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________________ १४ लोक- प्रज्ञप्ति , उ० गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे - वत्थिमाडोदेति त्यिमाडोविता उपि सितंबंधतिबंधिता मणं मज्झे गठि बंधति, मज्झे गंठ बंधित्ता उवरिल्लं गंठि मुयति, मुद्दत्ता उवरिल्लं देसं वामेति, उवरिल्लं देसं वामेत्ता, वरिल्लं दे आउयास्स पूरेति, पूरिता उप्पि सितं बंधति, बंधिता मझिल्लं गठि मुयति । प० से नूगं गोयमा ! से आउयाए तस्स वाउयायस्स उप्पि उवरितले चिट्ठति ? उ० हंता चिट्ठति से पट्टे में जाव जीवा कम्मसंगहिता । से जहा वा केइ पुरिसे वत्यिमा डोवेति, आडोवित्ता डीए बंधति, बंधित्ता, अत्याहमतारमपोरुसियंसि उदगंसि ओगावा । प० से नूणं गोयमा ! से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतसे चित? उ० हंता, चिति एवं वा अदुवा लोपती पता जाव जीवा कम्मसंहिता -भग० स० १, उ० ६, सु० २५-१, २, ३ । बसविहा लोग ३० : दसविहा लोगट्टिई पण्णत्ता, तं जहा (१) जण्णं जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तत्थेव तत्थेव भुज्जो शोपचायंति एवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । (२) जण्णं जीवाणं सया समियं पावे कम्मे कज्जइ एवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । लोक (३) जन्म जीवाणं सपा समियं मोहणिजे पावे मे कज्जइ - एवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । (४) ण एवं भूयं वा भव्वं वा, भविस्सइ वा जं जीवा अजीवा भविस्संति, अजीवा वा जीवा भविस्संतिएवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । (५) ण एवं भूयं वा, भव्वं वा भविस्सई वा जं तसापाणा वोच्छिज्जिस्संति थावरापाणा भविस्संति, थावरापाणा बोच्छिज्जिस्संति तसापाणा भविस्संति — एवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । - सूत्र २६-३० www. उ० गौतम ! जैसे कोई पुरुष बस्ति (मशक) को (वायु से) कुलाता है, वस्ति को फुलाकर ऊपर से ( वस्ति के मुंह को ह बाँध देता है, बाँधकर मध्य में गाँठ बाँध देता है । मध्य में गाँठ बाँधकर ऊपर की गाँठ खोल देता है, खोलकर ऊपर के भाग को मोड़ता है, ऊपर के भाग को मोड़कर ऊपर के भाग में पानी भरता है, भरकर ऊपर ( बस्ति के मुंह को ) दृढ़ बाँधता है, बाँधकर बीच की गांठ खोल देता है । प्र ० गौतम ! क्या यह निश्चित है कि वह पानी उस वायु के ऊपर (अर्थात् ) ऊपर के तल पर ही रहता है ? उ० हाँ (भगवन् ! ) रहता है। इसलिए यावत् जीव कर्म संग्रहित हैं । अथवा – जैसे कोई पुरुष बस्ति ( मशक ) को (वायु से ) फुलाता है, फुलाकर कमर के बाँधता है, बाँधकर अथाह दुस्तर पुरुष प्रमाण से अधिक गहरे पानी में प्रवेश करता है । प्रo गौतम ! क्या यह निश्चित है कि वह पुरुष उस पानी के ऊपर के तलपर (ही) रहता है ? उ० हाँ (भगवन् !) रहता है। इस प्रकार की आठ प्रकार की लोकस्थिति कही गई है यावत् जीव कर्म-संग्रहित है। दस प्रकार की लोकस्थिति ३० : दस प्रकार की लोकस्थिति कहीगई है, यथा (१) जीव मर-मरकर वहीं-वहीं ( लोक के एक देश में, गति में, जाति में, योनि में) बार-बार उत्पन्न होते रहते हैं - यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। (२) जीव (संसारी जीव सदा निरन्तर पाप कर्म बाँ रहते हैं - यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है । (३) जीव (संसारी जीव) सदा निरन्तर मोहनीय पापकर्म बाँधते रहते हैं - यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है । (४) "जीव का अजीव होना या अजीव का जीव होना"न ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा - यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है । (५) स प्राणियों का विच्छेद और स्थावर प्राणियों का का होना - या स्थावर प्राणियों का विच्छेद और त्रस प्राणियों होना " न ऐसा हुआ है. न हो रहा है और न कभी होगायह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। -
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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