________________
सूत्र १६४-१६७
तिर्यक् लोक : विजयद्वार
गणितानुयोग
१६७ .
जा चेव सभाए सुहम्माए बत्तब्वया सा चेव निरवसेसा अर्थात् जिस प्रकार सुधर्मा सभा की पूर्व-दक्षिण और उत्तर भाणियव्वा । तहेव दारा, मुहमंडवा, पेच्छाघरमंडवा, झया, दिशा में द्वार हैं, द्वारों के आगे मुखमंडप है, मुख मंडपों के आगे थूभा, चेइयरुक्खा, महिंदज्झया, गंदाओ पुक्खरिणीओ, तो प्रेक्षागृह हैं, मंडप हैं, प्रेक्षागृह मंडपों के ऊपर ध्वजायें हैं, य सुहम्माए जहा पमाणं, मणगुलियाणं, गोमाणसीया, धूवय- प्रेक्षागृह मंडपों के आगे स्तूप हैं, स्तूपों के आगे चैत्यवृक्ष हैं, इन घडीओ, तहेब भूमिभागे, उल्लोए य-जाब-मणिफासे । चैत्यवृक्षों के आगे माहेन्द्र ध्वज है, इन माहेन्द्र ध्वजों के आगे
नन्दा पुष्करिणियाँ हैं, और सुधर्मा सभा का जो प्रमाण है, मनोगुलिकायें हैं, गोमानसिकायें हैं, धूपघटिकायें हैं, इत्यादि वर्णन जैसा सुधर्मा सभा का पूर्व में किया गया है, उसी प्रकार का सब वर्णन तथा सुधर्मा सभा के वर्णन के अनुरूप ही भूमिभाग उल्लोकचाँदनी-यावत्-मणिस्पर्श तक इस सिद्धायतन का भी वर्णन
करना चाहिये। १६५. तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए-एत्थ णं एगा १६५. इस सिद्धायतन के अति मध्यभाग में एक विशाल मणि
महा मणिपेढिया पणत्ता, दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, पीठिका कही गई है, यह मणिपीठिका दो योजन की लम्बी-चौड़ी, जोयणं बाहल्लेणं, सव्व मणिमई अच्छा-जाव-पडिरूवा। एक योजन मोटी, और सर्वात्मना रत्नों से बनी हुई, स्वच्छ
--जीवा० ५० ३, उ० २, मु० १३६ यावत्-प्रतिरूप है।
एगे महं देवछंदय
एक महान देवच्छन्दक
१६६. तीसे णं मणिपेढियाए उप्पि–एत्थ णं एगे महं देवच्छंदए १६६. इस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवच्छन्दक-जिनदेव
पण्णत्ते, दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं, साइरेगाइं दो जोय- का आसन विशेष कहा गया है, यह दो योजन का लम्बा-चौड़ा, णाई उडद उच्चत्तेण, सम्बरयणामए अच्छे-जाव-पडिरूके। कुछ अधिक दो योजन ऊँचा, सर्वात्मना रत्नमय, स्वच्छ-यावत
-जीवा०प०३, उ०२. सु०१३६ प्रतिरूप है।
अट्ठसयं जिणपडिमाणं वण्णावासं
एक सौ आठ जिन प्रतिमाओं का वर्णन१६७. तत्थ णं देवच्छंदए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाण- १६७. इस देवच्छन्दक में जिनोत्सेध प्रमाण वाली अर्थात पाँच सौ मेत्ताणं संनिक्खित्तं चिट्ठइ ।
धनुष से लेकर सात हाथ तक ऊँची जिनप्रतिमायें स्थापित है। तासि णं जिणपडिमाणं अय नेयारूबे वण्णावासे पष्णते, उन जिन प्रतिमाओं का वर्णन इस प्रकार का कहा गया है. तं जहा
यथातवणिज्जमया हत्थतला,
तपनीयस्वर्ण-रक्तवर्ण के स्वर्ण की जैसी इनकी हथेली है, अंकामयाई णक्खाई,
अंकरत्न के जैसे इनके नख हैं, अंतोलोहियक्व परि सेयाई,
जिनका शेष अन्दर का भाग लोहिताक्ष रत्न जैसा है, कणगमया पादा,
इनके पैर स्वर्ण जैसे हैं, कणगामया गोप्फा,
जिनकी एड़ियाँ कनक-स्वर्ग की बनी हैं, कणगामईओ जंघाओ,
स्वर्ण मय इनकी जंघायें हैं, कणगामय जाणू,
कनकमय जानु-घुटने, कणगामय ऊरू, कणगामयाओ गायलट्ठीओ.
कनकमय ऊरु और गात्रयष्ठि-शरीर पिंजर है, तवणिज्जमईओ णाभीओ,
तपे हुए स्वर्ण की इनकी नाभि है,
१ 'तवणिज्जमया हत्थतला' मूल पाठ के इस वाक्य की टीका आचार्य मलयगिरि ने-'तपनीय मयानि हस्ततल-पादतलानि' की
है। इससे प्रतीत होता है-टीकाकार के सामने मूल पाठ दूसरा है।