SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जंबुद्दीवस्स विजयदार वण्णओ जंबूद्वीप : विजयद्वार वर्णन जंबुद्दीवस्स चत्तारि दारा जम्बूद्वीप के चार द्वार५०. ५० जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स कति दारा पण्णता? ५०. प्र० हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के कितने द्वार कहे गये हैं ? उ० गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा-(१) विजये, उ०-हे गौतम ! चार द्वार कहे गये हैं। यथा-(१) विजय, (२) वेजयंते, (३) जयंते, (४) अपराजिए।' (२) वैजयन्त, (३) जयन्त, और (४) अपराजित । -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२८ विजयदारस्स पमाणं विजयद्वार का प्रमाण५१. ५० कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजये नाम दारे ५१. प्र०-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का विजय नाम का पण्णत्ते ? द्वार कहाँ पर कहा गया है ? उ० गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयस्स पुरथिमेणं उ०-हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मध्य में स्थित पणयालोसं जोयणसहस्साई अबाधाए', जंबुद्दीवे दीवे मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में व्यवधान रहित पैंतालीस हजार योजन पुरच्छिमपेरते लवणसमुद्दपुरच्छिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं जाने पर जम्बूद्वीप की पूर्व दिशा के अन्त में एवं लवण समुद्र के सीताए महाणदीए उप्पि-एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स पूर्वार्ध के पश्चिम भाग में सीता महानदी के ऊपर जम्बूद्वीप नाम विजये णामं दारे पण्णत्ते । वाले द्वीप का विजय नामक द्वार कहा है। अट्ट जोयणाई उडढं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई यह विजय द्वार ऊँचाई में आठ योजन ऊँचा है, और चार विवखंभेणं, तावतियं चेव पवेसेणं, सेए बरकणगथूभि- योजन का चौड़ा है, एवं उतना ही प्रवेश करने का स्थान है. यागे. ईहामिय-उसभ-तुरग-नर-मगर-विहग-वालग- श्रेष्ठ अंकरत्न से निर्मित होने के कारण इसका वर्ण शुक्ल है. किण्णर-रुरू-सरभ-चमर-कुजर-वणलय-पउमलय-भत्ति- और शिखर श्रेष्ठ स्वर्ण का बना हुआ है, इस पर ईहामृग, वृषभ, चित्ते, खंभुग्गय-वइरवेदिया परिगयाभिरामे विज्जाहर अश्व, मनुष्य, मकर, पक्षी, नाग, किन्नर, रुरू, अष्टापद, चमरी जमल जयलजंतजुते इव अच्चीसहस्समालिणीए, रूवग- गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र बने हुए हैं, स्तम्भों सहस्स कलिते. मिसिमाणे, भिम्भिसमाणे चक्खुल्लोयण- पर बनी हुई बज रत्नमयी वेदिकाओं से अत्यन्त शोभायमान हो लेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे।। रहा है। समश्रेणी में स्थित विद्याधर युगल यन्त्र चलित जैसे --जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२७ प्रतीत होते हैं । हजारों किरण समूहों से परिव्याप्त, हजारों रूपों से युक्त, दीप्यमान, दैदीप्यमान, नेत्राकर्षक, सुखद स्पर्श एवं सश्रीक रूप सम्पन्न है। विजयदारस्स वण्णओ विजयद्वार का वर्णन५२. दारस्स वण्णओ तस्सिमो होइ, तं जहा ५२. इस द्वार का वर्णन इस प्रकार है । यथा १ जंबु० व० १, सु०७ । २ सम०४५, सु०६। ३ ठाणं ८, सु० ६५७ । ४ ठाणं ४, उ०२, सु० ३०३/१, २ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy