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लोक-प्रज्ञप्ति
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
सूत्र १४६-१४६
णाई विडिमा, बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणाई आयाम- की विडिमाएँ (वृक्ष के ठीक बीच में से निकलकर ऊपर की ओर विक्खंभेणं, साइरेगाई अट्ठ जोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ताई। फैलती हुई शाखाएँ) हैं, जिनकी बीच की लम्बाई-चौड़ाई आठ
योजन की है, इसीलिए ये सभी चैत्य वृक्ष कुल मिलाकर कुछ
अधिक आठ योजन के कहे गये हैं। तेसि णं चेइयरुक्खाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते. इन चैत्यवृक्षों का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है, तं जहा
यथावइरामया मूला, रययसुपइट्टिया विडिमा, रिट्ठामय विपुल इनकी मूल-जड़ें वज्ररत्न की हैं, चाँदी की इनकी विडिमायें कंदवेरुलिय-रुइलखंधा, सुजातरूवपढमगविसालसाली, मूल शाखाएं हैं, रिष्ट रत्नमय इनके विपुल कन्द हैं, और वैडूर्य णाणामणि-रयग-विविहसाहप्पसाह-वेरुलियपत्त तवणिज्जपस- रत्न के स्कन्ध है, इनकी मूलभूत प्रथम विशाल शाखायें शुढ-श्रेष्ठ वेंटा, जंबूणय-रत्त-मउय-सुकुमाल-पवाल-पल्लव-सोभंतवर- स्वर्ण की है, इनकी अनेक प्रकार की और दूसरी शाखा-प्रशाखाएँ कुरग्गसिहरा, विचित्त मणि-रयण-सुरभिकुसुम-फलभर-णमिय- नाना प्रकार के मणियों और रत्नों की हैं, इनके पत्ते वैडूर्य रत्न साला, सच्छाया, सप्पभासमिरीया सउज्जोया, अमयरस- के हैं, और पत्तों के वृत्त-डठल तपे हुए स्वर्ण के हैं, जाम्बूनदसमरस-फला, अहियं णयण-मण-णिवुइकरा, पासाईया-जाव- स्वर्ण विशेष से बने लाल रंग के मृदु मनोज्ञ इनके प्रवाल और पडिरूवा।
पल्लव है, जिनमें इनके श्रेष्ठ अग्रशिखर सुशोभित हो रहे हैं, विचित्र मणियों के मणि-रत्नों के सुगन्धित कुसुमों और फलों के भार से इनकी शाखायें झुकी हुई हैं, इनकी छाया बड़ी भव्य है, प्रभा सहित है, किरणों सहित है, उद्योतसहित है, अमृत के समान रस वाले इनके फल हैं, अधिक-से-अधिक नयनों और मन को
शांतिदायक है, दर्शनीय है-यावत्-प्रतिरूप हैं। १४७. तेणं चेइयरुक्खा अन्नेहि बहूहिं तिलय-लवय-छत्तोबग-सिरीस- १४७. ये चैत्य वृक्ष और भी बहुत से तिलक, लवंग, छत्रोपग,
सातवन्न-दहिवन्न-लोद्ध-धव-चंदण-नीव-कुडय-कयंव-पणस-ताल- शिरीप, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, नींव, कुटज, कदंब, तमाल-पियाल-पियंगु-पारावय-रायरुक्ख-नंदिरोहिं सव्वओ पनस, ताल तमाल, प्रियाल, प्रियंगु, पारावत, राजवृक्ष और संपरिक्खिता।
नन्दी वृक्ष आदि वृक्षों से सर्वतः चारों ओर से घिरे हुए हैं । तेण तिलया-जाव नंदिरुक्खा, मूलवंतो-जाव-सुरम्मा। ये सब तिलक-यावत्- नन्दी वृक्ष पर्यन्त के सभी वृक्ष
प्रशान्त मूल-जड़ वाले–यावत्-सुरम्य है। तेणं तिलया-जाव-नंदिरुक्खा, अन्नेहिं बहूहि पउमलयाहिं ये तिलक-यावत् - नन्दी वृक्षों पर्यन्त के सभी वृक्ष और -जाव-सामलयाहिं सवओ समता संपरिक्खित्ता, ताओ णं भी अनेकों पद्मलताओं-यावत् - श्याम लताओं से चारों ओर पउमलयाओ-जाव-सामलयाओ निच्च कुसुमियाओ-जाव- से घिरे हुए, ये पद्मलतायें-यावत्-श्यामलतायें पर्यन्त की पडिरूवाओ।
सभी लतायें कुसुमित-यावत्-प्रतिरूप हैं। १४८. तेसि णं चेइयरुप खाणं उल्पि बहवे अट्टमंगलगा झया छत्ता- १४८. इन चैत्य वृक्षों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगलद्रव्य है, तिछत्ता।
__ध्वजायें और छत्रातिछत्र हैं। तेति णं चेइयरुक्खाण पुरओ, तिविसि तओ मणिपेढियाओ इन चैत्य वृक्षों के आगे तीन दिशाओं में तीन मणिपीठिकायें पण्णत्ताओ। ताओ णं मणिपेढियाओ, जोयणं आयाम-विक्ख- कही गयी हैं, ये मणिपीठिकायें एक योजन की आयाम-विष्कम्भ भणं, अद्धजोयणं बाहल्लेणं सम्वमणिमईओ, अच्छाओ-जाव- वाली और आधे योजन की मोटी हैं, ये सभी मणिपीठिकायें पडिरूवाओ। -जीवा०प०३, उ०१, सु० १३७ सर्वात्मना मणियों से बनी हुई हैं, स्वच्छ-निर्मल-यावत्
प्रतिरूप है। महिंदज्झयाणं पमाणं
महिन्द्र ध्वजाओं का प्रमाण१४६. तासि णं मणिपेडियाणं उपि पत्तय पत्तेयं महिंदज्झया अद्ध- १४६. इन प्रत्येक मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग महिन्द्र
ट्ठमाइं जोषणाई उडई उच्चतेणं, अद्धकोस उब्वेहेणं, अद्ध- ध्वजायें हैं, ये ध्वजायें साढ़े सात योजन की ऊंची है, आधे कोस