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________________ १६६ लोक- प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक विजयद्वार सेणं देवसयणिज्जे उभओ बिब्बोयणे दुहओ उण्णए, मज्झे जयगंभीरे सालिंगण वट्टीए, गंगा पुलिण वालु उद्दाल सालि सए, ओतवितवखगुल पट्ट परिच्छायणे, सुविरचियरम ताणे, रत्तंसुयसंवुए, सुरम्मे, आईणग रूय-बूर-णवणीय तूलफासमउए, पासाईए - जाव - पडिवे । तस्स णं देवसयणिज्जस्स उत्तर-पुरत्थिमेणं - एत्थ णं एगा महई मणिपीढिया पण्णत्ता - साणं मणिपेढिया जोयणमेगं आयाम-विजोगं बाहर राज्यमणिमई अच्छा - जाव पडिवा | - जीवा० प०३, उ० १, सु० १३८ खुट्टा महियरस पमाणं १६२. तीसे में मणि पीढियाए उपि एत्थ णं एवं महं खहुए महिदज्झए पण्णत्ते, अट्टमाई जोयणाई उड्ढ उच्चतेणं अद्धकोसं उब्वेहेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं वेरुलियमय वट्ट लट्ठ मंठिए तहेव जाव अट्टमंगलगा, झया, छत्ताइछत्ता । विजयदेवरस चुप्पालयनामं पहरणकोसं १६३. तस्स णं खुडुमहदज्झयस्स पच्चत्थिमेणं - एत्थ णं विजयस्स देवस्स चुप्पालए नामं पहरणकोसे पण्णत्ते, तत्थ णं विजयस्स देवस्स फलिहरयण पामोक्खा बहवे पहरण रयणा संनिक्खित्ता चिट्ठन्ति । उज्जल सुणिसिय सुतिक्खधारा पासाईया जाव पडिरुवा । तीसे णं सभाए सुहम्माए उप्पि बहवे अट्टट्ठमंगलगा झया, -जीवा० प० ३, उ० १, सु० १३८ सिद्धायतणस्स पमाणं - छत्ताइछत्ता । णं णं १६४. सभा सुम्माए उत्तर-पुरत्विमे एस्थ एवं महं सिद्धायतणं पण्णत्ते, अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं, छजोयणाइ सोसाईनिब ओषणाई उ उच्चतं जाय गोमाणसिया वत्तब्वया । सूत्र १६१-१६४ इस देवशय्या के दोनों ओर (शिर और पैर की ओर ) रखे तकिए दोनों छोरों पर ऊंचे, मध्यभाग में नत ( पतले ) और गम्भीर है, तथा सालिनवर्तिका (सोते समय करवट के पास रखे जाने वाले तकिए ) के समान है, वह शय्या गंगा नदी की बालु के सदृश इतनी सुकोमल है कि बैठने पर कटि तक शरीर धस जाता है, जो क्षोम (रुई से बनी ) और रेशमी चादर से ढकी हुई है, पास में जिसके नीचे पैर पौंछने के लिये रजस्त्राण वस्त्र बिछा हुआ है, जो लाल वस्त्र से ढका हुआ है, जो देखने में रमणीय है, चर्मवस्त्र, रुई, वूर - सेमल की रुई, मक्खन आक की रुई के समान जिसका सुकोमल स्पर्श है, दर्शनीय - पावत्प्रतिक हैं। इस देव लया की उत्तर-पूर्व दिशा-ईशानकोण में एक बहुत बड़ी मणिपीठिका कही गई है, वह मणिपीठिका एक योजन की लम्बी-चौड़ी, आघे योजन की मोटी, सर्वात्मना रत्नमयी, स्वच्छ- - यावत्-प्रतिरूप हैं । क्षुद्र (लघु) महिन्द्रध्वज का प्रमाण १६२. इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल क्षुद्र माहेन्द्र ध्वज कहा गया है, जो साढ़े सात योजन ऊँचा, जमीन के भीतर आधे कोस प्रमाण वाला कहा गया है, और इसका विष्कम्भ आधे कोस का है, यह माहेन्द्र ध्वज वज्ररत्न का बना हुआ है, और इसका आकार गोल तथा चिकना है, आठ-आठ मंगलद्रव्य, ध्वजाये, छत्रातिछत्र आदि तक इस ध्वज का वर्णन भी पूर्व में किये गये माहेन्द्र ध्वज के वर्णन के समान यहाँ करना चाहिये । विजयदेव का चोपाल नामक शस्त्रागार १६३. इस क्षुद्र माहेन्द्र ध्वज की पश्चिम दिशा में विजयदेव का चतुष्पाल ( चौपाल) नामक शस्त्रागार कहा गया है, इस शस्त्रागार में विजयदेव के अनेक मुद्गर रत्न आदि प्रमुख शस्त्ररत्न रखे हुए हैं, ये शस्त्र बहुत ही उज्ज्वल, चमकीले, तेज और अत्यन्त तीक्ष्ण धार वाले प्रासादीय दर्शनीय - यावत् प्रतिरूप हैं । इस सुधर्मा सभा के ऊपर अनेक आठ-आठ मंगल द्रव्य, ध्वजाएँ छत्रातिछत्र है । सिद्धायतन का प्रमाण १६४. सुधर्मा सभा के उत्तर-पूर्व दिग्भाग में एक विशाल सिद्धाय तन कहा गया है। यह सिद्धायतन साढ़े बारह योजन लम्बा एक कोस सहित छह योजन बीड़ा और नौ योजन ऊंचा है। इत्यादि जैसा सुधर्मा सभा का कथन किया है वह सबका सब कथन गोमानसिका ( शय्याकार स्थान विशेष ) की वक्तव्यता तक यहाँ कर लेना चाहिये ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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