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मूत्र१०१८
तिर्यक् लोक : पौरुषी छाया का निवर्तन
गणितानुयोग
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(ख) ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंक- (ख) जब सूर्य सर्व बाह्य मण्डल को प्राप्त करके गति करता मित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया है, उस समय परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहूर्त की रात्रि अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालस-मुहत्ता होती है, जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है । दिवसे भवइ, तंसि च ण दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ, उस दिन सूर्य दो-पौरुषी-छाया का निवर्तन करता है, तं जहा
यथाउग्गमण-मुहत्तंसि य, अत्थमण-मुहुत्तंसि य,
उद्गमन मुहूर्त में और अस्तमन मुहूर्त में, लेसं अभिवड्ढमाणे नो चेव ण निव्वुड्ढेमाणे, लेश्या को बढ़ाता हुआ, घटाता हुआ नहीं, तत्थ णं जे ते एवमाहंसु
उनमें से जो इस प्रकार कहते हैं(क) २. ता अत्थि णं से दिवसे-जंसि णं दिवसंसि (२) ऐसा एक दिवस है--जिस (दिवस) में सूर्य दो पौरुषी सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ,
छाया का निवर्तन (निष्पादन) करता है। अस्थि णं से दिवसे-जसि णं दिवसंसि सूरिए नो किचि ऐसा एक दिवस है-जिस (दिवस) में सूर्य किसी प्रकार पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ,
की छाया का निवर्तन नहीं करता है । ते एवमाहंसु
वे अपनी मान्यताओं को इस प्रकार सिद्ध करते हैं(क) ता जया णं सूरिए सम्वन्भंतर मण्डलं उवसंक- (क) जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को प्राप्त करके गति मित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसिए करता है तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह महर्त का दिन अट्ठारस-मुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुबालस-मुहुत्ता होता है और जघन्य बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। राई भवइ, तसि च णं दिवसंसि सूरिए दु-पोरिसिच्छायं निव्वत्तेइ उस दिन सूर्य दो पौरुषी छाया का निवर्नन करता है, तं जहा
यथाउग्गमण-मुहुत्तंसि य, अत्थमण-मुहुनंसि य,
उद्गमन मुहूर्त में और अस्तमन महूर्त में, लेसं अभिवड्ढेमाणे, नो चेव णं निम्बुड्ढेमाणे, लेश्या (प्रकाश) को बढ़ाता हुआ-घटाता हुआ नहीं । (ख) ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मण्डलं उवसंक- (ख) जब सूर्य सर्व बाह्यमण्डल को प्राप्त करके गति करता मित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया है, तब परम उत्कर्ष प्राप्त उत्कृष्ट अठारह मुहर्त की रात्रि होती अट्ठारस-मुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालस-मुहते है और जघन्य बारह मुहूर्त का दिन होता है। दिवसे भवइ, तंसि च णं दिवसंसि सूरिए नो किचि पोरिसिच्छायं उस दिन सूर्य किसी प्रकार की पौरुषी छाया का निवर्तन निव्वत्तेइ, त जहा
नहीं करता है यथाउग्गमण-मुहुत्तसि य, अत्थमण-मुहुत्तंसि य,
उद्गमन मुहूर्त में और अस्तमन मुहूर्त में, नो चेव ग लेसं अभिवड्ढेमाणे वा, निव्वुड्ढेमाणे वा', न लेश्या (प्रकाश) को बढ़ाता हुआ, न घटाता हुआ,
-सूरिय. पा. ६, सु. ३१
१ (क) इसके अनन्तर यहाँ स्वमतसूचक "वयं पुण एवं वयामो" यह वाक्य नहीं है और न स्वमत का कथन ही है ।
"तदेवं परतीथिक-प्रतिपत्तिद्वयं श्रुत्वा भगवान् गौतमः स्वमतं पृच्छति, ता कइ कट्टमित्यादि" -सूर्य. टीका. टीकाकार का यह कथन सूर्यप्रज्ञप्ति की संकलन शैली के अनुरूप नहीं है क्योंकि प्रतिपत्तियों के कथन के अनन्तर "वयं
पुण एवं वयामो" इस वाक्य से ही सर्वत्र स्वमत का प्रतिपादन किया गया है। (ख) चन्द पा.६ सु. ३१ । २ यह पंक्ति सम्पादक ने दी है।