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________________ १६४ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : विजयद्वार सूत्र १५४-१५८ गोमाणसिआणं सखा गोमानसिकाओं की संख्या१५४. सभाए णं सुहम्माए छ गोमाणसी साहस्सीओ पण्णत्ताओ, १५४. इस सुधर्मा सभा में छह हजार गोमानसिकायें-(शैयारूप. तं जहा-पुरथिमेणं दो साहस्सीओ, एवं पच्चत्थिमेण वि, स्थान विशेष-आराम कुर्सी) कही गई हैं, ये इस प्रकार रखी हुई दाहिणेणं सहस्सं, एवं उत्तरेण वि । हैं-पूर्व दिशा में दो हजार इसी प्रकार पश्चिम दिशा में भी इतनी ही दक्षिण दिशा में एक हजार इसी प्रकार उत्तर दिशा में इतनी ही जानना चाहिए। तासु णं गोमाणसीसु बहवे सुबण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता, इन गोमानसिकाओं में अनेक स्वर्ण और चाँदी के बने हुए -जाव-तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया फलक-पटिये कहे गए हैं-यावत् -उन वज्ररत्नमय नागदतकों पण्णत्ता। पर बहुत से चांदी के बने हुए छींके कहे गये है। तेसुणं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वेरुलियामइओ धूव- इन रजतमय छींकों में अनेक वैडूर्य रत्नों से बनी हुई धूपघडियाओ पण्णत्ताओ। घटिकायें कही गई हैं। ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरु-पवर-कुन्दुरुक्क तुरुक्क ये धूपघटिकाएँ-धूपदान श्रेष्ठ कालागुरु, कुन्दरुष्क, तुरुष्क-जाव-घाण-मण-णिस्वुइकरेणं गंधेण सवओ समंता आपूरे- यावत्-घ्राण और मन को प्रफुल्लित करने वाली सुगन्ध से माणीओ चिट्ठन्ति । सभी दिशाओं को व्याप्त करती हैं। १५५. सभाए णं सुहम्माए अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते १५५. सुधर्मा सभा का अन्तर्वर्ती भूमिभाग अत्यन्त सम और -जाव-मणीण फासो, उल्लोया, पउमलय-भत्तिचित्ता, -जाव- रमणीय कहा गया है-यावत् मणिस्पर्श पद तक पूर्व की तरह सव्व तवणिज्जमए अच्छे-जाव-पडिरूवे । भूमिभाग को वर्णन कर लेना चाहिये, उल्लोक-चाँदनी, पद्मलता -जीवा०प०३, उ०१, सु० १३७ आदि चित्रों से चित्रिप-यावत्-वे सब तपनीय स्वर्ण के बने हुए हैं, स्वच्छ - यावत -प्रतिरूप है, (इत्यादि वर्णन विजयद्वार के वर्णन जैसा यहाँ कर लेना चाहिये ।) माणवगे चेइयखंभे माणवक चैत्य स्तम्भ १५६. तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए - १५६. इस बहुसम रमणीय भूमिभाग के ठीक बीच में एक बहुत एत्थ णं एगा महं मणिपीढिया पणत्ता । सा ण मणिपीढिया बड़ी मणिपीठिका कही गई है, यह मणिपीटिका दो योजन की दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, जोयण बाहल्लेणं, सव- लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी, सर्वात्मना रत्नमयी, स्वच्छ - मणिमया । अच्छा-जाव-पडिरूवा। यावत्-प्रतिरूप है। १५७. तीसे णं मणिपीडियाए उप्पि-एत्थ णं माणवए णाम चेइय- १५७. इस मणिपीठिका के ऊपर माणवक नाम का एक चैत्य खंभे पण्णत्ते । अट्ठमाइं जोयणाई उड्ढे उच्चत्तणं, अद्धकोस, स्तम्भ कहा गया है, जो साढ़े सात योजन ऊँचा, आधे कोस का उन्धेहेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, छ कोडीए छलसे, छ विगहिए उद्वध वाला (जमीन के अन्दर) आधे कोस का विस्तार वाला वइरामय वट्ट लट्ठ संठिए एवं जहा महिंदज्झयस्स वण्णओ, है, इसके छह कोने हैं, छह संधियाँ हैं, और छह विग्रह वाला है, पासाईए-जाव-पडिरूवे। यह वजरल का बना हुआ है, गोल और सुन्दर है, जैसा पहले -जीवा०प० ३, २० १. सु० १३८ माहेन्द्र ध्वज का वर्णन किया गया है वैसा ही इसका वर्णन करना चाहिये, यह दर्शनीय है-यावत्-प्रतिरूप है। गोलवट्ट सभुग्गएसु जिणसकहाओ गोल डिब्बों में जिन-अस्थियाँ१५८. तस्स णं माणवगस्स चेइ यखंभस्स उरि छक्कोसे ओगाहित्ता, १५८. इस माणवक चैत्य स्तम्भ के ऊपर छह कोस आगे जाने हेट्ठा वि छक्कोसे वज्जेत्ता, मज्झे अद्ध पंचमेसु जोयणेसु- पर और नीचे के भाग में भी छह कोस छोड़कर बीच में साढ़े एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता । चार योजन पर बहुत से स्वर्ग और चांदी के फलक-पटिए कहे गए है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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