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________________ -सूत्र ४६५-४६६ तिर्यक् लोक : प्रपातकुण्ड वर्णन गणितानुयोग २६५ सट्टि जोअणाई आयाम-विक्खंभेणं, यह साठ योजन लम्बा-चौड़ा है। णउअं जोअणसयं किंचिविसेसाहिलं परिक्खेवेणं, एक सौ योजन से किंचित अधिक की परिधि वाला है। दस जोअणाई उव्वेहेणं,' दस योजन गहरा है, अच्छे सण्हे रययामयकूले। स्वच्छ है, चिकना है, रजतमय किनारे वाला है। समतीरे वइरामयपासाणे वइरतले सुवण्ण-सुब्भरययामय- तीर समतल हैं, दीवालें वज्रमय हैं, तल भी वज्रमय है, वालुभाए वेरुलिअमणिफलिअपडलपच्चोअडे, उसमें सुवर्णमय, शुभ्रमय (रुप्यविशेषमय) एवं रजतमय वालुका हैं। उसके किनारे के ऊँचे प्रदेश वैडूर्यमणिमय एवं पटल स्फटिक रत्नमय है। सुहोआरे सुहोत्तारे णाणामणितित्थ सुबद्धे वट्ट, सुखपूर्वक उतरने चढ़ने योग्य हैं। उसका तीर्थ (घाट) नाना प्रकार की मणियों के सुबद्ध है । वह गोलाकार है । अणुपुव्व-सुजाय-वप्प-गंभीर-सीअलजले, अनुक्रम से नीचा और सुनिर्मित केदार में गहरा है और उसमें शीतल जल है । संछण्णपत्त-भिस-मणाले, बहुउप्पल-कुमुअ-णलिण-सुभग- वह (पद्मिनी के) पत्तों से, कन्दों से और मृणालों से सोगंधिअ-पोंडरीअ-महापोंडरिअ-सयपत्त-सहस्सपत्त-सयसहस्स- आच्छादित है। खिले हुए उत्पलों, कुमुदों, नलिनों, सूभगों, पप्फुल्ल-केसरोवचिए, छप्पय-महुयरपरिभुज्जमाणकमले । सौगन्धिकों, पुण्डरीकों, महापुण्डरीकों, सहस्रपत्तों एवं लक्षपत्र कमलों की केसर से सुशोभित है। भ्रमरों (षड्पद मधुपों) से परिभुज्यमान पद्म कमलवाला है । अच्छ-विमल-पत्थसलिले पुण्णे, पडिहत्थभमंतमच्छ-कच्छभ- स्वच्छ विमल एवं पथ्य जल से युक्त है एवं पूरा भरा हुआ अणेगसउणगण-मिहणपविअरियसदुन्नइअ-महुरसरणाइए, पासा- है। उसमें मच्छ और कच्छ बड़ी संख्या में घूमते रहते हैं। अनेक ईए-जाव-पडिरूवे । पक्षी-युगलों का वहाँ विहार होता रहता है। उनके मधुर स्वरों से वह गूंजता रहता है और चित्त को प्रसन्न करने वाला है यावत्-मनोहर है। से गं एगाए पउमवरवेइयाए, एगेण य वणसंडेणं सम्वओ यह (गंगाप्रपात कुण्ड) एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड समंता संपरिक्खित्ते। से सब ओर से घिरा हुआ है। वेइआ-वणसंडगाणं पउमाणं वण्णओ भाणियव्वो। पद्मवरवेदिका का, बनखण्ड का और पद्मों का वर्णन यहाँ -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ कहना चाहिए। गंगप्पवायकुण्डस्स तिसोवाणपडिरूवगा गंगाप्रपातकुण्ड त्रिसोपान प्रतिरूपक४६६. तस्स णं गगप्पवायकुण्डस्स तिदिसि तो तिसोवाणपडिरूवगा ४६६. इस गंगप्रपातकुण्ड की तीन दिशाओं में तीन तीन प्रतिरूप पण्णत्ता, (सुन्दर) सोपान पंक्तियाँ कही गई हैं । तं जहा-पुरथिमेणं, दाहिणणं, पच्चत्थिमेणं । यथा-पूर्व में, दक्षिण और पश्चिम में । तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे इन मनोहर त्रिसोपानों का वर्णन इस प्रकार का कहा पण्णते, गया हैतं जहा-वइरामया णेम्मा, रिट्ठामया पइट्ठाणा, वेरुलि- यथा-इनके पाये वज्रमय हैं, प्रतिष्ठान अरिष्टमय हैं, स्तम्भ आमया खंभा, सुवण्ण-रुप्पमया फलगा, लोहिअक्खमईओ वैडूर्यमय है, फलक स्वर्ण-रुप्यमय हैं, सूचियाँ लोहिताक्षमय हैं, सूईओ, वइरामया संधी, णाणामणिमया आलंबणा, आलंबण- संधियाँ वज्रमय हैं, आलंबन (उतरते-चढ़ते समय सहारा लेने के बाहाओति । -जंबु. वक्ख० ४, सु०७४ साधन) तथा आलंबनवाहाएँ (आलंबन की आधारभूत भित्तियाँ) नाना मणिमय है। १ सम्वेवि णं सलिलकुण्डा दस जोयणाई उव्वेहेणं पण्णत्ता। -ठाणं० १०, सु० ७७६
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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