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________________ २६६ लोक-प्रज्ञप्ति तिर्यक् लोक : प्रपातकुण्ड वर्णन सूत्र ४६७-४६८ तिसोवाण पडिरूवगाणं तोरणाइ त्रिसोपान प्रतिरूपकों के तोरण४६७. तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं तोरणा ४६७, इन मनोहर त्रिसोपानों के सामने पृथक्-पृथक् तोरण कहे पण्णत्ता। गये हैं। ते णं तोरणा जाणामणिमया, __ ये तोरण नानामणिमय हैं । णाणामणिमएसु खंभेसु उवणिविट्ठ-संनिविट्ठा, • नानामणिमय स्तम्भों से उपनिविष्ट और सन्निविष्ट हैं । विविहमुत्ततरोवइआ विविहतारा-रूवोवचिआ, विविध मुक्ताओं से उपचित हैं। विविध तारारूपों से सहित हैं। इहामिअ-उसह-तुरगणर-मगर-विहग-वालग-किण्णर-हरू- उन पर भेड़िया, वृषभ, तुरंग, नर, मगर, विहग, सर्प, सरम-चमर-कुञ्जर-वणलय-पउमलयभत्तिचित्ता, खंभुग्गय- किन्नर, रुरु (मृग विशेष) अष्टापद, चमर, कुञ्जर, वनलता, वइरवेइआ परिगयाभिरामा, पद्मलता आदि के चित्र अंकित हैं। वे स्तम्भ के ऊपर रही हुई वज्रमय वेदिका से सुशोभित हैं। विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्ताविव अच्चीसहस्स-मालणीआ, विद्याधरों की जुगल जोड़ी के चित्रों से युक्त हैं। सहस्रों किरणों की प्रभा वाले हैं। रूवगसहस्सकलिआ, भिसमाणा, भिब्भिसमाणा, चक्खुल्लो- सहस्र रूप से कलित हैं, चमकीले हैं, देदीप्यमान हैं। देखने अणलेसा, सुहभासा, सस्सिरीअरूवा, पर नेत्र उनमें स्थिर हो जाते हैं। सुखद स्पर्श वाले तथा सश्रीक रूप वाले हैं। घंटावलिचलिअ-महुर-मणहरसरा पासादीया-जाव-पडि- हिलती हुई घंटावली से मधुर एवं मनोहर स्वर को उत्पन्न रूवा। करने वाले हैं, प्रासादिक है-यावत्-प्रतिरूप हैं। तेसि णं तोरणाणं उरि बहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता, इन तोरणों पर अनेक अष्ट-अष्ट मंगल कहे गये हैं, तं जहा-सोथिए, सिरिवच्छे-जाव-पडिरूवा। यथा-स्वस्तिक, श्रीवत्स -यावत्-प्रतिरूप हैं । तेसि गं तोरणाणं उरि बहवे किण्हचामरज्या-जाव- इन तोरणों पर अनेक कृष्ण चामरध्वजाएँ-यावत्-शुक्ल सुक्किल्लचामरज्झया अच्छा सहा रुप्पपट्टा वइरामयदण्डा चामरध्वजाएँ हैं । (चामरध्वजाएँ) स्वच्छ, श्लक्ष्ण, रोप्यपट्टवाली, जलयामलगंधिया सुरम्मा पासादीया-जाव-पडिरूवा। वज्र के दंड बाली, कमल के समान सुगन्धित, सुरम्य एवं प्रासा दिक-यावत्-मनोहर हैं। तेसि गं तोरणाणं उप्पि बहवे छत्ताइच्छत्ता, पडागाइ- इन तोरणों पर अनेक छत्रों पर छत्र, पताकाओं पर पताकाएँ पडागा घंटाजुअला चामरजुआ उप्पलहत्थगा पउमहत्थगा घंटायुगल, चामरयुगल उत्पल, हस्तल (उत्पल-कमल हाथ में लिए -जाव-सयसहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा-जाव- हुए के चित्र) पद्महस्तक-यावत्-लक्षपत्र-हस्तक हैं। ये पडिरूवा। -जंबु० वक्ख० ४, सु०७४ सब सर्वरत्नमय, स्वच्छ--यावत् -मनोहर हैं। (२) सिंधुप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ' (२) सिन्धुप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(३) रत्तप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ (३) रक्ताप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(४) रत्तवइप्पवायकुण्डस्स पमाणा (४) रक्तवतीप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि(५) रोहिअप्पवायकुण्डस्स पमाणाइ (५) रोहिताप्रपातकुण्ड के प्रमाणादि४६८. रोहिआ णं महाणई जहिं पवडइ एत्थ णं महं एगे रोहि- ४६८. जहाँ रोहिता महानदी गिरती है वहाँ रोहिताप्रपातकुण्ड अप्पवायकुण्डे णाम कुण्डे पण्णत्ते । नामक एक विशालकुण्ड कहा गया है। १ जम्बू० वक्ष० ४ सूत्र ७४ में 'एवं सिंधूए वि णेयन्वं'-यह संक्षिप्त वाचना की सूचना है, इसके अनुसार सिन्धुप्रपातकुण्ड के आयाम आदि का वर्णन गंगाप्रपातकुण्ड के समान है। २.३ जम्बू० बक्ष० ४ सूक्ष १११ में 'एवं जह चेव गंगा-सिन्धुओ तह चेव रत्तारत्तवइओ णेयवाओ' यह संक्षिप्त वाचना की सूचना हैं,. - इसके अनुसार रक्ता प्रपातकुण्ड और रक्तवतीप्रपातकुण्ड के आयाम आदि का वर्णन भी गंगाप्रपातकूण्ड के समान है।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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