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________________ सूत्र १०२६-१०३० गया में अट्ठारसमुहसा राई भवर चढहि एगट्टिभागमुहुर्तोह ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ । चह एगट्टिभागमुहुर्तो अहिए, तिर्यक् लोक : सूर्यमण्डलों का बाहल्य अन्तर एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तथाणंतराओ मंडलाओ तयाणतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे पंच पंच जोयणाई पणतीसं च एगट्टिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुढ निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोयणाइं परिरयबुढि निवुड्ढेमाणे निवुड्ढेमाणे सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, ३. ता जया णं सूरिए सव्वमंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, तया णं सा मंडलवया अडयालीस एगट्टि भागे जोयणस्स बाहल्ले णं पण आयाम - विक्खंभे णं, जोपसपसहस्साई उच्च चत्ताले जोयणसए तिणि जीवणराय सहस्साई पण्यरतसहस्साई एउ जोगाई विसेसाहिए परिक्लेवे णं प तया में उत्तम पत्ते उस्कोसए द्वारसमुहले दिवसे भव जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एस णं दोच्चे छम्मासे, एस णं दोच्चस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे, एस णं आइच्चे संवच्छरे । एस णं आइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे, ' - सूरिय० पा० १, पाहु० ८, सु१२० सत्य सूरमंडलाण बाल्लं अन्तरं अद्धा पमाणं च३०. ता सव्वा विणं मंडलवया अडयालीसं च एगट्टिभागे जोयणबाह सव्वा वि णं मण्डलं तरिया दो जोषणाई विक्खभे णं, एस अड्डा तेसीय सपंदरे जोपणसए आहिए ति बा चन्द. पा. १, सू. २० । गणितानुयोग उस समय एक मुहूर्त के इगसठ भागों में से चार भाग कम अठारह मुहूर्त की रात्रि होती है और एक मुहूर्त के इगसठ भाग तथा चार भाग अधिक बारह मुहूर्त का दिन होता है। ५२७ इस प्रकार इस क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य तदनन्तर मण्डल से तदनन्तर मण्डल का संक्रमण करता करता प्रत्येक मण्डल में पाँच पाँच योजन और एक योजन के इगसठ भागों में से पैंतीस भाग जितनी विष्कम्भ वृद्धि तथा अठारह अठारह योजन की परिधि-वृद्धि को घटाता घटाता सर्व आभ्यन्तर मण्डल की ओर बढ़ता हुआ गति करता है । (३) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति करता है तब मण्डल का बाहल्य एक योजन इगसठ भागों में से अड़तालीस भाग जितना है । निन्यानवे हजार छः सौ चालीस योजन का आयामविष्कम्भ है । तीन लाख पन्द्रह हजार निवासी योजन से कुछ अधिक की परिधि कही गई है। उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त का दिन होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है । ये दूसरे छ: मास (उत्तरायण के) है। यह दूसरे छः मास का अन्त है । यह आदित्य संवत्सर है। यह आदित्य संवत्सर का अन्त है । २ सर्व सूर्य मण्डलों का बाहुल्य अन्तर और मार्ग प्रमाण३०. सभी मण्डलों का बाहल्य (मोटाई) एक योजन के इकसठः भागों में से अड़तालीस भाग जितना है । सभी मण्डलों के विद्यमान एक सौ तिरासी ( मण्डलों) के (गुणन से ) पाँच सौ दस योजन ( जितना लम्बा ) मार्ग हैं | अन्तर का विष्कम्भ दो योजन का है । सम. ४८ सु. ३ १ ३ गणित की प्रक्रिया एक सौ तिरासी मण्डल हैं और प्रत्येक मण्डल का अन्तर दो योजन का है, अतः एक सौ तिरासी को दो से गुणा करने पर तीन सो छासठ योजन होता है । एक योजन के इगसठ भागों में से यहाँ अड़तालीस भाग ग्राह्य हैं अतः अडतालीस को एक सौ तिरासी ( मण्डल की संख्या) से गुणा करने पर आठ हजार सात सौ चौरासी भाग हुए, इनके इगसठ ( एक योजन के) का भाग देने पर एक सौ चम्मालीस योजन हुए । तीन सौ छासठ योजन और एक सौ चम्मालीस योजन के जोड़ने पर पाँच सौ दस योजन हुए ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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