८. प्र००- इस जम्बूद्वीप द्वीप में एक ताराः से दूसरे तारा का अबाधा अन्तर कितना है ? उ०- अन्तर दो प्रकार का कहा गया है, यथा- (१) व्यवधान वाला और बिना व्यवधान वाला । (क) इनमें जो व्यवधान वाला है, वह जघन्य दो सौ छासठ योजन का है और उत्कृष्ट बारह हजार दो सौ छियालीस योजन का है । (ख) इनमें जो व्यवधान वाला है, वह जघन्य पाँच सौ धनुष का है और उत्कृष्ट आधे योजन का है। CR.1 ॥ तिर्यक्लोक वर्णन समाप्त ॥ १ (ख) सूरि०पा० १ ० २०१ में ही है (क) जीवा० प० ३, उ०२, सु० ११३ ॥ (ग) यह न केवल बीयाविगम और (घ) यहाँ पदि बारह प्रकार का नियम शौवादि और ब्रह्मविदिनकीकर वाला ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है । शेष व्रतों का आराधक ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न नहीं होता है"अत्र शेषव्रतानामनुपदर्शनमुत्कटव्रतधारिणां ज्योतिष्केषु उत्पादासम्भवात् - जंबु० वक्ख० ७, सु० १६२ टीका = २ (क) जंबु० वक्ख० ७, सु० १६६, (ख) जीवा० पडि० ३, उ०२, सु०२०१, (ग) चंद० पा० १८, सु० ६६ ॥ Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSS வன்என்ஏஏஏஏ 191116 ऊध्र्व लोक वर्णन [105, 15 • * ] வது எSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSSS அ Page #821 --------------------------------------------------------------------------  Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उड्ढ लोओ उड्डलोग खेत्तलोगस्स पण्णरसविह परूवणं१. ५० लोग खेत्तलोए में भंते कवि पम्पले ? - उ०- गोयमा ! पण्णरसविहे पण्णत्ते, तं लोगखेलोए । जहा - १. सोहम् २ - ११- जाव- १२. अच्चय उड्ढलोगखेत्तलोए, १३. गेवेजविमान उड़लोग खेतलोए, १४. अणुरविमाण उठलोग बेत्तलए, १५. इसिपचार पुढवि उडलोग खेतनोए । - भग. स. ११, उ. १०, सु. ६ उलोग खेत्तलोगस्स संठाण परूवणं२. ५० लोग खेललोए भंते! कि संठिए पम्णते ? उ०- गोवमा मुगाकार संठिए । - भग. स. ११, उ. १०, सु. ६ उलोग खेतलोए जीवाजीव बेस-पदेश-परूवणं ३. पं० – उड्ढलोग खेत्तलोए णं भंते ! कि जीवा जीवबेसा जीवपदेसा अजीवा अजीवदेसा अजीव पदेसा ? उ०- गोयमा ! जीवा वि तं चेव जाव अजीव पदेसा वि । जे जीवा से यम एगिदिया जाय-पंचेरिया अणिदिया, जे जीवदेसा ते नियमं एगिदिया देसा जाव - अण दिय देसा । जे जीव पदेसा ते नियमं पदेसा जाव अणिदिय-पदेसा । ऊर्ध्व लोक ऊर्ध्वलोक क्षेत्र लोक का पन्द्रह प्रकार से प्ररूपण - १. प्र० – भगवन् ! उर्ध्वलोक क्षेत्र लोक कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०- गौतम ! पन्द्रह प्रकार का कहा गया है, यथा (१) सौधर्म कल्प ऊर्ध्वलोक क्षेत्र लोक, (२-११) यावत् (१२) अच्युत (काप) सोक क्षेत्रलोक, (१३) चैवेयक विमान लोक क्षेत्र लोक (१४) अनुत्तर विमान असोक क्षेत्र लोक, (१५) ईपत् प्राग्भार पृथ्वी लोक क्षेत्र लोक । ऊर्ध्वलोक क्षेत्र लोक के संस्थान का प्ररूपण२. प्र० - भगवन् ! ऊर्ध्वलोक क्षेत्र लोक का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? उ०- गौतम ! ऊर्ध्वं मृदङ्गकार संस्थान कहा गया है। ऊर्ध्वलोक क्षेत्र लोक में जीव तथा अजीव के देशों और प्रदेशों का प्ररूपण - ३. प्र० - भगवन् ! ऊर्ध्वलोक क्षेत्र लोक में क्या जीव, जीव के देश, जीव के प्रदेश तथा अजीव, अजीव के देश अजीव के प्रदेश हैं ? उ०- गौतम ! जीव हैं, (प्रश्न सूत्र के समान ) - यावत, - अजीव के प्रदेश भी है। जो जीव हैं वे निश्चित रूप से एकेन्द्रिय है-यावत्पंचेन्द्रिय हैं या अनिन्द्रिय के देश हैं । - जो जीव के देश हैं वे निश्चित रूप से एकेन्द्रिय के देश हैं, - यावत् — अनिन्द्रियके देश हैं। जो जीव के प्रदेश हैं वे निश्चित रूप से एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं -- यावत् — अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं । Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ लोक-प्रज्ञप्ति ऊर्ध्वलोक : आकाश प्रदेश में जीव तथा अजीव के देश और प्रदेशों का प्ररूपण सूत्र ३-४ जे अजीवा ते दुविहा पण्णता, तं जहा जो अजीव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. रूवि अजीवा य, २. अरूवी अजीवा य । (१) रूपी अजीव और (२) अरूपी अजीव, जे रूवि अजीवा ते चउम्विहा पण्णत्ता, तं जहा जो रूपी अजीव हैं वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. खंधा, २. खंधदेसा, ३. खंधपदेसा, ४. परमाणु (१) स्कंध, (२) स्कंध के देश, (३) स्कंध के प्रदेश, पोग्गला। (४) परमाणु पुद्गल । जे अरूवि अजीवा ते छविहा पण्णत्ता, तं जहा जो अरूपी अजीव हैं वे छ प्रकार के कहे गये हैं, यथानो धम्मत्थिकाए-१. धम्मत्थिकायस्सदेसे, २. धम्म- धर्मास्तिकाय नहीं-(१) धर्मास्तिकाय के देश हैं, (२) धर्मास्थिकायस्स पदेसा। स्तिकाय के प्रदेश हैं। नो अधम्मत्थिकाए-३. अधम्मत्थिकायस्सदेसे, ___ अधर्मास्तिकाय नहीं, (३) अधर्मास्तिकाय के देश हैं, ४. अधम्मत्थिकायस्सपदेसा। (४) अधर्मास्किाय के प्रदेश हैं । नो आगासत्थिकाए, ५. आगासत्थिकायस्स देसे, आकाशास्तिकाय नहीं, (५) आकाशास्तिकाय के देश हैं, ६. आगासत्थिकायस्स पदेसा, ७. अद्धासमओ नत्थि', (६) आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं, (७) अद्धा समय नहीं है। -भग. स. ११, उ. १०, सु. १४ उड्ढलोगखेत्तलोगस्स एगपएसे जीवाजीव-देस-पदेस कललोक क्षेत्र लोक के एक आकाश-प्रदेश में जीव तथा परूवणं अजीव के देश और प्रदेशों का प्ररूपण४. ५०-उड्ढलोग-खेत्तलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगास पएसे ४. प्र०-भन्ते ! ऊर्ध्वलोक क्षेत्र लोक के एक आकाश प्रदेशों में किं जीवा जीवदेसा, जीव पदेसा, अजीवा, अजीवदेसा, क्या जीव हैं ? जीव के देश हैं ? जीव के प्रदेश हैं ? तथा अजीव अजीवपदेसा? के देश हैं ? अजीव के प्रदेश हैं ? उ०-गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीव पदेसा वि, उ०-गौतम ! जीव नहीं हैं, जीव के देश हैं, जीव के प्रदेश अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि । हैं, अजीव हैं अजीव के देश हैं, अजीव के प्रदेश हैं । जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा । जो जीव के देश हैं वे निश्चित रूप से एकेन्द्रिय के देश हैं । अहवा-एगिदिय देसा य, बेइंदियस्स देसे । अथवा-एकेन्द्रिय के देश हैं और बेइन्द्रिय का एक देश हैं। अहवा-एगिदिय देसा य, बेइंदियाण य देसा । अथवा-एकेन्द्रिय के देश हैं और बेइन्द्रियों के देश हैं । एवं मज्झिल्लविरहिओ-जाव-अणिदिएसु । इस प्रकार बीच के भंग बिना-यावत्-शेष भंग अनि न्द्रियों में हैं। अहवा-एगिदिय देसा प, अणिदियाण-देसा। अथवा-एकेन्द्रियों के देश हैं-यावत्- अनिन्द्रियों के . देश हैं। जे जीव पदेसा ते नियम एगिदिय-पदेसा, जो जीव के प्रदेश हैं वे निश्चित रूप से एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं। अहवा-एगिदिय पदेसा य, बेइंदियस्स पदेसा, अथवा-एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं और बेइन्द्रिय के प्रदेश हैं । अहवा-एगिदिय पदेसा य, बेइंदियाण य पदेसा । अथवा-एकेन्द्रिय प्रदेश हैं और बेइन्द्रियों के प्रदेश हैं । एवं आदिल्ल विरहिओ-जाव-पंचेंदिएसु । इस प्रकार प्रथम भंग रहित-यावत्-(शेष भंग) पंचेन्द्रियों अणिदिएसु तिय भंगो अनिन्द्रियों में तीन भंग हैं । -भग. स. ११, उ. १०, सु. १४ १ एवं उड्ढलोग खेत्तलोए वि, नवरं-अरूबी छब्बिहा, अद्धा समओ नत्थि । इस संक्षिप्त पाठ का विस्तृत पाठ ऊपर अंकित है। Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११३०-११३२ ऊर्ध्व लोक : आयाम-मध्य का प्ररूपण गणितानुयोग ६५७ जे अजीवा ते दुविहा पण्णता, तं जहा जो अजीव है वे दो प्रकार के कहे गये हैं यथा१. रूवी अजीवा य, २. अरूबी अजीवा य । (१) रूपी अजीव, (२) अरूपी अजीव । रूबी तहेव-- रूपी पूर्ववत् कहें। जे अरूवी अजीवा ते चउन्विहा पण्णता, तं जहा- जो अरूपी अजीब हैं वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथानो धम्मत्थिकाए, १. धम्मत्थिकायस्स देसे, २. धम्म- धर्मास्तिकाय नहीं हैं, (१) धर्मास्तिकाय के देश हैं, थिकायस्स पदेसे। (२) धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं । ३-४. अधम्मत्थिकायस्स वि।' (३.४) इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के देश और प्रदेश हैं । -भग. ११, उ. १०, सु. १६ उडढलोगस्स आयाम-मज्झ परूवणं ऊर्ध्वलोक के आयाम-मध्य का प्ररूपण५. ५०-कहि गं भंते ! उड्ढलोगस्स आयाम-मज्झे पण्णते? ५. प्र० -भगवन् ! ऊर्ध्वलोक के आयाम-मध्य (लम्बाई का मध्य भाग) कहाँ गया है ? उ.-गोयमा ! उप्पि सणंकुमार-माहिदाणं । हेट्ठि बंभलोए 30-गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के ऊपर और कप्पे रिट्र विमाणपत्थडे । एत्थ णं उड्ढलोगस्स नीचे ब्रह्मलोक कल्प में रिष्ट विमान के प्रस्तट में ऊर्ध्वलोक का आयाम-मझे पण्णत्ते । आयाम-मध्य कहा गया है। ---भग. स. १३, उ. ४, सु. १४ वेमाणिय देवाण ठाणाई वैमानिक देवों के स्थान६.५०-कहि णं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं पज्जताऽऽपज्जत्ताणं ६.प्र० -भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त वैमानिक देवों के ठाणा पण्णता? स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प०-कहि णं भंते ? वेमाणिया देवा परिवसंति ? प्र० --भगवन् ! वैमानिक देव कहाँ रहते हैं ? उ०—गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम-रमणि- उ०-गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सम भूमि भाग से ज्जाओ भूमिभागाओ उड्ढं चंदिम-सूरिय-गह-गक्खत्त- ऊपर चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारा विमानों से अनेक सौ अनेक तारारूवाणं वहुई जोयणसयाई, बहूई जोयणसहस्साई हजार । अनेक लाख) अनेक क्रोड़ तथा अनेक क्रोडा-क्रोड योजन बहुगीओ जोयणकोडीओ, बहुगीओ जोयणकोडाकोडीओ दूर ऊपर सौधर्म-ईशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लांतक-महाउड्ढं दूर उप्पइत्ता । एत्थ णं सोहम्मीसाण-सणंकुमार- शुक्र-सहस्रार-आनत-प्राणत-आरण-अच्युत-(कल्प) ग्रैवेयक और माहिद-बंभलोय-लंतगे महासुक्क-सहस्सार-आणय-पाणय. अनुत्तरो (कल्पातीतों) में वैमानिक देवों के चौरासी लाख, आरण-अच्चुय-गेवेज्ज-अणुत्तरेसु । एत्थ णं वेमाणियाणं सत्तानवे हजार तेवीस विमान हैं ऐसा कहा गया है । देवाणं चउरासीइ विमाणावास सयसहस्सा सत्ताणउई च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीतिमक्खायं ।' ते णं विमाण सम्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा, वे विमान सर्वरत्नमय है, स्वच्छ हैं-यावत्-मनहर हैं । तत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा इन विमानों में पर्याप्त और अपर्याप्त वैमानिक देवों के पण्णत्ता । तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइ भागे।' स्थान कहे गये हैं, उपपात समुद्घात और स्वस्थान इन तीन की अपेक्षा से (ये स्थान) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। तत्थ णं बहवे बेमाणिया देवा परिवसंति, तं जहा---- उन विमानों में अनेक वैमानिक देव रहते हैं, यथासोहम्मीसाण सणंकुमार-माहिद-बंभलोग-लंतग-महासुक्क- सौधर्म-ईशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मलोक-लांतक-महाशुक्र १ एवं उड्ढलोग खेत्तलोगस्स वि, नवरं--अद्धासमओ नत्थि, अरूवी वउव्विहा । -भग. स. ११, उ. १०, सु. १६ इस संक्षिप्त पाठ का विस्तृत पाठ ऊपर अंकित है । २ सम. स. ८४, सु. १७ । ३ भवनपति देवों के समान हैं। Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ लोक- प्रज्ञप्ति सहस्तार आणय-पाणयः आरण परीवेज पातरो सवार मत प्राप्त आरण-अच्युतप्रवेयक और अनुत्तरों में ववाइया देवा । उत्पन्न होने वाले देव । ते णं १. मिग, २. महिस ३. वराह. ४. सीह ५. छगल, ६. द्ददुर, ७. हय, ८. 7 गवई, ह. भुयग, १०. खग्ग, ११. १२. विडिम, पागडिय-चिधमउडा । पसिढिलवरमउड-तिरीड धारिणो वरकुण्डलोयागणा मउडवित्त सिरया । तापमपम्हगोरा, सेया सुहवण्णगंध-फासा, उत ऊर्ध्व लोक : वैमानिक देवों के स्थान पचरयस्थ-गंध-मसालेवणारा, महिढिया जाव महासोक्खा । हारविराइयवच्छा, कपू-डिपभिया अंगद-कुडलमडतपीठधारी, विचित्तहस्था भरणा, विचित्तमालामउली । कलाणगपवरयस्थपरिहिया, कल्लाणगपवरमल्लावा भासरबोंदि पलंबवणमालधरा, दिव्वेणं वण्णेणं-जाव- दिव्वाए लेस्साए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा । पभासेमाणा । ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससय सहस्साणं- जाव- साणं साणं आयरक्ख देवसाहस्सीणं असि च बहूणं वेमाणियाणं देवाणं देवीण य आहेबजाय दवाई भोग भोगाई भुजमाणा विहरति । -पण्ण. प. २, सु. १६६ सूत्र ६ बारह देवलोकों के देवों के मुकुटों पर अंकित चिह्न(१) सौधर्म कल्पवासी देवों के मुकुटों पर मृग का चिह्न है । (२) ईशानकल्पवासीदेवों के मुकुटों पर पाडे का चिह्न है। (३) मनत्कुमार कल्पवासीदेवों के मुकुटों पर वराह का चिह्न है । (४) माहेन्द्रकल्पवासीयों के मुकुटों पर सिंह का चिह्न है। (५) ब्रह्मलोककल्पवासीदेवों के मुकुटों पर बकरे का चिह्न है । (६) लान्तक कल्पवासीदेवों के मुकुटों पर मेंडक का चिह्न है । (७) महामुककल्पवासीयों के मुकूटों पर घोड़े का चिह्न है। (८) सहसरकल्पवासीदेवों के मुकूटों पर गजपति का चिह्न है। (६) आनतकल्पवासीदेवों के मुकुटों पर भुजंग का चिन्ह है । (१०) प्राणतकल्पवासीदेवों के मुकुटों पर खड्ग का चिन्ह है । (११) आरणकल्पवासीदेवों के मुकुटों पर वृषभ का चिन्ह है। (१२) अच्युतकल्पवासी देवों के मुकुटों पर विटिम (मृग विशेष) का चिन्ह है । वे शिथिल श्रेष्ठ मुकुट किरीट धारण करने वाले हैं, श्रेष्ठ कुण्डलों से प्रकाशित मुख वाले हैं, मुकुटों से सुशोभित केशों वाले हैं, लालचर्ण के कमलों जैसे गौर वर्ण वाले है. श्वेत शुभ वर्ण-गंध-स्पर्श वाले हैं, उत्तम वैक्रय करने वाले हैं, श्रेष्ठ वस्त्र गंध माल्य तथा लेपन धारण करने वाले हैं, महान ऋद्धि वाले है--पाय-महामुख वाले हैं, वक्ष स्थल पर विराजित हार वाले हैं। कड़ा और भुवबंध से सुर भुजा वाले हैं। अंगद और कुण्डल स्पृष्ट कपोलों पर कर्णपीठ धारण करने वाले हैं, हाथों पर विचित्र आभरण धारण करने वाले हैं, मस्तक पर विचित्र मालायें धारण करने वाले हैं, कल्याणकर श्रेष्ठ वस्त्र धारण करने वाले हैं, कल्याणकर श्रेष्ठ माल्य एवं विलेपन धारण करने वाले हैं, दिव्य देह वाले हैं, लम्बी वनमालायें धारण करने वाले हैं, दिव्य वर्ण से - यावत् - दिव्य तेज से दस दिशाओं को उद्योतित करते हुए प्रभासित करते हुए वे अपने अपने लाखों विमानावासों का यावत् — अपने अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का और अन्य अनेक वैमानिक देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए पाव-दिव्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं। Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७ ऊर्ध्व लोक : सौधर्मकल्प देवों के स्थान गणितानुयोग ६५६ सोहम्मगदेवाणं ठाणाई सौधर्मकल्प के देवों के स्थान७.५०-कहि णं भंते ! सोहम्मगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ७. प्र०-भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मकल्प के देवों ठाणा पण्णता? के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प०-कहि णं भंते ! सोहम्मगदेवा परिवसंति ? प्र० -भगवन् ! सौधर्मकल्प के देव कहाँ रहते हैं ? उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे गं उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम-रमणिज्जाओ भूमि- इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समभूभाग से ऊपर चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र भागाओ उड्ढं । चंदिम-सूरिय-गह-णक्खत्ता-तारारूवाणं ताराओं से अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन. अनेक लाख बहई जोयणसयाई जोयणसहस्साई बहई जोयणसय- योजन और अनेक क्रोडाक्रोड योजन ऊपर इतने दूर जाने पर सहस्साई बहुगीओ जोयण कोडीओ बहुगीओ जोयण सौधर्म नाम का कल्प कहा गया है। कोडाकोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता। एत्थ णं सोहम्मे णामं कप्पे पण्णत्ते। पाईण-पडीणायए उदीण-दाहिणवित्थित्थपणे अद्ध चंद वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा अर्धचन्द्र संठाण संठिए अच्चिमालिभासरासिवण्णाभे असंखेज्जाओ के आकार से स्थित, सूर्य के किरण समूह सदृश प्रभाव वाला, जोयण कोडीओ असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ असंख्य कोटाकोटी योजन लम्बा चौड़ा, और असंख्य कोटाकोटी आयाम-विक्खंभेणं असंखेज्जाओ जोयण कोडाकोडीओ योजन की परिधि वाला है। परिक्खेवेणं । सव्वरयणामए अच्छे-जाव-पडिरूवे । सर्व रत्नमय है, स्वच्छ है-यावत्-प्रतिरूप हैं । तत्थ णं सोहम्मगदेवाणं बत्तीसं विमाणावास सयसहस्सा उसमें सौधर्म कल्पवासी देवों के बत्तीस लाख विमान कहे हवंतीतिमक्खायं। गये हैं। ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। वे विमान सर्व रत्नमय हैं स्वच्छ हैं-यावत्-प्रतिरूप हैं । ते ण विमाणा गं बहुमज्झ देसभाए पंच बडेसया उन विमानों के मध्य में पाँच अवतंसक विमान कहे गये पण्णत्ता, तं जहा हैं, यथा१. असोगव.सए, २. सत्तिवण्णव.सए, ३. चंपग- (१) अशोकावतंसक, (२) सप्तपर्णावतंसक, (३) चंपकावडेंसए, ५. मज्झेय त्थ सोहम्मवडेंसए । वतंसक, (४) चूतावतंसक, (५) और मध्य में सौधर्मावतंसक । ते गं वडेंसया सव्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। वे सभी अवतंसक स्वर्णमय हैं स्वच्छ हैं-यावत्-प्रति रूप हैं। एत्थ णं सोहम्मगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मकल्प के देवों के स्थान पण्णत्ता। कहे गये हैं। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइ भागे। (१) उपपात, (२) समुद्घात और (३) स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । उ.-तत्थ णं सोहम्मगदेवा परिवसंति । उ.-वहाँ अनेक सौधर्म कल्पवासी देव रहते हैं । महिड्ढीया-जाव-दिव्वाए लेस्साए दस दिसाओ उज्जो- वे महा ऋद्धि वाले हैं-यावत् -दिव्य तेज से दस दिशाओं वेमाणा पभासेमाणा। को प्रकाशित करते हुए रहते हैं। ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावास सयसहस्साणं साणं वे अपने अपने लाखों विमानों का अपने अपने हजारों साणं सामाणिय साहस्सीणं-जाव-साणं साणं आयरक्ख- सामानिक देवों का-यावत -अपने अपने आत्मरक्षक देवों का देव साहस्सीणं अण्णेसि च बहूणं सोहम्मग कप्पवासीणं आधिपत्य करते हुए-यावत्-दिव्य भागोपभोग भोगते हुए वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं-जाव- रहते हैं । दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणा विहरति । -पण्ण. प. २, सु. १६७ Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० लोक-प्रज्ञप्ति ऊर्ध्व लोक : सौधर्मेन्द्र वर्णक सोहम्मदसवण्णओ ८. सक्के यत्थ देविंदे देवराया परिवसति । वज्जपाणी पुरंदरे सतक्कतू सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिणड्ढलो गाहिवई बसीसविमानावासरूपसहसाहिबई रावणवाहणे । सुरिदे अरबरवत्यधरे आलइयमालमउडे गवमचारचितचंचल कुण्डले । विलिहिज्ज माणगंडे महिड्ढिोए जाव दिब्वाए लेस्साए दस दिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे । से णं तत्थ बत्तीसा विमाणावासस्यसहस्ताणं' चउरासीए सामानिय सहस्सोर्ण तावतीसए तावतीलगाउ सोन्याला अहं अयमहिसणं सपरिवारणं । तिम्हं परि साणं * सत्तण्हं अणियाणं बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वैमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव दिव्वाइं भोगभोगाई मुजाहिर ईसाणगदेवाणं ठाणा ६. ५० – कहि णं भंते! ईसाणगदेवाणं पज्जसाऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? प० - कहि णं भंते ! ईसाणगदेवा परिवसंति ? उ०- गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयण पभाए पुढवीए बहुसम-रमणिज्जाओ भूमिभागाओ उदय-सूरिय-ह-त-तारा रुवाणं बहूइं जोयणसयाई जाव- बहुगीओ जोयण कोडा कोडीओ उड्ढ दूरं उप्पइत्ता । एत्थ णं ईसाणे णामं कध्ये पण्णत्ते, पाईपडियायए-जाव-अन्जाओ जोवन फोडाकोडीओ परिक्खेवेणं । सव्वरयणामए अच्छे-जाव पडवे । तत्थ णं ईसाणगदेवाणं अट्ठावीसं विमाणा वाससय सहस्सा हवंतीतिमायें।* ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । सौधर्मेन्द्र वर्णक ८. यहाँ देवेन्द्र देवराज " शक्र" रहता है। बह वज्रपाणी = हाथ में वज्र रखने वाला, पुरंदर, शतक्रतु सहस्राक्ष मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्ध लोक का अधिपति, बत्तीस लाख विमानों का स्वामी, ऐरावण नामक हाथी के वाहन वाला है । वह वहाँ बत्तीस लाख विमान का चौरासी हजार सामानिक देवों का तेतीस पाश्विक देवों का, चार लोकपालों का सपरिवार आठ अग्रमहिषियों का तीन परिषदाओं का सात सेनाओं का, सात सेनापतियों का, (सामानिक देवों से चोगुने ) तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देवों का और अन्य अनेक सौधर्म कल्पवासी वैमानिक देव देवियों का आधिपत्य करता - पण्ण. प. २, सु. १६७/२ हुआ— यावत्-दिव्य भोगोपभोगों को भोगता हुआ रह रहा है । ईशानकल्प देवों के स्थान वह सुरेन्द्र रजरहित आकाश जैसे वस्त्र धारण करने वाला है, माला और मुकुट पहने हुए हैं, जिसके गालों पर चित्त जैसे चंचल स्वर्ण के नये सुन्दर कुण्डल चमक रहे हैं । सूत्र वह महा ऋद्धि वाला है - यावत्-दिव्य तेज से दस दिशाओं को उद्योतित एवं प्रकाशित करता हुआ रह रहा है। ६. प्र० - भगवन् ! ईशान कल्पवासी पर्याप्त और अपर्याप्त देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प्र० - भगवन् ! ईशान कल्पवासी देव कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मन्दर पर्वत से उत्तर में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अतिसम रमणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र और ताराओं से अनेक सौ योजन - यावत्-अनेक क्रोडाक्रोडी योजन ऊपर दूर जाने पर ईशान नामक कल्प कहा गया हैं । पूर्व-पश्चिम में लम्बा - यावत् - असंख्य क्रोडाक्रोडी योजन की परिधि से स्थित है, सर्व रत्नमय हैं स्वच्छ हैं- यावत्प्रतिरूप हैं । २ यहाँ ईशान कल्पवासी देवों के अट्ठावीस लाख विमान कहे गये है । वे विमान सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं - यावत् प्रतिरूप हैं । सम. ८४, सु. ५ । जीवा. प. ३, सु. २०८ । १ सम. ३२, सु. ४ । ३ ठाणं अ. ३, उ. २, सु. १६२ । ४ सम. २८ सु. ४, सोहम्मीसाणेसु दोसु कप्पेसु सट्टिं विमाणावासय सहस्सा पण्णत्ता । - सम. ६०, सु. ६ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र -११ ऊर्ध्व लाक : ईशानेन्द्र वर्णक तेसि णं बहुमज्झदेसभाए पंच वडेंसगा पण्णत्ता । तं जहा १. अंकवडेंसए, २. फलिहवडेंसए, ३. रयणवडेंस ए, ४. जायरूववडेंसए, ५. मज्झेऽय एत्थ ईसाणवडेंसए । ते णं वडेंसया सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरूवा । एत्थ णं ईसाणगाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता, तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइ भागे । सेसं जहा सोहम्मगदेवाणं जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणा विहति । - पण्ण. प. २, सु. १६८ / १ ईसाणंदरसवण्णओ१०. ईसाने यश्व देविदे देवराया परिवसति सूलपाणी सामचाहने उत्तरढ लोग हिवई अट्ठावीसं विमाणावाससय सहस्सा हिवई । अयरंबरवत्थधरे सेसं जहा सक्कस्स- जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणे विहर। - पण्ण. प. २, सु. १६८/२ -६ पाईं पडीपायए उदीय दाहिणवत्थिये जहा सोहम्मेजाव- पडिरूवे । एस्य णं कुमाराणं देवानं बारस विमाणायास सयसहरसा भयंगोतमस्यायें। ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरूवा । तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वडेंसगा पण्णत्ता, तं जहा १. असोग बडेंसए, २. सत्तिवण्णवडेंसए, ३. चंपगवडेंसए, कुमारवडेंसए ४. ५. ते णं वडेंसया सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरुवा । गणितानुयोग ६६१ उन विमानों के मध्यभाग में पाँच अवतंसक कहे गये हैं, यथा (१) अंकावतंसक, (२) स्फटिकावतंसक, (३) रत्नावतंसक, (४) जातरूपावतंसक और मध्य में, (५) ईशानावतंसक हैं । सकुमारदेवाणं ठाणा सनत्कुमार देवों के स्थान ११. ५० - कहि णं भंते! सणकुमार देवाणं पज्जताऽपज्जत्ताणं ११. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सनत्कुमार देवों के ठाणा पण्णत्ता ? स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प० – कहि णं भंते ! सणकुमारा देवा परिवसंति ? उ०- गोयमा ! सोहम्मस्स कम्पस्स उपि सर्पाक्स पडिदिसि बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई बहूइं जोयणसहस्साइं बहूइं जोयणसयसहस्साई बहुगीओ जोयणकोडीओ बहुगीओ जोयणकोटाकोडोओ उ दूरं उपहता। एएम सकुमारे नाम का पण्यते । ये अवतंसक सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं - यावत् प्रतिरूप हैं । यहाँ ईशानकल्पवासी पर्याप्त और अपर्याप्त देवों के स्थान कहे गये हैं । (१) उपपात, (२) समुद्घात और स्वस्थान अपेक्षा से ये लोक के असंख्यातवें भाग हैं । शेष सौधर्मकल्पवासी देवों के समान - यावत् - दिव्य भोग भोगते हुए रहते हैं । ईशानेन्द्र वर्णक १०. वहाँ देवेन्द्र देवराज ईशान रहता है। उसके हाथ में शूल हैं, उसका वाहन वृषभ है, वह उत्तरार्ध लोक का अधिपति है. बत्तीस लाख विमानों का स्वामी है । रजरहित वस्त्र धारण करने वाला है, शेष वर्णन शक्र के समान है। प्र० - भगवन् ! सनत्कुमार देव कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम ! सौधर्मकल्प के ऊपर समान दिशा में और समान विदिशा में अनेक सौ, अनेक हजार, अनेक लाख और अनेक क्रोडाक्रोडी योजन ऊपर दूर जाने पर सनत्कुमार नाम का कल्प कहा गया है । पूर्व-पश्चिम में सम्या, उत्तर-दक्षिण में चौड़ा, सौधर्म कल्प याप्रति है। यहां सनत्कुमार देवों के बारह लाख विमान कहे गये हैं। यथा वे विमान सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन विमानों के मध्य भाग में पाँच अवतंसक कहे गये हैं, (१) अशोकावतंसक, (२) सप्तपर्णावतंसक, (३) चंपकावतंसक, (४) ताक, (५) और मध्य में सनत्कुमारावतंसक हैं । ये अवतंसक सर्वरत्नमय हैं स्वच्छ — यावत् — प्रतिरूप हैं । Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ लोक-प्रज्ञप्ति उ० ० तत्थ बहने एत्थ णं सणकुमार देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता, तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइ भागे । १ - जाव - पभासेमाणा विहरंति । गवरं अम्गमहिसीओ पत्ि कुमारा देवा परिवसति महिडीवा ऊ लोक सनत्कुमारेन्द्र वर्णक सणकुमारेन्द वण्णओ १२. सणकुमारे यत्थ देविंदे देवराया परिवसइ । अरयंबर वत्थधरे, सेसं जहा सक्कस्स । - पण्ण. प. २, सु. १६६/१ सेमं तच वारस विमानाबादसहस्ताणं यावत्तरीए सामाणिय साहस्सोणं, सेसं जहा सक्कस्स, अग्गमहिसी वज्जं । परं चउन्हं वावतरीणं आयरक्खदेव साहसी जाय विहरइ । - पण्ण. प. २, सु. १६६ / २ प० -- कहि णं भंते ! माहिंदग देवा परिवसंति ? उ०- गोयमा ! ईसाणस्स कप्पस्स उप्पि सर्पाक्ख सर्पाडिदिस बहूई जोयणाई जाव - बहुगीओ जोयण कोडाकोडीओ उड् दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं माहिदे नामे कप्पे पण्णत्ते। पाईप पडीगाए एवं जहेब सपकुमारे णवरं — अट्ठविमाणावास सयसहस्सा ।" वडेंसया जहा ईसा | गवरं मझे वय माहिए। - एवं सेसं जहा सणकुमारग देवाणं- जाव विहरद्द | -पण्ण. प. २, सु. २००/१ माहेद वण्णओ १४. माहिदे यत्थ देविंदे देवराया परिवसइ । अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सणकुमारे-जाव-विहर। गवरं अदृष्टं विमाणावाससयसहस्साणं सत्तरोए सामाजियसाहस्सीणं चउन्हं सत्तरीणं आयरक्खदेव साहस्सोणं जावबिहरह - पण. प. २, सु. २०० / २ सम. १३१ । माहिंदाणं देवाणं ठाणाई माहेन्द्र देवों के स्थान १३. ५० – कहि णं भंते! माहिंदाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ता णं १३. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त माहेन्द्र देवों के ठाणा पण्णत्ता ? स्थान कहाँ कहे गये हैं? सूत्र ११-१४ यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त सनत्कुमार देवों के स्थान कहे गये हैं । (१) उपपात, (२) समुद्घात और (३) स्वस्थान की अपेक्षा से ये लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । उ०- वहाँ अनेक सनत्कुमार देव रहते हैं वे हैंयावत् - दैदिप्यमान रहते हैं । विशेष-महिषियों नहीं हैं। सनत्कुमारेन्द्र वर्णक १२. यहाँ देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार रहता है । रजतरहित वस्त्रधारी हैं, शेष वर्णन " शक्र" जैसा है । वह बारह लाख विमानों का बहत्तर हजार सामानिक देवों का स्वामी है शेव वर्णन "शक" सा है, महिषियां नहीं हैं। विशेष- बहत्तर हजार के चोगुने अर्थात् दो लाख अट्ठावीस हजार आत्मरक्षक देव — यावत्-रहते हैं । प्र० --- भगवन् ! माहेन्द्र देव कहाँ रहते हैं ? - गौतम ! ईशान कल्प के ऊपर समान दिशा में और समान विदिशा में अनेक योजन- यावत् — अनेक क्रोडाक्रोडी योजन ऊपर दूर जाने पर माहेन्द्र नामक कल्प कहा गया है । उ० पूर्व-पश्चिम में लम्बा है शेष सनत्कुमार जैसा है । विशेष-वहाँ आठ लाख विमान है । अवतंसक ईशानकल्प जैसे हैं । विशेष - यहाँ मध्य में माहेन्द्रावतंसक हैं । शेष सनत्कुमार देवों जैसा है - यावत् - यहाँ रहते हैं । माहेन्द्र वर्णक यहाँ देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र रहता है, रजरहित वस्त्रधारी है, शेष सनत्कुमार जैसा है— यावत् रहता है। विशेष - आठ लाख विमानों का सित्तर हजार सामानिक देवों का सित्तर हजार के चौगुने अर्थात् दो लाख अस्सी हजार आत्म रक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ - यावत् — रहते हैं । Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५-१७ ऊर्ध्वलोक : ब्रह्मलोक देवों के स्थान बंभलोग देवाणं ठाणा ब्रह्मलोक देवों के स्थान १५. ५० – कहि णं भंते ! बंभलोग देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ता णं १५. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त ब्रह्मलोक देवों के ठाणा पण्णत्ता ? स्वान कहाँ हैं ? प० - कहि णं भंते । बंभलोग देवा परिवसंति ? उ०- गोयमा ! सणकुमार माहिंदाणं कप्पाणं उप्पि सर्पाक्ख सडिसि बहू जोवणा जागी जो कोडाकोडीओ उड्ढ दूरं उप्पइत्ता । एत्थ णं बंभलोए णामं कप्पे पण्णत्ते । पाण पडणायए उदीण दाहिण वित्यो । पडिपुण चंदसंठाण संठिए अच्चिमाली भासरासिप्पभे । अवसेसं जहा सणकुमाराणं । णवरं - चत्तारि विमाणावास सय सहस्सा ।" सगा जहा सोहम्म वरं लोए । एत्थ णं बंभलोगाणं देवाणं ठाणा पण्णत्ता । सेसं तहेव जाव विहरति । -पण्ण. प. २, सु. २०१ / १ बंभदेवेदवण्णओ १६. बंभे यत्थ देविंदे देवराया परिवसइ । अम्बर बत्रे एवं जहा सणकुमारे-जाय-बिहरह णवरं - चउन्हं विमाणावाससय सहस्ताणं । सट्ठीए समाणियसाहसी चन्हं सट्टीगं आयरखदेवसाहस्सोणं जान-विहर। - पण्ण. प. २, सु. २०१/२ संतगदेवाण ठाणाई१७. ५० - कहि णं भंते! लंतग देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? प० - कहि णं भंते ! लंतग देवा परिवसंति ? उ०- गोयमा ! बंभलोगस्स कप्पस्स उपि सर्पाक्ख सपडदिसि बहूई जोयणाई - जाव- बहुगीओ जोयण कोडा कोडीओ उड़ढं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं लंतग णामे कप्पे पण्णत्ते । पाईण पडीणायए जहा बंभलोए । नवरं पण्णासं विमाणावास सहस्सा भवतीति मक्खायं वडेंसगा जहा ईसाणवडेंसगा । गणितानुयोग ६६३ २०- भगवन्! ब्रह्मलोक के देव कहाँ रहते हैं ? उ० – गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प के ऊपर समान दिशा में और समान विदिशा में अनेक योजन यावत् अनेक क्रोडाक्रोडी योजन ऊपर दूर जाने पर ब्रह्मलोक नामक कल्प कहा गया है । पूर्व-पश्चिम में लम्बा उत्तर-दक्षिण में चीड़ा प्रतिपूर्ण चन्द्र जैसे आकार से स्थित सूर्य सदृश कान्ति समूह से सम्पन्न । शेष सनत्कुमार सदृश है । विशेष – उनमें चार लाख विमान हैं। अवतंसक - सौधर्म कल्प के अवतंसकों के समान हैं । विशेष – उनके मध्य में ब्रह्मलोकावतंसक हैं । - इसमें ब्रह्मलोक देवों के स्थान कहे गये हैं । शेष पूर्ववत् - यावत् रहते हैं । ब्रह्म देवेन्द्र वर्णन १६. वहाँ देवेन्द्र देवराज ब्रह्म रहता है । वह रजरहित वस्त्रधारी हैं, शेष सनत्कुमारेन्द्र सहरा हैयावत् रहता है। विशेष-चार लाख विमान, साठ हजार सामानिक देव इनसे चौगुने अर्थात् दो लाख चालीस हजार आत्मरक्षक देव हैं - यावत् रहता है। लान्तक देवों के स्थान १७. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त लान्तक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प्र० - भगवन् ! लान्तक देव कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम ! ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर समान दिशा में समान विदिशा में अनेक योजन - यावत् — अनेक क्रोडा योजन ऊपर दूर जाने पर लान्तक नाम का कल्प कहा गया है । , पूर्व-पश्चिम में लम्बा ब्रह्मलोक है। विशेष पचास हजार विमान कहे गये हैं । अवतंसक ईशान कल्प के अवतंसकों के समान हैं । १ सोहम्मीसाणेसु बंभलोए य तीस कप्पेसु चउर्साट्ठि विमाणावास सयसहस्सा पण्णत्ता | २ सम. ५०, सु. ५ । - सम. ६४, सु. ५ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ लोक-प्रज्ञप्ति ऊर्ध्व लोक : लान्तक देवेन्द्र वर्णक ' सूत्र १७-२० wwwwww णवरं-मज्झे यऽत्थ लंतगवडेंसए। विशेष-यहाँ मध्य में लान्तकावतंसक हैं । एत्थ णं लंतग देवाणं ठाणा पण्णत्ता। यहाँ लान्तक देवों के स्थानक कहे गये हैं । सेसं तहेव-जाव-विहरंति। शेष पूर्ववत्-यावत्-रहते हैं। -पण्ण. प. २, सु. २०२/१ लंतग देवेन्द वण्णओ लान्तक देवेन्द्र वर्णक१८. लंतए यन्त्य देविदे देवराया परिवसइ । जहा सण कुमारे। १८. यहाँ देवेन्द्र देवराज लान्तक रहता है, शेष सनत्कुमार . जैसा है। णवरं-पण्णासाए विमाणावाससहस्साणं, पण्णासाए सामा- विशेष-पचास हजार विमानों का, पचास हजार सामानिक णिय साहस्सोणं, चउण्हं य पण्णासाणं आयरक्खदेवसाहस्सी देवों का, इनके चौगुने अर्थात् दो लाख आत्मरक्षक देवों का गं-जाव-विहरइ । स्वामी यावत्-रहते हैं। –पण्ण. प. २, सु. २०२/२ महासुक्काणं देवाणं ठाणाई महाशुक्र देवों के स्थान१९.५०-कहि णं भंते ! महासुक्काणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं १६. प्र०-भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त महाशुक्र देवों के ठाणा पण्णता? स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प०-कहि णं भंते ! महासुक्का देवा परिवसंति ? . प्र०-भगवन् ! महाशुक्र देव कहाँ रहते हैं ? उ०—गोयमा ! लंतयस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि उ०-गौतम ! लान्तक कल्प के ऊपर समान दिशा में बहूई जोयणसयाई-जाव-बहुगीओ जोयण कोडाकोडीओ समान विदिशा में अनेक सौ योजन-अनेक क्रोडाक्रोडी योजन उड्ढे दूरं उप्पइत्ता । एत्थ णं महासुक्के णाम कप्पे ऊपर दूर जाने पर महाशुक्र कल्प कहा गया है। पण्णत्ते। पाईण-पडीणायए जहा बंभलोए । पूर्व-पश्चिम में लम्बा ब्रह्मलोक जैसा है। णवरं-चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा भवतीति मयखाय" विशेष- इसमें चालीस हजार विमान कहे गये हैं। वडेंसगा जहा सोहम्मवडेंसगा। अवतंसक-सौधर्म कल्प के अवतंसकों के समान हैं। णवरं-मज्झे यऽत्य महासुक्कवडेंसए। विशेष—यहाँ मध्य में महाशुक्रावतंसक हैं। एत्थ णं महासुक्क देवाणं ठाणा पण्णता। यहाँ महाशुक्र देवों के स्थान कहे गये हैं। सेसं तहेव-जाव-विहरंति । शेष पूर्ववत्-यावत्-रहते हैं । -पण्ण. प. २, सु. २०३/१ महासुक्क देवेन्द वण्णओ महाशुक्र देवेन्द्र वर्णक२०. महासुक्के यऽत्य देविदे देवराया परिवसइ । २०. यहाँ देवेन्द्र देवराज महाशुक्र रहता है । जहा सणंकुमारे। शेष वर्णन सनत्कुमार जैसा है। णवरं-चत्तालीसाए विमाणावाससहस्साणं, विशेष-चालीस हजार विमानों का, चत्तालीसाए सामाणिय साहस्सीणं, चालीस हजार सामानिक देवों का, चउण्हं य चत्तालीसाणं आयरक्खदेव साहस्सीणं-जाव- इनसे चौगुने अर्थात् एक लाख साठ हजार देवों का-यावत् विहरइ। -आधिपत्य करता हुआ रहता है। -पण्ण. प. २. सु. २०३/२ १ सम. ४०, सु.८। Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २१-२३ ऊर्व लोक : सहस्रार देवों के स्थान गणितानुयोग ६६५ सहस्सार देवाणं ठाणाई सहस्रार देवों के स्थान२१. प०–कहि णं भंते ! सहस्सार देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं २१. प्र०-भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सहस्रार देवों के ठाणा पण्णता? स्थान कहाँ कहे गये हैं ? ५०-कहि णं भंते ! सहस्सार देवा परिवसंति ? प्र०-भगवन् ! सहस्रार देव कहाँ रहते हैं ? । उ०-गोयमा ! महासुक्कस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडि- उ० - गौतम ! महाशुक्र कल्प के ऊपर समान दिशा में दिसि बहुइं जोयणाई-जाव-बहुगीओ जोयण कोडा- समान विदिशा में अनेक योजन-यावत्-अनेक क्रोडाक्रोडी कोडीओ उड्ढे दूरं उप्पइत्ता। एत्थ णं सहस्सारे णामं योजन ऊपर दूर जाने पर सहस्रार नाम का कल्प कहा गया है । कप्पे पण्णत्ते । पाईण-पडीणायए जहा बंभलोए । पूर्व-पश्चिम लम्बा ब्रह्मलोक जैसा है। णवर-छविमाणावास सहस्सा भवंतीतिमक्खायं ।' विशेष—यहाँ छ हजार विमान कहे गये हैं । वडेंसगा जहा ईसाणस्स । अवतंसक-ईशानकल्प के अवतंसक जैसे हैं। णवरं-मज्झे यऽत्थ सहस्सार वडेंसए। विशेष--यहाँ मध्य में सहस्रारावतंसक हैं । एत्थ णं सहस्सार देवाणं ठाणा पण्णत्ता। यहाँ सहस्रार देवों के स्थान कहे गये हैं। सेसं तहेव-जाव विहरति । शेष पूर्ववत् यावत् रहते हैं । –पण्ण. प. २, सु. २०४/१ सहस्सार देवेन्द वण्णओ सहस्रार देवेन्द्र वर्णक२२. सहस्सारे यऽत्थ देविंदे देवराया परिवसइ । २२. यहाँ देवेन्द्र देवराज सहस्रार रहता है । जहा सणंकुमारे । शेष वर्णन सनत्कुमार जैसा है। णवरं-छण्हं विमाणावास सहस्साणं, विशेष-छह हजार विमानों का, तीसाए सामाणिय साहस्सीणं, तीस हजार सामानिक देवों का, चउण्ह य तीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं-जाव-विहरइ । इनसे चौगुने अर्थात् एक लाख बीस हजार आत्मरक्षक देवों -पण्ण. प. २, सु. २०४/२ का-यावत्-आधिपत्य करता हुआ रहता है। आणय-पाणय देवाणं ठाणाइं आनत-प्राणत देवों के स्थान२३.५०-कहिणं भंते ! आणय-पाणयाणं देवाण पज्जत्ताऽपज्ज- २३. प्र०-भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त आनत-प्राणत देवों , ताणं ठाणा पण्णता? के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? ५०-कहि णं भंते ! आणय-पाणय देवा परिवसंति ? प्र०-भगवन् ! आनत-प्राणत देव कहाँ रहते हैं ? उ०-गोयमा ! सहस्सारस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडि- उ०-गौतम ! सहस्रारकल्प के ऊपर समान दिशा में दिसि बहूई जोयणाई-जाव-बहुगीओ जोयण कोडा- समान विदिशा में अनेक योजन-यावत्-अनेक क्रोडाक्रोडी कोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं आणय-पाणय योजन ऊपर दूर जाने पर आनत-प्राणत नाम के दो कल्प कहे नामेणं दुवे कप्पा पण्णत्ता। गये हैं। पाईण-पडीणायया उदीण दाहिण वित्थिण्णा अद्ध चंद पूर्व-पश्चिम में लम्बे, उत्तर-दक्षिण में चौड़े, अर्ध चन्द्र के संठाण संठिया अच्चिमाली भासरासिप्पभा । आकार से स्थित, सूर्य के किरण समूह सदृश प्रभा वाले हैं। सेस जहा सणंकुमारे-जाव-पडिरूवा । शेष सनत्कुमार कल्प जैसा है-यावत्-प्रतिरूप है। तत्थ णं आणय-पाणय देवाणं चत्तारि विमाणावाससया वहाँ आनत-प्राणत देवों के चार सौ विमान कहे गये हैंभवंतीति मक्खायं ।-जाव-पडिरूवा। यावत्-वे प्रतिरूप हैं। वडिसगा जहा सोहम्मे । अवतंसक-सौधर्म कल्प जैसे हैं । १ सम. ११६, सु.। २ सम. १०६, सु. ४ । Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ लोक- प्रज्ञप्ति परं पाण ते णं वडेंसगा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरूवा । एत्थ णं आणय-पाणय देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । तिनुवि लोगस्स असं भागे। तत्थ णं बहवे आणय-पाणय देवा परिवसंति, महिड्ढीया - जाव - पभासेमाणा । ऊर्ध्व लोक प्राणत देवेन्द्र वर्णक ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयाणं- जावविहरति । -- पण्ण. प. २, सु. २०५/१ पाणय देवेन्द वण्णओ २४. पाणए यत् देविदे देवराया परिवसइ — जहा सण कुमारे । वरं उष्टं विमाणावाससयाणं । बीए सामाजिसाहस्सीणं, असीईए आरक्खदेवसाहस्सीणं - जाव विहरइ । - - पण्ण. प. २, सु. २०५ / २ आरणऽध्वाणं देवानं ठाणा २५. १० – कहि णं भंते! आरणऽच्चुयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जताणं ठाणा पण्णत्ता ? उ० प० - कहि णं भने ! आरणऽच्चुया देवा परिवसंति ? -गोयमा ! आणय पाणय कप्पाणं उपि सर्पाक्ख सपादिसं एत्थ णं आरणच्या णामं दुवे कप्पा पण्णत्ता पाईण-पडीणायया उदीण दाहिणवित्थिण्णा अद्ध चंद संठाण संठिया अच्चिमाली भासरासि वण्णाभा असं खेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयाम-विक्खभेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं सब रयणामया अच्छा-जाव पडिरूवा । ते णं विमाणा अच्छा-जाव पडिरूवा । तेसि गं विमाणाणं बहुमज्झ देसभाए पंच वडेंसगा तं जहा १. अंकवडेंसए, २. फलिहवडेंसए, ३. रयणवडेंसए, ४. जायसमय अपडेंए ते णं वडेंसया सव्व रयणामया अच्छा-जाव पडिरूवा । सूत्र २३-२५ विशेष - मध्य में प्राणत अवतंसक हैं । वे अवतंसक सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं- यावत् प्रतिरूप हैं । यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त आनत प्राणत देवों के स्थान कहे गये हैं । (१) उपपात ( २ ) समुद्घात, (३) और स्वस्थान की अपेक्षा से वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ अनेक आनत प्राणत देव रहते हैं, महधिक - यावत्देदीप्यमान हैं। वे वहाँ अपने अपने विमानावासों का आधिपत्य करते हुए - यावत् — रहते हैं । प्राणतदेवेन्द्र वर्णक - २४. यहाँ देवेन्द्र देवराज " प्राणत" रहता है । शेष सनत्कुमार जैसा है । विशेष-चार सौ विमानों का, बीस हजार सामानिक देवों का, अस्सी हजार आत्म-रक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ - यावत् रहता है। आरण- अच्युत देवों के स्थान - २५. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त आरण और अच्युत देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प्र० - भगवन् ! आरण अच्युत देव कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम ! आनत प्राणत कल्पों के ऊपर समान दिशा में समान विदिशा में आरण और अच्युत नाम के दो कल्प कहे गये हैं । पूर्व-पश्चिम में लम्बे उत्तर-दक्षिण में पौड़े, अर्ध चन्द्र के आकार से स्थित सूर्य के किरण समूह सदृश प्रभा वाले असंख्य कोटाकोटी योजन के लम्बे, चौड़े, असंख्य कोटाकोटी योजन की परिधि वाले हैं, सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं - यावत् प्रतिरूप हैं । वे देव विमान स्वच्छ हैं— यावत् — प्रतिरूप हैं । उन विमानों के मध्य भाग में पाँच अवतंसक कहे गये हैं । यथा ( १ ) अंकावतंसक, (२) स्फटिकावतंसक, (३) रत्नावतंसक, (४) जातरूपावतंसक, (५) और मध्य में अच्युता है। वे अवतंसक सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं—पावत्-प्रतिरूप हैं । Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २५-२६ ऊर्ध्व लोक : अच्युत देवेन्द्र वर्णक गणितानुयोग ६६७ ४. अट्ट, एत्थ णं आरणऽच्चुयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त आरण और अच्युत देवों के ठाणा पण्णत्ता। स्थान कहे गये हैं, यथातिसु वि लोगस्स असंखेज्जइ भागे। (१) उपपात, (२) समुद्घात और (३) स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में है। तत्थ णं बहवे आरणऽच्चुया देवा परिवति । वहाँ अनेक आरण और अच्युत देव रहते हैं। -पण्ण० प०२, सु० २०६/१ अच्चुयदेवेंद वण्णओ अच्युत देवेन्द्र वर्णक२६. अच्चए यऽत्थं देविदे देवराया परिवसइ । जहा पाणए-जाव- २६. यहाँ देवेन्द्र देवराज "अच्युत" रहता है, शेष वर्णन प्राणत विहरइ । देवेन्द्र के समान रहता है। णवरं-तिण्ह विमाणावासयाणं', विशेष-तीन सौ विमानावासों का, दसण्ह सामाणियसाहस्सीणं, दस हजार सामानिक देवों का, चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं-जाव-विहरइ । चालीस हजार आत्म-रक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ -यावत् - रहता है। दुवालस देवलोगाणं देवविमाणाणं संगहणी गाहाओ बारह देव लोकों के देव विमानों की संग्रहणी गाथायें१. बत्तीस, (१) सौधर्मकल्प में बत्तीस लाख विमान, २. अट्ठवीसा, (२) ईशानकल्प में अठाईस लाख विमान, ३. बारस, (३) सनत्कुमारकल्प में बारह लाख विमान, (४) माहेन्द्रकल्प में आठ लाख विमान, ५. चउरो, सतसहस्सा, (५) ब्रह्मलोक कल्प में चार लाख विमान, ६. पण्णा , (६) लान्तककल्प में पचास हजार बिमान, ७. चत्तालीसा, (७) महाशुक्रकल्प में चालीस हजार विमान, ८. छच्चसहस्सा सहस्सारे ॥॥ (८) सहस्रारकल्प में छह हजार विमान, ६. आणय, १०. पाणयकप्पे चत्तारिसया, (६) आनत, (१०) प्राणत कल्पों में चार सौ विमान, ११. ऽरण, १२. ऽच्चुए सत्तविमाणसयाई (११) आरण, (१२) अच्युत कल्पों में तीन सौ विमान, चउसु वि एएसु कप्पेसु ॥॥ आनत आदि चार कल्पों में सात सौ विमान । सामाणिय संगहणी गाहा सामानिक देवों की संग्रहणी गाथा१. चउरासीइ, (१) सौधर्मेन्द्र के चौरासी हजार सामानिक देव, २. असीई, (२) ईशानेन्द्र के अस्सी हजार सामानिक देव, ३. बावत्तरि, (३) सनत्कुमारेन्द्र के बहत्तर हजार सामानिक देव, ४. सत्तरी य, (४) माहेन्द्र के सित्तर हजार सामानिक देव, ५. सट्ठी य, (५) ब्रह्मदेवेन्द्र के साठ हजार सामानिक देव, ६. पण्णा , (६) लान्तक देवेन्द्र के पचास हजार सामानिक देव, ७. चत्तालीसा, (७) महाशुक्र देवेन्द्र के चालीस हजार सामानिक देव, ८. तीसा, (८) सहस्रारेन्द्र के तीस हजार सामानिक देव, ६-१०. वीसा, (६-१०) आनत-प्राणतेन्द्र के बीस हजार सामानिक देव, ११-१२. दससहस्सा ॥ (११-१२) आरण-अच्युतेन्द्र के दस हजार सामानिक देव । एए चेव आयरक्खा चउगुणा । प्रत्येक देवेन्द्र के सामानिक देवों से चौगुने आत्म-रक्षक -पण्ण. प. २, सु. २०६/२ देव हैं। १ सम. १०१, सु. १-२॥ Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ६६८ लोक- प्रज्ञप्ति ऊर्ध्व लोक प्रवेयक देवों के स्थान : वेजगदेवाणं ठाणाई २७. १० - कहि णं भंते ! हेट्टिमगेवेज्जग देवाणं पज्जतापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? प० - कहि णं भंते ! हेट्ठिम गेवेज्जग देवा परिवसंति ? उ०- गोयमा ! आरणऽच्चयाणं कप्पाणं उपि बहुई जोयणाईजात्र बहुगीओ जोयण कोडाकोडीओ उड़ढं दूरं उप्प इत्ता, एत्थ णं हेट्ठिम गेवेज्जगाणं देवाणं तओ गेवेज्जग विमाण पत्थडा पण्णत्ता । पाईप पीणा उदाहण वित्थिष्णा, पडिपुण्ण चंदठाणं संठिया । अच्चिमाली भासरासिवण्णाभा सेसं जहा बंभलोगे - जाव- पडिरूवा । सरणं हेट्टि गाणं देवानं एकारमुसरे विमाणावाससए भवतीति मक्खायं । ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरूवा । तत्थ णं हेट्ठिम गेविज्जगाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता, तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे । तत्य हवे वेगा देवा परिवर्तति । सच्चे समिडीया सवे समजुतीया सव्वे समजा सव्वे समबला सव्वे समाणुभावा महासोक्खा अणिदा अध्येता अपूरोहिया अहमिदा गामं ते देवगणा वग्गता समाणाउसो । -पण्ण. प. २, सु. २०७ प० - कहि णं भंते ! मज्झिमगाणं गेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? प० - कहि गं भंते ! मज्झिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति ? उ०- गोपमा ! हेमिवेज्जगाणं उप्प सपविणं सपडिसि जोयथाई जाव बगीओ जोयण फोडाफोडीओ उड्ढं दूरं उप्पइत्ता, एत्थ णं मज्झिमगेवेज्जगदेवाणं तओ गेविज्जगविमाणापत्थडा पण्णत्ता । पापडीयायया जहा हेद्रिमवेज्जगाणं । पयरं सत्त्त्तरे विमाणायाससए हतोतिमक्यायं । . ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- पडिरुवा । एत्थ णं मज्झिमगेवेज्जगाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता । सम. १०१, सु. १-२ । सूत्र २७ ग्रैवेयक देवों के स्थान - २७. प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अधस्तन ग्रैवेयक चिक के देवों के स्थान कहाँ कहे गये है? प्र०—भगवन् ! अधस्तन ग्रैवेयक त्रिक के देव कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम ! आरण-अच्युत कल्पों के ऊपर अनेक योजन - यावत् - अनेक क्रोडाक्रोडी योजन ऊपर दूर जाने पर अधस्तन ग्रैवेयक देवों के तीन विमान प्रस्तर कहे गये हैं । वे पूर्व-पश्चिम में लम्बे, उत्तर-दक्षिण में चौड़े हैं। प्रतिपूर्ण चन्द्र के आकार से स्थित हैं. सूर्य के किरण समूह सदृश प्रभा वाले हैं। शेष ब्रह्मलोक जैसे हैं यावत्प्रतिरूप हैं। वहाँ अधस्तन ग्रैवेयक देवों के एक सौ इग्यारह विमान कहे गये हैं । वे विमान सर्व रत्नमय हैं स्वच्छ हैं- यावत् — प्रतिरूप हैं । उनमें पर्याप्त और अपर्याप्त अधस्तन ग्रैवेयक देवों के स्थान कहे गये हैं - (१) उपपात, (२) समुद्घात और ( ३ ) स्वस्थान की अपेक्षा से वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ अनेक अधस्तन ग्रैवेयक देव रहते हैं । सब समान ऋद्धि वाले, समान द्युति वाले, समान यश वाले समान बल वाले, समान प्रभाव वाले हैं। उनके इन्द्र नहीं हैं, उनके प्रेध्य देव नहीं हैं, उनके पुरोहित देव नहीं हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे देव अहमेन्द्र कहे गये हैं । प्र० - भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त मध्यम ग्रैवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प्र० - भगवन् ! मध्यम ग्रैवेयक देव कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम ! अधस्तन ग्रैवेयकों के ऊपर समान दिशा में समान विदिशा में अनेक योजन यावत् अनेक कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाने पर मध्यम ग्रैवेयक देवों के तीन ग्रैवेयक विमान प्रस्तर कहे गये हैं । पूर्व-पश्चिम में लम्बे, उत्तर-दक्षिण में चौडे अधस्तन ग्रैवेयकों के समान हैं । विशेष- एक सौ सात विमान कहे गये हैं, वे विमान सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं - यावत्-प्रतिरूप हैं । इनमें पर्याप्त और अपर्याप्त मध्यम ग्रैवेयक देवों के स्थान कहे गये हैं। Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २७-२८ ऊर्व लोक : अनुत्तरोपपातिक देवों के स्थान गणितानुयोग ६६० तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे। (१) उपपात, (२) समुद्घात और (३) स्वस्थान की अपेक्षा से ये तीनों लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उ०-तत्थ णं बहवे मज्झिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति । उ०—इनमें अनेक मध्यम ग्रैवेयक देव रहते हैं । सव्वे समिड्ढीया-जाव-अहमिदा णामं ते देवगणा वे सब समान ऋद्धि वाले हैं-यावत्-हे आयुष्मान् श्रमण ! पण्णत्ता समणाउसो! -पण्ण. प. २, सु. २०८ वे देव अहमिन्द्र कहे गये हैं । प०-कहि णं भंते ! उवरिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताऽ- प्र०-भगवन ! पर्याप्त और अपर्याप्त उपरितन ग्रैवेयक देवों पज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? के स्थान कहां कहे गये हैं ? प०--कहि णं भंते ! उवरिमगेवेज्जगदेवाणं परिदसति ? प्र०-भगवन् ! उपरितन |वेयक देव कहां रहते हैं ? उ०-गोयमा ! मज्झिमगेवेज्जगदेवाणं उप्पि बहूइं जोयणाई उ०-गौतम ! मध्यम अवेयकों के ऊपर अनेक योजन -जाव-बहुगीओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढे दूरं -यावत्-अनेक क्रोडाक्रोड योजन ऊपर दूर जाने पर उपरितन उप्पइत्ता, एत्थ णं उवरिमगेवेज्जगाणं देवाणं तओ ग्रैवेयकों के तीन विमान प्रस्तट कहे गये हैं । गेवेज्जगविमाणपत्थडा पण्णत्ता। पाईण-पडीणायया जहा हेट्रिमगेवेज्जगाणं । पूर्व-पश्चिम में लम्बे-यावत्-अधस्तन ग्रेवेयकों के जैसे हैं । णवरं-एगे विमाणावाससए भवंतीति मक्खायं । विशेष—एक सौ विमान कहे गये हैं। सेसं तहेव भाणियव्वं जाव-अहमिदा णाम ते देवगणा शेष सब पूर्ववत् कहना चाहिए-यावत्-हे आयुष्मान् पण्णत्ता समणाउसो! -पण्ण. प. २, सु. २०६ श्रमण ! वे देव अहमिन्द्र कहे गए हैं। अनुत्तरोववाइयाणं देवाणं ठाणाई अनुत्तरोपपातिक देवों के स्थान२८. प० - कहि णं भंते ! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्ता:- २८. प्र०- भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अनुत्तरौपपातिक पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? देवों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प०- कहि णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति ? प्र०-भगवन् ! अनुत्तरोपपातिक देव कहाँ रहते हैं ? उ०-गोयमा ! गेविज्जगविमाणाणं उप्पि बहूई जोयणाई- उ०-गौतम ! वेयक विमानों के ऊपर अनेक योजन जाव-बहुगीओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढे दूरं -यावत्-अनेक क्रोडाक्रोड योजन ऊपर दूर जाने पर रजरहित उप्पइत्ता, एत्थ णं नीरया-जाव-विसुद्धा पंचदिसि पंच -यावत्-विशुद्ध पांच दिशाओं में पांच अनुत्तर महाविमान कहे अणुत्तरा महइमहालया विमाणा पण्णत्ता । तं जहा- गये हैं । यथा१. विजए, २. वेजयंते, ३, जयंते, ४. अपराजिए, (१) विजय, (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, (४) अपराजित, ५. सव्वट्ठसिद्ध । (५) सर्वार्थसिद्ध । ते णं विमाणा सव्वरयणामया अन्छा-जाव-पडिरूवा। वे विमान सर्व रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं-यावत्-प्रतिरूप हैं । एत्थ णं अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं इनमें पर्याप्त और अपर्याप्त अनुत्तरोपातिक देवों के स्थान ठाणा पण्णत्ता, कहे गये हैं। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइ भागे। (१) उपपात, (२) समुद्घात और (३) स्वस्थान की अपेक्षा से ये लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । उ.-तत्थ णं बहवे अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति । उ०-इनमें अनेक अनुत्तरोपपातिक देव रहते हैं । सध्वे समिढीया-जाव-अहमिदा णामं ते देवगणा सब समान ऋद्धि वाले है-यावत्-हे आयुष्मन् श्रमण ! पण्णत्ता समणाउसो! वे देव अहमिन्द्र कहे गये हैं। गेवेज्जगदेवाणं अणुत्तरोववाइय देवाणं य विमाणा ग्रेवेयक देवों के और अनुत्तरौपपातिक देवों के विमानों को संगहणी गाहा संग्रहणी गाथाएक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु, सत्तुत्तरं च मज्झिमए । अधस्तन ग्रैवेयकों के एक सौ इग्यारह विमान, सयमेगे उवरिमए, पंचेव अणुत्तरविमाणा ॥॥ मध्यम ग्रेवेयकों के एक सौ सात विमान, उपरितन |वेयकों के सौ विमान, —पण्ण, प. २, सु. २१० अनुत्तरौपपातिक देवों के पांच विमान । Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० लोक-प्रज्ञप्ति ऊवं लोक : लोकान्तिक देव विमानों का प्ररूपण सूत्र २६ लोगंतिय देवविमाणाणं परूवणं लोकान्तिक देव विमानों का प्ररूपण२६. एयसिणं अट्ठण्हं कण्हराईणं अट्ठसु ओवासंतरेसु अट्ठलोगतिया २६. इन आठ कृष्ण राजियों के आठ अवकाशों के बीच में विमाणा पण्णत्ता; तं जहा आठ लोकान्तिक विमान कहे गये हैं, यथा१. अच्ची, २. अच्चिमाली, ३. वइरोयणे, ४. पभंकरे, (१) अर्ची, (२) अचिमाली, (३) वैरोचन, (४) प्रभंकर, ५. चंदाभे, ६. सूराभे, ७. सुक्काभे, ८. सुपतिढाभे, ६. मज्झे (५) चन्द्राभ, (६) सूर्याभ, (७) शुक्राभ, (८) सुप्रतिष्ठाभ, मध्य रिट्ठाभे। में (6) रिष्टाभ। ५०-कहि णं भंते ! अच्ची विमाणे पण्णत्ते ? प्र०-भगवन् ! अर्ची विमान कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! उत्तर-पुरस्थिमेणं । उ०-गौतम ! उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में कहा गया है । प०–कहि णं भंते ! अच्चिमाली विमाणे पण्णत्ते ? प्र०-भगवन् ! अचिमाली विमान कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! पुरथिमेणं । उ०-गौतम ! पूर्व दिशा में कहा गया है। एव परिवाडीए नेयव्व-जाव- । इस परिपाटी से जानना चाहिए-यावत् - ५०-कहि णं भंते ! रिट्ठ विमाणे पण्णत्ते ? प्र०-भगवन् ! रिष्ट विमान कहाँ कहा गया है ? उ०-गोयमा ! बहुमज्झ देसभागे। उ०—गौतम ! कृष्णराजियों के मध्य भाग में कहा गया है। एएसु णं अट्ठसु लोगंतियविमाणेसु अट्टविहा लोगंतिया इन आठ लोकान्तिक विमानों में आठ प्रकार के लोकान्तिक देवा परिवसंति, तं जहा देव रहते हैं। यथासंगहणी गाहा संग्रहणी गाथा१२. सारस्सयमाइच्चा, (१) सारस्वत, (२) आदित्य, (३) वन्ही, (४) वरुण, ३. वण्ही, ४. वरुणा य, ५. गद्दतोया य । (५) गर्दतोय, (६) तुषित, (७) अव्याबाध, (८) आग्नेय, (मरुत), ६. तुसिया, ७. अव्वाबाहा, () रिष्ट । ८. अगिच्चा चेव, ६. रिट्ठा य ॥ प०-कहि णं भंते ! सारस्सया देवा परिवसंति ? प्र०-भगवन् ! सारस्वत देव कहाँ रहते हैं ? उ०-गोयमा ! अच्चिम्मि विमाणे परिवसंति । उ०-गौतम ! अर्ची विमान में रहते हैं। प०-कहि णं भंते ! आदिच्चा देवा परिवसंति ? प्र०-भगवन् ! आदित्य देव कहाँ रहते हैं ? उ०-गोयमा ! अच्चिमालिम्मि विमाणे परिवसंति । उ०—अचिमाली विमान में रहते हैं। एवं णेयव्वं जहाणुपुव्वीए-जाव । इस प्रकार यथानुक्रम से जानना चाहिए-यावत्प०-कहि णं भंते ! रिट्ठा देवा परिवसंति ? प्र०-भगवन् ! रिष्ट देव कहाँ रहते हैं ? उ०-गोयमा ! रिटुम्मि विमाणे । उ०-गौतम ! रिष्ट विमान में रहते हैं । ५०-सारस्सयमादिच्चाणं भंते ! देवाणं कति देवा, कति प्र०-भगवन् ! सारस्वत और आदित्य देव कितने सौ देव देवसया पण्णता? कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! सत्त देवा सत्त देवसया परिवारो पण्णत्तो। उ०—गौतम ! सात देव और सात सौ देव परिवार कहे गये हैं। वण्ही-वरुणाणं देवाणं चउद्दस देवसहस्सा परिवारो वन्ही और वरुण देवों के चौदह देव तथा चौदह हजार देव पण्णत्तो। परिवार कहे गये हैं। गद्दतोय-तुसियाणं देवाणं सत्त देवा सत्तदेवसहस्सा गर्दतोय और तुषित देवों के सात देव तथा सात हजार देव परिवारो पण्णत्तो। परिवार कहे गये हैं। अवसे साणं णव देवा नव देवसया परिवारो पण्णत्तो। अवशेष देवों के नौ देव तथा नौ सौ वेव परिवार कहे गये हैं। Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २६ ऊध्वंलोक : ज्योतिष्कों से कल्पों का अन्तर गणितानुयोग ६७१ संगहणी गाहा संग्रहणी गाथापढमजुगलम्मि सत्तउसयाणि, बीयम्मि चोद्दस सहस्सा। प्रथम देव युगल में सात सौ, द्वितीय देव युगल में चौदह ततिए सत्त सहस्सा, नव चेव सयागि सेसेसु ॥ हजार, तृतीय देव युगल में सात हजार तथा शेष देव युगलों में नौ सौ देव परिवार हैं। १०-लोगंतिय विमाणा णं भंते ! किंपइट्ठिया पण्णत्ता? प्र०-भगवन् ! लोकान्तिक विमान किस पर प्रतिष्ठित कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! वाउपइट्ठिया पण्णत्ता। उ०-गौतम ! वायु पर प्रतिष्ठित कहे गये हैं। "विमाणाणं पइट्टाणं बाहल्लुच्चत्तमेव" बंभलोय वत्त- विमानों का आधार-मोटाई और ऊँचाई ब्रह्मलोक के समान व्वया नेयम्बा-जाव। कहनी चाहिए-यावत्प०-लोयंतिय विमाणेसु णं भंते ! सव्वे पाणा भूया जीवा प्र०-भगवन् ! लोकान्तिक विमानों में सभी प्राणी, भूत, सत्ता पुढविकाइयत्ताए-जाव-वणस्सइकाइयत्ताए देव- जीव और सत्व क्या पृथ्वीकाय-यावत्-वनस्पति काय अथवा ताए उववण्णपुव्वा ? देवकाय रूप में पहले उत्पन्न हुए हैं। उ०-गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो, नो चेव णं उ०-गौतम! अनेक बार; अनन्त बार उत्पन्न हुए है। किन्तु देवेत्ताए। लोकान्तिक विमानों में देव रूप में उत्पन्न नहीं हुए हैं। ५०-लोगंतिय विमाणेहिं णं भंते ! केवइय अबाहाए लोगते प्र०-भगवन् ! लोकान्तिक विमानों से लोकान्त कितने पण्णत्त ? अन्तर पर कहा गया है ? उ०-गोयमा ! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई अबाहाए उ०-गौतम । असंख्य हजार योजन के अन्तर पर कहा लोगंते पण्णत्ते। गया है। -भग. स. ६, उ. ५, सु. ३२-४१/४३ जोइसाओ कप्पाणं अन्तरं ज्योतिष्क से कल्पों का अन्तरप०-जोइसस्स णं भन्ते ! सोहम्मीसाणाण य कप्पाणं केवइयं प्र०-भगवन् ! ज्योतिष्क और सौधर्मेशान कल्पों के मध्य अबाहाए अंतरे पण्णते? में अव्यवहित अन्तर कितना कहा गया है ? उ०-गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणाई-जाव-अंतरे पण्णते। उ०-गौतम ! असंख्य योजन का- यावत्-अन्तर कहा गया है। एवं सोहम्मीसाणाणं सणंकुमार-माहिंदाण य । इसी प्रकार सौवर्मेशान और सनत्कुमार-माहेन्द्र का अन्तर है। एवं सणकुमार-माहिंदाणं बंभलोगस्स य । इसी प्रकार सनत्कुमार-माहेन्द्र और ब्रह्मलोक का अन्तर है एवं बभलोगस्स लंतगस्स य । इसी प्रकार ब्रह्मलोक और लान्तक का अन्तर है। एवं लंतपस्स महासुक्कस्स य । इसी प्रकार लान्तक और महाशुक्र का अन्तर है । एवं महासुक्कस्स सहस्सारस्स य । इसी प्रकार महाशुक्र और सहस्रार का अन्तर है। एवं सहस्सारस्स आणय-पाणयाण य कप्पाणं । इसी प्रकार सहस्रार और आणत-प्राणत का अन्तर है। एवं आणय-पाणयाणं आरणऽच्च्याण य कप्पागं । इसी प्रकार आणत-प्राणत और आरण-अच्युत का अन्तर है। एव आरणऽच्चुयाणं गेवेज्ज विमाणाण य । इसी प्रकार आरण-अच्युत और ग्रेवेयकों का अन्तर है। एवं गेवेज्ज विमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य । इसी प्रकार अवेयक और अनुत्तर विमानों का अन्तर है। ५०-अणुत्तर विमाणाणं भन्ते ! ईसिपम्भाराए य पुढवीए प्र-भगवन् ! अनुत्तर विमानों और ईषत् प्रागभारा पृथ्वी केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? के मध्य में अव्यवहित अन्तर कितना कहा गया है ? उ०-गोयमा ! दुवालस जोयण अबाहाए अंतरे पण्णत्ते। उ०-गौतम ! बारह योजन का अव्यवहित अन्तर कहा -भग० स०१४, उ०८, सु०६-१६ गया है । १ भग. स. ६, उ. ५, सु. ४२ वव्वाणुओगे दट्टव्वं । Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ लोक- प्रज्ञप्ति ऊर्ध्वलोक कल्पों के संस्थान : कप्पाणं संठाणं हेट्ठिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता, तं 'जहासोहम्मे ईसाणे, सणकुमारे, माहिंदे । चित्तारि कप्पा परिपुष्णचंदठागडिया पण्णत्ता तं जहा - बंभलोगे, लंतए, महासुक्के, सहस्सारे । उवरिल्ला चत्तारि कप्पा अद्धचंदसंठाणसंठिया पण्णत्ता, तं जहा – आणए, पाणए, आरणे, अच्चुए । - ठाणं ० ४, उ० ४, सु०३८३ कण्हराईणं संखा - ठाणाइ य परूपणं३०. ५० - कति णं भंते ! कण्हराईओ पण्णत्ताओ ? उ०- गोयमा ! अट्ठ कम्हराईओ पाओ तं जहा पुरस्मे दो पदो दाहिणेणं दो, उत्तरेणं दो । प० - कहि णं भंते ! एयाओ अट्ट कण्हराईओ पण्णत्ताओ ? ३० गोयमा उपि सकुमार माहिदा का हेमिलोगे कप्पे रिविमापत्थडे । एत्थ णं अक्खाडग-समचउरंस संठाणसंठियाओ अट्ठ कण्हराईओ पण्णत्ताओ । तं जहा - १. पुरम कन्हराई दाहिणबाहिरं कण्हराई पुट्ठा । २. दाहिणमंत कव्हराई पन्चत्थिवाहिर क राई पुट्ठा । ३. पञ्चस्थिमभंतरा कण्हराई उत्तरबाहिरं कण्हराई पुट्ठा। ४. उतरमंतरा राई पुरस्थमाहिर पुट्ठा यो पुरस्थमयन्त्यमा बाहिराजी कव्हराईओ छलंसाओ । दो उत्तर दाहिणाओ बाहिराओ कन्हईओ तंसाओ । दो पुरत्थिम- पच्चत्थिमाओ अभिंतराओ कण्हराईओ चउरंसाओ । यो उत्तरदाहिणाओ अभिमंतराओ कहराईओ प रंसाओ । संग्रहणी गाहा पुव्वावरा छलंसा, तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा | अनंतर उसा सव्वा वियईओ ॥ -भग. स. ६, उ. ५, सु. १७-१८ सूत्र ३० कल्पो के संस्थान - नीचे के चार कल्प अर्ध चन्द्राकार है यथा- (१) सौधर्म, (२) ईशान, (३) सनत्कुमार और (४) माहेन्द्र , बिचले चार कल्प पूर्ण च द्राकार हैं। यथा- (१) ब्रह्मलोक, (२) जातक, (३) महालु और (४) सहसार। ऊपर के चार कल्प अर्ध चन्द्राकार हैं । यथा - ( १ ) आनत, (२) प्राणत, (३) आरण और (४) अच्युत । कृष्णराजियों की संख्या और स्थानों का प्ररूपण३०. प्र०—भगवन् ! कृष्णराजियाँ कितनी कही गई हैं ? उ०- गौतम ! कृष्णराजियाँ आठ कही गई हैं, यथापूर्व में दो, पश्चिम में दो, दक्षिण में दो, उत्तर में दो । - प० - भगवन् ! ये आठ कृष्णराजियाँ कहाँ कही गई हैं ? उ०- गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्रकुमार कल्प के ऊपर, ब्रह्मलोक कल्प के रिष्ट विमान प्रस्तट में नीचे, अखाडे के समान सम चौरस आकार वाली ये आठ कृष्णराजियाँ कही गई हैं, यथा १. पूर्व की भीतरी कृष्णराज दक्षिण की बाह्य कृष्णराज २. दक्षिण की भीतरी कृष्णराज पश्चिम की बाह्य कृष्णराजि पृष्ट है। ३. पश्चिम की भीतरी कृष्णराज उत्तर की बाह्य कृष्णराजि स्पृष्ट है । से उत्तर की भीतरी कृष्णराजि पूर्व की बाह्य कृष्ण राजि से पृष्ट है। पूर्व-पश्चिम की दो बाह्य कृष्णराजियाँ षट्कोण हैं । उत्तर-दक्षिण की दो बाह्य कृष्णराजियाँ त्रिकोण हैं । पूर्व-पश्चिम की दो आभ्यन्तर कृष्णराजियां चतुष्कोण है। उत्तर-दक्षिण की दो आभ्यन्तर कृष्णराजियां चतुष्कोण हूँ। संग्रहणीयायार्थ पूर्व-पश्चिम की सभी बाह्य कृष्णराजियाँ षट्कोण हैं, उत्तर-दक्षिण की सभी बाह्य कृष्णराजियाँ त्रिकोण हैं, पूर्व-पश्चिम की सभी आभ्यन्तर कृष्णराजय चतुष्कोण है, उत्तर-दक्षिण की सभी आभ्यन्तर कृष्णराजियाँ चतुष्कोण है। Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३१-३४ कव्हराईण आयाम-विवम-परुवर्ण ३१. ० कन्हईओ णं भंते । केवड आयामेण ? ared लोक : कृष्णराजियों के आयाम-विष्कम्भ का प्ररूपण केवइयं विवखमेणं ? केव उ०- गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणं सहस्साई आयामेणं । परिवेत्ताओ ? असंलाई जोयणसहस्साइं विषमेणं सेन्नाई जीर्णसहस्सा परिषदेयेषां पण्यताओ। - भग. स. ६, उ. ५, सु. १६ कव्हराईणं पमाण-पवणं३२. ० ईओ नं ते उ०- दोषमा | अयं णं पण्णत्ते । - के महाविद्याओ पष्णताओ ? महीने बोये जाव-परिषदेवे देवे महिडडीए-जाव-महाभागे "इणामेव नामेव" कि केवल जंबुद्दीवं दीवं तिहि अच्छरा निवाहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छिज्जा । से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए - जाव देवगईए वो वयमाणे वीईवयमाणे एकाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं अद्धमासं वीईवएज्जा । सत्येगइयं कराई थी। अत्येगइयं हराईनो बोईवा । एमहालियाओ णं गोयमा ! कण्हराईओ पण्णत्ताओ । - भग. स. ६, उ. ५. सु. २० गणितानुयोग कृष्णराजियों के आयाम - विष्कम्भ का प्ररूपण - ३१. प्र० - भगवन् ! कृष्णराजियों की -- लम्बाई कितनी कही गई है ? चौड़ाई कितनी कही गई है ? परिधि कितनी कही गई है ? उ०- गौतम ! लम्बाई असंख्य हजार योजनों की कही गई है। ६०१ चौड़ाई असंख्य हजार योजनों की कही गई है। परिधि असंख्य हजार बोजनों की कही गई है। कृष्णराजियों के प्रमाण का प्ररूपण - ३२. प्र० - भगवन् ! कृष्णराजियाँ कितनी बड़ी कही गई हैं ? उ०- गौतम ! यह जम्बूद्वीप - यावत् - परिधि वाला कहा गया है । कोई महाऋद्धि वाला बायतु महा भाग्यवान् देव "यह आया, यह आया" कहता हुआ तीन चुटकियां बजाये जितनी देर में इस जम्बूद्वीप की इक्कीस बार परिक्रमा करके शीघ्र आ जावे । वह देव उस उत्कृष्ट शीघ्र - यावत् — देव गति से जाता हुआ एक दिन, दो दिन, तीन दिन, उत्कृष्ट पन्द्रह दिन निरन्तर चले तो किसी एक कृष्णराजि को पार कर सके और किसी एक कृष्णराजि को पार न कर सके । हे गौतम! इतनी बड़ी कृष्णराजियाँ कही गई हैं । कण्हराईसु गेहाईणं अभाव - परूवणाकृष्णराजियों में "गृह" आदि के अभाव का प्ररूपण - ३२.५० अभंते! व्हराई नेहा वाहावमा ३३. प्र० भगवद् कृष्णराजियों में घर अथवा दुकानें हैं? ! इ वा ? उ०-- गोयमा ! नो इणट्ठे सम । ५० अस्थि मते ! कन्हराई गाथाई बा-जाय-प्रियेसा इ वा ? उ०- गोयमा ! नो इण सम | - - भग. स. ६, उ.५, सु. २१-२२ कण्हराई ओराल देवकारियतं बलामाईणं अत्यित्तं ३४. अस्थि भंते! कन्हराईनु ओराला बसाया, १. संसेति णं २. २. बासंबाति ? उ०- हंता गोयमा ! अस्थि । कि देवो पकरेड, असुरो पफरे, नामो १०- मंते पकरेड ? उ०- गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्र० - भगवन् ! कृष्णराजियों में गाँव आदि - यावत्सवेषादि है? उ०- गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । कृष्णराजियों में देवकृत मेघ आदि का अस्तित्व - ३४. प्र० भगवन् ! कृष्णराजियों में विशाल मेष मालायें है ? वे संस्थेदित होती हूँ? उत्पन्न होती है ? बरसती है ? उ०- गौतम ! होती हैं । प्र० - भगवन् ! क्या उन्हें देव करता है ? असुर करता है ? या नाग करता है ? Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ लोक-प्रज्ञप्ति ऊर्व लोक : कृष्णराजियों में अप्कायिकों के अभाव का प्ररूपण सूत्र ३४-३८ उ०-गोयमा ! देवो पकरेइ, मो असुरो नो नागो य । उ०-गौतम ! देव करता है, असुर नहीं करता है, नाग नहीं करता है। प०-अस्थि णं कण्हराईसु बादरे थणियसः बादरे विज्जुए? प्र०-भगवन् ! कृष्णराजियों में श्रव्य गर्जना है ? दृश्य विद्युत है ? उ०-हंता गोयमा ! अत्थि । उ०-गौतम ! है। ५०-तं भंते ! कि देवो पकरेइ, असुरो पकरेइ, नागो प्र०-भगवन् ! क्या उन्हें देव करता है ? असुर करता पकरे? है ? या नाग करता है ? ७०-गोयमा ! वेवो पकरेइ, नो असुरो, नागो य। उ०—गौतम! देव करता है, असुर और नाग नहीं -भग. स. ६, उ. ५, सु. २३-२४ करता है । कण्ह ईसु बादर आउकाइयाईणं अभाव-परूवण- कृष्णराजियों में अप्कायिकों के अभाव का प्ररूपण३५. ५०- भंते ! कण्हराईसु बादरे आउकाए, बादरे ३५. प्र०-भगवन् ! कृष्णराजियों में दृश्य अप्काय (जल) है? __अगणिकाए, बादरे वणप्फइकाए? अग्निकाय है ? वनस्पतिकाय है ? उ०--गोयमा ! नो इण? सम8, नन्नत्थ विग्गहगइ समा- उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, विग्रह गति प्राप्त बन्नएणं । -भग. स. ६, उ. ५, सु. २५ जीवों को छोड़ कर । कण्हराईसु चंदाईणं अभाव-परूवणं कृष्णराजियों में चन्द्र आदि के अभाव का प्ररूपण३६. ५०–अस्थि णं भंते ! कण्हराईसु चंदिम-सूरिय-गहगण- ३६. प्र०-भगवन् ! कृष्णराजियों में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, णक्खत्त तारारूवा? या तारा है ? उ०-गोयमा ! नो इण? समट्ठ। उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ५०–अस्थि णं भंते ! कण्हराईसु चंदाभा इ वा, सरियामा प्र०- भगवन् ! कृष्णराजियों में चन्द्र सूर्य की आभा है। इवा? उ०-गोयमा ! नो इण? सम8। उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । -भग. स. ६, उ. ५, सु. २६-२७ कण्हराईणं वण्णपरूवणं कृष्णराजियों के वर्ण का प्ररूपण३७. कण्हराईओ णं भंते ! केरिसियाओ वण्णेणं पण्णते? ३७. प्र०-भगवन् ! कृष्णराजियाँ कैसे वर्ण की कही गई है ? उ० - गोयमा ! कालाओ जाव-परमकिण्हाओ वण्णेणं पण्ण- उ० --- गौतम ! श्याम-यावत्-उत्कृष्ट कृष्ण वर्ण की ताओ ? देवे वि णं अत्थेगइए जे णं तप्पढमयाए पासि- कही गयी है। कोई देव तो उसे देखकर पहले तो स्तम्भित हो त्ता णं खंभाएज्जा, अहे णं अभिसमागच्छेज्जा तओ पच्छा जाता है फिर उसमें जाना चाहता है तो जल्दी-जल्दी बड़े वेग से सीहं सीहं तुरियं तुरियं खिप्पामेव वीइवएज्जा। उसे पार करता है। -भग. स. ६, उ. ५, सु. २८ कण्हराईणं णामधेज्जाणि कृष्णराजियों के नाम३८. ५०-कण्हराईणं कति नामधेज्जा पण्णता? ३८. प्र०-कृष्णराजियों के कितने नाम कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! अट्ठनामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा उ०-आठ नाम कहे गये हैं१. कण्हराई इ वा, २. मेहरा इ वा, (१) कृष्णराजि, (२) मेघराजि, ३. मघा इवा, ४. माधवई इवा, (३) मघा, (४) माघवती, ५. वातफलिहे इवा, ६. वातपलिक्खोभे इवा, (५) वातपरिघा, (६) वात परिक्षोभा, ७. देवफलिहे हवा, ८. देवपलिक्खोभे इ वा। (७) देवपरिघा, (८) देव परिक्षोभा। -भग. स. ६, उ. ५, सु. २६ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३६-४२ कवलोककृष्णरानियों के परिणमत्व का प्ररूपण गणितानुयोग ६७५ कण्हराईणं परिणामत्त-परूवणं कृष्णराजियों के परिणमत्व का प्ररूपण३६. ५०-कण्हराईओ गं भंते ! किं पुढविपरिणामाओ, आउपरि. ३६. प्र०-भगवन् ! कृष्ण राजियाँ क्या पृथ्वी का परिणाम है ? णामाओ जीवपरिणामाओ, पुग्गलपरिणामाओ? अप् (जल) का परिणाम है ? जीव का परिणाम हैं ? या पुद्गल का परिणाम है? उ०-गोयमा ! पुढविपरिणामाओ, ___उ०—गौतम ! पृथ्वी का परिणाम है, अप् का परिणाम नो आउपरिणामाओ, नहीं है । जीवपरिणामाओ वि पुग्गलपरिणामाओ थि । जीव का परिणाम भी है और पुद्गल का परिणाम भी है। -भग. स. ६, उ. ५, सु ३० कण्हराईसु सर्वसि पाणाईणं उववन्नपुव्वत्त-परूवणं- कृष्णराजियों में सभी प्राणियों की पूर्वोत्पत्ति का प्ररूपण४०.५०-कण्हराईसु णं भंते ! सव्वे पाणा भूया जीवा सत्ता ४०. प्र०-भगवन् ! कृष्णराजियों में सभी प्राणी, भूत, जीव, उववन्नपुवा? __ सत्व पूर्वोत्पन्न हैं ? उ०-हंतो गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो नो चेवणं उ०-हाँ गौतम ! अनेक बार, अनन्त बार उत्पन्न हुए हैं, बादर आउकाइयत्ताए, बादर अगणिकाइयत्ताए बादर किन्तु दृश्य, जल, दृश्य अग्नि या दृश्य वनस्पति रूप में नहीं वणस्सइ काइयत्ताए वा। उत्पन्न हुए हैं। -भग. स. ६, उ.५, सु. ३१ तमुक्कायसरूव-परूवणं तमस्काय के स्वरूप का प्ररूपण४१. ५०-किमियं भंते ! तमुक्काए त्ति पवुच्चइ ? ४१. प्र०-भगवन् ! तमस्काय का स्वरूप कैसा है ? किं पुढवी तमुक्काए त्ति पवुच्चइ ? प्र०-तमस्काय क्या पृथ्वी रूप है ? आउ तमुक्काए त्ति पवुच्चइ ? तमस्काय क्या जल रूप है ? ७०-गोयमा ! नो पुढवी तमुक्काए त्ति पवुच्चइ । उ०-गौतम ! तमस्काय पृथ्वी रूप नहीं है । आउ तमुक्काए त्ति पवुच्चइ । तमस्काय जल रूप है। ५०-से केण?णं भंते ! एवं पवुच्चइ ? प्र०-भगवन् ! तमस्काय जल रूप कैसे हैं ? उ०-गोयमा ! पुढविकाए णं अत्यंगइए सुभे देसं पकासेइ, उ०-गौतम ! पृथ्वीकाय किसी एक शुभ देश को प्रकाशित अत्थेगइए देसं नो पकासेइ । करती हैं और किसी एक देश को प्रकाशित नहीं करती है । से तेण?णं गोयमा ! एवं पवुच्चइ-नो पुढवी हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि तमस्काय तमुक्काए त्ति पवुच्चइ, आउ तमुक्काए ति पवुच्चइ । पृथ्वीकाय रूप नहीं है । तमस्काय अप्काय (जल) रूप है । -भग. स. ६, उ. ५, सु. १ तमुक्कायस्स समुदाण-सन्निट्टिए य परूवणं- तमस्काय की उत्पत्ति और समाप्ति का प्ररूपण४२. ५०-तमुक्काए णं भंते ! कहिं समुट्ठिए ? ४२. प्र०-भगवन् ! तमस्काय कहां उत्पन्न होती है ? ५०–कहिं सन्निहिए? प्र०-कहां समाप्त होती है। उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स बहिया तिरियमसंखेज्जे उ०-गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप के बाहर असंख्य द्वीप समुद्र दीव समुद्दे वीइवइत्ता अरुणवरस्स दोवस्स बाहि- के बाद अरुणवर द्वीप की बाहर की वेदिका के अन्तिम भाग से रिल्लाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं बायालीसं अरुणोदय समुद्र में बियालीस हजार योजन अवगाहन करने पर जोयण सहस्साणि ओगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ एक प्रदेशी श्रेणी में तमस्काय उत्पन्न होती है। एगपएसियाए सेढीए, एत्थ णं तमुक्काए समुट्ठिए। ३०-सत्तरस एक्कवीसे जोयणसए उड्ढं उप्पइत्ता तओ पच्छा उ-सत्रह सौ इक्कीस हजार योजन ऊपर जाने पर तिरछी तिरियं पवित्परमाणे पवित्थरमाणे मोहम्मीसाण- फैलती-फलती १. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, ४. और Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : तमस्काय के संस्थान का प्ररूपण सूत्र ४२-४५ सणंकुमार-माहिदे चत्तारि वि कप्पे आवरित्ताणं' उड्ढं माहेन्द्र इन चार कल्प को आवृत करती हुई ऊपर-यावतपि य णं-जाव-बंभलोगे कप्पे रिढविमाणपत्थर्ड संपत्ते, ब्रह्मलोक कल्प के रिष्ट विमान के प्रस्तट में तमस्काय समाप्त एत्थ णं तमुक्काए सन्निट्ठिए। होती है। -भग. स. ६, उ. ५, सु.२ तमुक्कायस्स संठाण-परूवणं तमस्काय के संस्थान का प्ररूपण४३. १०-तमुक्काए णं भंते ! कि संठिए पण्णते ? ४३. प्र० --भगवन् ! तमस्काय का संस्थान क्या कहा गया है ? ७०-गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंठिए । उ०-गौतम ! नीचे सकोरे के मूल जैसे आकार वाली है, उपि कुक्कुडग पंजरगसंठिए पण्णत्ते । और ऊपर कुर्कट (मुर्गा) के पिंजरे जं से आकार वाली है। -भग. स. ६, उ.५, सु. ३ तमुक्कायस्स विक्खंभ-परिक्खेव परूवणं तमस्काय की चौड़ाई और परिधि का प्ररूपण४४. ५०-तमुक्काए णं भंते ! केवइयं विक्खंभेणं ? ४४. प्र०-भगवन् ! तमस्काय की चौड़ाई कितनी कही गई है ? ५०-केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते? प्र०–तमस्काय की परिधि कितनी कही गई है। उ०—गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते । तं जहा उ०-गौतम ! तमस्काय दो प्रकार की कही गई है, यथा१. संखेज्जवित्थडे य, (१) संख्यात योजन के विस्तार वाली, २. असंखेज्जवित्थडे य। (२) असंख्यात योजन के विस्तार वाली। तत्थ णं जे से संखेज्जवित्थडे से णं संखेज्जाइं जोयण- इनमें संख्यात योजन विस्तार वाली की चौड़ाई संख्यात सहस्साई विक्खंभेणं। हजार योजन की कही गई है। असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णते। परिधि असंख्य हजार योजन की कही गई है। तत्थ णं जे से असंखेज्जवित्थडे से असखेज्जाइं जोयणं असंख्यात योजन के विस्तार वाली की चौडाई असंख्यात सहस्साई विक्खंभेणं । हजार योजन कही गई है। असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ते । परिधि असंख्य हजार योजन की कही गई है। -भग. स. ६, उ. ५, सु. ४ तमुवकायस्स महालयत्त-परूवणं तमस्काय की महानता का प्ररूपण४५. ५०-तमुक्काए णं भंते ! के महालए पण्णते? ४५. प्र०-भगवन् ! तमस्काय कितनी बड़ी कही गई है ? उ०-गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे-जाव-परिक्खेवेणं उ०-गौतम ! यह जम्बूद्वीप द्वीप-यावत्-परिधि वाला पण्णत्ते। कहा गया है। देवे णं महिड्ढीए-जाव-महाणुभागे "इणामेव इणामेव" कोई महाऋद्धि वाला—यावत्-महाभाग्यशाली देव 'अभी त्ति कटु केवल कप्पं जंबुद्दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहि आया, अभी आया', कहता हुआ तीन चुटकियाँ बजावे जितने तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हव्वमागच्छिज्जा। समय में पूरे जम्बूद्वीप की इक्कीस बार परिक्रमा करके शीघ्र आ जावे। से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए-जाव-देवगईए वह देव उस उत्कृष्ट त्वरित-यावत्-देवगति से चलतावीईवयमाणे वीइवयमाणे एकाहं वा, दुयाहं वा, चलता एक मास, दो मास, तीन मास, उत्कृष्ट छह मास तक चलने तियाहं वा, उक्कोसेणं छम्मासे वीइवएज्जा अत्थेगइए पर तमस्काय के कुछ भाग को पार कर लेता है और कुछ भाग तमुक्कायं बीइवएज्जा अत्थेगइए तमुक्कायं नो वीइ- को पार नहीं कर पाता । वऐज्जा। ए महालए गं गोयमा ! तमुक्काए पण्णत्ते । हे गौतम ! तमस्काय इतनी बड़ी कही गई है। -भग. स. ६, उ. ५, सु. ५ १ तमुक्काए णं चत्तारि कप्पे आवरित्ता चिट्ठइ, तं जहा-१-२. सोहम्ममीसाणाणं, ३. सणंकुमार, ४. माहिदं । -ठाणं. अ.४, उ.२, सु. २६१ Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४६-४८ ऊर्ध्व लोक : तमस्काय में घर-ग्राम आदि के अभाव का प्ररूपण गणितानुयोग ६७७ इवा? तमुक्काए गिहगामाइ अभाव परूवणा तमस्काय में घर ग्राम आदि के अभाव का प्ररूपण४६. ५०-अत्थि णं भंते ! तमुक्काए गेहा इ वा, गेहावणा इवा? ४६. प्र०-भगवन् ! तमस्काय में घर या दुकानें हैं ? उ०-गोयमा ! नो इण? समट्ठ। उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं । १०-अस्थि णं भंते ! तमुक्काए गामा इ वा-जाव-सन्निवेसा प्र०-भगवन् ! तमस्काय में ग्राम-यावत्-सन्निवेश आदि हैं ? उ०-गोयमा ! नो इण8 सम8।। उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । -भग. स. ६, उ.५, सु. ६-७ चउविहेहि देवेहिं तमुक्काय पकुव्वणं चार प्रकार के देवों द्वारा तमस्काय की रचना४७. ५०-जाहे णं भंते ! ईशाणे देविदे देवराया तमुक्कायं काउ- ४७. प्र०-भन्ते ! ईशानेन्द्र देवेन्द्र देवराज जब तमस्काय की कामे भवइ, से कहमियाणि पकरेइ ? रचना करना चाहता है तब वह किस प्रकार करता है ? उ०-गोयमा ! ताहे चेव णं ईशाणे देविदे देवराया अभि- उ०-गौतम ! तब वह ईशानेन्द्र देवेन्द्र देवराज आभ्यन्तर तर परिसए देवे सद्दावेइ । परिषद् के देवों को बुलाता है । तए णं ते अभिन्तर परिसया देवा सद्दाविया समाणा तब वे आभ्यन्तर परिषद् के देव बुलाए हुए शक्र के समान एवं जहेव सक्कस्स जाव । आभियोगिक देवों को बुलाकर उनके द्वारा तमस्कायिक देवों को तए ण ते आभिओगिया देवा सद्दाविया समाणा बुलाते हैं । तमुक्काइए देवे सद्दावेति । तए णं ते तमुक्काइया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्का- तब वे बुलाए हुए तमस्कायिक देव तमस्काय की रचना इयं पकरेंति । करते हैं। एवं खलु गोयमा ! ईशाणे देविदे देवराया तमुक्कायं इस प्रकार हे गौतम ! ईशानेन्द्र देवेन्द्र देवराज तमस्काय की पकरेइ । रचना करवाता है। ५०–अस्थि णं भंते ! असुरकुमारा वि देवा तमुक्कायं ५०-भन्ते ! क्या असुर कुमार देव भी तमस्काय की रचना पकरेंति ? करते हैं ? उ०-हंता गोयमा ! अस्थि । उ०-हाँ गौतम ! असुर कुमार देव भी तमस्काय की रचना करते हैं। प०-कि पत्तियं णं भंते ! असुरकुमारा देवा तमुक्कायं प्र०-भन्ते ! असुर कुमार देव किसलिए तमस्काय की पकरेंति? रचना करते हैं ? उ०-गोयमा ! (१) किड्डा रतिपत्तियं वा । उ०-गौतम ! (१) रतिक्रीडा के लिए। (२) पडिणीय विमोहणट्ठयाए वा । (२) शत्रु को छलने के लिए। (३) गुत्ति सारक्खण हेउ वा । (३) दूसरे देवों की चुराई हुई मूल्यवान वस्तुओं को छिपाने के लिए। (४) अप्पणो वा सरीर पच्छायणट्ठयाए वा । (४) अपने आपको छिपाने के लिए। एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा वि देवा तमुक्कायं इस प्रकार हे गौतम ! असुर कुमार देव भी तमस्काय की पकरेंति । एवं जाव वेमाणिया । रचना करते हैं। -भग. स. १४, उ. २, सु. १४-२७ इस प्रकार वैमानिक पर्यन्तक हैं। तमुक्काए बलाहयाईणं अत्थित्तं देवाइकारियत्तं च तमस्काय में देवकृत मेघ आदि का प्ररूपण परूवणं४८. १०-अस्थि णं भंते ! तमुक्काए ओराला बलाहया संसेयंति ४८.प्र०-भगवन् ! तमस्काय में मेघ संस्वेदित होते हैं, सम्मूच्छित सम्मुच्छंति; वासं वासंति ? होते हैं और वर्षा बरसती हैं ? उ०-हंता गोयमा ! अत्थि । ... उ०-हां गौतम ! वर्षा बरसती हैं। Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ लोक - प्रज्ञप्ति wwwwwwwww ऊर्ध्वलोक : तमस्काय में दृश्य पृथ्वीकाय और तेजस्काय के अभाव की प्ररूपणा प० तं भंते! किं देवो पकरेति ? असुरो पकरेति ? नागो पकरेति ? उ०- गोयमा ! देवो वि पकरेति, असुरो वि पकरेति, नागो वि पकरेति । प० – अत्थि णं भंते ! तमुक्काए बादरे थणियसद्द ? बादरे विज्जुए ? उ०- हंता गोयमा ! अस्थि । प० तं भंते! कि देवो पहरेति असुरो पकरेति नागो पकरेति ? उ०- गोयमा ! तिष्णि वि पकरेंति । , उ०- गोयमा ! नो तिणट्टे समट्ठे । नन्नत्य विग्गहगति समावन्नाएणं । -भग. स. ६, उ. ५, सु. १० - भग. स. ६, उ. ५, सु. ६ तमुक्काए बादरपुढविकाय अगणिकायाणं अभाव तमस्काय में दृश्य पृथ्वीकाय और तेजस्काय के अभाव की परवर्ण उ०- गोयमा ! नो तिण े समट्ठ े । पलिपस्सतो पुण अस्थि । प्ररूपणा ४६. प० – अस्थि णं भंते ! तमुक्काए बादरे पुढविकाए, बादरे ४६. प्र० - भगवन् ! तमस्काय में दृश्य पृथ्वीकाय है, दृश्य अग्निअगणिकाए ? काय है ? प० -अस्थि णं भंते! तमुक्काए चंदाभा इ वा सूराभा इ वा ? उ०--- गोवमा मोतिमट्ठे समाया पुन सा -भग. ६, उ. ५, सु. ११-१२ तमुक्काय वण्ण-परूवणा५१. प० -- तमुक्काए णं भंते ! केरिसए वण्णेणं पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! काले कालोभासे गंभीरलोम हरिस जणणे भीमे उतासणए परमकि वर्ण पण सूत्र ४८-५२ प्र० - भगवन् ! क्या मेघ तथा वृष्टि देव करता है ? असुर करता है ? या नाग करता है ? उ०- गौतम ! देव भी करता है, असुर भी करता है, ना भी करता है । देवे विणं अस्थिगइए जे णं तप्पढमयाए पासित्ताए णं खंभा एज्जा अहे णं अभिसमागच्छेज्जा । तओ पच्छा सोहं सोहं तुरियं यं मे - भग. स. ६, उ. ५, सु. १३ प्र० - भगवन् ! तमस्काय में गर्जना का श्रव्य शब्द हैं ? और दृश्य विद्युत है ? उ०- गौतम ! है । तमुक्काए चंद सूरियाईणं अभाव-परूवणं तमस्काय में चन्द्र सूर्यादि के अभाव का प्ररूपण - ५०. ० -अस्थि णं भंते! तमुक्काए चंदिम सूरिय- गहगण णक्खत्त ५० प्र० - भगवन् ! तमस्काय में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूवा ? तारा है ? मुक्कायस्स नामधेयाणि५२. ५० - तमुक्कायस्स णं भंते ! कति नामधेज्जा पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! तेरस नामधेज्जा पण्णत्ता । तं जहा १. तमे इवा, २. तमुक्काए इ वा, ३. अंधकारे इ वा प्र० - भगवन् ! उस गर्जना और विद्युत को क्या देव करता है ? असुर करता है ? नाग करता है ? उ०- गौतम ! तीनों ही करते हैं । उ०- गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । विग्रह गति प्राप्त जीवों को छोड़कर । उ०- गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । हां, पार्श्व भाग में हैं। प्र० - भगवन् ! तमस्काय में चन्द्र, सूर्य की आभा है ? उ०- गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। किन्तु उसकी दूषित करने वाली प्रभा है । तमस्काय के वर्ण की प्ररूपणा ५१. प्र० - भगवन् ! तमस्काय का वर्ण कैसा कहा गया है ? उ०- गौतम ! कृष्ण, कृष्णाभास, अत्यधिक रोमांचक भयानक त्रासदायक उत्कृष्ट कृष्ण वर्णं कहा गया है । कोई-कोई देव तो से देखकर स्तम्भित हो जाता है। फिर भी यदि कोई उसे पार करना चाहता है तो अतिशीघ्र त्वरित गति से पार करता है । तमस्काय के नाम ५२. प्र० - भगवन् ! तमस्काय के कितने नाम कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! तेरह नाम कहे गये हैं, यथा १. तम, २. तमस्काय, ३. अंधकार, ४. महांधकार, Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५३-५६ ऊर्ध्वलोक : तमस्काय के परिणामित्व का प्ररूपण ४. महंपुकारे वा, ५. सोगंधारे वा, ६. लोग तमिस्से इ वा ७. देवंधकारे इ वा ८. देवतमिस्से इ वा ई. देवारण्णे इ वा १०. देववूहे इ वा, ११. देवफलिहे इ वा १२. देवपडिक्खोभे इ वा, १३. असो वा समु ।" - भग. स. ३, उ. ५, सु. २४ तमुक्कायरस परिणामत्त परूवणा तमस्काय के परिणामित्व का प्ररूपण - ५३. ५० - तमुक्काए णं भंते ! कि पुढविपरिणामे, आउपरिणामे, ५३. प्र० - भगवन् ! तमस्काय क्या पृथ्वी का परिणाम हैं, जीवपरिणामे, पुग्गलपरिणामे ? २. अप् (जल) का परिणाम हैं, ३ जीव का परिणाम है, ४. पुद्गलों का परिणाम हैं ? उ०- गोयमा तो पुढविपरिणामे । उपरिणामे व जीवपरिणामे वि पुग्गलपरिणामे वि - भग. स. ६, उ. ५ सु. ५१ तमुक्काए सवेसि पाणाई उबवन्धपुष्यत्त-यस्वर्ण-५४. प० – तमुक्काए णं भंते ! सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सब्वे जीवा, सव्वे सत्ता पुढविकाइयत्ताए- जाव-तसकाइयत्ताए उववन्नपुव्वा ? उ०- हंतो गोयमा असई अदुवा असतो, जो देव णं यावर पुढविकाइयत्ताए वा बादर अगणिकाइय - भग. स. ६, उ. ५, सु. १६ ताए वा । विमाणप्पगारा ५५. तिविहा विमाणा पण्णत्ता, तं जहां (१) अट्टिया (२) बेलिया । (३) परियाणिया । - गणितानुयोग ६७६ - ठाणं अ. ३, उ. ३, सु. १८६ प० सणकुमार माहिंदेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाण पुढवी कि पट्टिया पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! घणवायपइट्टिया पण्णत्ता । लोक तमिस्रा, ७. देवांधकार ५. लोकांधकार, देवतमिस्रा, ६. देवारण्य, १०. देवव्यूह, ११. देवपरिघा, १२. देवप्रतिक्षोभ, १३. अरुणोदय समुद्र | ५५. विमान तीन प्रकार के कहे गए हैं यथा(१) अवस्थित = शास्वत । (२) विकुर्वित = विकुर्वणा द्वारा निष्पन्न | (३) पारियानिक = आने-जाने के लिए निष्पन्न । विमान पृथ्वियों के प्रतिष्ठान विमाणपुर्ण पट्टणाई ५६. १० – सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणपुढवी किं ५६. प्र० - भगवन् ! सौधर्म और ईशानकल्प विमानों की पट्टिया पण्णत्ता ? पृथ्वी किस पर प्रतिष्ठित कही गई है ? उ०- गोयमा ! घणोदहिपइट्टिया पण्णत्ता । उ०- गौतम ! घनोदधि पर प्रतिष्ठित कही गई है । उ०- गौतम ! पृथ्वी का परिणाम नहीं है । जल का परिणाम है, जीव का परिणाम है, पुद्गल का परिणाम है । तमस्काय में सभी प्राणादि की ५४. प्र० -- भगवन् ! तमस्काय में जीव, सभी सत्व, पृथ्वीकाय रूप पूर्व में उत्पन्न हुए हैं ? उ०- हाँ गौतम ! बार-बार अथवा अनन्तवार उत्पन्न हुए है किन्तु दृश्य पृथ्वीकाय अथवा दृश्य अग्निकाम रूप नहीं उत्पन्न हुए हैं । विमानों के प्रकार पूर्वोत्पत्ति का प्ररूपणसभी प्राणी, सभी भूत, सभी में- यावत् — सकाय रूप में प्र० - भगवन् ! सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में विमानों की पृथ्वी किस पर प्रतिष्ठित कही गई है ? उ०- गौतम ! घनवात पर प्रतिष्ठित कही गई है । १ तमुक्कायस्स णं चत्तारि णामवेज्जा पण्णत्ता । तं जहा - ( १ ) तमे इ वा । (२) तमुक्काए इ वा । ( ३ ) अंधगारे ६ वा । (४) महंगा वा । (२) तमुक्कायस्स णं चत्तारि णामधेज्जा पण्णत्ता । तं जहा - (१) लोगंधगारे इ वा । (२) लोग तमसे इ वा । (३) देवंधगारे इ वा । ( ४ ) देवतमसे इ वा । (२) मुक्काम सारि णामधेन्वा णता से नहा (१) मातलि इवा (२) लिखोगे इवा (३) देवर इवा । (४) देववृद्देव वा । -- ठाणं अ. ४, उ. २, सु. २११ Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० लोक-प्रज्ञप्ति प० - बंभलोए णं भंते ! कप्पे विमाण पुढवी कि पट्टिया पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! घणवायपइट्टिया पण्णत्ता । प० - लंतए णं भंते ! कप्पे विमाणपुढवी कि पट्टिया पणता ? उ०- गोयमा ! तदुभयवइट्टिया पण्णत्ता । प० ऊर्ध्वलोक : वैमानिक विमानों के संस्थान महासुक्क सहस्सारेसु वि तदुभय पइट्टिया पण्णत्ता । - आणय- जाव अच्चुए णं भंते ! कप्पेसु विमाण पुढवीं किं पट्टिया पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! ओवासंतर पइट्टिया पण्णत्ता । प० - गेविज्जगेसु णं भंते ! विमाणापुढat fक पट्टिया पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! ओवासंतर पट्टिया पण्णत्ता । प० - अणुत्तरोववाइएसु णं भंते ! विमाणपुढवी कि पट्टिया पण्णत्ता ? उ०- गोयना ! ओवातरपट्टिया पम्मत्ता।" -जीवा. पडि ३, उ. १, सु. २०६ - वैमाणिय विमाणाणं संठाणाई - ५७. ति संठिया विमाणा पण्णत्ता । तं जहा(१) बट्टा, (२) संसा, (३) रंगा (1) से बट्टा विमाणा से गं पुक्खरकणिया संठाणसंठिया सव्वओ समंता पागारपरिक्खित्ता । एग दुवारा पण्णत्ता । (२) तत्थ णं जे ते तंसा विमाणा ते णं सिंघाडगसंठाण संठिया | दुहओ पागार परिक्खित्ता । एगओ वेइआ परिक्खित्ता तिदुवारा पण्णत्ता । (३) तत्थ णं जे ते चउरंसा विमाणा । ते णं अक्खाडग संठाण संठिया । सव्वओ समंता वेइया परिक्खित्ता । चउ दुवारा पण्णत्ता । - ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १८६ ५० सोहम्मीसामु षं मंते! कल्पेविमाया कि संठिया पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! विमाणा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा -- १. आवलियापविट्ठा, २. आवलियाबाहिरा य । सूत्र ५६-५७ प्र०—भगवन् ! ब्रह्मलोक कल्प में विमानों की पृथ्वी किस पर प्रतिष्ठित कही गई है ? उ०- गौतम ! घनवात पर प्रतिष्ठित कही गई है । प्र०—भगवन् ! लान्तक कल्प में विमानों की पृथ्वी किस पर प्रतिष्ठित कही गई है । उ०- गौतम ! घनोदधि और घनवात पर प्रतिष्ठित कही गई है। महाशुक्र और सहस्रारकल्प में भी विमान पृथ्वी घनोवधि और घनवात पर प्रतिष्ठित कही गई है । प्र० - भगवन् ! आनत - यावत्- अच्युत कल्पों में विमान पृथ्वि किस पर आश्रित कही गई है ? 80 - गौतम ! अवकाशान्तर पर प्रतिष्ठित कही गई है । प्र० - भगवन् ! ग्रैवेयकों में विमानों की पृथ्वियां किस पर प्रतिष्ठित कही गई है ? उ०- गौतम ! अवकाशान्तर पर प्रतिष्ठित कही गई है । प्र० - भगवन् ! अनुत्तरोपपातिकों में विमानों की पृथ्वियाँ किस पर प्रतिष्ठित कही गई है ? उ०—गौतम ! अवकाशान्तर पर प्रतिष्ठित कही गई है । वैमानिक विमानों के संस्थान ५७. विमान तीन संस्थान वाले कहे गए हैं यथा (१) वृत्त गोल, (२) त्रिकोण (३) चतुष्कोण । 1 इनमें से जो वृत्त विमान हैं वे पुष्कर कणिका के आकार से स्थित हैं। चारों ओर प्राकार से घिरे हुए हैं, एक द्वार वाले हैं । इनमें से जो त्रिकोण विमान हैं, वे संघाडे के आकार से स्थित हैं। दोनों ओर प्राकार से घिरे हुए हैं एक ओर वेदिका वाले हैं, उनके तीन द्वार कहे गये हैं । इनमें से जो चतुष्कोण विमान है, ये अखाड़े के आकार से स्थित हैं। चारों ओर वेदिका से घिरे हुए हैं उनके चार द्वार कहे गए हैं। प्र० - भगवन् ! सौधर्म और ईशानकल्प में विमान किस संस्थान वाले कहे गये हैं । उ०- गौतम ! विमान दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा १. आवलिका प्रविष्ट और अवालिका बाह्य | १ तिपहिया विमाणा पण्णत्ता, तं जहा – (१) घणोदहिपट्टिया, (२) घणवायपइट्ठिया, (३) ओवासंतरपट्टिया | - ठाणं. अ. ३, उ. ३, सु. १८६ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र५८-५९ ऊवं लोक : विमान पृथ्वियों का बाहल्य गणितानुयोग ६८१ तत्थ णं जे से आवलियापविट्ठा ते तिविहा पण्णत्ता, उनमें से जो आवलिका प्रविष्ट हैं, वे तीन प्रकार के कहे तं जहा गये हैं, यथा१. वट्टा, २. तंसा, ३. चउरसा य । (१) वृत्त (गोलाकार, (२) त्र्यस्र (तिकोन), (३) चतुरस्र (चौकोर)तत्थ णं जे से आवलिया बाहिरा ते णं णाणासंठिया उनमें से जो आवलिका बाह्य हैं वे नाना संस्थान वाले कहे पण्णत्ता। गये हैं। एवं-जाव-गेवेज्ज विमाणा। ___ इस प्रकार वेयक विमान पर्यन्त हैं। अणुत्तरोववाइया विमाणा दुविहा पण्णता, तं जहा- अनुत्तरौपपातिक विमान दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. वट्टा य, २. तंसा य । (१) गोलाकार संस्थान वाले, और (२) त्रिकोण संस्थान -जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. २१२ वाले । विमाणपुढवीणं बाहल्लं विमान पृथ्वियों का बाहल्य५८. ५०-सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणपुढवी केवइयं ५८. प्र०-भगवन् ! सौधर्म और ईशानकल्प में विमानपृथ्वियों बाहल्लेणं पण्णता? का बाहल्य कितना कहा गया है ? उ०—गोयमा ! सत्तवीसं जोयण सयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता।' उ०-गौतम ! सत्तवीस सौ योजन का बाहल्य कहा गया है। ५०–सणंकुमार-माहिदेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणपुढवी प्र०-भगवन् ! सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में विमानकेवइयं बाहल्लेणं पण्णता? पृथ्वियों का बाहल्य कितना कहा गया है ? उ०-गोयमा ! छव्वीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। उ०-गौतम ! छब्बीस सौ योजन का बाहल्य कहा गया है। प०-बंभ-लंतएसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणपुढ वो केवइयं प्र-भगवन् ! ब्रह्मलोक और लांतककल्प में विमानबाहल्लेणं पण्णत्ता? पृथ्वियों का बाहल्य कितना कहा गया है । उ०-गोयमा ! पणवीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। उ०—गौतम ! पच्चीस सौ योजन का बाहल्य कहा गया है । प०–महासुक्क-सहस्सारेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणपुढवी प्र०-भगवन् ! महाशुक्र और सहस्रारकल्प में विमानकेवइयं बाहल्लेणं पण्णता? पृथ्वियों का बाहल्य कितना कहा गया है ? उ०-गोयमा ! तेवीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पग्णत्ता। उ०—गौतम ! चौबीस सौ योजन का बाहल्य कहा गया है। आणय-जाव-अच्चुएसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणपुढवी प्र०-भगवन् ! आनत-यावत्-अच्युतकल्पों में विमानकेवइयं बाहल्लेणं पण्णता? पृथ्वियों का बाहल्य कितना कहा गया है ? उ०-गोयमा ! तेवीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। उ०-गौतम ! तेवीस सौ योजन का बाहल्य कहा गया है । ५०-गेवेज्जगेसु णं भंते ! विमाणपुढवी केवइयं बाहल्लेणं प्र०-भगवन् ! अवेयकों में विमानपृथ्वियों का बाहल्य कितना पण्णत्ता। कहा गया है ? उ०-गोयमा ! बावीस जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता । उ०-गौतम ! बावीस सौ योजन का बाहल्य कहा गया है। ५०-अणुत्तरोववाइएसु णं भंते ! विमाणपुढवो केवइया प्र०-भगवन् ! अनुत्तरोपपातिकों में विमानपृथ्वियों का बाहल्लेणं पण्णता? बाहल्य कितना कहा गया है ? उ०-गोयमा ! एकवीसं जोयणसयाई बाहल्लेणं पण्णत्ता। उ०-गौतम ! इक्कीस सौ योजन का बाहल्य कहा गया है। __-जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. २१२ वेमाणिय विमाणाणं महालियत्त वैमानिक विमानों की महत्ता५६. ५०-सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा के महा. ५६. प्र०-भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प में विमान कितने लिया पण्णता? बड़े हैं ? उ०-गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव समुदाणं उ०- गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सब द्वीप-समुद्रों के १ सम. २७, सु.४। Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ लोक- प्रज्ञप्ति ऊर्ध्व लोक : वैमानिक विमानों के उपादान मज्झे, सो चेव गमो जाव - छम्मासे अत्थेगइया वीइ वएज्जा, अत्थेगइया विमाणा नो वीइवएज्जा । एवं जान अगुत्तरोववाहया विमाणा अत्येवं विमानं वीएन्जा, अत्येगइयं विमानं नो वीइवएज्जा । —जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. २१३ मणिय विमाणार्ण उप्पादार्थ --- ६०. ५० - सोहम्मोसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा किं मया पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! सव्वरयणामया पण्णत्ता । तत्थ णं बहवे जीवा य, पोग्गला य, वक्कमंति विउक्कमति, चयंति, उवचयंति । सासया णं ते विमाणा दव्वट्टयाए । जाव फासपज्जवेहि असासया । एवं जाव - अणुत्तरोववाइया विमाणा । - जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. २१३ वैमाणिय विमाणाणं वण्णाइ - ६१. ५० - सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा कतिवण्णा पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! पंचवण्णा पण्णत्ता, तं जहा १. किण्हा, २. नीला, ३. लोहिया, ४. हालिद्दा, ५. किल्ला सकुमार माहिदे कप्पेसु विमाणा चडवण्णा पण्णत्ता, तं जहा - मलाक्कल्ला | भलो संतए कप्पे विमाणा तिवरणा पण्णत्ता, तं जहा - लोहिया जाता। महासुक्क सहस्सारेसु कप्पेसु विमाणा दुबणा पणत्ता, तं जहा १. हाला य २. सुकिल्ला य आणय- जाव-अच्चुएसु कप्पेसु विमाणा सुक्किल्ला पण्णत्ता । गेवेज्ज विमाणा सुविकल्ला पण्णत्ता । अणुत्तरोबचाइयविमाणा परममुकिल्ला पण्यता । - जीवा, पडि, ३, उ. १, सु. २१३ सूत्र ६०-६१ बीच में है। वही गम समझना, यावत् ( देव शीघ्र गति से ) छ मास तक चलता जाए तो — यावत्-कितनेक विमानों को पार कर पाए और कितनेक विमानों को पार न कर पाए। इस प्रकार अनुसरोपपातिक विमान पर्यन्त कहना चाहिए । ( शीघ्र गति देव छह मास तक चलने पर भी) किसी विमान को पार जा सके और किसी विमान के पार न जा सके । वैमानिक विमानों के उपादान ६०. प्र० - भगवन् ! सौधर्म और ईशानकल्प में विमान किससे बने हुए कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! सर्वरत्नमय कहे गये हैं । उनमें अनेक जीव और पुद्गल जाते हैं, उत्पन्न होते हैं, चय एवं उपचय को प्राप्त होते हैं । वे विमान द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत है । - यावत् - स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा अशाश्वत है । इसी प्रकार - यावत् - अनुत्तरौपपातिक विमान पर्यन्त कहना चाहिए । वैमानिक विमानों के वर्ण ६१. प्र० - भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प में विमान कितने वर्ग वाले कहे गये है? उ०- गौतम ! पांच वर्ण वाले कहे गये हैं, यथा १. कृष्ण, २. नील, ३. लोहित = रक्त, ४. हारिद्र = पीला, और ५. शुक्ल = सफेद । सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में विमान चार वर्ण वाले कहे गये हैं, यथा नील- बाबद शुक्ल ब्रह्मलोक और लांतक कल्प में विमान तीन वर्ण वाले कहे गये हैं, यथा लोहित - पावत् शुक्ल । महाशुक्र और सहस्रारकल्प में विमान दो वर्ण वाले कहे गये हैं, यथा - (१) हारिद्र और ( २ ) शुक्ल । आनत यावत्-अच्युतकल्प में विमान शुक्ल वर्ण वाले कड़े गए हैं वेयक विमान शुक्ल वर्ण वाले कहे गये हैं । अनुत्तरोपपातिक विमान परम शुक्ल वर्ण वाले कहे गये हैं । Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२-६५ कर्व लोक : वैमानिक विमानों के गंध गणितानुयोग ६८३ वेमाणियविमाणाणं गंधा वैमानिक विमानों के गंध६२. ५०-सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केरिसया ६२. प्र०-भगवन् ! सौधर्म और ईशानकल्प में विमान किस गंधे णं पण्णता? प्रकार की गंध वाले कहे गये हैं ? उ०—गोयमा ! से जहा नामए कोट्ठपुडाण वा-जाव-एतो उ० -- गौतम ! जिस प्रकार कोष्ठपुट--यावत्-इससे भी इट्ठतराए गंधेणं पणत्ता। अधिक इष्ट गंध वाले कहे गये हैं। एवं-जाव-एत्तो इट्टतरागा चेव-जाव-अणुत्तरविमाणा। इस प्रकार-यावत्- इससे भी अधिक इष्ट गंध वाले -जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. २१३ -यावत्-अनुत्तर विमान पर्यन्त कहे गये हैं। वेमाणिय विमाणाणं फासाई वैमानिक विमानों के स्पर्श६३. ५०-सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केरिसया ६३. प्र०-भगवन् ! सौधर्म और ईशानकल्प में विमान कैसे फासेणं पण्णत्ता? स्पर्श वाले कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! से जहा नामए आइणे इ वा, रूए इ वा, उ०-गौतम ! जैसे आजनिक = मृगचर्म हो, रूई हो, ऐसे सव्वे फासा भाणियव्वा । सभी स्पर्श कहने चाहिए। एवं-जाव-अणुत्तरोववाइय विमाणा । इस प्रकार-यावत्- अनुत्तर विमानों के स्पर्श हैं । -जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. २१३ बेमाणिय विमाणणं आयाम-विक्खंभ परिक्खेवो य- वैमानिक विमानों का आयाम-विष्कम्भ और परिधि६४. १०-सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केवइयं ६४. प्र०-भगवन् ! सौधर्म और ईशान कल्प में विमान आयाम आयाम-विक्खंभेणं केवइयं परिक्खेवेणं पण्णते? विष्कम्भ और परिधि से कितने कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! विमाणा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा उ०-गौतम ! विमान दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा१. संखेज्जवित्थडा य, २. असंखेज्जवित्थडा य । (१) संख्येय योजन विस्तृत, (२) असंख्येय योजन विस्तृत । जह णरगा तहा-जाव-अणुत्तरोववाइया, संखेज्जवित्थ- अनुत्तरोपपातिक पर्यन्त नरकों के समान संख्यात य डा य असंखेज्जवित्थडा य । विस्तार वाले और असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं। तत्य णं जे से संखेज्जवित्थडे से जंबुदीवप्पमाणे असंखेज्ज- उनमें जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं वे जम्बूद्वीप जितने वित्थडा असंखेज्जाइं जोयणसवाई आयाम विक्खंभेणं प्रमाण वाले हैं । असंख्यात योजन विस्तार वाले आयाम-विष्कम्भ परिक्खेवेणं पण्णत्ता। और परिधिसे असंख्यात सौ योजन के कहे गये हैं। -जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. २१३ सोहम्मडिसगे गं विमाणे णं अद्धतेरस जोयण-सय सहस्साइं सौधर्मावतंसक विमान का आयाम-विष्कंभ साढे तेरह लाख आयाम-विक्खंभेणं पण्णते। -सम. १३, सु. ३ योजन का है । सन्वट्ठसिद्धे महाविमाणे एगं जोयणसयसहस्सं आयाम- सर्वार्थसिद्ध महाविमान एक लाख योजन लम्बा-चौड़ा कहा विक्खंभेणं पण्णत्ते। -सम. स. १, सु. ४ गया है। वेमाणिय विमाणाणं पभा वैमानिक विमानों की प्रभा६५. ५०-सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केरिस ६५. प्र०-सौधर्म और ईशान कल्प में विमान प्रभा से कैसे कहे पभाए पण्णता? गये हैं ? उ०-गोयमा ! णिच्चालोया, णिच्चुज्जोआ सयं पभाए उ०-- गौतम ! वे विमान अपनी प्रभा से नित्य आलोक पण्णत्ता। ___ वाले नित्य उद्योत वाले कहे गये हैं । एवं-जाव-अणुत्तरोववाइया विमाणा णिच्चालोआ इस प्रकार-यावत्-अनुत्तरौपपातिक विमान भी अपनी णिच्चुज्जोया सयं पभाए पण्णत्ता । प्रभा से नित्य आलोक वाले नित्य उद्योत वाले कहे गये हैं । -जीवा. पडि, ३, उ. १, सु. २१३ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ लोक- प्रज्ञप्ति वेमाणिय विमाणाणं उच्चत्त ६६. १० सोहम्मीसा उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! पंच जोयण सयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ।' प० - सकुमार माहिदे गं ते विमाणा केव उड़ढं उच्चतेणं पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! छ जोयण सयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । 2 प० नए कप्पे विमाणा के उड़ उच्चतेणं पण्णत्ता ? उ० १ २ ऊर्ध्व लोक : वैमानिकों के विमानों की ऊंचाई - गोयमा ! सत्त जोयण सयाई उड्ढ उच्चत्तेणं पण्णत्ता । प० -- महासुक्क सहस्सा रेसु णं भन्ते ! कप्पेसु विमाणा केवइयं उड़ढं उच्चतेणं पण्णत्ता ? मंते ये विमाणा के ६५० ऊं कहे गये हैं। उ०- गोयमा ! अट्ठ जोयण सयाई उड्ढं उच्चतेणं पण्णत्ता । * प० - आणय- जाव अच्चुएसु णं भन्ते ! कप्पेसु विमाणा केवइयं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! नव जोयण सयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णत्ता । प० - गेविज्ज विमाणाणं भन्ते ! केवइयं उड्ढं उच्चतेणं पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! दस जोयण सयाई उड्ढं उच्च तेणं पण्णत्ता । १० अणुत्तर विमानानं चन्ते । इयं उड़ उभचणं पण्णत्ता ? उ० – गोयमा ! एक्कारस जोयणसयाई उड्ढं उच्चतेणं पण्णत्ता । - जीवा पडि. ३, उ. १, सु. २१३ वैमाणिय विमाण पागाराणं उच्चत६७. वैमाणियाणं देवानं विमाणपागारा तिष्णि तिणि जोयण सयाई उड्ढं उच्चत्तेणं पण्णता । -सम. १०४, सु. ३, वेमणिय विमाणसु पत्थडा ६८. सोहम्मीसामु कप्पे तेरस विमाणपत्या पता । ठाणं अ०५, उ०३, सु० ४६६, ठाणं अ० ६, सु. ५३२, ३ ठाणं अ० ७, सु० ५७८, ४ ठाणं अ० ८, सु० ६५०, ५ ठाणं अ० ६, सु० ६६५, ६ ठाणं अ० १० सू० ७७५, ७ ० अ० ११ वैमानिकों के विमानों की ऊंचाई - सम. १३, सु. २ भगवद्द ! सौधर्म और ईशानकल्प में विमान कितने सूत्र ६६-६८ उ०- गौतम ! पाँच सौ योजन ऊँचे कहे गये हैं । प्र०] [भगवन्! कुमार और माहेन्द्रकल्प में विमान कितने उसे कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! छ सौ योजन ऊँचे कहे गये हैं ? प्र० - भगवन् ! ब्रह्मलोक और लांतककल्प में विमान कितने ऊँचे कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! सात सौ योजन ऊँचे कहे गये हैं । प्र० - भगवन् ! महाशुक्र और सहस्रारकल्प में विमान कितने ऊँचे कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! आठ सौ योजन ऊँचे कहे गये हैं । प्र० - भगवन् ? आनत - यावत्-अच्युतकल्पों में विमान कितने ऊँचे कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! नव सौ योजन ऊंचे कहे गये हैं । प्र० - भगवन् ! ग्रैवेयक विमानों की ऊँचाई कितनी कही गई है? उ०- गौतम! दस सी ( एक हजार ) योजन की ऊंचाई कही गई है। प्र० - भगवन् ! अनुत्तर विमानों की ऊँचाई कितनी कही गई है ? उ०- गौतम ! ग्यारह सौ योजन की ऊँचाई कही गई है । वैमानिक विमानों के प्राकारों की ऊंचाई ६६. वैमानिक देवों के विमानों के प्राकारों की ऊँचाई तीन-तीन सौ योजन की कही गई है । वैमानिकों के विमानों में प्रस्तट ६७. सौधर्म और ईशान कल्प में तेरह विमान प्रस्तट कहे गये हैं । -सम० १०८, सु० ८ -सम० १०६, सु० १ - सम० ११०, सु० १ - सम० १११, सु० १ - सम० ११, सु० १ - सम० ११, सु० १ - सम० ११, सु० १ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६८-18 अवलोक: वैमानिकों के विमानों में प्रस्तट गणितानुयोग ६५ बंभलोए णं कप्पे छ विमाण पत्थडा पण्णत्ता, तं जहा- ब्रह्मलोक कल्प में छ विमान प्रस्तट कहे गये हैं, यथा१. अरए, २. विरए, ३. नीरए, ४. निम्मले, ५. वितिमिरे, (१) अरज, (२) विरज, (३) नीरज, (४) निर्मल, ६. विसुद्ध। -ठाणं. अ. ६, सु. ५१६ (५) बितिमिर, (६) और विशुद्ध । णव गेवेज्ज विमाणपत्थता पण्णत्ता, तं जहा अवेयक विमानों के नौ प्रस्तट कहे गये है, यथा१. हेट्ठिम-हेट्ठिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे, (१) अधस्तन-अधस्तन ग्रेवेयक विमान प्रस्तट । २. हेट्ठिम-मज्झिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे, (२) अधस्तन मध्यम ग्रैवेयक विमान प्रस्तट । ३. हेट्ठिम-उवरिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे, (३) अधस्तन उपरितन ग्रेवेयक विमान प्रस्तट । ४. मज्झिम-हेट्ठिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे, (४) मध्यम-अधस्तन ग्रैबेयक विमान प्रस्तट । ५. मज्झिम-मज्झिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे, (५) मध्यम-मध्यम वेयक विमान प्रस्तट । ६. मज्झिम-उवरिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे (६) मध्यम-उपरितन ग्रेवेयक विमान प्रस्तट । ७. उवरिम-हेट्ठिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे, (७) उपरितन-अधस्तन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट । ८. उवरिम-मज्झिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे, (८) उपरितन-मध्यम ग्रैवेयक विमान प्रस्तट । ६. उवरिम उवरिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे', (E) उपरितन-उपरितन ग्रैवेयक विमान प्रस्तट । एएसि णं णवण्हं गेवेज्ज विमाणपत्थडाणं नव नाम धेज्जा इन नौ विमान प्रस्तटों के नौ नाम कहे गये हैं, वे इस पण्णत्ता, तं जहा प्रकार हैंगाहा गाथा१. भद्दे, २. सुभद्दे, ३. सुजाए, ४. सोमणसे, ५. पियदरिसणे। (१) भद्र, (२) सुभद्र, (३) सुजात, (४) सोमनस, (५) प्रिय६. सुबंसणे, ७. अमोहे य, ८. सुप्पबद्ध, ६. जसोधरे ॥ दर्शन, (६) सुदर्शन, (७) अमोघ, (८) सुप्रबुद्ध, (६) यशोधर । -ठाणं. अ. ६, सु. ६८५ सब्वे वेमाणियाणं बासट्टि विमाण पत्थडा पण्णत्ता सभी वैमानिकों के बासठ विमान प्रस्तट कहे गये हैं । -सम. ६२, सु.५ विमाणा ईसि उण्णयरा ईसि निण्णयरा- विमाण कुछ ऊँचे हैं और कुछ नीचे हैं६६. ५०-सक्कस्स गं भंते ! देविदस्स देवरण्णो विमाणेहितो ६६. प्र०-भन्ते ! शक देवेन्द्र देवराज के विमान से ईशानेन्द्र ईसाणस्स देविदस्स देवरणो विमाणा ईसिं उच्चयरा देवेन्द्र देवराज के विमान कुछ उच्चतर हैं कुछ उन्नततर हैं ? चेव, ईसि उण्णयरा चेव ? ईसाणस वा देविदस्स देवरणो विमाणेहितो ईसि ईशानेन्द्र देवेन्द्र देवराज के विमाण से शक्र देवेन्द्र देवराज नीययरा चेव, ईसि निण्णयरा चेव ? के विमान कुछ नीचतर हैं कुछ निम्नतर हैं ? १ तओ गेवेज्ज विमाण पत्थडा पण्णत्ता । तं जहा १. हेट्रिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे । २. मज्झिम-गेवेज्ज विमाण पत्थडे । ३. उवरिम-गेवेज्ज विमाणपत्थडे । हेट्ठिम गेबेज्ज विमाणपत्थडे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा१. हेट्ठिम मज्झिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे । २. हेट्रिम मज्झिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे । ३. हेट्टिम उवरिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे । मज्झिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-- १. मज्जिम हेट्रिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे । २. मज्झिम-मज्झिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे । ३. मज्झिम उवरिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे । उवरिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा१. सवरिम हेट्ठिम गेवेज्ज विमाण पत्थडे । २. उवरिम मज्झिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे । ३. उवरिम-उवरिम गेवेज्ज विमाणपत्थडे । -ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २३२ २ सौधर्म-ईशान में तेरह, सनत्कुमार-माहेन्द्र में बारह, ब्रह्मलोक में छ, लान्तक में पांच, महाशुक्र में चार, सहस्रार में चार, आनतप्राणत में चार, आरण-अच्युत में चार, ग्रेवेयक में नौ, अनुत्तरोपपातिक में एक-ये बासठ विमान प्रस्तट हुए । --आव. नि. गाथा २६७ Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ लोक- प्रज्ञप्ति उ०- गोयमा ! सक्कस्स ईसाणस्स य तं चैव सव्वं नेयव्वं । प० - से केणट्ठे णं भंते ! एवं वुच्चइ — सक्कस्स जाव विमाणा निण्णयरा चेव ? ऊर्ध्व लोक प्रथम प्रस्तट में विमान : उ०- गोयमा ! से जहा नामए करतले सिया देसे उच्चे, देसे उन्नये, देसे णीए देसे णिण्णे । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ- -सक्कस्स जाव निण्णयरा चेव । -भग. स. ३, उ. १, सु. ५५ विमान निम्नतर हैं। पढमे पत्थडे विमाणा७०. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु पढमे पत्थडे पढमावलियाए एग्गमेगाए दिखाए वास विमाणा पण्णत्ता । - सम. ६२, सु. ४ । विमाणस्स बाहाए मोमा७१. सोहम डिसयस णं विभागस्स पर्सा भोमा पण्णत्ता । विमाणावास संखा एयमेगाए बाहाए पणस - सम. ६५, सु. ३ । ७२. सम्यकुमार माहिदे ति कम्ये बावविमाणावास सय सहस्सा पण्णत्ता । -सम. स. ५२, सु. ७ । सोहम्मी-सादी कप्पे सहि विमाणावास सपसहस्सा पण्णत्ता । - सम. स. ६, सु. ६ । कप्पेसु चउर्साट्ठ विमाणा - सम. स. ६०, सु. ५। सोहम्मी-साणेसु बंभलोए यतिसु वास सयसहस्सा पण्णत्ता । आरणे कप्पे दिवsढ विमाणावास सयं पण्णत्तं । एवं अच्चुए वि । परियाणिया विमाना १ ठाणं अ. ८, सु. ६४४ । - सम. स. १०१, सु. १ । ७३. दसकप्पा इंदाहिट्टिया पण्णत्ता । तं जहा १८ सोहम्मे जाव सहस्सारे, १ पाए, २० अपए। एएस णं दससु कप्पेसु दस इंदा पण्णत्ता । तं जहा(१) सक्के, (२) ईसाणे, (३) सणकुमारे, (४) माहिदे, (५) बधे, (६) संसार, (७) महामुबके, (८) सहरसारे, (e) पाणए (१०) अच्चए । " एएसि णं बसण्हं इंदाणं दस परियाणिया विमाणा पण्णत्ता । तं जहा (१) वालए, (२) पुष्कए, (२) सोमणसे, (४) सिरियच्छे, (५) मंदिया (1) कामरुमे, (७) पीतमणे, (८) मणो रमे', (१) विमनवरे, (१०) सव्वतो भद्दे । - ठाणं अ. १०, सु. ७६६ । उ०- गौतम ! शक्र और ईशान के विमान सब उसी प्रकार प्रश्नसूत्रानुसार हैं । प्र० - भन्ते ! यह किस प्रकार कहा जाता है कि शक्र के यावत् विमान कुछ निम्नतर है ? उ०- गौतम ! जिस प्रकार करतल का कुछ भाग ऊँचा और कुछ भाग उन्नत होता है। तथा कुछ भाग नीचा और भाग निम्नतर है । कुछ इसलिए हे गौतम | ऐसा कहा जाता है कि शक्र के यात् सूत्र ६२-७३ प्रथम प्रस्तट में विमान ७०. सौधर्म और ईशानकल्प के प्रथम प्रस्तट की प्रथम आवलिका एवं प्रत्येक दिशा में बासठ बासठ विमान हैं । विमान की बाहा में भौम भवन ७१. सौधक विमान की प्रत्येक दिशा में पैंसठठ भौम नगर हैं। विमानावास संख्या - ७२. सौधर्म-सनत्कुमार और माहेन्द्र इन तीन कल्पों में (संयुक्त) बावन लाख विमान कहे गए हैं। सौधर्म और ईशानकल्प में (संयुक्त) साठ लाख विमान कहे गए हैं। सौधर्म - ईशान और ब्रह्मलोक इन तीन कल्पों में (संयुक्त) चौसठ लाख विमान कहे गए हैं। आरण कल्प में डेढ़ सौ विमान कहे गए हैं । इसी प्रकार अच्युतकल्प में भी है। पारियानिक विमान ७३. दस कल्प इन्द्राधिष्ठित कहे गए हैं। यथा १-८ सौधर्म यावत् सहस्रार, ६ प्राणत, २० अच्युत । इन दस कल्पों में दस इन्द्र कहे गए हैं। यथा(१) शक्र, (२) ईशान, (३) सनत्कुमार, (४) माहेन्द्र, (५) ब्रह्म, (६) सात (६) महाशुक्र, (८) सहकार (२) प्राणत (१०) अच्युत । इन दस इन्द्रों के दस पारियानिक विमान कहे गए हैं। यथा (१) पालक, (२) पुष्पक, (३) सोमनस, (४) श्रीवत्स, (५) मंदिकावर्त (५) कामक्रम, (७) प्रीतिमन (-) मनोरम, (१) मिलवर (१०) सर्वतोभद्र 1 Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७४-७५ ऊध्र्व लोक पारियानिक विमानों का आयाम - निष्कम्भ : परियाणिय विमाणाणं आयाम- विश्वंभं ७४. पालए पापविमाणे एवं जोयणस्यसहस्सं आयाम-विषमेणं पणते । एवं उमावि - सम. स. १, सु. 1 सक्क्स्स लोगपालाणं विमाणा ७५. ५० - सक्कस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरण्णो । कति लोगपाला पण्णत्ता ? उ० – गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तं जहा(1) सोमे. (२) जमे, (३) महणे, (४) बेसमणे । १० एएस में भते । चन्हं लोगपाला कति विमाणा पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता । तं जहा(१) संक्षप्पचे, (२) बरसि, (३) सतंजले, वरसिट्ठे, (४) वग्गू । ( १ ) प० – कहि णं मंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स लोगपालस्स संझप्पभे नाम महाविमाणे पण ? उ०- गोयमा युहीये दीवे मंदररस पव्ययरस दाहि इमीसे रणयप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उदिमरियमगण-नख-तारा वाणं बहूई जोयणाई जाव पंच वडेंसया पण्णत्ता तं महा (1) असो " (२) सवण वसए (३) चंप (४) सए (५) मोहम्म बसए तस्स णं सोहम्म वडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरत्थिमेणं सोहम्मे कप्पे अजाई जोयणाई बोइसा एरव णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स लोगपालस्स संशय्यमे नाम महाविमापन्यसे। अद्ध तेरस जोयण सहस्साइं आयाम - विक्खंभे णं । अडपाली जोपण सय सहस्साई व च सहस्सा अदुवाले जोए किचि विसेसाहिए परिवछे बेणं पयसे । (२) प० – कहि णं भंते! सक्क्स्स देविंदस्स देवरण्णो जमस्स लोगपालस्स वरसिट्ठे नामं महाविमाणे पण्णत्ते ? उ०- गोयमा ! सोहम्मवडेंसयस्स महाविमाणस्स दाहिणेणं सोहम्मे कप्पे असंमाई जोयणसहस्साइं बीइवइसा असंखेज्जाई एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो जमस्स लोक पासस्स बरसिदट्ठे नाम महाविमाणे पम्पते। अतेरस गणितानुयोग पारिवानिक विमानों का आयाम विष्कम्भ७४. पालक मानविमान एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा कहा गया है । इसी प्रकार उडु विमान भी लम्बा चौड़ा है। ६८७ शक्र के लोकपालों के विमान - ७५. प्र० – भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराज के कितने लोकपाल कहे गये हैं? उ०- गौतम ! चार लोकपाल कहे गये हैं। यथा (१) सोम, (२) यम, (३) वरुण, (४) वैश्रमण । प्र० - भगवन् ! इन चार लोकपालों के कितने विमान कहे 1 गये हैं? उ०- गौतम ! चार विमान कहे गये हैं । यथा-(१) प्रभ ( २ बरसिद्ध, (३) तंजल, (४) वल्गु । प्र० - भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराज के सोम लोकपाल का सन्ध्यप्रभ नामक महा विमान कहां कहा गया है ? उ०- गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से दक्षिण में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समभूमि भाग से ऊपर चन्द्र-सूर्य ग्रहगणनक्षत्र-तारामों से अनेक योजन यावत् पाँच अवतंसक कहे गये हैं। यथा (१) अशोक अवतंसक, (२) सप्तपर्ण अवतंसक, (३) चंपक अवतंसक, (४) त अशंसक, (५) मध्यम सौधर्म अव उस सौधर्मावर्तक महाविमान के पूर्व से सौधर्मकल्प में असंख्य योजन जाने पर शक्र देवेन्द्र देवराज के सोम लोकपाल के सान्ध्यप्रभ नामक महाविमान कहा गया है । वह साढ़े बारह हजार योजन का लम्बा चौड़ा हैं । धड़तालीस लाख बावन हजार वा सो मालीस योजन से कुछ अधिक कही गई है। प्र० - भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराज के यमलोकपाल का वर श्रेष्ठ नामक महाविमान कहाँ कहा गया है ? उ०- गौतम ! सौधर्मावतंसक विमान के दक्षिण से सौधर्म कल्प में असंख्य योजन जाने पर शक देवेन्द्र देवराज के यमलोक पाल का वर श्रेष्ठ नामक महाविमान कहा गया है । साढ़े तेरह हजार योजन का लम्बा-चौड़ा है । Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८% लोक-प्रज्ञप्ति ऊर्व लोक : सक के लोकपालों के विमान सूत्र ७५ जोयण सहस्साई । जहा सोमस्स विमाणं तहा जाव सोम लोकपाल के विमान जैसा यमलोक पाल का विमान है अभिसेओ। यावत् अभिषेक पर्यन्त हैं। रायहाणी तहेव जाव पासायपंतीओ। राजधानी भी उसी प्रकार है । यावत् प्रासाद पंक्तियाँ । ५०-कहिणं भते ! सक्कस्स देबिदस्स देवरण्णो वरुणस्स प्र०-भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराज के वरुण लोकपाल का लोगपालस्स सयंजले नाम महाविमाणे पण्णत्ते? सतंजल नामक महाविमान कहाँ कहा गया है ? उ.-गोयमा ! तस्स णं सोहम्म वडेंसयस्स महाविमाणस्स उ०- गौतम ! उस सौधर्मावतंसक महाविमान के पश्चिम पच्चत्थिमेणं सोहम्मेकप्पे असंखेज्जाई जोयण से सौधर्म कल्प में असंख्य हजार योजन । सहस्साई। जहा सोमस्स तहा विमाण-रायहाणीओ सोम लोकपाल के विमान और राजधानी का जैसा कथन है भाणियव्वा जाव पासाय वडेंसया । नवरं नाम नाणत्तं। वैसा ही प्रासादावतंसक पर्यन्त जानना चाहिए किन्तु नाम भिन्न है । १०-कहि णं भते ! सक्कस्स देविदस्स देवरण्णो वेसमणस्स प्र०-भगवन् ! शक्र देवेन्द्र देवराज के वैश्रमण लोकपाल लोगपालस्स वग्गूणामं महाविमाणे पण्णते? (चतुर्थ) का वल्गुनामक महाविमान कहाँ है। " उ०-गोयमा ! तस्स णं सोहम्म वडेंसयस्स महाविमाणस्स उ०-गौतम ! सौधर्मावतंसक महाविमान के उत्तर में जिस उत्तरेणं । जहा सोमस्स विमाण-रायहाणिवत्तव्वया प्रकार सोम के महाविमान का कथन है उसी प्रकार-यावत्तहा नेयव्वा जाव पासायवडेंसया । राजधानी, प्रासाद पंक्तियों का वर्णन जान लेना चाहिए । -भग. स. ३, उ. ७, सु. २-७ । १०-साणस्स णं मंते ! देविंदस्स देवरणो कति लोगपाला प्र०-भगवन् ! ईशानेन्द्र देवराज देवेन्द्र के कितने लोकपाल पण्णता? उ.-गोयमा ! चत्तारि लोगपाला पण्णत्ता । तं जहा- उ०- गौतम ! चार लोकपाल कहे गये है । वे इस प्रकार हैं (१) सोमे, (२) जमे, (३) वेसमणे, (४) वरुणे। (१) सोम, (२) यम, (३) वेश्रमण और (४) वरुण । प०-एएसि गं भंते ! लोगपालाणं कति विमाणा पण्णता? प्र०-भगवन् ! इन लोकपालों के कितने विमान कहे हैं ? उ०--गोयमा ! चत्तारि विमाणा पण्णता । तं जहा उ०-गौतम ! चार विमान कहे हैं । वे इस प्रकार हैं(१) सुमणे, (२) सव्वओभद्दे, (३) वगू, (४) सुवग्गू। (१) सुमन, (२) सर्वतोभद्र, (३) वल्गु और (४) सुवल्गु ५०-कहिणं भंते ! ईसाणस्स देविवस्स देवरण्णो सोमस्स प्र०-भगवन् ! ईशान देवेन्द देवराज के सोम लोकपाल का लोगपालस्स सुमणे नामं महाविमाणे पण्णते? सुमन नामक महाविमान कहाँ है ? । उ०-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं उ०-गौतम ! जंबूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत के उत्तर में इस इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव ईसाणे णामं कप्पे रत्नप्रभा पृथ्वी के समतल से यावत् ईशान नामक कल्प (देवलोक) पण्णत्ते । कहा है। तत्य णं जाब पंच वडेंसया पण्णता । तं जहा उस कल्प में पांव अवतंसक कहे हैं । वे इस प्रकार हैं(१) अंकवडेंसए, (२) फलिहवडेंसए, (३) रयण- (१) अंकावतंसक, (२) स्फटिकावतंसक, (३) रत्नावतंसक, वडेंसए, (४) जायरूववडेंसए, (५) मज्झयऽत्थ (४) जातरूपावतंसक और इन चारों के मध्य में ईशनावतंसक । ईसाणवडेंसए। तस्स णं ईसाणवडेंसयस्स महाविमाणस्स पुरथिमेणं उस ईशानावतंसक महाविमान से पूर्व में तिरछे असंख्य हजार तिरियमसंखेज्जाई जोयण सहस्साई वीइवइत्ता तत्थ णं योजन आगे जाने पर देवेन्द्र देवराज ईशान के सोम नामक लोकईसाणस्स देविदस्स देवरणो सोमस्स लोगपालस्स पाल का सुमन नामक महाविमान है। सुमणे णाम महाविमाणे पण्णत्ते । सेसं जहा सक्कस्स वत्तव्वया । शेष सारी वक्तव्यता शक्र के समान कहना चाहिए। चउस विमाणेसु चत्तारि उद्देसा अपरिसेसा । चारों विमानों के चार उद्देशक पूर्ण समझना चाहिए। -भग. स. ४, उ. १-४ । Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ७७ ऊध्र्व लोक : सिद्धस्थान परिज्ञा गणितानुयोग ६६ सक्काईणं इंदाणं सोमाईणं लोगपालाणं उप्पायपव्वया- शक्रादि इन्द्रों के और सोमादि लोकपालों के उत्पात पर्वत७६. सक्कस्स णं देविदस्स देवरणो सक्कप्पभे उप्पायपव्वए दस ७६. देवेन्द्र देवराज शक्र का उत्पात पर्वत दस हजार योजन ऊँचा जोयण सहस्साई उद्धं उच्चत्तेणं, दस गाउय सहस्साइं उब्वे- दस हजार गाउ भूमि में गहरा, और मूल में दस हजार योजन हेणं मूले बस जोयण सहस्साई विक्खंभेणं पण्णत्ते । सक्कस्स णं देविदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो जहा देवेन्द्र देवराज शक्र के सोम नामक लोकपाल महाराज का सक्कस्स तहा सव्वेसि लोगपालाणं, सव्वेसि इंदाणं-जाव- उत्पात पर्वत शक्रेन्द्र जैसा है, सभी लोकपाल के और अच्युत अच्चुय त्ति, सव्वेसि पमाणमेगं । पर्यन्त सभी इन्द्र का उत्पात पर्वत भी ऐसे ही हैं। सबका प्रमाण -ठाण. अ.१०, सु. ७२८ समान है। सिद्धट्ठाण परिणा सिद्धस्थान परिज्ञा७७ ५०-अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे सिद्धा प्र०-भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे क्या सिद्ध परिवसंति ? रहते हैं ? उ०-गोयमा ! नो इणठे समझें । उ.-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। एवं जाव सत्तमाए। इस प्रकार सप्तम नरक पर्यन्त है । १०-अत्थि गं भंते ! सोहमस्स कप्पस्स अहे सिद्धा परि- प्र०-भगवन् ! इस सौधर्मकल्प के नीचे क्या सिद्ध वसंति? उ०-गोयमा ! नो इणठे समझें । उ.-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । एवं ईसाणस्स जाव अच्चुयस्स गेविज्ज विमाणाणं इसी प्रकार ईशान-यावत् अच्युत प्रवेयक और अनुत्तर अणुत्तर विमाणाणं । विमान पर्यन्त है। प०-अस्थि णं भन्ते ! इसी पन्माएए पुढवीए अहे सिद्धा प्र-भगवन् ! ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे क्या सिद्ध - परिवसंति? रहते हैं ? उ०-गोयमा ! नो इणठे समठे । उ०-गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । ५०-से कहिं खाइ णं भन्ते ! सिद्धा परिवसंति ? प्र०-भगवन् ! वे सिद्ध कहाँ रहते हैं ? उ० - गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसम रम- उ०-गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के समभूभाग से चन्द्र णिज्जाओ भूमिभागाओ उड्तं चंदिम-सूरिय-गह- सूर्य-ग्रह-नक्षत्र-ताराभवन से अनेक सौ योजन । अनेक हजार णक्खत्त-तारामबणाओ। बहूइ जोयण सयई । बहूई योजन । अनेक लाख योजन । अनेक क्रोड योजन । अनेक क्रोडा जोयण सहस्साई। बहूई जोषण सय सहस्साई। क्रोड योजन ऊपर जाने पर । बहूओ जोयण कोडीओ । बहूओ जोयण कोडा कोडीओ उड्ढतरं उप्पइत्ता । रहते हैं ? पहा सोहम्मोसाण-सणंकुमार-माहिद-लतग-महासुक्क-सहस्सार सौधर्म-ईशान-सनत्कुमार-माहेन्द्र-लान्तक-महाशक्र-सहस्रार-आणय-पाणय-आरण-अच्चुए । तिणि अ अट्ठारे आणत-प्राणत-आरण-अच्युत अवेयक से आगे । गेविज्ज विमाणा वाससए वीइवइत्ता। विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिय-सव्वट-सिद्धस्सय विजय-वैजयन्त-जयन्त अपराजित और सर्वार्थसिद्ध महामहाविमाणस्स सव्व उवरिल्लाओ थूभियग्गाओ दुवालस विमान की सर्वोपरि स्तूपिका के अग्रभाग से बारह योजन जोयणाई अबाहाए। अव्यवहित इषत् प्राग्भारा पृथ्वी कही गई है। एत्थ णं इसीपब्भाए णाम पुढवी पण्णत्ता। -उव. सु.४३ Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६० लोक- प्रज्ञप्ति उवं लोक : सिद्ध स्थान सिद्ध ठाणा ७८. प० - कहि णं भन्ते ! सिद्धाणं ठाणा पण्णत्ता ? प० कहि णं भन्ते ! सिद्धा परिवर्तति ? उ०- गोपमा ! सम्बट्टसिद्धस्त महाविमाणस्स उपराओ भिगाओ दुवाल जो उ अबहाए, एत्थ गं ईसोपारा गार्म पुढची पणता । पणयालीसं जोयणसहस्साणि आयाम विक्खंभेणं । एगा जोयण कोडी बायालीसं च सयसहस्साइं तीस सहस्साई दोष्ण व अमाप जोयस किचि बिसेसाहिए परिश्येणं पयसा । ईसीपटमाराए णं बुडबीए बहुमज्जयेसभाए अट्ठजोपणिए से अजोवाई वाहणं पग्यता, ततो अनंतरं च गं मायाए मायाए पएसपरिहाणीए परिहायमाणी परिहायमाथी सम्येसु परिमं मयि पत्ताओ तनुयवरी अंगुलस्त असं बाह पण्णत्ता । ईसिपमाराए में बुडवीए बालसनामापता तं जहा " १. ईसी इ वा, २. ईसीप भारा इ वा, ३. तणू इ वा, ४. तणतणू इवा, ५. सिद्धी इ वा ६. सिद्धालए इया, ७. मुली हवा, ८. मुसालए बा १. लोयो इवा, १०. लोयग्गाथुभिया इ वा ११. लोयग्ग पण या १२ सय पान मृत जीव सत्तसुहा वहा इ वा । ईसोपारा पुढची सेया संदलवल-सोत्थियमुणाल- दगरय-तुसार- गोक्खीर- हारवण्णा, उत्ताणयच्छत्त संठाणसंठिया सब्वज्जुणसुवण्णमयी अच्छा- जाव पडवा | ईसोपारा पं सोयाए जो सोतो तस्स णं जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए तस्स णं गाउयस्स जे से उवरिल्ले छन्भागे एत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया अपज्जवसिया अणेग जाइ-मरण जोगि संसार कसं की भाव-पुणमय-गमवासवसही पवंचसमतिक्कता सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति । - पण्ण. प. २, सु. २११ १ सम. १२, सु. ६-१० । सिद्ध स्थान ७८. प्र० - भगवन् ! सिद्धों के स्थान कहाँ कहे गये हैं ? प्र० - भगवन् ! सिद्ध कहाँ रहते हैं ? उ०- गौतम | सर्वार्थसिद्ध महाविमान की ऊपर की स्टूपिका से बारह योजन ऊपर अन्तर रहित ईषत् प्राग्भारा नामक पृथ्वी कही गई है । पैंतालीस लाख योजन लम्बी चौड़ी और एक क्रोड बियालीस लाख, तीस हजार दो सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक परिधि कही गई है। सूत्र ७८ ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी के मध्य भाग में आठ योजन का क्षेत्र बाठ योजन मोटा कहा गया है, उसके बाद एक-एक प्रदेश हीन करते-करते सभी अन्तिम भागों में माखीकी पांखों से भी अत्यधिक पतली अंगुल के असंख्यात भाग जितनी मोटी कही गई है। ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के बारह नाम कहे गये हैं, यथा (१) ईषत्, (२) ईषत् प्राग्भारा, (३) तन्वी, (४) तनुतन्वी, ( ५ ) सिद्धि, (६) सिद्धालय, (७) मुक्ति, (८) मुक्तालय, (१) लोकाया (१०) लोकाग्रस्तूपिका, (११) लोकाय प्रतिबोधनी, (१२) सर्वप्राणभूत जीव-सत्व सुखावहा । = ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी विमल दल, स्वस्तिक, मृणाल, दकरज जल के झाग, तुषार = हिमकण, गोक्षीर = गाय का दूध, हार जैसी श्वेत वर्णं वाली है । खुले हुए छत्र जैसे आकार वाली, अर्जुन स्वर्णमयी स्वच्छ यावत् प्रतिरूप है। २ उववाई सु० ४३ । - ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी से लोकान्त एक योजन ऊपर है । उस योजन के ऊपर के गाउ के छठे भाग में सादि अपर्य वसित, जन्म-मरण, योनि संसार के क्लेश, पुनर्जन्म और गर्भवास वसति के प्रपंचों से रहित सिद्ध भगवन्त शाश्वत भविष्यकाल पर्यन्त स्थित है। ॥ ऊर्ध्वलोक वर्णन समाप्त ॥ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + FEERIEth काल लोक वर्णन । सूत्र १ से ६२ पृष्ठ ६६१ से ७३५ तक ] HEHREERIEXXXXREATRESSHARA Page #859 --------------------------------------------------------------------------  Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल समोयारे १. ५० - से कि तं कालसमोयारे ? उ०- कालसमोवारे बिहे पण काल- लोक तं जहा -- (१) आयसमोयारे व (२) तदुभयसमोवारे व समए आयसमोयारेणं आयभावे समोर समय समोयारे सावलिया समोर आया एवं आणापाणू जाव पओिवमे । सागरोवमे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ । समय समोपारे ओसपिणि उत्सयिनी समोवर आयभावे य । ओसप्पिणि उस्सप्पिणीओ आयसमोयारेणं आयभावे समोयरंति । तदुभयसमोयारे पोग्यलपरिय समोवरंति आयभावे य । पोसपरिय आवसमोवारे आयभावे समोर समय समोयारेणं तोता-अनागतद्वातु समोर आयभावे य । सोतद्वा-अणागतद्धाओ आयभावे समोपरंति । तदुभय समोयारेणं सव्वद्धाए समोदारंति आयभावे य । से तं काल समोयारे - अणु. सु. ५३.२ कालस्स भेयाणं परूवणं २. तिविहेकाले पण्णसे, तं जहा (१) तीए (२) बहुप, (३) अनागए। 1 काल समवतार प्र० - काल समवतार कितने प्रकार का है ? उ०- काल समवतार दो प्रकार का कहा गया है । यथा(१) आत्म- समवतार, (२) उभय समवतार समय आत्मस्वरूप से आत्मभाव में समवतरित होता है । आवलिका - उभयस्वरूप से समवतरित होती है और आत्मभाव में भी समवतरित होती है । इसी प्रकार आन-प्राण यावत् पल्योपम पर्यन्त है । सागरोपम आत्मस्वरूप से आत्मभाव में समवतरित होता है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी उभयस्वरूप से समवतरित होती है और आत्मभाव में भी समवतरित होती है। अवसर्पिणियाँ और उत्सर्पिणियाँ आत्मस्वरूप से आत्मभाव में समवतरित होती है। पुद्गल परिवर्तन में ( अवसर्पिणियाँ - उत्सर्पिणियाँ) उभय स्वरूप में अवतरित होती है आत्मभाव में भी अवतरित होती है। पुद्गल परिवर्तन आत्मस्वरूप से आत्मभाव में समवतरित होता है। अतीत और अनागत उभय स्वरूप से समवतरित होता है और आत्मभाव में भी समवतरित होता है । अतीत और अनागत आत्मस्वरूप से आत्मभाव में समवतरित होते हैं । सर्वकाल उभय स्वरूप से आत्मभाव में समवतरित होते हैं । काल समवतार समाप्त काल के भेदों का प्ररूपण - २. काल तीन प्रकार का कहा गया है, यथा = (१) अतीत भूतकाल, (२) प्रत्युत्पन्न वर्तमान, (३) अनागत = भयिष्यत् । १ अति-अतिशयेनेतो गतोऽतीतः - वर्तमानत्वमतिक्रान्त, इत्यर्थः । २ साम्प्रतं उत्पन्नः प्रत्युत्पन्नो वर्तमान इत्यर्थः । ३ न आगोऽनागतो वर्तमानत्वमप्राप्तो भविष्यन्नित्यर्थः । Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : काल के चार भेदों का प्ररूपण सूत्र ४ तिविहे समए पण्णत्ते, तं जहा समय तीन प्रकार का कहा गया है, यथा(१) तीए, (२) पडुष्पन्ने, (३) अणागए। (१) अतीत, (२) प्रत्युत्पन्न, (३) अनागत एवं आवलिया जाव बाससयसहस्से । इसी प्रकार आवलिका यावत् लाखवर्ष, पुन्वंगे, पुव्वे जाव ओसप्पिणी । पूर्वांग, पूर्व यावत् अवसर्पिणी भी तीन-तीन प्रकार के हैं। -ठाणं अ. ३, उ. ४, सु. १६७ कालस्स भेय चउक्क परूवणं काल के चार भेदों का प्ररूपण३. ५०-कइविहे गं भंते ! काले पण्णते ? ३. प्र०-भगवन् ! काल कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०-सुदंसणा! चउविहे काले पण्णत्ते।' तं जहा उ०-सुदर्शन ! काल चार प्रकार का कहा गया है। यथा(१) पमाणकाले', (२) अहाउनिवत्तिकाले', (१) प्रमाणकाल, (२) आयुनिवृत्तिकाल, (३) मरणकाले", (४) अद्धकाले। (३) मरणकाल, (४) अद्धाकाल । -भग. स. ११, उ.११, सु. ७ । पमाण काल परूवणं प्रमाण काल का प्ररूपण४. ५०-से कि तं पमाण काले ? ४. प्र०-प्रमाण काल कितने प्रकार का है ? उ०—पमाण काले दुविहे पण्णत्ते । तं जहा उ०-प्रमाण काल दो प्रकार का कहा गया है । यथा(१) दिवसप्पमाण काले य, (२) रत्तिप्पमाण काले य। दिवसप्रमाणकाल, रात्रिप्रमाणकाल । च उपोरिसिए दिवसे भवइ, चउपोरिसिया राई भवइ। चार पौरुषी का दिवस होता है, चार पौरुषी की रात्रि होती है। महन्निया तिमुहुत्ता दिवस्स वा, राईए वा पोरिसी दिवस अथवा रात्रि की जघन्य पौरुषी तीन-तीन मुहुर्त की भवइ। होती है। उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा, राईए वा दिवस अथवा रात्रि की उत्कृष्ट पौरुषी साढ़े चार-चार मुहुर्त पोरिसी भवइ। -भग. स. ११, उ.११, सु. ८। की होती है । १ ठाणं अ० ४, उ० १, सु० २६४ । २ "पमाण काले" त्ति-तत्र प्रमीयते-परिच्छिद्यते येन वर्षशत-पल्योपमादि तत्प्रमाणं तदेव कालः प्रमाणकालः स च अदाकालविशेष एव दिवसादिलक्षणो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्तीति उक्तं च गाहादुविहो पमाणकालो, दिवसपमाणं च होई राई य । चउपोरिसिओ दिवसो, राई चउपोरिसी चेव ।।।। "अहाउयनिव्वत्तिकाले" त्ति-यथा- यत्प्रकारं नारकादि भेदेनायुः कर्मविशेषो यथा-छुस्तस्य रौद्रादिध्यानादिना निवृत्तिबन्धनं तस्याः सकाशाद्यः कालो नारकादित्वेन स्थितिर्जीवानां स यथायूनिवृत्तिकालः । अथवा-यथाऽऽयुषो निर्वृतिस्तथा यः कालो-नारकादि भवेऽवस्थानं स तथेति । अयमप्यद्धाकाल एवायुष्क कर्मानुभवविशिष्टः सर्वसंसा रिजीवानां वर्तनादिरूप इति । उक्तं च गाहा-आउयमेत्तविसिट्रो, स एव जीवाणं वत्तणादिमओ । भन्नइ अहाउकालो, वत्तइ जो जच्चिरं जेण 11-11 "मरणकाले" त्ति-मरणस्य-मृत्योः कालः समयो मरणकालः । अयमप्यद्धा समय विशेष एव, मरणविशिष्टो मरणमेव वा कालो, मरणपर्यायत्वादिति । उक्तं च गाहा–कालोत्ति मयं मरणं, जहेह मरणं गओत्ति कालगाओ। तम्हा स कालकाओ, जो जस्स मओ मरणकालो ।।।। ५ "अद्धाकाले" ति–तथा अद्धैव कालः अद्धाकालः, काल शब्दो हि वर्णप्रमाणकालादिष्वपि वर्तते । ततो अद्धाशब्देन विशिष्यत इति । अयं च सूर्यक्रिया विशिष्टो मनुष्यक्षेत्रान्तर्वर्ती समयादिरूपोऽवसेयः । उक्तं च गाहाओ-सूरकिरिया विसिट्रो, गोदोहाइकिरिया सु निरवेक्खो। अद्धाकालो भन्नइ, समयखेत्तंमि समयाइ ।।-11 ___समयावलिमुहुत्ता, दिवसमहोरत्त-पक्ख-मासा य । संवच्छर-जुग-पलिया, सागर-ओसप्पि-परियट्ठा ।।। द्रव्यपर्याय भूतस्य कालस्य चतुस्थानकमुक्तम् । -स्थानांग टीका Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४-५ काल लोक : पौरुषी-प्रमाण गणितानुयोग ६६६ NNNN गाहाओ गाथार्थआसाढे मासे दुपया, पोसे मासे चउप्पया। आषाढ मास में दो पाद प्रमाण, पौष मास में चार पाद प्रमाण । चित्तासोएसु मासेसु, तिपया हयइ पोरिसी ॥१३॥ आश्विन मास में तीन पाद प्रमाण, पौरुषी होती है। अंगुलं सत्तरत्तेणं पक्खेणं तु दुयंगुलं । सात दिन-रात में एक अंगुल, पक्ष में वो अगुल, वड्ढए हायए वा वि मासेणं चउरंगुलं ॥१४॥ मास में चार अंगुल, (पाद-छाया) की हानि और वृद्धि -उत्तरा. अ. २६, गा. १३-१४। होती है । (श्रावण मास से पौषमास तक (पाद-छाया की) वृद्धि, माघ मास से आषाढ मास तक (पाद-छाया) की हानि ।) फग्गुण-पुण्णमासिणीए णं सूरिए चत्तालीसंगुलियं पोरिसिछावं फाल्गुन पूर्णिमा के दिन सूर्य चालीस अंगुल प्रमाण पौरुषी निव्वट्टइत्ता णं चारं चरइ। छाया करके गति करता है । -सम. ४०, सु.६ एवं कत्तियाए वि पुण्णिमाए । इसी प्रकार कार्तिक पूर्णिमा के दिन भी। -सम. ४०, सु. ७ जहन्नुक्कोसिया पौरुसी जघन्य और उत्कृष्ट पौरूषी५. ५०-जया णं भंते ! उक्कोसिया अद्धपंचममुहत्ता दिवसस्स ५. प्र०-भगवन् ! जब दिन और रात्रि की साढ़े चार मुहुर्त वा राईए वा पोरिसी । तया णं कइभाग मुहुत्तभागे की उत्कृष्ट पौरूषी होती है तब एक मुहुर्त के कितने भाग घटतेणं परिहायमाणी परिहायमाणी जहनिया तिमुहुत्ता घटते दिन और रात्रि की तीन मुहुर्त की जधन्य पौरूषी होती दिवस्स वा राईए वा पोरीसी भवइ ? जया णं जहनिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा और जब दिन और रात्रि की तीन मुहुर्त की जघन्य पौरूषी पोरिसी भवइ । तया णं कइभागमुहुत्तभागे णं परि- होती है तब एक मुहुर्त के कितने भाग बढ़ते-बढ़ते दिन और रात्रि बड्डमाणी परिवड्ढमाणी उपकोसिया अद्धपंचममुहुत्ता की साढ़े चार मुहुर्त की उत्कृष्ट पौरूषी होती है ? दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ ? उ० -सुदंसणा ! जया णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता उ०-सुदर्शन ! जब दिन और रात्रि की साढ़े चार मुहुर्त दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, तया णं की उत्कृष्ट पौरूषी होती है तब एक मुहुर्त के एक सौ बावीसवें बावीससयभाग मुहुत्तभागेणं परिहायमाणी परिहाय- भाग जितनी घटती-घटती दिन और रात्रि की तीन मुहुर्त की माणी जहनिया तिमुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा जघन्य पौरूषी होती है। पोरिसी भवइ । जया वा जहनिया तिमुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा और जब दिन और रात्रि की तीन मुहूर्त की जघन्य पौरुषी पोरिसी भवइ तया णं बावीससय भाग मुहुत्त भागेणं होती है तब एक मुहुर्त के एक सौ बाबीसवें भाग जितनी बढ़तीपरिवड्डमाणी परिमड्ढमाणी उक्कोसिया अद्धपंचम- बढ़ती दिन और रात्रि की साढ़े चार मुहुर्त की उत्कृष्ट पौरूषी मुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ। होती है। ०-कया णं भंते ! उक्कोसिया अद्धपंचममुहत्ता दिवसस्स प्र०-भगवन् ! दिन और रात्रि की साढ़े चार मुहुर्त की वा राईए वा पोरिसी भवइ ? उत्कृष्ट पौरूषी कब होती है ? कया वा जहनिया तिमहत्ता दिवसस्स वा राईए वा तथा दिन और रात्रि की तीन महतं की जघन्य पौरुषी कब पोरिसी भवइ? होती है ? 30-सुबंसणा ! जया उक्कोसए अट्रारस महत्तं दिवसे उ०-सुदर्शन ! जब उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता भवइ जहनिया दुवालसमुहसा राई भवइ तया णं है और जघन्य बारह महर्त की रात्रि होती है तब उत्कृष्ट साढ़े Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ लोक-सप्ति काल लोक दिन और रात्रि को समान पौरूषी : उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ चार मुहुर्त की दिन की पौरूषी होती है और जघन्य तीन मुहुर्त जहन्निया तिमुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ । की रात्रि पौरूषी होती है । जया वा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुंत्ता राई भवइ जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तया णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ । प० कया णं भंते ! उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जन्निया वुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? कया वा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ जहन्नए दुवालसमुहले दिवसे भय ? उ०- सुदंसणा ! आसाढ पुष्टिमाए' उक्कोसए अट्ठारस मुहुत्ते दिवसे भवs जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ । पोस पुणिमा उनकोसिया अद्वारसमुद्वत्ता राई भवइ । जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । भग. स. ११, उ. ११, सु. ६-११ । दिवसस वा राईए वा समा पोरिसी ६. प० – अत्थि णं भंते! दिवसा य राईओ य समा चेव अति उ०- हंता ! अस्थि । प० – कया णं भन्ते ! दिवसा य राईओ य समा चेव भवंति ? उ०- सुदंसणा ! चेत्ताऽऽसोयपुण्णिमासु णं एत्थ णं दिवसा य राईओ य समा चेव भवंति । पण्णरस मुहुत्ते दिवसे भवइ पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ । चभागमुहुत्तभागूणा चउमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ । से त्तं पमाण काले । सूत्र ५-७ - भग. स. ११, उ. ११, सु. १२-१३ । अहाउनिष्यत्तिकाल परवणं७. ५० - से कि तं अहाउनिव्वत्तिकाले ? उ०- अहा उनिन्यति काले जे जे रणं वा तिरिषध जोगिएन वा मनुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं निव्य त्तियं । सेतं अहाउनिव्वत्ति काले । -भग० स० ११, उ० ११, सु० १४ । तथा जब उत्कृष्ट अठारह मुहुर्त की रात्रि होती है और जघन्य बारह मुहुर्त का दिन होता है तब उत्कृष्ट साढ़े चार मुहुर्त की रात्रि की पौरूषी होती है और जघन्य तीन मुहुर्त की दिन की पौरवी होती है। प्र० - भगवन् ! उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन कब होता है ? और जयन्य बारह मुहूर्त की रात्रि कम होती है ? तथा उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि कब होती है ? और जघन्य बारह मुहुर्त का दिन कब होता है ? '0 ! उ०- सुदर्शन | आषाढ पूर्णिमा को उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । पौष पूर्णिमा को कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है, जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । दिन और रात्रि को समान पौरुषी ६. प्र० - भगवन् ! दिन और रात्रि की समान पौरुषी होती है ? उहाँ होती है। प्र० - भगवन् ! दिन और रात समान कब होते हैं ? उ०- सुदर्शन ! चैत्री पूर्णिमा और आसोजी पूर्णिमा को दिन और रात्रि समान होते हैं । पन्द्रह मुहूर्त का दिन होता है और पन्द्रह मुहूर्त की रात्रि होती है। एक मुहूर्त के चार भाग कम चार मुहूर्त की दिन और रात्रि की पौरुषी होती है । यह प्रमाण काल है । यथायुनिवृत्ति काल का प्ररूपण ७. प्र० - यथायुर्निवृत्ति काल किस प्रकार का है ? उ०- जिस किसी नैरयिक ने, तिर्यक् योनिक ने मनुष्य ने या देव ने जिस प्रकार का आयु बांधा है वह उसे उसी प्रकार भोगे यह यथापुनिवृत्ति काल है। १ इह आषाढ पौर्णमास्यामिति यदुक्तम् तत् पञ्च सांवत्सरिक युगस्य अन्तिम वर्षापेक्षया अवसेयम् । यतस्तत्रैव आषाढपौर्णमास्थामष्टावण मुहूर्ती दिवसो भवति । अर्द्ध पंचमुहर्ता च तत्पस्वी भवति । २ इह च चेत्तासोयपुण्णिमासु णं इत्यादि यदुच्यते तद् व्यवहार नया पक्षम् निश्चयस्तु कर्क- मकर अङ्क्रान्तिदिनाद आभ्य यद् द्विनवतितमम् अहोरात्रम् तस्यार्धे समा दिवस रात्रि प्रमाणता । Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ८-१० काल लोक : मरण काल का प्ररूपण गणितानुयोग ६६५ मरणकाल परूवणं मरण काल प्ररूपण८. प०-से कि ते मरणकाले ? ८.प्र०-मरण काल क्या है? उ०-मरणकाले, जीवो वा सरीरामो सरीरं वा जीवाओ। उ०-शरीर से जीव का या जीव से शरीर का वियोग हो सेत्तं मरणकाले । यह मरण काल है। -भग० स० ११, उ० ११, सु०१५ । अद्धाकाल परूवणा अद्धाकाल का प्ररूपण६. ५०-से कि तं अद्धा काले? ६. प्र०-अद्धा काल कितने प्रकार का है ? उ०-अद्धा काले अणेगविहे पण्णत्ते । उ०-अद्धा काल अनेक प्रकार का कहा गया है। से णं समयट्ठयाए, आवलियट्टयाए जाव उस्सप्पिणि- समय रूप, आवलिका रूप-यावत-उत्सपिणी रूप । यट्ठयाए। एस णं सुदंसणा! अद्धा दोहारच्छेदेणं छिज्जमाणी सुदर्शन ! जिस काल के दो भाग करने पर भी दो भाग नहीं जाहे विभागं नो हव्वमागच्छति । सेत्तं समए समयट्ठ- होते हैं । वह समय-समय रूप है। याए । असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमिति समागमेणं सा असंख्य समयों का समुदाय सम्मिलित होने पर जो काल एगा आवलियत्ति पवुच्चइ। होता हैं वह "समय" कहा जाता है। संखेज्जाओ आवलियाओ जाव' तं सागरोवमस्स उ संख्येय आवलिकाओं का एक श्वासोच्छ्वास होता है-यावत्एगस्स भंवे परिमाणं। एक सागरोपम का प्रमाण होता है। -भग० स० ११, उ० ११, सु०१६ । कालस्स भेयप्पभेया काल के भेद प्रभेद१०.५०-से कि तं कालप्पमाणे? १०. प्र०-काल प्रमाण के कितने भेद हैं ? उ०—कालप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - उ०-काल प्रमाण दो प्रकार का कहा गया है, यथा(१) पदेसनिण्पण्णे य, (२) विभागनिप्पण्णे य । (१) प्रदेशनिष्पन्न, (२) विभागनिष्पन्न । ५०-से कि तं पदेसनिप्पण्णे ? प्र-प्रदेश निष्पन्न का क्या स्वरूप है ? उ०-पदेसनिप्फण्णे एगसमयट्ठिईए, दुसमयट्टिईए, तिसमट्ठिइए उ.-एक काल प्रदेश से निष्पन्न= एक समय की स्थिति जाव बससमयढिईए असंखेज्जसमयढिईए। वाला, (परमाणु या स्कन्ध) इसी प्रकार दो समय की स्थिति वाले-यावत्-दस समय की स्थिति वाले तथा असंख्य समयों की स्थिति वाले (परमाणु या स्कन्ध) प्रदेश निष्पन्न कहे गये हैं। से तं पदेसनिप्पण्णे । प्रदेश निष्पन्न समाप्त। प०-से कि तं विभागनिप्पण्णे? प्र०-विभाग निष्पन्न का स्वरूप क्या है ? उ०—विभागनिप्पण्णे-गाहा उ०-गाथा-(१) समय, (२) आवलिका, (३) मुहूर्त, समयाऽऽवलिय-मुहुत्ता, दिबस-अहोरत्त-पक्ख-मासा य । (४) दिवस, (५) अहोरात्र, (६) पक्ष, (७) मास, (८) संवत्सर, संवच्छर-जुग-पलिया, सागर-ओसप्पि-परियट्टा ॥ (6) युग, (१०) पल्य, (११) सागर और (१२) परावर्तन इन काल विभागों से निष्पन्न (परमाणु-स्कन्ध) विभाग निष्पन्न कहे -अणु०सु० ३६३-३६५। गये हैं। १ भग० स०६, उ०७, सु० ४-७ । Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९६ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : उदाहरण सहित समय के स्वरूप का प्ररूपण सूत्र ११ सोदाहरणं समयसरूव-परूवणं उदाहरण सहित समय के स्वरूप का प्ररूपण११.५०-से कि तं समए ? ११. प्र०-समय का स्वरूप क्या है ? : उ०-समयस्स परूबणं करिस्सामि - उ०-समय का प्ररूपण करूंगासे जहा णामए-तुण्णागदारए सिया तरुणे, बलवं जिस प्रकार कोई एक नाम वाला चतुर्थ आरे में उत्पन्न जुगवं जुवाणे, अप्पापंके, थिरग्गत्थे, दढपाणि-पाय- सूचिकार पुत्र (दरजी का लड़का) है। जो तरुण युवा बलवान पास-पिटुतरोरूपरिणए, तलजमलजुयल-परिघणिभ- एवं निरोग है । जिसका शरीर संहनन एवं वक्षस्थल बज्रमय है । बाहू, चम्मेदृग-दुहण-मुट्ठियसमाहयनिचियगत्तकाये, जिसके हाथ, पैर, पार्श्वभाग, पृष्ठभाग तथा जंघाएँ सुदृढ़ है । लंघणपवण-जइणवायामसमत्थे, उरस्सबलसमण्णागए, जिसने मुद्गर घुमाकर तथा अनेक प्रकार के व्यायाम करके शरीर छए, दक्खे, पत्तट्ठ कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पो- को सशक्त एवं सामर्थ्य सम्पन्न बना लिया है । जिसके दोनों बाहु वगए एगं महति पडसाडियं वा, पट्टसाडियं वा गहाय ताल जैसे लम्बे, नगर की अर्गला जैसे सीधे एवं पुष्ट हैं । जिसकी सयराहं हत्थेमेत्तं ओसोरेज्जा। हथेलियाँ और अँगुलियाँ अकम्पित है। जो चतुर निपुण शिल्पी है । जो लक्ष्य सिद्धि में सफल तथा कार्यकुशल मेधावी कारीगर है। वह यदि मजबूत बनी हुई पटशाटिका या पट्टी (दरी) को पकड़कर एक झटके में एक साथ फाड़े, (उस समय शिष्य गुरु से इस प्रकार बोला-) प०-तत्य चोयए पण्णवयं एवं वयासी-जे णं कालेणं ते णं .-"जिस समय उस दरजी के लड़के ने उस पटशाटिका तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा, पट्टसाडियाए या पट्टी को पकड़कर एक झटके में एक साथ एक हाथ फाड़ा" वा सयराहं हत्थमेत्ते ओसारिए से समए भवइ? वह एक समय हुआ ? उ०-नो इण8 समट्ठ। उ०-गुरु बोले—यह अर्थ समर्थ नहीं है। प०-कम्हा ? प्र०-शिष्य ने पूछा-कैसे ? उ०-जम्हा संखेज्जाणं तंतूणं समुदयसमितिसमागमेणं पड- उ०-संख्येय तन्तुओं के सम्मिलित समुदाय के परस्पर साडिया निप्पज्जइ । उवरिल्लम्मि तंतुम्मि अच्छिण्णे मिलने से पटशाटिका का निर्माण होता है। ऊपर वाले तन्तु के हेट्ठिल्ले तंतू णं छिज्जइ । अण्णंमि काले उवरिल्ले तंतू छिन्न हुए बिना नीचे वाला तन्तु छिन्न नहीं होता है। ऊपर छिज्जइ, अण्णम्मि काले हिडिल्ले तंतू छिज्जइ तम्हा वाला तन्तु अन्य काल में छिन्न होता है और नीचे वाला तन्तु से समए न भवइ । अन्य काल में छिन्न होता है इसलिए वह समय नहीं होता है । इस प्रकार कहते हुए गुरु को शिष्य इस प्रकार बोला१०-एवं वपंतं पण्णवगं चोयए एवं वयासी-जेणं कालेणं प्र०-उस सूचिकार (दरजी) पुत्र ने उस पटशाटिका के तेणं तुण्णागदारए णं तीसे पडसाडियाए दा, पट्टसाडि- ऊपर वाले तन्तु को जिस काल में छिन्न किया क्या वह काल याए वा उवरिल्ले तंतू छिण्णे से समए? समय है ? उ०-भवइ। उ०-नहीं। प०-कम्हा? प्र०-कैसे ? उ०-जम्हा संखेज्जाणं पम्हाणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे उ०-संख्येय पक्ष्मों (सूक्ष्म तन्तुओं) के सम्मिलित समुदाय तंतू-निष्फज्जइ । उवरिल्ले पम्हम्मि अच्छिण्णे हेट्ठिल्ले के परस्पर मिलने पर एक तन्तु निष्पन्न होता है। ऊपर वाले पम्हे न छिज्जइ । अण्णम्मि काले उरिल्ले पम्हे पक्ष्म (सूक्ष्म तन्तु) के छिन्न हुए बिना नीचे वाला पक्ष्म छिन्न छिज्जइ, अण्णम्मि काले हेढिल्ले पम्हे छिज्जइ-तम्हा नहीं होता हैं । ऊपर वाला पक्ष्म अन्य काल में छिन्न होता है से समए ण भव। और नीचे वाला पक्ष्म अन्य काल में छिन्न होता है। इसलिए वह समय नहीं होता है। इस प्रकार कहते हुए गुरु को शिष्य इस प्रकार बोला Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ११ काल लोक : उदाहरण सहित समय के स्वरूप का प्ररूपण गणितानुयोग ६६७ (१) ५०–एवं वयंतं पण्णवर्ग चोयए एवं वयासी-जेणं कालेणं प्र०-उस सूचिकार (दरजी) पुत्र ने उस तन्तु के ऊपर वाले तेणं तुण्णागदारएणं तस्स तंतुस्स उवरिल्ले पम्हे छिण्णे पक्ष्म को जिस काल मे छिन्न किया, क्या वह समय है ? से समए? उ०-ण भवइ। उ०-नहीं है। प०-कम्हा? प्र०-कैसे? उ०- जम्हा अणंताणं संघाताणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे उ०-अनन्त संघातों (सूक्ष्मकणों) के सम्मिलित समुदाय के णिप्फज्जइ । उवरिल्लेसंघाते अविसंघातिए हेछिल्ले परस्पर मिलने से एक पक्ष्म निष्पन्न होता है । ऊपर वाले संघात संघाते णं विसंघाडिज्जइ । अण्णंम्मि काले उवरिल्ले (सूक्ष्मकण) के भिन्न हुए बिना नीचे वाला संघात भिन्न नहीं संघाए विसंघाइज्जइ, अण्णम्मि काले हेट्ठिल्ले संघाए होता है । ऊपर वाला संघात अन्य काल में भिन्न होता है और विसंघाइज्जइ तम्हा से समए ण भवइ, नीचे वाला संघात अन्य काल में भिन्न होता है इसलिए वह समय नहीं होता है। (१) एत्तो वि णं सुहुमतराएसमए पण्णत्ते समणाउसो। (१) हे आयुष्मान श्रमण ! इससे भी सूक्ष्मतर "समय" कहा -अणु० सु० ३६६ । गया है । आवलियाईणं पमाणं आवलिका आदि का प्ररूपण(२) असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा (२) असंख्य समयों के सम्मिलित समुदाय के परस्पर समाएगा आवलियत्ति पवुच्चइ । (३) संखेज्जओ आव- गम से एक "आवलिका" कही जाती है। (३) संख्येय आवलिका लियाओ ऊसासो, (४) संखेज्जाओ आवलियाओ जितना एक उच्छ्वास होता है । (४) संख्येय आवलिका जितना नोसासो। एक निश्वास होता है। गाहाओ गाथार्थ५. हदुस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। (५) जरा और व्याधि रहित सन्तुष्ट मनुष्य का एक उच्छ्एगे ऊसास-नीसासे, एस "पाणु" ति बुच्चइ। वास-निश्वास "पाण" कहा जाता है। ६. सत्तपाणुणि से "थोवे", (६) सात प्राण जितना (काल) एक "स्तोक" होता है । ७. सत्तथोबाणि से "लवे"। (७) सात स्तोक जितना (काल) एक "लव" होता है । ८. लवाणं सत्तहत्तरिए, एस "मुहत्ते" वियाहिए। (८) सततर लव जितना काल एक "मुहूर्त" होता है। ६. तिण्णि सहस्सा सत्तय, सयाणि तेहरि'च उस्सासा। (8) तीन हजार सात सौ तिहत्तर उच्छवास जितने काल को एस "मुहुत्तो" भणिओ, सम्वेहि अणंतनाणीहिं। सभी ज्ञानियों ने एक मुहूर्त कहा है। इस मुहूर्त प्रमाण से(१०) एएणं मुहत्तपमाणेणं तीसमुहत्ता "अहोरत्ते", (१०) तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र, (११) पण्णरस अहोरत्ता "पक्खो", (११) पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, (१२) दो पक्खा "मासो", (१२) दो पक्षों का एक मास, (१३) दो मासा "उऊ", (१३) दो मासों की एक ऋतु, (१४) तिण्णि उऊ "अयणं". (१४) तीन ऋतु का एक अयन, (१५) दो अयणाई "संवच्छरे", (१५) दो अयन का एक संवत्सर, (१६) पंच संवच्छरिए "जुगे", (१६) पाँच सवत्सरों का एक युग, (१७) वीसं जुगाई "वाससयं", (१७) बीस युगों के सौ वर्ष, (१८) दसवाससयाइं “वाससहस्सं", (१८) दस सौ वर्षों का एक हजार वर्ष, (१९) सयं वाससहस्साणं "वाससयसहस्सं", (१६) सौ हजार वर्षों का एक लाख वर्ष, (२०) चउरासीई काससयसहस्साई से एगे "पुग्वंगे", (२०) चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वांग, Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल का प्ररूपण (२१) चउर सीइं पुव्वंगसय सहस्साइं से एगे "पुब्वे", (२२) चउरासीइं पुण्वस्यसहस्साइं से एगे "तुडियंगे", (२३) चउरासीइं तुडियंगसयसहस्साइं से एगे " तुडिए " (२४) चउरासीइं तुडियसय सहस्साइं से एगे "अडडंगे", (२५) चउरासीइं अड्डंगसयसहस्साइं से एगे "अड्डे”, (२६) चउरासीइं अड्डसय सहस्साइं से एगे "अववंगे", (२७) चउरासीइं अववंगसयसहस्साइं से एगे "अववे", (२८) चउरासीइं अववसयसहस्सा इं से एगे "हुहुयंगे', (२६) चउरासी हुहुयंगसय सहस्साइं से एगे " हुहुए", (३०) एवं उप्पलंगे, (३१) उप्पले, (३२) पउमंगे, (३३) पउमे, (३४) नलिनंगे, (३५) नलिने, (३६) अवनिउरंगे, (३७) अत्तनिउरे, (३८) अउयंगे, ( ३६ ) अउए, (४०) उअंगे, ( ४१ ) उए, (४२) पअंगे, (४३) पउए. (४४) चूलियंगे, (४५) चूलिया । (४६) चउरासीइं चूलियासयसहस्साइं से एगे "सीसपहेलियंगे", (४७) चउरासीइं सीसपहेलियंगसयसहस्साइं सा एगा "सीसपहेलिया”, एताव तावगणिए एयावए चैव गणियस्स विसए, अतो परं ओमिए' - अणु० सु० २६७ । ओसप्पिणी उस्सप्पिणी भेय परूवणं१२. तिबिहा ओसप्पिणी पण्णता, तं जहा(१) उक्कसा, (२) मज्झिमा, (३) जहन्ना । एवं छप्पि समाओ भाणियव्वाओ सुसम सुसमा जाव- दूसमदूसमा । तिविहा उस्सप्पिणी पण्णत्ता । तं जहा(१) उक्कसा, (२) मज्झिमा, (३) जहन्ना, (२१) चौरासी लाख पूर्वांग का एक पूर्व, (२२) चौरासी लाख पूर्व का एक त्रुटितांग, (२३) चौरासी लाख त्रुटितांग का एक त्रुटित, (२४) चौरासी लाख त्रुटित का एक अडडांग, (२५) चौरासी लाख अडडांग का एक अडड, (२६) इसी प्रकार अववांग, (२७) अवव, (२८) हूहूकांग, (२९) हूहूक, सूत्र ११-१२ (३०) उत्पलांग, (३१) उत्पल, (३२) पदमांग, (३३) पद्म, (३४) नलिनांग, (३५) नलिन, ( ३६ ) अक्षनिकुरंग, (३७) अक्षनिकुर, (३८) अयुतांग, (३१) अयुत, (४०) प्रयुतांग, (४१) प्रयुत, (४२) नयुतांग, (४३) नयुत, (४४) चूलिकांग, (४५) चूलिका, (४६) शीर्षप्रहेलिकांग (४७) शीर्ष प्रहेलिका । यहाँ तक गणित है, इतना ही गणित का विषय है । इससे आगे औपमिक काल है । अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के भेदों का प्ररूपण१२. तीन प्रकार की अवसर्पिणी कही गई है, यथा- (१) उत्कृष्टा, (२) मध्यमा, (३) जघन्या । इसी प्रकार छहों आरे के भेद कहने चाहिएसुषमसुसमा - यावत् - दूषमदूषमा । तीन प्रकार की उत्सर्पिणी कही गई है, यथा(१) उत्कृष्टा, (२) मध्यमा, (३) जघन्या । १ चतुरशीतिलक्षवर्षेः पूर्वागम्, पूर्वांग पूर्वागेन गुणितं पूर्वम्, पूर्व चतुरशीतिगुगं पूर्वांगम्, पर्वांग, चतुरशीतिलक्षगुणम्पवं पर्वचतुरशीतिगुणं नियुतांग नियुतांग चतुरशीतिलक्षगुणं नियुतं नियुत चतुरशीतिगुणं कुमुदांगम् कुमुदांगम्चतुरशीतिलक्षगुणं कुमुदम् कुमुदं चतुरशीतिगुणं पद्मांगम्, पदांगम् चतुरशीति लक्षगुणं पद्मम्, पद्मं चतुरीशीतिगुणं नलिनांगम्, नलिनांग चतुरशीतिलक्षगुण नलिनम्, नलिनम् चतुरशीतिगुणं कमलांगम् कमलांग चतुरशीतिलक्षगुणं कमलम्, कमलं चतुरशीतिगुणंतुट्टिांगम् तुटिटतांग चतुरशीतिलक्षगुणं तुटिम्, तुटितं चतुरशीतिगुणं अट्टांगम्, अट्टागं चतुरशीतिलक्षगुणं अट्टम् । अट्ट चतुरशीतिगुणं अममांगम् अममांगं चतुरशीतिलक्षगुणं अममम्, अममं चतुरशीतिगुणं हाहाहूहूअगंम्, हाहाहूहूअंग चतुरशीतिलक्षगुणं हाहाहूहू, हाहाहूहू चतेरशीतिगुणं मृदुलतांगम् मृदुलतांग चतुरशीति लक्षगुणं मृदुलता, मृदुलता चतुरशीतिगुणा लतांगम् लतांग चतुरशीतिलक्षगुणा, लता, लता चतुरशीतिगुणा, महालतांगम, महालतांग चतुरशीतिलक्षगुणं महालता, महालता चतुरशीतिगुणा शीर्षप्रकम्पितम् शीर्षप्रकमितम्, शीर्षप्रकम्पितं चतुरशीतिलक्षगुणं हस्तप्रहेलिका, हस्तप्रहेलिका चतुरशीतिगुणा अचलात्मकम् । ततः परमसंख्यम् । -म० वि० अणुओगदारं, सु० ३६७, पृ० १४९ टि । २ अवसर्पिणी प्रथमे डरके, उत्कृष्टा चतुर्षु मध्यमा, पश्चिमे जचन्या, एवं सुषम सुषमादिषु प्रत्येकं त्र्यं त्रयं कल्पनीयम् । Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १२-१४ काल लोक : पल्योपम-सागरोपस का प्रयोजन गणितानुयोग ६६६ एवं छप्पि समाओ भाणियवाओ इसी प्रकार छहों के भेद कहने चाहिएदूसमदूसमा-जाव-सुसमसुसमा ।' दुषमदुषमा-यावत्-सुसमसुसमा। -ठाणं० अ० ३, उ०१, सु० १४५ । पलिओवम-सागरोवमाणंपओयणं पल्योपम-सागरोपम का प्रयोजन-- १३. ५०-एहिं णं भंते ! पलिओवम-सागरोवमेहि किं पयोयणं? १३. प०-भगवन्! पल्योपम और सागरोपम का क्या प्रयोजन है ? उ०-सुदंसणा । एएहि णं पलिओवम-सागरोवमेहि नेरइय- उ०-सुदर्शन ! इन पल्योपम और सागरोपमों से नैरयिक तिरिक्ख जोणिय-मणुस्स-देवाणं आउयाई मविजंति ।२ तिर्यञ्च योनिक मनुष्य और देवों का आयुष्य मापा जाता है । -भग० स० ११, उ० ११, सु० १७ । गणियकालस्स परूवणं गणित काल का प्ररूपण१४. ५०–एगमेगस्स णं भंते ! मुहुत्तस्स केवइया उसासद्धा १४. प्र०-भगवन् ! प्रत्येक मुहूर्त के कितने उच्छ्वास कहे वियाहिया? गये हैं ? उ०-गोयमा ! असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमाग- उ०-गौतम ! असंख्य समयों का जो समुदाय है वह एक मेणं सा । एगा "आवलिया" ति पवुच्चइ। आवलिका कही जाती है । संखेज्जा आवलिया ऊसाओ-संखेज्जा-आवलिया संख्येय आवलिकाओं का एक उच्छ्वास होता है और संख्येय निस्सासो। आवलिकाओं का एक निश्वास होता है। गाहाओ गाथाओं का अर्थहदुस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। निरोग पुष्ट युवा जन्तु (मनुष्य) का एक उच्छ्वास, निश्वास, एगे ऊसास-नीसासो, एस "पाणु" त्ति वुच्चइ ॥ "प्राण" कहा जाता है। सत्तपाणि से "थोवे", सत्तथोवाई से "लवे"। सात प्राण का एक "स्तोक"; सात स्तोक का एक "लव" लवाणं सत्तहत्तरिए, एस "मुहुत्ते" वियाहिए॥ और सितत्तर लव का एक "मुहूर्त" कहा जाता है। तिण्णि सहस्सा सत्त य सयाई तेवरि च ऊसासा । तथा तीन हजार सात सौ तिहत्तर श्वासोच्छ्वास का एक एस "मुहुत्तो'' दिट्ठो, सत्वेहिं अणतणाणीहि ॥ "मुहूर्त" सभी अनन्त ज्ञानियों ने कहा है। एएणं मुहत्तपमाणेणं, तीस मुहत्तो "अहोरत्तो"। ऐसे तीस मुहूर्त का एक "अहोरात्र", पण्णरस अहोरत्ता "पक्खो"। पन्द्रह अहोरात्र का एक "पक्ष", दो पक्खा "मासो"। दो पक्ष का एक मास, दो मासा "उऊ"। दो मास की एक "ऋतु", तिण्णि उऊ "अयणे"। तीन ऋतु का एक "अयन" दो अयणा "संवच्छरे" दो अयन का एक "संवत्सर", पंच संवच्छरे "जुगे"। पांच संवत्सर का एक “युग", वीस जुगाई "वाससयं"। बीस युग के सौ वर्ष, बस वाससयाई “वाससहस्सं"। दस सौ वर्षों के एक हजार वर्ष, १ तथा उत्सपिण्याः दुष्षमदुष्षमादि तद् भेदानां, चोक्तविपर्ययेणोत्कृष्टत्वं प्राग्वदायोज्यमिति । २ कथाभाग धर्मकथानुयोग में देखें भाग १, द्वितीय स्कन्ध, पृष्ठ ८, सु० १५ । ३ स्थानांग अ० ३ उ०४, सूत्र १०६ में-थोव स्तोक के बाद में खण=क्षण है और क्षण के बाद में लब है। ४ ५०-एगमेगस्स णं भंते ! मासस्स कति पक्खा पण्णता? १०- गोयमा ! दो पक्खा पण्णत्ता, तं जहा-(१) बहुल पक्खे य, (२) सुक्कपक्खै य । -जंबु० सु० १५२ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : औपमिक काल का प्ररूपण सूत्र १४-१५ सयं वाससहस्साई “वाससयसहस्स"' सौ हजार वर्षों के एक लाख वर्ष, चउरासीई वाससयसहस्साइं से एगे "पुग्वंगे" चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वांग, चउरासीई पुब्वंगसयसहस्साइं से एगे "पुग्वे"। चौरासी लाख पूर्वांगों का एक "पूर्व". एवं तुडिअंगे, तुडिए, अडडंग, अडडे, इसी प्रकार त्रुटितांग, त्रुटित, अडडांग, अडड, अववंगे, अववे, हूहूअंगे, हूहूए, अववांग, अवव, हूहूआंग, हूहूअ, उप्पलंगे, उप्पले, पउमंगे, पउमे, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, पद्म, नलिनंगे, नलिने, अत्यनिउरंगे, अत्थनिउरे, नलिनांग, नलिन, अर्थनिउरांग, अर्थनिउर, अतुअंगे, अतुए, पउअंगे, पउए, अयुतांग, अयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, नउअगे, नउए', चूलिअंगे, चूलियाए, नयुतांग, नयुत, चूलिकांग, चूलिका, सीसपहेलिअंगे, सीसपहेलियाए,' शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका, एताव ताव गणिए, एताव ताव गणियस्स विसए । यहाँ तक गणित है यहाँ तक ही गणित का विषय है । इसके तेण परं उवमिए। बाद जो गणित से नहीं अपितु केवल उपमा से जाना जा सके -भग० स०६, उ०७, सु० ४,५। ऐसा औपमिक काल है। ओवमिय कालस्स परूवणं औपमिक काल का प्ररूपण५. ५०-से कि तं ओवमिए ? १५. प्र०-औपमिक काल कितने प्रकार का हैं ? उ०-ओवमिए दुविहे पण्णते । तं जहा उ०-औपमिक काल दो प्रकार का कहा गया है, यथा(१) पलिओवमे य, (२) सागरोवमे य ।। (१) पल्योपम और (२) सागरोपम । ५०-से कि तं पलिओवमे ? प्र०-पल्योपम का क्या स्वरूप है ? उ०-गाहा उ०-गाथार्थसस्थण सुतिखेण वि, छत्तु भेत्तुच जिकिर न सका। अत्यन्त तीक्ष्ण शस्त्र से भी जिसका छेदन-भेदन शक्य नहीं तं परमाणु सिद्धा, वदंति आदि पमाणाणं ॥६ है, ऐसे परमाणु को सभी प्रमाणों का आदि प्रमाण केवल ज्ञानी कहते हैं। १ वाससयसहस्स = लाख वर्ष के बाद में वास कोडी-क्रोडवर्ष अधिक है। २ अतुअंगे, अतुए के बाद में नउअंगे, नउए है और उसके बाद में पउअंगे, पउए है। यह क्रम भेद है। ३ स्थानांग अ० ३, उ० ४ सूत्र १९७ में समय से लेकर उत्सर्पिणी तक का क्रम संक्षिप्त में कहा है । ४ जम्बु० वक्षस्कार २ सूत्र १८ में समय से लेकर "तेणं पर उवमिए" पर्यन्त कहा है। इसमें भी थोव के बाद में 'खण' नहीं है, 'लव' है। पउअंगे से पठए पर्यन्त का क्रम स्थानांग के समान है। इस प्रकार "स्थानांग" भगवती और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में सामान्य पाठान्तर है । ५ दुविहे अद्धोवमिए पण्णत्ते, तं जहा- (१) पलिओवमे चेव, (२) सागरोवमे चेव । -ठाणं अ० २, उ० ४, सु० ११० । तथा अणु० सु० ३४३ अट्टविहे अद्धोवमिए पण्णत्ते, तं जहा- (१) पलिओवमे य, (२) सागरोवमे य, (३) उस्सप्पिणी, (४) ओसप्पिणी, (५) पोग्गलपरियट्ट, (६) तीतद्धा, (७) अणागतद्धा, (५) सम्बद्धा। -ठाणं अ०८, सु० ६२० ६ पलिओवमस्स परूवणं करिस्सामि, परमाणु दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--(१) सुहुमे य, (२) वावहारिए य । अणताणं सुहुम परमाणु पुग्गलाणं समुदय समिति समागमेणं वावहारिए परमाणु णिप्फज्जई, तत्थ नो सत्थं कमइ । -जंबु० वक्ख० २, सु० १६ प०-से कि तं पलिओवमे ? उ०-पलिओवमे-गाहाओजं जोयणवित्थिण्णं, पल्लं एगाहियप्परूढाणं । होज्ज निरंतर णिचितं, भरितं वालग्गकोडीणं ।।।। वाससए वाससए, एक्केक्के अवहडंमि जो कालो । सो कालो बोधव्वो, उवमा एगस्स पल्लस्स ।।-10 -ठाणं अ० २, उ० ४, सु० ११० Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५ काल लोक: औपमिक काल का प्ररूपण गणितानुयोग ७०१ (१) उस्सण्हसहिया इवा, (२) सहसण्हिया इ वा, "(१) उच्छलक्ष्णश्लक्षिणका, (२) श्लक्ष्णश्लक्षिणका, (३) उड्ढरेणू इवा, (४) तसरेणू इ वा, (५) रहरेणु (३) ऊर्ध्वरेणु, (४) त्रसरेणु, (५) रथरेणु, (६) वालाग्र, इ वा, (६) वालग्गे इ वा, (७) लिक्खा इ वा, (७) लिक्षा, (८) यूका, (६) यवमध्य, (१०) अंगुल ।" (८) जूया इ वा, (९) जवमज्झे इवा, (१०) अंगुले इवा। अणंताणं परमाणुपोग्गलाणं समुदय-समितिसमागमेणं अनन्त परमाणु पुद्गलों का जो समुदाय है वह एक "उच्छसा एगा उस्सण्हसहिया । लक्ष्णश्लक्षिणका" है। अढ उस्सहसण्हियाओ सा एगा साहसहिया, आठ उच्छलक्ष्णश्लक्षिणका जितनी एक "श्लक्ष्णश्लक्षिणका" होती है। अट्ठ सहसण्हियाओ सा एगा उड्डरेणू, आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका जितनी उक "उर्ध्वरेणु" होती है । अट्ठ उड्ढरेणूओ सा एगा तसरेण, आठ उर्ध्वरेणु जितनी एक "त्रसरेणु" होती है। अट्ठ तसरेणुओ सा एगा रहरेणू, आठ त्रसरेणु जितनी एक “रथरेणु" होती है। अट्ठ रहरेणूओ से एगे देवकुरू-उत्तरकुरूगाणं मणूसाणं आठ रथरेणु जितना देवकुरू उत्तर कुरू के मनुष्यों का एक वालग्गे। बालाग्र होता है। एवं हरिवास-रम्मग-हेमवत-एरण्णवताणं पुव्वविदेहाणं इसी प्रकार देवकुरू उत्तर कुरू के मनुष्यों के आठ बालान मणूसाणं अट्ठ वालग्गा सा एगा लिक्खा । जितना हरिवर्ष-रम्यक् वर्ष के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। हरिवर्ष-रम्यक् वर्ष के मनुष्यों के आठ बालान जितना हैमवत हैरण्यवत के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। _ हैमवत-हैरण्यवत के मनुष्यों के आठ बालाग्र जितना पूर्व महाविदेह के मनुष्यों का एक बालान होता है। पूर्व महा विदेह के मनुष्यों के आठ बालाग्र जितमी एक लिक्षा होती है। अट्ठ लिक्खओ सा एगा जूया, आठ लिक्षा जितनी एक "यूका" होती है। अट्ठ जूयाओ से एगे जवमझे, आठ यूका जितना एक “यवमध्य" होता है । अट्ठ जवमज्झे से एगे अंगुले। आठ यवमध्य जितनी एक "अंगुल" होती है। एएणं अंगुलपमाणेणं इस अंगुल प्रमाण सेछ अंगुलाणि पादो, छ अंगुल जितना एक “पाद" होता है। बारस अंगुलाई विहत्थी, बारह अंगुल जितनी एक "त" होती है। चउव्वीसं अंगुलाणि रयणी, चौबीस अंगुल जितना एक "हाथ" होता है । अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी। छिनवे अंगुल जितना एक "दण्ड” होता है। छण्णउई अंगुलाणि से (१) एगे दण्डे इ वा, (२) घणू इसी प्रकार धनुष, यूप, नालिका, अक्ष और मूसल भी छिनवे इवा, (३) जूए इ वा, (४) नालिया इ वा, (५) अक्खे अंगुल के ही होते हैं। इ वा, (६) मूसले इ वा। एएणं धणुप्पमाणे णं-दो धणु सहस्साइं गाउयं, इस धनुष प्रमाण से दो हजार धनुष जितना एक "गाउ" चत्तारि गाउयाई जोयणं ।' होता है । चार गाउ का एक "योजन" होता है । १ बावहारिएणं छण्णउइ अंगुलाई अंगुलप्पमाणेणं धणू, एवं नालिया-जुगे-अक्खे-मूसले वि। --सम० ६६, सु० ३ २ (क) अणु० सु० ३४४, ३४५ (ख) —सम० ४, सु० ६ (केवल योजन प्रमाण सूचक सूत्र) (ग) ठाणं अ०८, सु. ६३४, मागहस्स णं जोयणस्स अट्र घणुसहस्साई निधत्ते पण्णत्ते । Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : औपमिक काल का प्ररूपण सूत्र १५ एएणं जोयणप्पमाणे णं-जे पल्ले जोयणं आयाम- इस योजन प्रमाण से एक योजन लम्बा चौड़ा, एक योजन विक्खंभेणं, जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं ऊँचा कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला पल्य एक दिन, दो दिन, परिरएणं । से णं एगाहिय वेयाहिय-तेयाहिय, उक्कोसं तीन दिन उत्कृष्ट सात दिन के उगे हुए क्रोडों वालातों से ठसासत्तरत्तप्परूढाणं संसट्ठ सन्निचित्ते भरिते वालग्गकोडीणं। ठस भरा जाए। ते णं वालग्गे नो अग्गी दहेज्जा, नो वातोहरेज्जा, नो जिससे वे बालाग्र अग्नि से न जले, वायु से न उड़े, पानी से कुत्थेज्जा, नो परिविद्धंसेज्जा, नो पूतित्ताए हव्व- न गले, न नष्ट हों, और न सड़ें। मागच्छेज्जा। ततो णं वाससए वाससए गए एगमेगं बालग्गं अवहाय उस पल्य से सौ सौ वर्ष बीतने पर एक बालाग्र निकाला जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरेए, निम्मले, जाय, यों निकालते-निकालते जितने काल में वह पल्य खाली हो निट्ठिए, निल्लेवे अवहडे विसुद्धे भवई' निरज हो, निर्मल हो, सर्वथा रिक्त हो, निर्लेप हो, अपहृत हो, विशुद्ध हो। से तं पलिओवमे । उतना काल पल्योपम कहा जाता है। प०-से कि तं सागरोवमे ? प्र०-सागरोपम का स्वरूप क्या है ? उ०-गाहा उ.--गाथार्थएएसि पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दस गुणिया। उक्त प्रमाण वाले दस क्रोडाक्रोडी पल्योपम जितना एक तं सागरोवमस्स तु, एक्कस्स भवे परिमाणं ॥ सागरोपम का प्रमाण होता है । एएणं सागरोवमपमाणेणं ओसप्पिणीए' चत्तारि उक्त प्रमाण वाले चार क्रोडाक्रोडी सागरोपम जितना अवसागरोवम कोडाकोडीओ कालो सुसम-सुसमा। सर्पिणी काल के प्रथम सुसम-सुसमा आरा का प्रमाण है। तिण्णि सागरोवम कोडाकोडीजो कालो सुसमा तीन क्रोडाकोडी सागरोपम जितना अवसर्पिणी काल के द्वितीय सुसमा आरा का प्रमाण है। दो सागरोवम कोडाकोडीओ कालो सुसम-दूसमा दो क्रोडाक्रोडी सागरोपम जितना अवसर्पिणी काल के तृतीय सुसम-दुसमा आरा का प्रमाण है। एगा सागरोवमकोडाकोडीओ बायालीसाए वास बियालीस हजार वर्ष कम एक क्रोडाक्रोडी सागरोपम जितना सहस्सेहिं ऊणिया कालो दुसम-सुसमा । अवसर्पिणी काल के चतुर्थ दुसम-सुसमा आरा का प्रमाण है । एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसमा। इक्कीस हजार वर्ष जितना अवसर्पिणी काल के पंचम दुसम आरा का प्रमाण है। १ जंबु० बक्ख० २, सु१ १६ । २ ठाणं अ० २, उ० ४, सु०११० । ३ "ओसप्पिणी" त्ति अवसर्पयति हीयमानारकतया, अवसर्पयति वा।ऽयुष्क शरीरादिभावान् हापयतीत्यवसर्पिणी सागरोवम कोटा कोटी दशकप्रमाणः कालविशेषः । ४ जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसमाए समाए तिण्णि साग रोवमकोडाकोडीओ कालो होज्जा । एवं इमीसे ओसप्पिणीए । नवरं-काले पण्णत्ते । आगमेस्साए उस्सप्पिणीए भविस्सइ । एवं धायइसंडे पुरथिमद्धे, पच्चत्थिमद्धे वि, एवं पुक्खरवरदीवड्ढे पुरथिमद्धे पच्चत्थिमद्धे वि कालो भाणियब्बो । -ठाणं अ० ३,उ० १, सु० १५१ ५ जंबुद्दीवे दीवे भरहेरवएसु वासेसु तीताए उस्सप्पिणीए सुसम-दूसमाए दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो होत्था । एवमिमीसे ओसप्पिणीए नवरं-काले पण्णत्ते । एवं आगमेस्साए उस्सप्पिणीए जाव भविस्सइ । -ठाणं अ०२, उ०३, सु०६२ Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १५ काल लोक : औपमिक काल का प्ररूपण गणितानुयोग ७०३ एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसम-दूसमा' पुणरवि उस्स प्पिणीए' एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसमदूसमा। एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसमा । एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालोसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसम-सुसमा। दो सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम-दूसमा, इक्कीस हजार वर्ष जितना अवसर्पिणी काल के छठे दुसमदुसमा आरा का प्रमाण है। पुनः इक्कीस हजार वर्ष जितना उत्सर्पिणी काल के प्रथम दुसम-दुसमा आरा का प्रमाण है। ___ इक्कीस हजार वर्ष जितना उत्सर्पिणी काल के द्वितीय दुसम आरा प्रमाण है। बियालीस हजार वर्ष कम एक क्रोडाकोडी सागरोपम जितना उत्सर्पिणी काल के तृतीय दुसम-सुसमा आरा का प्रमाण है। दो क्रोडाकोडी सागरोपम जितना उत्सर्पिणी काल के चतुर्थ सुसम-दुसमा आरा का प्रमाण है। तीन क्रोडाकोडी सागरोपम जितना उत्सपिणी काल के पंचम सुसमा आरा का प्रमाण है । चार क्रोडाकोडी सागरोपम जितना उत्सपिणी काल के छठे सुसम-सुसमा आरा का प्रमाण है। दस क्रोडाकोडी सागरोपम जितना एक अवसर्पिणी काल का प्रमाण है। दस क्रोडाक्रोडी सागरोपम जितना एक उत्सपिणी काल का प्रमाण है। बीस क्रोडाक्रोडी सागरोपम जितना अवपिणी उत्सपिणी काल का प्रमाण है। तिण्णि सागरोवम कोडाकोडीओ कालो सुसमा, चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसम- सुसमा । दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी।। वस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी । वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी य, उस्सप्पिणी य। -भग. स. ६, उ.७, सु. ७-८ १ एगमेगाए णं औसप्पिणीए पंचम छट्ठीओ समाओ एगवीसं एगवीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्ताओ, तं जहा-(१) दूसमा, (२) दूसमदूसमा य। -सम० २१, सु०१ एगमेगाए णं ओसप्पिणीए पंचम-छट्ठीओ समाओ बायालीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्ताओ। -सम. ४२, सु.८ २ उत्सर्पति = वर्द्धतेऽरकापेक्षया, उत्सर्पयति वा भावानायुष्कादीन् वर्द्धयतीति उत्सर्पिणी=अवसप्पिणी प्रमाणा । ३ (क) एगमेगाए णं उस्सप्पिणीए पढम-बिइयाओ समाओ एगवीसं एगवीसं वाससहस्साई कालेणं पण्णत्ताओ, तं जहा(१) दूसमदूसमा, (२) दूसमा य । -सम० २१, सु० २ (ख) एगमेगाए णं उस्सप्पिणीए पढम-बिइयाओ समाओ बायालीस वाससहस्साइं कालेणं पण्णत्ताओ। -सम० ४२, सु०६ ४ एगा ओसप्पिणी-(१) एगा सुसम-सुसमा, (२) एगा सुसमा, (३) एगा सुसम-दूसमा, (४) एगा दुसम-सुसमा, (५) एगा दूसमा, (६) प्रगा दूसमदूसमा। एगा उस्सप्पिणी-(१) एगा दूसम-दूसमा, (२) एगा दूसमा, (३) एगा दूसम-सुसमा, (४) एगा सुसम-दूसमा, (५) एगा सुसमा, (६) एगा सुसम-सुसमा । -ठाणं अ० १, सु०४० दो समाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-(१) ओसप्पिणी समा चेव, (२) उस्सप्पिणी समा चेव । -ठाणं अ० २, उ०१, सु०५६ दुविहे काले पण्णत्ते, तं जहा-(१) ओसप्पिणी काले चेव, (२) उस्सप्पिणी काले चेव। -ठाणं अ० २, उ० १, सु० ६४ ५ ठाणं अ० १०, सु० ७५६ । ६ (क) उस्सप्पिणी-ओसप्पिणी मंडले बीस सागरोवम कोडाकोडीओ कालो पण्णत्तो । -सम० २०, सु०७ (ख) जंबु० वक्ख० २, सु०१६ । Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : औपमिक काल के भेद-प्रभेद सूत्र १६-१७ ओवमियकालस्स भेयप्पभेया औपमिक काल के भेद-प्रभेद१६.५०-से कि तं ओवमिए ? १६. प्र०-औपमिक काल कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०-ओवमिए दुविहे पण्णते, तं जहा उ०-औपमिक काल दो प्रकार का कहा गया है, यथा(१) पलिओवमे य, (२) सागरोवमे य । (१) पल्योपम, (२) सागरोपम । १०-से कि तं पलिओवमे ? प्र०-पल्योपम कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०-पलिओवमे तिविहे पण्णत्ते । तं जहा उ०-पल्योपम तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा(१) उद्धार पलिओवमे य, (२) अद्धा पलिओवमे य, (१) उद्धार पल्योपम, (२) अद्धा पल्योपम, (३) खेत्तपलिओवमे य। (३) क्षेत्र पल्योपम । -~-अगु. सु. ३६८, ३६६ । उद्धार पलिओवमस्स भेया उद्धार पल्योपम के भेदप०–से कि तं उद्धार पलिओवमे ? प्र०-उद्धार पल्योपम कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०-उद्धार पलिओवमे दुबिहे पण्णते, तं जहा उ०-उद्धार पल्योपम दो प्रकार का कहा गया है, यथा(१) सुहुमे य, (२) वावहारिए य । (१) सूक्ष्म उद्धार पल्योपम, (२) व्यावहारिक उद्धार पल्योपम, तत्थ गंजे से सुहुमे से ठप्पे । इनमें जो सूक्ष्म उद्धार पल्योपम है-उसका यहाँ वर्णन -अणु. सु. ३७०-३७१ । स्थगित किया गया है। सोदाहरणं वावहारिय उद्धारपलिओवमसरूवपरूवणं- सोदाहरण व्यावहारिक उद्धार पल्योपम के स्वरूप का प्ररूपण१७. तत्थ गंजे से वावहारिए, से जहानामए पल्लेसिया जोयणं १७. इनमें से जो व्यावहारिक उद्धार पल्योपम है वह इस आयाम-विक्खंभेण जोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं प्रकार है-जिस प्रकार एक योजन लम्बा चौड़ा एक योजन ऊँचा परिरएणं। और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला एक पल्य (पात्र या गड्ढा ) है। से गं एगाहिय-बेहिय-तेहिय-जाव-उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं उस पल्य में एक दिन, दो दिन, तीन दिन-यावतसम्म8 सन्निचिए भरिए बालग्गकोडोणं । उत्कृष्ट सात रात के बढ़े हुए बालानों को परिपूर्ण ठसाठस भरे । ते गं बालग्गा नो अग्गोडहेज्जा, नो वाउहरेज्जा, नो वे वालाग्र न अग्नि से जले, न वायु से उड़े, न वर्षा से कच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसिज्जा, नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा। भीगे, और न सड़े, न नष्ट हो । उनमें से एक एक समय में एकतओ णं जमए समए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावतिएणं एक वालान निकालते रहें। जितने समय में वह पल्य खाली हो, कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे, णिट्ठिए भवइ । नीरज हो, निर्लेप हो सर्वथा रिक्त हो, से तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे । वह व्यावहारिक उद्धार पल्योपम है। गाथार्थएएसि पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज बसगुणिया। ऐसे दस क्रोडाक्रोडी पल्यों का एक व्यावहारिक उद्धार तं वावहारियस्स, उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥ सागरोपम का प्रमाण होता है । १०-एएहि वावहारियउद्धारपलिओवम-सागरोवमेहिं कि प्र०- इन व्यावहारिक उद्धार पल्योपम और सागरोपम का पओयणं? क्या प्रयोजन है ? उ०-एएहि वावहारिय उद्धारपलिओवम-सागरोवहिं पत्थि उ०-इन व्यावहारिक उद्धार पल्योपम तथा सागरोपम का किचि पओयणं केवलं तु पण्णवणापण्णविज्जइ। कोई प्रयोजन नहीं है, केवल जानने के लिए कहा गया है। से तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे । व्यावहारिक उद्धार पल्योपम का स्वरूप समाप्त । -अणु. सु. ३७२, ३७३ । गाहा Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १८ काल लोक सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का उदाहरण सहित स्वरूप प्ररूपण गणितानुयोग सोदाहरणं सुहम उद्धारपलिओदम सख्य-पवर्ण१८. १० - से किं तं सुहुम उद्धारपलिओ मे ? - उ०- मुहमे उद्धारपलिओयमे से जहा नामए पहलेसियाजोयणं आयाम विक्खंभेणं, जोयणं उदढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिणं । से पहले एवाहिय-हि-हिय जाव उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं संस सन्निचिए भरिए वालग्गकोडी | तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेज्जाई खंडाई कज्जइ । ते गं वाला विट्ठी-ओगाहगाओ अरजभाग मेत्ता-सुमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जागुणा । ते णं वालग्गा नो अग्गी डहेज्जा, नो वाउ हरेज्जा, नो कुच्छज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए हव्व मागच्छेज्जा । तओ णं समए समए एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएवं काले से पहले खोजे मीरए निलंबे निहिए भवइ । ते णं सुहुमे उद्धारपलिओवमे । गाहा एएस पल्ला फोडाफोडी हवेज दसगुनिया | तं सुहुमस्स उद्धारसागरोवमस्स उ एगस्स भवे परीमाणं । २० एहिमे उद्धारपलिभोषम-सागरोधमेह कि पओयणं ? उ० एएहि गृहमेहि उद्धारपलिओयम सागरोवमेहि दीवसमुद्दाणं उद्धारे घेप्पइ । ०वा दीव-समुदागं उद्धारेण पश्यता ? - उद्धारसागरोब दीव-समुद्दा उद्धारे उ०- गोवमा ! जावा अढाइमा मार्ग उद्धारसमया एवइया पण्णत्ता । सेत्तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे । सेत्तं उद्धारपलिओवमे । - अणु. सु. ३७४-३७६ अद्धा पतिओवमस्स नेया पसे कि अद्धापलिओ ? ३० लिओ विहे पण्यते तं जहा (१) सुहुमे य, (२) वावहारिए य । तत्थ णं जे से सहमे से ठप्पे । सूक्ष्म उद्धार पत्योपम का उदाहरण सहित स्वरूप प्ररूपण१८. प्र० - सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का स्वरूप क्या है ? ७०५ उ०- सूक्ष्म उद्धार पल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है । जिस प्रकार एक योजन लम्बा-चौड़ा, एक योजन ऊंचा और कुछ अधिक तीन गुणी परिधि वाला हो । उस पल्य में एक दिन, दो दिन तीन दिन - यावत्उत्कृष्ट आत रात के बढ़े हुए बालानों को पूर्ण रूप से ठसाठस भरे ! उन दिखाई देने वाले वालाग्रों में से प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड इतने छोटे करें कि सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की अब गाहना से भी असंख्य छोटे गुण हों । वे बाला न अग्नि से जलें, न वायु से उड़ें, न वर्षा से भीजें न सड़ें और न नष्ट हों । उनमें से प्रत्येक समय में एक-एक बालाग्र निकालने पर जितने काल में वह पल्प खाली हो, नीरज हो, निर्लेप हो, सबंधा रिक्त हो, वह सूक्ष्म उद्धार पल्योपम है । गाथार्थ - ऐसे दस क्रोडाको पल्य का एक सूक्ष्म उद्धार सागरोपम का प्रमाण है ! प्र० - इन सूक्ष्म उद्धार पल्योपम-सागरोपम का क्या प्रयोजन है ? उ०- इन सूक्ष्म उद्धार पत्योपम-सागरोपम से द्वीप-समुद्रों के परिमाण का ज्ञान होता है । प्र०—भगवन् ! उद्धार सागरोपम के अनुसार द्वीप सागर कितने कड़े गये है? उ०- गौतम ! अढाई उद्धार सागरोपम के जितने उद्धार समय होते हैं, उतने ही द्वीप समुद्र उद्धार सागरोपम के अनुसार कहे गये हैं। सूक्ष्म उद्धार पल्योपम समाप्त । उद्धार पल्योपम समाप्त । अद्धा पल्योपम के भेद प्र० -- अद्धा पल्योपम कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०- अद्धा पल्योपम दो प्रकार का कहा गया है, यथा(१) सूक्ष्म अद्धा पस्योपम, (२) व्यावहारिक अद्धा पत्योपम । इनमें से सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का वर्णन यहाँ स्थगित किया - अणु. सु. ३७७-३७८ गया है । Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : व्यावहारिक अद्धा पल्योपम का उदाहरणपूर्वक स्वरूप प्ररूपण सूत्र १९-२० सोदाहरणं वावहारिय अद्धापलिओवमस्स सरूव- व्यावहारिक अद्धा पल्योपम का उदाहरणपूर्वक स्वरूप परूवर्ण प्ररूपण१६. तत्थ णं जे से वावहारिए से जहा नामए पल्ले सिया जोयणं १६. इनमें से व्यावहारिक अद्धा पल्योपम इस प्रकार है। जिस आयाम-विक्खंभेणं, जोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं, तं तिगुणं प्रकार एक योजन लम्बा-चौड़ा, एक योजन ऊँचा कुछ अधिक तीन सविसेसं परिक्खेवेणं। ___ गुणी परिधि वाला एक पल्य हो । से णं पल्ले एगाहिय-बेहिय-तेहिय-जाव-उक्कोसेणं सत्तरत्तपरू- उस पल्य में एक दिन, दो दिन, तीन दिन-यावत्-उत्कृष्ट ढाणं सम्म? सन्निचिए भरिए वालग्गकोडीणं । सात अहोरात्र के बढ़े हुए बालाग्र पूर्ण रूप से ठसाठस भरें। ते गं बालग्गा नो अग्गी डहेज्जा, नो वाउ हरेज्जा, नो वे बालाग्र न अग्नि से जले, न वायु से उड़े, न वर्षा से भीजे, कुच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पूइत्ताए हब्वमागच्छेज्जा। न सड़े और न नष्ट हो । तओ गं वाससऐ वाससए गए एगमेगं वालग्गं अवहाय जाव- उस पल्य से सौ सौ वर्ष बीतने पर एक-एक वालाग्र निकालते इएणं कालेणं से पल्ले खोणे नीरए निल्लेवे निदिए भवइ। निकालते जितने काल में वह पल्य खाली हो, नीरज हो, निर्मल हो, सर्वथा रिक्त हो, से णं वावहारिए अद्धापलिओवमे। यह व्यावहारिक अद्धा पल्योपम है। गाहा गाथार्थएएसि पल्लाणं कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया। व्यावहारिक एक क्रोडाक्रोडी पल्यों को दस गुणा करने पर तं वावहारिस्स अद्धासागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥ एक व्यावहारिक अद्धा सागरोपम का प्रमाण होता है। प०-एएहि वावहारिएहि अद्धापलिओवम-सागरोवहिं कि प्र०-इन व्यावहारिक अद्धा पल्योपम-सागरोपम से क्या पओयणं? प्रयोजन है ? उ०-एएहिं वावहारिएई अद्धापलिओवम-सागरोवमेहि उ.-इन व्यावहारिक अद्धा पल्योपम-सागरोपम से कोई नत्थि किंचि पओयणं, केवलं तु पण्णवणा पण्णविजति। प्रयोजन नहीं है । केवल प्रज्ञापना प्रज्ञपित की है। से तं वावहारिए अद्धापलिओवमे । यह व्यावहारिक अद्धा पल्योपम समाप्त । -अणु, सु. ३७६, ३८० सोदाहरणं सुहुम अद्धापलिओवमस्स सरूव-परूवणं- सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का उदाहरणपूर्वक स्वरूप प्ररूपण२०.५०-से कि सुहमे अद्धापलिओवमे ? २०. प्र०-सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का स्वरूप कैसा है ? उ०-सुहमे अद्धापलिओवमे से जहानामए पल्लेसिया जोयणं उ०-सूक्ष्म अद्धा पल्योपम का स्वरूप इस प्रकार है। आयाम-विक्खंभेणं, जोयण उड्ढे उच्चत्तेणं, तं तिगुण जिस प्रकार एक योजन लम्बा-चौड़ा, एक योजन ऊँचा और कुछ सविसेस परिक्खेवेणं । अधिक तीन गुणी परिधि वाला एक पल्य हो । से णं पल्ले एमाहिय-बेहिय-तेहिय-जाव-उक्कोसेणं उस पल्य में एक दिन, दो दिन, तीन दिन-यावत्-उत्कृष्ट सत्तरत्तपरूढाणं सम्म? सन्निचिए भरिए बालग्ग- सात रात के बढ़े हुए बालान खण्ड पूर्ण रूप से ठसाठस भरे । कोडोणं। तत्थ णं एगमेगे बालग्गे असंखेज्जाइं खंडाई कज्जइ । उनमें से प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड करें। ते णं वालग्गा ट्ठिीओगाहणाओ असंखेज्जइभागमेत्ता उन दिखाई देने वाले वालाग्रों में से प्रत्येक वालाग्र के इतने सहमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा। छोटे असंख्य खण्ड करें कि सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की अवते गं वालग्गा नो अग्गी डहेज्जा, नो घाउ हरेज्जा, गाहना से भी असंख्य गुण छोटे हो । नो कुच्छेज्जा, नो पलिविद्धंसेज्जा, नो पुइत्ताए हव्वा वे बालाग्र न अग्नि से जले, न वायु से उड़े, न वर्षा से भीजे, मागच्छज्आ। न सड़े और न नष्ट हो। Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २०-२१ काल लोक । आवलिका आदि काल भेदों के समयों की संख्या का प्ररूपण गणितानुयोग ७०७ तओ णं वाससए वाससए गए एगमेगं वालग्गं अवहाय उस पल्य से सौ-सौ वर्ष बीतने पर एक-एक बालाग्र निकाजावइएणं कालेणं से पल्ले खोणे नीरए निल्लेवे लते-निकालते जितने काल में वह पल्य खाली हो, नीरज हो, निट्ठिए भवइ । निर्मल हो, सर्वथा रिक्त हो । से णं सुहमे अद्धापलिओवमे । यह सूक्ष्म अद्धा पल्योपम है। गाहा गाथार्थएएसि पल्लाणं कोडाकोडीहवेज्ज दसगुणिया। एसे दस क्रोडाकोडी पल्य जितना काल एक सूक्ष्म अद्धा तं सुहुमस्स अद्धासागरोवस्स एगस्सभवे परिमाणं ॥ सागरोपम का प्रमाण होता है । ५०-एएहि सुहुमहिं अद्धापलिओवम-सागरोवमेहि कि प्र०-एसे सूक्ष्म अद्धा पल्योपम तथा सागरोपम से क्या पओयणं ? प्रयोजन है? उ.-एएहि सुहुहिं अद्धापलिओवम-सागरोवहिं रइय- उ०-इन सूक्ष्म अद्धा पल्योपम तथा सागरोपमों से नरयिक, तिरियजोणिय-मणूस-देवाणं आउयाई मविज्जति । तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों का आयु मापा जाता है। से तं सुहुम अद्धपलिओवमे। सूक्ष्म अद्धा पल्योपम समाप्त । -अणु, सु.३८१-३८२ आवलियाइसु कालभेएस समयसंखापरूवणं- आवलिका आदि काल भेदों के समयों की संख्या का प्ररूपणएगत्त विवक्खा एकत्व विवक्षा२१.५०-आवलिया णं भंते ! किं संखेज्जा समया असंखेज्जा २१.प्र०-भगवन् ! एक आवलिका के समय क्या संख्यात हैं, समया, अणंता समया? असंख्यात हैं या अनन्त है ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जां समयां, असंखेज्जा समया, नोउ०-गौतम ! संख्यात समय नहीं है। असंख्यात समय .. अणंता समया। अनन्त समय नहीं है। प०-आणापाण णं भंते ! कि संखेज्जा समया-जाव-अणंता प्र०-भगवन् ! एक श्वासोच्छ्वास के समय क्या संख्यात समया? है-यावत्-अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! एवं चेव । उ०—गौतम ! पूर्ववत् है। प०-थोवे णं भंते ! किं संखेज्जा समया-जाव-अणंता प्र०-भगवन् ! एक स्तोक के समय क्या संख्यात हैं-यावत्समया? अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! एवं चेव । उ०-गौतम ! पूर्ववत् है। एवं लवे वि मुहुत्ते वि। इसी प्रकार लव और मुहूर्त के समय भी है। एवं अहोरत्ते । इसी प्रकार एक अहोरात्र के समय है। एवं पक्खे, मासे, उडू, अयण, संवच्छरे, जुगे, वास- इसी प्रकार पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, सौ वर्ष, सए, वाससहस्से, वाससयसहस्से, पुव्वंगे, पुव्वे, तुडि- हजार वर्ष, लाख वर्ष, पूर्वांग, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित, अटटांग, यंगे. तूडिए, अडडंगे, अडडे, अववंगे, अवबे, हुयंगे- अटट, अववांग, अवव, हुहूकांग, हुहूक, उत्पलांग, उत्पल, पद्मांग, हहए, उप्पलंग-उप्पले, पउमंग-पउमे, नलिण'गे, पद्म, नलिनांग, नलिन, अक्षनिकुरांग, अक्षनिकूर, अयतांग, अयत, नलिण', अत्थनिउरंगे-अत्थनिउरे, अउयंगे-अउये, नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत, चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिका, नउयंगे, नउए, पउयंगे, पउए, चूलियंगे-चूलिए, सीस- शीर्षप्रहेलिका । पहेलियंगे-सीसपहेलिया । १ (क) यहाँ तक संख्येयकाल है । (ख) पूव्वाइयाणं सीसपहेलिया पज्जवसाणाणं संठाण ठाणंतराणं चोरासीए गुणकारे पण्णत्ते। -सम० ८४, सु०१४ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : बहुत्व विवक्षा सूत्र २१-२३ पलिओवमे, सागरोवमे, ओसप्पिणी, एवं उस्सप्पिणी पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी और उसपिणी के वि। समय है। प०-पोग्गलपरियट्ठ णं भंते ! कि संखेज्जा समया, प्र-भगवन् ! पुद्गल परावर्तन के समय क्या संख्यात है, असंखेज्जा समया, अणंता समया? असंख्यात हैं, या अनन्त हैं ? उ०—गोयमा ! नो संखेज्जा समया, नो असंखेज्जा समया, उ०-गौतम ! न संख्यात समय हैं, न असंख्यात समय हैं, अणंता समया। अपितु अनन्त समय है। एवं तीतद्ध-अणागयद्ध-सव्वद्धा। इसी प्रकार अतीत काल; भविष्यकाल और सर्वकाल के भी अनन्त समय हैं। बहुत्त विवक्खा बहुत्व विवक्षा२२.५०-आवलियाओ णं भंते ! कि संखेज्जा समया, असंखेज्जा २२. प्र०-प्र०-भगवन् ! आवलिकाओं के समय क्या संख्यात समया, अणंता समया? ___ हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं! उ०-गोयमा ! नो संखेज्जा, सिय असंखेज्जा समया, सिय उ०-गौतम ! संख्यात समय नहीं हैं, कभी असंख्यात समय अणंता समया। हैं और कभी अनन्त समय हैं । प०-आणापाण ण भते ! किं संखेज्जा समया-जाव-अणता प्र०-भगवन् ! श्वासोच्छ्वासों के समय क्या संख्यात हैं, समया? -यावत्-अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! एवं चेव । उ०-गौतम ! पूर्ववत् हैं। प०-थोवा णभंते ! कि संखेज्जा समया-जाव-अणता प्र०-भगवन् ! स्तोकों के समय क्या संख्यात है—यावत्समया? अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! एवं चेव । उ०-गौतम ! पूर्ववत् हैं। एवं-जाव-उस्सप्पिणीओ त्ति । इसी प्रकार-यावत्-उत्सपिणियों के समय भी हैं। ५०--पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! किं संखेज्जा समया, प्र०-भगवन् ! पुद्गल परिवर्तनों के समय क्या संख्यात है, असंखेज्जा समया, अणंता समया ? असंज्यात हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जा समया, असंखेज्जा समया, उ०-गौतम ! न संख्यात समय हैं, न असंख्यात समय हैं अणंता समया।' -भग. २५, उ. ५, सु. २-१२ अपितु अनन्त समय हैं । आणापाणाइसु कालभेएसु कावलिया संखापरूवणं- श्वासोच्छवासादि काल भेदों की आवलिका संख्या प्ररूपणएगत्त विवक्खा एकत्व विवक्षा-- २३. ५०-आणापाणू णं भंते ! कि संखेज्जाओ आवलियाओ, २३. प्र०-भगवन् ! एक श्वासोच्छवास की आवलिकायें क्या असंखेज्जाओ आतलियाओ, अणंताओ आवलियाओ? संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! संखेज्जाओ आवलियाओ, नो असंखेज्जाओ उ०-गौतम ! संख्यात आवलिकायें हैं, न असंख्यात आव आवलियाओ, नो अणंताओ आवलियाओ। लिकायें हैं और न अनन्त आवलिकायें हैं । एवं थोवे वि। इसी प्रकार एक स्तोक की-यावत्-एक शीर्षप्रहेलिका की एवं-जाव-सीसपहेलियत्ति । आवलिकायें हैं। ५०-पलिओवमे णं भंते ! कि संखेज्जाओ आवलियाओ, प्र०-भगवन् ! एक पल्योपम की आवलिकायें क्या संख्यात असंखज्जाओ आवलियाओ, अणंताओ आवलियाओ? हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? २ ये अनन्तकाल हैं । यहाँ तक एक वचन के प्रश्नोत्तर हैं। १ ये औपमिक काल अर्थात् असंख्येय काल हैं। ३ ये बहुवचन के प्रश्नोत्तर हैं। Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २३-२५ काल लोक : बहुत्व विवक्षा गणितानुयोग ७०९ उ०-गोयमा! नो संखेज्जाओ आवलियाओ, भसंखेज्जाओ उ०-गौतम ! संख्यात आवलिकायें नहीं हैं। असंख्यात आवलियाओ, नो अणंताओ आवलियाओ। आवलिकाये हैं । अनन्त आवलिकायें नहीं हैं । एवं सागरोवमे वि। एवं ओसप्पिणीए वि, उस्सप्पि- इसी प्रकार एक सागरोपम, एक अवसर्पिणी और एक णीए वि । उत्सर्पिणी की आवलिकायें हैं। प०-पोग्गलपरियट्टणं भंते । किं संखेज्जाओ आवलियाओ प्र०-भगवन् ! एक पुद्गल परावर्तन की आवलिकायें क्या -जाव-अणंताओ आवलियाओ? संख्यात हैं-यावत्-अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ आवलियाओ, नो उ०-गौतम ! न संख्यात आवलिकायें हैं, न असंख्यात असंखेज्जाओ आवलियाओ, अणंताओ आवलियाओ। आवलिकायें हैं, अपितु अनन्त आवलिकायें हैं । एवं-जाव-सव्वद्धा।' इसी प्रकार-यावत्-सर्वकाल की आवलिकायें हैं। बहुत्त विवक्खा बहुत्व विवक्षा-- २४. प०-आणापाणूओ णं भंते ! किं संखेज्जाओ आवलियाओ २४. प्र०-भगवन् ! अनेक श्वासोच्छवासों को आवलिकायें क्या -जाव-अणंताओ आवलियाओ? संख्यात हैं-यावत्-अनन्त है ? उ०-गोयमा ! सिय संखेज्जाओ आवलियाओ, सिय उ०-गौतम ! कभी संख्यात आवलिकायें, कभी असंख्यात असंखेज्जाबो आवलियाओ, सिय अणंताओ आव- आवलिकायें और कभी अनन्त आवलिकायें होती है। लियाओ। एवं-जाव-सीसपहेलियाओ । इसी प्रकार-यावत्-शीर्षप्रहेलिकाओं को आवलिकायें हैं। ५०-पलिओवमा णं भंते ! किं संखेज्जाओ आवलियाओ प्र०-भगवन् ! पल्योपमों की आवलिकायें क्या संख्यात हैं -जाव-अणंताओ आवलियाओ? -यावत्-अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ आव- उ०-गौतम ! संख्यात आवलिकाये नहीं हैं, कभी असंख्यात लियाओ, सिय अणंताओ आवलियाओ। आवलिकायें होती है, और कभी अनन्त आवलिकायें होती है। एवं-जाव-उस्सप्पिणीओ। इसी प्रकार-यावत्-उत्सपिणियों की आवलिकायें हैं। प०-पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! कि संखेज्जाओ आवलियाओ प्र०-भगवन ! पुद्गल परावर्तनों की आवलिकायें क्या -जाव-अणंताओ आवलियाओ? संख्यात हैं ?-यावत्-अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ आवलियाओ, नो उ०-गौतम ! संख्यात आवलिकायें नहीं हैं, असंख्यात आवअसंखेज्जाओ आवलियाओ, अणंताओ आवलियाओ। लिकायें नहीं हैं, अनन्त आवलिकायें हैं । -भग. स. २५, उ. ५, सु. १३-२५ थोवपभिइसु कालभेएसु आणापाण आईणं संखा- स्तोकादि काल भेदों में श्वासोच्छ्वासों की संख्या का परूवणं प्ररूपण२५. प.-थोवे गं भंते ! कि संखेज्जाओ आणापाणओ. २५. प्र०-भगवन् ! स्तोक के श्वासोच्छवास क्या संख्यात हैं। असंखेज्जाओ आणापाणूओ, अणंताओ आणापाणूओ? असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! जहा आवलियाए बत्तव्वया आणापाणुओ७०-गौतम ! जिस प्रकार आवलिकाओं का कथन किया वि निरवसेसा। उसी प्रकार श्वासोच्छवासों का कथन भी पूर्ण कहना चाहिये। एवं एएणं गमएणं-जाव-सीसपहेलिया भाणियव्वा । इसी क्रम से-यावत्-पुद्गल परावर्तन पर्यन्त 'एक वचन, -भग. स. २५, उ. ५, सु' २६-२७ बहुवचन के सूत्र कहने चाहिये। १ यहाँ तक एकवचन के सूत्र हैं। २ एकवचन और बहुवचन के सूत्र । Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : सागरोपमादि में पल्योपमों की संख्या का प्ररूपण सूत्र २६-२९ सागरोवमाइसु पलिओवमसंखापरूवर्ण सागरोपमादि में पल्योपमों की संख्या का प्ररूपणएगत्त विवक्खा एकत्व विवक्षा२६.५०-सागरोवमेणं भंते ! कि संखेज्जा पलिओवमा, २६. प्र०-भगवन् ! सागरोपम के पल्योपम क्या संख्यात हैं, असंखेज्जा पलिओवमा, अणंता पलिओवमा? असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! संखेज्जा पलिओवमा, नो असंखेज्जा पलि- उ०-गौतम ! संख्यात पल्योपम हैं, असंख्यात पल्योपम ओबमा, नो अणंता पलिओवमा । नहीं हैं, अनन्त पल्योपम नहीं हैं । एवं ओसप्पिणी वि, उस्सप्पिणी वि । इसी प्रकार अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के पल्योपम हैं। प०-पोग्गलपरिय? णं भंते ! किं संखेज्जा पलिओवमा प्र०-भगवन् ! पुद्गल परावर्तन के पल्योपम क्या -जाव-अणंता पलिओवमा? | संख्यात हैं ?-यावत्-अनन्त हैं ? . उ०-गोयमा ! नो संखेंज्जा पलिओवमा, नो असंखेज्जा उ०-गौतम ! संख्यात पल्योपम नहीं हैं, असंख्यात पल्योपम पलिओवमा, अणंता पलिओवमा । नहीं हैं, अनन्त पल्योपम हैं । एवं-जाव-सव्वद्धा।' इसी प्रकार-यावत्-सर्वकाल के पल्योपम हैं । बहुत्त विवक्खा बहुत्व विवक्षा२७. प०-सागरोवमा णं भंते ! कि संखेज्जा पलिओवमा-जाव- २७. प्र०-भगवन् ! सागरोपमों के पल्योपम क्या संख्यात हैं ? अणंता पलिओवमा? यावत्-अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! सिय संखेज्जा पलिओवमा, सिय असंखेज्जा उ०-गौतम ! कभी संख्यात हैं, कभी असंख्यात हैं और पलिओवमा, सिय अणंता पलिओवमा । कभी अनन्त पल्योपम हैं। एवं ओसप्पिणी वि, उस्सप्पिणी वि । इसी प्रकार अवसपिणियों और उत्सपिणियों के पल्योपम हैं । प०-पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! किं संखेज्जा पलिओवमा- प्र०-भगवन् ! पुद्गल परिवर्तनों के पल्योपम क्य जाव-अणंता पलिओवमा ? संख्यात हैं ?-यावत्-अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जा पलिओवमा, नो असंखेज्जा उ०—गौतम ! संख्यात पल्योपम नहीं हैं, असंख्यात पल्यो पलिओवमा, अणंता पलिओवमा पम नहीं हैं, अनन्त पल्योपम हैं। -भग. स. २५, उ. ५, सु. २८-३४ ओसप्पिणिआइसु सागरोवमसंखा-परूवणं अवसर्पिणी आदि में सागरोपमों की संख्या का प्ररूपण२८.५०-ओसप्पिणी णं भंते ! किं संखेज्जा सागरोवमा, २८.३०-भगवन् ! अवसर्पिणी के सागरोपम क्या संख्यात हैं, असंखेज्जा सागरोवमा, अणंता सागरोवमा? असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! जहा पलिओवमस्स वत्तव्वया तहा सागरो- उ-गौतम ! जिस प्रकार पल्योपम का कथन किया उसी वमस्स वि प्रकार सागरोपम का भी है। -भग. स. २५, उ. ५, सु. ३५ पोग्गलपरियट्ट सु ओसप्पिणि-उस्सप्पिणिसंखापरूवणं- पुद्गल परावर्तन में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी की संख्या का प्ररूपण२८.५०-पोग्गलपरियट्टणं मंते ! कि संखेज्जाओ ओसप्पिणी- २९. प्र०-भगवन् ! पुद्गल परावर्तन की अवसर्पिणी और उस्सप्पिणीओ, असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ उत्सर्पिणी का संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? अणंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ? १ ३ एकवचन के सूत्र । एकवचन और बहुवचन के सूत्र । २ बहुवचन के सूत्र । Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २९-३२ काल लोक : अतीत काल के पुद्गल परिवर्तनों का अनन्तत्व गणितानुयोग ७११ जीओ, अणंता अवपिणी उ काल की अ उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ, उ०-गौतम ! संख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नहीं हैं। नो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ, अणंताओ असंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी भी नहीं हैं, अपितु अनन्त ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। अवसर्पिणी उत्सर्पिणी हैं। एवं-जाव-सव्वद्धा' इसी प्रकार सर्वकाल की अवसर्पिणी उत्सपिणी हैं। प०-पोग्गलपरियट्टा णं भंते ! किं संखेज्जाओ ओसप्पिणि- प्र०-भगवन् ! पुद्गल परिवर्तनों को अवसपिणियाँ और उस्सप्पिणीओ-जाव अणंताओ ओसप्पिणि-उस्सप्पि- उत्सपिणियाँ संख्यात हैं यावत्-अनन्त हैं ? णीओ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ, उ०- गौतम ! संख्यात अवसपिणियाँ उत्सपिणियाँ नहीं हैं, नो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ, अणंताओ असंख्यात नहीं हैं, अनन्त हैं । ओसप्पिणीओ। -भग. स. २५, उ. ५, सु. ३६-३८ तीतद्धाइसु पोग्गलपरियट्टाणं अणंतत्तं अतीत काल के पुद्गल परिवर्तनों का अनन्तत्व३०.५०-तीतद्धा णं भंते ! किं संखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ३०. प्र०-भगवन् ! अतीत काल के पुद्गल परावर्तन क्या असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा अणंता पोग्गलपरियट्टा? संख्यात थे, असंख्यात थे, या अनन्त थे? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, नो असंखेज्जा उ०-गौतम ! संख्यात दुद्गल परिवर्तन नहीं थे, असंख्यात पोग्गलपरियट्टा अणंता पोग्गलपरियट्टा । नहीं थे, अनन्त थे। एवं अणागतद्धा वि। इसी प्रकार अनागत काल के पुद्गल परिवर्तन होंगे। एवं सम्बद्धा वि । इसी प्रकार सर्वकाल के पुद्गल परिवर्तन हैं। -भग. स. २५, उ. ५, सु. ३६-४१ अणागयकालस्स अतीतकालओ समयाधिकत्तं- अतीत काल से अनागत काल का समयाधिकत्व३१. ५०-अणागयद्धा णं भंते ! कि संखेज्जाओ तीतद्धाओ, ३१. प्र०-भगवन् ! अतीत काल से अनागत काल क्या संख्यात असंखज्जाओ तीतद्धाओ, अणंताओ तीतद्धाओ? हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं । उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ तीतद्धाओ, नो असंखेज्जाओ उ०-गौतम ! अतीत काल से संख्यात नहीं हैं, असंख्यात तोतद्धाओ, नो अणंताओ तीतद्धाओ। नहीं हैं, अनन्त नहीं है। अणागयद्धा गं तोतद्धाओ समयाहिया, अतीत काल से अनागत काल एक समयाधिक हैं । तीतद्धाणं अणागयद्धाओ समयूणा। अनागत काल से अतीत काल एक समय कम हैं । -भग. स. २५, उ. ५, सु. ४२ सम्वद्धाए अतीतकालओ साइरेगद्गुणत्तं अतीत काल से सर्वकाल का कुछ अधिक दुगुनापन३२. ५०-सव्वद्धा णं भंते ! किं संखेज्जाओ तीतद्धाओ-जाव- ३२. प्र०-भगवन् ! अतीत काल से सर्वकाल क्या संख्यात हैं ? अणंताओ तीतद्धाओ? -यावत्-अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ तीतद्धाओ-जाव-नो अणंताओ उ०-गौतम ! अतीत काल से सर्वकाल न संख्यात हैंतीतद्धाओ। यावत्-न अनन्त हैं। सव्वद्धा णं तीतद्धाओ साइरेगदुगुणा, अतीत काल से सर्वकाल कुछ अधिक हैं। तीतद्धाणं सव्वद्धाओ थोवूणए अद्धे । सर्वकाल से अतीत काल कुछ कम हैं। -भग. स. २५, उ.५, सु. ४३ ३ एकबचन के सूत्र । Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : अनागत काल से सर्वकाल का कुछ कम दुगुनापन सूत्र ३३-३६ . ... सव्वद्धाए अणागयकालओ थोवणदुगुणत्तं- अनागत काल से सर्वकाल का कुछ कम दुगुनापन३३. ५०-सव्वद्धा णं भंते ! किं संखेज्जाओ अणागयद्धाओ, ३३. प्र०--भगवन् ! अनागत काल से सर्वकाल क्या संख्यात हैं, असंखेज्जाओ अणागयद्धाओ, अणंताओ अणागयद्धाओ? असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ अणागयद्धाओ, नो असंखे- उ०-गौतम ! अनागत काल से सर्वकाल न संख्यात हैं, न ज्जाओ अणागयद्धाओ, नो अणंताओ अणागयद्धाओ। असंख्यात हैं और न अनन्त हैं। सम्वद्धा णं अणागयद्धाओ थोवूणदुगुणा । अनागत काल से सर्वकाल कुछ कम दुगुना है। अणागयद्धा णं सव्वद्धाओ साइरेगे अद्धे । सर्वकाल से अनागत काल कुछ अधिक दुगुना है । -भग. स. २५, उ.५, सु. ४४ पोग्गलपरियट्टस्स भेया पुद्गल परावर्त भेदों का प्ररूपण३४. तिविहे पोग्गलपरिय?' पण्णत्ते, तं जहा ३४. पुद्गल परावर्त तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा(१) तीए, (१) अतीत पुद्गल परावर्त, (२) पड़प्पन्न, (२) वर्तमान पुद्गल परावर्त, (३) अणागए। (३) अनागत पुद्गल परावर्त । ठाणं अ. ३, उ. ४, सु. १६७ । परमाण पोग्गलाणं अणंताणंत पोग्गलपरियट परूवणं- परमाणु पुद्गलों के अनन्तानन्त पुद्गल परावर्तों का प्ररूपण३५. १०-एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं साहणणा' भेदाणु- ३५. प्र०-भगवन् ! इन परमाणु पुद्गलों के संयोग वियोग से वाएणं अणंताणंता पोग्गलपरियट्टा समणुगंतव्वा अनन्तानन्त पुद्गल परावर्त जानने चाहिए, ऐसा कहा गया है ? भवंतीति मक्खाया ? उ०-हता गोयमा ! एएसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणणा उ०-हाँ गौतम ! इन परमाणु पुद्गलों के संयोग वियोग से भेदाणुवाएणं अणंताणंता पोग्गलपरियट्टा समणुगंतव्वा अनन्तानन्त पुद्गल परावर्त जानने चाहिए, ऐसा कहा गया है। भवंतीत मक्खाया। भग. स. १२, उ. ४, सु. १४ पोग्गलपरियट्टस्स भेयसत्तग परूवणं पुद्गल परावर्त के सात भेदों का प्ररूपण३६. ५०-कइविहे णं भंते ! पोग्गलपरियट्ट पण्णत्ते ? ३६. प्र०-भगवन् ! पुद्गल परावर्त कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उ०-गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरिय? पण्णते। उ०-गौतम ! पुद्गल परावर्त सात प्रकार के कहे गये हैं । तं जहा यथा पण्णत्त! १ "पोग्गलपरिय?" त्ति पुद्गलानां-रूपिद्रव्याणामाहारक वर्जितानां औदारिकादिप्रकारेण ग्रहणतः एक जीवापेक्षया परिवर्तनं सामस्त्थेन स्पर्शः पुद्गलपरिवर्तः, स च यावता कालेन भवति, स कालोऽपि पुद्गल परिवर्तः, स च यावता कालेन भवति, स कालोऽपि पुद्गलपरिवर्तः सचानन्तोत्सपणिण्यवसर्पिणीरूप इति । २ "साहणणत्ति" प्राकृतत्वात् संहननम्-संघातः भेदश्च वियोजनम् तयोः अनुपातः योगः संहननभेदानुपातः, तेन सर्वपुद्गलद्रव्यैः सहपरमाणूतां संयोगेन वियोगेन चेत्यर्थः । 'अनन्तेनगुणिता अनन्ता अनन्तानन्ताः । एकोऽपि हि परमाणु द्वर्वणुकादिभिरनन्ताणुकान्तै द्रव्योः सह संयुज्यमानः अनन्तान् परिवर्तनं लभते, प्रतिद्रव्यं परिवर्तभावात् अनन्तत्वाच्च परमाणुनाम् प्रतिपरमाणु चानन्तत्वात् परिवर्तानां परमाणु पुद्गले परिक्षनिनामनतत्व द्रष्टव्यम् पुद्गलः-पुद्गलद्रव्यैः सहपरिवर्ताः- परमाणूनां मिललानि पुद्गलपरिवर्ताः । Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३६-३८ काल लोक: संवत्सरों की संख्या और उनके लक्षण गणितानुयोग ७१३ (१) ओरालिय-पोग्गलपरियट्टे, (१) औदारिक पृद्गल परावर्त, (२) वेउब्धिय-पोग्गलपरियट्ट, (२) वैक्रिय पुद्गल परावर्त, (३) तेया पोग्गलपरियट्ट, (३) तेजस पुद्गल परावर्त, (४) कम्मा पोग्गलपरियट्ट, (४) कार्मण पुद्गल परावर्त, (५) मण पोग्गलपरियट्ट, (५) मन पुद्गल परावर्त, (६) वइ पोग्गलपरियट्ट, (६) वचन पुद्गल परावर्त, (७) आणुपाणु पोग्गलपरियट्टे । (७) श्वासोच्छवास पुद्गल परावर्त । -भग. स. १२, उ. ४, सु. १५ संवच्छाराणं संखा लक्खणं च संवत्सरों की संख्या और उनके लक्षण३७.५०–ता कइ णं संवच्छरे? आहिए त्ति वएज्जा, ३७. प्र०-संवत्सर कितने कहे हैं ? । उ०-ता पंच संवच्छरा पण्णता, तं जहा उ०-संवत्सर पाँच कहे गये हैं, यथा(१) णक्खत्त संवच्छरे, (१) जुगसंवच्छरे, (३) पमाण- (१) नक्षत्र संवत्सर, (२) युग संवत्सर, (३) प्रमाण संवत्सर, संवच्छरे, (४) लक्खणसंवच्छरे, (५) सणिच्छर- (४) लक्षण संवत्सर, (५) शनैश्चर संवत्सर। संवच्छरे ।' – सूरिय. पा. १०, पाहु. २०, सु. ५४ पंचण्ह संवच्छराणं लक्खणाइं पाँच संवत्सरों के लक्षणगाहाओ गाथार्थणक्खत्त संवच्छरं लक्खणं नक्षत्र संवत्सर के लक्षण३८. समगं णक्खत्ता जोयं जोएंति, समगं उडु परिणमंति । ३८. जिस संवत्सर में सभी नक्षत्र योग करते हैं और सभी ऋतुएँ नच्चण्हं नाइसीए, बहु उदए होइ नक्खत्ते ॥१॥ परिणमित होती हैं उसमें न अधिक गरमी और न अधिक शरदी होती है किन्तु वर्षा अधिक होती है । वह नक्षत्र संवत्सर है । चंदसंवच्छर लक्खणं चन्द्र संवत्सर के लक्षणससि समग पुण्णमासि, जोइं ता विसमचारि णक्खत्ता। जिस संवत्सर की सभी पूर्णिमाओं में चन्द्र विषमचारी कडुओ बहु उदगवओ, तमाहु संवच्छर चंदं ॥२॥ नक्षत्रों से योग करे, कडवे पानी की वर्षा अधिक हो उसे चन्द्र संवत्सर कहा है। उडु (कम्म) संवच्छर लक्खणं ऋतु (कर्म) संवत्सर के लक्षणविसमं पवालिणो परिणमंति, अणउसु दिति पुष्पफलं । जिस संवत्सर में (जिस वनस्पति की अंकुरित-पल्लवित होने वासं न सम्मवासइ, तमाहू संवच्छरं कम्मं ॥३॥ की जो ऋतु हो उसमें न होकर) अन्य ऋतु में अंकुरित हो, पत्र पुष्प-फल लगे तथा वर्षा पर्याप्त न हो, उसे ऋतु (कर्म) संवत्सर कहा है। आइच्च संवच्छर लक्खणं आदित्य संवत्सर के लक्षणपुढवि-दगाणं च रसं, पुप्फफलाणं च देइ आइच्चे ।। जिस संवत्सर में पृथ्वी, जल, और पुष्प-फलों को रस अप्पेण वि वासेणं, सम्मं निप्फज्जए सस्सं ॥४॥ आदित्य देता है तथा अल्प वर्षा से धान्य पर्याप्त उत्पन्न होता है उसे आदित्य संवत्सर कहा है। अभिवुढिय संवच्छर लक्खणं अभिवधित संवत्सर के लक्षणआइच्चतेय तविया, खण-लव-दिवसा उऊ परिणमंति। जिस संवत्सर में सूर्य के तेज से तप्त क्षण-लव-दिन होने पर पूरेड रेणु-थलयाई, तमाहु अभिवड्ढिय जाण ॥५॥ सारी पृथ्वी वर्षा के जल से तप्त हो जाती है तथा सभी ऋतुएँ यथासमय परिणमित होती है-उसे अभिवधित संवत्सर कहा -सूरिय. पा. १०, पाहु. २०, सु. ५८ है-ऐसा जानो। १ ठाणं अ० ५, उ० ३, सु० ४६० । . २ (क) ठाणं ५, उ० ३, सु०४६० । (ख) जंबु० वक्ख० ७, सु० १५१ । Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : पाँच संवत्सरों का प्रारम्भ सूत्र ३६ पंचण्हां संवच्छराणं पारभं-पज्जवसाकालस्स समत्त- पाँच संवत्सरों का प्रारम्भ और पर्यवसान काल तथा उनके परूवणं समत्व का प्ररूपण३६. ५०-ता कया णं आदिच्च-चंदसंवच्छरा समादीया सम- ३६. प०-आदित्य संवत्सर और चन्द्र संवत्सर का समान पज्जवसिया? आहिए त्ति वएज्जा, प्रारम्भ एवं समान पर्यवसान काल कब होता है ? कहें। . उ०ता सर्टि एए आदिच्यमासा बार्टि एए य चंदमासा, उ०-साठ आदित्यमास और बासठ चन्द्रमास। एस णं अद्धा छखुत्तकडा टुवालसभयिता तीसं एए इनको छ से गुणा करके बारह का भाग देने पर तीस आदित्य आदिच्चसंवच्छरा, एक्कतीसं एए चंदसंवच्छरा, संवत्सर और इगतीस चन्द्र संवत्सर शेष रहते हैं । तया णं एए आदिच्च-चंदसंवच्छरा समादीया सम- तब (इतने संवत्सरों के बाद) आदित्य संवत्सरों का चन्द्र पज्जवसिया आहिए त्ति वएज्जा, संवत्सरों का समान प्रारम्भ काल एवं समान पर्यवसान काल कब होता है ? कहें। १०-ता कया णं एए आदिच्च-उडु-चंद-णक्खत्ता संवच्छरा प्र०-(१) आदित्य संवत्सर, (२) ऋतु संवत्सर, (३) चन्द्र समादीया, समपज्जवसिया? आहिए त्ति वएज्जा, संवत्सर और (४) नक्षत्र संवत्सरों का समान प्रारम्भ काल एवं समान पर्यवसान काल कब होता है ? कहें । उ० -ता सर्टि एए आविच्चा मासा, एट्टि एए उडमासा, उ०-(१) साठ आदित्य मास, (२) इगसठ ऋतुमास, बार्टि पए चंदमासा, सर्टि एए णक्खत्तमासा, (३) बासठ चन्द्रमास, (४) सडसठ नक्षत्र मास, एस णं अद्धा दुवालस खुत्तकडा दुवालसभयिता सहि इनका बारह से गुणा करके बारह का भाग देने पर साठ एए आइच्चा संवच्छरा, एगढेि एए उड़ संवच्छरा, आदित्य संवत्सर, (२) इकसठ ऋतु संवत्सर, (३) बासठ चन्द्र बाढेि एए चंदा संवच्छरा सट्ठि एए णक्खत्ता संवत्सर, (४) सडसठ नक्षत्र संवत्सर (शेष) रहते हैं। संवच्छरा, तया णं एए आइच्च-उडु-चंद-णक्खत्ता संवच्छरा समा- तब (इतने संवत्सरों के बाद) (१) आदित्य, (२) ऋतु, दीया, समपज्जवसिया, आहिए त्ति वएज्जा, (३) चन्द्र, (४) नक्षत्र संवत्सरों का समान प्रारम्भ काल एवं समान पर्यवसान काल होता है। ५०–ता कया गं एए अभिवड्ढिअ-आदिच्च-उडु-चंद प्र०-(१) अभिवधित, (२) आदित्य, (३) ऋतु, (४) चन्द्र, णक्खत्ता संवच्छरा समावीया समपज्जवसिया? (५) नक्षत्र संवत्सरों का समान प्रारम्भ काल एवं समान पर्यवआहिएत्ति वएज्जा, सान कब होता है ? कहें। उ०–ता सत्तावणं मासा, सत्त य अहोरत्ता, एक्कारस य उ०-सत्तावन मास, सात अहोरात्र, इग्यारह मुहूर्त के मुहुत्ता, तेवीसं वाट्टि भागामुहूत्तस्स एए अभिवड्ढिया बांसठ भागों में से तेवीस भाग, इतने अभिवधित मास, साठ मासा, सर्टि एए आइच्चा मासा, एगढेि एए उडमासा, आदित्य मास, इगसठ ऋतुमास, बासठ चन्द्रमास, सडसठ नक्षत्र बाढेि एए चंदमासा सर्ट्सि एए णक्खत्त मासा, मास में होता है । एस णं अद्धा छप्पण्ण-सयखुत्त कडा दुवालस भयिता- इतने काल को एक सौ छप्पन से गुणा करके बारह का भाग देने परसत्त सया चोयाला, एए णं अभिवड्ढिया संवच्छरा, (१) सात सौ चुम्मालीस अभिवधित संवत्सर, सत्तसया असीया, एए णं आइच्चा संवच्छरा, (२) सात सौ अस्सी आदित्य संवत्सर, सत्तसया तेणउया, एए णं उडु संवच्छरा, (३) सात सौ तिराणवे ऋतु संवत्सर, अट्ठसत्ता छल्लुत्तरा, एए णं चंदा संवच्छरा, (४) आठ सौ छ चन्द्र संवत्सर, एक सत्तरी अट्ठसया, एए णं णक्खत्ता संवच्छरा, (५) आठ सौ इकहत्तर नक्षत्र संवत्सर, (शेष) रहते हैं । तया णं एए अभिवढिअ-आइच्च-उडु-चंद-णक्खत्ता तब इतने संवत्सरों के बाद-(१) अभिवधित, (२) आदित्य, संवच्छरा समादीया समपज्जवसिया, आहिए त्ति (३) ऋतु, (४) चन्द्र, (५) नक्षत्र संवत्सरों का समान प्रारम्भ वएज्जा , काल एवं समान पर्यवसान काल होता है। Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३६-४० काल लोक : पाँच सवत्सरों का प्रारम्भ काल गणितानुयोग ७१५ ता गयट्टयाए णं चंदे संवच्छरे तिणि चउप्पण्णे एक अन्य मान्यतानुसार चन्द्र संवत्सर तीन सौ चौपन अहोराइंदियसए, दुवालस य बासद्विभागे राइंदियस्स, रात्र और एक अहोरात्र के बासठ भागों में से बारह भाग जितना आहिए त्ति वएज्जा होता है। ता अहातच्चे णं चंदे संवच्छरे तिणि चउप्पण्णे एक अन्य मान्यता का यथार्थ विचार करने पर चन्द्र संवत्सर राइंदियसए, पंच य मुहुत्ते पण्णासं च बासट्ठि भागे तीन सौ चौपन अहोरात्र और एक मुहूर्त के बासठ भागों में से मुहुत्तस्स, आहिए ति वएज्जा, पाँच भाग जितना होता है। -सूरिय. पा. १२, सु. ७४ पंचण्हं संवच्छराणं, पारंभ-पज्जवसाणकालं चंद- पाँच संवत्सरों का प्रारम्भकाल, पर्यवसानकाल और चन्द्रसूराण-णक्खत्त संजोगकालं च सूर्य के साथ नक्षत्रों के संयोग का काल४०. (क) प०–ता कहं ते संवच्छराणादी ? आहिए ति ४०. (क) प्र०-संवत्सरों का प्रारम्भकाल (पर्यवसानकाल और वएज्जा । उन संवत्सरों के पर्यवसान काल में चन्द्र-सूर्य के साथ नक्षत्रों के संयोगकाल) कैसा है ? कहें। उ०-तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरे पण्णत्ते तं जहा- उ०-यहाँ ये पाँच संवत्सर कहे गए हैं यथा (१) चंदे, (२) चंदे, (३) अभिवढिए, (४) (१) चन्द्र, (२) चन्द्र, (३) अभिवधित, (४) चन्द्र, (५) चंदे, (५) अभिवड्ढिए। अभिवधित। पढमं चंद-संवच्छरं प्रथम चन्द्र संवत्सर(ख) ५०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स (ख) प्र०-इन पाँच संवत्सरों में से प्रथम चन्द्र संवत्सर चंदस्स संवच्छरस्स के आदी ? आहिए ति का प्रारम्भकाल कैसा है ? कहें। वएज्जा। उ०-ता जे णं पंचमस्स अभिवढिय संवच्छरस्स उ०-पंचम अभिवधित संवत्सर के पर्यवसानकाल बाद पज्जवसाणे, से णं पढमस्स चंदस्स संवच्छरस्स अन्तर रहित प्रथम समय ही प्रथम चन्द्र संवत्सर का प्रारम्भआदी, अणंतरपुरक्खडे समए । काल है। (ग) ५०–ता से णं किं पज्जवसिए ? आहिए ति (ग) प्र०-उसका पर्यवसानकाल कैसा है ? कहें । वएज्जा। उ०--ता जे णं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स आदी, से उ०-द्वितीय संवत्सर का प्रारम्भकाल तथा प्रथम चन्द्र णं पढमस्स चंद-संवच्छरस्स पज्जवसाणे, अणंत- संवत्सर का अन्तर रहित अन्तिम समय उनका पर्यवसान पच्छाकडे समए। काल है। (घ)प०-तं समय च णं चंदे केणं णक्खते णं जोएइ? (घ; प्र०-उस समय चन्द्र किस नक्षत्र के साथ योग करता है ? कहें। उ०-ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उ०-उत्तराषाढा नक्षत्र के साथ योग करता है। उत्तराणं आसाढाणं छदुवीसं मुहुत्ता, छ दुवीसं उत्तरासाढा के छब्बीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में च बासट्ठिभागा, मुहुत्तस्स बासट्ठिभागं च से छब्बीस भाग तथा बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से सत्तद्विधा छित्ता चउप्पणं चुणियाभागा सेसा। चौवन लघुतम भाग अवशेष रहने पर "वह चन्द्र के साथ योग करता है। (ङ) प०-तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्ते गं जोएइ ? (ङ) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र के साथ योग करता है ? उ०-ता पुणव्वसुणा, उ०-पुनर्वसु नक्षत्र के साथ योग करता है । पुणव्वसुस्स सोलस मुहुत्ता, अट्ठ य बासट्ठिभागा, पूनर्वसु के सोलह मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में से ब Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ लोक- प्रज्ञप्ति काल लोक द्वितीय चन्द्र संवत्सर : मुहुत्तस्स बासट्टिभागं च सत्तद्विधा छत्ता वीस आठ भाग तथा बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से वीस लघुचुण्णिाभागा सेसा । तम भाग शेष रहने पर "सूर्य के साथ योग करता है । बितियं चंदसंवच्छरं (क) पं० ता एएसि णं पंचन्हं संबन्धराणं दोस्त चंद संच्छरस्स के आदी ? आहिए त्ति वएज्जा । उ०- ता जेणं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे, से णं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स आदी, अनंतर पुरखडे समए । (ख) ५०ता से कि पन्नदसिए ? आहिए सि वएज्जा । उ०- ता जेणं तच्चस्स अभिबढिय संत्रच्छरस्स आदी, से णं दोच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे अतरपच्छाकडे समए । (घ) १० तं समयं च गं चंदे के पक्खतेगं जोए ? उ०ता पुरवाहि सावाहि दुवाणं आसाहाणं सत्तमुहसा तेवणं च बावट्टिभागा, मुहुत्तस्स, बावट्टिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता इगतालीस चुणिया भागा सेसा । (घ) प० तं समयं चणं रेकेणं पखते जोए ? उ०- ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स णं बायालीसं मुहुत्ता पणतीसं च यासट्टिभागा मुडुतरस, बासद्विभागं च सतद्विधा ऐसा सत्तष्णियाभागा सेसा । सूत्र ४० ततियं अभिवयं संवच्छ- (क) प० - ता एएसि णं पचण्हं संवच्छरणं तच्चस्स अभिवढिय संवच्छरस्स के आदी ? आहिए त्ति वएज्जा । उ०- ता जेणं दोच्चस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे, सेणं तच्चस अभिवढिय संवच्छरस्स आदी अतरपुरखडे समए । 7 (ख) प०ता से पंपजवलिए? आहिए सि वएज्जा । उ०- ता जे गं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी, से णं तच्चस अभिवड्ढिय संवच्छरस्स पज्जव साणे अनंतर पच्छाकडे समए । द्वितीय चन्द्र संवत्सर (क) प्र० - इन पाँच संवत्सरों में से द्वितीय संवत्सर का प्रारम्भकाल कैसा है ? कहें । उ०- द्वितीय चन्द्र संवत्सर के पर्यवसान काल बाद अन्तर रहित प्रथम समय ही द्वितीय चन्द्र संवत्सर का प्रारम्भ काल हैं । (ख) प्र० - उसका पर्यवसान काल कैसा है ? कहें । उ०- तृतीय अभिर्वाधित संवत्सर का प्रारम्भकाल तथा द्वितीय चन्द्र संवत्सर का अन्तर रहित अन्तिम समय उसका पर्यवसानकाल है। (ग) प्र० - उस समय चन्द्र किस नक्षत्र के साथ योग करता है ? कहें । उ०- पूर्वाषाढा नक्षत्र के साथ योग करता है । पूर्वाषाढा के सात मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में से त्रेपन भाग तथा बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से इगतालीस लघुतम भाग अवशेष रहने पर वह चन्द्र के साथ योग करता है । (घ) प्र० - उस समय सूर्य किस नक्षत्र के साथ योग करता है ? कहें । उ०- पुनर्वसु नक्षत्र के साथ योग करता है । पुनर्वसु के बियालीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में से पैंतीस भाग तथा बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से सात लघुतम भाग अवशेष रहने पर सूर्य के साथ योग करता है । तृतीय अभिर्वाधित संवत्सर (क) प्र० – इन पाँच संवत्सरों में से तृतीय अभिवर्धित संवत्सर का प्रारम्भकाल कैसा है ? कहें । उ०- द्वितीय चन्द्र संवत्सर के पर्यवसान काल बाद अन्तर रहित प्रथम समय ही तृतीय अभिवर्धित संवत्सर का प्रारम्भ काल है । (ख) प्र० - उसका पर्यवसान काल कैसा हैं ? कहें । उ० – चतुर्थं चन्द्र संवत्सर का प्रारम्भ काल तथा तृतीय अभिर्वाधित संवत्सर का अन्तर रहित अन्तिम समय उसका पर्यंवसान काल है । Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४० (ग) प० तं समयं च णं चंदे के णं णक्खत्तेणं जोएइ ? उ० – ता उत्तराहि आसाढाहि, उत्तराणं आता तेरसमुहसा तेरस प बावट्ठभागा मुहुत्तस्स, बावट्टिभागं च सत्तद्विधा ऐसा सत्तावीस चुनियाभागा ऐसा (घ) प० तं समयं च पूरे केणं मक्खन जोए ? उ०ता पुणध्वसुणा, काल लोक : चतुर्थ चन्द्र संवत्सर व्यवसायमागा गुलस्स, बायभागं सतद्विधा ऐसा सही बुणिया भागा सेसा । चत्वं चंदसंवच्छर (क) प० - ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थस्स चंदसंवछरस्स के आबी ? आहिए त्ति वएज्जा । उ०- ताणं तच्चस्स अभिवयिसंयच्छरस्स पज्जवसाणे से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी, अनंतरपुरक्खडे समए । (ख) प० -ता से णं कि पज्जवसिए ? आहिए ति वएज्जा उ०- ता जेणं चरिमस्स अभिवडिय संवच्छरस्स आदी, से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे, अनंतरपच्छाकडे समए । (च) ५० तं समयं च मं चंदे केणं क्वणं जोएड ? ३०ता उत्तराहि आसावाहि उत्तराणं आसाढाणं चत्तालीसं मुहुत्ता, चत्तालीसं च बासट्टिभागा मुहुत्तस्स बासट्टि भागं च सत्तद्विधा छत्ता चउसट्ठी चुण्णिया भागा सेसा । (घ) प० तं समयं च सुरेकेणं जोएड ? उ०- ता पुणव्वसुणा, पुमय्यस्स्स अउणतोसं मुसा, एक्कवीस च बासट्टिभागा मुहुत्तस्स, बासट्टिभागं च सत्तद्विधा खेला सितालीस चिया भागा सेसा । गणितानुयोग ७१७ (ग) प्र० - उस समय चन्द्र किस नक्षत्र के साथ योग प्रारम्भ करता है ? कहें । उ०- उत्तराषाढा नक्षत्र के साथ योग करता है । उत्तराषाढा के तेरह मुहूर्त के बासठ भागों में से तेरह भाग तथा बासठवें भाग के सड़सठ भागों में से सत्तावीस लघुतम भाग अवशेष रहने पर "वह चन्द्र के साथ योग करता है" । (घ) प्र० - उस समय सूर्य किस नक्षत्र के साथ योग करता है ? कहें। उ०- पुनर्वसु नक्षत्र के साथ योग करता है । पुनर्वसु के दो मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में से छप्पन भाग तथा वासठवें भाग के सड़सठ भागों में से साठ लघुतम भाग अवशेष रहने पर "वह सूर्य के साथ योग करता है ।" चतुर्थ चन्द्र संवत्सर (क) प्र० - इन पाँच संवत्सरों में से चतुर्थ चन्द्र संवत्सर का प्रारम्भ काल कैसा है ? कहें । उ०- तृतीय अभिधित संवत्सर के पर्यवसान काल बाद अन्तर रहित प्रथम समय ही चतुर्थ चन्द्र संवत्सर का प्रारम्भ काल है । (ख) प्र० - उसका पर्यवसान काल कैसा है ? कहें । उ०- अन्तिम "पंचम" अभिर्वाधित संवत्सर का प्रारम्भ काल तथा चतुर्थं चन्द्र संवत्सर का अन्तर रहित अन्तिम समय उसका पर्यवसान काल है । (ग) प्र० - उम समय चन्द्र किस नक्षत्र के साथ योग करता है ? ( कहें 1) उ०- उत्तराषाढा नक्षत्र के साथ योग करता है । उत्तराषाढा से चालीस मुहूर्त के बासठ भागों में से चालीस भाग तथा बासठ भागों में से चौसठ लघुतम भाग अवशेष रहने पर वह चन्द्र के साथ योग करता है । (घ) प्र० - उस समय सूर्य किस नक्षत्र के साथ योग करता है ? ( कहें।) उ०- पुनर्वसु नक्षत्र के साथ योग करता है । पुनर्वसु के उनतीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में से इकवीस भाग तथा बासठवें भाग के सडसठ भागों में से सैंतालीस लघुतम भाग अवशेष रहने पर "वह सूर्य के साथ योग करता है ।" Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१८ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : पंचम अभिवधित संवत्सर सूब ४०-४१ पंचमं अभिवढिय संवच्छरं पंचम अभिवधित संवत्सर(क) प०-ता एएसि गं पंचण्हं संवच्छराणं पंचमस्स (क) प्र०-इन पांच संवत्सरों में से पांचवें अभिवधित संवत्सर अभिवढियसंवच्छरस्स के आदी? आहिए त्ति का प्रारम्भ काल कैसा है ? कहें। वएज्जा। उ०-ता जे णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जव: उ०-चतुर्थ चन्द्र संवत्सर के पर्यवसान काल बाद अन्तर साणे, सेणं पंचमस्स अभिवढिय संवच्छरस्स रहित प्रथम समय ही पंचम अभिवधित संवत्सर का प्रारम्भ आदी, अणंतरपुखक्खडे समए। काल है। (ख) प०-ता से गं किं पज्जवसिए ? आहिए त्ति (ख) प्र०-उसका पर्यवसान काल कैसा है ? कहें । वएज्जा। उ.-ता जे णं पढमस्स संवच्छरस्स आदी से णं उ०-प्रथम संवत्सर का प्रारम्भ काल तथा पंचम अभि पंचमस्स अभिवड्ढिय संवच्छरस्स पज्जवसाणे वधित संवत्सर का अन्तर रहित अन्तिम समय उसका पर्यवसान अणंतरपच्छाकडे समए। काल है। (ग) प०-तं समयं च णं चंदे के णं णक्खत्तेणं जोएइ? (ग) प्र०--उस समय चन्द्र किस नक्षत्र के साथ योग करता है? (कहें।) ___ उ०–ता उत्तराहिं आसाढाहिं। उत्तराणं आसाढाणं उ०-उत्तराषाढा नक्षत्र के साथ योग करता है। उत्तराचरमसमए। षाढा के अन्तिम समय में योग करता है। (घ) प०-तं समयं च णं सूरे के णं णक्खत्तेणं जोएइ? (घ) प्र०-उस समय सूर्य किस नक्षत्र के साथ योग करता है ? उ०-ता पुस्सेणं, उ०-पुष्य नक्षत्र के साथ योग करता है। पुस्सस्स णं एक्कवीसं मुहुत्ता तेतालीसं च पुष्य के इकवीस मुहूर्त, एक मुहूर्त के बासठ भागों में से बावट्ठिभागा, मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा तियालीस भाग तथा बासठवें भाग के अडसठ भागों में से तेतीस छत्ता तेत्तीसं चुण्णिया भागा सेसा । लघुतम भाग अवशेष रहने पर “वह सूर्य के साथ योग करता है।" -सूरिय. पा. ११, सु. ७१ पंचण्हं संवच्छराणं, मासाणं च राइंदिय-मुहत्तप्पमाणं- पाँच संवत्सरों और मासों के अहोरात्र तथा मुहूर्तों के प्रमाण४१:१०–ता कति णं संवच्छरा? आहिए त्ति वएज्जा, ४१. (क) प्र०-संवत्सर कितने हैं ? कहें। उ.-तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरा पण्णत्ता तं जहा- उ०-यै पाँच संवत्सर कहे गये हैं यथा-(१) नक्षत्र (१) णक्खत्ते, (२) चंदे, (३) उडु, (४) आइच्चे, संवत्सर, (२) चन्द्र संवत्सर, (३) ऋतु संवत्सर, (४) आदित्य (५) अभिवड्ढिए। संवत्सर, (५) अभिवधित संवत्सर । पढम णक्खत्त-संवच्छरं प्रथम नक्षत्र संवत्सर१०-ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स णक्खत्त (ख) प्र०-इन पाँच संवत्सरों में से प्रथम नक्षत्र संवत्सर संवच्छरस्स णक्खत्तमासे तोसइ मुहत्ते गं तीसइ मुहुत्ते का नक्षत्र मास तीस-तीस मुहूर्त के अहोरात्र से मापने पर कितने णं अहोरत्ते गं मिज्जमाणं केवइए राइंदियग्गे गं? अहोरात्र का होता है ? कहें । आहिए त्ति वएज्जा। उ०–ता सत्तावीस राइंदियाई एक्कवीसं च सत्तट्ठिभागा उ०-उस "नक्षत्र मास" के सत्ताईस अहोरात्र और एक । राइवियस्स राइदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। अहोरात्र के सडसठ भागों में से इक्कीस भाग होते हैं। ५०–ता से णं केवइए मुहत्तग्गे गं ? आहिए ति वएज्जा। (ग) प्र०-उस "नक्षत्र मास" के कितने मुहुर्त होते है ? : (कहें।) Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४१ काल लोक : द्वितीय चन्द्र संवत्सर गणितानुयोग ७१६ उ०–ता अटसए एगूणवीसे मुहत्ताणं, सत्तावीसं च सत्तढि- उ०—उस "नक्षत्र मास" के आठ सौ उन्नीस मुहूर्त के सड भागे मुहत्तस्स मुहत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। सठ भागों में से सत्तावीस भाग होते हैं । ५०–ता एएसि णं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडा णक्खत्ते (घ) प्र०-बारह नक्षत्र मासों का एक नक्षत्र संवत्सर होता संवच्छरे, ता से णं केवइए राइंदियग्गे गं ? आहिए है। उसके अहोरात्र कितने होते हैं ? कहें । त्ति वएज्जा। उ०-ता तिणि सत्तावीसे राइंबियसए एक्कावन्नं च सत्तद्वि- उ.-उस "नक्षत्र संवत्सर" के तीन सौ सत्ताईस अहोरात्र ...... भागे राइंदियस्स राइदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। और एक अहोरात्र के सडसठ भागों में से इक्कावन भाग होते हैं । ५०–ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं? आहिए ति वएज्जा। (ङ) प्र०-उस "नक्षत्र संवत्सर" के पूर्ण मुहूतं कितने होते हैं ? कहें। उ०–ता णव मुहुत्तसहस्सा अट्ट य बत्तीसे मुहत्तसए छप्पनं उ०-नौ हजार आठ सौ बत्तीस मुहूर्त और एक मुहुर्त के च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति सडसठ भागों में से छप्पन भाग होते हैं । वएज्जा। बितियं चंदसंवच्छरं द्वितीय चन्द्र संवत्सरप०–ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं दोच्चस्स चंदसंवच्छ- (क) इन पाँच संवत्सरों में से द्वितीय चन्द्र संवत्सर का चन्द्र रस्स चंदे मासे तीसमुहुत्ते णं तीसइमुहुत्ते णं अहोरत्तेणं मास तीस-तीस मुहुर्त के अहोरात्र के मापने पर कितने अहोरात्र मिज्जमाणे केवइए राइंदियग्गे गं ? आहिए त्ति होते हैं ? कहें । वएज्जा। उ०—ता एगणतीसं राइंदियाई बत्तीसं बासट्ठिभागा राइंदि- उ०-उनतीस अहोरात्र और एक अहोरात्र के बासठ भाग! यस्स राइंदियग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा। में से बत्तीस भाग होते हैं। ५०-ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे गं? आहिए ति वएज्जा। (ख) प्र०—उस “चन्द्र मास" के मुहूर्त कितने होते हैं ? (कहें।) उ०–ता अट्ठपंचासए मुहुत्ते तेत्तीसं बासट्ठिभागा मुहत्तग्गे उ०-आठ सौ पचास मुहूर्त और एक मुहूर्त के बासठ भागों __णं, आहिए त्ति वएज्जा। में से तेतीस भाग होते हैं। ५०-ता एस गं अद्धा दुवालसखुत्तकडा चंदे संवच्छरे, ता (ग) प्र०-बारह चन्द्र मासों का एक चन्द्र संवत्सर होता है, से णं केवइए राइंदियग्गे गं? आहिए ति वएज्जा। उसके कितने अहोरात्र होते हैं ? कहें । .. उ०–ता तिन्नि चउप्पन्ने राइंदियसए दुवालस य बासट्ठिभागा उ०-उस “चन्द्र संवत्सर" के तीन सौ चौपन अहोरात्र और राइंदियग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। एक अहोरात्र के बासठ भागों में से बारह भाग होते हैं। प०-ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं? आहिए त्ति वएज्जा। (घ) प्र.-उस “चन्द्र संवत्सर" के मुहूर्त कितने होते हैं ? (कहें ?) उ०–ता बसमुहुत्तसहस्साई छच्च पणवीसे मुहुत्तसए पण्णासं उ०-दस हजार छ सो पच्चीस मुहूर्त और एक मुहूर्त के च बासट्ठिभागे मुहुत्ते णं आहिए ति वएज्जा। बासठ भागों में से पचास भाग जितने होते हैं । ततिय उडुसंवच्छरं तृतीय ऋतु संवत्सर५०–ता एएसि गं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चस्स उडुसंवच्छ- (क) प्र०-इन पांच संवत्सरों में से तृतीय ऋतु संवत्सर के रस्स उडुमासे तीसइ मुहुत्ते णं, तीसइ मुहुत्ते णं मिज्ज- ऋतुमास तीस-तीस मुहूर्त से मापने पर कितने अहोरात्र होते हैं ? माणे केवइए राइंदियग्गे गं? आहिए त्ति वएन्जा। कहें। उ०-ता तीसं राइंबियाणं राइवियग्गे णं आहिए ति उ०-उस "ऋतुमास" के तीस अहोरात्र होते हैं ? वएज्जा। Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० लोक- प्रज्ञप्ति काल लोक : चतुर्थ आदित्य संवत्सर पता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं ? आहिए त्ति वएज्जा ? उ०- ता गवतसवाई तो आहिए ति बा प० - ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा उडू संवच्छरे, ता से णं केवइए राइदियो ? आहिए सि एग्जा उ०ता तिमि सट्ट े राईदियस राईदियो णं आहिए सि वएज्जा । प०-ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं ? आहिए ति वएज्जा । उ० – ता बसमुहुत्तसहस्साइं अट्ठ य सयाई मुहुत्तग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा । चउत्वं आच्चसंयच्छरं प० - ता एएसि णं पंचण्हं संवच्छराणं चउत्थस्स आदिच्चसंवछरस्स आइचे मासे सोसमुहले गं तीसद णं अहोरणं मिज्जमाने केवहए राईदियग्ने ? आहिए सि एया। उ०- ता तीसं राइंदियाई अवद्धभागं च राईदियस्स राइदियग्ने आहिए सि एग्जा प० -ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं ? आहिए ति वएज्जा । उ०- ता णव पण्णरस मुहुत्तसए मुहुत्तग्गे णं आहिए त्ति वएज्जा । प० -ता एस णं अद्धा वुवालसखुत्तकडा आदिच्चे संवच्छरे, ता से णं केवइए राइदियग्गे णं ? आहिए त्ति वएज्जा उ०- ता तिन्नि छाबट्ट राईदियसए राईदियग्गे णं आहिए ति वएज्जा । प० -ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे णं आहिए ति वएज्जा । उ० – ता दसमुहुत्तस्स सहस्साइं णव असीए मुहुत्तसए मुहुसम्मे गं, आहिए ति बना]। पंचम अभिवद्द्यवच्छरं प० - ता एएसि णं पंचन्हं संवच्छराणं पंचमस्स अभिवयसंवण्ठरस्त अभिवद्दिए मासे तो तीसह तोसइमुहुतेणं, मुहुत्ते णं राइदियग्गे मुदसे में अहोर मिज्जमाने केवइए राई णं ? आहिए ति वएज्जा । उ०- - ता एमतीसं राइंबियाई एगूणतीसं च मुहत्ता सत्तरस्स सरस राईदियो आहिए ति णं बासट्टिमागे वएज्जा । (च) प्र० उस "ऋतुमास" के कितने मुहूर्त होते हैं ? कहें। उ०- नव सौ मुहूर्त होते हैं । (ग) प्र० - बारह ऋतुमासों का एक संवत्सर होता है, उसके कितने अहोरात्र होते हैं? कहें। उ०- उस "ऋतु संवत्सर" के तीन सौ साठ अहोरात्र होते हैं । (घ) प्र० - उस " ऋतु संवत्सर" के कितने मुहूर्त होते हैं ? कहें। उ०- दस हजार आठ सौ मुहूर्त होते हैं । सूत्र ४१ चतुर्थ आदित्य संवत्सर (क) प्र० -- इन पाँच संवत्सरों में से चतुर्थ आदित्य संवत्सर के आविश्यमास तीस-तीस मुहूर्त के अहोरात्र से मापने पर कितने अहोरात्र होते हैं ? कहें। कहें। उ०- उस "आदित्य मास" के तीस अहोरात्र और एक अहोरात्र का आधा भाग होता है । (ख) प्र० - उस " आदित्य मास" के कितने मुहूर्त होते हैं ? उ०—उस ‘आदित्यमास" के नौ सौ पन्द्रह मुहूर्तं होते हैं । (ग) प्र० बारह आदित्यमास का एक आदित्य संवत्सर होता है, उसके कितने अहोरात्र होते हैं ? कहें । -- उ०- उस " आदित्य संवत्सर" के तीन सौ साठ अहोरात्र होते हैं। (घ) प्र० उस "आदित्य संवत्सर" के किसने मुहूर्त होते हैं ? कहें । उ० – दस हजार नौ सौ अस्सी मुहूर्त होते हैं । पंचम अभिवधित संवत्सर (क) प्र० – इन पाँच संवत्सरों में से पाँचवे अभिर्वाधित संवत्सर के अभिर्वाधित मास तीस-तीस मुहूर्त के अहोरात्र से मापने पर उसके कितने अहोरात्र होते हैं ? उ० – इगतीस अहोरात्र उनतीस मुहूर्त और एक मुहूर्त के बासठ भागों में से समह भाग होते हैं। Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ४१-४३ काल लोक : नक्षत्र संवत्सर के भेव और उसका काल प्रमाण गणितानुयोग २१ प०-ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे गं ? आहिए त्ति वएज्जा। (ख) प्र०-उस "अभिवधित मास" के कितने मुहूर्त होते हैं ? कहें। उ०-ता णव एगूणस? मुहुत्तसए सत्तरसबासट्ठिभागे उ०-नौ सौ गुणसठ मुहूर्त और एक मुहूर्त के बासठ भागों मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गे णं आहिए त्ति वएज्आ। में से सत्रह भाग होते हैं। प०-ता एस णं अद्धा दुवालसखुत्तकडा अभिवड्ढियसंवच्छरे, (ग) प्र०-बारह अभिवधित मासों का एक अभिवधित ता से णं केवइए राइदियग्गे णं? आहिए त्ति वएज्जा। संवत्सर होता है, उसके कितने अहोरात्र होते हैं, कहें। उ०–ता तिण्णि तेसीए राइंबियसए एक्कतीसं च मुहुत्ता उ०-तीन सौ तियासी अहोरात्र, इकतीस मुहूर्त और एक अट्ठारस बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स राइंदियग्गे णं आहिए त्ति मुहूर्त के बासठ भागों में से अठारह भाग होते हैं । वएज्जा। प०–ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे गं ? आहिए त्ति वएज्जा। (घ) प्र०-उस "अभिवधित संवत्सर" के कितने मुहूर्त होते हैं ? कहें। उ०–ता एक्कारसमुहुत्तसहस्साई पंच य एक्कारसमुहुत्तसए उ०-इग्यारह हजार पाँच सौ इग्यारह मुहूर्त और एक अट्ठारस बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गे णं आहिए त्ति मुहूर्त के बासठ भागों में से अठारह भाग होते हैं । वएज्जा। -सूरिय. पा. १२, सु. ७२ णक्खत्त संवच्छरस्स भेया तेसि काल पमाणं च- नक्षत्र संवत्सर के भेद और उसका काल प्रमाण४२. (क) ता णक्खत्तसंवच्छरे णं दुवालसविहे पण्णते, तं जहा- ४२. नक्षत्र संवत्सर बारह प्रकार का कहा गया है, यथा (१) सावणे, (२) भद्दवए, (३) आसोए, (४) कत्तिए, (१) श्रावण, (२) भाद्रपद, (३) आश्विन, (४) कार्तिक, (५) मग्गसिरे, (१) पोसे, (७) माहे, (6) फग्गुणीए, (५) मार्गशीर्ष, (६) पौष, (७) माघ, (८) फाल्गुन, (९) चैत्र, (९) चित्ते, (१०) वइसाहे, (११) जेट्ट, (१२) (१०) वैशाख, (११) जेष्ठ, (१२) आषाढ । आसाढे। -सूरिय. पा. १०, पाहु. २०, सु. ५५ जुगसंवच्छरस्स भेया तेसि काल पमाणं च युगसंवत्सर के भेद और उनका काल प्रमाण४३. ता जुगसंवच्छरे गं पंचविहे पण्णते, तं जहा ४३. युग संवत्सर पांच प्रकार का कहा गया है, यथा(१) चंदे, (२) चंदे, (३) अभिवढिए, (४) चंदे, (१) चन्द्र, (२) चन्द्र, (३) अभिवधित, (४) चन्द्र, (५) अभिवढिए,' (५) अभिवधित। (१) ता पढमस्स ण चंद संवच्छरस्स चउवीसंपव्वा पण्णत्ता (१) प्रथम चन्द्र संवत्सर के चौवीस पर्व कहे गये हैं। (२) दोच्चस्स णं चंद संवच्छरस्स चउवीसं पव्वा पण्णता । (२) द्वितीय चन्द्र संवत्सर के चौवीस पर्व कहे गये हैं। (३) तच्चस्स णं अभिवढिय संवच्छरस्स छन्वीसं पव्वा (३) तृतीय अभिवधित संवत्सर के छब्बीस पर्व कहे गये हैं। पण्णत्ता। (४) चउत्थस्स णं चंद संवच्छरस्स चउवीसं पब्बा पण्णत्ता । (४) चतुर्थ चन्द्र संवत्सर के चौवीस पर्व कहे गये हैं। (५) पंचमस्स णं अभिवढिय संवच्छरस्स छम्वीस पव्वा (५) पंचम अभिवधित संवत्सर के छब्बीस पर्व कहे गये हैं। पण्णत्ता। एवामेव सपुवावरेणं पंचसंवच्छरिए जुगे एगे चउवीसे पब्व- इस प्रकार पहले पीछे के सब मिलाकर पंच संवत्सरीय युग सए भवंतीतिमक्खायं । के एक सौ चौवीस पर्व होते हैं । -सूरिय. पा. १०, पाहु. २०, सु. ५६ । १ ठाणं. ५, उ. ३, सु. ४६० २ जंबु. वक्ख. ७, सु. १५१ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ लोक- प्रज्ञप्ति पमाण संवास्स भैया ४४. ता पमाण संवच्छरे णं पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा (१) गक्से (२) पदे, (३) बडू, (४) आइये, (५) अभिवद्दिए। रिय. पा. १० पाहू. २०, सु. ५७ लक्खण संवच्छरस्स भेया ' ४५. ता लक्खण संवच्छरे णं पंचविहे पण्णत्ते तं जहा(१), (२), (३) उबू, (४) आइचे, (५) अभिव - सूरिय. पा. १०, पाहु. २०, सु. ५८ । सणिच्छर संवच्छरस्स भेया ४६. ताणिच्छर संवरे णं अट्ठावीस बिहे पण ते तं जहा (१) अभय, (२ बजे, (३) धणिट्ठा, (४) सतभिसया, (५) पुब्वा पोट्ठवया, (६) उत्तरा पोट्ठवया, (७) रेवई, (८) असिणी, (९) चरणी, (१०) कलिय, (११) रोहिणी, (१२) संठाणा, (१३) अद्दा, (१४) पुणव्वसू, (१५) पुस्से, (१६) अस्सेसा, (१७) महा, (१८) पुव्वाफग्गुणी, (१९) उत्तराफग्गुणी (२०) हत्थे (२१) बित्ता, (२२) साई, (२३) विसाहा, (२४) अणुराहा, (२५) जेट्ठा, (१६) मूले, (२७) पुव्वासाढा, (२८) उत्तरासाढा । सूरिव पा. १०, पाहु. २०, सु. १० एग संयच्छरस्त मासा ४७. ५० - ता कहं ते मासा ? आहिए ति वएज्जा । उ०- ता एगमेगल्स णं संवच्छरस्स बारस मासा पण्णता । तेसि च दुविहा णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहा(१) लोइया, (२) नोउत्तरिया व - तत्थ लोइया णामा (१) साबणे, (२) भए, (३) आसोए, (४) कलिए, (५) मानसरे, (६) पोसे, (७) माहे, (८) गुणे, (१) चेते, (१०) वेसाहे, (११) जेट्ठ े (१२) आसाढे । लोउत्तरिया णामागाहाबो काल लोक प्रमाण संवत्सर के भेद (१) अभिनंदणे, (२) सुपइट्ठ य, (२) विजए, (४) पोहणे, (५) सेब (६) सिया वि य, (७) सिसिरे विप, (८) हेमयं ॥१॥ (१) नवमे वसंतमासे, (१०) उसमे कुसुमसंभवे । (11) एकमेव (१२) वर्णाविरोही व बारसे 1 ॥२॥ — सूरिय. पा. १०, पाहु. १०. सु. ५३ । १ (क) ठाणं ५, उ. ३, सु. ४६० २ जंबु. वक्ख. ७, सु, १५२ सूत्र ४४-४७ प्रमाण संवत्सर के भेद ४४. प्रमाण संवत्सर पाँच प्रकार का कहा गया है, यथा (१) नक्षत्र संवत्सर, (२) चन्द्र संवत्सर, (३) ऋतु संवत्सर, (४) आदित्य संवत्सर, (५) अभिधित संवत्सर । लक्षण संवत्सर के भेद ४५. लक्षण संवत्सर पाँच प्रकार का कहा गया है, यथा (१) नक्षत्र संवत्सर, (२) चन्द्र संवत्सर, (३) ऋतु संवत्सर, ( ४ ) आदित्य संवत्सर, (५) अभिर्वाधित संवत्सर । शनैश्चर संवत्सर के भेद ४६. शश्वर संवत्सर अठाईस प्रकार का कहा गया है, यथा (१) अभिजित, (२) खवण, (३) धनिष्ठा, (४) भयक (५) पूर्वाभाद्रपद, (६) उत्तराभाद्रपद, (७) रेवती, (८) अश्विनी, (९) भरणी, (१०) कृतिका, (११) रोहिणी, (१२) संस्थान, (मिगशिरा), (१३) आर्द्रा, (१४) पुनर्वसु, (१५) पुष्य, (१६) अश्लेषा, (१७) मघा, (१८) पूर्वाफाल्गुनी, (१६) उत्तराफाल्गुनी, (२०) इस्त, (२१) चित्रा, (२२) स्वाति (२३) विशाखा, (२४) अनुराधा, (२५) ज्येष्ठा, (२६) मूल, (२७) पूर्वाषाढा, (२८) उत्तराषाढा । एक संवत्सर के मास - ४७. प्र०—एक संवत्सर के मास कितने हैं ? कहें । उ०- प्रत्येक संवत्सर के बारह मास कहे गए हैं, उनके नाम दो प्रकार के कहे गए हैं यथा (१) लौकिक, (२) लोकोत्तर इनमें लौकिक बारह मास के नाम, (१) श्रावण (२) भाद्रपद, (३) आसोज, (४) कार्तिक, (५) मार्गशीर्ष, (५) पोष, (७) माघ, (८) फाल्गुन (१) चैत्र, (१०) वैशाख, (११) जेष्ठ, (१२) आषाढ । लोकोत्तर बारह मास के नामगाथार्थ - (१) अभिनन्दन (२) सुप्रतिष्ठ, (३) विजय, (४) प्रीतिवर्धन, (५) श्रेयांस, (६) शिव, (७) शिशिर, (८) हिमवान, (६) वसंत, (१०) कुसुमसम्भव, (११) निदाघ, (१२) वनविरोधी । (ख) जंबु. वक्ख. ७, सु. १५१ Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र४८ काललोक : एक युग के अहोरात्र और मुहूर्त का प्रमाण गणितानुयोग ७२३ एगस्स जुगस्स अहोरत्त-महत्तप्पमाणं एक युग के अहोरात्र और मूहर्त का प्रमाण४८. (क) प्र०–ता केवइयं ते नो जुगे राइंदियग्गे ? आहिए ति ४८. (क) प्र०-अपूर्ण युग के कितने अहोरात्र होते हैं ? कहें । वएज्जा। उ.-ता सत्तरस एकाणउए राइंबियसए, एगूणवीसं उ०-सत्रह सौ इकाणवे अहोरात्र, उणतीस मुहूर्त एक च मुहत्तं, सत्तावण्णे बासट्ठिभागे मुहत्तस्स, मुहूर्त के बासठ भागों में से सत्तावन भाग और बासठवें भाग के बासट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छत्ता पणपन्नं चुणिया सडसठ भागों में से पचपन लघुतम भाग अहोरात्र के हैं । भागे राइंदियग्गेणं आहिए त्ति वएज्जा । (ख) प०–ता से णं केवइए मुहत्तग्गे गं ? आहिए ति (ख) प्र०-उस 'अपूर्ण युग' के कितने मुहुर्त होते हैं ? वएज्जा। उ०-ता तेवण्णमुहत्तसहस्साई, सत्त य अउणापन्ने उ०-पन हजार सात सौ उनपचास मुहूर्त एक मुहूर्त के मुहत्तसए, सत्तावण्णं बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स, बासठ भागों में से सत्तावन भाग और बासठवें भाग के सहसठ बासदिमागं च सत्तट्ठिधा छत्ता पणपण्णं चुणिया भागों में से पचपन लघुतम भाग मुहूर्त के हैं । भागा मुहुत्ते णं, आहिए त्ति वएज्जा । (ग) ५०–ता केवइए णं ते जुगपत्ते राइंदियग्गे गं? आहिए (ग) प्र०-पूर्णता प्राप्त युग के कितने अहोरात्र होते हैं ? त्ति वएज्जा। कहें। उ०–ता अद्रुतीसं राइंदियाइं दस य मुहुत्ता, चत्तारि य उ०-अडतीस अहोरात्र दस मुहूर्त एक मुहूर्त के बासठ बासट्ठिभागे मुहत्तस्स, बासट्ठिभागं च सत्तद्विधा भागों में से चार भाग, और बासठवें भाग के सडसठ भागों में से छत्ता दुवालसचुण्णियामागे राइंदियग्गे गं, बारह लघुतम भाग अहोरात्र के 'प्रक्षिप्त करने पर पूर्ण युग के आहिए त्ति वएज्जा। अहोरात्र' होते हैं। (घ) प०–ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे गं ? आहिए त्ति (घ) प्र०–'पूर्णता प्राप्त' युग के कितने मुहूतं होते हैं ? वएज्जा । कहें। उ०—ता एक्कारस पण्णासे मुहुत्तसए, चत्तारि य उ०-इग्यारह सौ पचास मुहूर्त एक मुहूर्त के बासठ भागों बासट्ठिभागे मुहुत्तस्स, बासट्ठिभागं च सत्तद्विधा में से चार भाग और बासठवें भाग के सडसठ भागों में से बारह छेत्ता दुवालस चुण्णिया भागे मुहुत्तग्गे णं, आहिए लघुतम भाग मुहूर्त के 'प्रक्षिप्त करने पर पूर्ण युग के मुहूर्त' त्ति वएज्जा। होते हैं। (ङ) प०–ता केवइयं जुगे राइंदियग्गे गं ? आहिए ति (ङ) प्र०–'परिपूर्ण' युग के अहोरात्र कितने होते हैं ? वएज्जा । उ०-ता अट्ठारस तोसे राइंदियसए राइंदियग्गे णं उ०-अठारह सौ तीस अहोरात्र होते हैं। आहिए त्ति वएज्जा। (च) प०–ता से णं केवइए मुहुत्तग्गे गं? आहिए ति (च) प्र०-'परिपूर्ण' युग के कितने मुहूर्त होते हैं ? कहें। वएज्जा। उ०-ता चउप्पण्णं मुहुत्तसहस्साई णव य मुहुत्तसयाई उ०-चौपन हजार नव सौ मुहर्त होते हैं। मुहुत्तग्गे णं, आहिए त्ति वएज्जा। (छ) ५०–ता से गं केवइए बासट्ठिभाग मुहुत्तग्गे गं? (छ) प्र०-'परिपूर्ण' युग के मुहूर्तों के कितने बासठिए आहिए ति वएज्जा। भाग होते हैं ? कहें। Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : एक युग में पूर्णिमा और अमावस्याएँ सूत्र ४६ - उ०–ता चोत्तीसं सयसहस्साहं अट्ठतीसं च बासट्ठि- उ०-चौतीस लाख अडतीस सौ बांसठ मुहूर्त के बासठिए भागमुहुत्तसए बासट्ठिभाग मुहुत्तग्गे णं, आहिए भाग होते है । त्ति वएज्जा। -सूरिय. पा. १२, पाहु. सु. ७३ । एग युगे पुण्णिमासिणीओ अमावासो एक युग में पूर्णिमा और अमावास्याएँ४६. तत्थ खलु इमाओ बाट्ठि पुणिमासिणीओ बावर्द्धि अमावा- ४६. एक युग में बासठ पूर्णिमाएँ और बासठ अमावास्याएँ कही साओ पण्णत्ताओ। बाढेि एते कसिणा रागा। बासठ अमावस्याएँ राहु से पूर्ण रक्त है। बाढेि एते कसिणा विरागा। बासठ पूर्णिमाएँ राहु से पूर्ण विरक्त है । एते चउन्वीसे पन्वसए। एक युग में एक सौ चौबीस पर्व है। एते चउव्वीसे कसिण-राग-विरागसए। ये एक सौ चौबीस पर्व पूर्ण रूप से रक्त और विरक्त है। जावइयाणं पंचण्हं संवच्छराणं समया एगे णं चउव्वीसेणं समय पाँच संवत्सरों के जितने समय हैं उनसे एक समय कम सएगूणगा एवइया परित्ता असंखेज्जा देस-राग-विराग सया अर्थात् एक सौ चौबीस पर्वो के ये परिमित समय है किन्तु देश भवंतीतिमक्खाया। राग-विराग के असंख्य शत समय होते हैं ऐसा कहा है । ता अमावासाओ णं पुण्णिमासिणी चत्तारि बायाले मुहत्तसए अमावस्या से पूर्णिमा पर्यन्त चार सौ बियालीस मुहूर्त और छत्तालीसं बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए ति वएज्जा। एक मुहूर्त के बासठ भागों में से छियालीस भाग जितना समय होता है। ता पुण्णिमासिणीओ णं अमावासा चत्तारि बायाले मुहत्तसए पूर्णमासी से अमावस्या पर्यन्त चार सौ बियालीस मुहूर्त और छत्तालीसं बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए ति वएज्जा । एक मुहर्त के बासठ भागों में से छियालीस भाग जितना समय होता है। ता अमावासाओ णं अमावासा अट्टपंचासीए महत्तसए तीसंच अमावस्या से अमावस्या पर्यन्त आठ सौ पच्यासी मुहर्त और बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए ति वएज्जा। एक मुहूर्त के बासठ भागों में से तीस भाग जितना समय होता है। ता पुण्णिमासिणीओ णं पुण्णिमासिणी अट्ठ पंचासीए मुहत्तसए पूर्णमासी से पूर्णमासी पर्यन्त आठ सौ पच्यासी मुहूर्त और तोसं बावट्ठिभागे मुहुत्तस्स आहिए त्ति वएज्जा । एक मुहर्त के बासठ भागों में से तीस भाग जितना समय होता है। एस गं एवइए चंदे मासे। यह इतना चन्द्र मास है। एस णं एवइए सगले जुगे। यह इतना पूर्ण युग है । -सूरिय. पा. १३, सु. ८० । णक्खत्तमासाणं अहोरत्ताइं नक्षत्र मासों के अहोरात्र५०. एगमेगे णं णक्खत्तमासे सत्तावीसाहिं राइंबियाहिं राइंदियग्गेणं ५०. नक्षत्र मास सत्तावीस अहोरात्रि का कहा गया है । पण्णत्ते। -सम. २७, सु. ३। याम-परवणं यामों का प्ररूपण५१. तओ जामा पण्णत्ता । तं जहा ५१. याम तीन प्रकार के कहे गये हैं । यथा(१) पढ़मे जामे, (२) मजिसमे जामे, (३) पच्छिमे जामे । प्रथम याम, मध्यम याम, पश्चिम याम । -ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १६३ । -सम. ६२, सु.१ १ पंच संवच्छरिए णं जुगे बासद्धिं पुण्णिमाओ, वासटैि अमावासाओ पण्णत्ताओ । २ चंद. पा. १३, सु. ८० । ३ "तओ जामे" इत्यादि Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५२-५३ काल लोक : मास के मुहूतों को हानि-वृद्धि गणितानुयोग ७२५ "मासस्स" मुहत्ताणं वद्धोअवद्धी "मास के" मुहूतों की हानि-वृद्धि५२.५०-ता कहं ते बद्धोअवद्धी मुहुत्ताणं ? आहिए ति, ५२. प्र०-"मास के" मुहूर्तों की हानि-वृद्धि किस प्रकार होती वदेज्जा। उ०-सा अट्ठ एगणवीसे मुहृत्तसए सत्तावीसं च सट्ठिभागे उ०-"नक्षत्र मास के" आठ सौ उगणीस मुहूर्त और एक मुहुत्तस्स आहिए ति वदेज्जा।' मुहूर्त के साठ भागों में से सत्तावीस भाग जितनी हानि-वृद्धि होती है। -सूरिय. पा. १, पाहु. १, सु. ८। मुहुत्ताणं-णामाई मुहूर्तों के नाम५३. ५०-ता कहं ते मुहत्ताणं णामधेज्जा ? आहिए त्ति वएज्जा, ५३. प्र०-मुहूर्तों के नाम कौनसे हैं ? कहें, उ०-ता एगमेगस्स णं अहोरत्तस्स तोसं मुहत्ता पण्णत्ता, उ०-प्रत्येक अहोरात्र के तीस मुहूर्त कहे गये हैं, यथा तं जहागाहाओ गाथार्य१. रोद्दे, २. सेते, ३. मित्ते, (१) रुद्र, (२) श्रेयान्, (३) मित्र, (४) वायु, (५) सुग्रीत, ४. वायु, ५. सुगीए, ६. अभिचंदे । (६) अभिचन्द, ७. महिंद, ८, बलवं, ६. बंभो, (७) माहेन्द्र, (८) बलवान्, (९) ब्रह्मा, (१०) बहुसत्य, १०. बहुसच्चे, ११. चेव ईसाणे ॥ ११. ईशान ॥१॥ १२. त? य, १३. भावियप्पा, (१२) त्वष्टा, (१३) भावितात्मा, (१४) वैश्रमण, १४. वेसमणे, १५. वरुणे य, १६. आणंदे । (१५) वारुण, (१६) आनन्द, १७. विजए य, १८. वीससेणे, (१७) विजय, (१८) विश्वसेन, (१६) प्राजापत्य, १६. पायावच्चे चेष, २०. उवसमे य ॥२॥ (२०) उपशम ॥२॥ २१. गंधव, २२. अग्गिवेसे, (२१) गन्धर्व, (२२) अग्निवेश्य, (२३) शतवृषभ, २३. सयरिसहे, २४. आयवं च, २५. अममे य। (२४) आतपवान्, (२५) अमम, (शेष पृष्ठ ७२४ का) यामो-रात्रंदिनस्म च चतुर्थभागो यद्यपि प्रसिद्धस्तथापीह त्रिभाग एव विवक्षितः । पूर्वरात्र-मध्यरात्रऽपररावलक्षणो यमाश्रित्य रात्रिस्त्रियामेत्युच्यते एवं दिनस्यापि निशा निशीथिनीरात्रिस्त्रियामा क्षणदाक्षणा । -स्थानांग टीका, अमर. कालवर्ग श्लोक ४ । याम=प्रहर का पर्यायवाची है। सामान्य मान्यता दिन और रात के चार प्रहर मानने की है किन्तु यहाँ 'याम" का अर्थ "विभाग" लिया गया है और दिन व रात्रि के तीन-तीन विभाग कहे गये हैं । रात्रि के तीन विभाग-रात्रि का प्रथम विभाग =पूर्वरात्र, रात्रि का द्वितीय विभाग=मध्यरात्र, रात्रि का तृतीय विभाग = अपररात्र दिन के तीन विभाग–दिन का प्रथम भाग-पूर्वान्ह, दिन का द्वितीय भाग-मध्यान्ह, दिन का तृतीय भाग–अपरान्ह । मुहूतों की हानि-वृद्धि का यह सूत्र खण्डित प्रतीत होता है, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र के प्रश्नसूत्र में मुहूर्तों की हानि-वृद्धि का प्रश्न है, किन्तु उत्तरसूत्र में केवल नक्षत्र मासों के मुहूर्तों का ही कथन है। Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ लोक-प्रज्ञप्ति २ २६. अणवं २७. च भोम, २८. रिसहे, २६. सम्ब, ३०. रक्खसे चैव ॥ ३॥ दिवस राईण णामाई५४. प० - ता कहं ते दिवसा ? आहिए त्ति वएज्जा, उ०- ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पण्णरस दिवसा पातं जापडिया दिवसे, वितिया दिवसे 12 , 1 या दिवसे चाय दिवसे पंचमी दिवसे छुट्टी दिवसे सत्तमी दिवसे, अट्ठमी दिवसे, नवमी दिवसे, दसमी पिसे, एक्कारसो दिवसे, वारसी दिवसे, तेरसी दिवसे उसी दिवसे, पण्णरसे दिवसे ता एएसि णं पण्णरसण्हं दिवसाणं पण्णरस णामघेज्जा पण्णत्ता, तं नहागाहाओ १. पुवंगे, २. सिद्धमणोरमे, य तत्तो, ३. मणोहरो चेव । ४. जस जसोधर ६ सय्यकामसमिति १ (क) एनमे wwwwna 6. सूर्य प्रज्ञप्ति १. रुद्र बहोरते तीसमुत्ते मुत्तग्मेषं पश्यता १. रोई, २ ते ३ मिते, ४. बाऊ, ३. सुपीए १२. १३. विस्ससेणे १४. पावावये 1 (ख) जंबु. वक्ख. ७, सु. १५२ । २. या ३. मित्र काल लोक दिवस और रात्रियों के नाम - सूरिय. पा. १०, पाहु. १३, सु. ४७ 11911 1 एएस में तीखा मुताणं ती नामदेवा पणता तं जहा६. अभिचंदे, ७. माहिये ८ लंबे १ बजे, १०. सच्चे, ११. आगदे, १५. उसमे १६. ईसा, १७.१५. भाविमा १९. वेसणे, २०. वरुणे २१. सतरिसमे २२ गंध २३ अग्निवेसावणे, २४. जातवे २५. आपते २६. सहवे, २७. भूमहे २०, रिसमे, 1 २१.सि ३०. रक्खसे। - सम. स. ३०, सु. ३ वायु ५. सुग्रीत ६. अभिचन्द्र ७. माहेन्द्र ८. बलवान् ६. ब्रह्मा १०. बहुसत्य ११. ईशान १२. त्वष्टा १३. भावितात्मा १४. वैश्रमण 1 रौद्र सक्त मित्र वायु सुप्रीत अभिचन्द्र माहेन्द्र प्रलंब तुलनात्मक तालिका समवायांग ब्रह्म सत्य (२६) ऋणवान्, (२७) भौम, (२८) वृषभ, (२६) सर्वार्थ, (३०) राक्षस ||३|| २ आनन्द विजय विश्वक्सेन प्राजापत्य दिवस और रात्रियों के नाम ५४. प्र० - दिवस कितने हैं और उनके नाम क्या-क्या हैं? कहें, उ०- प्रत्येक पक्ष के पन्द्रह-पन्द्रह दिन कहे गये हैं, यथा , प्रतिपदा दिवस, द्वितीया दिवस तुतोमा दिवस, चतुर्थी दिवस, पंचमी दिवस पछी दिवस, सप्तमी दिवस, अष्टमी दिवस, नवमी दिवस, दशमी दिवस, एकादशी दिवस, द्वादशी दिवस, त्रयोदशी दिवस, चतुर्दशी दिवस, पन्द्रहवां (पूर्णिमा या अमावास्या) दिवस इन पन्द्रह दिनों के पन्द्रह नाम कहे गये हैं, यथा गाथार्थ (१) पूर्वांग, (२) सिद्ध मनोरम, (३) मनोहर, (४) यशोभद्र, (५) यशोधर (६) सर्वकामसमृद्ध सूत्र ५३-५४ सूर्य प्रज्ञप्ति १६. आनन्द १७. विजय १८. विश्वसेन १६. प्राजापत्य २०. उपशम २१. गन्धर्व २२. अग्निवेश्य २३. शतवृषभ २४. आतपवान् २५. अमम २६. ऋणवान् २७. भीम २८. वृषभ २६. सर्वार्थं समवायांग ईशान त्वष्टा भावितात्मा वैश्रवण वरुण सतरिसभ गन्धर्व अग्निर्वधमा आतप आवर्त त्वष्टुप भूभष ऋषभ सर्वार्थसिद्ध राक्षस ३०. राक्षस उपशम १५. वारुण जानें । सूर्यप्रज्ञप्ति और समवायांग में मुहूतों के तीस नामों में क्रमभेद एवं नामभेद हैं । इस भिन्नता का कारण बहुश्रुत Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५४-५५ काल लोक : दिवस और रात्रियों के नाम गणितानुयोग ७२७ ७. इंदे मुद्धाभिसि ते य, (७) इन्द्र मूर्धाभिषिक्त, (८) सोमनस, (९) धनंजय, ८. सोमणस, ६. धणंजए य बोद्धव्वे । १०. अत्थसिद्ध, ११. अभिजाए, (१०) अर्थसिद्ध, (११) अभिजात, (१२) अत्याशन, १२. अच्चासणे, १३. सतंजए ॥२॥ (१३) सतंजय, १४. अग्गिवेसे, १५. उवसमे, दिवसाणं णामधेज्जाइं॥ (१४) अग्निवैश्य, (१५) उपशम, ये पन्द्रह दिनों के नाम हैं। प०–ता कहं ते राईओ पण्णत्ताओ ? आहिए त्ति वएज्जा। प्र०-रात्रियाँ कितनी हैं (और उनके नाम क्या-क्या हैं) ? कहेंउ०–ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पण्णरस राईओ २०-प्रत्येक पक्ष की पन्द्रह-पन्द्रह रात्रियाँ कही गई हैं, पण्णत्ताओ, तं जहा-पडिवाराई, बितियाराई, तति- यथा-प्रतिपदा रात्रि, द्वितीया रात्रि, तृतीया रात्रि, चतुर्थी याराई, चउत्थीराई, पंचमीराई, छट्ठीराई, सत्तमीराई, रात्रि, पंचमी रात्रि, षष्ठी रात्रि, सप्तमी रात्रि, अष्टमी रात्रि, अट्ठमीराई, नवमीराई, बसमीराई, एक्कारसीराई, नवमी रात्रि, दशमी रात्रि, एकादशी रात्रि, द्वादशी रात्रि, त्रयोबारसीराई, तेरसीराई, चउद्दसीराई, पण्णरसीराई। दशी रात्रि, चतुर्दशी रात्रि, पन्द्रहवीं रात्रि, ता एयासि णं पण्णरसण्हं राईणं णामधेज्जा पण्णत्ता, इन पन्द्रह रात्रियों के पन्द्रह नाम कहे गये हैं, यथातं जहागाहाओ गाथार्थ१. उत्तमा य, २. सुणक्खत्ता, (१) उत्तमा, (२) सुनक्षत्रा, (३) एलापत्या, (४) यशोधरा, ३. एलावच्चा, ४. जसोधरा ॥ ५. सोमणसा चेव तहा, (५) सोमनसी, (६) श्रीसम्भूता, ६. सिरिसंभूता य बोधन्वा ॥१॥ ७. विजया य, ८. वेजयंती (७) विजया, (८) वैजयन्ती, (९) जयन्ती, (१०) अपराहै. जयंति, १०. अपराजिया य, ११. गच्छाय। जिता. (११) गच्छा, १२. समाहारा चे ३ तहा, (१२) समाहारा, (१३) तेजा, (१४) अतितेजा, १३. तेयाय तहा य, १४. अतितेया ॥२॥ १५. देवाणंदानिरती, रयणीणं णामधेज्जाई॥ (१५) देवानन्दा-रात्रि, ये पन्द्रह रात्रियों के नाम हैं । -सूरिय. पा. १०, पाहु. १४, सु. ४८ । अवम-अइरित्तरत्ताणं संखा हेउंच अवम रात्रियों की और अतिरिक्त रात्रियों की संख्या और उनके हेतु५५. तत्थ खलु इमे छ ओमरत्ता पण्णत्ता, त जहा ५५. ये छ अवम रात्रियाँ (क्षय तिथियाँ) कही गई हैं, यथा(१) तइए पन्वे, (२) सत्तमे पव्वे, (३) एक्कारसमे पव्वे, (१) तृतीय पर्व में, २. सप्तम पर्व में, (३) इग्यारहवें पर्व में, (४) पण्णरसमे पम्वे, (५) एगूगवीसइमे पव्वे, (६) तेवीस- (४) पन्द्रहवें पर्व में, (५) उन्नीसवें पर्व में, (६) तेवीसवें पर्व इमे पव्वे । तत्य खलु इमे छ अतिरत्ता पण्णता, तं जहा __ ये छ अतिरिक्त रात्रियाँ (वृद्धि तिथियाँ) कही गई हैं, यथा(१) चउत्थे पव्वे, (२) अट्ठमे पव्वे, (३) बारसमे पव्वे, (१) चतुर्थ पर्व में, (२) अष्टम पर्व में, (३) बारहवें पर्व में, (४) सोलसमे पव्वे, (५) वीसइमे पब्वे, (६) चउवीसइमे पव्वे । (४) सोलहवें पर्व में, (५) बीसवें पर्व में, (६) चौबीसवें पर्व में, १ जंबु० वक्ख० ७, सु०१५२ । २ (क) पर्वणि-पक्षे । यहाँ पर्व-पक्ष का पर्यायवाची है। (ख) ठाण ६, सु. ५२४ । ३ छ अवम रात्रियाँ (क्षय तिथियाँ)-१. तृतीय पर्व, भाद्रपद शुक्लपक्ष, २. सप्तम पर्व, कार्तिक शुक्लपक्ष, ३. इग्यारहवाँ पर्व, पौष शुक्लपक्ष, ४. पन्द्रहवां पर्व, फाल्गुन शुक्ल पक्ष, ५. उन्नीसवाँ पर्व वैशाख शुक्ल पक्ष, ६. तेईसवाँ पर्व आषाढ शुक्ल पक्ष । ४ छ अतिरिक्त रात्रियाँ वृद्धि तिथियाँ-१. चतुर्थ पर्व, आश्विन कृष्ण पक्ष, २. अष्टम पर्व मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष, ३. बारहवाँ पर्व माघ कृष्ण पक्ष, ४. सोलहवाँ पर्व चैत्र कृष्ण पक्ष, ५. बीसवां पर्व ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष, ६. चौबीसवाँ पर्व श्रावण कृष्ण पक्ष । Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ लोक गाहा छच्चेव य अइरता, आइन्चाओ हवंति माणाइं । येय ओमरता पंवाहिति मानाई ।। तिहीणं णामाई ५६. प० - ता कहं ते तिही ? आहिए ति वएज्जा । काल लोक तिथियों के नाम : सूरिम. पा. १२ सु. ७५ " उ० – तत्थ खलु इमा वुविहा तिही पण्णत्ता, तं जहां(१) दिवसतही, (२) राई तिही प प० - ता कहं ते दिवस तिही ? आहिए ति वएज्जा । उ०- ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस पण्णरस दिवसतिही पण्णत्ता तं जहा - ( १ ) णंबे, (२) मद्दे, (३) जए, (४) तुच्छे, (५) पुण्णे । पक्खस्स पंचमी । पुणरवि - (६) शंदे, (७) भद्दे, (८) जए, (९) तुच्छे, (१०) पुण्णे । पक्वस्स दसमी । पुणरवि - ( ११ ) णंदे, (१२) भद्दे, (१३) जए, (१४) तुच्छे, (१५) पुण्णे । पक्खस्स पण्णरस । एवं से तिगुणा तिहीओ सध्वसि दिवसाणं । प० - ता कहं ते राई तिही ? आहिइ त्ति वएज्जा । - उ०- ता एगमेगस्स णं पक्खस्स पण्णरस राई तिही पण्णत्ता तं जहा (१) उपवई, (२) भोगवई, (२) जसबाई (४) सम्बसिद्धा, (२) सुहणामा पुणरवि - (६) उग्गवई, (७) भोगवई, (८) जसवई, (६) सम्मसिद्धा, (१०) सुहणामा पुरव (११), (१२) गवई, (१३) जस रई (१४) सम्बसिद्धा, (१५) मुहणामा एए तिगुणा तिहीओ सत्ये राई ।" १ जंबु० वक्ख० ७, सु० १५२ । - सूरिय. पा. १०, पाहु. १५, सु. ४९ । सूत्र ५५-५६ गाथार्थ छ अतिरिक्त रानियां आदित्य मासों में होती है। छ अवम रात्रियाँ चान्द्र मासों में होती है । तिथियों के नाम ५६. प्र० - तिथियाँ कितनी हैं (और उनके नाम क्या-क्या हैं ) ? कहें । उ०- तिथियाँ दो प्रकार की कही गई हैं, यथा (१) दिवस तिथि, (२) रात्रि तिथि प्र० - दिवस तिथियाँ कितनी हैं (और उनके नाम क्या क्या हैं ?) कहें । उ०- प्रत्येक पक्ष में पन्द्रह-पन्द्रह दिवस तिथियाँ कही गई हैं, यथा - (१) नन्दा, (२) भद्रा, (३) जया, (४) तुच्छा, (५) पूर्णा, ये पक्ष की पांच तिथियां है। पुन: - (६) नन्दा, (७) भद्रा, (८) जया (१) तुच्छा, (१०) पूर्णा, ये पक्ष की दस तिथियाँ हैं । पुनः - ( ११ ) ( नन्दा, (१२) भद्रा, (१३) जया, (१४) तुच्छा, (१५) पूर्णा, ये पक्ष की पन्द्रह तिथियाँ हैं । इस प्रकार सब दिनों की त्रिगुण तिथियाँ हैं । प्र० - रात्रि तिथियाँ कितनी हैं (और उनके नाम क्या-क्या हैं ? कहें । उ०- प्रत्येक पक्ष की पन्द्रह-पन्द्रह रात्रि तिथियाँ हैं । यथा(१) उपवती (२) भोगवती, (३) यशवती (४) सर्वसिद्धा (५) शुभनामा पुन: - ( ६ ) उग्रवती, (७) भोगवती, (८) यशवती, (१) सर्वसिद्धा. (१०) शुभनामा पुनः- (११) उपवती (१२) भोगवती, (१३) यशवती (१४) सर्वसिद्धा, (१५) शुभनामा ये सव रात्रियों की त्रिगुण तिथियां है। Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५७ काल लोक करण के भेद और उनके चर - स्थिर की प्ररूपणा करणभेया तेसि चर-थिरत्तपरूवणं५७. ५० कति णं भंते ! करणा पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! एक्कारस करणा पण्णत्ता । तं जहा(१) व (२) बाल, (३) कोल, (४) पीलिय (५) गराइ, (६) वणिज्जं, (७) विट्ठी, (८) सउणी, (e) चउप्पयं, (१०) नागं, (११) किग्धं । प० -- एएसि णं भंते ! एक्कारसन्हं करणाणं कति करणा चरा । कति करणा थिरा पण्णत्ता ? उ०- गोयमा ! सत्त करणा चरा, चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता । तं जहां (१) बवं, (२) बालवं, (३) कोलवं, (४) थिविलो - अणं, (५) गरादि, (६) वणिज्जं (७) बिट्ठी । - एएणं सत्तकरणा चरा पण्णत्ता । चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता । तं जहा(१) सउणी, (२) चउप्पयं, (३) णागं, (४) कित्थुग्धं । एएणं चत्तारि करणा थिरा पण्णत्ता । प० एएणं मंते ! चरा वा थिरा वा कया चवंति ? उ०- गोयमा ! सुक्क पक्खस्स पडिवाए राओ "बवे" करणे — भवइ । बितियाए दिवा 'बालवे' करणे भवइ, राओ 'कोलवे' करणे भवइ । ततियाए दिवा "थोविलोभणं" करणं भवइ । राओ "गराई" करणे भवइ । चत्थीए दिवा " वणिज्जं" राओ "विट्ठी" । पंचमीए दिवा "ब", राओ " बालवं" । छट्टीए दिवा "कोलवं" राओ "थोविलोअणं" । सतमोए दिया "गराइ", राओ "बभिन्नं"। अट्टमीए दिया "विट्ठी", राम्रो "ब" । नवमीए दिवा "गालवं", राओ "कोलवं" । दसमीए दिवा "थीविलोभणं", राओ "गराई" एक्कारसीए दिया "ब" राम्रो "बिट्टी"। बारसीए दिवा "ब" राम्रो "बाल"। तेरसीए दिवा "कोलवं" राओ "थीविलोअणं" । च उद्दसीए दिवा " गराई" राओ " वणिज्जं" । पुष्णिमाए दिया "विट्ठी" राओ "वयं"। बहुपक्र पडिवाए दिया बाल, राम्रो कोल 1 1 बितियाए दिवा थीविलोअणं, राओ गरादि । ततिआए दिवा " वणिज्जं " राओ " बिट्ठी" । 1 गणितानुयोग ७२९ करण के भेद और उनके चरर्नयर की प्ररूपणा५७. प्र० - भगवन् ! करण कितने कहे गये हैं ? उ०- गौतम ! करण इग्यारह कहे गये हैं, यथा(१) वव, (२) बालव, (३) कोलव, (४) स्त्रीविलोचन, (५.) गरादि, (६) वणिज, (७) विष्टी, (८) शकुनी, (६) चतुष्पद, (१०) नाग, (११) किंस्तुघ्न । - प्र० - भगवन् ! इन इग्यारह करणों में कितने करण चर हैं। और कितने करण स्थिर हैं ? उ०- गौतम ! सात करण चर हैं, चार करण स्थिर हैं, यथा (१) बव, (२) बालव, ३. कोलव, (४) स्त्री विलोचन, (५) गरादि, (६) वणिज, (७) विष्टी । ये सात करण चर कहे गये हैं । चार करण स्थिर कहे गये हैं, यथा (१) शकुनी, (२) चतुष्पद, (३) नाग, (४) किंस्तुघ्नं । ये चार करण स्थिर कहे गये हैं । प्र - भगवन् ! ये चर और स्थिर कब होते हैं ? उ०- - गौतम ! शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा की रात्रि में "बव" करण होता है । द्वितीया के दिन "बालव" करण होता है रात्रि में "कोलव" करण होता है । तृतीया के दिन में स्त्रीविलोचन करण होता है, रात्रि में 'गराई' करण होता है । चतुर्थी के दिन में 'वणिज करण, रात्रि में विष्टी करण । पंचमी के दिन में बब करण, रात्रि में बालव करण । छट्ट के दिन में कोलव करण, रात्रि में स्त्रीविलोचन करण । सप्तमी के दिन में गराइ करण, रात्रि में वणिज करण । अष्टमी के दिन मे विष्टीकरण, रात्रि में 'बव' करण । नवमी के दिन में बालव करण, रात्रि में कोलव करण । इसमी के दिन में स्त्रीविलोचनकरण, रात्रि में जिकरण एकादशी के दिन में वणिज करण, रात्रि में विष्टी करण । द्वादशी के दिन में बव करण, रात्रि में बालव करण । त्रयोदशी के दिन में कोलवकरण, रात्रि में स्त्रीविलोचनकरण । चतुर्दशी के दिन में गराई करण, रात्रि में वणिज करण । पूर्णिमा के दिन में विष्टीकरण, रात्रि में बव करण । कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा के दिन में बालव करण, रात्रि में कौलव करण | द्वितीया के दिन में स्त्रीविलोचन करण, रात्रि में गरादि करण । तृतीया के दिन में वणिज करण, रात्रि में विष्टी करण । Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : करण के भेद और उनके चर-थिर का प्रमाण चउत्थीए दिवा "बवं", राओ "बालवं"। पंचमीए दिवा "कोलवं", राओ "थीविलोअणं"। छट्ठीए दिवा "गराई", राओ "वणिज्जं"। सत्तमीए दिवा "विट्ठी", राऊो "बवं"। अट्ठमीए दिवा "बालब", राओ ' कोलवं"। नवमीए दिवा "थोविलोअणं", राओ "गराई"। दसमीए दिवा "वणिज्ज", राओ "विट्ठी"। एक्कारसीए दिवा "बवं", राओ "बालवं" । बारसीए दिवा "कोलवं", राओ "थोविलोअणं"। तेरसीए दिवा "गराई", राओ "वणिज्ज" । चउद्दसीए दिवा "विट्ठी", राओ "सउणी"। अमावासाए दिवा "चउप्पयं", राओ "गागं" । सुक्क पक्खस्स पडिवाए दिवा "किस्थुग्धं" करणं भवई। -जंबु० वक्ख. ७, सु० १५३ । चतुर्थी के दिन में बव करण, रात्रि में बालब करण । पंचमी के दिन में कोलव करण, रात्रि में स्त्रीविलोचन करण । छट्टी के दिन में गराइ करण, रात्रि में वणिज करण । सप्तमी के दिन में विष्टी करण, रात्रि में बब करण । अष्टमी के दिन में बालव करण, रात्रि में कोलव करण । नवमी के दिन में स्त्रीविलोचन करण, रात्रि में गराइ करण । दसमी के दिन में वणिज करण, रात्रि में विष्टी करण । एकादशी के दिन में बव करण, रात्रि में वालव करण । द्वादशी के दिन में कोलव करण, रात्रि में स्त्रीविलोचन करण । त्रयोदशी के दिन में गराइ करण, रात्रि में वणिज करण । चतुर्दशी के दिन में विष्टीकरण, रात्रि में शकुनी करण । अमावस्या के दिन में चतुष्पद करण, रात्रि में नाग करण। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन में किंस्तुघ्न करण होता है । दिन करण ज्ञान गणिततिथि तु द्विगुणी कृत्वा, हीनमेकेन कारयेत् । सप्तभिस्तु हरेद्भागं, शेषं करणमुच्यते ।। चर संज्ञक करण१. बवश्च, २. बालवश्चैव, ३. कौलव, ४. स्तैतिलस्तथा । ५. गरश्च, ६. वणिजो, ७. विष्टि सप्तैते करणानि च ।। स्थिर संज्ञक करण, कृष्ण-शुक्ल पक्षगतकरणकृष्णपक्षे चतुर्दश्यां, १. शकुनि पश्चिमे दले । २. चतुष्पदश्च, ३. नागश्च, अमावास्या दलद्वये ।। शुक्लप्रतिपदायां च, ४. किंस्तुघ्न प्रथमे दले । स्थिराण्येतानि चत्वारि, करणानि जगुर्बुधा ।। शुक्लप्रतिपदान्ते च, बवाख्य करणो भवेत् । एकादशश्च विज्ञ या, श्वर-स्थिर विभागतः ।। -शीघ्र बोध प्रकरण २, श्लोक ३४-३८ कृष्णपक्ष के करण शुक्लपक्ष के करण दिन रात रात १. बालव कौलव १. किस्तुघ्न बव २. तैतिल गरज २. बालव कौलव ३. वणिज विष्टी ३. तैतिल गरज ४. बव बालव ४. वणिज विष्टी ५. कौलव तैतिल ५. बव बालव ६. गरज वणिज ६. कौलव तैतिल ७. विष्टी बव ७. गरज वणिज ८. बालव कौलव ८. विष्टी बव ६. तैतिल गरज ९. बालव कौलव १०. वणिज विष्टी १०. तैतिल गरज ११. बव बालव ११. वणिज विष्टी १२. कौलव तैतिल १२. बव १३. गरज वणिज १३. कौलव तैतिल १४. विष्टी शकुनि १४. गरज वणिज १५. चतुष्पाद नाग १५. विष्टी बव बालव Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५८-५९ काल लोक : ऋतुओं के मास और काल प्रभाव गणितानुयोग ७३१ उडूणं णामाई कालप्पमाणं च ऋतुओं के नाम और काल प्रमाण५८. तत्थ खलु इमे छ उडू पण्णता, तं जहा ५८. ये छ ऋतुएं कही गई हैं, यथा(१) पाउसे, (२) वरिसारत्ते, (३) सरते, (४) हेमंते, १. पावस ऋतु, २. वर्षा ऋतु, ३. शरद् ऋतु, ४. हेमन्त (५) वसंते, (६) गिम्हें'। ___ऋतु, ५. बसन्त ऋतु, ६. ग्रीष्म ऋतु । ता सव्वे वि णं एए चंद-उडू दुवे दुवे मासा तिचउप्पण्ण- ये सब चन्द्र ऋतुएँ दो-दो मास की होती हैं और (प्रत्येक सएणं तिचउप्पण्णसएणं आयाणेणं गणिज्जमाणा साइरेगाइं ऋतु संवत्सर) तीन सौ चौपन, तीन सौ चौपन दिन का गिनते एगूणसट्ठि एगूणसट्टि राइंबियाई राइंदियग्गे णं आहिए त्ति हुए कुछ अधिक गुनसठ-गुनसठ अहोरात्र की होती है। वएज्जा । -सूरिय. पा. १२, सु. ७५ । जंबुद्दीवस्स चउसु दिसासु वासाईणं परूवणं जम्बूद्वीप की चारों दिशाओं में वर्षा आदि की प्ररूपणा५६. ५०-जया ण भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स ५६. प्र०-भगवन् ! जब जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत से दाहिणड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, तया णं दक्षिणार्ध में वर्षा का प्रथम समय होता है तब उत्तरार्ध में भी उत्तरड्ढे वि वासाणं पढमे समए पश्विज्जइ? वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है ? जया णं उत्तरड्ढे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ। जब उत्तरार्ध में वर्षा का प्रथम समय होता है तब जम्बूद्वीप तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम- द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व-पश्चिम में अनन्तर द्वितीय समय में पच्चत्यिमेणं अणंतर पुरक्खड समयंसि वासाणं पढमे वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है ? समए पडिवज्जइ? उ०-हता गोयमा ! जया जं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे उ०-हाँ गौतम ! जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्ध में वर्षा वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ । (शेष) तहेव जाव का प्रथम समय होता है। (शेष) उसी प्रकार -यावत्-वर्षा वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ । का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है ? ५०-जया गं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरस्थि- प्र०-भगवन् ! जब जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्बत के पूर्व में मेणं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया गं पच्चत्यि- बर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है तब पश्चिम में भी वर्षा मेण वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ? का प्रथम समय होता है ? जया णं पच्चत्थिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ, जब पश्चिम में वर्षा का प्रथम समय होता है तब जम्बूद्वीप तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तर-दाहि- द्वीप में मन्दर पर्वत के उत्तर दक्षिण में अनन्तर द्वितीय समय में गणं अणंतर पच्छाकड समयंसि वासाणं पढमे समए वर्षा क प्रथम समय प्रतिपन्न होता है ? पडिवन्ने भवइ? उ०-हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव- उ-हाँ गौतम ! जब जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के पूर्व यस्स पुरथिमेणं वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ- में वर्षा का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है । पूर्ववत् कहना चाहिए तह चेव उच्चारेयव्वं जाव पडिबन्ने भवइ । __-यावत्-प्रतिपन्न होता है। एवं जहा (१) समएणं अभिलावो भणिओ वासाणं जिस प्रकार वर्षा के (१) समय का अभिलाप कहा-उसी तहा (२) आवलियाए वि भाणियब्वो । प्रकार (२) आवलिका का भी कहना चाहिए। (३) आणापाणूण वि, (४) थोवेण वि, (५) लवेण (३) आनप्राण का भी, (४) स्तोक का भी, (५) लव का वि, (६) मुहत्तेण वि, (७) अहोरत्तेण वि, (८) पक्खेणं भी, (६) मुहूर्त का भी, (७) अहोरात्र का भी, (८) पक्ष का भी, वि, (६) मासेण वि, (१०) उउणा वि। (६) मास का भी, (१०) ऋतु का भी, एएसि सन्वेसि जहा समयस्स अभिलावो तहा भाणि- जिस प्रकार समय का अमिलाप कहा उसी प्रकार ये सब यन्वो । अभिलाप कहने चाहिए । १ ठाणं. ६, सु. ५२६ । २ चंदस्स णं संवच्छरस्स एगमेगे ऊऊ एगुणसटुिं ।इंदियाइं राइदियग्गे णं पण्णत्ता, -सम. ५६, सु.१ Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : जम्बूद्वीप की चारों दिशाओं में वर्षा आदि की प्ररूपणा सूत्र ५६ प०-जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे हेमंताणं पढमे प्र०-भगवन् ! जब जम्बुद्वीप द्वीप के दक्षिणार्ध में हेमन्त समए पडिवज्जइ? का प्रथम समय प्रतिपन्न होता है ? उ०-जहेव वासाणं अभिलावो (२०) तहेव हेमंताग वि, उ०-जिस प्रकार वर्षा का अभिलाप है उसी प्रकार हेमन्त (३०) गिम्हाण वि भाणियव्वो-जाव-उउ। का भी और ग्रीष्म का भी कहना चाहिए यावत्-ऋतु । एवं एए तिन्नि वि, एएसि तीसं आलावगा भाणि- इसी प्रकार ये तीन हैं । इमके तीस आलापक कहने चाहिए। यव्वा । प०-जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स प्र०-भगवन् ! जब जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षि दाहिणड्ढे पढमे अयणे पडिवज्जइ, तया णं उत्तरड्ढे णार्ध में प्रथम अयन प्रतिपन्न होता है तब उत्तरार्ध में भी प्रथम वि पढमे अयणे पडिवज्जइ ? | अयन प्रतिपन्न होता है ? जहा समएणं अभिलावो तहेव अयणेण वि भाणियव्वो, जिस प्रकार समय का अभिलाप कहा उसी प्रकार अयन का -जाव भी कहना चाहिए। यावत्उ०-हंता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्व- उ-हाँ गौतम ! जब जम्बूद्वीप द्वीप में मन्दर पर्वत के यस्स उत्तर-दाहिणेणं अणंतर पच्छाकडसमयंसि उत्तर-दक्षिण में अनन्तर द्वितीय..समय में प्रथम अयन प्रतिपन्न पढमे अयणे पडिवम्ने भवइ । होता है। जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण वि भाणि- जिस प्रकार अयन का अभिलाप है उसी प्रकार संवत्सर का यव्वो। ____भी कहना चाहिए। जुएण वि, वाससएण वि, वाससहस्सेण वि, वाससय- युग का भी, सौ वर्ष का भी, हजार वर्ष का भी, लाख वर्ष सहस्सेण वि, पुव्वंगेण वि, पुव्वेण वि, तुडियंगेण वि, का भी, पूर्वाग का भी, पूर्व का भी, त्रुटितांग का भी, त्रुटित का तुडिएण वि, भी। एवं पुव्वंगे पुव्वे, तुडियंगे तुडिए, अडडंगे अडडे, अव- इसी प्रकार पूर्वांग पूर्व, त्रुटितांग त्रुटित, अडडांग अडड, वंगे अबवे, हूहूयंगे हूहूए, उप्पजंगे उप्पले, पउमंगे अववांग अवब, हूहूकांग हूहूक, उत्पलांग उत्पल, पमांग पद्म पउमे, नलिनंगे नलिने, अत्थणिउरंगे अत्थणिउरे, नलिनांग नलिन, अर्थनिकुरांग अर्थनिकुर, अयुतांग अयुत, नयुतांग अउयंगे अउए, णउयंगे णउए, पउयंगे पउए, चूलियंगे नयुत, प्रयुतांग प्रयुत, चूलिकांग चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग शीर्षचूलिया, सीसपहेलियंगे सीसपहेलिया, पलिओवमेण प्रहेलिका, पल्योपम भी, सागरोपम भी। वि, सागरोवमेण वि। ५०-जया ण भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे पढमा प्र०-भगवन् ! जब जम्बूद्वीप द्वीप के दक्षिणार्ध में प्रथम ओसप्पिणी पडिवज्जइ? अवसपिणी प्रतिपन्न होता है ? तया णं उत्तरड्ढे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ? तब उत्तरार्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होता है ? जया णं उत्तरड्ढे वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, जब उत्तरार्ध में भी प्रथम अवसर्पिणी प्रतिपन्न होता है तब तया णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिम- जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत से पूर्व-पश्चिम में नहीं है अवसर्पिणी पच्चत्यिमेणं णेवत्थि ओसप्पिणो णेवत्थि उस्सप्पिणी। और नहीं है उत्सर्पिणी। अवट्ठिए णं तत्थ काले पण्णत्ते समणाउसो ! आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ अवस्थित काल कहा गया है ? उ०-हंता गोयमा ! त चेव उच्चारयन्वं-जाव-समणा- उ०-हाँ गौतम ! पूर्ववत् कहना चाहिए यावत्-"श्रमउसो ! णाउषो"। जहा ओसप्पिणीए आलावो भणिओ। जिस प्रकार अवसर्पिणी आलापक कहा, एवं उस्सप्पिणीए वि भाणियब्वो।' इसी प्रकार उत्सपिणी का आलापक कहना चाहिए। -भग. स. ५, उ. १, सु. १४-२१ १ सूरिय. पा. ८, सु. २६ । Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र६० काल लोक : अढाई द्वीप में काल का प्रभाव गणितानुयोग ७३३ अड्ढाइज्जेसु दीवेसु कालाणुभावो ___ अढाई द्वीप में काल का प्रभाव६०. जंबुद्दीवस्स दोसु कुरासु मणुया सया सुसमसुसमुत्तमिड्ढि ६०. जम्बूद्वीप के दो कुरा में मनुष्य सदा सुषमसुषमा काल की पत्ता पच्चुणुरुभवमाणा विहरंति, तं जहा-(१) देवकुराए रिद्धि को प्राप्त हैं और वे उसका अनुभव करते हुए विहरते हैं, चेव, (२) उत्तरकुराए चेव। .. यथा-(१) देवकुरा, (२) उत्तरकुरा । एवं धायइसंडे दीवे पुरत्यिमद्धे, पच्चत्थिमद्धे वि, इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी। एवं पुक्खरवरदीवड्ढपुरथिमद्धे, पच्चत्थिमद्धे वि, इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपा के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी। जंबुद्दीवस्स दोसु वासेसु मणुया सया सुसमुत्तमिड्ढि पत्ता जम्बूद्वीप के दो क्षेत्रों में मनुष्य सदा सुषमकाल की रिद्धि पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा-(१) हरिवासे चेव, को प्राप्त हैं और वे उसका अनुभव करते हुए विहरते हैं, यथा- (२) रम्मगवासे चेव। (१) हरिवर्ष, (२) रम्यक्वर्ष । एवं धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धे, पच्चत्थिमद्धे वि, इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी। एवं पुक्खरवरदीवड्ढ पुरथिमद्धे, पच्चत्थिमद्धे वि, इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी। जंबुद्दीवस्स दोसु वासेसु मणुया सया सुसमदुसमत्तमिड्ढि जम्बूद्वीप के दो क्षेत्रों में मनुष्य सदा सुषमदुषम काल की पत्ता पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा-(१) हेमवए चेव, रिद्धि को प्राप्त हैं और वे उसका अनुभव करते हुए विहरते हैं, (२) एरण्णवए चेव । यथा-(१) हैमवत, (२) हैरण्यवत । एवं धायइसंडे दीवे पुरत्थिमद्धे, पच्चत्थिमद्धे वि, इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी। एवं पुक्खरवरदीवड्ढ पुरथिमद्धे, पच्चत्थिमद्धे वि, इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपा के पूर्वाधं और पश्चिमार्ध में भी। जंबुद्दीवस्स दोसु खेत्तेसु मण्या सया दुसमसुसमुत्तमिड्ढि जम्बूद्वीप के दो क्षेत्रों में मनुष्य सदा दुषमसुषम काल की पत्ता पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं जहा-(१) पुत्वविदेहे रिद्धि को प्राप्त हैं और वे उसका अनुभव करते हुए विहरते हैं, चेव, (२) अवरविदेहे चेव । यथा-(१) पूर्वविदेह, (२) पश्चिमविदेह । एवं धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धे, पच्चत्यिमद्धे वि, इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमाधं में भी। एवं पुक्खरवरदीवड्ढ पुरथिमद्धे, पच्चत्थिमद्धे वि, इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध और पश्चिमा में भी। जंबुद्दीवस्स दोसु वासेसु मणया छब्विहं पि कालं पच्चणुब्भव- जम्बूद्वीप के दो क्षेत्रों में मनुष्य छहों प्रकार के काल का माणा विहरंति, तं जहा-(१) भरहे चेव, (२) एरवए चेव। अनुभव करते हुए विचरते हैं, यथा-(१) भरत, (२) ऐरवत। -ठाणं अ. २, उ. ३, सु. ६४ एवं धायइसंडे दीवे पुरथिमद्धे, पच्चत्थिमद्धे वि, इसी प्रकार धातकीखण्डद्वीप के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में भी। -ठाण अ. २, उ. ३, सु.६६ एवं पुक्खरवरदीवड्ढ पुरथिमद्धे, पच्चत्थिमद्धे वि, इसी प्रकार पुष्करवरद्वीपार्ध के पूर्वार्ध और पश्चिमाधं में भी। -ठाणं अ. २, उ. ३, सु. १०३ । Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ लोक-प्रज्ञप्ति काल लोक : लोक में रात्रि-दिन सूत्र ६१ लोए राइंदिया लोक में रात्रि-दिन६१. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो जेणेव ६१. उस काल उस समय भ० पार्श्वनाथ के स्थविर शिष्य समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे वहाँ आये और उनके समीप समणस्स भगवओ महावीरस्स/अदूरसामंते ठिच्चा एवं वयासी- स्थित होकर इस प्रकार बोलेप०-से नणं भंते ! असंखेज्जे लोए अणंता रातिदिया प्र०-हे भगवन् ! इस असंख्य (प्रदेशी) लोक में क्या अनन्त उपज्जिसु वा, उप्पज्जंति वा, उप्पज्जिस्संति वा? रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं, होते हैं और होंगे-नष्ट हुए हैं, होते हैं विच्छिसु वा, विगच्छंति वा, विगच्छिस्संति वा? और होंगे ? अथवा परिमित रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं, होते हैं परित्ता रातिदिया उपज्जिसु वा ३ ? विगिच्छिसु वा ३? और होंगे-नष्ट हुए हैं, होते हैं और होंगे? उ०-हंता, अज्जो ! असंखेज्जे लोए अणंता रातिदिया उ०-हाँ आर्यों ! इस असंख्य (प्रदेशी) लोक में अनन्त उपज्जिसु वा ३, विगिच्छिसु वा ३, परित्ता रातिदिया रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं, होते हैं और होंगे तथा परिमित रात्रिउप्पज्जिसु वा ३, विििच्छसु वा ३ । दिन उत्पन्न हुए हैं, होते हैं और होंगे—इसी प्रकार नष्ट हुए हैं, होते हैं और होंगे। प०-से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-असंखेज्जे लोए अणंता प्र०-हे भगवन् ! इस प्रकार कहने का कारण क्या है ? रातिदिया उपज्जिसु वा ३? विगिर्गाच्छसु वा ३? परित्ता असंख्येय लोक में अनन्त रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं ३, नष्ट हुए हैं ३ रातिदिया उप्पज्जिसु वा ३ ? विििच्छसु वा ३? तथा परिमित रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं ३, नष्ट हुए हैं ३ इत्यादि । उ.-से नणं भे अज्जो ! पासेणं अरहा पुरुसादाणीएणं- उ०-हे आर्यो ! आपके पार्श्व अर्हन्त पुरुषादानीय ने इस "सासए लोए बुइए, अणावीए अणवदग्गे, परित्ते परि- लोक को शाश्वत अनादि अनन्त परिमित और अलोक से परिबुडे, हेढा वित्थिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पि विसाले, वृत कहा है-जो नीचे से विस्तीर्ण है, मध्य में संक्षिप्त है, ऊपर अहे पलियंकसंठियंसि, मज्झे वरवइरविग्गहियंसि, विशाल है । नीचे से पल्यंकाकार है, मध्य में उत्तम वज्राकार है, उपि उबमुइंगाकारसंठियंसि अणंता जोवघणा और ऊपर से ऊर्व मृदंगाकार स्थित है। इसमें अनन्त जीवसमूह उत्पज्जित्ता निलीयंति । से भूए उप्पन्ने विगए परि• उत्पन्न हो-होकर विलीन होते हैं। यह लोक भूत है, उत्पन्न है, णए । अजोवेहि लोक्कति, पलोक्कइ । विगत है, परिणत है । यह अजीवों के परिणमन धर्म से निश्चित होता है, विशेष रूप से निश्चित होता है । प०-जे लोक्कइ से लोए ? प्र०-जो प्रमाण द्वारा जाना जाय वह लोक है ? उ०-हंता भगवं! से तेण?णं अज्जो ! एवं बुच्चति- उ०-हाँ भगवन् ! अतएव हे आर्यो ! इस प्रकार कहा असंखेज्जे लोए-जाव-विगच्छिस्संति वा । जाता है-असंख्य लोक में अनन्त रात्रि दिन उत्पन्न हुए हैं ३ इत्यादि पूर्ववत् है। सप्पमिति च णं ते पासावच्चेज्जा थेरा भगवंतो समणं तबसे ये पार्खापत्य स्थविर श्रमण भगवान महावीर को भगवं महावीरं पच्चभिजाणंति-'सव्वण्णु सम्वदरिसि'। “सर्वज्ञ सर्वदर्शी" जानने लगे। तए णं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदति तदनन्तर वे स्थविर भगवंत श्रमण भगवान महावीर को नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वासी-"इच्छामो वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोले-"हे भगवन् ! हम आपके णं णते । तन्मं अंतिए चाउज्जामाओ धम्माओ पंच- समीप चार याम धर्म से (बढ़कर) सप्रतिक्रमण पंचमहाव्रत धर्म महन्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ताणं को स्वीकार कर विचरना चाहते हैं। विहरित्तए।" अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह । हे देवानुप्रियो ! आपको जिस प्रकार सुख हो वैसा करो किन्तु प्रतिबन्ध (देर) न करो। तए णं ते पासावच्चिज्जा थेरा भगवंतो-जाव-चरिमेहि तदनन्तर वे पापित्य स्थविर भगवंत-यावत्-अन्तिम उस्सासनिस्सासेहि सिद्धा-जाव-सव्वदुक्खप्पहीणा, अत्ये- श्वासोच्छ्वासों से सिद्ध हुए-यावत्-सब दुखों से मुक्त हुए। गइया देवा देवलोगेसु उववन्ना। कुछ देवलोकों में उत्पन्न हुए। -भग. स. ५, उ. ६, सु. १४-१६ । Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६२ काल लोक : मनुष्य लोक की मर्यादा पबुच्चइ । जावं च णं वासाई वा वासहराई वा तावं च णं अस्स लोए ति पश्च हवा हवाई यातायं च स लोए मणुयलोयस मेरा_ मनुष्य लोक की मर्यादा ६२. माणुसरे पयएता च सोए ६२. जहाँ तक मानुषोत्तर पर्वत है, यहाँ तक यह लोक है ऐसा कहा जाता है। जहाँ तक वर्ष हैं, वर्षधर (पर्वत) हैं वहाँ तक यह लोक हैऐसा कहा जाता है । जहाँ तक यह है, यह पंक्ति है, वहाँ तक यह लोक है, ऐसा कहा जाता है । जहाँ ग्राम हैं यावत् राजधानियाँ हैं, वहाँ तक यह लोक है, ऐसा कहा जाता है । गणितानुयोग त्ति पबुच्चइ । जावं च णं गामाइ वा जाव रायहाणीइ वा तावं च णं अरिस लोए ति पयुच्च । जावं च णं अरहंता, चक्कवट्टि, बलदेवा, वासुदेवा, पडिवासुदेवा, चारणा, विज्जाहरा, समणा, समणीओ, सावया, सावियाओ, मणुया, पगइमद्दगा, विणीया, तावं च णं अस्सि लोए त्ति पबुच्चइ । 7 जावं च णं समयाइ वा, आवलियाइ वा, आणापाणइ वा, थोवाइ वा, लवाइ वा मुहुत्ताइ वा, दिवसाइ वा अहोरत्ताइ बापावा मासा वा उ वा अपवाद वा संवछ राइ वा, जुगाइ वा, वाससयाइ वा, वाससहस्साइ वा वास सहस्साइ वा, पुव्वंगाइ वा, पुण्वाइ वा, तुडियंगाइ वा तुडियाई वा एवं अडडे, अववे, हुहु कए, उप्पले, पउमे, लिले, अच्छिनिउरे, अउए, णउए, मउए, चूलिया, सीस पहेलिया, पलिशोयमे वा सागरोबमेड वा ओसप्पिणी वा, उस्सप्पिणीइ या, तावं च णं अस्स लोए त्ति पवुच्चइ जावं च बावरे विकारे बापरे पणिया अस्सि लोए ति पबुरुच । जायं च बहवे ओराला साहका संसेति समुच्च्छति, वासं वासंति, तावं च णं अस्सि लोए ति पवुच्चइ । जावं च णं बायरे तेक्काए, तावं च णं अस्सि लोए ति पवुच्चइ । जावं च णं आगराइ वा, नईइ वा णिहीइ वा, तावं च णं असि लोए सि पयुच्च । जहाँ तक आकर (खानें ) हैं, नदी हैं, निधि हैं, वहाँ तक लोक है, ऐसा कहा जाता है । जहाँ तक अगर (कूप) है, बापिकाएँ है, वहां तक लोक है, ऐसा कहा जाता है । जावं च णं अगडाइ वा वावीह वा, तावं च णं अस्सि लोए त्ति पबुच्चइ । जायं च चंदोबरागाह वा सूरोवरगाइ वा परिसाइ या सुरपरिसा वा पडदा वा पहिराह वा इंध जहां तक चन्द्रग्रहण सूर्यग्रहण है, चन्द्र परिषद है, सूर्य परिषद है. प्रतिचन्द्र है, प्रतिसूर्य है। इन्द्रधनुष हैं, जलमय है कपि हसित - ( कपि के हास्य समान मेघगर्जन ) हैं वहाँ तक लोक हैऐसा कहा जाता है । वा, उदगमच्छे वा कपिहसियाणि वा तावं च णं अस्सि लोए ति पवच्चइ । जागं च णं चंदिम सूरिय-गह णक्खत्त- ताराख्वाणं अभिगमण- जहाँ तक चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र - तारकों का अभिगमन-निर्गमननिगमन-बुद्धि-बुद्धि-वय-संतान-संविग्न वृद्धि-निवृद्धि अपरिवर्तित संस्थान संस्थिति कही जाती है—यहाँ तानं च णं अस्स लोए त्ति पवुच्चइ 1 तक यह लोक है, ऐसा कहा जाता है । -- जीवा. पडि ३, उ. सु. १७८, १७६ । ॥ समत्ता लोय पण्णत्त ॥ 1 जहाँ तक अर्हन्, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव, चारण, विद्याधर भ्रमण धमनियां धावक-धाविका मनुष्य, प्रकृतिभद्रक ( प्रकृति के भद्र ) विनीत हैं, वहाँ तक यह लोक है, ऐसा कहा जाता है । जहाँ तक समय, आवलिका, आनप्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, युग, वर्षशत, वर्षसहस्र वर्षशतसहस्र पूर्णन, पूर्व, त्रुटितांग, त्रुटित इस प्रकार से अटट, अवव, हुहुकृत, उत्पल, पद्म, नलिन, अक्षिनुपूर, अयुत, नियुत, मुकुट, चूलिका, शीर्षप्रहेलिका पल्योपम, सागरोपम, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी है- वहाँ तक यह लोक है, ऐसा कहा जाता है । 1 路 ७३५ , जहाँ तक बादर विद्युत है, बादर स्तनित शब्द है, वहाँ तक यह लोक है - ऐसा कहा जाता है । जहाँ तक अनेक औदारिक वारिधर (बादल) स्वेद उत्पन्न करते हैं, उत्पन्न होते हैं, वर्षा करते हैं, वहाँ तक लोक है, ऐसा कहा जाता है । | लोक प्रज्ञप्ति समाप्त ॥ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ लोक-प्राप्ति AYAपच अनुत्तर 000LOM MIDOODpoOIN नव आरण ED अच्युत प्राणत सहस्रारा शका लान्तक ब्रह्म का श अ लो का तिर्यग लोक A I/चित्रा पृथ्वी खरभाग पंकभाग अ लो का का श रत्नमभा अधोलोक शर्करा प्रभा बालुका प्रभा पंक प्रभा धूम प्रभा तमःप्रभा महातमःप्रभा सम्पूर्ण लोक की ऊँचाई १४ राजू है । अधोलोक की ऊँचाई ७ राजू प्रमाण, ऊर्ध्व लोक की ऊँचाई १ लाख योजन कम ७ राजू तथा मध्य लोक की ऊँचाई १ लाख योजन प्रमाण है । अधोलोक का सबसे नीचे ७ राजू विस्तार, मध्य लोक का बीच में १ राजू विस्तार (समय क्षेत्र ४५ लाख योजन) ऊर्ध्वलोक का मध्य में ब्रह्मकल्प के सम भाग में ५ राजू तथा ऊपरी शीर्ष का विस्तार १ राजू (सिद्धशिला ४५ लाख योजन) प्रमाण ही । इस लोक के बाहर चारों ओर असीम अनन्त अलोकाकाश है। Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sssssssssssssଇଛଛESଜ अलोक प्रज्ञप्ति [ ୟୁଷ ? ମୁଁ y୪୪ 3-03e ] ବsssssssssssssssssssssssssssssss Page #907 --------------------------------------------------------------------------  Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलोय-पण्णत्ति अलोक-प्रज्ञप्ति अलोगस्स एगत्तं अलोक का एकत्व१. एगे अलोए' -ठाणं. अ. १, सु. ५। १. अलोक एक है। दव्वओ अलोगस्स सरूवं द्रव्य से अलोक का स्वरूप२. दव्वओ गं अलोए ____२. द्रव्य से अलोक में न जीव द्रव्य है, न अजीव द्रव्य है और णेवत्थि जीवदन्वा, णेवत्थि अजीवदव्वा, णेवत्थि जीवाजीब- न जीवाजीव द्रव्य है । दध्वा। -भग. स. ११, उ. १०, सु. २३ । एगे अजीवदब्वदेसे अगुरुलहुए । अलोक अजीव द्रव्य का एक देश है, वह अगुरुलघु है, अनन्त अणतेहि अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागणे अगुरुलघु गुणों से युक्त है, अनन्त भाग कम पूर्ण आकाश है। -भग. स. २, उ. १०, सु. १२ । कालओ अलोगस्स णिच्चत्तं काल से अलोक का नित्यत्व३. कालओ णं अलोए न कयायि-जाव-णिच्चे' ३. काल से अलोक कदापि नहीं था-यावत्-नित्य है। -भग. स. ११, उ. १०, सु. २४/२ । भावओ अलोगस्स अरूवत्त भाव से अलोक का अरूपत्व४. भावओ णं अलोए णेवत्थि वण्णपज्जवा-जाव-णेवत्यि अगुरु- ४. भाव से अलोक न वर्णपर्यव है-यावत्-न अगुरुलघु लहुयपज्जवा। -भग. स. ११, उ. १०, सु. २५/३। पर्यव है ? अलोग-संठाण परूवणं अलोक के संस्थान का प्ररूपण५. ५०-अलोए णं भंते ! कि संठिए पण्णत्ते ? ५. प्र०-भगवन् ! अलोक का कौन सा संस्थान कहा गया है ? उ०-गोयमा ! झुसिर गोल संठिए पण्णत्ते । ___ उ०-गौतम ! पोले गोले के जैसा संस्थान कहा गया है । --भग. स. ११, उ. १०, सु. ११ । अलोगागास-सरूवं अलोकाकाश का स्वरूप६.५०–अलोगागासे गं भंते ! कि जीवा, जीवदेसा, जीव ६. प्र०-भगवन् ! अलोकाकाश क्या जीव है, जीव देश है, पएसा, अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपएसा? जीव प्रदेश है, अजीव है, अजीव देश है, अजीव प्रदेश है ? उ०-गोयमा ! नो जीवा, नो जीवदेसा, नो जीव पएसा, उ०—गौतम ! न जीव है, न जीव देश है, न जीव प्रदेश नो अजीवा, नो अजीवदेसा, नो अजीवपएसा। है, न अजीव है, न अजीव देश है, न अजीव प्रदेश है। १ सम० स० १, सु०३। २ (क) भग० स० ११, उ० १०, सु० १६ । (ग) भग० स० ११, उ० १०, सु० २३ । (ङ) पण्ण० ५० १५, सु० १००५ । ३ एवं जाव अलोगे। (ख) भग० स० ११, उ० १०, सु० २१ । (घ) भग० स० ११, उ० १०, सु० २५/३ । -भग० स० ११, उ० १०, सु० २४/२ Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ अलोक-प्रज्ञप्ति अलोक के एक आकाश प्रदेश में जीवादि नहीं हैं सूत्र ६.८ एगे अजीववव्वदेसे अगुरुलहुए, अणतेहिं अगुरुय- अलोक एक अजीव द्रव्य देश है, अनु लघु है, अनन्त अगुरुलहुयगुणेहि संजुते, सव्वागासे अणंतमागूणे । लघु गुणों से संयुक्त है, अनन्त भाग कम पूर्ण आकाश है। -भग. स. २, उ. १०, सु. १२ । प०-अलोए णं भंते ! कि जीवा-जाव-अजीव पएसा? प्र०-भगवन् ! अलोक क्या जीव है-यावत्-अजीव प्रदेश है ? २०-गोयमा ! जहा अलोगागासे । । उ०-गौतम ! अलोकाकाश जैसा है। -भग. स. ११, उ. १०, सु. १६ । अलोगस एगागासपएसे विनत्थि जीवाई- अलोक के एक आकाश प्रदेश में जीवादि नहीं है७. ५०-अलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कि जीवा, ७. प्र०-भगवन् ! अलोक के एक आकाश प्रदेश में क्या जीव जाव-अजीव पएसा? हैं-यावत्-अजीव प्रदेश हैं ? उ०-गोयमा ! नो जीवा-जाव-नो अजीवप्पएसा। उ०-गौतम ! न जीव हैं-यावत्-न अजीव प्रदेश हैं। -भग० स० ११, उ० १०, सु० २१ । अलोगस्स महालयत्त अलोक की महानता१.५०-अलोए णं भंते ! के महालए पण्णत्ते ? । ८. प्र०-भगवन् ! अलोक की महानता कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! अयं णं समयखेत्ते पणयालीसं जोयण उ०-गौतम ! यह समय क्षेत्र पैतालीस लाख योजन का सहस्साई आयाम-विक्खभेणं एगा जोयण कोडी बाया- लम्बा चौड़ा है, एक क्रोड, बियालीस लाख, तीस हजार दो सौ लीसं च जोयणसयसहस्साइं तीसं च जोयणसहस्साइं उनपचास योजन से कुछ अधिक की परिधि है । दोणि य अउणापण्णे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं । तेणं कालेणं, तेणं समएणं बस देवा महिड्ढीया- उस काल, उस समय, दस महधिक-यावत्-महासुखी देव जाव-महेसुक्खा जंबुद्दीवे दीवे मंदरे पम्वए, मंदरं जम्बूद्वीप द्वीप के मन्दर पर्वत की चूलिका को चारों ओर से घेर चूलियं सम्बओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठज्जा। कर रहें । अहे गं अटुविसाकुमारिमहत्तरियाओ अट्ट बलिपिंडे नीचे आठ बड़ी दिशाकुमारियाँ आठ बलिपिंड लेकर मानुषोगहाय माणुसुत्तर पव्वपस्स चउसु वि दिसासु, चउसु तर पर्वत की चारों दिशाओं में चार विदिशाओं में बाहर की वि विदिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा अट्ठ बलिपिडे ओर मुंह करके खड़ी रहें और आठ बलिपिंड फेंके, उन्हें वे देव धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए। भूमि पर गिरने से पहले ग्रहण कर लें। ते गं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए-जाव-देवगईए हे गौतम ! उस उत्कृष्ट-यावत्-देवगति से लोक के अन्त लोगते ठिच्चा असम्भावपट्ठवणाए । में ठहरकर, असद्भाव कल्पना से अलोक का अन्त पाने के लिए, एगे देवे पुरत्याभिसुहे पयाए, एक देव पूर्व दिशा में जावे, एगे देवे दाहिण पुरस्थाभिमुहे पयाए, एक देव दक्षिण-पूर्व में जावे इस प्रकार यावत् एवं जाव उत्तर पुरत्थाभिमुहे पयाए, एक देव उत्तर-पूर्व में जावे, एगे देवे उड्ढाभिमुहे पयाए, एक देव ऊर्ध्व दिशा में जावे, एगे देवे अहोभिमुहे पयाए । एक देव अधो दिशा में जावे । तेणं कालेणं तेणं समएणं बाससयसहस्साउए दारए उस काल उस समय में एक लाख वर्ष की आयु वाला पयाए। बच्चा उत्पन्न हुआ। तए गं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणां भांति। उस बच्चे के माता-पिता का देहावसान हो गया, वह और तं चैव जाव । नो चेव णं देवा अलोयतं संपाउणंति। उसके पौत्रादि सातवीं पीढ़ी समाप्त हो गई। किन्तु वे देव अलोक का अंत नहीं पा सके । उसक याबाचे कालवा-पडा का देहावसान हो गयायह व Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र अलोक का स्पर्श गणितानुयोग ७३६ २०-तेसि णं देवाणं कि गए बहुए अगए बहुए ? उ०-गोयमा ! नो गए बहुए, अगए बहुए, प्र०-उन देवों का गत अलोक अधिक या अगत अलोक अधिक ? उ०-गौतम ! गत अलोक अधिक नहीं अपितु अगत अलोक अधिक है। गत अलोक से अगत अलोक अनन्तगुण अधिक है । गत अलोक अगत अलोक का अनन्तवां भाग है। गौतम ! अलोक इतना बड़ा कहा गया है । गयाओ से अगए अणंत गुणे, अगयाओ से गए अणंतभागे, अलोए णं गोयमा ! ए महालए पण्णत्ते। -भग. स. ११, उ. १०, सु. २७ । अलोगस्स फुसणं६.५०-अलोए गं भंते ! किण्णा फुडे ? कइहिं वा काहिं फुडे? किं धम्मस्थिकाएणं फुडे ?-जाव कि आगासत्थिकारणं फुडे ? उ०-गोयमा ! नो धम्मत्थिकाएणं फुडे-जाव-नो आगासस्थि कारणं फुडे । आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे । आगासत्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे । नो पुढविक्काइएणं फुडे-जाव-नो अद्धासमएणं फुडे। अलोक का स्पर्श६.प्र०-भगवन् ! अलोक किससे स्पृष्ट है ? कितनी कायों से स्पृष्ट है ? क्या धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है ? यावत् क्या आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट है ? उ०—गौतम ! न धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है-यावत-न आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट है । आकाशास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है। आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है। पृथ्वीकाय से स्पृष्ट नहीं है यावत्-अद्धासमय (काल द्रव्य) से स्पृष्ट नहीं है। -पण्ण० ५० १५, उ० १, सु०१००५ ॥अलोय पण्णत्ति समत्ता ॥ ॥ अलोक प्रज्ञप्ति समाप्त ॥ Page #911 --------------------------------------------------------------------------  Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - लोकालोक प्रज्ञप्ति । सूत्र १ से १० पृष्ठ ७४१ से ७४६ तक ] Ls Page #913 --------------------------------------------------------------------------  Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकालोक प्रज्ञप्ति जीवाणं पोग्गलाणं लोगस्स बहिया गमणमसक्क- जीव और पुद्गलों का लोक से बाहर गमन अशक्य१. चहि ठाणेहिं जीवा य, पोग्गला य, नो संचाएंति बहिया १. जीव और पुद्गलों का चार कारणों से लोक से बाहर गमन लोगंता गमणाएं । तं जहा शक्य नहीं है :(१) गइ अभावेणं (१) गति के अभाव से (२) निरध्वग्गहया (२) गति सहायक धर्मास्तिकाय के अभाव से, (३) लुक्खत्ताए (३) रूक्षता होने से, (४) लोगाणुभावेणं । -ठाणं० अ० ४, उ० ३, सु० ३३४ (४) लोक स्वभाव होने से । देवस्स अलोगंसि हत्थाइ आउंटणाइ असामत्थ अलोक में देव का हाथ आदि फैलाने के असामर्थ्य का . निरूवणं निरूपण२.५०-देवे गं मते ! महिड्ढीए-जाव-महेसक्ले, लोगते ठिच्चा, २. प्र०-भगवन् ! महधिक-यावत्-महासुखी महान् देव णो पभू अलोगंसि हत्यं वा-जाव-उरुवा आउंटावेत्तए लोकान्त में स्थित होकर अलोक में हाथ-यावत्-उरु को वा पसारेत्तए वा? सिकोड़ने या पसारने में समर्थ है ? उ.-नो इण? सम8। उ०-गौतम ! समर्थ नहीं है। प०-से केणटुणं मंते ! एवं वुच्चइ-"देवे गं महिड्ढीए प्र०-भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया है कि महधिक -जाव-महेसक्खे लोगते ठिच्चा णो पभू अलोगंसि हत्थं यावत्-महासुखी महान् देव लोकान्त में स्थित होकर अलोक वा-जाव-उरु वा आउंटावेत्तए वा, पसारेत्तए वा? में हाथ-यावत्-उरु को सिकोड़ने-पसारने में समर्थ नहीं है ? उ०-गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला। उ०-गौतम ! जीवों का आहार-पुद्गलों से निष्पन्न होता है। बोदिचिया पोग्गला, शरीर पुद्गलों से निष्पन्न होता है। कलेवरचिया पोग्गला, कलेवर पुद्गलों से निष्पन्न होता है। पोग्गलमेव पम्प जीवाण य, अजीवाण य, गइपरियाए पुद्गलों के सहयोग से जीवों एवं अजीवों की गति कही आहिज्जइ। गई है। अलोए नेवत्थि जीवा, नेवत्थि पोग्गला, अलोक में न जीव हैं और न पुद्गल हैं । से तेणटुणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'देवेणं महिड्ढीए हे गौतम ! इस कारण से इस प्रकार कहा गया है कि महजाव-महेसक्खे लोगते ठिच्चा णो पभू अलोगंसि हत्यं धिक--यावत्-महासुखी महान् देव लोकान्त में स्थित होकर वा-जाव-उरु वा आउंटावेत्तए वा, पसारेत्तए वा। अलोक में हाथ-यावत्-उरु को सिकोड़ने में या पसारने में -भग० स० १६, उ०८, सु० १५ समर्थ नहीं है । आगासस्थिकायस्स भेया आकाशास्तिकाय के भेद३. ५०-कइविहे गं भंते ! आगासे पण्णते ? ३. प्र०-भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? उ०-गोयमा ! दुविहे आगासे पण्णत्ते । तं जहा उ०-गौतम ! आकाश दो प्रकार का कहा गया है, यथा(१) लोगागासे य, (२) अलोगागासे य । (१) लोकाकाश (२) अलोकाकाश । -भग० स० २, उ० १०, सु०१० Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ लोकालोक-प्रज्ञप्ति लोकाकाश का स्वरूप सूत्र ४-५ लोगागास-सरूवं लोकाकाश का स्वरूप४. ५०-लोगागासे गं भंते ! कि जीवा, जीवदेसा, जीवपएसा, ४. प्र०-भगवन् ! लोकाकाश में क्या जीव हैं, जीवदेश हैं, अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपएसा? और जीवप्रदेश हैं, अजीव हैं, अजीवदेश हैं और अजीव प्रदेश हैं ? उ०-गोयमा ! जीवा वि, जीवदेसा वि, जीवपएसा वि, उ०-गौतम ! जीव भी हैं, जीवदेश भी हैं, जीवप्रदेश अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपएसा वि। भी हैं, अजीव भी हैं, अजीवदेश भी हैं अजीवप्रदेश भी हैं । जे जीवा ते नियमा एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, जो जीव हैं, वे निश्चित रूप से एकेन्द्रिय हैं, द्वीन्द्रिय हैं, चरिदिया, पंचेंदिया, अणिविया । त्रीन्द्रिय हैं, चतुरिन्द्रिय हैं, पंचेन्द्रिय हैं, अनिन्द्रिय हैं। जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा-जाव-अणिदिय जो जीवदेश हैं वे निश्चित रूप से एकेन्द्रिय के देश हैं देसा। -यावत्-अनिन्द्रिय के देश हैं। जे जीवपएसा ते नियमा एगिदियपएसा-जाव-अणि- जो जीवप्रदेश हैं वे निश्चित रूप से एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं दियपएसा। -यावत्-अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं । जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता । तं जहा जो अजीव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा(१) रूबी य, (२) अरूबी य । (१) रूपी, (२) अरूपी। जे रुवी ते चउन्विहा पण्णत्ता । तं जहा जो रूपी हैं वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा(१) संघा, (२) संघदेसा, (३) संघ पएसा, (४) पर- (१) स्कन्ध, (२) देश, (३) प्रदेश, (४) परमाणु पुद्गल । माणु पोग्गला। जे अहवी ते पंचविहा पण्णत्ता । तं जहा जो अरूपी हैं वे पांच प्रकार के कहे गये हैं, यथा(१) धम्मत्थिकाए, नो धम्मत्थिकायस्स देसे, (१) धर्मास्तिकाय है, धर्मास्तिकाय के देश नहीं, (२) धम्मत्थिकायस्स पएसा। (२) धर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं। (३) अधम्मत्थिकाए, नो अधम्मत्थिकायस्स देसे, (३) अधर्मास्तिकाय है, अधर्मास्तिकाय के देश नहीं, (४) अधम्मत्थिकायस्स पएसा, (५) अद्धासमए । (४) अधर्मास्तिकाय के प्रदेश हैं, (५) अद्धासमय-काल -भग० स० २, उ०१०, सु० ११ द्रव्य हैं । लोगस्स चरिमाचरिम विभागा लोक के चरमाचरम विभाग५. ५०-लोए णं भंते ! किं चरिम, अचरिमं? ५. प्र०-भगवन् ! लोक क्या चरिम है या अचरिम है ? चरिमाइं, अचरिमाइं? चरिम हैं या अचरिम हैं ? चरिमंत पएसे, अचरिमंत पएसे ? चरिमान्त प्रदेश है अचरिमान्त प्रदेश हैं ? उ०-गोयमा ! लोए नो चरिमे, नो अचरिमे, उ०-गौतम ! लोक न चरिम है, न अचरिम है, नो चरिमाइं, नो अचरिमाइं, न चरिम हैं, न अचरिम हैं, नो चरिमंत पएसे, नो अचरिमंत पएसे न चरिमान्त प्रदेश है, न अचरिमान्त प्रदेश हैं । नियमा-अचरिमं, चरिमाणि य, लोक निश्चित रूप से अनेक चरिम है, अचरिम हैं। चरिमंत पएसे य, अचरिमंत पएसे य । चरिमान्त प्रदेश है, अघरिमान्त प्रदेश हैं । -पण्ण० ५० १०, सु० ७७६ १ 'चरिम' = अन्तिम । 'चरिम' सदा दूसरे की अपेक्षा से होता है । इसलिए यह सापेक्ष शब्द है। २ 'अचरिम' = मध्यवर्ती । 'अचरिम'-सदा 'चरिम' की अपेक्षा से होता है। इसलिए यह भी सापेक्ष शब्द है । चरिम और अचरिम-ये दोनों पारिभाषिक शब्द हैं । ३ लोक की यदि अखण्ड रूप से विवक्षा की जाय तो प्रश्न सूत्र गत छहों विकल्पों का सर्वथा निषेध है। ४ (क) लोक असंख्यात प्रदेशावगाढ है अतः उसकी अवयव, अवयवी भाव से विवक्षा की जाय तो लोक के अन्तिम खण्डों के मध्य में लोक का जो एक विशाल खण्ड है वह एक वचनान्त 'अचरिम' है। (शेष पृष्ठ ७४३ पर) Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ६-७ wwwww अलोक के चरमाचरम विभाग अलोगस्स चरिमा चरम विभागा ६. प० - अलोए णं मंते ! कि चरिमे अचरिमे चरिमाई अचरिमा चरितसे अपरिमंतपएसे ? उ०- गोयमा ! अलोए नो चरिमे, नो अचरिमे, नो चरिमाई, नो अचरिमाई. नो चरिमंत पएसे, नो अचरिमंत पएसे । नियमा अचरिमं चरिमाणि य, चरिमंतपए से य अचरिमंतप से य' - पण्ण० प० १०, सु० ७७६ लोगस्स चरिमाचरिमपयानं अध्य-बहुत७. ५० - लोगस्स णं भंते ! अचरिमस्स य, चरिमाण य, चरिमंत परसाण य, अचरिमंत पएसाण य, दब्वट्टयाए पएसया दव्व-पट्टयाए, कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? " उ०- गोयमा ! सव्वत्थोवे लोगस्स, याए एगे अपरिमे चरिमाई असंखेज्जगुणाई, अचरिमं च परिमाण व दो विवाहयाई परसट्टयाए सोचा चरिमंत परसा । सव्वत्थोवा अचरिमंत पएसा असंखेज्जगुणा । चरिमंतपसा य, अचरिमंतपएसा य दो बि विसेसा - हिया । दम्पसट्टयाए सम्बो दव्वट्टयाए एगे अचरिमे, चरिमाई असंखेज्जगुणाई, अचरिमं च चरिमाणि य दोवि विसेसाहियाई चरिमंतपएसा असंखेज्जगुणा, अचरिमतपसा असंवे चरितसा म अचरितसा व दो वि विलेखा हिया । गणितानुयोग ७४३ अलोक के चरमाचरम विभाग ६. प्र० - अलोक क्या चरिम है, अचरिम है, चरित्र हैं, अचरिम हैं ? चरिमान्त प्रदेश हैं, अचरिमान्त प्रदेश हैं ? उ०- गौतम ! अलोक न चरिम है, न अचरिम है, न चरिम हैं, न अचरिम हैं, न चरिमान्त प्रदेश हैं, न अचरिमान्त प्रदेश हैं । अलोक निश्चित रूप से अचरिम है, अनेक अचरिम हैं, चरिमान्त प्रदेश हैं, अचरिमान्त प्रदेश हैं । लोक के चरमाचरम पदों का अल्प- बहुत्व - ७. प्र० - भगवन् ! लोक के अचरिम, चरिम, चरिमान्त प्रदेश अचरिमान्त प्रदेश, द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेश की अपेक्षा से, द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेष अधिक है ? - उ०- गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से सबसे अल्प लोक का अचरिम है । एक चरिम असंख्यातगुण हैं | अचरिम और चरिम ये दोनों विशेषाधिक है । प्रदेश की अपेक्षा से सबसे अल्प परिमान्त प्रदेश हैं, अचरिमान्त प्रदेश असंख्यात है चरिमान्त प्रदेश और अरिमान्त प्रदेश के दोनों विशेष अधिक हैं । द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से - सबसे अल्प द्रव्य की अपेक्षा एक अचरिम हैं । परिम असंख्यगुण है। अरिम और चरिम ये दोनों विशेषाधिक हैं । चरिमान्त प्रवेश असंख्यगुण है। अरिमान्त प्रदेश असंख्यगुण हैं । चरिमान्त प्रदेश और अचरिमान्त प्रदेश ये दोनों विशेषाधिक हैं । - पण्ण० प० १०, सु० ७७८ (शेष पृष्ठ ७४२ का) (ख) लोक के अनेक अन्तिम खण्ड हैं वे बहुवचनान्त 'चरिम' हैं । (ग) प्रदेशों की अपेक्षा से लोक की विवक्षा की जाय तो लोक के अन्त में रहे हुए खण्डों के जो प्रदेश हैं वे 'चरिमान्त प्रदेश' हैं। लोक के मध्यवर्ती खण्डों के जो प्रदेश है वे 'अरिमान्त प्रदेश' है। (घ) ऊपर अंकित सूत्रांक में— 'लोगे वि एवं चेव' यह संक्षिप्त वाचना का पाठ है अतः यहाँ सूत्र ७७५ के आधार से मूल व्यवस्थित किया है । १ (क) लोक के टिप्पणों के समान अलोक के टिप्पण भी हैं । (ख) ऊपर अंकित सूत्रांक में 'एवं अलोगे वि' यह संक्षिप्त वाचना का पाठ है – अतः यहाँ सूत्र ७७५ के अनुसार मूलपाठ व्यवस्थित किया है । २ इस सूत्रांक में 'लोगस्स य एवं चेव' यह संक्षिप्त वाचना का पाठ है । अतः सूत्रांक ७७७ के मूल पाठ से व्यवस्थित किया है । Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ लोकालोक-प्रज्ञप्ति लोकालोक के चरमाचरम पदों का अल्प-बहुत्व सूत्र - अलोगस्स चरिमाचरिम पयाणं अप्पबहुत्त- अलोक के चरमाचरम पदों का अल्प-बहुत्व८.५०-अलोगस्स णं भंते ! अचरिमस्स य चरिमाण य, ८. भगवन् ! अलोक के अचरिम, चरिम, चरिमान्त प्रदेश और चरिमंतपएसाण य, अचरिमंतपएसाण य, बन्वट्ठयाए अचरिमान्त प्रदेश, द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेशों की अपेक्षा, द्रव्य एवं पएसट्टयाए बब्वट्ठ-पएसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा प्रदेशों की अपेक्षा कौन किससे अल्प है, अधिक है, तुल्य हैं या वा बहुया वा, तुल्ला वा विसेसाहिया वा? विशेषाधिक है? २०-गोयमा ! सव्वत्थोवे अलोगस्स, उ०-गौतम ! द्रव्य को अपेक्षा से सबसे अल्प अलोक का दव्वट्ठयाए एगे अचरिमे, एक अचरिम है। चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, चरिम असंख्यगुण हैं। अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियं । अचरिम और चरिम ये दो विशेषाधिक हैं । पएसट्टयाए सम्वत्थोवा अलोगस्स चरिमंत पएसा, प्रदेश की अपेक्षा से सबसे अल्प अलोक के चरिमान्त प्रदेश हैं। अचरिमंत पएसा अनन्तगुणा, अचरिमान्त प्रदेश अनन्तगुण हैं। चरिमंत पएसा य, अचरिमंतपएसा य दो वि विसेसा- चरिमान्त प्रदेश और अचरिमान्त प्रदेश ये दोनों विशेषाहिया। धिक है। दव्वटुपएसट्टयाए-सव्वत्थोवे अलोगस्स एगे अचरिमे। द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से सबसे अल्प अलोक का एक अचरिम है। चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, चरिम असंख्यगुण हैं। अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई। अचरिम और चरिम ये दो विशेषाधिक है। चरिमंत-पएसा असंखेज्जगुणा, चरिमान्त प्रदेश असंख्यगुण हैं । अचरिमंतपएसा अणंतगुणा, अचरिमान्त प्रदेश अनन्तगुण हैं। चरिमंत पएसा य अचरिमंतपएसा य दो वि विसेसा- चरिमान्त प्रदेश और अचरिमान्त प्रदेश ये दोनों विशेषाहिया। -पण्ण० प० १०, सु० ७७६ धिक है। लोगालोगस्स चरिमाचरिमपयाणं अप्प-बहुत्तं- लोकालोक के चरमाचरम पदों का अल्प-बहुत्व६.५०-लोगालोगस्स णं भंते ! अचरिमस्स य चरिमाण य, ६.प्र०-भगवन् ! लोकालोक के अचरिम, चरिम, चरमान्त चरिमंत पएसाण य, अचरिमंत पएसाण य, दन्वट्ठयाए, प्रदेश और अचरमान्त प्रदेश, द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की पएसट्ठयाए, बव्वट्ठ पएसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा अपेक्षा से, द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? उ०-गोयमा ! सव्वत्थोवे लोगालोगस्स उ०-गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से सबसे अल्प लोकालोक दव्वट्ठयाए एगमेगे अचरिमे, का एक अचरिम हैं। लोगस्स चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, लोक के चरिम असंख्यगुण हैं। अलोगस्स चरिमाई विसेसाहियाई, अलोक के चरिम प्रदेश विशेषाधिक है। लोगस्स य अलोगस्स य अचरिमं च चरिमाणि य दो लोकालोक के अचरिम और चरिम ये दोनों विशेषाधिक है। वि विसेसाहियाई। पएसट्टयाए सव्वत्थोवा लोगस्स चरिमंत पएसा, प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे अल्प लोक के चरमान्त प्रदेश हैं। अलोगस्स चरिमंत पएसा विसेसाहिया, अलोक के चरमान्त प्रदेश विशेषाधिक है। लोगस्स अचरिमंत पएसा असंखेज्जगुणा, लोक के अचरिमान्त प्रदेश असंख्यगुण हैं। अलोगस्स अचरिमंत पएसा अनन्तगुणा, अलोक के अचरिमान्त प्रदेश अनन्तगुण हैं । लोगस्स य, अलोगस्स य चरिमंत पएसा य, अचरिमंत लोकालोक के चरमान्त प्रदेश और अचरमान्त प्रदेश ये दोनों पएसा य, दो वि बिसेसाहिया। विशेषाधिक हैं। मा. Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र-१० लोक मलोक और अवकाशान्तर आदि विषयक प्रश्न गणितानुयोग ७४५ दव्वट्ठ-पएसट्ठयाए सम्वत्थोवे लोगालोगस्स, द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा सेदव्वट्ठयाए एगमेगे अचरिमे, द्रव्य की अपेक्षा से सबसे अल्प लोकालोक के एक-एक अचरिम हैं। लोगस्स चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, लोक के चरिम असंख्यगुण हैं। अलोगस्स चरिमाइं विसेसाहियाई, अलोक के चरिम विशेषाधिक हैं। लोगस्स य, अलोगस्स य, अचरिमं च चरिमाणि य दो लोकालोक के चरिमान्त प्रदेश और अचरिमान्त प्रदेश वि विसेसाहियाई। ये दोनों विशेषाधिक है। लोगस्स चरिमंत पएसा असंखेज्जगुणा, लोक के चरमान्त प्रदेश असंख्यगुण है। अलोगस्स चरिमंत पएसा विसेसाहिया, अलोक के चरमान्त प्रदेश विशेषाधिक हैं। लोगस्स अचरिमंत पएसा असंखेज्जगुणा, लोक के अचरमान्त प्रदेश असंख्यगुण हैं। अलोगस्स अचरिमंत पएसा अणंतगुणा, अलोक के अचरमान्त प्रदेश अनन्तगुण हैं । लोगस्स य अलोगस्स य चरिमंत पएसा य, अचरिमंत लोक और अलोक के चरमान्त प्रदेश और अचरमान्त प्रदेश पएसा य दो वि विसेसाहिया, ये दोनों विशेषाधिक है। सव्व दव्वा विसेसाहिया, सर्व द्रव्य विशेषाधिक हैं। सव्व पएसा अनंतगुणा, सर्व प्रदेश अनन्तगुण है। सव्व पज्जवा अनंतगुणा। सर्व पर्यव अनन्तगुण हैं। -पण्ण० ५० १०, सु०७८० लोय-अलोय-ओवासंतईणं पुवा-ऽवरविसए (रोह अण- लोक अलोक और अवकाशान्तर आदि में पूर्वापर कौन ? गारपण्हाणं समाहाणं) (इस सम्बन्ध में रोहा अणगार के प्रश्न और समाधान-) १०. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंते- १०. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर का अंते वासो रोहे णामं अणगारे पगइभद्दए पगइमउए पगइविणीए वासी रोहा नामक अणगार जो भद्रप्रकृति मृदुप्रकृति, विनीतप्रकृति, पगइउवसंते पगइपतणुकोह-माण-माय-लोभे मिउमद्दवसंपन्ने उपशान्तप्रकृति, अल्प क्रोध-मान-माया-लोभ प्रकृति, मृदु-मार्दव अल्लोणे भद्दए विणीए समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूर- सम्पन्न, अलिप्त भद्र एवं विनीत था । वह श्रमण भगवन महावीर सामते उड्ढं जाणू अहोसिरे झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा के समीप ऊर्ध्व जानु तथा अधोशिर करके ध्यानमग्न हुआ और अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। संयम एवं तप से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ स्थित रहा। तए णं से रोहे नामं अणगारे जायसड्ढे-जाव-पज्जुवासमाणे तदनन्तर वह रोहा अणगार श्रद्धायुक्त-यावत्-पर्युपासना एवं वयासी करता हुआ इस प्रकार बोलाप०-पुटिव णं भंते ! लोए ? पच्छा अलोए ? पुग्वि अलोए? प्र०—हे भगवन् ! लोक पहले है और अलोक पीछे है या पच्छा लोए? ___ अलोक पहले है और लोक पीछे है ? उ०-रोहा ! लोए य अलोए य पुटिव पेते, पच्छा पेते, दो उ-हे रोहा ! लोक तथा अलोक पहले भी है और पीछे वि ते सासया भावा-अणाणुपुव्वी एसा रोहा! भी है ये दोनों शाश्वत भाव हैं। हे रोहा ! यह अनानुपूर्वी है अर्थात् यह पहले और यह पीछे-इनका ऐसा क्रम नहीं है। १०-पुवि भंते ! लोअंते ? पच्छा अलोअंते ? पुचि अलो- प्र--हे भगवन् ! पहले लोकान्त है और पीछे अलोकान्त ___ अंते? पच्छा लोअंते? है या पहले अलोकान्त है और पीछे लोकान्त है ? उ०-रोहा ! लोयंते य अलोयंते य-जाव-अणाणुपुव्वी एसा उ०-हे रोहा ! लोकान्त और अलोकान्त -यावत्-हे रोहा! रोहा ! यह अनानुपूर्वी है। ५०-पुवि भंते ! लोअंते ? पच्छा सत्तमे ओवासंतरे ? प्र०-हे भगवन् ! पहले लोकान्त है और पीछे सप्तम अव पुचि सत्तमे ओवासंतरे ? पच्छा लोय ते ? काशान्तर है या पहले सप्तम अवकाशान्तर और पीछे लोकान्त है ? Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ लोकालोक-प्रज्ञप्ति .लोक, अलोक और अवकाशान्तर विषयक प्रश्न उ.-रोहा ! लोअंते य सत्तमे य ओवासंतरे पुब्बि पेते-जाव- उ-हे रोहा ! लोकान्त और सप्तम अवकाशान्तर पहले अणाणुपुत्वी एसा रोहा ! भी है-यावत्-हे रोहा ! यह अनानुपूर्वी है। एवं लोअंते य सत्तमे य तणुवाते ।। इस प्रकार लोकान्त और सप्तम तनुवात, इसी प्रकार धनएवं घणवाते, घणोदही सत्तमा पुढवी । वात, घनोदधि और सप्तम पृथ्वी है। एवं लोअंते एक्केकेणं संजोएयब्वे इमेहि ठाणेहिं इसी प्रकार इम (आगे कहे जाने वाले) स्थानों में से प्रत्येक तं जहा के साथ लोकान्त को संयुक्त करना चाहिये । यथागाहाओ गाथार्थओवास वात घण उदहि, पुढवि, दीवा य सागरा वासा । (१) अवकाशान्तर, (२) वात, (३) घनोदधि, (४) पृथ्वी, नेरइयादि अत्थि य, समया कम्माइं लेस्साओ॥ (५) द्वीप, (६) सागर, (७) वर्ष (क्षेत्र), (5) नारकी आदि के २४ दण्डक, (६) अस्तिकाय, (१०) समय, (११) कर्म, (१२) लेश्या, दिट्ठी सण णाणा, सण्ण सरीरा य जोग उवओगे। (१३) दृष्टि, (१४) दर्शन, (१५) ज्ञान, (१६) संज्ञा, दव्व पदंसा पज्जव अद्धा । (१७) शरीर, (१८) योग, (१६) उपयोग, (२०) द्रव्य, (२१) प्रदेश, (२२) पर्याय और (२३) काल। . ५०-किं पुचि लोयते ? प्र०- क्या ये पहले हैं और लोकान्त पीछे है ? उ० उ०-पूर्ववत् है। प०-पुब्वि भंते ! लोयंते? पच्छा सव्वद्धा? प्र०-हे भगवन् ! पहले लोकान्त है और पीछे सर्वअद्धा है ? उ० उ०-पूर्ववत् है। रोहा ! जहा लोयंतेणं संजोइया सव्वे ठाणा एते, एवं जिस प्रकार उक्त-सब स्थान लोकान्त के साथ संयुक्त किये अलोयंतेणं वि संजोएयव्वा सव्वे । गये हैं इसी प्रकार ये सब (उक्त) स्थान अलोकान्त के साथ भी संयुक्त करने चाहिए। प०-पुटिव भंते ! सत्तमे ओवासंतरे? पच्छा सत्तमे तणुवाते? प्र०-हे भगवन् ! पहले सप्तम अवकाशान्तर है और पीछे सप्तम तनुवात है ? उ०-पूर्ववत् है। रोहा ! एवं सत्तमं ओवासंतरे सव्वेहिं समं संजोएयव्वे इस प्रकार सप्तम अवकाशान्तर को सबके साथ संयुक्त करने -जाव-सव्वद्धाए। चाहिए-यावत्-सर्वअद्धा पर्यन्त । ५०-पुवि भंते ! सत्तमे तणुवाते ? पच्छा सत्तमे घणवाते ? प्र०-हे भगवन् ! पहले सप्तम तनुवात है और पीछे सप्तम घनवात है ? उ०-पूर्ववत् है। एवं पि तहेव नेतव्व-जाव-सव्वद्धा । इसको भी सर्वअदा पर्यन्त उसी प्रकार कहना चाहिए। एवं उवरिल्लं एक्केक्कं संजोयतेणं जो जो हेढिल्लो तं इस प्रकार ऊपर के एक-एक को संयुक्त करते हुए और नीचे तं छड्डेंतेणं नेयव्वं-जाव-अतीत-अणागतद्धा पच्छा के एक-एक को छोड़ते हुए कहना चाहिए-यावत्-अतीत सव्वद्धा जाव अणाणुपुव्वी एसा रोहा ! अनागत अद्धा पीछे सर्व अद्धा-यावत्-हे रोहा! यह अनानु पूर्वी है। सेवं भंते ३ जाव विहरति । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ३-यावत्-विचरण -भग. स. १, उ. ६, सु. १२-१३, १७-२४ करता है। उ० ॥ समत्ता लोय-अलोय पण्णत्ति॥ ॥ लोक-अलोक प्रज्ञप्ति समाप्त ॥ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KXXX परिशिष्ट लोकालोक सम्बन्धी विविध प्रश्नोत्तर माप-विरूपण 8 पर्वत कूट-द्रह आदि तालिका संकलन में प्रयुक्त आगमों के स्थल निर्देश 3 विशिष्ट शब्द सूची RSS Page #921 --------------------------------------------------------------------------  Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १. चत्तारि एक्का पण्णत्ता । तं जहा १. चार प्रकार के एक कहे गये हैं । यथा(१) दविए एक्कए, (२) माउए एक्कए, (३) पज्जवेक्कए, (१) द्रव्य एक, (२) मातृका एक, (३) पर्याय एक, (४) संगहे एक्कए। (४) संग्रह एक । २. चत्तारि कती पण्णत्ता । तं जहा २. चार प्रकार के कति=अनेक कहे गए हैं । यथा(१) दविएकती, (२) माउयकती, (३) पज्जवकती, (१) द्रव्य कति, (२) मातृका कति, (३) पर्याय कति, (४) संगहकती। (४) संग्रह कति । ३. चत्तारि सन्ना पण्णत्ता । तं जहा ३. चार प्रकार के सर्व कहे गए हैं । यथा(१) णाम सव्वए, (२) ठवण सव्वए, (३) आएस सव्वए, (१) नाम सर्व, (२) स्थापना सर्व, (३) आदेश सर्व, (४) णिरवसेस सव्वए। (४) निरवशेष सर्व । -ठाणं० अ० ४, उद्दशक २, सु० १९७ (विवेचन टिप्पण पृष्ठ ७४८ पर देखें) १. विवेचनद्रव्य एक-लोक में अनन्त जीव द्रव्य हैं और अनन्त अजीव द्रव्य हैं । द्रव्यत्व की अपेक्षा जीवद्रव्य है। अजीव द्रव्य भी २. मातृका एक-"उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त" यह मातृका पद एक है । इसमें तीन पद हैं-(१) उत्पाद, (२) व्यय, (३) ध्रौव्य । द्रव्य में एक पर्याय उत्पन्न होती है। द्रव्य की एक पर्याय नष्ट होती है और द्रव्य ध्रुव रहता है। लोक में स्थित अनन्तानन्त जीवाजीव द्रव्यों का यह मातृकापद एक है। ३. पर्याय एक-लोक में अनन्त द्रव्य हैं-प्रत्येक द्रव्य की अनन्तानन्त पर्यायें हैं किन्तु पर्यायत्व की अपेक्षा पर्याय एक है। ४. संग्रह एक-संग्रह अनेक पदार्थों का होता है उन अनेकों का संग्रह एक कहा जाता है । "वृक्ष" शब्द से एक वृक्ष भी कहा जाता है और अनेक वृक्ष भी कहे जाते हैं । २. विवेचन १. द्रव्य कति-प्रत्येक द्रव्य की अपेक्षा लोक में अनेक अर्थात् अनन्त द्रव्य हैं। २. मातृका कति–विभिन्न नयों की अपेक्षा से मातृका पद अनेक हैं । यथा-गृहस्थ-यह एक मातृका पद है-गृहस्थ में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र हैं। ब्राह्मण-यह भी मातृका पद है-ब्राह्मण में दाधीच, गौड़, आदि अनेक हैं । इस प्रकार अनेक मातृका पद हैं। ३. पर्याय कति–प्रत्येक पर्याय की अपेक्षा एक द्रव्य के अनेक पर्याय हैं। अतीतकाल में एक द्रव्य के अनेक पर्याय हुए हैं और भविष्य काल में भी एक द्रव्य के अनेक पर्याय होंगे। ४. संग्रह कति-अवान्तर जातियों की अपेक्षा अनेक संग्रह हैं यथा-एक उद्यान में अनेक वृक्षों का संग्रह है किन्तु आम, अनार, अमरूद, इमली, उदुम्बर आदि अवान्तर जातियों की अपेक्षा अनेक संग्रह हैं। (शेष विवेचन अगले पृष्ठ पर देखें) Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४८ लोक-प्रज्ञप्ति परिशिष्ट सूत्र ४-५ लोइय गणियप्पग 1 लौकिक गणित के प्रकार४ दसविहे संखाणे पण्णत्ते, तं जहा-गाहा ४. दस प्रकार के संख्यान कहे गए हैं । यथापडिकम्मं बवहारो, रज्जू रासो' कलासवण्णे य । (१) परिकर्म, (२) व्यवहार, (३) रज्जू, (४) राशि, जावं ताव इ वग्गो, घणो य तह बग्गवग्गो वि । (५) कलासवर्ण, (६) यावत् तावत्, (७) वर्ग, (८) धन, कप्पो य। (8) वर्गवर्ग, (१०) कल्प। -ठाणं अ. १०, सु. ७४७ । लोयत अलोयंताणं फुसणा लोकान्त और अलोकान्त का स्पर्श५. ५०-लो भंते ! अलोअंतं फुसइ ? ५. प्र०-भगवन् ! लोकान्त अलोकान्त का स्पर्श करता है ? अलोअंते वि लोअंतं फुसइ ? अलोकान्त भी लोकान्त का स्पर्श करता है ? उ०-हंता गोयमा ! लोअंते अलोअंतं फुसइ।। उ.-हाँ गौतम ! लोकान्त अलोकान्त का स्पर्श करता है । ____ अलोअंते वि लोअंतं फुसइ। अलोकान्त भी लोकान्त का स्पर्श करता है। प०-तं भंते ! किं पुट्ठफुसइ, अपुट्टफुसइ ? प्र०-भगवन् ! क्या उस स्पृष्ट को स्पर्श करता है या अस्पृष्ट को स्पर्श करता है ? (शेष विवेचन ७४७ का) ३. विवेचन १. नाम सर्व-किसी व्यक्ति का "सर्व" नाम है वह नाम सर्व है। २. स्थापना सर्व-किसी एक व्यक्ति या पदार्थ में सर्व की स्थापना करना स्थापना सर्व है । जिस प्रकार एक व्यक्ति प्रतिनिधि होता है वह "स्थापना सर्व" है। जिन व्यक्तियों की ओर से जिसको प्रतिनिधि बनाया गया है उन सबका वह है अतः स्थापना सर्व है। ३. आदेश सर्व-किसी एक व्यक्ति को एक कार्य करने के लिए आदेश दिया। वह व्यक्ति उस कार्य को कर रहा है, कार्य सम्पूर्ण होने वाला है, थोड़ा कार्य शेष है-उस समय उसे पूछा-कार्य हो गया? उसने कहा-हां हो गया, यह आदेश सर्व है। ४. निरवशेष सर्व-एक जगह एक धान्य की राशि पड़ी है, एक ने एक को कहा-यह सारा धान ले आओ, वह सारे धान्य को ले गया, यह निरवशेष सर्व है। ये तीनों सूत्र सामान्य सूचक हैं-एक, अनेक और सर्व ये तीनों सामान्य संख्यायें हैं । १. चउव्विहे संखाणे पण्णत्ते । तं जहा(१) पडिकम्म, (२) ववहारे, (३) रज्जू, (४) रासी । -ठाणं अ०४, उ०३, सु० ३३७ । २. कप्पो य ।" इतना गाथा से अधिक है। ३. १. परिकर्म-संकलित आदि अनेक प्रकार के गणित । २. व्यवहार-श्रेणी व्यवहार आदि । इसे पाटी गणित भी कहते हैं । ३. रज्जू-क्षेत्र गणित । ४. राशि-अन्न की ढेरी की परिधि से अन्न का प्रमाण निकालना । ५. कला सवर्ण-जो संख्या अंशों में हो उसे समान करना । ६. यावत् तावत् इति-गुणाकार । ७. वर्ग-दो समान संख्याओं का गुणन । ८. घन-तीन समान संख्याओं का गुणनफल । ६. वर्ग वर्ग-बर्ग को वर्ग से गुणा करना। १०. कल्प-पाटी गणित का एक प्रकार । गणित के इन प्रकारों का विशेष ज्ञान करने के लिए स्थानांग वृत्ति तथा गणित के पारिभाषिक शब्दों का कोश देखना चाहिए। Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ५-६ परिशिष्ट : अधोलोक आवि से धर्मास्तिकाय आदि का स्पर्श उ०- गोयमा ! पुट्ठे फुसइ, नो अट्ठ ं फुसइ । प० तं भते ! कि ओगाढं अणोगाढं फुसइ, उ०- गोयमा ! ओगाढं फुसइ, तो अणोगाढं फुसइ । प० ० फुसइ तं कि मते ! अतरोगाढं फुसइ परंपरोगाढं फुस ? ? उ०- गोयमा ! अनंतरोगाढं फुसइ, नो परंपरोगाढं फुसइ । प० तं भंते ! कि अणु फुसइ, बायरं फुसइ ? उ०- गोयमा ! अणु पि फुसइ, बायरं पि फुसइ । प० तं भंते! कि उ फुसइ, तिरियं फुसइ, अहे फुसइ ? उ०- गोयमा ! उड्ड पि फुसइ, तिरियं पि फुसइ, अहे वि फुसइ । प० - तं भंते! कि आई फुसइ, मज्झे अंते फुसइ, प० - तं भंते ! कइ दिसि फुसइ ? उ०- गोयमा ! नियमा छद्दिसि फुसइ । फुसइ उ०- गोयमा ! आई पि फुसइ, मज्झे वि फुसइ, अंते वि फुसइ । ० भते ! कि सविसए फुस अविसए फुस ? उ०- गोयमा ! सविसए फुसइ, नो अविसए फुसइ । प० ! कि आपुज्यि फुस, अणागुपुज्यि फुस ? उ०- गोयमा । आपुच्फुिस, नो अणावि कुस अहोलोया धम्मत्थिकायाई पुसणा ६. प० -- अहे लोए ण भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं उ०- गोयमा ! सातिरेगं अद्धं कुरुइ । ? - भग. स. १, उ. ६, सु. ५ फुसइ ? गणितानुयोग XT उ०- गौतम ! स्पृष्ट को स्पर्श करता है, अस्पृष्ट को स्पर्श नहीं करता है । प्र० - भगवन् ! क्या उस अवगाढ को स्पर्श करता है या अनवगाढ को स्पर्श करता है ? या उ०- गौतम ! अवगाढ को स्पर्श करता है, अनवगाढ को स्पर्श नहीं करता है । प्रo - भगवन् ! क्या उस अनन्तरावगाढ को स्पर्श करता है, परम्परावगाढ को स्पर्श करता है ? उ०- गौतम ! अनन्तरावगाढ को स्पर्श करता है, परम्परावगाढ को स्पर्श नहीं करता है। प्र० - भगवन् ! क्या उस सूक्ष्म को स्पर्श करता है या स्थूल को स्पर्श करता है ? उ०- गौतम ! सूक्ष्म को भी स्पर्श करता है और स्थूल को भी स्पर्श करता है । प्र० - भगवन् ! क्या उस ऊर्ध्व - ऊपर को स्पर्श करता है, तिरछे को स्पर्श करता है, या नीचे को स्पर्श करता है ? उ०- गौतम ! ऊपर को भी स्पर्श करता है, तिरछे को भी स्पर्श करता है, नीचे को भी स्पर्श करता है । प्र० - भगवन् ! क्या उसे आदि में स्पर्श करता है, मध्य में स्पर्श करता है, अन्त में स्पर्श करता है ? उ०- गौतम ! आदि में भी स्पर्श करता है, मध्य में भी स्पर्श करता है, अन्त में भी स्पर्श करता है । प्र० - भगवन् ! क्या उसके स्वविषय को स्पर्श करता है, अविषय को स्पर्श करता है ? उ०- गौतम ! स्वविषय को स्पर्श करता है, अविषय को स्पर्श नहीं करता है । प्र० - भगवन् ! क्या उसे अनुक्रम से स्पर्श करता है, या विना अनुक्रम के स्पर्श करता है ? उ०- गौतम ! अनुक्रम से स्पर्श करता है, बिना अनुक्रम के स्पर्श नहीं करता है । प्र० - भगवन् ! उसे किस दिशा से स्पर्श करता है ? उ०- गौतम ! निश्चित छहों दिशाओं से स्पर्श करता है । अधोलोक आदि से धर्मास्तिकाय आदि का स्पर्श ६. प्र० -- भगवन् ! अधोलोक धर्मास्तिकाय का कितना स्पर्श करता है ? उ०- गौतम ! आधे से कुछ अधिक (धर्मास्तिकाय) का स्पर्श करता है । Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० लोक-प्रज्ञप्ति परिशिष्ट : अधोलोक आदि से धर्मास्तिकाय आदि का अवगाहन सूत्र ६-८ wwwwww १०–सिरियलोए णं भंते ! धम्मस्थिकायस्स केवइयं फसइ? प्र०-भगवन् ! तिर्यक्लोक धर्मास्तिकाय का कितना स्पर्श करता है? उ०-गोयमा ! असंखेज्जाइ भागं फुसइ । उ०-गौतम ! (धर्मास्तिकाय के) असंख्यातवें भाग का स्पर्श करता है। प०-उड्ढलोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं फुसइ? प्र०-भगवन् ! ऊर्ध्वलोक धर्मास्तिकाय का कितना स्पर्श करता है ? उ०-गोयमा ! देसूणं अद्धं फुसइ । उ०-गौतम ! कुछ कम आधे (धर्मास्तिकाय) का स्पर्श करता है। एवं अधम्मत्थिकाए, एवं लोयागासे वि । इसी प्रकार (अधोलोक, तिर्यक् लोक, और ऊर्ध्व लोक) अधर्मास्तिकाय का स्पर्श करते हैं। -भग. स. २, उ. १०, सु. १४-१६ (२२) इसी प्रकार (लोकाकाश अधर्मास्तिकाय) का स्पर्श करता है। अहोलोयाईहिं धम्मत्थिकायाईणं ओगाहणं- अधोलोक आदि से धर्मास्तिकाय आदि का अवगाहन७. ५०–अहे लोए णं भंते ! धम्मत्थिकायस्स केवइयं ओगाढे ? प्र०-भगवन् ! अधोलोक धर्मास्तिकाय का कितना अव गाहन करता है? उ०-गोयमा ! साइरेगं अद्ध ओगाढे । उ०-गौतम ! कुछ अधिक आधे का अवगाहन करता है। एवं जाव उड्ढलोए। इसी प्रकार यावत्-उर्बलोक पर्यन्त है। एवं अधम्मत्थिकाए, एवं लोयागासे वि । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का अवगाहन है। -भग. स. २०, उ. २, सु. ३ इसी प्रकार लोकाकाश का अवगाहन है। लोयालोयसेढीणं दव्वट्टयाए संखेज्ज-असंखेज्ज द्रव्य की अपेक्षा से लोकालोक की श्रेणियों का संख्येयअणंतत्तं असंख्येय और अनन्तत्व८.५०-सेढीओणं भंते ! दव्वयाए कि संखेज्जाओ, असंखे- प्र०-भगवन् ! द्रव्य की अपेक्षा लोकालोक की श्रेणियां ज्जाओ, अणंताओ? क्या संख्येय हैं, असंख्येय है, अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, उ०-गौतम ! संख्येय नहीं है. असंख्येय नहीं हैं, अनन्त हैं। अणंताओ। ५०-पाईण-पडीणाययाओ णं भंते ! सेढीओ दम्बट्ठयाए कि प्र०-भगवन् ! पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ द्रव्य संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, अणंताओ? की अपेक्षा क्या संख्येय हैं, असंख्येय हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो उ०-गौतम ! न संख्येय हैं, न असंख्येय हैं, अनन्त हैं । अणंताओ। एवं दाहिणुतराययाओ वि । इसी प्रकार दक्षिण से उत्तर पर्यन्त लम्बी श्रेणियां हैं। एवं उड्ढमहाययाओ वि। इसी प्रकार ऊपर से नीचे तक लम्बी श्रेणियाँ हैं । प०-लोयागाससेढीओ णं भंते ! दम्वट्ठाए कि संखेज्जाओ, प्र०-भगवन् ! द्रव्य की अपेक्षा लोकाकाश की श्रेणियाँ असंखेज्जाओ, अणंताओ? क्या संख्येय हैं, असंख्येय हैं या अनन्त हैं ? उ०-गायमा ! नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो अणंताओ। उ.-गौतम ! संख्येय नहीं हैं, असंख्येय हैं, अनन्त नहीं हैं । एवं पाईण-पडीणाययाओ वि । इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ हैं । एवं दाहिणुत्तराययाओ वि । इसी प्रकार दक्षिण से उत्तर पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ हैं। एवं उड्ढमहाययाओ वि। इसी प्रकार ऊपर से नीचे तक लम्बी श्रेणियाँ हैं । Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र परिशिष्ट : प्रदेश को अपेक्षा से लोकालोक की श्रेणियों का संख्येय, असंख्येय, अनन्तत्व गणितानुयोग ७५१ प०-अलोयागाससेढीओणं भंते ! दब्बट्रयाए कि संखेज्जाओ, प्र०-भगवन् ! द्रव्य की अपेक्षा अलोकाकाश की श्रेणियाँ असंखेज्जाओ, अणंताओ? क्या संख्येय हैं, असंख्येय हैं, या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, अणंताओ। उ०-गौतम ! संख्येय नहीं हैं, असंख्येय नहीं हैं, अनन्त हैं। एवं पाईण-पडीणाययाओ वि । इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी श्रेणियां हैं। एवं दाहिणुत्तराययाओ वि । इसी प्रकार दक्षिण से उत्तर पर्यन्त लम्बी श्रेणियां हैं। एवं उड्ढमहाययाओ वि। इसी प्रकार ऊपर से नीचे तक लम्बी श्रेणियाँ हैं। -भग. स. २५, उ. ३, सु. ६८-७६ लोयालोयसेढीणं पएसट्टयाए संखेज्ज-असंखेज्ज- प्रदेश की अपेक्षा से लोकालोक की श्रेणियों का संख्येय, अणंतत्तं असंख्येय, अनन्तत्व८.५०-सेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए कि संखेज्जाओ, प्र०-भगवन् ! प्रदेश की अपेक्षा से श्रेणियाँ क्या संख्येय असंखेज्जाभो, अणंताओ? हैं, असंख्येय हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! जहा दव्वट्ठयाए तहा पएसट्टयाए वि। उ०-गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से जैसा है वैसा ही प्रदेश की अपेक्षा से भी है। एवं पाईण-पडीणाययाओ वि-जाव-उड्ढमहाययाओ। इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ-यावत्सव्वाओ अणंताओ। ऊपर से नीचे तक लम्बी श्रेणियां सब अनन्त हैं। प०-लोयागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए कि संखेज्जाओ, प्र०-भगवन् ! प्रदेश की अपेक्षा से लोकाकाश की श्रेणियाँ असंखेज्जाओ, अणंताओ? __ क्या संख्येय हैं, असंख्येय हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! सिय संखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, नो उ०—गौतम ! कभी संख्येय हैं, कभी असंख्येय हैं, अनन्त अणंताओ। नहीं हैं। एवं पाईण-पडीणाययाओ वि, दाहिणुत्तराययाओ वि। इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ भी हैं । दक्षिण और उत्तर पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ भी हैं। उड्ढमहाययाओ नो संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, नो ऊपर से नीचे तक लम्बी श्रेणियाँ संख्येय नहीं है, असंख्येय अणंताओ। हैं, अनन्त नहीं हैं। ५०-अलोयागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए कि प्र०-भगवन् ! प्रदेश की अपेक्षा से अलोकाकाश की संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, अणंताओ? श्रेणियाँ क्या संख्येय हैं, असंख्येय हैं या अनन्त हैं ? २०-गोयमा ! सिय संखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, सिय उ०—गौतम ! कभी संख्येय हैं, कभी असंख्येय हैं और कभी अणंताओ। अनन्त हैं। ५०-पाईण-पडीणाययाओ णं भंते ! अलोयागाससेढीओ प्र०-भगवन् ! प्रदेश की अपेक्षा से पूर्व से पश्चिम पर्यन्त पएसट्टयाए कि संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, अणंताओ? लम्बी अलोकाकाश की श्रेणियाँ क्या संख्येय हैं, असंख्येय हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखेज्जाओ, उ०-गौतम ! न संख्येय हैं, न असंख्येय हैं, अनन्त हैं। अणंताओ। एवं दाहिणुत्तराययाओ वि । इसी प्रकार दक्षिण से उत्तर पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ भी हैं। प०-उड्ढमहाययाओ णं भंते ! अलोयागाससेढीओ पएस- प्र०-भगवन् ! प्रदेश की अपेक्षा से ऊपर से नीचे तक ट्ठयाए कि संखेज्जाओ, असंखेज्जाओ, अणंताओ? लम्बी श्रेणियाँ क्या संख्येय हैं, असंख्येय हैं या अनन्त हैं ? उ०-गोयमा ! सिय संखेज्जाओ, सिय असंखेज्जाओ, सिय ७०-गौतम ! कभी संख्येय हैं, कभी असंख्येय हैं और कभी अणंताओ। अनन्त हैं। -भग. स. २५, उ. ३, सु. ८०.८७ Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ लोक- प्रज्ञप्ति परिशिष्ट : लोकालोक की श्रेणियाँ सादिसपर्यवसितत्व आदि लोपालोयसेटीणं सादीय सपज्जबसियाइत - ६. प० – सेढीओ णं भंते ! कि (१) सादीयाओ सपज्जर सियाओ, (२) सादीयाओ अपज्जवसियाओ, (३) अणावीयाओ सपज्जवसियाओ, (४) अगादीयामो अप उ०- गोयमा ! (१) नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ, (२) नो साहया असियाओ (३) नो अणादीयाओ सपज्जवसियाओ. (४) अणादीयाओ अपज्जवसियाओ । एवं पाईण पडीणाययाओ वि जाव उड्ढमहाययाओ । प० - लोयागाससेढीओ णं भंते ! कि (१) सादीयाओ सपज्जवसियाओ जाव(२-४) अणादीबाओ पाओ उ० – गोयमा ! (१) सादीयाओ सपज्जवसियाओ । (२) नो सादीयाओ अपज्जवसियाओ । (३) नो अणावीयाओ सपज्जवसियाओ । (४) नो अणादीयाओ सपज्जवसियाओ । एवं पाग पडीगावया विना उमाययाओ प० - अलोयागाससेढीओ णं भंते ! कि (१) सादीयाओ सपज्जवसियाओ - जाव (२४) पाओ अपनाओ ? उ०- गोयमा ! (१) सिय सादीयाओ सपज्जबसियाओ । (२) सिय सादीयाओ अपज्जवसियाओ । (३) सिय अणादीयाओ सपज्जवसियाओ । (४) सिय अणादीयाओ अपज्जवसियाओ । पाण पडणाययाओ दाहिणुत्तराययाओ य एवं चेव । नवरं - नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ । सिय सादीयाओ अपज्जवसियाओ । सेसं तं चैव । उद्दमहापयाओ जहा ओहियाओ तब चउमंगे । - भग. स. २५, उ. ३, सु. ८८-९४ लोकालोक की श्रणिय सादिसपर्यवसितत्व आदि प्र०- -भगवन् ! श्रेणियां क्या (१) सादि सान्त है, (२) सादि अनन्त है, (३) अनादि सान्त है. (४) अनादि अनन्त हैं ? उ०- गौतम ! ( १ ) सादि सान्त नहीं हैं, (२) सादि अनन्त नहीं हैं, (३) अनादि सान्त नहीं हैं, (४) अनादि अनन्त हैं । इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ भी हैं - यावत् — उपर से नीचे तक लम्बी श्रेणियां भी हैं। प्र०—- भगवन् ! लोकाकाश श्रेणियाँ क्या (१) सादि सान्त हैं - यावत् (२-४) अनादि अनन्त हैं ? उ०- गौतम ! ( १ ) सादि सान्त हैं, (२) सादि अनन्त नहीं हैं, (३) अनादि सान्त नहीं हैं, (४) अनादि अनन्त नहीं है । इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी लोकाकाश श्रेणियाँ भी हैं - यावत् - ऊपर से नीचे तक लम्बी लोकाकाश श्रेणियाँ भी हैं । प्र० - भगवन् ! अलोकाकाश श्रेणियाँ क्या (१) सादि सान्त हैं - यावत् ( २-४ ) अनादि अनन्त हैं ? सूत्र उ०- गौतम ! (१) कभी सादि सान्त हैं, (२) कभी सादि अनन्त हैं, (३) कभी अनादि सान्त हैं, (४) कभी अनादि अनन्त है। इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी अलोकाकाश श्रेणियाँ और दक्षिण से उत्तर पर्यन्त लम्बी अलोकाकाश श्रेणियां हैं। विशेष - सादि सान्त नहीं हैं, कभी सादि अनन्त हैं । रोष पूर्ववत् है। जैसी सामान्य श्रेणियाँ हैं वैसी ही ऊपर से नीचे तक लम्बी अलोकाकाश श्रेणियों की चोमंगी हैं। Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र १० १ परिशिष्ट : द्रव्य की अपेक्षा और प्रदेशों की अपेक्षा से लोकालोक श्रेणियों का कृत्य युग्मावित्व गणितानुयोग लोयालोयसेढीणं दव्वट्टयाए, पएसट्टयाए य कडजुम्मा- द्रव्य की अपेक्षा से और प्रदेशों की अपेक्षा से लोकालोक इयत्तश्रेणियों का कृतयुग्मादित्व १० प० - सेढीओ णं भंते ! दव्वट्टयाए कि प्र० - भगवन् ! द्रव्य की अपेक्षा से श्रेणियाँ क्या(१) कृतयुग्म हैं: (२) योज हैं, (१) कडजुम्माओ, (२) तेओयाओ । (३) र (३) द्वापरयुग्म हैं, (४) कल्योज हैं ?१ ० गौतम (१) युग्म है. (२) न योष है, (३) न द्वापरयुग्म हैं, (४) न करवोज है। इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ हैं - यावत् - ऊपर से नीचे तक लम्बी श्रेणियाँ हैं । द्रव्य की अपेक्षा से लोकाकाश श्रेणियाँ भी इसी प्रकार हैं। द्रव्य की अपेक्षा से अलोकाकाश श्रेणियाँ भी इसी प्रकार हैं । प्र० - भगवन् ! प्रदेशों की अपेक्षा से श्रेणियाँ क्या (१) कृतयुग्म हैं, (२) योज हैं, (२) द्वापरयुग्म है, (४) कस्योज हैं ? (४) कलियोगाओ ? माओ (२) नो भीपाओ (३) नो दावरजुम्माओ, (४) नो कलियोगाओ । एवं पाईण-पडीणाययाओ-जाव- उड्ढमहाययाओ । ३० गोपमा (1) लोयागास सेडीओ एवं चैव एवं अलोयागास सेढीओ वि । प० - सेढीआ णं भंते ! पएसटूयाए कि (१) कडजुम्माओ, (२) तेओयाओ, (३) दावरजुम्माओ, (४) कलियोगाओ ? ३० - गोपमा (१) कम्बाओ (२) मोतेोयाओ (३) नो बाबरनुमाओ (४) जो कलियोगाओ। एवं पापडीगामनाओ नाव-उद्द्महावपाभो । प० -लोयागास सेढीओ णं भंते ! पएसटुयाए कि (१) म्यामो-जा (२-४) कलिगाओ ? उ०- गोया ! (१) सियाओ (२) बो ओ (३) सावरमाओ (४) तो कलियाओ । एवं पाईण पडीणाययाओ वि, दाहिणुत्तराययाओ वि । प० उमहापाओ मंते ! कि (१) कडजुम्माओ - जाव ( २-४ ) कलिओगाओ ? उ०- गोयमा ! (१) कडजुम्माओ, (१) नो तेओयाओ, (३) नो बावरजुम्माओ, (४) नो कलिओगाओ । उ०- गौतम (१) कृतयुग्म है, (२) न योज है. (३) न द्वापरयुग्म हैं, (४) न कल्योज हैं । ७५३ इसी प्रकार प्रदेशों की अपेक्षा से पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ हैं— यावत् — ऊपर से नीचे तक लम्बी श्रेणियाँ हैं । प्र० - भगवन् ! प्रदेशों की अपेक्षा से लोकाकाश श्रेणियाँ क्या (१) कृतयुग्मा (२४) रोज हूँ? उ०- गौतम (१) कभी कृतयुग्म हैं. (२) योज नहीं हैं, (३) कभी द्वापरयुग्म है (४) कस्योज नहीं है। इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ भी हैं और दक्षिण से उत्तर पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ भी हैं । प्र० - भगवन् ! प्रदेशों की अपेक्षा से ऊपर से नीचे तक लम्बी श्रेणियाँ क्या - (१) कृतयुग्म है यावत् (२-४) कल्पोज है ? उ०- गौतम ! (१) कृतयुग्म हैं, (२) न त्र्योज हैं, (२) न द्वापरयुग्म है, (४) न कस्योज है। इनकी परिभाषा इस प्रकार है (१) कृतयुग्म - राशि में से चार-चार घटाने पर शेष चार रहे, जैसे–८, १२, १६, २०........ (२) व्योज - राशि में से चार-चार घटाने पर शेष तीन रहे, जैसे- ७, ११, १५, १६ (३) द्वापर युग्म - राशि में से चार-चार घटाने पर शेष दो रहे, जैसे-६, १०, १४, १८... (४) कल्योज - राशि से चार बार घटाने पर एक शेष रहे, जैसे – ५, ६, १३, १७, २१ - स्थानांगवृत्ति, पत्र २२६ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५४ लोक-प्रज्ञप्ति परिशिष्ट : माप-निरूपण सूत्र १०-११ प०-अलोयागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए किं- प्र०-भगवन् ! प्रदेशों की अपेक्षा से अलोकाकाश श्रेणियाँ क्या(१) कडजुम्माओ-जाव (२-४) कलियोगाओ? (१) कृतयुग्म है यावत्-(२-४) कल्योज हैं ? उ०-गोयमा ! (१) सिय कडजुम्माओ-जाव (२-४) सिय उ०-गौतम ! (१) कभी कृतयुग्म है-यावत्कलियोगाओ। (२-४) कभी कल्योज है। एवं पाईण-पडीणाययाओ वि । इसी प्रकार पूर्व से पश्चिम पर्यन्त लम्बी श्रेणियाँ भी हैं। एवं दाहिणुत्तराययाओ वि । इसी प्रकार दक्षिण से उत्तर पर्यन्त लम्बी श्रेणियां भी हैं । उड्ढमहाययाओ वि एवं चेव । इसी प्रकार ऊपर से नीचे तक लम्बी श्रेणियाँ भी हैं। नवरं-नो कलियोगाओ । सेस तं चेव । विशेष-कल्योज नहीं है, शेष पूर्ववत् । -भग. स. २५, उ. ३, सु. ६५-१०७ सेढीणं सत्त भेया श्रेणियों के सात भेद११.५०-कति णं भंते ! सेढीओ पण्णताओ? प्र०-भगवन् ! श्रेणियाँ कितनी कही गई है ? उ०-गोयमा ! सत्तसेढीओ पण्णत्ताओ, तं जहा उ०-गौतम ! श्रेणियाँ सात कही गई हैं, यथा(१) उज्जु आयता, (२) एगओ वंका, (३) दुहओ (१) ऋजु आयत, (२) एक ओर से वक्र, (३) दो ओर से वंका, (४) एगओ खहा, (५) दुहओ खहा, वक्र, (४) एक ओर से क्षत, (५) दो ओर से क्षत, (६) चक्रवाल, (६) चक्कवाला, (७) अद्धचक्कवाला । (७) अर्धचक्रवाल । -भग. स. २५, उ. ३, सु. १०८ परिशिष्ट :२ माव-निरुवणं माप-निरूपण खेत्तप्पमाण परूवणं क्षेत्र प्रमाण प्ररूपण१.५०-से कि तं खेत्तप्पमाणे ? १. प्र०-भगवन् ! वह क्षेत्र प्रमाण क्या है ? उ०-खेत्तप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा उ०-क्षेत्र प्रमाण दो प्रकार का कहा है । यथा(१) पदेसनिप्फणे य, (२) विभागनिष्फण्णे य । (१) प्रदेशनिष्पन्न और (२) विभागनिष्पन्न । ५०-से कि तं पदेसनिप्फण्णे? प्र०-प्रदेशनिष्पन्न का स्वरूप क्या है ? उ०-पदेसनिप्फणे-एग पदेसोगाढे-जाव-बस पदेसोगाढे उ-प्रदेश निष्पन्न का स्वरूप इस प्रकार है-एक प्रदेशा संखेज्जपदेसोगाढे, असंखेज्जपदेसोगाढे, से तं पएस वगाढ, (दो प्रदेशावगाढ)-यावत्-दस प्रदेशावगाढ, संख्यात निप्पण्णे । प्रदेशावगाढ तथा असंख्यात प्रदेशावगाढ । १०-से कि तं विभाग निष्फण्णे? प्र०—विभाग निष्पन्न का स्वरूप क्या है ? उ०-संगहणी गाहा उ०-(विभाग निष्पन्न अनेक प्रकार का है) यथा-संग्रहणी गाथा के अनुसार(१) अंगुल, (२) विहत्थी, (३) रयणी, (१) अंगुल, (२) वितस्ति (बैंत), (३) रत्नी, (४) कुक्षी, (४) कुच्छी , (५) धणु, (६) गाउयं च बोधव्वं । (५) धनु, (६) गाऊ (कोश), (७) योजन, (८) श्रेणी, (७) जोयण, (८) सेढी, (९) पयरं, (९) प्रतर तथा (१०) लोक-अलोक । (१०) लोगमलोगे वि य तहेव । Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र २ माप-निरूपण :-क्षेत्र-प्रमाण प्ररूपण गणितानुयोग ७५५ २. ५०-से कि तं अंगुले ? २. प्र०- अंगुल का स्वरूप क्या है ? उ०-अंगुले तिविहे पण्णत्ते, तं जहा उ०--अंगुल तीन प्रकार का कहा है, यथा(१) आयंगुले, (२) उस्सेहंगुले, (३) पमाणगुले। (१) आत्मांगुल, (२) उत्सेधांगुल, (३) प्रमाणांगुल । प०-से किं तं आयंगुले ? प्र०-आत्मांगुल क्या है ? उ०-आयंगुले-जे ण जया मणुस्सा भवंति, ते णं तया उ.-जिस काल में जो मनुष्य होते हैं, उनकी अपनी अंगुल अप्पणो अंगुलेणं दुवालस अंगुलाई मुहं; नवमुहाई आत्मांगुल है । उसकी बारह अंगुल प्रमाण का एक मुख होता है। पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ, दोणिए पुरिसे माणजुत्ते भवइ, नौ मुख-प्रमाण एक पुरुष होता है । द्रोणी प्रमाण पुरुष प्रमाण युक्त होता है।' अद्धभारं तुलमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ । अर्द्धभार प्रमाण तुला हुआ पुरुष (तराजू में बैठा हुआ पुरुष अर्द्धभार प्रमाण तुलने पर) उन्मानयुक्त होता है । एत्य संगहणी गाहाओ संग्रहणी गाथाएँमाणुम्माणपमाणजुत्ता लक्खण-वंजण-गुणेहि उववेया। मान-उन्मान-प्रमाण से युक्त, लक्षण (शंख, स्वस्तिक आदि) उत्तमकुलप्पसूया उत्तमपुरिसा मुणेयब्वा ॥ व्यंजन (तिल मष आदि) तथा गुणों (औदार्य गांभीर्य आदि) से सम्पन्न, उत्तम कुल में उत्पन्न पुरुष उत्तम पुरुष माने जाते हैं । होंति पुण अहिय पुरिसा, अट्ठसयं अंगुलाण उम्बिद्धा ॥ ये उत्तम पुरुष १०८ अंगुल प्रमाण ऊँचे होते हैं। अधम छण्णउइ अहमपुरिसा, चउहत्तर मजिनमिल्ला उ॥ पुरुष ६६ अंगुल तथा मध्यम पुरुष १०४ अंगुल ऊँचे होते हैं । हीणा वा अहिया वा; जे खलु-सर-सत्त-सारपरिहीणा ॥ ये हीन पुरुष तथा अधिक (मध्यम) पुरुष जो कि स्वर-सत्त्वते उत्तमपुरिसाणं, अवसा पेसत्तणमुर्वेति ॥ सार-शुभ पुद्गलों से हीन होते हैं वे पराधीन रहकर उत्तम पुरुषों का प्रेष्यत्व-सेवा-चाकरी करते हैं। एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, इस अंगुल प्रमाण से छह अंगुल का एक पाद, दो पादा विहत्थी, दो पाद की एक वितस्ति, दो विहत्थीओ रयणी, दो वितस्ति की एक रत्नि, दो रयणीओ कुच्छी, दो रनि की एक कुक्षी, दो कुच्छीओ दंड, धणू जुगे नालिया अक्खमुसले, दो कुक्षी का एक दण्ड, एक धनुष, एक युग, एक नालिका, एक अक्ष तथा एक मूसल होता है । (सभी समानार्थक) दो धणुसहस्साई गाउयं, दो हजार धनुष का एक गव्यूत होता है। चत्तारि गाउयाई जोयणं । चार गव्यूत (गाऊ) का एक योजन होता है। प०-एएणं आयंगुलप्पमाणेणं किं पओयणं? प्र०-इस आत्मांगुल प्रमाण से किस प्रयोजन की सिद्धि होती है ? उ०-एएणं आयंगुलप्पमाणेणं जे णं जया मणुस्सा भवंति, उ०-जिस काल में जो मनुष्य होते हैं, उनके इस आत्मां तेसि णं तया अप्पणो अंगुलेणं अगड-बह-नदी-तलाग- गुल प्रमाण से इन सब का नाप किया जाता है-कूप, ह्रद, नदी, बावी-पुक्खरणी-बीहिया-गुजालियाओ, सरा सरपंति- तालाब, बाबड़ी, पुष्करिणी, (कमल युक्त जलाशय) दीपिका (लम्बी याओ सरसरपंतियाओ, बिलपंतियाओ; बावड़ी) गुजालिका (वक्राकार बावड़ी) सर (प्राकृतिक जलाशय) सरपंक्ति, सरसरपंक्ति, बिल पंक्ति, उक्त कथन के अनुसार १०८ आत्मांगुल की ऊँचाई वाला पुरुष प्रमाण होता है । द्रोणी पुरुष का अर्थ है-एक दोणी (जल कुण्ड-हौज) परिपूर्ण जल से भर लेने पर कोई पुरुष जब उसमें प्रवेश करे तो एक द्रोण प्रमाण जल बाहर निकल जावे, उस पुरुष का प्रमाण द्रोणिक मात्र अर्थात् उस पुरुष को प्रमाण पुरुष माना जाता है। -अनुयोग. टीका Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०५६ परिशिष्ट : २ , आरामुज्जाण काणण-वण-वणसंड, वणराईओ । आराम, उद्यान, कानन वन, वनखंड, वनराजि, देवकुल, देवकुल सभापवा धूम-खाइय-परिहास सभा, प्रपा, स्तूप, खातिका परिक्षा (साई), प्राकार, अट्टालिका, पागारट्टा लग - चरिय-दार गोपुर- तोरण-पासाद-घर-सरण चरिका द्वार, गोपुर, प्रासाद, गृह, शरण, लयन, आपण, -लेण आवण- सिंघाडग-तिय- चउक्क- चच्चर- चउमुह-महा- श्रृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख, महापथ पथ, पह-पहा । 1 सग-रह---गिल्सि बिल्लि सोय-संमाणियलोही- लोहकडाह- कडुच्छ्रय आसण सतण-खंभ-मंड-मतोवगरणमाइणि, अज्जकालिगाई व जोयणाई मविज्जति । से समास तिविहे प (१) सूईअंगुले, (२) पयरंगुले, (२) घणंगुले । ( १ ) अंगुलायया एग पएसिया सेढी सूयीअंगुले । (२) सूई एशिया परंगुले, (३) पयरं सूईए गुणियं घणंगुले । प० एएस सूई अंगुल-परंगुन-गुना हिंतो अप्पेबाजावविरोसाहिए बा ? उ०- सव्वत्थोवे सूई अंगुले, परंतु असणे, घणंगले असंखेज्जगुणे से तं आयंगुले । माप-निरूपण प० - से किं तं उस्सेहंगुले ? उ०- उस्सेहंगुले अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा संग्रहणी गाहा— (१) परमाणु, (२) तसरेणू, (३) रहरेणू, (४) अग्गयं च बालस्स, (५), (६), (७)जयो अट्टगुणविया मो॥ ३. ५० - से किं तं परमाणू ? उ०- परमाणु दुबिहे पण्णत्ते, तं जहा (१) (२) वावहारिए प तत्थ णं जे सहमे से ठप्पे । रे-रे प से किसे बावहारिए ? उ०- वावहारिए अनंताणं सुहुम परमाणु पोग्गलाणं समुदय समिति समागमेणं से एगे वावहारिए परमाणु पोगले निष्फज्जइ । सूत्र २-३ शकट, रथ, यान, युग्म, गिलि, थिलि, शिबिका, स्यन्दमानिका, लौही, लोह कटाही, कटल्लिका, आसन, सतण, स्तम्भ, भांड, अमत्र उपकरण आदि अपने-अपने समय में उत्पन्न हुई वस्तुएँ तथा योजन आदि का नाप - आत्मांगुल से किया जाता हैं। यह आत्मांगुल संक्षेप में तीन प्रकार का है, यथा(१) सूच्यंगुल, (२) प्रतरांगुल और (३) घनांगुल । (१) एक अंगुल लम्बी तथा बाहुल्य की अपेक्षा एक प्रदेश प्रमाण (मोटी ) प्रदेश श्रेणी का नाम सूच्यंगुल है । (२) सूच्यंगुल को सूच्यंगुल के साथ गुणा करने पर प्रतरांगुल होता है। ( ३ ) प्रतर को सूच्यंगुल से गुणा करने पर घनांगुल होता है । प्र० – इनमें से सूची अंगुल - प्रतरांगुल घनांगुल-कौन किससे अल्प है, कौन किससे बहुत है ? उ०- सबसे कम सूच्यंगुल है । सूच्यंगुल से असंख्यात गुण प्रतरांगुल है । प्रतरांगुल से असंख्यात गुण घनांगुल है । इस प्रकार आत्मागुल का प्रमाण है । प्र० उधास क्या है ? उ० - उत्सेधांगुल अनेक प्रकार का कहा है, यथा संग्रहणी गाथा - (१) परमाणु ( २ ) त्रसरेणु, (३) रथरेणु, (४) बालाग्र, (५) लिक्षा, (६) यूका, (७) यव ये क्रमशः उत्तरोत्तर आठ गुने हैं । प्रo - परमाणु का स्वरूप क्या है ? उ०- परमाणु दो प्रकार का है, यथा (१) सूक्ष्म और ( २ ) व्यावहारिक परमाणु । जो सूक्ष्म परमाणु है, वह अव्याख्येय है, अतः वर्णन छोड़ दिया गया है। प्र० व्यावहारिक परमाणु क्या है ? उ०- वह व्यावहारिक परमाणु अनन्तानन्त सूक्ष्म परमाणु पुद्गलों के समुदय समिति समागम – एकीभवन रूप संयोगात्मक मिलन से उत्पन्न होता है । - Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र ३-४ परिशिष्ट २ : माप-निरूपण गणितानुयोग ७५७ १०-से गं असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेज्जा ? प्र०-क्या वह व्यावहारिक परमाणु तलवार या क्षुर (छुरे) की धार का अवगाहन (उन पर आक्रमण) कर सकता है। उ.-हंता ! ओगाहेज्जा। उ०-हाँ ! कर सकता है। ५०-से गं तत्थ छिज्जेज्ज वा, भिज्जेज्ज वा ? प्र०-क्या वह उनसे छिन्न (दो टुकड़े) अथवा भेदा जा सकता है ? उ०-नो इण8 सम?', नो खलु तत्य सत्थं कमति । उ०-ऐसा संभव नहीं ! उसके ऊपर शस्त्र का प्रभाव नहीं पड़ता। प०-से गं तत्यं अगणिकायस्स मज्झ मज्मेणं बोईवएज्जा? प्र०-क्या वह (व्यावहारिक परमाणु) अग्निकाय के मध्य भाग से निकल सकता है ? उ०-हंता ! बीईवएज्जा। उ०-हाँ ! निकल सकता है। प०-से गं तत्थ डहेज्जा ? प्र०-क्या वह अग्निकाय से जल जाता है ? उ०-नो इण8 सम?, नो खलु तत्थ सत्यं कमइ । उ०-नहीं, ऐसा सम्भव नहीं है । ५०-से णं पुक्खल संवट्टस्स महामेहस्स मज्ज्ञ मज्झणं बीई- 'प्र०-क्या वह पुष्कल संवर्तक महामेघ के बीचोबीच निकल वएज्जा? जाता है ? उ०-हंता ! वोईवएज्जा। उ०-हाँ ! निकल जाता है। प०-से णं तत्थ उदउल्ले सिया ? प्र०-क्या वह पानी से गीला हो जाता है ? उ०-नो इण8 सम8, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । उ०-नहीं, यह अर्थ समर्थ नहीं (ऐसा सम्भव नहीं)। प०-से णं गंगाए महाणईए पडिसोयं हव्वमागच्छेज्जा ? प्र०-क्या वह गंगा महानदी के प्रवाह के बीच से (प्रति स्रोत से) शीघ्र जा सकता है ? उ०-हता ! हव्वमागच्छेज्जा। उ०—हाँ ! जा सकता है । प०-से णं तत्थ विणिधायमावज्जेज्जा? प्र०-क्या वह प्रतिस्रोत में चलने से प्रतिस्खलना को प्राप्त होता है ? उ०-नो इगट्ठ सम? । नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । उ०-नहीं! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प०-से गं उदगावत्तं वा उदबिंदु वा ओगाहेज्जा ? प्र०-क्या बह उदकावर्त (जल भ्रम) से अथवा उदक बिन्दु में अवगाहित हो सकता है ? उ०-हंता ! ओगाहेज्जा। उ० हाँ ! हो सकता है। ५०-से णं तत्थ कुच्छेज्ज वा परियावज्जेज्ज वा? प्र०-तो क्या वह वहां सड़ जाता है ? या जलरूप में परि णत हो जाता है ? उ०-नो इण8 सम? । नो खलु तत्थ सत्थं कमइ । उ०-नहीं ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ? एत्थ संगहणी गाहा यहाँ संग्रहणी गाथा हैसत्येण सुतिखेण वि छत्तु भेत्तु व जं किर न सका। केवलज्ञानियों ने कहा है-परमाणु सुतीक्ष्ण शस्त्र से भी तं परमाणु सिद्धावयंति आई पमाणाणं ॥ छेदा-भेदा नहीं जा सकता। यह परमाणु प्रमाणों में आदि प्रमाण है, (अर्थात सभी प्रमाणों की गणना इसी आधार पर की जाती है)। ४. अणंताणं वावहारियपरमाणु पोग्गलाणं समुदय-समितिसमा- ४. अनन्तानन्त व्यावहारिक परमाणु पुद्गलों के संयोग से जो गमेणं सा एगा उस्साहसहिया इ. वा, सहसण्हिया इ वा, उत्पन्न होता है, वह एक उत्पलक्ष्णश्लक्ष्णिका है। श्लक्ष्णउड्ढरेणु इ वा, तसरेणू इवा, रहरेणू इ वा । श्लक्ष्णिका, ऊर्वरेणु, त्रसरेणु, रथरेणु आदि क्रमशः जानना चाहिए। Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०५८ परिशिष्ट : २ । उत्सेधांगुल के प्रकार अट्ठ उस्सह सण्हियाओ सा एगा सहसण्हिया। आठ उत्श्लक्ष्णश्लक्षिणका से एक श्लक्ष्णश्लक्षिणका, अट्ठ सहसण्हियाओ सा एगा उड्ढरेणू । आठ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका से एक ऊर्ध्वरेणु, अट्ठ उड्ढरेणूओ सा एगा तसरेणू । आठ ऊर्ध्वरेणु से एक त्रसरेणु, अट्ट तसरेणूओ सा एगा रहरेणू।। आठ त्रसरेणु से एक रथरेणु, अट्ठ रहरेणूओ देवकुरु-उत्तरकुरुयाणं मणुयाणं से एगे बालग्गे।। आठ रथरेणु प्रमाण देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। अट्ठ देवकुरु-उत्तरकुख्याणं मणुयाणं वालग्गा हरिवास- देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यों के आठ बालाग्र प्रमाण हरिवर्षरम्मगवासाणं मणुयाणं से एगे बालग्गे। रम्यवर्ष के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है । अट्ट हरिवास-रम्मगवासाणं मणुयाणं बालग्गा हेमवय हेरण्ण- हरिवर्ष-रम्यक्वर्ष के मनुष्यों के आठ बालाग्र प्रमाण हेमवतवयवासाणं मणुयाणं से एगे बालग्गे। हेरण्यवत क्षेत्र के मनुष्यों का एक बालाग्र होता है। अट्ट हेमवय हेरण्णवयवासाणं मणुयाणं बालग्गा, हेमवत-हैरण्यवत के मनुष्यों के आठ बालाग्र प्रमाण पूर्वविदेह पुव्वविदेह अवरविदेहाणं मणुयाणं से एगे बालग्गे। एक अपर विदेह के मनुष्यों का एक बालान"। अट्ट पुव्वविदेह-अवरविदेहाणं मणुयाणं बालग्गा भरहेरवयाणं पूर्वविदेह-अपर विदेह के मनुष्यों के आठ बालान प्रमाण मणुयाणं से एगे बालग्गे। भरत-ऐरवत के मनुष्यों का एक बालान। अट्ठ भरहेरवयाणं मणुयाणं बालग्गा सा एगा लिक्खा। भरत-ऐरवत के मनुष्यों के आठ बालाग्र प्रमाण की एक लिक्षा होती है। अट्ठ लिक्खाओ सा एगा जूया । आठ लिक्षा प्रमाण एक यूका, अट्ठ जूयाओ से एगे जवमज्झे । आऊ यूका प्रमाण एक यवमध्य, अट्ठ जवमझे से एगे उस्सेहंगुले । आठ यवमध्य का एक उत्सेधांगुल, एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पादो । उसी क्रम से छह अंगुलों का एक पाद होता है, बारस अंगुलाई विहत्थी। बारह अंगुल (२ पाद) की एक वितस्ति, चउवीसं अंगुलाई रयणी। चौबीस अंगुल की एक रयणी रत्नि, अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी। अड़तालीस अंगुल की एक-एक कुक्षि, छण्णउई अंगुलाई से एगे दंडे इ वा, घणू इ वा, जुगे इ वा, छियानवे अंगुल का एक दण्ड, इसी प्रमाण को एक धनुष, नालिया इ वा, अक्खे इ वा, मुसले इ वा। एक युग, एक नालिका, एक अक्षा तथा एक नालिका भी कहते हैं। एएणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साई गाउयं । __ इस धनुष प्रमाण से दो हजार धनुष का एक गव्यूत (गाऊ) चत्तारि गाउयाई जोयणं । तथा-चार गव्यूत (गाऊ-क्रोश) का एक योजन होता है। ५. ५०-एएणं उस्सेहंगुलेणं किं पओयणं? ५. प्र०-भगवन् ! इस उत्सेध अंगुल का प्रयोजन क्या है ? उ०-एएणं उस्सेहंगुलेणं गैरइय-तिरिक्ख जोणिय-मणूस- उ०-इस उत्सेधांगुल से नारक-तिर्यच-मनुष्य और देवों के देवाणं सरीरोगाहणाओ मविज्जंति । शरीर की अवगाहना नापी जाती है । -अणु० सु० ३३०-३४६ उत्सेध अंगुल के प्रकार उत्सेधांगुल के प्रकार६. से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा ६. यह उत्सेधांगुल संक्षेप में तीन प्रकार का कहा है, यथा(१) सूईअंगुले, (२) पयरंगुले, (३) घणंगुले । (१) सूच्यं गुल, (२) प्रतरांगुल और (३) घनांगुल । (१) अंगुलायया एगपएसिया सेढी सूईअंगुले। (१) एक अंगुल लम्बी तथा एक प्रदेश मोटी जो नमःप्रदेश श्रेणी है, उसका नाम सूच्यंगुल है । (२) सूई सूईए गुणिया पयरंगुले। (२) सूची को सूची से गुणित करने पर प्रतरांगुल बनता है। (३) पयरं सूईए गुणियं घणंगुले । (३) सूची से गुणित प्रतरांगुल-पनांगुल कहलाता है। Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २: प्रमाणांगुल गणितानुयोग ७५६ ७. ५०-एएसि णं सूईअंगुल-पयरंगुल-घणंगुलाणं कयरे कयरे. ७. प्र०-भगवन् ! इन सूच्यंगुल आदि में कौन किससे अल्प हितो अप्पे वा-जाव-विसेसाहिए वा ? है, कौन किससे अधिक है ? तथा कौन किससे विशेषाधिक है ? उ०-सव्वत्थोवे सूईअंगुले उ०-इनमें सबसे कम सूच्यंगुल है, पयरंगुले असंखेज्जगुणे उससे असंख्यातगुण प्रतरांगुल है, घणंगुले असंखेज्जगुणे से तं उस्सेहंगुले उससे असंख्यातगुण धनांगुल है। इस प्रकार यह उत्सेधांगुल प्रमाण है। पमाणंगुले प्रमाणांगुल८. ५०-से कि तं पमाणंगुले ? ८. प्र०-प्रमाण अंगुल क्या है ? उ०-पमाणंगुले-एगमेगस्स णं रण्णो चाउरतचक्कवट्टिस्स उ.-(प्रमाणांगुल इस प्रकार है-) एक-एक चातुरन्त अट्ठ सोवण्णिए कागिणिरयणे दुवालसंसिए अट्ठकण्णिए चक्रवर्ती राजा का अष्ट सुवर्ण प्रमाण एक काकिणी रत्न होता अहिगरणिसंठाणसंठिए पण्णत्ते। है। वह काकिणी रत्न छह तल (चारों दिशाओं की ओर के ४ तल, तथा ऊपर और नीचे =यों छह तल) वाला उसकी.१२ कोटि तथा आठ कणिकाएँ होती हैं, सुनार की एरण जैसा उसका आकार होता है। तस्स णं एगमेगा कोडी उस्सेहंगुल विक्खंभा उस काकिणी रत्न की एक कोटि उत्सेधांगुल प्रमाण चौड़ाई होती है। तं समणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धंगुलं; तं सहस्स- इसकी एक कोटि का जो उत्सेधांगुल है, वह श्रमण भगवान गुणं पमाणंगुलं भव महावीर का अर्धांगुल प्रमाण है। और उस अर्धांगुल से हजार गुणा एक प्रमाणांगुल होता है । एएणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पादो, दो पादा, इस अंगुल प्रमाण से छ अंगुल का एक पाद, दो पाद अथवा दुवालसअंगुलाई विहत्थी, बारह अंगुल की एक वितस्ति । दो विहत्थीओ रयणी, दो वितस्ति की एक रत्नि। दो रयणीओ कुच्छी। दो रनि की एक कुक्षि । दो कुच्छीओ धणू, दो धणुसहस्साई गाउयं, चत्तारि दो कुक्षि का एक धनुष और दो हजार धनुष का एक गव्यूत गाउयाई जोयणं। (गाऊ) एवं चार गव्यूत का एक योजन होता है। प०-एएणं पमाणंगलेणं कि पओयणं?: प्र०--इस प्रमाण अंगुल से क्या प्रयोजन है। उ०-एएणं पमाणंगुलेणं उ०-इस प्रमाण अंगुल से रसप्रभा पृथ्वी के काण्डों का, पुढवीणं कंडाणं, पायालाणं भवणाणं भवणपत्थडाणं, पाताल कलशों का, भवनपति देवों के भवनों का, नरकों के निरयाणं निरयावलियाणं निरयपत्थडाणं कप्पाणं प्रस्तटों के अन्तर में स्थित भवन प्रस्तटों का, नरकावासों का, विमाणाणं विमाणावलियाणं विमाणपत्थडाणं, नरकावासों की पंक्तियों का, नरकों के प्रस्तटों का, सौधर्म आदि टंकाणं कूडाणं सेलाणं सिहरीणं पदभाराणं विजयाणं कल्पों का, उनके विमानों का, उनकी विमान पंक्तियों का, विमान वक्खाराणं वासाणं वासहराणं वासहरपव्वयाणं । प्रस्तटों का, छिन्न टंकों का, कूटों का, मुण्ड पर्वतों का, शिखर वेलाणं वेइयाणं दाराणं तोरणाणं दीवाणं समुद्दाणं वाले पर्वतों का, आगे की ओर कुछ नमे हुए पर्वतों का, विजयों आयाम-विक्खंभोच्चत्तोवेह-परिक्खेवा मविज्जंति । का, वक्षस्कारों का, वर्षों का, वर्षधरों का, वर्षधर पर्वतों का, समुद्र तट की भूमियों का, वेदिकाओं का, द्वारों का, तोरणों का, द्वीपों का, समुद्रों का आयाम-विष्कंभ-उच्चत्व-उद्वेध (अवगाह) परिक्षेप = परिधि-ये सब मापे जाते हैं । Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० परिशिष्ट : २ प्रमाणांनुल के तीन प्रकार सूत्र प्रमाणांगुल के तीन प्रकार प्रमाणांगुल के तीन प्रकार१. से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा ६. वह प्रमाणांगुल संक्षेप में तीन प्रकार का है, यथा(१) सेढीअंगुले, (२) पयरंगुले, (३) घणंगुले, (१) श्रेणी-अंगुल, (२) प्रतरांगुल, (३) धनांगुल । असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ सेढी, असंख्य कोडाकोडी योजन की एक श्रेणी होती है। सेढी सेढीए गुणिया पयरं श्रेणी से गुणित श्रेणी को प्रतर कहते हैं । पयरं सेढीए गुणियं लोगो, प्रतर को श्रेणि से गुणित करने पर घनरूप लोक होता है। संखेज्जएणं लोगो गुणिओ लोगा, संख्यात राशि से गुणित लोक संख्यात लोक तथा, असंखेज्जएणं लोगो गुणिमो असंखेज्जालोगा। असंख्यात राशि से गुणित लोक असंख्यात लोक कहलाते हैं । ५०-एएसि णं सेढी अंगुल-पयरंगुल-घणंगुलाणं कयरे कयरे- प्र०-इन श्रेणी अंगुल, प्रतर अंगुल, घन अंगुल में कौन हितो अप्पेया-जाव-विसेसाहिया का? किससे अल्प, अधिक यावत् विशेषाधिक है ? उ०–सम्वत्थोवे सेढी अंगुले, उ०-सबसे कम श्रेणी अंगुल है। पयरंगुले असंखेज्जगुणे, प्रतर अंगुल असंख्यातगुण है। घणंगुले असंखेज्जगुणे, से तं पमाणंगुले । उससे घन अंगुल असंख्यातगुण है । यह प्रमाण अंगुल है । से तं विभागनिप्फण्णे से तं खेत्तप्पमाणे । यह विभाग निष्पन्न क्षेत्र प्रमाण का वर्णन है । -अणु० सु० ३५६-३६२ परिशिष्ट : ३ आयाम-विष्कम्भ जम्बूद्वीप खण्ड तालिका योजन कला | क्रम क्षेत्र और पर्वतों के १२ ६ क्रम जम्बूद्वीपति क्षेत्र और पर्वतों का आयाम-विष्कम्भ भरतक्षेत्र २. चुल्लहिमवंत पर्वत ३. हैमवत क्षेत्र महाहिमवंत पर्वत ५. हरिवर्ष निषध पर्वत महाविहेह क्षेत्र नीलवन्त पर्वत ६. रम्यक्वर्ष रुक्मी पर्वत हैरण्यवत क्षेत्र १२. शिखरी पर्वत १३. ऐरवतक्षेत्र जम्बूद्वीप का आयामविष्कम्भ १०५२ २१०५ ४२१० ८४२१ १६८४२ ३३६८४ १६८४२ ८४२१ ४२१० २१०५ १०५२ ५२६ १०.०० एक लाख योजन भरतक्षेत्र चुल्लहिमवंत पर्वत हैमवत क्षेत्र महाहिमवंत पर्वत हरिवर्ष निषध पर्वत महाविदेह क्षेत्र नीलवन्त पर्वत रम्यक्वर्ष रुक्मी पर्वत हैरण्यवत क्षेत्र शिखरी पर्वत ऐरवतक्षेत्र जम्बूद्वीप के" १९० खण्ड Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र परिशिष्ट:३ शाश्वत पर्वत गणितानुयोग ७६१ शाश्वत पर्वत तालिका कूट तालिका क्रम पर्वत नाम संख्या | क्रम पर्वत ऋषभकूट पर्वत संख्या २. * वर्षधर पर्वत वैताढ्य पर्वत वृत्त वैताढय पर्वत यमक पर्वत चित्रकूट पर्वत विचित्रकूट पर्वत निषध पर्वत गजदन्त पर्वत नीलवन्त पर्वत गजदन्त पर्वत कंचनगिरि पर्वत वक्षस्कार पर्वत १. निषध पर्वत के समीप सोलह विजय में नीलवन्त पर्वत के समीप सोलह विजय में ३. चुल्लहिमवन्त पर्वत के समीप भरत क्षेत्र में शिखरी पर्वत के समीप ऐरवत क्षेत्र में जम्बूद्वीप मेंधातकीखण्डद्वीप मेंपुष्करार्धद्वीप में ३४ ऋषभकूट पर्वत . जम्बूद्वीप में २६६ पर्वत कुल १७० , वेलंधर आवास पर्वत अनुवेलंधर आवास पर्वत लवण समुद्र में ८ आवास पर्वत १३. इक्षुकार पर्वत धातकीखण्डद्वीप में ५४० पर्वत इक्षुकार पर्वत पुष्करार्धद्वीप में ५४० पर्वत अढाई द्वीप में शाश्वत पर्वत १३५७ Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ क्रम १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ε. १०. ११. १२. १३. १४. क्रम १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ६. १०. ११. १२. १३. १४. पर्वत वैतास पर्वत चुल्लहिमवंत पर्वत महाहिमवन्त पर्वत निषध पर्वत शिखरी पर्वत रुक्मी पर्वत नीलवन्त पर्वत गजदन्त पर्वत गजदन्त पर्वत वक्षस्कार पर्वत मेरु पर्वत जम्बूद्वीप में धातकीखण्डद्वीप में पुष्कराद्वीप में कुल कुण्ड का नाम गंगाप्रपात कुण्ड सिन्धुप्रपात कुण्ड रक्तपातकुण्ड रक्तवतीप्रपातकुण्ड रोहिता प्रपातकुण्ड रोहितांशाप्रपातकुण्ड स्वर्ण कूलाप्रपातकुण्ड रुप्यकूलाप्रपातकुण्ड हरिसलिलप्रपात हरिकान्तापातकुण्ड नरकान्ताप्रपात कुण्ड नारीकान्तपाण्ड शीतापातकुण्ड शीतोदापात संख्या ३४ १ १ १ १ १ २ २ १६ १ ६१ १२२ १२२ ३०५ चौदह प्रभात कुण्डों के प्रमाणादि जम्बूद्वीप में कूट (शिखर) ' कूट संख्या आयाम ६० योजन " " " १२० योजन 11 २४० योजन ४६७ कूट ६३४ कूट ६३४ कूट २३३५ चौदह प्रपात कुण्डों के प्रमाणादि विष्कम्भ ६० योजन " 11 ४५० योजन ३०६ ११ " ८ ह ११ ८ & १८ १४ ६४ ε प्रत्येक वैताढ्य पर्वत पर नौ-नौ कूट हैं । प्रत्येक गजदन्त पर्वत पर नौ-नौ कूट । प्रत्येक गजदन्त पर्वत पर सात-सात कूट | प्रत्येक वक्षस्कार पर्वत पर चार-चार कूट ,, 33 १२० योजन " 23 17 २४० योजन " " ४८० योजन "1 १६० परिधि योजन से कुछ अधिक 33 33 ३८० योजन से कुछ कम 22 " ७६६ योजन ور " " परिशिष्ट : ३ गहराई १० योजन "3 27 " 11 " "" 27 " 11 "1 इन आठ पर्वतों पर कूट नहीं हैं। दो दमक पर्वत एक चित्रकूट एक विचित्रकूट और चार वृत्त वेतादय १ जम्बूद्वीप की चौदह प्रमुख नदियों के चौदह प्रपातकुष्ट हैं। इनमें से सात प्रपातकुण्ड मंदर पर्वत से दक्षिण में बहने वाली गंगा आदि सात नदियों के हैं और सात प्रपातकुण्ड मंदर पर्वत से उत्तर में बहने वाली रक्ता आदि सात नदियों के हैं । (शेष टिप्पण पृष्ठ ७६३ पर) Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :३ पूर्व विदेह और अपरविदेह में छिहत्तरकुण्ड तथा उनका प्रमाण गणितानुयोग ७६३ पूर्वविदेह और अपरविदेह में छिहत्तर कुण्ड तथा उनका प्रमाण' क्रम कुण्डनाम आयाम विष्कम्भ परिधि गहराई १-१६. सोलहगंगाकुण्ड साठ योजन साठ योजन एक सौ निव्वे योजन से कुछ अधिक दस योजन १७-३२. सोलहसिन्धुकुण्ड ३३-४८. सोलहरक्ताकुण्ड ४६-६४. सोलहरक्तावतीकुण्ड ग्राहावतीकुण्ड एक सौ बीस योजन एक सौ बीस योजन तीन सौ अस्सी योजन में कुछ कम दस योजन द्रहावतीकुण्ड ६७. पकावतीकुण्ड तप्तजलाकुण्ड मत्तजलाकुण्ड उन्मत्तजलाकुण्ड क्षीरोदाकुण्ड शीतश्रोताकुण्ड अंतोवाहिनीकुण्ड ७४. उमिमालिनीकुण्ड फेनमालिनीकुण्ड गम्भीरमालिनीकुण्ड -(शेष पृष्ठ ७६२ का) जम्बू० वक्ष० ४ सूत्र ७४ में गंगाप्रपातकुण्ड का विस्तृत वर्णन है और रोहितांस प्रपातकुण्ड का संक्षिप्त वर्णन है। सूत्र ८० में रोहित प्रपातकुण्ड और हरिकान्त प्रपातकुण्ड का संक्षिप्त वर्णन है। सूत्र ८४ में सीतोद प्रपातकुण्ड का संक्षिप्त वर्णन है । इस प्रकार केवल पाँच कुण्डों का वर्णन उपलब्ध है शेष 8 में से ८ के सम्बन्ध में समान प्रमाण सूचक संक्षिप्त वाचना के पाठ उपलब्ध हैं, केवल एक सीता प्रपातकुण्ड के आयामादि के सम्बन्ध में समान आयामादि सूचक संक्षिप्त वाचना का पाठ उपलब्ध नहीं है। सूत्र ७४ में रोहितांस प्रपातकुण्ड का और सूत्र ८० में रोहित प्रपातकुण्ड का संक्षिप्त वर्णन देने की आवश्यकता नहीं वी क्योंकि दोनों कुण्डों के आयामादि समान हैं। पाठकों की सुविधा के लिए चौदह कुण्डों के शीर्षक क्रमशः दिये हैं और किस कुण्ड के आयामादि किस कुण्ड के समान हैं यह टिप्पणों में स्पष्ट कर दिया गया है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति वक्षस्कार ६ सूत्र १२५ में "छावत्तरिमहाणइओ कुण्डप्पवहाओ" ऐसा कथन है-तदनुसार छिहत्तर महानदियाँ छिहत्तर कुण्डों से प्रवाहित होती हैं। छिहत्तर कुण्डों की गणना इस प्रकार हैसोलह गंगाकुण्ड हैं, सोलह सिन्धुकुण्ड हैं, सोलह रक्ताकुण्ड हैं, सोलह रक्तावतीकुण्ड हैं, और बारह अन्तर्नदियों के बारह कुण्ड हैं-ये सब मिलकर छिहत्तर कुण्ड हैं । इनसे छिहत्तर महानदियाँ निकलती हैं। (क) नीलवन्त वर्षधर पर्वत के समीप दक्षिण में आठ गंगाकुण्ड और आठ सिन्धुकुण्ड हैं-इनसे निकलने वाली आठ गंगा नदियाँ और आठ सिन्धु नदियाँ कच्छादि आठ विजयों का विभाजन करती हुई शीतानदी में मिलती हैं। (ख) निषधवर्षधर पर्वत के समीप उत्तर में आठ गंगाकुण्ड और आठ सिन्धुकुण्ड हैं-इनसे निकलने वाली आठ गंगा नदियाँ और आठ सिन्धु नदियाँ पद्मादि आठ विजयों का विभाजन करती हुई शीता नदी में मिलती हैं। (ग) निषध वर्षधर पर्वत के समीप उत्तर में आठ रक्ताकुण्ड और आठ रक्तावती कुण्ड हैं-इनसे निकलने वाली आठ रक्ता नदियाँ और आठ रक्तावती नदियाँ वत्सादि आठ विजयों का विभाजन करती हुई शीतोदा नदी में मिलती हैं। (शेष पृष्ठ ७६४ पर) Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ सोलह महाबह की तालिका परिशिष्ट : ३ सोलह महाद्रह की तालिका आयाम (लम्बाई) क्रम ब्रहनाम विष्कम्भ (चौड़ाई) उद्वेध (गहराई) दस योजन पर्वत का नाम जम्बूद्वीप में लघुहिमवान पर्वत महा हिमवान पर्वत निषध पर्वत नीलवन्त पर्बत रुक्मी पर्वत शिखरी पर्वत देवकुरु मेंचित्र-विचित्रकूट पर्वत एक हजार योजन दो हजार योजन चार हजार योजन पांच सौ योजन एक हजार योजन दो हजार योजन पद्मद्रह महापद्मद्रह तिगिछिद्रह केसरीद्रह महापुण्डरीकद्रह पुण्डरीकद्रह दो हजार योजन एक हजार योजन एक हजार योजन पाँच सौ योजन एक हजार योजन पाँच सौ योजन वस योजन निषधद्रह देवकुद्रह सूरद्रह सूलसद्रह विद्युत्प्रभद्रह उत्तरकुरु में यमक पर्वत नीलवन्तद्रह उत्तरकुरुद्रह चन्द्रद्रह ऐरवतद्रह माल्यवन्तद्रह द्रहनाम देवीनाम भवन का आयाम निष्कम्म तीनों द्वारों को पीठिका विष्कम्भ धृतिदेवी पद्मद्रह श्रीदेवी एक कोस आधा कोस पाँच सौ धनुष ढाई सौ धनुष महापद्मद्रह ह्रीदेवी तिगिछिद्रह केशरीद्रह कीर्तिदेवी महापुण्डरीकद्रह बुद्धिदेवी पुण्डरीकद्रह लक्ष्मीदेवी - (शेष पृष्ठ ७६३ का) (घ) नीलवन्त वर्षधर पर्वत के समीप दक्षिण में आठ रक्ताकुण्ड हैं और आठ रक्तावती कुण्ड हैं-इनसे निकलने वाली आठ रक्ता नदियाँ, आठ रक्तावती नदियाँ वप्रादि आठ विजयों का विभाजन करती हुई शीतोदा नदी में मिलती हैं। ये गंगा-सिन्धु नदियाँ तथा रक्ता-रक्तावती नदियाँ महाविदेह की हैं। भरतक्षेत्र की गंगा-सिन्धु नदियों से और ऐरवत क्षेत्र की रक्ता रक्तवती नदियों से भिन्न हैं। (ङ) ग्राहावती कुण्ड आदि बारह कुण्डों से ग्राहावती आदि बारह अन्तर नदियाँ निकलती हैं। इनमें से ग्राहावती आदि छह नदियाँ शीता नदी में मिलती हैं । क्षीरोदा आदि छह नदियाँ शीतोदा नदी में मिलती हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्षस्कार ४ सूत्र ६५ में "जहेव रोहिअंसाकुण्डे तहेव" यह कथन है-तदनुसार ग्राहावती कुण्ड आदि बारह कुण्डों का प्रमाण रोहितांसप्रपात कुण्ड के समान है। Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ३ क्रम १. ३. ४. ५. क्रम १. २. ३. ४. ५. क्रम १. २. ३. ५. ६. ब्रहनाम निषधद्रह देवकुग्रह सूरद्रह सुलसद्रह विद्युत्द्रह ब्रहनाम देवकुरु में निषधादि पाँच ग्रह तथा ब्रहदेवों के भवन एवं भवनद्वारों का प्रमाण गणितानुयोग ७६५ देवकुरु में निषधादि पाँच ग्रह तथा ग्रहदेवों के भवन एवं भवनद्वारों का प्रमाण विष्कम्भ उत्तर-दक्षिण द्वारों की ऊंचाई नीलवन्तद्रह उत्तरकुरुद्रह चन्द्रद्रह ऐतह पर्वत का नाम लघुहिमवन्तपर्वत पर्वत महाहिमवन्तपर्यंत ब्रहदेवनाम निषधदेव देव कुरुदेव सूरदेव नीलवन्तपर्वत स्वमीपर्वत शिखरीपर्वत नीलवन्तदेव उत्तरकुरुदेव चन्द्रदेव ऐरवतदेव माल्यवन्तदेव भवन आयाम सुलसदेव विद्युत्प्रभदेव उत्तरकुरु में नोलवन्तादि पांचद्रह तथा ब्रहदेवों के भवन एवं भवन -द्वारों का प्रमाण ग्रहदेवनाम द्रहदेव भवन का विष्कम्भ उत्तर-दक्षिण द्वारों आयाम की ऊँचाई एक कोस ब्रहनाम पद्मद्रह महापद्मद्रह केशरीब्रह "" १. स्थानांग० ३, उ० ४, सूत्र १६७ । २. स्थानांग० २, उ०३, सूत्र ८८ ॥ ३. स्थानांग० २, उ०३, सूत्र ८८ । ४. स्थानांग० २, उ०३, सूत्र ८८ । पुण्डरीकद्रह 23 " एक कोस महापुण्डरीकद्रह " 23 " क्रम १. २. ३. १. २. १. २. १. २. १. २. आधा कोम १. २. "1 ३. माल्यवन्तद्रह " निषधादि दस द्रह- देवों की राजधानियाँ अन्य जम्बूद्वीप में अपनी-अपनी दिशाओं में बारह हजार योजन विस्तार वाली हैं । छह वर्षधर पर्वतों के ग्रहों से निकलने वाली चौदह नदियाँ "1 आधा कोस 33 ار " द्वारदिशा पूर्वद्वार पश्चिमद्वार उत्तरद्वार दक्षिणद्वार पाँच सौ धनुष उत्तरद्वार दक्षिणद्वार उत्तरद्वार उत्तरद्वार दक्षिणद्वार उत्तरद्वार दक्षिणद्वार पूर्व द्वार पश्चिमार दक्षिणद्वार क्रम १. २. १. २. १. २. १. २. १. २. ار १. २. " ३. ار " पाँच सौ धनुष 33 "" 11 विष्कम्भ ढाई सौ धनुष 11 विष्कम्भ ढाई सौ धनुप ५. स्थानांग० २, उ०३, सूत्र ८८ । ६. (क) स्थानांग ० ३, उ० ४, सूत्र १६७ । (ख) जम्बू० वक्ष० ४, सूत्र ७४ । 11 31 नवियाँ गंगानदी १ २ सिन्धुनदी रोहितांनदी ३ रोहितानदी 'हरिकांतानदी ५ हरिसलिलानदी ६ शीतोदानदी ७ नारीकास्ताब्दी ८ शीतानदी ६ रूप्यकूलानदी १० नरकान्तानदी ११ रक्तानदी १२ रक्तवतीनदी १३ सुवर्णकूलानदी १४ Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ चौदह नदियों में सम्मिलित होने वाली नदियों की संख्या परिशिष्ट:३ चौदह नदियों में सम्मिलित होने वाली नदियों की संख्या लवण समुद्र में समर्पित हाने वाली महानदियों के नाम सम्मिलित नदी संख्या संयुक्त नदी संख्या Hor गंगामहानदी सिंधुमहानदी रक्तामहानदी रक्तवती महानदी रोहिता महानदी रोहितांशा महानदी सुवर्णकूलामहानदी रुप्यकुलामहानदी हरिसलिलामहानदी हरिकान्तामहानदी नरकान्तामहानदी नारीकान्तामहानदी शीतामहानदी शीतोदा महानदी चौदह हजार चौदह हजार चौदह हजार चौदह हजार छप्पन हजार अठावीस हजार अठावीस हजार अठावीस हजार अठावीस हजार एक लाख बारह हजार छप्पन हजार छप्पन हजार छप्पन हजार छप्पन हजार दो लाख चौबीस हजार पांच लाख बत्तीस हजार दस लाख चौंसठ हजार सम्पूर्ण संख्या १४५६०००, चौदह लाख छप्पन हजार १०. ~ १२. ~ १३. १४. चौदह नदियों को जिबिका का प्रमाण क्रम नदी-जिबिका आयाम विष्कम्भ बाहल्य संस्थान आधा योजन आधा कोस मगरमुख छ: योजन और एक कोस एक योजन साड़े बारह योजन एक कोस गंगानदी-जिबिका (नालीका) सिन्धुनदी-जिबिका रक्तानदी-जिह्विका रक्तवतीनदी-जिह्विका रोहितानदी-जिह्विका रोहितांशानदी-जिह्विका सुवर्णकूलानदी-जिह्विका रुप्यकूलानदी-जिह्विका हरिसलिलानदी-जिह्विका हरिकान्तानदी-जिह्विका नरकान्तानदी-जिह्विका नारीकान्तानदी-जिह्विका शीतानदी-जिह्विका शीतोदानदी-जिबिका दो योजन पच्चीस योजन आधा योजन १०. vvvv १२. चार योजन पचास योजन एक योजन Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ३ क्रम १. २. ४. ५. ६. ७. ८. ε. १०. ११. १२. १३. १४. क्रम १. २. ३. ४. ५. क्रम १. २. ३. ४. ५. ६. द्वीप नाम गंगाडीप सिंधुद्वीप राष्ट्रीय रक्तवतीद्वीप रोहिताद्वीप रोहितंसीप स्वर्णकुलाद्वीप रूप्यकुलाद्वीप हरिसलिलाद्वीप हरिकान्तद्वीप नरकान्तद्वीप नारीकान्तद्वीप सीताड़ीप शीतोदाद्वीप द्वीप-समुद्र जम्बूद्वीप लवणसमुद्र धातकीखण्डद्वीप कालोदधिसमुद्र पुष्करार्धद्वीप वायव्यकोण उत्तरदिशा ईशानकोण आयाम पूर्वदिशा अग्निकोण दक्षिणदिशा आठ योजन " "1 सोलह योजन 31 "" चौदह महानवियों के द्वीपों का प्रमाण चौदह महानदियों के द्वीपों का प्रमाण " ३२ योजन " 21 " ६४ योजन विष्कम्भ आठ योजन "1 " " सोलह योजन एक लाख योजन चार लाख योजन "1 23 ܙ ܕ ३२ योजन " 37 ६४ योजन २५ योजन से परिधि मनुष्य क्षेत्र के द्वीप समुद्रों का प्रमाण योजन कुछ "" 13 सामानिक देवों के 11 "1 एक सौ एक योजन 11 13 पचास योजन से कुछ अधिक पानी से दो कोश अधिक "1 अधिक 21 "1 दो सौ दो योजन " गणितानुयोग او ऊंचाई पानी से दो कोस ऊँचा दोनों ओर का संयुक्त प्रमाण चार महत्तर देवियों के आभ्यन्तरपरिषद के देवों के मध्य परिषद् देवों के पानी से दो कोश ऊँचा 31 " "1 आठ लाख योजन सोलह लाख योजन सोलह लाख योजन पैंतालीस लाख योजन छह पद्मवलय तथा देव-देवियों के कमल प्रथम पद्मवलय में एक सौ आठ कमल हैं। इन पर श्रीदेवी के एक सौ आठ भवन हैं। इनमें श्रीदेवी के आभूषण रहते हैं । द्वितीय पद्मवलय दिशा - विदिशानाम देव-देवियां पद्म संख्या " मनुष्यक्षेत्र "समय क्षेत्र" "1 " ७६७ "" " 31 चार हजार कमल चार कमल आठ हजार कमल दस हजार कमल Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ संयुक्त पद्म संख्या परिशिष्ट :३ wom क्रम द्वितीय पद्मवलय दिशा-विदिशानाम देव-देवियाँ पद्म संख्या ७. नैऋत्यकोण ८. ... पश्चिमदिशा तृतीय पद्मवलय चतुर्थ पद्मवलय पंचम पद्मवलय षष्ठ पद्मवलय बाह्य परिषद् के देवों के सात सेनापतियों के आत्मरक्षक देवों के आभ्यन्तरआभियोगिक देवों के मध्यमआभियोगिक देवों के बाह्यआभियोगिक देवों के बारह हजार कमल सात कमल सोलह हजार कमल बत्तीस लाख कमल चालीस लाख कमल अड़तालीस लाख कमल पद्मवलयों के पदों का प्रमाण - वलय पद्म संख्या पद्मआयाम पद्मविष्कम्भ पदों की ऊँचाई मूल पद्म एक योजन आधा योजन प्रथम पद्मवलय आधा योजन एक कोस द्वितीय पद्मवलय ३४०११ एक कोस आधा कोस तृतीय पद्मवलय । १६००० एक हजार धनुष पाँच सौ धनुष • चतुर्थ पद्मवलय ३२००००० पाँच सौ धनुष ढाई सौ धनुष पंचम पद्मवलय ४०००००० ढाई सौ धनुष सवा सौ धनुष षष्ठ पद्मवलय ४८००००० सवा सौ धनुष साडीबासठ धनुष संयुक्त पद्म संख्या १२०५०१२० बत्तीस विजय और अन्तर्वर्ती नदियाँ आधा योजन एक कोस आधा कोस पांच सौ धनुष ढाई सौ धनुष .. सवा सौ धनुष साडीबासठ धनुष क्रम विजयनाम नदीनाम , प्रत्येक विजय में दो-दो नदियाँ क्रम, विजयनाम नदीनाम प्रत्येक विजय में दो-दो नदियाँ १७. १८. २०. २१. २२. २३. २४. कच्छ गंगा-सिन्धु सुकच्छ , गंगा-सिन्धु महाकच्छ गंगा-सिन्धु कच्छकावती गंगा-सिन्धु आवर्त गंगा-सिन्धु मंगलावर्त गंगा-सिन्धु १२ पुष्कलावर्त गंगा-सिन्धु पुष्कलावती गंगा-सिन्धु वत्स रक्ता-रक्तवती १८ रक्ता-रक्तवती महावत्स रक्ता-रक्तवती वत्सावती' रक्ता-रक्तवती रम्य रक्ता-रक्तवती ____ २६ . रम्यक रक्ता-रक्तवती २८ _रमणिक' रक्ता-रक्तवती : ३० मंगलावती रक्ता-रक्तवती ३२ गंगा-सिन्धु सुपद्म गंगा-सिन्धु महापद्म गंगा-सिन्धु पद्मावती गंगा-सिन्धु शंख गंगा-सिन्धु कुमुद गंगा-सिन्धु नलिन गंगा-सिन्धु सलिलावती गंगा-सिन्धु वप्र रक्ता-रक्तवती सुवप्र रक्ता-रक्तवती महावप्र रक्ता-रक्तवती वप्रावती रक्ता-रक्तवती वल्गु रक्ता-रक्तवती सुवल्गु रक्ता-रक्तवती गंधिल रक्ता-रक्तवती गंधिलावती रक्ता-रक्तवती १०. ११. २८. १२. १४. .. १५. १६. है । ३२. ६४ नदियाँ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ४ पृष्ठ १. २. ३. अरिहन्त सिद्ध स्तुति (पृ. १, २ ) औपपातिक सूत्र मंगलाचरण (पृ. ३-८ ) ३. ५. ५. ६. ७. ८. ,, १, 33 11 "" स्थल निर्देश औव. सु. १२ 13 11 31 " सु. १ से ५ सु. २८-३३ सु. ३४ लोक वर्णन ( पू. ८-१८) आचारांग सूत्र सु. ६.६ ,, सु. ९-१० 31 ४. 1 " सु. ११ " सु. १२ E " सु. १३ 23 ८. आया. सु. १, अ. २, उ. ५, सु. ६१ १७. आया. सु. १, अ. ८, उ. १, सु. २०० स्थानांग सूत्र ८. ठाणं २, उ. २, सु. ८० ८. ε. ε. १३. १३. १३. ६, १३. १३. 1, 5, १५. १७. सु. ५ ३, उ. २, सु. १५३ ५. १६३ सु. १८३ सु. २८६ सु. ४६८ सु. ६०० १.०, सु. ७०४ " ४, उ. ३, सु. ३२८ " सु. २७ " "2 सु. १४-२६ " " " संकलन में प्रयुक्त आगमों के स्थल निर्देश लोक " पृष्ठ स्थल निर्देश १७. ठाणं ३, उ. १, सु. १४८ १८. ,, ४, उ. ३, सु. ३२८ १८. सु. ३२४ १८. सूयगडांग सूत्र ६. सूय. सु. २, अ. ६, उ. २, गा. ५० ε. गा. ४६ ६. गा. १२ गा. २-३ "" .. 77 ,, सु. १ अ. १, उ. ३, मा. ५-६ समवायांग सूत्र १६. १७. او 31 १२. १२. १२. १३. १३. १३. १३. ६. सम. स. १, सु. ७ 17 १०. अणु. सु. १० १०. सु. ११ " 11 23 ار ६. भग. स. ११, उ. १०, सु. २ "3 ११. स. १२, उ. ७, ११. ११. ११. १२. "1 37 " " "1 "1 33 33 अ. ५, अनुयोगद्वार भगवती सूत्र " " 33 स.१६, उ.८, सु. १ स. १२, स. ७, सु. २ स.१६, उ.८, सु. १ स. ११, उ. १०, सु. २६ स. १३, उ. ४, सु. १२ सु. ६७ सु. ६८ " " स. ७, उ. ४, सु. ५ स. ५, उ. ६, सु. १४ स. ११.१०, सु. १० स. १२, उ. ४, सु. ६९ पृष्ठ स्थल निर्देश १४. भग. स. १, उ. ६, सु. २५-१, २, ३ १५. स. ε, उ. १५. १६. १६. 17 " ". स. २, उ.१, सु. २३, २४-१ स. ११, उ. १०, सु. २ " "1 " द्रव्यलोक (पृ.१०-३४) स्थानांग सूत्र १८. ठाणं २, उ. ३, सु. १०३ १८. उ. १, सु. ५७ १८. सु. १४८ १८. सु. १३४ १८. १६. १६. १६. १६. २०. २०. 11 ,, २, 11 " ३, 11 33 सु. ५८ सु. ५६ ४, उ. ३, सु. ३३३ " 37 " " 13 11 ३३, सु. ६६ सु. १०१ १२, उ. ४, सु. १०३ 11 " " भगवती सूत्र २०. भग. स. १३, उ. ४, सु. २३ २१. स. १० उ. १, सु. ६-७ 1 २१. सु. ३-४-५ २२. २३. २४. स. १३, उ. ४, सु. १६-२२ स. १०, उ. १, सु. 5 सु. ६-१७ स. ११, उ. १०, सु. १५ स. २, २५. २५. 11 सु. ११ सु. २० २६. स. ११, " 11 Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७० आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट : ४ अधोलोक (पृथ्वी वर्णन) (पृ. ३४-५८) पृष्ठ स्थल निर्देश २६. भग. स. ११, उ. १०, सु. २० ___ , , सु. १७ २७. , , , सु. २८-१,२ " , सु. २६ , स. १०, उ. १, सु.६ २६. , , , सु. १७ २६. , स. १६, उ. ८, सु. २-६ पन्नवणा सूत्र १६. पण्ण. प. १५, उ. १, सु. १००४ १६. , , , सु.१००२ उत्तराध्ययन सूत्र १८. उत्त अ.३६, गा २ २०. ,, अ.२८, गा.७-८ अनुयोगद्वार ३०. अणु. सु. १५२ (१-२-३) ३१. ,, सु. १०८ ३१. , सु. १६३ ३१. , सु. १६४ ३२. ,, सु. १०६ (१-२-३) ३२. , सु. १५३ (१-२) ३३. , सु. १२५ ३३. , सु. १२६ पृष्ठ स्थल निर्देश ४६. सम. सु. ११६ ,, ८४, सु.६ ४८. , २०, सु. ३ ५४. , ८६, , ५४. ,, ७६, , जीवाभिगम सूत्र ३६. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. ६७ , ,, ३, उ. १, सु. ६७ टीका ३७. , , , सु. ६८ , सु. ७६ भगवती सूत्र पृष्ठ स्थल निर्देश ३४. भग. स. ११, उ.१०, सु. ४ ३५. भग. स. ११, उ.१०, सु. ७ ३५. , स. १३, उ. ४, सु. १३ ३६. ,, स. १२, उ. ३, सु. १-२-३ ., स. १३, उ.४, सु.१० स. २, उ.१०, सु. १७-२०/२२ ,, स. १८, ,, सु. ६-१० , स. १४, उ.८, सु. १-३ ,, , उ.२, सु. ६२ सु.८० , सु. ७४ , सु. ७८ " " ४२. ,, स. ६, ४३. , , , सु. २-३ , सु. ४-७ " , सु. ६६ ४३. , , , सु.६-१४ " " , सु. ७२ , सु. ७३ , सु. ७४ , सु.७६ , सु.७१ , सु. ७२ , सु. ७६ क्षेत्रलोक (पृ० ३४) ५७. ,, स.११, उ.१०, सु. २२,२४,२५ ५७. ,, स. २, उ. १, सु. २४ ।। ५८. ,, स. ११, उ. १०, सु. १७ ५८. ,, स. १, उ. ६, सु. ४-५ (१-४) अनुयोगद्वार ३५. अणु सु. १६४-६७ ठाणांग सूत्र ३५. ठाणं.४, उ. ३, सु. ३३६ ३५. ,, ३, उ. १, सु. १३४ ३६. , ७, सु. ५४६ " " भगवती सूत्र ३३. भग. स. ११, उ. १०, सु. ३ . स्थानांग सूत्र ३३. ठाणं. ३, उ. २, सु. १५३ अनुयोगद्वार ३४. अणु सु. १६१-१६३ " सु. ७४ ३७. ,, ३, उ. ३, सु. १८६ ३७. , सु. १४६ टीका , १०, सु. ७७८ समवायांग सूत्र ४५. सम ८, सु. ५ ४६. , सु. १२० " , , , सु. ७५ , सु. ७६ ,सु.७५ Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :४ आगमों के स्थल निर्देश गणितानुयोग ७७१ पन्नवणा सूत्र पृष्ठ स्थल निर्देश ५५. पण्ण, पद, १०, सु. ७७५-७७६ ५६. , , सु.७७७-७७८ पृष्ठ स्थल निर्देश ६५. सम. ३४, सु. ६ " ३६, सु. ३ ६६. ,४१, सु. २ -अधोलोक(नरक वर्णन) (पृष्ठ ५६-७४) पन्नवणा सूत्र ५६. पण्ण. पद. २, सु. १६७ ६०. पण्ण. पद २, सु. १६८ ६१. ,, , सु. १६६ ६१. , , सु. १७० ६२. , , सु. १७१ सु. १७२ ,, ,, सु. १७३ ,, , सु. १७४ ६५. , , , ६५. ,,,, ६६. , ५५, सु. ५ ६६. ५८, सु.१ ६६. ॥७४, सु. ४ ६६. , सु. १५० ७१. ,४५, सु. २ भगवती सूत्र ५६. भग. स. ६, उ. ६ सु. १-(१-२) पृष्ठ स्थल निर्देश ७०. जीवा. प. ३, उ. १, सू. ८२ ७०. " " " " ७१. , , , सु. ८४ ७२. , , , सु. ८२ ७३. , , , सु. ८३ ७३. , , , सु. ८५ ७३. , , , सु. ३२६ -अधोलोक(भवनवासी देव वर्णन पृष्ठ ७४-११२) पण्णवणा सूत्र ७६. पण्ण. पद. २, सु. १७७ ७८. , , सु. १७८ (१) ७८. , , , (२) सु. १७६ (१) " " " स. १३, उ. १, सु.४ " स. २, उ. ५, सु. २ ६०. , स. ६, उ. ६, सु. १-(१-२) , स. २५, उ. ३, सु. ११४ ,, स. १३, उ. १, सु. १२ ६१. , , , सु. १० ६२. , , , सु. १३ , (२) सु. १७७ सु. १८० (१) " , , उ.१, सु. १८१ (१) स्थानांग सूत्र ६०. ठाणं ६, सु. ५१५ सु. १८२ (१) ६३. , , , सु. १५ ६४. , , , सु. १६ ६५. ,, स. १, उ. ५, सु. १, २ ___स. १८३ (१) 9 9 9 9 SUUUUUUUUUU2005 img . सु. १८४ (१) ६२. , १०, सु. ७५७ ६३. , ३, उ. १, सु. १४७ ६४. ,, ५, उ. ३, सु. ४५१ ,४, ,, सु. ३२६ , , सु. ३२६ की टीका , , , की टीका समवायांग सूत्र ५६. सम. ८४, सु. १ ६०. ,, ३०, सु. ८ ६०. , सु. १४६, १५० ., २५, सु. ८१ ,, १०, सु. ११ ., १८, सु.७ ६४. , सु. १४६, १५० ६५. ॥१, सु. २० ७०. , स. १३, उ. १, सु. ५-११ व १७ जीवाभिगम सूत्र ५६. जीवा. प. ३, उ. १, सु. ८७ ५६. , , , सु. ८६ ६०. " " " सु. ८१ : सु. १८५ (१) , (२) सु. १८६ (१) " , सु. १८७ ६२. " " " " ८८. , , , ६१. , , , ६७. ६६. , , , , , सु. ७० , सु. ७० ६८. , , सु. १७८ (२) Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 ७२ आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट : ४ 9 ISIS 9 9 9 9 9 IS S भगवती सूत्र पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश ६१. ठाणं ४, उ. १, सु. २५६ ७५. भग. स. १३, उ. २, सु. २ ६१. , ६, सु. ५०८ ६१. ७६. , स. २, उ. ७, , ६, सु. ५०६ " ,, स. ३, उ. २, सु. ३ (१-२)४ , ४, उ. १, सु. २५६ , स. १३, , , " , सु. २७३ ,, स. १६, उ.७, सु. १ , ५, उ. ३, सु. ४७२ ,, स. ३, उ. २, सु. ५-७ ६. ,१०, सु. ७२८ ६, " " सु. ५३५ " सु. ८-१० १००. , १०, , सु. ७३६ , , सु. ११-१३ , , १०१. १३, उ. २, सु. १५४ उ. ६, सु. १४ ,, स. १३, उ. २, सु. ३-४ १०३. , , ,, ७, सु. ५८२ ८८. , , , , , ८८. , , उ. ५, सु. ३ . ,, ५, उ. १, सु. ४०४ ,, स. १६, उ. ७, सु. १, २, ३ १०५. ,, ७, , स. २, उ. ८, सु.१ सु. ५८२ १८. , स. १३, उ. ६, सु. ५, ६ । १०५. , , १०५. ,, ५, उ. १, सु. ४०४ , स. १६, उ. ६, सु. १ १०६. ,, ७, १०८. , स. १८, उ. ५, सु. १-२ सु. ५८३ १०७. ,, १०, सु. ७२८ ठाणांग सूत्र १०८. , ४, उ. १, सु. २५६ ७४. ठाणं ४, उ. ३, सु. ३२६ की टीका १०६. , ८, सु. ६४३ SUIS U15 U w . . . GK . . . . पृष्ठ स्थल निर्देश ७६. सम. ३४, सु. ५ ८०. , , ८०. ,, ६४, सु. ३ ८३. ,, ६०, सु. ४ ८४, सु. ११ ८४. ,४४, सु. ३ ,, ४०, सु.४ ,, ६४, सु. २ ८४, सु. ११ , ७२, सु. १ ,६६, सु. २ ३४, सु. ४ ,, ७६, सु. १-२ ४४, सु. ३ ,४०, सु. ४ ,, ४६, सु. ३ ,, ३२, सु.२ ,, ६४, सु. ३ , ६०, सु. ४ ,, १७, सु.७ , सु. १०३/२ ,, १७, सु.८ ,, ५१, सु. २-३ ,, ३६, सु. २ ,, ३३, , .., १६, सु.६ जीवाभिगम सूत्र जीवा. प. ३, उ. २, सु. २१४ " , उ. १, सु. ११६ " , , सु. ११७ • » , उ. २, सु. ११६ USISISISI is Uw w 000०.०० 99 U १०६. , की टीका १०९. ११०. ११०. . ७५. , १६, सु. ७३६ ८०. , ४, उ. १, सु. २५६ ८०. , ५, " सु. ४०३ , ३, उ. २, सु. १५४ ५, उ..१, सु. ८०. ७, सु. ५८२ ८१. , , ८४. , ६, सु. ५०६ ७, सु. ५८२ , ४, उ. १, सु. २५६ , २, उ. ३, सु. ६४ . . SUS ISSUS WWW . . . .. १११. १११. १११. , ४, उ. १, सु. २५६ १११. , ६, सु. ५०७ ११२. , ४, उ. १, सु. २५६ ११२. , ६, सु. ५०८ ११२. " उत्तराध्ययन सूत्र ७५. उत्त. अ. ३६, गा. २०६ समवायांग सूत्र ७७. सम. ६४, सु.२ 999UUUUU ० ० ० उ. २, सु. १२० ६०. ,, ५, उ. १, सु. ४०३ ६०. ६, सु. ५०८ १०. , सु. ५०७ सु. ५०८ १०१. , , उ. १, सु. ११८ Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :४ आगमों के स्थल निर्देश गणितानुयोग ७७३ १३५. १३७. الله १३८. १३६. १३६. " पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश १०२. जीवा. प. ३, उ. १, सु. ११८ ११६. उत्त. अ. ३६, गा. १०० १३१. जीवा. प. ३, उ. १, सु. १२६ १०२. " " " सु. ११६ ११७. , , गा.१३० १३२. " " " १०३. " , " ११७. " " गा. १३६ १०३. , , ,, सु. १२० ११८. " , गा. १४६ समवायांग सूत्र ११८. , , गा. १५८, १७३, १३४. १८२, १८६ १३४. ८५. सम. ७२, सु. १ ११६. " " गा. १८६ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र १३६. १०६. जंबु. वक्ख. ५, सु. ११२ मध्यलोक स. १२७ १०६. , , सु. ११३ जम्बूद्वीप वर्णन (पृष्ठ १२१.१४०) १०६. , , सु. ११२ की टीका जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र १३८. , , " " सु. ११३ , १३८. , , , , १०६. ,, ,,१, सु. ११२,११३.११४१२१. जबु. वक्ख १, सु. १-२ १३८. , १०६. , सू. २६ से ३४ , , १२४. , सु.३ ११०. , , ५, सु. ११४ १२५. , , सु. १७४ १३६. .. १२५. , , ७, सु. १७५ १३६. १११. , १२५. , , , , , १२६. , , सु. १७६ (१) सु. १७६ (२) ११२. , , , १२६. , , १, सु.७ १२६. , ,, सु. ४ -अधोलोक- १२६. , , सु. ३ १४०. " " पृथ्वीकायिक जीव वर्णन (पृष्ठ ११२-११६) १२९. , , सु. ५ १४०. " " " " १३०. , , , . पण्णवणा सूत्र समवायांग सूत्र १४०. , , सु. ६ ११३. पण्ण. पद. २, सु. १४८-१५० १२४. सम. स. १, सु. १६ भगवती सूत्र ११४. , . , . सु. १५१-१५३ १२४. , सु. १२४ १२१. भग. स. ११, उ. १०, सु.५ ११५. , , सु. १५४-१५६ १२६. ,, स. १२, सु.७ १२२. . , स. , , सु. ८ ११६. , , सु. १५७-१५६ १२२.. , स. १३, उ. ३, सु. १५. ठाणांग सूत्र ११६. , . , . सु. १६०-१६२ १२४. ., स. ६, उ. १, सु. २-३ १२४. ठाणं अ. १, सु. ५२ ११७. , , सु. १६३ जीवाभिगम सूत्र . ११७. १२६. , अ. ८, सु. ६४२ सु. १६४ , , ११८. , , सु. १६५ -- १२३. जीवा. प. ३, उ. १, सु. १२३-१२४ १२६. " " " १२४. , , , सु. १२४ ११६. , , सु. १७५ १२८. , , , सु. १२५ AR १२६. , , , , . उत्तराध्ययन सूत्र १२६. , , , सु. १२६ .. ११२. उत्त. अ. ३६, गा. ७८ १३०. , , , , ११४. , " गा. ८६ ११६. " " गा. १२० १४०. १४०. 44 ०० ~ ~ ___ M . ~ . Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट:४ * ; १४५. -मध्यलोकपृष्ठ स्थल निर्देश ठाणांग सूत्र .. १६२. जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. १३७, पृष्ठ विजयद्वार (पृष्ठ १४१-१६०) स्थल निर्देश १६३. " " जीवाभिगम सूत्र " " १४१. ठाणं. ४, उ. २, सु. ३०३/१, २ १पृष्ठ स्थल निर्देश १६३. १६४. ४१. जीवा पडि. ३, उ. १, सु. १२५ —मध्यलोक१६४. १४१. " , " सु. १२७ (क्षेत्र वर्णन) (पृ. १९१-२२४) १४३. , , , सु. १२६ १६६. पन्नवणा सूत्र १४३. , , , , १६१. पण्ण. पद. २, सु. १७६ १४४. , , , , १६७. उ. २, सु. १३६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र १६१. जंबु. वक्ख. ६, सु. १२५ १४५. १६६. , , , १६५. , , १, सु. १० " , १४६. १६६. उ. १, सु. १४० १६६. , , , ३, सु. ७१ " " १७०. " ___ , , सु. १३० , , १६६. , , १४८. , , सु. ४१-४२ १७०. ,, उ. २, , सु. १३१ " १६६. , , १५१. , सु. ७१ , , १५१. , , , सु.१३२ १७०. , १५२. , १६७. , , १, सु. १० , , , १७०. " १६७. " " १५२. , स.१३३ " १७०. सु. ११ , , १५३. ,, , १६८. " , सु. १३४ १७१. , , उ. १, , ॥ १६८. , , , १५३. , , , १५३. , , , सु.१५५ १७१. " १६६. " १५४. , , , , १८०. " १६६. , १८२. " । , , ४, सु. १११ उ. १, सु. १४२ , १५४. , , , १८२. , , , सु. ८५ १५५. " " " " १८८. , , , सु. १४२ १८६. , " २०१. , सु. १४३ " , सु. ७५ १५५. , , , सु. १३६ १८६. " , " , १५६. , १८६. , , , सु. १४४ सु. ८५ ६, सु. १२५ १५६. , 999 १७१. १७३. л १५४. " л л л १५५. л ००० т е xxurop॥ ~ ~ Xxxrurur . ~ . ~ . ~ . १५८. , १५६. , , , १६.. , , १३७ 64 १६०. , , , सु. १४५ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र १४१. जंबु. व. १, सु.७ १६०. , , सु.७-८ १६०. , , सु.६ समवायांग सूत्र १४१. सम. ४५ सु. ६ १५१. ,, ६, सु.. २०५. Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :: आगमों के स्थल निर्देश गणितानुयोग ७७५ " , सु. १-२ पृष्ठ स्थल निर्देश २०५. जंबु. वक्ख. ४, सु. ६५ २०६. , " " २०६. " " " २०७. ,, सु. ६६ २०७. , , " २०७. , , ३, सु. ४१ २०७. , , ४, सु. ६६ २०६. , , २१०. , , सु.७६ २१०. " " २१.. , , सु. ७८ २११. , , सु. १११ २११. " , " २१२. , " सु. ८२ २१२. " " " २१२. , , , २१३, , , सु. १११ २१३. " " २१३. ,,, सु.६७ २१४. "... ॥ २१४. , , सु. १०० २१४. " " २१५. , सु. ८७ २१६. , , सु. ६१ पृष्ठ स्थल निर्देश २११. , सु. १२१ २१२. ,७३, सु. . २१२. ,८४, सु.८ २१२. , , २१२. , " २१३. , सु. १२१ २१३. , ७३, सु. १ २१३. ,, ८४, सु. ८ . ,, ५३. सु. २१४. ,, ८, सु. ५ २१५. ,, ५३, सु. १ २१६. ,, ४६, सु. ६२ भगवती सूत्र १६२. भग. स. २०, उ.८, सु. १ १६३. , स. २, , सु. २ १६५. " स. ६, उ. ३, सु. ३० १६५. , स. १०, उ. ७, सु. ३७ जीवाभिगम सूत्र १६५. जीवा. पडि. २, सु. १०६-११२ ,, , ३, उ. २, सु. १४७ ठाणांग सूत्र पृष्ठ स्थल निर्देश १६१. ठाणं. ३, उ. ४, सु. १६७ १६१. ,, ७, सु. ५५५ १६१. ,, ७, सु. ५२२ १९२. ,, १०, सु.७२३ १६२. , २, उ. ३, सु. ८६ १६३. ,, ३, , सु. १८३ १६३. ,, ६. सु. ५२२ १६३. ,, ४, उ. १, सु. ३०२ १६३. , ६. सु. ५२२ १६४. ,, ३, उ. ४, सु. १६७ १६४. , ८, सु. ६३० १६५. , ४, उ. २, सु. ३०४ १६५. , ६, सु. ६६८ १६६. , १०, सु. ७१८ २००. , ४, उ. २, सु. ३०२ २०६. , ८, सु. ६३७ २०७. , २०८. , २०६. २१४. , १०, सु. ७६४ २१४. , ८, सु. ६३५ २१५. , २, उ. ३, सु. ८६ समवायांग सूत्र १६१. सम. ७, सु. ३ १६७. ,६८, सु. ४ १६७. , सु. १२२ १६६. ,१४, सु. ६ २००. , , २००. ,, ३३, सु. ३ २०२. ,, ३४, सु. २ २०६. , ६७, , २०६. , , २१०. , ३७, , २१०. , ३८,,, २११. ,,६७,,, २११. ,, ३७,,, २११. ३८, , Mo~ " , , , सु. १५१ ~ " सु. ८७ सु. २७ " " " सु. १५२ २१६. , , २१६. " " २१७. , २१७. , , २१८. , , २१६. , , २२०. , २२०. " २२१. ,, २२२. , , २२२. " " २२३. , , २२३. , , २२४. " " 생생생싫싫 삶 싫 싫 싫 싫 싫 २२१. २२१. , " " . . . " , सु.६६, सु. ६५ . २२२. , " , " २२२. , , , १.२२३. , , , , ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र १०८. णायाधम्म. अ.८ : Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट : ४ . . ا ل ل ل -मध्यलोकपर्वत वर्णन (पृ. २२४-२६६) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र पृष्ठ स्थल निर्देश २२४. जंबु. वक्ख. १, सु. १२५ २२४. , , ६, , २२७. , , ४, सु. ७२ २२७. , , सु. ७५ २२८. , , सु. ७६ २२६. , , सु. ८१ २३०. , २३०. , २३१. , २३१. , २३१. , सु. १५१ २३२. , , २३२. , , , २३२. " " सु. १०३ सु. १०६ २३५. , सु. १०८ २३६. , सु. १०६ २३६. , २३८. " सु. १०३ ل पृष्ठ स्थल निर्देश २५०. जंब. वक्ख.४, स. ८६ २५०. जंबु. वक्ख. ४, सु. ८६ २५०. " ,, ६, सु. १२५ २५०. ,, , , की वृत्ति २५३. , , १, सु. १३ २५३. ,, , सु. १२ २५३. " , " २५४. , , सु. १५ २५४. , , ४, सु. ६३ २५५. , , सु. ७७ २५६. , , , २५६. , , सु. ८२ २५६. , , " २५७. ,, ,, सु. १११ २५७. , , , २५७. , , , २५८. , , ६, सु. १२५ २५८. , , ४, सु. १११ सु. ७७ की वृत्ति २५६. , , सु. ८२ , २६०. , . सु. १७ २६०. , , , ,, की वृत्ति २६०. " , " २२६. WWWWWWWW पृष्ठ स्थल निर्देश २६८. जंबु. वक्ख. ४, सु. ८६ । २६८. , , सु. ६६. २६६. , , सु. ८६ २६६. , , सु. १०२ ठाणांग सूत्र २२४. ठाणांग ७, सु. ५५५ २२४. , , २२५. , , ३, उ. ४, सु. १६६ , २, उ. ३, सु. ८७ , ४, उ. २, सु. २६६ २३१. २३३. , १०, सु. ७१६ २३३. २३३. २३४. , ८, सु. ६३६ , ४, उ. २, सु. २६६ २३५. ,१०, सु.७१६ २३६. , सु. ७१८ २३८. , ४, उ. २, सु. ३०२ २४१. २५१. , २, उ. ३, सु. १८७ २५५. , १०, सु. ७२२ , २, उ. ३, सु. ८७ ل ل ل o m m m rrrrrrrrrrrrr m m m m m m لم لم २५८. ال ل ه orror له س P س له ४, सु. ६३ ६, सु. १२५ , की वृत्ति ४, सु. ६१ ا له س १०४ , सु. १०५ सु. १०६ २६३. २६४. २६४. ج २४०. २४०. २४१. २४१. २४१. सु.९४ सु. १०३ सु. १०७ مي २६५. २४२. २४३. २६६. २६६. १०, सु. ७६८ २६२. ,, ४, उ. २, सु. ३०२ २६२. , ५, , सु. ४३४ २६२. , , , . २६२. ,८, सु. ६३७ २६३. , २, उ. ३, सु. ८७ , ४, उ. २, सु. ३०२ २६८. , २, उ. ३, सु. ८७ ___ समवायांग सूत्र २२४. सम. ७, सु.४ २२५. , , २२६. ,१००, सु. ६ . २२६. , २४, सु.२ . . २४३. २६६. सु.६८ २६७. २४३. २४४. २४५. , , २४६. , , २५०. " " सु. ८८ २६७. , , २६७. सु. १०१ . . . . . Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ४ पृष्ठ स्थल निर्देश २२८. सम. १०२, सु. २ २२८. " १५३, २२८. " २२६. " २३०. २३१. ६४, सु. १ १०६, सु. २ १४. १ १०२, सु. २ ५३, "" ५७, सु. ५ २३२. १००, सु. ६ २३२. २४, सु. २ ६६, सु. १ १०, सु. ३ २३१. २३१. २३१. २३१. २३३. २३३. २३३. 33 19 91 " رو 32 " 33 21 19 २३३. " ११. सु. ७ ३१. सु. २ २३३. " २३४. ४०, २३४. " १२, सु. ६ ६१, सु. २ २३५. ३८. सु. ३ :: 33 २३५. " २३६. " २३६. २३६. २३६. २३६. २३६. २३६. २३७. २३७. सु. २३७. १२, सु. ३ 17 11 19 27 17 12 ५७, सु. ५ १०६, सु. २ 11 11 २३७.,, २३७. 11 सु. १२३ ४५, सु. ६ ८८ सु. ४ 1 २३७. सु. ४ २३७. " ६७, सु. १ २३७. सु. २ २३७. " २३७. " २३७. , सु. ५ ८७, सु. १ 11 11 सु. २ 37 १६, सु. ३ ८७, " सु. ११० ६८, 11 33 33 सु. ३ ५५, सु. २ सु. ३ ६७, 37 पृष्ठ स्थल निर्देश २३७. सम. ६९, सु. २ २३७. ११, सु. ३ २४३. " ६६, सु. १ २४४. २४४. २४४. २४४. २४५. २५०. २५०. २५०. २५२. २५२. २५२. ५०, सु. २५५. २६२. २६३. २६८. " 37 २७०. २७१. २७१. २७१. २७२. २७३. २७३. २७३. २७३. २७४. 12 " 32 " 33 73 33 33 " 31 31 ५०, सु. ७ १००, सु. ६ २५, सु. ३ ८५, सु. ४ ११३, सु. २ १०२, सु.. १००, सु. ८ 37 " 21 आगमों के स्थल निर्देश 33 ११३, १०८, सु. ५ जीवाभिगम सूत्र २५१. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५० २५१. २५१. 77 13 55 सु. २ स. ३ " "" 2 " 21 १०७, सु. - मध्यलोक कूट व (पृष्ठ २६२-२२२ ) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति २७०. जंबु. वक्ख. ६, सु. १२५ २७०. " " " ३ 13 " 13 " 11 33 उ. २, -13. 11 ४, सु. ७५ -- " " 11 की वृत्ति ४, सु. ७५ ६, सु. १२५ की वृत्ति २७४. सु. ८२. पृष्ठ स्थल निर्देश २७४. जंबु. वक्ख, ४, सु. ८४ २७५. सु. ११० २७५. सु. १११ २७६. २७७. २७७. २७७. २७८. २७८. २७६. २७६. २८०. २८०. २८१. २८१. २८२. २८२. २८३. २८४. २८५. २८५. २८५. २८६. २८७. " " 27 २७५. २७५. २७६. 11 " "1 31 " " " 31 " 13 23 21 13 "1 "1 21 २८६. २१. 13 19 12 33 " ε, 31 गणितानुयोग 19 ८, 37 ६, "1 11 "3 33 " 11 13 ار 11 " 33 2 11 13 " 31 " 13 12 21 " सु. ९४ सु. ९५ ४, सु. १०४ सु. १०३ ठाणांग सूत्र २७१. ठाणं ८, सु. ६४३ २७३. २, उ. ३, सु. ८७ २७४. 11 " 33 " सु. ८६ 1 सु. ६१ " सु. ६२ सु. ६७ सु. ६२ सु. १०१ सु. १२ सु. ११ सु. १३ सु. १४ " " 5, 33 २७४. सु. ६४३ २७४. 'ε, सु. ६८६ २७५. " २, उ. ३, ८७ सु. २७५. 77 33 13 ६, सु. १२५ 37 11 सु. ६८६ सू. ६४३ सु. ५२२ ७७७ Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट:४ 9 २६६. ॥ 9 S . mr m D mr . २८८. , . . ० mr m m mmm . w 0 सु. ६३ ० r ० r mr ० ० mr ० r पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश २७६. ठाणं. २, उ. ३, सु. ८७ २६६. जंबु. वक्ख. ४, सु. ७४ २६८. ठाणं २, उ. ३, सु. ८८ २७८. , ७, सु. ५६० २६६. , ८, सु. ६२६ सु. ६८६ २६६. , २, उ. ३, सु. ८८ सु.५६० ३००. , , सु. १११ ३०१. सु. ६८६ ३००. , , सु. ८० ३०१. २८२. , सु. ६७६ ३००. , सु. ७४ ३०४. " ६, सु. ५२२ २८६. , सु. ६८६ सु. ८० ३०४. " ३, उ. ४, सु. १६७ २८७. " " ०५. , २, उ. ३, सु.८८ ३०५. ,१०, सु. ७७६ २६०. , ८, सु. ६४२ ३१०. , ५, उ. २, सु. ४३४ २६२., सु. ६४३ समवायांग सूत्र समवायांग सूत्र २७६. सम. १०८, सु. २ सु. ६५ २६३. सम. ५, सु. ६ २८६. , ११३, सु. ६ ५. ॥११३, सु. १० -मध्यलोक ०८. ,, ११५ ६, सु. १२५ ६. ,, ४०००, सु. २ गुफा, प्रपात, कुण्ड, द्वीप, द्रह वर्णन 1 ३०५. , , ४, सु. ७३ (पृष्ठ २६३-३१४) ०६. , २०००, सु.१ ३०६. , ११७ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ३०७. , , , .. , १०००, सु. १० २६३. जंबु. वक्ख. ६, सु. १२५ ३०८. " ॥ जीवाभिगम सूत्र २६३. , , , ३०८. , " सु.८० ३१३. जीवा. प. ३, उ. २, सु. १४६ २६४. , , १, सु. १२ ३०८. , ३१३. , , २६५. , , , ४, सु. ७४ , ३०६. " सु. ८३ ३१४. , , , सु. १५० २६५. , .. ॥ ३०६. , , सु. ११० ३१४. , " २६६. " , , , सु. १११ " . , २६६. , , ३१०. , , , -मध्यलोकसु. १११ ३१०. , , सु. ६६ . महानदी वर्णन (पृष्ठ ३१४-३२६) २६७. , , सु.८० सु. १२५ की वृत्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र २६७. " " ३११. " , सु. ८६ सु. ८० ३१४. , , ६, सु. १२५ ३१४. जंबु. वक्ख. ६, सु. १२५ २६७. " ३१५. , , ठाणांग सूत्र , २६७. , , , ३१६. " २६७. , सु. ८४ २६३. ठाणं ८, सु. ६३७ २६७. , , २६४. , सु. ६३६ ३१६. , ४, सु. ११० २६७. , , , २६४. ,२, रु. ३, सु. ८७ - ३१७. , , सु. ७४ २६८. सु. ८४ २९४. , उ. ३, , ३१७. ६, सु.१२५ २६८. " " " " २९४. , , सु. ८८ ३१८. " ४, सु. ७४ २६६. ,, , सु. ७४ २६५. ॥१०, सु. ७७६ , ३१८. ० m الله Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ४ पृष्ठ स्थल निर्देश ३१६. जंबु. वक्ख. ४, सु. ३१६. ३१६. ३२०. ३२०. ३२०. ३२०. ३२१. ३२१. ३२१. ३२२. ३२२. ३२२. ३२२. ३२३. ३२३. ३२३. ३२४. ३२५. ३२५. ३२५. ३२५. ३२५. ३२५. ३२६. ३२६. ३२६. ३२६. " 31 11 31 31 13 33 11 13 33 31 11 33 33 33 23 33 21 13 33 ३२६. 33 ३२६. ३२६. ३२७. ३२७. 27 ३२७. ३२८. ३२८. ३२८. 27 13 2 : 2 5 : 23 " ३२८. ३२८. 33 11 " 13 11 33 21 ६, सु. १२५ ४, सु. ७४ 13 23 32 " 33 23 27 * ==== 11 "1 33 3.3 S " " 33 33 11 :: 27 33 १११ 17 ८० 33 सु. ७४ सु. १११ सु. ८४ सु. ८० सु. ८४ सु. १११ सु. ११० 31 सु. ८४ " 33 सु. १११ 33 सु. ८० सु. ७४ 11 11 सु. ८४ सु. ८० सु. १११ सु. ८४ सु. ८० सु. ८४ सु. ११० ३, सु. ४४, ४५, ४६ सु. ४४ सु. ४५ सु. ४९ " सु. ८४ पृष्ठ ३१४. ठाणं. ६, सु. ५२२ ३१५. 23 33 ३१५. २, उ. ३, सु. ८८ 31 ३१५. " ३, उ. ४, सु. १९७ ३१६. २, उ. ३, सु.८८ ३१७. ३१७. ३१८. ३१६. ३२०. ३२०. ३२१. ३२२. ३२३. ३२४. ३२४. ३२४. ३२४. ३२४. ३२८. 11 11 33 33 " ६, उ. 33 11 13 आगमों के स्थल निर्देश " 3: स्थल निर्देश ठाणांग सूत्र 11 ,,१०, " " ३, उ. ४, सु. १३७ सु. ५२२ ३, उ. ४, सु. १६७ २, उ. ३, सु. ८८ ७. " 31 १४ 13 सु. ५५५ ५, उ. ३, सु. ४७० ,,३, उ. १, सु. १४२ समवायांग सूत्र ३१८. सम. २४, सु. ५. ३१८. " २५, सु. ७ ३१६. २४, सु. ६ ३१६. सु. ८ ३२४. " " सु. ८४ सु. ७१७ सु. ८० सु. ८५ " 11 " 31 " -मध्यलोक - अन्तरद्वीप वर्णन (पृष्ठ ३२१-३३२) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ३२६. जंबु. वक्ख. ६, सु. १२५ ३३६. २. सु. २० जीवाभिगम सूत्र ३२६. जीवा, पडि, ३, उ. १, सु. १०६ ३३०. ३३१. पृष्ठ ३३७. जीवा, पडि, ३, ३३६. ३३६. ३४०. ३४०. ३४०. ३४१. ३४१. ३४१. २४१. ठाणांग सूत्र ३३६. ठाण अ. ७, सु. ५५६ ३३६. १०, सु. ७६६ भगवती सूत्र ३३६. भग. स. १०, उ. ७-२८, सु. १ ३४२. २४४. ३४५ 22 13 ३४५, ३४५. ३४६. ३४६. ३४७. ३५४. जंबु. वक्ख. ६, सु. १२४ ३५५. " सु. १०१-११०२४७. सु. १११ રૂ. - मध्यलोक - लवणसमुद्र वर्णन (पृष्ठ ३३६- ३६० ) जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र 13 जीवाभिगम सूत्र ३३९, जीवा, पडि, ३, उ. २, सु. १७२ ३३६. सु. १५४ १४०. ३४०. 11 " 37 11 11 13 " 11 19 11 33 स्थल निर्देश " 37 "1 33 11 " " " 33 31 13 " 31 13 " गणितानुयोग 27 33 "" 31 23 11 11 33 13 11 31 11 "" 31 11 33 11 "" 33 सु. १११ सु. ११२ 33 13 11 13 " सु. १७२ सु. १५४ सु. १७२ "" सु. १५४ सु. १७१ सु. १७२ सु. १७० " मु. १५६ सु. १५७ सु. १५८ ७७६ सु. १५६ Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८० आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट:४ و mr -मध्यलोकधातकीखण्ड (पृष्ठ ३६६-३६९) जीवाभिगम सूत्र पृष्ठ स्थल निर्देश ३६१. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७४ ३६१. , , , " ३६१. " " " " ३६८. , , , सु. १५४ ३६८. , , , सु. १७४ " " , सु, १५४ ३६८. " , , सु. १७४ , , , सु. १४६ ३६६. " " , सु. १७४ ३६६. " " " " m .. 554 m ०. mur mr ३५५. ३५५. ३५६. ३५६. पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश ३४८ जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १५६ ३४१. सम. १७, सु.५ ३४८. , , ३४२. ,, १६, सु. ७ ३४८. " ३४२. , ६५, सु. २ ३४८. , , " " ३४५. ,, ७२, ,, ३४८. " " " " ३४५. ,, ४२, सु. ७ ३४६. " ३४५. , ६०, सु. २ ३४६. , १७, सु. ४ ३५०. , ४३, सु. ३, ४ ३५०. , ४२, सु. २, ३ ३५१. , ८७, सु. १.४ ३५५. ३५१. ,, ६७, सु. १, २ ३५१. , ६८, सु. २, ३ ३५१. ,, ९२, सु. ३ ,, सु. १५४ ३५२. , ५२, सु. २, ३ " सु. १३७ ३५२. , ५७, . , । सु. १५४ ३५२. , ५८, सु. ३, ४ ३५७. , . सु. १२८ ३५७. " ३५८. , ६७, सु. ३ ३५८. " ३५८. " " ... . . ३५८. " , " सु. १६१ ठाणांग सूत्र ३५८. ३५६. ३४०. ठाणं २, उ. ३, सु. ६१ ३५६. ,, , , , ३४०. , , , ३६०. , , , सु. १६८ ३४१. , १०, सु. ७२० ३६०. , , सू.१६६ ३४२. ४,उ. २, सू ३०५ ३४२. , १० भगवती सूत्र सु. ७२० ३४२. , , ३३६. भग. स. १०, उ.७-२८, सु. १ ३४३. ,, ४. उ. २, सु. ३०५ ३४०., स. ५, उ.२ सु. १८ "१० सु. ७२० ३४४. ,, स. ३, उ.३ ३४६. , ४, उ.२, सु. ३०५ ३५४. ,, स. ५, उ २ ३५४. , स. ३, उ.३ सु. १७ ३५५. , , , ३५४. ,, स. ११, उ.६ सु. २६ ३६०. ,, स. १८, उ.७ सु. ४५ ३५७. , १० सु. ७२० ३५६. , स. ६, उ.८ सु. ३५ . सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र समवायांग सूत्र ३४०. सूरिय. पा. १६, सु. १०० ३४०. सम. सु. १२५ ३४१. ,१६, सु.७ ३४१. , ६५, सु.३ १७१ १६६ . १६६ اس ठाणांग सूत्र ३६१. ठाण ७, सु. ५५५ ३६१. , ४, उ. २, सु. ३०६ ___३६१. , २, उ. ३, सु. ६२ ३६१. , ६, सु. ५२२ ३६१. , १०, सु. ८२३ ३६१. , ७, सु. ५५५ उ. ३, सु. १८३ ३६२. , ६, सु. ५२२ ३६२. , ८, सु. ६४१ ३६२. , ७, सु. ५५५ ३६२. ,, ३, उ. ४, स. १६७ ३६२. , ४, उ. २, सु. ३०२ ३६२. , ६, सु. ५२२ .,, ३, सु. १६७ ३६२. , ४, उ. २, सु. ३०२ ३६२. , उ. ३, सु. ६२ ३६२. , ३, उ. ४, सु. १६७ ३६२. , ६, सु. ५२२ ३६३. , १०, सु. ७६८ ഈ ന ന ന urrrr Fu mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ന ന ന ന ന ന ന mmmmm ३४६. ३५६. " ३६३. ३६३. , ४, उ. २, सु. ३०२ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :४ आगमों के स्थल निर्देश गणितानुयोग ७८१ पृष्ठ स्थल निर्देश ३६३. ठाणं ८, सु. ६३७ ३६३. ,१०, सु. ७६८ ३६४. , २, उ. ३, सु. १०० ३६४. , , सु. ६२ ३६४. ,१०, सु. ७२२ ३६४. , २, उ. ३, सु. ६२ ३६४. , ४, उ. २, सु. २६६ ३६४. , ८, सु. ६४० ३६४. १, २, उ. ३, सु. १०० ३७१. mmmmmmmmmmmmmmm Fr ३६४. , सु. ६२ ३६४. , ४, उ. २, सु. ३०६ । ३६५. , २, उ. ३, सु. १०० ३६५. ,, , सु. ६२ ३६६. , , .१०० ३६७. , , , ३६७. , ७, सु. ५५५ ३६७. , २, उ. ३, सु. १०० ३६७. , ३, उ. १, सु. १४२ समवायांग सूत्र ३६१. सम. सु. १२७ ३६४. " ८५, सु.२ ३६५. , ६८, सु. १ ३६६. सु. १३० सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ३६१. सूरिय. पा. १६, सु. १०० पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश -मध्यलोक सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र कालोद समुद्र वर्णन (पृष्ठ ३७०-३७२) ३७२. सूरिय. पा. १६, सु. १०० . जीवाभिगम सूत्र ३७२. , , , ३७५. ३७०. जीवा. पडि. ३, उ.२, सु. १७५ , ३७६. , , " ३७०. " " " " ३७०. " " " भगवती सूत्र ३७१. ,, , , ३७२. भग. स. ५, उ. १, सु. २६ समवायांग सूत्र ३७१. , , , , ३७४. सम. १७, सु.३ ३७७. , ६८, सु. २ ३७२. , , , सु. १७४ ठाणांग सूत्र ठाणांग सूत्र ३७०. ठाणं ८, सु. ६३१ ३७४. ठाणं १०, सु. ७२४ ३७०. , २, उ. ३, सु. ६३ ३७५. , ४, उ. २, सु. ३०० ३७५. , ३, उ. ४, सु. २०४ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ३७६. , ३, उ. ३, सु. १८६ ३७०. सूरिय. पा. १६, सु. १०० ३७६. , ६, सु. ५२२ ३७०. " " " ३७६. , सु. ५५५ समवायांग सूत्र ३७६. , ६, सु. ५२२ ३७०. सम. ६१, सु. २ ३७६. ,, ८, सु. ६३२ -मध्यलोक- ३७६. , ३, उ. ४, सु. १६६ पुष्करवरद्वीप वर्णन (पृष्ठ ३७२-३७६) , सु. १६७ ३७६. , २, उ. ३, सु. ६३ जीवाभिगम सूत्र ३७७. सु. ७६८ ३७२. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १७६ ३७७. , २, उ. ३, सु. ६२ ३७२. , , , , ३७७. ,, १०, सु. ७२१ ३७२. , , , सु. १८७ ३७७. , २, उ. ३, सु. ६२ ३७३. , . , , सु. १७६ ३७७. , , सु. ६३ ३७३. , , , सु. १७४ ३७७. , ३, उ. १, सु. १४२ ३७३. , , , ३७७. , १०, सु. ७६८ ३७३. , , , सु. १७६ ३७७. ४, उ. २, सु. २६६ ३७३. " " " ३७७. , ५, , सु. ४३४ ३७८. , २, उ. ३, सु. ६३ ३७४. ३७५. सु १७८ ३७५. ३७६. जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ३६८. जंबु. वक्ख ६, सु. १२४ भगवती सूत्र ३६६. भग. स. १८, उ.७, सु. ४६ ३७३. , सु. १७४ SAGAR १७६ ३७५. " ३७८. , Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८२ www पृष्ठ ! अढाई द्वीप वर्णन (पृष्ठ ३७६-३८७ ) ठागांग सूत्र ३७८. ठाणं. ८, ३७८. ३७६. ३७६. ३७६. ३८२. ३८२. ३८२. ३८२. ३८४. ३८५. ३८५. 13 21 सु. १०३ सु. ६६ ३७६. पु. १ ३७६. " सु. ६६ सु. १०३ ७, सु. ५५५ ३७६. " ३७६. ३७६. ३, उ. ४, सु. १६६ ३७६. सु. ५२२ ३८०. २, उ. ३, सु. ८२ ३८०. ६, सु. ६६ ३८०. 13 सु. १०३ ३८०. सु. ८३ ३८०. ७ सु. ५५५ ३८१. २, उ. ३. सु. १०० ३८१. ३८१. सु. १०३ सु. ८४ सु. १०० सु. १०३ 11 11 " 33 " 27 او " 22 "" R: " ३८२. ३८३. ३८३. ३८३. ३८३. "1 ३८३. 31 ३८३. ३८४. ३८४. " 21 11 A 21 21 27 21 " स्थल निर्देश - मध्यलोक २, उ. ३, सु. " " " 11 21 " " "" .. " "" 33 17 सु. ८५ सु. १०० सु. १०३ सु. ८६ सु. ६६ सु. १०३ ܕܙ " 11 सु. ६४१ " 17 11 "1 " ८० 11 सु. ८७ सु. १०० सु. १०३ सु. ६ सु. ६६ सु. १०३ सु.८८ सु. १०० पृष्ठ स्थल निर्देश ३८५. ठाणं. २, उ. ३, सु. १०३ ३८६. ३८६. ३८६. ३८७. ३८७. ३८७. ३८७. ३८७. ३८७. ३८७. ३८७. ३८७. 33 17 " 11 13 " 13 आगमों के स्थल निर्देश " " " 11 " उ. ३, " उ. ३, सु. ९३ सु. ९१ ३८७. सम. १२, सु. ७ 13 37 12 सु. ६० सु. १०० सु. १०३ सु. ६१ सु. १०० सु. १०३ समवायांग सूत्र जीवाभिगम सूत्र ३८७. जीवा. पडि ३, सु. १८६ - मध्यलोक समयक्षेत्र वर्णन (पृष्ठ ३८८-३८९) भगवती सूत्र " सु. ९२ सु. ६३ सु. ६१ ३८८ भग. स. २, उ. ६, सु. १ ३८८. ३८८. ११, उ. १०, सु. २७ ३. उ. १. सु. २४/३ जीवाभिगम सूत्र ३८८. जीवा पडि ३, उ. २, सु. १७७ ३८८. ३८६. " ३८८. सम ६६, सु. १ ३८८. " ४५, ३६, सु. ३८८. " २ 33 समवायांग सूत्र 17 सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ३८८ सूरिय पा १६, सु. १०० ठाणांग सूत्र ३८. ठाणं. ५, उ. २, सु. ४३४ ,, १०, ३८६. सु. ७६४ ३८६. २. उ. ४, सु. १२२ पृष्ठ ३६०. ३६०. ३६०. ३६०. ३६१. पुष्करोद समुद्र वर्णन (पृष्ठ ३६०-३९१) जीवाभिगम सूत्र ३६०. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८७ सु. १५० 11 23 27 " ३६३. ३६३. 13 स्थल निर्देश - मध्यलोक - 31 27 27 11 ३०. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ - मध्यलोक " 11 33 सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र 11 वरुणवरद्वीप वर्णन (पृष्ठ ३६१-३९२ ) जीवाभिगम सूत्र ३६१. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८० ३१. ३६२. ३६२. 13 परिशिष्ट : ४ 37 31 सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ३१. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ __मध्यलोक_ 13 17 33 " वरुगोद समुद्र वर्णन (पृष्ठ ३९२-१९२) जीवाभिगम सूत्र सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ३६२. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ " ३९२ जीवा डि . २. सु. १०६ ३६३. सु. १५० 11 सु. १८७ Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : आगमों के स्थल निर्देश गणितानुयोग ७८३ पृष्ठ स्थल निर्देश ठाणांग सूत्र ४०१. ठाणं. १०, सु. ७२५ ४०३. , ४०७. , - ३, उ. ४, सु. ३०७ ४०७. ४०७. , ४०८. ० पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश -मध्यलोक सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र क्षीरवरद्वीप वर्णन (पृष्ठ ३६४) . ३६७. सूरिय. पा. १६, सु. १०० जीवाभिगम सूत्र -मध्यलोक३६४. जीवा पडि. ३, उ. २, सु. १८१ क्षोदवरद्वीप (पृष्ठ ३६८-३६६) ३६४. , , " " जीवाभिगम सूत्र ३६८. जीवा. पडि. ३, उ. २. सु. १८२ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ३६८. " " " " ३६४. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ ३६८. , , सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र _मध्यलोक ३६८. सूरिय. पा. १६. सु. १०१ । क्षीरोद समुद्र वर्णन (पृष्ठ ३६४-२६५) ३९६. ___ जीवाभिगम सूत्र ___मध्यलोक३६४. जीवा. पडि. ३, उ. २, सू. १८१ ३६५. , , , , क्षोतोद समुद्र (पृष्ठ ३९६-४००) जीवाभिगम सूत्र ३६५. , , सु. १८७ ___३६६. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८२ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ३६६. , , , सु. १८७ ३६४. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ ४००. , , , सु. १८२ ४००. , , _मध्यलोक - ___ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र घृतवरद्वीप (पृष्ठ ३६६) ४००. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ जीवाभिगम सूत्र ३६६. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८१ -मध्यलोक नन्दीश्वरद्वीप (पृष्ठ ४००-४०८) ३६६. " " " " जीवाभिगम सूत्र सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ४००. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८३ ३६६. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ ४००. , " " " -मध्यलोक.. घृतोदसमुद्र (पृष्ठ ३६७-३६८) ४०४. , , , , __जीवाभिगम सूत्र ४०४. , , " ३६७. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८२ ४०५. " " " " ३६७. , , सु. १०२ ३६७. , , , सु. १८७ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ३६८. , , , ४००. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ समवायांग सूत्र ४०१. सम. ८४, सु. ७ ४०३. , ६४, सु. ४ -मध्यलोकनन्दीश्वरोद समुद्र (पृष्ठ ४०६) जीवाभिगम सूत्र ४०६. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८४ ४०६. , , , , ठाणांग सूत्र ४०६. ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३०७ ४०६. , ७, सु. ५८० ४०६. , सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ४०६. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ -मध्यलोकअरुणादिद्वीप समुद्र (पृष्ठ ४१०.४१२) जीवाभिगम सूत्र ४१०. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८५ . ० ० mmx ० " ४१०. , ४११. " ४११. " " " " " " ० ० ० ४१२. , ४१२. " Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BEY आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट:४ w पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र . ठाणांग सूत्र ४१०. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ ४१६. ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. १८६ ४१०. , " " -मध्यलोक- ४१२. " , " वाणयंतरदेव (पृष्ठ ४२०-४२८) ४१२. , " " ४१२. , , , जीवाभिगम सूत्र -मध्यलोक- ४२१. जीवा. पडि. ३, उ. १, गु. १२१ कुण्डलवरादिद्वीप समुद्र (पृष्ठ ४१३-४११) ४२१. " " " ," ४२२. " " " " जीवाभिगम सूत्र ४२७. , , , , ४१३. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८५ पन्नवणा सूत्र ४२०. पण्ण. १, . सु. १४१ ४२१. , प. २, सु. १८८ ४२१. , , सु. १८६(१) १५. , , , , ४२१. , , , (२) ,, सु. १६०(१) ४१५. " " ४२२. , , , (२) सु. १६१(१) ४२३. , , , (२) ४१६. , , सु.१८६ ४२३. सु. १६२ ४१७. , , , सु. १८७ ४२४. , , सु. १६३(१) ४१७. , , , सु. १८६ ४२४. , , , (२) ,, सु. १६०/१ ४२४. " सु. १६४ ४१८. , , , सु. १६६ ४२५. , , , सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र समवायांग सूत्र ४१३. सूरिय. पा. १६, सु. १०१ ४२०. सम. ८००, सु. १११ ४१४. , , ४२०. ,, १५०, सु. ३ . " ४१४. , , ४२४. , ८, , , ४१५. , " " ४२६. , ६, सु. १० ४२६. , ६६, सु. ७ ठाणांग सूत्र भगवती सूत्र ४२०. ठाणं. ८, सु. ६५४ ४१४. भग. स. १८, उ. ७, सु. ४७ ४२१. , अ. २, उ. ३, सु. ६४ पन्नवणा सूत्र ४२३. ,, अ.८, सु. ६५४ ४१६. पण्ण. प. १५, उ. १, सु. १००३ ४२६. , ४, उ. १, सु. २७३ (१)-(२) ४२७. , ३, उ. २, सु. १५४ पृष्ठ स्थल निर्देश भगवती सूत्र ४२०. भग. स. ५, उ. ६, सु. १७ ४२०. ,, स. ८, उ. १, सु. १४ ४२६. . ., स. १६, उ. २, सु. ७-८ ४२६. ,, , उ. ७, सु. ४.५ ४२८. , स. १४, उ.८, सु. २५,२६,२७ उत्तराध्ययन सूत्र ४२०. उत्त. अ. ३६, गा. २०७ ___मध्यलोकज्योतिष्क-निरूपण (पृष्ठ ४२८-४६४) जीवाभिगम सूत्र ४२८. जीवा. प. ३, उ. २, सु. १७७ ४२८. , , , , ४२६." , " को टीका ४३०. , , उ. १, सु. १२२ सु. १६७ ४३१. , , उ. २, , " " स. १२२ " सु. १६७की टीका ४३३. , , , सु. १५३ ४३४. , , , सु. १६४ ४३४. , , , सु. १५५ " सु. १७४ ५ सु. १७५ ४३७. , , , सु. १७६ ४३८. , , , , ४३६. , , , सु. १८० ४३६. , सु. १७७ ४४०. सु. १८० ४४०. , , , सु. १८२ ४४०. , , , सु. १८५ < of , , , , सु. २०६ , . , .सु. १६५ ४४१. ४४१. ४४२. ४४२. , , ,, सु. १७७गा.२१,२२ Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ४ पृष्ठ स्थल निर्देश ४४५. जीवा. पडि ३, उ. २, सु. १६५ ४४७. सु. १९७ सु. १६८ ४५३. ४५३. ४५६. ४५७. ४५७. ४५७. ४५८. ४५८. ४५८. ४५६. 77 21 11 ا" " " ا" 21 11 11 ४३४. "2 ४३५. " ४३६. " ४३७. " " " " " " " " " 31 ار 31 13 33 भगवती सूत्र ४२८. भग. स. ३, उ. ७ ४२८. ४२६. स. ५, उ. १, सु. १७ स. १६, उ. ८, सु. ४ ४२६. ४३३. स. ६, उ. २, सु. २ सु. ३ सु. ४ 31 13 " 27 " " ו' 11 " 21 उ. ३, उ २, सु. २०२-२०४४३६. " .१९९ सु. २०० उ. २, सु. १७७ 27 13 33 सु. ५ ४३८. " ४३६. 11 सु. ४ ४४४. स. १४, उ. सु. ५ ४५४. ४५५. ४५.५. स. १०, उ. ५, सु. २७-२८ स. १२, उ. ६, सु. ८ सु. ६-७ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ४२८. सूरिय. पा. १६, सु. १०० ४३०. पा. १८, सु. ६४ ४३१. ४३२. ४३३. ४३४. "1 " 11 " " "" 11 وا ا" " 27 31 " " 13 " पा. १६, सु. १०० ४३४. पा. १८, सु. ६१ ४३५. पा. १६, सु. १०० पृष्ठ स्थल निर्देश ४३६. सूरिय. पा. १६, सु. १०० ४३७. ४३८. ४३६. ४४०. ४४०. ४४१. ४४१. ४४१. ४४२. ४४५. ४५०. ४५७. ४५७. ४५७. ४५८. ४५८. ४५८. ४५८. ४५६. ४५६. ४६०. आगमों के स्थल | निर्देश ४६०. ४६०. ४६१. ४६१. ४६१. ४६२. ४६२. ४६२. ४६३. ४६३. " 31 13 "1 33 " " " 31 23 " 23 31 11 11 " 11 31 " " 31 ४५४. ४५४. ४५५. पा. १८, सु. ६७ ४५६. पा. १५, सु. ८३ ४५६. ४५७. 11 " 11 21 ار 11 " " 31 13 21 11 31 पा. १८, सु. ६५ " पा. १६, सु. १०० पा. १८, सु. ६५ पा. १६, सु. २००. 33 ܕ ܪ पा. १८, सु. १०० सु. ६२ 2 " सु. ८६ सु. ६४ पा. २०, सु. १०५ 11 " "7 23 11 ܪ सु. १०१ सु. १०० सु. १०१ 23 3: ار " 27 11 21 पा. १०, सु. ७० पा. १६, सु. १०० " " की टीका 23 सु. ८६ \. तु. ८५ पृष्ठ स्थल निर्देश ४६४. सूरिय. पा. १५, सु. ८५ ४६४. ४६४. 37 ४३०. ४३१. ४३२. ४३३. " ४३४. ४३५. "" ४४७. ४५०. ४५४. चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र ४२८. चंद. पा. १६, सु. १०० पा. १८, सु. ४ ४५६. " ४५६. ४६०. ४६०. ४६०. ४६१. ४६१. ४३६. ४३७. ४३८. ४३६. 11 ४३६. ४४०. ४४०. ४४१. ४४१. 31 21 " पा. १६, सु. " 31 11 27 21 "3 33 " "3 ४५५. पा. २०, सु. १०५ पा. १८, सु. ६७ ४५६. पा. १५, सु. ८३ ४५७. 33 ४५७. " पा. १८. सु. ६५ ४५७. पा. १६, सु. १०० ४५८. पा. १०, पाहु. २२, सु. ७० पा. १५, सु. ८४ ४५८. ४५८. ४५८. 33 23 " 31 21 22 33 33 11 " " 23 33 21 "1 13 ار 13 गणितानुयोग " "" 2 11 " " सु. १०१ " सु. १०० सु. १०१ १०० 11 11 11 पा. १८, सु. ६६ " सु. ६४ "1 11 13 11 "3 ار " " पा. १०, सु. ७० 17 पा. १५, सु. ८४ " ७८५ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट :४ ४५६. सु. १४३ ४७०. PAGALEGA gA ४७१. पृष्ठ स्थल निर्देश ४६१. चंद. पा. १५, सु. ८४ ४६२. , , सु. ८६ ४६२., , , ४६२. , , , ४६३. , , सु. ८७ ४६३. , , सु. ८५ ४६४. , , , ४६४. " " ४६४. , , , पन्नवणा सूत्र ४२६. पण्ण. प. १, सु. १४२/१ ४३१. , प. २, सु. १६५/२ ठाणांग सूत्र ४२६. ठाणं. ५, उ. १, सु. ४०१ ४३४. , ४, उ. २, सु. ३०५ ४४४. , ६, उ. सु. ६७० ४५४. , ४, उ.१, सु. २७३ ४५५. , , " उत्तराध्ययन सूत्र ४२६. उत्त. अ. ३६, गा. २०८ समवायांग सूत्र ४३१. सम. सु. १५० ४३६. , ४२, सु. ४ ४३८. ,, ७२, सु. ५ ४४१. ,, ११, सु. ३ ४४२. , सु. २ ४४४. ,, ६, सु. ७ ४४४. ,, १११, सु. ५ पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश ४४६. जंबु. वक्ख. ७, सु. १४७ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ४६५. जंबु. वक्ख ७, सु. १५० ४५२. , , सु. १६६ ४६६. , , सु. १४५ ४५३. , , , ४६६. , , सु. १४२ सु. १६८ ४५७. , , सु. १६७ ४६६. , " सु. १४४ ४५७. , , सु. १६८ -मध्यलोकचन्द्र वर्णन (पृष्ठ ४६५-४८१) सु. १४७ भगवती सूत्र ४७५. " , सु. १४८ ४६५. भग. स. १२, उ. ६, सु.४ ४७६. , , सु. १४६ ४६५. ,, स. ५, उ. १०, सु. १ समवायांग सूत्र ४६५. , , ,का संक्षिप्त पूरक पाठ ४६६. सम स. ६२, सु. ३ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ४६७. " " " ४६५. सूरिय. पा. २०, सु. १०८ जीवाभिगम सूत्र ४६५. , पा. ८, सु. २६ ४६६. जीवा. प. ३, उ. २, सु. १७७ ४६६. , पा. ३६, सु. १०० ४६७. , , , , पा. १३, सु. ७६ " सु. १६२ पा. १४, सु. ८२ , पा. १३, सु. ७६ ४८०. , , , , ४६८. , पा. १४, सु. ८२ पन्नवणा सूत्र , पा.१०, पाहु. ११, सु. ४५ ४७६. ,, पा. १२, सु. ७८ ४८०. पण्ण. प. ४, सु. ३६७(१) ४७६. , पा. १५, सु. ८३ -मध्यलोक, पा. १०, पाहु. २२, सु. ६३ ४७६. , , , सु. ६५ सूर्य वर्णन (पृष्ठ ४८२-५५६) ४८१. , , पाहु. ११, सु. ४५ भगवती सूत्र चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र भग. स. १२, उ. ६, सु. ५ ४६५. चन्द. पा. ८, सु. २६ ४८२. , स. १४, उ. ६, सु. १३-१६ ४६५. , पा. २०, सु. १०५ ४८४. , स. १, उ. ६, सु. १-४ ४६६. , पा. १६, सु. १०० ४८५. ,, स. ५, उ. १, सु. २२ १३, सु. ७६ , सु. २३-२५ पा. १४, सु. ८२ ४८६. , , , सु. २६ ४६६. , पा. १०, पाहु. ११, सु. ४५ ४८६. , , , सु. २७ ४७६. , पा. १२, सु. ७८ ४६१. , , , सु. ५ पा. १०, सु. ६३ ४६३. , , , सु. ५-१३ ४७६. " " सु. ६५ ५०१., स. ८, उ.८, सु. ३८ aururur IS ४४६. , सु.४ ४४६. ,, १३, सु.८ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ४३१. जंबु. वक्ख. ७, सु. १६५ ४३३. , , सु. १२६ ४४१. , , ४, सु. १६४ ४४२. , , ७, , ४४५. " ॥ ४७८. " Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट:४ मागमों के स्थल निर्देश गणितानुयोग ७८७ ~ ~ ५०२. ५०६ पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश ५०२. भग. स. ८, उ. ८, सु. ४१-४२ ५३८. सूरिय. पा. १, पाहु. ५, सु. १६-१७ ५५४. चंद. पा. १, सु. १२ ५०३. , , , सु. ३६-४० ५४०. ॥ पा. २, पाहु. १, सु. २१ ५५६. , , सु. १३ ५०३. , . , सु. ४५ ५४७. , , पाहु. ३, सु. २३ ५५८. , पा. १०, सु. ६४ ५०३. , , , सु. ३६ ५५२. , पा. १, पाहु. १, सु. ११ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ५०६. , , , सु. ४३, ४४ ५५४. , , पाहु. २, सु. १२ ०. , , ४८४. जंबु. वक्ख. ७, सु. १३७ ५५६. , सु. ३५-३७ ८. , पा. १०, पाहु. २२,सु. ६४ ४८५. , , सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र सु. १५० ४८६. ५५६. " , , " सु. ६६ , , ४८२. सूरिय. पा. २०, सु. १०४ ४८६. , , ४८५. , , चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र पा. ८, सु. २६ ४८६. , " " ४८२. चंद. पा. २०, सु. १०४ सु. १०६ ४८६. , , , ४८५. , पा. ८, सु. २६ सु. १३७ ४६१. , , , ___ की टीका ४६३. , , सु. १३७ ४६३. , , , ४८६. , , , ५०३. पा. ६, सु. २७ ४६१. , " " " , सु. १३६ , पा. ७, सु. २८ ४६८. , पा. ६, सु. २७ " , ४, सु. १३५ ४६८. , पा. ५, सु. २६ ७, सु. २८ ५०७. ४६८. " , " ५०१., पा. ५, सु. २६ ५०८. " " " ४६८. , , , ५०३. , पा. 6, सु. २५ सु. १३८ की टीका ५०५. ॥ " " ५०६. ५०३. , पा. ४, सु. २५ ५१.. सु. १३६ ५०५. " " " ५०७. , " " ५१७. , सु. १२७ ५०८. , , , ५०७. " " " ५११. , पा.६, सु. ३० ५१८. सु. १२७ ५०८. , , , ५११. , , सु. ३१ ५२३. ५११. ,, पा. ६, सु. ३१ ५२३. सु. १३० ५११. , , सु. ३० ५१७. " , " ५११. , पा. ६, सु. २७ ५२१. , पा. १, सु. १५ ५३०. सू.१३२ ५१३. , पा. ६, सु. ३१ ५२३. , " सु. १४ ५१५. " " " ५२७. " , सु. २० ५२८. , सु. १३३ ५२१. , पा. १, पाहु. ४, सु. १५ ५३१. , , सु. ६ ५४८. " " सु. १४६ ५२३. , , पाहु. ३, सु. १४ ५३१. , , सु. १० ५५१. "., सु. १३४ ५२७. , , पाहु. ८, सु. २० ५३३. ,, पा. २, सु. २२ समवायांग सूत्र ५२८. , , , , ५३६. , पा. १, सु. १८ , पाहु. १, सु.६ ५३८. , , सु. १६-१७ ५००. सम. स. १६, सु. ३ , , सु. १० ५४०. , पा. २, सु. २१ ५०३. , स. १६, सु. २ ५३३. , पा. २, पाहु. २, सु. २२ ५४७. , , सु. ३३ ५१८. , स. ८५, सु. १ ५३६. , पा. १, पाहु. ८, सु. १८ ५५२. , पा. १, सु. ११ ५१८. ६३, सु. ३-४ सु. १२८ ~ ~ ~ ~ X सु. १२६ X ال ل ه الله xxxxxx Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०८८ आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट : ४ X X X X X पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश ५२३. सम. ४८, सु. ३ चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र -मध्यलोक५२७. " " " ५५६. चन्द. पा. १०, सु. ६६ ग्रह वर्णन (पृष्ठ ५८४-५८६) ५२८. " " " ५६०. , पा. १८, सु. ६१ ५२८. , १३, सु.८ ५६२. , पा. २०, सु. १०२ ___ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ५३१. ,, ८२, सु. १ ५६३. , पा. १, सु. १६ ५८५. सूरिय. पा. २०, सु. १०६ ५३८. , ८० ५६५. , पा. ४, सु. २५ ५८५. " , " ५४३. ,, ४७, सु. १ ५६५. , पा. १६, सु. ८७ ६. , पा. ६, सु. ६६६ ५४५. , ३३, सु. ४ ५६८. , पा. ३, सु. २४ ५८६. , पा. २०, सु. १०३ ५४५. , ३१, सु. ३ ५६६. , पा. १०, सु. ५२ ५८६. , , , ५४६. , ४७, सु. १ ५७२. , पा. १३, सु. ८१ ५८७. , , , ५४७. , ६०, " ५७३. ,, पा. १०, सु. ६६ ५८८. , , " ५५२. ॥ ६३, सु. ३ ५७५. , , सु. ६७ ५८६. ., , , ५५६. , ६६, सु. ४-६ ५७६. , , सु. ६८ ____ चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र ५५६. ,, ७८, सु. ३-४ ५७६. , पा. १२, सु. ७६ ५८५. चन्द. पा. २०, सु. १०६ ५५६., ८८, सु.६ ठाणांग सूत्र ५८६. , , सु. १०३ ५५७. ,, ९८, सु. ५-६ ५५६. ठाणं. २, उ. ३, सु. १०५ ५८६. , , , -मध्यलोक५६० ,, ३, उ. २, सु. १६२ ५८७. , , , जीवाभिगम सूत्र ५८८. , , , चन्द्र-सूर्य वर्णन (पृ. ५५६-५८४) ५५६. जीवा. पडि. , उ. , सु. १६४ ५८६. , , , पन्नवणा सूत्र ५५६. " , " सु. १७७ जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ५५६. पण्ण. प. २, सु. १६५(२) ५६०. , पडि. ३, उ. २, सु. १६४ ५८५. जंबु. वक्ख. ७, सु. १६६ भगवती सूत्र ५६०. , , उ. १, सु. १२२ भगवती सूत्र उ. २, सु. १६३ ५५६. भग. स. ३, उ. ८, सु. ८ ५८६. भग. स. १२, उ. ६, सु. ३ ५८०. , , , , सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र , ५८१. ,, , सु. १६४ ५८६. ,, , , सु. २ ५६०. सूरिय. पा. १८, सु. ६१ ५८७. " " , ५८१. , सु. १६५ " " ५६२. , पा. २०, सु. १०२ ५८२. ५८८. सु. १६८ , ५६३. , पा. १, पाहु. ७, सु. ६६ १६७ ५८६. " " " ५६५. , पा. १६, सु. ८७ ठाणांग सूत्र ५६५. , पा. ४, सु. २५ ५८३. " " " ५८५. ठाणं. अ. ८, सु. ६१३ पा. ३, सु. २४ ५८५. ,,अ. ६, सु. ४८१ पा. १०, पाहु. १८, सु. ५२ ___ समवायांग सूत्र ५८५. , अ. २, उ. ३, सु. ६५ ५७२. , पा. १३, सु. ८१ ५६०. सम. ८८, सु. १ ५८५. , , , सु.६० ५७३. , पा. १०, पाहु. २२, सु. ६६, ५६१. , ६६, सु. १.४ ५८६. , अ. ६, सु. ६६६ ५७५. , , , सु. ६७ , समवायांग सूत्र जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ५८५. सम. ८८, सु. १ ५७७. ,, पा. १२, सु. ७७ ५७६. ५८६. , १६, सु. ३ , , सु.७६ . ५६७. जंब. वक्ख. १, सू. ४ से वक्ख ६ सु. १२५ तक ५८६. , १५, , .. म १५३. ,६१, सु. ३-४ ५७६. , , Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट:४ १ . आगमों के स्थल निर्देश गणितानुयोग ७८९ . . rrurur ० . ० १ ६ पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश स्थल निर्देश पृष्ठ ६०३. सूरिय. पा. १०, पाहु. ६, स. ४२ ६३६. चन्द. पा. १०, सु. ६० -मध्यलोक ६०८. , , , २१, सु. ५६ १४१. , , सु. ३३ नक्षत्र वर्णन (पृष्ठ ५६०-६५३) ६०६. , , , ५, सु. ३७ ६४२. , , सु. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ६१४. , , , ६, सु. ३६ ६५०. , , सु. ३६ ५६०. जंबु. वक्ख. ७, सु. १५५ ६२१. , , , ३, सु. ३५ ठाणांग सूत्र ५६१. " , " ६२१. , पा. १८, सु. ६३ ५६३. , , सु. १५६ ठाणं. अ. २, उ. ३, सु. ६५ ६२२. , पा. १०, पाहु. २२, सु. ६२ ५६६. , , सु. १५७ ६२३. , , ,, ११, सु. ४४ ५६६. , , ॥ " अ. ३, , सु. २२७ ६२५. , , , ५, सु. ३८ " सु. १५६ , , की वृत्ति ६२६. , , , ६, सु. ३६ ., अ. ५, , सु. ४७३ ६२८. , , , ७, सु. ४० ६००. ,, वक्ख. ६, सु. १५८ ,, अ. २, उ. ४, सु. ११० , वक्ख. ७, सु. १६१ ६३२. " " ॥ १०, सु. ४३ ६३६. , , , २२, सु. ६१ , अ. ३, उ. ३, सु. २२७ ६१४. " , " ६१६. , , , , अ. ५, , सु. ४७३ ६२१. , , सु. १६५ ६४१. , , , २, सु. ३३ ,, अ. ३, , सु. २२७ ६.१. , अ. १, सु. ५५ ६२५. , , सु. १६१ ६४६. , , , ४, सु. ३६ ६.१. , ५, उ. ३, सु. ४७३ ६२६. , ६५.. , ॥ ॥ अ. ३, , सु. २२७ ६५२. , , , १७, सु. ५१ ६२८. , , , ६०१. , अ. ६, सु. ५३६ ६३२. , , सु. १४६ चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र ६०२., अ. २, उ. ४, सु. ११० ६३२. , " " अ.७, सु. ५८६ ६३२. , , , ५६१. चन्द. पा. १०, सु. ३२ " अ. २, उ. ४, सु. ११० ६३३. " , " ५६३. , , सु. ५० , अ. ५, उ. ३, सु. ४७३ ५६६. , , सु. ४६ , अ. १, सु. ५५ ६३३. , ५६६. , , सु.१ ६०२. , , , ६३४. , ६०८. , , सु. ५६ , अ. ५, उ. ३, सु. ४७३ ६१४. , , सु. ३६ , ४, उ. ४, सु. ३८६ ६३४. , , , , ३, उ. ३, सु. २२७ ६४१. , , सु. १६० ६२१. , , सु. ३५ , ४, उ. ४, सु. ३८६ ६४२. , . . ६२१. , पा. १८, सु. ६३ ,, अ.४, " ॥ ६५३. , सु. ६५३ ६२२. , पा. १०, सु. ६२ ३. , ३, उ. ३, सु. २२७ ६२४. , , सु. ४४ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ६२५. , , सु. ३८ ५, उ. ३, सु. ४७३ ५६१. सूरिय. पा. १०, पाहु. १, सु. ३२ ६२६. , , सु. ३६ २, उ. ४, सु. ११० ५६३. , , , १६, सु. ५० ६२८. " , सु.४० ५६६. , , , १२, सु. ४६ ६३२. , , सु. ४३ , ३, उ. ३, सु. २२७। ५६६. , , , ८, सु. ४१ ६३६. , , सु. ६१ کن ६०१. ي ي ي ي Mr mmmmmmmmm ي ي لي ന ന .66666 ന ന ന ० ० rrrrrrrrrrrrururururur ० ० ० ० ० ० Mmmmmmmm ० ० ० Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९. या आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट:४ ० पृष्ठ स्थल निर्देश ६०१. सम. ३, सु. ११ ६०१. ॥ , सु. १२ पृष्ठ स्थल निर्देश ६०४. सम. ५, सु. ११ ६०४. , १, सु. २४ ६०४. . , सु. २५ يا ० ० آي पृष्ठ स्थल निर्देश ६०३. ठाणं. ६, उ.०, सु. ५३६ ०३. , ५, उ. ३, सु. ४७३ ६०३. , ३, उ. ३, सु. २२७ ६०३. ।। १, उ. ०, सु. ५५ ६०३. , ५, उ. ३, सु. ४७३ ६०३. ,, ३, उ. ३, सु. २२७ ६०३. , ६, उ.., सु. ५३६ ६०३. ॥ सु. ५८६ ६०३. ,, २, उ. ४, सु. ११० ६०३. , , , ६०३. ,, ५, उ. ३, सु. ४७३ ६०३. ,, १, सु. ५५ *m : * ६०४. , ६०४. , ४, ३, सु. ८ 64646404444 ६०१. , ५, सु. १० ي o ي ० o ६०२. ,, ७, सु.७ xv८ ي ० o ي ० ६०२. , ي ० ६०२. mo * - ي ० ६०२. ५, सु. ११ ,, ६८, सु.७ ०४. , ६, , ,, ११२, सु. ५ ,, स.७, सु. ८-११ ६२३. , ६, सु. ६ ي ० ي ० ي ० A ., ५, उ. ३, सु. ४७३ ६०४. ,, ४, उ. ४, सु. ३८६ ६०४. , ३, उ. ३, सु. २२७ ६०४. , ४, , सु. ३८६ ur rur rurururururururrrrrrrrrrrururururururururur ६०२. , ६०२. , *m ي ० ي ० ي ० ६०२. , ,६८, सु. ०२. , ११, सु. ५ ي ० ي ० ६०४. , ६, उ. ०, सु. ४८१ ६०८. , ७, सु. ५८६ ६२३. , ६, सु. ६६६ ६३६. , १०, सु. ७८० ي ६०४. ,, m ي ६३६. , ६७, सु. ४ ६३७. , ६३८. , ६, सु. ५ ६३८. , १५, सु. ४ ६३८. , ४५, सु.७ ६४०. , ६, सु. ५ ४१. , , सु. ६ ६५३. , १०, सु.७ अनुयोगद्वार सूत्र ५६०. अणु. सु. २८५, गा. ८६-८८ ५६४. , सु. २८६, गा. ८६-६० जीवाभिगम सूत्र ६२१. जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १६६ لا m m ,, सु. १० ६०४. , ५, सु. १३ ६०४. , १००, सु. २ ६०४. , ६०४. ,, ६०४. , ६०४. گن لن ६०४. ६३६. , १, सु. ६६४ ६४०. ,, ६, सु. ६६६ ६४०. , सु. ५१५ सु. ५१७ समवायांग सूत्र ५६१. सम. २७, सु. २ ५६१. ,, , ६००. , ३, सु.६ ६००. ॥ ॥ सु. १० ६००. , १००, सु.२ ६००. , ५, सु. १३ ६०१. , २, सु. ७ ६०१. , , , ६०१. , १, सु. २३ ६०१. , ३२, सु. ५. ६०४. , ५, सु. U . . . xx Porrur or ur urur . . . . . ६०४. -ऊर्ध्वलोक(पृष्ठ ६५५-६५७) भगवती सूत्र ६५५. भग. स. ११, उ. १०, सु. ६ ६५५. , , , सु.६ ६५६. , , , सु. १४ . ६०४. ६०४. , २, सु.४ ६०४. , , सु.५ Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट:४ आगमों के स्थल निर्देश गणितानुयोग ७६१ पृष्ठ स्थल निर्देश -ऊर्ध्वलोकतमस्काय वर्णन (पृष्ठ ६७५-६७६) भगवती सूत्र ६७५. भग. स. ६, उ. ५, सु. १ ६७६. , , , सु. २ ६६४. our rur orrururur ६७६. , ६७६. " ६७७. , , , , , " , , सु. ४ सु. ५ सु. ६-७ सु. १४-२७ पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश ६५६. भग. स. ११, उ. १०, सु. १४ ६६४. पण्ण. प. २, सु. २०२/१ ६५७. , , , सु. १६ ६६४. , , सु. २०२/२ ६५७. ,, स. १६, उ. ४, सु. १४ ६६४. , ,, सु. २०३/१ ६५७. , स. ११, उ. १०, सु. १६ सु. २०३/२ ६६५. , , सु. २००/१ -ऊर्ध्वलोक ६६५. , , सु. २०४/२ वैमानिक-ज्योतिष्क देव वर्णन ६६६. , , सु. २०५/१ (पृष्ठ ६५७-६७२) सु. २०५/२ समवायांग सूत्र ६६७. , , सु. २०६/१ ६५७. सम. स. ८४, सु. १७ ६६७. , , सु. २०६/२ ६६८. , , सु. २०७ ६६०. , ३२, सु. ४ ६०. ८४, ६६६. , , सु. २०६ ६६०. , २८, सु.४ ६६६. , ,, सु. २१० ६०, सु. ६ ६६६. , , सु. २०८ ६६२. , १३१, ठाणांग सूत्र ६६३., ५०, सु. ५ ६६०. ठाणं. अ. ३, उ. २, सु. १६२ ६७२. , ४, उ. ४, सु. ३८३ ४०, सु. ८ जीवाभिगम सूत्र ६६५. , ११६, सु. ६६०. जीवा. पडि. ३, सु. २०८ ६६५. , १०६, सु.४ ६६७. , १०१, सु. १-२ -ऊर्ध्वलोक कृष्णराजि वर्णन (पृष्ठ ६७२-६७५) भगवती सूत्र भगवती सूत्र ६७१. भग. स. ६, उ. ५, सु. ३२-४१/४३ . ६७१. , स. १४, उ. ८, सु. ६-१६ ६७२. भग. स. ६, उ. ५, सु. १७-१८ ६७१. , स. ६, उ. ५, सु. ४२ ६७३. , , , सु. १६ ६७३. सु.२० पन्नवणा सूत्र ६७३. , , , सु. २१-२२ ६५८. पण्ण. प. २, सु. १६६ ६७४. , , , सु. २३-२४ ६५६. , , सु. १६७ ६७४. " , " सु. २५ ६६०. " , सु. १६७/२ ६७४. , , , सु. २६-२७ ६६१. , , सु. १६८/१ ६७४. , , , सु. २८ ६६१. " " सु. १६८/२ ६७४. , , , सु. २६ ६६२. , , सु. १६६/१ ६७५. , , , सु. ३० ६६२. , , सु. १६६/२ ६७५. " , " सु. ३१ ६६२. , , सु. २००/१ ६६२. , , सु. २००/२ ६६३. , , सु. २०१/१ ६६३. , , सु. २०१/२ ६७८. , , , सु.१० ६७८. , , , सु. ११-१२ ६७८. , , , सु. १३ ६७६. , , , सु. २४ ६७६. " , " सु. ५१ ६७६. , , , सु. १६ ठाणांग सूत्र ६७६. ठाणं. अ. ४, उ. २, सु. २६१ ६७६. " , " _ _अवलोकविमान वर्णन (पृष्ठ ६७६-६६०) ठाणांग सूत्र ६ ७६. ठाणं. अ. ३, उ. ३, स.१८६ ६८०. , , , , ६८०. , , , , अ. ५, , सु. ४६६ ६८४. अ.६, सु. ५३२ अ. ७, सु. ५७८ अ.८, सु. ६५० सु. ६६५ अ. १०, सु. ७७५ ६८. अ. १, ६८५. , अ.६, सु. ५१६ ६८५. , अ. ३, उ. ४, सु. २३२ ६८५., अ. ६, सु. ६८५ л л л л л ur л ur л л л Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ आगमों के स्थल निर्देश परिशिष्ट : पृष्ठ स्थल निर्देश ६८६. ठाणं. अ. १०, सु. ७६६ ६८६. ., अ. ८, सु. ६४४ ६८६., अ. १०, सु. ७२८ जीवाभिगम सूत्र ६८०. जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. २०६ ६८१. , , , सु. २१२ ६८१. , " " ६८२. , , , , सु. २१३ ६८२. " .. " ६८२. , , , , ان الله ہیں الله میں " " ६८३. , , , ६८४. " " " समवायांग सूत्र ६८१. सम. २७, सु.४ ६८३. , १३, सु. ३ ६८३. " १, सु.४ ६८४. , १०४, सु. ३ ६८४., १३, सु. २ ६८४. , १०८, सु.८ ६८४. , १०६, सु. १ ६८४. ॥ ११०, , ६८४. ,, १११, " ६८४., ११, , ६८४. , " ॥ पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश -ऊर्ध्वलोक -काल लोकसिद्धस्थान वर्णन (पृष्ठ ६८६-६६०) यथायुनिवृत्ति काल वर्णन (पृष्ठ ६६४) औपपातिक सूत्र भगवती सूत्र ६८६. उव. सु. ४३ ६६४. भग. स. ११, उ. ११, सु. १४ ६६०. ,,, पन्नवणा सूत्र -काल लोक६६०. पण्ण. प. २, सु. २११ मरणकाल प्ररूपण (पृष्ठ ६६५) समवायांग सूत्र ६६५. भग. स. ११, उ. ११, सु. १५ ६६०. सम. १२, सु. ६-१० -काल लोकसमय स्वरूप वर्णन (सु. ६६५-७१३) भगवती सूत्र ६६५. भग. स. ११, उ. ११, सु. १६ ६६५. , स. ६, उ. ७, सु. ४-७ -काल लोक • ,, स. ११, उ. ११, सु. १७ (पृष्ठ ६९१-६६३) ७००., स. ६, उ. ७, सु. ४-५ ७०३., , , सु. ७-८ अनुयोगद्वार सूत्र , स. २५, उ. ५, सु. २-१२ ६६१. अणु. सु. ५३, २ ७०६. , , , सु. १३-२५ ठाणांग सूत्र ७०६. " , सु. २६-२७ ६९२. ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. १६७ सु. २८-३४ ६६२. ,, अ. ४, उ. १, सु. २६४ ७१०. , , ॥ सु. ३५ भगवती सूत्र सु. ३६-३८ सु. ३६-४१ ६६२. भग. स. ११, उ. ११, सु. ७ ७११. , , , सु. ४२ ६६२. , , , सु.८ ७११. , , , सु. ४३ उत्तराध्ययन सूत्र ७१२. , , , सु. ४४ ६६३. उत्तरा. अ. २६, गा. १३-१४ २. , स. १२, उ. ४, सु. १४ समवायांग सूत्र ३. " , " सु.१५ ६६३. सम. ४०, सु. ६ अनुयोगद्वार सूत्र ६६३. , , सु.७ ६६५. अणु. सु. ३६३-३६५ -काल लोक- ६६७. ,, सु. ३६६ ६६८., सु. ३६७ पोरुषी-प्रमाण वर्णन (पृष्ठ ६६३-६६४) , सु. ३६७ टि. भगवती सूत्र ७००. , सु. ३४३ ६६४. भग. स. ११, उ. ११, सु. ६.११ ७०१. , सु. ३४४, ३४५ ६६४. , , , सु. १२-१३ ७०४. , सु. ३६८, ३६६ ۴ں مي ن ں ں ६८५. , ६२, सु. ५ ६८६. , , सु. ४ ६८६. , ६५, सु. ३ ६८६. , ५२, सु. ७ ६८६. , ६, सु. ६ ६८६. ,, ६०, सु. ५ ६८६. , १०१, सु. १ . ६८७. , १, सु. भगवती सूत्र ६८६. भग. स. ३, उ. १, सु. ५५ ६८८. , , उ.७, सु. २-७ ६८८., स.४, १. Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : आगमों के स्थल निर्देश गणितानुयोग पृष्ठ स्थल निर्देश , ७०४. अणु. सु. ३७०, ३७१ ७०४. , सु. ३७२, ३७३ ७०५. " सु. ३७४, ३७६ ७०५. , सु. ३७७, ३७८ ७०६. , सु. ३७६, ३८० ७०७. , सु. ३८१, ३८२ ठाणांग सूत्र ६६६. ठाण. अ. ३, उ. १, सु. १४५ ६६६. , , उ. ४, सु. १०६ ७००. , अ. २, , सु. ११० ७००. , अ.८, सु. ६२० अ. २, उ. ४, सु. ११० अ.८, सु. ६३४ ७०२. , अ. २, उ. ४, सु. ११० अ. ३, उ. १, ७०२. , अ. २, उ. ३, सु. ६२ ७०३., अ.१, सु. ४० ७०३. , अ. २, उ. १, सु. ५६ ७०३. , , , सु. ६४ ७०३. , अ. १०, सु. ७५६ ७१२. ,, अ. ३, उ. ४, सु. १६७ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ६६६. जंबू. सु. १५२ ७००. , व. २, सु. १६ ७०२. " " " पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश -काल लोक चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र ७२४. चंद. पा. १३, सु. ८० संवत्सर वर्णन (पृष्ठ ७१३-७२२) सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र -काल लोक७१३. सूरिय. पा. १०, पाहु. २०, सु. ५४ दिवस रात्रि वर्णन (पृष्ठ ७२६-७२८) ७१३. , , , सु. ५८ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ७१५. , पा. १२, सु. ७४ ७२७. सूरिय. पा. १०, पाहु. १४, सु. ४८ ७१८. , पा. ११, सु.७१ ७२८. , पा. १२, ७२१. , पा. १२, सु. ७२. सु. ७५ ७२८. , पा. १०, पाहु. १५, सु. ४६ ७२१. , पा. १०, पाहु. २०, सु. ५५ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ७२६. जंबु. व. ७, सु. १५२ ७२२. सु.५८ ७२७. " , ७२२. , , , , ७२८. " " , ७२२. , , पाहु. १०, सु. ५३ समवायांग सूत्र ठाणांग सूत्र ७२६. सम. स. ३०, सु. ३ ७१३. ठाणं. अ. ५, उ. ३, सु. ४६० ठाणांग सूत्र ७२७. ठाणं. ६, सु. ५२४ ७२१. , , , , ७२२. , , , , -काल लोकजंबूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र करण वर्णन (पृष्ठ ७२९-३०) ७१३. जंबु. व. ७, सु. १५१ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र ७२१. , , , ७२२. , , , - ७३०. जंबु. व. ७, सु. १५३ ७२२. , , सु. १५२ -काल लोक-काल लोक ऋतु वर्णन (पृष्ठ ७३१-७३२) मुहूर्त वर्णन (पृष्ठ ७२३-७२६) ठाणांग सूत्र सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ७३१. ठाणं. ६, सु. ५२६ ७२४. सूरिय. पा. १२, पाहु. सु. ७३ समवायांग सूत्र ७२४. , पा. १३, सु. ८० ७३१. सम. ५६, सु. १ ७२५. , पा. १, पाहु. १, सु. ८ सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र ७२६. ,, पा. १०, पाहु. १३, सु. ४७ ७३१. सूरिय. पा. १२, सु. ७५ समवायांग सूत्र ७३२. , पा. ८, सु. २६ ७२४. सम. २७, सु. ३ भगवती सूत्र ७२४. । ६२, सु. १ ७३२. भग. स. ५, उ. १,सु. १४.२१ ठाणांग सूत्र ७२४. ठाण. अ. ३, उ. २, सु. १६३ ΔΔ ७०३. " " ॥ समवायांग सूत्र ७०१. सम. ६६, सु. ३ ७०१. , ४, सु. ६ ७०३. , २१, सु. १ ७०३. , ७०३. , ७०३. ,, ३. , २०, सु. ७ सु. १४ بي امي امي امي ΔΔ Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ४ .१४ आगमों के स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश -काल लोक_ काल-प्रभाव वर्णन (पृष्ठ ७३३-७३५) ठाणांग सूत्र ७३३. ठाणं. अ. २, उ. ३, सु. ६४ ७३३. , , , सु. ६६ ७३३. , , , सु. १०३ भगवती सूत्र ७३४. भग. स. ५, उ. ६, सु. १४-१६ जीवाभिगम सूत्र ७३५. जीवा. पडि. ३, सु. १७८, १७६ पृष्ठ स्थल निर्देश पृष्ठ स्थल निर्देश ७ ३७. भग. स. ११, उ. १०, सु. २४/२ परिशिष्ट १ ७३८. , , , सु. १२ ७३८. ,, , स्पर्श-अवगाह वर्णन (पृष्ठ ७४७-७५०) , सु. १६ । ७३८. ,, , , सु. २१ ठाणांग सूत्र ७३६. , , , सु. २७ ७४७. ठाणं. अ. ४, उ. २, सु. १६७ समवायांग सूत्र ७४८. ., अ. १०, सु. ७४७ ७४८., ७३७. सम. स. १, सु. ३ अ. ४, उ. ३, सु. ३३७ भगवती सूत्र पन्नवणा सूत्र ७४६. भग. स. १, उ. ६, सु. ५ ७३७. पण. प. १५, . सु. १००५ ७५०. , स. २, उ. १०, सु. १४-१६ ७३६. " " उ. १, " (२२) ७५०. , म. २०, उ. २, सु. ३ -लोकालोक प्रज्ञप्ति परिशिष्ट १ (पृष्ठ ७४१-७४६) लोकालोक श्रेणी वर्णन (पृष्ठ ७५०-७५४) ठाणांग सूत्र भगवती सूत्र ७४१. ठाणं. अ. ४, उ. ३, सु. ३३४ ७५१. भग. स. २५, उ. ३, सु. ६८-७६ भगवती सूत्र ७५१. , , , सु. ८०-८७ ७५२. , , , सु. ८५-६४ ७४१. भग. स. १६, उ. ८, सु. १५ , , सु. ६५-१०७ ७४१. , स. २, उ. १०, सु. १० ७५४. , , , सु. १०८ ७४२. ,, , , सु. ११ ठाणांग सूत्र ७४६. ., स. १, उ. ६, सु. १२-१३, १७-२४ ७५३. स्थानांग वृत्ति पत्र २२६ प्रज्ञापना सूत्र परिशिष्ट २ ७४२. पण्ण. प. १०, सु. ७७६ माप-निरूपण (पृष्ठ ७५४-७६०) ७ ४३. " " " अनुयोगद्वार सूत्र ७४३. " " सु. ७७८ ७५५. अनुयोग. टीका ७४४. , , सु. ७७६ ७५८. अणु. सु. ३३०-३४६ ७४५. , , सु.७८० ७६०. ,, सु. ३५६.३६२ ७५४. " --अलोक प्रज्ञप्ति(पृष्ठ ७३७-७३६) ठाणांग सूत्र ७३७. ठाणं. अ. १, सु. ५ भगवती सूत्र ७३७. भग. स. ११, उ. १०, सु. २३ ७३७. ,, स. २, , सु. १२ ७३७. , स. ११, , सु. २४/२ सु. २५/३ MY MY MY MY MY MY MY ७३७. , , सु. १६ ७३७. " ७३७. , , , " , सु. २३ सु. २५/३ ΔΔ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ विशिष्ट शब्द सूची अइकाय (महोरगदेवों का इन्द्र) ४२३, ४२५ अग्गिकुमारिद ८६ अइपंडुकंबल सिला ३६४ अग्गितावस गोत्त ५६१ अइरत्तकंबल सिला ३६४ अग्गिदेवया ५९४ अइ(ति) रत्ता ७२७, ७२८ अग्गिमाणव (अग्निकुमार ईन्द्र) ८६, ६२ अउज्झा रायहाणी ३६७ अग्गिवेस (दिवस नाम) ७२७ अउ(तु)य ६६८,७००, ७०७, ७३२ अग्गिवेस (मुहूर्त नाम) ७२५ अर(तु)यंग ६६८, ७००, ७०७, ७३२ अग्गिवेसस गोत्त ५६१ अओमुहदीव १६४ अग्गिसिह ६२ अकन्नदीव १९४ अग्गिसिह (अग्निकुमार इन्द्र) ८६ अकम्मभूमगा (मनुष्य) ३८६ अग्गीण (अग्निकुमार देव) ८८ अकम्मभूमि १६१, १६३, १९४, ३६२, ३७६ अग्गेयी (आग्नेयी दिशा) २१, २२, २३, २४, २८ . अक्ख (अक्ष) १०,७०१ अग्घ (मछली की एक जाति) ३६० अक्खय १५, १६ अचरिम ५५, ५६, ७४२, ७४३, ७४४, ७४५ अक्खयसोत्थिय १२८ अरिमाइं ५५, ५६ अक्खा ७५५, ७५८ अचरिमन्तपएस ५५, ५६, ७४२, ७४३, ७४४,७४५ अक्खाडग संठाण १६०, ६८० अच्वासण (दिबस नाम) ७२७ अक्खाडग चउरंस संठाण ६७२ अच्चिमाली (चन्द्र की अग्रमहिषी) ४५४, ४५५ अगए बहुए १२ अच्चिमाली रायहाणी ४०७ अगणिकाइय ६७४, ६७५, ६७६ अच्चिमाली (अच्ची) (लोकान्तिक विमान) ६७० अगणिकाय ६७४, ६७८, ७५७ अच्चुय(त) (कप्प) ८१, ६५५, ६५७, ६५८, ६६६, ६६७, अगिच्च (लोगंतिय देव) ६७० ६६८, ६७१, ६७२, ६८०, ६८१, ६८२, ६८४ अगुरुयलहुय ५८ अच्चुय (देवेन्द्र) ६६७, ६८४, ६८६, ६८६ अगुरुलहुयगुण ७३७ अच्चुय वडेंसय ६६६ अगुरुयलहुयपज्जव(1) १६, ५७, ७३७ अच्छ पव्वय (पर्वत) ८६६ अग्गमहिसी ७६, ८०, ८४, ६३, ६४, १०३, १५२, १५३, १५६, अच्छरा ८२ १७६, १८०, १८८, २१६, २८५, ४०७, ४०८, ४२१, अच्छरा (शक्रन्द्र की अग्रमहिषी) ४०८ ४२२, ४२५, ४३१,४५४, ४५५, ५५६, ५६०,६३०, अजदेवया ५६४ ६६२ अजीव १०, २३, २४, २५, २६, २८, २६, ५७, ५८, ६५५, अग्गल पासाय १४२ ६५६, ६५७, ७३७, ७४१, ७४२ अग्गि (अग्निकुमार देव) ७५ अजीव दव्व (द्रव्य) ७३७ मा ००७ Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९६ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट:५ अजीवदेस २३, २४, २५, २६, २८, २९, ५७, ६५५, ७३७, ६८०, ६८१, ६८२, ६८३, ६८४ ७३८,७४२ अणुत्तरा २२ अजीवपदेस २३, २४, २५, २६, २८, २९, ५५, ५७, ६५५, अणुपरियट्टणसामत्थ ३६०, ३६६, ४१४ ७३७, ७३८, ७४२ अणुबेलंधर (नागराज) ३४६ अजोणिय १८ अणुराहा (अनुराधा नक्षत्र) ५६०, ५६२, ५६५, ५६८, ६०२, अज्जमदेवया ५६५ ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१४, ६१६, ६२०, ६९३, अट्ठ मंगल(ग) १३८, १४८, १५२, १५६, १५७, १५८, १५६, ६२५, ६२६, ६२८, ६३१, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, १६०, १६१, १६२, १६३, १६६, १६६, १७०, १८३, ६४१, ६४२, ६४६, ६५१ २२०, २४६, २४८, २४६, २६६, ४०४ अणोगाढ ७४६ अट्टि मिजा १२ अणोरपार अडड ६९८, ७००, ७०७,७३२ अणंत (ता) १६, २० अडडंग ६६८, ७००,७०७, ७३२ अणंतपदेसिया २१, २२ अडयाल ७४ अणंतरोवगाढ ७४६ अड्ढाइज्ज दीव सागर ४१७ अण्णउत्थिय १७ अढाइदीव ३७८, ३७६, ३८०, ३८१, ३८२, ३८३, ३८८ अतितेया (रात्रि नाम) ७२७ अणव (मुहूर्त नाम) ७२६ अत्त(त्थ)निउर ६६८, ७००, ७०७, ७३२ अणवण्णिय (वाणव्यंतर देव) ४२०, ४२४ अत्त(त्य)निउरंग ६६८, ७००, ७०७, ७३२ अणवदग्ग १६ अत्थ(च्छ)(पव्वय-पर्वत) २३३ अणाउय १८ अत्थमण मुहुत्त ५१२, ५१३ अणागय (अनागत-भविष्य) ६६१, ६६२, ७१२ अत्थसिद्ध (दिवस नाम) ७२७ अणागयता ७०८, ७११, ७१२ अत्थाहमतार पोरुसिय उदग १४ अणाढि(ढी)य देव २१५, २१६, २२०, २२३, ३५४, ३८०, अत्थि १७ अत्थिकाय १६, २०,७४६ अणाढिया (अणाढिय देव की) रायहाणी (नगरी) २२० अदितिदेवया ५६५ अणाणुपुब्वी ३४, ३५, ७४५, ७४६ अद्दा (आर्द्रा नक्षत्र) ५७६, ५६०, ५६२, ५६४, ५६७, ६०१, अणाणुपुव्वीदव्व ३०, ३१, ३२ ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१२, ६१६, ६२०, ६२३, अणादि १६ ६२४, ६२६, ६२८, ६३०, ६३५, ६३७, ६३८, ६३६, अणायार १६ ६४०, ६४२, ६४६, ६५०, ६५३ अणिय(या)७६, ८०, ८४, १०४, १०५, १०८, १५३, १७६, अद्धकविट्ठगसंठाण ४३०, ४३१ २८५, ४२१,४२२, ४३१, ५५६, ५६० अद्धचंदसंठाण १९७, २१३, २१५, २४२, २६३, ३८२, ६५६, अणियाणं ८३ ६६५, ६६६, ६७२ अणियाहिवई (धिवति) ७६, ८०, ८३,८४, १०४, १०५, १०७, अद्धपलियंक (संठाण) ५६८ १५२, १५३, १७६, २८५, ३०७, ४२१, ४२२, ४३१, अद्धमागहाभासा (अर्धमागधी भाषा) ७ ५५६ अद्धमंडल ५६६, ५७०, ५७१, ५७२ अणिगण (वृक्ष) ३३५, ३३६ अद्धगुल ७५६ अणिदिय (या) १८, २३, २४, २५, २६, २८, २६, १०६, अद्धाकाल ६६२, ६९५, ७४६ ६५५, ६५६, ७४२ अद्धापलिओवम ७०४, ७०५ अणिदियदेस २३, २४, २५, २६, २८, ५८, ६५५, ६५६, ७४२ अद्धासमय १६, २३, २४, २५, २६, २८, ४१८, ४१६, ६५६, अणिदियपदेस २३, २४, २५, २८, २६, ६५५, ७४२ ७३६, ७४२ अणु(नु)त्तरोववाइय देव (ठाण) ६६६ अधम्म १६ अणुत्तर(रोववाइय)विमाण ६५५, ६५७, ६५८, ६६६, ६७१, अ(ध)हम्म (दव्व) (अधर्म द्रव्य) २० Guv४२ Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट:५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ७६७ अधम्मस्थिकाय १९, २०, २३, २४, २५, २६, ६५६, ६५७, अभिणंदण (मास का नाम) ७२२ ७४२, ७५० अभियत्तजंभग (देव) ४२७ अधम्मत्यिकाय (फुसणा) (स्पर्शना) ४१ अभिवु(व)ड्ढिय (अभिवद्धित) मास ४६४, ७१४, ७२०, ७२१ अधम्मत्थिकायदेस २३, २४, २५, ५८, ६५६, ७४२ अभिवुड्ढिय संवच्छर ७१३, ७१४, ७१५, ७१६, ७१७, ७१८, अधम्मत्थिकायपदेस २३, २४, २५, ५८, ६५६, ७४२ ७२०, ७२१, ७२२ अधुव १७ अभिसेक्क भंड १७० अनुभाव (सूर्य चन्द्र का) ५६१-५६२ अभिसेय सभा १६, १७०, १७३, १७६,१८०, २४६ अन्नजंभग (देव) ४२७ अभिसेअ य)सिला २४१, ३६४ अपइट्ठाण नरय (नरक) १७ अभीइ (नक्षत्र) ५.६८, ५६६, ५७८, ५६०, ५६१, ५६३, ५६६, अपज्जत्त(त्ता)(ग) ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४,७४, ७५, ७७, ६००, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१०, ६१७, ६२०, ७८, ७६, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ११३, ११४, ६२२, ६२३, ६२४, ६२६, ६२७, ६२८, ६३५, ६३६, - ११५, ११६, ११७, ११८, ११६, १६१, ४२०, ४२१, ६३७, ६४२, ६४३, ६५०, ६५१ ४२२, ४२४, ४२६, ४३०, ६५७, ६५६, ६६०, ६६१, अमच्च ३ ६६२, ६६३, ६६४, ६६५, ६६६, ६६८, ६६६ अमम (मुहूर्त नाम) ७२५ अपज्जवसिय १७, २१, २२ अममा २१४, २१६ अपराइय देव १६० अमला (शक्रन्द्र की अग्रमहिषी) ४०८ . अपराइयदार (द्वार) १६० अमावास ४६७ अपराइया महाणई २०८ । अमावासा ४७६, ४७८, ४७६, ५७५, ५७६, ७२४ अपराइया रायहाणी (वप्पावई विजय की) २०६४ अमावासाठाण ४७८ अपराजित कूड २६२ अमावासा जोग (सूर्य का) ५५८, ५५६ अपराजित (द्वार) ३५५, ३५६, ३६६, ३७३ अमितगति (भवणवासी देवों का इन्द्र) ६३ । अपराजित देव ३५६ अमितवाहण (भवणवासी देवों का इन्द्र) ६३ .. अपराजिता (महावच्छ विजय की) रायहाणी २०७० अमियगई (दिसाकुमारेन्द्र) ८६ अपराजिय(त) (अणुत्तर महइमहालया विमाण) ६६६, ६८६ अमियवाहण (दिसाकुमारेन्द्र) ८६ अपराजिय (दार) १४१, २३७, ३७०, ३७१ अमोहकूड २६१ अपराजिया ११० अमोह (विमाण पत्थड) (प्रस्तट) ६८३, ६८५ अपराजिया (ग्रह ज्योतिषी देवों की अग्रमहिषी) ४५५ अमोह (वृक्ष) २२० अपराजिया पोक्खरिणी ४०४ अमोहा पुक्खरिणी ४०४ अपराजिया रायहाणी (चक्कवट्टि विजय की राजधानी) ३६६ अयको? संठाण ७२ अपराजिया रायहाणी ३६७ अयण (अयन) ४६३, ६६७, ६६६, ७०७, ७३२ अपराजिया (रात्रिनाम) ७२७ अयोज्झा रायहाणी (गंधिलावई विजय की) २०६ अपोग्गला १८ अरजा रायहाणी २०८ अप्पइट्ठाण ६४, ६५, ६७ अरय (विमाणपत्थड) ६८३, ६८५ अप्पडिहयवरनाणदंसणधर २ अरया रायहाणी ३६६ अप्पबहुत्त ४४१ अर(रि)हा ८, १३ अबद्धपासपुट्ठा १५ अरिहंत १, ४, ८१, ३५२, ३५३ .. अबाहा(धा) अंतर ४२, ४६, ४७, ५२, ५३, ५४, ५६, २३६, अरिहंत जायमाण १८ २३७, ४७०, ४७१, ५२३, ५३०, ६५४, ६७१ अरिहंत णाणुप्पाय महिमा १८ अभितर पुक वरद्ध (द्वीप) ३७५, ३७८, ४१८' अरिहंत परिणिव्वाण महिमा १८ अभिचन्द (मुहूर्त नाम) ७२५ अरिहत पव्वयमाण १८ अभिजाय (दिवस नाम) ७२७ अरिहत वोच्छिज्जमाण १८ Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट : ५ अरिहंतसिद्धत्थुइ १ अवरविदेह (वास-खेत्त) १७६, १६२, २००, २३३, ३२८, ३५३, अरिहताणं १८३ ३७६, ७३३, ७५८ अरुणदीव ४१० अवराजिया रायहाणी ३६६ अरुण देव २५६, ३८१ अवयंस पव्वय (पर्वत) ५० अरुणप्पभ (आवास पव्दय) ३४६, ३५० अवव ६६८,७००, ७०७, ७३२ अरुणप्पभ (अणुबेलंधर नागराज) ३४६, ३५० अववंग ६६८, ७००, ७०७, ७३२ अरुणवर दीव ६४, ६६, ६६, ४११, ४१२, ६७५ अवुट्ठी (बरसात का अभाव) ३६० अरुणवर (दीवसमुद्द) ४१८ अवेउव्वसरीरा १०७, १०८ अरुणवर देव ४१२ अबेयग १८ अरुणवरभद्द (देव) ४११ अव्वय १५, १६ अरुणवरमहाभद्द (देव) ४११ अव्वाबाह (लोगंतिय देव) ६७० अरुणवरमहावर देव ४१२ असणी (वैरोचनेन्द्र बलि के सोम लोकपाल की अग्रमहिषी) ६४ अरुणवरावभास दीव ४१२ असम्भाव ठवणा १० अरुणवरावभास (देव) ४१२ असासय १५, १६, १७, १८, ३६,४०, ७३, ८६, १२५, १२८, अरुणवरावभासभद्द (देव) ४१२ ३४२ अरुणवरावभासमहाभद्द (देव) ४१२ असुभपोग्गल ३५ अरुणवरावभासमहावर (देव) ४१२ असुर (कुमार देव) ५, ७५, ७७, ७८, ७६,८०,८१, ८२, ८३, अरुणवरावभास समुद्द ४१२ ८८, ८९, १००, १०७,४०२, ६७७, ६७८ अरुणवरोद समुद्द ४१२ असुरकुमार ठाण ७७ अरुणोद(य)(ग)समुद्द (समुद्र) ९४, ९५, ६६, १७, १८, ६६, असुरकुमारावास ८७, १०७ ४१०-४१२, ६७५ असुरकुमारिंद (रण्ण) (असुरिंद) ७८, ७६, ८५, ८६, ८७, ९२, अरुणोदय समुद्द (तमस्काय का नाम) ६७६ ६३, ६८, ४५४ अरूवि १८,७४२ असुरदार ४०१ अरूवी अजीव २३, २४, २५, २६, २८, ५८, ६५३, ६५७ असोज (वृक्ष) ४२३ अलकापुरी (नगरी) १९६ असोग (देव) १५६, ४१० अलोक(ग)(य)६, १५, ७३४, ७३७-७३६, ७४१, ७४३, ७४४, असोगवण १५५, २४७ ७४५ असोगवडेंसय ६५६, ६६१, ६८७ अलोग(य)(क)न्त ७४५, ७४६, ७४८ असोगवरपायव (वृक्ष) ३ अलोग(स्स) अबाहा अन्तर ४२ असोगा ६४ अलोग्गगास ७३८, ७४१ असोगा रायहाणी २०८, ३६६ अलोयागास सेढी ७५१,७५२,७५३,७५४ असखेज्जपएसिया २१, २२ अलंकारिय भंड १७०,१८१ असंखेज्जवित्थडा ७० अलंकारिय सभा ६६, १७१, १८०, १८२, २४६ असंखेज्जा लोगा (माप) ७६० अलंबुसा १११ असंसारसमावन्नग १८ अवज्झा रायहाणी २०६, ३६७ अस्सक्खंध संठाण २६४ अवट्ठिय १५, १६,४० अस्सदेवया ५९४ अवट्ठिय काल ७३२ अस्सपुरा रायहाणी २०७ अवड्ढबाबि (संठाण) ५६७ अस्सादणस गोत्त ५६१ अवत्तव्वगदव्य ३०, ३१, ३२ अस्सिणी (अश्विनी नक्षत्र) ५७४, ५९०, ५६१, ५६४, ५९७, अवपडग १७४ ६०१, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६११, ६१८, ६२०, अवरविदेह कूड २७४, २७५ ६२३, ६२४, ६२६, ६२७, ६२६, ६३६, ६३७, ६३८, Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ७६ ६३६, ६४१, ६४२, ६४५, ६५१ आगासपइट्ठिय वाउ १३ अस्सेसा (आश्लेषा नक्षत्र) ५७५, ५६०, ५६२, ५६५, ५६८, आगासपइट्ठिया ३७ ६०१, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१२, ६१५, ६२०, आगासपएस २६, २७ ६२३, ६२५, ६२७, ६३०, ६३५, ६३७, ६३८, ६३६, आणय (कप्प) १६५७, ६५८, ६५५, ६६६, ६६७, ६७१, ६७२, ६४०, ६४२, ६४७, ६५१, ६५३ ६८०, ६८१, ६८२, ६८४, ६८६ अहमिन्द ६६८, ६६६ आणय-पाणय देव ६६५, ६६६ अहा (अधोदिशा) २०, २१ आणाढिया रायहाणी २२३ अहाउनिव्वत्तिकाल ६६२, ६९४ आणा-पाणू ६६१, ७०७, ७०८, ७०६, ७३१ अहिआहिव २१६ आणुपाणु पोग्गल परियट्ट ७१३ अहिवड्ढिदेवया ५९४ आणुपुब्वी दव्व ३०, ३१, ३२, ३३ अहेगइ (असुरकुमार देवों की नीचे जाने की शक्ति) ८०, ८१ । आणंद कूड २७८ अहोरत्त ६६५, ६९७, ६६६, ७०७, ७१४, ७१८, ७१६, ७२०, आणंद (मुहूर्त नाम) ७२५ ७२१, ७२३, ७२४, ७२५, ७३१ आणंदा पोक्खरिणी ४०३ । अहोरत्तचार ४६२ आणंदा ११० अहोलोग(य) ८, ३३, ३४, १०८, ११२, ११३, ११५, ११६, आदिच्च चार ५६८, ५६६ ११७, ११८, ११६, ७४६, ७५० आधेय (अहोलोगखेत्तलोग) ५७ अहोलोग(स्स) आयाममज्झ ३५ आबाह २६, २७ अहोलोए अधयारकरा ३५ आबाह अंतर २४३, २४४ अहोलोयखेत्ताणुपुष्वी ३४ आभरण (दीव समुद्द) ४१८ अहोलोय भेय ३४ आभासिय दीव १९४, ३३६, ३३७ अहोलोग संठाण ३५ आभासिया (मनुष्य) १९४, ३३६ आइगर १,६ आभिओग (देवों की) सेढी २५४ आइच्च (लोगंतिय देव) ६७० आभिओ(यो)गिय (देव) १७३, १८१, १८२, १८७, ६७७ . आइ(दि)च्च मास ४६३, ७१४, ७२०,७२८ आभिसेक्क हत्थिरयण ७ आइच्च संवच्छर ७१३, ७१४, ७१८, ७२०, ७२२ आमावासा जोग संखा (नक्षत्रों का) ६१५, ६२५, ६२७ आइणे ६८३ आयतचक्खू ८ आइपमाण ७५७ आयपइट्ठिया ३७ आउकाइअत्त १२६ आयभाव ६६१ आउ(क)काइय ७४, ११३, ६७४, ६७५ आयरक्खदेव ७६, ८०, ८२, ८३, ८४, ६१, ६६, १०८, १५२, आउकाय १६, ५३६, ६७३, ६७४ १५३, १५६, १७६, १८०, १८८, २१६, २२०, २४५, आउदेवया ५६६ २८५, ३०७, ४२१, ४२२, ४३१, ५५६, ६५८, ६५६, आउपज्जव १९८ ६६०, ६६२, ६६३, ६६४, ६६५, ६६६, ६६७ आउपरिणाम १२६, ४१७, ६७४, ६७५, ६७७, ६७८, ६७६ आयव (मुहूर्त नाम) ७२५ आउपहीण १२ आयवाभा (सूर्य की अग्रमहिषी) ४५५ आगारभावपडोयार, १२२, १२४ आयसमोयार ६६१ आगास १६ आयाम ४४५, ४४६, ४७१, ४७२, ४७३, ४७६, ५०६, ५०७, आगास (दव्व) २० ५२३, ५२४, ५२५, ५२६, ५२७, ५२८, ५२६, ५३०, आगासत्थिकाय २३, २४, २५, ४१८, ६५६, ७३६, ७४१ ५४३, ५४८, ५५२, ५५४, ५५६, ५६७, ६३३, ६७३, आगासत्थिकायदेस २३, २४, २५, ६५६, ७३६ ६८३, ६८७,७०२, ७०४,७०५. ७०६ आगासत्थिकायपदेस २३, २४, २५, ६५६, ७३६. आयाम मज्झ १२, ६५७ आगासथिग्गल १६ आयामविक्खंभ ११, १६, ३८, ६५, ७०, ७१, ३८८ Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०० विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट:५ आयंगुल ७५५, ७५६ इलादेवी ११० आयंसग १४६, १७४) इलादेवीकूड २७१, २७६ आयसमूह दीव १६४, ३३८ इसिपाल (इसिबासिय व्यंतरदेवों का इन्द्र) ४२५ . आर ६२ इसिवासिय (व्यंतरदेव) ४२०, ४२४ आरण (कप्प) ६५७, ६५८, ६६६, ६६७, ६६८, ६७१, ६७२, इसी (इसिवासिय व्यंतरदेवों का इन्द्र) ४२५ ६८६, ६८६ इहभव ६ आरण-अच्चुय देव ६६६, ६६७ इंदक्खील १४२ आरभट णट्टविहि १७८ इंदग्गीदेवया ५६५ आरभडभसोल णट्टविहि १७८ इंदट्ठाण ६६ आला (धरणेन्द्र की अग्रमहिषी) ६० इंददेवया ५६५ आलिघर १३६ इंदभूई १२१ आलिंगक (संठाण) ७२ इंदमुद्धाभिसित्त (दिवस नाम) ७२७ आलिंगपुक्खर (मुरज वाद्य पर मढ़े चमड़े जैसा) १६६, २२७, इंदा ६० २५३, २८३, २८४, ३०६, ३१२, ३३०, ३५७, ४७१, इंदा (पूर्व दिशा का नाम) २१, २२, २३, २४ ४०४ इंदाभिसेय (ग) १७३, १७७, १८०, १८१ आवत्त ६३ ईसर (भूतवादीय व्यंतर देवों का इन्द्र) ४२५ आवत्तकूड २७७ ईसर (महापाताल कलश) ३४२, ३५२ आवत्तणपेढिया १४२ ईसरकडे १७ आवत्तविजय २०५, २६५, ३०३, ३६५ ईसा (परिषद्) १०३ आवबहुलकंड ४३, ४४, ४५, ४६, ४७ ईसाण (मुहुर्त नाम) ७२५ आवलिया ४८२, ६६१, ६६२, ६६५, ६६७, ६६६, ७०७,७०८, ईसाण (कप्प) (ईशान देवलोक) ६५७, ६६०,६६२, ६७१, ६७२, ___७०६, ७३१ ६७५, ६७६, ६८०, ६८१, ६८२, ६८३, ६८४, ६८६, आवलिया णिवाय ५६० आवलियापविट्ठ ७२, ६८०, ६८१ ईसाण (देविंद) २४०, २४१, २५४, ६६१, ६७७, ६८५, ६८६, आवलियाबाहिरा ७२, ६८०, ६८१ आवास (दीप समुद्द) १८ ईसाणग (देव) ६६०, ६६१ आवी (नदी) ३२४ ईसाणवडेंसय ६६१, ६६३, ६८८ आसकन्न दीव १९४, ३३८ ईसाणी (ईशान दिशा) २१, २४ आसक्खंध (संठाण) ३३६, ५६७ ईसिपब्भारा पुढवी १८, ७७, ११२, ६५५, ६७१, ६८४, ६८६, आसत्थ (वृक्ष) १०० ६६० आसपुरा रायहाणी ३६६ उक्कामुह दीव १९४, ३३८ आसमूह दीव १६४, ३३८ उक्खित्तय (गेय, गान) १७८ आसव १६ उग्ग ६ आसाढ (णक्खत्त संवच्छर) ७२१ उग्गपुत्त ६ आसाढ पुण्णिमा ६९४ उग्गयण मुहुत्त ५१२, ५१३ आसाढ (मास) ६६३, ७२२ उग्गवई (रात्रि तिथि) ७२८ आसीविस वक्खार पन्वय २०८, २६१, ३६४, ३८२ उच्चत्त ६८२ आसोय (णक्खत्त सवच्छर) ७२१, उच्चत्त पज्जव १६८ आसोय (मास) ७२२ उज्जयणस गोत्त ५६२. . . आहारोवचिया ७४१ उज्जालियालेण १८ . . इक्किक्क २० उज्जुसुय (नय) ३७ ६८९ ६८८ Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ३ विशिष्ट शब्द सूची उज्जोसे ( सूर्य का) २६६, २६० उडव (ठाण) ७२ उडु ( उ ) (ऋतु) ६६७, ६६६, ७०७, ७१३, ७३१, ७३२ उडुमास (ऋतुमास ) ४६२, ४६४, ७१४, ७१६, ७२० उडुविमाण १८, ६८७ उडु (कम्म) संच्छर ७१३, ७१४, ७१८, ७१६, ७२०, ७२२ उड्ढगइ ८१ ११८, ११६, ६५५-६०, ७५० उड्ढा (ऊर्ध्व दिशा) २०, २१ उष्णपासण १३६, १४० उत्तम पव्वय २३६, ५०० उत्तमा (रात्रि नाम ) ७२७ उत्तमा (पूर्णभद्र यक्षेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ उत्तरकुरा रायाची ४०७ उत्तरकुरु (कुरा) १६२, १३, २००, २१५, २१६, २३३, २४४, २६३, २६८, ३१०, ३११, ३५४, ३६२, ३७६, ३७८, ३७६, ३८२, ३८६, ७०१, ७३३, ७५८ उत्तरकुरु कूड २७८, २७६ उत्तरकुरु दह ३१०, ३११, ३१४, ३२७ उत्तरकुरु देव २१६ ३ उगाकार संहाण ६५५ उत्तरिल्ल नागकुमार ठाण ८४ उत्तरिल्ल नागकुमार देव ८५ उड्ढरेणु ७०१, ७५७, ७५८ उद्दोग ३३ ३४, १०२, ११२ ११२ ११२ ११६ ११०. उत्तरित रूप (पव्यय) १११ उत्तरड़ढभ रहकूड २८२ उत्तरड्ढभरहवास १६७, ११८, १६६ उत्तरद्धकच्छ (विजय) २०२, २०३ उत्तरपुर विमा (उत्तर-पूर्व दिशा) २०. उत्तरवेउब्विय १७६ उत्तरा (उत्तर दिशा) २० उत्तरा अद्धमंडल संठिई (सूर्य की ) ५५४ ५५५, ५५६ उत्तरापोवा (उत्तराभवया) (उत्तराभाद्रपद नक्षत्र) ५७४ ५६०, ५६१, ५६४, ५६७, ६०१, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१०, ६२१, ६२३, ६२४, ६२६, ६२७, ६२८, ६२, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, ६४२, ६४४, ६५१ उत्तराफग्गुणी (उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र) ५७४, ५७५, ५७६, ५७६, ५६०, ५६२, ५६५, ५६८, ६०२, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१३, ६१५, ६२१, ६२३, ६२५, ६२७, ६३०, ६३१, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, ६४१, ६४२, ६४८, ६५१, ६५३ उत्तरिल्ल २८ उत्तरिल्ल असुरकुमारठाण ८२ उत्तरित असूरि ५६३, ५६६, ५६६, ६०३, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१४, ६१७, ६२१, ६२३, ६२५, ६२६, ६२८, ६३१, ६३२, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, ६४१, ६४२, ६५०. ६५१, ७१५, ७१६, ७१७, ७१८ गणितानुयोग उतरि सुव (प)ष्णकुमार ठा उत्तरिल्ल सुव ( प ) णकुमारिंद वेणुदाली ८७ उत्तरिल्लाण पिसायदेव ४२२, ४२३ उत्ताणायच्छत्तसंठाण ६८४, ६६० उप्पण्णनाणदंसणधर १३ उप्पल ६६८, ७००, ७०७, ७३२ उप्पल (दीव-समुह ) ४१० उप्पलगुम्मा (पोक्खरिणी) २२२, २४१ उप्पला (पोक्खरिणी) २२१, २४१ उप्पला (काल पिशाचेन्द्र की महिषी) ४२१ उप्पा पोखरिणी) २२१, २४१ उप्पलंग ६६८, ७००, ७०७, ७३२ उप्पायणिव्वायपवृत्त णट्टविहि १७८ ८०१ उम्बर (वृक्ष) १०० उम्मत्तजला ३१७ उपायपव्वत (य) ६४, १०६, १०७, १३९, ३३०, ३९२, ३६४, ३६६, ३६८, ४००, ४१.१, ६८६ उम्मत्तजलाकुण्ड ३०३ उम्मत्तजला अन्तरनई ३६७ उम्मत्तजला महाणई २०७ उम्ममालिनी कुण्ड २०३ उम्मिमालिनी अन्तरमई ३६७ उम्मिमालिणी नदी ३१७ उदगजोणिया जीवा ३५६, ३६० उदगभास (दओभास - दगभास) आवास पव्वय ३४६, ३४७, ३४८ उदगमाल ३४१ उदगरस ३७२, ४१७ उदगसरूव ३५८ उदग्गवत्त ७५७ उदड्ढ ६० उत्तरायण ५५६ उत्तरासाढा (नक्षत्र) ५६८, ५६६, ५७५, ५७७, ५६०, १५६१, उदय ( सूर्य का ) ४८४, ४८५, ४८६ Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०२ उदय (ग) प्रथम ४९५ ४८२ उदय (सूर्य की) ४८७ उकुमारिद उदपतद्धित पुढची १३ उदही (उदधिकुमार देव) ७३,०० (वृक्ष) २३० उद्धमुइंगाकार (संठाण) ७३४ उद्धार पलिओवम ७०४ उद्धारसमय ४१७ उराला तसपाणा ७४ उशलपाल ४१२ उराला बलाहया ४२ उराला बलाहिय ४२ उल्लोय १४२, १४६, १५१, १५५, १५७, १५८, १५६, १६०, १६४, १७०, २४७ लोग (उपयोग) ७४६ (नक्षत्रों के संज्ञा) १०१-६१२ विशिष्ट शब्द सूची उवसम ( मुहूर्त नाम) ७२५ उवासंतर ३५, ३६ उव्वेह ९४, ९६ उव्वेह परिवुड्ढी ३४१ उसभ १६१ ७०६, ७१०, ७११, ७३२ उदय ३५६ उसे परिबुद्धी ३४१, ३४२ ७५५ ७५६, ७५० ७५ उसास (उच्छ्वास) १९७, ६९९ एक्क ७४७ एक्कसेल वक्खार पव्वय २०६ एकावलि (हार) ११ एगणासा १११ एगत्त विवक्खा ७०७, ७०८ उवट्टाणसाला ३, ४, ६ उवदंसण कूड २७५, ३८४ उपगारिया (समण) १०, १००, २०० उवरिम वेज्ज (देव) ६६८ उवरिमतल १४ उवरिमागार १५२, १५५ उवरिल २८, २६ उववाय ६६, ११२, ११३, ११४, ११५, ११६, ११७, ११८ एगोदग (जलप्लावित) ३५२, ३५३, ३५४ ११६, १७१, १६१, २२३, २५०, ४२४ उववाय विरह १०० उववाय सभा ६५, ६६, १९६६, १७२, १७३, १८७, २४६ उवसम ( दिवस नाम) ७२७ एगदव्व २६, ३०, ३१, ३२ एगपएस वित्थिष्णा २२ एगए सादीया २२ एगसेल कूड २७७ एगसेल देव २६६, २७८ एगसेल वक्खार पव्वय २६१, २६६, २७७, ३६३, ३८२ एगागार ४४ एगबलि (संठाण) ५६८ एम) २२२५ ६२२, ७४२ परिशिष्ट : ५ एमित्त १२६ एगिदियदेस २३, २४, २५, २६, २८,२६, ५७, ५८, ६५५, ६५६, ७४२ एदिपदेश २३२४, २५, २६, २७, २०, २१,५०,६५६ ७४२ एगो (गु) ( को ) रुय दीव १६४, १६५, २१५, २१६, ३२, ३३०, ३३१, ३३२, ३३३, ३३४, ३३५, ३३६, ३३७, ३३८, ३३६ एगोरुय दीव वणमाला ३३० एगो (गु) (क) मस्स ११४, ३२, ३३०, १२१ एलावच्चा (रात्रि नाम) ७२७ एलुय १८२ एरण्णवत (य) (वास) ३५३, ७०१, ७३३ एरवय (वास) १६१, १२, १६६, २००, २०१, २०२, २३२, २४३, २५१, २८६, २९४, २६६, ३१५, ३१६, ३२६, ३५२, ३६१, ३७६, ३७६, ३८६, ३८७, ३८६, ७३३, ७५८ उसभदेव २६० उसभ (ह) कूड पन्त्रय २५८, २५६ २६१, ३०२ उसभकंठग १५० १६६ उसभासण १३६, १४० एरवय कूड २७६ उसुया ( ग ) र पब्वय ३६४, ३७७, ३८२, ३८८३८६ २०६ एव (उत्तर) एरव (दाह) कूड २०६ उस्संहसहिया ७०१, ७५७, ७५८ उस्सप्पिणी १५, ४८२, ४९५, ६६१, ६६५, ६६८, ७०३, ७०८, एरवय खेत्त (क्षेत्र) १७५, ५२१, ५२२, ५२३ Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८०३ एरवय दीह वेयड्ढ पब्बय ३८३ अंजणगिरिकूड २००, २६१ एरावा चक्कवट्टी १६६ अंजणगिरि देव २६१ एरा(र)वय(ण)दह ३१०, ३११, ३१४, ३२७ अंजणपुलयकूड २६१ एरावअदेव १६६ अंजणपुलय (कंड) ४ एरावअ(हाथी) ६६० अंजणप्पभा (पोक्खरिणी) २४१ एरावती नदी ३२४ अंजण वक्खार पव्वय २०७,२६१, ३६३, ३८२ ओगाढ़ ७४६, ७५० अंजणा (चौथी नरक भूमि) ३५ ओगाहण ७५० अंजणा (पोक्खरिणी) २२१, २४१ ओगाहणाणंतर चार ५३६-५३८ अंजू (शक्रन्द्र की अग्रमहिषी) ४०७ ओभासखेत्त (चन्द-सूर्य का) ५६६, ५६७ अंडकड १७ ओम रत्ता ७२७, ७२८ अंतर चार (सूर्यों की गति सम्बन्धी एक-दूसरे से अन्तर) ५१८, ओम्मिमालिणी नई (नदी) २०८ ५२१ ओय संठिई ५११ अन्तरदीव १६१, १६४, ३२६ ओय संठिई (सूर्य की ओज-प्रकाश संस्थिति) ४६३ अन्तरदीवग (मनुष्य) ३८६ ओराल बलाहय (विशाल मेघमाला) ६७३, ६७६ अन्तरन(ग)ई (अन्तर नदी) ३१७, ३६७ ओराला बलाहका (बादल) ७३५ अन्तोमणुस्सखेत्त १६१ ओराला वाया (वायुकाय के जीव) ३४४ अन्तोवाहिणी अन्तरनई ३६७ ओरालिय पोग्गल परियट्ट ७१३ अन्तोवाहिनी कुण्ड ३०३ ओवरियालेण १५६, १५७ अन्तोबाहिणी महाणई २०८, ३१७ ओ(उ)वमिय (काल) ६६८, ७००, ७०४ अन्दोलग १३६ ओवासंतर 6०,४१, ४७, ४८,४६, ५०, ५२, ५४, ५८, ६८०, अन्धकार (तमस्काय का नाम) ६७८ अन्धगारपक्ख ४६७,४६८ ओसप्पिणि १५, ४८२, ४६५, ६६१, ६६२, ६९५, ६६८, ७०२, कइलास (आवास पव्वय) ३४६, ३५० ७०३, ७०८, ७०६,७१०,७११, ७३२ कइलास (अणुबेलंधर नागराज) ३४६, ३५० ओसधी रायहाणी ३६६ कइलास देव ४०६ ओसही (रायहाणी) २०६ कइलासा रायहाणी ३५० अंक (कंड) ४४ कक्कोडप्पभा ३५० अकमुह (संठाण) ५०६ कक्कोडय (अणुबेलंधर नागराज) ३४६ अंकवडेंसय ६६१, ६६६, ६८८ कक्कोडय (आवास पव्वय) ३४६, ३५० अंकावई रायहाणी २०७, ३६६ कच्चायणस गोत्त ५६२ अंकावई(ती) वक्खार पन्वय २०७, २६१, ३६३, ३८२ कच्छ १०५ अगय(आभूषण) १८१ कच्छकूड २७६, २७६, २८० अंगारग (मंगल-ज्योतिषीदेव) ४३० कच्छ (उत्तरड्ढ-कच्छविजय) कूड २८६ अंगार(क)महग्गह ५८५ कच्छ (कच्छविजय दाहिणड्ढ) कूड २८६ अंगुल ७०१, ७५४, ७५५ कच्छगावई देव २०५ बंचिय पट्टविहि १७८ कच्छगावई विजय २०५, ३०३ अंचियरंभिय णट्टविहि १७८ कच्छदेव २०४ अजण ६३ कच्छ राया २०४ अंजण (कंड) ४४, ४२६ कच्छविजय २०२, २००, २०३, २०५, २०६, २४२, २५४, अंजणग पव्वय ४००, ४०१, ४०३, ४०४ २६१, २६४, २८६, ३०२, ३६५ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट : ५ कच्छावई कूड २७७ कम्मपतिट्टिता १३ कच्छावई(ती) विजय २६५, ३६५ कम्मभूमगा (मनुष्य) ३८६ कज्जलप्पभा (पोक्खरिणी) २२१ कम्मभूमि ११४, १६१, १६२, १६५, ३६१, ३७६ कज्जसिद्धि ६५०-६५२ कम्मसंगहिता १३, १४ कट्टकम्म १० कम्मा पोग्गल परियट्ट ७१३ कडजुम्म (कृतयुग्म) ७५३, ७५४ कमलप्पभा (काल पिशाचेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ कडाह(संठाण) ७२ कमला (काल पिशाचेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ कडिसुत्तग (आभूषण) १८१ कयमाल देव २८६, २६३, २६४, ३८३ कडग (आभूषण) १८१ कयंब (रुक्ख) १६२ कणग(य)कूड २८१, २८२, २६१ करण ७२६, ७३० कणगलया ६३ कलस १३८, १७३, १७४, १७७ कणगा ६३ कलासवण्ण ७४८ कणगा (भीम राक्षसेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ कलियोग (कल्योज) ७५३, ७५४ कणगावलि (हार) १८० कलेवरचिया ७४१ कणय देव ३६६ कलेवरसंघाडा १२७ कणयप्पभ देव ३६६ कलेवरा १२७ कणियार (वृक्ष) १०० कलंब (वृक्ष) ४२३ कण्ड ४२० कलंबुआ पुप्फ (संठाण) (सूर्य के तापक्षेत्र का) ५०५, ५०६, ५०८ कण्ड (मंदर पर्वत के काण्ड) २३४, २३५ कल्लाणफलवितिविसेस ६८ कण्डलोद समुद्द ४१३ कविसीसग(य) ९७, १८, १५४, २४६ । कण्णकल ५३२, ५३३ कपिहसिय ७३५ . कण्णलोयणस गोत्त ५६१ । कसिण पोग्गला .. कण्हचामरझया १५२ कसिण (राहु) ७२४ कण्हराई (कृष्णराजि) ६७०, ६७२, ६७३, ६७४, ६७५ कंचणकूड २८१, २६१ कण्हराई (ईशानेन्द्र की अग्रमहिषी) ४०७ कंचणग देव २५१ कण्हा (ईशानेन्द्र की अग्रहमहिषी) ४०७ कंचणग पव्वय २२४, २२५, २५०, २५१ कतमाल (वृक्ष) ३३० कंचणपव्वय ४२८ कत्तिय (मास) ७२२ कंचणिया रायहाणी २५१ अत्तिय (णक्खत्त संवच्छर) ७२१ कंठमुरवि (आभूषण) १८१ कत्तिया (कृत्तिका नक्षत्र) ५७७, ५६०, ५६१, ५९.४, ५६७, कंड ४२२ ६०१, ६०५, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६११, ६१८, कंड (रत्नप्रभा पृथ्वी का) ४२१ ६२०, ६२३, ६२४, ६२६, ६२७, ६२६, ६३६, ६३७, कंड (वृक्ष) ४२३ ६३८, ६३६, ६४१, ६४२, ६४५ कड(य-ग) ४३, ४४, ४५ कती ७४७ कडू (संठाण) ७२ कद्दमय (आवास पव्वय) ३४६, ३५० कततर १३१ कद्दमय (अणुबेलंधर नागराज) ३४६, ३५० कंत देव ३९७ कन्नपाउरण दीव १६४ कंदिय (बाणव्यतरदेव) ४२०, ४२५ कप्प (कल्प) ११२, ११३, ११५, ११६, ६७१, ६७२, ७४८ कंपिल्ल (नगरी) १९६ कप्परुक्ख (कल्पवृक्ष) १८१ . काऊअगणिवण्णाभा ५६ कप्पिद (दीवसमुद्द) ४१८ कागिणिरयण ७५६ . कम्म (कर्म-अष्टविध) ७४६ कासणिया ६७. Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट: ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८०५ कामकम (पारियानिक विमान) ६८६ कुमुदप्पभा (पोक्खरिणी) २२१, २४१ काय ७३६ कुमुद विजय २०८, ३६५ काविसायण (मद्य) ३३१ कुमुदा (पोक्खरिणी) २२१, २४१, ४०४ काल (दव्ब) २० कुरा (क्षेत्र) १६२, ३७८, ३७६, ३८६ काल ६४, ६७, ६३,१०८, ६६१, ७३७ कुरु (दीव समुद्द) ४१८ काल (महापाताल कलश का देव) ३४३ कुल (नक्षत्रों की संज्ञा) ६०६-६१६ काल (पिशाचेन्द्र) ४२१, ४२२,४२४,४२५, ४२६, ४२७ कुल पन्वय ३८८ कालपाल (लोकपाल) ६२,६४,१०७ कुलवंस पहीण १२ कालप्पमाण ६६५ कुलोवकुल (नक्षत्रों की सज्ञा) ६०६-६१६ कालभेय ६६१, ६६२ कुसुमसंभव(मास) ७२२ काललोय (क) ६, ६६१-७३६ कुहड (बाणव्यन्तर देव। ४२०, ४२५ कालसमोयार ६६१ कुन्जराणीय १०४ कालसंधय (आसव) ३३१ कुन्ड २६७, २९८, ३१४, ३२१ कालागुरु १८३ कुन्डधारपडिमा १६६ काली (चमरेन्द्र की अग्रमहिषी) ६० कुन्डल (आभूषण) १८१ कालोद(य)समुद्द ३६७, ३६८, ३६६, ३७०, ३७१, ३७२, ३७३, कुन्डल दीव ४१३ ३८६, ४०६, ४१७, ४१८, ४३५, ४३६, ४६५, ४८६, कुन्डल (दीव समुद्द) ४१८ ५८०, ५८१ कुन्डलभद्द देव ४१३ कासवगोत्त ५६२ कुन्डलमहाभद्द(देव) ४१३ काहार (संठाण) ५६६ कुन्डलवर दीव ४१३ किण्ण (न)र १०४, १३६, ४२०, ४२३ कुन्डलवर (देव) ४१३ किण्ण (न)र (किन्नरेन्द्र) ४२३, ४२५ कुन्डलवरभद्द (देव) ४१३ किण्ह २२३, ६८० कुन्डलवर महाभद्द (देव) ४१३ किण्हतणमणि (वण्ण) १३१ कुन्डलवर महावर ४१३ किण्हा नदी ३२४ कुण्डलवरावभास दीव ४१३ कित्तिकूड २७५ कुन्डलवरावभासभद्द देव ४१३ कित्ति (देवी) ३०४, ३०५, ३८५ कुप्डलवरावभास महाभद्द ४१३ किन्नपुडग संठाण ७२ कुन्डलवरोद समुद्द ४१३ किमियड (संठाण) ७२ कुन्डलवरोभासवर (देव) ४१३ किंकरामर ७५ कुन्डलवरोभासमहावर (देव) ४१३ कित्थुग्घ (करण) ७२६, ७३० कुन्डलवरोभासोद समुद्द ४१३ किंपुरिस १०४, १३६, ८२० कुन्डला रायहाणी २०७, ३६६ किंपुरिस (किन्नर देवों का इन्द्र) ४२३, ४२५ कुन्थु हत्थिराया १०४ कुक्कुडग पंजरग (संठाण) ६७६ कुन्दुरुक्क १८३ कुच्छी (४८ अंगुल लम्बाई का प्रमाण) ७०१, ७५४, ७५५, कूड २३०, २३२, २४०, २६६, २७०,२७३, २७४, २७५, ७५८, ७५६ २७६, २७७, २६२, ३७५ कुडय (रुक्क्ष) १६२ कूड (दीव-समुद्द) ४१८ कुतुम्बक संठाण ७२ कूड सामलि (वृक्ष) २१४, २२१, २२२, ३७८, ३८०, ३८६ कुमुद कूड २६०, २६१ कूणिए (कूणिक राजा) ३, ४, ६,७ कुमुद देव २६१ केउ (केतु-ध्वजा) १५१ Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट :५ केर महग्गह (केतु महाग्रह) ५८५ खीरोदग(जल) १७४, ३६४, ३६५ केउ(तु)य(ग) (महापाताल कलश) ३४२, ३५१, ३५२ खीरोदया महाणई २०८ केतुमई (किन्नरेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ खीरोदा कुण्ड ३०३ केयूर (आभूषण) १८१ खीरोदा नदी ३१७ केसरिदह (द्रह) १७५, ३०४, ३०५, ३०६, ३१५, ३२२, ३५३, खीरोया (दा) अन्तरनई ३६७ ३८५ खुड्डग पयर १२, १२२ कोट्ठपुड ६८१ खुड्डपायाल कलस ३४३, ३४४ कोडुम्बिय ३ खुड्ड (ड्डग)महिंदज्झय १६६, १८७, २४६ कोद्दालक (वृक्ष) ३३० खुड्डालिंजर संठाण ३४३ कोलपाल ६३ खुभियजल ३५६ कोलव (करण) ७२६, ७३० खुरप्पसंठाण ५९ कोसंबि (नगरी) १९६ खेत्त (क्षेत्र) १६२, ३७६ कोसिय गोत्त ५६२ खेत्त उज्जोवण (सूर्य द्वारा) ५०२ कोसी नदी ३२४ खेत्त ओभासण (सूर्य द्वारा) ५०२ कोंचासण १३६, १४० खेत्तकालप्पमाण (नक्षत्रों का) ६१६ खग्गपुरा रायहाणी २०६, ३६७ खेत्तकिरिया (सूर्यों की) ५०८-५०६ खग्गी (रायहाणी) २०६, ३६६ खेत्तगइ (सूर्य की) ५०१ खज्जूर (मद्य) ३३१ खेत्तच्छेद ४१ खज्जूरि वण (वन) ३३० खेत्तपलिओवम ७०४ खडहडग १३६ खेत्तप्पमाण ७५४ खण ७१३ खेत्तलोग(य) ६, ३३, ३४, ६५५, ६५६ खन्न (मछली की जाति) ३६० खेत्ताणुपुव्वी दव्व २६ खरकंड ४३, ४४,४५, ४६ खेमपुरा रायहाणी २०४, २०६, ३६६ खरमुहि १७७ खेमा (रायहाणी-नगरी) २०४, २०६, ३६६ खड(ग)प्पवाय कूड २८२, २८४, २८६, २८७ खोओद ४०६ खंडप्पवाय गुहा २६३, २६४, ३२४, ३८३ खोत (दीव समुद्द) ४१८ खंध २३, २४, २५, ६५६ खोत(य)रस ४०२, ४१७ खंधग १५, १६ खोद(त)(य)वरदीव ३६८, ३६६, ४०६, ४१५ खंधदेस २३, २४, २५, ६५६ खोदोदग (जल) (इक्षुरस के समान स्वाद वाला) ३६६, ४००, खंधपएस २३, २४, २५, ६५६ ४०६, ४१०, ४११, ४१५ खंभपंत्ती १८५१८६ खोदोद समुद्द ३९६, ४००, ४१४ खंभसंखा १०० खोरक १७४ खाडखड ६२ खोरोद समुद्द ४०६ खात ७४ गइ (ज्योतिषी देवों की गति) ४५६ खिप्पगई ९३ गइपरियाय १५, ७४१ खिखणीजाल १२७ गइप्पमाण (ज्योतिषी देवों की) ४५६ खोलग (संठाण) ५६८ गइसमावण्ण (ज्योतिष्क देवों की) ४५६ खीर (दीव-समुद्द) ४१८ गएबहुए १२ खीरवरदीव ३६४,४०६ गच्छा (रात्रि नाम) ७२७ खीरोद(ग)समुद्द १७४, ३६४, ४१७ गजदन्तागार बक्खार पव्वय २६३, २७८ Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८०७ wwwww गणग ३ गंधमाद(य)ण कूड २७८ गणनायग ३ गंधमाद(य)ण देव २६९ गद्दतोय (लोकांतिक देव) ६७० गंधमाद(य)ण वक्खार पब्वय २१५, २१६, २३८, २६२, २६३, गयअंक ७६ २६७, २६८, २६६, २७८, २८१, ३६४, ३७७, ३८२ गयकण्णदीव १९४, ३३७ गंधव्व १३६, ४२०, ४२३, ४२७ गयकण्ण(मनुष्य) १६४, ३३७ गधव (मुहूर्त नाम) ७२५ गयदंत (संठाण) २६८, ५६८ गंधव्वाणीय १०४, १०५ गयविक्कम (संठाण) ५६९ गंधहत्थी १ गर (करण) ७२६, ७३० गंधावई वट्टवेयड्ढ पव्वय १७५, २५६, २५७, ३२७, ३५३, ३८१ गरुय ५८ गंधिल विजय २०६ गरुयलहुय ५८ गंधिल(लावइ) (दाहिणड्ढ, उत्तरड्ढ) कूड २७८, २८७ गरुयलहुयपज्जव १६,५७ गंधिला विजय ३६६ गरुल वेणुदेव ३७८, ३८०, ३८६ गंधिलावई विजय २०६, २६७, २८७, ३६६ गरुलासण १३६, १४० गंभीरमालिणी अन्तरणई (नदी) २०६, ३६७ गवक्खकडय १२६ गंभीरमालिणी कुण्ड ३०३, ३१७ गवक्खजाल १२७ गाउ ४०१ गह (ग्रह-ज्योतिषीदेव) ४२८, ४२६, ४३१, ४३२, ४३३, ४३४, गाहावई अन्तरनई ३३७ ४३६, ४३७, ४३८, ४३६, ४४१, ४४५, ४४६, ४५३, गाहावई कुण्ड ३०२, ३०३ ४५४, ४५५, ४५६, ४५७, ६५७, ६५६, ६६०, ६७४, गाहावई(ती) महाणई (महानदी) २०४, ३१७ ६७८, ६८७, ६८६, ७३५ गिम्ह (ग्रीष्म ऋतु) ६२८, ६३०, ६३१, ७३१, ७३२ गंगप्पवाय २६८ गिरिपरिरय (परिधि) २३६, २४० गंगप्पवाय कुण्ड २९४, २९५, २६६, ३२४ गिरिराय (पव्वय) २३६, ४६६ गंगप्पवायदह २६८, ३८५, ३८६ गिरि विक्खंभ २३६, २४० गंगा (महानदी) १७५, १६५, १६६, १९७, १९८, २०२, २०४, गीत(य)(इ)जस (गन्धर्व देवों का इन्द्र) १०४, ४२३, ४२६ २९४, ३१४, ३१५, ३१७, ३१८, ३१६, ३२४, ३५३, गीयरई (गीतरती) (गंधर्वेन्द्र) १०४, ४२३, ४२६ ३६७, ३८६, ३८७, ७५७ गुहा २६३, २६४ गंगाकुण्ड २५६, २६१, ३०२ गूढदन्त दीव १६५ गंगाद्दीव (गंगा द्वीप) २६६, ३०० गूढदन्त (मनुष्य) १६५ गंगादेवी २६६ गेवेज्जग देव ६६८, ६६६ गंगादेवी कूड २७१ गेवेज्जगविमाण ६५५, ६५७, ६६८, ६६६, ६७१, ६८०, ६८१, गंगादेवी भवण २६६ ६८२, ६८४, ६८५, ६८६ गंगामहाणईपवाय ३१७ गेवेज्जविमाण पत्थड ६६६, ६८३, ६८५ गंगावई कुण्ड ३०२ मेह(सं ठाण) ५६४ गंगावत्तणकूड ३१७ गेहाईण ४२ गंठिम (माला-हार) १८१ गेहागार (वृक्ष) ३३५ गंडोवहाणिय १६५ गेहायण संठाण ५६४ गंथिम १० गोकण्ण दीव १६४, ३३७ गंधकासाइय १८१ गोकण्ण (मनुष्य) १९४, ३३७ गंध (दीव समुद्द) ४१८ गोत(य)म दीव २३७, ३५७, ३५८, ४७६, ५८०, ५८१ धपज्जव १६, ४०, ५७, ७३, १२५, १२८, ३४२ गोतमस गोत्त ५९२ Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०८ m गोत (णक्खत्ताणं - नक्षत्रों के गोत्र ) ५६१ गोतित्थ (गोतीर्थ) ३५७ मोतिस्थ (संडा ) ३१९ गोथ ( थू )भ आवास पव्वय ६५, २३६, २३७, ३४६, ३४७, ३५०, ३५१, ३५२ गोथूभ देव ३४७ गोभ (बेलंधर नागराज ) ३४५ गोथुभा रायहाणी ३४७, ४०८ भीरिणी ४०४ विशिष्ट शब्द सूची ३४६ गोपुर (ग) ५६४ गोमाणसिय १६४, १६६, १६७, १६६, १७०, २४६ गोमाणसी १४२ गोमुहृदीव १६४ गोलवट्ट समुग्गक ( प ) जिसका १६४ १६५ गोलव्वायणस गोत्त ५६२ गोपुच्छ ठाण १२६, १५३, २३३, २३४, २६० २७२, २८३, चक्कवट्टि ३५२, ३५३ गोसीसचंदण १७६, १७७, १८३, १८४, १८५, १८६, १८७ गोसीसावलि (संठाण) ५९६ घडमुह ३१७, ३१८, ३१६, ३२०, ३२१, ३२२ घणवाय पट्टिय ६७, ६८० घणवात (य) वलय ५१, ५२, ११५ घणविज्जुया ( धरणेन्द्र की अग्रमहिषी) १० घणसंभद्द जोय ४७६ घणोदहि ( ही ) (वि) ३६, ३७, ४०, ४७, ४८, ४६, ५०, ५१, चक्कवट्टि विजय १७६, २०१, २०२, ३२७, ३२८, ३२६, ३६५, ३७७ चव विजय रामहाषी २७७ चक्कवाल परिक्खेव ३४० चमक (बाल) भाग ५६७, ५६८ चक्कवाल विक्खंभ २४०, ३४५, ४०७ देव ४१३ चमर ( चमरेन्द्र) ७८, ७६, ८६, ६०, ६२, ६५, ६, ७, ८, १००, १०१, १०२, १०३, १०५, १०७, १८० चमरचं (आवास) १६,१० घण १७८, ७४८ चमरचंचा (चमरेन्द्र की राजधानी) ६५, ६७, १८, १६, १००, घणदंत दीव १६५, ३३८ २८०, २८२ भदंत (मनुष्य) १९५ चर (करण) ७२ घणवात (य) ३६, ४०, ४७, ४८, ४९, ५०, ५१, ५२, ५३, ५८, चरिम ५५, ५६, ७४२, ७४३, ७४४, ७४५ ११५, ४१६, ६७८, ७४६ चरिमंत ४६, ४७, ५१, ५२, ५३, ५५, ५६ चरिमंतपएस ५५, ५६, ७४२, ७४३, ७४४, ७४५ चरिम ५५, ५६ ५२, ५३, ५४, ५८, ११३, ११६, ४१६, ६७८, ७४६ मोहि पद्रिय ६७९ गोदधि) सय ५१, ५२ ११३ ११६ घणंगुल ७५६, ७५८, ७५६, ७६० धम्मा ( प्रथम नरक पृथ्वी) ३५ घय (दीव समुद्र) ४१८ घयवर दीव ३६६, ३६७, ४०० घयो (ओ) द समुद्द ३६७, ३६८, ४०६, ४१७ घयोग (जल) ३९६, ३६७ घोस (थणियकुमारिद - स्तनितकुमार देवों का इन्द्र ) ८६, ६० परिशिष्ट : ५ घोस (भवगवासिद भवनवासी देवों का इन्द्र २४, १०५ घंटा परिवाडी १४५ ४२०, ६७२, ६८०, ६८१ चउरिदिय २५, ११८, ७४२ चक्क अद्धचक्कवाल संठाण ५६२, ५६४ कपुरा रायहाणी २०६, ३६७ www चउप्पएस २२ चप्पय (करण) ७२६, ७३० चउरंस ( संठाण) ५६, ६०, ७७, ७८, ८३, ८४, ८७, १५३, (परिषद) १०१, १०२, १०३ चंद ५६, १८०, ४२८, ४२६, ४३०, ४३१, ४३२, ४३३, ४३४, ४३५, ४३६, ४३७, ४३५, ४३६, ४४०, ४४१, ४४२, ४४३, ४४४, ४४५, ४५३, ४५४, ४५६, ४५७, ४५८, ४५६, ४६०, ४६१, ४६२, ४६३, ४६४, ४६५-४८१, ५११, ५५६, ५६०, ५६१-५८४, ५७२, ५८१, ५८५, ५८६, ५८७,५८८ ५८६, ६२१, ६२२, ६२३, ६३७, ६३८, ६४०, ६४३, ६४४, ६४५, ६४६, ६४७, ६४८, ६४६, ६५०, ६५७, ६५६ चंद अद्धमास ५७०, ५७१ चंद कूड २६१ चंद चार ५६८ चंदणकलस ७५, १६६, १७८ Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८०६ चंदणकलसपरिवाडी १४३, १५४ चामरच्छ गोत्त ५९२ चंदण (वृक्ष) १६२ चामरज्झय १३८, २९६ चंदणघड ७५ चामरधारपडिमा १६८ चंददीव (चन्द्रमा के द्वीप) ४७६, ४८०, ५७६, ५८०, ५८१, चार संखा ५६८ ५८२, ५८३, ५८४ चार (नक्षत्रों का) ६२१ चंद (दीव-समुद्द) ४१८ चारविसेस (ज्योतिष्क देवों की गति) ४२८ चंदद्दह ३१०, ३११, ३१४, ३२७ चारण (मुनि) ३५२, ३७५, ४५३ चंदप्पभ (सव) ३३१ चित्त ६२, १६९, १७४ चंदप्पभा (चन्द्र की अग्रमहिषी) ४५४ चित्त (णक्खत्त संवच्छर) ७२१ चंदभागा ३२४ चित्तकणगा ६१ चंदमास ४६३, ५७१, ५७२, ७१४, ७१८, ७२४, ७२८ चित्तकण्णा १११ चंदमंडल ४६९, ४७०, ४७१,४७२, ४७३, ४७४, ४७५, ४७६, चित्तकम्म १० ४७७, ४७८, ४७६,८०, ४८१, ६३४, ३३६ चित्तकूड २२४, २२५, २७६, ३१० चंदलेसा ५६५ चित्तकूडदेव २६५, २६७ चंदवक्खार पव्वय २०८, २६१, ३६४, ३८२ चित्तकूडवक्खारपव्वय २०२, २०३, २०४, २४४, २५४, २६१, चंदवडिसय विमाण ४५४, ४५५ २६४, २६५, २६६, २७६, २७८, ३०२, ३२७, ३६३, चंद संठाण ६६३ ३८२ चंद संवच्छर ७१३, ७१४,७१५,७१६, ७१७,७१८, ७१६, चित्तगुत्ता ६३, ११० ७२१, ७२२ चित्त जमग (पव्वय) ४२८ चंदसीहासण ४५४, ४५५ चित्तपक्ख ६२ चंदा रायहाणी ४८०, ५८२ चित्तरस (वृक्ष) ३३४ चन्दाणण १६१ चित्तंग (वृक्ष) ३३३ चंदाभ (लोकांतिक विमान) ६७० चित्ता ६१, १११ चंदाभा ४३, ६७४, ६७८ चित्ता (चित्रा नक्षत्र) ४७६, ५७४, ५६०, ५६२, ५६५, ५६८, चन्दायण ५६६, ५७०, ५७१ ६०२, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१३, ६१५, ६२०, चंदिम ४३, ६५३, ६५४, ६६०, ६७४, ६७८, ६८७, ६८६, ६२३, ६२५, ६२६, ६२७, ६३१, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, ६४१, ६४२, ६४८, ६५१, ६५३ चदिमसूरियसंटिइ(ती) ५६३, ५६४ चित्तासोय (आश्विन मास) ६६३ चंदेण जोग (नक्षत्रों का) ६२१, ६२७ विल्लल ११३, ११६, ११७, ११८, ११६ चंदोवराग (चन्द्रग्रहण) ५८८-५८६, ७३५ चुप्पालय १६६ चपअ (वृक्ष) ४२३ चुल्लहिमवंतकूड २७१, २७२, २७३, २७४, ३८३, ३८४ चंपगवण १५५, २४७ चुल्ल हिमवंत (गिरिकुमार) देव २७३ चंपगवडेंसय ६५६, ६६१, ६८७ चुल्लहिमवंत देव २२७ चंपय (देव) १५६ चुल्लहिमवन (पव्वय) २६०, ३०४, ३१५, ३५३, ३७६ चंपा (नगरी) ३, ४, ५, ६, ७, १६६ चुल्लहिपर्वत वक्खार पव्वय २७८ चाउज्जाम (धर्म-पार्श्वनाथ भगवान का) ७३८ चुल्ल हिमवंत वासवर पव्वय १७५, १६४, १६५, १६८, २०६, चाउमासियपडिवा ४०५ २१०, २२५, २२६, २२७, २२६, २३२, २५६, २७१, चाउरंत चक्कवट्टि २, १५० २७२, ३७३, ३२६, ३३६, ३३७, ३६२, ३८०, ३८१, चाउरंस ६०, ६१, ६२, ६३, ६४, ७२ ३८३ चामर १५१, १६८, १७४ चुल्ल हिमवंता रायहाणी २७३ Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१० www चूअ वण २४७ डामणि (भूषण) १०१ निचिता ७८७१५० चूडामणिमउडरयण ७५ (देव) १५६ चूतवण १५५ चूयवडेंसय ६५६, ६६१, ६८७ चूलिया ६६८, ७००, ७०७, ७३२ चुलियंग ६६८, ७००, ७०७, ७३२ व (भैरव) १०६ चेड ३ पेस (मास) ७२२ चेत्ता (पुणिमा ६४ चोप्पाल १८७ छत्त १५०, १७४ छत्त जोय ४७६ छत्तधारपडिमा १६८ छत्ता १४८ छत्ताइछत्त (T) १४८, १५२, १५६, १५७, १५८, १५६, १६२, १६३, १६६, १६६, १७०, २७२, २६६ छत्ताइछत्त जोय ३७६ जमगसमग ११ जमग संठाण २४५ जमप्पभ उप्पायपव्वय १०६ जम्मण मह (जन्म महोत्सव ) १ इथून १६१, १५, १८६ जम्मा ( याम्या - दक्षिण दिशा) २१, २२, २४ sonu १००, १६१, १६२, १६७, १८५, १०६ २४८ मिगा (या) रायहाणी (जमग देवों की राजधानी) २४६, २०० ४०२, ४२३, ४२४ जयंत कूड २६२ जयन्त (द्वार) १४१, ११०, २३७, ३२८, ३५५, ३५६, ३६६, छत्ताइपयत्थ १३८ छत्तागारसंठाण ५६२, ५६४ (१६२ छ (संडा-आकार) ६७२ छाया ५१७, ५६५ छिन्नमुत्तावलीसठाण, २२ छुरघरग (संठाण) ५६७ जणा (नदी) ३२४ जक्ख दीव ४१६, ५८३ क्ख (दीव-समुद्द) ४१८ डिमा १६६ जक्ख ( व्यंतर देव ) ४२०, ४२३ बोद ४१६ विशिष्ट शब्द सूची जगति पव्वय १३६ जगती १२६, १२६, १४० जगतीगवक्ख १२६ जम ६२, ६३, ४, १०६, ६८७, ६८८ जगदह (ग्रह) २५० जमगदेव २४५, २४६, २४७, २५० जमदेवया ५६४ जमग पव्वय २२४, २२५, २४४, २४५, २४६, २५०, २८०, ३१० ३७०, ३७१, ३७३ जयंत (अनुत्तर विमान ) ६६९, ६८९ जयंत (देव) १२० १५६ जयंति (रात्रिनाम ) ७२७ जयंती ११० जयन्ती ( ग्रह ज्योतिषी देवों की अग्रमहिषी) ४५५ जयन्ती पोक्खरिणी ४०४ १६१, जयंती रायहाणी २०८, २६७ जया (दिवस तिथि) ७२८ जरय (लोकपाल ) ६० जल (लोकपाल) १३ जलकंत (लोकपाल ) ६.३ जलकंत (उदधिकुमार देवों का इन्द्र ) ८ परिशिष्ट : ५ जलप्पभ ६३ अलप्पम कुमार देवों का इन्द्र) जल (लोकपाल २३ जलरय (लोकपाल ) ६३ जय ७६ जवमज्झ ७०१, ७५८ जसभद्द ( दिवस नाम) ७२६ जसवई (रात्रि तिथि) ७२८ जसोधर १०५ जसोधर ( दिवस नाम) ७२६ असोधर (विमाण पत्थर) ६०३, ६०५ जसोधर (त्रिनाम ) ७२७ जसोहर (वृक्ष) २२० Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८११ जसोहरा ११० जालकडग १४५ जंतव्व (जीव द्रव्य) २० जाव ताव ७४८ जंबुद्दीव ११, १७, ६०, ७१, ७८, ८२, ८४, ८५, ८६, ६४, जिणघर २४६ ६५, ६६, ६९, १२१, १२२, १२३, १२४, १२५, १२६, जिण जम्मण ४०५ १४१, १५३, १७६, १८६, १६०, १६१, १६२, १६३, जिणपडिमा १६१, १६७, १६८, १६६, १७२, १८३, १८५, १६४, १६५, १६६, १६७, १६८, १९६, २००, २०२, १८६, २१६, २३८, २४८, २४६, २७२, २८४, ४०२, २०३, २०४, २०६, २०६, २११, २१२, २२०, २२३, ४०३ २२४, २२५, २२६, २२७, २२६, २३०, २३१, २३२, जिणपडिमापूयण १८२ २३३, २४४, २४६, २५०, २५१, २५२, २५४, २५५, जिणसकहा १७२, १८६, २४६, ४५५ २५८, २५६, २६१, २६३, २६४, २६६, २६७, २६६, जिणुस्सेह १६७, १७२ २७०, २७३, २७४, २७५, २८०, २८२, २८३, २८५, जियसत्तु (राजा) १२१ २८६, २८७, २६१, २६२, ०६३, २६४, २६८, २६६, जिन्भिया ३१७, ३१६, ३२०, ३२१, ३२२ ३०२, ३०३, ३०४, ३०५, ३१०, ३१४, ३१५, ३१६, जीव १०, १४, १५, १६, २८, २६, ५५, ५७, ८३, ६५५, ३१७, ३१८, ३१६, ३२०, ३२१, ३२२, ३२३, ३२४, ६५६, ७३७, ७३८, ७७१, ७४२ ३२८, ३२६, ३३६, ३३७, ३३६, ३४२, ३४६, ३४७, जीवत्थिकाय १६ ३४८, ३४६, ३५०, ३५२, ३५४, ३५५, ३५७, ३६२, जीवदब्व ७३७ ३६८, ३७८, ३७६, ३८०, ३८१, ३८२, ३८३, ३८४, जीवदेस २३, २४, २५, २६, २८, २९,५७६५५, ६५६, ३८५, ३८६, ३८७, ३६०,४०७, ४०८, ४०६, ४१६. ७३७, ७४२ ४१७, ४१८, ४२२, ४३२, ४३३, ४५८, ४५६, ४६५, जीवपदेस २३, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ५७, ५८, ६५५, ४६६, ४७०, ४७१, ४७६, ४७७, ४७६, ४८५, ४८६, ६५६, ७३७, ७४२ ४८७, ४८८, ४८६, ४६०, ४६१, ४६२, ४६५, ५०१, जीवपरिणाम १२६, ४१७, ६७५, ६७९ ५०२, ५०६, ५०७, ५०६,५१०, ५१८, ५१६, ५२२, जीवपतिद्वित १३ ५२३, ५२४, ५३०, ५३१, ५३४, ५३७, ५३८, ५४०, जीवसंगहित १३ ५४३, ५४८, ५५२, ५५४, ५६७, ५६८, ५७६, ५६१, जीवा १३, १९७, १६६, २००, २१०, २११, २१३, २१५, ६२१. ६३२, ६३३, ६३७, ६५४, ६५६, ६६०, ६७३, २२६, २२८, २३०, २३१, २३२, २५२, २५४, ३४२, ६७५, ६७६, ६८१, ६८३, ६८७, ६८८, ७३१, ७३२, ३४३,१३५५, ४२६,,४७६, ४७७, ५२२, ५४० ७३३, ७३८ जीवाजीवदव्व ७३७ जम्बुमन्दर (जम्बूद्वीप का मेरु पर्वत) १९१ जीवाजीवदेसपदेस (अधोलोक के) ५७ जम्बु सुदंसण (वृक्ष) २१४, २१६, २१९, २२०, २२१, ३५४, जीवाजीवमयलोग १८ ३८०,३८६ जुग (युग ५ वर्ष का समय) ६६५, ६६७, ६६६, ७०७, ७२३, जम्बूपेढ २१६, २१७ ७२४, ७३२, ७५५, ७५८ जम्भय (ग) देव ४२७, ४२८ जुगपत्त ७२३, ७२४ जाइ मंडव १३६ जुगसंवच्छर ७१३, ७२१ जातरूव (कंड) ४४ जुवणद्ध जोय ४७६ जाता (परिषद्) १०१, १०२ जूव (महापाताल कलश) ३४२ जाणंद १०४ जूय ७०१ जाम ७२४ जूयग (महापाताल कलश) ३५२ जायतेय १८ जूया ७०१, ७५६, ७५८ जायरूपवडेंसय ६६१, ६६६, ६८८ जे? (नक्षत्र संवत्सर) ७२१ जाया (परिषद्) १०३ जेट्ट (मास) ७२२ Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१२ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट : ५ जेट्टा (ज्येष्ठा नक्षत्र) ५६०, ५६२, ५६५, ५६८, ६०२, ६०६, णक्खत्त जोग ५७४ ६०७, ६०८, ६०६, ६१४, ६१६, ६२०, ६२३, ६२५, णक्खत्त (जोगकाल) ५७३, ५७६, ५७८ ६२६, ६२८, ६३१, ६३५, ६३७, ६३८, ६३६, ६४०, णक्खत्तजोग संखा (चंदमग्ग) ६२२ ६४२, ६४६, ६५१ णक्खत्त (ज्ञानवर्द्धक) ६५३ जोइस ६७१ णक्खत्तदार ६०५.६०८ जोइस चार (ज्योतिष चक्र) २३७ णक्खत्त (दीव समुद्द) ४१८ जोइ(ति)सिय (ज्योतिषी देव) ५, ४०५, ४२८-६५४ णक्खत्त भागगमण ६३४ जोइसिय देव ठाण ४२६, ४३० णखत्त-भोयण ६५०-६५२ जोउकण्णियस गोत्त ५९१ णक्खत्तमंडल आयाम विक्खंभ परिक्खेव बाहल्ल ६३३ जोग (योग --काययोग आदि) ७४६ णक्खत्तमास ८६३, ४६४, ५७१, ७१४, ७१८, ७१६, ७२१, जोग (ज्योतिषी देवों का) ४५६ ७२५ जोगगइ (ज्योतिषी देवों की) ४६०, ४६१ णक्खत्त मंडल ६३२, ६३३, ६३४, ६३५ जोगारंभ काल ६४३-६५० णक्खत्तमंडलाणमंतर ६३२ जोतिरस (कंड) ४४ णक्खत्त संवच्छर ७१३, ७१४, ७१८, ७१६, ७२१,७२२ जोतिस अबाहा अन्तर ४२ णगोध परिमंडल ६३२ जोतिसिहा (वृक्ष) ३३३ णट्टमालदेव २८६, २६३, २६४, ३८३ जोय(ग) (योग-चन्द्र का) ४७६, ४७७, ४७८, ४७६ गट्टमाल (वृक्ष) ३३० जोयण ७०१, ७०२, ७५४, ७५८, ७५६ गट्टाणीय १०४ जोयणकोडाकोडी ११, १६ णत्थि १७ झय (ध्वज) १५१ णयमाल (वृक्ष) ३३० झया १५४, १५५, १५७, १५८, १५६, १६१, १६२, १६३, णरग ३५, ६८१, ६८३ णरकंतादीव ३०१ झल्लरिसंठाण ३६, ४६, ४६, ७२, १२२, १७७ णरकंता (नदी) १७५ झुसिरगोल (स ठाण) ७३७ णरकंता महाणई २५६ झुसिरा ७० णर(णारि)कंता महाणई पवाय (प्रपात) ३२२ ठवणा लोग ६, १० ण लिणकूड २७७, २६१ ठाण १६ णलिगकूड देव २६६ डमर (पर राजा का उपद्रव) १६५ णलिणकूड वधार पव्वय २०५, २६५, २७७ डिम्ब (स्वराजा का उपद्रव) १६५ ण लिग विजय २०८, ३६५ ण(न)उय ६६८, ७००, ७०७ ७३२ ण लिगा (पोक्खरिणी) २२१, २४१ ण(न)उअंग ६६८,७००, ७०७, ७३२ णलिणावई विजय २०८ णक्खत्त (नक्षत्र-ज्योतिषी देव) ५६, ४२८, ४२६, ४३०, ४३१, णवमिया १११, 6०८ ४३२, ४३३, ४३४, ४३५, ४३६, ४३७, ४३८, ४३६, णं गोलिय दीव १६४, ३३६, ३३७, ३३८ ४४१, ४४५, ४४६, ४५३, ४५४, ४५६, ४५७, ४५८, गंगोलिय मगुस्स १६४, ३३६, ३३७ ४५६, ४६०, ४६१, ८६२, ४६३, ४६४, ४७६, ४८०, ण(न)दण बण १०५, १३६, १७६, २३८, २३६, २४०, ४८१, ५६०, ५७३, ५७४, ५७५, ५७७, ५७८, ५७६, २४३, २४४, २८७, २८८, २८६, ३६४ ५६०-६५३, ६५७, ६५६, ६६०, ६७४, ६७८, ६८७, णंदणवण कूड २८७, २८८ ६८६, ७१३, ७३५ गंदा ११० णक्खत्त अद्धमास ५७०, ५७१ णंदा (दिवस तिथि) ७२८ णक्खत्त गई (गति) ६३४ गंदा पु(पो)क्खरणी १६३, १६७, १७०, १७१, १८२, १८६, Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग १३ १८७, १८८, २४६, ४०२, ४०३, ४०४ . .. णियइ पव्वय १३६ गंदा रायहाणी ४०७ णियय (वृक्ष) २२० शंदियावत्त ६३, १३८ णि रइदेवया ५६५ णंदियावत्त (पारियानिक विमान) ६८६ णिरय ११२ णंदिवद्धणा ११० णि(नि)रयगामी १६८, २०१ णंदिवद्धणा पोक्खरिणी ४०३ णिरयछिद्द ११५ णंदिरुक्ख (वृक्ष) ३३० णिरयणिक्खुड ११५ णंदिसेणा पुक्खरिणी ४०४ णिरयपत्थड ११५ गंदीसर दीव ४००-४०८, ४०६ णिरयावलिया (नरकपंक्ति) ११२ णंदीसरवरोद समुद्घ ४११ णि(ण)रयावास ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६.४४ णंदुत्तरा ११० णिव्वाण ४०५ णंदुत्तरा पोक्खरिणी ४०३ णिसढ कूड २७४, २८७,२८८ शंदुत्तरा रायहाणी ४०७ णिसढ पव्वय ५१८ णागकुमार देव ८३, ८६, ८७, ३४६, ४०२,४१६ णिसह देव २३० णगकुमारठाण ८३ णिसह(ढ)वासध(ह)र पव्वय १७५, २००, २०६, २११, २१३, णागकुमारावास ८८ २१४, २२३, २२५, २२६, २३०, २३१, २४४,२६६, णागकुमारिंद ८३ २६७, २७४, ३५३ णागद्दार ४०१, ४०२ . णिसह संठाण २३० णाग (दीव-समुद्द) ४१८ णिसीहिया १४३, १४८, १५४ णागदंतय(ग) १४४, १४८, १४६, १५०, १६३, १६४, १६५ णिहि (दीवसमुद्द) ४१८ णागवक्खार पन्वय २०६, ३६४ णीलवंतकूड २७५, २६० णाण (ज्ञान) ७४६ णीलवंत णागकुमार देव ३११ णाणुप्पत्ति ४०५ णीलवंतद्दह २५०, ३११, ३१३, ३१४, ३२७, णाणुप्पत्तिमहिमा ८१ णीलवंतद्दह णागकुमार देव ३१३ णाभी (पर्वत) २३६ णीलवत देव २३१, २६० णामलोग ६, १० णी(नी)लवंत वासध(ह)र पन्वय १७५, २००, २०२, २०३, णारिकता कूड २७५ २०४, २०५, २०६, २१३, २१५, २१६, २२३, २२४, णारिकता दीव ३०१ २३०, २३१, २४४, २५०, २६१, २६३, २६४, २६५, णारिकता (नदी) १७५ २६६, २६७, २६८, २७५, २७७, २८०, ३०२, ३०३, णा(ना)रीकता महाणई २५६, ३१४, ३१५, ३१६, ३२२, ३८०, ३८१, ३८४ ३२४, ३२७ णेगम (नय) २६, ३०, ३१, ३२, ३७ णालिएरि वण (वन) ३३० णेरइया ३५ णावा (संठाण) ५६७ तच्चं पुढवि (तृतीय नरक भूमि) ८१.. णिक्खमण ४०५ तट्ठदेवया ५६५ णिच्च १५, १६, ४०, ७३७ तट्ट (मुहूर्त नाम) ७२५ णिच्चमडिय (वृक्ष) २२० तडमट्रिय १७५ णिज्जरा १६ तणतणू (सिद्धशिला का नाम) ५८४, ६६० णितिय १५, १६ तणमणीणं इट्टयर गंध १३४ णिदाह (मास) ७२२ तणमणीणं इट्टयर फास १३४ णिम्म १४२ तणमणीणं इट्टयर सद्द १३५ Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१४ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट:५ तणुवात(य) ३६, ४०, ४७, ४८, ४६, ५०, ५१, ५२, ५३, तावखेत्त ५०३-५०८, ५४१, ५४२, ५४३, ५६६, ५६७ ५८,११५, ७४६ तावखेत्त संठिती ५०४, ५१०, ५११, ५६३ तणुवा (त)यवलय ११५ तिउडवक्खार पव्वय २०६, २०७ तणु (सिद्धशिला का नाम) ६८४, ६६० तिकूडवक्खार पव्वय २६१, ३६३, ३८३ तत १७८ तिगिच्छायणस गोत्त ५६२ । तत्तजला अन्तरनई ३६७ तिगिछि कूड ६४, ६५, ६६, ६७, ६८, ६६, १०६, २७६, ३८४ तत्तजला कुण्ड ३०३ तिगिच्छद्दह (द्रह) १७५, ३०४, ३०५, ३०८, ३०६, ३१५, तत्तजला नदी ३१७ ३२१, ३२२, ३५३, ३८५ तत्तजला महाणई २०७ तित्थ (तीर्थ) ३२८, ३६७, ३७७ तदुभय समोयार ६६१ तित्यमट्टिय १७५ तप्पागार संठाण ३५ तित्थयर १, ६, २४२, २४३ तम (तमस्काय का नाम) ६७८ तित्थोदग १७५ तमतमप्पभा (नरक पृथ्वी) ११२ तिमिस गुहा २६३, २६४, ३२५, ३८३ तमप्पभा (नरक पृथ्वी) ३४, ३५, ३६, ४८, ४६, ५४, ५६, तिमिसगुहा कूड २८२, २८६, २८७ . ६३, ६४, ६५, ६६, ७०, ७२, ११२ तिरियगइ ८१ तमा (अधोदिशा) २१, २२, २४, २६ तिरियगामी १६८ तमाल (वृक्ष) १६२ तिरियलोग (य) ८, ३३, ३४, ११२, ११३, ११५, ११६, तमुक्काय ६७५, ६७६, ६७७, ६७८, ६७६ ११७, ११८, ११६, १२१, १२२, ७५० तलवर ३ तिरियलोयतट्ट ११४ तवणिज्ज कूड २६१ तिलय (दीव-समुद्द).४१८ . तवसिप्प १७४ तिलय (वृक्ष) १६२, ३३० तसकाइय ६७८, ६७६ तिसोवाण २६५, २६६ तसकाय ४१८ तिसोवाण पडिरूवग(य) १८२, १८६, ३०५, ३०६, ४१' तसरेणु ७०१,७५६, ७५७, ७५८ तिसोवाणपडिरूवाण वण्णावास १३७ तसा १८ तिहीणाम ७२८ तसापाणा १४ तीतद्धा ७०८, ७११, ७१२ तंडव (नृत्य) १७८ तीय (अतीत) ६६१, ६६२, ७१२ तंडुल (चावल).१८३ तुच्छा (दिवस तिथि) ७२८ तंस (संठाण-आकार) ६७२, ६७६, ६८०, ६८१ तुडिय (आभूषण) १८१ तंसा ७२ तुडिय ६६८,७००, ७०७, ७३२ । तायत्तीसय(ग) ७६, ८०, ८३, ८४, १०३, ६६० तुडियंग ६६८, ७००, ७०७, ७३२ तारगा (पूर्णभद्र यक्षेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ तुडियंग (वृक्ष) ३३२ तारगह (तारा, नक्षत्रों के) ५८५, ६००-६०३ तुडिया (परिषद्) १०३, ५६० तारा (ज्योतिषी देव प्रकीर्णक) ४२६, ४३०, ४३१, ४३२, तुम्वा (परिषद्) १०३, ५६० ४३३, ४३४, ४३५, ४३६, ४३७, ४३८, ४३६, ४४०, तुरियगई ६३ ४४१, ४४४, ४४५, ४४६, ४५३, ४५४, ४५६, ४५७, तुरुक्क १८३ ५६०, ६५३, ६५४, ६५१, ६५६, ६६०, ६७३, ६७४, तुलसी (वृक्ष) ४२३ ६७७, ६८७,६८६, ७३५ तुला (संठाण) ५९७ तारारूवा ४३ तुसिय (लोकान्तिक देव) ६७० ताल (वृक्ष) १६२ तेअत्थिसुत्तरा (आभूषण) १८१ Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८१५ तेइंदिय २५, ११७, ७४२ दद्दरक संठाण ७२ तेइन्दियदेस २४ दद्दरमलय (सुगन्धित चन्दन) १८१ तेउ ६२ दधिमुह पव्वय ४०३, ४०४ तेउकाइअत्त १२६ दप्पण १३८, १५२, १६० तेउकंत ६२ दभियाणस गोत्त ५६२ तेउप्पभ६२ दव्व २०, ७३७, ७४६ तेरसिह ६२ दवट्ठया १२८, ४२६, ६८०,७४३, ७४४ ७४५, ७५०, ७५१, ओय (योज) ७५३ ७५३ तली १०५, २१४, २१६ दव्वपएसट्ठया ७४३, ७४४, ७४५ तेया पोग्गल परियट्ट ७१३ दव्वफुसणा ३१, ३२, ३३ तेया (रात्रि नाम) ७२७ दव्वलोग(य) ६, १८ तेरिच्छगई (तिरछी गति सूर्य की) ५३८-५४० दब सरूव ३५४, ३६७। तेल्ल समुग्ग(क) १६६, १७४ दव्वसरूव (कंडाणं-आदि का) ४५ तेल्लापूयसंठाण ७१, १२३, १२४, ५०६ दव्वसरूब (घणोदहि कंडों का) ५०, ५१ तेंदुअ (वृक्ष-तिदुक) ४२३ दह (दीव-समुद्द) ४१८ तोयधारा १०६ दहदेबि (द्रहों की देवी) ३५३ तोरण १३८, १४८, १४६, १५०, १५१, १५७, १५६, १६३, दहवई अन्तरनई ३६७ १७०, १७३, १८६, १८७ दहावइ कुण्ड ३०३ थणिय (स्तनितकुमार देव) ७५, ८८, १००, १०७, १०८ दहावती महाणई (महानदी) २०५ थणियकुमारावास ८६ दहियण ७६ थणियकुमारिन्द ८६ दहिवण्ण (वृक्ष) १००, १६२ थणियसद्द ६७४, ६७८, ७३५ दहोदग १७५ थवइय १२८ दंड (६६ अंगुल लम्बाई का प्रमाण) ७०१, ७५५, ७५ थाली संठाण ७२ दण्डनायग ३ थावर १८ दन्तमाल (वृक्ष) ३३० थावरापाणा १४ दसण ७४६ थिरकरण ७२६ दामणि (संठाण) ५६८ थीविलोयण (करण) ७२६, ७३० दार (द्वार) १४१, ३५५, ३५६, ३६८, ३६६, ३७०, ३७१, थूभ १६७ ३७३, ३६०, ३६१, ३९२, ३६४, ३६५, ३६६, ३९७, थूभिया ६६० ३६८, ३९६, ४००, ४०१, ४०२, ४०६, ४१०, ४११, थोव ६६७.६६६, ७०७, ७०८, ७०६, ७३१ दओ(ग)भास (आवास पच्चय) २३६, ३५०, ३५१, ३५२ ।। दारचेडीया १८४ दवस १०५ दारंतर ३६१, ३६२, ३६४, ३६५, ३६६, ३६७, ३६८, ३६६ दगपासायग १३६ ४००, ४०६, ४१०,४११, ४१४, ४१६ दगमालग १३६ दारु पव्वयग १३६ दगमंचक १३६ दावरजुम्म (द्वापर युग्म) ७५३ दगमंडलग १३६ दाहावती (नदी) ३१७ दगसीस आवास पव्वय २३७, ३४६, ३४८, ३४६, ३५०, ३५१, दाहिण अद्धमंडल संठिई (सूर्य की) ५५४, ५५५ ३५२ दाहिणड्ढ भरह कूड २८२, २८३, २८४, २८५ दढरहा १०३ दाहिणड्ढ भरह देव २८५ Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट :५ दाहिणड्ढ भरह (वास) १९७, १६८ दुपदेसवित्यिण्ण २२ दाहिणड्ढ भरह रायहाणी २८५ । दुपदेस २१ दाहिणद्ध कच्छ (विजय) २०२, २०३, २०४ , दुपदेसुत्तर २१ दाहिण पच्चत्थिमा (दक्षिण पश्चिम दिशा) २० दुम (द्रुम-वृक्ष) १०४, १०५, ३८ दाहिणश्यग (पव्वय) ११० दुय णट्टविहि १७८ दाहिणा (दक्षिण दिशा) २०, २१ दुय-बिलंबिय णट्टविहि १७८ दाहिणिल्ल असुरकुमार ठाण ७८, ७६ दु(दू)समदूसमा ६६८, ६६६, ७०३ दाहिणिल्ल णागकुमार ठाण ८४ दुसमसुसमा ७०२,७०३,७३३ दाहिणिल्ल पिसायदेव ४२२ दु(दू)ममा ७०२, ७०३ दाहिणिल्ल सुवण्णकुमारठाण ८६ दूरे-समीवे (सूर्य की) ५०९-५१० दिट्टि १६, ७४६ देव ३५३, ३५१, ३७५, ४०२ दिवस ६६५, ७१३ देवउत्त १७ दिवसखेत्त ४९६, ४६७ देवकज्ज ४०५ दिवसणाम ७२६ देवकुरा १६२, १६३, २००, २१३, २१४, २१६, २३३, २४४, दिवसतिही ७२८ २६३, २६६, २६७, ३१०, ३७६, ३७८, ३७६, ३८०. दिवसपमाणकाल ६६२ ३८६ दिवायर कूड २६१ देवकुरा कूडसामलिपेढ (पीठ) २१४ दिव्व णट्टविहि १७८ देवकुरा रायहाणी ४०७ दिसा(सि) (कुमार देव) ७५, ८८ देवकुरु ३५४, ७०१, ७३३, ७५८ दिसा(सि)कुमारि महत्तरिया ११, ६० देवकुरु कूड २८१ दिसाकुमारिंद ८६ देवकुरुदह ३१०, ३२७ दिसाकुमारी १०८, १०६, ११०, १११ देवकुरुदेव २१४ दिसाण भेय २० देवगामी १६८ दिसादिसि पव्वय ५०० देवच्छन्द(क)(ग)(य) १६७, १६३, २१६, २३८, २४६, २८४, दिसादी(पव्वय) २३६ ४०३ दिसासोत्थिय कूड २६१ देवतमिस्स (तमस्काय का नाम) ६७६ दिसासोत्थियासण १४० देवदार ४०१ दिसाहत्थिकूड २८६, २६० देवदीव ४१५, ४१६, ५८२ दीव ५८, १७४, १६४, २३१, ७४६ देव (द्वीप-समुद्र) ४१८ दीव (द्वीपकुमार देव) ७५, ८८ बेवदूस १७२, १७३, १८१, १८३ दीवकुमारिंद ८६ देवपओयण ४०५. दीवसमुद्द १६१, ४१६, ४१७, ४५८, ६७५, ६८१, ७०५ देवपडिक्खोभ (तमस्काय का नाम) ६७६ दीवसिहा(वृक्ष) ३३२, ३३३ देवपलिक्खोभ (कृष्ण राजि का नाम) ६७४ दीहबेयड्ढ गिरिकुमार देव २५३ देवफलिह (कृष्णराजि का नाम) ६७४ दीहवेय(अ) डढ गुहा २६३ देवफलिह (तमस्काय का नाम) ६७६ दीहवेय(अ)ड्ढ पव्वय २२४, २२५, २५१, २५२, २५३, २५४, देवभद्द देव ४१५ २८२, २८३, २८४, २८६, २८७, ३८२ देवमहाभद्द देव ४१५ दीहासण १३६, १४० देवमहावर देव ४१५ दुद्धजातीय (मद्य) ३३१ देव बक्खार पव्वय २०६, २६२, ३६४ दुन्दुहि १७७ देववर देव ४१५ Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८१७ देव विमाण ६६७, ६६६, ६७० धम्मिय ववसाय १८२ देववूह (तमस्काय का नाम) ६७६ धम्मिय सत्थ १७१ देवसमवाय ४०५ धम्मोबदेसग ४ देवसमिति ४०५ धरण (नागकुमार इन्द्र) ८३, ८४, ८६, ६०, ६२, ६४, १०३, देवसमुदय ४०५ १०४, १०५, १०६, १०७, १८० देवसयणिज्ज १६५, १६६, १६६, १७२, १७३, १८७, ३५८ धरणप्पभ उप्पाय प-वय १०७ दयधकार (तमस्काय का नाम) ६७६ . धरणिखील पव्वय ५०० देवाइदीव समुद ४४०-४१ धरणिसिंग पव्वय ५०० देवाणंदा (रात्रि नाम) ७२७ धव (वृक्ष) १६२ देवारण्ण (तमस्काय का नाम) ६७६ धाय (पणपनिक व्यंतर देवों का इन्द्र) ४२५ देवासुरसंगाम ४१६ धाइयसंड दीव १६२, १६३, ३५५, ३५६, ३६१-३६६, ३७६, देवि(वी) ३५३, ३५४ ३८०, ३८१, ३८२, ३८३, ३८४, ३८५, ३८६, ३८७, देवी (कूडों की) २७३ ४०६, ४१६, ४१८, ४३५, ४५८, ४५६, ४६५, ४८५, देवोद समुद्द ४१५, ४१६, ५८२, ५८३ ४८६, ५७६, ५८०, ५८१, ७३३ दोवारिय ३ धायइरुक्ख (वृक्ष) ३६२, ३६६, ३८०, ३८६ दोसिणा (चन्द्रिका) ४६७, ४६८, ५६५ धायइवण ३६६ दोसिणा पक्ख (शुक्ल पक्ष) ४६७, ४६८ धारवारियलेण ६८ दोसिणाभा (चन्द्र की अग्रमहिषी) ४५४ धारिणी (कूणिक राजा की रानी) ३ दोसुद्धकवाड ११४ धारिणी देवी (जितशत्रु राजा की रानी) १२१ धणिट्ठा (नक्षत्र) ५७४, ५६०, ५६१, ५६४, ५६७, ६००, ६०६, धिईकूड २७४ ६०७, ६०८, ६०६, ६१०, ६१७, ६२०, ६२३, ६२४, धिति (इ)(देवी) ३०४, ३०५, ३०६, ३८५ ६२६, ६२७, ६२८, ६२६, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, धुव १५, १६, १७ ६४०,६४२,६४३, ६५१ धुवराहु ५८६ धणुपुटु १६६, १६६, २००, २१०, २११, २१२, २१३, २१५, धूमके ऊ (केतु -ज्योतिषीदेव) ४३० २२६, २२८, २३०, २३१, २३२, २५२, २५४ . धूमप्पभा (पुढवी) ३४, ३६, ४८, ४६, ५४, ५६, ६२, ६३, धणु (धनुष) २०१, २१५, ७०१, ७५४,७५५, ७५८, ७५६ ११२ धणंजय (दिवस नाम) ७२७ धूवकडुच्छय १६६, १७४, १७८, १८२ धनंजयस गोत्त ५६१ धूवघडिया १६४ धम्म १६ धूवयघडी १६७ धम्म(अरिहंत प्रणीत) वोच्छिज्जमाणे १८ .. . नग्गोध(बृक्ष) ३३० धम्म(द्रव्य) २० नरकत कूड २७५ धम्मत्थिकाय १९, २०, २३, २४, २५, २६, ५८, ४१८, ६५६, नरकतप्पवायकुण्ड २९७ ६५७, ७३६, ७४२, ७४६, ७५० नरकंतप्पवायद्दह २६८,३८६ धम्मत्थिकायदेस २३, २४, २५, २६, ५८, ४१८, ६५६, ६५७ नरकंता नदी ३८७ धम्मत्थिकायपदेस २३, २४, २५, २६, ५८, ४१८, ६५६, ६५७, नरकता महाणई ३१४, ३१५, ३१६, ३२२, ३२४,३२२ ७८२ नलिन ६६८, ७००,७०७,७३२ धम्मत्थिकाय (फुसणा) ४० नलिनकूड वक्खार पव्वय २६१, ३६३, ३८२ धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी २ नलिनंग ६६८, ७००, ७०७, ७३२ धम्मसारही २ नवमिया (किंपुरुषेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ धम्मायरिय ४ नंगलावत्त विजय ३६५ Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१८ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट : नंदिमुयग संठाण ७२ नंदिस्सरवरपुणदीव ८१ नंदी (द्वीप-समुद्र) ४१८ नंदीरुक्ख(वृक्ष) १६२ नंदीसरोद समुद ४०६, ४१० नंदुत्तर १०५ नाग (करण) ७२६, ७३० . नाग (कुमार देव) ७५, ८४, ८५, १०८, ६७७, ६७८ नागकुमार देवी ८४ नागकुमारिंद ८६ नाग दीव ४१६, ५८३ नागदन्तपरिवाडी १४३ नागपडिमा १६६ नागरुक्ख (वृक्ष) ४२३ नाग वक्खार पव्वय २६१ नागाणं ८८ नागोदसमुद्द ४१६ नाणादव २६, ३०, ३१, ३२ नावा संठाण ३३६ नामगोत्तपहीण १२ नारीकन्तप्पवायकुण्ड २६७ नारीकन्तप्पवायदह २६८,३८६ नारिकन्ता नदी ३८७ नालि संठाण ७२ नालिया ७०१, ७५५, ७५८ नासानीसासवायवज्झ १८१ निक्खमण मह ८१ निगम ३ निज्जालियलेण १८ निदड्ढ ६० निम्मल (विमाण पत्थड) ६८३, ६८५ । निरय ११५ निरयपत्थड ११२ निरयावलिया (स्थान) ११५ निरव्वगहिया ७४१ निरंभा (बलीन्द्र की अग्रमहिषी) ६. निव्वाधाइय ६५४ निसबकूड ३८४ निसह(ढ)दह ३१०, ३२७ निसढ(ह)(पव्वय) ३०५, ३१५ निसढ वासहर पव्वय ३८०, ३८१, ३८४, ३८५ निसुभा (बलीन्द्र की अग्रमहिषी) ६० नीरय (विमाण पत्थड) ६८३, ६८५ नील ६८० नीव (वृक्ष) १६२ नीलकंठ १०५ नीलतणमणि (वण्ण) १३२ नीलवंत कूड ३८४ नीलवंतदह ३१० नीलवंत (पव्वय) ३०५, ३१५, ५१८ नीलवत वासह(ध)र पव्वय २२५, ३५३, ३८५ नीसास (निःश्वास) ६६७, ६६६ नेम १२७ नेरइय(7) ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४,७४६ नेरइयठाण ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४. नेरती (नैऋत्य दिशा) २१, २२, २४ नोआगास १६ नो-जुग ७२३ पइट्ठाण ६७८ पउम ३०५, ३०६, ३०७, ३०८, ३०६, ६६८, ५००, ७०७ ७३२ पउमकूड २६१ पउमगंधा २१४, २१६ पउमदह १७५, ३०४, ३०५, ३०७, ३०८, ३१०,३११, ३११, ३१८, ३१६, ३५३, ३८४, ३८५ पउमदेव २५७, ३७४, ३७८, ३८०, ३८१, ३८२ पउमप्पभा (पोक्परिणी) २२१, २४१ पउमवणसंड ३७४ पउमवरजाल १२७ पउमवरवेइया ६५, ६६,६७, १२२, १२६, १२७,१२८, १२६, १३७, १४०, १५६, १५७, १६३, २१७, २१६, २२३, २२४, २२७, २२८, २३०, २३४, २३८, २३६, २४०, २४१, २४२, २४५, २४७, २५१, २५३, २५५, २६०, २६४, २६८, २७२, २८३, २६५, २६६, ३००, ३०१, ३०५, ३११, ३१२, ३१८, ३२०, ३२१, ३२३, ३२६, ३३७, ३४०, ३४६, ३४८, ३५७, ३६१, ३७०, ३७३, ३७५, ३६१, ३६२, ३६४, ३६५, ३६६, ३६७, ३६८, ३६६, ४००, ४०१, ४०३, ४०४, ४०६, ४१०, ४११, ४१६, ४७६,५८०,५८१ पउमरुक्ख ३७४, ३७८, ३८०,३८६ Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८१९ पउमलया (लता) ३३० पडाग (संठाण) ५६८ पउमा (पोक्खरिणी) २२१, २४१ पडागमाला ४२० पउमा (शकेन्द्र की अग्रमहिषी) ४०७ पडिकम्म ७४८ पउमा (भीम राक्षसेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ पडिपुण्णचंदसंठाण ७१, १२३, १२४, ५०६, ६६८, ६७२ पउमावई ११० पडिमंजरिवडिसयघरा १३० पउमासण १३६ १४०, १५८ पडिरूव (भूतों का इन्द) ४२३, ४२५ - पउमुत्तरकूड २६० पडीणा (पश्चिम दिशा) २१ पउमुत्तर देव २६० पडुप्पन्न (वर्तमान) ६६१, ६६२, ७१२ पउ(अं)मंग ६६८, ७००, ७०७,७३२ पढमावलिया (पत्थड की) ६८६ पउव ६९८,७००, ७०७,७३२ पणयासण १३६, १४० पएसटूया ७४३, ७४४, ७४५, ७५१, ७५३ पणव १७७ पएस फास ३५४,३५५ पणव संठाण ७२ पएस अणाबाह २६ पणवणिय(वाणव्यंतर देव) ४२०, ४२४ पएस फुसणा ३७३ पणस (वृक्ष) १६२ पक्ख (पक्ष-अर्द्धमास) ६६५, ६६७, ६६६, ७०१, ७३१ पत्त (आसव) ३३१ पक्वासण १३६, १४० पत्तेगरस ४१७ पक्खन्दोलग १३६६ पत्थड ६५७, ६८६ पगतीय उदग रस ३६०, ४१६ पत्थडोदय ३५६ पगतीय रस ४१७ पदेस (प्रदेश) ७४६ पगासखेत्त (चन्द्र सूर्य का) ५६६, ५६७ पदेसनिप्प(फ)ण्ण ६६५, ७५४ पगंठग १४६, १५४ पदेस फास ३६८ पच्चत्थिमरुयग (पव्वय) ११० पन्न (पूर्ण) ६२ पच्चत्थिमा (पश्चिम दिशा) २० पब्भार ११२ पच्चथिमिल्ल २८ पभ ६२ पच्चत्थिमुत्तर (पश्चिमोत्तर दिशा) २० पभकंत ६२ पच्छाणुपुव्वी ३४, ३५ पभा ६८१, ६८२ पज्जत्त() ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४, ७४, ७५, ७७, ७८, पभास (तीर्थ) १७५, १७६, ३२८, ३२६ ७६, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, १६१, ४२०, ४२१, पभास (देव) २५७, ३८१ ४२२, ४२४, ४२६, ४३०, ६५७, ६५६, ६६०, ६६१, पभू ११ पभंकर (लोकांतिक विमान) ६७० पज्जत्त(ग) ११२, ११३, ११४, ११५, ११६, ११७, ११८, पभंकरा (चन्द्र की अग्रमहिषी) ४५४ ११६ पभकरा (सूर्य की अग्रमहिषी) ४५५ पज्जत्ती १७२ पभंकरा रायहाणी २०७ पज्जत्तीभाव १७२ पभंजण ६३, १०८ पज्जरय ६० पभंजण (महापाताल कलश का देव) ३४३ पज्जव (पर्याय) ७४६ पभंजण (वायुकुमारिद)८६ पझंझमाण १२७ पमद्दजोग (नक्षत्रों का चन्द्रमा के साथ) ६२२, ६२३ , . पडह १७७ पमाणकाल ६६२, ६६४ पडह (संठाण) ७२ पमाण संवच्छर ७१३, ७२२ पड़ाग १७७ पमाणंगुल ७५५,७५६, ७६० Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट :५ पमाणांगुल पओयण ७५६ परंपरोगाढ ७४६ पम्ह (सूक्ष्म तंतु) ६६६, ६६७ पलासकूड २६०, २६१ पम्हकूड २७७, २८१ पलास देव २६१ पम्ह (दाहिणड्ढ) कूड २८७ पलास (वृक्ष) १०० पम्ह(उत्तरड्ढ) कूड २८७ पलिओवम १८०, १८६, २०१, २०५, २०६, २१०, २११, पम्हकूड देव २६५, २७७ २१२, २१४, २१५, २१६, २२८, २३०, २३१, २३२, पम्हकूड वक्खार पव्वय २०४, २०५, २६१, २६५, २७७, ३६३, २३६, २५३, २५५, २५७, २६४, २६५, २६६, २६७, ३८२ २६६, २७७, २८५, २८६, २६४, ३०४, ३०५, ३०८, पम्ह विजय २०७, २४३, २६७, २८७, ३६५ ३०६, ३११, ३१३, ३४२, ३४७, ३५३, ३५४, ३६६, पम्हगावई(ती)विजय २०८, ३६५ ३७४, ३७८, ३८०, ३८१, ३८२, ३८३, ३८४, ३६२, पम्हल १८१ ३६४, ३६५, ३६६, ३६७, ३६८, ४००, ४०२,४०६, पम्हावई रायहाणी २०७, ३६६ ८०६, ४१०, ४११, ४१२, ४१३, ४१४,४१५, ४१६, पम्हावई वक्खार पव्वय २०८, २६१, ३६३, ३८२ ४६४, ६६१, ६६६, ७००, ७०२, ७०४,७०८, ७०६, पयतय) (पतंग व्यंतर देवों का इन्द) ४२५ ७१०, ७३२ पयय देव (व्यंतर देव) ४२५ | पलिअंकसंठाण १६८, २००, २०२, २०६, २२७, ४०३, ७३४ पययपई (पतंग व्यंतर देवों का इन्द्र) ४२५ पलिया (पल्य) ६६५ पयर ७५४ पलियंकणिसण्ण १६१ पयावइ देवया ५६४ पल्लग संठाण २५५ पयंग देव (बाणव्यंतर देव) ४२० पल्लल ११३, ११६, ११७, ११८, ११६ पयरंगुल ७५६, ७५८, ७५६, ७६० पलंब कूड २६१ परमाणुपोग्गल २३, २४, २५, ६५६, ७००, ७१२, ७४२, ७५६ पवण (वायु (पवन) कुमार देव) ७५ परिक्खेव ११, ३८, ७०, ७१, ४४६, ४७१, ४७२, ४७३, ४७६, पवत्तय (गेय-गान) १७८ ५०६, ५०७, ५२२, ५२३, ५२४, ५२५, ५२६, ५२७, पवरवारूणी (आसव) ३३१ ५२८, ५२६, ५३०, ५४३, ५४८, ५५२, ५५४, ५६७, पवायद्दह २९८, ३८५ ६३३, ६३४, ६७३, ६७५, ६७६, ६८३ पवित्तिवाउआ (भगवान महावीर की प्रवृत्ति जानने के लिए परिणमन ४१७ नियुक्त कूणिक राजा का सेवक) ३, ४, ५, ६, ७ परिणामत्त ६७४, ६७७ पव्व ७२१, ७२४, ७२७ परिनिव्वाणमहिमा ८१ पव्वइंद पव्वय ५०० परिमाण ४३२ पव्वयराय ४६८,५०० परियट्ट ६६५ पव्वराहु ५८६ परियग्ग (पव्वय) १७५ पव्वा परिसा १०३, ५६० . परियाणिय (विमान) ६७६, ६८६, ६८७ पसन्नतल्लग (मद्य) ३३१ परिरय (परिधि) ७०२, ७०४, ७०५, ७०६ पहरण (आयुध) १८७ परिबुढि-परिहाणी (चन्द्रमा की) ४६६ पहरणकोस १६६, १८७ परिसा ७६, ८०, ८३, ८४, १००, १०१, १०२, १०३, १५२, पहरणरयण १६६ १५३, १५६, १७२, १७३, १७६, १८८, २८५, ३०७, पहाण १७ ४२१, ४२२, ४२६, ४२७, ४३१, ५५६, ५६०, ६६० पंकप्पभा (पुढवी) ३४, ३५, ३६, ४८, ४६,५४, ५७,५६, ६२, परिसोववण्णग १७२, १७३, १८१ परिहा ७४ पंकबहुलकड ४३, ४४, ४५, ४६, ४७ परिहाण ८७ पकवई अन्तरनई ३६७ Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८२१ पंकवती (नदी) ३१७ पिडग (ज्योतिषी देवों के) ४५७ पंकावई २०५, २०६ पितिदेवया ५६५ पंकावई कुण्ड ३०३ पियदरिसण (विमाण पत्थड) ६८३, ६८५ पंचि (चें)दिय २३, २५, २६, २६, ११८, ६५५, ६५६, ७४२ पियदंसण देव ३६६, ३८०, ३८९ पंचिन्दियतिरिक्खजोणिय ११६ पियाल (वृक्ष) १६२ पंचिदियपदेस ५८ पियंगु(वृक्ष) १६२ पंडगवण १३६, १७६, २३४, २३८, २४०, २४२, २४३, ३६४ पिसाय (वाणव्यंतर देव) ४२०, ४२१, ४२२, ४२४, ४२७ पंडकंबलसिला २४१, २४२, ३६४ पिहडग संठाण ७२ पंडसिला २४१, २४२ पिंगल णियंठ (निग्रंथ श्रावक) १५ पंती (ज्योतिषी देवों की) ४५७, ४५८ पिंगायणस गौत्त ५६२ पाईणा (पूर्व दिशा) २१ पिंडमंजरि १२८ पाउप्पभाया रयणी ५ पिंडलगपिहुणसंठाण ३७ पाउस (पावस ऋतु) ७३१, ७३२ पीइदाण ४,७ पागार १५३, ५६८, ६८२ पीइवद्धण (मास) ७२२ पाडंतिय (अभिनय) १७८ पीढमद्दग ३ पाणय (कप्प) ६५७, ६५८, ६६५, ६६६, ६६७, ६७१, ६७२, पीढाणीय १०४ पीणक १७४ पाणय(देवेन्द्र) ६६६, ६८६ पीणियजोय ४७६ पाणय वडेंसग ६६५ पीतिमण (पारियानिक विमान) ३८६ पाणु ६६७, ६६६ पुक्खल देव २०६ पाति १६६ पुक्खल विजय ३०३, ३६५ पाद ७०१, ७५८, ७५६ पुक्खल संवट्ट महामेह ७५७ पायत्ताणीय १०४, १०५, पुक्खलावई कूड २७७ पायाल ११२, ११३ पुक्खलावई देव २०६ पायाल (पाताल कलश) ३४५ पु(पो)क्खलावई(ती)विजय २०६, २२३, २६६, २८७, ३६५ पायावच्च (मुहूर्त नाम) ७२५ पुक्खलावत्त कूड २७७ पारावय(वृक्ष) १६२ पुक्खलावत्त विजय २०५, २०६, २६६ पालय जाणविमाण १७, ६८६, ६८७ पुक्खरकण्णियासंठाण ७१, ७४, १२३, १२४, ५०६, ६८० पालंबंसि (आभूषण) १८१ पुक्खरद्ध अन्तर ४३७, ४३८ पाव १६ पुक्खरद्ध दीव ४६५, ४८६ पावकम्म १८, ३५ पुक्खरवरदीव ३७०, ३७१, ३७२-७८, ३७५, ३६०, ४०६, पासायपंती २४७ ४१८, ४३६, ४३७, ५८२ पासायडि(डें)सय (ग) ६५, ६७, ६६, १०८, १४६, १४८, पुक्खरवरदीवड्ढ १६३, १९४, ३७६, ३७७, ३७८, ३७६, ३८२, १५४, १५६, १५७, १८, १५६, २१८, २२१, २४०, ३८३,३८४,३८५, ३८६, ३८७,७३३ २४१, २४५, २४७, २५१, २५५, २७२, २७३, २७६, पुक्खरवरसमुद्द ५८२ २८४, २८५, २८८, २८६, ३४६, ४७६, ६८५ पुक्खरोद समुद्द १७५, ३७३, ३६०-३६१, ४१७,४३८ पासाय संठाण ५६४ पुग्गलत्थिकाय १६, २० पासावचिज्जा (भ० पार्श्वनाथ के स्थविर शिष्य) ५३४ पुग्गल (द्रव्य) २० पिट्ठकरंड २१५ पुग्गल परिणाम ४१७, ६७५, ६७६ पिटुपयणग संठाण ७२ पुढ(ह)वि ११०, ११२, ७४६ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२२ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ठ :५ M wwwww पुढवि अहोभागट्टियदन्वसरूव ४१... पुण्णा (दिवस तिथि) ७२८ पुढविकाइय ७४, ११२, १२६, ६७६ पुत्ता (पूर्णभद्र यक्षेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ पुढवीकाय १६, ४१८, ६७७, ६७८, ७३६ ... पु(पो)त्थय रयण २४६ पुढवि णामगोत्त ३५ पुन १६ पुढवि(वीणं)दव्वसरूवं ४१ पुप्फचंगेरि १५०, १६६, १७४ । पुढवि (दीव-समुद्द) ४१८ पुष्फजंभग(देव) ४२७ पुढवि(वीसु)निरयावास ६६... पुप्फदंत देव ३६४ पुढवि(वीणं)पइट्ठा ३६ पुप्फपडलग १५०, १६६, १७४ पुढविपइट्ठिया ३७ पुष्फफलजंभग (देव) ४२७ पुढविपकंपण ४१६ पुप्फमाला १०६ पुढवि(वी)पतिट्ठित तस थावरा पाणा १३ पुप्फय (पारियानिक विमान) ६८६ पुढवि(वीण) पमाण ३७ पुप्फवई (किंपुरुषेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ पुढवि परिणाम १२६, ४१७, ६७५, ६७६ पुष्फोवयार (संठाण) ५६७ पुढवि(वीणं)परोप्पर अबाहा अन्तर ४२ पुरथिमंदाहिणा (पूर्व-दक्षिण दिशा) २० पुढ वि(वीणं)सासयासासयत्त ३६ पुरस्थिमा (पूर्व-दिशा) २० पुढविसिलापट्टग ३, ५, १४०, ३३० पुरथिमिल्ल २८, २६ पुढवि(वीणं) संठाण ३६ पुरत्थिरुयग (पव्वय) १०६ पुणव्वसु (नक्षत्र) ५७५, ५७६, ५६०, ५६२, ५६५, ५६७, ६०१, पुरिसुत्तम १, ६ ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१२, ६१६, ६२१, ६२३, पुलय (कंड) ४४ ६२४, ६२६, ६२८, ६३०, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६ पुब्व ४६४, ६६२, ६६७, ६६८, ७००, ७०७,७३२ ६४१, ६४२, ६४६, ६४७, ६५०,७१५, ७१६, ७१७ पुवकोडी २०१ पुण्डरीगिणी पोक्खरिणी ४०४ पुव्वगय वोच्छिज्जमाणे १८ पुण्डरीगिणी रायहाणी २०६, ३६६ पुवफग्गुणी (पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र) ५७४, ५६०, ५९२, ५६५, पुण्डरी(य)(ग) १११ ५६८, ६०२, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१३, ६१५, पु(पों)हरीय(अ)(ग)द्दह १७५, ३०४, ३१०, ३२०, ३५३, ६२०, ६२३, ६२५, ६२७, ६३०, ६३६, ६३७, ६३८, ३८४, ३८५ ६३६, ६४१, ६४२, ६४७, ६४८, ६५१, ६५३ पु(पों)ण्डरीय(ग)(अ)देव ३७४, ३८०, ३८६, ३६४ . पुनभद्दवया पोटुवया (पूर्वाभाद्रपद नक्षत्र) ५६०, ५६१, ५६४, पुण्ड(पोंड)रीय महद्दह ३१५ . . . ५६७, ६०१, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१०, ६१७, पुण्ण (द्वीपकुमारेन्द्र) ८९ ६२०, ६२३, ६२४, ६२६, ६२७, ६२८, ६२६, ६३६, पुण्णकलसविउप्फेस ७५ ६३७, ६३८, ६३६, ६४०, ६४२, ६४४, ६५१ पुण्णप्पमाणा (सीमा तक परिपूर्ण समुद्र) ३६० पुवविदेह कूड २७४, २७५ पुण्णभद्द कूड २७६. २८०, २८१, २८६, २८७ पुव्वविदेह (वास-खेत्त) १७६, १६२, २००, २३३, ३२७, पुण्णभद्द (चैत्य) ३, ४, ५, ६ . ३५३, ३७६, ७०१, ७३३, ७५८ पुण्णभद्द देव ४०० पुव्वसाढा (पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र) ५६०, ५६२, ५९५, ५६६, ५६६, पुण्णभद्द (यक्ष देवों का इन्द्र) ४२३, ४२५ ६०२, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१४, ६१७, ६२०, पुण्णिमासिणि जोग (सूर्य का) ५५७-५५८ ६२३, ६२५, ६२६, ६२८, ६३१, ६३२, ६३६, ६३७, पुण्णमासीसु जोग संखा (नक्षत्रों का) ६१०, ६२४ ६३८, ६३६, ६४१, ६४२, ६४६, ६५०, ६५१, ६५३, पुण्णिमासिणिट्ठाण ४७७ ७१६ पुण्णमासिणी (सी) ४६७, ४७६, ४७७, ४७८, ४७६, ५७४, पुव्वंग ६६२, ६९७, ६६८, ७००, ७०७, ७३२ ७२४ पव्वंग (दिवस नाम) ७२६ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८२३ पुव्वाणुपुव्वी ३४ बद्धमाण-निज्जुत्त-चित्तींचघगता ७६ पुस्सदेवया ५६४ बलकूड २८८, २८६ पुस्स (पूसा-पुष्य नक्षत्र) ५७५, ५७७, ५७८, ५७६, ५६०, बल(नाम का)देव २८६ ५६२, ५६५, ५६८, ६०१, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, बलदेव ३५२, ३५३ ६१२, ६१६, ६२०, ६२३. ६२४, ६२६, ६२८, ६३०, बलयामुहपायाल (कलश) ३५१, ३५२ ६३६, ६३७, ६३८, ६३६. ६४१, ६४२, ६४७, ६५०, बलव(मुहूर्त नाम) ७२५ ६५३, ७१८ बलवाउय ७ पुस्सायणस गोत ५६१ बलाहगा(या) १०६, ६७३, ६७७ पूतफलि वण (वन) ३३० बलाया देवी २८२, २८९ पूरिम १०,१८१ बलि(बलीन्द्र) ७८, ८३, ८६, ६०, ६२, ६४, ६६, १००, १०२, पेच्चभव ६ १०३, १०४, १०५, १०७ पेच्छाघर मंडव १६०,१६७, १८५, १८६, २४८, ४०२ बलिचंचा रायहाणी ६६ पेच्छाघर(संठाण) ५६४ बलिपिंड ११ पोग्गल १५, ७३, ८६, ३४२, ३४३, ४२६, ७४१ बलिपे(पी)ढ ६६, १७१, १८७, २४६ पोग्गल परिणाम १२६ बब(करण) ७२६, ७३० पोग्गल परियट्ट ६६१, ७०८, ७०६, ७१०, ७११, ७१२ बहस्सई (बृहस्पति) ४३० पोत्थकम्म १० बहस्सईदेवया ५६५ पोत्थयरयण १७१, १८२, १८७ बहस्सइ महग्गह ५८५ पोरिसि(सी) ६६२, ६६३, ६६४ बहुकिण्हचामर १६१ पोरिसिच्छाय (पौरुषी छाया) ५१०, ५११, ५१२, ५१३, ५१४, बहुत्त विवक्खा ७०७, ७०८ ५१५, ५१६, ५४४, ५४६, ६२८, ६२६, ६३०, ६३१, बहुपुत्तिया (पूर्णभद्र यक्षेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ ६३२ बहुरूवा (सुरूव भूतेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५, पोस (णक्खत्त संवच्छर) ७२१ बहुलपक्ख (कृष्ण पक्ष) ७२६ पोसपुण्णिमा ६९४ बहुसम १२ पोस (मास) ७२२ बहुसच्च (मुहूर्त नाम) ७२५ फग्गुण (मास) ७२२ बध १६ फग्गुणपुण्णमासिणी ६६३ बंभ(मुहूर्त नाम) ७२५ फग्गुणी (णक्खत्त संवच्छर) ७२१ बंभउत्त १७ फल (आसव) ३३० बंभदेवया ५६३ फलजंभग(देव) ४२७ बंभदेवेन्द ६६३, ६८६ फलिह (कंड) ४४ बंभलोग(य)(कप्प) ६५७, ६६३, ६६४, ६६५, ६७१, ६७२, फलिह कूड २७८, २७६ ६७६, ६८०, ६५१, ६८२, ६८४, ६८५, ६८६ फलिहरयण १६६ बंभलोग(य)देव ६६३ फलिह वडेंसय ६६१, ६६६, ६८८ बंभलोग(य)वडेंसय ६६३ फास पज्जव(7) १६, ४०, ५७, ७३, ८६, १२५, १२८, ३४२, बंभलोग(य) विमाण पत्थड ६८३, ६८५ ३४३, ४२६, ६८२ बाणमंतर देव ४५३, ४५४ फुडा (महोरगेन्द्र की अग्रमहिषी) ४६६ बादर अगणिकाय ४३ फुसण(7)(फुड) [स्पर्श] ४१७, ७३६, ७४८, ७४६, ७५० बादर आउक्काइय ११३, ११४ फेणमालिणी(अन्तर)णई २०६, ३१७, ३६७ बादरकाय १६ फेणमालिणीकुण्ड ३०३ बादरतेउक्काइय ११४ Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२४ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट : बादर थणियसद्द ४३ भद्दासण १३८, १३६, १४०, १५२, १५५, १५८ बादरपुढविकाइय ११२, ११३ भरणी (नक्षत्र) ५६०, ५६१, ५६४, ५६७, ६०१, ६०६, ६०७, बादरवणस्सइकाइय ११६ ६०८, ६०६, ६११, ६१८, ६२०, ६२१, ६२३, ६२४, बादरवाउकाइय ११५ ६२६, ६२७, ६२६, ६३५, ६३७, ६३८, ६३६, ६४०, बाधाइम ६५४ ६४२, ६४५, ६५१ बायर (बादर, स्थूल) ४८३ भरतखेत(क्षेत्र) ५२१, ५२२, ५२३ बायर पोग्गल १७३ भरहकूड २७१, २७२, २७३ बालग्ग ७५६, ७५८ भरह(भरत चक्रवर्ती) १८०, १९६, २०४ बालव(करण) ७२६, ७३० भरह दीहवेयड्ढ पव्वय ३८३ बाहल्ल ३७, ३८, ३६, ४४, ४५, ४७, ४८, ४६, ५०, ५१, भरह (भरत नाम का देव) १६६, २७३ ५४, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४,७०, ७४, ७७, ७६, ८२, भरह(वास) १७५, १६१, १६२, १९५, १९६, १९७, १९८, ८३, ८४, ४४६, ५२३, ५२४, ५२५, ५२६, ५२७, ५२८, १६६, २००, २०१, २०२, २२६, २४३, २५१, २५२, ५२६, ६३३, ६७१, ६८१ २५३, २५४, २५६, २८२, २८३, २६४, २६८, ३०२, बाहा २२६, २२८, २२६, २३१, २४६, ५०५, ५०६, ५००, ३१५, ३१८, ३२४, ३२८, ३५२, ३६१, ३७६, ३७६, ३८५, ३८६, ३८६, ७३३, ७५८ बाहिरपुक्खरद्ध(द्वीप) ३७५, ४१८, ४१६ भवण ७४, ७७, ७६, ८२, ८३, ८४,८७,११२, ११३, ११५, बिब्बोयण १६५, १६६ ११६ बुड्ढीहाणिकारण ३४२-३४५ भवणकुमारिंद ८६ बुद्धिकूड २७५ भवणछिद्द ११५ बुद्धि (देवी) ३०४, ३०५, ३८५ भवणणिक्खुड ११५ बुह(बुध-ज्योतिषीदेव) ४३० भवणपत्थड ११२, ११३, ११५, ११६ बुह महग्गह ५८५ भवणवइ १०३, १०४, १०८, २४२, २४३, २४५ बेइंदिय २३, २५, ११७, ७४२ भवणवासी देव ५, ७४, ७५, ७६, ८७, १००, १०३, ४८४ बेइंदियदेस २६, २८, २९, ५८, ६५६ भवणवासीण परिहाणवण्ण ६१ बेइंदियपदेस २४, २६, २८, २६, ५८, ६५६ भवणवासीण वण्ण ९१ बेल ३४५ भवण संखा ८७,८८ बेलंधर णागराय ३४५, ३४६, ३५९, ३६० भवणावास ७४, ७६, ७७,७६, ८०, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, बेलंब १३, १०८, ३४३ ८७,८८ भगदेवया ५६५ भंतसंभंत णट्टविहि १७८ भग(संठाण) ५६७ भभसारपुत्त (राजा कूणिक) ३, ४, ६, ७ भगवन्ताणं १८३ भाजण(पात्र) ३३१-३३२ भग्गवेससगोत्त ५६१ भारद्दायस गोत्त ५६२ भद्द (विमाण पत्थड) ६८३, ६८५ भाव ७३७ भद्दवय (णक्खत्त संवच्छर) ७२१ भावलोय ६ भद्दवय(मास) ७२२ भावियप्पा (मुहूर्त नाम) ७२५ भद्दसालवण १३६, १७६, २३८, २३६, २४१, २८६, २६०, भिगंगय(वृक्ष) ३३१, ३३२ ३२७, ३६४ भित्तीगुलिया १४२ भद्दा १११ भिगनिभा(पोक्खरिणी) २४१ भद्दा (दिवस तिथि) ७२८ भिंगप्पभा (पोक्खरिणी) २२१ भिंगा(पोखरिणी) २२१, २४१ भद्दा पुक्खरिणी ४०४ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८२५ भिंगार (बर्तन) १८२ मग्गसिर(मास) ७२२ भिंगारग १४८, १६६, १७४ मघा(कृष्णराजि) ६७४ भीम (राक्षस व्यंतरदेवों का इन्द्र) ४२३, ४२५ मघा(छठी नरक) ३५ भुजंगराय (बेलंधर नागराज देव का नाम) ३४६, ३४७ मघा (नक्षत्र) ५६०, ५६२, ५६५, ५६८, ६०२, ६०६, ६०७, भुयगवईया महाकाया (महोरग व्यंतरदेव) ४६० ६०८, ६०६, ६१२, ६१५, ६२०, ६२३, ६२५, ६२७, भुयगवई (महोरगेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ ६३०, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, ६४१, ६४२, ६४७, भुयगा (महोरगेन्द्र की राजमहिषी) ४२५ भूतदीव ४१६, ५८३ मच्छ १३८ भूतपडिमा १६६ मज्झलोग १२१ भूतवडेंसा रायहाणी ४०८ मज्झलोग पव्वय २३६ भूता रायहाणी ४०८ मज्झिम गेवेज्जग ६६८, ६६६ भूतोद समुद्द ४१६ मज्झिमरुयग(पर्वत) ११२ भूय(दीव-समुद्द) ४१८ मणगुलिय १६६ भूय (बाणव्यंतर देव) ४२०, ४२३, ४२७ मण पोग्गल परियट्ट ७१३ भूयवाइय (बाणव्यंतर देव) ४२४ मणिअं(य)ग(वृक्ष) ३३४, ३३५ भूयाणन्द(उत्तरदिशा का नागकुमार इन्द्र) ८३, ८५, ८६, ६०, मणिकंचणकूड २७५, ३८४ ६२, ६४, १०३, १०५, १०७ मणिपे(पी)ढिया ६५, ६७, १४६, १५७, १६०, १६, १६२, भूसण नागफड ७५ १६४, १६५, १६६, १६७, १८५, १८६, १८८, २१७, भेदघाय ५३२ २१६, २३८, २४८, २४६, २५०, २८५, २६५, ३०६, भेरि १७७ ३१२, ३५८, ४०२, ४०३, ४७६, ५८०,५८१ भेरी संठाण ७२ मणिसिलाग (आसव) ३३१ भेरुयालवण(वन) ३३० मणुआण उप्पइठाण १६१ . भोग (जातिविशेष) ६ मणुयगामी १९८ भोगपुत्त ६ मणुयलोग १०८, ४५७, ७३५ भोगमालिणी १०६,२८० मणुस्सखेत्त ११४ भोगवई १०६, २७६ मणोगुलिया १४६, १६३, २४६, ४०३ भोगवई(रात्रि तिथि) ७२८ मणोरम देव ४१४ भोगकरा १०६, २७६ मणोरम (पर्वत) २३६, ४६६ भोम (मुहूर्त नाम) ७२६ मणोरम (पारियानिक विमान) ६८६ भोमा १००, १५१, १५२, १५५ मणोरमा रायहाणी ४०७ भोमेज्जणगर ४२४ मणोसिलय देव ३४६ भोमेज्जणगरावास ४२०, ४२१, ४२२, ४२६ मणोसिलय (बेलंधर नागराज) ३४५, ३४८, ३४६ भोमेज्जविहार ४२६ मणोसिला रायहाणी ३४६ मउड(मुकुट-आभूषण) १८१ मणोहर (दिवस नाम) ७२६ मगर ७६ . मत्तजला अन्तरनई ३६७ मगरमुह ३१६ मत्तजला कुण्ड ३०३ मगरमुहविउट्ठसंठाण ६१७, ३२०, ३२२ मत्तजला नदी ३१७ मगरमुह संठाण ३१६, ३२१ मत्तजला महाणई २०७ मगरासण १३६,१४० मत्ताबलिहार (संठाण) ३१७ मग्गसिर (णक्खत्त संवच्छर) ७२१ मत्तंग दुमगण (वृक्ष) ३३१ Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट : ५ मयणा(बलीन्द्र की महिषी) ६० महापुण्डरीयद्दह १७५, ३०६, ३५३ मरणकाल ६६२, ६६५ महापुरा रायहाणी २०८, ३६६ मलय (पर्वत) १३६ महापुरिस (किन्नरदेवों का इन्द्र) ४२३ मल्लगमूल संठाण ६७५, ६७६ महापुरिस (किंपुरुषेन्द्र) ४२५ मसारगल्ल (कण्ड) ४४ महापोंडरीयद्दह ३०४, ३१५, ३२२, ३८५, ३८६ महगह (अठासी) ५८४ महाभागा(नदी) ३२४ महतिमहालय ११ महाभीम (राक्षस ब्यंतरदेवों का इन्द्र) ४२३ महत्तरिया १०८, १०६, ११०, १११, ३०७ महामउंदसंठाण ९५, ६६ महद्दह ३०३, ३१० महामणिपी(पे)ढिया १६५, १६६, १७० महद्दुम १०४, १०५, ३७८, ३७६ महामंति ३ महप्पभ देव ३९८ महारिट १०४ महबलिपेढ १७१ महारोरुय ६४, ६७ महब्बल ४५३ महालय ११, १२, ७१ महंधकार (तमस्काय का नाम) ६७६ महालोहिअक्ख १०४ महाअभिसेयसभा १७० महावच्छ विजय २०७, ३६५ महाअलंकारियसभा १७० महावप्पविजय २०८, ३६६ महाआलिंजर संठाण ३४२ महाववसाय सभा १७१ महाउववायसभा १६६ महाविदेह (देव) २०१ महाकच्छकूड २७७ महाविदेह(वास) ११४, १६१, १६२, २००, २०१, २०२, २०३, महाकच्छदेव २०५ २०४, २०५, २०६, २१३, २१५, २२३, २२६, २३०, महाकच्छ विजय २०४, २०५, २६५, ३०२, ३६५ २३३, २५४, २६३, २६४, २६६, २६७, २६८, २८६, महाकच्छा (महोरगेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२६ २६८, ३०२, ३०३, ३१६, ३१७, ३२३, ३२६, ३६१, महाकाय (महोरगेन्द्र) ४२३, ४२६ ३७६, ३८६, ३८७ महाकाल (पातालकलश का देव) ३४३ महावीर समणस्स भगवया ७५६ महाकाल ६८, ६७, ६३, १०८, ४२१, ४२२, ४२३, ४२४, ४२५ महासुक्क (कप्प) ६५७, ६६४, ६६५, ६७१, ६७२, ६८०, ६८१, महाकालप्पभ उप्पाय पव्वय १०७ ६८२, ६८४ महाकदिय (बाणव्यंतर देव) ४२०, ४२५ महासुक्कदेव ६६४ महाघोस (स्तनितकुमार इन्द्र) ८६, ६०, ६३, १४, १०५, १०६ महासुक्क देवेन्द ६६४, ६८६ महाजाति गुम्म (गुल्म) ३३१ महासुक्क वडेंसग ६६४ महाणई ३१४-३२८ महासेत (कुहंड व्यंतरदेवों का इन्द्र) ४२५ महाणंदियावत्त ६३ महासोदामी १०४ महाधायइरुक्ख (वृक्ष) ३६२, ३६६, ३८०, ३८६ महाहिमवंतकूड २७४, ३८४ महानिरयावास ६०, ६२, ६४, ६७ महाहिमवंतदेव २२६ महापउम ३११, ३१२ महाहिमवंत(पर्वत) ३०४, ३०८, ३१५, ३५३ महापउमद्दह १७५, ३०४, ३०८, ३०६, ३१५, ३१६, ३२१, महाहिमवन्तवासध(ह)र पव्वय १७५, २०६, २१०, २११, २२५, ३५३, ३८५ २२७, २२८, २२६, २३१, २७४, ३८०,३८३, ३८५ महापउमरुक्ख ३७४, ३८०, ३८६ महिसाणीय १०४ महापम्ह विजय २०८, ३६५ महिंद (मुहूर्त नाम) ७२५ महापायाल (कलश) ३४२, ३४३, ३०४ महिंदज्झय १६२, १६३, १६४, १६७, १८५, १८६, २४८, महापुण्डरीअकूड २७५ २४६,४०२ Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ मही (नदी) ३२४ ममेर (म) ३३१ महुरा (नगरी) १९६ महेसर ( भूयवाइय व्यंतरदेवों का इन्द्र) ४२५ महोरग १३६, ४१६, ४२३ मंगलाबाई (ती) कूड २०१ मंगलवई (ती) विजय २०७, २६५, २६६, २०७, ३६५ मंगलाबत्त कूड २७७ मंगलावत्त देव २०५ मंगलावत्तविजय २०५, ३०३ विशिष्ट शब्द सूची मंगुलियाण १६७ मंचजोय ४७६ मंचाइमंजोय ४७६ मंजूसा ( राहाणी) २०६. १६६ मंडल ५७३, ६२१ मंडल (ज्योतिष्कों के ) ४५८ मंडल (चन्द्र-सूर्य का ) ५६० ५६० २६९, ५००, ५७१, २७२ मण्डल ( सूर्य का ) ४९६, ५०६, ५०८, ५१२, ५१३, ५१७ ५१८, ५१६, ५२०, ५२१, ५२२, ५२३, ५२४, ५२५, ५२६, ५२७, ५२८, ५२६, ५३०, ५३१, ५३२, ५३३, ५३४,५३२, ५३६ २३७, १३० १४० १४१, ५४२, ५४३, ५४४, ५४५, ५४६, ५४७, ५४८, ५४६, ५५०, ५५२, ५५३ ५५४, ५५५, ५५६, ५५७, ५५८, ५५६ मंडलचार (सूर्य चन्द्र का) ५६६ मंडलचार (ज्योतिषी देवों का ४६१४६२, ४६३, ४६४ मंडल संक्रमण (ज्योतिष्कों के) ४५८ मंडलसंठ (सूर्यचन्द्र ज्योतिष्केन्द्र की ) ५६२ मंडल संठिई (सूर्य की ) ५५२, ५५३, ५५४ मंडव्यसमीत ५९२ मंत जो ४०६ मंति ३ गणितानुयोग ८२७ मंदर पव्वय ११, ६०, ७८, ८२, ८४, ८५, ८६, ६४, ६६, ६६, १२२, १३६, १४१, १७६, १६, १०, १६१, १९२, १६३, १६४, १६५, २०६, २१३, २१४, २१५, २१६, २२३, २२४, २३३, २३४, २३५, २३६, २३५, २३६, २४०, २४१, २४६, २५०, २५१, २५५, २६०, २६१, २६२, २६३, २६६, २६७, २६८, २७३, २७४, २७५, २७८, २७६, २८०, २८५, २६६, २८८ २६०, २६१, २२, २३, २४, २६५, २६६, ३०४, ३१०, ३१४, ३१६, २१७, २१५, ३१९, ३२०, ३२१, ३२२, ३२३, ३२४, ३२७, ३२८, ३२, ३३६, ३३७, ३३६, ३४६, ३४७, ३४८, ३४६, ३५१, ३५४, ३५७, ३५८, ३६२, ३६३, ३६४, ३७६, ३७७, ३७८, ३७६, ३८०, ३८१, ३८२, ३८३, ३८४, ३८५, ३८६, ३८७, ३८८, ३८६ ४२२, ४४१, ४७०, ४७१, ४६५, ४८६,४६८, ४८६, ४६०, ४६१, ४६२, ४६८, ४६६, ५००, ५०६, ५०७, ५३०, ५३१, ६३३, ६५६, ६६०, ६८७, ६८८,७३१, ७३२, ७३८ मंदरवासह पव्वय २२५ मंदाय (देय मान) १७८ मागह (तित्थ ) १७६, ३२८, ३२९ माधव (सातवीं नरक) ३५ माघवई (कृष्णराजि) ६७४ माडंबिय ३ माणवर्ग (क) (य) चेइयखंभ १६४, १६५, १७२, १८६, २४६, ४५५ माणस १०५ मणि (णी) भद्द कूड २८२, २८६, २८७ माणिभद्द चेइय १२१ मणिमह देव ४०० माणिभद्र (यक्ष देवों का इ) ४२३ माणुम्माणपमाण ७५५ माणूस (मस्त) ३०८४६१ माणुसोत्तर पव्वय ३७४, ३७५, ३७८, ७३५, ७३८ माज (ल) वक्यार पवय २०७, २६१,३६२. ३०२ माया (प्रकृति) १७ मार (यम) १७ मंदरकूड २६६, २७०, २८७, २८८, २६१ मंदर (प) पुलिया ११,२३४, २४०, २४२, २४३, १६२ मा १०, ६२ ३६४, ३७७, ३८६ मालवंत कूड २७६ मंदर ( दीव-समुद्द) ४१८ मालवंतदह ३१०, ३११, ३१४, ३२७ मालवंत देव २६४ मंदरदेव २३६ मालवंत ( पर्वत ) १७५, २८२ मालवंतपरियाय वक्खार पव्वय ३८२ मालवन्तपरियाय वट्टि वेयड्ढ पव्वय २५७, ३५३, ३८१, ३८२ मालवंत वक्खार पव्वय २०२, २०३, २१५, २१६, २३८, २५४, Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२८ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट:५ २६१, २६३, २६४, २६६, २६७, २७६, २८०, ३०२, मुसल ७४ ३२७, ३६३, ३७७ मुसंढि ७४ मालंकारो हत्थिराया १०४ मुहमंडव १६०, १६७, १६६, १८४, १८५, १८६, २४८, ४०२ माव (माप) ७५४-७६० मुहुत्त ६६२, ६६३, ६६४, ६६५, ६९७, ६६६, ७०७, ७१४, मह(ह)(महीना) ६६५, ६६७, ६६६,७०७,७१८,७२२,७२५, ७१८, ७१६, ७२०,७२१, ७२३, ७२४, ७२५, ७३१ ७३१ मुहुत्तगइ ५४०-५४७ मासरासिवण्णाभ ३७२ मुहुत्तगति (चन्द्र की) ४७४, ४७५, ४७६ माह (णक्खत्त संवच्छर) ७२१ मुहुफल्ल(संठाण) ५६८ माहण ४१६ मूल (नक्षत्र) ५६०, ५६२, ५६५, ५६८, ६०२, ६०६, ६०७, माहण समण (अन्यतीथिक ब्राह्मण तथा साधु) १७ ६०८, ६०६, ६१४, ६१६, ६२०, ६२१, ६२३, ६२५, माहिंद (इन्द्र) ६८६ ६२६, ६२८, ६३१, ६३२, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, माहिंद (कप्प-कल्प) ६५७, ६६२, ६६३, ६७१, ६७२, ६७६, ६४१, ६४२, ६४६, ६५१, ६५३ ६७६, ६८१,६८२,६८४,६८६, ६८६ मूलपासायडिंसय(ग) १५७ माहिंद देव ६६२ मूसल ७०१, ७५५, ७५८ माहिंद वडेंसय ६६२ मेरु (पव्वय) २३६, ४५८, ४६८, ४६६ माहेन्द ६६२ मेरुयाल वण (वन) ३३० मिअगंधा २१४, २२६ मेहमालिणी १०६ मिअसिर (संठाणा)(नक्षत्र) ५६०, ५९२, ५६४, ५६७, ६०१, मेहमुहदीव १६४ ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६११, ६१६, ६२०, ६२३, मेहराइ (कृष्णराजि) ६७४ ६२४, ६२६, ६२८, ६२६, ६३०, ६३६, ६३७, ६३८, मेहवई १०६ ६३६, ६४१, ६४२, ६४६, ६५०, ६५३ मेहवई देवी २८८ मिगसीसावलि(संठाण) ५९७ मेहा (चमरेन्द्र की अग्रमहिषी) ६. मितगा ६४ मेहंकरा देवी २८८ मित्त (मुहूर्त नाम) ७२५ मेहंकरा १०६ मित्तदेवया ५६५ मेंढमुहदीव १९४ मिस्सकेसी १११ मोक्ख १६ मिहिला(नगरी) १२१, १६६ मोग्गलणायस गोत्त ५६१ मुइंगाकारसंठाण १३ मोहणिज्ज पावकम्म १४ मुख(माप) ७५५ रक्खस (मुहूर्त नाम) ७२६ मुद्दिया (अंगूठी) १८१ रक्खस (राक्षस-व्यंतर देव) ४२३ मुद्दियासार (मद्य) ३३१ रज्जू ७४८ मुत्तालय (सिद्धशिला) ६८४, ६६० रत्तकंबलसिला २४१, २४३, ३६४ मुत्तावलिहार(संठाण) ३१८, ३१६, ३२०, ३२१, ३२२ रत्तप्पवायकुण्ड २६६ मुत्तावलि(हार) १८१ रत्तप्पवायदह २६६, ३८६ मुत्ती (सिद्धशिला का नाम) ६८४, ६६० रत्तवई कुण्ड २७६, ३०२ मुयंग १७७ रत्तवईदीव ३०० मुयंग संठाण ७२ रत्तवई(ती)नदी १७५, ३५३, ३८७ मुरव १७७ रत्तवई पवाय (प्रपात) ३१६ मुरवसंठाण २१, ७२ रत्तवइप्पवाय कुण्ड २६६ मुरवि (आभूषण) १८१ रत्तवई महाणई ३६७ Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट:५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८२६ रत्तसिला २४१, २४३ रयणी (रत्नी) (हाथ-२४ अंगुल का प्रमाण) ७०१, ७५४, रत्ताकुण्ड ३०२ ७५५, ७५८, ७५९ रत्ताकूड २७६ रयणी (चमरेन्द्र की अग्रमहिषी) ६० रत्तादीव ३०. रयणुच्चय कूड २६२, ३७५ रत्ता(नदी) १७५, ३५३, ३८७ रयणुच्चय पव्वय ४६६ रत्ता पवाय (प्रपात) ३१६ रयणुच्चया रायहाणो ४०८ रत्ता महाणई ३१४, ३१५, ३१६, ३२४, ३२५, ३६७ रयणोच्चय २३६ रत्तावईप्पवायद्दह २६६, ३८६ रयत(कंड) ४४ रतिकर पव्वय ४०७,४०८ रययकूड २७६, २८०, २८८, २८६, २९१ रतिप्पभा (किन्नरेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ रसपज्जव १६, ४०, ५७, ७३, १२५, १२८, ३४२ रतिसेणा (किन्नरेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ रहरेणु ७०१, ७५६, ७५७, ७५८ रत्तिपमाणकाल ६६२ रहचक्कवालसंठाण ७१, १२३, १२४, ५०६ रती १०५ रहाणीय १०४ रम्मकूड २७५ रंभा (बलीन्द्र की अग्रमहिषी) ६० रम्मविजय २०७, ३६५ राइतिही ७२८ रम्मगकूड २७५ राइ(ति)दिय ७३४ रम्मग(य)देव २१३ राइसर ३ रम्मग(य)वास १७५, १६१, १६२, १६३, २०१, २१२, २१३, राई (चमरेन्द्र की अग्रमहिषी) ६० २३०, २३१, २५६, २६८, ३१६, ३२२, ३५३, ३७६, राजरुक्ख (वृक्ष) ३३० ३७६, ३८१, ३८६, ३८७, ७०१, ७३३, ७५८ रामरक्खिया (ईशानेन्द्र की अग्रमहिषी) ४०७ रम्मग विजय २०७, ३६५ रामा (ईशानेन्द्र की अनमहिषी) ४०७ रमणिज्ज विजय २०७, ३६५ रायगिह (नगरी) १६६ रयणकरंडग १५०, १६६, १७४ रायपसेणिय (सूत्र) ६८, २४६ रयण कूड २६२, ३७५ रायरुक्ख (वृक्ष) १६२ रयणकंड ४३, ४४, ४६ रासी ७४८ रयण (दीव-समुद्द) ४१८ राहू (ज्योतिषी देव) ४३०, ५८६, ५८७, ५८८, ५८६ रयणप्पभा (हा)पुढवि(वी) १२, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, राहु(स्स)णव णाम ५८६ ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५०, राहु विमाण ४६६, ५८७ ५१, ५२, ५५, ५६, ५६, ६०, ६६, ७०, ७१, ७२, ७३, राहुसरूव ५८७ ७४, ७७, ७६, ८२, ८३, ८४, ८५, ८६, ८७, ६५, ६७. रिट्ठ (कूड) २६१ ११२, १२२, ४१६, ४२०, ४२१, ४२४, ४२६, ४३०, रिट्ठ (कंड) ४४, ४५, ४६ ४४४, ५१४, ५१५, ५४०, ६५७, ६५६, ६६०, ६८७, रिट्ठ ६३, १०४, ६७० ६८८,६८६ रिट्ठपुरा (रायहाणी) २०६, ३६६ रयणप्पभा (भीम राक्षसेन्द्र की अग्रमहिषी) ३२५ रिट विमाण पत्थड ६७१, ६७६ रयणवडेंसय ६६१, ६६६, ६८८ रिट्ठा (रायहाणी) २०६, ३६६ रयणसंचय कूड २६२, ३७५ रिट्ठाभ (मद्य) ३३१ रयणसंचया रायहाणी २०७, ३६६, ४०८ रिट्ठाभ (लोकान्तिक देव विमान) ६५७, ६७०, ६७२ रयणा रायहाणी ४०८ रिसह (मुहूर्त नाम) ७२६ रयणावलि (हार) १८१ रुअगकूड २७४, २६१ रयणिखेत्त 6९६, ४६७ रुअग संठाण २२६, २२८, २३०, २५२ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट :५ रुअगिद उप्पाय पब्वय १०७ रुयगोदण्ण समुद ४१४ रुद्ददेवया ५६४ रुहिरविन्दु (संठाण) ५६७ रुद्ददेस १०४ रूए ६८३ रुप्पकूलप्पवायकुण्ड २६७ रूपकता ६० रुप्पकूलप्पवायदह २६८, ३८६ रूपप्पभा ६० रुप्पकूला कूड २७५ रूपवई ६० रुप्पकूलादीव ३०१ ख्य ६२, ६३ रुप्पकूला (नदी) १७५, ३५३, ३८७ रूयकत ६२, ६३ रुप्पकूला महाणई २५७, ३१४, ३१५, ३१६, ३२०, ३२४,३२६ रूयगाबई ११२ रुप्पकूलामहाणई पवाय ३२० क्यप्पभ ६२,६३ रुप्पिकूड २७५, ३८४ रूयंस ६२,६३ रुप्पि (पव्वय) ३०४, ३१५, ३५३ रूयंसा ६० रुप्पि (वासधर पध्वय) १७५, २१०, २११, २१३, २२५, २३१, रूया ६०, ११२ २३२, २७५, ३८०, ३८१, ३८४, ३८५ रूवसंघाडा १२७ रुप्पी देव २३२ रूवप्पभा (भूतानन्द नागकुमारेन्द्र की अग्रमहिषी) ६० रुयग(य)(प्रदेश) १२२ रूववई (सुरूव भूतेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ रुयगकूड ३८४ रूवा (भूतानन्द नागकुमारेन्द्र की अग्रमहिषी) ६० रुयय(ग)(दीव समुद्द) ४१८ रूवि(वी) अजीव २३, २४, २५, २६, ५८, ६५६, ६५७, रुयगनाभि २३६ ७४२ रुयगप्पभ कूड २७४ रेवई (रेवती-नक्षत्र) ५७८, ५६० ५६१, ५६४, ५६७, ६०१, रुय(च)गवर दीव ४१३, ४१४ ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६११, ६१८, ६२०, ६२३, रुयगवर देव ४१४ ६२४, ६२६, ६२७, ६२६, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, स्यगवर पव्यय २६१, २६२ ६४०, ६४२, ६४४, ६४५, ६५१ रुयगवरभद्द देव ४१४ रोअणगिरिकूड २६०, २६१ रुयगवरमहाभद्द देव ४१४ रोअणगिरि देव २६१ रुयगवरमहावर देव ४१४ रोइदावसाण (गेय-गान) १७८ रुयगवरावभास दीव ४१४ रोद (मुहूर्त का नाम) ७२५ रुयगवरावभासभद्द देव ४१४ रोर ६२ रुयगवरावभासमहाभद्द देव ४१४ रोरुय ६२, ६४, ६७ रुयगवरावभासमहावर देव ४१४ रोहा अणगार ७४५, ७४६ रुयगवरावभासवर देव ४१४ रोहिअदीव ३०० रुयगवरावभास समुदद ४१४ रोहिअदेवी भवण ३०० रुयगवरोद समुद्द ४१४ रोहिअप्पवायकुण्ड २६६, ३०० रुयगसंठाण २२ रोहिअंसदीव ३०० रुयग्गप्पवहा २१, २२ रोहिअंसदीवकुण्ड ३०० रुयगाइदीव समुद ४४० रोहिअंसप्पवायकुण्ड २६७, ३२५ रुयगादीया २१, २२ रोहिअंसा कुण्ड ३०३ रुयगिंद (उप्पाय पव्वय) ६९ रोहिअंसकूड २७१ रुयगुत्तम कूड २६१ रोहिअंसा महाणई २५५, २६७ रुयगोद समुद्द ४१४ रोहिआ (नदी) ३५३ Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८३१ : रोहिआ(या)महाणई २५५, २६६, ३१४, ३१५, ३१६, ३१६, लंतगदेव ६६३ ३२०, ३२२, ३२४, ३२५, ३२६ लंतग देवेन्द ६६४ रोहिणी (किंपुरुषेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ लंतग वडेंसय ६६४ रोहिणी (शक्रन्द्र की अग्रमहिषी) ४०८ लंतय (इन्द्र) ६८६ रोहिणी (नक्षत्र) ५६०, ५६२, ५६४, ५६७, ६०१,६०६, ६०७, लंबूसग १२७, १४८ ६०८, ६०६, ६११, ६१६, ६२१, ६२३, ६२४, ६२६, लास (लासा नृत्य) १७८ ६२८, ६२६, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, ६४१, ६४२, लिक्खा ७०१, ७५६, ७५८ ६४५, ६४६, ६५० लुक्खत्त १५ रोहितं(अ)सा महाणई ३१४, ३१५, ३१६, ३१६, ३२०, ३२४, लेणजंभग (देव) ४२७ ३२५, ३५३, ३८६, ३८७ लेप्पकम्म १० रोहिता(या)महानदी ३८६, ३८७ लेस्सा (लेश्या) ७४६ रोहिप्पवायकुण्ड ३२५ लेस्सा (सूर्य का प्रकाश) ५११, ५१२, ५१३ । रोहिय कूड २७४ लेस्सापडिघाय (सूर्य की) ५१० रोहियप्पवायदह २६८, ३८५, ३८६ लेस्सा (सूरियस्स) पडिघायग पन्वय ४६६ रोहिय (वास-खेत्त) १७५ लोइय गणिय (लौकिक गणित) ७४८ रोहियंस (वास-खेत्त) १७५ लोइय णाम (महीनों के) ७२२ रोहियंसप्पवायदह २६८, ३८५, ३८६ लोउत्तरिय णाम (महीनों के) ७२२ रोहिया महाणई पवाय (प्रपात) ३१६ लोकालोक ७४१-७४६ लक्खण ७५५ लोग (क)(य) १४, १५, ७४२, ७४३, ७४४, ७४५ लक्खण संवच्छर ७१३, ७२२ लोगट्ठिई(ती) १३, ३५४ लच्छिमई ११० लोगतमिस्स (तमस्काय का नाम) ६७७ लच्छी कूड २७६ लोगनिक्खुड ११५ . लच्छी (देवी) ३०४, ३८४, ३८५ लोगनाभि पव्वय ४६६ लट्ठदन्तदीव १९५ लोगनाह १ लट्ठदंत (मनुष्य) १६५ लोगपाल ६८७,६८८, ६८६ लया १२७ लोगपईव १ लव ६६७, ६६६,७०७,७०८, ७१३, ७३१ लोगपज्जोयग १ लवणसमुद्द १२२, १४१, १८६, १६०, १६४, १६५, १९६, लोग-पमाण ११ १९७, १८, १९, २००, २०६, २१०, २११, २१३, लोगपाल ७६, ८०, ८३, ८४, ६२, १०३, १०६, १०७ २२३, २२६, २२७, २२८, २२६, २३०, २३१, २३२, लोगभेय: २५२, २७१, २८३, ३१५, ३१६, ३२३, ३२४, ३२५, लोएमज्झावसाणिय (अभिनय) १७८ ३२६, ३२६, ३३६, ३३७, ३३८, ३३६-३६०, ३६१, लोगमलोग (माप) ७५४ ३६७, ३८६, ४०६, ४१६, ४१७, ४१८, ४३४, ४५८, लोगविपस्सी ८ ४५६, ४६५, ४६८, ४७६, ४८४, ४८५, ५०७, ५१८, लोगविसए अन्नतित्थियाणं पवाद १७ ५३७,५३८, ५७६, ५८०, ६३२ लोगसरूव(स्स) णायारो उवदेसग ८ लवणसिहा ३४५ लोगसंठाण १३ लवय (वृक्ष) १६२, ३३० लोग(स्स) वक्कभाग १२ लहुय ५८ लोग(स्स) समभाग १२ लंतग (कप्प-देवलोक) ६५७, ६६३, ६६४, ६७१, ६७२, लोग (स्स) संखित्तभाग १२ ६८१, ६८२, ६८४, ६८६ लोग(य)न्त १५, ४४२, ६७१, ७४१, ७४५, ७४६ Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३२ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट :५ लोगंतागमणाय १५ लोगंतिय देव ६७० लोगंतिय देव विमाण ६७०, ६७१ लोगंधकार (तमस्काय का नाम) ६७६ लोगंधयार निमित्त १८ लोगा ७६० लोगाइउवएस ७ लोगागास ७४१, ७४२, ७५० लोगागासछिद्द ११५ लोगागासपएसे जीवाजीवा तद्देसपदेसा २५ लोगाणुभाव ७४१ लोगुज्जोय निमित्त १८ लोगुत्तम १ लोग चत्तारि समाणाणि १७ लोगे फुसणा १९ लोग (नाप) ७६० लोड (वृक्ष) १६२ लोमहत्थग(य) १८३, १८४, १८५, १८६, १८७ लोमहत्थ चंगेरि १६६, १७४ लोमहत्थपडल(ग) १५०, १७४ लोय (लोक) ६, ७३४, ७३५ लोयग्ग (सिद्धशिला का नाम) ६८४, ६६. लोयग्गपडिबुज्झणा (सिद्धशिला का नाम) ६८४, ६९० लोयागास सेढी ७५०,७५१, ७५२, ७५३, ७५४ लोयग्गाथूभिया (सिद्धशिला का नाम) ६८४, ६६० लोय(ग)ट्ठिई(ती)(दसविहा) १४, १५ लोयतंतर ५६, ५७ लोयपण्णत्ति १, १२१ लोयमज्झ पन्वय ४६६ लोयंत ७४८ लोयागास (फुसणा) ४१ लोयालोय सेढी ७५०, ७५१, ७५२, ७५३ लोल ६० लोलुय ६० लोहिच्चायणस गोत्त ५९२ लोहितक्ख (कण्ड) ४४ लोहिततणमणि (वण्ण) १३२ लोहिय ६८० लोहियक्ख १०४ लोहियक्खकूड २७८, २७६ वइ पोग्गल परियट्ट ७१३ वइर ७५ वइरकंड ४३, ४४, ४६ वइरकूड २८८,२८६ वइरवेदिया १४१ वइरसेणा देवी २८९ वइरोयण (लोकांतिक विमान) ६७० वइरोयण राया ८३ वइरोयणिद ८३, ६४ वइसाह (णक्खत्त संवच्छर) ७२१ वक्खार ११२ वक्खारकूड २६६, २७६ । वक्खार (द्वीप समुद्र) ४१८ वक्खार पव्वय १७६, २२४, २२५, २५४, २६१, २६२, २६३, ३६३, ३७७ वग्ग ७४८ वग्गवग्ग ७४८ वग्गु विजय २०६, ३६६ वग्गू (लोकपाल का विमान) ६८७, ६८८ वग्घमुहदीव १६४ वग्यावच्चस गोत्त ५६३ वच्छ विजय २०६, २२३, २४२, २६३, २८७, ३६५ वच्छगावती विजय ३६५ वच्छमित्ता (दिक्ककुमारी) देवी २८१ वच्छमित्ता देवी २८९ वच्छावई विजय २०७ बट्ट(1)संठाण ७२,७७,७६,८३,८४,८६,८७, १५३, ४२०, . ४२१, ४२२, ६८०, ६८१ वट्टक १७४ बट्टवलयागार संठाण २३६, २४०, ३३६, ३६१, ३७०, ३७२, ३७५, ३६१, ३६२, ३९४, ३६६, ३६७, ३६८, ३९६, ४००, ४०६, ४१०, ४११, ४१४, ४१५, ४१६ बट्टवेयड्ढ (पव्वय) १७५, २२४, २२५, २५५, ३२५, ३२६, ३८१ वट्टसमचउरंस सं ठाण ६३२ वड (वृक्ष) ४२३ वड्ढोऽवड्ढी (चन्द्रमा की) ४६७ वडिसय कूड २६०, २६१ वडेंस देव २६१ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ८३३ ६८७ वडेंस (पव्वय) २३६ वरुण ६२, ६३, ६४, १०६ वडे (डि)सग(य) १२८, ६५६, ६६१, ६६३, ६६४, ६६५, ६६६, वरुण (देव) ३६२ वरुण देवया ५६४ वडेंसा (किन्नरेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ वरुण (मुहूर्त नाम) ७२५ वणमाला ४०२ वरुण (लोकपाल) ६८७, ६८८ षणमाला परिवाडी १४६ वरुण (लोकांतिक देव) ६७० वणविरोही (मास) ७२२ वरुणप्पभ देव ३६२ वणसंड ३, ६५, ६६, ६७, १२६-१४०, १५५, १५६, १५७, वरुणवरदीव ३६०, ३६१-३६२, ४०६ १६३, २१६, २२१, २२३, २२४, २२६, २३०, २३४, वरुणवराइ दीव समुद्द ४४० २३८, २३६, २४०, २४२, २४५, २४७, २५३, २५५, वरुणोद समुद्द ३६२, ४०६, ४१७ २६४, २६८, २७२, २८३, २६५, २६६, ३००, ३०१, वलभि (संठाण) ३३६, ५६४ ३०२, ३०५, ३११, ३१२, ३१८, ३२०, ३२१, ३२३, वलय ४८, ४६ ३२६, ३३०, ३४०, ३४१, ३४६, ३४८, ३५७, ३६१, वलयागार संठाण ५० ३७०, ३७३, ३७५, ३६१, ३६२, ३६४, ३६५, ३६६, वलयामुह (महापाताल कलश) ३४२ ३६७, ३९८, ३६६, ४००, ४०१, ४०३, ४०४, ४०६, ववसायसभा ६६, १८२, १८७, २४६ ४१०, ४११, ४१६, ४७६, ५८०, ५८१ ववहार(रो) १६, ७४८ वणस्सइकाइय ७४, ११६, १२६, ६७१, ६७५ ववहारजोग्ग ५६१ वणस्सइकाय (वणप्फइकाय) १६, ६७४ ववहार (नय) २६, ३०, ३१, ३२, ३७ वणिज्ज (करण) ७२६, ७३. ववहारिय परमाणु ७५६, ७५७ वणीमग (भिखारी) १६५ वसभाणुजोय ४७६ वण्णपज्जव १६, ४०, ५७, ७३, ८७, ८६, १२५, १२८, ३४२, वसंत (ऋतु) ७३१ ३४३, ४२६, ७३७ वसंत (मास) ७२२ वण्ही (लोकांतिक देव) ६७० वसिट्ठ ६२ वत्थजंभग (देव) ४२७ वसिट्ठ कूड २८१ वत्थ (द्वीप समुद्र) ४१८ वसु (ईशानेन्द्र की अग्रमहिषी) ४०८ वत्थि १४ वसुगुत्ता (ईशानेन्द्र की अग्रमहिषी) ४०८ वत्थि उदाहरण १३ वसुदेवया ५६४ वद्धमाण १३८, १६१ वसुन्धरा ६३, ११०, 6०८ वद्धमाण (संठाण) ५६८ वसुमई (भीम राक्षसेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ वप्प (वृक्ष) १०० वसुमित्ता (ईशानेन्द्र की अग्रमहिषी) ४०८ वप्प विजय २०८, २८७, ३६६ वंजण ७५५ वप्पगावई विजय ३६६ वंजुल (वृक्ष) १०० बप्पावई विजय २०६ वज्झियायणस ५६२ वरदाम (तित्थ) १७५, १७६, ३२८, ३२६ वंसकवेल्लुया १२७ वरवइरविग्गह (वज्राकार) ७३४ वंसा (दूसरा नरक) ३५ वरसिट्ठ (शक के लोकपाल का विमान) ६८७ बाउकाइय ११५, १२६ वरसीधु (आसव) ३३१ वाउकाय १६ बराडय १० वाउकुमार ८८, १०८ बरिसारत (वर्षा ऋतु) ७३१ वाउदेवया ५६५ बरुण दीव ४१८ वाउपइट्ठिय ६७१ Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट : ५ वाणमंतर (देव) ५, १०८, १४०, १५५, १६५, १७६, १८०, वासिट्ठस गोत्त ५६२ १८२, १८३, २२७, २४२, २५३, २८३, ३३०, ३५६, वासुदेव ३५२, ३५३ ४०५, ४२०-४२० बिउव्विय (वैक्रिय) ८ वात ७४६ विक्खंभ ४४५, ४४६, ४७१, ४७२, ४७३, ४७६, ५०६, ५०७, वात(य)करग १५०, १६६ ५२३, ५२४, ५२५, ५२६, ५२७, ५२८, ५२६, ५३०, वातपइट्ठिय उदही १३ ५४३, ५४८, ५५२, ५५४, ५६७. ६३३, ६७३, ६७६, वातपलिक्खोभ (कृष्णराजि) ६७४ ६८३, ६८७, ७०२, ७०४, ७०५, ७०६ वातफलिह (कृष्णराजि) ६७४ विगयसोगा रायहाणी ३६६ वाबाह २६, २७ विग्गहकंडय १२ वामेयकुण्डलधरा ७८, ७६ विग्गहगति ४३, ६७४, ६७८ वायव्वा (वायव्य दिशा) २१, २४ विग्गहविग्गह १२ वायु (मुहूर्त नाम) ७२५ बिचित्त ६२ वायुकुमारिंद ८९ विचित्तकूड २२४, २२५, ३१० वार ६२ विचित्तकूड पव्वय २४४, ३२७ वारिसेण १६१ विचित्तजमग (पव्वय) ४२८ वारिसेणा १०६ विचित्तपक्ख ६२ वारिसेणा (दिक्ककुमारी) देवी २८२ विचित्ता १०६ वारुणकंत देव ३६३ विच्छ्यलंगोल (संठाण) ५६८ वारुणि देव ३६३ विजय अणुत्तरा महइमहालया विमाण (अनुत्तर महाविमान) ६६९, वारुणिवरउदग ३६१ ६८७, ६८६ वारुणी २१, २४, १११ विजय (स्थान का नाम) ११२ बालग्ग ७०१, ७०२, ७०४, ७०५, ७०६, ७०७ विजयकूड २६२ वालग्गपोतियासंठाण ५६५ विजयदार १४०-१८६, २३७, ३२७, ३५५, ३५६, ३६६, ३७०, वालुयप्पभा (पुढवी) ३४, ३६, ४२, ४६, ५४, ५६, ५६, ६१, ३७३, ३८६ ११२ विजय (द्वीप-समुद्र) ४१८ वावहारिय अद्धा पलिओवम ७०५, ७०६ विजयदूस १४७, १५२, २४२ वावहारिय अद्धा सागरोबम ७०६ विजय (देव) ६५, १५२, १५३, १५६, १६५, १६६, १७०, वावहारिय उद्धार पलिओवम ७०४ १७१, १७२, १७३, १७६, १७७, १८०, १८१, १८२, वावहारिय उद्धार सागरोवम ७०४ १८६, १८७, १८८, १८६, २६०, २८५, ३५६ वास (खेत) ५८, ११२, १६१, ३७८, ३८८, ७३५, ७३६ विजयपहाग (पताका) ९७२ वास (वर्षा ऋतु) ६२८, ६२६ विजयपुरा रायहाणी २०८, ३६६ वाससय (सौ वर्ष) ६९७, ६६६, ७०७, ७३२ विजय (मास) ७२८ वाससहस्स (हजार वर्ष) ६६७, ६६६, ७००, ७०७, ७३२ विजय (मुहूर्त नाम) ७२५ वाससयसहस्स (लाख वर्ष) ६६७, ७००, ७०७, ७३२ विजयंत देव ३५६ वाससहस्साउयदारग ११ विजया ११० वासहर कूड २६६, २७१ विजया (ग्रह ज्योतिषी देवों की अग्रमहिषी) ४५५ बासहर (द्वीप समुद्र) ४१८ विजया पुक्खरिणी ४०४ वासहरपब्वय ११२, ३१४, ३१५, ३६२, ३८०, ३८८, ७३५ ।। विजया रायहाणी १५३, १५४, १५५, १५६, १७१, १७२, १७४, वासा (वर्षा-बरसात) ७३१ १७६, १७७, १७८, १८०, १८१, १८७, २०८, २७३, वासिकछत्तसमाण १२८ २८६, ३६६, ४०२ वासिक्कि आउट्टिय ५७८ विजया (रात्रि नाम) ७२७ Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग ३५ विज्जाहर (विद्याधर) ३५२, ३५३, ३७५ विमाण ११२, ११३, ११५, ११६, ६८५, ६८६ विज्जाहर णगर २५४ विमाणछिद्द ११५ विज्जाहर सेढी २५४ . विमाणणिक्खुड ११५ विज्जुकुमार (देव) ८८. विमाणपत्थड ११२, ११३, ११५, ११६, ६६८, ६८४ विज्जुकुमार महत्तरिया ६०, ६१ विमाण पुढवि ६७६, ६८०, ६८१ विज्जुकुमारिंद ८६ विमाणवलिया ११२, ११३, ११५, ११६ विज्जुजंभग (देव) ४२७ विमाणवाहगदेव ४४७-४५२ विज्जूता ६४ विमाण संठाण ४३१ विज्जुदंत दीव १६४ वियडावइ (पव्वय) १७५ ...... विज्जुप्पभ कूड २८१ वियडावई वट्टवेयड्ढ पव्वय २५६, ३५३, ३८१... . विज्जुप्पभदह ३१०, ३२७ वियावत्त ६३ विज्जुप्पभ देव २६७ विरय (विमाण पत्थड) ६८३, ६८५ विज्जुप्प(भ)ह वक्खार पव्वय २१३, २१४, २३८, २६१, २६३, विसम अहोरत्त ५५२ २६७, २८१, ३२८, ३६३,३७७, ३८२ विसमचउक्कोण संठाण ५६२, ५६४ विज्जुप्पभा रायहाणी ३५० विसमचक्कवाल (संठाण) ३४०, ३६१, ३७०, ३७२, ४१०, विज्जुमुहदीव १६४ ४११, ४१५, ५६२, ५६४. विज्जुय ६७३, ६७६ विसमचउरंस संठाण ५६२, ५६३ विज्जयार (आतिशबाजी) १८० विसरीरा ७४ विज्जू (विद्युतकुमार देव) ७५, ८७ विसाल (कंदिय व्यंतरदेवों का इन्द्र) ४२५ विज्जू (चमरेन्द्र की अग्रमहिषी) ६० विसाल (वृक्ष) २२० विट्ठी (करण) ७२६, ७३० विसाला पुक्खरिणी ४०४ विट्ठन्तिय (अभिनय) १७८ विसाहा (विशाखा नक्षत्र) ५७८, ५६०, ५६२, ५६५, ५६८, विणीआ (विनीता--नगरी) १९६, २०४ ६०२, ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१३, ६१६, ६२१, विण्हु देवया ५९४ ६२३, ६२५, ६२६, ६२७, ६३१, ६३६. ६३७, ६३८, वितत १७८ ६३६, ६४१, ६४२, ६४६, ६५१ . वितत्था नदी ३२४ विसिटु (दीवकुमारिंद) ८६ वित्थर ३८, ३६ विसिट संठाण १४० वित्थिण्ण १२ विसुद्ध (विमाण पत्थड) ६८३, ६८५ वितिमिर (विमाण पत्थड) ६८३, ६८५ विसेसगइ ४६० विदिसा हत्थिकूड २६१ विस्सदेवया ५६६ विदेह जंबू (वृक्ष) २२० विहत्थी (वितस्ति) ७०१, ७५४, ७५५, ७५८, ७५६ विधाय (पणपण्णिक व्यंतर देवों का इन्द्र) ४२५ वीतसोग देव ४१० विभागनिप्पण्ण ६६५, ७५४,७६० वीयसोगा रायहाणी २०८ विभासा नदी ३२४ वीससेण (मुहूर्त नाम) ७२५ विमलकूड २८१ वुट्ठी (बरसात) ३६० विमलदेव ३६५ वेअ(य)ड्ढ कूड २८२, २८६, २८७ विमलप्पभ देव ३६५ वे (अ)यड्ढ पव्वय १६५, १९६, १६७, १६८, २०२, २०३, २०४, विमलवर (पारियानिक विमान) ६८६ २६६, २८२, २८५, २८६, २८७, २६४. ३२४, ३२५ विमला (ऊर्ध्व दिशा) २१, २२, २४, ५५, ६४ वेइया ११२, ३८७, ६८० विमला (गन्धर्वेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२६ वेउव्विय पोग्गल परियट्ट ७१३ Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३६ वेव्वियसमुग्धाय १७३ वेव्वियसरीरा १०७, १०८ बेजयन्त (अत्तर महामहालय विभाग) ६६ जयन्त (अनुतर विमान ) ६८१ वेजयन्त कूड २१२ वेजयंत (द्वार) १४१, १८६, २३७, ३५५, ३५६, ३६६, ३७०, ३७१, ३७३, वेजयन्ती ११० जयन्ती ग्रह ज्योतिषी देवों की अग्रमहिषी) ४५५ वेजयन्ती पोक्खरिणी ४०४ वेजयन्ती ( रायहाणी ) १८६, २०८, ३६६ जयन्ती ( रात्रि नाम) ७२७ वेढिम १० बेडिम ( माला- हार) १०१ वेणुदाली ८६, ८६, २ देव (कुमार) 2 वेला (स्थान का नाम) ११२ विशिष्ट शब्द सूचो वेसमणकूड वक्खार पव्वय २०७, २६१, ३६३, ३८२ मण (मुहूर्त नाम) ७२५ वेसाणिय दीव १६४, ३३७ साणियमस्स १२४, ३३७ बेसालिय (नगरी) १५ बेसाह (मास) ७२२ वोदिचिय ७४१ १२, २१४, २१५ जो ४०६ मणिय (वैमानिक देव) २२४२, २४३,४०५, ६५७, ६५८, सलिमा १२२ सअन्त १६ सअन्ते १५ उपीपली (ठाण) ५९७ सओअवणा १६६ सक्क (शक ेन्द्र) ६०, २४०, २४१, २५४, ४०७, ४०८, ६६०, ६६१, ६६२, ६७७, ६८३, ६६४, ६८५, ६५६, ६८७, ६८८, ६८६ दि १८ सई (द्र की अग्रमहिषी) ४०७ उणी (करण) ७२६,७३० सक्कप्पभ उप्पाय पव्वय ६५३ सक्कुलिकण दीव ३३८ सक्कुलिकण मगुस्स] ३३८ सक्करप्पभा (पुढवी) ३४, ३६, ३६, ४१, ४२, ४४, ४७, ४८, ६६०, ६७७ मणिय विमाण ६७६, ६८०, ६८१६८२, ६८३, ६८४, ६८५ सणिच्छर महग्गह ५८५ वेयणा १६ सणिच्छर संवच्छर ७१३, ७२२ वेरुलिय (कण्ड ) ४४ सणिच्छर संवच्छर भेय ७२२ वेरुलिय कूड २७४, २६१, ३८४ सणिचारी २१४, २१६ ४६, ५०, ५४, ५५, ५६, ५६, ६०, ६१, ११२ सगडुड्ढि (द्धि) (संठाण) २१, ५६७ सजोणिय १८ सण (संज्ञा) ७४६ सहसहिया ७०१ ७५७, ७५८ सतदु नदी ३२४ वेसमण ६२, ६३, १४, १०६, ६८७, ६८८ समणकूड २७१, २७३, २५२, २८५, २८६, २८७, २६१, सतभिसया ( णक्खत्त) ५७७ ३८३, ३८४ सताउ (मद्य) ३३१ सतिवण्ण वण २४७ सते ( ये ) रा ६०, ६१, १११ सतंजल (शक्र के लोकपाल का विमान) ६८७, ६८८ २४२५, १६,३२,४०, ४१, ४२, ४४, ४०, ४०, ४६, ५०, ५१, ५४, ५५, ५६, ५७, ५८, ६७, ७०, ७१, ७२, ७३, ७७, ८१ सत्तवण्ण (देव) १५६ सत्तवण्ण (अ) (वृक्ष) १६२ सत्तवण्णवण (वन) १५५, ३३० सत्तवण्णवडेंसय ६५६, ६८७ परिशिष्ट : ५ सकुमार (कप्प) ६५७, ६६१, ६६२, ६६३, ६६५, ६७१, ६७२, ६७६, ६७६, ६८१, ६८२ ६८४, ६८६, ६८६ कुमार देव ६६६६२ सकुमारेन्द ६६२, ६६२, ६६४,६६६६६६६६ सकुमार वडेंसय ६६१ सणिच्छर ( शनैश्चर - ज्योतिषीदेव ) ४३० सत्तवण्ण (वृक्ष) १०० सत्तिवण्ण वडेंसय ६६१ Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ विशिष्ट शम्ब सूची गणितानुयोग ८३७ ww सतंजय (दिवस नाम) ७२७ सयज्जल कूड २८१ सत्थवाह ३ सयणजंभग (देव) ४२७ सत्थिमुह (संठाण) ५०६ सयणिज्ज २१८, २१६, २४६ सद्दनय ३७ सयभिसय (शतभिषक् नक्षत्र) ५६०, ५६१, ५६४, ५६७, ६००, सद्दावई (देव) २५५ ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१०, ६१७, ६२०, ६२३, सद्दावाति (पव्वय) १७५ ६२४, ६२६, ६२७, ६२८, ६२६, ६३५, ६३७, ६३८, सद्दावइ बट्टवेयड्ढ पव्वय २५५, २५६, २८७, ३५३, ३५१ ६३६, ६४०, ६४२, ६४३, ६४४, ६५१ सन्न (संज्ञा-धारणा) 8 सयरिसह (मुहूर्त नाम) ७२५ सन्ना (व्वा) ७४७ सयंपभ(ह) (पन्वय) २३६, ४६६ सन्निहिय (अणवण्णिय व्यंतर देवों का इन्द्र) ४२४, ४२५ सयंभु १७ सपज्जवसिय १७, २१, २२, ७५२ सयंभूरमण दीव ४१५, ४१६, ४१८, ५८३ सपडिदिसि १७ सयंभूरमणभद्द देव ४१५ सपरिणिव्वाणा १६६ सयंभूरमण महाभद्ददेव ४१५ सपोग्गला १८ सयंभूरमणमहावर देव ४१६ सप्पुरिस (किंपुरुष देवों का इन्द्र) ४२३, ४२५ सयंभूरमणवर देव ४१६ सब्भावठवणा १० सयंभूरमणसमुद्द १२१, १२२, ४१८, ४१६ समचउरंस (संठाण) ७४ सयंभूरमणोदसमुद्द ४१६, ४१७, ५८३, ५८४ समचउक्कोण संठाण ५६२, ५६३ सयंसंबुद्ध १,६ समचक्कवाल संठाण ३४०, ३६१, ३७०, ३७२, ३६१, ३६२, सरऊ (नदी) ३२४ ३६४, ३६५, ३६६, ३६७, ३६८, ३६६, ४००, ४०६, सरत (शरद ऋतु) ७३१ ४१०, ४११, ४१६, ५६२, ५६४ सरल वण (वन) ३३० समण (श्रमण) ३५२, ३५३, ४१६ सरस्सई (गंधर्वेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२६ समणा रायहाणी ४०७ सरितोदग १७५ समतल भूमिभाग १३१ सरीर (औदारिक आदि) ७४६ समय (काल का सबसे छोटा अंश) ४८२, ६६१, ६६२, ६६५, सरूवि १८ ६६६, ६६७, ६६६, ७०७,७०८, ७२४, ७३१, ७३२, ७४६ सलिलावई(ती) (विजय) २८७, ३६५ समयखेत १८, १७५, ३८८-३८६, ४३६, ७३८ सलिलोदग १७५ समंस ५६३ सवग्गूविजय २०६ समा (आरा-काल का) ६९८ सवण (श्रवण नक्षत्र) ५६८, ५६०, ५६१, ५६४, ५६६, ६००, समा सपक्खि सपडिदिसि १७ ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१०, ६१७, ६२०, ६२३, समाहारा ११० ६२४, ६२६, ६२७, ६२८, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, समाहारा (रात्रिनाम) ७२७ ६४०, ६४२, ६४३, ६५०, ६५१ समिता (या)(परिषद्) १०१, १०२, १०३ सवेयग १८ समुग्ग(ग)(क)(य) १४२, १५१, १५४, १७२, १८६ ।। सव्वओभद्द (लोकपाल का विमान) ६८८ समुग्धाय ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४,७४,७८, ११२, ११३, सव्वकामसमिद्ध (दिवस नाम) ७२६ ११४, ११५, ११६, ११७, ११८, ११६, १६१, ४२४ सब्बठ्ठ देव ४१४ समुद्द १७४ सव्वट्ठ (मुहूर्त नाम) ७२६ समोहय (समुद्घात)८ सव्वट्ठसिद्ध (अनुत्तर महाविमान) १७, ६६६, ६८३, ६८४, सयग्घि ७४ ६८६, ६६० Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट :५ सव्वतोभद्द (पारियानिक विमान) ६८६ संघात (सूक्ष्म कण) ६६७ सव्वदीवसमुद्द (संखित्त विचारणा) ४१५ संचरणखेत्त (सूर्य का) ५२१ सव्वदेवया ५६५ संजुत्तसंखा ६५ सव्वपाण-भूत-जीव-सत्तसुहावहा (सिद्धशिला का नाम) ६८४, संझप्पभ (शक्र के लोकपाल का विमान) ६८७ ६६० संठाण १२२, १९८, २०१, ३६०, ५९६ सबद्धा ७०८, ७०६, ७१०, ७११, ७१२, ७४६ संठाण (कंडयाणं) ४५, ४६ सव्वप्पभा १११ संठाण (घणोदहिवलय) ४६ सव्वरयण कूड २६२, ३७५ संठाण पज्जव १६, ५७ सव्वरयणा रायहाणी ४०८ संदमाणिआ १३० सव्ववइरामया ७३ संध (स्कन्ध) ७४२ सव्वविग्गहिय १२ संधदेस (स्कन्ध देश) ७४२ सव्वसिद्धा (रात्रि तिथि) ७२८ संधपएस (स्कन्ध प्रदेश) ७४२ सव्वोसहि १८० संधिवाल (संधिपाल)३ सव्वोसहिसिद्धत्थ १७५, १७६, १७७ संवच्छर ४०५, ४७६, ४७७, ४७८, ४६३, ४६६, ५२७, ५४८, सहस्सार (इन्द्र) ६८६ ५५०, ५५१, ५५७, ५५८, ५५६, ५६८, ५६६, ५७४, सहस्सार (कप्प) ६५७, ६५८, ६६५, ६६७, ६७१, ६७२, ६८०, ५७५, ५७६, ५७७, ५७८, ५७६, ५८६, ६६५, ६६७, ६८१, ६८२, ६८४, ६८६ ६६६, ७०७,७१४, ७१८, ७२२, ७२४, ७३२ सहस्सार देव ६६५ संवर १६ सहस्सार वडेंसग ६६५ संसारसमावन्नग १८ सहा २१४, २१६ साइय १७ संकमणखेत्तचार ५३३-५३६ साई (स्वाति नक्षत्र) ५६०, ५६२, ५६५, ५६८, ६०२, ६०६, संकुचिय पसारिय णट्टविहि १७८ ६०७, ६०८, ६०६, ६१३, ६१६, ६२०, ६२१, ६२३, संकुलिकण्ण दीव १९४ ६२५, ६२६, ६२७, ६३१, ६३५, ६३७, ६३८, ६३६, संकुलिकण्ण (मनुष्य) १६४ ६४०, ६४२, ६४८, ६४६, ६५१ संक्खित्त १३ साउय १८ सख १७७ साएय (नगरी) १६६ संख आवास पव्वय २३७, ३४६, ३४८, ३५०, ३५१, ३५२ सागर ५८, ६६५, ७४३ संख (देव) ३४८ सागरचित्तकूड २८८, २८६ संखपा(वा)ल ६२,६४ । सागरोवम १८०, ४६५, ६६१, ६६५, ६६६, ७००,७०२, ७०४, संख (बेलंधर नागराज) ३४५, ३४८ ७०८, ७०६, ७१०, ७३२ संखमाल (वृक्ष) ३३० साती देव ३८१ संख विजय २०८, ३६५ सामलया (लता) ३३० संखायणस गोत्त ५६१ सामलि (वृक्ष) १०० संखा रायहाणी ३४८ सामंतोवणिवाइय (अभिनय) १७८ संखेज्ज वित्थडा ७० सामाण (अणवणिक व्यंतर देवों का इन्द्र) ४२४, ४२५ संगह (नय) ३२, ३३, ३७ सामाणिय (देव) ७६, ८०, ८३, ८४, ६१, १०३, १०८, १५२, संघयण १६८, १६६, २०१, २०३ १५३, १५६, १७२, १७३, १७६, १८०, १८१, १८२, १८६, संघाइम १० १८८,१८६, २२०,२४६, २५५, २८५, ३०७, ३१३, ३४७, संघाइय (माला-हार) १८१ ३४६, ३५६, ४२१, ४२२, ४३१, ४८०, ५५६, ५६०, संघाडा १२७ ६५६, ६६०, ६६२, ६६३, ६६४, ६६५, ६६६, ६६७ Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट :५ विशिष्ट शन्द सूची गणितानुयोग ८३६ साय(ग)रकूड २७६, २८० सिरिप्पभ (देव) ३६१ सारस्सय (लोकांतिक देव) ६७० सिरिमहिआ(ता) (पोक्खरिणी) २२१, २४१ सालिभंजिया १४२, १४८, १५६, १८४, १८६, २८३ सिरिवच्छ १३८, १५२, २९६ साल वण (वन) ३३४ सिरिवच्छ (पारियानिक विमान) ६८६ सालिभंजपरिवाडी १४४ सिरिसंभूता (रात्रिनाम) ७२७ सालिंगणवट्टि १६६ सिरीस (वृक्ष) १००, १६२ सावत्थि (नगरी) १५, १६६ सिलिधपुप्फ ७८, ७६ सावण (नक्षत्र संवत्सर) ७२१ सिलुच्चय पव्वय ४६६ सावण (मास) ७२२ सिलोच्चय २३६ सावय (श्रावक) ३५२ सिवय देव ३४८ साविया (श्राविका) ३५२ सिव(ग)य (बेलंधर नागराज) ३४५, ३४७ सासय १५, १६, १८, २०, ३६, ४०,७३, ८६, १२५, १२८, सिवा (शकेन्द्र की अग्रमहिषी) ४०७ १२६, १५३, १६६, २०१, २१४, २१६, २२०, २२७, सिविगा रायहाणी ३४८ २३६, २४६, २५४, २८१, २६६, ३०८, ३०६, ३१३, सिवेया (मास) ७२२ ३४२, ३४३, ३७५, ३६५ सिसिर (मास) ७२२ सासय भाव ७४५ सिहरतल (दीर्घ वैताढ्य पर्वत का) २५३ सिक्कगा(या) १६४, १६५ सिहरिकूड २७६, ३८४ सिग्घगइ (ज्योतिषी देवों की) ४६२ सिहरिदेव २३२ सिद्ध (सिद्धाययण) कूड २८६, २८७ सिहरिपब्वय ३०४, ३१५, ३५३ सिद्ध ठाण ६६० सिहरिवासह(ध)र पव्वय १७५, १६५, १६६, २१०, २११, सिद्धट्ठाण परिण्णा ६८९ २२५, २३२, २७६, ३३६, ३७६, १८०, ३८१, ३८४ सिद्धत्थय १८० सिहरिसंठाण २३२, २७६, ३८४ सिद्ध भगवन्त ६८४, ६६० सिंगमाल (वृक्ष) ३३० सिद्ध मणोरम (दिवस नाम) ७२६ सिंघाडग संठाण ६८० सिद्धायय(त)ण १६६, १६७, १६६, १७२, १८२, १८३, १८४, सिंधु आवत्तण कूड ३१८ १८६, २१८, २३८, २३६, २४६, २७२, २८३, २८४, सिंधु कुण्ड २५६, २६१, ३०२ २८८, ४०१,४०३, ४०४ सिंधुदीव ३००, ३१८ सिद्धाययण कूड २७१, २७२, २७४, २७५, २७६, २७७, २७८, सिंधुदेवी कूड २७१ २७६, २८१, २८२, २८३, २८४ सिंधु (नदी) १७५, २०२, २०४, ३५३ सिद्धालय ६८४, ६६० सिधुप्पवायकुण्ड २६६, ३१८ सिद्धि ६८४, ६६० सिंधुप्पवायद्दह २६८, ३८५, ३८६ सिद्धिगइ १८३, १८५ सिंधु (महानदी) १६५, १६६, १९७, १६८, ३१४, ३१५, ३१८, सिप्पि संपुड (संठाण) ३३६ ३१६, ३२४, ३२५, ३६७, ३८६, ३८७ सिरि (दिशाकुमारी देवी) १११ सिंधु महाणई पवाय ३१८ सिरिकंता (पोक्लरिणी) २२१, २४१ सीअप्पवायकुण्ड २६८ सिरिचन्दा (पोक्खरिणी) २२१, २४१ सीअप्पवायदह २६८ सिरि (देवी) ३०४, ३०७, ३०८, ३८४, ३८५ सीअसोआ कुण्ड ३०३ सिरिदेवीकूड २७१ सीआकूड २७५, २७६ सिरिधर (देव) ३६१ सीआदीव ३०१ सिरिनिलिआ (पोक्खरिणी) २२१, २४१ सीआ(ता) (नदी) १७६, २०४,२०५, २०६, २४४, २५४, ३८७ Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ सीता महानदी १४१, २०२, २०४, २०६, २०७, २१६, २२३, २२४, २३५, २६१, २६२, २६४, २६५, २६६, २७७, २१०, २१, २९४, २११,३१५३१६ ३१७, ३२२ ३२३, ३२४, ३२७, ३४९ १५४, ३५६३६२, २६६, ३७१, ३७३, ३७७ आ महाण पाय ( प्रपात ) ३२२ सीआमुह वण २०६, २०७, २०८, २२३, २२४ सीमोवायकुण्ड २०, २०१, १२० सीमा २० सीओओ दीव ३०१ सीओया (सीतोदा) (नदी) १७६, २४४, ३५४, ३५५, ३८७ सीओ (या) (दा) (सीतोदा) (महानदी ) १६०, २१४, २३८, २६१, २६२, २०, २६१, २६४, २६८, ३१०, ३१५, ३१६, ३१७, ३२२, ३२३, ३२४, ३२७, ३४६, ३६३, ३७०, ३७३, ३७७ सीमोमा कूड २७४ २०१ सीमोमुख वसं २०६ सीता ३०६ सीतोपना २०६ सीमंतय नरय १७ सीमा विक्खंभ ६३५, ६३६ सीसोया महानई ३६७ सीस कूड २६१ सीसपहेलियंग ६६८, ७००, ७०७, ७३२ सीसपहेलिया ६६८, ७००, ७०७, ७०६, ७३२ सीसा (सीता) (दिवकुमारी) १११ सीह ७६ सीहाई १३ सहनाइय (संतान) २२६ सीहपुरा रायहाणी २०८, ३६६ सीहमुहदीव १९४ विशिष्ट शब्द सूची १६०, १६५, १७०, १७३, १७४ सुकच्छ ( उत्तरड्ढ ) कूड २८७ सुकच्छ (दाहिणड्ढ) कूड २८७ सुकच्छ विजय २०४, २६४, २८७, ३०२, ३६५ सुदेव १९७ सुक्क पक्ख ( शुक्ल पक्ष ) ७२६, ७३० सुक्क महग्गह ५८५, ५८६ सुक्क महग्गह (स्स) वीथी ५८५-५८६ सुक्का ( शुत्र ज्योतिषीदेव) ४१० मुक्काम (लोकांतिक विमान ६७० मुस्किल ६०० ६०१ सुक्किल्लतणमणि ( वण्ण) ६३३ सुगीय (मुहूर्त नाम) ७२५ सुग्गीव १०५ सुपोस (संघाण) ७२ सुषोसा गंधर्वेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२६ सुजात (आसव ) ३३१ सुजाय (वृक्ष) २२० सुजाय ( विमाण पत्थड ) ६८३, ६८५ सुजाया ६४ सुट्टिया रायहाणी ३५८ सुट्टिय (सोविय) (सुस्थित देव ३५६ ३५० ३५८ सुणक्खत्ता (रात्रि नाम) ७२७ सुदा १४ सुत्विया राहाणी १५६ सुदंसण (प्रश्नकर्ता का नाम) ६६२, ६९३, ६९४, ६६६ सण सूड २१ सुदंसण देव ३६६, ३५६, ४०८ सुदंसण (वय २३६, ४९९ सुदंसण (विमाण पत्र ६०३६०५ सुदंसण (वृक्ष) २२० सुदंसण हत्थिराया १०५ सुदंसणा ६४ सुदंसणा (काल पिशाचेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ सुदंसणा पोक्खरिणी ४०४ मग ३ सीहसोता नदी ३१७ सीहासण १३६, १४०, १४७, १५०, १५२, १५५, १५७, १५८, सुपइट्ठ (मास) ७२२ सुदक्षणा रायहाणी Yo सुदी १९५१३८ सुद्धदंत (मनुष्य) १९५ सुपनकखोयरसवर (बुराम ) १३२ परिशिष्ट : ५ सुपइ (ति) ट्ठग १३, १४, १६६, १७४ सुपतिट्ठाभ ( लोकांतिक देव विमान ) ६७० सुपभ २ १२ सुपम्ह विजय २०८, ३६५ सुप्पइण्णा ११० Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ विशिष्ट शब्द सूची गणितानुयोग १ ४१६ सुप्पबद्ध (विमाण पत्थड) ६८३, ६८५ सुप्पबुद्ध (वृक्ष) २२० सुव्वण्णकुमार णाग ठाण ८५ सुप्पभ देव ३६८ सुवण्णकुमारिंद ८६, ८६ सुप्पभा ६४ सुवण्णकूलप्पवायकुण्ड २६७ सुभगा (सुरूव भूतेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ सुवण्ण(न)कूलप्पवायद्दह २६८, ३८६ सुभचक्खुकंत (देव) ४१३ सुवण्णकूला कूड २७६ सुभद्द देव ४१० सुवण्णकूलादीव ३०१ सुभद्द (वृक्ष) २२० सुवण्णकूला (नदी) १७५, ३५३, ३८७ सुभद्द (विमाण पत्थड) ६८३, ६८५ सुवण्णकूला महाणई २५७, ३१४, ३१५, ३१६, ३२०, ३२४, सुभद्दा ६४ ३२६ सुभद्दा (कूणिक की रानी) ७ सुवण्णकूला महाणई पवाय (प्रपात) ३२० सुभा (बलीन्द्र की अग्रमहिषी) ६० सुवण्णे ८८ सुभा रायहाणी २०७, ३६६ सुवष्प विजय २०८, ३६६ सुभोगा १०६ सुवया देवया ५६५ सुभोगा देवी २८० सुविक्कम हत्थिराया १०५ सुमण (लोकपाल का विमान) ६८८ सुव्वबुद्धा ११० सुमण (वृक्ष) २२० सुसमदूसमा ७०२,७०३, ७३३ सुमणदाम १७६ सुसमसुसमा २१४, ६६८, ६६६, ७०२,७०३, ७३३ सुमण देव ४०६, ४१४ सुसमा २१२, ७०२, ७०३, ७३३ सुमणभद्द देव ४१० सुसिर १७८ सुमणा ६४ सुसीमा रायहाणी २०६, ३६६ सुमेहा १०६ सुस्सरा (गंधर्वेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२६ सुमेहा देवी २८८ सुहणामा (रात्रि तिथि) ७२८ सुरभिगंधकासाइय (वस्त्र) १८३ सुहत्थि(त्थी)कूड २६० सुरादेवी ११० सुहत्थि देव २६० सुरादेवी कूड २७६ सुहम्मा सभा ६४, ६५, ६६, १००,१५६, १६०, १६३, १६४, सुरूव (भूत नाम के व्यंतर देवों का इन्द्र) ४२३, ४२५ १६६, १६७, १६६, १७०, १७२, १८६, १८७, २४७, सुरूवा (भूतेन्द्र सुरूव की अग्रमहिषी) ४२५ २४८, २४६, २५०, ४२६, ०५४,४५५ सुरूवा ६० सुहावह वक्खार पव्वय २०८, २६१, ३६४, ३८२ सुरुया (दिशाकुमारी) ११२ सुहुम अद्धा पलिओवम ७०५,७०६, ७०७ सुलसदह ३१०, ३२७ सुहुम अद्धा सागरोवम ७०७ सुबग्गु (लोकपाल का विमान) ६८८ सुहम आउक्काइय ११४ सुबग्गु विजय ३६६ सुहुम उद्धार पलिओवम ७०४,७०५ सुवच्छ (कंदिय व्यंतर देवों का इन्द्र) ४२५ सुहुम उद्धार सागरोवम ७०५ सुवच्छ विजय २०७, ३६५ सुहम तेउकाइय ११५ सुवच्छा १०६ सुहुम पणगजीव ७०५, ७०६ सुवच्छा देवी २८१, २८६ सुहुम परमाणु ७५६ सुवण्ण ४०२ सुहुम पुढविकाइय ११३ सुब(प)ण्णद्दार ४०१ सुहुम पोग्गल १७३ सुवण्ण (सुपर्ण-गरुड़) कुमार देव ७५, ८५, ८६, ८७, ३७५, सुहुम वणस्सइकाइय ११६ Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट :५ सुहमवाउकाइय ११५, ११६ सेरियागुम्म (गुल्म) ३३१ सुंगायणस गोत्त ५६२ सेलपा (वा)ल ६२, ६४ सूई अंगुल ७५६, ७५८, ७५६ सेलमालग (वृक्ष) ३३० सूर (सूरिय) (रवि, सूर्य, दिनकर) ४२८, ४२६, ४३०, ४३१, सेला (तीसरी नरक) ३५ ४३२, ४३३, ४३४, ४३५, ४३६, ४३७, ४३८, ४३६, सेसवई ११० ४४१, ४४२, ४४३, ४४४, ४४५, ४४६, ४५३, ४५४, सोगन्धिय कंड २४४ ४५५, ४५६, ४५७, ४५८, ४५६, ४६०, ४६१, ४६२, सोत्थित कूड २६१ ४६३,४६४, ४७६, ४८०,४८१,४८२-५५६, ५११,५५६, सोत्थिय १३८, १४८, १६०, २६६ ५६०,५६१-५८४,५८६,५८७,५८८,५८६, ६३७, ६३६, सोदामिणी १११ ६४१, ६४२, ६५३, ६५४, ६५७, ६५६, ६६०, ६७४, सोदामी १०४ ६७८, ६८७, ६८६, ७३५ सोम ६२, ६३, १४, १०६, १०७, ६८७, ६८८, ६८६ सूर ५६ सोमणस कूड २८१ सूरदह ३१०, ३२७ सोमणस (दिवस नाम) ७२७ सूरदीव ४१६, ५७६, ५८०, ५८१, ५८२, ५८३, ५८४ सोमणस देव २६७, ४०६, ४१४ सूर (द्वीप समुद्र) ४१८ सोमणस (पारियानिक विमान) ६८६ सूरदेव ५८१ सोमणस वक्खार पव्वय २१३, २३८, २६१, २६३, २६६, २६७, सूरप्पभा (सूर्य की अग्रमहिषी) ४५५ २८१, ३६३, ३७७, ३८२ सूर महग्गह ५८५ सोमणस वण १३६, १७६, २३८, २३६, २४०, २४१, २६४, सूरलेसा ५६५ सूर वक्खार पन्वय २०८, २६१, ३६४, ३८२ सोमणस (विमाण पत्थड) ६८३, ६८५ सूरवरभासोद समुद्द ४१५ सोमणस (वृक्ष) २२० सूरसीहासण ४५५ सोमणसा रायहाणी ४०७ सूरादेवी कूड २७१ सोमणसा (रात्रि नाम) ७२७ सूराम (लोकांतिक विमान) ६७० सोमदेवया ५६४ सूराभा ६७३, ६७७ सोमप्पम उप्पाय पन्वय १०६ सूरिय(स्स)लेस्सा ४६६ ५००, ५०१ सोमा (उत्तर दिशा) २१, २४ सूरियाभा ४३ सोय (आश्विन) पुण्णिमा ६६४ सूरियाभा (सूर्य की आभा) ६७४, ६७८ सोयंधिय (कंड) ४४ सूरियावत्त (पर्वत) २३६, ५०० सोयामणी ६०, ६१ सूरियावरण (पर्वत) २३६, ५०० सोवत्थिअ कूड २८१, २८२ सूरिवडिंसयविमाण ४५५ सोवत्थियासण १३६, १४० सूरोवराग ५८८-५८६, ७३५ सोहम्मकप्प ८१, ६५५, ६५७, ६५६, ६६०, ६६१, ६७१, ६७५, सेज्जंस (मास) ७२२ ६७६,६८०,६८१, ६८२, ६८३, ६८४,६८६, ६८७,६८६ सेट्टि ३ सोहम्मगदेव ६५६ सेढी (माप) ७५४, ७६० सोहम्मवडेंसय ६५६, ६६३, ६६४, ६६५, ६८३, ६८६, ६८७, सेढी अंगुल ७६० सेणावइ ३ हत्थ (हस्त नक्षत्र) ५७६, ५६०, ५६२, ५६५, ५६८, ६०२, सेत (कुहंड व्यंतर देवों का इन्द्र) ४२५ ६०६, ६०७, ६०८, ६०६, ६१३, ६१५, ६२०, ६२३, सेत (मुहूर्त नाम) ७२५ ६२५, ६२६, ६२७, ६३१, ६३६, ६३७, ६३८, ६३६, सेयकंठ १०५ ६४१, ६४२, ६४८, ६५१, ६५३ ६८८ Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ५ विशिष्ट शम्ब सूची गणितानुयोग ८४३ हत्थ (संठाण) ५६८ हरिस्सह देव २८० हत्थिकन्नदीव १६४ हरिस्सह (विद्युतकुमारेन्द्र) ८६ हत्थिणाउर (नगरी) १९६ हरिस्सहा रायहाणी २८० हत्थिमुह दीव १६४ हलधर वसण १३२ हम्मियतल (संठाण) ५६४ हंसगब्भ (कंड) ४४ हयकण्ण दीव १६४, ३३७, ३३८ हंसासण १३६ हयकण्ण मणुस्स १९४, ३३७ हाणी बुड्ढी (सूर्य की गति में) ५५६ हयकंठग १५०, १६६ हारद्दीव ४१४ हयपत्ती १२७ हारभद्द देव ४१४ हयमिहुण १२७ हारमहाभद्द देव ४१४ हयवर ७६ हारवर दीव ४१५ हयवीही १२७ हारवर देव ४१४, ४१५ हयसंघाडग १४८ हारवरभद्द देव ४१५ हरकत (नदी) १७५ हारवरमहाभद्द देव ४१५ हरय (ह्रद) १६६, १७०, १७१, १७३ हारवरमहावर देव ४१४, ४१५ हरि (विद्युतकुमारेन्द्र) ८६ हारवरावभास दीव ४१५ हरि (हरिसलिला) (महाणई) ३०१ हारवरावभासमहाभद्द देव ४१५ हरिकूड २८१, २८२ हारवरावभासमहावर देव ४१५ हरिकंत ६२ हारवरावभासवर देब ४१५ हरिकंत कूड २७४ हारवरावभासोद समुद्द ४१५ हरिकंत दीव ३०१ हारवरोद समुद्द ४१५ हरिकंत (नदी) १७५ हार समुद ४१४ हरिकंतप्पवायकुण्ड २९७, ३०१, ३२६ हालिद्द ६८०, ६८१ हरिकतप्पवायद्दह २६६, ३८५, ३८६ हालिद्दतण मणि (वण्ण) १३३ हरिकता महाणई २५६, २६७, ३०१, ३१४, ३१५, ३१६, हास (महाकंदित ब्यंतर देवों का इन्द्र) ४२५ ३२०, ३२१, ३२२, ३२४, ३२६, ३८६, ३८७ हासरई (महाकंदित व्यंतर देवों का इन्द्र) ४२५ हरिकता महाणई पवाय (प्रपात) ३२१ हासा १११ हरिदीव ३०१ हिमवं (हिमवान) कूड २६१ हरिप्पवायदह २६८, ३८५, ३८६ हिमवंत (पर्वत) १३६ हरि महाणई २५६, ३१४, ३१५, ३१६, ३२१, ३२४, ३२६, हिरण्णवय १६१, १९२, १६३ ३८६, ३८७ हिरि १११ हरिवास (खेत्त) १७५, १६१, १६२, १६३, २०१, २११, २१३, हिरिकूड २७४ २२७, २२६, २५६, २९८, ३१६, ३२६, ३५३, ३७६, हिरि(देवी) ३०४, ३०५, ३०८, ३८५ ३७६. ३८१, ३८५, ३८६, ७०१, ७३३, ७५८ हिरिदेवी कूड २७४ हरिवास कूड २७४ हिरी (किंपुरुषेन्द्र की अग्रमहिषी) ४२५ हरिवास देव २१२ हुडुक्क १७७ हरिवाहण देव ४०६ हूहुय ६६८,७००, ७०७, ७३२ हरिसलिलप्पवायकुण्ड २६७ हूहुयंग ६६८,७००, ७०७, ७३२ हरिस्सह ६२ हेट्ठिम गेवेज्जग देव ६६८, ६६६ हरिस्सह कूड २७६, २८०, २८१, २८२, २८६ हेछिल्ल २६ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ विशिष्ट शब्द सूची परिशिष्ट : ५ हेममालिणी देवी २८८ हेमंत आवट्टिय ५७६, ५७७, ५७८ हेमवं (मास) ७२२ हेमंत (ऋतु) ६२८, ६२६, ६३०, ७३१, ७३२ हेमवय कूड २७१, २७४ हेरण्णवय कूड २७५, २७६ हेमवय देव २१०, २७३ हेरण्णवय देव २११ हेमवय (वास-खेत्त) १७५, १६१, १६२, १६३, २०१, २०६, हेरण्णवय (वास-खेत्त) १७५, २०१, २१०, २११, २३१, २१०, २११, २२६, २२७, २५५, २८८, २९८, ३१६, २३२, २५७, २६८, ३१६, ३२०, ३७६, ३७६, ३८१, ३२०, ३२५, ३२६, ३५३, ३६२, ३७६, ३७६, ३८१, ३८६, ३८७, ७५८ ३८५, ३८६, ७०१, ७३३, ७५८ हेरुयाल वण (वन) ३३० Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलन में प्रयुक्त सहायक ग्रन्थ सूची : १. आचारांग सूत्रम् (आवारंगसुतं ) ईस्वी सन १२७७ सम्पादक - मुनि श्री जम्बुजिजी प्रकाशक श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई आचारांग सूत्रम् प्रधान सम्पादक --- युवाचार्य मधुकर मुनिजी म० सम्पादक - श्रीचन्द जी सुराना प्रकाशक - आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर आयारो सम्पादक - मुनि श्री नथमलजी प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लाडनूं आचारांग सूत्रम् सम्पादक - स्वर्गीय श्री आत्माराम जी म०, प्रकाशक - आ० आत्माराम प्रकाशन समिति, लुधियाना आचारांग सूत्रम् शीलाङ्गाचार्य टीका० निर्युक्ति प्रकाशक - आगमोदय समिति, सूरत २. सूयगडंगसुतं (सूत्रकृताङ्गसूत्रम् ) ईस्वी सन १६७८ सम्पादक - मुनिश्री जम्बुविजयजी, प्रकाशक- महावीर जैन विद्यालय बम्बई सुकृतांगसूत्रम् प्रधान सम्पादक - युवाचार्य मधुकर मुनिजी सम्पादक - श्रीचन्दजी सुराना " प्रकाशक - आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, सूत्रांगसूत्रम् (भाग एक से चार ) पूज्य आचार्य जवाहरलालजी म० सूत्रकृतांग सूत्रम् (प्रथम एवं द्वितीय श्रुत-स्कन्ध) सन १६७६ व्याख्याता - पं० श्री हेमचन्द्रजी म० सम्पादक - श्री अमरमुनिजी प्रकाशक - आत्म ज्ञानपीठ, मानसा मंडी (पंजाब) सूत्रांगसूत्रम् शीलांकाचार्य नियुक्ति एवं टीका सन् १९१७ प्रकाशक- आयमोदय समिति बम्बई सूत्रकृतांग (नियुक्ति सूप) सन् १९२० सम्पादक - डॉ० पी० एल० वैद्य ३. स्थानांग सूत्रम् (ठाणांगसुतं) सन् १९८५ सम्पादक - मुनि श्री जम्बुविजयजी प्रकाशक- महावीर जैन विद्यालय, बम्बई स्थानांग सूत्र (मूल हिन्दी ) सन् १९७२ सम्पादक - मुनिश्री कन्हैयालालजी "कमल" प्रकाशक - आगम अनुयोग प्रकाशक समिति, सान्डेराव ठाणं सम्पादक - मुनिश्री नथमलजी प्रकाशक - जैन विश्व भारती लाडनू स्थानांग सूत्रम् प्रधान सम्पादक - युवाचार्य मधुकर मुनि सम्पादक - पं० हीरालालजी शास्त्री प्रकाशक - आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर स्थानांग सूत्रम् अभयदेव कृत वृत्ति सहित प्रकाशक- आगमोदय समिति, बम्बई परिशिष्ट : ६ स्थानांग सूत्रम् (भाग १, २) सम्पादक- आचार्यश्री आत्मारामजी म० प्रकाशक - आ० आत्माराम प्रकाशन समिति, लुधियाना: ४. समवायंग (समवायांग सूत्र ) सन् १९०५ सम्पादक - मुनिश्री जम्बुविजयजी प्रकाशक - महावीर जैन विद्यालय, बम्बई समवायांगसुतं (मूल हिन्दी ) सम्पादक मुनिधी कालजी "म" प्रकाशक- -आगम अनुयोग प्रकाशन समिति, सान्डेराव समवाओ सम्पादक - मुनिश्री नथमलजी प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लातू Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकलन में प्रयुक्त एवं सहायक ग्रन्थ सूची परिशिष्ट: समवायांगसुत्तं ८. उत्तरज्झयणाणि प्रधान सम्पादक-युवाचार्य मधुकर मुनिजी सम्पादक-मुनिश्री कन्हैयालालजी "कमल" सम्पादक-40 हीरालालजी "शास्त्री" प्रकाशक-आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद प्रकाशक-आगम प्रकाशक समिति, ब्यावर उत्तरज्मयणाणि समवायांगसुत्तं सम्पादक मुनिश्री पुण्यविजयजी म० अभयदेव कृत वृत्ति सहित प्रकाशक-महावीर जैन विद्यालय, बम्बई प्रकाशक-आगमोदय समिति, बम्बई उत्तरज्झयणाणि व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) सम्पादक-मुनिश्री नथमलजी म० वियाहपण्णत्ति सुत्तं (भाग १, २, ३ सन् १९७८) प्रकाशक-जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता सम्पादक-५० बेचरदास जीवराज दोशी उत्तराध्ययन सूत्र (भाग : एक से तीन) प्रकाशक-श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई पूज्य आचार्यश्री आत्माराम जी म. भगवती सूत्र (भाग १ से ७) . प्रकाशक -आचार्य आत्माराम प्रकाशन समिति, लुधियाना सम्पादक-पं० घेवरचन्द जी बांठिया ६. औपपातिक सूत्र प्रकाशक--श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी संस्कृति संघ सैलाना अभयदेवसूरि कृत वृत्ति सहित श्री भगवती सूत्र (सन् १९३७) प्रकाशक-आगमोदय समिति, बम्बई सम्पादक-अभयदेवसूरीश्वर विरचित वृत्ति ओबाइयं (सन् १९७०) प्रकाशक-छगनलाल फूलचन्द झवेरी सम्पादक-मुनिश्री नथमलजी श्री भगवती सूत्र (भाग १, २, ३) प्रकाशक-जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता सम्पादक-श्री अमर मुनि उववाइय सुत्तं (सन् १९६३) सहसम्पादक-श्रीचन्द सुराना 'सरस' अनुवादक-40 मुनिश्री उमेशचन्दजी म० "अणु" प्रकाशक-श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, प्रकाशक-श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति श्री जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र ___रक्षक संघ, सैलाना शांतिचन्द्रविहित वृत्ति सहित औपपातिक सूत्र प्रकाशक-नगीनभाई गेलाभाई जवेरी, बम्बई सम्पादक-डा० छगनलाल शास्त्री जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र प्रकाशक-आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर सम्पादक-पूज्यश्री अमोलकऋषिजी म. जीवाभिगम सूत्र (सन् १९१६) प्रकाशक-लाला ज्वालाप्रसाद, सुखदेवसहाय, सिकन्दराबाद मलयगिरिकृत वृत्ति सहित जम्बुद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र प्रकाशक-देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई पूज्यश्रीं घासीलालजी म. जीवाभिगम सूत्र प्रकाशक-जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट सम्पादक-पूज्यश्री अमोलक ऋषिजी म. सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र (मुद्रणाधीन) प्रकाशक-रायबहादुर सेठ ज्वालाप्रसाद, सिकन्द्राबाद सम्पादक-मुनिश्री कन्हैयालालजी "कमल" ११. प्रज्ञापना सूत्र प्रकाशक - आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर सम्पादक-मुनिश्री पुण्यविजयजी म. सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र (सन् १९१६) प्रकाशक-महावीर जैन विद्यालय, बम्बई मलयगिरिविहित वृत्ति सहित प्रज्ञापना सूत्र प्रकाशक-आगमोदय समिति, बम्बई सम्पादक-श्री ज्ञानमुनिजी म० सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र प्रकाशक-श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर पूज्यश्री अमोलकऋषिजी म. प्रज्ञापना सूत्र प्रकाशक-रायबहादुर लाला ज्वालाप्रसाद, सुखदेव सहाय, मलयगिरिकृत टीका सिकन्द्राबाद प्रकाशक-आगमोदय समिति, बम्बई १०. Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : ६ १२. ज्ञाता धर्मकथा सूत्र ( सन् १९१६ ) अभयदेवकृत वृत्ति सहित प्रकाशक - आगमोदय समिति, बम्बई ज्ञाताधर्म कथा सूत्र सम्पादक - पं० शोभाचन्द्र जी भारिल्ल प्रकाशक - आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर १३. अनुओगद्दारं – अनुयोगद्वार सूत्र - सम्पादक मुनिश्री पुण्यविजय जी म प्रकाशक - महावीर जैन विद्यालय, बम्बई अनुयोगद्वार - सूत्र सम्पादक- पं० मुनिश्री कन्हैयालालजी "कमल " प्रकाशक - वर्धमान वाणी प्रचारक कार्यालय, अनुयोगद्वार सूत्र चन्द्रवृत्ति सहित प्रकाशक - आगमोदय समिति, बम्बई १४. अंगाणि (भाग १, २, ३) सम्पादक - मुनिश्री नथमलजी प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लाडनू १५. सागमे (भाग १, २) संकलन में प्रयुक्त एवं सहायक ग्रन्थ सूची सम्पादक - पुप्फभिक्खु प्रकाशक - सूत्रागम प्रकाशक समिति, गुड़गांव अथागमे सम्पादक -- पुप्फभिक्खु प्रकाशक - सूत्रागम प्रकाशक समिति, गुड़गांव १६. आगमसुधासिन्धु भाग ७ १७. तिलोयपण्णत्ति (भाग १ और २) [सम्पादन] पतिवृषभाणार्य सम्पादक- आचार्यश्री विजयजिनेन्द्र सूरि प्रकाशक- हर्षपुष्पामृत प्रत्यमाता शांतिपुरी सौराष्ट्र लाडपुरा प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर १८. अभिधान राजेन्द्र कोश (भाग १ से ७ तक) सम्पादक- आचार्य श्री राजेन्द्र सूरि १९. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (भाग १ से ४ तक) • सम्पादक- क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी प्रकाशक - समस्त जैन श्वेताम्बर श्रीसंघ, श्री अभिधान राजेन्द्र कार्यालय, रतलाम २०. नालन्दा विशाल शब्द सागर सम्पादक - श्री नवल जी प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ बी० ४५ / ४७ कनाट प्लेस, नई दिल्ली २१. पाइन महष्णवो (द्वि० सं०) प्रकाशक - आदर्श बुक डिपो, ३८ यु० जवाहर नगर, गणितानुयोग रामाश्रय टीका प्रकाशक - निर्णय सागर प्रेस, बम्बई २३. बृहत्संग्रहणीसूत्रम् (वि० १९५५) अनुवादक - मुनिश्री यशोविजयजी प्रकाशक - मुक्तिकमल जैन मोहनमाला, बड़ोदा २४. क्षेत्रसमास (भाग १, २) सम्पादक - प० हरगोविन्ददास टी० शेठ डा० वासुदेवशरण अग्रवाल और पं० दलमुखभाई मालवणिया प्रकाशक - प्राकृत ग्रन्थ परिषद् वाराणसी - ५ २२. अमर कोष २५. लघुक्षेत्र समास २६. जैन दृष्टि से मध्यलोक 家 सम्पादक - श्री नित्यानन्दविजयजी गणीवर प्रकाशक- संघवी अम्बालाल रतनचन्द जैन धार्मिक ट्रस्ट, खम्भात सम्पादक - श्री नवीन ऋषिजी म० प्रकाशक—मनसुखलाल छगनलाल देसाई, बम्बई २७. बृहद्देवरंजनम् (वि० १९८१) सम्पादक गंगाविष्णु प्रकाशक - लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर प्रेस, बम्बई २८. जम्बूद्वीपपति संशोधक लाभसागरगणी प्रकाशक - जैनानन्द पुस्तकालय, सूरत २६. गणितसार संग्रह ३०. ३१. स्थानांग समवायांग सम्पादक - लक्ष्मीचन्द्र जैन प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर मुहर्त चिन्तामणी ६४७ सम्पादक - श्री दलसुखभाई मालवणिया प्रकाशक - गुजरात विद्यापीठ, दिल्ली अहमदाबाद- १४ Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रयुक्त सन्दर्भ ग्रन्थों की संकेत सूचना संक्षिप्त संकेत प्राकृत नाम संस्कृत नाम उव. मो. सु. उ (ओ) ववाइ, सुत्त औपपातिकसूत्र, सूत्र आया. सु. अ. उ. सु. आयारों, सुयक्खन्ध, अज्झयण, उद्देसक आचारांग, श्रुतस्कंध, अध्ययन, उद्देशक, सूत्र सुत्त ठाणं. अ. उ. सु. ठाणं, अज्झयण, उद्देसक, सुत्त ठाणांग (स्थानांग), अध्ययन, उद्देशक, सूत्र सूय. सु. अ. उ. गा. सूयगडंग, सुयक्खंध, अज्झयण, उद्देसक, सूत्रकृतांग, श्र तस्कंध, अध्ययन, उद्देशक, गाथा गाहा, सम. स. सु. समवायांग, समवाय, सुत्त समवायांग, समवा", सूत्र अणु. सु. गा. अणुओगद्दार, सुत्त, गाहा अनुयोगद्वार, सूत्र, गाथा भग. स. उ. सु. भगवई, सतक, उद्दे सक, सुत भगवती, शतक, उद्देशक, सूत्र पण्ण. प. उ. सु. पण्णवणा, पद, उद्देसक, सुत्त प्रज्ञापना, उद्देशक, सूत्र उ. (उत्त.) अ. गा. उत्तरज्झयण, अज्झयण, गाहा उत्तराध्ययन, अध्ययन, था जीवा. पडि. उ. सु. जीवाभिगम, पडिवत्ति, उद्देसक, सुत्त जीवाभिगम, प्रतिपत्ति, उद्द शक, सूत्र जंबु वक्ख. सु. जंबुद्दीवपण्णत्ति, वक्खार, सुत्त जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, वक्षस्कार, सूत्र णायाधम्म. अ. णायाधम्मकहाओ, अज्झयण ज्ञाताधर्मकथांग, अध्ययन सूरिय. पा. सु. सूरियपण्णत्ति, पाहुड, सुत्त सूर्यप्रज्ञप्ति, प्राभृत, सूत्र सूरिय. पा. पाहु.सु. सूरियपण्णत्ति, पाहुड, पाहुड-पाहुड, सूर्यप्रज्ञप्ति, प्राभूत, प्राभृतप्राभृत, सूत्र सुत्त चन्द. पा. सु. चन्द पण्णत्ति, पाहुड, सुत्त चन्द्रप्रज्ञप्ति, प्राभूत, सूत्र 00 ( ८४८ ) Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 गणितानुयोग-जैन परम्परा की भूगोल-खगोल एवं अन्तरिक्ष विज्ञान सन्बन्धी उन प्राचीनतम मान्यता/धारणाओं का वर्गीकृत संकलन है, जिसकी जानकारी आज के वैज्ञानिकों के लिए नितान्त उपयोगी ही नहीं, आवश्यक भी है। आज का विज्ञान आश्चर्यजनक प्रगति कर रहा है फिर भी ऐसी अनेक सूचनायें धारणायें और भूगोल सम्बन्धी प्राचीन मान्यतायें हैं, जिनकी जानकारी आजके वैज्ञानिक को नहीं है और वह जानकारी उसके लिए नवीन-नवीन अनुसन्धानों की सम्भावनाय सूचित कर रही है। इस महान् ग्रन्थ में ऐसी दुर्लभ किन्तु आश्चर्यजनक सामग्री संग्रहीत है। 10 जैन परम्परा के समस्त आगमों का दोहन करके-पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, नदी, द्रह, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि शत-शत विषयों को सप्रमाण व्यवस्थित करके मूल तथा हिन्दी अनुवाद के साथप्रस्तुत करने का यह महत्वपूर्ण उपक्रम-भारतीय साहित्य क्या, विश्व साहित्य में एक अनूठा प्रयास माना जायेगा। -0 इस अत्यधिक श्रमसाध्य, मानसिक एकाग्रता तथा सतत अध्ययन / अनुशीलन से निष्पन्न, सैकड़ों ग्रन्थों के परिशीलन से सजित ग्रन्थ का सम्पादन / संकलन किया हैज्ञानयोगी मान श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' ने आगम अनुयोग कार्य में पचास वर्ष से संलग्न मुनि श्री कन्हैयालाल जी आज के जैन समाज में गहन ज्ञान-साधना ओर कठोर अध्यवसायपूर्ण परिश्रम के एक 'पर्याय' बन गये हैं। आज 74 वर्ष की आयु, शरीर को अत्यन्त रुग्ण कष्टमय स्थिति में भी मुनि श्री घन्टों तक बैठे आगम अनुसन्धान तथा लेखन-सम्पादन कार्य करते हैं तो लगता है, दृढ़ संकल्पी मनुष्य जरा और मृत्यु से भी अपराजेय होता है। 20 मुनि श्री जैन आगम, टीका, चूणि, भाष्य, नियुक्ति आदि के गम्भीर अभ्यासी हैं। विवेचना में अत्यन्त दक्ष, हंस-विवेक के प्रतीक हैं / आपश्री आगमों को प्राचीन अनुयोग शैली को वर्तमान में सर्व सुलभ करने के लिए संकल्पशील हैं। धर्म कथानुयोग तथा गणितानुयोग का सम्पादन कर चुके हैं। चरणानुयोग का कार्य भी प्रायः पूर्ण हो गया है और द्रव्यानुयोग का सम्पादन चल रहा है। 480 इस महान ज्ञान यज्ञ में परम सहयोगी हैं-सुप्रसिद्ध मनीषी श्री दलसुखभाई मालवणिया तथा मुनिश्री के अन्तेवासी, सेवाभावी, विनय, विवेक, विज्ञतासम्पन्न मुनि श्री विनयकुमार जी 'वागीश'। GO आगम अनुयोग ट्रस्ट, अहमदाबाद (पंजीकृत) इस महान ज्ञान राशि को प्रकाशित करके अल्प मूल्य में जिज्ञासुजनों को सुलभ कराने में प्रयत्नशील है। 20 यदि पाठक स्वतन्त्र रूप में एक-एक ग्रन्थ खरीदे तो सम्भवतः यह पूरा सैट 1500/- मूल्य से भी मंहगा पड़ेगा, किन्तु आगम अनुयोग ट्रस्ट ने उन जिज्ञासुओं को कम मूल्य पर सुलभता से प्राप्त कराने के लिए अग्रिम सदस्यता योजना बनाई है। 500/- रुपया देकर जो व्यक्ति सदस्यता स्वीकार करेगे उनको क्रमश: प्रकाशित होने वाले सभी आगम ग्रन्थ निःशुल्क दिये जायेंगे। हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी तीन भाषाओं में अलग-अलग अनुवाद के साथ प्रकाशित होने वाले किसी भी भाषा का एक सैट आप अपनी रुचि के अनुसार सुरक्षित कर सकते हैं। HD अब तक धर्मकथानुयोग दो भाग (मूल्य : 150-150) तथा प्रस्तुत गणितानुयोग (मूल्य. : 200/-) प्रकाशित हो चुके हैं। सम्पर्क करें: आगम अनयोग टस्ट 15. स्थानकवासी जैन सोसायटो, नारायणपुरा क्रॉसिंग के पास, अहमदाबाद-३८००१३ आवरण पृष्ठ के मुद्रक-शैल प्रिन्टर्स, माईथान, आगरा-२८२००३