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________________ सूत्र ३०-३२ लोक गणितानुयोग १५ (६) ण एवं भूयं वा, भव्वं वा, भविस्सइ वा जं लोगे (६) "लोक का अलोक होना या अलोक का लोक होना" अलोगे भविस्सइ, अलोगे वा लोगे भविस्सइ-एवं न ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न कभी होगा-यह भी एक पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता। प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। (७) ण एवं भूयं वा, भग्वं वा, भविस्सइ वा जं लोगे (७) "लोक का अलोक में प्रवेश करना या अलोक का लोक अलोगे पविस्सइ, अलोगे वा लोगे पविस्सइ-एवं में प्रवेश करना"-न ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न कभी पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता। होगा—यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। (८) जाव ताव लोगे ताव ताव जीवा। जाव ताव जीवा (८) जहाँ-जहाँ लोक है वहाँ-वहाँ जीव है या जहाँ-जहाँ जीव ताव ताव लोगे-एवं पेगा लोगट्टिई पण्णत्ता । है वहाँ-वहाँ लोक है-यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। (8) जाव ताव जीवाण य पोग्गलाण य गइपरियाए ताव (8) जहाँ-जहाँ जीव और पुद्गलों की गति पर्याय है वहाँ ताव लोए, जाव ताव लोए ताव ताव जीवाण य वहाँ लोक है तथा जहाँ-जहाँ लोक है वहाँ वहाँ जीव और पुद्गलों पोग्गलाण य गइपरियाए-एवं पेगा लोगट्रिई की गतिपर्याय है-यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही पण्णत्ता। गई है। (१०) सम्वेसु वि णं लोगतेसु अबद्धपासपुट्ठा पोग्गला लुक्ख- (१०) सब लोकान्तों में पुद्गल परस्पर बद्ध नहीं रहते हैं ताए कज्जति जे णं जीवा य पोग्गला य नो संचायंति और न किसी ओर से परस्पर स्पृष्ट रहते हैं क्योंकि वहाँ वे रूखे बहिया लोगंतागमणाए–एवं पेगा लोगट्टिई पण्णता। हो जाते हैं अतएव जीव और पुद्गल लोकान्त के बाहर नहीं -ठाणं १० सु० ७०४ । जा सकते हैं—यह भी एक प्रकार की लोकस्थिति कही गई है। लोगविसये जमालिस्स भगवंत-कय-समाहाणं लोक के विषय में भगवान द्वारा जमालि का समाधान ३१: प०....सासए लोए जमाली ? असासए लोए जमाली ?.... ३१: प्र० ....जमाली ! लोक शास्वत है ? या अशास्वत है ?.... -भग० स० ६, उ० ३३, सु० ६६ । उ०... सासए लोए जमाली! जंणं कयावि णासि ण, उ० ....जमाली ! लोक शास्वत है क्योंकि लोक कभी नहीं कयावि ण भवति कयावि ण भविस्सइ, भुवि था, नहीं है या नहीं रहेगा-इस प्रकार नहीं है किन्तु लोक था, है च भवइ य, भविस्सइ य, धुवे, णितिए, सासए, अक्खए, और रहेगा । लोक ध्र व, नियत, शास्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित अव्वए, अवट्ठिए णिच्वे चेव । व नित्य है। असासए लोए जमाली ! जओ ओसप्पिणी भवित्ता, जमाली ! लोक अशास्वत भी है क्योंकि अवसर्पिणी काल उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी होकर उत्सर्पिणी काल होता है। तथा उत्सर्पिणी काल होकर भवइ....' अवसर्पिणी काल होता है ।.... -भग० स० ६, उ० ३३ सु० १०१ । लोगविसये खंधग-संवादो लोक के विषय में स्कन्धक-संवाद ३२ : खंदया ! ति समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चायणसगोत्तं ३२ : स्कन्दक ! श्रमण भगवान महावीर कात्यायन-गोत्री एवं वयासी-से नूणं तुम खंदया ! सावत्थीए नयरीए पिंगल- स्कन्दक को इस प्रकार बोले- 'सावत्थी नगरी में पिंगल निर्ग्रन्थ एणं णियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेव पुच्छिए :- जो वैशाली का श्रावक था; उसने स्कन्दक !'तुझे आक्षेप (अवज्ञा) पूर्वक यह पूछा १. इस मूलपाठ का पूर्वापर अंश कथानुयोग जमालि-प्रकरण में देखें।
SR No.090173
Book TitleGanitanuyoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj, Dalsukh Malvania
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1986
Total Pages1024
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Mathematics, Agam, Canon, Maths, & agam_related_other_literature
File Size34 MB
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