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________________ सूत्र ४१-४५ तिर्यक् लोक गणितानयोग १३६ वावीआईणं देसेसु उप्पायपव्वयाइं बावड़ियों के समीप उत्पात पर्वतादि४१. तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे देसे तहि तहिं तासि णं ४१. उस बनखण्ड के उन-उन प्रदेशों में, प्रदेशों के एक देश में खुड्डियाणं बावीणं-जाव-बिलपंतीयाणं बहवे उप्पाय-पव्वया, जो छोटी-छोटी वापिकायें-यावत्-कूपपंक्तियाँ हैं, उनके णियइ-पव्वया, जगति-पवया, दारु-पव्वयगा, दग-मंडलगा, प्रदेशों में, प्रदेशों के एक देश में अनेक उत्पात पर्वत, नियति दग-मंचका, दग-मालगा, दग-पासायगा, ऊसडा, खुल्ला, पर्वत, जगति पर्वत, दारु पर्वत, दकमंडप (स्फटिकमणि से बने हुए खड-हडगा, अंदोलगा, पक्खंदोलगा, सव्वरयणामया -जाव. मंडप) दकमंचक, दकमलिका (स्फटिकमणि से निर्मित छत का ऊपरी पडिरूवगा। भाग, तला, मंजिल), दकप्रासाद है। उनमें से कितने ही ऊँचे हैं, -जीवा०प०३, उ० १, सु० १२७ कितने ही छोटे हैं कितने ही खडहडगा (चौड़ाई में कम और लम्बाई में अधिक विस्तार वाले) कितने ही अन्दोलक (हिंडोला) रूप है। कितने ही पक्ष्यन्दोलक झूला रूप है। तथा ये सभी सर्वात्मना रत्नमय, स्फटिक के समान स्वच्छ-यावत् प्रतिरूप है। उप्पायपव्वयाइसु हंसासणाई उत्पात पर्वतों पर हंसासन आदि४२. तेसु णं उप्पाय-पव्वतेसु-जाव-पक्खंदोलएसु बहवे हंसासणाई ४२. उन उत्पाद पर्वतों यावत्-पक्ष्यन्दोलकों में अनेक हंसासन कोंचासणाई गरुलासणाई उण्णयासणाई पणयासणाई दीहा- हैं। क्रोचासन है, गरुडासन है, उन्नतासन है, प्रणतासन है, सणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई उसभासणाई दीर्घासन है, सिंहासन है, पद्मासन है, दिक् सौवस्तिकासन है । सीहासणाई पउमासणाई दिसा सोवत्थियासणाई सव्वरयणा- ये सभी आसन सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-यावत्-प्रतिमयाइं अच्छाई-जाब-पडिरूवाई। रूप है। -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२७ वणसंडदेसेसु आलिघराई वनखण्ड के अनेक भागों में आलिगृहादि४३. तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहवे ४३. उस वनखण्ड के स्थान-स्थान पर और उनके भी एक-एक आलिघरा, मालिघरा, कयलिघरा, लयाघरा, अच्छणघरा, देश में बहुत से आलिगृह (आलिनामक वनस्पतियों से बने घर), पेच्छणघरा, मज्जण-धरगा, पसाहण-घरगा, गब्भ-घरगा, मालिगृह, कदलीगृह, लतागृह, अच्छणगृह, (विश्रामगृह), प्रेक्षणगृह, मोहण-घरगा, साल-घरगा, जाल-घरगा, कुसुम-घरगा, चित्त. मज्जनगृह-स्नानगृह, प्रसाधन-शृगारगृह, गर्भगृह, (तलघरघरगा, गंधव-धरगा, आयंस-घरगा, सव्वरयणामया अच्छा गुंभारिया), मोहनगृह-केलिगृह, शालागृह, जालगृह, (जाली-जाव-पडिरूवा । झरोखायुक्त घर) पुष्पगृह (पुष्पों के समूह से युक्त घर) चित्रगृह -जीवा०प० ३, उ० १, सु० १२७ (चित्रों की प्रधानता वाले घर-चित्रशाला), गंधर्वगृह (नाट्य, गीत, नृत्य किये जाने वाले घर), दर्पणमय गृह है, ये सभी गृह सर्वात्मा रत्नों से निर्मित स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। आलिघराईसु हंसासणाई आलिगहादि में हंसासन आदि४४. तेसु णं आलिघरएसु-जाव-आयंसघरएसु बहुइं हंसाप्तणाई ४४. उन आलिगृहों -यावत्-दर्पणगृहों में बहुत से हंसासन -जाव-दिसासोवत्थियासणाई सम्वरयणामयाई अच्छाई-जाव- यावत्-दिक् सौवस्तिकासन रखे हुए है, ये आसन पूर्ण रूप से पडिरूवाई। -जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १२७ रत्नमय स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है । वणसंडदेसेसु जाइमंडवगाई वनखण्ड के अनेक भागों में जाइ-मण्डप आदि४५. तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे देसे तहि तहिं बहवे ४५. उस वनखण्ड के स्थान-स्थान पर और उन स्थानों के भी जाइ-मंडवगा, जूहिया-मंडवगा, मल्लिया-मंडवगा, णवमल्लिया एक-एक देश में अनेक जातिमंडप (चमेली पुष्पों से भरे मंडप) मंडवगा, बासंती-मंडवगा, दधिवासुया-मंडवगा, सुरिल्लि- है, जूहिका (जूही के पुष्प) मंडप है, मल्लिका (मोगरा पुष्प) मंडप है, नव मल्लिका-मंडप है, वासन्ती लता मंडप है, दधिवासुक (वनस्पति विशेष) के मंडप है, सुरिल्लि (वनस्पति विशेष) मंडप
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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