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________________ सूत्र ६११-६१४ तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन गणितानुयोग ४२३ उ०--गोयमा ! जहेव दाहिणिल्लाणं वत्त व्वया तहेव उत्त- उ०-हे गौतम ! जिस प्रकार दक्षिण के पिशाचों का वर्णन रिल्ला णं पि । नवर-मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं । है उसी प्रकार उत्तर के पिशाचों का भी वर्णन है, विशेष-ये -पण्ण. प. २, सु १६१ (१) मेरु पर्वत के उत्तर में है। महाकाले यऽत्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसं ति यहाँ पिशाचराज पिशाचेन्द्र महाकाल रहते हैं-यावत् -जाव-विहरंति। -पण्ण. प. २, सु १६१(२) विहार करते हैं। वाणमंतराणं देवाणं ठाणजाणणानि(सो, तेसि इंदा य- वाणव्यन्तरों के स्थान जानने का निर्देश और उनके इन्द्र९१२. एवं जहा पिसायाणं तहा भूयाणं पि-जाव-गंधव्वाणं । ६१२. जिस प्रकार पिशाचों का वर्णन है उसी प्रकार भूतों काणवर-इंदेसु णाणत्तं भाणियव्वं इमेण विहिणा यावत्- गंधर्वो का है। विशेष--इन्द्रों के विभिन्न नाम इस प्रकार कहने चाहिए। (२) भूयाणं-१. सुरूव, २. पडिरूवा । (२) भूतों के–दक्षिण के इन्द्र १, सुरूप; उत्तर के इन्द्र २, प्रतिरूप। (३) जक्खाणं-१. पुण्णभद्द, २. माणिभद्दा । (३) यक्षों के दक्षिण के इन्द्र १, पूर्णभद्र; उत्तर के इन्द्र २, मणिभद्र। (४) रक्खसाणं-१. भीम, २. महाभीमा। (४) राक्षसों के-दक्षिण में इन्द्र १, भीम'; उत्तर के इन्द्र २, महाभीम। (५) किण्णराणं-१. किण्णर, २. किंपुरिसा । (५) किन्नरों के-दक्षिण के इन्द्र १, किन्नर ; उत्तर के इन्द्र २, किंपुरुष । (६) किंपुरिसाणं-१. सप्पुरिस, २. महापुरिसा। (६) किंपुरुषों के दक्षिण के इन्द्र १, सत्पुरुष, उत्तर के इन्द्र २, महापुरुष१२। (७) महोरगाणं-१. अइकाय, २. महाकाया। (७) महोरगों के-दक्षिण के इन्द्र १, अतिकाय; उत्तर के इन्द्र २, महाकाय । (८) गंधव्वाणं-१. गीतरती, २. गीतजसे-जाव-विहरति । (८) गंधर्वो के दक्षिण के इन्द्र १, गीतरती५, उत्तर के इन्द्र २, गीतयश-यावत्-रहते हैं। वाणमंतरेंदनामसंगहगाहाओ वाणव्यन्तर इन्द्रों के नामों की संग्रह गाथाएँ११३. १, काले य महाकाले, २. सुरुव-पडिरूव, ३. पुण्णभद्दे य। ६१३. गाथार्थ-(१) काल, (२) महाकाल, (३) सुरूप, अमरवइ माणिभद्दे, ४. भीमे य तहा महाभीमे ॥ (४) प्रतिरूप, (५) पूर्णभद्र, (६) मणिभद्र, (७) भीम, (८) महा५. किण्णर किंपुरिसे खलु, ६. सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे । भीम, (६) किन्नर, (१०) किंपुरुष, (११) सत्पुरुष, (१२) महा७. अइकाय महाकाए८. गीयरई चेव गीतजसे । पुरुष, (१३) अतिकाय, (१४) महाकाय, (१५) गीतरती, -पण्ण. प. २, सु १९२ (१६) गीतयश । वाणमन्तरदेवाणं चेइयरुक्खा वाणव्यन्तर देवों के चैत्यवृक्ष११४. एएसि गं अट्टण्हं वाणमंतरदेवाणं अट्ठ चेयइरूक्खा पणत्ता, ६१४. इन आठ वाणव्यन्तर देवों के आठ चैत्य वृक्ष कहे गये हैं, तं जहा-गाहाओ यथा-गाथार्थकलंबो अ पिसायाणं बडो जस्खाण चेइयं । (१) पिशाचों का चैत्यवृक्ष-कदंब, (२) यक्षों का चैत्यतुलसी भूयाण भवे, रक्खसाणं च कंडओ॥ .. वृक्ष - वटवृक्ष, (३) भूतों का चैत्यवृक्ष-तुलसी, (४) राक्षसों असोओ किण्णराणं च, किंपुरिसाण य चंपओ। का चैत्यवृक्ष-कंटक, (५) किन्नरों का चैत्यवृक्ष-अशोक, नागरूक्खो भयंगाणं, गंधव्वाण य तेंदुओ। (६) किंपुरुषों का चैत्यवृक्ष-चपक, (७) भुजंगों का चैत्यवृक्ष-----ठाणं अ.८, सु ६५४ नागवृक्ष, (८) गंधर्वो का चैत्यवृक्ष-तिबुक ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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