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________________ सूत्र ८०६-८१० तिर्यक् लोक : वरुणोदसमुद्र वर्णन गणितानुयोग ३६३ अपिट्टपुट्ठा पिटुनिट्ठिज्जा । आसला मांसला पेसला निर्मित स्वादिष्ट, मांसवर्धक, मधुर (ओष्ठ को, आँखों को कुछ (ईसी ओढावलंबिणी, ईसी तंबच्छिकरणी, ईसी लालिमा देने वाली कुछ कटु होने से त्याज्य) वर्ण, गंध, रस एवं वोच्छेया कडुआ) वणेणं उववेया, गंधेणं उववेया, स्पर्श से युक्त क्या ऐसा है ? रसेणं उवया भवे एयारूवे सिया ? गोयमा ! नो इणट्ठ समट्ठ । वारुणस्स गं समुदस्स हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वारुण समुद्र का पानी उदए एत्तो इट्ठतरे-जाव-उदए आसाएणं पण्णत्ते। इससे भी अधिक इष्ट, इष्टतर-यावत्-अधिक स्वादिष्ट कहा गया है। तत्थ णं वारुणि-वारुणकता देवा महिड्डीया-जाव- वहाँ पर वारुणि और वारुणकंता नामक महधिक-यावत् पलिओवमट्ठितिया परिवसंति । -पल्योपम की स्थिति वाले दो देव रहते हैं । से एएण?णं गोयमा! एवं वुच्चइ-"वरुणोदे समुद्दे, हे गौतम ! इस कारण के वरुणोद समुद्र वरुणोद समुद्र कहा वरुणोदे समुद्दे। जाता है। -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८० वरुणोदसमुदस्स निच्चत्त वरुणोद समुद्र की नित्यता८१०. अदुत्तरं च णं गोयमा ! वरुणोदे समुद्दे सासए-जाव-णिच्चे। ८१०. अथवा-हे गौतम ! वरुणोद समुद्र शाश्वत-यावत - -जीवा. पडि. ३, उ. २, सु. १८० नित्य है । १ "मुख इंत वर किमदिण्णकद्दमा, कोपसन्ना, अच्छा, वरवारुणी, अतिरसा, जम्बू फलपुटुवन्ना, सुजात ईसिउट्ठावलंबिणी, अहियमधुर पेज्जा, ईसासिरत्तणेत्ता, कोमलकवोलकरणी-जाव-आसादित्ता, विसादित्ता, अणिहुयसलावकरणहरिसपीतिजणणी, संतोस-ततबिबोक्क-हाव-बिब्भम-विलास-वेल्लहलगमणकरणी, विरणमधियसत्तजणणी य होति संगाम-देस-कालेकरयणसमरपसरकरणी, कढियाणविज्जुपयतिहिययाण मंउयकरणी य होति, उववेसिता समाणा गति खलावेति य सयलंमि वि सुभास बुप्पालिया समरभग्गवणोसहयारसुरभिरसदीविया सुगंधा आसायणिज्जा विस्सायणिज्जा पीणणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सबिदियगात पल्हायणिज्जा ।" मूल प्रति में कोष्ठकान्तर्गत इतना पाठ और है किन्तु वृत्तिकार ने इस की व्याख्या नहीं की है । २ प्र०-वरुणोदस्स णं भंते ! समुदस्स उदए केरिसए अस्साएणं पण्णत्ते ? उ.-गोयमा ! से जहा नामए पत्तासवेति वा चोयासवेति वा खज्जूरसारेति वा, सुपक्कखोतरसेति वा, मेरएति वा काविसायणेति वा चंदप्पभाति वा मणसिलातिवा वरसीधूति वा पवरवारुणी वा, अनुपिट्ठपरिणिट्ठिताति वा जम्बूफलकालिया वरप्पसण्णा उक्कोसमदपत्ता ईसिउट्टावलंबिणी ईसितंबच्छिकरणी ईसिवोच्छयकरणी आसला मांसला पेसला वगं उववेता-जाव फासेणं उववेत्ता। प्र०-भवे एयारवे सिया ? उ०-गोयमा ! नो तिण? सम8। वारुणोदए एत्तो इट्टतरए चेव-जाव-अस्साणं पण्णत्ते। -जीवा पडि. ३, उ.२, सु. १८७
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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