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________________ ४२२ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन सूत्र ६०६-६११ दाहिणिल्लपिसायदेवठाणाइं दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान१०६. प० १–कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं ६०६. प्र०-(१) हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दक्षिण के पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? पिशाच देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? २-कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परि- (२) हे भगवन् ! दक्षिण के पिशाच देव कहाँ रहते हैं ? वसंति ? उ० १-गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं उ०-(१) हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरु पर्वत इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स से दक्षिण में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सहस्र योजन विस्तीर्ण रत्नजोयणसहस्सबाहल्लस्स। मय काण्डरूप पृथ्वी पिण्ड के, उरि एग जोयणसतं ओगाहेत्ता, ऊपर से सौ योजन अवगाहन करने पर, हेट्ठा वेगं जोयणसतं वज्जेत्ता, और सौ योजन नीचे के भाग को छोड़कर, मझे अट्ठसु जोयणसएसु-एत्थ णं दाहिणिल्लाणं मध्य के आठ सौ योजन में तिरछे दक्षिण के पिशाच देवों के पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जनगरावास- असंख्येय लाख भौमेयनगरावास हैं-ऐसा कहा गया है। सयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं ।। ते णं भोमेज्ज-णगरा बाहिं वट्टा, जहा ओहिओ (१) ये भौमेयनगर बाहर से वृत्ताकार हैं--सामान्य भवन भवणवण्णो तहा भाणियन्वो-जाव-पडिरूवा। वर्णन जिस प्रकार है उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए-यावत् नित्य नये दिखाई देने वाले हैं। एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्ज- यहाँ पर्याप्त तथा अपर्याप्त दक्षिण के पिशाच देवों के स्थान ताणं ठाणा पणत्ता। कहे गये हैं। २-तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे-तत्थ णं बहवे (२) इन देवों के [उपपात समुद्घात और स्वस्थान]-ये तीनों दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति । महिड्ढिया ही लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ पर अनेक दक्षिण के जहा ओहिया-जाब-विहरंति ।' पिशाच देव रहते हैं। वे महधिक हैं-सामान्य वर्णन के समान -पण्ण. प. २, सु. १६०(१) -यावत्-रहते हैं। दाहिणिल्लपिसायइंदस्स "कालस्स" वण्णणं- दाक्षिणात्य पिशाचेन्द्र 'काल' का वर्णन६१०. काले यऽत्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसइ । महिड्ढीए ६१०. यहाँ पर काल नामक पिशाचराज पिशाचेन्द्र रहते हैं-वे -जाव-पभासेमाणे । से णं तत्थ तिरियमसंखेज्जाणं भोमेज्जग- महधिक हैं-यावत्-प्रभासमान हैं। वे वहाँ पर तिरछे असंख्येय नगरावाससतसहस्साणं, चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं, चउण्ह- लाख भौमेयनगरावासों का चार हजार सामानिक देवों का, मग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणि- सपरिवार चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदाओं का, सात याणं, सत्तण्हं अणियाधिवईणं, सोलसण्हं आयरक्खदेवसाह- सेनाओं का, सात सेनापतियों का, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों स्सीणं, अण्णेसि च बहूणं दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं देवाण का और अन्य अनेक दक्षिण के पिशाच वाणव्यन्तर देव-देवियों य देवीण य आहेवच्चं-जाव-विहरइ । का आधिपत्य करता हुआ-यावत् विचरते हैं । -पण्ण. प. २, सु. १६०(२) उत्तरिल्लपिसायदेवाणं ठाणाई उत्तरीय पिशाचदेवों के स्थानतेसि इंदस्स महाकालस्स वष्णणं च और उनके इन्द्र महाकाल का वर्णन६११. १०-कहि णं भंते ! उतरिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ता-९११. प्र०-है भगवन ! पर्याप्त और अपर्याप्त उत्तर के पिशाच ऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? .. देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला पिसाया देवा परिवसंति ? हे भगवन् ! उत्तर के पिशाचदेव कहाँ रहते हैं ? १ जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० १२१ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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