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________________ सूत्र १५८-१६१ तिर्यक् लोक : विजयद्वार गणितानुयोग १६५ तेसु णं सुवण्णरुप्पमएसु फलए बहवे वाइरामया णागदंता इन स्वर्ण-रजतमय फलकों में वरत्नों के बने हए अनेक पण्णत्ता। नागदंतक कहे गए हैं। तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कगा इन वजरत्नमय नागदंतकों पर चाँदी के बने हुए अनेक छींके पण्णत्ता। कहे गये हैं। तेसु णं रययामयसिक्कए बहवे बइरामया गोलवट्ट- इन रजतमय छींकों में वनरत्नों से बने हए अनेक गोल समुग्गका पण्णत्ता। आकृति वाले समुद्गक रखे हैं। तेसु णं व इरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहवे जिण-सकहाओ इन वजरत्नमय गोल वर्तुंलाकार समुद्गकों में अनेक जिनेन्द्रों संनिक्खित्ताओ चिट्ठन्ति । की अस्थियाँ रखी हुई है। जाओ णं विजयस्स देवस्स अण्णेसि च बहूणं वाणमंतराणं जो अस्थियाँ विजय देव तथा और दूसरे भी अनेक वाणदेवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ बंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओ व्यन्तर देवों और देवियों के द्वारा अर्चना करने योग्य है, वन्दना सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं करने योग्य है, क्योंकि ये कल्याणरूप, मंगलरूप, देव और चैत्य चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ। समान होने से पर्युपासनीय है। १५६. माणवकस्स ण चेइयखंभस्त उरि अट्ठमंगलगा, झया १५६. माणवक चैत्यस्तम्भ के ऊपर आठ-आठ मंगलद्रव्य, ध्वजायें छत्ताइछत्ता । और छत्रातिछत्र है। तस्स ण माणवकस्स चे इयखंभस्स पुरथिमेण-एत्थ ण इस माणवक चैत्य स्तम्भ की पूर्व दिशा में एक विशाल एगा महामणिपेढिया पण्णत्ता। सा णं मणिपेढिया दो जोय- मणिपीठिका कही गई है, यह मणिपीठिका दो योजन की लम्बीणाई आयाम-विक्ख भेणं, जोपणं बाहरूलेणं, सव्वणिमई चौड़ी और एक योजन मोटी है, सर्वात्मना रत्नों से बनी हुई अच्छा-जाव-पडिरूवा । स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। तीसे णं मणि पेटियाए उप्पि- एत्थ णं एगे महं सीहासणे इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल सिंहासन कहा गया । पण्णते। सीहासण-वण्णओ। है । यहाँ सिंहासन का वर्णन करना चाहिये । १६०. तस्स णं माणवास्स चेइयखभस्स पच्चत्थिमेण-एत्थ णं एगा १६०. इस माणवक चैत्य स्तम्भ की पश्चिम दिशा में एक विशाल महा मणिपेढिया पण्णता। सा णं मणिपेढिया जोयणं आयाम- मणिपीठिका कही गई है, वह मणिपीठिका एक योजन की विक्खंभेणं, अद्धजोयणं बाहल्लेणं, सव्व मणिमई अच्छा-जाव- लम्बी-चौड़ी, आधे योजन की मोटी, सर्वात्मना रत्नों से बनी हुई, पडिरूवा। -जीवा०प० ३, उ०१, सु० १३८ स्वच्छ-यावत्-प्रतिरूप है। देवसयणिज्जस वण्णओ देव शय्या का वर्णन २६१. तीसे णं मणिपेढियाए उप्पि-एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे १६१. इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशय्या कही पण्णते। तस्स णं देवप्तयणिज्जस्स अयमेयारूवे वण्णावासे गई है, इस देवशय्या का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है, पण्णत्ते, तं जहा यथाणाणा मणिमया पडिपादा, सोवणिया पादा, णाणा मणि- अनेक मणियों से बने प्रतिपाद (मूल पायों के नीचे रखे गये मया पायसीसा, जंबूणयमयाई गत्ताई, वइरामया संधी, पाये) हैं, और मूल पाद स्वर्ण के बने हुए हैं, पादों के शीर्ष भाग णाणा मणिमए चिच्चे, रइयामया तूली लोहियक्खमया बिब्बो- ऊपर के भाग अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए हैं, इसकी ग्णा, तवणिज्जमयी, गंडोबहाणिया । पाटियाँ जाम्बूनद-स्वर्ण विशेष की बनी हुई हैं, इसकी संधियाँ वज्ररत्न की बनी हुई हैं, अनेक प्रकार की मणियों द्वारा जिस पर चिच्चा-नक्काशी की गई हैं, चाँदी के समान श्वेत वर्ण का जिस पर गहा बिछा हुआ है, लोहिताक्ष मणि के बने हुए तकिये रखे हैं, तपे हुए स्वर्ण के समान रंग वाले जिस पर गंडोपधानगालों के नीचे रखने योग्य तकिये रखे हैं।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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