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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन
सूत्र ६१४-६१७
चेइयरुषखाणं उच्चत्तं
चैत्य वृक्षों की ऊँचाईवाणमंतराणं देवाणं चेयइरूक्खा अट्ट जोयणाई उड्ढं उच्च- वाणव्यन्तर देवों के चैत्यवृक्ष आठ योजन ऊँचे कहे गये हैं। तेणं पण्णत्ता.
-सम. ८, सु ३ अपवनियवाणमन्तरदेवठाणाई
अणपत्रिक वाणव्यन्तर देवों के स्थान-- ११५. ५० १-कहि णं भंते ! अणवनियाणं देवाणं पज्जताऽ- ६१५. प्र०-(१) हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अणपनिक पज्जत्ताणं ठाणा पण्णता?
देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? २-कहि णं भंते ! अणवणिया देवा परिवसंति ? (२) हे भगवन् ! अणवन्निक देव कहाँ रहते हैं ? उ० १-गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स उ.-(१) हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सहस्र योजन कंडस्स जोयणसहस्स बाहल्लस्स
विस्तीर्ण रत्नमय काण्डरूप पृथ्वीपिण्ड के, उरि एग जोयणसयं ओगाहित्ता,
ऊपर से सौ योजन अवगाहन करने पर, हेट्ठा वेगं एगं जोयणसयं बज्जेत्ता,
और सौ योजन नीचे के भाग को छोड़कर, मज्झे अट्ठसु जोयणसतेसु
मध्य के आठ सौ योजन में, एत्थ णं अणवण्णियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा तिरछे अणपनिक देवों के असंख्य लाख भौमेयनगरावास हैंणगरावाससयसहस्सा भवतीतिमक्खातं । ऐसा कहा गया है।
तेणं भोमेज्ज-णगरा बाहिं वट्टा जहा ओहिओ भवण- ये भौमेय नगर बाहर से बृत्ताकार हैं जिस प्रकार सामान्य वण्णओ, तहा भाणियव्वो-जाव-पडिरूवा एत्थ णं अण- भवन वर्णन हैं उसी प्रकार कहना चाहिए यावत्-वे भवन वणियाणं देवाणं ठाणा पण्णत्ता।
नित नये दिखाई देने वाले हैं-यहाँ पर अणपन्निक देवों के स्थान
कहे गये हैं। २-उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे,
(२) उपपात की अपेक्षा से ये लोक के असंख्यातवें भाग
समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे,
समुद्घात की अपेक्षा से ये लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, तत्थ णं बहवे स्वस्थान की अपेक्षा ये लोक के असंख्यातवें भाग में हैं । वहाँ अणवन्निया देवा परिवसंति, महड्ढिया जहा पिसाया पर अनेक अणपनिक देव रहते हैं। वे महधिक हैं। जिस प्रकार जाव विहरंति ।
पिशाचों का वर्णन है उसी प्रकार इनका वर्णन है—यावत्-ये -पण्ण. प. २, सु. १६३(१) रहते हैं। अणवनिय देवेंदा
अणपन्निक देवेन्द्र६१६. सन्निहिय-सामाणा यऽत्थ दुवे अणवणिंदा अणवण्णियकुमार- ६१६. अणपनिक कुमारराज अणपन्निकेन्द्र सन्निहित और रायाणो परिवसति । महिड्ढिया जहा काल-महाकाला। सामान्य ये दो इन्द्र यहाँ रहते हैं-ये महधिक हैं-जिस प्रकार
-पण्ण. प. २, सु. १६३(२) काल-महाकाल इन्द्रों का वर्णन है उसी प्रकार इनका वर्णन है। दाहिणिल्ल उत्तरिल्ल अणवन्नियदेवाणं,
दाक्षिणात्य और उत्तरीय अणपन्निक देवों की और तेसि इंदाणं च वत्तवया निदेसो
उनके इन्द्रों की वक्तव्यता का निर्देशएवं जहा काल-महाकालाणं दोण्हं पि दाहिणिल्लाणं उत्त- जिस प्रकार दक्षिण और उत्तर के काल-महाकाल इन्द्रों का रिल्लाणं य भणिया तहा सन्निहिय-सामाणाईणं पि भाणि- वर्णन है उसी प्रकार सन्निहित और सामान्य नामक इन्द्रों का यब्बा ।
-पण्ण. प. २, सु. १६४ वर्णन है। अणवन्नियाइवाणमन्तरदेवनामाइं तहासोलसेंदनाम- अणपन्निकादि वाणव्यन्तरदेवों के नामगाहाओ
और उनके सोलह इन्द्रों के नाम६१७. १. अणवन्निय, २. पणवन्निय,
६१७, (१) अणपन्निक, दक्षिण के इन्द्र सन्निहित १७, २ उत्तर के ३. इसिवाइय, ४. भूयवाइया चेव ।
इन्द्र सामान्य १८ ।