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________________ ३६२ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक वरुणोदसमुद्र वर्णन णं सासु बुट्टा छुट्टिया-जाय-विलपतिया बहवे उपायपव्वता जाव - खडहडगा सव्वफलिहामया अच्छा-जावपडिल्वा । तहेव वरुण वरुणप्पभा य एत्थ दो देवा महिड्ढोया जावपलिओवमद्वितीया परिवर्तति । से तेषां गोयमा ! एवं बुम्बइ- " वरुणरे दीये, वरुणवरे दीवे । - जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८० वरुणवरदीवरस निश्व ८०७. अदुत्तरं च णं गोयमा ! वरुणवरे दीवे सासए - जाव- णिच्चे । - जीवा० पडि० ३, उ०२, सु० १८० वरुणोदसमुद्दवण्णओ वरुणोदसमुद्रदरस संठाणं ८०८. वरुणवरणं दीवं वरुणोदे णामं समुद्दे वट्टे वलयागार संठाणसंठिए सव्वओ समता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठति । लहेब समचक्काणसंठिए । क्विंभरियो विना जोपणरायसहस्साई दारा, दारंतर परवेश्या, बणसंडे, परसा, जीवा, अट्ठो सहेब । -जीवा. पडि. ३ उ. २ सु. १०८ वरुणोदसमुदस्स नामहेउ - 返回家 उ०- गोयमा ! वरुणोदस्स णं समुद्दस्स उदए से जहा नामए - चंदप्पभाइ वा मणिसिलागाइ वा, वरसीधुवरवारुणीइ वा, पत्तासवेइ बा, पुप्पफासवेइ वा चोयासवे वा, फलासवेइ वा, महुमेरएइ वा, जातिप्पसाद या खजूरसारेद वा मुडियासारेड वा कापसाणा वा सुखोयरसे वा पभूतसंभार संचिता पोसमास - सतभिसयजोगवत्तिता, निरुवहत विसिदिन्नकालोवयारा, सुधोता उक्कोसगमयपत्ता सूर. पा. १२ सु. १०१। सूत्र ८०६-८०६. उन वापिकाओं पातु विलपतियों के मध्य में अनेक उत्पात पर्वत - पर्वतगर्त हैं। सभी स्फटिक रत्नमय हैं स्वच्छ हैं। - यावत् - मनोहर हैं। - www.w उसी प्रकार वरुण, वरुणप्रभ ये दो महधिक - यावत्त्योपस्थिति वाले देव वहाँ रहते हैं। गौतम ! इस कारण से वरुणवरद्वीप कहा जाता है । - वरुणवरद्वीप की नित्यता ८०७. अथवा — गौतम ! वरुणवरद्वीप यह नाम शास्वत हैयावत्- नित्य है । वरुणोद समुद्र वर्णन— वरुणोद समुद्र का संस्थान ८०८. वरुणवरद्वीप को वृत्त एवं वलयाकार संस्थान से स्थित वरुणोद समुद्र चारों ओर से घेरकर स्थित है। 1 ८०६. १० सेकेणं ते! एवं मुम्बइ वरुणोये समृद्द ८०६. प्र० - भगवन् ! बमोद समुद्र को वरुणोदसमुद्र ही क्यों वरुणोदे समुद्द ? कहा जाता है ? उसी प्रकार समचक्राकार संस्थान से स्थित है । विष्कम्भ एवं परिधि संख्यात लाख योजन की है। वरुणोद समुद्र का द्वार, द्वारों के अन्तर पमवरवेदिका, वनखण्ड, प्रदेशों का स्पर्श, जीवों की उत्पति पूर्ववत है । वरुणोद समुद्र के नाम का हेतु उ०- गौतम ! तरुणोद समुद्र का जल क्या चन्द्रप्रभा, मणिशिला श्रेष्ठ सीधु, श्रेष्ठ वारुणि, पत्रासव, पुष्पासव, चोयासव त्वचासव फलासव, मधुमेरक, जाई के पुष्पों से निर्मित मदिरा, खजूरसार, द्राक्षासार, कापिशायनमद्य, सुपक्व इक्षुरस, अतिसंभार पूर्वक संकित, पौषमास में शतभिषा नक्षत्र का योग होने पर निर्मित सावधानी से विशिष्ट काल में उपचार से निर्मित, सुधा जैसा उज्ज्वल, उत्कृष्टमद प्राप्त, अष्ट प्रकार से पिष्टद्रव्यों से
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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