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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक
सूत्र ४५-४६
मंडवगा, तंबोली-मंडवगा, मुद्दिया-मंडवगा, णागलया-मंडवगा, है, ताम्बूली (पानों की बेल) मंडप है, मृद्वीका (अंगूर) मंडप है, अतिमुत्त-मंडवगा, अप्फोआ-मंडवगा, मालुया-मंडवगा, साम- नागलता मंडप है, अतिमुक्तलता मंडप है, अप्फोगा (वनस्पति लया-मंडवगा, णिच्चं कुसुमिया-जाव-सुविभत्त पडिमंजरि विशेष) मंडप है, मालुका (वृक्ष विशेष) मंडप हैं, श्यामलता मंडप वडिसगघरा सव्वरयणामया अच्छा-जाव-पडिरूवा। है, ये सभी मंडप सर्वदा पुष्पों से युक्त-यावत्-सुन्दर रचनायुक्त -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १२७ प्रतिमंजरी रूप शिरोभूषण से शोभायमान है, और सर्वात्मना
रत्नमय, स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। जाईमडवाईसु विविहसंठिया पुढवि-सिलापट्टगा- जाई-मण्डपादि में विविध आकार के पृथ्वीशिलापट्ट४६. तेसु णं जातीमंडवएसु-जाव- सामलयामंडवएसु बहवे पुढवि- ४६. उन जातिमंडपों में यावत् -श्यामलता मंडपों में अनेक
सिलापट्टगा पण्णत्ता, तं जहा-हंसासण-संठिता, कोंचासण- पृथ्वी शिलापट्टक कहे गये हैं । यथा-हंसासन जैसे हैं, क्रोचासन, संठिता, गरुलासण-संठिता, उण्णयासण-संठिता, पणयासण- जैसे हैं, गरुडासन जैसे हैं, उन्नतासन जैसे हैं, प्रणतासन के समान संठिता, दोहासण संठिता, भद्दासण-संठिता, पक्खासण- है, दीर्घासन के समान है, भद्रासन के समान है, पक्ष्यासन के संठिता, मगरासण-संठिता, उसभासण-संठिता, सीहासण- समान है, मकरासन के समान है, वृषभासन के समान है, सिंहासन संठिता, पउमासण-संठिता, दिसासोत्थियासण-संठिता, पण्णत्ता के समान है, पद्मासन के समान है, दिक्सौवस्तिकासन के समान तत्थ बहवे वरसयणासण विसिट्ठसंठाणसंठिया पण्णता कहे गये हैं, हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ पर बहुत से पृथ्वी शिलापट्टक समणाउसो!
विशिष्ट शयनासन संस्थान वाले कहे गये हैं। आइण्णग-रूय-बूर-णवणीत-तूलफासा मउया सव्वरयणामया उनका स्पर्श आजिलक (चर्ममय वस्त्र) रुई-बूर (आक की अच्छा-जाव-पडिरूवा।
रुई) नवनीत-तूल (हंस के पंख) के स्पर्श जैसा मृदु (सुकोमल) -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२१ है, तथा सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-यावत्--प्रतिरूप है । वणसंडे वाणमंतराणं विहरणं
वनखण्ड में वाणव्यन्तरों का विचरण४७. तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति, सयंति, ४७. उन आसनों पर अनेक वाणव्यन्तर देव और देवियाँ सुखपूर्वक
चिट्ठन्ति, णिसीयंति, तुयट्टन्ति, रमंति, ललंति, कोलंति, बैठती है, सोती है, स्थित होती है, विश्रामार्थ बैठती है, लेटती मोहंति, पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं है, रमण करती है, मनोविनोद करती है, क्रीडा करती है, रतिकल्लाणाणं कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा क्रीडा करती है, इस प्रकार से पूर्व फल से किये गये शुभ-सद् विहरंति । -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२७ आचरण से अजित-शुभ पराक्रम से जनित, शुभरूप, कल्याण रूप,
कृतकों के फलविपाक को भोगते हुए समय को व्यतीत
करती हैं। पउमवरवेइयाए अंतो एगे महं वणसंडे
पद्मवरवेदिका के अन्तर्भाग में एक वनखण्ड४८. तीसे णं जगतीए उप्पि अंतो पउमवरवेइयाए-एत्थ णं एगे ४८. उस जगती के ऊपर और पद्मवरवेदिका के अन्तर्भाग में महं वणसंडे पण्णते।
एक विशाल वनखंड कहा गया है। देसूणाई दो जोयणाई विक्खंभेणं वेइयासमएणं परिक्खेवेणं, जो कुछ कम दो योजन का विस्तार वाला एवं परिक्षेपकिण्हे किण्होभासे वणसंड-वण्णओ (मणि) तणसद्दविहूणो पद्मवरवेदिका के परिक्षेप जैसा है। इसका रूप कृष्ण, कृष्ण यो । -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२७ प्रतिभास सदृश आदि वनखण्ड के वर्णन के समान समझना
चाहिये, किन्तु मणियों और तृणों का शब्द नहीं होता है ऐसा
जानना चाहिये। वणसंडे वाणमंतराणं विहरणं
वनखण्ड में वाणव्यन्तरों का विहरण४६. तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति-जाव- ४६. उस वनखण्ड में बहुत से वाण-व्यन्तर देव और देवियाँ
सुभाणं कंताणं कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेस पच्चणुम्भव- सुखपूर्वक बैठती है। यावत्-शुभ कल्याणरूप कृतकों के माणा विहरति। -जीवा०प०३, २०१, सु० १२७ फलविपाक का अनुवेदन करती हुई विचरण करती है, समय यापन
करती है।
१ जंबु व० १, सु०६।