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________________ सूत्र ८०२-८०६ सिरिधर - सिरिप्पभा य दो देवा महिड्ढीया- जावपतिओमद्वितीया परिवसति । तिर्यक् लोक वरुणवरद्वीप वर्णन से एणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - "पुक्खरोदे समुद्द े, क्रोधे समुई।" पुक्खरोदसमूहस्स निच्चत ८०३. दुसरं च गोषमा ! पुक्खरोदे समुद्द सासए-जाय-शिपले - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८० वरुणवरदीववण्णओ वरुणवरदोवस्त संठाणं ८०४. पुक्खरोदे णं समुद्द े वरुणवरे णामं दीवे वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए सव्वओ समता संपरिक्खिताणं चिट्ठति । तहेव समचक्कवाल संठाणसंठिते । - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८० वरुणवरदीयस्स विकतंभ-परिव ८०५. १० – वरुणवरे णं भंते ! दीवे केवतियं चक्कवालविक्खंभेणं, केवलियं परिप्रेवे? उ०- गोयमा ! संखेज्जाई जोयणसय सहस्साइं चक्कवालविश्वंभे संखेश्वा जोपसयसहस्सा परिषवेणं पण्णत्ते । ' पउमवरवेदिया वणसंडवण्णओ । दारा, दारंतरं, पदेसा, जीवा, तहेव सव्वं । 深團榮 - जीवा० पडि० ३, उ० २, सु० १८० १ सुरिय. पा. १६ सु. १०१ । उ० – गोयमा ! वरुणवरे णं दीवे तत्थ देसे तह तह बहुओ खुड्डाखुड्डियाओ - जाव- बिलपंतियाओ अच्छाओ-जावमहर सरणाइया वारुणिवददिहत्थाओं पासा तीताओ - जाव- पडिरूवाओ । पत्ते पत्ते पर बेवा- यणसंडपरिि श्रीधर और श्रीप्रभ - ये दो महर्थिक - यावत्-- पल्योपम की स्थिति वाले देव वहाँ रहते हैं। गौतम ! इस कारण से पुष्करोद समुद्र को पुष्करोद समुद्र का जाता है । पुष्करोदसमुद्र की नित्यता गणितानुयोग ८०२. अथवा गौतम! पुष्करोवसमुद्र यह नाम शास्यत है-- यावत् नित्य है । - ३९१ वरुणवरद्वीप वर्णन_ वरुणवरद्वीप का संस्थान ८०४. वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित वरुणवरद्वीप पुष्करोद समुद्र को चारों ओर से घेरकर स्थित है । यह उसी प्रकार समचक्रवाल संस्थान से स्थित है । वरुणवरद्वीप का विष्कम्भ एवं परिधि ८०५. प्र० - भगवन् ! वरुणवरद्वीप चक्राकार चौड़ा कितना कहा गया है और ( उसकी ) परिधि कितनी कही गई है ? उ०- गौतम ! वह संख्यात लाख योजन चक्राकार चौड़ा हैं। और संस्पात लाख योजन की ही उसकी परिधि कही गई है। वरुणवरदीवस्स णामऊ वरुणवरद्वीप के नाम का हेतु ८०६. प०—से केणट्ट ेणं,भंते ! एवं बुच्चइ - " वरुणवरे दीवे, ८०६. प्र० - भगवन् ! वरुणवरद्वीप को वरुणवरद्वीप ही क्यों वरुणवरे दीवे ? कहा जाता है ? पदमवरवेदिका और वनखण्ड के वर्णक (यहाँ कहने चाहिए।) द्वार, द्वारों के अन्तर, प्रदेशों का स्पर्श, जीवों की उत्पति ये सब उसी प्रकार (पूर्ववत है। उ० – वरुणवरद्वीप में स्थान स्थान पर अनेक छोटी छोटी वापिकायें हैं- यावत्-विलपंक्तियाँ हैं। स्वच्छ हैं - यावत्मधुर स्वर से गुंजायमान है श्रेष्ठ वाराणि जैसे जल से परिपूर्ण हैं। प्रसादगुणयुक्त हैं यावत् मनोहर है। प्रत्येक वापिका पदुमवरवेदिका एवं खण्ड से घिरी हुई है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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