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________________ सूत्र ५८-५९ द्रव्यलोक गणितानुयोग २७ M प० से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ–लोगस्स णं एगम्मि प्र० भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि लोक के एक आकाश आगासपएसे जे एगिदियपदेसा जाव चिट्ठति नथि प्रदेश में जो एकेन्द्रिय प्रदेश हैं यावत् वे एक दूसरे को कुछ बाधा णं ते अन्नमन्नस्स किंचि आबाहं वा जाव करेंति? यावत् उत्पन्न नहीं करते हैं ? उ० गोयमा ! से जहा नामए नट्टिया सिया सिंगारागार उ० गौतम ! जिसप्रकार कोई शृंगारयुक्त चारुवेषवाली चारवेसा जाव कलिया रंगट्ठाणंसि जणसयाउलंसि यावत् मधुरकण्ठवाली नर्तकी सैकड़ों लाखों व्यक्तियों से परिपूर्ण जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसतिविधस्स नट्टस्स अन्नयरं रंगस्थली में बत्तीसप्रकार के नृत्यों में से किसी एक नृत्य को नट्टविहिं उवदंसेज्जा। दिखलाती है। प० से नणं गोयमा ! ते पेच्छगा तं नट्टियं अणिमिसाए प्र. हे गौतम ! वे दर्शकगण उस नर्तकी को अनिमेष दृष्टि दिट्ठीए सव्वओ समंता समभिलोएंति ? से चारों ओर से देखते हैं ? उ० हंता, समभिलोएंति । उ० हाँ, देखते हैं। प० ताओ णं गोयमा! दिट्ठीओ तंसि नट्टियंसि सव्वओ प्र. गौतम ! उन दर्शकों की दृष्टियाँ उस नर्तकी पर चारों समंता सन्निवडियाओ? ओर से गिरती हैं ? उ० हंता, सन्निवडियाओ। उ० हाँ ! गिरती है। प० अत्थिणं गोयमा ! ताओ विट्ठिीओ तोसे नट्टियाए प्र. हे गौतम ! उन दर्शकों की दृष्टियों से उस नर्तकी को किचि आबाहं वा, वाबाहं वा उप्पाएंति, छविच्छेदं बाधा या विशेषबाधा उत्पन्न होती है ? या उसके किसी अवयव वा करेति? का छेद होता है ? उ० णो इणठे समठे। उ० नहीं होता है। प० सा वा नट्टिया तासि दिट्ठीणं किंचि आबाहं वा प्र० अथवा वह नर्तकी उन दर्शकों की दृष्टियों की कोई बाधा बाबाहं वा उत्पाएति, छविच्छेदं वा करेइ ! या विशेषबाधा पहुँचाती है? या किसीप्रकार का छविच्छेद करती है ? उ० णो इणठे समठे। उ० नहीं करती है। प० ताओ वा विट्ठीओ अन्नमन्नाए दिट्ठीए किचि आवाहं प्र. उन दर्शकों की दृष्टियाँ परस्पर किसी की दष्टि को कुछ वा वाबाहं वा उप्पाएंति, छविच्छेदं वा करेंति ? बाधा या विशेषबाधा उत्पन्न करती है ? अथवा छविच्छेद करती है? उ० णो इणठे समठे। उ० नहीं करती है। से तेणटटेणं गोयमा ! एवं बुच्चति तं चेव जाव. गौतम ! इसलिए इस प्रकार कहा जाता है यावत् (पूर्ववत्) छविच्छेदं वा न करेंति । (जीवों के आत्म-प्रदेश परस्पर स्पष्ट होतेहुए भी किसी प्रकार की बाधा या विशेषबाधा उत्पन्न नहीं करते हैं) और न किसी -भग० स०११, उ० १०, सु०२८-१, २ । प्रकार का छविच्छेद ही करते हैं। लोगागासपएसे जीवतप्पदेसाणं अप्पाबहुयं लोक के एक आकाश-प्रदेश में जीवों और जीव-प्रदेशों का अल्प-बहुत्व-- ५९: प० लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे जहन्नपदे ५६ : प्र०हे भगवन् ! लोक के एक आकाशप्रदेश में जघन्य जीवपदेसाणं, उक्कोसपदे जीवपदेसाणं सश्वजीवाण य पदस्थित जीव-प्रदेश, उत्कृष्ट पदस्थित जीव-प्रदेश तथा सर्व जीव कतरे कतरेहितो जाव विसेसाहिया वा? इनमें कौन सबसे (अल्प है) यावत् कौन विशेषाधिक है ? उ० गोयमा ! सम्वत्थोवा लोगस्स एगम्मि आगासपदेसे उ० हे गौतम ! लोक के एक आकाशप्रदेश में जघन्य जहन्नपदे जीवपदेसा, सव्वजीवा असंखेज्जगुणा, उक्को- पदस्थित जीव-प्रदेश सबसे अल्प हैं। सर्वजीव उनसे असंख्य गुण सपदे जोवपदेसा विसेसाहिया। हैं। तथा उत्कृष्ट पद स्थित जीव-प्रदेश उनसे विशेषाधिक है। -भग० स० ११, उ० १०, सु० २६ ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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