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________________ सूत्र २८.२६ लोक गणितानुयोग १३ लोग-संठाणं लोक का संस्थान २८: प०कि संठिते णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? २८ : प्र. हे भगवन् ! इस लोक का संस्थान (आकार) कैसा कहागया है? उ० गोयमा ! सुपतिढगसंठिते लोए पण्णत्ते। हेट्ठा उ० हे गौतम ! इस लोक का संस्थान सुप्रतिष्टक (सिकोरा) वित्थिण्णे, मज्झे संखिते, उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठिते। के जैसा कहागया है-नीचे से विस्तीर्ण, मध्यमें संक्षिप्त और . ऊपर से ऊर्ध्व मृदंग जैसे आकार का है। तंसि च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा वित्थिणंसि, मज्झे उक्त शाश्वत लोक में जो नीचे से विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त संखिसि, उप्पि उद्धमुइंगाकारसंठितंसि उप्पण्णनाण- और ऊपर से सर्व मदंग जैसे आकार का है_मो नारा दसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणति, पासति, ज्ञान-दर्शन के धारक अर्हत् जिन केवली जीव को भी जानते देखते अजीवे वि जाणति पासति । तओ पच्छा सिज्मति हैं और अजीव को भी जानते देखते हैं। वे बाद में सिद्ध होते हैं जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेति ।' यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। -भग० स० ७, उ०२, सु०५। अट्ठविहा लोगट्ठिई वत्थिउदाहरणं य आठ प्रकार की लोक स्थिति और बस्ति का उदाहरण २९ : भंते त्ति भगवं गोतमे समणं भगवं महावीरं जाव एवं २६ : भंते ! भगवन् गौतम श्रमण भगवान महावीर को यावत् वयासी। इस प्रकार बोलेप० कतिविहा णं भंते ! लोयट्टिती पण्णता? प्र० भगवन् ! लोकस्थिति कितने प्रकार की कही गई है ? उ० गोयमा ! अट्टविहा लोयट्टिती पण्णत्ता, तं जहा उ० गौतम ! लोकस्थिति आठ प्रकार की कहीगई है, यथा(१) आगासपइट्ठिए वाए, १. आकाश-प्रतिष्ठित वायु, (२) वातपइट्ठिए उदही, २. वायु-प्रतिष्ठित उदधि, (३) उदहिपतिट्टिता पुढवी, ३ उदधि-प्रतिष्ठित पृथ्वी, (४) पुढविपतिट्टिता तस-यावरा पाणा, ४. पृथ्वी-प्रतिष्ठित त्रस-स्थावर प्राणी, (५) अजीवा जीवपतिहिता, ५. जीव-प्रतिष्ठित अजीव, (अजीव जीव-प्रतिष्ठित) (६) जीवा कम्मपतिट्टिता,' ६. कर्म-प्रतिष्ठित जीव, (जीव कर्म-प्रतिष्ठित) (७) अजीवा जीवसंगहिता, ७. जीव-संग्रहित अजीव (अजीव जीव-संग्रहित) (८) जोवा कम्मसंगहिता। ८. कर्म-संग्रहित जीव, (जीव कर्म-संग्रहित) प० से केण?णं भंते ! एवं बुच्चइ-अट्टविहा (लोगट्टिई प्र० भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है कि आठ पण्णत्ता, तं जहा—१. आगासपइट्ठिए वाए) जाव प्रकार की (लोकस्थिति कही गई है) आकाश-प्रतिष्ठित वायु जीवा कम्मसंगहिता? यावत् जीव कर्म-संग्रहित हैं ? १. क-महा० वि० द्वारा प्रकाशित प्रति में इस सूत्र के पाठ में जहाँ-जहाँ जाव है उनकी पूर्ति उसी प्रति के श० ५, उ० ६, सू० १४ [२] के अनुसार यहाँ की गई है। ख-तुलना-भग० श० ११, उ० १०, सू० १० । ग-तुलना-भग० श०१३, उ०४, सू०६६ । ठाणं ३ उ०२ सु० १६३ । ३. ठाणं ४ उ०२ सु० २८६ । ४. ठाणं ६ सु० ४६८ । ५. ठाणं ८ सु०६०० ।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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