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लोक-प्रज्ञप्ति
सोयचरिमंते जीवाजीवा तस पएसा य
मते ! पुरथिमिले चरिमं कि जीवा, जीवदेसा, जोवपदेसा, अजीवा अभीवसा, अजीव पदेसा ?
६० प० लोगस्स
द्रव्यलोक
उ० गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि ।
जे जीवदेसा ते नियमं एगिदियदेसा । अहवा एडिवियबेसाप बेदियस्स व येसे एवं जहा दसमसए अग्गेयीदिसा ( भग० स० १० उ० १. सु० ६) तहेव ।
नवरं: देसे अभिवियाविरहियो ।
जे अरूवी अजीवा ते छब्विहा - अद्धासमयो नत्थि । सेसं तं चैव सव्वं ।
प० लोगस्स अजीवपदेसा वि ?
उ० एवं चैव ।
एवं पच्चत्थिमिले वि, उत्तरिल्ले वि।
ते वाहिले परिमंते कि जीवा जाव
!
प० लोगस्स णं भंते ! उवरिल्ले चरिमंते कि जीवा जाव अजीवपदेसा वि ?
उ० गोयमा ! नो जीवा, जीवदेसा वि जाव अजीवपएसा वि । जे जीवसा ते नियम एगिदिपसा य, अणिदिवेसाव
अहवा एमिदिमदेसाय अगिरिदेसाय बेयरस य देसे ।
अहवा एगिदियदेसा य, अभिवियदेसा व बेदिया देसा ।
एवं मझिल्लविरहिओ जाव पंचेंदियाणं ।
जेएस से नियमं एगिदियग्यरेखा य अभिवियप्पदेसा य । अहवा― एगिरियप्पदेशाप, अमरियप्यदेसा व मेदियस य पदेसा ।
सूत्र ६०
लोक के चरमान्तों में जीवाजीव और उनके देश-प्रदेश६० प्र० हे भगवन् ! लोक के पूर्वी चरमान्त में क्या जीव, जीवदेश, जीवप्रदेश, अजीब अजीवदेश और अजीवप्रदेश है ?
"
उ० हे गौतम ! (लोक के पूर्वी चरमान्त में) जीव नहीं हैं, किन्तु जीवदेश, जीवप्रदेश, अजीव, अजीवदेश तथा अजीबप्रदेश हैं।
है
वहां जितने जीव देश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं। अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश और द्वीन्द्रिय जीव का देश इस सम्बन्ध में ( भगवतीसूत्र के ) दशम शतक में कथित आग्नेयीदिशा के वर्णन के समान यहां समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि अनिन्द्रिय के देशों का कथन प्रथम भंग छोड़कर करना चाहिए ।
( लोक के पूर्वी चरमान्त में) जो अरूपी अजीव हैं वे छह प्रकार के हैं, क्योंकि वहाँ अद्धासमय नहीं है । शेष सब पूर्ववत् ( आग्नेयी दिशा के समान) कहना चाहिए ।
प्रo हे भगवन् ! लोक के दक्षिण चरमान्त में क्या जीव हैं यावत् अजीवप्रदेश हैं।
उo पहले के समान है ।
इसीप्रकार लोक के पश्चिमी चरमान्त और उत्तरी चरमान्त का कथन है ।
प्रo हे भगवन् ! लोक के ऊपर के चरमान्त में जीव हैं यावत् जीयप्रदेश है?
उ० हे गौतम! जीव नहीं है, जीवदेश हैं यावत् अजीबप्रदेश हैं ।
वहाँ जितने जीवदेश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं तथा अनिन्द्रिय जीवों के देश हैं।
अथवा एकेन्द्रियजीवों के देश हैं, अनिन्द्रियजीवों के देश हैं तथा ( मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा से ) द्वीन्द्रिय जीव देश है
अथवा एकेन्द्रिय जीवों के देश हैं, अनिन्द्रिय जीवों के देश हैं तथा दीन्द्रिय जीवों के देश है।
इस प्रकार मध्यमभंग को छोड़कर पंचेन्द्रियपर्यन्त भंगों का कथन करना चाहिए ।
यहां जितने जीवप्रदेश हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं और अनिन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं ।
अथवा : एकेन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं, अनिन्द्रिय जीवों के प्रदेश हैं तथा द्वीन्द्रिय जीव के प्रदेश हैं ।