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________________ सूत्र९०६-६०८ तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन गणितानुयोग ४२१ कामरूवदेहधारी, णाणाविह वण्णरागवर- देह धारण करने वाले हैं विविध वर्ण के विचित्र चमकते हुए वत्थचित्त-चिल्लगणियंसणा, विविहदेसिणेच्छगहियवेसा, श्रेष्ठ वस्त्र पहनने वाले हैं, नाना देशों के नेपथ्य वेशभूषा धारण पमुडयकंदप्प-कलह-केलि-कोलाहलप्पिया, हासबोल- करने वाले हैं, कंदर्प क्रीडा से ये प्रमुदित रहते हैं। कलह-क्रीड़ा बहला, असि-मोग्गर-सत्तिकोंतहत्था, अणेगमणिरयण- और कोलाहल इन्हें प्रिय है, ये स्वयं भी अत्यधिक हास्य और विविहणिजुत्तविचितचिंधगया, सुरुवा-जाव-पभासे- कोलाहल करने वाले हैं। इनके हाथों में तलवार, मुद्गर शक्ति माणा। और भाले रहते हैं इनके चिह्न विविध मणिरत्नों से युक्त है सुरूप है-यावत् -प्रभासित करते हैं। ते गं तत्थ साणं साणं भोमेज्जणगरावास सत- वे अपने अपने असंख्यात लाख भौमेय नगरावासों का, सहस्साणं, साणं साणं सामाणिय साहस्सीण, साणं हजारों सामाजिक देवों का, अग्रमहिषियों का, परिषदाओं का, साणं अग्गमहिसोणं, साणं साणं परिसाणं, साणं साणं सेनाओं का, सेनापतियों का, हजारों आत्मरक्षक देवों का और अणियाणं, साणं साणं आणियाहिवईणं साणं साणं आय- अन्य अनेक वाणव्यन्तर देव देवियों का आधिपत्य करते हएरक्खदेवसाहस्सीणं अणेस च बहूणं वाणमंतराणं यावत्-रहते हैं। देवाण य देवीण य आहेबच्च-जाव-विहरति ।' -पण्ण. प.२, .१८८ पिसायवाणमंतरदेवठाणाई 'पिशाच' वाणव्यन्तर देवों के स्थान१०७. प०१-कहिणं भंते ! पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं १०७. प्र०-(१) हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त पिशाच ठाणा पण्णत्ता? देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? २--कहि णं भंते ! पिसाया देवा परिवसंति ? (२) हे भगवन् ! पिशाच देव कहाँ रहते हैं ? उ० १-गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स उ०-(१) हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सहस्र योजन कंडस्स जोयणसहस्स बाहल्लस्स, विस्तीर्ण रत्नमय काण्डरूप पृथ्वीपिण्ड के, उरि एग जोयणसतं ओगाहित्ता, ऊपर से सौ योजन अवगाहन करने पर, हेट्ठा वेगं जोयणसतं वज्जेत्ता, और सौ योजन नीचे के भाग को छोड़कर, मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु-एत्थ णं पिसायाणं मध्य के आठ सौ योजन में तिरछे पिशाच देवों के असंख्यात देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जणगरावाससतसहस्सा लाख भौमेय नगरावास हैं। भवंतीति मक्खातं । ते णं भोमेज्जणगरा बाहि वट्टा जहा ओहिओ ये भोमेय नगरावास बाहर से वृत्ताकार हैं, अन्दर से चतुष्कोण भवणवण्णओ (स० १७७) तहा भाणियब्वो-जाव- हैं-इत्यादि सामान्य भवन वर्णन के समान कहना चाहिएपडिरूवा-एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्ज- यावत् - नित्य नये दिखाई देने वाले हैं। इन भवनों में पर्याप्त ताणं ठाणा पण्णत्ता। तथा अपर्याप्त पिशाच देवों के स्थान कहे गये हैं। २-तिस वि लोगस्स असंखेज्जइभागे । तत्थ णं बहवे (२) (इनका उपपात समुद्घात और स्वस्थान) ये तीनों ही पिसाया देवा परिवसंति । महिडिया जहा ओहिया लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ अनेक पिशाच देव रहते -जाव-विहरंति । हैं। वे महधिक हैं शेष सामान्य वर्णन के समान है-यावत्-पण्ण. प. २, सु. १८६(१) दिव्य भोग भोगते हुए रहते हैं। पिसायदेवइंदा पिशाच देवेन्द्र-- १०८. काल-महाकाला यऽत्थ दुबे पिसायइंदा पिसायरायाणो परि- ९०८. यहाँ (१) काल (२) महाकाल नाम के दो पिशाच राज वसंति । महड्ढिया महज्जुइया-जाव-विहरंति', . -पिशाचेन्द्र रहते हैं । वे महधिक हैं, महाति वाले हैं-यावत् -पण्ण. प. २, सु. १८६(२) दिव्य भोग भोगते हुए रहते हैं। १ जीवा० पडि० ३, उ० १, सु० १२१ । २ (क) ठाणं अ. २, उ. ३, सु. ६४, (ख) जीवा. पडि. ३, उ. १, सु. १२१ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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