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________________ ४२० लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : वाणव्यंतरदेव वर्णन सूत्र ६०६ वाणमंतरा देवा वाणव्यंतर देव वाणमंतर देवठाणाइ वाणव्यन्तर देवों के स्थान१०६. ५० १-कहि णं भंते ! वाणमंतराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्ज- १०६. प्र०-(१) हे भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर त्ताणं ठाणा पण्णता? देवों के स्थान कहाँ पर कहे गये हैं ? २–कहि णं भंते ! वाणमंतरा देवा परिवसंति ? (२) हे भगवन् ! वाणव्यन्तर देव कहाँ रहते हैं ? उ० १–गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स उ०-(१) हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के सहस्र योजन कंडस्स जोयणसहस्स बाहल्लस्स, विस्तीर्ण रत्नमय काण्डरूप पृथ्वीपिण्ड केउरि एगं जोयणसयं ओगाहित्ता, ऊपर से सौ योजन अवगाहन करने पर और हेट्ठा वि एगं जोयणसयं वज्जेता, सो योजन नीचे के भाग को छोड़कर, मजा असु जोयणसएसु, एत्थ णं वाणमंतराणं मध्य के आठ सौ योजन में तिरछे वाणव्यन्तर देवों के देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जणगरावाससतसहस्सा असंख्य लाख भौमेय नगरावास हैं-ऐसा कहा गया है। भवंतीतिमक्खातं । ते णं भोमेज्जा णगरा बाहिं वट्टा, अंतो चउरंसा ये भौमेय नगर बाहर से गोल अन्दर से चौकोर-यावत-जाव-पडागमालाउलाभिरामा, सव्वरयणामया अच्छा पताकाओं की श्रेणी से व्याप्त और मनोहर हैं, वे सब रत्नमय हैं -जाव-पडिरूवा-एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं पज्ज- स्वच्छ हैं-यावत्-प्रतिरूप हैं। यहाँ पर्याप्त तथा अपर्याप्त ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। वाणव्यन्तर देवों के स्थान कहे गये हैं। २-तिसु वि लोगस्स असंखेज्ज इभागे-तत्थ णं बहवे (२) इनका उपपात समुद्घात और स्वस्थान-ये तीनों ही वाणमंतरा देवा परिवसंति, तं जहा-१. पिसाया, लोक के असंख्यातवें भाग में हैं-वहाँ अनेक वाणव्यन्तर देव २. भूया, ३. जक्खा , ४. रक्खया, ५. किन्नरा, ६. रहते हैं यथा-(१) पिशाच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस, किरिसा, ७. भुयगवइणो य महाकाया, ८. गंधव्व- (५) किन्नर, (६) किंपुरुष, (७) भुजगपति महाकाय महोरग, गणा य निउणगंधवगीतरइणो,' (८) गन्धवों के निपुण गायन में प्रीति रखने वाले गन्धर्व गण । १. अणवणिय, २. पणवण्णिय, ३. इसिवाइय, (१) अणपन्निक, (२) पणपन्निक, (३) रिपिवादिक (४) ४. भूयवाइय ५. कंदिय, ६. महाकंदिया य, ७. कुहंड, भूतवादिक, (५) कंदित, (६) महाकदित, (७) कहंड, (क) ८. पयंगदेवा। पतंगदेव । चंचलचलचवलचित्तकोलण-दवप्पिया, गहिरहसिय- ये सब चंचल और अत्यन्त चपल चित्त वाले हैं इन्हें क्रीडा गीय-णच्चणरई, वणमाला-मेल-मउल-कुण्डल-सच्छंद- एवं हास्य प्रिय है, गीत और नृत्य में इनकी अधिक रुचि है, विउव्वियाभरणचारुभूसणधरा, सव्वोउयसुरभि कुसुम वनमालाओं से सजे हुए मुकुट तथा कुण्डल और स्वेच्छा से सरइय पलंबसोहंतकंतवियसंतचित्त-वणमालरइयवच्छा, (वैक्रियशक्ति द्वारा) बनाये हुए आभरण एवं सुन्दर भूषण धारण कामकामा, करने वाले हैं, इनके वक्षस्थल पर सभी ऋतुओं के सुगन्धित विकसित पुष्पों से सुशोभित अनेक प्रकार की विचित्र वनमालायें हैं, ये स्वेच्छा से गमन करने वाले हैं, अपनी इच्छाओं के अनुरूप --सम. ८००, स. १११ १ इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमे कंडे अट्ठसु जोयणसासु वाणमंतर भोमेज्ज विहारा पण्णत्ता। २ सम० १५०/सु० ३ । ३ (क) ठाणं ८, सु. ६५४ । (ख) उत्त. अ. ३६, गा. २०७ । (ग) भग. स. ५ उ.६, सु. १७ । (घ) मग. स.८, उ. १, सु. १४ । (ङ) पण्ण. प. १, स .१४१ क्रम भिन्न है ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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