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सूत्र १४६.१५३
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
गणितानुयोग
१६३
कोसं विक्खंभेणं, वइरामय-वट्ट-लट्ठ-संठिय-सुसिलिट्ठ-परिघट्ट- का इनका उद्वेध-गहराई है, आधे कोस का इनका विष्कम्भ है, मट्ठ-सुपइट्ठिया, विसिट्ठा, अणेगवरपंचवण्ण कुडभीसहस्स-परि- तथा वज्ररत्न की बनी हुई हैं, इनका संस्थान गोल हैं, मनोज्ञ मंडियाभिरामा, वाउद्धय विजय वेजयंतीपडागा, छत्तातिछत्त- हैं, ये सब अपनी चिकनाई से ऐसी प्रतीत होती है कि मानो कलिया, तुङ्गा, गगणतलमभिलंघमाणसिहरा, पासाईया अच्छी तरह घिसी गई हैं, प्रमाजित की गई हैं, सुप्रतिष्ठित हैं, -जाव-पडिरूवा ।
अन्य ध्वजाओं की अपेक्षा विशिष्ट हैं, तथा ये सभी ध्वजायें अन्य अनेक श्रेष्ठ पंचवर्णों की हजारों लघु पताकाओं से परिमडित होने से देखने में सुन्दर हैं, वायु वेग से जिन पर निरन्तर विजय वैजयन्ती पताकायें उड़ती रहती हैं, जो छत्रातिछत्रों से युक्त और बहुत ऊँची हैं, गगनतल का उल्लंघन करने वाले जिनके शिखर
हैं, दर्शनीय-यावत्-प्रतिरूप हैं। १५०. तेसि णं महिंदज्नयाणं उप्पि अट्ठट्टमंगलगा झया छत्ताइछत्ता। १५०. इन महिन्द्र ध्वजाओं के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य, ध्वजायें
-जीवा०प० ३, उ० १, सु० १३७ और छत्रातिछत्र हैं। गंदा पोक्खरणियाणं पमाणं--
नन्दापुष्करणियों का प्रमाण१५१. तेसि णं महिंदज्झयाणं पुरओ तिदिसि तओ गंदाओ पोक्ख. १५१. इन माहेन्द्र ध्वजाओं के आगे तीन दिशाओं में नन्दा नाम
रिणोओ पण्णत्ताओ। ताओ णं पुक्खरिणीओ अद्धतेरसजोय- की तीन पुष्करिणियाँ कही गई हैं, ये पुष्करिणियाँ साढ़े बारह णाई आयामेणं, सक्कोसाई छ जोयणाई विक्खंभेणं, दस योजन की लम्बी, एक कोस अधिक छह योजन की चौड़ी और जोयणाई उब्वेहेणं, अच्छाओ-जाव-पडिरूवाओ। दस योजन की गहरी है, स्वच्छ–यावत्-प्रतिरूप हैं। पोक्खरिणी बण्णओ
पूर्व के समान इन पुस्करिणियों का वर्णन कर लेना चाहिये। पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइया परिक्खित्ताओ,
ये प्रत्येक पुष्करिणियाँ पद्मवरवेदिकाओं से परिवेष्ठित घिरी
पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ,
और ये प्रत्येक पद्मवरवेदिकायें भी वनखंडों से परिवेष्ठित है, वण्णओ-जाव-पडिरूवाओ।
इन पद्मवरवेदिकाओं और वनखंडों का वर्णन पूर्व की तरह
यहाँ भो-यावत् -प्रतिरूप पद तक करना चाहिये। १५२. तेसि णं पुक्खरिणीण पत्तेयं पत्तेयं तिदिसि तिसोवाण पडि- १५२. इन पुष्करिणियों की तीन दिशाओं में अलग-अलग रूवगा पण्णत्ता।
त्रिसोपान पंक्तियाँ कही गई हैं। तेसि णं तिसोवाण पडिरूवगाणं वण्णओ,
इन त्रिसोपान प्रतिरूपकों का यहाँ वर्णन करना चाहिये तथा तोरणा भाणियव्वा, जाव छत्ताइछत्ता।
तोरणों का वर्णन करना चाहिये और यह वर्णन-यावत्-जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३७ छत्रातिछत्र पद तक करना चाहिये। मणोगुलिआणं संखा
मनोगुलिकाओं को संख्या१५३. सभाए णं सुहम्माए छ मणोगुलिसाहस्सीओ पण्णताओ, १५३. सुधर्मा सभा में छह हजार मनोगुलिकाएं कही गई हैं, जो तं जहा
इस प्रकार हैं-- पुरथिमेणं दो साहस्सोओ, पच्चत्थिमेगं दो साहस्सोओ, पूर्व दिशा में दो हजार, पश्चिम दिशा में दो हजार, दक्षिण दाहिणणं एगा साहस्सी, उत्तरेणं एगा साहस्सी। दिशा में एक हजार और उत्तर दिशा में एक हजार ।
तास णं मणोगलियासु बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा इन मनोगुलिकाओं में अनेक स्वर्ण और चाँदी के फलक-पटिये पण ता, तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलगेसु बहवे वइरामया कहे गये हैं, इन स्वर्ण और रजतमय फलकों में अनेक वचरल से णागदतगा पणत्ता।
बने हुए नागदंतक (खूटियाँ) लगे हैं। तेसु णं वइरामएसु णागदंतएसु बहवे किण्हसुत्तवट्टवग्धारिय इन वचरत्नमय नागदंतकों पर अनेक कृष्णसूत्र से गुथी हुई मल्ल दाम कलावा-जाव-सुक्किल्ल बट्ट बग्घारिय मल्लदाम पुष्पमालाओं के समूह-यावत् - श्वेत सूत्र से गु'थी हुई पुष्पकलावा, तेणं दामा तवणिज्जलंबूसगा-जाव-चिट्ठन्ति । मालाओं के समूह लटके हुए हैं । ये मालायें तपे हुए स्वर्ण के
-जीवा० ५० ३, उ० १, सु० १३७ लंबूसकों-गुच्छों झुमकों वाली हैं ।-यावत्-स्थित हैं ।