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________________ ६४६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : नक्षत्रों का चन्द्र के साथ योग का प्रारम्भ काल सूत्र ११२४ १०. ता रोहिणी खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिवड्ढखेत्ते (१०) रोहिणी नक्षत्र "दिन के" पूर्व भाग-प्रातः काल में पणयालीस-मुहत्ते तप्पढमयाए, पाओ चंदेण सद्धि नोयं तथा “दिन के" पिछले भाग-सायंकाल में चन्द्र के साथ योग जोएइ, अवरं च राई तओ पच्छा अवरं दिवस, प्रारम्भ करता है। तदनन्तर एक रात्रि और एक दिवस अर्थात् 'पूर्वापर का काल" मिलाकर पैंतालीस मुहूर्त चन्द्र के साथ डेढ़ क्षेत्र में योग-युक्त रहता है। एवं खलु रोहिणी णक्खत्ते दो दिवसे एगं च राइंचवेण इस प्रकार रोहिणी नक्षत्र दो दिन तथा एक रात्रि चन्द्र के सद्धि जोयं जोएइ, ___ साथ योग-युक्त रहता है। जोयं जोइत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं मिगसरस्स समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "रोहिणी-नक्षत्र" मृगशिरा नक्षण को चन्द्र समर्पित कर देता है । ११. ता मिगसिरे खलु णक्खत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते तीसइ (११) मृगशिर नक्षत्र "दिन के" पिछले भाग सायंकाल में मुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ । तओ चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ करता है । तदनन्तर एक रात्रि तथा पच्छाराई अवरं च दिवसं. एक दिन अर्थात् तीस मुहूर्त चन्द्र के साथ योग-युक्त रहता है । एवं खलु मिगसिरे णक्खत्ते एमं च राई एगं च दिवसं इस प्रकार मृगशिर नक्षत्र एक रात्रि और एक दिवस चन्द्र चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, के साथ योग-युक्त रहता है। जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है। जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं अदाए समप्पेइ, योग-मुक्त होकर सायंकाल में "मृगशिर-नक्षत्र" आर्द्रा नक्षत्र को चन्द्र-समर्पित कर देता है । १२. ता अद्दा खलु णक्खत्ते नतंभागे अवड्ढखेत्ते पण्णरस- (१२) आर्द्रा नक्षत्र सायंकाल में चन्द्र के साथ योग प्रारम्भ मुहत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोयं जोएइ, नो करता है, रात्रि में पन्द्रह मुहूर्त चन्द्र के साथ योग-युक्त रहता है, लभइ अवरं दिवस, दूसरे दिन योग-युक्त नहीं रहता है। एवं खलु अद्दा णक्खत्ते एगं च राई चंदेण सद्धि जोयं इस प्रकार आर्द्रा नक्षत्र एक रात्रि चन्द्र के साथ योग-युक्त जोएइ, रहता है। जोयं जोएत्ता जोयं अणुपरियट्टइ, योग करके योग-मुक्त हो जाता है । जोयं अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं पुणव्वसुण समप्पेइ, योग-मुक्त होकर प्रातःकाल में आर्द्रा नक्षत्र पुनर्वसु नक्षत्र को चन्द्र समर्पित कर देता है। १३. ता पुणव्वसु खलु णक्खत्ते उभयंभागे दिवड्ढखेते (१३) पुनर्वसु नक्षत्र “दिन के" पूर्वभाग-प्रातःकाल में पणयालीस-मुहुत्ते तप्पढमयाए पाओ चंदेण सद्धि जोयं तथा "दिन के" पिछले भाग-सायंकाल में चन्द्र के साथ योग जोएइ, अवरं च राइं तओ पच्छा अवरं च दिवसं ।। प्रारम्भ करता है। तदनन्तर एक रात्रि तथा एक दिवस अर्थात् 'पूर्वापर का काल मिलाकर पैतालीस मुहूर्त चन्द्र के साथ डेढ़ क्षेत्र में योग-युक्त रहता है । . (क्रमशः) (१२) अद्दा जहा सतभिसया, (१३) पुणब्वसू जहा उत्तराभद्दवया, (१४) पुस्सो जहा धणिट्ठा, (१५) असलेसा जहा सतभिसया, (१६) महा जहा पुव्वाफग्गुणी, (१७) पुव्वाफग्गुणी जहा पुन्वाभद्दवया, (१८) उत्तराफग्गुणी जहा उत्तराभद्दवया, (१६-२०) हत्थो, चित्ताय जहा धणिट्ठा, (२१) साती जहा सतभिसया, (२२) विसाहा जहा उत्तराभद्दवया, (२३) अणुराहा जहा धणिट्ठा, (२४) जिट्ठा जहा सतभिसया, (२५) मूलो जहा पुव्वाभद्दवया, (२६) पुवासाढा जहा पुव्वाभद्दबया, (२७) उत्तरासाढा जहा उत्तराभद्दवया । -सूरिय. पा. १०. पाहु. ४, सु. ३६
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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